बात सन 1920 की है. कार्तिक का महीना था. गुलाबी सर्दी पड़ने लगी थी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसे छोटे से गांव गिराहू में, सभी किसान  दोपहर बाद खेतों से थके-हारे लौटे थे. बुवाई का समय निकला जा रहा था, सभी व्यस्त थे. पर सब लोग पंचों की पुकार पर पंचायत के दफ्तर में इकट्ठे हो गए थे. बस पंचों के आने का बेसब्री से इंतज़ार हो रहा था.

एक ओर  गाँव की औरतें होने वाली दुल्हन निम्मो को जबरन  पंचायत के दफ्तर में ले आयी थी और दूसरी तरफ कुछ आदमी होने वाले दूल्हे रामबिलास का हाथ  पकड़कर बाहर पेड़ के नीचे खड़े थे.  वह भी इस शादी के नाम पर हिचकिचा रहा था.

सारे गाँव वाले इस शादी के पक्ष में थे पर वर और वधू, दोनों ही इस शादी के लिए तैयार न थे. आखिरकार मामला पंचायत में पहुंचा दिया गया था. पंचायत का फैसला तो  सबको मानना ही पड़ेगा. बस पंचों के आने का इंतज़ार था पर पंच अभी तकआये नहीं थे.

अंदर के कमरे में बैठी निम्मो शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रही थी.

"मुझे ये शादी नहीं करनी है," कहते हुए निम्मो ने एक बार फिर हाथ छुड़ाने का असफल प्रयास किया तो पड़ोस की बुज़ुर्ग काकी बोली, "चुपकर, मरी. शादी नहीं करेगी तो भरी जवानी में कहाँ जायेगी?"

सभी उपस्थित औरतों ने काकी की बात से सहमति में सिर हिलाया.

"हाँ तो और क्या? मरद के सहारे के बगैर भी भला औरत को कोई पूछे है क्या?" दूसरी पड़ोसन बोली.

"काहे का सहारा देगा मुझे? अपनी सुध तो है नहीं उसे. अरे बच्चा है वो तो?" निम्मो ने खीजकर  पलटवार किया.

काकी ने एकबार फिर  ज्ञान बघारा, "कैसा बच्चा? अरे मरद तो है ना घर में ? मिटटी का ही हो, मरद तो मरद ही होता है. और क्या चाहिए औरत को?"

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