एक रिश्ता ऐसा भी: क्या हुआ था मिस मृणालिनी ठाकुर के साथ

यों यह था तो शहर का एक बौयज कालेज अर्थात लड़कों का कालेज, लेकिन पढ़ाने वाले शिक्षकों में आधे से अधिक संख्या महिलाओं की थी. लेडीज क्या थीं रंगबिरंगी, एक से बढ़ कर एक नहले पे दहला वाला मामला था. इन रंगों में मिस मृणालिनी ठाकुर का रंग बड़ा चोखा था.

लंबे कद, छरहरे बदन और पारसी स्टाइल में रंगबिरंगी साडि़यां पहनने वाली मिस मृणालिनी ठाकुर सब से योग्य टीचरों में गिनी जाती थीं. अपने विषय पर उन्हें महारत हासिल था. फिर रुआब ऐसा कि लड़के पुरुष टीचर्स का पीरियड बंक कर सकते थे, मगर मिस मृणालिनी ठाकुर के पीरियड में उपस्थिति अनिवार्य थी.

लड़का मिस मृणालिनी का शागिर्द हो और कालेज में होते हुए उन का पीरियड मिस करे, ऐसा बहुत कम ही होता था, इस लिहाज से मिस मृणालिनी ठाकुर भाग्यशाली कही जा सकती थीं कि लड़के उन से डरते ही नहीं थे, बल्कि उन का सम्मान भी करते थे.

इस तरह के भाग्यशाली होने में कुछ अपने विषय पर महारत हासिल होने का हाथ था तो कुछ मिस मृणालिनी ठाकुर की मनुष्य के मनोविज्ञान की समझ भी थी. वह अपने स्टूडेंट्स को केवल पढ़ा देना और कोर्स पूरा कराने को ही अपनी ड्यूटी नहीं समझती थीं, बल्कि वह उन के बहुत नजदीक रहने को भी अपनी ड्यूटी का एक महत्त्वपूर्ण अंग समझती थीं.

हालांकि उन के साथियों को उन का यह व्यवहार काफी हद तक मजाकिया लगता था. मिसेज अरुण तो हंसा करती थीं, उन का कहना था, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर लेक्चरर के बजाय प्राइमरी स्कूल की टीचर लगती हैं.’’

मगर मिस मृणालिनी ठाकुर को इस की बिल्कुल भी फिक्र नहीं थी कि उन के व्यवहार के बारे में लोगों की क्या राय है, उन का कहना था कि जो बच्चे हम से शिक्षा लेने आते हैं हम उन के लिए पूरी तरह उत्तरदायी हैं, इसलिए हमें अपना कर्तव्य नेकनीयती और ईमानदारी से पूरा करना चाहिए.

मिस मृणालिनी ठाकुर के साथियों की सोचों से अलग स्टूडेंट्स की अधिकतर संख्या उन के जैसी थी. उन्हें सच में किसी प्राइमरी स्कूल के टीचर की तरह मालूम होता था कि लड़के का पिता क्या करता है, कौन फीस माफी का अधिकारी है? कौन पढ़ाई के साथ पार्टटाइम जौब करता है? आदि आदि.

पता नहीं यह स्टूडेंट्स से नजदीकी का परिणाम था या किसी अपराध की सजा कि एक सुबह कालेज आने वालों ने लोहे के मुख्य दरवाजे के एक बोर्ड पर चाक से बड़े अक्षरों में लिखा देखा—आई लव मिस मृणालिनी ठाकुर.

इस एक वाक्य को 3 बार कौपी करने के बाद लिखने वाले ने अपना व क्लास का नाम बड़ी ढिठाई से लिखा था: शशि कुमार सिंह, प्रथम वर्ष, विज्ञान सैक्शन बी.

किसी नारे की सूरत में लिखा यह वाक्य औरों की तरह मिस मृणालिनी ठाकुर को अपनी ओर आकर्षित किए बिना न रह सका. क्षण भर को तो वह सन्न रह गईं.

उन्होंने चोर निगाहों से इधरउधर देखा. शायद कोई न होता तो वह अपनी सिल्क की साड़ी के पल्लू से वाक्य को मिटा देतीं. मगर स्टूडेंट ग्रुप पर ग्रुप की शक्ल में आ रहे थे, बेतहाशा धड़कते दिल को संभालती मिस मृणालिनी ठाकुर स्टाफरूम तक पहुंचीं और अंदर दाखिल होने के बाद अपना सिर थामती हुई कुरसी पर गिर गई.

‘‘यकीनन आप देखती हुई आई हैं,’’ मिसेज जयराज की आवाज मिस मृणालिनी ठाकुर को कहीं दूर से आती मालूम हुई. उन्होंने सिर उठा कर मिसेज जयराज की ओर देखा और कंपकंपाती आवाज में बोलीं, ‘‘आप ने भी देखा?’’

‘‘भई हम ने क्या बहुतों ने देखा और देखते आ रहे हैं. दरअसल लिखने वाले ने लिखा ही इसलिए है कि लोग देखें.’’

‘‘मिसेज जयराज, प्लीज इसे किसी तरह…’’ मिस मृणालिनी ठाकुर गिड़गिड़ाईं.
तभी मिसेज आशीष और मिस रचना मिस मृणालिनी ठाकुर को विचित्र नजरों से देखती हुई स्टाफरूम में दाखिल हुईं.

कुछ ही देर के बाद रामलाल चपरासी झाड़न संभाले अपनी ड्यूटी निभाने आया तो मिस मृणालिनी ठाकुर फौरन उस की ओर लपकीं और कानाफूसी वाले लहजे में बोलीं, ‘‘रामलाल यह झाड़न ले कर जाओ और चाक से मेनगेट पर जो कुछ लिखा है मिटा आओ.’’

‘‘हैं जी,’’ रामलाल ने बेवकूफों की तरह उन का चेहरा तकते हुए कहा.
‘‘जाओ, जो काम मैं ने कहा वो फौरन कर के आओ,’’ मिस मृणालिनी ठाकुर की आवाज फंसीफंसी लग रही थी.

‘‘घबराइए मत मिस ठाकुर, यह बात तो लड़कों में आप की पसंदीदगी की दलील है.’’ मिस चेरियान के लहजे में व्यंग्य साफ तौर पर झलक रहा था.

‘‘अब तो यूं ही होगा भई, लड़के तो आप के दीवाने हैं,’’ मिस तरन्नुम का लहजा दोधारी तलवार की तरह काट रहा था.
मिस शमा अपना गाउन संभाले मुसकराती हुई अंदर दाखिल हुईं और मिस मृणालिनी के नजदीक आ कर राजदारी से बोलीं, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर गेट पर…’’

मिस मृणालिनी ठाकुर को अत्यंत भयभीत पा कर मिसेज जयराज ने उन के करीब आ कर उन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं मृणालिनी, टीचर और स्टूडेंट में तो आप के कथनानुसार एक आत्मीय संबंध होता है.’’

फिर उन्होंने मिस तरन्नुम की ओर देख कर आंख दबाई और बोलीं, ‘‘कुछ स्टूडेंट इजहार के मामले में बड़े फ्रैंक होते हैं और होना भी चाहिए. क्यों मृणालिनी, आप का यही विचार है न कि हमें स्टूडेंट्स को अपनी बात कहने की आजादी देनी चाहिए.’’

मिसेज जयराज की इस बात पर मिस मृणालिनी का चेहरा क्रोध से दहकने लगा.
‘‘शशि सिंह वही है न बी सैक्शन वाला. लंबा सा लड़का जो अकसर जींस पहने आता है.’’ मिस रौशन ने पूछताछ की.

मिसेज गोयल ने उन के विचार को सही बताते हुए हामी भरी.
‘‘वह तो बहुत प्यारा लड़का है.’’ मिसेज गुप्ता बोलीं.

‘‘बड़ा जीनियस है, ऐसेऐसे सवाल करता है कि आदमी चकरा कर रह जाए,’’ मिसेज कपाडि़या जो फिजिक्स पढ़ाती थीं बोलीं.

मिसेज जयराज ने मृणालिनी को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘मृणालिनी आप तो अपने स्टूडेंट्स को उन लोगों से भी अच्छी तरह जानती होंगी, आप की क्या राय है उस के बारे में?’’

‘‘वह वाकई अच्छा लड़का है, मुझे तो ऐसा लगता है कि किसी ने उस के नाम की आड़ में शरारत की है.’’
‘‘हां ऐसा संभव है.’’ मिसेज गुप्ता ने उन की बात का समर्थन किया.

‘‘सिर्फ संभव ही नहीं, यकीनन यही बात है क्योंकि लिखने वाला इस तरह ढिठाई से अपना नाम हरगिज नहीं लिख सकता था,’’ मिसेज जयराज ने फिर अपनी चोंच खोली.यह बात मिस मृणालिनी को भी सही लगी.

शशि सिंह के बारे में मिस मृणालिनी ठाकुर की राय बहुत अच्छी थी. हालांकि सेशन शुरू हुए 3 महीने ही गुजरे थे, लेकिन इस दौरान जिस बाकायदगी और तन्मयता से उस ने क्लासेज अटेंड की थीं वह शशि सिंह को मिस मृणालिनी के पसंदीदा स्टूडेंट्स में शामिल कराने के लिए काफी थीं. ‘

लेक्चर वह अत्यंत तन्मयता से सुनता और लेक्चर के मध्य ऐसे ऐसे प्रश्न करता, जिन की उम्मीद एक तेज स्टूडेंट से ही की जा सकती थी.

मिस मृणालिनी लेक्चर देना ही काफी नहीं समझती थीं बल्कि असाइनमेंट देना और उसे चैक करना भी जरूरी समझती थीं. शशि सिंह कई बार अपना काम चैक कराने मिस मृणालिनी और मिस्टर अंशुमन के कौमन रूम में आया था. वह जब भी आता, बड़े सलीके और सभ्यता के साथ. इस आनेजाने के बीच मिस मृणालिनी ने उस के बारे में यह मालूमात हासिल की थी कि उस के मातापिता दक्षिण अफ्रीका में थे, वह यहां अपनी नानी के पास रहा करता था.

शशि जैसे सभ्य स्टूडेंट से मिस मृणालिनी को इस किस्म की छिछोरी हरकत की उम्मीद भी नहीं थी. उन्हें यकीन था कि यह हरकत किसी और की थी मगर उस ने शरारतन या रंजिशन शशि सिंह का नाम लिख दिया था.

बहरहाल, रामलाल ने कोई 15 मिनट बाद आ कर यह समाचार सुनाया कि मेनगेट पर से एकएक शब्द मिटा आया है. मगर यह बताते हुए उस के चेहरे पर अजीब सी मुसकराहट थी. मिस मृणालिनी ने अपने हैंड बैग में रखा छोटा सा पर्स निकाल कर 20 रुपए का नोट रामलाल की ओर बढ़ा दिया.मगर बात तो फैल चुकी थी, न सिर्फ टीचरों, बल्कि स्टूडेंट्स के बीच भी तरहतरह की बातें हो रही थीं.

घंटी बज गई. लड़के अपनीअपनी क्लासों में चले गए. मृणालिनी भी पीरियड लेने चली गईं. मजे की बात यह हुई कि उन का पहला पीरियड फर्स्ट ईयर साइंस बी सैक्शन में ही था. मिस मृणालिनी पहली बार क्लास में जाते हुए झिझक रही थीं, उन के कदम लड़खड़ा रहे थे. लेकिन जाना तो था ही, सो गईं और लेक्चर दिया.

लेक्चर के दौरान उन की निगाह शशि सिंह पर भी पड़ी, वह रोज की तरह तन्मयता से सुन रहा था. मिस मृणालिनी लेक्चर देती रहीं, लेकिन आंखें रोज की तरह लड़कों के चेहरों पर पड़ने के बजाए झुकीझुकी थीं. पहली बार मिस मृणालिनी को क्लास के चेहरों पर दबीदबी मुसकराहटें दिखीं.

जैसेतैसे पीरियड समाप्त हुआ तो मृणालिनी ठाकुर कमरे की ओर चल दीं. वह कमरे में पहुंची तो मिस्टर अंशुमन पहले ही मौजूद थे. मिस मृणालिनी ने रोज की तरह उन का अभिवादन किया और अपनी सीट पर बैठ गईं.

जरा देर बाद मिस्टर अंशुमन खंखारे और चंद क्षणों की देरी के बाद उन की आवाज मिस मृणालिनी के कानों से टकराई.

‘‘शशि सिंह से पूछा आप ने?’’

ओह तो इन्हें भी पता चल गया. मिस मृणालिनी ने आंखों के कोने से मिस्टर अंशुमन की ओर देखते हुए सोचा और पहलू बदल कर बोलीं, ‘‘जी नहीं.’’
‘‘क्यों?’’

‘‘मेरा विचार है यह किसी और की शरारत है, शशि सिंह बहुत अच्छा लड़का है.’’
‘‘आप ने पूछा तो होता, आप के विचार के अनुसार अगर उस ने नहीं लिखा तो संभव है उस से कोई सुराग मिल सके.’’

मिस्टर अंशुमन ने घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया.
कुछ देर बाद शशि सिंह नीची निगाहें किए फाइल हाथ में लिए अंदर दाखिल हुआ. मिस्टर अंशुमन कड़क कर बोले, ‘‘क्या तुम बता सकते हो गेट पर किस ने लिखा था?’’

‘‘यस सर.’’ बिना देरी किए जवाब आया.
मृणालिनी ठाकुर ने घबरा कर और चौंक कर शशि की ओर देखा.
‘‘किस ने लिखा था?’’ अंशुमन सर की रौबदार आवाज गूंजी.
‘‘मैं ने..’’ शशि ने कहा.

मिस मृणालिनी चौंकी. उन्होंने देखा शशि अपराध की स्वीकारोक्ति के बाद बड़े इत्मीनान से खड़ा था.
अंशुमन सर ने मृणालिनी की ओर देखा, मानो उन की आंखें कह रही थीं, ‘मिस मृणालिनी आप का तो विचार था…’मृणालिनी ने नजरें झुका लीं.

‘‘मैं मेनगेट की बात कर रहा हूं, वहां मिस मृणालिनी के बारे में तुम ने ही लिखा था?’’ अंशुमन सर ने साफतौर पर पूछा ‘‘यस सर.’’ बड़े इत्मीनान से जवाब दिया गया.

‘‘यू इडियट… तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई?’’

अंशुमन दहाड़े, वह कुरसी से उठे और शशि के गोरेगोरे गाल ताबड़तोड़ चांटों से सुर्ख कर दिए. शशि सिर झुकाए किसी प्राइमरी कक्षा के बच्चे की तरह खड़ा पिटता रहा.

अंशुमन सर जिन का गुस्सा कालेज भर में मशहूर था, जिस कदर हंगामा कर सकते थे, उन्होंने किया. उस के 2 कारण हो सकते थे. पहला तो खुद मृणालिनी में उन की दिलचस्पी और आकर्षण और दूसरा स्टूडेंट्स और साथियों से यह कहलवाने का शौक कि अंशुमन सर बहुत सख्त इंसान हैं.

शोर सुन कर अंशुमन सर के कमरे के दरवाजे पर भीड़ सी इकट्ठी हो गई. मगर अंशुमन सर ने बाहर निकल कर घुड़की लगाई तो ज्यादातर रफूचक्कर हो गए. मगर चंद दादा किस्म के लड़के शशि की हिमायत में सीना तान कर आ गए.

मिस मृणालिनी बेहोश होने को थीं मगर इस से पहले उन्होंने भयानक नजरों से शशि की ओर देखा और पूरी ताकत से चिल्लाईं, ‘‘गेट आउट फ्राम हियर.’’
वह चुपचाप निकल गया. और फिर कभी कालेज नहीं आया.

फिर भी मिस मृणालिनी को उस का खयाल कई बार आया. इस घटना का फौरी और स्थाई परिणाम यह हुआ कि मिस मृणालिनी और उन के स्टूडेंट्स के बीच एक सीमा रेखा खिंच गई.

12 साल गुजर गए. उस घटना को समय की दीमक आहिस्ताआहिस्ता चाट गई. अंशुमन सर ने मिस मृणालिनी की ओर से मायूस हो कर शादी कर ली और कनाडा चले गए. कालेज में कई परिवर्तन आए, मिस मृणालिनी ठाकुर अपनी योग्यता और अनथक परिश्रम के सहारे वाइस प्रिंसिपल के पद पर नियुक्त हो गईं.

12 साल पहले की 28 वर्षीय मिस मृणालिनी एक अधेड़ सम्मानीय औरत की शक्ल में बदल गईं. 12 साल बाद जनवरी की एक सुबह चपरासी ने मिस मृणालिनी को एक विजिटिंग कार्ड थमाते हुए कहा, ‘‘मैडम, एक साहब आप से मिलने आए हैं.’’

मिस मृणालिनी जो चंद कागजात देखने में व्यस्त थीं, कार्ड देखे बिना बोलीं, ‘‘बुलाओ.’’
जरा देर बाद उच्च क्वालिटी का लिबास पहने लंबे कद और भरेभरे जिस्म वाला व्यक्ति अंदर दाखिल हुआ. उन्होंने बिखरे हुए कागजात इकट्ठा करते हुए कहा, ‘‘तशरीफ रखिए.’’

वह बैठ गया और जब मिस मृणालिनी ठाकुर कागजात इकट्ठा करने के बाद उस की ओर मुखातिब हुईं तो वह बहुत ही साफसुथरी अंग्रेजी में बोला, ‘‘आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं.’’

मिस मृणालिनी ठाकुर एक लम्हा को मुसकराईं और फिर एक निगाह उस के चेहरे पर डाल कर बोलीं, ‘‘पुराने स्टूडेंट हैं आप?’’

‘जी हां.’’

‘‘दरअसल इतने बच्चे पढ़ कर जा चुके हैं कि हर एक को याद रखना मुश्किल है.’’ मिस मृणालिनी ठाकुर का चेहरा अपने स्टूडेंट्स के जिक्र के साथ दमक उठा.
‘‘माफ कीजिएगा मैडम, बड़ा निजी सा सवाल है.’’ वह खंखारा.

मिस मृणालिनी चौंकी.
‘‘आप अब तक मिस मृणालिनी ठाकुर हैं या…’’

‘‘हां, अब तक मैं मिस मृणालिनी ठाकुर ही हूं.’’ स्नेह उन के चेहरे से झलक रहा था.
‘‘आप ने वाकई में नहीं पहचाना अब तक?’’ वह मुसकराकर बोला.

मिस मृणालिनी ने बहुत गौर से देखा और घनी मूंछों के पीछे से वह मासूम चेहरे वाला सभ्य सा शशि सिंह उभर आया.

‘‘क्या तुम शशि सिंह हो?’’ मस्तिष्क के किसी कोने में दुबका नाम तुरंत उन के होठों पर आ गया.
‘‘यस मैडम.’’ वह अपने पहचान लिए जाने पर खुश नजर आया.
‘‘ओह…’’ मिस मृणालिनी की समझ में कुछ न आया क्या करें, क्या कहें.

‘‘मैं डर रहा था अंशुमन सर न टकरा जाएं कहीं.’’ वह बेतकल्लुफी से बोल रहा था. मिस मृणालिनी ठाकुर शांत व बिलकुल चुप थीं.

‘‘मैं दक्षिण अफ्रीका चला गया था. फिर वहां से डैडी ने अंकल के पास इंग्लैंड भेज दिया. अब सर्जन बन चुका हूं और अपने देश आ गया हूं. मैं आप को कभी भूल न सका. मुझे विश्वास था आप कभी न कभी, कहीं न कहीं फिर मुझे मिलेंगी. और वाकई आप मिल गईं, उसी जगह जहां मैं छोड़ कर गया था.’’
‘‘माइंड यू बौय.’’ मिस मृणालिनी ने उस की बेतकल्लुफी पर कुछ नागवारी के साथ कहा.

‘‘मेरी मम्मी भी किसी हालत में यह स्वीकार नहीं करतीं कि मैं अब बच्चा नहीं रहा.’’

मिस मृणालिनी ठाकुर ने देखा वह बड़े सलीके से मुसकरा रहा था. वह फर्स्ट ईयर का स्टूडेंट था, पता नहीं कहां जा छिपा था.

‘‘आई स्टिल लव यू मिस मृणालिनी.’’ वह 12 साल बाद एक बार फिर अपने अपराध को स्वीकार रहा था.

‘‘शट अप!’’ मिस मृणालिनी का चेहरा लाल हो गया.
‘‘नो मैडम, आई कान्ट! और क्यों मैं अपनी जुबान बंद रखूं. अगर एक बेटे को यह अधिकार है कि वह अपनी मां को चूम कर उस के गले में बांहें डाल कर उस से अपने प्रेम का इजहार कर सकता है तो इतना अधिकार हर स्टूडेंट को है वह अपने रुहानी मातापिता से प्रेम कर सके. क्या गलत कह रहा हूं मिस मृणालिनी ठाकुर? क्या गुरु से प्रेम की स्वीकारोक्ति अपराध है मैडम?’’

मिस मृणालिनी ठाकुर ने हैरानी से देखा वह कह रहा था.
‘‘अगर अंशुमन सर की तरह आप ने भी इसे अपराध मान लिया तो यह वाकई में बड़ा दुखद होगा.’’
मिस मृणालिनी अविश्वास से उस की ओर देख रही थीं.

‘‘यस मैडम आइ लव यू.’’ उस ने एक बार फिर स्वीकार किया.

‘‘ओह डियर….’’ भावनाओं के वेग से मिस मृणालिनी की जुबान गूंगी हो चली थी. बिलकुल उस मां की तरह जिस का बेटा सालों बाद घर लौट आया हो.

कल्पवृक्ष: विवाह के समय सभी मजाक क्यों कर रहे थे?

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सूना गला: शादी के बाद कैसी हो गई थी उसकी जिंदगी

उस की मां थी ही निर्मल, निश्छल, जैसी बाहर वैसी अंदर. छल, प्रपंच, घृणा और लालच से कोसों दूर, सब के सुख से सुखी, सब के दुख से दुखी. कभीकभी सौरभ अपनी मां के स्वभाव की सादगी देख अचंभित रह जाता कि आज के प्रपंची युग में भी उस की मां जैसे लोग हैं, विश्वास नहीं होता था उसे.

बचपन से ही सौरभ देखता आ रहा था कि मां हर हाल में संतुष्ट रहतीं. पापा जो भी कमा कर उन के हाथ में थमा देते बिना किसी शिकवाशिकायत के उसी में जोड़तोड़ बिठा कर वह अपना घर चलातीं, कभी अपने अभावों का पोटला किसी के सामने नहीं खोलतीं.

तभी मां की नजर उस पर पड़ गई थी, ‘‘अरे, तू कब जग गया. और ऐसे क्या टुकुरटुकुर देखे जा रहा है.’’

मां की स्निग्ध हंसी ने उसे ममता से सराबोर कर दिया.

‘‘बस, यों ही…आप को अलमारी ठीक करते देख रहा था.’’

वह कैसे कह देता कि कमरे में बैठा उन के निश्छल स्वभाव और संघर्षपूर्ण, त्यागमय जीवन का लेखाजोखा कर रहा था. उन के अपने परिवार के लिए किए गए समर्पण और संघर्ष का, उस सूने गले का जो कभी भारीभरकम सोने की जंजीर और मीनाकारी वाले कर्णफूल से सजासंवरा उन की संपन्नता का प्रतीक था. पिछले 6 वर्षों से उस के नौकरी करने के बाद भी मां का गला सूना ही पड़ा था.

मां को खुद महसूस हो या न हो लेकिन जब भी उस की नजर मां के सूने गले पर पड़ती, मन में एक हूक सी उठती. उसे लगता जैसे उन के जीवन का सारा सूनापन उन के खाली गले और कानों पर सिमट आया हो. इतनी श्रीहीन तो वह तब भी नहीं लगती थीं जब पापा की मृत्यु के बाद उन की दुनिया ही उजड़ गई थी.

सौरभ ने होश संभालने के बाद से ही मां के गले में एक मोटी सी जंजीर और कानों में मीनाकारी वाले कर्णफूल ही देखे थे. तब मां कितनी खुश रहती थीं. हरदम हंसती, गुनगुनाती उस की मां का चेहरा बिना किसी सौंदर्य प्रसाधन के ही दमकता रहता था.

फिर मां की खुशियों और बेफिक्र जिंदगी पर तब पहाड़ टूट कर आ गिरा जब अचानक एक सड़क दुर्घटना में उस के पापा की मौत हो गई. इस असमय आई मुसीबत ने मां को तो पूरी तरह तोड़ ही दिया. वह सूनीसूनी निगाहों से दीवार को देखती बेजान सी महीनों पड़ी रहीं. लेकिन जल्दी ही मां अपने बच्चों के बदहवासी और सदमे से रोते, सहमे चेहरे देख अपनी व्यथा दिल में ही दबा उन्हें संभालने में जुट गई थीं. एक नई जिम्मेदारी के एहसास ने उन्हें फिर से जीवन की मुख्य धारा से जोड़ दिया था.

पति के न रहने से एकाएक ढेरों कठिनाइयां उन के सामने आ खड़ी हुई थीं. पैसों की कमी, जानकारीयों का अभाव, कदमकदम पर जिंदगी उन की परीक्षा ले रही थी. उन का खुद का बनाया संसार उन की ही आंखों के सामने नष्ट होने लगा था लेकिन मां ने धैर्य का पल्लू कस कर थामे रखा.

बचपन में पिता और बाद में पति के संरक्षण में रहने के कारण मां का कभी दुनियादारी और उस के छलप्रपंच से आमनासामना हुआ ही नहीं. अब हर कदम पर उन का सामना वैसे ही लोगों से हो रहा था. लेकिन कहते हैं न कि समय और अभाव आदमी को सबकुछ सिखा देता है, मां भी दुनियादारी सीखने लगी थीं.

मां अपने टूटते आत्मबल और अपनी सारी अंतर्वेदनाओं को अपने अंतस में छिपाए सामान्य बने रहने की कोशिश करतीं लेकिन उन की तमाम कोशिशों के बावजूद सौरभ से कुछ भी छिपा नहीं था. वही एकमात्र गवाह था मां के कतराकतरा टूटने और जुड़ने का. कितनी बार ही उस ने देखा था मां को रात में अपने बच्चों से छिप कर रोते, पापा को याद कर तड़पते. तब उस के दिल में तड़प सी उठती कि कैसे क्या करे जो मां के सारे दुख हर ले.

वह चाह कर भी मां के लिए कुछ नहीं कर पाया, जबकि मां ने उन दोनों भाईबहनों का जीवन संवारने के लिए जो कर दिखाया, सभी के लिए आशातीत था. क्या नहीं किया मां ने, पोस्टआफिस की एजेंसी, स्कूल की नौकरी, ट्यूशन, कपड़ों की सिलाई यानी एकएक पैसे के लिए संघर्ष करतीं.

जब भी वह मां के संघर्ष से विचलित हो कर अपने लिए काम ढूंढ़ता, मां उसे काम करने की इजाजत ही नहीं देतीं. बस, उन्हें एक ही धुन थी कि किसी तरह उन का बेटा पढ़लिख कर सरकारी नौकरी में ऊंचा पद प्राप्त कर ले.

पापा के साथ जब वह भयंकर दुर्घटना हुई थी तब सौरभ 10वीं में पढ़ता था. मांबेटा दोनों ही व्यापार में पूरी तरह कोरे थे जिस का फायदा व्यापार में उस के पिता के साथ काम कर रहे दूसरे लोगों ने उठाया और व्यापार में लगा उस के पापा का करीबकरीब सारा पैसा डूब गया. थोड़ाबहुत जो भी पैसा बचा था, नेहा दीदी की शादी का खयाल कर मां ने बैंक में जमा करवा दिया.

नेहा दीदी की शादी में सारी जमापूंजी के साथसाथ मां के करीबकरीब सारे गहने निकल गए थे, फिर भी मां बेहद खुश थीं. नेहा को सुंदर, संस्कारी और विवेकशील पति के साथसाथ ससुराल में संपन्नता भरा परिवार जो मिला था.

नेहा दीदी की शादी के बाद 4 वर्ष बड़े ही संघर्षपूर्ण रहे. स्नातक करने के बाद सौरभ नौकरी प्राप्त करने के अभियान में जुट गया. जल्दी ही उसे सफलता भी मिली. एक बैंक अधिकारी के पद पर उस की नियुक्ति हो गई. इस दौरान जगहजगह इतने फार्म भरने पडे़ कि गहनों के नाम पर मां के गले में बची एकमात्र जंजीर भी उतर गई.

मां की साड़ी पर भी जगहजगह पैबंद नजर आने लगे थे. इतनी विकट परिस्थिति में भी मां ने हिम्मत नहीं हारी, न ही किसी रिश्तेदार के घर आर्थिक तंगी का रोना रोने या सहायता मांगने गईं. परिस्थिति ने उन्हें धरती सा सहिष्णु बना दिया था.

नौकरी मिलने के बाद जब उस ने पहली पगार मां को सौंपी थी तब खुशी के आंसू पोंछती मां ने उसे गले से लगा लिया था, ‘अरे, पगले…मां भला इन रुपयों का क्या करेगी? अब तो सारी जिम्मेदारियां तू ही संभाल, मैं तो बस, बैठेबैठे आराम करूंगी.’

इस के बाद भी सौरभ हर महीने तनख्वाह का सारा पैसा ला कर मां के हाथों में देता रहा और मां पूर्ववत घर चलाती रहीं.

शादी के लिए आए कई प्रस्तावों में से मां को निधि की सुंदरता ने इस कदर प्रभावित किया कि बिना ज्यादा खोजबीन किए वे निधि से उस की शादी करने के लिए तैयार हो गईं. जब दहेज की बात आई तो उन्होंने शादी में किसी तरह का दहेज लेने से साफ मना कर दिया. ऐसा कर शायद वह अपने पति के उन आदर्शों को कायम रखना चाहती थीं जो उन्होंने खुद की शादी में दहेज न ले कर लोगों और समाज के सामने कायम किया था. जितना भी उन के पास पैसा था उसी से उन्होंने शादी की सारी व्यवस्था की.

मां के आदर्शों और भावनाओं को समझने के बदले अमीर घर की निधि की नजरों में दहेज न लेना बेवकूफी भरी आदर्शवादिता थी. हमेशा अपनी आधुनिका मां की तुलना में वह अपनी सास के साधारण से रहनसहन को उन का देहातीपन समझ मजाक उड़ाती रहती और जबतब अपनी जबान की कैंची से उसे कतरती रहती. ऐसे मौके पर उस का दिल चाहता कि निधि से पूछे कि सभ्यता का यह कौन सा सड़ागला रूप है जिस में ससुराल के बुजुर्गों की नहीं, सिर्फ मायके के बुजुर्गों की इज्जत करना सिखाई जाती है, लेकिन वह चुप ही रहता.

 

ऐसा नहीं था कि वह निधि से डरता था, कहीं मां पर निधि की असलियत जाहिर न हो जाए, इसी भय से भयभीत रहता था. जिंदगी के इस सुखद मोड़ पर वह नहीं चाहता था कि निधि की किसी बात से मां आहत हों और वर्षों से उन के दिल में जो बहू की तसवीर पल रही थी वह धुंधली हो जाए.

निधि समझे या न समझे वह जानता था, मां निधि को बेहद प्यार करती थीं.

निधि ने घर में आते ही मां के सीधेसादे स्वभाव को परख कर बड़ी होशियारी से उन के बेटे, पैसे और घर पर अपना अधिकार कर, उन के अधिकारों को इस तरह सीमित कर दिया कि वह अपने ही घर में पराई बन कर रह गई थीं.

वह हर बार सोचता, इस महीने जरूर मां के लिए सोने की जंजीर ले आएगा, लेकिन कोई न कोई खर्च हर महीने निकल आता और वह चाह कर भी जंजीर नहीं खरीद पाता. वैसे भी शादी के बाद से घर के खर्च काफी बढ़ गए थे. अब तक साधारण ढंग से चलने वाले घर का रहनसहन काफी ऊंचे स्तर का हो गया था. एक नौकर भी आ गया था जो निधि के हुक्म का गुलाम था.

तभी सौरभ की तंद्रा मां की आवाज से टूट गई थी.

‘‘कब से पुकारे जा रही हूं, कहां खोया बैठा है. चाय बना दूं?’’

मां को यों सामने पा कर जाने क्यों सौरभ की आंखें भर आई थीं. इनकार में सिर हिला, अपने आंसू छिपाता वह बाथरूम में जा घुसा था.

उसी दिन आफिस जाने के बाद सौरभ अपनी एक फिक्स्ड डिपोजिट तोड़ कर मां के लिए एक जंजीर और मीनाकारी वाला कर्णफूल खरीद लाया था. यह सोच कर कि एक हफ्ते बाद मां के आने वाले जन्मदिन पर उन्हें देगा, उस ने गहनों का डब्बा अपनी अलमारी में संभाल कर रख दिया.

रात को उस ने अपने इस ‘सरप्राइज गिफ्ट’ की बात जैसे ही निधि को बताई, उस के तो तनबदन में आग लग गई. अब तक शब्दों पर चढ़ा मुलम्मा उतार, मां के सारे बलिदानों पर पानी फेरते हुए वह बिफर पड़ी थी, ‘‘यह तुम्हें क्या सूझी है, बुढ़ापे में अब वह इतने भारी गहनों को ले कर क्या करेंगी? अब तो उन के नातीपोते खिलाने के दिन हैं फिर भी उन की तो जैसे गहनों में ही जान अटकी पड़ी है.’’

पूरा हफ्ता उस चेन को ले कर निधि के साथ उस का शीतयुद्ध चलता रहा, फिर भी वह डटा रहा. अभी वह इतना गयागुजरा नहीं था कि उस की बातों में आ कर मां के प्रति अपने प्यार और फर्ज को भूल जाता.

एक सप्ताह बाद जब मां का जन्मदिन आया, सुबहसुबह मां को जन्मदिन की मुबारकबाद दे कर उस ने जतन से पैक किया गया गहनों का डब्बा उन के हाथों में थमा दिया था.

‘‘अरे, बेटा, यह क्या ले आया तू? अब क्या मेरी उम्र है उपहार लेने की. अच्छा, देखूं तो मेरे लिए तू क्या ले आया है.’’

डब्बा खोलते ही मां जड़ सी हो गई थीं. जाने कब तक किंकर्तव्यविमूढ़ हो यों ही खड़ी रहतीं, अगर सौरभ उन्हें गहनों को पहनने की याद नहीं दिलाता. सौरभ की आवाज में जाने कैसी कशिश थी कि जंजीर पहनतेपहनते उन की आंखें छलछला आई थीं. फिर कुछ सोच सौरभ का गाल थपथपा कर निधि को बुलाने लगीं.

कमरे में कदम रखते ही निधि की नजर मां के गले में पड़ी जंजीर पर गई, जिसे देखते ही चोट खाई नागिन सी उस की आंखों से लपट सी उठी थी, जो सौरभ से छिपी नहीं रही, पर उस की सीधीसादी मां को उस का आभास तक नहीं हुआ. तभी अपने गले से जंजीर निकाल कर निधि के गले में डालते हुए मां बोलीं, ‘‘बहू, इसे तुम मेरी तरफ से रख लो. जाने कितने अरमान थे मेरे दिल में अपनी बहू के लिए. जब सौरभ छोटा था तभी से अपने कितने ही गहने तुम्हारे नाम रख छोडे़ थे. सोचती थी एक ही तो बहू होगी मेरी, सजा दूंगी गहनों से, लेकिन परिस्थितियां ऐसी पलटीं कि सारे अरमान दिल में ही दफन हो गए.’’

सौरभ अभी कुछ बोलना चाह ही रहा था कि मां जाने कैसे समझ गईं.

‘‘न…तू कुछ नहीं बोलेगा. यह मेरे और बहू के बीच की बातें हैं. वैसे भी इस उम्र में मैं गहनों का क्या करूंगी.’’

मां के इस अप्रत्याशित फैसले ने निधि को भौचक कर दिया था. अपने छोटेपन का आभास होते ही वह सौरभ से नजरें नहीं मिला पा रही थी. उस की सारी कुटिलताएं मां के सीधेपन के सामने धराशायी हो चुकी थीं. जिस जंजीर के लिए उस ने अपने पति का जीना हराम कर रखा था, इतनी आसानी से मां उसे सौंप चुकी थीं.

निधि की नजरों में आज पहली बार सास के लिए सच्ची श्रद्धा उत्पन्न हुई थी. साथ ही यह बात शिद्दत से उसे शूल की तरह चुभ रही थी कि जिस सास को मां की तुलना में वह हमेशा गंवार और बेवकूफ समझती थी और अपनी ससुराल वालों की तुलना में अपने मायके वालों को श्रेष्ठ और आधुनिक दिखाने की कोशिश करती थी, उस की उसी सास के सरल, सादे और ऊंचे संस्कारों के सामने अब उसे अपनी गर्वोक्ति व्यर्थ का प्रलाप लगने लगी थी.

दूसरे दिन सौरभ को यह देख कर सुखद आश्चर्य हो रहा था कि निधि एक सोने की जंजीर मां को जबरदस्ती पहना रही थी. मां के बारबार मना करने पर भी वह जिद पर उतर आई थी.

‘‘मांजी, मैं ने बडे़ प्यार से इसे आप के लिए खरीदा है और अगर आप ने लेने से इनकार कर दिया तो मुझे लगेगा कि आप ने कभी मुझे बेटी माना ही नहीं.’’

इस के बाद मां इनकार नहीं कर सकी थीं. सदा से ही कम बोलने वाली मां की आंखों में अपनी बहू के लिए ढेर सारा प्यार और अपनापन उमड़ पड़ा था. मां की खुशी देख सौरभ ने नजरों से ही निधि के प्रति अपनी कृतज्ञता जता दी थी, जिसे संभालना निधि के लिए मुश्किल हो रहा था. वह नजरें चुराती, यहांवहां काम में व्यस्त होने का नाटक करने लगी.

आज पहली बार अपनी गलतियों का एहसास निधि को बुरी तरह कचोट रहा था. सास के सच्चे प्रेम और अपनेपन ने उस की आत्मा को झकझोर दिया था. बारीबारी वे बातें याद आ रही थीं जिस का समय रहते उस ने कभी कोई मूल्य नहीं समझा था. वह बीमार पड़ती तो सास उस की देखभाल बडे़ प्यार और लगन से अपने बच्चों की तरह करतीं. इतने प्यार और लगन से तो कभी उस की अपनी मां ने भी उस की सेवा नहीं की थी.

जिस सास ने अपना बेटा, घर, संपत्ति सबकुछ उसे सौंप, अपना विश्वास, प्यार और सम्मान दिया, उसी सास को महज अपना वर्चस्व साबित करने के लिए उस ने घरपरिवार से भी बेगाना कर रखा था. शादी के बाद से आज यह पहला अवसर था जब सौरभ उस के किसी काम से इतना खुश और संतुष्ट नजर आ रहा था. अपने लिए उस की नजरों से छलकता प्यार और कृतज्ञता देख निधि को बारबार नानी की नसीहतें याद आ रही थीं.

उस की नानी के पास जब भी उस की मां अपनी सास की शिकायतों की पोटली खोलतीं, नानी उन्हें समझातीं, ‘देख…नंदनी, एक बात तू गांठ बांध ले कि पति के बचपन का पहला प्यार उस की मां ही होती है, जिस का तिरस्कार वह कभी बरदाश्त नहीं कर पाता है. अगर पति का सच्चा प्यार और घर का सुख प्राप्त करना है तो उस से ज्यादा उस की मां को अहमियत देना सीख. उन की सेवा कर, उन का खयाल रख तो कुछ ही दिनों बाद उसी सास में तुम्हें अपनी मां भी दिखेगी, साथ ही तुम्हें पति को भी अपनी अहमियत जताने की जरूरत नहीं पडे़गी. वह खुद ही प्यार के अटूट बंधन में बंधा ताउम्र तुम्हारे ही चक्कर लगाएगा.’

मां हमेशा नानी की नसीहत को मजाक में उड़ा, अपनी मनमानी करतीं, नतीजतन, अपने सारे रिश्तों से मां अलग तो हुईं ही, पापा के साथ रहते हुए भी जीवन की इस संध्या बेला में काफी अकेली हो गई थीं.

एकांत पाते ही निधि अपने सारे मानअपमान और स्वाभिमान को भूल कर सौरभ के पास आ गई थी. शर्मिंदगी के भाव से भरी उस की आंखों से अविरल आंसू बह निकले.

बिना कुछ कहे पति की शांत और मुग्ध दृष्टि से आश्वस्त हो कर निधि उस की बांहों में समा गई थी. निधि को अपनी बांहों में समेटते हुए सौरभ को लगा जैसे कई दिनों की बारिश के बाद काले बादल छंट गए हैं और आकाश में खिल आई धूप ने मौसम को काफी सुहावना बना दिया है.

 

फर्क: इरा की कामयाबी सफलता थी या किसी का एहसान

इरा की स्कूल में नियुक्ति इसी शर्त पर हुई थी कि वह बच्चों को नाटक की तैयारी करवाएगी क्योंकि उसे नाटकों में काम करने का अनुभव था. इसीलिए अकसर उसे स्कूल में 2 घंटे रुकना पड़ता था.

इरा के पति पवन को कामकाजी पत्नी चाहिए थी जो उन की जिम्मेदारियां बांट सके. इरा शादी के बाद नौकरी कर अपना हर दायित्व निभाने लगी.

वह स्कूल में हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्य रचना ‘मातादीन इंस्पेक्टर चांद पर’ का नाट्य रूपांतर कर बच्चों को उस की रिहर्सल करा रही थी. प्रधानाचार्य ने मुख्य पात्र के लिए 10वीं कक्षा के एक विद्यार्थी मुकुल का नाम सुझाया क्योंकि वह शहर के बड़े उद्योगपति का बेटा था और उस के सहारे पिता को खुश कर स्कूल अनुदान में खासी रकम पा सकता था.

मुकुल में प्रतिभा भी थी. इंस्पेक्टर मातादीन का अभिनय वह कुशलता से करने लगा था. उसी नाटक के पूर्वाभ्यास में इरा को घर जाने में देर हो जाती है. वह घर जाने के लिए स्टाप पर खड़ी थी कि तभी एक कार रुकती है. उस में मुकुल अपने पिता के साथ था. उस के पिता शरदजी को देख इरा चहक उठती है. शरदजी बताते हैं कि जब मुकुल ने नाटक के बारे में बताया तो मैं समझ गया था कि ‘इरा मैम’ तुम ही होंगी.

इरा उन के साथ गाड़ी में बैठ जाती है. तभी उसे याद आता है कि आज उस के बेटे का जन्मदिन है और उस के लिए तोहफा लेना है. शरदजी को पता चलता है तो वह आलीशान शापिंग कांप्लेक्स की तरफ गाड़ी घुमा देते हैं. वह इरा को कंप्यूटर गेम दिलवाने पर उतारू हो जाते हैं. इरा बेचैन थी क्योंकि पर्स में इतने रुपए नहीं थे. अब आगे…

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एक महंगा केक और फूलों का बुके आदि तमाम चीजें शरदजी गाड़ी में रखवाते चले गए. वह अवाक् और मौन रह गई.

शरदजी को घर में भीतर आने को कहना जरूरी लगा. बेटे सहित शरदजी भीतर आए तो अपने घर की हालत देख सहम ही गई इरा. कुर्सियों पर पड़े गंदे,  मुचड़े, पहने हुए वस्त्र हटाते हुए उस ने उन्हें बैठने को कहा तो जैसे वे सब समझ गए हों, ‘‘रहने दो, इरा… फिर किसी दिन आएंगे… जरा अपने बेटे को बुलाइए… उस से हाथ मिला लूं तब चलूं. मुझे देर हो रही है, जरूरी काम से जाना है.’’

इरा ने सुदेश और पति को आवाज दी. वे अपने कमरे में थे. दोनों बाहर निकल आए तो जैसे इरा शरम से गड़ गई हो. घर में एक अजनबी को बच्चे के साथ आया देख पवन भी अचकचा गए और सुदेश भी सहम सा गया पर उपहार में आई ढेरों चीजें देख उस की आंखें चमकने लगीं… स्नेह से शरदजी ने सुदेश के सिर पर हाथ फेरा. उसे आशीर्वाद दिया, उस से हाथ मिला उसे जन्मदिन की बधाई दी और बेटे मुकुल के साथ जाने लगे तो सकुचाई इरा उन्हें चाय तक के लिए रोकने का साहस नहीं बटोर पाई.

पवन से हाथ मिला कर शरदजी जब घर से बेटे मुकुल के साथ बाहर निकले तो उन्हें बाहर तक छोड़ने न केवल इरा ही गई, बल्कि पवन और सुदेश भी गए.

उन्होंने पवन से हाथ मिलाया और गाड़ी में बैठने से पहले अपना कार्ड दे कर बोले, ‘‘इरा, कभी पवनजी को ले कर आओ न हमारे झोंपड़े पर… तुम से बहुत सी बातें करनी हैं. अरसे बाद मिली हो भई, ऐसे थोड़े छोड़ देंगे तुम्हें… और फिर तुम तो मेरे बेटे की कैरियर निर्माता हो… तुम्हें अपना बेटा सौंप कर मैं सचमुच बहुत आश्वस्तहूं.’’

पवन और सुदेश के साथ घर वापस लौटती इरा एकदम चुप और खामोश थी. उस के भीतर एक तीव्र क्रोध दबे हुए ज्वालामुखी की तरह भभक रहा था पर किसी तरह वह अपने गुस्से पर काबू रखे रही. इस वक्त कुछ भी कहने का मतलब था, महाभारत छिड़ जाना. सुदेश के जन्मदिन को वह ठीक से मना लेना चाहती थी.

सुदेश के जन्मदिन का आयोजन देर रात तक चलता रहा था. इतना खुश सुदेश पहले शायद ही कभी हुआ हो. इरा भी उस की खुशी में पूरी तरह डूब कर खुश हो गई.

बिस्तर पर जब वह पवन के साथ आई तो बहुत संतुष्ट थी. पवन भी संतुष्ट थे, ‘‘अरसे बाद अपना सुदेश आज इतना खुश दिखाई दिया.’’

‘‘पर खानेपीने की चीजें मंगाने में काफी पैसा खर्च हो गया,’’ न चाहते हुए भी कह बैठी इरा.

‘‘घर वालों के ही खानेपीने पर तो खर्च हुआ है. कोई बाहर वालों पर तो हुआ नहीं. पैसा तो फिर कमा लिया जाएगा… खुशियां हमें कबकब मिलती हैं,’’ पवन अभी तक उस आयोजन में डूबे हुए थे.

‘‘सोया जाए… मुझे सुबह फिर जल्दी उठना है. सुदेश का कल अंगरेजी का टेस्ट है और मैं अंगरेजी की टीचर हूं अपने स्कूल में. मेरा बेटा ही इस विषय में पिछड़ जाए, यह मैं कैसे बरदाश्त कर सकती हूं? सुबह जल्दी उठ कर उस का पूरा कोर्स दोहरवाऊंगी…’’

‘‘आजकल की यह पढ़ाई भी हमारे बच्चों की जान लिए ले रही है,’’ पवन के चेहरे पर से प्रसन्नता गायब होने लगी, ‘‘हमारे जमाने में यह जानमारू प्रतियोगिता नहीं थी.’’

‘‘अब तो 90 प्रतिशत अंक, अंक नहीं माने जाते जनाब… मांबाप 99 और 100 प्रतिशत अंकों के लिए बच्चों पर इतना दबाव बनाते हैं कि बच्चों का स्वास्थ्य तक चौपट हुआ जा रहा है. क्यों दबा रहे हैं हम अपने बच्चों को… कभीकभी मैं भी बच्चों को पढ़ाती हुई इन सवालों पर सोचती हूं…’’

‘‘शायद इसलिए कि हम बच्चों के भविष्य को ले कर बेहद डरे हुए हैं, आशंकित हैं कि पता नहीं उन्हें जिंदगी में कुछ मिलेगा या नहीं… कहीं पांव टिकाने को जगह न मिली तो वे इस समाज में सम्मान के साथ जिएंगे कैसे?’’ पवन बोले, ‘‘हमारे जमाने में शायद यह गलाकाट प्रतियोगिता नहीं थी पर आजकल जब नौकरियां मिल नहीं रहीं, निजी कामधंधों में बड़ी पूंजी का खेल रह गया है. मामूली पैसे से अब कोई काम शुरू नहीं किया जा सकता, ऐसे में दो रोटियां कमाना बहुत टेढ़ी खीर हो गया है, तब बच्चों के कैरियर को ले कर सावधान हो जाने को मांबाप विवश हो गए हैं… अच्छे से अच्छा स्कूल, ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं, साधन, अच्छे से अच्छा ट्यूटर, ज्यादा से ज्यादा अंक, ज्यादा से ज्यादा कुशलता और दक्षता… दूसरा कोई बच्चा हमारे बच्चे से आगे न निकल पाए, यह भयानक प्रत्याशा… नतीजा तुम्हारे सामने है जो तुम कह रही हो…’’

‘‘मैं तो समझती थी कि तुम इन सब मसलों पर कुछ न सोचते होंगे, न समझते होंगे… पर आज पता चला कि तुम्हारी भी वही चिंताएं हैं जो मेरी हैं. जान कर सचमुच अच्छा लग रहा है, पवन,’’ कुछ अधिक ही प्यार उमड़ आया इरा के भीतर और उस ने पवन को एक गरमागरम चुंबन दे डाला.

पवन ने भी उसे बांहों में भर, एक बार प्यार से थपथपाया, ‘‘आदमी को तुम इतना मूर्ख क्यों मानती हो? अरे भई, हम भी इसी धरती के प्राणी हैं.’’

‘‘यह नाटक मैं ठीक से करा ले जाऊं और शरदजी को उन के बेटे के माध्यम से प्रसन्न कर पाऊं तो शायद उस एहसान से मुक्त हो सकूं जो उन्होंने मुझ पर किए हैं. जानते हो पवन, शरदजी ने अपने निर्देशन में मुझे 3 नाटकों में नायिका बनाया था. बहुत आलोचना हुई थी उन की पर उन्होंने किसी की परवा नहीं की थी. अगर तब उन्होंने मुझे उतना महत्त्व न दिया होता, मेरी प्रतिभा को न निखारा होता तो शायद मैं नाटकों की इतनी प्रसिद्ध नायिका न बनी होती. न ही यह नौकरी आज मुझे मिलती. यह सब शरदजी की ही कृपा से संभव हुआ.’’

नाटक उम्मीद से कहीं अधिक सफल रहा. मुकुल ने इंस्पेक्टर मातादीन के रूप में वह समां बांधा कि पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. स्कूल प्रबंधक और प्रधानाचार्या अपनेआप को रोक नहीं सके और दोनों उठ कर इरा के पास मंच के पीछे आए, ‘‘इरा, तुम तो कमाल की टीचर हो भई.’’

मुकुल के पिता शरदजी तो अपने बेटे की अभिनय क्षमता और इरा के कुशल निर्देशन से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने वहीं, मंच पर आ कर स्कूल के लिए एक वातानुकूलित कंप्यूटर कक्ष और 10 कंप्यूटर अत्यंत उच्च श्रेणी के देने की घोषणा कर प्रबंधक और प्रधानाचार्या के मन की मुराद ही पूरी कर दी.

जब वे आयोजन के बाद चायनाश्ते पर अन्य अतिथियों के साथ प्रबंधक के पास बैठे तो न जाने उन के कान में क्या कहते रहे. इरा ने 1-2 बार उन की ओर देखा भी पर वे उन से ही बातें करते रहे. बाद में इरा को धन्यवाद दे वे जातेजाते पवन और सुदेश की तरफ देख हाथ हिला कर बोले, ‘‘इरा…मुझे अभी तक उम्मीद है कि किसी दिन तुम आने के लिए मुझे दफ्तर में फोन करोगी…’’

‘‘1-2 दिन में ही तकलीफ दूंगी, सर, आप को,’’ इरा उत्साह से बोली थी.

‘‘जो आदमी खुश हो कर लाखों रुपए का दान स्कूल को दे सकता है, उस से हम बहुत लाभ उठा सकते हैं, इरा… और वह आदमी तुम से बहुत खुश और प्रभावित भी है,’’ अपना मंतव्य आखिर पवन ने घर लौटते वक्त रास्ते में प्रकट कर ही दिया.

परंतु इरा चुप रही. कुछ बोली नहीं. किसी तरह पुन: पवन ने ही फिर कहा, ‘‘क्या सोच रही हो? कब चलें हम लोग शरदजी के घर?’’

‘‘पवन, तुम्हारे सोचने और मेरे सोचने के ढंग में बहुत फर्क है,’’ कहते हुए बहुत नरम थी इरा की आवाज.

‘‘सोच के फर्क को गोली मारो, इरा. हमें अपने मतलब पर ध्यान देना चाहिए, अगर हम किसी से अपना कोई मतलब आसानी से निकाल सकते हैं तो इस में हमारे सोच को और हमारी हिचक व संकोच को आड़े नहीं आना चाहिए,’’ पवन की सूई वहीं अटकी हुई थी, ‘‘तुम अपने घरपरिवार की स्थितियों से भली प्रकार परिचित हो, अपने ऊपर कितनी जिम्मेदारियां हैं, यह भी तुम अच्छी तरह जानती हो. इसलिए हमें निसंकोच अपने लिए कुछ हासिल करने का प्रयास करना चाहिए.’’

‘‘मैं तुम्हें और सुदेश को ले कर उन के बंगले पर जरूर जाऊंगी, पर एक शर्त पर… तुम इस तरह की कोई घटिया बात वहां नहीं करोगे. शरदजी के साथ मैं ने नाटकों में काम किया है, मैं उन्हें बहुत अच्छी तरह जानती हूं. वह इस तरह से सोचने वाले व्यक्ति नहीं हैं. बहुत समझदार और संवेदनशील व्यक्ति हैं. उन से पहली बार ही उन के घर जा कर कुछ मांगना मुझे उन की नजरों में बहुत छोटा बना देगा, पवन. मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती.’’

दूसरे दिन इरा जब स्कूल में पहुंची तो प्रधानाचार्या ने उसे अपने दफ्तर में बुलाया, ‘‘हमारी कमेटी ने तय किया है कि यह पत्र तुम्हें दिया जाए,’’ कह कर एक पत्र इरा की तरफ बढ़ा दिया.

एक सांस में उस पत्र को धड़कते दिल से पढ़ गई इरा. चेहरा लाल हो गया, ‘‘थैंक्स, मेम…’’ अपनी आंतरिक प्रसन्नता को वह मुश्किल से वश में रख पाई. उसे प्रवक्ता का पद दिया गया था और स्कूल की सांस्कृतिक गतिविधियों की स्वतंत्र प्रभारी बनाई गई थी. साथ ही उस के बेटे सुदेश को स्कूल में दाखिला देना स्वीकार किया गया था और उस की इंटर तक फीस नहीं लगेगी, इस का पक्का आश्वासन कमेटी ने दिया था.

शाम को जब घर आ उस ने वह पत्र पवन, ससुरजी व घर के अन्य सदस्यों को पढ़वाया तो जैसे किसी को विश्वास ही न आया हो. एकदम जश्न जैसा माहौल हो गया, सुदेश देर तक समझ नहीं पाया कि सब इतने खुश क्यों हो गए हैं.

इरा ने नजदीकी पब्लिक फोन से शरदजी को दफ्तर में फोन किया, ‘‘आप को हार्दिक धन्यवाद देने आप के बंगले पर आज आना चाहती हूं, सर. अनुमतिहै?’’

सुन कर जोर से हंस पड़े शरदजी, ‘‘नाटक वालों से नाटक करोगी, इरा?’’

‘‘नाटक नहीं, सर. सचमुच मैं बहुत खुश हूं. आप के इस उपकार को कभी नहीं भूलूंगी,’’ वह एक सांस में कह गई, ‘‘कितने बजे तक घर पहुंचेंगे आप?’’

‘‘मेरा ड्राइवर तुम्हें लगभग 9 बजे घर से लिवा लाएगा… और हां, सुदेश व पवनजी भी साथ आएंगे,’’ उन्होंने फोन रख दिया था.

अपनी इरा मैम को अपने घर पर पाकर मुकुल बेहद खुश था. देर तक अपनी चीजें उन्हें दिखाता रहा. अगले नाटकों में भी इरा मैम उसे रखें, इस का वादा कराता रहा.

पूरे समय पवन कसमसाते रहे कि किसी तरह इरा मतलब की बात कहे शरदजी से. शरदजी जैसे बड़े आदमी के लिए यह सब करना मामूली सी बात है, पर इरा थी कि अपने विश्वविद्यालय के उन दिनों के किए नाटकों के बारे में ही उन से हंसहंस कर बातें करती रही.

जब वे लोग वापस चलने को उठे तो शरदजी ने अपने ड्राइवर से कहा, ‘‘साहब लोगों को इन के घर छोड़ कर आओ…’’ फिर बड़े प्रेम से उन्होंने पवन से हाथ मिलाया और उन की जेब में एक पत्र रखते हुए बोले, ‘‘घर जा कर देखना इसे.’’

रास्ते भर पवन का दिल धड़कता रहा, माथे पर पसीना आता रहा. पता नहीं, पत्र में क्या हो. जब घर आ कर पत्र पढ़ा तो अवाक् रह गए पवन… उन की नियुक्ति शरदजी ने अपने दफ्तर में एक अच्छे पद पर की थी.

कठपुतली: क्या था अनुष्का का फैसला

तनीषाने बड़ी मुश्किल से टाइट जींस और क्रौप टौप पहना और फिर जल्दीजल्दी मेकअप करने लगी. उधर अनुष्का ने फटाफट अपना असाइनमैंट खत्म करा और हरे रंग का सलवारकुरता पहन लिया. नीचे मम्मी और दादी नाश्ते की टेबल पर बैठी थीं.

मम्मी ने अनुष्का को देख कर भौंहें चढ़ाते हुए कहा, ‘‘यह क्या पहन रखा है? आखिर कब तुम इस बहनजी अवतार से बाहर निकलोगी. तनीषा तुम से बड़ी है, मगर तुम्हारी छोटी बहन लगती है.’’

अनुष्का बोली, ‘‘मम्मी, मैं इन टाइट और छोटे कपड़ों में बहुत असहज महसूस करती हूं्. मैं बहनजी ही सही, मगर खुश हूं.’’

तभी अनुष्का की दादी बोलीं, ‘‘अरे मेरी बच्ची तो बहुत प्यारी लग रही है बहू… खूबसूरती कपड़ों में नहीं विचारों से झलकती है.’’

मगर अनुष्का की मम्मी अलका बड़बड़ाती रहीं, ‘‘मम्मीजी आजकल स्मार्टनैस का जमाना है. कोई ऐश्वर्य की तरह खूबसूरत भी नही है कि जो भी पहन ले वह अच्छा ही लगे.’’

अनुष्का कोई जवाब दिए बिना दुपट्टे को ठीक करते हुए बाहर निकल गई. उधर तनीषा अपने क्रौप टौप को नीचे की तरफ खींचते हुए बाहर भागी. उसे पता था कि अगर 2 मिनट की भी देरी हुई तो अनुष्का अपनी स्कूटी उड़ा कर चली जाएगी.

तनीषा के बैठते ही स्कूटी हवा से बातें करने लगी. जब अनुष्का स्कूटी मैट्रो स्टेशन पर पार्क कर रही थी तो तनीषा लेडीज वाशरूम की तरफ भागी. अपनी लिपस्टिक ठीक करते हुए तनीषा बोली, ‘‘तुम्हारा पहनावा ठीक है… तुम्हें किसी बात की कोई चिंता नही.’’

‘‘तुम्हें किस ने कहा है ये सब पहनने के लिए?’’ अनुष्का बोली.

तनीषा हंसते हुए बोली, ‘‘अनु मुझे लड़कों का अटैंशन पसंद है. जब लड़के मुझे हसरत भरी नजरों से देखते हैं तो मुझे अच्छा लगता है.’’

अनुष्का बोली, ‘‘कब तक दी? जैसी हो वैसी ही रहो… कोई पसंद करे तो ऐसे ही.’’

तनीषा अनुष्का की बात को अनसुना करते हुए अपने बौयफ्रैंड साहिल की तरफ चली गई.

कालेज में पहुंचते ही अनुष्का सधे कदमों से लाइब्रेरी की तरफ चली गई. वहां पर पहले से कुछ लड़केलड़कियां बैठे थे. कुछ नजरों में उसे अपने लिए आदरभाव दिखा तो कुछ नजरें उस की खिल्ली उड़ा रही थीं.

अनुष्का को पता था कि कालेज में वह बहनजी के नाम से मशहूर है. लड़के उस के करीब तभी आना चाहते हैं जब उन्हें या तो तनीषा को प्रपोज करना होता या उन्हें अनुष्का से कोई काम होता. मगर अनुष्का को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था. वह जैसी थी और जो थी उस ने अपनेआप को स्वीकार कर लिया था. वह अपनी जिंदगी खूबसूरती की कठपुतली बन कर नहीं गुजारना चाहती थी.

आज इंटर कालेज डिबेट कंपीटिशन था. अनुष्का बेहद अच्छी वक्ता थी. जब

वह बोलती थी तो ऐसा लगता था जैसे बिजली कड़क रही हो. डिबेट इंग्लिश में थी और अनुष्का की सब से आखिर में बारी थी. अनुष्का को स्टेज पर देख कर जो लड़का ऐंकरिंग कर रहा था एक मिनट को रुक गया और फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘यह डिबेट हिंदी में नहीं इंग्लिश में है.’’

‘‘मुझे पता है,’’ अनुष्का बोली.

जब अनुष्का ने आत्मविश्वास के साथ अपनी डिबेट शुरू करी तो पूरा हौल एकदम शांत हो गया था. बहनजी जैसी दिखने वाली लड़की कैसे इतनी अच्छी अंगरेजी बोल सकती है सब यही सोच रहे थे.

जो लड़का ऐंकरिंग कर रहा था उस का नाम उदीक्ष था. न जाने अनुष्का की डिबेट में क्या जादू था कि उदीक्ष अपना दिल हार बैठा. जब अनुष्का स्टेज से उतरी तो उदीक्ष उस के पीछेपीछे आया और फिर उस से हाथ मिलाते हुए बोला, ‘‘अनुष्का आप ने तो कमाल कर दिया. आप के जैसी लड़की मैं ने आज तक नहीं देखी.’’

अनुष्का हंसते हुए बोली, ‘‘हां बहनजी को अच्छी इंग्लिश बोलते देख कर चौंक गए होंगे.’’

उदीक्ष शरमाते हुए बोला, ‘‘नहीं तुम्हारी प्रतिभा देख कर मैं चौंक गया हूं.’’

डिबेट रिजल्ट आ गया था और अनुष्का को प्रथम पुरस्कार मिला था.

उदीक्ष जाते हुए अनुष्का को अपना मोबाइल नंबर दे गया, ‘‘अगर मन करे तो बात कर लेना. मुझे लगता है मेरीतुम्हारी अच्छी जमेगी.’’

तभी तनीषा वहां आ गई. उसे देख कर उदीक्ष बोला, ‘‘अरे क्या अनुष्का तुम्हारी बहन है?’’

तनीषा बोली, ‘‘हां हो गए न तुम भी सरप्राइज?’’

उदीक्ष बोला, ‘‘एक हीरा और दूसरा रंगीन पत्थर.’’

अनुष्का मन ही मन सोचने लगी कि शायद अब उदीक्ष को फोन करने का कोई फायदा नहीं है. सभी लड़के तनीषा को देखते ही अनुष्का को अनदेखा कर देते हैं. मगर अनुष्का को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था.

जब अनुष्का और तनीषा वापस मैट्रो में जा रही थीं तो तनीषा बारबार अपना टौप नीचे कर रही थी.

अनुष्का बोली, ‘‘ऐसा क्यों कर रही हो बारबार? या तो ठीक कपड़े पहना करो या फिर यह खींचतान मत किया करो.’’

तनीषा चिढ़ते हुए बोली, ‘‘ऐसे कपड़े पहनने के लिए एफर्ट लगता है वरना बहनजी की तरह कुरता तो हरकोई पहन सकता है.’’

अनुष्का अपनी बहन की बात सुन कर मुसकरा उठी. जो तनीषा एक स्कूटी तक ड्राइव नहीं कर सकती है वह मौडर्न है और अनुष्का जो कालेज से ले कर घर तक आनेजाने की जिम्मेदारी खुद संभालती है वह बहनजी है क्योंकि वह छोटे कपड़े नहीं पहनती है. मेकअप नहीं करती है, गौसिप उसे पसंद नहीं. उस का कोई बौयफ्रैंड नहीं है. मगर अनुष्का खुश थी क्योंकि वह मानसिक रूप से आजाद है. उस की खुशी किसी लड़के की प्रशंसा की मुहताज नहीं थी.

रात में तनीषा बेचैनी से इधरउधर घूम रही थी. अनुष्का ने पूछा, ‘‘क्या हुआ तनीषा इतनी बेचैन क्यों हो?’’

तनीषा आंखों में पानी भरते हुए बोली, ‘‘यार साहिल मेरा फोन नहीं उठा रहा है.’’

‘‘इस में रोने की क्या बात है?’’ अनुष्का बोली.

‘‘मुझे लगता है अब वह पंखुड़ी के पीछे है… मेरे में क्या कमी है?’’

अनुष्का बोली, ‘‘तुम्हारे अंदर कोई कमी नहीं है… तुम्हारी यह सोच तुम्हारे दुख का कारण है कि तुम्हारी खुशी की बागडोर तुम्हारे बौयफ्रैंड पर निर्भर है.’’

तनीषा बोली, ‘‘मगर अनुष्का मुझे साहिल के बिना बेहद खालीपन लगता है. तुम्हारे जितनी बहादुर नहीं हूं मैं कि भीड़ से अलग दिखूं… बहुत बार मन करता है कि इस तामझम से हट कर तुम्हारी तरह सिंपल जिंदगी व्यतीत करूं.’’

अनुष्का हंसते हुए बोली, ‘‘अरे तो क्या मुश्किल है… दूसरों में नहीं, अपनी खुशी खुद में ढूंढ़ो… अपने हर पल को इस तरह काम से लाद दो कि तुम्हें एक मिनट का भी समय न मिले.’’

रात में जहां तनीषा अपने चेहरे पर निकल आए एक पिंपल को ठीक करने की कोशिश में लगी हुई थी वहीं अनुष्का अपने कालेज के आने वाले इवेंट की तैयारी कर रही थी. तनीषा चाह कर भी अपने को इस जाल से आजाद नहीं कर पा रही थी.

कालेज में पहुंच कर तनीषा बेहद असहज महसूस कर रही थी. बारबार

आईने में खुद को देखती और परेशान हो उठती. तभी तनीषा को सामने से अपना बौयफ्रैंड साहिल आता दिखाई दिया, मगर साहिल ने तनीषा को देख कर भी अनदेखा कर दिया.

तनीषा को लग रहा था कि वह भीड़ में भी अकेली है. वह दुखी ही एक कोने में खड़ी थी कि तभी अनुष्का आई और बोली, ‘‘अरे चलो, मेरे साथ हम लोग नुक्कड़ नाटक की प्रैक्टिस कर रहे हैं.’’

तनीषा ने वहां जा कर देखा कि सब लड़केलड़कियां अपनी ही धुन में व्यस्त हैं. अनुष्का उस ग्रुप की लीडर थी. तनीषा टकटकी लगाए ये सब देख रही थी. पहली बार वह खुद को तुच्छ समझ रही थी.

अनुष्का बिना किसी सौंदर्य प्रसाधन के भी बेहद सलोनी लग रही थी. उस के चेहरे पर आत्मविश्वास का तेज था.

अनुष्का का सौंदर्य ऐसा था जो जितना करीब आता था उतना ही दिल को लुभाता था. अपने गुणों के कारण अनुष्का का सौंदर्य देखने वाले की आंखों को शीतलता प्रदान करता था.

नुक्कड़ नाटक में फिर से अनुष्का का गु्रप प्रथम आया. उदीक्ष फिर से अनुष्का के पास आया और बोला, ‘‘कुछ स्किल्स हम लोगों के लिए भी छोड़ दो. तुम तो फोन करोगी नहीं, मुझे अपना नंबर दे दो.’’

अनुष्का ने उदीक्ष को अपना नंबर दे दिया. धीरेधीरे अनुष्का और उदीक्ष में अच्छी बनने लगी.

तनीषा जब मौका मिलता अनुष्का को छेड़ती, ‘‘अरे अब तो थोड़ी बनठन कर रहा कर… तेरा बौयफ्रैंड इतना हौट है.’’

अनुष्का हंसते हुए बोलती, ‘‘दी अच्छा दिखने में कोई बुराई नहीं है, मगर मेरी पहचान मेरी खूबसूरती से नहीं वरन गुणों से होनी चाहिए.’’

उदीक्ष को अनुष्का का साथ बेहद पसंद था. दोनों बिना किसी वादे के एकदूसरे की जिंदगी का अहम हिस्सा थे.

अनुष्का जहां टीच इंडिया प्रोजैक्ट का हिस्सा बन गई थी वहीं उदीक्ष को एक मीडिया हाउस में अच्छी नौकरी मिल गई थी. अब उदीक्ष अनुष्का को अपने घर ले कर जाना चाहता था, मगर उसे पता था कि उस के परिवार के हिसाब से अनुष्का थोड़ी अलग लगेगी. उदीक्ष की बहन और मम्मी टिपटौप रहना पसंद करती थीं.

उदीक्ष आज अनुष्का के लिए एक छोटा सा वनपीस लाया था. अनुष्का सवालिया निगाहों से उस की तरफ देख कर बोली, ‘‘तुम्हें तो पता है कि मुझे ऐसे कपड़े पसंद नहीं हैं?’’

उदीक्ष चिरौरी करते हुए बोला, ‘‘अरे एक बार मेरी खातिर पहनो तो सही… तुम पर यह ड्रैस बहुत अच्छी लगेगी. और मेरी बात मानो जब हम लोग मेरे घर चलेंगे तो यही पहन लेना. तुम बहुत अच्छी लगोगी.’’

अनुष्का को लेने जब उदीक्ष पहुंचा तो वह बेहद असहज सी नजर आ रही थी. आज अपनी मम्मी के कहने पर अनुष्का ने लाइट मेकअप भी कर लिया था. कुल मिला कर अनुष्का खुद को ही पहचान नहीं पा रही थी.

कार में बैठ कर जब अनुष्का अपनी ड्रैस को खींचने लगी तो उदीक्ष बोला, ‘‘अरे ऐसा

मत करो, खूब हौट लग रही हो.’’

अनुष्का को पूरे रास्ते उदीक्ष अपनी मम्मी और बहन के बारे में बताता रहा. जब अनुष्का उदीक्ष के घर पहुंची तो टिकटिक करती हुई एक लिपीपुती महिला आई और अनुष्का को तोलती हुई निगाहों से देखते बोली, ‘‘तुम हो अनुष्का. उदीक्ष तो तुम्हारी बहुत तारीफ करता है.’’

उदीक्ष की मम्मी की बातों से अनुष्का को ऐसा महसूस हुआ जैसे उदीक्ष की तारीफों से वे सहमत नहीं हैं.

तभी उदीक्ष की छोटी बहन शिप्रा आई और अनुष्का को अपना घर दिखाने लगी. अनुष्का को उदीक्ष का घर बेहद सुंदर मगर एक डैकोरेटिव पीस जैसा लग रहा था. सारी सुखसुविधाएं थीं, मगर कहीं भी प्यार की उष्मा नहीं थी. घर घूमते हुए अनुष्का को ऐसा महसूस हुआ जैसे वह बार्बी डौल का घर घूम रही हो.

शिप्रा पूरे टाइम कपड़ों, मेकअप, पार्टीज और अपने बौयफ्रैंड्स की बातें करती रही.

जब अनुष्का वापस घर आई तो उसे समझ आ चुका था कि उदीक्ष के घर के हिसाब से वह थोड़ी अलग है. मगर उसे यह भी विश्वास था कि उदीक्ष ने उसे जैसी वह है, उसे वैसा ही पसंद किया है. उदीक्ष ने कभी अनुष्का को बदलने का प्रयास नहीं किया.

उदीक्ष और अनुष्का की मंगनी तय हो गई थी. मंगनी में पहनने के लिए अनुष्का को गाउन दिलाया गया था. गाउन का भार अनुष्का के भार से भी अधिक था. अनुष्का ने जब यह बात अपने घर में कही तो अनुष्का की मम्मी बोलीं, ‘‘अरे एक तो तरी सास तेरे लिए इतने प्यार से गाउन लाई है और तुझे ये नखरे सूझ रहे हैं.’’

गाउन का खुला हुआ गला, कपड़ा सबकुछ अनुष्का को असहज कर रहा था, मगर उसे बोलने की अनुमति नहीं थी. अनुष्का को ऐसी मौडर्निटी समझ नहीं आ रही थी जो बस कपड़ों में झलकती थी विचारों में नहीं.

घर की होने वाली बहू को उस की मरजी के कपड़े पहनने की अनुमति नहीं है क्योंकि उस में उस की फूहड़ता और गांवरूपन नजर आता है.

जैसेजैसे मंगनी की तारीख नजदीक आ रही थी उदीक्ष के व्यवहार में भी बदलाव आ रहा था.

उदीक्ष के परिवार को अनुष्का का टीच इंडिया के लिए कार्य करना पसंद नहीं था. अनुष्का की सास के अनुसार, ‘‘आजकल बहनजी ही टीचिंग करती हैं, जो लड़कियां किसी काबिल नहीं होती हैं वे ही मास्टरनी बनती हैं.’’

उदीक्ष ने अनुष्का को यह नौकरी छोड़ने के लिए बोल दिया, ‘‘अरे मेरे मम्मीपापा ने मेरी पसंद स्वीकार कर ली है और वे तुम्हें कोई घर बैठने को थोड़े ही कह रहे हैं. वे तो बस तुम्हें उड़ने के लिए आकाश दे रहे हैं.’’

अनुष्का ने फीकी मुसकान से कहा, ‘‘हां मेरे पंखों को काट कर मुझे उड़ने को बोला जा रहा है.’’

उदीक्ष अनुष्का की यह बात सुन कर

झंझला उठा.

अनुष्का का अपना परिवार भी उस की बातें समझ पाने में असमर्थ था.

मंगनी के रोज उदीक्ष का परिवार समय से पहुंच गया. चारों तरफ हंसीखुशी का माहौल था. उदीक्ष के आधुनिक परिवार को देख कर, उस फंक्शन में उपस्थित सभी लोग अनुष्का की पसंद की सराहना कर रहे थे.

उदीक्ष की नजरें भी अनुष्का को ढूंढ़ रही थीं. तभी अनुष्का बाहर आई. पीच रंग की साड़ी और लाइट मेकअप में वह बेहद सौम्य नजर आ रही थी.

मगर उदीक्ष की छोटी बहन शिप्रा बोली, ‘‘भाभी यह क्या औरतों की तरह तैयार हो कर आई हो? आप ने गाउन क्यों नही पहना?’’

उदीक्ष भी धीमे स्वर में बोला, ‘‘अनुष्का तुम क्यों जिद पकड़ लेती हो. लड़कियां तो आधुनिक कपड़े पहनना चाहती हैं, मगर उन्हें ससुराल में अनुमति नहीं मिलती है और यहां एकदम विपरीत है.’’

अनुष्का की मम्मी बात संभालते हुए बोलीं, ‘‘अरे बेटा तुम परेशान मत हो, मैं अनुष्का को दोबारा तैयार करती हूं…’’

अनुष्का अपनी मम्मी की बात काटते हुए बोली, ‘‘उदीक्ष मैं जैसी हूं वैसी ही रहूंगी… मैं वही कपड़े पहनना पसंद करती हूं जो मुझे कंफर्टेबल लगते हैं.’’

अनुष्का की मम्मी गुस्से में बोलीं, ‘‘कब तक बहनजी बनी रहोगी?’’

अनुष्का की होने वाली सास, ननद सब उसे गुस्से से देख रही थीं.

अनुष्का सयंत स्वर में बोली, ‘‘बात कपड़ों की नहीं मेरी मरजी की है. मैं अगर अपनेआप को ही बदल दूंगी तो फिर मैं ही क्या रह जाऊंगी?’’

उदीक्ष बोला, ‘‘तुम्हें हमारे रिश्ते से अधिक अपनी जिद प्यारी है.’’

अनुष्का बोली, ‘‘अगर मैं तुम्हें कहूं कि शादी के बाद तुम टैनिस खेलना छोड़ दो, शौर्ट्स पहनना छोड़ दो या फिर अपने परिवार को छोड़ दो तो?’’

उदीक्ष की मम्मी बोलीं, ‘‘उदीक्ष हम तुम्हारी खुशी के लिए तैयार हो गए थे, मगर हमें नहीं लगता यह लड़की तुम से प्यार करती है.’’

अनुष्का बोली, ‘‘आंटी प्यार करती हूं… तभी तो उदीक्ष जैसा है उसे वैसे ही स्वीकार कर रही हूं.’’

उदीक्ष उठते हुए बोला, ‘‘अनुष्का तुम वह नहीं हो जिसे मैं जानता था.’’

पूरे पंडाल में सन्नाटा पसरा हुआ था, मगर अनुष्का को यह मौन बेहद भला लग रहा था. उसे खुद पर फख्र महसूस हो रहा था कि आज उस ने खुद को कठपुतली बनने से बचा लिया.

कठपुतली जिसे सुंदर दिखना होता है, कठपुतली जिसे अपनी देह के उतारचढ़ाव से पति को खींच कर रखना होता है, कठपुतली जिस की खुशी की डोर दूसरों के हाथों में होती है, मगर आज अनुष्का ने उस कठपुतली की डोर को

थोड़ी सी हिम्मत कर के सदा के लिए अपने हाथों में ले लिया.

 

यह नाइटी जो न हुई: सुहानी की कहानी

अजीअब अकेले में भी गुफ्तगू न कर सके तो लानत है ऐसी मर्दानगी पर और वैसी नाइटी वाली मुहतरमा के जुल्म ढाने वाले लापरवाह हुस्न पर. हम तो समझा करते थे नाइटी का मतलब-बेमतलब पोशाकों की उधेड़बुन से बच कर सस्ता टिकाऊ आवरण, जो स्त्री के लिए पहनना आसान भर हो. भई, हमें क्या मालूम था कि नाइटी की नटी हमारे जीवन में यों नाट्य भर जाएगी.

हमारी कयामत, जबान फिसल गई जी जरा. हमारी हुस्ने मलिका यानी हमारी श्रीमतीजी तो चौबीसों घंटे साड़ी में यों लिपटी रहती हैं जैसे खोल में गद्देदार तकिया. हिलाओडुलाओ तब भी न सरके.

अब बेचारी हमारी आंखें बटन तो नहीं. तरसती रहती हैं हुस्ने शबाब में गोते लगाने को. अब आप ही बताएं कि अगर ये दीदार वाली आंखें न हों तो हुस्न का काम ही क्या?

अजी साहब गुस्ताखी माफ. आज दरअसल बोलने का या कहूं श्रीमतीजी के पड़ोस में जाने से लिखने का मौका मिल गया तो हम भी बुक्का फाड़ के अपने दिल की निकालने लग पड़े.

सब्र का भी बांध होता है कोई जी. हर वक्त अब तो श्रीमतीजी का पहरा ही लग गया है हम पर. ‘यहां बालकनी में क्या कर रहे हो?’, ‘यहां छत पर क्या कर रहे हो?’, ‘खिड़की में क्या कर रहे हो?’, ‘दरवाजे पर क्या कर रहे हो?’ अजी इतना पूछेंगी तो हम भी न सोचेंगे कि आखिर है क्या इधर जो इतनी रोकटोक?

अब दिल तो बच्चा है न जी. सो हम ने भी बालकनी से, छत से, खिड़की से, दरवाजे से, आखिर वह राज जान ही लिया, जो हमारी कयामत श्रीमतीजी (लाहौल वला कूबत) ने छिपा कर रखना चाहा था.

चलो, अब और पहेलियां न बुझाएं वरना आप हम से खार खा जाओगे.

तो हुआ यों कि इस नई बसीबसाई सुसंस्कृत कालोनी के सिस्टम से बने सारे

बंगलों में से चुनचुन कर हमारे ही नए बंगले के सामने वाले बंगले में एक नवविवाहित जोड़ा रहने आया.

इन की शादी को मुश्किल से 4 महीने हुए होंगे. पहलेपहल तो इन दोनों की चुटिया तक न दिखती थी, मगर अब कुछ दिनों से तो हमारे पौबारह हैं. जब चाहो नजरें सेंक लो. सुना है लड़के के धनकुबेर ससुरजी से दामादबेटी को यह बंगला हासिल हुआ है. इस पतिपत्नी की उम्र करीब 25-30 के बीच होगी. उन के पतिदेव तो जाते अलसुबह चाकरी पर और हम जाते औफिस 10 बजे.

हमारी तकिए की खोल वाली मलिका खैर करें हमारी श्रीमतीजी जब तक रसोई में बरतन खटकातीं, हम अखबार पर आंखें रखते ‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना’ के जुमले को चरितार्थ करते नजरों की भागदौड़ को मनमरजी भागने देते हैं. बेचारे एक ही कालकोठरी के गुलाम, कभीकभी दिल बिदक जाए तो कुसूर ही क्या.

तो बिदकते हुए वह हमारे सामने वाले बंगले की नवयौवना, नवप्रफुल्लिता, नवसमर्पिता के हृदय कोष्ठ तक पहुंच गया, जो सागर की दुर्दांत लहरों की तरह उछलउछल कर बरसों तक एक ही गागर का पानी पीतेपीते थक चुके नवरस के प्यासे को आलिंगन में भरने को उतावला हुआ जाता था.

40 पार के अधखाए इस गुठली सर्वस्व आम जैसे आम व्यक्ति के लिए यह तो वाकईर् बड़ी बात थी. सुदर्शना घर पर रहते वक्त बालकनी में, छत पर, खिड़की पर, दरवाजे पर यानी हर उस जगह पर जहांजहां मुझ पर पहरे थे, नाइटी में ही दिखती थीं.

 

एक से बढ़ कर एक नाइटी. कभी झीनी मिनी नाइटी, कभी स्लीवलैस नाइटी, कभी बैकलैस नाइटी, फुग्गेदार बांहों वाली फ्रंट कट नाइटी, कभी सुराहीदार कमर में लिपटी बलखाती नाइटी, कभी चिकने पैरों से नजरें फिसलाती नाइटी. इन रसास्वादन में डूब कर हम मन ही मन बटन बन चुकी आंखों से कुछकुछ दिवास्वप्न देखने लग गए थे. अब गुस्ताखी तो थी, मगर अपनी श्रीमतीजी से कह दें कि अजी तुम भी कुछ बदनउघाड़ू झीनी मिनी नाइटी पहन कर हमारे तनमन पर तितली जैसी उड़ चलो तो वे झाड़ू से हमारा जहर न झाड़ दें और तितली की तो क्या, कहीं गैंडे जैसी हमारे सिर पर सवार हो गईं तो लेने के देने न पड़ जाएं? ख्वामख्वाह ही कयामत नहीं बोलतेजी.

खैर, अब जब 50 मीटर की दूरी से दीदारे हुस्न ज्यादा ही मन को तरसाने लगा तो सोचा क्यों न पड़ोसी होने के नाते कुछ वादसंवाद ही स्थापित कर लिया जाए. सो हम ने श्रीमतीजी को ‘दिखाने के दांत’ बना कर साथ ले चलना ठीक समझा. ऐसे भी ठीक न समझ कर करते भी क्या?

उन के हुक्म के बिना हमारा तो पत्ते सा शरीर भी नहीं हिलता. तो ‘दिखाने के दांत’ के साथ जैसे ही हम उन के घर के दरवाजे पर पहुंचे हमारी सांसें तो थमने को हो गईं.

गोरी नारी छरहरे बदन पे मृदुल मांसल काया,

चपलाचंचला तू कामिनी, तेरी नाइटी की अजब माया.

मुखर यामिनी, मृदुहासिनी, मधुभाषिणी… हम तो सरपट कवि हुए जा रहे थे.

हमारी जबान ने जिस बात पर अब तक ताला जड़ रखा था वह बात भी अब खुशी के मारे हमारे फूले गुब्बारे से मुंह से बाहर निकलने लग पड़ थी. क्या है कि हमारी श्रीमतीजी की काया, काया क्या कहें साड़ी में लिपटी भैंसन सी पहलवानी तगड़ी काया के आगे बढ़ हम कभी एक छटांक भर का स्वप्न भी देखने की हिम्मत न कर पाए थे. मगर अब तो इस नाइटी की रासलीला ने हमारे अंदर साहस का दरिया ही नहीं पूरा समंदर भर दिया था कि अब हम इस आग के समंदर में बेझिझक तैरने वाले थे.

शाम हो चली थी. इच्छा तो नहीं थी कि उस स्वप्नसुंदरी के पतिदेव भी पधार जाएं, लेकिन जिस तरह ‘दिखाने के दांत’ हम साथ ले कर गए थे, वैसे ही उस के भी पहरेदार साथ हों तो जरा ‘रोके न रुकेगी’ वाली फील आ ही जाएगी, सोच हम इस अभियान में निकल लिए.

अंदर से स्विच औन करने की कड़क आवाज के साथ चेहरे के सामने 20 वाट के बल्ब वाली एक पुरानी लाल लाइट जल उठी. अंदर से एक कर्कश आवाज भी कानों में पड़ी, ‘‘देखो तो बाहर कौन बुला रहा है… जब देखो तब कोई न कोई मुंह उठाए चला आता है.’’

साहब ने दरवाजा खोला. सभ्यशिष्ट लगे. अंदर बैठक में ले जा कर सौफे पर बैठाया. बैठे रहे, बैठे रहे बंगले की खरीदारी से ले कर उन के ससुरालियों की खोजखबर, उन की नौकरीचाकरी, कैरियर, राजनीति, पार्टी, देशभक्ति… क्याक्या नहीं हम ने बोलते रहने की कोशिश की. कोशिश ही कर सकते हैं साहब, भैंसन सी श्रीमतीजी के आगे जबान जो सिल कर इतने वर्षों से बैठे थे और अब अचानक वक्त खपाने और जिया भरमाने के लिए सारे टौपिकों का जिम्मा हम पर ही आन पड़ा था. मगर जिस काव्यधारा की प्रेरणा से कामना की बाढ़ में बह कर हम इस ‘राम’ की देहरी तक आ जाने की हिम्मत कर पाए थे उस नाइटी सुंदरी सीता के रसपान को जिया हलक में ही अटका रहा. कोई अतापता नहीं. बगल में बैठी श्रीमती को हम ने कुहनी मारी. अकल की होशियार या अकल की दुश्मन वही जानें, पर श्रीमतीजी ने काम और दुश्वार कर दिया हमारा. सोचा था पूछ लेंगी कि आप की बीवी कहां है? बुलाइए उसे, पर यह न पूछ कर कहती हैं कि आज बड़ी देर हो गई. अब चलते हैं. आप की बीवी से फिर कभी मिल लेंगे.

अजी, यह तो हम पर जुल्म करने की इंतहा ही हो गई. अब तो फिर से हम बालकनी में बैठेबैठे पागल होते रहेंगे.

नहींनहीं, अब हमें ही कुछ करना होगा. अंतरात्मा की आवाज भी कभी हमारी इतनी जोर न पकड़ी होगी जितनी जोर दे कर हम ने यथेष्ट शालीन होते हुए कहा, ‘‘अरे, आप दोनों को जोड़ी में एक बार देख लें. फिर तो जाना ही है, क्योंजी?’’

श्रीमतीजी को देखा तो खा जाने वाली नजरों और होंठों की मुसकराहट के तालमेल का अजब प्रयोग करती नजर आईं. पर हमारी इस से निकल पड़ी.

नवयुवक को अतिथि की अंतिम इच्छा जैसी शायद फील आ गई थी, इसलिए अंदर की ओर आवाज दे कर कहा, ‘‘रंजना, इधर आओ. तुम से मिलना चाहते हैं.’’

हमारा तो जी, क्या कहूं, पहले प्रेम के चंचल हृदय की छटपटाहट सी सांसें मुंह को आने लगीं. क्या सचमुच उस सौंदर्य की बलिहारी को हम इतने निकट से देख पाएंगे? उन से कुछ देर बातें कर पाएंगे.

खुदा कसम इसी याद के साथ इस भरकम तकिए को जिंदगी भर झेल जाएंगे. परदे ठेल कर आ रही थीं हमारी हृदय की देवी.

हम ने नजरें उठाईं. यह क्या? यह मोटीताजी 6 गज की चटगुलाबी रंग की साड़ी में लिपटी चपटी नाक वाली घर में घुसते समय की कर्कश आवाज की मालकिन हमारी मनोहारिणी बलखातीइठलाती नाइटी सुंदरी?

नहींनहीं, हम चीखतेचीखते रह गए.

‘‘मिलिए, रंजना मेरी बीवी से,’’ युवक ने कहा.

हमारी अर्धांगिनी के सुखद आश्चर्य को हम बहुत शिद्दत से महसूस कर पा रहे थे. 14 साल तक धीरेधीरे यों ही न वे हमारी अर्ध अंग बनी थीं. भले ही यह आधा अंग अब हमारे पूरे अंग से भी ज्यादा भरापूरा क्यों न हो गया हो. मोटी भैंसन अभी खुशी से मन ही मन बल्लियों उछल रही थीं. हमारी खुशी पर तो उन के दिल पर सांप लौटने लगता है. अब हो गए श्रीमतीजी के सारे  अरमान पूरे.

यह तो वही कुछ सालों में होने वाली हमारी श्रीमतीजी की जिरौक्स. खुद पर क्या तरस खाएं अब तो इस युवक की ही हम सोचते रहे.

‘‘मगर आप की बीवी हम तो किसी और को समझ रहे थे?’’ हम ने घिघियाते हुए उस से स्पष्ट करवाना चाहा. आखिर गड़बड़ हुई तो कैसे?

‘‘अरे एक को आप ने देखा होगा… वह मेरी चचेरी बहन है…अमेरिका में एनआरआई लड़के से उस की शादी तय हो चुकी है. कुछ दिनों के लिए वह यहां घूमने आई थी. आज ही दोपहर को हम उसे दिल्ली फ्लाइट के लिए छोड़ आए. दिल्ली में उस का घर है. 10 दिन बाद उस की शादी है. फिर वह अमेरिका चली जाएगी.’’

आंखों के आगे मनोहारी पकवान अब भी घूम रहे थे. हम घर लौट रहे थे अपनी भूखे दांतों के बीच सूखी जीभ फिराते हुए.

 

स्वयंसिद्धा: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

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लव गेम: कैसे शीना ने जीता पति का दिल

जिंदगी मौसम की तरह होती है. कभी गरमी की तरह गरम तो कभी सर्दी की तरह सर्द तो कभी बारिश के मौसम की तरह रिमझिमरिमझिम बरसती बूंदों सी सुहानी. जैसे मौसम रंग बदलता है, वैसे ही जिंदगी भी वक्तबेवक्त रंग बदलती रहती है. लेकिन जिंदगी में कभीकभी कुछ सवालों का जवाब देना बड़ा मुश्किल हो जाता है.

यह कहानी भी कुछ ऐसी ही है. बदलते मौसम की तरह रंग बदलती हुई भी और उन रंगों में से चटख रंगों को चुराती हुई भी. आइए देखें, इस कहानी के पलपल बदलते रंगों को, जो खुदबखुद फीके पड़ कर गायब होते जाते हैं.

कंट्री क्लब में एक पार्टी का आयोजन किया गया था, जिस में आयोजकों ने अपने मैंबर्स में से कुछ ऐसे यंग कपल्स के लिए पार्टी रखी थी, जिन की शादी को अभी ज्यादा से ज्यादा 5 साल हुए थे.

इस पार्टी में करीब 50 यंग कपल्स शामिल हुए. सभी बहुत खूबसूरत थे, जो सजधज कर पार्टी में आए थे. उन सभी के छोटेछोटे बच्चे भी थे. लेकिन आर्गनाइजर्स ने बच्चों को पार्टी में लाने की परमिशन नहीं दी थी, इसलिए सब लोग अपने बच्चे घर पर ही छोड़ कर आए थे.

कई यंग कपल्स ऐसे भी थे, जो एकदूसरे को अच्छी तरह जानतेपहचानते थे, इसलिए पार्टी में आते ही वे बड़ी गर्मजोशी के साथ मिले और एकदूसरे से घुलमिल गए. पार्टी के शुरुआती दौर में स्टार्टर, कौकटेल, मौकटेल, वाइन और सौफ्ट ड्रिंक वगैरह का जम कर दौर चला. इस के बाद सब ने खाना खाया. खाना बहुत लजीज था.

खाने के बाद पार्टी में कपल्स के साथ कई तरह के गेम खेले गए. हर गेम के अपने नियम थे. बहुत ही सख्त. गेम का संचालन एक एंकर कर रहा था. जिस हौल में पार्टी चल रही थी, वहीं एक फुट ऊंचा बड़ा सा पोडियम बना था. उसी पोडियम पर गेम खेले जा रहे थे. आखिर में एक गेम और खेला गया.

एंकर ने एक यंग ब्यूटीफुल लेडी को पोडियम पर इनवाइट किया, जिस की शादी को अभी सिर्फ 4 साल हुए थे और उस का 2 साल का एक बेटा भी था. उस लेडी का नाम शीना था.शीना पोडियम पर जा कर वहां रखी एक चेयर पर बैठ गई. पोडियम पर वाइट कलर का बड़ा सा एक बोर्ड लगा था. एंकर ने शीना से कहा, ‘‘आप बोर्ड पर ऐसे 40 नाम लिखिए, जिन से आप सब से ज्यादा प्यार करती हैं.’’

हौल में जितने भी कपल्स थे, वे सभी पोडियम के आसपास एकत्र हो गए और बड़ी बेचैनी से यह सोच कर एंकर तथा उस महिला की तरफ देखने लगे कि आखिर अब कौन सा गेम होने वाला है. गेम के बारे में किसी को कुछ नहीं मालूम था.

यहां तक कि वह महिला भी नहीं जानती थी कि वह किस तरह के गेम का हिस्सा बनने जा रही है. वह तो मस्तीमस्ती में पोडियम पर आ कर बैठ गई थी.

लेकिन एंकर की बात सुनते ही वह अनईजी हो गई.

‘‘च…चालीस ऐसे लोगों के नाम…’’ शीना कंफ्यूज्ड हो कर बोली, ‘‘जिन से मैं सब से ज्यादा प्यार करती हूं?’’

‘‘यस.’’ एंकर के होठों पर उस समय एक शरारती मुसकराहट खिल रही थी, ‘‘क्या आप की जिंदगी में 40 ऐसे इंसान नहीं हैं, जिन से आप बेहद प्यार करती हों?’’

‘‘नहीं…नहीं.’’ शीना जल्दी से हड़बड़ा कर बोली, ‘‘म…मेरे कहने का मतलब यह नहीं है. 40 क्या, मेरी लाइफ में तो ऐसे बहुत से लोग हैं, जिन से मैं बेहद प्यार करती हूं और वे सब भी मुझ से बहुत प्यार करते हैं.’’

‘‘गुड.’’ एंकर उत्साहित हो कर बोला, ‘‘आप को सब के नाम नहीं लिखने हैं, जो आप की लिस्ट में सब से ऊपर हों, सिर्फ वही नाम लिखिए. इस गेम का नाम लव गेम है.’’

‘‘लव गेम.’’ पोडियम के चारों तरफ एकत्र लोगों के चेहरे पर मुसकराहट दौड़ी, ‘‘इंटरेस्टिंग.’’

शीना भी अब चेयर छोड़ कर खड़ी हो गई थी. उस ने बड़े उत्साह से मार्कर पैन उठा लिया और वाइट बोर्ड के पास जा कर उस पर जल्दीजल्दी नाम लिखने लगी. शीना ने सच कहा था. उस की जिंदगी में वाकई ऐसे काफी लोग थे, जिन से वह बहुत प्यार करती थी. यह बात उस के नाम लिखने की स्पीड से पता चल रही थी. उसे इस बारे में ज्यादा सोचना नहीं पड़ा.

कुछ ही मिनट में उस ने 40 नाम लिख दिए. उस लिस्ट में उस के रिलेटिव, फ्रैंड्स, ब्रदर, सिस्टर, मदर, फादर, हसबैंड और उस का 2 साल का बेटा भी था. नाम लिख कर वह विक्ट्री स्माइल बिखेरती हुई एंकर की तरफ मुड़ी.

‘‘क्यों, लिख दिए न मैं ने 40 नाम.’’ वह इस अंदाज में बोली, जैसे उस ने गेम जीत लिया हो.

‘‘यस.’’ एंकर मुसकराया, ‘‘लेकिन गेम अभी खत्म नहीं हुआ मैम. गेम तो अभी शुरू हुआ है.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब अभी आप को इन में से 20 ऐसे नाम कट करने हैं, जिन से आप कम प्यार करती हैं. मान लीजिए, आप इन 40 लोगों के साथ बीच समुद्र में किसी ऐसी बोट में सवार हों, जो डूबने वाली हो. अगर 40 में से 20 लोगों को बीच समुद्र में फेंक दिया जाए तो बोट बच सकती है. ऐसी हालत में वह 20 लोग कौन होंगे, जिन्हें आप बीच समुद्र में फेंक कर बाकी के 20 लोगों की जान बचाएंगी?’’

शीना अब कंफ्यूज्ड नजर आने लगी.

फिर भी वह दोबारा वाइट बोर्ड के पास पहुंची और उस ने ऐसे 20 लोगों के नाम काट दिए, जिन्हें बीच समुद्र में फेंक कर वह बाकी के अपने 20 लोगों की जान बचा सकती थी. अब वाइट बोर्ड पर जो नाम बचे, उन में उस के बहुत करीबी, रिलेटिव, ब्रदर, सिस्टर, मदर, फादर, हसबैंड और उस का 2 साल का बेटा था.

‘गुड.’’ एंकर मुसकराया, ‘‘अब इन में से 10 नाम और काट दीजिए.’’

‘‘म…मतलब?’’ हक्कीबक्की शीना ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘सिंपल है,’’ एंकर बोला, ‘‘अब सिर्फ 10 ऐसे नाम चुनें, जिन्हें आप सब से ज्यादा प्यार करती हों और उन 10 लोगों को बचाने के लिए आप बाकी के 10 को बीच समुद्र में फेंक सकती हैं. याद रहे, आप सब बोट पर सवार हैं और वहां जिंदगी और मौत की फाइट चल रही है.’’

शीना वापस वाइट बोर्ड के पास पहुंची और उस ने 10 और नाम काट दिए. लेकिन वे 10 नाम काटना उस के लिए पहले जितना आसान नहीं था. उस ने बहुत सोचसमझ कर 10 नाम काट दिए. पोडियम के आसपास एकत्र लोग भी अब बड़ी बेचैनी से शीना की तरफ देखने लगे. सब जानना चाहते थे कि शीना अब किस के नाम काटेगी.

वाइट बोर्ड पर जो बाकी 10 नाम बचे थे, उन में उस के कुछ खास रिलेटिव, ब्रदर, सिस्टर, मदर, फादर, हसबैंड और बेटा था.

‘‘हूं.’’ एंकर ने गहरी सांस ली.

शीना 10 नाम काट कर के अभी टर्न भी नहीं हुई थी कि उस से पहले ही एंकर बोल पड़ा, ‘‘अब इन में से 6 नाम और काट दो. सिर्फ 4 रहने दो. बोट इतने लोगों का वजन भी नहीं संभाल पा रही है. अभी तुरंत 6 लोगों को और समुद्र में फेंकना पड़ेगा, वरना बोट डूब जाएगी.’’

शीना ने वाइट बोर्ड पर लिखे नाम देखे. वह अब इमोशनल होने लगी. बहरहाल उस ने 6 नाम और काट दिए. बोर्ड पर अब सिर्फ शीना के मदर, फादर, हसबैंड और उस के 2 साल के बेटे का नाम बचा था. दूसरी ओर उसे अपने ब्रदर, सिस्टर के नाम भी काटने पड़े. पूरे हौल में सन्नाटा पसर गया था. सभी लोग इमोशनल हो गए.

‘‘अब अगर इन में से भी 2 नाम और काटने पड़ें…’’ एंकर बहुत धीमी आवाज में बोला, ‘‘तो वे कौन से नाम होंगे, जो आप काटेंगी. किन 2 लोगों को बचाएंगी आप?’’

अब वाकई शीना की हालत बहुत बुरी हो गई. मस्तीमस्ती में शुरू हुआ गेम अचानक बहुत इमोशनल हो गया था. शीना किसी गहरी सोच में डूब गई.

पोडियम के चारों तरफ जमे कपल्स भी यह जानने के लिए बेचैन हो उठे कि आखिर अब शीना कौन से 2 नाम काटेगी? मदर फादर का या फिर हसबैंड और बेटे का?

हौल में सन्नाटा और गहरा गया. शीना की आंखों में भी आंसू आ गए. पोडियम के नीचे खड़ा शीना का हसबैंड उसी तरफ देख रहा था. उसे खुद भी मालूम नहीं था कि शीना अब कौन से 2 नाम काटने वाली है.

शीना ने कांपते हाथों से अपने मातापिता का नाम बोर्ड से मिटा दिया. देख कर सब सन्न रह गए. किसी को उम्मीद नहीं थी कि शीना अपने मातापिता का नाम बोर्ड से मिटा देगी. मातापिता तो जीवन देने वाले होते हैं, वह उन का नाम कैसे काट सकती थी? अब वाइट बोर्ड पर सिर्फ 2 नाम चमक रहे थे, हसबैंड और उस के बेटे का नाम.

‘‘प्लीज…’’ शीना रो पड़ी, ‘‘अब मुझ से कोई और नाम काटने के लिए मत कहना.’’

‘‘बस अब यह गेम खत्म होने वाला है.’’ एंकर बोला, ‘‘बिलकुल लास्ट है. अगर आप से कहा जाए कि इन दोनों में से भी आप किस से ज्यादा प्यार करती हैं तो आप किसे चुनेंगी? वह एक कौन होगा, जिसे बचाने के लिए आप दूसरे को बीच समुद्र में फेंक देंगी, हसबैंड या बेटा?’’

‘‘मैं खुद समुद्र में कूदना पसंद करूंगी.’’ शीना भावविह्वल हो कर बोली, ‘‘लेकिन इन दोनों में से किसी को भी अपने से अलग नहीं करूंगी.’’

‘‘नहीं…आप नहीं,’’ एंकर बोला, ‘‘आप को इन दोनों में से कोई एक नाम काटना है.’’

अब शीना की हालत बहुत बुरी हो गई थी. हौल में मौजूद हर आंख शीना पर ही टिकी थी. हर कोई यह जानना चाहता था कि अब वह किस का नाम काटेगी? हसबैंड या बेटे में से वह किसे चुनेगी?

शीना ने कांपते हाथों से वाइट बोर्ड पर लिखा अपने बेटे का नाम मिटा दिया. सब सन्न रह गए. हर कोई सोच रहा था कि वह अपने हसबैंड का नाम मिटाएगी, क्योंकि हम दुनिया में सब से ज्यादा अपने बच्चों से ही प्यार करते हैं.

‘‘क्यों?’’ एंकर ने बेचैनी के साथ पूछ ही लिया, ‘‘आप ने अपने हसबैंड को ही क्यों चुना?’’

‘‘जानते हो…’’ शीना पोडियम पर खड़ीखड़ी बहुत इमोशनल हो कर बोली, ‘‘जिस दिन मेरी शादी हुई, उस दिन मम्मीपापा ने मेरे हसबैंड के हाथ में मेरा हाथ देते हुए कहा था, ‘आज से यही आदमी जिंदगी के आखिरी सांस तक तुम्हारा साथ देगा. तुम कभी इस का साथ न छोड़ना. जिस तरह सुखदुख में वह तुम्हारा साथ दे, उसी तरह तुम भी हर सुखदुख में उस का साथ देना.’ मैं ने अपने मम्मीपापा की बात मानी.

‘‘अपने हसबैंड के लिए मैं ने अपने उन्हीं मम्मीपापा तक को त्याग दिया. यहां तक कि जब अपने बेटे और हसबैंड में से भी किसी एक को चुनने का समय आया तो मैं ने अपने हसबैंड को ही चुना. मैं अपने बेटे से बहुत प्यार करती हूं. लेकिन हसबैंड के रहते मुझे बेटा तो दूसरा मिल सकता है, पर हसबैंड दूसरा नहीं मिल सकता. पतिपत्नी का यह रिश्ता अनमोल है, अटूट है. हमें हमेशा इस रिश्ते का सम्मान करना चाहिए.’’

शीना की बातें सुन कर पूरा हौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. सभी की आंखों में आंसू थे. शीना का हसबैंड भी बेहद इमोशनल हो गया था. एकाएक वह शाम बेहद खास हो गई. लव गेम ने सभी हसबैंड वाइफ के रिलेशन को और मजबूत कर दिया था.

अब पछताए होत क्या: किससे शादी करना चाहती थी वह

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सैरोगेट मदर: क्या था आबिदा का फैसला

आबिदा अपनी गरीबी से काफी परेशान थी. सिर्फ उस के पति जैनुल की कमाई से घर चलता था. जैनुल कपड़े सिलता था. एक तो बड़ी मुश्किल से घर चलता था, दूसरे कुछ दिनों से उस की आंखों की रोशनी बहुत ज्यादा कमजोर हो गई थी. उस की आंखें बहुत साल से खराब चल रही थीं.

आबिदा जैनुल की आंखों की कम होती रोशनी और घटती ताकत से बहुत परेशान थी.

आबिदा के 2 बच्चे थे. दोनों स्कूल में पढ़ रहे थे. आबिदा घर की तंगहाली के चलते दोनों बच्चों को ठीक से पढ़ालिखा भी नहीं पा रही थी.

आबिदा सोच रही थी कि अगर जैनुल की आंखों का आपरेशन हो जाए तो आंख की रोशनी भी ठीक हो जाएगी और वह काम भी ज्यादा करने लगेगा, मगर इस के लिए पैसे नहीं थे. आंख का आपरेशन कराने में कम से 50,000 रुपए लगेंगे.

आबिदा अपनी पड़ोसन जैनब से किसी काम के बारे में पूछताछ करती रहती थी, मगर कोई ढंग का काम नहीं मिल रहा था.

एक दिन पड़ोसन जैनब ने आबिदा को सैरोगेट मदर के बारे में बताया. दरअसल, जैनब की एक सहेली ने सैरोगेट मदर बन कर 2 लाख रुपए कमाए थे. इस में अपनी कोख किराए पर देनी होती है. अपनी कोख में किसी पराए मर्द के बच्चे को पालना पड़ता है.

पड़ोसन जैनब की इस बात का असर आबिदा पर हुआ था. उस ने भी सैरोगेट मदर बनने की ठान ली थी.

इधर जैनुल की तबीयत और खराब रहने लगी थी. आबिदा को भी पड़ोसन जैनब ने सैरोगेट मदर बनने के लिए और ज्यादा उकसाया.

आबिदा ने कहा, ‘‘इस के लिए मुझे इजाजत नहीं मिल पाएगी.’’

जैनब ने पति से पूछने को कहा.

आबिदा ने सैरोगेट मदर बनने की बात अपने पति को बताई. यह सुनते ही वह भड़क गया, ‘‘कोई जरूरत नहीं है यह सब करने की. जैसे भी होगा, मैं घर चला लूंगा.’’

‘‘लेकिन इस में बुराई भी क्या है? जैनब की एक सहेली भी सैरोगेट मदर बन कर खुशहाल है. इस पैसे से तुम्हारी आंखों का आपरेशन भी हो जाएगा और बच्चों की पढ़ाईलिखाई भी ठीक से होने लगेगी. अब सैरोगेट मदर बनने में किसी के साथ सोना नहीं होता है. यह सब डाक्टर करते हैं,’’ आबिदा ने पति जैनुल को मनाते हुए कहा.

‘‘रिश्तेदार, पासपड़ोस के लोग क्या कहेंगे? सब तु झ पर हंसेंगे, मु झ पर थूकेंगे,’’ जैनुल बोला.

‘‘नहीं, कहीं कुछ गलत नहीं है. यह बुरा भी नहीं है. कितनी औरतें आज सैरोगेट मदर बन कर अपना काम बना रही हैं.’’

‘‘यह काम होता ही गुपचुप है. किसी को क्या पता चलेगा. इस में डाक्टरों को लाखों रुपए मिलते हैं. दलाल भी हजारों रुपए लेते हैं.

‘‘सब से बड़ी बात यह कि कोई जोड़ा औलाद की खुशी पाएगा, मेरी वजह से.’’

आबिदा के बहुत सम झाने और घरेलू हालात देख कर जैनुल ने आखिरकार इजाजत दे दी.

एक साल में आबिदा ने एक बच्चे को जन्म दिया, जिसे अस्पताल में मरा हुआ कह दिया गया. वह मन में खुशी दबाए लौट आई. उसे नहीं पता चला कि बच्चा किस का था और अब कहां है.

आबिदा ने सैरोगेट मदर बन कर अपने पति की आंखें ठीक कराईं, बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिल कराया. उन का घरखर्च भी आराम से चलने लगा था.

कुछ दिन बाद लड्डू खिलाते हुए आबिदा ने जैनुल से कहा, ‘‘लो, मुंह मीठा करो.’’

‘‘किसलिए?’’ जैनुल ने पूछा.

‘‘मैं आप के बच्चे की मां बनने जा रही हूं, किसी दूसरे के बच्चे की नहीं.’’

जैनुल की खुशी इस बार दोगुनी हो गई.

 

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