जब सुंदरता पास हो

भारत के मंदिरों से नर्तकियों को गायब कर दिया गया है और अब वे केवल दीवारों पर मूर्तियों की शक्ल में दिखती हैं. पर थाइलैंड, कंबोडिया, इंडोनेशिया में अभी भी हिंदू मंदिरों में टैंपल डांसर्स हैं, जो आने वाले को नयनसुख भी देती हैं और भगवान भक्ति का माल भी बेचती हैं. पर्यटकों को लुभाने के लिए हर मंदिर में डांस कार्यक्रम रखे होते हैं. बैंकाक में एक वट पाव में ऐसी ही नर्तकी अपनी भावभंगिमाओं से ऐश्वर्यीय आनंद दे रही है. भगवान की किसे जरूरत है जब सुंदरता पास हो.

आओ कुछ मौज करें

दीए जलाएं और मन को खुश करें. पंजाब की खासीयत उस के लोकनृत्य हैं, जिन में जोश, जज्बा और हंसी है. पंजाब के एक विश्वविद्यालय में दिल जीतती लड़कियां.

न पूछिए क्या है यह

परमाणु बम. अजी नहीं, यह तो एक आर्टिस्ट की क्रिएशन है, जो पैरिस में दिखाई गई. हवा भरे गुब्बारे की शक्ल की यह कृति क्या कह रही है, यह न पूछिए, देखिए और चलते बनिए, चाहे साइकिल पर ही क्यों न हों.

आंखें क्यों हों बंद

यह डिजाइन है तो एक वैस्टर्न ड्रैस का पर हमारी सुनें और इस की नकल पर सलवारकमीज सिलवा डालें. हां, पर क्या बदन इस लायक है, यह देख लें. अगर न हो तो बदन की मरम्मत की दुकानें भी खूब खुल गई हैं. शरीर और कपड़े ऐसे होने ही चाहिए कि देखने वालों की आंखें बंद ही न हों.

मरजी आप की

यह कार्टून कैरेक्टर किसी छोकरे के दिमाग की उपज नहीं वरन ब्राजील के 82 वर्षीय कार्टूनिस्ट की देन है. इस के दांत देखे या कुछ और यह देखने वाले की मरजी है.

बात तो खुशी की है

पाकिस्तान के हाल खराब हैं पर इतने भी नहीं कि हम खुशी से फूले रहें. मलाला युसुफजई को नोबल पुरस्कार मिला तो सारे पाकिस्तानी फूले नहीं समाए. यानी वहां ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो देश में अमन चैन और आधुनिकता लाने के लिए अपना चेहरा दिखाने से नहीं डरते. तालिबानी थोड़े ही हैं पर खूंख्वार हैं, बस.

लोकतंत्र सुरक्षा की गारंटी नहीं

अमेरिका में आज भी अश्वेतों के साथ बराबरी और लोकतंत्र के ढिंढोरे के बावजूद भेदभाव किया जाता है. अगस्त में एक 18 साला निहत्थे अश्वेत को एक गोरे पुलिस वाले ने गोली मार दी, इसलिए कि उसे लगा लड़के के पास बंदूक है. अब सारे देश में विरोध हो रहा है. आप यह न समझें कि हम सुधरे हुए हैं. ऐसा ही हमारे यहां जाति, धर्म व देश के नाम पर होता है और अल्पसंख्यकों को बेवजह मारा जाता है. लोकतंत्र सुरक्षा की गारंटी नहीं, उलटे बहुसंख्यकों का मनमरजी करने का लाइसैंस बनता जा रहा है.

धर्म की मूल प्रवृत्ति है विवाद

धर्म के गुणगान करने वाले यह साबित करने के लिए कि धर्म प्रेम सिखाता है वैमनस्य नहीं, इस कहानी को बारबार दोहराएंगे कि दिल्ली के त्रिलोकपुरी में एक मसजिद के सामने एक भजन मंडली के लगातार जागरण करने पर गत अक्तूबर में हुए दंगे में खूब तोड़फोड़, हिंसा हुई और मरा तो कोई नहीं पर जख्मी कई हुए. तो इस दंगे के दौरान एक सिख हरबंस सिंह ने एक मुसलिम मुहम्मद कुरबान को अपने घर में पनाह दी. ये वही हरबंस सिंह हैं, जिन्हें उन के मुसलिम पड़ोसियों ने 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेसियों के इशारों पर हुए सिख दंगों में पनाह दी थी. हरबंस सिंह का कहना है कि यह तो उस का मानवीय पक्ष है.

क्या यह धर्म का उज्ज्वल पक्ष है? नहीं. यह मानवता व सामाजिकता का उज्ज्वल पक्ष है, जो धर्म की फैलाई कटुता, दुश्मनी, वैमनस्यता, घृणा, आतंक के बावजूद जिंदा है. अगर धर्म नहीं होता तो हरबंस सिंह सिख नहीं होते, मुहम्मद कुरबान मुसलिम न होते. दोनों जो भी होते, पड़ोसी होते, साथ काम करने वाले होते, एकदूसरे को सहयोग देने वाले होते.

विज्ञान और तकनीक के बावजूद, तर्क, सोचविचार के बावजूद धर्म का असल रूप, खूंख्वार रूप आज भी दुनिया भर में कायम है और दुनिया का लगभग हर कोना धार्मिक आतंक के कारण भयभीत है. जिस धर्म को सुरक्षाकवच समझा जाता है, असल में वह तो उस चीनी के लेप का बना है, जिसे लपलपाने के लिए दूसरे धर्म के काले विषैले कीड़ों जैसे लोग हर समय बेचैन रहते हैं. हमारे देश की राजनीति कांग्रेस के जन्म के समय से ही धर्म पर आधारित रही है. पहले बाल गंगाधर तिलक व गोपाल कृष्ण गोखले ने कांग्रेस को धर्ममयी किया फिर महात्मा गांधी ने रघुपति राजा राममयी कर दिया. जिस का नतीजा यह हुआ कि मुहम्मद अली जिन्ना ने कांग्रेस को ब्राह्मण पार्टी कह कर छोड़ दिया. अब कांग्रेसी धर्म का लबादा भारतीय जनता पार्टी ने लपक लिया है और उसे धोपोंछ कर आधुनिक डिजाइन में सिलवा लिया है पर धर्म तो धर्म ही है.

त्रिलोकपुरी का मामला न नया है, न भाजपा के खिलाफ साजिश, यह तो धर्म की मूल प्रवृत्ति है कि किसी भी तरह विवाद खड़ा रखो. फिर चाहे वह साईं बाबा को पूजने को ले कर हो या राम रहीम पंथ पर हमले को ले कर. धर्म के नाम पर देश में गृहयुद्ध तो नहीं हो रहा पर झारखंड के झरिया की कोयले की खानों की तरह लगातार आग उस जमीन के नीचे लगी है, जिस के ऊपर लोगों ने अपने घर बना रखे हैं.

औरतों के लिए भी करो कुछ

नई सरकार एकएक कर के पिछली सरकारों के लगाए धंधों और व्यवसायों पर से जाले हटाने में लगी है. आजकल हर रोज एक नया फैसला आ जाता है, जो देश को सरकारी नौकरों से छुटकारा दिलाता है और काम करने में एक नई छूट दे रहा है. कोयला खानों के ठेकों में जो घपले किए गए थे और जिन पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त फैसला लेते हुए जिन्हें 1993 से ही रद्द कर दिया था, उन्हें दोबारा लेने के इच्छुक लोगों के लिए तुरंत फैसले ले लिए गए हैं और इंटरनैट पर बोली की स्कीम जारी कर दी गई है ताकि भेदभाव न के बराबर रहे.

डीजल को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिया गया है और उस की कालाबाजारी का मौका समाप्त कर दिया गया है. विश्व बाजार में तेल के दाम घटने के कारण डीजल के दाम घटने लगे हैं. तेल के कुंओं में कम लोगों की दिलचस्पी होती है, फिर भी यह बताना जरूरी है कि उस पर से भी लालफीताशाही हटा दी गई है. धंधों और व्यवसायों को चलाने वालों को इंस्पैक्टर राज से छुटकारा दिलाने वाली घोषणा हो गई है.

सरकार को ऐसे ही काम करना चाहिए. पिछली कई सरकारें हर समय मौका ढूंढ़ती थीं कि कैसे आम आदमी पर नियमोंकानूनों का बोझ लादा जाए ताकि वे घुटघुट कर मर जाएं. ऐसे फैसलों का असर हर किसी पर पड़ता है. धंधा अच्छा चलता है तो व्यापारी मुनाफा कम ले कर ज्यादा सामान बेच कर अपनी आमदनी बढ़ाते हैं तो लोगों को ज्यादा चीजें सस्ती मिलने लगती हैं.

आज भवन निर्माण में भारी तेजी आ गई है और रहने की जगह क भारी किल्लत है. इस में सरकारी हाथ बहुत जिम्मेदार है जिस ने सांप की तरह जमीन पर कुंडली मार रखी है. पिछली सरकार ने किसानों के हितों के नाम पर एक ऐसा अव्यावहारिक कानून बना डाला था जिस से किसान अपनी जमीन अपनी मनमरजी के दामों पर नहीं बेच पाते. मोदी सरकार इसे ढीला कर के मकानों को आसानी से उपलब्ध कराने की योजना को लागू करने वाली है.

पिछली सरकारों के साथ कठिनाई यह थी कि वे फैसले सरकारी लाभ के लिए लेती थीं. लोगों के, खासतौर पर औरतों के, बारे में तो सोचा ही नहीं जाता था. हर नियम औरतों को परेशान करता है क्योंकि वे साफगोई से कही बातें ही समझती हैं. वे 2+2+2 तो समझ सकती हैं पर यदि 2×2×(8+5)× (5/8)भ22 के 12% का हिसाब लगाना हो तो क्या कर पाएंगी? सरकारी कानूनी किताबें इसी तरह की हैं. एक नियम पर दूसरा, दूसरे पर तीसरा. एक ऐक्सपर्ट की राय के बाद दूसरी, दूसरे के बाद तीसरी.

क्या नई सरकार इस जाले को साफ कर पाएगी? क्या औरतों को सरकारी शिकंजों से मुक्ति मिलेगी? एक जमाना था जब औरतों को केवल ताकत के नाम पर दबाया गया था जबकि प्रकृति नर और मादा में बहुत ज्यादा अंतर नहीं करती. समाज ने पहले धर्म के सहारे फिर कानून के सहारे और बाद में तकनीक के सहारे औरतों को गुलामी तोहफे में दी और उन्हें लुंजपुंज कर दिया. क्या नई सरकार वाकई अलग है? जो भी बदलाव लाए जा रहे हैं वे पुरुषों को तो चाहे लाभ दें, औरतों को नहीं देंगे.

अच्छा होगा कि लगे हाथ नरेंद्र मोदी सरकार हर नियम में औरतों को विशेष छूट देना शुरू कर दे ताकि जैसे संपत्ति हस्तांतरण में स्टैंप ड्यूटी में जब से 2% की छूट औरतों को मिली है, पंजीकरण कार्यालयों में औरतें ही औरतें दिखने लगी हैं, उसी तरह लाइसैंस कार्यालयों, कारखानों आवेदन के दफ्तरों में और खासतौर पर मकान खरीदारों की भीड़ में औरतें खूब दिखें.

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