Hindi Stories Online : खोई हुई संपत्ति

लेखक- डा. रमेश यादव

Hindi Stories Online : “मुन्ना के पापा सुनो तो, आज मुन्ना नया घर तलाशने की बात कर रहा था. वह काफी परेशान लग रहा था. मुझ से बोला कि मैं आप से बात कर लूं.”

“मगर, मुझ से तो वह कुछ नहीं बोला. बात क्या है मुन्ने की अम्मां? खुल कर बोलो. कई वर्षों से बिल्डिंग को ले कर समिति, किराएदार, मालिक और हाउसिंग बोर्ड के बीच लगातार मीटिंग चल रही है. ये तो मैं जानता हूं, पर आखिर में फैसला क्या हुआ?”

“वह कह रहा था कि हमारी बिल्डिंग अब बहुत पुरानी और जर्जर हो चुकी है, इसलिए बरसात के पहले सभी किराएदारों को घर खाली करने होंगे. सरकार की नई योजना के अनुसार इसे फिर से बनाया जाएगा. पर तब तक सब को अपनीअपनी छत का इंतजाम खुद करना होगा. वह कुछ रुपयों की बात कर रहा था. जल्दी में था, इसलिए आप से मिले बिना ही चला गया.”

गंगाप्रसाद तिवारी अब गहरी सोच में डूब गए. इतने बड़े शहर में बड़ी मुश्किल से घरपरिवार का किसी तरह से गुजारा हो रहा था. बुढ़ापे के कारण उन की अपनी नौकरी भी अब नहीं रही. ऐसे में नए सिर से फिर से नया मकान ढूंढ़ना, उस का किराया देना, नाको चने चबाने जैसा है. गैलरी में कुरसी पर बैठेबैठे तिवारीजी शून्य में खो गए थे. उन की आंखों के सामने तीस साल पहले का वह मंजर किसी चलचित्र की तरह चलने लगा.

‘दो छोटेछोटे बच्चे और मुन्ने की मां को ले कर जब वे पहली बार इस शहर में आए थे, तब यह शहर अजनबी सा लग रहा था. पर समय के साथ वे यहीं के हो कर रह गए.

‘सेठ किलाचंदजी एंड कंपनी में मुनीमजी की नौकरी, छोटा सा औफिस, एक टेबल और कुरसी. मगर व्यापार करोड़ों का था, जिस का मैं एकछत्र सेनापति था. सेठजी की ही मेहरबानी थी कि उस कठिन दौर में बड़ी मुश्किल से लाखों की पगड़ी का जुगाड़ कर पाया और अपने परिवार के लिए एक छोटा सा आशियाना बना पाया, जो ऊबदार घर कब बन गया, पता ही नहीं चला. दिनभर की थकान मिटाने के लिए अपने हक की छोटी सी जमीन, जहां सुकून से रात गुजर जाती थी और सुबह होते ही फिर वही रोज की आपाधापी भरी तेज रफ्तार वाली शहर की जिंदगी.

‘पहली बार मुन्ने की मां जब गांव से निकल कर ट्रेन में बैठी, तो उसे सबकुछ अविश्वसनीय सा लग रहा था. दो रात का सफर करते हुए उसे लगा, जैसे वह विदेश जा रही हो. धीरे से वह कान में फुसफुसाई, “अजी, इस से तो अच्छा अपना गांव था. सभी अपने थे वहां. यहां तो ऐसा लगता है जैसे हम किसी पराए देश में आ गए हों? कैसे गुजारा होगा यहां?”

“चिंता मत करो मुन्ने की अम्मां, सब ठीक हो जाएगा. जब तक मन करेगा यहां रहेंगे और जब घुटन होने लगेगी तो गांव लौट जाएंगे. गांव का घर, खेत, खलिहान इत्यादि सब है. अपने बड़े भाई के जिम्मे सौंप कर आया हूं. बड़ा भाई पिता समान होता है.”

इन तीस सालों में इस अजनबी शहर में हम ऐसे रचबस गए, मानो यही अपनी तपस्वी कर्मभूमि है. आज मुन्ने की मां भी गांव में जा कर बसने का नाम नहीं लेती. उसे इस शहर से प्यार हो गया है. उसे ही क्यों, खुद मेरे और दोनों बच्चों के रोमरोम में यह शहर बस गया है. माना कि अब मैं थक चुका हूं, मगर अब बच्चों की पढ़ाई पूरी हो गई है. उन्हें ढंग की नौकरी मिल जाएगी तो उन के हाथ पीले कर दूंगा और जिंदगी की गाड़ी फिर से पटरी पर अपनी रफ्तार से दौड़ने लगेगी. अचानक किसी की आवाज ने तिवारीजी की तंद्रा भंग की. देखा तो सामने मुन्ने की मां थी.

“अजी किस सोच में डूबे हो? सुबह से दोपहर हो गई. चलो, अब भोजन कर लो. मुन्ना भी आ गया है. उस से पूरी बात कर लो और सब लोग मिल कर सोचो कि आगे क्या करना है ? आखिर कोई समाधान तो निकालना ही पड़ेगा.”

भोजन के बाद तिवारीजी का पूरा परिवार एकसाथ बैठ कर विमर्श करने लगा. मुन्ने ने बताया, “पापा, हमारी बिल्डिंग का हाउसिंग बोर्ड द्वारा रिडेवलपमेंट किया जा रहा है. सबकुछ अब फाइनल हो गया है. एग्रीमेंट के मुताबिक हमें मालिकाना अधिकार का 250 स्क्वेयर फीट का फ्लैट मुफ्त में मिलेगा. मगर वह काफी छोटा पड़ेगा. इसलिए यदि कोई अलग से या मौजूदा कमरे से जोड़ कर एक और कमरा लेना चाहता हो, तो उसे एक्स्ट्रा कमरा मिलेगा, पर उस के लिए बाजार भाव से दाम देना होगा.”

”ठीक कहते हो मुन्ना, मुझे तो लगता है कि यदि हम गांव की कुछ जमीन बेच दें तो हमारा मसला हल हो जाएगा और एक कमरा अलग से मिल जाएगा. अधिक रुपयों का इंतजाम हो जाए तो यह बिलकुल संभव है कि हम अपना एक और फ्लैट खरीद लेंगे.” तिवारीजी बोले.

बरसात से पहले तिवारीजी ने सरकारी डेवलपमेंट बोर्ड को अपना रूम सौंप दिया और पूरे परिवार के साथ अपने गांव आ गए.

गांव में प्रारंभ के दिनों में बड़े भाई और भाभी ने उन की काफी आवभगत की, पर जब उन्हें पूरी योजना के बारे में पता चला तो वे लोग पल्ला झाड़ने लगे. यह बात गंगाप्रसाद तिवारी की समझ में नहीं आ रही थी. उन्हें कुछ शक हुआ. धीरेधीरे उन्होंने अपनी जगह जमीन की खोजबीन शुरू की. हकीकत का पता चलते ही उन के पैरों तले की जमीन ही सरक गई, मानो उन पर आसमान टूट पड़ा हो.

“अजी क्या बात हैं? खुल कर बताते क्यों नहीं, दिनभर घुटते रहते हो? यदि जेठजी को हमारा यहां रहना भारी लग रहा है, तो वे हमारे हिस्से का घर, खेत और खलिहान हमें सौंप दें, हम खुद अपना बनाखा लेंगे.”

“धीरे बोलो भाग्यवान, अब यहां हमारा गुजारा नहीं हो पाएगा. हमारे साथ धोखा हुआ है. हमारे हिस्से की सारी जमीनजायदाद उस कमीने भाई ने जालसाजी से अपने नाम कर ली है. झूठे कागजात बना कर उस ने दिखाया है कि मैं ने अपने हिस्से की सारी जमीनजायदाद उसे बेच दी है. हम बरबाद हो गए मुन्ने की अम्मां… अब तो एक पल के लिए भी यहां कोई ठौरठिकाना नहीं है. हम से सब से बड़ी भूल यह हुई कि साल दो साल में एकाध बार यहां आ कर अपनी जमीनजायदाद की कोई खोजखबर नहीं ली.”

“अरे दैय्या, ये तो घात हो गया. अब हम कहां रहेंगे? कौन देगा हमें सहारा? कहां जाएंगे हम अपने इन दोनों बच्चों को ले कर? बच्चों को इस बात की भनक लग जाएगी तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा,” विलाप कर के मुन्ने की मां रोने लगी. पूरा परिवार शोक में डूब गया. न चाहते हुए भी तिवारीजी के मन में घुमड़ती पीड़ा की गठरी आखिर खुल ही गई थी.

इस के बाद तिवारी परिवार में कई दिनों तक वादविवाद, विमर्श होता रहा. सुकून की रोटी जैसे उन के नसीब की परीक्षा ले रही थी.

अपने ही गांवघर में अब गंगाप्रसादजी का परिवार बेगाना हो चुका था. उन्हें कोई सहारा नहीं दे रहा था. वे लोग जान चुके थे कि उन्हें लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी होगी. पर इस समय गुजरबसर के लिए छोटी सी झुग्गी भी उन के पास नहीं थी. गांव की जमीन के हिस्से की पावर औफ एटोर्नी बड़े भाई को दे कर उन्होंने बहुत बड़ी भूल की थी. उसी के चलते आज वे दरदर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर थे.

उसी गांव में मधुकर चौहान नामक संपन्न दलित परिवार था. गांव में उन की अपनी बड़ी सी किराने की दुकान थी. बड़ा बेटा रामकुमार पढ़ालिखा और आधुनिक खयालात का था. जब उसे छोटे तिवारीजी के परिवार पर हो रहे अन्याय के बारे में पता चला तो उस का खून खौल उठा, पर वह मजबूर था. गांव में जातिबिरादरी की राजनीति से वह पूरी तरह परिचित था. एक ब्राह्मण परिवार को मदद करने का मतलब, अपनी बिरादरी से रोष लेना था. पर दूसरी तरफ उसे शहर से आए उस परिवार के प्रति लगाव भी था.

उस दिन घर में उस के पिताजी ने तिवारीजी को ले कर बात छेड़ी, “जानते हो तुम लोग, हम वही दलित परिवार हैं, जिस के पुरखे किसी जमाने में उसी तिवारीजी के यहां पुश्तों से हरवाही किया करते थे. तिवारीजी के दादाजी बड़े भले इनसान थे. जब हमारा परिवार रोटी के लिए मुहताज था, तब इस तिवारीजी के दादाजी ने आगे बढ़ कर हमें गुलामी की दास्तां से मुक्ति दे कर अपने पैरों पर खड़े होने का हौसला दिया था. उस अन्नदाता परिवार के एक सदस्य पर आज विपदा की घड़ी आई है. ऐसे में मुझे लगता है कि हमें उन के लिए कुछ करना चाहिए. आज उसी परिवार की बदौलत गांव में हमारी दुकान है और हम सुखी हैं.”

”हां बाबूजी, हमें सच का साथ देना चाहिए. मैं ने सुना है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद जब बैंक के दरवाजे सामान्य लोगों के लिए खुले, तब बड़े तिवारीजी ने हमें राह दिखाई थी. यह उसी परिवर्तन के दौर का नतीजा है कि कभी दूसरों के टुकड़ों पर पलने वाला गांव का यह दलित परिवार आज संपन्न परिवार में गिना जाता है और शान से रहता है,” रामकुमार ने अपनी जोरदार हुंकारी भरी.

रामकुमार ताल ठोंक कर अब छोटे तिवारीजी के साथ खड़ा हो गया था. काफी सोचसमझ कर चौहान परिवार ने छोटे तिवारीजी से गहन विचारविमर्श किया.

“हम आप को दुकान खुलवाने और सिर पर छत के लिए जगह, जमीन, पैसा इत्यादि की हर संभव मदद करने को तैयार हैं. आप अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे, तो यह लड़ाई आसान हो जाएगी. एक दिन आप को आप का हक जरूर मिलेगा.”

चौहान परिवार का भरोसा और साथ मिल जाने से तिवारी परिवार का हौसला बढ़ गया था. रामकुमार के सहारे अंकिता अपनी दुकानदारी को बखूबी संभालने लगी थी. इस से घर में पैसे आने लगे थे. धीरेधीरे उन के पंखों में बल आने लगा और वे अपने पैरों पर खड़े हो गए.

तिवारीजी की दुकानदारी का भार उन की बिटिया अंकिता के जिम्मे था, क्योंकि तिवारीजी और उन का बड़ा बेटा अकसर कोर्टकचहरी और शहर के फ्लैट के काम में व्यस्त रहते थे.

इस घटना से गांव के ब्राह्मण घरों में जातिबिरादरी की राजनीति जन्म लेने लगी. कुंठित दलित बिरादरी के लोग भी रामकुमार और अंकिता को ले कर साजिश रचने लगे. चारों ओर तरहतरह की अफवाहें रंग लेने लगीं, पर बापबेटे ने पूरे गांव को खरीखोटी सुनाते हुए अपने हक की लड़ाई जारी रखी. इस काम में रामकुमार तन, मन और धन से उन के साथ था. उस ने जिले के नामचीन वकील से तिवारीजी की मुलाकात कराई और उस की सलाह पर ही पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई.

छोटीमोटी इस उड़ान को भरतेभरते अंकिता और रामकुमार कब एकदूसरे को दिल दे बैठे, इस का उन्हें पता ही नहीं चला. इस बात की भनक पूरे गांव को लग जाती है. लोग इस बेमेल प्यार को जाति का रंग दे कर तिवारी और चौहान परिवार को बदनाम करने की कोशिश करते हैं. इस काम में अंकिता के ताऊजी अग्रणी भर थे.

गंगाप्रसादजी के परिवार को जब इस बात की जानकारी होती है, तो वे राजीखुशी इस रिश्ते को स्वीकार कर लेते हैं. इतने वर्षों तक बड़े शहर में रहते हुए उन की सोच भी बड़ी हो चुकी होती है. जातिबिरादरी के बजाय सम्मान, इज्जत और इनसानियत को वे तवज्जुह देना जानते थे. जमाने के बदलते दस्तूर के साथ परिवर्तन की आंधी अब अपना रंग जमा चुकी थी.

अंकिता ने अपना निर्णय सुनाया, “बाबूजी, मैं रामकुमार से प्यार करती हूं और हम शादी के पवित्र बंधन में बंध कर अपनी नई राह बनाना चाहते हैं.”

“बेटी, हम तुम्हारे निर्णय का स्वागत करते हैं. हमें तुम पर पूरा भरोसा है. अपना भलाबुरा तुम अच्छी तरह जानती हो. चौहान परिवार के हम पर बड़े उपकार हैं.”

आखिर में चौहान और तिवारी परिवार आपसी रजामंदी से उसी गांव में विरोधियों की छाती पर मूंग दलते हुए अंकिता और रामकुमार की शादी बड़े धूमधाम से संपन्न करा दी.

एक दिन वह भी आया, जब गंगाप्रसादजी अपनी जमीनजायदाद की लड़ाई जीत गए और उन की खोई हुई संपत्ति उन्हें वापस मिल गई. जालसाजी के केस में उन के बड़े भाई को जेल जाने की नौबत आ गई.

Hindi Thriller Stories : इकबाल से शादी करने के लिए क्या था निभा का झूठ?

Hindi Thriller Stories : इकबाल जल्दीजल्दी निभा के लिए केक बना रहा था. दरअसल, आज निभा का बर्थडे था. इकबाल ने अपने औफिस से छुट्टी ले ली थी. वह निभा को सरप्राइज देना चाहता था.

उस ने निभा की पसंद का खाना बनाया था, पूरा घर सजाया था और निभा के लिए एक खूबसूरत सी ड्रैस भी खरीदी थी. आज की शाम वह निभा के लिए यादगार बना देना चाहता था.

शाम में जब निभा घर लौटी तो इकबाल ने दरवाजा खोला. निभा के अंदर कदम रखते ही इकबाल ने पंखा चला दिया और रंगबिरंगे फूल निभा के ऊपर गिरने लगे. निभा को बांहों में भर कर इकबाल ने धीरे से कहा,”जन्मदिन मुबारक हो मेरी जान.”

इकबाल का हाथ थाम कर निभा ने कहा,”सच इकबाल, तुम मेरी जिंदगी की सच्ची खुशी हो. कितना प्यार करते हो मुझे. ख्वाहिशों का आसमान छू लिया है मैं ने तुम्हारे दम पर… अब तमन्ना यही है मेरा दम निकले तुम्हारे दर पर…”

इकबाल ने उस के होंठों पर उंगली रख दी,”दम निकलने की बात दोबारा मत करना निभा. तुम ने मेरी जिंदगी हो. तुम्हारे बिना मैं अधूरा हूं.”

केक काट कर और गिफ्ट दे कर जब इकबाल ने अपने हाथों से तैयार किया हुआ खाना डाइनिंग टेबल फर सजाया तो निभा की आंखों में आंसू आ गए,”इतना प्यार मत करो मुझ से इकबाल. हम लिवइन में रहते हैं मगर तुम तो मुझे पत्नी से ज्यादा मान देते हो. हमारा धर्म एक नहीं पर तुम ने प्यार को ही धर्म बना दिया. मेरे त्योहार तुम मनाते हो. मेरे रिवाज तुम निभाते हो. मेरा दिल हर बार तुम चुराते हो. कब तक चलेगा ऐसा?”

“जब तक धरती पर मैं हूं और आसमान में चांद है…”

दोनों एकदूसरे की बांहों में खो गए थे. धर्म, जाति, ऊंचनीच, भाषा, संस्कृति जैसे हर बंधन से आजाद उन का प्यार पिछले 5 सालों से परवान चढ़ रहा था.

5 साल पहले एक कौमन फ्रैंड की पार्टी में दोनों मिले थे. उस वक्त दोनों ही दिल्ली में नए थे और जौब भी नईनई थी. समय के साथसाथ दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई. एकदूसरे के विचार और व्यवहार से प्रभावित इकबाल और निभा धीरेधीरे करीब आने लगे थे. दोनों के बीच दूरियां सिमटने लगीं और फिर दोनों अलगअलग घर छोड़ कर एक ही घर में शिफ्ट हो गए. किराया तो बचा ही जीवन को नई खुशियां भी मिलीं.

जल्दी ही दोनों ने मिल कर एक फ्लैट किस्तों पर ले लिया. दोनों मिल कर मकान की किस्त भी देते और घर के दूसरे खर्चे भी करते. दोनों के बीच प्यार गहरा होता गया. रिश्ता गहरा हुआ तो दोनों ने घर वालों को बताने की सोची.

इकबाल के घर वालों में केवल मां थीं जो बहुत सीधी थीं. वह तुरंत मान गई थीं. मगर निभा के यहां स्थिति विपरीत थी. उस के पिता इलाहाबाद के जानेमाने उद्योगपति थे. शहर में अपनी कोठी थी. 3-4 फैक्ट्रियां थीं. 100 से ज्यादा मजदूर काम करते थे. उन की शानोशौकत ही अलग थी. पैसों की कोई कमी नहीं थी पर पतिपत्नी दोनों ही अव्वल दरजे के धार्मिक और कट्टरमिजाज थे. मां अकसर ही धार्मिक कार्यक्रमों में शरीक हुआ करती थीं.

धर्म की तो बात ही अलग है. यहां तो जाति के साथसाथ गोत्र, वर्ण, कुंडली सब कुछ देखा जाता था. ऐसे में निभा को हिम्मत ही नहीं हो रही थी कि वह घर वालों से कुछ कहे.

एक बार दीवाली की छुट्टियों में जब वह घर गई तो उसे शादी के लिए योग्य लड़कों की तसवीरें दिखाई गईं. निभा ने तब पिता से सवाल किया,”पापा क्या मैं अपनी पसंद के लड़के से शादी नहीं कर सकती?”

पापा ने गुस्से से उस की तरफ देखा. तब तक मां ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया और बोलीं,” देख बेटा, तू अपनी पसंद की शादी करने को तो कर सकती है, पर इतना ध्यान रखना कि लड़का अपने धर्म, अपनी जाति और अपनी हैसियत का होना चाहिए. थोड़ा भी इधरउधर हम स्वीकार नहीं करेंगे. इसलिए प्यार करना भी है तो आंखें खोल कर. वरना तू तो जानती ही है गोलियां चल जाएंगी.”

“जी मां,” कह कर निभा खामोश हो गई.

उसे पता था कि इकबाल के बारे में बता कर वह खुद ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी दे मारेगी. इसलिए उस ने रिश्ते का सच छिपाए रखना ही उचित समझा. वक्त इसी तरह बीतता रहा.

एक दिन सुबह निभा बड़ी परेशान सी बालकनी में खड़ी थी. इकबाल ने पीछे से उसे बांहों में भरते हुए पूछा,”हमारी बेगम के चेहरे पर उदासी के बादल क्यों छाए हुए हैं?”

निभा ने खुद को छुड़ाते हुए परेशान स्वर में कहा,”क्योंकि आप के शहजादे दुनिया में आने के लिए निकल चुके हैं.”

“क्या?”

“हां इकबाल. मैं मां बनने वाली हूं और यह जिम्मेदारी मैं अभी उठा नहीं सकती. एक तरफ घर वालों को कुछ पता नहीं और दूसरी तरफ मेरा कैरियर भी पीक पर है. मैं यह रिस्क अभी नहीं ले सकती.”

“तो ठीक है निभा गर्भपात करा लो. मुझे भी यही सही लग रहा है.”

“पर क्या यह इतना आसान होगा?”

“आसान तो नहीं होगा बट डोंट वरी, हम पतिपत्नी की तरह व्यवहार करेंगे और कहेंगे कि एक बच्चा पहले से है और इसलिए अभी दूसरा बच्चा इतनी जल्दी नहीं चाहते.”

“देखो क्या होता है. शाम को आ जाना मेरे औफिस में. वहीं से लैडी डाक्टर के पास चलेंगे. ”

और फिर निभा ने वह बच्चा गिरा दिया. इस के 5-6 महीने बाद एक बार फिर गर्भपात कराना पड़ा. निभा को काफी अपराधबोध हो रहा था. शरीर भी कमजोर हो गया था. पर वह करती क्या…. उसे कोई और रास्ता ही समझ नहीं आया था. पर अब इस बात को ले कर वह काफी सतर्क हो गई थी और जरूरी ऐहतियात भी लेने लगी थी.

एक दिन औफिस में ही उस के पास खबर आई कि उस के पिता का ऐक्सीडैंट हो गया है और वे काफी गंभीर अवस्था में हैं. निभा एकदम बदहवाश सी घर लौटी और जरूरी सामान बैग में डाल कर निकल पड़ी. अगली सुबह वह हौस्पिटल में थी. उस के पापा आखिरी सांसें ले रहे थे.

उसे देखते ही पापा ने कुछ बोलने की कोशिश की तो वह करीब खिसक आई और हाथ पकड़ कर कहने लगी,” बोलो पापा, आप क्या कहना चाहते हैं?”

“बेटा मैं चाहता हूं कि मेरा सारा काम तुम्हारा चचेरा भाई नहीं बल्कि तुम संभालो. वादा कर बेटा…”

निभा ने उन के हाथों पर अपना हाथ रख कर वादा किया. फिर कुछ ही देर बाद उन का देहांत हो गया. अंतिम संस्कार की पूरी प्रक्रिया कर वह 14 दिनों बाद दिल्ली लौटी. इकबाल भी औफिस से जल्दी आ गया था. निभा उस के गले लग कर बहुत रोई और फिर अपना सामान पैक करने लगी.

इकबाल चौंकता हुआ बोला,”यह क्या कर रही हो निभा?”

“मुझे हमेशा के लिए घर लौटना पड़ेगा इकबाल. पापा ने वादा लिया है मुझ से. उन का सारा कारोबार मुझे संभालना है.”

“वह तो ठीक है मगर एक बार मेरी तरफ भी तो देखो. मैं यहां अकेला तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा? मकान की किस्तें, अकेलापन और तुम्हारे बिना जीने का दर्द कैसे उठा पाऊंगा? नहीं निभा नहीं. मैं नहीं रह पाऊंगा ऐसे…”

“रहना तो पड़ेगा ही इकबाल. अब मैं क्या करूं?”

“मत जाओ निभा. यहीं से संभालो अपना काम. कोई मैनेजर नियुक्त कर लो जो तुम्हें जरूरी जानकारी देता रहेगा.”

“इकबाल लाखोंकरोड़ों का कारोबार ऐसे नहीं संभलता. पापा अपने कारोबार के प्रति बहुत जनूनी थे. उन्होंने कोई भी काम मातहतों पर नहीं छोड़ा. हर काम में खुद आगे रहते थे. तभी आज इस मुकाम तक पहुंचे. उन्हें मेरे चचेरे भाई पर भी यकीन नहीं. मेरे भरोसे छोड़ कर गए हैं सब कुछ और मैं उन को दिया गया अंतिम वचन कभी तोड़ नहीं सकती.”

“और मुझ से किए गए प्यार के वादे? उन का क्या? उन्हें ऐसे ही तोड़ दोगी? नहीं निभा, तुम्हारे बिना मैं यहां 2 दिन भी नहीं रह सकता.”

“तो फिर चले आओ न…” आंखों में चमक लिए निभा ने कहा.

“मतलब?”

“देखो इकबाल, तुम एक बार मेरे पास इलाहाबाद आ जाओ. हमें एकदूसरे की कंपनी मिल जाएगी और फिर देखेंगे…कोई न कोई रास्ता भी निकाल ही लेंगे.”

फिर क्या था 10 दिन के अंदर ही इकबाल इलाहाबाद पहुंच गया. दोनों ने एक होटल में मुलाकात कर आगे की योजना तैयार की.

अगली सुबह इकबाल मैनेजर बन कर निभा के घर में खड़ा था. निभा ने अपनी मां से इकबाल का परिचय कराया,” मां यह बाला हैं. हमारे नए मैनेजर.”

इकबाल ने बढ़ कर मां के पैर छू लिए तो मां एकदम से अलग होती हुई बोलीं,”अरे नहीं बेटा. तुम मैनेजर हो. मेरे पैर क्यों छू रहे हो?”

“क्योंकि बड़ों के आशीर्वाद से ही सफलता के रास्ते खुलते हैं मां.”

“बेटा अब तुम ने मुझे मां कहा है तो यही आशीष देती हूं कि तुम्हारी हर इच्छा पूरी हो.”

बाला यानी इकबाल ने हाथ जोड़ कर आशीर्वाद लिया और अपने काम में लग गया. निभा ने मां को बताया, “मां, दरअसल बाला कालेज में मेरा क्लासमैट था. इस ने एमबीए की पढ़ाई की हुई है. पढ़ाई के बाद कुछ समय से दिल्ली में काम कर रहा था. यहां मुझे अकेले इतना बड़ा कारोबार संभालना था तो मेरी हैल्प के लिए आया है. वैसे इस का घर तो जमशेदपुर में है. यहां बिलकुल अकेला है यह. मां, क्या हम इसे अपने बड़े से घर में रहने के लिए एक छोटा सा कमरा दे सकते हैं?”

“क्यों नहीं बेटा? इसे गैस्टरूम में ठहरा दो. कुछ दिनों में यह खुद अपने लिए कोई घर ढूंढ़ लेगा.”

“जी मां…” कह कर निभा अपने कैबिन में चली गई. योजना का पहला चरण सफलतापूर्वक संपन्न हुआ था. इकबाल घर में आ भी गया था और मां को कोई शक भी नहीं हुआ था. मैनेजर के रूप इकबाल बाला बन कर निभा के साथ काम करने लगा.

धीरेधीरे समय बीतने लगा. इकबाल और निभा ने मिल कर कारोबार अच्छी तरह संभाल लिया था. मां भी खुश रहने लगी थीं. इकबाल समय के साथ मां के संग काफी घुलमिल गया. वह मां की हरसंभव सहायता करता. हर मुश्किल का हल निकालता. बेटे की तरह अपनी जिम्मेदारियां निभाता. यही नहीं, कई बार उस ने अपने हाथों से बना कर मां को स्वादिष्ठ खाना भी खिलाया. उस के बातव्यवहार से मां बहुत खुश रहती थीं.

इस बीच दीवाली आई तो इकबाल ने उन के साथ मिल कर त्योहार मनाया. किसी को कभी एहसास ही नहीं हुआ कि वह हिंदू नहीं है.

एक बार कारोबार के किसी काम के सिलसिले में निभा को दिल्ली जाना था. इकबाल भी साथ जा रहा था. तभी मां ने कहा कि वे भी दिल्ली घूमना चाहती हैं. बस फिर क्या था, तीनों ने काम के साथसाथ घूमने का भी कार्यक्रम बना लिया.

तीनों अपनी गाड़ी से दिल्ली के लिए निकले. लेकिन नोएडा के पास हाईवे पर अचानक निभा की गाड़ी का ऐक्सीडैंट हो गया. उस वक्त निभा गाड़ी चला रही थी और मां बगल में बैठी थीं. ऐक्सीडैंट इतना भयंकर हुआ कि गाड़ी पूरी तरह डैमेज हो गई. निभा को गहरी चोटें लगीं पर उतनी नहीं जितनी मां को लगीं. मां के सिर में कांच घुस गए थे और खून बह रहा था. वह बीचबीच में होश में आ रही थीं और फिर बेहोश हो जा रही थीं.

करीब 2 किलोमीटर की दूरी पर एक बड़ा अस्पताल था. निभा ने मां को वहीं ऐडमिट करने का फैसला लिया.

रात का समय था. हाईवे का वह इलाका थोड़ा सुनसान था. हाथ देने पर भी कोई भी गाड़ी रुकने का नाम नहीं ले रही थी. कोई और उपाय न देख कर इकबाल ने मां को गोद में उठाया और तेजी से अस्पताल की तरफ भागा. पीछेपीछे निभा भी भाग रही थी.

निभा ने ऐंबुलैंस वाले को काल किया मगर ऐंबुलैंस को आने में वक्त लग रहा था. इतनी देर में इकबाल खुद ही मां को गोद में उठाए अस्पताल पहुंच गया.

मां को तुरंत आईसीयू में ऐडमिट किया गया. उन्हें खून की जरूरत थी. संयोग था कि इकबाल का ब्लड ग्रुप ओ पौजिटिव था. उस ने मां को अपना खून दे दिया. मां को बचा लिया गया था. इस दौरान इकबाल लगातार दौड़धूप करता रहा.

इस घटना ने मां के दिल में इकबाल की जगह बहुत ऊंची कर दी थी. वापस घर लौट कर एक दिन मां ने इकबाल को सामने बैठाया और प्यार से उस के बारे में सब कुछ पूछने लगीं. पास ही निभा भी बैठी हुई थी.

निभा ने मां का हाथ पकड़ कर कहा,”मां मैं आज आप से एक हकीकत बताना चाहती हूं.”

“वह क्या बेटा?”

“मां यह बाला नहीं इकबाल है. हम ने झूठ कहा था आप से.”

इतना कह कर वह खामोश हो गई और मां की तरफ देखने लगी. मां ने गौर से इकबाल की तरफ देखा और वहां से उठ कर अपने कमरे में चली गईं. दरवाजा बंद कर लिया. निभा और इकबाल का चेहरा फक्क पड़ गया. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि अब इस परिस्थिति से कैसे निबटें.

अगले दिन तक मां ने दरवाजा नहीं खोला तो निभा को बहुत चिंता हुई. वह दरवाजा पीटती हुई रोतीरोती बोली,”मां, माफ कर दो हमें. तुम नहीं चाहती हो तो मैं इकबाल को वापस भेज दूंगी. गलती मैं ने की है इकबाल ने नहीं. मैं ने ही उसे बाला बन कर आने को कहा था. प्लीज मां, माफ कर दो.”

मां ने दरवाजा खोल दिया और मुंह घुमा कर बोलीं,”गलती तुम्हारी नहीं. गलती बाला की भी नहीं. गलती तो मेरी है जो मैं उसे पहचान न सकी.”

निभा और इकबाल परेशान से एकदूसरे की तरफ देखने लगे. तभी पलटते हुए मां ने हंस कर कहा,”बेटा, मैं ही पहचान न सकी कि तुम दोनों के बीच कितना गहरा प्यार है. इकबाल कितना अच्छा इंसान है. धर्म या जाति से क्या होता है? यदि सोचो तो समझ आएगा. बेटा, पलभर में मेरा धर्म भी तो बदल गया न जब इकबाल ने मुझे अपना खून दिया. मेरे शरीर में उसी का खून तो बह रहा है. फिर क्या अंतर है हम में या उस में. इतने दिनों में जितना मैं ने समझा है इकबाल मुझे एक शरीफ, ईमानदार और साथ निभाने वाले लड़का लगा है. इस से बेहतर जीवनसाथी तुम्हें और कौन मिलेगा?”

“सच मां, आप मान गईं…” कह कर खुशी से निभा मां के गले लग गई. आज उसे जिंदगी की सब से बड़ी खुशी मिल गई थी. पास ही इकबाल भी मुसकराता हुआ अपने आंसू पोंछ रहा था

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लेखिका- वीना टहिल्यानी

Latest Hindi Stories : संकरी सी बंद गली का वह आखिरी मकान था. खूब खुला. खूब बड़ा. लाल पत्थर का बना. खूब सुविधाजनक. मकान का नाम था ‘जफर मंजिल’. आजादी के कुछ वर्षों बाद यहीं हमारा जन्म हुआ. ‘जफर मंजिल’ हमारा घर था. मां को घर का मुसलमानी नाम बिलकुल नापसंद था पर घर के मुख्यद्वार के ऊपर एक बडे़ से पत्थर पर खूब सजावट सहित उर्दू हर्फों में खुदा था, ‘जफर मंजिल-1907.’

डाक के पत्र भी ‘जफर मंजिल’ लिखे पते पर ही मिलते थे. वही नाम घर की पहचान थी.

मां का बस चलता तो वे उस पत्थर को उखड़वा देतीं. डाकखाने में नए बदले नाम की अरजी डलवा देतीं. उन्होंने तो नाम भी सोच रखा था, ‘कराची कुंज’. लेकिन तब आर्थिक हालात इतने खराब थे कि एक पत्थर उखड़वा कर नया लगवाना महल खड़ा करने के समान था. फिर भी मां को यह उम्मीद थी कि भविष्य में वे यह काम अवश्य करेंगी. जबतब वे इस बात की चर्चा करती रहती थीं.

मां को भले ही घर का मुसलमानी नाम पसंद न हो पर आज सोचती हूं तो लगता है कि कैसेकैसे तो अचरज थे उस घर में. छोटी मुंडेर वाली लंबी छत पर दादी द्वारा बिखेरे चुग्गे पर कैसे झुंड के झुंड पंछी उमड़ते थे.

ऊंची दीवारों वाली बड़ी चौकोर छत गरमियों की रातों में सोने के काम आती. चांदनी रातों में पूरी की पूरी छत धवल दूध का दरिया बन जाती. मां, दादी की कहानियों पर हुंकारे भरते हम नींद के सागर में गुम हो जाते. अमावस्या की यहां से वहां तक तारे ही तारे.

कहां गुम हो गए वे सारे के सारे सुग्गे और सितारे?

अपने नाम के अनुरूप ‘जफर मंजिल’ के पूर्व मालिक मुसलमान ही थे. असल में यह पूरा पाड़ा ही मुसलमानों का था. गली के सब घरों में मुसलमान रहते थे जो विभाजन के वक्त पाकिस्तान पलायन कर गए. गली के एक घर में अब भी एक बुजुर्ग मुसलमान दंपती रहते थे. बाकी खाली पड़े घर, सरकार द्वारा पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को दिए गए.

पिताजी को भी यह मकान क्लेम में मिला था. वे भी शरणार्थी थे. बचपन में बारबार सुने ‘क्लेम’ शब्द का अर्थ मैं बहुत बाद में कुछ बड़ी होने पर ही जान पाई. बंटवारे की भागमभाग में पीछे छूट गई धनसंपत्ति के बदले में शरणार्थियों ने मुआवजे की मांग की थी. आवश्यक औपचारिकताएं पूरी होने पर किसी को ‘क्लेम’ में मकान मिला तो किसी को दुकान और किसी को कुछ भी नहीं.

अब किस के पीछे क्या छूटा, इस का हिसाब भी कैसे रखा जाता? यहां तो पूरी की पूरी सभ्यता और संस्कृति ही छूट गई थी. बंटवारे की आग में कितना कुछ भस्म हो चुका था. मुआवजे का उचित अनुमान असंभव था.

माटी की गंध और आकाश के रंग तो अनमोल थे पर कराची की कोठियों, नवाब शाह की हवेलियों, लहलहाती फसलों के बदले एक घर तो मिला. सिर को छत और पैरों को जमीन मिली तो नई जगह पर नए सिरे से रचनेबसने का संघर्ष आरंभ हो गया.

विभाजन की बात पर पहले तो किसी को विश्वास ही न हुआ था. उसे एक अजब अनोखी अफवाह ही माना गया. ‘बंटवारा…? क्यों भला…? और…और… हम क्यों छोड़ें अपनी धरती, अपनी जमीन…अपने घर…कोई ठिठोली है क्या…’ इतिहास की इस करवट पर सब हतप्रभ, हैरान थे. भूगोल की नई सीमाएं बहुतों को स्वीकार न थीं. बात जब तक पूरी समझ में आती, काफी देर हो चुकी थी.

धर्मांधता की वीभत्सता ने उन्हें कहीं का न छोड़ा. विभाजित सिंधपंजाब, बंगाल के निवासी भागे भी तो जान हथेली पर रख कर.

रक्तपात के रेलों को लांघते, आग के दरिया को फलांगते, कहां से कहां चले और कहां आ निकले.

‘आजादी अहिंसा से पाई’ का कथन उन्हें हास्यास्पद लगता. इतनी मारकाट, खून- खराबा. वह क्या हिंसा न थी? इस से तो अच्छा था कि मिल कर अंगरेजों से भिड़ जाते, देश को टुकड़ाटुकड़ा होने से बचाते और मर भी जाते तो शहीद कहलाते.

शरणार्थी शिविरों के हालात बुरे थे. प्रत्येक परिवार अपने किसी न किसी सगेसंबंधी के लिए कलप रहा था. कहीं कोई लापता था तो कहीं किसी को मर कर भी अग्नि न मिली थी. हर हृदय में हाहाकार था. कोई आखिर कितना रोता, कितना मातम करता. रुदन और मातम के बीच भी जीवनसंघर्ष जारी रहा.

ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बीच मां की सब से छोटी बहन बीमार पड़ गईं और उचित उपचार के अभाव में चल बसीं. अफरातफरी और भगदड़ में उन की मां और छोटे इकलौते भाई ऐसे लापता हुए कि बरसों बाद ही उन का सुराग मिला. तब तक जीवन कितना आगे निकल गया था. सबकुछ कितना बदल गया था.

पीछे छूट गई धनसंपत्ति, वैभवविलास के लिए मां कभी न तड़पीं. सब आजादी के हवन में होम हो गया. स्वतंत्रता पाना सरल तो नहीं. स्वराज के लिए कोई क्या कुछ नहीं करता. हम ने भी किया. छोटा सा बलिदान ही तो दिया पर धर्म के नाम पर मिले मानसिक दुखदर्दों ने उन्हें विक्षिप्त सा कर दिया. मुसलमानों के प्रति उन के मन में घनघोर कटुता घर कर गई. ‘कैसा छल? कितना बड़ा धोखा? कैसे कर सके वे इतना सबकुछ…?’

चार सगेसंबंधी जहां जुड़ कर बैठते, बस, वतन को याद करते. पीछे छूट गई हवा, पानी और मिट्टी की बात करते. फिर उन सुमधुर स्मृतियों के साथ अनायास ही आ जुड़ते बंटवारे के अत्याचारों के कटुकठोर अनुभव और बतकही की बैठक सदा ही आंसुओं से भीग जाती.

विभाजन के समय की इन वारदातों को सुन कर हमारे मन भी मैले हो गए. दिलों में दहशत सी बैठ गई. राह चलते दूर से बुरके वाली दिख जाए तो दिल बैठ जाता. गली में आतेजाते अगर कोई मुसलमान दिख जाए तो छक्के छूट जाते.

घर से निकलने से पहले झांक कर सुनसान गली को भलीभांति निरखपरख लेती. छड़ी टेकते मियांजी दिख जाएं तो झट से द्वार के ओट में हो जाती. उन के घर के सामने से निकलती तो चाल में अतिरिक्त तेजी आ जाती. हर बार लगता, इस मुसलमानी घर से दो हाथ निकल कर मेरी गरदन धरदबोचेंगे, मुझे खींच कर घर के अंदर कर लेंगे.

हमारे घर से सटी एक बड़ी पुरानी मसजिद भी थी, जिस का फाटक मुख्य सड़क पर था. गली की तरफ का छोटा सा द्वार सदा ही बंद रहता था. ‘जफर मंजिल’ और मसजिद की साझा दीवार बहुत ऊंची तथा खूब मोटी और मजबूत थी, जिस से इधरउधर की गतिविधियों का तनिक भी आभास न होता था.

हां, गरमियों के दिनों में जब बाहर आंगन में अथवा छत पर सोना होता, तो सवेरे की पहली अजान पर दादी की आंख खुल जाती, जागते ही वे आदत के अनुसार ‘जप-जी साहिब’ जपने लगतीं. उन के जाप से पिताजी जाग जाते और पौधों में पानी डालने के लिए निकल पड़ते.

दशक बीत गए. वह घर, वह गली, वह नगर तो कब का कहीं  छूट गया पर वे ध्वनियां मन में आज भी प्रतिध्वनित होती हैं. जब कभी सुबह जल्दी जाग जाऊं तो अंतस से उठती ‘ओमओंकार’ और ‘अल्लाह’ की आवाजों से चकित, रोमांचित हो पुराने माहौल में खो जाती हूं.

एक दिन सुबहसवेरे मुख्यद्वार पर लटकी लोहे की सांकल खूब जोर से खड़की. हम सब स्कूल जाने की तैयारी में थे. मां रसोईघर में व्यस्त थीं. आंगन में दादी मेरी चोटी बांध रही थीं. कोने में नल पर छोटा भाई नहा रहा था. द्वार पिताजी ने खोला. दूर से मियांजी दिखे. दादी चौंकीं. चोटी बनाते उन के हाथ रुक गए. मियांजी ने पिताजी से कुछ कहा और पिताजी ने गलियारे में रखी साइकिल उठाई और तुरंत गली में निकल गए.

पिताजी मां अथवा दादी को बिना कुछ बताए बाहर निकल जाएं, यह अनहोनी थी.

‘क्या हुआ…? क्या हुआ…’ कहते दादी दौड़ पड़ीं. पर वे जब तक दरवाजे तक पहुंचीं, पिताजी गली लांघ चुके थे.

मियांजी ने ही बताया कि उन की बेगम गुजर गई हैं. वे चूंकि घर में अकेले थे, इसलिए पिताजी, अगले महल्ले में उन के नातेरिश्तेदारों को खबर करने गए हैं. यह कह कर मियांजी तो लाठी टेकते चलते बने और दादी सकते में आ गईं. मां को भी जैसे काठ मार गया, बच्चे सहम गए. मैं अधबनी चोटी हाथ में पकड़े बैठी थी. कुछ वक्त तक सब खामोश, बेचैन…

देखते ही देखते सामने वाली गली से, रिश्ते की दादियां, चाचियां, ताइयां दौड़ी चली गईं, ‘मुसलमानी बस्ती में गया है… वह भी अकेला…मत मारी गई है रामचंद्र की…इतना  सब देखसुन कर भी क्या सीखा…? ये आजकल के लड़के भी न…’ इस चिंता उत्तेजना ने सब को बेहाल बना दिया. आधा घंटा आधे युग से भी लंबा निकला. ज्यों ही गली में पिताजी की साइकिल मुड़ी सब की जान में जान लौटी.

पिताजी अपने साथ साइकिल पर ही किसी को लिवा लाए थे…और यह क्या? उस के साथ ही पिताजी भी मियांजी के मकान में चले गए. घर में फिर से हल्लाहड़कंप मच गया. मियांजी से मातमपुर्सी कर पिताजी आए तो सीधा गुसलखाने में घुस गए और घर वालों की बमबारी से बचने के लिए खूब देर तक नहाते रहे.

अगले कई दिनों तक गली में काले बुरके वाली औरतें और गोल टोपी वाले मर्दों का आनाजाना लगा रहा फिर धीरेधीरे सबकुछ पहले जैसा सुनसान हो गया.

उस दिन आंगन में शाम की बैठक थी. बीते दिनों की बातों के बीच वर्तमान के संघर्ष को सुना जा रहा था. आने वाले समय के सपनों को बुना जा रहा था.

इसी बातचीत के बीच बाहर की कुंडी खड़की. पिताजी ने द्वार खोला. बाहर मियांजी खड़े थे. औपचारिकता कहती थी कि उन्हें बाहर की बैठक में बिठाया जाए पर पिताजी अपने उदार स्वभाव के अनुसार उन्हें अंदर आंगन में ही लिवा लाए.

आदाबनमस्कार के बाद उन्हें बैठने के लिए पीढ़ा दिया गया. एक अनजान के अकस्मात प्रवेश से सभा में सन्नाटा छा गया. सब शांत और असहज हो उठे.

मौन मियांजी ने ही तोड़ा, ‘असल में मैं आप सब का शुक्रिया अदा करने आया हूं…आड़े वक्त में आप की बड़ी मदद मिली…’ अब इस का कोई क्या जवाब देता. पल भर की खामोशी के बाद मियांजी ने ही जोड़ा, ‘शुक्रिया के साथ अलविदा कहना भी जरूरी है… मेरा दानापानी भी उठ गया है यहां से…’

शिष्टाचार का तकाजा था कि उत्सुकता जताई जाए सो दादाजी ने पूछ ही लिया, ‘क्यों…क्यों…मियांजी, कहां जा रहे हैं आप…?’

‘अब और कहां जाऊंगा बिरादर… पाकिस्तान जो बना है मेरी खातिर…’ अब सन्नाटा और भी गाढ़ा हो गया.

मौन को फिर मियांजी ने ही तोड़ा, ‘मेरे चारों बेटेबहू, दोनों बेटीदामाद, एकएक कर पाकिस्तान चले गए. हर बार उन की जिद रही कि हम भी साथ जाएं पर वतन छोड़ने के नाम से ही मेरी रूह फना होती है. दिल बैठ जाता है. चाहेअनचाहे, एकएक कर गली के सारे संगीसाथी भी चले गए. फिर भी नसरीन साथ थी तो हम एकदूसरे के सहारे जिद पर जमे रहे…पर अब क्या करूं…उस ने तो अपनी मिट्टी पा ली पर मेरी मिट्टी देखिए…? इस उम्र में वतन छोड़ने की जिल्लत भी झेलनी थी…अपने जफर भाई भी खूब रोए थे यह घर, यह गली छोड़ते वक्त…यहीं इसी जगह उन्हें भी आखिरी सलाम कहा था…’ कहतेकहते मियांजी का गला रुंध गया.

यहां तो पहले से ही सब लोग व्याकुल थे. साझे दुख ने सीधा दिलों पर वार किया. दिलासा देना तो दूर किसी से कुछ भी बोलते न बना. सब एकदूसरे से आंखें चुराने लगे.

सिमरनी फेरती दादी का हाथ अचानक ही तीव्र हो गया. दादाजी यों ही खांसे. आंचल के छोर से आंखें पोंछती मां रसोई में चली गईं.

कुछ ही देर में मां, मटके के पानी में नीबू और चीनी घोल लाईं. गला गीला करने के बाद ही फिर बोलनेबतियाने की स्थिति बनी.

कुछ देर बाद छड़ी के सहारे मियांजी उठ खड़े हुए. जाने को पलटे तो उन के ठीक पीछे मैं बैठी थी, ‘अरे, तुम्हें तो अकसर देखता हूं गली में आतेजाते… स्कूल जाती हो…’

‘जी…’ मैं खड़ी हो गई. नमस्कार में हाथ जोड़ दिए.

‘खुश रहो… खुश रहो…’ उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और आशीर्वाद दिया.

‘खूब पढ़ना…वतन का नाम करना…’ कह कर उन का हाथ थर्राया और आवाज भर्रा गई.

इस बात को बरस नहीं दशक बीत गए पर उस कमजोर जर्जर हाथ की वह थरथराहट आज भी ज्यों की त्यों मेरे दिल पर धरी है.

उस छोटी उमर में उस कंपन का अधिक अर्थअनुमान भी न लगा पाई पर बीतते बरसों के साथ थरथराहट तेज से तेज होती गई है.

वतन के मोह में वे व्याकुल थे और उन का वतन तो बस अब छूटा जा रहा था…कोई उपाय न था…उन की अपनी धरती, उन के सामने द्विखंडित लहूलुहान पड़ी थी…उन्हें तो अब जाना ही होगा…

वह धुंधली धूसर शाम हमारे जीवन में मील का पत्थर सिद्ध हुई.

मियांजी से उस मुलाकात के बाद मन के कितने ही भय, भ्रम मिट गए. सूनी गलियों और भीड़ भरी सड़कों का आतंक समाप्त हो गया. एक धर्म विशेष के प्रति दुराग्रह जाता रहा. मां ने भी फिर कभी ‘जफर मंजिल’ का नाम बदलने की बात न छेड़ी.

Hindi Kahaniyan : बुरके के पीछे का दर्द

लेखक- मनमोहन सरल

Hindi Kahaniyan : उस दिन अपने एक डाक्टर मित्र के यहां बैठा था. बीमारियों का मौसम चल रहा था, इसलिए मरीजों की भीड़ कुछ ज्यादा ही थी. उन में कई बुरकानशीन खातून भी थीं जो ज्यादा उम्र की थीं, वे आपस में बातें कर रही थीं. कुछ बीच की उम्र वाली भी रही होंगी, जो ज्यादातर चुप ही थीं लेकिन उन में से किसी के साथ एक कमसिन जैसी भी थी, जिस के कमसिन होने का अंदाजा उस के चुलबुलेपन से लगता था, क्योंकि वह कभी एक जगह नहीं बैठती थी. साफ था कि उस को बुरका मजबूरी में पहनाया गया था.

आखिर आजिज आ कर उस ने अपना नकाब उलट ही दिया. उफ, वह तो बला की खूबसूरत निकली. काले बुरके से निकले उस के गोरेगुदाज हाथ तो पहले ही दिखाई दे चुके थे और अब उस का नजाकत से तराशा हुआ चेहरा भी सामने था. एकबारगी मेरे मन में यह खयाल कौंधा कि खूबसूरत नाजनीनों को बुरके में अपना हुस्न छिपाने का हक किस ने दिया? क्या यह हम मर्दों पर जुल्म नहीं है?

उस पर से निगाह हटती ही न थी, पर लगातार उधर देखते रहना, बेअदबी होती. इसलिए मैं रिसाले के पन्ने पलटने लगा, जो शायद कई साल पुराना था.

गए वक्त की एक अदाकारा की एक थोड़ी शोख अदा वाली तसवीर पर नजर गड़ाए था कि अचानक मेरे बगल वाली सीट पर एक बुरकानशीन आ कर बैठ गई. मैं ने उधर गरदन घुमाई तो उस ने अपना नकाब उठा दिया.

‘‘अरे, तुम?’’ मुंह से बेसाख्ता निकला.

यह नसीम थी, जो 4 साल पहले मेरी स्टूडैंट रह चुकी थी. वह इंस्टिट्यूट में भी दाखिल बुरके में ही होती थी, पर बिल्डिंग का गेट पार करतेकरते बुरका उतर जाता था और क्लास में पहुंचने तक वह तह कर के बैग के हवाले भी हो चुका होता था.

‘‘जी सर, आप कैसे हैं? डाक्टर के पास क्यों?’’

मुझे ध्यान आया कि यह वही थी जो इस दौरान मुझे अपने नकाब की ओट से लगातार घूरे जा रही थी. पर उस के लगातार मु झे देखे जाने पर मैं ने तवज्जुह नहीं दी थी. पर अब तो नसीम बगल में ही थी. मैं ने कहा, ‘‘मैं ठीक हूं. डाक्टर मेरे मित्र हैं. मिलने आया था. पर तुम तो लखनऊ चली गई थीं? मु झे याद है कि तुम ने बताया था कि यह कोर्स करने के बाद तुम्हारी वहां के एक अखबार में नौकरी पक्की है.’’

‘‘जी, बल्कि उन लोगों ने ही मु झे यह कोर्स करने के लिए मुंबई भेजा था.’’ ‘‘फिर क्या हुआ?’’ मैं जानना चाहता था.

‘‘कुछ नहीं. 2 साल मैं ने वहां ही काम किया.’’

तभी डाक्टर की रिसैप्शनिस्ट ने उस का नाम पुकारा. वह चैंबर में जाने के लिए उठ खड़ी हुई. वह जातेजाते बोली, ‘‘सर, आप जाइएगा नहीं. मु झे आप से जरूरी बात करनी है.’’

मैं ने ‘अच्छा’ कहा और मैं 4 साल पहले की नसीम को याद करने लगा. बड़ी जहीन लड़की थी वह, पूरी क्लास में. उस का स्टडीपेपर भी बहुत अच्छा बना था, खूब मेहनत से सारे डाटा इकट्ठे किए थे, उस के लिए. थोड़ी चुलबुली भी थी और दूसरे स्टूडैंट से खासी फ्री भी थी. पर इस बीच क्या घटा होगा, मैं कयास नहीं लगा पा रहा था. उस की इस बात से कि उसे मु झ से कोई जरूरी बात करनी है, मैं अजीब पसोपेश में था. दरअसल, मरीजों से फ्री होने के बाद मेरा डाक्टर मित्र अपने साथ मु झे कहीं ले जाना चाहता था, इसलिए इंतजार तो मु झे करना ही था. पर अब नसीम की जरूरी बात के बाद क्या करना होगा, तय नहीं कर पा रहा था.

नसीम को डाक्टर के पास कुछ समय लगा. वह लौटी तो मैं ने कहा, ‘‘तुम अपनी दवा बनवाओ, मैं डाक्टर से मिल कर आता हूं.’’

रिसेप्शनिस्ट से कहा कि मु झे 2 मिनट को अंदर जाने दे और मैं ने कल आने को कह कर डाक्टर से छुट्टी ले ली और तुरंत बाहर आ गया. तब तक नसीम अपनी दवा बनवा चुकी थी.

उस ने अपना नकाब फिर से ओढ़ लिया और हम साथ ही वहां से निकल पड़े.

उस को देख कर मन में सवालों का सैलाब घुमड़ रहा था. पर तमाम रास्ते हम में कोई बात न हुई. वह मुंबई वापस क्यों आ गई? लखनऊ में उस के साथ कोई हादसा तो नहीं हुआ? वह मु झ से कौन सी जरूरी बात करना चाहती है? आदि तमाम जिज्ञासाएं थीं.

संकरी गलियों से गुजरते हुए आखिर हम एक मकान के सामने जा कर रुके, जिस के दरवाजे पर ताला लगा हुआ था. नसीम ने बड़ी खुफिया निगाह से इधरउधर देखा फिर चाबी मु झे थमाती हुई बोली, ‘‘आप दरवाजा खोल कर अंदर चले जाइए. मैं बाद में आती हूं. पर दरवाजा अंदर से बंद न करिएगा,’’ और मैं ने देखा कि वह जल्दी से बगल वाली दूसरी गली के मोड़ पर छिप गई.

मैं ताला खोल कर अंदर तो आ गया पर उस के इस तरह से अपनी मौजूदगी को पोशीदा रखने और सहमे हुए बरताव से मैं हैरत में था और चौकन्ना भी.

चंद मिनटों में ही वह अंदर आ गई. मैं तब तक खड़ा ही था और उस छोटे से घर को देख रहा था. पुराने ढंग का मकान था जो करीबकरीब खंडहर सा हो चला था. सिर्फ एक छोटा सा कमरा, उस से जुड़ा टौयलेट और दूसरी तरफ रसोई जो इतनी छोटी थी कि पैंट्री ही ज्यादा लगती थी. कमरे में 1 बैड, 2 कुरसियां, 1 मेज,

1 छोटी सी अलमारी और दीवार पर टंगा आईना. बस, कुल जमा यही था उस घर का जुगराफिया.

वह कुछ बात शुरू करे या मेरी उत्सुकताओं का जवाब दे, मैं ने उस से पूछा, ‘‘यह घर तो डाक्टर के क्लीनिक के एकदम पीछे ही था, फिर गलियोंगलियों इतना घुमाफिरा कर तुम क्यों लाईं?’’

वह जवाब न दे कर सिर्फ मुसकराई, फिर बोली, ‘‘सर, आप खुद सब सम झ जाएंगे. फिलहाल मैं चाय बना कर लाती हूं. आप वहां बैठेबैठे बोर हो चुके होंगे और आगे भी जब मैं अपनी कहानी सुनाऊंगी तो और भी बोर होंगे.’’

बोर होने से कहीं ज्यादा मैं उत्सुकता के तूफान में घिरा हुआ था. पता नहीं वह कौन सी मजबूरी है जो वह इतने खुफिया तरीके से रह रही है.

चाय  बना कर लाने में उसे ज्यादा देर नहीं लगी. चाय की चुस्कियों के साथ हम आमनेसामने बैठ गए. मैं ने एक सवालिया निशान वाली नजर उस पर उछाली, जिसे उस ने भांप लिया.

नसीम ने अपनी दास्तान सुनानी शुरू की, ‘‘2 साल मेरे ठीकठाक बीते. अकरम भी उसी अखबार में था, डेस्क पर नहीं, रिपोर्टर था. मु झे सिटी न्यूज संभालना था. हम जल्दी ही एकदूसरे के करीब आ गए. वह सजीला बांका जवान था. कोई भी उस से प्यार कर बैठता. एक दिन वह मेरे पास औफर ले कर आया कि मुंबई के सब से बड़े अखबार ने उसे बुलाया है और उस का एडिटर उस की पहचान का है. अगर हम दोनों ही मुंबई चलें तो हमारी जिंदगी ही बदल जाएगी. अपना कैरियर तो मैं भी बनाना चाहती थी, इसलिए उस की बात मु झे जंच रही थी, पर मेरा कहना था कि पहले हम निकाह कर लें, फिर मुंबई जाएं.’’

‘‘हां, तुम्हारा सोचना वाजिब था. पर वह उस पर क्या बोला?’’ मु झे भी अब उस की कहानी में रस आने लगा था.

‘‘पर वह हर बार यही कहता कि पहले हम नया जौब जौइन कर लें और मुंबई में सैटल हो लें, फिर वहीं निकाह कर लेंगे. मैं पूरी तरह उस के प्यार की गिरफ्त में आ चुकी थी, उस की बात मान कर हम लोग मुंबई चले आए. उसे तो औफर था ही, मु झे भी उसी अखबार में नौकरी मिल गई. जिंदगी ने रफ्तार पकड़ ली. वरली में हम ने एक फ्लैट भी ले लिया.’’

‘‘कैसे? इतनी जल्दी इतना पैसा कैसे आया?’’

‘‘यह सवाल मेरे मन में भी उठा था. उस ने कहा कि फ्लैट किराए पर लिया है. जब पैसा हो जाएगा, खरीद लेंगे. मैं उसे शिद्दत से प्यार करती थी, इसलिए सवालजवाब की गुंजाइश ही न थी. जो वह कहता, मैं उस पर यकीन कर लेती थी. वहां वह क्राइम बीट पर था. देर रात तक उस की ड्यूटी रहती. देर से लौटता और सुबह देर तक सोता रहता. तब तक मैं तो औफिस जा चुकी होती, पता नहीं, वह न जाने कितने बजे उठता. इस तरह जिंदगी चल रही थी. मैं बारबार निकाह जल्दी करने पर जोर देती पर वह हर बार टाल देता. हम लोग करीब होते जा रहे थे. एक रात नाजुक लमहों में मैं पूरी तरह समर्पित हो गई. तमाम प्रीकौशंस धरी की धरी रह गईं.’’

‘‘तुम ने किसी पल उसे रोका नहीं.’’

‘‘नहीं. मैं उस के प्यार में इस कदर डूब गई थी कि मैं खुद अपने ऊपर काबू नहीं रख सकी. पर अगली सुबह मैं ने जिद पकड़ ली कि कल ही हम निकाह कर लेंगे. उस ने कहा कि मैं आज ही मौलवी से बात करता हूं, हम अगली जुमेरात को निकाह कर लेंगे पर वह अगली जुमेरात कभी नहीं आई.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’ मैं ने पूछा.

‘‘वह कोई न कोई बहाना बना कर टाल जाता कि मौलवी नहीं मिला, एक बड़ी स्टोरी कर रहा हूं, सो वक्त नहीं मिल पा रहा है. वक्त मिलते ही जरूर सब इंतजाम कर डालूंगा…वगैरहवगैरह.

‘‘एक रोज मेरा औफ था. अकरम उस रात बहुत देर से लौटा था और ड्राइंगरूम में ही सोफे पर सो गया था, इसलिए उसे पता न था कि आज मैं घर पर हूं. करीब 11 बजे कौलबैल बजी. उस वक्त मैं किचन में थी और आटा गूंध रही थी. दरवाजा उसी ने खोला. जो आया था, उसे उस ने ड्राइंगरूम में बैठा लिया और देर तक वे आपस में बातें करते रहे. जब मैं खाली हुई तो देखने आई कि कौन आया है. यह भी कि उस के लिए चायनाश्ते का इंतजाम करूं. मैं ने परदे की आड़ से ही देखा, आने वाला कोई शेख था और उस के सामने मेज पर नोटों की गड्डियां रखी थीं. मैं एकाएक सकते में आ गई, पर जब वह चला गया तो मैं सामने आई.

‘‘अकरम मु झे घर में पा कर कुछ चौंका, फिर पूछा कि मैं आज इस वक्त घर पर कैसे हूं. मैं ने बताया कि आज मेरा वीकली औफ है और मैं ने दरियाफ्त करनी चाही कि कौन आया था. उस ने बताया कि शेख शारजाह का एक बड़ा बिजनैसमैन है. मैं उस के कारोबार पर फीचर कर रहा हूं, उसी के सिलसिले में आया था. वहां एक अखबार निकालना चाहता है, जिस का एडिटर मु झे

बनाएगा और तुम भी वहीं असिस्टेंट एडिटर बनोगी.

‘‘ ‘अच्छा,’ कह कर मेरी आंखें खुशी से चमक उठीं. पर मैं ने पूछा कि इतने सारे रुपए किसलिए? क्या वह फीचर करने का नजराना दे रहा है?

‘‘‘नहीं, शारजाह जाने के टिकट, वीजा वगैरह के खर्च के मद में हैं ये रुपए.’

‘‘अब किसी तरह के शक की गुंजाइश न थी.

‘‘मैं खुद भी बहुत खुश थी कि नई जगह जाने से और ज्यादा आजादी से काम करने का मौका मिलेगा. आननफानन अकरम ने सब तैयारी कर ली और एक दिन कोरियर वाला दरवाजे पर खड़ा था, टिकट और पासपोर्ट लिए. मैं खुशीखुशी दरवाजे पर पहुंची. पर यह क्या? डिलीवरी बौय ने सिर्फ मेरा टिकट और पासपोर्ट दिया. मैं सकते में आ गई, क्या सिर्फ अकेले मु झे जाना है? पूरा दिन मैं अकरम का मोबाइल मिलाती रही, पर वह हमेशा बंद मिला और रात को वह इतनी देर से आया कि मु झे अपने सवालों और जिज्ञासाओं के साथ ही सोना पड़ा. सुबह मु झे ड्यूटी पर जाना था और वह जैसे घोड़े बेच कर सो रहा था. आखिर, मु झ से रहा न गया तो उसे  झं झोड़ कर जगाना पड़ा. वह आंखें मलता हुआ उठा. जब मैं ने बताया कि सिर्फ मेरा टिकट आया है, तुम्हारा क्यों नहीं. क्या मैं अकेली जाऊंगी?

‘‘उस ने उनींदे स्वर में ही कहा कि अभी तुम जा कर सब ठीकठाक करोगी, मैं बाद में आऊंगा.’’

‘‘अरे, तुम ने कहा नहीं कि ठीकठाक करने तो पहले उसे जाना चाहिए, तुम्हें तो बाद में जाना चाहिए,’’ मैं बोला.

‘‘जी हां सर, मैं ने उस से यही सवाल किया था, जिस का जवाब दिया कि उसे अभी यहां कई काम निबटाने हैं और दफ्तर वाले उसे एकदम छोड़ने को तैयार नहीं हैं. उस ने आगे कहा कि मैं बेफिक्र हो कर जाऊं. वे लोग अच्छी तरह मेरा खयाल रखेंगे. और मैं निरुत्तर हो गई.’’

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. मैं चौंका लेकिन उस ने बेफिक्री से कहा, ‘‘बाई होगी, सर. वह इसी तरह दस्तक देती है.’’

हां, बाई ही थी. पहले दरवाजे की दरार से उस ने देखा, फिर बड़ी एहतियात से इधरउधर देखते हुए दरवाजा खोला.

एक कमसिन लड़की थी, जो तुरंत अंदर दाखिल हुई और चोर निगाह से मु झे देखते हुए अपने काम में लग गई.

नसीम ने उसे बताया कि मैं उस का टीचर रहा हूं और मु झ से कहा कि उस लड़की का नाम रेशमा है. वह दो वक्त आती है और भरोसे की है. वह घर का ही नहीं, उस का भी बहुत खयाल रखती है.

‘‘सर, आप मेरी दास्तान सुनतेसुनते ऊब गए होंगे,’’ फिर रेशमा से मुखातिब हो कर बोली, ‘‘रेशमा, पहले चाय बना लो. तुम भी पी लेना.’’

लड़की स्मार्ट थी. आननफानन चाय बना लाई और एक तिपाई खिसका कर बड़ी नफासत से हम दोनों के बीच रख दी.

‘‘क्या फिर तुम शारजाह गईं?’’ चाय का?घूंट भरते हुए मैं ने नसीम से पूछा.

‘‘कहां, सर?’’ उस ने बातों का सिलसिला पकड़ते हुए शुरू किया, ‘‘अगले दिन मु झे पता लगा कि मैं प्रैग्नैंट हूं. डाक्टर से तसदीक करा लेने के बाद जब मैं ने उसे यह खबर दी तो सुनते ही उस ने माथा पीट लिया और  झुं झला कर बोला, ‘अरे, तुम ने तो सारा प्लान ही चौपट कर दिया.’

‘‘मैं सकते में आ गई, बोली, ‘कौन सा प्लान? तुम को तो खुश होना चाहिए कि तुम बाप बनने वाले हो.’ वह बोला, ‘पर हम अभी बच्चा अफोर्ड नहीं कर सकते. फिर तुम्हें तो अगले जुमे को शारजाह जाना है. वहां काफी काम होगा. ऐसी हालत में तुम सब कैसे कर सकोगी?’

‘‘ ‘क्यों नहीं कर पाऊंगी? फिर अभी तो शुरुआत है और हफ्ते दो हफ्ते में तो तुम भी आ ही जाओगे,’ नसीम ने कहा.

‘‘ ‘हां, पर तुम्हें कैसे बताऊं कि तुम्हारे लिए वहां कितना काम है,’ वह बोला.

‘‘मैं उस का मतलब नहीं सम झ पाई. उस ने जोर दे कर कहा कि ऐसे में अब यही रास्ता बचा है कि मैं अबौर्शन करा लूं. उस की इस बात से तो मैं थोड़ा घबरा गई. मेरे मना करने पर तो वह मु झे मारने को भी तैयार हो गया. मु झे उसी समय लगने लगा कि मैं ने उसे ले कर जो सपने बुने थे, वे सब जमींदोज होने को हैं.

‘‘मेरी एक न चली और मु झे अबौर्शन कराना ही पड़ा. उसी में कुछ कौंप्लिकेशंस हो गए, जिन की वजह से मु झे इलाज कराना पड़ रहा है. उसी सिलसिले में मु झे डाक्टर के पास जाना पड़ रहा है, जहां आप से मुलाकात हुई.’’

‘‘अब कैसी हो?’’ मैं ने दरियाफ्त करना जरूरी सम झा.

‘‘अब काफी कुछ ठीक हूं.’’

काम करने वाली लड़की आई और चाय के कप उठाती हुई नसीम से पूछा, ‘‘अब, मैं जाऊं?’’

नसीम ने इशारे से इजाजत दे दी. इस बार मैं ने रेशमा को नजदीक से देखा. सचमुच वह आम मेड जैसी नहीं लगती थी. काफी सलीकेदार थी और भरसक सूफियाना सजधज के साथ काम पर आई थी. उस ने एक भरपूर नजर मु झ पर डाली और बड़ी एहतियात से इधरउधर देखते हुए दरवाजा खोला और तेजी से निकल गई.

रेशमा के जाने के बाद नसीम ने अपनी बात फिर शुरू की. उस ने बताया कि अबौर्शन के बाद उसे बैडरैस्ट की सलाह दी गई है, इसलिए उसे मजबूरन काम से छुट्टी लेनी पड़ी.

उस ने आगे बताया, ‘‘एक दिन दोपहर को मु झे कुछ सुनाई पड़ा कि कोई आया हुआ है और अकरम उस से बात कर रहा है. थोड़ी देर बाद आने वाले की आवाज तेज हो गई कि जैसे वह अकरम को डांट रहा हो. उन की बातों के चंद लफ्ज मेरे कानों में पड़े, जिन से मु झे पता लगा कि उन की बातों के केंद्र में मैं हूं.

‘‘कोशिश कर के मैं दरवाजे तक खिसक आई और उन की बातें सुनने लगी. मैं जैसे आसमान से गिरी. जो सुना, उस पर एकाएक यकीन न हुआ. मैं ने अकरम को पूरी ईमानदारी से प्यार किया था और उस पर मैं अपने से भी ज्यादा भरोसा करने लगी थी. सोच भी नहीं सकती थी कि वह मेरे साथ ऐसा छल कर सकता है. वह मु झे उस शेख को बेच चुका था. नोटों का भारी बंडल और शारजाह मु झे अकेले भेजने की तैयारी…सब मेरी आंखों में घूम गया. मेरी आंखों के आगे अंधेरा घिर आया और मैं अपना सिर पकड़ कर बैठ गई. हाय, अब मैं क्या करूं, कैसे इन के चंगुल से बचूं, मैं कुछ सोच न पा रही थी. कमजोरी भी इतनी थी कि एकदम भाग भी नहीं सकती थी. और भाग कर जाऊंगी कहां? लखनऊ लौट नहीं सकती थी. वह वहां से मु झे फिर पकड़ लाएगा.’’

‘‘फिर कहां जाओगी? मुंबई में रहीं तो कब तक बच पाओगी,’’ मैं ने भी अपनी फिक्र जाहिर की.

‘‘जी सर, मुंबई में अब नहीं रह पाऊंगी. मर्ुिशदाबाद में मेरी एक फूफी हैं, दूर के रिश्ते की. उन का उसे पता नहीं है. वहां वे मु झे काम भी दिलवा रही हैं.’’

‘‘हां. यह ठीक रहेगा, पर तुम वहां से निकली कैसे?’’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘कुछ दिन मैं ने ऐसा बरताव किया कि जैसे मु झे कुछ इल्म ही न हो. अनजान ही बनी रही. इन डाक्टर साहब का पता मु झे मालूम था. ये दूर के रिश्ते में मेरे मामू लगते हैं. इन का इलाज तो चल ही रहा था. मैं टैक्सी ले कर अकेले ही आती थी. एक दिन आई तो लौटी ही नहीं. यह जगह मैं ने चुपचाप तय कर ली थी. तब से यहीं छिप कर रहती हूं. मु झे पता है कि वह मु झे तलाश रहा है.

‘‘एक दिन डाक्टर साहब के क्लीनिक के पास भी दिखाई दिया था. मैं बहुत डर गई थी, पर न जाने कैसे बच गई. एक दिन मैं ने दरवाजे की दरार से उसे यहां भी देखा था. आसपास में पूछताछ कर रहा था. मैं किसी से मिलती नहीं हूं, इसलिए मु झे कोई जानता नहीं है. तब से ऐसे ही डरीछिपी रहती हूं और पूरी एहतियात बरतती हूं. अब थोड़ी ताकत आ गई है, अब आगे की सोच सकती हूं. पर पहले मैं उसे सबक सिखाना चाहती हूं. उसे रंगेहाथ पकड़वाना चाहती हूं. मैं ने जितनी शिद्दत से उसे प्यार किया था, अब उतनी ही ज्यादा उस से नफरत करती हूं. मु झे पता लगा है कि वह क्राइम बीट पर काम करतेकरते लड़कियां सप्लाई करने का धंधा करने लगा है. उस ने बहुत अच्छे कौंटैक्ट बना लिए हैं. खूब कमाया है. मु झे शक तो शुरू से ही था, अब कनफर्म हो गया कि वरली वाला फ्लैट उसे किसी ने गिफ्ट किया है.’’

‘‘हो सकता है, वैसे वरली में तो किराए पर रहना भी हर कोई अफोर्ड नहीं कर सकता,’’ मैं ने कहा.

‘‘ठीक कहा आप ने, सर इसीलिए तो मु झे पहले दिन ही शक हुआ था, लेकिन मैं उस से इस कदर प्यार करती थी कि यकीन न करने का सवाल ही नहीं उठता था. सर, मैं ने एक प्लान बनाया है. बस, उस में मु झे आप की मदद की जरूरत पड़ेगी. आप से इमदाद की गुजारिश तो कर ही सकती हूं न?’’

‘‘क्यों नहीं?’’ मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारे बिना बताए ही मैं सम झ गया कि तुम्हारा प्लान क्या है.’’

वह मुसकराई और बोली, ‘‘आप ने मेरी मेड रेशमा को तो अभी देखा न? वह पूरे तौर पर मेरे साथ है.’’

‘‘मैं ने कयास लगा लिया है कि तुम क्या करने वाली हो. पर तुम कोई बड़ा जोखिम उठाना चाहती हो. यह सब उतना आसान नहीं है जितना तुम सम झ रही हो. मैं तुम्हें डिसकरेज नहीं करना चाहता पर तुम्हें आगाह जरूर करना चाहता हूं कि इस में न सिर्फ तुम्हारे बल्कि रेशमा के लिए भी बड़ा खतरा है. अकरम कोई अकेला नहीं है, ऐसे अकरम एक नहीं कई हैं. पूरा का पूरा माफिया है. तुम किसकिस से लड़ोगी?’’

‘‘तो मैं क्या करूं, सर? क्या चुप बैठ कर उसे मनचाहा करने दूं? नहीं सर, उसे सबक सिखाना तो जरूरी है.’’

‘‘मैं तो फिर भी यही सोचता हूं कि तुम्हें जल्द से जल्द मुर्शिदाबाद चले जाना चाहिए. तुम्हारे प्लान में बड़ा खतरा है. मान लो, तुम इस में कामयाब भी हो गईं तो तुम्हें हासिल क्या होगा? और अगर नाकामयाब रहीं तो तुम्हारा जीना तक मुश्किल हो सकता है.’’

‘‘मैं सम झ रही हूं, सर, और यह भी कि आप को अपनी इज्जत का खयाल है. नहीं, मैं आप पर आंच नहीं आने दे सकती. आप बेफिक्र रहें. लेकिन क्या डर कर बैठना ठीक होगा? किसी न किसी को तो पहल करनी होगी. पत्रकारिता के सिद्धांत पढ़ाते वक्त आप ने भी तो यही सिखाया है, सर.’’

मु झे एकबारगी कोई जवाब नहीं सू झा, फिर भी बोला, ‘‘तुम अकेली जान क्या कर लोगी? फिर हमें प्रैक्टिकल होना चाहिए. सब अच्छी तरह सोच लो, तभी कोई कदम उठाना.’’

‘‘जी, मैं इस पर कुछ और सोचती हूं.’’

मैं ने उठते हुए कहा, ‘‘मेरा मोबाइल नंबर लिख लो. जब भी मेरी जरूरत पड़े, मैं आ जाऊंगा और जो हो सकेगा, करूंगा,’’ दरवाजे तक पहुंचतेपहुंचते फिर कहा, ‘‘बहुत एहतियात रखना.’’

‘‘जी, सर,’’ वह दरवाजे तक आई.

कई दिन तक उस का कोई फोन नहीं आया. मैं ने सम झ लिया कि शायद उस ने अपना खयाल बदल लिया होगा और मुर्शिदाबाद चली गई होगी. एक दिन उस घर तक भी गया, जहां वह मु झे ले गई थी, पर दरवाजे पर ताला लगा था. दरार से  झांका तो अंदर कुछ नजर नहीं आया.

Husband Wife Comedy : श्रीमतीजी की अभासी दुनिया

Husband Wife Comedy : पिछले2-3 महीनों से श्रीमतीजी को न जाने व्हाट्सऐप का क्या शौक लगा है कि रातरात भर बैठ कर मैसेज भेजती रहती हैं. कभी अचानक नींद खुले तो देख कर डर जाएं कि वे हंस रही हैं.

उस रात भी हम देख कर घबरा कर पूछ बैठे, ‘‘क्यों क्या बात है?’’

‘‘एक जोक आया है, गु्रप में शामिल हूं न तो फोटो और मैसेज आते रहते हैं. सुनाऊं?’’ श्रीमतीजी ने रात को 2 बजे उत्साहित स्वर में पूछा.

हम ने ठंडे स्वर में कहा, ‘‘सुना दो.’’

वे सुनाने लगीं. जब खत्म हो गया तो हम ने उत्साह बढ़ाते हुए कहा, ‘‘बहुत बढि़या है.’’

‘‘एक प्रेरक कथा भी आई है. उसे भी सुनाऊं?’’ और फिर हमारी मरजी जाने बिना शुरू हो गईं.

अचानक हमारी नींद खुली. श्रीमतीजी हमें झकझोर रही थीं. हम घबरा गए. पूछा, ‘‘क्यों क्या हुआ?’’

‘‘कहानी कैसी लगी?’’

‘‘कौन सी?’’

‘‘जो मैं सुना रही थी.’’

‘‘सौरी डियर हमें नींद आ गई थी.’’

‘‘मैं कब से पढ़पढ़ कर सुना रही थी,’’ कुछ नाराजगी भरे स्वर में श्रीमतीजी ने कहा.

‘‘डियर रात के 2 बजे इनसान सोएगा नहीं तो सुबह काम कैसे करेगा?’’ हम ने अपनी आंखें मलते हुए कहा.

‘‘तुम्हें अपनी श्रीमतीजी के द्वारा सुनाई जा रही कहानी की बिलकुल चिंता नहीं है,’’ वे कैकेई की तरह क्रोध धारण कर के बोलीं.

‘‘अच्छा, सुना दो,’’ कह कर हम उठ बैठे और वे बिना सिरपैर की कथा का मोबाइल पर देखदेख कर वाचन करने लगीं. 3 बजे तक हम जागे और सुबह कार्यालय लेट पहुंचे.

हमें यह देख कर आश्चर्य हो रहा था कि जो श्रीमतीजी 2 माह पहले तक हम से बातचीत करती थीं. हमारे कार्यालय से लौट आने पर नाश्ते की, चाय की बातें करती थीं वे अचानक इतनी कैसे बदल गईं? हमेशा वे अपने मोबाइल पर बैठ कर न जाने किसकिस को मैसेज करती रहती थीं. नैट और मोबाइल का जो भी चार्ज लगता वह हमारी जेब से जा रहा था. अब तो नाश्ता भी हमें खुद निकालना पड़ता था. भोजन में वह पहले जैसा स्वाद नहीं रहा था. लगता था खानापूर्ति के लिए भोजन पका दिया गया है. हम अपना माथा ठोंकने के अलावा और कर ही क्या सकते थे?

हम ने जब अपनी सासूमां से यह बात शेयर की तो उन्होंने कहा, ‘‘बेबी को डांटना नहीं, बात कर के देख लें.’’

सासूमां के लिए हमारी प्रौढ श्रीमतीजी अभी तक बेबी ही थीं. खैर, हम ने विचार किया कि हम इस विषय पर चर्चा जरूर करेंगे.

एक छुट्टी के दिन हम ने श्रीमतीजी से कहा, ‘‘यह आप दिन भर इस स्मार्ट फोन में क्याक्या करती रहती हैं? आंखें खराब हो जाएंगी.’’

‘‘नहीं होंगी… एक काम करो न… आप भी यह ले लो और हमारे ग्रुप में शामिल हो जाओ… सच में हमारे दोस्तों का एक बहुत शानदार ग्रुप है. हम खूब मजे करते हैं. खूब बातें करते हैं… क्या आविष्कार बनाया गया है यह मोबाइल का… यह व्हाट्सऐप का?’’ श्रीमतीजी अपने में मगन कहे जा रही थीं.

हम उन की बातें सुन कर अपना माथा ठोंकने के अलावा क्या करते. हम जब औफिस से लौटते तो वे हमें अपने आभासी मित्रों (जाहिर है महिला मित्रों) की ढेर सी बातें बतातीं. हम उन से कहते, ‘‘इस आभासी दुनिया में सब झूठे हैं.’’

लेकिन वे मानने को तैयार नहीं थीं.

हमारा वैवाहिक जीवन पूरी तरह से बरबादी की ओर अग्रसर था. आखिर हम करें तो क्या करें? हमें कोई उपाय दूरदूर तक दिखाई नहीं दे रहा था.

शनिवार की रात को जब हम बिस्तर पर पहुंचे तो श्रीमतीजी ने बहुत प्रेम से हम से कहा, ‘‘जानते हो…?’’

‘‘क्या?’’

‘‘इस व्हाट्सऐप से बहुत अच्छे लोगों से मुलाकात, बातचीत, दोस्ती हो जाती है.’’

‘‘अच्छा?’’ हम ने कोई रुचि नहीं ली.

‘‘बहुत अमीर और बहुत पहुंच वाली महिलाओं से बातचीत हो जाती है,’’ श्रीमतीजी कहे जा रही थीं.

हम चुप थे.

‘‘मैं ने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मेरे संसार में इतने सारे ग्रुपों में डेढ़ हजार दोस्तों की लिस्ट होगी.’’

‘‘जिस के इतने दोस्त हों उस का कोई भी दोस्त नहीं होता. दोस्त तो मात्र जीवन में 1 या 2 ही होते हैं, समझीं?’’ हम ने चिढ़े स्वर में कहा.

‘‘आप तो जलते हो.’’

‘‘हम क्यों जलने लगे?’’

‘‘मेरे सब फ्रैंड अच्छे परिवारों से हैं और अमीर हैं.’’

‘‘तो हम क्या करें?’’ हम चिढ़ गए थे.

‘‘मैं तो एक विशेष बात आप को बता रही थी.’’

‘‘कैसी विशेष बात?’’ हमारे कान खड़े हो गए थे.

‘‘मेरी 2-3 सहेलियां कल मुझ से मिलने आ रही हैं. वे सब बहुत अमीर हैं.’’

‘‘तो हम क्या करें?’’

‘‘प्लीज, कल आप बाजार से शानदार नाश्ता ले आना. कुछ मैं बना लूंगी… जानते हो हम पहली बार मिलेंगी… वाह कितने रोमांचक होंगे वे क्षण जब एकदम अपरिचित सहेलियों से भेंट होगी.’’

‘‘वे कहां रहती हैं?’’

‘‘यहीं भोपाल की ही हैं.’’

‘‘अच्छा, तो कल उन की पार्टी है.’’

‘‘पार्टी ही समझ लो. वे 3 आ रही हैं, फिर मैं भी उन से मिलने जाऊंगी. जीवन एकदूसरे से मिलने, एकदूसरे के विचारों को जानने का ही तो नाम है,’’ श्रीमतीजी ने किसी चिंतक की तरह कहा.

‘‘प्लीज, हमें सो जाने दो. जानती हो न महीने के आखिरी दिन चल रहे हैं और आप को पार्टी देने की सूझ रही है.’’

‘‘आप चिंता न करो. जो भी खर्च होगा मैं पेमैंट कर दूंगी.’’

‘‘हम पेमैंट करें चाहे आप, लेकिन खर्च तो अपना ही होगा न डियर? इस आभासी दुनिया से बाहर आओ… इस में कुछ नहीं रखा है,’’ हम ने कुछ चिढ़ते हुए कहा.

‘‘लेकिन वे सब तो कल आ रही हैं?’’

‘‘आने दो, हम ताला लगा कर घूमने चले जाएंगे.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. यह तो अपने वचन से पलट जाना हुआ. मैं कदापि ऐसा नहीं कर सकती,’’ श्रीमतीजी ने हम से दोटूक शब्दों में कहा.

‘‘फिर बताओ क्या करना है?’’

‘‘उन के लिए शानदार नाश्ते की व्यवस्था कर दो.’’

‘‘एक बार सोच लो, जिस आभासी दुनिया (फेसबुक) से आप मिली नहीं, जानती नहीं उसे क्यों और किसलिए निमंत्रण दे रहीं?’’ हम ने झल्लाते हुए कहा.

‘‘प्लीज, इस बार देखते हैं, अगर यह अनुभव खराब रहा तो मैं हमेशा के लिए व्हाट्सऐप से दूर हो जाऊंगी,’’ श्रीमतीजी ने हमें आश्वस्त करते हुए कहा.

श्रीमती सुबह जल्दी उठ गईं. ड्राइंगरूम ठीक किया, नाश्ता तैयार किया. फिर हमें उठा कर कहने लगीं, ‘‘उन का 10 बजे तक आना होगा. आप बाजार जा कर सामान ले आओ,’’ और फिर सामान की एक लंबी लिस्ट हमें थमा दी.

हम विचार करने लगे कि यह नाश्ते की लिस्ट है या पूरे महीने के राशन की है? जो फल हम ने कभी खाए नहीं, जिन मिठाइयों के नाम हम ने सुने नहीं थे वे सब उस लिस्ट में मौजूद थीं. कुछ नोट हमारे हाथ पर रख दिए. हम अपना पुराना स्कूटर ले कर बाजार निकल गए.

आटोरिकशा में सारा सामान रख कर हम घर आ गए.

श्रीमतीजी खुशी से हम से लिपट गईं. ऐसा लगा जैसे आम के फलदार वृक्ष पर नागफनी की बेल फैल गई हो. हम ने स्वयं को बचा कर दूर किया और अपने कमरे में जा पहुंचे.

श्रीमतीजी किचन में सामान को सजाने लगी थीं. हमारे जीवन का यह प्रथम अनुभव था जहां जान न पहचान और सलाम की प्रक्रिया हो रही थी. हम उन की व्यग्रता को देख रहे थे. थोड़ी देर बाद उन के मोबाइल पर संदेश आया, ‘‘मकान खोज रहे हैं… मिल नहीं रहा है.’’

इधर से श्रीमतीजी ने पूरा दिमाग लगा कर भारत का नक्शा उन्हें बताते हुए कहा, ‘‘मैं घिस्सू हलवाई की दुकान पर इन्हें लेने भेज रही हूं.’’

घिस्सू हलवाई महल्ले का प्रसिद्ध हलवाई था. श्रीमतीजी ने हम पर नजर डाली. हम बिना कुछ कहे अपने स्कूटर की तरफ चल दिए.

श्रीमतीजी उन्हें मोबाइल पर फोन कर के हमारे रंगरूप के विषय में, कपड़ों के विषय में विस्तार से जानकारी दे रही थीं ताकि उन्हें हमें पहचानने में कोई दिक्कत न हो. हम स्कूटर ले कर घिस्सू हलवाई की दुकान पर खड़े हो गए.

तभी एक काली महंगी कार आ कर रुकी और उस में बैठे ड्राइवर ने हमें देख कर पूछा, ‘‘आप ही चपड़गज्जूजी हैं?’’

‘‘जी हां, हम ही हैं.’’ हम ने घबराए स्वर में कहा.

‘‘आप के घर जाना है.’’

‘‘जी, हम लेने ही तो आए हैं,’’ हम ने कहा. अंदर कौन है, नहीं जान पाया, क्योंकि गाड़ी के अंदर कांच के ऊपर परदे चढ़े थे.

अब हम घिसेपिटे स्कूटर पर आगेआगे चल रहे थे और वे महंगी कार में हमारे पीछेपीछे.

कुछ ही देर बाद हम ने स्कूटर रोक दिया, क्योंकि आगे गली में तो कार जा नहीं सकती थी. हम ने कहा, ‘‘यहां से पैदल चलना होगा,’’ और फिर हम ने अपना स्कूटर एक दीवार से सटा कर खड़ा कर दिया.

तभी कार का दरवाजा खुला. 3 हट्टीकट्टी, गहनों से लदीफंदी, महंगे कपड़ों में, फिल्मी अंदाज में मेकअप किए उतरीं. हमारा दिल तो धकधक, तक धिनाधिन होने लगा था. हमें पहली बार अपनी श्रीमतीजी पर गर्व हो आया कि वाह क्या अमीरों से दोस्ती की है.

हम किसी पालतू कुत्ते की तरह दुम हिलाते, कूंकूं मुसकराते चल रहे थे. महल्ले की खिड़कियां खुल रही थीं. सब बहुत आश्चर्य से देख रहे थे कि इन छछूंदरों के घर ये अमीर क्या करने आए हैं…? हम उन्हें अपने गरीबखाने पर लाए.

श्रीमतीजी दरवाजे पर ही मिल गईं. हम ने अनुभव किया कि वे उतनी खुश नहीं थीं जितनी होनी चाहिए थीं. फिर भी मुसकरा कर अंदर ड्राइंगरूम में लाईं. पंखा चालू किया. तीनों इधरउधर देख रही थीं कि क्या एसी नहीं है?

सच तो यही है कि लोगों की अमीरी देख कर ही स्वयं की गरीबी का एहसास होता है. श्रीमतीजी ने तत्काल उन्हें पानी पीने को दिया. श्रीमतीजी का व्यवहार कुछ ऐसा था कि आभासी दुनिया वाली तुरंत चली जाएं. शायद इसलिए भी कि श्रीमतीजी को अपनी निर्धनता का कटु एहसास हो रहा होगा. कुल जमा चंद बातचीत के बाद नाश्ता कर वे जाने को उठ गईं. विदाई के समय तो हमारा सामना होना जरूरी था. हम देख रहे थे कि श्रीमतीजी अत्यधिक बेचैन हैं. क्यों, यह हम नहीं जान पाए थे. ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ये जल्दी चली जाएं. हम भी बागड़ बिल्ले की तरह उपस्थित हो कर विदाई बेला में खड़े रहना चाहते थे.

‘‘अच्छा जीजाजी चलते हैं,’’ एक मोटी सी फटी आवाज कानों में आई.

‘‘जीजी,’’ हम ने घबराए स्वर में कहा.

हम उन्हें छोड़ने जा रहे थे तो दूसरी ने कहा, ‘‘बस भी कीजिए… हम चली जाएंगी,’’ उस की आवाज भी कुछ विचित्र सी थी.

वे चली गईं तो श्रीमतीजी ने माथे का पसीना पोंछा. अचानक हमें बात समझ में आई और फिर हम जोर से हंस पड़े, ‘‘हा…हा…हा…’’

‘‘बस भी करो,’’ श्रीमतीजी नाराजगी भरे स्वर में बोलीं.

‘‘तो ये थीं आप की किन्नर सहेलियां,’’ कह हम फिर जोर से हंसने लगे.

‘‘उन्होंने मुझ से यह बात छिपा रखी थी,’’ श्रीमतीजी ने सफाई दी.

‘‘तो ऐसी सहेलियां होती हैं तुम्हारी आभासी दुनिया की,’’ हम ने कहा और फिर पेट पकड़ कर हंसने लगे.

अब श्रीमतीजी को बहुत क्रोध आ गया. वे जोर से नाराजगी भरे स्वर में कहने लगीं, ‘‘क्यों किन्नर इनसान नहीं हैं? इन की इच्छा दोस्ती करने की, सहेली बनाने की, हम जैसे सामान्यों से बात करने की, सामान्य व्यक्तियों के घरों में आनेजाने की इच्छा नहीं होती है? हम इन्हें हंसने वाली चीज समझ कर कब तक इन का मजाक उड़ाते रहेंगे? हमें इन की प्रौब्लम समझनी होगी, इन्हें भी प्लेटफार्म देना होगा जहां ये इज्जत के साथ, सामान्य व्यक्तियों की तरह रह सकें.’’

श्रीमतीजी की ये बातें सुन हमारी हंसी गायब हो गई और हम यह सोचने को मजबूर हो गए कि जो कहा गया है वह सत्य है और इस पर हम सब को सोचने कीजरूरत है न कि हंसने की. श्रीमतीजी की इस परिपक्व सोच पर हमें उन पर गर्व हो आया. उन्होंने शतप्रतिशत सच कहा था.

Story For Girls : जब बहन ने ही छीन लिया शुभा का प्यार

Story For Girls : मां मुझ से पहले ही अपने दफ्तर से आ चुकी थीं. वह रसोईघर में शायद चाय बना रही थीं. मैं अपना बैग रख कर सीधी रसोईघर में ही पहुंच गई. मां अनमनी थीं. ऐसा उन के चेहरे से साफ झलक रहा था. फिर कुछ अनचाहा घटा है, मैं ने अनुमान लगा लिया. लड़के वालों की ओर से हर बार निराशा ही उन के हाथ लगी है. मैं ने जानबूझ कर मां की उदासी का कारण न पूछा क्योंकि दुखती रग पर हाथ धरते ही वे अपना धैर्य खो बैठतीं और बाबूजी को याद कर के घंटों रोती रहतीं.

मां ने मेरी ओर बिना देखे ही चाय का प्याला आगे बढ़ा दिया, जिसे थामे मैं बरामदे में कुरसी पर आ बैठी. मां अपने कमरे में चली गई थीं. विषाद से मन भर उठा. पिछले 4 साल से मां मेरे लिए वर की खोज में लगी थीं, लेकिन अभी तक एक अदद लड़का नहीं जुटा पाई थीं कि बेटी के हाथ पीले कर संतोष की सांस लेतीं.

मां अंतर्जातीय विवाह के पक्ष में नहीं थीं. अपने ब्राह्मणत्व का दर्प उन्हें किसी मोड़ पर संधि की स्थिति में ही नहीं आने देता था. मेरी अच्छीखासी नौकरी और ठीकठाक रूपरंग होते हुए भी विवाह में विलंब होता जा रहा था. जो परिवार मां को अच्छा लगता वह हमें अपनाने से इनकार कर देता और जिन को हम पसंद आते, उन्हें मां अपनी बेटी देने से इनकार कर देतीं.

शहर बंद होने के कारण मैं सड़क पर खड़ीखड़ी बेजार हो चुकी थी. कोई रिकशा, बस, आटोरिकशा आदि नहीं चल रहा था. घर से मां ने वनिता की मोपेड भी नहीं लाने दी, हालांकि वनिता का कालेज बंद था. मुझे दफ्तर पहुंचना था, कई आवश्यक काम करने थे. न जाती तो व्यर्थ ही अफसर की कोपभाजन बनती. इधरउधर देखा, कोई जानपहचान का न दिखा. घड़ी पर निगाह गई तो पूरा 1 घंटा हो गया था खड़ेखड़े. मैं सामने ही देखे जा रही थी. अचानक स्कूटर पर एक नौजवान आता दिखा. वह पास आता गया तो पहचान के चिह्न उभर आए. ‘यह तो शायद उदयन…हां, वही था. मेरे साथ कालेज में पढ़ता था, वह भी मुझे पहचान गया. स्कूटर रेंगता हुआ मेरे पास रुक गया.

‘‘उदयन,’’ मैं ने धीरे से पुकारा.

‘‘शुभा…तुम यहां अकेली खड़ी क्या कर रही हो?’’

‘‘बस स्टाप पर क्या करते हैं? दफ्तर जाने के लिए खड़ी थी, लेकिन लगता नहीं कि आज जा पाऊंगी?’’

‘‘आज कितने अरसे बाद दिखी हो तुम, शहर बंद न होता तो शायद आज भी नहीं…’’ कह कर वह हंसने लगा.

‘‘और तुम…बिलकुल सही समय पर आए हो,’’ कह कर मैं उस के पीछे बैठने का संकेत पाते ही स्कूटर पर बैठ गई. रास्ते भर उदयन और मैं कालेज से निकलने के बाद का ब्योरा एकदूसरे को देते रहे. वह बीकौम कर के अपना व्यवसाय कर रहा था और मैं एमकौम कर के नौकरी करने लगी थी. मेरा दफ्तर आ चुका था. वह मुझे उतार कर अपने रास्ते चला गया.

गोराचिट्टा, लंबी कदकाठी के सम्मोहक व्यक्तित्व का स्वामी उदयन कितने बरसों बाद मिला था. कालेज के समय कैसा दुबलापतला सरकंडे सा था. मैं उसे भूल कर दफ्तर के काम में उलझ गई. होश में तब आई जब छुट्टी का समय हुआ. ‘अब जाऊंगी कैसे घर लौट कर?’ सोचती हुई बाहर निकल ही रही थी कि सामने गुलमोहर के पेड़ तले स्कूटर लिए उदयन खड़ा दिखाई दिया. उस ने वहीं से आवाज दी, ‘‘शुभा…’’

‘‘तुम?’’ मैं आश्चर्य में पड़ी उस तक पहुंच गई.

‘‘तुम्हें काम था कोई यहां?’’

‘‘नहीं, तुम्हें लेने आया हूं. सोचा, छोड़ तो आया लेकिन घर जाओगी कैसे?’’

मैं आभार से भर उठी थी. उस दिन के बाद तो रोज ही आनाजाना साथ होने लगा. हम साथसाथ घूमते हुए दुनिया भर की बातें करते. एक दिन उदयन घर आया तो मां को  उस का विनम्र व्यवहार और सौम्य  व्यक्तित्व प्रभावित कर गए. छोटी बहन वनिता बड़े शरमीले स्वभाव की थी, वह तो उस के सामने आती ही न थी. वह आता और मुझ से बात कर के चला जाता. मैं वनिता को चाय बना कर लाने के लिए कहती, लेकिन वह न आती.

एक बात मैं कितने ही दिनों से महसूस कर रही थी. मुझे बारबार लगता कि जैसे उदयन कुछ कहना चाहता है, लेकिन कहतेकहते जाने क्या सोच कर रुक जाता है. किसी अनकही बात को ले कर बेचैन सा वह महीनों से मेरे साथ चल रहा था.

एक दिन उदयन मुझे स्कूटर से उतार कर चलने लगा तो मैं ने ही उसे घर में बुला लिया, ‘‘अंदर आओ, एक प्याला चाय पी कर जाना.’’ वह मासूम बालक सा मेरे पीछेपीछे चला आया. मां घर में नहीं थीं और वनिता भी कालेज से नहीं आई थी. सो चाय मैं ने बनाई. चाय के दौरान, ‘शुभा एक बात कहूं’ कहतेकहते ही उसे जोर से खांसी आ गई. गले में शायद कुछ फंस गया था. वह बुरी तरह खांसने लगा. मैं दौड़ कर गिलास में पानी ले आई और गिलास उस के होंठों से लगा कर उस की पीठ सहलाने लगी. खांसी का दौर समाप्त हुआ तो वह मुसकराने की कोशिश करने लगा. आंखों में खांसी के कारण आंसू भर आए थे.

‘‘उदयन, क्या कहने जा रहे थे तुम? अरे भई, ऐसी कौन सी बात थी जिस के कारण खांसी आने लगी?’’

सुन कर वह हंसने लगा, ‘‘शुभा…मैं तुम्हारे बिना नहीं रह…’’ अधूरा वाक्य छोड़ कर नीचे देखने लगा और मैं शरमा कर गंभीर हो उठी और लाज की लाली मेरे मुख पर दौड़ गई.

‘‘उदयन, यही बात कहने के लिए तो मैं न जाने कब से सोच रही थी,’’ धीरे से कह कर मैं ने उस के प्रेम निवेदन का उत्तर दे दिया था. दोनों अपनीअपनी जगह चुप बैठे रहे थे. लग रहा था, इन वाक्यों को कहने के लिए ही हम इतने दिनों से न जाने कितनी बातें बस ऐसे ही करे जा रहे थे. एकदूसरे से दृष्टि मिला पाना कैसा दूभर लग रहा था.

शाम खुशनुमा हो उठी थी और अनुपम सुनहरी आभा बिखेरती जीवन के हर पल पर उतर रही थी. मौसम का हर दिन रंगीन हो उठा था. मैं और उदयन पखेरुओं के से पंख लगाए प्रीति के गगन पर उड़ चले थे. हम लोग एक जाति के नहीं थे, लेकिन आपस में विवाह करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे.

झरझर बरसता सावन का महीना था. चारों ओर हरियाली नजर आ रही थी. पत्तों पर टपकती जल की बूंदें कैसी शरारती लगने लगती थीं. अकेले में गुनगुनाने को जी करता था. उदयन का साथ पा कर सारी सृष्टि इंद्रधनुषी हो उठती थी.

‘‘सोनपुर चलोगी…शुभा?’’ एक दिन उदयन ने पूछा था.

‘‘मेला दिखाने ले चलोगे?’’

‘‘हां.’’

मां हमारे साथ जा नहीं सकती थीं और अकेले उदयन के साथ मेरा जाना उन्हें मंजूर नहीं था. अत: मैं ने वनिता से अपने साथ चलने को कहा तो उस ने साफ इनकार कर दिया.

‘‘पगली, घर से कालेज और कालेज से घर…यही है न तेरी दिनचर्या. बाहर निकलेगी तो मन बहल जाएगा,’’ मैं ने उसे समझा कर तैयार कर लिया था. हम तीनों साथ ही गए थे. मैं बीच में बैठी थी, उदयन और वनिता मेरे इधरउधर बैठे थे, बस की सीट पर. इस यात्रा के बीच वनिता थोड़ाबहुत खुलने लगी थी. उदयन के साथ मेले की भीड़भाड़ में हम एकदूसरे का हाथ थामे घूमते रहे थे.

उदयन लगभग रोज ही हमारे घर आता था, लेकिन अब हमारी बातों के बीच वनिता भी होती. मैं सोचती थी कि उदयन बुरा मानेगा कि हर समय छोटी बहन को साथ रखती है. इसलिए मैं ने एक दिन वनिता को किसी काम के बहाने दीपा के घर भेज दिया था, लेकिन थोड़ी देर वनिता न दिखी तो उदयन ने पूछ ही लिया, ‘‘वनिता कहां है?’’

‘‘काम से गई है, दीपा के घर,’’ मैं ने अनजान बनते हुए कह दिया. उस दिन तो वह चला गया, लेकिन अब जब भी आता, वनिता से बातें करने को आतुर रहता. यदि वह सामने न आती तो उस के कमरे में पहुंच जाता. मैं ने उदयन से शीघ्र शादी करने को कहा था, लेकिन वह कहां माना था, ‘‘अभी क्या जल्दी है शुभा, मेरा काम ठीक से जम जाने दो…’’

‘‘कब करेंगे हम लोग शादी, उदयन?’’

‘‘बस, साल डेढ़साल का समय मुझे दे दो, शुभा.’’

मैं क्या कहती, चुप हो गई…मेरी भी तरक्की होने वाली थी. उस में तबादला भी हो सकता था. सोचा, शायद दोनों के ही हित में है. अब जब भी उदयन आता, वनिता उस से खूब खुल कर बातें करती. वह मजाक करता तो वह हंस कर उस का उत्तर देती थी. धीरेधीरे दोनों भोंडे मजाकों पर उतर आए. मुझ से सुना नहीं जाता था. आखिर कहना ही पड़ा मुझे, ‘‘उदयन, अपनी सीमा मत लांघो, उस लड़की से ऐसी बातें…’’

मेरी इस बात का असर तो हुआ था उदयन पर, लेकिन साली के रिश्ते की आड़ में उस ने अपने अनर्गल बोलों को छिपा दिया था. अब वह संयत हो कर बोलता था, फिर भी कहीं न कहीं से उस का अनुचित आशय झलक ही जाता. वनिता को मेरा यह मर्यादित व्यवहार करने का सुझाव अच्छा न लगा. मैं दिन पर दिन यही महसूस कर रही थी कि वनिता उदयन की ओर अदृश्य डोर से बंधी खिंची चली जा रही है. उदयन से कहा तो वह यही बोला था, ‘‘शुभा, यह तुम्हारा व्यर्थ का भ्रम है. ऐसा कुछ नहीं है जिस पर तुम्हें आपत्ति हो.’’

छुट्टी का दिन था, मां घर पर नहीं थीं. वनिता, दीपा के घर गई थी. अकेली ऊब चुकी थी मैं, सोचा कि घर की सफाई करनी चाहिए. हफ्ते भर तो व्यस्तता रहती है. मां की अलमारी साफ कर दी, फिर अपनी और फिर वनिता की. किताबें हटाईं ही थीं कि किसी पुस्तक से उदयन का फोटो मेरे पांव के पास आ गिरा. फोटो को देखते ही मेरा मन कैसी कंटीली झाड़ी में उलझ गया था कि निकालने के सब प्रयत्न व्यर्थ हो गए. लाख कोशिशों के बावजूद क्या मैं अपने मन को समझा पाई थी, पर मेरी आशंका गलत कहां थी? वनिता शाम को लौटी तो मैं ने उसे समझाने की चेष्टा की थी, ‘‘देख वनिता, क्यों उदयन के चक्कर में पड़ी है? वह शादी का वादा तो किसी और से कर चुका है.’’

जिस बहन के मुख से कभी बोल भी नहीं फूटते थे, आज वह यों दावानल उगलने लगेगी, ऐसा तो मैं ने सोचा भी नहीं था. वनिता गुस्से से फट पड़ी, ‘‘क्यों मेरे पीछे पड़ी हो दीदी, हर समय तुम इसी ताकझांक में लगी रहती हो कि मैं उदयन से बात तो नहीं कर रही हूं.’’

‘‘मैं क्यों ताकझांक करूंगी, मैं तो तुझे समझा रही हूं,’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘क्या समझाना चाहती हो मुझे, बोलो?’’

क्या कहती मैं? चुप ही रही. सोचने लगी कि आज वनिता को क्या हो गया है. इस का मुख तो ‘दीदी, दीदी’ कहते थकता नहीं था, आज यह ऐसे सीधी पड़ गई.

‘‘देख वनिता, तुझे क्या मिल जाएगा उदयन को मुझ से छीन कर,’’ मैं ने सीधा प्रश्न किया था.

‘‘किस से? किस से छीन कर?’’ वह वितृष्णा से भर उठी थी, ‘‘मैं ने किसी से नहीं छीना उसे, वह मुझे मिला है. फिर तुम उदयन को क्यों नहीं रोकतीं? मैं बुलाती हूं क्या उसे?’’ उस ने तड़ाक से ये वाक्य मेरे मुख पर दे मारे. अंधे कुएं में धंसी जा रही थी मैं. मां बुलाती रहीं खाने के लिए, लेकिन मैं सुनना कहां चाहती थी कुछ… ‘‘मां, सिर में दर्द है,’’ कह कर किसी तरह उन से निजात पा गई थी, लेकिन वह मेरे बहानों को कहां अंगीकार कर पाई थीं.

‘‘शुभा, क्या हुआ बेटी, कई दिन से तू उदास है.’’

मेरी रुलाई फूट पड़ी थी. रोती रही मैं और वे मेरा सिर दबाती रहीं. क्या कहती मां से? कैसे कहती कि मेरी छोटी बहन ने मेरे प्यार पर डाका डाला है…और क्या न्याय कर पातीं वे इस का. उन के लिए तो दोनों बेटियां बराबर थीं.

वनिता ने मेरे साथ बोलचाल बंद कर दी थी. उदयन ने भी घर आना छोड़ दिया था. हम दोनों बहनों की रस्साकशी से तंग आ कर वह किनारे हो गया था. मेरी रातों की नींद उड़ गई थी. अजीब हाल था मेरा. रुग्ण सी काया और संतप्त मन लिए बस जी रही थी मैं. दफ्तर में मन नहीं लगता था और घर में वनिता का गरूर भरा चेहरा देख कर कितने अनदेखे दंश खाए थे अपने मन पर, हिसाब नहीं था मेरे पास. तनाव भरे माहौल को मां टटोलने की कोशिश करती रहतीं, लेकिन उन्हें कौन बताता.

‘‘वनिता, तू ने मुझ से बोलना क्यों बंद कर रखा है?’’ एक दिन मैं हारी हुई आवाज में बोली थी. सोचा, शायद सुलह का कोई झरोखा मन के आरपार देखने को मिल जाए, समझानेबुझाने से वनिता रास्ते पर आ जाए क्योंकि मुझे लगता था कि मैं उदयन के बिना जी नहीं पाऊंगी.

‘‘क्या करोगी मुझ से बोल कर, मैं तो उदयन को छीन ले गई न तुम से.’’

‘‘क्या झूठ कह रही हूं?’’

‘‘बिलकुल सच कहती हो, लेकिन मेरा दोष कितना है इस में, यह तुम भी जानती हो,’’ उस का सपाट सा उत्तर मिल गया मुझे.

‘‘तो तू नहीं छोड़ेगी उसे?’’ मैं ने आखिरी प्रश्न किया था.

‘‘मुझे नहीं पता मैं क्या करूंगी?’’ कहती हुई वह घर से बाहर हो गई.

मैं ने इधरउधर देखा था, लेकिन वह कहीं नजर न आई. मुझे डर लगने लगा था. दौड़ कर मैं दीपा के घर पहुंची. वहां जा कर जान में जान आई क्योंकि वनिता वहीं थी.

‘‘तुम दोनों बहनों को क्या हो गया है? पागल हो गई हो उस लड़के के पीछे,’’ दीपा क्रोध में बोल रही थी. वह मुझे समझाती रही, ‘‘देखो शुभा, उदयन वनिता को चाहने लगा है और यह भी उसे प्यार करती है. ऐसी स्थिति में तू रोक कैसे सकती है इन्हें? पगली, तू कहां तक रोकबांध लगाएगी इन पर? यदि तू उदयन से विवाह भी कर लेगी तब भी इन का प्यार नहीं मिट पाएगा बल्कि और बढ़ जाएगा. जीवन भर तुझे अवमानना ही झेलनी पड़ेगी. तू क्यों उदयन के लिए परेशान है? वह तेरे प्रति ईमानदार ही होता तो यह विकट स्थिति आती आज?’’

रात भर जैसे कोई मेरे मन के कपाट खोलता रहा कि मृग मरीचिका के पीछे कहां तक दौड़ूंगी और कब तक? उदयन मेरे लिए एक सपना था जो आंख खुलते ही विलीन हो गया, कभी न दिखने के लिए.

एक दिन मां ने कहा, ‘‘बेटी, उदयन डेढ़ साल तक शादी नहीं करना चाहता था, अब तो डेढ़ साल भी बीत गया?’’ उन्होंने अंतर्जातीय विवाह की मान्यता देने के पश्चात चिंतित स्वर में पूछा था.

‘‘मां, अब करेगा शादी…वह वादा- खिलाफी नहीं करेगा.’’

शादी की तैयारियां होने लगी थीं. मैं ने दफ्तर से कर्ज ले लिया था. मां भी बैंक से अपनी जमापूंजी निकाल लाई थीं. कार्ड छपने की बारी थी. मां ने कार्ड का विवरण तैयार कर लिया था, ‘शुभा वेड्स उदयन.’

मैं ने मां के हाथ से वह कागज ले लिया. वह निरीह सी पूछने लगीं, ‘‘क्यों, अंगरेजी के बजाय हिंदी में कार्ड छपवाएगी?’’

‘‘नहीं, मां नहीं, आप ने तनिक सी गलती कर दी है…’’ ‘वनिता वेड्स उदयन’ लिख कर वह कागज मैं ने मां को लौटा दिया.

‘‘क्या…? यह क्या?’’ मां हक्की- बक्की रह गई थीं.

‘‘हां मां, यही…यही ठीक है. उदयन और वनिता की शादी होगी. मेरी मंजिल तो अभी बहुत दूर है. घबराते नहीं मां…’’ कह कर मैं ने मां की आंखों से बहते आंसू पोंछ डाले.

Breakup Story : धोखेबाज गर्लफ्रैंड

Breakup Story: ड्राइंगरूममें सोफे पर बैठ पत्रिका पढ़ रही स्मिता का ध्यान डोरबैल बजने से टूटा. दरवाजा खोलने पर स्मिता को बेटे यश का उड़ा चेहरा देख धक्का लगा. घबराई सी स्मिता बेटे से पूछ बैठी, ‘‘क्या हुआ यश? सब ठीक तो है?’’

बिना कुछ कहे यश सीधे अपने बैडरूम में चला गया. स्मिता तेज कदमों से पीछेपीछे भागी सी गई. पूछा, ‘‘क्या हुआ यश?’’

यश सिर पकड़े बैड पर बैठा सिसकने लगा. जैसे ही स्मिता ने उस के पास बैठ कर उस के सिर पर हाथ रखा वह मां की गोद में ढह सा गया और फिर फूटफूट कर रो पड़ा.

स्मिता ने बेहद परेशान होते हुए पूछा, ‘‘बताओ तो यश क्या हुआ?’’

यश रोए जा रहा था. स्मिता को कुछ समझ नहीं आ रहा था. उस का 25 साल का बेटा आज तक ऐसे नहीं रोया था. उस का सिर सहलाती वह चुप हो गई थी. समझ गई थी कि थोड़ा संभलने पर ही बता पाएगा. यश की सिसकियां रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं. कुछ देर बाद फिर स्मिता ने पूछा, ‘‘बताओ बेटा क्या हुआ?’’

‘‘मां, नविका से ब्रेकअप हो गया.’’

‘‘क्या? यह कैसे हो सकता है? नविका को यह क्या हुआ? बेटा यह तो नामुमकिन है.’’

यश ने रोते हुए कहा, ‘‘नविका ने अभी फोन पर कहा कि अब हम साथ नहीं हैं. वह यह रिश्ता खत्म करना चाहती है.’’

स्मिता को गहरा धक्का लगा. यह कैसे हो सकता है. 4 साल से वह, यश के पापा विपुल, यश की छोटी बहन समृद्धि नविका को इस घर की बहू के रूप में ही देख रहे हैं. इतने समय से स्मिता यही सोच कर चिंतामुक्त रही कि जैसी केयर नविका यश की करती है, वैसी वह मां हो कर भी नहीं कर पाती. इस लड़की को यह क्या हुआ? स्मिता के कानों में नविका का मधुर स्वर मां…मां… कहना गूंज उठा. बीते साल आंखों के आगे घूम गए. बेटे को कैसे चुप करवाए वह तो खुद ही रोने लगी. वह तो खुद ही इस लड़की से गहराई से जुड़ चुकी है.

अचानक यश उठ कर बैठ गया. मां की आंखों में आंसू देखे, तो उन्हें पोंछते हुए फिर से रोने लगा, ‘‘मां, यह नविका ने क्या किया?’’

‘‘उस ने ऐसे क्यों किया, यश? कल रात तो वह यहां हमारे साथ डिनर कर के गई. फिर रातोंरात ऐसी कौन सी बात हो गई?’’

‘‘पता नहीं, मां. उस ने कहा कि अब वह इस रिश्ते को और आगे नहीं ले जा पाएगी. उसे महसूस हो रहा है कि वह इस रिश्ते में जीवनभर के लिए नहीं बंध सकती. वह भी हम सब को बहुत मिस करेगी, उस के लिए भी मुश्किल होगा पर वह अपनेआप को संभाल लेगी और कहा कि मैं भी खुद को संभाल लूं और आप सब को उस की तरफ से सौरी कह दूं.’’

स्मिता हैरान व ठगी से बैठी रह गई थी. यह क्या हो रहा है? लड़कों की

बेवफाई, दगाबाजी तो सुनी थी पर यह लड़की क्या खेल खेल गई मेरे बेटे के साथ… हम सब की भावनाओं के साथ. दोनों मांबेटे ठगे से बैठे थे. स्मिता ने बहुत कहा पर यश ने कुछ नहीं खाया. चुपचाप बैड पर आंसू बहाते हुए लेटा रहा. स्मिता बेचैन सी पूरे घर में इधर से उधर चक्कर लगाती रही.

शाम को विपुल और समृद्धि भी आ गए. आते ही दोनों ने घर में पसरी उदासी महसूस कर ली थी. सब बात जानने के बाद वे दोनों भी सिर पकड़ कर बैठ गए. यह कोई आम सी लड़की और एक आम से लड़के के ब्रेकअप की खबर थोड़े ही थी. इतने लंबे समय में नविका सब के दिलों में बस सी गई थी.

इस घर से दूर नविका तो खुद ही नहीं रह सकती थी. घर में हर किसी को खुश करती थकती नहीं थी. विपुल के बहुत जोर देने पर यश ने सब के साथ बैठ कर मुश्किल से खाना खाया, डाइनिंगटेबल पर अजीब सा सन्नाटा था. समृद्धि को भी नविका के साथ बिताया एकएक पल याद आ रहा था. नविका से कितनी छोटी है वह पर कैसी दोस्त बन गई थी. कुछ भी दिक्कत हो नविका झट से दूर कर देती थी.

विपुल को भी उस का पापा कह कर बात करना याद आ रहा था. सब सोच में डूबे हुए थे कि यह हुआ क्या? कल ही तो यहां साथ में बैठ कर डिनर कर रही थी. आज ब्रेकअप हो गया. यह एक लड़के से ब्रेकअप नहीं था. नविका के साथ पूरा परिवार जुड़ चुका था. सब ने बहुत बेचैनी भरी उदासी से खाना खत्म किया. कोई कुछ नहीं बोल रहा था.

स्मिता से बेटे की आंसू भरी आंखें देखी नहीं जा रही थीं. उस के लिए बेटे को इस हाल

में देखना मुश्किल हो रहा था. रात को सोने

से पहले स्मिता ने पूछा, ‘‘यश, मैं नविका से

बात करूं?’’

‘‘नहीं मां, रहने दो. अब वह बात ही नहीं करना चाहती. फोन ही नहीं उठा रही है.’’

स्मिता हैरान. दुखी मन से बैड पर लेट तो गई पर उस की आंखों से नींद कोसों दूर विपुल के सोने के बाद बालकनी में रखी कुरसी पर आ कर बैठ गई. पिछले 4 सालों की एकएक बात आंखों के सामने आती चली गई…

यश और नविका मुंबई में ही एक दोस्त की पार्टी में मिले थे. दोनों की दोस्ती हो गई थी. नविका यश से 3 साल बड़ी थी, यह जान कर भी यश को कोई फर्क नहीं पड़ा था. वह नविका से बहुत प्रभावित हुआ था. नविका सुंदर, आत्मनिर्भर, आधुनिक, होशियार थी. अपनी उम्र से बहुत कम ही दिखती थी. स्मिता के परिवार को भी उस से मिल कर अच्छा लगा था.

चुटकियों में यश और समृद्धि के किसी भी प्रोजैक्ट में हैल्प करती. बेटे से बड़ी लड़की को भी उस की खूबियों के कारण स्मिता ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था. स्मिता और विपुल खुले विचारों के थे. नविका के परिवार में उस के मम्मीपापा और एक भाई था. एक दिन नविका ने स्मिता से कहा कि मां आप मुझे कितना प्यार करती हैं और मेरी मम्मी तो बस मेरे भाई के ही चारों तरफ घूमती रहती हैं. मैं कहां जा रही हूं, क्या कर रही हूं, मम्मीपापा को इस से कुछ लेनादेना नहीं होता. भाई ही उन दोनों की दुनिया है. इसलिए मैं जल्दी आत्मनिर्भर बनना चाहती हूं.

सुन कर स्मिता ने नविका पर अपने स्नेह की बरसात कर दी थी.

उस दिन से तो जैसे स्मिता ने मान लिया कि उस के 2 नहीं 3 बच्चे हैं. कुछ भी होता

नविका जरूर होती. कहीं जाना हो नविका साथ होती. यह तय सा ही हो गया था कि यश के सैटल हो जाने के बाद दोनों का विवाह कर दिया जाएगा.

एक दिन स्मिता ने कहा, ‘‘नविका, मैं सोच रही हूं कि तुम्हारे पेरैंट्स से मिल लूं.’’

इस पर नविका बोली, ‘‘रहने दो मां. अभी नहीं. मेरे परिवार वाले बहुत रूढि़वादी हैं. जल्दी नहीं मानेंगे. मुझे लगता कि अभी रुकना चाहिए.’’

यश तो आंखें बंद कर नविका की हर बात में हां में हां ऐसे मिलाता था कि कई बार स्मिता हंस कर कह उठती थी, ‘‘विपुल, यह तो पक्का जोरू का गुलाम निकलेगा.’’

विपुल भी हंस कर कहते थे, ‘‘परंपरा निभाएगा. बाप की तरह बेटा भी जोरू का

गुलाम बनेगा.’’

कई बार स्मिता तो यह सोच कर सचमुच मन ही मन गंभीर हो उठती थी कि यश सचमुच नविका के खिलाफ एक शब्द नहीं सुन सकता. अपनी हर चीज के लिए उस पर निर्भर रहता है. कोई फौर्म हो, कहीं आवेदन करना हो, उस के सब काम नविका ही करती और नविका यश को खुश रखने का हर जतन करती. उसे मुंबई में ही अच्छी जौब मिल गई थी.

जौब के साथसाथ वह घर के हर सदस्य की हर चीज में हमेशा हैल्प करती. स्मिता मन ही मन हैरान होती कि यह लड़की क्या है… इतना कौन करता है? किसी को कोई भी जरूरत हो, नविका हाजिर और उस का खुशमिजाज स्वभाव भी लाजवाब था जिस के कारण स्मिता का उस से रोज मिलने पर भी मन नहीं भरता था. जितनी देर घर में रहती हंसती ही रहती. स्मिता नविका को याद कर रो पड़ी. रात के 2 बजे बालकनी में बैठ कर वह नविका को याद कर रो रही थी.

स्मिता का बारबार नविका को फोन कर पूछने का मन हो रहा था कि यह क्या किया तुम ने? यश के मना करने के बावजूद स्मिता यह ठान चुकी थी कि वह यह जरूर पूछेगी नविका से कि उस ने यह इमोशनल चीटिंग क्यों की? क्या इतने दिनों से वह टाइमपास कर रही थी? अचानक बिना कारण बताए कोई लड़की ब्रेकअप की घोषणा कर देती है, वह भी यश जैसे नर्म दिल स्वभाव वाले लड़के के साथ जो नविका को खुश देख कर ही खुश रहता था.

इतने में ही अपने कंधे पर हाथ  का स्पर्श महसूस हुआ तो स्मिता चौंकी. यश था, उस की गोद में सिर रख कर जमीन पर ही बैठ गया. दोनों चुप रहे. दोनों की आंखों से आंसू बहते रहे.

फिर विपुल भी उठ कर आ गए. दोनों को प्यार से उठाते हुए गंभीर स्वर में कहा, ‘‘जो हो गया, सो हो गया, अब यही सोच कर तुम लोग परेशान मत हो. आराम करो, कल बात करेंगे.’’

अगले दिन भी घर में सन्नाटा पसरा रहा. यश चुपचाप सुबह कालेज चला गया. स्मिता ने उस से दिन में 2-3 बार बात की. पूछा, ‘‘नविका से बात हुई?’’

‘‘नहीं, मम्मी वह फोन नहीं उठा रही है.’’

उदासीभरी हैरानी में स्मिता ने भी दिन बिताया. वह बारबार

अपना फोन चैक कर रही थी. इतने सालों में आज पहली बार न नविका का कोई मैसेज था न ही मिस्ड कौल. स्मिता को तो स्वयं ही नविका के टच में रहने की इतनी आदत थी फिर यश को कैसा लगा रहा होगा. यह सोच कर ही उस का मन उदास हो जाता था.

3 दिन बीत गए, नविका ने किसी से संपर्क नहीं किया. घर में चारों उदास थे, जैसे घर का कोई महत्त्वपूर्ण सदस्य एकदम से साथ छोड़ गया हो. सब चुप थे. अब नविका का कोई नाम ही नहीं ले रहा था ताकि कोई दुखी न हो. मगर बिना कारण जाने स्मिता को चैन नहीं आ रहा था. वह बिना किसी को बताए बांद्रा कुर्ला कौंप्लैक्स पहुंच गई. नविका का औफिस उसे पता था.

अत: उस के औफिस चल दी. औफिस के बाहर पहुंच सोचा एक बार फोन करती. अगर उठा लिया तो ठीक वरना औफिस में चली जाएगी.

अत: नविका के औफिस की बिल्डिंग के बाहर खड़ी हो कर स्मिता ने फोन किया. हैरान हुई जब नविका ने उस का फोन उठा लिया, ‘‘नविका, मैं तुम्हारे औफिस के बाहर खड़ी हूं, मिलना है तुम से.’’

‘‘अरे, मां, आप यहां? मैं अभी

आती हूं.’’

नविका दूर से भागी सी आती दिखी तो स्मिता की आंखें उसे इतने दिनों बाद देख भीग सी गईं. वह सचमुच नविका को प्यार करने लगी थी. उसे बहू के रूप में स्वीकार कर चुकी थी. उस पर अथाह स्नेह लुटाया था. फिर यह लड़की अचानक गैर क्यों

हो गई?

नविका आते ही उस के गले लग गई. दोनों रोड पर यों ही बिना कुछ कहे कुछ पल खड़ी रहीं. फिर नविका ने कहा, ‘‘आइए, मां, कौफी हाउस चलते हैं.’’

नविका स्मिता का हाथ पकड़े चल रही थी. स्मिता का दिल भर आया. यह हाथ, साथ, छूट गया है. दोनों जब एक कौर्नर की टेबल पर बैठ गईं तो नविका ने गंभीर स्वर में पूछा, ‘‘मां, आप कैसी हैं?’’

स्मिता ने बिना किसी भूमिका के कहा, ‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया, मैं जानने आई हूं?’’

नविका ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘मां, मैं थकने लगी थी.’’

‘‘क्यों? किस बात से? हम लोगों के प्यार में कहां कमी देखी तुम ने? इतने साल हम से जुड़ी रही और अचानक बिना कारण बताए यह सब किया जाता है? यह पूरे परिवार के साथ इमोशनल चीटिंग नहीं है?’’ स्मिता के स्वर में नाराजगी घुल आई.

‘‘नहीं मां, आप लोगों के प्यार में तो कोई कमी नहीं थी, पर मैं अपने ही झूठ से थकने लगी थी. मैं ने आप लोगों से झूठ बोला था. मैं यश से 3 नहीं, 7 साल बड़ी हूं.’’

स्मिता बुरी तरह चौंकी, ‘‘क्या?’’

‘‘हां, मैं तलाकशुदा भी हूं. इसलिए मैं ने आप को कभी अपनी फैमिली से मिलने नहीं दिया. मैं जानती थी आप लोग यह सुन कर मुझ से दूर हो जाएंगे. मैं इतनी लविंग फैमिली खोना नहीं चाहती थी. इसलिए झूठ बोलती थी.’’

‘‘शादी कहां हुई थी? तलाक क्यों हुआ था?’’

‘‘यहीं मुंबई में ही. मैं ने घर से भाग कर शादी की थी. मेरे पेरैंट्स आज तक मुझ से नाराज हैं और फिर मेरी उस से नहीं बनी तो तलाक हो गया. मैं मम्मीपापा के पास वापस आ गई. उन्होंने मुझे कभी माफ नहीं किया. मैं ने आगे पढ़ाई

की. आज मैं अच्छी जौब पर हूं. फिर यश मिल गया तो अच्छा लगा. मैं ने अपना सब सच छिपा लिया. यश अच्छा लड़का है. मुझ से काफी छोटा है, पर उस के साथ रहने पर उस की उम्र के हिसाब से मुझे कई दिक्कतें होती हैं. उस की उम्र से मैच करने में अपनेआप पर काफी मेहनत करनी पड़ती है. आजकल मानसिक रूप से थकने लगी हूं.

‘‘यश कभी अपनी दूसरी दोस्तों के साथ बात भी करता है तो मैं असुरक्षित

महसूस करती हूं. मैं ने बहुत सोचा मां. उम्र के अंतर के कारण मैं शायद यह असुरक्षा हमेशा महसूस करूंगी. मैं ने भी दुनिया देखी है मां. बहुत सोचने के बाद मुझे यही लगा कि अब मुझे आप लोगों की जिंदगी से दूर हो जाना चाहिए. मैं वैसे भी अपनी शर्तों पर, अपने हिसाब से जीना चाहती हूं. आत्मनिर्भर हूं, आप लोगों से जुड़ कर समाज का कोई ताना, व्यंग्य भविष्य में मैं सुनना पसंद नहीं करूंगी.

‘‘मैं ने बहुत मेहनत की है. अभी और ऊंचाइयों पर जाऊंगी, आप लोग हमेशा याद आएंगे. लाइफ ऐसी ही है, चलती रहती है. आप ठीक समझें तो घर में सब को बता देना, सब आप के ऊपर है और हम कोई सैलिब्रिटी तो हैं नहीं, जिन्हें इस तरह का कदम उठाने पर समाज का कोई डर नहीं होता. हम तो आम लोग हैं. मुझे या आप लोगों को रोजरोज के तानेउलाहने पसंद नहीं आएंगे. यश में अभी बहुत बचपना है. यह भी हो सकता है कि समाज से पहले वही खुद बातबात में मेरा मजाक उड़ाने लगे. मुझे बहुत सारी बातें सोच कर आप सब से दूर होना ही सही लग रहा है.’’

कौफी ठंडी हो चुकी थी. नविका पेमैंट कर उठ खड़ी हुई. कैब आ गई तो स्मिता के गले लगते हुए बोली, ‘‘आई विल मिस यू, मां,’’ और फिर चल दी.

स्मिता अजीब सी मनोदशा में कैब में बैठ गई. दिल चाह रहा था, दूर जाती हुई नविका को आवाज दे कर बुला ले और कस कर गले से लगा ले, पर वह  जा चुकी थी, हमेशा के लिए. उसे कह भी नहीं पाई थी कि उसे भी उस की बहुत याद आएगी. 4 सालों से अपने सारे सच छिपा कर सब के दिलों में जगह बना चुकी थी वह. सच ही कह रही थी वह कि सच छिपातेछिपाते थक सी गई होगी. अगर वह अपने भविष्य को ले कर पौजिटिव है, आगे बढ़ना चाहती है, स्मिता को भले ही अपने परिवार के साथ यह इमोशनल चीटिंग लग रही हो, पर नविका को पूरा हक है अपनी सोच, अपने मन से जीने का.

अगर वह अभी से इस रिश्ते में मानसिक रूप से थक रही है, अभी से यश और अपनी उम्र के अंतर के बोझ से थक रही है तो उसे पूरा हक है इस रिश्ते से आजाद होने का. मगर यह सच है कि स्मिता को उस की याद बहुत आएगी. मन ही मन नविका को भविष्य के लिए शुभकामनाएं दे कर स्मिता ने गहरी सांस लेते हुए कार की सीट पर बैठ कर आंखें मूंद लीं.

Short Story In Hindi : पीकू की सौगात

Short Story In Hindi : हमारेलाख समझाने के बावजूद कि अमिताभ की फिल्म देखने का मजा तो पीवीआर में ही है, बच्चों ने यह कहते हुए एलईडी पर पैन ड्राइव के जरीए ‘पीकू’ लगा दी कि पापा 3 घंटे बंध कर बैठना आप के बस में कहां? हंसने लगे सो अलग. उस समय तो हम समझ नहीं पाए कि बच्चे क्या समझाना चाहते हैं. परंतु जब फिल्म में मोशन के साथ इमोशन जुड़े और बच्चे मम्मी की ओर देख कर हंसने लगे, तो हमें समझ में आया कि बच्चे क्या कर रहे थे. बच्चों की हंसी देख हम झेंपे जरूर, लेकिन उन का हंसना जायज भी था. दरअसल, मोशन की इस बीमारी से हम भी पिछले काफी समय से जूझ रहे थे, जिस का एहसास पहली बार हमें उस दिन हुआ जब संडे होने के कारण बच्चे देर तक सो रहे थे और अखबार में छपे एक इश्तहार को पढ़ हमारी श्रीमतीजी का मन सैंडल खरीदने को हो आया.

‘‘चलो न, पास ही तो है यह मार्केट. गाड़ी से 5 मिनट लगेंगे. बच्चों के उठने तक तो वापस भी आ जाएंगे,’’ श्रीमतीजी के इस कदर प्यार से आग्रह करने पर हम नानुकर नहीं कर पाए और पहुंच गए मार्केट. सेल वाली दुकान के पास ही बहुत अच्छा रैस्टोरैंट था, तो श्रीमतीजी का मन खाने को हो आया. इसलिए पहले हम ने वहां कुछ खायापिया और फिर घुसे फुटवियर के शोरूम में. श्रीमतीजी सैंडल की वैरायटी देखने लगीं, लेकिन तभी हमारे पेट में हलचल होने लगी. अब हम श्रीमतीजी को सैंडल पसंद करने में देरी करता देख खीजने लगे कि जल्दी सैंडल पसंद करें और घर चलें. आखिर उन्हें सैंडल पसंद आ गई, तो हम ने राहत की सांस ली. लेकिन चैन कहां मिलने वाला था हमें? बाहर निकलते ही सामने गोलगप्पे वाले की रेहड़ी देख श्रीमतीजी की लार टपकी. वे बाजार जाएं और गोलगप्पे न खाएं, यह तो असंभव है. उन्होंने हमारे आगे गोलगप्पे खाने की इच्छा जाहिर की तो हमारा मन हुआ कि गोलगप्पे वाले का मुंह नोच लें. मुए को यहीं लगानी थी रेहड़ी.

खैर, 2-2 गोलगप्पे खाने की बात कर श्रीमतीजी ने 6 तो खुद खाए और उतने ही हमें भी खिला दिए. अब उन्हें कैसे समझाते कि हम किस परेशानी में हैं. दूसरे, उन की तुनकमिजाजी से भी वाकिफ थे हम, इसलिए न चाहते हुए भी गोलगप्पे गटक लिए. लेकिन पेट की जंग ने रौद्र रूप ले लिया था. मार्केट से बाहर निकल हम तेज कदमों से पार्किंग की ओर बढ़े तो श्रीमतीजी पूछ बैठीं, ‘‘इतनी जल्दी क्यों चल रहे हो?’’

हम ने पेट की परेशानी के बजाय बहाना बनाया, ‘‘बच्चे उठ गए होंगे, जल्दी चलो.’’ तभी उन्हें उन की पुरानी सहेली मिल गई. गप्पें मारने में तो श्रीमतीजी वैसे ही माहिर हैं, सो लगीं दोनों अगलीपिछली हांकने. उन्हें हंसी के फुहारे छोड़ते देख हम ने अपना माथा पीट लिया क्योंकि जल्दी देरी में जो बदलती जा रही थी. ऐसे में श्रीमतीजी का मोबाइल बजा तो हमें सुकून मिला. बच्चों का फोन था, इसलिए बतियाना छोड़ वे जल्दी से घर चलने को हुईं तो हम ने राहत महसूस की. घर पहुंचने पर फारिग होने के बाद हम ने घर के लोगों से अपनी समस्या शेयर की तो सभी हंसने लगे, लेकिन समाधान किसी ने न बताया. वैसे रोज तो हम यह परेशानी झेल लेते थे, क्योंकि औफिस में डैस्कवर्क था. साथ ही वहां वौशरूम की परेशानी नहीं थी. पर कभी बाहर जाना पड़ता तो खासी परेशानी होती. तिस पर जब इस का संबंध श्रीमतीजी की खरीदारी से जुड़ा तो मुश्किलें और बढ़ गईं.

हमारी श्रीमतीजी मार्केट जा कर खरीदारी भले ही धेले भर की भी न करें पर जिस दुकान में घुस जाती थीं, सारा माल खुलवा कर रख देती थीं. और भले ही घर से खापी कर निकलें, लेकिन चाटपकौड़ी खाए बिना न रहतीं. ऐसे में हमारी हालत पतली होनी ही थी. ‘पीकू’ में भास्कर की समस्या हम से कुछ मिलतीजुलती ही थी, जिसे दिखा बच्चे उसे हमारी हालत से जोड़ रहे थे. जोड़ते भी क्यों न, उस दिन हुआ भी तो कुछ ऐसा ही था. हम ससुराल गए हुए थे कि देर रात तक की आपसी बातचीत से हमारी श्रीमतीजी को पता चला कि यहां पास की मार्केट में सूटों के बहुत अच्छे शोरूम बन गए हैं, जहां बहुत अच्छे डिजाइनर सूट मिलते हैं, साथ ही वे फिटिंग भी कर के देते हैं. बस, श्रीमतीजी की खरीदारी की सनक परवान चढ़ी और वे बना बैठीं सुबह हमारी साली के साथ मार्केट जाने का प्रोग्राम. और कोई प्रोग्राम होता तो हम मना कर देते लेकिन साली संग जाने का मजा कहां बारबार मिलता है, सो हम ने हां कर दी. सुबह नाश्ते में सासूमां ने खातिरदारी वाली भारतीय संस्कृति का निर्वहन करते हुए हमारी यानी अपने जमाई की खातिर में ऐसे घी चुपड़चुपड़ कर बने गोभी के परांठे खिलाए जैसे अपने बेटे को भी कभी न खिलाए होंगे. न न करते भी हम 4 परांठे डकार गए. ऊपर से दहीमट्ठा पिलाया सो अलग. अब हम श्रीमतीजी संग खरीदारी पर जाने को तैयार हुए तो माथा ठनका कि कहीं रास्ते में बीमारी ने जोर पकड़ लिया तो… हम ने कई बार इस के बारे में सोचा फिर श्रीमतीजी को थोड़ा रुकने को कह पहुंच गए फारिग होने.

लेकिन काफी देर नाक बंद कर सीट पर बैठने और जोर मारने पर भी राहत न मिली, तो श्रीमतीजी के इमोशंस का खयाल रखते हुए हम अपने मोशन का खयाल छोड़ आज्ञाकारी पति की भांति जल्दी से उठे और चल दिए उन के संग मार्केट. श्रीमतीजी दुकान में घूमतीं फिर दूसरी देखतीं. पहले शोकेस में लगा सूट पसंद करतीं फिर अंदर जा कर उलटपुलट कर देखतीं. उन के साथ एक से दूसरी दुकान घूमतेघूमते कब पेट में हलचल शुरू हो गई पता ही न चला. अब हमारी हालत पतली. लगे इधरउधर सुलभ शौचालय तलाशने. हमें नजरें घुमाते देख श्रीमतीजी बोल पड़ीं, ‘‘इधरउधर क्या ढूंढ़ रहे हो, चलो दूसरी दुकान में, यहां तो वैरायटी ही नहीं है.’’ हमें उन की इस आदत का पता है, इसलिए चुपचाप उन के पीछे हो लिए. तभी हमारी नजर सामने शौचालय पर पड़ी तो हम श्रीमतीजी को रोक उधर इशारा करते हुए बोले, ‘‘जरा उधर चलें, हमें…’’

अभी हमारी बात पूरी भी न हुई थी कि साली बोल पड़ी, ‘‘वाह जीजाजी, बड़ा खयाल रखते हैं दीदी के जायके का. चलो चलते हैं. वहां के भल्लेपापड़ी तो वैसे भी मशहूर हैं.’’ अब उसे कौन समझाता कि हमारा उधर जाने का क्या मकसद था. खैर, चल दिए उन के पीछे अपना सा मुंह लिए. श्रीमतीजी ने भल्लेपापड़ी की प्लेटें बनवाईं. हम ने सासूमां के स्वादिष्ठ परांठों का वास्ता देते मना किया पर वे कहां मानने वाली थीं. हमारे न न करने पर भी एक प्लेट हाथ में थमा ही दी. हम ने आधी भल्लापापड़ी खा प्लेट दूसरी ओर रख दी. तभी श्रीमतीजी की नजर एक शोरूम में लगे बुत पर लिपटे एक अनारकली सूट पर अटक गई, जबकि हमारी नजरें अभी भी फारिग होने का मुकाम तलाश रही थीं. ऐसे में राहत यह देख कर मिली कि जिस शोरूम की ओर श्रीमती मुखातिब हुई थीं, उसी के सामने हमारी समस्या का समाधान था. सो हम साली और घरवाली को खरीदारी में मशगूल कर ‘अभी आया’ कह कर इस संकल्प के साथ बाहर निकले कि आगे से श्रीमतीजी संग खरीदारी हेतु जाएंगे तो कुछ खा कर नहीं निकलेंगे. फारिग हो कर आने पर हम ने चैन की सांस ली, लेकिन श्रीमतीजी सूट खरीद पैसों हेतु हमारे इंतजार में तेवर बदले खड़ी थीं. मेरे आते ही वे जोर से बोलीं, ‘‘कहां चले गए थे? हम इतनी देर से इंतजार कर रहे हैं.’’ हम ने धीरे से इशारा कर उन्हें समझाया तो साली हंसी, ‘‘क्या जीजाजी, ससुराल के खाने का इतना भी क्या मोह कि बारबार जाना पड़े,’’ और दोनों खीखी करने लगीं. हम ने चुपचाप पैसे दे कर सामान उठाया और घर चलने में ही भलाई समझी. घर आ कर साली ने चटखारे लेले कर हमारे मोशन के किस्से सुनाए तो बच्चे भी हंसी न रोक सके.

‘पीकू’ में रहरह कर भास्कर बने अमिताभ मोशन पर अच्छीखासी बहस छेड़ते और बच्चे हमारी स्थिति से उस का मेल करते हुए हंसते. सोचने वाली बात यह है कि क्या मोशन जैसा विषय भी किसी कहानी का हो सकता है. हां, क्यों नहीं जनाब, उन से पूछिए जिन्हें रोज इस समस्या से जूझना पड़ता है. हम ने गुस्से से कह दिया, ‘‘हमारे इमोशन की हंसी उड़ाने को दिखा रहे हो न हमें यह फिल्म?’’ ‘‘नहीं जी, बच्चे तो यह बताना चाह रहे हैं कि आप भी अपने मोशन का कुछ ऐसा इंतजाम कर के रखो. जब भी खरीदारी करने जाओ आप भागते हो इसी चक्कर में,’’ श्रीमतीजी ने हमारी बीमारी पर कटाक्ष करते हुए बच्चों का बचाव किया, ‘‘देखा नहीं था उस दिन जब वह आदमी हमारा दुपट्टा खींच गया था.’’ हमें याद आया. दरअसल, उस दिन हम साली की शादी हेतु खरीदारी करने गए हुए थे. बच्चे भी साथ थे. श्रीमतीजी आगेआगे और हम बच्चों का हाथ पकड़े पीछेपीछे. बच्चों के लिए ड्रैस लेते समय वे हम से पूछतीं, लेकिन हमारे हां कहने के बावजूद उन्हें पसंद न आता और वे आगे चल देतीं. बड़ी मुश्किल से उन्होंने बच्चों के कपड़े खरीदे. अब हमारी बारी थी. हम बच्चों के कपड़ों के बैग से लदे पड़े थे कि श्रीमतीजी को सामने उबली, मसालेदार चटपटी छल्ली वाला दिख गया. बस, उन के मुंह में पानी आ गया. चटपटी मसालेदार छल्ली हमें भी पसंद थी, साथ ही सुखद एहसास था कि आज हम घर से खाली पेट निकले थे. अत: बिना हीलहुज्जत हां कर दी. श्रीमतीजी ने अपने हिसाब का ज्यादा मसालेवाला पत्ता बनवा दिया. जनाब वे तो चटरपटर कर खा गईं पर हमारे पसीने छूट गए. बड़ी मुश्किल से डकारा.

 

तभी श्रीमतीजी को सामने शोरूम में टंगी साड़ी इतनी भाई कि वे उधर चल दीं. लेकिन कीमत पूछ चौंकीं और बोलीं, ‘‘महंगी है. चलो पहले तुम्हारे कपड़े खरीद लेते हैं.’’ हम ने भी सोचा कि चलो हमें तो इन की पसंद पर ही मुहर लगानी है, जल्दी निबटारा हो जाएगा. अभी हम यह सोच ही रहे थे कि चटपटी छल्ली ने अपना असर दिखा दिया. हम समझ गए कि अब फारिग होने का इंतजाम करना पड़ेगा.  श्रीमतीजी हमें पैंट पसंद करवा रही थीं और हम पहनी पैंट को गीली होने से बचाने की जुगत सोच रहे थे. खैर, उन्होंने जो पसंद किया, हम ने मुहर लगाई और शोरूम से बाहर निकल इधरउधर झांकने लगे. सामने एक साड़ी के शोरूम में पहुंच श्रीमतीजी ने तमाम साडि़यां खुलवा डालीं. न श्रीमतीजी साड़ी देखती थक रही थीं, न दुकानदार दिखाते थक रहा था. पर उन की पसंद की साड़ी न मिलनी थी न मिली. हम मौके की तलाश में थे कि कब वे हमारी ओर मुखातिब हों और हम इजाजत लें. एक साड़ी थोड़ी पसंद आने पर वे हमारी ओर मुखातिब हुईं, तो हम ने आंख मूंद कर हां कर दी. उन्हें कौन सी हमारी पसंद की साड़ी खरीदनी थी, यह तो बस दिखावा था. साथ ही हम ने उंगली उठा कर 1 नंबर के लिए जाने की इजाजत मांगी तो वे बरस पड़ीं, ‘‘जाओ, तुम्हें तो हर समय भागना ही पड़ता है.’’ उन के इस प्रकार डांटने पर बच्चे भी हमारी हालत पर हंसने लगे और हम खिसक लिए 1 नंबर का बहाना कर 2 नंबर के लिए.

हर ओर निगाह दौड़ाने पर भी कोई शौचालय न दिखा, तो एक शख्स से पूछने पर पता चला कि बहुत दूर है. हम ने सोचा कि इतनी दूर तो हमारा घर भी नहीं. क्यों न घर ही हो आएं? यह सोच कर हम पीछे मुड़े ही थे कि पत्नी को साड़ी पसंद कर बच्चों के साथ शोरूम से बाहर आते देखा. वे हमारे पास पहुंचतीं उस से पहले एक मोटातगड़ा आदमी श्रीमतीजी से उलझता दिखा. हम वहां पहुंचे तो वह उन्हें सौरी कह रहा था. उस ने चुपचाप सौरी कह जाने में ही अपनी भलाई समझी, लेकिन श्रीमतीजी हम पर बरस पड़ीं, ‘‘कितनी देर कर दी आने में. पता है यह आदमी मुझे छेड़ रहा था.’’ अब हम उन्हें कैसे बताते कि हम किस मुसीबत में हैं. हम बोले, ‘‘अरे सौरी बोला न वह, चलो अब.’’ इस पर उन के तेवर बिगड़े, ‘‘तुम भी कितने डरपोक पति हो. अरे, वह तो मेरा दुपट्टा खींच कर चला गया और तुम उसे इतने हलके में ले रहे हो.’’ जैसे अपने पालतू कुत्ते को हुश्श… कह हम दूसरे पर छोड़ देते हैं, उसी लहजे में श्रीमतीजी ने हमें पुश किया. अब उन्हें कौन समझाता कि हम अपनी कदकाठी ही नहीं बल्कि अपनी बीमारी के कारण भी इस समय कुछ न कहने को विवश हैं. पर उन के ताने ने हमारे जमीर को इस कदर झिंझोड़ा कि न चाहते हुए भी हम दुम हिलाते हुए उस के पीछे हो लिए और उसे ललकारा. अब सूमो पहलवान सा दिखने वाला वह बंदा शेर की तरह खा जाने वाली नजरों से हमें घूरता हम पर बरसा, ‘‘कह दिया न सौरी. उन के पास से निकलते हुए मेरी बैल्ट के बक्कल में उन का दुपट्टा फंस गया तो इस में मेरा क्या कुसूर है?’’ उस की दहाड़ से हमारी घिग्घी बंध गई. लगा हमारी बीमारी बाहर आने को है. और कोई समय होता तो शायद हम उस से भिड़ भी जाते पर मोशन की वजह से हमें अपने इमोशंस पर कंट्रोल रखना पड़ा.

हम दांत पीस कर रह गए. वह दहाड़ कर चला गया तो हम ने चैन की सांस ली और किसी तरह श्रीमतीजी को समझाबुझा कर जल्दीजल्दी घर फारिग होने पहुंचे. बच्चे हमारी हालत पर हंस रहे थे व श्रीमतीजी अधूरी शौपिंग के कारण नाराज थीं. ‘पीकू’ अपने आखिरी मकाम तक पहुंच गई थी. श्रीमतीजी बच्चों संग हंसती हुई हमारी ओर मुखातिब हुईं और बोलीं, ‘‘सीख लो कुछ भास्कर से. हमेशा बहाने से जाते हो फारिग होने. ले लो एक अदद सीट और रख लो गाड़ी में, ताकि जहां जरूरत महसूसहुई, हो लिए फारिग.’’ वातावरण में बच्चों सहित गूंजे उस के ठहाके में एलईडी की आवाज भी जैसे गुम हो गई जिस से हमें पिक्चर खत्म होने का पता भी न चला. ठीक ही तो कह रही हैं श्रीमतीजी, हम ने सोचा. ‘पीकू’ ने एक आसान रास्ता दिखाया है इस बीमारी से जूझते लोगों का. अमिताभ की तरह एक सीट सदा अपने साथ रखो. फिर जी भर कर खाओ और जब चाहो फारिग हो जाओ. शौचालय मिल जाए तो ठीक वरना ढूंढ़ने का झंझट खत्म. ‘पीकू’ की सौगात तो है ही फौरएवर.

Short Story: साधु बने स्वादु

फी ता कटा, फ्लैशगनें चमकीं, तालियां बजीं. मेजबान ने स्वामीजी के चरण छुए और आशीर्वाद प्राप्त किया. बाद में उन्हें ले कर आभूषणों का अपना आलीशान शोरूम दिखाने लगा.  आजकल यह दृश्य आम हो गया है. अब दुकानों, शोफीता कटा, फ्लैशगनें चमकीं, तालियां बजीं. मेजबान ने स्वामीजी के चरण छुए और आशीर्वाद प्राप्त किया. बाद में उन्हें ले कर आभूषणों का अपना रूमों का उद्घाटन करने के लिए झक सफेद कपड़ों वाले नेताजी या मंत्रीजी की जरूरत नहीं रह गई है बल्कि यह काम गेरुए वस्त्रों में लिपटा साधु करता है. दुनिया भर को मोहमाया से दूर रहने के कड़वे उपदेश पिलाने वाले बाबा इन दिनों दुकानों, पार्लरों के फीते काट रहे हैं. हंसहंस कर फोटो खिंचवा रहे हैं. धनिकों को साधु रखने का शौक होता है. जैसे चौकीदार रखा, रसोइया रखा, माली रखा उसी तर्ज पर एक स्वामी भी रख लिया. बस, उसे डांटते नहीं हैं, उस पर हुक्म नहीं चलाते.

उधर दुनियादारी को त्याग चुका साधु भी इन दुनियादारों के यहां पड़ा रहता है. उन के खर्चे से सैरसपाटे करता रहता है. आखिर अनमोल प्रवचनों का पारिश्रमिक तो उसे वसूलना ही है. साधु कभी भी गरीबों के यहां निवास नहीं करते. इस की वजह वे बताते हैं कि गरीबों पर आर्थिक बोझ न पड़े इसलिए. पर वे तो साधारण आर्थिक स्थिति वालों के यहां भी नहीं रुकते. दरअसल, साधारण आदमी उन की फाइवस्टार सेवा नहीं कर सकता. साधुओं का यह मायाप्रेम नहीं तो और क्या है?

‘‘भक्त का अनुरोध मानना ही पड़ता है,’’ साधुओं का जवाब होता है, ‘‘वह दिनरात हमारी सेवा करता है, हमारी सुखसुविधा का खयाल रखता है. क्या हम उस के लिए एक फीता नहीं काट सकते? हमारा काम ही आशीर्वाद देना है.’’

‘‘पर आप तो जनता से मोहमाया से मुक्त होने का आह्वान करते हैं.’’

‘‘करते हैं न. तब भी करते हैं जब किसी शोरूम का उद्घाटन करने जाते हैं.’’

‘‘जो भक्त माया इकट्ठी करने में लगा हो उसे आप अपरिग्रह का उपदेश क्यों नहीं देते?’’

‘‘देते हैं. जब उस के पास उस की आवश्यकताओं से अधिक धन हो जाए तभी वह अपरिग्रह की ओर मुड़ेगा. हर एक की तृप्ति का स्तर अलगअलग होता है. जब उस की इच्छाएं तृप्त हो जाएंगी तो वह अपनी सारी दौलत रास्ते में लुटा देगा.’’

‘‘और आप की तरह दीक्षा ले लेगा. पर संन्यास लेने से पहले इस तरह का वैभव प्रदर्शन करने के बजाय क्या वह इस धन से कोई स्कूल या अस्पताल नहीं बनवा सकता?’’

साधु के पास इस का जवाब कभी नहीं होता है.

जो लोग भूखे को रोटी देने के बजाय कुत्ते को देते हैं वे संन्यास लेने से पहले लोगोें को अपने लुटाए हुए हीरेजवाहरातों पर कुत्तों की तरह टूटते देख कर फूले नहीं समाते. यह मानवता का अपमान नहीं तो क्या है?  जब चातुर्मास का मौसम आता है तो मोहमाया से मुक्त ये साधु बैंडबाजे सहित मोहमाया की दुनिया में आते हैं और तड़कभड़क भरे हौल में अपने भक्तों से सांसारिक बंधनों से मुक्त होने का आह्वान करते हैं.

क्या इन बैरागियों को इतना भी नहीं मालूम कि जिन भक्तों को उन के प्रवचनों से लाभ उठाना होगा, वे  खुद चल कर उन के आश्रम में आएंगे?

हां, इन्हें इतना तो मालूम है कि न तो इन के उपदेशों में ताकत है और न ही इन के भक्त इतने बेवकूफ हैं कि अपनी मोटी कमाई छोड़ कर इन के नीरस प्रवचन सुनें, इसलिए कुआं खुद ही सांसारिक सुखों से तर गले वालों के पास चला आता है. भक्त लोग भी इन के भाषण सिनेमा या नाटक देखने की तर्ज पर सुनने चले आते हैं.  ऐसे ही मोहमाया के संसार में घुसने   को छटपटा रहे एक साधु से मैं ने  बातचीत की. मैं ने उसे सिर्फ नमस्कार किया, चरण नहीं छुए. मैं ने देखा कि उस के चेहरे पर नाराजगी  के भाव थे. उस के चेलेचपाटे भी खुश नहीं दिखे बातचीत के दौरान मैं ने

उस से पूछ ही लिया, ‘‘आप मेरे अभिवादन के तरीके से खुश नजर नहीं आए?’’

‘‘हां, बडे़ेबड़े उद्योगपति, राजनेता मेरे पैर छूते हैं और तुम ने ऐसे नमस्कार किया जैसे किसी दोस्त को हैलोहाय कर रहे हो. यह तो भारतीय परंपरा नहीं है किसी आदरणीय व्यक्ति का अभिवादन करने की.’’

‘‘आप तो संन्यासी हैं. आप ने सांसारिक विकृतियों पर विजय पाई है. आप को क्रोध क्यों आया?’’ मैं ने तड़ाक से सवाल किया जिसे सुन कर उन के चेलों ने मुझे बदतमीज, पापी कहा.

‘‘आप जब अपने शिष्यों को क्रोध पर विजय प्राप्त करना नहीं सिखा सके तो दुनिया को क्या सिखा पाएंगे?’’

‘‘बदतमीज, इतने बड़े स्वामीजी से बोलने का यह कोई तरीका है? जानता नहीं, बड़ेबड़े लोग इन के पैर छूते हैं?’’ एक शिष्य भड़का.

‘‘यानी इन्हें घमंड है कि बड़ेबड़े लोग इन के पैर छूते हैं. इसे ही शायद मद कहते हैं.’’

‘‘पापी, जानता नहीं कि ये सांसारिक मोहमाया से परे हैं? हजारों लोग इन के चरणों में चांदी, सोना, हीरे चढ़ाते हैं, देखा नहीं? चलो हटो, दूसरों को आने दो,’’ और भक्तों ने मुझे चढ़ावे में आया धन बताया.

‘‘नहीं, आप के ये स्वामीजी मद, लोभ और क्रोध से मुक्त नहीं हुए हैं. बारबार ये समाज में लौटते हैं. इस का मतलब यह है कि ये मोह से मुक्त नहीं हुए हैं. क्या जरूरत है इन्हें समाज में आने की, जिसे इन्होंने त्याग दिया है?’’

‘‘आप यहां से चले जाइए वरना किसी ने कुछ कर दिया तो हम जिम्मेदार नहीं होंगे,’’ मुझे चेतावनी दी गई.

मैं कहना चाहता था कि जब आप क्रोध, लोभ, मद और मोह से मुक्त नहीं हैं तो काम से भी मुक्त नहीं होंगे. फिर यह साधु का मेकअप क्यों? पर मुझे धक्के मार कर निकाल दिया गया. मेरा विश्वास है कि सब से ज्यादा सांसारिक सुखों में लीन ये साधुस्वामी ही हैं. बिना कुछ किए, सिर्फ गैरव्यावहारिक भाषण झाड़ कर ये ऐशोआराम से रहते हैं. इन के आश्रम सभी सुखसुविधाओं से युक्त रहते हैं. भोग और संभोग की पूरी व्यवस्था रहती है. इसीलिए तो जिनजिन आश्रमों पर पुलिस के छापे पड़े हैं,आपत्तिजनक सामग्री बरामद हुई है. एक साधु के आश्रम में शराब, ब्लू फिल्में और लड़कियां मिलने का क्या मतलब है? ये पाखंडी लोग दुनिया की कठिनाइयों से नहीं लड़ सकते और समाज से पलायन कर जाते हैं. पर एकांत में सांसारिक सुख और भी याद आते हैं इसलिए किसी न किसी बहाने ये समाज में लौटते हैं. कभी चातुर्मास के बहाने या किसी दुकान का उद्घाटन करने या किसी भक्त के विवाह में आशीर्वाद देने के बहाने.

इन के आश्रम अपराधियों के क्लब होते हैं. राजनेता, तस्कर, मिलावट- बाज, काला बाजारिए, सट्टेबाज इन के यहां आपस में मिलते हैं और अपने भावी कार्यक्रम तय करते हैं. क्या जरूरत है किसी मंत्री को इन के आश्रम में जाने की और इन का आशीर्वाद पाने की? आम आदमी को तो ये साधु कभी आश्रम में बुला कर आशीर्वाद नहीं देते.  इन के आश्रम सिर्फ पूंजीपतियों, राजनेताओं के लिए ही खुले होते हैं. आम आदमी को ये सिर्फ दर्शन देते हैं.  इन के आश्रम में सिर्फ पूंजीपतियों की एयरकंडीशंड कारें तैनात रहती हैं. ये पाखंडी स्वामी यों तो समाजसुधार का ढिंढोरा पीटते रहते हैं पर आज तक कोई साधु किसी समस्याग्रस्त झोपड़पट्टी में नहीं गया है, बाढ़पीडि़त क्षेत्र में नहीं गया है, महामारी प्रभावित क्षेत्र में कदम तक नहीं रखा है. और तो और इन्होंने कभी किसी मलिन बस्ती में अपना प्रवचन भी नहीं दिया है क्योंकि वहां ग्लैमर नहीं है, प्रसिद्धि नहीं है, माल नहीं है, माया नहीं है जिस के लिए ये मरे जाते हैं.

Hindi Kahani : कानूनी बीड़ी का बंडल: दादा ने कैसे निबटाया केस

मुकदमा साधारण था मगर कचहरी के चक्कर लगातेलगाते सोमेश को महीनों हो चले थे. उस के पिताजी भी कई पेशियों मेें साथ गए थे. मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात. विरोधी पक्ष वाले चंटचालाक थे. हर बार जोड़तोड़ कर या तो तारीख डलवा लेते या फिर कोई नया पेंच फंसा देते थे. लिहाजा, साधारण सा दिखने वाला मुकदमा खासा लंबा समय ले गया था.

शहर में सोमेश के दादा लाहौरी राम के कई मकान और दुकानें थीं. वे पटवारी के पद पर तैनात हो कर कानूनगो के पद से रिटायर हुए थे. ऊपरी कमाई से खासी बरकत थी. सस्ते जमाने में जमीनजायदाद खासी सस्ती थी. आजकल के जमाने के मुकाबले तब आम लोगों की कमाई काफी कम थी. मकान, दुकान खरीदने, बनाने का रुझान लोगों में कम ही था.

अनेक मकानों, दुकानों से किराया आ रहा था.

कभीकभार मकान या दुकान खाली करवाने या किराया वसूलने के लिए मुकदमा डालना पड़ता था.

मगर अब धीरेधीरे उन की सक्रियता कम हो चली थी. उन्होंने सब लेनदेन अपने बेटे संतराम और जवान होते पोते सोमेश को संभलवा दिया था.

संतराम भी सरकारी मुलाजिम था मगर उस में अपने रिटायर्ड कानूनगो बाप जितनी जोड़तोड़ की प्रतिभा और चालाकी न थी.

लाहौरी राम ने गरीबी और अभाव के दिनों में मेहनतमशक्कत की थी जिस से उन में स्वाभाविक तौर पर दृढ़ इच्छाशक्ति, हर स्थितिपरिस्थिति से निबटने की क्षमता विकसित हो गई थी.

वहीं संतराम जैसे मुंह में चांदी का चम्मच ले कर पैदा हुआ था. इसलिए उस मेें अपने पिता समान दृढ़ता और मजबूती न थी.

तीसरी पीढ़ी के सोमेश में हालांकि आज के जमाने का चुस्त दिमाग था. वह एम.ए. तक पढ़ा था. एक कंपनी में कनिष्ठ प्रबंधक था मगर उस में भी अपने दादा की तरह बुद्धि का कौशल दिखाने की प्रतिभा न थी.

विरोधी पक्ष यानी किराएदार पहले के किराएदारों की तुलना में चंटचालाक था.

उस की तुलना में सोमेश और उस के पिता एक तरह से अनाड़ी थे.

‘‘क्यों सोमेश, क्या हुआ मकान वाले मुकदमे में?’’ एक सुबह दादाजी ने नाश्ता करते हुए पूछा.

‘‘जी, हर पेशी पर वह तारीख बढ़वा लेता है.’’

‘‘वह किस तरह? अपना वकील क्या करता है?’’

‘‘दादाजी, पुराने वकील तो रहे नहीं. उन का लड़का इतना ध्यान नहीं देता.’’

लाहौरी राम सोचने लगे. समय सचमुच बदल गया है. उन के हमउम्र ज्यादातर तो गुजर चुके थे या फिर उन के समान रिटायर हो एकाकी जीवन बिता रहे थे.

‘‘अगली पेशी कब की है?’’

‘‘इसी महीने 19 तारीख की है.’’

‘‘ठीक है, इस पेशी पर मैं चलूंगा तेरे साथ.’’

पेशी वाले दिन दादाजी ने अपना स्थायी पहरावा सफेद धोतीकुरता पहना और सिर पर साफा बांध लिया. कलाई पर पुराने समय की आयातित घड़ी बांध ली और अपना पढ़ने का चश्मा जेब में डाल लिया.

सोमेश की मां को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘संते की बहू, जरा छोटेबड़े कुछ नोट देना, कचहरी में चायपानी देना पड़ता है.’’

‘‘दादाजी, मेरे पर्स में हैं.’’

‘‘तू अपना पर्स अपने पास रख.’’

सोमेश की मां ने 5-10 के नोटोें का एक छोटा सा पुलिंदा अपने ससुर को थमा दिया. दादाजी सारी उम्र कोर्टकचहरी आतेजाते रहे थे. वे सभी सरकारी मुलाजिमों की मानसिकता से परिचित थे. बिना चायपानी दिए कहीं कोई काम नहीं होता था. इसलिए छुट्टा रुपया जेब में रखना पड़ता था. बड़े नोट का ‘खुल्ला’ कचहरी में कभी नहीं मिलता था.

सोमेश पार्किंग में अपनी कार खड़ी कर आया. दादाजी अपने पुराने वकील शंभू दयाल का तख्त ढूंढ़ने लगे.

वरिष्ठ वकील शंभू दयाल अब रिटायर हो कर घर पर आराम करते थे. उन का लड़का अवतार शरण ही अब वकालत करता था.

‘‘नमस्ते, लाहौरी रामजी, सुनाइए क्या हालचाल हैं?’’ अवतार शरण ने व्यवसायसुलभ स्वर में कहा.

‘‘सब ठीक है. बड़े बाबूजी कहां हैं?’’

‘‘वे इन दिनों घर पर आराम करते हैं जी.’’

‘‘हमारे मुकदमे की क्या पोजीशन है?’’

‘‘ठीक है, जी.’’

‘‘पेशियां बहुत पड़ चुकी हैं.’’

‘‘ऐसा है जी, पहले के मुकाबले अब मुकदमे काफी ज्यादा हैं, जज साहब हर मुकदमा लंबी पेशी पर ही डालते हैं.’’

लाला लाहौरी राम खामोश हो सब सुन रहे थे. पुराने वकील शंभू दयाल कभी इस तरह की टालने की बात नहीं करते थे. कचहरी का समय हो चला था. दादाजी अपने पोते के साथ नियत कोर्ट रूम के बाहर बरामदे में बनी बैंच पर जा बैठे.

दादाजी ने अपने कुरते की जेब से एक बीड़ी का बंडल निकाला. उन को बीड़ी का बंडल निकालते देख सोमेश बोलने को हुआ कि दादाजी, अब सार्वजनिक स्थान पर बीड़ी पीना जुर्म है, मगर जब और कई लोगों को बीड़ी पीते देखा तो चुप रह गया.

दादाजी ने एक नजर चारों तरफ घुमाई. उन की अनुभवी निगाहों ने आसपास बैठे लोगों को ताड़ा. उन में से कई ऐसे थे जिन का कोर्टकचहरी में कोई मुकदमा न था, मगर उन का रोजाना आना पक्का था.

ऐसे लोगोें में अभीलाल नाम का एक आदमी भी था जो एक पेशेवर गवाह था. ऐसे पेशेवर गवाह तो हर जगह खासकर थाना, तहसील, सरकारी दफ्तर, खजाना या कचहरी में आम मिलते थे. इन का काम अपनी फीस या चायपानी ले गवाही देना होता था.

इन की जेब में बीड़ी का बंडल तो नहीं मगर माचिस जरूर मिलती थी. किसी आसामी के मांगने पर तपाक से माचिस पेश कर देते थे. माचिस के एहसान के बदले में बीड़ी का आफर मिलना स्वाभाविक था जिसे सहर्ष कबूल कर लेते थे. कभीकभी तो बढि़या सिगरेट भी मिल जाती थी. मगर ज्यादातर व्यवहार बीड़ी के बंडल का था.

‘‘क्यों जी, माचिस है क्या?’’

अभीलाल जैसे उसी पुकार की इंतजार में था. उस ने झट से माचिस जेब से निकाली और डबिया खिसका तीली निकाली और जलाने को हुआ.

दादाजी ने बंडल से 2 बीडि़यां निकालीं. एक अपनी उंगलियों में दबाई और दूसरी अभीलाल को थमा दी. अभीलाल ने तीली जलाई और पहले दादाजी की बीड़ी सुलगाई और फिर तीली बुझा कर फर्श पर डाल दी.

मामूली बातों से आरंभ कर दादाजी ने बात का रुख वर्तमान की स्थिति पर मोड़ दिया.

‘‘आजकल लोकअदालत का बड़ा शोर है, यह क्या है?’’

‘‘लालाजी, नए जमाने का चलन है, जहां दोनों पार्टियों को राजी कर मुकदमा जल्दी खत्म किया जाता है.’’

‘‘इस मामले से सारे मुकदमे खत्म हो जाएंगे तब तेरे जैसे गवाहों की रोजीरोटी का क्या होगा?’’

इस पर अभीलाल हंसने लगा. आसपास बैठे सभी लोग भी हंसने लगे. हंसने का कारण समझ आने पर दादाजी हंसने लगे. कितना भी परिवर्तन किया जाए, कितने ही सुधार किए जाएं, क्या कभी मुकदमे, लड़ाईझगड़े समाप्त हो सकते हैं?

‘‘अपना नंबर कब आएगा?’’ दादाजी ने सोमेश से पूछा.

‘‘पिछली बार तो दोपहर बाद आवाज पड़ी थी.’’

‘‘ठीक है, तब तक मैं जरा टहल आऊं.’’

‘‘आओ भई, एकएक कप चाय हो जाए,’’ दादाजी के साथ अभीलाल भी उठ खड़ा हुआ.

चायसमोसे के दौरान दादाजी ने अभीलाल से अपनी वांछित जानकारी ले ली. मसलन, जज कैसा है? लेता है तो कितनी रिश्वत लेता है? उस का संपर्क सूत्र कौन है? आदि.

उस दिन भी तारीख पड़ गई थी मगर उस से अविचलित दादाजी अपनी हासिल जानकारी पर अमल करने में जुट गए थे. संपर्क सूत्र के जरिए जज साहब से मामला तय हो गया था. किसी को फल, किसी को ड्राईफ्रूट का टोकरा, किसी को शराब की पेटी पहुंच गई थी.

अगली 3 पेशियों के बाद मुकदमे का फैसला दादाजी के हक में हो गया था. एम.ए. तक पढ़े बापबेटा पुराने मिडल पास कानूनगो की बुद्धि की चतुराई को नहीं छू पाए थे.

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