दूरियां: भाग 1- क्या काम्या और हिरेन के रिश्ते को समझ पाया नील

दीवाली में अभी 2 दिन थे. चारों तरफ की जगमगाहट और शोरशराबा मन को कचोट रहा था. मन कर रहा था किसी खामोश अंधेरे कोने में दुबक कर 2-3 दिन पड़ी रहूं. इसलिए मैं ने निर्णय लिया शहर से थोड़ा दूर इस 15वीं मंजिल पर स्थित फ्लैट में समय व्यतीत करने का. 2 हफ्ते पहले फ्लैट मिला था. बिलकुल खाली. बस बिजलीपानी की सुविधा थी. पेंट की गंध अभी भी थी.

मैं कुछ खानेपीने का सामान, पहनने के कपड़े, 1 दरी और चादरें लाई थी. शहर से थोड़ा दूर था. रिहायश कुछ कम थी. बिल्डर ने मकान आवंटित कर दिए थे. धीरेधीरे लोग आने लगेंगे. 5 साल पहले देखना शुरू किया था अपने मकान का सपना. दोनों परिवारों के विरोध के बावजूद नील और मैं ने विवाह किया था. अपने लिए किराए का घर ढूंढ़ते हुए बौरा गए थे. तब मन में अपने आशियाने की कामना घर कर गई. आज यह सपना कुछ हद तक पूरा हो गया है. लेकिन अब हमारी राहें जुदा हो गई हैं. यहां आने से पहले मैं वकील से मिलने गई थी. कह रहा था बस दीवाली निकल जाने दो, फिर कागज तैयार करवाता हूं.

मन अभी भी इस बात को स्वीकारने को तैयार नहीं था कि आगे की जिंदगी नील से अलग हो कर बितानी है. लेकिन ठीक है जब रिश्तों में गरमाहट ही खत्म हो गई हो तो ढोने से क्या फायदा? इतनी ऊंचाई से नीचे सब बहुत दूर और नगण्य लग रहा था. अकेलापन और अधिक महसूस हो रहा था. शाम के 5 बज रहे थे. औफिस में पार्टी थी. उस हंगामे से बचने के लिए यहां सन्नाटे की शरण में आई थी. आसमान में डूबते सूर्य की छटा निराली थी, पर सुहा नहीं रही थी. बहुत रोशनी थी अभी. एक कमरे में दरी बिछा कर एक कोने में लेट गई. न जाने कितनी देर सोती रही. कुछ खटपट की आवाज से आंखें खुल गईं.

घुप्प अंधेरा था. जब आंख लगी थी इतनी रोशनी थी कि बिजली जलाने की जरूरत नहीं महसूस हुई थी. किसी ने दरवाजा खोल कर घर में प्रवेश किया. मेरी डर के मारे जान निकल गई. केयर टेकर ने कहा था वह चाबी केवल मालिक को देता है. लगता है   झूठ बोल रहा था. चाबी किसी शराबी को न दे दी हो, सोचा होगा खाली फ्लैट में आराम से पीएं या उस की स्वयं की नीयत में खोट न आ गया हो. अकेली औरत इतनी ऊंचाई पर फ्लैट में फायदा उठाने का अच्छा मौका था. डर के मारे मेरी जान निकल रही थी. आसपास कोई डंडा भी नहीं होगा जिसे अपनी सुरक्षा के लिए इस्तेमाल करूं. डंडा होगा भी तो अंधेरे में दिखेगा कैसे? सांस रोके बैठी थी. अब तो जो करेगा आगंतुक ही करेगा. हो सकता है अंधेरे में कुछ सम  झ न आए और वापस चला जाए.

तभी कमरा रोशनी से जगमगा उठा. सामने नील खड़ा था. नील को देख कर ऐसी राहत मिली कि अगलापिछला सब भूल उठी और

उस से लिपट गई. वह उतना ही हत्प्रभ था जितनी मैं सहमी हुई. कुछ पल हम ऐसे ही गले लगे खड़े रहे. फिर अपने रिश्ते की हकीकत हमें याद आ गई.

‘‘मैं? मैं तो यहां शांति से 3 दिन रहने आई हूं. तुम नहीं रह सकते यहां… तुम जाओ यहां से.’’

नील जिद्दी बच्चे की तरह अकड़ते हुए बोला, ‘‘क्यों जाऊं? मैं भी बराबर की किस्त भरता हूं इस फ्लैट की… मेरा भी हक है इस पर… मैं तो यहीं रहूंगा जब तक मेरा मन करेगा… तुम जाओ अगर तुम्हें मेरे रहने पर एतराज है तो.’’

मैं ने भी अपने दोनों हाथ कमर पर रखते हुए   झांसी की रानी वाली मुद्रा में सीना चौड़ा कर के कहा, ‘‘मैं क्यों जाऊं?’’ पर मन में सोच रही थी कि अब तो मर भी जाऊं तो भी नहीं खिसकूंगी इस जगह से.

औफिस से निकलते हुए मन में आया होगा चल कर फ्लैट में रहा

जाए और मुंह उठा कर आ गया. कैसे रहेगा, क्या खाएगा यह सोचने इस के फरिश्ते आएंगे. कहीं ऐसा तो नहीं यह केवल फ्लैट देखने आया था. मु  झे देख कर स्वयं भी यहां टिकने का मन बना लिया. इसे मु  झे चिढ़ाने में बहुत मजा आता है. नील हक से डब्बा ले कर बाहर बालकनी में जा कर दीवार का सहारा ले कर फर्श पर बैठ गया. डब्बा उस के हाथ में था, मजबूरन मु  झे उस के पास जमीन पर बैठना पड़ा.

आसमान में बिखरे अनगिनत तारे निकटता का एहसास दे रहे थे और अंधेरे में दूर तक जगमगाती रोशनी भी तारों का ही भ्रम दे रही थी. खामोशी से बैठ यह नजारा देख बड़ा सुकून मिल रहा था. लेकिन अगर अकेली होती तो इस विशालता का आनंद ले पाती. न चाहते हुए भी मुंह से निकल गया, ‘‘कैसे हो?’’

नील आसमान ताक रहा था. मेरे प्रश्न पर सिर घुमा कर मु  झे देखने लगा. एकटक कुछ पल देखने के बाद बोला, ‘‘बहुत सुंदर लग रही हो इस ड्रैस में.’’

नील ने दिलाई थी जन्मदिन पर. कुछ महीनों से पैसे जोड़ रहा था. इस बार तु  झे महंगी सी पार्टीवियर ड्रैस दिलाऊंगा… कहीं भी जाना हो बहुत साधारण कपड़े पहन कर जाना पड़ता है तु  झे.

सारा दिन बाजार घूमते रहे, लेकिन नील को कोई पसंद ही नहीं आ रही थी. फिर यह कढ़ाई वाली मैरून रंग की कुरती और सुनहरा प्लाजो देखते ही बोला था कि यह पहन कर देख रानी लगेगी. शीशे में देखने की जरूरत ही नहीं पड़ी. उस की आंखों ने बता दिया ड्रैस मु  झ पर कितनी फब रही है. कितना समय हो गया है इस बात को. मौके का इंतजार करती रही. किसी खास पार्टी में पहनूंगी… इतनी महंगी है कहीं गंदी न हो जाए. आज औफिस में फंक्शन में पहनने के लिए निकाली थी, लेकिन न जाने क्यों इतनी भीड़ में शामिल होने का मन नहीं कर रहा था. लगा सब को हंसताबोलता देख कहीं दहाड़ें मार कर रोने न लग जाऊं. कुछ सामान इकट्ठा किया और यहां आ गई, इस से पहले कि मेरा बौस हिरेन मु  झे लेने आ जाता.

नील अभी भी मु  झे देख रहा था. बोला, ‘‘इस के साथ   झुमके भी लिए थे वे नहीं पहने…’’

200 रुपए के   झुमके भी खरीदे थे, बड़े चाव से. कैसे 1-1 चीज दिला कर खुश होता था.

मैं हंस कर कहती, ‘‘ऐेसे खुश हो रहे हो जैसे स्वयं पहन कर बैठोगे.’’

वह मुसकरा कर कहता, ‘‘मैं अगर ये सब पहनता होता तो भी मु  झे इतनी खुशी नहीं मिलती जितनी तु  झे पहना देख कर मिलती है.’’

कितना प्रेम था हम दोनों के बीच, लेकिन सुरक्षित भविष्य की चाहत में ऐसे दौड़ पड़े कि वर्तमान असुरक्षित कर लिया… एकदूसरे से ही दूर हो गए.

मैं ने लंबी सांस लेते हुए कहा, ‘‘हिरेन के साथ पार्टी में जाने के लिए तैयार हो रही थी, लेकिन मन नहीं कर रहा था, इसलिए उस के आने से पहले ही जल्दी से निकल गई.’’

हिरेन का नाम सुनते ही नील का चेहरा उतर गया. न जाने क्या गलतफहमी पाले बैठा है दिमाग में. रात बहुत हो गईर् थी. मैं उठ खड़ी हुई. जिस कमरे में मैं ने सामान रखा था वहां चली गई. रात के कपड़े बदल कर लेटने के लिए दरी बिछाई तो ध्यान आया नील कैसे सोएगा, बिना कुछ बिछाए. ऐसे कैसे बिना सामान के रात बिताने यहां आ गया? कितना लापरवाह हो गया है. बाहर आ कर देखा तो नील अभी भी पहले की तरह बालकनी में दीवार के सहारे बैठा आसमान को टकटकी लगाए देख रहा था. कितना कमजोर लग रहा था. पहले जरा सा भी दुबला लगता था तो आधी रोटी अधिक खिलाए बिना नहीं छोड़ती थी.

अब मु  झे क्या? क्या रिश्तों के मतलब इस तरह बदल जाते हैं? मैं ने उस की तरफ चादर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यह चादर ले लो. बिछा कर लेटना. फर्श ठंडा लगेगा.’’

नील मेरी तरफ देखे बिना बोला, ‘‘नहीं रहने दो. इस की जरूरत नहीं है.’’

‘‘मेरे पास 2 हैं, ले लो.’’

नील बैठेबैठे ही एकदम से मेरी तरफ मुड़ा. उस का मुख तना हुआ था. दबे आक्रोश में बोला, ‘‘जाओ यहां से फिर बोलोगी मु  झे केवल तुम्हारी देह की पड़ी रहती है. तुम्हारे शरीर के अलावा मु  झे कुछ नजर नहीं आता.’’

जब से यह वाकेआ हुआ था हमारे बीच की दरार खाई बन गई थी. वह ताने मार कर बात करता और मैं शांति बनाए रखने के लिए खामोश रहती. अब भाड़ में जाए शांति.

‘‘तो क्या गलत बोला था, थकीहारी औफिस से 6 बजे आती और तुम बस वे सब करना चाहते थे.’’

सुभा: भाग 3- देवी की मूर्ति हटाने की बात पर क्या हुआ सुभा के साथ

किंतु न जाने कब नियति ने उन के मनमंदिर में सुभा का अनाधिकार प्रवेश करा  दिया था. देवेन जान भी नहीं पाए थे और उन के अभेद संयम दुर्ग में प्रेम नामक एक सर्प घुस आया था. वह तो क्या संसार का संयमी से संयमी पुरुष भी होता तो वह भी उस चंचल और सुंदर किशोरी का हाथ थामते ही दुस्साहसी बन जाता. 2 वर्षों के अमूल्य साथ ने जाति विभेद के अस्तित्व को ही मिटा दिया था.

उन के दाएंबाएं, दामिनी सी दमकती वह दुस्साहसिनी लड़की उन्हें उंगुलियों पर नचा रही थी. जिस के परिवार के दुश्चरित्रता की दिगंत्व्यापी दंतकथाओं को वे सुनते आ रहे  थे और जिस से उन्हें नफरत होनी चाहिए थी, उसी को पाने के लिए वे स्वप्नों के शून्याकाश में बांहें फैलाने लगे थे.

‘‘तेरे जैसी मूर्खा से प्रेम कर बैठा हूं, बस शंभू तेरी इस बुद्धि और हमारे इस प्रेम को दुनिया की नजरों से बचा कर रखे.’’

यह सुनते ही सुभा उस के गले में बांहें डाल कर झल पड़ी थी. पर शंभू में युगल प्रेमियों की इस प्रणयकिलोल में सहयोग देने का धैर्य नहीं रहा और देवेन के पिता को सब पता चल गया.

न्यायधीश के सामने जब देवेन की पेशी हुई, झठ नहीं बोल पाए थे वे.

‘‘ब्राह्मण हो कर शूद्र की लड़की से प्रेम तुम्हें शोभा नहीं देता,’’ पंडितजी ने भीतर कठिनाई से दबाए जाने वाले क्रोध को बड़ी कठिनाई से रोक कर कहा.

‘‘और फिर ऐसी मति भ्रष्ट, चरित्रहीन और विप्लवी लड़की के साथ क्या तुम्हारा निबाह हो पाएगा?’’ कभी किसी भी रूप में अपना मत न प्रकट करने वाली माता भी आज बोली थी. इस के पीछे का कारण पुत्र प्रेम था अथवा सौतिया डाह इस की मीमांसा का भार स्वयं उन्हीं पर था.

यों रुकावट पड़ती देख पंडितजी ने अपने वृषभ स्कंधों को थोड़ा ऊंचा उठा कर फैसला सुना दिया, ‘‘तुम कल सुबह ही चाचा के पास चले जाओगे, आगे की पढ़ाई वहीं से करो यही अच्छा है.’’

‘‘बा… बा… बूजी..’’ देवेन ने एक दुर्बल प्रयास किया था.

‘‘ऐसी स्त्रियां विवाह योग्य कदापि नहीं होतीं. गंदे नाले का पानी पीने के लिए इस्तेमाल नहीं करते, यह बात तुम जितनी जल्दी समझ जाओ तुम्हारे लिए अच्छा हैं,’’ अनकही बातें पिता की आंखों ने पुत्र को समझ दी थीं.

इतने दिनों से प्रेम की जिस पतवार को थामे वे चल रहे थे, उस में दरारें आ गई थीं.  सुभा उस के लिए एक ऐसा जंगली गुलाब बन गई थी जिसे हवा में झमते देखना किसी भी प्रकृति प्रेमी मन को रुच सकता था, उसे तोड़ कर सूंघा भी जा सकता था, परंतु ऐसे फूल को देवता के चरणों में नहीं चढ़ाया जा सकता था.

अस्पृश्यता को विस्मृत भी कर दें तो, ऐसी मुंहजोर, स्वच्छंद और विदग्ध स्त्री से प्रेम तो किया जा सकता है, परंतु ऐसी स्त्रियां विवाह के लिए सर्वथा उपयुक्त नहीं हैं? ऐसा निश्चय कर वे अगले ही दिन सुभा से मिले बिना दिल्ली के लिए रवाना हो गए थे.

वह मानिनी अपना मान त्याग बीच रास्ते उन्हें रोकने भी आई थी, परंतु देवेन के एक छोटे से वाक्य ने उस के सुंदर चेहरे को निस्तेज कर दिया था.

‘‘सुभी, पहाड़ के जलप्रपात को घर में लाने की कुचेष्ठा मैं नहीं कर सकता. मेरा रास्ता …’’

उन की बात पूरी होने के पहले ही सुभा हिरणी सी कुलांचें भरती हुई उन के जीवन से गायब हो गई थी.

‘‘क्षमा कीजिएगा, थोड़ी देर हो गई. कुछ ही दिन रह गए हैं समारोह में, तो प्राभ्यास में लगे हुए हैं हम सब,’’ सामने आ कर बैठ गई थी सुभा.

वह क्या 24 वर्ष पूर्व की सुभा थी. तब का गोल चेहरा लंबोतरा हो कर और भी आकर्षक बन गया था. 16 वर्ष की वह किशोरी 40 वर्ष की स्त्री बन गई थी. सुघड़ जूड़े में मंडित घने केशपाश की गरिमा आज भी वैसी ही थी. उन अधरों की स्वाभाविक लालिमा को देवेन ने बहुत निकट से देखा था. आज स्वामिनी ने उन्हें हलके गुलाबी रंग के पीछे ढक रखा था.

देवेन को देख कर उस के मुख पर एक अपरिचित स्मित की रेखा सहसा उज्ज्वल हो उठी थी. बदल तो देवेन भी गए थे. एक युवक अब जीवन के 50 वसंत देख कर प्रौढ़ हो गया था. वह सुभा के मुख के भाव पड़ने की चेष्टा करने लगा था.

‘‘जी,’’ सुभा की आंखों में अब भी अजनबीपन ही था.

‘‘मैं नवल का पिता हूं.’’

‘‘मैं जानती हूं,’’ सुभा ने कहा परंतु उस का चेहरा अभी भी भावहीन ही था.

‘‘जानती थी, फिर तुम ने ऐसा क्यों किया? कहीं, मुझ से प्रतिशोध लेने के लिए तो…’’ प्रश्न के कंठ से छूटते ही देवेन को पसीना छूटने लगा. किंतु सुभा उसी प्रकार शांत बैठी रही.

उच्छावास के बाद, एक गंभीर और सशक्त आवाज में उस ने उत्तर दिया, ‘‘देवेन, भारतीय समाज को पितृसत्ता की व्यवस्था के तहत ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज कहा जाता है. इस के पीछे कारण हैं कि यहां का समाज जाति व्यवस्था पर आधारित है, परंतु इस की भी एक खास बात है, महिलाओं पर चाहे वह किसी भी जाति या वर्ग की हो पितृसत्ता का उत्पीड़न बना रहता है.’’

‘‘मेरी बात से इस बात का औचित्य? मैं समझ नहीं पा रहा,’’ देवेन झंझला पड़े थे.

सुभा ने हंस कर अपनी बात जारी रखी, ‘‘इस बात का ही तो औचित्य है. आप को लगता है कि यदि आप किसी स्त्री को त्याग देते हैं, तो उस के पास कुछ ही विकल्प शेष रह जाते हैं. मृत्य को अंगीकार करना, विरह की अग्नि में जलना अथवा प्रतिकारस्वरूप उसी अग्नि में एक दिन उसी पुरुष को जलाने की मंत्रणा करना.

आप की ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक सोच आपको यह सोचने ही नहीं देती कि हर नायिका विप्रलब्धा नहीं होती, कुछ नायिकाएं स्वयंसिद्धा भी होती हैं.’’

देवेन उस के बुधिदिप्त चेहरे को देखते रह गए. बोले, ‘‘वह मैं ने सुना था कि तुम…’’ देवेन ने अपने दांतों से जीभ काट कर बात पूरी की, ‘‘आप ने विवाह नहीं किया.’’

सुभा व्यंग्यात्मक मुसकान के साथ बोली, ‘‘और आप ने यह सोच लिया कि मैं ने आप की विरह में आजीवन कौमार्य का प्रण ले रखा है.’’

देवेन का सर झक गया था.

‘‘मैं ने विवाह नहीं किया क्योंकि मु?ो कोई अपने जैसा नहीं मिला और मैं श्रेष्ठ से नीचे कुछ चाहती नहीं थी. वैसे भी पुरुष एक सशक्त, विप्लवी और प्रारब्धवान स्त्री से डरते हैं. मैं अपनी स्वतंत्रता के साथ समझता नहीं कर सकती. विवाह कोई अनिवार्यता नहीं वरन व्यक्तिगत चुनाव है और आप की जानकारी के लिए बता दूं, मैं अविवाहित अवश्य हूं, परंतु अकेली नहीं.’’

‘देवेन तू मूर्ख है. तू क्या इस स्वाभिमानी स्त्री को नहीं जानता. संसार का कौन सा मूर्ख पुरुष होगा जो इस पूजनीय प्रतिमा के सामने नतमस्तक नहीं होगा. नवल तो फिर भी एक बालक हैं,’ उन के विवेकशील अंत:करण ने उन्हें चाबुक की मार से तिलमिला दिया.

देवेन के मानसिक यंत्रणा से अनभिज्ञ सुभा ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘आज से  पहले मैं नहीं जानती थी कि नवल आप का पुत्र है. उस के विचार भी तो आप से मेल नहीं खाते. न पुरुष होने का दंभ और न ही अपनी जाति की झठी सर्वोचता का घमंड,’’ सुभा की आवाज में तलखी थी.

एक लंबी सांस ले कर वह आगे बोलने लगी, ‘‘खैर, आज प्रात: उस ने अपने दिल की बात मेरे सामने रखी. एक पल में मैं समझ गयी थी कि यह प्रेम नहीं, मात्र आदरणीय और अपरिपक्व आकर्षण है, जो इस उम्र में आम बात है. किसी से प्रेम होना गलत भी नहीं है, बात धर्म, जाति, लिंग और उम्र की नहीं. बात प्रेम की परिपक्वता की है. मैं ने उसे समझया, प्रेम का मात्र एक ही रूप नहीं है.

‘‘आप अत्यंत आदरणीय से भी तो प्रेम करते हैं. मु?ो भी उस से प्रेम हैं, परंतु एक शिशु के समान. जहां स्वार्थ नहीं है, प्रेम वहीं है. मेरी बातें सुन कर उस की आंखें भर आई थीं. समझदार बच्चा है, धीरेधीरे समझ जाएगा. मैं उस के मार्गदर्शन के लिए सदा रहूंगी, आप की अनुमति हो अथवा न हो.’’

अब देवेन से कुछ न कहा गया, गला रुध आया था. इस स्त्री के सामने वे स्वयं को कमजोर तो हमेशा महसूस करते थे, आज परास्त भी हो गए थे. उन के सामने जो नारी खड़ी थी उस ने उन्हें पिघला दिया था. उन्होंने मन ही मन कहा कि आप जो चाहोगी वही होगा. इस संसार में नवल का भला आप से ज्यादा कोई नहीं सोच सकता.

अपने जुड़े हुए हाथ उन की तरफ करते हुए सुभा खड़ी हो गई थी. देवेन भी खड़े हो गए. नि:शब्द दोनों ने विदा ली.

सुभा: भाग 2- देवी की मूर्ति हटाने की बात पर क्या हुआ सुभा के साथ

उस के प्रेम की निजता तभी तक थी जब तक उस की खबर किसी और को नहीं लगती. परंतु हाय, उस की आंखों ने चुगली कर दी थी. माता को इन दिनों पुत्र का खोयाखोया रहना नहीं भा रहा था. बात पिता तक पहुंची, व्यावहारिक तथा इंद्रियगम्य देवेन को पुत्र के दिल का हाल समझते ज्यादा देर नहीं लगी.

कुमाऊं के छोटे से गांव के एक धर्मपरायण परिवार में उन का जन्म हुआ था. पिता थे एक शिव मंदिर के पुजारी और माता थी सरल गृहिणी जिन्हें मुंह खोलने की स्वतंत्रता भोजन के समय ही थी. पहाड़ के मोटे चावल और मडुवे की रोटी को निगल वे झल के तीखे उतारचढ़ाव पार कर स्कूल पढ़ने जाते थे. उन के पिता इच्छा के अनुरूप कई पुत्रों के पिता तो अवश्य बने, परंतु जीवित एकमात्र देवेन ही रह पाए थे.

उस गांव के प्रजातंत्र में भी इतना साहस नहीं था कि वह पंडित श्री सूर्यनारायण की बात काट दे. परंतु फिर भी पिता के विरोध के बावजूद अपने ही पौरुष की बैसाखियों को टेकते वह मेधावी छात्र एक दिन छलांग लगा कर देहरादून का प्रसिद्ध हीरा व्यवसायी बन गया था.

स्वयं के अनुभवों ने उन की सोच को आधुनिक और प्रगतिशील बना दिया था. उन का अपने पुत्र के साथ व्यवहार भी मित्रवत ही था. इसलिए अपने पुत्र के पास जा कर उस की प्रेयसी के बारे में पूछने में उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ. परंतु प्रेयसी की उम्र जान कर उन का प्रगतिशील हृदय भी धिक्कार उठा था. वे जानते थे नवल की उम्र में विमोह होना प्राकृतिक है. इसलिए क्रोध उन्हें उस प्राध्यापिका पर आ रहा था. बड़ी ही चतुराई से उन्होंने नवल को नानी से मिलने के लिए भेज दिया और स्वयं उस मोहिनी से मिलने पहुंच गए.

अभी देवेन की गाड़ी वहां पहुंची ही थी कि उन्होंने नवल को वहां से निकलते हुए  देख लिया. जाने से पहले अपनी प्रेयसी से अनुमति लेने आया होगा, यह सोचते ही क्रोध से उन का चेहरा तमतमा हो उठा. वे क्रोध में पैर पटकते हुए प्राभ्यास भवन के अंदर चले गए.

‘‘लोगों को अपनी भंगिमाओं पर घुमाना खूब आता है आप को, ‘‘सुभा अभी कलाकारों को निर्देश दे ही रही थी पीछे से किसी की अनाधिकार टिप्पणी ने उसे अचंभित कर दिया.

वह स्वर की दिशा की तरफ पलटी और देवेन को उन के जीवन का एक बहुत बड़ा झटका मिला.

‘यह कैसे आ गई यहां? क्या मेरी ही इच्छाशक्ति इसे खींच लाई?’ मन ही मन देवेन सोचने लगे थे. इतने वर्षों बाद भी इस अलौकिक नारी की उपस्थिति उन्हें सम्मोहित कर रही थी.

‘‘आप भीतर कमरे में जा कर बैठें, मैं आती हूं,’’ सुभा सामान्य ही थी.

स्मृतियों के जलप्रपात पर यत्न से बनाया गया बांध किसी अदृश्य शक्ति द्वारा तोड़ दिया गया था और वे तीव्र फुहार के साथ देवेन के मन और मस्तिष्क को भिंगोती चली गई.

गांव की खूबसूरत यादों में सब से मोहक याद उसी की तो थी. प्रशस्त ललाट, तीखी नासिका, भुवनमोहिनी सुभा स्वभाव से विप्लवी और जाती से अश्पृश्य थी. उस के विप्लवी स्वभाव और निर्दोष चेहरे को देख कर ही उस का नाम उस के पिता ने महाकाली के कई नामों में से चुन कर रखा था, सुभा, अर्थात् वह जो सौभाग्यशाली है. परंतु उस के नाम की शुभता भी उस की जाति की अस्पृश्यता का दमन नहीं कर पाई थी.

‘‘छोटे पंडित, शंभू की पूजा का समय हो गया,’’ कहती हुई वह प्रतिदिन सुबह देवेन के शयनकक्ष की खिड़की की सांकल खड़खड़ा जाती और वे झंझला कर खून का घूंट पी कर रह जाते थे.

एक दिन रात बीतने को ही थी कि खुसरफुसर सुन सब ने सोचा मंदिर में कोई जानवर घुस आया है, जिसे भगाने का भार देवेन पर डाला गया. देवेन ने लाठी उठाई, परंतु जब वहां पहुंचे तो देखा कि कोई दूसरी ही छाया अपनी अपावन उपस्थति से शिवालय को अपवित्र कर रही थी. शिवलिंग के सम्मुख घुटने टेके आंखें मूंदे करुण स्वर में गा रही थी-

ईट की दीवारों में बंदी,

यह प्रभू नहीं उस की मूरत है.

जो जीव प्रेम की चुनरी ओढ़े,

उस मानव में उस की सूरत है.

प्रभु नाम को जपने वालो,

सुन लो यह कथन भी मेरा.

तुम जिस को पूजते रहे,

अस्पृश्य है वह प्रभु भी तुम्हारा.

देवेन का सम्मोहन उस के पिता की कर्कश ध्वनि ने तोड़ा, ‘‘ऐ लड़की सुबहसुबह मंदिर को अपवित्र कर रही है, चल निकल भाग. अभागन प्रभु को अस्पृश्य कहती है.

क्यों न कहूं. स्पर्श किया है कि तुम ने अपने प्रभु को? जिस का स्पर्श नहीं कर सकते वह तो अस्पृश्य ही हुआ न? अपने प्रश्न का उत्तर स्वयं दे कर बाबूजी को अंगूठा दिखा कर भाग गई थी वह आनंदी.

बाबूजी चाहते तो सुभा और उस के परिवार को भगाने में उन्हें क्षणिक भी समय नहीं लगता, परंतु सुभा की विधवा बूआ की अनन्य भक्ति आड़े आ जाती थी. अस्पृश्यता की कालिख रात्रि के अंधेरों में मिल जाती थी, इसलिए बाबूजी की शिक्षा उस बेचारी को रात में ही नसीब होती थी. विद्यालय में भी सुभा को प्रवेश मेरे प्रभुतुल्य पिता की अनुशंसा पर ही मिला था.

जो अपनी दर्पोंक्ति से गांव के मनचलों को तिलमिला कर कर स्तब्ध कर दिया करती थी, उस की बातों का मर्म समझने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं थी, स्वयं देवेन में भी नहीं.

देवेन से 10 वर्ष छोटी होने के बावजूद समझदारी में सुभा उस से बहुत बड़ी थी.

एक दिन ऐसे ही मंदिर में आ कर देवी की मूर्ति हटाने की बात करने लगी.

‘‘पागल हो गई है क्या?’’ देवेन की आंखों में भय था.

‘‘क्यों? 5 दिनों के लिए जब सभी स्त्रियां अस्पृश्य हो जाती हैं, तो यह देवी बारहों महीने अंदर मंदिर में कैसे बैठ सकती हैं?’’ यह कह वह पुन: अंदर जाने का प्रयास करने लगी. देवेन उस का दुसाहस देख कर दंग रह गया था.

‘‘पगली, ये तो देवी हैं,’’ उस प्रज्ञात्मक कन्या को देवेन ने समझने का असफल प्रयास किया.

‘‘देवी हैं तो क्या औरत नहीं हैं? क्या ये योनिविहीन हैं? क्या इन के पास अंडाशय नहीं है?’’ बड़ी मुश्किल से उस दिन उसे वहां से खींच कर ला पाए थे वे. पता नहीं वह सिरफिरी उस दिन क्या कर बैठती.

‘‘अच्छा तो क्या तू ईश्वर को भी स्वीकार नहीं करती?’’ एक बार देवेन ने उस से पूछा.

सुभा ने हंस कर जवाब दिया था, ‘‘इतना डरडर कर क्यों पूछ रहे हो? इस में भय की कोई  बात नहीं. कह नहीं सकती, अभी तो उसे ले कर असमंजस की स्थिति में हूं. परंतु कालांतर में शायद उस के अस्तित्व को नकार दूं,’’ उस किशोरी की इन बातों से देवेन डर जाते और मन ही मन उस लड़की की छाया से भी दूर रहने के वादे करते थे.

 

सुभा: भाग 1- देवी की मूर्ति हटाने की बात पर क्या हुआ सुभा के साथ

‘‘निर्धनतथा संपन्न, सबल तथा निर्बल के बीच कभी न समाप्त होने वाली असमानता व्याप्त है. परंतु इस क्षणभंगुर संसार में भी एकमात्र वही हैं, जिस ने बिना किसी पक्षपात हर श्रेणी में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है. नियत समय पर भयमुक्त आती है और मनुष्य को अपनी सत्ता दिखा जाती है, मृत्यु ही परम सत्य है.’’

‘‘परंतु मैम, जीवन क्या परम सत्य नहीं हैं?’’

‘‘आप के जीवन में नवांकुर पल्लवित होगा अथवा नहीं, इस में संशय हो सकता है, परंतु मृत्यु आएगी इस में कोई संशय नहीं है. इसलिए मेरे अनुसार जीवन एक सार्वभौमिक सत्य है परंतु परम सत्य तो मृत्यु ही है,’’ अपने प्रथम वर्ष के विधार्थियों की भीड़ को मुग्ध कर प्रोफैसर सुभा ने अपनी बात समाप्त की और कक्षा से निकल गई.

सुभा की सर्विस का यह 10वां वर्ष था. अपने इन 10 वर्षों के कार्यकाल में वह देहरादून स्थित एल.एम. कालेज में दर्शनशास्त्र का पर्याय बन गई थी. अपने सभी विद्यार्थियों को उस ने दर्शन कला में इतना निपुण बना दिया था कि उस ने पिछली बार कालेज के मुख्यातिथि, राज्यपाल को वर्ण व्यवस्था पर आधारित नाटिका में अपने विचारों से मुग्ध कर दिया था.

माननीय अतिथि के सम्मान में उस विलक्षण प्राध्यापिका ने प्राचार्य के कुछ ही क्षणों के दिए गए आदेश का पालन कर सुंदर कार्यक्रम ही प्रस्तुत नहीं किया, एक मानपत्र भी भेंट किया. उस की लच्छेदार और त्रुटिरहित भाषा की सराहना स्वयं राज्यपाल ने भी की थी.

इस वर्ष भी कार्यक्रम की सूत्रधार सुभा ही थी. उस के निर्देशन में दर्शनशास्त्र के छात्र एक विशेष नाटिका की तैयारी में व्यस्त थे. ‘सबरी का प्रेम’ नामक नाटक के मंचन की तैयारियां चल रही थीं. यह एक सवर्ण राजकुमार और दलित कन्या के प्रेम पर आधारित नाटिका थी.

नवल को भी नाटक में एक छोटी सी भूमिका निभाने का मौका मिल गया था. वह दर्शनशास्त्र के प्रथम वर्ष का छात्र था. उस के  पिता देवेन देहरादून के प्रख्यात हीरा व्यवसायी थे. नवल उन का एकमात्र पुत्र था.

उस की उम्र में समाज और स्वयं को ले कर ढेरों प्रश्न होते हैं. अपने इन्हीं प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए वह सुभा के समीप जाने लगा था. प्रतिदिन की मुलाकातों और सुभा के दोस्ताना व्यवहार ने नवल को मुखर बना दिया था. हालांकि सुभा का आचरण सब विद्यार्थियों के साथ समान ही था, परंतु अपरिपक्व नवल स्वयं को उस के निकट अनुभव करने लगा था.

सुभा को देख कर कोई दोबारा देखने का लोभ विस्मरण नहीं कर पाता था. उस के जैसी ओजस्वी वक्ता अपनी मीठी वाणी और अकर्तित तर्कों के मोहपाश में कड़े से कड़े आलोचक को भी बांध देती थी तो फिर नवल तो एक अपरिपक्व और अपरिणामदर्शी युवक था. सुभा को देख कर उस के भीतर विस्मय मिश्रित श्रद्धा का भाव उत्पन्न हुआ था, जिस ने कालांतर में एकतरफा प्रेम का रूप ले लिया.

एक दिन नाटक के प्राभ्यास के पश्चात जब सभी थोड़ा विश्राम कर रहे थे नवल ने अनायास ही एक प्रश्न पूछ लिया, ‘‘मैम, समानता कब आएगी?’’

सुभा ने जरा हंस कर सामने पड़ी कुरसी को हाथ से ठेल कर कहा, ‘‘जिस दिन हर मनुष्य यह जान लेगा कि जिस धर्म, जाति, रंग, प्रदेश अथवा देश के दंभ में वह स्वयं को दूसरों से उच्च समझता है, वह उस की कमाई नहीं, बल्कि विरासत है, समानता उसी क्षण आ जाएगी.’’

नवल ने पुन: प्रश्न किया, ‘‘परंतु इस में तो संदेह है, तो क्या शांति कभी नहीं होगी?’’

सुभा पलभर चुप रह कर मीठे स्वर में बोली, ‘‘जब कर्मठ और मेहनतकश लोगों का राज होगा शांति तभी आएगी. उन की बस एक जाति होगी- कर्मण्यता. जो निठल्ले और नाकारा लोग हैं वे लड़ने और लड़ाने के अलावा कुछ सोच ही नहीं सकते.

‘‘यदि लोग अपनी हर मुसीबत का हल स्वयं ढूंढ़ने लगें तो सोचो पंडितों की तो दुकानें ही बंद हो जाएंगी,’’ सबरी का पात्र निभाने वाली मेघा की इस बात पर सभी हंस पड़े थे और माहौल हलका हो गया था.

नवल भी कुछ क्षण चुप रह कर बोला, ‘‘आरक्षण समानता के प्रथम सोपान की तरह था. परंतु आप को नहीं लगता कि वह भी समाज की सोच को नहीं बदल पाया?’’

‘‘हां, कह तो तुम सही रहे हो, परंतु यह बात भी तो है कि शोषित वर्ग की इस व्यवस्था में हिस्सेदारी भी तो बड़ी है. पहले उच्च पद पर कितने दलित मिलते थे, परंतु आज देखो,’’ उन में से एक छात्र रमन ने जवाब दिया.

‘‘हां, आज तो आलम यह है कि जो लोग पहले ऊंची जाति के गुमान में रहते थे, वे भी आरक्षण के दायरे में आने के लिए आंदोलन कर रहे हैं. अब इसे क्या कहेंगे?’’ हरमन व्यंग्यात्मक मुसकान के साथ बोला.

सुभा चुप ही रही. वह विद्यार्थियों को अपना मत रखने देना चाहती थी.

नवल ने दुखी हो कर कहा, ‘‘इस से कुछ भी नहीं बदला, स्थिति आज भी सोचनीय है. हां, कभीकभी शोषक और शोषित की जाति बदल जाती है. किसी विभाग में उच्च अधिकारी निम्न वर्ग का होता है, तो वह सवर्ण जाति के अपने मातहतों का तिरस्कार करता है जैसे ऐसा करने से वह अपने पूर्वजों के अपमान का बदला ले रहा हो अथवा समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था को चोट पहुंचा रहा हो,’’ गौतम उस की बात का जवाब देते हुए तुरंत बोल पड़ा, ‘‘अंधकार में यदि भूतों के भय से नेत्र बंद कर यदि तुम आराम पाते हो तो ऐसा ही सही, मैं तुम्हें नेत्र खोलने को नहीं कहूंगा. अपने मातहतों का अपमान करने वाला निम्नवर्ग का हो न हो दंभी अवश्य होता है. दफ्तरों में, विद्यालयों में यहां तक कि पूजास्थलों में भी दलितवर्ग को मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है.

‘‘मैं बड़े शहरों की बात नहीं कर रहा. वहां शायद स्थिति अपेक्षाकृत संतोषजनक है. इस का कारण लोगों की सोच में बदलाव हो, यह ठीकठीक तो नहीं कह सकता, परंतु मीडिया का सशक्त होना अवश्य है. परंतु छोटे शहरों खासकर गांवों में स्थिति आज भी चिंतनीय है. आज भी पुकारने के लिए हम निम्न और उच्चवर्ग शब्द का इस्तेमाल करते हैं, आज भी हमारे फार्म में जाति का एक कालम है. आज भी इस देश के चुनाव जाति और धर्म के नाम पर लड़े और जीते भी जाते हैं. यही साबित करता हैं कि असमानता की यह खाई कितनी चौड़ी है.

‘‘अनुत्तरित नवल ने उस की बात का अनुमोदन करते हुए चुपचाप सिर हिला दिया.

अब तक शांत खड़ी सुभा ने हाथ के पन्नों को ठीक स्थान पर रख कर बोलना शुरू  किया, ‘‘चाहे वह तथाकथित उच्चवर्ण हो अथवा तथाकथित निम्नवर्ण, प्रभुता की लड़ाई में पलड़ा जिस ओर ज्यादा झकेगा, विद्रोह होगा. शोषक और शोषित वर्ग की भूमिकाएं बदलती रहेंगी. यह विद्रोह विनाश लाएगा, प्रत्युत इस विनाश में ही नवजीवन का विकास निहित है.

‘‘इस संगति की उन्नति किसी एक वर्ग की समृद्धि में नहीं वरन सभी वर्गों की सम्मिलित विकासन में है. कोई भी वर्ग किसी दूसरे वर्ग का शोषण कर समानता नहीं ला सकता, समानता के लिए बौद्धिक विकास अनिवार्य है,’’ इतना कह झक कर नवल के कंधे को सहसा हलका सा दबा कर हौल के बाहर चली गई. नवल मंत्रमुग्ध सा देखता रह गया.

भैरवी: भाग 3- आखिर मल्हार और भैरवी की शादी क्यों नहीं हुई

उस समय डूबता सूरज जातेजाते दो पल को ठिठक गया था. सांझ अधिक सिंदूरी हो उठी थी और वक्त अपनी सांसें रोक कर थम गया था.

‘‘क्या सोच रही हैं मैडम? आप की चाय ठंडी हो रही है,’’ मोहना ने फिर उसे वर्तमान के कठोर धरातल पर ला पटका था, जहां न तो मोगरे से महकते बचपन की सुगंध थी और न ही गुलाब से महकते कैशोर्य की मादकता.

घड़ी की सूइयों के साथ समय अगले दिन मं प्रवेश कर चुका था. मां सुबहसुबह ही

एअरपोर्ट के लिए निकल गई थीं. दिन में मंत्री महोदय के साथ मीटिंग काफी अच्छी रही थी. मंत्री भी भैरवी के काम करने के तरीके से बहुत प्रभावित थे. वैसे भी लखनऊ जैसे शहर का जिलाधिकारी होना कोई मामूली बात नहीं थी, जिस में हर दिन उस का अलगअलग पार्टियों के नेताओं से आमनासामना होता रहता था. सभी से अच्छे संबंध बना कर रखना भैरवी को भलीभांति आता था.

दिनभर रहरह कर भैरवी को मल्हार का खयाल आता रहा, जबकि उसे यह भी ठीक तरीके से पता नहीं था कि यह वही ‘मल्हार वेद’ है अथवा नहीं. उस के मन में मल्हार के लिए कोई बेचैनी या तड़प नहीं थी, बस एक उत्सुकता भर थी कि वह अब न जाने कैसा दिखता होगा. उस ने विवाह कर लिया होगा तो उस की पत्नी भी साथ आईर् होगी. न जाने उस के परिवार में कौनकौन होगा.

आर्ट गैलरी के उद्घाटन का कार्यक्रम समाप्त होतेहोते शाम के 6 बज गए थे. मल्हार का कार्यक्रम आरंभ होने में अभी भी 1 घंटा शेष था इसलिए भैरवी ने ड्राइवर से अपनी सरकारी गाड़ी घर की ओर मोड़ने के लिए कहा. घर पहुंच कर उस ने हलके वसंती रंग की हरे बौर्डर वाली अपनी मनपसंद साड़ी निकाली.

फिर अचानक ही नन्हा सा मल्हार टपक पड़ा, ‘‘तू यह पीले रंग की फ्रौक में कितनी प्यारी लगती है. यह रंग बहुत जंचता है तुझ पर.’’

‘‘हां, मालूम है मुझे. मां कहती हैं कि सांवली रंगत पर हलके रंग ही फबते हैं. कुदरत ने मुझे सांवला रंग क्यों दिया मल्हार. मैं सोनी जैसी गोरी चिट्ठी क्यों नहीं?’’

उस समय भैरवी ने यह मासूमियत भरा प्रश्न किया था. वह नहीं जानती थी कि एक दिन यह सांवला रंग ही उस की जिंदगी बदल देगा.

ऐसा नहीं था कि अब भैरवी के जीवन में कोई कमी थी. सबकुछ तो था उस के पास. नाम, पैसा, इज्जत, शोहरत. बस नहीं था तो एक अपना कहने वाला परिवार. उस के भाईबहन और यहां तक कि मां को भी बस उस के पैसों और शोेहरत से लगाव था. इस से अधिक कुछ नहीं. उस के भतीजेभतीजियां भी रोज अपनी फरमाइशों की सूची उस के पास भेजा करते कि बूआ मुझे बैटरी वाली डौल चाहिए या बूआ मुझे लाइट वाली साइकिल.

भैरवी जब भी अपनी सहेलियों और हमउम्र औरतों को अपने पति और बच्चों के साथ देखती तो उस के कलेजे में एक हूक सी उठती. फिर वह सबकुछ भूल कर अपने काम में जुट जाती.

जब भैरवी मल्हार के कार्यक्रम वाले आयोजन स्थल पर पहुंची तो हाल खचाखच भर चुका था. भीड़ देख कर भैरवी को एक सुखद आश्चर्य भी हुआ कि आज पौप के संगीत के जमाने में भी लोग लोकसंगीत को इतना पसंद करते हैं.

आयोजकों ने आगे बढ़ कर भैरवी का स्वागत किया और उसे स्टेज के सामने सब से आगे वाली कतार में ले जा कर बैठा दिया.

भैरवी की नजरें स्टेज पर टिक गईं. स्टेज के बीचोंबीच पीले सिल्क के कुरते और सफेद पाजामे में मल्हार खड़ा था. वैसी ही पतली मूंछें और करीने से कढ़े हुए बाल. हां, उस के भी बालों में चांदी ने घर बना लिया था. उम्र के साथ मल्हार का गोरा रंग और भी निखर आया था.

भैरवी को कार्यक्रम का आरंभ दीप प्रज्ज्वलित कर स्टेज पर आमंत्रित किया. जब भैरवी स्टेज पर चढ़ी तब मल्हार की नजरों से उस की आंखें जा मिलीं. मल्हार की आंखों में आश्चर्य व प्रसन्नता के मिलेजुले से भाव उभरे और वह बोल पड़ा, ‘‘अरे तुम… म… म… मेरा मतलब है भैरवीजी आप? यहां? मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था कि आप से यहां मुलाकात हो जाएगी.’’

भैरवी ने कोई उत्तर नहीं दिया, बस मुसकरा कर रह गई. दीप प्रज्ज्वलन के बाद भैरवी अपने स्थान पर आ कर बैठ गई. स्टेज से उतरते समय मल्हार की निगाहें अपनी पीठ पर चिपकी हुई सी महसूस हुई उसे. कार्यक्रम के दौरान उसे लगता रहा कि  जैसे मल्हार उसे देख कर ही गा रहा हो. मल्हार के गीतों में वह स्वयं की कल्पना उस विरहन नायिका की तरह करती रही, जिस का पति परदेश चला गया है या फिर जिस का प्रेमी या पति हरी चूडि़यां लाने का वादा कर के देश की सीमा पर शहीद हो गया है.

दर्शक भी मल्हार की जादुई आवाज में डूब कर लोकसंगीत की पावन, सुरीली, सुरम्य धारा में सराबोर होते रहे. मल्हार के हर गीत की समाप्ति पर पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा.

भैरवी का मन भी यह सोच कर गर्व की अनुभूति में डूबताउतराता रहा कि  वह उस मल्हार को बचपन से जानती है, प्रेम करती है, जिस की आवाज की सारी दुनिया दीवानी है. कार्यक्रम लगभग ढाई घंटे तक चला. कार्यक्रम की समाप्ति के पश्चात वहां उपस्थित पत्रकारों ने मल्हार को घेर लिया. भैरवी भी वापस घर जाने के लिए उठ खड़ी हुई, हालांकि आयोजक उस से रात्रि का भोजन कर के वापस जाने का आग्रह करते रहे. परंतु भैरवी वहां से भाग जाना चाहती थी, अपनेआप से भाग जाना चाहती थी. दरअसल, वह मल्हार का सामना नहीं करना चाहती थी. वह नहीं चाहती थी कि अतीत की जिन मृतप्राय यादों को उस ने किसी अंधेरी घुप्प कोठरी में कैद कर रखा है, वे उस कोठरी से निकल कर पुन: जीवित हो जाएं.

तभी किसी पत्रकार के शब्द उस के कानों से आ टकराए, ‘‘मल्हारजी, आप ने अभी तक विवाह क्यों नहीं किया? क्या आप को अभी तक कोईर् भी ऐसी स्त्री नहीं मिली जो आप की जीवनसंगिनी बन सके?’’

मल्हार ने तिरछी नजरों से भैरवी की ओर देखा, जैसे वे नजरें बस उड़ती हुई सी

भैरवी को छू कर निकल गई हों, फिर बोला, ‘‘संगिनी तो मिली थी, परंतु वह मेरी जीवनसंगिनी न बन सकी.’’

भैरवी तेज कदमों से हौल के बाहर चली गई और अपनी गाड़ी में बैठ गई. उस की गाड़ी घर की ओर तेजी से भाग रही थी. आसपास के मकान, पेड़पौधे, दुकानें सबकुछ पीछे छूटता जा रहा था, ठीक वैसे ही जैसी भैरवी अपने बचपन से ले कर अब तक के बिताए पलों को पीछे छोड़, आगे निकल जाना चाहती थी. उस के मन में भावनाओं का ज्वार उफन रहा था जिन में लहरों की तरह हजारों सवाल उस के दिमाग में आ रहे थे कि ओह, तो अभी तक मल्हार ने भी विवाह नहीं किया है, मैं क्यों उस के प्यार की गहराई नहीं सम?ा पाई. मैं ने क्यों बीते इतने

सालों में मल्हार की कोई खोजखबर नहीं ली. मल्हार ने भी कभी मुझे ढूंढने या मिलने का प्रयास क्यों नहीं किया. क्या हमारा प्रेम इतना उथला था. क्या अब भी साथसाथ हमारा कोई भविष्य हो सकता है. मैं क्यों आप मल्हार का सामना नहीं करना चाहती.

घर पहुंच कर भैरवी ने कपड़े बदले और अपने मनपसंद शास्त्रीय गायक भीमसेन जोशी की सीडी अपने लैपटौप पर लगा दी. जब भी उस का मन उद्विग्न होता तो शास्त्रीय संगीत न केवल उस के मन को शांत करता बल्कि उसे सुकून भी पहुंचाता. पंडितजी की आवाज में सुकून की संगीत लहरियां पूरे घर में गूंजने लगीं.

तभी भैरवी के इंटरकाम फोन की घंटी बजी. फोन उठाने पर उस के बंगले पर तैनात दरबान ने बताया, ‘‘मैडमजी, कोई मल्हार नाम के सज्जन आप से मिलना चाहते हैं. मैं ने उन से कहा भी कि हमारी मैडम इतनी रात गए किसी से नहीं मिलतीं परंतु वे यहां से जाने को तैयार ही नहीं हैं. कह रहे कि मैडम से बिना मिले नहीं जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है, अंदर आने दो उन्हें,’’ कह कर भैरवी ने फोन रख दिया.

भैरवी का हृदय उसी षोडषी कन्या की तरह जोरजोर से धड़कने लगा, जो अपने घर वालों से छिप कर अपने प्रेमी से मिलने जा रही हो.

दरवाजे पर दस्तक हुई तो भैरवी ने दरवाजा खोला. मल्हार और भैरवी दोनों ने एकदूसरे को भरपूर नजरों से देखा, चुपचाप एकटक जैसे सालों के विछोह के बाद आमनेसामने होने पर दोनों की नजरें तृप्त हो जाना चाहती हों. उन पलों में समय वैसे ही ठहर गया जैसे किसी झील का ठहरा हुआ पानी.

मल्हार ने ही चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘इतने सालों बाद तुम्हें देख कर मैं कितना खुश हूं, बता नहीं सकता. मैं तो तुम से मिलने की उम्मीद ही छोड़ बैठा था. मुझे लगता था कि तुम्हारी शादी हो गई होगी और तुम अपनी गृहस्थी में मस्तमगन होगी. आज पता चला कि तुम ने भी मेरी तरह शादी नहीं की, तो डीएम साहिबा, क्या अपने घर के अंदर नहीं बुलाओगी? हम यों ही दरवाजे पर खड़ेखड़े ही बातें करेंगे?’’

‘‘रात बहुत हो चुकी है मल्हार, हम कल बात करें,’’ भैरवी ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

‘‘परंतु मुझे तो अभी ही तुम से ढेर सारी बातें करनी हैं. तुम्हारे साथ अपने भविष्य के सपने सजाने हैं. हम दोनों ने ही इतने सालों तक एकदूसरे का इंतजार किया है. अब हमें अपनी जिंदगी एकसाथ बिताने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए भैरवी. सीधे शब्दों में कहूं तो मैं तुम्हारे समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखना चाहता हूं, क्यों न हम जल्द से जल्द विवाह बंधन में बंध जाएं. तुम्हारा क्या खयाल है? मुझ से विवाह करोगी न?’’ मल्हार ने भैरवी की आंखों में झंकते हुए कहा.

भैरवी ने देखा, बाहर बरामदे में लगे लैंपपोस्ट की रोशनी में मल्हार की आंखें जुगनू की तरह चमक रही थीं, भोली, निश्छल सी आंखें जिन में भैरवी के लिए प्रेम छलका पड़ रहा था.

भैरवी ने अपनी नजरें झुका लीं, ‘‘उम्र के जो वसंत बीत जाएं, वे दोबारा नहीं लौटा करते मल्हार, यह सच है कि मैं ने भी तुम्हें टूट कर चाहा है. अपनी कल्पनाओं की दुनिया में न

जाने कितनी बार मैं तुम्हारी दुलहन बनी हूं और तुम मेरे प्रियतम परंतु जिस संगीत ने हम दोनों

को जोड़ा था, वह संगीत ही मेरे भीतर अब सूख चुका है. अब इस पतझड़ के मौसम में बहारें दोबारा नहीं आ पाएंगी, हो सके तो मुझे क्षमा कर देना.’’

‘‘यह क्या कह रही हो भैरवी. तुम तो ऐसी नहीं थीं. तुम इतनी निष्ठुर कैसे बन सकती हो,’’ मल्हार की आवाज भावुकता में बह कर लड़खड़ाने लगी.

‘‘निष्ठुर मैं नहीं, हमारी नियति है मल्हार. अब तुम जाओ, मुझे सोना है,’’ कह कर भैरवी ने दरवाजा बंद कर दिया और दरवाजे पर पीठ टिका कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से गंगाजमुना बह निकली.

भैरवी के मन के भीतर समाई लड़की का मन हुआ कि वह दरवाजा खोल कर देखे कि मल्हार वहीं खड़ा है या चला गया. वह दौड़ कर मल्हार के सीने से लग जाए और कहे कि हां, मल्हार, मैं भी तुम से बहुत प्यार करती हूं. मैं भी तुम्हारे साथ जीना चाहती हूं, तुम्हारी बांहों में मरना चाहती हूं. मगर तुरंत ही उस प्रेम में पगी हुई लड़की का स्थान जिलाधिकारी भैरवी ने ले लिया.

घर में पंडित भीमसेन जोशी की आवाज में राग मल्हार गूंज रहा था और भैरवी की आंखों से आंसुओं की बरसात लगातार हो रही थी.

भैरवी: भाग 2- आखिर मल्हार और भैरवी की शादी क्यों नहीं हुई

इसी बीच बलदेव सिंह का अचानक सड़क दुर्घटना में देहांत हो गया. पिता के देहांत पर जब भैरवी गांव आई तो उसे अपनी बचपन की सहेली से पता चला कि मल्हार का परिवार गांव छोड़ कर राजस्थान चला गया है, जहां के कणकण में लोकसंगीत बसा है. मल्हार के परिवार को वहां बहुत प्रसिद्धि मिल रही है.

पिता की मृत्यु के पश्चात मां राजरानी बिलकुल टूट गई थीं और दादी ने भी खाट पकड़ ली थी. खेतों पर भी बटियादारों द्वारा कब्जा हो गया था और पैसों की तंगी के कारण घर चलाना मुश्किल हो रहा था.

भैरवी का सिविल सेवा परीक्षा का वह चौथा प्रयास था. वह दिनरात कड़ी मेहनत कर रही थी कि इस बार तो वह सिविल सेवा की परीक्षा उत्तीर्ण कर ले. एक दिन वह लाइब्रेरी से लौट रही थी कि उसे मां की चिट्ठी मिली. चिट्ठी में लिखा था-

‘बिटिया भैरवी, शादी विवाह समय पर हो जाए तो सही रहता है. तुम न जाने क्या मन में पाले बैठी हो. बड़ी मुश्किल से तुम्हारे लिए एक रिश्ता आया है, मेरी भाभी के मायके की तरफ का. अगले रविवार को लड़के वाले आ रहे हैं. तुम भी आ जाओ. तुम्हारा विवाह हो तो आगे सोनी का भी विवाह करना है. दोनों बेटियों का विवाह कर लूं तो गंगा नहाऊं.’’

मल्हार के प्रेम में रचीबसी भैरवी इस बार मां को कुछ न कह पाई. उसे तो यह भी नहीं पता था कि इतने साल बीत जाने के बाद मल्हार उस से प्रेम करता भी है या नहीं.

उस ने अपनी सखियों से सुना भी था कि लड़के तो निर्मोही होते हैं. आज किसी से प्रेम तो कली किसी दूसरे से. दिल देने में माहिर होते हैं दिल फेंक किस्म के लड़के, मल्हार भी ऐसा ही हो, क्या पता.

रविवार का दिन था. मां के कहने पर भैरवी ने मां की ही हलकी गुलाबी साड़ी पहनी थी. गुलाबी साड़ी में उस की सांवली सी रंगत और खिल आई थी. आईने में स्वयं को देख कर इतराई थी भैरवी. सांवलासलोना सा रूप, तीखे नैननक्श और लंबी छरहरी काया.

लड़के वालों के सामने जब भैरवी चाय ले कर गई तो उस ने देखा होने वाला दूल्हा और सोनी आपस में बातें कर रहे हैं. अल्हड़ सी सोनी चिडि़या की तरह चहक रही थी, इधरउधर फुदक रही थी.

थोड़ी ही देर में परिणाम सामने था. लड़के वालों ने भैरवी के स्थान पर सोनी को पसंद कर लिया था.

लड़के की मां बोली थीं, ‘‘माफ कीजिए बहनजी, हमें तो अपने बेटे के लिए गोरी लड़की चाहिए. आप की भैरवी का तो रंग बहुत दबा हुआ है. हम सोनी के साथ अपने लड़के का रिश्ता करना चाहेंगे, भैरवी के साथ नहीं.’’

चारों तरफ सन्नाटा छा गया. समय की गति थम गई. तभी दादी ने नीरवता तोड़ते

हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, आप को सोनी पसंद है तो हम सोनी का विवाह आप के लड़के से करा देंगे. सोनी भी अब विवाह लायक है ही.’’

भैरवी सोनी को दुलहन बनते देखती रही. सोनी के साथ ही उस का दुलहन बनने का सपना भी जैसे विदा हो गया.

उसी साल भैरवी का आईएएस में चयन हो गया. फिर कभी दादी या मां ने भैरवी को विवाह करने के लिए नहीं कहा.

भैरवी ने घर का पूरा बोझ अपने कंधों पर उठा लिया. उसकी आमदनी से ही घर चलने लगा. नौकरोंचाकरों की आदत भैरवी को कम उस के घर वालों को अधिक पड़ने लगी.

सभी की सुषुप्त इच्छाएं एक बार पुन: जाग उठीं. मां को महंगी साडि़यां भाने लगी और राजू और दीपू को ब्रैंडेड कपड़े और मोटरसाइकिलें. बड़ी मेहनत से भैरवी ने राजू को इंजीनियर बनाया और दीपू को विदेश पढ़ने भेजा.

आज सभी के विवाह हो चुके हैं. सभी अपनेअपने परिवारों के साथ खुश हैं. दादी को गुजरे हुए 5-6 वर्ष बीत चुके हैं. मां राजरानी भैरवी के साथ ही रहती हैं. भैरवी के बालों में चांदी ?ांकने लगी है. शरीर भी थोड़ा सा भर गया है परंतु चेहरे का लावण्य ज्यों का त्यों है.

‘‘मैडम, चाय बना दूं? क्या आप की तबीयत नहीं ठीक है? आप का चेहरा उतरा सा लग रहा है.’’ मोहना ने पूछा.

मोहना की आवाज से भैरवी अपने अतीत की पुस्तक बंद कर वर्तमान में लौट आई.

इतने सालों से साथ काम करतेकरते मोहना भी भैरवी के लिए सैके्रटरी कम और सखी ज्यादा हो गई थी.

‘‘हां, बना दो… और हां, मां के लिए कल सवेरे की दिल्ली की फ्लाइट का टिकट बुक कर दो, उन्हें मौसी के यहां किसी शादी में जाना है,’’ चाय का घूंट भरते हुए भैरवी के सामने मल्हार का चेहरा उभर आया. वही 16-17 बरस का पतली सी मूंछों वाला मल्हार, जिस की बोलती सी भूरी आंखों में डूब जाने का मन करता था भैरवी का.

‘‘सुन, यदि मैं कुछ दिन तुझ से न मिलूं तो क्या तू मुझे भूल जाएगी?’’ गंगा के कछार पर बैठे हुए एक दिन मल्हार ने उस से पूछा था.

‘‘हां बिलकुल,’’ कहते हुए वह जोर से खिलखिला पड़ी और मल्हार का मासूम सा चेहरा रोंआंसा हो आया था, ‘‘पर मैं तो तुझे जिंदगीभर नहीं भूलूंगा, ब्याह करूंगा तो सिर्फ तुझ से,’’ मल्हार ने अपनी हथेलियों में उस का चेहरा लेते हुए कहा था, ‘‘चल झूठे.’’

कहते हुए भैरवी ने शरारत से अपना मुंह बिचकाया था और फिर न जाने क्या सोच कर उस ने उचकते हुए मल्हार के कपोलों पर अपने प्रेम की नन्ही सी मुहर लगा दी थी.

तुम्हारा जवाब नहीं: क्या मानसी का आत्मविश्वास उसे नीरज के करीब ला पाया

अपनी शादी का वीडियो देखते हुए मैं ने पड़ोस में रहने वाली वंदना भाभी से पूछा, ‘‘क्या आप इस नीली साड़ी वाली सुंदर औरत को जानती हैं?’’

‘‘इस रूपसी का नाम कविता है. यह नीरज की भाभी भी है और पक्की सहेली भी. ये दोनों कालेज में साथ पढ़े हैं और इस का पति कपिल नीरज के साथ काम करता है. तुम यह समझ लो कि तुम्हारे पति के ऊपर कविता के आकर्षक व्यक्तित्व का जादू सिर चढ़ कर बोलता है,’’ मेरे सवाल का जवाब देते हुए वे कुछ संजीदा हो उठी थीं.

‘‘क्या आप मुझे इशारे से यह बताने की कोशिश कर रही हैं कि नीरज और कविता भाभी के बीच कोई चक्कर है?’’

‘‘मानसी, सच तो यह है कि मैं इस बारे में कुछ पक्का नहीं कह सकती. कविता के पति कपिल को इन के बीच के खुलेपन से कोई शिकायत नहीं है.’’

‘‘तो आप साफसाफ यह क्यों नहीं कहतीं कि इन के बीच कोई गलत रिश्ता नहीं है?’’

‘‘स्त्रीपुरुष के बीच सैक्स का आकर्षण नैसर्गिक है. यह देवरभाभी के पवित्र रिश्ते को भी दूषित कर सकता है. जल्द ही तुम्हारी कविता और कपिल से मुलाकात होगी. तब तुम खुद ही अंदाजा लगा लेना कि तुम्हारे साहब और उन की लाडली भाभी के बीच किस तरह के संबंध हैं.’’

‘‘यह बात मेरी समझ में आती है. थैंक यू भाभी,’’ मैं ने उन के गले से लग कर उन्हें धन्यवाद दिया और फिर उन्हें अच्छा सा नाश्ता कराने के काम में जुट गई.

पहले मैं अपने बारे में कुछ बता देती हूं. प्रकृति ने मुझे सुंदरता देने की कमी शायद जीने का भरपूर जोश व उत्साह दे कर पूरी की है. फिर होश संभालने के बाद 2 गुण मैं ने अपने अंदर खुद पैदा किए. पहला, मैं ने नए काम को सीखने में कभी आलस्य नहीं किया और दूसरा यह है कि मैं अपने मनोभाव संबंधित व्यक्ति को बताने में कभी देर नहीं लगाती हूं.

मेरा मानना है कि इस कारण रिश्तों में गलतफहमी पैदा होने की नौबत नहीं आती है. जिंदगी की चुनौतियों का सामना करने में मेरे इन सिद्धांतों ने मेरा बहुत साथ दिया है. तभी वंदना भाभी की बातें सुनने के बावजूद कविता भाभी को ले कर मैं ने अपना मन साफ रखा था.

हम शिमला में सप्ताह भर का हनीमून मना कर कल ही तो वापस आए थे. मैं तो वहां से नीरज के प्रेम में पागल हो कर लौटी हूं. लोग कहते हैं कि ऐसा रंगीन समय जिंदगी में फिर कभी लौट कर नहीं आता. अत: मैं ने तय कर लिया कि इस मौजमस्ती को आजीवन अपने दांपत्य जीवन में जिंदा रखूंगी.

उसी दिन कपिल भैया ने नीरज को फोन कर के हमें अपने घर रात के खाने पर आने के लिए आमंत्रित किया था. वहां पहुंचने के आधे घंटे के अंदर ही मुझे एहसास हो गया कि इन तीनों के बीच दोस्ती के रिश्ते की जड़ें बड़ी मजबूत हैं. वे एकदूसरे की टांग खींचते हुए बातबात में ठहाके लगा रहे थे.

मुझे कपिल भैया का व्यक्तित्व प्रभावशाली लगा. वे जोरू के गुलाम तो बिलकुल नहीं लगे पर कविता का जादू उन के भी सिर चढ़ कर बोलता था. मेरे मन में एकाएक यह भाव उठा कि यह इनसान मजबूत रिश्ता बनाने के लायक है. अत: मैं ने विदा लेने के समय भावुक हो कर उन से कह दिया, ‘‘मैं ने तो आप को आज से अपना बड़ा भाई बना लिया है. इस साल मैं आप को राखी बांधूंगी और आप से बढि़या सा गिफ्ट लूंगी.’’

‘‘श्योर,’’ मेरी बात सुन कर कपिल भैया के साथसाथ उन की मां की आंखें भी नम हो गई थीं. मुझे बाद में नीरज से पता चला कि उन की इकलौती छोटी बहन 8 साल की उम्र में दिमागी बुखार का शिकार हो चल बसी थी.

अगले दिन शाम को मैं ने फोन कर के नीरज से कहा कि वे कपिल भैया के साथ आफिस से सीधे कविता भाभी के घर आएं.

वे दोनों आफिस से लौटीं. कविता भाभी के पीछेपीछे घर में घुसे. यह देख कर उन सब ने दांतों तले उंगलियां दबा ली थीं कि कविता भाभी का सारा घर जगमग कर रहा था. मैं ने कविता भाभी की सास के बहुत मना करने के बावजूद पूरा दिन मेहनत कर के सारे घर की सफाई कर दी थी.

कविता भाभी की सास खुले दिल से मेरी तारीफ करते हुए उन सब को बारबार बता रही थीं, ‘‘तेरी बहू का जवाब नहीं है, नीरज. कितनी कामकाजी और खुशमिजाज है यह लड़की.’’

‘‘तुम अभी नई दुलहन हो और वैसे भी ये सब तुम्हें नहीं करना चाहिए था,’’ कविता भाभी कुछ परेशान और चिढ़ी सी प्रतीत हो रही थीं.

‘‘भाभी, मेरे भैया का घर मेरा मायका हुआ और नई दुलहन के लिए अपने मायके में काम करने की कोई मनाही नहीं होती है. अपनी कामकाजी भाभी का घर संवारने में क्या मैं हाथ नहीं बंटा सकती हूं?’’ उन का दिल जीतने के लिए मैं खुल कर मुसकराई थी.

‘‘थैंक यू मानसी. मैं सब के लिए चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर औपचारिक से अंदाज में मेरी पीठ थपथपा कर वे रसोई की तरफ चली गईं.

मुझे एहसास हुआ कि उन की नाराजगी दूर करने में मैं असफल रही हूं. लेकिन मैं भी आसानी से हार मानने वालों में नहीं हूं. उन्हें नाराजगी से मुक्त करने के लिए मैं उन के पीछेपीछे रसोई में पहुंच गई.

‘‘आप को मेरा ये सब काम करना

अच्छा नहीं लगा न?’’ मैं ने उन से भावुक हो कर पूछा.

‘‘घर की साफसफाई हो जाना मुझे क्यों अच्छा नहीं लगेगा?’’ उन्होंने जबरदस्ती मुसकराते हुए मुझ से उलटा सवाल पूछा.

‘‘मुझे आप की आवाज में नापसंदगी के भाव महसूस हुए, तभी तो मैं ने यह सवाल पूछा. आप नाराज हैं तो मुझे डांट लें, पर अगर जल्दी से मुसकराएंगी नहीं तो मुझे रोना आ जाएगा,’’ मैं किसी छोटी बच्ची की तरह से मचल उठी थी.

‘‘किसी इनसान के लिए इतना संवेदनशील होना ठीक नहीं है, मानसी. वैसे मैं नाराज नहीं हूं,’’ उन्होंने इस बार प्यार से मेरा गाल थपथपा दिया तो मैं खुशी जाहिर करते हुए उन से लिपट गई.

उन्हें मुसकराता हुआ छोड़ कर मैं ड्राइंगरूम में लौट आई. वे जब तक चाय बना कर लाईं, तब तक मैं ने कपिल भैया और नीरज को अगले दिन रविवार को पिकनिक पर चलने के लिए राजी कर लिया था.

रविवार के दिन हम सुबह 10 बजे घर से निकल कर नेहरू गार्डन पहुंच गए. मैं बैडमिंटन अच्छा खेलती हूं. उस खूबसूरत पार्क में मेरे साथ खेलते हुए भाभी की सांसें जल्दी फूल गईं तो मैं उन के मन में जगह बनाने का यह मौका चूकी नहीं थी, ‘‘भाभी, आप अपना स्टैमिना बढ़ाने व शरीर को लचीला बनाने के लिए योगा करना शुरू करो,’’ मेरे मुंह से निकले इन शब्दों ने नीरज और कपिल भैया का ध्यान भी आकर्षित कर लिया था.

‘‘क्या तुम मुझे योगा सिखाओगी?’’ भाभी ने उत्साहित लहजे में पूछा.

‘‘बिलकुल सिखाऊंगी.’’

‘‘कब से?’’

‘‘अभी से पहली क्लास शुरू करते हैं,’’ उन्हें इनकार करने का मौका दिए बगैर मैं ने कपिल भैया व नीरज को भी चादर पर योगा सीखने के लिए बैठा लिया था.

‘‘मुझे योगा भी आता है और एरोबिक डांस करना भी. मेरी शक्लसूरत ज्यादा अच्छी  नहीं थी, इसलिए मैं ने सजनासंवरना सीखने पर कम और फिटनेस बढ़ाने पर हमेशा ज्यादा ध्यान दिया,’’ शरीर में गरमाहट लाने के लिए मैं ने उन्हें कुछ एक्सरसाइज करवानी शुरू कर दीं.

‘‘तुम अपने रंगरूप को ले कर इतना टची क्यों रहती हो, मानसी?’’ कविता भाभी की आवाज में हलकी चिढ़ के भाव शायद सब ने ही महसूस किए होंगे.

मैं ने भावुक हो कर जवाब दिया, ‘‘मैं टची नहीं हूं, बल्कि उलटा अपने साधारण रंगरूप को अपने लिए वरदान मानती हूं. सच तो यही है कि सुंदर न होने के कारण ही मैं अपने व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास कर पाई हूं. वरना शायद सिर्फ सुंदर गुडि़या बन कर ही रह जाती… सौरी भाभी, आप यह बिलकुल मत समझना कि मेरा इशारा आप की तरफ है. आप को तो मैं अपनी आइडल मानती हूं. काश, कुदरत ने मुझे आप की आधी सुंदरता दे दी होती, तो मैं आज अपने पति के दिल की रानी बन कर रह रही होती.’’

‘‘अरे, मुझे क्यों बीच में घसीट लिया और कौन कहता है कि तुम मेरे दिल की रानी नहीं हो?’’ नीरज का हड़बड़ा कर चौंकना हम सब को जोर से हंसा गया.

‘‘वह तो मैं ने यों ही डायलौग मारा है,’’ और मैं ने आगे बढ़ कर सब के सामने ही उन का हाथ चूम लिया.

वह मेरी इस हरकत के कारण शरमा गए तो कपिल भैया ठहाका मार कर हंस पड़े. हंसी से बदले माहौल में भाभी भी अपनी चिढ़ भुला कर मुसकराने लगी थीं.

कविता भाभी योगा सीखते हुए भी मुझे ज्यादा सहज व दिल से खुश नजर नहीं आ रही थीं. सब का ध्यान मेरी तरफ है, यह देख कर शायद कविता भाभी का मूड उखड़ सा रहा था. उन के मन की शिकायत को दूर करने के लिए मैं ने तब कुछ देर के लिए अपना सारा ध्यान भाभी की बातें सुनने में लगा दिया. उन्होंने एक बार अपने आफिस व वहां की सहेलियों की बातें सुनानी शुरू कीं तो सुनाती ही चली गईं.

जल्द ही मैं उन के साथ काम करने वाले सहयोेगियों के नाम व उन के व्यक्तित्व की खासीयत की इतनी सारी जानकारी अपने दिमाग में बैठा चुकी थी कि उन के साथ भविष्य में कभी भी आसानी से गपशप कर सकती थी.

‘‘आप के पास बातों को मजेदार ढंग से सुनाने की कला है. आप किसी भी पार्टी की रौनक बड़ी आसानी से बन जाती होंगी,

कविता भाभी,’’ मेरे मुंह से निकली अपनी इस तारीफ को सुन कर भाभी का चेहरा फूल सा खिल उठा था.

उस रात को नीरज ने जब मुझे मस्ती भरे मूड में आ कर प्यार करना शुरू किया तब मैं ने भावुक हो कर पूछा, ‘‘मैं ज्यादा सुंदर नहीं हूं, इस बात का तुम्हें कितना अफसोस है?’’

‘‘बिलकुल भी नहीं,’’ वह मस्ती से डूबी आवाज में बोले.

‘‘अगर मैं भाभी से अपनी तुलना करती हूं तो मेरा मन उदास हो जाता है.’’

‘‘पर तुम उन से अपनी तुलना करती ही क्यों हो?’’

‘‘आप के दोस्त की पत्नी इतनी सुंदर और आप की इतनी साधारण. मैं ही क्या, सारी दुनिया ऐसी तुलना करती होगी. आप भी जरूर करते होंगे.’’

‘‘तुलना करूं तो भी उन के मुकाबले तुम्हें इक्कीस ही पाता हूं, यह बात तुम हमेशा के लिए याद रख लो, डार्लिंग.’’

‘‘सच कह रहे हो?’’

‘‘बिलकुल.’’

‘‘मैं शादी से पहले सोचती थी कि कहीं मैं अपने साधारण रंगरूप के कारण अपने पति के मन न चढ़ सकी तो अपनी जान दे दूंगी.’’

‘‘वैसा करने की नौबत कभी नहीं आएगी, क्योंकि तुम सचमुच मेरे दिल की रानी हो.’’

‘‘आप अगर कभी बदले तो पता है क्या होगा?’’

‘‘क्या होगा?’’

मैं ने तकिया उठाया और उन पर पिल पड़ी, ‘‘मैं तकिए से पीटपीट कर तुम्हारी जान ले लूंगी.’’

वह पहले तो मेरी हरकत पर जोर से चौंके पर फिर मुझे खिलखिला कर हंसता देख उन्होंने भी फौरन दूसरा तकिया उठा लिया.

हमारे बीच तकियों से करीब 10 मिनट तक लड़ाई चली. बाद में हम दोनों अगलबगल लेट कर लड़ने के कारण कम और हंसने के कारण ज्यादा हांफ रहे थे.

‘‘आज तो तुम ने बचपन याद करा दिया, स्वीट हार्ट, यू आर ग्रेट,’’ उन्होंने बड़े प्यार से मेरी आंखों में झांकते हुए मेरी तारीफ की.

‘‘तुम्हें बचपन की याद आ रही है और मेरे ऊपर जवानी की मस्ती छा गई है,’’ यह कह कर मैं उन के चेहरे पर जगहजगह छोटेछोटे चुंबन अंकित करने लगी. उन्हें जबरदस्त यौन सुख देने के लिए मैं उन की दिलचस्पी व इच्छाओं का ध्यान रख कर चल रही हूं. अपना तो यही फंडा है कि एलर्ट हो कर संवेदनशीलता से जिओ और नएनए गुण सीखते चलो.

मेरी आजीवन यही कोशिश रहेगी कि मैं अपने व्यक्तित्व का विकास करती रहूं ताकि हमारे दांपत्य में ताजगी व नवीनता सदा बनी रहे. उन का ध्यान कभी इस तरफ जाए ही नहीं कि उन की जीवनसंगिनी की शक्लसूरत बहुत साधारण सी है.

वे होंठों पर मुसकराहट, दिल में खुशी व आंखों में गहरे प्रेम के भाव भर कर हमेशा यही कहते रहें, ‘‘मानसी, तुम्हारा जवाब नहीं.’’

त्रिकोण: शातिर नितिन के जाल से क्या बच पाई नर्स?

आज सोनल को दूसरे दिन भी बुखार था. नितिन अनमना सा रसोई में खाना बनाने का असफल प्रयास कर रहा था. सोनल मास्क लगा कर हिम्मत कर के उठी और नितिन को दूर से ही हटाते हुए बोली,”तुम जाओ, मैं करती हूं.”

नितिन सपाट स्वर में बोला,”तुम्हारा बुखार तो 99 पर ही अटका हुआ है और तुम आराम ऐसे कर रही हो,
जैसे 104 है.”

फीकी हंसी हंसते हुए सोनल बोली,”नितिन, शरीर में बहुत कमजोरी लग रही है, मैं झूठ नहीं बोल रही हूं.”

तभी 15 वर्षीय बेटी श्रेया रसोई में आई और सोनल के हाथों से बेलनचकला लेते हुए बोली,”आप जाइए, मैं बना लूंगी.”

तभी 13 वर्षीय बेटा आर्यन भी रसोई में आ गया और बोला,”मम्मी, आप लेटो, मैं आप को नारियल पानी देता हूं और टैंपरेचर चेक करता हूं.”

सोनल बोली,”बेटा, तुम सब लोग मास्क लगा लो, मैं अपना टैंपरेचर खुद चैक कर लेती हूं.”

नितिन चिढ़ते हुए बोला,”सुबह से जब मैं काम कर रहा था तो तुम दोनों का दिल नहीं पसीजा?”

श्रेया थके हुए स्वर में चकले पर किसी देश का नक्शा बेलते हुए बोली,”पापा, हमारी औनलाइन क्लास थी, 1
बजे तक.”

आर्यन मास्क को ठीक करते हुए बोला,”पापा, एक काम कर लो, कहीं से औक्सिमीटर का इंतजाम कर लीजिए, मम्मी का औक्सीजन लैवल चैक करना जरूरी है.”

नितिन बोला,”अरे सोनल को कोई कोरोना थोड़े ही हैं, पैरासिटामोल से बुखार उतर तो जाता है, यह वायरल
फीवर है और फिर कोरोना के टैस्ट कराए बगैर तुम क्यों यह सोच रहे हो?”

श्रेया खाना परोसते हुए बोली,”पापा, तो करवाएं? नितिन को लग रहा था कि क्यों कोरोना के टैस्ट पर ₹4,000 खर्च किया जाए. अगर होगा भी तो अपनेआप ठीक हो जाएगा. भला वायरस का कभी कुछ इलाज मिला है जो अब मिलेगा?”

जब श्रेया खाना ले कर सोनल के कमरे में गई तो सोनल दूर से बोली,”बेटा, यहीं रख दो, करीब मत आओ, मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण यह बुखार तुम्हे भी हो.”

नितिन बाहर से चिल्लाते हुए बोला,”तुम तो खुद को कोरोना कर के ही मानोगी.”

सोनल बोली,”नितिन, चारों तरफ कोरोना ही फैला हुआ है और फिर मुझे बुखार के साथसाथ गले में दर्द भी हो रहा है.”

श्रेया और आर्यन बाहर खड़े अपनी मम्मी को बेबसी से देख रहे थे. क्या करें, कैसे मम्मी का दर्द कम करें
दोनों बच्चों को समझ नहीं आ रहा था. सोनल को नितिन की लापरवाही का भलीभांति ज्ञान था. उसे यह भी पता था कि महीने के आखिर में पैसे ना के बराबर होंगे इसलिए नितिन टैस्ट नहीं करवा रहा है. सरकारी फ्री टैस्ट की स्कीम ना जाने किन लोगों के
लिए हैं, उसे समझ नहीं आ रहा था.
सोनल ने व्हाट्सऐप से नितिन को दवाओं की परची भेज दिया. नितिन मैडिकल स्टोर से दवाएं ले आया,
हालांकि मैडिकल स्टोर वाले ने बहुत आनाकानी की थी क्योंकि परची पर सोनल का नाम नहीं था.

दवाओं का थैला सोनल के कमरे की दहलीज पर रख कर नितिन चला गया. सोनल ने पैरासिटामोल खा ली
और आंखे बंद कर के लेट गई. पर उस का मन इसी बात में उलझा हुआ था कि वह कल औफिस जा पाएगी
या नहीं. आजकल तो हर जगह बुरा हाल है. एक दिन भी ना जाने पर वेतन कट जाता है. कैसे खर्च चलेगा
अगर उसे कोरोना हो गया तो? नितिन के पास तो बस बड़ीबड़ी बातें होती हैं, यही सोचतेसोचते उस के कानों
में अपने पापा की बात गूंजने लगी,”सोनल, यह तुझे नहीं तेरी नौकरी को प्यार करता है. तुझे क्या लगता है यह तेरे रूपरंग पर रिझा है?
तुझे दिखाई नहीं देता कि तुम दोनों में कहीं से भी किसी भी रूप में कोई समानता नहीं है…”

आज 16 वर्ष बाद भी रहरह कर सोनल को अपने पापा की बात याद आती है. सोनल के घर वालों ने उसे नितिन से शादी के लिए आजतक माफ नहीं किया था और नितिन के घर में रिश्तों का कभी कोई महत्त्व था ही नहीं. शुरूशुरू में तो नितिन ने उसे प्यार में भिगो दिया था, सोनल को लगता था जैसे वह दुनिया की सब से खुशनसीब औरत है पर यह मोहभंग जल्द ही हो गया था, जब 2 माह के भीतर ही नितिन ने बिना सोनल से पूछे उस की सारी सैविंग किसी प्रोजैक्ट में लगा दी थी.

जब सोनल ने नितिन से पूछा तो नितिन बोला,”अरे देखना मेरा प्रोजैक्ट अगर चल निकला तो तुम यह नौकरी
छोड़ कर बस मेरे बच्चे पालना.”

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और तब तक श्रेया के आने की दस्तक सोनल को मिल गई थी. फिर धीरेधीरे नितिन
का असली रंग सोनल को समझ आ चुका था. जब तक सोनल का डैबिट कार्ड नितिन के पास होता तो सोनल पर प्यार की बारिश होती रहती थी. जैसे ही सोनल नितिन को पैसों के लिए टोकती तो नितिन सोनल से बोलना छोड़ देता था. धीरेधीरे सोनल ने स्वीकार कर लिया था कि नितिन ऐसा ही है. उसे मेहनत करने की आदत नही है. सोनल के परिवार का उस के साथ खड़े ना होने के कारण नितिन और ज्यादा शेर हो गया था. घरबाहर की जिम्मेदारियां, रातदिन की मेहनत और पैसों की तंगी के कारण सोनल बेहद रूखी हो गई थी.
सुंदर तो सोनल पहले भी नहीं थी पर अब वह एकदम ही रूखी लगती थी. सोनल मन ही मन घुलती रहती
थी. नितिन का इधरउधर घूमना सोनल से छिपा नहीं रहा था और ऊपर से यह बेशर्मी कि नितिन सोनल के पैसों से ही अपनी गर्लफ्रैंड के शौक पूरे करता था.

दोनों बच्चों को पता था कि मम्मीपापा के बीच सब कुछ नौर्मल नहीं था.
पर जिंदगी फिर भी कट ही रही थी.
यह सब सोचतेसोचते सोनल की आंख ना जाने किस पहर में लग गई थी. उसे एक बेहद अजीब सपना आया जिस में नितिन के हाथ खून से रंगे हुए थे. अचकचा कर सोनल उठ बैठी, उस का शरीर भट्टी की तरह तप रहा था. बुखार चैक किया 102 था. चाह कर भी वह उठ ना पाई और ऐसे ही गफलियत में लेटी रही.

सुबह किसी तरह से औक्सिमीटर का इंतजाम हो गया था. सोनल ने जैसे ही नापा तो उस का औक्सीजन लैवल
85 था. उस ने फोन कर के नितिन को बोला तो नितिन भी थोड़ा परेशान हो गया और बोला,”सोनल, प्रोन
पोजीशन में लेटी रहो.”

इधरउधर नितिन ने हाथपैर मारने शुरू किए. सब जगह पैसों के साथसाथ सिफारिश चाहिए थी. नितिन
के हाथ खाली थे. किसी तरह श्रेया की फ्रैंड की मदद से सोनल को अस्पताल तो मिल गया था पर दवाओं और टैस्ट के पैसे कौन देगा?
तभी कौरिडोर में एक सांवली मगर गठीली शरीर की नर्स आई और नितिन से मुखातिब होते हुए बोली,”सर, दवाएं यहां फ्री नहीं हैं.”

नितिन मायूसी से बोला,”जानता हूं पर घर में सब लोगों को कोविड है और मांपापा को कैसे ऐसे छोड़ देता, उसी चक्कर में सबकुछ लग गया. 2 बच्चे भी हैं, आप ही बताओ क्या करूं? बिजनैस में अलग से घाटा चल रहा है.”

नर्स का नाम ललिता था. वह 32 वर्ष की थी. उसे नितिन से थोड़ी सहानुभूति सी हो गई. उस ने कहा,”अच्छा सर, मैं कोशिश करती हूं.”

नितिन ने अचानक से ललिता का हाथ अपने हाथों में ले कर हलके से थपथपा दिया. ललित हक्कीबक्की रह गई थी. नितिन धीरे से बोला,”आई एम सौरी ललिता, पर तुम्हें पता है ना इंसान ऐसे पलों में कितना कमजोर पड़ जाता है.”

ललिता को लगा कि नितिन कितना केयरिंग है. अपने घरपरिवार को ले कर और एक उस का पहला पति था
एकदम निक्कमा. काश, मेरा पति भी इतना केयरिंग होता तो मुझे अपनी जान हथेली पर रख कर यह नौकरी नहीं करनी पड़ती.

नितिन विजयी भाव के साथ घर आया. उसे लग रहा था कि उस ने दवाओं का इंतजाम फ्री में ही कर दिया है. थोड़े से घड़ियाली आंसू बहा कर वह ललिता को पूरी तरह अपने शीशे में उतार लेगा.

नितिन के पास यही हुनर था, औरतों की भावनाओं को हवा दे कर उन को उल्लू बनाना. औरतों की झूठी
तारीफें करना और खुद अपना उल्लू सीधा करना.

ललिता ने सोनल की दवाओं का इंतजाम कर दिया था. नितिन ने नहा कर ब्लू कलर की शर्ट और जींस
पहनी. उसे पता था वह इस में कातिल लगता है. दोनों बच्चों को बुलाकर दूर से ही बोला,”बेटा, मैं मम्मी के पास जा रहा हूं, तुम लोग रह लोगे क्या अकेले?”

श्रेया डबडबाई आवाज में बोली,”पापा, मम्मी ठीक हो जाएंगी ना?”

नितिन इतना स्वार्थी था कि उसे अभी भी ललिता दिख रही थी. झुंझलाता हुआ बोला,”अरे भई, इसलिए तो वहां
जा रहा हूं, तुम क्यों रोधो रही हो?”

आर्यन श्रेया को चुप कराते हुए बोला,”दीदी, हम लोग हिम्मत नहीं हारेंगे, पापा आप जाओ.”

नितिन हौस्पिटल तो गया पर सोनल के पास जाने के बजाए घाघ लोमड़ी की तरह ललिता के बारे में
इधरउधर से पता लगाता रहा था. यह पता लगते ही कि ललिता का अपने पति से तलाक हो गया है नितिन
की बांछें खिल गई थीं. उधर सोनल का औक्सीजन लैवल डीप कर रहा था. हौस्पिटल में इतनी मारामारी थी
कि अगर मरीज का तीमारदार ध्यान ना दे तो मरीज की कोई सुधबुध नहीं लेता था.

नितिन बाहर से ही सोनल को देख रहा था. उस का बिलकुल भी मन नहीं था अंदर जाने का. तभी नितिन ने दूर से ललिता को आते हुए देखा, नितिन भाग कर अंदर सोनल के पास गया. नितिन ने देखा कि सोनल का
औक्सीजन लेवल 70 पहुंच चुका था. वह भाग कर ललिता के पास गया और घड़ियाली आंसू बहाते हुए
बोला,”ललिता, मेरी सोनल को बचा लो. घर पर बच्चों के लिए खाने का इंतजाम करने गया था.”

ललिता भागते हुए सोनल के पास पहुंची तो देखा औक्सीजन मास्क ठीक से लगा हुआ नहीं था. उस ने ठीक किया तो सोनल का औक्सिजन लैवल बढ़ने लगा. नितिन ललिता के करीब जाते हुए बोला,”ललिता, तुम मेरे लिए फरिश्ता बन कर आई हो.”

ललिता को नितिन से सहानुभूति सी हो गई थी. नरम स्वर में बोली,”आप चिंता मत करें, यह मेरा पर्सनल नंबर है. अगर जरूरत पड़े तो कौल कर लीजिएगा.”

नितिन को ललिता से और बात करनी थी, इसलिए बोला,”यहां कोई कैंटीन है, सुबह से कुछ नहीं खाया है. तुम्हें अजीब लग रहा होगा पर पापी पेट तो नहीं मानता ना.”

ललिता बोली,”आप मेरे साथ चलो…”

कैंटीन में बैठेबैठे 1 घंटा हो गया था. नितिन जितना झूठ बोल सकता था, उस ने बोल दिया था. ललिता जब
कैंटीन से बाहर निकली तो उसे लगा कि वह नितिन के बेहद करीब आ गई है. ललिता ने नितिन की मदद करने के उद्देश्य से अपनी ड्यूटी भी उस वार्ड में लगवा ली जिस में सोनल ऐडमिट थी. वह आतेजाते आंखों ही आंखों में नितिन को साहस देती रहती थी. नितिन को ललिता में अपना अगला शिकार मिल गया था. वह बेहया इंसान यहां तक सोच बैठा था कि अगर सोनल को कुछ हो गया तो वह ललिता को अपनी जिंदगी में शामिल कर लेगा. ललिता अकेली रहती है और अच्छाखासा कमाती है. दिखने में भी आकर्षक है और सब से बड़ी बात ललिता उसे पसंद भी करने लगी है.

अब नितिन का रोज का यह काम हो गया था, ललिता के साथ कैंटीन में खाना खाना और अपनी दुख की
कहानी कहना. ललिता को नितिन का आकर्षक रूपरंग और उस का अपने परिवार के लिए समर्पण आकर्षित
कर रहा था. उसे सपने में भी भान नहीं था कि नितिन इंसान के रूप में एक भेड़िया है.

सोनल का मन नितिन की हरकतें देख कर छटपटा रहा था. वह बच्चों को देखना चाहती थी. वह बहुत कोशिश
कर रही थी, क्योंकि उसे पता था कि उस के बाद यह चालाक इंसान बच्चों पर ध्यान नहीं देगा. पर कुदरत को
कुछ और ही मंजूर था, सोनल कोरोना के आगे जिंदगी की जंग हार गई थी.

नितिन जब सोनल का अंतिम संस्कार कर के घर पहुंचा तो श्रेया और आर्यन का विलाप देख कर पहली बार
उस का दिल भी भावुक हो उठा था. वह भी बच्चों को गले लगा कर फफकफफक कर रो पड़ा. पर नितिन को पता था कि सोनल इस घर की गृहिणी ही नहीं, बल्कि अन्नदाता भी थी.

बैंक में बस ₹10 हजार शेष थे. सोनल के जाने के बाद एक बंधी हुई इनकम का सोर्स बंद हो गया था. नितिन की आदतें इतनी खराब थीं कि उस के घर वाले और दोस्त उस की मदद करने को तैयार नहीं थे. ऐसे में ललिता के अलावा नितिन को कोई नजर नहीं आ रहा था.

सब मुसीबतों के बाद भी बस एक अच्छी बात यह थी कि यह घर नितिन और सोनल ने बहुत पहले बनवा लिया था. अब नितिन ने तिकड़म लगाया और ललिता को अपने घर पेइंगगैस्ट की तरह रहने को बोला. ललिता की हिचकिचाहट देख कर नितिन बोला,”मेरे बच्चों की खातिर आ जाओ ललिता, वे सोनल को बहुत मिस करते हैं. तुम जितना किराया देती हो, उस से आधा दे देना, मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत है.”

ललिता के आंखों पर तो जैसे पट्टी बंधी हुई थी. वह अपना सामान ले कर नितिन के घर आ गई थी. दोनों बच्चे ललिता को देख कर अचकचा गए मगर कुछ बोल नहीं पाए. एक रूम में ललिता, दूसरे में बच्चे और ड्राइंगरूम में नितिन रहता था.
ललिता ने धीरेधीरे पूरे घर का काम अपने जिम्मे ले लिया था. नितिन रातदिन ललिता की तारीफों में कसीदे
पढ़ता था. ललिता को लगने लगा था कि उस से ज्यादा सुंदर शायद इस दुनिया में कोई नहीं है. ललिता
आखिर एक औरत थी और वह भी निपट अकेली, उस का दिल भी पिघल ही गया. ललिता और नितिन की शादी नहीं हुई थी पर वे दोनों अब पतिपत्नी की तरह ही रहने लगे थे.
ललिता का पूरा वेतन अब नितिन की जेब में जाता था. श्रेया और आर्यन अपने पापा और ललिता की चुहलबाजी देख कर अंदर ही अंदर चिढ़ते रहते थे. एक दिन तो हद हो गई जब नितिन और ललिता बेशर्मी की सारी सीमा लांघते हुए बच्चों के सामने ही कमरे में बंद हो गए.

ललिता के हौस्पिटल जाने के बाद आर्यन और श्रेया ने नितिन को आङे हाथों ले लिया था. आर्यन बोला,”पापा, आप को शर्म नहीं आती, मम्मी को अभी गए हुए 2 माह भी नहीं हुए हैं…”

नितिन गुस्से में बोला,”क्या तुम्हारी मम्मी के जाने के बाद मुझे अकेलापन नहीं लगता है? ललिता मेरी बहुत
अच्छी दोस्त है. उसी के कारण हमें यह रोटी नसीब हो रही है. तुम लोगों को अच्छा नहीं लगता तो जहां जाना चाहते हो चले जाओ. और फिर बेटा, मैं कोई ललिता आंटी को तुम्हारी मम्मी की जगह थोड़े ही दूंगा, वह बस हमारे यहां रह रही हैं और रहने का किराया दे रही हैं.”

दोनों बच्चे उस दिन अपनी मम्मी को याद कर के रोते रहे. नानानानी से तो कोई मतलब नहीं था और दादा के जाने के बाद दादी ने भी चाचा के डर से रिश्ता खत्म कर दिया था.

देखते ही देखते 1 साल बीत गया. अब ललिता नितिन पर शादी के लिए दबाव बनाने लगी. नितिन एक शातिर खिलाड़ी था. उस ने ललिता को यह कह कर चुप करा दिया था कि उस के बच्चे उसे छोड़ कर चले जाएंगे और वह उन के बिना नहीं रह पाएगा.”

ललिता गुस्से में बोली,”ठीक है तो मैं चली जाती हूं. नितिन ललिता को बांहों में भरते हुए बोला,”मैं आत्महत्या कर लूंगा, अगर तुम ने मुझे छोड़ने की बात भी सोची.”

3 साल हो गए थे. ललिता आत्मनिर्भर और आकर्षक थी पर नितिन उस का मानसिक, आर्थिक और शारीरिक रूप से शोषण कर रहा था. पर अब ललिता चाह कर भी इस जाल से निकल नहीं पा रही थी. नितिन के झूठ को भी वह सच मान कर जी रही थी. कम से कम सोनल के पास उस के 2 बच्चे तो थे पर ललिता के तो इस रिश्ते में…

ललिता पिछले 3 सालों में 2 बार गर्भपात करा चुकी थी. ललिता अकेली थी पर अपने अकेलेपन को भरने के लिए उस ने गलत साथी चुन लिया था.

उधर नितिन बेहद खुश था कि वह किसी भी कीमत पर शादी कर के एक और बच्चे का खर्च नहीं बढ़ाना चाहता था. वह खुश था कि अब उसे पूरी आजादी थी और साथ ही ललिता के ऊपर हक भी था. स्वार्थ में
नितिन को ना ललिता का खयाल था और न ही बच्चों की फिक्र थी. ललिता सोच रही थी कि कोरोना ने सोनल की तो जिंदगी छीन ली थी पर उसे जीतीजागती लाश बना दिया था.
श्रेया, आर्यन और ललिता तीनों ही एक त्रिकोण में ना चाहते हुए भी बंधे हुए थे और इस त्रिकोण के हर
कोण को नितिन अपने हिसाब से घटता या बढ़ाता रहता था.

भैरवी: भाग 1- आखिर मल्हार और भैरवी की शादी क्यों नहीं हुई

कमरेमें पंखा फुलस्पीड पर चल रहा था. लखनऊ में वैसे भी अप्रैल आतेआते अच्छीखासी गर्मी पड़ने लगती है.

मेज पर रखी ‘भैरवी सिंह, जिलाधिकारी’ नेमप्लेट के नीचे दबे लिफाफे से झंकते फड़फड़ाते गुलाबी कागज पर भैरवी की नजरें टिकी थीं. कागज पर लिखे सुनहरे रंग के शब्द दूर से ही चमक रहे थे.

‘‘सुप्रसिद्ध लोग गायक ‘मल्हार वेद’ के सुरों से सजी संध्या में आप सादर आमंत्रित हैं.’’

‘मल्हार’ यह नाम पढ़ते ही भैरवी का दिल डूबने सा लगा. उस ने अपनी कुरसी की पीठ पर सिर टिका कर आंखें बंद कर लीं. पलकों के पीछे एक जानापहचाना सा दृश्य उभरने लगा. दूरदूर तक फैला गंगा का कछार और किनारे बसा प्रयाग के नजदीक ही कहीं छोटा सा उस का गांव मल्हार. यही तो नाम था उस का. 9-10 बरस

का लड़का आ कर जोर से भैरवी के कंधों पर धौंस जमाता और उस के कानों में चिल्लाता, ‘‘धप्पा.’’

भैरवी ने अचकचा कर आंखें खोल दीं. सामने उस की सैक्रेटरी मोहना खड़ी थी. बोली, ‘‘मैडम, आप का कल के लिए शेड्यूल बनाना था. कल सुबह आप की मंत्री महोदय के साथ मीटिंग है, फिर दोपहर में एक आर्ट गैलरी के उद्घाटन में जाना है और फिर कल शाम 7 बजे से फोक सिंगर मल्हार के कार्यक्रम में आप आमंत्रित हैं. आयोजकों ने डिनर के लिए भी रिक्वैस्ट की है. क्या कह दूं मैडम उन से?’’

‘‘ठीक है मोहना. हम कार्यक्रम में तो जाएंगे परंतु डिनर तक  रुकेंगे या नहीं यह मैं बाद में देख लूंगी,’’ भैरवी ने अनमने ढंग से कहा, ‘‘चल न. तेरे बाग से आम की कच्ची कैरियां तोड़ें.’’

35 साल पुराना समय और फिर वही 9-10 बरस का लड़का सामने आ खड़ा हुआ.

‘‘मैं नहीं खाती कच्ची कैरियां, मां कहती है कच्ची कैरियां खाने से गला खराब हो जाता है. मेरा गला खराब हो गया तो मैं गाना कैसे गाऊंगी?’’ 7-8 साल की नन्ही भैरवी ने तुनक कर जवाब दिया.

‘‘तेरी मां को कैसे पता? क्या वे भी गाना गाती हैं?’’ लड़के ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘गाती हैं न पर पापा से छिप कर जब पापा दूसरे गांवों के दौरे पर जाते हैं तब… पता है मेरी मां बहुत सुरीला गाती हैं कोयल की तरह,’’ भैरवी हाथ और आंखें नचानचा कर बोली.

‘‘तुझे भी गाना पसंद है न?’’ लड़के ने पूछा.

‘‘हां, बहुत… मां कहती हैं कि मेरी तो सांसों में भी लय है. मेरी बातों में राग और मेरी आवाज में संगीत, इसीलिए तो उन्होंने मेरा नाम भैरवी रखा है. तुझे तो गाने के बारे में सब बातें पता होंगी, तेरे पिताजी तो गायक हैं न,’’ भैरवी की प्रश्नसूचक निगाहें मल्हार के चेहरे पर टिकी थीं.

‘‘हां, मेरे तो खानदान में सभी को संगीत से बहुत लगाव है. मेरे पिताजी और बड़े चाचा चैती, फाग, कजरी जैसे लोकगीत गाते हैं, मां तानपुरा बजाती हैं और छोटे चाचा पखावज बजाते हैं.’’

‘‘बाप रे इतने बड़ेबड़े नाम,’’ भैरवी बोली.

फिर दोनों खिलखिला रहे और गंगा के कछार पर दौड़ लगाते, एकदूसरे पर रेत उछालने लगे. कभी उस रेत का नन्हा सा घरौंदा बनाते.

उस घरौंदे में एक कमरा संगीत के रियाज के लिए भी होता.

भैरवी के पिता ठाकुर बलदेव सिंह गांव के जमींदार थे और सारे गांव में उन का बहुत रुतबा था. घर में 7 लोगों का परिवार साथ रहता था. बलदेव सिंह, उन की पत्नी राजरानी, उन की मां श्यामा देवी तथा 4 बच्चे भैरवी, उस की छोटी बहन सोनी, मंझला भाई राजू और छोटा दीपू.

भैरवी सब से बड़ी होने के कारण अपनी उम्र से अधिक समझदार थी और मातापिता और दादी की सब से अधिक लाडली भी.

मां राजरानी ने भैरवी को मल्हार के पिता सोमेश्वर वेदजी के पास संगीत सीखने के लिए भेजना आरंभ कर दिया था. थोड़ी नानुकुर के बाद बलदेव सिंह ने भी हामी भर दी थी क्योंकि राजरानी ने उन्हें यह सम?ाया था कि यदि भैरवी भजन वगैरह गाना सीख लेगी तो उस का विवाह करने में आसानी होगी. अब सप्ताह में 3 दिन गांव की पाठशाला से लौट कर भैरवी मल्हार के घर संगीत सीखने जाती. मल्हारी की झोपड़ी के सामने बड़ से नीम के पेड़ के नीचे गोबर के लिपेपुते चबूतरे पर उन की संगीत की पाठशाला लगती. मल्हार के पिता सोमेश्वर वेद वहीं छोटेछोटे बच्चों को संगीत की शिक्षा देते सुर साधना सिखाते.

एक बार उन्होंने भैरवी की मां से कहा था, ‘‘आप की बिटिया के गले में तो सरस्वती मां का वास है ठकुराइन. इस का संगीत का रियाज कभी मत छुड़वाइएगा. एक दिन यह संगीत की दुनिया का चमकता सितारा बनेगी.’’

समय पंख लगा कर उड़ रहा था. अब भैरवी 12-13 बरस की हो चली थी. राजरानी अक्सर उसे सम?ातीं, ‘‘अब तू बड़ी हो रही है बिटिया, यह लड़कों के संग खेलनाकूदना तुझे शोभा नहीं देता, पाठशाला से सीधे घर आया कर. थोड़ा चूल्हेचौके का काम भी सीख परंतु भैरवी तो भैरवी थी, हवा में गूंजती स्वरलहरियों जैसी उन्मुक्त, गंगा नदी की लहरों जैसी उच्शृंखल. उस का मन कभी अपनी कोठी में लगता ही नहीं था. बस पलक झपकते ही उड़नछू हो जाती, फिर तो वह आम के बगीचे में दिखती या नीम के नीचे निंबोरियां बीनती दिखती या फिर गंगा के कछार में गीली रेत पर घरौंदा बनाते हुए.

वह एक गरमी की दुपहरी थी. आम के बगीचे में मल्हार ने हमेशा की तरह भैरवी की पीठ पर धौल जमाते हुए कहा, ‘‘धप्पा,’’ और फिर अचानक उस ने भैरवी के कंधे पर अपना चेहरा ?ाका दिया.

भैरवी के सारे शरीर में झरझरी सी दौड़ गई और सांसें धौंकनी सी चलने लगीं. वह तुरंत भाग कर अपनी कोठी के भीतर चली गई. उस दिन के बाद भैरवी और मल्हार के बीच प्रेम के बीज से नवांकुर फूट कर पल्लवित होने लगा.

अब संगीत की कक्षा में दोनों एकसाथ बैठने से कतराते, एकदूसरे से नजरें मिलते ही आंखों ही आंखों में मुसकराते और गंगा किनारे की तेरी पर बैठ भविष्य के सपने बुनते. उन सपनों के धागे कभी चांदी से रुपहले होते तो कभी सोने से सुनहरे. वे अपने सपनों की चादर में अपने अरमानों के सितारे और प्रेम के चमकते जुगनू टांकते.

सोमेश्वर वेद की पारखी आंखों से यह सब अधिक दिनों तक छिपा न रहा. उस दिन जब संगीत की कक्षा समाप्त हो गई तो मल्हार उठते हुए बोला, ‘‘चल भैरवी, तुझे तेरे घर तक छोड़ आऊं.’’

सोमेश्वर वेद ने तुरंत कहा, ‘‘भैरवी, अब तू बड़ी हो रही है और समझदार भी, आज से तू अकेली घर जाया कर या अपनी मां से कह कर अपनी सवारी बुलवा लिया कर. अब मल्हार तुझे छोड़ने नहीं जाया करेगा.’’

भैरवी के जाने के बाद उन्होंने मल्हार को सम?ाते हुए कहा, ‘‘देख मल्हार, मैं सब देख

रहा हूं और समझ भी रहा हूं. यह किशोरावस्था का आकर्षण है और कुछ नहीं. झोंपड़ी में रह

कर कोठी के सपने मत देख बेटा. कहीं ठाकुर साहब को पता चल गया तो हम तो कहीं के नहीं रहेंगे. ठाकुर साहब हमें गांव छोड़ने पर विवश कर देंगे.’’

फिर वही हुआ जिस की सोमेश्वरजी को आशंका थी. किसी ने भैरवी और

मल्हार को साथ देख कर बलदेव सिंह को खबर कर दी थी. उस दिन भैरवी पर तो जैसे आसमान टूट पड़ा. बलदेव सिंह अपनी पत्नी राजरानी से दहाड़ते हुए बोले, ‘‘देख लिया तुम ने संगीत सिखाने का नतीजा तुम ही भैरवी को संगीत सिखाना चाहती थी न. देखा कैसे उस नचैएगवैए के संग मुंह काला कर के आ गई तुम्हारी लड़की. मेरी तो सारी इज्जत मिट्टी में मिल गई. अब मैं इसे पढ़ने के लिए शहर भेज रहा हूं और सभी कान खोल कर सुन लो कोईर् भी मेरे इस निर्णय पर उंगली नहीं उठाएगा.’’

सोनी, राजू और दीपू सहम कर दादी के पीछे छिप गए. भैरवी रोती रही, चीखती रही, चिल्लाती रही, परंतु सभी ने जैसे अपने कानों में रुई भर ली हो. किसी ने उस की एक बात भी नहीं सुनी.

शहर में भैरवी को छात्रावास में डाल दिया गया. संगीत छूटने से जैसे भैरवी का मन ही मर गया. उस ने स्वयं को पढ़ाई में ?ोंक दिया. वह दिनरात मशीन की तरह पढ़ाई में जुटी रहती जहां केवल किताबें ही उस की सखियां थीं. पढ़लिख कर बड़ी अफसर बनना ही उस के जीवन का उद्देश्य रह गया.

इस बीच एक बार गांव आने पर दादी ने पूछा, ‘‘ब्याह कब करना बिटिया? उम्र तो हो गई तुम्हारी.’’

‘‘मुझे आईएएस बनना है दादी, उस के बाद ही ब्याह के लिए सोचूंगी.’’

सोनी, राजू और दीपू भी अपनीअपनी स्कूली पढ़ाई के पश्चात अलगअलग शहरों में आगे की पढ़ाई कर रहे थे. साल पर साल बीतते जा रहे थे. भैरवी का मल्हार से संपर्क पूरी तरह से टूट गया था. उस ने मल्हार की यादों को भी अपने सीने में हमेशा के लिए दफन कर दिया. मल्हार के प्रति उस का प्रेम सच्चा था, पवित्र था, इसीलिए उस ने मल्हार से पुन: कभी भी न मिलने का निर्णय लिया. भैरवी जानती थी कि यदि उस के पिता को पता चल गया कि वह और मल्हार एकदूसरे के संपर्क में हैं तो वे मल्हार को जीवित नहीं छोड़ेंगे.

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