Online Hindi Story : लौट आओ अपने वतन : विदेशी चकाचौंध में फंसी उर्वशी

लेखक- केशव राम वाड़दे

लंदन एयरपोर्ट पर ज्यों ही वे तीनों आधी रात उतरे, उर्वशी को छोड़ उस के मम्मीपापा का चेहरा एकाएक उतर गया. आंखें नम हो आईं.

एयरपोर्ट पर हर तरफ जगमगाहट थी. चकाचौंध इतनी थी कि रात होने का आभास ही नहीं हो रहा था.

इस चकाचौंध में भी उर्वशी के मम्मीपापा के चेहरों की उदासी साफ झलक रही थी. उर्वशी का रिश्ता तय करने के लिए वे लंदन उसे लड़के वालों को दिखाने लाए थे, लेकिन उन का मन इतना उदास था कि मानो उसे विदा करने आए हों.

सड़क  के दोनों ओर बड़ीबड़ी स्ट्रीट लाइटें, हर चौराहे पर रैड सिगनल, मुस्तैदी से ड्यूटी निभा रही टै्रफिक

पुलिस, साफसुथरी, चौड़ी सड़कों पर दौड़तीभागती लंबीलंबी चमचमाती कारें, बाइक, साइकिलें और विक्टोरिया (तांगे), पैदल यात्रियों के लिए ईंटों से बने फुटपाथ, अनगिनत दुकानें, मौल वहां की शोभा बढ़ा रहे थे.

उस समय लंदन की ठिठुरन वाली ठंड में भी हाफ जींस, टीशर्ट डाले, हर उम्र के कई जोड़े स्टालों पर कोल्डडिं्रक, आइसक्रीम का मजा उठाते दिखे. कहीं कोई तनाव नहीं. सुकूनभरी जीवनशैली चलती दिख रही थी.

विशाल बहुमंजिला इमारतें और उन पर टंगे बड़ेबड़े ग्लोसाइन. रास्ते में कई छोटेछोटे पार्क और उन की शोभा बढ़ाते फुहारे. हर तरफ एक सिस्टम. उर्वशी तो जैसे दूसरी दुनिया में भ्रमण कर रही थी. उस के चेहरे का उत्साह देखते ही बनता था. मन ही मन अनेक सपने संजोए उस ने. अपने वतन से कोसों दूर लंदन में अपने लिए वर देखने आना उर्वशी का उद्देश्य था. वह भारत में अपनी शादी के लिए किसी से भी बात करने में अपनी तौहीन समझती थी. और तो और अपनी मातृभाषा में बात करना भी उसे पसंद नहीं था. गिनती के लड़केलड़कियों से ही उस की मित्रता थी.

उसे लगता कि हर भारतीय गंदगी, आलस्य और बेचारगी में जीता है. भारतीय कामचोर होते हैं. यहां के बड़ेबड़े घोटाले, किसानों की लाचारी और नेताओं के बड़ेबड़े लच्छेदार भाषण? सारा दोष पब्लिक का ही तो है. यहां की सड़कें तो गायभैंसों के लिए बनी हैं ताकि वे सड़क के बीचोंबीच जुगाली कर सकें, धूलधुएं से भरा वातावरण, चूहोंमच्छरों से अस्तव्यस्त जनजीवन. ऊपर से दौड़तेभागते कुत्तों का झुंड. पान की पीकों से रंगी दीवारें, सड़कें,  बेतरतीबी से बने मकान, सोच कर ही उबकाई आने लगती थी उसे.

जमाने से चला आ रहा ‘ओल्ड फैशंड’ धोतीकुरता, सलवारजंपर, ऊपर से दुपट्टा. एडि़यों से ऊपर उठी सिमटीसिकुड़ी साडि़यां और किलो के भाव से लदे सोनेचांदी के जेवर, भला यह भी कोई पहनावा है? न चेहरे पर कोई क्रीम, न बौडीलोशन लेकिन खुद को फैशनेबल मानने वाली ये औरतें? कहीं कोई मैचिंग नहीं. अगर कपड़े ठीकठाक हों तो भी पैरों में फटी खुली जूतियां, जैसे मुंह चिढ़ा रही हों.

जेन ड्राइव कर रहा था. उर्वशी का ध्यान उस की तरफ नहीं था. उस का नाम जेन नहीं था. लेकिन जयदीप से बदल कर उस ने अपना अंगरेजों वाला नाम रख लिया था. पूरे परिवार में मात्र उर्वशी ही थी, जिस ने अपनी सभ्यता, संस्कृति बिलकुल पीछे छोड़ रखी थी. पूरी तरह पाश्चात्य सभ्यता का अनुसरण कर खुद को अंगरेजों जैसा ही बना डाला था उस ने.

शौर्ट स्कर्ट, पैंसिल हील वाले सैंडल, जींस, ब्रेसलेट यही सब उर्वशी को पसंद था. कंधों तक का स्टाइलिश हेयरकट, इंगलिश फिल्मों और पौप म्यूजिक की शौकीन, कांटेछुरी से खाना, एकदम बोल्ड.

भारत में तो उर्वशी को एक भी लड़का पसंद नहीं आया था. यों कहें कि वह किसी भी लड़के को देखनेमिलने में इच्छुक ही नहीं थी. उस की तो इच्छा ही थी कि उस की शादी इंडिया से बाहर ही हो चाहे वह अमेरिका हो, आस्ट्रेलिया या फिर ब्रिटेन ही क्यों न हो, पर वह भारत में शादी नहीं करेगी. चाहे उसे जिंदगी यों ही क्यों न गुजारनी पड़े.

हरियाणा में रहने वाली उर्वशी की बूआ, जो अब मुंबई में थीं और अपनी पंजाबी बोलना नहीं भूल पाईर् थीं, को उर्वशी की मम्मी सरला ने फोन किया. एक समय था जब बूआजी को उर्वशी की मम्मी से बात करना पसंद नहीं था, लेकिन आज उर्वशी के लिए रिश्ता बताने के लिए उन्होंने फोन किया, ‘‘भाभीजी, तुसी

उर्वशी दे ब्याह दी चिंता न करो. चाहो ते इक फोटो भिजवा देवो, मुंडे दी माताजी नू. इक मुंडा हैगा लंडन विच… काफी साल होए, मां हरियाणा दी रहण वाली सी. मां चाहंदी है कि लड़के दा ब्याह हिंदुस्तानी कुड़ी नाल होवे. इस वास्ते मैं फून कीत्ता…’’ बस, इधर बूआ से फोन पर बात हुई और उधर उर्वशी का परिवार लंदन पहुंचा.

जेन को देखते ही उर्वशी को लगा कि जैसे उस के सपनों का राजकुमार मिल गया हो. उस ने उर्वशी का बैग  पिछली सीट पर डाला और तुरंत डिग्गी खोल दी. तब उर्वशी ने देखा कि उस के मम्मीपापा ने अपनेअपने बैग उठा कर डिग्गी में खुद ही रखे थे. थोड़ा बुरा तो लगा था तब उसे. जेन के कहने पर वह आगे की सीट पर बैठी थी.

जयदीप से जेन तक की कहानी लंबी तो नहीं थी. जेन का परिवार हरियाणा का था. 18 वर्ष से वे लंदन में रचबस गए. होश संभालते ही जयदीप ने सब से पहला और बड़ा काम यही किया कि अपना नाम बदल कर जेन रख लिया. साथ ही अपना तौरतरीका व रहनसहन भी बदल डाला. उसे देख कोई कह ही नहीं सकता था कि वह हिंदुस्तानी है.

उर्वशी को एक नजर में वह भा तो गया, पर अभी ढेर सारी जांचपड़ताल जो करनी थी उसे.

घर कालोनी में था और काफी अच्छा भी था. बड़ा सा मेन गेट और गेट के दोनों तरफ एक कतार में नारियल के कई ऊंचेलंबे वृक्ष मकान की शोभा बढ़ा रहे थे. हर कमरा बड़ी तरतीब से सजा हुआ मिला. पर वहां रहने वाले मात्र 2 प्राणी थे. एक उस की मम्मी और दूसरा खुद वह.

चंद मिनटों में उन के सामने जेन की मम्मी ने हिंदुस्तानी भोजन परोसा, उन की मम्मी आनेजाने वाले हर हिंदुस्तानी को खुद खाना बना कर ऐसे ही खिलाती थीं, फिर देर तक हिंदुस्तान में रह रहे खासमखास लोगों के विषय में पूछती रहीं, बतियाती रहीं. वे बड़ी सलीकेदार थीं, व्यावहारिक थीं. उन के मन में कई बातों की पीड़ा थी, दर्द था जो जबान से फूट पड़ा था.

‘‘अब तो जीनामरना, सबकुछ यहीं होगा. अपने वतन की खूब याद सताती है. फिर इस के डैडी ने तो हम से नाता ही तोड़ रखा है. एक अंगरेजन के साथ रह रहे हैं. वह तो अच्छा है जो यह नौकरी कर रहा है. वरना बड़ी खराब जगह है यह और लोग बड़े गंदे हैं. बस, चमकदमक के अलावा और कुछ भी नहीं है यहां. मन तो नहीं लगता, देखो, लड़का क्या चाहता है?’’

फिर थोड़ा ठहर कर, एक लंबी सांस खींची. जब वे बोलीं तो भीतर की कड़वाहट चेहरे पर साफ झलक रही थी, ‘‘अगर अंगरेजन के चंगुल से इस के डैडी मुक्त हो जाएं तो यकीन मानें, यह देश छोड़ अपने वतन लौट आऊंगी. काश, ऐसा हो जाए.’’

जेन और उर्वशी के बीच बातचीत अधिकतर अंगरेजी में ही होती थी. जेन की फर्राटेदार अंगरेजी कभीकभी उर्वशी समझ नहीं पाती. फिर भी वह संभाल लेती. ऐसा नहीं कि जेन हिंदी नहीं जानता था, पर टूटीफूटी. हिंदी बोलतेबोलते न जाने कब अंगरेजी में घुस जाता…

‘‘चलो, तुम्हें घुमा लाऊं,’’ बात दूसरे दिन की शाम की थी. खुशीखुशी उर्वशी ने मम्मीपापा को भी साथ चलने के लिए कहा. सुनते ही जेन आगबबूला हो गया और बोला, ‘‘हमारे बीच इन बुड्ढों का क्या काम? सारा मजा किरकिरा हो जाएगा. यह तुम्हारा इंडिया नहीं, जहां कहीं भी पूरा परिवार एकसाथ निकल पड़े. यहां का कल्चर, सोसाइटी, कुछ अलग है, तभी तो यह लंदन है.’’

वह अभी और कुछ कहता, तभी सरलाजी उर्वशी को देख कर अपनी आंख हौले से भींचते हुए इशारा कर बोलीं, ‘‘तुम दोनों हो आओ, जयदीप ठीक ही कह रहा है?’’

‘‘मेरा नाम जेन है. जयदीप नहीं. इस घटिया नाम से मुझे फिर न बुलाएं. सो प्लीज, जेन कहा करें,’’ उस ने एतराज जताते हुए कहा.

‘‘ओह, सौरी जेन, आगे से याद रखूंगी,’’ सरलाजी ने सुधार कर उस हिप्पी जेन से क्षमा मांगी. उधर पापाजी  का चेहरा तमतमा उठा. उर्वशी अपनी मम्मी का इशारा समझ जेन के साथ हो ली. तब जेन का व्यवहार उसे जरा भी नहीं भाया था. ऐसा रूखापन?

काफी देर इधरउधर भटकने के बाद वे दोनों डिस्कोथिक गए. आधी रात गए डिस्कोथिक में कईकई जोड़े थिरकते दिखे. कुछ पल वह भी उर्वशी के साथ डांस फ्लोर पर रहा. फिर वह एक अंगरेज युवती के साथ देर तक डांस करता रहा.

उर्वशी जेन को देर तक निहारती रही. उसे समझने का प्रयास करती रही पर विफल रही. अभी वह उस के विषय में सोच ही रही थी कि किसी ने उस के कंधे पर हाथ रखा. वह चौंक पड़ी. सामने एक युवक खड़ा था. वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘डांस प्लीज?’’

‘‘वाय नौट,’’ वह उठ खड़ी हुई.

अभी उस ने डांस शुरू किया ही था कि उसे महसूस हुआ कि वह बदतमीजी पर उतर आया है. यही नहीं उस की बदतमीजी लगातार बढ़ती ही जा रही थी. उस ने खुद को  छुड़ाने की कोशिश की, पर अपने को छुड़ा नहीं पाई और जेन से चिल्लाचिल्ला कर मदद मांगने लगी पर जेन ने यह सब देख कर भी अनदेखा कर दिया. जैसेतैसे वह खुद मुक्त हुई और साथ ही उस ने एक जोरदार थप्पड़ उस व्यक्ति के चेहरे पर रसीद कर दिया. अंगरेज थप्पड़ खा कर तिलमिला उठा था.

जोरदार थप्पड़ की झनझनाहट से उस का सिर घूम गया था. वह कुछ भी कर जाता, अगर जेन ने मिन्नतें न की होतीं. काफी देर बाद वह शांत हुआ और जेन को धक्का देते हुए वहां से हट गया. जेन ने इस बात की नाराजगी उर्वशी पर निकाली, ‘‘जानती हो, वह एक गुंडा है. फिर, वह कौन सा निगल रहा था तुम्हें?’’

‘‘तो क्या तुम किसी के साथ हो रहे अन्याय को बस देखते ही रहोगे. विरोध नहीं करोगे उस का? कैसी परवरिश है तुम्हारी?’’ उर्वशी गुस्से में बोली.

‘‘छोड़ो भी, तुम लोगों को जीना आता ही कहां है? हर पल किसी न किसी से उलझते ही रहो बस,’’ जेन बोला.

उर्वशी ने जेन से उलझना उचित नहीं समझा और चुपचाप घर लौट आई. फिर तो रास्तेभर दोनों ने एकदूसरे से बिल्कुल भी बात नहीं की. मम्मीपापा को सोता देख वह भी सोने चली गई.

‘‘कैसा रहा जेन के साथ कल का दिन तुम्हारा?’’ सरलाजी ने उर्वशी से पूछा. उस ने मुंह बिचका दिया. सरलाजी के होंठों पर एक मुसकान तैर गई. एक  शाम को उर्वशी और उस के मम्मीपापा को जेन समुद्र किनारे ले गया.

समुद्रतट पर अंगरेजों का साम्राज्य था. नंगेधड़ंगे, कुछ तो हदें पार कर रहे थे. सरलाजी उर्वशी के साथ थीं इसलिए, बात घुमा कर बोलीं, ‘‘चलो, यहां से… बहुत घूम लिए. फिर मेरी तो सांस भी फूलने लगी है.’’ फिर वे लौटते हुए देर तक न जाने क्याक्या बड़बड़ाती रही थीं. वैसे उर्वशी को समुद्रतट का नजारा जरा भी न भाया था. यहां के लोग सभ्य, सलीके वाले होते हैं, भ्रम टूटने लगा था अब तो.

जेन ने डायनिंग टेबल पर पूछा, ‘‘कैसा लगा हमारा लंदन?’’ उस ने शराब के 2 पैग बना, मम्मीपापाजी को पेश किए. पापाजी के इनकार करने पर उस ने कहा, ‘‘आप इंडिया के लोग शराब नहीं पीते? फिर जीते कैसे हैं?’’ यही वजह है कि भारत हमेशा पीछे रहा है. अब यहां के लोगों को ही देख लें. हर कोई एंजौय करता है. जेन का इतना कहना ही उस के लिए मुसीबत ले आया. अपने को बहुत

देर से दबा कर बैठी उर्वशी अपना आपा खो बैठी जैसे सहस्र बिच्छुओं ने उसे एकसाथ काट खाया हो. ऊंची आवाज में वह कहती रही और जेन स्तब्ध खड़ा बस, सुनता ही रहा.

‘‘मैं ने यहां की तहजीब और तमीज अच्छी तरह महसूस कर ली है. बड़ीबड़ी इमारतों और झूठी चकाचौंध के अलावा और कुछ नहीं पाया. यहां बुजुर्गों का तो जरा भी लिहाज नहीं. नग्नता के अलावा और कुछ भी नहीं. जबरन एंजौय का ढोंग. फिर तुम्हारी मम्मी के होते, तुम्हारे पापा ने कितना घृणित काम किया? यही है यहां का कल्चर. औैर बात इतने में खत्म नहीं होती. तुम बुजदिल हो. तुम में इंसानियत नाम की चीज नहीं है. मेरा भारत महान है, महान ही रहेगा. वहां दिखावा नहीं है. सच्चे, सीधेसादे लोग बसते हैं, हमारे वतन में.’’

वह तैश में थी, थोड़ा ठहर कर, पल भर रुक कर बोली, ‘‘जयदीप, तुम भी अंगरेज नहीं हो. नाम बदल लेने से किसी के संस्कार, संस्कृति नहीं बदलती, समझे मिस्टर जेन. तुम भी हिंदुस्तानी हो. इस देश ने तुम में अहम भर दिया है. इस देश में तुम पूरी जिंदगी क्यों न बिता लो, तब भी तुम्हारी यहां कोई अहमियत नहीं है. मेरी यह बात याद रखना.’’

हक्काबक्का जेन स्तब्ध खड़ा सुन रहा था. जेन की माताजी भी सिर झुकाए, शर्म से गढ़ी खड़ी थीं. मम्मीपापा के साथ उर्वशी ने डायनिंग टेबल छोड़ दी. उर्वशी ने महसूस किया कि उस के मम्मीपापा की आंखों से अविरल आंसुओं की धारा बह रही थी. वे खुश थे यह जान कर कि उन की बेटी अब इस लायक हो गई है कि

वह अच्छेबुरे की पहचान कर सके और वे लोग उसे नासमझ समझते रहे थे.

बेहद दृढ़ स्वर में उर्वशी बोली, ‘‘हम कल लौट रहे हैं अपने वतन, तुम्हारा लंदन तुम्हें ही मुबारक. एक बात और कि तुम हमें छोड़ने नहीं आओगे.’’

उर्वशी का तमतमाया चेहरा देखने की ताकत जेन में थी ही नहीं, उस ने चुपचाप वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी.

Emotional Story- विरासत: नंद शर्मा को क्या अपनी मिट्टी की कीमत समझ आई?

‘‘दादाजी, आप का पाकिस्तान से फोन है,’’ आश्चर्य भरे स्वर में आकर्षण ने अपने दादा नंद शर्मा से कहा.

‘‘पाकिस्तान से, पर अब तो हमारा वहां कोई नहीं है. फिर अचानक…फोन,’’ नंद शर्मा ने तुरंत फोन पकड़ा.

दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘अस्सलामअलैकुम, मैं पाकिस्तान, जडांवाला से जहीर अहमद बोल रहा हूं. मैं ने आप का साक्षात्कार यहां के अखबार में पढ़ा था. मुझे यह जान कर बहुत खुशी हुई कि मेरे शहर जड़ांवाला के रहने वाले एक नागरिक ने हिंदुस्तान में खूब तरक्की पाई है. मैं ने यह भी पढ़ा है कि आप के मन में अपनी जन्मभूमि को देखने की बड़ी तमन्ना है. मैं आप के लिए कुछ उपहार भेज रहा हूं जो चंद दिनों में आप को मिल जाएगा, शेष बातें मैं ने पत्र में लिख दी हैं जो मेरे उपहार के साथ आप को मिल जाएगा.’’

फोन पर जहीर की बातें सुन कर नंद शर्मा भावुक हो उठे. फिर बोले, ‘‘भाई, आज बरसों बाद मैं ने अपने जन्मस्थान से किसी की आवाज सुनी है. आज आप से बात कर के 55 साल पहले का बीता समय आंखों के आगे घूम रहा है. मैं क्या कहूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है. बस, आप की समृद्धि और उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूं.’’

इतना कहतेकहते नंद शर्मा की आंखें डबडबा गईं. वह आगे कुछ न कह सके और फोन रख दिया.

14 साल का आकर्षण अपने दादाजी के पास ही खड़ा था. उस ने दादाजी को इतना भावुक होते कभी नहीं देखा था.

आकर्षण कुछ देर वहां बैठा और उन के सामान्य होने का इंतजार करता रहा. फिर बोला, ‘‘दादाजी, आप को अपने पुराने घर की याद आ रही है?’’

‘‘हां बेटा, बंटवारे के समय मैं 17 साल का था. आज भी मुझे वह दिन याद है जब जड़ांवाला में कत्लेआम शुरू हुआ और दंगाइयों ने चुनचुन कर हिंदुओं को गाजरमूली की तरह काटा था. हमारे पड़ोसी मुसलमान परिवार ने हमें शरण दी और फिर मौका पा कर एकएक कर के मेरे परिवार के लोगों को सेना के पास पहुंचा दिया था. मेरे परिवार में केवल मैं ही पाकिस्तान में बचा था. मैं भी मौका देख कर निकलने की ताक में था कि किसी ने दंगाइयों को खबर कर दी कि नंद शर्मा को उस के पड़ोसियों ने पनाह दे रखी है.

‘‘खबर पा कर दंगाई पागलों की तरह उस घर की ओर झपटे. इस से पहले कि वे मेरी ओर पहुंच पाते मुझे छत के रास्ते से उन्होंने भगा दिया.

‘‘मैं एक छत से दूसरी छत को फांदता हुआ जैसे ही सड़क पर पहुंचा कि तभी सेना का ट्रक आ गया और सेना को देख कर दंगाई भाग खड़े हुए. फिर उसी ट्रक से सेना ने मुझे अमृतसर के लिए रवाना कर दिया.

‘‘उस वक्त तक मैं यही समझता था कि यह अशांति कुछ समय की है… धीरधीरे सब ठीक हो जाएगा, मैं फिर अपने परिवार के साथ वापस जड़ांवाला जा पाऊंगा पर यह मेरा भ्रम था. पिछले 55 सालों में कभी ऐसा मौका नहीं आया. मेरा शहर, मेरी जन्मभूमि, मेरी विरासत हमेशा के लिए मुझ से छीन ली गई.’’

इतना कह कर नंद शर्मा खामोश हो गए. आकर्षण का मन अभी और भी बहुत कुछ जानने को इच्छुक था पर उस समय दादा को परेशान करना उचित नहीं समझा.

नंद शर्मा हरियाणा के अंबाला शहर में एक प्रतिष्ठित पत्रकार थे. उन की गिनती वहां के वरिष्ठ पत्रकारों में होती थी. कुछ समय पहले हरियाणा के मुख्यमंत्री ने एक पत्रकार सम्मेलन में उन्हें सम्मानित किया था. उस सम्मेलन में पाकिस्तान से भी पत्रकारों का प्रतिनिधिमंडल आया हुआ था. उस समारोह में नंद शर्मा ने इस बात का जिक्र किया था कि वह विभाजन के बाद जड़ांवाला से भारत कैसे आए थे और साथ ही वहां से जुड़ी यादों को भी ताजा किया.

समारोह समाप्त होने के बाद एक पाकिस्तानी पत्रकार ने उन का साक्षात्कार लिया और पाकिस्तान आ कर अपने अखबार में उसे छाप भी दिया. वह साक्षात्कार जड़ांवाला के वकील जहीर अहमद ने पढ़ा तो उन्हें यह जान कर बहुत दुख हुआ कि कोई व्यक्ति इस कदर अपनी जन्मभूमि को देखने के लिए तड़प रहा है.

जहीर एक नेकदिल इनसान था. उस ने नंद शर्मा के लिए फौरन कुछ करने का फैसला लिया और समाचारपत्र में प्रकाशित नंबर पर उन से संपर्क किया.

नंद शर्मा एक भरेपूरे परिवार के मुखिया थे. उन के 4 बेटे और 1 बेटी थी. सभी विवाहित और बालबच्चों वाले थे. आज के इस भौतिकवादी युग में भी सभी मिलजुल कर एक ही छत के नीचे रहते थे.

आकर्षण ने जब सब को पाकिस्तान से आए फोन के  बारे में बताया तो सब विस्मित रह गए. फिर नंद शर्मा के बड़े बेटे मोहन शर्मा ने पिता के पास जा कर कहा, ‘‘बाबूजी, यदि आप कहें तो हम सब जड़ांवाला जा सकते हैं और अब तो बस सेवा भी शुरू हो चुकी है. इसी बहाने हम भी अपने पुरखों की जमीन को देख आएंगे.’’

‘‘मन तो मेरा भी करता है कि एक बार जड़ांवाला देख आऊं पर देखो कब जाना होता है,’’ इतना कह कर नंद शर्मा खामोश हो गए.

एक दिन नंद शर्मा के नाम एक पार्सल आया. वह पार्सल देखते ही आकर्षण जोर से चिल्लाया, ‘‘दादाजी, आप के लिए पाकिस्तान से पार्सल आया है,’’ और इसी के साथ परिवार के सारे सदस्य उसे देखने के लिए जमा हो गए.

नंद शर्मा आंगन में कुरसी डाल कर बैठ गए. आकर्षण ने उस पैकेट को खोला. उस में 100 से भी अधिक तसवीरें थीं. हर तसवीर के पीछे उर्दू में उस का पूरा विवरण लिखा हुआ था.

नंद शर्मा के चेहरे पर उमड़ते खुशी के भावों को आसानी से पढ़ा जा सकता था. उन्होंने ही नहीं, उन का पूरा परिवार उन तसवीरों को देख कर भावविभोर हो उठा.

एक तसवीर उठाते हुए नंद शर्मा ने कहा, ‘‘यह देखो, हमारा घर, हमारी पुश्तैनी हवेली और यहां अब बैंक आफ पाकिस्तान बन गया है.’’

नंद शर्मा के पोतेपोतियां बहुत हैरान हो उन तसवीरों को देख रहे थे. उन के छोटे पोते मानू और शानू बोले, ‘‘दादाजी, क्या इन में आप का स्कूल भी है?’’

‘‘हां बेटा, अभी दिखाता हूं,’’ कह कर उन्होंने तसवीरों को उलटापलटा तो उन्हें स्कूल की तसवीर नजर आई. अपने स्कूल की तसवीर देख कर उन का चेहरा खिल उठा और वह खुशी से चिल्ला उठे, ‘‘यह देखो बच्चों, मेरा स्कूल और यह रही मेरी कक्षा. यहां मैं टाट पर बैठ कर बच्चों के साथ पढ़ता था.’’

धीरेधीरे जड़ांवाला के बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, खेल के मैदान, सिनेमाघर, वहां की गलियां, पड़ोसियों के घर, गोलगप्पे, चाट वालों की दुकान और वहां की छोटी से छोटी जानकारी भी तसवीरों के माध्यम से सामने आने लगी. अंत में एक छोटी सी कपड़े की थैली को खोला गया. उस में कुछ मिट्टी थी और साथ में एक छोटा सा पत्र था. पत्र जहीर अहमद का था जिस में उस ने लिखा था :

‘नमस्ते, आज यह तसवीरें आप के पास पहुंचाते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है. आप भी सोचते होंगे कि मुझे क्या जरूरत पड़ी थी यह सब करने की. भाईजान, मेरे वालिद बंटवारे से पहले पंजाब के बटाला शहर में रहते थे. अपने जीतेजी वह कभी अपने शहर वापस न आ सके. उन के मन में यह आरजू ही रह गई कि वह अपनी जन्मभूमि को एक बार देख सकें. इसलिए जब मैं ने आप के बारे में पढ़ा तो फैसला किया कि आप की खुशी के लिए जो बन पड़ेगा, जरूर करूंगा.

‘भाईजान, इस पोटली में आप के पुश्तैनी मकान की मिट्टी है जो मेरे खयाल से आप के लिए बहुत कीमती होगी. इस के साथ ही मैं अपने परिवार की ओर से भी आप को पाकिस्तान आने की दावत देता हूं. आप जब चाहें यहां तशरीफ ला सकते हैं. आप अपने बच्चों, पोतेपोतियों के साथ यहां आएं. हम आप की खातिरदारी में कोई कमी नहीं रखेंगे.

‘आप का, जहीर अहमद.’

पत्र पढ़तेपढ़ते नंद शर्मा भावुक हो उठे. उन्होंने फौरन घर की पुश्तैनी मिट्टी को अपने माथे से लगाया और अपने पोते आकर्षण को बुला कर उस मिट्टी से सब के माथे पर तिलक करने को कहा.

‘‘दादाजी, पाकिस्तानी तो बहुत अच्छे हैं,’’ आकर्षण बोला, ‘‘फिर क्यों हम उस देश को नफरत की दृष्टि से देखते हैं. आज जहीर अहमद के कारण ही घरबैठे आप को अपनी विरासत के दर्शन हुए हैं.’’

‘‘ठीक कहते हो बेटा,’’ नंद शर्मा बोले, ‘‘घृणा और नफरत की दीवार तो चंद नेताओं और संकीर्ण विचारधारा वाले तथाकथित लोगों ने बनाई है. आम हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी के दिलों में कोई मैल नहीं है. आज अगर मैं तुम्हारे सामने जिंदा हूं तो अपने उस मुसलिम पड़ोसी परिवार के कारण जिन्होंने समय रहते मुझे व मेरे परिवार को वहां से बाहर निकाला.’’

नंद शर्मा अगले कुछ दिनों तक घर आनेजाने वालों को जड़ांवाला की तसवीरें दिखाते रहे. एक दिन शाम को जब वह पत्रकार सम्मेलन से वापस आए तो ‘हैप्पी बर्थ डे टू दादाजी’ की ध्वनि से वातावरण गूंज उठा. उस दिन उन के जन्मदिन पर बच्चों ने उन्हें पार्टी देने का मन बनाया था.

नंद शर्मा को उन के पोतेपोतियों ने घेर लिया और फिर उन्हें उस कमरे की ओर ले गए जहां केक रखा था. वहां जा कर उन्होंने केक काटा और फिर सब ने खूब मस्ती की. फोटोग्राफर को बुलवा कर तसवीरें भी खिंचवाई गईं. बाद में उन में से एक तसवीर जो पूरे परिवार के साथ थी, वह जड़ांवाला भेज दी गई.

वक्त गुजरता रहा. धीरधीरे पत्राचार और फोन के माध्यम से दोनों परिवारों की नजदीकियां बढ़ने लगीं. देखते ही देखते 1 साल बीत गया. एक दिन जहीर अहमद का फोन आया, ‘‘भाईजान, ठीक 1 माह बाद मेरे बड़े बेटे की शादी है. आप सपरिवार आमंत्रित हैं. और हां, कोई बहाना बनाने की जरूरत नहीं है. मैं ने सारा इंतजाम कर दिया है. आप के पुरखों की विरासत आप का इंतजार कर रही है.’’

नंद शर्मा तो मानो इसी पल का इंतजार कर रहे थे. उन्होंने तुरंत कहा, ‘‘ऐसा कभी हो सकता है कि मेरे भतीजे की शादी हो और मैं न आऊं. आप इंतजार कीजिए, मैं सपरिवार आ रहा हूं.’’

रात के खाने पर जब सारा परिवार जमा हुआ तो नंद शर्मा ने रहस्योद्घाटन किया, ‘‘ध्यान से सुनो, हम सब लोग अगले माह जड़ांवाला जहीर के बेटे की शादी में जा रहे हैं. अपनीअपनी तैयारियां कर लो.’’

‘‘हुर्रे,’’ सब बच्चे खुशी से नाच उठे.

‘‘सच है, अपनी जमीन, अपनी मिट्टी और अपनी विरासत, इन की खुशबू ही कुछ और है,’’ कह कर नंद शर्मा आंखें बंद कर मानो किसी अलौकिक सुख में खो गए.

Romantic Story- लौंग डिस्टैंस रिश्ते: क्यों अभय को बेईमान मानने को तैयार नहीं थी रीवा ?

‘‘हैलो,कैसी हो? तबीयत तो ठीक रहती है न? किसी बात की टैंशन मत लेना. यहां सब ठीक है,’’ फोन पर अभय की आवाज सुनते ही रीवा का चेहरा खिल उठा. अगर सुबहशाम दोनों वक्त अभय का फोन न आए तो उसे बेचैनी होने लगती है.

‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं, तुम कैसे हो? काम कैसा चल रहा है? सिंगापुर में तो इस समय दोपहर होगी. तुम ने लंच ले लिया? अच्छा इंडिया आने का कब प्लान है? करीब 10 महीने हो गए हैं तुम्हें यहां आए. देखो अब मुझे तुम्हारे बिना रहना अच्छा नहीं लगता है. मुझे यह लौंग डिस्टैंस मैरिज पसंद नहीं है,’’ एक ही सांस में रीवा सब कुछ कह गई.

बेशक उन दोनों की रोज बातें होती हैं, फिर भी रीवा के पास कहने को इतना कुछ होता है कि फोन आने के बाद वह जैसे चुप ही नहीं होना चाहती है. वह भी क्या करे, उन की शादी हुए अभी 2 साल ही तो हुए हैं और शादी के 2 महीने बाद ही सिंगापुर की एक कंपनी में अभय की नौकरी लग गई थी. वह पहले वहां सैटल हो कर ही रीवा को बुलाना चाहता था, पर अभी भी वह इतना सक्षम नहीं हुआ था कि अपना फ्लैट खरीद सके. ऊपर से वहां के लाइफस्टाइल को मैंटेन करना भी आसान नहीं था. कुछ पैसा उसे इंडिया भी भेजना पड़ता था, इसलिए वह न चाहते हुए भी रीवा से दूर रहने को मजबूर था.

‘‘बस कुछ दिन और सब्र कर लो, फिर यह दूरी नहीं सहनी पड़ेगी. जल्द ही सब ठीक हो जाएगा. मैं ने काफी तरक्की कर ली है और थोड़ाबहुत पैसा भी जमा कर लिया है. मैं बहुत जल्दी तुम्हें यहां बुला लूंगा.’’

अभय से फोन पर बात कर कुछ पल तो रीवा को तसल्ली हो जाती कि अब वह जल्दी अभय के साथ होगी. पर फिर मायूस हो जाती. इंतजार करतेकरते ही तो इतना समय बीत गया था. बस यही सोच कर खुश रहती कि चलो अभय उस से रोज फोन पर बात तो करता है. बातें भी बहुत लंबीलंबी होती थीं वरना एक अनजाना भय उसे घेरे रहता था कि कहीं वह वहां एक अलग गृहस्थी न बसा ले. इसीलिए वह उस के साथ रहने को बेचैन थी. वैसे भी जब लोग उस से पूछते कि अभय उसे साथ क्यों नहीं ले गया, तो वह उदास हो जाती. दूर रहने के लिए तो शादी नहीं की जाती. उस की फ्रैंड्स अकसर उसे लौंग डिस्टैंस कपल कह कर छेड़तीं तो उस की आंखें नम हो जातीं.

‘‘रीवा, तुम्हारे लिए खुशी की बात है. मेरे पास अब इतने पैसे हो गए हैं कि मैं तुम्हें यहां बुला सकूं. तुम आने की तैयारी करना शुरू कर दो. जल्द ही मैं औनलाइन टिकट बुक करा दूंगा. फिर हम घूमने चलेंगे. बोलो कहां जाना चाहती हो? मलयेशिया चलोगी?’’

यह सुनते ही रीवा रो पड़ी, ‘‘जहां तुम ले जाना चाहोगे, चल दूंगी. मुझे तो सिर्फ तुम्हारा साथ चाहिए.’’

‘‘तो फिर हम आस्ट्रेलिया चलेंगे, बहुत ही खूबसूरत देश है.’’

अभय से बात करने के बाद रीवा का मन कई सपने संजोने लगा. अब जा कर उस का सही मानों में वैवाहिक जीवन शुरू होगा. वह खरीदारी और पैकिंग करने में जुट गई. रात को भी अभय से बात हुई तो उस ने फिर बात दोहराई. अभय के फोन आने का एक निश्चित समय था, इसलिए रीवा फोन के पास आ कर बैठ जाती थी. लैंडलाइन पर ही वह फोन करता था.

उस दिन भी सुबह से रीवा अभय के फोन का इंतजार कर रही थी. लेकिन समय बीतता गया और फोन नहीं आया. ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि फोन न आए. सोचा कि बिजी होगा, शायद बाद में फोन करे. पर उस दिन क्या, उस के बाद तो 1 दिन बीता, 2 दिन बीते और धीरेधीरे

10 दिन बीत गए, पर अभय की न तो कोई खबर आई और न ही फोन. पहले तो उसे लगा कि शायद अभय का सरप्राइज देने का यह कोई तरीका हो, पर वक्त गुजरने के साथ उस के मन में बुरेबुरे खयाल आने लगे कि कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं घट गई. उस के मोबाइल पर फोन किया तो स्विचऔफ मिला. कंपनी के नंबर पर किया तो किसी ने ठीक से जवाब नहीं दिया.

सिंगापुर में अभय एक फ्रौड के केस में फंस गया था. 10 दिनों से वह जेल में बंद था. उसे लगा कि अगर रीवा को यह बात पता चलेगी तो न जाने वह कैसे रिऐक्ट करे. कहीं वह उसे गलत न समझे और यह सच मान ले कि उस ने फ्रौड किया है. कंपनी ने भी उसे आश्वासन दिया था कि वह उसे जेल से बाहर निकाल कर केस क्लोज करा देगी. इसलिए अभय ने सोचा कि बेकार रीवा को क्यों बताए. जब केस क्लोज हो जाएगा तो वह इस बात को यहीं दफन कर देगा. इस से रीवा के मन में किसी तरह की शंका पैदा नहीं होगी कि उस का पति बेईमान है.

असल में अभय जिस कंपनी में फाइनैंशियल ऐडवाइजर था, उस के एक क्लाइंट ने उस पर 30 हजार डौलर की गड़बड़ी करने का आरोप लगाया था. क्लाइंट का कहना था कि उस ने सैंट्रल प्रौविडैंट फंड में अच्छा रिटर्न देने का लालच दे कर उस का विश्वास जीता और बाद में उस के अकाउंट में गड़बड़ी कर यह फ्रौड किया. असल में यह अकाउंट में हुई गलती थी. डेटा खो जाने यानी गलती से डिलीट हो जाने की वजह से यह सारी परेशानी खड़ी हुई थी. लेकिन पुलिस ने अभय को ही इस बात के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए फ्रौड करने के लिए कंपनी के हिसाबकिताब में गड़बड़ी और कंपनी के डौक्यूमैंट्स के साथ छेड़छाड़ करने के जुर्म में जेल में डाल दिया था और फाइन भी लगाया था. उसे अपनी बात कहने या प्रमाण पेश करने तक का अवसर नहीं दिया गया. वहां पर एक इंडियन पुलिस अफसर ही उस का केस हैंडल कर रहा था और वह इस बात से नाराज था कि भारतीय हर जगह बेईमानी करते हैं.

‘‘आप यकीन मानिए सर, मैं ने कोई अपराध नहीं किया है,’’ अभय की बात सुन पुलिस अफसर करण बोला, ‘‘यहां का कानून बहुत सख्त है, पकड़े गए हो तो अपने को बेगुनाह साबित करने में बरसों भी लग सकते हैं और यह भी हो सकता है कि 2-3 दिन में छूट जाओ.’’

‘‘करण साहब, अभय बेगुनाह हैं यह बात तो उन की कंपनी भी कह रही है. केवल क्लाइंट का आरोप है कि उन्होंने 30 हजार डौलर का फ्रौड किया है. कंपनी तो सारी डिटेल चैक कर क्लाइंट को एक निश्चित समय पर पैसा भी देने को तैयार है, हालांकि उस के लिए अभय को भी पैसे भरने पड़ेंगे. बस 1-2 दिन में मैं इन्हें यहां से निकाल लूंगा,’’ अभय के वकील ने कहा.

‘‘अगर ऐसा है तो अच्छा ही है. मैं भी चाहता हूं कि हमारे देशवासी बदनाम न हों.’’

‘‘लेकिन तुम्हारी वाइफ को हम क्या उत्तर दें? वह बारबार हमें फोन कर रही है. उस ने तो पुलिस को इन्फौर्म करने को भी कहा है,’’ अपनी टूटीफूटी हिंदी में कंपनी के मालिक जोन ने पूछा.

‘‘सर, आप प्लीज उसे कुछ न बताएं. मैं नहीं चाहता कि मेरी वाइफ मुझे बेईमान समझे. वह मुझे छोड़ कर चली जाएगी. हो सकता है वह मेरे जेल में होने की बात सुन डाइवोर्स ही ले ले. नो, नो, सर, डौंट टैल हर ऐनीथिंग ऐंड ट्राई टू अवौइड हर फोन काल्स. मैं उस की नजरों में गिरना नहीं चाहता हूं.’’

‘‘पर वह तो यहां आने की बात कर रही थी. हम उसे कैसे रोक सकते हैं?’’

जोन की बात सुन कर अभय के चेहरे पर पसीने की बूंदें झिलमिला उठीं. वह जानता था कि अपने को निर्दोष साबित करने के लिए पहले उसे डिलीट हुए डेटा को कैसे भी दोबारा जैनरेट करना होगा और वह करना इतना आसान नहीं था. 30 हजार डौलर उस के पास नहीं थे, जो वह चुका पाता. कंपनी भी इसी शर्त पर चुकाने वाली थी कि हर महीने उस की सैलरी से अमाउंट काटा जाएगा. वह जानता था कि वह इस समय चारों ओर से घिर चुका है. कंपनी वाले बेशक उस के साथ थे और वकील भी पूरी कोशिश कर रहा था, पर उसे रीवा की बहुत फिक्र हो रही थी. इतने दिनों से उस ने कोई फोन नहीं किया था, इसलिए वह तो अवश्य घबरा रही होगी. हालांकि अभय की कुलीग का कहना था कि उसे रीवा को सब कुछ बता देना चाहिए. इस से उसे कम से कम अभय के ठीकठाक होने की खबर तो मिल जाएगी. हो सकता है वही कोई रास्ता निकाल ले.

मगर अभय इसी बात को ले कर भयभीत था कि कहीं रीवा उसे गलत न समझ बैठे. जितना आदरसम्मान और प्यार वह उसे करती है, वह कहीं खत्म न हो जाए. वह भी रीवा से इतना प्यार करता है कि किसी भी हालत में उसे खोना नहीं चाहता. इंडिया में बैठी रीवा को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. अभय की खोजखबर कैसे ले. इस बारे में उस ने अपने मौसा से बात की. वे आईएफएस में थे और इस समय अमेरिका में पोस्टेड थे. उन्होंने सलाह दी कि रीवा को सिंगापुर जाना चाहिए.

सिंगापुर पहुंच कर रीवा ने जब कंपनी में कौंटैक्ट किया तो सच का पता चला. बहुत बार चक्कर लगाने और जोन से मिलने पर ही वह इस सच को जान पाई. सचाई जानने के बाद उस के पांव तले की जैसे जमीन खिसक गई. अभय को बेईमान मानने को उस का दिल तैयार नहीं था, पर पल भर को तो उसे भी लगा कि जैसे अभय ने उसे धोखा दिया है. अपने मौसा को उस ने सारी जानकारी दी और कहा कि वही इंडियन हाई कमीशन को इस मामले में डाल कर अभय को छुड़वाएं.

रीवा को अपने सामने खड़ा देख अभय सकपका गया, ‘‘तुम यहां कैसे…? कब आईं… मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहता था, इसलिए कुछ नहीं बताया… मेरा यकीन मानो रीवा मैं बेईमान नहीं हूं… तुम नहीं जानतीं कि मैं यहां कितना अकेला पड़ गया था…’’ घबराहट में अभय से ठीक से बोला तक नहीं जा रहा था.

‘‘मुझे तुम पर यकीन है अभय. चिंता मत करो सब ठीक हो जाएगा.’’

रीवा के मौसा के इन्फ्लुअंस और इंडियन हाई कमीशन के दखल से अगले 2 दिनों में अभय जेल से बाहर आ गया.

‘‘रीवा, आई ऐम रियली सौरी. पर मैं डर गया था कि कहीं तुम मुझे छोड़ कर न चली जाओ.’’

‘‘सब भूल जाओ अभय… मैं ने तुम्हारा हाथ छोड़ने के लिए नहीं थामा है. लेकिन अब तुम सिंगापुर में नहीं रहोगे. इंडिया चलो, वहीं कोई नौकरी ढूंढ़ लेना. हम कम में गुजारा कर लेंगे, पर रहेंगे साथ. कंपनी के पैसे कंपनी से हिसाब लेने पर चुका देंगे. कम पड़ेंगे तो कहीं और से प्रबंध कर लेंगे. लेकिन अब मैं तुम्हें यहां अकेले नहीं रहने दूंगी. दूसरे देश में पैसा कमाने से तो अच्छा है कि अपने देश में 2 सूखी रोटियां खा कर रहना. कम से कम वहां अपने तो होते हैं. इस पराए देश में तुम कितने अकेले पड़ गए थे. जितनी जल्दी हो यहां से चलने की तैयारी करो.’’

रीवा के हाथ को मजबूती से थामते हुए अभय ने जैसे अपनी सहमति दे दी. वह खुद भी इस लौंग डिस्टैंस रिश्ते से निकल रीवा के साथ रहना चाहता था.

वह लड़का: जानेअनजाने जब सपने देख बैठा जतिन

रिवोली थिएटर, थिएटर के सामने एक सुंदर पार्क, पार्क में हर तरफ बिखरी हुई फूलों की छटा, सीमेंटकंकरीट के जंगलों सी फैली ऊंचीऊंची इमारतों के बीच, मुंबई की उमस से थोड़ी सी राहत पाने की एक जगह. शाम के समय घूमते हुए कुछ बुजुर्ग, शोर मचा कर खेलते हुए बच्चे. कुछ युवकयुवतियां हाथ में हाथ लिए, पार्क की बैंचों पर, जगहजगह सटे बैठे, अपने प्यार के सुखद लमहों को जीते हुए और कुछ लफंगे युवक इधरउधर ताकझांक करते हुए.

कामना पार्क के एक बैंच पर अकेली बैठी थी. पार्क के ये नजारे भी उस के अकेलेपन को दूर नहीं कर पा रहे थे. उस के ठीक सामने वाली बैंच पर एक लड़का भी अकेला बैठा हुआ था. कामना पिछले 10 मिनट से देख रही थी कि वह उसे नजरें चुराचुरा कर देख रहा है.

कामना उठी और उस लड़के के पास आ कर खड़ी हुई. जतिन समझ नहीं पाया कि वह लड़की क्यों खड़ी है. उस ने अपने आसपास और आगेपीछे देखा. उस के अलावा वहां कोई और जानपहचान का नहीं था. जब यह निश्चित हो गया कि वह लड़की उसी से मिलने आई है तो वह सकपका गया. शरीर के रोंगटे खड़े हो गए.

23-24 साल की जिंदगी में उस के साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. पैदल चलते, बसों में, मुंबई की लोकल ट्रेनों में सफर करते समय, उस ने सैकड़ों लड़कियों के रूप को आंखों से भरते हुए मन में उतारा था. पर कभी कोई लड़की उसे इस प्रकार घूरते हुए देख कर खुद पास नहीं चली आई. उसे पहली नजर में वह लड़की शरीफ घराने की लगी थी. फिर शंका हुई कि वह कहीं चालचलन में खराब तो नहीं है. पर मन नहीं माना. वह जरूर शरीफ घराने की ही है, उस ने अपने मन को समझाया. अब लगा कि यदि उस की सोच सही है तो कहीं वह उसे थप्पड़ मारने का इरादा तो नहीं कर रही है? पार्क में उपस्थित लोगों के सामने शर्मिंदा तो नहीं करना चाहती? एकबारगी जी चाहा कि पार्क छोड़ कर चला जाए पर अंत में वह हिम्मत जुटा कर उस के सामने जा कर खड़ा हो गया.

‘‘बैठो,‘‘ बैंच पर खाली जगह पर बैठते हुए कामना बोली.

जतिन की सांसें जो कुछ देर पहले रुकने लगी थीं, फिर चल पड़ीं. जो कुछ उस ने लड़की के बारे में सोचा था, गलत सिद्ध हो गया. वह शरीफ घराने से ही थी. थप्पड़ मारने और शर्मिंदा करने का उस का कोई इरादा नहीं दिखाई दिया.

‘‘आप बहुत सुंदर हैं,’’ बैठते हुए जतिन ने कहा, ‘‘लाख कोशिशों के बावजूद भी मैं आप के चेहरे से अपनी नजरें नहीं हटा पा रहा था.’’

‘‘सच,’’ कामना ने अपनी नीलीनीली आंखें उस के चेहरे पर गड़ा दीं.

‘‘आप को वहां अकेले नहीं बैठना चाहिए था. ये जो लड़के आप के आसपास मंडरा रहे हैं, अच्छे नहीं हैं,’’ वह बोला.

‘‘मैं जानती हूं पर ये मुझे नहीं छेड़ते. मैं यहां रोज जो आती हूं. वैसे तुम्हारा नाम…’’

‘‘जतिन, और आप का?’’

‘‘कामना,’’ उसे गौर से देखते हुए कामना बोली, ‘‘जतिन, जानते हो मैं तुम्हारे पास क्यों आई? तुम में एक गजब का आकर्षण है. तुम्हें देख कर मुझे लगा, जैसे मेरी बरसों की तलाश पूरी होने जा रही है.’’

‘‘फ्लर्टिंग? ’’ जतिन को अपनी तारीफ सुन कर विश्वास नहीं हुआ.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ कामना ने कहा.

‘‘सच तो यह है कि आप जैसी सुंदर लड़की मैं ने इस पार्क में पहले कभी नहीं देखी,’’ जतिन बोला.

‘‘अब तुम फ्लर्ट कर रहे हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं.’’

‘‘गुड, मुझे साफ बात करने वाले लड़के ही पसंद हैं. एक बार मुझे फिर से देख कर बताओ कि मैं कैसी लग रही हूं? कोई लड़का यदि लड़की की तारीफ करे तो उसे अच्छा लगता है.’’

जतिन ने इस बार कामना को ऊपर से नीचे तक देखा. ‘‘स्मार्ट, सैक्सी, पार्टीवियर आउटफिट. बिलकुल बेपरवाह हुस्न,’’ उस ने कहा.

‘‘थैंक यू,’’ कामना ने पूछा, ‘‘वैसे करते क्या हो?’’

‘‘एमए कर चुका हूं. अच्छी नौकरी की तलाश में हूं.’’

‘‘मैं ने भी ग्रैजुएशन किया है. मेरी नौकरी करने की मजबूरी नहीं है. पिता हैं नहीं, सिर्फ मां हैं और पिताजी का छोड़ा हुआ खूब पैसा है. सारा दिन सजीसंवरी रहती हूं, दिन में 10 बार सुंदर से सुंदर आउटफिट चेंज करती हूं, मौजमस्ती करती हूं और पैसे लुटाती हूं. बस, यही मेरी जिंदगी है,’’ कामना कुछ गंभीर दिखाई दी.

‘‘फिर यहां पार्क में, अकेले?’’ जतिन ने झिझकते हुए पूछा.

‘‘मां शादी के लिए पीछे पड़ी हैं. न कोई अच्छा लड़का उन्हें मेरे लिए मिला है और न ही मुझे, जिसे मैं पसंद कर सकूं. जब तनाव बढ़ जाता है तो यहां आ कर बैठ जाती हूं. तुम पहले लड़के हो, जो मुझे अच्छे लगे हो. खैर छोड़ो इन बातों को. यह बताओ कि कालेज में सिर्फ फ्लर्टिंग ही की या कभी किसी लड़की के साथ डेटिंग भी की?’’

जतिन ने कामना के पास खिसकते हुए कहा, ‘‘डियर, किस दुनिया में जी रही हो. फ्लर्टिंग, डेटिंग आज आउटडेटिड हो चुके हैं. जवान लोगों की नई मंजिल है, लिव इन रिलेशन की. वैसे अभी तक मुझे डेटिंग का मौका नहीं मिला पर तुम चाहो तो यह संभव हो सकता है,’’ जतिन अब खुलने लगा था.

‘‘कहां ले चलोगे? मुझे तेज रफ्तार पसंद है. पार्क के बाहर मेरी औडी खड़ी है. उसी से यहां आतीजाती हूं. मुश्किल से 50 किलोमीटर की स्पीड आ पाती है. सब तरफ कीड़ेमकोड़ों की तरह इंसानों की भीड़. 100 किलोमीटर से ऊपर स्पीड आए तो आए कैसे? तुम्हारे पास बाइक है? उसी पर चलेंगे. ड्राइव मैं करूंगी,’’ कामना बोली.

जतिन कामना के थोड़ा और करीब खिसक आया और बोला, ‘‘महाबलेश्वर कैसा रहेगा?’’

‘‘नाइस, परसों चलते हैं, लेकिन अभी से मेरे इतने नजदीक मत आओ. मुझ से इतना चिपक कर मत बैठो. मैं काफी समय से पार्क में आ रही हूं. बहुत लोग मुझे जानने लगे हैं. उन्हें थोड़ा अजीब लगेगा.’’

जतिन ने खिसक कर अपने और कामना के बीच फिर से उतनी ही दूरी बना ली, जितनी पहले थी.

‘‘पानीपूरी खाओगे?’’

‘‘श्योर, लेकिन एक शर्त पर.‘‘

‘‘कैसी शर्त?’’

‘‘पैसे मैं दूंगा.’’

‘‘नहीं, पैसे मैं दूंगी. जिंदगी में सिर्फ तुम हो, जो मुझे एक नजर में ही पसंद आ गए हो. क्या मैं इस खुशी को भी सैलिब्रेट नहीं कर सकती? इच्छा तो है किसी फाइवस्टार होटल में चलें. पर जल्दबाजी में कदम नहीं उठाने चाहिए. गिरने का डर रहता है.’’

‘‘पानीपूरी कहां खाओगी?’’

‘‘पार्क के बाहर एक चाट वाला है. वहीं चलते हैं,’’ कहते हुए कामना ने कलाई घड़ी की तरफ निगाह डाली. साढ़े 7 बज रहे थे. ‘‘ओफ, डेढ़ घंटा हो गया,’’ उस के मुंह से  निकला.

‘‘कहीं और जाना है क्या?’’ जतिन ने पूछा.

‘‘नहीं, मां ज्यादा चिकचिक न करें, यही खयाल रहता है. अभी वक्त है. चलो, चलते हैं,’’ कामना बैंच से उठ गई. जतिन भी उस के साथ ही उठ गया.

पानीपूरी खातेखाते जतिन सोच रहा था कि उस की तो लौटरी लग गई है. एक बार इस के दिल में पूरी तरह से समा गया तो फिर चांदी ही चांदी है. अजगर हो जाऊंगा. अजगर कहां नौकरी करते हैं? आराम ही आराम. ऐश और सिर्फ ऐश.

‘‘चलो, अब थोड़ा पार्क में घूमते हैं,’’ पानीपूरी खा कर लौटते हुए कामना ने कहा. दोनों पार्क में आ कर एक छोर से दूसरे छोर तक घूमने लगे. थोड़ी देर बाद कामना ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘मुझ से शादी करोगे?’’

जतिन बोला, ‘‘तुम अच्छी तो लगने लगी हो पर मुझे जिंदगी में सैटल होने में अभी कुछ वक्त लगेगा. अच्छी नौकरी मिलना भी तो आसान नहीं है.’’

‘‘लेकिन मैं ज्यादा इंतजार नहीं कर सकती. नौकरी न भी करोगे तो चलेगा. मुझे मां की चिकचिक हमेशा के लिए खतम कर के उन्हें खुश करना है.’’

‘‘फिर तो कोई समस्या ही नहीं है. मैं शादी के लिए तैयार हूं.’’

‘‘एक दिन में जिंदगी के फैसले तो नहीं किए जा सकते. कुछ तुम्हें, मुझे समझना है और कुछ मुझे, तुम्हें. थोड़ा समय तो लगेगा. इसीलिए तो मैं ने डेटिंग के

लिए हामी भरी थी. बस, कुछ दिन डेटिंग, फिर फैसला.’’

‘‘तो फिर एक काम क्यों न करें?

1-2 महीने लिव इन रिलेशनशिप में रह लेते हैं. आजकल तो ट्रायल औफर्स का जमाना है. बिल्डर मकान बना कर बेचते हैं तो एक महीने तक का ट्रायल औफर देते हैं. महीने भर ट्रायल लो. पसंद आए तो खरीदो वरना नहीं. डाक्टर्स ट्रीटमैंट में ट्रायल औफर देते हैं तो होटल खाने में. आजकल हर फील्ड में ट्रायल औफर्स की भरमार है. कालेज में भी तो यही चलन लड़के और लड़कियों के बीच था. इस से एकदूसरे को समझने का मौका मिल जाएगा. बात जमी तो शादी, वरना रास्ते अलगअलग और एकदूसरे को अलविदा. कोई कानूनी कार्यवाही नहीं.’’

‘‘नहीं, यह असंभव है. अब मैं ऐसा कुछ नहीं कर सकती, लाइफ  में मैच्योरिटी आ गई है. ऐसा करते हैं, मैं तुम्हें अपनी मां से मिलवाती हूं. तुम्हारे बारे में उन की राय भी तो जरूरी है, कल एक अच्छी सी ड्रैस पहन कर आ जाना, बाल आज के फैशन के हिसाब से कटवा लेना. उन्हें आधुनिक लड़के पसंद हैं. बाकी मैं संभाल लूंगी,’’ कामना ने जतिन को समझाया.

‘‘कल कितने बजे?’’

‘‘7 या 8 बजे. क्यों टाइम सूट करेगा न? फोन नंबर और पता मैं तुम्हें दे दूंगी.’’

‘‘तो चलो, फिर इसी खुशी में एक मूवी देख ली जाए. डर्टी पिक्चर रिवोली में ही लगी है. क्या बोल्ड डायलौग हैं और विद्या बालन की ऐक्टिंग, एकदम धांसू. तुम्हें पसंद आएगी.’’ जतिन ने शाम को रंगीन बनाने के लिए सुझाव दिया.

‘‘यह पिक्चर तो मैं जरूर देखूंगी, पर तुम्हारे साथ नहीं,’’ कामना ने कहा.

तभी एक सुंदर युवक दोनों के सामने आ खड़ा हुआ. उसे देखते ही कामना रुक गई.

कामना ने युवक से कहा, ‘‘सुहास, इन से मिलो. ये मेरे दोस्त हैं, जतिन. हम दोनों ने शादी करने का फैसला किया है. वास्तव में हम पिछले 2 घंटे से अपनी वैडिंग ही प्लान कर रहे थे.’’

सुहास ने बढ़ कर जतिन से हाथ मिलाया और उसे शादी के लिए बधाई दी.

अब कामना जतिन की तरफ मुड़ी. बोली, ‘‘जतिन, तुम्हारे और मेरे बीच पिछले 2 घंटे में जो कुछ बातें हुईं, सब मनगढ़ंत थीं. सिर्फ टाइमपास. सुहास के यहां पहुंचने तक के लिए. न तो मैं रईस हूं और न ही मेरी मां मेरी शादी के लिए किचकिच करने वाली हैं. मैं भी तुम्हारी तरह ही मध्यवर्गीय परिवार से हूं और सुहास मेरे मंगेतर हैं. जल्दी ही हमारी शादी होने वाली है.

आज मैं इन के साथ यहां डेटिंग के लिए आई हूं. रिवोली में हम डर्टी पिक्चर देखेंगे और डिनर करेंगे. इसीलिए तो मैं ने तुम से थोड़ी देर पहले कहा था कि मैं यह पिक्चर देखूंगी जरूर, पर तुम्हारे साथ नहीं.’’ कामना ने जतिन के चेहरे को पढ़ा, ठगे जाने के हजारों भाव उस के चेहरे पर आजा रहे थे. वह हक्काबक्का, बेजान सा खड़ा कामना की बातें सुने जा रहा था. उस के कानों से गरमगरम लावा बहने लगा था.

कामना ने आगे कहा, ‘‘दरअसल, आज सुहास और मेरी मुलाकात में इतनी देर इसलिए हो गई क्योंकि मैं यहां कुछ जल्दी पहुंच गई और सुहास की लोकल टे्रन लेट हो गई. पार्क में समय गुजारने के लिए जब मैं बैंच पर आ कर बैठी तो कई लफंगे युवकों को अपने आसपास चक्कर लगाते हुए पाया. मैं उन्हें देख कर डर गई.

अचानक मेरी निगाह तुम पर पड़ी. तुम भी मुझे घूर रहे थे. मैं एक नजर में ही पहचान गई कि तुम गुंडे किस्म के लड़के नहीं हो. फिर क्या था? मैं ने तुरंत एक कहानी गढ़ डाली. तुम्हें कहानी का नायक बनाते हुए, हाथ के इशारे से तुम्हें अपने पास बुला डाला. उस के बाद जो कुछ हुआ, तुम्हें बताने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘बहुत मजेदार,’’ सुहास बोल उठा.

कामना अब सुहास के हाथों में हाथ डाल कर चल पड़ी. जाते समय जतिन के हाथों में एक चाकलेट पकड़ा दी. उस के गाल पर हलकी सी चपत लगाते हुए बोली, ‘‘बच्चे, जिस कालेज से तुम पढ़ कर निकले हो, वहां मैं प्रोफैसर हूं.’’

कामना जब सुहास के साथ पार्क से बाहर निकल गई तो जतिन की तंद्रा टूटी.

उस के मुंह से कालेज के दिनों वाली गालियां निकलती चली गईं, ‘‘साली… धोखेबाज… लुच्ची… लफंगन.’’

Short Story In Hindi : तुम देना साथ मेरा

इसबार शादी की सालगिरह पर कुछ खास करने की इच्छा है माहिरा की. बेटे अर्णव और आरव भी यही चाहते हैं. वैसे तो टीनएजर्स अपनी दुनिया में मगन रहते हैं, लेकिन इवेंट में जान डालने को दोनों तैयार हैं. 20वीं सालगिरह है. अकसर लोग 25वीं को खास तरह से मनाते हैं पर माहिरा की सोच वर्तमान में जीने की रही है कि जो खुशी के पल आज मिल रहे हैं उन्हें कल पर क्यों टाला जाए? पकौड़े खाने के लिए उस ने कभी बारिश की बूंदों का इंतजार नहीं किया. जब उस का जी किया या ईशान ने फरमाइश की उस ने  झट कड़ाही चढ़ा दी.

दरअसल, माहिरा और ईशान दोनों ही खाने के शौकीन हैं. अपने को ‘बिग फूडी’ की श्रेणी में रख दोनों ही खुश रहते हैं. शादी के बाद से खाने के शौक ने दोनों को एक मीठे बंधन में बांधा. ईशान को मीठा पसंद है तो माहिरा को तीखा भाता है. एकदूसरे की खुशी का ध्यान करते हुए हर भोजन में कुछ तीखा पकता तो कुछ मीठा भी बनाया जाता. दोनों तरह के व्यंजनों को पूरे स्वाद से खाया जाता, कोई नई रैसिपी पता चलती या किसी के घर कुछ नया पकवान खा कर आते तो माहिरा साथ ही उसे बनाने की विधि भी पूछ आती. इस वीकैंड यही ट्राई करूंगी, सोच वह भी खुश होती और न्यू फ्लैयर खाने को मिलेगा सोच ईशान भी कभी किसी मराठी दोस्त की पत्नी से पूरनपोली सीखी तो कभी तमिल दोस्त की पत्नी से अड़ा, कभी बिहार का लिट्टीचोखा ट्राई किया तो कभी राजस्थान की मावाकचौरी.

‘‘माहिरा, तुम सच मेें माहिर हो. यथा नाम तथा गुण. नईनई रैसिपीज बखूबी बना लेती हो,’’ ईशान अकसर अपनी पत्नी की पाककला पर बलिहारी जाता.

‘‘मेरी मां ने सिखाया था कि आदमी के दिल का रास्ता उस के पेट से हो कर जाता है. बस वही फौलो कर रही हूं, जानेमन,’’ माहिरा भी हंस कर कहती.

‘‘पेट ही नहीं तुम ने इस फूडी के मन को भी संतुष्ट कर रखा है,’’ ईशान के कहने पर दोनों ठहाका लगाते.

स्वादों के इस मेले में घूमतेफिरते इतने साल निकल गए. जाहिर है जब स्वादिष्ठ खानों का शौक होगा तो उन के संग शरीर में आई कैलोरी भी अपना रंग दिखाएगी. थोड़े बड़े पेट और फैली कमर की ओर लटकते लव हैंडल्स के लिए माहिरा के पास एक बढि़या जवाब तैयार रहता कि 2-2 बच्चों की मां हूं. 16 साल की लड़की तो रही नहीं अब मैं.

ईशान भी कब कोई ताना  झेलने वालों में से होता. वह भी चुटकी लेता कि मैं भी तो 2-2 बच्चों का बाप हूं, मेरी तोंद को नजर क्यों लगाती हो? इस लजीज मस्ती में विघ्न तब पड़ा जब पिछले साल एक शाम औफिस से लौट कर ईशान ने बताया कि आज कंपनी की तरफ से हैल्थ कैंप लगा था.

‘‘थोड़ा ज्यादा हो गया है वेट… 115 किलोग्राम आया,’’  झेंपते हुए ईशान बोला.

‘‘क्या?’’ माहिरा की छोटी सी चीख निकल गई, ‘‘थोड़ा ज्यादा वेट? 115 किलोग्राम को तुम थोड़ा ज्यादा वेट बोल रहे हो? अब मेरी सम झ में आ रहा है कि आजकल तुम्हारे घुटनों में दर्द क्यों रहने लगा है. इतना वजन उठाएंगी तो भला टांगों का क्या दोष…’’ माहिरा ने महसूस नहीं किया  था कि कब वे दोनों ‘मीडियम’ से ‘लार्ज’ और  फिर ‘ऐक्स्ट्रा लार्ज’ साइज में तबदील हो गए.

आज औफिस में हुए हैल्थ कैंप की रिपोर्ट ने ईशान को परेशान कर दिया. जीभ

का चटोरापन अपनी जगह है पर उस की सजा पूरे शरीर को भुगतनी पड़े, यह बात ठीक नहीं. माहिरा के मनमस्तिष्क में आज केवल ईशान का बिगड़ा स्वास्थ्य चक्कर काट रहा था. डिनर पश्चात बच्चे गुडनाइट कह अपने कमरे में चले गए और ईशानमाहिरा अपने कमरे में. माहिरा जल्दी सोने वालों में से है, लेकिन आज नींद बैडरूम में घुसने का नाम नहीं ले रही थी.

उसे जागता हुआ देख शायद ईशान को एहसास हो गया कि  आज माहिरा को किस बात ने परेशान किया हुआ है. उस के बालों में अपनी उंगलियां फेरते हुए बुदबुदाया, ‘‘माहिरा, तुम अच्छी तरह वाकिफ हो मेरी टेस्टी खाने की आदत से. खाने में स्वादिष्ठ भोजन के बिना मु झे कुछ अच्छा नहीं लगता और इसी कारण मेरा वजन बढ़ गया है. आज कैंप के डाक्टरों ने मु झे और भी कई ब्लड टैस्ट करवाने को कहा, साथ ही काफी हिदायतें भी दीं कि तलाभुना खाना, मीठा खाना, बेकरी प्रोडक्ट्स वगैरह सब बंद,’’ इतना कह वह धीरे से हंसा, ‘‘इन्हें क्या मालूम एक फूडी के लिए जीभ का स्वाद क्या होता है. इन की सलाह मान कर जीना भी कोई जिंदगी हुई… जिंदगी जिंदादिली का नाम है. डरने वाले क्या खाक जीया करते हैं?’’

‘‘डाक्टरों की बात को इतना लाइटली मत लो ईशान. अगर अभी से शरीर अनहैल्दी हो जाएगा तो बुढ़ापे में क्या होगा?’’ माहिरा ने अपनी चिंता व्यक्त की.

‘‘तुम हो न मेरा बुढ़ापा संभालने के लिए. अभी का टाइम तो अच्छी तरह जीएं. वैसे भी मैं ने कई इंश्योरैंस पौलिसियां ले रखी हैं. डौंट वरी, डियर.’’

ईशान की बातों से माहिरा को सम झते देर न लगी कि वह अब भी अपना स्वाद त्यागने को तैयार नहीं है.

‘‘एक गुड न्यूज दे दूं तुम्हें… मैं ने इस लौंग वीकैंड के लिए कौर्बेट नैशनल पार्क में रिजोर्ट बुक करा लिया है. बस, अब तैयारी कर लो एक छोटे से हौलिडे की.’’

कुछ समय के लिए माहिरा चिंतित अवश्य हो उठी थी, लेकिन ईशान की जिंदादिली ने जिंदगी को फिर यथावत चला दिया. 2 दिनों में एक शौर्ट वैकेशन के लिए जाना था, सो माहिरा तैयारी में जुट गई. मौसम के अनुसार सभी के कपड़े, कैमरा, दूरबीन, चार्जर, कुछ खानेपीने का सामान आदि पैक करते हुए उस ने अगले 2 दिन बिताए. ईशान को उस के हाथ के बने स्नैक्स इतने भाते थे कि उस ने पूरे मन से चकली, मठरी और नमकपारे बनाए, साथ ही मफिन और नट्स ऐंड डेट केक सूखे नाश्ते के लिए बना लिए. शनिवार की अल्पसुबह चारों अपनी गाड़ी में सवार हो निकल पड़े. हलकाफुलका नाश्ता रास्ते में चलती कार में करते गए. जब गजरौला पहुंचे तब जा कर सब ने गियानी ढाबे पर पेट भर कर खाया. ढाबे के खाने की बात ही और होती है. साथ ही कड़क चाय पी कर सब की थकान, छूमंतर हो गई. पूरे 5 घंटों का सफर तय कर उन की कार जिम कौर्बेट नैशनल पार्क पहुंची. रामनगर में बुक किए रिजोर्ट में पहुंच कर सब कुछ देर सुस्ताए.

‘‘बच्चो, आज का प्लैन है जीप सफारी. शाम 4 बजे चलेंगे.’’

ईशान की बात सुन कर दोनों बच्चे खुश हो उठे. बच्चों के साथ घूमने का यही आनंद है. उन का उत्साह बड़ों में भी उमंग और ऊर्जा भर देता है.

‘‘आज जीप सफारी के मजे लेते हैं और कल सुबह चलेंगे ऐलीफैंट सफारी पर. सुबह के समय में शेर देखने के चांस बहुत होते हैं और फिर हाथी के ऊपर बैठ कर जंगल की सैर के क्या कहने.’’

ईशान की योजना ने बच्चों को ‘ये…ये’ के नारे लगाने पर विवश कर दिया.

जीप सफारी में सभी ने बहुत आनंद उठाया. हालांकि शेर के दर्शन नहीं हुए पर कल

सुबह हाथी की सवारी पर शेर देखने की आशा लिए चारों रिजोर्ट लौट आए. पूरे दिन के थके हुए खाना खा कर चारों अपनेअपने बिस्तर पर ढेर हो गए. कल सुबह जल्दी उठना था सो जल्दी सोने का निर्णय पहले ही तय था.

सोते हुए अचानक माहिर को ऐसा प्रतीत हुआ कि बिस्तर पर कुछ हलचल हो रही है. उस ने उठ कर देखा तो ईशान बड़ी व्याकुलता से अपनी छाती सहला रहा था.

‘‘क्या हुआ?’’ माहिरा ने पूछा.

ईशान हौले से बोला, ‘‘अजीब घबराहट सी हो रही है. करीब 1 घंटे से जागा हुआ हूं. टौयलेट भी हो आया पर ऐसा लग रहा है जैसे छाती में गैस हिट कर रही है. कोई चूरण लाई हो क्या?’’

ईशान की छटपटाहट देख माहिरा बेचैन हो उठी. इतनी रात गए, यहां घर से बाहर…समय देखा तो रात के 2 बज रहे थे.

‘‘बाहर का खाना खाया है, क्या पता उसी से अपच हो रही हो. थोड़ा टहल

कर देखो.’’

माहिरा के सु झाव पर ईशान उठ कर कमरे में ही धीरेधीरे टहलने लगा, ‘‘काफी देर से टहल रहा हूं पर आराम नहीं आया तब जा कर वापस बिस्तर पर बैठ गया था.’’

ईशान के बिगड़ते मुंह से माहिरा सम झ रही थी कि उसे तकलीफ हो रही है. उस ने तत्काल रिजोर्ट की रिसैप्शन पर फोन किया. यहां कोई डाक्टर औन कौल की सुविधा तो नहीं थी पर हल्द्वानी में कई अच्छे अस्पताल हैं, यह बताया गया. बच्चे सो रहे थे. ईशान की तबीयत में कोई सुधार न आता देख माहिरा ने अस्पताल जाने का निर्णय ले एक टैक्सी बुलवा ली. बच्चों को यहीं रूम में सोता छोड़ कर दोनों टैक्सी से हल्द्वानी के लिए रवाना हो गए. हल्द्वानी के ब्रिजपाल हौस्पिटल तक पहुंचने में उन्हें पूरा 1 घंटा लग गया.

रास्ताभर ईशान अपनी छाती सहलाता रहा और माहिरा उस के माथे पर बारबार छलक आई पसीने की बूंदों को पोंछती रही. सारे रास्ते दोनों चुप रहे, किसी की सम झ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे.

माहिरा हताश होने वालों में से नहीं थी, किंतु वर्तमान स्थिति के कारण उस में नैराश्य की भावना उभरने लगी थी. उसे आने वाले कल की चिंता ने घेर लिया. उस ने खामोशी से ईशान का सिर अपने कंधे पर टिका लिया. इस 1 घंटे के रास्ते में न जाने कितनी भावनाओं के ज्वार दोनों के मन में शोर मचाते रहे. दोनों के मन के अंदर न जाने कितने विचारों का आवागमन निर्बाध चल रहा था.

अस्पताल पहुंचे तो इमरजैंसी में दाखिल किया गया. औन ड्यूटी डाक्टर ने चैकअप किया, पहले भी हुआ है कभी ऐसा?’’ फिर रिपोर्ट बना कर ईशान को फौरन आईसीयू में भरती किया गया. ईसीजी करवाया, फिर ईशान के हाथ में कैन्यूला लगा कर कुछ देर के अंतराल में 2 इंजैक्शन दिए. कुछ टैबलेट्स दीं. थोड़ीथोड़ी देर में नर्स बीपी चैक करने लगती.

ऐसे ही अगले 2 घंटे बीत गए. बाहर सूरज की किरणें हर ओर छिटक कर नए सवेरे

का संदेश देने लगी थीं, किंतु माहिरा और ईशान की रात अभी खत्म नहीं हुई थी. दोनों बहुत व्याकुल थे, माहिरा ने रिजोर्ट में फोन कर अपने बच्चों के नाम संदेश छोड़ा ताकि उठने पर वे इन्हें अपने पास न पा कर डरें नहीं.

जब ईशान की तबीयत में थोड़ा सुधार आया तब डाक्टर ने माहिरा को अपने कक्ष में बुलाया, ‘‘देखिए मैडम, जब आप आए तब आप के हसबैंड का बीपी रेट 210/110 था जो सामान्य से काफी अधिक है… खतरनाक लैबल तक. इन की यह हालत बीपी अटैक के कारण भी हो सकती है, और हो सकता है कि यह एक हार्ट अटैक भी हो. इस की जांच करने के लिए हमें इन्हें ऐडमिट रखना होगा. ट्रौप टी टैस्ट भी करना होगा,’’ कहते हुए डाक्टर ईशान की फैमिली मैडिकल हिस्ट्री पूछने लगे.

माहिरा इतनी डीटेल्स सुन कर काफी घबरा गई. वह यहां अकेली थी. ऐसे में कोई भी निर्णय अकेले लेना उसे  ठीक नहीं लगा. उसे ईशान

से डिस्कस कर के ही आगे का कदम उठाना सही लगा.

‘‘कहो ईशान, क्या तबीयत में थोड़ा सुधार फील कर रहे हो? माहिरा ने पूछा.

उत्तर में ईशान ने तबीयत में सुधार बताया तब माहिरा ने उसे वस्तुस्थिति सम झा कर पूछा, ‘‘ऐडमिट करने के लिए हामी भर दूं? कहो तो तुम्हें ऐडमिट करवा कर रिजोर्ट जा कर बच्चों को ले आऊं?’’

ईशान विषादग्रस्त हो बोला, ‘‘सौरी माहिरा, मेरे कारण तुम सब को कितनी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है…कहां तो हम सब हौलिडे मूड में आए थे और ये सब हो गया… तुम्हें अकेले ही…’’

‘‘कैसी बातें करते हो, ईशान? यह समय परेशान होने का नहीं, सही निर्णय लेने का है. अच्छा, तुम रैस्ट करो, मैं अपने फैमिली डाक्टर से फोन पर राय लेती हूं,’’ कह माहिरा ने उन का फोन मिलाया और सारी स्थिति विस्तार से सम झाई. उन की बात लोकल डाक्टर से भी करवा दी. उन की सलाह पर ट्रोपोनिन टी टैस्ट भी करवाया.

जब तक उस की रिपोर्ट आई, माहिरा टैक्सी से वापस रिजोर्ट गई. वहां चैक आउट किया, बच्चों को ले कर अपनी कार से ड्राइव करती हुई अस्पताल पहुंची.

डैडी को इस हालत में पा कर बच्चे काफी परेशान हो उठे. कितनी प्रसन्नता से छुट्टी मनाने आए थे. उन को खिन्न देख कर ईशान भी तनावग्रस्त हो गया. कुछ ही घंटों में ट्रौप टी टैस्ट की रिपोर्ट आ गई. शुक्र है कि रिपोर्ट नैगेटिव आई. इस का सीधा तात्पर्य यह था कि ईशान को बीपी का अटैक आया था, हार्ट अटैक नहीं. स्थानीय डाक्टरों से प्रैस्क्रिप्शन ले कर माहिरा ने ईशान को डिस्चार्ज करवाया और कार में सवार हो सभी घर रवाना हो गए.

रास्ते में बच्चे फोन पर गेम खेलने में मगन हो गए. किंतु ईशान और माहिरा का

मन अभी भी भूत, वर्तमान और भविष्य के जाले पोंछ रहा था. कल और आज इन 2 दिनों में उन की जिंदादिली से दौड़ती जिंदगी को बड़ा  झटका लगा था. इस अनुभव ने दोनों को  झक झोर दिया. उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि उन के स्वप्नमहल की ऊंची दीवारों को हिलाना इतना आसान हो सकता है.

आगे ऐसी स्थिति न उत्पन्न हो यह सोच कर माहिरा ने अपने गृहस्थजीवन को और प्रबल करने की ठान ली. जैसे नई रैसिपीज माहिरा में एक नया जोश फूंक देती है वैसे ही ईशान का स्वास्थ्य वापस ठीक करने की इच्छा ने उस के अंदर एक नव ऊर्जा का संचार कर डाला. जीभ का जनून छोड़ा नहीं जा सकता पर कंट्रोल तो किया जा सकता है. लाइफस्टाइल बदलाव की मदद से अनहैल्दी हो चुकी जिंदगी को वापस ट्रैक पर लाने के लिए उस के हाथ में अभी समय है.

सुबह नाश्ते की टेबल पर दलिया देख ईशान का चौंकना स्वाभाविक था. अकसर माहिरा दलिया के कबाब या टिक्की बनाती थी. दलिया उन्हें बीमारों का खाना जो लगता था.

‘‘खा कर तो देखो,’’ ईशान के चेहरे पर उभर आए भावों को परखते हुए माहिरा बोली.

‘‘दलिया भी टेस्टी हो सकता है मैं ने कभी सोचा नहीं था.’’

ईशान के मुंह से नाश्ते की प्रशंसा सुन माहिरा को अपनी स्ट्रैटेजी पर कौन्फिडैंस बढ़ गया.

आज का सारा दिन उस ने बढ़ते वजन का सेहत पर असर और वजन बढ़ाने के तरीकों के बारे में सर्च करने में बिताया. दिन ढले जब ईशान घर लौटा तो वह पूरी तैयारी के साथ सब के सामने आई. माहिरा के हाथ में कौपी, पैन और कुछ प्रिंटआउट्स देख कर ईशान को थोड़ा अचंभा हुआ.

‘‘ईशान, मु झे अपनी जिंदगी तुम्हारे साथ वैसे ही व्यतीत करनी है जैसी अब तक जीती आईर् हूं. खुशी से, प्यार में डूब कर और हंसतेखेलते,’’ ईशान का हाथ अपने हाथों में ले कर उस ने बात शुरू की,’’ अपने शरीर के प्रति हमारा सब से पहला कर्तव्य है और नैक्स्ट आती है हमारी फैमिली.’’

फिर उस ने अपने दोनों बेटों को पुकारा, ‘‘अर्णव, आरव, आज तुम्हें एक कहानी सुनाती हूं. तुम ने सर्कस में जगलर देखा है न. वह कैसे एकसाथ कई बौल्स उछालतापकड़ता है. वैसे ही हम सब जीवन के जगलर्स हैं. हम सब के हाथों में 5 बौल्स हैं- 3 रबड़ की और 2 कांच कीं. रबड़ की बौल्स को उछालो, गिराओ पर वे टूटेंगी नहीं, वापस बाउंस कर के हमारे हाथ में आ जाएंगी. किंतु कांच की बौल्स अगर गिरी तो टूटना तय है,’’ माहिरा अपने तीनों दर्शकों ईशान, अर्णव और आरव जो पूरी तल्लीनता से उसे देखसुन रहे थे, कि आंखों में आंखें डाल कर आगे कहने लगी, ‘‘हमारा प्रोफैशन, हमारी धनसंपदा और हमारा फ्रैंड सर्कल ये तीनों हैं रबड़ की बौल्स. एक बार छूट गईं तो इन का फिर से मिल पाना संभव है. हमारा स्वास्थ्य और हमारा परिवार ये दोनों हैं कांच की बौल्स. इन के प्रति लापरवाही बरती और यदि ये हाथ से फिसल गईं तो अपना नुकसान तय सम झो.’’

माहिरा की संजीदगी देख ईशान सम झ गया कि इस बार वह हैल्थ को ले कर काफी सीरियस है. माहिरा ने प्रिंटआउट के जरीए ईशान को शरीर में अधिक फैट जमा होने पर होने वाले नुकसानों के बारे में सम झाया, हैल्दी रहने के फायदे दिखाए, कई प्रकार के डाइट चार्ट्स भी शेयर किए.

अगली सुबह अलार्म ने नींद काफी जल्दी खोल दी. स्पोर्ट्स शूज, वाटर बोतल, हैंकी, टौवेल सबकुछ तैयार  था. माहिरा और ईशान ने रोजाना मौर्निंगवाक शुरू कर दी, साथ ही एक जिम की मैंबरशिप भी ले ली. इतनी रिसर्र्च का यह लाभ हुआ कि माहिरा डाइट में भी बदलाव लाई. अधिकतर घर का खाना, 1-2 चम्मच तेल में ही खाना पकाना, मीठे पर कंट्रोल, पोर्शन कंट्रोल, टाइम पर खाना आदि कदम उठाने से जल्द ही ईशान को अपने घुटनों के दर्द में आराम मिलने लगा. 1 साल की तपस्या से शरीर का काफी फैट उतर चुका था. माहिरा का साइज भी अब सिकुड़ कर मीडियम पर आ पहुंचा.

शादी की 20वीं वर्षगांठ की पार्टी के उपलक्ष में दोनों ने स्पैशल पोशाकें सिलवाईं.

मैरून कलर कोऔर्डिनेट कर के जब दोनों ने पार्टी में ऐंट्री की तो सारा हौल मित्रों व रिश्तेदारों की तालियों से गुंजायमान हो उठा.

कोई कहता, ‘‘तुम दोनों को देख कर कौन कह सकता तुम्हारी शादी को 20 साल हो गए हैं,’’ तो कोई कहता, ‘‘वाह, कितने यंग और फ्रैश लग रहे हो जैसे नया शादीशुदा जोड़ा.’’

प्रशंसा और कौंप्लिमैंट्स की बरसात में भीगते हुए दोनों स्टेज की ओर बढ़े.

सब के जवाब में ईशान कहने लगा, ‘‘इस का श्रेय सिर्फ और सिर्फ माहिरा को जाता है. इस के संकल्प और मेहनत का परिणाम है कि इस ने मेरा बुढ़ापा कई साल पीछे धकेल दिया है और इसी खुशी में आज मैं और माहिरा एक कपल डांस करेंगे. चलाओ मेरी रिक्वैस्ट का गाना,’’ शरमाती हुई माहिरा को बांहों में ले ईशान डांस फ्लोर पर जा पहुंचा. पीछे से गाना बज उठा-

‘‘जब कोई बात बिगड़ जाए, जब कोई मुश्किल पड़ जाए, तुम देना साथ मेरा ओ हमनवाज…’’

‘‘कल और आज इन 2 दिनों में उन की

जिंदादिली से दौड़ती जिंदगी को बड़ा  झटका लगा था.

इस अनुभव ने दोनों को  झक झोर दिया…’’

संकर्षण : आशीष की गैरमौजूदगी में गगन ने उस की पत्नी सीमा को बनाया गर्भवती

अपने बचपन के मित्र गगन के यहां से लौटते हुए मेरे  पति बारबार एक ही प्रश्न किए जा रहे थे, ‘‘अरे देखो न संकर्षण की शक्लसूरत, व्यवहार सब कुछ गगन से कितना मिलताजुलता है. लगता है जैसे उस का डुप्लिकेट हो. बस नाक तुम्हारी तरह है. मेरा तो जैसे उसे कुछ मिला ही नहीं.’’

‘‘मिला क्यों नहीं है? बुद्धि तुम्हारी तरह ही है. तुम्हारी ही तरह जहीन है.’’  ‘‘हां, वह तो है, पर फिर भी शक्लसूरत और आदतें कुछ तो मिलनी चाहिए थीं.’’  ‘‘शक्लसूरत और आदतें तो इनसान के अपनेअपने परिवेश के अनुसार बनती हैं और हो सकता है उस के गर्भ में आने के बाद से ही मैं ने उसे गगन भाई साहब को देने का मन बना लिया था. इसी कारण उन जैसी शक्लसूरत हो गई हो.’’  ‘‘हां, तुम ठीक कहती हो, पर यार तुम बहुत महान हो. खुशीखुशी अपना बच्चा गगन की झोली में डाल दिया.’’ ‘‘क्या करूं? मुझ से उन लोगों की तकलीफ देखी नहीं जा रही थी. गगन भाई साहब और श्रुति भाभी को हम लोगों ने कोई गैर नहीं समझा. आप के लंदन रहने के दौरान हमारे पिताजी और हमारे बच्चों का कितना ध्यान रखा.’’

‘‘हां, यह बात तो है. गगन और भाभीजी के साथ कभी पराएपन का बोध नहीं हुआ. फिर भी एक मां के लिए अपनी संतान किसी और को दे देना बड़े जीवट का काम है. मेरा तो आज भी मन कर रहा था कि उसे अपने साथ लेते चलूं.’’

‘‘कैसी बात करते हैं आप? देखा नहीं कैसे गगन भाई साहब और श्रुति भाभीजी की पूरी दुनिया उसी के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई है.’’  ‘‘सच कह रही हो और संकर्षण भी उन्हीं को अपने मातापिता समझता है. अपने असली मातापिता के बारे में जानता भी नहीं.’’ शुक्र है मेरे पति को किसी प्रकार का शक नहीं हुआ वरना मैं तो डर ही गई थी

कि कहीं यह राज उन पर उजागर न हो जाए कि संकर्षण के पिता वास्तव में गगन ही हैं. आज 17 वर्षों के वैवाहिक जीवन में यही एक ऐसा राज है जिसे मैं ने अपने पति से छिपा कर रखा है और शायद अंतिम भी. इस रहस्य को हम परिस्थितिवश हुई गलती की संज्ञा तो दे सकते हैं, पर अपराध की कतई नहीं. फिर भी जानती हूं इस रहस्य से परदा उठने पर 2 परिवार तबाह हो जाएंगे, इसलिए इस रहस्य को सीने में दबाए रखे हूं.

गगन इन के बचपन के मित्र हैं. गगन जहां दुबलेपतले, शांत और कुछकुछ पढ़ने में कमजोर थे वहीं मेरे पति गुस्सैल, कदकाठी के अच्छे और जहीन थे. घर का परिवेश भी दोनों का नितांत भिन्न था. गगन एक गरीब परिवार से संबंध रखते थे और मेरे पति उच्च मध्यवर्गीय परिवार से. इतनी भिन्नताएं होते हुए भी दोनों की दोस्ती मिसाल देने लायक थी. गगन को कोई भूल से भी कुछ कह देता तो उस की खैर नहीं होती. वहीं मेरे पति आशीष की कही हुई हर बात गगन के लिए ब्रह्मवाक्य से कम नहीं होती.

धीरेधीरे समय बीता और मेरे पति का आईएएस में चयन हो गया और गगन ने अपना छोटामोटा बिजनैस शुरू किया, जिस में हमारे ससुर ने भी आर्थिक सहयोग दिया. मेरी सास की मृत्यु मेरे पति के पढ़ते समय ही हो गई थी. उस समय गगन की मां ने ही मेरे पति को मां का प्यार दिया और ससुर भी कभी गगन को अपने परिवार से अलग नहीं समझते थे और कहते थे कि कुदरत ने उन्हें 2 बेटे दिए हैं. एक आशीष और दूसरा गगन.

संयोग देखो कि दोनों के विवाह के बाद जब मैं और श्रुति आईं तो भी उन दोनों के परिवार में किसी प्रकार का भी अलगाव न आया. मेरी और श्रुति की अच्छी बनती थी. हालांकि जब भी लोग हम चारों की मित्रता को देखते तो कहते कि यह मैत्री भी शायद कुदरत का चमत्कार है, जहां 2 भिन्न परिवेश और भिन्न सोच वाले व्यक्ति अभिन्न हो गए थे. मुझे पति के तबादलों के कारण कई शहरों में रहना पड़ा. ऐसे में ससुर अकेले पड़ गए थे. उन्हें अपना शहर छोड़ कर यों शहरशहर भटकना गंवारा न था. ऐसे में गगन और उन की पत्नी ही उन का पूरा खयाल रखते, बेटेबहू की कमी महसूस न होने देते.

समय बीतता रहा. जहां मैं 2 बच्चों की मां बन गई, वहीं गगन की पत्नी को कई बार गर्भ तो ठहरा पर गर्भपात हो गया. डाक्टर का कहना था कि उन की पत्नी की कोख में कुछ ऐसी गड़बड़ी है कि वह गर्भ पनपने ही नहीं देती. हर बार गर्भपात के बाद दोनों पतिपत्नी बहुत मायूस हो जाते. गगन की पत्नी श्रुति का तो और भी बुरा हाल हो जाता. एक तो गर्भपात की कमजोरी और दूसरा मानसिक अवसाद. दिन पर दिन उन का स्वास्थ्य गिरने लगा. डाक्टर ने सलाह दी कि अब खुद के बच्चे के बारे में भूल जाएं. या तो कोई बच्चा गोद ले लें या किराए की कोख का प्रबंध कर लें वरना पत्नी के जीवन पर संकट आ सकता है.

पर उन पतिपत्नी को डाक्टर की बात रास नहीं आई. गगन मुझ से कहते, ‘‘भाभी अब मैडिकल साइंस ने बहुत तरक्की कर ली है. अगर कुछ कमी है तो क्या वह दवा से दूर हो सकती है. इस शहर के सब डाक्टर पागल हैं. मैं देश के सब से बड़े गाइनोकोलौजिस्ट को दिखाऊंगा, देखिएगा हमारे घर भी अपने बच्चे की किलकारियां गूजेंगी.’’

और सच में उन्होंने देश के सब से मशहूर गाइनोकोलौजिस्ट को दिखाया. उन्होंने आशा बंधाई कि टाइम लगेगा, पर सब कुछ ठीक हो जाएगा. इधर मेरे पति को डैपुटेशन पर 3 सालों के लिए लंदन जाना पड़ा. मैं नहीं जा सकी. बच्चे पढ़ने लायक हो गए थे और ससुर भी अस्वस्थ रहने लगे थे. अब उन्हें केवल गगन के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता था. आखिर हम पतिपत्नी का भी तो कोई उत्तरदायित्व था.

आशीष के लंदन प्रवास के दौरान ही ससुर की मृत्यु हो गई. किसी प्रकार कुछ दिनों की छुट्टी ले कर आशीष आए फिर चले गए. इधर गगन की पत्नी को पुन: गर्भ ठहरा. अब की बार हर प्रकार की सावधानी बरती गई. गगन अपनी पत्नी को जमीन पर पांव ही नहीं धरने देते. वैसे डाक्टर ने भी कंप्लीट बैड रैस्ट के लिए कह रखा था.  डाक्टर ने अल्ट्रासाउंड वगैरह करवाने को भी मन कर दिया था ताकि उस की रेज से भी गर्भ को नुकसान न पहुंचे. धीरेधीरे गर्भ पूरे समय का हो गया. गगन, उन की पत्नी और उन की मां का चेहरा बच्चे के आने की खुशी में पुलकित रहने लगा. प्रसन्नता मुझे भी कम न थी.

नियत समय में श्रुति को प्रसववेदना शुरू हो गई. लगता था सब कुछ सामान्य हो जाएगा. मैं भी अपने बच्चों को मां के पास छोड़ कर गगन के परिवार के साथ थी. आखिरकार इस मुश्किल घड़ी में मैं उन का साथ न देती तो कौन देता. पर 1 हफ्ते तक प्रसववेदना का कोई परिणाम न निकला. डाक्टर भी सामान्य डिलिवरी की प्रतीक्षा करतेकरते थक गई थीं.

अंत में उन्होंने औपरेशन का फैसला लिया और औपरेशन से जिस बच्चे ने जन्म लिया, वह भयानक शक्ल वाला 2 सिर और 3 हाथ का बालक था. जन्म लेते ही उस ने इतने जोर का रुदन किया कि सारी नर्सें उसे वहीं छोड़ कर डर कर भाग गईं.

डाक्टर ने यह खबर गगन को दी. गगन भी बच्चे को देख कर हैरान रह गए. यह तो अच्छा हुआ कि बच्चा आधे घंटे में ही इस दुनिया से चल दिया. गगन की पत्नी बेहोश थीं.  गगन जब बच्चे को दफना कर लौटे तो इतने थकेहारे, बेबस लग रहे थे कि पूछो मत.  गगन की मां ने मुझ से कहा, ‘‘सीमा तुम गगन को ले कर घर जाओ. बहुत परेशान है वह. थोड़ा आराम करेगा तो इस परेशानी से निकलेगा. मैं हौस्पिटल में रुकती हूं.’’

मैं ने विरोध भी किया, ‘‘आंटी, आप और गगन भाई साहब चले जाएं. मैं यहां रुकती हूं.’’  मगर गगन एकदम से उठ कर खड़े हो गए. बोले, ‘‘चलिए भाभी चलते हैं.’’ मैं और गगन कमरे में आ गए. कमरे में आ कर मैं ने गगन के ऊपर सांत्वना भरा हाथ रखा  भर था कि उन का इतनी देर का रोका सब्र का बांध टूट गया.

वे मेरी गोद में सिर रख कर फफकफफक कर रोने लगे, ‘‘मैं क्या करूं भाभी? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है. श्रुति जब होश में आएगी तो मैं उसे क्या जवाब दूंगा? इस से अच्छा होता वह गर्भ में आया ही न होता… श्रुति क्या यह सदमा बरदाश्त कर पाएगी? मुझे उस की बड़ी फिक्र हो रही है. उस का सामना करने की हिम्मत मुझ में नहीं है. मैं कहीं चला जाऊंगा. भाभी आप ही उसे संभालिएगा.’’

मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि किन शब्दों में उन्हें सांत्वना दूं. केवल उन के बाल सहलाती रही. हम दोनों को ही उस मुद्रा में झपकी सी आ गई और उस दौरान कब प्रकृति और पुरुष का मिलन हो गया हम दोनों ही समझ न पाए. गगन अपराधबोध से भर उठे थे. अपराधबोध मुझे भी कम न था, क्योंकि जो कुछ भी हम दोनों के बीच हुआ था उसे न तो बलात्कार की संज्ञा दी जा सकती थी और न ही बेवफाई की. हम दोनों ही समानरूप से अपराधी थे… परिस्थितियों के षड्यंत्र का शिकार.

गगन अपनी पत्नी को ले कर दूर किसी पर्वतीय स्थल पर चले गए थे. आशीष को कुछ दिन बाद ही लंदन से लौटना था और हम लोगों को ले कर वापस जाना था, क्योंकि आशीष को वहां पर काफी अच्छी जौब मिल गई थी. उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था. मुझे देश और इतनी अच्छी नौकरी छोड़ कर विदेश जाना स्वीकार न था, पर आशीष पर तो पैसे और विदेश का भूत सवार था. आशीष आए तभी मुझे पता चला कि मैं फिर से मां बनने वाली हूं. मुझे अच्छी तरह से पता था कि यह बच्चा गगन का है. आशीष को पता चला तो वे आश्चर्य में पड़ गए. बोले, ‘‘इतनी  सावधानियों के बाद ऐसा कैसे हो सकता है?’’

मैं ने कहा, ‘‘अब हो गया है तो क्या करें?’’

आशीष बोले, ‘‘अबौर्शन करवा लो. अभी नए देश में खुद को और बच्चों को ऐडजस्ट करने में समय लगेगा. यह सब झमेला कैसे चल पाएगा?’’

मैं ने कहा, ‘‘मैं एक बात सोचती हूं. श्रुति भाभी बहुत दुखी हैं, डिप्रैशन में आ गई हैं, शायद अब उन का दूसरा बच्चा हो भी न? तो क्यों न हम इस बच्चे को उन लोगों को दे दें.’’

‘‘तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं है? अपना बच्चा कोई कैसे दूसरे को दे सकता है?’’

आशीष बोले.

‘‘क्यों? वे लोग कोई गैर तो नहीं हैं… फिर तुम अबौर्शन कराने की बात कर रहे थे… कम से कम जीवित तो रहेगा और उन लोगों के जीवन में खुशियां भर देगा.’’

‘‘वह तो ठीक है,’’ आशीष ने हथियार डालते हुए कहा, ‘‘पर क्या गगन और भाभी इस के लिए मान जाएंगे?’’

‘‘चलिए, बात कर के देखते हैं.’’  जब हम लोगों ने गगन भाई साहब और श्रुति भाभी से इस संबंध में बात की तो वे विश्वास न कर सके.

गगन बोले, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है भाभी? आप अपना बच्चा हमें दे देंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘हमारा और आप का बच्चा अलग थोड़े ही है.’’

मेरी इस बात पर गगन ने चौंक कर मेरी आंखों में देखा. मैं ने भी उन की आंखों में देखते हुए अपनी बात जारी रखी, ‘‘कृष्ण के भाई बलराम की कहानी जानते हैं न? उन्हें संकर्षण विधि द्वारा देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में प्रतिस्थापित कर दिया गया था तो यही समझिए कि यह आप लोगों का ही बच्चा है, केवल गर्भ में मेरे है. अगर बेटा होगा तो आप लोग नाम संकर्षण ही रखिएगा.’’

मगर न श्रुति को और न ही आशीष को इतनी पौराणिक कथाओं का ज्ञान था, केवल मैं और गगन ही इस अंतनिहित भाव को समझ सके. फिर मैं ने कहा, ‘‘मुझे पूरा विश्वास है कि आप लोग उसे पूरा प्यार देंगे.’’  बच्चे की कल्पना मात्र से गगन की पत्नी की आंखों में चमक आ गई. बोलीं, ‘‘सच भाभी क्या आप ऐसा कर पाएंगी?’’

‘‘क्यों नहीं? आप कोई गैर थोड़ी न हैं.’’

आपसी सहमति बनी कि मैं अभी आशीष के साथ नहीं जाऊंगी. बच्चे को जन्म देने पर उसे श्रुति को सौंप लंदन जाऊंगी. मैं ने ऐसा किया भी. बच्चे को हौस्पिटल से निकलते ही श्रुति की गोद में डाल दिया और आशीष के पास बच्चों के साथ लंदन चली गई.  तब से कई बार भारत आना हुआ पर मायके से ही हो कर लौट गई. डरती थी कहीं  मेरा मातृत्व न जाग जाए. कभीकभी इस बात पर क्षोभ भी होता कि मैं ने बेकार ही अपने बच्चे को पराई गोद में डाल दिया. फिर लगता शायद मैं ने ठीक ही किया, नहीं तो उसे देख कर एक अपराधभाव मन में हमेशा बना रहता.

आशीष सारे तथ्यों से अनजान थे. तभी तो उन का पितृत्व जबतब अपने बच्चे से मिलने को बेचैन हो उठता. उन्हीं की जिद थी कि अब की बार गगनजी के यहां जाने का कार्यक्रम बना. संकर्षण से मिल कर आशीष की प्रतिक्रिया से मुझे तो डर ही लग गया था कि कहीं इस रहस्य से परदा न उठ जाए और 2 परिवारों की सुखशांति भंग हो जाए.  मगर आशीष के मुझ पर और गगन पर अटूट विश्वास ने उन की सोच की दिशा इस ओर नहीं मोड़ी वरना मैं फंस जाती, क्योंकि आज तक न तो मैं ने कभी उन से झूठ बोला है और न ही कोई बात छिपाई है, विश्वासघात तो दूर की बात है और इतना तो मैं आज भी मन से कह सकती हूं कि मैं ने और गगन ने न तो कोई विश्वासघात किया है और न ही कोई बेवफाई. गलती जरूर हुई है. पर हां यह बात छिपाने को विवश जरूर हूं, क्योंकि इस गलती का पता लगने पर  2 परिवार व्यर्थ में विघटन की कगार पर पहुंच जाएंगे. इसीलिए मैं इस विषय पर एकदम चुप हूं.

Family Story : प्याज के आंसू- पत्नी ने बर्बाद कर दिया पति का जीवन

कहानी- छबी पराते

आज घर का माहौल बहुत गमगीन था. भैया का सामान ट्रक से उतारा जा रहा था और हमारे पुराने घर में इस सामान के लिए  जैसेतैसे जगह बनाई जा रही थी. मेरे भतीजे और ममेरे, फुफेरे भाई सभी सजल नेत्रों के साथ सामान उतार रहे थे. वे किस तरह सहेज और संभाल कर सामान उतार रहे थे उसे देख कर मन भीग सा गया. काश, भाभी भी जीवन को इसी तरह सहेज कर चलतीं तो दरके मन के साथ भैया को आज यह दिन तो नहीं देखना पड़ता.

मन बरबस ही आज से 12 साल पहले  के माहौल में चला गया जब भैया मात्र 20 वर्ष की आयु में सरकारी नौकरी प्राप्त करने में सफल रहे थे. घर में मम्मीपापा ही क्या हम सब भाईबहन भी बेहद खुश थे. भैया दिल्ली में सेना मुख्यालय में निजी सहायक के पद पर चयनित हुए थे. 2 साल की कड़ी मेहनत के बाद उन के जीवन में खुशी का यह क्षण आया था.

मम्मी और पापा यह सोच कर अत्यंत  भावुक हो गए थे कि दिल्ली जैसे बड़े शहर में बेटा कहां रहेगा, उस के खानेपीने का ध्यान कौन रखेगा, लेकिन भैया बहुत उत्साहित थे. एक युवा मन में नौकरी पाने के बाद जो उमंग और उत्साह होता है वह सब भैया में मौजूद था.

भैया अपना सूटकेस ले कर एक अनजान शहर में जा चुके थे. दिल्ली जैसे महानगर में रहने की समस्या, खानेपीने की समस्या और आफिस आनेजाने की समस्या से भी भैया का सामना हुआ और उन्होंने इस का न केवल डट कर मुकाबला किया बल्कि इस पर विजय भी पाई.

बड़े शहर में जितने जन उतने सपने. हर इनसान एक जीताजागता सपना होता है और अपने सपने से संघर्ष करता हुआ नजर आता है. भैया भी इस भीड़ में शामिल हो गए थे और अपने सपनों को साकार करने में जुट गए.

भैया ने पढ़ाई से नाता जोड़े रखा और तमाम तरह की तकलीफों से अकेले जूझते हुए उन्होंने अपना ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा किया और अपनेआप को सिविल सेवा के लिए तैयार करने में जुट गए लेकिन वह इस में सफल नहीं हो सके.

भैया को जब भी अवकाश मिलता था वह घर आ जाते थे और हम सब मिल कर बहुत खुश होते थे. धीरेधीरे 5 वर्ष निकल गए. इन 5 सालों में बहुत कुछ बदल गया था. पापा अपनी नौकरी से रिटायर हो चुके थे. मैं खुद इंजीनियरिंग करने के बाद एक अदद नौकरी की तलाश में भटक रहा था. उधर भैया भी अपना जीवन स्तर उठाने के लिए संघर्ष कर रहे थे. हम सब बहुत ही खुश थे और जिंदगी ठीकठाक चल रही थी.

भैया के सरकारी नौकरी में होने की वजह से उन के लिए जगहजगह से शादी के रिश्ते आने लगे थे. भैया बेहद स्मार्ट एवं सुडौल शरीर के मालिक थे. उन्हें ऐसी लड़की चाहिए थी जो पढ़ीलिखी, सुंदर व तेज दिमाग वाली हो ताकि दिल्ली जैसे शहर की सचाइयों के साथ जी सके और साथ ही भैया को अपनी परिपक्वता से कुछ सुकून के पल दे सके क्योंकि वह अब तक संघर्ष कर के बुरी तरह थक चुके थे और प्यार की, अपनत्व भरे सहयोग की शीतल छांव में थोड़ा विश्राम करना चाहते थे.

भैया की यह तलाश इंदौर जा कर समाप्त हुई. शादी बहुत ही धूमधाम से हुई. शादी में दोनों परिवारों ने दिल खोल कर खर्च किया था. शादी संपन्न होने के बाद सभी अपनीअपनी घरगृहस्थी में रम गए. भैयाभाभी बहुत खुश थे. दोनों ने मिल कर कहीं बाहर घूमने का कार्यक्रम बनाया और वे लोग हनीमून मनाने के लिए शिमला गए.

मम्मीपापा  भी अपने को थोड़ा हलका महसूस कर रहे थे क्योंकि पापा ने अपनी एक जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभा दी थी. भैया अपनी नौकरी और पत्नी में लीन हो  गए. कभीकभी मम्मी शिकायत भरे लहजे में कह भी देती थीं कि शादी के बाद तू बदल गया है, लेकिन ऐसा शायद नहीं था.

भैया ने भाभी को भी आगे पढ़ने व अपना एक मुकाम हासिल करने के लिए प्रेरित किया लेकिन अपने अंतर्मुखी स्वभाव के चलते वह वैसा न कर सकीं जैसा भैया चाहते थे. वह अपने को पति तक ही सीमित रखती थीं और  घर में किसी से ज्यादा बात नहीं करती थीं. यहां तक कि मम्मी और पापा से भी वह बात करना पसंद नहीं करती थीं.

भैया सदैव भाभी को खुश रखने का प्रयास करते थे. उन्हें न केवल सारी सुख- सुविधा देने का प्रयास करते बल्कि भाभी की हर इच्छा को पूरी करना अपना कर्तव्य समझते थे. अपने प्रति भैया का यह लगाव भाभी ने उन की कमजोरी समझ लिया और फिर पूरे षड्यंत्र के तहत वह सब किया जो आज की आम बात हो गई है.

भैया के घर आने पर वह किसी को कुछ नहीं समझती थीं लेकिन हम लोग भैया के डर से चुप रहते थे और सोचते थे कि थोड़े दिनों के लिए ये आए हैं जैसे रहते हैं रहने दिया जाए क्योंकि दोनों अपनी जिंदगी से खुश थे और उन की खुशी में ही हम सब की खुशी थी.

भाभी हमेशा अपने मायके वालों को ही सबकुछ समझती रहीं और उन के अंदर कभी इस परिवार के प्रति समर्पण व त्याग की भावना नहीं जागी जिस में वह शादी कर के आई थीं. शायद उन की शिक्षा ही ऐसी थी कि उन का दिमाग सदैव इसी बात में लगा रहता था कि किस प्रकार भैया को घर की तरफ से विमुख रखा जाए.

भैया का वैचारिक स्तर काफी ऊंचा व सुलझा हुआ था. भैया और मम्मी की वैचारिक बहस में कभीकभी मतभेद हो जाया करता था और इस वैचारिक मतभेद का भाभी व उन के मायके वालों ने बड़ा गलत फायदा उठाया. भाभी  को कभी भी हमारे परिवार के सदस्यों का सम्मान करने की शिक्षा नहीं दी गई. भैया भी भाभी पर ही विश्वास करते थे लेकिन भाभी लगातार इसी विश्वास का फायदा उठाने में लगी थीं और अपने घर वालों के साथ मिल कर भैया को उन के परिवार से दूर रखने का घिनौना प्रयास ही करती रहीं.

भाभी के मम्मीपापा व अन्य रिश्तेदार उन का लगातार दिमाग खराब कर रहे थे. वे इन बातों को समझ नहीं पा रही थीं कि ऐसा कर के अपनी ही घरगृहस्थी में सेंध लगा रही हैं. भैया को उन के परिवार से दूर रखने की जो कुत्सित मुहिम चलाई जा रही थी उस का पता उन को अपने ही ससुराल के एक अन्य सदस्य से लग गया और भैया ने अपने ससुराल वालों के यहां आनाजाना व उन्हें महत्त्व देना बंद कर दिया, लेकिन तब तक भाभी का दिमाग इतना खराब कर दिया गया था कि वह इस से उबर नहीं पा रही थीं और उन्हें वही सही लगता था जो उन के मायके वाले कहते थे. और आखिर तक इस मकड़जाल से वह कभी नहीं निकल पाईं. भाभी का दिमाग इतना खराब कर दिया गया कि वह भैया पर शक करने लगीं. भैया की हर गतिविधि को शक के घेरे में रख कर देखने लगीं और उन का दिमाग एक कूड़ेदान की तरह हो गया था जिस में कितनी भी अच्छी बातों को डाला जाए वह सड़  ही जाती है.

भैया ने भाभी को प्यार से कई बार समझाने का प्रयत्न किया और कहा कि अपना दिमाग ठीक रखो. भाभी के शंकालु स्वभाव के कारण भैया की परेशानी बढ़ गई और वह चिड़चिड़े हो गए. जब भाभी प्यार से नहीं मानती थीं तो धीरेधीरे उन के बीच झगड़ा होने लगा और उन का घरेलू जीवन एकदम नीरस हो गया. दोनों अकेले रहते थे लेकिन खुश नहीं थे.  भैया, भाभी को अपने  हिसाब से  रहने को कहते थे परंतु भाभी का अहंम बहुत ही चरम पर था. उन्होंने भैया की कोई बात न मानने की जैसे कसम ही खा ली थी.

भैया को अपने सपने टूटते से लगे और धीरेधीरे यह बात घर के बड़ेबुजुर्गों तक भी पहुंच गई. भैया को यह जान कर भी बहुत दुख हुआ था कि भाभी के मायके वाले भी उन्हें समझाने को तैयार नहीं थे और लगातार षड्यंत्र रच रहे थे.

भैया और भाभी के बीच का तनाव इतना ज्यादा बढ़ गया कि उसे देख कर दोनों परिवार के सदस्य परेशान हो गए. भाभी चोरीछिपे अपने मायके फोन कर के उलटासीधा बताने लगीं जिस ने जलती आग में घी का काम किया. समस्या के प्रति भाभी के मायके वाले कभी गंभीर नहीं रहे और उन्होंने कभी आमनेसामने खुल कर बात नहीं की और फिर वही हुआ जिस का सब को डर था.

एक रात भाभी दिल्ली जैसे शहर से अकेली भैया को बिना बताए ही अपने मायके पहुंच गईं. उन के घर के लोग पहले से ही भरे बैठे थे, उन्होंने भैया को सबक सिखाने की ठान ली.

उधर भाभी के इस तरह से अचानक चले जाने से भैया बहुत परेशान हुए और जगहजगह उन्हें ढूंढ़ते रहे. भाभी के मायके फोन कर के पूछने पर भी उन लोगों ने भैया को नहीं बताया कि भाभी उन के पास पहुंच गई हैं. अंतत: भाभी की गुमशुदगी की रिपोर्ट उन्होंने थाने में दर्ज करवा दी. इसी के बाद भैया के ससुराल के लोग उन्हें बरबाद करने की सोचने लगे.

भैया पर क्या बीत रही है जब इस का पता घर के लोगों को चला तो कुनबे के बड़ेबूढ़ों को ले कर पापा, भाभी को लेने उन के घर गए लेकिन उन्होंने शायद फैसला कर लिया था कि लड़की को नहीं भेजना है. वहां सभी बड़ों का अपमान होता रहा और भाभी परदे के पीछे से यह सब देखती रहीं. क्या मेरे घर के बुजुर्ग उन के कुछ नहीं लगते थे, शायद नहीं, तभी तो वह हमारे परिवार की बुजुर्गियत को शर्मसार होते चुपचाप देखती रही थीं.

इधर भैया यह सोच कर बहुत ही परेशान थे कि जिस औरत के साथ वह पिछले 5 सालों से रह रहे थे और जिस पर वह अपनों से ज्यादा भरोसा करते थे वही औरत उन के साथ इतना बड़ा  विश्वास- घात कैसे कर सकती है, लेकिन उन्हें क्या पता था कि उस औरत की संवेदनशीलता मर चुकी थी.

भैया ने कई बार भाभी से फोन पर बात करने की कोशिश की लेकिन उन के घर वालों ने भैया को अपनी ही पत्नी से बात नहीं करने दी. इस से बड़ा दुख तो इस बात का है कि भाभी ने कभी एक बार भी अपनी तरफ से भैया से बात नहीं की. भैया एक बार खुद भाभी को लेने पहुंचे तो ससुराल वालों ने सभी परंपराओं व मान्यताओं को ताक पर रख कर उन को बेइज्जत कर के घर से निकाल दिया और यह सब होते हुए भाभी चुपचाप देखती रहीं. इतना सब हो गया कि आपस का प्यार व विश्वास तारतार हो गया. रहीसही कसर भाभी की उस हरकत ने पूरी कर दी जिसे आज औरत अपना सब से बड़ा हथियार मानती है और वह है भारतीय कानून की धारा 498.

भाभी ने भैया पर कई बेबुनियाद आरोप लगाए, उन्हें चरित्रहीन साबित करने की कोशिश की, उन पर मारपीट करने, दहेज के लिए प्रताडि़त करने का आरोप लगाया और ऐसे आरोप भैया के लिए मौत के समान थे. वह अपने पर लगाए गए आरोपों से टूट गए. भाभी ने मम्मी व मुझ पर भी आरोप लगाए, मेरी बड़ी बहन पर भी आरोप लगाए जबकि हम सब उन से करीब 1,500 किलोमीटर दूर रहते हैं. लेकिन यह एक परंपरा चल निकली है कि दहेज के  घेरे में सभी को रखा जाए और परेशान किया जाए, भले ही सचाई से इस का कोई लेनादेना नहीं. पुलिस भी कानून के आगे बेबस है.

भैया के लिए इन आरोपों का आघात किसी वज्रपात से कम न था. उन का सारा जीवन तबाह हो गया. इस घटना के बाद हंसतेमुसकराते भैया गम के गहरे सागर में चले गए थे जहां से उबरना उन के लिए शायद अब कभी संभव नहीं होगा. और हम लोग उन्हें धीरेधीरे खत्म होते देखने के लिए विवश थे.

भैया के लिए यह असहनीय बात थी कि वह एक ऐसी औरत के साथ पूरे मन से रह रहे थे जो पूरे मन के साथ उन के साथ नहीं रह रही थी. वह दोहरे चरित्र की साक्षी थीं. उन के दिलोदिमाग में भैया के लिए कितना जहर भरा था यह उन के द्वारा लिखे गए शिकायती पत्रों से पता चलता है जोकि उन्होंने थाने में व भैया के आफिस में लिखे और जिस के कारण भैया की सरकारी नौकरी चली गई.

उस दिन तो भैया पूरी तरह से ही टूट गए जिस दिन इंदौर की पुलिस ने मां व दीदी को थाने में आने के लिए कहा. भाभी को इस बात का एहसास ही नहीं था कि वह क्या कर रही हैं. किसी की मांबहन को पुलिस से बेइज्जत कराने का क्या मतलब होता है? यह शायद उन्हें मालूम नहीं था, और फिर क्या मेरी मां तथा दीदी उन की कुछ नहीं लगती थीं, शायद नहीं.

आज भैया बीमार हैं और बहुत ही थकेथके से लगते हैं. वे अकेले में बहुत रोते हैं और शायद उन का पुरुष मन उन्हें सब के सामने रोने नहीं देता इसलिए वे रसोई में प्याज काटने चले जाते हैं ताकि उन की आंखों के पानी को प्याज की तिक्तता समझा जाए लेकिन मैं इतना नादान नहीं था.

मैं जब भी भैया को देखता यही सोचता कि इस देश का कानून क्यों एक औरत को इतनी निरंकुश होने की इजाजत देता है कि वह अपने अहं को शांत करने के लिए सबकुछ बरबाद कर दे, किसी के भी आत्मसम्मान के साथ मनमाना खेल, खेल सके.

पूरे घटनाक्रम में भाभी पूरी तरह से स्वयं षड्यंत्र का शिकार नजर आ रही थीं.

भारत में औरत को त्याग, बलिदान व  तपस्या की मूर्ति कहा जाता है लेकिन भाभी तो छोड़ गई थीं भैया को तिलतिल कर मरने के लिए. मुझे तो इस बात का भी आश्चर्य है कि वह इतना सब होते हुए प्रत्यक्ष देखने के बाद इस संसार में कैसे चैन से रह सकेंगी, कैसे वह अपनेआप से नजरें मिला सकेंगी और इस दंश से अपनेआप को कैसे मुक्त कर सकेंगी कि वह एक घर से भागी हुई तथा एक जिंदादिल इनसान और उस की रोजीरोटी की हत्यारिन हैं.

ट्रक वाला मुझ से बाकी पैसे देने को कह रहा था और मेरी तंद्रा टूट गई. मैं वर्तमान में आ गया था. भैया का सामान उतारा जा चुका था और भैया के स्वर्णिम कैरियर का दुखद अंत हो चुका था.

Family Story : तुरुप का पता

‘‘क्या हुआ? इस तरह उठ कर क्यों चला आया?’’ कनक को अचानक ही उठ कर बाहर की ओर जाते देख कर विमलाजी हैरानपरेशान सी उस के पीछे चली आई थीं.

‘‘मैं आप के हावभाव देख कर डर गया था. मुझे लगा कि आप कहीं रिश्ते के लिए हां न कर दें इसलिए उठ कर चला आया. मैं ने वहां से हटने में ही अपनी भलाई समझी,’’ कनक ने समझाया.

‘‘हां कहने में बुराई ही क्या है? विवाह योग्य आयु है तुम्हारी. कितना समृद्ध परिवार है. हमारी तो उन से कोई बराबरी ही नहीं है. उन की बेटी स्वाति, रूप की रानी न सही पर बुरी भी नहीं है. लंबी, स्वस्थ और आकर्षक है. और क्या चाहिए तुझे?’’ विमला देवी ने अपना मत प्रकट किया था.

‘‘मां, आप की और मेरी सोच में जमीनआसमान का अंतर है. लड़की सिर्फ स्नातक है. चाह कर भी उसे कहीं नौकरी नहीं मिलेगी.’’

‘‘लो, उसे भला नौकरी करने की क्या जरूरत है? रमोलाजी तो कह रही थीं कि स्वाति के मातापिता बेटी को इतना देंगे कि सात पीढि़यों तक किसी को कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी. ऐसे परिवार की लड़की नौकरी क्यों करेगी?’’

‘‘नौकरी करने के लिए योग्यता चाहिए, मां. मुझे तो इस में कोई बुराई भी नहीं लगती. आजकल सभी लड़कियां नौकरी करती हैं. मुझे अमीर बाप की अमीर बेटी नहीं, अपने जैसी शिक्षित, परिश्रमी और ढंग की नौकरी करने वाली पत्नी चाहिए.’’

‘‘अपना भलाबुरा समझो कनक बेटे. तुम क्या चाहते हो? तुम और तुम्हारी पत्नी नौकरी करेगी और मैं जैसे अभी सुबह 5 बजे उठ कर सारा काम करती हूं. तुम सब भाईबहनों के टिफिन पैक करती हूं, तुम्हारे विवाह के बाद भी मुझे यही सब करना पड़ा तो मेरा तो बेटा पैदा करने का सुख ही जाता रहेगा,’’ विमला ने नाराजगी जताई थी.

‘‘वही तो मैं समझा रहा हूं, मां. मेरे विवाह की ऐसी जल्दी क्या है? मुझे तो लड़की वालों का व्यवहार बड़ा ही संदेहास्पद लग रहा है. जरा सोचो, मां, इतना संपन्न परिवार अपनी बेटी का विवाह मुझ जैसे साधारण बैंक अधिकारी से करने को क्यों तैयार है?’’

‘‘तुम स्वयं को साधारण समझते हो पर बैंक मैनेजर की हस्ती क्या होती है इसे वे भलीभांति जानते हैं.’’

‘‘हमारे परिवार के बारे में भी वे अच्छी तरह से जानते होंगे न मां, मेरे 2 छोटे भाई अभी पढ़ रहे हैं. दोनों छोटी बहनें विवाह योग्य हैं.’’

‘‘कहना क्या चाहते हो तुम? इन सब का भार क्या तुम्हारे कंधों पर है? तुम्हारे पापा इस शहर के जानेमाने चिकित्सक थे. तुम्हारे दादाजी भी यहां के मशहूर दंत चिकित्सक थे. इतनी बड़ी कोठी बना कर गए हैं तुम्हारे पूर्वज. बाजार के बीच में बनी दुकानों से इतना किराया आता है कि तुम कुछ न भी करो तो भी हमारा काम चल जाए.’’

‘‘मां, पापा और दादाजी थे, अब नहीं हैं. हमारी असलियत यही है कि 6 लोगों के इस परिवार का मैं अकेला कमाऊ सदस्य हूं.’’

‘‘बड़ा घमंड है अपने कमाऊ होने पर? इसलिए स्वाति के परिवार के सामने तुम ने मेरा अपमान किया. मुझ से बिना कुछ कहे ही तुम्हारे वहां से चले आने से मुझ पर क्या बीती होगी यह कभी नहीं सोचा तुम ने,’’ विमलाजी फफक उठी थीं.

‘‘मां, मैं आप को दुख नहीं पहुंचाना चाहता था पर जरा सोचो, विवाह के बाद कोई मुझे आप से छीन कर अलग कर दे तो क्या आप को अच्छा लगेगा?’’ कनक ने विमलाजी के आंसू पोंछे थे.

‘‘कनक, यह क्या कह रहा है तू?’’ वे चौंक उठी थीं.

‘‘वही, जो मैं वहां से सुन कर आ रहा हूं. आप सब हम दोनों को अकेला छोड़ कर चले गए थे. हम ने अपने भविष्य पर विस्तार से चर्चा की. मेरी और स्वाति की सोच में इतना अंतर है कि आप सोच भी नहीं सकतीं. वह यदि सातवें आसमान पर है तो मैं रसातल में.’’

‘‘ऐसा क्या कहा उस ने?’’

‘‘पूछ रही थी कि सगाई की अंगूठी कहां से खरीदोगे. हाल ही में किसी फिल्मी हीरोइन का विवाह हुआ है. कह रही थी उस की अंगूठी 3 करोड़ की थी. मैं कितने की बनवाऊंगा.’’

‘‘फिर तुम ने क्या कहा?’’

‘‘मैं ने हंस कर बात टाल दी कि बैंक का अफसर हूं. बैंक का मालिक नहीं और बैंक में डकैती डालने का मेरा कोई इरादा नहीं है.’’

कनक के छोटे भाई तनय व विनय और बहनें विभा और आभा खिलखिला कर हंस पड़े थे.

‘‘तुम लोगों को हंसी आ रही है और मेरा चिंता के कारण बुरा हाल है,’’ विमला ने सिर थाम लिया था.

‘‘छोटीछोटी बातों पर चिंता करना छोड़ दो, मां, सदा खुश रहना सीखो, दुख भरे दिन बीते रे भैया…’’ तनय ने अपने हलकेफुलके अंदाज में कहा.

‘‘चिंता तो मेरे जीवन के साथ जुड़ी है बेटे. आज तेरे पापा होते तो ऐसा महत्त्वपूर्ण निर्णय वे ही लेते पर अब तो मुझे ही सोचसमझ कर सब कार्य करना है.’’

‘‘और क्या कहा स्वाति ने, भैया?’’ विभा ने हंसते हुए बात आगे बढ़ाई थी.

‘‘मैं बताती हूं दीदी, विवाह परिधान किस डिजाइनर से बनवाया जाएगा. गहने कहां से और कितने मूल्य के खरीदे जाएंगे. हनीमून के लिए हम कहां जाएंगे. स्विट्जरलैंड या स्वीडन,’’ आभा ने हासपरिहास को आगे बढ़ाया.

‘‘कनक भैया, सावधान हो जाओ. दीवाला निकलने वाला है तुम्हारा. यहां तो उलटी गंगा बह रही है. पहले लड़की वाले दहेज को ले कर परेशान रहते थे. यहां तो शानशौकत वाले विवाह का सारा भार तुम्हारे कंधों पर आ पड़ा है,’’ विनय भी कब पीछे रहने वाला था.

‘‘चुप रहो तुम सब. यह उपहास का विषय नहीं है. हम यहां गंभीर विषय पर विचारविमर्श कर रहे हैं. विभा और आभा तुम्हारी कल से परीक्षाएं हैं, जाओ उस की तैयारी करो. यहां समय व्यर्थ मत गंवाओ. तनय, विनय, तुम लोग भी जाओ, अपना काम करो और हमें कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दो,’’ विमला ने चारों को डपटा.

चारों चुपचाप उठ कर चले गए थे.

‘‘हां, अब बताओ और क्या बातें हुईं तुम दोनों के बीच. पता तो चले कि वह लड़की हमारे साथ हिलमिल पाएगी या नहीं,’’ एकांत पाते ही विमला ने पूछा था.

‘‘मां, विनय, तनय, विभा और आभा की कल्पना की हर बात पूछी थी उस ने. पर एक और बात भी पूछी थी जो उन चारों तो क्या आप की कल्पना से भी परे है और वह बात बता कर मैं आप को दुखी नहीं करना चाहता.’’

‘‘ऐसा क्या कहा था उस ने? अब बता ही डाल. नहीं तो मुझे चैन नहीं पड़ेगा.’’

‘‘जाने दो न मां, क्या करोगी सुन कर? इस बात को यहीं समाप्त करो. इसे आगे बढ़ाने  का कोई लाभ नहीं है. कहते हैं न कि जिस गांव में जाना नहीं उस का पता क्या पूछना.’’

‘‘प्रश्न बात आगे बढ़ाने का नहीं है. पर सबकुछ पता हो तो निर्णय लेना सरल हो जाता है.’’

‘‘तो सुनो मां. स्वाति पूछ रही थी कि विवाह के बाद हम कहां रहेंगे?’’

‘‘कहां रहेंगे का क्या मतलब है? हमारी इतनी बड़ी कोठी है. कहीं और रहने का प्रश्न ही कहां उठता है,’’ विमलाजी का स्वर अचरज से भरा था.

‘‘वह कह रही थी कि सास, ननद और देवरों के चक्कर में पड़ कर मैं अपना जीवन बरबाद नहीं करना चाहती. उसे तो स्वतंत्रता चाहिए, पूर्ण स्वतंत्रता,’’ कनक ने अंतत: बता ही दिया था.

‘‘हैं, जो लड़की विवाह से पहले ही ऐसी बातें कर रही है वह विवाह के बाद तो जीना दूभर कर देगी. अच्छा किया जो तुम उठ कर चले आए. ऐसे संस्कारों वाली लड़की से तो दूर रहना ही अच्छा है.’’

‘‘मां, इस बात को यहीं समाप्त कर दो. मेरे विवाह की ऐसी जल्दी क्या है आप को. विभा व आभा के भी कुछ प्रस्ताव हैं, उन के बारे में सोचिए न,’’ कनक ने उठने का उपक्रम किया था.

विमलाजी शून्य में ताकती अकेली बैठी रह गई थीं. उन्होंने सुना अवश्य था कि आधुनिक लड़कियां न झिझकती हैं न शरमाती हैं. जो उन्हें मन भाए उसे छीन लेती हैं. नहीं तो पहली ही भेंट में स्वाति की कनक से इस तरह की बातों का क्या अर्थ है? शायद उस के मातापिता उस की इच्छा के खिलाफ उस का विवाह करना चाह रहे हैं और उस ने ऐसे अनचाहे संबंध से पीछा छुड़ाने का यह नायाब तरीका ढूंढ़ निकाला हो.

‘‘क्या हुआ, मां? किस सोच में डूबी हो,’’ विमलाजी को सोच में डूबे देख विभा ने पूछा था.

‘‘कुछ नहीं रे. ऐसे ही थोड़ी थक गई हूं.’’

‘‘आराम कर लो कुछ देर. खाना मैं बना देती हूं,’’ विभा उन का माथा सहलाते हुए बोली थी.

‘‘नहीं बेटी, तुम्हारी कल परीक्षा न होती तो मैं स्वयं तुम से कह देती. मैं कुछ हलकाफुलका बना लेती हूं, तुम जा कर पढ़ाई करो,’’ विमलाजी स्निग्ध स्वर में बोली थीं.

वे धीरे से उठ कर रसोईघर में जा घुसी थीं. उन्होंने अपने थकने की बात विभा से कही थी पर सच तो यह था कि आज की घटना ने उन का दिल दहला दिया था. अपने पति डा. उमेश को असमय ही खो देने के बाद उन्होंने स्वयं को शीघ्र ही संभाल लिया था. अपने बच्चों के भविष्य के लिए वे चट्टान की भांति खड़ी हो गई थीं. वे स्वयं पढ़ीलिखी थीं, चाहतीं तो नौकरी कर लेतीं पर अपने हितैषियों की सलाह मान कर उन्होंने घर पर ही रहने का निर्णय लिया था.

उमेश की बहन डा. नीलिमा ने उन्हें बड़ा सहारा दिया था पर पिछले 5 वर्ष से वे अपने परिवार के साथ लंदन में बस गई थीं. पहले उन्होंने सोचा था कि उन से बात कर के ही मन हलका कर लें. पर शीघ्र ही उस विचार को झटक कर अपने कार्य में व्यस्त हो गईं. यह सोच कर कि इतनी दूर बैठी नीलिमा दीदी भला उन्हें क्या सलाह दे सकेंगी. वैसे भी जब कनक खुद इस विवाह के लिए तैयार नहीं है तो इस बात को आगे बढ़ाने का अर्थ ही क्या है?

दूसरे दिन रमोलाजी का फोन आ गया.

‘‘विमलाजी, कल आप अचानक ही उठ कर चली आईं, पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा, राव दंपती तो हक्केबक्के रह गए.’’

‘‘बात यह है रमोलाजी कि यह संबंध हमें जंचा नहीं. इसीलिए हम चले आए.’’

‘‘क्यों नहीं जंचा, विमलाजी, आप आज्ञा दें तो मैं स्वयं आ जाऊं. राव दंपती तो स्वयं आना चाह रहे थे पर मैं ने ही उन्हें मना कर दिया और समझाया कि पहले मैं जा कर वस्तुस्थिति का पता लगाती हूं. आप लोग बाद में आइएगा. आप कहें तो अभी आ जाऊं.’’

‘‘अभी तो मैं जरा व्यस्त हूं. बच्चों के कालेज जाने का समय है. आप 2 घंटे के बाद आ जाइए. तब तक मैं अपना काम समाप्त कर लूंगी,’’ विमलाजी बोली थीं.

‘‘किस का फोन था, मां?’’ फोन पर मां का वार्त्तालाप सुन कर कनक के कान खड़े हो गए थे.

‘‘रमोलाजी थीं. घर आ कर मिलना चाहती हैं.’’

‘‘टाल देना था मां. आप तो रमोलाजी को अच्छी तरह से जानती हैं. जोडि़यां मिलाना उन का धंधा है. वे आप को ऐसी पट्टी पढ़ाएंगी कि आप मना नहीं कर सकेंगी.’’

‘‘वे तो इसे समाज की सेवा कहती हैं. तुम ने सुना नहीं था कि कल कैसे अपनी प्रशंसा के पुल बांध रही थीं. उन के ही शब्दों में उन्होंने जितनी जोडि़यां मिलाई हैं सब बहुत सुखी हैं.’’

‘‘वही तो मैं कह रहा हूं, मां, आप बातों में उन से जीत नहीं सकतीं. आप अभी फोन कर के कोई बहाना बना दीजिए,’’ कनक ने सुझाव दिया था.

‘‘मैं रमोलाजी को व्यर्थ नाराज नहीं करना चाहती. उन की अच्छेअच्छे परिवारों में पैठ है. चुटकी बजाते ही रिश्ते पक्के करवाने में उन का कोई सानी नहीं है. फिर विभा और आभा का विवाह भी करवाना है. तुम कहां टक्कर मारते घूमोेगे?’’

‘‘ठीक है. खूब स्वागतसत्कार कीजिए रमोलाजी का पर सावधान रहिए और दृढ़ता से काम लीजिए. विभा की बात भी उन के कान में डाल दीजिए. अच्छा तो मैं चलता हूं.’’

रमोलाजी आई तो विमलाजी पूरी तरह से चाकचौबंद थीं. रमोलाजी की लच्छेदार बातों से वे भलीभांति परिचित थीं अत: मानसिक रूप से भी तैयार थीं.

‘‘क्या हुआ विमला भाभी? कल आप दोनों बिना कुछ कहेसुने राव साहब के यहां से उठ कर चले आए. जरा सोचिए, उन्हें कितना बुरा लगा होगा. मुझ से तो कुछ कहते ही नहीं बना,’’ रमोलाजी ने आते ही शिकायत की थी.

‘‘कनक से स्वाति की बातचीत हुई थी. उसे लगा कि उन दोनों के विचारों में बहुत अंतर है. इसलिए वह उठ कर चला आया तो उस के साथ मैं भी चली आई. विवाह तो उसी को करना है.’’

‘‘कैसी बात करती हो, भाभी. इतने अच्छे रिश्ते को क्या आप यों ही ठुकरा दोगी. मैं तो आप के भले के लिए ही कह रही थी. यों समझो कि लक्ष्मी स्वयं चल कर आप के घर आ रही है और आप उसे ठुकरा रही हैं?’’

‘‘पैसा ही सबकुछ नहीं होता, दीदी. और भी बहुत कुछ देखना पड़ता है.’’

‘‘तो बताओ न, बात क्या है? क्यों कनक वहां से उठ कर चला आया?’’

‘‘क्या कहूं, जो कुछ कनक ने बताया वह सुन कर मैं तो अब तक सकते में हूं,’’ विमलजी रोंआसी हो उठी थीं.

‘‘ऐसा क्या कह दिया स्वाति ने? मैं तो उस को बहुत अच्छी तरह से जानती हूं. मेरी बेटी की वह बहुत अच्छी सहेली है. जिजीविषा तो उस में कूटकूट कर भरी है. यह मैं इसलिए नहीं कह रही कि मैं उस का रिश्ता कनक के लिए लाई हूं. तुम उसे अपनी बहू न बनाओ तब भी मैं उस के बारे में यही कहूंगी.’’

‘‘आप तो स्वाति की प्रशंसा के पुल बांध रही हैं पर कनक तो उस से मिल कर बहुत निराश हुआ है.’’

‘‘क्यों? उस की निराशा का कारण क्या है?’’

‘‘बहुत सी बातें हैं. स्वाति उस से पूछ रही थी कि वह सगाई की अंगूठी कहां से और कितने की बनवाएगा, विवाह की पोशाक किस डिजाइनर से बनवाई जाएगी. ऐसी ही और भी बातें.’’

‘‘बस, इतनी सी बात? उस ने अंगूठी और पोशाक के बारे में पूछ लिया और कनक आहत हो गया? हर युवती का अपने विवाह के संबंध में कुछ सपना होता है. उस ने प्रश्न कर लिया तो क्या हो गया? भाभी, आजकल हमारा और तुम्हारा जमाना नहीं रहा, आजकल की युवतियां बहुत मुखर हो गई हैं. वे अपनी इच्छा जाहिर ही नहीं करतीं उसे पूरा भी करना चाहती हैं.’’

‘‘पर उन इच्छाओं को पूरा करने के क्रम में परिवार को कष्ट होता है तो होता रहे? स्वाति ने तो कनक से साफ कह दिया कि वह विवाह के बाद संयुक्त परिवार में नहीं रहेगी.’’

‘‘तोे कनक ने क्या कहा?’’

‘‘वह तो हतप्रभ रह गया, कुछ सूझा ही नहीं उसे.’’

‘‘क्या कह रही हो, भाभी? उसे साफ शब्दोें में कहना चाहिए था कि वह परिवार का बड़ा बेटा है. परिवार से अलग होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. स्वाति ने तो अपने मन की बात कह दी, कोई दूसरी लड़की विवाह के बाद यह मांग करेगी तो क्या करेगा कनक और क्या करेंगी आप?’’

‘‘क्या कहूं, मुझे तो कुछ सूझ ही नहीं रहा है,’’ विमलाजी की आंखें छलछला आईं, स्वर भर्रा गया.

‘‘इतना असहाय अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है. घरपरिवार आप का है. इसे सजाने व संवारने में अपना जीवन होम कर दिया आप ने. दृढ़ता से कहो कि इस तरह के निर्णय बच्चे नहीं लेते बल्कि आप स्वयं लेती हैं.’’

‘‘मेरे कहने से क्या होगा, दीदी. लड़की यदि झगड़ालू हुई तो हम सब का जीना दूभर कर देगी. कनक तो इसी कारण नौकरी वाली लड़की चाहता है. उसे तो झगड़ा करने का समय ही नहीं मिलेगा.’’

‘‘पर स्वाति तो नौकरी वाली युवतियों से भी अधिक व्यस्त रहती है. राव साहब के रेडीमेड कपड़ों के डिपार्टमैंट में महिला और बाल विभाग स्वाति संभालती है, उस के डिजाइनों को लाखों के आर्डर मिलते हैं.’’

‘‘पर कनक तो कह रहा था कि स्वाति केवल स्नातक है. उसे कहीं नौकरी तक नहीं मिलेगी.’’

‘‘हां, पर फैशन डिजाइनिंग में स्नातक है. इतना बड़ा व्यापार संभालती है तो नौकरी करने का प्रश्न ही कहां उठता है. मुझे लगता है कनक ने उस से कुछ पूछा ही नहीं, बस उस की सुनता रहा.’’

‘‘थोड़ा शर्मीला है कनक, पहली ही मुलाकात में किसी से घुलमिल नहीं पाता,’’ विमलाजी संकुचित स्वर में बोली थीं.

‘‘होता है, भाभी. पहली मुलाकात में ऐसा ही होता है. सहज होने में समय लगता है. मैं तो कहती हूं दोनों को मिलनेजुलने दो. एकदूसरे को समझने दो. आप भी ठोकबजा कर देख लो, सबकुछ समझ में आए तभी अपनी स्वीकृति देना.’’

‘‘आप की बात सच है. मैं कनक से कहूंगी कि स्वाति और वह फिर मिल लें. पर दीदी, सबकुछ कनक के हां कहने पर ही तो निर्भर करता है. तुम तो जानती ही हो, आज के समय में बच्चों पर अपनी राय थोपना असंभव है.’’

‘‘बिलकुल सही बात है पर तुम एक बार राव दंपती से मिल तो लो. उस दिन तुम और कनक अचानक उठ कर चले आए तब वे बहुत आहत हो गए थे.’’

‘‘उस के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं पर कनक अचानक ही उठ कर चल पड़ा तो मुझे उस का साथ देना ही पड़ा.’’

‘‘चलो, कोई बात नहीं है. जो हो गया सो हो गया. जब आप को सुविधा हो बता देना. मैं उसी के अनुसार राव दंपती से आप की भेंट का समय निश्चित कर लूंगी,’’ रमोलाजी ने सुझाव दिया था.

‘‘एक बार कनक से बात कर लूं फिर आप को फोन कर दूंगी.’’

‘‘एक बात कहूं, भाभी? बुरा तो नहीं मानोगी.’’

‘‘कैसी बातें करती हो, दीदी? आप की बात का बुरा मानूंगी? आप ने तो कदमकदम पर मेरा साथ दिया है. वैसे भी बच्चों के विवाह भी तो आप को ही करवाने हैं.’’

‘‘तो सुनो, समय बहुत खराब आ गया है. इसलिए सावधानी से सोचसमझ कर अपने निर्णय स्वयं लेना सीखो. आजकल के युवा अपने पैरों पर खड़े होते ही स्वयं को तीसमारखां समझने लगते हैं. मेरा तो अपने काम के सिलसिले में हर तरह के परिवारों में आनाजाना लगा रहता है. राजतिलकजी का नाम तो आप ने सुना ही होगा?’’

‘‘उन्हें कौन नहीं जानता,’’ विमला के नेत्र विस्फारित हो गए थे.

‘‘उन का इकलौता बेटा सुबोध, हर लड़की में कोई न कोई कमी निकाल देता था. फिर अपनी मरजी से स्वयं से 10 साल बड़ी अपनी अफसर से विवाह कर लिया. लड़की भी पहले की विवाहित थी. 2 बच्चे भी थे. दोनों परिवार बरबाद हो गए. राजतिलकजी का तो दिल ही टूट गया.’’

‘‘सच कह रही हो, दीदी, आजकल की औरतों ने तो हयाशरम बेच ही खाई है,’’ विमलाजी ने हां में हां मिलाई थी.

‘‘सो मत कहो भाभी. सैनी साहब का नाम तो सुना ही होगा आप ने?’’

‘‘नहीं तो, क्यों?’’

‘‘उन के बेटे निखिल ने तो अपने पुरुष मित्र से ही विवाह कर लिया. बेचारे सैनी साहब तो शरम के मारे अपना घर बेच कर चले गए,’’ रमोलाजी ने बात आगे बढ़ाई थी.

‘‘लगता है अब घोर कलियुग आ गया है,’’ विमलाजी ने इतना बोल कर दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया.

‘‘इसीलिए तो कहती हूं, भाभी. सावधान हो जाओ और होशियारी से काम लो. बच्चे आखिर बच्चे हैं…दुनियादारी की बारीकियां वे भला क्या समझें,’’ रमोलाजी विदा लेते हुए बोली थीं.

रमोलाजी चली गई थीं पर विमला को सकते में छोड़ गईं, ‘‘ठीक कहती हैं रमोला. निर्णय तो स्वयं लेंगी. कनक क्या जाने जीवन की पेचीदगियों को.’’

रमोलाजी तुरुप का पत्ता चल गई थीं और जानती थीं कि उन का दांव कभी खाली नहीं जाता.

Online Hindi Story : दिखावे की काट

दीवार से सिर टिका कर अंकिता शून्य में ताक रही थी. रोतेरोते उस की पलकें सूज गई थीं. अब भी कभीकभी एकाध आंसू पलकों पर आता और उस के गालों पर बह जाता. पास के कमरे में उस की भाभी दहाड़ें मारमार कर रो रही थीं. भाभी की बहन और भाभी उन्हें समझा रही थीं. भाभी के दोनों बच्चे ऋषी और रिनी सहमे हुए से मां के पास बैठे थे.

भाभी का रुदन कभी उसे सुनाई पड़ जाता. बूआ अंकिता के पास बैठी थीं और भी बहुत से रिश्तेदार घर में जगहजगह बैठे हुए थे. अंकिता का भाई और घर के बाकी दूसरे पुरुष अरथी के साथ श्मशान घाट अंतिम संस्कार करने जा चुके थे.

अंकिता की आंखों से फिर आंसू बह निकले. मां तो बहुत पहले ही उन्हें छोड़ कर चली गई थीं. पिता ने ही उन्हें मां और बाप दोनों का प्यार दे कर पाला. उन की उंगलियां पकड़ कर दोनों भाईबहन ने चलना सीखा, इस लायक बने कि जिंदगी की दौड़ में शामिल हो कर अपनी जगह बना सके और आज वही पिता अपने जीवन की दौड़ पूरी कर इस दुनिया से चले गए.

वह पिता की याद में फफक पड़ी. पास बैठी बूआ उसे दिलासा देते हुए खुद भी भाई की याद में बिलखने लगीं.

घड़ी ने साढ़े 5 बजाए तो रिश्ते की एकदो महिलाएं घर की औरतों के नहाने की व्यवस्था करने में जुट गईं. दाहसंस्कार से पुरुषों के लौटने से पहले घर की महिलाओं का स्नान हो जाना चाहिए. भाभी और बूआ के स्नान करने के बाद बेमन से उठ कर अंकिता ने भी स्नान किया.

‘कैसी अजीब रस्में हैं,’ अंकिता सोच रही थी, ‘व्यक्ति के मरते ही इस तरह से घर के लोग स्नान करते हैं जैसे कि कोई छूत की बीमारी थी, जिस के दूर हटते ही स्नान कर के लोग शुद्ध हो जाते हैं. धर्म और उस की रूढि़यां संस्कार हैं कि कुरीतियां. इनसान की भावनाओं का ध्यान नहीं है, बस, लोग आडंबर में फंस जाते हैं.

औरतों का नहाना हुआ ही था कि श्मशान घाट से घर के पुरुष वापस आ गए और घर के बाहर बैठ गए. घर की महिलाएं अब पुरुषों के नहाने की व्यवस्था करने लगीं. उसी शहर में रहने वाले कई रिश्तेदार और आसपड़ोस के लोग बाहर से ही अपनेअपने घरों को लौट गए. उन्हें विदा कर भैया भी नहाने चले गए. नहा कर अंकिता का भाई आनंद आ कर बहन के पास बैठ गया तो अंकिता भाई के कंधे पर सिर रख कर रो पड़ी. भाई की आंखें भी भीग गईं. वह छोटी बहन के सिर पर हाथ फेरने लगा.

‘‘रो मत, अंकिता. मैं तुम्हें कभी पिताजी की कमी महसूस नहीं होने दूंगा. तेरा यह घर हमेशा तेरे लिए वैसा ही रहेगा जैसा पिताजी के रहते था,’’ बड़े भाई ने कहा तो अंकिता के दुखी मन को काफी सहारा मिला.

‘‘जीजाजी, बाबूजी का बिस्तर और तकिया किसे देने हैं?’’ आनंद के छोटे साले ने आ कर पूछा.

‘‘अभी तो उन्हें यहीं रहने दे राज, यह सब बाद में करते रहना. इतनी जल्दी क्या है?’’ आनंद के बोलने से पहले ही बूआ बोल पड़ीं.

‘‘नहीं, बूआ, ये लोग हैं तो यह सब हो जाएगा, फिर मेहमानों के सोने के लिए जगह भी तो चाहिए न. राज, तुम पिताजी का बिस्तर और कपड़े वृद्धाश्रम में दे आओ, वहां किसी के काम आ जाएंगे,’’ आनंद ने तुरंत उठते हुए कहा.

‘‘लेकिन भैया, पिताजी की निशानियों को अपने से दूर करने की इतनी जल्दबाजी क्यों?’’ अंकिता ने एक कमजोर सा प्रतिवादन करना चाहा लेकिन तब तक आनंद राज के साथ पिताजी के कमरे की तरफ जा चुके थे.

लगभग 15 मिनट बाद भैया की आवाज आई, ‘‘अंकिता, जरा यहां आना.’’

अपने को संभालते हुए अंकिता पिताजी के कमरे में गई.

‘‘देख अंकिता, तुझे पिताजी की याद के तहत उन की कोई वस्तु चाहिए तो ले ले,’’ आनंद ने कहा.

भाभी को शायद कुछ भनक लग गई और वे तुरंत आ कर दरवाजे पर खड़ी हो गईं. अंकिता समझ गई कि भाभी यह देखना चाहती हैं कि वह क्या ले जा रही है. पिताजी की पढ़ने वाली मेज पर उन का और मां का शादी के बाद का फोटो रखा हुआ था. अंकिता ने जा कर वह फोटो उठा लिया. इस फोटो को संभाल कर रखेगी वह.

पिताजी की सोने की चेन और 2 अंगूठियां फोटो के पास ही एक छोटी ट्रे में रखी थीं जिन्हें मां ने घर खर्चे के लिए मिले पैसों में बचाबचा कर अलगअलग अवसरों पर पिताजी के लिए बनाया था. चूंकि ये चेन और अंगूठियां मां की निशानियां थीं. इसलिए पिताजी इन्हें कभी अपने से अलग नहीं करते थे.

अंकिता ने फोटो को कस कर सीने से लगाया और तेजी से पिताजी के कमरे से बाहर चली गई. जातेजाते उस ने देख लिया कि भाभी की नजरें ट्रे में रखी चीजों पर जमी हैं और चेहरे पर एक राहत का भाव है कि अंकिता ने उन्हें नहीं उठाया. उस के मन में एक वितृष्णा का भाव पैदा हुआ कि थोड़ी देर पहले भैया के दिलासा भरे शब्दों में कितना खोखलापन था, यह समझ में आ गया.

भैया के दोनों सालों ने मिल कर पिताजी के कपड़ों और बाकी सामान की गठरियां बनाईं और वृद्धाश्रम में पहुंचा आए. पिताजी का लोहे वाला पुराना फोल्ंडिंग पलंग और स्टूल, कुरसी, मेज और बैंचें वहां से उठा कर सारा सामान छत पर डाल दिया कि बाद में बेच देंगे.

भाभी की बड़ी भाभी ने कमरे में फिनाइल का पोंछा लगा दिया. पिताजी उस कमरे में 50 वर्षों तक रहे लेकिन भैया ने 1 घंटे में ही उन 50 वर्षों की सारी निशानियों को धोपोंछ कर मिटा दिया. बस, उन की चेन और अंगूठियां भाभी ने झट से अपने सेफ में पहुंचा दीं.

रात को भाभी की भाभियों ने खाना बनाया. अंकिता का मन खाने को नहीं था लेकिन बूआ के समझाने पर उस ने नामचारे को खा लिया. सोते समय अंकिता और बूआ ने अपना बिस्तर पिताजी के कमरे में ही डलवाया. पलंग तो था नहीं, जमीन पर ही गद्दा डलवा कर दोनों लेट गईं. बूआ ने पूरे कमरे में नजर डाल कर एक गहरी आह भरी.

बूआ के लिए भी उन का मायका उन के भाई के कारण ही था. अब उन के लिए भी मायके के नाम पर कुछ नहीं रहा. रमेश बाबू ने अपने जीते जी न बहन को मायके की कमी खलने दी न बेटी को. कहते हैं मायका मां से होता है लेकिन यहां तो पिताजी ने ही हमेशा उन दोनों के लिए ही मां की भूमिका निभाई.

‘‘बेटा, अब तू भी असीम के पास सिंगापुर चली जाना. वैसे भी अब तेरे लिए यहां रखा ही क्या है. आनंद का रवैया तो तुझे पता ही है. जो अपने जन्मदाता की यादों को 1 घंटे भी संभाल कर नहीं रख पाया वह तुझे क्या पूछेगा,’’ बूआ ने उस की हथेली को थपथपा कर कहा. अनुभवी बूआ की नजरें उस के भाईभाभी के भाव पहले ही दिन ताड़ गईं.

‘‘हां बूआ, सच कहती हो. बस, पिताजी की तेरहवीं हो जाए तो चली जाऊंगी. उन्हीं के लिए तो इस देश में रुकी थी. अब जब वही नहीं रहे तो…’’ अंकिता के आगे के शब्द उस की रुलाई में दब गए.

बूआ देर तक उस का सिर सहलाती रहीं. पिताजी ने अंकिता के विवाह की एकएक रस्म इतनी अच्छी तरह पूरी की थी कि लोगों को तथा खुद उस को भी कभी मां की कमी महसूस नहीं हुई.

पिताजी ने 2 साल पहले उस की शादी असीम से की थी. साल भर पहले असीम को सिंगापुर में अच्छा जौब मिल गया. वह अंकिता को भी अपने साथ ले जाना चाहता था लेकिन पिताजी की नरमगरम तबीयत देख कर वह असीम के साथ सिंगापुर नहीं गई. असीम का घर इसी शहर में था और उस के मातापिता नहीं थे, अत: असीम के सिंगापुर जाने के बाद अंकिता अपनी नौकरानी को साथ ले कर रहती थी. असीम छुट्टियों में आ जाता था.

अंकिता ने बहुत चाहा कि पिताजी उस के पास रहें पर इस घर में बसी मां की यादों को छोड़ कर वे जाना नहीं चाहते थे इसलिए वही हर रोज दोपहर को पिताजी के पास चली आती थी. बूआ वडोदरा में रहती थीं. उन का भी बारबार आना संभव नहीं था और अब तो उन का भी इस शहर में क्या रह जाएगा.

पिताजी की तीसरे दिन की रस्म हो गई. शाम को अंकिता बूआ के साथ आंगन में बैठी थी. असीम के रोज फोन आते और उस से बात कर अंकिता के दिल को काफी तसल्ली मिलती थी. असीम और बूआ ही तो अब उस के अपने थे. बूआ के सिर में हलकाहलका दर्द हो रहा था.

‘‘मैं आप के लिए चाय बना कर लाती हूं, बूआ, आप को थोड़ा आराम मिलेगा,’’ कह कर अंकिता चाय बनाने के लिए रसोईघर की ओर चल दी.

रसोईघर का रास्ता भैया के कमरे के बगल से हो कर जाता था. अंदर भैयाभाभी, उन के बच्चे, भाभी के दोनों भाई बैठे बातें कर रहे थे. उन की बातचीत का कुछ अंश उस के कानों में पड़ा तो न चाहते हुए भी उस के कदम दरवाजे की ओट में रुक गए. वे लोग पिताजी के कमरे को बच्चों के कमरे में तबदील करने पर सलाहमशविरा कर रहे थे.

बच्चों के लिए फर्नीचर कैसा हो, कितना हो, दीवारों के परदे का रंग कैसा हो और एक अटैच बाथरूम भी बनवाने पर विचार हो रहा था. सब लोग उत्साह से अपनीअपनी राय दे रहे थे, बच्चे भी पुलक रहे थे.

अंकिता का मन खट्टा हो गया. इन बच्चों को पिताजी अपनी बांहों और पीठ पर लादलाद कर घूमे हैं. इन के बीमार हो जाने पर भैयाभाभी भले ही सो जाएं लेकिन पिताजी इन के सिरहाने बैठे रातरात भर जागते, अपनी तबीयत खराब होने पर भी बच्चों की इच्छा से चलते, उन्हें बाहर घुमाने ले जाते. और आज वे ही बच्चे 3 दिन में ही अपने दादाजी की मौत का गम भूल कर अपने कमरे के निर्माण को ले कर कितने उत्साहित हो रहे हैं.

खैर, ये तो फिर भी बच्चे हैं जब बड़ों को ही किसी बात का लेशमात्र ही रंज नहीं है तो इन्हें क्या कहना. सब के सब उस कमरे की सजावट को ले कर ऐसे बातें कर रहे हैं मानो पिताजी के जाने की राह देख रहे थे कि कब वे जाएं और कब ये लोग उन के कमरे को हथिया कर उसे अपने मन मुताबिक बच्चों के लिए बनवा लें. यह तो पिताजी की तगड़ी पैंशन का लालच था, नहीं तो ये लोग तो कब का उन्हें वृद्धाश्रम में भिजवा चुके होते.

अंकिता से और अधिक वहां पर खड़ा नहीं रहा गया. उस ने रसोईघर में जा कर चाय बनाई और बूआ के पास आ कर बैठ गई.

पिताजी की मौत के बाद दुख के 8 दिन 8 युगों के समान बीते. भैयाभाभी के कमरे से आती खिलखिलाहटों की दबीदबी आवाजों से घावों पर नमक छिड़कने का सा एहसास होता था पर बूआ के सहारे वे दिन भी निकल ही गए. 9वें दिन से आडंबर भरी रस्मों की शुरुआत हुई तो अंकिता और बूआ दोनों ही बिलख उठीं.

9वें दिन से रूढि़वादी रस्मों की शुरुआत के साथ श्राद्ध पूजा में पंडितों ने श्लोकों का उच्चारण शुरू किया तो बूआ और अंकिता दोनों की आंखों से आंसुओं की धाराएं बहने लगीं. हर श्लोक में पंडित अंकिता के पिता के नाम ‘रमेश’ के आगे प्रेत शब्द जोड़ कर विधि करवा रहे थे. हर श्लोक में ‘रमेश प्रेतस्य शांतिप्रीत्यर्थे श… प्रेतस्य…’ आदि.

व्यक्ति के नाम के आगे बारबार ‘प्रेत’ शब्द का उच्चारण इस प्रकार हो रहा था मानो वह कभी भी जीवित ही नहीं था, बल्कि प्रेत योनि में भटकता कोई भूत था. अपने प्रियजन के नाम के आगे ‘प्रेत’ शब्द सुनना उस की यादों के साथ कितना घृणित कार्य लग रहा था. अंकिता से वहां और बैठा नहीं गया. वह भाग कर पिताजी के कमरे में आ गई और उन की शर्ट को सीने से लगा कर फूटफूट कर रो दी.

कैसे हैं धार्मिक शास्त्र और कैसे थे उन के रचयिता? क्या उन्हें इनसानों की भावनाओं से कोई लेनादेना नहीं था? जीतेजागते इनसानों के मन पर कुल्हाड़ी चलाने वाली भावहीन रूढि़यों से भरे शास्त्र और उन की रस्में, जिन में मानवीय भावनाओं की कोई कद्र नहीं. आडंबर से युक्त रस्मों के खोखले कर्मकांड से भरे शास्त्र.

धार्मिक कर्मकांड समाप्त होने के बाद जब पंडित चले गए तब अंकिता अपने आप को संभाल कर बाहर आई. भैया और उन के बेटे का सिर मुंडा हुआ था. रस्मों के मुताबिक 9वें दिन पुत्र और पौत्र के बाल निकलवा देते हैं. उन के घुटे सिर को देख कर अंकिता का दुख और गहरा हो गया. कैसी होती हैं ये रस्में, जो पलपल इनसान को हादसे की याद दिलाती रहती हैं और उस का दुख बढ़ाती हैं.

असीम को आखिर छुट्टी मिल ही गई और पिताजी की तेरहवीं पर वह आ गया. उस के कंधे पर सिर रख कर पिताजी की याद में और भैयाभाभी के स्वार्थी पक्ष पर वह देर तक आंसू बहाती रही. अंकिता का बिलकुल मन नहीं था उस घर में रुकने का लेकिन पिताजी की यादों की खातिर वह रुक गई.

तेरहवीं की रस्म पर भैया ने दिल खोल कर खर्च किया. लोग भैया की तारीफें करते नहीं थके कि बेटा हो तो ऐसा. देखो, पिताजी की याद में उन की आत्मा की शांति के लिए कितना कुछ कर रहा है, दानपुण्य, अन्नदान. 2 दिन तक सैकड़ों लोगों का भोजन चलता रहा. लोगों ने छक कर खाया और भैयाभाभी को ढेरों आशीर्वाद दिए. अंकिता, असीम और बूआ तटस्थ रह कर यह तमाशा देखते रहे. वे जानते थे कि यह सब दिखावा है, इस में तनिक भी भावना या श्रद्धा नहीं है.

यह कैसा धर्म है जो व्यक्ति को इनसानियत का पाठ पढ़ाने के बजाय आडंबर और दिखावे का पाठ पढ़ाता है, ढोंग करना सिखाता है.

जीतेजी पिता को दवाइयों और खानेपीने के लिए तरसा दिया और मरने पर कोरे दिखावे के लिए झूठी रस्मों के नाम पर ब्राह्मणों और समाज के लोगों को भोजन करा रहे हैं. सैकड़ों लोगों के भोजन पर हजारों रुपए फूंक कर झूठी वाहवाही लूट रहे हैं जबकि पिताजी कई बार 2 बजे तक एक कप चाय के भरोसे पर भूखे रहते थे. अंकिता जब दोपहर में आती तो उन के लिए फल, दवाइयां और खाना ले कर आती और उन्हें खिलाती.

रात को कई बार भैया व भाभी को अगर शादी या पार्टी में जाना होता था तो भाभी सुबह की 2 रोटियां, एक कटोरी ठंडी दाल के साथ थाली में रख कर चली जातीं. तब पिताजी या तो वही खा लेते या उसे फोन कर देते. तब वह घर से गरम खाना ला कर उन्हें खिलाती.

अंकिता सोच रही थी कि श्राद्ध शब्द का वास्तविक अर्थ होता है, श्रद्धा से किया गया कर्म. लेकिन भैया जैसे कुपुत्रों और लालची पंडितों ने उस के अर्थ का अनर्थ कर डाला है.

जीतेजी पिताजी को भैया ने कभी कपड़े, शौल, स्वेटर के लिए नहीं पूछा. इस के उलट अपने खर्चों और महंगाई का रोना रो कर हर महीने उन की पैंशन हड़प लेते थे, लेकिन उन की तेरहवीं पर भैया ने खुले हाथों से पंडितों को कपड़े, बरतन आदि दान किए. अंकिता को याद है उस की शादी से पहले पिताजी के पलंग की फटी चादर और बदरंग तकिए का कवर. विवाह के बाद जब उस के हाथ में पैसा आया तो सब से पहले उस ने पिताजी के लिए चादरें और तकिए के कवर खरीदे थे.

जीवित पिता पर खर्च करने के लिए भैया के पास पैसा नहीं था, लेकिन मृत पिता के नाम पर आज समाज के सामने दिखावे के लिए अचानक ढेर सारा पैसा कहां से आ गया.

असीम ने 2 दिन बाद के अपने और अंकिता के लिए हवाई जहाज के 2 टिकट बुक करा दिए.

दूसरे दिन भैया ने कुछ कागज अंकिता के आगे रख दिए. दरअसल, पिताजी ने वह घर भैया और उस के नाम पर कर दिया था.

‘‘अब तुम तो असीम के साथ सिंगापुर जा रही हो और वैसे भी असीम का अपना खुद का भी मकान है तो…’’ भैया ने बात आधी छोड़ दी. पर अंकिता उन की मंशा समझ गई. भैया चाहते थे कि वह अपना हिस्सा अपनी इच्छा से उन के नाम कर दे ताकि भविष्य में कोई झंझट न रहे.

‘‘हां भैया, इस घर में आप के साथसाथ आधा हिस्सा मेरा भी है. इन कागजों की एक कापी मैं भी अपने पास रखूंगी ताकि मेरे पिता की यादें मेरे जीवित रहने तक बरकरार रहें,’’ कठोर स्वर में बोल कर अंकिता ने कागज भैया के हाथ से ले कर असीम को दे दिए ताकि उन की कापी करवा सकें, ‘‘और हां भाभी, मां के कंगन पिताजी ने तुम्हें दिए थे अब पिताजी की अंगूठी और चेन आप मुझे दे देना निकाल कर.’’

भैयाभाभी के मुंह लटक गए. दोपहर को असीम और अंकिता ने पिताजी का पलंग, कुरसी, टेबल और कपड़े वापस उन के कमरे में रख लिए. नया गद्दा पलंग पर डलवा दिया. पिताजी के कमरे और उस के साथ लगे अध्ययन कक्ष पर नजर डाल कर अंकिता बूआ से बोली, ‘‘मेरा और आप का मायका हमेशा यही रहेगा बूआ, क्योंकि पिताजी की यादें इसी जगह पर हैं. इस की एक चाबी आप अपने पास रखना. मैं जब भी यहां आऊंगी आप भी आ जाया करना. हम यहीं रहा करेंगे.’’

बूआ ने अंकिता और असीम को सीने से लगा लिया और तीनों पिताजी को याद कर के रो दिए.

Short Story: मोटी मन को भा गई…

‘‘जनाब, शहनाई बजी, डोली घर आ गई. लेकिन जब बीएमडब्ल्यू के बिना डोली आई तो असमंजस में पड़ हम ने अपने दोस्त रमेश से अपनी परेशानी जाहिर की…’’

लड़की को देख कर आते ही हम ने मामाजी के कानों में डाल दिया, ‘‘मामाजी, हमें लड़की जंची नहीं. लड़की बहुत मोटी है. वह ढोल तो हम तीले. कहां तो आज लोग स्लिमट्रिम लड़की पसंद करते हैं और कहां आप हमारे पल्ले इस मोटी को बांध रहे हैं.’’

मामाजी के जरीए हमारी बात मम्मीपापा तक पहुंची तो उन्होंने कह दिया, ‘‘यह तो हर लड़की में मीनमेख निकालता है. थोड़ी मोटी है तो क्या हुआ?’’

सुन कर हम ने तो माथा ही पीट लिया. कहां तो हम ऐश्वर्या जैसी स्लिमट्रिम सुुंदरी के सपने मन में संजोए थे और कहां यह टुनटुन गले पड़ रही थी.

तभी हमारा लंगोटिया यार रमेश आ धमका. उसे पता था कि आज हम लड़की देखने जाने वाले थे. अत: आते ही मामाजी से पूछने लगा, ‘‘देख आए लड़की हमारे दोस्त के लिए? कैसी हैं हमारी होने वाली भाभी?’’

‘‘अरे भई खुशी मनाओ, क्योंकि तुम्हारे दोस्त को बीएमडब्ल्यू मिलने वाली है,’’ कह मामाजी ने चुपके से आंख दबा दी.

हम कान लगाए सब सुन रहे थे. मामाजी द्वारा आंख दबाने से अनभिज्ञ हम मन ही मन गुदगुदाए कि अच्छा, हमें बीएमडब्ल्यू मिलने वाली है. अभी तक हम लड़की के मोटी होने के कारण नाकभौं सिकोड़ रहे थे, लेकिन फिर यह सोच कर कि अभी तक मारुति पर चलने वाले हम अब बीएमडब्ल्यू वाले हो जाएंगे, थोड़ा गर्वान्वित हुए और फिर हम ने दिखावे की नानुकर के बाद हां कह दी. वैसे भी यहां हमारी सुनने वाला कौन था?

जनाब, शहनाई बजी, डोली घर आ गई. लेकिन जब बीएमडब्ल्यू के बिना डोली आई तो असमंजस में पड़ हम ने अपने दोस्त रमेश से अपनी परेशानी जाहिर की. रमेश हंसा, फिर मामाजी से नजरें मिला हमारी श्रीमतीजी की ओर इशारा कर बोला, ‘‘यही तो हैं तुम्हारी बीएमडब्ल्यू. नहीं समझे क्या? अरे पगले बीएमडब्ल्यू का मतलब बहुत मोटी वाइफ. अब समझे क्या?’’

अब्रीविऐशन कितना कन्फ्यूज करती है, हमें अब समझ आया. मजाक का पात्र बने सो अलग. हम इस मुगालते में थे कि बीएमडब्ल्यू कार मिलेगी. खैर हम ने बीएमडब्ल्यू, ओह सौरी, श्रीमतीजी के साथ गृहप्रवेश किया. हमें फोटो खिंचवाने का शौक था और फोटोजेनिक फेस भी था, मगर शादी में हमारे सारे फोटो दबे रहे. बस, दिखतीं तो सिर्फ हमारी श्रीमतीजी. गु्रप का कोई फोटो उठा कर देख लें, आसपास खड़े सूकड़ों के बीच घूंघट में लिपटी हमारी मोटी श्रीमतीजी अलग ही दिखतीं. उस पर वीडियो वाले ने भी कमाल दिखाया. उस ने डोली में हमारे पल्लू से बंधी पीछे चलती श्रीमतीजी के सीन के वक्त फिल्म ‘सौ दिन सास के’ का गाना, ‘दिल की दिल में रह गई क्याक्या जवानी सह गई… देखो मेरा हाल यारो मोटी पल्ले पै गई…’ चला दिया.

हनीमून पर मनाली पहुंचे तो होटल के स्वागतकर्ता ने हमारी खिल्ली उड़ाते हुए कहा, ‘‘आप चिंता न करें हमारे डबलबैड वाले रूम में व्यवस्था है कि एक सिंगल बैड अलग से जोड़ा जा सके.’’

हम तो खिसिया कर रह गए, लेकिन श्रीमतीजी ने रौद्र रूप दिखा दिया, बोलीं, ‘‘मजाक करते हो? खातेपीते घर की हूं…फिर डबलबैड पर इतनी जगह तो बच ही जाएगी कि बगल में ये सो सकें. इन्हें जगह ही कितनी चाहिए?’’

पता नहीं श्रीमतीजी ने हमारे पतलेपन का मजाक उड़ाया था या फिर अपनी इज्जत बढ़ाई थी, पर इस पर भी हम शरमा कर ही रह गए.

हमारी हनीमून से वापसी का दोस्तों को पता चला तो पहुंच गए हाल पूछने. न…न..हाल पूछने नहीं बल्कि छेड़ने और फिर छेड़ते हुए बोले, ‘‘भई, कैसी है तुम्हारी बीएमडब्ल्यू?’’

अब्रीविऐशन के धोखे और लालच में लिए गए फैसले ने हमें एक बार फिर कोसा. हम अपनी बेचारगी जताते खीजते हुए बोले, ‘‘दोस्तों, हनीमून पर घूमनेफिरने, किराएभाड़े से ज्यादा तो श्रीमतीजी के खाने का बिल है. अब तुम्हीं बताओ…’’ कहते हुए जेहन में फिर वही गाना गूंज उठा कि मोटी पल्ले पै गई…

अभी हमारी बात पूरी भी न हुई थी कि हमारे दोस्त रमेश ने हमें धैर्य बंधाते हुए कहा, ‘‘बी पौजिटिव यार. क्यों आफत समझते हो? वह सुना नहीं अभिताभ का गाना, ‘जिस की बीवी मोटी उस का भी बड़ा नाम है बिस्तर पर लिटा दो गद्दे का क्या काम है…’ और फिर मोटे होने के भी अपने फायदे हैं.’’

हम इस गद्दे के आनंद का एहसास हनीमून पर कर चुके थे. सो पौजिटिव सोच बनी. पर तुरंत रमेश से पूछ बैठे, ‘‘क्या फायदे हैं मोटी बीवी होने के जरा बताना? हम तो अभी तक यही समझ पाए हैं कि मोटी बीवी होने पर खाने का खर्च बढ़ जाता है, कपड़े बनवाने के लिए 5-6 मीटर की जगह पूरा थान खरीदना पड़ता है.’’उस दिन हम टीवी देख रहे थे कि तभी घंटी बजी. हम ने दरवाजा खोला, सामने रमेश खड़ा था, अपनी  शादी का कार्ड थामे, अंदर घुसते ही हैरानी से पूछने लगा, ‘‘क्या हुआ भई छत पर तंबू क्यों लगा रखा है? खैरियत तो है न?’’

हम यह देखने बाहर जाते, उस से पहले ही श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘अरे, वह तो मैं अभीअभी अपना पेटीकोट सूखने डाल कर आई हूं.’’

सुनते ही रमेश की हंसी छूट गई. फिर हंसते हुए बोला, ‘‘हां भई, हम तो भूल ही गए थे कि अब तुम बीएमडब्ल्यू वाले हो गए हो…उस का कवर भी तो धोनासुखाना पड़ेगा, न?’’

बीएमडब्ल्यू के लालच में पड़ना हमें फिर सालने लगा. हमारी त्योरियां चढ़ गईं कि एक तो इतना बड़ा पेटीकोट, उस पर उसे तारों पर फैलाया भी ऐसे था कि सचमुच तंबू लग रहा था. फिर वही गाना मन में गूंज उठा, ‘मोटी पल्ले पै गई…’

खैर, रमेश शादी का न्योता देते हुए बोला, ‘‘समय पर पहुंच जाना दोनों शादी में.’’

जनाब, हम अपनी बीएमडब्ल्यू को मारुति में लादे पार्टी में पहुंच गए और एक ओर बैठ गए. तभी फोटोग्राफर कपल्स के फोटो लेते हुए वहां पहुंचा और हमें भी पोज देने को कहा.

आगेपीछे देख कोई पोज पसंद न आने पर वह बोला, ‘‘भाई साहब, आप भाभीजी के साथ सोफे पर दिखते नहीं…भाभीजी के वजन से सोफा दबता है और आप पीछे छिप जाते हैं. ऐसा करो आप सोफे के बाजू पर बैठ जाएं.’’

हम ने वैसा ही किया. पोज ओके हो गया, लेकिन तब तक पास पहुंच चुके दोस्त हंसते हुए बोले, ‘‘क्या यार सोफे के बाजू पर बैठे तुम ऐसे लग रहे थे जैसे भाभीजी की गोद में बैठे हो.’’

मोटे होने का एक और फायदा मिल गया था. इतने स्नैक्स निगलने के बाद भी हमारी श्रीमतीजी ने डट कर खाना खाया. सचमुच 500 के शगुन का 1000 तो वसूल ही लिया था. साथ ही एक और बात देखी. जहां अमूमन पत्नियां प्लेट भर लेती हैं और थोड़ाबहुत खा कर पति के हवाले कर देती हैं, फिनिश करने को, वहीं यहां उलटा था. श्रीमतीजी के कारण हम ने हर व्यंजन चखा.

उस दिन हम ससुराल से लौटे तो अपनी गाड़ी की जगह किसी और की गाड़ी खड़ी देख झल्लाए. तभी श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘अरे, यह तो विभा की गाड़ी है,’’ और फिर तुरंत अपने मोबाइल से विभा का नंबर मिला दिया.

पड़ोस में तीसरी मंजिल पर रहने वाली विभा महल्ले की दबंग औरत थी. सभी उस से डरते थे. विभा तीसरी मंजिल से तमतमाती नीचे आई और दबंग अंदाज में बोली, ‘‘ऐ मोटी, इतनी रात को क्यों तंग किया? कहीं और लगा लेती अपनी गाड़ी? मैं नहीं हटाने वाली अपनी गाड़ी. कौन तीसरे माले पर जाए और चाबी ले कर आए?’’

‘‘क्या कहा, मोटी…’’ कहते हुए हमारी श्रीमतीजी ने विभा को हलका सा धक्का दिया तो वह 5 कदम पीछे जा गिरी  विभा की सारी दबंगई धरी की धरी रह गई. आज तक जहां महल्ले वाले उस से नजरें भी न मिला पाते थे वहीं हमारी श्रीमतीजी ने उसे रात में सूर्य दिखा दिया था.

‘‘अच्छा लाती हूं चाबी,’’ कहती हुई वह फौरन गई और चाबी ला कर अपनी गाड़ी हटा कर हमारी गाड़ी के लिए जगह खाली कर दी. इसी के साथ ही हमें श्रीमतीजी के मोटे होने का एक और फायदा दिख गया था. हम भी कितने मूर्ख थे कि अब तक यह भी न समझ पाए कि अगर श्रीमतीजी का वजन ज्यादा है तो इन की बात का वजन भी तो ज्यादा होगा. अब महल्ले में हमारी श्रीमतीजी की दबंगई के चर्चे होने लगे. साथ ही हम भी मशहूर हो गए. हमारे मन में श्रीमतीजी के मोटापे को ले कर जो नफरत थी अब धीरेधीरे प्यार में बदलने लगी थी. अब कोई मिलता और हमारी श्रीमतीजी के लिए मोटी संबोधन का प्रयोग करता तो हम भी उसे मोटापे के फायदे गिनाने से नहीं चूकते.

उस दिन हमारी  कुलीग ज्योति किसी काम से हमारे घर आई तो हम ने श्रीमतीजी से मिलवाया, ‘‘ये हमारी श्रीमतीजी…’’

अभी इंट्रोडक्शन पूरा भी न हुआ था कि ज्योति बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘बहुत मोटी वाइफ हैं आप की,’’ और हंस दी. हमें लगा यह भी हमें बीएमडब्ल्यू के मुगालते वाला ताना मार रही है सो थोड़ा किलसे लेकिन श्रीमतीजी ने बड़े धांसू तरीके से ज्योति की हंसी पर लगाम कसी, ‘‘मेरे मोटापे को छोड़ अपनी काया की चिंता कर. मैं तो खातेपीते घर की हूं. तुझे देख तो लगता है घर में सूखा पड़ा है. कुछ खायापीया कर वरना ज्योति कभी भी बुझ जाएगी.’’

लीजिए, हमें मोटे होने का एक और फायदा मिल गया. अब कोई हमें यह ताना भी नहीं मार सकता था कि हम अपनी श्रीमतीजी को खिलातेपिलाते नहीं, बल्कि इन का मोटा होना ससुराल को खातापीता घर घोषित करता था.

आज लड़कियां स्लिमट्रिम रहने के लिए कितना खर्च करती हैं. हमारा वह खर्च भी बचता था. साथ ही उन के खातेपीते रहने से हमारी सेहत में भी सुधार होने लगा था. उस दिन टीवी देखते हुए एक चैनल पर हमारी नजर टिक गई जहां विदेश में हो रही सौंदर्य प्रतियोगिता दिखाई जा रही थी. खास बात यह थी कि यह सौंदर्य प्रतियोगिता मोटी औरतों की थी. कितनी सुंदर दिख रही थीं वे मांसल शरीर के बावजूद. हमारी श्रीमतीजी देखते ही इतराते हुए बोलीं, ‘‘देखो, बड़े ताने कसते हैं तुम्हारे यारदोस्त मुझ पर, मेरे मोटापे को ले कर छींटाकशी करते हैं, बताओ उन्हें कि मोटे भी किसी से कम नहीं.’’

हमें श्रीमतीजी की बात में फिर वजन दिखा. साथ ही उन के मोटापे में सौंदर्य भी. अब हमें मोटी श्रीमतीजी भाने लगी थीं, बीएमडब्ल्यू हमारी मारुति में समाने लगी थी.

अब हमारे विचारों में परिवर्तन हुआ. श्रीमतीजी पर प्यार आने लगा. हमारे मन में बसी ऐश्वर्या की जगह मोटी सुंदरी लेने लगी.

‘ऐश अगर सुंदरता के कारण फेमस है, तो हमारी श्रीमतीजी मोटापे के कारण. ऐश सब को लटकेझटके दिखा दीवाना बनाती है तो हमारी श्रीमतीजी अपनी दबंगई से सब को उंगलियों पर नचाती हैं. ऐश गुलाब का फूल हैं तो हमारी श्रीमतीजी गोभी का. फिर फूल तो फूल है. गुलाब का हो या फिर गोभी का. अब जेहन का गीत, ‘मोटी पल्ले पै गई…’ से बदल कर ‘मोटी मन को भा गई…’ बनने लगा.

इसी सोच के चलते उस दिन भागमभाग वाली दिनचर्या से निबट आराम से पलंग पर लेटे ही थे कि कब आंख लग गई, पता ही न चला. फिर आंख तब अचानक खुली जब श्रीमतीजी ने बत्ती बुझाने के बाद औंधे लेटते हुए अपनी टांग हमारी पतली टांगों पर रख दी. बड़ा सुकून मिला. आज के समय में कहां श्रीमतीजी थकेहारे पति के पांव दबाती हैं, लेकिन हमारी श्रीमतीजी ने अपनी टांग हमारी टांगों पर रखते ही यह काम भी कर दिया था. तभी हम ने सोचा कि आखिर यह भी तो एक फायदा ही है श्रीमतीजी के मोटे होने का बशर्ते पत्नी गद्दे की जगह रजाई न बने वरना तो कचूमर ही निकलेगा.

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