प्रमाण दो: भाग 3- यामिनी और जीशान के रिश्ते की कहानी

लेखक- सत्यव्रत सत्यार्थी

पूर्व कथा

गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में दंगे होने के कारण नर्स यामिनी किसी तरह अस्पताल पहुंचती है. वहां पहुंचने पर सीनियर सिस्टर मिसेज डेविडसन यामिनी को बेड नं. 11 के मरीज जीशान को देखने को कहती है. यामिनी मिसेज डेविडसन को मां की तरह मानती है और मिसेज डेविडसन भी यामिनी को बेटी की तरह. शहर में होने वाले दंगों को देखते हुए मिसेज डेविडसन यामिनी को बारबार  समझाती है कि मरीजों के साथ ज्यादा घुलनेमिलने की जरूरत नहीं है.शहर में हुए दंगों से परेशान यामिनी के सामने अतीत की यादें ताजा होने लगती हैं कि किस तरह हिंदूमुसलिम दंगों के दौरान दंगाइयों ने उस का घर जला दिया था और वह अपनी सहेली के घर जाने के कारण बच गई थी. यही सोचतेसोचते उसे जीशान का ध्यान आता है.25 वर्षीय जीशान के घर में भी दंगाइयों ने आग लगा दी थी. बड़ी मुश्किल से जान बचा कर घायल अवस्था में वह अस्पताल पहुंचा था.

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आखिरी भाग

यामिनी जीशान की सेवा करती है ताकि वह जल्दी ठीक हो जाए. यामिनी और जीशान दोनों ही एकदूसरे के प्रति लगाव महसूस करते हैं. यामिनी से अलग होते समय जीशान उदास हो जाता है और कहता है कि मैं आप से कैसे मिलूंगा? मैं मुसलमान हूं और आप हिंदू, तो वह समझाती है कि हमारे बीच ऐसा कुछ नहीं है और वह अलविदा कह कर चला जाता है. यामिनी अपनी सहयोगी नर्स के साथ शहर में हुए दंगों पर चर्चा कर रही होती है कि तभी कालबेल बजती है. अब आगे…

हिंदूमुसलिम दंगों के दौरान मिले यामिनी और जीशान के बीच भाईबहन का रिश्ता कायम हो चुका था लेकिन दुनिया वाले इस रिश्ते को कहां पाक मानने वाले थे. क्या जीशान और यामिनी दुनिया के सामने अपने इस मुंहबोले रिश्ते को साबित कर पाए?गतांक से आगे…

ट्रेनी नर्स ने दरवाजा खोला. सामने खडे़ युवक ने उस को बताया, ‘‘सिस्टर, मैं जीशान का पड़ोसी हूं. क्या यामिनी मैडम यहीं रहती हैं?’’

‘‘हां, रहती तो यहीं हैं, मगर तुम्हें उन से क्या काम है?’’

‘‘उन्हें खबर कर दीजिए कि जीशान को पिछले 2 दिन से बहुत तेज बुखार है. उस ने मैडम को बुलाया है.’’

कमरे के अंदर बैठी यामिनी नर्स और आगंतुक की बातचीत ध्यान से सुन रही थी. जीशान के अतिशय बीमार होने की खबर सुन कर उस का दिल धक् से रह गया. यामिनी को लगा, मानो उस का कोई अपना कातर स्वर में उसे पुकार रहा हो. उस ने अपना मिनी फर्स्ट एड बौक्स उठाया और उस युवक के साथ निकल पड़ी.कमरे में बिस्तर पर बेसुध पड़ा जीशान कराह रहा था. यामिनी ने उस के माथे को छू कर देखा तो वह भट्ठी की तरह तप रहा था. यामिनी ने उसे जरूरी दवाएं दीं और एक इंजेक्शन भी लगा दिया. कुछ देर बाद जीशान की स्थिति कुछ संभली तो यामिनी ने पूछा, ‘‘जीशान, तुम अपने प्रति इतने लापरवाह क्यों हो? अपना ध्यान क्यों नहीं रखते?’’

‘‘ध्यान तो रखता हूं, पर बुखार का क्या करूं? खुद ब खुद आ गया.’’

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जीशान के इस भोलेपन पर यामिनी ने वात्सल्य भाव से कहा, ‘‘जब तक तुम स्वस्थ नहीं हो जाते, मैं रोजाना आया करूंगी और तुम्हारे लिए चाय, सूप जो भी होगा बनाऊंगी और अपने सामने दवाएं खिलाऊंगी.’’

‘‘ऐसा तो सिर्फ 2 ही लोग कर सकते हैं, मां अथवा बहन.’’

यामिनी कुछ बोलना चाहती थी कि जीशान कांपते स्वर में पूछ बैठा, ‘‘क्या मैं आप को दीदी कहूं? अस्पताल में जब पहली बार होश आया था और आप को तीमारदारी करते हुए पाया था तभी से मैं ने मन ही मन आप को बड़ी बहन मान लिया था. इस से ज्यादा खूबसूरत और पाक रिश्ता दूसरा नहीं हो सकता, क्योंकि यही रिश्ता इतनी खिदमत कर सकता है.’’

‘‘यह तो ठीक है, मगर….’’

‘‘दीदी, अब मुझे मत ठुकराओ, वरना मैं कभी दवा नहीं खाऊंगा. वैसे भी तो यह दोबारा की जिंदगी आप की ही बदौलत है. आप खूब जानती हैं कि मैं आप को देखे बगैर एक पल भी नहीं रह पाता.’’

यामिनी निरुत्तर थी. रिश्ता कायम हो चुका था. सारे देश में खूनखराबे का कारण बने 2 विरोधी धर्मों के युवकयुवती के बीच भाईबहन का अटूट रिश्ता पनप चुका था.

यामिनी जब जीशान के कमरे से निकली तो अगल- बगल और सामने के मकानों के दरवाजों से झांकती अनेक आंखों के पीछे के मनोभावों को ताड़ कर वह बेचैन हो उठी. दुकानों के बाहर झुंड बना कर खडे़ लोगों ने भी उसे विचित्र सी निगाहों से देखना शुरू कर दिया. लेकिन किसी की ओर देखे बिना वह सिर झुका कर चुपचाप चलती चली गई.

जीशान जब तक पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हो गया तब तक यह क्रम अनवरत चलता रहा. मिसेज डेविडसन को यामिनी का एक मरीज के प्रति इतना लगाव कतई पसंद नहीं था. एक दिन उन्होंने कह ही दिया, ‘‘जीशान के घर इस तरह हर रोज जाना ठीक नहीं है, यामिनी.’’

‘‘क्यों?’’ प्रश्नसूचक मुद्रा में यामिनी ने पूछा.

उन्होंने समझाते हुए कहा, ‘‘तुम कोई दूधपीती बच्ची नहीं हो, जिसे कुछ पता ही न हो. भले तुम उसे भाई समझती हो, किंतु कम से कम आज के माहौल में दुनिया वाले इस मुंहबोले रिश्ते को सहन करेेंगे क्या?’’

‘‘जब यह रिश्ता नहीं बना था तब दुनिया वालों ने मुझे या जीशान को बख्शा था क्या जो मैं इन की परवा करूं.’’

‘‘दुनिया में रह कर दुनिया वालों की परवा तो करनी ही पडे़गी.’’

‘‘मैं स्वयं भी इस बंजर जीवन से तंग आ गई हूं. नहीं रहना इस दुनिया में…तो किसी से डरना कैसा,’’ यामिनी ने कठोर मुद्रा में अपना पक्ष रखा.

मिसेज डेविडसन चुप हो गईं. उन्होंने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेर और यह कहते हुए उसे अपने साथ होस्टल लिवा ले गईं कि आज का खाना और सोना सब उन्हीं के साथ होना है.

यामिनी को बर्थ डे जैसे अनावश्यक चोंचले बिलकुल नहीं भाते थे. फिर भी मिसेज डेविडसन ने आज सुबह ही उस को याद दिलाया था कि आज रात का भोजन वह उसी के साथ उस के कमरे पर लेंगी और वह भी ‘स्पेशल.’ यामिनी ने हामी भर ली थी, क्योंकि प्रस्ताव केवल भोजन का था, बर्थ डे मनाने का नहीं.

घर आ कर फ्रेश होने के बाद वह और उस की साथी टे्रनी नर्स अच्छी मेहमाननवाजी की तैयारियों में जुट गईं कि अचानक यामिनी का मोबाइल बज उठा. दूसरी तरफ से जीशान बोल रहा था, ‘दीदी, आज 7 बजे तक आप जरूर आ जाइएगा. बहुत जरूरी काम है. 8 बजे तक हरहाल में मैं आप को आप के रूम पर वापस छोड़ दूंगा.’

‘किंतु मेरे भाई, यह अचानक ऐसी कौन सी आफत आ गई है?’

‘मेरे भाई’ शब्द सुनते ही जीशान का रोमरोम पुलकित हो उठा. कितनी मिठास, कितनी ऊर्जा थी इस पुकार में. वह समझ नहीं पा रहा था कि अपनी बात कैसे कहे. इन कुछ पलों की चुप्पी का अर्थ यामिनी समझ नहीं पा रही थी. उस ने कहा, ‘जीशान, आज मैं नहीं आ सकती. तुम हर बात पर जिद क्यों करते हो?’

‘दीदी, यह मेरी आखिरी जिद है. मान जाओ, फिर कभी भी ऐसी गुस्ताखी नहीं करूंगा,’ इतना कह कर जीशान ने फोन काट दिया था.

यामिनी अजीब संकट में पड़ गई. एक तरफ जीशान का ‘बुलावा’ था तो दूसरी तरफ मिसेज डेविडसन को दी गई उस की ‘सहमति’ थी. आखिर दिल ने जीशान के पक्ष में फैसला दे दिया.

यामिनी को कहीं जाने की तैयारी करते देख उस की साथी नर्स समझ गई कि मुंहबोले इस भाई के बुलावे ने यामिनी को विवश कर दिया है. फिर भी उस ने पूछा, ‘‘मैम, मिसेज डेविडसन का क्या होगा?’’

‘‘होगा क्या? थोड़ा सा गुस्सा, थोड़ा बड़बड़ाना और फिर मेरी सुरक्षित वापसी के लिए प्रार्थना, हर मां ऐसी ही होती है,’’ कहते हुए यामिनी निकल पड़ी.

जीशान के कमरे पर यामिनी पहुंची तो देखा दरवाजा खुला था. कमरे में जो दृश्य देखा तो वह अवाक् रह गई. मेज पर सजा ‘केक’ और उस पर जलती एक कैंडिल, एक खूबसूरत नया ‘चाकू’ और नया ‘ज्वेलरी केस’ सबकुछ बड़ा विचित्र लग रहा था. इन सब चीजों को विस्मय से देखती हुई यामिनी की आंखें जीशान को ढूंढ़ रही थीं. उस के मन में संशय उठा कि कहीं उस के साथ कोई अनहोनी तो नहीं हो गई. उस ने जैसे ही जीशान को आवाज लगाई, ठीक उसी समय दरवाजे पर आहट हुई और जीशान हंसते हुए कमरे में प्रवेश कर रहा था. उस के एक हाथ में रक्षासूत्र और एक हाथ में ताजे फूल थे.

जीशान को सामने पा कर यामिनी आश्वस्त हो गई. उस ने अपने को संयत करते हुए पूछा, ‘‘इस तरह कहां चले गए थे? और वह भी कमरा खुला छोड़ कर, तुम्हें अक्ल क्यों नहीं आती? और यह सब क्या है?’’

‘‘एक गरीब भाई की तरफ से अपनी दीदी के बर्थ डे पर एक छोटा सा जलसा.’’

अपनत्व की इतनी सच्ची, इतनी निश्छल प्रतिक्रिया यामिनी ने अपने अब तक के जीवन में नहीं देखी थी. भावातिरेक में उस के नेत्र सजल हो उठे. उस ने रुंधे गले से कहा, ‘‘मेरे भाई, अब तक तुम क्यों नहीं मिले? कहां छिपे थे तुम अब तक? मिले भी तो तब जब हम दोनों के रिश्ते दुनिया के लिए कांटे सरीखे हैं.’’

जीशान ने अपना हाथ यामिनी के मुंह पर रखते हुए कहा, ‘‘अब और नहीं, दीदी, आज आप का जन्मदिन है. अब चलिए, केक काटिए और यह जलती हुई मोमबत्ती बुझाइए.’’

यामिनी ने जीशान की खुशी के लिए सब किया. केक काटा और मोमबत्ती बुझाई. किसी बच्चे के समान ताली बजा कर जीशान जोर से बोल उठा, ‘‘हैप्पी बर्थडे-टू यू माई डियर सिस्टर,’’ फिर केक का एक टुकड़ा उठा कर यामिनी के मुंह में डाला और आधा तोड़ कर स्वयं खा लिया.

यामिनी ने घड़ी पर निगाह डाली. 8 बजने में कुछ ही मिनट बाकी थे. उस ने जीशान को याद दिलाते हुए जाने का उपक्रम किया. जीशान ने यामिनी से सिर्फ 2 मिनट का समय और मांगा. उस ने यामिनी से आंखें मूंद कर सामने घूम जाने का अनुरोध किया. यंत्रचालित सी यामिनी ने वैसा ही किया. जीशान ने एक फूल यामिनी के पैरों पर स्पर्श कर अपने माथे से लगाया.

तभी जीशान ने अपनी दाईं कलाई और बाएं हाथ का रक्षासूत्र यामिनी की ओर बढ़ा दिया. यामिनी उस का मकसद समझ गई. उस ने मेज पर पड़े फूल उस पर निछावर किए और राखी बांध दी.

वह आदर भाव से अपनी दीदी के पैर छूने को झुका ही था कि दरवाजा भड़ाक से खुला और 10-12 खूंखार चेहरे तलवार, डंडा, हाकी आदि ले कर दनदनाते हुए कमरे में घुस गए और उन्हें घेर लिया.

एक बोला, ‘‘क्या गुल खिलाए जा रहे हैं यहां?’’

दूसरा बोला, ‘‘यह शरीफों का महल्ला है. इस तरह की बेहयायी करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ी?’’

तीसरा बोला, ‘‘यह बदचलन औरत है. मैं ने अकसर इसे यहां आते देखा है.’’

भद्दी सी गाली देते हुए चौथा बोला, ‘‘रास रचाने को तुम्हें यह ंमुसलमान ही मिला था, सारे हिंदू मर गए थे क्या?’’

भीड़ में से कोई ललकराते हुए बोला, ‘‘देखते क्या हो? इस विधर्मी को काट डालो और उठा कर ले चलो इस मेनका को.’’

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यामिनी ने अपना कलेजा कड़ा किया और दृढ़ता से जीशान के आगे खड़ी हो कर बोली, ‘‘इसे नहीं, दोष मेरा है, मेरे टुकड़ेटुकड़े कर डालो क्योंकि मैं हिंदू हूं. आप लोगों की प्रतिष्ठा मेरे नाते धूमिल हुई है.’’

यह सब देख कर जीशान में भी साहस का संचार हुआ. वह यामिनी के आगे आ गया और अपनी दाहिनी कलाई उन के सामने उठाते हुए बोला, ‘‘आप लोग खुद देख लीजिए, हमारा रिश्ता क्या है? राखी तो सिर्फ बहन ही अपने भाई को बांधती है.’’

उस का हाथ झटकते हुए एक बोला, ‘‘अबे, तू क्या जाने बहनभाई के रिश्ते को. तुझ जैसों को तो सिर्फ मौका चाहिए किसी हिंदू लड़की को भ्रष्ट करने का. वैसे भी आज रक्षाबंधन है क्या?’’

तभी यामिनी को एक अवसर मिल गया. उस ने तर्क भरे लहजे में कहा, ‘‘रानी कर्णावती ने जब हुमायूं को राखी भेजी थी तब भी तो रक्षाबंधन नहीं था. किंतु आप लोग यह सारी लुभावनी मानवतापूर्ण बातें तो केवल मंच से ही बोलते हैं, व्यवहार में तो वही करते हैं जैसा अभी यहां कर रहे हैं.’’

यह तर्क सुन कर भीड़ के ज्यादातर युवक बगलें झांकने लगे. किंतु एक ने उस के तर्क को काटते हुए कहा, ‘‘हुमायूं ने तो राखी के धर्म का निर्वाह किया था. भाई के समान उस ने रानी कर्णावती के लिए खून बहाया था. तुम्हारा यह भाई क्या ऐसा प्रमाण दे सकता है?’’

यामिनी यह सुन कर अचकचा गई. उसे कोई तर्क नहीं सूझ रहा था. तभी अचानक जीशान ने मेज पर पड़ा चाकू उठाया और राखी वाली कलाई की नस काट डाली. खून की धार बह चली. खूंखार चेहरे एकएक कर अदृश्य होते गए. काफी देर तक यामिनी मूर्तिवत् खड़ी रह गई. उस की चेतनशून्यता तब टूटी जब गरम रक्त का आभास उस के पांवों को हुआ. उस का ध्यान जीशान की ओर गया, जो मूर्छित हो कर जमीन पर पड़ा था.

यामिनी को कुछ भी नहीं सूझ रहा था. उस ने अपने आंचल का किनारा फाड़ा और कस कर जीशान की कलाई पर बांध दिया. उसी समय दरवाजे पर मिसेज डेविडसन और यामिनी की रूमपार्टनर खड़ी दिखाई दीं. उन दोनों ने फोन कर के एंबुलेंस मंगा ली थी.

जीशान एक बार फिर उसी अस्पताल की ओर जा रहा था जहां से उसे जीवनदान और यह रिश्ता मिला था. उस का सिर यामिनी की गोद में था. यामिनी के हाथ प्यार से उस का माथा सहला रहे थे.

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आखिरी लोकल : शिवानी और शिवेश की कहानी

लेखक-  राजीव रोहित

शिवानी और शिवेश दोनों मुंबई के शिवाजी छत्रपति रेलवे स्टेशन पर लोकल से उतर कर रोज की तरह अपने औफिस की तरफ जाने के लिए मुड़ ही रहे थे कि शिवानी ने कहा, ‘‘सुनो, आज मुझे नाइट शो में ‘रईस’ देखनी ही देखनी है, चाहे कुछ भी हो जाए.’’ ‘‘अरे, यह कैसी जिद है?’’

शिवेश ने हैरान हो कर कहा. ‘‘जिदविद कुछ नहीं. मुझे बस आज फिल्म देखनी है तो देखनी है,’’ शिवानी ने जैसे फैसला सुना दिया हो.  ‘‘अच्छा पहले इस भीड़ से एक तरफ आ जाओ, फिर बात करते हैं,’’ शिवेश ने शिवानी का हाथ पकड़ कर एक तरफ ले जाते हुए कहा.

‘‘आज तो औफिस देर तक रहेगा. पता नहीं, कितनी देर हो जाएगी. तुम तो जानती हो,’’ शिवेश ने कहा.  ‘‘मुझे भी मालूम है. पर जनाब, इतनी भी देर नहीं लगने वाली है. ज्यादा बहाना बनाने की जरूरत नहीं है. यह कोई मार्च भी नहीं है कि रातभर रुकना पड़ेगा. सीधी तरह बताओ कि आज फिल्म दिखाओगे या नहीं?’’

‘‘अच्छा, कोशिश करूंगा,’’ शिवेश ने मरी हुई आवाज में कहा.

‘‘कोशिश नहीं जी, मुझे देखनी है तो देखनी है,’’ शिवानी ने इस बार थोड़ा मुसकरा कर कहा. शिवेश ने शिवानी की इस दिलकश मुसकान के आगे हथियार डाल दिए.

‘‘ठीक है बाबा, आज हम फिल्म जरूर देखेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए.’’  शिवानी की इसी मुसकान पर तो शिवेश कालेज के जमाने से ही अपना दिल हार बैठा था. दोनों ही कालेज के जमाने से एकदूसरे को जानते थे, पसंद करते थे.  शिवानी ने उस के प्यार को स्वीकार तो किया था, लेकिन एक शर्त भी रख दी थी कि जब तक दोनों को कोई ढंग की नौकरी नहीं मिलेगी, तब तक कोई शादी की बात नहीं करेगा.

शिवेश ने यह शर्त खुशीखुशी मान ली थी. दोनों ही प्रतियोगिता परिक्षाओं की तैयारी में जीजान से लग गए थे. आखिरकार दोनों को कामयाबी मिली. पहले शिवेश को एक निजी पर सरकार द्वारा नियंत्रित बीमा कंपनी में क्लर्क के पद पर पक्की नौकरी मिल गई, फिर उस के 7-8 महीने बाद शिवानी को भी एक सरकारी बैंक में अफसर के पद पर नौकरी मिल गई थी.

मुंबई में उन का यह तीसरा साल था. तबादला तो सरकारी कर्मचारी की नियति है. हर 3-4 साल के अंतराल पर उन का तबादला होता रहा था. 15 साल की नौकरी में अब तक दोनों 3 राज्यों के  4 शहरों में नौकरी कर चुके थे.  शिवानी ने इस बार तबादले के लिए मुंबई आवेदन किया था. दोनों को मुंबई अपने नाम से हमेशा ही खींचती आई थी. वैसे भी इस देश में यह बात आम है कि किसी भी शहर के नागरिकों में कम से कम एक बार मुंबई घूमने की ख्वाहिश जरूर होती है. कुछ लोगों को यह इतनी पसंद आती है कि वे मुंबई के हो कर ही रह जाते हैं.

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इस शहर की आबादी दिनोंदिन बढ़ते रहने की एक वजह यह भी है. हालांकि शिवानी और शिवेश ने अभी तक मुंबई में बस जाने का फैसला नहीं लिया था, फिर भी फिलहाल मुंबई में कुछ दिन बिताने के बाद वे यहां के लाइफ स्टाइल से अच्छी तरह परिचित तो हो ही चुके थे.  वे तकरीबन पूरी मुंबई घूम चुके थे. जब कभी उन की मुंबई घूमने की इच्छा होती थी, तो वे मुंबई दर्शन की बस में बैठ जाते और पूरी मुंबई को देख लेते थे. अपने रिश्तेदारों के साथ भी वे यह तकनीक अपनाते थे.

कभीकभी जब शिवानी की इच्छा होती तो दोनों अकसर शनिवार की रात कोई फिल्म देख लेते थे. खासतौर पर जब शाहरुख खान की कोई नई फिल्म लगती तो शिवानी फिर जिद कर के रिलीज के दूसरे दिन यानी शनिवार को ही वह फिल्म देख लेती थी. आज भी उस के पसंदीदा हीरो की फिल्म की रिलीज का दूसरा ही दिन था. समीक्षकों ने फिल्म की धज्जियां उड़ा दी थीं, फिर भी शिवानी पर इस का कोई असर नहीं पड़ा था. बस देखनी है तो देखनी है.

‘‘ये फिल्मों की समीक्षा करने वाले फिल्म बनाने की औकात रखते हैं क्या?’’ वह चिढ़ कर कहती थी.  ‘‘ऐसा न कहो.

सब लोग अपने पेशे के मुताबिक ही काम करते हैं. समीक्षक  भी फिल्म कला से अच्छी तरह परिचित होते हैं. प्रजातांत्रिक देश है मैडमजी. कहने, सुनने और लिखने की पूरीपूरी आजादी है.  ‘‘यहां लोग पहले की समीक्षाएं पढ़ कर फिल्म समीक्षा करना सीखते हैं, जबकि विदेशों में फिल्म समीक्षा  भी पढ़ाई का एक जरूरी अंग है,’’ शिवेश अकसर समझाने की कोशिश करता था. ‘‘बसबस, ज्यादा ज्ञान देने की जरूरत नहीं. मैं समझ गई. लेकिन फिल्म मैं जरूर देखूंगी,’’ अकसर किसी भी बात का समापन शिवानी हाथ जोड़ते हुए मुसकरा कर अपनी बात कहती थी और शिवेश हथियार डाल देता था. आज भी वैसा ही हुआ. ‘‘अच्छा चलो महारानीजी, तुम जीती मैं हारा. रात का शो हम देख रहे हैं. अब खुश?’’ शिवेश ने भी हाथ जोड़ लिए.  ‘‘हां जी, जीत हमेशा पत्नी की होनी चाहिए.’’  ‘‘मान लिया जी,’’ शिवेश ने मुसकरा कर कहा.

‘‘मन तो कर रहा है कि तुम्हारा मुंह  चूम लूं, लेकिन जाने दो. बच गए. पब्लिक प्लेस है न,’’ शिवानी ने बड़ी अदा से कहा. इस मस्ती के बाद दोनों अपनेअपने औफिस की तरफ चल दिए. औफिस पहुंच कर दोनों अपने काम में बिजी हो गए. काम निबटातेनिबटाते कब साढ़े  5 बज जाते थे, किसी को पता ही नहीं चलता था. शिवेश ने आज के काम जल्दी निबटा लिए थे. ऐसे भी अगले दिन रविवार की छुट्टी थी.

लिहाजा, आराम से रात के शो में फिल्म देखी जा सकती थी. उस ने शिवानी से बात करने का मन बनाया. अपने मोबाइल से उस ने शिवानी को फोन लगाया. ‘हांजी पतिदेव महोदय, क्या इरादा है?’ शिवानी ने फोन उठाते हुए पूछा. ‘‘जी महोदया, मेरा काम तो पूरा हो चुका है. क्या हम साढ़े 6 बजे का शो भी देख सकते हैं?’’ ‘जी नहीं, माफ करें स्वामी. हमारा काम खत्म होने में कम से कम एक घंटा और लगेगा. आप एक घंटे तक मटरगश्ती भी कर सकते हैं,’ शिवानी ने मस्ती में कहा.

‘‘आवारागर्दी से क्या मतलब है तुम्हारा?’’ शिवेश जलभुन गया.

‘अरे बाबा, नाराज नहीं होते. मैं तो मजाक कर रही थी,’ कह कर शिवानी हंस पड़ी थी.  ‘‘मैं तुम्हारे औफिस आ जाऊं?’’ ‘नो बेबी, बिलकुल नहीं. तुम्हें यहां चुड़ैलों की नजर लग जाएगी. ऐसा करो, तुम सिनेमाघर के पास पहुंच जाओ. वहां किताबों की दुकान है. देख लो कुछ नई किताबें आई हैं क्या?’ ‘‘ठीक है,’’ शिवेश ने कहा, ‘‘और हां, टिकट खरीदने की बारी तुम्हारी है. याद है न?’’ ‘हां जी याद है. अब चलो फोन रखो,’ शिवानी ने हंस कर कहा.

शिवेश औफिस से निकल कर सिनेमाघर की तरफ चल पड़ा. मुंबई में ज्यादातर सिनेमाघर अब मल्टीप्लैक्स में शिफ्ट हो गए थे. यह हाल अभी तक सिंगल स्क्रीन वाला था. स्टेशन के नजदीक होने के चलते यहां किसी भी नई फिल्म का रिलीज होना तय था. मुंबई का छत्रपति शिवाजी रेलवे टर्मिनस, जो पहले विक्टोरिया टर्मिनस के नाम से मशहूर था, आज भी पुराने छोटे नाम ‘वीटी’ से ही मशहूर था.

स्टेशन से लगा हुआ बहुत बड़ा बाजार था, जहां एक से एक हर किस्म के सामानों की दुकानें थीं. हुतात्मा चौक के पास फुटपाथों पर बिकने वाली किताबों की खुली दुकानों के अलावा भी किताबों की दुकानों की भरमार थी.  रेलवे स्टेशन से गेटवे औफ इंडिया तक मुंबई 2 भागों डीएन रोड और फोर्ट क्षेत्र में बंटा हुआ था. दुकानें दोनों तरफ थीं. एक मल्टीस्टोर भी था. यहां सभी ब्रांडों के म्यूजिक सिस्टम मिलते थे. इस के अलावा नईपुरानी फिल्मों की सीडी या फिर डीवीडी भी मिलती थी.

शिवेश ने यहां अकसर कई पुरानी फिल्मों की डीवीडी और सीडी खरीदी  थी. आज  उस के पास किताबें और फिल्मों की डीवीडी और सीडी भरपूर मात्रा में थीं. हिंदी सिनेमा के सभी कलाकारों की पुरानी से पुरानी और नई फिल्मों की उस ने इकट्ठी कर के रखी थीं. ‘चलो आज नई किताबें ही देख लेते हैं,’ यह सोच कर के वह किताबों की दुकान में घुसने ही वाला था कि सामने एक पुराना औफिस साथी नरेश दिख दिख गया.

‘‘अरे शिवेश, आज इधर?’’  ‘‘हां, कुछ किताबें खरीदनी थीं,’’ शिवेश ने जवाब दिया.  ‘‘तुम तो दोनों कीड़े हो, किताबी भी और फिल्मी भी. फिल्में नहीं खरीदोगे?’’ ‘‘वे भी खरीदनी हैं, पर ब्रांडेड खरीदनी हैं.’’ ‘‘फिर तो इंतजार करना होगा. नई फिल्में इतनी जल्दी तो आएंगी नहीं.’’ ‘‘वह तो है, इसलिए आज सिर्फ किताबें खरीदनी हैं. आओ, साथ में अंदर चलो.’’

‘‘रहने दो यार. तुम तो जानते ही हो, किताबों से मेरा छत्तीस का आंकड़ा है,’’ यह कह कर हंसते हुए नरेश वहां से चला गया. शिवेश ने चैन की सांस ली कि चलो पीछा छूटा. इस बीच मोबाइल की घंटी बजी. ‘कहां हो बे?’ शिवानी ने पूछा.

‘‘अरे यार, कोई आसपास नहीं है क्या? कोई सुनेगा तो क्या कहेगा?’’ शिवेश ने झूठी नाराजगी जताई. शिवानी अकसर टपोरी भाषा में बात करती थी.  ‘अरे कोई नहीं है. सब लोग चले गए हैं. मैं भी शटडाउन कर रही हूं. बस निकल ही रही हूं.’ ‘‘इस का मतलब है, औफिस तुम्हें ही बंद करना होगा.’’ ‘बौस है न बैठा हुआ. वह करेगा औफिस बंद. पता नहीं, क्याक्या फर्जी आंकड़े तैयार कर रहा है?’ ‘‘मार्केटिंग का यही तो रोना है बेबी. खैर, छोड़ो. अपने को क्या करना है. तुम बस निकल लो यहां के लिए.’’

‘हां, पहुंच जाऊंगी.’ ‘‘साढ़े 9 बजे का शो है. अब भी सोच लो.’’ ‘अब सोचना क्या है जी. देखना है तो बस देखना है. भले ही रात स्टेशन पर गुजारनी पड़े.’ ‘‘पूछ कर गलती हो गई जानेमन. सहमत हुआ. देखना है तो देखना है.’’ शिवेश ने बात खत्म की और किताब  की दुकान के अंदर चला गया.

शिवेश ने कुछ किताबें खरीदीं और फिर बाहर आ कर शिवानी का इंतजार करने लगा. थोड़ी देर में ही शिवानी आ गई. दोनों सिनेमाघर पहुंच गए, जो वहां से कुछ ही दूरी पर था. भीड़ बहुत ज्यादा नजर नहीं आ रही थी.  ‘‘देख लो, तुम्हारे हीरो की फिल्म के लिए कितनी जबरदस्त भीड़ है,’’ शिवेश ने तंज कसते हुए कहा.  ‘‘रात का शो है न, इसलिए भी कम है.’’ शिवानी हार मानने वालों में कहां थी.  ‘‘बिलकुल सही. चलो टिकट लो,’’ शिवेश ने शिवानी से कहा.

‘‘लेती हूं बाबा. याद है मुझे कि  आज मेरी  बारी है,’’ शिवानी ने हंसते हुए कहा.  शिवानी ने टिकट ली और शिवेश के साथ एक कोने में खड़ी हो गई.  शो अब शुरू ही होने वाला था. दोनों सिनेमाघर के अंदर चले गए. परदे पर फिल्म रील की लंबाई देख कर दोनों चिंतित हो गए. ‘‘ठीक 12 बजे हम लोग बाहर निकल जाएंगे, वरना आखिरी लोकल मिलने से रही,’’ शिवेश ने धीमे से शिवानी के कान में कहा.  ‘‘जो हो जाए, पूरी फिल्म देख कर ही जाएंगे.’’ ‘‘ठीक है बेबी. आज पता चलेगा कि नाइट शो का क्या मजा होता है.’’  फिर दोनों फिल्म देखने में मशगूल हो गए.

शिवानी पूरी मगन हो कर फिल्म देख रही थी. शिवेश का ध्यान बारबार घड़ी की तरफ था. इंटरवल हुआ तो उस समय तकरीबन 11 बज रहे थे. शिवानी ने उस की तरफ देखा और उस से पूछ बैठी, ‘‘क्या बात है, बहुत चिंतित लग रहे हो?’’ ‘‘11 बज रहे हैं. फिल्म खत्म होतेहोते साढ़े 12 बज जाएंगे. स्टेशन पहुंचने तक तो एक जरूर बज जाएगा.’’ ‘‘बजने दो. कौन परवाह करता है?’’ शिवानी ने बेफिक्र हो कर जवाब दिया.  इस बीच इंटरवल खत्म हो चुका था. फिल्म फिर शुरू हो गई. पूरी फिल्म के दौरान शिवेश बारबार घड़ी देख रहा था, जबकि शिवानी फिल्म देख रही थी.

फिल्म साढ़े 12 बजे खत्म हुई. दोनों बाहर निकले. पौने 1 बजे की लास्ट लोकल उन की आखिरी उम्मीद थी. तेजी से वे दोनों स्टेशन की तरफ बढ़ चले.  ‘‘आखिरी लोकल तो एक चालीस की खुलती है न?’’ शिवानी ने चलतेचलते पूछा.  ‘‘वह फिल्मी लोकल थी. हकीकत में रात 12 बज कर 45 मिनट पर आखिरी लोकल खुलती है.’’ शिवानी के चेहरे पर पहली बार डर नजर आया. ‘‘डरो मत. देखा जाएगा,’’ शिवेश ने आत्मविश्वास से भरी आवाज में जवाब दिया. आखिर वही हुआ, जिस का डर था. लोकल ट्रेन परिसर के फाटक बंद हो रहे थे. अंदर जो लोग थे, सब को बाहर किया जा रहा था. ‘अब कहां जाएंगे?’ दोनों एकदूसरे से आंखों में सवाल कर रहे थे.

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‘‘अब क्या करेंगे हम? पहली लोकल ट्रेन सुबह साढ़े 3 बजे की है?’’ शिवेश ने कहा.  शिवानी एकदम चुपचाप थी, जैसे सारा कुसूर उसी का था.  ‘‘मुझे माफ कर दो. मेरी ही जिद से यह सब हो रहा है,’’ शिवानी बोली. ‘‘कोई बात नहीं. आज हमें एक मौका मिला है. मुंबई को रात में देखने का, तो क्यों न इस मौके का भरपूर फायदा उठाया जाए.  ‘‘बहुत सुन रखा था, मुंबई रात को सोती नहीं है. रात जवान हो जाती है वगैरह. क्या खयाल है आप का?’’ शिवेश ने मुसकरा कर शिवानी की तरफ देखते हुए पूछा.

‘‘यहां पर तो मेरी जान जा रही है और तुम्हें मस्ती सूझ रही है. पता नहीं, घर वाले क्याक्या सोच रहे होंगे?’’ ‘‘तुम तो ऐसे डर रही हो, जैसे मैं तुम्हें यहां पर भगा कर लाया हूं.’’  शिवेश ने जोरदार ठहाका लगाते हुए कहा. ‘‘चलो, घर वालों को बता दो.’’ ‘‘बता दिया जी.’’ ‘‘वैरी गुड.’’ ‘‘जी मैडम, अब चलो कुछ खायापीया जाए.’’ दोनों स्टेशन परिसर से बाहर आए. कई होटल खुले हुए थे.  ‘‘चलो फुटपाथ के स्टौल पर खाते हैं,’’ शिवेश ने कहा.

स्टेशन के बाहर सभी तरह के खाने के कई स्टौल थे. वे एक स्टौल के पास रुके.  एक प्लेट चिकन फ्राइड राइस और एक प्लेट चिकन लौलीपौप ले कर एक ही प्लेट में दोनों ने खाया.  ‘‘अब मैरीन ड्राइव चला जाए?’’ शिवेश ने प्रस्ताव रखा. ‘‘इस समय…? रात के 2 बजने वाले हैं. मेरा खयाल है, स्टेशन के आसपास ही घूमा जाए. एकडेढ़ घंटे की ही तो बात है,’’ शिवानी ने उस का प्रस्ताव खारिज करते हुए कहा. ‘‘यह भी सही है,’’ शिवेश ने भी हथियार डाल दिए. वे दोनों एक बस स्टौप के पास आ कर रुके. यहां मेकअप में लिपीपुती कुछ लड़कियां खड़ी थीं.

शिवेश और शिवानी ने एकदूसरे की तरफ गौर से देखा. उन्हें मालूम था कि रात के अंधेरे में खड़ी ये किस तरह की औरतें हैं.  वे दोनों जल्दी से वहां से निकलना  चाहते थे. इतने में जैसे भगदड़ मच गई. बस स्टौप के पास एक पुलिस वैन आ कर रुकी. सारी औरतें पलभर में गायब हो गईं. लेकिन मुसीबत तो शिवानी और शिवेश पर आने वाली थी. ‘‘रुको, तुम दोनों…’’ एक पुलिस वाला उन पर चिल्लाया. शिवानी और शिवेश दोनों ठिठक कर रुक गए.

‘‘इतनी रात में तुम दोनों इधर कहां घूम रहे हो?’’ एक पुलिस वाले ने पूछा. ‘‘अरे देख यार, यह औरत तो धंधे वाली लगती है,’’ दूसरे पुलिस वाले ने बेशर्मी से कहा.  ‘‘किसी शरीफ औरत से बात करने का यह कौन सा नया तरीका है?’’ शिवेश को गुस्सा आ रहा था.  ‘‘शरीफ…? इतनी रात में शराफत दिखाने निकले हो शरीफजादे,’’ एक सिपाही ने गौर से शिवानी को घूरते हुए कहा. ‘‘वाह, ये धंधे वाली शरीफ औरतें कब से बन गईं?’’ दूसरे सिपाही ने  एक भद्दी हंसी हंसते हुए कहा.

शिवेश का जी चाहा कि एक जोरदार तमाचा जड़ दे.  ‘‘देखिए, हम लोग सरकारी दफ्तर में काम करते हैं. आखिरी लोकल मिस हो गई, इसलिए हम लोग फंस गए,’’ शिवेश ने समाने की कोशिश की. ‘‘वाह, यह तो और भी अजीब बात है. कौन सा सरकारी विभाग है, जहां रात के 12 बजे छुट्टी होती है? बेवकूफ बनाने की कोशिश न करो.’’ ‘‘ये रहे हमारे परिचयपत्र,’’ कहते हुए शिवेश ने अपना और शिवानी का परिचयपत्र दिखाया.  ‘‘ठीक है. अपने किसी भी औफिस वाले से बात कराओ, ताकि पता चल सके कि तुम लोग रात को 12 बजे तक औफिस में काम कर रहे थे,’’ इस बार पुलिस इंस्पैक्टर ने पूछा, जो वैन से बाहर आ गया था. ‘‘इतनी रात में किसे जगाऊं? सर, बात यह है कि हम ने औफिस के बाद नाइट शो का प्लान किया था. ये रहे टिकट,’’ शिवेश ने टिकट दिखाए.

‘‘मैं कुछ नहीं सुनूंगा. अब तो थाने चल कर ही बात होगी. चलो, दोनों को वैन में डालो,’’ इंस्पैक्टर वरदी के रोब में कुछ सुनने को तैयार ही नहीं था.  शिवानी की आंखों में आंसू आ गए.  बुरी तरह घबराए हुए शिवेश की समा में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? किसे फोन करे? अचानक एक सिपाही शिवेश को पकड़ कर वैन की तरफ ले जाने लगा.  शिवानी चीख उठी, ‘‘हैल्प… हैल्प…’’ लोगों की भीड़ तो इकट्ठा हुई, पर पुलिस को देख कर कोई सामने आने की हिम्मत नहीं कर पाया.

थोड़ी देर में एक अधेड़ औरत भीड़ से निकल कर सामने आई. ‘‘साहब नमस्ते. क्यों इन लोगों को तंग कर रहे हो? ये शरीफ इज्जतदार लोग हैं,’’ वह औरत बोली. ‘‘अब धंधे वाली बताएगी कि कौन शरीफ है? चल निकल यहां से, वरना तुझे भी अंदर कर देंगे,’’ एक सिपाही गुर्राया. ‘‘साहब, आप को भी मालूम है कि इस एरिया में कितनी धंधे वाली हैं. मैं भी जानती हूं कि यह औरत हमारी तरह  नहीं है.’’ ‘‘इस बात का देगी बयान?’’ ‘‘हां साहब, जहां बयान देना होगा, दे दूंगी. बुला लेना मुझे. हफ्ता बाकी है, वह भी दे दूंगी. लेकिन अभी इन को छोड़ दो,’’ इस बार उस औरत की आवाज कठोर थी. ‘हफ्ता’ शब्द सुनते ही पुलिस वालों को मानो सांप सूंघ गया. इस बीच भीड़ के तेवर भी तीखे होने लगे.

पुलिस वालों को समा में आ गया कि उन्होंने गलत जगह हाथ डाला है. ‘‘ठीक है, अभी छोड़ देते हैं, फिर कभी रात में ऐसे मत भटकना.’’ ‘‘वह तो कल हमारे मैनेजर ही एसपी साहब से मिल कर बताएंगे कि रात में उन के मुलाजिम क्यों भटक रहे थे,’’ शिवेश बोला.   ‘‘जाने दे भाई, ये लोग मोटी चमड़ी के हैं. इन पर कोई असर नहीं  होगा,’’ उस अधेड़ औरत ने शिवेश को समाते हुए कहा. ‘‘अब निकलो साहब,’’ उस औरत ने पुलिस इंस्पैक्टर से कहा. सारे पुलिस वाले उसे, शिवानी, शिवेश और भीड़ को घूरते हुए वैन में सवार हो गए. वैन आगे बढ़ गई. शिवेश और शिवानी ने राहत की सांस ली.

‘‘आप का बहुतबहुत शुक्रिया. आप नहीं आतीं तो उन पुलिस वालों को समाना मुश्किल हो जाता,’’ शिवानी ने उस औरत का हाथ पकड़ कर कहा.  ‘‘पुलिस वालों को समाना शरीफों के बस की बात नहीं. अब जाओ और स्टेशन के आसपास ही रहो,’’ उस अधेड़ औरत ने शिवानी से कहा. ‘‘फिर भी, आप का एहसान हम जिंदगीभर नहीं भूल पाएंगे. कभी कोई काम पड़े तो हमें जरूर याद कीजिएगा,’’ शिवेश ने अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर उसे देते हुए कहा. ‘‘यह कार्डवार्ड ले कर हम क्या करेंगे? रहने दे भाई,’’ उस औरत ने कार्ड लेने से साफ इनकार कर दिया.

शिवानी ने शिवेश की तरफ देखा, फिर अपने पर्स से 500 रुपए का एक नोट निकाल कर उसे देने के लिए हाथ आगे बढ़ाया. ‘‘कर दी न छोटी बात. तुम शरीफों की यही तकलीफ है. हर बात के लिए पैसा तैयार रखते हो. हर काम पैसे के लिए नहीं करती मैं…’’ उस औरत ने हंस कर कहा. ‘‘अब जाओ यहां से. वे दोबारा भी आ सकते हैं.’’ शिवेश और शिवानी की भावनाओं पर मानो घड़ों पानी फिर गया. वे दोनों वहां से स्टेशन की तरफ चल पड़े, पहली लोकल पकड़ने के लिए.  पहली लोकल मिली. फर्स्ट क्लास का पास होते हुए भी वे दोनों सैकंड क्लास के डब्बे में बैठ गए. ‘‘क्यों जी, आज सैकंड क्लास की जिद क्यों?’’ शिवानी ने पूछा.  ‘‘ऐसे ही मन किया. पता है, एक जमाने में ट्रेन में थर्ड क्लास भी हुआ करती थी,’’ शिवेश ने गंभीरता से कहा.

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‘‘उसे हटाया क्यों?’’ शिवानी ने बड़ी मासूमियत से पूछा.  ‘‘सरकार को लगा होगा कि इस देश में 2 ही क्लास होनी चाहिए. फर्स्ट और सैकंड,’’ शिवेश ने कहा, ‘‘क्योंकि, सरकार को यह अंदाजा हो गया कि जिन का कोई क्लास नहीं होगा, वे लोग ही फर्स्ट और सैकंड क्लास वालों को बचाएंगे और वह थर्ड, फोर्थ वगैरहवगैरह कुछ भी हो सकता है,’’ शिवेश ने हंसते हुए कहा.  ‘‘बड़ी अजीब बात है. अच्छा, उस औरत को किस क्लास में रखोगे?’’ शिवानी ने मुसकरा कर पूछा. ‘‘हर क्लास से ऊपर,’’ शिवेश ने जवाब दिया.  ‘‘सच है, आज के जमाने में खुद आगे बढ़ कर कौन इतनी मदद करता है.

हम जिस्म बेचने वालियों के बारे में न जाने क्याक्या सोचते रहते हैं. कम से कम अच्छा तो नहीं सोचते. वह नहीं आती तो पुलिस वाले हमें परेशान करने की ठान चुके थे. हमेशा सुखी रहे वह. अरे, हम ने उन का नाम ही नहीं पूछा.’’ ‘‘क्या पता, वह अपना असली नाम बताती भी या नहीं. वैसे, एक बात तो तय है,’’ शिवेश ने कहा. ‘‘क्या…?’’ ‘‘अब हम कभी आखिरी लोकल पकड़ने का खतरा नहीं उठाएंगे. चाहे तुम्हारे हीरो की कितनी भी अच्छी फिल्म क्यों न हो?’’ शिवेश ने उसे चिढ़ाने की कोशिश की.

‘‘अब इस में उस बेचारे का क्या कुसूर है? चलो, अब ज्यादा खिंचाई  न करो. मो सोने दो,’’ शिवानी ने अपना सिर उस के कंधे पर टिकाते  हुए कहा. ‘‘अच्छा, ठीक है,’’ शिवेश ने बड़े प्यार से शिवानी की तरफ देखा. कई स्टेशनों पर रुकते हुए लोकल ट्रेन यानी मुंबई के ‘जीवन की धड़कन’ चल रही थी.

शिवेश सोच रहा था, ‘सचमुच जिंदगी के कई पहलू दिखाती है यह लोकल. आखिरी लोकल ट्रेन छूट जाए तब भी और पकड़ने के बाद तो खैर कहना ही क्या…’ शिवेश ने शिवानी की तरफ देखा, उस के चेहरे पर बेफिक्री के भाव थे. बहुत प्यारी लग रही थी वह.

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आगामी अतीत: भाग 2- आशीश को मिली माफी

एक दिन रात को उस की नींद खुली, प्यास महसूस हुई तो पानी पीने के लिए उठ गई. बगल में नजर पड़ी तो बिस्तर खाली था. मम्मी शायद बाथरूम गई होंगी, सोच कर वह पानी पी कर लेट गई. थोड़ी देर तक जब मम्मी वापस नहीं आईं तो उस ने बाथरूम में झांका, वहां कोई नहीं था. वह बाहर आई, बालकनी में मम्मी कुरसी पर बैठीं, चुपचाप अंधेरे को घूर रही थीं.

‘मम्मी, आप यहां बैठी हैं, नींद नहीं आ रही है क्या?’  वह भी कुरसी खींच कर उन की बगल में बैठ गई, ‘शादी की तैयारियों के कारण आप बहुत थक गई हैं…अपना खयाल रखिए…’

कह कर उस ने मम्मी की तरफ देखा, धुंधलाती चांदनी में उन की आंखों का गीलापन उस ने लक्ष्य कर लिया.

‘क्या हुआ? मम्मी, आप रो रही थीं,’ उस ने स्नेह से पूछा, ‘मैं विदा होने वाली हूं इसलिए?’ उन का मूड ठीक करने के लिए उस ने हलका सा परिहास किया, ‘लेकिन मेरे विदा होने की नौबत नहीं आएगी…या तो अमन विदा हो कर यहां आएगा या फिर आप मेरे साथ चलेंगी.’

मम्मी की आंखों की नमी बूंद बन कर गालों पर लुढ़क गई. वह कोमलता से उन के आंसू पोंछते हुए बोली, ‘मम्मी, क्या बात है?’

‘खुशी के आंसू हैं पगली…’ मम्मी हलका सा मुसकराईं, ‘हर लड़की विदा हो कर अपनी ससुराल जाती है. तू भी जाएगी. मैं तेरे साथ कैसे जा सकती हूं… मेरी शोभा तो अपने ही घर में रहने में है बेटा. यह तेरा मायका है. जबतब तू अपने मायके आएगी तो तेरे आने के लिए भी तो एक घर होना चाहिए. मेरे लिए तो यही खुशी की बात है कि तू इसी शहर में रहेगी और आतीजाती रहेगी.’

कहतेकहते मम्मी चुप हो गईं. वह साफ महसूस कर रही थी कि मम्मी अंधेरे में घूरते हुए अपने आंसू पीने का असफल प्रयास कर रही हैं.

‘मम्मी,’ वह धीरे से उन की हथेली अपने हाथों में ले कर सहलाती हुई बोली, ‘पापा की याद आ रही है न…’ कह कर उस ने मम्मी की प्रतिक्रिया देखने के लिए उन के चेहरे पर अपनी नजरें गड़ा दीं. पापा का नाम सुन कर हमेशा की तरह मम्मी इस बार भड़की नहीं, न ही कोई जवाब दिया, बस, चुपचाप अपने आंसू पोंछती रहीं.

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‘है न मम्मी…’ उन की तरफ से कोई जवाब नहीं आया. थोड़ी देर के लिए दोनों के बीच चुप्पी पसर गई.

‘मम्मी, एक बात कहूं?’ मम्मी ने अपनी प्रश्नवाचक नजरें उस के चेहरे पर गड़ा दीं.

‘फर्ज करो कि यदि आज पापा लौट आएं और अपने किए की माफी मांगें तो क्या आप उन्हें माफ कर देंगी?’

नाजुक समय था, कोमल मूड था सो बिना भड़के बेटी का गाल थपक कर बोलीं, ‘तू क्यों बेकार की बात सोचती है भावना…वह हमारे ही होते तो जाते ही क्यों…और आना ही होता तो अभी तक क्यों नहीं आए…इतने सालों बाद तू उस इनसान को क्यों याद कर रही है? बेटी, तेरी नई जिंदगी शुरू होने जा रही है…अमन अच्छा लड़का है, तू बहुत खुश रहेगी.’

‘मैं ही नहीं मम्मी, हम दोनों ही तो उन को याद कर रहे हैं…’

सुन कर मम्मी की आंखें एक बार फिर बरस गईं. फिर आंसू पोंछ कर बोलीं, ‘सोच रही थी भावना कि ऐसा कौन सा क्षण रहा होगा, मेरी तरफ से ऐसी कौन सी कमी रह गई होगी, जब आशीश का पैर फिसला…और उस क्षण का खमियाजा हम को ताउम्र भुगतना पड़ा…वरना तेरे पापा के व मेरे रिश्ते कड़वाहट भरे कभी नहीं रहे. हम अपने वैवाहिक जीवन से खुश थे. वह औरत अगर उन के जीवन में नहीं आई होती और तेरे पापा भटके नहीं होते तो आज हमारी जिंदगी कितनी खुशहाल होती और मेरी जिंदगी की शाम इतनी अकेली नहीं होती…कैसे कटेगी आगे की जिंदगी…जिंदगी की शाम में जीवनसाथी की कमी सब से अधिक खलती है भावना…याद रखना, तुम और अमन एकदूसरे के प्रति हमेशा ईमानदार रहना और इतने करीब रहना कि बीच में कोई तीसरा अपनी जगह बना ही न पाए.’

‘‘क्या सोच रही हैं डा. भावना, ड्यूटी का समय खत्म हो गया है, घर नहीं जाना है क्या?’’

डा. आर्या का स्वर सुन कर भावना वर्तमान में लौट आई. आंखें खोलीं तो देखा, उस की सहयोगी डा. आर्या उसे आश्चर्य से देख रही थी.

‘‘क्या बात है डा. भावना, आप रो रही थीं?’’

‘‘नहींनहीं, बस, ऐसे ही…कुछ पुरानी बातें याद आ गई थीं…’’ वह अपनी गीली आंखें पोंछती हुई बोली. उस ने अपना बैग खोल कर अंदर रखा कार्ड दोबारा देखा, उस परची को भी देखा जिस पर उस ने पापा का पता लिखा था और जिसे उस ने अस्पताल के रिकार्ड से हासिल किया था. बैग कंधे पर डाल कर वह बाहर निकल गई.

आशीश शर्मा का पता ढूंढ़तेढूंढ़ते जब भावना उन के घर पहुंची तो शाम गहरा रही  थी. धड़कते हृदय से उस ने घंटी बजा दी. अंदर की आवाज पास आती हुई लग रही थी. थोड़ी देर बाद दरवाजा खुल गया. आशीश शर्मा उसे आश्चर्य व खुशी से भौचक हो निहार रहे थे.

‘‘तुम…तुम डा. भावना हो न?’’

‘‘हां, पापा,’’ वह कठिनाई से बोल पाई. बरसों बाद पापा बोलने के लिए उसे काफी प्रयास करना पड़ा.

‘‘आओ…अंदर आओ, बेटी…’’ आशीश शर्मा की खुशी का वेग उन के हावभाव से संभल नहीं पा रहा था. शायद वह समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें और क्या न करें.

हृदय में उठते तूफान को थामते हुए हाथ का कार्ड पकड़ाते हुए वह बोली,   ‘‘यह मेरी शादी का कार्ड है. आप जरूर आइएगा.’’

‘‘तुम्हारी शादी हो रही है…’’ वह खुशी से बोले. फिर कार्ड पकड़ते हुए धीरे से बोले, ‘‘तुम्हारी मम्मी जानती हैं सबकुछ…’’

‘‘हां…’’ वह झूठ बोल गई, ‘‘आप जरूर आइएगा,’’ कह कर वह बिना एक क्षण भी रुके वापस मुड़ गई.

आशीश शर्मा अंदर आ गए, थके हुए से वह कुरसी में धंस गए.

भावना एक आशा की किरण उन के दिल में जगा कर गुम हो गई थी. वह ही जानते हैं कि अपने परिवार से बिछड़ कर वह कितना तड़पे हैं…अपनी बड़ी होती बेटी को देखने के लिए उन्होंने कितनी कोशिश नहीं की…कितना कोसा उन्होंने खुद को, जब वह दामिनी के चंगुल में फंस गए थे…कैसा जाल फेंका दामिनी ने उन्हें फंसाने के लिए…उन की पत्नी एक शांत नदी की तरह थी और दामिनी थी बरसाती उफनता नाला, जो अपने सारे कगारों को तोड़ कर उन की तरफ बढ़ता रहा और वह स्वयं भी उस में बह गए.

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उस समय तो बस, दामिनी को पाना ही जैसे उन का एकमात्र लक्ष्य रह गया था. क्यों इतना आकर्षित हो गए थे वह उस समय दामिनी की तरफ…दामिनी की तड़कभड़क, अपने में समा लेने वाले उद्दाम सौंदर्य के पीछे वह उस की चरित्रहीनता और बददिमागी को नहीं देख पाए.

दामिनी के सामने उन्हें अपनी शांत सौम्य पत्नी बासी व श्रीहीन लगी थी. लगा, उस के साथ जीने में कोई मजा ही नहीं है. एकरस दिनचर्या…तनमन का एकरस साथ…तब नहीं समझा अपनी सीमाओं में रहने वाली नदी की तरह ही उन की पत्नी ने भी उन के जीवन को व उन के परिवार को सीमाओं में बांधा हुआ है.

दामिनी का साथ बहुत लंबे समय तक नहीं रह पाया. शुरू में तो वह दामिनी के सौंदर्य के सागर में डूब गए, लेकिन दामिनी के रूप का तिलिस्म अधिक नहीं रह पाया. धीरेधीरे प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत दामिनी का असली चेहरा उन के सामने खुलने लगा. अपनी जिस तनख्वाह में पत्नी व बेटी के साथ वह सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे थे, उसी तनख्वाह में दामिनी के साथ गृहस्थी की गाड़ी खींचना मुश्किल ही नहीं दूभर हो रहा था. उस के सैरसपाटे, बनावशृंगार व साडि़यों के खर्चे से वह परेशान हो गए थे. बात इतनी ही होती तो भी ठीक था. दामिनी परले दर्जे की झगड़ालू व बददिमाग थी. उन को हर पल दामिनी की  तुलना में ज्योत्स्ना याद आ जाती. धीरेधीरे उन के बीच की दूरियां बढ़ने लगीं. वह कब, कहां और क्यों जा रही है यह पूछना भी उन के बस की बात नहीं रह गई थी. पति की तरह वह उस पर कोई भी अधिकार नहीं रख पा रहे थे.

वे दोनों लगभग 5 साल तक एकसाथ रहे. इन 5 सालों में वह इस बात को अच्छी तरह समझ गए थे कि दामिनी के जीवन में फिर कोई आ गया है. वह उस को रोकना चाह कर भी रोक नहीं पाए या फिर शायद उन्होंने रोकना ही नहीं चाहा. तब पहली बार नकारे जाने का दर्द उन की समझ में आया था. सामाजिक मानमर्यादा के लिए इतने सालों तक वह किसी तरह दामिनी से बंधे रहे थे, लेकिन जब दामिनी ने उन्हें खुद ही छोड़ दिया तो उन्होंने भी रिश्ते को बचाने की कोई कोशिश नहीं की…दामिनी ने उन्हें तलाक दे दिया.

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नव प्रभात: भाग 1- क्या था रघु भैया के गुस्से का अंजाम

‘‘कहां मर गई हो, कितनी देर से आवाज लगा रहा हूं. जिंदा भी हो या मर गईं?’’ रघुवीर भैया एक ही गति से निरंतर चिल्ला रहे थे.

‘‘क्या चाहिए आप को?’’ गीले हाथ पोंछते हुए इंदु कमरे में आ कर बोली.

‘‘मेरी जुराबें कहां हैं? सोचा था, पढ़ीलिखी बीवी घर भी संभालेगी और मेरी सेवा भी करेगी, लेकिन यहां तो महारानीजी के नखरे ही पूरे नहीं होते. सुबह से साजशृंगार यों शुरू होता है जैसे किसी कोठे पर बैठने जा रही हो,’’ कितनी देर तक भुनभुनाते रहे.

थोड़ी देर बाद फिर चीखे, ‘‘नाश्ता तैयार है कि होटल से मंगवाऊं?’’

इंदु गरमगरम परांठे ले आई. तभी ऐसा लगा, जैसे कोई चीज उन्होंने दीवार पर दे मारी हो. शायद कांच की प्लेट थी.

‘‘पूरी नमक की थैली उड़ेल दी है परांठे में. आदमी भूखा चला  जाए तो ठूंसठूंस कर खाएगी खुद.’’

‘‘अच्छा, सादा परांठा ले आती हूं,’’ इंदु की आवाज में कंपन था.

‘‘नहीं चाहिए, कुछ नहीं चाहिए. अब शाम को मैं इस घर में आऊंगा ही नहीं.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हैं आप? यों भूखे घर से जाएंगे तो मेरे गले से तो एक निवाला भी नहीं उतरेगा.’’

‘‘मरो जा कर,’’ उन्होंने तमाचा इंदु के गाल पर रसीद कर दिया और पिछवाड़े का दरवाजा खोल कर गाड़ी यों स्टार्ट की जैसे किसी जंग पर जाना हो. ऐसे मौके पर अकसर वे गाड़ी तेज गति से ही चलाते थे.

अम्माजी सहित पूरा परिवार सिमट आया था आंगन में. नन्हा सौरभ मेरे पल्लू से मुंह छिपाए खड़ा था. अकसर रघुवीर भैया की चीखें सुन कर परिवार के सदस्य तो क्या, आसपड़ोस के लोग भी जमा हो जाते. पर क्या मजाल जो कोई एक शब्द भी कह जाए.

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एक बार फिर आशान्वित नजरों से मैं ने दिवाकर की ओर देखा था. शायद कुछ कहें. पर नहीं, अपमान का घूंट पीना उन्हें भली प्रकार आता था. उधर, अम्माजी को देख कर यों लगता जैसे तिरस्कृत होने के लिए यह बेटा पैदा किया था.

चिढ़ कर मैं ने ही मौन तोड़ा, ‘‘एक दिन आप का भाई उस भोलीभाली लड़की को जान से मार डालेगा लेकिन आप लोग कुछ मत कहिएगा? न जाने इतना अन्याय क्यों सहा जाता है इस घर में?’’

क्रोध से मेरी आवाज कांप रही थी. उधर, इंदु सिसक रही थी. मैं सोचने लगी, अब शाम तक यों ही वह भूखीप्यासी अपने कमरे में लेटी रहेगी. और रघुवीर भैया शाम को लौटेंगे जैसे कुछ हुआ ही न हो.

एक बार मन में आया, उस के कमरे में जा कर प्यार से उस का माथा चूम लूं, सहानुभूति के चंद बोल आहत मन को शांत करते हैं. पर इंदु जैसी स्वाभिमानी स्त्री को यह सब नहीं भाता था. होंठ सी कर मंदमंद मुसकराते रहना उस का स्वभाव ही बन गया था. क्या मजाल जो रघु भैया के विरोध में कोई कुछ कह जाए.

ब्याह कर के जब घर में आई थी तो बड़ा ही अजीब सा माहौल देखा था मैं ने. रघुवीर भैया और दिवाकर दोनों जुड़वां भाई थे, पर कुछ पलों के अंतराल ने दिवाकर को बड़े भाई का दरजा दिलवा दिया था. शांत, सौम्य और गंभीर स्वभाव के कारण ही दिवाकर काफी आकर्षक दिखाई देते थे.

उधर, रघुवीर उग्र स्वभाव के थे. कोई कार्य तो क्या, शायद पत्ता भी उन की इच्छा के विरुद्ध हिल जाता तो यों आंखें फाड़ कर चीखते मानो पूरी दुनिया के स्वामी हों. अम्माजी और दिवाकर उन्हें नन्हे बालक के समान पुचकारते, सफाई देते, लेकिन वे तो जैसे ठान ही चुके होते थे कि सामने वाले का अनादर करना है.

अम्माजी तब अपने कमरे में सिमट जाया करती थीं और बदहवास से दिवाकर घर छोड़ कर बाहर चले जाते. मैं अपने कमरे में कितनी देर तक थरथर कांपती रहती थी. उस समय क्रोध अपने पति और अम्माजी पर ही आता था, जिन्होंने उन पर अंकुश नहीं रखा था. तभी तो बेलगाम घोडे़ की तरह सरपट भागते जाते थे.

एक दिन मैं ने दिवाकर से खूब झगड़ा किया था. खूब बुराभला कहा था रघु भैया को. दिवाकर शांत रहे थे. गंभीर मुखमुद्रा लिए अपने चेहरे पर मुसकान बिखेर कर बोले, ‘‘शालू, रघु की जगह अगर तुम्हारा भाई होता तो तुम क्या करतीं? क्या ऐसे ही

कोसतीं उसे?’’

‘‘सच बताऊं, मैं उस से संबंधविच्छेद ही कर लेती. हमारे परिवार में बच्चों को ऐसे संस्कार दिए जाते हैं कि वे बड़ों का अनादर कर ही नहीं सकते,’’ क्रोध के आवेग में बहुतकुछ कह गई थी. जब चित्त थोड़ा शांत हुआ तो खुद को समझाने बैठ गई कि मेरे पति भी इसी परिवार के हैं, कभी दुख नहीं पहुंचाया उन्होंने किसी को. फिर रघु भैया का व्यवहार ऐसा क्यों है?

एक दिन, अम्माजी ने अखबार रद्दी वाले को बेच दिए थे. रघु भैया को किसी खास दिन का अखबार चाहिए था. टूट पड़े अम्माजी पर. दिवाकर ने उन्हें शांत करते हुए कहा, ‘आज ही दफ्तर की लाइब्रेरी से तुम्हें अखबार ला दूंगा.’

पर रघु भैया की जबान एक बार लपलपाती तो उसे शांत करना आसान नहीं होता था. गालियों की बौछार कर दी अम्मा पर. वे पछाड़ खा कर गिर पड़ी थीं.

दिवाकर अखबार लेने चले गए और मैं डाक्टर को ले आई थी. तब तक रघु भैया घर से जा चुके थे. डाक्टर अम्माजी को दवा दे कर जा चुके थे. मैं उन के सिरहाने बैठी अतीत की स्मृतियों में खोती चली गई. कैसे हृदयविहीन व्यक्ति हैं ये? संबंधों की गरिमा भी नहीं पहचानते.

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दिन बीतते गए. रघु भैया के विवाह के लिए अम्माजी और दिवाकर चिंतित थे. दिवाकर अपने भाई के लिए संपन्न घराने की सुंदर व सुशिक्षित कन्या चाहते थे. अम्माजी चाह रही थीं, मैं अपने मायके की ही कोई लड़की यहां ले आऊं. पर मुझे तो रघु भैया का स्वभाव कभी भाया ही नहीं था. जानबूझ कर दलदल में कौन फंसे.

एक दिन दिवाकर मुझ से बोले, ‘शालू, रघु के लिए कोई लड़की देखो.’

मैं विस्मय से उन का चेहरा निहारने लगी थी.  समझ नहीं पा रही थी, वे वास्तव में गंभीर हैं या यों ही मजाक कर रहे हैं. रघु भैया के स्वभाव से तो वही स्त्री सामंजस्य स्थापित कर सकती थी जिस में समझौते व संयम की भावना कूटकूट कर भरी हो. घर हो या बाहर, आपा खोते एक पल भी नहीं लगता था उन्हें. मैं हलकेफुलके अंदाज में बोली, ‘ब्याह भले कराओ देवरजी का पर उस स्थिति की भी कल्पना की है तुम ने कभी, जब वे पूरे वातावरण को युद्धभूमि में बदल देते हैं. मैं तो डर कर तुम्हारी शरण में आ जाती हूं पर उस गरीब का क्या होगा?’

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नव प्रभात: भाग 2- क्या था रघु भैया के गुस्से का अंजाम

मैं ने बात सहज ढंग से कही थी पर दिवाकर गंभीर थे. मेरे दृष्टिकोण का मानदंड चाहे जो भी हो पर दिवाकर के तो वे प्रिय भाई थे और अम्माजी के लाड़ले सुपुत्र.

दोनों की दृष्टि में उन का अपराध क्षम्य था. वैसे लड़का सुशिक्षित हो, उच्च पद पर आसीन हो और घराना संपन्न हो तो रिश्तों की कोई कमी नहीं होती. कदकाठी, रूपरंग व आकर्षक व्यक्तित्व के तो वे स्वामी थे ही. मेरठ वाले दुर्गाप्रसाद की बेटी इंदु सभी को बहुत भायी थी.

मैं सोच रही थी, ‘क्या देंगे रघु भैया अपनी अर्धांगिनी को? उन के शब्दकोश में तो सिर्फ कटुबाण हैं, जो सर्पदंश सी पीड़ा ही तो दे सकते हैं. भावों और संवेदनाओं की परिभाषा से कोसों दूर यह व्यक्ति उपेक्षा के नश्तर ही तो चुभो सकता है.’

इंदु को हमारे घर आना था. वह आई भी. 2 भाइयों की एकलौती बहन. इतना दहेज लाई कि अम्माजी पड़ोसिनों को गिनवागिनवा कर थक गई थीं. अपने साथ संस्कारों की अनमोल धरोहर भी वह लाई थी. उस के मृदु स्वभाव ने सब के मन को जीत लिया. मुझे लगा, देवरजी के स्वभाव को बदलने की सामर्थ्य इंदु में है.

विवाह के दूसरे दिन स्वागत समारोह का आयोजन था. दिवाकर की वकालत खूब अच्छी चलती थी. संभ्रांत व आभिजात्य वर्ग में उन का उठनाबैठना था. रघु भैया चार्टर्ड अकाउंटैंट थे. निमंत्रणपत्र बांटे गए थे. ऐसा लग रहा था, जैसे पूरा शहर ही सिमट आया हो.

इंदु को तैयार करने के लिए ब्यूटीशियन को घर पर बुलाया गया था. लोगों का आना शुरू हो गया था. उधर इंदु तैयार नहीं हो पाई थी. रघु भीतर आ गए थे. क्रोध के आवेग से बुरी तरह कांप रहे थे. सामने अम्माजी मिल गईं तो उन्हें ही धर दबोचा, ‘कहां है तुम्हारी बहू? महारानी को तैयार होने में कितने घंटे लगेंगे?’

मैं उन का स्वभाव अच्छी तरह जानती थी, बोली, ‘ब्यूटीशियन अंदर है. बस 5 मिनट में आ जाएगी.’

पर उन्हें इतना धीरज कहां था. आव देखा न ताव, भड़ाक से कमरे का दरवाजा खोल कर अंदर पहुंच गए. शिष्टाचार का कोई नियम उन्हें छू तक नहीं गया था. ब्यूटीशियन को संबोधित कर आंखें तरेरीं, ‘अब जूड़ा नहीं बना, चुटिया बन गई तो कोई आफत नहीं आ जाएगी. गंवारों को समय का ध्यान ही नहीं है. यहां अभी मेहंदी रचाई जा रही है, अलता लग रहा है, वहां लोग आने लगे हैं.’

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अपमान और क्षोभ के कारण इंदु के आंसू टपक पड़े थे. वह बुरी तरह कांपने लगी थी. मैं भाग कर दिवाकर को बुला लाई थी. भाई को शांत करते हुए वे बोले, ‘रघु, बाहर चलो. तुम्हारे यहां खड़े रहने से तो और देर हो जाएगी.’

‘मैं आप की तरह नहीं जो बीवी को सिर पर चढ़ा कर रखूं. मेरे मुंह से निकला शब्द पत्थर की लकीर होता है.’

दिवाकर में न जाने कितना धीरज था जो अपने भाई का हर कटु शब्द शिरोधार्य कर लेते थे. मुझे तो रघु भैया किसी मानसिक रोगी से कम नहीं लगते थे.

जैसेतैसे तैयार हो कर नई बहू जनवासे में पहुंच गई. लेकिन ऐसा लग रहा था मानो उस ने उदासी की चादर ओढ़ी हुई हो. बाबुल का अंगना छोड़ कर ससुराल में आते ही पिया ने कैसा स्वागत किया था उस का.

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हंसीखुशी के माहौल में सब काम सही तरीके से निबट गए. दूसरे दिन वे दोनों कश्मीर के लिए चल दिए थे. वहां जा कर इंदु ने हमें पत्र लिखा. ऐसा लगा, जैसे अपने मृदु व कोमल स्वभाव से हमसब को अपना बनाना चाह रही हो. शुष्क व कठोर स्वभाव के रघु भैया तो उसे ये औपचारिकताएं सिखाने से रहे. उन्हें तो अपनों को पराया बनाना आता था.

उस दिन रविवार था. हमसब शाम को टीवी पर फिल्म देख रहे थे. दरवाजे की घंटी बजाने का अंदाज रघु भैया का ही था. द्वार पर सचमुच इंदु और रघु भैया ही थे.

इंदु हमारे बीच आ कर बैठ गई. हंसती रही, बताती रही. रघु भैया अपने परिजनों, स्वजनों से सदैव दूर ही छिटके रहते थे.

मैं बारबार इंदु की उदास, सूनी आंखों में कुछ ढूंढ़ने का प्रयास कर रही थी. बात करतेकरते अकसर वह चुप हो जाया करती थी. कभी हंसती, कभी सहम जाती. न जाने किस परेशानी में थी. मुझे कुछ भी कुरेदना अच्छा नहीं लगा था.

दूसरे दिन से इंदु ने घर के कामकाज का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया था. मेरे हर काम में हाथ बंटाती. अम्माजी की सेवा में आनंद मिलता था उसे. रघु भैया के मुख से बात निकलती भी न थी कि इंदु फौरन हर काम कर देती.

एक बात विचारणीय थी कि पति के रौद्र रूप से घबरा कर वह उस के पास पलभर भी नहीं बैठती थी. हमारे साथ बैठ कर वह हंसती, बोलती, खुश रहती थी लेकिन पति के सान्निध्य से जैसे उसे वितृष्णा सी होती थी.

कई बार जब पति का तटस्थ व्यवहार देखती तो उन्हें खींच कर सब के बीच लाना चाहती, लेकिन वे नए परिवेश में खुद को ढालने में असमर्थ ही रहते थे.

सुसंस्कृत व प्रतिष्ठित परिवार में पलीबढ़ी औरत इस धुरीविहीन, संस्कारविहीन पुरुष के साथ कैसे रह सकती है, मैं कई बार सोचती थी. इस कापुरुष से उसे घृणा नहीं होती होगी? वैसे उन्हें कापुरुष कहना भी गलत था. कोई सुखद अनुभूति हुई तो जीजान से कुरबान हो गए, मगर दूसरी ओर से थोड़ी लापरवाही हुई या जरा सी भावनात्मक ठेस पहुंची तो मुंह मोड़ लिया.

एक बार दिवाकर दौरे पर गए हुए थे. मैं अपने कमरे में कपड़े संभाल रही थी कि देवरजी की बड़बड़ाहट शुरू हो गई. कुछ ही देर में चिंगारी ने विस्फोट का रूप ले लिया था. उन के रजिस्टर पर मेरा बेटा आड़ीतिरछी रेखाएं खींच आया था. हर समय चाची के कमरे में बैठा रहता था. इंदु को भी तो उस के बिना चैन नहीं था.

‘बेवकूफ ने मेरा रजिस्टर बरबाद कर दिया. गधा कहीं का…अपने कमरे में मरता भी तो नहीं,’ रघु भैया चीखे थे.

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इंदु ने एक शब्द भी नहीं कहा था. क्रोध में व्यक्ति शायद विरोध की प्रतीक्षा करता है, तभी तो वार्त्तालाप खिंचता है. आगबबूला हो कर रघु पलंग पर पसर गए.

अचानक पलंग से उठे तो उन्हें चप्पलें नहीं मिलीं. पोंछा लगाते समय रमिया ने शायद पलंग के नीचे खिसका दी थीं. रमिया तो मिली नहीं, सो उन्होंने पीट डाला मेरे बेटे को.

इंदु ने उस के चारों तरफ कवच सा बना डाला, पर वे तो इंदु को ही पीटने पर तुले थे. मैं भाग कर अपने बेटे को ले आई थी. पीठ सहलाती जा रही और सोचती भी  जा रही थी कि क्या सौरभ का अपराध अक्षम्य था. किसी को भी मैं ने कुछ नहीं कहा था. चुपचाप अपने कमरे में बैठी रही.

नव प्रभात: भाग 3- क्या था रघु भैया के गुस्से का अंजाम

पति को शांत कर कुछ समय बाद इंदु मेरे कमरे में आ कर मुझ से क्षमायाचना करने लगी. मैं बुरी तरह उत्तेजित हो चुकी थी. अपनेआप को पूर्णरूप से नियंत्रित करने का प्रयास किया लेकिन असफल ही रही, बोली, ‘देखूंगी, जब अपने बेटे से ऐसा ही व्यवहार करेंगे.’

इंदु दया का पात्र बन कर रह गई. बेचारी और क्या करती. हमेशा की तरह उसे बैठने तक को नहीं कहा था मैं ने.

शाम को अपनी गलती पर परदा डालने के लिए रघु भैया खिलौना बंदूक ले आए थे. सौरभ तो सामान्य हो गया. अपमान की भाषा वह कहां पहचानता था, लेकिन मेरा आहत स्वाभिमान मुझे प्रेरित कर रहा था कि यह बंदूक उस क्रोधी के सामने फेंक दूं और सौरभ को उस की गोद से छीन कर अपने अहं की तुष्टि कर लूं.

लेकिन मर्यादा के अंश सहेजना दिवाकर ने खूब सिखाया था. उस समय अपमान का घूंट पी कर रह गई थी. दूसरे की भावनाओं की कद्र किए बिना अपनी बात पर अड़े रह कर मनुष्य अपने अहंकार की तुष्टि भले ही कर ले लेकिन मधुर संबंध, जो आपसी प्रेम और सद्भाव पर टिके रहते हैं, खुदबखुद समाप्त होते चले जाते हैं.

उस के बाद तो जैसे रोज का नियम बन गया था. इंदु जितना अपमान व आरोप सहती उतनी ही यातनाओं की पुनरावृत्ति अधिक तीव्र होती जाती थी. भावनाओं से छलकती आंखों में एक शून्य को टंगते कितनी बार देखा था मैं ने. प्रतिकार की भाषा वह जानती नहीं थी. पति का विरोध करने के लिए उस के संस्कार उसे अनुमति नहीं देते थे.

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उधर, रघु भैया को कई बार रोते हुए देखा मैं ने. इधर इंदु अंतर्मुखी बन बैठी थी. कितनी बार उस की उदास आंखें देख कर लगता जैसे पारिवारिक संबंधों व सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने में असमर्थ हो. 1 वर्ष के विवाहित जीवन में वह सूख कर कांटा हो गई थी. अब तो मां बनने वाली थी. मुझे लगता, उस की संतान अपनी मां को यों तिरस्कृत होते देखेगी तो या स्वयं उस का अपमान करेगी या गुमसुम सी बैठी रहेगी.

एक दिन इंदु की भाभी का पत्र आया. ब्याह के बाद शायद पहली बार वे पति के संग ननद से मिलने आ रही थीं. इंदु पत्र मेरे पास ले आई और बोली, ‘‘भाभी, मेरे भाभी और भैया मुझ से मिलने आ रहे हैं.’’

इंदु का स्वर सुन कर मैं वर्तमान में लौट आई, बोली, ‘‘यह तो बड़ी खुशी की बात है.’’

‘‘आप तो जानती हैं, इन का स्वभाव. बातबात में मुझे अपमानित करते हैं. भाभीभैया को मैं ने कुछ नहीं बताया है आज तक. उन के सामने भी कुछ…’’ उस का गला रुंध गया.

‘‘दोषी कौन है, इंदु? अत्याचार करना अगर जुर्म है तो उसे सहना उस से भी बड़ा अपराध है,’’ मैं ने उसे समझाया. मैं मात्र संवेदना नहीं जताना चाह रही थी, उस का सुप्त विवेक जगाना भी चाह रही थी.

मैं ने आगे कहा, ‘‘पति को सर्वशक्तिमान मान कर, उस के पैरों की जूती बन कर जीवन नहीं काटा जा सकता. पतिपत्नी का व्यवहार मित्रवत हो तभी वे सुखदुख के साथी बन सकते हैं.’’

इंदु अवाक् सी मेरी ओर देखती रही. उस का अर्धसुप्त विवेक जैसे विकल्प ढूंढ़ रहा था. दूसरे दिन सुबह ही उस के भैयाभाभी आए थे. उन का सौम्य, संतुलित व संयमित व्यवहार बरबस ही आकर्षित कर रहा था हमसब को. उपहारों से लदेफदे कभी इंदु को दुलारते, कभी रघु को पुचकारते. कितनी देर तक इंदु को पास बैठा कर उस का हाल पूछते रहे थे.

गांभीर्य की प्रतिमूर्ति इंदु ने उन्हें अपने शब्दों से ही नहीं, हावभाव से भी आश्वस्त किया था कि वह बहुत खुश है. 2 दिन हमारे साथ रह कर अम्माजी व रघुवीर भैया से अनुमति ले कर वे इंदु को अपने साथ ले गए थे.

प्रथम प्रसव था, इसलिए वे इंदु को अपने पास ही रखना चाहते थे. रघुवीर भैया का उन दिनों स्वभाव बदलाबदला सा था. चुप्पी का मानो कवच ओढ़ लिया था उन्होंने. इंदु के जाने के बाद भी वे चुप ही रहे थे.

प्रसव का समय नजदीक आता जा रहा था. हमसब इंदु के लिए चिंतित थे. यदाकदा उस के भाई का फोन आता रहता था. रघुवीर भैया व हम सब से यही कहते कि उस समय वहां हमारा रहना बहुत ही जरूरी है. डाक्टर ने उस की दशा चिंताजनक बताई थी. ऐसा लगता था, रघु इंदु से दो बोल बोलना चाहते थे. उन जैसे आत्मकेंद्रित व्यक्ति के मन में पत्नी के लिए थोड़ाबहुत स्नेह विरह के कारण जाग्रत हुआ था या अपने ही व्यवहार से क्षुब्ध हो कर वे पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहे थे, इस बारे में मैं कुछ समझ नहीं पाई थी.

रघु के साथ मैं व सौरभ इंदु के मायके पहुंचे थे. मां तो इंदु की बचपन में ही चल बसी थीं, भैयाभाभी उस की यों सेवा कर रहे थे, जैसे कोई नाजुक फूल हो.

अवाक् से रघु भैया कभी पत्नी को देखते तो कभी साले व सलहज को. ऐसा स्नेह उन्होंने कभी देखा नहीं था. पिछले वर्ष जब इंदु को पेटदर्द हुआ था तो दवा लाना तो दूर, वे अपने दफ्तर जा कर बैठ गए थे. यहां कभी इंदु को फल काट कर खिलाते तो कभी दवा पिलाने की चेष्टा करते. इंदु स्वयं उन के अप्रत्याशित व्यवहार से अचंभित सी थी.

3 दिन तक प्रसव पीड़ा से छटपटाने के बाद इंदु ने बिटिया को जन्म दिया था. इंदु के भैयाभाभी उस गुडि़या को हर समय संभालते रहते. इधर मैं देख रही थी, रघु भैया के स्वभाव में कुछ परिवर्तन के बाद भी इंदु बुझीबुझी सी ही थी. कम बोलती और कभीकभी ही हंसती. कुछ ही दिनों के बाद इंदु को लिवा ले जाने की बात उठी. इस बीच, रघु एक बार घर भी हो आए थे. पर अचानक इंदु के निर्णय ने सब को चौंका दिया. वह बोली, ‘‘मैं कुछ समय भैयाभाभी के पास रह कर कुछ कोर्स करना चाहती हूं.’’

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ऐसा लगा, जैसे दांपत्य के क्लेश और सामाजिक प्रताड़ना के त्रास से अर्धविक्षिप्त होती गई इंदु का मनोबल मानो सुदृढ़ सा हो उठा है. कहीं उस ने रघु भैया से अलग रहने का निर्णय तो नहीं ले लिया?

स्पष्ट ही लग रहा था कि कोर्स का तो मात्र बहाना है, वह हमसब से दूर रहना चाहती है. उधर, रघु भैया बहुत परेशान थे. ऊहापोह की मनोस्थिति में आशंकाओं के नाग फन उठाने लगे थे. इंदु के भैयाभाभी ने निश्चय किया कि पतिपत्नी का निजी मामला आपसी बातचीत से ही सुलझ जाए तो ठीक है.

इंदु कमरे में बेटी के साथ बैठी थी. रघु भैया के शब्दों की स्पष्ट आवाज सुनाई दे रही थी. इंदु से उन्होंने अपने व्यवहार के लिए क्षमायाचना की लेकिन वह फिर भी चुप ही बैठी रही. रघु भैया फिर बोले, ‘‘इंदु, प्यार का मोल मैं ने कभी जाना ही नहीं. यहां तुम्हारे परिवार में आ कर पहली बार जाना कि प्यार, सहानुभूति के मृदु बोल मनुष्य के तनमन को कितनी राहत पहुंचाते हैं.

‘‘उस समय कोई 3 वर्ष के रहे होंगे हम दोनों भाई, जब पिताजी का साया सिर से उठ गया था. उन की मृत्यु से मां विक्षिप्त सी हो उठी थीं. वे घर को पूरी तरह से संभाल नहीं पा रही थीं.  ऐसे समय में रिश्तेदार कितनी मदद करते हैं, यह तुम जान सकती हो.

‘‘मां का पूरा आक्रोश तब मुझ पर उतरता था. मुझे लगता वे मुझ से घृणा करती हैं.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है. कोई मां अपने बेटे से घृणा नहीं कर सकती,’’ इंदु का अस्फुट सा स्वर था.

‘‘बच्चे की स्कूल की फीस न दी जाए, बुखार आने पर दवा न दी जाए, ठंड लगने पर ऊनी वस्त्र न मिलें, तो इस भावना को क्या कहा जाएगा?

‘‘मां ऐसा व्यवहार मुझ से ही करती थीं. दिवाकर का छोटा सा दुख उन्हें आहत करता. उन की भूख से मां की अंतडि़यों में कुलबुलाहट पैदा होती. दिवाकर की छोटी सी छोटी परेशानी भी उन्हें दुख के सागर में उतार देती.’’

‘‘दिवाकर भैया क्या विरोध नहीं करते थे?’’

‘‘इंदु, जब इंसान को अपने पूरे मौलिक अधिकार खुदबखुद मिलते रहते हैं तो शायद दूसरी ओर उस का ध्यान कभी नहीं खिंचता. या हो सकता है, मुझे ही ऐसा महसूस होता हो.’’

‘‘शुरूशुरू में चिड़चिड़ाहट होती, क्षुब्ध हो उठता था मां के इस व्यवहार पर. लेकिन बाद में मैं ने चीख कर, चिल्ला कर अपना आक्रोश प्रकट करना शुरू कर दिया. बच्चे से यदि उस का बचपन छीन लिया जाए तो उस से किसी प्रकार की अपेक्षा करना निरर्थक सा लगता है न?

‘‘हर समय उत्तरदायित्वों का लबादा मुझे ही ओढ़ाया जाता. यह मकान, यह गाड़ी, घर का खर्चा सबकुछ मेरी ही कमाई से खरीदा गया. दिवाकर अपनी मीठी वाणी से हर पल जीतते रहे और मैं कर्कश वाणी से हर पल हारता रहा.

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‘‘धीरेधीरे मुझे दूसरों को नीचा दिखाने में आनंद आने लगा. बीमार व्यक्ति को दुत्कारने में सुख की अनुभूति होती. कई बार तुम्हें प्यार करना चाहा भी तो मेरा अहं मेरे आगे आ जाता था. जिस भावना को कभी महसूस नहीं किया, उसे बांट कैसे सकता था. अपनी बच्ची को मैं खूब प्यार दूंगा, विश्वास दूंगा ताकि वह समाज में अच्छा जीवन बिता सके. उसे कलुषित वातावरण से हमेशा दूर रखूंगा. अब घर चलो, इंदु.’’

रघु फूटफूट कर रोने लगे थे. इंदु अब कुछ सहज हो उठी थी. रघु भैया दया के पात्र बन चुके थे. मैं समझ गई थी कि मनुष्य के अंदर का खोखलापन उस के भीतर असुरक्षा की भावना भर देता है. फिर इसी से आत्मविश्वास डगमगाने लगता है. इसीलिए शायद वे उत्तेजित हो उठते थे. इंदु घर लौट आई थी. वह, रघु भैया और उन की छोटी सी गुडि़या बेहद प्रसन्न थे. कई बार मैं सोचती, यदि रघु भैया ने अपने उद्गार लावे के रूप में बाहर न निकाले होते तो यह सुप्त ज्वालामुखी अंदर ही अंदर हमेशा धधकता रहता. फिर विस्फोट हो जाता, कौन जाने?

एनिवर्सरी गिफ्ट: भाग 1- बेटा-बहू से भरे दिनेश और सुधा का कैसा था परिवार

लेखिका- ऋतु थपलियाल

सुबह की लालिमा नंदिनी का चेहरा भिगो रही थी. पर नंदिनी के चेहेरे पर अभी भी आलस की अंगड़ाई अपनी बांहें फैलाए बैठी थी. तभी नंदिनी को अपने बालों पर जय की उंगलियों का स्पर्श महसूस हुआ. 6 वर्षों से जय के प्रेम का सान्निध्य पा कर नंदिनी के जीवन में अलग ही चमक आ गई थी. उस ने अपने पति जय की तरफ करवट ली और एक मुसकान अपने अधरों पर फैला ली.

‘हैप्पी एनिवर्सरी मेरी जान,’ जय ने नंदिनी के चेहरे को चूमते हुए कहा.

‘सेम टू यू माई डियर,’ प्रेम का प्रस्ताव पाते ही नंदिनी जय के समीप चली गई.

‘तो आज क्या प्रोग्राम है आप का?’ जय ने नंदिनी को अपनी बांहों में कसते हुए पूछा.

‘प्रोग्राम तो तुम को तय करना है. आज तो मुझे बस सजना और संवरना है,’ नंदिनी ने जय को देखते हुए कहा और उस के चेहरे पर एक मीठी सी मुसकान तैर गई.

‘तुम शादी के 6 वर्षों बाद भी नहीं बदली हो. आज भी उतनी ही खुबसूरत और…,’ जय ने शरारती लहजे में नंदिनी को देखते हुए कहा. वह जानता था, नंदिनी आज भी उतने ही जतन से सजा करती है जितने जतन से वह शादी के बाद सजती थी.

अजय उस की खूबसूरती और सादगी का दीवाना था. आस्ट्रेलिया में दोनों मिले थे. जय अपनी पढ़ाई के सिलसिले में मेलबोर्न गया था. अजनबी देश में एकमात्र सहारा जय का दोस्त सुनील था, जो वहां अपने रिश्तेदार के साथ रह रहा था. सुनील के रिश्तेदार की बेटी नंदिनी थी.

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नंदिनी और जय की पहली ही मुलाक़ात दोनों को एकदूसरे के करीब ले आई थी. लेकिन जैसेजैसे समय अपने पंख लगा कर उड़ता गया, नंदिनी और जय के बीच प्रेम का अटूट बंधन बनता गया. और शादी के 6 वर्षों भी दोनों में वही प्रेम बरकरार था.

लेकिन आज 5 साल सुनते ही नंदिनी जय की बांहों से अपनेआप को मुक्त करवा कर बैठ गई.

‘6 साल…,’ उस ने एक ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा.

‘जी, 6 साल. नंदिनी, सच तुम्हारे साथ ये 6 साल कैसे बीते, मुझे पता ही न चला,’ जय ने नंदिनी को बांहों में भरते हुए कहा जैसे वह भी नंदिनी से ऐसे ही उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हो.

लेकिन इस बार नंदिनी ज्यादा असहज हो गई थी. वह जय की बांहों से निकल कर बैड से नीचे उतर गई थी.

‘क्या हुआ नंदू, कोई बात हो गई है? क्या मुझ से कोई गलती हो गई है?’

‘नहींनहीं, कैसी बातें कर रहे हो तुम. तुम ने तो मुझे हर जगह सपोर्ट किया है. बस…’ नंदिनी अपनी बात पूरी नहीं कर पाई, उस के चेहरे पर एक उदासी की छाया सी आ गई.

‘ओह, मैं समझ गया,’ जय ने नंदिनी के पास आ कर उस का चेहरा अपने हाथों में ले कर कहा.

‘देखो नंदू, वह मेरी मां है. मैं उस की इकलौती संतान हूं. मां और पापा ने मुझे बहुत संघर्ष से पाला है, मैं उन की उम्मीद हूं. पहले तो मैं उन की मरजी के खिलाफ विदेश गया, फिर तुम से शादी की, उस के बाद परिवार न बड़ा कर तुम्हारे कैरियर के फैसले में साथ दिया. अचानक से मैं ने सब काम खासतौर से अपनी मां की मरजी के खिलाफ जा कर किए हैं. ऐसे में मां को धक्का लगना लाजिमी है. लेकिन तुम चिंता मत करो, इस बार मैं ने कुछ सोच रखा है.’

‘तुम ने सोच रखा है… क्या कहना चाहते हो तुम, प्लीज, साफसाफ कहो न,’ नंदिनी ने छोटे बच्चे की तरह मचलते हुए जय से कहा.

‘मां हर बार तुम से बच्चे के लिए कहती, इसलिए मैं ने बच्चे के लिए सोच लिया है.’

‘बच्चे के लिए सोच लिया है…मतलब… जय, मैं समझ नहीं पा रही हूं कि तुम क्या कहना चाहते हो. तुम ही तो हो जो मेरी सारी प्रौब्लम समझते हो. वैसे भी, कौन मां नहीं बनना चाहता है. लेकिन न जाने मैं क्यों कंसीव नहीं कर पा रही हूं. जो इलाज चल भी रहा था वह इस लौकडाउन के चलते बंद हो गया,’ नंदिनी की आवाज में भारीपन आने लगा था, ‘रही बात मां की, तो तुम्हें पता ही है कि वे मुझ से अभी तक कटीकटी सी रहती हैं और हर साल एनिवर्सरी के दिन उन का एक ही सवाल होता है. ऐसे मैं मेरा मन बात करने को नहीं करता है.’ और नंदिनी की आंखों में दुख का सैलाब तैरने लगा था.

जय नंदिनी की हालत समझता था. इसलिए उस ने उसे प्यार से पकड़ कर कमरे के कोने में करीने से सजी कुरसी पर बैठा दिया. और धीरे से नंदिनी को सहलाने लगा. वह जानता था नंदिनी और मां के बीच एक खाई है जिसे भरना मुश्किल है लेकिन वह यह भी जानता था कि यह नामुमकिन नहीं है.

मेलबोर्न में उस ने नंदिनी से शादी करने का सपना देख तो लिया था पर इस सपने को पूरा करने में जो मुश्किलें आने वाली थीं उन से जय अनजान नहीं था. एक दिन जब हिम्मत कर के जय ने अपने मातापिता को अपने और नंदिनी के बारे में बता दिया, तब जय के पिता दिनेश ने तो खुलेहाथों से नंदिनी को स्वीकार किया, पर जय की मां सुधा ने आसमान सिर पर उठा लिया था. आखिर उन की इकलौती औलाद उन के संस्कारों के खिलाफ कैसे जा सकती थी. एक गैरजातीय लड़की को वे अपनाने के लिए तैयार न थीं. उन्होंने जय को काफी उलाहने दिए. जय लगभग टूट गया था. उस के सामने सारे दरवाजे बंद हो रहे थे. नंदिनी के साथ वह अपने भविष्य के सपने देखने लगा था. इतना आगे आ जाने के बाद वह अब पीछे नहीं हट सकता था.

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इस कशमकश की घड़ी में अगर किसी ने उस का साथ दिया था तो वे थे जय के पिता दिनेश, जिन्होंने संकटमोचक की तरह जय को एक सुझाव दिया कि पढ़ाई ख़त्म होते ही जय भारत में ही अपनी नौकरी करे और नंदिनी को विदा करवा कर भारत ले आए. उस के बाद वे सब संभाल लेंगे. जय के पिता जानते थे कि यह सब करना आसान न होगा क्योंकि जय की मां पहले से ही जय की गैरजातीय पसंद से सख्त नाराज थी. जैसा जय के पिता दिनेश ने सोचा था वैसा ही हुआ. जय के भारत लौटने की ख़ुशी सुधा को जहां राहत पहुंचा रही थी, वहीं नंदिनी से विवाह का समाचार सुधा के लिए गहरा आघात साबित हुआ था. इस समाचार को पा कर वे अपनेआप को संभाल न पाईं और उन की तबीयत खराब हो गई. हालांकि, जैसे ही सुधा ने जय को अपनी आंखों के सामने देखा, उन का मन पिघल गया पर अपने बेटे के साथ नंदिनी को देख कर सुधा को अपना बेटा उन से छिन जाने का एहसास हुआ. मां और बेटे के बीच में शायद नंदिनी अनजाने ही आ गई थी और यही उस बेचारी का दोष था जिस के लिए सुधा जी ने उसे शादी के 6 साल बाद भी माफ़ नहीं किया था.

जय अपनी मां और नंदिनी दोनों के जज्बातों को समझता था, इसलिए जिंदगी में कड़वाहट न हो, उस ने अलग रहने का फैसला किया. लेकिन उसे नहीं पता था कि मां की नाराजगी नंदिनी के प्रति कम नहीं, बल्कि बढ़ जाएगी.

बेचारी नंदिनी असहाय सी महसूस करने लगी थी. वह हर कोशिश करती कि उस की सास सुधा उसे अपना ले. पर हर बार वह नाकामयाब हो जाती थी.

लेकिन जय के पिता दिनेश जी का संपर्क बच्चों के साथ लगातार बना रहा. वहीं, सुधा ने एक साल तक नंदिनी से बात नहीं की और न ही उसे अपनाने में दिलचस्पी दिखाई. हालांकि ऐसे कई मौके आए जब नंदिनी और सुधा जी का आमनासामना हुआ. पर नंदिनी ने हमेशा अपनेआप को असहज ही महसूस किया.

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एनिवर्सरी गिफ्ट: भाग 2- बेटा-बहू से भरे दिनेश और सुधा का कैसा था परिवार

लेखिका- ऋतु थपलियाल

समय चंचल हिरन की भांति दौड़ने लगा था. जय और नंदिनी की शादी को 2 साल बीत गए थे. सुधा ने बेटे को तो अपना लिया था पर नंदिनी के लिए आज भी वह अपनी बांहें नहीं फैला पाई थी. कहते हैं समय घावों को भर देता है, पर नंदिनी के साथ ऐसा नहीं हो रहा था. वह सपनों से भरी अल्हड सी लड़की, जो मेलबोर्न से भारत चली आई थी, जय के साथ कदम से कदम मिला कर चलने की कोशिश कर रही थी. जय ने नंदिनी की तनाव से भरी जिंदगी को दूर करने का फैसला लिया और नंदिनी को जौब करने के लिए प्रोत्साहित किया. नंदिनी जय के इस फैसले से फूली नहीं समा रही थी. उसे पहली बार तपिश में ठंडी फुहार का अनुभव हुआ. जय को अपने जीवनसाथी के रूप में चुन कर उस को गर्व महसूस हो रहा था.

उस ने जय को निराश नहीं किया. जौब लगते ही नंदिनी की मेहनत रंग लाई और वह उन्नति के शिखर पर चढ़ने लगी. दोनों एकदूसरे को संभालते हुए आगे बढ़ रहे थे. लेकिन शायद दोनों की खुशियों को फिर से नजर लगने वाली थी. जय और नंदिनी की शादी को 2 साल पूरे हो गए थे. हालांकि सुधा का गुस्सा और नाराजगी अभी भी शांत नहीं हुई थी लेकिन बेटे को तो अपने से दूर नहीं किया जा सकता, इसलिए दोनों परिवार महीने में एकबार आपस में मिल कर अच्छा समय बिताने की कोशिश करने लगे थे. सबकुछ ठीक रहता पर नंदिनी कहीं न कहीं अजनबी जैसा महसूस करती थी.

और एक दिन फिर से एक जलजला नंदिनी और जय के जीवन में आ गया. दिनेश जी और सुधा की एनिवर्सरी का दिन था. दोनों परिवार एकसाथ बैठे हुए थे. तभी सुधा ने जय के सामने एक इच्छा रख दी, जिसे सुन कर जय और नंदिनी फिर से दोराहे पर खड़े हो गए.

‘जय, तुम ने जो चाहा, हम ने उसे स्वीकार किया पर कम से कम तुम एक इच्छा तो हमारी पूरी कर दो,’ सुधा ने चाय का घूंट भरते हुए कहा.

‘मां, कैसी बातें करती हैं आप, आप ने और पापा ने जो मेरे लिए किया है, मैं उस का ऋण कभी नहीं चुका सकता. आप हुक्म करें, आप की क्या इच्छा है. मैं और नंदिनी उसे जरूर पूरी करेंगे.’

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‘देखो, समय का क्या भरोसा. कब क्या हो जाए. तुम्हारे साथ के सभी दोस्तों के घर में रौनक हो गई है, मैं भी चाहती हूं कि अगले साल तक तुम दोनों भी दो से तीन हो जाओ. कम से कम मेरे जो अरमान तुम्हारी शादी के लिए थे, वे पोते का मुंह देख कर पूरा हो सकें,’ सुधा ने तिरछी निगाह से नंदिनी को देखते हुए जय से कहा.

जय और नंदिनी के चेहरे का जैसे रंग उड़ गया था. ऐसा नहीं था कि वे दोनों बच्चा नहीं चाहते थे लेकिन जिस तरह से नंदिनी अपने कैरियर के सफर में आगे बढ़ रही थी, जय और नंदिनी ने फैसला किया था कि अभी वे 2 साल और इंतजार करेंगे.

लेकिन सुधा की यह ख्वाहिश सुन कर फिर से जय उसी दोराहे पर आ कर खड़ा हो गया जहां से वह चला था. जय की समझ में नहीं आ रहा था कि वह मां से क्या कहे क्योंकि बड़ी मुश्किल से मां ने नंदिनी को स्वीकारोक्ति दी थी, यह अलग बात थी कि इस में नाराजगी का पुट हमेशा से ही विद्यमान रहा था. अब अगर वह मां को अपना फैसला सुनाता है तो कहीं पहले जैसी स्थिति न हो जाए.

जय के चेहरे पर आए तनाव को दिनेशजी ने बखूबी पढ़ लिया था. उन्होंने बात को संभालते हुए कहा. ‘जल्दबाजी की कोई जरूरत नहीं है. तुम और नंदिनी इस फैसले के लिए स्वतंत्र हो.’

दिनेशजी का यह कहना जय की मां सुधा को अपना अपमान लगा और वह झटके के साथ उठ कर अपने कमरे के भीतर चली गई. एक खुशनुमा माहौल फिर से उदासी के दामन में सिमट गया.

अब यह इच्छा हर साल जय को सताने लगी थी क्योंकि मां जब भी फोन पर बात करती, अपनी इस इच्छा को जरूर जताती थी. और हर साल पूछा जाने वाला यह सवाल जय और नंदिनी को दंश के समान पीड़ा पहुंचाने लगा था. हालांकि इस दौरान नंदिनी ने इलाज भी शुरू कर दिया था, वह सुधाजी को कोई भी शिकायत का मौका नहीं देना चाहती थी लेकिन समय को कुछ और ही मंजूर था. नंदिनी को कुछ गायनिक कोम्प्लिकेशन थे जिन का पहले इलाज होना था, फिर आगे की प्रक्रिया हो सकती थी. दोनों इसी आस से इलाज करवा रहे थे कि उन्हें जल्द ही कामयाबी मिल जायगी. पर अचानक से कोरोना का कहर आ गया और सबकुछ बंद हो गया.

जय ने नंदिनी को समझाते हुए कहा, ‘नंदू, कल पापा से बात हुई थी, तब हम दोनों ने एक समाधान निकाला है.’

‘प्लीज, पूरी बात बताइए कि आप दोनों के बीच क्या बात हुई और क्या समाधान निकाला है.’

‘नंदू, पापा एक संस्था के साथ व्हाट्सऐप ग्रुप में जुड़े हुए हैं. उस में बहुत सारे ऐसे बच्चों के बारे में सूचना आ जाती है जिन्होंने अपने मातापिता कोरोना में खो दिया है और अब कोई भी रिश्तेदार उन्हें अपनाने के लिए तैयार नहीं है.’

‘तो तुम कहना क्या चाहते हो, तुम कही एडौप्शन की बात तो नहीं कर रहे हो,’ नंदिनी कहतेकहते कुरसी से लगभग खड़ी हो गई, ‘तुम जानते हो तुम क्या कह रहे हो?’

‘हां, पापा और मैं ने यही सोचा है. इस में गलत क्या है?’

‘नहीं जय, इस में कुछ भी गलत नहीं है बल्कि यह तो बहुत ही अच्छा तरीका है अपनी खाली पड़ी दुनिया को रंगों और किलकारियों से भरने का. लेकिन तुम शायद भूल गए हो कि मां ने मुझे ही अब तक नहीं अपनाया है तो फिर किसी के बच्चे को कैसे स्वीकार करेंगी.’

‘उस की तुम चिंता मत करो. मैं ने कल पापा से बात की है. अब लौकडाउन में मिलने वाली छूट के समय वे मां को ले कर आ रहे है. तब सब साथ में ही बात करेंगे.’

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‘ओह, जय, मुझे तो बहुत टैंशन हो रही है. तुम दोनों ने जो सोचा है, मैं उस का विरोध नहीं करती हूं, पर मां…’ कहतेकहते नंदिनी चुप हो गई.

‘माई डियर, माना कि मेरी मां थोड़ा पुराने ख़यालात की है लेकिन तुम भूल रही हो कि वे भी एक मां हैं. जब तुम्हारी पीड़ा को उन के आगे रखूंगा तो वे जरूर समझ जाएंगी. और वैसे भी, मैं ने अपने संकटमोचक से बात कर ली है. इस बार तो मान को मानना ही होगा.’

“संकटमोचक… कौन?’ नादिनी ने आश्चर्य से जय को देखते हुए कहा. आखिर, उसे समझ में नहीं आ रहा था कि जय के दिमाग में क्या चल रहा है.

‘वह तो तुम्हें शाम को ही पता चलेगा. तब तक क्यों न हम दोनों अपनी एनिवर्सरी सैलिब्रेट कर लें,’ कहते हुए जय ने नंदिनी को अपनी बांहों में उठा लिया. नंदिनी की खिलखिलाहट से घर गूंजने लगा.

दिन का समय हो आया था. सूरज अपनी तपिश की किरणों से धरती को गरमी दे रहा था. नंदिनी शिद्दत के साथ अपने सासससुर के पसंदीदा खाने को बनाने में लगी हुई थी. तभी डोरबैल बजी. जय तेजी से दरवाजे की ओर लपका था. दरवाजा खुलते ही सुधा और दिनेश ने जय को देखा और उन के चेहरे पर ममत्व से भरी मुसकान फ़ैल गई. दोनों ने जय को बधाई दी और गले से लगा लिया. सुधा घर के अंदर आ कर ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठ गई. दिनेशजी नंदिनी को ढूंढते हुए किचन में चले गए और उस को पैसों का लिफाफा पकड़ाते हुए बोले, ‘शादी की बहुतबहुत शुभकामनाएं. हम दोनों की ओर से यह छोटी सी भेंट है. तुम अपने लिए कुछ खरीद लेना. हां, जय की चिंता मत करना, उस को उस की मां ने दे दिया है.’ ससुर और बहू के मुख पर हलकी सी हंसी तैर गई.

नंदिनी ने ससुर को पानी का गिलास दिया और साथ ही साथ उन के पैरों को भी स्पर्श कर लिया. दिनेशजी ने भी अपनी बहू के सिर पर आशीर्वाद का हाथ रख दिया. फिर वे ड्राइंगरूम में सुधा के समीप आ कर सौफे पर बैठ गए.

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एनिवर्सरी गिफ्ट: भाग 3- बेटा-बहू से भरे दिनेश और सुधा का कैसा था परिवार

लेखिका- ऋतु थपलियाल

सुधा के चेहरे पर अब भी नंदिनी को ले कर एक तनाव बना हुआ था. उस तनाव को सभी महसूस कर रहे थे. नंदिनी ने सुधा को भी पानी दिया और उस के चरण स्पर्श किए. पर सुधा ने ‘ठीक है, ठीक है’ कह कर अपनी नाराजगी फिर से दिखा दी थी. जय मौके की नजाकत को भांप गया था. उस ने नंदिनी को जल्दी से खाना लगाने का इशारा कर दिया था.

डाइनिंग टेबल पर सबकुछ अपनी मनपसंद का बना देख सुधा कुछ कह नहीं पाई. हां, दिनेशजी ने अपनी बहूँ के हाथ के बने खाने की खूब तारीफ की. सुधा चुप ही रही.

खाना खाने के बाद सब ड्राइंगरूम में आ गए. नंदिनी ने सभी को आइसक्रीम सर्व की और अपने आइसक्रीम का बाऊल ले कर सब के साथ बैठ गई. सुधा शायद इसी पल का इंतजार कर रही थी. तभी उस ने जय से पूछ ही लिया.

‘जय, मुझे कब तक इंतजार करना होगा.’

जय तो इसी मौके की तलाश कर रहा था. उस ने अपने पापा दिनेशजी की ओर देखा और कहा, ‘मां, पापा ने एक सुझाव दिया है मैं और नंदिनी बिलकुल तैयार हैं, बस, अगर आप की हां हो जाए तो… अगले 15 दिनों में ही मैं आप की इच्छा पूरी कर सकता हूं.‘

सुधा को लगा शायद उन के बेटे जय का दिमाग खराब हो गया है. भला 15 दिनों में कोई कैसे मातापिता बन सकता है.

‘जय, पागल हो गए हो, क्या कह रहे हो. 15 दिनों में भला कौन मांबाप बन सकता है. सुनो, मैं इस तरह के मजाक को बिलकुल भी बरदाश्त नहीं करूंगी.’ सुधा ने अपने तीखे लहजे से अपनी बात कही और जय को चेतावनी भी दे दी कि वे अब उस की एक नहीं सुनेंगी.

तभी दिनेशजी ने कहा, ‘सुधा, यह सब ईश्वर के हाथ में होता है.’

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‘अच्छा, तो तुम ही बताओ कि शादी को 6 साल होने को आ गए हैं पर अभी तक कुछ क्यों नहीं हुआ. जय और उस के दोस्त नीरज की शादी एकसाथ हुई थी. नीरज 2 बच्चों का पापा बन गया है और हमारा जय अभी तक… माना कि शादी के कुछ साल एंजौय में बीत गए, पर उस के बाद तो नंदनी की ही लापरवाही रही न. मैं ने कितना कहा था कि मेरे पास आ जाओ, मैं इलाज करवा देती हूं पर हर बार जय कहता था कि मां, नंदिनी का डाक्टर घर के पास ही है, उस को वहीं दिखाने में सुविधा होगी. फिर लेदे कर इस कोरोनाकाल ने कसर पूरी कर दी. एक साल से इलाज वहीं का वहीं रह गया. और अब यह दूसरा साल भी ऐसे ही जाएगा.’

‘ऐसी बात नहीं है सुधा, वे दोनों अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे थे पर नाकामयाब हो रहे थे. फिर यह कोरोना आ गया. अब यह तो उन दोनों के बस के बाहर था और कहीं न कहीं मुझे लगता है कि वे अब तुम्हारे रौद्र रूप का सामना नहीं करना चाहते हैं.’ दिनेश जानते थे कि सुधा के आगे किसी का तर्क नहीं चलेगा पर आज उन्होंने भी सुधा से तर्क करने की ठान ली थी. दोनों में जैसे जिरह शुरू हो गई थी.

‘तुम कहना क्या चाहते हो, मैं गलत हूं, गुस्सैल हूं और मेरी वजह से यह सब हुआ है. और वे दोनों मेरे स्वभाव की वजह से मातापिता नहीं बन पा रहे हैं,’ अचानक से लगे आरोप को सुधा सहन नहीं कर पाई और बौखला गई.

सुधा के इस रूप को देख कर नंदिनी सहम सी गई थी. उस की आंखें छलछलाने लगीं. उस को लगा, शायद अब वह सुधाजी की नाराजगी बरदाश्त नहीं कर पाएगी. वह दौड़ती हुई अपने कमरे में चली गई.

दिनेशजी ने फिर से सुधा को समझाने का प्रयास किया, ‘नहीं, तुम गलत समझ रही हो. मेरा यह कहने का मतलब नहीं था.’

‘तो फिर तुम क्या कहना चाहते हो? पहले तो जय ने लव मैरेज की, मैं ने नंदिनी को गैरजातीय होते हुए भी अपना लिया. फिर दोनों ने अपने कैरियर को तवज्जुह दी. उसे भी मैं ने स्वीकार कर लिया. अपनी कोई इच्छा उन पर नहीं थोपी. पर अब तो मुझे ख़ुशी का एक मौका दे दे,’ सुधा ने ऊंची आवाज में दिनेश से कहा.

‘तुम ने उन्हें अपना लिया?’ दिनेश के चेहरे पर प्रश्न था, जो सुधा को देख कर उन्होंने पूछा था, ‘सुधा, जब से नंदनी इस घर में आई है, तुम ने उस से ठीक से बात भी नहीं की. हमेशा उस को एहसास करवाया कि वह गैरजातीय है और सब से जरूरी कि वह तुम्हारी पसंद की नहीं है. उस बेचारी पर कितना प्रैशर रहता होगा, यह मैं समझ सकता हूं,’ दिनेश ने लगभग चिल्लाते हुए कहा.

सुधा दिनेश के इस रूप को देख कर सहम सी गई थी. आज तक दिनेश ने कभी इस तरह झल्ला कर उस से बात नहीं की थी. जय ने भी अपने पिता का ऐसा रूप पहली बार देखा था. घर में गरमहट का माहौल हो गया था.

‘तुम कहना क्या चाहते हो, मैं उन की निजी जिंदगी में दखलंदाजी कर रही हूं जिस से दोनों के ऊपर प्रैशर बन रहा है और इस वजह से उन दोनों के यहां बच्चा नहीं हो रहा है?’

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‘नहीं, तुम गलत समझ रही हो. मैं, बस, तुम्हें उस एहसास को याद दिलाना चाहता हूं जो तुम शायद भूल गई हो कि जय के होने से पहले तुम्हारे साथ भी यही सब हुआ था. हमारी शादी को 6 महीने ही हुए कि तुम अपना कैरियर बनाना चाहती थीं, इसलिए जल्दी बच्चा न करने का फैसला लेना चाहती थीं. और उस के बाद 2 साल तक हमारे चाहने पर भी तुम कंसीव नहीं कर पाई थीं. मां का कितना प्रैशर तुम पर था, कुछ याद आया तुम्हें,’ दिनेश ने सुधा को लगभग झिंझोड़ते हुए कहा, वह तो शुक्र था कि तुम जल्दी ही कंसीव कर गईं वरना… न जाने तुम्हें भी नंदिनी के जैसे तनावयुक्त माहौल का शिकार होना पड़ता. बेचारी नंदिनी तो गैरजातीय होने का भी दुख झेल रही है,’ जय के पिता अपनी बात कहतेकहते रोआंसे हो उठे थे.

अपने जीवन की इतनी बड़ी सचाई अपने बेटे और बहू के आगे खुलते देख सुधा सहम सी गई थी. जय समझ चुका था कि दोनों कहीं मुख्य मुद्दे से भटक न जाएं, उस ने तुरंत मां का हाथ पकड़ लिया.

बेटे का सहारा पा कर सुधा कुछ नरम पड़ गई थी. सुधा ने लगभग रोते हुए अपने बेटे से कहा, ‘जय, देखो, तुम्हारे पापा मुझ से क्या कह रहे हैं. मैं अपने दिनों को भूल गई हूं और मैं जानबूझ कर नंदिनी पर प्रैशर बना रही हूं क्योंकि मैं उसे पसंद नहीं करती हूं. अरे, जो भय मैं ने उस समय महसूस किया था, बस, मैं यही चाहती हूं कि वह अब फिर से हमारे सामने न आए. क्या ऐसा सोचना गलत है?’

तभी दिनेशजी ने सुधा को उन के अतीत की कुछ और बातें याद दिलाईं, बोले, ‘याद है तुम्हें जब तुम छहसात महीने तक कंसीव नहीं कर पाई थीं, तो तुम मां का फोन भी नहीं लेती थीं क्योंकि उन की एक ही बात तुम्हें भीतर तक दुख पहुंचा जाती थी. उस समय तुम पर कितना दबाव था, यह सिर्फ मैं ही जानता हूं. वही दबाव आज जय और नंदिनी महसूस कर रहे हैं.’

सुधा की आंखें फर्श पर जा कर टिक गई थीं जैसे उस के सामने अतीत के पन्ने किसी ने खोल कर रख दिए थे. वह कुछ भी नहीं कह पा रही थी. उस के भीतर जैसे कुछ थम गया था.

‘सुधा, क्या तुम ने यह प्रैशर डालने से पहले जय और नंदिनी से बात की है कि क्या कारण है कि उन को संतान का सुख नहीं मिल पा रहा है, कहीं हमारे बच्चों को हमारी सहायता की जरूरत तो नहीं है,’ इस बार दिनेशजी ने अपनी आवाज को नर्म रखते हुए कहा.

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