विद्रोह: भाग 2- घर को छोड़ने को विवश क्यों हो गई कुसुम

लेखिका- निर्मला सिंह

हक्कीबक्की बावली सी कुसुम डायनिंग चेयर पर बैठ गई. एक प्लेट में हलवा रखा था, दूसरी प्लेट में गोभी के गरम परांठे. नाश्ता देते समय शहद सी मीठी बोली में बहू बोली, ‘‘पहले इन कागजों पर साइन कर दीजिए. फिर नाश्ता कर लीजिएगा.’’

‘‘न…न, मैं नहीं करूंगी साइन.’’

‘अच्छा, तो यह आदर, यह प्यार इस लालच में किया जा रहा था. छि:छि:, तुम दोनों ने तो रिश्तों को नीलाम कर दिया है. मैं चाहे मर जाऊं, चाहे मुझे कुछ भी हो जाए, मैं साइन नहीं करूंगी,’ कुसुम बड़बड़ाती रही.

‘‘जाइएजाइए, लीजिए सूखी ब्रैड और चाय, मत करिए साइन. और जब ये आ जाएं तब खाइएगा इन की मार.’’

बहू के शब्द तीरों से भी ज्यादा घायल कर गए कुसुम को. वह बाहर से अंदर तक लहूलुहान हो गई.

मरती क्या न करती. भूखी थी सूखी ब्रैड चाय में डुबो कर खाई, रोती रही. सोचती रही, ‘लानत है ऐसी जिंदगी पर. गाजर का हलवा, भरवां परांठे खा कर क्या मैं तेरी गुलाम बन जाऊं. न…न, मैं अपाहिज नहीं बनना चाहती. मैं अपना सबकुछ तुझे दे दूं और मैं अपाहिज बन जाऊं, यह नहीं हो सकता,’ बुदबुदाती हुई कुसुम, ब्रैड और चाय से ही संतुष्ट हो गई. मन ने कहा, ‘जाए भाड़ में तेरा हलवा और परांठे. मैं अपने जमाने में बचा हुआ हलवा, परांठेऔर पूरी मेहरी तक को खाने के लिए देती थी.’

कुसुम बहू की क्रियाएं आंखें फाड़फाड़ कर देख रही थी. सास की पीड़ा, दुख, व्यथा से बहू अनजान सी अपने कामों में व्यस्त थी. चायनाश्ता कर के उस ने अपना लंच बौक्स तैयार किया, फिर गुनगुनाती हुई पिं्रटैड सिल्क की साड़ी और उसी रंग की मैच करती माला पहन कर कालेज चली गई. बाहर से घर में ताला लगा दिया.

बाहर ताला बंद कर वह हर रोज ही कालेज जाती रही. और तो और टैलीफोन भी लौक कर दिया जाता था. लेकिन उस दिन वह टैलीफोन लौक करना भूल गई. कुसुम ने हर रोज की तरह पूरा घर देखा. हर चीज लौक थी. यहां तक कि फ्रिज में भी ताला लगा हुआ था.

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हां, बहू कुसुम के लिए डायनिंग टेबल पर 4 सूखी रोटी और अरहर की दाल बना कर रख गई थी. अनलौक टैलीफोन देख कर कुसुम के दिल में खुशी का खेत लहराने लगा. अब तो पड़ोसिन को फोन कर दूंगी. वह मुझे बाहर भागने में सहायता कर देगी.

उस समय कुसुम में हजार हाथियों की ताकत ने जन्म ले लिया. देह का दर्द भी कपूर सा उड़ गया. आंखों में हीरे सी चमक उत्पन्न हो गई. सब से पहले तो उस ने पड़ोसिन को फोन किया, ‘‘हैलो, कौन बोल रहा है?’’

‘‘मैं बोल रही हूं आंटी, रीता, लेकिन आप फोन कैसे कर रही हैं? क्या आज आप का फोन लौक नहीं है?’’

मुक्ति की खुशी में झूमती हुई कुसुम बोली, ‘‘हांहां बेटी, लौक नहीं है. सुनो, तुम इस समय बाहर का ताला तोड़ कर आ जाओ. तब तक मैं तैयारी करती हूं.’’

‘‘कैसी तैयारी, आंटी?’’ सुन कर रीता को आश्चर्य हुआ.

‘‘बेटी, तुम्हीं ने तो उस दिन कहा था कि आप यहां से भाग जाओ आंटी, किसी और शहर या बेटी के पास.’’

‘‘हांहां, कहा तो था. लेकिन आंटी, आप कहां जाएंगी?’’

‘‘मैं कानपुर अपने भाई के पास जाऊंगी. वह बस स्टेशन पर लेने आ जाएगा, फिर सब ठीक हो जाएगा. बेटी, अगर मैं नहीं गई तो यह मुझ से जबरदस्ती मारपीट कर, नशा पिला कर साइन करवा लेगा और…और…’’ कुसुम फूटफूट कर रोने लगी.

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‘‘और क्या आंटी… बताओ न…’’

‘‘और फिर मुझे दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर फेंक देगा,’’ बोलते हुए कुसुम की आवाज कांप रही थी. पूरी की पूरी देह ही कंपकंपाने लगी थी. उस की देह जवाब दे रही थी. लेकिन फोन रख कर उस की हिम्मत सांस लेने लगी. आशा जीवित होने लगी.

जल्दीजल्दी अलमारी खोल कर अपने कपड़े, रुपए और वसीयत के कागज निकाले, पर्स लिया. ढंग से सिल्क की साड़ी पहन कर दरवाजे के पास अटैची ले कर खड़ी हो गई.

पत्थर से ताला नहीं टूटा तो रीता ने हथौड़ी से ताला तोड़ा. कुसुम दरवाजे के पास ही खड़ी थी.

एक ओर जेल से छूटे कैदी सी खुशी कुसुम के दिल में थी तो दूसरी ओर अपना घर, अपना घोंसला छोड़ने का दुख उसे खाए जा रहा था. वह घर, जिस में उस ने रानी सा जीवन व्यतीत किया, जहां उस ने सोने से दिन और चांदी सी रातें काटीं, जहां उस के आंगन में किलकारियां गूंजती थीं, प्यार का सूरज सदा उगता था, जहां उस के पति ने उसे संपूर्ण ब्रह्मांड का सुख दिया था, जहां वह घंटों पति के साथ प्रेम क्रीड़ाएं करती थी, जो घर खुशियों के फूलों से महकता था, वक्त ने ऐसी करवट बदली कि कुसुम आज उसे छोड़ कर जाने पर विवश हो गई. क्या करती वह? कोई अन्य उपाय नहीं था.

रीता ने अपनी कार में कुसुम को बिठा लिया, उस का सूटकेस उठाते समय रीता भी रोने लगी आंटी के बिछोह पर. रोंआसी रीता ने आंटी से उन के भाई का फोन नंबर ले लिया. और बस पर चढ़ाते समय यह वादा कर लिया कि वह हफ्ते में 2 बार फोन पर उन का हालचाल पता लगाती रहेगी.

जितना दुख कुसुम को अपना घर छोड़ने का था उस से कुछ ही कम दुख रीता से बिछुड़ने का था. ज्यादा देर वह रीता को बस के पास रोकना नहीं चाह रही थी. वह सरहद पर तैनात सिपाही सी सतर्क थी, सावधान थी कि कहीं खोजते हुए उस की बहू या बेटा न आ जाएं. वह उस घर में वापस जाना नहीं चाहती थी, जहां तालाब में मगरमच्छ सा उस का बेटा रहता था, जहां उस की जिंदगी मुहताज हो गई थी.

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बस चल पड़ी. वह खिड़की से बाहर आंसूभरी आंखों से रीता को तब तक देखती रही जब तक उस की आकृति ने बिंदु का रूप नहीं ले लिया.

ज्योंज्यों बस आगे बढ़ रही थी उस का अपना शहर दूर होता जा रहा था, वह शहर जहां वह सोलहशृंगार कर के अपने सुहाग के साथ आई थी. उसे लगा उस की जिंदगी एक नदी है जिस ने अपना रास्ता बदल लिया है और वह एक गांव है जो पीछे छूट गया है. बस जितना आगे बढ़ रही थी उस का दिल उतनी ही जोरों से धड़क रहा था. काफी देर बाद उस ने स्वयं को सामान्य स्थिति में पाया.

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अपराधिनी: भाग 1- क्या था उसका शैली के लिए उसका अपराध

लेखिका-  रेणु खत्री

पुरानी यादों के पन्ने समेटे आज  बरस बीत गए, फिर भी उस तसवीर को देखते ही पता नहीं क्यों मेरा मन अतीत में लौट जाता है. जब से शैली को टीवी पर देखा है, उस से मिलने की चाहत और भी बलवती हो गई. वह कैसे समाजसेविका बन गई? उसे क्या जरूरत थी यह सब करने की? उस का पति तो उसी की भांति समझदार ही नहीं, बल्कि कार की एक बड़ी कंपनी का मालिक भी था. ऐसे में वह इस क्षेत्र में कैसे आ गई?

मेरे अंतर्मन में ढेरों प्रश्न उमड़घुमड़ रहे थे. मैं उस से मिलने को बेताब हो उठी. पर न पता, न ठिकाना. कहां खोजूं उसे? यही सब सोचतेसोचते 4 दिन बीत गए. और फिर मेरे घर की चौखट पर जब मेरी प्रिय पत्रिका ने दस्तक दी तो उस में छपी उस की समाजसेवा की कुछ विशेष जानकारी से उस की संस्था का पता चला. उसी से उस का फोन नंबर मालूम हुआ. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा.

मैं ने फोन लगाया. वही चिरपरिचित मधुर आवाज में वह ‘‘हैलो, हैलो…’’ बोले जा रही थी. और मेरे शब्द मुख के बजाय आंखों से झर रहे थे. मुझ से कुछ भी कहते नहीं बन रहा था. आखिर अपमान भी तो मैं ने ही किया था उस का. अब कैसे अपने किए की माफी मांगूं? फोन कट गया. मैं ने फिर मिलाया. अब भी बात करने की हिम्मत मैं नहीं कर पाई.

अब की बार वहीं से फोन आया. मैं ने घबराते हुए फोन उठाया. आवाज आई, ‘‘हैलो जी, कौन? लगता है आप तक मेरी आवाज नहीं पहुंच पा रही है.’’ उस का इतना कहना भर था कि मैं एकाएक बोल उठी, ‘‘शैली.’’

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‘‘हांहां, मैं शैली ही हूं. आप कौन हैं?’’

‘‘मैं, मैं, प्रिया, तुम्हारी बचपन की सहेली.’’

वह चौंकी, ‘‘प्रिया, तुम, मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा कि मैं अभी भी तुम्हें याद हूं.’’

‘‘प्लीज शैली, मुझे माफ कर दो. उस दिन मैं ने तुम्हारा बहुत दिल दुखाया. सच मानो तो आज तक अपनेआप से नजरें मिलाते हुए आत्मग्लानि होती है. उस दिन के बाद से कितना तड़पी हूं तुम से माफी मांगने के लिए,’’ मैं लगातार बोले जा रही थी.

वह थोड़ा रोब में बोली, ‘‘बस, बहुत हुआ. और हां, तुम किस बात की माफी मांग रही हो? माफी तो मुझे मांगनी चाहिए. मैं ने तुम्हारे सपनों को तोड़ा. अगर तुम सचमुच मुझ से नाराज नहीं हो, तो मैं हैदराबाद में हूं. क्या तुम मुझ से मिलने आओगी? अपना पता मैं मोबाइल पर अभी मैसेज किए देती हूं. और प्रिया, तुम कहां हो?’’

‘‘मैं यहीं दिल्ली में ही हूं. आज तो तुम से बात करने से भी ज्यादा खुशी की बात यह है कि अगले महीने ही मेरे पति की औफिस की मीटिंग हैदराबाद में ही है. अब की बार मैं भी उन के साथ ही आऊंगी,’’ मैं ने कहा.

हम दोनों ही खुशी से खिलखिला उठे व जल्द ही एकदूसरे से मिलने की चाहत लिए अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हो गए.

शशांक के औफिस से लौटते ही मैं ने उन के आगे अपनी बात रख दी, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. वैसे भी याशिका और देव तो होस्टल में हैं. याशिका का इसी वर्ष आईआईटी में चयन हो गया है. वह कानपुर में है. और देव कोटा में अपने मैडिकल प्रवेश टैस्ट की तैयारी में व्यस्त है.

अब शैली से मिलने की मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी. यों लगने लगा मानो दुख व नफरत के काले मेघ छंट गए और खुशियों की छांव फिर से हमारे दिलों पर दस्तक देने को तैयार है. शायद आंसू और खुशी के इस सामंजस्य का नाम ही जिंदगी है.

अब तो मेरा पूरा ध्यान ही शैली पर केंद्रित होने लगा. फिर फोन मिलाया. यह जानने के लिए कि उस के पति कैसे हैं, बच्चे कितने हैं, कितने बड़े हो गए.

पर शैली ने फोन पर कुछ भी बताने से मना कर दिया. मात्र इतना कहा, ‘‘अभी इसे राज ही रहने दो. मिलने पर सब बताऊंगी.’’

अपनी कल्पना में खोई मैं 2 बच्चों के हिसाब से उन के लिए कुछ उपहार आदि खरीद लाई.

अगले दिन शशांक के औफिस जाने के बाद मैं ने अपना पुराना वह अलबम निकाला जो शादी के समय दादी ने मेरे कपड़ों के साथ रख दिया था. इस में शैली और मेरी बचपन की कई तसवीरें थीं. उन्हें देखते ही मुझे वर्षों पुराने उन रंगों की स्मृति हो आई जो कभी मेरे जीवन में गहरे थे व कभी उन रंगों की चमक फीकी पड़ गई थी. उन यादों के अलगअलग रूप मेरे सामने चलचित्र की भांति आते जा रहे थे.

कितना प्यारा था वह बचपन, जो कभी तो मां की साड़ी के आंचल में छिप जाता था और कभी झांकने लगता था दादी की प्रेरणादायक कहानियों के माध्यम से.

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शैली और प्रिया की जोड़ी पूरे स्कूल में मशहूर थी. हमारे तमाम रिश्तों में हमारी दोस्ती का रिश्ता ही इतना प्रगाढ़ और अनमोल था कि स्कूल में, चाहे अध्यापिका हो अथवा सहेलियां, हम दोनों का नाम जोड़ कर ही बोला जाता था -शैलप्रिया.

शैली, जितनी बाहर से खूबसूरत सी, उस से कहीं अधिक वह दिल से भी सौंदर्य की धनी थी. हमारा बचपन ढेर सारे अनुभवों और किस्सों से भरा था. वह अपने मातापिता की इकलौती लाड़ली थी और मेरे दोनों छोटे भाइयों को वह राखी बांधती थी.

हमारा घर भी पासपास ही था. उस के पापा यहीं दिल्ली में ही किसी गैरसरकारी कंपनी में कार्यरत थे व उस की मां गृहिणी थीं, जबकि मेरे पापा का अपना कारोबार था और मम्मी अध्यापिका थीं. कालेज में भी हमारे विषय समान थे और कालेज भी हम दोनों का एक ही था. हम ने बीए किया था. उस के बाद हमारी दोस्ती पर पता नहीं किस की बुरी नजर लग गई जो हम एकदूसरे से 20 सालों से जुदा हैं. सोचतेसोचते ही मेरी आंखें नम हो आईं, फिर भी विचारों की झड़ी दिलोदिमाग में गोते खाती रही.

कुदरत व समय का हमारे जीवन से गहरा नाता है. हम तो इस मायावी दुनिया में मात्र माध्यम बनते हैं. जबकि कुदरत बड़ी करामाती है जो किस का समय, किस का काम, कहां, कैसे बांट दे, कोई नहीं जानता. फिर भी हम बुनते हैं सपनों के महल.

उस दिन भी जिंदगी ने एक रास्ता तय किया था जिस की सुखद फूलोंभरी राह पर मैं ने चलने के सपने देखे. लेकिन कुदरत ने उस दिन मेरा समय यों पलट दिया मानो मेरे अहं पर किसी ने भयानक प्रहार किया हो.

अगले भाग में पढ़ें- क्या हुआ जो रोहित ने उसे पसंद कर लिया…

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सैकंड चांस: क्या मिल पाया शिवानी को दूसरा मौका

रोज की तरह ठीक 6 बजे अलार्म की तेज आवाज गूंज उठी. उनींदी सी शिवानी ने साइड टेबल पर रखे अलार्म क्लॉक को बंद किया और फिर से करवट बदल कर सो गई. बगल के कमरे में अवनीश भी गहरी नींद में सोया हुआ था. अलार्म की आवाज सुन कर वह कभी नहीं उठता. शिवानी ही उसे उठाती है. पर आजकल शिवानी को उठने या उठाने की कोई हड़बड़ी नहीं होती. पिछले सप्ताह ही देश में प्रधानमंत्री ने तेजी से फैलते कोरोना वायरस के मद्देनजर पूरे देश में 21 दिन के लौकडाउन की घोषणा जो कर दी थी. अब वह वर्क फ्रॉम होम कर रही थी.

शिवानी के लिए वर्क फ्रॉम होम का मतलब था आनेजाने में बर्बाद होने वाले समय को नींद पूरी करने में लगाना.

शिवानी करीब 8 बजे उठी और फ्रेश हो कर नाश्ता बनाने लगी. अवनीश अब तक टांग पसार कर सो रहा था. शिवानी दोतीन बार अवनीश के कमरे का चक्कर लगा आई थी. आज उसे सोता हुआ अवनीश बहुत ही प्यारा और सीधासाधा सा लग रहा था. अपनी सोच पर उसे खुद ही हंसी आ गई. सीधासाधा और अवनीश, हो ही नहीं सकता.

पुरानी बातें याद आते ही उस का मन कसैला हो उठा. पिछले दोतीन महीने से दोनों के बीच कुछ भी अच्छा नहीं चल रहा था. शिवानी तो दिल से तलाक का फैसला भी ले चुकी थी. इसी वजह से उस ने अलग कमरे में सोना शुरू कर दिया था. मगर तलाक की बात उस ने अब तक अवनीश से कही नहीं थी. वह कहीं न कहीं खुद को पूरी तरह से श्योर कर लेना चाहती थी कि वाकई अवनीश बेवफा है.

नाश्ता बनाते समय शिवानी की सहेली प्रिया का फोन आ गया,

“हाय कैसी है शिवानी डार्लिंग?” प्रिया की चहकती हुई सी आवाज सुन कर शिवानी के चेहरे पर मुस्कान खिल गई.

“अच्छी हूं. तू बता.”

“बस अच्छी हूं ? इतना शानदार मौका है. पूरे दिन तुमदोनों को घर में साथ रहने का मौका मिल रहा है और यार तुम दोनों के मिलन की पहली सालगिरह भी तो है. पर तेरी आवाज में तो कोई तड़प, कोई जोश नहीं ?”

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“ओह सॉरी मैं तो भूल ही गई थी.” शिवानी सकपकाती हुई सी बोली.

“सॉरी ? अरे यार इस में सॉरी की क्या बात है? याद कर मेरे प्रमोशन की वह पार्टी. जब तुम दोनों ने पहली दफा एकदूसरे को देखा था और फिर देखते ही रह गए थे. कई महीने डेटिंग करने और एकदूसरे को अच्छी तरह समझने के बाद तुम दोनों ने शादी का फैसला लिया था. तुम्हारे इस फैसले पर सब से ज्यादा खुश मैं ही थी.”

“मगर यार आज मुझ को अपने इस फैसले पर ही अफसोस होने लगा है.” शिवानी की आवाज में दर्द उभर आया था.

“क्या ? यह क्या कह रही है शिवानी? कोई वजह ?” प्रिया भी गंभीर हो उठी थी.

“वजह बहुत बड़ी नहीं. दरअसल मुझे पता लगा कि अवनीश की जिंदगी में एक और लड़की है जिसे वह बहुत प्यार करता है. यह बात मुझे अवनीश के ही ऑफिस कूलीग और दोस्त पीयूष ने बताई. पीयूष एकदो बार अवनीश के साथ घर भी आ चुका है और अवनीश पियूष से अपनी हर बात शेयर भी करता है. ऐसे में मेरे लिए इस बात पर विश्वास न करने की कोई वजह नहीं थी.”

“अरे यार यह सब क्या कह रही है तू? अवनीश ऐसा नहीं हो सकता.”

“शायद ऐसा नहीं या फिर ऐसा हो. इसलिए कोई बड़ा फैसला लेने से बच रही हूं. बस दूरी बढ़ा ली है. अपने ही घर में हमदोनों अलगअलग कमरों में रहते हैं. अब तक अलगअलग समय पर ऑफिस जाते थे ताकि एकदूसरे के साथ कम से कम वक्त गुजारना पड़े. उस ने रात की शिफ्ट ज्वाइन की और मैं दिन में जाती थी. जरूरी बातचीत के अलावा हमारे बीच कोई कनेक्शन नहीं है. बस यही कहानी है फिलहाल मेरी जिंदगी की. पर अब इस लॉकडाउन में न चाहते हुए भी हमें पूरे दिन एकदूसरे को सहना पड़ेगा. एक ही छत के नीचे रहना होगा.”

“ऐसा क्यों कह रही है? हो सकता है लॉकडाउन के ये दिन तेरी जिंदगी को फिर से खूबसूरत बना जाएं. चल इसी विश के साथ अब फोन रख रही हूं. लगता है मेरे पति महोदय उठ गए हैं.”

“ओके बाय डियर.” प्रिया का फोन रख कर शिवानी मुड़ी तो देखा सामने अवनीश मास्क लगाए खड़ा है.

“जरा नीचे ग्राउंड में वाक कर के आता हूं. थोड़ी देर मनीष से बातें भी करनी हैं. कुछ ऑफिशियल काम है.”

“ओके” सपाट आवाज में जवाब दे कर शिवानी फिर से किचन के काम में लग गई.

नाश्ता बनाते हुए उसे याद आ रहा था वह दिन जब सब जानने के बाद भी उस ने दिल की तसल्ली के लिए अवनीश से पूछा था,” रागिनी नाम है न उस का, तुम्हारी फ्रेंड का, क्लोज फ्रेंड का जो हर समय तुम्हारे साथ रहती है?”

शिवानी के कहने के अंदाज से अवनीश समझ गया था कि उस मतलब क्या है. अपनी नजरें फेरता हुआ बोला था उस ने,” हां मेरी फ्रेंड है. क्लोज फ्रेंड. वैसे किस ने बताया तुम्हें?”

अवनीश की बेशर्मी से आहत शिवानी फूट पड़ी थी,”किसी ने भी बताया, मुझे उस से कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं बस यह जानना चाहती हूं कि ऐसा है या नहीं?”

“ऐसा है मगर इस में क्या बात हो गई? तुम्हारे मेल फ्रेंड्स नहीं हैं क्या?”

“मेल फ्रेंड्स हैं पर कोई क्लोज नहीं.”

“अरे यार वह मेरी स्कूल फ्रेंड है. हम स्कूल से एकदूसरे के क्लोज हैं. चारपांच महीने हुए, उस ने ज्वाइन किया तो हमें एकदूसरे की कंपनी मिल गई.” अवनीश ने सफाई दी.

“कंपनी…. बहुत अच्छे. तुम उस के इतने ही क्लोज थे तो उसी से शादी कर लेते न. मेरी जिंदगी क्यों खराब की?” कहते हुए शिवानी ने गुस्से में अपने हाथ में पकड़ा हुआ गिलास जमीन पर दे मारा.

शिवानी के तेवर देख कर अवनीश चिढ़ता हुआ बोला,” खबरदार मेरे ऊपर ऐसे गंदे इल्जाम लगाने की सोचना भी मत. आज के बाद तुम ने रागिनी और मुझे ले कर कोई कहानी गढ़ी तो अच्छा नहीं होगा.”

कह कर वह पैर पटकता हुआ बाहर चला गया और शिवानी देर तक सिसकसिसक कर रोती रही. वह दिन था और आज का दिन, दोनों के बीच एक अदृश्य दीवार खड़ी हो गई जिसे तोड़ने का प्रयास न तो अवनीश ने किया और न शिवानी ने.

दोनों छोटीछोटी बातों पर झगड़ने लगे. शिवानी को भी हर बात पर गुस्सा आ जाता. अवनीश भी चिल्लाचिल्ला कर जवाब देता. कितनी ही दफा दोनों के बीच भारी लड़ाई हो चुकी है. एकदूसरे के लिए दिल में कोई भाव नहीं रह गए हैं. बस अपने इस रिश्ते को किसी तरह ढोए जा रहे हैं .आपस में जरूरत की बातें करते हैं और अपनेअपने कमरे में अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त रहते हैं.

कई बार शिवानी ने अवनीश के फोन पर रागनी की कॉल आती देखी. काफी देर तक अवनीश को उस से हंसहंस कर बातें करते भी देखा.

नाश्ता बना कर शिवानी घर की सफाई करने लगी. अवनीश अब तक लौटा नहीं था. काफी समय से उस ने अवनीश के कमरे का रुख भी नहीं किया था. कामवाली ही सफाई कर के चली जाती थी. वैसे भी ऑफिस से थक कर आने के बाद उसे अपने कमरे और किचन के अलावा कहीं जाने की सुध नहीं रहती थी.

पर आज कुछ सोचकर शिवानी अवनीश के कमरे में घुस गई.

उम्मीद के अनुरूप अवनीश का कमरा बुरी तरह बिखरा हुआ मिला. कमरा साफ करते हुए शिवानी को वह दिन याद आ गया जब पहली दफा वह अवनीश के घर गई थी. अवनीश उस की खातिर किचन में कुछ बनाने घुसा और शिवानी ने पूरा कमरा साफ कर दिया. अवनीश को शिवानी की यह हरकत बहुत पसंद आई थी.

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आज अवनीश का कमरा साफ करते हुए शिवानी को निचले दराज में अपनी छोटी सी फोन डायरी पड़ी मिल गई जिसे वह रख कर भूल गई थी. वैसे भी मोबाइल के इस समय में सारे कांटेक्ट फोन में ही सेव रहते हैं.‌

वह यूं ही डायरी पलटने लगी कि उसे अपनी कॉलेज फ्रेंड निशा का नंबर दिखा. वह खुशी से चहक उठी. निशा से बात करना उसे शुरू से बहुत पसंद था. पर इन सालों में जिंदगी इतनी व्यस्त हो गई थी कि निशा उस के दिमाग से निकल ही गई थी.

अब लौकडाउन के इन दिनों में समय की कमी नहीं तो क्यों न पुरानी सहेली से बातें हो जाए, सोचते हुए शिवानी अपने कमरे में आ गई और बिस्तर पर पसर कर निशा को फोन लगाने लगी.

“हाय शिवानी कैसी है डियर ? इतने साल बाद तेरी आवाज सुन कर मुझे कितनी खुशी हो रही है बता नहीं सकती.”

आई नो. हम दोनों की दोस्ती है ही इतनी प्यारी. यार तुझ से बात कर के दिल को बहुत सुकून मिलता है. तुझ से ज्यादा कोई नहीं समझता मुझे.”

कोई की बात न कर. तेरा मियां तो तुझे समझता ही होगा.” कहते हुए ठठा कर हंस पड़ी वह.

शिवानी की आवाज में थोड़ी सुस्ती आ गई,” अरे कहां यार, सहेली से बढ़ कर कोई नहीं होता. तू बता, तू कहां है आजकल ? कहां जॉब कर रही है?”

“मैं तो आजकल दिल्ली में हूं, एलजी मैं काम कर रही हूं.”

“क्या बात है यार, मैं भी दिल्ली में ही हूं और मेरे हसबैंड एलजी में ही तो काम करते हैं ”

“अच्छा क्या नाम है उन का ? किस पोजीशन पर हैं? मैं तो डेढ़ साल से यहां हूं.”

“मेरे हसबैंड 4 साल से एलजी में हैं. अवनीश नाम है उन का. अवनीश शेखर.”

ओ हो तो तू उस हैंडसम, डीसेंट और स्मार्टी अवनीश की बीवी है. यार मुझे तो जलन होने लगी तुझ से.”

“चुप कर. जलन की बात छोड़ और यह बता कि ऑफिस में वे किस वजह से मशहूर हैं? यार सच्चाई बताना. उन की कोई गर्लफ्रेंड भी है जिस के साथ वे घूमतेफिरते हैं?”

“यार गर्लफ्रेंड तो नहीं पर हां दोस्त जरूर है . रागिनी नाम है उस का. बहुत प्यारी दोस्ती है दोनों की. स्कूल के दोस्त हैं दोनों और हाल ही में रागिनी ने ऑफिस ज्वाइन किया तो उसे अवनीश की कंपनी मिल गई. करीब 10 साल बाद एकदूसरे से मिले थे वे. ज्यादा समय नहीं हुआ इस बात को.”

“पर क्या उन के बीच चक्कर नहीं चल रहा? शिवानी ने अपनी शंका जाहिर की तो निशा उबल पड़ी,

“क्या यार, शक्की बीवी वाली बातें मत कर. वह इतना डीसेंट बंदा है. उस के लिए कोई ऐसी बात सोच भी नहीं सकता. तूने कैसे सोच लिया?”

“मगर अवनीश का दोस्त पीयूष तो कुछ और ही कह रहा था. उसी ने बताया मुझे कि दोनों रिलेशनशिप में हैं. पीयूष गहरा दोस्त है अवनीश का तो मुझे लगा कि वह सच कह रहा होगा…”

“दोस्त ? यार 6 महीने हो चुके दोनों की दोस्ती टूटे. जितने गहरे दोस्त थे अब उतने ही गहरे दुश्मन है.”

सहेली की बातें सुन कर शिवानी को बहुत तसल्ली हुई. निशा ने आगे कहा,

“ऑफिस में पीयूष को छोड़ कर हर बंदा अवनीश की शराफत के गीत गाता है. कभी अवनीश ने रागिनी को उस तरह से टच भी नहीं किया. तू भी यार किस की बातों में आ गई.”

थोड़ा सोच कर निशा ने फिर कहा,

“तू रुक, मैं अभी कॉन्फ्रेंस कॉल कर के पियूष को भी इस में ऐड करती हूं. तुझे सब पता चल जाएगा. बात मैं करूंगी .. तू केवल सुनना.” निशा ने कहा तो शिवानी ने स्वीकृति दे दी,

निशा ने पीयूष का नंबर मिलाया, ” हाय पीयूष कैसे हो?”

“अच्छा हूं निशा तुम बताओ. आज हमें कैसे याद कर लिया?”

“हम तो सब को याद करते हैं. आप ही जरा उखड़ेउखड़े से रहते हैं.”

“क्या बात है आज बड़ी शायरी के मूड में हो.”

इसीतरह इधरउधर की कुछ बातें और ऑफिस से जुड़ी गॉसिप करते हुए निशा मेन मुद्दे पर आई,” यार पीयूष तुझे क्या लगता है, रागिनी कैसी लड़की है? उस पर विश्वास किया जा सकता है?”

“एक्चुअली रागिनी काफी फनी है. माहौल में रंग जमा देती है. ” उस ने जवाब दिया.

“…और यार यह रागिनी और अवनीश के बीच कुछ चल रहा है क्या ? हमेशा साथ ही दिखते हैं.”

“नहीं यार रागिनी और अवनीश के बीच कुछ हो ही नहीं सकता. बस दोस्त हैं दोनों. मैं जानता हूं अवनीश अपनी वाइफ से बहुत प्यार करता है.”

“मगर मैं ने सुना है कि तुम ने उस की वाइफ से कहा है कि इन दोनों के बीच कोई चक्कर चल रहा है.”

“अरे यार वह तो बस मस्ती में कहा था मैं ने ताकि उस के मन में अवनीश को ले कर शक पैदा हो जाए. अवनीश ज्यादा बनने लगा था न पर तुझे किस ने कहा?

अचानक पियूष चौंका तो निशा हंस पड़ी और बोली, अवनीश की बीवी  ने ही कहा. चल मैं तुझ से बाद में बात करती हूं. बट थैंक्स यार सच बताने के लिए.”

कह कर निशा ने कॉल काट दी और वापस शिवानी की तरफ मुखातिब हुई,” अब बता कैसा लग रहा है सच जान कर?”

शिवानी की आंखें भर आई थीं. रुंधे हुए कंठ से इतना ही कह पाई,” थैंक्स यार तूने आज मेरा बहुत बड़ा काम किया है. मुझे सच से वाकिफ कराया है.”

“तेरी तसल्ली के लिए रागिनी की पिक भी भेजती हूं. तू खुद समझ जाएगी कि उसे ले कर तेरे मन में इनसिक्योरिटी आने की जरूरत ही नहीं. बहुत फनी और प्यारी सी है रागिनी. गोलूमोलू टाइप. इसीलिए तो अवनीश को उस से बातें करने में मजा आता है. वह उस तरह की नहीं है जैसी तू सोच रही थी.” कहते हुए निशा ने शिवानी को रागिनी और अवनीश की ऑफिस ग्रुप वाली कुछ तस्वीरें भेजी.

शिवानी रागिनी की फोटो देख कर दंग रह गई. सांवली, खूब फैटी और थोड़ी कम हाइट वाली रागिनी हर फोटो में खिलखिला कर हंसती दिखी.

शिवानी देर तक बैठी रही. एक गलतफहमी ने किस कदर उस की जिंदगी नीरस और बोझिल बना दी थी. पीयूष की बात सुनने के बाद वह कितना शक करने लगी थी अवनीश पर. हर छोटीछोटी बात पर झगड़ने लगी थी. उस की केयर करनी छोड़ दी थी. नाहक ही कितनी दूरी बढ़ा ली थी उस ने. मगर अवनीश ने कभी भी उस से कड़ी शब्दों में बात नहीं की. न ही कभी कोई शिकायत किया या सफाई दी. बस खामोश हो गया था वह.

शिवानी ने अपने आंसू पोंछ लिए और उठ गई. आज वह अपने अवनीश के लिए कुछ उस की पसंद का बनाना चाहती थी. नहा कर उस की पसंद की ड्रेस पहनना चाहती थी. शरमा कर उस की बांहों में समा जाना चाहती थी. सच था कि वह अपने बिखर रहे रिश्ते को सेकंड चांस देना चाहती थी. समेट लेना चाहती थी खुशियां फिर से अपने दामन में.

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खुशियों का उजास: भाग 1- बानी की जिंदगी में कौनसा आया नया मोड़

“मम्मा… मम्मा…,” नन्हे की घुटीघुटी चीखें सुन कर मां बानी दौड़ीदौड़ी ड्राइंगरूम में आई, जहां वह अपने 4 साल के बेटे को आया की निगरानी में छोड़ कर गई थी. उस ने वहां जो दृश्य देखा, सदमे से उस की खुद की चीख निकल गई.

उस के सगे बड़े भाई और पिता कमरे में थे. भाई ने एक तकिए से नन्हे के मुंह को दबाया हुआ था, साथ खड़े पिता क्रोध से जलती लाल अंगारा आंखों से दांत पीसते हुए उस से कह रहे थे, “ज़ोर से भींच, और जोर से कि इस संपोले का काम आज तमाम हो ही जाए.”

एक क्षण को तो बानी में समझ ही नहीं आया कि वह क्या करे, लेकिन अगले ही पल वह भाई के हाथों से तकिया छीनते हुए जोर से चीखी, “बचाओ… बचाओ…” कि तभी बिजली की गति से एक लंबा व तगड़ा शख्स ड्राइंगरूम के खुले दरवाजे से कमरे में घुसा. उस ने भाई के हाथों से तकिया जबरन छीन कर एक ओर पटक दिया और नन्हे को उस के चंगुल से मुक्त करा बानी को थमा कर उस से बोला, “आप इसे ले कर भीतर जाइए. कमरे का दरवाजा बंद कर लीजिएगा. मैं इन से निबटता हूं.”

इस दौरान पिता उस की ओर मुखातिब हो चीख रहे थे, “पंडितजी ने कहा है, तूने हमारे घर पर अपने पाप की काली छाया डाल रखी है. तेरी वजह से हमारा घर फलफूल नहीं रहा. मेरी नौकरी नहीं रही. इस बड़के की नौकरी भी बारबार चली जाती है. छुटकी का रिश्ता नहीं हो रहा. तेरी और तेरे इस मनहूस की वजह से ही घर पर विपदा आई हुई है, कुलक्षणी.”

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वह खौफ़ और दहशत से थरथर कांपती हुई रोतेगर्राते नन्हे को अपने धड़कते सीने से चिपकाए अंदर के कमरे में जातेजाते थोड़ा ठहर कर पिता पर रोती हुई गरजी, “किस के कहने पर आप एक नन्हे से बच्चे की जान लेने चले आए? यह भी नहीं सोचा कि यह आप का अपना खून है. मैं ने अपनेआप अपनी ज़िंदगी बनाई है. खुद के दम पर पढ़लिख कर आज मैं इस मुकाम पर पहुंची हूं कि मैं अपने बेटे को एक बढ़िया जिंदगी दे पा रही हूं. एक बेहतरीन ज़िंदगी जी रही हूं. और आप कहते हैं, मेरे पाप की काली छाया आप लोगों पर पड़ रही है.

“आप की परेशानियों का कारण मैं नहीं, आप खुद हैं. आप और भैया को अपने दोस्तों के साथ अड्डेबाजी और गांजे से फुरसत मिले, तब तो आप लोग किसी नौकरी में टिकेंगे. आप दोनों का काहिलपना आप की समस्या की वजह है, न कि इतनी दूर बैठी मैं.” यह कह कर उस ने कमरे में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया, और नन्हे को बेहताशा चूमती हुई, अर्धविक्षिप्त सी आंसू बहाती, मुंह ही मुंह में बुदबुदाई, ‘मेरा बेटा… मेरा सोना… मेरा राजा… आज अगर वह लड़का समय पर नहीं आता तो क्या होता? तुझे कुछ हो जाता, तो मैं कहीं की न रहती.’

बाहर से उस युवक और भाई के बीच हाथापाई की आवाजें आ रही थीं. पिता गुस्से में उस युवक पर गरज रहे थे, “तू होता कौन है हमारे निजी मामलों में टांग अड़ाने वाला. यह मेरी बेटी है. मैं चाहे जो करूं.”

उधर शायद एक बार को उस का भाई उस युवक की गिरफ्त से छूट उस के बंद कमरे के दरवाजे को पीटने लगा, लेकिन शायद तभी उस युवक ने फिर से उसे काबू कर लिया. करीब दस मिनट तक पिता का चीखनाचिल्लाना जारी रहा.

बानी पत्ते की तरह थरथर कांपती, तेजी से धड़कते दिल के साथ नन्हे को कलेजे से चिपकाए बैठी थी, कि तभी उस ने सुना, वह युवक तेज आवाज में पापा को धमका रहा था, “आप दोनों यहां से फौरन नहीं गए, तो मुझे मजबूरन सौ नंबर डायल करना पड़ेगा. इसलिए बेहतर यही होगा कि आप दोनों यहां से फौरन चले जाएं. यह मत समझिए कि वे अकेली हैं. मैं यहां जस्ट बगल वाले फ्लैट में रहता हूं, इसलिए अगली बार यहां पैर रखने से पहले दस बार सोच लीजिएगा. अगर आप लोगों ने फिर से इन्हें या बच्चे को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की, तो मैं आप के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाने में बिलकुल नहीं हिचकूंगा. आप इन के पिता हैं, उस का लिहाज कर मैं अभी कुछ नहीं कर रहा.”

कुछ ही देर में बाहर सन्नाटा छा गया. शायद पिता और भाई चले गए थे. तभी उस युवक ने उस का दरवाजा खटखटाया, “दरवाजा खोलिए, वे लोग चले गए हैं.”

डरीसहमी बैठी बानी ने अपनी गोद में सोए नन्हे को पलंग पर लिटा दिया और उठ कर दरवाजा खोला.

“आप ऐन समय पर नहीं आते तो आज अनर्थ हो जाता. मैं आप का किन शब्दों में शुक्रिया अदा करूं, मेरे पास शब्द नहीं हैं. थैंक यू, थैंक यू सो वैरी मच,” उस ने हाथ जोड़ते हुए उस युवक से कहा, “आप बगल वाले फ्लैट में रहते हैं, मैं ने आप को पहले तो कभी नहीं देखा.”

“जी, मैं पिछले हफ्ते ही मुंबई से ट्रांसफ़र हो कर यहां आया हूं. मैं उमंग हूं, एक डाक्टर हूं. आप का गुड नेम, प्लीज.”

“मैं बानी हूं.”

“आप क्या करती हैं बानीजी?”

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“जी, मैं अभिज्ञान यूनिवर्सिटी में मैथ्स की लैक्चरर हूं.”

“लैक्चरर, ओह, ओके.”

“चलिए बानीजी, मैं अपने बाहर के कमरे में खिड़की के पास ही बैठता हूं. रात को वहीं सोऊंगा भी. कभी भी आधी रात को भी कोई जरूरत हो तो आप बेहिचक एक मिस्डकौल दे दीजिएगा. मैं हाजिर हो जाऊंगा. वैसे तो अब वे लोग दोबारा आने की ज़ुर्रत नहीं करेंगे, फिर भी आप मेरा नंबर ले लीजिए.”

“जी, एक बार फिर से आप का बहुतबहुतबहुत शुक्रिया, डाक्टर उमंग.”

“अरे, हम पड़ोसी हैं. इन शुक्रिया और थैंक्स के चक्कर में मत पड़िए. चलिए, दरवाजा ठीक से बंद कर लीजिएगा.”

“जी, बहुत अच्छा.”

उस रात बानी को बहुत देर तक नींद नहीं आई. नन्हे को सीने से लगाए हुए कब बरबस उस के जेहन में बीते दिनों की मीठीकसैली यादों की गिरहें एकएक कर खुलने लगीं, उसे एहसास तक न हुआ.

‘वह एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार में कट्टर, पुरातनपंथी मान्यताओं वाले अल्पशिक्षित मातापिता की बेटी थी. उस का एक बड़ा भाई और एक छोटी बहन थी. पिता निठल्ले स्वाभाव के थे. कहीं टिक कर नौकरी नहीं करते. काम के बजाय यारीदोस्ती और गांजे का नशा करने में उन का मन ज्यादा रमता. आएदिन नौकरी छोड़ देते. घर में हर वक्त तंगी ही रहती. सो, घरखर्च चलाने के लिए मां लोगों के घरों में खाना बनातीं.

मां और पिता दोनों सुबह जल्दी घर से निकलते और देररात घर में घुसते. उपयुक्त नियंत्रण और मार्गदर्शन के अभाव में उन की बड़ी संतान, उन का एकमात्र बेटा ज्यादा नहीं पढ़ पाया. उस ने 10वीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी. वह साड़ियों के एक शोरूम में काम करने लगा.

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वह शुरू से ही कुशाग्रबुद्धि थी, हमेशा पढ़ाई में अच्छा परिणाम देती और सीढ़ीदरसीढ़ी आगे बढ़ती गई. अपनी कड़ी मेहनत के दम पर उस ने मैथ्स जैसे कठिन विषय में एमएससी कर नैट की प्रतियोगी परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली और पीएचडी पूरी कर स्थानीय यूनिवर्सिटी में लैक्चरर बन गई.

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खुशियों का उजास: भाग 2- बानी की जिंदगी में कौनसा आया नया मोड़

नन्हे के पिता पार्थ से उस की मुलाकात उसी कालेज में हुई. वह उस से लगभग 3 साल सीनियर था. वह भी यूनिवर्सिटी के मैथ्स डिपार्टमैंट में ही लैक्चरर था.

कालेज के स्टाफरूम में बानी की टेबल पार्थ की टेबल के साथ ही लगी हुई थी. सो, दिनभर साथ उठते बैठते दोनों बहुत अच्छे दोस्त बन गए, इतने कि घर जा कर भी दोनों एकआध बार एकदूसरे से बात किए बिना न रहते. उन के प्रेम का बिरवा उन की प्रगाढ़ दोस्ती की माटी में फूटा.

वह यह सब सोच ही रही थी कि तभी घर के बाहर गली के चौकीदार के डंडे की खटखटाहट उसे सुनाई दी. उस के सीने से चिपका नन्हे कुनमुनाया. गले में उमड़ती रुलाई के साथ बानी ने सोचा, ‘उफ़, पार्थ तुम कहां चले गए अपनी बानी को छोड़ कर.’ और वह फिर से एक बार पार्थ के साथ बिताए हंसीं दिनों की मीठी यादों के प्रवाह में डूबनेउतराने लगी.

उस दिन वह और पार्थ कालेज की लाइब्रेरी के लिए मैथ्स की कुछ किताबें खरीदने एक बुक एग्ज़िबिशन में आए थे. किताबें खरीदने के बाद पार्थ उसे एग्ज़िबिशन ग्राउंड के साथ लगे पार्क में ले गया, जहां पार्क के एक सूने कोने में रंगबिरंगे गुलाब के पौधों के बीच लगी बैंच पर बैठ उसे एक सुर्ख गुलाब का खूबसूरत फूल तोड़ कर उसे थमाते हुए अनायास उस ने उस से कहा, ‘बानी, हम दोनों बहुत अच्छे दोस्त बन गए हैं. तुम्हारे बिना जीने की सोच ही मुझे घबराहट से भर देती है. घर पर भी तुम से बात करने की इच्छा होती रहती है. मन करता है, तुम हर लमहा मेरी आंखों के सामने रहो. अब मैं अपनी जिंदगी का हर पल तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूं. जिंदगी की आखिरी सांस तक तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं. मुझे रोमांटिक फिल्मी बातें करना नहीं आता. सीधेसाधे शब्दों में तुम से पूछ रहा हूं, मुझ से शादी करोगी?’

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इतने दिनों की करीबी से बानी भी पार्थ को बेहद पसंद करने लगी थी. सो, उस ने एक सलज़्ज़ मुसकान के साथ उसे इस विवाह प्रस्ताव के जवाब में अपनी सहमति दे दी.

दोनों के प्यार की दास्तां रफ्तारफ्ता आगे बढ़ चली.

उसे आज तक अच्छी तरह से याद है, उस दिन उस ने अपनी मां और पिता को पार्थ से अपनी शादी करने की इच्छा के बारे में बताया, लेकिन उस की अपेक्षा के विपरीत मां और पापा उस के एक विजातीय लड़के से विवाह की इच्छा पर बुरी तरह भड़क गए. उस के मातापिता दोनों ही बेहद पुराने रूढ़िवादी खयालों के थे. उन्हें अपनी बेटी का हाथ किसी अयोग्य, अल्पशिक्षित सजातीय पात्र के हाथ में देना मंजूर था, लेकिन पार्थ जैसे सुशिक्षित, सुयोग्य मगर विजातीय पात्र के हाथ में देना गवारा न था. बानी को एहसास था कि उस की जाति में उस जैसी निम्नमध्यवर्गीय व अल्पशिक्षित परिवार की लड़की को पार्थ जैसा योग्य और उच्चशिक्षित मैच मिलना मुश्किल ही नहीं, असंभव था.

सो, उस ने बहुत सोचविचार कर घर वालों की मरजी के खिलाफ़ जा कर पार्थ को अपना जीवनसाथी बनाने का फैसला ले लिया. एक दिन घर वालों को बिना बताए उस ने कुछ करीबी दोस्तों के समक्ष एकदूसरे को अंगूठी पहना कर सगाई कर ली. फिर 5 माह बाद कोर्ट मैरिज करने के लिए औपचारिक कार्यवाही भी कर डाली.

लेकिन, यदि कुदरती और इंसानी मंशाओं की मंजिल एक होती, तो दुर्भाग्य जैसी आपदा का वज़ूद न होता.

उन दिनों कोविड की बीमारी का प्रकोप चल रहा था. पार्थ को कोविड का भयंकर संक्रमण हुआ. पार्थ ने लापरवाही में शुरुआत में ही कोविड का इलाज किसी योग्य डाक्टर से नहीं करवाया. उस की बीमारी बिगड़ती गई और जब तक उस के घर वाले चेते, उस की बीमारी भयावह रूप लेते हुए उस के सभी अंगों को प्रभावित कर चुकी थी.

लगभग 20 दिनों तक कोविड से जूझने के बाद वह अपनी अंतिमयात्रा पर निकल पड़ा.

भाग्य का खेल, उस की मौत के बाद बानी को पता चला कि पार्थ का अंश उस की कोख में पल रहा था. बानी की दुनिया उलटपुलट हो गई. उस के पांवतले जमीन न रही.

कोविड के प्रकोप के बाद पूरे देश में कंप्लीट लौकडाउन चल रहा था. एक तरफ घर से निकलने की बंदिश, दूसरी ओर प्राइवेट क्लीनिकों के डाक्टरों ने मैडिको-लीगल कारणों से उस के अनमैरिड होने की वजह से अबौर्शन करने के लिए मना कर दिया और उसे उस के लिए उस से सरकारी अस्पताल में जाने को कहा. परंतु सरकारी अस्पताल में कोविड-19 के संक्रमण के खतरे को देखते हुए वह वहां नहीं गई. इन सब की वजह से उस का गर्भ 3 माह का होने को आया. सो, उसे विवश हो अपने गर्भ को रखने का फैसला लेना पड़ा.

इधर प्रैग्नैंसी के लक्षण जाहिर होते ही उस के मातापिता ने उस के खिलाफ़ मोरचाबंदी कर ली. वे दिनरात उसे बिनब्याही मां बनने पर कटु ताने और व्यंग्यबाण सुनाते. परेशान हो कर बानी ने एक दिन चुपचाप मांबाप का घर छोड़ दिया और अपनी यूनिवर्सिटी के पास किराए पर घर ले कर रहने लगी. यूनिवर्सिटी की बढ़िया नौकरी थी, आर्थिक रूप से वह ख़ासी मजबूत थी, तो उसे अकेले रहने में कोई खास दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ा.

समय अपनी चाल से चलता गया. नियत समय पर बानी ने एक बेटे को जन्म दिया.

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बानी की नौकरी बदस्तूर जारी थी. नन्हे 4 बरस का होने आया. लेकिन इतना समय गुजर जाने पर भी उस के बिनब्याही मां बनने पर पिता और भाई का गुस्सा कम न हुआ. उन के खानदानी पंडितजी ने आग में घी डालते हुए उसे उन के लिए अपशगुनी करार दिया था. उस की छोटी बहन उस के संपर्क में थी. उस के माध्यम से उसे अपने घर की खबरें मिलती रहती थीं. कि तभी उसे अपने विचारों से नजात दिलाते हुए झपकी आ गई और उस का क्लांत तनमन नींद की आगोश में समा गया.

अगली सुबह जब बानी उठी, तो नन्हे तेज बुखार से तप रहा था. वह उसे ले कर डाक्टर के यहां ले जाने के लिए घर से निकल ही रही थी कि डाक्टर उमंग अपने घर के बाहर चहलकदमी करते हुए मिल गए.

“हैलो, गुडमौर्निंग, बानी. सुबहसवेरे कहां चल दीं?”

“नन्हे को बुखार आ रहा है. रातभर बुखार में भुना है. इसे डाक्टर के यहां ले जा रही हूं.”

“अगर आप चाहें तो मैं उसे एग्जामिन कर सकता हूं. मैं ने शायद आप को बताया नहीं, मैं यहां विनायक चिल्ड्रंस हौस्पिटल में पीडियाट्रिशियन हूं.”

“ओह, फिर तो आप प्लीज़ इसे एग्ज़ामिन कर लीजिए डाक्टर. आइए डाक्टर, प्लीज़, भीतर आ जाइए.”

डाक्टर उमंग ने नन्हे को एग्जामिन करने के बाद बानी से कहा, “चिंता की कोई बात नहीं है. कल की घटना से वह बेहद शाक में है. उसे कुछ मैडिसिन्स और इंजैक्शन लगाने पड़ेंगे.”

नन्हे को दवाई दे कर और इंजैक्शन लगाने के बाद वे जाने के लिए उठे ही थे कि बानी बोल पड़ी, “डाक्टर, चाय पी कर जाइएगा.”

चाय पी कर शाम को नन्हे का चैकअप करने के लिए घर आने का वादा कर के डाक्टर उमंग अपने घर चले गए.

आगे पढ़ें- करीब एक महीने बाद उस दिन भी…

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खुशियों का उजास: भाग 3- बानी की जिंदगी में कौनसा आया नया मोड़

अगले एक माह तक डाक्टर उमंग नन्हे को एग्जामिन करने सुबहशाम उस के घर आते रहे. इस अवधि में डाक्टर उमंग और बानी के मध्य बहुत अच्छी फ्रैंडशिप हो गई.

करीब एक महीने बाद उस दिन भी डाक्टर उमंग बानी के यहां बैठे थे कि तभी बानी को अपनी यूनिवर्सिटी की परीक्षाओं के लिए मैथ्स के प्रश्नपत्र बनाते देख वे तनिक मुसकराते हुए बोले, “बानी, आप ने इतने मुश्किल सब्जैक्ट में कैरियर कैसे बनाया? मुझे तो मैथ्स शब्द से अभी तक डर लगता है.”

बानी यह सुन कर खिलखिला कर हंस दी, बोली, “ओह डाक्टर उमंग, मुझे यह सब्जैक्ट इतना चैलेंजिंग लगता है कि क्या बताऊं, किसी मुश्किल सवाल को हल करने की खुशी अनोखी होती है, डाक्टर. आप को याद है, आप ने कैसा महसूस किया था जब आप ने पहली बार साइकिल चलानी सीखी थी. आप बिलकुल वही फ़ील करते हैं. और किसी डिफिकल्ट क्वेश्चन को सौल्व करने की खुशी आप को अपनी क्षमता में जबरदस्त सैल्फ कौन्फिडैंस देती है.”

“ओह, यह बात है. अपनी बात बताऊं तो क्या आप विश्वास करेंगी कि मैथ्स के टीचर की क्लास में घुसते ही उन के डर से मेरे दिल की धड़कन तेज हो जाया करती थी. टैंथ क्लास तक हमारे मैथ्स टीचर मुझे मैथ्स का होमवर्क पूरा कर के नहीं लाने पर पूरी क्लास के सामने मुरगा बना दिया करते थे,” डाक्टर उमंग ने जोर से ठहाका लगाते हुए बताया.

“मुरगा और आप डाक्टर,” यह कहते हुए बानी भी खिलखिला कर हंस दी.

वक्त के साथ बानी और उमंग की दोस्ती गहराती गई.

डाक्टर उमंग को बानी के संपर्क में आए ढाईतीन साल बीत चले.

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इतने से समय में बानी ने उमंग के दिल में अपनी एक खास जगह बना ली थी. डाक्टर उमंग बानी से 2 साल छोटे थे. 33 वर्ष के होने को आए थे. उन के घरवाले उन से शादी के लिए कहकह कर हार गए थे. उन की मां उन्हें हर हफ्ते एक नई लड़की का फ़ोटो और बायोडाटा भेजती, लेकिन डाक्टर उमंग उन पर एक नजर तक न डालते. उन के अंतर्मन में तो बानी ने कब्ज़ा कर रखा था.

दिन बीतने के साथसाथ वे बानी की सहृदयता, शीशे जैसा साफ निश्छल दिल और मीठे स्वभाव के कायल हो उठे थे. जबजब दूसरे शहर में रहने वाली उन की मां फ़ोन पर उन से शादी की बात छेड़ती, बानी की सौम्य, गंभीर छवि उन के कल्पनाचक्षुओं के सामने आ जाती.

पिछली बार जब वे मां के पास गए थे और मां ने उन के विवाह की चर्चा छेड़ी, तो उन्होंने साफ़साफ़ लफ़्ज़ों में उन से कह दिया, “मां, मेरे लिए लड़की ढूंढना बंद करो. मेरी निगाह में एक लड़की है. मैं उसी से शादी करूंगा.”

मां के बहुत कुरेदने पर उन्होंने उन्हें बानी के बारे में खुल कर बताया.

उन की बात सुन कर मां जैसे आसमान से गिरीं. अपने इकलौते, सुयोग्य, कुंआरे डाक्टर बेटे की शादी एक बिनब्याही बच्चे वाली औरत से करने की बात उन के लिए सदमे से कम न थी. इस खबर से उन्हें गहन मानसिक आघात पहुंचा और उन का ब्लडप्रैशर शूट कर गया. वे पलंग पर आ गईं.

मां की यह हालत देख उमंग बेहद पसोपेश में थे. जिंदगी के इस मुकाम पर पहुंच वे बानी के बिना अपनी भावी जिंदगी की कल्पना तक नहीं कर सकते थे. सो, उन्होंने सोचा कि वे अपने घर जा कर बानी से आर्य समाज में शादी कर उसे दुलहन बना कर अपने घर ले जाएंगे. एक बार बानी से शादी हो जाए, तो उसे देख कर मां के पास उसे स्वीकार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होगा. बानी अपनी नर्मदिली और मृदु स्वभाव से देरसवेर उन का दिल जीत ही लेगी. और वे वापस अपने शहर आ गए.

अपने घर पहुंच कर उमंग शाम को बानी के घर गए और फ़रमाइश कर रात का डिनर उस के साथ किया.

रात के साढ़े 10 बजने को आए थे, लेकिन आज वे उठने का नाम नहीं ले रहे थे. थोड़ी ही देर में नन्हे भी सो गया.

उस के सोते ही उमंग ने बानी से कहा, “बानी, आज मैं बिना किसी लागलपेट के आप से एक खास बात कहना चाहता हूं. मैं आप को बेहद पसंद करता हूं और जिंदगी का बाकी का सफ़र आप के साथ काटना चाहता हूं. मेरी मां सख्त बीमार है. उन की वजह से ही मैं यह शादी इतनी जल्दी करना चाहता हूं. मैं कल या ज्यादा से ज्यादा परसों आर्य समाज में आप से शादी करना चाहता हूं. एक बार यह शादी हो जाए तो मां को हमारे इस रिश्ते को ऐक्सेप्ट करना ही होगा.”

उमंग के इस प्रस्ताव से हतप्रभ बानी उमंग से बोली, “यह आप क्या कह रहे हैं उमंग? शादी, आप से, और वह भी कल या परसों?”

“हां, कल या परसों. मां बिस्तर पर हैं, लेकिन मुझे पूरा पूरा यकीन है कि आप को बहू के रूप में देख कर वह फिर से हिरण हो उठेंगी.”

“उमंग, आप ने तो मुझे दुविधा में डाल दिया. मेरा पास्ट जान कर भी क्या वे मुझे ऐक्सेप्ट कर लेंगी? नहीं, नहीं, मैं आप से शादी करने की सोच भी नहीं सकती.”

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“चलिए, मैं आप की दुविधा आसान कर देता हूं. आप मुझे यह बताइए, क्या आप किसी भी वजह से मुझे नापसंद करती हैं?”

“नहींनहीं, उमंग, आप इतने अच्छे हैं, आप को नापसंद करने का तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता.”

“तो फिर दिक्कत क्या है?”

“मेरा पास्ट, आप से 2 साल बड़ी हूं, ऊपर से एक बच्चे की बिनब्याही मां भी.”

“तो क्या हुआ? आप दोनों की सगाई हो चुकी थी और आप दोनों शादी करने वाले थे. अब अगर आप के भावी पति की मौत हो गई तो इस में आप का क्या कुसूर?”

“नहींनहीं उमंग, अभी भावनाओं में बह कर आप मेरा हाथ थाम लेंगे, लेकिन वक्त के साथ जब हमारे अपने बच्चे होंगे तो शायद आप नन्हे को अपने बच्चे जैसा प्यार नहीं कर पाएंगे.”

“ओह बानी, इन फुजूल की आशंकाओं के चलते मेरा दिल मत तोड़िए.”

“उमंग, यह फुजूल की शंकाएं नहीं, वरन प्रैक्टिकल रियलिटी है जिस से आप मुंह मोड़ रहे हैं.”

“बानी, अब आप और नन्हे मेरी लाइफ़ का एक हिस्सा बन चुके हैं. मैं आप दोनों के बिना जीने की सोच तक नहीं सकता. चलिए, एक बात बताइए, क्या आप अब मेरे बिना जी सकती हैं? बताइए बानी, उधर मां का ब्लडप्रैशर खतरनाक तरीके से हाई हुआ पड़ा है. मुझे आप का निर्णय सुनना है. इतने वर्षों तक हम ने साथसाथ जिंदगी की हर परिस्थिति का मुकाबला साथ मिल कर किया है. क्या आप की जिंदगी में मेरी कोई अहमियत नहीं? बताइए बानी,” इस बार उमंग ने तनिक आवेश में आते हुए बानी के कंधों को झकझोरते हुए उस से पूछा.

“उमंग, मेरी जिंदगी में आप की बहुत अहमियत है. आप ने हर कदम पर मेरा बेशर्त साथ दिया है, लेकिन लोग तो यही कहेंगे न कि एक बिनब्याही मां ने अपने से छोटी उम्र के कुंआरे डाक्टर को फ़ांस लिया. दुनिया दस बातें बनाएगी.”

“अगर ऐसा है तो मुझ पर यकीन रखिए, मुझ से शादी के बाद कोई आप से कुछ भी उलटासीधा कहने की ज़ुर्रत न करेगा. चलिए तो बानी, हम कल ही आर्य समाज में शादी कर रहे हैं. ठीक है न,” उमंग ने बेहद अधीरता से बानी से कहा.

“मुझे थोड़ा वक्त चाहिए उमंग, मैं अपनी हां या न आप को मैसेज कर दूंगी.”

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‘ओ बानी, क्यों इतना सोच रही हैं? बिना बात के आप इतना परेशान हो रही हैं. आप को बस हां भर कहने की देर है. निश्चिंत रहिए. और सब बातें मैं संभाल लूंगा. मेरा यकीन करिए बानी, आप को कोई कुछ नहीं कहेगा.” यह कहते हुए उमंग ने बानी के दोनों हाथ थाम लिए और उस से बोले, “क्या आप को मुझ पर विश्वास नहीं है? मुझ पर भरोसा रखिए. मैं आप को बेहद चाहने लगा हूं. मैं किसी और के साथ जिंदगी गुज़ारने की सोच नहीं सकता. हां कह दीजिए बानी, प्लीज, आई बैग यू. आप ने हां नहीं की तो मैं मर जाऊंगा.” यह सुन बानी ने नम आंखों से उमंग के होठों पर अपना हाथ रख दिया.

उमंग ने बानी की हथेली हौले से चूम ली.

खुशियों के उजास से दोनों के चेहरे दमक उठे.

विद्रोह: भाग 3- घर को छोड़ने को विवश क्यों हो गई कुसुम

लेखिका- निर्मला सिंह

अब वह आंखें बंद कर के सोचने लगी, ‘काश, मेरी बहू रीता जैसी होती, कितनी अच्छी है, कितना खयाल रखती है अपनी सासू मां का, जितनी बार भी इस की सास मुझ से मिली हैं, हमेशा अपनी बहू की तारीफों के पुल ही बांधती रही हैं, लेकिन मुझे दुष्ट बहू मिली. अरे बहू का क्या दोष है, नालायक तो अपना बेटा है. यदि बेटा ठीक होता तो बहू की क्या मजाल कि गलत काम करे?’

ज्योंज्यों कानपुर नजदीक आ रहा था, कुसुम घबरा रही थी कि भैयाभाभी पता नहीं क्या सोचेंगे. सोचें तो सोचें, उस के पास उस रास्ते के सिवा कोई रास्ता नहीं था. वह बोझ नहीं बनेगी भैयाभाभी पर, कुछ ही दिनों में अलग छोटा सा मकान ले कर रहेगी, एक नौकरानी रखेगी. एक विचार की लहर बारबार उठ रही थी कि घर छोड़ कर मैं ने गलत काम तो नहीं किया.

फिर दिमाग ने कहा, तो फिर क्या करती, हर रोज मार खाती. और वह मारता रहता जब तक जायदाद पूरी अपने नाम न लिखवा लेता. एक बार, दो बार, तीन बार…उस ने अपनी दोबारा बनाई वसीयत पढ़ी, जिस की एक प्रति उसे अपनी बेटी के पास भी भेजनी पड़ेगी, वकील के पास तो एक कौपी रख आई थी.

कुसुम अब सोचने लगी, ‘आज मैं ने जो कुछ भी किया वह पहले ही कर लेना चाहिए था. छि:छि:, मां बेटे से मार खाए, इस से अच्छा मर न जाए. मैं अकेली पड़ गई थी, वे दोनों पतिपत्नी एक हो गए थे. शुक्र है कि रीता जैसी पड़ोसिन मिल गई, जिस ने मेरी मृतप्राय जिंदगी को सांसें दे दीं. रीता न होती तो मैं वसीयत भी न बदल पाती और घर से भाग भी नहीं पाती.’

इन्हीं विचारों का तानाबाना बुनते हुए कानपुर आ गया. हड़बड़ाते हुए कुसुम ने अटैची और पर्स पकड़ा, फिर स्वरूपनगर के लिए रिकशा कर के चल दी.

कुसुम निश्चय कर के अपने भाई देवेंद्र के घर पहुंच गई. दरवाजे पर लगी कौल बैल बजाई. थोड़ी देर में एक भोलीभाली, सुंदर सी बालिका ने दरवाजा खोला.

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‘‘आप कौन, किस से मिलना है?’’ मीठी आवाज में बच्ची ने पूछा.

‘‘बेटी, मैं लखनऊ से आई हूं. तुम्हारे पापाजी की बहन हूं. मेरा नाम कुसुम है.’’

‘‘अंदर आइए, दादीजी, अंदर आइए.’’

बच्ची के पीछेपीछे कुसुम अपना पर्स और अटैची संभालती हुई चल दी. बरामदे के साथ जुड़ा हुआ ही ड्राइंगरूम था. उस घर में कुसुम 5 वर्षों बाद आई थी. पिछली बार अपने पति के साथ कुसुम कार से आई थी. घरपरिवार वालों ने खूब इज्जत, मानसम्मान दिया था. भैयाभाभी ने तो आंखों पर ही बिठा लिया था.

कुसुम के भाई के घर का वातावरण उस समय भी शांत था और अब भी लगता है सुखमय और शांत है. कुसुम की विचारतंद्रा उस के भाई ने ही तोड़ी, ‘‘अरे कुसुम, तू इस समय अकेली कैसे? कु़छ फोन वगैरह तो कर देती?’’

‘‘वह भैया, बस आना पड़ा,’’ सूखा चेहरा, मरियल आवाज में दिए उत्तर से भाई सशंकित हो गया.

‘‘आना पड़ा, मैं समझा नहीं. खैर, चल पहले चाय पी ले, कुछ खा ले फिर बताना.’’

कुसुम की आवाज सुन कर बरामदे में ही सब्जी काटती हुई भाभी दौड़ कर आईं, पांव छुए फिर बैठ गईं. थोड़ी देर बाद चायनाश्ता भी आ गया.

‘‘दीदी, आप तो बहुत दुबली हो गई हैं. 5 साल में चेहरा ही बदल गया. क्या हो गया है आप को?’’ कुसुम के पास आ कर भाभी ने आलिंगन किया और आश्चर्यचकित नजरों से उस की ओर देखती रहीं.

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कुसुम बारबार बांहों पर, गरदन पर पड़े जख्मों के निशान छिपा रही थी. लेकिन मेज पर रखी हुई चाय की प्याली उठाते समय गरदन से शाल हट गई और बांह का स्वेटर ऊपर को हो गया, देखते ही भैया दौड़ कर पास आए, घबरा कर पूछा, ‘‘यह सब क्या है, कुसुम? तुम्हारे शरीर पर ये जख्म कैसे हैं?’’

‘‘वह…वह भैया, रवि मारता था. पीटता था. एक बार तो उस ने इतनी जोर से मारा कि दांत तक टूट गया. बस, ये सब उसी के निशान हैं.’’

‘‘इतना सब होता रहा और तुम ने बताया तक नहीं. अरे हम कोई गैर हैं क्या? कभी फोन ही कर देतीं या कोई खत ही डाल देती. पता नहीं तुम ने कितने दुख झेले हैं जीजाजी की मृत्यु के बाद. छि:छि:, इतना कू्रर, बिगड़ा रवि बेटा हो जाएगा. सपने में भी नहीं सोचा था. खैर, कुसुम, तुम ने अच्छा किया जो आ गईं.’’

‘‘वह तो मुझे भूखा तक रखता था. बाहर दरवाजे पर ताला, टैलीफोन पर ताला, फ्रिज और सभी अलमारियों में ताला लगा रहता था. भैया, ऐसी दुर्दशा तो किसी कैदी की भी नहीं होगी जो उस ने मेरी की थी,’’ कहते ही कुसुम फूटफूट कर रोने लगी.

भैयाभाभी घबरा गए. आंसू पोंछे भाभी ने फिर कुसुम से वसीयत की योजना पूछी. थोड़ी देर बाद स्वयं पर काबू पा कर कुसुम ने अपनी नई वसीयत उन दोनों को दिखा दी. भैयाभाभी खुश हुए. बहन को भाई ने खूब प्यार कर के कहा, ‘‘बहन, घबराओ मत. जैसा तुम चाहती हो वैसे ही होगा. वैसे तो अलग रहने की जरूरत नहीं है, लेकिन अगर तुम चाहोगी तो स्वरूपनगर में ही तुम्हें अच्छा मकान मिल जाएगा. अभी तुम आराम करो, चिंता मत करो.’’

‘‘अच्छा भैया,’’ कह कर कुसुम सोफे पर ही लेट गई.

उधर, शाम को जब रवि औफिस से लौटा, पल्लवी ने रोनी सी सूरत ले कर दरवाजा खोला और वह वृक्ष से टूटी हुई डाली सी धम्म से सोफे पर बैठ गई. रवि ने उसे झकझोर कर पूछा, ‘‘क्यों, क्या बात है? सब ठीक तो है.’’

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पल्लवी चीख पड़ी, ‘‘कुछ ठीक नहीं है, तुम्हारी मां धोखा दे कर भाग गईं और…’’

‘‘और क्या?’’

‘‘यह देखो, अपने पलंग पर यह चिट्ठी रख गई हैं. लिखा है : ‘मैं जा रही हूं. कुछ भी नहीं मिलेगा तुम्हें जायदाद में से. मैं ने वसीयत बदल दी है. आधी जायदाद बेटी मोनिका और आधी विकलांगों की संस्था के नाम कर दी है. मैं कपूत बेटे से विद्रोह करती हूं. जिस बेटे को पालपोस कर बड़ा किया वह मां पर हाथ उठाता है, वह भी जायदाद के लिए. मेरा सबकुछ तेरा ही तो था. लेकिन तू ने मांबेटे के रिश्ते का कोई लिहाज नहीं किया. तुझ से रिश्ता तोड़ने का मुझे कोई गम नहीं.’’’

कागज का टुकड़ा पढ़ कर रवि पागलों की तरह चिल्लाने लगा. कभी इधर कभी उधर चक्कर लगाने लगा. उधर पत्नी पल्लवी क्रोध में बड़बड़ाने लगी, ‘मैं ने पहले ही कहा था कि मांजी को मत सताओ, मत मारोपीटो, प्यार से उन्हें अपने वश में करो लेकिन तुम ने मेरी एक न सुनी. अब भुगतो. यह घर भी खाली करना पड़ेगा.’

आखिर कब तक और क्यों: क्या हुआ था रिचा के साथ

‘‘क्या बात है लक्ष्मी, आज तो बड़ी देर हो गई आने में?’’ सुधा ने खीज कर अपनी कामवाली से पूछा.

‘‘क्या बताऊं मेमसाहब आप को कि मुझे क्यों देरी हो गई आने में… आप तो अपने कामों में ही लगी रहती हैं. पता भी है मनोज साहब के घर में कैसी आफत आ गई है? उन की बेटी रिचा के साथ कुछ ऐसावैसा हो गया है… बड़ी शांत, बड़े अच्छे तौरतरीकों वाली है.’’

लक्ष्मी से रिचा के बारे में जान कर सुधा का मन खराब हो गया. बारबार उस का मासूम चेहरा उस के जेहन में उभर कर मन को बेधने लगा कि पता नहीं लड़की के साथ क्या हुआ? फिर भी अपनेआप पर काबू पाते हुए लक्ष्मी के धाराप्रवाह बोलने पर विराम लगाती हुई वह बोली, ‘‘अरे कुछ नहीं हुआ है. खेलते वक्त चोट लग गई होगी… दौड़ती भी तो कितनी तेज है,’’ कह कर सुधा ने लक्ष्मी को चुप करा दिया, पर उस के मन में शांति कहां थी…

कालेज से अवकाश प्राप्त कर लेने के बाद सुधा बिल्डिंग के बच्चों की मैथ्स और साइंस की कठिनाइयों को सुलझाने में मदद करती रही है. हिंदी में भी मदद कर उन्हें अचंभित कर देती है. किस के लिए कौन सी लाइन ठीक रहेगी. बच्चे ही नहीं उन के मातापिता भी उसी के निर्णय को मान्यता देते हैं. फिर रिचा तो उस की सब से होनहार विद्यार्थी है.

‘‘आंटी, मैं भी भैया लोगों की तरह कंप्यूटर इंजीनियर बनना चाहती हूं. उन की तरह आप मेरा मार्गदर्शन करेंगी न?’’

सुधा के हां कहते ही वह बच्चों की तरह उस के गले लग जाती थी. लक्ष्मी के जाते ही सारे कामों को जल्दी से निबटा कर वह अनामिका के पास गई. उस ने रिचा के बारे में जो कुछ भी बताया उसे सुन कर सुधा कांप उठी. कल सुबह रिचा अपने सहपाठियों के साथ पिकनिक मनाने गंगा पार गई थी. खानेपीने के बाद जब सभी गानेबजाने में लग गए तो वह गंगा किनारे घूमती हुई अपने साथियों से दूर निकल गई. बड़ी देर तक जब रिचा नहीं लौटी तो उस के साथी उसे ढूंढ़ने निकले. कुछ ही दूरी पर झाडि़यों की ओट में बेहोश रिचा को देख सभी के होश गुम हो गए. किसी तरह उसे नर्सिंगहोम में भरती करा कर उस के घर वालों को खबर की. घर वाले तुरंत नर्सिंगहोम पहुंचे.

अनामिका ने जो कुछ भी बताया उसे सुन कर सुधा स्तब्ध रह गई. अब वह असमंजस में थी कि वह रिचा को देखने जाए या नहीं. फिर अनमनी सी हो कर उस ने गाड़ी निकाली और नर्सिंगहोम चल पड़ी, जहां रिचा भरती थी. वहां पहुंच तो गई पर मारे आशंका के उस के कदम आगे बढ़ ही नहीं रहे थे. किसी तरह अपने पैरों को घिसटती हुई उस के वार्ड की ओर चल पड़ी. वहां पहुंचते ही रिचा के पिता से उस का सामना हुआ. इस हादसे ने रात भर में ही उन की उम्र को10 साल बढ़ा दिया था. उसे देखते ही वे रो पड़े तो सुधा भी अपने आंसुओं को नहीं रोक पाई. ऐसी घटनाएं पूरे परिवार को झुलसा देती हैं. बड़ी हिम्मत कर वह कमरे में अभी जा ही पाई थी कि रिचा की मां उस से लिपट कर बेतहासा रोने लगीं. पथराई आंखों से जैसे आंसू नहीं खून गिर रहा हो.

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रिचा को नींद का इंजैक्शन दे कर सुला दिया गया था. उस के नुचे चेहरे को देखते ही सुधा ने आंखों से छलकते आंसुओं को पी लिया. फिर रिचा की मां अरुणा के हाथों को सहलाते हुए अपने धड़कते दिल पर काबू पाते हुए कल की दुर्घटना के बारे में पूछा, ‘‘क्या कहूं सुधा, कल घर से तो खुशीखुशी सभी के साथ निकली थी. हम ने भी नहीं रोका जब इतने बच्चे जा रहे हैं तो फिर डर किस बात का… गंगा के उस पार जाने की न जाने कब से उस की इच्छा थी. इतने बड़े सर्वनाश की कल्पना हम ने कभी नहीं की थी.’’

‘‘मैं अभी आई,’’ कह कर सुधा उस लेडी डाक्टर के पास गई, जो रिचा का इलाज कर रही थी. सुधा ने उन से आग्रह किया कि इस घटना की जानकारी वे किसी भी तरह मीडिया को न दें, क्योंकि इस से कुछ होगा नहीं, उलटे रिचा बदनाम हो जाएगी. फिर पुलिस के जो अधिकारी इस की घटना जांचपड़ताल कर रहे हैं, उन की जानकारी डाक्टर से लेते हुए सुधा उन से मिलने के लिए निकल गई. यह भी एक तरह से अच्छा संयोग रहा कि वे घर पर थे और उस से अच्छी तरह मिले. धैर्यपूर्वक उस की सारी बातें सुनीं वरना आज के समय में इतनी सज्जनता दुर्लभ है.

‘‘सर, हमारे समाज में बलात्कार पीडि़ता को बदनामी एवं जिल्लत की किनकिन गलियों से गुजरना पड़ता है, उस से तो आप वाकिफ ही होंगे… इतने बड़े शहर में किस की हैवानियत है यह, यह तो पता लगने से रहा… मान लीजिए अगर पता लग जाने पर अपराधी पकड़ा भी जाता है तो जरा सोचिए रिचा को क्या पहले वाला जीवन वापस मिल जाएगा? उसे जिल्लत और बदनामी के कटघरों में खड़ा कर के बारंबार मानसिक रूप से बलात्कार किया जाएगा, जो उस के जीवन को बद से बदतर कर देगा. कृपया इसे दुर्घटना का रूप दे कर इस केस को यहीं खारिज कर के उसे जीने का एक अवसर दीजिए.’’

सुधा की बातों की गहराई को समझते हुए पुलिस अधिकारी ने पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया. वहां से आश्वस्त हो कर सुधा फिर नर्सिंगहोम पहुंची और रिचा के परिवार से भी रोनाधोना बंद कर इस आघात से उबरने का आग्रह किया.

शायद रिचा को होश आ चुका था. सुधा की आवाज सुनते ही उस ने आंखें खोल दीं. किसी हलाल होते मेमने की तरह चीख कर वह सुधा से लिपट गई. सुधा ने किसी तरह स्वयं पर काबू पाते हुए रिचा को अपने सीने से लगा लिया. फिर उस की पीठ को सहलाते हुए कहा, ‘‘धैर्य रख मेरी बच्ची… जो हुआ उस से बुरा तो कुछ और हो ही नहीं सकता, लेकिन इस से जीवन समाप्त थोड़े हो जाता है? इस से उबरने के लिए तुम्हें बहुत बड़ी शक्ति की आवश्यकता है मेरी बच्ची… उसे यों बेहाल हो कर चीखने में जाया नहीं करना है… जितना रोओगी, चीखोगी, चिल्लाओगी उतना ही यह निर्दयी दुनिया तुम्हें रुलाएगी, व्यंग्यवाणों से तुझे बेध कर जीने नहीं देगी.’’

‘‘आंटी, मेरा मर जाना ठीक है… अब मैं किसी से भी नजरें नहीं मिला सकती… सारा दोष मेरा है. मैं गई ही क्यों? सभी मिल कर मुझ पर हसेंगे… मेरा शरीर इतना दूषित हो गया है कि इसे ढोते हुए मैं जिंदा नहीं रह सकती.’’

फिर चैकअप के लिए आई लेडी डाक्टर से गिड़गिड़ा कर कहने लगी, ‘‘जहर दे कर मुझे मार डालिए डाक्टर… इस गंदे शरीर के साथ मैं नहीं जी सकती. अगर आप ने मुझे मौत नहीं दी तो मैं इसे स्वयं समाप्त कर दूंगी,’’ रिचा पागल की तरह चीखती हुई बैड पर छटपटा रही थी.

‘‘ऐसा नहीं कहते… तुम ने बहुत बहादुरी से सामना किया है… मैं कहती हूं तुम्हें कुछ नहीं हुआ है,’’ डाक्टर की इस बात पर रिचा ने पथराई आंखों से उन्हें घूरा.बड़ी देर तक सुधा रिचा के पास बैठी उसे ऊंचनीच समझाते हुए दिलाशा देती रही लेकिन वह यों ही रोतीचिल्लाती रही. उसे नींद का इंजैक्शन दे कर सुलाना पड़ा. रिचा के सो जाने के बाद सुधा अरुण को हर तरह से समझाते हुए धैर्य से काम लेने को कहते हुए चली गई. किसी तरह ड्राइव कर के घर पहुंची. रास्ते भर वह रिचा के बारे में ही सोचती रही. घर पहुंचते ही वह सोफे पर ढेर हो गई. उस में इतनी भी ताकत नहीं थी कि वह अपने लिए कुछ कर सके.

रिचा के साथ घटी दुर्घटना ने उसे 5 दशक पीछे धकेल दिया. अतीत की सारी खिड़कियां1-1 कर खुलती चली गईं…

12 साल की अबोध सुधा के साथ कुछ ऐसा हुआ था कि वह तत्काल उम्र की अनगिनत दहलीजें फांद गई थी. कितनी उमंग एवं उत्साह के साथ वह अपनी मौसेरी बहन की शादी में गई थी. तब शादी की रस्मों में सारी रात गुजर जाती थी. उसे नींद आ रही थी तो उस की मां ने उसे कमरे में ले जा कर सुला दिया. अचानक नींद में ही उस का दम घुटने लगा तो उस की आंखें खुल गईं. अपने ऊपर किसी को देख उस ने चीखना चाहा पर चीख नहीं सकी. वह वहशी अपनी हथेली से उस के मुंह को दबा कर बड़ी निर्ममता से उसे क्षतविक्षत करता रहा.

अर्धबेहोशी की हालत में न जाने वह कितनी देर तक कराहती रही और फिर बेहोश हो गई. जब होश आया तो दर्द से सारा बदन टूट रहा था. बगल में बैठी मां पर उस की नजर पड़ी तो पिछले दिन आए उस तूफान को याद कर किसी तरह उठ कर मां से लिपट कर चीख पड़ी. मां ने उस के मुंह पर हाथ रख कर गले के अंदर ही उस की आवाज को रोक दिया और आंसुओं के समंदर को पीती रही. बेटी की बिदाई के बाद ही उस की मौसी उस के सर्वनाश की गाथा से अवगत हुई तो अपने माथे को पीट लिया. जब शक की उंगली उन की ननद के 18 वर्षीय बेटे की ओर उठी तो उन्होंने घबरा कर मां के पैर पकड़ लिए. उन्होंने भी मां को यही समझाया कि चुप रहना ही उस के भविष्य के लिए हितकर होगा.

हफ्ते भर बाद जब वह अपने घर लौटी तो बाबूजी के बारबार पूछने के बावजूद भी अपनी उदासी एवं डर का कारण उन्हें बताने का साहस नहीं कर सकी. हर पल नाचने, गाने, चहकने वाली सुधा कहीं खो गई थी. हमेशा डरीसहमी रहती थी.

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आखिर उस की बड़ी बहन ने एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘बताओ न मां, वहां सुधा के साथ हुआ क्या जो इस की ऐसी हालत हो गई है? आप हम से कुछ छिपा रही हैं?’’

सुधा उस समय बाथरूम में थी. अत: मां उस रात की हैवानियत की सारी व्यथा बताते हुए फूट पड़ी. बाहर का दरवाजा अंदर से बंद नहीं था. बाबूजी भैया के साथ बाजार से लौट आए थे. मां को इस का आभास तक नहीं हुआ. सारी वारदात से बाबूजी और भैया दोनों अवगत हो चुके थे और मारे क्रोध के दोनों लाल हो रहे थे. सब कुछ अपने तक छिपा कर रख लेने के लिए बाबूजी ने मां को बहुत धिक्कारा. सुधा बाथरूम से निकली तो बाबूजी ने उसे सीने से लगा लिया.

बलात्कार किसी एक के साथ होता है पर मानसिक रूप से इस जघन्य कुकृत्य का शिकार पूरा परिवार होता है. अपनी तेजस्विनी बेटी की बरबादी पर वे अंदर से टूट चुके थे, लेकिन उस के मनोबल को बनाए रखने का प्रयास करते रहे.

सुधा ने बाहर वालों से मिलना या कहीं जाना एकदम छोड़ दिया था. लेकिन पढ़ाई को अपना जनून बना लिया था. भौतिकशास्त्र में बीएसी औनर्स में टौप करने के 2 साल बाद एमएससी में जब उस ने टौप किया तो मारे खुशी के बाबूजी के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. 2 महीने बाद उसी यूनिवर्सिटी में लैक्चरर बन गई. सभी कुछ ठीक चल रहा था. लेकिन शादी से उस के इनकार ने बाबूजी को तोड़ दिया था. एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे थे, लेकिन सुधा शादी न करने के फैसले पर अटल रही. भैया और दीदी की शादी किसी तरह देख सकी अन्यथा किसी की बारात जाते देख कर उसे कंपकंपी होने लगती थी.

सुधा के लिए जैसा घरवर बाबूजी सोच रहे थे वे सारी बातें उन के परम दोस्त के बेटे रवि में थी. उस से शादी कर लेने में अपनी इच्छा जाहिर करते हुए वे गिड़गिड़ा उठे तो फिर सुधा मना नहीं कर सकी. खूब धूमधाम से उस की शादी हुई पर वह कई वर्षों बाद भी बच्चे का सुख रवि को दे सकी. वह तो रवि की महानता थी कि इतने दिनों तक उसे सहन करते रहे अन्यथा उन की जगह कोई और होता तो कब का खोटे सिक्के की तरह उसे मायके फेंक आया होता.

रवि के जरा सा स्पर्श करते ही मारे डर के उस का सारा बदन कांपने लगता था. उस की ऐसी हालत का सबब जब कहीं से भी नहीं जान सके तो मनोचिकित्सकों के पास उस का लंबा इलाज चला. तब कहीं जा कर वह सामान्य हो सकी थी. रवि कोई वेवकूफ नहीं थे जो कुछ नहीं समझते. बिना बताए ही उस के अतीत को वे जान चुके थे. यह बात और थी कि उन्होंने उस के जख्म को कुरेदने की कभी कोशिश नहीं की.

2 बेटों की मां बनी सुधा ने उन्हें इस तरह संस्कारित किया कि बड़े हो कर वे सदा ही मर्यादित रहे. अपने ढंग से उन की शादी की और समय के साथ 2 पोते एवं 2 पोतियों की दादी बनी.

जीवन से गुजरा वह दर्दनाक मोड़ भूले नहीं भूलता. अतीत भयावह समंदर में डूबतेउतराते वह 12 वर्षीय सुधा बन कर विलख उठी. मन ही मन उस ने एक निर्णय लिया, लेकिन आंसुओं को बहने दिया. दूसरे दिन रिचा की पसंद का खाना ले कर कुछ जल्दी ही नर्सिंगहोम जा पहुंची. समझाबुझा कर मनोज दंपती को घर भेज दिया. 2 दिन से वहीं बैठे बेटी की दशा देख कर पागल हो रहे थे. किसी से भी कुछ नहीं कहने को सुधा ने उन्हें हिदायत भी दे दी. फिर एक दृढ़ निश्चय के साथ रिचा के सिरहाने जा बैठी.

सुधा को देखते ही रिचा का प्रलाप शुरू हो गया, ‘‘अब मैं जीना नहीं चाहती. किसी को कैसे मुंह दिखाऊंगी?’’

सुधा ने उसे पुचकारते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे साथ जो कुछ भी हुआ वह कोई नई बात नहीं है. सदियों से स्त्रियां पुरुषों की आदम भूख की शिकार होती रही हैं और होती रहेंगी. कोई स्त्री दावे से कह तो दे कि जिंदगी में वह कभी यौनिक छेड़छाड़ की शिकार नहीं हुई है. अगर कोई कहती है तो वह झूठ होगा. यह पुरुष नाम का भयानक जीव तो अपनी आंखों से ही बलात्कार कर देता है. आज तुम्हें मैं अपने जीवन के उस भयानक सत्य से अवगत कराने जा रही हूं, जिस से आज तक मेरा परिवार अनजान है, जिसे सुन कर शायद तुम्हारी जिजिविषा जाग उठे,’’ कहते हुए सुधा ने रिचा के समक्ष अपने काले अतीत को खोल दिया. रिचा अवाक टकटकी बांधे सुधा को निहारती रह गई. उस के चेहरे पर अनेक रंग बिखर गए, बोली, ‘‘तो क्या आंटी मैं पहले जैसा जी सकूंगी?’’

‘‘एकदम मेरी बच्ची… ऐसी घटनाओं से हमारे सारे धार्मिक ग्रंथ भरे पड़े हैं… पुरुषों की बात कौन करे… अपना वंश चलाने के लिए स्वयं स्त्रियों ने स्त्रियों का बलात्कार करवाया है. कोई शरीर गंदा नहीं होता. जब इन सारे कुकर्मों के बाद भी पुरुषों का कौमार्य अक्षत रह जाता है तो फिर स्त्रियां क्यों जूठी हो जाती हैं.

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‘‘इस दोहरी मानसिकता के बल पर ही तो धर्म और समाज स्त्रियों पर हर तरह का अत्याचार करता है. सारी वर्जनाएं केवल लड़कियों के लिए ही क्यों? लड़के छुट्टे सांड़ की तरह होेंगे तो ऐसी वारदातें होती रहेंगी. अगर हर मां अपने बेटों को संस्कारी बना कर रखे तो ऐसी घटनाएं समाज में घटित ही न हों. पापपुण्य के लेखेजोखे को छोड़ते हुए हमें आगे बढ़ कर समाज को ऐसी घृणित सोच को बदलने के लिए बाध्य करना है. जो हुआ उसे बुरा सपना समझ कर भूल जाओ और कल तुम यहां से अपने घर जा रही हो. सभी की नजरों का सामना इस तरह से करना है मानो कुछ भी अनिष्ट घटित नहीं हुआ है. देखो मैं ने कितनी खूबसूरती से जीवन जीया है.’’

रिचा के चेहरे पर जीवन की लाली बिखरते देख सुधा संतुष्ट हो उठी. उस के अंतर्मन में जमा वर्षों की असीम वेदना का हिम रिचा के चेहरे की लाली के ताप से पिघल कर आंखों में मचल रहा था. अतीत के गरल को उलीच कर वह भी तो फूल सी हलकी हो गई थी.

सफेद सियार: क्या अंशिका बनवारी के चंगुल से छूट पाई?

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

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