एक प्यार का नगमा: किस गैर आदमी से बात कर रही थी नगमा

नगमा आजाद खयाल की थी और वह मायके में सब को बहुत पसंद थी, मगर मुझे और मेरे परिवार वालों को इस तरह की आजाद परिंदों की तरह उड़ान भरने जैसी बातें कम ही रास आती थीं. नगमा ने अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रैजुएशन किया था और इतनी पढ़ाई उस के मायके से ले कर मेरे घर तक में किसी ने भी नहीं की थी.

आज नगमा को छोड़ कर कोई भी औरत हमारे घर में स्कूटी चलाना नहीं जानती है. बाजार स्कूटी से जाना और घरेलू सामान को खुद जांचपरख कर खरीदना उस को बेहद पसंद हैं. खरीदारी के लिए अकसर नगमा शहर के नामी मौल में जाना पसंद करती है पर सच कहूं तो मौल है बड़ी नामुराद जगह, वहां तो आदमी जरूरत के सामान से ज्यादा फालतू का सामान खरीद ले आता है. इस सामान के साथ यह औफर है तो उस सामान के साथ वह मुफ्त में मिल रहा है. अरे साहेब, जहां आज के दौर में पानी मुफ्त नहीं मिल रहा है तो कोई
कुछ और सामान मुफ्त मिलने की उम्म्मीद भी कैसे कर सकता है भला?

मौल के अंदर ऊपर वाले फ्लोर तक जाने के लिए नगमा हमेशा ही ऐस्कलैटर का प्रयोग करती है. अब भला यह भी कोई अच्छी तकनीक है, बस पैर जोड़ कर खड़े हो जाओ और ऊपर पहुंचने का इंतजार करो. कहीं पैर आगे बढ़ाने में जरा सा भी चूक गए तो मुंह के बल गिरने से कोई रोक नहीं सकता. अरे, कम से कम बगल में ही सुंदर सी सीढ़ियां भी तो बना रखी हैं, उन को काम में लाओ तो हाथपैरों में हरकत बनी रहे.

पर नगमा को तो हर नई चीज से प्यार हो जाता था. वैसे भी खरीदारी करते समय मैं सिर्फ गाड़ी में सामान रखने और भुगतान संबंधित काम ही देखता था बाकी खरीदारी के लिए तो जिम्मेदार नगमा ही थी.

एक दिन की बात है मैं नगमा के साथ खरीदारी करने के बाद घर पंहुचा ही था कि मेरा मोबाइल बजने लगा. नया नंबर था इसलिए जान नहीं सका कि उधर से कौन था पर कुछ देर बाद पता चला कि आदिल बोल रहा था.

आदिल मेरा चचेरा भाई था जो दुबई से भारत आ रहा था और आते ही मेरे घर पर रुकेगा ऐसा बता रहा था. उस की बातें सुन कर मेरा माथा बहुत बुरी तरह ठनका था क्योंकि मैं आदिल को बिलकुल पसंद नहीं करता था, जिस का कारण यह था कि आदिल भी नगमा के साथ अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी में पढ़ता था और दोनों में काफी लगाव भी था, कुछ ज्यादा ही लगाव जिसे प्यार की संज्ञा दी सकती है और इसी कारण दोनों के परिवार वालों ने आदिल और नगमा की शादी तय कर दी थी.

दोनों का निकाह हो ही गया होता अगर आदिल ने निकाह के ठीक बाद नगमा को अपने साथ दुबई ले जाने की शर्त न रख दी होती. हालांकि मैं अपने रिश्तेदारों से यह जान चुका था कि यह शर्त उस ने जानबूझ कर इसलिए रखी है क्योंकि वह भले ही प्यार तो नगमा से करता था पर नगमा के परिवार वालों की तरफ से जो दहेज उसे दिया जा रहा था उस से वह खुश नहीं था और कहीं और रिश्ता होने पर उसे ज्यादा रकम मिलने की उम्मीद थी. उसे लालच भी था, इसलिए आदिल ने यह दोहरी चाल चली.

आदिल जानता था कि नगमा के घर वाले उसे दुबई नहीं भेजेंगे क्योंकि वह उन की इकलौती लड़की है और नगमा की अम्मी भी बीमार रहती हैं.आदिल को नगमा से निकाह तोड़ देने में कोई बड़ी बात नहीं लगी बल्कि इस में भी नगमा के सामने वह उस के अम्मी और अब्बा को ही दोष देता
रहा.

निकाह टूटने के बाद नगमा अवसाद का शिकार होने लगी तो मेरे अब्बू ने आगे बढ़ कर नगमा और मेरा निकाह करा दिया. मैं तो अब्बू की मरजी के आगे कुछ बोल न सका और वैसे भी नगमा जैसी खूबसूरत लड़की को ठुकराने का कोई मतलब ही नहीं था.

नगमा की हालत खराब हो रही थी. उस को उस हालत से निकालने में मेरा किरदार अहम रहा. मैं ने नगमा को समझाया कि जो भी हुआ है उस में उस का कोई दोष नहीं है. यह सब सिर्फ आदिल के लालच के कारण हुआ है. अगर इस में किसी को भी शर्मिंदा होने की जरूरत है तो वह आदिल है.

मेरी लाख कोशिशों के बाद नगमा के चेहरे पर ही मुसकराहट आई थी पर भला मुझे क्या पता था कि आज इतने सालों बाद आदिल फिर सामने आ कर खड़ा हो जाएगा और मेरे और नगमा के पूरे वजूद को हिला कर रख देगा.

फिर जब नगमा से इतनी ही तल्खी हो गई थी तो आज आदिल मेरे पास क्यों आ रहा है? वह नगमा से कैसे मिलेगा? क्या उसे शर्म नहीं आएगी? और फिर वह मेरी और नगमा की शादी के बारे में भी सब जानता है.

अगली सुबह ही आदिल हमारे घर पर आ गया. कई बड़ेबड़े ब्रीफकेस और बैग थे उस के साथ. हां, यह जरूर कहना पड़ेगा कि पहले से अधिक खूबसूरत हो गया था आदिल. गोरा रंग, लंबा कद, क्लीन शेव, चेहरा और आंखों पर महंगा चश्मा.

उसे देख कर मुझे जलन हो रही थी. शायद इसलिए क्योंकि आज आदिल हर तरीके से मुझ से बेहतर माली हालत में था और नगमा व आदिल के पहले के रिश्तों के बारे में मुझे पता था.

आदिल ने आते ही समां बांध दिया. अम्मीअब्बू के लिए दुबई से चश्मे का फ्रेम, मेरे लिए पेन का सैट और इत्र. हमारी बेटी फुजला के लिए गुड़िया और विदेशी खिलौने वगैरह… यह सब देख कर मैं अंदर ही अंदर जला जा रहा था रहा था.

इतने में आदिल ने एक गिफ्ट का छोटा सा डब्बा नगमा की तरफ बढ़ा दिया. नगमा ने मुझ से इशारोंइशारों में ही पूछा कि तोहफा स्वीकार करूं या नहीं? मैं ने भी आंखों से ही उसे बता दिया. नगमा ने हाथ बढ़ा कर गिफ्ट ले लिया.

आदिल की यह बात मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लग रही थी या उस के रसूख के सामने मैं अपनेआप को कमतर महसूस कर रहा था. ड्राइंगरूम में पार्टी जैसा माहौल था. फुजला आदिल के साथ बेफिक्री से खेल रही थी और अम्मी और अब्बू को आदिल दुबई की शान और
शानोशौकत भरी जिंदगी के बारे में बारबार बता रहा था. आदिल की सारी अदाएं देख कर मैं ने भी अपने चेहरे पर एक फर्जी मुसकराहट चिपका ली गोया मुझ पर उस की इन सब बातों का कोई असर ही न हो रहा हो पर अंदर ही अंदर मैं कुढ़ रहा था. तभी आदिल ने घूमने जाने का प्लान बना लिया.

“इमामबाड़ा और चिड़ियाघर घूमे हुए काफी समय हो गया है. चलो हम सब लोग घूम कर आते हैं,” आदिल ने मुझ से भी साथ चलने को कहा.

मन में तो आया कि तुरंत ही मना कर दूं पर मुझे लगा की ऐसा कहना गलत होगा. बड़े ही भारी मन से मैं ने चलने के लिए हामी भर दी. हम सब दिनभर घूमफिर कर शाम को घर आए. मन और दिमाग पूरी तरह से थक चुका था. रास्ते में नगमा आदिल से काफी बेपरवाही से बात कर रही थी. मैं ने कनखियों से कई बार देखा भी कि नगमा आदिल की हर बात में हामी भर रही थी. रैस्टोरेंट में भी दोनों ने एकदूसरे की थाली से खाने की चीजों की अदलाबदली करी.

मेरे दिल का हाल सिर्फ मैं ही जानता था. शाम को सिरदर्द का बहाना बना कर मैं कमरे में लेट गया पर नींद आंखों से कोसों दूर थी. कारण था ड्राइंगरूम से आदिल और नगमा की हंसती हुई आवाज… कमबख्तों को इतना भी लिहाज नहीं है कि अम्मीअब्बू के सामने जरा कम बात करें पर आंखों का पानी तो बिलकुल ही मर गया है.

रात में मुझे 2 बजे नींद आई या 3 बजे मुझे कुछ नहीं पता. सुबह आंख खुली तो देखा कि नगमा किचन में व्यस्त थी. अच्छा तो मैडम अब नाश्ता भी आदिल की पसंद से ही बनाएंगी, पर कुछ भी हो अब मैं यह लैलामजनू की कहानी और नहीं सहन कर पाऊंगा. मैं आज ही आदिल से साफसाफ बात कर लेता हूं कि भाई देखो, रिश्तेदारी तो अपनी जगह है पर शादीशुदा जिंदगी अपनी जगह है. वह मेरी जिंदगी में और जहर न घोले और यहां से चला जाए. अपने मन में एक कड़ा निश्चय ले कर बिस्तर से उठा और नहाधो कर नाश्ते की टेबल पर जा बैठा. सब लोग वहां पहले से ही बैठे हुए थे. नगमा भी अपनी हर्बल चाय ले कर आ गई थी. वहां पर आदिल नहीं था. पूछने पर पता चला कि बाहर घूमने गए थे अब तक लौटे नहीं. उस का यहां न होना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था.

तभी मेज पर रखा हुआ नगमा का मोबाइल बज उठा. मेरी नजरों ने आंखों के कोने से देखा, स्क्रीन पर आदिल का नाम लिखा आ रहा था. मुझे ऐसा लगा कि नगमा ने मेरी नजरों से बचते हुए मोबाइल को उठा कर कान से लगा लिया हो और किचन की तरफ बात करते हुए बढ़ गई हो. मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था कि आखिर नगमा ने मेरे सामने वहीं पर बात क्यों नहीं की? किसी का भी फोन होता है तो नगमा मेरे सामने ही बात कर लेती है फिर आज आदिल का फोन आने पर वह किचन में क्यों चली गई?

दिमाग में बवंडर चलने लगा. सामने प्लेट में नाश्ता पड़ा हुआ था पर मेरी आंखों को वह सब नहीं दिखाई दे रहा था. हालांकि नगमा 10 मिनट बाद ही वापस आ गई थी पर मेरे लिए यह 10 मिनट 10 साल जैसे लग रहे थे.

नगमा एकदम शांत सी लग रही थी. उस के चेहरे पर किसी भी तरह के भाव पढ़ पाने में मैं नाकाम था. क्या पूछूं और कैसे पूछूं? नगमा मेरे इस तरह से उस के फोन की जासूसी करने पर क्या कहेगी?

पर इस तरह से आदिल का नगमा के मोबाइल पर फोन आना मुझे नागवार गुजर रहा था और मैं बेचैन था कि मैं कैसे उन दोनों के बीच की बातों को जान या सुन सकूं. मुझ से नाश्ता नहीं किया गया. मैं बालकनी में जा कर टहलने लगा था और दिमाग लगा रहा था कि दोनों के बीच की बातों को कैसे जाना जाए?

अचानक से मुझे मोबाइल फोन के कौल रिकौर्डर का ध्यान आया जोकि लगभग हर मोबाइल में होता है और जिस में हर आने जाने वाली कौल रिकौर्ड हो जाती है. ऐसा सोच कर मुझे कुछ सुकून मिला. अब मैं काफी रोमांचित महसूस कर रहा था और काफी उत्तेजित भी हो रहा था. अब तो मुझे नगमा के मोबाइल की तलाश थी और वह तलाश जल्दी ही खत्म हो गई जब नगमा ने मोबाइल को नाश्ते की टेबल पर ही रख दिया और बरतन समेट कर किचन में चली गई.

मैं ने मौका ताड़ा और नगमा का मोबाइल ले सीधा अपने कमरे में घुस गया और कमरा बंद कर लिया और मोबाइल में कौल रिकौर्डर को ढूंढ़ने लगा.

शुक्र था कि इस मोबाइल में कौल रिकौर्डर था. आवाज बाहर न जाए इसलिए मैं ने कान में ईयरफोन लगा लिया और दोनों के बातचीत की रिकौर्डिंग सुनने लगा…

“हैलो… हां, हैलो नगमा. देखो फोन मत काटना. मुझे तुम से कुछ बात करनी है. मैं अपनी उस हरकत पर बहुत शर्मिंदा हूं कि मैं ने तुम से निकाह तोड़ दिया था. दरअसल, उस समय हालात ही कुछ ऐसे थे कि मुझे दुबई जाने के लिए पैसों की जरूरत थी और इसलिए मैं ने तुम से निकाह न कर के किसी दूसरी जगह निकाह किया पर उस लड़की से शादी करना मेरी बड़ी भूल साबित हुई. मैं उस से शादी कर के आज तक खुश नहीं
हो पाया हूं.”

“पर तुम आज यह सब बखेड़ा इस तरह से फोन पर क्यों बता रहे हो मुझे?” नगमा बोल रही थी.

“हा, जो गलती मैं ने कर दी थी उसे अब सुधारना चाहता हूं. मैं जानता हूं कि तुम्हारा निकाह करना भी एक समझौता ही था जो तुम ने हालात से मजबूर हो कर किया था… मैं भी दुखी और तुम भी परेशान… क्यों न हम दोनों एक नई जिंदगी की शुरुआत करें?

“मैं ने अपनी वाइफ को तलाक दे दिया है और यही मैं तुम से भी चाहता हूं कि तुम भी अपने शौहर को तलाक दे दो. मैं फुजला को भी अपना लूंगा…”आदिल कहे जा रहा था.

फोन पर थोडी देर सन्नाटा रहा. मैं नगमा का जवाब सुनने के लिए मरा जा रहा था.

“सुनो आदिल, जो हुआ जैसे भी हुआ वह सही ही था. तुम्हारे जैसे दहेज के लालची का क्या भरोसा? तुम जैसे लोग तो दहेज के लिए किसी लड़की की जान लेने से भी बाज नहीं आते और रही बात मेरे शौहर की तो उन से बेहतर शौहर मिलना तो मुमकिन ही नहीं है मेरे लिए… उन्होंने मुझे हर तरीके की आजादी दी है और मेरे हर काम में सहयोग करते हैं.

“बुरे वक्त में उन्होंने मुझे जो सहारा दिया वह किसी और के बस की बात नहीं थी.तुम ने यह बात सोच भी कैसे ली कि अब भी मैं तुम्हारी बन सकती हूं? मेरा तुम से हंसनाबोलना सिर्फ इसलिए है कि तुम मेरे शौहर के रिश्तेदार हो. तुम जैसे लोगों को बीवियां बदलने की आदत होती है जो मरते दम तक नहीं छुटती. पर मैं तुम्हे बता दूं कि मेरे शौहर मुझ से बहुत प्यार करते हैं जिस का सुबूत यह है कि मेरे और तुम्हारे बारे में जानने के बावजूद भी तुम्हारे यहां आने पर उन्होंने किसी तरह का सवाल नहीं उठाया.

“अब फोन रखो और दोबारा इस तरह करे बात करने की जुर्रत मत करना…”

फोन काटा जा चुका था. मैं ने एक लंबी सांस छोड़ी और मेरे सीने की धडकनें भी अब सामान्य हो रही थीं. मैं ने नगमा का मोबाइल नाश्ते की टेबल पर रख दिया. नगमा अब भी किचन में सफाई कर रही थी. अब्बू टीवी पर एक फिल्मी गाना देख रहे थे जिस के बोल थे,’एक प्यार का नगमा है…’

मेरी नगमा भी तो प्यार का नगमा ही ही है.

वन मिनट प्लीज: क्या रोहन और रूपा का मिलन दोबारा हो पाया- भाग 2

रोहन परेशान था. वह नौकरी की खोज में दिनरात लैपटौप पर आंखें गड़ाए रहता. यहांवहां दौड़भाग कर इंटरव्यू भी दे रहा था, लेकिन बात नहीं बन पा रही थी. थोड़ी दिनों बाद बमुश्किल एक कालसैंटर मैं नौकरी मिल गई थी. रूपा रोहन की बांहों मे बांहें डाल कर घूमने जाना चाहती थी, परंतु उस का उतरा हुआ चेहरा देख उस का उत्साह ठंडा हो जाता. वह चिड़चिड़ाने लगी थी, क्योंकि उस के सपने टूटने लगे थे.
‘रोहन, तुम्हें सैलरी मिली होगी. चलो हम लोग आज पार्टी करेंगे,’ एक दिन वह बोली थी.

धीमी आवाज में वह बोला था, ‘चलो कहीं डोसा खा लेंगे.’

‘तुम खर्च की चिंता न करो, मेरे अकाउंट में पैसे हैं?’

‘देखो रूपा, तुम अपने पैसे बचा कर रखो. जाने क्या जरूरत पड़ जाए.’

‘तुम बिलकुल चिंता न करो, पापा से मैं कहूंगी तो वे मना नहीं करेंगे.’

वह बोला था, ‘यह मु  झे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगेगा.’

वह चिल्ला पड़ी थी, ‘तुम्हारी सैलरी जितनी है, इतना तो मैं एक दिन की शौपिंग में खर्च कर डालती थी.’
‘यह तो तुम्हें शादी करने के पहले सोचना चाहिए था.’

वह नाराज हो गई थी और उसे मायके का ऐशोआराम याद आने लगा. इस से बाद तो उस का पैसे को ले कर रोहन से अकसर   झगड़ा होने लगा था.

यदि अम्मां बीचबचाव करतीं तो वह अम्मां पर जोर से चिल्ला पड़ती थी. रोहन भला अपनी छोटी सी तनख्वाह में उस की बड़ीबड़ी फरमाइशें कैसे पूरी करता? वह उसे तंग कर मन ही मन खुश होती थी. दरअसल वह चाहती थी कि रोहन परेशान हो कर उस के साथ उस के घर चला चले, जिस से वह फिर से पहले की तरह ऐशोआराम से रह सके.

एक दिन अम्मां उस से बोलीं थीं, ‘क्यों रूपा, तुम्हारा पेट देख कर तो मालूम नहीं पड़ रहा है कि तुम्हारे 3-4 महीने पूरे हो चुके हैं.’ वह बेशर्मी से बोली थी, ‘अम्मां वह तो मैं ने   झूठमूठ यों ही कह दिया था, नहीं तो आप शादी के लिए कभी हां न कहतीं. मैं तो रोहन को पाना चाहती थी.’

उस की बात सुन कर अम्मां सन्न रह गईं थीं. वे विश्वास ही नहीं कर पा रही थीं कि कोई लड़की अपनी इज्जत लुटने की बात को बेमतलब इस तरह डंका बजा कर कह सकती है.

एक दिन वे उस से बोली थीं, ‘रूपा तुम नौकरी कर लो, तुम्हें हाथ खर्च के लिए कुछ रुपए मिल जाया करेंगे.’ घर के पास ही प्लेस्कूल था. अम्मां के कहने पर 10-12 दिन वह वहां गई थी, लेकिन 5,000 रुपए के लिए छोटेछोटे बच्चों से मगजमारी करने में उस का मन ही नहीं लग रहा था. इस में उसे अपनी हेठी भी लग रही थी.

एक दिन अम्मां को बुखार आ गया था तो वे उस से बोली थीं, ‘रूपा, रोहन आने वाला है. उस के लिए कुछ खाना बना लो.’ वह उन पर चिल्ला पड़ी थी, ‘आप की वजह से ही रोहन का इतना दिमाग खराब है. आज हम लोग बाहर जा कर खाना खाएंगे.’

अम्मां चुप हो गई थीं. वे बुखार में बेसुध सी हो रही थीं. रोहन ने औफिस से आते ही कपड़े भी नहीं बदले, पहले अम्मां को चाय बना कर पिलाई और दवा खिलाई. फिर उस के कहने पर वह उसे बाहर खाना खिलाने के लिए ले गया, लेकिन उस ने कुछ भी नहीं खाया.

वह ताव में बोली थी, ‘क्यों मुंह फुला रखा है? मैं ने थोड़े ही तुम्हारी अम्मां को बीमार किया है. तुम ने कुछ खाया क्यों नहीं?’ ‘चुपचाप खाना खाओ, आज मेरा मूड ठीक नहीं है.’ ‘तुम्हारा मूड अच्छा कब रहता है? हमेशा तुम्हारे चेहरे पर मनहूसियत छाई रहती है.’

रोहन भी नाराज हो कर बोला था, ‘रूपा बेकार की बहस मत करो. अम्मां की तबीयत खराब थी, तुम ने उन्हें एक कप चाय भी बना कर नहीं दी.’ वह जोर से चिल्ला कर बोली थी, ‘मैं क्यों बनाऊं? क्या मैं तुम लोगों की नौकरानी हूं, अपनी अम्मां से बहुत लाड़ है तो एक नौकरानी रख लो,’ यह सुन कर रोहन का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा था. वह बोला था, ‘तुम्हारी बदतमीजी बढ़ती ही जा रही है. मेरे सामने से हट जाओ. मु  झे बहुत जोर का गुस्सा आ रहा है.’ गुस्से में उस का हाथ भी उठ गया था.

‘तुम्हें गुस्सा आ रहा है तो मु  झे तुम से ज्यादा गुस्सा आ रहा है. तुम्हारी इतनी हिम्मत कि तुम ने मु  झ पर हाथ उठाया. दहेज ऐक्ट में तुम्हारी शिकायत कर दूंगी तो मांबेटे दोनों जेल चले जाओगे.’ रोहन का चेहरा काला पड़ गया था. शायद वह डर गया था. रोहन को चुप देख कर वह और जोर से चीखने लगी थी, ‘शादी किए 8 महीने पूरे हो गए हैं. दिनरात वही हायहाय. न कहीं घूमना न फिरना. बस सूखी रोटी चबा लो और घर के अंदर बंद रहो. जाने कौन सी मनहूस घड़ी थी, जब मैं ने तुम से शादी की. मेरी तो जिंदगी ही बरबाद हो गई.’

जोरजोर से चीखती और रोती हुई वह अपने कमरे की ओर जा रही थी तभी रोहन की आवाज उस के कानों में पड़ी थी,  ‘मैं ने तो तुम्हें शादी के लिए बहुत मना किया था.’ रोहन की बात ने आग में घी का काम
किया था. वह थोड़ी देर बाद कमरे में आया तो उसे देख घबरा उठा था. उस के मुंह से झाग निकल रहा था और उस की सांसें धीमी पड़ रही थीं.

वह भाग कर पड़ोस के डाक्टर को बुला कर लाया था और उस से गिड़गिड़ा कर बोला
था, ‘डाक्टर, मेरी रूपा को बचा लीजिए.’ उस से रोहन ने उस का हाथ पकड़ कर वादा किया था कि जो वह कहेगी वह वही करेगा. वह तो मौके की तलाश में थी ही. उस ने यह शर्त रखी थी कि वे ठीक होते ही पापा के घर चल कर रहेंगे. और यह भी कहा था कि रोहन तुम्हें यह नौकरी छोड़नी पड़ेगी और पापा का औफिस जौइन करना होगा.

उस दिन उस ने सिर   झुका कर उस की बस बातें मान ली थीं, तो यह सोच कर कि वह फिर से ऐशो आराम से रहेगी उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. रोहन अपनी अम्मां को रोता हुआ बमुश्किल छोड़ कर आया था. उस का चेहरा उदास और उतरा हुआ था. उस के घर पहुंचते ही उस का सामना पापा से हुआ था. वे उसे देखते ही चिल्ला पड़े थे, ‘यहां आने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? तुम्हारे लिए घर के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो चुके हैं.’

वह फफक पड़ी थी. मम्मी से लिपट कर बोली थी, ‘मम्मी, प्लीज, पापा को मना लो. मैं अब और कहां जाऊं? अपनी ससुराल में मैं अब नहीं रह सकती. मैं अपनी जान दे दूंगी. अगर आप मेरा जीवन चाहती हैं तो मु  झे अपने घर में रहने दीजिए.’उस के आंसू देख मम्मी पिघल उठी थीं. उस का हाथ पकड़ कर बोली थीं, ‘देखें तुम्हें कौन बाहर निकाल सकता है.’ फिर पापा की ओर देख कर बोली थीं,  ‘गुस्सा शांत कीजिए. बच्चों से तो गलती हो ही जाती है. बड़ों को तो सम  झदारी से काम लेना चाहिए.’

फिर व्यंग्य और उपहास भरी निगाहों से रोहन की तरफ देख कर पापा बोले थे, ‘ये बरखुरदार कहां रहेंगे, क्या करेंगे?’ वह तुरंत बोली थी, ‘ये कोई पूछने की बात है? इन्हें अपनी कंपनी में रख लीजिए. जो दूसरों को देते हैं, वही इन्हें दे दीजिएगा.’ पापा तीखे स्वर में बोले थे,  ‘क्यों? काल सैंटर में कितना मिलता था, 5,000 या 6,000?’ रोहन उन की नजरों के ताप को नहीं सह सका था. वह उस के पीछे मुंह   झुका कर खड़ा हो गया था. उस की कातर निगाहों को देख कर उसे अच्छा नहीं लगा था.

अगले दिन ही रोहन ने पापा का औफिस जौइन कर लिया था. 2-3 दिन बाद उस ने शिकायती लहजे में बताया था कि सब उसे मैनेजर साहब पुकारते जरूर हैं लेकिन काम उसे चपरासियों वाला करना पड़ता है.
वह गुमसुम और च़ुप रहने लगा था. एक दिन रात को जब सब खाना खा रहे थे तब राघव भैया रोहन की ओर देखते हुए बोले, ‘रूपा, तू ने कैसे आदमी से शादी कर ली है. इस से तो अच्छा अपना अनपढ़ गोपाल है, जो कम से कम सही फाइल तो ला कर देता है.’

उस दिन पहली बार रोहन नाराजगी दिखाते हुए डाइनिंग टेबिल से उठ कर बिना खाना खाए चला गया था. मम्मी उस से बोली थीं,  ‘जा बुला ला, शायद उसे बुरा लग गया है.’ लेकिन वह अकड़ दिखाते हुए वहीं बैठी रह गई थी.

फिर शाम और रात हुई, लेकिन वह नहीं लौटा. दरअसल, वह घर छोड़ कर चला गया था और उस के नाम एक पत्र छोड़ कर गया था जिस में लिखा था, ‘रूपा, मैं ने तुम्हें खुश करने के लिए अपने वजूद, स्वाभिमान एवं स्वत्व का सौदा कर लिया, परंतु मु  झे अपमान के अलावा और मिला क्या? मेरे जाने के बाद तुम खुश रह सकोगी इस उम्मीद के साथ अलविदा… रोहन’.

रोहन के जाने के बाद रिश्तेदारों और परिचितों में जो भी यह खबर सुनता वही सहानुभूति दिखाने के लिए आ जाता और रोहन के लिए कोईकोई उलटासीधा बोलता जिसे सुन कर उसे अच्छा नहीं लगता था. घर से बाहर निकलती तो सब अजीब निगाहों से उसे घूरते दिखते.

एक दिन वह अपनी सहेली ईशा के घर पहुंची. उस की सास और ननद उस को देखते ही फुसफुसाने लगीं कि आदमी छोड़ गया तो भी कैसे बनसंवर कर घूम रही है, कोई लाजशरम तो जैसे छू भी नहीं गई है. उस की सास ने आखिर में उसे जोर से सुना भी दिया था, ‘बहू, मु  झे तुम्हारी इस तरह की सहेलियां जरा भी पसंद नहीं हैं, जो अपना घर तोड़ कर दूसरे का घर तोड़ने चली हों. सम  झदार के लिए इशारा ही काफी था. वह उलटे पैर घर लौट आई थी.

दोनों भाभियों को अपने बच्चों, किटी पार्टी और शौपिंग से फुरसत नहीं रहती थी. उन्हें तो रूपा बिन बुलाए मेहमान की तरह लगती थी. धीरेधीरे उस की हैसियत घर में नौकरानी जैसी हो गई थी. एक दिन उस ने अपने कानों से सुन लिया था. दोनों भाभी आपस में बात कर रही थीं कि बैठीबैठी महारानीजी करेंगी क्या? कम से कम नाश्ता और खाना तो बना ही सकती हैं. उसे गुस्सा तो बहुत जोर का आया था, लेकिन उसे लगा था कि सिर्फ इन की नहीं मम्मीपापा, भाई सब की निगाहें बदल गई हैं.

अब वह यहां आ कर रहने के अपने फैसले पर वह बहुत पछता रही थी. उसे हर पल रोहन को याद आती रहती थी. रोहन को गए हुए 1 साल बीत चुका था. वह अपने जीवन से निराश हो गई थी. उस के मन में आत्महत्या करने का विचार प्रबल होता जा रहा था. वह सोचने लगी थी कि जीवन का अंत ही उस की समस्याओं से उसे नजात दिलवा सकता था. एक दिन निराशा और हताशा के पलों में कब उस को   झपकी लग गई थी उसे पता ही नहीं लगा था. अचानक उस ने सपने में रोहन को पुकारते हुए सुना. वह चौंक कर उठ बैठी थी. उस का प्यार रोहन पर उमड़ पड़ा था. वह तड़प उठी थी कि अपने रोहन के पास कैसे उड़ कर पहुंच जाए. उस ने मन ही मन निश्चय किया कि वह अपने पैरों पर खड़ी होगी. कुछ बन कर दिखाएगी. और रोहन मिला तो वह उस से अपनी गलतियों के लिए माफी मांगेगी.

अंधेर नगरी का इंसाफ: अंबिका के साथ जो कुछ हुआ क्या उस में यशोधर भी दोषी था

मेरा जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था, साधारण से भी कम कह सकते हो. मेरे पिता बढ़ई थे, वह भी गांवनुमा छोटे से एक कसबे में. बड़ी मुश्किल से रोजीरोटी का जुगाड़ हो पाता था. मां और बाबा दोनों का एक ही सपना था कि बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त कर अपना जीवन स्तर सुधार लें. अत: वे अपना पैतृक मकान छोड़ महानगर में आ बसे. नगर के इस हिस्से में एक नई कालोनी बन रही थी और बड़े जोरशोर से निर्माण कार्य चल रहा था. अनेक बहुमंजिला इमारतें बन चुकी थीं व कुछ बननी बाकी थीं. बाबा को रहने के लिए एक ऐसा प्लौट मिल गया, जो किसी ने निवेश के विचार से खरीद कर उस पर एक कमरा बनवा रखा था ताकि चौकीदारी हो सके.

इस तरह रहने का ठिकाना तो मिला ही, खाली पड़ी जमीन की सफाई कर मां ने मौसमी सब्जियां उगा लीं. कुछ पेड़ भी लगा दिए. बाबा देर से घर लौटते और कभी ठेके का काम मिलने पर देर तक काम कर वहीं सो भी जाते. हमारे परिवार में स्त्रियों को बाहर जा कर काम करने की इजाजत नहीं थी. अत: मां घर पर ही रहतीं. घर पर रह कर ही कड़ा परिश्रम करतीं ताकि बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने का उन का सपना पूरा हो सके. हालांकि कई बार इस के लिए मां को परिवार वालों के कटुवचन भी सुनने पड़ते थे.

मुझे याद है, ताऊजी गांव से आए हुए थे. बाबा तो दिन भर काम में व्यस्त रहते अत: वे मां को ही समझाया करते, ‘‘बहुत हो चुकी देवाशीष की पढ़ाई, अब उस से कहो, बाप के साथ काम में हाथ बंटाए ताकि उसे भी कुछ आराम मिल सके. कब तक वह अकेला सब को बैठा कर खिलाता रहेगा. आगे तुम्हें 3 बच्चों की शादी भी करनी है. पता है कितना खर्च होता है बेटी के ब्याह में?’’

मां ताऊजी के सामने ज्यादा बात नहीं करती थीं. वे दबी जबान से मेरा पक्ष लेते हुए बोलीं, ‘‘पर देवाशीष तो अभी आगे और पढ़ना चाहता है… बहुत शौक है उसे पढ़ने का…’’

‘‘ज्यादा पढ़ कर उसे कौन सा इंजीनियर बन जाना है,’’ ताऊजी क्रोध और व्यंग्य मिश्रित स्वर में बोले, ‘‘उलटे अभी बाप के साथ काम में लगेगा तो काम भी सीख लेगा.’’

ताऊजी के शब्द मेरे कानों में कई दिन तक प्रतिध्वनित होते रहे. ‘पढ़लिख कर कौन सा उसे इंजीनियर बन जाना है… पढ़लिख कर…’ और मन ही मन मैं ने इंजीनियर बन जाने का दृढ़ संकल्प कर लिया. मैं हमेशा ही ताऊजी का बहुत सम्मान करता आया हूं. अपनी तरफ से तो वह परिवार के हित की ही सोच रहे थे लेकिन उन की सोच बहुत सीमित थी.

मुझ से छोटी एक बहन और एक भाई था. बड़ा होने के नाते बाबा का हाथ बंटाने की मुझ पर विशेष जिम्मेदारी थी, पर पढ़नेलिखने का मुझे ही सब से अधिक शौक था. अत: मांबाबा का सपना भी मैं ही पूरा कर सकता था और मांबाबा का विश्वास कायम रखने के लिए मैं दृढ़ संकल्प के साथ शिक्षा की साधना में लग गया.

सब पुस्तकें नहीं खरीद पाता था. कुछ तो पुरानी मिल जातीं, बाकी लाइबे्ररी में बैठ कर नोट्स तैयार कर लेता. क्लास में कुछ समझ न आता तो स्कूल के बाद टीचर के पास जा कर पूछता. ताऊजी की बात का बुरा मानने के बजाय उसे मैं ने अपना प्रेरणास्रोत बना लिया और 12वीं पास कर प्रवेश परीक्षा की तैयारी में जुट गया.

वह दिन मेरे जीवन का सब से महत्त्वपूर्ण दिन था, जिस दिन परिणाम  घोषित हुए और पता चला कि एक नामी इंजीनियरिंग कालेज में मेरा चयन हो गया है. मांबाबा का सिर तो ऊंचा हुआ ही, ताऊजी जिन्होंने इस विचार पर ही मां को ताना मारा था, अब अपने हर मिलने वाले को गर्व के साथ बताते कि उन का सगा भतीजा इंजीनियरिंग की बड़ी पढ़ाई कर रहा है.

जीवन एक हर्डल रेस यानी बाधा दौड़ है, एक बाधा पार करते ही दूसरी सामने आ जाती है. इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला मिला तो मैं ने सोचा किला फतह हो गया. सोचा ही नहीं था कि साथियों की उपहास भरी निगाहें मुझे इस कदर परेशान करेंगी और जो खुला मजाक न भी उड़ाते वे भी नजरअंदाज तो करते ही. स्कूल में कमोवेश सब अपने जैसे ही थे.

कालेज में छात्र ब्रैंडेड कपड़े पहनते, कई तो अपनी बाइक पर ही कालेज आते. मेरे पास 5 जोड़ी साधारण कपडे़ और एक जोड़ी जूते थे, जिन में ही मुझे पूरा साल निकालना था. मैं जानता था कि फीस और अन्य खर्चे मिला कर यही बाबा के सामर्थ्य से ऊपर था, जो वे मेरे लिए कर रहे थे. अत: मुझे अपनी कड़ी मेहनत और आत्मविश्वास के बल पर ही यह बाधा पार करनी थी. मैं ने अपने मस्तिष्क में गहरे से बैठा रखा था कि इन बाधाओं को सफलतापूर्वक पार कर आगे मुझे हर हाल में बढ़ना ही है.

वर्ष के अंत तक मैं ने अपनी मेहनत और लगन से अपने टीचरों को खुश कर दिया था. अन्य छात्र भी कड़ी मेहनत कर यहां प्रवेश पा सके थे और मेहनत का अर्थ समझते थे. हालांकि मैत्री का हाथ कम ने ही बढ़ाया लेकिन उन की नजरों से उपहास कम होने लगा था.

नया सत्र शुरू हुआ. हमारे बैच में5 छात्राएं थीं. नए बैच में 10 ने प्रवेश लिया था. अब तक कुछ सीमित क्षेत्रों में ही लड़कियां जाती थीं पर अब मातापिता उन क्षेत्रों में भी जाने की इजाजत देने लगे थे जो पहले उन के लिए वर्जित थे. एक दिन मैं लाइबे्ररी से पुस्तक ले कर बाहर निकला तो देखा कि प्रिंसिपल साहब की सख्त चेतावनी के बावजूद हमारे ही बैच के 4 लड़के रैगिंग करने के इरादे से एक नई छात्रा को घेरे खड़े थे और लड़की बहुत घबराई हुई थी. मैं जानता था कि उन लड़कों में से 2 तो बहुत दबंग किस्म के हैं और किसी भी सीमा तक जा सकते हैं. मेरे मन में फौरन एक विचार कौंधा. मैं तुरंत उस लड़की की ओर यों बढ़ा जैसे वह मेरी पूर्व परिचित हो और बोला, ‘अरे, मनु, पहुंच गई तुम.’ और उसे बांह से पकड़ कर सीधे लड़कियों के कौमन रूम में ले गया. मैं ने रास्ते में उसे समझा भी दिया कि अभी 15-20 दिन अकेले बाहर बिलकुल मत निकलना. जब भी बाहर जाएं 3-4 के ग्रुप में जाएं. एक बार रैगिंग का ज्वार उतर जाने पर फिर सब सुरक्षित है.

उस समय तो मेरी उस लड़की से खास बात नहीं हुई. यहां तक कि उस का असली नाम भी बाद में पता चला, अंबिका, पर वह मेरा आभार मानने लगी थी. रास्ते में मिल जाने पर मुसकरा कर ‘हैलो’ करती. उस की मुसकराहट में ऐसा उजास था कि उस का पूरा चेहरा ही दीप्त हो उठता, बच्चे की मुसकराहट जैसी मासूम और पावन. मेरे लिए यह एक नया अनुभव था. मैं ने तो लड़कों के सरकारी स्कूल में ही तमाम शिक्षा पाई थी. संभ्रांत घर की युवतियों से तो कभी मेरा वास्ता पड़ा ही नहीं था. अपने बैच की लड़कियों की उपस्थिति में भी मैं अब तक सहज नहीं हो पाया था और उन से मित्रवत बात नहीं कर पाता था.

अंबिका कभी लाइब्रेरी में मुझे देखती तो खुद ही चली आती किसी विषय की पुस्तक के लिए पूछने. वह मेरे सीनियर होने की हैसियत से मेरा सम्मान करती थी और महज एक मित्र की तरह मेरी तरफ हाथ बढ़ा रही थी. उस के लिए यह बात स्वाभाविक हो सकती है, पर स्त्रीपुरुष मैत्री मेरे लिए नई बात थी.

मेरे मन में उस के लिए प्यार का अंकुर फूट रहा था, धीरेधीरे मैं उस की ओर बढ़ रहा था. मैं अपनी औकात भूला नहीं था, पर क्या मन सुनतासमझता है इन बातों को? सुनता है बुद्धि के तर्क? और प्यार तो मन से किया जाता है न. उस में धनदौलत, धनीनिर्धन का सवाल कहां से आ जाता है? फिर मैं उस से बदले में कुछ मांग भी तो नहीं रहा था.

यह तो नहीं कह रहा था कि वह भी मुझे प्यार करे ही. सब सपने किस के सच हुए हैं? पर उस से हम सपने देखना तो नहीं छोड़ देते न. मेरा सपना तब टूटा जब मैं ने उसे अनेक बार यशोधर के साथ देखा. यशोधर अंतिम वर्ष का छात्र था. छुट्टी होने पर मैं ने उसे अंबिका का इंतजार करते देखा और फिर वह उसे बाइक पर पीछे बैठा ले जाता. जैसेजैसे वे समीप आते गए मैं स्वयं को उन से दूर करता गया जैसे दूर बैठा मैं कोई रोमानी फिल्म देख रहा हूं, जिस के पात्रों से मेरा कोई सरोकार ही न हो.

कोर्स खत्म हुआ. मेरी मेहनत रंग लाई. मैं इंजीनियर भी बन गया और कैंपस इंटरव्यू में मुझे अच्छी नौकरी भी मिल गई. मैं ने एक बाजी तो जीत ली थी, पर मैं हारा भी तो था. मैं ने चांद को छूने का ख्वाब देखा था बिना यह सोचे कि चांदतारों में ख्वाब ढूंढ़ने से गिरने का डर तो रहेगा ही.

यशोधर की तो मुझ से पहले ही नौकरी लग चुकी थी. अंबिका का अभी एक वर्ष बाकी था और दोनों की बड़ी धूमधाम से सगाई हुई. एक बड़ा सा तोहफा ले कर मैं तहेदिल से उन दोनों को भावी जीवन की ढेर सारी शुभकामनाएं दे आया. प्रेम और वासना में यही तो अंतर है. वासना में आप प्रिय का साथ तलाशते हैं, शुद्ध निर्मल प्रेम में प्रिय की खुशी सर्वप्रिय होती है, जिस के लिए आप निजी खुशियां तक कुरबान कर सकते हैं और मैं देख रहा था कि वह यशोधर के साथ बहुत खुश रहती है.

यों कहना कि मैं ने अपने प्रेम को दफना दिया था, सही नहीं होगा. दफन तो उस चीज को किया जाता है, जिस का अंत हो चुका हो. मेरा प्यार तो पूरी शिद्दत के साथ जीवित था. मैं चुपचाप उन के रास्ते से हट गया था.

सगाई के बाद तो उन दोनों को साथसाथ घूमने की पूरी छूट मिल गई थी. ऐसे ही एक शनिवार को वे रात का शो देख कर लौट रहे थे कि एक सुनसान सड़क पर 4 गुंडों ने उन का रास्ता रोक कर उन्हें बाइक से उतार लिया. यश के सिर पर डंडे से प्रहार कर उसे वहीं बेहोश कर दिया और अंबिका को किनारे घसीट कर ले गए. यश को जब तक होश आया तब तक दरिंदे अंबिका के शरीर पर वहशीपन की पूरी दास्तान लिख कर जा चुके थे. यशोधर ने उस के कपड़े ठीक कर मोबाइल पर उस के घर फोन किया. अंबिका के पिता और भाई तुरंत वहां पहुंच गए और यश को अपने घर छोड़ते हुए अंबिका को ले गए.

अंबिका अस्पताल में थी और किसी से मिलने के मूड में नहीं थी. मैं ने अस्पताल के कई चक्कर लगाए लेकिन सिर्फ उस की मां से ही मुलाकात हो पाई. मैं चाहता था कि वह अपने मन के गुबार को भीतर दबाने के बजाय बाहर निकाल दे तो बेहतर होगा. चाहे क्रोध कर के, चाहे रोधो कर. यही बात मैं उस की मां से भी कह आया था.

मां के समझाने पर वह मान गई और करीब एक सप्ताह बाद मुझ से मिलने के लिए खुद को तैयार कर पाई और वही सब हुआ. उन दुष्टों के प्रति क्रोध से शुरू हो कर अपनी असहाय स्थिति को महसूस कर वह बहुत देर तक रोती रही. मैं ने उस के आंसुओं को बह जाने दिया और उन का वेग थमने पर ही बातचीत शुरू की. उस का दुख देख समस्त पुरुष जाति की ओर से मैं खुद को अपराधी महसूस कर रहा था. न सिर्फ हम इन की दुर्बलता का लाभ उठाते हुए इन पर जुल्म ढहाते हैं विडंबना तो यह है कि अपने अपराध के लिए ताउम्र उन्हें अभिशप्त भी कर देते हैं और उस पर तुर्रा यह कि हम स्वयं को इन से उच्च मानते हैं.

अंबिका आ गई थी और अवसर मिलते ही मैं उस से मिलने चला जाता. उस की मां भी मेरा स्वागत करती थीं, उन्हें लगता था कि मेरे जाने से अंबिका कुछ देर हंसबोल लेती है.

बातोंबातों में मैं अंबिका के मन में यह बात बैठाने का प्रयत्न करता रहता, ‘तुम्हें मुंह छिपा कर जीने की जरूरत नहीं है. तुम बाहर निकलोगी और पहले की ही तरह सिर उठा कर जीओगी. बहुत हो चुका अन्याय, अपराधियों को दंडित करने में अक्षम हमारा समाज अपना क्रोध असहाय लड़कियों पर न उतार पाए, यह देखना हम सब की जिम्मेदारी है. यदि हम युवकों को संस्कारी नहीं बना पा रहे हैं, तो इस का यह हल भी नहीं कि युवतियों को घर की चारदीवारी में कैद कर लें.’

एक महीना बीत चुका था इस हादसे को, अंबिका के शरीर के घाव तो भरने लगे थे लेकिन एक बड़ा घाव उस के मन पर भी लगा था. यशोधर एक महीने में एक बार भी उस से मिलने नहीं आया था. तसल्ली देना तो दूर यश व उस के मातापिता का कभी  टैलीफोन तक नहीं आया. एक सांझ मैं अंबिका के घर पर ही था जब यशोधर के घर से एक व्यक्ति आ कर उन की मंगनी की अंगूठी, कपड़े व जेवर लौटा गया. अंबिका के हरे घावों पर एक और चोट हुई थी. अंबिका की मां को लगा कि वह निराशा में कोई सख्त कदम न उठा ले. अत: उन्होंने मुझ से विनती की कि मैं जितना हो सके उन के घर आ जाया करूं. कालेज का सत्र समाप्त होने में कुछ ही माह बाकी थे पर 2 महीने तक तो वह किसी भी तरह कालेज जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाई.

मेरे बहुत समझाने पर उस ने कालेज जाना शुरू तो किया पर उसे हर किसी की निगाह का सामना करना मुश्किल लगता. मुश्किल से कालेज तो जाती रही लेकिन पढ़ाई ठीक से न हो पाने के कारण परीक्षा पास न कर सकी और उस का साल बरबाद हो गया. अंबिका से मेरे विवाह की 5वीं वर्षगांठ है और हमारी एक प्यारी सी बिटिया भी है. मैं ने उस पर कोई दया कर के विवाह नहीं किया. आप तो जानते ही हैं कि मैं उसे हमेशा से ही चाहता आया हूं, मैत्री भाव उस के मन में भी था. हर रोज मिलते रहने से, कष्ट के समय उस का साथ देने से उस का झुकाव मेरी ओर बढ़ने लगा था.

2 वर्ष बाद विवाह हुआ था हमारा, लेकिन उस के बाद भी लगभग 3 वर्ष लग गए मुझे उस के मन से उस रात का भय भगाने में. रात को चीख कर उठ बैठती थी वह. उस दौरान उस का बदन पसीने से तरबतर होता. क्या उन दरिंदों को कभी यह सोच कर अपराधबोध होता होगा कि पल भर की अपनी यौन तृप्ति के लिए उन्होंने एक लड़की को सिर्फ तन से ही नहीं मन से भी विक्षिप्त कर दिया है. पर मैं ने भी धीरज बनाए रखा और उस दिन का इंतजार किया जिस दिन तक अंबिका के मन में स्वयं ही मेरे लिए नैसर्गिक इच्छा नहीं जागी.

एक बात का उत्तर नहीं मिला आज तक, अपराध तो पुरुष करता है पर उसे दंडित करने के बजाय समाज एक निरपराध लड़की की पीठ पर मजबूती से सलीब ठोंक देता है, जिसे वह उम्र भर ढोने को मजबूर हो जाती है. अपराधी खुला घूमता है और पीडि़ता दंड भोगती है. इसे अंधेर नगरी का इंसाफ कहा जाए या सभ्य समाज का? कौन देगा इस का उत्तर?

जूता शास्त्र

पता नहीं लोग कहां से टूटे, फटेपुराने जूते उठा लाते हैं और मंचों पर फेंकने लगते हैं. कुछ को जूते लग भी जाते हैं तो कुछ माइक स्टैंड का सहारा ले कर बच भी जाते हैं. जोश में कुछ लोग अपने नए जूते भी उछाल देते हैं. मैं ने भी बचपन में कई बार इमली और अमिया तोड़ने के लिए पत्थर की जगह चप्पलें उछालीं. पर जब वे चप्पलें पेड़ पर अटक गईं और लाख कोशिशों के बाद भी नीचे नहीं गिरीं, तो चप्पलें उछालना छोड़ दिया, क्योंकि चप्पलों का उछालना कई बार बड़ा महंगा पड़ा.

लोग चप्पलजूतों की जगह सड़े टमाटर और सड़े अंडे उछालते हैं, जो सामने वाले को घायल कम रंगीन अधिक कर देते हैं. महंगाई का जमाना है. पुराने जूते काम आ सकते हैं पर सड़े टमाटर फेंकने के अलावा और किसी काम के नहीं रहते. अब इन्हें कहां फेंका जाए, यह आप की जरूरत पर निर्भर करता है.

सड़कों पर जूते चलना आम बात है. सड़कों पर न चलेंगे तो और कहां चलेंगे? हां, जूते स्वयं नहीं चलते, चलाए जाते हैं. चाहे हाथ से चलाए जाएं या फिर पांव से, पर चलेंगे जरूर. पहले जब जूतों का चलन नहीं था तब जूतों से संबंधित मुहावरे भी नहीं बने थे. एक स्पैशल अस्त्रशस्त्र से भी लोग अछूते थे. लड़ाई के लिए बेशक हाथ में कुछ हो या न हो, पर पैरों में जूते हों तो काम चल जाता है. पैर से निकाला और चालू. चलाने के लिए किसी बटन को दबाने की आवश्यकता नहीं. एक जूता चलता है तो सैकड़ों जूते चलने को बेताब हो जाते हैं.

किसी दिलजले ने औरत को पांव की जूती का खिताब दे दिया, पर वह यह भूल गया कि जब पांव की जूती सिर पर विराजमान होती है तो क्या हश्र होता है.

लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए चांदी का जूता भी चलाते हैं, जिस की मार बड़ी मीठी और सुखदाई होती है. यह तो भुक्तभोगी ही समझ सकता है. वैसे भी आजकल चांदी के दाम आसमान छू रहे हैं.

 

एक बार मैं जूते खरीदने एक दुकान पर गई. छूटते ही दुकानदार ने पूछा, ‘‘बहनजी, कौन से दिखाऊं, पहनने वाले या खाने वाले?’’

पहले मैं जरा चौंकी, फिर उत्सुकता जगी तो बोली, ‘‘और क्याक्या क्वालिटी है? कोई लेटैस्ट ट्रैंड?’’ मुझे भी आनंद आने लगा था.

दुकानदार बोला, ‘‘देखिए मैडम, जूता

खाने की नहीं खिलाने की चीज है. जूता ऐसा शस्त्र है जिस का अपना शास्त्र है,’’ और फिर वह अलगअलग बैंरड के जूते निकाल कर दिखाने लगा.

‘‘देखिए मैडम, यह एक नया बैंरड है, इज्जत उतार जूता. टारगेट को हिट कर के वापस आने की पूरी गारंटी है. आजकल इस की बहुत डिमांड है. यह दूसरा देखिए, जूता नहीं मिसाइल है. बेशर्मों की धज्जियां उड़ा दे, उन्हें धो कर रख दे.’’

मुझे सोच में डूबा देख कर दुकानदार बोला, ‘‘मैडम, जूते किस के लिए लेंगी आप, अपने लिए या साहब के लिए?’’

मैं ने चौंक कर दुकानदार की ओर देखा. उस की आंखों की चमक बता रही थी कि जूतों की खरीदारी में ही समझदारी है. वे चाहे साहब के सिर की सवारी करें या मैडम के पैरों की.

जूतों का ऐसा शास्त्र मेरे सामने पहले नहीं आया था. तभी कुछ सिरफिरे जूता ले कर मंत्रियों पर दौड़ पड़ते हैं. जूता और जूते वाला दोनों रातोंरात प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंच जाते हैं. अंतर्राष्ट्रीय ख्याति वाले बन जाते हैं. संसद में जूतों का चलना मीडिया वाले खूब दिखाते हैं.

जूतों की 3 बहनें जूतियां, चप्पलें और सैंडल हैं, जो अकसर जूतों की मर्दानगी के साथसाथ स्वयं भी 2-4 हाथ आजमा लेती हैं. वैसे ज्यादातर सैंडल, चप्पलें और जूतियां ही शो केस में सजीधजी मुसकराती, ललचाती रहती हैं. किशोरियां उन की मजबूती पर कम, खूबसूरती पर अधिक ध्यान देती हैं, इसीलिए हाथ में कम लेती हैं. जैसे नईनई जूतियां ज्यादा चरमराती हैं, वैसे ही चप्पलें भी जल्दी उखड़ जाती हैं. खैर, यह तो पहननेपहनाने या खरीदने वाले जानें पर मैं तो कहूंगी कि बाप के पैर का जूता अब बेटे के पैर में आ कर गायब होने लगा है. इस का दुनिया में शोर मचा है.

बस, अब जूतों की बात इतनी ही, क्योंकि पतिदेव के हाथों में जूतों का डब्बा मुझे दिखने लगा है. अभीअभी बाजार से लौटे हैं. पता नहीं ऊंट किस करवट बैठे.

हमसफर: रोहित ने ऐसा क्या किया कि वह मानसी को फिर से प्यारा लगने लगा?

औफिस बंद होने के बाद मानसी समीर के साथ लौंग ड्राइव पर निकली थी. हमेशा की तरह उस का साथ उसे बहुत सुकून दे रहा था.

मानसी मन ही मन सोच रही थी, ‘एक ही छत के नीचे सोने के बाद भी रोहित मुझे बेगाना सा लगता है. अगर मुझे जिंदादिल समीर का साथ न मिला होता, तो मेरी जिंदगी बिलकुल मशीनी अंदाज में आगे बढ़ रही होती.’

करीब घंटे भर की ड्राइव का आनंद लेने के बाद समीर ने चाय पीने के लिए एक ढाबे के सामने कार रोक दी. उन्हें पता नहीं लगा कि कार से उतरते ही वे रोहित के एक दोस्त कपिल की नजरों में आ गए हैं. कुछ देर सोचविचार कर कपिल ने रोहित को फोन कर बता दिया कि उस ने मानसी को शहर से दूर किसी के साथ एक ढाबे में चाय पीते हुए देखा है.

उस रात रोहित जल्दी घर लौट आया था. मानसी ने साफ महसूस किया कि वह रहरह कर उसे अजीब ढंग से घूर रहा है. मन में चोर होने के कारण उसे यह सोच कर डर लगने लगा कि कहीं रोहित को समीर के बारे में पता न चल गया हो. फिर जब वह रसोई से निबट कर ड्राइंगरूम में आई तो रोहित ने उसे उसी अजीब अंदाज में घूरते हुए पूछा, ‘‘तुम मुझ से अब प्यार नहीं करती हो न?’’

‘‘यह कैसा सवाल पूछ रहे हो?’’ मानसी का मन और ज्यादा बेचैन हो उठा.

‘‘तुम मुझे देख कर आजकल प्यार से मुसकराती नहीं हो. कभी मेरे साथ लौंग ड्राइव पर जाने की जिद नहीं करती हो. औफिस से देर से आने पर झगड़ा नहीं करती हो. क्या ये सब बातें यह जाहिर नहीं करती हैं कि तुम्हारे दिल में मेरे लिए प्यार नहीं बचा है?’’

मानसी ने हिम्मत कर के शिकायती लहजे में जवाब दिया, ‘‘आप के पास वक्त ही कहां है, मुझे कहीं घुमा लाने का? रही बात आप के औफिस से देर से आने पर झगड़ा करने की, तो वह मैं ने बहुत कर के देख लिया… बेकार घर का माहौल खराब करने से क्या फायदा?’’

‘‘अगर तुम जल्दी आने को दबाव डालती रहतीं तो शायद मेरी आदत बदल जाती. तुम साथ घूमने की जिद करती रहतीं तो कभी न कभी हम घूमने निकल ही जाते. मुझे तो आज ऐसा लग रहा है मानो तुम ने अपने मनबहलाव के लिए किसी प्रेमी को ढूंढ़ लिया है.’’

‘‘ये कैसी बेकार की बातें मुंह से निकाल रहे हो?’’ मानसी की धड़कनें तेज हो गई थीं.

‘‘तब मुझे बताओ कि मेरी पत्नी होने के नाते तुम ने अपना हक मांगना क्यों छोड़ दिया है?’’

‘‘मेरे मांगने से क्या होगा? तुम्हारे पास मुझे देने को वक्त ही कहां है?’’

‘‘मैं निकालूंगा तुम्हारे लिए वक्त पर

एक बात तुम अच्छी तरह से समझ लो, मानसी,’’ बेहद संजीदा नजर आ रहे रोहित ने हाथ बढ़ा कर अचानक उस का गला पकड़ लिया, ‘‘मैं तुम्हारे लिए ज्यादा वक्त नहीं निकाल पाता हूं पर मेरे दिल में तुम्हारे लिए जो प्यार है, उस में कोई कमी नहीं है. अगर तुम ने मुझ से दूर जाने की बात भी सोची तो मैं तुम्हारी जान ले लूंगा.’’

मानसी ने उस की आंखों में देखा तो वहां भावनाओं का ऐसा तेज तूफान नजर आया कि वह डर गई. तभी रोहित ने अचानक उसे झटके से गोद में उठाया तो उस के मुंह से चीख ही निकल गई.

उस रात रोहित ने बहुत रफ तरीके से उसे प्यार किया था. ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वह अपने भीतर दबे आक्रोश को बाहर निकालने के लिए प्रेम का सहारा ले रहा था.

मानसी उस रात बहुत दिनों के बाद रोहित से लिपट कर गहरी और तृप्ति भरी नींद सोई. उसे न समीर का ध्यान आया और न ही अपनी विवाहित जिंदगी से कोई शिकायत महसूस हुई थी.

अगले दिन मानसी औफिस पहुंची तो बहुत रिलैक्स और खुश नजर आ रही थी. रोहित के होंठों से बने उस की गरदन पर नजर आ रहे लाल निशान को देख कर उस की सहयोगी किरण और ममता ने उस का बहुत मजाक उड़ाया था.

लंच के बाद उस के पास समीर का फोन आया. उस ने उत्साहित लहजे में मानसी से पूछा, ‘‘आज शाम बरिस्ता में कौफी पीने चलोगी?’’

‘‘आज नहीं,’’ मानसी की आवाज में न चाहते हुए भी रूखापन पैदा हो गया.

कौफी पीने की शौकीन मानसी के मुंह से इनकार सुन कर समीर हैरान होता हुआ बोला, ‘‘मुझे लग रहा है कि तुम्हारी तबीयत ठीक

नहीं है.’’

‘‘नहीं, मेरी तबीयत ठीक है.’’

‘‘तो फिर मुझे तुम्हारा मूड क्यों खराब लग रहा है?’’

‘‘मेरा मूड भी ठीक है.’’

‘‘तब साफसाफ बता दो कि मेरे साथ कौफी पीने चलने के लिए रूखे अंदाज में क्यों इनकार कर रही हो?’’

मानसी ने उसे सच बता देना ही उचित समझा और बोली, ‘‘मुझे लगता है कि रोहित को मेरे ऊपर शक हो गया है.’’

‘‘उस ने तुम से कुछ कहा है?’’

‘‘हां, कल रात पूछ रहे थे कि मैं कभी उन के साथ लौंग ड्राइव पर जाने की जिद क्यों नहीं करती हूं.’’

‘‘मुझे लग रहा है कि तुम बेकार ही उस के इस सवाल से डर रही हो. उस के पास तुम्हारी खुशियों, भावनाओं व इच्छाओं का ध्यान रखने की फुरसत ही कहां है.’’

‘‘फिर भी मुझे सावधान रहना होगा. वे बहुत गुस्से वाले इनसान होने के साथसाथ भावुक भी बहुत हैं. मैं तुम्हारे साथ बाहर घूमने जाती हूं, अगर उन्हें इस बात का पता लग गया तो मेरी जान ही ले लेंगे.’’

‘‘जैसी तुम्हारी मरजी,’’ ऐसा कह कर नाराज समीर ने झटके से फोन काट दिया था.

उस शाम रोहित उसे लेने औफिस आ गया था. उस की कार गेट से कुछ दूरी पर खड़ी थी. मानसी यह कल्पना कर के कांप गई कि अगर उस ने समीर के साथ घूमने जाने को ‘हां’ कर दी होती तो आज गजब हो जाता.

रोहित बहुत खुश लग रहा था. दोनों ने पहले कौफी पी, फिर बाजार में देर तक घूम कर विंडो शौपिंग की. उस के बाद रोहित ने उसे उस का पसंदीदा साउथ इंडियन खाना खिलाया.

घर लौटते हुए कार चला रहे रोहित ने अचानक उस से पूछा, ‘‘तुम पहले तो इतना कम नहीं बोलती थीं? क्या मेरे साथ बात करने को तुम्हारे पास कोई टौपिक नहीं है?’’

‘‘जब भी बोलती हूं, मैं ही बोलती हूं, जनाब,’’ मानसी ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘फिर भी मुझे लगता है कि तुम पहले की तरह मुझ से खुल कर बात नहीं करती हो?’’

‘‘इस वक्त मैं बहुत खुश हूं, इसलिए यह बेकार का टौपिक शुरू कर के मूड मत खराब करो. वैसे कम बोलने की बीमारी आप को है, मुझे नहीं.’’

‘‘तो आज मैं बोलूं?’’

‘‘बिलकुल बोलो,’’ मानसी उसे ध्यान से देखने लगी.

घर पहुंच कर रोहित ने कार रोकी पर उतरने की कोई जल्दी नहीं दिखाई. वह बहुत भावुक अंदाज में मानसी की आंखों में देखे जा रहा था. फिर उस ने संजीदा स्वर में बोलना शुरू किया, ‘‘मैं ने अपने बचपन में बहुत गरीबी देखी थी, मानसी. मेरे ऊपर दौलतमंद बनने का जो भूत आज भी सवार रहता है, उस के पीछे बचपन के मेरे वह कड़वे अनुभव हैं जब ढंग से 2 वक्त की रोटी भी हमें नहीं मिल पाती थी.’’

‘‘सच तो यह है कि उन कड़वे अनुभवों के कारण मेरे अंदर हमेशा हीन भावना बनी रहती है. मानसी, तुम बहुत सुंदर हो और तुम्हारा व्यक्तित्व मुझ से ज्यादा आकर्षक है. उस हीन भावना के कारण मेरे मन में न जाने यह भाव कैसे पैदा हो गया कि अगर मैं ने तुम्हारे बहुत ज्यादा नाजनखरे उठाए तो तुम मुझ पर हावी हो जाओगी. अपनी इस नासमझी के चलते मैं तुम से कम बोलता रहा.

‘‘कल रात मुझे अचानक यह एहसास हुआ कि कहीं मेरी इस नासमझी के कारण तुम मुझ से बहुत दूर चली गईं तो मैं बिखर कर पूरी तरह से टूट जाऊंगा. तुम मुझ से कभी दूर न जाना, मानसी.’’

‘‘मैं कभी आप से दूर नहीं जाऊंगी,’’ कह कर मानसी उस के हाथ को बारबार चूम कर रोने लगी तो रोहित की पलकें भी भीग उठीं.

अपनी आंखों से बह रहे आंसुओं के साथ मानसी ने मन में रोहित के प्रति भरी सारी शिकायतें बहा डालीं.

समीर ने 2 दिन बाद मानसी को लौंग ड्राइव पर चलने के लिए आमंत्रित किया पर मानसी तैयार नहीं हुई.

‘‘मैं रोहित को नाराज होने का कोई मौका नहीं देना चाहती हूं.’’ समीर के जोर देने पर उस ने साथ न चलने का कारण साफसाफ बता दिया.

‘‘और मेरे नाराज होने की तुम्हें कोई चिंता नहीं है?’’ समीर ने चुभते लहजे में पूछा.

‘‘पति को पत्नी के चरित्र पर किसी पुरुष से दोस्ती के कारण शक होता हो तो पत्नी को उस दोस्ती को तोड़ देना चाहिए.’’

‘‘तुम यह क्यों भूल रही हो कि इसी पति के रूखे व्यवहार के कारण तुम कुछ दिन पहले जब दुखी रहती थीं, तब मैं ही तुम्हें उस अकेलेपन के एहसास से नजात दिलाता था. आज वह जरा प्यार से बोल रहा है, तो तुम मुझे दूध में गिरी मक्खी की तरह निकाल फेंकने को तैयार हो गई हो.’’

‘‘मुझे इस विषय पर तुम से कोई बात नहीं करनी है.’’

‘‘तुम ने मेरी भावनाओं से खेल कर पहले अपना मनोरंजन किया और अब सतीसावित्री बनने का नाटक कर रही हो,’’ समीर उसे अपमानित करने पर उतारू हो गया.

‘‘मुझ से ऐसी टोन में बात करने का तुम्हें कोई हक नहीं है,’’ मानसी को अपने गुस्से पर नियंत्रण रखने में कठिनाई हो रही थी.

‘‘और तुम्हें मेरी भावनाओं से खेल कर मेरा दिल दुखाने का कोई हक नहीं है.’’

‘‘ओह, शटअप.’’

‘‘तुम मुझे शटअप कह रही हो?’’ समीर गुस्से से फट पड़ा, ‘‘अगर तुम नहीं चाहती हो कि रोहित की बुराई करने वाली तुम्हारी सारी मेल मैं उसे दिखा दूं, तो जरा तमीज से बात करो मुझ से, मैडम.’’

‘‘तुम ऐसा नहीं कर सकते हो,’’ उस की धमकी सुन कर मानसी

डर गई.

‘‘मैं ऐसा बिलकुल नहीं करना चाहता हूं. तुम क्यों मुझ से झगड़ा कर रही हो? मैं तुम्हारी दोस्ती को खोना नहीं चाहता हूं, मानसी,’’ समीर ने फिर से उस के साथ अपने संबंध सुधारने की कोशिश शुरू कर दी.

कुछ पलों की खामोशी के बाद मानसी ने आवेश भरे लहजे में जवाब दिया, ‘‘आज तुम्हारा असली चेहरा देख कर मुझे तुम से नफरत हो रही है. तुम्हारी मीठी बातों में आ कर मैं ने तुम्हें अपना दोस्त और सच्चा शुभचिंतक माना, यह मेरी बहुत बड़ी गलतफहमी थी.’’

‘‘तुम्हारी धमकी से डर कर मैं तुम्हारी जिद के सामने झुकूंगी नहीं, समीर. तुम्हें जो करना है कर लो, पर आगे से तुम ने मुझ से किसी भी तरह से संपर्क करने की कोशिश की तो फिर रोहित ही तुम्हारी खबर लेने आएंगे.’’

समीर को कुछ कहने का मौका दिए बगैर मानसी ने फोन काट कर स्विच औफ कर दिया.

उस रात मानसी रोहित की छाती से लग कर बोली, ‘‘आप दिल के बहुत अच्छे हो. मैं बेवकूफ ही आप को समझ नहीं पाई. मुझे माफ कर दो.’’

‘‘और तुम मुझे मेरी नासमझियों के लिए माफ कर दो. अपने रूखे व्यवहार से मैं ने तुम्हारा दिल बहुत दुखाया है,’’ रोहित ने प्यार से उस का माथा चूम कर जवाब दिया.

‘‘मैं आप को कुछ बताना चाहती हूं.’’

‘‘पर मुझे कुछ सुनना नहीं है, मानसी. सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहा जाता. मैं तो बस इतना चाहता हूं कि आगे से हम अपने दिलों की बातें खुल कर एकदूसरे से कहें और सच्चे माने में एकदूसरे के हमसफर बनें.’’

मानसी भावविभोर हो रोहित की छाती से लग गई. उस ने समीर के बारे में कुछ भी सुनने से इनकार कर के उसे अपनी नजरों में गिरने से बचा लिया था. रोहित के प्यार, विश्वास व संवेदनशील व्यवहार के कारण उस का कद उस की नजरों में बहुत ऊंचा हो गया था.

तोहफा: भाग 2- रजत ने सुनयना के साथ कौन-सा खेल खेला

‘‘इस में बुराई ही क्या है विदेशों में इस का बहुत चलन है. शादी अब ओल्ड फैशन और आउटडेटेड हो गई. किसी से प्यार हो गया तो साथसाथ रहने लगे. जब एक का दूसरे से मन भर जाए गया तो अलग हो गए. न किसी तरह खिचखिच न और किसी तरह का बखेड़ा.’’

‘‘और यदि बच्चे हुए तो?’’

‘‘तो बात अलग है. बच्चों की खातिर और उन्हें जायज करार देने के लिए विवाह बंधन में बंधा जा सकता है.’’

सुनयना सोच में पड़ गई. उस के माथे पर बल पड़ गए.

‘‘अगर तुम मानों तो हम दोनों कल से ही साथसाथ रह सकते हैं. मेरा खुद का फ्लैट है पाली हिल, बांद्रा में. हम वहां शिफ्ट हो सकते हैं,’’

‘‘नहीं,’’  सुनयना ने एक उसांस भरी, ‘‘मेरे मांबाप पुराने खयालात के हैं. वे इस बात के लिए कतई राजी नहीं होंगे.’’

‘‘तो एक और विकल्प है.’’

‘‘वह क्या?’’

‘‘क्यों न हम एक कौंट्रैक्ट मैरिज कर लें

1-2 साल के लिए. उस के बाद हमें ठीक लगे तो कौंट्रैक्ट को बढ़ा लेंगे. नहीं तो दोनों अलग हो जाएंगे. क्यों क्या खयाल है?’’

‘‘नहीं,’’ सुनयना ने आंसू बहाते हुए कहा, ‘‘मुझे यह ठीक नहीं लगता. मुझ में और एक कालगर्ल में फिर फर्क ही क्या रह जाएगा? आज इस के साथ तो कल किसी और के साथ, इस में बदनामी के सिवा और कुछ हासिल होने वाला नहीं है. इस सौदे में लड़की घाटे में ही रहेगी. वह एक असुरक्षा के भाव से घिरी रहेगी. लड़के का कुछ नहीं बिगड़ेगा.’’

‘‘डार्लिंग हम 21वीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं. तुम इतनी पढ़ीलिखी हो कर भी गंवारों जैसी बातें करती हो. खैर, अब इस पब्लिक प्लेस में यों रो कर एक तमाशा तो न खड़ा करो. चलो घर चलते हैं.’’

गाड़ी में सुनयना ने कहा, ‘‘रजत, तुम्हारे विचार जान कर मुझे बड़ा डर लग रहा है. शादी तुम करना नहीं चाहते और तुम्हारे दूसरे प्लान से मैं सहमत नहीं हूं. तब हमारा क्या होगा?’’

रजत ने उसे अपनी बांहों में ले लिया और बोला, ‘‘फिक्र क्यों करती हो, क्या तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं? 4 साल से हम दोनों साथसाथ हैं. क्या यह तुम्हारे लिए कुछ माने नहीं रखता? हम दोनों एकदूसरे के कितने करीब हैं. 2 तन 1 जान हैं. मैं तो कहता हूं कि हम यों ही भले हैं. जैसा चल रहा है चलने दो.’’

‘‘तुम्हारे लिए यह कहना आसान है पर मेरी तो शादी की उम्र बीती जा रही है. तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, तुम तो रोज लड़की से दिल बहला सकते हो. पर हम स्त्रियों की तो हर तरह से मुसीबत है. हम पर बदनामी का ठप्पा लगते देर नहीं लगती. शादी के बिना तुम्हारे साथ घर बसाऊंगी तो आवारा बदचलन कही जाऊंगी और अगर तुम से कौंट्रैक्ट मैरिज की और अवधि

खत्म होने पर तुम ने मुझे फटी जूती की तरह निकाल फेंका, तो मैं कहां जाऊंगी? कौन शरीफजादा मुझे अपनाएगा?’’

सुनयना रात में अपने कमरे में रोती रही. उसे अपना भविष्य अंधकारमय नजर आता था. उस की आशाओं का महल धराशायी हो गया था. उस ने अपने मन की गहराइयों से रजत से प्यार किया था. उस के साथ घर बसाने के सपने देखे थे. पर उस ने एकबारगी ही उस के सपने चकनाचूर कर दिए थे. अब वह क्या करे? रजत से मिलना छोड़ दे? उस से नाता तोड़ ले? रजत से बिछड़ने की कल्पना से ही उस का मन उसे कचोटने लगा, लेकिन उसे पाना भी अब एक मृग मरीचिका के समान था. इतने दिन वह अपनेआप को छलती आई थी. वह भलीभांति जानती थी कि रजत एक प्लेबौय है. वह ऐयाश फितरत का था, इसलिए भौंरे के समान कलीकली का रसपान करना चाहता था. यानी स्वच्छंद रहना चाहता था और किसी भी तरह की जिम्मेदारी से बचना चाहता था. इसीलिए वह शादी के बंधन में भी नहीं बंधना चाहता था.

सुबह सुनयना की मां ने उस के चेहरे पर अपनी सवालिया नजरें गड़ा दीं. पर उस की सूजी आंखें और चेहरा देख कर वे वस्तुस्थिति भांप गईं.

2 दिन बाद रजत का फोन आया,‘‘कल क्या कर रही हो? मुझे अपने व्यापार के सिलसिले में रशिया जाना पड़ रहा है. मैं चाहता था कि जाने से पहले तुम से मिल लूं.’’

‘‘कल तो मैं फ्री नहीं हूं. मेरी होटल में ड्यूटी लगी है.’’

‘‘मैं 3 हफ्ते के लिए जा रहा हूं. इतने दिन तुम्हें देखे बिना कैसे रह पाऊंगा?’’

सुनयना पिघलने लगी, लेकिन फौरन उस ने अपना मन कठोर कर लिया,‘‘क्या किया जाए मजबूरी है. नौकरी जो ठहरी.’’

‘‘तुम्हारी ड्यूटी कितने बजे खत्म होगी?’’

‘‘रात को 2 बजे.’’

रजत ना सुनने का आदी न था, बोला, ‘‘ठीक है,  मैं तुम्हें लेने आऊंगा. बाहर गाड़ी में बैठा तुम्हारा इंतजार करूंगा.’’

सुनयना ने चुपचाप फोन रख दिया.

सुनयना हमेशा चहकती रहती थी पर आज चाहने पर भी वह हंसबोल नहीं रही थी उस का मन अवसाद से भरा था.

रजत ने कहा, ‘‘आज तुम जरूरत से ज्यादा गंभीर हो.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है,’’ सुनयना ने सफाई दी, ‘‘आज मैं बहुत थकी हुई हूं.’’

‘‘चलो आज थोड़ी देर के लिए मेरे फ्लैट पर चलो.’’

मुखौटे: माधव ने शादी से इनकार क्यों किया

‘‘अभीअभी खबर मिली है रुकि…’’

‘‘क्या खबर?’’ रुकि ने बीच में ही सवाल जड़ दिया.

‘‘तुम्हारे ही काम की खबर है. हमारे स्कूल में एक नए रंगमंच शिक्षक आ रहे हैं.’’

‘‘अच्छा सच?’’ रुकि अपने कला के कक्ष में थी. उस ने एक मुखौटे को सजाते हुए प्रतिक्रिया दी. एक के बाद दूसरा मुखौटा सजाती हुई रुकि अपने ही काम में मगन दिखाई दी, तो उसे यह सूचना देने वाली अध्यापिका सरला भी अपना काम करने वहां से चली गई.

सरला के जाते ही रुकि ने मुखौटा एक तरफ रखा और खुश हो कर जोर से ताली बजाई और फिर नाचने लगी थी. 2 दिन तक यही हाल रहा रुकि का. वह सब के सामने तो काम करती पर एकांत ही कमर मटका कर नाचने लगती.

तीसरे दिन प्रार्थनासभा में प्राचार्य ने एक नए महोदय को माला पहना कर उन का स्वागत किया और फिर एक घोषणा करते हुए कहा, ‘‘प्यारे बच्चो, आज हमारे विद्यालय परिवार में शामिल हो रहे हैं माधव सर. ये रंगमंच के कलाकार हैं. इन्होंने सैकड़ों नाटक लिखे हैं. ये आज से ही हमारे विद्यालय के रंगमंच विभाग में शामिल हो रहे हैं.’’

यह खबर सब के लिए सुखद थी. स्कूल में यह एक नया ही प्रयोग होने जा रहा था. सब फुसफुसाने लगे पर आज भी रुकि का चेहरा एकदम सामान्य था. वह एकदम निर्विकार भाव से तालियां बजा रही थी. पूरा विद्यालय बारबार माधवजी के पास जा कर उन से मिल रहा था पर एक रुकि ही थी जो बस अपने कक्ष में मुखौटे ही ठीक किए जा रही थी.

अगले दिन दोपहर बाद जब कक्षा का खेल पीरियड था तो उस समय मौका पा कर माधव लपक कर रुकि के पास जा पहुंचा.

‘‘ओह रुकि,’’ कह कर उस ने जैसे ही उसे बाहों में लिया रुकि के हाथ से मुखौटा गिर गया.

वह एकदम संयत हुई और बोली, ‘‘माधव, हाथ हटाओ, शाम 6 बजे मिलते हैं. मैं फोन पर लोकेशन भेज दूंगी,’’ और फिर वह फटाफट कक्ष से बाहर निकल आई.

माधव ने हंस कर मुखौटा अपने चेहरे पर पहन लिया. शाम को दोनों एकदूसरे के पास बैठे थे.

माधव बोला, ‘‘अच्छा, पगली वहां तो बंद कमरा था… मैं आया था मिलने पर तुम डर कर भाग गई पर यह जगह जहां सबकुछ खुलाखुला है निडरता से मेरे इतने करीब बैठी हो.

रुकि ने उस की नाक पकड़ कर कहा, ‘‘तुम भी न माधव कमाल के दुस्साहसी हो. तुम ने तो आते ही दिनदहाड़े रोमांचकारी कदम उठा लिया. हद है.’’

मगर माधव को तो रुकि से चुहल करने में मजा आ रहा था. वह चहकते हुए बोला, ‘‘अच्छा, हद तो तुम्हारी है रुकि. मैं तो एक फक्कड़ रंगकर्मी था पर यहां आया बस तुम्हारे लिए… तुम्हें उदासी से बचाने के लिए.’’

रुकि सब चुपचाप सुन रही थी.

माधव बोला, ‘‘तुम ने मुझे महीनों पहले ही स्कूल प्रशासन की यह मंशा कि एक रंगकर्मी की जरूरत है और वीडियो भेज कर इस स्कूल के चप्पेचप्पे से इतना वाकिफ करा दिया था कि फोन पर जब मेरा साक्षात्कार हुआ तो पता है प्राचार्य तक सकते में आ गए कि मुझे कैसे पता है कि स्कूल के खुले मंच के दोनों तरफ बोगनबेलिया लगा है.’’

‘‘ओह, माधव फिर?’’ यह सुना तो रुकि की तो सांस ही रुक गई थी.

‘‘फिर क्या था मैं ने पूरे आत्मविश्वास से कह दिया कि मैं ने एक न्यूज चैनल में सालाना जलसे की रिपोर्ट देखी थी.’’

यह सुन कर रुकि की जान में जान आई. बोली, ‘‘माधव तुम सचमुच योग्य थे, इसीलिए तुम्हें चुना गया, अब अलविदा. आज की मुलाकात बस इतनी ही. अब चलती हूं. कल स्कूल में मिलते,है,’’ कह कर रुकि ने अपना बैग लिया, चप्पलें पहनीं और फटाफट चली गई.

अब वे इसी तरह मिलने लगे. एक दिन ऐसी ही शाम को दोनों साथ थे तो माधव बोला, ‘‘रुकि मैं और तुम तो इकदूजे के लिए बने थे न और तुम हमेशा कहती थी कि माधव कालेज में साथसाथ पढ़ते हैं अब जीवन भी साथसाथ गुजार देंगे. जब हम दोनों को एकदूसरे से बेहद प्यार था, तो तुम ने शादी क्यों कर ली रुकि?’’

‘‘तो फिर क्या करती माधव बोलो न. तुम तो बस्तियों में, नुक्कड़ में, चौराहे पर नाटक मंडली ले कर धूल और माटी से खेलते थे. मैं क्या करती?’’

माधव ने फट से कहा, ‘‘रुकि, तुम मेरा इंतजार करतीं.’’

अच्छा, चोरी और सीनाजोरी, मेरे बुद्धू माधव जरा याद करो. मैं ने सौ बार कहा था कि मेरी एक छोटी बहन है. मेरे बाद ही उस का घर बसेगा. मातापिता भी ताऊजी की दया पर निर्भर हैं. मु?ो विवाह करना है. तुम गृहस्थी बसाना चाहते हो तो चलो आज पिताजी से बात करते हैं माताजी से मिलते हैं, पर तुम ने याद है मुझे क्या जवाब दिया था?’’

माधव बेहद प्यार से बोला, ‘‘ओहो, बोलो न, तुम ही बोलो रुकि मैं तो सब भूल गया हूं,’’

‘‘अच्छा तो सुनो तुम ने कहा था कि रुकि यह घरबारपरिवार सब ढकोसला है. मैं आजाद रहना चाहता हूं और उस के 2 दिन बाद तुम 1 महीने की नाट्य यात्रा पर आसाम, मेघालय, मणिपुर चले गए. माधव तुम मुझे मजाक में लेने लगे थे.’’

‘‘रुकि वह समय ऐसा ही था. तब मैं 21 साल का था.’’

‘‘बिलकुल और मैं 20 साल की… मैं ने घर वालों के सामने हथियार डाल दिए. विवाह हो गया,’’ रुकि उदास हो कर बोली.

‘‘हां तो, गबरू जवान फौजी की बीवी बन कर तो मजा आया होगा न रुकि.’’

तुम माधव बारबार यही सवाल किसलिए पूछते हो? हजारों बार तो बताया है कि वे जम्मू में रहते हैं. मैं यहां इस कसबे में निजी स्कूल में कला की शिक्षा देती हूं,’’ रुकि की आवाज में बेहद दर्द भर आया था.

कुछ देर रुक कर रुकि आगे बोली, ‘‘मैं ने 2 साल तक मुंह में दही जमा कर सबकुछ सहा. परिवार, बंधन, जिम्मेदारी, संस्कार, तीजत्योहार सारे नाटक सबकुछ… मगर तब भी मेरे पति मुझे अपने साथ नहीं ले गए तो मैं ने भी एक मानसिक करार सा कर लिया.’’

‘‘मानसिक करार, मैं समझ नहीं रुकि?’’ माधव को अजीब लगा कि आज 30 साल की रुकि ये कैसी बहकीबहकी बातें कर रही है.

‘‘हां माधव करार नहीं तो और क्या. यह एक करार है कि मैं उन की संतान का पालन कर रही हूं. मगर अपनी आजादी के साथ. वे जो रुपए देते हैं अब मैं उन में से एक धेला भी खुद पर खर्च नहीं करती हूं. सारे बच्चों की पढ़ाई में लगा कर रसीद उन के बाप को कुरियर कर देती हूं. ताकि…’’

‘‘ताकि क्या रुकि?’’ माधव ने पूछा.

‘‘ताकि माधव सनद रहे कि रुकि उन के दिए पैसों पर नहीं पल रही. मैं अपनी कमाई खाती हूं… अपने वेतन से कपड़ा खरीद कर पहनती हूं,’’ कहतीकहती रुकि एकदम खामोश हो गई तो माधव ने उस का हाथ थाम लिया.

‘‘ओह माधव,’’ रुकि के पूरे बदन में सनसनाहट सी होने लगी.

‘‘अरेअरे क्या रुकि कोई देख लेगा.’’

‘‘अरे नहीं, माधव. यही तो एक पूरी तरह से सुरक्षित जगह है. इधर हमारा कोई भी परिचित नहीं आ सकता,’’ कह कर वह भी भावुक हो गई और माधव से लिपट गई.

कुछ पल तक दोनों ऐसे ही खामोश रहे और अचानक रुकि बोली, ‘‘अब चलती हूं. मेरी छोटी बिटिया केवल 7 साल की है. वह मुझे देख रही होगी.’’

समय इसी तरह गुजरता रहा. माधव को लगभग 3 महीने हो गए थे. उस ने इस दौरान बच्चों को रंगमंच के अच्छे गुर भी सिखा दिए थे. माधव ने इतना बढि़या प्रशिक्षण दिया था कि स्कूल के सीनियर छात्र अब खुद ही नाटक लिख कर तैयार करने लगे थे. स्कूल में तो हरकोई माधव को पसंद करने लगा था. हरकोई माधव को अपने घर बुलाना चाहता, उस के साथ समय बिताना चाहता, पर इस माधव का मन एक जगह कभी टिकता ही नहीं था.

एक दिन रुकि ने पूछ ही लिया, ‘‘माधव एक निजी स्कूल में पहली बार काम कर रहे हो. तुम ने अभी तक बताया नहीं कि कैसा लग रहा है? वैसे प्रिंसिपल सर ने तुम्हें अपने बंगले के साथ लगा कमरा मुफ्त में रहने को दे दिया है तो ऐसी तंगी तो शायद रहती नहीं होगी न?’’

‘‘ओहो रुकि, यह भी कोई सवाल हुआ? मुझे धनदौलत से भला कैसा लगाव और इस निजी स्कूल की नौकरी की ही बात की है तुम ने तो रुकि मेरी जान, अरे मैं तो बस तुम्हारी गुहार पर ही यहां आया हूं.’’

‘‘पर माधव तुम ने यह सब कैसा जीवन कर लिया. न रुपया न पैसा. बस सारा समय नाटक लिखना और मंचन करना यह कैसा जीवन है?’’

‘‘रुकि मेरी बात समझने के लिए तुम्हें एक घटना सुननी होगी.’’

‘‘तो सुनाओ न,’’ रुकि बैचैन हो कर बोली.

‘‘मैं तो सुनाने और सुनने के ही लिए आया पर तुम बीच में ही उठ कर चली जाओगी कि घर पर बच्चे अकेले हैं.’’

‘‘अरे नहीं तुम आज की शाम एकदम बिंदास हो कर सुनाओ.’’

‘‘आज तुम ने घर नहीं जाना?’’

‘‘जाना है पर बच्चों की कोई चिंता नहीं है. वे दोनों आज एक जन्मदिन समारोह में गए हैं. खाना खा कर ही वापस आएंगे.’’

‘‘अच्छा,’’ यह सुन कर माधव को बेहद सुकून मिला. बोला, ‘‘रुकि, मैं जब 7 साल का था न तब से नानाजी के गांव जरूर जाता था. मेरे नानाजी के पास सौ बीघा खेत और 2 बीघे का एक बगीचा था. कुल मिला कर नानाजी के पास दौलत ही दौलत थी.’’

‘‘अच्छा,’’ रुकि बीच में बोल ली.

‘‘एक बार गांव में भयंकर बारिश हुई और बाढ़ के हालात हो गए. जो जहां था वहीं रह गया. मैं भी तब नानाजी के गांव गया था. सड़क जाम हो गई थी. 2 बसें भर कर कुछ कलाकार मदद की गुहार लगाते हुए हमारे गांव आ गए. वे सब फंस गए थे. आगे जा नहीं सकते थे. उन की बात सुन कर नानाजी तथा उन के कुछ दोस्तों ने उन्हें रहने की जगह दे दी. वे अपना भोजन बनाते थे और दोपहर में रियाज करते थे. इस तरह जब तक सड़क ठीक नहीं हुई यानी 7 दिन तक वह नाटक मंडली गांव में रही. तब मैं ने देखा कि नानाजी उन कलाकारों में ही रमे रहते थे. नानाजी उन के साथ तबला बजाते थे, ढोल बजाते थे, नाचते थे, गाते थे.

‘‘रकि ने अपने नानाजी को इतना खुश पहले कभी देखा ही नहीं था. जब मंडली चली गई तो मैं भी अपने घर जाने की तैयारी करने लगा. मैं, नानाजी के कमरे में उन से यही बात करने गया तो पता है नानाजी अपनेआप से बातें कर रहे थे. इतनी दौलत है. इस का मैं आखिर करूंगा क्या. मैं तो कलाकार हूं. मैं ने अपने भीतर का कलाकार दबा कर रख दिया. मैं यह सुन कर ठिठक गया. वहीं खड़ा रहा और लौट गया. उस दिन मेरे दिल में एक बात आई कि धन और विलासिता सब बेकार है. अपने भीतर की आवाज सुननी चाहिए.’’

‘‘हूं तो इसीलिए तुम रंगकर्मी बन गए. मगर जीने के लिए तो रुपए चाहिए न माधव,’’ रुकि ने अपनी बात रखी.

‘‘अरे, बिलकुल,’’ माधव ने रुकि की हां में हां मिलाई.

‘‘तो माधव तुम अपने लिए न सही मातापिता के लिए तो कमाओ.’’

‘‘पर रुकि उन के पास बैंकों में भरभर कर रुपया है.’’

‘‘अरे वह कैसे?’’

‘‘अरे मेरी मां मेरे नानाजी की अकेली औलाद तो सब खेतबगीचे मेरी माताजी के और अब मेरे बडे़ भाई ने डेयरी और खोल ली है. बडे़ भाई के बच्चे भी खेतखलिहान पसंद करते हैं. इस तरह मेरे मातापिता को न अकेलापन सताता है और न पैसे की कोई तंगी है.’’

‘‘तो इसीलिए तुम अपने मातापिता की तरफ से लापरवाह हो कर ऐसे खानाबदोश बने हो. है न?’’ रुकि ने उसे उलाहना दिया.

‘‘नहींनहीं रुकि, मुझे नाट्य विधा पसंद है और मैं सड़क का आदमी ही बनना चाहता हूं. मैं जरा से वेतन पर बेहद खुश हूं.’’

‘‘अच्छा माधव तुम भी न मुझे लगता है कि मैं तुम्हारे साथ 3 साल तक पढ़ती रही पर तुम्हें समझ ही नहीं सकी. जब मैं ने रिश्ते की बात कही थी तब तुम ने कहा कि मैं तो फकीर आदमी हूं. यह नानाजी के खेतखलिहान और धनदौलत की बात तब ही बता देते तो मैं अपने मातापिता को समझ कर मना लेती,’’ रुकि को अफसोस हो रहा था.

‘‘यह तो और भी गलत होता रुकि. तब तुम्हें सब की गुलामी करनी होती, जबकि तुम तो खुद भी आजाद रहना चाहती हो.’’

‘‘हां यह तो सही है माधव. पर मैं अपने प्रेमी माधव के लिए शायद यह कर लेती.’’

‘‘शायद का तो कोई पकका मतलब होता नहीं रुकि कह कर माधव खड़ा हो गया.

‘‘अरे… माधव आज तो तुम अलविदा कह रहे हो.’’

‘‘ओह रुकि, अब चलता हूं अलविदा,’’ कह कर माधव ने अपनी चप्पलें पहन लीं और दोनों अलगअलग दिशा में चल दिए.

अगले दिन रुकि स्कूल आई तो एक सनसनीखेज खबर सुनने को मिली कि माधव सर सुबह ही दक्षिण भारत की तरफ रवाना हो गए हैं. वे अपना इस्तीफा भी सौंप गए हैं.

‘‘हैं, रुकि को सदमा लगा. उस ने खुद को सामान्य किया, जबकि सारा दिन स्कूल में यही चर्चा का विषय रहा. हरकोई माधव सर का फैन बन गया था. रुकि जानती थी कि यह फक्कड़ एक जगह नहीं रुकता. स्कूल की छुटटी के बाद घर लौटते हुए रुकि ने माधव को फोन लगाया.

‘‘अरे रुकि मैं बस में बैठा हूं. अभी दिल्ली जा रहा हूं. रात को केरल के लिए रवानगी.’’

‘‘तुम तो अब एक थप्पड़ खाने वाले हो माधव… कल रात तक मेरे साथ थे और बताया भी नहीं.’’

‘‘अगर बताता तो बस एक उसी बात पर अटक जाते हम दोनों और कोई बात हो ही नहीं पाती रुकि. बाकी तुम अब वह पुरानी रुकि तो रही नहीं. तुम एक मजबूत औरत, एक बेहतरीन माता और एक सजग प्रेमिका हो गई हो… तुम और मैं जीवनभर प्रेमी रहने वाले हैं. यह वादा है. कल फोन करता हूं,’’ कह कर माधव ने फोन बंद कर दिया.

रुकि को उस पर प्यार और गुस्सा दोनों एकसाथ आ रहे थे.

तोहफा: भाग 3- रजत ने सुनयना के साथ कौन-सा खेल खेला

वहां पहुंच कर रजत एक सोफे में धंस गया उस ने सुनयना को अपनी गोद में ले कर उसे अपनी बांहों में भींच लिया और उसे बेतहाशा चूमने लगा. फिर बोला, ‘‘अगर तुम राजी हो जाओ तो यह घर हमारा ‘लव नैस्ट’ बन सकता है. हम दोनों यहां एक कबूतरकबूतरी की तरह गुटरगूं करेंगे.’’

सुनयना ने रजत की गिरफ्त से अपनेआप को छुड़ाने की कोशिश की तो रजत ने उसे और कस लिया, ‘‘क्यों न तुम मेरे साथ रशिया चली चलो. वहीं हनीमून मनाएंगे,’’

‘‘बगैर शादी के हनीमून?’’

‘‘फिर वही शादी की रट. तुम पर तो शादी का भूत सवार है. मैं तो सुनसुन कर बोर हो गया.’’

‘‘रजत तुम इस विषय में मेरे विचार भलीभांति जानते हो. मैं मध्यवर्गीय लड़की हूं. मेरी कुछ मान्यताएं हैं. मैं लीक से हट कर कुछ करना नहीं चाहती. मेरे मातापिता के दिए कुछ संस्कार हैं जिन्हें मैं नकार नहीं सकती. हम जिस समाज में रहते हैं उन के नियमों को मैं नजरअंदाज नहीं कर सकती. मु?ो लोकलाज का भय है, लोगों के कहने की चिंता है.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि तुम्हें मुझ से ज्यादा औरों की परवाह है.’’

‘‘तुम मेरी बातों का गलत मतलब क्यों लगाते हो? तुम अच्छी तरह जानते हो कि मैं तुम्हें अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करती हूं.’’

‘‘सच?’’

‘‘हां, चाहो तो आजमा कर देखो.’’

‘‘तुम सचमुच मुझ से बेइंतहा प्यार करती हो?’’

‘‘कहा तो. अब तुम्हें कैसे यकीन दिलाऊं. कहो तो अपना कलेजा चीर कर दिखा दूं, चाहो तो इस 8वीं मंजिल से कूद जाऊं.’’

‘‘ओ नो. तुम अपनी जान दे दोगी तो मेरा क्या होगा? तुम्हारा यह सुंदर शरीर बेजान हो जाएगा तो मैं कैसे जियूंगा?’’

‘‘तुम मेरा शरीर चाहते हो न? ठीक है, आज मैं अपनेआप को तुम्हें सौंपती हूं.’’

‘‘अरे…’’

‘‘हां रजत यह एक नारी की सब से बड़ी कुरबानी है. उस की अस्मत उस की सब से बड़ी पूंजी है. शादी के बाद वह अपना तनमन अपने पति को अर्पण करती है. उस की हो कर रहती है. मैं आज अपने उसूलों को ताक पर रख कर, आदर्शों को भुला कर, बिना फेरों के, बिना किसी शर्त अपनेआप को तुम्हारे हवाले करती हूं.’’

‘‘अरे सुनयना यह तुम्हें आज क्या हो गया है?’’

‘‘बस मैं ने तय कर लिया है. चलो उठो, तुम्हारा बैडरूम कहां है, वहां चलते हैं,’’ कह कर वह उठ खड़ी हुई और रजत का हाथ पकड़ कर खींचने लगी.

‘‘सुनयना तनिक रुको. मेरी बात सुनो. मैं सैक्स का भूखा नहीं हूं. मुझे लड़कियों की कमी नहीं है. मेरे पैसों की खनक से लड़कियां मेरी ओर खुदबखुद खिंची चली आती हैं और मेरे एक इशारे पर मेरे सामने बिछने को तैयार हो जाती हैं. अगर तुम सचमुच मुझ से प्यार करती हो तो तुम्हें कुछ और करना होगा.’’

‘‘बोलो मुझे क्या करना होगा?’’ सुनयना ने अधीर हो कर कहा.

‘‘जो कहूंगा वह करोगी?’’

‘‘कह तो दिया.’’

‘‘हूं जरा सोचने दो…हां सोच लिया. तुम मेरे दोस्त की हमबिस्तर बनोगी?’’

सुनयना स्तंभित हुई. वह अवाक रजत की ओर ताकने लगी.

‘‘रजत यह कैसा मजाक है?’’ उस ने कुढ़ कर कहा.

‘‘मजाक नहीं मैं बिलकुल सीरियस हूं.’’

‘‘लेकिन यह कैसी अजीब मांग है तुम्हारी. मैं तुम्हारी प्रेमिका हूं, तुम मुझे अपने दोस्त को सौंप रहे हो. मुझे अपने दोस्त की बांहों में देख कर तुम्हें बुरा नहीं लगेगा, जलन नहीं होगी?’’

‘‘नहीं, क्योंकि तुम मेरी रजामंदी से ही यह कदम उठाओगी.’’

‘‘और उस के बाद क्या तुम तुझे स्वीकार कर लोगे?’’

‘‘अवश्य.’’

‘‘क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगेगा कि मैं अब पाकसाफ, अनछुई नहीं हूं, मेरा कौमार्य भंग हो चुका है?’’

रजत हंसने लगा, ‘‘डार्लिंग, तुम किस जमाने की बात कर रही हो पाकसाफ , अनछुई, दूध की धुली. आज के जमाने में इन घिसेपिटे शब्दों का कोई अर्थ नहीं. हमें जमाने के साथ चलना चाहिए.’’

‘‘तो तुम्हारे कहने के अनुसार आधुनिक होने का मतलब है बेशर्मी से इस के और उस के साथ जिस्मानी सबंध बनाना. फिर इंसान में और पशुओं में फर्क ही क्या रहा?’’

‘‘अब तुम से कौन माथापच्ची करे,’’ रजत ने झुंझला कर कहा, ‘‘तुम तो बाल की खाल निकालती हो.’’

‘‘ठीक है, उस दोस्त का नाम तो बताओ,सुनयना ने थोड़ी देर बाद कहा.

‘‘हां अब आईं तुम लाइन पर,’’ रजत कुटिलता से मुसकराया, ‘‘मेरे दोस्त का नाम है मोहित. तुम जानती हो उसे. हमारे कालेज में ही पढ़ता था और मेरा जिगरी दोस्त है वह. मरीन ड्राइव पर रहता है और आयकर विभाग में काम करता है. अगले हफ्ते उस का जन्मदिन है और मैं चाहता हूं कि तुम मेरी ओर से उस का तोहफा बन कर जाओ.’’

‘‘तोहफा?’’ उस की आंखें बरसने लगीं, ‘‘रजत, क्या तुम्हें मुझ में और एक बेजान वस्तु में कोई फर्क नहीं लगता? मैं एक हाड़मांस से बना जीव हूं. तुम मेरे सामने इतना घिनौना प्रस्ताव रख मेरे अहं को चोट पहुंचा रहे हो. मुझ पर तरस खाओ प्लीज, मेरा इतना कड़ा इम्तिहान न लो,’’ कह कर वह गिड़गिड़ाई लेकिन रजत ने उस की बातें अनसुनी कर दीं.

घर पहुंच कर वह उधेड़बुन में पड़ गई. रजन ने अपने प्रस्ताव से एक अजीब समस्या खड़ी कर दी थी. अब वह क्या करे? क्या रजत का कहना मान ले? वह रजत को समझ नहीं पा रही थी. शादी का मतलब होता है एकदूसरे के प्रति वफादार हो कर रहना. यहां रजत उसे अपने दोस्त की बांहों में ठेल रहा था. शादी के बाद यदि वह उस से कहेगा कि डार्लिंग आज मेरे दोस्तों का मनोरंजन कर दो, तो वह क्या करेगी?

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