तीन प्रश्न: क्या होता अगर पाकिस्तान नहीं बनता

मैं पाकिस्तान की यात्रा पर जा रहा था. भारत का कभी हिस्सा रहे इस देश को करीब से देखने का यह मेरा पहला मौका था. वीजा लेने की कठोर कसरत के बाद मैं दिल्ली से अटारी जाने वाली समझौता एक्सप्रेस में रात को सवार हो गया. ट्रेन में अलगअलग तरह के यात्री मिल रहे थे. किसी को अपने रिश्तेदारों से मिल कर लौटने का गम था तो कोई रिश्तेदारों से मिलने जाने की खुशी लिए था और कोई भारी मात्रा में सामान बेच कर रुपए कमाने की चाहत लिए जा रहा था.

अलगअलग आवाजें आ रही थीं :

‘‘मेरे सारे रिश्तेदार पाकिस्तान में हैं. अब 60 साल बाद मिलने जा रहा हूं.’’

‘‘मेरी बेटी की शादी भारत में हुई है, 20 साल बाद मिली थी. अब अपनी नवासी की शादी कर के लौट रही हूं.’’

‘‘बंटवारे के बाद मेरा सारा कुनबा भारत आ कर बस गया. अपने मूल वतन रावलपिंडी देखने का सपना आज पूरा हुआ है.’’

‘‘10 हजार बनारसी साडि़यां पाकिस्तान ले जा कर बेचूंगा, वहां वे सोने के भाव बिकेंगी.’’

अगली सुबह, गाड़ी अटारी स्टेशन पहुंच गई. वहां से लगभग 10 किलोमीटर आगे बाघा बोर्डर पड़ता है, जहां से पाकिस्तानी सीमा शुरू होती है. लोग अपनाअपना सामान समेट कर इमिग्रेशन के लिए तैयार हो गए. पासपोर्ट और वीजा की जांच के बाद कस्टम की काररवाई होती है जोकि इस यात्रा का सब से तकलीफदेह हिस्सा होता है.

मुसाफिरों के सामान को खोल कर कस्टम अधिकारी एकएक चीज को झाड़ कर तलाशी ले रहे थे और लोगों से खूब रुपए भी ऐंठ रहे थे. यहां मजबूरी में लोग न चाहते हुए भी कस्टम से पीछा छुड़ाने के लिए रुपए खर्च कर रहे थे.

कस्टम की औपचारिकता के बाद यात्री एक बडे़ गेट को पार कर के उस पार एक तैयार ट्रेन में दोबारा सवार हो रहे थे. यह ट्रेन आगे चल कर बाघा होती हुई सब लोगों को लाहौर तक छोड़ती है. यहां के सीमा गेट पर ड्यूटी पर तैनात सुरक्षाकर्मी (सिपाही) हर यात्री से 100-100 रुपए मांग रहे थे.

जब सभी यात्री ट्रेन में सवार हो गए तो दोपहर ढाई बजे ट्रेन चल दी. लगभग 10 मिनट बाद ही भारत की सरहद खत्म हो गई और पाकिस्तान आ गया. बाघा स्टेशन पर गाड़ी रुकी. लोग ट्रौलियों में अपनाअपना सामान लाद कर दोबारा इमिग्रेशन और कस्टम के लिए तैयार हो रहे थे. खूब भगदड़ मची हुई थी. वहां काली वरदी में तैनात कस्टम अधिकारी भी भारतीय कस्टम अधिकारियों की तरह लोगों से रुपए ऐंठ कर अपना फर्ज अदा कर रहे थे. लगभग 4 घंटे में यहां की सारी काररवाई पूरी हुई तो ट्रेन लाहौर की तरफ चल दी, जोकि वहां से कुल 25 किलोमीटर की दूरी पर था.

मेरे जीजाजी लाहौर स्टेशन पर मुझे लेने के लिए खड़े थे. रात हो रही थी. अगले दिन हमें कराची जाना था, सो लाहौर घूम कर हम मुगलों की इस प्राचीन राजधानी को देखते रहे.

अगले दिन शाम को हम कराची के लिए रवाना हो गए.

पाकिस्तानी ट्रेन में बैठ कर मैं बेहद खुशी महसूस कर रहा था. यात्रा के दौरान मुझे एक पादरी मिले. वह पठानी सलवारकुर्ता पहने हुए पक्के पाकिस्तानी लग रहे थे और फर्राटेदार उर्दू बोल रहे थे.

‘‘मैं मुंबई का रहने वाला हूं. अंगरेजों के शासनकाल में मेरे अब्बा एक ईसाई मिशनरी के साथ कराची आए थे. जब बंटवारा हुआ तो कराची पाकिस्तान में चला गया और फिर हम यहीं बस गए.’’

मैं ने पूछा, ‘‘आप लोगों को यहां बहुत तकलीफ हुई होगी. सुना है, मुसलमानों के अलावा दूसरे धर्मों के लोगों के साथ अच्छा सुलूक नहीं होता है.’’

‘‘सब कहने की बातें हैं. नफरत और मोहब्बत दुनिया के हर हिस्से में है. पाकिस्तान में लोगों की यह सोच बनी हुई है कि भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं, उन्हें हर जगह भेदभाव से देखा जाता है. क्या यह सही है?’’

मैं ने और उत्सुकता दिखाई, ‘‘क्या पाकिस्तान में हिंदू या सिख नहीं रहते हैं?’’

पादरी ने समझाया, ‘‘जब बंटवारा हुआ तो भारत बड़ा था और पाकिस्तान छोटा. जिन सूबों में मुसलमानों की घनी आबादी थी, उन को मिला कर पाकिस्तान बना था. नौर्थवेस्ट फ्रंटियर  प्रौविंस और बलूचिस्तान में हिंदू आबादी कम थी. सिंध में अब भी हिंदू आबादी है, जोकि ज्यादातर जमींदार और महाजन हैं.’’

‘‘पंजाब में सिख लोग ज्यादा थे. पंजाब और बंगाल के 2 टुकड़े किए गए थे, इसलिए इन 2 सूबों में सब से ज्यादा कत्लेआम हुआ. कश्मीर को पाकिस्तान लेना चाह रहा था पर भारत ने नहीं दिया. दोनों मुल्कों में जंग हुई पर हमारे हुक्मरान मसले को सुलझाना नहीं चाहते.’’

हमारी ट्रेन पंजाब से बलूचिस्तान होती हुई सिंध की तरफ जा रही थी. बलूचिस्तान और सिंध ज्यादातर रेगिस्तानी क्षेत्र हैं. बीचबीच में स्टेशन पड़ रहे थे. स्टेशनों पर मांसाहारी चीजों जैसे कीमे के समोसे और पकौडे़, बिरयानी, कोरमा आदि की अधिकता थी. भारत के मुकाबले में पाकिस्तानी रेलवे स्टेशनों पर भीड़ कम होती है.

पाकिस्तान के सब से बडे़ शहर कराची को देख कर लखनऊ की याद आ गई, क्योंकि दोनों शहरों में उर्दू का गहरा असर है. कराची में भारत से गए हुए लोग सब से ज्यादा तादाद में हैं. क्षेत्रवाद के शिकार ये मुसलमान ‘मुहाजिर’ कहलाते हैं.

मैं कराची जी भर कर घूमा. भारत से अलग होने पर भी भारत की छाप साफ दिखाई दे रही थी. कई लोग मेरे भारतीय होने पर अपना आतिथ्य निभा रहे थे. मुझे वहां भारतीय और पाकिस्तानी लोगों में कोई खास फर्क नजर नहीं आया. इस से कहीं अधिक फर्क तो भारत के ही अलगअलग राज्यों के लोगों में है. उत्तर भारत का रहने वाला अगर दक्षिण भारत में चला जाए तो समझेगा कि कहीं विदेश में आ गया. वहां का रहनसहन अलग, खानपान अलग, भाषा अलग, पहनावा अलग मगर देश एक है.

विभाजन के 60 साल बाद भी संस्कृति ने अपनी छाप नहीं छोड़ी है. लोगों को धर्म जोड़े न जोडे़ पर क्षेत्र अवश्य जोड़ता है. पंजाब, बंगाल और कश्मीर के 2-2 टुकडे़ होते हुए भी यदि वहां के लोगों की आपस में तुलना की जाए तो पता चलता है कि धर्म के नाम पर तो उन्हें बांटा गया पर उन की समानता को कोई बांट नहीं सका.

भारत या पाकिस्तान के लोग अपने को धार्मिक कहते हैं पर हर धर्म की पहली सीढ़ी इनसानियत से इतनी दूर क्यों होती जा रही है?

पाकिस्तान की अपनी यात्रा के निचोड़ में 3 प्रश्न मेरे दिलोदिमाग में उत्तर के लिए भटक रहे हैं.

पहला, धर्म के नाम पर देश के बंटवारे का मूल उद्देश्य क्या था? धर्म इनसान के लिए है या इनसान धर्म के लिए? देश का बंटवारा कर के क्या सांप्रदायिकता खत्म हो गई? जबकि इसी के नतीजतन, एक नए देश के रूप में बंगलादेश का जन्म हुआ और कश्मीर एक अंतर्राष्ट्रीय मसला बना हुआ है. यही नहीं दोनों मुल्कों का जो अरबों रुपया, सीमा सुरक्षा में लग रहा है, काफी हद तक बच सकता था.

दूसरा, अंगरेजों की गुलामी से आजाद होने की इच्छा हर भारतीय में थी और हिंदू व मुसलमान दोनों ने मिल कर संघर्ष किया था पर जब बंटवारे की बात चली तो किसी के मन में यह विचार नहीं आया कि जब आजादी साथ पाई है तो रहेंगे भी साथ ही. कोई रास्ता निकाल कर बंटवारा रोको.

तीसरा, हम अंगरेजों को ‘फूट डालो राज करो’ की नीति के लिए दोषी ठहराते हैं. क्या यह नीति हमारे धार्मिक दुकानदारों और उन के पिट्ठू नेताओं में नहीं है? हर तरह का भेदभाव हमारे देश में ‘नई बोतल में पुरानी शराब’ की तरह बड़ी कुशलता से पनप रहा है और हमारे पंडे, मौलवी, नेताओं के वोट बैंक को पुख्ता कर रहे हैं.

पड़ोसी देशों को अपनी कमजोरियों के लिए दोष देना हमारे नेताओं की जन्मघुट्टी में मिला हुआ है. अगर पाकिस्तान नहीं बनता तो हमारे नेता आतंकवाद के लिए चीन को दोष देते या रूस को?

यह दोस्ती हम नहीं झेलेंगे

रात को 8 से ऊपर का समय था. मेरे खास दोस्त रामहर्षजी की ड्यूटी समाप्त हो रही थी. रामहर्षजी पुलिस विभाग के अधिकारी हैं. डीवाईएसपी हैं. वे 4 सिपाहियों के साथ अपनी पुलिस जीप में बैठने को ही थे कि बगल से मैं निकला. मैं ने उन्हें देख लिया. उन्होंने भी मुझे देखा.

उन के नमस्कार के उत्तर में मैं ने उन्हें मुसकरा कर नमस्कार किया और बोला, ‘‘मैं रोज शाम को 7 साढ़े 7 बजे घूमने निकलता हूं. घूम भी लेता हूं और बाजार का कोई काम होता है तो उसे भी कर लेता हूं.’’

‘‘क्या घर चल रहे हैं?’’ रामहर्षजी ने पूछा.

मैं घर ही चल रहा था. सोचा कि गुदौलिया से आटोरिकशा से घर चला जाऊंगा पर जब रामहर्षजी ने कहा तो उन के कहने का यही तात्पर्य था कि जीप से चले चलिए. मैं आप को छोड़ते हुए चला जाऊंगा. उन के घर का रास्ता मेरे घर के सामने से ही जाता था.

लोभ विवेक को नष्ट कर देता है. यही लोभ मेरे मन में जाग गया. नहीं तो पुलिस जीप में बैठने की क्या जरूरत थी. रामहर्षजी ने तो मित्रता के नाते ऐसा कहा था पर मुझे अस्वीकार कर देना चाहिए था.

यदि मैं पैदल भी जाता तो 20-25 मिनट से अधिक न लगते और लगभग 15 मिनट तो जीप ने भी लिए ही, क्योंकि सड़क पर भीड़ थी.

‘‘जाना तो घर ही है,’’ मैं ने जैसे प्रसन्नता प्रकट की.

‘‘तो जीप से ही चलिए. मैं भी घर ही चल रहा हूं. ड्यूटी खत्म हो गई है. आप को घर छोड़ दूंगा.’’

पुलिस की जीप में बैठने में एक बार संकोच हुआ, पर फिर जी कड़ा कर के बैठ गया. मैं अध्यापक हूं, इसलिए जी कड़ा करना पड़ा. अध्यापकी बड़ा अजीब काम है. सारा समाज अपराध करे पर जब अध्यापक अपराध करता है तो लोग कह बैठते हैं कि अध्यापक हो कर ऐसा किया. छि:-छि:. कोई यह नहीं कहता कि व्यापारी ने ऐसा किया, नेता ने ऐसा किया या अफसर ने ऐसा किया. अध्यापक से समाज सज्जनता की अधिक आशा करता है.

बात भी ठीक है. मैं इस से सहमत हूं. समाज को बनाने की जिम्मेदारी दूसरों की भी है पर अध्यापक की सब से ज्यादा है. दूसरों का आदर्श होना बाद में है, अध्यापक को पहले आदर्श होना चाहिए.

मैं जीप में बैठ गया. रामहर्षजी ड्राइवर की बगल में बैठे. बाद में 4 सिपाही बैठे. 2 सामने और 1-1 मेरी अगलबगल.

जीप चल पड़ी.

जैसे ही जीप थोड़ा आगे बढ़ी, मैं ने चारों तरफ देखा. अगलबगल में इक्का, रिकशा, तांगा और कारें आजा रही थीं. किनारों पर दाएंबाएं लोग पैदल आजा रहे थे.

जीप में मेरे सामने बैठे दोनों सिपाही डंडे लिए थे, जबकि अगलबगल में बैठे सिपाहियों के हाथों में बंदूकें थीं. मैं चुपचाप बैठा था.

एकाएक मेरे दिमाग में अजीब- अजीब से विचार आने लगे. मेरा दिमाग सोच रहा था, यदि किसी ने मुझे पुलिस की जीप में सिपाहियों के बीच में बैठे देख लिया तो क्या सोचेगा. क्या वह यह नहीं सोचेगा कि मैं ने कोई अपराध किया है और पुलिस मुझे पकड़ कर ले जा रही है. पुलिस शरीफ लोगों को नहीं पकड़ती, अपराधियों को पकड़ती है.

मेरा चेहरा भी ऐसा है जो उदासी भरा गंभीर सा बना रहता है, हंसने में मुझे कठिनाई होती है. लोग जिन बातों पर ठहाके लगाते हैं, मैं उन पर मुसकरा भी नहीं पाता. मेरा स्वभाव ही कुछ ऐसा है- मनहूसोें जैसा.

अपने अपराधी होने की बात जैसे ही मेरे मन में आई, मैं घबराने लगा. शरीर से पसीना छूटने लगा. मन में पछतावा होने लगा कि यह मैं ने क्या किया. 10 रुपए के लोभ में इतनी बड़ी गलती कर डाली. अब बीच में जीप कैसे छोड़ूं. यदि मैं कहूं भी कि मुझे यहीं उतार दीजिए तो मेरे मित्र रामहर्षजी क्या सोचेंगे. प्रेम और सज्जनता के नाते ही तो उन्होंने मुझे जीप में बैठा लिया था.

मेरी मानसिक परेशानी बढ़ती जा रही थी. बचने का कोई उपाय सूझ नहीं रहा था. एकतिहाई दूरी पार कर चुका था. यदि अब आटोरिकशा से जाता या पैदल जाता तो व्यावहारिक न होता. मुझे यह ठीक नहीं लगा कि इतनी आफत झेल लेने के बाद जीप से उतर पड़ूं.

जीप आगे बढ़ रही थी. तभी मेरे एक मित्र शांतिप्रसादजी मिले. उन्होंने मुझे जीप में देखा पर मैं ने ऐसा बहाना बनाया मानो मैं उन्हें देख नहीं रहा हूं. उन्होंने मुझे नमस्कार भी किया पर मैं ने उन के नमस्कार का उत्तर नहीं दिया.

नमस्कार करते समय शांतिप्रसादजी मुसकराए थे. तो क्या यह सोच कर कि पुलिस मुझे पकड़ कर ले जा रही है, लेकिन शांतिप्रसाद के स्वभाव को मैं जानता हूं. वे मेरी तकलीफ पर कभी हंस नहीं सकते, सहानुभूति ही दिखा सकते हैं. फिर भी मैं यह सोच कर परेशान हो रहा था कि शांति भाई मुझे पुलिस की जीप में बैठा देख कर न जाने क्या सोच रहे होंगे. यदि सचमुच उन्होंने मेरे बारे में गलत सोचा या यही सोचा कि पुलिस गलती से मुझे गिरफ्तार कर के ले जा रही है, तब भी वे बड़े दुखी होंगे.

अब पुलिस की जीप में बैठना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था. मैं बारबार पछता रहा था कि क्यों जरा से पैसे के लोभ में आ कर पुलिस की गाड़ी में बैठ गया. अब तक न जाने मुझे कितने लोग देख चुके होंगे और क्याक्या सोच रहे होंगे.

चलतेचलते एकाएक जीप रुक गई. रामहर्षजी उतरे और 2 ठेले वालों को भलाबुरा कहते हुए डांटा. ठेले वाले ठेला ले कर भागे. वास्तव में उन ठेले वालों से रास्ता जाम हो रहा था, पर मित्र महोदय ऐसी भद्दीभद्दी गालियां दे सकते हैं, यह सुन कर मैं आश्चर्य में पड़ गया. हालांकि दूसरे पुलिस वालों को मैं ने उस से भी भद्दी बातें कहते हुए सुना है, पर एक अध्यापक का मित्र ऐसी बातें करेगा, यह अजीब लगा. लग रहा था मैं ने बहुत बड़ी भूल की है. मैं कहां फंस गया, किस जगह आ गया. लोग क्या जानें कि डीवाईएसपी रामहर्षजी मेरे मित्र हैं. लोग तो यही जानेंगे कि रामहर्षजी पुलिस अधिकारी हैं और मैं किसी कारण जीप में बैठा हूं, शायद किसी अपराध के कारण.

जब जीप रुकी हुई थी और रामहर्षजी ठेले वालों को डांट रहे थे, राजकीय इंटर कालेज के अध्यापक शशिभूषण वर्मा बगल से निकले. उन्होंने मुझे पुलिस के साथ जीप में देखा तो रुक गए, ‘‘अरे, विशेश्वरजी, आप. क्या बात है? कोई घटना घटी क्या. मैं साथ चलूं?’’

इस समय मैं शशिभूषण को न देखने का बहाना नहीं कर सकता था. बोला, ‘‘जीप गुदौलिया से लौट रही थी. डीवाईएसपी साहब ने मुझे जीप में बैठा लिया कि आप को घर छोड़ देंगे. डीवाईएसपी साहब मेरे मित्र हैं.’’

फिर मैं ने हंस कर कहा, ‘‘मैं ने कोई अपराध नहीं किया है. आप चिंता मत करिए. मैं न थाने जा रहा हूं, न जेल,’’ यह सुन कर मेरे मित्र शशिभूषण भी हंस पड़े. सिपाहियों को भी हंसी आ गई.

रामहर्षजी सड़क की भीड़ को ठीकठाक कर के जीप में आ कर बैठ गए थे. ड्राइवर ने जीप स्टार्ट की. आगे फिर थोड़ी भीड़ मिली. पुलिस की गाड़ी देख कर भीड़ अपनेआप इधरउधर हो गई और जीप आगे बढ़ती चली गई.

मेरा घर अभी भी नहीं आया था जबकि कई लोग मुझे मिल चुके थे. मैं चाह रहा था कि घर आए और मुझे पुलिस जीप से मुक्ति मिले. अब तक मैं काफी परेशान हो चुका था.

आखिर घर आया. जीप दरवाजे पर रुकी. मेरा छोटा बेटा पुलिस को देख कर डरता है. वह घर में भागा और दादी को पुलिस के आने की सूचना दी.

मां, दौड़ीदौड़ी बाहर आईं. मैं तब तक जीप से उतर कर दरवाजे पर आ गया था. उन्होंने घबरा कर पूछा, ‘‘क्या बात है. तुम पुलिस की जीप में क्यों बैठे थे? किसी से झगड़ा तो नहीं हुआ. मारपीट तो नहीं हो गई. कहीं चोट तो नहीं लगी है. फिर तो सिपाही घर नहीं आएंगे?’’

‘‘मां, तुम तो यों ही डर रही हो,’’ मैं ने मां को सारी बात बताई.

वे बोलीं, ‘‘मैं तो डर ही गई थी. आजकल पुलिस बिना बात लोगोें को परेशान करती है. अखबार में मैं रोज ऐसी घटनाएं पढ़ती रहती हूं. गुंडेबदमाशों का तो पुलिस कुछ कर नहीं पाती और भले लोगों को सताती है.’’

‘‘अरे, नहीं मां, रामहर्षजी ऐसे आदमी नहीं हैं. वे मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं. तभी तो उन्होंने मुझे जीप में बैठा लिया था. वे कभी किसी को बेमतलब परेशान नहीं करते.’’

‘‘चलो, ठीक है,’’ बात समाप्त हो गई.

घर आ कर मैं ने कपड़े बदले, हाथमुंह धोया और बैठक में बैठ कर चाय पीने लगा.

‘‘टन…टन…टन…’’ घंटी बजी. मैं ने दरवाजा खोला.

‘‘आइए, आइए, आज कहां भूल पड़े,’’ मैं ने हंस कर रामपाल सिंह से कहा. रामपाल सिंह मेरे फुफेरे भाई हैं.

बैठक में आ कर कुरसी पर बैठते ही रामपाल सिंह बोले, ‘‘भाई, मैं तो घबरा कर आया हूं. लड़के ने तुम को नई सड़क पर पुलिस जीप से जाते देखा था. पुलिस बगल में बैठी थी. क्या बात थी. तुम्हें पुलिस क्यों ले जा रही थी? मैं यही जानने आया हूं्.’’

मैं ने रामपाल सिंह को सारा किस्सा बताया. फिर यह कहा, ‘‘मुझे पुलिस जीप में बैठा देख कर न जाने किसकिस ने क्याक्या सोचा होगा और न जाने कौनकौन परेशान हुआ होगा.’’

‘‘तब आप को पुलिस जीप में नहीं बैठना चाहिए था. जिस ने देखा होगा, उसे ही भ्रम हुआ होगा. हमलोग अध्यापक हैं,’’ वे बोले.

‘‘आप ठीक कहते हैं भाई साहब, मुझे अपने किए पर बहुत दुख हुआ. आज मैं ने यही अनुभव किया. आज मैं ने कान पकड़ लिए हैं. ऐसा नहीं होगा कि फिर कभी किसी पुलिस जीप में बैठूं.’’

मैं अभी बात कर ही रहा था कि हमारे एक पड़ोसी घबराए हुए आए और मेरा हालचाल पूछने लगे. चाय फिर से आ गई थी और तीनों चाय पी रहे थे. पुलिस जीप में बैठने की बात मैं अपने पड़ोसी को भी बता रहा था. मेरी बात पड़ोसी सुन कर खूब हंसे.

मैं पुलिस जीप में क्या बैठा, एक आफत ही मोल ले ली. एक बूढ़ी महिला मेरी मां से इसी बारे में पूछने आईं, एक पड़ोसिन ने श्रीमतीजी से पूछा और एक महाशय ने रात के 11 बजे फोन कर के बगल वाले घर में बुलाया, क्योंकि मेरे घर में फोन नहीं है. मैं मोबाइल रखता हूं जिस का नंबर उन के पास नहीं था. फोन पर उन्होंने पूरी जानकारी ली.

2 व्यक्ति दूसरे दिन भी मेरा हालचाल लेने आए, ‘‘भाई साहब, हम तो डर ही गए थे इस बात को सुन कर.’’

तीसरे दिन दोपहर को एक महाशय जानकारी लेने आए और कालेज में प्रिंसिपल ने पूरी जानकारी ली.

यद्यपि इस घटना ने यह सिद्ध कर दिया कि शहर में मेरे प्रति लोगों की बड़ी अच्छी धारणा है तथा मेरे शुभचिंतकों की संख्या काफी अधिक है, पर अब मैं ने 2 प्रतिज्ञाएं भी की हैं, पहली, कि मैं कभी लोभ नहीं करूंगा और दूसरी, कि कभी पुलिस की जीप में नहीं बैठूंगा. पहली प्रतिज्ञा में कभी गड़बड़ी हो भी जाए, पर दूसरी प्रतिज्ञा का तो आजीवन पालन करूंगा.

रामहर्षजी गुदौलिया में बाद में भी मिले हैं और उन्होंने जीप में बैठने का प्रेमपूर्वक आग्रह भी किया है, पर मैं किसी न किसी बहाने टाल गया. जरा से लोभ के लिए अब प्रतिज्ञा तोड़ कर परेशानी में न पड़ने की कसम जो खा रखी है.

बदनाम नहीं हुई मुन्नी: चंदू को क्या समझ आ गया था

चंदू पहली बार रमेश से मवेशियों के हाट में मिला था. दोनों भैंस खरीदने आए थे.अब चंदू के पास कुल 2 भैंसें हो गई थीं. दोनों भैंसों से सुबहशाम मिला कर 30 लिटर दूध हो जाता था, जिसे बेच कर घर का गुजारा चलता था. इस के अलावा कुछ खेतीबारी भी थी.

चंदू अपनी बीवी और बेटी के साथ खुश था. तीनों मिल कर खेतीबारी से ले कर भैंसों की देखभाल और दूध बेचने का काम अच्छी तरह संभाले हुए थे.

एक दिन चंदू अपनी भैंसों को चराने कोसी नदी के तट पर ले गया. वहां एक खास किस्म की घास होती थी जिसे भैंसें बड़े चाव से चरती थीं और दूध भी ज्यादा देती थीं.

रमेश भी वहां पर भैंस चराने जाता था. रमेश से मिल कर चंदू खुश हो गया. दोनों अपनी भैंसों को चराने रोजाना कोसी नदी के तट पर ले जाने लगे. भैंसें घास चरती रहतीं, चंदू और रमेश आपस में गपें लड़ाते रहते.

रमेश के पास एक अच्छा मोबाइल फोन था. वह उस में गाना लगा देता था. दोनों गानों की धुन पर मस्त रहते. कभी कोई अच्छा वीडियो होता तो रमेश चंदू को दिखाता.

चंदू भी ऐसा ही मोबाइल फोन लेने की सोचता था, पर कभी उतने पैसे न हो पाते थे. उस के पास सस्ता मोबाइल फोन था जिस से सिर्फ बात हो पाती थी.

कुछ दिनों से एक चरवाहा लड़की अपनी 20-22 बकरियों को चराने कोसी नदी के तट पर लाने लगी थी. वह 20 साल की थी. शक्लसूरत कोई खास नहीं थी, लेकिन नई जवानी की ताजगी उस के चेहरे पर थी.

रमेश ने जल्दी ही उस लड़की से दोस्ती बढ़ा ली थी. अब वह चंदू के साथ कम ही रहता था. वह हमेशा उस लड़की को दूर ले जा कर बातें करता रहता था.

रमेश से ही चंदू को मालूम हुआ था कि उस चरवाहा लड़की का नाम मुन्नी है, जो पास के गांव में अपनी विधवा मां के साथ रहती है.

चंदू को हमेशा चिंता रहती थी कि भैंसों का पेट भरा या नहीं. मौका देख जहां अच्छी घास मिलती वह काट लेता ताकि घर लौट कर भैंसों को खिला सके. लेकिन रमेश मुन्नी के चक्कर में अपनी भैंसों की भी परवाह नहीं करता था. वह चंदू को ही अपनी भैंसों की देखरेख करने को कह कर खुद मुन्नी के साथ दूर झाडि़यों की ओट में चला जाता था.

चंदू को रमेश और मुन्नी पर बहुत गुस्सा आता. दोनों मटरगश्ती करते रहते और उसे दोनों के मवेशियों की देखभाल करनी पड़ती.

एक दिन चंदू ने गौर किया कि एक काली और ऊंचे सींग वाली बकरी गायब है. उस ने इधरउधर ढूंढ़ा पर वह कहीं नहीं मिली. वह घबरा गया और दौड़तेदौड़ते उन झाडि़यों के पास जा पहुंचा जिन की ओट में रमेश और मुन्नी थे ताकि उन्हें बकरी के खोने के बारे में बता दे. लेकिन चंदू के अचरज और नफरत का ठिकाना न रहा जब उस ने उन दोनों को आधे कपड़ों में एकदूसरे से लिपटे देखा.

चंदू उलटे पैर लौट गया. थोड़ी देर और ढूंढ़ने पर चंदू को वह खोई हुई बकरी एक गड्ढे में बैठ कर जुगाली करते हुए मिल गई. वह शांत हो गया लेकिन उसे रमेश पर रहरह कर गुस्सा आ रहा था.

काफी देर बाद रमेश चंदू के पास आया तो चंदू उस पर उबल पड़ा, ‘‘तुम जो भी कर रहे हो वह ठीक नहीं है. तुम 2 बच्चों के बाप हो. घर पर तुम्हारी बीवी है, फिर भी ऐसी हरकत. अगर कहीं कुछ गलत हो गया तो मुन्नी से कौन शादी करेगा?’’

रमेश सब सुन रहा था. वह बेहयाई से बोला, ‘‘तुम्हें भी मजा करना है तो कर ले. मैं ने कोई रोक थोड़ी लगा रखी है,’’ इतना कह कर वह एक गाना गुनगुनाते हुए अपनी भैंसों की तरफ चल पड़ा.

धीरेधीरे 5 महीने बीत गए. मुन्नी पेट से हो गई थी. उस के पेट का उभार दिखने लगा था.

रमेश ने भी अब मुन्नी से मिलनाजुलना कम कर दिया था. मुन्नी खुद बुलाती तभी जाता और तुरंत वापस आ जाता. उस ने मुन्नी को झाडि़यों में ले जाना भी बंद कर दिया था.

कुछ दिनों के बाद रमेश ने कोसी नदी के तट पर भैंस चराने आना भी छोड़ दिया. जब रमेश कई दिनों तक नहीं आया तो एक दिन मुन्नी ने चंदू के पास आ कर रमेश के बारे में पूछा.

चंदू ने जवाब दिया, ‘‘मुझे नहीं मालूम कि रमेश अब क्यों नहीं आ रहा है.’’

मुन्नी रोने लगी. वह बोली, ‘‘अब इस हालत में मैं कहां जाऊंगी. किसे अपना मुंह दिखाऊंगी. कौन मुझे अपनाएगा. रमेश ने शादी का वादा किया था और इस हालत में छोड़ गया.’’

थोड़ी देर आंसू बहाने के बाद मुन्नी दोबारा बोली, ‘‘अगर रमेश कहीं मिले तो एक बार उसे मुझ से मिलने को कहना.’’

‘‘ठीक है. वह मिला तो मैं जरूर कह दूंगा,’’ चंदू ने कहा.

इस के बाद मुन्नी धीरे से उठी और बकरियों के पीछे चली गई.

उस दिन से चंदू रमेश पर नजर रखने लगा.

एक दिन चंदू ने रमेश को मोटरसाइकिल पर शहर की ओर जाते देखा. मोटरसाइकिल पर दूध रखने के कई बड़े बरतन लटके हुए थे.

‘‘कहां जा रहे हो रमेश? आजकल तुम दिखाई नहीं देते?’’ चंदू ने पूछा.

‘‘आजकल काम बहुत बढ़ गया है. शहर में 200 घरों में दूध पहुंचाने जाता हूं इसीलिए समय नहीं मिलता,’’ रमेश ने दोटूक जवाब दिया.

‘‘200 घर… पर तुम्हारी तो 2 ही भैंसें हैं. वे 30-40 लिटर से ज्यादा दूध नहीं देती होंगी, फिर 200 घरों में दूध कैसे देते हो?’’ चंदू ने पूछा.

‘‘ऐसा है…’’ रमेश अटकते हुए बोला, ‘‘मैं गांव के कई लोगों से दूध खरीद कर शहर में बेच देता हूं.’’

‘‘इसीलिए इतनी तरक्की हो गई है. मोटरसाइकिल की सवारी करने लगे हो…’’ चंदू ने कहा, ‘‘खैर, एक बात बतानी थी. मुन्नी तुम्हें याद कर रही थी. तुम्हें जल्दी से जल्दी मिलने को कह रही थी.’’

मुन्नी का जिक्र आते ही रमेश परेशान हो गया. वह बोला, ‘‘इन फालतू बातों को छोड़ो. मेरे पास समय नहीं है. मुझे शहर जाना है. देर हो रही है,’’ कह कर उस ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और चला गया.

चंदू को बहुत गुस्सा आया. कोई लड़की परेशानी में है और रमेश को जरा भी परवाह नहीं है. लेकिन चंदू क्या कर सकता था.

एक दिन चंदू अपनी भैंसें कोसी नदी के तट पर चरा रहा था कि तभी उस ने किसी के चीखनेचिल्लाने की आवाज सुनी. उस समय वहां कोई नहीं था.

चंदू आवाज की दिशा में आगे बढ़ा. कुछ दूर चलने के बाद उस ने झाडि़यों के पीछे मुन्नी को लेटे देखा जो रहरह कर चीख रही थी. चंदू कुछकुछ समझ गया कि शायद मुन्नी को बच्चा जनने का दर्द हो रहा था.

मुन्नी की हालत खराब थी. वह बेसुध हो कर जमीन पर पड़ी थी. कभीकभी वह अपने हाथपैर पटकने लगती थी. चंदू ने सोचा कि लौट जाए, लेकिन मुन्नी को इस हाल में छोड़ कर जाना उसे ठीक नहीं लगा. वह हिम्मत कर के मुन्नी के पास पहुंचा और उसे ढांढस बंधाने लगा.

थोड़ी देर बाद बच्चे का जन्म हो गया. चंदू ने लाजशर्म छोड़ कर मुन्नी की देखभाल की. बच्चे को साफ कर अपने गमछे में लपेट कर मुन्नी के पास लिटा दिया. मुन्नी को बेटा हुआ था.

जब सूरज डूबने को आया तब जा कर मुन्नी कुछ ठीक महसूस करने लगी. लेकिन बच्चे को देख कर वह रो पड़ी. बिना शादी के पैदा हुए बच्चे को वह अपने पास कैसे रख सकती थी?

मुन्नी रोते हुए बोली, ‘‘मैं इस बच्चे को अपने साथ नहीं रख सकती. लोग क्या कहेंगे? इसे यहीं छोड़ जाती हूं या कोसी में बहा देती हूं.’’

यह सुन कर चंदू कांप गया. कुछ सोच कर वह बोला, ‘‘अगर तुम बच्चे को अपने साथ नहीं रखना चाहती तो मैं इसे अपने पास रख लूंगा.’’

‘‘ठीक है भैया, जैसा आप चाहो. लेकिन इस बारे में किसी को पता नहीं चलना चाहिए, नहीं तो मैं बदनाम हो जाऊंगी,’’ कह कर मुन्नी लड़खड़ाते कदमों से अपनी बकरियों को हांक कर घर की ओर चल पड़ी.

बच्चे को गोद में उठा कर चंदू भी भैंसों के साथ घर लौट आया. बच्चे को देख कर उस की पत्नी बोली, ‘‘यह किस का बच्चा उठा लाए हो?’’

चंदू ने झूठ बोला, ‘‘पता नहीं किस का बच्चा है. मुझे तो यह झाडि़यों के पीछे मिला था. शायद अनचाहा बच्चा है. इस की मां इसे झाडि़यों के पीछे फेंक गई होगी.’’

चंदू की पत्नी बोली, ‘‘चलो, बच्चे की जिंदगी बच गई. हमारी एक ही बेटी है, अब बेटे की कमी पूरी हो गई.’’

पत्नी की बात सुन कर चंदू ने राहत की सांस ली. लेकिन चंदू को रमेश का मतलबी रवैया खटकता था. कोई कुंआरी लड़की के प्रति इतना लापरवाह कैसे हो सकता है?

रमेश बहुत तरक्की कर रहा था. चंदू ने गांव वालों से सुना कि उस ने काफी सारी जमीन और एक ट्रैक्टर खरीद लिया था. वह पक्का मकान भी बनवा रहा था. लेकिन चंदू को यह समझ में नहीं आता था कि 200 घरों में दूध देने के लिए कम से कम 200 लिटर दूध चाहिए, जबकि उस की भैंसें 30-40 लिटर से ज्यादा दूध नहीं देती होंगी.

हैरानी की बात यह भी थी कि गांव वाले भी रमेश को दूध नहीं बेचते थे क्योंकि गांव में दूध की कमी थी.

धीरेधीरे 6 महीने बीत गए. चंदू पहले की तरह अपनी भैंसों को चराने कोसी नदी के तट पर ले जाता था, पर मुन्नी ने वहां आना छोड़ दिया था.

एक शाम चंदू अपनी भैंसों को चरा कर लौट रहा था तो रास्ते में उस ने एक बरात जाती देखी. पता किया तो मालूम हुआ कि बगल के गांव में मुन्नी नाम की किसी लड़की की शादी है.

चंदू समझ गया कि उसी मुन्नी की शादी है. वह खुश हो गया. बेचारी मुन्नी बदनाम होने से बच गई.

घर पहुंचा तो चंदू ने एक और नई बात सुनी. गांव में कई पुलिस वाले आए थे और रमेश को गिरफ्तार कर के ले गए थे.

रमेश अपने घर में नकली दूध बनाता था. उस से खरीदा हुआ दूध पी कर शहर के कई लोग बीमार पड़ गए थे.

चंदू को रमेश की तरक्की का राज अब अच्छी तरह समझ में आ गया था.

मिसेज चोपड़ा मीडिया और न्यूज

लं बा कद, गोरा रंग, सलीके से   बंधा हुआ जूड़ा, कलफ लगी बढि़या सूती साड़ी और साड़ी के रंग से मेल खाते गहने पहने मिसेज चोपड़ा पूरे दफ्तर में अलग ही दिखती थीं. मैं जिस दफ्तर में काम करती थी वहां काम कम ही होता था. यों समझ लीजिए, अकसर लोग गरमगरम चाय और गरमागरम बहस से टाइम पास करते थे. कुछ ही दिनों में दफ्तर का यह माहौल देखदेख कर मेरा धैर्य जवाब दे गया.

मैं ने अपने एन.जी.ओ. के कोआर्डिनेटर से एक दिन बातों ही बातों में पूछ लिया, ‘‘यह मिसेज चोपड़ा मुझे आफिस में सब से अलग दिखती हैं, यह कैसा काम करती हैं. मैं अभी नई हूं इसलिए इन के बारे में ज्यादा जानती नहीं हूं.’’

सामने बैठे मिस्टर शर्मा बोले, ‘‘यह यहां पी.आर.ओ. के पद पर हैं. पब्लिक और प्रेस से डीलिंग करना ही इन का काम है. यह किसी मजबूरी में नौकरी नहीं कर रही हैं. मिसेज चोपड़ा जैसी हाइक्लास सोसाइटी की औरतें जब अपनी किटी पार्टियों से बोर हो जाती हैं और उन्हें अपना समय बिताना होता है तो वे किसी एन.जी.ओ. से जुड़ जाती हैं. समय भी बीत जाता है, नाम भी मिल जाता है. मिसेज चोपड़ा भी इसी रंग में रंगी हैं.’’

मैं थोड़ी देर में अपनी जगह पर वापस आ कर काम में जुट गई. चूंकि मेरे ऊपर अपनी विधवा मां की जिम्मेदारी थी इसलिए मैं अपना काम बड़ी ईमानदारी से करती थी. मैं कुछ दिनों से यह भी अनुभव कर रही थी कि मिसेज चोपड़ा मुझे पसंद नहीं करती हैं. मेरे हर काम में उन्हें सिर्फ कमी ही नजर आती थी.

मिसेज चोपड़ा ने धीरेधीरे मुझे सताना शुरू कर दिया. मेरी किसी भी रिपोर्ट को रद्द कर देतीं और फिर से नए ढंग से बनाने को कहतीं. कभी आफिस के काम से हटा कर फील्ड वर्क पर लगा देतीं तो कभी अचानक फील्ड वर्क से आफिस भेज देतीं.

एक दिन उन्होंने मुझ से पूछ ही लिया, ‘‘मिस बेला, आप इतना कम क्यों बोलती हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘मैडम, ऐसा तो नहीं है. बस, मैं बोलने से ज्यादा काम करना पसंद करती हूं. फिर हम जो काम कर रहे हैं अगर उस में हम अपने बारे में ही सोचेंगे तो दूसरों के दुख कब शेयर करेंगे.’’

वह अचानक बौस के ढंग में बोलीं, ‘‘मिस बेला, इस केस की डिटेल्स पढि़ए. नेहा के घर वालों का बयान लीजिए और गवाहों से बात कीजिए. पुलिस से भी मिलिए. आजकल बहुत कंपीटीशन है. मैं मीडिया से बात कर के रखती हूं. हम पहले केस सुलझा लेंगे तो हमारा नाम होगा. हमारी बढि़या न्यूज तैयार होगी.’’

मैं सिर झुकाए बोली, ‘‘किसी के दुख पर सफलता की सीढ़ी लगाना अच्छा तो नहीं लगता, मैडम.’’

उन की नजरें मुझ पर जम गईं. अच्छा स्टेटस, पैसा और अच्छे संबंध यही दुनिया में जीने के उन के सिद्धांत थे.

मैं अपने गु्रप के साथ घटनास्थल पर जाने को निकल गई. वह एक बौस की तरह मेरे साथ थीं. मैं ने नेहा के घर वालों से बहुत से सवाल पूछे. नेहा को उस के ससुराल वालों ने जला कर मार दिया था. नशे की हालत में उस के पति ने उस पर तेल छिड़क कर आग लगा दी थी. मिसेज चोपड़ा बहुत खुश थीं कि अगर मीडिया यह न्यूज अच्छी तरह से पेश करता है तो उन का बहुत नाम होगा. उन्होंने प्रेस कान्फ्रेंस बुला कर मीडिया में इस मामले पर हलचल मचा दी.

उन की इस हरकत से मैं बहुत बेचैन थी. अपनी उस बेचैनी को कम करने के लिए मैं उन के केबिन में जा कर फट पड़ी, ‘‘मैडम, इस प्रेस कान्फ्रेंस से नेहा को क्या फायदा पहुंच रहा है? उस की मौत को भुना कर हमें क्या मिलेगा?’’

मेरे अंदर सवालों का ढेर लगा था. उन्हें मुझ पर गुस्सा आ गया, ‘‘मिस बेला, आप को क्या लगता है कि हमारी संस्था सिर्फ नाम कमाने के लिए दूसरों के दुख अपने पास जमा करती है? क्या हम उन के लिए कुछ नहीं करते? अगर किसी की मदद के साथ मीडिया वाले हमें भी कैमरे के सामने ला कर न्यूज बना देते हैं तो इस में बुरा क्या है?’’

मैं ने अपनी आवाज को संतुलित करते हुए जवाब दिया, ‘‘मैडम, हम क्या करते रहे हैं महिलाओं के लिए? जो बात सिर्फ घर वाले जानते हैं हम उन्हें सब के सामने ला कर दुखी लोगों को और दुखी कर देते हैं. थोड़ी सी जबानी सहानुभूति या कभीकभी कुछ आर्थिक सहायता. हमारी संस्था औरत को कभीकभी एक तमाशा बना देती है. मीडिया को तो खबरें ही चाहिए. मैडम, मैं यहां नौकरी नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘हां, यही अच्छा रहेगा. जहां काम में रुचि न हो वहां इनसान को काम नहीं करना चाहिए. आप जा सकती हैं.’’

मैं अपना बैग उठा कर आफिस से बाहर आ गई. मैं हर उस नौकरी को बुरा समझती हूं जिस में किसी के दुख को भुनाया जाता है.

मैं ने कुछ दिन बाद एक स्कूल में नौकरी ज्वाइन कर ली लेकिन मिसेज चोपड़ा और उन की संस्था के बारे में मुझे खबर मिलती रहती थी. नेहा का केस उन्होंने सुलझा लिया था, उन की संस्था की धूम मची हुई थी.

जीवन अपने ढर्रे पर चल रहा था कि एक दिन अचानक सुबह उठने पर पेपर पढ़ा तो रोंगटे खडे़ हो गए. मिसेज चोपड़ा की बेटी आकृति के साथ कुछ दरिंदों ने रेप किया था. वह अपने कालिज से घर आ रही थी कि सुनसान सड़क पर कुछ लड़के कार में उसे उठा कर ले गए थे.

इस खबर को पढ़ने के बाद मैं अपने को वहां जा कर उन से मिलने से रोक नहीं पाई. उन के घर पहुंची तो वह मासूम सी लड़की कमरे में बंद थी और बारबार बेहोश हो रही थी. बहुत ही हृदयविदारक दृश्य था. पूरा स्टाफ वहां था. सब को आकृति पर तरस आ रहा था. मिसेज चोपड़ा का विलाप दिल को चीर रहा था. चोपड़ा साहब विदेश में थे. उन मांबेटी से सब को सहानुभूति हो रही थी. कुछ देर वहां ठहर कर मैं वापस घर आ गई लेकिन अगले दिन भी उन दुखियारी मांबेटी के पास कुछ देर बैठने के लिए मैं गई. फिर कई दिनों तक रोज ही जाती रही. सब को आकृति के सामान्य होने का इंतजार था.

एक दिन अचानक एक प्रसिद्ध एन.जी.ओ. की महिलाएं मीडिया के साथ मिसेज चोपड़ा के घर पहुंच गईं. हर तरफ कैमरे की रोशनियां और उन की बेटी का रोना, मिसेज चोपड़ा बारबार उन लोगों से जाने की प्रार्थना करते हुए सिसक उठीं, लेकिन संस्था की महिलाएं, हाथ में पेपर, पैन लिए मीडिया के लोग, मांबेटी से सवाल पर सवाल पूछे जा रहे थे और अपनी संस्था की शान में कमेंट भी किए जा रहे थे कि हम आप की बेटी को न्याय दिलवाएंगे. मैडम, आप तो खुद एक संस्था चलाती थीं. आज आप आम आदमी की जगह खड़ी हैं. आप को कैसा लग रहा है? मैडम, आप कुछ जवाब दें. आप इस केस में क्या कहना चाहेंगी.

मिसेज चोपड़ा ने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन उन के शब्द अंदर ही रह गए और वे गिर पड़ीं.

आफिस के कुछ लोगों के साथ मैं उन को अस्पताल ले गई. आकृति को मैं ने अपनी मां के पास भेज दिया. मिसेज चोपड़ा को हार्टअटैक पड़ा था. उन की देखरेख मैं ने एक दोस्त की तरह की, क्योंकि मेरी मां ने मुझे यही सिखाया था. उन के दिए गए संस्कार मेरे अंदर खून बन कर बहते थे. स्कूल से मैं ने छुट्टियां ली हुई थीं. मिसेज चोपड़ा जब तक अस्पताल से घर आने लायक हुईं हम एक अच्छे दोस्त बन चुके थे.

घर आ कर वह अपने काम में व्यस्त हो गईं और मैं अपने में. जीवन निर्बाध गति से चल रहा था. एक दिन मैं ने टेलीविजन चलाया तो मिसेज चोपड़ा अपने साक्षात्कार में कह रही थीं, ‘‘अगर हम किसी बहन या बेटी की इज्जत करते हैं तो क्या हमें उस को हजारों लोगों के सामने खड़ा कर देना चाहिए. हमें यदि किसी की मदद करनी है तो क्या हम चुपचाप नहीं कर सकते. मैं एक नई संस्था बना रही हूं जिस का मीडिया से बहुत ही कम लेनादेना होगा. हम चुपचाप दुखी जनता के आंसू पोंछेंगे.’’

आज मुझे लगा कि मिसेज चोपड़ा ने अब जो रास्ता चुना है वह सही है. मुझे उन की इस बदली हुई सोच पर खुशी हुई और मैं उन को इस नए कदम के लिए शुभकामनाएं देने को फोन मिलाने लगी, साथ ही मुझे उन को यह भी बताना था कि मैं उन की नई संस्था में काम करने आ रही हूं.

मेघनाद: कुछ ऐसा ही था उसका व्यक्त्तिव

‘मेघनाद…’ हमारे प्रोफैसर क्लासरूम में हाजिरी लेते हुए जैसे ही यह नाम पुकारते, ‘खीखी’ की दबीदबी आवाजें आने लगतीं. एक तो नाम भी मेघनाद, ऊपर से जनाब 6 फुट के लंबे कद के साथसाथ अच्छेखासे सांवले रंग के मालिक भी थे. उस पर घनीघनी मूंछें. कुलमिला कर मेघनाद को देख कर हम शहर वाले उसे किसी फिल्मी विलेन से कम नहीं समझते थे.

पास ही के गांव से आने वाला मेघनाद पढ़ाई में अव्वल तो नहीं था लेकिन औसत दर्जे के छात्रों से तो अच्छा ही था.

आमतौर पर क्लास में पीछे की तरफ बैठने वाला मेघनाद इत्तिफाक से एक दिन मेरे बराबर में ही बैठा था. जैसे ही प्रोफैसर ने उस का नाम पुकारा कि ‘खीखी’ की आवाजें आने लगीं.

मेरे लिए अपनी हंसी दबाना बड़ा ही मुश्किल हो रहा था. मुझे लगा कि मेघनाद को बुरा लग सकता है, लेकिन मैं ने देखा कि वह खुद भी मंदमंद मुसकरा रहा था.

कुछ दिनों से मैं नोट कर रहा था कि मेघनाद चुपकेचुपके श्वेता की तरफ देखता रहता था. कालेज में लड़कियों की तरफ खिंचना कोई नई बात नहीं थी लेकिन श्वेता अपने नाम की ही तरह खूब गोरी और बेहद खूबसूरत थी. क्लास के कई लड़के उस पर फिदा थे लेकिन श्वेता किसी को भी घास नहीं डालती थी.

मैं ने यह बात खूब मजे लेले कर अपने दोस्तों को बताई.

एक दिन जब प्रोफैसर महेश ने मेघनाद का नाम पुकारा तो कोई जवाब नहीं आया. उन्होंने फिर से नाम पुकारा लेकिन फिर भी कोई जवाब नहीं आया.

मेघनाद कभी गैरहाजिर नहीं होता था इसलिए प्रोफैसर महेश ने सिर उठा कर फिर से उस का नाम लिया. अब तक क्लास की ‘खीखी’ अच्छीखासी हंसी में बदल गई थी.

इतने में श्वेता ने मजाक उड़ाते हुए कहा, ‘‘सर, वह शायद लक्ष्मणजी के साथ कहीं युद्ध कर रहा होगा.’’

यह सुन कर सभी हंसने लगे. यहां तक कि प्रोफैसर महेश भी अपनी हंसी न रोक पाए.

तभी सब की नजर दरवाजे पर पड़ी जहां मेघनाद खड़ा था. आज उस की ट्रेन लेट हो गई थी तो वह भी थोड़ा लेट हो गया था. उस ने श्वेता की बात सुन ली थी और उस का चेहरा उतर गया था.

मुझे मेघनाद का उदास सा चेहरा देख कर अच्छा नहीं लगा. शायद उस को लोगों की हंसी से ज्यादा श्वेता की बात बुरी लगी थी.

बीएससी पूरी कर के मैं दिल्ली आ गया और फिर अगले 10 सालों में एक बड़ी मैडिकल ट्रांसक्रिप्शन कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर बन गया.

कालेज के मेरे कुछ दोस्त सरकारी टीचर बन गए तो कुछ अपना कारोबार करने लगे.

कालेज के कुछ पुराने छात्रों ने 10 साल पूरे होने पर रीयूनियन का प्रोग्राम बनाया. अनुराग, अजहर, विनोद, इकबाल, पारुल वगैरह ने प्रोग्राम के लिए काफी मेहनत की.

प्रोग्राम में अपने पुराने साथियों से मिल कर मुझे बहुत अच्छा लगा.

यों तो प्रोग्राम में अपनी क्लास के करीब आधे ही लोग आ पाए, फिर भी उन सब से मिल कर काफी अच्छा लगा.

मेरे सहपाठी हेमेंद्र और दीप्ति शादी कर के मुंबई में रह रहे थे तो संजय एक बड़ी गारमैंट कंपनी में वाइस प्रैसीडैंट बन गया था. अतीक जरमनी में सीनियर साइंटिस्ट के पद पर था. वह प्रोग्राम में तो नहीं आ पाया लेकिन उस ने हम सब को अपनी शुभकामनाएं जरूर भेजी थीं.

वंदना एक कामयाब डाक्टर बन गई थी. हमारे टीचरों ने भी हम सब को अपनेअपने फील्ड में कामयाब देख कर अपना आशीर्वाद दिया. कुलमिला कर सब से मिल कर बहुत अच्छा लगा.

हमारे सीनियर मैनेजर मनीष सर 2 साल के लिए अमेरिका जा रहे थे. उन की जगह कोई नए सीनियर मैनेजर हैदराबाद से आ रहे थे. मेरे साथी असिस्टैंट मैनेजर ऋषि, जिन को औफिस में सब ‘पार्टी बाबू’ के नाम से बुलाते थे, ने नए सीनियर मैनेजर के स्वागत में एक छोटी सी पार्टी करने का सुझाव दिया. हम सभी को उन की बात जंच गई और सभी लोग पार्टी की तैयारियों में लग गए.

तय दिन पर नए सीनियर मैनेजर औफिस में पधारे और उन को देखते ही मेरे आश्चर्य की कोई सीमा न रही. मेरे सामने मेघनाद खड़ा था. वह भी मुझे देख कर तुरंत पहचान गया और बड़ी गर्मजोशी से आ कर मिला.

मेघनाद बड़ा आकर्षक लग रहा था. सूटबूट में आत्मविश्वास से भरपूर फर्राटेदार अंगरेजी में बात करता एक अलग ही मेघनाद मेरे सामने था. अपने पहले ही भाषण में उस ने सभी औफिस वालों को प्रभावित कर लिया था.

थोड़ी देर बाद चपरासी ने आ कर मुझ से कहा कि सीनियर मैनेजर आप को बुला रहे हैं. मेघनाद ने मेरे और परिवार के बारे में पूछा. फिर वह अपने बारे में बताने लगा कि ग्रेजुएशन करने के बाद वह कुछ साल दिल्ली में रहा, फिर हैदराबाद चला गया. पिछले साल ही उस ने हमारी कंपनी की हैदराबाद ब्रांच जौइन की थी.

फिर उस ने मुझे रविवार को सपरिवार अपने घर आने की दावत दी.

रविवार को मैं अपनी श्रीमती के साथ मेघनाद के घर पहुंचा. घर पर मेघनाद के 2 प्यारेप्यारे बच्चे भी थे. लेकिन असली झटका मुझे उस की पत्नी को देख कर लगा. मेरे सामने श्वेता खड़ी थी. मेरे हैरानी को भांप कर मेघनाद भी हंसने लगा.

‘‘हैरान हो गए क्या…’’ मेघनाद ने हंसते हुए कहा, फिर खुद ही वह अपनी कहानी बताने लगा, ‘‘दिल्ली आने के बाद नौकरी के साथसाथ मैं एमबीए भी कर रहा था. वहां मेरी मुलाकात श्वेता से हुई थी. फिर हमारी दोस्ती हो गई और कुछ समय बाद शादी. वैसे, मुझ में इन्होंने क्या देखा यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया.’’

श्वेता ने भी अपने दिल की बात बताई, ‘‘कालेज में तो मैं इन को सही से जानती भी नहीं थी, पता नहीं कहां पीछे बैठे रहते थे. दिल्ली आ कर मैं ने इन के अंदर के इनसान को देखा और समझा. मैं ने अपनी जिंदगी में इन से ज्यादा ईमानदार, मेहनती और प्यार करने वाला इनसान नहीं देखा.’’

मेघनाद और श्वेता के इस प्रेम संसार को देख कर मुझे वाकई बड़ी खुशी हुई. सच ही है कि आदमी की पहचान उस के नाम या रंगरूप से नहीं, बल्कि उस के गुणों से होती है. और हां, अब मुझे मेघनाद नाम सुन कर हंसी नहीं आती, बल्कि फख्र महसूस होता है.

खतरा यहां भी है: सबइंस्पैक्टर रचना क्या सोच रही थी

‘‘मम्मीमम्मी, आप जा रही हो? पापा को यहां कौन देखेगा?’’ राजू अपनी मम्मी को तैयार होते देख कर बोला, ‘‘पापा अकेले परेशान नहीं हो जाएंगे…’’

‘‘नहीं बेटा, वे बिलकुल परेशान नहीं होंगे,’’ मम्मी पैंट की बैल्ट कसते हुए बोलीं, ‘‘उन्हें पता है कि इस समय हमारी ड्यूटी कितनी जरूरी है. फिर तुम हो, तुम्हारी दीदी सुहानी हैं. तुम लोग उन का ध्यान रखोगे ही. खाना बना ही दिया है. तुम लोग मिलजुल कर खा लेना.

‘‘पापा होम आइसोलेशन में हैं. तुम्हें तो पता ही है कि जब तक वे पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते, उन से दूरी बना कर रखना है, इसलिए तुम उन के कमरे में नहीं जाना. अपनी पढ़ाई करना और मन न लगे तो टैलीविजन देख लेना.’’

‘‘मन नहीं करता टैलीविजन देखने का…’’ राजू मुंह बना कर बोला, ‘‘सब चैनल में एक ही बात ‘कोरोनाकोरोना’. ऊब गया हूं यह सब सुनतेदेखते.’’

‘‘इसी से समझ लो कि कैसी परेशानी बढ़ी हुई है…’’ मम्मी राजू को समझाते हुए बोलीं, ‘‘इसलिए तो लोग बाहर नहीं निकल रहे. और तुम लोग भी घर से बाहर नहीं निकलना. घर में जो किताबें और पत्रिकाएं तुम लोगों के लिए लाई हूं, उन्हें पढ़नादेखना.’’

‘‘रचना मैडमजी, चलिए देर हो रही है…’’ ड्राइवर मोहसिन खान ने बाहर से हांक लगाई, ‘‘हम समय से थाने नहीं पहुंचे, तो इंस्पैक्टर साहब नाराज होने लगेंगे. उन की नसीहतें तो आप जानती ही हैं. बेमतलब शुरू हो जाएंगे.’’

‘‘नहीं जी, वे बेमतलब नहीं बोलते हैं…’’ रचना जीप में बैठ कर हंसते हुए बोलीं, ‘‘जब हम ही समय का खयाल नहीं रखेंगे, तो पब्लिक क्यों खयाल रखेगी, इसलिए वे बोलते हैं. हमें तो समय का, अनुशासन का सब से पहले खयाल रखना होता है.’’

जीप एक झटके के साथ आगे बढ़ी, तो रचना ने बच्चों को दूर से ही हाथ हिला कर ‘बाय’ कहा. पति रमाशंकर अपने कमरे की खिड़की से उन्हें एकटक देखे जा रहे थे.

जीप जैसे ही थाने पहुंची, रचना  उस से तकरीबन कूद कर थाने के अंदर आ गईं.

‘‘आप आ गईं… अच्छा हुआ…’’ इंस्पैक्टर हेमंत रचना को देख कर बोले, ‘‘अभी रमाशंकरजी कैसे हैं?’’

‘‘वे ठीक हैं सर,’’ रचना उन का अभिवादन करते हुए बोलीं, ‘‘होम आइसोलेशन में हैं. उन्हें समझा दिया है कि कमरे से बिलकुल बाहर न निकलें और बच्चों को दूर से ही दिशानिर्देश देते रहें. वैसे, मेरे बच्चे समझदार हैं.’’

‘‘जिन की आप जैसी मां हों, वे बच्चे समझदार होंगे ही मैडम रचनाजी…’’ इंस्पैक्टर हेमंत हंसते हुए बोले, ‘‘क्या कहें, हमारी ड्यूटी ही ऐसी है. सरकार ने ऐन वक्त पर हम पुलिस वालों की छुट्टियां कैंसिल कर दीं, जिस से मजबूरन आप को आने के लिए कहना पड़ा, वरना आप को घर पर होना चाहिए था. औरतें तो घर की ही शान होती हैं.’’

‘‘वह समय कब का गया सर,’’ रचना हंसते हुए बोलीं, ‘‘अब तो औरतें भी घर के बाहर फर्राटा भर रही हैं. तभी तो हम लोगों को भी पुलिस में नौकरी मिलने लगी है.’’

‘‘ठीक कहती हैं आप,’’ इंस्पैक्टर हेमंत जोर से हंसे, फिर बोले, ‘‘देखिए, 10 बजने वाले हैं. आप गश्ती दल के साथ सब्जी बाजार की ओर चली जाइए. वहां की भीड़ को चेतावनी देने के साथ उसे तितरबितर कराइए. मैं दूसरी गाड़ी से बड़े बाजार की ओर निकल रहा हूं.’’

‘‘ठीक है सर,’’ बोलते हुए रचना उठने को हुईं, तो वे फिर बोले, ‘‘लोगों के मास्क पर खास नजर रखिएगा. और हां, आप भी लोगों से सोशल डिस्टैंसिंग बना कर रखिएगा.’’

‘‘जरूर सर…’’ रचना बाहर निकलते हुए बोलीं, ‘‘आप भी अपना खयाल रखिएगा.’’

‘‘किधर धावा मारना है?’’ मोहसिन उठते हुए बोला, ‘‘हम चैन से बैठ भी नहीं पाते कि बाहर निकलना पड़ जाता है.’’

‘‘क्या करें, हमारी नौकरी ही ऐसी है…’’ वे बोलीं, ‘‘हमारे साथ 3 और कांस्टेबल जाएंगे.’’

तभी थाने परिसर में बनी छावनी से 2 कांस्टेबल हाथ में राइफल और डंडा उठाए आते दिखाई दिए.

‘‘क्यों हरिनारायण, ठीक तो हो न?’’ रचना उन से मुखातिब हुईं, ‘‘और रामजी, क्या हाल है तुम्हारा?’’

‘‘अब थाने की चाकरी कर रहे हैं, तो ठीक तो होना ही है,’’ रामजी हंस कर बोला, ‘‘इस लौकडाउन की वजह से बेवजह हमारा काम बढ़ गया, तो भागादौड़ी लगी ही रहती है. चलिए, किधर जाना है?’’

‘‘अरे, तुम 2 ही लोग साथ जाओगे?’’ रचना बोली ही थीं कि इंस्पैक्टर हेमंत बाहर निकल कर बोले, ‘‘अभी इन दोनों के साथ ही जाइए मैडम. आप तो जानती ही हैं कि एरिया कितना बड़ा है हमारा और कांस्टेबल कितने कम हैं. स्टेशन के पास के बाजार में ज्यादा कांस्टेबल भेजने पड़ गए, क्योंकि वह संवेदनशील इलाका ठहरा. आप तो समझ ही रही हैं. वैसे, आप ने अपना रिवाल्वर चैक कर लिया है न?’’

‘‘उस की जरूरत नहीं पड़ेगी सर…’’ वह अपने बगल में लटके रिवाल्वर पर हाथ धर कर हंसते हुए बोलीं, ‘‘यह वरदी ही काफी है भीड़ को कंट्रोल करने

के लिए.’’

अपने गश्ती दल के साथ रचना बाजार की ओर बढ़ रही थीं. उन की गाड़ी देखते ही लोग अलगअलग हो कर दूरी बना लेते थे, मगर उन के आगे बढ़ते ही दोबारा वही हालत बन जाती थी.

रचना तिराहेचौराहे पर कभीकभी गाड़ी रुकवा लेतीं और अपने साथियों के साथ उतर कर सभी से एक दूरी बनाने की हिदायत देती फिरतीं. समयसीमा खत्म होने के साथ ही दुकानें बंद और सड़कें सुनसान होने लगी थीं. अब कुछ ही लोग बाहर नजर आ रहे थे, जिन्हें उन्होंने अनदेखा सा किया. वे सब थक चुके थे शायद.

थाना लौटने के पहले ही रचना का मोबाइल फोन बजने लगा था. उन्होंने फोन रिसीव किया. फोन की दूसरी तरफ से जिले के पुलिस अधीक्षक मोहन वर्मा थे, ‘आप सबइंस्पैक्टर रचना हैं न?’

‘‘जी सर, जय हिंद सर…’’ रचना सतर्क हो कर बोलीं, ‘‘क्या आदेश  है सर?’’

‘अरे, जरा तुम उधर से ही गांधी पार्क वाले चौराहे पर चली जाना,’ मोहन वर्मा रचना को बताने लगे, ‘कुछ पत्रकार बता रहे थे कि उधर लौकडाउन का पालन नहीं हो रहा है. आतेजाते लोगों और गाडि़यों पर नजर रखना और कानून व्यवस्था को दुरुस्त रखना.

‘जरूरत के हिसाब से थोड़ा सख्त हो जाना. जिन के पास उचित कागजात हों, उन्हें छोड़ कर सभी के साथ सख्ती करना. कितनी और कैसी सख्ती करनी है, यह तुम्हें समझाने की जरूरत तो  है नहीं.’

रचना की गाड़ी अब थाने के बजाय गांधी पार्क की ओर मुड़ चुकी थी. वहां भी सन्नाटा ही पसरा था. मगर कुछ गाडि़यां तेजी से आजा रही थीं.

रचना ने वहां एक साइड में रखे बैरिकेडिंग को सड़क पर ठीक कराया और हर आतीजाती गाडि़यों की खोजखबर लेने लगी थीं.

पुलिस को देखते ही एक बाइक पर सवार 2 नौजवान हड़बड़ा से गए. रचना ने उन्हें रोक कर पूछा, ‘‘कहां चल दिए? पता नहीं है क्या कि लौकडाउन लगा हुआ है?’’

‘‘सदर अस्पताल से आ रहा हूं मैडम…’’ एक नौजवान हकलाते हुए बोला, ‘‘दवा लेने गया था.’’

‘‘जरा डाक्टर का परचा तो दिखाना कि किस चीज की दवा लेने गए थे?’’

‘‘वह घर पर ही छूट गया है मैडम…’’ दूसरा नौजवान घिघियाया, ‘‘हम जल्दी में थे मैडम. हमें माफ कर दीजिए. हमें जाने दीजिए.’’

‘‘जब तुम गलत नहीं थे, तो हमें देख कर कन्नी कटाने की कोशिश क्यों की?’’ रचना सख्त हो कर बोलीं, ‘‘तुम दोनों के मास्क गले में लटके हुए थे. हमें देख कर तुम ने अभी उन्हें ठीक किया है. अपने साथ दूसरों को भी क्यों खतरे में डालते हो. अच्छा, बाइक के कागज तो होंगे ही न तुम्हारे पास?’’

‘‘सौरी मैडम, हम हड़बड़ी में कागज रख नहीं पाए थे…

‘‘और कितना झूठ बोलोगे?’’

‘‘सच कहता हूं, दोबारा ऐसी गलती नहीं होगी. कान पकड़ता हूं,’’ उस ने हरिनारायण की ओर मुसकरा कर देखा. वह उस का इशारा समझ गया और उन्हें घुड़कता हुआ बोला, ‘‘एक तो गलती करोगे और झूठ पर झूठ बोलते जाओगे. जैसे कि हम समझते ही नहीं. चलो सड़क किनारे और इसी तरह कान पकड़े सौ बार उठकबैठक करो, ताकि आगे से याद रहे.’’

अब वे दोनों नौजवान सड़क किनारे कान पकड़े उठकबैठक करने लग गए थे.

अचानक रचना ने तेजी से गुजरती कार रुकवाई, तो उस का चालक बोला, ‘‘जरूरी काम से सदर होस्पिटल गए थे मैडम. आप डाक्टर का लिखा परचा देख लें, तो आप को यकीन हो जाएगा. हमें जाने दें.’’

‘‘वह तो हम देखेंगे ही. मगर पीछे की सीट पर जिन सज्जन को आप बिठाए हुए हैं, उन के पास तो मास्क ही नहीं है. आप लोग हौस्पिटल से आ रहे हैं, तो आप को तो खास सावधानी बरतनी चाहिए. वे कोरोना पौजिटिव हैं कि नहीं हैं, यह कैसे पता चलेगा? अगर वे कोरोना पौजिटिव हुए, तो आप भी हो जाएंगे. बाद में हमारे जैसे कई लोग हो जाएंगे. आप पढ़ेलिखे लोग इतनी सी बात को समझते क्यों नहीं हैं?’’

‘‘अरे मैडम, मेरे पास मास्क है न…’’ पीछे बैठे सज्जन ने मास्क निकाल कर उसे मुंह पर लगाया और बोले, ‘‘हमारे मरीज की हालत सीरियस है. हमें जल्दी है, प्लीज जाने दें.’’

‘‘वह तो हम जाने ही देंगे…’’ रचना उन के दिए डाक्टर के परचे को देखते हुए बोलीं, ‘‘मगर, आप को फाइन देना ही होगा, ताकि आप को पता तो चले कि आप ने गलती की है.’’

धूप तीखी हो चली थी और रचना पसीने से तरबतर थीं. उन्होंने देखा कि साथी कांस्टेबल भी गरमी से बेहाल हो थक चुके थे. उन्होंने ड्राइवर मोहसिन को आवाज दी और वापस थाना चलने का संकेत दिया.

थाने आ कर रचना ने अच्छे से हाथमुंह धोया और खुद को सैनेटाइज किया, फिर एक कांस्टेबल को भेज कर गरम पानी मंगवा कर पीने लगीं. इस के बाद वे अपनी टेबल पर रखी फाइलों और कागजात के निबटान में लग गईं.

शाम के 6 बज चुके थे. तब तक इंस्पैक्टर हेमंत आ चुके थे. आते ही वे बोले, ‘‘अरे रचना मैडम, आप क्या  कर रही हैं. अभी तक यहीं हैं, घर  नहीं गईं?’’

‘‘कैसे चली जाती…’’ वे बोलीं, ‘‘आप भी तो नहीं थे.’’

‘‘ठीक है, ठीक  है. अब मैं आ गया हूं, अब आप घर जाइए. घर में आप के पति बीमार हैं. छोटेछोटे बच्चे हैं. आप घर जाइए,’’ इतना कह कर वे मोहसिन को आवाज देने लगे, ‘‘मोहसिन भाई, कहां हैं आप? जरा, मैडम को घर  छोड़ आइए.’’

‘‘मैडम को कहा तो था…’’ मोहसिन बोला, ‘‘मगर, आप तो जानते ही हैं कि वे अपनी ड्यूटी की कितनी पक्की हैं.’’

‘‘ठीक है, अब तो पहुंचा दो यार…’’

साढ़े 6 बजे जब रचना घर पहुंचीं, तो राजू लपक कर बाहर निकल आया था. वह उन से चिपकना ही चाहता था कि वे बोलीं, ‘‘अभी नहीं, अभी दूर ही रहो मुझ से. दीदी को बोलो कि वे सैनेटाइज की बोतल ले कर आएं. सैनेटाइज होने के बाद सीधे बाथरूम जाना है मुझे.’’

पूरे शरीर को सैनेटाइज करने के बाद रचना बाहर ही अपने भारीभरकम जूते खोल कर घर में घुसीं, गीजर औन करने के बाद वे अपनी ड्रैस उतारने लगीं.

अच्छी तरह स्नान करने के बाद हलके कपड़े पहन कर रचना बाहर निकलीं और सीधी रसोईघर में आ गईं. दूध गरम कर कुछ नाश्ते के साथ बच्चों को दिया. फिर गैस पर चाय के लिए पानी चढ़ा कर पति के लिए कुछ खाने का सामान निकालने लगीं.

चाय पीते हुए रचना ने रिमोट ले समाचार चैनल लगाया, जिस में कोरोना संबंधी खबरें आ रही थीं. थोड़ी देर बाद उन्होंने टैलीविजन बंद किया, फिर बच्चों की ओर मुखातिब हुईं.

सुहानी पहले की तरह चुप थी. शायद समय की नजाकत ने उस 12 साल की बच्ची को गंभीर बना दिया था. मगर राजू उन्हें दुनियाजहान की बातें बताने में लगा था और वे चुपचाप सुनती रही थीं.

रचना का सारा शरीर थकान से टूट रहा था और उन्हें अभी भोजन भी बनाना था. जल्दी खाना नहीं बना, तो रात में सोने में देर हो जाएगी.

भोजन बनाने और सब को खिलानेपिलाने में रात के 10 बज गए थे. राजू को समझाबुझा कर बहन के कमरे में ही सुला कर वे बाहर अपने कमरे में आईं और अपने पलंग पर लेट गईं. थकान उन पर हावी हो रही थी. मगर अब अतीत उन के सामने दृश्यमान होने लगा था.

कितना संघर्ष किया है रजनी ने यहां तक आने के लिए, मगर कभी उफ तक नहीं की. देखतेदेखते इतना समय बीत गया. दोनों बच्चे बड़े हो गए, मगर ऐसा खराब समय नहीं देखा कि लोग  अपनों के सामने हो कर भी उन के लिए तरस जाएं.

घर में एक नौकर था, वह इस महामारी में अपने गांव क्या भागा, पीछे पलट कर देखने की जरूरत भी नहीं समझी. कामवाली महरी भी कब का किनारा कर चुकी है. ऐसे में उन्हें ही घरबाहर सब देखना पड़ रहा है.

यह सब अपनी जगह ठीक था, मगर जब रचना के शिक्षक पति बीमार पड़े, तो वे घबरा गई थीं. पहले वे छिटपुट काम कर लेते थे, बच्चों को संभाल भी लेते थे. इधर उन का स्कूल भी बंद था, जिस से वे निश्चिंत भी थीं, मगर एक दिन किसी शादी में क्या गए, वहीं कहीं पति कोरोना संक्रमित हो गए.

शुरू के कुछ दिन तो जांच और भागदौड़ में बीता, मगर बाद में पता चला कि पति कोरोना पौजिटिव हैं, तो मुश्किलें बढ़ गईं. घर पर ही रह कर इलाज शुरू हुआ था. मगर सांस लेने में तकलीफ और औक्सीजन के घटते लैवल को देख कर उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ा. उफ, क्या मुसीबत भरे दिन थे वे. सारे अस्पताल कोरोना मरीजों से भरे पड़े थे. एकएक बिस्तर के लिए मारामारी थी. अगर बिस्तर मिल गया, तो दवाएं नहीं थीं या औक्सीजन सिलैंडर नहीं मिलते थे.

ऐसे में एसपी मोहन वर्मा ने अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए उन्हें बिस्तर दिलवाया था और औक्सीजन का इंतजाम कराया था. रचना उन के इस अहसान को हमेशा याद रखेगी.

उन दिनों रचना एक आम घरेलू औरत की तरह रोने लगती थी, तब वे ही उन्हें हिम्मत बंधाते थे. उन्होंने खुद आगे बढ़ कर रचना की छुट्टी मंजूर की और उन्हें हर तरह से मदद की…

अचानक राजू के रोने की आवाज से रचना की तंद्रा टूटी. राजू उन के पलंग के पास आ कर रोता हुआ कह रहा था, ‘‘मुझे डर लग रहा है मम्मी. मैं आप के साथ ही रहूंगा, कहीं नहीं जाऊंगा…’’

रचना ने उसे समझाबुझा कर चुप कराया, फिर वापस उसे अपने कमरे  में पलंग पर लिटा कर थपकियां देदे  कर सुलाया.

इस कोरोना काल में कैसेकैसे लोगों के साथ मिलनाजुलना होता है. क्या पता कि कोरोना वायरस उन के शरीर में ही घुसा बैठा हो. ऐसे में वे अपने परिवार के साथ खुद को कैसे खतरे में डाल सकती हैं… अपने कमरे में जाते हुए सबइंस्पैक्टर रचना यही सोच रही थीं.

भटकन: आखिर कौन थी मिताली

मिताली से मुलाकात का दिन था. साउथ एक्स के एक रैस्टोरैंट में कौशलजी प्रतीक्षा कर रहे थे तभी मिताली को आते देख उन के चेहरे पर मुसकराहट फैल गई. पर मिताली आज चुपचुप व उदास थी.

‘‘क्या बात है? उदास लग रही हो?’’

‘‘क्या बताऊं, आज का दिन मेरे लिए ठीक नहीं है अभी आते वक्त मैट्रो में किसी ने मेरे बैग से मनीपर्स निकाल लिया. उस में रखे रुपए मां को भिजवाने थे,’’ उस की आंखें छलछला उठीं, ‘‘सौरी, मैं तो आप को खुशी देने आई थी पर अपना ही रोना ले कर बैठ गई,’’ इतना कह कर उस ने टिश्यूपेपर आंखों पर रख लिया.

‘‘तुम भी अजीब लड़की हो. इस में सौरी जैसी क्या बात है. यह बताओ कि कितने रुपए चाहिए मां को भेजने के लिए? कल तुम्हें मिल जाएंगे.’’

‘‘पर आप क्यों…’’ और आवाज रुंध गई थी मिताली की.

‘‘मुझ से यह रोनी सूरत नहीं देखी जाती, समझीं. अब ज्यादा मत सोचो और बताओ.’’

‘‘तो सर, अभी 10 हजार रुपए चाहिए. मां का इलाज भी चल रहा है और…पर मैं ये रुपए अगले महीने ही आप को दे पाऊंगी.’’

‘‘हांहां, यह बाद में सोच लेना. अभी तो अपना मूड ठीक करो और गरमगरम कौफी पियो.’’

‘‘थैंक्स फौर दिस हैल्प, सर,’’ उस ने कौशलजी का हाथ पकड़ धीरे से चूम लिया. कुछ पल वे प्रस्तर मूर्ति बने रह गए, पर मन में कुछ अच्छा लगा था.

2 वर्ष पहले पत्नी रमा की मृत्यु के बाद से कौशलजी उदास व अकेले पड़ गए थे. घर की ओर बढ़ते कदम बोझिल हो जाते. अकेला घर काटता सा प्रतीत होता. यों तो पुस्तकें, टीवी उन के साथी बनने के लिए हाजिर थे पर बातचीत, कुछ हंसी, मस्ती की खुराक के बिना उन का मन उदासी से घिरा रहता.

अब की होली भी अकेली व फीकी ही गई थी. बेटा टूर पर था, बेटी दूसरे शहर में थी. तभी लखनऊ की होली की याद कर के उन के होंठ स्वत: ही मुसकरा उठे. फिर कुछ पल बाद, बुदबुदा उठे, ‘रमा, तुम्हारे साथ ही सारे रंग भी चले गए हैं. लोग कहते हैं कि बढ़ती उम्र के साथ विरक्ति आनी चाहिए लेकिन खुशी के साथ जीने की इच्छा तो हर उम्र में होती है.’

स्वभाव से बातूनी व हंसमुख कौशलजी की उदासी, बेटे के पास दिल्ली की फ्लैट संस्कृति में जस की तस रही. वे यहां अपना अकेलापन दूर करने की इच्छा से आए थे पर बेटा राहुल अपनी जौब में इतना व्यस्त था कि साथ में ब्रेकफास्ट या डिनर भी न हो पाता. आसपास भी हमउम्र नहीं. यंग जैनरेशन अपने जौब आदि में व्यस्त. ऐसे में अखबार, टीवी के बाद, नजदीकी बाजार या पार्क का चक्कर लगा आते.

एक दिन कौशलजी, अपना पीएफ तथा रुकी पैंशन के लाखों में रुपए मिलने की खबर से इतने उत्साहित थे कि तत्काल अपने बच्चों को यह बात बताना चाहते थे. उन्होंने राहुल को फोन लगाया. उस के फोन न उठाने पर दोबारा फोन करते रहे. तब राहुल ने खीज कर कहा कि वह अभी बात नहीं कर सकता. बारबार फोन मत करना. फ्री होने पर वह कौल कर लेगा.

उन्होंने सोचा, ‘हां, राहुल ठीक ही तो कह रहा है. वह उन की तरह फ्री थोड़े ही है. चलो स्वाति बिटिया को बता देता हूं यह बात.’

‘हैलो पापा, मैं एक पार्टी के साथ हूं. बाद में बात करती हूं. बायबाय.’

सभी व्यस्त हैं. एक मैं ही भटक रहा हूं. 2 हफ्ते बीत गए पर बच्चों से बात नहीं हो पाई. उन्होंने भी निश्चय कर लिया था कि बच्चों को डिस्टर्ब नहीं करेंगे.

एक दिन फिर मन भटका तो अपनी अटैची से फोटो एलबम निकाल कर देखने लगे. पत्नी, परिवार, सालीसलहज की फोटो देखतेदेखते अतीत की सुखद यादों में खो गए.

शादी के बाद रमा के साथ जब पहली बार ससुराल गए थे तब शाम को संगीत की महफिल जमी थी. रीना का गाना समाप्त होते ही उन्होंने एक गुलाब का फूल उस की ओर उछाल दिया था. वह फूल उस की कुरती के गले में जा गिरा. तब रीना ने शिकायती नजरों से उन्हें देख अपनी नजरें शरमा कर झु़का ली थीं. इस पर उन्होंने ठहाका लगाते हुए कहा था, ‘भई इकलौती साली साहिबा पर फूल फेंकने का हक तो बनता है.’

इसी बीच, यादों से बाहर आए तो पत्नी रमा की फोटो पर हाथ रखते हुए बुदबुदाए, ‘तुम थीं तो सारी दुनिया जैसे साथ थी. अब एकदम अकेला हो गया हूं. तुम कहा करती थीं कि बच्चों की जिम्मेदारी पूरी होने के साथसाथ तुम्हारा रिटायरमैंट भी हो जाएगा.

तब हम निश्ंिचत हो कर खूब घूमेंगेफिरेंगे, अपने लिए जीएंगे पर तुम तो बीच में ही चली गईं, रमा,’ और उन के गालों पर आंसू लुढ़क आए.

मन को शांत करने के लिए उन्होंने चाय बनाई और उसे पीते हुए, पास रखे अखबार के एक विज्ञापन पर उन की दृष्टि पड़ गई, ‘फ्रैंडशिप क्लब अकेलेपन को दूर करने, निराशा से उबरने का सहज साधन. फ्रैंडशिप क्लब जौइन करें, मोबाइल नंबर 9910033333 एक बार फोन मिलाइए.’

कुछ देर की ऊहापोह के बाद कौशलजी ने वह नंबर मिला लिया. ‘हैलो, नमस्कार. कहिए, मैं आप की क्या हैल्प कर सकती हूं?’ एक मधुर आवाज सुनाई दी.

‘वो…मैं ने अभी फ्रैंडशिप क्लब का विज्ञापन देखा तो…’

‘हां, हां कहिए, आप की क्या समस्या है?’

‘मैं अकेलेपन से परेशान हूं. बताइए क्या तरीका है?’ कौशलजी ने जल्दी से अपनी बात खत्म की.

‘हां, हां, सर, हमारा क्लब खुशी बांटता है. आप का नाम जान सकती हूं?’

‘मैं एक रिटायर्ड व्यक्ति हूं और मेरा नाम कौशल है. थोड़ी बातचीत व नेक दोस्ती द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण समय व्यतीत करना चाहता हूं, बस.’

‘मैं, मिताली हूं. आप की दोस्त बनने को तैयार हूं. पूरी कोशिश होगी कि आप को खुशी दे सकूं और विश्वास दिलाती हूं कि मेरा साथ अच्छा लगेगा. इस के लिए क्लब की कुछ शर्तें होती हैं. मैं अपनी बौस से बात कराती हूं.’

कुछ ही सैकंड्स में दूसरी आवाज आई जो कि क्लब की प्रैसिडैंट नीलिमा की थी, ‘डील के अनुसार, मिताली से आप की मुलाकात किसी रैस्टोरैंट या ओपनप्लेस में ही संभव होगी, हर बार समय डेढ़ से 2 घंटे तक होगा. हर मीटिंग के 2 हजार रुपए कैश देने होंगे. मैंबरशिप की फीस 10 हजार रुपए होगी जो कि 3 माह तक वैलिड होगी और…’

‘फीस तो बहुत ज्यादा है मैडम,’ बीच में ही कौशलजी बोल पड़े.

‘अरे, सर, आप कल अपने घर के पास वाले रैस्टोरैंट में मिलिए. वहां हम तय कर लेंगे. आप रिटायर्ड व्यक्ति हैं, ठीक है, छूट मिल जाएगी. पर क्लब को एक बार अपनी सेवा का अवसर तो दीजिए. कल 12 बजे मुलाकात होगी. मैं और मिताली साथ होंगे. आप का दिन अच्छा हो सर. बायबाय.’ फोन बंद हो गया.

मिताली से हुई दोस्ती से कौशलजी संतुष्ट हो उठे थे. मिताली की बातों का तरीका, उस का हंसना, बतियाना, कौशलजी की बातों में दिलचस्पी लेना कौशलजी को खुशी के साथसाथ सुकून दे रहा था. 2 हफ्ते में 1 बार की मुलाकात अब हर हफ्ते की मुलाकात बन गई थी.

2 माह बीत गए थे पर कौशलजी को अपने बेटेबेटी से बातें शेयर करने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई, बेटाबेटी भी अपनी नौकरी व जिंदगी में इतने व्यस्त थे कि इस परिवर्तन की ओर उन का ध्यान ही नहीं गया.

एक दिन रैस्टोरैंट में बातें करते हुए कौशलजी किसी बात पर ठहाका लगा कर हंस पड़े पर तुरंत ही झेंप कर वे चुप हो गए. तभी बाएं ओर की तीसरी टेबल से एक व्यक्ति सामने आ खड़ा हुआ.

‘‘हैलो, कौशल, पहचाना मुझे?’’

कुछ पल देख, ‘‘ओह दिनेश, तुम यहां कैसे? तुम तो इलाहाबाद में थे न. और इतने वर्षों बाद भी तुम ने मुझे पहचान लिया पर शायद मैं दूर से देखता तो तुम्हें पहचान न पाता,’’ कौशलजी दोस्त से मिल कर खुश होते हुए बोले.

‘‘हां, हां, भई मेरी खेती जो साफ हो गई है और खोपड़ी सफाचट मैदान. तुम तो यार वैसे ही लगते हो आज भी. और यह तुम्हारी बिटिया है?’’

‘‘न, न, यह मेरी यंग दोस्त है, एक अच्छी दोस्त.’’

मिताली के जाने के बाद कौशल अपने जीवन की बातें पत्नी की मृत्यु, रिटायरमैंट के बाद का अकेलापन, संवादहीनता की व्यथा जैसी कई बातें बताते रहे. दिनेश के द्वारा युवती दोस्त के बारे में पूछे जाने पर अखबार के विज्ञापन से ले कर रजिस्टे्रशन व

मीटिंग की सारी बातें बताईं.

‘‘यह ठीक नहीं है, यार. ऐसी दोस्ती सिर्फ पैसे पर टिकी होती है. तुम्हारे साथ हंसनाबोलना तो ड्यूटी मात्र है, तुम्हारे प्रति कोई सद्भावना या संवेदना नहीं…’’

‘‘पर यह बहुत अच्छी लड़की है,’’ बात पूरी होने से पूर्व ही कौशल बोल पड़े.

‘‘चलो माना कि अच्छी है वह, पर कौन मानेगा कि उस के साथ तुम्हारा दोस्ती भर का रिश्ता है. और जब तुम्हारे बच्चों को पता लगेगा तब क्या होगा, यह सोचा है तुम ने?’’ दिनेश ने कौशलजी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘तुम ये सब इसीलिए कह रहे हो कि तुम अकेले नहीं हो. एकाकीपन की पीड़ा क्या होती है, तुम सोच नहीं सकते,’’ अपनी उंगलियों को मरोड़ते हुए कौशल जैसे मन की व्यथा निकाल रहे थे.

‘‘ठीक है तुम्हारी बात, पर अकेलेपन को दूर करने के और भी रास्ते हैं. इस तरह की दोस्ती सिर्फ एक मकड़जाल है जिस में फंस कर व्यक्ति छटपटाता है. पिछले दिनों अखबार में एक ऐसा ही समाचार छपा था. 65 वर्ष का व्यक्ति इस जाल में ऐसा फंसा कि चिडि़यां चुग गईं खेत वाली बात हो गई. छीछालेदर हुई, सो अलग.

‘‘कहो तो तुम्हारे लिए, अपने जैसा ही हलका जौब देखूं. यह रुपएपैसे के लिए नहीं बल्कि अपना समय अच्छी तरह व्यतीत करने का तरीका है. या तो फिर कोई समाजिक संस्था जौइन कर लो.’’

‘‘नहीं, अब मुझे कोई भी बंधनयुक्त कार्य नहीं करना,’’ कौशलजी ने चिढ़ कर जवाब दिया.

‘‘शायद तुम भूल रहे हो कि बद अच्छा, बदनाम बुरा होता है. और यह बात तुम्हीं कहा करते थे,’’ दिनेश ने फिर कौशल को समझाने की कोशिश की.

‘‘छोड़ो यह बात, मैं कोई बच्चा नहीं हूं. कोई और बात करो,’’ अपना हाथ छुड़ाते हुए कौशल ने कहा.

इस वक्त इस बात का छोर यहीं छूट गया.

‘‘पापा, वह कौन थी जिस के साथ नटराज में आप बातें कर रहे थे. मैं अपने साथी के साथ वहां गया था, इसीलिए आप से बात नहीं कर पाया.’’

राहुल के इस प्रश्न पर कौशल सकपका गए. तभी राहुल का मोबाइल बज उठा और वह बाहर चला गया.

‘क्या मैं राहुल से कह पाऊंगा कि वह लड़की मेरी दोस्त है. तो क्या दिनेश का कहना सही है?’ पर सिर उठाते इस विचार को उन्होंने झटक डाला.

एक दिन को कौशलजी व मिताली, मौल के कौफी शौप में आधा घंटा बिता कर, मौल घूमने लगे. पर्स शौप में ब्रैंडेड लाल रंग का पर्स देख कर मिताली रुक नहीं पाई. अपने कंधे पर उसे लटका कर आईने में देख चहक उठी.

तभी कौशलजी के पूछने पर कि वह पर्स उसे पसंद है तो खरीद ले.

‘‘काफी महंगा है,’’ कह कर टाल दिया पर साथ ही चेहरा उदास भी हो गया, ‘‘इतना महंगा पर्स तो देख ही सकती हूं, खरीद नहीं सकती मैं.’’

‘‘चलो मेरी तरफ से गिफ्ट है तुम्हारे लिए. मैं पेमैंट कर दूंगा. तुम ले लो.’’

मिताली के चेहरे पर खिल आई खुशी को देख कौशल सोचने लगे, ‘इस को खुशी देने में मुझे भी कितनी खुशी मिल रही है.’

जब तक मिताली से एक बार फोन पर बात नहीं हो जाती, कौशल बेचैनी अनुभव करने लगे हैं. इसीलिए वे बात करने की सोच ही रहे थे कि टूर से लौटे राहुल ने फाइनैंशियल एडवाइजर के आने की बात कह, पापा से अपनी ‘मनी’ अपनी इच्छा से इन्वैस्ट करने की बात कही.

‘‘पिछले 2 माह से एक ऐडवांस प्रोजैक्ट के कारण वक्त नहीं मिल पाया. आज मनी एडवाइजर के सामने मैं भी आप के साथ रहूंगा, पापा, आप जैसा चाहेंगे वैसा हो जाएगा.’’

‘‘अभी रहने दो, फिर देखा जाएगा,’’ कौशलजी ने बात को टाला.

‘‘क्यों, आप कुछ और सोच रहे हैं क्या?’’

‘‘हां, फिलहाल तुम उसे मना कर दो.’’

नाश्ते के बाद कौशलजी टीवी में आ रही एक पुरानी फिल्म देखने में मग्न थे. डोरबैल की आवाज पर मन मसोस कर उठे, ‘‘कोई सैल्स बौय ही होगा,’’ पर दरवाजे पर दिनेश को देख, खुशी से चहक उठे, ‘‘अरे वाह, आज इस वक्त यहां कैसे? तुम तो अपनी जौब पर जाते हो फिर…पर अच्छा हुआ तुम आए. बैठो मैं गरमागरम चाय लाता हूं, फिर दोनों गपें लगाएंगे.’’

‘‘नहीं, आज हम कनाटप्लेस चल रहे हैं. वहीं खाएंगेपीएंगे, घूमेंगे. कुछ अलग सा दिन बिताएंगे.’’

दोढाई घंटे की विंडो शौपिंग के बाद एक रैस्टोरैंट में बैठे दोनों मित्र प्रसन्न थे. लंच का और्डर दे कर दिनेश लघुशंका के लिए वाशरूम की ओर बढ़ गए. वापसी पर उन की निगाह जानीपहचानी शक्ल पर पड़ी. वह मिताली थी जो कि एक युवा से सट कर या कहें कि लिपट कर ही बैठी थी. खूब खिलखिला रही थी.

उन के मन की उथलपुथल चेहरे पर उतर आई.

‘‘क्या हुआ, अभी तो तुम बड़े खुश थे. अब उदास क्यों हो गए?’’

‘‘कुछ नहीं. ऐसी कोई बात नहीं है,’’ इधरउधर की एकदो बातों के बाद, ‘‘अरे हां, तुम्हारी उस यंग दोस्त के क्या हाल हैं?’’ डोसे के टुकड़े को सांभर में डुबोते हुए दिनेश ने पूछा.

‘‘तुम गलत सोचते हो उस के लिए. वह तो परिस्थिति की मारी लड़की है. अकेली अपनी मां की जिम्मेदारी उठा रही है. यहां वह पीजी में रहती है. आजकल वह अपनी बीमार मां को देखने गांव गई है. अब वह अपनी मां को साथ रखने के लिए यहीं एक छोटा सा घर चाहती है. मन की बात बताऊं, मैं तो उस की इस में सहायता करना चाहता हूं. जरूरतमंद लड़की है, उस की हैल्प से मुझे संतुष्टि मिलती है,’’ वे बोले जा रहे थे.

‘‘कौशल, तुम कह रहे थे कि मिताली, मां को देखने गांव गई है. फोन कर के उस की मां का हाल तो पूछो.’’

‘‘हां, पूछ लूंगा.’’

‘‘अभी बात करो और धीमी आवाज में स्पीकार औन कर लेना. देखता हूं, मैं भी कुछ सहयोग कर दूंगा. ऐसी लड़की की सहायता करनी ही चाहिए,’’ दिनेश ने आवाज सुनने के लिए फोन पर ध्यान केंद्रित करते हुए कहा.

‘‘चलो ठीक है. हैलो मिताली, अब तुम्हारी मां कैसी हैं?’’

‘‘थोड़ी बेहतर हैं सर. मैं मां के पास ही बैठी हूं. पड़ोसी भी बैठे हैं यहां. मैं बाद में आप से बात करती हूं. ओके बाय,’’ और फोन बंद कर दिया.

तभी दिनेश ने कौशल का हाथ पकड़ा और बिना कुछ कहे उस तरफ ले गए जहां से मिताली का आधा चेहरा, पीठ, हंसना आदि स्पष्ट दिख रहे थे.

कौशलजी बुत बने खड़े रह गए.

‘‘ओह, यह तो मिताली है और वह युवक हमारे ब्लौक के आखिरी छोर पर रहने वाला रितेश है. उस की सुंदर पत्नी व 2 बच्चे हैं. औफिस के वक्त यह यहां पर? इतने मुखौटे…इतनी चालें…मिताली का भोला चेहरा…आंसुओं से डबडबाती आंखें…मां की बीमारी की बात, अपनी नौकरी की कहानी जो कि रिसैशन के कारण छूट गई और उसे यह फ्रैंड्स क्लब मजबूरी में जौइन करना पड़ा. और भी न जाने क्याक्या…ओह, मैं तो मूर्ख ही बनता रहा और न जाने कब तक बनता रहता. अगले माह उस के फ्लैट के लिए 1 लाख रुपए देने वाला था.’’

कौशलजी का चेहरा दुख, छलावे और पछतावे से रोंआसा हो उठा. आवाज भर्रा उठी, ‘‘खैर…बस, अब यह एकाकीपन और नहीं भटकाएगा, और न यह मेरे व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा पाएगा.’’

स्वयं को दृढ़तापूर्वक संयत करते हुए कौशलजी ने दूसरी ओर कदम बढ़ा दिए.

‘‘यह हुई न दिलदार वाली बात. मैं आज बहुत खुश हूं. मेरा दोस्त वापस आ गया है,’’ कह कर दिनेश ने अपना हाथ कौशल के कंधे पर रख दिया.

कच्चे पंखों की फड़फड़ाहट: क्या टूटा लावण्या का विश्वास

‘‘बुढ़ापे में तो बिस्तर पर चुपचाप सोना ही था लेकिन यहां तो आप ने 39 साल की उम्र में ही मुझे खाली पलंग के हवाले कर दिया है,’’ सोने से पहले आज भी लावण्या उदास सी अपने पति आनंद से वीडियो काल पर कह रही थी. उस का मन आनंद के बिना बिलकुल भी नहीं लगता था. दूसरे जिले में तबादले के बाद आनंद भी लावण्या के बगैर अधूरा सा हो गया था.

‘अब तो मेरा मन भी कर रहा है कि नौकरी छोड़ कर आ जाऊं घर वापस,’ आनंद ने भी बुझी सी आवाज में उस से अपने दिल का हाल बताया.

अब दिल चाहे जो भी कहे, सरकारी नौकरी भले साधारण ही क्यों न हो, लेकिन आज के जमाने में उस को छोड़ देना मुमकिन न था. इसे आनंद भी समझता था और लावण्या भी. सो, दोनों हमेशा की तरह फोन स्क्रीन के जरीए ही एकदूसरे की आंखों में डूबने की कोशिश करते रहे.

तभी लावण्या बोली, ‘‘लीजिए, सोनू भी बाथरूम से आ गया है, बात कीजिए और डांट सुनिए इस की,’’ कह कर लावण्या ने मोबाइल फोन अपने 13 साल के एकलौते बेटे सोनू को थमा दिया.

सोनू अपने पापा को देखते ही शुरू हो गया, ‘‘पापा, आप ने बोला था कि इस बार 15 दिनों के बीच में भी आएंगे… तो क्यों नहीं आए?’’

आनंद प्यार से उस को अपनी मजबूरियां बताता रहा. बात खत्म होने के बाद कमरे में नाइट बल्ब चमकने लगा और लावण्या सोनू को अपने सीने से लगा कर लेट गई.

सोनू फिर से जिद करने लगा, ‘‘मम्मी, आज कोई नई कहानी सुनाओ.’’

‘‘अच्छा बाबा, सुनो…’’ लावण्या ने नई कहानी बुननी शुरू की और उसे सुनाने लगी. नींद धीरेधीरे उन दोनों को जकड़ती चली गई.

आधी रात को लावण्या की आंख खुली तो उस ने फिर अपने कपड़े बेतरतीब पाए. साड़ी सामान्य से ज्यादा ऊपर उठी थी. उस ने बैठ कर जल्दी से उसे ठीक किया और सोनू के सिर पर हाथ फेरा. वह निश्चिंत हो कर सो रहा था.

दरवाजा तो बंद था, लेकिन गरमी का मौसम होने के चलते कमरे की खिड़की खुली थी. लावण्या खिड़की के पास जा कर बाहर गलियारे में देखने लगी. नीचे वाले कमरे में 2 छात्र किराए पर रहते थे. कहीं किसी काम से इधर आए न हों…

‘‘कितनी लापरवाह होती जा रही हूं मैं… नींद में कपड़ों का भी खयाल नहीं रहता,’’ सबकुछ ठीक पा कर बुदबुदाते हुए लावण्या बिस्तर पर आ कर लेट गई. इधर कुछ हफ्तों में तकरीबन यह चौथी बार था जब उस को बीच रात में जागने पर अपने कपड़े बेतरतीब मिले.

एक दिन सोनू के स्कूल की छुट्टी थी और उन किराएदार लड़कों की कोचिंग की भी. ऐसा होने पर आजकल सोनू बस खानेपीने के समय ही ऊपर लावण्या के पास आता था और फिर नीचे उन्हीं लड़कों के पास भाग जाता था कि भैया यह दिखा रहे हैं, वह दिखा रहे हैं. लावण्या जानती थी कि दोनों लड़के सोनू से खूब घुलमिल चुके हैं. वह निश्चिंत हो कर घर के काम निबटाने लगी.

तभी सोनू हंसता और शोर मचाता हुआ वहां से भागा आया. पीछेपीछे वे दोनों लड़के भी दौड़े चले आए.

सोनू बिस्तर पर आ गिरा और वे दोनों उसे पकड़ने लगे.

लावण्या ने टोका, ‘‘अरेअरे… यहां बदमाशी नहीं… नीचे जाओ सब…’’

‘‘ठीक है आंटी…’’ उन में से एक लड़के ने कहा और उस के बाद वे दोनों लड़के सोनू का हाथ पकड़ कर उसे नीचे ले गए.

उन तीनों के चले जाने के बाद लावण्या की नजर बिस्तर पर पड़े एक मोबाइल पर गई जो उन दोनों में से किसी का था. लावण्या ने उन्हें बुलाना चाहा, लेकिन वे दोनों जा चुके थे.

लावण्या ने वह मोबाइल टेबल पर रखा ही था कि तभी उस की स्क्रीन पर ब्लिंक होती किसी नोटिफिकेशन से उस का ध्यान उस पर गया. उस ने अनायास ही मोबाइल उठा कर देखा तो कोई वीडियो फाइल डाउनलोड हो चुकी थी. फाइल के नाम से ही उसे शक हो रहा था, सो उस ने उस को ओपन किया.

वीडियो देखते ही लावण्या की आंखें फैलती चली गईं. लड़कों ने कोई बेहूदा फिल्म डाउनलोड की थी. उस ने उस मोबाइल फोन पर ब्राउजर ओपन किया तो एड्रैस बार में कर्सर रखते ही सगेसंबंधियों पर आधारित कहानियों के ढेरों सुझाव आने लगे जो उन्होंने पहले सर्च कर रखे थे.

उसी समय किसी के सीढि़यों से ऊपर आने की आहट हुई. लावण्या ने जल्दी से मोबाइल बिस्तर पर रख दिया.

वही किराएदार लड़का अपना मोबाइल लेने आया था. उस ने पूछा, ‘‘आंटी, क्या मेरा मोबाइल है यहां?’’

‘‘हां, पलंग पर है,’’ लावण्या ने थोड़ी झल्लाहट के साथ जवाब दिया लेकिन उस लड़के का ध्यान उस पर नहीं गया और वह मोबाइल ले कर वापस नीचे चला गया.

लावण्या को कोई हैरानी नहीं हो रही थी, क्योंकि क्या लड़का और क्या लड़की, ये सब चीजें तो आज स्मार्टफोन के जमाने में आम बात हो चुकी हैं. उसे चिंता होने लगी थी तो बस सोनू के साथ उन लड़कों की बढ़ती गलबहियों की.

इस के बाद लावण्या ने सोनू को उन के पास जाने से रोकना शुरू किया. जब वह उन के पास जाना चाहता, तो वह उसे किसी बहाने से उलझा लेती. इस के बाद भी वह कभी न कभी उन के पास चला ही जाता था.

एक रात बिजली नहीं थी और लावण्या के घर का इनवर्टर भी डाउन हो गया था. गरमी के चलते उस की नींद खुल गई और प्यास भी लगने लगी थी. पानी पी आती लेकिन आलस भी हो

रहा था. इसी उधेड़बुन में वह चुपचाप लेटी रही.

तभी लावण्या को अपनी तरफ सोनू के हाथ की हरकत महसूस हुई. लावण्या को कुछ अलग सी छुअन लगी सो वह यों ही लेटी रही कि देखे आगे क्या होगा.

उन हाथों के पड़ावों के बारे में जैसेजैसे लावण्या को पता चलता गया, उस के आश्चर्य की सीमाएं टूटती गईं. उस का दिल जोरजोर से धड़कने लगा और प्यास से सूखे मुंह में कसैले स्वाद ने भी अपनी जगह बना ली. जी तो चाहा कि सोनू को उठा कर थप्पड़ मारने शुरू कर दे, लेकिन विचारों के बवंडर ने ऐसा करने नहीं दिया.

कुछ देर बाद सोनू ने धीरे से करवट बदली और शांत हो गया. लावण्या उठ कर बिस्तर पर बैठ गई और अपनी हालत को देखने लगी. अकसर रात में अपने कपड़ों के बिखरने का राज जान कर उस की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे थे. आखिर उन लड़कों का बुरा असर उस के कलेजे के टुकड़े को भी अपनी चपेट में ले गया था.

लावण्या सोच रही थी कि उस की परवरिश में आखिर कहां कमी रह गई, जो बाहरी चीजें इतनी आसानी से उस के खून में आ मिलीं? वह उसी हाल में पूरी रात पलंग पर बैठी रही.

अगली सुबह नाश्ता बनाते समय लावण्या ने सोनू के सामने अनजान बने रहने की भरसक कोशिश की लेकिन रहरह कर उस के अंदर का हाल उस के शब्दों से लावा बन कर फूटने को उतावला हो जाता और सोनू हैरानी से उस का मुंह ताकने लगता.

सोनू के स्कूल चले जाने के बाद लावण्या लगातार अपने मन को मथती रही. आनंद से इस बारे में बात करे या नहीं? अपनी मां को बताए कि दीदी को, वह फैसला नहीं ले पा रही थी.

कई दिनों तक लावण्या इसी उधेड़बुन में रही, लेकिन किसी से कुछ कहा नहीं. सोनू से बात करते समय अब उस ने मां वाली गरिमा का ध्यान रखना शुरू कर दिया.

आखिरकार उस के दिल ने फैसला कर लिया कि सोनू उस का जिगर है, उम्र के इस मोड़ पर वह भटक सकता है मगर खो नहीं सकता.

इस के अलावा सोनू बहुत कोमल मन का भी था. अपनी छोटी सी गलती के भी पकड़े जाने पर वह काफी घबरा उठता. और यहां तो इतनी बड़ी बात थी. सीधेसीधे उस से इस बारे में कुछ कहना किसी बुरी घटना को न्योता देने के बराबर था.

लावण्या ने तय किया कि वह उन जरीयों को तोड़ देगी जो उस के बेटे के कच्चे मन की फड़फड़ाहट को अपने अनुसार हांकना चाह रहे हैं.

लावण्या ने उन लड़कों और सोनू के बीच हो रही बातचीत को छिपछिप कर सुनना शुरू किया. उस का सोचना बिलकुल सही निकला.

वे लड़के लगातार सोनू के बचपन को अधपकी जवानी में बदलना चाह रहे थे और उन की घिनौनी चर्चाओं का केंद्र लावण्या होती थी.

सोनू फटीफटी आंखों से उन की बातें सुनता रहता था. नए हार्मोंस से भरे उस के किशोर मन के लिए ये अनोखे अनुभव जो थे. लावण्या सबकुछ अपने मोबाइल फोन में रेकौर्ड करती गई.

लगातार उन को मार्क करने के बाद एक दिन लावण्या ने अपने संकल्प को पूरा करने का मन बना लिया और उन लड़कों के कमरे में गई.

सोनू अभीअभी वहां से निकला था. उसे देख कर दोनों चौंक उठे. एक ने बनावटी भोलेपन से पूछा, ‘‘क्या बात है आंटी? आप यहां…’’

लावण्या ने सोनू के साथ होने वाली उन की बातचीत की वीडियो रेकौर्डिंग चला कर मोबाइल फोन उन की ओर कर दिया. यह देख दोनों लड़के घबरा गए.

लावण्या गुस्साई नागिन सी फुफकार उठी, ‘‘अपने बच्चे पर तुम लोगों का साया भी मैं अब नहीं देख सकती. अभी और इसी वक्त यहां से अपना सामान बांध लो वरना मैं ये रेकौर्डिंग पुलिस को दिखाने जा रही हूं.’’

वे दोनों उस के पैरों पर गिर पड़े, पर लावण्या ने उन को झटक दिया और गरजी, ‘‘मैं ने कहा कि अभी निकलो तो निकलो.’’

वे दोनों उसी पल अपना बैग उठा कर वहां से भाग निकले. लावण्या सोनू के पास आई. वह इन बातों से अनजान बैठा कोई चित्र बना रहा था.

लावण्या ने उस से पूछा तो बोला कि पूरा होने पर दिखाएगा. चित्र बना कर उस ने दिखाया तो उस में लावण्या और अपना टूटफूटा मगर भावयुक्त स्कैच बनाया था उस ने और लिखा था, ‘मेरी मम्मी, सब से प्यारी.’

लावण्या ने उसे गले लगा लिया और चूमने लगी. उस की आंखों से आंसू बह निकले और दिल अपने विश्वास की जीत पर उत्सव मनाने लगा. उस के कलेजे का टुकड़ा बुरा नहीं था, बस जरा सा भटका दिया गया था जिस को वापस सही रास्ते पर आने में अब देर नहीं थी.

जिंदगी का पहिया: क्या हुआ था आशा के साथ

उस का नाम कई बार बदला गया. उस ने जिंदगी के कई बडे़ उतारचढ़ाव देखे. झुग्गीझोंपड़ी की जिंदगी वही जान सकता है, जिस ने वहां जिंदगी बिताई हो. तंग गलियां, बारिश में टपकती छत. बाप मजदूरी करता, मां का साया था नहीं, मगर लगन थी पढ़ने की. सो, वह पास के ही एक स्कूल से मिडिल पास कर गई.

मिसेज क्लैरा से बातचीत कर के उस की अंगरेजी भी ठीक हो चली थी. पासपड़ोस के आवारा, निठल्ले लड़के जब फिकरे कसते, तो दिल करता कि वह यहां से निकल भागे. मगर वह जाती कहां? बाप ही तो एकमात्र सहारा था उस का. आम लड़कियों की तरह उस के भी सपने थे. अच्छा सा घर, पढ़ालिखा, अच्छे से कमाता पति. मगर सपने कब पूरे होते हैं?

उस का नाम आशा था. उस के लिए मिसेज क्लैरा ही सबकुछ थीं. वही उसे पढ़ालिखा भी रही थीं. वे कहतीं कि आगे पढ़ाई कर. नर्सिंग की ट्रेनिंग कराने का जिम्मा भी उन्हीं के सिर जाता है. उसे अच्छे से अस्पताल में नौकरी दिलाने में मिसेज क्लैरा का ही योगदान था. वह फूली नहीं समाती थी.

सफेद यूनिफौर्म में वह घर से जब निकली, तो वही आवारा लड़के आंखें फाड़ कर कहते, ‘‘मेम साहब, हम भी तो बीमार हैं. एक नजर इधर भी,’’ पर वह अनसुना कर के आगे बढ़ जाती. पड़ोस का कलुआ भी उम्मीदवारों की लिस्ट में था. अस्पताल में शकील भी था. वह वहां फार्मासिस्ट था. वह था बेहद गोराचिट्टा और उस की बातों से फूल झड़ते थे. लोगों ने महसूस किया कि फुरसत में वे दोनों गपें हांकते थे. आशा की हंसी को लोग शक की नजरों से देखने लगे थे. सोचते कि कुछ तो खिचड़ी पक रही है. इस बात से मिसेज क्लैरा दुखी थीं. वे तो अपने भाई के साथ आशा को ब्याहना चाहती थीं. इश्क और मुश्क की गंध छिपती नहीं है. आखिरकार आशा से वह आयशा शकील बन गई. उन दोनों ने शानदार पार्टी दी थी.

यह देख मिसेज क्लैरा दिमागी आघात का शिकार हो गई थीं. वे कई दिन छुट्टी पर रहीं… आशा यानी आयशा उन से नजरें मिलाने से कतरा रही थी.

मिसेज क्लैरा का गुस्सा वाजिब था. वे तो अपने निखट्टू भाई के लिए एक कमाऊ पत्नी चाहती थीं. मगर अब क्या हो सकता था, तीर कमान से निकल चुका था.

आयशा वैसे तो हंसबोल रही थी, मगर उस के दिल पर एक बोझ था.

शकील ने भांपते हुए कहा, ‘‘क्या बात है? क्या तबीयत ठीक नहीं है?’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं. बस, थकान है,’’ कह कर उस ने बात टाल दी.

मिसेज क्लैरा सबकुछ भुला कर अपने काम में बिजी हो गईं. आयशा ने उन की नजरों से बचने के लिए दूसरे अस्पताल में नौकरी तलाश ली थी. आयशा की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया था. उस का स्वभाव अब भी वैसा ही था. मरीजों को दवा देना, उन का हालचाल पूछना. उस का बचपन का देखा सपना पूरा हो चला था. वह कच्चे मकान और बदबूदार गलियों से निकल कर स्टाफ क्वार्टर में रहने को आ गई थी. धीरेधीरे कुशल घरेलू औरत की तरह उस ने सारे सुख के साधन जुटा लिए थे. 3 साल में वह दोनों 2 से 4 बन चुके थे. एक बेटा और एक बेटी.

कल्पनाओं की उड़ान इनसान को कहां से कहां ले जाती है. इच्छाएं दिनोंदिन बढ़ती चली जाती हैं. बच्चों की देखभाल की चिंता किए बिना ही शकील परदेश चला गया… आयशा ने लाख मना किया, मगर वह नहीं माना. आयशा रोज परदेश में शकील से बातें करती व बच्चों का और अपने प्यार का वास्ता देती. बस, उस के सपने 4 साल ही चल सके. मिडिल ईस्ट में शायद शकील ने अलग घर बसा लिया था. आयशा के सपने बिखर गए. शुरूशुरू में तो शकील के फोन भी आ जाते थे कि अपना और बच्चों का ध्यान रखना. कभीकभार वैसे भी आते रहे. दिनों के साथ प्यार पर नफरत की छाया पड़ने लगी.

‘‘बुजदिल… बच्चों पर ऐसा ही प्यार उमड़ रहा था, तो देश छोड़ कर गया ही क्यों?’’

आयशा समझ गई थी कि शकील अब लौट कर नहीं आएगा… वह नफरत से कहती, ‘‘सभी मर्द होते ही बेवफा हैं.’’ आयशा अब पछता रही थी. उसे अपने सपने पूरे करने के बजाय मिसेज क्लैरा के सपने पूरे करने चाहिए थे. ‘पलभर की भूल, जीवन का रोग’ सच साबित हो गया. शकील भी शायद आयशा से छुटकारा पाना चाहता था और वह भी… आसानी से तलाक भी हो गया. उस दिन वह फूटफूट कर रोई थी.

बच्चों ने पूछा, ‘मम्मी, क्या पापा अब नहीं आएंगे?’

‘‘नहीं…’’ आयशा रोते हुए बोली थी.

‘क्यों नहीं?’ बच्चों ने पूछा था.

‘‘क्योंकि, तुम्हारे पापा ने नई मम्मी ढूंढ़ ली है.’’

आशा ने मिसेज क्लैरा के भाई से शादी कर ली… उन्हें शांति मिल गई थी. पर वे खुद कैंसर से पीडि़त थीं. अब वह आशा ग्रेस मैसी बन चुकी थी. मिसेज क्लैरा की जिंदगी ने आखिरी पड़ाव ले लिया था. वे भी दुनिया सिधार चुकी थीं. अब वह और ग्रेस मैस्सी… यही जीवन चक्र रह गया था. मगर उस का बेटा शारिक ग्रेस को स्वीकार न कर सका. शारिक अकसर घर से बाहर रहने लगा. वह समझदार हो चला था. वह लाख मनाती कि अब तुम्हारे पापा यही हैं.

‘‘नहीं… मेरे पापा तो विदेश में हैं. मैं अभी तुम्हारी शिकायत पापा से करूंगा. मुझे पापा का फोन नंबर दो.’’

यह सुन कर आशा हैरान रह जाती. आशा की बेटी समीरा गुमसुम सी रहने लगी थी. ग्रेस भी आशा के पैसों पर ऐश कर रहा था. आज मिसेज क्लैरा न थीं, जो हालात संभाल लेतीं. आशा आज कितनी अकेली पड़ गई थी. अस्पताल और घर के अलावा उस ने कहीं आनाजाना छोड़ दिया था. हंसी उस से कोसों दूर हो चली थी, मगर जिम्मेदारियों से वह खुद को अलग नहीं कर सकी थी.

शारिक को आशा ने अच्छी तालीम दिलाई. वह घर छोड़ कर जाना चाहता था. सो, वह भी चला गया. शराब ने ग्रेस को खोखला कर दिया था. वह दमे का मरीज बन चुका था.

शारिक 2-4 दिन को घर आता, तो नाराज हो जाता. वह कहता, ‘‘मम्मी, कहे देता हूं कि इसे घर से निकालो. यह हरदम खांसता रहता है. सारा पैसा इस की दवाओं पर खर्च हो जाता है.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते बेटा.’’

‘‘मम्मी, आप ने दूसरी शादी क्यों की?’’

और यह सुन कर आशा चुप्पी लगा जाती. वह तो खुद को ही गुनाहगार मानती थी, मगर वह जानती थी कि उस ने मिसेज क्लैरा के चलते ऐसा किया. वह उस की गौडमदर थीं न? आशा अब खुद ईसाई थी, मगर उस ने अपने बच्चों को वही धर्म दिया, जिस का अनुयायी उन का बाप था.

समीरा की शादी भी उस ने उसी धर्म में की, जिस का अनुयायी उस का बाप था. आशा का घर दीमक का शिकार हो चला था. वह फिर से झुगनी बस्ती में रहने को पहुंच गई थी. ग्रेस ने उसी झुगनी बस्ती में दम तोड़ा. बेटे शारिक को उस ने ग्रेस के मरने की सूचना दी, मगर वह नहीं आया.

आशा अब तनहा जिंदगी गुजार रही थी. उस की ढलती उम्र ने उसे भी जर्जर कर दिया था. रात में न जाने कितनी यादें, न जाने कितने आघात उसे घेर लेते. वह खुद से ही पूछती, ‘‘मां बनना क्या जुर्म है? क्या वही जिंदगी का बोझ ढोने को पैदा होती है?’’ उसे फिल्म ‘काजल’ का वह डायलौग याद आ रहा था, जिस में मां अपने बेटे का इंतजार करती है. धूपबत्ती जल रही है. गंगाजल मुंह में टपकाया जा रहा है. डूबती सांसों से कहती है, ‘स्त्री और पृथ्वी का जन्म तो बोझ उठाने के लिए ही हुआ है.’

आशा के सीने पर लगी चोट अब धीरेधीरे नासूर बन कर रिस रही थी.

बेटा शारिक आखिरी समय में आया और बेटी समीरा भी आई. मां को देख बेटा भावविभोर था, ‘‘मम्मी, आखिरी समय है आप का. अब भी लौट आओ. ‘‘अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा. मरने के बाद इस शरीर को चाहे आग में जला देना, चाहे मिट्टी के हवाले करना…’’ और वह दुनिया से चली गई. किसी की आंख से एक आंसू भी नहीं टपका. अंतिम यात्रा में कुछ लोग ही शामिल थे.

‘‘क्या यह वही नर्स थी. क्या नाम था… मैसी?’’

‘‘तो क्या हुआ अंतिम समय में तो वह कलमा गो यानी मुसलिम थी. कहां ले जाएं इसे. यहीं पास में एक कब्रिस्तान है. वहीं ले चलें. और आशा मिट्टी में समा गई.’’ मैं अकसर उधर से गुजर रहा होता. आवारा लड़के क्रिकेट खेलते नजर आते. वहां कुछ ही कबे्रं रही होंगी. शायद लावारिस लोगों की होंगी. लेकिन आशा के वारिस भी थे. एक बेटा और एक बेटी. इस नाम के कब्रिस्तान में कोई दीया जलाने वाला न था. अब चारों तरफ ऊंचीऊंची इमारतें बन गई थीं. लोगों ने अपनी नालियों के पाइप इस कब्रिस्तान में डाल दिए थे. 3 महीने बाद आशा की बेटी समीरा बैंक की पासबुक लिए मेरे पास आई और बोली, ‘‘मम्मी के 50 हजार रुपए बैंक में जमा हैं. जरा चल कर आप सत्यापन कर दें. हम वारिस हैं न?’’ और मैं सोच रहा था कि आशा न जाने कितनी उम्मीदें लिए दुनिया से चली गई. वह जिस गंदी बस्ती में पलीबढ़ी, वहीं उस ने दम तोड़ा.

मेरे दिमाग में कई सवाल उभरे, ‘क्या फर्क पड़ता है, अगर आशा किसी ईसाई कब्रिस्तान में दफनाई जाती? क्या फर्क पड़ता है, अगर वह ताबूत में सोई होती? शायद, उस के नाम का एक पत्थर तो लगा होगा.’

‘‘हाय आशा…’’ मेरे मुंह से निकला और मेरी पलकें भीग गईं.

एक इंच मुस्कान: कांति ने क्यों कहा दीपिका को शुक्रिया

“अरे! कहाँ भागी जा रही हो?” दीपिका को तेज-तेज कदमों से जाते हुये देख पड़ोस में रहने वाली उसकी सहेली सलोनी उसे आवाज लगाते हुये बोली.

“मरने जा रही हूँ.” दीपिका ने बड़बड़ाते हुए जवाब दिया.

“अरे, वाह! मरने और इतना सज-धज कर. चल अच्छा है, आज यमदूतों का भी दिन अच्छा गुजरेगा.”सलोनी चुटकी लेते हुये बोली.

“मैं परेशान हूँ और तुझे मजाक सूझ रहा है.” दीपिका सलोनी को घूरते हुये बोली, ” अभी मैं ऑफिस के लिए लेट हो रही हूँ,तुझसे शाम को निपटूंगी.”

“अरे हुस्नआरा! इस बेचारी को भी आज करोलबाग की ओर जाना है, यदि महारानी को कोई ऐतराज न हो तो यह नाचीज उनके साथ चलना चाहती हैं.” सलोनी ने दीन-हीन होने का अभिनय करते हुए मासूमियत से जवाब दिया.

“चल! बड़ी आई औपचारिकता निभाने वाली.” सलोनी की पीठ पर हल्का सा धौल जमाते हुए दीपिका बोली,” एक तू ही तो है जो मेरा दुख दर्द समझती है.”

बातों-बातों मे दोनो पड़ोसन-कम-सहेलियाँ बस-स्टैण्ड पहुँच गयीं.कुछ ही देर मे करोल बाग वाली बस आ गयी.

एक तो ऑफिस टाईम, ऊपर से सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती हुई दिल्ली की आबादी. जिधर देखो भीड़ ही भीड़. खैर, धक्का-मुक्की के बीच दोनो सहेलियां बस मे सवार हो गयी.संयोग अच्छा था कि दो सीटों वाली एक लेडीज बर्थ खाली थी.

“थैंक गॉड! कुछ तो अच्छा हुआ!” कहते हुये दीपिका सलोनी का हाथ पकड़कर झट से उस खाली बर्थ पर लपककर विराजमान हो गयी.

सलोनी, ”कुछ तो अच्छा हुआ!अरे! ऐसा क्यों बोल रही हो?चल अब साफ-साफ बता क्या हुआ? और यह चाँद सा चेहरा आज सूजा हुआ क्यों है?”

दीपिका, “अरे! क्या बताऊँ? घर मे किसी को मेरी तनिक भी परवाह नही है. मै सिर्फ पैसा कमाने की मशीन और सबकी सेवा करने वाली नौकरानी हूँ.”

“अरे! इतना गुस्सा! क्या हो गया?” सलोनी उसे प्यार से अपने से चिपकाते हुए बोली.

“आज सुबह मै थोड़ी ज्यादा देर तक क्या सो गयी, घर का पूरा माहौल ही बिगड़ गया. देर हो जाने के कारण भागम-भाग में ऑफिस जाने के लिये नहाने जाने के पहले मैं इनके लिए कपड़ा निकालना भूल गयी तो महाशय तौलिया लपेटे तब तक बैठे रहे,जब तक मैं बाथरूम से निकल नहीं आई और इस भाग-दौड़ के बीच इतनी मुश्किल से जो नाश्ता बनाया उसे भी बिना किये यह कहते हुए ऑफिस चले गये कि आज शर्ट-पैन्ट निकला न होने के कारण तैयार होने में देरी हो गयी.इधर साहबजादे तरुण को आलू-गोभी की सब्जी नाश्ते मे दिया तो मुँह फुलाकर बैठ गये कि रोज-रोज एक ही तरह की सब्जी खाते-खाते बोर हो गया हूँ, मशरुम क्यों नही बनाया? उधर बिटिया रानी की रोज यही शिकायत रहती है कि आप रोज एक ही तरह की बहन जी स्टाईल की चोटी करती हो. मेरी फ्रेन्ड्स की मम्मियाँ रोज नये-नये स्टाईल में उनकी हेयर डिजाईन करती हैं. बस सबको अपनी-अपनी पड़ी रहती है. कोई यह नहीं पूछता कि मैने नाश्ता किया या नहीं?टिफिन में क्या ले जा रही हूँ? मेरी ड्रेस कैसी है?  कहीं मुझे लेट तो नहीं हो रहा है? सबको बस अपनी अपनी चिंता है.”यह कहते-कहते उसकी आँखों मे आँसू भर गये.

“अरे परेशान मत हो, मेरी ब्यूटी क्वीन!अव्वल तू खुद इतनी सुन्दर है कि कुछ भी पहन ले तो भी हीरोइन ही लगेगी और घर के जो सारे लोग तुझसे फरमाइशें करते हैं, उसकी वजह उनका तुझसे लगाव है, वे तुझपर भरोसा करते हैं.” सलोनी उसे प्यार से समझाते हुए बोली.

“बस-बस रहने दो. मै सब समझती हूँ. यह सब कहने की बात है. यहाँ मेरी जान भी जा रही होगी न तो किसी न किसी को जरूर मुझसे कोई काम पड़ा होगा.” दीपिका का उबाल कम होने का नाम नहीं ले रहा था.

इसी बीच अगले स्टॉप पर बस के रूकते ही उसके ऑफिस मे डेली वेज पर काम करने वाली प्यून कांति किसी तरह जगह बनाते हुए भी उसमे दाखिल हो गयी. लेडीज सीट की ओर पहुँचकर बस के हैंगिंग हुक को पकड़कर वह खड़ी हो गयी. अभी वह आँचल से अपना पसीना पोंछ रही थी कि दीपिका ने पूछा, “अरे! कांति कैसी हो?”

दीपिका की आवाज सुनकर कांति चौंक कर उसकी ओर मुड़ते हुये बोली, “अरे मैडम! आप भी इसी बस मे! नमस्ते.” दीपिका को देखकर उसके चेहरे पर सदैव छाई रहने वाली मुस्कान कुछ और खिल आई थी.

दीपिका,” नमस्ते!तुम तो रोज नौ बजे दफ्तर पहुँच जाती हो, आज लेट कैसे?”

कांति,” मैडम! दरअसल आज से बेटे की दसवीं की बोर्ड परीक्षा शुरु हुयी है. वह जिद कर रहा था कि सबके मम्मी-पापा उन्हें छोड़ने एक्जाम सेन्टर पर आयेगें.आप भी मेरे साथ चलिए. वह इतने लाड़ से बोल रहा था कि मैं उसे मना नहीं कर पाई. उसे पहुंचाने चली गयी इसलिये थोड़ी देर हो गयी,सॉरी.”

दीपिका,” अरे! कोई बात नहीं. मैं तो बस ऐसे ही पूछ रही थी लेकिन एक बात बताओ,तुम्हारे पति भी तो बेटे के साथ जा सकते थे, न?” अभी कांति कोई जवाब दे पाती कि वह सलोनी की ओर मुड़ते हुए बोली, “देखो, हर घर की यही कहानी है, औरत घर का भी काम करे और बाहर भी मरे और पति एक भी काम एक्स्ट्रा नही कर सकते, क्योंकि वो मर्द है.”

“नहीं, मैडम!ऐसी बात नही है.” अभी कांति आगे कुछ और बोल पाती कि दीपिका ने कहा, ” अब पति की  तरफदारी करना छोड़ो. पति को हमेशा परमेश्वर, पूजनीय और उनकी ज्यादतियों पर पर्दा डालने का ही यह नतीजा है कि उनकी मनमानी बढ़ती जा रही है.” वह बिफरने सी लगी थी.

“नही. मैडम, मै उन्हें बचा नही रही हूँ. दरअसल पिछले साल ऑटो चलाते समय उनका बुरी तरह एक्सीडेन्ट हो गया था, जिसमे उनका दाहिना हिस्सा बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया. इसलिये बाहर के काम मे उन्हें दिक्कत होती है. किन्तु, वे घरेलू कार्य मे मेरा पूरा सहयोग करते हैं और मुझे अपने परिवार के लिये कुछ भी करना बहुत अच्छा लगता है.”

कांति की बात से विस्मित दीपिका एकदम सन्नाटे मे आ गयी. दिव्यांग और बेरोजगार पति, छोटी सी तनख्वाह मे पूरे परिवार का गुजारा करने वाली कांति क्या उससे कम चुनौतियों का सामना कर रही है लेकिन एक इंच की मुस्कान लिये घर और बाहर दोनो जगह का काम कितनी हँसी-खुशी संभाल रही है.

इधर कांति बोले जा रही थी, “मैडम! बच्चे और पति जब अपनी इच्छा और परेशानी मेरे सामने रखते हैं, तो मुझे लगता है कि मै इस घर की धुरी हूँ.उनका मुझसे कुछ अपेक्षा रखना मुझे मेरे होने का अहसास कराता रहता है.”

कांति की सहज बातों ने अनजाने में ही दीपिका के अंदर धधक रही क्षोभ और गुस्से की अग्नि-ज्वालाओं को मीठी फुहार से बुझा दिया. सच में कांति ने कितनी आसानी से उसे समझा दिया था कि पति और बच्चों की फरमाईशें और उनका उस पर निर्भर होना उसे परेशान करना नही, बल्कि उनसे जुड़े रहने की निशानी है. एक क्षण के लिए उसने कल्पना कर यह देखा कि पति और बच्चे अपना-अपना काम करने में व्यस्त हैं. कोई अपनी डिमांड पूरी करने के लिए न तो उसकी चिरौरी कर रहा है और न ही कोई तुनक कर मुंह फुलाये बैठा है. अभी कुछ क्षण पहले तक इन्हीं फरमाइशों से बुरी तरह खीझी हुयी दीपिका का ने दिल इस कल्पना से ही घबरा उठा. वह स्वयं से दृढ़ता पूर्वक बोली,”लेट्स हैव ए न्यू बिगिनिंग.”

पश्चाताप की बूंदे गुस्से और खीझ से उपजे उसकी आँखों के सूखेपन को तर कर रही थी. तभी उसके मोबाईल फोन की रिंगटोन बजी. देखा, तो पति अश्विन की कॉल थी. उसके हलो कहते ही वे बोले, “दीपू! आज सुबह सोते समय तुम बिल्कुल इन्द्रलोक की परी लग रही थी. तुम्हे नींद से जगाकर मैं यह मौका खोना नही चाहता था.”

अश्विन की बातें सुनकर इस भीड़ भरी बस मे भी उसके गाल शर्म से गुलाबी हो उठे. वह धीरे से बोली, “बस-बस ठीक है. शाम को समय से घर आ जाना. आज मैं आपके पसन्द के केले के कोफ्ते और लच्छा पराठा बनाऊंगी और तरुण के लिये मशरुम. बाय.”

अश्विन,” बाय स्वीटहार्ट.” फोन रखते ही उसने सोनल के साथ मिलकर दो सीट वाली बर्थ पर थोड़ी सी जगह बनायी और कांति का हाथ पकड़ उसे सीट पर बैठाते हुए बोली, “आओ! कांति बैठो, तुम भी खड़े-खड़े थक गयी होगी. हम साथ-साथ चलेंगे.” कांति पहले थोड़ा हिचकी,लेकिन दीपिका के आत्मीय निमंत्रण से उसका संकोच भीगकर बह निकला.

कांति,”थैंक्स दी. आपका परिवार बहुत लकी है.”

दीपिका,”धन्यवाद,पर भला,वो क्यों?”

कांति,”जब आप बाहरी लोगों का इतना ध्यान रखती हैं तो आपके घरवालों को तो किसी बात की चिंता करने की कोई जरूरत ही नहीं पड़ती होगी.”

कांति की हथेली को धीमे से दबाकर उसे मौन धन्यवाद देते हुए वह खुद से बोली,” थैंक्स,कांति. मेरे संसार में मुझे अपने वजूद का अहसास कराने के लिए.” दीपिका के चेहरे पर भी अब कांति की तरह एक इंच की सच्ची वाली मुस्कान खिल आई थी. उसे मुस्कराते देख सलोनी बोली,” अब लग रही हो न सच्ची ब्यूटी क्वीन.” दुनिया से बेखबर बस की इस लेडीज बर्थ पर एक साथ तीन मुस्कान खिल आई. इधर अच्छी और चिकनी सड़क पाकर बस की रफ्तार भी तेज हो गयी थी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें