Social story in hindi

Social story in hindi
मेरी बात से आप भले ही सहमत हों या न हों, पर इस बात से तो सौ फीसदी सहमत होंगे कि पहली श्रेणी के दोस्तों का मिलना आज की तारीख में वैसे ही कठिन है जैसे आप शताब्दी की करंट बुकिंग के लिए 5 बजे भी सीट मिलने की उम्मीद में बदहवास दौड़ते रहते हैं, जबकि ट्रेन छूटने का वक्त सवा 5 बजे का है.
पर हां, दूसरे दर्जे के दोस्त जरूर मिल जाते हैं. ये कुछ ऐसेवैसे दोस्त होते हैं जो अच्छा न करें तो बुरा भी नहीं करते. जब इन के दिमाग में बुरा करने का खयाल आए तो ये उस जैसे दोस्त को फटकारते दिमाग से बाहर कर ही देते हैं. इन दूसरे दर्जे के दोस्तों की सब से बड़ी खासीयत यही होती है कि ये कम से कम अच्छा न कर सकें तो बुरा भी नहीं करते. जो उन्हें लगे कि दोस्त का कुछ बुरा करने के लिए उन का मन ललचा रहा है तो वे मन के ललचाने के बाद भी जैसेतैसे अपने बेकाबू मन पर काबू पा ही लेते हैं.
पर ये तीसरे दर्जे के दोस्त जब तक दोस्त को नीचा न दिखा लें, तब तक इन को चैन नहीं मिलता.
वैसे तो मेरे आप की तरह कहने को बहुत से दोस्त हैं, पर मेरे परम आदरणीय भाईसाहब रामजी लाल मेरे खास दोस्त हैं. बेकायदे से भी जो उन का दर्जा तय करूं तो वे मेरे तीसरे दर्जे के दोस्त हैं. हैं तो वे इस से भी नीचे के दोस्त, पर इस से नीचे जो मैं उन का दर्जा निर्धारित करूं तो यह मुझ पर सितम और उन पर करम करने जैसा होगा.
अगर मैं तीसरे दर्जे में यात्रा न भी करना चाहूं तो भी वे असूहलियतों का पूरा ध्यान रख मेरी तीसरे दर्जे की यात्रा का टिकट हवा में लहराते आगे नाचने का हर मौका तलाशते रहेंगे और मौका मिलते ही मु?ो फुटपाथ पर बैठा कर हवा हो लेंगे. सच कहूं तो हैं तो वे मेरे दोस्त, पर जो सुबहसुबह वे दिख जाएं तो सारा दिन मन यों रहता है कि मानो मन में नीम घुल गया हो.
मेरे इन परम आदरणीय मित्रों में नीचता इस कदर कूटकूट कर भरी है कि वे अपने कद को ऊंचा दिखाने के चक्कर में अपने बाप तक को भी नीचा दिखाने से न चूकें, उन के अहंकार को देख मैं ऐसा मानता हूं. अपने को बनाए रखने के लिए वे बाप की पगड़ी से भी हंसते हुए जाएं. उन का बस चले तो मोमबत्ती को हाथ में ले कर सूरज के आगे चौड़े हो अड़ जाएं.
असल में इस दर्जे के दोस्तों में हीनता का बोध इस कदर भरा होता है कि ये बेचारे अपने थूक को ऊंचाई देने के लिए चांद पर भी थूकने से गुरेज नहीं करते. इन के लिए हर जगह अपना कद महत्त्वपूर्ण होता है, मूल्य नहीं. वे भालू और 2 दोस्तों की कहानी से आगे के चरित्र होते हैं.
इस श्रेणी के दोस्त बहुधा जिस थाली में खाते हैं या तो खाने के बाद उस थाली को ही उठा कर साथ ले जाते हैं या फिर… जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करने वाली कहावत इन के लिए आउटडेटेड होती है. इसलिए ऐसे भाईसाहब अपना कद ऊंचा करने के लिए अपने नीचे औरों के नीचे की सीढ़ी सरकाने से तो परहेज करते ही नहीं, मौका मिलते ही किसी के भी कंधे पर छलांग मार बैठने के बाद उस के सिर के सफेद बाल तक नोचने से परहेज नहीं करते.
पर मैं फिर भी हर बार ऐसों को चांस दे देता रहता हूं, उन्हें अपने कंधे पर बैठा अपने सिर के सफेद बाल नुचवाने का, पता नहीं क्यों? हर बार अपने तीसरे दर्जे के दोस्तों की बदतमीजी को भुनाने का नैसर्गिक अवगुण मु?ा में पता नहीं क्यों है, जबकि मैं यह भी जानता हूं कि आदमी सबकुछ बदल सकता है पर दोस्ती के संदर्भ में अपनी औकात नहीं.
इन्हें देख कर कई बार तो लगता है कि इन में जरूर कोई हीनता इतनी गहरे तक है कि मैं इसे निकालने में हर बार असमर्थ हो जाता हूं. अपनी इस असफलता पर हे मेरे तीसरे दर्जे के दोस्तो, मैं तुम से दोनों हाथ जोड़ क्षमा मांगता हूं.
इन की एक विशेषता यह भी होती है कि पहले तो ये आप के सामने गर्व से मिमियाते हैं और फिर मौका पा कर आप के बाप बन बैठते हैं. इन को अपने दोस्तों का अपमान करने में वह आनंद मिलता है जैसा बड़ेबड़े तपस्वियों को मनवांछित फल पाने के बाद भी क्या ही मिलता होगा.
तीसरे दर्जे के इन सम्मानियों को हम आस्तीन का वह सांप कह सकते हैं, जिसे हम पता नहीं क्यों संवेदनशील हो कर अपनी आस्तीन में लिए फिरते रहते हैं. ये ऐसे होते हैं कि दांव मिलते ही हमारी कमर में डंक मार हमारे शुभचिंतक होने के परम धर्म को पूरी ईमानदारी से निभाते हैं.
पहली श्रेणी के दोस्तों के साथ सब से बड़ी तंगी यह होती है कि ये दोस्ती का दिखावा कभी नहीं करते. आप को इन्हें सहायता करने को कहने की भी जरूरत नहीं होती. ये अपनेआप ही आप को परेशानी में देख आप की सहायता करने चले आएंगे, मुंह का कौर मुंह में और थाली का कौर थाली में छोड़.
लेकिन ये जो आप के तीसरे दर्जे के दोस्त होते हैं न, इन के बारे में आप तो क्या, तथाकथित भगवान तक कोई भी सटीक तो छोडि़ए भविष्यवाणी तक नहीं कर सकते. इन्हें बस, पता चलना चाहिए कि दोस्त कहीं दिक्कत में है. फिर देखिए इन का प्यार कि ये किस तरह गले लगाते हैं. किस तरह अपने जूते तक खोल बरसाते हैं. भले ही बाद में उन के पांव में कांटे चुभ जाएं.
असल में, ये उस लैवल के दोस्त होते हैं जो किसी भी कद के सामने अपने को उस से ऊंचा दिखाने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देते. इन्हें अपने अहंकारी कद के आगे हिमालय तक चींटी दिखे तो मोक्ष प्राप्त हो.
इन्हें दोस्ती की नहीं, अपने कद की चिंता होती है. ये किसी के साथ दोस्ती तब तक ही रखते हैं जब तक इन के अहम के कद पर कोई आंच न आए. जैसे ही इन्हें लगता है कि इन के सामने इन से कद्दावर आ गया है तो ये सबकुछ हाशिए पर डाल सड़े दिमाग से आरी निकाल उस के कद को तहसनहस करने में पूरी शिद्दत से जुट जाते हैं.
पहली श्रेणी और इस तीसरे दर्जे के दोस्त में बेसिक अंतर यह होता है कि पहली श्रेणी का दोस्त आप के कद के साथ ईमानदारी से अपने कद को बढ़ाने की कोशिश करता है जबकि तीसरे दर्जे के दोस्त इस फिराक में रहते हैं कि कब व कैसे आप के कद को गिरा तथाकथित मित्रता के धर्म को निभा कृतार्थ हों.
जब तक इस दर्जे के मित्र किसी को किसी रोज नीचा नहीं दिखा लेते, इन को खाना हजम नहीं होता. इसलिए मेरी आप से दोनों हाथ जोड़ विनती है कि अपने इन तीसरे दर्जे के मित्रों के पेट का खयाल मेरी तरह आप भी रखिए. अपने लिए न सही तो न सही, पर इन की जिंदगी के लिए यह बेहद जरूरी है. इन के झूठे, लिजलिजे अहं की हर हाल में रक्षा कीजिए. भले ही आप की इज्जत का फलूदा बन जाए, तो बन जाए.
चीनू की नन्हीनन्ही हथेलियां दूर होती चली गईं और धीरेधीरे एकदम से ओझल हो गईं.
नीरेंद्र की आंखों में आंसू झिलमिला आए थे. आज उन के सूने घर में महीने भर से आई इस रौनक का अंतिम दिन था.
पूरे 30 दिन से उन का घर गुलजार था. बच्चों के होहल्ले से भरा था. साल भर में उन के घर में 2 ही तो खुशी के मौके आते थे. एक गरमी की लंबी छुट्टियों में और दूसरा, दशहरे की छुट्टियों के समय.
उन दिनों नीरेंद्र की उजाड़ जिंदगी में हुलस कर बहार आ जाती थी. उस का जी करता था कि इस आए वक्त को रोक कर अपने घर में कैद कर ले. खूब नाचेगाए और जश्न मनाए, पर ऐसा हो कहां सकता था.
छोटी बहन के साथ 2 बच्चे, छोटे भाई के 2 बच्चे और बड़ी दीदी के दोनों बच्चे, पूरे 6 नटखट ऊधमी सदस्यों के आने से ऐसा लगता जैसे घर छोटा पड़ गया हो. बच्चे उस कमरे से इस कमरे में और इस कमरे से उस कमरे में भागे फिरते, चिल्लाते और चीजें बिखेरते रहते.
बच्चों के मुंह से ‘चाचीजी’, ‘मामीजी’ सुनसुन कर वे अघाते न थे. दिनरात उन की फरमाइशें पूरी करने में लगे रहते. किसी को कंचा चाहिए तो किसी को गुल्लीडंडा. किसी को गुडि़या तो किसी को लट्टू.
4 माह में जितना पैसा वे बैंक से निकाल कर अपने ऊपर खर्च करते थे, उस से भी ज्यादा बच्चों की फरमाइशें पूरी करने में उन दिनों खर्च कर देते. फिर भी लगता कि कुछ खर्च ही नहीं किया है. वे तो नईनई चीजें खरीदने के लिए बच्चों को खुद ही उकसाते रहते.
कभीकभी भाईबहनों को गुस्सा आने लगता तो वे उन्हें झिड़कते, ‘‘क्या करते हो भैया. सुबह से इन मामूली चीजों के पीछे लगभग 100 रुपए फूंक चुके हो. बच्चों की मांग का भी कहीं अंत है?’’
नीरेंद्र हंस देते, ‘‘अरे, रहने दो, यह इन्हीं का तो हिस्सा है. बस, साल में 10 दिन ही तो इन के चाव के होते हैं. देता हूं तो बदले में इन से प्यार भी तो पाता हूं.’’
सिर्फ 30 दिन का ही तो यह मेला होता है. बाद में बच्चों की बातें, उन की गालियां याद आतीं. उन की छोड़ी हुई कुछ चीजें, कुछ खिलौने संभाल कर वे उन निर्जीव वस्तुओं से बातें करते रहते और मन को बहलाते. उन की एक बड़ी अलमारी तो बच्चों के खिलौनों से भरी पड़ी थी.
इस तरह नीरेंद्र अपने अकेलेपन को काटते. हर बार उन का जी करता कि बच्चों को रोक लें, पर रोक नहीं पाते. न बच्चे रुकना चाहते हैं न माताएं उन्हें यहां रहने देना पसंद करती हैं. पहले तो उन के छोटे होने का बहाना था. बड़े हुए तो छात्रावास में डाल दिए गए. इसी से नीरेंद्र उन्हीं बच्चों में से एक को गोद लेना चाहते थे. मगर हर घर में 2 बच्चे देख खुद ही तालू से जबान लग जाती थी.
किसीकिसी साल तो ऐसा भी होता है कि 30 दिनों में भी कटौती हो जाती. कभीकभी बच्चे यहां आने के बजाय कश्मीर, मसूरी घूमने की ठान लेते. फिर तो ऐसा लगने लगता जैसे जीने का बहाना ही खत्म हो जाएगा. पिछले साल यही तो हुआ था. बच्चे रानीखेत घूमने की जिद कर बैठे थे और यहां आना टल गया था. किसी तरह छुट्टियों के 7-8 दिन बचा कर वे यहां आए थे तो उन का मन रो कर रह गया था.
कभीकभी नीरेंद्र को अपनेआप पर ही कोफ्त होने लगती कि क्यों वे अकेले रह गए? आखिर क्या कारण था इस का? पिता की असमय मृत्यु ने उन के घर को अनाथ कर दिया था. घर में वे सब से बड़े थे, इसलिए जिम्मेदारी निभाना उन्हीं का कर्तव्य था. घर में सभी को पढ़ाया- लिखाया. पूरी तरह से हिम्मत बांध कर उन के शादीब्याह किए तब कहीं जा कर अपने लिए विचार किया था.
नीरेंद्र सीधीसादी लड़की चाहते थे. मां ने उन के लिए सुलभा को पसंद किया था. सुलभा में कोई दोष न था. नीरेंद्र खुश थे कि उम्र उन के विवाह में बाधक नहीं बनी. इस से पहले जब वे भाईबहनों का घर बसा रहे थे तब सदा उन्हें एक ही ताना मिला था, ‘‘क्यों नीरेंद्र, ब्याह करोगे भी या नहीं? बूढ़े हो जाओगे, तब कोई लड़की भी न देगा. बाल पक रहे हैं, आंखों पर चश्मा चढ़ गया है और क्या कसर बाकी है?’’
सुन कर नीरेंद्र हंस देते थे, ‘‘चश्मा और पके बाल तो परिपक्वता और बुद्धिमत्ता की निशानी हैं. मेरी जिम्मेदारी को जो लड़की समझेगी वही मेरी पत्नी बनेगी.’’
सुलभा उन्हें ऐसी ही लड़की लगी थी. सगाई के बाद तो वे दिनरात सुलभा के सपने भी देखने लगे थे. उन्हें ऐसा लगता जैसे सुलभा उन की जिंदगी में एक बहार बन कर आएगी.
विवाह की तिथि को अभी काफी दिन थे. एक दिन इसी बीच वे सुलभा के साथ रात को फिल्म देख कर लौट रहे थे. अचानक कुछ बदमाशों ने सुलभा के साथ छेड़छाड़ की थी. नीरेंद्र को बुढ़ऊ कह कर ताना मार दिया था.
सुन कर नीरेंद्र को सहन न हुआ था और वे बदमाशों से उलझ पड़े थे, पर उन से वे कितना निबट सकते थे. अपनेआप से वे पहली बार हारे थे. गुस्सा आया था उन्हें अपनी कमजोरी पर. वे स्वयं को अत्यंत अपमानित महसूस कर रहे थे. हतप्रभ रह गए थे अपने लिए बुढ़ऊ शब्द सुन कर. उस शाम किसी तरह वे और सुलभा बच कर लौट तो आए थे मगर सुलभा ने दूसरे ही दिन सगाई की अंगूठी वापस भेज दी थी. शायद उसे भी यकीन हो गया था कि वे बूढ़े हो गए हैं.
‘अच्छा ही किया सुलभा ने.’ एक बार नीरेंद्र ने सोचा था. परंतु मन में अपनी हीनता और कमजोरी का एक दाग सा रह गया. विवाह से मन उचट गया, कोई इस विषय पर बात चलाए भी तो उस से उलझ बैठते. मां जब तक रहीं नीरेंद्र को शादी के लिए मनाती रहीं, समझाती रहीं.
मां की मृत्यु के बाद वह जिद और मनुहार भी खत्म हो गई. कुछ यह भी जिद थी कि अब इसी तरह जीना है. पहले भाईबहनों पर भरोसा था, पर वे अपनी- अपनी जिंदगी में लग गए तो उन्होंने उन्हें छेड़ना भी उचित न समझा.
हां, भाईबहनों के बच्चों ने अवश्य ही नीरेंद्र के अंदर एक बार गृहस्थी का लालच जगा दिया था. अंदर ही अंदर वे आकांक्षा से भर उठे कि उन्हें भी कोई पिता कहता. वे भी किसी के भविष्य को ले कर चिंता करते. वे भी कोई सपना पालते कि उन का बेटा बड़ा हो कर डाक्टर बनेगा या कोई उन का भी दुखसुख सुनता. सोतेजागते वे यही सोचा करते.
तब कभीकभी मन में मनाते कि कोई उन्हें क्यों नहीं कहता कि ब्याह कर लो. अकेले ही वे रसोईचूल्हे से उलझे हुए हैं कोई पसीजता क्यों नहीं, कोई अजूबा तो नहीं इस उम्र में ब्याह करना. बहुत से लोग कर रहे हैं.
नीरेंद्र अपनी जिंदगी की तुलना भाई की जिंदगी से करते. सोचते कि उन की और धीरेंद्र की सुबह में कितना अंतर है. वे 4 बजे का अलार्म लगा कर सोते. सोचते हुए देर रात गए उन्हें नींद आती. परंतु सुबह तड़के घड़ी की तेज घनघनाहट के साथ ही उन की नींद टूट जाती जबकि वे जागना नहीं चाहते. लेकिन जानते हैं कि सुबह के नाश्ते की तैयारी, कमरों की सफाई, कपड़ों की धुलाई आदि सब उन्हीं को ही करनी है.
मगर धीरेंद्र की सुबह भले ही झल्लाहट से शुरू हो लेकिन उत्सुकता से भरी जरूर होती है. 4 बजे का अलार्म बज जाए तो भी उसे कोई परवाह नहीं. नींद ही नहीं टूटती है. न जाने उसे कैसी गहरी नींद आती है.
घड़ी का कांटा जब 4 से 5 तक पहुंचता है तब उस की पत्नी चिल्लाती है, ‘‘उठो, दफ्तर जाने में देर हो जाएगी.’’
‘‘हूं,’’ धीरेंद्र उसी खर्राटे के साथ कहेगा, ‘‘क्या 5 बज गए?’’
‘‘तैयार होतेहोते 10 बज जाएंगे. फिर मुझे न कहना कि देर हो गई.’’
शायद फिर बच्चों को इशारा किया जाता होगा. पप्पू धीरेंद्र के बिछौने पर टूट पड़ता, ‘‘उठिए पिताजी, वरना पानी डाल दूंगा.’’
फिर वह बच्चों के अगलबगल बैठ कर कहता, ‘‘अरे, नहीं बाबा, मां से कहो कि चाय ले आए.’’
स्नानघर में जा कर भी धीरेंद्र बीवी से उलझता रहता, ‘‘मेरे कुरते में 2 बटन नहीं हैं और जूते के फीते बदले या नहीं? जाने मोजों की धुलाई हुई है या नहीं?’’
पत्नी तमक कर कहती, ‘‘केवल तुम्हें ही तो नौकरी पर नहीं जाना है, मुझे भी दफ्तर के लिए निकलना है.’’
‘‘ओह, तो क्या तुम्हारे ब्लाउज के बटन मुझे टांकने होंगे,’’ धीरेंद्र चुहल करता तो पत्नी उसे धप से उलटा हाथ लगाती.
इसे कोई कुछ भी कहे, पर नीरेंद्र का लोभी मन गृहस्थी के ऐसे छोटेमोटे सुखों की कान लगा कर आहट लेता रहता.
नीरेंद्र बेसन के खुशबूदार हलवे के बहुत शौकीन हैं. जी करता है नाश्ते में कोई सुबहसुबह हलवा परोस दे और वे जी भर कर खाएं. अम्मां थीं तो उन का यह पसंदीदा व्यंजन हफ्ते में 3-4 बार अवश्य मिला करता था. पर उन की मृत्यु के बाद सारे स्वाद समाप्त हो गए.
धीरेंद्र की पत्नी बेसन का हलवा देखते ही मुंह बनाती थी. खुद नीरेंद्र अम्मां की भांति कभी हलवा बना नहीं सके. अब तो बस हलवे की खुशबू मन में ही दबी रहती है.
धीरेंद्र को बेसन के पकौड़ों के एवज में कई बार बीवी के हाथ बिक जाना पड़ता है. बीवी का मन न हो तो कोई न कोई बात पक्की करवा कर ही वह पकौड़े बनाती है. नीरेंद्र भी अपने पसंद के हलवे पर नीलाम हो जाना चाहते हैं, पर वह नीलामी का चाव मन में ही दबा रह गया. अब तो रोज सुबह थोड़ा सा चिवड़ा फांक कर दफ्तर की ओर चल देते हैं.
दफ्तर में नए और पुराने सहयोगियों का रेला नीरेंद्र को देखदेख कर दबी मुसकराहट से अभिवादन करता. कम से कम इतनी तसल्ली तो जरूर रहती कि हर कोई उन से काम निकलवाने के कारण मीठीमीठी बातें तो जरूर करता है. उस के साहब, अपनीअपनी फाइल तैयार करवाने के चक्कर में उसे मसका लगाते रहते. किसी को पार्टी में जाना हो, पत्नी को ले कर बाजार जाना हो, बच्चे को अस्पताल पहुंचाना हो, तुरंत उन्हें पकड़ते. ‘‘नीरेंद्र, थोड़ा सा यह काम कर दो.’’
इतना ही नहीं दफ्तर के क्लर्क, चपरासी, माली, जमादार आदि अपने तरीके से इस अकेले व्यक्ति से नजराना वसूलते रहते. अगर देने में थोड़ी सी आनाकानी की तो वे लोग कह देते, ‘‘किस के लिए बचा रहे हो, बाबू साहब. आप की बीवी होती तो कहते, साड़ी की फरमाइश पूरी करनी है. बेटा होता तो कहते कि उस की पढ़ाई का खर्च है. अगर बेटी होती तो हम कभी धेला भी न मांगते…मगर कुंआरे व्यक्ति को भला कैसी चिंता?’’
पर धीरेंद्र को न तो दफ्तर में रुकने की जरूरत पड़ती और न ही अपने मातहतों के हाथ में चार पैसे धरने की नौबत आती. घर जल्दी लौटने के बहाने भी उसे नहीं बनाने पड़ते. खुद ही लोग समझ जाते हैं कि घर में देरी की तो जनाब की खैर नहीं.
पर नीरेंद्र किस के लिए जल्दी घर लौटें. बालकनी में टहलते ठीक नहीं लगता. अपनीअपनी छतों पर टहलते जोड़ों का आपस में हंसीमजाक सुनना अब उन से सहन नहीं होता. बारबार लगता है जैसे हर बात उन्हें ही सुनाई जा रही है. खनकती, ठुनकती हंसी वे पचा नहीं पाते. घर के अंदर भाग कर आएं तो मच्छरों की भूखी फौज उन की दुबली देह पर टूट पड़ती है. तब एक ही उपाय नजर आता है कि मच्छरदानी गिरा कर अंदर घुस जाएं और घड़ी के भागते कांटों को देखते हुए समय निकालते रहें.
इसीलिए नीरेंद्र कभीकभी वैवाहिक विज्ञापनों में स्वयं ही अपने लिए उपयुक्त पात्र तलाशने लगते हैं. पर ऐसा कभी न हो सका. कई बार समझौतों के सहारे लगा कि बात बनेगी परंतु विवाह के लिए समझौता करना उन्हें उचित नहीं लगा. अकेलेपन के कारण झिझकते हुए उन्होंने छोटे भाई की लड़की नीलू को अपने पास रख लेने का प्रस्ताव किया तो वह बचने लगा था, ‘‘पता नहीं, बच्ची की मां राजी होगी या नहीं?’’
पर नीरेंद्र बजाय बच्ची की मां से पूछने के छोटी बहन के सामने ही गिड़गिड़ा उठे थे, ‘‘कामिनी, मैं चाहता हूं, क्यों न आशू यहीं मेरे साथ रहे. उस का जिम्मा मैं उठाऊंगा.’’
‘‘आशू?’’ बहन की आंखें झुक गईं, ‘‘बाप रे, इस की दादी तो मुझे काट कर रख देंगी.’’
जवाब सुन कर नीरेंद्र चकित रह गए थे, ‘अरे यह क्या? अपनी लगभग सारी कमाई इन के बच्चों पर उड़ाता हूं. कितने दुलार से यहां उन्हें रखता हूं. हर वर्ष राखी पर मुंहमांगी चीज बहन के हाथ में रखता हूं. इतना ही नहीं, किसी भी बच्चे को कुछ भी चाहिए तो साधिकार माएं चालाकी से उन की फरमाइश लिख भेजती हैं, लेकिन क्या कोई भी अपने एक बच्चे को मेरे पास नहीं छोड़ सकती. कल को वह बच्चा मेरी पूरी संपत्ति का वारिस होगा, लेकिन सब ने मेरी मांग ठुकरा दी.’
‘‘अच्छा, आशू से ही पूछती हूं,’’ बहन ने आशू को आवाज दी थी.
नीरेंद्र उस की बातों से बेजार छत ताकने लगे थे, लेकिन आशू को सिर्फ उन की चीजें ही अच्छी लगती थीं.
कुंआरे रह कर नीरेंद्र लोगों के लिए सिर्फ एक पेड़ बन कर रह गए थे, जिसे जिस का जी चाहे, नोचे, फलफूल, लकड़ी आदि प्रत्येक रूप में उस का उपयोग करे. अपने लिए भी वे एक पेड़ की भांति थे. जैसे बसंत के मौसम में पेड़ों के नए फूलपत्ते आते हैं उसी प्रकार वे भी किसी पेड़ की तरह हरेभरे हो जाते. क्या उन्हें वर्ष भर मुसकराने का हक नहीं है? स्वयं के नोचे जाने के विरोध का भी कोई अधिकार नहीं है?
शहर भर में यह अफवाह फैल गई कि मुखबिरों को मौत के घाट उतारा जा रहा है. हालांकि पिछले 50 सालों से घाटी में हत्या की एक भी वारदात सुनने में नहीं आई थी पर अब आएदिन 5-10 आदमी गोलियों के शिकार हो रहे थे. हर व्यक्ति के चेहरे पर आतंक और भय के चलते मुर्दनी छाई हुई थी. अपनेआप पर विश्वास करना कठिन हो रहा था. हर कोई अपनेआप से प्रश्न पूछता:
‘कहीं मुखबिरों की सूची में मेरा नाम तो नहीं? किसी पुलिस वाले से मेरी जानपहचान तो नहीं? या फिर मुझे किसी सिपाही से बातें करते हुए किसी ने देखा तो नहीं?’ उस की चिंता बढ़ जाती.
‘मेरे राजनीतिक संबंधों के बारे में किसी को पता तो नहीं?’ यह सोचसोच कर दिल की धड़कनें और भी तेज हो जातीं. ‘किसी उग्रवादी से मेरी दुश्मनी तो नहीं?’ यह सोच कर कइयों का रक्तचाप बढ़ने लगता और वे अगले दिन आंख खुलते ही स्थानीय अखबारों के दफ्तर में जा कर विज्ञापन के माध्यम से स्पष्ट करते कि वे किसी राजनीतिक पार्टी से संबंधित नहीं हैं और न ही सूचनाओं के आदान- प्रदान से उन का कोई लेनादेना है. इन सब कोशिशों के बावजूद उन्हें मानसिक संतोष हासिल नहीं होता था. सारे वातावरण में बेचैनी और अस्थिरता फैली हुई थी.
मौत इतनी भयानक नहीं होती जितनी उस की आहट. हर कोई मौत के इस जाल से बच निकलने के रास्ते तलाश रहा था.
किसी का माफीनामा प्रकाशित करवाना, किसी का अपनी सफाई में बयान छपवाना तो चल ही रहा था मगर कुछ तो घाटी छोड़ कर ही जा चुके थे. नीलकंठ ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. उन्होंने अपने जीवन के 65 साल संतोष और संयम से व्यतीत किए थे. विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वे अपनी ही धुन में जिए जा रहे थे.
नीलकंठ का पुराना सा मकान था जिस की दीवारें मिट्टी से लिपीपुती थीं और मकान हब्बाकदल में झेलम नदी के किनारे स्थित था. सारे नगर में हब्बाकदल ही एक ऐसी जगह थी जहां मुरगे की पहली बांग के साथ ही जिंदगी चहक उठती. इधर मंदिरों की घंटियां बजतीं और उधर मसजिदों से अजानें गूंजतीं. पुल के दोनों ओर जहांतहां खोमचे वालों की कतारें लग जातीं. चीखतेचिल्लाते सब्जी बेचने वाले, मछली बेचने वाले और मोलभाव करते हुए खरीदार.
एक ओर नानबाइयों के चंगेरों (चंगेरनान रखने का विशेष प्रकार का बरतन) से सोंधीसोंधी खुशबू उठती और दूसरी तरफ हलवाई के कड़ाहों से दूध की महक. फिर दिन भर घोड़ों की टापों की आवाजें, साइकिल की ट्रिनट्रिन और आटोरिकशा की गड़गड़ाहट से पूरा माहौल गरम रहता. यह कोलाहल आधी रात तक भी थमने का नाम नहीं लेता. स्कूल और कालेज टाइम पर इस स्थान की रौनक ही कुछ और होती. सफेद कुरते और सलवार से सुसज्जित अप्सराओं के झुंड के झुंड और उन का पीछा करते हुए छैलछबीले नौजवान हर पल छेड़छाड़ की ताक में लगे रहते. मौका मिला नहीं कि उन्होंने फब्तियां कसनी शुरू कीं और आगे चलती हुई लड़कियों के चेहरों पर पसीने की बूंदें उभर आतीं.
आज नीलकंठ न जाने क्यों गहरी सोच में डूबे हुए थे. उन की बूढ़ी पत्नी अरुंधती ने हुक्के में नल का ताजा पानी भर दिया था. नीलकंठ ने चिलम में तंबाकू डाला और फिर अपनी कांगड़ी (गरमी पाने के लिए छोटी सी अंगीठी) में से 2-3 अंगारे निकाल कर उस पर रख दिए. उन के मुंह से धुएं के बादल छूटने लगे और वे शीघ्र ही विचारमग्न हो गए.
अपने विवाह के दिन नीलकंठ को केवल पुल पार करने की जरूरत पड़ी थी. अरुंधती का मकान दरिया के उस पार था. खिड़की से वे अपनी होने वाली पत्नी का मकान साफतौर पर देख सकते थे. दोनों मकानों के बीच झेलम नदी अपनी चिरपरिचित आवाज से बहती चली जा रही थी. छोटेमोटे घरेलू काम निबटा कर अरुंधती भी पास ही आ कर बैठ गई.
‘‘समय कैसे बीतता चला जाता है, मालूम भी नहीं होता. देखतेदेखते हमारे विवाह को 45 साल बीत गए,’’ नीलकंठ अरुंधती के चेहरे के उतारचढ़ाव को देखते हुए बोले. ‘‘आप को तो मजाक सूझ रहा है. भला आज विवाह की याद कैसे आ गई?’’ अरुंधती को आश्चर्य हुआ.
‘‘बस, यों ही. तुम्हें याद है आज कौन सी तारीख है?’’ ‘‘इस उम्र में तारीख कौन याद रखता है जी. मुझे तो अपना वजूद भी गत साल के कैलेंडर सा लगता है, जो दीवार पर इसलिए टंगा रहता है क्योंकि उस पर किसी की तसवीर होती है जबकि वर्ष बीतते ही कैलेंडर कागज के टुकड़े से ज्यादा महत्त्व नहीं रखता. आप को नहीं लगता कि हम ऐसे ही कागजी कैलेंडर बन कर रह गए हैं?’’
‘‘तुम सच कह रही हो, अरु. हम भी दीवार पर टंगे हुए उन फटेपुराने कैलेंडरों की भांति अपने अंत की ही प्रतीक्षा तो कर रहे हैं.’’ दुबलीपतली अरुंधती को याद आया कि उस ने हीटर पर कहवा चढ़ा रखा है. शायद अब तक उबल गया होगा. वह सोचने लगी और दीवार का सहारा ले कर उठ खड़ी हुई. फिर 2 खासू (कांसे के प्याले) और उबलती चाय की केतली उठा कर ले आई. नीलकंठ ने हुक्के की नली जमीन पर रख दी और अपने हाथ से खासू पकड़ लिया. अरुंधती ने खासू में गरम चाय उड़ेल दी.
‘‘अरु, याद है जब शादी से पहले मैं अपनी छत पर चढ़ कर तुम्हें घंटों निहारता रहता था.’’ ‘‘आज आप को क्या हो गया है. कैसी बहकीबहकी बातें कर रहे हैं आप,’’ पति को टोक कर अरुंधती स्वयं भी यौवन की उस भूलभुलैया में खो गई.
आयु में अरुंधती अपने पति से केवल 5 साल छोटी थी मगर पिछले 10 साल से गठिया ने आ दबोचा था. इसी कारण उस के हाथों की उंगलियों में टेढ़ापन आ चुका था और सूजन भी पैदा हो गई थी. जाड़े में हालत बद से बदतर हो जाती. उठनेबैठने में भी तकलीफ होती मगर लाचार थी. आखिर घर का काम कौन करता. ‘‘बहुत दिनों से मेरी दाहिनी आंख फड़क रही है. मालूम नहीं कौन सी मुसीबत आने वाली है?’’ अरुंधती ने चटाई से घास का एक तिनका तोड़ा फिर उसे जीभ से छुआ कर अपनी दाहिनी आंख पर इस विश्वास के साथ चिपका दिया कि आंख का फड़कना शीघ्र बंद हो जाएगा.
‘‘अरे अरु, बेकार में परेशान हो रही हो. होनी तो हो कर ही रहेगी,’’ नीलकंठ के स्वर में उदासी थी. अरुंधती ने इस से पहले कभी अपने पति को इतना चिंतित नहीं देखा था. बारबार पूछने के बावजूद उसे कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला. वह मन ही मन कुढ़ती रही. बहुत दिनों से वह महसूस कर रही थी कि नीलकंठ शाम होते ही अपने मकान की खिड़कियां और दरवाजे बंद कर लेते हैं और बारबार इस बात की पुष्टि करते हैं कि वे ठीक तरह से बंद हो गए हैं या नहीं. कभीकभी उठ कर खिड़की के परदों को सावधानी से हटाते और बाहर हो रही हलचल की टोह लेते. वहां फौजी गाडि़यों और जीपों की आवाजाही या फिर गश्ती दस्तों की पदचाप के अलावा और कुछ भी सुनाई न देता.
‘‘आप इतना क्यों घबरा रहे हैं? सब ठीक हो जाएगा,’’ अरुंधती अपने पति को ढाढ़स बंधाने का प्रयत्न करती. ‘‘मैं घबरा नहीं रहा हूं मगर अरु, तुम्हें नहीं मालूम, हालात बहुत बिगड़ चुके हैं. हर जगह मौत का तांडव हो रहा है.’’
अरुंधती को अपनी जवानी के वे दिन याद आए जब कश्मीर की वादी पर कबायलियों ने आक्रमण किया था. उस समय वह सिर्फ 18 साल की थी. आएदिन लूटपाट, हिंसा और बलात्कार की दिल दहला देने वाली घटनाएं घट रही थीं.
एक दिन श्रीनगर शहर में सूचना मिली कि कबायलियों ने बारामुला में हजारों निहत्थे मासूम लोगों को मौत के घाट उतार दिया है. स्थानीय कानवेंट में घुस कर उन्होंने ईसाई औरतों को अपनी वासना का शिकार बनाया और अब वे श्रीनगर की ओर चले आ रहे हैं. शहर की महिलाओं, खासकर लड़कियों ने निश्चय कर लिया कि अपनी इज्जत खोने से बेहतर है कि बिजली की नंगी तारों से लटक कर जान दी जाए. मगर नियति का खेल देखिए, ठीक उसी दिन सारे नगर में बिजली गुल हो गई और मौत उन की पहुंच से बहुत दूर चली गई.
फिर एक दिन सूचना मिली कि भारतीय फौज ने कबायली आक्रमण- कारियों को खदेड़ दिया और वे दुम दबा कर भाग गए. सभी ने चैन की सांस ली. अरुंधती ने उन दिनों काफी साहस और धैर्य से काम लिया था. इस पर वह आज भी गर्व करती है. वह बातबात पर अपनी हिम्मत का दम भरती थी मगर अब फिर वैसा ही समय आ गया था, वह अपने पति को ढाढ़स बंधाते हुए बोली, ‘‘घबराने से कोई लाभ नहीं जी. जैसेतैसे झेल लेंगे इस दौर को भी. आप दिल छोटा न करें.’’ नीलकंठ ने अपनी पत्नी का साहसपूर्ण उत्तर सुन कर चैन की सांस ली. परंतु दूसरे ही पल उन्हें अपनी पत्नी के भोलेपन और सादगी पर दया आई. वे प्रतिदिन सुबह उठ कर समाचारपत्रों की एकएक पंक्ति चाट लेते. पत्रपत्रिकाएं ही ऐसा माध्यम थीं जो बाहर की दुनिया से उन का संपर्क जोड़े रखती थीं. अखबारों के पन्ने दिल दहलाने वाले समाचारों से रंगे रहते. दोनों पिंजरे में परकटे पक्षियों की भांति छटपटाते रहते.
‘‘यह सब आप ही का कियाधरा है. वीरू ने कितनी बार अमेरिका बुलाया. हर बार आप ने मना कर दिया. जाने ऐसा कौन सा सरेस लगा है जिस ने आप को इस जगह से चिपकाए रखा है. माना उस की पत्नी अमेरिकन है तो क्या हुआ. हमें उस से क्या लेनादेना है. आखिर घर से निकाल तो न देती. किसी कोने में हम भी पड़े रहते,’’ अरुंधती ने अपने दिल की भड़ास निकाल दी. ‘‘प्रश्न वीरू की पत्नी का नहीं. तुम नहीं समझोगी. इस उम्र में इतनी दूर जा कर रहने से दिल घबराता है. सारी उम्र बनिहाल से आगे कभी कदम भी न रखा, अब इस बुढ़ापे में समुद्र के उस पार कहां जाएं. क्या मालूम कैसा देश होगा? कैसे लोग होंगे? वहां का रहनसहन कैसा होगा? वहां मौत आई तो जाने कैसा क्रियाकर्म होगा? यहां अपनी धरती की धूल ही मिल जाए तो सौभाग्य की बात है…और फिर तुम सारा दोष मुझ पर ही क्यों मढ़ रही हो. तुम्हारी भी तो जाने की इच्छा न थी.’’
‘‘अच्छा जी, वीरू और अमेरिका की बात छोड़ो. काकी ने मुंबई भी तो बुलाया था. आप ने तो उस को भी मना कर दिया. कहा, बेटी के घर का खाना गोमांस के बराबर होता है. भूल गए क्या?’’ ‘‘अरे, तुम नहीं समझोगी. अगर उन्हें वास्तव में हम से प्यार होता तो आ कर हमें ले जाते. हम मना थोड़े ही करते.’’
‘‘वे बेचारे तो दोनों आने को तैयार थे पर आप से डरते हैं. आप की बात तो पत्थर की लकीर होती है. आप ने तो अपने पत्रों में साफ तौर पर मना कर दिया था.’’
उधर वीरू और काकी दोनों अपनेअपने परिवार की देखरेख में जुट गए थे और यहां बुड्ढा और बुढि़या कैलेंडर की तारीख गिनते हुए जीवन का एकएक पल बिता रहे थे. ‘‘आज श्रावण कृष्ण पक्ष की 7 तारीख है. वीरू के बेटे का जन्मदिन है. उठ कर पीले चावल बना लो,’’ नीलकंठ ने अपनी पत्नी को आदेश दिया.
‘‘आज जन्माष्टमी है. काकी की बेटी आज के दिन ही पैदा हुई थी. उसे तार भेज दिया या नहीं?’’ अरुंधती ने पति को याद दिलाया. दोनों को वीरू, काकी और उन के बच्चों की याद बहुत सताती थी. कई दिन से कोई सूचना भी तो नहीं मिली थी.
बुढ़ापा और उस पर यह दूरी कितनी कष्टप्रद होती है. आंखें तरस जाती हैं बच्चों को देखने के लिए और वे समझते हैं कि इस में हमारा स्वार्थ है. ‘‘कल सुबह बेटे को पत्र लिखना. कह देना कि हमें टिकट भेज दो. हम आने के लिए तैयार हैं,’’ अरुंधती ने आदेशात्मक स्वर में कहा.
‘‘मैं भी यही सोच रहा हूं. काकी से भी टेलीफोन पर बात कर के देख लूंगा. कुछ दिन मुंबई में रहेंगे और फिर वहीं से वीरू के पास अमेरिका चले जाएंगे.’’ ‘‘जैसा उचित समझो, अब रात हो गई है, सो जाओ,’’ अरुंधती ने नाइट लैंप जला कर ट्यूबलाइट बुझा दी.
नीलकंठ की बेचैनी बरकरार थी. वे फिर उठ खड़े हुए. सभी दरवाजों और खिड़कियों का निरीक्षण किया. जब तक उन्हें यह तसल्ली न हुई कि कहीं से कोई खतरा नहीं है तब तक वे कमरे में इधर- उधर टहलते रहे. फिर उन्होंने अपनी सुलगती कांगड़ी अरुंधती को थमा दी और स्वयं अपने बिस्तर में घुस गए.
नींद आंखों से कोसों दूर थी. वे करवटें बदलते रहे. इतने में बाहर दरवाजे पर दस्तक हुई. दोनों कांप उठे. सिमटे सिमटाए वे अपने बिस्तरों में दुबक गए. उन्होंने अपनी सांसों के उतारचढ़ाव को भी रोक लिया. तभी धड़ाम से मुख्य दरवाजे के टूटने की आवाज आई. फिर कमरे के दरवाजे पर किसी ने जोर से लात मारी. दरवाजा भड़ाक की आवाज के साथ खुल गया. 2 नौजवान मुंह पर काले मफलर बांधे हाथों में स्टेनगन लिए कमरे में घुस गए. उन्होंने आव देखा न ताव, अंधाधुंध कई फायर किए. मगर उस से पहले ही दोनों आत्माएं डर और भय के कारण नश्वर शरीर से मुक्त हो चुकी थीं. बहते हुए खून से दोनों बिस्तर लहूलुहान हो गए.
हथियारबंद नौजवान मुड़े और अपने पीछे सन्नाटा छोड़ कर वापस चले गए. दूसरे दिन स्थानीय समाचारपत्रों में सुर्खियां बन कर यह समाचार इस तरह प्रकाशित हुआ : ‘हब्बाकदल में मुजाहिदों ने नीलकंठ और अरुंधती नाम के 2 मुखबिरों को हलाक कर दिया. उग्रवादियों को उन पर संदेह था कि वे फौज की गुप्तचर एजेंसी के लिए काम कर रहे थे.’
जब मैं ने अपनी बात खत्म की तो जेनिफर बोलने लगी, ‘‘आप की कहानी बेहद दुखी है. व्यवसाय में सफलता और असफलता सामान्य है, यह बारीबारी से होता है. बड़े से बड़े बिजनैसमैन को भी इस तरह का उतारचढ़ाव का सामना करना ही पड़ता है.
आज की पेशेवर हार आप के लिए एक झटका सा ही लगेगा जो लगातार जीत ही देखते रहे. लेकिन सम झदारी इस बात में है कि इस से कैसे बाहर निकला जाए और सफल होने की कोशिश की जाए. यदि आप अपनी पारिवारिक स्थिति के बारे में सोचते हैं, तो कृपया मेरी राय को क्षमा करें मु झे ऐसा लगता है कि आप के देश में आप परिवार के नाम पर एकदूसरे पर ज्यादा हक जताना चाहते हैं.
‘‘क्या आप जानते हैं कि आप का बेटा नशे का आदी क्यों बना है? आप की बेटी ने आप की मरजी के खिलाफ शादी क्यों की? आप की पत्नी अब अवसाद में क्यों है? क्या आप ने कभी उन के पास बैठ कर इन सभी विषयों के बारे में बातें करने की कोशिश की?’’ उस ने सीधा मु झ से सवाल पूछा.
मेरे पास जवाब नहीं था, ‘‘मैं ने उन्हें जीवन के लिए आवश्यक सभी सुखसुविधाएं दीं… इस से ज्यादा और क्या करना है मु झे?’’
‘‘सुखसुविधाएं देने से आप का काम पूरा हो जाता? अगर यह आप की सोच है तो यह सरासर गलत है… मु झे लगता है कि आप उन तीनों व्यक्तियों को जिन्हें अपना परिवार मानते हैं उन में से किसी को भी आप ने सम झा ही नहीं.’’
‘‘आप यह क्या कह रही हैं?’’
‘‘आज जो हुआ वह एक मिसाल है आप की लापरवाही की. जब आप को अपनी आशा के अनुरूप सफलता नहीं मिली तो आप ने आत्महत्या करने का फैसला किया. आप का बेटा ड्रग्स का आदी हो सकता है क्योंकि उसे वह नहीं मिल रहा है जो वह चाहता है. हो सकता है कि आप की बेटी अपने पसंदीदा पति को यह जान कर चुन रही हो कि आप उसे वैसा जीवनसाथी नहीं देंगे जो वह चाहती है. आप की पत्नी भ्रमित हो सकती है क्योंकि उस ने जो चाहा था वह नहीं मिला.’’
‘‘उन की सारी इच्छाएं बिन मांगे मैं ने पूरी कीं,’’ मैं ने गुस्से से कहा.
‘‘यही गलती है. मैं ने कई भारतीय परिवारों में एक पति अपनी पत्नी पर और मातापिता दोनों अपने बच्चों पर अपने विचारों, इच्छाओं और सपनों को थोपते हैं. हम इस से सहमत नहीं हैं…’’
मैं ने जेनिफर को देखा.
‘‘हर एक के पास एक दिल है, स्नेहन. अलगअलग आशाएं, इच्छाएं होती हैं यह मत भूलना. क्या आप ने कभी अपने परिवार वालों से बैठ कर आपस में बात करने के बाद कोई भी फैसला लिया?’’
‘‘नहीं’’ मेरा उत्तर था जिस का मैं ने सिर्फ इशारे में जवाब दिया.
‘‘यहां तक कि आज आप ने जो आत्महत्या का निर्णय लिया है वह भी आप के
अहंकार को ही दर्शाता है. अगर आप इस तरह आत्महत्या कर लेते तो आप की पत्नी पर क्या गुजरती इस बारे में आप ने सोचा? हर इंसान के पास हर विषय के बारे में अपनी एक दृष्टि है. आप की मौत से तुम्हारे परिवार वालों की समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला है.
मौत को गले लगा कर आप ने अपनी समस्या का हल ढूंढ़ निकाला और अपने परिवार वालों की उल झनों को और बढ़ा दी. यह फैसला भी अपने स्वार्थ की वजह से लिया गया फैसला ही है. अपने देश वापस जाइए और अपने परिवार वालों से दिल खोल कर बात कीजिए. हर समस्या का हल अपनेआप निकल आएगा,’’ जेनिफर ने कहा.
मैं ने जवाब नहीं दिया.
‘‘स्नेहन कुदरत ने आप को मेरे द्वारा नया जन्म दिया है. इसे सही तरीके से इस्तेमाल करना या न करना आप की मरजी है. हम वास्तव में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्त्व देते हैं. औल द बैस्ट…’’ जेनिफर उठकर चली गई.
उस के शब्दों की सचाई ने मुझे, मेरे ज्ञान और मेरे अहंकार सब को जला कर राख कर दिया. मुझे ऐसा लगा कि जैसे मेरा पुनर्जन्म हुआ है. मैं काफी देर तक वहीं बैठा रहा.
थोड़ी देर बाद मैं उठा और फिर से समुद्र की ओर चलने लगा… अब मेरा इरादा बदल चुका था. सागर में चमकता सूरज मेरे मन में नई उम्मीदों की किरण ले कर आया. मु झे लगा सिर्फ मेरा नहीं हरेक का अपना दिल है और उस की इज्जत करनी चाहिए.
मैं अपने कमरे में पहुंचा और अपना सामान चैक किया. चंद महंगे कपड़े… पैसे… बस इतना ही… शाम ढलते ही अंधेरा घिरने लगा. मुझे नहीं पता कि मैं कितनी देर तक समुद्र में बैठा रहा और लहरों को लगातार तट से टकराते देखता रहा. आधी रात होनी चाहिए. मैं उस समय का इंतजार कर के बैठा रहा.
बहुत हो गया… यह जीवन… मैं ने अपनेआप से कहा और कुदरत से क्षमायाचना करते हुए चलने लगा.
समुद्र की गहराई उन जगहों पर ज्यादा नहीं होती जहां पैर सामने रखे जाते थे. मैं सागर की ओर चलने लगा. लहरें दौड़ती हुई मेरे पास आ कर मु झे छूने लगीं और मु झे ऐसा लगा जैसे मु झे भीतर आने का निमंत्रण दे रही हों.
पैरों में सीप और पत्थर चुभ गए. छोटीछोटी मछलियों को मैं महसूस कर सकता था. आगेआगे मैं चहलकदमी करने लगी और गरदन तक पानी आ गया.
कुछ पुरानी यादें मु झे उस वक्त घेरने लगीं और मेरे मन में अजीबोगरीब खयाल आने लगे. मगर मैं नहीं रुका, मैं चलता रहा.
खारा पानी मुंह में घुस गया, आंखों में पानी आने लगा. ऐसा लग रहा था जैसे कोई मु झे किसी अवर्णनीय गहराई तक खींच रहा हो.
लहरों की गति अधिक है, एक खींच, एक टक्कर, एक लात, लहरें पानी में मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करने लगीं जैसे फुटबौल खिलाड़ी गेंद को लात मार रहे हों.
मेरी स्मृति धूमिल हो रही थी. छाती, नाक, आंखें, कानों, मुंह में खारा पानी भर कर मु झे नीचे और नीचे धकेल रहा था.
अचानक मु झे ऐसा लगा कि कोई मजबूत हाथ मु झे गहराई से ऊपर खींच रहा हो. मेरी याददाश्त रुक गई.
जब मैं उठा तो काले रंग के स्विमसूट में एक बूढ़ी विदेशी महिला मेरी बगल में बैठी थी. उस की बगल में 3 युवा थाई लड़के खड़े थे.
क्या मैं मरा नहीं हूं? मुझे तट पर कौन लाया?
उस ने अपनी आंखें खोलीं. मैं ने विदेशी महिला को अपनी धाराप्रवाह अमेरिकी अंगरेजी में कहते सुना. तब तक, जिस रिजोर्ट में मैं ठहरा था, उस का मालिक और दूसरा आदमी दोनों हमारी ओर दौड़ते हुए आए.
‘‘क्या हुआ? वे होश में आ गए?’’ थाइलैंड आदमियों ने टूटीफूटी अंगरेजी में पूछा तो अमेरिकी महिला ने कहा, ‘‘हां इन्हें होश आ गया.’’
मैं सुन सकता था. उन में से एक डाक्टर जैसा दिख रहा था. उस ने मेरी नब्ज पकड़ी और कहा,‘‘सब ठीक है.’’
बाद में उन्होंने अमेरिकी महिला से कहा, ‘‘तुम ने इस की जान बचा कर एक अच्छा काम किया है.’’
हालांकि मैं बहुत थका हुआ महसूस कर रहा था. मैं चलने लायक नहीं था. उन सभी लोगों ने मिल कर मु झे वहां से उठा कर जिस कमरे में मैं ठहरा हुआ था उस में बिस्तर पर लिटा दिया.
उस महिला ने मुझ से केवल इतना कहा, ‘‘शुभ रात्रि… ठीक से सो जाओ… सुबह मिलेंगे…’’ और दरवाजा बंद कर चली गई.
तो मैं ने जो प्रयास किया वह भी असफल रहा? अपने जीवन में पहली बार मैं आह… जोर से चिल्लाया जैसे मानो मेरे सीने तक दबा हुआ दुख खुल कर बाहर आ गया हो. मु झे नहीं पता कि मैं कब सो गया.
जब मैं उठा तो धूप अच्छी थी. मेरे कमरे के परदों से भोर का उजास आ रहा था. जैसे ही मैं चौंक कर उठा और गीले कपड़ों में बाहर निकला, मैं ने कल जिस थाई युवक को देखा था उस ने कहा, ‘‘सुप्रभात… ठीक हैं?’’ उस ने मुसकराते हुए पूछा.
मैं बरामदे में कुरसी पर बैठ गया और फिर से समुद्र को देखने लगा.
‘‘गुड मौर्निंग…’’ उधर से आवाज आई.
मैं ने पलट कर देखा. कल समुद्र से मु झे बचाने वाली अमेरिकी महिला वहीं खड़ी थी. लगभग एक आदमी जितना कद, सुनहरे बाल, गोरा रंग…
मेरी सामने वाली कुरसी पर उस ने बैठ कर कहा, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए,
हम ने एकदूसरे का परिचय तक नहीं किया है. मैं जेनिफर हूं. न्यू औरलियंस, यूएसए से हूं और मैं एक लेखिका हूं,’’ उस ने मुसकराते हुए कहा.
मैं कुछ सैकंड्स के लिए नहीं बोल सका. महिला अपने 40वें वर्ष में होनी चाहिए. लंबीचौड़ी दिखने में बड़ी थी.
‘‘मैं स्नेहन हूं… बिजनैसमैन…’’ मैं ने कहा.
‘‘पहले तो मु झे लगा कि आप समुद्र में तैरने जा रहे हैं. लेकिन मैं ने आप पर ध्यान दिया क्योंकि आप की पोशाक और शैली तैरने लायक नहीं लग रही थी. जैसेजैसे लहरें आप को अंदर खींचने लगीं, मैं सम झ गई कि आप डगमगा रहे हैं. मैं थोड़ी दूर तैर रही थी और तुरंत आप के पास आई और आप को खींच कर ले आई…’’
मुझे बहुत गुस्सा आया. एक विदेशी महिला ने मेरी कायरतापूर्ण जान बचाई है. कितनी शर्मनाक बात है.
कुछ देर के लिए सन्नाटा पसर गया. उस ने खुद इस सन्नाटे को भंग किया, ‘‘क्या आप खुदकुशी करने के लिए गए थे? मु झे क्षमा कीजिए… यह एक असभ्य प्रश्न है. हालांकि पूछना है. आप की समस्या क्या है?’’
उस के साथ अपनी समस्याओं और असफलताओं पर चर्चा करने से मु झे क्या लाभ होगा?
‘‘मैं आप को मजबूर नहीं करना चाहती… प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन का निर्णय लेने का अधिकार है. लेकिन आत्महत्या मेरे खयाल से एक बहुत ही कायरतापूर्ण, घृणित निर्णय है…’’ उस ने खुद कहा.
अचानक मेरे अंदर एक गुस्सा पैदा हो गया, ‘‘तुम से किस ने कहा मु झे बचाने के लिए?’’
जेनिफर ने मेरी आंखों में देखा और कहा, ‘‘अपनी आंखों के सामने किसी को मरते हुए देखना इंसानियत नहीं है… इसलिए मैं ने बचाया… आप एक भारतीय की तरह दिखते हैं? भारतीय ही हैं न?’’ उस ने पूछा.
मैं ने हां में बस सिर हिलाया.
‘‘अपना देश, अपनी संस्कृति और तत्त्वज्ञान के लिए पूरे विश्व में जाना जाता और मर्यादा से माना भी जाता है. मैं ने जीवन के अर्थ और अर्थहीन दोनों पर आप के देश के तत्त्वज्ञानियों की किताब से ही जाना है.’’
मैं ने आश्चर्य से उस की ओर देखा, ‘‘आप ने अध्ययन किया है?’’ मैं ने पूछा.
‘‘कुछ हद तक.’’
‘‘आप ने खुद को एक लेखिका कहा?’’
वह हंसी, ‘‘जो लिखते हैं वे ही पढ़ते हैं, जो पढ़ेंगे वे लिखेंगे जरूर.’’
‘‘मैं जीवन की उस मोड़ पर खड़ा हूं जहां से मैं वापस जिंदगी में जा ही नहीं सकता. मेरी मृत्यु ही मेरी सारी समस्याओं का इकलौता समाधान है.’’
‘‘अगर समस्याओं का समाधान मौत ही है तो दुनिया में जीने लायक कोई नहीं होगा,’’ जेनिफर ने कहा.
मैं ने जवाब नहीं दिया.
जेनिफर फिर बोलीं, ‘‘अपने दिल की बात कीजिए. हम दोनों का आपस में कोई पुराना परिचय या जानपहचान नहीं है. इसलिए हम एकदूसरे के बारे में जो भी सोचेंगे उस से हम में किसी को लाभ या नुकसान नहीं होगा. कभीकभी अपनी समस्याओं को दूसरों के साथ सा झा करना मददगार होता है…’’
मैं बैठा समुद्र को निहार रहा था. फिर मैं ने खुद अपनी सफलता की कहानी और कई असफलताओं का वर्णन किया, जिन का मैं आज सामना कर रहा था.
जहां तक मेरी आंखें देख सकती थीं, समुद्र फैला हुआ था. पानी का रंग कभी नीला कभी हरा दिख रहा था और इस अलग रंग के मिश्रण को देख कर मुझे अजीब सा लगा. शाम का समय था. सूरज ढल रहा था. उस से निकल रही लाल, पीली, नारंगी किरणें सागर की लहरों पर पड़ कर दिल को लुभा रही थी.
दूर 2 पहाडि़यां, समुद्र के बीच मूर्ति की तरह खड़ा जहाज. मैं जिस जगह पर खड़ा हूं उस का नाम गो ग्रेटन है.
बैंकौक के आसपास के कई द्वीप प्राकृतिक सुंदरता से घिरे हुए हैं जो कई विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं और ‘गो ग्रेटन’ भी उन में से एक है.
बैंकौक से ‘ट्रंप’ के लिए 1 घंटे की उड़ान के बाद वहां से 1 घंटे की ड्राइव पर आप बोटयार्ड पहुंच जाएंगे. वहां से समुद्र के पार एक नाव की सवारी ‘गो ग्रेटन’ तक आप को पहुंचा जाएगी. मैं उस जगह के समुद्र के तट पर खड़ा हूं.
थाईलैंड के पूरे रास्ते में सब से खूबसूरत हरियाली देखने को मिली. यह जगह लगभग जंगल है. लेकिन, अच्छी आधुनिक सुविधाओं वाले रिजौर्ट हैं. ऐसी जगह मैं अकेला आ कर रहा हूं.
ठीक है, जगह के बारे में बहुत कुछ बता दिया. अब मेरे बारे में बताए बिना कहानी आगे कैसे बढ़ेगी.
मैं… नहीं… मेरा नाम जानना चाहते हैं? मेरा नाम स्नेहन है. मैं एक मशहूर मल्टीनैशनल कंपनी का ऐग्जीक्यूटिव हूं. मेरा काम चेन्नई, भारत में है. मैं 50 साल का हूं. मेरी जिंदगी के 2 पहलू हैं. एक है मेरी पैदाशी से 50 साल तक की मेरी जिंदगी. मैं अपने बचपन से ले कर अपनी 50वीं उम्र तक सफलता के शिखर तक बिना किसी रुकावट ही पहुंच गया. यह चमत्कार देख कर मैं भी अकसर सोचता था शायद मेरा जन्म बहुत ही उचित समय में हुआ था. अपने व्यवसाय में मेरी सफलता ने नई ऊंचाइयों को छूआ. मेरी ताबड़तोड़ सफलता को देख कर सब लोग सम झते थे कि मेरे पास एक सुनहरा स्पर्श है. मैं सीना चौड़ा कर गर्व के साथ कह सकता था कि मैं एक सफल इंसान हूं.
आप के मन में शायद यह शक पैदा हुआ होगा कि इतना सफल आदमी इस सौंदर्य जगह पर सागर के किनारे अकेला क्यों बैठा है?
मेरे यहां अकेले आने और इस समुद्र को देखने के पीछे एक बहुत बड़ी त्रासदी छिपी हुई है.
आप अचंबित हैं कि एक इंसान जो खुद को सफल घोषित कर रहा था अब त्रासदी के बारे में बात कर रहा है. हां, यही मेरी जिंदगी का दूसरा पहलू है. मेरी जिंदगी ने पूरी की पूरी पलटी मारी और सफलता से मेरा नाता अचानक टूट गया. मेरे काम के क्षेत्र में और मेरी निजी जिंदगी दोनों में मु झे एक के बाद एक झटके लगने लगे.
सफलता ने मुझे कितनी खुशी दी उस से ज्यादा दुख असफलता ने मु झे दिया. जिंदगी में सिर्फ सफलता को ही देख कर परिचित हुए मेरे मन ने इस असफलता को अपनाने से इनकार कर दिया.
मेरा बेटा जो एक निजी इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहा था, नशे का आदी होने की वजह से कालेज से निकाल दिया गया था.
मेरी बेटी जो मेरे बेटे से बड़ी है वह कंप्यूटर कंपनी में काम कर रही थी और हमारी इच्छा के विरुद्ध किसी दूसरे राज्य के लड़के से शादी रचाने के लिए हमारी जानकारी के बिना चेन्नई छोड़ विदेश चली गई. मेरी पत्नी इस सदमे को सहन नहीं कर सकी और मानसिक अवसाद में डूब गई.
इतनी बुरी परिस्थिति में भी मैं ने अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया, यह सोच कर कभीकभी मैं खुद हैरान हो जाता हूं. दुख कभी अकेला नहीं आता यह कहावत शायद मेरे लिए ही लिखी होगी.
अब तक हर क्षेत्र में सफलता चख कर उस का आनंद लेने के बाद मेरे पास इस लगातार असफलताओं के बो झ को सहन करने की ताकत, मानसिक शक्ति नहीं थी.
नतीजा यह हुआ कि मैं इस सुनसान टापू की तलाश में अकेला ही आ गया. मेरे पास अब जीवन में कुछ भी नहीं है. हर तरफ अंधेरा ही दिख रहा. मुझे नहीं पता कि इस हालत को कैसे संभालूं?
मेरा मन बारबार एक ही रास्ता बता रहा था. इन लोगों और दुनिया को देखे बिना इस जगह पर खुद को मिटा देना हां आत्महत्या कर डालना…
इसे सुन कर आप और हैरान होंगे कि पागल अपने ही शहर में एक सैकंड में ऐसा करने के कई तरीके हैं, तुम्हें इतनी दूर आने की क्या जरूरत है?
मृत्यु पर विजय प्राप्त करना मनुष्य की पहुंच से परे एक हार है. मैं जानता था कि मृत्यु को गले लगाना एक प्रकार का पराजय ही है और उसे मैं जानपहचान वाले लोगों के सामने कर के खुद एक मजाक नहीं बनना चाहता था. मैं इस अनदेखी जगह में आ कर आत्महत्या करूंगा तो किसी को पता ही नहीं चलेगा.
इस दुनिया में मेरे जाने पर रोने वाला कोई नहीं. न मेरा बेटा आंसू बहाएगा न मेरी बेटी. मेरी पत्नी तो उसे सम झने की मानसिक स्थिति में है ही नहीं. मगर खुद को खत्म कहां और कैसे करूं? मैं दुनिया की नजरों के लिए अदृश्य होना चाहता हूं.
आज की रात मेरे इरादे को पूरा करने के लिए एकदम सही रात है. मु झे बस इतना करना है कि सीधे समुद्र में चलें.
मैं ने अपनी बगल वाले कमरे में एक विदेशी महिला को देखा. कौन इस द्वीप पर रात में घूमने जा रहा है जहां दिन के समय में भी भीड़ नहीं होती है?
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