दोपहर को लंच कर मृदंगम ने पैठणी साड़ी निकाली और खुश हो कामेश को बताने लगी, ‘‘पता है आप को महाराष्ट्र के औरंगाबाद में पैठण नगर है न, वहीं हथकरघे पर बुनाई शुरू हुई थी पैठणी साडि़यों की. प्योर सिल्क और सोनेचांदी के धागों से बुनते हुए इस के पल्लू और बौर्डर पर लताएं, कपास की कलियां, नारियल व तोते आदि का चित्रांकन किया जाता है.’’
तब तक इशू अपने कमरे से निकल कर आ गया, ‘‘जल्दी करो न मम्मा, बातें बाद में कर लेना. शाम होने लगेगी तो फोटो अच्छे नहीं आएंगे और आप दोनों मेरी गलती निकालने लगेंगे,’’ वह नाराज होने का अभिनय करता हुआ बोला.
मृदंगम तैयार होने चल दी. कामेश भी बार्डरोब से रौसिल्क का कुरता निकाल प्रैस करने लगा. कपड़े बदल कर वह इशू के साथ बालकनी में खड़ा हो मृदंगम की प्रतीक्षा करने लगा.
मृदंगम कमरे से निकली तो कामेश अपलक निहारता ही रह गया. उस की काया से लिपटी साड़ी यों दमक रही थी जैसे सूर्य की किरणों ने अपनी सारी चमक उसे ही दे दी हो. पहनने के बाद साड़ी पर उभरे गोल्डन पीकौक बेहद मनमोहक लग रहे थे. गुलाबी बौर्डर पर रंगबिरंगी बेलबूटियां देख कर लग रहा था जैसे खूबसूरत पत्तियों और फूलों की पंखुडि़यों को बगीचे से तोड़ कर चिपका दिया है. बैगनी, सुनहरे तथा गुलाबी रंगों से बुने आंचल पर मोर का नीला व तोते का हरा रंग मिल जाने से इंद्रधनुष सी छटा बिखर रही थी. मृदंगम का सौंदर्य उस साड़ी में और भी निखर गया था. दपदप करते मुख पर लिपस्टिक में रंगे भीगे कोमल होंठ, खुशी और ब्लशर की मिलीजुली आभा लिए उजले गुलाबी गाल और काजल से सजी मुसकराती आंखें, माथे पर लगी गहरी बिंदी में वह किसी मूरत सी दिख रही थी.
इशू कैमरा ले कर तैयार खड़ा था. कामेश ने मृदंगम का हाथ पकड़ा तो लाख की बैगनी और गुलाबी चूडि़यों से सजी दूध सी कलाइयों को छोड़ने का मन ही नहीं हुआ.
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कामेश आश्चर्यचकित था कि मृदंगम सहसा सौंदर्य की प्रतिमूर्ति कैसे बन गई. वह सुंदर थी, इस में लेशमात्र भी संदेह नहीं, किंतु इन 2 साडि़यों में उसे देख कर तो ऐसा लगता था जैसे कोई अप्सरा धरती पर उतर आई हो. बहुत सोचविचार कर के उस ने सारा श्रेय पैकेट में आई उन 2 साडि़यों को देते हुए उस पैकेट को वापस न करने का मन बना लिया. यह बात जब मृदंगम को पता लगी तो उस की प्रसन्नता की सीमा न रही.
उस दिन के बाद मृदंगम पैकेट को ले कर कामेश की ओर से तो निश्चिंत हो गई, किंतु उस का अंतर्मन बारबार उस से कई सवाल कर रहा था. दिल और दिमाग के बीच प्राय: द्वंद्व चलता रहता था. अपने कई प्रश्नों के उत्तर वह स्वयं को भी नहीं दे पा रही थी.
एक दिन जब वह डिजाइनर साड़ी लपेटे हुए दर्पण के सामने खड़ी हो अपने ज्चैलरी
बौक्स से निकाल तरहतरह के सैट पहन कर देख रही थी, तब उस के प्रतिबिंब ने जैसे उस से ही प्रश्न कर दिया,
‘‘क्या तुम निर्भय हो कर साधिकार इन साडि़यों को किसी भी समारोह में पहन सकोगी?’’
‘‘हां, क्यों नहीं. आखिर पैकेट मेरे नाम से आया था,’’ उस ने अपने प्रतिबिंब को उत्तर दे दिया.
प्रतिबिंब पुन: बोल उठा, ‘‘लेकिन भेजा किस ने? अब तक नहीं सोच सकी?’’
वह मौन थी.
‘‘तो क्या वापस नहीं कर देना चाहिए इसे?’’
‘‘लेकिन कूरियर औफिस के स्टाफ ने रख लिया और सही व्यक्ति तक न पहुंचा तो?’’
‘‘तुम भी तो वही कर रही हो.’’
‘‘चलो ठीक है मैं वापस कर भी दूं और वह सही व्यक्ति यानी किसी अन्य मृदंगम के न मिलने पर भेजने वाले तक पहुंच भी जाए, लेकिन भेजने वाला कह दे कि इस में 2 नहीं बल्कि 4 साडि़यां थीं तब क्या करूंगी मैं?’’
‘‘कह देना कि रखनी ही होतीं तो इन्हें भी रख लेती. जरा सोचो कभी इस पैकेट का राज खुल गया और सब को पता लग गया कि तुम ने केवल अपना नाम होना ही काफी समझा था और रख लिया था पैकेट, तो कितनी बदनामी होगी. वैसे भी तुम्हें किसी का हक मारना अच्छा भी तो नहीं लगता.’’
मृदंगम खामोश थी, कई प्रश्न अनुत्तरित ही रह गए थे. सत्य स्वीकार करना ही पड़ा उसे. अपने तर्कों को बुझे मन से स्वीकार करते हुए उस ने साडि़यों को वापस देने का निर्णय कर लिया. वह साडि़यां सही व्यक्ति तक पहुंचाना चाहती थी, लेकिन इस के लिए उसे करना क्या चाहिए यह नहीं समझ पा रही थी.
उस दिन सोसायटी के महिला व्हाट्सऐप ग्रुप पर चैटिंग के दौरान सभी कोरोनाकाल में किट्टी न कर पाने का अफसोस जता रहे थे. गु्रप की एक सदस्या ने सुझाव दिया कि जिस प्रकार जूम ऐप पर कार्यालयों की मीटिंग्स, औनलाइन क्लासेज व कवि सम्मेलन आदि हो रहे हैं, उसी प्रकार क्यों न वे भी किट्टी का आयोजन करें.
सभी ने एकमत हो इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया. खानापीना तो साथसाथ हो नहीं सकता था, इसलिए पहली किट्टी का विषय रखा गया कि एक व्यंजन बना कर तैयार रखना है और उसे कैमरे पर ही सखियों को दिखाते हुए उस के विषय में थोड़ीबहुत जानकारी देनी होगी.
निश्चित दिन सभी ने घर बैठे हुए समय पर किट्टी जौइन कर ली.
अपनी कुक की हुई डिश के विषय में बताने को सभी उत्सुक थे. मृदंगम के पड़ोस में रहने वाली पारुल ने फलों और सब्जियों से सलाद बना कर करीने से सजाया था. कैमरे पर सब को दिखाते हुए उस ने बताया कि इन दिनों यह कैसे इम्यूनिटी बढ़ाने में सहायक होगा. कुछ अन्य महिलाओं ने भी अपना बनाया विशेष व्यंजन दर्शाते हुए उस की विशेषता या उस से जुड़ा अनुभव साझा किया.
मृदंगम के फ्लैट से कुछ दूर रहने वाली मधुर यादव ने जब बताया कि उस की आज की डिश ‘बेसन की कढ़ी’ है तो सभी को थोड़ा विचित्र सा लगा. जब उस ने इस से संबंधित अनुभव शेयर करना चाहा तो सुनने को सभी आतुर हो उठे. मधुर ने बताया कि लगभग 20 वर्ष पहले उस का सुरेश से प्रेमविवाह हुआ था. ससुराल उत्तर प्रदेश के उन्नाव के एक छोटे से गांव में थी. एक बार उस के सासससुर को कहीं जाना पड़ गया. पति सुरेश को कढ़ी बहुत पसंद थी. मधुर ने सुरेश के लिए उस दिन कढ़ी बनाने का फैसला कर लिया. सुरेश के यह कहने पर कि घर में दही तो है नहीं, कढ़ी कैसे बनेगी? मधुर सुरेश की खिल्ली उड़ाते हुए बोली थी कि कढ़ी तो बेसन से बनती है, दही का उस में क्या काम? पानी में जब बेसन घोल कर उस ने कढ़ी बनाई तो कढ़ी के स्थान पर जो बना, उसे याद कर सुरेश और वह अब भी हंस देते हैं.
मधुर का अनुभव सुन किट्टी में हंसी की लहर दौड़ गई. हंसी थमी तो उन में से एक महिला बोली, ‘‘आप को सुनते हुए लग रहा था जैसे आप हिंदी स्पीकिंग रीजन को बिलौंग नहीं करतीं, शायद कढ़ी के बारे में इसलिए ही न जानती हो. आप के नाम और सरनेम से मैं तो आप को हिंदीभाषी समझ रही थी.’’
मधुर ने हंसते हुए बताया कि वह तमिलनाडु की रहने वाली है, वास्तविक नाम ‘मृदंगम पार्थसारथी’ है. ‘मधुर’ नाम ससुराल वालों का दिया हुआ है, क्योंकि गांव में कोई भी ‘मृदंगम’ बोल नहीं पाता था.
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मधुर का असली नाम सुन कर मृदंगम के कान खड़े हो गए. वह समझ गई कि पैकेट मधुर का ही है. लेकिन स्वयं को वह विश्वस्त कर लेना चाहती थी. बात शुरू करते हुए बोली, ‘‘क्या आप को अभी भी मृदंगम नाम से बुलाया जाता है?’’
‘‘हां, मदर की साइड पर. अम्मां तो वहां से सांबर मसाला, रसम पाउडर और बनाना चिप्स वगैरह भेजती हैं तो बस मृदंगम लिख देती हैं. कहती हैं और कौन होगा इस नाम का तुम्हारी सोसायटी में?’’ मधुर मुसकराते हुए बोली.
‘‘आप तक पहुंच जाता है सबकुछ?’’ मृदंगम थोड़ा आगे बढ़ी.
‘‘हां, अभी तक तो पहुंच ही रहा था, लेकिन अम्मांअप्पा ने इस बार महाराष्ट्र से साडि़यां ला कर भेजी थीं, वे नहीं मिलीं,’’ मधुर ने निराश हो कर बताया.
‘‘क्या डिजाइनर साड़ी भी थी साथ में?’’
मधुर का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया, ‘‘आप कैसे जानती हैं?’’
मृदंगम ने इशू को आवाज दे अलमारी से दोनों साडि़यां लाने को कहा.
कैमरे पर उन्हें देख मधुर बोली, ‘‘अरे, ये ही हैं. अम्मां ने व्हाट्सऐप पर फोटो भेजे थे.’’
मृदंगम ने पैकेट वाली बात बता दी. कुछ देर बार किट्टी की समाप्ति मधुर को बधाइयां देते और मृदंगम की प्रशंसा करते हुए हो गई.
यद्यपि साडि़यां लौटाने का फैसला मृदंगम का ही था, किंतु उन्हें लौटा कर उस का मन विरक्त सा हो गया था. अकेले में कभीकभी आंखों के कोर भी भीग जाते थे.
इस घटना के कुछ दिनों बाद अचानक एक दिन किसी अनजान नंबर से फोन आया. मृदंगम ने हैलो कहा तो पुरुष की आवाज सुनाई दी, ‘‘मैडम, मैं एक टीवी चैनल के लिए काम करता हूं. मेरी सिस्टर आप की सोसायटी में रहती हैं, उन्होंने आप का एक साड़ी लौटाने वाला किस्सा मुझे सुनाया था. आप को ऐतराज न हो तो किसी दिन आप का औनलाइन इंटरव्यू लेना चाहूंगा.’’
‘‘मैं ने क्या इतना महान काम किया है?’’ विस्मित हो मृदंगम ने पूछा.
‘‘मैडम कुछ चैनल्स जहां राशिफल, भविष्यवाणियां, ढोंगी बाबाओं के प्रवचन व इसी प्रकार के अंधविश्वास फैलाने वाले और कार्यक्रम प्रसारित करते हैं, वहीं हम लोगों तक प्रेरणादायी घटनाएं पहुंचाना चाहते हैं. आज जब चारों ओर धोखा, अराजकता और अविश्वास का बोलबाला है, वहां आप जैसे ईमानदार भी हैं, यही दर्शाना है हमें.’’
मृदंगम ने अभिभूत हो इस साक्षात्कार के लिए हामी भर दी. उन से जुड़ने का लिंक उस के मोबाइल पर भेज दिया गया.
पैकेट न तो अब एक पहेली था और न ही बिछड़ा हुआ पीड़ादायक पार्सल. वह तो एक ऐसा सुखद एहसास था जिस ने मृदंगम को सभी की नजरों में विशेष बना दिया था.
दवाएं टेबल पर रखते हुए मृदंगम ने कूरियर वाला पैकेट उठा कर अलमारी में रख दिया. ‘अच्छा ही हुआ, इस समय वैसे भी बाहर से आया सामान कुछ समय बाद ही खोलना चाहिए. कोरोना वायरस साथ आ गया होगा तो कुछ दिनों बाद खत्म हो जाएगा,’ अपने मन को समझाती हुई मृदंगम किचन में चली गई.
2 दिन तक कामेश की स्थिति यथावत बनी रही. तीसरे दिन खांसी में आराम हुआ और सिरदर्द भी कम हो गया. मृदंगम ये दिन विचित्र सी ऊहापोह में बिता रही थी. कामेश के स्वास्थ्य की चिंता के साथ ही पैकेट न खोल पाने का खेद भी उसे साल रहा था. जब भी मैसेज के नोटिफिकेशन का स्वर कानों में पड़ता, उसे लगता कि मीनाक्षी का मैसेज होगा. वह जानना चाह रही होगी कि मैं गाउन में फोटो खींच कर कब पोस्ट करूंगी फेसबुक पर.
कामेश के स्वस्थ होते ही एक शाम मृदंगम ने पैकेट निकाल कर सामने रख दिया.
‘‘क्या है यह?’’ एक प्रश्नवाचक दृष्टि मृदंगम पर डालते हुए कामेश ने पूछा.
‘‘खोलो तो,’’ मृदंगम मुसकरा रही थी.
उत्सुक दृष्टि लिए कामेश ने कैंची से पैकेट के बाहरी आवरण को काट
दिया. मृदंगम दिल थामे गाउन हाथ में आने की प्रतीक्षा कर रही थी. कामेश ने गिफ्ट से टेप हटा कर जैसे ही कागज अलग किया मृदंगम की आंखें चौंधियां गईं. 2 बेहद सुंदर साडि़यां प्लास्टिक की पारदर्शक थैली से झांक रही थीं.
‘‘हाय, ये तो सोडि़यां हैं,’’ मृदंगम स्तब्ध ह गई.
‘‘हम्म… महंगी लग रही हैं. कब मंगवाई तुम ने? पेमैंट कैसे की?’’ कामेश ने एकसाथ कई सवाल दाग दिए.
मृदंगम ने पूरा किस्सा बयां कर दिया.
‘‘तुम पहले बता देतीं तो पैकेट लौटा देते. अब बात करता हूं किसी से,’’ मोबाइल हाथ में लेते हुए कामेश बोला.
‘‘रुको अभी… जब खोल ही लिया तो अच्छी तरह देखने दो न,’’ मृदंगम हड़बड़ी में साडि़यों के प्लास्टिक फाड़ते हुए बोली.
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बैड पर फटे प्लास्टिक को बिछा कर मृदंगम ने साडि़यां रख दीं. एकदूसरे से विपरीत रंगत लिए दोनों साडि़यां बेहद आकर्षक थीं. उन में से एक बैगनी रंग के गुलाबी बौर्डर वाली पैठणी साड़ी थी, जिस पर छोटेछोटे सुनहरे मोर के मोटिफ्स अंकित थे. आंचल हरे रंग के तोते और एक नाचते हुए मोर से सुसज्जित था. दूसरी लाइट पीच कलर लिए प्योर जौर्जेट की डिजाइनर साड़ी थी, जिस पर आलीशान कटदाना काम किया हुआ था. साड़ी पर लगी जरकन की चकाचौंध देख मृदंगम पलकें झपकना ही भूल गई. साडि़यां जैसे अपना दाम स्वयं ही बता रही थीं. प्राइज टैग देखा तो मृदंगम का अनुमान सही था. पैठणी साड़ी 62 हजार की तो डिजाइनर की कीमत 58 हजार थी.
‘‘देख लीं? कूरियर औफिस का नंबर पता कर फोन कर दूं?’’ कामेश व्याकुल दिख रहा था.
‘‘जल्दबाजी मत करो, आराम से सोच लेंगे. कहीं ऐसा न हो कि किसी ने मुझे ही भेजी हों और आप वापस दे दो. कूरियर वाले तो कहीं
बेच कर पैसा बांट लेंगे आपस में…और वे लोग अगर वापस करना भी चाहें तो करेंगे किस को? भेजने वाले का नामपता तो नदारद है,’’ अपने
तर्क से कामेश को चुप करा मृदंगम चेहरे पर विजयी मुसकान लिए साडि़यों को बड़े प्रेम से निहार रही थी.
‘‘काश, मैं साड़ी होता तो तुम मुझे इतने ही प्यार से देखतीं और खुश हो कर लपेट लेतीं मुझे अपने तन पर,’’ एक ठंडी आह भर कामेश
मृदंगम का ध्यान साडि़यों से हटाने का प्रयास कर रहा था.
मृदंगम तो साडि़यों के मोह में जकड़ी हुई थी. कामेश की बात सुनते ही बोली, ‘‘अरे हां, एक बार लपेट कर देखना चाहिए इन साडि़यों को, मैं ने तो 15 हजार से महंगी साड़ी कभी पहनी ही नहीं.’’
बैड से डिजाइनर साड़ी उठा ड्रैसिंगटेबल के सामने खड़े हो कर मृदंगम ने उसे लपेट
लिया. दर्पण देखा तो अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ कि दिख रहा प्रतिबिंब उस का ही है. साड़ी पर कढ़ाई का काम बहुत यत्न और कलात्मक तरीके से किया गया था. साड़ी का पीच कलर गाजर और नारंगी रंगों के मेल से बना था. उसी रंग के जरकन से पूरी साड़ी पर फूलों की बेल का जाल बना था. बौर्डर पर कटदाना काम से औरेंज व कौपर कलर के स्टोंस की तितलियां बनाई गई थीं.
कटदाना वर्क में नगों को एक विशेष आकार दे कर काटा जाता है ताकि हलकी सी रोशनी पड़ने पर ही वे हीरों जैसे चमक उठें. ऐसा हो भी रहा था. मृदंगम का चेहरा स्टोंस की दमक से लहक उठा था. उस पर कमल के फूल से खिले होंठ और हिरणी जैसी बड़ीबड़ी मासूम आंखें. मृदंगम ने बालों में लगा रफ्फल हटा कर सिर तेजी से झटका तो माथे से हो कर रेशमी लटें चेहरे पर आ गिरीं. कुछ दिन पहले ही रंग लगवाने के कारण पलकें तांबई दिख रही थीं. घर पर मृदंगम पतले स्टै्रप की कुरती पहने थी. साड़ी का पल्लू कंधे पर लिया तो अपनी चिकनी, गोरीगोरी बांहों पर साड़ी की नारंगी छाया पड़ती देख स्वयं पर ही मुग्ध हो गई. मृदंगम को लग रहा था जैसे आईने में उस का अक्स नहीं है, कोई सिनेतारिका है, जो अवार्ड लेने मंच पर आई है. साड़ी पर जड़े हुए बेशकीमती जरकन ऐसे झिलमिला रहे थे जैसे असंख्य तारे आकाश से उतर आए हों. कामेश पीछे खड़ा उसे टकटकी लगाए देख रहा था.
‘‘कैसी लग रही हूं?’’ मृदंगम ने पीछे मुड़ कर तिरछी मुसकान चेहरे पर बिखराते हुए कामेश से पूछा.
जवाब में कामेश ने शरारत से ‘बदन पे सितारे लपेटे हुए, ओ जान ए तमन्ना किधर जा रही हो…’ गीत गुनगुनाते हुए मृदंगम को आलिंगनबद्ध कर लिया.
कुछ दिनों तक पैकेट को ले कर दोनों के बीच कोई चर्चा नहीं हुई, लेकिन मृदंगम के नैनों में दिनरात साडि़यां ही छाई रहती थीं. कामेश के औफिस चले जाने के बाद कुछ देर तक साडि़यों को निहारना उस की दिनचर्या में सम्मिलित हो गया था.
उस दिन रविवार था. कामेश ने सुबह की चाय पीते हुए फिर से बात छेड़ दी, ‘‘क्या सोचा फिर मृदु? कैसे पीछा छूटेगा उस गुमनाम पैकेट से?’’
‘‘गुमनाम कैसे हुआ? मेरा नाम लिखा है न उस पर,’’ तुनकते हुए मृदंगम ने उत्तर दिया.
‘‘अरे भई जब ऐड्रैस नहीं, भेजने वाले का अतापता नहीं तो गुमनाम कहना ही पड़ेगा न उसे.’’
‘‘मैं सोच कर बता दूंगी कि किस ने भेजा होगा. इस महीने मेरा बर्थडे है और अगले महीने हमारी मैरिज ऐनिवर्सरी, तो भेज दी होगी किसी ने हर मौके के लिए 1-1 साड़ी,’’ मृदंगम आंखें नचाते हुए बोली.
‘‘इतनी महंगी साडि़यां देने वाला कौन आशिक है तुम्हारा? एक दिन तुम्हें ही न ले जाए चुरा कर. नाम तक नहीं पता होगा मुझे तो उस बंदे का,’’ कामेश शरारती अंदाज में बोला.
‘‘किसी ने भी भेजा हो पैकेट, रख लेती हूं न थोड़े दिन और. फोटो तो खिंचवा लूं कम से कम किसी एक साड़ी में,’’ ठुनकते हुए मृदंगम कह उठी.
‘‘अच्छा बाबा मान लिया. तो आज हो जाए फोटोसैशन,’’ कामेश हाथ जोड़ कर खड़ा था.
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‘‘डिजाइनर साड़ी तो मैं ने लपेट कर देख ली थी, आज पैठणी साड़ी पहन लेती हूं अपने गोल्डन ब्लाउज के साथ. फोटो भी शायद बौर्डर वाली साड़ी में ही ज्यादा सुंदर आएगा. थोड़ा मेकअपशेकअप भी कर लूंगी,’’ मृदंगम अपनी जीत पर प्रसन्न थी.
‘‘चलेगा… मैं भी ड्रैसअप हो जाऊंगा. इशू एक पेयर फोटो खींच देगा तो अगले महीने मैं उसे व्हाट्सऐप की डीपी बना लूंगा. शादी की सालगिरह पर कोरोना टाइम में बाहर जाना तो ठीक नहीं होगा, लेकिन सुंदर पत्नी का इतना फायदा तो होना ही चाहिए.’’
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‘‘मैडम, मैं सुनील… आप का एक पैकेट आया है कूरियर से,’’ सिक्युरिटी गार्ड ने इंटरकौम पर बताया.
मृदंगम ने मोबाइल उठा पति कामेश को फोन कर दिया, जो कुछ देर पहले ही औफिस जाने के लिए घर से निकला था, ‘‘आप
आसपास ही हों तो मेरा एक पैकेट गेट से ले कर घर दे जाओ, अभीअभी डिलिवरीमैन वहां दे कर गया है.’’
‘‘मैं तो काफी आगे निकल चुका…. आजकल ट्रैफिक कम होने से जाम नहीं मिला कहीं भी,’’ कामेश बोला.
मृदंगम ने बेटे इशू के कमरे का दरवाजा धीरे से खोल कर अंदर झांका. औनलाइन क्लास चल रही थी.
‘मैं ही चली जाती हूं पैकेट लेने, वेट ज्यादा हुआ तो घर तक लाने में किसी गार्ड की मदद ले लूंगी,’ सोचते हुए मृदंगम ने मास्क लगाया और तेजी से लिफ्ट से नीचे आ गई.
दिल्ली में वैशाली सोसायटी के एक फ्लैट में रहने वाली मृदंगम छोटे कद की आकर्षक महिला थी. देखने में जितनी प्यारी थी, बोली भी उतनी ही मधुर थी उस की. पति कामेश, 14 वर्षीय बेटा इशू और वह, 3 प्राणी थे परिवार में. पहले अनलौक के बाद कामेश औफिस जाने लगा था, लेकिन बेटे के स्कूल नहीं खुले थे. कोरोनाकाल के कारण घर पर लगभग सारा सामान औनलाइन मंगवाया जा रहा था. सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बाहरी व्यक्तियों को सोसायटी के भीतर आने की परमिशन नहीं थी. गेट पर ही
सामान दे जाते और बाद में सिक्युरिटी गार्ड्स पता देख इंटरकौम कर देते थे.
मृदंगम गार्डरूम के पास पहुंची तो 4-5 लोग लाइन बना कर खड़े थे. सभी अपनाअपना फ्लैट नंबर बताते और गार्ड उन का पैकेट छांट कर निकाल देता. मृदंगम की बारी आई तो उस के फ्लैट नंबर बताने से पहले ही गार्ड ने अलग रखा हुआ एक पैकेट थमा दिया.
‘‘यह क्या? मैं ने तो नंबर भी नहीं बताया अभी? मेरा पैकेट एक साइड में क्यों रखा है?’’ मृदंगम ने आश्चर्यचकित हो पूछ लिया.
गार्ड मुसकराते हुए बोला, ‘‘मैडम देखिए तो अपना पैकेट. आप का और सोसायटी का नाम ही लिखा है इस पर, फ्लैट का नंबर नहीं लिखा. कूरियर वाला सोसायटी का नाम देख कर यहां आया था, मुझे आप का नाम याद था तो मैं ने उस से ले कर रख लिया था.’’
मृदंगम ने देखा तो सचमुच ‘मृदंगम, वैशाली अपार्टमैंट्स नई दिल्ली-62’ के अतिरिक्त कुछ नहीं लिखा था.
‘‘क्या यह मेरा ही पैकेट है? मृदंगम नाम किसी और का भी तो हो सकता है?’’ आशंकित हो मृदंगम गार्ड से बोली.
‘‘आप का ही है पैकेट, मैडम. सोसायटी में यह नाम किसी और का नहीं है, हमें पता है.’’
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मृदंगम पैकेट ले कर घर आ गई. सैनिटाइजर से पैकेट को साफ कर अपने कमरे में टेबल पर रखने के बाद हाथ धोते हुए सोच में डूबी थी कि 2 दिन पहले उस ने शैंपू, दालें, कुछ मसाले और सौस आदि का और्डर दिया था, लेकिन यह पैकेट तो उन वस्तुओं का लग ही नहीं रहा. पैकेट हलका था और देख कर लग रहा था जैसे अंदर कोई कपड़ा है. कुछ देर बाद मेड आ गई. मृदंगम भी काम में व्यस्त हो गई, लेकिन मन उस पैकेट के आसपास मंडरा रहा था.
मेड के जाते ही असमंजस में पड़ी मृदंगम पैकेट हाथ में ले सोच रही थी कि उसे खोले या नहीं. एक ओर इस प्रकार का कोई औनलाइन और्डर नहीं किए जाने से खोलने में संकोच हो रहा था तो दूसरी ओर अपना नाम लिखा होने से लग रहा था कि पूरा अधिकार है उसे पैकेट खोलने का.
कुछ देर की उधेड़बुन के बाद उस ने सोचा कि इस विषय में कामेश से पूछ लेती हूं, लेकिन तुरंत मन में दूसरा विचार आ गया कि यदि कामेश ने इसे कूरियर कंपनी को वापस करने को कह दिया तो? लौटाने का तो अब सवाल ही नहीं उठता. हो सकता है उस की किसी मित्र या रिश्तेदार ने इसे भेजा हो और फ्लैट नंबर लिखना भूल गए हों. हां, ऐसा ही कुछ हुआ है.
अचानक याद आया कि कुछ दिनों पहले
कामेश ने भागलपुर में रहने वाले अपने बड़े भैया से फोन पर कहा था कि जो सिल्क की चादरें वह पिछली बार वहां से खरीद कर लाया था, अब घिस चुकी हैं. इस बार भागलपुर आना होगा तो चादरें जरूर खरीद लेंगे.
मृदंगम ने अनुमान लगाया कि जेठजी ने सोचा होगा कोरोनाकाल में आनाजाना नहीं हो सकेगा, इसलिए भेज दी होंगी चादरें. ‘एक फोन थैंक्स का कर दूं. तब मैं आश्वस्त हो जाऊंगी कि पैकेट उन के द्वारा ही भेजा गया है. उस के बाद बेहिचक खोल लूंगी,’ सोचते हुए मृदंगम ने जेठानी को फोन कर लिया और ‘हैलो’ सुनते ही बोल पड़ी, ‘‘हाय भाभी, वे सिल्क की चादरें…’’
जेठानी बात काटते हुए बोली, ‘‘हां मृदु, मजबूरी है. तुम लोग अभी घिसीपिटी चादरों से ही काम चलाओ. देखो कब रुकता है कोरोना का कहर. अनलौक हो गया, फिर भी केस तो लगातार बढ़ रहे हैं. सब ठीक हो जाए, तब तुम लोग आना भागलपुर. मिलना भी हो जाएगा और तुम्हारी चादरों की शौपिंग भी.’’
‘यानी इन्होंने नहीं भेजा वह पैकेट,’ सोचते हुए मृदंगम ने 2-4 बातें कर फोन काट दिया.
फिर से वह अपना दिमाग दौड़ाने लगी, ‘अरे, मैं भी कैसी पागल हूं. भूल ही गई कि इस मंथ मेरा जन्मदिन है. हो न हो दीदी ने जम्मू से कश्मीरी कढ़ाई वाली शौल भेजी है. वाऊ दीदी, लव यू…’ मृदंगम आंखें मूंद होठों को सिकोड़ कर खयालों में अपनी बहन को चूमने लगी.
‘‘क्या हुआ मम्मा? चुम्मी किसे कर रही हो?’’ इशू की आवाज सुन उस ने आंखें खोलीं तो लजा गई.
‘‘मैं समझ गया, टिया को न? मौसी ने आप को भी टिया का फोटो भेजा है व्हाट्सऐप पर? कितनी प्यारी है मेघा दीदी की बेटी. मुझे भी सैंड की हैं उस की पिक्स मौसी ने. आप की तरह मेरा भी मन कर रहा था छुटकी को प्यार करने का.’’
इशू की बात सुन मृदंगम को याद आया कि दीदी तो इन दिनों
फ्रांस में हैं. पिछले महीने ही उन की बेटी मेघा ने प्यारी टिया को जन्म दिया था. इसी काम के लिए वे मार्च से ही उस के पास रह रही हैं.
तो किस ने भेजा है यह पैकेट? मृदंगम का दिल बैठा जा रहा था. किसी भी स्थिति में वह कूरियर वापस नहीं करना चाहती थी. मन बहलाने के लिए फेसबुक खोल कर बैठी तो अपनी सखी मीनाक्षी की प्रोफाइल पिक देख आंखें चमक उठीं. याद आया कि गत सप्ताह ही मीनाक्षी ने अपनी यह तसवीर पोस्ट की थी और मृदंगम ने उस के वनपीस पर प्रशंसाभरा कमैंट किया था.
रिप्लाई में मीनाक्षी ने एक शौपिंग साइट का नाम बताते हुए लिखा था, ‘‘औनलाइन मंगवाया था. तुम भी ऐसा ही गाउन खरीद लो, उसे पहन कर सैल्फी लेना और उसे अपनी प्रोफाइल पिक बना देना. मजा आ जाएगा दोनों सहेलियां एक रंग में रंगी हुई दिखाई देंगी.’’
‘अरे वाह, मीनाक्षी ने सेम गाउन खरीद कर भेज दिया. अभी पैकेट खोल कर पहन लेती हूं. इशू से लगे हाथ फोटो भी खिंचवा लूंगी,’ सोच मृदंगम उत्साहित हो पैकेट की ओर बढ़ गई.
‘नहीं, अभी नहीं. इन दिनों पार्लर जाना नहीं हुआ. चेहरा मुरझाया सा है, फोटो में जान नहीं आएगी. आज ही फोन कर ब्यूटीशियन को बुला लेती हूं. फिर शाम को कामेश के सामने खोलूंगी पैकेट. कामेश जब देखेंगे कि सहेली ने बिना कहे ही फरमाइश पूरी कर दी तो कितने शर्मिंदा होंगे. आगे से मुझे उन के सामने बारबार अपनी मांगें दोहरानी नहीं पड़ेंगी, दौड़ कर पूरी करेंगे हर इच्छा मेरी या हो सकता है स्वयं ही पूछना शुरू कर दें कि मुझे किस वस्तु की आवश्यकता है?’ मृदंगम कल्पना कर दी.
कुछ देर बाद ब्यूटीशियन आ गई. मृदंगम ने फेशियल, वैक्ंिसग, थ्रैडिंग करा कर बालों में अपना पसंदीदा बरगंडी रंग लगवा लिया और अपने को फोटोसैशन के लिए तैयार कर लिया. शाम अब होने की बेचैनी से प्रतीक्षा कर रही थी.
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उस दिन कामेश औफिस से जल्दी लौट आया, क्योंकि सिर में तेज दर्द था. खांसी के साथ बारबार छींकें भी आ रही थीं.
‘‘मम्मा, कोरोना के सिमटम्स,’’ इशू ने आंखें फाड़ते हुए कहा तो मृदंगम का कलेजा मुंह को आ गया. सोसायटी में रहने वाले डाक्टर को फोन लगाया. डाक्टर ने मशवरा दिया कि 2-3 दिन तक कामेश को अलग कमरे में रखा जाए. उस के बाद यदि हालत न सुधरी या फीवर आने लगा तब देखेंगे क्या करना है. कुछ दवाइयां उस ने अपने सरवैंट के हाथ भिजवा दीं.
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यह सुनते ही विनय का चेहरा सफेद पड़ गया. बोला, ‘‘यह नहीं हो सकता डाक्टर… इतने छोटे बच्चे को कैंसर कैसे… यह नहीं…’’ शब्द उस के हलक में अटकने लगे. मन ही मन सोचने लगा कि काश, यह खबर झूठ निकले… काश टैस्ट रिपोर्ट गलत हो, क्योंकि उस का मन यह मानने को कतई तैयार नहीं हो रहा था.
‘‘विनय बीमारी उम्र नहीं देखती. आप हिम्मत रखिए… यह रोग गंभीर तो है, मगर लाइलाज नहीं है… हमारे अस्पताल में हर आधुनिक सुविधा उपलब्ध है. हम आज से ही कबीर का इलाज शुरू कर देते हैं… बस आप कुछ औपचारिकताएं पूरी कर दीजिए.’’
लड़खड़ाते कदमों के साथ विनय सारिका के पास पहुंचा. कबीर आंखें मूंदे सारिका से एक कहानी सुन रहा था. उस के भोले चेहरे पर शांति थी. विनय की आहट सुन कर उस ने धीरे से आंखें खोली. बोलीं, ‘‘पापा, मु झे यहां नहीं रहना, घर जाना है,’’ और उस ने विनय का बाजू पकड़ लिया.
‘‘हां बेटे हम बहुत जल्दी घर जाएंगे,’’ विनय ने भर्राए गले से कहा और फिर कबीर को छाती से लगा लिया.
कबीर ने फिर आंखें मूंद लीं. कुछ ही पलों में वह नींद के आगोश में चला गया. बीमारी से हुई कमजोरी अब उस के चेहरे पर साफ दिखने लगी थी.
खुद पर काबू करते हुए विनय ने सारिका को धीरेधीरे सब बताया. जो वज्रपात विनय पर हुआ था वही सारिका पर भी हुआ. उस ने कातर नजरों से सोए बेटे की ओर देखा.
यह कैसा मजाक किया कुदरत ने? उन्हें दुनिया में जो चीज सब से प्यारी है उसे ही छीनने की साजिश रच दी.
कुछ समय बाद कबीर को गोद में लिटाए दोनों घर आ गए. इलाज में लाखों रुपए खर्च होने थे, जिस के लिए सारिका ने अपने सारे गहने विनय के सामने ला कर रख दिए. बोली, ‘‘कुछ भी करो, मेरे बच्चे को बचा लो प्लीज विनय… मैं इस के बिना नहीं रह सकती,’’ और फिर माथा पकड़ वहीं जमीन पर बैठ जोरजोर से रोने लगी.
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‘‘मैं कुछ नहीं होने दूंगा अपने बच्चे को सारिका… इस के इलाज में भले ही सबकुछ बिक जाए, मगर इसे कुछ नहीं होने दूंगा,’’ कह विनय ने सारिका को बांहों में थाम लिया.
विनय के कंधे पर सिर रख सारिका सारी रात आंसू बहाती रही. रो तो विनय भी रहा था, मगर दिल ही दिल. उस के कंधों पर एक बाप और पति होने की जिम्मेदारी जो थी. इस मुश्किल घड़ी में वह खुद को कमजोर नहीं दिखाना चाहता था.
कबीर रहरह कर नींद से जाग उठता था. वह उन दोनों को देखता तो दोनों झट से अपने आंसू पोंछ कर मुसकरा कर उस से बातें करने लगते.
विनय और सारिका ने अपने मन को तैयार कर लिया था. जिंदगी और मौत की इस लड़ाई को लड़ने के लिए दोनों ने हर हाल में अपने जिगर के टुकड़े को बचाने के लिए कमर कस ली थी. आएदिन दोनों कबीर को ले कर अस्पताल के चक्कर काटते. एक के बाद एक टैस्ट करवाने के लिए भागदौड़ करते.
बीमारी अपनी शुरुआत में थी. मगर इस छोटी उम्र में कोई भी लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती थी. शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता घटने की वजह से उसे संक्रमण बहुत जल्दी हो जाए, आएदिन तेज बुखार चढ़ जाता.
विनय ने सारी जमापूंजी उस के इलाज में लगा दी. दोस्तों और रिश्तेदारों से भी उधार लिया. पैसा पानी की तरह बह रहा था, मगर कबीर की हालत में मामूली सुधार था.
अस्पताल में दाखिल कबीर का कमजोर शरीर बीमारी से दिनोंदिन कुम्हलाने लगा. अब तक उस की तबीयत खास थेरैपी और दवा से स्थिर थी, मगर यह स्थायी इलाज नहीं था.
कुछ दिन बाद डाक्टर ने विनय और सारिका को बोन मैरो सर्जरी के बारे में बताया. कबीर को अपने मातापिता में से किसी एक का बोन मैरो ट्रांसप्लांट हो सकता था, जो उस जानलेवा बीमारी का एकमात्र स्थायी उपचार था.
सारिका और विनय इस के लिए तैयार थे पर दोनों के ही बोन मैरो नहीं मिल पाए. यह बेहद निराशाजनक बात थी, क्योंकि सर्जरी के लिए बोन मैरो डोनर मिलना बेहद जरूरी था.
‘‘मगर डाक्टर यह कैसे हो सकता है…हम इस के मांबाप हैं?’’ विनय ने पूछा.
‘‘जरूरी नहीं है विनय… कभीकभी मांबाप में से कोई भी डोनर नहीं बन पाता… हालांकि यह बहुत कम होता है. आमतौर पर पिता या मां का या फिर सगे भाईबहन का बोन मैरो मैच हो जाता है. खैर, हम हार नहीं मान सकते. हमें कबीर के लिए जल्द से जल्द एक डोनर ढूंढ़ना ही पड़ेगा, क्योंकि हमारे पास वक्त बहुत कम है.’’
‘एक आखिरी उम्मीद भी टूट गई थी. इतनी जल्दी कहां मिलेगा डोनर जो कबीर को नई जिंदगी दे सके,’ सोच में डूबा विनय कमरे के चक्कर लगा रहा था.
सारिका उसे चुपचाप देखती रही. उस के मन की उथलपुथल उस वक्त कोई नहीं सम झ सकता था.
रातभर रहरह उसे कुछ कचोटता रहा. ग्लानि, पछतावा, अपराधबोध या
फिर कुदरत का खेल… सारिता सम झ ही नहीं पा रही थी कि अचानक उन की हंसतीखेलती जिंदगी में यह कैसा जलजला आ गया. क्यों आज वह इस दोराहे पर खुद को खड़ा पा रही जहां एक ओर कबीर की जिंदगी का सवाल है तो दूसरी ओर वह राज जो उस के सीने में आज तक दफन है. क्या करे वह क्या न करे? अजीब कशमकश थी मन में… अब कोई चारा भी तो नहीं रहा था… अब चाहे जो भी सजा मिले, अपनी औलाद की जिंदगी से बढ़ कर कुछ नहीं है उस के लिए.
सारिका रातभर सोचती रही. क्या कहेगी विनय से, किस तरह कहेगी, शब्दों को तोलती रही. कहना तो पड़ेगा ही वरना अनर्थ हो जाएगा. अब वक्त आ गया था कि वह इस राज से परदा उठा दे.
किसी फिल्म की रील की तरह सारी बातें उस के जेहन में घूमने लगीं. वह कितना खुशगवार दिन था जब वह विनय की दुलहन बन कर उस के घर आई थी. विनय जैसा प्यार करने वाला पति पा कर सारिका को मानो दुनियाभर की खुशियां मिल गई थीं. एक नए शहर में अपनी नई गृहस्थी की शुरुआत के वे खूबसूरत दिन सारिका को आज भी याद थे…
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‘‘सुनो, मेरा चयन हो गया है… अगले सोमवार से मैं काम पर जाना शुरू
कर दूंगी… सुबह का नाश्ता बना जाया करूंगी,’’ सारिका को नई नौकरी मिलने की जितनी खुशी हो रही थी उस से ज्यादा चिंता विनय के खानेपीने को ले कर थी.
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पिछला भाग पढ़ने के लिए- एक ही भूल: भाग-3
कम उम्र दिखने वाले एक युवक ने दरवाजा खोला. सारिका झट उसे पहचान गई. एक आखिरी उम्मीद मन में लिए सारिका उस नौजवान के सामने सोफे पर बैठी थी. एक मां की ममता उस से क्याक्या नहीं करवाती. दोनों के बीच कोई रिश्ता नहीं था, फिर भी दोनों का अंश कबीर में मौजूद था.
जिस दिन विनय को प्रमोशन मिली उस की खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था. सारिका को अपनी गोद में उठा कर उस ने सारे घर में घुमा दिया. खुश तो सारिका भी बहुत थी विनय के लिए, मगर कुछ और भी था जिस की उसे शिद्दत से चाह थी. विनय कामयाबी के नशे में इतना चूर हो गया कि उसे सारिका के भीतर का खालीपन दिख कर भी नहीं दिख पा रहा था.
टैस्ट की रिपोर्ट आने से पहले ही वह 2 सालों के लिए अमेरिका चला गया
था. रिपोर्ट देखने के बाद डाक्टर से उसे पता चला कि सारिका अब तक मां इसलिए नहीं बन पाई क्योंकि विनय कभी पिता नहीं बन सकता था. सारिका के ऊपर जैसे यह सुन कर गाज गिर पड़ी कि मातृत्व सुख से वंचित रहने के पीछे उस के पति की नपुंसकता है. विनय की यह शारीरिक कमी कैसे बता पाएगी सारिका उसे… वह इस बात से कितना आहत होगा, इस बात से सारिका बखूबी वाकिफ थी.
‘‘तो क्या मेरे मां बनने के सारे रास्ते बंद हैं?’’ सारिका ने कातरता से पूछा.
‘‘ऐसी बात नहीं है सारिका. तुम कोई बच्चा गोद ले कर भी मां बनने का सुख भोग सकती हो.’’
‘हां, यह भी एक तरीका हो सकता है. वह और विनय किसी बच्चे को गोद ले कर अपनी जिंदगी में खुशियां ला सकते हैं… अधिकांश बेऔलाद दंपती यही तो करते हैं,’ उस ने मन ही मन सोचा.
वह फिर सोचने लगी कि कमी तो विनय में थी उस में नहीं. तो वह क्यों इस सुखद से वंचित रहे? उस के मन में जो चाह थी कि अपनी कोख से एक नई जिंदगी को जन्म दे, वह मधुर पीड़ा जो एक मां जन्म देते समय झेलती है, वह खुशी जो अपने प्रतिरूप को अपने भीतर महसूस करने की होती है तो क्या उस की इन ख्वाहिशों का कोई मोल नहीं था? क्या एक पति इतना संवेदनशील बन पाएगा जो पत्नी की इन भावनाओं को सम झ सके?
‘‘तुम्हारी यह चाहत पूरी हो सकती है सारिका… आज के युग में कुछ भी नामुमकिन नहीं. यदि तुम चाहो तो किसी और के स्पर्म से गर्भवती हो सकती हो,’’ डाक्टर ने कहा.
सारिका को दुविधा में देख कर डाक्टर ने उसे आश्वस्त किया कि यह पूरी तरह से एक मैडिकल प्रक्रिया है, जिस में बिना किसी परपुरुष संसर्ग के उसे गर्भ ठहर सकता है.
चक्की के 2 पाटों के बीच पिस कर रह गई थी सारिका की जिंदगी. सच बताने से पति के अभिमानी पौरुष को ठेस पहुंचती थी और चुप रहने से उस के अंदर की औरत घुटघुट कर मर जाती.
बड़े मानमनौअल के बाद ही विनय संतानप्राप्ति के लिए मैडिकल टैस्ट करवाने पर राजी हुआ था. बिना टैस्ट रिपोर्ट का इंतजार किए ही उस ने अमेरिका की उड़ान भर ली थी. सारिका और विनय के सपने अब अलगअलग थे. एक को सफलता की ऊंचाई छूने की चाह थी तो दूसरे के मन में ममता का सागर हिलोरें मार रहा था.
कितनी साहसी बन गई थी सारिका अपनी लालसाओं के स्वार्थ में. झूठ का सहारा ही तो लिया था उस ने अपने सपने को पूरा करने के लिए और फिर एक के बाद एक झूठ बोलती चली गई थी.
एक ही भूल थी उस की कि लाख चाहने के बाद भी वह विनय को सच नहीं बता पाई. जब भी वह विनय को कबीर से प्यार लड़ाते देखती, बात उस की जबां तक आतेआते रुक जाती. मन में छिपे डर ने उसे विनय का गुनहगार बना दिया था.
समीर एक बेहद आकर्षक नौजवान था. स्पर्म डोनर बन कर जो कुछ भी पैसे वह कमाता था उन से अपने शौक पूरे करता था.
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डाक्टर की देखरेख में कुछ ही हफ्तों बाद सारिका को गर्भ ठहर गया. उस के अंदर का अंकुर दिनोंदिन बड़ा होने लगा. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था… इस अनुभव से गुजरना बहुत सुखद लग रहा था, जिस के लिए वह आज तक तरसती आई थी. उस की कोख में पलती नन्ही सी जान उसे संपूर्णता का एहसास करा रही थी.
विनय को यह अचरजभरी खुशखबरी मिली तो वह भी अपने बाप बनने की खुशी में दिन गिनने लगा. कुछ महीनों बाद ही उसे अमेरिका से वापस आना था.
सारिका ने एक सुंदर बेटे को जन्म दिया. उन की जिंदगी में रंग भरने के लिए ही शायद कबीर का जन्म हुआ था. जो विनय पहले बच्चे के नाम से ही तुनकता था वह अब एक पल के लिए भी कबीर को अपने से अलग नहीं करता था.
मगर कुदरत भी कितनी जालिम थी. सच जान कर भी क्या विनय कबीर को इतना ही प्यार कर पाएगा? इस सवाल का जवाब सारिका के पास नहीं था. वह इस कड़वी सचाई को कब का अपने मन में दफन कर इतमीनान से जी रही थी, मगर उसे क्या मालूम था कि एक दिन उसे कठघरे में खड़ा होना ही पड़ेगा और आज वह दिन आ ही गया था.
अपने बेटे की जिंदगी की खातिर गिड़गिड़ाती हुई उस मां को समीर
खाली हाथ नहीं लौटा पाया. कबीर का जैविक पिता होने के कारण बहुत हद तक संभावना थी कि कबीर से उस का बोन मैरो मैच हो जाए.
नतीजा उम्मीदजनक निकला. कबीर का औपरेशन कर उस के शरीर में समीर का बोन मैरो डाल दिया गया.
औपरेशन थिएटर के बाहर इंतजार कर रहे उन तीनों के ही मन में उथलपुथल मची थी. एक अजनबी जो अनचाहा पिता था, एक मां जिस के माथे पर बेवफाई का कलंक था और एक पिता जिस का आज भरोसा टूटा था… समीर को सारिका से जोड़ कर देखना ही विनय के लिए हृदयघात जैसा था.
कबीर का औपरेशन सफल रहा था. जिंदगी और मौत की लड़ाई में जीत जिंदगी को मिली. मगर सारिका और विनय के बीच बहुत कुछ बदल गया.
विनय जैसे सारिका के लिए एक ही पल में अजनबी बन गया. उस की आंखों का वह ठंडापन सारिका को भीतर तक सिहरा गया.
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पिछला भाग पढ़ने के लिए- एक ही भूल: भाग-4
दोनों के बीच एक खामोशी की दीवार थी जिसे तोड़ पाना अब मुमकिन नहीं था. सारिका जानती थी अब विनय उस का कोई भी सच नहीं सुनना चाहेगा.
वह विनय की आंखों में नफरत का सैलाब देख कर सहम गई थी. वह प्रकट में शांत था, मगर सारिका सम झ चुकी थी कि विनय अंदर ही अंदर झुलस रहा है.
कुछ दिन बाद ही कबीर पूरी तरह स्वस्थ हो कर घर आ गया. इतने लंबे अंतराल के रोग ने उसे अब कुछ गंभीर भी बना दिया था. वह अधिकतर चुप ही रहता. मगर पिता को अपने से दूरी बनाते देख अधीर हो उठता था.
‘‘पापा अब मेरे साथ पहले जैसे क्यों नहीं खेलते मम्मा? वे क्यों मु झे हर वक्त तुम्हारे पास जाने को कहते हैं? बोलो न मम्मा?’’
‘‘पापा आजकल औफिस में बिजी रहते हैं न इसलिए,’’ सारिका बस इतना ही कह पाती.
विनय ने खुद को औफिस और अपने कमरे तक सीमित कर लिया था. वह किसी से कोई बात नहीं करता था. सारिका और कबीर जैसे अब उस के कुछ नहीं लगते थे. देर रात लड़खड़ाते कदमों से घर लौटता, शराब पी कर उस ने अपना गम भुलाना शुरू कर दिया था.
सारिका उसे दिनबदिन इस तरह घुलते नहीं देख पा रही थी. आखिरकार उस ने एक फैसला किया. विनय को इस दुख से आजाद करने का एक ही तरीका था कि वह कबीर को ले कर खुद ही विनय की जिंदगी से कहीं दूर चली जाए. वे खुद को कुसूरवार सम झती थी और उस की नजरों में उस के गुनाह की यही एक वाजिब सजा थी.
सारिका ने एक बैग में अपने और कबीर के कपड़े रखे और फिर अपनी मां को अपने आने की सूचना दे दी.
‘‘मम्मा हम कहां जा रहे हैं?’’ कबीर ने उसे बैग में सामान रखते देख पूछा.
‘‘कबीर, हम नानी के घर जा रहे हैं. तुम जल्दी से तैयार हो जाओ,’’ सारिका कबीर की छोटीमोटी चीजें समेटते हुए बोली.
‘‘हुर्रे, हम नानी के घर जाएंगे,’’ नानी के घर जाने की बात सुन कर कबीर बेहद खुश हो उठा.
बैग तैयार कर सारिका अपने जाने की सूचना देने के लिए विनय के पास गई. उस ने
धीरे से कमरे के अंदर झांका. विनय आंखें मूंदे बिस्तर पर लेटा था. इस थोड़े से ही अंतराल में उस का शरीर एकदम दुबला हो गया था. आंखों के इर्दगिर्द पड़े स्याह घेरे, बढ़ी दाढ़ी और फीका चेहरा, खुद को रातदिन शराब में डुबो कर विनय ने अपना क्या हाल बना लिया है… उसे देख कर सारिका का दिल रो पड़ा. बस विनय तुम्हें अब ये सब नहीं सहना पड़ेगा.
उसे सोया जान कर उस ने दरवाजे पर दस्तक दी. धीरे से विनय ने आंखें खोलीं. सारिका को वहां देख कर बस एक पल के लिए उस के चेहरे पर कुछ भाव आए, फिर अगले ही पल घृणा से नजरें फेर लीं.
‘‘विनय मैं बस यह बताने आई हूं कि मैं कबीर को ले कर हमेशा के लिए तुम्हारी जिंदगी से दूर जा रही हूं.’’
विनय किसी मूर्ति की तरह अविचलित बैठा रहा. जब उस ने सारिका को दोषी करार दे ही दिया था तो फिर कुछ कहनेसुनने की गुंजाइश ही कहां बची थी.
मगर आज सारिका ने ठान लिया था कि वह विनय को सारी सचाई बता कर ही रहेगी. जब उसे विनय की जिंदगी से हमेशा के लिए दूर होना ही है तो यह मलाल क्यों दिल में रहे. अत: उस के मन में जो कुछ था वह सब उस ने विनय के सामने बोल दिया.
‘‘विनय, तुम्हें यही लगता है न कि तुम्हारे जाने के बाद मैं ने किसी और से संबंध बना कर कबीर को जन्म दिया? मगर यह बात सच नहीं है. तुम्हारे सिवा मेरे जीवन में कोई और कभी नहीं आया. मैं यह भी जानती हूं कि तुम कबीर में हमेशा किसी और की परछाईं ढूंढ़ोगे तो इस से अच्छा है कि मैं अपने बेटे को ले कर हमेशा के लिए तुम से दूर चली जाऊं,’’ सारिका ने बात खत्म की.
वह इस कशमकश के साथ अब और नहीं जीना चाहती थी. विनय को सारी सचाई बता कर उस का मन कुछ हद तक हलका हो गया था.
विनय उसी तरह चुपचाप बैठा रहा. उस ने नजर उठा कर सारिका की तरफ देखा तक नहीं. उस की कोई प्रतिक्रिया न पा कर सारिका टूटे दिल से भारी कदमों के साथ कबीर का हाथ पकड़ कर घर से निकल गई.
तभी अचानक कबीर ने अपना हाथ छुड़ा लिया.
‘‘यह क्या कबीर? कहां जा रहे हो? हमें देर हो रही है.’’
‘‘मम्मा मैं अभी आया, पापा को गुडबाय बोल कर,’’ बेचारा कबीर जानता ही नहीं था कि वह अब विनय से कभी नहीं मिल पाएगा.
सारिका ने उसे जाने दिया. वह वहीं खड़ी उस का इंतजार करने लगी. टैक्सी हौर्न बजाने लगी. सारिका ने कलाई में बंधी घड़ी देखी. ट्रेन छूटने में कम ही वक्त रह गया था.
बहुत देर हो गई थी कबीर को गए. सामान वहीं रख सारिका विनय के कमरे में गई, ‘‘कबीर, चलो बेटा देर हो रही है.’’
उस ने देखा विनय ने कबीरको अपनी गोद में बैठा रखा था और वह रो रहा था.
‘‘मैं तु झे कहीं नहीं जाने दूंगा कबीर. मैं अपने बेटे के बगैर नहीं जी सकता,’’ विनय ने कबीर को कस कर सीने से लगा रखा था. वह पागलों की तरह बारबार कबीर का माथा और गाल चूम रहा था. कबीर भी विनय के साथ रो रहा था.
सारिका बुत बनी दोनों को देखती रही. आंसू तो उस के भी बह रहे थे, मगर आज ये आंसू सुकून के थे.
अगले दिन विनय के साथ बाजार में घूमते हुए उस की नजर एक दुकान पर गई जहां एक से बढ़ कर एक आकर्षक फ्रेम्स वाली बहुत सी तसवीरें लगी थीं. उन खूबसूरत तसवीरों को देख कर उस से रहा नहीं गया और फिर झटपट दुकानदार को अपने लिए भी एक फ्रेम तैयार कर घर भेजने को बोल दिया.
‘‘वह इस कशमकश के साथ अब और नहीं जीना चाहती थी.
विनय को सारी सचाई बता उस का मन कुछ हद तक हलका हो गया था…’’
‘‘ठीक है बाबा, कई बार तो बता चुकी हो,’’ अपनी नईनवेली दुलहन को बांहों में भरते हुए विनय बोला.
‘‘बारबार बताना जरूरी है, क्योंकि मैं जानती हूं मेरे औफिस जाने के बाद तुम बिना कुछ खाएपीए ही औफिस निकल जाओगे, इसलिए तुम्हारा नाश्ता बना जाया करूंगी… बस ओवन में गरम कर के खा लिया करना.’’
‘‘जो हुक्म रानी साहिबा,’’ विनय ने प्यार से उस का गाल चूम लिया. एक अच्छे पति की तरह वह सारिका की सारी बातें मान लेता था.
दोनों सुबह अपनेअपने काम पर चले जाते थे. वीकैंड की छुट्टी में दोनों लौंग ड्राइव पर निकल जाते… उन की जिंदगी प्यार से लबरेज थी.
यों ही 3 साल किसी सुखद सपने से गुजर गए. फिर धीरेधीरे सारिका को एक बच्चे की चाह होने लगी. हमउम्र सहेलियां 1 या 2-2 बच्चों की मांएं बन चुकी थीं. उन्हें देख कर सारिका का भी दिल चाहता कि उस के आंगन में भी बच्चे की किलकारियां गूंजें.
‘‘अब हमें भी 2 से 3 होने के बारे में सोचना चाहिए… मेरा बहुत मन करता है कि हमारे घर में भी एक नन्हा बिलकुल तुम्हारी तरह प्यारा सा हो,’’ उस ने एक दिन विनय की नाक खींचते हुए कहा.
विनय को अपनी कंपनी से प्र्रमोशन मिलने वाली थी. आजकल वह रातदिन अपनी परफौर्मैंस बेहतर बनाने में जुटा था. यह प्रमोशन उस के सुनहरे भविष्य के सपने को पूरा कर सकती थी. मगर औफिस में उस के साथ प्रतिस्पर्धा करने वाले और भी बहुत थे. ऐसे में उसे अपने को सर्वश्रेष्ठ साबित कर के किसी भी तरह इस प्रमोशन को पाना था.
विनय सारिका की हर बात से इत्तफाक रखता था. मगर इस वक्त उस के जीवन में बच्चे से ज्यादा जरूरी उस का कैरियर था. वह इस समय बच्चे की जिम्मेदारी बिलकुल नहीं लेना चाहता था.
विनय ने सारिका को कुछ और वक्त तक इंतजार करने को कहा. इस तरह 1 और साल बीत गया. विनय तरक्की की सीढि़यां चढ़ रहा था और सारिका बच्चे की चाह में दिनबदिन और बेचैन होने लगी. उस ने कई बार कोशिश की मगर हर बार असफलता ही हाथ आती. लाख चाहने के बावजूद वह मां नहीं बन पा रही थी.
‘‘हिम्मत मत हार. मेरी एक परिचित मशहूर लेडी डाक्टर हैं, मैं तु झे उन के क्लीनिक का पता दे देती हूं. तू उन से मिल… कोई न कोई रास्ता जरूर निकल जाएगा,’’ एक दिन उस की एक सहेली ने कहा.
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अपनी सहेली के बताए पते पर पहुंच कर सारिका डाक्टर से मिली. सारिका से बहुत सी बातें पूछने के बाद डाक्टर ने उसे पति के साथ आ कर कुछ टैस्ट करवाने को कहा.
यह जानते हुए भी कि सारिका मां बनने के लिए बहुत उतावली है, विनय का रवैया इस मामले में बेहद ठंडा था.
‘‘क्या जरूरत थी बेकार में डाक्टर के पास जाने की? आज नहीं तो कल बच्चा हो ही जाएगा. तुम बिना बात इतना परेशान हो रही हो बच्चे के लिए,’’ विनय बोला.
‘‘तुम नहीं सम झोगे विनय… मैं मां बनने के लिए तरस रही हूं… और कितना इंतजार करेंगे हम? कब से तो कोशिश कर रहे हैं. और यह भी तो हो सकता है शायद मु झ में या फिर तुम में कोई कमी हो… टैस्ट से सब पता चल जाएगा.’’
विनय के चेहरे से लगा उसे सारिका की बात चुभ गई कि सारिका का मतलब कहीं यह तो नहीं कि मेरे अंदर पिता बनने की क्षमता नहीं है.
‘‘तुम यह कैसे कह सकती हो मेरे अंदर कोई कमी है? ऐसा नहीं हो सकता. मु झ में कोई कमी नहीं है,’’ अपनी मर्दानगी पर आघात लगता देख विनय का लहजा कड़वा हो उठा.
सारिका चुप लगा गई. उसे विनय का कटु व्यवहार बहुत खला. इस बात को ले कर दोनों में कुछ दिनों तक मनमुटाव चलता रहा. न जाने कितने पापड़ बेले सारिका ने किसी भी तरह विनय को टैस्ट के लिए राजी करने के लिए.
भोर होने में अभी देर थी. कबीर के सिरहाने बैठा विनय नींद की बो िझलता से ऊंघने लगा. सारिका ने जा कर उस पर कंबल डाला तो वह उठ बैठा.
कबीर धीमेधीमे सांसें भर रहा था. दोनों की नजरें उस की उठतीगिरती छाती पर थीं. दोनों एकदूसरे की नजरों से छिप कर चुपकेचुपके रो पड़ते. वक्त जैसे रेत की तरह मुट्ठी से फिसलता जा रहा था.
‘‘तुम थोड़ी देर आराम कर लो सारिका,’’ विनय बोला.
‘सारिका अब वक्त नहीं बचा. बता दो विनय को सच… शायद इस सच से ही कबीर की जिंदगी बच जाए,’ सारिका सोच रही थी. उस के लिए अब और सहना मुश्किल हो गया था.
‘‘विनय,’’ उस ने अचानक पुकारा.
‘‘बोलो.’’
‘‘कबीर को डोनर मिल सकता है.’’
‘‘अच्छा… कौन है वह? तुम जानती हो क्या उसे? फिर तो कबीर का जल्द से जल्द इलाज हो सकेगा,’’ विनय के चेहरे पर उम्मीद की रोशनी चमकी.
‘‘हां, मैं जानती हूं, मगर तुम नहीं जानते उसे. तुम्हें उसे ढूंढ़ने में मेरी मदद करनी पड़ेगी. करोगे न?’’
‘‘हां सारिका, अपने कबीर के लिए मैं कुछ भी करूंगा.’’
सारिका ने अपनी अलमारी में साडि़यों की तहों के बीच छिपा कर रखी उस पुरानी फाइल को बाहर निकाला.
विनय के साथ वह उसी क्लीनिक में गई जिस का पता उस की सहेली रोमा ने दिया था. उस ने हाथ जोड़ कर डाक्टर को सारी बातें बता कर मदद करने के लिए कहा.
विनय कुछ सम झ नहीं पा रहा था. लेडी डाक्टर ने उन्हें मदद का भरोसा दिया और दूसरे दिन ही सारिका को फोन कर के क्लीनिक में मिलने बुलाया.
‘‘सारिका यों तो हम अपने क्लाइंट की प्राइवेसी मैंटेन रखते हैं, मगर तुम्हारी परेशानी गंभीर है, इसलिए डोनर से इजाजत ले कर ही मैं तुम्हें यह पता और फोन नंबर दे रही हूं. तुम जा कर मिल लो. मु झे उम्मीद है तुम्हारे बेटे का इलाज हो जाएगा.’’
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‘‘अब तो बताओ यह क्या माजरा है? हम किसे ढूंढ़ रहे हैं?’’ विनय बेचैन स्वर
में बोला. उस के साथ गाड़ी में बैठी सारिका बारबार विषय बदल रही थी.
कबीर को फिर से तेज बुखार चढ़ आया था, जिस के लिए उसे फिर से अस्पताल में रखना पड़ा था.
उस फ्लैट के दरवाजे पर नेम प्लेट लगी थी. यही पता था. सारिका ने घंटी दबा दी. विनय को उस ने गाड़ी में ही इंतजार करने के लिए बोला.
आगे पढ़ें- सारिका उस नौजवान के सामने सोफे पर बैठी थी…
सारिका ने मोमजामे में लिपटे फोटोफ्रेम को आराम से बाहर निकाल लिया. जैसा उसे चाहिए था बिलकुल वैसा ही बन पड़ा था वह तसवीरों से सजा फोटोफ्रेम. उसे वह बैठक की दीवार पर सजाना चाहती थी.
ब्लैक ऐंड व्हाइट और रंगीन तसवीरों वाला वह पिक्चर कोलाज वाकई बहुत सुंदर लग रहा था. विनय और सारिका की तसवीरों के बीच कबीर की भी कुछ तसवीरें थीं. होंठों पर शरारती मुसकान लिए कबीर का मासूम सा चेहरा… उस ने प्यार से बेटे के फोटो को चूम लिया और फ्रेम को वहीं कालीन पर रख हथौड़ी और कील ढूंढ़ने स्टोररूम में चली गई.
वह इसे विनय के औफिस से लौटने से पहले दीवार पर सजा देना चाहती थी, उसे सरप्राइज देने के लिए. वैसे उस के दफ्तर से लौटने में अभी काफी वक्त था. तब तक कबीर भी स्कूल से लौट आएगा. लिविंगरूम की मुख्य दीवार पर उस ने उस फोटो कोलाज को टांग दिया. फिर उसे हर कोण से निहार कर पूरी
तरह संतुष्ट होने के बाद अपने बाकी कामों में जुट गई.
रसोई का काम निबटा कर सारिका कुछ देर सुस्ताने के लिए टीवी के सामने बैठी ही थी कि मोबाइल की घंटी बज उठी. उस ने नंबर देखा. फोन कबीर के स्कूल से था.
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जल्दी से फोन रिसीव किया, ‘‘जी, मैं बस अभी पहुंचती हूं,’’ कह सारिका ने बात खत्म की और फिर हड़बड़ी में अपना पर्स उठाया. उस खबर का उस पर जैसे वज्रपात हो गया था. उसे तुरंत कबीर के स्कूल पहुंचना था.
औटो वाले को किराया दे कर सारिका स्कूल परिसर में दाखिल हुई. लगभग भागती हुई कबीर की क्लास की तरफ गई. कबीर की क्लास टीचर उसे सामने से आते दिखाई दी तो बदहवास सी बोली, ‘‘क्या हुआ है मेरे बेटे को? कहां है वह?’’ उस का मन किसी अनहोनी की आशंका से जोरजोर से धड़क रहा था.
‘‘आइए मेरे साथ,’’ कह क्लास टीचर उसे एक कमरे में ले गई. यह स्कूल का मैडिकलरूम था जहां तबीयत ठीक न होने पर बच्चों को आराम करने भेजा जाता था.
एक कोने में लगे बैड पर कबीर को लिटाया गया था. उस की आंखें बंद थीं. सारिका ने लपक कर उस के पास पहुंच उसे गोद में उठा लिया और फिर बोली, ‘‘कबीर… कबीर क्या हुआ? आंखें खोलो बेटा… देखो मम्मा आई है.’’
सारिका की आवाज सुन कर कबीर आंखें खोल कर मम्मामम्मा करते हुए उस से लिपट गया. सारिका दुविधा की स्थिति में कभी कबीर तो कभी उस की टीचर को देखने लगी. कबीर को यहां मैडिकलरूम में किसलिए लाया गया, उसे कुछ सम झ नहीं आ रहा था.
‘‘चिंता की कोई बात नहीं है… कबीर अब बिलकुल ठीक है. दरअसल, आज गेम्स पीरियड में फुटबाल खेलते वक्त अचानक बेहोश हो कर गिर पड़ा… आप के यहां पहुंचने से कुछ देर पहले ही इसे होश आया है… हम ने इसे ग्लूकोस वगैरह चढ़ा दिया है… अब आप इसे घर ले जा सकती हैं.’’
‘‘मगर यह बेहोश हुआ कैसे? पहले तो कभी इस के साथ ऐसा नहीं हुआ? सारिका हैरान थी.
‘‘शायद, खेलने की वजह से कबीर को कुछ ज्यादा थकान हो गई होगी… वैसे तो यह क्लास में एकदम चुस्त है, क्यों चैंपियन?’’ कहते हुए टीचर ने कबीर के बालों में हाथ फेरा तो वह मुसकरा दिया.
‘‘हां मम्मा अब मैं ठीक हूं,’’ नन्हा कबीर मां के चेहरे पर परेशानी के भाव देख कर तसल्ली देने लगा.
सारिका कबीर को घर ले आई. उसे उस की पसंद का खाना बना कर खिलाया, फिर जब वह टीवी पर अपना पसंदीदा कार्टून देखने में व्यस्त हो गया तो सारिका ने विनय को फोन मिलाया.
कबीर के अचानक बेहोश होने की बात जान कर विनय भी घबरा गया. फिर सारिका को उस का ध्यान रखने को कह खुद औफिस से जल्दी लौटने का वादा कर फोन रख दिया.
शाम को जब विनय औफिस से घर लौटा तो उस के हाथ में कबीर के लिए खिलौने और उस की पसंद की चौकलेट्स का एक डब्बा था.
आते ही विनय ने कबीर को बांहों में भर लिया. कबीर में विनय की जान बसती थी. सारिका उन दोनों को देख कर धीमे से मुसकरा दी. कबीर की तबीयत अब ठीक लग रही थी. विनय के लाए खिलौनों और चौकलेट्स को देख कर वह खुश हो उन से खेलने लगा. सारिका ने विनय को स्कूल में हुई सारी बात बताई.
‘‘हूं, शायद धूप में खेलने की वजह से चक्कर आ गया हो. तुम फिक्र मत करो.
हो जाता है कभीकभी ऐसा,’’ विनय ने कहा. उसे मालूम था कि कबीर को फुटबाल खेलने का बहुत शौक है. इतना छोटा बच्चा गरमी और थकान बरदाश्त नहीं कर पाया होगा.
कबीर पहले की ही तरह चपलता से खेलने में मशगूल था. उसे इस तरह हंसताखेलता देख कर विनय और सारिका की जान में जान आई.
कबीर के जन्म के बाद सारिका और विनय की दुनिया ही बदल गई थी. दोनों बड़े नाजों से अपनी इकलौती औलाद को पाल रहे थे. शहर के नामी स्कूल में पढ़ा रहे थे. उस की हर छोटीबड़ी फरमाइश पूरी करते. उसे छींक भी आती तो विनय सारा घर सिर पर उठा लेता.
इस घटना के बाद कबीर फिर सामान्य रूप से अपनी दिनचर्या जीने लगा था कि एक दिन फिर यही हादसा हो गया. घर में खिलौने से खेलते कबीर को एक बार फिर बेहोशी का दौरा पड़ा. सारिका और विनय उसे तुरंत अस्पताल ले गए. उसे तेज बुखार भी चढ़ आया था. डाक्टर ने कबीर की नब्ज टटोली, स्टैथेस्कोपी से उस के दिल की धड़कनें सुनीं.
‘‘डाक्टर साहब, क्या हुआ है हमारे बेटे को? क्यों यह बारबार बेहोश हो जाता है?’’ घबराई हालत में सारिका और विनय ने पूछा.
‘‘अभी कुछ भी बता पाना मुश्किल है. इस के कुछ टैस्ट करवाने होंगे… रिपोर्ट आने के बाद ही कुछ पता चल पाएगा.’’
कुछ ही देर बाद कबीर की रिपोर्ट मिली. रिपोर्ट देखने के बाद डाक्टर ने विनय को अपने कैबिन में बुलाया. सारिका कबीर के पास बैठी रही.
डाक्टर ने कहा, ‘‘देखिए, रिपोर्ट से जो पता चला है उस के लिए आप को बड़ी हिम्मत से काम लेना पड़ेगा विनय.’’
‘‘क्या बात है डाक्टर साहब? कोई चिंता की बात तो नहीं है न?’’ विनय की
बढ़ती जा रही थी.
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‘‘बात चिंताजनक ही है विनय पर एक डाक्टर होने के नाते हम आप से यही कहेंगे कि हिम्मत से काम लीजिए… नामुमकिन कुछ भी नहीं.’’
‘‘आखिर बताइए तो कि बात क्या है?’’ विनय का दिल जोर से धड़कने लगा था.
‘‘देखिए, आप के बेटे को रीढ़ की हड्डी का कैंसर है.’’
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