मलहम: प्यार में मिले धोखे का बदला कैसे लिया गुंजन ने?

गुंजन जल्दीजल्दी काम निबटा रही थी. दाल और सब्जी बना चुकी थी बस फुलके बनाने बाकी थे. तभी अभिनव किचन में दाखिल हुआ और गुंजन के करीब रखे गिलास को उठाने लगा. उस ने जानबूझ कर गुंजन को हौले से स्पर्श करते हुए गिलास उठाया और पानी ले कर बाहर निकल गया.

गुंजन की धड़कनें बढ़ गईं. एक नशा सा उस के बदन को महकाने लगा. उस ने चाहत भरी नजरों से अभिनव की तरफ देखा जो उसे ही निहार रहा था. गुंजन की धड़कनें फिर से ठहर गईं. लगा जैसे पूरे जहान का प्यार लिए अभिनव ने उसे आगोश में ले लिया हो और वह दुनिया को भूल कर अभिनव में खो गई हो.

तभी अम्मांजी अखबार ढूंढ़ती हुई कमरे में दाखिल हुईं और गुंजन का सपना टूट गया. नजरें चुराती हुई गुंजन फिर से काम में लग गई.

गुंजन अभिनव के यहां खाना बनाने का काम करती है. अम्मांजी का बड़ा बेटा अनुज और बहु सारिका जौब पर जाते हैं. छोटा बेटा अभिनव भी एक आईटी कंपनी में काम करता है. उस की अभी शादी नहीं हुई है और वह गुंजन की तरफ आकृष्ट है.

22 साल की गुंजन बेहद खूबसूरत है और वह अपने मातापिता की इकलौती संतान है. मातापिता ने उसे बहुत लाड़प्यार से पाला है. इंटर तक पढ़ाया भी है. मगर घर की माली हालत सही नहीं होने की वजह से उसे दूसरों के घरों में खाना बनाने का काम शुरू करना पड़ा.

गुंजन जानती है कि अभिनव ऊंची जाति का पढ़ालिखा लड़का है और अभिनव के साथ उस का कोई मेल नहीं हो सकता. मगर कहते हैं न कि प्यार ऐसा नशा है जो अच्छेअच्छों की बुद्धि पर ताला लगा देता है. प्यार के एहसास में डूबा व्यक्ति सहीगलत, ऊंचनीच, अच्छाबुरा कुछ भी नहीं समझता. उसे तो बस किसी एक शख्स का खयाल ही हर पल रहने लगता है और यही हो रहा था गुंजन के साथ भी. उसे सोतेजागते हर समय अभिनव ही नजर आने लगा था.

धीरेधीरे वक्त गुजरता गया. अभिनव की हिम्मत बढ़ती गई और गुंजन भी उस के आगे कमजोर पड़ती गई. एक दिन मौका देख कर अभिनव ने उसे बांहों में भर लिया. गुंजन ने खुद को छुड़ाने का प्रयास करते हुए कहा,” अभिनवजी, अम्मां जी ने देख लिया तो क्या सोचेंगी?”

“अम्मां सो रही हैैं गुंजन. तुम उन की चिंता मत करो. बहुत मुश्किल से आज हमें ये पल मिले हैं. इन्हें यों ही बरबाद न करो.”

“मगर अभिनवजी, यह सही नहीं है. आप का और मेरा कोई मेल नहीं,” गुंजन अब भी सहज नहीं थी.

“ऐसी बात नहीं है गुंजन. मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. प्यार में कोई छोटाबड़ा नहीं होता. बस मुझे इन जुल्फों में कैद हो जाने दो. गुलाब की पंखुड़ी जैसे इन लबों को एक दफा छू लेने दो.”

अभिनव किसी भी तरह गुंजन को पाना चाहता था. गुंजन अंदर से डरी हुई थी मगर अभिनव का प्यार उसे अपनी तरफ खींच रहा था. आखिर गुंजन ने भी हथियार डाल दिए. वह एक प्रेयसी की भांति अभिनव के सीने से लग गई. दोनों एकदूसरे के आलिंगन में बंधे प्यार की गहराई में डूबते रहे. जब होश आया तो गुंजन की आंखें छलछला आईं. वह बोली,”आप मेरा साथ तो दोगे न? जमाने की भीड़ में मुझे अकेला तो नहीं छोड़ दोगे?”

“पागल हो क्या? प्यार करता हूं. छोड़ कैसे दूंगा?” कह कर उस ने फिर से गुंजन को चूम लिया. गुंजन फिर से उस के सीने में दुबक गई. वक्त फिर से ठहर गया.

अब तो ऐसा अकसर होने लगा. अभिनव प्यार का दावा कर के गुंजन को करीब ले आता.

दोनों ने ही प्यार के रास्ते पर बढ़ते हुए मर्यादाओं की सीमारेखाएं तोड़ दी थीं. गुंजन प्यार के सुहाने सपनों के साथ सुंदर घरसंसार के सपने भी देखने लगी थी.

मगर एक दिन वह देख कर भौंचक्की रह गई कि अभिनव के रिश्ते की बात करने के लिए एक परिवार आया हुआ है. मांबाप के साथ एक आधुनिक, आकर्षक और स्टाइलिश लड़की बैठी हुई थी.

अम्मांजी ने गुंजन से कुछ खास बनाने की गुजारिश की तो गुंजन ने सीधा पूछ लिया,” ये कौन लोग हैं अम्मांजी?”

“ये अपने अभि को देखने आए हैं. इस लड़की से अभि की शादी की बात चल रही है. सुंदर है न लड़की?” अम्मांजी ने पूछा तो गुंजन ने हां में सिर हिला दिया.

उस के दिलोदिमाग में तो एक भूचाल सा आ गया था. उस दिन घर जा कर भी गुंजन की आंखों के आगे उसी लड़की का चेहरा नाचता रहा. आंखों से नींद कोसों दूर थी.

अगले दिन जब वह अभिनव के घर खाना बनाने गई तो सब से पहले मौका देख कर उस ने अभिनव से बात की,” यह सब क्या है अभिनव? आप की शादी की बात चल रही है? आप ने अपने घर वालों को हमारे प्यार की बात क्यों नहीं बताई?”

“नहीं गुंजन, हमारे प्यार की बात मैं उन्हें नहीं बता सकता.”

“मगर क्यों? ”

“क्योंकि हमारा प्यार समाज स्वीकार नहीं करेगा. मेरे मांबाप कभी नहीं मानेंगे कि मैं एक नीची जाति की लड़की से शादी करूं,” अभिनव ने बेशर्मी से कहा.

“तो फिर प्यार क्यों किया था आप ने? शादी नहीं करनी थी तो मुझे सपने क्यों दिखाए थे?” तड़प कर गुंजन बोली.

“देखो गुंजन, समझने का प्रयास करो. प्यार हम दोनों ने किया है. प्यार के लिए केवल हम दोनों की रजामंदी चाहिए थी. मगर शादी एक सामाजिक रिश्ता है. शादी के लिए समाज की अनुमति भी चाहिए. शादी तो मुझे घर वालों के कहे अनुसार ही करनी होगी.”

“यानी प्यार नहीं, आप ने प्यार का नाटक खेला है मेरे साथ. मैं नहीं केवल मेरा शरीर चाहिए था. क्यों कहा था मुझे कि कभी अकेला नहीं छोड़ोगे?”

“मैं तुम्हें अकेला कहां छोड़ रहा हूं गुंजन? मैं तो अब भी तुम ही से प्यार करता हूं मेरी जान. यकीन मानो हमारा यह प्यार हमेशा बना रहेगा. शादी भले ही उस से कर लूं मगर हम दोनों पहले की तरह ही मिलते रहेंगे. हमारा रिश्ता वैसा ही चलता रहेगा. मैं हमेशा तुम्हारा बना रहूंगा,” गुंजन को कस कर पकड़ते हुए अभि ने कहा.

गुंजन को लगा जैसे हजारों बिच्छुओं ने उसे जकङ रखा हो. वह खुद को अभिनव के बंधन से आजाद कर काम में लग गई. आंखों से आंसू बहे जा रहे थे और दिल रो रहा था.

घर आ कर वह सारी रात सोचती रही. अभिनव की बेवफाई और अपनी मजबूरी उसे रहरह कर कचोट रही थी. अभिनव के लिए भले ही यह प्यार तन की भूख थी मगर उस ने तो हृदय से चाहा था उसे. तभी तो अपना सबकुछ समर्पित कर दिया था. इतनी आसानी से वह अभिनव को माफ नहीं कर सकती थी. उस के किए की सजा तो देनी ही होगी. वह पूरी रात यही सोचती रही कि अभिनव को सबक कैसे सिखाया जाए.

आखिर उसे समझ आ गया कि वह अभिनव से बदला कैसे ले सकती है. अगले दिन से ही उस ने बदले की पटकथा लिखनी शुरू कर दी.

उस दिन वह ज्यादा ही बनसंवर कर अभि के घर खाना बनाने पहुंची. अभि शाम 4 बजे की शिफ्ट में औफिस जाता था. अम्मांजी हर दूसरे दिन 12 से 4 बजे तक के लिए घर से बाहर अपनी सखियों से मिलने जाती थीं. पिताजी के पैर में तकलीफ थी इसलिए वे बिस्तर पर ही रहते थे.

12 बजे अम्मांजी के जाने के बाद वह अभि के पास चली आई और उस का हाथ पकड़ कर बोली, “अभिनव आप की शादी की बात सुन कर मैं दुखी हो गई थी. मगर अब मैं ने खुद को संभाल लिया है. शादी से पहले के इन दिनों को मैं भरपूर ऐंजौय करना चाहती हूं. आप की बांहों में खो जाना चाहती हूं.”

अभिनव की तो मनमांगी मुराद पूरी हो रही थी. उस ने झट गुंजन को करीब खींच लिया. दोनों एकदूसरे के आगोश में खोते चले गए. बैड पर अभि की बांहों में मचलती गुंजन ने सवाल किया,” कल आप सच कह रहे थे अभिनव ? शादी के बाद भी आप मुझ से यह रिश्ता बनाए रखोगे न ?”

“हां गुंजन इस में तुम्हें शक क्यों है? शादी एक चीज होती है और प्यार दूसरी चीज. हम दोनों का प्यार और शरीर का यह मिलन हमेशा कायम रहेगा. शादी के बाद भी यह रिश्ता ऐसा ही चलता रहेगा,” कह कर अभिनव फिर से गुंजन को बेतहाशा चूमने लगा.

शाम को गुंजन अपने घर लौट आई. उसे खुद से घिन आ रही थी. वह बाथरूम में गई और नहा कर बाहर निकली. फिर मोबाइल ले कर बैठ गई. आज के उन के शारीरिक मिलन का एकएक पल इस मोबाइल में कैद था. उस ने बड़ी होशियारी से मोबाइल का कैमरा औन कर के ऐसी जगह रखा था जहां से दोनों की सारी हरकतें कैद हो गई थीं.

यह काफी देर तक का लंबा अंतरंग वीडियो था. 10 दिन के अंदर उस ने ऐसे 3 -4 वीडियो और शूट कर लिए. फिर वीडियोज में ऐडिट कर के बड़ी चतुराई से उस ने अपने चेहरे को छिपा दिया.

कुछ दिनों में अभिनव की शादी हो गई. 8-10 दिनों के अंदर ही उस ने अभिनव की पत्नी से दोस्ती कर ली और उस का मोबाइल नंबर ले लिया. अगले दिन उस ने अम्मांजी को कह दिया कि उसे मुंबई में जौब लग गई है और अब काम पर नहीं आ पाएगी. उस दिन वह अभिनव से मिली भी नहीं और घर चली आई.

अगले दिन सुबहसुबह उस ने अपने और अभिनव के 2 अंतरंग वीडियो अभिनव की पत्नी को व्हाट्सऐप कर दिए. 2 घंटे बाद उस ने 2 और वीडियो व्हाट्सऐप किए और चैन से घर के काम निबटाने लगी.

शाम 4 बजे के करीब अभिनव का फोन आया. गुंजन को इस का अंदाजा पहले से था. उस ने मुसकराते हुए फोन उठाया तो सामने से अभिनव का रोता हुआ स्वर सुनाई दिया,” गुंजन तुम ने यह क्या किया मेरे साथ? मेरी शादीशुदा जिंदगी की अभी ठीक से शुरुआत भी नहीं हुई थी और तुम ने ये वीडियो भेज दिए. तुम्हें पता है माया सुबह से ही मुझ से लड़ रही थी और अभीअभी सूटकेस ले कर हमेशा के लिए अपने घर चली गई. गुंजन, तुम ने यह क्या कर दिया मेरे साथ? अब मैं…”

“…अब तुम न घर के रहोगे न घाट के. गुडबाय मिस्टर अभिनव,” वाक्य पूरा करते हुए गुंजन ने कहा और फोन काट दिया.

उस ने आज अभिनव से बदला ले लिया था. खुद को मिले हर आंसुओं का बदला. आज उसे महसूस हो रहा था जैसे उस के जख्मों पर किसी ने मलहम लगा दिया हो.

कब जाओगे प्रिय: क्या गलत संगत में पड़ गई थी कविता

अपना बैग पैक करते हुए अजय ने कविता से बहुत ही प्यार से कहा, ‘‘उदास मत हो डार्लिंग, आज सोमवार है, शनिवार को आ ही जाऊंगा. फिर वैसे ही बच्चे तुम्हें कहां चैन लेने देते हैं. तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि मैं कब गया और कब आया.’’

कविता ने शांत, गंभीर आवाज में कहा, ‘‘बच्चे तो स्कूल, कोचिंग में बिजी रहते हैं… तुम्हारे बिना कहां मन लगता है.’’

‘‘सच मैं कितना खुशहाल हूं, जो मुझे तुम्हारे जैसी पत्नी मिली. कौन यकीन करेगा इस बात पर कि शादी के 20 साल बाद भी तुम मुझे इतना प्यार करती हो… आज भी मेरे टूअर पर जाने पर उदास हो जाती हो… आई लव यू,’’ कहतेकहते अजय ने कविता को गले लगा लिया और फिर बैग उठा कर दरवाजे की तरफ बढ़ गया. कविता का उदास चेहरा देख कर फिर प्यार से बोला, ‘‘डौंट बी सैड, हम फोन पर तो टच में रहते ही हैं, बाय, टेक केयर,’’ कह कर अजय चला गया.

कविता दूसरी फ्लोर पर स्थित अपने फ्लैट की बालकनी में जा कर जाते हुए अजय को देखने लगी. नीचे से अजय ने भी टैक्सी में बैठने से पहले सालों से चले आ रहे नियम का पालन करते हुए ऊपर देख कर कविता को हाथ हिलाया और फिर टैक्सी में बैठ गया.

कविता ने अंदर आ कर घड़ी देखी. सुबह के 10 बज रहे थे. वह ड्रैसिंगटेबल के शीशे में खुद को देख कर मुसकरा उठी. फिर उस ने रुचि को फोन मिलाया, ‘‘रुचि, क्या कर रही हो?’’

रुचि हंसी, ‘‘गए क्या पति?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘फटाफट अपना काम निबटा, अंजलि से भी बात करती हूं, मूवी देखने चलेंगे, फिर लंच करेंगे.’’

‘‘तेरी मेड काम कर के गई क्या?’’

‘‘हां, मैं ने उसे आज 8 बजे ही बुला लिया था.’’

‘‘वाह, क्या प्लानिंग होती है तेरी.’’

‘‘और क्या भई, करनी पड़ती है.’’

रुचि ने ठहाका लगाते हुए कहा, ‘‘ठीक है, आधे घंटे में मिलते हैं.’’

कविता ने बाकी सहेलियों अंजलि, नीलम और मनीषा से भी बात कर ली. इन सब की आपस में खूब जमती थी. पांचों हमउम्र थीं,

सब के बच्चे भी हमउम्र ही थे. सब के बच्चे इतने बड़े तो थे ही कि अब उन्हें हर समय मां की मौजूदगी की जरूरत नहीं थी. कविता और रुचि के पति टूअर पर जाते रहते थे. पहले तो दोनों बहुत उदास और बोर होती थीं पर अब पतियों के टूअर पर जाने का जो समय पहले इन्हें खलता था अब दोनों को उन्हीं दिनों का इंतजार रहता था.

कविता ने अपने दोनों बच्चों सौरभ और सौम्या को घर की 1-1 चाबी सुबह ही स्कूल जाते समय दे दी थी. आज का प्रोग्राम तो उस ने कल ही बना लिया था. नियत समय पर पांचों सहेलियां मिलीं. रुचि की कार से सब निकल गईं. फिर मूवी देखी. उस के बाद होटल में लंच करते हुए खूब हंसीमजाक हुआ.

मनीषा ने आहें भरते हुए कहा, ‘‘काश, अनिल की भी टूरिंग जौब होती तो सुबहशाम की पतिसेवा से कुछ फुरसत मुझे भी मिलती और मैं भी तुम दोनों की तरह मौज करती.’’

रुचि ने छेड़ा, ‘‘कर तो रही है तू मौज अब भी… अनिल औफिस में ही हैं न इस समय?’’

‘‘हां यार, पर शाम को तो आ जाएंगे न… तुम दोनों की तो पूरी शाम, रात तुम्हारी होगी न.’’

कविता ने कहा, ‘‘हां भई, यह तो है. अब तो शनिवार तक आराम ही आराम.’’

मनीषा ने चिढ़ने की ऐक्टिंग करते हुए कहा, ‘‘बस कर, हमें जलाने की जरूरत नहीं है.’’

नीलम ने भी अपने दिल की बात कही, ‘‘यहां तो बिजनैस है, न घर आने का टाइम है न जाने का, पता ही नहीं होता कब अचानक आ जाएंगे. फोन कर के बताने की आदत नहीं है. न घर की चाबी ले जाते हैं. कहते हैं, तुम तो हो ही घर पर… इतना गुस्सा आता है न कभीकभी कि क्या बताऊं.’’

रुचि ने पूछा, ‘‘तो आज कैसे निकली?’’

‘‘सासूमां को कहानी सुनाई… एक फ्रैंड हौस्पिटल में ऐडमिट है. उस के पास रहना है. हर बार झूठ बोलना पड़ता है. मेरे घर में मेरा सहेलियों के साथ मूवी देखने और लंच पर जाना किसी को हजम नहीं होगा.’’

कविता हंसी, ‘‘जी तो बस हम रहे हैं न.’’

यह सुन तीनों ने पहले तो मुंह बनाया, फिर हंस दीं. बिल हमेशा की तरह सब ने शेयर किया और फिर अपनेअपने घर चली गईं.

सौरभ और सौम्या स्कूल से आ कर कोचिंग जा चुके थे. जब आए तो पूछा, ‘‘मम्मी, कहां गई थीं?’’

‘‘बस, थोड़ा काम था घर का,’’ फिर जानबूझ कर पूछा, ‘‘आज डिनर में क्या बनाऊं?’’

बाहर के खाने के शौकीन सौरभ ने पूछा, ‘‘पापा तो शनिवार को आएंगे न?’’

‘‘हां.’’

‘‘आज पिज्जा मंगवा लें?’’ सौरभ की आंखें चमक उठीं.

सौम्या बोली, ‘‘नहीं, मुझे चाइनीज खाना है.’’

कविता ने गंभीर होने की ऐक्टिंग की, ‘‘नहीं बेटा, बाहर का खाना बारबार और्डर करना अच्छी आदत नहीं है.’’ को घर का ही खाना पसंद है. आप हमेशा घर पर ही तो बनाती हैं… आज तो कुछ चेंज होने दो.’’

कविता ने बच्चों पर एहसान जताते हुए कहा, ‘‘ठीक है, आज मंगवा लो पर रोजरोज जिद मत करना.’’

सौम्या बोली, ‘‘हां मम्मी, बस आज और कल, आज इस की पसंद से, कल मेरी पसंद से.’’

‘‘ठीक है, दे दो और्डर,’’ दोनों बच्चे चहकते हुए और्डर देने उठ गए.

कविता मन ही मन हंस रही थी कि उस का कौन सा मूड था खाना बनाने का, अजय को घर का ही खाना पसंद है, बच्चे कई बार कहते हैं पापा का तो टूअर पर चेंज हो जाता है, हमारा क्या… वह खुद बोर हो जाती है रोज खाना बनाबना कर. आज बच्चे अपनी पसंद का खा लेंगे. उस ने हैवी लंच किया था. वह कुछ हलका ही खाएगी. फिर वह सैर पर चली गई. सोचती रही अजय टूअर पर जाते हैं तो सैर काफी समय तक हो जाती है नहीं तो बहुत मुश्किल से 15 मिनट सैर कर के भागती हूं. अजय के औफिस से आने तक काफी काम निबटा कर रखना पड़ता है.

शाम की सैर से संतुष्ट हो कर सहेलियों से गप्पें मार कर कविता आराम से लौटी. बच्चों का पिज्जा आ चुका था. उस ने कहा, ‘‘तुम लोग खाओ, मैं आज कौफी और सैंडविच लूंगी.’’

बच्चे पिज्जा का आनंद उठाने लगे. अजय से फोन पर बीचबीच में बातचीत होती रही थी. बच्चों के साथ कुछ समय बिता कर वह घर के काम निबटाने लगी. बच्चे पढ़ने बैठ गए. काम निबटा कर उस ने कपड़े बदले, गाउन पहना, अपने लिए कौफी और सैंडविच बनाए और बैडरूम में आ गई.

अजय टूअर पर जाते हैं तो कविता को लगता है उसे कोई काम नहीं है. जो मन हो बनाओ, खाओ, न घर की देखरेख, न आज क्या स्पैशल बना है जैसा रोज का सवाल. गजब की आजादी, अंधेरा कमरा, हाथ में कौफी का मग और जगजीतचित्रा की मखमली आवाज के जादू से गूंजता बैडरूम.

अजय को साफसुथरा, चमकता घर पसंद है. उन की नजरों में घर को साफसुथरा देख कर अपने लिए प्रशंसा देखने की चाह में ही वह दिनरात कमरतोड़ मेहनत करती रहती है. कभीकभी मन खिन्न भी हो जाता है कि बस यही है क्या जीवन?

ऐसा नहीं है कि अजय से उसे कम प्यार है या वह अजय को याद नहीं करती, वह अजय को बहुत प्यार करती है. यह तो वह दिनरात घर के कामों में पिसते हुए अपने लिए कुछ पल निकाल लेती है, तो अपनी दोस्तों के साथ मस्ती भरा, चिंता से दूर, खिलखिलाहटों से भरा यह समय जीवनदायिनी दवा से कम नहीं लगता उसे.

अजय के वापस आने पर तनमन से और ज्यादा उस के करीब महसूस करती है वह खुद को. उस ने बहुत सोचसमझ कर खुद को रिलैक्स करने की आदत डाली है. ये पल उसे अपनी कर्मस्थली में लौट कर फिर घरगृहस्थी में जुटने के लिए शक्ति देते हैं. अजय महीने में 7-8 दिन टूअर पर रहते हैं. कई बार जब टूअर रद्द हो जाता है तो ये कुछ पल सिर्फ अपने लिए जीने का मौका ढूंढ़ते हुए उस का दिमाग जब पूछता है, कब जाओगे प्रिय, तो उस का दिल इस शरारत भरे सवाल पर खुद ही मुसकरा उठता है.

एक जहां प्यार भरा: क्या रिद्धिमा और इत्सिंग मिल पाए?

कहते हैं इंसान को जब किसी से प्यार होता है तो जिंदगी बदल जाती है. खयालों का मौसम आबाद हो जाता है और दिल का साम्राज्य कोई लुटेरा लूट कर ले जाता है.

प्यार के सुनहरे धागों से जकड़ा इंसान कुछ भी करने की हालत में नहीं होता सिवाए अपने दिलबर की यादों में गुम रहने के. कुछ ऐसा ही होने लगा था मेरे साथ भी. हालांकि मैं सिर्फ अपने एहसासों के बारे में जानती थी.

इत्सिंग क्या सोचता है इस बारे में मुझे जानकारी नहीं थी. इत्सिंग से परिचय हुए ज्यादा दिन भी तो नहीं हुए थे. 3 माह कोई लंबा वक्त नहीं होता.

मैं कैसे भूल सकती हूं 2009 के उस दिसंबर महीने को जब दिल्ली की ठंड ने मुझे रजाई में दुबके रहने को विवश किया हुआ था. कभी बिस्तर पर, कभी रजाई के अंदर तो कभी बाहर अपने लैपटौप पर चैटिंग और ब्राउजिंग करना मेरा मनपसंद काम था.

हाल ही में मैं ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से चाइनीज लैंग्वेज में ग्रैजुएशन कंप्लीट किया था.

आप सोचेंगे मैं ने चाइनीज भाषा ही क्यों चुनी? दरअसल, यह दुनिया की सब से कठिन भाषा मानी जाती है और इसी वजह से यह पिक्टोग्राफिक भाषा मुझे काफी रोचक लगी. इसलिए मैं ने इसे चुना. मैं कुछ चीनी लोगों से बातचीत कर इस भाषा में महारत हासिल करना चाहती थी ताकि मुझे इस के आधार पर कोई अच्छी नौकरी मिल सके.

मैं ने इंटरनैट पर लोगों से संपर्क साधने का प्रयास किया तो मेरे आगे इत्सिंग का प्रोफाइल खुला. वह बीजिंग की किसी माइन कंपनी में नौकरी करता था और खाली समय में इंटरनैट सर्फिंग किया करता.

मैं ने उस के बारे में पढ़ना शुरू किया तो कई रोचक बातें पता चलीं. वह काफी शर्मीला इंसान था. उसे लौंग ड्राइव पर जाना और पेड़पौधों से बातें करना पसंद था. उस की हौबी पैंटिंग और सर्फिंग थी. वह जिंदगी में कुछ ऐसा करना चाहता था जो दुनिया में हमेशा के लिए रह जाए. यह सब पढ़ कर मुझे उस से बात करने की इच्छा जगी. वैसे भी मुझे चाइनीस लैंग्वेज के अभ्यास के लिए उस की जरूरत थी.

काफी सोचविचार कर मैं ने उस से बातचीत की शुरुआत करते हुए लिखा, “हैलो इत्सिंग.”

हैलो का जवाब हैलो में दे कर वह गायब हो गया. मुझे कुछकुछ अजीब सा लगा लेकिन मैं ने उस का पीछा नहीं छोड़ा और फिर से लिखा,” कैन आई टौक टू यू?”

उस का एक शब्द का जवाब आया, “यस”

“आई लाइक्ड योर प्रोफाइल,” कह कर मैं ने बात आगे बढ़ाई.

“थैंक्स,” कह कर वह फिर खामोश हो गया.

उस ने मुझ से मेरा परिचय भी नहीं पूछा. फिर भी मैं ने उसे अपना नाम बताते हुए लिखा,” माय सैल्फ रिद्धिमा फ्रौम दिल्ली. आई हैव डन माई ग्रैजुएशन इन चाइनीज लैंग्वेज. आई नीड योर हैल्प टू इंप्रूव इट. विल यू प्लीज टीच मी चाइनीज लैंग्वेज?”

इस का जवाब भी इत्सिंग ने बहुत संक्षेप में दिया,” ओके बट व्हाई मी? यू कैन टौक टू ऐनी अदर पीपल आलसो.”

“बिकौज आई लाइक योर थिंकिंग. यू आर वेरी डिफरैंट. प्लीज हैल्प मी.”

“ओके,” कह कर वह खामोश हो गया पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी. उस से बातें करना जारी रखा. धीरेधीरे वह भी मुझ से बातें करने लगा. शुरुआत में काफी दिन हम चाइनीज लैंग्वेज में नहीं बल्कि इंग्लिश में ही चैटिंग करते रहे. बाद में उस ने मुझे चाइनीज सिखानी भी शुरू की. पहले हम ईमेल के द्वारा संवाद स्थापित करते थे. पर अब तक व्हाट्सएप आ गया था सो हम व्हाट्सएप पर चैटिंग करने लगे.

व्हाट्सएप पर बातें करतेकरते हम एकदूसरे के बारे में काफी कुछ जाननेसमझने लगे. मुझे इत्सिंग का सीधासाधा स्वभाव और ईमानदार रवैया बहुत पसंद आ रहा था. उस की सोच बिलकुल मेरे जैसी थी. वह भी अन्याय बरदाश्त नहीं कर सकता था. शोशेबाजी से से दूर रहता और महिलाओं का सम्मान करता. उसे भी मेरी तरह फ्लर्टिंग और बटरिंग पसंद नहीं थी.

आज हमें बातें करतेकरते 3-4 महीने से ज्यादा समय गुजर चुका था. इतने कम समय में ही मुझे उस की आदत सी हो गई थी. वह मेरी भाषा नहीं जानता था पर मुझे बहुत अच्छी तरह समझने लगा था. उस की बातों से लगता जैसे वह भी मुझे पसंद करने लगा है. मैं इस बारे में अभी पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थी. पर मेरा दिल उसे अपनाने की वकालत कर चुका था. मैं उस के खयालों में खोई रहने लगी थी. मैं समझ नहीं पा रही थी कि उस से अपनी फीलिंग्स शेयर करूं या नहीं.

एक दिन मेरी एक सहेली मुझ से मिलने आई. उस वक्त मैं इत्सिंग के बारे में ही सोच रही थी. सहेली के पूछने पर मैं ने उसे सब कुछ सचसच बता दिया.

वह चौंक पड़ी,”तुझे चाइनीज लड़के से प्यार हो गया? जानती भी है कितनी मुश्किलें आएंगी? इंडियन लड़की और चाइनीज लड़का…. पता है न उन का कल्चर कितना अलग होता है? रहने का तरीका, खानापीना, वेशभूषा सब अलग.”

“तो क्या हुआ? मैं उन का कल्चर स्वीकार कर लूंगी.”

“और तुम्हारे बच्चे? वे क्या कहलाएंगे इंडियन या चाइनीज?”

“वे इंसान कहलाएंगे और हम उन्हें इंडियन कल्चर के साथसाथ चाइनीज कल्चर भी सिखाएंगे.”

मेरा विश्वास देख कर मेरी सहेली भी मुसकरा पड़ी और बोली,” यदि ऐसा है तो एक बार उस से दिल की बात कह कर देख.”

मुझे सहेली की बात उचित लगी. अगले ही दिन मैं ने इत्सिंग को एक मैसेज भेजा जिस का मजमून कुछ इस प्रकार था,”इत्सिंग क्यों न हम एक ऐसा प्यारा सा घर बनाएं जिस में खेलने वाले बच्चे थोड़े इंडियन हों तो थोड़े चाइनीज.”

“यह क्या कह रही हैं आप रिद्धिमा? यह घर कहां होगा इंडिया में या चाइना में?” इत्सिंग ने भोलेपन से पूछा तो मैं हंस पड़ी,”घर कहीं भी हो पर होगा हम दोनों का. बच्चे भी हम दोनों के ही होंगे. हम उन्हें दोनों कल्चर सिखाएंगे. कितना अच्छा लगेगा न इत्सिंग.”

मेरी बात सुन कर वह अचकचा गया था. उसे बात समझ में आ गई थी पर फिर भी क्लियर करना चाहता था.

“मतलब क्या है तुम्हारा? आई मीन क्या सचमुच?”

“हां इत्सिंग, सचमुच मैं तुम से प्यार करने लगी हूं. आई लव यू.”

“पर यह कैसे हो सकता है?” उसे विश्वास नहीं हो रहा था.

“क्यों नहीं हो सकता?”

“आई मीन मुझे बहुत से लोग पसंद करते हैं, कई दोस्त हैं मेरे. लड़कियां भी हैं जो मुझ से बातें करती हैं. पर किसी ने आज तक मुझे आई लव यू तो नहीं कहा था. क्या तुम वाकई…? आर यू श्योर ?”

“यस इत्सिंग. आई लव यू.”

“ओके… थोड़ा समय दो मुझे रिद्धिमा.”

“ठीक है, कल तक का समय ले लो. अब हम परसों बात करेंगे,” कह कर मैं औफलाइन हो गई.

मुझे यह तो अंदाजा था कि वह मेरे प्रस्ताव पर सहज नहीं रह पाएगा. पर जिस तरह उस ने बात की थी कि उस की बहुत सी लड़कियों से भी दोस्ती है. स्वाभाविक था कि मैं भी थोड़ी घबरा रही थी. मुझे डर लग रहा था कि कहीं वह इस प्रस्ताव को अस्वीकार न कर दे. सारी रात मैं सो न सकी. अजीबअजीब से खयाल आ रहे थे. आंखें बंद करती तो इत्सिंग का चेहरा सामने आ जाता. किसी तरह रात गुजरी. अब पूरा दिन गुजारना था क्योंकि मैं ने इत्सिंग से कहा था कि मैं परसों बात करूंगी. इसलिए मैं जानबूझ कर देर से जागी और नहाधो कर पढ़ने बैठी ही थी कि सुबहसुबह अपने व्हाट्सएप पर इत्सिंग का मैसेज देख कर मैं चौंक गई.

धड़कते दिल के साथ मैं ने मैसेज पढ़ा. लिखा था,”डियर रिद्धिमा, कल पूरी रात मैं तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा. तुम्हारा प्रस्ताव भी मेरे दिलोदिमाग में था. काफी सोचने के बाद मैं ने फैसला लिया है कि हम चीन में अपना घर बनाएंगे पर एक घर इंडिया में भी होगा. जहां गरमी की छुट्टियों में बच्चे नानानानी के साथ अपना वक्त बिताएंगे.”

“तो मिस्टर इन बातों का सीधासीधा मतलब भी बता दीजिए,” मैं ने शरारत से पूछा तो अगले ही पल इत्सिंग ने बोल्ड फौंट में आई लव यू टू डियर लिख कर भेजा. साथ में एक बड़ा सा दिल भी. मैं खुशी से झूम उठी. वह मेरी जिंदगी का सब से खूबसूरत पल था. अब तो मेरी जिंदगी का गुलशन प्यार की खुशबू से महक उठा था. हम व्हाट्सएप पर चैटिंग के साथ फोन पर भी बातें करने लगे थे.

कुछ महीने के बाद एक दिन मैं ने इत्सिंग से फिर से अपने दिल की बात की,”यार, जब हम प्यार करते ही हैं तो क्यों न शादी भी कर लें.”

“शादी?”

“हां शादी.”

“तुम्हें अजीब नहीं लग रहा?”

“पर क्यों? शादी करनी तो है ही न इत्सिंग या फिर तुम केवल टाइमपास कर रहे हो?” मैं ने उसे डराया था और वह सच में डर भी गया था.

वह हकलाता हुआ बोला,”ऐसा नहीं है रिद्धिमा. शादी तो करनी ही है पर क्या तुम्हें नहीं लगता कि यह फैसला बहुत जल्दी का हो जाएगा? कम से कम शादी से पहले एक बार हमें मिल तो लेना ही चाहिए,”कह कर वह हंस पड़ा.

इत्सिंग का जवाब सुन कर मैं भी अपनी हंसी रोक नहीं पाई.

अब हमें मिलने का दिन और जगह तय करना था. यह 2010 की बात थी. शंघाई वर्ल्ड ऐक्सपो होने वाला था. आयोजन से पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी में इंडियन पैविलियन की तरफ से वालंटियर्स के सिलैक्शन के लिए इंटरव्यू लिए जा रहे थे.
मैं ने जरा सी भी देर नहीं की. इंटरव्यू दिया और सिलैक्ट भी हो गई.

इस तरह शंघाई के उस वर्ल्ड ऐक्सपो में हम पहली दफा एकदूसरे से मिले. वैसे तो हम ने एकदूसरे की कई तसवीरें देखी थीं पर आमनेसामने देखने की बात ही अलग होती है. एकदूसरे से मिलने के बाद हमारे दिल में जो एहसास उठे उसे बयां करना भी कठिन था. पर एक बात तो तय थी कि अब हम पहले से भी ज्यादा श्योर थे कि हमें शादी करनी ही है.

ऐक्सपो खत्म होने पर मैं ने इत्सिंग से कहा,”एक बार मेरे घर चलो. मेरे मांबाप से मिलो और उन्हें इस शादी के लिए तैयार करो. उन के आगे साबित करो कि तुम मेरे लिए परफैक्ट रहोगे.”

इत्सिंग ने मेरे हाथों पर अपना हाथ रख दिया. हम एकदूसरे के आगोश में खो गए. 2 दिन बाद ही इत्सिंग मेरे साथ दिल्ली एअरपोर्ट पर था. मैं उसे रास्ते भर समझाती आई थी कि उसे क्या बोलना है और कैसे बोलना है, किस तरह मम्मीपापा को इंप्रैस करना है.

मैं ने उसे समझाया था,”हमारे यहां बड़ों को गले नहीं लगाते बल्कि आशीर्वाद लेते हैं. नमस्कार करते हैं.”

मैं ने उसे सब कुछ कर के दिखाया था. मगर एअरपोर्ट पर मम्मीपापा को देखते ही इत्सिंग सब भूल गया और हंसते हुए उन के गले लग गया. मम्मीपापा ने भी उसे बेटे की तरह सीने से लगा लिया था. मेरी फैमिली ने इत्सिंग को अपनाने में देर नहीं लगाई थी मगर उस के मम्मीपापा को जब यह बात पता चली और इत्सिंग ने मुझे उन से मिलवाया तो उन का रिएक्शन बहुत अलग था.

उस के पापा ने नाराज होते हुए कहा था,”लड़की की भाषा, रहनसहन, खानपान, वेशभूषा सब बिलकुल अलग होंगे. कैसे निभाएगी वह हमारे घर में? रिश्तेदारों के आगे हमारी कितनी बदनामी होगी.”

इत्सिंग ने उन्हें भरोसा दिलाते हुए कहा था,”डोंट वरी पापा, रिद्धिमा सब कुछ संभाल लेगी. रिद्धिमा खुद को बदलने के लिए तैयार है. वह चाइनीज कल्चर स्वीकार करेगी.”

“पर भाषा? वह इतनी जल्दी चाइनीज कैसे सीख लेगी?” पापा ने सवाल किया.

“पापा वह चाइनीज जानती है. उस ने चाइनीज लैंग्वेज में ही ग्रैजुएशन किया है. वह बहुत अच्छी चाइनीज बोलती है,” इत्सिंग ने अपनी बात रखी.

यह जवाब सुन कर उस के पापा के चेहरे पर हलकी सी मुसकान आ गई. थोड़ी नानुकर के बाद उस के मांबाप ने भी मुझे अपना लिया. उस के पिता हमारी शादी के लिए तैयार तो हो गए मगर उन्होंने हमारे सामने एक शर्त रखते हुए कहा,” मैं चाहता हूं कि तुम दोनों की शादी चीनी रीतिरिवाज के साथ हो. इस में मैं किसी की नहीं सुनूंगा.”

“जी पिताजी,” हम दोनों ने एकसाथ हामी भरी.

बाद में जब मैं ने अपने मातापिता को यह बात बताई तो वे अड़ गए. वे मुझे अपने घर से विदा करना चाहते थे और वह भी पूरी तरह भारतीय रीतिरिवाजों के साथ. मैं ने यह बात इत्सिंग को बताई तो वह भी सोच में डूब गया. हम किसी को भी नाराज नहीं कर सकते थे. पर एकसाथ दोनों की इच्छा पूरी कैसे करें यह बात समझ नहीं आ रही थी.

तभी मेरे दिमाग में एक आईडिया आया,” सुनो इत्सिंग क्यों न हम बीच का रास्ता निकालें. ”

“मतलब?”

“मतलब हम चाइनीज तरीके से भी शादी करें और इंडियन तरीके से भी.”

“ऐसा कैसे होगा रिद्धिमा?”

“आराम से हो जाएगा. देखो हमारे यहां यह रिवाज है कि दूल्हा बारात ले कर दुलहन के घर आता है. सो तुम अपने खास रिश्तेदारों के साथ इंडिया आ जाना. इस के बाद हम पहले भारतीय रीतिरिवाजों को निभाते हुए शादी कर लेंगे उस के बाद अगले दिन हम चाइनीज रिवाजों को निभाएंगे. तुम बताओ कि चाइनीज वैडिंग की खास रस्में क्या हैं जिन के बगैर शादी अधूरी रहती है?”

“सब से पहले तो बता दूं कि हमारे यहां एक सैरिमनी होती है जिस में कुछ खास लोगों की उपस्थिति में कोर्ट हाउस या गवर्नमैंट औफिस में लड़केलड़की को कानूनी तौर पर पतिपत्नी का दरजा मिलता है. कागजी काररवाई होती है.”

“ठीक है, यह सैरिमनी तो हम अभी निबटा लेंगे. इस के अलावा बताओ और क्या होता है?”

“इस के अलावा टी सैरिमनी चाइनीज वैडिंग का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. इसे चाइनीज में जिंग चा कहा जाता है जिस का अर्थ है आदर के साथ चाय औफर करना. इस के तहत दूल्हादुलहन एकदूसरे के परिवार के प्रति आदर प्रकट करते हुए पहले पेरैंट्स को, फिर ग्रैंड पेरैंट्स को और फिर दूसरे रिश्तेदारों को चाय सर्व करते हैं. बदले में रिश्तेदार उन्हें आशीर्वाद और तोहफे देते हैं.”

“वह तो ठीक है इत्सिंग, पर इस मौके पर चाय ही क्यों?”

“इस के पीछे भी एक लौजिक है.”

“अच्छा वह क्या?” मैं ने उत्सुकता के साथ पूछा.

“देखो, यह तो तुम जानती ही होगी कि चाय के पेड़ को हम कहीं भी ट्रांसप्लांट नहीं कर सकते. चाय का पेड़ केवल बीजों के जरीए ही बढ़ता है. इसलिए इसे विश्वास, प्यार और खुशहाल परिवार का प्रतीक माना जाता है.”

“गुड,” कह कर मैं मुसकरा उठी. मुझे इत्सिंग से चाइनीज वैडिंग की बातें सुनने में बहुत मजा आ रहा था.

मैं ने उस से फिर पूछा,” इस के अलावा और कोई रोचक रस्म?”

“हां, एक और रोचक रस्म है और वह है गेटक्रशिंग सैशन. इसे डोर गेम भी कह सकती हो. इस में दुलहन की सहेलियां तरहतरह के मनोरंजक खेलों के द्वारा दूल्हे का टैस्ट लेती हैं और जब तक दूल्हा पास नहीं हो जाता वह दुलहन के करीब नहीं जा सकता.”

इस रिवाज के बारे में सुन कर मुझे हंसी आ गई. मैं ने हंसते हुए कहा,”थोड़ीथोड़ी यह रस्म हमारे यहां की जूता छुपाई रस्म से मिलतीजुलती है.”

“अच्छा वही रस्म न जिस में दूल्हे का जूता छिपा दिया जाता है और फिर दुलहन की बहनों द्वारा रिश्वत मांगी जाती है? ”

मैं ने हंसते हुए जवाब दिया,”हां, यही समझ लो. वैसे लगता है तुम्हें भी हमारी रस्मों के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी है.”

“बिलकुल मैडम जी, यह गुलाम अब आप का जो बनने वाला है.”

उस की इस बात पर हम दोनों हंस पड़े.

“तो चलो यह पक्का रहा कि हम न तुम्हारे पेरैंट्स को निराश करेंगे और न मेरे पेरैंट्स को,” मैं ने कहा.

“बिलकुल.”

और फिर वह दिन भी आ गया जब दिल्ली के करोलबाग स्थित मेरे घर में जोरशोर से शहनाइयां बज रही थीं. हम ने संक्षेप में मगर पूरे रस्मोरिवाजों के साथ पहले इंडियन स्टाइल में शादी संपन्न की जिस में मैं ने मैरून कलर की खूबसूरत लहंगाचोली पहनी. इत्सिंग ने सुनहरे काम से सजी हलके नीले रंग की बनारसी शाही शेरवानी पहनी थी जिस में वह बहुत जंच रहा था. उस ने जिद कर के पगड़ी भी बांधी थी. उसे देख कर मेरी मां निहाल हो रही थीं.

अगले दिन हम ने चीनी तरीके से शादी की रस्में निभाई. मैं ने चीनी दुल्हन के अनुरूप खास लाल ड्रैस पहनी जिसे वहां किपाओ कहा जाता है. चेहरे पर लाल कपड़े का आवरण था. चीन में लाल रंग को खुशी, समृद्धि और बेहतर जीवन का प्रतीक माना जाता है. इसी वजह से दुलहन की ड्रैस का रंग लाल होता है.

सुबह में गेटक्रैशिंग सेशन और टी सैरिमनी के बाद दोपहर में शानदार डिनर रिसैप्शन का आयोजन किया गया. दोनों परिवारों के लोग इस शादी से बहुत खुश थे. इस शादी को सफल बनाने में हमारे रिश्तेदारों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभाई थी. दोनों ही तरफ के रिश्तेदारों को एकदूसरे की संस्कृति और रिवाजों के बारे में जानने का सुंदर अवसर भी मिला था.

इसी के साथ मैं ने और इत्सिंग ने नए जीवन की शुरुआत की. हमारे प्यारे से संसार में 2 फूल खिले. बेटा मा लोंग और बेटी रवीना. हम ने अपने बच्चों को इंडियन और चाइनीज दोनों ही कल्चर सिखाए थे.

आज दीवाली थी. हम बीजिंग में थे मगर इत्सिंग और मा लोंग ने कुरतापजामा और रवीना ने लहंगाचोली पहनी हुई थी.

व्हाट्सएप वीडियो काल पर मेरे मम्मीपापा थे और बच्चों से बातें करते हुए बारबार उन की आंखें खुशी से भीग रही थीं.

सच तो यह है कि हमारा परिवार न तो चाइनीज है और न ही इंडियन. मेरे बच्चे एक तरफ पिंगपोंग खेलते हैं तो दूसरी तरफ क्रिकेट के भी दीवाने हैं. वे नूडल्स भी खाते हैं और आलू के पराठों के भी मजे लेते हैं. वे होलीदीवाली भी मनाते हैं और त्वान वू या मिड औटम फैस्टिवल का भी मजा लेते हैं. हर बंधन से परे यह तो बस एक खुशहाल परिवार है. यह एक जहान है प्यार भरा.

निश्चय: क्या सुधा ने लिया मातृत्व का गला घोंटने का फैसला?

सुधा और अनिल ने एकसाथ डाक्टरी की पढ़ाई की थी. दोनों की यही इच्छा थी कि वे अमेरिका जा कर अपना काम शुरू करें और साथसाथ पढ़ाई भी जारी रखें. दोनों के परस्पर विवाह पर भी मातापिता की ओर से कोई रुकावट नहीं हुई थी. इसलिए दोनों विवाह के कुछ समय बाद ही अमेरिका आ गए.

अमेरिका का वातावरण उन्हें काफी रास आया. अनिल और सुधा ने यहां आ कर 5 वर्ष में काफी तरक्की कर ली थी. अब अनिल ने नौकरी छोड़ कर अपना क्लीनिक खोल लिया था, लेकिन सुधा अभी भी नौकरी कर रही थी. उस का कहना था, ‘नौकरी में बंधेबंधाए घंटे होते हैं. उस के साथसाथ घर पर भी समया- नुसार काम और आराम का समय मिलता है, जबकि अपने काम में थोड़ा लालच भी होता है और यह भी निश्चित होता है कि जब तक अंतिम रोगी को देख कर विदा न कर दिया जाए, डाक्टर अपना क्लीनिक नहीं छोड़ सकता.’  खैर, जो भी हो, सुधा को नौकरी करना ही ज्यादा उचित लगा था. शायद पैसों के पीछे भागना उसे अच्छा नहीं लगता था और न ही वह उस की जरूरत समझती थी. वह अब एक भरापूरा घरपरिवार चाहती थी. भरेपूरे परिवार से उस का मतलब था कि घर में बच्चे हों, हंसी- ठिठोली हो. जीवन के एक ही ढर्रे की नीरसता से वह ऊबने लगी थी.

पहलेपहल जब वे यहां आए थे तो दोनों की ही इच्छा थी कि अभी 3-4 वर्ष पढ़ाई पूरी करने के पश्चात अपनी प्रैक्टिस जमा लें और आर्थिक स्थिति मजबूत कर लें, फिर बच्चों का सोचेंगे. अब सुधा को लगने लगा था कि वह समय आ गया है, जब वह एकाध वर्ष छुट्टी ले कर या नौकरी छोड़ कर आराम कर सकती है और मां बनने की अपनी इच्छा पूरी कर सकती है. इसी आशय से एक दिन उस ने अनिल से बात भी चलाई थी, लेकिन वह यह कह कर टाल गया था कि ‘नहीं, अभी तो हमें बहुत कुछ करना है.’ यह ‘बहुत कुछ करना’ जो था, वह सुधा अच्छी तरह जानती थी.

वास्तव में अनिल यहां आ कर इतना ज्यादा भौतिकवादी हो गया था कि दिनरात रुपए के पीछे भागता फिरता था. वे केवल 2 ही प्राणी थे. रहने को अच्छा बड़ा सा मकान था, जो सभी सुखसुविधाओं से सुसज्जित था. दोनों के पास गाडि़या थीं. अपना एक क्लीनिक भी था, लेकिन अनिल पर तो नर्सिंगहोम खोलने की धुन सवार थी. नर्सिंगहोम खोलने से सुधा ने कभी इनकार नहीं किया था, लेकिन वह अब थोड़ा आराम भी करना चाहती थी. उसे लगता था कि पिछले कितने वर्ष भागदौड़ में ही बीत गए हैं.

कभी चैन से छुट्टियां बिताने का भी समय दोनों को नहीं मिल पाया. वैसे भी सुधा अब वास्तव में मातृत्व का सुख भी लेना चाहती थी.  प्राय: जब अनिल क्लीनिक से घर लौटने में देर कर देता तो सुधा अकेली बैठीबैठी यही सब सोचा करती कि कैसी मशीनी जिंदगी जी रहे हैं, वे लोग. बाहर से थक कर आओ तो घर का काम करना होता था. अपने लिए तो कोई समय ही नहीं बचता था. रोज ही वह सोचती कि अनिल से बात करेगी पर हर रोज अनिल किसी न किसी बहाने से बच्चे की बात को टाल जाता.

धीरेधीरे सुधा की शादी को 8 साल बीत गए. पहले पढ़ाईलिखाई के कारण ही उस ने विवाह औसत आयु की अपेक्षा देर से किया था. फिर काम और अनिल की बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं के कारण वह अपनी इच्छा को पूरा नहीं कर पाई थी, लेकिन एक डाक्टर होने के नाते अब वह जानती थी कि वैसे ही बच्चे को जन्म देने की दृष्टि से उस की आयु बढ़ती जा रही है. दूसरी ओर अनिल की ओर से कोई उत्साह भी नहीं दिखाई देता था. अंत में उस ने यही तय किया कि वह अनिल से साफसाफ कह देगी कि उस के नर्सिंगहोम और दूसरी इच्छाओं की खातिर वह अपने अरमानों का गला नहीं घोंटेगी. वह अब और अधिक प्रतीक्षा नहीं करेगी.

अनिल जब रात को लौटा तो सुधा टीवी के सामने बैठी उस की प्रतीक्षा कर रही थी. अनिल ने जब आराम से खाना वगैरह खा लिया तो सुधा ने धीरेधीरे बात आरंभ की, लेकिन अनिल ने उत्साह दिखाना तो दूर, उसे फटकार दिया, ‘‘यह  क्या बेवकूफी भरी हरकत है. अभी मेरे पास समय नहीं है, इन सब बातों के लिए. अभी मुझे बहुत आगे बढ़ना है, सफलता प्राप्त करनी है. अपने इलाके में एक शानदार नर्सिंगहोम खोलना है, जिस में तुम्हारी सहायता की आवश्यकता भी होगी. अभी कम से कम 3 साल तक इस विषय में सोचना भी असंभव है.’’

सुधा की अवस्था एक चोट खाई हुई नागिन जैसी हो गई. वह चिल्ला कर बोली, ‘‘भाड़ में जाए तुम्हारी सफलता, तुम्हारा पैसा और भाड़ में जाए नर्सिंगहोम…मुझे नहीं चाहिए यह सब- कुछ…  बात बिगड़ते देख कर अनिल ने बड़ी चतुराई से स्थिति को संभालने की कोशिश की. सुधा को पुचकार कर समझाने लगा और अपनी ओर से पूरा प्रयत्न कर के उसे शांत किया.

इस झगड़े के लगभग 4 महीने पश्चात एक दिन सुधा को लगा कि वह गर्भवती है. इस बात से वह बहुत प्रसन्न थी. डाक्टर से जांच करवाने के पश्चात ही वह अनिल को यह समाचार देना चाहती थी. वह एक दोपहर अपने ही अस्पताल की डाक्टर के पास जांच करवाने गई. जांच रिपोर्ट ने यही बताया कि अब वह मां बनने वाली है. शाम को जब सुधा घर आई तो वह अपने को रोक नहीं पा रही थी. उस ने 2 बार रिसीवर उठाया कि अनिल को बताए, लेकिन फिर यह सोच कर रुक गई कि यदि वह फोन पर बता देगी तो अनिल के चेहरे पर आने वाले खुशी और आनंद के भावों को कैसे देख सकेगी.

रात को जब अनिल घर आया तो सुधा ने उसे बड़े उत्साह से यह खुशखबरी सुनाई. अनिल तो सुन कर भौचक्का रह गया. वह गुस्से से बोला, ‘‘तुम्हें ऐसा करने को किस ने कहा था? मेरी सारी योजनाओं को तुम ने मिट्टी में मिला दिया. कोई जरूरत नहीं, अभी इस की. कल जा कर गर्भपात करवा लो. मैं डाक्टर से समय ले दूंगा.’’

इतना सुनते ही सुधा चीख कर बोली, ‘‘मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी. मैं ने कितनी प्रतीक्षा के बाद इसे पाया है. इतने चाव से इस की प्रतीक्षा की और आज मैं इस की हत्या कर दूं? ऐसा कभी नहीं हो सकता.’’

अनिल बोला, ‘‘तुम यह तो सोचो कि इस से मुझे कितनी मुश्किल होगी. कम से कम 1 साल तक तो तुम बंध ही जाओगी और मुझे तुम्हारे होते हुए दूसरे डाक्टरों की नियुक्ति करनी पड़ेगी. तुम तो जानती ही हो कि यहां डाक्टरों को कितना ज्यादा वेतन देना पड़ता है. मैं ने तुम से कहा था कि हमें अभी किसी बच्चे की कोई आवश्यकता नहीं है…अभी हमारे पास फुरसत ही कहां है, इन सब झमेलों के लिए.’’

‘‘आवश्यकता तो मुझे है…मेरा मन करता है कि मैं भी मां बनूं. मेरी भी इच्छा होती है कि एक नन्हामुन्ना बच्चा मेरे इस सूने, नीरस से घर और जीवन को अपनी मीठी आवाज और किलकारियों से भर दे,’’ सुधा बोली.

‘‘तो तुम नहीं जाओगी डाक्टर के पास?’’ अनिल ने क्रोध में भर कर पूछा.

‘‘हरगिज नहीं,’’ सुधा फिर चीखी.

‘‘तो फिर कान खोल कर सुन लो, अगर तुम इस बच्चे को रखना चाहती हो तो मुझे खोना होगा,’’ इतना कह कर अनिल घर का द्वार बंद कर बाहर चला गया.

कुछ क्षणों में ही अनिल की कार के स्टार्ट होने की आवाज आई. सुधा टूट कर पलंग पर गिर पड़ी और फूटफूट कर रोने लगी. सोचने लगी कि क्या करे, क्या न करे. उसे लगता कि 2 नन्हीनन्ही बांहें उस की ओर बढ़ रही हैं. उसे लगा, कोई नन्हा शिशु उस की गोद में आने को मचल रहा है. न जाने कब सुधा रोतेरोते कल्पना के जाल बुनतीबुनती सो गई. सवेरा हुआ तो वह उठी. रोज की भांति तैयार हुई और अपने अस्पताल की ओर चल पड़ी. दिन भर सोचती रही कि शायद अनिल का फोन आएगा या वह स्वयं आ कर उसे मना लेगा, लेकिन कोई फोन नहीं आया.

सुधा भारी मन से घर लौटी. देर तक टीवी देखने के बहाने अनिल का इंतजार करती रही, लेकिन अनिल घर ही नहीं आया. अगले दिन सवेरे अनिल आया और कुछ जरूरी सामान उठा कर बोला, ‘‘अगर तुम ने अपना फैसला नहीं बदला तो मेरी भी एक बात सुन लो, मैं भी अब इस घर में कभी कदम नहीं रखूंगा. मैं ने वहीं एक फ्लैट ले लिया है और वहीं रह कर अपना क्लीनिक संभालूंगा. बाद में नर्सिंगहोम का काम भी मैं खुद ही संभाल लूंगा. तुम्हारा और मेरा अब कोई संबंध नहीं है.’’

अनिल के जाते ही सुधा का निश्चय और भी पक्का हो गया. धीरेधीरे मन को समझाबुझा कर उस ने भी कामकाज में स्वयं को व्यस्त कर लिया. अगर कभी अनिल का खयाल आया भी तो उस ने अपनेआप को किसी न किसी बहाने से बहलाने की ही कोशिश की और स्वयं को किसी भी क्षण दुर्बल नहीं होने दिया. कभीकभार दोनों की मुलाकात हो भी जाती तो दोनों चुपचाप एकदूसरे से किनारा कर लेते. समय गुजरता गया. सुधा ने एक सुंदर, स्वस्थ बेटे को जन्म दिया. वह शिशु को पा कर बहुत प्रसन्न थी. अनिल के पास भी उस ने सूचना भिजवाई, लेकिन वह अपनी संतान को देखने भी नहीं आया.

अनिल अब दिनबदिन अधिक व्यस्त होता जा रहा था. उस के नर्सिंगहोम की ख्याति फैल रही थी. एक दिन अचानक अनिल को अपने नर्सिंगहोम से फोन आया. उसे जल्दी ही बुलाया गया था. एक महिला का गंभीर औपरेशन होना था. महिला दिल की मरीज थी और डाक्टरों ने उसे कहा था कि यदि वह बच्चा पैदा करने का साहस करेगी तो उस की जान को खतरा है.

वही महिला आज डाक्टर अनिल के पास गर्भावस्था में आ पहुंची थी. उस के बचने की संभावना बिलकुल नहीं थी. औपरेशन तो करना ही था, सो किया गया, लेकिन अनिल जच्चाबच्चा को न बचा सका. बड़ा ही दुखद दृश्य था. उस महिला का पति फूटफूट कर बच्चों की तरह रो रहा था. थोड़ी देर तक जी भर कर रो लेने के पश्चात जब उस का आवेग थोड़ा सा कम हुआ तो अनिल ने एक ही प्रश्न पूछा, ‘‘यदि तुम्हारी पत्नी गंभीर हालत में थी तो तुम ने उसे डाक्टर के मना करने पर भी ऐसा करने से रोका क्यों नहीं?’’

उस व्यक्ति ने भीगी आंखों से उत्तर दिया, ‘‘मेरी पत्नी जानती थी कि मुझे बच्चों से बहुत लगाव है. मैं आसपास के बच्चों को ही प्यार कर के अपना जी बहला लेता था.

‘‘आखिरी समय तक मैं उस से प्रार्थना करता रहा कि उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं और वह बच्चे को जन्म देने के योग्य नहीं, लेकिन वह मुझे प्रसन्न करने के लिए अकसर कहती, ‘यदि मैं मर भी गई तो यह बच्चा तो हम दोनों के प्यार और रिश्ते की यादगार के रूप में तुम्हारे पास रहेगा ही. मुझे इसी से बेहद खुशी मिलेगी.’

‘‘अंत में जिस बात के लिए उस ने इतना बड़ा बलिदान दिया, वह भी पूरी न हुई. न वह रही, न बच्चा. मैं उसे मना करता रहा, लेकिन उस ने मेरी एक न सुनी,’’ और वह व्यक्ति फिर रोने लगा.

अनिल भारी मन से घर आया. सहसा उसे अपनी सुधा की बहुत याद आने लगी. उस ने साहस बटोर कर घर के बाहर खड़ी गाड़ी स्टार्ट की और सुधा के घर के सामने जा पहुंचा. अनिल ने दरवाजे पर लगी घंटी बजाई. थोड़ी देर में दरवाजा खुला. सुधा अवाक् अनिल को देखती रह गई. कुछ क्षणों तक दोनों उसी अवस्था में खड़े रहे. फिर धीरे से अनिल ने कहा, ‘‘माफी यहीं से ही मांग लूं या अंदर आने की मुझे अनुमति है?’’ थोड़ी देर के लिए सुधा कुछ सोचती रही. फिर दरवाजा छोड़ कर उस ने अनिल के अंदर आने के लिए रास्ता बना दिया.

झूठ कहा था उस ने

अनीता नाम बताया था उस ने. उम्र करीब 40 वर्ष, सिंपल साड़ी, लंबी चोटी, चेहरे पर कोई मेकअप नहीं. आंखों में एक अजीब सा कुतुहल जो उसे खास बनाता था 2-4 दिनों से देख रहा हूं उसे. हमारी यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की प्रोफैसर बन कर आई है और मैं अर्थशास्त्र पढ़ाता हूं. साहित्य में रुचि होने की वजह से मैं अकसर लाइब्रेरी में 1-2 घंटे बिताता हूं. वह भी अकसर वहीं बैठी दिख जाती.  एक दिन मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘क्या आप भी साहित्य में रुचि रखती हैं?’’

‘‘जी हां, बड़ेबड़े कवियों की कविताएं और शायरी पढ़ना खासतौर पर पसंद है. मैं भी छोटीमोटी कविताएं लिख लेती हूं.’’

‘‘वाह तब तो खूब जमेगी हमारी,’’ मैं उत्साहित हो कर बोला.

उस की आंखों में भी चमक उभर आई थी. हमारी बनने लगी. अकसर हम लोग लाइब्रेरी में पुरानी किताबें निकालते और फिर घंटों चर्चा करते. व्याख्याओं के लिए लाइब्रेरी में 2 कमरे अलग थे, जिन में शीशे के दरवाजे थे, ताकि बातचीत से दूसरे डिस्टर्ब न हों.

एक दिन मैं ने सवाल दागा, ‘‘मैं ने अकसर देखा है आप घंटों यहां रुक जाती हैं. घर में पति वगैरह इतंजार…’’ मैं ने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

वह हंस पड़ी, ‘‘नहीं, मेरे घर में पति नाम का जीव नहीं जो चाबुक ले कर मेरा इंतजार कर रहा हो.’’

‘‘चाबुक ले कर?’’ मैं हंसा.

‘‘जी हां, पति चाबुक ले कर इंतजार करे या फूल ले कर, मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं, क्योंकि मैं कुंआरी हूं.’’

‘‘कुंआरी?’’ मैं चौंका और फिर कुरसी उस के करीब खिसका ली, ‘‘यानी आप ने अब तक शादी नहीं की. मगर क्यों?’’

‘‘कभी पढ़ने का जनून रहा तो कभी पढ़ाने का… शायद एक वजह यह भी है कि आप जैसा कायदे का शख्स मुझे मिला ही नहीं.’’

‘‘तो क्या मैं आप को मिलता और प्रपोज करता तो आप मुझ से शादी कर लेतीं?’’ मैं ने शरारती लहजे में कहा.

‘‘सोचती तो जरूर,’’ उस ने भी आंखें नचाते हुए कहा.

‘‘वैसे आप को बता दूं घर में मेरा भी कोई इंतजार करने वाली नहीं.’’

‘‘क्या आप भी कुंआरे हैं.’’

‘‘कुंआरा तो नहीं पर अकेला जरूर हूं. बीवी शादी के 2 साल बाद ही एक दुर्घटना में…’’

‘‘उफ, सौरी… तो आप ने दूसरी शादी क्यों नहीं की? कोई बच्चा है?’’

‘‘हां, बेटा है. बैंगलुरु में पढ़ रहा है.

अभी तक बीवी को नहीं भूल पाया हूं,’’ कहते हुए मैं उठ खड़ा हुआ, ‘‘मेरी क्लास का समय हो रहा है. चलता हूं,’’ कह मैं चला आया.

उस पल अपनी बीवी का खयाल मुझे उद्वेलित कर गया था. मैं स्वयं को संभाल नहीं पाया था, इसलिए चला आया. मेरी संवेदनशीलता को उस ने भी महसूस किया था.

अगले दिन वह स्वयं ही मुझ से बात करने आ गई.  बोली, ‘‘आई एम सौरी…  आप वाइफ की बात करते हुए काफी इमोशनल हो गए थे.’’

‘‘हां, दरअसल मैं उस से बहुत प्यार करता था… उस के बाद बेटे को मैं ने ही संभाला. आज वह भी मुझ से दूर है तो थोड़ा दिल भर आया था.

‘‘मैं समझ सकती हूं. वैसे मुझे लग रहा है कि आप संवेदनशील होने के साथसाथ बहुत

प्यारे इनसान भी हैं. मुझे इस तरह के लोग बहुत पसंद हैं.’’

‘‘ओके तो… आप मुझे लाइक करने लगी हैं,’’ उस की बात का रुख अपनी फेवर में करने का प्रयास करते हुए मैं हंस पड़ा. वह कुछ बोली नहीं. बस नजरों से स्वीकृति देती हुई मुसकरा दी.

माहौल में रोमानियत सी छा गई. मैं ने धीरे से उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया और फिर दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे.

समान रुचि और एकजैसे हालात होने के साथसाथ एकदूसरे को पसंद करने की वजह से हम अब अकसर खाली समय साथ ही बिताने लगे थे. मैं अकसर उस के खयालों में गुम रहने लगा. न चाहते हुए भी लाइब्रेरी के चक्कर लगाता.  44 साल की उम्र में आशिकों जैसी अपनी हालत और हरकतें देख कर मुझे हंसी भी आती और मन में एक महका सा एहसास भी जगता.  कई महीने इसी तरह बीत गए. वक्त के साथ हम एकदूसरे के काफी करीब आ गए थे. वह मुझे अच्छी तरह समझने लगी थी. पर मैं अकसर सोचता कि क्या मैं भी उसे समझ पाया हूं? जब मैं उस के पास नहीं होता तो अकसर उसे गुमसुम बैठा देखता जबकि मैं उसे सदा मुसकराता देखना चाहता था. एक दिन मैं ने उस से कह ही दिया, ‘‘अनीता, क्या तुम्हें नहीं लगता कि अब हमें शादी कर लेनी चाहिए? तुम कहो तो तुम्हारे मातापिता से मिलने आ जाऊं?’’

सुन कर वह एकटक मुझे देखने लगी. उस के चेहरे पर एक पल को उदासीनता सी फैल गई. मुझे डर लगा कि कहीं वह मेरा प्रस्ताव अस्वीकार न कर दे. पर अगले ही पल वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘दरअसल, मेरे पापा तो बिजनैस के सिलसिले में विदेश गए हुए हैं. मम्मी अकेली मिल कर क्या करेंगी? ऐसा करते हैं कुछ दिन रुक जाते हैं. फिर तुम मेरे घर आ जाना.’’

मुझे क्या ऐतराज हो सकता था? अत: सहज स्वीकृति दे दी. उस दिन वह काफी देर तक मुझे अपने घर वालों के बारे में बताती रही. मैं आंखों में आंखें डाले उस की बातें सुनता रहा.

वह अपने पापा के काफी करीब थी. कहने लगी, ‘‘मेरे पापा मुझ पर जान छिड़कते हैं. यदि मेरी आंखों में नमी भी नजर आ जाए तो वे अपने सारे काम छोड़ कर मुझे मनाने और खुश करने में लग जाते हैं… जब तक मैं हंस न दूं उन्हें चैन नहीं मिलता.’’

‘‘अच्छा तो तुम्हारे पापा क्या बिजनैस  करते हैं?’’

‘‘ऐक्सपोर्टइंपोर्ट का बिजनैस है.’’

‘‘ओके और मम्मी?’’

‘‘मम्मी हाउसवाइफ हैं. घर को इतने करीने से सजा कर रखती हैं कि तुम देख कर दंग रह जाओगे. कोई भी चीज इधर से उधर हो जाए तो समझ जाना कि उन के गुस्से से बच नहीं सकोगे.’’

‘‘अच्छा तो मुझे इस बात का खयाल  रखना होगा,’’ मैं ने मुसकराते हुए कहा तो वह मेरे सीने से लग गई. मैं ने देखा उस की आंखें  भर आई थीं.

‘‘क्या हुआ,’’ मैं ने पूछा, पर वह कुछ  नहीं बोली.

‘‘बहुत प्यार करती हो अपने पेरैंट्स से… तभी शादी का इरादा नहीं,’’ मैं ने कहा.

मेरी बात सुन कर वह हंस पड़ी, ‘‘हां  शायद मैं अपने पेरैंट्स को छोड़ कर कहीं जाना ही नहीं चाहती.’’

‘‘चिंता न करो, तुम कहोगी तो हम उन्हें भी साथ ले चलेंगे… वे हमारे साथ रहेंगे. ठीक है न?’’

वह कुछ नहीं बोली. बस प्यार भरी नजरों से मुझे देखती रही. मुझे लगा जैसे उसे मेरी बात पर यकीन नहीं हो रहा. पर मैं ने भी अपने मन में दृढ़ फैसला कर लिया कि अनीता के मातापिता को अपने साथ रखूंगा. आखिर उस के पेरैंट्स मेरे भी तो पेरैंट्स हुए न.

पेरैंट्स के अलावा अनीता अकसर अपने भाई और भाभी का जिक्र भी करती  थी. उस ने एक दिन विस्तार से सारी बात बताई कि उस का एक ही भाई है, जो उसे बेहद प्यार करता है. मगर भाभी का स्वभाव कुछ ठीक नहीं. भाभी ने शादी के बाद से भाई को अपने नियंत्रण में रखा हुआ है.

‘‘चलो, आज मैं तुम्हारे घर वालों से मिल लेता हूं,’’ एक दिन फिर मैं ने अनीता से कहा तो वह थोड़ी खामोश हो गई. फिर बोली, ‘‘कुछ महीनों के लिए पापा के साथ मम्मी भी गई हैं… वैसे मैं ने उन से तुम्हारी सारी बातें शेयर की हैं… उन्हें इस शादी से कोई ऐतराज नहीं. मैं ने उन्हें आप का फोटो भी दिखाया है… ऐसा करते हैं नितिन, मैं तुम्हारे घर वालों से मिल लेती हूं.’’

‘‘मेरा बेटा भी फिलहाल घर पर नहीं है,’’ मैं ने कहा.

‘‘यह तो बड़ी मुश्किल है. पर देखो, मियांबीवी राजी तो क्या करेगा काजी…’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब तुम शादी की तारीख तय करो. तब तक मम्मीपापा भी आ जाएंगे.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा. मगर तुम एक बार फिर सोच लो. शादी के लिए पूरी तरह तैयार  हो न?’’

‘‘बिलकुल… मैं तनमनधन से आप की बनने को तैयार हूं,’’ अनीता ने हंसते हुए कहा तो मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा.

उस रात मैं बड़ी देर तक जागता रहा. अनीता ही मेरे खयालों में छाई रही. रहरह कर उस का चेहरा मेरी आंखों के सामने आ जाता. दिल में एक भय भी था कि कहीं उस के मातापिता तैयार नहीं हुए तो? भाईभाभी ने किसी बात पर ऐतराज किया तो? मगर अनीता की संशयरहित हां ने मेरी हिम्मत बढ़ाई थी. मैं ने ठीक 12 बजे अनीता को फोन किया.

‘‘अगले महीने की पहली तारीख को हम सदा के लिए एक हो जाएंगे. कैसा रहेगा?’’

‘‘बहुत अच्छा… तुम यह डेट फाइनल कर लो.’’

‘‘मगर तुम्हारे मम्मीपापा और भाई? वे लोग पहुंच तो जाएंगे न?’’

‘‘मैं उन्हें अभी बता देती हूं,’’ खुशी से चहकती हुई अनीता ने कहा तो मेरी सारी शंकाएं दूर हो गईं.

अगले ही दिन मैं ने अपने खास लोगों को शादी की सूचना दे दी. बेटे से तो यह बात बहुत पहले ही शेयर कर ली थी. वह बहुत खुश था. हम ने तय किया कि कोर्ट मैरिज कर के रिश्तेदारों को पार्टी दे देंगे. धीरेधीरे समय गुजरता गया. शादी का दिन करीब आ गया. यूनिवर्सिटी में भी सब को इस की सूचना मिल चुकी थी. हमारे रिश्ते से सब खुश थे. शादी से 1 सप्ताह पहले जब मैं ने अनीता से उस के घर वालों के बारे में पूछा तो वह बोली कि सब आ जाएंगे…

मैं ने अपनी सहमति दे दी. शादी का दिन भी आ गया. मेरा बेटा 4 दिन पहले आ चुका था. हम घर से सीधे कोर्ट जाने वाले थे. इसी पार्टी में मेरे और अनीता के सभी परिचितों और रिश्तेदारों को मिलना था. वैसे मेरे बहुत ज्यादा रिश्तेदार शहर में नहीं थे और शहर से बाहर के रिश्तेदारों को मैं ने बुलाया नहीं था. अनीता ने अपने रिश्तेदारों के बारे में कुछ ज्यादा नहीं बताया था. ठीक 11 बजे हमें कोर्ट पहुंचना था. मैं 10 बजे ही पहुंच गया. 11 बज गए पर अनीता नहीं आई. फोन किया तो फोन व्यस्त मिला. मैं बेचैनी से उस का इंतजार करने लगा. करीब 12 बजे अनीता अपनी 2-3 महिला मित्रों के साथ आई. एक वृद्ध आंटी और उन का बेटा भी था. मैं अनीता को अलग ले जा कर उस के घर वालों के बारे में पूछने लगा. वह थोड़ी घबराई हुई सी थी. बोली, ‘‘मम्मीपापा और भाई सब एकसाथ आ रहे हैं… ट्रेन लेट हो गई है. अब वे टैक्सी कर के आएंगे.’’

‘‘चलो फिर हम उन का इंतजार कर लेते हैं. मैं ने कहा तो वह खामोशी से बैठ गई. करीब 1 घंटा और गुजर गया. इस बीच अनीता ने 2-3 बार अपने घर वालों से बात की. वे रास्ते में ही थे. ‘‘नितिन अभी मम्मीपापा को आने मे 2-3 घंटे और लग जाएंगे.’’

मैं ने स्थिति की गंभीरता समझते हुए उस की बात सहर्ष स्वीकार कर ली. हम ने कागजी काररवाई पूरी कर ली. एकदूसरे को वरमाला पहना कर पतिपत्नी बन गए. पर मन में कसक रह गई कि अनीता के घर वाले नहीं पहुंच पाए. अनीता भी बेचैन सी थी. 2 घंटे बीत गए. मैं ने अनीता की तरफ प्रश्नवाचक नजरों से देखा तो वह फिर फोन मिलाने लगी.

अचानक मैं ने देखा कि बात करतेकरते वह रोंआसी सी हो गई.

मैं दौड़ कर उस के पास गया, ‘‘क्या हुआ अनीता? सब ठीक तो है?’’

‘‘नहीं, कुछ भी ठीक नहीं,’’ वह परेशान स्वर में बोली, ‘‘मेरे मम्मीपापा का ऐक्सीडैंट हो गया है. वे जिस टैक्सी से आ रहे थे वह किसी गाड़ी से टकरा गई. भाई है उन के पास. वह  उन्हें अस्पताल ले गया है. मैं अस्पताल हो कर आती हूं.’’

‘‘नहीं रुको, मैं भी चल रहा हूं,’’ मैं ने कहा तो वह एकदम असहज होती हुई बोली, ‘‘अरे नहीं नितिन, आप मेहमानोें को संभालो. मैं अकेली चली जाऊंगी. सब कुछ अकेले हैंडल करने की आदत है मुझे.’’

‘‘आदत है तो अच्छी बात है अनीता. पर अब मैं चलूंगा तुम्हारे साथ. मेहमानों को विजय देखा लेगा. बेटा जरा गाड़ी निकालना. हम अभी आते हैं,’’ मैं ने कहा और बेटे को सारी जिम्मेदारी सौंप अनीता के साथ निकल पड़ा.  रास्ते में अनीता बहुत गुमसुम और परेशान थी. मैं उस की स्थिति समझ रहा था.

‘‘अनीता, ऐक्सीडैंट नोएडा में हुआ है. अब बताओ कि उन्हें किस अस्पताल में दाखिल कराया गया है? हम नोएडा पहुंचने वाले हैं,’’ गाड़ी चलाते हुए मैं ने पूछा तो वह कुछ देर खामोश सी मुझे देखती रही. फिर धीरे से बोली, ‘‘सिटी अस्पताल.’’

मैं ने तेजी से गाड़ी सिटी अस्पताल की तरफ मोड़ दी. ‘‘अनीता, फोन कर के पूछो कि अब उन की तबीयत कैसी है? चोट कहांकहां लगी है? कोई सीरियस बात तो नहीं… और हां, यह भी पूछो कि उन्हें किस वार्ड में रखा गया है?’’

मेरी बात सुन कर भी वह खामोश रही. उसे परेशान देख मुझे भी बहुत दुख हो रहा था. अत: मैं भी खामोश हो गया.  गाड़ी अस्पताल तक पहुंच गई तो मैं ने फिर वही बात दोहराई, ‘‘अनीता प्लीज,  अपने भाई से पूछा कि वे किस वार्ड में हैं?’’

वह खामोश रही तो मैं घबरा गया. उसे झंझोड़ता हुआ बोला, ‘‘अनीता तुम मेरी बात का जवाब क्यों नहीं दे रही? बताओ अनीता क्या हुआ तुम्हें? तुम्हारे मम्मीपापा कहां हैं?’’

अचानक अनीता फूटफूट कर रो पड़ी, ‘‘कहीं नहीं हैं मेरे मम्मीपापा… कहीं नहीं हैं… मैं अकेली हूं इस दुनिया में बिलकुल अकेली. कोई नहीं है मेरा.’’

उसे रोता देख मैं घबरा गया. बोला, ‘‘यह क्या कह रही हो तुम? मम्मीपापा ठीक हो जाएंगे… चिंता न करो अनीता. मैं चल रहा हूं न तुम्हारे साथ… तुम बस बताओ, उन्हें किस वार्ड में रखा है.’’

अनीता मेरी तरफ देखती रही. फिर भीगी पलकें पोंछती हुई बोली, ‘‘मैं ने तुम से झूठ कहा था नितिन. मेरे मम्मीपापा बचपन में ही मर गए थे… कोई भाईबहन नहीं हैं. एक बूआ थीं, जिन्होंने मुझे पालापोसा. फिर वे भी इस दुनिया से चली गईं… सालों से बिलकुल अकेली जिंदगी जी रही हूं. मैं ने तुम से झूठ कहा था कि मेरा एक परिवार है… मुझे माफ कर दो प्लीज.’’

मैं हैरान सा उसे देखता रहा. फिर पूछा, ‘‘पर ऐसा करने की वजह?’’

‘‘क्योंकि मैं तुम्हें बहुत चाहती हूं नितिन. मुझे लगता था कि यदि मैं ने सच बता दिया तो तुम मुझे छोड़ कर चले जाओगे… प्लीज मुझ से नाराज न होना नितिन… आई लव यू.’’

मुझे अनीता पर कतई गुस्सा नहीं आ रहा था. उलटा उस के लिए सहानुभूति महसूस हो  रही थी. अत: मैं ने कहा, ‘‘झूठी कहानियां गढ़ने की कोई जरूरत नहीं थी अनीता… मैं तो खुद अकेला हूं… तुम्हारी तकलीफ कैसे नहीं समझूंगा? और हां, मैं वादा करता हूं आज  के बाद तुम्हें परिवार की कभी कमी महसूस नहीं होने दूंगा… मैं हूं न तुम्हारा परिवार… हम दोनों अकेले हैं… मिल जाएंगे तो खुद परिवार  बन जाएगा.’’

अनीता के चेहरे पर विश्वास की लकीरें खिंच आई थीं. उस ने सुकून के साथ अपना सिर मेरे सीने पर टिका दिया. मैं ने गाड़ी डा. संदीप के क्लीनिक की तरफ मोड़ ली. वे मेरे सहपाठी और जानेमाने मनोचिकित्सक हैं. यदि जरूरत महसूस हुई तो वे अनीता की काउंसलिंग कर उसे नई जिंदगी की बेहतर शुरुआत के लिए पूरी तरह तैयार कर देंगे.

लिस्ट : क्या सच में रिया का कोई पुरुष मित्र था?

संडे के दिन लंच के बाद मैं सारे काम निबटा कर डायरी उठा कर बैठ गई. मेहमानों की लिस्ट भी तो बनानी थी. 20 दिन बाद हमारे विवाह की 25वीं सालगिरह थी. एक बढि़या पार्टी की तैयारी थी.

आलोक भी पास आ कर बैठ गए. बोले, ‘‘रिया, बच्चों को भी बुला लो. एकसाथ बैठ कर देख लेते हैं किसकिस को बुलाना है.’’

मैं ने अपने युवा बच्चों सिद्धि और शुभम को आवाज दी, ‘‘आ जाओ बच्चो, गैस्ट लिस्ट बनानी है.’’

दोनों फौरन आ गए. कोई और काम होता तो इतनी फुरती देखने को न मिलती. दोनों कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे. अपने दोस्तों को जो बुलाना था. डीजे होगा, डांस करना है सब को. एक अच्छे होटल में डिनर का प्लान था.

मैं ने पैन उठाते हुए कहा, ‘‘आलोक, चलो आप से शुरू करते हैं.’’

‘‘ठीक है, लिखो. औफिस का बता देता हूं. सोसायटी के हमारे दोस्त तो कौमन ही हैं,’’ उन्होंने बोलना शुरू किया, ‘‘रमेश, नवीन, अनिल, विकास, कार्तिक, अंजलि, देविका, रंजना.’’

आखिर के नाम पर मैं ने आलोक को देखा तो उन्होंने बड़े स्टाइल से कहा, ‘‘अरे, ये भी तो हैं औफिस में…’’

‘‘मैं ने कुछ कहा?’’ मैं ने कहा.

‘‘देखा तो घूर कर.’’

‘‘यह रंजना मुझे कभी पसंद नहीं आई.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘तुम जानते हो, उस का इतना मटकमटक कर बा करना, हर पार्टी में तुम सब कुलीग्स के गले में हाथ डालडाल कर बातें करना बहुत बुरा लगता है. ऐसी उच्छृंखल महिलाएं मुझे कभी अच्छी नहीं लग सकतीं.’’

‘‘रिया, ऐसी छोटीछोटी बातें मत सोचा करो. आजकल जमाना बदल गया है. स्त्रीपुरुष की दोस्ती में ऐसी छोटीछोटी बातों पर कोई ध्यान नहीं देता… अपनी सोच का दायरा बढ़ाओ.’’

मैं चुप रही. क्या कहती. आलोक के प्रवचन सुन कर कुछ कटु शब्द कह कर फैमिली टाइम खराब नहीं करना चाहती थी. अत: चुप ही रही.  फिर मैं ने शुभम से कहा, ‘‘अब तुम लिखवाओ अपने दोस्तों के नाम.’’

शुभम शुरू हो गया, ‘‘रचना, शिवानी, नव्या, अंजलि, टीना, विवेक, रजत, सौरभ…’’

मैं बीच में ही हंस पड़ी, ‘‘लड़कियां कुछ ज्यादा नहीं हैं लिस्ट में?’’

‘‘हां मौम, खूब दोस्त हैं मेरी,’’ कह वह और भी नाम बताता रहा और मैं लिखती रही.

‘‘यह हमारी शादी की सालगिरह है या तुम लोगों का गैट टु गैदर,’’ मैं ने कहा.

‘‘अरे मौम, सब वेट कर रहे हैं पार्टी का… नव्या और रचना तो डांस की प्रैक्टिस भी करने लगी हैं… दोनों सोलो परफौर्मैंस देंगी.’’

सिद्धि ने कहा, ‘‘चलो मौम, अब मेरे दोस्तों के नाम लिखो- आशु, अभिजीत, उत्तरा, भारती, शिखर, पार्थ, टोनी, राधिका.’’

उस ने भी कई नाम लिखवाए और मैं लिखती रही. शुभम ने उसे छेड़ा, ‘‘देखो मौम, इस की लिस्ट में भी कई लड़के हैं न?’’

सिद्धि ने कहा, ‘‘चुप रहो, आजकल सब दोस्त होते हैं. हम लोग पार्टी का टाइम पूरी तरह ऐंजौय करने वाले हैं… आप देखना मौम आशु कितना अच्छा डांसर है.’’ इसी बीच आलोक को औफिस की 2 और लड़कियों के नाम याद आ गए. मैं ने वे भी लिख लिए.

‘‘हमारे दोस्तों की लिस्ट तो बन गई मौम. लाओ, मुझे डायरी और पैन दो मैं आप की फ्रैंड्स के नाम लिखूंगी,’’ सिद्धि बोली.

‘‘अरे, तुम्हारी मम्मी की लिस्ट तो मैं ही बता देता हूं,’’ मैं कुछ कहती उस से पहले ही आलोक बोल उठे तो मैं मुसकरा दी.

आलोक बताने लगे, ‘‘नीरा, मंजू, नीलम, विनीता, सुमन, नेहा… कुछ और भी होंगी किट्टी पार्टी की सदस्याएं… हैं न?’’  तब मैं ने 4-5 नाम और बताए. फिर अचानक कहा, ‘‘बस एक नाम और लिख लो, शरद.’’

‘‘यह कौन है?’’ तीनों चौंक उठे.

‘‘मेरा दोस्त है.’’

‘‘क्या? कभी नाम नहीं सुना… कौन है? इसी सोसायटी में रहता है?’’

तीनों के चेहरों के भाव देखने लायक थे.

आलोक ने कहा, ‘‘कभी तुम ने बताया नहीं. मुझे समझ नहीं आ रहा कौन है?’’

‘‘बताने को तो कुछ खास नहीं है. ऐसे ही कुछ दोस्ती है… मेरा मन कर रहा है कि मैं उसे भी सपरिवार इस पार्टी में बुला लूं. इसी सोसायटी में रहता है. 1 छोटी सी बेटी है. कई बार उसे सपरिवार घर बुलाने की सोची पर बुला नहीं पाई. अब पार्टी है तो मौका भी है… तुम लोगों को अच्छा लगेगा उस से मिल कर. अच्छा लड़का है.’’  तीनों को तो जैसे सांप सूंघ गया. माहौल एकदम  बदल गया. एकदम हैरत भरा, गंभीर माहौल.

आलोक के मुंह से फिर यही निकला, ‘‘तुम ने कभी बताया नहीं.’’

‘‘क्या बताना था… इतनी बड़ी बात नहीं थी.’’

‘‘कहां मिला तुम्हें यह?’’

‘‘लाइब्रेरी में मिल जाता है कभीकभी. मेरी तरह ही पढ़नेलिखने का शौकीन है… वहीं थोड़ी जानपहचान हो गई.’’

‘‘उस की पत्नी से मिली हो?’’

‘‘बस उसे देखा ही है. बात तो कभी नहीं हुई. अब सपरिवार बुलाऊंगी तो मिलना हो जाएगा.’’

शुभम ने कहा, ‘‘मौम, कुछ अजीब सा लग रहा है सुन कर.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पता नहीं मौम, आप के मुंह से किसी मेल फ्रैंड की बात अजीब सी लग रही है.’’

सिद्धि ने भी कहा, ‘‘मौम, मुझे भी आप से यह उम्मीद तो कभी नहीं रही.’’

‘‘कैसी उम्मीद?’’

‘‘यही कि आप किसी लड़के से दोस्ती करेंगी.’’

‘‘क्यों, इस में इतनी नई क्या बात है? जमाना बदल गया है न. स्त्रीपुरुष की मित्रता तो सामान्य सी बात है न. मैं तो थोड़ी देर पहले आप लोगों के विचार सुन कर खुश हो रही थी कि मेरा परिवार इतनी आधुनिक सोच रखता है, तो मेरे भी दोस्त से मिल कर खुश होगा.’’

अभी तक तीनों के चेहरे देखने लायक थे. तीनों को जैसे कोई झटका लगा था.  आलोक ने अचानक कहा, ‘‘अभी थोड़ा लेटने का मन हो रहा है. बच्चो, तुम लोग भी अपना काम कर लो. बाकी तैयारी की बातें बाद में करते हैं.’’  बच्चे मुंह लटकाए हुए चुपचाप अपने  रूम में चले गए. आलोक ने लेट कर आंखों पर हाथ रख लिया. मैं वहीं बैठेबैठे शरद के बारे में सोचने लगी…  साल भर पहले लाइब्रेरी में मिला था. वहीं थोड़ीबहुत कुछ पुस्तकों पर, पत्रिकाओं पर बात होतेहोते कुछ जानपहचान हो गई थी. वह एक स्कूल में हिंदी का टीचर है. उस की पत्नी भी टीचर है और बेटी तो अभी तीसरी क्लास में  ही है. उस का सीधासरल स्वभाव देख कर ही उस से बात करने की इच्छा होती है मेरी. कहीं कोई अमर्यादित आचरण नहीं. बस, वहीं खड़ेखड़े कुछ साहित्यिक बातें, कुछ लेखकों का जिक्र, बस यों ही आतेजाते थोड़ीबहुत बातें… मुझे तो उस का घर का पता या फोन नंबर भी नहीं पता… उसे बुलाने के लिए मुझे लाइब्रेरी के ही चक्कर काटने पड़ेंगे.

खैर, वह तो बाद की बात है. अभी तो मैं अपने परिवार की स्त्रीपुरुष मित्रता पर आधुनिक सोच के डबल स्टैंडर्ड पर हैरान हूं. शरद का नाम सुन कर ही घर का माहौल बदल गया. मैं कुछ हैरान थी. मैं तो कितनी सहजता से तीनों के दोस्तों की लिस्ट बना रही थी. मेरी लिस्ट में एक लड़के का नाम आते ही सब का मूड खराब हो गया. पहले तो मुझे थोड़ी देर तक बहुत गुस्सा आता रहा, फिर अचानक मेरा दिल कुछ और सोचने लगा.

इन तीनों को मेरे मुंह से एक पुरुष मित्र का नाम सुन कर अच्छा नहीं लगा… ऐसा क्यों हुआ? वह इसलिए ही न कि तीनों मुझे ले कर पजैसिव हैं तीनों बेहद प्यार करते हैं मुझ से, जैसेजैसे मैं इस दिशा में सोचती गई मेरा मन हलका होता गया. कुछ ही पलों में डबल स्टैंडर्ड के साथसाथ मुझे इस बात में भी बहुत सा स्नेह, प्यार, सुरक्षा, अधिकार की भावना महसूस होने लगी. फिर मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं रही. मुझे कुछ हुत अच्छा लगा.  अचानक फिर तीनों के साथ बैठने का मन हुआ तो मैं ने जोर से  आवाज दी, ‘‘अरे, आ जाओ सब. मैं तो मजाक कर रही थी. मैं तो तुम लोगों को चिढ़ा रही थी.’’

आलोक ने फौरन अपनी आंखों से हाथ हटाया, ‘‘सच? झूठ क्यों बोला?’’

बच्चे फौरन हाजिर हो गए, ‘‘मौम, झूठ  क्यों बोला?’’

‘‘अरे, तुम लोग इतनी मस्ती, मजाक करते रहते हो, तो क्या मैं नहीं तुम्हें चिढ़ा सकती?’’

सिद्धि ने फरमाया, ‘‘फिर भी मौम, ऐसे मजाक भी न किया करें… बहुत अजीब लगा था.’’

शुभम ने भी हां में हां मिलाई, ‘‘हां मौम, मुझे भी बुरा लगा था.’’

आलोक मुसकराते हुए उठ कर बैठ चुके थे, ‘‘तुम ने तो परेशान कर दिया था सब को.’’

अब फिर वही पार्टी की बातें थीं और  मैं मन ही मन अपने सच्चेझूठे मजाक पर मुसकराते हुए बाकी तैयारी की लिस्ट में व्यस्त हो गई. लेकिन मन के एक कोने में शरद की याद और ज्यादा पुख्ता हो गई. उसे तो किसी दिन बुलाना ही होगा. मैरिज ऐनिवर्सरी पर नहीं तो किसी और दिन.

नौकरानी नहीं रानी हूं मैं

ओ मैडमजी, आप की हिम्मत कैसे हुई मुझे कामवाली बाई, नौकरानी, महरी जैसे नामों से पुकारने की? बुलाना हो तो मुझे प्यार से मेरे नाम से पुकारें या मेड सर्वेंट अथवा मेड ही कहें. कान खोल कर सुन लो बीवीजी, मैं नौकरानी नहीं हूं. मैं जिस घर में भी जाती हूं रानी बन कर रहती हूं. नौकरानी तो मुझे कोई कह ही नहीं सकता. नौकरी को तो मैं अपनी जूती की नोक पर रखती हूं. जब मन चाहे ऐसी दोटकिया नौकरी को ठोकर मार कर चल देती हूं. गरज तो आप को है मेरी. मुझे नौकरी के लाले नहीं पड़े हैं. बहुतेरी नौकरियां मेरी राह में बिछी हैं. एक घर छोड़ू तो 10 घर मुझे हाथोंहाथ झेल लेंगे. रखना हो तो रखो, नहीं तो मैं तो चली…

एक बात अच्छी तरह समझ लो बीवीजी, काम तो मैं अपनी शर्तों पर करती हूं. अगर आप को मुझे काम पर रखना है, तो टाइम की पाबंदी का कोई नाटक नहीं चलेगा. मैं आप की या आप के साहब की तरह औफिस में काम नहीं करती हूं जहां समय पर पहुंचना जरूरी होता है. मैं तो आराम से अपने घर के काम निबटा कर, सजधज कर काम पर पहुंचती हूं, इसलिए टाइम को ले कर मुझ से झिकझिक करने का नहीं, समझीं आप?

एक और जरूरी बात. मेरे पास अपना मोबाइल है. मैं अपने मोबाइल से किसी से भी, कितनी भी देर, कभी भी, कैसी भी बातें करूं, आप को कोई ऐतराज करने का हक नहीं कि काम पड़ा है और न जाने इतनी देर से किस से बतिया रही है? यह भी जान लो मुझे जब भी, जितनी भी बार चाय की तलब लगे मुझे कड़क, मीठी, स्पैशल चाय चाहिए. उस के बगैर तो मेरे हाथपैर ही नहीं चलते. चाय के लिए आप मुझे रोकेंगीटोकेंगी नहीं.

और हां मेम साहब, यह तो बताना मैं भूल ही गई हूं कि दोपहर को मुझे टीवी पर अपने पसंदीदा सीरियल भी देखने होते हैं. यदि मैं फुलस्पीड पर पंखा चला कर सीरियल या मूवी देखूं तो यह आप की आंखों में खटकना नहीं चाहिए. यह भी तो सोचिए टीवी पर आने वाले विज्ञापनों ने मेरी जनरल नौलेज में कितनी वृद्धि की है. मैं ने उन्हीं से जाना है कि किस बरतन साफ करने वाले पाउडर में सौ नीबुओं की शक्ति है और किस डिटर्जैंट में 10 हाथों की धुलाई का दम है. ये सारे विज्ञापन हम जैसी मेड सर्वेंट के लिए ही तो बने हैं ताकि हमें मेहनत कम करनी पड़े और हाथ मुलायम बने रहें. मैं कहूं उस के पहले ही आप को ये सब चीजें बाजार से ला कर रखनी होंगी.

मैडमजी, पहले ही बता देना आप के सासससुर तो आप के साथ आ कर नहीं रहते हैं? मैं ऐसे घरों में काम नहीं लेती हूं जहां बूढ़े सासससुर भी साथ रहते हों. जितनी देर काम करो उतनी देर खूसट बुढि़या डंडा लिए सिर पर ही सवार रहती है कि यह कर, वह कर, यह क्यों नहीं किया, वह क्यों नहीं किया. असल बात तो यह है कि बहू पर तो उन की चलती नहीं, इसलिए सारी कसर वे हम जैसे लोगों पर ही निकालती हैं.

और हां बीवीजी, अगर आप के घर में छोटे बच्चे हैं और मैं कभी प्यार से उन्हें एकाध चपत लगा दूं तो सीधे थाने में रिपोर्ट करने मत चली जाना, समझीं आप? मेरे खुद के भी तो बालबच्चे हैं कि नहीं? वे परेशान करते हैं तो मैं उन्हें भी तो कूटपीट देती हूं. आप के बच्चों को भी मैं अपने बच्चों की ही तरह पालूंगी. कभी एकाध बार जरा सा हाथ उठा दिया तो उस के लिए हायतोबा मचाने की जरूरत नहीं. घर में सीसीटीवी कैमरे लगे होने की धमकी तो देना ही मत. सीसीटीवी कैमरे की आंखों में और आप की आंखों में भी धूल झोंकना हमें खूब आता है. एक बात और जान लो मेमसाहब, मेरे अपने भी कुछ रूल्स ऐंड रैग्यूलेशंस हैं. मेरा उसूल है कि नौकरी जौइन करने से पहले ही मैं इस मुद्दे पर डिस्कस कर लेना ठीक समझती हूं कि महीने में 4 छुट्टियां (हफ्ते में 1 छुट्टी) तो मुझे चाहिए ही चाहिए. आप की और साहब की नौकरी में ‘फाइव डेज वीक’ का प्रावधान है तो फिर मैं तो ‘सिक्स डेज वीक’ पर काम करने को तैयार हूं. पर सिर्फ इतनी छुट्टियां मेरे लिए काफी नहीं होंगी. गाहेबगाहे तीजत्योहार की छुट्टियां भी तो मुझे मिलेंगी कि नहीं?

इस के अलावा कभी मैं खुद बीमार पड़ी तब तो कभी अपने पति, बच्चों को बीमार बता कर छुट्टी करूंगी. कभी रिश्तेदारी में शादी, तो कभी मौत का बहाना बना कर छुट्टी करूंगी. इस के अलावा जब आप के घर में मेहमान आने वाले हों तब तो मेरा छुट्टी करना बनता ही है. बहानों की कोई कमी नहीं है मेरे पास. आप कहो तो छुट्टी करने के 101 बहानों पर किताब लिख दूं. पर क्या करूं बीवीजी, आप की तरह पढ़ीलिखी तो हूं नहीं. पर पढ़ेलिखों के भी कान कतरती हूं. बीवीजी, अब ऐडवांस लेने के बारे में भी बात कर लें तो अच्छा रहेगा. ऐडवांस लेने के भी 101 बहाने हैं मेरे पास. गरज तो आप को है मेरी. थोड़ी नानुकर के बाद ऐडवांस तो आप को देना ही पड़ेगा, क्योंकि कोई दूसरा चारा ही नहीं है आप के पास. क्व4-5 हजार का ऐडवांस तो ऊंट के मुंह में जीरा है मेरे लिए. इस ऐडवांस की रकम मैं हर महीने वेतन में से सिर्फ सौ 2 सौ ही कटवा कर चुकाऊंगी और किसी दिन सिर घूम गया तो आप को छोड़ कर ऐडवांस ले कर रफूचक्कर हो जाऊंगी.

हाथ की सच्ची हूं, यह तो मैं डंके की चोट पर कहती हूं. जहां भी मैं ने काम किया है, उन से पूछ कर देख लो. आज तक उन की एक सूई भी गायब नहीं हुई. सूई मैं क्यों गायब करूंगी, हाथ की सच्ची हूं न. सूई तो नहीं, पर बाकी चीजें तो इतनी सफाई से गायब होती हैं कि कोई मुझ पर तो शंका कर ही नहीं सकता. क्योंकि मैं खुद तो कुछ नहीं करती हूं पर दूसरों को खबर तो कर सकती हूं न? घर के सारे लोगों की दिनचर्या मुझ से ज्यादा किसे मालूम हो सकती है? घर में कौन कब आता है, कौन कब जाता है, अलमारी की चाबी कहां रहती है, कीमती चीजें कहां रखी रहती हैं, कब छुट्टियां मनाने शहर से बाहर जाने का प्रोग्राम है, इस सब की मुझे खबर रहती है. मैं कुछ नहीं करती, मुझ से भेद ले कर हाथ की सफाई तो कोई और ही दिखाता है. मुझे रंगे हाथों पकड़ना आप के बस की बात नहीं है.

मैडमजी, अब थोड़ी पर्सनल बात भी हो जाए. थोड़ी रोमांटिक बात है यह. वह क्या है कि आप के साहब या जवान हो रहे साहबजादे को रिझाने के भी 101 तरीके हैं मेरे पास. अब झाड़ूपोंछा करते समय मेरी साड़ी पिंडलियों से ऊपर हो जाए (और वह तो होगी ही) या आप के दिए ‘लोकट’ ब्लाउज के अंदर उन की निगाहें फिसलफिसल जाएं और उन्हें कुछकुछ होने लग जाए तो आप मुझे कोई दोष न देना. यह ‘लोकट’ ब्लाउज तो आप ने ही दिया था न मुझे? फिर उस के बाद साहब मौका देख कर किसी न किसी बहाने से या आप के नौजवान साहबजादे कालेज के पीरियड गोल कर वक्तबेवक्त घर आने लग जाएं तो इस में मेरी क्या गलती? साहब या साहबजादे आप से छिपा कर थोड़ीबहुत बख्शीश मुझे दे दें तो आप को ऐतराज नहीं होना चाहिए, वैसे ऐसी बातों की मैं आप को कानोंकान खबर होने दूं तब न?

बीवीजी, एक मजेदार बात तो आप को मालूम ही नहीं. आप तो सपने में भी सोच नहीं सकतीं कि आप लोगों के घरों में काम करने वाली हमारी जैसी मेड सर्वेंट जब आपस में मिलती हैं तो कैसीकैसी बातें करती हैं. आप सुनेंगी तो हंसेंगी या फिर गुस्सा करेंगी कि हमारी बातचीत का मेन टौपिक, हमारा टारगेट तो बस आप लोग ही रहती हैं  सब ने अपनीअपनी मालकिन के उन के रंगरूप और स्वभाव के अनुसार कई मजेदार निकनेम रख रखे हैं. किसी की मालकिन उस की नजर में काली मोटी भैंस है, तो कोई अजगर की तरह सारा दिन बिस्तर पर अलसाई पड़ी रहती है. किसी की मालकिन बिल्ली की तरह चटोरी है, तो कोई फैशन कर दिन भर मेढकी की तरह फुदकती रहती है. कोई बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम है, तो कोई जासूस करमचंद की तरह जासूसी करती है. अरे बीवीजी, हम ने तो आप लोगों के ऐसेऐसे नाम रखे हैं, आप की ऐसीऐसी मिमिक्री करती हैं, ऐसीऐसी नकल उतारती हैं कि आप सुन लें तो चुल्लू भर पानी में डूब मरें. किसी दिन हम छुट्टी कर दें तो घर के काम करने में कैसे आप को नानी याद आती है, इस की ऐक्टिंग कर के तो हम लोटपोट हो जाती हैं.

हमारे मन का गुबार या पेट का अफारा कई तरह से निकलता है. कालोनी में किस के घर क्या चल रहा है, किस का किस के साथ चक्कर है, कौन किस के साथ रंगे हाथों पकड़ी गई, किस के घर में तीसरी औरत या तीसरे मर्द को ले कर पतिपत्नी में कुत्तों की तरह लड़ाई छिड़ी रहती है, इन झूठीसच्ची खबरों को तिल का ताड़ बना कर, अपनी तरफ से ढेरों नमकमिर्च लगा कर हम अपना तो मनोरंजन करती ही हैं, फिर ये ही खबरें हमारे मुखारविंद से घरघर जा कर मालकिन के सामने भी ब्रौडकास्ट होती हैं (सिवा उन के खुद के घर की खबरों के). हमारा यह न्यूज चैनल बहुत लोकप्रिय है. अपनी मालकिन को ब्लैकमेल करना भी मुझे बहुत आता है. त्योहारों पर इनाम और दीवाली पर तो 1 महीने का वेतन बोनस मैं धरा ही लेती हूं, हर नए साल पर वेतन बढ़वा लेना भी मुझे खूब आता है. इस के अलावा उन की किसी पड़ोसिन ने अपनी मेड सर्वेंट को क्या दिया है, इस की खबर भी बढ़ाचढ़ा कर सुना कर अपनी मालकिन को ब्लैकमेल करने में पीछे नहीं रहती हूं ताकि वे उस से भी बढ़चढ़ कर मुझ पर कपड़े, बरतन, खानेपीने का सामान लुटाने में पीछे न रह जाएं. अंत में मैं स्पष्ट कर दूं (चाहे तो इसे धमकी भी समझ सकती हैं) कि हम घरेलू कामवाली मेड सर्वेंट ने अपनी यूनियन भी बना रखी है जिस की मैं अध्यक्ष हूं. हम सब की मंथली मीटिंग होती है, जिस में हम अपने वेतन, छुट्टियों, काम के घंटों आदि पर कंट्रोल रखती हैं. मांगें पूरी न होने पर हड़ताल करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. शिकायत ले कर थाना, कचहरी जाने में भी हमें कोई डर नहीं है, क्योंकि अंतत: जीत तो हमारी ही होनी है. कानून तो हमेशा (चाहे कोई भी दोषी हो) ससुराल विरुद्ध बहू के केस में बहू का, मकानमालिक विरुद्ध किराएदार में किराएदार का पक्ष लेता है, इसलिए मालकिन विरुद्ध नौकरानी में नौकरानी का ही पक्ष लेगा, इस का हमें पूर्ण विश्वास है. हम सर्वव्यापी हैं, सर्वशक्तिमान हैं. आप को काम पर रखना हो तो रखो, नहीं तो, मैं तो चली…

निर्णय आपका : सास से परेशान बेचारे दामाद की कहानी

संसार में शायद मुझ से अधिक कोई बदनसीब नहीं होगा. विवाह में सब को दहेज में गाड़ी, सोफा, फ्रिज मिलता है, सुंदर पत्नी घर आती है, लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं हुआ. हमारा विवाह हुआ, पत्नी भी आई और दहेज में सास मिल गई.

हम ने सोचा 1-2 दिन की परेशानी होगी सो भोग लो, किंतु हमारी सोच एकदम गलत साबित हुई. हमें पत्नीजी ने बताया कि आप की सास को यहां का हवापानी काफी जम गया है सो वह अब यहीं रहेंगी. यहां की जलवायु से उन का ब्लड प्रेशर भी सामान्य हो गया है.

हम ने सुना तो हमारा ब्लड प्रेशर बढ़ गया, लेकिन यदि विरोध करते तो तलाक की नौबत आ जाती. हो सकता है ससुराल पक्ष के व्यक्ति दहेज लेने का, प्रताड़ना का मुकदमा ठोंक देते. इसलिए मन मार कर हम ने यह सोच कर कि आज का दौर एक पर एक फ्री का है, सास को भी स्वीकार कर लिया.

2-3 माह तक दिल पर पत्थर रख कर हम अपनी सास को सहन करते रहे, लेकिन सोचा कि आखिर यह छाती पर पत्थर रख कर हम कब तक जीवित रह पाएंगे? सो हम ने पत्नीजी से सास की पसंद एवं नापसंद वस्तुओं को जान लिया. हमारी सास को कुत्ते, बिल्ली से सख्त नफरत थी. बचपन में उन की मां का स्वर्गवास कुतिया के काटने से हुआ था. पिताजी का नरकवास बिल्ली के पंजा मारने से हुआ था. हम ने भी मन ही मन ठान लिया कि कुत्ता, बिल्ली जल्दी से लाएंगे ताकि सासूजी प्रस्थान कर जाएं और हम अपनी जिंदगी को सुचारु रूप से चला सकें.

हम ने अपने अभिन्न मित्र मटरू से अपनी समस्या बताई और वह महल्ले से एक खजिया कुत्ते का पिल्ला और एक मरियल बिल्ली को ले आए. हम उन्हें खुशीखुशी झोले में डाल कर अपने घर ले आए. हमारी पत्नी ने देखा तो दहाड़ मार कर पीछे हट गई. सासूमां ने बेटी की दहाड़ सुनी तो दौड़ती आईं. हमारे झोले से खजिया कुत्ता एवं बिल्ली को देखा. हम खुश हो गए कि अब तो हमारी सास आधे घंटे बाद घर छोड़ कर प्रस्थान कर जाएंगी लेकिन मनुष्य जो सोचता है वह कब पूरा होता है?

सास ने उन 2 निरीह प्राणियों को देखा तो चच्चच् कर के वहीं जमीन पर बैठ गईं और हमारी ओर बड़ी दया की नजरों से देख कर कहा, ‘‘सच में दामाद हो तो तुम जैसा.’’

‘‘क्यों, ऐसा हम ने क्या कर दिया सासूमां?’’ हम ने प्रसन्नता को मन में छिपाते हुए पूछा.

‘‘अरे, दामादजी, तुम इन निरीह प्राणियों को ऐसी स्थिति में उठा लाए, ये काम बिरले व्यक्ति ही कर सकते हैं. मैं पहले जानवरों से बहुत नफरत करती थी, लेकिन जब से जानवरों की रक्षा करने वाली संस्था की सदस्य बनी हूं तब से  मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया. तुम खड़े क्यों हो…आटोरिकशा लाओ?’’ सासूजी ने आदेश दिया.

‘‘आटोरिकशा किसलिए?’’

‘‘अस्पताल चलना है.’’

‘‘क्यों? यह (पत्नीजी उठ बैठी थीं) तो ठीकठाक हैं?’’ हम ने भोलेपन से कहा.

‘‘दामादजी, इन कुत्तेबिल्ली के बच्चों को ले कर चलना है, जल्दी करो,’’ सासूमां ने आर्डर दिया. हम दिल पर पत्थर रख कर चले गए. आगे की घटना बड़ी छोटी है.

आटोरिकशा आया, उस के रुपए हम ने दिए. वेटनरी डाक्टर को दिखाया उस के रुपए हम ने दिए. जानवरों के लिए 1 हजार रुपए की दवा खरीदी वह रुपए देतेदेते हमें चक्कर आने लगे थे. कुल जमा 1,500 रुपयों पर हमें हमारे दोस्त मटरू ने उतार दिया था. घर ला कर उन जानवरों के लिए दूध, ब्रेड की व्यवस्था भी की, और जब ओवर बजट होने लगा तो एक रात चुपके से हम ने दोनों को थैली में बंद कर के मटरू के?घर में छोड़ दिया.

हमारी सास जब सुबह उठीं तो बड़ी दुखी थीं कि पालतू जानवर कहां चले गए? हमारा दुर्भाग्य देखो कि मटरू स्कूटर से सुबह ही आ धमका, ‘‘अरे, गोपाल, ये दोनों मेरे घर आ गए थे. मैं इन्हें ले आया हूं,’’ कह कर उस ने मुझे शादी के तोहफे की तरह कुत्ते का पिल्ला और बिल्ली दी. सासूमां खुशी से झूम उठीं. हम मन ही मन कुढ़ कर रह गए. आखिर किस से अपने मन की व्यथा कहते?

कुत्ते का पिल्ला ठीक हो गया था. उस की खुराक भी हमारी सास की खुराक की तरह बढ़ रही थी. हम खून के आंसू रो रहे थे. सास को जमे 6 माह हो चुके थे. पत्नी थीं कि उन्हें घर भेजने का नाम ही नहीं ले रही थीं.

हम अपने दोस्त मटरू के पास गए. उस के सामने खूब रोएधोए. उसे हमारी दशा पर दया आ गई. उस ने मुझे एक प्लान बताया जिसे सुन कर हम खुश हो गए. उस प्लान में एक ही गड़बड़ी थी कि श्रीमती को ले कर मुझे बाहर जाना था, लेकिन वह सास के बिना माफ करना, अपनी मां के बिना जाने को तैयार ही नहीं होती थीं.

हम ने अपने मित्र मटरू को वचन दिया कि उस की दी गई तारीख को केवल सास ही घर में रहेंगी. मैं और पत्नी सिनेमा देखने जाएंगे. इन 3-4 घंटों में वह काम निबटा कर सब ठीक कर लेगा.

हम ने मौका देख कर पत्नी की प्रशंसा की, उस के साथ कुछ पल तन्हातन्हा गुजारने की मनोकामना प्रकट की. वह थोड़ा लजाई, थोड़ा घबराई, मां की याद भी आई, लेकिन हमारे प्यार ने जोर मारा और वह तैयार हो गई कि मैं और वह शाम को फिल्म देखने चलेंगे.

हालांकि सासूमां को अकेला छोड़ कर जाने पर उन्होंने आपत्ति प्रकट की लेकिन पत्नी ने उन्हें समझाया कि टिक्कू कुत्ता, दीयापक बिल्ली?है इसलिए अकेलापन खलेगा नहीं. बुझे मन से उन्होंने भी जाने की इजाजत दे दी.

हम ने खट से मटरू को मोबाइल से यह खबर दे दी कि हम शाम को निकल रहे हैं, देर से लौटेंगे. रात 10 से 1 के बीच सासूमां का काम निबटा ले. मटरू भी तैयार हो गया?था. हम भी खुश थे कि चलो, बला टलेगी, लेकिन पति हमेशा से ही बदकिस्मत पैदा होता है.

प्लान यह था कि मटरू रात में साढ़े 10 बजे के बीच घर में प्रवेश करेगा और मुंह पर कपड़ा बांध कर सासूमां को डरा कर चोरी कर लेगा. सासूमां डर के मारे या तो भाग जाएंगी या हमारे घर से हमेशा के लिए बायबाय कर लेंगी.

हम पत्नी को 4 घंटे की एक फिल्म दिखलाने शहर से बाहर ले गए. रात 10 बजे फिल्म छूटी. हम ने भोजन किया. फोन से मटरू को खबर भी कर दी कि जल्दी से अपने आपरेशन को अंजाम दे. हमारी पत्नी अपनी मां को ले कर काफी चिंतित थी. हम ने आटोरिकशा वाले को पटा कर 50 रुपए अधिक दिए ताकि वह घर पर लंबे रास्ते से धीमी गति से पहुंचे.

रात साढ़े 12 बजे जब हम अपने घर पहुंचे तो घर के बाहर भीड़ जमा थी. पुलिस की एक वैन खड़ी थी. चंद पुलिस वाले भी थे. हमारा माथा ठनका कि मटरू ने कहीं जल्दबाजी में सासूमां का मर्डर तो नहीं कर दिया?

हम जब आटोरिकशा से उतरे तो महल्ले के निवासी काफी घबराए थे. पत्नी अपनी मां की याद में रोने  लगी तभी अंदर से सासूमां पुलिस इंस्पेक्टर के साथ बाहर हंसतीखिलखिलाती निकलीं. उन्हें हंसते देख हमारा माथा ठनका कि भैया आज मटरू पकड़ा गया और हमारा प्लान ओपन हुआ. बस, तलाक के साथसाथ पूरा महल्ला थूथू करेगा सो अलग. सब कहेंगे, ‘‘ऐसे टुच्चे दोस्त हैं जो ऐसी सलाह देते हैं.’’

हम शर्म से जमीन में गड़ गए. मन ही मन विचार किया, कभी ऐसा गंदा प्लान नहीं बनाएंगे. अचानक हमारे कान में मटरू की आवाज सुनाई पड़ी. देखा कि वह तो भीड़ में खड़ा तमाशा देख रहा है. अब हमारी बारी चक्कर खा कर गिरने की आ गई थी.

हम हिम्मत कर के आगे बढ़े तो देखते हैं कि पुलिस एक चोर को पकड़ कर बाहर आ रही थी. हमें देख कर सासूमां ने कहा, ‘‘लो दामादजी, इसे पकड़ ही लिया, पूरा शहर इस की चोरियों से परेशान था.’’

पुलिस इंस्पेक्टर ने हमें बधाई दी और कहा, ‘‘आप की सास वाकई बड़ी हिम्मती हैं. इन्होंने एक शातिर चोर को पकड़वाया है. इन्हें सरकार से इनाम तो मिलेगा ही लेकिन हमें आज आप के भाग्य पर ईर्ष्या हो रही है कि ऐसी सास हमारे भाग्य में क्यों नहीं थी?’’ हम ने सुना तो गद्गद हो गए. हमारी पत्नी ने लपक कर अपनी मां को गले से लगा लिया.

किस्सा यों हुआ कि हमारे मटरू दोस्त को आने में देर हो गई थी. उस की जगह उस रात अचानक असली चोर घुस आया. सासूमां ने पुराना घी खाया था, सो बिना घबराए अपने कुत्ते के साथ उसे धोबी पछाड़ दे दी. महल्ले वालों को आवाज दे कर बुलाया, पुलिस आ गई. इस तरह सासूमां ने एक शातिर चोर को पकड़ लिया. अगले दिन समाचारपत्रों में फोटो सहित सासूमां का समाचार छपा हुआ था.

अब आप ही विचार करें, ऐसी प्रसिद्ध सासूमां को कौन घर से जाने को कहेगा? आप ही निर्णय करें कि हम भाग्यशाली हैं या दुर्भाग्यशाली? आप जो भी निर्णय लें लेकिन हमारी सासूमां जरूर सौभाग्यशाली हैं जिन्हें ऐसा दामाद मिला…

मोक्ष: क्या गोमती मोक्ष की प्राप्ति कर पाई?

‘‘मां,कुंभ नहाने चलोगी? काफी दिन से कह रही थीं कि मुझे गंगा नहला ला. इस बार तुम्हें नहला लाता हूं. आज ट्रेन का टिकट करा लिया है.’’

यह सुन कर गोमती चहक उठीं, ‘‘तू सच कह रहा है श्रवण, मुझे यकीन नहीं हो रहा.’’

‘‘यकीन करो मां, ये देखो टिकटें,’’ श्रवण ने जेब से टिकटें निकाल कर गोमती को दिखाईं और बोला, ‘‘अब जाने की तैयारी कर लेना, जोजो सामान चाहिए बता देना. अगले हफ्ते आज के ही दिन चलेंगे.’’

‘‘कौनकौन चलेगा बेटा? सभी चल रहे हैं न?’’

‘‘नहीं मां, सब जा कर क्या करेंगे? कुंभ पर बहुत भीड़ रहती है. सब को संभालना मुश्किल होगा. बस, हम दोनों ही चलेंगे.’’

गोमती ने श्वेता की ओर देखा. उन के अकेले जाने से कहीं बहू नाराज न हो. उन्हें लगा कि इतनी उम्र में अकेली बेटे के साथ कैसे जाएंगी? श्रवण कैसे संभालेगा उन्हें. घर में तो जैसेतैसे अपना काम कर लेती हैं, बाहर कै से उठेंगीबैठेंगी. घड़ीघड़ी श्रवण का सहारा मांगेंगी. फिर कहीं सब के सामने ही श्रवण झल्लाने लगा तो? दुविधा हुई उन्हें.

‘‘अब क्या सोचने लगीं, मांजी? आप के बेटे कह रहे हैं तो घूम आइए. हम सब तो फिर कभी चले जाएंगे. इस के बाद पूरे 12 साल बाद ही कुंभ पडे़गा.’’

‘‘बहू, क्या श्रवण मुझे संभाल पाएगा?’’ गोमती ने अपना संशय सामने रखा तो श्रवण हंस पड़ा.

‘‘मां को अब अपने बेटे पर विश्वास नहीं है. जैसे आप बचपन में मेरा ध्यान रखती थीं वैसे ही रखूंगा. कहीं भी आप का हाथ नहीं छोडूंगा. खूब मेला घुमाऊंगा.’’

श्रवण की बात पर गोमती प्रसन्न हो गईं. उन की चिरप्रतीक्षित अभिलाषा पूरी होने जा रही थी. कुंभ स्नान कर मोक्ष पाने की कामना वह कब से कर रही थीं. कई बार श्रवण से कह चुकी थीं कि मरने से पहले एक बार कुंभ स्नान करना चाहती हैं. कुंभ पर नहीं ले जा सकता तो ऐसे ही हरिद्वार ले चल. वक्त खिसकता रहा, बात टलती रही. अब जब श्रवण अपनेआप कह रहा है तो उन का मन प्रसन्नता से नाचने लगा. उन्होंने बहूबेटे को आशीर्वाद से लाद दिया.

1 रात 1 दिन का सफर तय कर मांबेटा दोनों इलाहाबाद पहुंचे. गोमती का तो सफर में ही बुरा हाल हो गया. ट्रेन के धड़धड़ के शोर और सीटी ने रात भर गोमती को सोने नहीं दिया. श्रवण का हाथ थामे वह बारबार टायलेट जाती रहीं. ट्रेन खिसकने लगती तो पांव डगमगाने लगते. गिरतीपड़ती सीट तक पहुंचतीं.

‘‘अभी सफर शुरू हुआ है मां, आगे कैसे करोगी? संभालो स्वयं को.’’

‘‘संभाल रही हूं बेटा, पर इस बुढ़ापे में हाथपांव झूलर बने रहते हैं. पकड़ ढीली पड़ जाती है. इस का इलाज मुझ पर नहीं है,’’ वह बेबस सी हो जातीं.

‘‘कोई बात नहीं. मैं हूं न, सब संभाल लूंगा,’’ श्रवण उन की बेबसी को समझता.

खैर, सोतेजागते गोमती का सफर पूरा हुआ. गाड़ी इलाहाबाद स्टेशन पर रुकी तो प्लेटफार्म की चहलपहल और भीड़ देख कर वह हैरान रह गईं. श्रवण ने अपने कंधे पर बैग टांग लिया और एक हाथ से मां का हाथ पकड़ कर स्टेशन से बाहर आ गया.

शहर आ कर श्रवण ने देखा कि आकाश में घटाएं घुमड़ रही थीं. यह सोच कर कि क्या पता कब बादल बरसने लगें, उस ने थोड़ी देर स्टेशन पर ही रुकने का फैसला किया. मां के साथ वह वेटिंग रूम में जा कर बैठ गया. थोड़ी देर बाद मां से बोला, ‘‘मां, नित्यकर्म से यहीं निबट लो. जब तक बारिश रुकती है हम आराम से यहीं रुकेंगे. पहले आप चली जाओ,’’  और उस ने इशारे से मां को बता दिया कि कहां जाना है. थोड़ी देर में गोमती लौट आईं. फिर श्रवण चला गया. श्रवण जब लौटा तो उस के हाथ में गरमागरम चाय के 2 कुल्हड़ और एक थैली में समोसे थे. मांबेटे ने चाय पी और समोसे खाए. थोड़ा आराम मिला तो गोमती की आंखें झपकने लगीं. पूरी रात आंखों में कटी थी. वहीं सोफे की टेक ले कर आंखें मूंद लीं.

करीब घंटे भर बाद सूरज फिर से झांकने लगा. वर्षा के कारण स्टेशन पर भीड़ बढ़ गई थी. अब धीरेधीरे छंटने लगी. गोमती और श्रवण ने भी आटोरिकशा पकड़ कर गंगाघाट तक पहुंचने का मन बनाया.

आटोरिकशा ने मेलाक्षेत्र शुरू होते ही उन्हें उतार दिया. करीब 1 किलोमीटर पैदल चल कर वे गंगाघाट तक पहुंचे. गिरतेपड़ते बड़ी मुश्किल से एक डेरे में थोड़ा सा स्थान मिला. दोनों ने चादर बिछा कर अपना सामान जमाया और नहाने चल दिए.

गोमती ने अपने अब तक के जीवन में इतनी भीड़ नहीं देखी थी. कहीं लाउडस्पीकरों का शोर, कहीं भजन गाती टोलियां, कहीं साधुसंतों के प्रवचन, कहीं रामायण पाठ, खिलौने वाले, झूले वाले, पूरीकचौरी, चाट व मिठाई की दुकानें, धार्मिक किताबों, तसवीरों, मालाओं व सिंदूर की दुकानें, हर जातिधर्म के लोगों को देखदेख कर गोमती चकित थीं. लगता था किसी दूसरे लोक में आ गई हैं. वह श्रवण का हाथ कस कर थामे थीं.

भीड़ में रास्ता बनाता श्रवण उन्हें गंगा किनारे तक ले आया. यहां भी खूब भीड़ और धक्कमधक्का था. श्रवण ने हाथ पकड़ कर मां को स्नान कराया, फिर स्वयं किया. गोमती ने फूलबताशे गंगा में चढ़ाए. जाने कब से मन में पली साध पूरी हुई थी. हर्षातिरेक में आंसू निकल पडे़, हाथ जोड़ कर प्रार्थना की कि हे गंगा मैया, श्रवण सा बेटा हर मां को देना. आज उसी के कारण तुम्हारे दर्शन कर सकी हूं.

श्रवण ने मां को मेला घुमाया. खूब खिलायापिलाया.

‘‘थक गई हूं. अब नहीं चला जाता, श्रवण,’’ गोमती के कहने पर श्रवण उन्हें डेरे पर ले आया.

‘‘मां, तुम आराम करो. मैं घूम कर अभी आया. थोड़े रुपए अपने पास रख लो,’’ उस ने मां को रुपए थमाए.

‘‘मैं इन रुपयों का क्या करूंगी? तू है तो मेरे पास. फिर 5-10 रुपए हैं मेरे पास,’’ गोमती ने मना किया.

‘‘वक्तबेवक्त काम आएंगे. तुम्हारा ही कुछ लेने का मन हो या कहीं मेले में मेरी जेब ही कट जाए तो…’’ श्रवण के समझाने पर गोमती ने रुपए ले लिए. गोमती ने रुपए संभाल कर रख लिए. उन्हें ध्यान आया कि ऐसे मेलों में चोर- उचक्के खूब घूमते हैं. लोगों को बेवकूफ बना कर हाथ की सफाई दिखा कर खूब ठगते हैं.

श्रवण चला गया और गोमती थैला सिर के नीचे लगा बिछी चादर पर लेट गईं. उन का मन आह्लादित था. श्रवण ने खूब ध्यान रखा है. लेटेलेटे आंखें झपक गईं. जब खुलीं तो देखा कि सूरज ढलने जा रहा है और श्रवण अभी लौटा नहीं है.

उन्हें चिंता हो आई. अनजान जगह, अजनबी लोग, श्रवण के बारे में किस से पूछें? अपना थैला टटोल कर देखा. सब- कुछ यथास्थान सुरक्षित था. कुछ रुपए एक रूमाल में बांध कर चुपचाप कपड़ों के साथ थैले में डाल लाई थीं. सोचा था पता नहीं परदेश में कहां जरूरत पड़ जाए. उसी रूमाल में श्रवण के दिए रुपए भी रख लिए.

वह डेरे से बाहर आ कर इधरउधर देखने लगीं. आदमियों का रेला एक तरफ तेजी से भागने लगा. वह कुछ समझ पातीं कि चीखपुकार मच गई. पता लगा कि मेले में हाथी बिगड़ जाने से भगदड़ मच गई है. काफी लोग भगदड़ में गिरने के कारण कुचल कर मर गए हैं.

सुन कर गोमती का कलेजा मुंह को आने लगा. कहीं उन का श्रवण भी…क्या इसी कारण अभी तक नहीं आया है? उन्होंने एक यात्री के पास जा कर पूछा, ‘‘भैया, यह किस समय की बात है?’’

‘‘मांजी, शाम 4 बजे नागा साधु हाथियों पर बैठ कर स्नान करने जा रहे थे और पैसे फेंकते जा रहे थे. उन के फेंके पैसों को लूटने के कारण यह कांड हुआ. जो जख्मी हैं उन्हें अस्पताल पहुंचाया जा रहा है और जो मर गए हैं उन्हें सरकारी गाड़ी से वहां से हटाया जा रहा है. आप का भी कोई है?’’

‘‘भैया, मेरा बेटा 2 बजे घूमने निकला था और अभी तक नहीं लौटा है.’’

‘‘उस का कोई फोटो है, मांजी?’’ यात्री ने पूछा.

‘‘फोटो तो नहीं है. अब क्या करूं?’’ गोमती रोने लगीं.

‘‘मांजी, आप रोओ मत. देखो, सामने पुलिस चौकी है. आप वहां जा कर पता करो.’’

गोमती ने चादर समेट कर थैले में रखी और पुलिस चौकी पहुंच कर रोने लगीं. लाउडस्पीकर से कई बार एनाउंस कराया गया. फिर एक सहृदय सिपाही अपनी मोटरसाइकिल पर बिठा कर गोमती को वहां ले गया जहां मृतकों को एकसाथ रखा गया था. 1-2 अस्थायी बने अस्पतालों में भी ले गया, जहां जख्मी पड़े लोग कराह रहे थे और डाक्टर उन  की मरहमपट्टी करने में जुटे थे. श्रवण का वहां कहीं भी पता न था. तभी गोमती को ध्यान आया कि कहीं श्रवण डेरे पर लौट न आया हो और उन का इंतजार कर रहा हो या उन्हें डेरे पर न पा कर वह भी उन्हीं की तरह तलाश कर रहा हो. हालांकि पुलिस चौकी पर वह अपने बेटे का हुलिया बता आई थीं और लौटने तक रोके रखने को भी कह आई थीं.

गोमती ने आ कर मालूम किया तो पता चला कि उन्हें पूछने कोई नहीं आया था. वह डेरे पर गईं. वहां भी नहीं. आधी रात कभी डेरे में, कभी पुलिस चौकी पर कटी. जब रात के 12 बज गए तो पुलिस वालों ने कहा, ‘‘मांजी, आप डेरे पर जा कर आराम करो. आप का बेटा यहां पूछने आया तो आप के पास भेज देंगे.’’

पुत्र के लिए व्याकुल गोमती उसे खोजते हुए डेरे पर लौट आईं. चादर बिछा कर लेट गईं लेकिन नींद आंखों से कोसों दूर थी. कहां चला गया श्रवण? इस कुंभ नगरी में कहांकहां ढूंढ़ेंगी? यहां उन का अपना है कौन? यदि श्रवण न लौटा तो अकेली घर कैसे लौटेंगी? बहू का सामना कैसे करेंगी? खुद को ही कोसने लगीं, व्यर्थ ही कुंभ नहाने की जिद कर बैठी. टिकट ही तो लाया था श्रवण, यदि मना कर देती तो टिकट वापस भी हो जाते. ऐसी फजीहत तो न होती.

फिर गोमती को खयाल आया कि कोई श्रवण को बहलाफुसला कर तो नहीं ले गया. वह है भी सीधा. आसानी से दूसरों की बातों में आ जाता है. किसी ने कुछ सुंघा कर बेहोश ही कर दिया हो और सारे पैसे व घड़ीअंगूठी छीन ली हो. मन में उठने वाली शंकाकुशंकाओं का अंत न था.

दिन निकला. वह नहानाधोना सब भूल कर, सीधी पुलिस चौकी पहुंच गईं. एक ही दिन में पुलिस चौकी वाले उन्हें पहचान गए थे. देखते ही बोले, ‘‘मांजी, तुम्हारा बेटा नहीं लौटा.’’

रोने लगीं गोमती, ‘‘कहां ढूंढू़ं, तुम्हीं बताओ. किसी ने मारकाट कर कहीं डाल दिया हो तो. तुम्हीं ढूंढ़ कर लाओ,’’ गोमती का रोतेरोते बुरा हाल हो गया.

‘‘अम्मां, धीरज धरो. हम जरूर कुछ करेंगे. सभी डेरों पर एनाउंस कराएंगे. आप का बेटा मेले में कहीं भी होगा, जरूर आप तक पहुंचेगा. आप अपना नाम और पता लिखा दो. अब जाओ, स्नानध्यान करो,’’ पुलिस वालों को भी गोमती से हमदर्दी हो गई थी.

गोमती डेरे पर लौट आईं. गिरतीपड़ती गंगा भी नहा लीं और मन ही मन प्रार्थना की कि हे गंगा मैया, मेरा श्रवण जहां कहीं भी हो कुशल से हो, और वहीं घाट पर बैठ कर हर आनेजाने वाले को गौर से देखने लगीं. उन की निगाहें दूरदूर तक आनेजाने वालों का पीछा करतीं. कहीं श्रवण आता दीख जाए. गंगाघाट पर बैठे सुबह से दोपहर हो गई. कल शाम से पेट में पानी की बूंद भी न गई थी. ऐंठन सी होने लगी. उन्हें ध्यान आया, यदि यहां स्वयं ही बीमार पड़ गईं तो अपने  श्रवण को कैसे ढूंढ़ेंगी? उसे ढूंढ़ना है तो स्वयं को ठीक रखना होगा. यहां कौन है जो उन्हें मनुहार  कर खिलाएगा.

गोमती ने आलू की सब्जी के साथ 4 पूरियां खाईं. गंगाजल पिया तो थोड़ी शांति मिली.  4 पूरियां शाम के लिए यह सोच कर बंधवा लीं कि यहां तक न आ सकीं तो डेरे में ही खा लेंगी या भूखा श्रवण लौटेगा तो उसे खिला देंगी. श्रवण का ध्यान आते ही उन्होंने कुछ केले भी खरीद लिए. ढूंढ़तीढूंढ़ती अपने डेरे पर पहुंच गईं. पुलिस चौकी में भी झांक आईं.

देखते ही देखते 8 दिन निकल गए. मेला उखड़ने लगा. श्रवण भी नहीं लौटा. अब पुलिस वालों ने सलाह दी, ‘‘अम्मां, अपने घर लौट जाओ. लगता है आप का बेटा अब नहीं लौटेगा.’’

‘‘मैं इतनी दूर अपने घर कैसे जाऊंगी. मैं तो अकेली कहीं आईगई नहीं,’’ वह फिर रोने लगीं.

‘‘अच्छा अम्मां, अपने घर का फोन नंबर बताओ. घर से कोई आ कर ले जाएगा,’’ पुलिस वालों ने पूछा.

‘‘घर से मुझे लेने कौन आएगा? अकेली बहू, बच्चों को छोड़ कर कैसे आएगी.’’

‘‘बहू किसी नातेरिश्तेदार को भेज कर बुलवा लेगी. आप किसी का भी नंबर बताओ.’’

गोमती ने अपने दिमाग पर लाख जोर दिया, लेकिन हड़बड़ाहट में किसी का नंबर याद नहीं आया. दुख और परेशानी के चलते दिमाग में सभी गड्डमड्ड हो गए. वह अपनी बेबसी  पर फिर रोेने लगीं. बुढ़ापे में याददाश्त भी कमजोर हो जाती है.

पुलिस चौकी में उन्हें रोता देख राह चलता एक यात्री ठिठका और पुलिस वालों से उन के रोने का कारण पूछने लगा. पुलिस वालों से सारी बात सुन कर वह यात्री बोला, ‘‘आप इस वृद्धा को मेरे साथ भेज दीजिए. मैं भी उधर का ही रहने वाला हूं. आज शाम 4 बजे टे्रन से जाऊंगा. इन्हें ट्रेन से उतार बस में बिठा दूंगा. यह आराम से अपने गांव पीपला पहुंच जाएंगी.’’

सिपाहियों ने गोमती को उस अनजान व्यक्ति के साथ कर दिया. उस का पता और फोन नंबर अपनी डायरी में लिख लिया. गोमती उस के साथ चल तो रही थीं पर मन ही मन डर भी रही थीं कि कहीं यह कोई ठग न हो. पर कहीं न कहीं किसी पर तो भरोसा करना ही पड़ेगा, वरना इस निर्जन में वह कब तक रहेंगी.

‘‘मांजी, आप डरें नहीं, मेरा नाम बिट्ठन लाल है. लोग मुझे बिट्ठू कह कर पुकारते हैं. राजकोट में बिट्ठन लाल हलवाई के नाम से मेरी दुकान है. आप अपने गांव पहुंच कर किसी से भी पूछ लेना. भरोसा रखो आप मुझ पर. यदि आप कहेंगी तो घर तक छोड़ आऊंगा. यह संसार एकदूसरे का हाथ पकड़ कर ही तो चल रहा है.’’

अब मुंह खोला गोमती ने, ‘‘भैया, विश्वास के सहारे ही तो तुम्हारे साथ आई हूं. इतना उपकार ही क्या कम है कि तुम मुझे अपने साथ लाए हो. तुम मुझे बस में बिठा दोगे तो पीपला पहुंच जाऊंगी. पर बेटे के न मिलने का गम मुझे खाए जा रहा है.’’

अगले दिन लगभग 1 बजे गोमती बस से अपने गांव के स्टैंड पर उतरीं और पैदल ही अपने घर की ओर चल दीं. उन के पैर मनमन भर के हो रहे थे. उन्हें यह समझ में न आ रहा था कि बहू से कैसे मिलेंगी. इसी सोचविचार में वह अपने घर के द्वार तक पहुंच गईं. वहां खूब चहलपहल थी. घर के आगे कनात लगी थीं और खाना चल रहा था. एक बार तो उन्हें लगा कि वह गलत जगह आ गई हैं. तभी पोते तन्मय की नजर उन पर पड़ी और वह आश्चर्य और खुशी से चिल्लाया, ‘‘पापा, दादी मां लौट आईं. दादी मां जिंदा हैं.’’

उस के चिल्लाने की आवाज सुन कर सब दौड़ कर बाहर आए. शोर मच गया, ‘अम्मां आ गईं,’ ‘गोमती आ गई.’ श्रवण भी दौड़ कर आ गया और मां से लिपट कर बोला, ‘‘तुम कहां चली गई थीं, मां. मैं तुम्हें ढूंढ़ कर थक गया.’’

बहू श्वेता भी दौड़ कर गोमती से लिपट गई और बोली, ‘‘हाय, हम ने सोचा था कि मांजी…’’

‘‘नहीं रहीं. यही न बहू,’’ गोमती के जैसे ज्ञान चक्षु खुल गए, ‘‘इसीलिए आज अपनी सास की तेरहवीं कर रही हो और तू श्रवण, मुझे छोड़ कर यहां चला आया. मैं तो पगला गई थी. घाटघाट तुझे ढूंढ़ती रही. तू  सकुशल है… तुझे देख कर मेरी जान लौट आई.’’

मांबेटे दोनों की निगाहें टकराईं और नीचे झुक गईं.

‘‘अब यह दावत मां के लौट आने की खुशी के उपलक्ष्य में है. सब खुशीखुशी खाओ. मेरी मां वापस आ गई हैं,’’ खुशी से नाचने लगा श्रवण.

औरतों में कानाफूसी होने लगी, लेकिन फिर भी सब श्वेता और श्रवण को बधाई देने लगे.

वे सभी रिश्तेदार जो गोमती की गमी में शामिल होने आए थे, गोमती के पांव छूने लगे. कोई बाजे वालों को बुला लाया. बाजे बजने लगे. बच्चे नाचनेकूदने लगे. माहौल एकदम बदल गया. श्रवण को देख कर गोमती सब भूल गईं.

शाम होतेहोते सारे रिश्तेदार खापी कर विदा हो गए. रात को थक कर सब अपनेअपने कमरों में जा कर सो गए. गोमती को भी काफी दिन बाद निश्ंिचतता की नींद आई.

अचानक रात में मांजी की आंखें खुल गईं, वह पानी पीने उठीं. श्रवण के कमरे की बत्ती जल रही थी और धीरेधीरे बोलने की आवाज आ रही थी. बातों के बीच ‘मां’ सुन कर वह सट कर श्रवण के कमरे के बाहर कान लगा कर सुनने लगीं. श्वेता कह रही थी, ‘तुम तो मां को मोक्ष दिलाने गए थे. मां तो वापस आ गईं.’

‘मैं तो मां को डेरे में छोड़ कर आ गया था. मुझे क्या पता कि मां लौट आएंगी. मां का हाथ गंगा में छोड़ नहीं पाया. पिछले 8 दिन से मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही थी. मैं ने मां को मारने या त्यागने का पाप किया था. मैं सारा दिन यही सोचता कि भूखीप्यासी मेरी मां पता नहीं कहांकहां भटक रही होंगी. मां ने मुझ पर विश्वास किया और मैं ने मां के साथ विश्वासघात किया. मां को इस प्रकार गंगा घाट पर छोड़ कर आने का अपराध जीवन भर दुख पहुंचाता रहेगा. अच्छा हुआ कि मां लौट आईं और मैं मां की मृत्यु का कारण बनतेबनते बच गया.’

बेटे की बातें सुन कर गोमती के पैरों तले जमीन कांपने लगी. सारा दृश्य उन की आंखों के आगे सजीव हो उठा. वह इन 8 दिनों में लगभग सारा मेला क्षेत्र घूम लीं. उन्होंने बेटे के नाम की जगह- जगह घोषणा कराई पर अपने नाम की घोषणा कहीं नहीं सुनी. इतना बड़ा झूठ बोला श्रवण ने मुझ से? मुझ से मुक्त होने के लिए ही मुझे इलाहाबाद ले कर गया था. मैं इतना भार बन गई हूं कि मेरे अपने ही मुझे जीतेजी मारना चाहते हैं.

वह खुद को संभाल पातीं कि धड़ाम से वहीं गिर पड़ीं. सब झेल गईं पर यह सदमा न झेल सकीं.

सोनिया : सोनिया के आत्महत्या के पीछे क्या थी वजह

लेखक- बलदेव सिंह गहमरी

सोनिया तब बच्ची थी. छोटी सी मासूम. प्यारी, गोलगोल सी आंखें थीं उस की. वह बंगाली बाबू की बड़ी बेटी थी. जितनी प्यारी थी वह, उस से भी कहीं मीठी उस की बातें थीं. मैं उस महल्ले में नयानया आया था. अकेला था. बंगाली बाबू मेरे घर से 2 मकान आगे रहते थे. वे गोरे रंग के मोटे से आदमी थे. सोनिया से, उन से तभी परिचय हुआ था. उन का नाम जयकृष्ण नाथ था.

वे मेरे जद्दोजेहद भरे दिन थे. दिनभर का थकामांदा जब अपने कमरे में आता, तो पता नहीं कहां से सोनिया आ जाती और दिनभर की थकान मिनटों में छू हो जाती. वह खूब तोतली आवाज में बोलती थी. कभीकभी तो वह इतना बोलती थी कि मुझे उस के ऊपर खीज होने लगती और गुस्से में कभी मैं बोलता, ‘‘चलो भागो यहां से, बहुत बोलती हो तुम…’’

तब उस की आंखें डबडबाई सी हो जातीं और वह बोझिल कदमों से कमरे से बाहर निकलती, तो मेरा भावुक मन इसे सह नहीं पाता और मैं झपट कर उसे गोद में उठा कर सीने से लगा लेता.

उस बच्ची का मेरे घर आना उस की दिनचर्या में शामिल था. बंगाली बाबू भी कभीकभी सोनिया को खोजतेखोजते मेरे घर चले आते, तो फिर घंटों बैठ कर बातें होती थीं.

बंगाली बाबू ने एक पंजाबी लड़की से शादी की थी. 3 लोगों का परिवार अपने में मस्त था. उन्हें किसी बात की कमी नहीं थी. कुछ दिन बाद मैं उन के घर का चिरपरिचित सदस्य बन चुका था.

समय बदला और अंदाज भी बदल गए. मैं अब पहले जैसा दुबलापतला नहीं रहा और न बंगाली बाबू ही अधेड़ रहे. बंगाली बाबू अब बूढ़े हो गए थे. सोनिया भी जवान हो गई थी. बंगाली बाबू का परिवार भी 5 सदस्यों का हो चुका था. सोनिया के बाद मोनू और सुप्रिया भी बड़े हो चुके थे.

सोनिया ने बीए पास कर लिया था. जवानी में वह अप्सरा जैसी खूबसूरत लगती थी. अब वह पहले जैसी बातूनी व चंचल भी नहीं रह गई थी.

बंगाली बाबू परेशान थे. उन के हंसमुख चेहरे पर अकसर चिंता की रेखाएं दिखाई पड़तीं. वे मुझ से कहते, ‘‘भाई साहब, कौन करेगा मेरे बच्चों से शादी? लोग कहते हैं कि इन की न तो कोई जाति है, न धर्म. मैं तो आदमी को आदमी समझता हूं… 25 साल पहले जिस धर्म व जाति को समुद्र के बीच छोड़ आया था, आज अपने बच्चों के लिए उसे कहां से लाऊं?’’

जातपांत को ले कर कई बार सोनिया की शादी होतेहोते रुक गई थी. इस से बंगाली बाबू परेशान थे. मैं उन्हें विश्वास दिलाना चाहता था, लेकिन मैं खुद जानता था कि सचमुच में समस्या उलझ चुकी है.

एक दिन बंगाली बाबू खीज कर मुझ से बोले, ‘‘भाई साहब, यह दुनिया बहुत ढोंगी है. खुद तो आदर्शवाद के नाम पर सबकुछ बकेगी, लेकिन जब कोई अच्छा कदम उठाने की कोशिश करेगा, तो उसे गिरा हुआ कह कर बाहर कर देगी…

‘‘आधुनिकता, आदर्श, क्रांति यह सब बड़े लोगों के चोंचले हैं. एक 60 साल का बूढ़ा अगर 16 साल की दूसरी जाति की लड़की से शादी कर ले, तो वह क्रांति है… और न जाने क्याक्या है?

‘‘लेकिन, यह काम मैं ने अपनी जवानी में ही किया. किसी बेसहारा को कुतुब रोड, कमाठीपुरा या फिर सोनागाछी की शोभा बनाने से बचाने की हिम्मत की, तो आज यही समाज उस काम को गंदा कह रहा है.

‘‘आज मैं अपनेआप को अपराधी महसूस कर रहा हूं. जिन बातों को सोच कर मेरा सिर शान से ऊंचा हो जाता था, आज वही बातें मेरे सामने सवाल बन कर रह गई हैं.

‘‘क्या आप बता सकते हैं कि मेरे बच्चों का भविष्य क्या होगा?’’ पूछते हुए बंगाली बाबू के जबड़े भिंच गए थे. इस का जवाब मैं भला क्या दे पाता. हां, उन के बेटे मोनू ने जरूर दे दिया. जीवन बीमा कंपनी में नौकरी मिलने के 7 महीने बाद ही वह एक लड़की ले आया. वह एक ईसाई लड़की थी, जो मोनू के साथ ही पढ़ती थी और एक अस्पताल में स्टाफ नर्स थी.

कुछ दिन बाद दोनों ने शादी कर ली, जिसे बंगाली बाबू ने स्वीकार कर लिया. जल्द ही वह घर के लोगों में घुलमिल गई.

मोनू बहादुर लड़का था. उसे अपना कैरियर खुद चुनना था. उस ने अपना जीवनसाथी भी खुद ही चुन लिया. पर सोनिया व सुप्रिया तो लड़कियां हैं. अगर वे ऐसा करेंगी, तो क्या बदनामी नहीं होगी घर की? बातचीत के दौर में एक दिन बंगाली बाबू बोल पड़े थे.?

लेकिन, जिस बात का उन्हें डर था, वह एक दिन हो गई. सुप्रिया एक दिन एक दलित लड़के के साथ भाग गई. दोनों कालेज में एकसाथ पढ़ते थे. उन दोनों पर नए जमाने का असर था. सारा महल्ला हैरान रह गया.

लड़के के बाप ने पूरा महल्ला चिल्लाचिल्ला कर सिर पर उठा लिया था, ‘‘यह बंगाली न जात का है और न पांत का है… घर का न घाट का. इस का पूरा खानदान ही खराब है. खुद तो पंजाबी लड़की भगा लाया, बेटा ईसाई लड़की पटा लाया और अब इस की लड़की मेरे सीधेसादे बेटे को ले उड़ी.’’

लड़के के बाप की चिल्लाहट बंगाली बाबू को भले ही परेशान न कर सकी हो, लेकिन महल्ले की फुसफुसाहट ने उन्हें जरूर परेशान कर दिया था. इन सब घटनाओं से बंगाली बाबू अनापशनाप बड़बड़ाते रहते थे. वे अपना सारा गुस्सा अब सोनिया को कोस कर निकालते.

बेचारी सोनिया अपनी मां की तरह शांत स्वभाव की थी. उस ने अब तक 35 सावन इसी घर की चारदीवारी में बिताए थे. वह अपने पिता की परेशानी को खूब अच्छी तरह जानती थी. जबतब बंगाली बाबू नाराज हो कर मुझ से बोलते, ‘‘कहां फेंकूं इस जवान लड़की को, क्यों नहीं यह भी अपनी जिंदगी खुद जीने की कोशिश करती. एक तो हमारी नाक साथ ले कर चली गई. उसे अपनी बड़ी बहन पर जरा भी तरस नहीं आया.’’

इस तरह की बातें सुन कर एक दिन सोनिया फट पड़ी, ‘‘चुप रहो पिताजी.’’ सोनिया के अंदर का ज्वालामुखी उफन कर बाहर आ गया था. वह बोली, ‘‘क्या करते मोनू और सुप्रिया? उन के पास दूसरा और कोई रास्ता भी तो नहीं था. जिस क्रांति को आप ने शुरू किया था, उसी को तो उन्होंने आगे बढ़ाया. आज वे जैसे भी हैं, जहां भी हैं, सुखी हैं. जिंदगी ढोने की कोशिश तो नहीं करते. उन की जिंदगी तो बेकार नहीं गई.’’

बंगाली बाबू ने पहली बार सोनिया के मुंह से यह शब्द सुने थे. वे हैरान थे. ‘‘ठीक है बेटी, यह मेरा ही कुसूर है. यह सब मैं ने ही किया है, सब मैं ने…’’ बंगाली बाबू बोले.

सोनिया का मुंह एक बार खुला, तो फिर बंद नहीं हुआ. जिंदगी के आखिरी पलों तक नहीं… और एक दिन उस ने जिंदगी से जूझते हुए मौत को गले लगा लिया था. उस की आंखें फैली हुई थीं और गरदन लंबी हो गई थी. सोनिया को बोझ जैसी अपनी जिंदगी का कोई मतलब नहीं मिल पाया था, तभी तो उस ने इतना बड़ा फैसला ले लिया था.

मैं ने उस की लाश को देखा. खुली हुई आंखें शायद मुझे ही घूर रही थीं. वही आंखें, गोलगोल प्यारा सा चेहरा. मेरे मानसपटल पर बड़ी प्यारी सी बच्ची की छवि उभर आई, जो तोतली आवाज में बोलती थी.खुली आंखों से शायद वह यही कह रही थी, ‘चाचा, बस आज तक ही हमारातुम्हारा रिश्ता था.’

मैं ने उस की खुली आंखों पर अपना हाथ रख दिया था.

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