रिश्ता और समझौता: भाग-3

जेनिफर अंदर आई और बेकाबू हो कर बिलखबिलख कर रोने लगी. सुमन समझ नहीं पा रही थी कि कैसे रिएक्ट करें. फिर उस ने खुद को संभाला और पूछा, ‘‘क्या हुआ जेनी तुम रो क्यों रही हो? कुछ तो बताओ… क्या मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकती हूं?’’ सुमन ने जेनिफर को गले लगाते हुए कहा.

‘‘सुमन मेरा बौयफ्रैंड अव्वल नंबर का धोखेबाज निकला. उस का किसी दूसरी लड़की के साथ अफेयर चल रहा है. उस ने मुझ से यह बात छिपाई और ऊपर से मेरे सारे पैसे उस लड़की पर खर्च कर दिए. अब मैं बिलकुल कंगाल हूं. जब मैं ने उस से पूछा तो उस ने कहा कि हम दोनों अलग हो जाएंगे. हम कानूनी रूप से विवाहित तो नहीं जो मैं अदालत से मदद ले सकूं… गुजाराभत्ता के रूप में मोटी रकम ले सकूं. अगर इस में एक व्यक्ति दगाबाज निकले तो दूसरा कुछ भी नहीं कर सकता और मैं उसी हालत में हूं. मेरी सारी बचत को उस ने लूट लिया.’’

सुमन उसे सांत्वना देने की कोशिश कर रही थी. जेनिफर ने पूछा, ‘‘क्या मैं आप लोगों के साथ तब तक रह सकती हूं जब तक कि मुझे एक और अपार्टमैंट और रूममेट नहीं मिलता है?’’

सुमन ने कहा, ‘‘बेशक

जेनी यह भी कोई पूछने वाली बात है क्या?’’

जेनिफर की हालत देख कर क्लारा को भी तरस आ गया और उसे अपने साथ रहने की इजाजत दे दी.

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शाम को दफ्तर से आने पर राधिका ने पूरी कहानी सुनी. उसे अजीब सी बेचैनी हुई कि एक आदमी इतना मतलबी कैसे हो सकता है और उस के साथ ऐसा व्यवहार भी कर सकता है, जो उस से प्यार कर के उस के साथ रहने आई थी. वह सोच भी नहीं सकती कि एक इंसान इतनी ओछी हरकत कर सकता है. तीनों सहेलियां एकसाथ खाना खा कर इसी बारे में बात करती रहीं.

बातोंबातों में क्लारा ने अपनी समस्या बताई, ‘‘मैं भी ऐसी मुश्किल घड़ी से गुजर चुकी हूं. जब मैं अपने बौयफ्रैंड से ब्रेकअप कर के बाहर आई थी तो पूरी तरह टूट चुकी थी और मेरा बैंक बैलेंस भी शून्य था. हमारे देश में यह एक मामूली समस्या बन चुकी है. ऐसा नहीं है कि केवल लड़के ही धोखा देते हैं. कभीकभी लड़कियां भी ऐसी गिरी हरकत करती हैं. इस तरह के रिश्ते की नींव आपसी विश्वास के अलावा कुछ भी नहीं है और अकेले ही इस स्थिति का सामना करना पड़ता है.

‘‘एक तरह से मुझे लगता है कि आप का देश अच्छा है सुमन. आप की शादियों में सभी बुजुर्ग और परिवार के अन्य सदस्य शामिल होते हैं और यह 2 व्यक्तियों का नहीं, बल्कि 2 परिवारों का मिलन बन जाता है. हमारे मामले में हम इस बड़ी दुनिया में अकेले हैं. 18 साल की उम्र में हम अपने परिवारों से बाहर आते हैं और हमें अकेले ही दुनिया का सामना करना पड़ता है. मेरे 3 ब्रेकअप हो चुके हैं और तुम जानती हो कि हर ब्रेकअप कितना दर्दनाक होता है… एक बार मैं एक गहरे मानसिक अवसाद में चली गई और अभी भी उस अवसाद के लिए गोलियां ले रही हूं… अब मैं अकेली हूं. वास्तव में मैं अब एक नए रिश्ते से डर रही हूं कि इस बार भी मुझे प्यार के बदले में छल ही मिलेगा,’’ और फिर क्लारा ने लंबी सांस भरी.

‘‘सुमन हर हफ्ते आप के मातापिता आप से बात करते हैं और यह एक अच्छा एहसास है कि इस दुनिया में कोई है, जो आप को बहुत प्यार देता है और आप की चिंता करता है. जब मैं 10 साल की थी तब मेरे मातापिता अलग हो गए थे और इस से मैं बहुत परेशान थी. मुझे अपनी मां के नए प्रेमी को स्वीकारने में बहुत समय लगा. मेरे पिताजी समय मिलने पर कभी फोन किया करते थे, लेकिन कभी भी मेरे साथ समय नहीं बिताया. मेरे 2 सौतेली बहनें और 2 सौतेले भाई हैं. मेरे पिता के अन्य महिलाओं के माध्यम से बच्चे हैं और मेरी मां के भी अन्य पुरुषों के साथ बच्चे हैं. मेरी मां कभी हम सब को मिलने के लिए बुलाती है. उस समय हम एकदूसरे से मिलते हैं… वह अवसर बहुत औपचारिक होता था,’’ क्लारा ने दुखी मन से बताया.

‘‘हमारे गुजाराभत्ता कानून महिलाओं के लिए बहुत सख्त और अनुकूल है और यही कारण है कि ज्यादातर अमीर पुरुष कानूनी शादी पसंद नहीं करते हैं. अगर हम शादीशुदा हैं और अलग हो गए हैं तो उन्हें हमारे द्वारा लिए गए पैसे वापस करने होंगे और गुजाराभत्ता के रूप में मोटी रकम भी चुकानी होगी. अब इस प्रकार के संबंधों में कानून कोई भूमिका नहीं निभाता है. हमें इसे अकेले ही निबटना होगा.

‘‘हर बार जब रिश्ते में धोखा खाते हैं तो लड़कियां हमेशा के लिए टूट जाती हैं. मुझे एक गहरी प्रतिबद्धता के साथ संबंध पसंद हैं. सुमन जब मैं आप की मां को आप से बात करते हुए देखती हूं, हालांकि मुझे आप की भाषा नहीं पता, मगर उन की अभिव्यक्ति से पता चलता है कि वे आप से कितना प्यार करती हैं… आप की खातिर किसी भी तरह का दुख भोगने के लिए तैयार हैं… हमारे देश में ऐसा नहीं है. यहां हर किसी को एक अलग व्यक्ति माना जाता है,’’ क्लारा की इस बात पर जेनिफर ने भी हामी भर ली.

राधिका सुमन की तरफ देख कर मुसकराई. सुमन समझ सकती थी कि वह क्या कहना चाहती है. सुमन को लगा कि हर जगह समस्याएं हैं. लिव इन रिलेशनशिप भी इतना आसान नहीं है, जितना हरकोई कल्पना करता है. भारतीय परिस्थितियों और भारतीय पुरुषों के साथ तो यह और भी कठिन है.

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सुमन सोच में पड़ गई. एक बात उस की समझ में आई कि यदि आप के पास कानूनी सुरक्षा है, तो आप एक तरह से सुरक्षित हैं कि आप से आप का पैसा नहीं छीना जाएगा और ब्रेकअप के बाद आदमी को मुआवजा देना होगा और फिर जब आप विवाहित होते हैं तो आप की सामाजिक स्वीकृति भी होती है.

उस रविवार को जब उस के मातापिता लाइन पर आए तो सुमन ने अपने पिताजी से

कहा, ‘‘मैं अब उलझन में नहीं हूं पापा… ऐसा लग रहा है कि ऐसा कोई भी तरीका नहीं है, जो बिलकुल सही या बिलकुल गलत है.’’

‘‘तुम ठीक कह रही हो बेटा. कोई भी व्यवस्था हर माने में सही या गलत नहीं हो सकती… हमें ही समझदारी के साथ काम करना पड़ेगा.

‘‘बेटा कोई भी शादी या रिश्ता इस दुनिया में ऐसा नहीं चाहे वह न्यूयौर्क हो या मुंबई ऐसा नहीं जो सौ फीसदी परफैक्ट हो. कोई न कोई कमी तो होती ही है और उसे नजरअंदाज कर के आगे बढ़ने में ही बेहतरी होती है. किसी भी रिश्ते की सफलता के लिए हर किसी को कुछ देना पड़ता है. तुम ही एक उदाहरण हो. तुम शुद्ध शाकाहारी हो मगर क्लारा के साथ एक ही रसोई को साझा कर रही हो क्यों? क्योंकि तुम क्लारा को ठेस पहुंचाना नहीं चाहती और उस से भी बढ़ कर तुम क्लारा से अपने रिश्ते का मूल्य समझती हो और उस की इज्जत करती हो, है न? जीवन भी इसी तरह है. अगर आप रिश्ते को बनाए रखना चाहते हैं तो मुकाम पर आप को हर हाल में समझौता करना होगा.’’

‘‘हर संस्कृति की अपनी ताकत और कमजोरी होती है. अमेरिकी संस्कृति की अपनी ताकत है कि यह हर व्यक्ति को मजबूत और आत्मनिर्भर बनाती है और वह कम उम्र में ही दुनिया से अकेले लड़ने की सीख देती है. मगर उस के लिए उन लोगों को किनकिन कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है यह आप ने खुद देख लिया.

‘‘हमारी भारतीय संस्कृति हमेशा परिवार की अवधारणा में विश्वास करती है और रिश्ते हमेशा हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता रहे हैं. इस में कुछ ताकत और कमजोरी हो सकती है. समझौता हर रिश्ते का एक अभिन्न हिस्सा है, चाहे 2 लोग दोस्त हों या विवाहित.’’

अपने पिता से बात करने के बाद सुमन बहुत हलका महसूस कर रही थी. ‘जब वह एक रूममेट के लिए समझौता कर सकती है, वह भी एक विदेशी से तो फिर उस आदमी के लिए क्यों नहीं जो जीवनभर उस का साथी बनने वाला है, जो उस की सफलताओं और असफलताओं में उस के जीवन का हिस्सा बनने जा रहा है… वह है उस के जीवन का एक हिस्सा… यदि उस के लिए नहीं तो फिर वह किस के लिए समझौता करेगी,’ सुमन सोच रही थी.

अब सुमन ने फैसला कर लिया. वह आशीष से शादी करने के लिए तैयार थी और उस के साथ आने वाले समझौतों के लिए भी आशीष को वह मनाएगी ही क्योंकि 2 साल से वह भी उसी का इंताजर कर रहा है. आखिर समझौते के बिना जिंदगी ही क्या है.

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तसवीर: भाग-1

‘‘मुझे कल तक तुम्हारा जवाब चाहिए,’’ कह कर केशवन घर से बाहर जा चुका था. मालविका में कुछ कहनेसुनने की शक्ति नहीं रह गई थी. वह एकटक केशवन को जाते तब तक देखती रही, जब तक उस की गाड़ी आंखों से ओझल नहीं हो गई.

उस ने सपने में भी न सोचा था कि एक दिन वह इस स्थिति में होगी. केशवन ने उस से शादी का प्रस्ताव रखा था. उस के मन की मुराद पूरी होने जा रही थी. लेकिन एक तरफ उस का मन नाचनेगाने को कर रहा था, तो दूसरी तरफ वह अपने घर वालों की प्रतिक्रिया की कल्पना कर के परेशान हो रही थी.

जब वे सुनेंगे कि मालविका वापस इंडिया लौट कर नहीं आ रही है, तो पहले तो आश्चर्य करेंगे, भुनभुनाएंगे और जब जानेंगे कि वह शादी करने जा रही है तो गुस्से से फट पड़ेंगे.

‘अरे इस मालविका को इस उम्र में यह क्या पागलपन सूझा?’ वे कहेंगे, ‘लगता है कि यह सठिया गई है. इस उम्र में घरगृहस्थी बसाने चली है…’

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लोग एकदूसरे से कहेंगे, ‘कुछ सुना तुम ने? अपनी मालविका शादी कर रही है. बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम. पता नहीं किस आंख के अंधे और गांठ के पूरे ने उस को फंसाया है. सचमुच शादी करेगा या शादी का नाटक कर के उसे घर की नौकरानी बना कर रखेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता.’

मालविका अपनेआप से तर्क करती रही. क्या केशवन सचमुच उस से प्यार करने लगा था? वह ऐसी परी तो है नहीं कि कोई उस के रूप पर मुग्ध हो जाए.

उस की नजर सामने दीवार पर टंगे आदमकद आईने पर पड़ी. उस का चेहरा अभी भी आकर्षक था पर समय चेहरे पर अपनी छाप छोड़ चुका था. आंखें बड़ीबड़ी थीं पर बुझी हुईं. उन में एक उदास भाव निहित था. उस का शरीर छरहरा और सुडौल था पर उस की जवानी ढलान पर थी. वह हमेशा इसी कोशिश में रहती थी कि वह किसी की आंखों में न गड़े, इसलिए वह हमेशा फीके रंग के कपड़े पहनती थी. गहने भी नाममात्र को पहनती थी. वह इतने सालों से एक अनाम जिंदगी जीती आई थी. उस की कोई शख्सीयत नहीं थी, कोई अहमियत भी नहीं थी. बड़ी अदना सी इंसान थी वह. वह अभी भी समझ नहीं पा रही थी कि केशवन ने उस में ऐसा क्या देखा कि वह उस की ओर आकर्षित हो गया. अगर वह चाहता तो उसे एक से बढ़ कर एक सुंदर लड़की मिल सकती थी.

उस ने फिर से वह लमहा याद किया जब केशवन ने उस से शादी का प्रस्ताव रखा था. वह उस पल को बारबार जीना चाहती थी.

‘मालविका, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. क्या तुम मेरी बनोगी?’ उस ने कहा था.

‘यह क्या कह रहे हैं आप?’ वह स्तब्ध रह गई थी, ‘आप मुझ से शादी करना चाहते हैं?’

‘हां.’

‘लेकिन आप को लड़कियों की क्या कमी है? एक इशारा करेंगे तो उन की लाइन लग जाएगी.’

‘हां, लेकिन तुम ने यह कहावत सुनी है न कि दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है. एक बार शादी कर के मैं धोखा खा गया. दोबारा यहां की लड़की से शादी करने की हिम्मत नहीं होती.’

फिर उस ने उसे अपनी पहली शादी के बारे में विस्तार से बताया था.

‘नैन्सी उसी अस्पताल में नर्स थी, जिसे मैं ने यहां आ कर जौइन किया

था. मैं इस शहर में बिलकुल अकेला था. न कोई संगी न साथी. नैन्सी ने दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया तो मुझे अच्छा लगा. मैं उस के यहां जाने लगा और धीरेधीरे उस के करीब आता गया. एक दिन हम ने शादी करने का निश्चय कर लिया.

‘पहले 4 वर्ष अच्छे गुजरे पर धीरेधीरे नैन्सी में बदलाव आया. वह बेहद आलसी हो गई. दिन भर सोफे पर पड़ी टीवी देखती रहती थी. नतीजा वह मोटी होती चली गई. उसे खाना बनाने में भी आलस आता था. जब मैं थकामांदा घर लौटता तो वह मुझे फास्ट फूड की दुकान से लाया एक पैकेट पकड़ा देती. घर की साफसफाई करने से भी वह कतराती थी. यहां तक कि वह हमारी नन्ही बच्ची की ओर भी ध्यान नहीं देती थी. जब मैं कुछ कहता तो हम दोनों में जम कर लड़ाई होती.

‘आखिर तलाक की नौबत आ गई. चूंकि हमारी बेटी कुल 3 साल की ही थी, इसलिए उसे मां के संरक्षण में भेजा गया. धीरेधीरे नैन्सी ने मेरी बेटी के कान भर कर उसे मेरे से दूर कर दिया व उस ने दूसरी शादी कर ली. अब मैं अपने एकाकी जीवन से तंग आ गया हूं. मुझे यह शिद्दत से महसूस हो रहा है कि जीवन के संध्याकाल में मनुष्य को एक साथी की जरूरत होती है.’

‘लेकिन,’ उस ने कहा, ‘आप को मालूम है कि मैं 40 पार कर चुकी हूं.’

‘तो क्या हुआ? चाहत में उम्र नहीं देखी जाती. इस देश में तुम्हारी उम्र की औरतें अभी भी बनठन कर और चुस्तदुरुस्त रहती हैं और भरपूर जिंदगी जीती हैं. मैं तुम्हें सोचने के लिए 24 घंटे का समय देता हूं. अभी मैं अस्पताल जा रहा हूं. कल सुबह तक मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए,’ केशवन ने मुसकरा कर कहा.

मालविका ने खिड़की के बाहर आंखें टिका दीं. मन अतीत की गलियों में भटकने लगा. उसे अपना गांव याद आया जहां उस का बचपन गुजरा था. घर में सम्मिलित परिवार की भीड़. सहेलियों के साथ धमाचौकड़ी मचाना. त्योहारों पर सजनाधजना. वह दुनिया ही अलग थी. वे दिन बेफिक्री और मौजमस्ती के दिन थे. फिर अचानक उस की शादी की बात चली और देखते ही देखते तय भी हो गई. घर में मेहमानों की गहमागहमी थी. सारा वातावरण पकवानों की खुशबू और फूलों की महक से ओतप्रोत था. द्वार पर बंदनवार सजे थे. अल्हड़ युवतियों की खिलखिलाहट गूंजने लगी. सखियां चुहल करने लगीं. सब एक सपने जैसा लग रहा था.

फेरे हो चुके थे. मृदंग की थाप और शहनाई की ऊंची आवाज के बीच शादी की पारंपरिक रस्में जोरशोर से हो रही थीं.

बात विदाई की होने लगी तो वर के पिता अनंतराम मालविका के पिता की ओर मुड़े और बोले, ‘श्रीमानजी, पहले जरा काम की बात की जाए.’

वे उन्हें एक ओर ले गए और बोले, ‘हां, अब आप हमें वह रकम पकड़ाइए, जो आप ने देने का वादा किया था.’

नारायणसामी मानो आसमान से गिरे, ‘कौन सी रकम? मैं कुछ समझा नहीं.’

‘वाह, आप की याददाश्त तो बहुत कमजोर मालूम देती है. आप को याद नहीं जब हम लोग सगाई के लिए आए थे तो आप ने कहा था कि आप क्व2 लाख तक खर्च कर सकते हैं?’

‘ओह अब समझा. श्रीमानजी, मैं ने कहा था कि मैं बेटी की शादी में क्व2 लाख लगाऊंगा क्योंकि इतने की ही मेरी हैसियत है. मैं ने यह तो नहीं कहा था कि मैं यह रकम दहेज में दूंगा.’

‘बहुत खूब. अब हमें क्या मालूम कि आप का क्या मतलब था. हम तो यही समझ बैठे थे कि आप हमें क्व2 लाख वरदक्षिणा देने के लिए राजी हुए हैं. तभी तो हम ने इस रिश्ते के लिए हामी भरी.’

नारायणसामी ने हाथ जोड़े, ‘मुझे क्षमा कीजिए. मुझे सब कुछ साफसाफ कहना चाहिए था. मुझ से भारी गलती हो गई.’

‘खैर कोई बात नहीं. शायद हमारे समझने में ही भूल हो गई होगी. पर एक बात मैं बता दूं कि दहेज की रकम के बिना मैं यह रिश्ता हरगिज कबूल नहीं कर सकता. मेरे डाक्टर बेटे के लिए लोग क्व10-10 लाख देने को तैयार थे. वह तो मेरे बेटे को आप की बेटी पसंद आ गई थी, इसलिए हमें मजबूरन यहां संबंध करना पड़ा. अब आप जल्द से जल्द पैसों का इंतजाम कीजिए.’

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नारायणसामी ने गिड़गिड़ा कर कहा, ‘इतने रुपए देना मेरे लिए असंभव है. मैं ठहरा खेतिहर. इतनी रकम कहां से लाऊंगा? मुझ पर तरस खाइए. मैं ने शादी में अपनी सामर्थ्य से ज्यादा खर्च किया है. और पैसे जुटाना मेरे लिए बहुत कठिन होगा.’

‘अरे, जब सामर्थ्य नहीं थी तो अपनी हैसियत का रिश्ता ढूंढ़ा होता. मेरे बेटे पर क्यों लार टपकाई?’

नारायणसामी कातर स्वर में बोले, ‘ऐसा अनर्थ न करें. मैं वादा करता हूं कि जितनी जल्दी हो सकेगा मैं पैसों का इंतजाम कर के आप तक पहुंचा दूंगा.’

‘ठीक है. आप की बेटी भी तभी विदा होगी.’

तभी मालविका के तीनों भाई अंदर घुस आए.

‘आप ऐसा नहीं कर सकते,’ वे भड़क कर बोले.

‘क्यों नहीं कर सकता?’ अनंतराम ने अकड़ कर कहा.

‘हमारी बहन की आप के बेटे से शादी हो चुकी है. अब वह आप के घर की बहू है. आप की अमानत है.’

‘तो हम कब इनकार कर रहे हैं?’

‘लेकिन इस समय दहेज की बात उठा कर आप क्यों बखेड़ा कर रहे हैं बताइए तो? क्या आप को पता नहीं कि दहेज लेना कानूनन जुर्म है? अगर हम पुलिस में खबर कर दें तो आप सब को हथकडि़यां पड़ जाएंगी.’

‘पुलिस का डर दिखाते हो. अब तो मैं हरगिज बहू को विदा नहीं कराऊंगा. कर लो जो करना हो. न मुझे तुम्हारे पैसे चाहिए और न ही तुम्हारे घर की बेटी. मैं अपने बेटे की दूसरी शादी कराऊंगा, डंके की चोट पर कराऊंगा.’

‘हांहां, जो जी चाहे कर लेना. यह धमकी किसी और को देना. हमारी इकलौती बहन हमें भारी नहीं है कि हम उस के लिए आप के सामने नाक रगड़ेंगे. हम में उसे पालने की शक्ति है. हम उसे पलकों पर बैठा कर रखेेंगे.’

‘ठीक है, तुम रखो अपनी बहन को. हम चलते हैं.’

मालविका के मातापिता समधी के हाथपैर जोड़ते रहे पर उन्होंने किसी की एक न सुनी. वे उसी वक्त बिना खाएपिए बरातियों समेत घर से बाहर हो गए.

‘अरे लड़को, तुम ने ये क्या कर डाला?’ शारदा रो कर बोलीं, ‘लड़की के फेरे हो चुके हैं. अब वह पराया धन है. अपने पति की अमानत है. उसे कैसे घर में बैठाए रखोगे?’

‘फिक्र न करो अम्मां. उस धनलोलुप के घर जा कर हमारी बहन दुख ही भोगती. वे उसे दहेज के लिए सतातेरुलाते. अच्छा हुआ कि समय रहते हमें उन लोगों की असलियत मालूम हो गई.’

‘लेकिन अब तुम्हारी बहन का क्या होगा? वह न तो इधर की रही न उधर की. विवाहित हो कर भी उस की गिनती विवाहित स्त्रियों में नहीं होगी. बेटा, शादी के बाद लड़की अपनी ससुराल में ही शोभा देती है. चाहे जैसे भी हो समधीजी की मांगें पूरी करने की कोशिश करो और मालविका को ससुराल विदा करो.’

‘अम्मां तुम बेकार में डर रही हो. हम समधीजी की मांगें पूरी करते रहे तो इस सिलसिले का कभी अंत न होगा. एक बार उन के आगे झुक गए तो वे हमें लगातार दुहते रहेंगे. हमें पक्का यकीन है कि देरसवेर वे अपनी गलती मान लेंगे और मालविका को विदा करा के ले जाएंगे.’

‘पर वे अपने बेटे की दूसरी शादी की धमकी दे कर गए हैं.’

‘अरे अम्मां, अगर लड़के वाले अपने बेटे का पुनर्विवाह करेंगे तो हम भी अपनी मालविका का दूसरा विवाह रचाएंगे.’

यह कहना आसान था पर कर दिखाना बहुत मुश्किल. दिन पर दिन गुजरते गए और मालविका के लिए कोई अच्छा वर नहीं मिला. कोई लड़का नजर में पड़ता तो वही लेनदेन की बात आड़े आती. किसी दुहाजू का रिश्ता आता तो वह उन को न जंचता. जब मालविका की उम्र 30 के करीब पहुंची तो रिश्ते आने बंद हो गए.

उस की मां उस की चिंता में घुलती रहीं. वे बारबार अपने पति से गिड़गिड़ातीं, ‘अजी कुछ भी करो. मेरे गहने बेच दो. यह मकान या जमीन गिरवी रख दो पर लड़की का कुछ ठिकाना करो. जवान बेटी को कितने दिन घर में बैठा कर रखोगे. मुझ से उस की हालत देखी नहीं जाती.’

एक बार नारायणसामी लड़कों से चोरीछिपे समधी के घर गए भी पर अपना सा मुंह ले कर वापस आ गए. अनंतराम ने बताया कि उन का बेटा पढ़ाई करने के लिए अमेरिका जा चुका है और उस के शीघ्र लौटने की कोई उम्मीद नहीं है. उन्होंने दोटूक शब्दों में कह दिया कि अच्छा होगा कि आप लोग अपनी बेटी के लिए कोई और वर देख लें.

अब रहीसही आशा भी टूट चुकी थी. नारायणसामी गुमसुम रहने लगे. एक दिन उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे नहीं रहे.

उन के तीनों बेटे शहर में नौकरी करते थे, ‘अम्मां,’ उन्होंने कहा, ‘तुम्हारा और मालविका का अब यहां गांव में अकेले रहना मुनासिब

नहीं. बेहतर होगा कि तुम दोनों हमारे साथ चल कर रहो.’

बड़े बेटे सुधीर को मुंबई में रेलवे विभाग में नौकरी मिली थी. रहने को मकान था. मांबेटी अपना सामान समेट कर उस के साथ चल दीं.

मां ने जाते ही बेटे के घर का चूल्हाचौका संभाल लिया और मालविका के जिम्मे आए अन्य छिटपुट काम. उस ने अपने नन्हे भतीजेभतीजी की देखरेख का काम संभाल लिया.

कुछ दिन बाद उस के मझले भाई का फोन आया, ‘मां, तुम्हारी बहू के बच्चा होने वाला है. तुम तो जानती हो कि उस की मां नहीं है. उसे तुम्हें ही संभालना होगा. हम तुम्हारे ही भरोसे हैं.’

‘हांहां क्यों नहीं,’ मां ने उत्साह से कहा और वे तुरंत जाने को तैयार हो गईं. मालविका को भी उन के साथ जाना पड़ा.

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अब उन की जिंदगी का यही क्रम हो गया. बारीबारी से तीनों भाई मांबेटी को अपने यहां बुलाते. मां के देहांत के बाद भी मालविका इसी ढर्रे पर चलती रही. उस के मेहनती और निरीह स्वभाव से सब प्रसन्न थे. उस की अपनी मांगें अत्यंत सीमित थीं. उसे किसी से कोई अपेक्षा नहीं थी. उस की कोई आकांक्षा नहीं थी. उस के जीवन का ध्येय ही था दूसरों के काम आना. वह हमेशा सब की मदद करने को तत्पर रहती थी.

उस के भाइयों की देखादेखी उस के अन्य सगेसंबंधी भी उसे गरज पड़ने पर बुला लेते. हर कोई उस से कस कर काम लेता और अपना उल्लू सीधा करने के बाद उसे टरका देता.

मालविका के दिन किसी तरह बीत रहे थे. कभीकभी वह अपने एकाकी जीवन की एकरसता से ऊब जाती. जब वह अपनी हमउम्र स्त्रियों को अपनी गृहस्थी में रमी देखती, उन्हें अपने परिवार में मगन देखती, तो उस के कलेजे में एक हूक उठती. लोगों की भीड़ में वह अकेली थी. जबतब उस का मन अनायास ही भर आता और जी करता कि वह फूटफूट कर रोए. पर उस के आंसू पोंछने वाला भी तो कोई न था.

उस के ससुर की धनलोलुपता और उस के भाइयों की हठधर्मिता ने उस की जिंदगी पर कुठाराघात किया था. अब वह एक बिना साहिल की नाव के मानिंद डूबउतरा रही थी. उद्देश्यहीन, गतिहीन…

क्रमश:

तसवीर: भाग-2

पूर्व कथा

केशवन का प्रस्ताव सुन कर मालविका चौंक उठी थी. उस ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि इस उम्र में कोई उस के सामने शादी का प्रस्ताव रखेगा. उस के सामने पूरा अतीत नाच उठा, जब दहेज की वजह से बरात दरवाजे से लौट गई थी. फिर मालविका के लिए कोई वरघर न मिला तो वह अपनी मां के साथ बारीबारी से तीनों भाइयों के पास रह कर नाव की तरह डूबउतरा रही थी.

अब आगे पढ़ें:

मालविका के बड़े भाई सुधीर की बेटी उषा की शादी हो गई और वह अमेरिका के न्यूजर्सी शहर में जा बसी. जब वह गर्भवती हुई तो उसे मालविका की याद आई, तो वह अपने पापा से बोली, ‘पापा, आप किसी तरह बूआजी को यहां भेज दो तो मेरी मुश्किल हल हो जाएगी. वे घर भी संभाल लेंगी और बच्चे को भी देख लेंगी. यहां के बारे में तो पता है न आप को? बेबी सिटर और नौकरानियां 1-1 घंटे के हिसाब से चार्ज करती हैं. इस से हमारा तो दीवाला ही निकल जाएगा.’

‘हांहां तुम्हारे लिए मालविका कभी मना नहीं करेगी. पर कुछ दिनों से वह गठिया के दर्द से परेशान है. अगर तुम लोग उस के लिए मैडिकल इंश्योरैंस करा लो तो अच्छा रहेगा. सुना है कि उस देश में बीमार पड़ने पर अस्पताल और डाक्टरों के इलाज में बड़ा भारी खर्च होता है.’

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‘हांहां क्यों नहीं. ये कौन सी बड़ी बात है. बूआ का बीमा करा लिया जाएगा. बस आप उन्हें जल्द से जल्द रवाना कर दें.’

मालविका अमेरिका के लिए रवाना हो गई. उस की भतीजी उसे एअरपोर्ट पर लेने आई थी.

‘बेटी, तेरे देश में तो बड़ी ठंड है,’ मालविका ने ठिठुरते हुए कहा, ‘मेरी तो कंपकंपी छूट रही है.’

उषा हंस पड़ी, ‘अरे बूआजी, अपना घर वातानुकूलित है. बाहर निकलो तो कार में हीटर लगा हुआ है. शौपिंग मौल में भी टैंप्रेचर गरम रखा जाता है. फिर सर्दी से क्यों घबराना? हां, एक बात का खयाल रखना बाहर कदम रखो तो बर्फ में पांव फिसलने का डर रहता है, इसलिए जरा संभल कर रहना.’

फिर उस ने मालविका के गले लग कर कहा, ‘बूआजी तुम आ गईं तो मेरी सब चिंता दूर हो गई. अब तुम मुझे वे सभी चीजें बना कर खिलाना जिन्हें खाने के लिए मेरा मन ललचाता है.’

घर पहुंच कर उषा ने कहा, ‘बूआ, आप का बिस्तर बेबी के रूम में लगा दिया है. जब बेबी पैदा होगा तो शायद रात में एकाध बार बच्चे को दूध की बोतल देने के लिए उठना पड़ेगा और हां, सुबह रस्टी को जरा बाहर ले जाना होगा, क्योंकि आप को

तो पता है मेरी नींद आसानी से नहीं खुलती.’

‘ये रस्टी कौन है?’

‘अरे रस्टी हमारा छोटा सा कुत्ता है. कल ही दिलीप उसे खरीद कर लाए हैं. हम ने सोचा है कि बच्चे को उस का साथ अच्छा लगेगा.’

‘पर बेटी, इतने नन्हे बच्चे के साथ कुत्ता पालना अक्लमंदी है क्या? जानवर का क्या ठिकाना, कभी बच्चे को नुकसान पहुंचा दे तो?’

‘अरे नहीं बूआ, ऐसा कुछ नहीं होगा. आप नाहक डर रही हैं. वैसे दिलीप जब घर में होंगे तो वे ही कुत्ते का सब काम देखेंगे.’

कुछ समय बाद उषा ने एक बालक को जन्म दिया. मालविका ने घर का काम संभाल लिया और बच्चे की जिम्मेदारी भी ले ली. वह दिन भर बहुत सारे काम करती और रात को निढाल हो कर बिस्तर पर पड़ जाती. काम वह इंडिया में भी करती थी पर वहां और लोग भी थे उस का हाथ बंटाने के लिए. यहां वह अकेली पड़ गई थी.

एक दिन सुबह वह बच्चे का दूध बना रही थी कि रस्टी दरवाजे के पास आ कर कूंकूं करने लगा. ‘ओह तुझे भी अभी ही जाना है मुए,’ वह झुंझलाई.

जब रस्टी ने कूंकूं करना बंद न किया तो मालविका ने बच्चे को पालने में डाला और एक शौल लपेट कर रस्टी की चेन थामे घर से निकली.

पिछली रात बर्फ गिरी थी. सीढि़यों पर बर्फ जम गई थी और सीढि़यां कांच की तरह चिकनी हो गई थीं. मालविका ने हड़बड़ी में ध्यान न दिया और जैसे ही उस का पांव सीढ़ी पर पड़ा वह फिसल कर गिर पड़ी.

उस ने उठने की कोशिश की तो उस के पैर में भयानक दर्द हुआ. उस के मुंह से चीख निकल गई. उसे लगा उस भीषण ठंड में धरती पर पड़ेपड़े उस का शरीर अकड़ जाएगा और उस का दम निकल जाएगा.

काफी देर बाद उषा ने द्वार खोला तो उसे पड़ा देख कर उस के मुंह से भी चीख निकल गई, ‘ये क्या हुआ बूआ? तुम कैसे गिर पड़ीं? मैं ने तुम्हें आगाह किया था न कि बर्फ पर बहुत होशियारी से कदम रखना वरना पैर फिसलने का डर रहता है.’

‘अब मैं जान कर तो नहीं गिरी,’ उस ने कराह कर कहा, ‘जल्दीबाजी में पांव फिसल गया.’ उषा व उस का पति दिलीप उसे अस्पताल ले गए.

डाक्टर ने मालविका की जांच कर के बताया कि इन का टखना टूट गया है. औपरेशन करना होगा और हड्डी बैठानी होगी और इस में 10 हजार डौलर का खर्चा आएगा.

10 हजार सुन कर मालविका की सांस रुकने लगी, ‘उषा, तू ने मेरा मैडिकल बीमा करा लिया था न?’

‘मैं ने दिलीप से कह तो दिया था. क्यों जी, आप ने बूआजी का बीमा करा लिया था न?’

‘ओहो, ये बात तो मेरे ध्यान से बिलकुल उतर गई.’

उषा अपने हाथ मलने लगी, ‘ये आप ने बड़ी गलती की. अब इतने सारे पैसे कहां से आएंगे?’

वे इधरउधर फोन घुमाते रहे. आखिर उन्हें एक डाक्टर मिल गया जो मालविका का औपरेशन 3 हजार डौलर में करने को तैयार हो गया.

प्लास्टर उतरने वाले दिन उषा अपनी बूआ को अस्पताल ले गई. प्लास्टर उतरने के बाद जब मालविका ने पहला कदम उठाया तो देखा कि उस का टूटा हुआ पैर सीधा नहीं पड़ रहा था. उस के पैर डगमगाए और वह कुरसी में गिर पड़ी.

‘हाय ये क्या हो गया?’ उस के मुंह से निकला.

डाक्टर ने पैर की जांच की और बोले, ‘लगता है पैर सैट करने में जरा गलती हो गई. अब जब आप चलेंगी तो आप का एक पैर थोड़ा टेढ़ा पड़ेगा. आप को छड़ी का सहारा लेना होगा और कोई चारा नहीं है.’

मालविका की आंखों से झरझर आंसू बह निकले. हाय वह अपाहिज हो गई. अब वह बैसाखियों के सहारे चलेगी. बुढ़ापे में उसे दूसरों के आसरे जीना होगा.

तभी एक नर्स उस के पास आई, ‘मैडम, आप ओपीडी में चलिए. हमारे अस्पताल में न्यूयार्क से एक विजिटिंग डाक्टर आए हैं, जो आप के पैर की जांच करना चाहते हैं?’

‘कौन डाक्टर?’ मालविका ने अपना आंसुओं से भीगा चेहरा ऊपर उठाया.

‘डाक्टर केशवन.’

‘केशवन? यह कैसा नाम है?’

‘वे आप के ही देश के ही हैं. चलिए, मैं आप को व्हीलचेयर में ले चलती हूं.’

मालविका का हृदय जोरों से धड़क उठा. क्या ये वही थे? नहीं, उस ने अपना सिर हिलाया. इस नाम के और भी तो डाक्टर हो सकते हैं. पर डाक्टर को देखते ही उस का संशय दूर हो गया. वही हैं, वही हैं उस के हृदय में एक धुन सी बजने लगी. हालांकि मालविका उन्हें पूरे 20 साल बाद देख रही थी पर उन्हें पहचानने में उसे एक पल की देरी भी नहीं हुई. केशवन का बदन दोहरा हो गया था और सिर के बाल उड़ गए थे. पर चेहरामोहरा वही था.

ये छवि तो उस के हृदय में अंकित थी, उस ने भावुक हो कर सोचा. इन की तसवीर तो उस ने सहेज कर अपने बक्से में रखी हुई थी. वह हर रोज अकेले में तसवीर को निकालती, उसे निहारती और उस पर 2-4 आंसू बहाती. ये तसवीर उन दोनों की मंगनी के अवसर पर ली गई थी. एक प्रति मालविका ने सब की नजर बचा कर चुरा कर अपने पास रख ली थी.

उस ने सुना था कि केशवन अमेरिका जा कर वहीं के हो गए थे. उस ने एक उड़ती हुई खबर यह भी सुनी थी कि केशवन ने एक गोरी मेम से शादी कर ली थी और इस बात से उस के मातापिता बहुत दुखी थे. डाक्टर केशवन कैबिन में आए. मालविका ने उन पर एक भेदी नजर डाली. क्या उन्होंने उसे पहचान लिया था? शायद नहीं. उन्होंने उस का पैर जांचा.

‘आप का औपरेशन सही तरीके से नहीं किया गया है, इसीलिए आप की चाल टेढ़ी हो गई है. दोबारा हड्डी तोड़ कर फिर से जोड़नी पड़ेगी.’

‘ओह इस में तो भारी खर्च आएगा,’ मालविका चिंतित हो उठी.

‘डाक्टर, हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं,’ उषा बोल उठी,

‘हम सोच रहे हैं कि इन्हें वापस इंडिया भेज दें. वहां पर इन का इलाज हो जाएगा.’

‘पैसे की आप चिंता न करें,’ केशवन ने कहा, ‘मैं इन का इलाज अपनी क्लीनिक में करा दूंगा,

एक भारतीय होने के नाते हमें परदेश में एकदूसरे की मदद तो करनी ही चाहिए.’

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‘ओह डाक्टर साहब आप ने हमें उबार लिया,’ उषा बोली.

‘मैं कल न्यूयार्क वापस जा रहा हूं. आप कहें तो इन्हें साथ ले जाऊंगा. औपरेशन के बाद इन्हें थोड़ा आराम की जरूरत है फिर ये इंडिया जा सकती हैं.’

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एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा: भाग-4

रीतिका और कनिष्क की दोस्ती हर बीतते दिन के साथ गहरी होती जा रही थी. कनिष्क डिबेट कंपीटिशंस में जाता रहता था जिस के लिए उसे रिसर्च से हट कर भी सामग्री की जरूरत होती थी. रीतिका क्रिएटिव राइटिंग करती थी, इसलिए वह कनिष्क के हर कंपीटिशन या क्लास रिप्रैजेंटेशन से पहले उस के साथ बैठ उस की मदद किया करती थी. कभी देररात तो कभी अपनी क्लास छोड़ कर उस के लिए लिखा करती थी. एक बार कनिष्क ने उस से कहा भी था, ‘‘तू न होती तो क्या होता मेरा,’’ जिस पर रीतिका ने जवाब दिया, ‘‘तेरा सिर थोड़ा कम दर्द होता.’’

दोनों एकदूसरे के जीवन में अपनीअपनी जगह बना चुके थे. रीतिका कनिष्क के मैसेज का इंतजार किया करती तो कनिष्क उस से बात किए बिना खुद को अधूरा समझने लगता. रीतिका और कनिष्क एकदूसरे के आदी होते जा रहे थे और इस बीच, न उन्हें किसी साथी की जरूरत महसूस होती न किसी के साथ रिलेशनशिप में आने की. दोनों ही कभी सीरियस रिलेशनशिप में नहीं रहे थे. एकदूसरे के बारे में कुछ महसूस करते भी थे तो अब कहने का मन नहीं था, मन में डर था कि कहीं यह दोस्ती खराब न हो जाए.

दोनों लड़ते भी बहुत थे लेकिन जब दोनों में से कोई एक मनाने आता तो दूसरा बचकाने अंदाज में शिकायत करने लगता और दोनों, लड़ाई का मसला क्या था वह ही भूल जाते. एक बार कनिष्क ने मजाक में रीतिका को बिजी होने के चलते मैसेज नहीं किया और रीतिका ने भी मैसेज करने के बजाय उस के पहले मैसेज करने का इंतजार किया. इस के चलते 2 दिनों बाद कनिष्क ने रीतिका को यह कह दिया कि वह घमंडी है. और यह सुन कर रीतिका ने उसे मतलबी कह दिया. दोनों ने एकदूसरे से पूरा हफ्ता बात नहीं की.

होली आ चुकी थी. होली के दिन कनिष्क ने रीतिका को मैसेज किया, ‘हैप्पी होली, अब तू तो कहेगी नहीं, तो मैं ने सोचा मैं ही गुस्सा थोड़ा किनारे कर मैसेज कर दूं.’

‘फालतू में गुस्सा करेगा तो गुस्सा किनारे भी तो खुद ही को करना पड़ेगा न,’ रीतिका ने रिप्लाई किया.

‘तुझ से तो प्यार करता हूं मैं, गुस्सा नहीं कर सकता क्या?’

‘हां तो, मैं गुस्सा नहीं कर सकती तुझ पर?’ रीतिका ने लिखा.

‘क्यों? तुझे भी मुझ से प्यार है क्या?’

‘और क्या.’

‘कितना?’

‘तुझ से तो ज्यादा ही.’

‘रहने दे, तुझे मेरी याद नहीं आई.’

‘थोड़ी सी तो आई थी,’ रीतिका ने लिखा और हंसने वाली ईमोजी भेज दी. रिप्लाई में कनिष्क ने भी हंसने वाली ईमोजी भेज दी.

बात प्यार शब्द तक आई जरूर थी पर वह दोस्ती के लिए थी या उस से ज्यादा के लिए, यह एकदूसरे से पूछना मुश्किल था दोनों के लिए.

दोनों के थर्डईयर के आखिरी 3 महीने बचे थे. एंट्रैंस की तैयारियां और कालेज के प्रोजैक्ट्स में ही दोनों का वक्त बीत रहा था. कनिष्क के कालेज से ट्रिप जा रही थी शिमला. कनिष्क हर साल ट्रिप पर जाता ही था. पहले जब भी गया था तो आ कर सारी फोटो रीतिका को दिखाई थीं. रीतिका के कालेज से भी ट्रिप जाने वाली थी लेकिन उदयपुर. कनिष्क ने रीतिका से पूछा क्या वह उस के साथ ट्रिप पर चलेगी. कनिष्क की अपने डिपार्टमैंट में इतनी तो चलती ही थी कि वह एकदो लोगों को साथ ला सके. उस ने सुमित को बताया कि वह रीतिका को भी साथ लाना चाहता है तो सुमित खुश हुआ लेकिन वह इस बात को ले कर चिंतित था कि कोई कहीं रीतिका का चेहरा देख उसे कुछ कह न दे. इस पर कनिष्क ने कहा, ‘‘अगर किसी ने रीतिका से कुछ कहा तो उसे जवाब देना आता है. वैसे भी वह जितनी बार भी कालेज आई है किसी ने उसे अटपटा महसूस नहीं कराया, तो अब क्यों कराएगा. चिल्ल कर.’’

रीतिका ने ट्रिप के बारे में सुना तो खुश हो गई. उस ने घर से परमिशन ले ली, ट्रिप के पैसे जमा करा दिए, अपनी सहेली निशा को भी साथ चलने के लिए मना लिया. ट्रिप सुबह 6 बजे कालेज से निकलने वाली थी और अगले 4 दिनों तक सभी को साथ रहना था. बस में रीतिका और निशा एक सीट पर बैठी थीं और कनिष्क उन की बगल वाली सीट पर सुमित के साथ. कनिष्क की नजरें न चाहते हुए भी बारबार रीतिका की तरफ जा रही थीं जिसे सुमित ने नोटिस कर लिया था.

‘‘तू ने उसे बताया या नहीं?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘क्या बताया या नहीं, किस को?’’ कनिष्क ने झिझकते हुए पूछा.

‘‘तू पसंद करता है न उसे, बता क्यों नहीं देता.’’

‘‘यार, उस ने मना कर दिया तो? मतलब मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या कहूं, कैसे कहूं. वह अच्छी लड़की है, समझदार है, तेजतर्रार है, इतनी खूबियां हैं उस में. फिर भी मैं ने उस के साथ इतना बुरा बिहेव किया था शुरू में, याद है न तुझे? अगर हमारी दोस्ती खराब हो गई तो? बहुत मुश्किल है कुछ कह पाना,’’ कनिष्क धीमी आवाज में सुमित से कहने लगा.

‘‘तू अब तक उस बात को ले कर बैठा है? देख, अगर तू उसे उस नजर से देखता है तो बता दे अपने दिल की बात, वह क्या कहती है वह तो उस की मरजी है न.’’

‘‘ठीक है, देखता हूं.’’

शिमला ट्रिप के पहले 3 दिन किसी एडवैंचर से कम नहीं थे. दिन कभी माल रोड पर तसवीरें खींचते बीतता तो कभी कहीं और घूमते. रात में बोनफायर और एक लड़की को ऐसा लगा… तो कभी शाम भी कोई जैसे है नदी बहबहबहबह रही है… जैसे गाने गाते. सब मिल कर नाचे भी तो कितना थे. ट्रिप पर गए प्रोफैसरों से छिपतेछिपाते सब ने बीयर भी तो पी थी. एक दिन तो ग्रुप की एक लड़की तान्या रिज रोड पर इतना तेज गिरी कि उस के दाएं पैर में मोच आ गई. रीतिका उस पूरा दिन उस के पास ही रही उसे सहारा देते हुए. सब जब यहां से वहां घूम रहे थे तो रीतिका तान्या के साथ बैंच पर बैठ उसे हंसाने की कोशिश में लगी हुई थी. कनिष्क उसे देखता तो उस की नादानियों पर तो कभी उस के निस्वार्थ भाव को देख कर मुसकरा देता.

ट्रिप के आखिरी दिन यानी चौथे दिन की रात सभी नाचनेगाने में मग्न थे. होटल की छत पर बड़े स्पीकर्स लगे हुए थे. सभी ने ड्रैसेस पहनी हुई थीं. रीतिका ने ब्लैक पैंसिल ड्रैस पहनी थी जो उस पर बहुत सुंदर लग रही थी. जब स्लो सौंग बजा और सभी कपल डांस करने लगे तो कनिष्क ने रीतिका का हाथ पकड़ उसे अपने पास खींच लिया. उस का एक हाथ रीतिका के हाथों में था तो दूसरा उस की कमर पर. उन दोनों की आंखें एकदूसरे की आंखों में समाई हुई थीं.

कनिष्क और रीतिका छत के कोने में थे. कनिष्क ने कहा, ‘‘यह सब कितना अलग है न, शहर व भीड़ से दूर.’’

‘‘हां, अच्छा महसूस हो रहा है, काश कि वक्त यहीं थम जाए और हम वापस न जाएं.’’

‘‘रीतिका…’’ कनिष्क ने गहरी आवाज में कहा, गाने के मद्धम शोर के बावजूद वे एकदूसरे को अच्छी तरह सुन पा रहे थे.

‘‘हां?’’ रीतिका ने कहा.

‘‘आई लव यू, बस… कब हुआ, कैसे हुआ पता नहीं, लेकिन तुम से प्यार हो गया है मुझे. तुम्हारे साथ अपनी जिंदगी बिताना चाहता हूं मैं, हमेशा तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं. लड़नाझगड़ना चाहता हूं तुम से, मनाना चाहता हूं तुम्हें. क्या तुम्हें मंजूर है मेरा प्यार?’’ कनिष्क अपने प्यार का इजहार कर चुका था.

‘‘कनिष्क…’’ रीतिका ने हैरान होते हुए कहा.

‘‘कहो…’’ कनिष्क की आंखों में सवाल थे.

‘‘मैं भी तुम्हारे लिए यही सब महसूस करती हूं और यकीन मानो, मैं खुश भी हूं, लेकिन मैं अभी तैयार नहीं हूं,’’ रीतिका ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘‘मतलब?’’

‘‘मैं ग्रैजुएशन के बाद दिल्ली से बाहर जा रही हूं पढ़ने. या शायद देश से ही बाहर. वक्त बहुतकुछ बदल देता है कनिष्क. अभी तुम मेरे लिए प्यार महसूस कर रहे हो, कल जब मैं तुम्हारे साथ नहीं रहूंगी तो तुम अकेले पड़ जाओगे या हमारे बीच जो कुछ है उसे रिश्ते का नाम दे कर खराब क्यों करना. हम एकदूसरे के जितने करीब हैं उतने हमेशा रहेंगे. मैं, बस, समय मांग रही हूं तुम से. बताओ, करोगे मेरा इंतजार?’’

‘‘हमेशा.’’

अटूट बंधन: भाग-3

 विशू ने निर्णय ले लिया और निर्णय के बाद अपने को जहां पाया उस से उस के होश उड़ गए. उस का अपना कुछ है ही नहीं. यह कंपनी का लग्जरी फर्निश्ड फ्लैट नहीं गुड़गांवदिल्ली सीमा पर बागबगीचों से सजी सुंदर कोठी है.

गांव की मिट्टी में पले विशू को 9 मंजिल पर टंगे रहना अच्छा नहीं लगता था. तब इतनी आबादी भी नहीं थी. इधर तो सस्ते में जमीन मिल गई फिर मनपसंद नक्शे से घर बनवा लिया. कुशल माली के साथ खड़े हो पेड़पौधे लगवाए जो अब बड़े हो गए हैं. लौन में आगरा से मंगवा कर कारपेट घास लगवाई पर यह कुछ भी उस का अपना नहीं है. पूरा का पूरा घर रीमा के नाम है. उस ने सारे बैंक खाते, निवेश के कागज देखे. सब कुछ रीमा के नाम है. कहीं भी कुछ भी उस अकेले के नाम नहीं. हां, एक खाता उस अकेले के नाम अवश्य है, जहां उस का वेतन जमा होता है. उसे खोल देखा तो उस में मात्र 55 हजार रुपए पड़े हैं. चलो, भागते भूत की लंगोटी संकटकालीन समय को पार कर देगी. 5 हजार पर्स में हैं. और हां, आज 17 तारीख है, कल रविवार गया है. 15 तारीख शनिवार को त्यागपत्र दिया है शाम को 4 बजे, मतलब उस दिन तक का वेतन तो मिलेगा ही.

पर वह जानता है कि हफ्ते दो हफ्ते से ज्यादा बेरोजगार नहीं रहने वाला. बस, यह बीच का समय काटने के लिए एक सुरक्षित और शांतिपूर्ण जगह चाहिए.

वह अटैची में जरूरी कागजपत्तर रख रहा था तभी ध्यान आया, एक पौलिसी और है जिस में रीमा का नहीं एक ट्रस्ट का नाम है. 20 लाख की पौलिसी है. विशू ने वह पौलिसी निकाली, 5 दिन बाद वह मैच्योर हो रही है. चैन की सांस ली कि चलो 20 लाख रुपए हाथ में रहेंगे.

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अब उसे कोई चिंता नहीं. उस ने पौलिसी अटैची में संभाल कर रख ली. इस के बाद कपड़ेलत्ते बैग में डाले. बैग को नौकर से गाड़ी में रखवा दिया. नौकर ने नाश्ता लगा दिया. नहातेनहाते ही उस ने फैसला कर लिया था कि भरपेट नाश्ता कर के ही निकलेगा. अभी तक तो रीमा के घर में रोटी उसी की कमाई की है. नाश्ता कर लैपटौप उठा चलतेचलते एक पल रुका, एक कसक यहां छोड़ कर जा रहा है, दोनों बच्चे. पलकें गीली हो उठीं पर जाना तो पड़ेगा ही.

आज उस ने सब से पहले अपने निजी खाते से 9 हजार निकाल पर्स में रखे फिर गाड़ी से नगरनिगम सीमा पार की. अपने गांव की सड़क पर गाड़ी जब उतारी तब अचानक याद आया, 13 वर्ष हो गए घर आए. एक युग बीत गया, जाने कितना परिवर्तन हो चुका होगा. एक परिवर्तन तो अभी देख रहा है विशू. पहले गांव जाने की सड़क चौड़ी तो इतनी ही थी पर कच्ची थी. बारहों महीना धूल उड़ाती, बरसात में कीचड़ भरी.

अब काले कोलतार की साफसुथरी सड़क. चमचमाती नागिन सी पड़ी है. उस पर टैंपो भी चल रहे हैं. उस की गाड़ी फिसलती चली जा रही है. गांव की सीमा में एक चाय की दुकान. दुकान क्या, जरा सी आड़ बना रखी थी. वहां एक तख्त पर 2 युवतियां. सामने एक मेज पर स्टोव, केतली, दूध का भगौना, कांच के जार में सस्ते बिस्कुट, नमकीन और ब्रैड्स. ग्राहक शून्य दुकान थी. उस ने गति धीमी की, उतर पड़ा. एक युवती सलवारसूट में थी, दूसरी साड़ी में. उस के उतरते ही सलवार वाली युवती चहक उठी, ‘‘बड़े भैया.’’

साड़ी वाली युवती ने जल्दी से पल्ला खींच सिरमुंह ढक लिया. यह सहज संकोच, सम्मान प्रदर्शन आज शिक्षित, शहरी समाज में जड़ से उखड़ एकदम समाप्त हो गया है, उस का मन जुड़ा गया. युवती की ओर देखा, ‘‘तू? तू मुन्नी है क्या?’’

‘‘जी, बड़े भैया.’’

साड़ी वाली युवती ने तब तक आ कर उसे प्रणाम किया. विशू का समाज बदल गया है. वह हाय, हैलो तो जानता है पर आशीर्वाद में क्या कहे, नहीं जानता. इसलिए चुप ही रहा. मुन्नी ने कहा, ‘‘भाभी, बड़े भैया के साथ मैं घर जा रही हूं. तुम दुकान बढ़ा कर जल्दी से घर आ जाओ.’’

वक्त क्याक्या दिखाएगा मुझे. इन के मुंह का निवाला छीन कर उस ने अपने ऊपर चढ़ने की सीढ़ी बनवाई थी. वह तो ऊपर की चोटी पर चढ़ कर आराम से बैठ गया पर उस का मूल्य चुकाना कितना भारी पड़ा इस निर्धन परिवार को. पंडित केशवदास तिवारी, जिन को जिलाधिकारी तक सम्मान की दृष्टि से देखते थे, उन की बहूबेटी दो रोटी जुटाने के लिए चाय की दुकान खोले बैठी हैं. पर दीनू तो था, वह कहां गया? क्या कमाता नहीं है, आवारा हो गया है…या…इतना अमंगल नहीं हुआ होगा, बहू के हाथों में सुहाग की प्रतीक लाल कांच की चूडि़यां हैं.

घर एकदम खंडहर हो चुका है. मिट्टी का ही घर था पर एकदम मजबूत, लिपापुता, सूई भी गिरे तो उठा लो. छत इतनी मजबूत थी कि वह दोस्तों के साथ दिनभर छत पर पतंग उड़ाया करता था. और घर भले ही कच्चा हो जमीन काफी थी. पंडितजी ने बांस का बेड़ा बना रखा था पूरी सीमा को घेर, जिसे बाउंडरी वौल कहते हैं. अब तक बांस के टुकड़ों का भी नामोनिशान नहीं, सब बराबर हो गया है.

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उसी के कोने में चाय की दुकान है. आंगन में आते ही मुग्ध हो गया. एक छोटा सा लंगड़ा आम का पौधा लगाया था उस ने आंगन के बीचोंबीच. अब वह महावृक्ष बन गया है, मजबूत शाखाएं फैलाए खड़ा है. मुन्नी ने उस के पैर रुकते देख हंस कर कहा, ‘‘बड़े भैया, यह तुम्हारा लगाया पेड़ है. अम्मा कहती हैं, देखो कितना बड़ा हो गया है. छवड़ा भरभर मीठे आम उतरते हैं. सावनभर पूरे महल्ले की औरतें इस पर झूला झूलने आती हैं.’’

यह सच है कि निर्मला ने अपना सारा स्नेह, प्यार उस पर पहले ही दिन से न्यौछावर किया पर विशू ने कभी उस को मां नहीं समझा, उस के साथ उस का व्यवहार सदा ही औपचारिक रहा. लड़ाई या अपमान भी नहीं किया कभी. पर आज उस ने मन से जा कर उस के धूल भरे, गंदे पैरों को छू कर प्रणाम किया. निर्मला ने अपने दुर्बल हाथों में उसे छाती पर खींच लिया, माथे को चूमा, ‘‘मेरा विशू, मेरा बेटा, कितने दिनों में आया रे तू?’’

दंग रह गया वह, एक अनपढ़, निर्धन महिला जो सौतेली मां है, अपने स्वार्थ के लिए इन की मुंह की रोटी तक छीन कर ले उड़ा, आज तक पलट कर देखा भी नहीं. अपनी पत्नी जिस के ऊपर अपना सर्वस्व लुटाता रहा, उस से करारा थप्पड़ न खाता तो आज भी इधर की दिशा नहीं लेता. उस निर्मला की आंसूभरी आंखों में कोई क्रोध, कोई विराग नहीं, कोई शिकायत नहीं. है तो बस स्नेह, ममता की अमृतधारा.

‘‘अम्मा, कैसी हो तुम?’’

‘‘बस ठीक हूं, तू खुश है, बड़ा आदमी बन गया है, यह क्या कम सुख है.’’

आंचल से तख्त पोंछा, ‘‘बैठ बेटा, मुन्नी, भैया के लिए पानी ला.’’

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Serial Story: उड़ान (भाग-1)

घर्रघर्र की आवाज करती बस कच्ची सड़क पर बढ़ती जा रही थी. उस में बैठी अरुणा हिचकोले खाती बाहर का दृश्य एकटक देख रही थी. नारियल के पेड़ों के झुंड, कौफी के बागान, अमराइयां, सुपारी के पेड़, लहलहाते धान के खेत, चारों तरफ हरियाली और प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य देख कर अरुणा की आंखें भर आईं.

बचपन में यही सफर वह बैलगाड़ी में तय करती थी. उस के गांव तिरुपुर में तब बस और मोटरें नहीं चलती थीं. आसपास के गांवों तक लोग बैलगाड़ी में ही आयाजाया करते थे.

अरुणा की आंखें शून्य में जा टंगीं. वह अतीत की यादों में खो गई.

वह अभी 16 साल की थी कि उस के मातापिता ने उस का ब्याह तय कर दिया. उस ने बहुत नानुकुर की पर उस की एक न चली. उस का मन आगे पढ़ने का था पर पिता बोले, ‘आगे पढ़ कर क्या करना है, वही चूल्हाचक्की न. बस, बहुत हो गया.’

इस बात की जानकारी जब उस के चाचा गोविंद को हुई तो वे शहर से दौड़े चले आए.

‘अन्ना, यह क्या करते हो? इतनी छोटी उम्र में बेटी की शादी?’

‘अरे, मेरा बस चलता तो इसे छुटपन में ही ब्याह देता,’ कृष्णस्वामी बोले, ‘लड़की रजस्वला हो उस से पहले उस का विवाह होना कल्याणकारी होता है. ऐसे ही विवाह को  ‘गौरी कल्याणम’ कहा जाता है और इसे बहुत श्रेष्ठ माना जाता है.’

‘लेकिन आजकल ये सब कौन करता है. अरुणा को आगे पढ़ने दीजिए.’

‘देखो गोविंद, बेटी को आगे पढ़ाने का मतलब है उसे शहर भेजना, क्योंकि हमारे गांव में कालेज तो है नहीं.’

‘इसे मेरे पास बेंगलुरु भेज दीजिए.’

‘नहीं, तुम्हारा अपना परिवार है.

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तुम उस को देखो. अरुणा मेरी जिम्मेदारी है. उस के लिए अच्छा घरवर ढूंढ़ लिया है. और फिर अरुणा ठिकाने से लगेगी तभी न उस की छोटी बहनों के लिए रास्ता खुलेगा.’

शादी के 1 वर्ष बाद ही अरुणा के पति की एक ट्रेन दुर्घटना में मृत्यु हो गई. उस के ससुराल वालों का तो उस पर कहर ही टूट पड़ा, ‘अरे, कैसी सत्यानाशी, कुलक्षणी लड़की निकली यह जो आते ही हमारे बेटे को खा गई. हमें नहीं चाहिए यह मनहूस कुलनाशिनी,’ ससुराल में उस का जीना दूभर कर दिया गया.

पिता उसे ससुराल से घर ले आए.

‘तू फिक्र न कर मेरी बच्ची,’ उन्होंने उसे दिलासा दिया था, ‘जब तक

मांबाप का साया तेरे सिर पर है, तुझे किसी प्रकार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं. हम हैं न तेरी सरपरस्ती के लिए.’

‘हां अक्का,’ छोटे भाई राघव ने आश्वासन दिया, ‘मैं और केशव भी हैं जो आजन्म तुम्हें संभालेंगे.’

लेकिन क्या इन खोखले शब्दों से उस के आंसू थमने वाले थे? मांबाप का संरक्षण था, पर साथ ही बंदिशें भी थीं. उसे अपना भविष्य अंधकारमय नजर आता था.

पिता कृष्णस्वामी के धर्मगुरु स्वामी अनंताचार्य घर आए. पूरा घर हाथ जोड़े उन के स्वागत में लग गया.

‘यजमान, तुम्हारी बेटी के बारे में सुना, बड़ा दुख हुआ. पर होनी को कौन टाल सकता है. अब तुम लोगों को चाहिए कि बिटिया को धैर्य बंधाओ. पिछले जन्म के कर्मों की सजा इस जन्म में मिल रही है. इस जन्म में नेमधरम से रहेगी तभी अगला जन्म संवरेगा. हां, तो बिटिया के केशकर्तन कब करवा रहे हो?’

कृष्णस्वामी भारी सोच में पड़ गए. बेटी का उदास चेहरा, सूना माथा और  गला देख कर ही उन का कलेजा मुंह को आता था. उस के केश उतारे जाने की कल्पना से वे थर्रा गए.

अरुणा ने सुना तो वह बिलखबिलख कर रोने लगी, ‘पिताजी, मेरे केश मत उतरवाओ. मैं यह सह नहीं पाऊंगी.’

उस के लिए यही क्या कम था कि भरी जवानी में वैधव्य दुख भोग रही थी. पति के मरते ही उस की चूडि़यां तोड़ दी गई थीं. मंगलसूत्र गले से उतार लिया गया था. उसे सादे कपड़े पहनने के लिए बाध्य कर दिया गया था. माथे से सुहाग का चिह्न पोंछ दिया गया था सौंदर्य प्रसाधन, आमोदप्रमोद सब वर्जित हो गए. जब उस की सखीसहेलियां शादीब्याह में बनठन कर अठखेलियां करतीं तो वह उपेक्षित सी घर में मुंह लपेट कर पड़ी रहती.

उस के गोविंद चाचा जब शहर से गांव आए तो देखा कि सारा घर शोक में डूबा हुआ था.

‘यह क्या अन्ना, हमारे धर्मशास्त्रों में लिखा है कि जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता बसते हैं. लेकिन तुम्हारे घर की स्त्रियों की दयनीय दशा देखी नहीं जाती. एक तरफ भाभी रो रही हैं. बेटी अलग अपने गम में घुलती जा रही है और तुम हो कि उन की ओर से बिलकुल उदासीन हो.’

‘मैं क्या करूं गोविंद, मुझे तो कुछ सूझता नहीं है,’ कृष्णस्वामी ने बुझे हुए स्वर में कहा.

‘तुम अब अरुणा को मेरे जिम्मे छोड़ दो. मैं उसे शहर ले जाऊंगा. उसे कालेज में भरती कराऊंगा. बिटिया वहीं पढ़ाई करेगी.’

‘लेकिन…’

‘अब लेकिनवेकिन नहीं. मैं तुम्हारी एक न सुनूंगा.’

मांबाप ने भारी मन से अरुणा को विदा किया. सौ हिदायतें दीं. घर में थी तो बात और थी. वे उस के ऊपर कड़ा नियंत्रण रखते. पगपग पर टोकाटाकी करते. जवान लड़की के कहीं कदम बहक न जाएं, इस बात का उन्हें हमेशा डर लगा रहता.

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अरुणा के चाचा उसे बेंगलुरु ले कर चले गए. उसे कालेज में दाखिला दिला दिया.

इस दौरान एक दिन अरुणा की मुलाकात श्रीकांत से हुई. वह पास के कालेज में पढ़ता था. सुदर्शन और मेधावी था. लड़कियां उस के पीछे दीवानी थीं. पर उस ने सब को छोड़ अरुणा को चुना था. वे चोरीछिपे मिलने लगे.

एक दिन श्रीकांत बोला, ‘तुम ने उडुपी कृष्णभवन का मसाला डोसा खाया है कभी?’

‘नहीं.’

‘चलो, आज चलते हैं.’

‘नहीं बाबा, तुम्हारे साथ रेस्तरां गई और किसी ने देख लिया तो?’

‘देख ले, हमारी बला से. कोई हमारा क्या कर लेगा? हम दोनों तो शादी करने वाले हैं.’

‘शादी,’ उस का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘श्रीकांत, यह तुम क्या कह रहे हो? क्या तुम जानते नहीं कि मैं विधवा हूं?’

‘जानता हूं. पर वह तुम्हारा गुजरा हुआ कल था. मैं तुम्हारा आने वाला कल हूं.’

उस के प्यार की भनक आखिर एक दिन घरवालों को लग ही गई. उस दिन घर में एक तूफान आ गया था.

‘विधवा का पुनर्विवाह,’ पिताजी गरजे थे, ‘असंभव. अरे पगली, तू उस देश में जन्मी है जहां स्त्रियां पति की चिता पर सहगमन करती थीं. हमारे वंश में न कभी ऐसा हुआ न कभी होगा. हम लोग ऐसेवैसे नहीं हैं. हम उच्च कोटि के ब्राह्मण हैं. मेरे दादा मैसूर महाराजा के राजपुरोहित थे. सभी काम नेमधरम से करते थे तब कहीं जा कर राजकाज संभालते थे. और तुझे मेरी मां की याद है?’

‘हां,’ उस ने अस्फुट स्वर में कहा.

अरुणा को अपनी दादी भलीभांति याद हैं. 20 साल की आयु में विधवा हुईं. घुटा हुआ सिर, एकवसना, एक जून खाना.

8 गज की तांत की साड़ी में अपना तन और सिर ढकतीं. हमेशा नेमधरम से रहतीं. वे सांध्य बेला में मंदिर जाना नहीं भूलतीं. एक दिन मंदिर में ही एक खंभे के सहारे बैठेबैठे, प्रवचन सुनते हुए उन के प्राणपखेरू उड़ गए थे.

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Serial Story: उड़ान (भाग-2)

लेकिन जैसे अरुणा का मन अंदर से चीख उठा था, ‘वह जमाना और था’. उसे इस बात का ज्ञान था कि वह आज के युग की नारी है, उस में सोचनेसमझने की शक्ति है, वह अपना भलाबुरा जानती है. वह नियति के आगे सिर कैसे झुका दे. वह कैसे एक अज्ञात मनुष्य के नाम की माला जपते हुए अपने बचेखुचे दिन गुजार दे.

माना कि वह पुरुष उस का पति था. अग्नि को साक्षी मान कर उस ने उस के साथ सात फेरे लिए थे. पर था तो वह उस के लिए एक अजनबी ही. यह जानते हुए कि यही विधि का विधान है, वह मन मार कर नहीं रह सकती. उस का मन विद्रोह करना चाहता है.

उसे अपने हिस्से की धूप चाहिए. उसे वे सभी खुशियां, वे सभी नेमतें चाहिए जिन पर उस का जन्मसिद्ध अधिकार हैं. उसे एक जीवनसाथी चाहिए, एक सहचर जिस के साथ वह अपना सुखदुख बांट सके. जिस पर अपना प्यार लुटा सके, जिस पर वह अपना अधिकार जमा सके, उसे चाहिए एक नीड़ जहां बच्चों का कलरव गूंजे.

वह यह सब अपने मातापिता से कहना चाहती थी. पर उस के मांबाप पुरातनपंथी थे, रूढि़वादी थे, संकीर्ण विचारों वाले परले सिरे के अंधविश्वासी थे. पिता उग्र स्वभाव के थे जिन के सामने उस की जबान न खुलती थी. मां पिता की हां में हां मिलातीं. वे उस की सुनने को तैयार ही न थे. श्रीकांत का उन्होंने जम कर विरोध किया.

‘देख अरुणा, हम तुझे बताए देते हैं, इस लड़के से ब्याह का विचार त्याग दे. हमारे जीतेजी यह मुमकिन नहीं. हमें बिरादरी से बाहर कर दिया जाएगा. जाने कहां का आवारा, लफंगा तुझे अपने जाल में फंसाना चाहता है. हम ठहरे ब्राह्मण, वह नीच जाति का. मैं कहे देता हूं, यदि तू ने उस छोकरे से ब्याह करने की जिद ठानी तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगा. मैं अपनी बात का धनी हूं. इस से पहले कि कुल पर आंच आए या कोई हम पर उंगली उठाए, हम मर जाएंगे. मैं कुएं में छलांग लगा दूंगा या आमरण अनशन करूंगा.’

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अरुणा सहम गई. मांबाप के प्रति विद्रोह करने की उस में हिम्मत न थी. उस ने श्रीकांत के प्रस्ताव को ठुकरा दिया.

स्वामी अनंताचार्य घर आए. उन्होंने अरुणा के बारे में सुना.

‘देख वत्स, इसीलिए मैं कहता था कि बिटिया के केश उतरवा दो. विधवाओं के लिए यह नियम मनुस्मृति में लिखा गया है. लेकिन उस वक्त तुम ने मेरी बात नहीं मानी. अब देख लिया न परिणाम? तुम्हारी बेटी का  रूप व घनी केशराशि देख कर ऋषिमुनियों के मन भी डोल जाएं, मनुष्य की बिसात ही क्या?’

उन्होंने अरुणा से कहा, ‘बेटी, अब ईश्वर में लौ लगाओ. रोज मंदिर जाओ. भगवत सेवा करो. वही मुक्तिमार्ग है.’

कुछ रोज तो वह मंदिर जाती रही पर सांसारिक मोहमाया न त्याग सकी. मंदिर में भी उस का मन भटकता रहता था. आंखें प्रतिमा पर टिकी रहतीं पर मन में श्रीकांत की छवि बसी थी. कानों में स्वामीजी के प्रवचन गूंजते और वह श्रीकांत के खयालों में खोई रहती.

समय सरकता रहा. उस के भाईबहन अपनेअपने परिवार को ले कर मगन थे. मातापिता का देहांत हो चुका था. अरुणा ने पढ़ाई पूरी कर के अपने ही कालेज में व्याख्याता की नौकरी कर ली थी. पठनपाठन में उस का मन लग गया था. किताबें ही उस की मित्र थीं. पर कभीकभी उस का एकाकी जीवन उसे सालता था.

बस अचानक एक झटके से रुकी और अरुणा वर्तमान में लौट आई. उस का गांव आ गया था. उस के भाई व भाभी ने उस का स्वागत किया.

‘‘आओ अक्का, अब तो वापस शहर नहीं जाओगी न?’’ राघव ने उस के हाथ से बैग लेते हुए कहा.

‘‘नहीं, नौकरी से रिटायर हो चुकी हूं. मैं काम करकर के थक गई थी. अब यहीं शांति से रहूंगी.’’

‘‘अच्छा किया, मुझे भी आप की मदद की जरूरत है,’’ नागमणि बोली, ‘‘आप तो जानती हैं कि श्रीधर की शादी तय हो गई है. उस की तैयारी करनी है. जया के भी पांव भारी हैं. वह भी जचकी के लिए आने वाली है. आप को ही सब करनाकराना है.’’

‘‘तुम सब कुछ मुझ पर छोड़ दो, भाभी. मैं संभाल लूंगी.’’

वह बड़े उत्साह से शादी की तैयारी में लग गई. वधू के लिए गहने गढ़वाना, मेहमानों के लिए पकवान बनाना, रंगोली सजाना आदि ढेरों काम थे.

बहू बिदा हो कर आई थी. घर में गांव की स्त्रियों का जमघट लगा हुआ था.

वरवधू द्वाराचार के लिए खड़े थे.

‘‘अरे भई, आरती कहां है? कोई तो आरती उतारो,’’ किसी ने गुहार लगाई.

अरुणा ने सुना तो थाल उठा कर दौड़ी.

नागमणि ने झटके से उस के हाथ से थाली छीन ली, ‘‘यह क्या कर रही हैं अक्का? आप को कुछ होश है कि नहीं? यह काम सुहागिनों का है. आप की तो छाया भी नववधू पर नहीं पड़नी चाहिए. अपशकुन होगा.’’

अरुणा पर घड़ों पानी पड़ गया. कुछ क्षणों के लिए वह भूल बैठी थी कि वह विधवा है. शुभ अवसरों पर उसे ओट में रहना चाहिए. उसे याद आया कि घर में जब भी पिता बाहर निकलते और वह उन के सामने पड़ जाती तो वे उलटे पैरों लौट आते और थोड़ी देर बैठ कर पानी पी कर फिर निकलते.

शहर में लोग इन बातों की परवा नहीं करते थे, पर गांव की बात और थी. यहां लोग अभी भी कुसंस्कारों में जकड़े हुए थे. लीक पीटते जा रहे थे.

कुछ दिनों बाद नागमणि ने फिर

उस के रहनसहन पर आपत्ति खड़ी कर दी.

‘‘अक्का, आप रसोईघर और पूजाघर में न जाया करें.’’

‘‘क्यों भला?’’

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‘‘स्वामी अनंताचार्यजी कह रहे थे कि आप ने विधवा हो कर भी केशकर्तन नहीं कराए जो हमारे शास्त्रों के विरुद्ध है और आप को अशुद्ध माना जा रहा है.’’

अरुणा के हृदय पर भारी चोट लगी. इतने सालों बाद यह कैसी प्रताड़ना? अभी भी उस के आचार पर लोगों की निगाहें गड़ी हैं. जीवन के संध्याकाल में इस दौर से भी गुजरना होगा, यह उस ने सोचा न था. उसे अपने ही लोगों ने अछूत की तरह जीने पर मजबूर कर दिया था. पगपग पर लांछन, पगपग पर तिरस्कार.

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Serial Story: प्रत्युत्तर (भाग-4)

लेखक- बिकाश गोस्वामी

मुन्नी ने आईटी में बीटेक किया है और पढ़ाई खत्म कर आज ही लौटी है. अब उस की इच्छा अमेरिका के एमआईटी से एमटेक करने की है. उस ने अप्लाई भी कर दिया है. उस को जो नंबर मिले हैं और उस का जो कैरियर है उस से उसे आसानी से दाखिला मिल जाएगा. शायद स्कालरशिप भी मिल जाए.

जानकी ने अभी हां या न कुछ भी नहीं कहा है. वे अजय के साथ बात करने के बाद ही कोई फैसला लेंगी. जानकी देवी के लिए आज की रात बहुत मुश्किल हो गई है. इतने वर्षों के अंतराल के बाद विजय का इस तरह आना उन्हें पुरानी यादों के बीहड़ में खींच ले गया है. अब रात काफी हो चुकी है. जानकी सोने की कोशिश करने लगीं.

3 दिन बीत चुके हैं. जानकी देवी का इन 3 दिनों में औफिस आना बहुत कम हुआ है. ज्यादातर वक्त अमृता के साथ ही कट रहा है. इधर, अजय ने हमीरपुर में एक इंगलिश मीडियम स्कूल खोला है. इन दिनों वे स्कूल चलाते हैं और साथ ही जानकी देवी के विधानसभा क्षेत्र की देखभाल करते हैं. वे भी गांव से यहीं चले आए हैं. अब यह घर, घर लगने लगा है.  वे अजय और अमृता के साथ शुक्रवार को देहरादून जा रही हैं ताकि शनिवार और इतवार, पूरे 2 दिन, सुजय अपने परिवार के साथ, खासकर अपनी दीदी के साथ, बिता सके.

बुधवार को सवेरे अचानक जानकी देवी के पास मुख्य सचिव का फोन आया, मुख्यमंत्री नोएडा विकास प्राधिकरण की फाइल के बारे में पूछ रहे हैं. उन्होंने तुरंत अपने सचिव को बुला कर वह फाइल मांगी. फाइल पढ़ने के बाद उन की आंखें खुली की खुली रह गईं. यह विजय ने किया क्या है? सारे अच्छे आवासीय और कमर्शियल प्लौट कई लोगों और संस्थाओं को, सारे नियम और कानून की धज्जियां उड़ाते हुए, 99 साल की लीज पर दे दिए हैं.

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सरकारी नुकसान लगभग कई सौ करोड़ का आंका गया है. सारे साक्ष्य और प्रमाण विजय के विरुद्ध जा रहे हैं. वे फाइल खोले कुछ देर चुपचाप बैठी रहीं. उन को समझ में नहीं आ रहा था, क्या करें. उसी वक्त अमृता का फोन आया. उस ने घर में अपने दोस्तों के लिए एक छोटी सी पार्टी रखी है. जानकी देवी का वहां कोई काम नहीं है, फिर भी उन का वहां रहना जरूरी है. सचिव से कहा कि फाइल को गाड़ी में रखवा दें, रात को एक बार फिर देखेंगी.

पार्टी खत्म होतेहोते रात के 10 बज गए, उस के बाद जानकी देवी ने अजय से कहा कि वे सो जाएं, उन का इंतजार न करें. इस के बाद वे स्टडी रूम में फाइल ले कर बैठीं. पूरी फाइल दोबारा पढ़ ली, विजय को बचाना मुश्किल जान पड़ा. सुबह उन्होंने अपने सचिव को फोन कर पूछा, ‘‘क्या आप विजय, नीलम तथा उन के बच्चों के नाम पर जो भी चल व अचल संपत्ति है, सब का ब्योरा मुझे हासिल करवा सकते हैं? अगर हासिल करवा पाएं तो बहुत अच्छा होगा और यह ब्योरा मुझे हर हाल में आज दोपहर तक चाहिए.

सचिव ने उन्हें वह रिपोर्ट दोपहर के 2 बजे दे दी. रिपोर्ट देख कर उन की आंखें फटी की फटी रह गईं. विजय ने यह किया क्या है? उस ने अपने नाम और कुछ बेनामी भी, इस के अलावा ससुराल वालों के नाम से भी करोड़ों की संपत्ति जमा की है. अब उन के मन में कोई भी दुविधा नहीं थी. उन्होंने फाइल में सीबीआई से जांच कराए जाने की संस्तुति कर फाइल आगे बढ़ा दी.

देहरादून और मसूरी में 3 दिन देखते ही देखते कट गए. काफी दिनों बाद उन्होंने सही माने में छुट्टी मनाई थी. सुजय भी बहुत खुश हुआ. उसे अपनी दीदी काफी दिनों के बाद जो मिली थी. लेकिन जैसे दिन के बाद आती है रात, पूर्णिमा के बाद अमावस, ठीक वैसे ही खुशी के बाद दुख भी तो होता है. सुजय को होस्टल में छोड़ने के बाद जानकी देवी का मन भर आया. अजय को भी अगले दिन हमीरपुर जाना पड़ा. लखनऊ के इस बंगले में इस वक्त सिर्फ जानकी और अमृता हैं. लखनऊ वापस आए हुए आज 3 दिन हुए हैं.

शाम को सचिवालय से आ कर अभी चाय पी ही रही थीं कि रामलखन ने आ कर खबर दी कि विजय कुमार आप से मिलना चाहते हैं. जानकी को कुछ क्षण लगा यह समझने में कि असल में विजय उन से मिलने आया है. पहले सोचा कि नहीं मिलेंगे. क्या होगा मिल कर? उन के जीवन का यह अध्याय तो कब का समाप्त हो गया है. फिर मन बदला और कहा, ‘‘उन्हें बैठाओ, मैं आ रही हूं.’’

आराम से हाथमुंह धो कर कपड़े बदले और करीब 40 मिनट के बाद जानकी विजय से मिलने कमरे में आईं. वह इंतजार करतेकरते थक चुका था. जानकी देवी को देखते ही वह उठ कर खड़ा हो गया, गुस्से से उस का मुंह लाल था. उस ने जानकी से गुस्से में कहा, ‘‘तुम मेरा एक छोटा सा अनुरोध नहीं रख पाईं?’’

विजय का गुस्से से खड़ा होना और फिर उन के बात करने के लहजे से जानकी देवी को गुस्सा आया, पर वे अपने गुस्से को काबू कर बोलीं, ‘‘अनुरोध रखने लायक होता तो जरूर रखती.’’

‘‘क्या कहा? तुम्हें पता है, मुझे फंसाया गया है?’’

‘‘अच्छा, तुम ने क्या मुझे इतना बुद्धू समझ रखा है? मैं ने क्या फाइल नहीं पढ़ी है? और क्या मुझे यह पता नहीं है कि विजय कुमार को फंसाना इतना आसान नहीं है.’’

‘‘तो तुम भी यकीन करती हो कि मैं दोषी हूं?’’

‘‘प्रश्न मेरे यकीन का नहीं है. प्रश्न है साक्ष्य का, प्रमाण का. समस्त साक्ष्य और प्रमाण तुम्हारे विरुद्ध हैं. मैं अगर चाहती तो तुम्हारी सजा मुकर्रर कर सकती थी लेकिन मैं ने ऐसा नहीं किया. अपनेआप को निर्दोष साबित करने का मैं ने तुम्हें एक और मौका दिया है.’’

‘‘सुनो, मैं तुम से रिक्वेस्ट कर रहा हूं. प्लीज, अपने डिसीजन पर एक बार फिर विचार करो. मुझे पता है कि यह तुम्हारे अख्तियार में है. वरना मैं बरबाद हो जाऊंगा. मेरा कैरियर…’’

विजय की बात काट कर जानकी ने कहा, ‘‘अब यह मुमकिन नहीं है,’’ वे अपना धीरज खो रही थीं, ‘‘एक बात और, जालसाजी करते वक्त तुम्हें कैरियर की बात याद क्यों नहीं आई? तुम्हारे जैसे बड़े बेईमान और जालसाज लोगों को सजा मिलनी ही चाहिए.’’

‘‘क्यों, मैं बेईमान हूं? मैं जालसाज हूं? मैं ने जालसाजी की है?’’ विजय चिल्लाने लगा.

‘‘चिल्लाओ मत. नीची आवाज में बात करो. यहां शरीफ लोग रहते हैं. अच्छा, एक बात बताओ, दिल्ली के ग्रेटर कैलाश वाली तुम्हारी कोठी का दाम क्या है? नोएडा के प्राइम लोकेशन में तुम्हारे 4 प्लौट हैं. इस के अलावा गुड़गांव के सैक्टर 4 में तुम्हारी आलीशान कोठी है, देहरादून में फार्महाउस भी है, और बताऊं? तुम्हें कितनी तनख्वाह मिलती है, क्या यह मुझे नहीं पता? ये सारी संपत्ति क्या तुम दोनों की तनख्वाह की आमदनी से खरीदना संभव है? तुम क्या समझते हो, मैं तुम्हारी कोई खबर नहीं रखती हूं?’’

विजय को जानकी से इस तरह के उत्तर की उम्मीद नहीं थी. कुछेक पल के लिए तो वह भौंचक रह गया. उस के पास जानकी के प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था. ऐसी सूरत में एक आम

आदमी जो करता है, विजय ने भी वही किया, वह गुस्से में उलटीसीधी बकवास करने लगा, ‘‘हां, तो अब समझ में आया कि इन सारी फसादों की वजह तुम ही हो.’’

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जानकी ने उसे फिर समझाने की कोशिश की, ‘‘तुम फिर गलती कर रहे हो. तुम्हारी इस हालत की जिम्मेदार मैं नहीं, तुम खुद हो. मैं तो इस घटनाक्रम में बाद में जुड़ी हूं. एक बात और, शायद तुम यह भूल गए हो कि जिंदगी की दौड़ में मैं तुम से बहुत आगे निकल आई हूं. तुम्हारे सीनियर मेरे अंडर में काम करते हैं. मैं जब तक बैठने को न कहूं, वे मेरे सामने खड़े रहते हैं. मैं भला तुम्हारी तरह के तुच्छ व्यक्ति के पीछे क्यों पड़ूंगी. इस से मुझे क्या हासिल होने वाला है?’’

विजय को यह सुन कर और भी ज्यादा गुस्सा आ गया. वह अपना संयम खो कर चिल्लाने लगा, ‘‘बस, अब और सफाई की जरूरत नहीं है. तेरा असली चेहरा अब दिखाई दे गया.’’

अचानक दरवाजे के पास से एक आवाज आई, ‘‘हाऊ डेयर यू? आप की हिम्मत कैसे हुई मेरी मां के साथ इस तरह से बात करने की?’’

आवाज सुन कर दोनों दरवाजे की तरफ पलटे और देखा कि अमृता दरवाजे के सामने खड़ी है.

‘‘मैं तब से सुन रही हूं, आप एक भद्र महिला के साथ लगातार असभ्य की तरह बात कर रहे हैं. और मां, पता नहीं तुम भी क्यों ऐसे बदतमीज लोगों को घर में घुसने देती हो, यह मेरी समझ से परे है. इन जैसे बदतमीजों को तो घर के अंदर ही नहीं घुसने देना चाहिए.’’

‘‘अमृता, तुम इन्हें पहचान नहीं पाईं. ये तुम्हारे पिता हैं.’’

अमृता कुछेक पल के लिए सन्न रह गई. फिर संयत स्वर में हर शब्द को आहिस्ताआहिस्ता, साफसाफ लहजे में कहा, ‘‘नहीं, इन के जैसा नीच, लोभी, स्वार्थी व्यक्ति के साथ मेरा कोई रिश्ता नहीं है. सिर्फ जन्म देने से ही कोई पिता नहीं बन जाता है. मेरे पिता का नाम अजय कुमार गौतम है. और आप? आप को शर्म नहीं आती? इसी महिला को अपनी पत्नी के रूप में पहचान देने में आप को शर्म महसूस हुई थी. इसीलिए एक असहाय महिला और 5 साल की बच्ची को त्याग देने में आप को जरा भी संकोच नहीं हुआ था, और आज उसी के पास आए हैं सहायता की भीख मांगने?

‘‘इन सब के बावजूद, वह आप को मिल भी जाती अगर आप उस के योग्य होते. योग्य होना तो दूर की बात, आप तो इंसान कहलाने के लायक भी नहीं हैं, आप तो इंसान के नाम पर कलंक हैं. निकल जाइए यहां से और आइंदा हम लोगों के नजदीक भी आने की कोशिश मत कीजिएगा, नहीं तो हम से बुरा कोई न होगा. नाऊ, गैट आउट, आई से, गैट आउट.’’

विजय धीरेधीरे सिर नीचा कर कमरे से निकल गया. जानकी देवी अवाक् थीं, वे तो बस अपनी बेटी का चेहरा देखती रहीं. उन्होंने अपनी लड़की का यह रूप कभी नहीं देखा था. उन की आंखों में गर्व और आनंद से आंसू भर आए. उन्हें एहसास हुआ कि इतने दिनों के बाद विजय को अपने किएधरे का प्रत्युत्तर आखिर मिल ही गया.

अमृता ने मां के पास जा कर पूछा, ‘‘क्या मैं ने कोई गलत काम किया, मां? मैं ने ठीक तो किया न?’’

जानकी ने अमृता को बांहों में भर कर कहा, ‘‘हां, तुम ने बिलकुल सही किया, बेटी. उन की जिन बातों का मैं कोई जवाब नहीं दे सकी थी, तुम ने उन का सही प्रत्युत्तर दे दिया था.’’

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Serial Story: प्रत्युत्तर (भाग-3)

लेखक- बिकाश गोस्वामी

जानकी के कमरे में आते ही विजय ने कहा, ‘बैठो, तुम से बहुत जरूरी बात करनी है.’

‘एक काम करते हैं, मैं तुम्हारा खाना लगा देती हूं. तुम पहले खाना खा लो, फिर मैं इत्मीनान से बैठ कर तुम्हारी बातें सुनूंगी,’ जानकी ने कहा.

‘नहीं, बैठो. मेरी बातें जरूरी हैं,’ यह कह कर विजय ने जानकी की ओर देखा. जानकी पलंग के एक किनारे पर बैठ गई. विजय ने एक लिफाफा ब्रीफकेस से निकाला, फिर उस में से कुछ कागज निकाल कर जानकी को दे कर कहा, ‘इन कागजों के हर पन्ने पर तुम्हें अपने दस्तखत करने हैं.’

‘दस्तखत? क्यों? ये कैसे कागज हैं?’ जानकी ने पूछा.

विजय कुछ पल खामोश रहने के बाद बोला, ‘जानकी, असल में…देखो, मैं जो तुम से कहना चाह रहा हूं, मुझे पता नहीं है कि तुम उसे कैसे लोगी. देखो, मैं ने बहुत सोचसमझ कर तय किया है कि इस तरह से अब और नहीं चल सकता. इस से तुम्हें भी तकलीफ होगी और मैं भी सुखी नहीं हो सकता. मुझे उम्मीद है कि तुम मुझे गलत नहीं समझोगी, मुझे तलाक चाहिए.’

‘तलाक!’ जानकी के सिर पर मानो आसमान टूट कर गिर पड़ा हो.

‘हां, देखो, मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे और मेरे बीच जो मानसिक दूरियां हैं वे अब खत्म हो सकती हैं. और यह भी तो देखो कि मैं कितना बड़ा अफसर बन गया हूं. वैसे यह तुम्हारी समझ से परे है. इतना समझ लो कि अब तुम मेरे बगल में जंचती नहीं. यही सब सोच कर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि इस के अलावा अब कोई उपाय नहीं है,’ विजय ने कहा.

‘इस में मेरा क्या कुसूर है? मैं ने इंटर पास किया है. तुम मुझे शहर ले चलो, मैं आगे और पढ़ूंगी, मैं तुम्हारे काबिल बन कर दिखाऊंगी,’ कहतेकहते जानकी का गला भर आया था.

‘मैं मानता हूं कि इस में तुम्हारा कोई दोष नहीं, पर अब यह मुमकिन नहीं.’

‘फिर मुझे सजा क्यों मिलेगी? मैं मुन्नी को छोड़ कर नहीं रह सकती.’

‘मुन्नी तुम्हारे पास ही रहेगी. मैं तुम्हें हर महीने रुपए भेजता रहूंगा. अगर तुम चाहो तो दोबारा शादी भी कर सकती हो. शादी का सारा खर्चा भी मैं ही उठाऊंगा.’

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जानकी समझ गई कि विजय के साथ उस का रिश्ता अब खत्म हो चुका है, भला कोई पति अपनी पत्नी को दूसरी शादी के लिए कभी कहता है? जो रिश्ते दिल से नहीं बनते, उन्हें जोरजबरदस्ती बना के नहीं रखा जा सकता है. यदि वह इस वक्त दस्तखत नहीं भी करती है तो भी विजय किसी न किसी बहाने से तलाक तो हासिल कर ही लेगा और उस से मन को और ज्यादा चोट पहुंचेगी.

अचानक उसे एहसास हुआ कि विजय ने उस से कभी भी प्यार नहीं किया. उस ने खुद से सवाल किया कि क्या वह विजय से प्यार करती है? दिल से जवाब ‘नहीं’ में मिला. फिर उस ने विजय से पूछा, ‘कहां दस्तखत करने हैं?’

विजय की बताई जगह पर उस ने हर पन्ने पर दस्तखत कर दिए. उस का हाथ एक बार भी नहीं कांपा.

विजय ने नहीं सोचा था कि काम इतनी आसानी से संपन्न हो जाएगा. उस ने सारे कागज समेट कर ब्रीफकेस में डालते हुए कहा, ‘मुझे अभी निकलना पड़ेगा. पहले ही काफी देर हो चुकी है.’

जानकी ने अचानक सवाल किया, ‘वह लड़की कौन है जिस के लिए तुम ने मुझे छोड़ा है? क्या वह मुझ से ज्यादा सुंदर है?’

विजय ठिठक गया. उस ने इस सवाल की उम्मीद नहीं की थी, कम से कम जानकी से तो नहीं ही. अब उसे एहसास हुआ कि जानकी काफी अक्लमंद है. उस ने कहा, ‘उस का नाम नीलम है. हां, वह काफी सुंदर है और सब से बड़ी बात यह है कि वह शिक्षित तथा बुद्धिमान है. वह भी मेरी तरह आईएएस अफसर है. हम दोनों एक ही बैच से हैं. तलाक होते ही हम शादी कर लेंगे.’

जानकी ने बात को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा. विजय के कमरे से निकलते ही अम्मा ने पूछा, ‘तुम क्या अभी चले जाओगे?’

विजय ने जवाब दिया, ‘हां.’

तब अम्मा ने कहा, ‘छि:, तू इतना स्वार्थी है? तू ने अपने सिवा और किसी के बारे में नहीं सोचा?’

विजय समझ गया कि अम्मा ने उन दोनों की सारी बातें सुन ली हैं. अम्मा के चेहरे पर क्रोध की ज्वाला थी. वे लगातार बोले जा रही थीं, ‘अच्छा, हम लोगों की छोड़, तू ने अपनी लड़की के बारे में एक बार भी नहीं सोचा कि पिता के अभाव में परिवार में यह लड़की कैसे पलेगी? और जानकी का क्या होगा? तू इतना नीच है, इतना कमीना है?’

विजय कुछ कहने जा रहा था. उसे रोक उन्होंने कहा, ‘मुझे तुम्हारी सफाई नहीं चाहिए. याद रहे, आज अगर तुम चले गए तो सारी जिंदगी मैं तुम्हारा मुंह नहीं देखूंगी. यह जो जायदाद तुम देख रहे हो वह तुम्हारे बाप की नहीं है. यह सारी जायदाद मुझे मेरी मां से मिली है, इस की एक कौड़ी भी तुम्हें नहीं मिलेगी.’

विजय ने एक निगाह अम्मा पर डाली और फिर सिर नीचा कर के चुपचाप घर से चला गया. अम्मा रो पड़ी थीं, लेकिन जानकी नहीं रोई. उस के हावभाव ऐसे थे जैसे कि कुछ हुआ ही न हो.

अम्मा अपनी जबान की पक्की थीं. महीना बीतने से पहले ही वकील बुलवा कर उन्होंने सारी जायदाद अपने छोटे बेटे और बहू जानकी के नाम बराबरबराबर हिस्सों में बांट दी. जानकी के पिता आए थे एक दिन जानकी को अपने साथ अपने घर ले जाने के लिए, लेकिन जानकी की सास ने जाने नहीं दिया. बंद कमरे में दोनों के बीच बातचीत हुई थी. किसी को नहीं पता. लगभग सालभर के बाद जानकी को तलाक की चिट्ठी मिली. उस के कुछ ही दिनों बाद जानकी की सास ने खुद खड़े हो कर अजय के साथ जानकी का विवाह कराया. अजय की बीवी उस के गौना के ठीक एक दिन पहले अपने प्रेमी के साथ भाग गई थी. उस के बाद अजय ने शादी नहीं की थी. वह बीए पास कर के गांव के ही स्कूल में अध्यापक की नौकरी कर रहा था और साथ ही साथ एक खाद की दुकान भी चला रहा था. उन के समाज में पुनर्विवाह के प्रचलन के कारण उन्हें कोई सामाजिक परेशानी नहीं उठानी पड़ी. सालभर के भीतर ही उन के बेटे सुजय का जन्म हुआ.

विजय फिर कभी गांव नहीं आया. वादे के अनुसार उस ने जानकी को मासिक भत्ता भेजा था, किंतु जानकी ने मनीऔर्डर वापस कर दिया था.

जानकी गांव की एकमात्र इंटर पास बहू थीं. वे गांव के विकास के कार्यों से जुड़ने लगीं. ताऊजी की मृत्यु के बाद वे गांव की प्रधान चुनी गईं. उसी समय उन की ईमानदारी और दूरदर्शिता की वजह से गांव का खूब विकास हुआ. नतीजा यह हुआ कि वे अपनी पार्टी के नेताओं की निगाह में आईं और उन्हें विधानसभा चुनाव की उम्मीदवारी का टिकट मिल गया. चुनाव में 50 हजार से भी ज्यादा वोटों से जीत कर वे विधानसभा सदस्य के रूप में चुनी गईं और मंत्री भी बनाई गईं.

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इन सब कामों में पति अजय का भरपूर सहयोग तो मिला ही, सास का भी समर्थन उन्हें मिलता रहा. मुन्नी की पढ़ाई पहले नैनीताल, फिर दिल्ली और अंत में बेंगलुरु में हुई. सुजय भी अपनी दीदी की तरह देहरादून के शेरवुड एकेडेमी के होस्टल में रह कर पढ़ रहा है.

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Serial Story: प्रत्युत्तर (भाग-2)

लेखक- बिकाश गोस्वामी

पढ़ाई का माध्यम हिंदी होने के कारण उस की अंगरेजी कमजोर थी. उस ने खूब मेहनत कर अपनी अंगरेजी भी सुधारी. बीए का इम्तिहान देने के बाद वह गांव न जा कर सीधा दिल्ली चला गया. विजय का परिवार अमीर नहीं था, लेकिन संपन्न था. घर में खानेपीने की कोई कमी नहीं थी. उसे हर जरूरत का पैसा घर से मिलता था, लेकिन वह पैसे की अहमियत को जानता था. वह फुजूलखर्ची नहीं था. वह दिल्ली में अपने इलाके के सांसद के सरकारी बंगले के सर्वेंट क्वार्टर में रहता और उन्हीं के यहां खाता था. इस के एवज में उन के 3 बच्चों को पढ़ाता था. खाली समय में वह अपनी पढ़ाई करता था. इस तरह, 1 साल के कठोर परिश्रम के बाद वह आईएएस की परीक्षा में सफल हुआ.

मसूरी में ट्रेनिंग पर जाने से पहले वह हफ्तेभर के लिए गांव आया. उसी समय उस ने अपनी लड़की को पहली बार देखा. जानकी ने हाईस्कूल में फेल होने के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी. इसी वजह से उस ने पहले तो उसे बहुत डांटा फिर उस के साथ उस ने ठीक से बात भी नहीं की. यहां तक कि अपनी लड़की मुन्नी को उस ने एक बार भी गोदी में नहीं लिया.

जानकी ने हर तरह से विजय को खुश करने की कोशिश की लेकिन विजय टस से मस नहीं हुआ. किसी तरह वह 7 दिन काट कर मसूरी चला गया. जानकी कई दिनों तक गमगीन रही. फिर उसे सास और देवर ने समझाया कि वह बहुत बड़ा अफसर बन गया है और इसीलिए उस की पत्नी का पढ़ालिखा होना जरूरी है. मजबूर हो कर जानकी ने फिर पढ़ना शुरू किया. पहले हाईस्कूल फिर इंटरमीडिएट सेकंड डिवीजन में पास किया.

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विजय खत वगैरह ज्यादा नहीं लिखता था, लेकिन इस बार जाने के बाद तो एक भी खत नहीं लिखा. अचानक 3 साल बाद एक चिट्ठी आई, ‘अगले शनिवार को आ रहा हूं, 2 दिन रहूंगा.’ उस वक्त वह बदायूं का डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट था. घर के सब लोग बहुत खुश हुए. देखते ही देखते सारे गांव में यह खबर फैल गई. गांव वाले यह कहने लगे कि अब जानकी अपने पति के साथ शहर में जा कर रहेगी. पति बहुत बड़ा अफसर है, शहर में बहुत बड़ा बंगला है. अब जानकी की तकलीफें खत्म हुईं. लेकिन जानकी बिलकुल चुप थी, न वह ‘हां’ कह रही थी, न ‘ना’, असल में विजय से वह नाराज थी. उस ने विजय के जाने के बाद उस से माफी मांगते हुए कम से कम 6-7 चिट्ठियां लिखीं, हाईस्कूल और इंटरमीडिएट पास होने की खबर भी दी लेकिन उसे कोई जवाब नहीं मिला. इंसान से क्या गलती नहीं होती है? गलती की क्या माफी नहीं मिलती है?

शनिवार के दिन घर के सभी लोग तड़के ही जाग गए. सारे घर को धो कर साफ किया गया. बगल के मकान में रहने वाले ताऊजी, जो गांव के मुखिया भी हैं, सुबह से ही नहाधो कर तैयार हो कर विजय की बैठक में बैठ गए. मुन्नी को नई फ्रौक पहनाई गई. होश में आने के बाद वह पहली बार अपने पापा को देखेगी. वह कभी घर के अंदर और कभी घर के बाहर आजा रही थी. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. पापा उस के लिए ढेर सारे खिलौने लाएंगे, नए कपड़े लाएंगे. उस ने एबीसीडी सीखी है, पापा को सुनाएगी, रात को पापा के साथ लेटेगी. सारे दोस्त घर के आसपास चक्कर लगा रहे थे.

धीरेधीरे दिन ढल गया. सुबह और दोपहर की बस आई और चली भी गई लेकिन विजय नहीं आया. ताऊजी इंतजार करकर के आखिर लगभग 2 बजे अपने घर चले गए. यारदोस्त भी सब अपने घर चले गए. सास ने जबरदस्ती मुन्नी को खिला दिया. लगभग 3 बजे देवर अजय और सास ने भी खाना खा लिया, लेकिन बारबार कहने के बाद भी जानकी ने नहीं खाया. उस ने सिर्फ इतना कहा, ‘मुझे भूख नहीं है, जब भूख लगेगी तब मैं खुद खा लूंगी.’

सास ने भी ज्यादा जोर नहीं डाला. उन्हें जानकी की जिद के बारे में पता है. जबरदस्ती उस से कुछ नहीं कराया जा सकता है.

शाम ढलने को थी कि अचानक दूर से बच्चों के शोर मचाने की आवाज आई. कोई कुछ समझ सकता इस से पहले ही एक सफेद ऐंबेसेडर कार दरवाजे पर आ कर रुकी. उस में से विजय उतरा. उसे देखते ही देखते घर का गमगीन माहौल उत्सव में तबदील हो गया. सारा का सारा गांव विजय के दरवाजे पर इकट्ठा हो गया. इतना बड़ा अफसर उन्होंने कभी नहीं देखा था. जानकी रसोई में व्यस्त थी, चायनाश्ते का प्रबंध कर रही थी. बैठक में यारदोस्तों ने विजय को घेर रखा था. धीरेधीरे उसे थकान लगने लगी. करीब

7 बजे ताऊजी उठे और सभी से जाने को कहा. उन्होंने कहा, ‘अब विजय को थोड़ा आराम करने दो. वह पूरे रास्ते खुद ही गाड़ी चला कर आया है, जाहिर है कि थक गया होगा. फिर वह इतने दिनों के बाद घर आया है, उसे अपने घर वालों से भी बातें करने दो. अरे भाई, मुन्नी को भी तो मौका दो अपने पापा से मिलने का.’

अब सब न चाहते हुए भी जाने को मजबूर थे. विजय की जान में जान आई. विजय अपने साथ कोई सूटकेस वगैरह नहीं लाया बल्कि केवल एक ब्रीफकेस लाया था. अम्मा ने पूछा, ‘तू तो कोई कपड़े वगैरह साथ नहीं लाया. मुझे तो तेरा इरादा अच्छा नहीं लग रहा. मुझे सही बता, तेरा इरादा क्या है?’

विजय ने कहा, ‘मैं यहां रहने नहीं आया हूं. मैं तो यहां जरूरी काम से आया हूं. मुझे आज रात को ही वापस लौटना है. अगर रास्ते में गाड़ी खराब नहीं हुई होती तो इस वक्त मैं वापस जा रहा होता.’

अम्मा ने पूछा, ‘यह बता, ऐसा भी क्या जरूरी काम जिस के लिए तू सिर्फ कुछ घंटे के लिए आया? तुझे क्या हम लोगों की, अपनी बीवी की, मुन्नी की जरा भी याद नहीं आती?’

विजय ने इस प्रश्न का उत्तर न दे कर पूछा, ‘जानकी दिखाई नहीं पड़ रही, वह कहां है?’

अम्मा ने कहा, ‘चल, इतनी देर बाद उस बेचारी की याद तो आई. उसे मरने की भी फुरसत नहीं है. सारे मेहमानों के चायनाश्ते का इंतजाम वही तो कर रही है. इस वक्त वह रसोई में है.’

विजय ने कहा, ‘मैं हाथमुंह धो कर अपने कमरे में जा रहा हूं. तुम उसे वहीं भेज दो. उस से मुझे जरूरी काम है.’

‘‘मैडम, आज औफिस नहीं जाएंगी क्या? साढ़े 9 बजने वाले हैं,’’ रामलखन की आवाज सुन कर जानकी देवी की तंद्रा भंग हुई और वे वर्तमान में लौट आईं. बोलीं, ‘‘टेबल पर नाश्ता लगाओ, मैं आ रही हूं.’’

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साढ़े 10 बजे एक विभागीय मीटिंग थी, खत्म होतेहोते डेढ़ बज गया. बाद में भी कुछ अपौइंटमैंट थे. साढ़े 3 बजे अमृता उर्फ मुन्नी का फोन आया. काम में उलझे होने के कारण समय का खयाल ही नहीं रहा. निजी सचिव को कह कर सारे अपाइंटमैंट खारिज कर सीधे घर चली आईं जानकी देवी. अब आज और कोई काम नहीं. अमृता के साथ खाना खा कर उस के बेंगलुरु के किस्से सुनने बैठ गईं. एक बार खयाल आया कि विजय की बात अमृता से कहें, पर दूसरे ही क्षण मन से यह खयाल निकाल दिया, सोचा कि कोई जरूरत नहीं है. लेकिन रात को बिस्तर पर लेटते ही फिर पुरानी यादें ताजा हो गईं.

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