बारिश शुरू हुई तो उस की पहली फुहार ने पेड़पौधों के पत्तों पर जमी धूल को धो दिया. मिट्टी से सोंधीसोंधी गंध उठने लगी. ठंडी हवा चलने लगी. सारी प्रकृति, जो अब तक गरमी से बेहाल थी बारिश से तृप्त हो जाना चाहती थी. पेड़पौधे ही नहीं, पशुपक्षी भी बारिश का आनंद लेने आ गए. कहीं गड्ढे में जमा पानी में चिडि़यों का झुंड पंख फड़फड़ाता हुआ खेल रहा था, तो कहीं छोटेछोटे बच्चे घरों से कागजों की नावें ला कर उन्हें पानी में तैराते हुए खुद भी भीग रहे थे. छतों पर कुंआरी ननदें और सयानी भाभियां भी भीगने के लोभ से बच न पाईं और बड़ों की आंखें बचा कर फुहारों में अपना आंचल भिगो कर एकदूसरे पर पानी के छींटे उड़ाने लगीं. घरों के बरामदों और गैलरियों में बड़ेबुजुर्गों की कुरसियां लग गईं और वे बैठ कर बारिश का आनंद लेने लगे.
इन सारी खुशियों के बीच खिड़की के कांच से बाहर देखती पलक के चेहरे पर खुशी बिलकुल नहीं थी. उस के चेहरे पर तो उदासी और दुख की घनी बदली छाई हुई थी. वह उदास चेहरा ले कर दुखी मन से बाहर की खुशियों को देख रही थी. सामने चंपा
के पेड़ की पत्तियों से पानी की बूंदें फिसलफिसल कर नीचे गिर रही थीं. पलक निर्विकार भाव से बूंदों का थमथम कर नीचे गिरना देख रही थी.
पलक के मातापिता बरामदे में खड़े ठंडी हवा का मजा ले रहे थे.
‘‘भई, आज तो पकौड़े खाने का मौसम है. प्याज के बढि़या कुरकुरे पकौड़े और गरमगरम चाय हो जाए,’’ पलक के पिता ने कहा.
‘‘मैं अभी बना कर लाती हूं,’’ कह कर पलक की मां रसोईघर में चली गईं. प्याज काट कर उन्होंने पकौड़े तले और चाय भी बना ली. पकौड़े और चाय टेबल पर रख कर उन्होंने पलक को आवाज लगाई.
‘‘तुम ने पलक से बात की?’’ पलक के पिता आनंदजी ने पूछा.
‘‘अभी नहीं की. सोच रही हूं 1-2 दिन में पूछूंगी,’’ अरुणा ने उत्तर दिया.
‘‘जल्दी बात करो. जब से आई है उदास और बुझीबुझी लग रही है. अच्छा नहीं लग रहा,’’ आनंदजी ने चिंतित स्वर में कहा.
तभी पलक के आने की आहट पा कर दोनों चुप हो गए. साल भर पहले ही तो उन्होंने बड़ी धूमधाम से पलक का विवाह किया था. पलक उन की एकलौती बेटी थी, इसलिए पलक का विवाह कहीं दूर करने का उन का मन नहीं था. वे चाहते थे कि पलक का विवाह इसी शहर में हो और इत्तफाक से पिछले साल उन की इच्छा पूरी हो गई.
पलक के लिए इसी शहर से रिश्ता आया. शादी हुई तो पीयूष के रूप में उन्हें दामाद नहीं बेटा मिल गया. उस के मातापिता भी बहुत सुलझे हुए और सरल स्वभाव के थे. पलक को उन्होंने बहू की तरह नहीं, बल्कि बेटी की तरह रखा. पलक भी अपने घर में बहुत प्रसन्न थी. जब भी मायके आती चहकती रहती. उस की हंसी में उस के मन की खुशी छलकती थी.
लेकिन इस बार बात कुछ अलग ही है. एक तो पलक अचानक ही अकेली चली आई है और जब से आई है, तब से दुखी लग रही है. उन दोनों के सामने वह सामान्य और खुश रहने की भरसक कोशिश करती है, लेकिन मातापिता की अनुभवी नजरों ने ताड़ लिया है कि कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है.
पहले पलक 2 दिन के लिए भी मायके आती थी, तो पीयूष औफिस से सीधे यहीं आ जाता था और रात का खाना खा कर घर जाता था. दिन में भी कई बार पलक के पास उस का फोन आता था.
लेकिन इस बार 5 दिन हो गए पलक को घर आए, एक बार भी पीयूष उस से मिलने नहीं आया. यहां तक कि उस का फोन भी नहीं आया और पलक ने भी एक बार भी पीयूष को फोन नहीं किया. आनंद और अरुणा की चिंता स्वाभाविक थी. एकलौती बेटी का दुख से मुरझाया चेहरा उन से देखा नहीं जा रहा था.
रात का खाना खा कर पलक अपने कमरे में सोने चली गई. वह पलंग पर लेटी थी, लेकिन नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी.
8 दिन पहले जिंदगी क्या थी और अब कैसी हो गई. कितनी खुश थी वह पीयूष का प्यार पा कर. पूरी तरह उस के प्यार के रंग में रंग गई थी. सिर से पैर तक पीयूष के प्रेमरस में सराबोर थी. लेकिन पीयूष के जीवन के एक राज के खुलते ही उस की तो जैसे दुनिया ही बदल गई. कल तक जो पीयूष अपने दिल का एक टुकड़ा लगता था, अचानक ही इतना बेगाना, इतना अजनबी लगने लगा कि विश्वास ही नहीं होता था कि कभी दोनों की एक जान हुआ करती थी.
पीयूष, उस का पीयूष. कालेज के दिनों में दोस्तों ने एक पार्टी में उसे जबरदस्ती शराब पिला दी तो नशे में चूर हो कर उस ने रात में दोस्त के फार्महाउस पर एक लड़की को अपना एक कण दे दिया. उस का पीयूष पूरा नहीं है, खंडित हो चुका है. पलक को कभी पूरा पीयूष मिला ही नहीं था. उस का एक कण तो उस लड़की ने पहले ही ले लिया था. पलक के सामने सच बोल कर पीयूष ने अपने मन का बोझ हलका कर दिया, लेकिन तब से पलक का मन पीयूष के इस सच के बोझ तले छटपटा रहा है.
पीयूष के इस सच को वह सह नहीं पाई. उस सच ने उसे अचानक ही उस के पास से उठा कर बहुत दूर पटक दिया. पल भर में ही वह इतना पराया लगने लगा, मानो कभी अपना था ही नहीं. दोनों के बीच एक अजनबीपन पसर गया. अजनबी के अजनबीपन को सहना आसान होता है, लेकिन किसी बहुत अपने के अजनबीपन को सहना बहुत मुश्किल होता है. पलक जब अजनबीपन को बरदाश्त नहीं कर पाई तो यहां चली आई.
काश, पीयूष उसे कभी सच बताता ही नहीं. कितना सही कहा है किसी ने, सच अगर कड़वा बहुत है तो मीठे झूठ की छाया में जीना अच्छा लगता है. वह भी पीयूष के झूठ की छाया में सुख से जीवन बिता लेती. कम से कम उस के सच की आंच में जिंदगी यों झुलस तो न जाती.
उधर पीयूष पश्चात्ताप की आग में जल रहा था कि क्यों उस ने अपना यह राज अपने सीने से बाहर निकाला? क्यों नहीं छिपा कर रख पाया? दरअसल पलक का निश्छल प्यार, उस का समर्पण देख कर मन ही मन उसे ग्लानि होती थी. ऐसे में बरसों पहले की गई अपनी गलती को अपने मन में दबाए रखने पर एक अपराधबोध सा सालता रहता था हर समय. इसलिए अपने मन का बोझ उस ने भावुक क्षणों में पलक के सामने रख दिया.
मन में कहीं गहराई तक दृढ़ विश्वास था अपने प्यार पर कि वह उस की गलती को माफ कर देगी. अपने निर्मल और निश्छल प्रेम से उस के मन पर लगे दाग को धो डालेगी. उबार लेगी उसे इस ग्लानि से, जिस में वह बरसों से जल रहा है. क्षमा कर देगी उस अपराध को जो उस से अनजाने में हो गया था.
पीयूष का न तो उस घटना के पहले और न ही बाद में कभी किसी भी लड़की से कोई रिश्ता रहा है और उस लड़की के साथ भी रिश्ता कहां था. रिश्ते तो मन के होते हैं. वहां तो बस नशे की खुमारी में शरीर शामिल हो गए थे. मन से तो वह पूरी तौर पर बस पलक का ही था, है और रहेगा. लेकिन पलक के व्यवहार ने उसे अंदर तक हिला दिया. क्या वह पलक को अब तक पूरी तरह जान नहीं पाया था? क्या उस के मन की थाह पाना अभी बाकी था?
लेकिन तीर अब कमान से निकल चुका था, जिस ने उस की प्यार भरी जिंदगी को
एक ही पल में बरबाद कर के रख दिया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि पलक के आहत मन को कैसे सांत्वना दे. उसे लगा था कि अपने प्यार से कोई भी बात छिपाना गलत है. लेकिन उस के इस सच से पलक को इतनी अधिक पीड़ा पहुंचेगी, इस का अंदाजा उसे नहीं था. वह तो उस से बात तक नहीं कर रही. बेगानों जैसा बरताव हो गया है उस का.
इधर 8 दिनों में ही पीयूष वर्षों का बीमार लगने लगा है. उस का न काम में मन लगता है और न ही घर में.
दूसरे दिन अरुणाजी के पास पीयूष की मां का फोन आया, ‘‘अरुणाजी, आप ने पलक से कोई बात की क्या? मुझे तो कोई समझ में नहीं आ रहा है कि बच्चों को अचानक क्या हो गया. पलक बिना कुछ कहे अचानक चली गई. उस का फोन भी औफ है. यहां पीयूष भी गुमसुम सा कमरे में पड़ा रहता है. पूछने पर कुछ बताता ही नहीं है. पलक कैसी है, ठीक तो है न?’’ पीयूष की मां के स्वर में चिंता झलक रही थी.
‘‘पलक जब से आई है, तब से उदास और दुखी लग रही है. मैं ने 1-2 बार पूछना चाहा तो टाल गई, पर कुछ बात तो जरूर है. मैं आज उस से बात करूंगी. आप चिंता न करें, सब ठीक हो जाएगा,’’ अरुणाजी ने पीयूष की मां को आश्वासन दिया.
‘अब पलक से साफसाफ पूछना ही होगा. यहां पलक उदास है तो वहां पीयूष भी दुखी है. आखिर दोनों के बीच ऐसा क्या हो गया? यदि समय रहते बात को संभाला नहीं गया तो ऐसा न हो जाए कि बात और बिगड़ जाए. अब देर करना ठीक नहीं,’ अरुणाजी न तय किया.
दोपहर को पलक के पिता किसी काम से बाहर गए थे. पलक खाना खा कर अपने कमरे में लेटी थी. अरुणाजी को यही सही मौका लगा उस से बात करने का. अत: वे पलक के पास गईं.
‘‘पलक, क्या बात है बेटा, जब से आई हो परेशान लग रही हो? मुझे बताओ बेटा तुम्हारे और पीयूष के बीच सब ठीक तो है?’’ अरुणाजी ने प्यार से पलक का माथा सहलाते हुए पूछा.
मां का स्नेह भरा स्पर्श पाते ही पलक के अंतर्मन में जमा दुख पिघल कर आंखों के रास्ते बहने लगा. अरुणाजी ने उसे जी भर कर रोने दिया. वे जानती थीं कि रोने से जब मन में जमा दुख हलका हो जाएगा, तभी पलक कुछ बता पाएगी. वे चुपचाप उस की पीठ और केशों पर हाथ फेरती रहीं. जब पलक का मन हलका हुआ, तब उस ने अपनी व्यथा बताई. पीयूष की गलती कांटा बन कर उस के दिल में चुभ रही थी और अब वह यह दर्द बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.
अरुणाजी पलक के सिर पर हाथ फेरती स्तब्ध सी बैठी रहीं. वे तो सोच रही थीं कि नई जगह में आपस में अभी पूरी तरह से सामंजस्य स्थापित नहीं हुआ है, तो छोटीमोटी तकरार हुई होगी, जिस के कारण दोनों दुखी होंगे. कुछ दिन में दोनों अपनेआप सामान्य हो जाएंगे. यही सोच कर आज तक उन्होंने पलक से जोर दे कर कुछ नहीं पूछा था. लेकिन यहां मामला थोड़ा पेचीदा है.
पलक के दिल में लगा कांटा निकालना मुश्किल होगा. समय के साथसाथ जब रिश्ते परिपक्व हो जाते हैं, तो उन में प्रगाढ़ता आ जाती है. दोनों के बीच विश्वास की नींव मजबूत हो जाती है, तब अतीत की गलतियों की आंधी रिश्ते को, विश्वास को डिगा नहीं पाती. लेकिन यहां रिश्ता अभी उतना परिपक्व नहीं हो पाया था. पीयूष ने अपने रिश्ते और पलक पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया था. उसे थोड़ा धीरज रखना चाहिए था.
अरुणाजी समझ रही थीं कि इस समय पलक को कुछ भी समझाना व्यर्थ है. पलक का घाव अभी ताजा है. अपने दर्द में डूबी वह अभी अरुणाजी की बात समझ नहीं पाएगी. इसलिए उन्होंने 2 दिन सब्र किया.
मां से अपनी व्यथा कह कर पलक को अब काफी हलका लग रहा था. 2 दिन बाद वह रात में गैलरी में खड़ी थी, तब अरुणाजी उस के पास जा कर खड़ी हुईं.
‘‘तुझे दुख होना स्वाभाविक है पलक, क्योंकि तू पीयूष से प्यार करती है और उसे केवल अपने से जोड़ कर देखती है. इसलिए सच सुन कर तू हिल गई और तेरा भरोसा टूट गया.
‘‘पीयूष ने जो कुछ किया वह भावनाओं और उत्तेजना के क्षणिक आवेग में बह कर किया. उस संबंध का कोई अस्तित्व नहीं है. बरसात में जब पानी अधिक बरसता है तो कई नाले बन जाते हैं, जो नदी से भी अधिक आवेग के साथ बहते हैं, उफनते हैं, लेकिन बरसात खत्म होते ही वे सूख जाते हैं.
उन का अस्तित्व समाप्त हो जाता है. परंतु नदी शाश्वत होती है. वह बरसात के पहले भी होती है और बरसात खत्म होने के बाद भी उस का अस्तित्व कायम रहता है. वासना और सच्चे प्यार में यही अंतर है.
‘‘वासना बरसाती नाले के समान होती है, जो भावनाओं के ज्वार में उफनने लगती है और ज्वार के ठंडा होते ही उस का चिह्न भी जीवन में कहीं बाकी नहीं रहता. लेकिन सच्चा प्यार नदी की तरह शाश्वत होता है वह कभी नहीं सूखता.
सूखे की प्रतिकूल परिस्थिति में भी जिस प्रकार नदी अपनेआप को सूखने नहीं देती, मिटने नहीं देती, ठीक उसी प्रकार सच्चा प्यार भी जीवन से मिटता नहीं है. जीवन भर उस की धारा दिलों में बहती रहती है. तेरे प्रति पीयूष का प्यार उसी नदी के समान है,’’ अरुणाजी ने समझाया.
‘‘लेकिन मां मैं कैसे…’’ पलक कह नहीं पाई कि पीयूष के जिन हाथों ने कभी किसी और लड़की को छुआ है, अब पलक उन्हें अपने शरीर पर कैसे सहे? लेकिन अरुणाजी एक मां ही नहीं एक परिपक्व और सुलझी हुई स्त्री भी थीं. वे पलक के दुख के हर पहलू को समझ रही थीं.
‘‘प्रेम एवं प्रतिबद्धता एकदूसरे से जुड़े हुए जरूर हैं, पर किसी संबंध में पड़ने के पहले उस व्यक्ति का किसी के साथ क्या रिश्ता रहा है, कोई माने नहीं रखता. यदि कोई व्यक्ति पूर्णरूप से किसी के प्रति प्रतिबद्ध हो गया हो, तो उस के लिए पिछले सारे अनुभव शून्य के समान होते हैं.
अब पीयूष पूरी तरह से तेरे प्रति समर्पित है, इसलिए बरसों पहले उस ने एक रात क्या गलती की थी, यह बात आज कोई माने नहीं रखती. माने रखती है यह बात कि तुझ से जुड़ने के बाद वह तेरे प्रति पूर्णरूप से प्रतिबद्ध रहे बस,’’ अरुणाजी ने समझाया तो पलक सोच में पड़ गई. सचमुच साल भर में उसे कभी नहीं लगा कि पीयूष के प्यार में कोई खोट या छल है. वह तो एकदम निर्मलनिश्छल झरने की तरह है.
‘‘पर मां उस का सच मेरी सहनशीलता से बाहर है. मेरी नजर में अचानक ही पीयूष की मूर्ति खंडित हो गई है. मैं प्रेम की टूटी हुई मूर्ति के साथ कैसे रहूं? पीयूष ने
मुझे धोखा दिया है,’’ पलक आंसू पोंछती हुई बोली.
‘‘उस के झूठ पर तुझे एतराज नहीं था. तब तू खुश थी. लेकिन उस की ईमानदारी
को तू धोखा कह रही है. अगर धोखा ही देना होता तो वह उम्र भर यह बात तुझ से
छिपा कर रखता. जरा सोच, वह तुझे हृदय की गहराइयों से प्यार करता है. तुझे पूरे सम्मान से रखता है. तुझे अपने जीवन के सारे अधिकार दे दिए हैं उस ने, पर आज तू एक तुच्छ बात के लिए उस के सारे अच्छे गुणों को नकार रही है.
‘‘जरा सोच, यदि उस ने जीवन में कोई गलती नहीं की होती, लेकिन तुझे प्यार करता, तेरी भावनाओं का सम्मान करता, तुझे तेरे अधिकार देता, तब तू ज्यादा खुश रहती या अब ज्यादा खुश है? जीवन में अहम बात किसी की गलती नहीं, अहम बात है उसका प्यार मिलना. पीयूष अपना एक कण अनजाने में कभी किसी को बांट चुका है,
इस के लिए तू उसे खंडित कह रही है. एक कण के लिए पूरे को ठुकरा कर अपनी और पीयूष की जिंदगी बरबाद मत करो. वह वर्तमान समय में पूरे समर्पण से बस तुझे ही चाहता है. एक छोटी सी घटना पर उम्र भर के लिए किसी के प्यार और रिश्तों को तोड़ देना अक्लमंदी नहीं है,’’ अरुणाजी ने पलक के कंधे पर हाथ रख कर उसे समझाया.
पलक की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. आंखों के सामने पीयूष का साल भर का प्यार, उस का सामंजस्य, उस की निश्छलता तैर रही थी.
उस से कोई गलती हो जाने पर वह कभी बुरा नहीं मानता था, उस की जिद पर कभी नाराज नहीं होता था. उस की छोटी से छोटी खुशी का भी कितना ध्यान रखता था. सचमुच मां ठीक कहती हैं. जीवन में बस किसी का सच्चा प्यार और प्रतिबद्धता ही महत्त्वपूर्ण है और कुछ नहीं. आज से वह भी पीयूष के प्रति पूर्णरूप से प्रतिबद्ध रहेगी.
‘‘तेरे चले जाने के बाद पीयूष ने खानापीना छोड़ दिया है. कल तेरे पिताजी उस से मिलने गए थे. वह वर्षों का बीमार लग रहा था. उस की वजह से तुझे जो दुख पहुंचा है उस का पश्चात्ताप है उसे. उसी की सजा दे रहा है वह अपनेआप को. तेरी पीड़ा का एहसास तुझ से भी अधिक उसे है. तेरा दर्द वह तुझ से ज्यादा महसूस कर रहा है. इसीलिए तड़प रहा है. अब भी कहेगी कि उस ने तुझे धोखा दिया है?’’ अरुणाजी ने पूछा तो पलक बिलख पड़ी.
‘‘मैं अभी इसी समय पीयूष के पास जाऊंगी मां, उस से माफी मांगूंगी.’’
‘‘कहीं जाने की जरूरत नहीं है. यहीं है पीयूष. मैं उसे भेजती हूं,’’ कह कर अरुणाजी चली गईं.
2 मिनट में ही पीयूष गैलरी में आ कर खड़ा हो गया. पलक कुछ कहना चाह रही थी पर गला रुंध गया. वह पीयूष के सीने से लग कर फफक पड़ी. उस के आंसुओं ने गलतियों के सारे चिह्न धो दिए. दोनों के दिलों और आंखों में सच्चे प्यार की निर्मल और शाश्वत नदी बह रही थी, एकदूसरे के प्रति अपनी पूरी प्रतिबद्धता के साथ.