सत्र पूरा होते ही सुधा ने सौरभ, गौरव को पास के एक सस्ते स्कूल में डाल दिया. बच्चों के लिए यह एक बड़ा झटका था पर वे समझदार थे और अपने मातापिता के कष्ट को देखतेसमझते पैदल स्कूल आतेजाते और नए वातावरण में सामंजस्य बनाने की भरपूर कोशिश करते.
नौकरी छूटने के 6 महीने के बाद जो रकम फैक्टरी की ओर से अजीत को मिली वह नीता की शादी का कर्ज चुकाने में चली गई. नीता के पास अच्छा घरवर था. सरकारी नौकरी थी पर उस ने 100 रुपए खर्च करने के बाद 6 महीने में पीछे पलट कर भी नहीं देखा.
रीता सर्दियों में 2 दिन के लिए आई थी. सुधा को फटापुराना कार्डिगन पहना देख कर अपना एक कार्डिगन उस के लिए छोड़ गई थी और सौरभगौरव के लिए कुछ स्केच पेन और पेंसिलरबड़ खरीद कर दे गई थी.
रीता के पति पहले अकसर अपने व्यापार के सिलसिले में आते और कईकई दिनों तक अजीत, सुधा के घर में बेहिचक बिना एक पैसा खर्च किए डटे रहते थे. वह भी इन 6 महीनों में घर के दरवाजे पर पूछने नहीं आए. सुधा मन ही मन सोचती रहती, क्या रीता के पति इस बीच एक बार भी यहां नहीं आए होंगे? आए होंगे जरूर और 1-2 दिन होटल में रुक कर अपना काम जल्दीजल्दी पूरा कर के लौट गए होंगे. यहां आने पर हमारे कुछ मांग बैठने का खतरा जो था.
अजीत से छिपा कर सुधा ने हर उस रिश्तेदार को पत्र डाला जो किसी प्रभावशाली पद पर था या जिन के पास मदद करने लायक संपन्नता थी. ससुर अकसर बड़प्पन दिखाने के सिलसिले में जिन पर खूब पैसा लुटाया करते थे वे संबंधी न कभी पूछने आए और न ही उन्होंने पत्र का उत्तर देने का कष्ट उठाया.
सुधा को अपनी ठस्केदार चाची सास याद आईं जो नीता की शादी के बाद 2 महीने रुक कर गई थीं. सुधा से खूब सेवा ली, खूब पैर दबवाए उन्होंने और सौरभ, गौरव का परीक्षाफल देख कर बोली थीं, ‘‘मेरे होनहारो, बहुत बड़े आदमी बनोगे एक दिन पर इस दादी को भूल न जाना.’’
सुधा ने उन्हें भी पत्र लिखा था कि चाचीजी, अपने बड़े बेटे से कह कर सौरभ के पापा को अपनी आयुर्वेदिक दवाओं की फैक्टरी में ही फिलहाल कुछ काम दे दें. कुछ तो काम करेंगे, कुछ तो डूबने से हम बचेंगे. पर पत्र का उत्तर नहीं आया.
अजीत की बूआ तीसरेचौथे साल भतीजे के घर आतीं और कम से कम महीना भर रह कर जाती थीं. जाते समय अच्छीखासी विदाई की आशा भी रखतीं और फिर आदेश दे जातीं, ‘‘अब की जाड़ों में मेरे लिए अंगूर गुच्छा बुनाई के स्वेटर बुन कर भेज देना. इस बार सुधा, आंवले का अचार जरा बढ़ा कर डालना और एक डब्बा मेरे लिए भिजवा देना.’’
इन बूआजी को सुधा ने पत्र भेजा कि अपने कंपनी सेक्रेटरी दामाद और आफीसर बेटे से हमारे लिए कुछ सिफारिश कर दें. इस समय हमें हर तरह से मदद की जरूरत है. बूआ का पोस्ट कार्ड आया था. अपनी कुशलता के अलावा बेटे और दामाद की व्यस्तता की बात थी पर न किसी का पता दिया था न फोन नंबर और न उन तक संदेश पहुंचाने का आश्वासन.
6 महीने में सब की परीक्षा हो गई. कितने खोखले निकले सारे रिश्ते. कितने स्वार्थी, कितने संवेदनहीन. सुधा सूरज निकलने तक घर के काम निबटा कर सिलाई मशीन की खड़खड़ में डूब जाती. जब घर पर वह अकेली होती तभी पत्र लिखती और चुपके से डाल आती.
कई महीने के बाद अजीत ने काम करना शुरू किया. मनोस्थिति और आर्थिक स्थिति के दबाव में उसे जो पहला विकल्प मिला उस ने स्वीकार कर लिया. घर आ कर जब उस ने सुधा को बताया कि वह रायल इंटर कालिज का गार्ड बन गया है तो सुधा को बड़ा धक्का लगा. चेहरे पर उस ने शिकन न आने दी लेकिन मन में इतनी बेचैनी थी कि वह रात भर सिलाई मशीन पर काम करती रही और सुबह निढाल हो कर सो गई.
नींद किसी अपरिचित स्वर को सुन कर खुली. कोठरी से निकल कर कमरे में आई तो कुरसी पर एक लड़के को बैठा देखा. तखत पर बैठे अजीत के चेहरे पर चिंता की रेखाएं गहराई हुई थीं.
‘‘सुधा, यह विशाल है. छोटी बूआ की ननद की देवरानी का बेटा. बी.ए. की प्राइवेट परीक्षा देगा यहीं से.’’
सुधा चौंकी, ‘‘यहीं से मतलब?’’
‘‘मतलब आप के घर से,’’ वह लड़का यानी विशाल बिना हिचकिचाहट के बोला.
सुधा पर रात की थकान हावी थी. उस पर सारे रिश्तेदारों द्वारा दिल खट्टा किया जाना वह भूली नहीं थी. उस का पति 2 हजार रुपए के लिए गार्ड बना सारे दिन खड़ा रहे और रिश्तेदारों के रिश्तेदार तक हमारे घर को मुफ्तखोरी का अड्डा बना लें. पहली बार उस ने महसूस किया कि खून खौलना किसे कहते हैं.
‘‘तुम्हारी परीक्षा में तो लंबा समय लगेगा, क्यों?’’ सुधा ने तीखी दृष्टि से विशाल की ओर देखा.
‘‘हां, 1 महीना रहूंगा.’’
‘‘तुम्हें हमारा पता किस ने दिया?’’
‘‘आप की बूआ सासजी ने,’’ लड़का रौब से बोला, ‘‘उन्होंने कहा कि मेरे मायके में आराम से रहना, पढ़ना, परीक्षा देना, तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी.’’
‘‘उन्होंने हम से तो कुछ नहीं पूछा था. भला महीने भर कोई मेरे घर में रहेगा तो मुझे परेशानी कैसे न होगी? डेढ़ कमरे में हम 4 लोग रहते हैं और बूआजी ने तो तुम से यह भी नहीं कहा होगा कि मेरा भतीजा और उस का परिवार भूखों मरने की हालत में हैं. वह क्यों कहेंगी? उन के लिए भतीजे का घर एक आराम फरमाने की जगह है, बस.’’
लड़का अवाक् सा सुधा को देख रहा था. अजीत भी विस्मित था. उस ने सुधा का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था. वह सोच ही रहा था कि सुधा उठ कर अंदर चली गई. थोड़ी देर में सुधा चाय ले कर आई और विशाल के चाय खत्म करते ही बोली, ‘‘सुनो विशाल, हम खुद बहुत परेशानी में हैं. हम तुम्हें अपने साथ 1 महीने तो क्या 1 दिन भी नहीं रख सकते.’’
अजीत उठ कर अंदर चला गया. विशाल उलझन में भरा हुआ सुधा को देख रहा था. सुधा उसे इस तरह अपनी तरफ देखते थोड़ी पिघल उठी, ‘‘बेटा, तुम पढ़नेलिखने वाले बच्चे हो. अभी हमारी परेशानियों और कष्टों को क्या समझोगे, पर मैं हाथ जोड़ती हूं, तुम अपने रहनेखाने की व्यवस्था कहीं और कर लो.’’