Hindi Fiction Stories : आत्ममंथन – क्या शांता को हुआ गलती का एहसास

Hindi Fiction Stories :  रचित के विवाह को पूरे 2 साल हो  गए पर शांता हैदराबाद नहीं जा सकी. रचित उस का इकलौता बेटा है. उस की पत्नी स्नेहा कितनी ही बार निमंत्रण दे चुकी है पर कहां जा पाई है वह? कभी घर की व्यस्तता तो कभी राहुल की प्राइवेट कंपनी का टूर. एक बार प्रोग्राम बनाया भी तो उन दोनों के विदेश ट्रिप के कारण रद्द करना पड़ा, टिकट भी कैंसिल करना पड़ा. दोनों ही विदेशी कंपनी में साथ काम करते हैं, अकसर बाहर जाते ही रहते हैं.

शादी के बाद हनीमून मनाने में 1 महीना निकल गया. कहां ये दोनों बहू के पास रह पाए? सच में शांता को अपनी बहू से ठीक से परिचय भी नहीं हो पाया है. सिर्फ एकदो दिन ही साथ बिताए हैं. फोन पर बात कर लेना ही भला कोई परिचय हुआ. कुछ दिन उस के साथ रहें, तब कुछ बात बने. कुछ उस की सुनें और कुछ अपनी कहें.

खैर, चलो 2 साल बाद ही सही, अब तो राहुल ने पटना से हैदराबाद का रिजर्वेशन भी करा लिया है. रचित के विवाह की वर्षगांठ जो है. शांता शौपिंग में व्यस्त है. लड्डूमठरी और गुझिया बनाने में लगी है. ये सब रचित को बहुत पसंद हैं. अब स्नेहा को क्या पसंद है, यह रचित से पूछ कर बना लेगी. वह भी खुश हो जाएगी.

सभी सामान पैक हो गए हैं. थोड़ी देर में चलना है. मन खुशियों से भरा है. राहुल आएंगे तो आते ही जल्दी मचा देंगे. इसलिए सामान को बाहर निकालना शांता ने शुरू कर दिया.

स्टेशन आने पर पता चला कि गाड़ी समय पर पहुंच रही है, जान कर राहत मिली. टे्रन आने पर कुली ने सारा सामान सैट कर दिया. अटैंडैंट कंबल, चादर, तकिया आदि दे गया. शांता को अब थकावट महसूस हो रही थी. लेकिन रात के करीब 12 बजे तक लोगों का उतरनाचढ़ना लगा रहा. टीटीई भी टिकट चैक कर के चला गया. राहुल को तो लेटते ही नींद आ गई. शांता सोने की कोशिश करने लगी. गाड़ी तेज रफ्तार से चलने लगी थी. सभी यात्री सो चुके थे. ट्रेन में खामोशी छाई थी.

शांता की आंखें नींद से बोझिल हो रही थीं पर मन में अतीत चलचित्र की भांति घूमने लगा.

जब उस की नईनई शादी हुई थी तब राहुल का छोटा सा परिवार था. राहुल के मातापिता और एक छोटी बहन. राहुल को मां और बहन से काफी लगाव था. सुहागरात को ही शांता को राहुल ने यह बता दिया था, ‘शांता, मां मेरी आदर्श हैं, मां के कारण ही हम इस मुकाम पर पहुंचे. बहन मुझे जान से प्यारी है. इस बात का विशेष खयाल रखना कि हम लोगों के किसी व्यवहार के कारण से मां के दिल को चोट न पहुंचे.’

‘आप चिंता न करें, मैं इस बात का हमेशा खयाल रखूंगी. आप को शिकायत का मौका नहीं दूंगी.’ वह कह तो रही थी पर अंदर से जलभुन रही थी. जो आदमी अपनी मांबहन का इतना खयाल रख रहा है वह एक पति भी बन पाएगा. उसे इस बात की चिंता हो गई और वह तनावग्रस्त रहने लगी.

शादी के बाद छुट्टी समाप्त होने पर वे गया से पटना आ गए. यहीं राहुल नौकरी करते थे. बड़े अरमान से उस ने अपनी छोटी सी गृहस्थी सजाई.

‘देखो, मां को यह सामान यहां रखा हुआ पसंद नहीं आएगा. इस को उस जगह पर रखो, मां को जिस कलर की साड़ी पसंद है वही पहनना. सामान सजाने की कला मां से सीख लेना. हां, सलाद भी सजाना मां से सीख लेना.’ ये सब सुन कर शांता खीझ उठती. और जानबूझ कर वही करती जो राहुल मना करते.

पापा के देहांत के बाद मां अकसर इन लोगों के साथ ही पटना में रहने लगी. ये लोग भी घर कम ही जा पाते थे.

राहुल की टीकाटिप्पणी से शांता को सास का आना बोझ लगने लगा. उन का आना शांता को कभी अच्छा नहीं लगा और उन से चिढ़ सी होने लगी. मन में सोचती, ‘ये बारबार क्यों चली आती हैं? घर पर भी तो रह सकती हैं.’ शांता को उन की उपस्थिति बरदाश्त नहीं होती जबकि मां के आने से राहुल के उत्साह का अंत नहीं रहता. आने के हफ्तों पहले से तैयारी होती और रसोईघर मां की पसंद की चीजों से भर जाता.

शांता सोचती, उस का भी क्या दोष था. मां के जैसा खाना बनाना, उन के जैसा तरीका सीखना ये बातें सुनसुन कर वह कुढ़ जाती. उसे लगता जैसे वह कोई गंवार है. जैसे उस का कोई अस्तित्व ही नहीं है. मां के प्रति उस ने विद्रोह पाल लिया.

इस के विपरीत मां जब आतीं तो अपने साथ इन लोगों के लिए ढेरों खानेपीने का सामान बना कर लातीं, अभी भी आती हैं तो ले कर आती हैं पर शांता को उन चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं रहती. उस का तो यही प्रयास रहता है कि मां जल्दी से जल्दी उस के घर से चली जाएं. शांता राहुल को बहाना बना कर घर से बाहर ले जाती और बाहर ही खाना खा कर देर रात को लौटती. मां इंतजार ही करती रह जातीं. शांता को मां को प्रतीक्षा करते देख कर खुशी होती. फिर भी मां न कोई शिकायत करतीं और न उलाहना देतीं. न जाने कितनी सहनशील हैं.

उलटा वे एक दिन राहुल से कहने लगीं, ‘राहुल, बहू को कभी फिल्म दिखाने भी ले जाया कर. यही तो इस के घूमनेफिरने के दिन हैं.’ अभी भी वे उन्हें घूमने भेज देतीं और पीछे से घर के सारे काम कर लेतीं. एक भी काम शांता के लिए नहीं छोड़तीं. फिर भी उसे खुशी नहीं होती. शांता को ये सब नाटक लगता. वे जल्दी ही चली भी जातीं. जब तक भी रहतीं, शांत ही रहतीं.

समय बीतता गया. शादी के तीसरे साल रचित का जन्म हुआ. घर में उल्लास छाया हुआ था. खासकर मां की खुशी का तो ठिकाना नहीं था. फोन से अनेक प्रकार की हिदायतें दे रही थीं, ‘शांता, अपना ध्यान रखना. चैकअप कराती रहना. डाक्टर जैसा कहे उसी तरह रहना.’ राहुल को भी हिदायत देतीं, ‘बहू का खयाल रखना.’

उस के बाद तो रचित को देखने और खिलाने के लिए बारबार आने लगीं. अब शांता को शक होने लगा कि मां पति तो छीन ही चुकी हैं अब बेटे को भी अपने वश में करना चाहती हैं. शांता बहाने बना कर रचित को मां से दूर रखना चाहती थी, पर जिद कर के वह उन्हीं के पास चला जाता. दादी से पोते को अलग करना शांता को मुश्किल हो जाता. राहुल को इस सब का पता नहीं रहता क्योंकि मां शांता की शिकायत नहीं करतीं.

अब शांता ने मांबेटे के रिश्ते को भी खराब करना चाहा. राहुल पूछते ‘शांता, बाथरूम क्यों गंदा है?’ धीरे से बोल देती, ‘मां ने बाहर से आ कर पैर धोए हैं,’ ‘शांता, बिजली का बिल इतना ज्यादा क्यों आया?’ शांता सब मां के मत्थे मढ़ देती.

एक दिन राहुल गुस्सा हो कर बोले, ‘न जाने मां को क्या हो गया है, इतनी कठोर सास बन गई हैं?’ फिर शांता ही राहुल को शांत किया करती.

छोटी ननद शिखा शादी के बाद पहली बार अपने भतीजे को देखने और मां से मिलने उस के घर आई. वह शांता का मां के साथ बरताव देख कर मां को समझा रही थी, ‘भाभी का इतना खराब व्यवहार क्यों सह रही हो? विरोध में कुछ बोलती क्यों नहीं हो? भैया को बताती क्यों नहीं हो? तभी तो वे जानेंगे. वे तो तुम्हीं को दोषी मानते हैं.’

‘बेटी, राहुल से क्या कहूं? शांता घर की बहू है. मेरे कारण दोनों में कटुता आए, यह मैं नहीं चाहती. दोनों को साथ जीवन बिताना है. हां, राहुल के व्यवहार से क्षोभ होता है कि मेरा बेटा मुझे दोषी मानता है. मुझे सफाई देने का मौका भी तो दे कि ऐसे ही कठघरे में खड़ा कर देगा?’

उन की बातें सुन कर शांता की अंतरआत्मा धिक्कारने लगी. वह आत्ममंथन करने लगी और अपने को एक संस्कारहीन समझ कर उसे शिखा से आंख मिलाने में भी ग्लानि होने लगी. उस के बाद से मां पटना नहीं आईं.

ट्रेन अब हैदराबाद पंहुचने वाली थी कि शांता वर्तमान में लौट आई.

शांता को अब डर समा गया कि अगर स्नेहा भी ऐसा व्यवहार करेगी तो…अपनी मां जितना धैर्य क्या उस में है? यदि रचित ने भी स्नेहा को बताया होगा कि वह मां को बहुत चाहता है तो क्या स्नेहा भी शांता के साथ वैसा ही व्यवहार करेगी जैसा वह करती थी? ऐसे अनेक प्रश्न उस के मन में उठ रहे थे. पुरानी बातें सोचसोच कर घबरा रही थी. हैदराबाद स्टेशन पर शांता ने देखा स्नेहा और रचित लेने आए हुए थे. स्नेहा शांता का ही दिया हुआ सूट पहन कर आई थी. शांता को अपनी सासू मां की याद आ गई. उन्होंने एक साड़ी अपनी पसंद की ला कर दी थी जो शांता बहाने बना कर नहीं पहनती थी.

स्नेहा और रचित दोनों हफ्तेभर की छुट्टी ले चुके थे, ‘‘मुझे पूरा समय आप के साथ बिताना है,’’ कह कर स्नेहा शांता के गले से लिपट गई, ‘‘आप से बहुत कुछ सीखना है. रचित के पसंद का खाना बनाना और घर सजाना भी सीखना है. रचित आप की बहुत प्रशंसा करते हैं.’’

रचित अपने मातापिता को ले कर अपने घर की ओर चल दिए.

राहुल और रचित दोनों मुसकरा रहे थे, ‘‘पापा, चलिए अब आप लोग फ्रैश हो जाइए. स्नेहा ने आप लोगों की पसंद का नाश्ता सुबह जल्दी ही बना कर रख लिया था.’’

मेज विभिन्न प्रकार के नाश्ते से सजी हुई थी. सभी चीजें शांता और राहुल की पसंद की थीं. बहू का प्यार देख कर दोनों का मन गद्गद हो गया. शांता को मां के साथ किए दुर्व्यवहार पर अपने ऊपर घृणा हो रही थी, ‘कैसे ओछे और गिरे हुए संस्कार की है जो स्नेहमयी जैसी सास को इतना सताया.’ जा कर पहले उन से क्षमा मांगेगी तभी उसे शांति मिलेगी.

खैर, एक हफ्ता घूमनेफिरने ही में गुजर गया. शांता के मन का भय समाप्त हो गया. स्नेह अपने मातापिता से अच्छे संस्कार ले कर आई है. उस का अपना व्यक्तित्व है, खुले विचारों की आधुनिक लड़की है. सास को दोस्त के नजरिए से देखती है. प्रतिद्वंद्वी नहीं समझती है. काश, शांता भी ऐसी सोच की होती तो मांबेटे के संबंध में खटास तो पैदा न होती.

अपने प्रति स्नेहा की श्रद्धा और उस का विश्वास देख कर शांता की आंखें भर आईं. उस का सिर शर्म से झुक गया.

Hindi Story : सैलिब्रेशन – क्या सही था रसिका का प्यार

Hindi Story : कुहराभरीशाम के 6 बजे ही अंधेरा गहरा गया था. रसिका औफिस से थकी हुई घर में घुसी ही थी कि उस की छोटीछोटी दोनों बेटियां भागती हुई मम्मा… मम्मा कहती उस से लिपट गईं. छोटी काव्या सुबक रही थी.

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘मम्मा, यहां सब लोग मुझे बेचारी कहते हैं. आज नानी के पास एक आंटी आई थीं. वे मुझे प्यार करती जा रही थीं और रोरो कर कह रही थीं कि हायहाय बिन बाप की बेटियों का कौन अपने लड़के से ब्याह करेगा.

‘‘मम्मा, मेरे पापा तो हैं. वे ऐसे क्यों कह रही थीं?’’

8 साल की नन्ही काव्या के प्रश्न पर रसिका समझ नहीं पा रही थी कि इस मासूम को कैसे समझाए. फिर उसे प्यार से गले से लगाते हुए बोली, ‘‘इन बातों को मत सुना करो. तुम तो मेरी राजकुमारी हो,’’ और फिर पर्स से चौकलेट निकाल कर उस की हथेली पर रख दी. वह खुश हो कर उछलती हुई चली गईर्.

मान्या 10 साल की थी. वह कुछकुछ समझने लगी थी कि अब पापा से उन का रिश्ता खत्म हो गया है, इसलिए घर या बाहर कोई भी बेचारी या उस की मम्मा के लिए बुरा बोलता तो वह उस से लड़ने को तैयार हो जाती थी.

इस कारण सब उस की शिकायत करते, ‘‘रसिका, अपनी बेटी को कुछ अदबकायदा सिखाओ. सब से लड़ने पर आमादा हो जाती है.’’

रसिका अकसर मान्या को समझाती, ‘‘बेटी, इन लोगों से बेकार में क्यों बहस करती हो… तुम वहां से हट जाया करो.’’

मगर उस का रोज किसी न किसी से पंगा हो ही जाता. कभी घर में तो कभी स्कूल में.

रसिका जानती थी कि दोपहर में मां के पास महिलाओं का जमघट लगता है और वे दोनों बच्चियों को सुनासुना कर बातें करतीं, ‘‘हाय, बुढ़ापे में गायत्री बहनजी की मुसीबत आ गई है. रसिका तो सजधज कर औफिस चली जाती और इन बिटियों के लिए खाना बनाओ, टिफिन तैयार करो, कितना काम बढ़ गया है बहनजी के लिए.’’

‘‘चुप रहो मीरा. मान्या सुन लेगी तो आ कर लड़ने लगेगी,’’ गायत्रीजी ने कहा तो सब चुप हो गईं.

मीराजी को अपनी हेठी लगी तो वे उठ खड़ी हुईं. बोलीं, ‘‘गायत्री बहन,

?जरा सी लड़की से आप डरती क्यों हैं? हमारी नातिन ऐसा बोले तो मैं तो 2 थप्पड़ रसीद कर दूं.’’

फिर मान्या के घर में घुसते ही सब अपनेअपने घर चली गईं.

नानी के कराहने की आवाज सुन कर मान्या उन के पास आई, ‘‘नानी, आप रहते दो.मैं माइक्रोवेव में खाना गरम कर लूंगी. आप आराम करो.’’

‘‘रहने दे छोरी, अपनी अम्मां से कह देगी कि नानी ने खाना भी नहीं दिया.’’

मान्या का मूड खराब हो गया, लेकिन मम्मी की बात याद कर के चुपचाप खाने बैठ गई.

संडे का दिन था. रसिका अपने कपड़े धो रही थी. तभी रोती हुई काव्या घर में घुसी.

‘‘क्या हुआ? क्यों रो रही हो?’’

‘‘मम्मा, रिचा आंटी कह रही थीं कि तुम मेरे घर खेलने मत आया करो. तुम्हारी मम्मी तलाकशुदा हैं. तुम्हारे पापा से लड़ाई कर के आ गई हैं.’’

रसिका परेशान थी. सुबह मां से बहस हो चुकी थी. अत: गुस्से में बेटी को गाल पर थप्पड़ लगा चीख कर बोली, ‘‘क्यों जाती हो उन केघर खेलने?’’

‘‘मम्मा तलाकशुदा क्या होता है?’’

बेटी के मासूम प्रश्न पर रसिका की आंखें छलछला उठीं. आंसू नहीं रोक पाई. अपने कमरे में जा कर चुपचाप आंसू बहाती रही. मां की निगाहें भी अब बदल गई थीं. उन को भी शायद अब रसिका का यहां रहना अच्छा नहीं लग रहा था. हर समय मुंह फुलाए रहती हैं. बच्चों से भी ढंग से बात नहीं करतीं.

रसिका के किचन में घुसते ही कहने लगती हैं, ‘‘मैं कर तो रही हूं. यह यहां क्यों रख दिया?’’

यदि रसिका कुछ बना देती तो खुद उसे छूती भी नहीं. उस में मीनमेख निकालतीं. रसिका को उलटासीधा बोलतीं. बच्चों को डांटतीं.

मान्या स्कूल से कोई फार्म लाईर् थी भरने के लिए. उस में पापा का नाम सुरेश चंद्र लिखवाते हुए रसिका को हलक में कुछ अटकता महसूस हुआ. पति का नाम लेते ही उस की आंखें क्रोध से लाल हो उठीं.

पति के अत्याचारों की याद आते ही मुंह कसैला हो उठा. सुरेश के साथ रसिका ने अपने जीवन के कीमती पल बिताए थे. वह उसे प्यार तो करता था, परंतु गुस्सैल स्वभाव का होने के कारण किस पल नाराज हो कर गालीगलौज और मारपीट पर उतर आए, पता नहीं. इसलिए रसिका हर समय डरीसहमी सी रहती थी.

जब काव्या की डिलिवरी के वक्त रसिका मायके में थी तो अकेलेपन में सुरेश इमली के गदराए बदन पर आसक्त हो गया और उस ने उस के दिल में जगह बना ली. उसी की संगत में उसे पीने का शौक लग गया. बस वह इंसान से जानवर बन बैठा.

जब एक दिन अबोध काव्या को ज्यादा रोने पर उसे उठा कर जमीन पर पटकने को तैयार हो गया, तब रसिका दुर्गा बन कर उस से बेटी को छुड़ा पाईर् थी. उसी क्षण उस ने उस नर्क से निकल भागने का निश्चय कर लिया.

अगले दिन जब सुरेश का नशा उतर गया तो उस के रोने, माफी मांगने का रसिका पर कोई असर नहीं हुआ. फिर 2-4 दिन के अंदर ही मौका देख कर वह वहां से निकल ली.

रसिका ने केवल पति के खूनी पंजों से मुक्ति चाही थी. पैसे की कोई चाहत नहीं की थी. इसलिए आपसी सहमति से जल्दी तलाक हो गया था. उस के शरीर के जख्मों को देख कर ससुराल वालों के पास भी कहने को कुछ नहीं था एवं अपने बेटे के गुस्से के कारण वे लोग स्वयं ही परेशान थे.

रसिका अपनी मां के पास रहने लगी थी. उन्होंने भी दिल खोल कर उस का साथ दिया था.

पिता की प्रतिष्ठा के कारण उसे औफिस में परीक्षा देने का अवसर मिल गया और पास हो जाने पर नौकरी भी मिल गई.

जीवननैया सुचारु रूप से चल पड़ी थी. वे बेटियों को मां को सौंप कर निश्चिंत हो गई थी. मां को पैसे दे कर या घर का सामान ला कर अपना काम पूरा हो गया समझती थी.

रसिका को न ही बच्चों के टिफिन की कभी फिकर हुई न ही अपने टिफिन की. उसे भी मां के हाथों का खाना और नाश्ता मिलता रहा. व्यवस्था चल निकली थी.

रसिका औफिस में अपनी खुशियां तलाश कर ठहाके लगाती. वैभव उस का बौस था. दोनों के बीच दोस्ती धीरेधीरे प्यार में बदल गई. वह औफिस से अकसर ओवरटाइम कह कर देर से आने लगी थी. छुट्टी वाले दिन भी वैभव के पास किसी न किसी बहाने पहुंच जाती.

समस्या तब खड़ी हो गई जब उस के और वैभव के अफेयर के चर्चे मां के कानों तक पहुंचे. फिर तो उन की निगाहें और बोलचाल सब बदल गया.

मान्या 24 साल की हो गई थी और काव्या 22 की. रसिका औफिस से वैभव की बाइक पर लौट रही थी. गली के नुक्कड़ पर मां और मान्या दोनों ने वैभव को रसिका को किस करते हुए देख लिया. फिर तो घर में हंगामा होना स्वाभाविक था. मां को अपनी बेइज्जती बरदाश्त नहीं हुई. कहासुनी में बात इतनी बढ़ गई कि अगले 2 दिनों के अंदर ही वैभव ने उन के लिए 2 कमरों का फ्लैट ढूंढ़ लिया.

वैभव की मदद से रसिका की नई गृहस्थी आसानी से जम गई. घरेलू कामों के लिए विमला को भी वैभव ने ही भेजा था. सबकुछ सुचारु रूप से व्यवस्थित हो गया था.

वैभव के सन्निध्य से रसिका के जीवन को पूर्णता मिल गई थी. उस का जीवन पूरी तरह उलटपुलट गया था. वैभव रसिका के साथ ही रहने लगा था.

वैभव का साथ मिलने से रसिका के जीवन में सुरक्षा, खुशी, प्यार और जीवन का जो अधूरापन था, वह सब दूर हो कर खुशियों का एहसास होता. लेकिन यह समाज किसी को जीने नहीं देना चाहता.

मान्या हो या काव्या दोनों की आंखों में प्रश्नचिह्न देख रसिका अपनी आंखें चुराने के लिए मजबूर हो जाती थी.

वैभव ने तो बता ही दिया था कि उस के 2 बेटे हैं और पत्नी गांव में रहती है. उन की जिम्मेदारी उसी की है.

रसिका वैभव को अपना सर्वस्व मान बैठी थी. कब ये सब हुआ, उसे स्वयं मालूम न था.

उस दिन रसिका के सिर में दर्द था, इसलिए औफिस से जल्दी आ गई थी.

काव्या को रोता देख उस ने रोने का कारण पूछा तो काव्या ने बताया, ‘‘मम्मी, मैं सोनी आंटी के घर खेल रही थी, तो उन की दादी बोलीं कि तुम मेरे घर में मत आया करो. तुम्हारी मम्मी पराए मर्द के साथ रहती हैं.’’

रसिका गुस्से से तमतमा उठी, ‘‘तुम क्यों जाती हो उन के घर?’’

बेटी को तो रसिका ने डांट दिया, लेकिन उस की स्वयं की आंखें छलछला उठी थीं.

‘‘मम्मी पराया मर्द क्या होता है?’’

इस मासूम को वह क्या उत्तर देती. वह चुपचाप बाथरूम में जा कर सिसक उठी.

मान्या चुपचुप रहती. पर वैभव अंकल का घर पर रहना उसे भी अच्छा नहीं लगता. इसलिए  न तो वह पार्क में खेलने जाती और न ही पड़ोस में किसी से बात करती.

मगर सुजाता आंटी अकसर आतेजाते उसे बुला कर फालतू पूछताछ करती रहती थीं.

‘‘इधर आओ मान्या,’’ एक बुजुर्ग आंटी ने उसे बुलाया, जिन्हें वह जानती नहीं थी.

‘‘ये तुम्हारे पापा नहीं हैं,’’ उसी आंटी ने कहा.

मान्या आंखों में आंसू भर कर अपने दरवाजे की तरफ दौड़ पड़ी. घर पहुंच कर वह सूने घर में फूटफूट कर रोती रही. तब छोटी काव्या ने उसे गिलास में पानी ला कर दिया और उस के आंसू पोंछ कर बोली, ‘‘क्यों रो रही हो दीदी?’’

उस ने सिसकते हुए कहा, ‘‘तुम नहीं समझोगी काव्या.’’

‘‘दीदी, तुम रोया मत करो. समझ लिया करो मैं ने सुना ही नहीं.’’

मान्या को काव्या पर बहुत प्यार आया. फिर खाना निकाल कर दोनों ने साथ खाया.

काव्या बोली, ‘‘दीदी, वहां नानी अपने हाथों से कैसे प्यार से खाना खिलाती थीं. वहां सब लोग कितना प्यार भी करते थे… दीदी, चलो टीवी देखते हैं.’’

‘‘नहीं काव्या मुझे होमवर्क करना है नहीं तो मम्मी आ कर डांट लगाएंगी.’’

काव्या के बहुत कहने पर दोनों बहनें कार्टून फिल्म लगा कर बैठ गईं. फिर सब भूल गईं.

रसिका 6 बजे औफिस से घर लौट आई. आज उस का मूड खराब था. वैभव ने अपने बेटे पार्थ का कृष्णा कोचिंग में एडमिशन करवा दिया था, इसलिए अब 6 महीने वह यहीं उन के साथ ही रहेगा.

बेटियों को टीवी देखते देख उस का गुस्सा 7वें आसमान पर पहुंच गया, ‘‘तुम लोगों को केवल टीवी देखना है… पढ़नेलिखने से कोई मतलब नहीं है?’’

डांट के डर से दोनों ने जल्दी से टीवी बंद कर दिया और अपनीअपनी किताबें खोल कर बैठ गईं.

स्कूल का सालाना फंक्शन था. सब बच्चों के मम्मीपापा अपने बच्चों का प्रोग्राम देखने आए थे. मान्या ने भी डांस में भाग लिया था. उस की आंखें भी दूरदूर तक मां को तलाश रही थीं. लेकिन मम्मी के लिए पार्क का टैस्ट ज्यादा महत्त्वपूर्ण था. वह मायूस हो गई.

दिन बीतते रहे. मौम की प्राथमिकता वैभव अंकल और पार्थ थे. मां के लिए उन दोनों को खुश रखना ज्यादा जरूरी था.

घर की बात स्कूल तक सहेलियों और कैब के ड्राइवर के माध्यम से पहुंच जाती थी. वह स्कूल में अपनी सहेलियों की निगाहों में ही ‘अछूत कन्या’ बन गई थी. उन के मार्मिक प्रश्न कई बार उस के दिल को दुखा देते थे.

‘‘क्यों मान्या, तुम्हें अपने पापा की शक्ल याद है कि नहीं?’’

‘‘ये अंकल तुम्हें मारते होंगे?’’

‘‘प्लीज, घर की बात यहां मत किया करो,’’ वह झुंझला उठी थी.

रसिका ने फ्लैट खरीदने के लिए फंड से रुपए निकाले. कुछ रुपए वैभव ने अपने भी लगाए थे, इसलिए स्वाभाविक था कि रजिस्ट्री में उस का नाम भी हो. अकाउंट भी साझा हो गया था.

मान्या कालेज में पहुंच गई थी. उस का स्वभाव बदलता जा रहा था. अब वह रसिका की एक भी बात सुनने को तैयार नहीं थी. फैशनेबल कपड़े, स्कूटी, कोचिंग और ट्यूशन के बहाने घर से गायब रहती. यदि रसिका कुछ कहती तो तुरंत जवाब देती कि आप अपनी दुनिया में व्यस्त रहो. मेरी अपनी दुनिया है. आप बस अंकल और पार्थ का खयाल रखें.

मान्या ने बचपन में अपने आसपास पड़ोसियों के द्वारा इतना तिरस्कार और अपमान झेला था कि अब वह उस अपमान का बदला अपने पैसे और नित नए फैशन के बलबूते दूसरों को आकर्षित कर के अपना प्रभुत्व बढ़ा कर लेती थी.

मान्या औनलाइन तरहतरह की डिजाइनर ड्रैसें और्डर करती रहती. यदि कभी रसिका उसे टोक दे, तो तुरंत उस के मुंह पर जवाब दे देती, ‘‘आप से तो कम ही खर्च करती हूं… आप को औफिस जाना होता है, तो मुझे भी कालेज जाना होता है.’’

रसिका बेटी के सामने अपनेआप को मजबूर पा रही थी. उसे सुधारने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था.

मान्या ने अपने स्कूल के समय में बहुत अपमान झेला था. लड़कियां उस से दोस्ती नहीं करती थीं. उसे अपने गु्रप में शामिल नहीं करती थीं. उसे अजीब निगाहों से देखती थीं.

सब अपनेअपने पापा के प्यार की बातें करतीं, कोई पिक्चर जाती, कोई घूमने जाती. सब फेसबुक पर फोटो शेयर करतीं. ये सब देखसुन कर मान्या की आंखें छलछला उठतीं. वह दूसरी तरफ मुंह घुमा कर उन की बातें सुनती, क्योंकि यदि उन की तरफ नजरें घुमाती तो वे बोलतीं, ‘‘तुम क्या जानो… तुम्हारे पापा को तो तुम्हारी मम्मी छोड़ कर पराए मर्द के साथ रह रही हैं.’’

यह कड़वा सच था. इस वजह से उस का मन घायल हो उठता था. वह बमुश्किल अपने आंसू रोक पाती थी.

उस के पड़ोस में रहने वाली रेनू उस के घर की 3-3 बात स्कूल में पहुंचा देती और फिर उन लोगों को चटखारे ले कर बातें बनाने का मौका मिल जाता.

कालेज में आने के बाद मान्या की समझ में आ गया कि रोने से कुछ नहीं होगा. अब उसे बिंदास हो कर जीना होगा.

मान्या को कुकिंग का शौक हो गया था. एक दिन खाने के शौकीन वैभव अंकल के लिए यूट्यूब पर देख कर मलाईकोफ्ते बनाए. अंकल ने खुश हो कर उस की जरूरत को समझते हुए उसे स्कूटी दिलवा दी.

वैभव ने उसे अपना एटीएम कार्ड भी दे दिया. अब तो उस के पंख निकल आए थे. कालेज कैंटीन और लड़कों के साथ दोस्ती के कारण उस का तो लाइफस्टाइल ही बदल गया था. एटीएम कार्ड से औनलाइन शौपिंग, फैशनेबल ड्रैसेज, नएनए हेयर कट में उस की दुनिया बदल गई.

वैभव को खुश रखने में उस का फायदा था. इसलिए वह उस के लिए हर संडे

कुछ स्पैशल बनाती और वह प्यार से उस के सिर पर हाथ फेर कर अपने पास बैठा लेता और फिर खुश हो कर खाता. लेकिन मां को यह पसंद नहीं आता.

वह उसे कोई काम बता कर वहां से उठा देती.

कालेज में ढेरों दोस्त बन गए थे. वह सब को कैफेटेरिया में अकसर ट्रीट देती. उस की कुंठा पैसों के रास्ते बह गई थी.

वंश की बड़ी सी गाड़ी और उस के आकर्षक व्यक्तित्व में वह खो गई. उस का फाइनल ईयर था.

उधर काव्या इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने बैंगलुरु चली गई थी.

अब मान्या वैभव का काम आगे बढ़ कर देती. फिर चाहे वह सुबह की बैड टी हो या ब्रेकफास्ट. वह प्यार से उसे अपनी बांहों में भर लेता. रसिका ये सब देख कर सुलग उठती. लेकिन वैभव के सामने कुछ बोल नहीं पाती. दोनों के बीच वैभव का काम करने के लिए कंपीटिशन सा रहता.

रसिका मान्या को घूर कर देखती और फिर बोलती, ‘‘क्यों, किचन में घुसी रहती है? अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे. काम करने के लिए विमला है तो?’’

मान्या वैभव की प्लेट में प्यार से पिज्जा रखते हुए बोली, ‘‘अंकल खा कर बताइए कैसा बना है? मैं ने यूट्यूब से देख कर टौपिंग करी है.’’

पिज्जा का एक टुकड़ा खुद खाने से पहले वैभव ने मान्या को खिलाया. फिर रसिका की घूरती आंखों से डर कर उस के मुंह में भी रखा और फिर खुश हो कर बोला, ‘‘लाजवाब, वैरी टेस्टी. मान्या कमाल है.’’

जबकि रसिका को पिज्जा स्वादहीन लग रहा था.

कुछ दिनों से रसिका देख रही थी कि वैभव औफिस में रोशनी को अपने कैबिन में बारबार बुलाता था कई बार उस ने झांक कर भी देखा. दोनों ठहाके लगाते हुए कौफी की चुसकियां ले रहे होते.

रसिका ने महसूस किया कि वैभव उस के हाथ से फिसलता जा रहा है. एक क्षण को उस के हाथपैर ठंडे हो गए. अब वह हैरानपरेशान रहने लगी थी. डिप्रैशन होने लगता था… आत्मविश्वास कम होता जा रहा था.

उन की मेड विमला अपने गुरूजी की महिमा का दिनभर बखान करती थी.

रसिका पति से तलाक लेने के बाद उसे पूरी तरह भूल चुका थी, क्योंकि वैभव ने उस के जीवन में रंग भर दिए थे. उसे पति जैसा ही सहारा मिल गया था.

रसिका ने जीजान से वैभव को खुश करने के लिए, उस के बेटे को भी अपने पास रखा, उसे पढ़ायालिखाया, उस की सारी सुखसुविधाओं का खयाल रखा. बीमार पड़ने पर पूरी देखभाल की. फिर भी वैभव उस से निगाहें फेर कर कभी रोशनी, तो कभी पूर्वा को प्यार भरी निगाहों से देखते हुए कौफी पीता, लौंग ड्राइव पर जाता है. रसिका के लिए ये सब जीतेजी मरने वाली बात हो गई थी, इसलिए वह गुरू की शरण में जाने के बारे में बारबार सोचती रहती.

विमला अपनी मालकिन से संवेदना रखती थी. वह उस की कशमकश को देखसमझ रही थी.

रोजरोज उस का महिमामंडन सुनतेसुनते वह विमला के साथ उस के

गुरू के पास जाने को तैयार हो गई.

विमला अपनी मालकिन को अपने गुरू के पास ले जाने से पहले ही उस की पूरी कहानी सुना चुकी थी.

गुरू ने विमला को आशीर्वाद दिया था कि इस साल यकीनन उस के बेटा पैदा होगा. वह खुशी से कल्पनालोक में बेटे को गोद में खिलाती हुई महसूस कर रही थी.

रसिका के पहुंचने की खबर मिलते ही गुरू ने आंखें बंद कर ध्यान में लीन होने का नाटक किया.

आधे घंटे के इंतजार के बाद रसिका को अंदर बुलाया गया. वह कुछ कहती, उस से पहले ही गुरू ने उस की जन्मपत्रिका पढ़ कर सुना डाली.

गुरूजी पर अंधभक्ति के लिए उस का एक नाटक ही काफी था. रसिका की आंखों से धाराप्रवाह अश्रु बह निकले थे और उस ने आगे बढ़ कर गुरू के चरणों पर झुकना चाहा.

‘‘नहीं… नहीं… बेटी मेरा ब्रह्मचर्य मत भंग करो. मैं तो बालब्रह्मचारी हूं. मैं तो इस दुनिया में लोगों को कष्ट और संकट दूर करने के लिए ही आया हूं.

‘‘मैं तो हिमालय की कंदरा में जाने कितने बरसों से तपस्या करता रहा हूं. न ही मेरा कोई नाम है, न ही मुझे अपने जन्म का पता है.’’

रसिका नतमस्तक थी. बोली, ‘‘गुरूजी, अब आप ही मुझे बचाइए… वैभव दूसरी स्त्री के चक्कर में न पड़े.’’

‘‘बच्चा, मैं ने दिव्य दृष्टि से देख लिया है. वह रोशनी तुम्हारी जिंदगी में अंधेरा करना चाहती है.

‘‘यह भभूत ले जाओ… वैभव को खिलाती रहना. वह रोशनी की ओर अपनी नजरें भी नहीं उठाएगा.’’

रसिका खुशीखुशी क्व4 हजार का नोट उस के चरणों में रख कर ऐसा महसूस कर रही थी जैसे सारा जहां उस की मुट्ठी में आ गया हो.

फिर तो कभी कलावा, कभी ताबीज तो कभी हवनपूजा. धीरेधीरे उस का विश्वास गुरूजी पर बढ़ता गया क्योंकि रोशनी यह कंपनी छोड़ दूसरी में चली गई थी और वैभव फिर से उस के पास लौट आया था.

रसिका खुश हो कर गुरू की सेवा में अपनी तनख्वाह का 40वां भाग तो निश्चित रूप से देने लगी थी. उस के अतिरिक्त समयसमय पर अलग से चढ़ावा चढ़ाती.

रसिका अपना भविष्य सुधारने में व्यस्त थी. उधर बेटी मान्या और वंश की दोस्ती प्यार में बदल गई थी.

वंश रईस परिवार का इकलौता चिराग था. वह रंगबिरंगी तितलियों की खोज में रहता था. वह देखने में स्मार्ट था. उस के पिता का लंबाचौड़ा डायमंड का बिजनैस था. कनाट प्लेस में बड़ा शोरूम था. इसलिए उस के डिगरी का कोई खास माने नहीं था. कालेज तो लिए मौजमस्ती की जगह थी. वह फाइनल ईयर में थी और कैंपस भी हो गया था.

मान्या वंश के घर भी जाती रहती थी. उस की मां और पापा से मिल चुकी थी.

मां सोना और सत्येंद्र को मान्या पसंद थी, इसलिए उस के हौसले और भी बढ़ गए थे.

एक दिन मान्या वंश को ले कर घर आई और

रसिका से मिलवाया.

रसिका भी वंश के आकर्षक व्यक्तित्व और नामीगिरामी परिवार का चिराग है, जान कर खुशी से फूल कर कुप्पा हो गई. उस ने बेटी को शादी के लिए वंश पर जोर डालने की सलाह दी.

वंश उसे अपना भावी दामाद लगने लगा था, इसलिए मान्या को उस के संग घूमनेफिरने की पूरी आजादी थी. दोनों अंतरंग रिश्ते की डोर से बंध गए थे.

रसिका ने एक दिन वंश और उस के परिवार को अपने घर पर लंच के लिए बुलाया ताकि वे लोग उन के बारे में अच्छी तरह से जानकारी ले लें और उन का घर और रहनसहन भी देख लें. वैभव उस दिन गांव गया था.

वंश के पिता ने उसी समय उन दोनों के रिश्ते पर अपनी मुहर लगा दी. उन्हें मान्या पसंद थी.

एक बार में ही सबकुछ इतनी जल्दी तय हो जाएगा, रसिका ने सपने में भी नहीं सोचा था.

रसिका खुशी से गद्गद हो कर गुरू के चरणों में गिर गई, ‘‘आप की महिमा अपरंपार है. आप की वजह से ही इतने बड़े परिवार में मेरी बेटी का रिश्ता तय होने जा रहा है.’’

सगाई समारोह पांचसितारा होटल में संपन्न हुआ. मान्या के परिवार से तो कोई था नहीं, केवल औफिस की मित्रमंडली थी.

वंश के नातेरिश्तेदारों का पूरा हुजूम था. उसी दिन शादी की तारीख भी तय कर दी गई.

यद्यपि वंश की मां ने आ कर मान्या के दादीनानी वगैरह के बारे में पूछताछ की थी, लेकिन रसिका ने गोलमोल जवाब दे कर बात संभालने का प्रयास किया था.

वंश की कोठी देख वह बेटी की खुशी के लिए पैसा पानी की तरह बहा रही थी. वह अपने फंड से पैसे निकाल कर दिनरात शौपिंग और बुकिंग में जुटी थी.

वैभव कुछ उखड़ाउखड़ा सा रहता. शादी की तैयारी में कोई रुचि नहीं ले रहा था.

मेहंदी और संगीत का फंक्शन था. कल शादी थी. रसिका लोगों की आवभगत में लगी थी. सभी लोग उसे बधाई दे रहे थे. उस की निगाहें वैभव को चारों ओर ढूंढ़ रही थी. लेकिन वह कहीं दिखाई नहीं दे रहा था. उस का फोन भी बंद था. वैभव को तो उस ने शादी के कई कामों की जिम्मेदारी सौंप रखी थी. वह इतना गैरजिम्मेदार तो कभी नहीं था.

इतना बड़ा फंक्शन. लोगों की भीड़भाड़ थी. वंश के परिवार वालों के आने का समय हो चुका था. वैभव का फोन बंद आ रहा था.

किसी अनिष्ट की आशंका से रसिका का तनमन सिहर उठा. उस का चेहरा विवर्ण हो उठा. तभी उस का मोबाइल बज उठा. वंश की मां सोना का फोन था.

उन्होंने उखड़े अंदाज में उन्हें अपने घर बुलाया था.

मां के चेहरे को देखते ही मान्या समझ गई कि कुछ अघटित घट चुका है. उस ने वंश को फोन लगाया तो उस का फोन बंद आया.

सब तरफ मौन पसर गया. अकेली रसिका अपनेआप को संभाल नहीं पाई. उस का चेहरा आंसुओं से भीग गया. क्षणभर में सब को सांप सूंघ गया. जितने लोग उतनी बातें. माहौल में मौन के साथसाथ फुसफुसाहट भी हो रही थी. सब अपनेअपने अनुसार कयास लगा रहे थे.

मानसिक व्यथा के उन कठिन क्षणों में अनेक झंझावातों को झेलते हुए अनेकानेक हां और नहीं के विचारमंथन के बाद रसिका ने साहस जुटा कर सब के चेहरों के प्रश्नचिह्न के समाधान के लिए वंश के मातापिता के साथ उन की गलतफहमी को दूर करने की बात कही.

सब के चेहरे उम्मीद की किरण की रोशनी से नहा उठे.

‘‘मम्मी, आप को उन के सामने रोनेगिड़गिड़ाने की कोई जरूरत नहीं है,’’ मान्या ने कहा.

रसिका बेटी को डांट कर चुप रहने को कह कर अकेली गाड़ी में बैठ कर वंश के घर की ओर चल दी.

कुछ पलों के लिए रसिका के यहां सन्नाटा पसर गया था. कुछ लोगों के चेहरों पर

आशा की किरण जगमगा रही थी कि रसिका अपनी वाक्पटुता से सारी गलतफहमी को दूर कर देगी. तो कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन के चेहरों पर कुटिल मुसकान दिखाई दे रही थी कि अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे? जैसा करा है वैसा भरो. किसी का घर तोड़ा है तो उस का फल तो यहीं मिलना है. अब बेटी की शादी टूटेगी तो पता लगेगा कि किसी के घर में आग लगाने का नतीजा क्या होता है.

रसिका वंश की कोठी में पहुंची तो वहां पर वैभव और उस की पत्नी राधिका को देखते ही सबकुछ शीशे की तरह साफ हो चुका था.

वह उन लोगों के सामने रोई, गिड़गिड़ाई, राधिका के सामने हाथ जोड़े, माफी मांगी. वैभव मूक बैठा रहा.

वंश की मां के सामने अपनी बेटी की खुशियों की भीख झोली फैला कर मांगती रही. लेकिन वह टस से मस न हुई. बोली, ‘‘मैं ऐसी मां की बेटी से अपने बेटे की शादी नहीं कर सकती, जिस ने अपने जीवन में रिश्ते निभाना नहीं सीखा.’’

वह रोतीबिलखती रही. काफी देर इंतजार करने के बाद दोनों बेटियां भी वहां पहुंच गईं, ‘‘उठो मां, वंश जैसे कायर लड़के के साथ मैं खुद शादी नहीं करूंगी.’’

काव्या बोली, ‘‘दीदी, तू तो बच गई ऐसे कायर, कमजोर जीवनसाथी से.’’

‘‘मां, आप समझो बच गईं, क्योंकि इन फरेबियों का असली चेहरा शादी से पहले ही सामने आ गया.’’

‘‘मां, एक बार जोर से मुसकराओ…हम सब इन धोखेबाजों के चंगुल से बच गए.यह सैलिब्रेशन का समय है. आंसू बहाने का नहीं.’’

रसिका अपनी बेटियों के चेहरे देखती रह गई. उस का तन और मन दोनों जैसे शून्य और शक्तिहीन हो चुके थे. उस के लिए यह आघात सहना कठिन हो रहा था.

रसिका की आंखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी. वह मन ही मन घुट रही थी कि इतनी बड़ी दुनिया में उस का अपना कोई नहीं है. उस ने रिश्ता भी जोड़ा तो स्वार्थी वैभव से, जिस ने बीच मंझधार में छोड़ दिया.

रसिका ने अपनी बेटियों को गहरी नजर से देखा और फिर बोली, ‘‘मेरी प्यारी बेटियो सच में यह समय तो सैलिब्रेशन का ही है.’’

रसिका का चेहरा उस के साहस की रोशनी से जगमगा उठा था.

‘‘मान्या आंखों में आंसू भर कर अपने दरवाजे की तरफ दौड़ पड़ी. घर पहुंच कर वह सूने घर में फूटफूट कर रोती रही…’’

‘‘सब तरफ मौन पसर गया. अकेली रसिका अपनेआप को संभाल नहीं पाई. उस का चेहरा आंसुओं से भीग गया. क्षणभर में सब को सांप सूंघ गया…’’

Interesting Hindi Stories : मेरा दुश्मन

Interesting Hindi Stories : शादी के 5 साल बाद नन्हा पैदा हुआ तो मुझे लगा कि प्रकृति का इस से बड़ा उपहार और क्या हो सकता है. मैं उस का चेहरा एकटक निहारती पर दिल तक उस की सूरत उतरती ही नहीं थी. उस का चेहरा बस आंखों में ही बस जाता था. मेरे पति मदन हंसते, ‘‘आभा, तुम इस के चेहरे को किताब की तरह एकटक क्यों देखती हो? कलंदरा सा है, न शक्ल न रंग. बस, बेटा पा कर धन्य हुई जा रही हो. जैसे आज तक हमारे यहां बच्चे पैदा ही नहीं हुए हों. बस, गोद ही लिए जाते रहे हों.’’

मदन की बात से मेरे सर्वांग में चिनगारियां उड़ने लगतीं, ‘‘ओहो, तुम तो बड़े गोरे हो जैसे. बेटा तुम्हारे पर गया है. तुम जलते हो. अभी तक घर के एकमात्र पुरुष होने का गौरव था, सो ओछेपन पर उतर आए.’’

‘‘पर मां कहती हैं कि मैं बचपन में बहुत गोरा था. इस की तरह नहीं था.’’

‘‘रहने दो,’’ मैं ने बात काटी, ‘‘यह बड़ा होगा, शेव वगैरह करेगा तो अपनेआप ही इस का रूप निखर आएगा.’’

मदन को भले ही दलील दी पर नन्हे को हलदी, बेसन के उबटन से नहलाती थी, ‘हाय, मेरा बेटा सांवला क्यों हो?’

नन्हा बैठने लगा तो मैं बलिहारी हो गई. नन्हे ने खड़े हो कर एक कदम उठाया तो मैं खुशी से नाच उठी. नन्हे ने अभी तुतला कर बोलना शुरू ही नहीं किया था पर उस से बोलने के लिए मैं ने तुतलाना शुरू कर दिया.

मदन के लिए नन्हा आम बच्चों सा बच्चा था. शायद मां के तन से नहीं मन से भी शिशु का सृजन होता होगा तभी तो मेरे दिलोदिमाग में हर पल बस नन्हा ही समाया रहता.

नन्हा बोलने लगा. शिशु कक्षा में जाने लगा. उस के लिए एक नई दुनिया के दरवाजे खुल गए. अब वह बदल रहा था स्वतंत्र रूप से. मुझ से दूर हो रहा था. उस की आंखों में इतने चेहरे समा रहे थे आएदिन कि मेरा चेहरा अब धूमिल पड़ने लगा था.

मैं पति से कहती, ‘‘देखो, यह नन्हा कितना बदल रहा है…’’

मदन बीच में ही बात काट कर कहते, ‘‘तुम क्या चाहती हो, वह हमेशा तुम्हारे आंचल में मुंह छिपाए लुकाछिपी ही खेलता रहे? अब वह शिशु नहीं रहा, बड़ा हो गया है. कल को किशोर होगा. और भी बहुत तरह के बदलाव आएंगे. तुम भी हद करती हो, आभा.’’

नन्हे को मुझे किसी भी बात के लिए टोकनारोकना नहीं पड़ा. स्कूल से आ कर कपड़े बदल कर खाना खाता और अपनेआप ही गृहकार्य करने बैठ जाता था. मेरी मदद की जरूरत उसे किसी चीज में नहीं थी. स्कूल के साथियों की बातें वह मुझ से नहीं, मदन से करता था. दूसरे बच्चों को नखरे, फरमाइशें करते देखती तो मुझे नन्हे का बरताव और भी खल जाता.

मैं मदन से कहती, ‘‘नन्हा और बच्चों की तरह क्यों नहीं है?’’

लापरवाही के अंदाज में वे कहते, ‘‘शुक्र करो कि वैसा नहीं है. मुझ से तो शैतान बच्चे बिलकुल सहन नहीं होते, बच्चों के लिए बाहर के बजाय अपने भीतर के अनुशासन में रहना ज्यादा अच्छा है. फिर तुम खुद ही उस के लिए पहले से ही सबकुछ तैयार कर के रखती हो तो वह मांगे क्या? तुम अपनी तरफ से मस्त हो जाओ, नन्हा बिलकुल ठीक है.’’

एक बार मुझे बहुत तेज बुखार हो गया. मदन ने छुट्टी ले ली. नन्हे को स्कूल भेजा. फिर डाक्टर को बुला कर मुझे दिखाया. दवा, फल आदि लाए फिर उन्होंने खिचड़ी बनाई. मुझे यों मदन का काम करना अच्छा नहीं लग रहा था. घर की नौकरानी भी छुट्टी पर चली गई. मैं दुखी हो कर बोली, ‘‘अब बरतन भी धोने होंगे.’’

मदन मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘‘बरतन भी साफ कर लेंगे. तुम निश्ंिचत हो कर आराम करो. फिर नन्हा भी तो अब मदद कर देता है.’’

छुट्टी का दिन था. कमजोरी की वजह से आंखें बंद कर के मैं निढाल सी पड़ी थी. पास ही नन्हा और मदन कालीन पर बैठे थे. अचानक नन्हा बोला, ‘‘पिताजी, घर में मां की क्या जरूरत है?’’

‘‘क्यों, तुम्हारी मां पूरा घर संभालती हैं, तुम्हें कितना प्यार करती हैं, खाना बनाती हैं. अब देखो, हम दोनों से ही घर नहीं संभल रहा.’’

‘‘क्यों, आप खाना बना सकते हैं. मैं सफाई कर सकता हूं, बरतन भी धो सकता हूं. वह काम वाली बाई आ जाएगी तो फिर हमें ज्यादा काम नहीं करना पड़ेगा. हमें मां की क्या जरूरत है फिर?’’

एक पल को मदन चुप रहे. मेरे भीतर हाहाकार सा मच रहा था. मदन ने पूछा, ‘‘नन्हे, तुम मां को प्यार नहीं करते?’’

‘‘मैं आप को ज्यादा प्यार करता हूं.’’

‘‘मां बीमार हैं, तुम्हें बुरा नहीं लगता? मां तुम्हारा कितना खयाल रखती हैं, तुम्हें कितना प्यार करती हैं.’’

‘‘मां मुझे छोटा बच्चा समझती हैं, लेकिन मैं छोटा नहीं हूं. अब मैं बड़ा हो गया हूं,’’ नन्हा लापरवाही से बोला.

मेरी बंद आंखों से आंसू लगातार बह रहे थे. अंदर ही अंदर कुछ पिघल रहा था.

‘‘तो तुम बड़े हो गए हो, देवाशीष. ये पैसे लो और नुक्कड़ वाली दुकान से डबलरोटी और मक्खन ले कर आओ. हिसाब कागज पर लिखवा कर लाना. बचे पैसे संभाल कर जेब में रखना,’’ मदन ने नन्हे को भेज कर मेरे सिराहने बैठ धीरे से पुकारा, ‘‘आभा, आभा.’’

पर मैं चुप पड़ी रही. मदन ने मेरे चेहरे पर हाथ फेरा, ‘‘अरे, तुम रो रही हो? क्या हुआ?’’

बस, उन के इतना पूछते ही मेरा आंसुओं का दबा सैलाब पूरी तरह बह निकला.

‘‘पगली हो, यों भी कोई रोता है,’’ मदन ने भावुक होते हुए कहा, ‘‘लो, ग्लूकोज का गिलास, एक सांस में खाली कर दो.’’

मैं प्रतिरोध करती रही पर मदन ने गिलास खाली होने पर ही मेरे मुंह से हटाया.

‘‘तुम ने सुना, वह क्या कह रहा था कि मेरी कोई जरूरत नहीं है इस घर में,’’ कहते हुए मेरी आंखें फिर छलकने लगीं.

‘‘तुम भी क्या उस की बात पकड़ कर बैठ गईं. ये उम्र के बदलाव होते हैं,’’ मदन ने सेब काट कर आगे बढ़ाया, ‘‘लो, खाओ और जल्दी से अच्छी हो कर हमें अच्छा सा खाना खिलाओ. यार, मैं तो खिचड़ी, दलिया और नहीं खा सकता, बीमार हो जाऊंगा, तुम खा नहीं रही हो, चाटमसाला छिड़क दूं, स्वाद बदल जाएगा.’’

मदन उठ कर चाटमसाला रसोई से लाए. तभी नन्हा भी अंदर आया. बिलकुल मदन के अंदाज में उस ने सामान मेज पर रखा और जेब से पैसे निकाल कर बिल के साथ मदन को दिए.

मदन ने बिल और पैसे मुझे दिखाते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम्हारा बेटा बड़ा हो गया है. बाजार से अकेले सामान ले कर आया है.’’

‘‘अरे वाह,’’ मेरा मन अंदर से उमड़ रहा था. मैं उस का सिर सहला कर ढेर सा प्यार करना चाहती थी पर मैं ने अपने को रोक लिया. बोली, ‘‘अब तो अच्छा हो गया, जब तुम घर पर नहीं रहोगे, नन्हा मेरा बाजार का काम कर देगा.’’

एक गर्वीली सी मुसकान नन्हे के चेहरे पर खिल उठी.

मदन ट्रे में दूध के 3 गिलास ले कर आए और बोले, ‘‘चलो नन्हे, जल्दी से अपना दूध खत्म करो. फिर हम दोनों मिल कर खाना बनाएंगे.’’नन्हे ने आज्ञाकारी बेटे की तरह गटागट दूध खत्म किया और फिर पिता के संग रसोई में चला गया. उसे जाते देख कर मैं सोच रही थी, ‘अभी पूरे 4 साल का भी नहीं हुआ है पर कितना जिम्मेदार है. आम बच्चों जैसा नहीं है तभी तो इतना अलग है.’

मैं स्वस्थ होते ही घर के कामकाज में पहले की तरह लग गई. इसी बीच नन्हे को फ्लू हो गया. 3-4 दिन में बुखार उतरा. हम दोनों आंगन में धूप सेंक रहे थे. पड़ोस की ज्योति और रमा बुनाई का डिजाइन सीखने आ गईं.

ज्योति अपने घर से बगीचे की मूलियां लेती आई थी. उस ने उन्हें छीला और टुकड़े कर के प्लेट में नमकमिर्च छिड़क कर ले आई. हम तीनों बहुत स्वाद से खा रही थीं. नन्हे का दिल भी खाने के लिए मचल गया. वह बोला, ‘‘मां, मिर्च हटा कर हमें भी दो.’’

मैं बोली, ‘‘नहीं, मुन्ना, अभी तो तुम्हारा बुखार ही उतरा है. कितनी खांसी है, अभी तुम्हें मूली नहीं खानी.’’

नन्हा ललचाया सा देखता रहा. फिर बोला, ‘‘मां, एक टुकड़ा दे दो.’’

‘‘नन्हीं, बेटा, खांसी और बढ़ जाएगी.’’

‘‘नहीं, मां, जरा सा, बस छोटा सा टुकड़ा दे दो,’’ नन्हा मिन्नतें करने पर उतर आया.

मुझे तरस आया. मैं ने पास रखी पानी की बोतल से मूली धो कर उसे दे दी. पर जैसा स्वाद उसे हमें मूली खाते देख कर महसूस हो रहा था शायद वैसा स्वाद उसे नहीं आया.

फिर भी मूली का टुकड़ा खत्म कर के अनमना सा खड़ा रहा, ‘‘आप ने हमें मूली खाने को क्यों दी?’’

ज्योति उस की नकल करती बोली, ‘‘हमें मूली खाने को क्यों दी? अभी गिड़गिड़ा कर मंगते से मांग रहे थे इसीलिए दी.’’

नन्हा नाराजगी से मुझे देखता हुआ बोला, ‘‘हम तो छोटे बच्चे हैं, आप तो बड़ी हैं. आप को पता है न, बच्चों की बात नहीं मानते. मैं पिताजी को बताऊंगा कि मुझे खांसी है फिर भी आप ने मुझे मूली खाने को दी.’’

‘‘क्या मैं ने अपनी मरजी से दी थी?’’ मैं हैरान सी नन्हे को देख रही थी, ‘‘तू किस तरह गिड़गिड़ा कर मांग रहा था.’’

‘‘मांगने से क्या होता है… आप देती नहीं तो मैं खाता कैसे? अब खांसी होगी तो मैं पिताजी को बता दूंगा, आप ने मुझे मूली दी थी इसी से खांसी बढ़ी,’’ वह अडि़यल घोड़े सा अड़ा था.

रमा ने उस का कान धीमे से पकड़ा, ‘‘तुम्हारे जैसे बच्चे की तो पिटाई होनी चाहिए, समझे? आने दो भैया को, मैं उन्हें बताऊंगी कि तुम भाभी को कितना तंग करते हो.’’

नन्हे ने अपना कान छुड़ाया और आंगन में उड़ आई तितली के पीछे भाग गया.

रमा मुझ से बोली, ‘‘सच भाभी, मैं ने ऐसा दूसरा बच्चा कहीं नहीं देखा. तुम्हें तो यह किसी गिनती में नहीं गिनता.’’

मैं मन ही मन सोच रही थी कि बेटा है तो क्या हुआ, है तो मेरा दुश्मन. नन्हा सा, प्यारा दुश्मन.

Hindi Moral Tales : पूर्णाहुति – जया का क्या था फैसला

Hindi Moral Tales : मैं बैठक में चाय ले कर पहुंची तो देखा, जया दीदी रो रही हैं और लता दीदी उन्हें चुप भी नहीं करा रहीं. कुछ क्षणों तक तो चुप्पी ही साधे रही, फिर पूछा, ‘‘जया दीदी को क्या हुआ, लता दीदी? क्या हुआ इन्हें?’’

आंसुओं को रूमाल से पोंछ, जबरदस्ती हंसने का प्रयास करते हुए जया दीदी बोलीं, ‘‘हुआ तो कुछ भी नहीं… लता ने प्यार से मन को छू दिया तो मैं रो दी, माफ करना. तेरे यहां के आत्मीय माहौल में ले चलने के लिए लता से मैं ने ही कहा था, पर कभीकभी ज्यादा प्यार भी रास नहीं आता. जैसे ही लता ने अभय का नाम लिया कि मैं…’’ वे फिर रोने लगी थीं.

‘अभय को क्या हुआ?’ मैं ने अब लता दीदी की तरफ देखते हुए आंखोंआंखों में ही पूछा. इस सब से बेखबर अपने को संयत करने की कोशिश में जया दीदी स्नानघर की तरफ बढ़ गई थीं. मुंहहाथ धो कर उन्होंने कोशिश तो अवश्य की थी कि वे सहज लगने लगें या हो भी जाएं, पर लगता था कि अभी फिर से रो पड़ेंगी.

‘‘मुझे समझ नहीं आता कि कहूं या न कहूं, पर छिपाऊं भी क्या? बात यह है कि अभय अपनी पत्नी सहित मुझ से अलग होना चाह रहा है,’’ भर्राई आवाज में उन्होंने कहा.

‘‘इस में रोने की क्या बात है, जया दीदी, यह तो एक दिन होना ही था,’’ मैं ने कहा.

‘‘यही तो मैं इसे समझा रही थी कि हम दोनों तो इस बात को बहुत दिनों से सूंघ रही थीं,’’ लता दीदी कह रही थीं.

‘‘वह कैसे? तुम लोगों से अचला और अभय बहुत आत्मीयता से मिलते हैं, मेरी सहेलियों में तुम दोनों का घर आना तो उन्हें बहुत अच्छा लगता है,’’ जया दीदी ने कहा.

‘‘हमारा घर आना क्यों बुरा लगेगा उन्हें. समस्या तो आप हैं, हम नहीं. और फिर बाहर वालों के सामने तो अपनी भलमनसाहत का सिक्का जमाना ही होता है. वाहवाही जो मिलती है उन से. कितनी सुंदर, सुघड़, मेहमाननवाज, सलीकेदार है आप की बहू. भई, मुसीबत तो घर के लोग होते हैं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जया, यह समय सम्मिलित कुटुंब का नहीं रहा है. चाहे परिवार के नाम पर एक मां ही क्यों न हो. और फिर तू घबराती क्यों है? एक प्राध्यापिका की आय कम नहीं होती. 5 साल बाद रिटायर होती भी है तो पैंशन तो मिलेगी ही. एक नौकरानी रख लेना,’’ लता दीदी उन्हें समझा रही थीं.

‘‘जया दीदी, 2-3 साल बाद जो होना है वह अगर अभी हो जाता है तो यह आप के हित में ही है. जब से अभय की शादी हुई है, मैं तो दिनबदिन आप को कमजोर होते ही देख रही हूं. मुझे लगता है, आप भीतर ही भीतर कुढ़ती रहती हैं. आज की सासें बहुओं को कुछ कह तो सकती नहीं, अपनेआप में ही तनाव झेलती और घुलती रहती हैं. मैं तो सोचती हूं, उन का आप से अलग हो जाना आप के लिए अच्छा ही है,’’ मैं ने कहा.

‘‘फिर जया, अब वह जमाना नहीं है कि तुम बेटे से कहो कि बेटा, मैं ने तुम्हें इसलिए पालापोसा था कि बुढ़ापे में तुम मेरी लाठी बन सको. हम लोगों को बच्चों से किसी भी प्रकार की अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए…’’

‘‘कुछ अपेक्षा नहीं है मेरी,’’ लता की बात को बीच में काटती हुई जया दीदी बोलीं, ‘‘मैं तो केवल यह चाहती हूं कि वे मेरे सामने रहें. साथ रहने के लिए तो मैं ने आगरा विश्वविद्यालय से मिल रही  ‘रीडरशिप’ अस्वीकार कर दी थी.’’

‘‘जो हुआ सो हुआ, अब तुम अपने को उन से अलग हो कर अकेले जिंदगी जीने के लिए तैयार करो. आजकल की मांओं को बेटों के मोह से मुक्त हो कर अलग रहने के लिए तैयार रहना चाहिए. मैं जानती हूं, कहने और करने में बहुत अंतर होता है पर मानसिक तैयारी तो होनी ही चाहिए. अभ्यास से अकेलापन खलता नहीं, विशेषकर हम लोगों को, जिन को पढ़नेलिखने की आदत है. फिर तू तो एक तरह से अकेली ही रही है. अभय के साथ तेरे भीतर का अकेलापन कटा हो, यह तो मैं नहीं मान सकती. हां, दायित्व जरूर था वह तुझ पर.’’

‘‘दायित्व ही सही, व्यस्त तो रखा उस ने मुझे. एक भरीपूरी दिनचर्या तो रही, किसी को मेरी जरूरत है, यह एहसास तो रहा. नहीं लता, यह अकेलापन मुझ से बरदाश्त नहीं होगा.’’

‘‘सब ठीक हो जाएगा, जया. चाय ठंडी न कर. रोने का मन है तो बेशक रो ले.’’ लता दीदी के ऐसा कहते ही जया हंसने लगीं, ‘‘इसीलिए तो यहां आई थी कि तुम लोगों में बैठ कर कुछ सही सोच पाऊंगी, अपने में कुछ विश्वास प्राप्त कर सकूंगी.’’

जया दीदी मन से उखड़ी हुई थीं, इसीलिए लता दीदी और मेरे प्रयासों के बावजूद अन्यमनस्क वे एकाएक खड़ी हो गईं और लता दीदी से कहने लगीं, ‘‘चल, अब और न बैठा जाएगा आज.’’

मुझे भी लगा, उन्हें अपने को समेटने के लिए बिलकुल अकेलेपन की जरूरत है, जिस का सामना करने से वे बच रही हैं. मैं ने कहा, ‘‘जया दीदी, मेरे पति तो आजकल बाहर हैं, इसलिए जब चाहे, आइए मेरे पास. मुझे आप का आना अच्छा ही लगेगा. इच्छा हो तो 2-4 दिन मेरे पास ही रह जाइए. मैं फिर दोहरा रही हूं, अभय और अचला के चले जाने पर आप अपने ढंग से रह सकेंगी. हमें भी आप के घर आने पर ज्यादा अपनापन लगेगा. अभी तो लेदे कर आप का शयनकक्ष ही अपना रह गया है.’’

जया दीदी लता दीदी के साथ चली गई थीं, पर मैं अभी भी उन्हीं में खोई हुई थी. अभय बड़ा हो गया है, यह उसी दिन महसूस हुआ. यों समझदार तो वह मुझे पहले से ही लगता था. उन दिनों हिंदी विषय पढ़ने के लिए वह अकसर मेरे पास आता था.

एक दिन वह बोला, ‘‘मौसी, ऐसा कुछ बताइए कि…’’

‘‘एक रात में ही तू पढ़ कर पास हो जाए…है न?’’ उस की बात पूरी करते हुए मैं ने कहा था, ‘‘पर बेटे, थोड़े दिन अपने पाठ्यक्रम को एक बार पूरी तरह से पढ़ तो ले.’’

उस की अभिव्यक्ति में कहीं कोई कमी नहीं थी. साहित्य पर उस की पूरी पकड़ थी. कठिनाई आती थी भाषा के संदर्भ में.

‘‘मौसी, इस बार पास नहीं हुआ तो, ‘औनर्स’ की डिगरी नहीं मिलेगी.’’

‘‘नहीं, मुझे पूरा भरोसा है कि तुम हिंदी पास ही नहीं करोगे, अच्छे अंक भी पाओगे.’’

‘‘ओह, धन्यवाद मौसी.’’

‘आषाढ़ का एक दिन’ नामक नाटक पढ़ने में उसे कठिनाई हो रही थी. मुझे याद है, इसलिए मैं ने उसे उन्हीं दिनों ‘संभव’ द्वारा हो रहे इसी नाटक को देखने के लिए भेजा था. परिणाम यह हुआ था कि ‘विलोम’ के चरित्र को उस ने परीक्षा में बड़े खूबसूरत ढंग से लिखा था. जीवन की उसे समझ थी.

‘मल्लिका’ की वेदना वह उस उम्र में भी महसूस कर सका था. फिर अपनी मां की वेदना को? क्या हुआ है अभय को? पर एकसाथ तनावग्रस्त रहने से तो अच्छे, मधुर संबंधों के साथ लगाव रखते हुए अलग रहना कहीं ज्यादा बेहतर है.

लंबी चुप्पी तो नहीं रही जया दीदी के साथ, पर मिलना भी नहीं हुआ. एक दिन फोन आया तो पूछ ही बैठी, ‘‘दीदी, अभय और अचला ने यह निर्णय क्यों लिया? कोई तात्कालिक कारण तो रहा ही होगा?’’

‘‘हां,’’ उन्होंने बताया, ‘‘तू जानती ही है कि नवरात्रों के अंतिम 2 दिन मेरा उपवास रहता है. अचला सुबह 9 बजे चली जाती थी. 10.50 पर मेरी भी कक्षा थी. सुबह मैं ने दोनों को चाय दे ही दी थी, अष्टमी की वजह से नाश्ते के लिए अंडा नहीं रखा था. बस, इसी पर चिल्ला पड़ी, ‘मैं सुबहसुबह पूरीहलवा नहीं खा सकती.’

‘‘मैं ने इतना कहा, ‘बेटे, आज अंडा, औमलेट या जो चाहिए, बाहर हीटर पर बना लो.’

‘‘पर वह तो पैर पटकती हुई चली गई. उसी शाम दफ्तर से वह मायके चली गई और अभय ने मुझे सूचित किया कि वह अलग घर का इंतजाम कर रहा है.

‘‘मेरे पूछने पर कि मेरा दोष क्या है? वह बोला, ‘मां, आप पर बहुत ज्यादा बोझ है. यहां रहते अचला कभी अपना दायित्व नहीं समझेगी और नासमझ ही रह जाएगी. व्यर्थ में आप को भी परेशानी होती है.’

‘‘नया मकान लेने के बाद अभय के साथ अचला भी आई थी. बहुत प्यार से मिली, ‘मां, हम क्या करें, हमें यहां अजीब तनाव सा लगता था. कभी देर रात तक अभय और हमारे मित्र आते तो लगता, आप परेशान हो रही हैं. आप कुछ कहती तो नहीं थीं, पर हमें अपराधबोध होता था. कुछ घुटाघुटा सा लगता था. यहां देखने में कुछ भी गलत न होने पर लगता था, जैसे सबकुछ ही गलत है.’

‘‘बस, ऐसे चले गए वे. अभय अभी हर शाम आता है, पर कब तक आएगा?’’ जया दीदी शायद रो रही थीं क्योंकि एकाएक चुप्पी के बाद ‘अच्छा’ कहा और रिसीवर रख दिया.

लगभग 15 वर्ष पहले कालेज में एक मेला लगा था. जया दीदी छुट्टी पर थीं. हम लोगों के जोर देने पर अभय को घुमाने के लिए मेले में ले आई थीं.

मां से पैसे ले कर वह कोई खेल खेलने चला गया. भोजन के बाद जया दीदी ने उसे वापस चलने के लिए कहा तो वह बोला, ‘अभी नहीं, अभी और खेलेंगे.’

खेलने के बाद मां को ढूंढ़ते हुए वह हमारे स्टाल पर आया तो हम चाय पी रहे थे. जया दीदी ने फिर कहा था, ‘अब तो चलो अभय, दूर जाना है, बस भी न जाने कितनी देर में मिले.’

तब वह गरदन ऊंची करते हुए बोला, ‘डरती क्यों हो मां. मैं हूं न साथ.’ लेकिन मेला उठने से पहले ही मां को बिना ठिकाने पर पहुंचाए उस ने अपना अलग ठिकाना कर लिया था.

मैं इसी में खोई हुई थी कि फोन की घंटी से तंद्रा भंग हुई, ‘‘अरे आप, सच, लंबी उम्र है आप की. आप ही को याद कर रही थी. कैसी हैं आप? क्या कहा, अभी आप के पास आना होगा? लता दीदी भी आ रही हैं? जैसा आदेश, आती हूं,’’ कहते हुए मैं ने फोन बंद कर दिया था.

जया दीदी का उल्लासयुक्त स्वर बहुत दिनों बाद सुना था. नया फ्लैट दिखाना चाह रही थीं. हमारे परामर्श के बाद ही लेंगी, ऐसा सोच रही थीं. फ्लैट बहुत अच्छा था. लेने का निर्णय भी उसी समय कर लिया था उन्होंने और ‘बयाना’ भी हमारे सामने ही दे दिया था.

बस, अब तो इंतजार था उन के गृहप्रवेश का. एक दिन शाम को उन का फोन आया कि वे हवन नहीं करवा रहीं. कुछ लोगों को सूचित करने के लिए उन्होंने कहा था. वह सब तो किया, पर लगा कि जया दीदी के पास जाना चाहिए.

लता दीदी को फोन कर के उन के फ्लैट पर पहुंची.

‘‘वाह, यहां तो जो आ जाए उस का जाने का मन ही न हो,’’ इस वाक्य से जया दीदी खुश होने के बदले आहत ही हुईं, ‘‘जाने की क्या बात, यहां तो कोई आना ही नहीं चाहता. अभय, अचला ने हवन पर आने से इनकार कर दिया है. सोचा, वही नहीं आ रहे तो फिर काहे का हवन. अब तो लगने लगा है, पूर्णाहुति की बेला में ही आएगा वह यहां. पर प्रश्न है, क्या उस समय मैं उसे देख पाऊंगी?’’

बैठक के द्वार पर मैं स्तब्ध सी खड़ी रह गई थी. क्या कहती, निराश, निढाल, थकी मां को.

Hindi Kahaniyan : नाराजगी – बहू को स्वीकार क्यों नहीं करना चाहती थी आशा

Hindi Kahaniyan : सुमित पिछले 2 सालों से मुंबई के एक सैल्फ फाइनैंस कालेज में पढ़ा रहा था. पढ़नेलिखने में वह बचपन से ही अच्छा था. लखनऊ से पढ़ाई करने के बाद वह नौकरी के लिए मुंबई जैसे बड़े शहर आ गया था. उस की मम्मी स्कूल टीचर थीं और वे लखनऊ में ही जौब कर रही थीं.

मम्मी के मना करने के बावजूद सुमित ने मुंबई का रुख कर लिया था.यहां के जानेमाने मैनेजमैंट कालेज में वह अर्थशास्त्र पढ़ा रहा था. वहीं उसी विभाग में उस के साथ संध्या पढ़ाती थी. स्वभाव से अंतर्मुखी और मृदुभाषी संध्या बहुत कम बोलने वाली थी. सुमित को उस का सौम्य व्यवहार बहुत अच्छा लगा. सुमित की पहल पर संध्या उस से थोड़ीबहुत बातें करने लगी और जल्दी ही उन में अच्छी दोस्ती हो गई. धीरेधीरे यह दोस्ती प्यार में बदलने लगा था. संध्या को इस बात का एहसास होने लगा था. सुमित जबतब यह बात उसे जता भी देता. संध्या अपनी ओर से उसे जरा भी बढ़ावा न देती. वह जानती थी कि वह एक विधवा है. उस के पति की 7 साल पहले एक ऐक्सिडैंट में मौत हो गई थी.

उस का 8 साल का एक बेटा भी था. सुमित को उस ने सबकुछ पहले ही बता दिया था. इतना सबकुछ जानते हुए भी उस ने इन बातों को नजरअंदाज कर दिया. एक दिन उस ने संध्या के सामने अपने दिल की बात कह दी.‘‘संध्या, मु झे तुम बहुत अच्छी लगती हो और तुम से प्यार करता हूं. मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. क्या तुम्हें मैं पसंद हूं?’’ उस की बात सुन कर संध्या को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. वह चेतनाशून्य सी हो गई. उसे सम झ नहीं आ रहा था कि वह सुमित से क्या कहे. किसी तरह से अपनेआप को संयत कर वह बोली, ‘‘आप ने अपनी और मेरी उम्र देखी है?’’ ‘‘हां, देखी है. उम्र से क्या होता है? बात तो दिल मिलने की होती है. दिल कभी उम्र नहीं देखता.’’ ‘‘यह सब आप ने किताबों में पढ़ा होगा.’’ ‘‘मैं मजाक नहीं कर रहा संध्या. मैं सच में तुम्हें अपना लाइफ पार्टनर बनाना चाहता हूं.’’ ‘‘प्लीज, फिर कभी ऐसी बात मत कहना. सबकुछ जान कर भी मु झ से यह सब कहने से पहले आप को अपने घरवालों की रजामंदी लेनी चाहिए थी.’’‘‘

उन से तो मैं बात कर ही लूंगा, पहले मैं तुम्हारे विचार जानना चाहता हूं.’’ ‘‘मैं इस बारे में क्या कहूं? आप ने तो मु झे कुछ कहने लायक नहीं छोड़ा,’’ संध्या बोली. उस की बातों से सुमित इतना तो सम झ गया था कि संध्या भी उसे पसंद करती है लेकिन वह उस की मम्मी को आहत नहीं करना चाहती. उसे पता है, एक मां अपने बेटे के लिए कितनी सजग रहती है. सुमित के पापा की मौत तब हो गई थी जब वह मात्र 2 साल का था. उस के पिता भी टीचर थे और उस की मम्मी उस के पिता की जगह अब स्कूल में पढ़ा रही थीं.सुमित की मम्मी आशा की दुनिया केवल सुमित तक सीमित थी. वह खुद भी यह बात अच्छी तरह से जानता था कि मम्मी इस सदमे को आसानी से बरदाश्त नहीं कर पाएंगी, फिर भी वह संध्या को अपनाना चाहता था.

संध्या सोच रही थी कि वह भी तो अर्श की मां है और अपने बच्चे का भला सोचती है. भला कौन मां यह बात स्वीकार कर पाएगी कि उस का बेटा अपने से 7 साल बड़ी एक बच्चे की मां से शादी करे.यही सोच कर वह कुछ कह नहीं पा रही थी. दिल और दिमाग आपस में उल झे हुए थे. अगर वह दिल के हाथों मजबूर होती है तो एक मां का दिल टूटता है और अगर दिमाग से काम लेती है तो सुमित के प्यार को ठुकराना उस के बस में नहीं था. इसीलिए उस ने चुप्पी साध ली. सुमित उस की मनोदशा को अच्छी तरह से सम झ रहा था. संध्या की चुप्पी देख कर वह सम झ गया था कि वह भी उसे उतना उसे पसंद करती है जितना कि वह. 

संध्या के लिए इतनी बड़ी बात अपने तक सीमित रखना बहुत मुश्किल हो रहा था. घर आ कर उस ने अपनी मम्मी सीमा को यह बात बताई. सीमा बोली, ‘‘यह क्या कह रही हो संध्या? लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे?’’मम्मी, मु झे दुनिया वालों की परवा नहीं. आखिर दुनिया ने मेरी कितनी परवा की है? मु झे तो केवल सुमित की मम्मी की चिंता है. वे इस रिश्ते को कैसे स्वीकार कर पाएंगी?‘‘संध्या, तुम्हें अब सम झदारी से काम लेना चाहिए.’’‘‘तभी मम्मी, मैं ने उस से कुछ नहीं कहा. मैं चाहती हूं कि पहले वह अपनी मम्मी को मना ले.’’ ‘‘तुम ठीक कह रही हो. ऐसे मामले में बहुत सोचसम झ कर कदम आगे बढ़ाने चाहिए.’’

संध्या की मम्मी सीमा ने उसे  नसीहत दी.कुछ दिनों बाद सुमित ने फिर संध्या से वही प्रश्न दोहराया-‘‘तुम मु झ से कब शादी करोगी?’’ ‘प्लीज सुमित, आप यह बात मु झ से दूसरी बार पूछ रहे हो. यह कोई छोटी बात नहीं है.’’ ‘‘इतनी बड़ी भी तो नहीं है जितना तुम सोच रही हो. मैं इस पर जल्दी निर्णय लेना चाहता हूं.’’ ‘‘शादी के निर्णय जल्दबाजी में नहीं, अपनों के साथ सोचसम झ कर लिए जाते हैं. आप की मम्मी इस के लिए राजी हो जाती हैं तो मु झे कोई एतराज नहीं होगा.’’उस की बात सुन कर सुमित चुप हो गया. उस ने भी सोच लिया था अब वह इस बारे में मम्मी से खुल कर बात कर के ही रहेगा. सुमित ने अपनी और संध्या की दोस्ती के बारे में मम्मी को बहुत पहले बता दिया था.‘‘मम्मी, मु झे संध्या बहुत पसंद है.’’‘‘कौन संध्या?’’‘‘मेरे साथ कालेज में पढ़ाती है.’’‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है. तुम्हें कोई लड़की पसंद तो आई.’’‘‘मम्मी. वह कुंआरी लड़की नहीं है. एक विधवा महिला है. मु झ से उम्र में बड़ी है.’’‘‘यह क्या कह रहे हो तुम?’’‘‘मैं सच कह रहा हूं.’’‘‘और कोई सचाई रह गई हो तो वह भी बता दो.’’‘‘हां, उस का एक 8 साल का बेटा भी है.’

’ सुमित की बात सुन कर आशा का सिर घूम गया. उसे सम झ नहीं आ रहा था उस के बेटे को क्या हो गया जो अपने से उम्र में बड़ी और एक बच्चे की मां से शादी करने के लिए इतना उतावला हो रहा है. उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे संध्या ने सुमित  पर जादू कर दिया हो जो उस के प्यार में इस कदर पागल हो रहा है. उसे दुनिया की ऊंचनीच कुछ नहीं दिखाई दे रही थी.‘‘बेटा, इतनी बड़ी दुनिया में तुम्हें वही विधवा पसंद आई.’’‘‘मम्मी, वह बहुत अच्छी है.’’‘‘तुम्हारे मुंह से यह सब तारीफें मु झे अच्छी नहीं लगतीं,’’ आशा बोलीं.वे इस रिश्ते के लिए बिलकुल राजी न थीं. उन्हें सुमित का संध्या से मेलजोल जरा सा पसंद नहीं था. इसी बात को ले कर कई बार मम्मी और बेटे में तकरार हो जाती थी.

दोनों अपनी बात पर अड़े हुए थे. संध्या का नाम सुनते ही आशा फोन काट देतीं.शाम को सुमित ने मम्मी को फोन मिलाया.‘‘हैलो मम्मी, क्या कर रही हो?’’‘‘कुछ नहीं. अब करने को रह ही क्या गया है बेटा?’’ आशा बु झी हुई आवाज में बोलीं.‘‘आप के मुंह से ऐसे निराशाजनक शब्द अच्छे नहीं लगते. आप ने जीवन में इतना संघर्ष किया है, आप हमेशा मेरी आदर्श रही हैं.’’‘‘तो तुम ही बताओ मैं क्या कहूं?’’‘‘आप मेरी बात क्यों नहीं सम झती हैं? शादी मु झे करनी है. मैं अपना भलाबुरा खुद सोच सकता हूं.’’‘‘तुम्हें भी तो मेरी बात सम झ में नहीं आती. मैं तो इतना जानती हूं कि संध्या तुम्हारे लायक नहीं है.’’‘‘आप उस से मिली ही कहां हो जो आप ने उस के बारे में ऐसी राय बना ली? एक बार मिल तो लीजिए. वह बहू के रूप में आप को कभी शिकायत का अवसर नहीं देगी.’’‘

‘जिस के कारण शादी से पहले मांबेटे में इतनी तकरार हो रही हो उस से मैं और क्या अपेक्षा कर सकती हूं. तुम्हें कुछ नहीं दिख रहा लेकिन मु झे सबकुछ दिखाई दे रहा है कि आगे चल कर इस रिश्ते का अंजाम क्या होगा?’’‘‘प्लीज मम्मी, यह बात मु झ पर छोड़ दें. आप को अपने बेटे पर विश्वास होना चाहिए. मैं हमेशा से आप का बेटा था और रहूंगा. जिंदगी में पहली बार मैं ने अपनी पसंद आप के सामने व्यक्त की है.’’‘‘वह मेरी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है. तुम इस बात को छोड़ क्यों नहीं  देते बेटे.’’‘‘नहीं मम्मी, मैं संध्या को ही अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं. मु झे उस के साथ ही जिंदगी बितानी है. मैं जानता हूं मु झे इस से अच्छी और कोई नहीं मिल सकती.’’

आशा में अब और बात सुनने का सब्र नहीं था. उस ने फोन कट कर दिया. सुमित प्यार और ममता की 2 नावों पर सवार हो कर परेशान हो गया था. वह इस द्वंद्व से जल्दी छुटकारा पाना चाहता था. उस ने कुछ सोच कर कागजपेन उठाया और मम्मी के नाम चिट्ठी लिखने लगा.‘मम्मी, ‘आप मु झे नहीं सम झना चाहतीं, तो कोई बात नहीं पर यह पत्र जरूर पढ़ लीजिएगा. पता नहीं क्यों संध्या में मु झे आप की जवानी की छवि दिखाई देती है.‘आप ने जिस तरीके से जिंदगी बिताई है वह मु झे याद है. उस समय मैं बहुत छोटा था और यह बात नहीं सम झ सकता था लेकिन अब वे सब बातें मेरी सम झ में आ रही हैं. परिवार की बंदिशों के कारण आप की जिंदगी घर और मु झ तक सिमट कर रह गई थी.

आप का एकमात्र सहारा मैं ही तो था जिस के कारण आप को नौकरी करनी पड़ रही थी और लोगों के ताने सुनने पड़ते थे. यह बात मु झे बहुत बाद में सम झ  में आई.‘जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो मु झे लगता मेरी मम्मी इतनी सुंदर हैं फिर भी वे इतनी साधारण बन कर क्यों रहती हैं? पता नहीं, उस समय आप ने अपनी भावनाओं को कैसे काबू में किया होगा और कैसे अपनी जवानी बिताई होगी? समाज का डर और मेरे कारण आप  ने अपनेआप को बहुत संकुचित कर  लिया था. संध्या बहुत अच्छी है. वह मु झे पसंद है. मैं उसे एक और आशा नहीं बनने देना चाहता.

मैं उस के जीवन में फिर से खुशी लाना चाहता हूं. जो कसर आप के जीवन में रह गई थी मैं उसे दूर करना चाहता हूं. हो सके आप मेरी बात पर जरूर ध्यान दें.‘आप का बेटा, सुमित.’पत्र लिखने के बाद सुमित ने उसे पढ़ा और फिर पोस्ट कर दिया. आशा ने वह पत्र पढ़ा तो उन के दिमाग ने काम करना बंद कर दिया. उन्होंने तो कभी ऐसा सोचा तक न था जो कुछ सुमित के दिमाग में चल रहा था. उसे याद आ रहा था कि सुमित की दादी जरा सा किसी से बात करने पर उन्हें कितना जलील करती थीं. किसी तरह सुमित से लिपट कर वे अपना दर्द कम करने की कोशिश करती थीं.आज पत्र पढ़ कर रोरो कर उन की आंखें सूज गई थीं. उन्हें अच्छा लगा कि उन का बेटा आज भी उन के बारे में इतना सबकुछ सोचता है. बहुत सोच कर उन्होंने सुमित को फोन मिलाया.

‘‘हैलो बेटा.’’उस ने पूछा, ‘‘कैसी हो मम्मी?’’मां की आंसुओं में डूबी आवाज सुन कर वह सम झ गया कि उस की चिट्ठी मम्मी को मिल गई है.‘‘बेटा. मैं मुंबई आ रही हूं तुम से मिलने…’’ इतना कहतेकहते उन  की आवाज भर्रा गई और उन्होंने फोन रख दिया. यह सुन कर सुमित की खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने यह बात संध्या को बताई तो वह भी खुश हो गई. एक हफ्ते बाद वे मुंबई पहुंच गई. आशा ने संध्या से मुलाकात की. दोनों के चेहरे देख कर उस का मन अंदर से दुखी था. उम्र की रेखाएं संध्या के चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थीं और उस के मुकाबले सुमित एकदम मासूम सा लग रहा था. दिल पर पत्थर रख कर आशा ने शादी की इजाजत दे दी.

यह जान कर संध्या के परिवार के सभी लोग बहुत खुश थे. उस के बड़े भैया अशोक ने संध्या से पहले भी कहा था कि संध्या तू कब तक ऐसी जिंदगी काटेगी. कोई अच्छा सा लड़का देख कर शादी कर ले. अर्श की खातिर तब उस ने दूसरी शादी करने का खयाल भी अपने जेहन में नहीं आने दिया था. इधर सुमित की बातों और व्यवहार से वह बहुत प्रभावित हो गई थी. आशा की स्वीकृति मिलने पर उस ने शादी के लिए हां कर दी.संध्या की मम्मी सीमा ने जब यह बात सुनी तो उन्हें भी बड़ा संतोष हुआ, बोलीं, ‘‘संध्या, तुम ने समय रहते बहुत अच्छा निर्णय लिया है.’’‘‘मम्मी, मेरा दिल तो अभी भी घबरा रहा है.’’‘‘तुम खुश हो कर नए जीवन में प्रवेश करो बेटा. अभी कुछ समय अर्श को मेरे पास रहने दो.’’ ‘‘यह क्या कह रही हो मम्मी?’’‘‘मैं ठीक कह रही हूं बेटा. तुम्हारी दूसरी शादी है, सुमित की नहीं. उस के भी कुछ अरमान होंगे. पहले उन्हें पूरा कर लो, उस के बाद बेटे को अपने साथ ले जाना.’’ बहुत ही सादे तरीके से संध्या और सुमित की शादी संपन्न हो गई थी. आशा एक हफ्ते मुंबई में रह कर वापस लौट गई थीं.

अभी उन के रिटायरमैंट में 4 महीने का समय बाकी था. संध्या ने उन से अनुरोध किया था, ‘मम्मीजी, आप यहीं रुक जाइए.’ तो उन्होंने कहा था कि वे 4 महीने बाद आ जाएंगी जब तक वे लोग भी अच्छे से व्यवस्थित हो जाएंगे. वे अभी तक इस रिश्ते को मन से स्वीकार नहीं कर पाई थीं. इकलौते बेटे की खातिर उन्होंने उस की इच्छा का मान रख लिया था. 4 महीने यों ही बीत गए थे. सुमित बहुत खुश था और संध्या भी. वह शाम को रोज अर्श से मिलने चली जाती और देर तक अपनी मम्मी व बेटे से बातें करती. अर्श मम्मी को मिस करता था. सुमित के जोर देने पर वह कुछ दिनों के लिए मम्मी के पास आ गई थी ताकि अर्श को पूरा समय दे सके.रिटायरमैंट के बाद आशा के मुंबई आ जाने से संध्या की घर की जिम्मेदारियां कम हो गई थीं. उस ने अपना घर पूरी तरह से आशा पर छोड़ दिया था.

शाम को संध्या अपने हाथों से खाना बनाती. बाकी सारी व्यवस्था आशा ही देखतीं.आशा महसूस कर रही थीं कि संध्या का व्यवहार वाकई बहुत अच्छा है. भले ही वह सुमित से उम्र में बड़ी थी लेकिन हर जगह पर पति का पूरा मान और खयाल रखती थी. वह कभी उस से बेवजह उल झती न थी. कुछ ही दिनों में आशा के मन में उस के प्रति कड़वाहट कम होने लगी थी. वे सोचने लगीं दुनिया वालों का क्या है? कुछ दिन बोलेंगे, फिर चुप हो जाएंगे. आखिर जिंदगी तो उन दोनों को एकसाथ बितानी है. उन का आपस में सामंजस्य ठीक रहेगा, तो परिवार की खुशियां अपनेआप बनी रहेंगी.शाम के समय अकसर संध्या खिड़की से खड़े हो कर नीचे ग्राउंड में बच्चों को खेलते हुए देखती रहती.

एक मां होने के कारण आशा उस की भावनाओं से अनभिज्ञ न थी. उसे अपना बेटा अर्श बहुत याद आता था लेकिन उस ने कभी भी अपने मुंह से उसे साथ रखने के लिए नहीं कहा था. एक दिन आशा ने ही पूछ लिया.‘‘तुम्हारा बेटा कैसा है?’’‘‘मम्मीजी, आप का पोता ठीक है.’’‘‘तुम्हें उस की याद आती होगी?’’ आशा ने पूछा तो संध्या ने मुंह से कुछ नहीं बोला लेकिन उस की आंखें सजल हो गई थीं. आशा सम झ गईं कि वह कुछ बोल कर उन का दिल नहीं दुखाना चाहती, इसीलिए कोई उत्तर नहीं दे रही.‘‘तुम उसे यहीं ले आओ. इस से तुम्हारा मन उस के लिए परेशान नहीं होगा,’’ आशा ने यह कहा तो संध्या को अपने कानों पर विश्वास न हुआ. उस ने चौंक कर आशा को देखा.‘‘मैं ठीक कह रही हूं. मैं भी एक मां हूं और सोच सकती हूं तुम्हारे दिल पर क्या बीतती होगी?’’

संध्या ने आगे बढ़ कर उन के पैर छूने चाहे तो आशा ने उसे गले लगा लिया, ‘‘बीती बातें भूल जाओ और नए सिरे से अपनी जिंदगी की शुरुआत करो.’’सुमित ने सुना तो उसे भी बहुत अच्छा लगा. वह तो पहले भी उसे अपने साथ लाना चाहता था लेकिन संध्या ने उसे रोक लिया था.दूसरे दिन वे अर्श को साथ ले कर आ गए. अर्श ने अजनबी नजरों से आशा को देखा तो संध्या बोली, ‘‘बेटे, ये तुम्हारी दादी हैं, इन के पैर छुओ.’’ अर्श ने आगे बढ़ कर उन के पैर छुए. आशा ने पूछा, ‘‘कैसे हो अर्श?’’‘‘मैं अच्छा हूं, दादी.’’  उस के मुंह से दादी शब्द सुन कर आशा को बहुत अच्छा लगा. सीमा भी खुश थीं कि अर्श को अपनी मम्मी मिल गई थी. सुमित और आशा के बड़प्पन के आगे संध्या के मायके वाले सभी नतमस्तक थे. उन्होंने कभी सोचा भी न था कि एक बार संध्या की जिंदगी में इतना बड़ा हादसा हो जाने के बाद उस के जीवन में इस तरह से फिर से खुशियों की बहार आ सकती है.

आशा ने परिस्थितियों से सम झौता कर के सबकुछ स्वीकार कर लिया था. अपने दिल से उन्होंने संध्या के प्रति सारी शिकायतें दूर कर दी थीं. सुमित खुश था कि उस ने अपनी मम्मी की ममता के साथ अपने प्यार को भी पा लिया था.आशा अर्श का भी बहुत अच्छे से खयाल रखती थीं. वह भी उन के साथ घुलमिल गया था. उस के दिन में स्कूल से आने पर वे उसे प्यार से खाना खिलातीं और होमवर्क करा देतीं. शाम को वह बच्चों के साथ खेलने चला जाता. आशा पार्क में बैठ कर बच्चों को खेलते देखती रहती. सबकुछ सामान्य हो गया था. तभी एक दिन अचानक आशा के पेट में बहुत दर्द हुआ और उस के बाद उन्हें ब्लीडिंग होने लगी. यह देख कर संध्या और सुमित घबरा गए.

वे तुरंत उन्हें ले कर नर्सिंगहोम पहुंचे. आशा की हालत बिगड़ती जा रही थी, यह देख संध्या बहुत परेशान थी. उस ने तुरंत अपनी मम्मी को फोन मिलाया.कुछ ही देर में सीमा अपने बेटे अशोक के साथ वहां पहुंच गईं. संध्या की घबराहट देख कर उस की मम्मी सीमा बोलीं, ‘‘संध्या, धीरज रखो. सबकुछ ठीक हो जाएगा.’’ ‘‘पता नहीं मम्मीजी को अचानक क्या हो गया? मेरा जी बहुत घबरा रहा है.’’ ‘‘हिम्मत से काम लो, डाक्टर उन की जांच कर रहे हैं. अभी कुछ देर में रिपोर्ट आ जाएगी. तब पता चल जाएगा कि उन्हें क्या हुआ है?’’ अशोक बोले.डाक्टर ने उन्हें भरती कर के तुरंत जांच की और बताया, ‘‘इन के गर्भाशय में रसौली है. उस का औपरेशन करना जरूरी है, वरना मरीज को खतरा हो सकता है.’’ ‘‘देर मत कीजिए डाक्टर साहब. मम्मी को कुछ नहीं होना चाहिए,’’ संध्या बोली. पूरा दिन इसी भागदौड़  में बीत गया था. संध्या ने अर्श को मम्मी के साथ घर भेज दिया था और वह खुद उन्हीं की देखरेख में लगी  हुई थी. शाम तक औपरेशन हो गया.

औपरेशन के बाद आशा को कमरे में शिफ्ट कर दिया गया था. अभी उन्हें ठीक से होश नहीं आया था. सुमित बोला, ‘‘संध्या, तुम घर जाओ. मैं मम्मी की देखभाल कर लूंगा.’’ ‘‘नहीं, तुम घर जाओ. उन की देखभाल के लिए किसी औरत का होना जरूरी है. मैं यहां रुकूंगी.’’ संध्या के आगे सुमित की एक न चली और वह वहीं रुक गई. एक हफ्ते तक संध्या ने आशा की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी. वह दोपहर में थोड़ी देर के लिए कालेज जाती. उस के बाद घर आ कर अपने हाथों से आशा के लिए खाना तैयार करती और फिर नर्सिंगहोम पहुंच जाती. शाम को सुमित मम्मी के साथ रहता. इतनी देर में संध्या घर आ कर खाना तैयार करती और उसे ले कर नर्सिंगहोम आ जाती. फिर दूसरे दिन सुबह घर लौटती.संध्या ने सास की सेवा में रातदिन एक कर दिया था. इस मुश्किल घड़ी में भी वह घर, औफिस और आशा का पूरा खयाल रख रही थी. सुमित यह सब देख कर हैरान था. आशा को अपने से ज्यादा संध्या की चिंता होने लगी थी. संध्या की मम्मी, भाई, भाभी और करीबी रिश्तेदार उन को देखने रोज नर्सिंगहोम पहुंच रहे थे.संध्या की देखभाल से हफ्तेभर में आशा की सेहत में सुधार हो गया था.

वे 8 दिनों बाद घर आ गईं. संध्या की सेवा से आशा बहुत खुश थीं. घर आते ही उन्होंने इधरउधर नजर दौड़ाई और पूछा, ‘‘अर्श कहां है?’’ ‘‘वह नानी के पास है.’’‘‘उसे यहां ले आती.’’‘‘अभी आप को आराम की जरूरत है. वह कुछ दिनों बाद यहां आ जाएगा,’’ संध्या बोली.संध्या के भैया, भाभी और मम्मी सभी ने अपनी ओर से उन की  सेवा और देखरेख में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.संकट की यह घड़ी भी बीत गई थी, लेकिन अपने पीछे कई सुखद अनुभव छोड़ गई थी. आशा की बीमारी के कारण दोनों परिवार बहुत नजदीक आ गए थे. सीमा अशोक और उस की पत्नी रिया के साथ आशा को देखने उन के घर पहुंचे. वे अपने साथ ढेर सारे फल ले कर आए थे.‘‘इन सब की क्या जरूरत थी? आप अपने साथ हमारे लिए सब से कीमती दहेज तो लाए ही नहीं हैं,’’ आशा बोली तो वे सब चौंक गए.सीमा ने डरते हुए पूछा, ‘‘आप किस दहेज की बात कर रही हैं?’’‘‘हमारे लिए तो सब से कीमती दहेज हमारा पोता अर्श है. मैं उस की बात कर रही हूं,’’ आशा बीमारी की हालत में भी हंस कर बोलीं तो माहौल हलकाफुलका हो गया. आशा की सारी नाराजगी दूर हो गई थी.

Best Hindi Stories : अपनाअपना क्षितिज – क्या थी पिता और बेटे की कहानी

Best Hindi Stories :  प्रशांत को देखते ही प्रभावती की जान में जान आ गई. प्रशांत ने भी जैसे ही मां को देखा दौड़ कर उन के गले लग गया, ‘‘मां, यह कैसी हालत हो गई है तुम्हारी.’’

प्रभावती के गले से आवाज ही न निकली. बहुत जोर से हिचकी ले कर वह फूटफूट कर रो पड़ीं. प्रशांत ने उन्हें रोकने की कोई चेष्टा नहीं की. इस रोने में प्रभावती को विशेष आनंद मिल रहा था. बरसों से इकट्ठे दुख का अंबार जैसे किसी ने धो कर बहा दिया हो.

थोड़ी देर बाद धीरे से  प्रशांत स्वयं हटा और उन्हें बैठाते हुए पूछा, ‘‘मां, पिताजी कहां हैं?’’

‘‘अंदर,’’ वह बड़ी कठिनाई  से बोलीं. एक क्षण को मन हुआ कि कह दें, पिताजी हैं ही कहां. पर जीभ को दांतों से दबा कर खुद को बोलने से रोक लिया. सच बात तो यह थी कि वह अपने जिस पिता के बारे में पूछ रहा था वह तो कब के विदा हो चुके थे. अवकाश ग्रहण के 2 माह बाद ही या एक तरह से सुशांत के पैरों पर खड़ा होते ही उन की देह भर रह गई थी और जैसे सबकुछ उड़ गया था.

अपनी आवाज की एक कड़क से, अपनी भौंहों के एक इशारे से पिताजी का जो व्यक्तित्व इस्पात की तरह सब के सामने  बिना आए ही खड़ा हो जाता था, वह पिताजी अब उसे कहां मिलेंगे.

प्रशांत दूसरे कमरे की ओर बढ़ा तो तुरंत प्रभावती के पैरों पर रजनी आ कर झुक गई और साथ ही 7 बरस का नन्हा प्रकाश. उन्होंने पोते को भींच कर छाती से लगा लिया. मेले में बिछुड़ गए परिवार की तरह वह सब से मिल रही थीं. पूरे 7 साल बाद प्रशांत और रजनी से भेंट हो रही थी. वह प्रकाश को तो चलते हुए पहली बार देख रही थीं. उस की डगमग चाल, तुतलाती बोली, कच्ची दूधिया हंसी, यह सब वह देखसुन नहीं सकी थीं. साल दर साल केवल उस के जन्मदिन पर उन के पास प्रकाश का एक सुंदर सा फोटो आ जाता था औैर उन्हें इतने से ही संतोष कर लेना पड़ता था कि अब मेरा प्रकाश ऐसे दिखाई देने लगा है.

7 साल पहले जब वह कुल 9 माह का था, तभी प्रशांत घर छोड़ कर अपने परिवार को ले कर वहां से दूर बंगलौर चला गया था. इस अलगाव  के पीछे मुख्य कारण था प्रशांत और सुशांत की आपसी नासमझी और उन के पिता द्वारा बोया गया विषैला बीज. सुशांत डाक्टर था और प्रशांत कालिज में शिक्षक. बस, यही अंतर दोनों के मध्य उन के पिता के कारण बड़ा होता चला गया और इतना बड़ा कि फिर पाटा न जा सका.

उन के पिता सत्यव्रत शुरू से ही चाहते थे कि दोनों बच्चे डाक्टर बनें. इस के लिए उन्होंने अपनी सीमित आय की कभी परवा नहीं की. उन का बराबर यही प्रयत्न रहा कि उन के बच्चों को कभी किसी चीज का अभाव न खटके.

सत्यव्रत दफ्तर से लौटने के बाद बच्चों की पढ़ाई  पर ध्यान देते. उन का पाठ सुनते, उन्हें समझाते, उन की गलतियां सुधारते, उन्हें स्वयं नाश्ता परोसते, उन के कपड़े बदलते, बत्ती जलाते, मसहरी लगाते पुस्तकें खोल कर रखते. बच्चे पढ़तेपढ़ते सोने लगते तो पंखा चला देते. दूध का गिलास थमाते. कभी अपने हिस्से का दूध भी दोनों के गिलास में उडे़ल देते. सोचते, ‘बहुत पढ़ते हैं दोनों. गिलास भर दूध से इन का क्या होगा.’

भविष्य के दर्पण में उन्हें 2 डाक्टर बेटों का अक्स दिखाई पड़ता और वह दोगुनेचौगुने गर्व से झूम उठते. अपने इस सपने को बुनने में बस, इसी बात का कोई ध्यान नहीं रखा कि असल में उन के बेटे क्या चाहते हैं. उन की रुचि किस बात में है, डाक्टर बनने में या इंजीनियर अथवा कुछ और बनने में.

सत्यव्रत इस मामले में एक तानाशाह की तरह थे. जो सोच लिया वह बच्चों को पूरा करना ही है. वह सदा यही सोच कर चलते थे, पर ऐसा हो कहां सका. बड़े लड़के प्रशांत को डाक्टर बनने में कोई रुचि  नहीं थी. उस का कविताओं, कहानियों, पेंटिंग, साहित्य में खूब मन लगता था. कई बार वह पढ़ाई  के ही मध्य में आड़ीतिरछी लकीरें खींचता पकड़ा जाता था. कभी रेखागणित की आकृतियां बनातेबनाते पन्ने पर कविता लिखने लगता था.

सत्यव्रत की नजर उस पर पड़ जाती तो जैसे आग में घी पड़ जाता. खूब कस कर धुनाई होती उस की. खाना बंद कर दिया जाता. उसे सोने नहीं दिया जाता. यहां तक कि प्यास से उस का कंठ सूखने लगता, पर वह नल में मुंह नहीं लगा सकता था.

वह अकसर कहा करते, ‘साहित्य, पेंटिंग, कविता भी कोई विषय हैं?’

प्रभावती सन्न रह जातीं. हाथ जोड़ कर कहतीं, ‘मेरे बेटे को इतना मत सताओ.  उस की तो तारीफ होनी चाहिए कि वह इतनी बढि़या कहानियां लिखता है. तुम्हें कब अक्ल आएगी पता नहीं.’

‘कविता, कहानी से पेट नहीं भरता,’ वह चीख कर कहते, ‘जानती हो न कि कितने कवि और लेखक भूखों मरते हैं?’

वह इतने से ही बस न करते. कहते, ‘मैं जानता हूं, तुम्हीं प्रशांत का दिमाग बिगाड़ रही हो. पर अच्छी तरह समझ लो इसे कवि या शिक्षक नहीं, डाक्टर बनना है. इस का भोजन अभी तो एक दिन ही बंद हुआ है, कभी हफ्ते भर भी बंद किया जा सकता है.’

डर से प्रभावती के हाथ फूल जाते, क्या कहें बेटे को. हर व्यक्ति एक ही बात को आसानी से नहीं सीख सकता. किसी के लिए हिसाब आसान है तो किसी के लिए इतिहास. प्रकृति ने सब की समझ का पैमाना एक कहां रखा है? पर वह यह भेद अपने पति को न समझा पातीं. उन्हें  तमाशाई  बन कर चुपचाप सबकुछ देखना, सहना पड़ता.

सब से बुरी हालत तो प्रशांत की हो गईर्र्  थी. अपनी और पिता की इच्छाओं के मध्य वह झूलता रहता था. न वह कविता लिखना छोड़ सकता था न पिता की तमन्ना पूरी करने से पीछे हटना चाहता था. दिनरात किताब उस की आंखों के आगे लगी रहती थी. इस चक्कर में आंखों पर मोटे फे्रम का चश्मा चढ़ गया था. चेहरे की चमक खो गई थी. वह किसी से कुछ कहता नहीं था. बस, भीतर ही भीतर छटपटाता रहता था.

इस के विपरीत सुशांत की आंखोंं के आगे बस, एक ही सपना तैरता रहता था, डाक्टर बनने का. उस के लिए उसे न पिता से मदद लेने की जरूरत थी न मां से. प्रशांत को बड़ी तेजी से पीछे छोड़ता हुआ सुशांत अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहा था.

सत्यव्रत उसे देखदेख कर निहाल होते रहते थे. पड़ोसियों में बखान करते और दोस्तों से तारीफ करते न अघाते. सुशांत से तुलना कर के वह प्रशांत को नीचा दिखाते रहते. सुशांत प्रशांत से सिर्फ 1 साल ही छोटा था. पर दोनों एक ही कक्षा में थे. दोनों ने एकसाथ ही मेडिकल में दाखिले के लिए तैयारियां की थीं और साथ ही परीक्षाएं दी थीं. नतीजा निकला तो प्रशांत असफल था और सुशांत सफल. सुशांत आगे की पढ़ाई के लिए मुजफ्फरपुर रवाना हो गया. प्रशांत अपनी असफलता के साथसाथ पिता के व्यंग्य बाणों से घायल अपने कमरे में बंद हो गया.

प्रभावती चीख कर बोली थीं, ‘इसीलिए तो कहा था, इसे जो राह पसंद है उसी पर चलने दो. जिस पढ़ाईर् में इस की रुचि नहीं है उस में धक्के दे कर मत चलाओ.’

‘इस की अपनी कोई राह नहीं है. मेहनत से जी चुराने की सजा इस ने पाईर् है. पूरे समाज में इस ने मेरी नाक कटवा दी है. तुम्हें कुछ पता है कि क्या करेगा यह आगे? कलम घिसेगा कलम, बस.’

‘कौन जानता है, कलम घिसते- घिसते यह कहां से कहां पहुंच जाए. सुशांत ने अगर तुम्हारी डाक्टरी की लाइन पकड़ ही ली है तो क्या हुआ. प्रशांत भी मनचाहे क्षेत्र में कहीं ज्यादा सफल हो. तुम साहित्यकारों, कवियों के महत्त्व को नकारते क्यों हो?’

ऐसी बहसों से सत्यव्रत प्रभावती की ओर से बेटे को मिलने वाली तरफदारी समझते. वह कहते, ‘मैं उसे राह दिखाता हूं तो तुम्हें बुरा लगता है. क्या मेरा बेटा नहीं है वह? किसी भी पौधे के विकास के लिए उस की काटछांट जरूरी है. वही काम मैं भी कर रहा हूं.’

प्रभावती को कहना ही पड़ता, ‘पर काटछांट इतनी अधिक न करें कि पौधे का विकास ही न होने पाए.’

पर अपनी जिद पर अडे़ सत्यव्रत ने प्रशांत से फिर डाक्टरी में प्रवेश की तैयारी कराई, पर नतीजा फिर वही निकला. तीसरी बार प्रशांत ने जबरदस्ती तैयारी नहीं की. मन में पिता के प्रति एक विद्रोह, एक क्रोध लिए प्रशांत उन दिनों  भटकने लगा था. न वह ढंग  से खातापीता था न सोता था और न घर में रहता था. देर रात तक वह घर से बाहर रहता. यहां तक कि घर के सदस्यों से उस की बातचीत भी बंद हो जाती. पिता की तो वह सूरत भी नहीं देखना चाहता था.

जब सत्यव्रत ने प्रशांत का यह रूप देखा तो धीरेधीरे उस के प्रति उन का रुख बदलता गया. अब वह केवल सुशांत की देखरेख में खोए रहने लगे. प्रशांत की ओर से उन का मन खट्टा हो गया. अपने बेटे के रूप में मात्र कलम घिस्सू की कल्पना न उन से होती थी और न ही किसी के पूछने पर उन से यह परिचय ही दिया जाता था.

कई बार तो वह मित्रों में बस, सुशांत की चर्चा करते. प्रशांत की बात गोल कर जाते. कोई बहुत जोर दे कर प्रशांत से मिलने की चर्चा करता तो उस की मुलाकात सुशांत से करवा कर झट से बहाना बना देते, ‘प्रशांत घर पर नहीं है.’

प्रभावती का मन चूरचूर हो जाता और प्रशांत पंख कटे पंछी सा छटपटाता  रह जाता. सत्यव्रत अब जैसे सुशांत के लिए ही जी रहे थे. जब तक सुशांत  घर में रहता, वह उस के लिए एकएक चीज का ध्यान रखते.

प्रशांत यह सब देखदेख कर कटता रहता, फिर भी वह पिता की किसी बात का विरोध न करता. भले ही सत्यव्रत उस की रुचि को जिद का नाम दे कर अपने और पुत्र के मध्य निरर्थक विवादों को जन्म दे बैठते.

यह केवल प्रभावती ही समझ सकती थीं कि प्रशांत की रुचि किस चीज में है. ऐसे में वह सदा ही अपने पति को दबा कर रखतीं और प्रशांत के लिए वह सब करतीं जो सत्यव्रत सुशांत के लिए किया करते और चाहतीं कि प्रशांत यही जाने कि पिता ने उस के लिए वह सब किया है.

ऊंची आकांक्षाआें के बीच तनाव की कंटीली दूरियां तय करतेकरते दिन भागते गए. प्रशांत साहित्यकार के रूप में स्थापित हो चुका था और सुशांत डाक्टर बन चुका था. अब दोनों घर पर ही मौजूद रहते. इस का नतीजा यह हुआ कि दोनों भाइयों में मतभेद पैदा होने लगे. गांव और महल्ले वाले भी सत्यव्रत की देखादेखी प्रशांत और सुशांत की तुलना कर उन में नीचे और ऊपर की सीमा खींचने लगे थे.

असल में खींचातानी तो तब शुरू हुई जब सुशांत अपनी डाक्टर पत्नी लाया और प्रशांत अपने ही साहित्य की प्रशंसिका ब्याह लाया. घर में प्रशांत का कम मानसम्मान और सुशांत की अधिक इज्जत प्रशांत की पत्नी को हिलाने लगी थी. स्वयं सुशांत और उस की पत्नी पूनम को भी प्रशांत का यह कह कर परिचय देना कि साहित्यकार है, अच्छा न लगता.

रोजरोज के इस मानअपमान ने प्रशांत को इतना परेशान कर दिया कि एक दिन उस ने घर ही छोड़ दिया. तब रजनी की गोद में 9 महीने का प्रकाश था. प्रभावती के चरण छू कर उस ने कहा था, ‘मां, जब भी तुम्हें मेरी जरूरत हो, मुझे बुला लेना.’

प्रशांत के जाने के 1 वर्ष बाद ही  सत्यव्रत सेवानिवृत्त हो गए थे. कुछ सालों तक घर आसानी से चलता रहा था. सुशांत और पूनम के हंसीठहाके, सत्यव्रत की परम संतोषी मुद्रा, इन सब के बीच अपने एक पुत्र के विछोह के क्लेश को मौन रूप से झेलती प्रभावती बस, जीती थीं, एक पत्थर की तरह. कभीकभार पत्रपत्रिकाओं में अपने पुत्र की प्रशंसा देखपढ़ कर पलभर के लिए उन्हें सुकून मिल जाता था.

धीरेधीरे समय ने करवट बदली. सुशांत को अपने विषय में शोध के लिए 3 वर्ष अमेरिका जाने का अवसर मिला. वह मांबाप को आश्वासन देता हुआ पूनम के साथ चला गया.

अब घर में केवल सत्यव्रत और प्रभावती के साथ अकेलापन रह गया.

सत्यव्रत किताबें पढ़ कर वक्त काटने लगे थे. घर में जितनी किताबें थीं, सब प्रशांत की सहेजीसंजोई हुई थीं. प्रशांत द्वारा अलगअलग पन्नों पर खींची गई लकीरों को देख और कुछ अपनी ओर से लिखी गई टिप्पणियों को पढ़ कर सत्यव्रत मुसकराते. प्रभावती मन ही मन डरतीं कि ऐसा न हो कि वह पुन: इन पुस्तकों को पढ़ कर प्रशांत का मजाक उड़ाने लगें. पर ऐसा नहीं हुआ. किताबों के साथ वक्त काटने के चक्कर में वह किताबों के दोस्त होते गए. दिन ही नहीं रात में भी कईकई घंटे वह आंखों पर चश्मा चढ़ाए किताबें पढ़ते रहते. कई बार वह चकित हो कर कह उठते, ‘अरे, इन किताबों में तो बहुत कुछ है. मत पूछो क्या मिल रहा है इन में मुझे. मैं तो सोचा करता था कि लोगों का वक्त बेकार करने के लिए इन पुस्तकों में केवल ऊलजलूल बातें भरी रहती हैं.’

प्रभावती चकित हो कर उन्हें सुनतीं, फिर रो पड़तीं. अब कभीकभी वह उस से पूछने भी लगे थे, ‘प्रशांत की कोई रचना अब देखने को नहीं मिलती. कहीं ऐसा तो नहीं कि उस ने लिखना बंद कर दिया हो. उस से कहो, वह कुछ लिखे. ऐसी ही कोई शानदार चीज जैसी मैं पढ़ रहा हूं.’

कभीकभी तो सत्यव्रत आधी रात को पत्नी को उठा कर कहते, ‘परसों प्रशांत की एक कहानी पढ़ी थी. एक प्रशंसापत्र उसे अवश्य डाल देना अपनी ओर से. इस से हौसला बढ़ता है.’

कभी सत्यव्रत पुरानी बातें ले कर बैठ जाते, ‘मुझ से प्रशांत जरूर नाराज रहता होगा. प्रभावती, मैं ने उसे बहुत बुराभला कहा था इस लिखनेपढ़ने के कारण.’

अब वह खोजखोज कर प्रशांत की रचनाएं पढ़ते.

प्रभावती खुश रहने लगीं. देर से ही, पर सत्यव्रत प्रशांत की सड़ीगली किताबों के ढेर से प्रीत तो कर सके. कभीकभी मन करता कि सत्यव्रत से पूछ लें, ‘लिख दूं प्रशांत को, यहीं आ जाए. कितना सूना लगता है मेरा घर. बच्चों के आने से रौनक हो जाएगी. सुशांत की चिट्ठियां आती हैं तो उन से यही लगता है कि शेर के मुंह खून लग गया है. वह उस पराए देश का गुणगान ही करता रहता है. ऐसा लगता है जैसे वह वहीं बस जाएगा.’

पर कह कहां पातीं. डर लगता कि सत्यव्रत बुरा न मान जाएं. ऐसा न समझें कि वह उन्हें प्रशांत से पराजित करना चाहती है. शायद किसी दिन स्वयं ही कह दें, ‘प्रभा, प्रशांत को बुला लो. वह भी तो हमारा बेटा है. मैं ने उसे बहुत उपेक्षित किया. अब उस का प्रायश्चित्त करूंगा.’

पर सत्यव्रत खुद कभी न बोले. अंदर से कई बार वह उबलतेउफनते प्रशांत से मिलने के लिए उतावले हो उठते पर उसे बुला लेने की बात होंठों पर न लाते.

साल भर तो जैसेतैसे निकला. पर इस के बाद सत्यव्रत के अंदर का तनाव रोग बन कर फूट पड़ा. वह रक्तचाप के साथसाथ दमे की भी गिरफ्त में आ गए.

डाक्टरों ने उन से बहुत अधिक न सोचने, व्यर्थ परेशान न होने की ताकीद कर दी. बारबार प्रभावती को भी हिदायतें मिलीं कि वह अपने पति को व्यस्त रखें और दिमागी तौर पर प्रसन्न रखें. तब प्रभावती स्वयं को रोक न पाईं. वह समझ गईं कि बुढ़ापे के इस अकेलेपन में वह प्रशांत के लिए परेशान हैं. पुत्र को देखनेमिलने के लिए वह तड़प रहे हैं. पर अंदर के संकोच व पिता होने के अभिमान ने उन का मुंह सी रखा है.

तब प्रभावती ने प्रशांत को सब समझा कर पत्र लिख ही दिया. पत्र मिलने में 4-5 दिन लगे होंगे और अब प्रशांत उन की सेवा में वैसे ही उपस्थित हो गया, जैसे आज से पहले कुछ हुआ ही न हो. दमे से खांसते सत्यव्रत से प्रशांत ने उन का हालचाल पूछा तो उन की हालत देखने लायक हो गई. आंखों के दोनों कोर भीग गए. कैसे सिसकी भर कर रो पड़े.

प्रशांत ने उन्हें सहारा दे कर उठाया, ‘‘छि:, पिताजी, रोते नहीं. लीजिए, अपने पोते से मिलिए.’’

सत्यव्रत ने प्रकाश को बड़ी जोर से अपनी छाती से भींच कर आंखें मूंद लीं. थोड़ी देर बाद रजनी ने उन के पैरों का स्पर्श किया तो वह स्वयं को संभाल कर आंखें पोंछने लगे. कुछ मुसकरा कर उसे आशीर्वाद दिया. प्रभावती सत्यव्रत की ओर बढ़ीं और वह प्रकाश को दुलार कर पूछने लगे, ‘‘कौन सी कक्षा में पढ़ते हो?’’

प्रकाश ने हंस कर बताया, ‘‘तीसरी में.’’

‘‘खूब, और क्याक्या करते हो?’’

‘‘मन लगा कर सितार बजाता हूं. मैं बहुत अच्छा सितारवादक बनूंगा, दादाजी.’’

प्रभावती सन्न रह गईं, कहीं सत्यव्रत बिदक न पड़ें. अभी प्रशांत के प्रति जो थोड़ाबहुत पिघलाव शुरू हुआ है वह फिर हिम न हो जाए. ऐसा हुआ तो वह कभी प्रशांत के साथ रहना पसंद नहीं करेंगे. वह कुछ कहतीं, उस से पहले ही प्रशांत ने थोड़ा झेंप कर सफाई दी, ‘‘क्या कहूं, पिताजी, बहुत चाहता हूं कि यह पढ़ाई ज्यादा करे और शौक कम पूरे करे, पर यह मानता ही नहीं. सोचता हूं कि इसे डाक्टर बना कर अपने डाक्टर न होने की आप की शिकायत दूर कर दूंगा.’’

‘‘कोईर् बात नहीं,’’ सत्यव्रत ने सब की इच्छा के विपरीत प्रभावती से कहा, ‘‘तुम तो अच्छा सितार बजाती हो, प्रभा, तुम इस की मदद करना. यह भी प्रशांत की तरह हमारा नाम रोशन करेगा.’’

प्रभावती की आंखें भर आईं. प्रशांत ने चकित हो कर पूछा, ‘‘मगर सितार बजाने भर से यह क्या कर लेगा, पिताजी?’’

सत्यव्रत ने बहुत दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘यह सोचना तुम्हारा काम नहीं है. इस के पंख काट कर इस की उड़ान मत रोको. प्रशांत, जो गलती कल मैं करता रहा, उसे आज तुम मत दोहराओ. मन के सुर जिस प्रकार बजना चाहते हैं उन्हें उसी प्रकार बजने दो. यह मत समझो कि यह डाक्टर- इंजीनियर नहीं बन सका तो इस की उड़ान खत्म हो गई. नहीं बेटे, नहीं. यह सोचना बड़ी भूल है.

‘‘मुझे अफसोस है कि मैं तुम्हारी कला को कोई विकास नहीं दे सका. अगर मैं ने तुम्हारी कोई मदद की होती तो आज तुम वहां होते, जहां 20 साल बाद होगे. हम अपनी इच्छा मनवाने के चक्कर में भूल जाते हैं कि जिसे ऊपर उठना होता है, वह अपना क्षितिज स्वयं ही ढूंढ़ लेता है. तुम्हीं बोलो, सूरज को आकाश में कौन चढ़ाता है? कोई भी तो नहीं. वह खुद ही ऊंचाइयों की तरफ उठता चला जाता है.

Famous Hindi Stories : जड़ें – कौनसा खेल नीरज खेल रहा था

Famous Hindi Stories : मेरीपत्नी शिखा की कविता मौसी रविवार की सुबह 11 बजे बिना किसी पूर्व सूचना के जब मेरे घर आईं तब रितु भी वहीं थी. उन दोनों का परिचय कराते हुए मैं कुछ घबरा उठा था.

2 मिनट रितु से बातें कर के जब वे पानी पीने के लिए रसोई की तरफ चलीं तो मैं भी उन के पीछे हो लिया.

‘‘शिखा कहां गई है?’’ उन्होंने शरारती अंदाज में सवाल किया तो मेरी घबराहट कुछ और बढ़ गई.

‘‘वह मायके गई हुई है, मौसीजी,’’ मैं ने अपनी आवाज को सामान्य रखते हुए जवाब दिया.

‘‘रहने के लिए?’’

‘‘हां, मौसीजी.’’

‘‘कब लौटेगी?’’

‘‘अगले रविवार को.’’

‘‘बालक, शिखा के पीछे यह कैसा चक्कर चला रहे हो? यह रितु कौन है?’’

मौसी की झटके से कैसा भी खुराफाती सवाल पूछ लेने की आदत से मैं पहले से परिचित न होता तो जरूर हकला उठता. पर मुझे ऐसे किसी सवाल के पूछे जाने का अंदेशा था, इसलिए उन के जाल में नहीं फंसा था.

मैं ने बड़े संजीदा हो कर जवाब दिया, ‘‘मौसीजी, यह रितु शिखा की ही सहेली है. यह पड़ोस में रहती है और उसी से मिलने आई थी. आप उस के और मेरे बारे में कोई गलत बात न सोचें. मैं वफादार पतियों में से हूं.’’

‘‘वे तो सभी होते हैं… जब तक पकड़े न जाएं,’’ अपने मजाक पर जब मौसी खूब जोर से हंसीं तो मैं भी उन का साथ देने को झेंपी सी हंसी हंस पड़ा.

फ्रिज में से ठंडे पानी की बोतल निकालते हुए उन्होंने मुझे फिर से छेड़ा,

‘‘बालक, तुम दोनों की शादी को मुश्किल से 3 महीने हुए हैं और तुम ने उसे घर भेज रखा है? क्या तुम्हें मनचाही पत्नी नहीं मिली है?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, मौसीजी. शिखा को मैं बहुत प्यार करता हूं. वही जिद कर के मायके भाग जाती है. मेरा बस चले तो मैं उसे 1 रात के लिए भी कहीं न छोड़ूं,’’ मैं ने अपनी आवाज को इतना भावुक बना लिया कि वे मेरी नीयत पर किसी तरह का शक कर ही न सकें.

‘‘देखो, अगर तुम दोनों के बीच कोई मनमुटाव पैदा हो गया है तो मुझे सब सचसच बता दो. मैं तुम्हारी प्रौब्लम यों चुटकी बजा कर हल कर दूंगी,’’ उन्होंने बड़े स्टाइल से चुटकी बजाई.

‘‘हमारे बीच प्यार की जड़ें बहुत मजबूत हैं. आप किसी तरह की फिक्र न करो, मौसीजी,’’ मैं ने यह जवाब दिया तो वे मुसकरा उठीं.

‘‘यू आर ए गुड बौय, नीरज. मेरी बातों का कभी बुरा नहीं मानना,’’ कह उन्होंने आगे बढ़ कर मुझे गले से लगाया और फिर पीने के लिए बोतल से गिलास में पानी डालने लगीं.

ड्राइंगरूम में लौट कर उन्होंने बिना कोई भूमिका बांधे रितु की मुसकराते हुए तारीफ कर डाली, ‘‘रितु, तुम बहुत सुंदर हो.’’

‘‘थैंक यू, मौसीजी,’’ रितु खुश हो गई.

‘‘तुम ने शादी करने के लिए कोई लड़का देख रखा है या मैं तुम्हारे लिए कोई अच्छा सा रिश्ता ढूंढ़ कर लाऊं?’’

‘‘न कोई लड़का ढूंढ़ रखा है न मैं अभी शादी करना चाहती हूं, मौसीजी.’’

‘‘अरे, शादी करने में बहुत ज्यादा देर मत कर देना. शादी के बाद भी लड़की बहुत ऐश कर सकती है. फिर कभीकभी ऐसा भी हो जाता है कि बाद में अच्छे लड़कों के रिश्ते आने बंद हो जाते हैं. मेरी सलाह तो यही है कि तुम शादी के लिए अब फटाफट हां कर दो.’’

‘‘आप इतना जोर दे कर समझा रही हैं तो मैं राजी हो ही जाती हूं मौसीजी. अब आप ढूंढ़ ही लाइए मेरे लिए कोई अच्छा सा रिश्ता,’’ उस ने नाटकीय ढंग से शरमाने का बढि़या अभिनय किया तो मौसीजी खिलखिला कर हंस पड़ीं.

‘‘तुम सुंदर होने के साथसाथ स्मार्ट और आत्मविश्वास से भरी हुई लड़की भी हो. तुम जिसे मिलोगी वह सचमुच खुशहाल इंसान होगा,’’ मौसीजी ने भावविभोर हो उसे प्यार से गले लगा कर आशीर्वाद दिया और फिर अचानक पूछा, ‘‘तुम कौन सा सैंट लगाती हो, रितु? बड़ी अच्छी महक आ रही है.’’

‘‘यह सैंट मैं ने आर्चीज की शौप से लिया है, मौसीजी. ज्यादा महंगा भी नहीं है.’’

‘‘मैं भी यह सैंट जरूर खरीद कर लाऊंगी. आज तो नीरज और शिखा के साथ कहीं घूम आने की इच्छा ले कर मैं घर से निकली थी. अब मुझे यह साफसाफ बता दो कि तुम दोनों ने पहले से कहीं जाने का कोई प्रोग्राम तो नहीं बना रखा है?’’

‘‘कोई प्रोग्राम नहीं है हमारा. मैं अब चलती हूं. शिखा के आने पर फिर आऊंगी,’’ रितु जाने को उठ खड़ी हुई.

मैं ने उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं करी तो वह मौसीजी को नमस्ते कर अपने घर चली गई.

उस के जाते ही मौसीजी ने मुझे फिर छेड़ा, ‘‘मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि मैं ने बिना बताए यहां आ कर रंग में भंग डाल दिया है?’’

‘‘मौसीजी, आप भी बस बेकार में मुझ पर शक किए जा रही हो. शिखा के सामने ऐसा कोई मजाक मत कर देना नहीं तो वह बेकार ही मुझ पर शक करने लग जाएगी,’’ मैं कुछ नाराज हो उठा था.

‘‘तुम टैंशन मत लो, क्योंकि मेरी मजाक करने की आदत से वह भलीभांति परिचित है, बालक. अच्छा, अब तुम मेरे साथ चलने के लिए जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

‘‘हमें जाना कहां हैं, मौसीजी?’’

‘‘मैं आज तुम्हारी मुलाकात बड़े खास इंसान से करवाने जा रही हूं,’’ वे रहस्यमयी अंदाज में मुसकरा उठी थीं.

‘‘कौन है यह इंसान, मौसीजी?’’

‘‘क्या तुम्हें पता है कि मैं ने तुम्हारे मौसाजी से दूसरी शादी करी है?’’

‘‘आप मुझ से मजाक मत करो?’’ मैं

चौंक पड़ा.

‘‘अरे, मैं सच बता रही हूं. अपनी पहली शादी के 6 महीने बाद ही मैं ने अपने पहले पति राजीव से तलाक लेने का मन बना लिया था.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कारण बाद में बताऊंगी. हम उन्हीं से मिलने चल रहे हैं.’’

‘‘आप उन से मिलती रहती हैं.’’

‘‘हां. आज के दिन तो जरूर ही मैं उन से मिलने जाती हूं, क्योंकि आज उन का जन्मदिन है.’’

‘‘तलाक होने के बावजूद उन से आप ने अपने संबंध पूरी तरह से खत्म नहीं किए हैं?’’

‘‘करैक्ट.’’

‘‘बस, यह और समझा दो कि आप मुझे उन से क्यों मिलाने ले चल रही हैं?’’

‘‘अरे, अपने भूतपूर्व पति से अकेले मिलने जाना क्या मेरे लिए समझदारी की बात होगी? पता नहीं शराब पी कर मारपीट करने का शौकीन वह बंदा किस मूड में हो? अपनी हिफाजत के लिए मैं तुम्हें साथ ले जा रही हूं, बालक.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि उन की शराब पी कर मारपीट करने की आदत के कारण आप ने उन्हें तलाक दिया था?’’

‘‘यह नंबर 2 पर आने वाला महत्त्वपूर्ण कारण था.’’

‘‘और नंबर 1 वाला कारण क्या था?’’

‘‘वह कारण तुम्हें उन से मिलाने के बाद बताऊंगी,’’ उन्होंने इस विषय पर आगे कोई चर्चा न करते हुए मुझे तैयार हो जाने के लिए बैडरूम की तरफ धकेल दिया था.

घंटेभर बाद घंटी बजाए जाने पर मौसीजी के पहले पति राजीव के घर का

दरवाजा उन के पुराने नौकर रामदीन ने खोला. वह मौसीजी को पहचानता था. मैं ने नोट किया कि वह उन्हें देख कर खुश नहीं हुआ. मौसीजी उस से कोई बात किए बिना ड्राइंगरूम की तरफ बढ़ गईं.

‘‘हैप्पी बर्थ डे…’’ मौसीजी ने जब अपने भूतपूर्व पति को विश किया तो वे जबरदस्ती वाले अंदाज में मुसकराए.

‘‘थैंक यू, कविता. वैसे मेरी समझ में नहीं आता है कि तुम हर साल यहां आ कर मुझे विश करने का कष्ट क्यों उठाती हो?’’ उन्होंने मौसी को ताना सा मारा.

‘‘रिलैक्स, राजीव. हर साल मैं आ जाती हूं, क्योंकि मुझे मालूम है कि मेरे अलावा तुम्हें विश करने और कोई नहीं आएगा,’’ मौसीजी ने उन

की बात का बुरा माने बगैर आगे बढ़ कर उन से हाथ मिलाया.

‘‘यह भी तुम ठीक कह रही है. यह कौन है?’’ उन्होंने मेरे बारे में सवाल पूछा.

‘‘यह नीरज है. मेरी बड़ी बहन अनिता की बेटी शिखा का पति,’’ मौसीजी ने उन्हें मेरा परिचय दिया तो मैं ने एक बार फिर से उन्हें हाथ जोड़ कर नमस्ते कर दी.

उन्होंने मेरे अभिवादन का जवाब सिर हिला कर दिया और फिर ऊंची आवाज में बोले, ‘‘रामदीन, इन मेहमानों का मुंह मीठा कराने के लिए फ्रिज में से रसमलाई ले आ.’’

‘‘तुम्हें मेरी मनपसंद मिठाई मंगवाना हमेशा याद रहता है.’’

‘‘तुम से जुड़ी यादों को भुलाना आसान नहीं है, कविता.’’

‘‘खुद को नुकसान पहुंचाने वाली मेरी यादों को भूला देते तो आज तुम्हारा घर बसा होता.’’

‘‘तुम्हारी जगह कोई दूसरी औरत ले नहीं पाती, मैं ने दोबारा अपना घरसंसार ऐसी सोच के कारण ही नहीं बसाया, कविता रानी.’’

‘‘मुझे भावुक कर के शर्मिंदा करने की तुम्हारी कोशिश हमेशा की तरह आज भी बेकार जाएगी, राजीव,’’ मौसीजी ने कुछ उदास से लहजे में मुसकराते हुए जवाब दिया, ‘‘मैं फिर से कहती हूं कि मुझ जैसी बेवफा पत्नी की यादों को दिल में बसाए रखना समझदारी की बात नहीं है. यह छोटी सी बात मैं तुम्हें आज तक नहीं समझा पाई हूं. इस बात का मुझे सचमुच बहुत अफसोस है, राजीव.’’

मौसीजी ने खुद को बेवफा क्यों कहा था, इस का कारण मैं कतई नहीं

समझ सका था. तभी राजीव अपने नौकर को कुछ हिदायत देने के लिए मकान के भीतरी भाग में गए तो मैं ने मौसीजी से धीमी आवाज में अपने मन में खलबली मचा रहे सवाल को पूछ डाला, ‘‘आप ने अभीअभी अपने को बेवफा क्यों कहा?’’

मेरी आंखों में संजीदगी से झांकते हुए मौसीजी ने मेरे सवाल का जवाब देना शुरू किया, ‘‘नीरज, हमारे बीच जो तलाक हुआ उस का दूसरे नंबर पर आने वाला महत्त्वपूर्ण कारण तो मैं तुम्हें पहले ही बता चुकी हूं. इन्हें दोस्तों के साथ आएदिन शराब पीने की लत थी और मुझे शराब की गंध से भी बहुत ज्यादा नफरत थी. मैं इस कारण इन से झगड़ा करती तो ये मुझ पर हाथ उठा देते थे.

‘‘तब मैं रूठ कर मायके भाग जाती. ये मुझे जाने देते, क्योंकि इन्हें अपने दोस्तों के साथ पीने से रोकने वाला कोई न रहता. फिर जब मेरी याद सताने लगती तो मुझे लेने आ जाते. मेरे सामने कभी शराब न पीने वादा करते तो मैं वापस आ जाती थी.’’

‘‘लेकिन इन के वादे झूठे साबित होते. शराब पीने की लत हर बार जीत जाती. हमारा फिर झगड़ा होता और मैं फिर से मायके भाग आती. यह सिलसिला करीब 3 महीने चला और फिर अमित मेरी जिंदगी में आ गया.’’

‘‘अमित कौन?’’

‘‘जो आज तुम्हारे मौसाजी हैं. उन्हीं का नाम अमित है, नीरज. वे मेरी एक सहेली के बड़े भाई थे. उन की पत्नी की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी. उन्होंने जब मेरे दांपत्य जीवन की परेशानियों और दुखों को जाना तो बहुत गुस्सा हो उठे. मेरे लिए उन के मन में सहानुभूति के गहरे भाव पैदा हुए. पहले वे मेरे शुभचिंतक बने, फिर अच्छे दोस्त और बाद में हमारी दोस्ती प्रेम में बदल गई.’’

‘‘नीरज, ये राजीव भी दिल के बहुत अच्छे इंसान होते थे. हमारे बीच प्यार का रिश्ता भी मजबूत था, लेकिन इन्होंने शराब पीने की सुविधा पाने को मुझे मायके भाग जाने की छूट दे कर बहुत बड़ी गलती करी थी. विधुर अमित ने इस भूल का फायदा उठा कर अपना घर बसा लिया और राजीव की गृहस्थी ढंग से बसने से पहले ही उजड़ गई.

‘‘राजीव ने मेरे सामने बहुत हाथ जोड़े थे. छोटे बच्चे की तरह बिलख कर रोए भी पर मेरे दिल में तो इन की जगह अमित ने ले ली थी. मैं ने अमित के साथ भविष्य के सपने देखने शुरू कर दिए थे. मैं ने इन के साथ बेवफाई करी और ये हमारे बीच तलाक का पहला और मुख्य कारण बन गया.’’

‘‘मैं मानती हूं कि मैं ने राजीव के साथ बहुत गलत किया. अब तक भी मैं अपने मन में बसे अपराधबोध से मुक्त नहीं हो पाई हूं और इसी कारण तलाक हो जाने के बावजूद इन की खोजखबर लेने आती रहती हूं. क्या अब तुम समझ सकते हो कि मैं तुम्हें आज यहां अपने साथ क्यों लाई हूं?’’

‘‘क्यों?’’ बात कुछकुछ मेरी समझ में आई थी और इसी कारण मेरा मन बहुत बेचैन हो उठा था.

‘‘तुम भी वैसी ही मिस्टेक कर रहे हो जैसी कभी राजीव ने करी थी. ये बेरोकटोक शराब पीने की खातिर मुझे मायके भाग जाने देते थे और तुम रितु के साथ ऐश करने को शिखा को मायके जा कर रहने की फटाफट इजाजत दे देते हो. कल को…’’

‘‘मेरा रितु के साथ किसी तरह का चक्कर…’’

‘‘मुझ से झूठ बोलने का क्या फायदा है, नीरज? मैं ने तुम्हें रसोई में और रितु को ड्राइंगरूम में गले लगाया था. तुम्हारे कपड़ों में से रितु के सैंट की महक बहुत जोर से आ रही थी और तुम भला लड़कियों वाला सैंट क्यों प्रयोग करोगे?’’

‘‘मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूं, मौसीजी,’’ और ज्यादा शर्मिंदगी से बचने के लिए मैं ने उन्हें टोक दिया और फिर तनावग्रस्त लहजे में बोला, ‘‘पर आप मुझे एक बात सचसच बताना कि क्या मायके में रहने की शौकीन शिखा का वहां किसी के साथ चक्कर चल रहा है?’’

‘‘नहीं, बालक. मगर ऐसा कभी नहीं हो सकता है, इस की कोई गारंटी नहीं. रितु के साथ मौज करने के लिए तुम जो अपने विवाहित जीवन की खुशियों और सुरक्षा को दांव पर लगा रहे हो, वह क्या समझदारी की बात है? कल को अगर कोई अमित उस की जिंदगी में भी आ गया तो क्या करोगे?’’

‘‘मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगा,’’ मैं उत्तेजित हो उठा.

‘‘राजीव ने भी कभी मुझे खो देने की कल्पना नहीं करी थी, नीरज. जैसे मैं भटकी वैसे ही शिखा क्यों नहीं भटक सकती है?’’

‘‘मैं उसे कल ही वापस…’’

‘‘कल क्यों? आज ही क्यों नहीं, बालक?’’

‘‘हां आज ही…’’

‘‘अभी ही क्यों नहीं निकल जाते हो उसे अपने पास वापस लाने के लिए?’’

‘‘अभी चला जाऊं?’’

‘‘बिलकुल जाओ, बालक. नेक काम में

देरी क्यों?’’

‘‘तो मैं चला, मौसीजी. मैं आप को विश्वास दिलाता हूं कि शिखा के साथ आपसी प्रेम की जड़ें मैं बहुत मजबूत कर लूंगा. मेरी आंखें खोलने के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.’’ कह मैं ने उन के पैर छुए और फिर लगभग भागता सा शिखा के पास पहुंचने के लिए दरवाजे की तरफ चल पड़ा.

Hindi Story Collection : शुक्रगुजार – क्या अपने मकसद में कामयाब हो पाई अन्नया

Hindi Story Collection :  सुबह के 8 बजे थे. सरलाजी बेटी अनन्या के साथ मंदिर के बाहर दुकान से लड्डू खरीद रही थीं. तभी वहां वसुधाजी आ गईं. बोलीं, ‘‘आज सुबहसुबह मांबेटी दोनों मिल कर किस बात के लिए भगवानजी को घूस देने जा रही हैं?’’

‘‘दी, मैं आप को फोन करने ही वाली थी. अपनी अनन्या को बैंक में नौकरी मिल गई है.’’

‘‘यह तो बड़ी अच्छी खबर है. बधाई हो. बधाई अनन्या.’’

‘‘थैंक्स आंटी.’’

‘‘दी, ये सब तो ठीक है, लेकिन अब इस के लिए कोई अच्छा सा लड़का मिल जाए. बस फिर मैं अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाऊं . इस के पापा का अधूरा सपना पूरा हो जाए.’’

‘‘ऐसी भी क्या जल्दी है? कुछ दिन तो इसे मस्ती कर लेने दो.’’

‘‘इस साल 26 की पूरी हो जाएगी. लड़का ढूंढ़ने में समय लगता है.’’

‘‘अनन्या, किसी मैट्रीमोनियल साइट पर अपना बायोडेटा रजिस्टर करवा कर उस पर सरला का फोन नंबर डाल दो. लड़के वाले खुद ही तुम लोगों से संपर्क करते रहेंगे.’’

‘‘वह तो मैं ने डलवा रखा है, लेकिन आप की नजर में कोई लड़का हो तो बताइएगा जरूर, क्योंकि जानपहचान में रिश्ता होगा तो दिल को तसल्ली रहेगी.’’

‘‘इतनी चिंता क्यों करती हो… नौकरी लग गई है… लड़का भी मिल जाएगा. आजकल तो नौकरी करने वाली लड़कियों को लोग बहुत पसंद कर रहे हैं. सोने की मुरगी जो होती है… जिंदगीभर घर भरती रहेगी.’’

‘‘तब भी न तो दहेज कम हो रहा है और न ही लड़कियों पर अत्याचार’’

‘‘हां… हां… वह तो है पर अनन्या क्या मेरी बेटी नहीं है. कोई लड़का समझ में आएगा तो जरूर बताऊंगी.’’

‘‘मम्मी, आप भी कभी खुश नहीं रह सकतीं. अब कुछ नहीं तो मेरी शादी की चिंता में घुलने लगीं.’’

वसुधाजी और सरलाजी दोनों प्रौढ़ महिलाएं थीं. मंदिर में होने वाली मुलाकात आपस में प्रगाढ़ रिश्ते में बदल चुकी थी.

वसुधाजी संपन्न परिवार से थीं. दोनों बेटे ऊंचे ओहदों पर थे. बहूबच्चों से घर भरा था, लेकिन पति के निधन के बाद से वे अपनेआप को नितांत अकेला पाती थीं. इसीलिए स्वयं को व्यस्त रखने के लिए रोज मंदिर, कथा, पूजा आदि में व्यस्त रखती थीं.

सरलाजी के पति एक ऐक्सीडैंट के दौरान रीढ़ की हड्डी में चोट लगने के कारण बिस्तर पर आ गए थे. उन की दुकान पर छोटे भाई ने कब्जा कर लिया था. अच्छा यह था कि पति ने अपना मकान बना लिया था. उस में 2 किराएदार थे. उस पैसे से खींचतान कर किसी तरह खर्च चल जाता था.

मगर जिस समय अनन्या 12 वर्ष की थी, उन के पति उन्हें अकेला छोड़ गए थे. अब उन के जीवन का लक्ष्य बेटी को पढ़ालिखा कर उसे अपने पैरों पर खड़ा करना था.

भगवान के प्रति अगाध श्रद्धा के कारण वे मंदिर, व्रत, उपवास आदि कर्मकांडों पर अटूट विश्वास रखती थीं. पति के स्वस्थ होने की कामना से भी रोज मंदिर जाती थीं.

वसुधाजी चूंकि सरलाजी से उम्र में बड़ी थीं तो स्वत: वे उन की दीदी बन गई थीं. ससुराल पक्ष में देवर के दुकान हड़पने पर भी उन की सास देवर के पक्ष में खड़ीं थीं. इसलिए ससुराल वालों के साथ उन के रिश्ते खराब हो गए थे और मायके में बूढ़ी मां और भाई का परिवार था, जो स्वयं अपने जीवनयापन के लिए सदा संघर्षरत रहते थे.

इन हालात में वसुधाजी उन्हें बड़ी बहन या कह लो, गार्जियन सी लगतीं, क्योंकि पति

के निधन के समय उन्होंने आगे बढ़ कर उन्हें अपने गले से लगाया था और बड़ी बहन की तरह हर समय उन की मदद के लिए तैयार रहती थीं.

सरलाजी बेटी की शादी के लिए प्रयास तो कर ही रही थीं. अब वह परेशान भी रहने लगी थीं. तभी एक मैट्रीमोनियल साइट पर एक लड़के का प्रोफाइल उन्हें पसंद आ गया. उन्होंने बात बढ़ाते हुए बेटी का प्रोफाइल और फोटो भेज दिया. उन का ओके आते ही उन्होंने फोन से बात की और जब उन्होंने दहेज न लेने की बात की तब तो वे उतावली हो उठीं.

उन्होंने जल्दी से लड़के का फोटो और बायोडाटा वसुधा दी को दिखाया. यह सुनते ही कि लड़के के परिवार से वे परिचित हैं तो तुरंत अपनी दी को ले कर लड़के को देखने उस की दुकान पर पहुंच गईं.

प्रतिष्ठित मौल में बड़ा शोरूम और गोरेचिट्टे आकर्षक 6 फुट के अर्णव की सादगी पर वे मुग्ध हो उठीं. उस ने वसुधा दी को बूआजी कहते हुए पैर छुए. फिर उन के भी चरण स्पर्श कर के आशीर्वाद लिया. उस ने इशारे से ही किसी से कह कर उन के लिए कोल्ड ड्रिंक मंगवा लिया था.

इतने बड़े शोरूम और आकर्षक अर्णव के हाथ में बेटी के भविष्य को सुरक्षित और खुशहाल समझ वे खुश हो गईं.

अब वे अपनी दी पर जल्दी रिश्ता करवाने के लिए दबाव डालने लगीं.

अर्णव की मां मीराजी ने जन्मकुंडली मिला कर शादी करने की अपनी इच्छा जाहिर की. सरलाजी जन्मकुंडली भेज कर बेसब्री से उन के उत्तर का इंतजार कर रही थीं. वैसे उन के विचार से भी जन्मपत्री का मिलान आवश्यक था.

अगले दिन ही मीराजी का फोन आया, ‘‘बधाई हो सरलाजी. बस बच्चे

आपस में मिल लें और एकदूसरे को समझ लें, फिर हम लोग आपस में रिश्तेदार बन जाएंगे.’’

वे खुशी से खिल उठी थीं. वसुधा दी ने उन्हें बताया था कि जन्मकुंडली तो मिल गई है, लेकिन शादी से पहले अनन्या को एक छोटी सी पूजा करनी होगी. उन्हें भला पूजा से क्या एतराज होता. वे खुशी से अपनी दी के साथ मीराजी से मिलने पहुंचीं.

मीराजी ने शालीनतापूर्वक उन का स्वागतसत्कार किया.

भोली और सीधीसादी सरलाजी के लिए बड़ी सी कोठी और भव्य शोरूम का मालिक आकर्षक अर्णव को देखने के बाद कुछ सोचनेविचारने को बचा ही नहीं था.

मीराजी ने अपने मन का दर्द साझा करते हुए बताया कि चूंकि अपनी बेटी की शादी में उन्होंने भारी दहेज दिया था… दहेज के कारण ही उन की बेटी ने परेशान हो कर आत्महत्या कर ली थी… दहेज के दंश की पीड़ा के दर्द की अनुभूति उन्होंने बहुत करीब से की है. अत: उन्होंने प्रण कर लिया है कि बेटे की शादी में

वे दहेज नहीं लेंगी और उस का विवाह सादगीपूर्वक करेंगी.

मीराजी ने अनन्या की मेल आईडी मांगी थी ताकि दोनों आपस में चैटिंग कर के एकदूसरे को समझ लें.

फिर क्या था. दोनों के बीच चैटिंग शुरू हो गई. पर अब सरलाजी के मन में डर

बना रहता कि कहीं उन की सांवली बेटी को गोराचिट्टा अर्णव और मीराजी नापसंद न कर दे.

वे बेटी से तरहतरह के उबटन और ब्यूटी प्रोडक्ट्स इस्तेमाल करने को कहतीं और ब्यूटीपार्लर जाने को मजबूर करतीं.

इसी बात पर एक दिन वह नाराज हो कर बोली, ‘‘मम्मी, मैं जैसी हूं वैसी पसंद करनी है तो करें अन्यथा मैं खुश हूं.

‘‘आप को उन लोगों के पसंद करने की इतनी फिक्र है, कभी आप ने अपनी बेटी से भी उस की पसंद पूछी है?’’

‘‘अर्णव, तो हीरा है, तुम उसे नापसंद ही नहीं कर सकतीं.’’

कई बार वह मन ही मन सोचती कि कब तक लोग इस गोरे रंग के पीछे भागते रहेंगे. अर्णव के साथ चैटिंग करने के बाद वह भी उसे मन ही मन पसंद करने लगी थी.

वसुधाजी चूंकि दोनों पक्षों से परिचित थीं, इसलिए उन्होंने सब की

सुविधा को ध्यान में रखते हुए संडे को एक रैस्टोरैंट में मिलने का प्रोग्राम बना लिया.

अनन्या के मन में भी प्यार का अंकुर फूट चुका था. वह भी थोड़ी घबराई हुई रैस्टोरैंट में अपनी मां और वसुधाजी के साथ पहुंची.

अपनी उंगली में अर्णव के नाम की अंगूठी पहन कर मन ही मन बहुत खुश थी.

मीराजी ने कहा था कि वे किसी तरह का लेनदेन नहीं करेंगी. अब अनन्या उन की बहू है, इसलिए अब उस के लिए भी फिक्र करने की आप को कोई आवश्यकता नहीं है.

उन की इन बातों को सुन कर सरलाजी की आंखें भर आई थीं.

उत्साहित सरलाजी बेटी की शादी धूमधाम से करने के लिए तैयारी में जुट गई थीं. वे सोचतीं कि इकलौती बेटी की शादी इतनी शानों शौकत से करें कि सब देखते रह जाएं.

टौप का मैरिज हौल, डैकोरेशन, इवैंट मैनेजमैंट आदि सबकुछ पर उन्होंने पानी की तरह पैसा बहाया.

शौपिंग तो पूरी ही नहीं हो पा रही थी. कभी बुटीक तो कभी ज्वैलर, तो

कभी कुछ और. मांबेटी और उन की वसुधा दी शादी की तैयारियों में लगी हुई थीं. लेकिन तैयारियां थीं कि पूरी ही नहीं हो पा रही थीं.

शादी के 5 दिन बचे थे. तभी एक दिन उस ने बताया कि आज मम्मीजी ने उस से व्रत करने को बोला है. उन्होंने उस के लिए पूजा रखी है. उस के राहु के घर में शनि बैठा है और सूर्य की अंतर्दशा में मंगल नीच घर में है, इसलिए शादी से पहले ग्रहशांति के लिए पंडितजी ने यह पूजा जरूरी बताई है.

वे स्वयं धार्मिक विचारों की थीं, इसलिए उन लोगों को इस में कुछ गलत नहीं लगा था. वसुधा दी और वे उसे ले कर उन के बताए हुए मंदिर में गईं. 3 घंटे तक लंबी पूजा चली. उस का तो पूरे दिन का उपवास हो गया था. मगर सुखद भविष्य की कल्पना में उस दिन वह भूखप्यास सब भूल गई थी.

शादी खूब धूमधाम से हुई. मीराजी उस के लिए बहुत सुंदर जेवर और साडि़यां ले कर आई थीं.

भारी साड़ी और जेवर से लदीफंदी मन में अनेक अरमान संजोए अर्णव की बांह पकड़ कर वह अपनी नई दुनिया में आई थी.

शादी की भीड़भाड़, रस्मोंरिवाज, हंसीठहाकों में पूरा दिन कब बीत

गया, पता ही नहीं लगा. आखिर वह खूबसूरत घड़ी आ गई, जब वह अर्णव की बांहों में समाने का ख्वाब संजोए अपने कमरे में आई. वह उस की बांहों में समाने को बेकरार बैठी थी, फिर जाने कब नींद के आगोश में समा गई, पता ही नहीं चला.

सुबह मम्मीजी की आवाज से उस की आंख खुली. वह हड़बड़ा कर उठी.

‘‘अनन्या जल्दी से तैयार हो जाओ. पंडितजी आने वाले हैं.’’

‘‘जी.’’

फिर वे उस के सूटकेस में रखे कपड़ों को उलटपुलट कर बोलीं, ‘‘तुम हरे रंग की कोई साड़ी नहीं लाई हो? आज बुद्धवार है. पंडितजी ने हरे रंग

के कपड़े पहनने को बोला है. वे स्वयं भी हरे रंग की साड़ी पहने थीं.’’

अनन्या चुपचाप उन की ओर देख रही थी.

‘‘कोई बात नहीं, मैं अपनी साड़ी ला कर दे देती हूं.’’

एक साधारण सी प्रिंटेड चटक हरे रंग की साड़ी देख कर उस का मन रो पड़ा. लेकिन ससुराल का पहला दिन था, इसलिए उस ने चुपचाप पहन ली. उस की आंखें डबडबा उठी थीं. वह जानती थी कि उस के सांवले रंग को यह साड़ी और सांवला बना देगी.

अर्णव ने उस पर एक नजर डाली और फिर मुसकराते हुए उस की बगल में बैठ गया. वह भी मुसकरा उठी.

‘‘सौरी अन्नी, कल पंडितजी ने कहा था कि नए जोड़े का भद्रा काल में मिलन अशुभ होता है.’’

वह उस की ओर देखते हुए बोली, ‘‘मुझ से बता तो देते, मैं सारी रात तुम्हारा इंतजार करती रही.’’

‘‘मैं थका हुआ था. मम्मी के कमरे में लेटा तो वहीं सो गया.’’

अपने प्यारे पति के भोलेपन पर वह मुसकरा उठी, क्योंकि प्यार ऐसा ही होता है.

आखिर वह घड़ी आ ही गई… एकदूसरे की बांहों में खो कर 2 जिस्म एक जान बन गए. प्यार के पल इतने खूबसूरत होते हैं, यह एहसास अपनेआप में ही बहुत सुंदर होता है.

‘‘एक बात कहूं, तुम बुरा तो नहीं मानोगी?’’

प्रियतम की बांहों के झूले में प्यार में डूबती हुई अनन्या बोली, ‘‘आप का हुकुम सिरमाथे मेरे हुजूर.’’

हिचकिचाते हुए अर्णव अटकतेअटकते हुए बोला, ‘‘अपनी सैलरी मम्मी को दोगी?’’ वह उस समय अनन्या से आंखें नहीं मिला पारहा था.

‘‘अर्णव, तुम्हारे प्यार के लिए सैलरी क्या, मैं तो अपनी जान भी कुरबान कर दूं.’’

अर्णव ने तुरंत अपना हाथ उस के मुंह पर रख दिया.

जब उस ने सरप्राइज गिफ्ट के तौर पर हनीमून पैकेज के टिकट और प्रोग्राम उसे बताया तो वह खुश तो हुआ, लेकिन चेहरे पर घबराहट दिखाई दे रही थी.

‘‘परेशान क्यों हो? कोई प्रौब्लम हो तो बताओ?’’

‘‘नहीं… नहीं…’’

दोनों कश्मीर की वादियों में श्रीनगर, पहलगाम, खिलनमर्ग घूम कर वैष्णोदेवी के दर्शन करने भी गए.

अर्णव की एक बात अनन्या को बहुत खटकी कि हनीमून के दिनों में भी वह पूजापाठ करता और घंटों तक माला जपता.

बर्फबारी के कारण फ्लाइट कैंसिल हो जाने की वजह से वे 1 दिन देर से घर लौटे. जैसे ही उन्होंने मम्मीजी को फोन किया कि वे लोग घर पहुंच रहे हैं, वे नाराज स्वर में बोलीं, ‘‘आज 9वां दिन है, इसलिए आज की रात कहीं होटल में रुक जाओ. कल सुबह आना.’’

अनन्या बोल पड़ी, ‘‘यह क्या बेवकूफी है?’’

‘‘तुम नहीं समझोगी. आज 9वें दिन घर लौटना अशुभ होता है.’’

उसे अर्णव की सोच पर गुस्सा आ रहा था, लेकिन चुप रही.

अब अनन्या चुपचाप अपनी ससुराल की दिनचर्या समझने की कोशिश कर रही

थी, क्योंकि अभी उस की छुट्टियां बाकी थीं.

रोज सुबह 7-8 बजे के बीच एक पंडितजी का आगमन होता, उन की सेवा के लिए फूलफल और नियमित रूप से मिठाई मंगाई जाती. स्वाभाविक था कि उन पंडितजी को महीने का पारिश्रमिक भी दिया जाता रहा होगा.

मम्मीजी भी घंटों न जाने क्याक्या पाठ करतीं. फिर माला जपतीं. अर्णव भी पीछे नहीं रहते. उन का पूजापाठ तो हनीमून पीरियड में भी चलता रहा था.

‘‘अनन्या ध्यान रहे, मेरे यहां उन खास दिनों में किचन में प्रवेश करना वर्जित है. हमारा घर पूजापाठ वाला घर है. तुम उन दिनों अर्णव से दूर रहना.’’

सास की बातें सुन अनन्या को झटका लगा कि आज 21वीं सदी में भी लोगों की सोच ऐसी है. आज भी परिवारों में इस तरह का अंधविश्वास जड़ें जमाए है. मासिकधर्म के

दिनों के दौरान यह करो, यह न करो सुनसुन कर उस की इच्छा हुई कि वह अपना माथा पीट ले. उसे अफसोस था तो इस बात का कि उस का पति अर्णव भी उसी कट्टर सोच को मानने वाला है.

अच्छाई यह थी कि मम्मीजी और अर्णव दोनों ही उस का बहुत खयाल रखते थे. मम्मीजी उसे चाय भी नहीं बनाने देतीं, न ही घर का और कोई काम करने को कहतीं.

अनन्या की छुट्टियां खत्म हो गई थीं. इसलिए वह घड़ी में अलार्म लगा कर सोई, क्योंकि उसे 8 बजे घर से निकलना था. वह नहाधो कर किचन में अपना नाश्ता और चाय बनाने के लिए गई तो देखा कि मम्मीजी ने उस का फैवरिट पोहा तैयार कर रखा है और टिफिन भी तैयार था. लेकिन अंधविश्वास में डूबी मम्मीजी ने उस की ड्रैस के कलर के लिए टोक कर उस का मूड खराब कर दिया.

अनन्या चुपचाप औफिस चली गई. उस की शादी को 6 महीने होने वाले थे. वह देखती कि अर्णव और मम्मीजी टीवी चला कर धार्मिक चैनल देखते और उन में बताए गए ऊटपटांग कर्मकांड करते. ये सब देख कर उसे उन लोगों की बेवकूफी पर हंसी भी आती और गुस्सा भी. उन दोनों का दिन टोनेटोटकों और गंडेताबीजों में बीतता.

एक दिन मम्मीजी ने उसे थोड़ा डपटते हुए एक कागज

दिया, ‘‘ध्यान रखा करो. सोम को सफेद, मंगल को लालनारंगी, बुद्ध को हरे, बृहस्पतिवार को पीले, शुक्रवार को प्रिंटेड, शनिवार को काले, नीले और रविवार को सुनहरे गुलाबी कपड़े पहना करो.’’

अनन्या ने कागज हाथ में ले कर सरसरी निगाह डाली और फिर बोली, ‘‘इस से कुछ नहीं होता.’’

अब उस ने मन ही मन सोचना शुरू कर दिया था कि वह इस घर में जड़ जमाए अंधविश्वास को यहां से निकाल कर ही दम लेगी.

जब अनन्या अर्णव से बात करने की कोशिश की तो वह भी मम्मीजी की भाषा बोलने लगा. नाराज हो कर बोला, ‘‘तुम जिद क्यों करती हो? मम्मीजी के बताए रंग के कपड़े पहनने में तुम्हें भला क्या परेशानी है?’’

उसे समझ में आ गया कि मर्ज ने मांबेटे दोनों के दिल और दिमाग को दूषित कर रखा है. इन लोगों का ब्रेन वाश करना बहुत आवश्यक है.

अर्णव की उंगलियों में रंगबिरंगे पत्थरों की अंगूठियों की संख्या बढ़ती जा रही थी.

वह देख रही थी कि अब सुबह 5 बजे से ही मम्मीजी की पूजा की घंटी बजने लगी है. घंटों चालीसा पढ़तीं, माला जपतीं. कभी मंगलवार का व्रत तो कभी एकादशी तो कभी शनिवार का व्रत. कभी गाय को रोटी खिलानी है तो कभी ब्राह्मणों को भोजन कराना है, कभी कन्या पूजन… वह मम्मीजी के दिनरात के पूजापाठ और भूखा रहने व व्रतउपवास देखदेख कर परेशान हो गई थी.

अर्णव भी बिना पूजा किए नाश्ता नहीं करता और घंटों लंबी पूजा चलती. अखंड ज्योति 24 घंटे जलती रहती.

मम्मीजी और अर्णव उस पर अपना प्यार तो बहुत लुटाते थे, लेकिन धीरेधीरे उन्होंने अपने अंधविश्वास और कर्मकांड की बेडि़यां उस पर भी डालने का प्रयास शुरू कर दिया, ‘‘अनन्या, गाय को यह चने की दाल और गुड़ खिला कर ही औफिस जाना… तुम से कहा था कि तुम्हें 5 बृहस्पतिवार का व्रत करना है… पंडितजी ने बताया है. इसलिए आज तुम्हारे लिए नाश्ता नहीं बनाया है.’’

‘‘मम्मीजी, मुझ से भूखा नहीं रहा जाता. भूखे रहने पर मुझे ऐसिडिटी हो जाती है. सिरदर्द और उलटियां होने लगती हैं,’’ और फिर उस ने टोस्टर में ब्रैड डाली और बटर लगा कर जल्दीजल्दी खा कर औफिस निकल गई.

अनन्या ने अब मुखर होना शुरू कर दिया था, ‘‘मम्मीजी, इस तरह भूखे रह कर यदि भगवान खुश हो जाएं तो गरीब जिन्हें अन्न का दाना मुहैया नहीं होता है, वे सब से अधिक संपन्न हो जाएं.’’

मम्मीजी का मुंह उतर गया.

जब वह शाम को लौटी तो मांबेटे के चेहरे पर तनाव दिखाई दे रहा था. उस ने देखा कि पंडितजी को मम्मीजी क्व2-2 हजार के कई नोट दे रही थीं.

अनन्या नाराज हो कर बोली, ‘‘मम्मीजी, ये पंडितजी आप का भला नहीं कर रहे हैं वरन अपना भला कर रहे हैं. यह तो उन का व्यवसाय है. लोगों को अपनी बातों में उलझाना, ग्रहों का डर दिखा कर उन से पैसे वसूलना… यह उन का धंधा है और आप जैसे लोगों को ठग कर इसे चमकाते हैं.’’

‘‘रामराम, कैसी नास्तिक बहू आई है. पूजापाठ के बलबूते ही सब काम होते हैं. माफ करना प्रभू, बेचारी भोली है.’’

शनिवार का दिन था. अनन्या की छुट्टी थी. काले लिबास में एक

तांत्रिक, जो अपने गले में बड़ीबड़ी मोतियों की माला पहने हुए थे, मम्मीजी ने उन्हें बुला कर उन से आशीर्वाद लेने को कहा तो अनन्या ने आंखें तरेर कर अर्णव की ओर देखा. उस ने उस का हाथ पकड़ कर उसे प्रणाम करने को मजबूर कर दिया. उसे अपने सिर पर तांत्रिक के हाथ का स्पर्श बहुत नगवार गुजरा.

अपना क्रोध प्रदर्शित करते हुए वह वहां से अंदर चली गई ताकि वहां से वह उन लोगों का वार्त्तालाप ध्यान से सुन सके.

‘‘माताजी महालक्ष्मी को सिद्ध करने के लिए श्मशान पर जा कर मंत्र सिद्ध करना होगा. उस महापूजा के बाद वहां की भस्म को ताबीज में रख कर पहनने से आप के सारे आर्थिक संकट दूर हो जाएंगे और आप के आंगन में नन्हा मेहमान भी किलकारियां भरेगा.

‘‘यह पूजा दीवाली की रात 12 बजे की जाएगी. इस पूजा में आप की बहू को ही बैठना होगा, क्योंकि लाल साड़ी में सुहागन के द्वारा पूजा करने से महालक्ष्मी अवश्य प्रसन्न होंगी.’’

अनन्या कूपमंडूक अर्णव का उत्तर सुनने को उत्सुक थी.

तभी मम्मीजी ने फुसफुसा कर उस तांत्रिक से कहा जिसे वह समझ नहीं पाई. लेकिन आज अर्णव से दोटूक बात करनी होगी.

वह तांत्रिक अपनी मुट्ठी में दक्षिणा के रुपए दबा कर जा चुका था.

आज वह मन ही मन सुलग उठी, ‘‘मम्मीजी, आप यह बताइए कि इस

पूजापाठ, तंत्रमंत्र से यदि महालक्ष्मी प्रसन्न होने वाली हैं, तो सब से पहले इन्हीं तांत्रिक महाशय के घर में धन की वर्षा हो रही होती. बेचारे क्यों घरघर भटकते फिरते.

‘‘मैं जब से आई हूं, देख रही हूं कि अर्णव का ध्यान अपने बिजनैस पर तो है नहीं… सारा दिन इन्हीं कर्मकांडों में लगा रहता है.

‘‘यदि कोई समस्या है तो उसे सुलझाने का प्रयास करिए. इस तरह की पूजापाठ से कुछ नहीं होगा.’’

मम्मीजी आ कर धीरे से बोलीं, ‘‘अनन्या, हम लोग बहुत बड़े आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं. हमारी दुकान के अकाउंटैंट ने क्व20 लाख का गबन कर लिया. वह हेराफेरी कर के रुपए इधरउधर गायब करता रहा. अर्णव ने ध्यान ही नहीं दिया. अब बैंक ने हमारी लिमिट भी कैंसिल कर दी है. इसलिए हम लोग बहुत परेशानी में हैं.’’

‘‘अर्णव, यह बताइए कि ये पंडित लोग क्या सारे अनुष्ठान मुफ्त में कर देंगे? एक ओर तो आर्थिक संकट बता रहे हैं दूसरी ओर फुजूलखर्ची करते जा रहे हैं. आप लोग फालतू बातों में अपने दिमाग को लगाए हैं.

‘‘आप वकील से मिलें. वह आप को रास्ता बताएगा. आप ने पुलिस में शिकायत दर्ज की?

‘‘आप का किस बैंक में खाता है, मुझे बताएं? मैं बैंक के मैनेजर से बात कर के आप की लिमिट को फिर से करवाने की कोशिश करूंगी.

‘‘लेकिन आप दोनों को प्रौमिस करना होगा कि अब घर में इस तरह के कर्मकांड और अंधविश्वासों से भरी बातें नहीं की जाएंगी.

‘‘यदि आप का पूजापाठ, व्रतउपवास से ठीक होना होता तो रमेश क्यों गबन कर लेता? गबन इसलिए हुआ क्योंकि आप दोनों दिनरात हवन, व्रत, रंगीन कपड़ों, रंगीन पत्थरों में ही मगन रहे और वह आप की लापरवाही का फायदा उठा कर अपना घर भरता रहा, आप को खोखला करता रहा.

‘‘मैं सालभर से आप दोनों के ऊलजुलूल अंधविश्वास भरे कर्मकांडों को देखदेख कर घुटती रही. यदि आप का यही रवैया रहा तो मैं अपने भविष्य के निर्णय के लिए स्वतंत्र हूं.’’

आज पहली बार इस लहजे में इतना बोलने के बाद जहां वे एक ओर हांफ उठी थी वहीं दूसरी ओर आंखों से आंसू भी निकल पड़े थे. फिर वहां से उठ कर अपने कमरे में आ गई.

घर में सन्नाटा छाया था. काफी देर बाद मम्मीजी आईं, ‘‘बेटी तुम सही कह रही

हो. हम दोनों की आंखों पर अंधविश्वास की पट्टी बंधी थी. रमेश ने गबन करने के बाद अर्णव को मार डालने की भी धमकी दे दी… हम दोनों मांबेटे डर के मारे चुप रहे और इसी पूजापाठ के द्वारा समाधान पाने के लिए इसी पर अपना ध्यान केंद्रित कर लिया.

‘‘इसी संकट से निबटने के लिए तुम्हें बहू बना कर लाए ताकि हर महीने घर खर्च चलता रहे.

‘‘लेकिन अब मैं स्वयं शोरूम में बैठा करूंगी, अर्णव बाहर का काम देखा करेगा.

‘‘अनन्या मैं तुम्हारी शुक्रगुजार हूं कि तुम ने हम लोगों को सही राह दिखाई,’’ उन्होंने उस का माथा चूम कर गले से लगा लिया.

अनन्या का मन हलका हो गया था. वह बहुत खुश थी कि अंतत: अंधविश्वास के दलदल में फंसे अपने परिवार को उस ने निकाल लिया.

Famous Hindi Stories : दोषी कौन था – बुआ की चुप्पी का क्या कारण था

Famous Hindi Stories : मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे हमेशा चहचहाने वाली बूआ कहीं खो सी गई हैं. बातबेबात ठहाका मार कर हंसने वाली बूआ पता नहीं क्यों चुपचुप सी लग रही थीं. सौतेली बेटी के ब्याह के बाद तो उन्हें खुश होना चाहिए था, कहा करती थीं कि इस की शादी कर के तर जाऊंगी. सौतेली बेटी बूआ को सदा बोझ ही लगा करती थी. उन के जीवन में अगर कुछ कड़वाहट थी तो वह यही थी कि वे एक दुहाजू की पत्नी हैं. मगर जहां चाह वहां राह, ससुराल आते ही बूआ ने पति को उंगलियों पर नचाना शुरू कर दिया और समझाबुझा कर सौतेली बेटी को उस के ननिहाल भेज दिया. सौत की निशानी वह बच्ची ही तो थी.

जब वह चली गई तो बूआ ने चैन की सांस ली. फूफा पहलेपहल तो अपनी बेटी के लिए उदास रहे, मगर धीरेधीरे नई पत्नी के मोहपाश में सब भूल गए. बूआ कभी तीजत्योहार पर भी उसे अपने घर नहीं लाती थीं. प्रकृति ने उन की झोली में 2 बेटे डाल दिए थे. अब वे यही चाहती थीं कि पति उन्हीं में उलझे रहें, भूल से भी उन्हें सौतेली बेटी को याद नहीं करने देती थीं. सुनने में आता था कि फूफा की बेटी मेधावी छात्रा है. ननिहाल में सारा काम संभालती है. परंतु नाना की मृत्यु के बाद मामा एक दिन उसे पिता के घर छोड़ गए. 19 बरस की युवा बहन, भाइयों के गले से भी नीचे नहीं उतरी थी. पिता ने भी पितातुल्य स्वागत नहीं किया था. मुझे याद है, उस शाम मैं भी बूआ के घर पर ही था. जैसे बूआ की हंसी पर किसी ने ताला ही लगा दिया था. मैं सोचने लगा, ‘घर की बेटी का ऐसा स्वागत?’ अनमने भाव से बूआ ने उसे अंदर वाले कमरे में बिठाया और आग्नेय दृष्टि से पति को देखा, जो अखबार में मुंह छिपाए यों अनजान बन रहे थे, मानो उन्हें इस बात से कुछ भी लेनादेना न हो. पहली बार मुझे इस सत्य पर विश्वास हुआ था कि सचमुच मां के मरते ही पिता का साया भी सिर से उठ जाता है.

‘सुनो, वे लोग इसे यहां क्यों छोड़ गए, आप ने कुछ कहा था क्या?’ बूआ ने गुस्से से पति से पूछा तो किसी अपराधी की तरह हिम्मत कर के फूफाजी ने सफाई दी, ‘इस के मामा के भी तो बेटियां हैं न… अब नाना की कमाई भी तो नहीं रही. यहीं रहेगी तो क्या बुरा है? तुम्हें काम में इस की मदद मिल जाएगी.’

‘अरे, ब्याहने को लाख, 2 लाख कहां से लाओगे? अपना तो पूरा नहीं पड़ता…’ बूआ मुझ से जब भी मिलतीं, यही कहतीं, ‘अरे गौतम, तू ही बता न कोई अच्छा सा लड़का. दानदहेज नहीं देना मुझे. किसी तरह यह ससुराल चली जाए तो मैं तर जाऊं.’ संयोग से मेरे एक मित्र का चचेरा भाई बिना दहेज के शादी करना चाहता था, आननफानन रिश्ता तय हो गया और जल्दी ही शादी भी हो गई. शादी के लगभग 2 महीने बाद मैं बूआ के घर गया तो पूछा, ‘‘क्या बात है, अब क्या परेशानी है?’’

‘‘बात क्या होगी, देवीजी वापस आ गई हैं मेरे कलेजे पर मूंग दलने. मुझे क्या पता था कि वह पागल है. ससुराल वाले बिठा गए हैं, कहते हैं, पागल को अपने ही पास रखो.’’

‘‘क्या?’’ मैं स्तब्ध रह गया.

‘‘जरा अपने दोस्त से बात तो करना,’’ बूआ का स्वर कानों में पड़ा. फिर उन्होंने सौतेली बेटी को पुकारा, ‘‘गीता, जरा चाय तो लाना, गौतम आया है.’’ गीता सिर झुकाए सामने चली आई. मैं ने तब शायद उसे पहली बार नजर भर कर देखा था. पागलपन जैसी तो कोई बात नहीं लगी. मैं सोचने लगा, ‘बूआ की गृहस्थी का बोझ संभालती, भागभाग कर सब के आदेशों का पालन करती गीता आखिर पागल कहां है?’ रिश्ता मैं ने करवाया था, इसलिए एक दिन उस के पति से मिलने चला गया. पर वह तो मुझे देखते ही भड़क उठा, ‘‘यार गौतम, तुम ने मुझ से किस बात का बदला लिया है?’’

‘‘आखिर ऐसी क्या बात है उस में, अच्छीभली तो है?’’

‘‘उस ने मुझे हाथ तक नहीं लगाने दिया. उसे सजाने के लिए तो यहां नहीं लाया था. पागल लड़की…’’ ‘‘क्या बकते हो? हाथ नहीं लगाने दिया? इस का अर्थ यह तो नहीं कि वह पागल…’’

‘‘बसबस गौतम, तलाक के कागजों पर वह हस्ताक्षर कर गई है. उस की वकालत की अब कोई जरूरत नहीं है. यह शादी तो टूटी ही समझो.’’

‘‘शादीब्याह मजाक है क्या?’’

‘‘मजाक नहीं, मगर कोई तो नाता हो, जो दोनों को बांध सके. उस ने तो कभी मुझे नजर भर कर देखा तक नहीं. बर्फ की शिला जैसी ठंडी. न कोई हावभाव, न कोई उत्साह.’’

‘‘अरे, सारी उम्र सामने है, इतनी जल्दी ऐसा निर्णय मत लो. उस गरीब पर जरा तो तरस खाओ.’’ ‘‘नहीं गौतम, मुझ से अब और इंतजार नहीं होता.’’ सचमुच एक दिन वह नाता टूट गया. एक तो सौतेली और उस पर परित्यक्ता, बूआ का सारा आक्रोश उस गरीब पर ही उतरता. उस के पिता मूक बने सब देखते रहते. मैं अकसर जाता और उस की दशा पर कुढ़ता रहता. जी चाहता कि उस से कुछ बात करूं कि आखिर क्यों वह पति से निभा नहीं पाई. चंद महीनों में ही क्यों सब समाप्त हो गया? मैं उस से बात करने की कोशिश करता, मगर वह कभी मौका ही न देती. एक दिन पता चला कि उस ने किसी स्कूल में नौकरी कर ली है, पर बूआ प्रसन्न नहीं हुईं, क्योंकि अब घर का काम उन्हें करना पड़ता था.

एक शाम औफिस से आतेआते मैं बारिश में घिर गया. स्कूटर भी खराब हो गया, इसलिए उसे मैकेनिक के पास छोड़ा और पैदल ही चल दिया. पर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, जब बसस्टैंड पर गीता को भी खड़े पाया. थोड़ी देर बाद जब अंधेरा घिर आया तो मैं ने कहा, ‘‘टैक्सी कर लेते हैं गीता, मैं तुम्हें घर छोड़ दूंगा.’’

‘‘जी नहीं, अभी बस आ जाएगी.’’

‘‘आओ न, कहीं चाय पीते हैं, उस के बाद…’’

‘‘इस की जरूरत नहीं. मैं चली जाऊंगी.’’

‘‘गीता, अंधेरा हो रहा है. अच्छा, चाय रहने दो. अब चलो मेरे साथ.’’ अनमनी सी वह टैक्सी में मेरे साथ आ बैठी. घर पहुंचने पर बूआ ने तीखी नजरों से हम दोनों को देखा. तीसरे ही दिन पता चला कि बूआ ने मेरे पिताजी के कानों में अच्छी तरह यह बात भर दी है कि अब मेरी शादी कर देनी चाहिए. साथ ही अपनी सहेली की बेटी भी सुझा दी थी. मां और पिताजी लड़की भी देख आए. मैं सब देखसुन रहा था, मगर पता नहीं क्यों, निर्णय नहीं ले पा रहा था. एक दिन बूआ के घर गया तो उन्हें ऊंचे स्वर में चीखते सुन सहम गया. ‘‘अरी, यही लच्छन वहां भी दिखाए होंगे, तभी तो वह वापस पटक गए तुझे. तेरी उम्र गुड्डेगुडि़यों से खेलने की है क्या?’’ और ‘छनाक’ की आवाज के साथ एक डब्बा मेरे पैरों के पास आ गिरा. तभी आंखों में विचित्र सा भाव लिए गीता ने डब्बा उठा लिया. असमंजस में पड़ा मैं दोनों को निहार रहा था.

‘‘इसे मत फेंको मां, इसे मत फेंको,’’ गीता ने करुण स्वर में कहा.

‘‘खबरदार, जो मुझे मां कहा. पागल कहीं की,’’ एक झटके से बूआ ने उस के हाथ से वह डब्बा झपटा और सामने गली में फेंक दिया. उसी पल एक स्कूटर डब्बे के ऊपर से गुजर गया. टूटे खिलौनों को देख कर गीता वहीं पछाड़ खा कर गिर पड़ी. यह दृश्य मेरे अस्तित्व को पूरी तरह हिला गया. किसी तरह गीता को उठा कर मैं ने बिस्तर पर लिटाया.

‘‘रहने दे इसे गौतम, आ, बाहर आ जा,’’ बूआ शायद नहीं चाहती थीं कि मैं उस के समीप रहूं. दूसरे दिन एक निश्चय मन में ले कर मैं गीता के स्कूल जा पहुंचा और जबरदस्ती उसे मनोवैज्ञानिक के पास ले गया. 2 घंटे तक वह अकेले में उस से बातें करता रहा. गीता का पूरा जीवन और उस के कड़वे अनुभव उस के सामने किताब की तरह खुल गए. जब वह वापस आई तब आंखें रोरो कर सूज चुकी थीं. मैं ने समीप जा कर जब उस के सिर पर हाथ रखा तो वह फिर से रो पड़ी. मुझ पर शायद वह कुछकुछ विश्वास करने लगी थी. मैं अपने साथ उसे खाना खिलाने रेस्तरां में ले गया. अपने सामने बिठा कर उसे खाना खिलाया. नन्ही सी बच्ची की तरह वह मेरी हर बात मानती गई. ‘‘मैं कल शाम तुम्हारे घर आऊंगा, गीता. डाक्टर ने क्या कहा, सब के सामने ही बताऊंगा. अब तुम जाओ. बूआ नाराज न हों, इसलिए यह मत बताना कि तुम मेरे साथ थीं.’’ डूबते को जैसे तिनके का सहारा मिला. गरदन झुका कर वह चली गई.

दूसरे दिन डाक्टर से मिला. गीता की पीड़ा और उस के निदान के बारे में सबकुछ जाना. बचपन से यौवन तक पीड़ा और उपेक्षा सहने के कारण वह सामान्य रूप से पनप ही न पाई थी. पति ने छूना चाहा तो चीख उठी, क्योंकि पिता के स्पर्श की भूख ज्यादा बलवान थी. बालसुलभ इच्छाएं परिपक्वता पर हावी हो रही थीं. हृदय की भूख और आयु की मांग में वह सीमारेखा नहीं खींच पाई थी. फिर मैं उस के स्कूल गया. मुझे देख वह धीमे से मुसकरा पड़ी. आधे दिन की छुट्टी दिला कर मैं उसे समुद्र किनारे ले गया. तेज धूप में एक छायादार कोना खोज लिया. अचानक मेरे हाथ में अपना हाथ देख वह सहम गई थी. ‘‘एक बात बताना गीता, क्या तुम शादी के बाद पति के साथ निभा नहीं पाईं या उस का व्यवहार अच्छा नहीं था?’’

‘‘जी…’’ उस ने गरदन झुका ली.

‘‘उस का छूना तुम्हें बुरा क्यों लगता था? वह तो तुम्हारा पति था.’’

‘‘पता नहीं,’’ वह धीरे से बोली.

‘‘मुझे अपना मित्र समझो, अपने मन की बातें सचसच बता दो. मैं चाहता हूं कि तुम्हारा घरसंसार तुम्हें वापस मिल जाए.’’ ‘‘जी,’’ एकाएक उस ने मेरे हाथ से अपना हाथ खींच लिया और अविश्वास से मुझे निहारने लगी. ‘‘तुम पागल नहीं हो, यह बात मैं अच्छी तरह जानता हूं. तुम मुझे अच्छी लगती हो, इसलिए चाहता हूं कि सदा सुखी रहो. जरा सा तुम बदलो, जरा सा तुम्हारा पति. इस तरह घर टूटने से बच जाएगा.’’ ‘‘वह इंसान, जिस ने मेरा अपमान कर मुझे पागल ही बना दिया, वह क्या मुझे मेरा घर देगा?’’

‘‘उस ने तुम्हारा अपमान क्यों किया?’’

‘‘आप ये सब जानने वाले कौन होते हैं. जो कभी मेरा था, जब वही मेरा नहीं हुआ तो आप की इतनी दया मैं क्यों स्वीकार करूं?’’ ‘‘कौन था तुम्हारा, गीता? क्या किसी और से प्यार करती थीं?’’ ‘‘नहीं,’’ वह चौंक गई, शायद उस की चोरी पकड़ी गई थी या जो वह कहना चाह रही थी, उस का अर्थ मैं नहीं समझा था. उस ने गरदन झुका ली. ‘‘मैं तुम्हारी सहायता करूंगा, गीता, मैं ने कहा न, मुझे अपना मित्र समझो.’’ ‘‘मैं जैसी हूं वैसी ही अच्छी हूं. डाक्टर ने क्या कहा, बताइए?’’ ‘‘तुम पागल नहीं हो, डाक्टर ने यही कहा है. अब आगे क्या करना है, मैं तुम से यही पूछना चाहता हूं?’’

‘‘मेरा जो होना था, हो चुका. अब कुछ नहीं होगा. चलिए, वापस चलें.’’ उसी शाम मैं गीता के पति से मिला. उसे समझाना चाहा तो वह ठठा कर हंस पड़ा, ‘‘जानते हो, एक बार उस ने क्या कहा? कहने लगी, मेरी सूरत में उसे अपने पिता की सूरत

नजर आती है. बेवकूफ लड़की, मुझे उस में कोई दिलचस्पी नहीं है और अब तो मेरी दूसरी शादी भी पक्की हो गई है.’’ मेरा अंतिम प्रयास भी विफल रहा. उस रात मैं सो नहीं सका. सुबह मां ने बूआ की बताई लड़की देखने की बात की, तब लगा कि मन में कुछ चुभ सा गया है. गीता का शिला समान अस्तित्व मस्तिष्क में उभर आया . मैं सोचने लगा, अगर मेरी शादी गीता से हो जाए तो क्या बुरा है? उस में हर गुण तो हैं. जीवन का एक कोना सूना रह जाने से वह पनप नहीं पाई तो इस में उस का क्या दोष? पति की सूरत में पिता को तलाशती रही, यह इस सत्य का एक और प्रमाण था कि उस का बचपन उस के मन में कहीं सोया पड़ा है. सौतेली मां ने पिता छीन लिया और अब वह जवानी में उस छाया को पकड़ने का प्रयास कर रही है जिस का स्वरूप ही बदल चुका है. दूसरी शाम बूआ ने मुझे बुला भेजा. मैं वहां चला तो गया परंतु गीता के लिए कुछ ले जाना नहीं भूला. फूफाजी भी सामने थे और बूआ के दोनों बेटे भी. गीता सब के लिए चाय ले आई. उस दिन वह मुझे संसार की सब से सुंदर स्त्री लगी. शायद उस के प्रति जाग उठा स्नेह मेरी आंखों में उतर आया था. ‘‘कल लड़की देखने जाएगा न, मैं खबर भिजवा दूं?’’ बूआ ने पूछा.

कुछ देर मैं हिम्मत जुटाता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘मैं लड़की देख चुका हूं, बूआ.’’

‘‘अच्छा, कहां देखी? मुझे तो उन्होंने नहीं बताया.’’

‘‘तुम्हारी यह सौतेली बेटी मुझे बहुत पसंद है.’’ सामने बैठे फूफाजी अखबार झटक कर खड़े हुए, जैसे उन्हें मुझ पर या अपने कानों पर विश्वास ही न हुआ हो. बोले, ‘‘ये पागल…’’ ‘‘यह पागल नहीं है, फूफाजी. मैं इसे मनोवैज्ञानिक को दिखा चुका हूं. पागल तो आप हैं कि अपनी दूधपीती बच्ची से बाप का साया ही छीन लिया. कभी नहीं सोचा कि यह आप के लिए तड़पती होगी, कितना रोई होगी अपने पिता के लिए. नए जीवन का आरंभ कर आप ने अपने अतीत से ऐसे हाथ झटक लिया कि वह चौराहे का मजाक बन गया. किसी ने इस मासूम लड़की को पागल कह कर छोड़ दिया और किसी ने…’’ ‘‘गौतम,’’ बूआ ने चीख कर विरोध करना चाहा, मगर उस पल जैसे मैं सारा आक्रोश निकाल कर ही दम लेना चाहता था. हक्कीबक्की सी खड़ी गीता सब को यों देख रही थी, मानो मन ही मन मेरी वजह से स्वयं को अपराधी महसूस कर रही थी. ‘‘पागल तो तुम भी हो बूआ, जिस ने संतान से उस का पिता छीन लिया.’’

बूआ के दोनों बेटे मुझे यों घूर रहे थे मानो उन्हें भी मेरे शब्दों पर विश्वास न हो रहा हो. फूफाजी गरदन झुका कर बैठ गए. हाथ में पकड़ा पैकेट गीता को थमा मैं ने फिर से हिम्मत बटोरी, ‘‘फूफाजी, मैं गीता को पसंद करता हूं. आप इजाजत दे दीजिए.’  मेरी मां ने गीता का विरोध किया, मगर मेरी जिद के सामने धीरेधीरे शांत हो गईं और एक दिन गीता मेरी हो गई. लेकिन मां ने मुझे घर छोड़ देने का आदेश दे दिया. उन्होंने कहा, ‘‘क्या कुंआरी लड़कियां मर गई थीं जो तुम ने एक तलाकशुदा, पागल लड़की से शादी करने की जिद पकड़ ली.’’ शादी के 3-4 दिन बाद ही मैं नए स्थान के लिए चल पड़ा. शादी से पहले ही पूना का तबादला करा लिया था. गृहस्थी के नाम पर बस मेरे पास एक अटैची थी. इतना शुक्र था कि क्वार्टर और थोड़ाबहुत फर्नीचर औफिस की तरफ से मिल गया था. कठपुतली सी गीता मेरे साथ चली आई थी. मां नाराज थीं, इसलिए चंद बरतन तक नहीं दिए थे कि जिन में मैं एक वक्त का खाना ही बना पाता. आतेआते अग्रिम तनख्वाह लेता आया था.

गीता को घर छोड़ होटल से खाना और बाजार से जरूरत का सामान ले आया. जैसेतैसे पेट भर कर सोने की तैयारी की तो बिस्तर की समस्या आड़े आ गई. ‘‘आप यहां सो जाइए,’’ गीता ने कहा. सामने अपनी सूती साड़ी बिछा कर उस ने मेरा बिस्तर लगा दिया था. तकिया भी अपनी साड़ी को ही 5-6 मोड़ दे कर बना दिया था. मैं चुपचाप लेट गया. पर दूसरे ही क्षण खाली पलंग की ओर बढ़ती गीता का हाथ पकड़ लिया, ‘‘जो है, उसी को आधाआधा बांटना है गीतू, सुखदुख भी, रोटी भी, तो फिर बिस्तर क्यों नहीं? देखो, यह क्या है, तुम्हारा खिलौना तो वहीं छूट गया था न, यह नया लाया हूं, रबड़ का गुड्डा.’’ जैसे किसी ने उस के रिसते घाव पर हाथ रख दिया हो. वह कभी मुझे और कभी खिलौने को निहारने लगी, जैसे सपना देख रही हो.

‘‘मेरे पास आओ, गीता. सच मानो, तुम्हारी इच्छा के बिना मैं कभी कुछ नहीं मांगूंगा. आओ, यहां आओ, मेरे पास.’’ उसे अपने समीप बिठाया. उस की डबडबाई बड़ीबड़ी आंखों में देखा, ‘‘क्या सोच रही हो, गीता? मैं तुम्हें अच्छा तो लगता हूं न?’’ उस ने नजरें झुका लीं. मैं ने बढ़ कर उस का माथा चूम लिया तो वह तड़प कर मेरे गले से लिपट कर बुरी तरह रोने लगी. ‘‘यह घर तुम्हारा है गीता, मैं भी तुम्हारा हूं. जैसा तुम चाहोगी, वैसा ही होगा. मैं तुम्हारा अपमान कभी नहीं होने दूंगा. बहुत सह लिया है तुम ने. अब कोई भी इंसान तुम्हें किसी तरह की पीड़ा नहीं पहुंचाएगा.’’ सुबकतेसुबकते वह मेरी बांहों में ही सो गई. सुबह वह उठी तो मेरी तरफ एक लजीली सी मुसकान लिए देखा. नए औफिस में मेरा पहला दिन अच्छा बीता. शाम को घर आया तो मेरी तरफ 5 हजार रुपए बढ़ा कर गीता धीरे से बोली, ‘‘यही मेरी जमापूंजी है. यह अब आप की ही है. चलिए, जरूरी सामान ले आएं. मैं ने सूची बना ली है.’’ मुझे उस के हाथ से रुपए लेने में संकोच हुआ. मेरे चेहरे के भाव पढ़ कर वह आगे बढ़ी और रुपए मेरी कमीज की जेब में डाल दिए. फिर अपनी हथेली मेरे हाथ पर रख दी.

उसी दिन हम ने और जरूरी सामान खरीदा और टूटीफूटी गृहस्थी की शुरुआत की. कहां पागल थी गीता? पलपल मेरे घर को सजातीसंवारती, मेरे सुखदुख का खयाल रखती. मुझे तो यह किसी भी कोण से पागल न लगी थी. हां, शरीर अवश्य एक नहीं हो पाए थे, मगर उस के लिए मुझे जरा भी अफसोस नहीं था. वह मुझे अपना समझती थी और मेरे सामीप्य में उसे सुख मिलता था, यही बहुत था. मैं सब को यह दिखा देना चाहता था कि उन्होंने गीता को कितना गलत समझा था. विशेषरूप से उस के पूर्व पति को जिस ने मात्र चंद पलों के शारीरिक सुख के अभाव में हर सुख को ताक पर रख दिया था. गीता मुझे अपने बचपन के खट्टेमीठे अनुभव सुनाती तो मैं बूआ पर खीझ उठता. मामामामी के पास अनाथों की तरह पलतेपलते उस ने क्याक्या नहीं सहा था. सुनातेसुनाते वह कई बार रो भी पड़ती. ऐसे में उसे बांहों में भर कर धीरज बंधाता. ‘‘मेरे पिता ने कभी मुड़ कर मेरी तरफ नहीं देखा. मां के जाते ही मैं अनाथ हो गई. अगर मैं मर गई तो क्या आप मेरे बच्चों को अनाथ कर देंगे? गौतम, क्या आप भी ऐसा करेंगे?’’

एकाएक उस के प्रश्न पर मैं अवाक् रह गया. रुंधे स्वर में उस ने फिर से पूछा, ‘‘क्या आप भी ऐसा ही करेंगे?’’ ‘‘ऐसा मत सोचो, गीता. मैं तुम से प्यार करता हूं, तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं चाहूंगा.’’ ‘‘मैं भी अपने पिता से बहुत प्यार करती हूं, उन का अनिष्ट नहीं चाहती थी, इसलिए कभी उन के पास नहीं आई. मां मुझे पसंद नहीं करतीं. मेरी वजह से उन की गृहस्थी में दरार न पड़े, ऐसा ही सोच सदा अपनी इच्छा मारती रही. लेकिन जब भी आप मेरी तरफ हाथ बढ़ाते हैं तो मेरी इच्छा एकाएक जी सी उठती है.’’ ‘‘मैं तुम्हारी इच्छा का सम्मान करता हूं, गीता. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है,’’ उस के गाल थपक कर मैं हंस पड़ा. मैं स्वयं हैरान था कि कैसे एक ही रिश्ते में बंधे हुए 2-2 नातों को निभा रहा हूं. मेरे सामीप्य में उस की हर

अतृप्त इच्छा शांत हो रही थी. कभी खिलौने के लिए होशोहवास खो बैठने वाली गीता अब मेरे लिए पागल रहने लगी थी. एक शाम उस ने पूछा, ‘‘आप भी कहीं मेरे पिता की तरह मुझ से आंखें तो नहीं फेर लेंगे? मुझ से मन तो नहीं भर जाएगा?’’ मैं हतप्रभ रह गया. गीता आगे बोली, ‘‘मैं आप की हर स्वाभाविक इच्छा को मार रही हूं. कैसे निभ पाएगा हमारा साथ? अपने पिता के सिवा मुझे कुछ भी नहीं सूझता. आप भी, आप भी पिता जैसे लगते हैं. मैं कुछ और सोचना चाहती हूं, मगर कैसे सोचूं?’’ स्नेह से पास बिठा मैं ने उसे चूमा तो मुझे उस का माथा कुछ गरम लगा, ‘‘तबीयत ठीक नहीं है क्या? मैं अभी दवा ले कर आता हूं.’’

‘‘आप मेरे पास रहिए,’’ गीता ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया. उस ने मुझे जाने नहीं दिया. काफी देर तक पास बैठा उस का सिर सहलाता रहा. हमारी शादी को लगभग 4 महीने हो गए थे. इस अंतराल में मैं ने यह महसूस कर लिया था कि गीता मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी है. एक दिन उस ने कहा, ‘‘कहीं मैं सचमुच तो पागल नहीं हूं? शायद यही सच हो.’’ ‘‘नहीं, तुम पागल नहीं हो, मैं कहता हूं न,’’ मैं ने दुलार कर उसे शांत कर दिया और उसी रात एक निश्चय ले लिया. दूसरी सुबह फूफाजी को गीता की बीमारी का झूठा तार दे दिया. सोचा, शायद बेटी का मोह उन्हें खींच लाए. तार देने के बाद मैं 2-3 दिन उन का इंतजार करता रहा. रहरह कर रोना आ जाता कि बेचारी गीता का ऐसा अनादर… तीसरे दिन मैं ने एक और तार दे दिया. उस का भी इंतजार किया, मगर कोई भी न आया. इसी तरह एक सप्ताह बीत गया. एक रात मैं बेहद बेचैन रहा. बारबार करवटें बदलता रहा, रहरह कर हर आहट पर उठ बैठता कि शायद मेरी गीता का हालचाल पूछने कोई आ रहा हो.

मैं सोचने लगा कि वे पिता हैं, पुरुष हैं, इतने मजबूर तो नहीं कि बेटी से चाह कर भी न मिल पाएं. आखिर क्यों वे इतने कठोर हो गए? उन दिनों मेरी हालत विचित्र सी हो गई थी. सुबह उठते ही मैं घर से निकल गया. मन में आ रहा था एक बार मुंबई जाऊं और फूफाजी को घसीट कर ले आऊं. स्टेशन पर गया, टिकट खरीदा. गाड़ी में बैठ गया, मगर पहले ही स्टेशन पर उतर गया. सोचा, क्यों जाऊं उन के पास? भटकभटक कर जब थक गया तो घर लौट आया.

‘‘कहां चले गए थे आप, सुबह से भूखेप्यासे?’’ गीता का घबराया स्वर कानों में पड़ा तो जैसे होश आया. मैं चुप ही रहा. नहाधो कर नाश्ता किया. गीता के अपमान पर बहुत गुस्सा आ रहा था. रात को मैं ने गीता को पास बुलाया, पर वह नीचे जमीन पर ही लेटी रही. तब स्वयं ही उठ कर नीचे चला आया और स्नेह से सहला दिया, ‘‘क्यों गीतू, मुझ से नाराज हो?’’ वह न जाने कब से रो रही थी. मैं अवाक् रह गया और उसे अपनी गोद में खींच लिया. ‘‘किसी ने कुछ कह दिया, गीता? क्या हुआ, रो क्यों रही हो?’’ अनायास ही उस के हाथों को पकड़ा तो कागज का एक मुड़ातुड़ा टुकड़ा मेरे हाथ में आ गया. उस के पिता को भेजे गए तार की वह रसीद थी.

‘‘आप ने पिताजी को तार क्यों भेजा? क्या मुझे वापस भेजना…?’’

‘‘नहीं गीता, पागल हो गई हो क्या?’’ एक झटके से उसे बांहों में भींच लिया. उस के भीगे चेहरे पर स्नेह चुंबन जड़ते हुए मुश्किल से मैं बोल पाया, ‘‘तुम्हें वापस भेज दूंगा, तुम ने यह कैसे सोच लिया?’’ फिर मैं उसे अपने पास बिस्तर पर ले आया और जबरदस्ती उस का चेहरा सामने किया, ‘‘तुम्हारे लिए सब को छोड़ दिया है गीता, भला तुम्हें…’’

‘‘तो आप ने उन्हें तार क्यों भेजा?’’ उस के मासूम प्रश्न का मैं ने उत्तर दे दिया. सब साफसाफ बताया तो वह तड़प उठी, क्योंकि उस की बीमारी की बात सुन कर भी पिता के सब्र का प्याला छलका नहीं था. मेरी छाती में समाई वह देर तक सुबकती रही. अपने प्रति अनायास झलक आए अविश्वास ने उस रात अनजाने ही मेरे शरीर की ऊष्मा को भड़का दिया था. मैं उसे कितना चाहता हूं, यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न करने लगा. मैं ने उसे यह एहसास भी दिलाना चाहा कि वह मेरे ही शरीर का एक अभिन्न अंग है. अपने अनछुए, अनकहे भाव रोमरोम से फूटते प्रतीत होने लगे. उन्हीं क्षणों में मेरे सीने में समाईसमाई वह मेरे अस्तित्व में भी कब समा गई, पता ही न चला. वे चंद क्षण आए और हमें पतिपत्नी बना कर चले गए. गीता मुझे एकदम नईनई सी लगने लगी थी. उस रात हम दोनों ने पहली बार महसूस किया कि शारीरिक सुख क्या होता है. यह मेरी विजय ही तो थी कि गीता अपनी कुंठाओं से मुक्त हो कर अभिसारिका बन गई थी. उस के मन की डगर से होता हुआ मैं उस के तन तक जा पहुंचा था.

फिर एक दिन मुझे पता चला कि मैं पिता बनने जा रहा हूं. मैं ने कहा, ‘‘मुझे प्यारी सी तुम्हारी जैसी बेटी चाहिए गीता, मैं उस से बहुत प्यार करूंगा.’’ लेकिन मेरा हर्ष और उत्साह एकाएक ठंडा पड़ गया, जब शून्य में निहारते हुए वह बोली, ‘‘प्यारव्यार सब धरा रह जाएगा. मैं मर गई तो आप भी उस से ऐसे ही आंखें फेर लेंगे, जैसे पिताजी ने मुझ से.’’

‘‘नहीं गीता, ऐसा नहीं सोचते.’’

Moral Stories in Hindi : प्रहरी – क्या समझ पाई सुषमा

Moral Stories in Hindi :  विभा रसोई में भरवां भिंडी और अरहर की दाल बनाने की तैयारी कर रही थी. भरवां भिंडी उस के बेटे तपन को पसंद थी और अरहर की दाल की शौकीन उस की बहू सुषमा थी. इसीलिए सुषमा के लाख मना करने पर भी वह रसोई में आ ही गई. सुषमा और तपन को अपने एक मित्र के बेटे के जन्मदिन की पार्टी में जाना था और उस के लिए उपहार भी खरीदना था. सो, दोनों घर से जल्दी निकल पड़े. जातेजाते सुषमा बोली, ‘‘मांजी, ज्यादा काम मत कीजिए, थोड़ा आराम भी कीजिए.’’

विभा ने मुसकरा कर सिर हिला दिया और उन के जाते ही दरवाजा बंद कर दोबारा अपने काम में लग गई. जल्दी ही उस ने सबकुछ बना लिया. दाल में छौंकभर लगाना बाकी था. कुछ थकान महसूस हुई तो उस ने कौफी बनाने के लिए पानी उबलने रख दिया. तभी दरवाजे की घंटी बजी. जैसे ही विभा ने दरवाजा खोला, सुषमा आंधी की तरह अंदर घुसी और सीधे अपने शयनकक्ष में जा कर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. विभा अवाक खड़ी देखती ही रह गई.

सिर झुकाए धीमी चाल से चलता तपन भी पीछेपीछे आया. उस का भावविहीन चेहरा देख कुछ भी अंदाजा लगाना कठिन था. विभा पिछले महीने ही तो यहां आई थी. किंतु इस दौरान में ही बेटेबहू के बीच चल रही तनातनी का अंदाजा उसे कुछकुछ हो गया था. फिर भी जब तक बेटा अपने मुंह से ही कुछ न बताए, उस का बीच में दखल देना ठीक न था. जमाने की बदली हवा वह बहुत देख चुकी थी. फिर भी न जाने क्यों इस समय उस का मन न माना और वह सोफे पर बैठे, सिगरेट फूंक रहे तपन के पास जा बैठी.

तपन ने सिगरेट बुझा दी तो विभा ने पूछा, ‘‘सुषमा को क्या हुआ है?’’ ‘‘कुछ भी नहीं,’’ वह झल्ला कर बोला, ‘‘कोई नई बात तो है नहीं…’’

‘‘वह तो मैं देख ही रही हूं, इसीलिए आज पूछ बैठी. यह रोजरोज की खींचतान अच्छी नहीं बेटा, अभी तुम्हारे विवाह को समय ही कितना हुआ है? अभी से दांपत्य जीवन में दरार पड़ जाएगी तो आगे क्या होगा?’’ विभा चिंतित सी बोली.

‘‘यह सब तुम मुझे समझाने के बजाय उसे क्यों नहीं समझातीं मां?’’ कह कर तपन उठ कर बाहर चला गया, जातेजाते क्रोध में दरवाजा भी जोर से ही बंद किया. विभा परेशान हो उठी कि तपन को क्या होता जा रहा है? बड़ी मुश्किल से तो वे लोग उस की रुचि के अनुसार लड़की ढूंढ़ पाए थे. उस ने तमाम गुणों की लिस्ट बना दी थी कि लड़की सुंदर हो, खूब पढ़ीलिखी हो, घर भी संभाल सके और उस के साथ ऊंची सोसाइटी में उठबैठ भी सके, फूहड़पन बिलकुल न हो आदिआदि.

कुछ सोचते हुए विभा फिर रसोई में चली गई. कौफी का पानी खौल चुका था. उस ने 3 प्यालों में कौफी बना ली. बाथरूम में पानी गिरने की आवाज से वह समझ गई कि सुषमा मुंह धो रही होगी, सो, उस ने आवाज लगाई, ‘‘सुषमा आओ, कौफी पी लो.’’ ‘‘आई मांजी,’’ और सुषमा मुंह पोंछतेपोंछते ही बाहर आ गई.

कौफी का कप उसे पकड़ाते विभा ने उस की सूजी आंखें देखीं तो पूछा, ‘‘क्या हुआ था, बेटी?’’ सुषमा सोचने लगी, पिछले पूरे एक महीने से मां उस के व तपन के झगड़ों में हमेशा खामोश ही रहीं. कभीकभी सुषमा को क्रोध भी आता था कि क्या मां को तपन से यह कहना नहीं चाहिए कि इस तरह अपनी पत्नी से झगड़ना उचित नहीं?

‘‘बताओ न बेटी, क्या बात है?’’ विभा का प्यारभरा स्वर दोबारा कानों में गूंजा तो सुषमा की आंखें छलछला उठीं, वह धीरे से बोली, ‘‘बात सिर्फ यह है कि इन्हें मुझ पर विश्वास नहीं है.’’ ‘‘यह कैसी बात कर रही हो?’’ विभा बेचैनी से बोली, ‘‘पति अपनी पत्नी पर विश्वास न करे, यह कभी हो सकता है भला?’’

‘‘यह आप उन से क्यों नहीं पूछतीं, जो भरी पार्टी में किसी दूसरे पुरुष से मुझे बातें करते देख कर ही बौखला उठते हैं और फिर किसी न किसी बहाने से बीच पार्टी से ही मुझे उठा कर ले आते हैं, भले ही मैं आना न चाहूं. मैं क्या बच्ची हूं, जो अपना भलाबुरा नहीं समझती?’’ विभा की समझ में बहुतकुछ आ रहा था. तसवीर का एक रुख साफ हो चुका था.अपनी सुंदर पत्नी पर अपना अधिकार जमाए रखने की धुन में पति का अहं पत्नी के अहं से टकरा रहा था. वह प्यार से बोली, ‘‘अच्छा, तुम कौफी पियो, ठंडी हो रही है. मैं तपन को समझाऊंगी,?’’ यह कह कर विभा रसोई में चली गई. कुकर का ढक्कन खोल दाल छौंकी तो उस की महक पूरे घर में फैल गई. तभी तपन भी अंदर आया और बिना किसी से कुछ बोले कौफी का कप रसोई से उठा कर अंदर कमरे में चला गया.

रात को जब तीनों खाना खाने बैठे, तब भी तपन का मूड ठीक नहीं था. इधर सुषमा भी अकड़ी हुई थी. वह डब्बे से रोटी निकाल कर अपनी व विभा की प्लेट में तो रखती, लेकिन तपन के आगे डब्बा ही खिसका देती. एकाध बार तो विभा चुप रही, फिर बोली, ‘‘बेटी, तपन की प्लेट में भी रोटी निकाल कर रखो.’’ इस पर सुषमा ने रोटी निकाल कर पहले तपन की प्लेट में रखी तो उस का तना हुआ चेहरा कुछ ढीला पड़ा.

खाने के बाद विभा रोज कुछ देर घर के सामने ही टहलती थी. सुषमा या तपन में से कोई एक उस के साथ हो लेता था. उन दोनों ने उसे यहां बुलाया था और दोनों चाहते थे कि जितने दिन विभा वहां रहे, उस का पूरा ध्यान रखा जाए. इसीलिए जब विभा ने बाहर जाने के लिए दरवाजा खोला तो पांव में चप्पल डाल कर तपन भी साथ हो लिया.

कुछ दूर तक मौन चलते रहने के बाद विभा ने पूछा, ‘‘सुषमा को क्या तुम पार्टी से जबरदस्ती जल्दी ले आए थे?’’ ‘‘मां, अच्छेबुरे लोग सभी जगह होते हैं. सुषमा जिस व्यक्ति के साथ बातें किए जा रही थी उस के बारे में दफ्तर में किसी की भी राय अच्छी नहीं है. दफ्तर में काम करने वाली हर लड़की उस से कतराती है. अब ऐसे में सुषमा का इतनी देर तक उस के साथ रहना…और ऊपर से वह नालायक भी ‘भाभीजी, भाभीजी’ करता उस के आगेपीछे ही लगा रहा, क्योंकि कोई और लड़की उसे लिफ्ट ही नहीं दे रही

‘‘मां, अब तुम ही बताओ, मेरे पास और क्या उपाय था, सिवा इस के कि मैं उसे वहां से वापस ले आता. उसे खुद भी तो अक्ल होनी चाहिए कि ऐसेवैसों को ज्यादा मुंह न लगाया करे. किसी भी बहाने से वह उस के पास से हट जाती तो भला मैं पार्टी बीच में छोड़ कर उसे जल्दी क्यों लाता?’’ तपन के स्वर में कुछ लाचारी थी, तो कुछ नाराजगी. विभा मन ही मन मुसकराई कि सुंदर पत्नी की चाह सभी को होती है, किंतु कभीकभी खूबसूरती भी सिरदर्द बन जाती है. वह बोली, ‘‘चलो छोड़ो, जाने दो. धीरेधीरे समझ जाएगी. तुम ही थोड़ा सब्र से काम लो,’’ और विभा घर की ओर पलट पड़ी.

विभा की सारी रात करवटें बदलते बीती. बेटा मानो उस के पति का ही प्रतिरूप बन सामने आ खड़ा हुआ था. अपने विवाह के तुरंत बाद के दिन विभा की बंद आंखों में किसी चलचित्र की भांति उभर आए. किसी भी पार्टी में जाने पर अपने पति सत्येंद्र का अपनी सुंदर पत्नी के चारों ओर मानो एक घेरा सा डाले रखना उसे भूला न था. कभीकभी सत्येंद्र के मित्रों की पत्नियां विभा को चिढ़ातीं तो उसे पति के इस व्यवहार पर क्रोध भी आता, किंतु उन के खिलाफ बोलना उस के स्वभाव में न था. सो, चुप रह जाती. युवावस्था के उन मादक, मधुर दिनों की यादें विभा के दिल को झकझोरने लगीं. कैसे थे वे मोहक दिन, जब दफ्तर से छूटते ही सत्येंद्र इस तरह घर भागते, जैसे किसी कैदखाने से छूटे हों. दोस्तों के व्यंग्यबाणों को वे सिर के ऊपर से ही निकल जाने देते. पहले दफ्तर के बाद लगभग रोज ही कौफी हाउस में दोस्तों के साथ एक प्याला कौफी जरूर पीते थे, तब कहीं घर आते थे, किंतु शादी के बाद तो जैसे दफ्तर का समय ही काटे न कटता था.

शाम के बाद भला सत्येंद्र कहां रुकने वाले थे. दोस्तों के हंसने की जरा भी परवा किए बिना अपनी छोटी सी पुरानी गाड़ी में बैठ कर सीधे घर भागते. लेकिन दोस्त भी कच्चे खिलाड़ी न थे. कभीकभी दोचार इकट्ठे मिल कर मोरचा बांध लेते और उन से पहले ही उन की गाड़ी के पास आ खड़े होते. तभी कोई कहता, ‘यार, बोर हो गए कौफी हाउस की कौफी पीपी कर. आज तो भाभीजी के हाथ की कौफी पीनी है.’ इस से पहले कि सत्येंद्र हां या ना कहें, सब के सब गाड़ी में चढ़ कर बैठ जाते.

इधर विभा रोज ही शाम को पति के आने के समय विशेषरूप से बनसंवर कर तैयार रहती थी. यह उस की मां का दिया मंत्र था कि दिनभर के थकेहारे पति की आधी थकान तो पत्नी का मोहक मुसकराता मुखड़ा देख कर ही उतर जाती है. किंतु जब सत्येंद्र मित्रों को लिए घर पहुंचता और वे

सब उस की सुंदर सजीधजी पत्नी को ‘भाभीजी, भाभीजी’ कह कर घेर लेते तो वह अलगथलग कुरसी पर जा बैठता.

मित्र भी तो कम शरारती न थे, सत्येंद्र के मनोभावों को समझ कर भी अनजान बने रहते. उधर विभा उन सब के सामने बढि़या नाश्ता रख कर, कौफी बना कर स्नेह से उन्हें खिलातीपिलाती. यह सब देख सत्येंद्र और कुढ़ जाता. विभा स्थिति की नजाकत समझती थी और अब तक वह सत्येंद्र के स्वभाव को अच्छी तरह जान भी चुकी थी, इसलिए वह उस के मित्रों को जल्दीजल्दी खिलापिला कर विदा करने की कोशिश करती. मित्रों के जाते ही सत्येंद्र पत्नी पर बरसते, ‘क्या जरूरत थी उन सब की इतनी आवभगत करने की? तुम थोड़ा रूखा व्यवहार करोगी तो खुद ही आना छोड़ देंगे. लेकिन तुम तो उन के सामने मक्खनमलाई हो जाती हो, वाहवाही लूटने का शौक जो है.’

सत्येंद्र की कटु आलोचना सुन कर विभा की आंखें भर आतीं, किंतु उस में गजब का धैर्य था. वह अच्छी तरह जानती थी कि इस स्थिति में वह उसे कुछ भी समझा नहीं पाएगी. वह चुपचाप रात के खाने की तैयारी में लग जाती. सत्येंद्र की मनपसंद चीजें बनाती और फिर भोजन निबटने के बाद रात में जब खुश व संतुष्ट पति की बांहों में होती तो उसे समझाने की कोशिश करते हुए पूछती, ‘अच्छा, बताओ तो, क्या तुम सचमुच ही अपने मित्रों का यहां

आना पसंद नहीं करते? मैं तो उन की खातिरदारी सिर्फ इसलिए करती हूं कि वे औफिस में तुम्हारे साथ काम करते हैं. उन के साथ तुम्हारा दिनभर का उठनाबैठना होता है, वरना मुझे उन की खातिरदारी करने की क्या पड़ी है? यदि तुम्हें ही पसंद नहीं, तो फिर अगली बार से उन्हें केवल चाय पिला कर ही टरका दूंगी.’ ‘अरे, नहींनहीं,’ सत्येंद्र और भी कस कर उसे अपनी बांहों में जकड़ लेते, ‘यह ठीक नहीं होगा. सच तो यह है कि जब वे सब दफ्तर में तुम्हारी इतनी तारीफ करते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. लेकिन क्या करूं, दिनभर के इंतजार के बाद जब शाम को तुम मुझे मिलती हो तो फिर बीच में कोई अड़ंगा मैं सहन नहीं कर सकता.’

‘कैसा अड़ंगा भला?’ उस के सीने में मुंह छिपाए विभा मीठे स्वर में कहती, ‘मैं तो सदा ही केवल तुम्हारी हूं, पूरी तरह तुम्हारी. तुम्हारे इन मित्रों की बचकानी हरकतें तो मेरे लिए तुम्हारे छोटे भाइयों की कमी पूरी करती हैं. अकसर सोचती हूं कि यदि तुम्हारे छोटे भाई होते तो वे यों ही ‘भाभीभाभी’ कह कर मुझे घेरे रहते. यही समझो कि तुम्हारे मित्रों द्वारा मेरे दिल की यही कमी पूरी होती है.’ ‘चलो, फिर ठीक है, अब बुरा नहीं मानूंगा. भूल जाओ सब.’

फिर धीरेधीरे सत्येंद्र इस सच को समझते गए कि घर आए मेहमान की उपेक्षा करना ठीक नहीं और अब विभा का अपने मित्रों से बातचीत करना, उन की खातिरदारी करना उन्हें बुरा नहीं लगता था. बदलते समय के साथ फिर तो बहुतकुछ बदलता गया. दोनों के जीवन में बच्चों के जन्म से ले कर उन के विवाह तक न जाने कितने उतारचढ़ाव आए. जिन्हें दोनों ने एकसाथ झेला. फिर कभी एक पल को भी सत्येंद्र का विश्वास न डगमगाया.

विभा की आंख जब लगी, तब शायद सुबह हो चुकी थी, क्योंकि फिर वह सुबह देर तक सोई रही. किंतु उस दिन शनिवार होने के कारण तपन की छुट्टी थी, सो, किसी काम की कोई जल्दी न थी. मुंह धो कर जब विभा रसोई में पहुंची तो सुषमा चाय बना चुकी थी. उसे देखते ही चिंतित सी बोली, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है,’’ विभा ने कहा, ‘‘रात नींद ही बड़ी देर से आई.’’ सादगी से कही उस की इस बात पर तपन और सुषमा दोनों ही सोच में डूब गए. वे दोनों जानते थे कि उन के आपसी झगड़ों से मां का दिल दुखी हो उठता है और मुंह से कुछ भी न कह कर वे उस दुख को चुपचाप सह लेती हैं.

सुषमा के हाथ से कप ले कर विभा खामोशी से चाय पीने लगी. तपन पास आ कर बैठते हुए बोला, ‘‘चलो मां, तुम्हें कहीं घुमा लाते हैं.’’ ‘‘कहां चलना चाहते हो?’’ विभा ने हलके से हंस कर पूछा तो तपन और सुषमा दोनों के चेहरे चमक उठे.

‘‘चलो मां, किसी अच्छे गार्डन में चलते हैं. सुषमा थर्मस में चाय डाल लेगी और थोड़े सैंडविच भी बना लेगी, क्यों, ठीक है न?’’ ‘‘हांहां,’’ कहते हुए सुषमा ने जब तपन की ओर देखा तो उस नजर में उन दोनों के बीच हुए समझौते की झलक थी. विभा का चिंतित मन यह देख खुश हो गया.

नवंबर की धूप में गार्डन फूलों से लहलहा रहा था. शनिवार की छुट्टी होने के कारण अपने छोटे बच्चों को साथ ले कर आए बहुत से युवा जोड़े वहां घूम रहे थे. दिल्ली शहर के छोटे मकानों में रहने वाले मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे खुली हवा के लिए तरसते रहते हैं. अब इस समय यहां मैदान में बड़ी ही मस्ती से होहल्ला मचाते एकदूसरे के पीछे भाग रहे थे. बच्चों की इस खुशी का रंग उन के मातापिता के चेहरों पर भी झलक रहा था.

विभा का मन भी यहां की रौनक में डूब कर हलका हो उठा. सब से बड़ी बात तो यह थी कि तपन और सुषमा के बीच कल वाला तनाव खत्म हो गया था और वे दोनों सहज हो कर आपस में बातें कर रहे थे. एक तरफ पेड़ की छाया में साफ जगह देख कर सुषमा ने दरी बिछा दी. ठंडी बयार में फूलों की महक घुली थी. विभा को यह सब आनंद दे रहा था. दरी पर बैठी वह मन ही मन सोच रही थी कि आने वाले दिनों में शायद तपन और सुषमा भी जब यहां आएंगे तो नन्हें हाथ उन की उंगलियां थामे होंगे. यह सोच कर विभा का दिल एक सुखद एहसास से भीग उठा. अचानक सुषमा की आवाज से उस की विचारशृंखला टूटी, ‘‘मांजी, यह चाय ले लीजिए.’’

अचानक तपन बोला, ‘‘सुषमा, वह देखो, उधर शंकर और सविता बैठे हैं. चलो, मिल कर आते हैं.’’ किंतु सुषमा बोली, ‘तुम हो आओ, मैं यहां मांजी के साथ ही बैठूंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर तपन उधर चला गया. विभा ने एक गहरी नजर सुषमा पर डाली, जो घुटनों पर सिर रखे चुप बैठी थी. चाय पी कर गिलास नीचे रखते ही विभा उस के पास खिसक आई और पूछा, ‘‘तुम गई क्यों नहीं? शायद उस के दफ्तर का कोई दोस्त है.’’

‘‘क्या फायदा मांजी, फिर झगड़ाझंझट करेंगे. अब आप ही बताइए, इन के मित्र मुझ से बात करें तो क्या मैं अशिष्ट बन जाऊं? उन के साथ हंस कर बात करूं तो ये नाराज, और न करूं तो वे लोग बुरा मानेंगे. मैं तो बीच में फंस जाती हूं न. अब तो मैं इन के साथ पार्टियों में जाना भी बंद कर दूंगी, घर पर ही ठीक हूं,’’ सुषमा थोड़ा तल्खी से बोली.

विभा कुछ देर उस के खूबसूरत चेहरे को देखती रही जहां एक आहत सी अहं भावना की परछाईं थी. फिर कुछ सोच कर समझाते हुए बोली, ‘‘तपन तुम्हें बहुत चाहता है, इसी से उस में तुम्हारे प्रति यह भावना है. पति के दिल की एकछत्र स्वामिनी होना तो बड़े गर्व की बात है.’’

‘‘वह तो ठीक है,’’ सुषमा का चेहरा शर्म से लाल हो गया, ‘‘किंतु जब औरों को देखती हूं तो लगता है कि उन्हें इस बात की चिंता ही नहीं कि उन की पत्नियां कहां, किस से बातें कर रही हैं.’’ ‘‘तब तो तुम यह भी देखती होगी कि वही लोग कभीकभी शराब के नशे में डूबे उन से गलत व्यवहार भी करते होंगे?’’

‘‘यह सब तो कभीकभी चलता है, इन पार्टियों में सभी तरह के लोग होते हैं.’’

‘‘तो फिर अब इस बात को भी समझो कि तुम्हारे साथ किसी का गलत व्यवहार तपन को कभी सहन न होगा. विवाहित जीवन में पति का अंकुश पत्नी पर और पत्नी का अंकुश पति पर होना बहुत जरूरी है. यही एक सफल दांपत्य जीवन का मंत्र है, जहां पतिपत्नी दोनों एकदूसरे को गलत कामों के लिए टोक सकते हैं, एकदूसरे को सही राह दिखा सकते हैं. किंतु इस के लिए विश्वास की मजबूत नींव जरूरी है, जिस में एकदूसरे के इस टोकने को गलत न समझा जाए, बल्कि उस के मूल में छिपी सही विचारधारा को समझा जाए, सुषमा, इस अधिकार को एक का दूसरे पर शासन मत समझो बल्कि एक की दूसरे के प्रति अतिशय प्रेम की अभिव्यक्ति समझो. ‘‘यदि तुम्हें वह सदैव अपनी नजरों के सामने रखना चाहता है तो यह तुम्हारा बहुत बड़ा सम्मान है. पति जिस स्त्री का सम्मान करता है, उस का सम्मान सारी दुनिया करती है, इसे हमेशा याद रखना.’’

इतना सबकुछ एक सांस में ही कह चुकने के बाद विभा खामोश हो गई. उस की बातें बड़े गौर से सुनती सुषमा के सामने विवाहिता जीवन का एक नया ही रहस्य खुला था कि आज के इस नारीमुक्ति युग में पति का पत्नी पर अपना अधिकार साबित करना कोई अमानवीय काम नहीं बल्कि उस के अखंड प्रेम का संकेत है.

सुषमा सोचने लगी कि न जाने उस की कितनी सहेलियां अकेली घूमतीफिरती हैं, अकेली ही पार्टियों में भी जाती हैं. किंतु सच तो यह है कि सुषमा को उन पर बड़ी दया आती है, क्योेंकि अकसर ही उन्हें किसी न किसी पुरुष के गलत व्यवहार का शिकार होना पड़ता है, जिस से उन को बचाने वाला वहां कोई नहीं होता. लेकिन उस के साथ तो उलटा ही है, किसी की टेढ़ी तो क्या, सीधी नजर भी उस पर पड़े तो पति सह नहीं पाता. हमेशा ढाल बन कर खड़ा हो जाता है. इसलिए तो आज तक कभी किसी पार्टी में उस के साथ गलत व्यवहार करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई. बुरे से बुरा व्यक्ति भी उस के सामने आ कर इज्जत से हाथ जोड़ कर उसे ‘भाभीजी’ ही कहता है. फिर वह खुद भी तो किसी को ऐसा ओछा व्यवहार करने का मौका नहीं देती.

किंतु उस की मर्यादा का सजग प्रहरी तो तपन ही है न, उस का अपना तपन, जो इन पार्टियों में हर समय साए की तरह उस के साथ रहता है. अकसर उस के दोस्त हंसते भी हैं और कहते भी हैं, ‘बीवी को कभी अकेला छोड़ता ही नहीं.’ किंतु तपन उन के हंसने या मजाक बनाने की कतई परवा नहीं करता. ये विचार मन में आते ही सुषमा को अपने तपन पर बहुत ज्यादा प्यार आया. उस की इच्छा हो रही थी कि दौड़ कर जाए और दूर खड़े तपन के गले में अपनी बांहें डाल दे और कहे, ‘अब मैं तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं मानूंगी. मांजी ने मेरी आंखों से नासमझी का परदा उठा दिया है. तुम्हारी नाराजगी का भी सम्मान करूंगी, क्योंकि वह मेरा सुरक्षाकवच है. मेरे अब तक के व्यवहार के लिए मुझे माफ कर दो.’

मन ही मन इन विचारों में घिरी सुषमा का चेहरा विश्वास की आभा से जगमगा रहा था. आंखों में मानो प्यार के दीए जल उठे थे. बड़ी बेसब्री से वह तपन के आने की प्रतीक्षा कर रही थी. सुषमा सोच रही थी कि कैसी अजीब बात है कि जब तक वह घटनाओं से खुद को जोड़े हुए थी, कुछ भी साफ देख, समझ नहीं पा रही थी, किंतु जब घटनाओं से अलग हो कर उस ने खुद को तटस्थ किया तो सबकुछ शीशे की तरह साफ हो गया. उस के अपने ही दिल ने पलभर में सहीगलत का फैसला कर लिया.

विभा की सारी रात करवटें बदलते बीती. बेटा मानो उस के पति का ही प्रतिरूप बन सामने आ खड़ा हुआ था. अपने विवाह के तुरंत बाद के दिन विभा की बंद आंखों में किसी चलचित्र की भांति उभर आए. किसी भी पार्टी में जाने पर अपने पति सत्येंद्र का अपनी सुंदर पत्नी के चारों ओर मानो एक घेरा सा डाले रखना उसे भूला न था. कभीकभी सत्येंद्र के मित्रों की पत्नियां विभा को चिढ़ातीं तो उसे पति के इस व्यवहार पर क्रोध भी आता, किंतु उन के खिलाफ बोलना उस के स्वभाव में न था. सो, चुप रह जाती. युवावस्था के उन मादक, मधुर दिनों की यादें विभा के दिल को झकझोरने लगीं. कैसे थे वे मोहक दिन, जब दफ्तर से छूटते ही सत्येंद्र इस तरह घर भागते, जैसे किसी कैदखाने से छूटे हों. दोस्तों के व्यंग्यबाणों को वे सिर के ऊपर से ही निकल जाने देते. पहले दफ्तर के बाद लगभग रोज ही कौफी हाउस में दोस्तों के साथ एक प्याला कौफी जरूर पीते थे, तब कहीं घर आते थे, किंतु शादी के बाद तो जैसे दफ्तर का समय ही काटे न कटता था.

शाम के बाद भला सत्येंद्र कहां रुकने वाले थे. दोस्तों के हंसने की जरा भी परवा किए बिना अपनी छोटी सी पुरानी गाड़ी में बैठ कर सीधे घर भागते. लेकिन दोस्त भी कच्चे खिलाड़ी न थे. कभीकभी दोचार इकट्ठे मिल कर मोरचा बांध लेते और उन से पहले ही उन की गाड़ी के पास आ खड़े होते. तभी कोई कहता, ‘यार, बोर हो गए कौफी हाउस की कौफी पीपी कर. आज तो भाभीजी के हाथ की कौफी पीनी है.’ इस से पहले कि सत्येंद्र हां या ना कहें, सब के सब गाड़ी में चढ़ कर बैठ जाते.

इधर विभा रोज ही शाम को पति के आने के समय विशेषरूप से बनसंवर कर तैयार रहती थी. यह उस की मां का दिया मंत्र था कि दिनभर के थकेहारे पति की आधी थकान तो पत्नी का मोहक मुसकराता मुखड़ा देख कर ही उतर जाती है. किंतु जब सत्येंद्र मित्रों को लिए घर पहुंचता और वे

सब उस की सुंदर सजीधजी पत्नी को ‘भाभीजी, भाभीजी’ कह कर घेर लेते तो वह अलगथलग कुरसी पर जा बैठता.

मित्र भी तो कम शरारती न थे, सत्येंद्र के मनोभावों को समझ कर भी अनजान बने रहते. उधर विभा उन सब के सामने बढि़या नाश्ता रख कर, कौफी बना कर स्नेह से उन्हें खिलातीपिलाती. यह सब देख सत्येंद्र और कुढ़ जाता. विभा स्थिति की नजाकत समझती थी और अब तक वह सत्येंद्र के स्वभाव को अच्छी तरह जान भी चुकी थी, इसलिए वह उस के मित्रों को जल्दीजल्दी खिलापिला कर विदा करने की कोशिश करती. मित्रों के जाते ही सत्येंद्र पत्नी पर बरसते, ‘क्या जरूरत थी उन सब की इतनी आवभगत करने की? तुम थोड़ा रूखा व्यवहार करोगी तो खुद ही आना छोड़ देंगे. लेकिन तुम तो उन के सामने मक्खनमलाई हो जाती हो, वाहवाही लूटने का शौक जो है.’

सत्येंद्र की कटु आलोचना सुन कर विभा की आंखें भर आतीं, किंतु उस में गजब का धैर्य था. वह अच्छी तरह जानती थी कि इस स्थिति में वह उसे कुछ भी समझा नहीं पाएगी. वह चुपचाप रात के खाने की तैयारी में लग जाती. सत्येंद्र की मनपसंद चीजें बनाती और फिर भोजन निबटने के बाद रात में जब खुश व संतुष्ट पति की बांहों में होती तो उसे समझाने की कोशिश करते हुए पूछती, ‘अच्छा, बताओ तो, क्या तुम सचमुच ही अपने मित्रों का यहां

आना पसंद नहीं करते? मैं तो उन की खातिरदारी सिर्फ इसलिए करती हूं कि वे औफिस में तुम्हारे साथ काम करते हैं. उन के साथ तुम्हारा दिनभर का उठनाबैठना होता है, वरना मुझे उन की खातिरदारी करने की क्या पड़ी है? यदि तुम्हें ही पसंद नहीं, तो फिर अगली बार से उन्हें केवल चाय पिला कर ही टरका दूंगी.’ ‘अरे, नहींनहीं,’ सत्येंद्र और भी कस कर उसे अपनी बांहों में जकड़ लेते, ‘यह ठीक नहीं होगा. सच तो यह है कि जब वे सब दफ्तर में तुम्हारी इतनी तारीफ करते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. लेकिन क्या करूं, दिनभर के इंतजार के बाद जब शाम को तुम मुझे मिलती हो तो फिर बीच में कोई अड़ंगा मैं सहन नहीं कर सकता.’

‘कैसा अड़ंगा भला?’ उस के सीने में मुंह छिपाए विभा मीठे स्वर में कहती, ‘मैं तो सदा ही केवल तुम्हारी हूं, पूरी तरह तुम्हारी. तुम्हारे इन मित्रों की बचकानी हरकतें तो मेरे लिए तुम्हारे छोटे भाइयों की कमी पूरी करती हैं. अकसर सोचती हूं कि यदि तुम्हारे छोटे भाई होते तो वे यों ही ‘भाभीभाभी’ कह कर मुझे घेरे रहते. यही समझो कि तुम्हारे मित्रों द्वारा मेरे दिल की यही कमी पूरी होती है.’ ‘चलो, फिर ठीक है, अब बुरा नहीं मानूंगा. भूल जाओ सब.’

फिर धीरेधीरे सत्येंद्र इस सच को समझते गए कि घर आए मेहमान की उपेक्षा करना ठीक नहीं और अब विभा का अपने मित्रों से बातचीत करना, उन की खातिरदारी करना उन्हें बुरा नहीं लगता था. बदलते समय के साथ फिर तो बहुतकुछ बदलता गया. दोनों के जीवन में बच्चों के जन्म से ले कर उन के विवाह तक न जाने कितने उतारचढ़ाव आए. जिन्हें दोनों ने एकसाथ झेला. फिर कभी एक पल को भी सत्येंद्र का विश्वास न डगमगाया.

विभा की आंख जब लगी, तब शायद सुबह हो चुकी थी, क्योंकि फिर वह सुबह देर तक सोई रही. किंतु उस दिन शनिवार होने के कारण तपन की छुट्टी थी, सो, किसी काम की कोई जल्दी न थी. मुंह धो कर जब विभा रसोई में पहुंची तो सुषमा चाय बना चुकी थी. उसे देखते ही चिंतित सी बोली, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है,’’ विभा ने कहा, ‘‘रात नींद ही बड़ी देर से आई.’’ सादगी से कही उस की इस बात पर तपन और सुषमा दोनों ही सोच में डूब गए. वे दोनों जानते थे कि उन के आपसी झगड़ों से मां का दिल दुखी हो उठता है और मुंह से कुछ भी न कह कर वे उस दुख को चुपचाप सह लेती हैं.

सुषमा के हाथ से कप ले कर विभा खामोशी से चाय पीने लगी. तपन पास आ कर बैठते हुए बोला, ‘‘चलो मां, तुम्हें कहीं घुमा लाते हैं.’’ ‘‘कहां चलना चाहते हो?’’ विभा ने हलके से हंस कर पूछा तो तपन और सुषमा दोनों के चेहरे चमक उठे.

‘‘चलो मां, किसी अच्छे गार्डन में चलते हैं. सुषमा थर्मस में चाय डाल लेगी और थोड़े सैंडविच भी बना लेगी, क्यों, ठीक है न?’’ ‘‘हांहां,’’ कहते हुए सुषमा ने जब तपन की ओर देखा तो उस नजर में उन दोनों के बीच हुए समझौते की झलक थी. विभा का चिंतित मन यह देख खुश हो गया.

नवंबर की धूप में गार्डन फूलों से लहलहा रहा था. शनिवार की छुट्टी होने के कारण अपने छोटे बच्चों को साथ ले कर आए बहुत से युवा जोड़े वहां घूम रहे थे. दिल्ली शहर के छोटे मकानों में रहने वाले मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे खुली हवा के लिए तरसते रहते हैं. अब इस समय यहां मैदान में बड़ी ही मस्ती से होहल्ला मचाते एकदूसरे के पीछे भाग रहे थे. बच्चों की इस खुशी का रंग उन के मातापिता के चेहरों पर भी झलक रहा था.

विभा का मन भी यहां की रौनक में डूब कर हलका हो उठा. सब से बड़ी बात तो यह थी कि तपन और सुषमा के बीच कल वाला तनाव खत्म हो गया था और वे दोनों सहज हो कर आपस में बातें कर रहे थे. एक तरफ पेड़ की छाया में साफ जगह देख कर सुषमा ने दरी बिछा दी. ठंडी बयार में फूलों की महक घुली थी. विभा को यह सब आनंद दे रहा था. दरी पर बैठी वह मन ही मन सोच रही थी कि आने वाले दिनों में शायद तपन और सुषमा भी जब यहां आएंगे तो नन्हें हाथ उन की उंगलियां थामे होंगे. यह सोच कर विभा का दिल एक सुखद एहसास से भीग उठा. अचानक सुषमा की आवाज से उस की विचारशृंखला टूटी, ‘‘मांजी, यह चाय ले लीजिए.’’

अचानक तपन बोला, ‘‘सुषमा, वह देखो, उधर शंकर और सविता बैठे हैं. चलो, मिल कर आते हैं.’’ किंतु सुषमा बोली, ‘तुम हो आओ, मैं यहां मांजी के साथ ही बैठूंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर तपन उधर चला गया. विभा ने एक गहरी नजर सुषमा पर डाली, जो घुटनों पर सिर रखे चुप बैठी थी. चाय पी कर गिलास नीचे रखते ही विभा उस के पास खिसक आई और पूछा, ‘‘तुम गई क्यों नहीं? शायद उस के दफ्तर का कोई दोस्त है.’’

‘‘क्या फायदा मांजी, फिर झगड़ाझंझट करेंगे. अब आप ही बताइए, इन के मित्र मुझ से बात करें तो क्या मैं अशिष्ट बन जाऊं? उन के साथ हंस कर बात करूं तो ये नाराज, और न करूं तो वे लोग बुरा मानेंगे. मैं तो बीच में फंस जाती हूं न. अब तो मैं इन के साथ पार्टियों में जाना भी बंद कर दूंगी, घर पर ही ठीक हूं,’’ सुषमा थोड़ा तल्खी से बोली.

विभा कुछ देर उस के खूबसूरत चेहरे को देखती रही जहां एक आहत सी अहं भावना की परछाईं थी. फिर कुछ सोच कर समझाते हुए बोली, ‘‘तपन तुम्हें बहुत चाहता है, इसी से उस में तुम्हारे प्रति यह भावना है. पति के दिल की एकछत्र स्वामिनी होना तो बड़े गर्व की बात है.’’

‘‘वह तो ठीक है,’’ सुषमा का चेहरा शर्म से लाल हो गया, ‘‘किंतु जब औरों को देखती हूं तो लगता है कि उन्हें इस बात की चिंता ही नहीं कि उन की पत्नियां कहां, किस से बातें कर रही हैं.’’ ‘‘तब तो तुम यह भी देखती होगी कि वही लोग कभीकभी शराब के नशे में डूबे उन से गलत व्यवहार भी करते होंगे?’’

‘‘यह सब तो कभीकभी चलता है, इन पार्टियों में सभी तरह के लोग होते हैं.’’

‘‘तो फिर अब इस बात को भी समझो कि तुम्हारे साथ किसी का गलत व्यवहार तपन को कभी सहन न होगा. विवाहित जीवन में पति का अंकुश पत्नी पर और पत्नी का अंकुश पति पर होना बहुत जरूरी है. यही एक सफल दांपत्य जीवन का मंत्र है, जहां पतिपत्नी दोनों एकदूसरे को गलत कामों के लिए टोक सकते हैं, एकदूसरे को सही राह दिखा सकते हैं. किंतु इस के लिए विश्वास की मजबूत नींव जरूरी है, जिस में एकदूसरे के इस टोकने को गलत न समझा जाए, बल्कि उस के मूल में छिपी सही विचारधारा को समझा जाए, सुषमा, इस अधिकार को एक का दूसरे पर शासन मत समझो बल्कि एक की दूसरे के प्रति अतिशय प्रेम की अभिव्यक्ति समझो. ‘‘यदि तुम्हें वह सदैव अपनी नजरों के सामने रखना चाहता है तो यह तुम्हारा बहुत बड़ा सम्मान है. पति जिस स्त्री का सम्मान करता है, उस का सम्मान सारी दुनिया करती है, इसे हमेशा याद रखना.’’

इतना सबकुछ एक सांस में ही कह चुकने के बाद विभा खामोश हो गई. उस की बातें बड़े गौर से सुनती सुषमा के सामने विवाहिता जीवन का एक नया ही रहस्य खुला था कि आज के इस नारीमुक्ति युग में पति का पत्नी पर अपना अधिकार साबित करना कोई अमानवीय काम नहीं बल्कि उस के अखंड प्रेम का संकेत है.

सुषमा सोचने लगी कि न जाने उस की कितनी सहेलियां अकेली घूमतीफिरती हैं, अकेली ही पार्टियों में भी जाती हैं. किंतु सच तो यह है कि सुषमा को उन पर बड़ी दया आती है, क्योेंकि अकसर ही उन्हें किसी न किसी पुरुष के गलत व्यवहार का शिकार होना पड़ता है, जिस से उन को बचाने वाला वहां कोई नहीं होता. लेकिन उस के साथ तो उलटा ही है, किसी की टेढ़ी तो क्या, सीधी नजर भी उस पर पड़े तो पति सह नहीं पाता. हमेशा ढाल बन कर खड़ा हो जाता है. इसलिए तो आज तक कभी किसी पार्टी में उस के साथ गलत व्यवहार करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई. बुरे से बुरा व्यक्ति भी उस के सामने आ कर इज्जत से हाथ जोड़ कर उसे ‘भाभीजी’ ही कहता है. फिर वह खुद भी तो किसी को ऐसा ओछा व्यवहार करने का मौका नहीं देती.

किंतु उस की मर्यादा का सजग प्रहरी तो तपन ही है न, उस का अपना तपन, जो इन पार्टियों में हर समय साए की तरह उस के साथ रहता है. अकसर उस के दोस्त हंसते भी हैं और कहते भी हैं, ‘बीवी को कभी अकेला छोड़ता ही नहीं.’ किंतु तपन उन के हंसने या मजाक बनाने की कतई परवा नहीं करता. ये विचार मन में आते ही सुषमा को अपने तपन पर बहुत ज्यादा प्यार आया. उस की इच्छा हो रही थी कि दौड़ कर जाए और दूर खड़े तपन के गले में अपनी बांहें डाल दे और कहे, ‘अब मैं तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं मानूंगी. मांजी ने मेरी आंखों से नासमझी का परदा उठा दिया है. तुम्हारी नाराजगी का भी सम्मान करूंगी, क्योंकि वह मेरा सुरक्षाकवच है. मेरे अब तक के व्यवहार के लिए मुझे माफ कर दो.’

मन ही मन इन विचारों में घिरी सुषमा का चेहरा विश्वास की आभा से जगमगा रहा था. आंखों में मानो प्यार के दीए जल उठे थे. बड़ी बेसब्री से वह तपन के आने की प्रतीक्षा कर रही थी. सुषमा सोच रही थी कि कैसी अजीब बात है कि जब तक वह घटनाओं से खुद को जोड़े हुए थी, कुछ भी साफ देख, समझ नहीं पा रही थी, किंतु जब घटनाओं से अलग हो कर उस ने खुद को तटस्थ किया तो सबकुछ शीशे की तरह साफ हो गया. उस के अपने ही दिल ने पलभर में सहीगलत का फैसला कर लिया.

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