लेखिका- जूही विजय

सूरज निकलने में अभी कुछ वक्त और था. रात के कालेपन और सुबह के उजालेपन के बीच जो धूसर होता है वह अपने चरम पर चमक रहा था. चारों तरफ एक सर्द खामोशी छाई हुई थी. इस मुरदा सी खामोशी का हनन तब हुआ जब मीनल एकाएक हड़बड़ा कर उठ बैठी. वह कुछ इस तरह कांप रही थी जैसे उस के शरीर के भीतर बिजली सी कौंधी हो. उस की सांसें लगभग दौड़ रही थीं.

अपने आसपास देख उसे कुछ राहत हुई और उस ने तसल्ली जैसी किसी चीज की ठंडी आह भरी. वह एक बुरा सपना था. उसे अपने सपने पर खीज हो आई. ज्यादा खीज शायद इस बाबत कि आज भी कोई बुरा सपना आने पर वह बच्चों सी सहम जाती है. उस ने घड़ी की और देखा तो एक नई निराशा ने उसे घेर लिया. वह घंटों का जोड़भाग करती कि उसे याद हो आया की कमरे में वह अकेली नहीं है. उसे हैरत हुई कि जो कुछ सामने हो उसे कितनी आसानी से भूला जा सकता है. वह धीमे कदमों से हौल की तरफ बढ़ी. उसे यह देख राहत हुई की उस की हलचल से रजत की नींद में कोई खलल नहीं पड़ा था.

वह अपना सपना भूल एकटक रजत को निहारने लगी. जिसे आप प्रेम करते हों उसे चैन से सोते हुए देखना भी अपनेआप में एक बहुत बड़ा सुख होता है. वह खड़ी हुई और धीमे कदमों से, पूरी सावधानी बरतते हुए ताकि कोई शोर न हो, कमरे में टहलने लगी. अनायास ही कांच की लंबी खिड़की के सामने आ कर उस के कदम ठिठक गए. उस की नजर कांच की लंबी खिड़की से बाहर पड़ी तो उस की आखों में जादू भर आया.

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