Love Story : जब प्रोफेसर को स्टूडेंट ने सिखाई प्यार की परिभाषा

Love Story :  सपना जा चुकी थी लेकिन प्रोफैसर सावंत के दिल में तो जैसे समंदर की लहरें टकरा रही थीं. मायूसी और निराशा के भंवर में डूबे वे सपना के बारे में सोचते रहे. धीरेधीरे अतीत की यादों के चलचित्र उन के स्मृति पटल पर सजीव होने लगे…

उस दिन प्रोफैसर सावंत एम.ए. की क्लास से बाहर आए ही थे कि कालेज के कैंपस में उन्हें सपना खड़ी दिखाई दी. वह उन की ओर तेज कदमों से आगे बढ़ी. प्रोफैसर उसे कैसे भूल सकते थे. आखिर वह उन की स्टूडैंट थी. उन के जीवन में शायद सपना ही थी जिस ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था. सफेद सलवारसूट और लाल रंग की चुन्नी में वह बला की खूबसूरत लग रही थी. नजदीक आते ही सपना हांफते स्वर में बोली, ‘‘गुड मौर्निंग सर, कैसे हैं आप?’’

‘‘मौर्निंग, अच्छा हूं. आप सुनाओ सपना, कैसी हो?’’ प्रोफैसर ने हंसते हुए पूछा.

‘‘अच्छी हूं…कमाल है सर, आप को मेरा नाम अभी भी याद है,’’ सपना ने खुश होते हुए कहा.

‘‘यू आर राइट सपना, लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें भूलना आसान नहीं होता…’’

प्रोफैसर जैसे अतीत की गहराइयों में खोने लगे. सपना ने टोकते हुए कहा, ‘‘सर, मैं आप से एक समस्या पर विचार करना चाहती हूं.’’

‘‘क्यों नहीं, कहो… मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं?’’

‘‘सर, मेरी सिविल सर्विसेज की परीक्षाएं हैं, मैं उन्हीं के लिए आप से कुछ चर्चा करना चाहती थी.’’

‘‘बड़ी खुशी की बात है. चलो, डिपार्टमैंट में बैठते हैं,’’ प्रोफैसर सावंत ने कहा.

अंगरेजी विभाग में सपना प्रोफैसर सावंत के पास की कुरसी पर बैठी थी और गंभीर मुद्रा में नोट्स लिखने में व्यस्त थी. अचानक प्रोफैसर को अपने पैर पर पैर का स्पर्श महसूस हुआ, उन्होंने फौरन सपना की ओर देखा. वह अपनी नोटबुक में डिक्टेशन लिखने में व्यस्त थी.

भावहीन, गंभीर मुखमुद्रा. सावंत को अपनी सोच पर पछतावा हुआ. यह बेखयाली में हुई साधारण सी बात थी. कुछ समय बाद प्रोफैसर सावंत से उन का मोइबल नंबर लेते हुए सपना ने अपने चिरपरिचित अंदाज में पूछा, ‘‘सर, मैं फिर कभी आप को परेशान करूं तो आप बुरा तो नहीं मानेंगे?’’

‘‘अरे नहीं, तुम को जब भी जरूरत हो, फोन कर सकती हो,’’ प्रोफैसर ने खुश होते हुए कहा.

मुसकराती हुई सपना जा चुकी थी. प्रोफैसर सावंत को अपने कमरे में एक अनोखी महक, अभी भी महसूस हो रही थी. उन्हें लगा शायद इस सुगंध का कारण सपना ही थी. प्रोफैसर फिर विचार शृंखला में डूब गए. लगभग 4 साल पहले एम.ए. कर के गई थी सपना. वे उस की योग्यता और अन्य खूबियों से बेहद प्रभावित थे. वह यूनिवर्सिटी टौपर भी रही थी. प्रोफैसर की 15 साल की सर्विस में सपना उन की बेहद पसंदीदा छात्रा रही थी. प्रोफैसर थे भी कुछ ज्यादा ही संवेदन- शील और आत्मकेंद्रित. हमेशा जैसे अपनी ही दुनिया में खोए रहते थे, लेकिन छात्रों में वे बड़े लोकप्रिय थे.

लगभग 8-10 दिन बीते होंगे कि एक दिन शाम को सपना का फोन आ गया. प्रोफैसर सावंत की खूबी थी कि वे हमेशा अपने विद्यार्थियों की समस्याओं का समाधान करते थे. कालेज में अथवा बाहर, घर में वे हमेशा तैयार रहते थे. उन्हें खुशी थी कि सपना अपना भविष्य संवारने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रही थी. 2 दिन बाद उन के मोबाइल पर सपना द्वारा भेजा एक एस.एम.एस. आया. लिखा था, ‘‘अगर आप को मैं एक पैन दूं तो आप मेरे लिए क्या संदेश लिखेंगे…रिप्लाई, सर.’’

प्रोफैसर ने ध्यान से संदेश पढ़ा. उन्होंने जवाब दिया, ‘‘दुनिया में अच्छा इंसान बनने का प्रयास करो.’’ यही तो उन का जीवनदर्शन था. इंसान हैवानियत की ओर तो तेजी से बढ़ रहा है लेकिन उस की इंसानियत पीछे छूटती जा रही है. भौतिकवाद की अंधी दौड़ में जैसे सब अपने जीवनमूल्यों और संवेदनाओं को व्यर्थ का कचरा समझ भूलते जा रहे हैं. उन का अपना जीवन इसी विचार पर तो टिका हुआ था. अड़चनों व संघर्षों के बाद भी सावंत अपने विचार बदल नहीं पाए थे. उन की पत्नी स्नेहलता उन के विचारों से कतई सहमत नहीं थीं. वे व्यावहारिक और सामान्य सोच रखती थीं, जिस में स्वहित से ऊपर उठने की ललक नहीं थी.

प्रोफैसर का वैवाहिक जीवन बहुत संघर्षमय था. गृहस्थी की गाड़ी यों ही घिसटती हुई चल रही थी. 36 साल की उम्र होने पर भी प्रोफैसर दुनियादारी से दूर रहते हुए किताबों की दुनिया में खोए रहना ही ज्यादा पसंद करते थे. नियति को भी शायद यही मंजूर था. सावंत के बचपन, जवानी और प्रौढ़ावस्था के सारे वसंत खाली और सूनेसूने गुजरते गए. उन्होंने अपनों या परायों के लिए क्या नहीं किया. शायद इसे वे अपनी सब से बड़ी पूंजी समझते थे. उन्हें पता था कि दुनिया वालों की नजर में वे अच्छे इंसान बन पाए थे. कारण ‘अच्छे’ की परिभाषा पर विवाद से ज्यादा जरूरी आत्मसंतोष का भाव था जो दूसरों के लिए कुछ करने से पहले ही महसूस हो सकता है.

कुछ दिन बीते होंगे कि सपना का फिर से फोन आ गया. अब तो प्रोफैसर सावंत को उस की सहायता करना सुकून का काम लगता था, लेकिन एक बड़ी घटना ने उन के जीवन में तूफान ला दिया. 1-2 दिन के बाद सपना का पहले वाला ही एस.एम.एस. फिर आया कि मेरे लिए… एक संदेश प्लीज.

प्रोफैसर सोच में पड़ गए. सपना थी बेहद बुद्धिमान, शोखमिजाज और हंसमुख. मजाक करना उस की आदत में शुमार था. पता नहीं उन को क्या सूझा, उन्होंने वह मैसेज ज्यों का त्यों सपना को रीसैंड कर दिया. थोड़ी देर बाद ही उस का उत्तर आया, ‘‘आई लव यू सर.’’

प्रोफैसर सावंत को अपने शरीर में 440 वोल्ट का करंट सा प्रवाहित होता महसूस हुआ. उन्हें कल्पना नहीं थी कि सपना ऐसा संदेश उन्हें भेज सकती है. काफी देर तक वे सकते की हालत में सोचते रहे. फिर उन्होंने सपना को रिप्लाई किया, ‘‘यह मजाक है या गंभीरता से लिखा है.’’

सपना का जवाब आया, ‘‘सर, इस में मजाक की क्या बात है?’’

अब तो प्रोफैसर सावंत की हालत देखने लायक थी. यह सच था कि सपना उन्हें बहुत प्रिय थी लेकिन उन्होंने उसे कभी प्रेम की नजर से नहीं देखा था. अब उन्हें बेचैनी महसूस हो रही थी. उन्होंने सपना को एस.एम.एस. भेजा, ‘‘आप ‘लव’ की परिभाषा जानती हैं?’’

प्रोफैसर सावंत के एस.एम.एस. के जवाब में सपना का रिप्लाई था, ‘‘क्यों नहीं सर…प्रेम तो देने की अनुभूति है, कुछ लेने की नहीं…प्रेम में इंसान सबकुछ खो कर भी खुशी महसूस करता है, ‘लव’ तो सैक्रीफाइस है न सर…’’

क्या जवाब देते प्रोफैसर? उन्होंने इस बातचीत को यहीं विराम दिया और अपने कमरे में बैठ कर अपना ध्यान इस घटना से हटाने का प्रयास करने लगे. न चाहते हुए भी उन के मस्तिष्क में वह संदेश उभर आता था.

यह सच है कि कृत्रिम नियंत्रण से मानव मन की भावनाएं, संवेदनाएं सुषुप्त हो सकती हैं लेकिन लुप्त कभी नहीं हो पातीं. जीवन का कोई विशेष क्षण उन्हें पुन: जागृत कर सकता है. प्रोफैसर के दिल में कुछ ऐसी ही उथलपुथल मच रही थी. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि यह सही है या गलत. नैतिक है या अनैतिक. कुछ दिन इसी कशमकश में बीत गए.

अगले सप्ताह अचानक सपना कालेज में दिखाई दी. उसे देखते ही प्रोफैसर सावंत को अपना सारा बनावटी कंट्रोल ताश के पत्तों की तरह ढहता महसूस होने लगा. आज उन की नजर कुछ बदलीबदली लग रही थी.

‘‘क्या देख रहे हैं, सर?’’ अचानक सपना ने टोका.

सावंत को लगा जैसे चोरी करते रंगे हाथों पकड़े गए हों. लड़खड़ाती जबान से बोले, ‘‘कुछ नहीं, बस ऐसे ही…’’ उन्हें लगा शायद सपना ने उन की चोरी पकड़ ली थी. कुछ देर बाद सपना बोली, ‘‘सर, पेपर में आप का लेख पढ़ा, अच्छा लगा. मैं और भी पढ़ना चाहती हूं. प्लीज, अपनी लिखी कोई पुस्तक दीजिए न.’’

एक लेखक के लिए इस से अच्छी और क्या बात हो सकती है कि कोई प्रशंसक उस की रचनाओं के लिए ऐसी उत्सुकता दिखाए. उन्होंने फौरन अपनी एक पुस्तक सपना को दे दी. उन की नजर अब भी सपना को निहार रही थी. सपना पुस्तक के पन्नों को पलट रही थी तो सावंत ने हिम्मत जुटाते हुए पूछा, ‘‘उस दिन तुम ने मेरे साथ ऐसा मजाक कैसे किया, सपना?’’

‘‘वह मजाक नहीं था सर, आप ऐसा क्यों सोचते हैं?’’ सपना ने प्रत्युत्तर में प्रश्न किया, ‘‘क्या किसी से प्रेम करना गलत है? मैं आप से प्रेम नहीं कर सकती?’’

प्रोफैसर हड़बड़ा कर बोले, ‘‘वह सब तो ठीक है सपना लेकिन क्या मैं गलत नहीं हूं? मैं तो शादीशुदा हूं. यह अनैतिक नहीं होगा क्या?’’

‘‘मैं ने यह कब कहा सर कि आप मुझ से प्रेम कीजिए. मुझे आप अच्छे लगते हैं, इसलिए मैं आप को चाहती हूं, आप से प्रेम करती हूं लेकिन आप से कोई उम्मीद नहीं करती सर,’’ सपना ने दृढ़ता से कहा.

सावंत को अपना सारा ज्ञान व अनुभव इस युवती के आगे बौना महसूस होने लगा. अब उन के दिल में भी प्रेम की तरंगें उठने लगीं लेकिन उन्हें व्यक्त करने का साहस उन में नहीं था. कुछ समय के बाद सपना चली गई. सावंत अब अपनेआप को एकदम बदलाबदला सा महसूस करने लगे क्योंकि आज सही मानों में उन्होंने सपना को देखा था. उन्हें लगा, उस के जैसा सौंदर्य दुनिया में शायद ही किसी लड़की में दिखाई दे. अब प्राय: रोज ही मोबाइल पर उन के बीच संवाद होने लगा. प्रोफैसर सावंत को हरपल उस का इंतजार रहता. हमेशा उस की यादों और कल्पनाओं में खोएखोए से रहने लगे.

कल तक जो बातें प्रोफैसर को व्यर्थ लगती थीं, अब वे सरस और मधुर लगने लगीं. यह सही है कि प्यार में बड़ी ताकत होती है. वह इंसान का कायापलट कर सकता है. प्रोफैसर के दिमाग में अब सपना के अलावा कुछ न था. आंखों में बस सपना का ही अक्स समाया रहता. जहां भी जाते, बाजार में उन्हें वे सब चीजें आकर्षित करने लगतीं जिन्हें देख कर उन्हें लगता कि सपना के लिए अच्छा गिफ्ट रहेंगी. कभी ड्रेस तो कभी कुछ, अनायास ही वे बहुतकुछ खरीद लाते. लेकिन इस तरह के गिफ्ट सपना ने 1-2 ही लिए थे वह भी बहुत जोर देने पर.

समय पंख लगा कर उड़ने लगा. दोनों को परस्पर बौद्धिक वार्त्तालाप में भी प्रेम की अनोखी अनुभूति महसूस हुआ करती थी. सपना का एक कथन सावंत के दिल को छू गया, ‘‘आप की खुशी में ही मेरी खुशी है सर, मेरे लिए सब से बड़ा गिफ्ट यही है कि आप मुझे अपना समय देते हैं, मुझे याद करते हैं.’’

खाली समय में सावंत अपने हिसाब से इन वाक्यों का विश्लेषण करते. इन कथनों का मनमाफिक अर्थ निकालने का प्रयास करते. इस प्रक्रिया में उन्हें अनोखा आनंद आता. उन की कल्पनाओं का चरम बिंदु अब सपना पर संकेंद्रित हो चुका था. लेखन का प्रेरणास्रोत अब सपना ही थी. लेकिन यह जीवन है जिस में विचित्रताओं का ऐसा घालमेल भी रहता है, जो अकसर संशय की स्थिति उत्पन्न करता रहता है.

उस दिन सावंत अपने विभाग में बैठे थे कि अचानक सपना आ गई. इस तरह बगैर किसी सूचना के उसे अपने सामने खड़ा देख प्रोफैसर बहुत खुश हुए. सपना से वे आज बहुतकुछ कहने के मूड में थे. सपना बहुत खुश लग रही थी. दोनों के बीच बातचीत चल ही रही थी कि अचानक सपना ने अपना हैंडबैग खोल कर एक कार्ड प्रोफैसर के सामने रखा. पहले उन्हें लगा शायद किसी पार्टी का निमंत्रण कार्ड है. लेकिन कार्ड पर नजर पड़ते ही उन पर वज्रपात हुआ. वह सपना का ‘वैडिंग कार्ड’ था.

सपना अनुरोध करते हुए बोली, ‘‘सर, आप जरूर आइएगा. आप के बगैर मेरी शादी अधूरी है. आप मेरे सब से करीबी हैं इसलिए मैं स्वयं आप को निमंत्रित करने आई हूं.’’

सावंत अपने होंठों पर जबरन मुसकान ला कर कृत्रिम खुशी जाहिर करते हुए बोले, ‘‘हांहां, क्यों नहीं. मैं अवश्य आने का प्रयास करूंगा.’’

सपना हंसते हुए बोली, ‘‘नहीं सर, मैं कोई बहाना सुनना नहीं चाहती. आप को आना ही पड़ेगा, आखिर आप मेरा पहला प्यार हैं…’’

प्रोफैसर सावंत ने कोई जवाब नहीं दिया. पल भर में उन के अरमान मिट्टी में मिल गए थे. नैतिकताअनैतिकता के सारे प्रश्न, जिन से वे आजकल जूझते रहते थे, अब एकाएक व्यर्थ हो गए. सूनी जिंदगी की बेडि़यां उन्हें वापस अपनी ओर खिंचती हुई महसूस होने लगीं. मृगमरीचिका से उपजी हरियाली की उम्मीद एकाएक घोर सूखे और अकाल में तब्दील हो गई.

सपना जा चुकी थी. प्रोफैसर अपनी कुरसी पर सिर टिकाए आंखें मूंदे सोचते रहे. उन्हें यही लगा जैसे सपना वाकई एक स्वप्न थी, जो कुछ दिनों की खुशियों के लिए ही उन की जिंदगी में आई थी. समय की त्रासदी ने फिर उन की जिंदगी को बेजार बना दिया था. उन्हें लगा गलती सपना की नहीं, उन की ही थी जिन्होंने प्रेम की पवित्र भावना को समझने में भारी भूल कर दी थी. उन्हें अपना समस्त किताबी ज्ञान अधूरा महसूस होने लगा.

अचानक पीरियड की बजी घंटी से उन की तंद्रा टूटी. वे सुखद ख्वाब से वापस यथार्थ में लौट आए. अनमने भाव से वे क्लासरूम की ओर बढ़ गए, लेकिन उन का मन आज पढ़ाने में नहीं था. शाम को घर आ कर भी वे उदासी के आलम में ही खोए रहे. उन की पत्नी स्नेहलता ने उन के ब्रीफकेस में रखा सपना की शादी का कार्ड देख लिया था. इसीलिए कौफी पीते हुए पूछने लगीं, ‘‘क्या आप की फेवरेट सपना की शादी हो रही है? आप तो इस शादी में जरूर जाओगे?’’

सावंत को लगा जैसे किसी ने उन के जले घाव पर नमक छिड़क दिया हो. उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. स्नेहलता के साथ रह कर अपने वैवाहिक जीवन में सावंत ने कभी ‘स्नेह’ का अनुभव नहीं किया. इस समय उस की मुखमुद्रा से साफ झलक रहा था जैसे सपना की शादी का कार्ड उस के लिए खुशी के खजाने की चाबी जैसा था. विरक्त भाव से स्नेहलता ने कार्ड को एक तरफ पटकते हुए कहा, ‘‘बहुत सुंदर है…’’

सावंत अब भी चुप रहे. उन्होंने जवाब देने का उपक्रम नहीं किया. स्नेहलता ने फिर पूछा, ‘‘आप को तो शादी में जाना ही होगा, भला आप के बगैर सपना की शादी कैसे हो सकती है?’’ स्नेहलता के चेहरे पर मंद हंसी थिरक रही थी.

प्रोफैसर उठ कर अपने कमरे में चले गए. 2 दिन बाद सपना की शादी थी. उन्होंने शादी में न जाने का ही फैसला किया. सपना की शादी हो गई. अब वे जल्दी से सबकुछ भुला देना चाहते थे. उन का मन अब भी बेचैन और विचलित था, लेकिन धीरेधीरे उन्होंने अपने को संयत कर लिया. स्नेहलता के व्यंग्यबाण अब भी जारी थे. दिन बीतने लगे. सावंत ने अब अपना मोबाइल नंबर भी बदल लिया था. कारण, पुराने मोबाइल से सपना की यादें इस कदर जुड़ चुकी थीं कि उसे देखते ही उन के दिल में हूक सी उठने लगती थी.

आज सावंत घर में अकेले थे. मैडम किटी पार्टी में गई हुई थीं. अचानक दरवाजे की घंटी बजी. सावंत ने दरवाजा खोला तो देखा कि सामने सपना खड़ी थी. उस को सामने देख कर प्रोफैसर सावंत अचंभित रह गए. मुंह से एक शब्द भी न फूट सका. सपना ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘इजाजत हो तो अंदर आ जाऊं, सर.’’

सावंत एक तरफ हट कर खड़े हो गए. हड़बड़ाते हुए वे कुछ न कह सके.

सपना ड्राइंगरूम में बैठी थी. संयोग से इस समय नौकरानी भी नहीं थी. दोनों अकेले थे. सपना ने ही संवाद प्रारंभ किया, ‘‘आखिर आप नहीं आए न सर. मैं ने आप का कितना वेट किया.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है सपना… दरअसल, मैं व्यस्तता के चलते आना ही भूल गया था.’’

‘‘हां…सर. यह तो सही है, आप मुझे क्यों याद रखेंगे? लेकिन मैं तो आप को एक पल के लिए भी नहीं भूलती हूं… एहसास है आप को?’’

सपना की बातों को सावंत समझ नहीं पा रहे थे.

‘‘और सुनाओ, कैसी हो? कैसी रही तुम्हारी शादी,’’ प्रोफैसर सावंत ने विषय को बदलते हुए कहा.

‘‘शादी… शादी तो अच्छी ही होती है सर, शादी को होना था सो हो गई, बस…’’

सपना के जवाब का ऐसा लहजा सावंत को अखरने लगा. उत्सुकतावश उन्होंने पूछा, ‘‘ऐसा क्यों कहती हो सपना?’’

‘‘क्यों न कहूं सर, यह शादी तो एक औपचारिकता थी. मेरे मातापिता शायद मुझ से अपनी परवरिश का कर्ज वसूलना चाहते थे, इसलिए उन की इच्छा के लिए मुझे ऐसा करना पड़ा,’’ सपना के चेहरे पर दुख के भाव दिखाई दे रहे थे.

‘‘मैं समझा नहीं?’’ सावंत ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘दरअसल, मेरे पापा के ऊपर ससुराल वालों का लाखों रुपए का कर्ज था जिसे सूद सहित चुकाने के लिए ही मुझे बलि का बकरा बनाया गया. कर्ज और सूद की वसूली के लिए मेरे ससुराल वालों ने अपने बिगड़ैल बेटे का विवाह मुझ से कर दिया है. अब तो मेरे सारे अरमानों पर पानी फिर गया है.’’

‘‘तो क्या तुम इस शादी के लिए सहमत नहीं थीं?’’ प्रोफैसर ने बेसब्री से पूछा.

‘‘नहीं…बिलकुल नहीं. यह मेरे पिता की मजबूरी थी. मैं इस शादी से संतुष्ट नहीं हूं,’’ सपना ने दृढ़ता से जवाब दिया.

‘‘सपना, रीयली तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय हुआ है,’’ प्रोफैसर ने दुखी होते हुए कहा.

‘‘इट्स ए पार्ट औफ लाइफ बट नौट द ऐंड…सर. उन्होंने मेरे शरीर पर ही तो विजय पाई है दिल पर तो नहीं,’’ सपना के चेहरे पर अब हंसी साफ नजर आ रही थी.

थोड़ी देर बाद सपना चली गई लेकिन उस ने प्रोफैसर का नया मोबाइल नंबर पुन: ले लिया था. कुछ देर बाद पत्नी स्नेहलता भी आ गईं. शायद उन की छठी इंद्री कुछ ज्यादा ही सक्रिय थी सो, उन्होंने घर में प्रवेश करते ही पूछा, ‘‘यहां अभी कोई आया था क्या?’’

‘‘हां…सपना आई थी,’’ प्रोफैसर ने दृढ़ता से जवाब दिया.

‘‘ओह, तभी मैं कहूं कि यह महक कहां से आ रही है. आप के चेहरे की ऐसी खुशी मुझे सबकुछ बता देती है,’’ पत्नी के कटाक्ष पुन: चालू हो गए.

दूसरे दिन प्रोफैसर के मोबाइल पर सपना का एस.एम.एस. आ गया, ‘‘यथार्थ के साथ विद्रोह या समझौते में से कौन सा विकल्प बेहतर है?’’

प्रोफैसर का खुद पर से नियंत्रण अब फिर से हटने लगा था. प्रेम में असीम शक्ति होती है. अत: सपना के साथ मोबाइल पर पुन: संवाद चालू हो गया. उन्होंने रिप्लाई किया, ‘‘जीवन में दोनों का अपनाअपना विशिष्ट महत्त्व है या यों समझें कि महत्त्व संदर्भ का है.’’

सपना का पुन: संदेश आया, ‘‘दिल की आवाज और दुनिया की झूठी प्रथाएं या परंपराओं का बोझ ढोने से बेहतर है इंसान विद्रोह करे. एम आई राइट सर?’’

प्रोफैसर ने रिप्लाई किया, ‘‘यू आर यूनीक, तुम जो करोगी सोचसमझ कर ही करोगी.’’

पता नहीं सपना को उन का जवाब कैसा लगा लेकिन उन दोनों का मेलजोल बढ़ता गया. वह सिविल सर्विसेज की तैयारी के सिलसिले में अकसर कालेज आया करती थी. प्रोफैसर को उस के हावभाव या व्यवहार से कहीं नहीं लगता था कि उस की नईनई शादी हुई है. वह तो जैसे अपने मिशन की सफलता के लिए पूरी गंभीरता से जुटी पड़ी थी. सपना की मेहनत रंग लाई. सिविल सर्विसेज में उस का चयन हो गया. सावंत की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

सपना की ऐसी शानदार सफलता के कारण शहर की विभिन्न संस्थाओं की तरफ से उस के लिए अभिनंदन समारोह आयोजित किया गया. सपना की जिद के कारण सावंत उस में शरीक हुए. मैडम स्नेहलता न चाहते हुए भी सपना के आग्रह के कारण प्रोफैसर के साथ गईं.

एक समारोह में जब सपना को सम्मानित किया जा रहा था तब सपना ने स्टेज से जो वक्तव्य दिया, वह शायद सावंत के जीवन की सर्वश्रेष्ठ अनुभूति रही. सपना ने अपनी सफलता का संपूर्ण श्रेय प्रोफैसर सावंत को दिया और अपने सम्मान से पहले उन का सम्मान कराया. अन्य लोगों के लिए शायद यह घटना थी लेकिन सपना, उस के पति अनुराग त्रिपाठी, प्रोफैसर सावंत और मैडम स्नेहलता के लिए यह साधारण बात नहीं थी. कोई खुश था तो कोई ईर्ष्या से जलाभुना जा रहा था. सपना का पति तो इस घटना से इतना नाराज हो गया कि कुछ दिन के बाद सपना को तलाक ही दे बैठा. शायद सपना के लिए यह नियति का उपहार ही था.

प्रशिक्षण के बाद सपना की तैनाती दिल्ली में हो गई. 1-2 वर्ष का समय बीत चुका था. जिम्मेदारियों के बोझ ने उस की व्यस्तता को और बढ़ा दिया था. दोनों का संपर्क अब भी कायम रहा. अचानक एक दिन ऐसी घटना घटित हुई कि दोनों की दोस्ती को एक नई दिशा मिल गई.

एक दिन एक सड़क दुर्घटना में प्रोफैसर सांवत को गहरी चोट लगी. वे अस्पताल में भरती थे. उन की हालत बेहद नाजुक बनी हुई थी. उन्हें ‘ओ निगेटिव’ ग्रुप के खून की सख्त जरूरत थी. मैडम स्नेहलता विदेश यात्रा पर गई थीं. उन्हें सूचना दी गई किंतु उन्होंने शीघ्र आने का कोई उपक्रम नहीं किया, लेकिन उन के छात्र उन का जीवन बचाने के लिए जीतोड़ प्रयास कर रहे थे.

खून की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी. पता नहीं कैसे सपना को इस घटना का पता चला और वह सीधे अस्पताल पहुंच गई. संयोग से उस का ब्लड ग्रुप भी ‘ओ निगेटिव’ ही था और समय पर रक्तदान कर के उस ने सावंत सर की जान बचा ली. कुछ घंटे बाद जब उन्हें होश आया तो बैड के नजदीक सपना को देख वे बेहद खुश हुए. परिस्थितियों ने जैसे उन के अनोखे प्रेम की पूर्ण व्याख्या कर दी थी. प्रेम अनोखा इसलिए था कि इस में कोई कामलिप्सा तो नहीं थी लेकिन एक अद्भुत शक्ति, संबल और आत्मबल कूटकूट कर भरा था.

सावंत को लगा कि सपना कोई स्वप्न नहीं बल्कि हकीकत में उन की अपनी है. जो ख्वाब देखती है लेकिन खुली आंखों से. अब उन्होंने हकीकत को स्वीकार करने का दृढ़ निश्चय कर लिया था. संभवत: अब उन में इतना साहस आ चुका था.

Family Drama In Hindi- अब पता चलेगा: राधा क्या तोड़ पाई बेटी संदली की शादी

28दुबई से संदली उत्साह से भरे स्वर में अपने पापा विकास और मम्मी राधा को बता रही थी,”पापा, मैं आप को जल्दी ही आर्यन से मिलवाउंगी. बहुत अच्छा लड़का है. मेरे साथ उस का एमबीए भी पूरा हो रहा है. हम दोनों ही इंडिया आ कर आगे का प्रोग्राम बनाएंगे.”

विकास सुन कर खुश हुए, कहा,”अच्छा है,जल्दी आओ, हम भी मिलते हैं आर्यन से. वैसे कहां का है वह?”

”पापा, पानीपत का.”

”अरे वाह, इंडियन लड़का ही ढूंढ़ा तुम ने अपने लिए. तुम्हारी मम्मी को तो लगता था कि तुम कोई अंगरेज पसंद करोगी.‘’

संदली जोर से हंसी और कहा,”मम्मी को जो लगता है, वह कभी सच होता है क्या? फोन स्पीकर पर है पर मम्मी कुछ क्यों नहीं बोल रही हैं?”

”शायद उसे शौक लगा है आर्यन के बारे में जान कर.”

राधा का मूड बहुत खराब हो चुका था. वह सचमुच जानबूझ कर कुछ नहीं बोलीं.

जब विकास ने फोन रख दिया तो फट पड़ीं,”मुझे तो पता ही था कि यह लड़की पढ़ने के बहाने से ऐयाशियां करेगी. अब पता चलेगा पढ़ने भेजा था या लड़का ढूंढ़ने.”

”क्या बात कर रही हो, जौब भी मिल ही जाएगा. अब अपनी पसंद से लड़का ढूंढ़ लिया तो क्या गलत किया? संदली समझदार है, जो फैसला करेगी, अच्छा ही होगा.”

“अब पता चलेगा कि इस लड़की की किसी से निभ नहीं सकती, न किसी काम की अकल है, न कोई तमीज.और जो यह लोन ले रखा है, शादी कर के बैठ जाएगी तो कौन उतारेगा लोन? मुझे पता ही था कि यह लड़की कभी किसी को चैन से नहीं रहने दे सकती,” राधा जीभर कर संदली को कोसती रहीं.

विकास को उन पर गुस्सा आ गया, बोले,”तुम्हें तो सब पता रहता है. बहुत अंतरयामी समझती हो खुद को.पता नहीं कैसे इतना ज्ञानी समझती हो खुद को.

“आसपड़ोस की अपनी जैसी हर समय कुड़कुड़ करने वाली लेडीज की बातों के अलावा कुछ भी पता है कि क्या हो रहा है दुनिया में?”

हर बार की तरह दोनों का गुस्स्सा रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था.

विकास ने जूते पहनते हुए कहा, “मैं ही जा रहा हूं थोड़ी देर बाहर, अकेली बोलती रहो.”

यह कोई पहली बार तो हुआ नहीं था. बातबेबात किचकिच करने वाली राधा का तकियाकलाम था,’अब पता चलेगा.’

बड़ी बेटी प्रिया कनाडा में अपनी फैमिली के साथ रहती थी, संदली फिलहाल दुबई में थी. कोई भी कैसी भी बात करता, राधा हमेशा यही कहतीं कि उन्हें सब पता था. उन का कहना था कि उन्होंने इतनी दुनिया देखी है, उन्हें हर बात का इतना ज्ञान है कि कोई भी बात उन से छिपी नहीं रहती, फिर चाहे कुकिंग की बात हो या फैशन की.

यहां तक कि राजनीति की हलचल पर भी कोई बात होती तो उन का कहना होता कि उन्हें तो पता ही था कि फलां पार्टी यह करेगी. 1-2 दिन पहले वे किसी से कह रहीं थीं कि उन्हें तो पता ही था कि अब किसान आंदोलन होगा.

उन की बात सुनते हुए विकास ने बाद में टोका था,”ऐसी हरकतें क्यों करती हो, राधा? किसान आंदोलन होगा, यह भी तुम्हें पता था, कुछ तो सोच कर बोला करो.”

”अरे,मुझे पता था कि कुछ ऐसा होगा.”

विकास चुप हो गए, पता नहीं कौन सी ग्रंथि है राधा के मन में जो वह हर बात में घर में किसी न किसी बात में हावी होने की कोशिश करती थी. कई बार विकास अपने रिश्तेदारों के सामने राधा की बातों से शर्मिंदा भी हो जाते थे. बेटियां भी इस बात से हमेशा बचती रहीं कि राधा के सामने उन की फ्रैंड्स आएं.

विकास अंधेरी में एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत थे. आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी पर राधा कंजूस भी थी और बहुत तेज भी, साथ ही उन्हें अपने उस ज्ञान पर भी बहुत घमंड था जो ज्ञान दूसरों की नजर में मूर्खता में बदल चुका था. अजीब सी आत्ममुग्ध इंसान थीं.

घर में उन के व्यवहार से सब हमेशा दुखी रहते. राधा ने संदली को अगले दिन फोन किया और सीधे पूछा,”अभी शादी कर लोगी तो तुम्हारा लोन कौन चुकाएगा?”

”मैं इंडिया आ कर जौब करूंगी, लोन उतार दूंगी. अभी हम दोनों सीधे मुंबई ही आ रहे हैं, आर्यन को आप लोगों से मिलवा दूं?”

राधा ने कोई उत्साह नहीं दिखाया. संदली ने उदास हो कर फोन रख दिया. संदली और आर्यन को एअरपोर्ट से लेने विकास खुद जा रहे थे.

प्रोग्राम यह तय हुआ कि विकास औफिस से सीधे एअरपोर्ट चले जाएंगे. देर रात सब घर पहुंचे तो राधा ने सब के लिए डिनर तैयार कर रखा था. आर्यन उन्हें पहली नजर में ही बहुत अच्छा लगा पर बेटी से मन ही मन नाराज थीं कि पढ़ने भेजा था, लड़का पसंद कर के घर ले आई है.

उन्हें विकास पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था कि अभी से कैसे आर्यन को दामाद समझ रहे हैं. संदली फोन पर पहले ही बता चुकी थी कि पानीपत में आर्यन के पिता का बहुत लंबाचौड़ा बिजनैस है. बहुत धनी, आधुनिक परिवार है. 2 ही भाई हैं, आर्यन बड़ा है, छोटा भाई अभय अभी पढ़ रहा है.

आर्यन से मिलने, उस से बातें करने के बाद कोई कारण ही नहीं था कि राधा कुछ कमी निकालती पर यह बात हजम ही नहीं हो रही थी कि बेटी ने अपने लिए लड़का खुद पसंद कर लिया है.

विकास को भी आर्यन बहुत पसंद आया था. वह ऐसे घुलमिल गया था कि जैसे कब से इस परिवार का ही सदस्य है.

डिनर करते हुए संदली ने कहा,”मम्मी, हम दोनों अब कल ही दिल्ली जा रहे हैं. वहां आर्यन के पेरैंट्स हमें एअरपोर्ट पर लेने आ जाएंगे. मुझे भी उन से मिलना है. मैं जल्दी ही वापस आ जाउंगी.”

राधा ने कहा,”मुझे तो पता ही था कि तुम हम से पूछोगी भी नहीं, खुद ही होने वाले ससुराल पहुंच जाओगी.अब पता चलेगा.’’

विकास ने आर्यन की उपस्थिति को देखते हुए मुसकरा कर बात संभाली,”यह तो अच्छा ही है न कि तुम अपनी बेटी को जानती हो, तुम्हें पता था, अच्छा है.”

संदली ने मां की बात पर ध्यान ही नहीं दिया. युवा मन अपने सपनों में खोया था, प्यार से बीचबीच में एकदूसरे को देखते संदली और आर्यन विकास को बड़े अच्छे लगे.

रात को अकेले में राधा भुनभुनाती ही रहीं. विकास ने टोका,”कभी तो किसी बात पर खुश रहना सीखो, राधा. इतना अच्छा लड़का पसंद किया है संदली ने. बेटी बहुत समझदार है हमारी, सब देखसुन कर ही मिलवाने लाई होगी.”

”यह शादी कर के बहुत पछ्ताएगी.देखना, इस की किसी से नहीं निभ सकती, कुछ नहीं आता है, बस सैरसपाटा, आराम करना आता है.अब पता चलेगा, यह शादी के बाद बैठ कर रोएगी.”

विकास को गुस्सा आ गया,”कैसी मां हो, बेटी के लिए बुरा सोचती हो, शेम औन यू,राधा.”

संदली को मां का मन अच्छी तरह पता था. वह अंदर से दुखी भी थी पर आर्यन से बहुत प्यार करने लगी थी, अब विवाह करना चाहती थी पर मां इस विषय पर उस के लिए अच्छा नहीं सोचेंगी, पता था उसे.

अगले दिन आर्यन और संदली चले गए. फिर एक दिन प्रिया का फोन आया, वह संदली के लिए खुश थी.

कहने लगी,”आर्यन बहुत अच्छे परिवार से है, संदली ने नेट पर देख लिया है, उन के बिजनैस के बारे में वह सब जानती है, सब देख कर ही उस ने आर्यन से शादी का मन बनाया है. ऐसा लड़का तो हम भी उस के लिए नहीं ढूंढ़ सकते थे.”

राधा बिफरी,”मुझे पता था तुम उस की ही साइड लोगी.”

”ओह मां, यह जो आप को हर बात पता होती है न, बड़े परेशान हैं हम इस से, कभी तो कोई बात आराम से सुन लिया करो.”

थोड़ी देर बाद फोन रख दिया गया. संदली ने वहां से आर्यन के पेरैंट्स अनिल और मधु से भी विकास और राधा की बात करवा दी. विकास को दोनों का स्वभाव बहुत अच्छा लगा, दोनों संदली से मिल कर खुश थे. अब जल्दी से जल्दी उसे अपनी बहू बनाना चाहते थे.

विकास ने भी इस विवाह के लिए सहमति दे दी तो उन्होंने कहा,”आप भी आ कर हमारा घर देख लीजिए, तसल्ली कर लीजिए कि संदली हमेशा खुश रहेगी. यह बात विकास को बहुत अच्छी लगी.

उन्होंने कहा,”हम भी जल्दी ही आते हैं.”

दोनों परिवार अब आगे का प्रोग्राम बनाने लगे. संदली 2 दिन में वापस आ गई.

बैग खोलते हुए ढेरों गिफ्ट्स दिखाते हुए बोली,”पापा, मम्मी, देखो उन लोगों ने तो गिफ्ट्स की बौछार कर दी. इतने प्यार से मिले कि क्या बताऊं. पापा, मैं बहुत खुश हुई वहां जा कर.”

राधा ने सब सामान देखा, कहा कुछ नहीं, उठ कर अपने काम में लग गईं. 10 दिन बाद संदली चली गई. कोर्स पूरा हो चुका था. संदली को वहीं नई नौकरी जौइन करनी थी.

आर्यन अब पानीपत में फैमिली का बिजनैस ही संभालने वाला था. अनिल और मधु मुंबई आए. होटल में ठहरे और विकास और राधा से मिलने घर आए. गजब के खुशमिजाज, सुंदर दंपत्ति को देख कर राधा हैरान थीं. वे दोनों विकास और राधा के लिए बहुत सारे गिफ्ट्स भी लाए.

राधा के हाथ का बना खाना खा कर उन की कुकिंग की खूब तारीफ की तो राधा ने कहा,”पर संदली को कुछ भी बनाना नहीं आता. पहले इसलिए बता रही हूं कि आप लोग हमें बाद में यह न कहें कि आप लोगों को बताया नहीं.”

मधु ने खुल कर हंसते हुए कहा,”बेटी बहुत प्यारी है आप की. उस ने मुझे खुद ही बता दिया कि उसे कोई काम नहीं आता और उसे हमारे यहां कुकिंग की जरूरत पड़ेगी भी नहीं. हमारे यहां 2 कुक हैं, किचन में तो मैं ही जल्दी नहीं घुसती, आजकल की लड़कियां कैरियर बनाने में मेहनत करती हैं, जब जरूरत होती है सब कर लेती हैं और वहां अकेली रह ही रही है न, बहुत कुछ अपनेआप करती भी होगी.”

राधा चुप रहीं. अनिल और मधु ने अच्छा समय साथ बिताया. जाते हुए उन्हें भी गिफ्ट्स दे कर विदा किया गया.

अब अगले हफ्ते विकास और राधा को दिल्ली जाना था. तय हुआ कि अब सगाई भी कर देते हैं और संदली को भी बुला लेते हैं.

यह सुनते ही राधा को गुस्सा आ गया, विकास से कहा,”अब फिर उस के आने का खर्चा उठाना है?अभी तो गई है.”

संदली ने यह बात सुन कर कहा,”मम्मी, आप टिकट की चिंता न करो, सरप्राइज में आर्यन ने मुझे टिकट भेज दिए हैं.”

राधा ने कहा,”मुझे पता है कोई गड़बड़ जरूर है जो वे शादी के लिए इतनी जल्दी मचा रहे हैं. इतना अच्छा परिवार संदली को बहू बनाने के लिए क्यों मरा जा रहा है? कोई बात तो है.अब पता चलेगा.’’

विकास ने कहा,”गड़बड़ तुम्हारे दिमाग में है, बस.”

संदली सीधे दिल्ली पहुंची. विकास और राधा भी पहुंच गए.

प्रिया ने कहा था कि वह सीधे शादी में ही आएगी. पानीपत में आर्यन का विशाल घर, नौकरचाकर देख कर राधा दंग रह गईं. उस पर सब का स्वभाव इतना सहज, कोई घमंड नहीं. पर आदत से मजबूर, कमी ढूंढ़ती ही रहीं, जो मिली नहीं.

राधा यह देख कर हैरान हुईं कि मधु और संदली ने फोन पर ही एकदूसरे के टच में रह कर सगाई के कपड़ों की जबरदस्त तैयारी कर रखी है. अभय संदली से खूब हंसीमजाक कर रहा था, विकास और मधु के लिए बेहद आरामदायक गेस्टरूम था, अनिल और मधु के करीब 100 लोगों के परिचितों के मौजूदगी में सगाई का फंक्शन हुआ.

विकास ने खर्चे बांटने की बात कही तो अनिल ने हाथ जोड़ दिए,”हमें कुछ नहीं चाहिए. संदली इस घर में आ रही है तो हमें खुशी से यह सब करने दें. हमें कुछ भी नहीं चाहिए.”

राधा ने अकेले में विकास से कहा,”इतना अच्छा बन कर दिखा रहे हैं, मुझे पता है ऐसे लोग बाद में रंग दिखाते हैं. अब पता चलेगा.‘’

संदली भी उन के पास ही बैठी थी.गुस्सा आ गया उसे, कहा,”मम्मी, हद होती है, इतने अच्छे लोग हैं फिर भी आप ऐसे कह रही हैं, सब कुछ उन्होंने आज मेरी पसंद का किया है, मेरी ड्रैस, ज्वैलरी सब आर्यन की मम्मी ने ली, मुझे कुछ भी लेने से मना कर दिया था, अब शादी की भी पूरी शौपिंग मुझे करवाने के लिए तैयार हैं, पर आप की बातें…उफ…”

”मुझे पता है तुम्हारी जैसी लड़कियां बाद में खूब रोती हैं.”

संदली को रोना आ गया. उस के आंसू बह निकले तो विकास ने उसे गले से लगा लिया,”संदली बेटा, मत दुखी हो, तुम्हारी मम्मी को कुछ ज्यादा ही पता रहता है.‘’

विकास और संदली दोनों राधा से नाराज थे पर राधा पर न कभी पहले कोई असर हुआ था, न अब हो रहा था.

फंक्शन से फ्री हो कर जब सब साथ बैठे, मधु ने कहा,”मुझे आप लोगों से कुछ जरूरी बात करनी है.”

सुनते ही राधा ने विकास को इशारा किया, “देखो, मैं ने कहा था न…”

राधा ने कहा,”जी कहिए.”

”देखिए, पैसे की हमारे यहां कोई कमी है नहीं, बस मेरा मन तो अपने बच्चों की खुशी में खुश होता है, मेरी इच्छा है कि शादी अब जल्दी ही कर दें, घर में रौनक हो, हमारी बेटी कोई है नहीं और मुझे संदली के साथ रहने की बहुत इच्छा है, मुझ से अब इंतजार नहीं होगा, शादी अब बहुत जल्दी हो जाए, बस यही मान लीजिए.

“तैयारी भी मैं सब कर लूंगी और हां, संदली ने जो लोन लिया है, वह भी हम चुका देंगे, अब संदली यहां फैमिली बिजनैस संभाल लेगी. उसे वहां अकेली रह कर जौब करने की जरूरत है ही नहीं. अब बच्चे मिल कर बिजनैस संभालें, हमारे पास रहें और क्या…”

विकास ने हाथ जोड़ दिए,”आप जैसा चाहते हैं वैसा ही होगा, हम तैयार हैं. लोन चुकाने की बात आप न सोचें प्लीज, हमारा एक फ्लैट किराए पर चढ़ा है, उसे संदली को देने के लिए ही इन्वेस्ट किया था. अब उसे बेच देंगे तो लोन चुक जाएगा, कोई प्रौब्लम नहीं है. शादी जब आप कहें, हो जाएगी.”

मधु ने खुश हो कर उठ कर संदली को गले लगा लिया. खूब प्यार करते हुए बोलीं,”बस मेरी बहू अब जल्दी घर आ जाए. संदली, अब एक बार जाना और वहां से अपना सब सामान ले आओ, बस अब तो आर्यन के साथ ही घूमने जाना.”

आगे का प्रोग्राम तय होने लगा था. राधा हैरान थी कि इतनी जल्दी यह सब… ये कैसे लोग हैं? कोई इतना अच्छा कैसे हो सकता है?

मुंबई लौटते हुए संदली ने पूछा,”मम्मी, सब ठीक लगा न आप को?”

”देखते हैं, कुछ ज्यादा ही अच्छा परिवार लग रहा है. देखते हैं कि तुम कितना खुश रहती हो इन के साथ.अब पता चलेगा…’’

संदली चुप ही रही. राधा ने फिर विकास से कहा,”आप ने सब बात खुद ही कर ली उन से, मुझ से कुछ पूछा ही नहीं.”

”पूछना क्या था, सब अच्छा ही लग रहा था, अच्छे लोग हैं.”

दोनों तरफ शादी की तैयारियां शुरू हो गईं. 2 महीने बाद ही शादी थी. प्रिया भी सपरिवार आने वाली थी. संदली ने रिजाइन कर दिया और वहां से सब क्लियर कर लौट आई. मधु फोन पर ही उस से पूछपूछ कर उस की पसंद की तैयारी करने लगीं. मधु एक से बढ़ कर एक चीजें उस की पसंद से बनवा रही थीं.

राधा ने कहा,”मुझे पता ही है कि इन अमीरों के 4 दिन के चोंचले हैं, थोड़े ही दिनों में असलियत सामने आएगी, पहले तो सब अच्छा ही दिखता है.”

संदली मन ही मन बहुत उदास थी. शादी का समय था उस पर भी मां की अजीबोगरीब बातें रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं. जो भी तैयारी राधा कर रही थीं, बोझ समझ कर कर रही थीं, उस में बेटी को अच्छा परिवार मिलने की कोई खुशी नहीं थी. हर समय किसी न किसी बात पर आर्यन के परिवार को ले कर कुछ ऐसा कह देतीं कि संदली का चेहरा मुरझा जाता.

विकास सब समझ रहे थे पर क्या करते, राधा को कुछ कह कर घर का माहौल खराब नहीं करना चाहते थे. प्रिया भी आ चुकी थी, उस के पति विशाल और दोनों बच्चे सोनू,पिंकी मौसी की शादी को ले कर बहुत उत्साहित थे.

सब खुश थे पर राधा का स्वभाव अकसर रंग में भंग डाल देता. विकास ने अपने बजट के अनुसार सारा पैसा अनिल के अकाउंट में ट्रांसफर कर दिया था. सब इंतजाम आर्यन का परिवार ही देख रहा था.

शादी से 4 दिन पहले संदली अपने परिवार के साथ दिल्ली पहुंची तो आर्यन की तरफ से कई गाड़ियां उन्हें लेने आई हुई थीं.

अनिल और मधु ने खुद एअरपोर्ट पर सब का स्वागत किया और उन्हें पानीपत के ही एक होटल में ले गए, जहां सारा इंतजाम बहुत शानदार था.

रस्में बहुत खुशी से पूरी की गईं. विवाह का आयोजन शानदार रहा. सबकुछ अच्छी तरह से संपन्न हुआ. राधा परिवार सहित मुंबई लौट आईं. कुछ दिन बाद प्रिया भी वापस चली गई.

विकास औफिस के काम में व्यस्त हो गए. राधा का पुराना रवैया चलता रहा. हर बात में अब भी अपने को ही सही ठहरातीं. संदली जब फोन करती, राधा खोदखोद कर पूछतीं कि ससुराल का क्या हाल है?

संदली तारीफ करती तो कहतीं,”मुझे पता है, यह सब प्यारव्यार थोड़े दिनों की बात है. आगे पता चलेगा.”

संदली ने घर का बिजनैस संभालना शुरू कर दिया था. एक नया शोरूम खोला जा रहा था जिस की देखरेख संदली और आर्यन पर छोड़ दी गई थी, उस के लिए एक कार और ड्राइवर हमेशा रहता. वह बहुत खुश रहती. उसे सारी सुविधाएं और ढेर सारा प्यार मिल रहा था.

कुछ ही दिनों में अभय की शादी भी उस की गर्लफ्रैंड तारा के साथ तय हो गई.

राधा ने सुनते ही कहा,”संदली, अब पता चलेगा तुम्हें जब देवरानी घर आएगी और प्यार बंटेगा.”

संदली चुप रही. अभय के विवाह में राधा और विकास भी गए. अब की बार भी उन्हें बहुत सम्मान दिया गया. सब कुछ पहले की तरह अच्छी तरह से हुआ. संदली की अपनी देवरानी तारा से खूब जम रही थी. दोनों खूब मस्ती कर रही थीं.

राधा ने मुंबई आने के बाद संदली से देवरानी के हाल पूछे तो वह खूब उत्साह से तारा और अपनी खूब अच्छी दोस्ती के बारे में बताने लगी. संदली और तारा का आपस में बहनों जैसा प्यार हो गया था.

राधा ने कहा,”बेटा, मैं ने देखे हैं ऐसे रिश्ते, अब पता चलेगा थोड़े दिनों में जब यही प्यार तकरार में बदलेगा, देखना.”

आज संदली का धैर्य जवाब दे गया. विकास भी वहीं बैठे थे, फोन स्पीकर पर था, संदली फट पड़ी थी आज,”हां, मुझे पता चल चुका है कि आप के लिए हर रिश्ता बेकार है. आप को कहां किसी रिश्ते में प्यार दिखता है? मम्मी, पता नहीं क्यों आप के लिए सब बुरा ही होने वाला होता है. मुझे तो इस घर में आने के बाद यह पता चला है कि शांति से रहना कितना आसान है, प्यार दो, प्यार लो, काश कि आप को भी यह पता रहता.

“बस, यहां जो मुझे पता चला है, वह सब आप के साथ रह कर कभी पता ही नहीं चला. आप मुझे अब कभी मत बताना कि मुझे क्या पता चलेगा? मुझे जो पता चलना था, चल चुका. इतना प्यार है यहां पर, मैं कितनी खुश हूं,आगे भी खुश ही रहूंगी, मुझे तो यह पता है.”

राधा का चेहरा देखने लायक था. संदली ने कभी इस तरह बात नहीं की थी. आज अपनी बात कह कर फोन ऐसे रखा था कि राधा शर्मिंदा सी बैठी रह गई थीं. विकास तो अपनी हंसी रोकने की कोशिश में आज चुपचाप वहां से उठ कर दूसरे रूम में जा चुके थे.

Best Hindi Story : क्या आप का बिल चुका सकती हूं

Best Hindi Story : नीलगिरी की गोद में बसे ऊटी में राशा के साथ मैं झील के एक छोर पर एकांत में बैठी थी. ‘‘तुम्हारा चेहरा आज ज्यादा लाल हो रहा है,’’ राशा ने मेरी नाक को पकड़ कर हिलाया और बोली, ‘‘कुछ लाली मुझे दे दो और घूरने वालों को कुछ मुझ पर भी नजरें इनायत करने दो.’’

इतना कह कर राशा मेरी जांघ पर सिर रख कर लेट गई और मैं ने उस के गाल पर चिकोटी काट ली तो वह जोर से चिल्लाई थी.

‘‘मेरी आंखों में अपना चौखटा देख. एक चिकोटी में तेरे गाल लाल हो गए, दोचार में लालमलाल हो जाएंगे और तब बंदरिया का तमाशा देखने के लिए भीड़ लग जाएगी,’’ मैं ने मजाक करते हुए कहा.

उस ने मेरी जांघ पर जरा सा काट लिया तो मैं उस से भी ज्यादा जोर से चीखी. सहसा बगल के पौधों की ओट से एक चेहरा गरदन आगे कर के हमें देखने को बढ़ा. मेरी नजर उस पर पड़ी तो राशा ने भी उस ओर देखा.

‘‘मैं सोच रही थी कि ऊटी में पता नहीं ऊंट होते भी हैं कि नहीं,’’ राशा के मुंह से निकला.

‘‘चुप,’’ मैं ने उसे रोका.

मेरी नजरों का सामना होते ही वह चेहरा संकोच में पड़ता दिखाई दिया. उस ने आंखों पर चश्मा चढ़ाते हुए कहा, ‘‘आई एम सौरी…मुझे मालूम नहीं था कि आप लोग यहां हैं…दरअसल, मैं सो रहा था.’’

फिर मैं ने उसे खड़ा हो कर अपने कपड़ों को सलीके से झाड़ते हुए देखा. एक युवा, साधारण पैंटशर्ट. गेहुंए चेहरे पर मासूमियत, शिष्टता और कुछ असमंजस. हाथ में कोई मोटी किताब. शायद यहां के कालेज का कोई पढ़ाकू लड़का होगा.

‘‘सौरी…हम ने आप के एकांत और नींद में खलल डाला…और आप को…’’

‘‘और मैं ने आप को ऊंट कहा,’’ राशा ने दो कदम उस की ओर बढ़ कर कहा, ‘‘रियली, आई एम वैरी सौरी.’’

वह सहज ढंग से हंसा और बोला, ‘‘मैं ने तो सुना नहीं…वैसे लंबा तो हूं ही…फिर ऊटी में ऊंट होने में क्या बुराई है? थैंक्स…आप दोनों बहुत अच्छी हैं…मैं ने बुरा नहीं माना…इस तरह की बातें हमारे जीवन का सामान्य हिस्सा होती हैं. अच्छा…गुड बाय…’’

मैं हक्कीबक्की जब तक कुछ कहती वह जा चुका था.

‘‘अब तुम बिना चिकोटी के लाल हो रही हो,’’ मैं ने राशा के गाल थपथपाए.

‘‘अच्छा नहीं हुआ, यार…’’ वह बोली.

‘‘प्यारा लड़का है, कोई शाप नहीं देगा,’’ मैं ने मजाक में कहा.

अगले दिन जब राशा अपने मांबाप के साथ बस में बैठी थी और बस चलने लगी तो स्टैंड की ढलान वाले मोड़ पर बस के मुड़ते ही हम ने राशा की एक लंबी चीख सुनी, ‘‘जोया…इधर आओ…’’

ड्राइवर ने डर कर सहसा बे्रक लगाए. मैं भाग कर राशा वाली खिड़की पर पहुंची. वह मुझे देखते ही बेसाख्ता बोली, ‘‘जोया, वह देखो…’’

मैं ने सामने की ढलान की ऊपरी पगडंडी पर नजर दौड़ाई. वही लड़का पेड़ों के पीछे ओझल होतेहोते मुझे दिख गया.

‘‘तुम उस से मिलना और मेरा पता देना,’’ राशा बोली.

उस के मांबाप दूसरी सवारियों के साथसाथ हैरान थे.

‘‘अब चलो भी…’’ बस में कोई चिल्लाया तो बस चली.

मैं ने इस घटना के बारे में जब अपनी टोली के लड़कों को बताया तो वे मुझ से उस लड़के के बारे में पूछने लगे. तभी रोहित बोला, ‘‘बस, इतनी सी बात? राशा इतनी भावुक तो है नहीं…मुझे लगता है, कोई खास ही बात नजर आई है उसे उस लड़के में…’’

मेरे मुंह से निकला, ‘‘खास नहीं, मुझे तो वह अलग तरह का लड़का लगा…सिर्फ उस का व्यवहार ही नहीं, चेहरे की मासूम सजगता भी… कुछ अलग ही थी.’’

‘‘तुम्हें भी?’’ नीलेश हंसी, ‘‘खुदा खैर करे, हम सब उस की तलाश में तुम्हारी मदद करेंगे.’’

मैं ने सब की हंसी में हंसना ही ठीक समझा.

‘‘ऐ प्यार, तेरी पहली नजर को सलाम,’’ सब एक नाजुक भावना का तमाशा बनाते हुए गाने लगे. राशा का जाना मेरे लिए अकेलेपन में भटकने का सबब बन गया.

एक रोज ऊपर से झील को देखतेदेखते नीचे उस के किनारे पहुंची. खुले आंगन वाले उस रेस्तरां में कोने के पेड़ के नीचे जा बैठी. आसपास की मेजें भरने लगी थीं. मैं ने वेटर से खाने का बिल लाने को कहा. वह सामने दूसरी मेज पर बिल देने जा रहा था.

सहसा वहां से एक सहमती आवाज आई, ‘‘क्या आप का बिल चुका सकता हूं?’’

मैं चौंकी. फिर पहचाना… ‘‘ओ…यू…’’ मैं चहक उठी और उस की ओर लपकी. वह उठा तो मैं ने उस की ओर हाथ बढ़ाया, ‘‘आई एम जोया…द डिस्टर्बिंग गर्ल…’’

‘‘मी…शेषांत…द ऊंट.’’

सहसा हम दोनों ने उस नौजवान वेटर को मुसकरा कर देखा जो हमारी उमंग को दबी मुसकान में अदब से देख रहा था. मन हुआ उसे भी साथ बिठा लूं.

शेषांत ने अच्छी टिप के साथ बिल चुकाया. मैं उसे देखती रही. उस ने उठते हुए सौंफ की तश्तरी मेरी ओर बढ़ाई और पूछा, ‘‘वाई आर यू सो ऐलोन?’’

‘‘दिस इज माई च्वाइस. अकेलेपन की उदासी अकसर बहुत करीबी दोस्त होती है हमारी. हां, राशा तो वहां से अगले दिन घर लौट गई थी. हमारी एक सैलानी टोली है, पर मैं उन के शोर में ज्यादा देर नहीं टिक पाती.’’

हम दोनों कोने में लगी बेंच पर जा बैठे. झील में परछाइयां फैल रही थीं.

मैं ने उस दिन राशा की विदाई वाला किस्सा उसे सुनाया तो वह संजीदा हो उठा, ‘‘आप लोग बड़ी हैं तो भी इतना सम्मान देती हैं…वरना मैं तो बहुत मामूली व्यक्ति हूं.’’

‘‘क्या मैं पूछ सकती हूं कि आप करते क्या हैं?’’ ‘‘इस तरह की जगहों के बारे में लिखता हूं और उस से कुछ कमा कर अपने घूमने का शौक पूरा करता हूं. कभीकभी आप जैसे अद्भुत लोग मिल जाते हैं तो सैलानी सी कहानी भी कागज पर रवानी पा लेती है.’’

‘‘वंडरफुल.’’

मैंने उसे राशा का पता नोट करने को कहा तो वह बोला, ‘‘उस से क्या होगा? लेट द थिंग्स गो फ्री…’’ मैं चुप रह गई.

‘‘पता छिपाने में मेरी रुचि नहीं है…’’ वह बोला, ‘‘फिर मैं तो एक लेखक हूं जिस का पता चल ही जाता है.’’

‘‘फिर…पता देने में क्या हर्ज है?’’

‘‘बंधन और रिश्ते के फैलाव से डरता हूं… निकट आ कर सब दूर हो जाते हैं…अकसर तड़पा देने वाली दूरी को जन्म दे कर…’’

‘‘उस रोज भी शायद तुम डरे थे और जल्दी से भाग निकले थे.’’

‘‘हां, आप के कारण.’’

मैं बुरी तरह चौंकी.

‘‘उस रोज आप को देखा तो किसी की याद आ गई.’’

‘‘किस की?’’

‘‘थी कोई…मेरे दिल व दिमाग के बहुत करीब…दूरदूर से ही उसे देखता रहा और उस के प्रभामंडल को…’’ कहतेकहते वह कहीं खो गया.

मैं हथेलियों पर अपना चेहरा ले कर कुहनियों के बल मेज पर झुकी रही.

‘‘कुछ लोग बाहर से भी और भीतर से भी इतने सुंदर क्यों होते हैं…और साथ में इतने अद्भुत कि हर पल उन का ही ध्यान रहता है? और इतने अपवाद क्यों?…कि या तो किताबों में मिलें या ख्वाबों में…या मिल ही जाएं तो बिछड़ जाने को ही मिलें?’’ वह बोला.

मैं उस की आंखों में उभरती तरलता को देखती रही. वह कहता रहा…

‘‘हम जब किसी से मिलते हैं तो उस मिलन की उमंग को धीरेधीरे फीका क्यों कर देते हैं? जिंदा रहते भी उसे मार क्यों देते हैं?’’

‘‘अधिक निकटता और अधिक दूरी हमें एकदूसरे को समझने नहीं देती…’’ मैं उस से एक गहरा संवाद करने के मूड में आ गई, ‘‘हमें एक ऐसा रास्ता बने रहने देना होता है, जो खत्म नहीं होता, वरना उस के खत्म होते ही हम भी खत्म हो जाते हैं और हमारा वहम टूट जाता है.’’

उस ने मेरी आंखों में देखा और कहना शुरू किया, ‘‘जिन्हें जीना आता है वे किसी रास्ते के खत्म होने से नहीं डरते, बल्कि उस के सीमांत के पार के लिए रोमांचित रहते हैं. भ्रम तब तक बना रहता है जब तक हम आगे के दृश्यों से बचना चाहते हैं…सच तो यह है कि रास्ते कभी खत्म नहीं होते…न ही भ्रम…अनदेखे सच तक जाने के लिए भ्रम ही तो बनते हैं. किश्तियों के डूबने से पता नहीं हम डरते क्यों हैं?’’

मैं उसे ध्यान से सुनने लगी.

‘‘सुखी, संतुष्ट बने रहने के लिए हम औसत व्यक्ति बन जाते हैं, जबकि चाहतें अनंत हैं…दूरदूर तक.’’

‘‘कभीकभी हम सहमत हो कर भी अलग तलों पर नजर आते हैं…मैं तुम्हारी इस बात को शह दूं तो कहूंगी कि मैं वहां खत्म नहीं होना चाहती जहां मैं ‘मुझ’ से ही मिल कर रह जाऊं…मुझे अपनी हर हद से आगे जाना है. अपने कदमों को नया जोखिम देने के लिए अपनी हर पिछली पगडंडी तोड़नी है…’’

वह हंसा. कहने लगा, ‘‘पर इस लड़खड़ाती खानाबदोशी में हम जल्दबाज हो कर अपने को ही चूक जाते हैं. इसी में हमारी बेचैनियां आगे दौड़ने की लत पाल लेती हैं. क्या ऐसा नहीं?’’

मैं सोचने लगी कि अब हम एकदूसरे के साथ भी हैं और नहीं भी.

मुझे चुप देख कर उस ने पूछा, ‘‘विवाह को आप कैसे देखती हैं?’’

‘‘अनचाही चीज का पल्ले पड़ जाने वाली एक वाहियात रस्म.’’

वह फिर हंस कर बोला, ‘‘विवाहित या अविवाहित होना मुझे बाहर की नहीं, भीतर की घटना लगती है. जीना नहीं आता हो तो सारी इच्छाएं पूरी हो जाने पर भी बेमतलब के साथ से हम नहीं बच पाते. ज्यादातर लोग विवाहित हो कर ही इस से बच सकते हैं…या दूसरे को बचा सकते हैं, ऐसे ही किसी संबंध में आ कर. हालांकि मैं नहीं मानता कि मनुष्य नामक स्थिति की अभी रचना हो भी सकी है…मनुष्य जिसे कहा जाता है वह शायद भविष्य के गर्भ में है, वरना विवाह की या किसी भी स्थापित संबंध की जरूरत कहां है? हम अकसर अपने से ही संबंधित हो कर आकाश खोजते रह जाते हैं…’’

फिर हम झील में बदलते नजारों में डूबने का अभिनय सा करते रहे.

चुप्पी लंबी हो गई तो मैं ने कहा, ‘‘उस रोज तुम ने मेरी पुकार नहीं सुनी और चले गए…मुझ से बचना चाहा तुम ने…मगर आज क्यों तुम ने मुझे पुकारा?’’

वह मेरे चेहरे को देखता रहा, फिर बोला, ‘‘आप अकेली बैठी थीं. कितनी ही देर से आप के चेहरे पर अकेलेपन की मायूसी देखता रहा, कैसे न पुकारता? पुकारने से बचना और किसी मायूस से बच कर भागना एक ही बात है. कैसी विडंबना है…अब सोच रहा हूं, आप से यह भी नहीं पूछा कि आप करती क्या हैं?’’

मैं यह सोच कर हंसी कि फंस गए बच्चू, इस दुनिया में बहुत कुछ तय नहीं किया जा सकता. अगर किया भी जा सके तो अगले ही पल वह होता है जिस की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

वह चुप रहा. काफी देर के बाद उस ने पूछा, ‘‘घर से निकलते वक्त आप के मन में क्या होता है?’’

‘‘अज्ञात ऐडवैंचर. मैं लगातार घूमती हूं. अपना खुद का तकिया और चादर भी साथ रखती हूं, ताकि देह जहां तक हो, बनी रहे लेकिन जानती हूं कि मेरे हाथ में कल नहीं है.’’

वह मुसकराया, ‘‘इस क्षण मेरे लिए क्या सोचती हैं आप?’’

मैं हंसी, ‘‘इतना तो तय हो ही सकता है कि मैं अपने खाएपिए के अपने हिस्से का हिसाब चुकता करूं…तुम्हें ‘आप’ कह कर तुम से मिला हुआ परिचय तुम्हें लौटाऊं और हम अपनाअपना रास्ता लें.’’

‘‘ऐसा रास्ता है क्या, जिस पर सामने ठिठक जाने वाले लोग मिलते ही नहीं? ऐसा परिचय होता है क्या जिसे समूचा पोंछा जा सके? और अनाम रिश्तों में ‘तुम’ से ‘आप’ हो जाने से क्या होता है?’’

‘‘बातें तो बहुत बड़ीबड़ी कर रहे हो…तुम्हारी उम्र क्या है?’’

‘‘दुनिया से दफा हो जाने तक की तो नहीं जानता, पर अगली 1 जून को 30 का हो रहा हूं.’’

मैं चौंकी, ‘‘तुम तो मुझ से बड़े निकले… लगते तो छोटे हो.’’

‘‘हां, अकसर इसी धोखे में बच्चा ही बना रह जाता हूं बड़ों में…’’

‘‘जैसा दिखते हो वैसा स्वभाव भी है तुम्हारा…इसे चलनेफलने दो.’’

‘‘ऐसा मैं भी सोचता रहा, पर…’’

‘‘पर क्या?’’ मैं बीच में बोल पड़ी, ‘‘यही न कि अगर मेरे जैसी कोई तुम्हें पसंद आए तो तुम ज्यादा बचाव न कर उस पर हक जमा सको.’’

‘‘नहीं…ऐसा तो नहीं, क्योंकि मैं स्वयं नहीं चाहता अपने पर किसी का ऐसा अधिकार…फिर जो भीतरबाहर से सुंदर और बहुत हट कर होते हैं, उन का मेरे जैसे घुमक्कड़ व्यक्ति के लिए सुलभ रहना संभव नहीं है.’’

‘‘अगर तुम्हें पता चले कि राशा कुछ महीने की मेहमान है तो?’’

‘‘मुझे ऐसा मजाक पसंद नहीं.’’

‘‘लेकिन मौत ऐसे मजाक पसंद करती है.’’

‘‘क्या राशा को कुछ हुआ है?’’

‘‘किस को कब क्या नहीं हो सकता? मैं इतना जानती हूं कि अगर अभी राशा को यह पता चल जाए कि तुम मेरे साथ हो तो वह हमें अपने पास बुला लेगी या खुद यहां चली आएगी.’’

‘‘मिलन को बुनती ज्यादातर बातें सच तो होती हैं पर झूठ हो जाने के लिए ही. सच तभी बनता है जब किसी आकस्मिक घटना पर सहसा हम कुछ करने को बेचैन हो उठते हैं. जैसे कि हमारा उस रोज का मिलना और अचानक आज मिलना…आप जिंदगी को वाक्यसूत्रों में नहीं पिरो सकतीं.’’

‘‘ओह…मैं भूल ही गई थी…मुझे जल्दी होटल पहुंचना है…’’ कह कर मैं काउंटर पर बिल देने के लिए जाने लगी तो वह मुझे रोक कर बोला, ‘‘आज का दिन मेरा है. प्लीज, यह बिल भी मुझे चुकाने दीजिए न.’’

‘‘किसी पर अधिकार जताने के मौके हमारे हाथ कितनी खूबसूरती से लग जाते हैं,’’ मेरे मुंह से निकला और हम दोनों हंस पड़े.

वह काउंटर पर जा कर लौटा तो मैं ने उस की तरफ हाथ बढ़ा कर कहा, ‘‘चलती हूं…कभी सहसा संयोग बना तो फिर मिलेंगे…बहुत अच्छे हो तुम…अच्छे यानी जैसे भी हो…’’

उस ने मेरे बढ़े हुए हाथ को देखा… मुसकरा कर हाथ जोड़े और बोला, ‘‘हाथ नहीं मिलाऊंगा.’’

उस ने मेरे लौटते हुए हाथ को अपने हाथ में सहेज लिया और मेरे साथ चल पड़ा. हम आगे तक निकल गए.

‘‘क्या करती हैं आप?’’ बहुत देर बाद मेरा हाथ छोड़ कर उस ने पूछा.

‘‘गलती से साइकिएट्रिस्ट हूं. मनोविद या मनोचिकित्सक कहलाना बहुत आसान है. इस दुनिया में जीने के लिए फलसफे और मन के विज्ञान नहीं, अनाम प्रेम चाहिए…या मजबूरी में कोई मौलिक जुगाड़.’’

वह मेरे होटल तक आया और चुपचाप खड़ा हो गया. मैं सहसा हंस पड़ी. वह भी हंसा.

‘‘अब क्या करें?’’ मेरे मुंह से निकला.

‘‘अलविदा और क्या?’’ उस ने हाथ बढ़ाया.

‘‘मैं मन में उस लड़की की तसवीर बनाने की कोशिश करूंगी, जिसे उस रोज मुझे देख कर तुम ने याद किया था…’’ मैं ने उस का हाथ बहुत आहिस्ता से छोड़ते हुए कहा.

‘‘कोई जरूरत नहीं…तिल भर का भी फर्क नहीं है. आप के पास आईना नहीं है क्या?’’ कह कर वह चला गया.

मैं देर तक ठगी सी खड़ी रह गई.

5 साल बीते होंगे अस्पताल की तीसरी मंजिल पर अपने दफ्तर में बैठी थी. दूसरे एक विभाग की इंचार्ज डा. सविता मेरे साथ थी. तभी उस की एक सहयोगी आ कर बोली, ‘‘डाक्टर…आप की वह 14 नंबर की मरीज…उसे आज डिस्चार्ज करना है, मगर उस के बिल अभी तक जमा नहीं हुए…आपरेशन के बाद से अब तक 25 हजार की पेमेंट बकाया है.’’

‘‘ओह, इतनी नहीं होनी चाहिए. 30 हजार रुपए तो जमा कर चुके हैं बेचारे. बड़ा नाम सुन कर आए थे इस अस्पताल का…और ये लोग मजबूर मरीजों को लूट रहे हैं. उस का पति क्या कहता है?’’

‘‘कह रहा है कि उस ने अपनी जानपहचान वालों को फोन किए हैं…शायद कुछ उपाय हो जाएगा.’’

‘‘अभी कहां है?’’

‘‘बीवी के लिए फल लेने बाजार गया है…कुछ देर पहले उस से गजल सुन रहा था…’’

‘‘गजल?’’ मैं ने हैरत से पूछा.

‘‘हां…’’ डा. सविता बोली, ‘‘वह लड़की बंद आंखों में लेटेलेटे बहुत प्यारी गजलें गुनगुनाती रहती है. शायद अपने पति की लाचारी को व्यक्त करती है… और क्या तो गजब की किताबें पढ़ती है. चलो, देखते हैं…उस की फाइनल रिपोर्ट भी डा. प्रिया से साइन करानी है…’’

उन दोनों के साथ मैं भी नीचे आ गई. फिर हम सामने की बड़ी इमारत की ओर बढ़ीं और वहां एक अधबने कमरे में पहुंचीं.

देखा, एक युवती बेहद कमजोर हालत में बेड पर पड़ी छत की ओर देख रही है. कमजोरी में भी वह सुंदर लग रही थी. हमें देख कर वह किसी तरह उठ कर बैठने की कोशिश करने लगी.

‘‘लेटी रहो,’’ मैं ने उस के सिरहाने बैठते हुए कहा और पास रखी ‘बुक औफ द हिडन लाइफ’ को हाथ में ले कर पलटने लगी. जीवन और मौत के रिश्ते को अटूट बताने वाली अनोखी किताब.

मैं उस से बतियाने लगी. थकी हुई सांसों के बीच उस ने बताया कि साल भर पहले एक हादसे में उस के घर के सब लोग मारे गए थे और उस के बचपन के एक साथी ने उस से शादी कर ली… ‘‘तभी पता चला कि मेरे अंदर तो भयंकर रोग पल रहा है…अगर मुझे पता होता तो मैं कभी उस से शादी न करती…बेचारा तब से जाने कहांकहां दौड़भाग कर के मेरा इलाज करा रहा है…साल होने को आया…’’

‘‘अब तुम रोग मुक्त हो,’’ मैं ने उस के सिर पर हाथ रखा, ‘‘सब ठीक हो जाएगा.’’

उस ने कातरता से मुझे देखा और आंखें बंद कर लीं. इसी में उस की आंखों में से कुछ बूंदें बाहर निकल आईं और कुछ शब्द भी… ‘‘हां, होता तो सब ठीक ही होगा…पर मुझे अपना जिंदा रहना ठीक नहीं लगता…हालांकि दिमागी तौर पर बिलकुल तंदुरुस्त हूं…जीना भी चाहती हूं…’’

डा. सविता उस की जांच कर के जा चुकी थीं. उसे स्पर्श की एक और तसल्ली दे कर मैं भी उठी. अभी कुछ ही कदम आगे निकली थी कि मेरे कानों में एक गुनगुनाहट पहुंची. देखा, वह आंखें बंद कर के गा रही है :

‘धुआं बना के फिजा में उड़ा दिया मुझ को,

मैं जल रहा था, किसी ने बुझा दिया मुझ को…

खड़ा हूं आज भी रोटी के चार हर्फ लिए,

सवाल ये है किताबों ने क्या दिया मुझ को…’

मैं खड़ी रही. उस की गुनगुनाहट धीमी होती चली गई और फिर उसे नींद आ गई. मुझे वे दिन याद आए जब मां के न रहने पर मैं बहुत अकेली पड़ गई थी और नींद में उतरने के लिए इसी तरह अपने दर्द को लोरी बना लेती थी.

रिसेप्शन पर पहुंची. वहां से अस्पताल के प्रबंध निदेशक को फोन कर के बिल के पेमेंट का जिम्मा लिया और लौट आई.

देखा, उस के सिरहाने बैठा एक युवक सेब काट कर प्लेट में रख रहा है. पुरानी पैंटशर्ट के भीतर एक दुबली काया. सिर पर उलझे हुए बाल. युवती शायद सो रही थी.मैं धीमे कदमों से उस के निकट पहुंची.

वह युवक कह रहा था, ‘‘अब दोबारा मत कहना कि तुम से शादी कर के मैं बरबाद हो गया. नाउ यू आर ओ.के. …मेरे लिए तुम्हारा ठीक होना ही महत्त्वपूर्ण है…पैसों का इंतजाम नहीं हुआ…बट आई एम ट्राइंग माई बेस्ट…’’ उस की आवाज में पस्ती भी थी और उम्मीद भी.

मैं ने देखा, आंखें बंद किए पड़ी वह युवती उस की बात पर धीरेधीरे सिर हिला रही थी. अचानक मेरा हाथ उस युवक की ओर बढ़ा और उस के कंधे पर चला गया. इसी के साथ मेरे मुंह से निकला :

‘‘कैन आइ पे फौर यू?…आप का बिल चुका सकती हूं मैं?’’

वह चौंक कर पलटा और खड़ा हो गया, ‘‘आप?’’

अब मैं ने उस का चेहरा देखा… ‘‘ओह…शेषांत…तुम?’’

एक तूफान उमड़ा और उस ने हमें अपने में ले लिया.

मेरे कंधे से लगा वह सिसकता रहा और मेरे हाथ उस के सिर और पीठ पर कांपते रहे. मेरी आंखें सामने उस लड़की की आंखों से झरते आनंद को देखती रहीं. पता नहीं, कब से चट्टान हो चुकी मेरी आंखों में से कुछ बाहर आने को मचलने लगा.

‘‘राशा…ये हैं…जोया…’’ शेषांत ने मेरे कंधे से हट कर चश्मा उतारते हुए उस से कहा तो मैं चौंकी, ‘‘राशा?’’

वह लड़की अपनी खुशी को समेटती हुई बोली, ‘‘मेरा नाम राशि है…इन्होंने आप लोगों के बारे में बताया था तो मैं ने जिद की थी कि मुझे राशा ही कहा करें.’’

मैं चुप रही…सोचती रही…‘राशा तो अब नहीं है…पर तुम दोनों ने उसे सहेज लिया…बहुत अच्छे हो तुम दोनों.’

हम तीनों अपनीअपनी आंखें पोंछ रहे थे कि सामने से एक नर्स आई. उस ने हंस कर मेरे हाथ में बिलों के भुगतान की रसीद और राशि के डिस्चार्ज की मंजूरी थमाई और चली गई.

मेरी राशा तो खो गई थी पर उस बिल की रसीद के साथ एक और राशा मिल गई. लगा कि जिंदगी अब इतनी वीरान, अकेली न रहेगी. राशा, शेषांत और मैं…एक पूरा परिवार…

Hindi Story : पन्नूराम का पश्चात्ताप

सांप के आकार वाली पहाड़ी सड़क ढलान में घूमतेघूमते रूपीन और सुपीन नदियों के संगम पर बने पुल को पार करते हुए एक मोड़ पर पहुंचती है. वहां सदानंद की चाय की दुकान है, जहां आतेजाते पथिक बैठ कर चाय पीते हुए दो पल का विश्राम ले लेते हैं. दुकान पर आने वाले ग्राहकों के लिए पन्नूराम दिनभर बैंच पर बैठा रहता. उस के बाएं हाथ की कलाई से हथेली और पांचों उंगलियां गायब थीं.

चाय पीते राहगीर पन्नूराम से उस के बाएं हाथ के बारे में पूछते तो वह अपने पर घटी दुर्घटना की आपबीती सुनाता.

दोनों नदियों के संगम से निकला हुआ सोता चट्टानों के बीच तंग हो कर नीचे की तरफ बहता है. उसी के बाएं किनारे पर खड़े सेमल के पेड़ की ओर इशारा करते हुए पन्नूराम बोलता :

‘‘उस सेमल के नीचे बैठ कर मैं कंटिया से दिनभर मछली पकड़ता था. तरहतरह की मछलियां, महाशीर, टैंगन, शोल, काली ट्राउट आदि सोते के पानी की विपरीत दिशा में आती थीं. दिनभर कंटिया में मछलियों का चारा लगा कर बैठा रहता और मछलियों का अच्छाखासा शिकार कर लेता था. परिवार वाले बहुत प्रसन्न थे. रूपीन व सुपीन नदियों की मछलियों का स्वाद ही कुछ अलग था.’’

एक हाथ से पकड़ी चाय की प्याली से घूंट भरते हुए पन्नूराम अपनी कहानी जारी रखता :

‘‘तब गांव में आबादी काफी कम थी. आहिस्ताआहिस्ता सभी को रूपीन व सुपीन नदियों की मछलियों के अनोखे स्वाद के बारे में पता लग चुका था. चूंकि वर्षाकाल आते ही मछलियों के पेट अंडे से भर जाते थे और वर्षा ऋतु की समाप्ति तक मछलियां पानी के अंदर उगे घास, पत्ते व पत्थरों के बीच अंडे देती थीं, इसलिए उन दिनों गांव के लोग मछलियों के वंश की रक्षा के लिए उन्हें खाना बंद रखते थे. मैं भी मछली का शिकार बंद कर देता था.’’

गले की खराश को बाहर थूकते हुए पन्नूराम अपनी कहानी जारी रखता…

‘‘5 साल पहले मल्ला गांव के ऊपरी ढलान पर, जहां रूपीन नदी का स्रोत ढलान से बहते हुए झरने के रूप में गिरता है, वहां पनबिजली संयंत्र लगाने के लिए सरकारी योजना बनी. पहाडि़यों के ऊपर कृत्रिम जलाशय बनाने के लिए चीड़ के जंगल की कटाई शुरू हो गई तो इलाके में लकड़ी के ठेकेदार, लकडि़यों की ढुलाई के लिए ट्रक चालकों और लकड़ी काटने व चीरने में लगे मजदूरों की चहलपहल बढ़ती गई. बाहरी लोगों को भी स्थानीय लोगों से रूपीन व सुपीन नदियों की मछलियों के अनोखे स्वाद के बारे में जानकारी मिली.

‘‘अब आएदिन पकड़ी हुई मछलियों का सौदा करने के लिए लोग मेरे पास आने लगे. अपनी जरूरत से अधिक पकड़ी हुई मछलियों को मैं ने बेचना शुरू कर दिया. कुछ पैसे मिले तो घर की आमदनी बढ़ने लगी. इस तरह हर रोज मछलियों की मांग बढ़ती गई. कंटिया से पकड़ी मछलियों से मांग पूरी नहीं हो पाती थी. अच्छीखासी कमाई होने की संभावना को देखते हुए मैं अधिक मछली पकड़ने के उपाय की तलाश में था.’’

इसी बीच रामानंद ने कहानी सुनने वाले ग्राहकों के आदेश पर उन्हें और पन्नूराम को गरम चाय की एकएक प्याली और थमाई. गरम चाय की चुस्की लगाते हुए पन्नूराम ने अपनी कहानी जारी रखी…

‘‘एक दिन लकड़ी के ट्रकों में आतेजाते एक ठेकेदार ने कंटिया के बजाय जाल का इस्तेमाल करने की सलाह दी. यही नहीं उस ठेकेदार ने मछली पकड़ने का जाल भी शहर से ला दिया. जाल देते समय उस की शर्त यह थी कि मैं रोजाना उस को मुफ्त की मछली खिलाता रहूं.

‘‘जहां पर चट्टानों के बीच संकरा रास्ता था वहां मैं ने संगम से निकले सोते में खूंटों के सहारे जाल को इस प्रकार से डाला जिस से पानी से कूदती हुई मछलियां जाल में फंस जाएं. यह तरीका अपनाने के बाद पहले से दोगुनी मछलियां पकड़ में आने लगीं. परिवार की कमाई भी बढ़ गई.’’

चाय के प्याले से अंतिम घूंट लेते हुए पन्नूराम ने फिर से कहना शुरू किया :

‘‘जाल से मछली पकड़ना आसान हो गया. परिवार का कोई भी सदस्य बीचबीच में जा कर फंसी हुई मछलियों को पकड़ लाता. रोजगार बढ़ाने की इच्छा से पहाडि़यों के ऊपर डायनामाइट से पत्थरों को तोड़ कर मैं रूपीन नदी में कृत्रिम जलाशय बनाने के काम में लग गया. धीरेधीरे विद्युत परियोजना के कार्यों के लिए मल्लागांव में लोगों की भीड़ जमा होती गई और इसी के साथ रूपीन व सुपीन की स्वादिष्ठ मछलियों की मांग बढ़ती गई. मछलियों की मांग इतनी बढ़ी कि उसे जाल से पूरा करना संभव नहीं था.

‘‘मैं और अधिक मछली पकड़ने के तरीके की तलाश में था. इसी बीच जल विद्युत परियोजना के लिए बड़ेबड़े ट्रकों और संयंत्रों के आवागमन, पहाड़ी सड़क की चौड़ाई बढ़ाने और डामरीकरण में लगे पूरब से आए मजदूरों में से रामदीन के साथ मेरी दोस्ती हो गई. बातोंबातों में एक दिन मैं ने रामदीन को अपनी समस्या बताई. सब सुन कर वह बोला, ‘यार, यह तो काफी आसान कार्य है. जाल से नहीं… डायनामाइट से मछली मारो. देखना, मछली का शिकार कई गुना अधिक हो जाएगा.’

‘‘रामदीन की बात सुनते ही मेरे पूरे शरीर में सिहरन सी होने लगी. मैं डायनामाइट से पत्थर तोड़ने के काम में लगा ही था. अत: एकआध डायनामाइट चुरा कर मछली मारना मुझे खासा आसान लगा था. फिर एक दिन शाम को काम से छुट्टी के बाद मैं रामदीन के साथ चुराए हुए डायनामाइट को ले कर मछली के शिकार के लिए चल पड़ा.

‘‘एक समतल जगह पर चट्टानों के बीच नदी का पानी फैल कर तालाब सा बन गया था. वहां किनारे पर खड़े हम मछलियों के झुंड की प्रतीक्षा कर रहे थे. तालाब का पानी इतना स्वच्छ था कि तलहटी तक सबकुछ साफ दिखाई दे रहा था. जैसे ही मछलियों का एक झुंड बहते पानी से स्रोत के विपरीत दिशा में तैरता हुआ दिखाई दिया रामदीन ने डायनामाइट में लगी हुई सुतली में आग लगाई और झुंड के नजदीक आने का इंतजार करने लगा. मुझे तो डर लग रहा था कि डायनामाइट कहीं हाथ में ही न फट जाए लेकिन रामदीन ने ठीक समय पर जलते हुए डायनामाइट को पानी में फेंका और देखते ही देखते एक विकट सी आवाज के साथ ऊपर की ओर पानी को उछालते हुए डायनामाइट फटा.

‘‘धमाका इतना तेज था कि चट्टानों के पत्थरों के बीच से कंपन का अनुभव होने लगा. तालाब में छोटी, बड़ी और मझोली सभी तरह की मछलियां, यहां तक कि पानी की तलहटी में रहने वाले केकड़े, घोंघा आदि भी पानी की सतह पर तड़पते नजर आने लगे. तालाब में तड़पती मछलियों का ढेर देख कर मैं खुशी से भर उठा. रामदीन की सहायता से तड़पती हुई मछलियों को पकड़ लिया. उस दिन मछलियों से आमदनी पहले की अपेक्षा दस गुना अधिक हो गई.’’

एक लंबी सांस लेने के बाद पन्नूराम ने कहना शुरू किया :

‘‘रामदीन भी अच्छा मछुआरा था. उस को मछलियों की काफी जानकारी थी. मछली मारने के लिए नईनई जगह की तलाश करना तथा मछलियों के आवागमन के प्रति नजर रखने का काम रामदीन ही करता था. मैं डायनामाइट ले कर रामदीन के इशारे का इंतजार करता था और इशारा मिलते ही सुलगते हुए डायनामाइट को ऐसा फेंकता कि पानी की सतह स्पर्श करते ही फट जाए. बहुत खतरनाक कार्य था, लेकिन अधिक पैसा कमाने के इरादे से खतरे को नजरअंदाज कर दिया.

‘‘उन दिनों जब मछलियां गर्भधारण से ले कर प्रजनन का कार्य करती हैं, उन का शिकार बंद नहीं किया. इस से मछलियों के छोटेछोटे बच्चे समाप्त होते गए. एक बार काफी बड़ी महाशीर मछली डायनामाइट से घायल हो कर पकड़ी गई. मैं ने जब उसे उठाया तो उस का पेट अंडों से भरा था. मुझे लगा कि मछली मुझे बताने की कोशिश कर रही थी, ‘मेरे साथसाथ हजारों बच्चों का भी तुम लोग विनाश कर रहे हो. हम तो उजड़ ही जाएंगे, तुम्हारा भविष्य भी खतरे में है.’ तब मैं मन ही मन सोच रहा था कि महाशीर के स्वादिष्ठ अंडों से भी अच्छीखासी कमाई हो जाएगी.’’

दुकान पर बैठे ग्राहकों की ओर तिरछी नजरों से देखते हुए पन्नूराम ने महसूस किया कि वे मछलियों के कत्लेआम से कातर हो रहे थे. अपने द्वारा मछलियों पर किए गए अत्याचार को सही साबित करते हुए पन्नूराम कहता, ‘‘क्या करें, हमें भी तो पेट पालना था. गांव में रोजीरोजगार का दूसरा कोई भी जरिया नहीं था जिस से हम मछलियों के ऊपर रहम करते हुए जीविका का कोई और साधन अपना लें. मछली मारने से हुई मेरी आर्थिक तरक्की को देख कर अन्य गांव वालों ने भी डायनामाइट के जरिए मछली मारना शुरू कर दिया. देखते ही देखते रूपीन व सुपीन नदियां रणक्षेत्र बन गईं. मछलियां कम होती गईं. अंत में तो ऐसा हुआ कि स्रोतों में कीड़े तक नहीं दिखाई देते थे. मछली से आमदनी कम होती गई तो मैं चिंतित हो उठा. अब घर चलाने का जरिया क्या होगा? मछलियों के झुंड ढूंढ़ने के लिए नदी के किनारेकिनारे मुझे मीलों तक जाना पड़ता था. कमाई कम होते ही रामदीन अपने गांव वापस चला गया.

‘‘सावन के महीने में एक दिन बारिश की धारा अनवरत बह रही थी. दिनभर की खोज के बाद शाम के समय काफी दूर से मछलियों का एक झुंड आता दिखाई दिया. अपनी उत्तेजना को वश में रखने के लिए मैं दाएं हाथ में जलती बीड़ी से कश मारते हुए बाएं हाथ में सुलगता डायनामाइट पकड़े मौके का इंतजार करता रहा. महीनों बाद पानी के स्रोत में तैरती मछलियों का झुंड देख कर मैं इतना खुश हुआ था कि मानो खुली आंख से कोई सपना देख रहा हूं. हिसाब लगा रहा था कि इतने बड़े झुंड से कितनी कमाई होगी. परिवार की आवश्यकताएं तो पूरी हो जाएंगी साथ ही कुछ पैसा भविष्य के लिए भी बच जाएगा. थोड़ी देर में जब देखा तो मछली का झुंड आ चुका है. मैं ने त्वरित गति से अपनी कार्यवाही की… लेकिन डायनामाइट का धमाका नहीं निकला. परेशान हो कर अपनी बंद आंखें खोल कर जब देखा तब तक डायनामाइट मेरे बाएं हाथ को धम से उड़ा कर ले जा चुका था. सपने में लीन मैं अपने दाहिने हाथ की सुलगती हुई बीड़ी को फेंक कर समझ रहा था कि मैं ने डायनामाइट फेंक दिया.’’

अपनी पूरी कहानी सुनाने के बाद स्वाभाविक होने पर पन्नूराम दोहराता, ‘‘मछलियों की आंसू भरी कातर आखें मुझे सताती रहती हैं. मैं अपने सीने में एक असहनीय पीड़ा अनुभव करते हुए आज भी मूर्छित हो जाता हूं. अपराधबोध से अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए रोजाना मैं सहृदय पथिक को आपबीती कहानी सुना कर पश्चात्ताप करता रहता हूं…कम से कम सुनने वाला पथिक ऐसे कुकृत्य से बचा रहे.’’

सदानंद को पन्नूराम की कहानी में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उस के फायदे की बात यह थी कि सुनने वाले राहगीर कहानी सुनतेसुनते एक के बजाय कई प्याली चाय पी जाया करते थे…पन्नूराम की कहानी से सदानंद की आमदनी में बढ़ोतरी होती रही और…सदानंद ने पन्नूराम की दिनभर की चाय मुफ्त कर दी.

Gunda Story In Hindi- गुंडा: क्या सच में चंदू बन गया गुंडा?

तेज रफ्तार से आती बाइक को देख कर लोग तितरबितर हो गए.

‘‘अरे ओ, रुक जाओ. कैसे चला रहे हो गाड़ी? ऊपर चढ़े जा रहे हो, दिखता नहीं है क्या? थोड़े में बच गई, वरना आज तो रामप्यारी हो जाती.’’ हाथ नचाती जोरजोर से चिल्लाती लड़की को साथ चलने वाली लड़की ने हाथ पकड़ कर कुछ समझाना चाहा, मगर उस ने अपना हाथ छुड़ा लिया. बाइक वाला अचानक ब्रेक मार कर सर्र से पीछे मुड़ा और इन के सामने आ कर एक पैर जमीन पर रख कर रुक गया.

‘‘अरे, रामप्यारी मैडम, दूसरों को कुछ कहने से पहले जरा खुद को देखो. बीच सड़क पर ऐसे चल रही हो जैसे पियक्कड़ चलते हैं. यह आम रास्ता है, आप की खुद की जागीर नहीं.’’

‘‘हां, यह हमारी ही जागीर है. तुम कौन होते हो मना करने वाले, चोरी और सीना जोरी.’’

‘‘सही कहा मेरीरानी. तुम ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली. अच्छा, यह सब छोड़ो. यह तो बताओ कि तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है? आज क्लास नहीं है, फिर क्यों सड़क नाप रही हो?’’

‘‘तुम्हें इस से क्या? मैं चाहे पढूं या सड़कें नापूं, मेरी मरजी. तुम्हें इस से क्या लेनादेना मिस्टर चंदूलाल?’’

‘‘ठीक है, समझ गया. लगता है बहुत दिन से शाहरुख खान की कोई फिल्म नहीं देखी. इसलिए आग उगल रही हो.’’

‘‘अरे जा, ऐसा कभी हो सकता है कि शाहरुख की फिल्म लगी हो और मैं न देखूं. अभी पिछले हफ्ते तो ‘माई नेम इज खान’ लगी थी और तुरंत मैं ने देख ली.’’

‘‘कैसी लगी? अच्छी है न?’’

‘‘अच्छी… महाबोर. उस की सारी फिल्में एक से एक हैं, मगर ये…’’

‘‘क्यों क्या हुआ?’’ उस ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘बिलकुल थर्ड क्लास. नहीं देखती तो अच्छा था, अब पछता रही हूं.’’

‘‘ऐसा क्या?’’ उस की हंसी छिपाए नहीं छिप रही थी, मगर मेरी अपनी ही धुन में बोले जा रही थी.

‘‘और क्या? बिलकुल शाहरुख की पिक्चर नहीं लगी. इतनी बोर तो उस की कोई पिक्चर नहीं है.’’

‘‘समझा. लड़कियों की आंखों में आंखें डाल कर रोमांटिक डायलौग्स बोलता हुआ, नाचतागाता, उन के दिलों पर राज करते रोमांटिक हीरो की छवि इस फिल्म में नहीं है. शायद इसलिए यह तुम्हें पसंद नहीं आई,’’ वह हंसता हुआ बोला.

‘‘अरे, मैं तो भूल ही गई. यह मेरी सहेली नीरजा है. इस शहर और कालेज में नई आई है. मेरी ही कक्षा में है,’’ उस ने अपने साथ खड़ी लड़की की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘जी, हां. मेरे पापा बैंक में हैं. इसलिए 3-4 साल से ज्यादा हम एक जगह रह ही नहीं सकते.’’

‘‘अच्छा, मैं चलता हूं. मेरी क्लास है बाय,’’ कह कर वह चला गया.

‘‘बड़ी अच्छी लगी आप लोगों की चुहलबाजी, बिलकुल बच्चों जैसी. तकरार तो है ही साथ में अपनापन भी है,’’ नीरजा ने हंसते हुए कहा.

‘‘ठीक कहा तुम ने नीरजा. देखा नहीं, कितने हक से वह इसे मेरीरानी कह रहा था,’’ पता नहीं रूमा कब आ गई थी साथ चलते हुए बोली, ‘‘अच्छा, यह तो बता मेरीरानी की च…’’

‘‘बस, रूमा बहुत हुआ. सीधीसादी बात को गोलगोल घुमाना, उस में अपने मन से रंग भर कर रंगीला, चटकीला बनाना कोई तुझ से सीखे.’’ लाख कोशिश करने पर भी मेरी अपने गुस्से पर परदा नहीं डाल सकी.

‘‘इस में इतना भड़कने की क्या जरूरत है? क्या केवल वही मेरीरानी कह सकता है, हम नहीं.’’ उस के स्वर में व्यंग्य नहीं था. वह हंसते हुए चली गई.

‘‘क्या हुआ मेरी? रूमा तो मजाक कर रही थी. तुम बुरा क्यों मान गई?’’ नीरजा उसे समझाने के अंदाज में बोली.

‘‘तुम नहीं जानती नीरू कि रूमा कितनी खतरनाक है. तुम अभी नई हो. यहां सबकुछ इतना सीधा नहीं है जितना दिखता है. वास्तव में यह रूमा चंदू के पीछे पड़ी थी.’’

‘‘पड़ी क्या थी, वह तो अब भी उस की दीवानी है. चंदू हां करे तो वह उस के पैरों में बिछ जाए, मगर वह ऐसी लड़कियों को भाव ही नहीं देता, तो यह चिढ़ती है और उसे बदनाम करने की कोशिश करती है,’’ मेरी बोली.

‘‘यह तो लड़केलड़कियों में आम बात है. यहां से निकलते ही सब लोग पिछली बातें भूल कर अपनीअपनी जिंदगी जीते हैं, लेकिन तुम पर वह क्यों व्यंग्यबाण चला रही थी?’’ नीरजा ने कहा.

‘‘उस की आदत है. छोटी सी बात को ले कर भी उसे लोगों की खिंचाई करना अच्छा लगता है. वास्तव में चंदू मेरे स्कूल का सहपाठी है. हम दोनों साथ खेलतेकूदते और लड़तेझगड़ते बड़े हुए हैं. एक बात बताऊं? स्कूल में मेरा नाम मेरीरानी ही था. कालेज में मैं ने रानी हटा कर मेरी रखा.’’

‘‘अच्छा, यह बात है? मगर रानी क्यों हटा लिया? मेरीरानी अच्छा तो लग रहा है.’’

‘‘तुम तो मुझे बनाने लगी. यह नाम बंगालियों में अकसर सुनने में आता है, मगर मुझे बड़ा अटपटा लगता था, क्योंकि स्कूल में मुझे सब लोग मेरीरानी कह कर चिढ़ाया करते थे, खासकर लड़के. इसीलिए मैं ने अपने नाम से रानी हटा लिया, केवल चंदू जानता है, इसीलिए कभीकभी अकेले में छेड़ता है.’’

‘‘और उस का नाम चंदूलाल… आज के जमाने में…’’

‘‘अबे, नहीं. उस का नाम तो चंद्रभान है.’’

‘‘यानी चांद और सूरज साथसाथ.’’

‘‘अरे हां, सच है. मैं ने तो आज तक गौर ही नहीं किया. सब उसे बचपन में चंदू कह कर बुलाते थे. हम जब लड़ते थे तब वह गाता था, ‘मेरीरानी बड़ी सयानी…’ और मैं गाती ‘चंदूलाल चने की दाल…’’ दोनों सहेलियां हंस पड़ीं.

 

नीरजा ने कलाई पर बंधी घड़ी की ओर देखा और उछल पड़ी. 5 मिनट की देरी हो चुकी थी. ‘‘अरे, बाप रे, अंगरेजी की मैम तो बहुत स्ट्रिक्ट हैं. वे तो कक्षा में घुसने नहीं देंगी. मेरी, जल्दी चलो.’’ दोनों कक्षा की ओर भागीं. अभी मैडम क्लास में नहीं आई थीं. क्लास में काफी शोर हो रहा था. दोनों बैठ गईं.

पीछे बैठी शीतल ने ‘हाय’ किया, लेकिन जवाब देने से पहले ही मैडम आ गईं. पीरियड समाप्त होते ही मेरी फ्रैंच क्लास में चली गई.

नीरजा की अब कोई क्लास नहीं थी. इसीलिए वह किताबें समेट कर घर जाने के लिए निकल पड़ी. शीतल भी साथ चलते हुए बोली, ‘‘चलो, नीरजा कैंटीन में चाय पीते हैं.’’

‘‘नहीं शीतल, मुझे जाना होगा. मम्मी राह देखती होंगी, बाय,’’ कह कर वह निकल गई. इतने दिन में वह समझ गई थी कि शीतल की पढ़ाई में कम और कालेज में भीड़ इकट्ठी करने, पार्टियों और फिल्म देखने में ज्यादा रुचि थी. शायद वह किसी करोड़पति से शादी कर के ऐशोआराम की जिंदगी जीने के इंतजार में थी.

उस दिन तो नीरू का मूड ही खराब हो गया. आखिर उस के मुंह से निकल गया, ‘‘सर, कितने दिन से मैं इस किताब के लिए लाइब्रेरी के चक्कर लगा रही हूं. किस के पास है यह किताब?’’

‘‘बेटा, मुझे याद नहीं है कि किस के पास है, जरा 2 मिनट रुक जाओ. मैं देख कर बताता हूं.’’

‘‘सर, यह किताब मेरे पास है. कल लौटा दूंगा,’’ सामने से आवाज आई. नीरू ने पलट कर देखा तो कोई लड़का पास ही मेज पर बैठा कुछ पढ़ रहा था. उस ने इस की बातें सुन ली थीं.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. आप पढ़ने के बाद ही उसे वापस कीजिए. मैं सर से ले लूंगी,’’ नीरू ने सकुचाते हुए कहा.

‘‘मैं ने पढ़ ली है. मैं वापस देने ही वाला था, पर जरा लापरवाही हो गई. आई एम सौरी. कल ला दूंगा. आप ले लीजिएगा.’’

इस प्रकार हुआ था उस का आनंद से परिचय. बाद में पता चला कि वह शीतल का भाई है. कितना अंतर था उन दोनों में. शीतल जहां एक चंचल तितली की तरह थी, वहीं वह चरित्रवान आदर्श व्यक्ति का स्वरूप.

ऐसे व्यक्ति के पास लड़कियां अपनेआप को बिलकुल सुरक्षित महसूस करती हैं. वह नीरू को भा गया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

उस दिन क्लास खत्म होने के बाद जब नीरजा घर जाने के लिए निकली तो आकाश काले बादलों से ढका हुआ था.

4 बजे ही अंधेरा छा गया था. बूंदाबांदी शुरू हो गई थी. पता नहीं क्यों आज मेरी भी नहीं आई थी. हमेशा दोनों पैदल ही जाती हैं, क्योंकि दोनों के घर कालेज से ज्यादा दूर नहीं थे. वह जल्दीजल्दी घर की ओर जाने लगी. इतने में एक बाइक उस के पास आ कर रुकी.

‘‘बहुत तेज बरसात होने वाली है. आप को एतराज न हो तो मैं आप को घर छोड़ दूं?’’ यह चंदू की आवाज थी.

‘‘जी, नहीं. मैं चली जाऊंगी. घर पास में ही है,’’ वह दनदनाती हुई आगे बढ़ गई. अभी दो कदम भी नहीं  चली थी कि तेज बरसात हो गई.

‘अब क्या करूं?’ नीरजा सोचने लगी, ‘चंदू के साथ चली जाती तो अच्छा था. किताबें भीग रही हैं.’ चंदू के बारे में लोगों की विरोधाभासी बातें सुन कर वह अब तक अपनी कोई राय नहीं बना पाई थी. पीछे से जोरजोर से कार के हौर्न की आवाज सुन कर वह पलटी.

‘‘नीरू, जल्दी अंदर आ जाओ,’’ शीतल ने आवाज दी. कार का दरवाजा खुला और वह लपक कर कार में बैठ गई. उस ने देखा अंदर रूमा भी बैठी थी. कार आनंद चला रहा था.

‘‘क्या कह रहा था हीरो,’’ रूमा ने हंसते हुए पूछा.

नीरू ने कहा, ‘‘यही कि आइए, तेज बरसात होने वाली है. आप भीग जाएंगी. मैं अपने खटारे पर आप को घर छोड़ दूंगा.’’

‘‘लड़कियां पटाना तो कोई इस से सीखे,’’ दोनों जोरजोर से हंस पड़ीं. सामने लगे आईने में आनंद की मंदमंद मुसकराहट भी नीरू देख रही थी.

‘‘देखो नीरू, इस भंवरे से दूर ही रहना. चंदू मवाली, गुंडा और आवारा है. तुम्हारी सहेली मेरी तो उस की हिमायती है. कभी उस की बातों में न आना,’’ रूमा ने बड़ी आत्मीयता जताते हुए कहा.

‘‘बरसात बढ़ रही है, हम ने आप का घर देख लिया है फिर कभी जरूर आएंगे,’’ कह कर आनंद ने गाड़ी आगे बढ़ा दी.

2 दिन बाद मेरी कालेज आई. बहुत कमजोर हो गई थी. उसे मलेरिया हो गया था. वह आ तो गई थी मगर बैठ नहीं पा रही थी. बड़ी मुश्किल से 2 पीरियड निकालने के बाद उस ने घर जाने का निश्चय कर लिया. नीरू उसे रिकशे में बैठाने साथ गई. कालेज के मुख्य फाटक पर पहुंचने से पहले ही नीरू ने देखा कि एक पेड़ के नीचे चंदू, रूमा और अन्य 2-3 लड़कियां जोरजोर से हंस रही थीं. इतने में रूमा ने अपने हाथ से चंदू के बाल बिखेर दिए और उस का हाथ पकड़ कर जब चंदू ने उसे रोकना चाहा तो रूमा ने दूसरे हाथ से चिकोटी काट ली और सब  हंसने लगे. नीरू ने सोचा, ‘अजीब लड़का है. कालेज में कृष्ण कन्हैया बना फिरता है. पढ़ता कब होगा.’

कालेज का युवा सम्मेलन कार्यक्रम बहुत अच्छा होता है. उस में तरहतरह के रंगारंग कार्यक्रम होते हैं. मेरी ने एक अंगरेजी नाटक में मुख्य भूमिका निभाई. शीतल, रूमा और कुछ अन्य लड़कियों ने मिल कर एक पश्चिमी नृत्य पेश किया. इसी कार्यक्रम में घोषणा की गई कि आनंद ने कालेज के पुस्तकालय के लिए 10 हजार रुपए का अनुदान दिया है.

पिछले वर्ष विभिन्न विभागों में प्रथम और द्वितीय स्थान प्राप्त करने वालों को इनाम दिए गए. अंत में खेल विभाग का नंबर आया. सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी और खेल सचिव के रूप में चंद्रभान शर्मा का नाम घोषित किया गया. जितनी तालियां उस के लिए बजीं उतनी तो शायद किसी और के लिए नहीं बजी थीं.

भीड़ को चीरते हुए चंद्रभान आगे आ रहा था. नीरू ने देखा, वह हमेशा की तरह बिंदास था. बाल बिखरे, कमीज कुछ अंदर, कुछ बाहर. हवा के झोंके की तरह चला आ रहा था वह.

एक अध्यापक ने उसे पकड़ा. उस की कमीज ठीक की, बाल संवारे और कहा, ‘‘तुम कहां रह गए थे? स्टेज के पीछे रहने को कहा गया था न? बाकी सारे इनाम के हकदार वही हैं.’’

‘‘जी, सर पीछे बैठा एक वृद्ध व्यक्ति बेहोश हो गया था. उसे अस्पताल पहुंचा कर आ रहा हूं,’’ उस ने जवाब दिया.

‘‘सर, यह हमारे कालेज का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी और खेल सचिव है. हमें दोतिहाई पुरस्कार इसी की वजह से मिले हैं,’’ प्रिंसिपल साहब ने मुख्य अतिथि से परिचय कराते हुए कहा.

 

शीतल के बुलावे पर 3-4 बार नीरू को उस के घर जाना पड़ा. शीतल कालेज के चुनावों में सांस्कृतिक सचिव के पद के लिए चुनाव लड़ रही थी. वह यह कह कर नीरू को अपने घर ले जाती कि तेरे आइडियाज बहुत अच्छे हैं, तेरी प्लानिंग भी अच्छी है. चुनाव में जीतने के लिए तुम्हारी मदद की मुझे काफी जरूरत है.

नीरू किसी को भी ना नहीं कर सकती थी. मगर शीतल के नीरू को पटाने के और भी कारण थे, क्योंकि नीरू पढ़ने में अच्छी थी. वह चुनाव में व्यस्त होने के बहाने उस के नोट्स ले कर फोटोकौपी करवा लेती. दूसरा और जरूरी कारण यह था कि वह जानती थी कि आनंद की नीरू में रुचि है और आनंद ने ही उन दोनों की दोस्ती को प्रोत्साहित किया था.

पहली बार उन के घर को देख कर नीरू चकित रह गई. वे बहुत पैसे वाले लोग थे. सब के अलगअलग कमरे, अलगअलग गाडि़यां, अलग जीने के तरीके थे. किसी को दूसरे के बारे में पता नहीं, न ही वे एकदूसरे के जीवन में दखल देते थे. नीरू जब भी वहां जाती आनंद से अवश्य मिलती. वैसे भी आनंद का शालीन, संतुलित व्यवहार उसे भाने लगा था.

आजकल नीरू को शीतल के साथ चुनाव प्रचार के लिए कालेज के छात्रछात्राओं के घर जाना पड़ता था. दोनों कार से जाते, वापसी में शीतल उसे घर छोड़ देती. उस दिन शीतल की कार खराब हो गई थी इसलिए आनंद ने शीतल को एक घर के सामने छोड़ दिया.

‘‘यह किस का घर है?’’ नीरू ने पूछा.

‘‘मेघा का.’’

‘‘मेघा… हां, याद आया. परिचय तो नहीं है पर शायद आर्ट फैकल्टी में है.’’

‘‘हां, ठीक पहचाना. क्या करें, जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है,’’ कार लौक करते हुए शीतल ने कहा.

‘‘क्या?’’

‘‘कुछ नहीं. चलोचलो. आज हमें 3 घर निबटाने हैं.’’

कार की आवाज सुन कर कोई बाहर आया. नीरू ने सोचा यही मेघा है, वह मुसकरा दी.

‘‘मेघा, यह नीरजा है, मेरी ही क्लास में है.’’

‘‘जानती हूं और मैं मेघा, जर्नलिज्म की छात्रा हूं. मैं आप को अकसर शीतल के साथ देखती हूं या पुस्तकालय में,’’ नीरू मुसकराते हुए सुन तो रही थी मगर उस का दिमाग तेजी से विचारों में उलझा हुआ था. इसे तो मैं अच्छी तरह जानती हूं. यह मेरी आंखों में बसी हुई है. कालेज में तो कई छात्र हैं उस लिहाज से नहीं. फिर… अचानक उसे याद आया, ‘‘हां, यह तो अकसर चंदू के स्कूटर पर नजर आती है.’’

‘‘आइए न अंदर,’’ उस के पीछे शीतल और नीरजा अंदर चल दीं. वहां एक प्रौढ़ा कुछ पढ़ रही थीं. मेघा ने अपनी मां से दोनों का परिचय कराया. उन्होंने बड़े प्यार से दोनों लड़कियों से बात की. थोड़ी देर बाद एक स्कूटर घर के आगे रुका, जिस से चंदू उतरा और घर के अंदर आ गया.

नीरजा देखती रह गई, ‘‘चंदू यहां…’’

‘‘नीरजा, यह मेरा भाई चंद्रभान है. मैं इन की छोटी बहन हूं, कोई मुझे जाने या न जाने इन्हें तो हर कोई जानता है.’’

‘‘शीतल आज तुम यहां… हमारा घर पवित्र हो गया. अरे, भई मेघा, इन लोगों को कुछ खिलायापिलाया या नहीं?’’

‘‘नहीं भैया, अभीअभी तो आए हैं,’’ इतने में मेघा की मां एक ट्रे ले कर आईं, जिस में पकौडे़ थे.

‘‘मां, मुझे बुला लेतीं. आप अब बैठिए, मैं चाय बना लूंगी.’’

‘‘ठीक है, ठीक है, पहले इन्हें खाने तो दे,’’ मां ने कहा.

मेघा ने उठ कर पकौड़ों की प्लेट शीतल के आगे बढ़ाई.

चंदू बोला, ‘‘लो शीतल, मां बहुत स्वादिष्ठ पकौड़े बनाती हैं. एक बार खाओगी तो बारबार मेरे घर आओगी, इन्हें खाने के लिए.’’

‘‘नहीं मेघा, पहले ही मेरा गला बहुत खराब है. ऐसावैसा कुछ खा लिया तो हालत और खराब हो जाएगी.’’

चंदू पकौड़ों की प्लेट ले कर खुद खाने लगा. ‘‘अरे भैया, नीरजा को दो,’’ मेघा ने टोका.

‘‘नहीं मेघा, क्यों उन्हें परेशान करती हो. जैसे ध्यानचंद वैसे मूसर चंद. मुझे अच्छे लगते हैं इसलिए मैं खा रहा हूं.’’

कालेज चुनाव में शीतल जीत गई थी. जीत की पार्टी वह अपने सारे दोस्तों को कैंटीन में दे कर लौटी थी. नीरू के लिए विशेष निमंत्रण था. वैसे भी अब वह उन के घर  लगी थी, क्योंकि उन के साथ एक अनकहा सा रिश्ता बन गया था. आनंद का व्यवहार ऐसा होता जैसे उस का उस पर कोई हक हो.

शीतल भी ऐसा ही व्यवहार करती थी, क्योंकि वह समझ गई थी कि उस का भाई नीरू को बहुत पसंद करता है. तीनों कार की ओर जा ही रहे थे कि इतने में जोर की चीख सुनाई पड़ी. चारों ओर से सारे विद्यार्थी उस ओर दौड़ पड़े. माली का बेटा जो अकसर अपने पिता के साथ काम करने आया करता था जोरजोर से रो रहा था. कुदाल लग जाने से उस का पैर लहूलुहान हो गया था. घाव कुछ ज्यादा ही गहरा था. सभी लोग तरहतरह के सुझाव दे रहे थे. कोई आटो बुलाने जा रहा था, कोई प्रिंसिपल के कमरे की ओर दौड़ रहा था तो कोई कह रहा था कि डाक्टर को ही यहां बुला लो.

नीरू को लगा आनंद उसे अपनी कार से डाक्टर के पास ले जाएगा, मगर वह मौन खड़ा तमाशा देख रहा था. पता नहीं कहां से चंदू आया उस ने माली के सिर का साफा निकाला और बच्चे के पैर में बांध दिया. फिर 10-12 साल के बच्चे को अपने हाथों में उठा लिया और कहा, ‘‘चलो यार, कोई मेरे साथ. मेरी जेब से मेरी बाइक की चाबी निकाल कर गाड़ी चलाओ. मैं इसे ले कर पीछे बैठता हूं.’’ फाटक काफी दूर था अगर कोई आटो ले कर आता तो तब तक काफी खून बह जाता.

इस के बाद शीतल के घर जा कर भी नीरू अनमनी सी ही रही. न उसे वहां पैस्ट्रीज अच्छी लगीं न कोल्डड्रिंक्स.

‘‘क्या हो गया नीरू तुम्हें, क्या तुम मेरी जीत से खुश नहीं हो?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है…’’

‘‘शायद माली के बेटे वाली घटना से विचलित है. दिल इतना कमजोर होगा तो कैसे चलेगा. यह तो उन के जीवन का भाग है,’’ आनंद हंसा.

उसे लगा वह उस की हिम्मत नहीं बंधा रहा है बल्कि हंसी उड़ा रहा है.

‘‘मैं तो उस घटना को वहीं भूल गई. नीरू तुम्हें सख्त होना पड़ेगा, नहीं तो तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल होगी,’’ शीतल ने कहा.

‘‘सख्त, यह तो संवेदनहीनता है. एक गरीब, निसहाय आदमी को भी बच्चा उतना ही प्यारा होता है जितना एक करोड़पति को. ऊपर से अस्पताल का खर्च. कैसे झेल पाएगा वह?’’ उस का हृदय भीग गया.

‘‘छोड़ो यार, तुम तो ऐसे डिस्टर्ब हो जैसे वह तुम्हारा अपना हो. यह सब तो चलता रहता है. ठीक है तुम्हारा मूड ठीक करने का उपाय मैं जानती हूं.’’

‘‘अच्छा शीतल, मुझे कुछ काम है. अभी आता हूं,’’ कह कर आनंद वहां से

चला गया.

‘‘सुनो नीरू, पापा बाहर गए हुए हैं. शायद 2-3 दिन में वापस आएंगे. उन के वापस आते ही भैया तुम्हारी बात चलाएंगे,’’ उस ने बड़ी अपेक्षा से नीरू की ओर देखा. कोई प्रतिक्रिया न पा कर वह स्वयं बोली, ‘‘अरे यार, मैं तो समझी थी कि तुम खुशी से उछल पड़ोगी. भैया को तो कोई पसंद ही नहीं आती थी. कितनी लकी हो तुम, जिस के पीछे लड़कियां लाइन लगाती हों, वे स्वयं तुम्हारे पीछे हैं.’’

नीरू का वहां और रुकने का मन नहीं हुआ. वह जाने को उठी, तो शीतल ने कहा, ‘‘अरे रुको, भैया पहुंचा देंगे. यहींकहीं गए हैं, आ जाएंगे.’’

‘‘नहीं शीतल, मुझे एक जगह और जाना है, अच्छा बाय.’’

‘‘मगर भैया…’’ शीतल पुकारती रह गई. उस रात उसे नींद नहीं आई. खून से लथपथ माली के बेटे का पांव, उस का आसुंओं से भीगा चेहरा और माली की दैन्य स्थिति उसे कचोट रही थी. बारबार एक ही सवाल उस के मन में उठ रहा था, ‘क्या आनंद की परिपक्वता, शालीनता, बड़प्पन केवल एक ढकोसला है? सब के सामने अपनेआप को कितना अच्छा दिखाता है. गाड़ी है, पैसा है, मगर दिल में…’ नीरू का मन खट्टा हो गया.

नीरू सुबह तैयार हो कर कालेज जाने को निकल तो पड़ी पर उस का जाने का मन न हुआ. मेरी ने तो कल ही कह दिया था कि अब कम से कम 4-5 दिन पढ़ाई नहीं होगी, इसलिए वह अपनी दीदी के यहां चली जाएगी. उस के मन में विचार आया कि क्यों न माली के बेटे को देख आऊं. माली का घर उस के कालेज के रास्ते में ही पड़ता था. छोटी सी झोंपड़ी थी उस की. वह सकुचाती हुई उस की झोंपड़ी में घुस गई.

माली शायद काम पर जा चुका था और लड़का एक पुरानी सी खाट पर गुदडि़यों में लिपटा पड़ा था. किसी की आहट सुन कर उस ने आंखें खोलीं. नीरू ने उसे अपना परिचय दिया और उस की खाट पर बैठ कर उस से बातें करने लगी. पहले तो वह बहुत सकुचाया पर बाद में नीरू से प्रोत्साहन और अपनेपन से खुल कर बातें करने लगा.

उस ने बताया कि उस की मां 4-5 घरों में बरतनचौका करती हैं, इसलिए इस समय वहीं गई हुई हैं. पौलीथिन बैग में से नीरू ने बड़ा सा फ्रूट ब्रैड और बिस्कुट का पैकेट निकाला और खोल कर उस के सामने रख दिया.

‘‘आप यह सब क्यों लाई हैं, अभी अम्मां आएंगी तो हम लोग खाना खा लेंगे.’’

‘‘मुझे पता है भैया, अभी थोड़ा खा लो. बाकी बाद में सब मिल कर खाना.’’

उस ने एक ब्रैड का पीस उस की ओर बढ़ाया, जिस तरह से उस ने उसे खाया उस से पता चल गया कि वह वास्तव में भूखा था. उस का मन भर आया. कितना आत्मसम्मान है इस बच्चे में. उसे 2 बिस्कुट खिला कर पानी पिलाया. फिर आने का वादा कर के वह बाहर निकल ही रही थी कि चंदू और मेघा ने अंदर प्रवेश किया. वे एकदूसरे को देख कर चौंके.

उन से 2 मिनट बातें कर के नीरू निकलने ही वाली थी कि मेघा ने कहा, ‘‘नीरूजी, 2 मिनट रुक जाइए. मंगल की मां आती ही होगी. उस से मिल कर हम भी चलते हैं.’’ दूसरा तो कोई काम था नहीं, वह रुक गई.

वे लोग अभी बातें ही कर रहे थे कि मंगल की मां और एक 9-10 साल की लड़की आ गई. मेघा ने बताया कि यह लड़की मंगल की छोटी बहन लक्ष्मी है. मेघा ने एक थैला उस स्त्री के हाथ में दिया और बोली, ‘‘खाना है, सब लोग खा लेना और हां, डब्बों की चिंता मत करो, हम बाद में ले जाएंगे.’’

वह महिला नहीं मानी और बोली, ‘‘नहीं बेटा, रुक जाओ, 2 मिनट का काम है,’’ कहती हुई उस ने फटाफट डब्बों को खाली किया. नीरू ने देखा सब के लिए खाने के साथसाथ मिठाई और समोसे भी थे.

‘‘इतना सारा खाना क्यों ले आए बेटा? रूखासूखा खाने वाले गरीब आदमी हैं हम,’’ उस की आंखें भर आईं. वह डब्बे धोने बाहर चली गई. मेघा को जैसे कुछ याद आया.

‘‘अरे भैया, दवाइयां…’’

‘‘हां, वे तो डिक्की में रह गईं. मैं ले आता हूं.’’

‘‘रुको, बहुत सारे पैकेट्स हैं. मुझे आना ही पड़ेगा.’’ दोनों बाहर चले गए.

दवाइयों के पैकेट के साथ जब वापस आए तो मेघा कह रही थी, ‘‘क्यों बताया आप ने?’’ वह कुछ नाराज लग रही थी.

‘‘नहीं बताता तो निवाला उस के गले से नहीं उतरता. अब जल्दी कर. ये दवाइयां कब, कैसे लेनी हैं, 2 बार अच्छे से समझा कर चल. मां राह देख रही होंगी.’’ नीरू को उन की बातें समझ में नहीं आईं.

दोनों ने अच्छी तरह से दवाइयों के बारे में समझाया और फिर से आने को कह कर बाहर निकल आए.

मेघा ने कहा, ‘‘नीरू एतराज न हो तो थोड़ी देर के लिए मेरे घर चलो, मुझे अच्छा लगेगा. चाहो तो मैं घर आ कर आंटी को बता दूंगी.’’

‘‘तुम कभी भी मेरे घर आ सकती हो, मुझे भी अच्छा लगेगा. इस वक्त केवल मां की इजाजत के लिए आने की जरूरत नहीं है. मैं घर जा कर बताने ही वाली थी कि मैं कालेज नहीं गई थी. रास्ते में मन बदल गया था और मंगल के घर चली गई थी,’’ नीरू ने हंसते हुए कहा.

‘‘मेघा, तुम मां से कह देना कि मैं एक जरूरी काम से जा रहा हूं. आधे घंटे में घर पहुंच जाऊंगा.’’ चंदू उछल कर गाड़ी में बैठ गया. मेघा नीरू के साथ आटो में बैठ गई.

नीरू को देख कर मेघा की मां बहुत खुश हुई, ‘‘अच्छा किया बेटा, जो अपनी सहेली को साथ ले आई, मंगल कैसा है?’’

‘‘ठीक हो रहा है मां, नीरू भी वहीं थी. हम लोग उस की मां और छोटी बहन से भी मिले.’’

‘‘नीरू बेटे, मुझे बहुत अच्छा लगा. इस के पिता के जाने के बाद इस ने अपना जन्मदिन मनाना ही छोड़ दिया. आज सालों बाद इस ने जन्मदिन पर कम से कम अपनी एक सहेली को तो बुलाया है. मैं तुम्हें यों ही नहीं जाने दूंगी.

‘‘मेघा बेटी, जरा आंटीजी को फोन कर के बता दे कि नीरू आज यहां तुम्हारे साथ खाना खाएगी, वे इस का इंतजार न करें.’’

‘‘नहीं आंटीजी, मुझे मीठा खिला दीजिए, मैं कालेज जाने के लिए घर से खाना खा कर निकली थी, मगर मैं कालेज न जा कर मंगल को देखने चली गई थी.’’

‘‘मेघा, तुम ने मुझे बताया ही नहीं कि आज तुम्हारा जन्मदिन है,’’ नीरू ने कहा.

‘‘इस में जन्मदिन वाली कोई बात नहीं है और कोई दिन होता तो भी मैं यही करती. मंगल के यहां हमारा मिलना एक सुखद संयोग है.’’

उस दिन मेघा के घर से लौटने के बाद नीरू का मन बिलकुल स्थिर और शांत हो गया था. उस ने सोचा, ‘कितना प्यारा घर है, शांत और सुकून देने वाला. कितना प्यार और अपनापन था वहां. उस की सारी बेचैनी दूर हो गई थी.’

इस के बाद उस का मेघा से मेलजोल बढ़ा. वे दोनों एकदूसरे को बहुत पसंद करती थीं. मेघा बहुत कम बोलती थी, मगर जो बोलती थी उस में सार, समझदारी, कोमलता, आर्द्रता आदि होती थी. वह बिना बोले दूसरों की बात समझ जाती थी और उसी के अनुसार काम करती थी. उस के पास आ कर लोगों का आत्मबल बढ़ता था.

धीरेधीरे नीरू को महसूस होने लगा कि उस घर में जब भी जाती है उसे एक शीतल, सुगंध छू जाती है. मन को सुकून मिलता है जैसे वहां स्नेह का मलयानिल बह रहा हो.

आनंद के साथ नीरू की सगाई तय हो गई. एक बार आनंद के कहने पर मेघा ने नीरू की मां को फोन किया कि वह आनंद की बहन है.

नीरू और आनंद एकदूसरे को पसंद करते हैं, पर दोनों इस बात को घर बताने में शरमाते हैं. वे लोग उस के घर आ कर रिश्ते की बात उस के मम्मीपापा से करें.

वह अपने भाई से बहुत प्यार करती है. इसलिए फोन कर रही है. यह बात वे किसी से न कहें, यहां तक कि नीरजा या आनंद से भी नहीं.

‘अंधा क्या चाहे दो आंखें,’ ऐसा रईस और शहर में प्रतिष्ठित खानदान नीरजा को मिले, इस से बढ़ कर उन्हें क्या चाहिए था, वह भी बिना प्रयास के. उस की पढ़ाई भी अब समाप्त होने वाली है. बात आगे बढ़ी और तारीख भी पक्की हो गई. फिर तो आएदिन नीरू के लिए तोहफे आने लगे. कभी कपड़े, कभी सैंडल तो कभी सौंदर्य प्रसाधन.

एक बार नीरू ने आनंद से कहा, ‘‘आप लोग बातबेबात मुझे तोहफे क्यों भेजते हैं? मुझे बड़ा संकोच होता है. प्लीज…’’

‘‘इस बारे में तुम बहुत मत सोचा करो. ऐसे छोटेमोटे तोहफे देना हमारे लिए बहुत बड़ी बात नहीं है. धीरेधीरे तुम्हें आदत पड़ जाएगी,’’ आनंद ने कहा.

उस दिन उन के कालेज के सहपाठी अनुरूप का जन्मदिन था. वह भी शहर के बहुत बड़े उद्योगपति का बेटा था. नीरू अपने मित्रों के साथ शीतलपेय लेते हुए बातें कर रही थी कि पीछे से कंधे पर हाथ पड़ा. उस दबाव से उसे पीड़ा हुई. वह गुस्से से पलटी, सामने आनंद खड़ा था.

‘‘वन मिनट प्लीज,’’ उस के मित्रों से कह कर आनंद उसे हाथ पकड़ कर एक ओर ले गया.

‘‘क्या अजीब से कपड़े पहन लिए हैं तुम ने, इसीलिए तो तोहफे भेजता हूं कि कुछ ढंग का पहनो,’’ उस ने फुसफुसाते हुए कहा.

वह जानती थी कि सारी सहेलियों की नजरें उन्हीं पर टिकी हुई थीं. वह स्तब्ध रह गई. चेहरा लाल हो गया. तोहफों का यह अर्थ उस ने कभी नहीं लगाया था. उसे तो लगा था कि अपना प्यार जताने के लिए वह तोहफे देता है.

उसे क्या पता था कि वह अपने साथ खड़े होने के लायक बनाने के लिए उसे तोहफे देता है. उस ने आंखों में आने को आतुर आंसुओं को रोका. उसे घिन आ रही थी अपनेआप पर कि इंसान को पहचानने में इतनी बड़ी गलती कैसे

हो गई?

वापस आने पर जीना ने कहा, ‘‘अरे वाह, सब के बीच रोमांस?’’

‘‘नहीं यार, वे लोग अपनी शादी के बाद की पार्टी का प्लान कर रहे थे.’’ यह रूमा थी.

‘‘ठीक कहा तू ने. आनंद कोई भी काम करता है तो सब देखते रह जाते हैं. भई, अपनी नीरू भी तो लकी है.’’ कौन थी ये जो उस के भाग्य की हंसी उड़ा रही थी.

मेरी ने उस का हाथ थामा, ‘‘नीरू, मुझे घर जाना है, जरूरी काम है. तू चलेगी क्या मेरे साथ?’’ मेरी अब उस की बहुत अच्छी दोस्त बन चुकी थी.

रास्ते में मेरी ने कहा, ‘‘नीरू, मैं बहुत दिन से एक बात कहना चाह रही थी, मगर डर रही थी कि कहीं तुम बुरा न मान जाओ. मेरा विचार है कि सगाई से पहले एक बार आनंद के बारे में पुनर्विचार कर लो. उस के और तुम्हारे स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर है. वह जो दिखता है वह है नहीं और तुम्हारा मन बिलकुल साफ है.’’

‘‘जिसे मैं शांत, गंभीर और नेक व्यक्ति मानती थी उस में अब मुझे पैसोें का गरूर, अपनेआप को सब से श्रेष्ठ और दूसरों को तुच्छ समझने की प्रवृत्ति, दूसरों के दुखदर्द के प्रति संवेदनशून्यता आदि खोट क्यों दिखाई दे रहे हैं? शायद यह मेरी ही नजरों का फेर हो.’’ नीरू की आंखों में आंसू आ गए. उसे मंगल की याद आई. उस ने आंसू पोंछे.

मेरी समझ गई. उस ने मन में सोचा, ‘अब तुम ने आनंद को ठीक पहचाना.’

‘‘मेरी, मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि जब बात सगाई तक पहुंच गई है अब मैं क्या कर क्या सकती हूं?’’

‘‘सगाई तो क्या, बात अगर शादी के मंडप तक भी पहुंच जाती है और तुझे लगता है कि तू उस के साथ सुखी नहीं रह सकती, तेरा स्वाभिमान कुचला जाएगा, तो ऐसे रिश्ते को ठुकराने का तुझे पूरा हक है,’’ मेरी उसे घर छोड़ कर चली गई.

2 दिन तक नीरजा कालेज नहीं गई. उसे कुछ भी करने की इच्छा नहीं हो रही थी. अगले दिन तो वह और भी बेचैन हो उठी थी. उस का दम घुट रहा था. शाम होतेहोते वह और भी बेचैन हो उठी.

‘‘मां, थोड़ी देर वाकिंग कर के आती हूं.’’

‘‘मैं साथ चलूं?’’

‘‘नहीं मां, यों ही जरा चल के आऊंगी तो थोड़ा ठीक लगेगा,’’ वह चप्पल पहन कर निकल गई.

नीरू की मां जानती थी कि उसे कोई चीज बेचैन कर रही है. छोटीमोटी बात होगी तो वापस आ कर ठीक हो जाएगी. ऐसीवैसी कोई बात होगी तो वह अवश्य उस के साथ चर्चा करेगी. वे अपने काम में लग गईं.

थोड़ी देर चलते रहने के बाद उस ने देखा कि वह किसी जानेपहचाने रास्ते से जा रही है. वह रुक गई. उसे अचानक ध्यान आया कि वह मेघा के घर के आसपास खड़ी है. उस के कदम मेघा के घर की ओर बढ़ गए. फाटक खोल कर उस ने अंदर प्रवेश किया. चारों ओर शांति थी. वहां चंदू की बाइक नहीं थी. ‘चलो, अच्छा है घर पर नहीं है. मेघा और उस की मां से थोड़ी देर बात कर के उस की मनोस्थिति में थोड़ा बदलाव आएगा.’

‘तनाव मुक्त हो कर आज रात वह मां से खुल कर बात कर सकेगी.’ दरवाजा बंद था. उस ने घंटी बजाने को हाथ उठाया ही था कि अंदर से आवाज आई, ‘‘नहीं मेघा, यह नहीं हो सकता.’’ अरे, यह तो चंदू की आवाज है.

‘‘क्यों भैया, क्यों नहीं हो सकता? मैं जानती हूं कि तुम उस से बहुत प्यार करते हो.’’

‘‘हांहां, तू तो सब जानती है, दादी है न मेरी.’’

‘‘हंसी में बात को मत उड़ाओ भैया. अगर तुम नीरू से नहीं कह सकते तो बोलो, मैं बात करती हूं.’’

‘‘नहींनहीं मेघा, खबरदार ऐसा कभी न करना. मैं जानता हूं कि वह किसी और की अमानत है तो फिर मैं कैसे…’’

‘‘चलो, एक बात तो साफ है कि आप उस से…’’

‘‘मगर इस से क्या होता है मेघा? वह किसी और से प्यार करती है, दोचार दिन में उस की सगाई होने वाली है और फिर शादी.’’

अब नीरू की समझ में आ रहा था कि शायद वे लोग उस की बात कर रहे थे.

‘‘भैया, आप से किस ने कह दिया कि नीरजा आनंद से प्यार करती है. यह तो केवल घटनाओं का क्रम है. वह उस के साथ खुश नहीं रह पाएगी.’’

‘‘यह तू कैसे कह सकती है?’’ चंदू ने झुंझलाते हुए कहा.

‘‘दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर है. आनंद स्वार्थी और अहंभावी है. वह वह नहीं है जो दिखता है. वह और भी खतरनाक है.’’

‘‘मैं सब जानता हूं मेघा, मगर अब कुछ नहीं हो सकता. सब से बड़ी बात यह है कि मैं कालेज में बदनाम हूं. धनवान भी नहीं हूं.’’

‘‘मगर मैं जानती हूं कि तुम कितने अच्छे हो. दूसरों की भलाई के लिए कुछ भी कर सकते हो.’’

‘‘मैं तेरा भाई हूं न, इसलिए तुझे ऐसा लगता है. मेघा अब छोड़ न यह सब. उस को शांति से आनंद के साथ आनंदपूर्वक जीने दे. इस समय तू मुझे जाने दे. मेरी गाड़ी अब तक ठीक हो गई होगी,’’ चंदू ने कहा.

घर की खिड़की से बचती हुई नीरू घर के पिछवाड़े की तरफ चली गई.

घर पहुंचने के बाद मां ने देखा कि अब वह तनावमुक्त थी, पर किसी आत्ममंथन में अभी भी उलझी हुई है. उन्होंने कुछ नहीं कहा. नीरू चुपचाप रात का खाना खाने के बाद अपने कमरे की बत्ती बुझा कर बालकनी में आ कर बैठ गई. बाहर चांदनी बिछी हुई थी.

वह जैसे किसी तंद्रा में थी. उस की आंखों के सामने तरहतरह की घटनाएं आ रही थीं, जिन में वह कभी आनंद को देख रही थी तो कभी चंदू को. जिसे सीधा, सरल, उत्तम और सहृदय मानती रही वह किस रूप में सामने आया और जिसे गुंडा, मवाली, फूलफूल पर मंडराने वाला भंवरा मानती आई है उस का स्वभाव कितना नरमदिल, दयालु और मददगार है, मगर उस ने चंदू को कभी उस नजरिए से नहीं देखा.

मेरी ने कई बार उसे समझाया भी कि चंदू साफ दिल का इंसान है जो अन्याय बरदाश्त नहीं कर सकता.

कोई लड़कियों को छेड़ता है, किसी बच्चे या बूढ़े को सताता है तो उस से लड़ाई मोल लेता है. वह लड़कियों के पीछे नहीं भागता, बल्कि उस के शक्तिशाली व्यक्तित्व और चुलबुलेपन से आकर्षित हो कर लड़कियां ही उसे घेरे रहती हैं. आज क्या बात हो गई उस के सामने सबकुछ साफ हो गया. शायद उस की आंखों पर लगा आनंद की नकली शालीनता का चश्मा उतर गया था.

‘ये क्या किया मैं ने. क्या मेरी पढ़ाई मुझे इतना ही ज्ञान दे पाई? मेरे संस्कार क्या इतने ही गहरे थे? मुझे सही और गलत की पहचान क्यों नहीं है? क्या मेरी ज्ञानेंद्रियां इतनी कमजोर हैं कि वे हीरे और कांच में फर्क नहीं कर पातीं? क्या मैं इतनी भौतिकवादी हो गई हूं कि मुझे आत्मा की शुद्धता और पवित्रता के बजाय बाहरी चमकदमक ने अधिक प्रभावित कर दिया.

‘मेघा सही कहती थी कि वह आनंद के साथ कभी खुश नहीं रह पाएगी. न वह ऐश्वर्य में पलीबढ़ी है, न उसे पाना चाहती है. वह ऐसी सीधीसादी साधारण लड़की है जो एक शांतिपूर्ण, तनावमुक्त जिंदगी जीना चाहती है. वह अपने पति और परिवार से ढेर सारा प्यार पाना चाहती है.’

अचानक उस ने जैसे कुछ निश्चय कर लिया कि वह उस व्यक्ति से हरगिज शादी नहीं करेगी, जिस में संवेदनशीलता नहीं है, आर्द्रता नहीं है, जो भौतिकवादी है. फिर चाहे वह करोड़पति हो या अरबपति, उस का पति कदापि नहीं बन सकता. वह उस गुंडे, मवाली से ही शादी करेगी जो दिल का सच्चा है, नरमदिल और मानवतावादी है. वह जितना बिंदास दिखता है उतना ही परिपक्व और जीवन के प्रति गंभीर है. उसे पूरा विश्वास है कि उस की जिंदगी ऐसे व्यक्ति की छत्रछाया में बड़ी शांति से गुजर जाएगी. ऐसा निश्चय करने के बाद नीरजा को बड़े चैन की नींद आई.

Family Story – केलिकुंचिका: दुर्गा की कौनसी गलती बनी जीवनभर की सजा

दीनानाथजी बालकनी में बैठे चाय पी रहे थे. वे 5वीं मंजिल के अपने अपार्टमैंट में रोज शाम को इसी समय चाय पीते और नीचे बच्चों को खेलते देखा करते थे. उन की पत्नी भी अकसर उन के साथ बैठ कर चाय पिया करती थीं. पर अभी वे किचन में महरी से कुछ काम करा रही थीं. तभी बगल में स्टूल पर रखा उन का मोबाइल फोन बजा. उन्होंने देखा कि उन की बड़ी बेटी अमोलिका का फोन था. दीनानाथ बोले, ‘‘हां बेटा, बोलो, क्या हाल है?’’

अमोलिका बोली, ‘‘ठीक हूं पापा. आप कैसे हैं? मम्मी से बात करनी है.’’ ‘‘मैं ठीक हूं बेटा. एक मिनट होल्ड करना, मम्मी को बुलाता हूं,’’ कह कर उन्होंने पत्नी को बुलाया.

उन की पत्नी बोलीं, ‘‘अमोल बेटा, कैसी तबीयत है तेरी? अभी तो डिलीवरी में एक महीना बाकी है न?’’ ‘‘वह तो है, पर डाक्टर ने कहा है कि कुछ कौंप्लिकेशन है, बैडरैस्ट करना है. तुम तो जानती हो जतिन ने लवमैरिज की है मुझ से अपने मातापिता की मरजी के खिलाफ. ससुराल से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिलने वाली है. तुम 2-3 महीने के लिए यहां आ जातीं, तो बड़ा सहारा मिलता.’’

‘‘मैं समझ सकती हूं बेटा, पर तेरे पापा दिल के मरीज हैं. एक हार्टअटैक झेल चुके हैं. ऐसे में उन्हें अकेला छोड़ना ठीक नहीं होगा.’’ ‘‘तो तुम दुर्गा को भेज सकती हो न? उस के फाइनल एग्जाम्स भी हो चुके हैं.’’

‘‘ठीक है. मैं उस से पूछ कर तुम्हें फोन करती हूं. अभी वह घर पर नहीं है.’’

दुर्गा अमोलिका की छोटी बहन थी. वह संस्कृत में एमए कर रही थी. अमोलिका की शादी एक माइनिंग इंजीनियर जतिन से हुई थी. उस की पोस्ंिटग झारखंड और ओडिशा के बौर्डर पर मेघाताबुरू में एक लोहे की खदान में थी. वह खदान जंगल और पहाड़ों के बीच में थी, हालांकि वहां सारी सुविधाएं थीं. बड़ा सा बंगला, नौकरचाकर, जीप आदि. कंपनी का एक अस्पताल भी था जहां सभी जरूरी सुविधाएं उपलब्ध थीं. फिर भी अमोलिका को बैडरैस्ट के चलते कोई अपना, जो चौबीसों घंटे उस के साथ रहे, चाहिए था. अमोलिका के मातापिता ने छोटी बेटी दुर्गा से इस बारे में बात की. दुर्गा बोली कि ऐसे में दीदी का अकेले रहना ठीक नहीं है. वह अमोलिका के यहां जाने को तैयार हो गई. उस के जीजा जतिन खुद आ कर उसे मेघाताबुरू ले गए.

दुर्गा के वहां पहुंचने के 2 हफ्ते बाद ही अमोलिका को पेट दर्द हुआ. उसे अस्पताल ले जाया गया. डाक्टर ने उसे भरती होने की सलाह दी और कहा कि किसी भी समय डिलीवरी हो सकती है. अमोलिका ने भरती होने के तीसरे दिन एक बेटे को जन्म दिया. पर बेटे को जौंडिस हो गया था, डाक्टर ने बच्चे को एक सप्ताह तक अस्पताल में रखने की सलाह दी. जतिन और दुर्गा प्रतिदिन विजिटिंग आवर्स में अस्पताल आते और खानेपीने का सामान दे जाते थे. एक दिन जतिन ने जीप को कुछ जरूरी सामान, दवा आदि लेने के लिए शहर भेज दिया था. दुर्गा मोटरसाइकिल पर ही उस के साथ अस्पताल आई थी. उस दिन मौसम खराब था. अस्पताल से लौटते समय बारिश होने लगी. दोनों बुरी तरह भीग गए थे. दुर्गा मोटरसाइकिल से उतर कर गेट का ताला खोल रही थी. उस के गीले कपड़े उस के बदन से चिपके हुए थे जिस के चलते उस के अंगों की रेखाएं स्पष्ट झलक रही थीं. जतिन के मन में तरंगें उठने लगी थीं.

ताला खुलने पर दोनों अंदर गए. बिजली गुल थी. दुर्गा सीधे बाथरूम में गीले कपड़े बदलने चली गई. इस बात से अनजान जतिन तौलिया लेने के लिए बाथरूम में गया. वह रैक पर से तौलिया उठाना चाहता था. दुर्गा साड़ी खोल कर पेटीकोट व ब्लाउज में थी. उस ने नहाने की सोच कर हैंडशावर हाथ में ले रखा था. उस ने दरवाजा थोड़ा खुला छोड़ दिया था ताकि कुछ रोशनी अंदर आ सके. अचानक किसी की उपस्थिति महसूस होने पर उस ने पूछा, ‘‘अरे आप, जीजू, अभी क्यों आए? निकलिए, मैं बंद कर लेती हूं.’’ इतना कह कर उस ने खेलखेल में हैंडशावर से जतिन को गीला कर दिया. जतिन बोलता रहा, ‘‘यह क्या कर रही हो? मुझे पता नहीं था कि तुम अंदर हो़’’

‘‘मुझे भी पता नहीं, अंधेरे में पानी किधर जा रहा है,’’ और वह हंसने लगी. ‘‘रुको, मैं बताता हूं पानी किधर छोड़ा है तुम ने. यह रहा मैं और यह रही तुम,’’ इतना बोल कर जतिन ने उसे बांहों में भर लिया. दुर्गा को भी लगा कि उस का गीला बदन तप रहा है.

‘‘क्या कर रहे हैं आप? छोडि़ए मुझे.’’ ‘‘अभी कहां कुछ किया है मैं ने?’’

दुर्गा को अपने भुजबंधन में लिए हुए ही एक चुंबन उस के होंठों पर जड़ दिया जतिन ने. इस के बाद तपिश खत्म होने पर ही अलग हुए वे दोनों. दुर्गा बोली, ‘‘जो भी हुआ, वह हरगिज नहीं होना चाहिए था. क्षणिक आवेश में आ कर हम दोनों ने अपनी सीमाएं तोड़ डालीं. जरा सोचिए, दीदी को जब कभी यह बात मालूम होगी तो उस पर क्या गुजरेगी.’’

जतिन बोला, ‘‘अब जाने दो, जो हुआ सो हुआ. उसे बदला तो नहीं जा सकता. ठीक तो मैं भी नहीं समझता हूं, पर बेहतर होगा अमोलिका को इस बारे में कुछ भी पता न चले.’’

इस घटना के एक सप्ताह बाद अमोलिका भी अस्पताल से घर आई. उस का बेटा बंटी ठीक हो गया था. घर में सभी खुश थे. दुर्गा भी मौसी बन कर प्रसन्न थी. वह अपनी दीदी और भतीजे की देखभाल अच्छी तरह कर रही थी. जतिन ने शानदार पार्टी दी थी. अमोलिका के मातापिता भी आए थे. एक सप्ताह रह कर वे लौट गए. लगभग 2 महीने तक सबकुछ सामान्य रहा. दुर्गा की तबीयत ठीक नहीं रह रही थी. अमोलिका ने जतिन से कहा, ‘‘इसे थोड़ा डाक्टर को दिखा लाओ.’’

दुर्गा को अपने अंदर कुछ बदलाव महसूस होने लगा था. पीरियड मिस होने से वह अंदर से डरी हुई थी. जतिन दुर्गा को ले कर अस्पताल गया. वहां लेडी डाक्टर ने चैक कर कहा कि घबराने की कोई बात नहीं है, सबकुछ नौर्मल है. दुर्गा मां बनने वाली है. जतिन और दुर्गा एकदूसरे को आश्चर्य से देख रहे थे. पर डाक्टर के सामने बनावटी मुसकराहट दिखाते रहे ताकि डाक्टर को सबकुछ नौर्मल लगे.

छोटे से माइनिंग वाले शहर में सभी अफसर एकदूसरे को अच्छी तरह जानतेपहचानते थे. थोड़ी ही देर में डाक्टर ने अमोलिका को फोन कर कहा, ‘‘मुबारक हो, शाम को मैं आ रही हूं, मिठाई खिलाना.’’ ‘‘श्योर, दरअसल हम लोगों ने जिस दिन पार्टी दी थी आप छुट्टी ले कर बाहर गई थीं.’’

‘‘वह तो ठीक है, मैं तुम्हारी मौसी बनने की खुशी में मिठाई मांग रही हूं. ठीक है, शाम को डबल मिठाई खा लूंगी.’’ डाक्टर से बात करने के बाद अमोलिका के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगीं. उस के मन में संदेह हुआ क्योंकि दुर्गा और जतिन के अलावा घर में तीसरा और कोई नहीं था, कहीं यह बच्चा जतिन का न हो. उसे अपनी बहन पर क्रोध आ रहा था. साथ ही, उसे नफरत भी हो रही थी.

अभी तक दुर्गा और जतिन दोनों अस्पताल से घर भी नहीं लौटे थे. दोनों की समझ में नहीं आ रहा था कि आने वाले भीषण तूफान से कैसे निबटा जाए. कुछ पलों का आनंद इतनी बड़ी मुसीबत बन जाएगा, उन्होंने इस की कल्पना भी नहीं की थी. दोनों सोच रहे थे कि आज नहीं तो कल अमोलिका को यह बात तो पता चलेगी ही, तब उस के सामने कैसे मुंह दिखाएंगे.

घर पहुंच कर दुर्गा बंटी के लिए दूध बना कर ले गई. उस ने दूध की बोतल अमोलिका को दी. वह बहुत गंभीर थी. दुर्गा वापस जाने को मुड़ी ही थी कि अमोलिका ने उसे हाथ पकड़ कर रोक लिया. पहले तो वह सोच रही थी कि सारा गुस्सा अभी के अभी उतार दे, पर उस ने बात बदलते हुए पूछा, ‘‘अब तो तुम्हारा एमए भी पूरा हो गया है. अगले महीने तुम्हारा कौन्वोकेशन भी है.’’ दुर्गा बोली, ‘‘हां.’’

‘‘आगे के लिए क्या सोचा है? और तुम ने संस्कृत ही क्यों चुनी? इनफैक्ट संस्कृत की तो यहां कोई कद्र नहीं है.’’ ‘‘आजकल जरमनी में लोग संस्कृत में रुचि ले रहे हैं. बीए करने के बाद मैं एक साल स्कूल में पार्टटाइम संस्कृत टीचर थी. मैं ने जरमनी की एक यूनिवर्सिटी में संस्कृत ट्यूटर के लिए आवेदन दिया था. मैं ने जरमन भाषा का भी एक शौर्टटर्म कोर्स किया है. मुझे उम्मीद है कि जरमनी से जल्दी ही बुलावा आएगा.’’

‘‘कब तक जाने की संभावना है?’’ ‘‘कुछ पक्का नहीं कह सकती हूं, पर 6 महीने या सालभर लग सकता है. उन्होंने कहा है कि अभी तुरंत वैकेंसी नहीं है, होने पर सूचित करेंगे.’’

‘‘तब तक तुम्हारा ये बच्चा…’’ अमोलिका के मुंह से अचानक यह सुनना दुर्गा के लिए अनपेक्षित था. इस अप्रत्याशित प्रश्न के लिए वह तैयार नहीं थी. उसे चुप देख कर अमोलिका ने उसे डांटते हुए कहा, ‘‘तुम्हें शर्म नहीं आई दीदी के यहां आ कर यह सब गुल खिलाने में. वैसे तो मैं समझ सकती हूं तेरे पेट में किस का अंश है, फिर भी मैं तेरे मुंह से सुनना चाहती हूं.’’

दुर्गा सिर नीचे किए रो रही थी, कुछ बोल नहीं पा रही थी. अमोलिका ने ही फिर कड़क कर कहा, ‘‘यह किस का काम है? बंटी के सिर पर हाथ रख कर कसम खा तू, किस का काम है यह?’’ दुर्गा फिर चुप रही. तब अमोलिका ने ही कहा, ‘‘जतिन का ही दुष्कर्म है न यह? सच बता तुझे बंटी की कसम.’’

‘‘तुम्हारी खामोशी को मैं तुम्हारी स्वीकृति समझ रही हूं. बाकी मैं जतिन से समझ लूंगी.’’ दुर्गा वहां से चली गई. अमोलिका ने अपनी मां को फोन कर कहा, ‘‘मां, मैं कुछ दिनों के लिए वहां आ कर तुम लोगों के साथ रहना चाहती हूं.’’

मां ने कहा, ‘‘बेटा, यह तेरा घर है. जब चाहे आओ और जितने दिन चाहो आराम से रहो.’’ उस रात अमोलिका और जतिन में काफी कहासुनी हुई. उस ने जतिन से कहा, ‘‘तुम्हारे दुष्कर्म के बाद मुझे तुम से घिन हो रही है. मुझे नहीं लगता, मैं यहां और रह पाऊंगी.’’

जतिन के माफी मांगने और मना करने के बावजूद दूसरे दिन अमोलिका दुर्गा के साथ पीहर आ गई. उस ने मेघाताबुरू की कहानी मां को बताई. उस की मां भी बहुत क्रोधित हुईं और उन्होंने दुर्गा से कहा, ‘‘अरे, तू अपनी सगी बहन के घर में आग लगा बैठी.’’ दुर्गा के पास कोई जवाब न था. वह चुप रही. मां ने कहा, ‘‘मैं तेरी जैसी कुलटा को अपने घर में नहीं रख सकती. तू निकल जा मेरे घर से. हम लोग तुम्हारा मुंह नहीं देखना चाहते.’’

उस रात दुर्गा को नींद नहीं आ रही थी. वह रात में एक बैग ले कर दरवाजा खोल कर घर से निकलना ही चाहती थी कि अमोलिका जग उठी. उस ने कहा, ‘‘कहां जा रही हो?’’ दुर्गा बोली, ‘‘कुछ सोचा नहीं है, या तो आत्महत्या करूंगी या फिर सब से दूर कहीं चली जाऊंगी.’’

‘‘एक पाप तो तूने पहले ही किया, दूसरा पाप आत्महत्या करने का होगा.’’ ‘‘तो मैं क्या करूं?’’

‘‘तू एबौर्शन करा ले, उस के बाद आगे की जिंदगी का रास्ता साफ हो जाएगा.’’

‘‘एबौर्शन कराना भी तो एक पाप ही होगा.’’ ‘‘तू अभी चुपचाप घर में बैठ. कुछ दिनों में हम सब लोग मिलजुल कर बात कर कोई समाधान ढूंढ़ लेंगे.’’

दुर्गा ने महसूस किया कि उस के मातापिता दोनों ने ही उस से बोलचाल बंद कर दी है. वह तो अमोलिका की गुनाहगार थी, फिर भी दीदी कभीकभी उस से बात कर लेती थीं. उस को अंदर से ग्लानि थी कि उस की एक छोटी सी भूल की सजा दीदी और बंटी को भी मिल रही है. 2 दिनों बाद ही दुर्गा अचानक घर छोड़ कर कहीं चली गई. उस ने अपना कोई अतापता किसी को नहीं बताया. दुर्गा अपने साथ पढ़ी एक सहेली माधुरी के यहां कोलकाता आ गई. दोनों ने 12वीं तक साथ पढ़ाई की थी. उस ने उसे अपनी कहानी बताई और कहा, ‘‘प्लीज, मेरा पता किसी को मत बताना. मुझे कुछ दिनों के लिए पनाह दे, फिर मैं कहीं दूरदराज चली जाऊंगी.’’

माधुरी अविवाहित थी और नौकरी करती थी. वह बोली, ‘‘तू कहीं नहीं जाएगी. तू जब तक चाहे यहां रह सकती है. तू तो जानती ही है कि इस दुनिया में मेरा अपना निकटसंबंधी कोई नहीं है. तू यहीं रह, तू मां बनेगी और मैं मौसी.’’

वहीं दुर्गा ने एक बालक को जन्म दिया. उस ने वहीं रह कर इग्नू से 2 साल का मास्टर इन वैदिक स्टडीज का कोर्स किया. इसी बीच, उस ने झारखंड में धनबाद के निकट काको मठ और महाराष्ट्र में नासिक के निकट वेद पाठशालाओं में वहां के संतों व गुरुजनों से भी वेद पर विशेष चर्चा कर वेद के बारे में अपना ज्ञान बढ़ाया.

माधुरी ने उस से कहा, ‘‘तुम वेदों को इतना महत्त्व क्यों दे रही हो? मैं ने तो सुना है कि वेद स्त्रियों के लिए नहीं हैं.’’ दुर्गा बोली, ‘‘तू उस की छोड़, क्लासिकल भाषाओं के अच्छे जानकारों की जरूरत हमेशा रहेगी. हर युग में उन्हें नए ढंग से पढ़ा और समझा जाता है.’’ जब तक दुर्गा माधुरी के साथ रही, उस ने दुर्गा की आर्थिक सहायता भी की. कुछ पैसे दुर्गा ट्यूशन पढ़ा कर भी कमा लेती थी. इस बीच, दुर्गा का बेटा शलभ 2 साल का हो चुका था. तभी जरमनी से संस्कृत टीचर के लिए उस का बुलावा आ गया.

कोलकाता के जरमन कौन्सुलेट से दुर्गा और बेटे शलभ को वीजा भी मिल गया. वह जरमनी के हीडेलबर्ग यूनिवर्सिटी गई.

जरमनी पहुंच कर दुर्गा को बिलकुल अलग माहौल मिला. जरमनी के लगभग एक दर्जन से ज्यादा शीर्ष विश्वविद्यालयों हीडेलबर्ग, एलएम यूनिवर्सिटी म्यूनिक, वुर्जबर्ग यूनिवर्सिटी, टुएबिनजेन यूनिवर्सिटी आदि में संस्कृत की पढ़ाई होती है. उसे देख कर खुशी हुई कि जरमनी के अतिरिक्त अन्य यूरोपियन देश और अमेरिका के विद्यार्थी भी संस्कृत पढ़ते हैं. वे जानना चाहते हैं कि भारत के प्राचीन इतिहास व विचार किस तरह इन ग्रंथों में छिपे हैं. भारत में संस्कृत की डिगरी तो नौकरी के लिए बटोरी जाती है लेकिन जरमनी में लोग अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए संस्कृत पढ़ने आते हैं. इन विद्यार्थियों में हर उम्र के बच्चे, किशोर, युवा और प्रौढ़ होते हैं. दुर्गा ने देखा कि इन में कुछ नौकरीपेशा यहां तक कि डाक्टर भी हैं. दुर्गा को पता चला कि अमेरिका और ब्रिटेन में जरमन टीचर संस्कृत पढ़ाते हैं. हम अपनी प्राचीन संस्कृति और भाषा की समृद्ध विरासत को सहेजने में सफल नहीं रहे हैं. यहां का माहौल देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि जरमन लोग ही शायद भविष्य में संस्कृत के संरक्षक हों. वे दूसरी लेटिन व रोमन भाषाओं को भी संरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं.

दुर्गा का बेटा शलभ भी अब बड़ा हो रहा था. वह जरमन के अतिरिक्त हिंदी, इंगलिश और संस्कृत भी सीख रहा था. दुर्गा ने कुछ प्राचीन पुस्तकों, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, कालिदास का अभिज्ञान शाकुंतलम, गीता और वेद के जरमन अनुवाद भी देखे और कुछ पढ़े भी. जरमन विद्वानों का कहना है कि भारत के वेदों में बहुतकुछ छिपा है जिन से वे काफी सीख सकते हैं. सामान्य बातें और सामान्य ज्ञान से ले कर विज्ञान के बारे में भी वेद से सीखा जा सकता है.

जरमनी आने पर भी दुर्गा हमेशा अपनी सहेली माधुरी के संपर्क में रही थी. उस ने माधुरी को कुछ पैसे भी लौटा दिए थे जिस के चलते माधुरी थोड़ा नाराज भी हुई थी. माधुरी से ही दुर्गा को मालूम हुआ कि उस की दीदी अमोलिका और पापा दीनानाथ अब नहीं रहे. अमोलिका का बेटा बंटी कुछ साल नानी के साथ रहा था, बाद में वह अपने पापा जतिन के पास चला गया. उस की नानी भी उसी के साथ रहती थी. बंटी 16 साल का हो चुका था और कालेज में पढ़ रहा था. इधर, दुर्गा का बेटा शलभ 15 साल का हो गया था. वह भी अगले साल कालेज में चला जाएगा. दुर्गा के निमंत्रण पर माधुरी जरमनी आई थी. वह करीब एक महीने यहां रही. दुर्गा ने उसे बर्लिन, बोन, म्युनिक, फ्रैंकफर्ट, कौंलोन आदि जगहें घुमाईं. माधुरी इंडिया लौट गई.

दुर्गा से यूनिवर्सिटी की ओर से वेद पढ़ाने को कहा गया. उस से वेद के कुछ अध्यायों व श्लोकों का समुचित विश्लेषण करने को कहा गया. दुर्गा ने वेदों का अध्ययन किया था, इसलिए उसे पढ़ाने में कोई परेशानी नहीं हुई. उस के पढ़ाने के तरीके की विद्यार्थियों और शिक्षकों ने खूब प्रशंसा की. दुर्गा अब यूनिवर्सिटी में प्रतिष्ठित हो चुकी थी, बल्कि उसे अन्य पश्चिमी देशों में भी कभीकभी पढ़ाने जाना होता था.

5 वर्षों बाद शलभ फिजिक्स से ग्रेजुएशन कर चुका था. उसे न्यूक्लिअर फिजिक्स में आगे की पढ़ाई करनी थी. पीजी में ऐडमिशन से पहले उस ने मां से इंडिया जाने की पेशकश की तो दुर्गा ने उस की बात मान ली. दुर्गा ने उस के जन्म की सचाई अब उसे बता दी थी. सच जान कर उसे अपनी मां पर गर्व हुआ. अकेले ही काफी दुख झेल कर, अपने साहस के बलबूते पर मां खुद को और मुझे सम्मानजनक स्थिति में लाई थी. शलभ को अपनी मां पर गर्व हो रहा था. हालांकि वह किसी संबंधी के यहां नहीं जाना चाहता था लेकिन दुर्गा ने उसे अपने पिता जतिन और नानी से मिलने को कहा. माधुरी ने दुर्गा को जतिन का ठिकाना बता दिया था. जतिन आजकल नागपुर के पास वैस्टर्न कोलफील्ड में कार्यरत था.

इंडिया आ कर शलभ ने पहले देश के विभिन्न ऐतिहासिक व प्राचीन नगरों का भ्रमण किया. बाद में वह पिता से मिलने नागपुर गया. उस दिन रविवार था, जतिन और नानी दोनों घर पर ही थे. डोरबैल बजाने पर जतिन ने दरवाजा खोला. शलभ ने उस के पैर छुए. जतिन बोला, ‘‘मैं ने तुम को पहचाना नहीं.’’ शलभ बोला, ‘‘मैं एक जरमन नागरिक हूं. भारत घूमने आया हूं. मैं अंदर आ सकता हूं. मेरी मां ने मुझे आप से मिलने के लिए कहा है.’’

शलभ का चेहरा एकदम अपनी मां से मिलता था. तब तक उस की नानी भी आई तो उस ने नानी के भी पैर छू कर प्रणाम किया. जतिन और नानी दोनों शलभ को बड़े गौर से देख रहे थे. शलभ ने देखा कि शोकेस पर उस की मौसी और मां दोनों की फोटो पर माला पड़ी हुई है. शलभ ने दोनों तसवीरों की ओर संकेत करते हुए पूछा, ‘‘ये महिलाएं कौन हैं?’’

जतिन ने बताया, ‘‘एक मेरी पत्नी अमोलिका, दूसरी उन की छोटी बहन दुर्गा है, अब दोनों इस दुनिया में नहीं हैं.’’

‘‘एस तुत मिर लाइट,’’ शलभ बोला. ‘‘मैं समझा नहीं,’’ जतिन ने कहा.

‘‘आई एम सौरी, यही पहले मैं ने जरमन भाषा में कहा था,’’ शलभ बोला. ‘‘अरे वाह, कितनी भाषाएं जानते हो,’’ जतिन ने हैरानी जताई.

‘‘सब मेरी मां की देन है,’’ शलभ ने कहा. फिर दुर्गा की फोटो को दिखाते हुए शलभ बोला, ‘‘तो ये आप की केलिकुंचिका हैं.’’

‘‘व्हाट?’’ ‘‘केलिकुंचिका यानी साली, सिस्टर इन लौ.’’

‘‘यह कौन सी भाषा है…जरमन?’’ ‘‘जी नहीं, संस्कृत.’’

‘‘तो तुम संस्कृत भी जानते हो?’’ ‘‘जी, आप की केलिकुंचिका संस्कृत की विदुषी हैं, उन्हीं ने मुझे संस्कृत भी सिखाई है.’’

‘‘वह तो बहुत पहले मर चुकी है.’’ ‘‘आप के लिए मृत होंगी.’’

‘‘व्हाट? हम लोगों ने उसे ढूढ़ने की बहुत कोशिश की थी, पर वह नहीं मिली. आखिर में हम ने उसे मृत मान लिया.’’ ‘‘अच्छा, तो अब चलता हूं, कल दिल्ली से मेरी फ्लाइट है.’’

शलभ ने उठ कर दोनों के पैर छुए और बाहर निकल गया. ‘‘अरे, जरा रुको तो सही, हमारी बात तो सुनते जाओ, शलभ…’’

वे दोनों उसे पुकारते रहे, पर उस ने एक बार भी मुड़ कर उन की तरफ नहीं देखा.

Romantic Story In Hindi : प्यार को प्यार ही रहने दो…

सैंट्रल पार्क में फिर मेला चल रहा था. बड़ेबड़े झूले, खानेपीने की बेहिसाब वैरायटी लिए स्टालें, अनगिनत हस्तकला का सामान बेचती अस्थाई रूप से बनाई हुई छोटीछोटी टेंट की दुकानें, और इन दुकानों में बैठे हुए अलगअलग राज्यों व क्षेत्रों से आए हुए व्यापारी.

हर कोई अपनी दीवाली अच्छी बनाने की आशा में ग्राहकों की बाट जोह रहा था. हर साल दीवाली के आसपास यहां यही मेला लगा करता है. और हर साल की तरह इस साल भी निरंजना मेले में जाने के लिए उत्सुक थी.

शाम को जब रजत औफिस से वापस आया, तो निरंजना को तैयार खड़ा देख समझ गया कि आज मेले में जाने का कार्यक्रम बना बैठी है.

रजत मुसकरा कर कहने लगा, ‘‘तुम दिल्ली के आलीशान मौल भी घूमना चाहती हो और गलीमहल्ले के मेले भी. ठीक है, चलेंगे. पर मैं पहले थोड़ा सुस्ता लूं. एक कप चाय पिला दो, फिर चलते हैं मेले में.‘‘

शादी के पांच वर्षों के साथ में निरंजना उसे इतना समझ चुकी थी कि वह कब किस चीज की इच्छा रख सकता है, सो पहले ही चाय तैयार कर चुकी थी. शायद इसे ही मन से मन के तार जुड़ना कहते हैं.

आधा घंटे बाद दोनों मेले के ग्राउंड में खड़े थे. हर ओर शोर, हर ओर उल्लास, और उत्साहित भीड़.

मेले में पहुंच कर निरंजना एक अल्हड़ किशोरी सा बरताव करने लगती. कभी किसी झूले में बैठने की जिद करती, तो कभी कालाखट्टा बर्फ का गोला खाने की, तो कभी कुम्हार द्वारा बनाया हुआ सुंदर फूलदान खरीदने की. किंतु मौत के कुएं का खेल देखना वह कभी नहीं भूलती. कुछ और हो ना हो, परंतु मौत का कुआं में सब से आगे खड़े हो कर कुएं में दौड़ रही मोटरसाइकिल व कार को देख कर पुलकित होना अनिवार्य था.

रजत को चाहे यह कितना भी बचकाना लगे, किंतु वह निरंजना के हर्षोल्लास पर कभी ठंडे पानी की फुहार नहीं फेरता था. वह सच्चे मन से यह मानता था कि यदि गृहस्थी को सुखी रखना है, तो उसे चलाने वाली गृहिणी का पूरा ध्यान रखना होगा. यदि घर की स्त्री खुश रहेगी, तभी घर और परिवार के सभी सदस्य खुश रह सकेंगे.

आज भी कुछ झूलों में झूलने के बाद और जीभ को रंगबिरंगे स्वादों से रंगने के बाद दोनों मौत का कुआं की टिकट ले कर सब से आगे वाली रिंग में खड़े हो गए.

खेल शुरू हुआ. घुप अंधेरे भरे गहरे गड्ढे में जगमगाती रोशनी लिए मोटरसाइकिल व कार एकदूसरे से उलट दिशाओं में दौड़ने लगीं.

दर्शकों की भीड़ में कई बच्चे व किशोर खेल देख कर उत्तेजित हो रहे थे. उतनी ही उत्साहित निरंजना भी थी.

मौत के कुएं के इस खेल में लोगों को क्या आकर्षित करता है – खतरों से खेलने का जज्बा, या यह भावना कि हम स्वयं खतरे को देख तो रहे हैं, किंतु उस की पकड़ से बहुत दूर हैं, या फिर जीत का एहसास.

जो भी था, निरंजना हर साल दीवाली के इस मेले में मौत के कुएं का खेल अवश्य देखती थी. उसे देखने के बाद वह काफी देर तक प्रसन्नचित्त रहती. आज भी खेल खत्म होने पर रजत ने कुछ खाने के लिए उस से आग्रह किया.

‘‘हां, चलो, गोलगप्पे के स्टाल पर चलते हैं.‘‘

‘‘अरे, मैं तो कुलफी खाने के मूड में हूं.‘‘

‘‘पहले गोलगप्पे खाएंगे, फिर जीभ पर फूटते पटाखों को शांत करने के लिए कुलफी. कैसा रहेगा?‘‘ खुशी से दोनों ने मेले का आनंद उठाया और देर रात अपने घर लौट आए.

‘‘काफी थक गया हूं आज,‘‘ सोते समय रजत ने कहा.

‘‘गुड नाइट,‘‘ संक्षिप्त उत्तर दे कर निरंजना ने कमरे की बत्ती बुझा दी. किंतु आज नींद उस की अपनी आंखों से कुछ दूर टहल रही थी. शायद अब भी दीवाली के उस मेले से लौटी नहीं थी. थकान और विचारों को एकसाथ मथती निरंजना समय से पीछे अपनी किशोरावस्था की गलियों में दौड़ने लगी.

निरंजना हर लिहाज से आकर्षक थी – खूबसूरत नैननक्श, चंदनी चितवन और प्रखर बुद्धि. उस को देख कर कोई भी अपना दिल हार सकता था, किंतु वह ठहरी बेहद अंतर्मुखी व्यक्तित्व की स्वामिनी. हर कक्षा में फर्स्ट आती, खेलकूद में भी मेडल जीतती. किंतु दोस्त बनाने में पीछे रह जाती.

सहमी, सकुचाई सी रहने वाली निरंजना की अपने जीवन से कई आशाएं थीं, जिन में से एक थी प्रगति पथ पर आगे बढ़ने की.

जब निरंजना कालेज पहुंची, तो वहां कुछ ऐसा हुआ जो उस के साथ अब तक कभी नहीं हुआ था.

क्लास में एक लड़का था, जिस की तरफ निरंजना अनचाहे ही आकर्षित होने लगी, खिंचने लगी. उस ने कई बार उस की आंखों को भी इसी ओर देखते पकड़ा था. किंतु कुछ कहने की हिम्मत न इस तरफ थी, न उस तरफ.

क्लास काफी बड़ी थी, इसलिए निरंजना उस का नाम तक नहीं जानती थी. किंतु यह उम्र ही ऐसी होती है, जिस में विपरीत सैक्स के प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक है. उस को देख कर निरंजना के अंदर एक अजीब सी भावना हिलोरे लेती. कभी शरीर में सुरसुरी दौड़ जाती, तो कभी स्वयं ही नजरें झुक कर अपने दिल का हाल छुपाने लगतीं.

अर्जुन के लक्ष्य की तरह निरंजना के मन को भी एक ध्येय मिल गया था. आमनासामना तो नजरों का होता, लेकिन सिहरन पूरे बदन में होती. सारी रात बिस्तर पर वह करवटें बदलती रहती थी. यह सिलसिला कई महीनों तक चला. क्या करती, हिम्मत ही नहीं थी जो बात आगे बढ़ा पाती.

वह ठहरी अंतर्मुखी और वो जनाब बहिर्मुखी प्रतिभा के धनी. उन के ढेरों दोस्त, हर किसी से बातचीत. जिस महफिल में जाएं, रंग जमा दे.

हालांकि देखने में वह कुछ खास नहीं था, किंतु उस का व्यक्तित्व एक चुंबक की तरह था, और निरंजना संभवतः उस के आगे एक लोहे की गोली, जो उस की तरफ खिंची चली जाती थी.

होस्टल के पास वाले मैदान में जब दशहरे पर मेला लगा था, तब उन की पूरी क्लास ने वहां चलने का कार्यक्रम बनाया.

वहां जाते हुए निरंजना एक योजना के तहत उस जनाब के आसपास भटकती रही. तभी उस के मुंह से सुना था कि उस का पसंदीदा खेल है मौत का कुआं. बस, फिर क्या था, उस मौत के कुएं में भागती हुई गाड़ियों के साथसाथ निरंजना का दिल भी गोते लगाने लगा.

कालेज का आखरी साल आ गया.  ‘‘अगर अभी नहीं बोली तो कब बोलेगी?‘‘ निरंजना की अंतरात्मा उसे धिक्कारती. उस के प्रति उत्तर में सब से पहले निरंजना ने अपनी सीट बदली, और उस के ठीक पीछे वाली सीट पर बैठने लगी.

उस दिन शुक्रवार था. दोपहर की क्लास के बाद वह अपने सहपाठी से बोला, ‘‘नमाज पढ़ कर आता हूं.‘‘

इतना कह कर वह चला गया. निरंजना ने जो सुना, उस के बाद डर के मारे उस की घिग्घी बंध गई. दिमाग में हजारों विचारों के घोड़े दौड़ने लगे. कभी मां कहतीं, ‘जल्दी से जल्दी इस की शादी कर दो,‘ तो कभी पिता धर्म का वास्ता दे कर कहते, ‘कोई और नहीं मिला था तुझे?‘

लेकिन, इस बीच अपने अंतर्मुखी चोले को उतार निरंजना खुद कहती, ‘मैं नहीं मानती धर्म और जाति को. यह तो इनसानों की बनाई हुई बेड़ियां हैं. मैं केवल अपने दिल की बात सुनूंगी. मैं पीछे नहीं हटूंगी.‘

सपनों में इतना कहना है तो जब असल जिंदगी में बात बाहर आएगी, तब क्या होगा.

खैर, निरंजना केवल सपनों से डरना नहीं चाहती थी. धर्म की इस मोटी मजबूत दीवार के बावजूद उस ने नसीम से मित्रता कर ली.

नसीम के अनेक दोस्तों में अब निरंजना का भी नाम जुड़ चुका था. अब निरंजना का उद्देश्य था कि नसीम के मन में अपने लिए प्यार की लौ जलाना.

जो भावना वह नसीम के लिए रखती थी, उसी का सिला यदि दूसरी तरफ से नहीं मिला तो मिलन पूरा कैसे होगा?

आजकल निरंजना इसी उधेड़बुन में रहने लगी थी. नसीम के मन में प्यार जब हिलोरे लेगा तब लेगा, लेकिन निरंजना का मन उसे देख कर ही बागबाग हो उठता. उस के दिल ने भविष्य को ले कर न जाने कितने सुनहरे सपने सजा लिए, जिन में वह थी और उस का नसीम था.

पहले प्यार को दिल कभी नहीं भूलता. संभवतः उसे याद करते रहने में भी कोई बुराई नहीं है. सच्चा प्यार ना कभी कम होता है और ना मरता है. वह तो बस समय की गर्त में नीचे, कहीं नीचे, दिल की सतहों में दफन हो कर रह जाता है. लेकिन वह बंधन, जो पहले प्यार का दिल से होता है, उस गिरह को खोल पाना शायद मुमकिन नहीं.

पहले प्यार की याद आती है, लेकिन एक प्रसन्नता भरी लहर की तरह, न कि मायूसी भरी तरंग बन कर. पहले प्यार की याद में यदि मिलन की आशा नहीं, तो छूट जाने की निराशा भी नहीं. वह अपनेआप में पर्याप्त है दिल में खुशियां भर देने के लिए. तभी तो आज निरंजना के दिल में मीठी यादें एक बार फिर अंगड़ाई ले रही थीं. उन्हीं यादों को सीने से लगाए निरंजना नींद की आगोश में समा गई.

‘‘आज मीटिंग है दफ्तर में, इसलिए थोड़ा जल्दी निकलूंगा,‘‘ कहते हुए रजत अखबार की सुर्खियों में खो गया.

‘‘ठीक है, जल्दी नाश्ता तैयार कर देती हूं,‘‘ निरंजना किचन की ओर बढ़ गई. दोनों की गृहस्थी में वह सब था, जो एक आदर्श युगल जोड़े में होना चाहिए – एकदूसरे के प्रति प्यार, सम्मान व विश्वास.

रजत और निरंजना की शादी को पांच साल बीत चुके हैं और इन पांच सालों में दोनों ने एकदूसरे को अच्छी तरह समझ लिया है और एकदूसरे की खूबियों व कमियों के साथ स्वीकार लिया है. तभी तो दोनों इतने खुश रहते हैं. दोनों की ही माताएं अब अपनी गोद में एक नन्हे को खिलाने की चाह प्रकट करती रहती हैं, लेकिन यह इन दोनों की समझदारी है कि यह अपनी जिंदगी के निर्णय अपने हिसाब से करते हैं.

शादी के समय ही इन्होंने यह सोच लिया था कि परिवार आगे तभी बढ़ाएंगे जब हम चाहेंगे, ना कि जब सामाजिक दबाव पड़ने लगेगा.

आज निरंजना ने नाश्ते में ब्रेड पकोड़े बनाए. नसीम को ब्रेड पकोड़े बहुत पसंद थे. जब कभी उस का दिल नसीम को याद करता है, वह उस की पसंद का खाना बना कर रजत को खिलाती है. और उस की आंखें रजत के रूप में नसीम को बैठा पाती हैं.

निरंजना का मन इस भावना को किसी बेवफाई के रूप में नहीं देखता. वह तो पूरी तरह रजत की है. बस, दिल का एक टुकड़ा है, जो अभी भी नसीम के नाम पर धड़कता है. उस ने कई बार स्वयं से यह प्रश्न भी किया कि ऐसा क्यों?

पहला प्यार शायद इसलिए भी नहीं भूलता, क्योंकि यही वह इनसान है जिस ने आप के दिल के कोरे कागज पर पहला हर्फ लिखा. उस के बाद तो इस दिल के कागज पर जो भी कुछ लिखा गया, उस ने कहानी को आगे ही बढ़ाया, शुरुआत नहीं की. दिल का जो टुकड़ा पहले प्यार में पड़ा वह मासूम था, अनजाना था, अनभिज्ञ था. भविष्य में यह दिल जिस के भी पास जाए, उस पर एक छाप लग चुकी होती है.

पहला प्यार, पहला स्पर्श, पहला चुंबन… वह तारों को गिनना, वो सपनों में मुसकराना, वह प्रीतम की याद आने पर आंखों का स्वतः आर्द्र हो उठना… दिल पर पहली दस्तक की बात ही कुछ और है. उस के बाद तो जो हुआ, वह एक अनुभवी दिल पर गुजरने वाले तजरबे की तरह है.

रजत के औफिस चले जाने के बाद निरंजना ने घर का कामकाज निबटाया, फिर नहाधो कर हाथों में क्रीम लगाते हुए जब वह ड्रेसिंग टेबल के आईने में खुद को निहार रही थी, तो अचानक उस की उंगलियां शादी की अंगूठियों में घूमने लगीं.

कुछ याद करते हुए वह फौरन अपनी अलमारी की ओर लपकी. अपने लौकर में से उस ने एक चांदी का छल्ला निकाला, जिस पर हरा पत्थर बखूबी खिल रहा था. अनायास ही वह यह धुन गुनगुनाने लगी, ‘‘मैं ता कोल तेरे रहना… ‘‘

यही वह अंगूठी थी, जो नसीम ने निरंजना को अपने प्यार का इजहार करते हुए दी थी. उस दिन निरंजना के पैर जमीन पर नहीं पड़े थे. शायद उड़ ही रही थी वह.

इस बार जब वह होस्टल की छुट्टियों में घर जाएगी, तो अपने मम्मीपापा से नसीम के बारे में बात करेगी. यही वादा नसीम ने भी उसे दिया था. दोनों साथसाथ समय गुजारते और भविष्य के सपने संजोते. कभी यह सोचते कि किस शहर में अपना घर बनाएंगे, तो कभी यह सोचते कि बच्चों के नाम क्या होंगे.

दोनों ने अपनेअपने धर्मों को निभाते हुए किसी के भी धर्म में दखलअंदाजी न करने की कसम भी उठा ली थी. सोच लिया था कि रजिस्टर्ड विवाह ही करेंगे. जब मातापिता से बात करेंगे तो धर्म की बात ना आए, इस बात का खयाल रखते हुए दोनों ने काफी प्लानिंग कर ली थी. लेकिन होता वही है, जो समय को मंजूर होता है.

जब निरंजना ने अपने मातापिता से नसीम के बारे में बात की, तो आसमान में छेद हो गया. मां ने रोरो कर घर में गंगाजल का छिड़काव शुरू कर दिया और स्वयं को कोसने लगी कि क्यों लड़की को पढ़ने आगे भेजा, वह भी दूसरे शहर, अपनी नजरों से दूर.

मां का विलाप बढ़ता ही जा रहा था. जोरजोर से वे कहने लगीं, ” ‘पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने, पुत्रो रक्षति वार्धक्ये न स्त्री स्वातंत्र्य मरहति.‘ मतलब जानते हो ना इस का?

‘‘हमारे ग्रंथी मूर्ख नहीं थे, जो मनु कह गए कि स्त्री को स्वतंत्र नहीं छोड़ा जाना चाहिए. बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति और उस के बाद पुत्र के अधीन रखना चाहिए. हम से बहुत बड़ी गलती हो गई, जो इस की बातों में आ कर दूसरे शहर इसे पढ़ने जाने की अनुमति दे दी.

‘‘देखो, अब क्या गुल खिला कर आई है. अपना मुंह तो काला कर ही आई है, हमारी भी नाक कटवा दी. कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा.‘‘

पिता तो जैसे सदमे में आ कर कुरसी से हिलना ही भूल गए थे. शाम तक वह उन्हें मनाती रही. तरहतरह की दलीलें देती रही. लेकिन जब एकबारगी खड़े हो कर पिता ने यह कह दिया कि शायद इसे हम दोनों की झूलती लाशें देख कर ही सुकून मिलेगा, तो उस के आगे निरंजना विवश हो गई. अब कहनेसुनने को कुछ शेष नहीं बचा था.

जिस समाज ने सती की छवि रखने वाली अपनी देवी सीता को नहीं बख्शा, वह निरंजना जैसी साधारण स्त्री को कैसे माफ कर देगा? जब उस के मातापिता ही उस के निर्णय को नहीं अपनाएंगे तो और किसी से वह क्या उम्मीद रखे? आखिर अपने मातापिता की अर्थियों के ऊपर वह अपना आशियाना तो बना नहीं सकती थी.

आश्चर्य तो इस बात का हुआ कि नसीम की ओर से भी कोई संदेश नहीं आया. संभवतः उसे भी ऐसे ही किसी दृश्य का सामना करना पड़ा होगा.

आज निरंजना उसे माफ कर चुकी है. शादी कर के आगे बढ़ चुकी है. पूरी ईमानदारी से रजत के साथ अपने रिश्ते को निभा रही है. किंतु आज भी जब कभी हवा में नमी होती है, और आकाश में पीली रोशनी छाती है तो ना जाने क्यों उस का दिल पुरानी करवट बैठने को मचलने लगता है.

टूटे हुए दिल ने कई बार खुद से प्रश्न किया कि यदि यह सच है तब वह क्या था? फिर इसी दिल ने उसे समझाया कि वह भी सच था, यह भी सच है. मातापिता की बात मानने और स्वीकारने के बदले सांत्वना पुरस्कार के रूप में उसे रजत का प्यार मिला है.

एकबारगी रजत से शादी के लिए हामी भर कर वह नसीम के प्यार को अपनी खोटी किस्मत मान कर आगे बढ़ चुकी थी. लेकिन फिर उलटपलट कर आती यादों ने उसे चैन कब लेने दिया. वह तो भला हो मार्क जुकरबर्ग का, जो बिछुड़े हुए दिलों को मिलाने का नेक काम करता है.

आज निरंजना फिर अपने लैपटौप के सामने बैठ गई. आज फिर फेसबुक पर जा कर नसीम को ढूंढेगी. शायद उस से मिल कर एक बार अपनी सफाई दे कर निरंजना के दिल को चैन मिलेगा.

उधर औफिस में मीटिंग के बाद रजत को अपने सचिव के पद के लिए आए बायोडाटा में से छंटनी करनी थी. एचआर डिपार्टमैंट ने उसे काफी सारे रिज्यूम भेज दिए थे, साथ ही, एक नोट भी छोड़ा था, ‘सर, आप जिन प्रत्याशियों को चयनित करेंगे, उन्हें हम आप से साक्षात्कार के लिए बुलवा लेंगे. फिर आप जिस का चुनाव करेंगे, वही आप के सचिव के पद के लिए रख दिया जाएगा.‘

बायोडाटा पढ़ते समय रजत की नजर एक रिज्यूम पर अटक गई – नाम की जगह पर श्वेता सिंह लिखा था और स्थान की जगह आगरा पढ़ने पर रजत का दिल एक ही राग अलापने लगा, ‘कहीं यह वही तो नहीं…?’

‘श्वेता सिंह और वह भी आगरा से…’ उत्सुकतावश उस ने आगे का बायोडाटा पढ़ना शुरू किया. कालेज का नाम पढ़ने के बाद उसे विश्वास हो गया कि यह वही श्वेता है, जिसे वह अपना दिल हार चुका था.

औफिस की सीट पर बैठेबैठे रजत का मन अपने मातापिता के घर आगरा की गलियों में विचरने लगा.

रजत जब अपने मातापिता के साथ गांव से आगरा आया था, तब वह सातवीं कक्षा में पढ़ता था. नया स्कूल, नया परिवेश, नए सहपाठी. ऐसे में क्लास में पढ़ रही एक लड़की की ओर अनायास ही आकर्षित होने लगा. किशोरावस्था ही ऐसी होती है, जिस में हार्मोंस के कारण मन उद्विग्न रहता है, भावनाएं मचलती रहती हैं, और जी चाहता है कि सबकुछ हमारी इच्छानुसार होता रहे.

रजत उस लड़की के प्यार में खुद को सातवें आसमान पर अनुभव करने लगा. भले ही यह एकतरफा प्यार था, किंतु रजत को विश्वास हो गया था कि यही वह लड़की है, जिस के साथ वह अपना पूरा जीवन व्यतीत करना चाहता है.

स्कूल में श्वेता को देखने पर रजत की आंखों की पुतलियां फैल जाती थीं. एक बार उस के एक दोस्त ने पूछ ही लिया, ‘‘क्या यही है तेरे सपनों की रानी, रजत?‘‘

रजत ने उस का जवाब देते हुए कहा था, ‘‘यह मेरी ड्रीम गर्ल नहीं हो सकती, क्योंकि मैं इतने अच्छे ख्वाब भी नहीं देख सकता. यह तो परफैक्ट है. और कहां मैं. ना मेरा जीवन में कोई उद्देश्य है और ना ही मैं इस की तरह परिश्रमी हूं,‘‘ बात को खत्म कर रजत वहां से चला गया था. वह नहीं चाहता था कि स्कूल में श्वेता के लिए कोई भी कुछ गलत बात करे. जिस से वह प्यार करता था, उसे बदनाम करने की कैसे सोच सकता था.

लेकिन सच तो यह था कि रजत को श्वेता के सिवा और कोई नजर ही नहीं आता था.

उसे आज भी याद है वह पहला दिन, जब उस ने श्वेता को देखा था, दो चोटियां, उन में रिबन, साफसुथरी टनाटन स्कूली यूनिफार्म, सलीकेदार और आकर्षक व्यक्तित्व.

रजत भले ही श्वेता पर दिलोजान से मरने लगा था, किंतु यह कहने की हिम्मत कभी नहीं कर पाया.

खैर, अल्हड़ बचपन से अल्हड़ जवानी तक रजत श्वेता को ही निहारता रहा. अब वह गजब के सौंदर्य की मालकिन हो गई थी. जब दोनों ने एक ही कालेज में दाखिला ले लिया, तब रजत की हिम्मत थोड़ी बढ़ी.

दोनों की दोस्ती तो स्कूल के दिनों से ही हो चुकी थी. किंतु अपने दिल की बात जबान तक लाने की हिम्मत रजत में नहीं थी. कहीं ऐसा ना हो, इस चक्कर में श्वेता उस से दोस्ती भी तोड़ बैठे.

लेकिन श्वेता उसे अपना एक अच्छा दोस्त समझती थी. कालेज में आने के बाद श्वेता ने ही उस से अपने दिल की बात कही, ‘‘रजत, मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं. और चाहती हूं कि यह बात सिर्फ हम दोनों के बीच रहे.‘‘

रजत का दिल बल्लियों उछलने लगा. शायद यही वह मौका था, जिस का उसे हमेशा से इंतजार था.

‘‘अरे, यह क्या हो रहा है तुम्हें? पसीना पोंछ लो, आराम से बैठो, फिर बताती हूं.‘‘

रजत के दिल का हाल उस के चेहरे पर झलकने लगा. अपने दिल को बमुश्किल थामे वह श्वेता के मन की बात सुनने बैठ गया. पर फिर जो श्वेता ने बताया, उसे सुन कर रजत का दिल छन्न से बिखर कर रह गया था.

‘‘मेरा एक बौयफ्रैंड है, जो जयपुर में रहता है. हम दोनों औरकुट के जरीए मिले और हमें प्यार हो गया. मुझे नहीं पता कैसे. हम आज तक एकदूसरे से मिले भी नहीं हैं. पर मेरा दिल जानता है कि मैं उस के बिना नहीं जी सकती…‘‘ आगे न जाने क्याक्या कहती गई श्वेता, लेकिन रजत के कानों ने सुनना बंद कर दिया था.

रजत का चेहरा मलिन हो उठा, मानो चेहरे पर दोपहरी की साएंसाएं में लिपटा सूनापन और वीराना छा गया हो. वह भीतर ही भीतर सुलगने लगा. मगर शायद प्यार आप को बेहतरीन अभिनय करना भी सिखा देता है.

श्वेता की बात पर पूरा ध्यान देते हुए, चेहरे पर मुसकान लिए कोई नहीं बता सकता था कि अंदर ही अंदर रजत कितना टूट रहा था. लेकिन प्यार में पड़े किसी मूर्ख की तरह ऊपर से यही बोलता रहा, ‘‘तुम्हें मुझ से जो मदद चाहिए, मैं करूंगा. आखिर तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है. हम दोस्त जो हैं.‘‘

लेकिन रजत का दिल घायल हो चुका था. कालेज पूरा होतेहोते रजत ने श्वेता से काफी दूरी बना ली. करता भी क्या, उस का दिल हर बार उसे देख मचल उठता. हर बार मचलते दिल को संभालना कोई हंसीखेल नहीं. कालेज के बाद दोनों भिन्न शहरों में आगे की शिक्षा प्राप्त करने चले गए.

अलगअलग शहरों में दोनों की डिजिटल दोस्ती कायम रही. श्वेता के जयपुर वाले अफेयर को बचपन की भटकन की संज्ञा दे, रजत ने एक बार फिर प्रयास करने का निर्णय किया. परंतु इस बार वह खुद को ‘फ्रैंडजोन‘ होने से बचाना चाहता था, सो इस बार उस ने सोशल मीडिया के अपने अकाउंट पर श्वेता के साथ फ्लर्टिंग से शुरुआत की.

ऐसा देख उस के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब दूसरी ओर बैठी श्वेता ने उस की बातों का बुरा नहीं माना, बल्कि कभीकभी उसे यों लगता जैसे श्वेता भी ऐसा ही चाहती है. वह भी हंसीमजाक से उस की फ्लर्टिंग का जवाब देती.

रजत अब अपने और श्वेता के रिश्ते को अगले कदम तक पहुंचाना चाहता था, किंतु श्वेता अकसर उसे ‘दोस्त‘ या ‘बडी‘ कह कर पुकारा करती. फिर भी श्वेता के दिल में क्या है, इस को ले कर रजत अकसर उलझन में रहता, क्योंकि उस ने क्या खाया, कब खाया, कितना सोया, पढ़ाई कर ली या नहीं आदि प्रश्नों से श्वेता उसे बमबार्ड करती रहती. इस का निष्कर्ष उस का मन यही लगाता कि श्वेता भी उस की ओर आकर्षित है. शायद यह प्यार एकतरफा नहीं.

रजत इस रिश्ते को आगे बढ़ाने के ख्वाब सजा ही रहा था कि एक दिन श्वेता ने उसे बताया कि उस की शादी होने वाली है. उस ने बताया कि उस के परिवार वालों ने उस के लिए एक लड़का देखा है और अगले साए में उस की शादी कर दी जाएगी.

एक बार फिर रजत का दिल टूटा था, वह भी उसी लड़की के हाथों. इस बार रजत खुद को संभालने में स्वयं को विफल पाने लगा. उस ने ठान लिया था कि अब वह श्वेता से कोई सरोकार नहीं रखेगा.

अगर श्वेता उस की हो गई होती, तो उस की राह में वह असंभव को भी संभव बना देता. उस को दुनिया की हर खुशी देता, चाहे इस के लिए उसे पूरे संसार से लोहा लेना पड़े. प्यार ने उसे एक लड़के से एक पुरुष में तबदील कर दिया था.

एक पुरुष के लिए उस का पहला प्यार अविस्मरणीय, अतुलनीय होता है. एक प्रेमी अपनी महबूबा को वह स्थान देता है, जो उस ने आज तक किसी को नहीं दिया, शायद अपने परिवार और अपने दोस्तों से भी ऊपर. उस के लिए प्यार स्वार्थरहित व शर्तरहित होता है.

उसे आज भी याद है, स्कूल में उस के दोस्तों ने उसे समझाया था, ‘‘अरे यार, किसी पर इतना भी फिदा ना हो जा कि उस के परे दुनिया ही ना रहे. संसार में कुछ भी स्थायी नहीं. चेंज इज द ओनली कौंस्टेंट. जब तक वह तुम्हारे पास है उसे प्यार करो, लेकिन जब वह बिछुड़ जाए तो उसे जाने दो.‘‘

हमारे समाज की एक विडंबना यह भी है कि मर्द को दर्द नहीं होता. बेचारा अंदर से कितना भी टूट रहा हो, ऊपर से उसे अपनी मैचोमैन इमेज बना कर रखनी ही पड़ती है. स्वयं को मजबूत और भावनाहीन दिखाना मर्द होने की निशानी बन जाता है.

इसी चक्रव्यूह में फंस कर रजत भी ऊपर से शांत बना रहा. यह तो उस का दिल ही जानता है कि आज भी उस के एटीएम का पिन नंबर श्वेता के जन्म की तारीख है, क्योंकि आज भी वह श्वेता से ही प्यार करता है. जहां भी जाता है लगता है श्वेता उस के साथ है. जबकि एक बार ठान लेने के बाद उस ने कभी श्वेता को ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की. वह तो बस अपनी यादों में उस के साए के साथ ही खुश रहा.

शादी भी उस ने परिवार की रजामंदी से कर ली और निरंजना को भी पूरी ईमानदारी से चाहने लगा. श्वेता के प्यार का साया, जो उस के दिल में आज भी लहराता है, वो कभी भी निरंजना के प्रति किसी दुराव का कारण नहीं बना. इस के पीछे का कारण शायद यह है कि कुछ घटनाएं हमारे जीवन को प्रमुख हिस्सों में बांट देती हैं. फिर उन से बाहर निकलना बेहद मुश्किल हो जाता है.

उस की शादी को पांच साल बीत चुके हैं और श्वेता से दूर हुए लगभग सात साल. लेकिन फिर भी उसे ऐसा लगता है, जैसे कल ही की बात हो. श्वेता की झलक, उस की हंसी, उस का आंखें सिकोड़ना, उस के अपने मन में श्वेता के प्रति पुलकित होती भावनाएं… सबकुछ कल की ही बात लगती है.

तभी तो आज श्वेता का नाम अपनी नजरों के सामने आने पर उस के मन की आर्द्र पुकार कहने लगी कि यही है, जिस का बायोडाटा उस को चयनित करना है.

अगले कुछ दिनों तक रजत एचआर डिपार्टमैंट के पीछे लगा रहा कि क्यों नहीं वो चयनित प्रत्याशियों का साक्षात्कार करवा रहे. उस की जिद थी कि सारे काम छोड़ कर पहले उस के सचिव पद की नियुक्ति की जाए.

आजकल घर में भी रजत पहले से अधिक प्रसन्न रहने लगा. थोड़ीबहुत चुहल निरंजना से भी करता रहता. यही तो एक अच्छा साइड इफैक्ट है फ्लर्टिंग का. पति महोदय बाहर फ्लर्टिंग करते हैं और घर में पत्नी को भी खुश रखते हैं. उन का अपना दिल जो उत्साहित रहता है.

प्रसन्नचित्त तो आजकल निरंजना भी बहुत रहने लगी है. सोशल मीडिया साइट पर आखिर उस ने नसीम को खोज जो निकाला. नसीम आजकल दूसरे शहर में रहता है, किंतु काम के चलते उस का दिल्ली आना होता रहता है. दोनों ने मिल कर यह तय किया कि अगली बार जब वह दिल्ली आएगा, तब दोनों मुलाकात अवश्य करेंगे.

और बहुत जल्दी वह दिन भी आ गया, जब नसीम का दिल्ली आना हुआ. सुबह से फटाफट सारा काम निबटा कर, स्वयं पर मेकअप की पूरी मेहरबानी करने के बाद निरंजना उस से मिलने तय रैस्टोरैंट के लिए घर से चल पड़ी.

रास्ते से ही उस ने रजत को एसएमएस भेज दिया कि वह अपने ओल्ड टाइम फ्रैंड से मिलने जा रही है. हो सकता है कि शाम को थोड़ी देर हो जाए.

उधर, रजत ने साक्षात्कार के लिए श्वेता को कंपनी द्वारा बुलावा भिजवा दिया था. उस से मिलने के लिए औफिस नहीं, बल्कि रैस्टोरैंट में मुलाकात तय की गई. इस का कारण श्वेता को यह बताया गया कि जिन सर को इंटरव्यू लेना है, वह उस दिन किसी मीटिंग के लिए औफिस में उपस्थित नहीं होंगे. सो, जहां वे उपस्थित होंगे, आप वहीं पहुंच जाइए.

श्वेता को भी इस में कुछ अटपटा नहीं लगा, क्योंकि आजकल कई साक्षात्कार औफिस के बाहर भी होते हैं.

तय समय से पहले रजत उस रैस्टोरैंट में पहुंच कर श्वेता की प्रतीक्षा करने लगा.

नसीम को रैस्टोरैंट में पहले से अपने लिए प्रतीक्षारत पा कर निरंजना का दिल एकबारगी जरा जोर से उछला. तो क्या आज भी नसीम उसी से प्यार करता है?

अपने पहले प्यार को सामने पा कर निरंजना कभी उत्तेजना से भरने लगी, तो कभी विवाहिता होने के कारण संकोच से अपने रेशमी बालों को बारबार अपने गुलाबी गालों पर गिरने से रोकने के लिए अपनी कोमल उंगलियों से कानों के पीछे धकेलने लगी.

‘‘रहने दो ना इन जुल्फों को अपने सुंदर चेहरे पर. तुम भूल गई क्या कि मुझे तुम्हारी यह जुल्फें कितनी पसंद हैं,‘‘ नसीम के कहने पर निरंजना केवल मुसकरा कर नजरें नीचे किए रह गई.

फिर बातों का दौर चला. कुछ नसीम ने अपनी कही, तो कुछ निरंजना ने अपनी सुनाई. आज उस से अपने दिल की बात कह कर निरंजना काफी हलका महसूस कर रही थी. इसी पल के लिए वह ना जाने कितने समय से तरस रही थी.

‘‘मुझे यह जान कर अत्यंत अफसोस हो रहा है, नसीम, कि तुम ने अभी तक शादी नहीं की. काश, मैं तुम्हें उस समय मिल पाती. बस एक बार तुम्हें अपनी मजबूरी बता देना चाहती थी… आज वह बोझ भी दिल से उतर गया. पर समय निकल गया इस बात का. अफसोस शायद हमेशा खलेगा,‘‘ निरंजना ने अपनी बात पूरी की.

नसीम खामोशी से निरंजना के चेहरे को निहारता रहा, फिर हौले से कहने लगा, ‘‘समय तो अपने हाथ में होता है. अगर सोचो कि बीत गया तो अलग बात है. वरना आज भी समय हमारे साथ ही है. देखो, हम आज भी एकसाथ हैं. यदि तुम चाहो तो…‘‘

‘‘लेकिन, अब मेरी शादी हो चुकी है,‘‘ निरंजना उस की बात बीच में ही काटते हुए बोली, ‘‘यदि मेरी शादी ना हुई होती तब बात अलग थी, पर अब मैं रजत की पत्नी हूं. ऐसे में हमारा रिश्ता पाप कहलाएगा.‘‘

‘‘ऐसा क्यों कहती हो भला. पहले हम दोनों ने प्यार किया, रजत तो तुम्हारी जिंदगी में बाद में आया. सो, इस रिश्ते में तीसरा वो है. अगर तुम्हारे और मेरे घर वाले धर्म के चक्कर में ना पड़ कर हमारे प्यार के लिए राजी हो गए होते और आननफानन तुम्हारी शादी दूसरी जगह ना करवा दी होती, तो आज हम एकसाथ होते.‘‘

जब श्वेता आरक्षित टेबल पर पहुंची, तो वहां रजत को बैठा देख उस का चौंकना स्वाभाविक था, ‘‘रजत तुम यहां?‘‘

‘‘हां श्वेता, मैं ही हूं, जिस के साथ आज तुम्हारा साक्षात्कार है. हो गई ना सरप्राइज… मैं तो तुम्हारा बायोडाटा पढ़ते ही तुम्हें पहचान गया था. और तुम से मिलने के इस मौके को मैं किसी भी कीमत पर गंवा नहीं सकता था.‘‘

सारी स्थिति समझने के बाद श्वेता और रजत हंसहंस कर एकदूसरे के साथ आज तक बीती जिंदगी के अनुभव बांटने लगे.

‘‘कितना अच्छा लग रहा है तुम से मिल कर. न जाने क्यों इतने समय से हम मिले नहीं. तुम तो मेरे बीएफएफ (बैस्ट फ्रैंड फार ऐवर) रहे हो.‘‘

श्वेता उसे अपनी शादी, गृहस्थी, बच्चों के किस्से सुनाने लगी. वह काफी खुश लग रही थी. जाहिर था कि अपनी जिंदगी में श्वेता अच्छी तरह रम चुकी है और उसे कोई शिकायत भी नहीं.

प्यार हमारा दिल नहीं तोड़ सकता. वह तो अधूरी ख्वाहिशों और निराश सपनों के कारण टूटता है. रजत को समझ आ रहा था कि उस का प्यार वाकई एकतरफा था. तभी उस की नजर रैस्टोरैंट के दूसरे कोने में बैठी निरंजना पर पड़ी.

निरंजना को देखते ही वह असहज हो उठा. यदि उस ने रजत को यहां किसी अन्य महिला के साथ बैठे देख लिया तो…? ना जाने उस के बारे में क्या सोचने लगे. उसे याद आया कि आज निरंजना भी अपने एक पुराने दोस्त से मिलने गई है. इत्तेफाक देखिए, दोनों एक ही रैस्टोरैंट में पहुंच गए. लेकिन मौजूदा स्थिति में रजत उस चोर की तरह था, जो अपनी दाढ़ी के तिनकों को छिपाने के प्रयास में जुटा हो.

वह आगे कुछ कहता, इस से पहले ही श्वेता बोल पड़ी, ‘‘रजत, मैं ने नौकरी के लिए आवेदन अवश्य दिया था, किंतु कल ही मेरे पति का तबादला दूसरे शहर में हो गया है. इस कारण यह नौकरी मैं कर नहीं पाऊंगी.

‘‘मैं यहां यही बताने आई थी, लेकिन कितना अच्छा हुआ, जो तुम से मुलाकात हो गई. आगे भी हम टच में रहेंगे.‘‘

घर लौटते समय कैब में बैठी निरंजना आज नसीम के साथ बिताई दुपहरी को रिवाइंड करने लगी. नसीम आज भी उसे चाहता है. आज भी उस की राह देख रहा है, शायद… अगर वह चाहे तो नसीम के पास जा सकती है. पर क्या वह ऐसा चाहती है? क्या रजत के साथ बिताए शादीशुदा जिंदगी के पांच साल इतने हलके हैं कि उन से हाथ छुड़ाना उस के लिए संभव है?

इस सारे प्रकरण में रजत कहां खड़ा होता है? उस की क्या गलती है? निरंजना दोनों पलड़ों के बीच झूलने लगी. जेहन के कांपते हुए पानी पर असमंजस की नाव बह निकली. तभी एफएम पर गाना बजने लगा, ‘प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम ना दो ‘

नहीं, वह रजत को नहीं छोड़ सकती. जिस के साथ उस ने अपनी गृहस्थी बसाई, जिस ने उस का हमेशा ध्यान रखा, उसे पूरा प्यार दिया, अपने परिवार में सम्मान दिया, उसे वह कैसे बिसरा दे.

यदि उस ने एक गलत कदम उठाया तो रजत का प्यार पर से विश्वास उठ जाएगा. अपनी जिंदगी में रंग भरने के लिए वह अपने पति की जिंदगी को स्याहा नहीं कर सकती.

कई बार हमारे जीवन के कुछ ऐसे अंश होते हैं, जिन्हें हम न भूल सकते हैं और न मिटा सकते हैं. जो हमें सुकून भी देते हैं और कष्ट भी. परंतु उन्हें हम अपने दिल के कोनों में हिफाजत से संजो कर रखना चाहते हैं. पहला प्यार इस सूची में संभवतः सब से ऊपर आता है.

रजत की कार में भी एफएम पर गाना बज रहा था, ‘सिर्फ एहसास है यह रूह से महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो…‘

अनमोल पल: शादीशुदा विदित और सुहानी के रिश्ते का क्या था अंजाम

‘‘मैं तुम्हें संपूर्ण रूप से पाना चाहता हूं. इस तरह कि मुझे लगे कि मैं ने तुम्हें पा लिया है. अब चाहे तुम इसे कुछ भी समझो. पुरुषों का प्रेम ऐसा ही होता है, जिसे वे प्यार करते हैं उस के मन के साथसाथ तन को भी पाना चाहते हैं. तुम इसे वासना समझती हो तो यह तुम्हारी सोच है. पाना तो स्त्री भी चाहती है, लेकिन कह नहीं पाती. पुरुष कह देता है. तुम इसे पुरुषों की बेशर्मी समझो तो यह तुम्हारी अपनी समझ है, लेकिन जिस्मानी प्रेम प्राकृतिक है. इसे नकारा नहीं जा सकता. यदि तुम मुझ से प्रेम करती हो और तुम ने अपना मन मुझे दिया है तो तन के समर्पण में हिचक कैसी?

‘‘मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं नहीं चाहता कि हम एकांत में मिलें, जैसे कि मिलते आए हैं और एकदूसरे को चूमतेसहलाते हद से गुजर जाएं फिर बाद में एहसास हो कि हम ने यह ठीक नहीं किया. हमें मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए. अच्छा है कि इस बार हम मानसिक रूप से तैयार हो कर मिलें. वैसे भी कितनी बार हम एकांत के क्षणों में हद से गुजर जाने को बेचैन से रहे हैं, लेकिन मिलने के वे स्थान सार्वजनिक थे, व्यक्तिगत नहीं.

‘‘भले ही उन सार्वजनिक स्थानों पर दुरम्य पहाडि़यों पर उस समय कोई न रहा हो. क्या तुम मुझ से प्यार नहीं करतीं? क्या मुझे पाने की तुम्हारी इच्छा नहीं होती, जैसे मेरी होती है. शायद होती हो, लेकिन तुम कह नहीं पा रही हो, तो चलो, मैं ने कह दिया.

‘‘इस बार हम मिलने से पहले मानसिक रूप से तैयार हो कर मिलें. दो जवां जिस्म बने ही एकदूसरे में समा जाने के लिए होते हैं. मैं ने अपने मन की बात तुम से कह दी. तुम्हारे जवाब की प्रतीक्षा है.’’

टुकड़ोंटुकड़ों में विदित ने अपनी बात एसएमएस के जरिए सुहानी तक पहुंचा दी. अब उसे सुहानी के उत्तर की प्रतीक्षा थी. विदित ने सुहानी को एसएमएस करने से पहले कई बार सोचा कि ऐसा कहना ठीक होगा या नहीं. कहीं सुहानी इस का गलत अर्थ तो नहीं निकालेगी. लेकिन वह क्या करता? कब तक इच्छाओं को मन में दबा कर रखता. कितनी बार दोनों एकांत में मिले. कितनी बार दोनों तरफ से प्रगाढ़ आलिंगन हुए. कितनी बार दोनों बहुत दूर तक निकले और वापस आ गए. वापस आने की पहल भी विदित ने की. सुहानी तो तैयार थी उस रोमांचक यात्रा के लिए. खैर, जो भी हो, अब लिख दिया तो लिख दिया. वही लिखा जो उस के मन में था, दिमाग में था. दोनों की मुलाकात फेसबुक के माध्यम से हुई. विदित ने उस की पोस्ट को हर बार लाइक किया. कमैंट्स बौक्स में जा कर जम कर तारीफ की.

सुहानी भी चौंकी. इतनी रुचि मुझ में कौन ले रहा है, जबकि मैं दिखने में भी साधारण हूं. फेसबुक पर मेरा ओरिजनल फोटो है. मेरा पूरा विवरण भी दर्ज है. कमैंट्स और लाइक तो उसे और भी मिले थे, लेकिन ये कौन जनाब हैं, जो इतना इंट्रस्ट ले रहे हैं. जवाब में उस ने मैसेज भेजा, ‘‘मेरे बारे में सबकुछ जान लीजिए. यदि आप कुछ उम्मीद कर रहे हैं तो.’’ दूसरी तरफ से भी उत्तर आया, ‘‘मैं सबकुछ जान चुका हूं. यदि आप का स्टेटस सही है तो. हां, आप मेरे बारे में जरूर जान लें. मैं ने कुछ छिपाया नहीं. पारिवारिक विवरण, फोटो सभी के बारे में जानकारी है.’’

‘‘मैं ने भी कुछ नहीं छिपाया,’’ मैं ने भी जवाब दिया.

दोनों ने एकदूसरे के बारे में जाना और यह भी जाना कि विदित शादीशुदा था. उस की उम्र 40 साल थी. वह स्वास्थ्य विभाग में अकाउंटैंट था. उस के 2 बच्चे थे, जो प्राइमरी स्कूल में पढ़ रहे थे. विदित की पत्नी कुशल गृहिणी थी. फिर भी विदित जीवन में कुछ खालीपन महसूस कर रहा था. सुहानी 35 वर्ष की अविवाहित महिला थी, जो एक बड़ी कंपनी में अकाउंटैंट थी. उस के घर पर बुजुर्ग मातापिता थे. 2 बहनों की शादी उस ने अपनी नौकरी के बल पर की थी. पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभातेनिभाते न उस ने किसी की तरफ ध्यान दिया, न उस की तरफ किसी ने. उसे लगा मुझ साधारण दिखने वाली युवती पर कौन ध्यान देगा. फिर अब तो विवाह की उम्र भी निकल चुकी है. मातापिता भी नहीं चाहते थे कि कमाऊ लड़की उन्हें छोड़ कर जाए. यह किसी ने नहीं सोचा कि उस की भी कुछ इच्छाएं हो सकती हैं.

‘‘क्या हम कहीं मिल सकते हैं?’’ विदित ने फेसबुक मैसेंजर पर मैसेज भेजा.

‘‘क्यों मिलना चाहते हैं आप मुझ से?’’ सुहानी ने रिप्लाई किया.

‘‘आप मुझे अच्छी लगती हैं.’’

‘‘आप परिवार वाले हैं.’’

‘‘परिवार वाले का दिल नहीं होता क्या?’’

‘‘वह दिल तो आप की पत्नी का है.’’

विदित ने मैसेज नहीं किया. सुहानी को लगा, ‘शायद यह नहीं लिखना चाहिए था, हो सकता है मात्र मिलने की चाह हो. शादी का मतलब यह तो नहीं कि वह किसी से बात ही न करे. मिल न सके. किसी ने तो उसे पसंद किया. उस के सोशल साइड के स्टेटस को, जिस में निराशा भरे चित्रों की भरमार थी. उदास गजलें और गीत थे. किसी ने भी आज तक उसे व्यक्तिगत जीवन और न ही सोशल साइट्स पर इतना पसंद किया था. फिर मिलने में, बात करने में क्या हर्ज है? वह भी तो पहली बार किसी ऐसे व्यक्ति से मिल रही है जो उस से मिलना चाह रहा था.’ सुहानी ने मैसेज किया, ‘‘व्यक्तिगत बात के लिए व्हाट्सऐप ठीक है,’’ अपने व्हाट्सऐप से सुहानी ने विदित के व्हाट्सऐप पर मैसेज किया. अब बातचीत व्हाट्सऐप पर होने लगी.

‘‘मैं आप को क्यों अच्छी लगी?’’ सुहानी ने पूछा.

‘‘पता नहीं, लेकिन आप को देख कर लगा कि मैं आप को तलाश रहा था,’’ विदित ने जवाब दिया.

‘‘माफ कीजिए और आप का परिवार?’’

‘‘परिवार अपनी जगह है. उस का स्थान कोई नहीं ले सकता. वैसे ही जैसे आप की जगह कोई नहीं ले सकता.’’

‘‘मैं कल दोपहर औफिस लंच के समय आप को रीगल चौराहे के पास वाले कौफी हाउस में मिल सकती हूं,’’ सुहानी ने बताया.

‘‘मैं वहां पहुंच जाऊंगा.’’

सुहानी सोचती रही, ‘मिलना चाहिए या नहीं. एक शादीशुदा, बालबच्चेदार व्यक्ति से मिल कर भविष्य के कौन से सपने साकार हो सकते हैं? वैसे भी क्या हो रहा है अभी? फिर मिलना ही तो है. कितनी अकेली रह गई हूं मैं. साथ की सहेलियां शादी कर के अपने ससुराल व परिवार में मस्त हैं. मैं ही रह गई हूं अकेली. घर पर कब किस ने मेरे बारे में, मेरी इच्छाओं के बारे में सोचा है. क्या मैं अपनी मरजी से किसी से मिल भी नहीं सकती? चलो, आगे कुछ न सही लेकिन किसी को कुछ तो पसंद आया मुझ में.’

दोनों तरफ एक उमंग थी. वह नियत समय पर कौफी हाउस में मिले. दोनों को एकदूसरे की यह बात पसंद आई कि जैसा सोशल मीडिया पर अपना स्टेटस व फोटो डाला है, वैसे ही थे दोनों, अन्यथा लोग होते कुछ और हैं और दिखाते कुछ और हैं. कौफी की चुसकियां लेते दोनों एकदूसरे को देखते रहे. आंखों से तोलते रहे. सुहानी सोच रही थी कि क्या बात करूं? कैसे बात करूं? तभी विदित ने कहा, ‘‘आप ने अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘इस उम्र में शादी,’’ सुहानी ने निराशा भरे स्वर में उत्तर दिया.

‘‘अभी कौन सी आप की उम्र निकल गई. ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो 40 के आसपास विवाह करते हैं.’’

‘‘मैं ने सब की तरफ ध्यान दिया लेकिन मेरी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया.’’

‘‘तो अब ध्यान दिए देता हूं,’’ विदित ने हंसते हुए कहा, ‘‘आप दिखने में अच्छी हैं. अपने पैरों पर खड़ी हैं. कौन आप से शादी करने से इनकार कर सकता है. अच्छा बताइए, आप को कैसा लड़का पसंद है?’’

सुहानी ने हंसते हुए कहा, ‘‘इस उम्र में शादी के लिए लड़का नहीं पुरुष ढूंढ़ना पड़ेगा, वह भी अधेड़.’’

‘‘मेरी तरह,’’ विदित बोला.

‘‘हां, खैर ये सब छोडि़ए. आप अपनी सुनाइए. मिल कर कैसा लगा? क्या चाहते हैं आप मुझ से,’’ एक ही सांस में सुहानी कह गई.

‘‘देखिए, मैं ने अपने बारे में कुछ नहीं छिपाया आप से. सुनते हुए अजीब तो लगेगा आप को लेकिन क्या करूं, दिल के हाथों मजबूर हूं. आप मुझे अच्छी लगीं.’’

‘‘आमनेसामने भी,’’ सुहानी ने कहा.

‘‘जी, आमनेसामने भी?’’ विदित बोला.

‘‘मुझे भी आप की ईमानदारी अच्छी लगी. आप ने भी कुछ नहीं छिपाया.’’

‘‘मेरे मन में कोई चोर नहीं है, तो छिपाऊं क्यों? हां, मैं शादीशुदा हूं, 2 बच्चे हैं मेरे, लेकिन यह कोई गुनाह तो नहीं. फिर यह किस किताब में लिखा है कि शादीशुदा व्यक्ति को कोई अच्छा लगे तो वह उसे अच्छा भी न कह सके. कोई उसे पसंद आए तो वह उस पर जाहिर भी न कर सके,’’ विदित ने अपनी बात रखते हुए कहा.

‘‘हां, हम अच्छे दोस्त भी तो हो सकते हैं,’’ सुहानी ने कहा तो विदित चुप रहा. इस बीच दोनों ने एकदूसरे के मोबाइल नंबर ले लिए, जो पहले से ही सोशल साइट्स से उन को मालूम थे.

‘‘हमें मोबाइल पर ही बात करनी चाहिए. चाहे तो एसएमएस के जरिए भी बात कर सकते हैं, लेकिन व्यक्तिगत बातें सोशल साइट्स पर बिलकुल नहीं,’’ सुहानी ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘आप ठीक कह रही हैं. इस का मतलब यह हुआ कि आप मुझ से आगे बात करेंगी.’’

‘‘हां, बात करने में क्या बुराई है?’’

‘‘और मिलने में?’’

‘‘मिल भी सकते हैं, लेकिन मैं देर रात तक घर से बाहर नहीं रह सकती. कमाती हूं तो क्या? हूं तो महिला ही न. घर पर जवाब देना पड़ता है. शादी नहीं हुई तो क्या? पूछने को मातापिता, नजर रखने को अड़ोसपड़ोस तो है ही,’’ सुहानी बोली.

‘‘हां, मैं भी आप से ऐसे समय मिलने को नहीं कहूंगा जिस में आप को समस्या हो,’’ विदित ने कहा.

सुहानी का लंच टाइम खत्म हो चुका था. वह दफ्तर जाने के लिए खड़ी हो गई.

‘‘अच्छा लगा आप से मिल कर,’’ सुहानी ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मुझे भी,’’ विदित खुशी जाहिर करते हुए बोला, ‘‘आज मेरी एक इच्छा पूरी हो गई. आगे न जाने कब दोबारा मिलना होगा.’’

‘‘कल ही,’’ सुहानी मुसकराते हुए बोली.

‘‘क्या, सच में?’’ विदित ने खुशी से कहा.

‘‘हां, यहीं मिलते हैं,’’ सुहानी ने वादा किया.

‘‘थैंक्स,’’ विदित ने धन्यवाद भरे भाव से कहा.

‘‘और बात करनी हो तो मोबाइल पर?’’ सुहानी ने पूछा.

‘‘कभी भी.’’

‘‘मैं रात 10 बजे के बाद अपने कमरे में आ जाती हूं. आप के साथ तो पत्नी व बच्चे होते होंगे,’’ सुहानी ने पूछा.

‘‘नहीं, बच्चे तो अपनी मां के साथ अलग कमरे में सोते हैं. मांबेटों के बीच मुझे कौन पूछता है?’’ निराशा भरे स्वर में विदित बोला.

‘‘मैं अकेला सोता हूं कमरे में. आप बात कर सकती हैं,’’ और वे विदा हो गए. दूसरे दिन वे फिर मिले. दोनों मिलने के लिए इतने बेकरार थे कि बड़ी मुश्किल से दिन व रात कटी. ऐसा लगा जैसे दूसरा दिन आने में वर्षों लग गए हों. बात कैसे शुरू करें? क्या कहें एकदूसरे से. सो राजनीति, साहित्य, सिनेमा, संगीत की बातें होती रहीं.

‘‘तुम्हारे फेसबुक अकाउंट पर मुकेश के दर्द भरे गीतों का बड़ा संकलन है,’’ विदित ने सुहानी से कहा.

‘‘हां, मुझे दर्द भरे गीत बहुत पसंद हैं,  खासकर मुकेश के और तुम्हें?’’

‘‘मेरी तो समझ में आता है मेरा एकांत, मेरा अकेलापन, इसलिए ये गीत मुझे खुद से जुड़े हुए प्रतीत होते हैं. लेकिन आप को क्यों पसंद हैं?’’ सुहानी ने पूछा.

‘‘शायद दर्द मेरा पसंदीदा विषय है,’’ विदित ने कहा.

‘‘लेकिन तुम से मिलने के बाद मुझे प्रेम भरे गीत भी अच्छे लगने लगे हैं,’’ सुहानी ने कहा, ‘‘एक बात पूछूं. आप घर पर दर्द भरे गीत सुनते हैं?’’

‘‘नहीं, अब नहीं सुनता. पत्नी को लगता है कि मुझे अपना कोई पुराना प्रेमप्रसंग याद आता है. तभी मैं ऐसे गाने सुनता हूं और फिर घरपरिवार की जिम्मेदारियों में कुछ सुननेपढ़ने का समय ही कहां मिलता है?’’ विदित ने उदासी भरे स्वर में कहा.

‘‘आप की पत्नी से बनती नहीं है क्या?’’ सुहानी ने पूछा.

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. पहले सब ठीक था, लेकिन अब वह मां पहले है, पत्नी बाद में. मैं ने पिछली बार जिक्र किया था अकेले सोने के विषय में. बच्चे मां के बिना नहीं सोते. दोनों बच्चे मां के अगलबगल लिपट कर सोते हैं. पत्नी दिन भर घर के कामकाज और दोनों बच्चों की जिम्मेदारियां संभालते हुए इतनी थक जाती है कि सोते ही गहरी निद्रा में चली जाती है.

‘‘एकदो बार मैं ने उस से प्रणय निवेदन भी किया, तो पत्नी का जवाब था कि अब मैं 2 बच्चों की मां हूं, बच्चों को छोड़ कर आप के पास आना ठीक नहीं लगता. बच्चे जाग गए तो क्या असर पड़ेगा उन पर? आप दूसरे कमरे में सोइए. आप कहेंगे तो मैं बच्चों को सुला कर थोड़ी देर के लिए आ जाऊंगी. वह आई भी थकीहारी तो बस मुरदे की तरह पड़ी रही. उस ने कहा जो करना है, जल्दीजल्दी करो. शारीरिक संबंध पूर्ण होते ही वह तुरंत बच्चों के पास चली गई. कभीकभी ऐसा भी हुआ कि हम संभोग की मुद्रा में थे, तभी बच्चे जाग गए और वह मुझे धकियाती हुई कपड़े संभालती बच्चों के पास तेजी से चली गई. बस, फिर धीरेधीरे इच्छाएं मरती रहीं. तुम्हें देखा तो इच्छाएं फिर जाग उठीं. एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगी?’’

‘‘नहीं, कहो,’’ सुहानी बोली.

‘‘फेसबुक पर जब तुम से बात होने लगी तो मेरे दिलोदिमाग में तुम समा चुकी थीं. एक बार पत्नी को कुछ जबरन सा कमरे में ले कर आया. संबंध बनाए, लेकिन दिलदिमाग में तुम्हारी ही तसवीर थी. अचानक मुंह से तुम्हारा नाम निकल गया.

‘‘पत्नी ने दूसरे दिन समझाते हुए कहा, ‘यह सुहानी कौन है? रात को उसी को याद कर के मेरे साथ संभोग कर रहे थे आप. जमाना अब पहले जैसा नहीं रहा. किसी ऐसीवैसी लड़की के चक्कर में मत फंस जाना, जो संबंध बना कर ब्लेकमैल करे. न मानो तो जेल भिजवा दे. फिर इस परिवार का, इस घर का, बच्चों का क्या होगा? समाज में बदनामी होगी सो अलग. सोचसमझ कर कदम उठाना. मैं पत्नी हूं आप की, मेरा अधिकार तो कोई नहीं छीन सकता, लेकिन अपनी हवस के कारण किसी जंजाल में मत उलझ जाना.’’

‘‘मैं ऐसी नहीं हूं,’’ सुहानी ने कहा. उसे लगा कि विदित उसे सुना कर ये सब कह रहा है.

‘‘अरे… मैं तो तुम्हें सिर्फ पत्नी की बात बता रहा हूं. मुझे तुम पर भरोसा है. हम ने ईमानदारी से अपना सच एकदूसरे को बताया है. मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. क्या तुम्हें मुझ पर भरोसा है.’’

‘‘आजमा कर देख लो,’’ सुहानी ने दृढ़ स्वर में कहा. लंच टाइम खत्म हो चुका था. उन्हें मजबूरन अपनी बात समाप्त कर के उठना पड़ा. इस वादे के साथ कि वे फिर मिलेंगे. वे फिर मिले. उन की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता गया. मुलाकातों के स्थान भी बदलने लगे. कभी वे पार्क में टहलते तो कभी किसी रेस्तरां में साथ बैठ कर भोजन करते. कभी साथ मूवी देखते.

‘‘मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं. अकेले में जहां हम दोनों के अलावा कोई तीसरा न हो,’’ विदित ने कहा.

‘‘मेरी एक सहेली कंपनी के काम से बाहर गई है. उस के फ्लैट की चाबी मेरे पास है. हम थोड़े समय के लिए वहां जा सकते हैं,’’ सुहानी ने कहा.

‘‘किसी ने हमें देख लिया तो,’’ विदित ने शंका व्यक्त की.

‘‘मैं किसी की परवा नहीं करती,’’ सुहानी ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘कब चलना है?’’ विदित ने पूछा.

‘‘आज, अभी. 1 घंटे का लंच है. बात करेंगे, चाय पीएंगे और जो कहना है कह लेना.’’ कौफी हाउस से टैक्सी ले कर वे सीधे फ्लैट पर पहुंचे.  सुहानी ने चाय बनाई और विदित को दी. विदित ने सुहानी का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘मैं तुम से प्यार करता हूं.’’

‘‘मैं भी.’’ विदित ने सुहानी को अपने शरीर से सटा लिया. दोनों एकदूसरे से लिपटे हुए थे. सांसों में तेजी आ गई थी, विदित ने सुहानी के माथे पर अपने होंठ रख दिए. सुहानी ने स्वयं को विदित को सौंप दिया. दोनों एकदूसरे में समाने का प्रयास करने लगे.

अचानक पता नहीं क्यों, विदित ने खुद को रोक लिया. सुहानी ने बड़ी मुश्किल से स्वयं को नियंत्रित किया. वह जाना चाहती थी सारे तटबंधों को तोड़ कर, लेकिन विदित ने हांफते हुए कहा, ‘‘नहीं, इस तरह नहीं. तुम्हें यह न लगे कि मैं ने तुम्हारा गलत फायदा उठाया.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है विदित,’’ सुहानी निश्चिंत हो कर बोली.

‘‘सुहानी,’’ विदित ने सुहानी के हाथों को चूमते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हें प्यार दे सकता हूं, अधिकार नहीं.’’

सुहानी ने विदित से लिपटते हुए कहा, ‘‘मुझे प्यार के अलावा कुछ और चाहिए भी नहीं.’’ विदित ने सुहानी के होंठों पर अपने होंठ रखे. सुहानी ने फिर खुद को समर्पित किया, लेकिन विदित ने फिर स्वयं को रोक लिया.

‘‘एक बात पूछूं विदित? ’’सुहानी ने पूछा.

‘‘पूछो.’’

‘‘अपनी पत्नी से अंतरंग क्षणों में तुम मेरी कल्पना करते हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘तुम मेरा शरीर चाहते हो?’’

‘‘हां, लेकिन मन के साथ. केवल तन नहीं.’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ गहराई तक उतरने को तैयार हूं. फिर तुम पीछे क्यों हट रहे हो?’’

‘‘यही सोच कर कि मैं तुम्हें क्या दे पाऊंगा. न कोई सुनहरा भविष्य, न कोई अधिकार. अपनों के सामने तुम्हारा क्या परिचय दूंगा. इन तथाकथित अपनों के सामने शायद तुम्हें पहचानने से भी इनकार कर दूं. कहीं यह तुम्हारा शोषण तो नहीं होगा,’’ सकुचाते हुए विदित बोला. ‘‘मेरे पास भविष्य के लिए नौकरी है. रही अधिकार की बात, तो मैं जानती हूं कि तुम विवाहित हो. मैं तुम से ऐसी कोई मांग नहीं करूंगी, जिस से तुम स्वयं को धर्मसंकट में फंसा महसूस करो. मैं तो तुम्हारे साथ खुशी के कुछ पल बिताना चाहती हूं. ऐसे पल जिन पर हर स्त्री का अधिकार होता है, लेकिन मेरी नौकरी के कारण मेरे परिवार के लोग ही मुझे अपने स्त्रीत्व से वंचित रखना चाहते हैं और मैं ये पल अब चुराना चाहती हूं, छीनना चाहती हूं.’’

विदित खामोश रहा. विदित को सोच में डूबा देख कर सुहानी ने पूछा, ‘‘क्या बात है?’’ ‘‘कुछ नहीं,’’ विदित ने कहा, ‘‘मैं यह सोच रहा था और इसलिए सोच कर तुम से कह रहा हूं कि अपने सुख की तलाश में कहीं हम वासना के दलदल में तो नहीं भटकना चाह रहे. तुम्हारी खुशियां मेरे साथ हमेशा नहीं रहेंगी. मैं तुम्हें पाना तो चाहता हूं, लेकिन मैं तुम से प्यार भी करता हूं. स्त्रीपुरुष जब तनमन के साथ एक होते हैं तो बंध जाते हैं एकदूसरे से. मैं तो फिर भी पुरुष हूं. शादीशुदा हूं. तुम मुझ से बंध कर कहीं अकेली न रह जाओ,’’ विदित कहते हुए चुप हो गया. सुहानी चुपचाप सुनती रही, कुछ नहीं बोली.

‘‘मैं चाहता हूं कि तुम्हारे योग्य कहीं एक अच्छा लड़का, चाहे वह अधेड़ हो या फिर विदुर, तलाशा जाए, जिस के साथ तुम जीवन भर खुश रह सको. तुम्हारा अधूरापन हमेशा के लिए दूर हो जाए.’’ ‘‘तुम्हें क्या लगता है, विदित? मैं ने ये सब सोचा नहीं होगा. इस काम में मेरी एक प्रिय सहेली ने मेरी मदद भी की. मैरिज ब्यूरो से संपर्क भी किया, कुछ रिश्ते आए भी, लेकिन वे सब रिश्ते ऐसे आए जो मु झे पसंद नहीं थे. वही कुंडली मिलान, दहेज, घरपरिवार, जातिधर्म, गोत्र. मेरा मन नहीं मिला किसी से. एकदो मेरे मातापिता से मिले भी तो मातापिता ने उन्हें टाल दिया और मु झे सम झाया कि इस उम्र में क्यों शादीब्याह के चक्कर में पड़ रही हो. अपने मातापिता का ध्यान रखो. 70-75 की उम्र में मातापिता से घर नहीं छोड़ा जा रहा और बेटी को तपस्या करने की सलाह दे रहे हैं…’’ कहते हुए सुहानी की आंखों में आंसू आ गए.

विदित ने आंसू पोंछते हुए सुहानी से कहा, ‘‘मेरा इरादा तुम्हारा दिल दुखाना नहीं था. मैं तो तुम्हारे भले के लिए यह कह रहा था.’’

‘‘तुम डर रहे हो मु झ से,’’ सुहानी बोली.

‘‘नहीं, तुम्हें सम झा रहा हूं,’’ विदित  आश्वस्त करते हुए बोला.

‘‘इतना आगे आने के बाद,’’ सुहानी ने कहा.

‘‘अभी इतने भी आगे नहीं आए कि वापस न लौट सकें.’’

‘‘तुम लौटना चाहते हो तो लौट जाओ.’’

‘‘मैं नहीं लौटना चाहता.’’

‘‘मैं भी नहीं लौटना चाहती,’’ फिर दोनों गले मिले और मुसकराते हुए अपनेअपने गंतव्य की तरफ चले गए. रात को विदित को सुहानी का खयाल आया. उसे वे पल याद आए जब एकांत पहाड़ी पर उस ने सुहानी को सिर से ले कर पैर तक चूमा था. उस के शरीर के ऊपरी वस्त्र हटा कर उस के गोपनीय अंगों से छेड़छाड़ करने लगा था और सुहानी मादक सिसकारियां लेते हुए उस का साथ दे रही थी. ‘उफ्फ, मैं क्यों पीछे हट गया. मिलन पूर्ण हो जाता तो यह तड़प, यह बेकरारी तो न सताती. शरीर इस तरह भारी तो न महसूस होता.’ स्वयं को इस भारीपन से मुक्त करने के लिए विदित अपनी पत्नी के पास पहुंचा. पत्नी ने  झिड़कते हुए कहा, ‘‘सो जाइए. आज मेरा मूड नहीं है.’’ विदित अपमानित सा अपने कमरे में आ गया. उस ने मोबाइल उठा कर सुहानी को कई टुकड़ों में एसएमएस किया. अब उसे सुहानी के उत्तर की प्रतीक्षा थी. सुहानी का उत्तर आ गया. विदित ने मोबाइल के एसएमएस बौक्स पर उंगली रखी.

‘‘जब मैं तुम्हारे साथ बहने को तैयार थी तो तुम पीछे हट गए और मु झे दुनियादारी समझाते रहे. क्या तुम मुझ से इसलिए शारीरिक सुख चाहते हो, क्योंकि यह सुख तुम्हें अपनी पत्नी से नहीं मिल रहा है. मैं कोई बाजारू औरत नहीं हूं. यह सुख तो चंद रुपए दे कर कोई वेश्या भी तुम्हें दे सकती है. तुम्हारा बारबार पीछे हटना यह साबित करता है कि तुम डरते हो मु झ से, अपनी पत्नी से, अपने परिवार से, जबकि मैं ने पहले ही तुम से कह दिया था कि मु झे सिर्फ प्यार चाहिए, अधिकार नहीं.

‘‘तुम ने उन अनमोल पलों को न जाने किस डर से गंवा दिया. वह भी ऐसे समय में जब मैं तुम्हारे साथ आगे बढ़ रही थी. उन क्षणों में मैं ने खुद को कितना अपमानित महसूस किया था और अब तुम मुझ से शरीर के ताप से पीडि़त हो कर मिलन की मांग कर रहे हो. क्या इसे तुम प्यार कहते हो या सिर्फ जरूरत? मैं तुम्हारी ही भाषा में बात कर रही हूं. औरत जब किसी के प्रेम में डूबती है तो फिर आगेपीछे नहीं सोचती. जिसे प्रेम करती है उस पर भरोसा करते हुए आगे बढ़ती है. तुम इतना सोचते हो मेरे साथ होते हुए भी, सब के बारे में, मेरे बारे में भी सब सोचने को रहता है बस, मैं ही नहीं रहती.’’

विदित ने एसएमएस को 4-5 टुकड़ों में पढ़ा. उसे उस पर गुस्सा आ गया. उस ने सीधा नंबर लगाया और कहा, ‘‘तुम्हारी हां है या ना.’’ उधर से सुहानी ने उत्तर दिया, ‘‘इतनी मानसिक तैयारी से शादी की जाती है, सुहागरात मनाई जाती है, प्यार नहीं किया जाता.’’ विदित को गुस्सा आ गया. उस के मुंह से निकल गया, ‘‘शराफत के कारण पीछे रह गया. नहीं तो बहुत पहले ही सबकुछ कर चुका होता. अब पूछ रहा हूं तो भाव खा रही हो.’’

दूसरी तरफ से मोबाइल बंद हो गया. विदित को खुद पर गुस्सा आया. ‘उफ्फ, यह क्या कह दिया मैं ने. किस बदतमीजी से बात की मैं ने. मेरे बारे में क्या सोच रही होगी सुहानी,’ विदित ने सोचा और फिर नंबर घुमाने लगा, लेकिन सुहानी ने फोन काट दिया. फिर विदित ने एसएमएस किया.

‘‘क्यों तड़पा रही हो? गुस्से में निकल गया मुंह से. इस के लिए मैं माफी मांगता हूं,’’ सुहानी ने एसएमएस पढ़ कर रिप्लाई किया.

‘‘क्या चाहते हो?’’ सुहानी  झुं झला कर बोली.

‘‘तुम्हें चाहता हूं,’’ विदित बोला.

‘‘क्यों चाहते हो?’’

‘‘प्यार करता हूं तुम से.’’

‘‘मु झ से या मेरे शरीर से?’’

‘‘तुम्हारा शरीर भी तो तुम ही हो.’’

‘‘तो ऐसा कहो, शरीर चाहिए मेरा.’’

‘‘तुम गलत सम झ रही हो.’’

‘‘मैं ठीक सम झ रही हूं.’’

‘‘तुम्हारी हां है या ना?’’

‘‘जिद क्यों कर रहे हो?’’

‘‘मैं तुम्हें पाना चाहता हूं.’’

‘‘तुम्हारे साथ बिताए पलों के लिए मैं कोई भी कीमत देने को तैयार हूं.’’

‘‘चलो, कीमत ही सम झ कर दे दो.’’

‘‘ठीक है, बताओ कब, कहां आना है?’’ सुहानी ने कहा.

विदित को सम झ नहीं आ रहा था कि जो औरत कल तक उस के लिए बिछने के लिए तैयार थी, जिस के हितअहित के बारे में इतना सोचा कि सुख की चरम अवस्था से लौट कर वापस आ गया. आज वही औरत इस तरह की बात कर रही है. इन औरतों को सम झना बहुत मुश्किल है. एक बार संबंध बनने के बाद अपनेआप काबू में आ जाएगी . स्त्रीपुरुष के बीच जिस्मानी संबंध बनने जरूरी हैं. तभी स्त्री पूर्णरूप से समर्पित हो कर रहेगी. एक बार संबंध बन गए तो फिर वह उसी की राह ताकती रहेगी. खाली प्रेम तो दिल की बातें हैं. आज है कल नहीं है. विदित यों निकला जैसे शिकार पर निकल रहा हो. विदित ने विभागीय औडिट टीम के लिए 3 कमरे होटल रीगल में बुक करवाए. रात 12 बजे की ट्रेन से औडिट टीम जाने वाली थी. उस ने होटल के मैनेजर को फोन कर के कहा, ‘‘एक कमरा कल सुबह तक बुक रहेगा. 2 कमरे खाली कर रहा हूं.’’

‘‘यस सर.’’

विदित के बताए पते पर रात 10 बजे सुहानी पहुंची. घर से वह यह कह कर निकली कि साहब जरूरी काम से बाहर गए हैं. घर पर उन की पत्नी अकेली हैं इसलिए मु झे साथ रहने के लिए उन की पत्नी ने बुलाया है. साहब का निवेदन था, इनकार नहीं कर सकती. विदित होटल के बाहर सुहानी की प्रतीक्षा कर रहा था. सुहानी को देख कर उस के चेहरे पर चमक आ गई.  कमरे के अंदर पहुंचते ही विदित ने दरवाजा बंद किया और सुहानी को जोर से भींच कर कहा, ‘‘आई लव यू.’’ इस के बाद बिना सुहानी से पूछे वह सुहानी के जिस्म को चूमने लगा. सुहानी कहती रही कि इतनी रात को न आने के लिए मैं ने तुम्हें पहले ही मना किया था और तुम ने भी वादा किया था. मु झे  झूठ बोल कर आना पड़ा, लेकिन विदित का ध्यान सुहानी की बातों पर बिलकुल नहीं था. वह तो सुहानी के शरीर के लिए बेकरार था. वह सुहानी के नाजुक अंगों को चूमता रहा, सहलाता रहा. उस के बदन को  झिंझोड़ता रहा. सुहानी कहती रही, ‘‘तुम ने फोन पर मु झ से इस तरह बात की जैसे मैं कोई वेश्या हूं. तुम्हें मेरा शरीर चाहिए था तो लो यह रहा शरीर. बु झा लो अपनी वासना की आग. मेरे मन में तुम्हारे प्रति जो था वह खत्म हो चुका है. मैं सिर्फ उन पलों की कीमत चुकाने आई हूं, जो मेरे लिए तुम्हारे साथ अनमोल थे. मेरे जीवन के वे सब से अद्भुत क्षण. मेरे स्त्रीत्व होने के वजूद भरे पल.’’ विदित सुहानी की कोई बात नहीं सुन रहा था, न सम झ रहा था. वह सुहानी के जिस्म से खेल रहा था. सुहानी शव के समान पड़ी रही. उस के अंदर कोई भाव नहीं था, शरीर में कोई हरकत नहीं थी, लेकिन इस ओर विदित का ध्यान नहीं गया. वह तो शिकारी बना हुआ था. सुहानी के शरीर को चीरफाड़ रहा था, सुहानी के अंदर न रस था न आनंद. वह निर्जीव सी पड़ी हुई थी और विदित उस के अंदर प्रवेश कर खुद को जीता हुआ महसूस कर रहा था. उस का खुमार उतर चुका था. अब आग जल कर राख हो चुकी थी.

विदित की नींद खुली तो सुबह हो चुकी थी. उसे सुहानी कहीं नहीं दिखाई दी. न कमरे में न वाशरूम में. उस ने सुहानी को फोन लगाया. सुहानी का मोबाइल बंद था. उस ने मैनेजर से फोन पर पूछा, ‘‘मैडम कहां गईं?’’

‘‘सर, वे तो रात को ही चली गई थीं.’’ मैनेजर बोला.

‘‘कितने बजे?’’ विदित भौचक रह गया.

‘‘तकरीबन 12 बजे,’’ मैनेजर ने कहा.

‘‘कोई मैसेज दिया, कुछ कह कर गई वह?’’ विदित ने पूछा.

‘‘सर, आप के लिए एक पत्र छोड़ कर गई हैं,’’ मैनेजर ने विदित को बताया.

‘‘मेरे कमरे में पहुंचा देना,’’ विदित ने आदेश दिया.

‘‘जी सर,’’ मैनेजर बोला.

थोड़ी देर बाद दरवाजे की घंटी बजी, ‘‘अंदर आ जाओ,’’ विदित ने कहा, तो वेटर ने अंदर आ कर एक लिफाफा दिया. लिफाफा ले कर विदित ने कहा, ‘‘ठीक है, जाओ.’’

विदित ने लिफाफा खोल कर पत्र पढ़ा, ‘तुम्हारे दिए अनमोल पलों की कीमत चुका दी है मैं ने और तुम ने भी अच्छी तरह वसूल ली है. तुम कुछ भी हो सकते हो, लेकिन प्रेमी नहीं हो सकते. मैं ने तुम्हें तन दे दिया है जिस की तुम्हें जरूरत थी. मन अपने साथ ले कर जा रही हूं. औरत के शरीर को पा कर तुम यह सम झो कि तुम ने औरत पर नियंत्रण पा लिया है तो तुम्हारी और बलात्कारी की सोच में कोई फर्क नहीं रहा. प्रेम में देह कोई माने नहीं रखती, लेकिन जिसे देह से ही प्रेम हो वह तो महज व्यभिचारी हुआ. मैं ने प्रेम किया था तुम से. देह तो स्वयं ही समर्पित हो जाती, क्योंकि प्रेम प्रकट करने का माध्यम है देह, लेकिन तुम ने स्त्री के मन और तन को अपनी इच्छा और सुविधानुसार अलगअलग कर के देखा. तुम्हारी खोज एक शरीर की खोज थी. इस के लिए इतना परेशान होने की जरूरत नहीं थी. चले जाते किसी वेश्या के पास. मेरी खोज प्रेम की खोज थी. जो मु झे तुम से नहीं मिला. दोबारा मिलने व संपर्क करने की कोशिश मत करना.

‘पुन: प्रेम की खोज में,

सुहानी.’

विदित पत्र पढ़ कर सिर पकड़ कर बैठ गया और सोचने लगा, ‘उफ्फ, यह मैं ने क्या कर दिया? तन पा लिया और मन खो दिया. कुछ पल पाए और पूरा जीवन खो दिया. जीत कर भी हार गया मैं. ‘प्रेम में जीतहार जैसी बातें सोच कर प्रेम को अपमानित कर दिया मैं ने. सामने अमृतकुंड था और प्यास बु झाने के लिए खारा पानी पी लिया मैं ने. सुहानी का सबकुछ मेरा था, मन भी और तन भी, लेकिन क्षण भर की वासना में प्रेम की कीमत लगा ली मैं ने. जो सहज और स्वाभाविक रूप से मेरा था उसी को नीलाम कर दिया मैं ने. अपने ही प्रेम की बोली लगा कर हमेशा के लिए खो दिया सुहानी को. अपने प्रेम को अपमानित और प्रताडि़त कर दिया मैं ने. कितना बेवकूफ था मैं, जो सोचने लगा कि औरत को जीता जा सकता है. संपत्ति सम झ लिया था मैं ने औरत को. ‘सुहानी के लिए शरीर प्रेम करने का माध्यम था और मैं शरीर की तृप्ति के लिए कितनी ओछी हरकत कर बैठा सुहानी के साथ. सुहानी ने प्रेम में बिताए अनमोल पलों के लिए शरीर सौंप दिया मु झे. जैसे शव को सौंपते हैं अग्नि में.’ बहुत देर तक उदास और गमगीन बैठा रहा विदित. दोबारा सुहानी से मिलने की हिम्मत नहीं थी उस में और सुहानी प्रेम के अनमोल क्षणों की तलाश में निकल पड़ी. उसे किसी बात का दुख नहीं था. वह ऐसे पुरुष के साथ आगे नहीं बढ़ना चाहती थी जो प्रेम में आगे बढ़ते हुए पीछे हट जाए. जो स्त्रीपुरुष के अंतरंग क्षणों में भलाबुरा सोचते हुए पीछे हट जाए और यह भूल जाए कि इन अनमोल पलों में आगे बढ़ते हुए पीछे हटने से स्त्री अपमानित होती है. सुहानी को प्रेम के वे पल इतने भा गए थे कि उन पलों को वह फिर से जीने के लिए प्रेम की तलाश में निकल पड़ी. उम्र के इस दौर में प्यार मिलता है या नहीं यह अलग बात है, लेकिन सुहानी की तलाश जारी थी. उसे विश्वास था कि वह प्रेम के अनमोल पलों को खोज लेगी.

नो एंट्री: ईशा क्यों पति से दूर होकर निशांत की तरफ आकर्षित हो रही थी

‘तुम्हीं मेरे हल पल में, तुम आज में तुम कल में …’

“हे शोना, हे शोना”, एफएम पर चल रहे गाने के साथ गुनगुनाती ईशा अपने विवाहित जीवन में काफी प्रसन्न थी. कॉलेज पूरा होते होते उसकी शादी हो गई. जैसे जीवनसाथी की उसने कल्पना की, मयूर ठीक वैसा ही निकला. देखने में आकर्षक कहना ठीक होगा. वैसे ईशा के मुकाबले मयूर उन्नीस ही था किंतु वह जानती थी कि लड़कों की सूरत से ज्यादा सीरत पररखना आवश्यक होता है. आखिर ताउम्र का साथ है. ईशा ने अपनी पूरी होशियारी दर्शाते हुए मयूर का चयन किया. ईशा जैसी खूबसूरत लड़की के लिए रिश्तो की कमी न थी. कई परिवार के जरिए आए तो कई मजनू जिंदगी में वैसे भी टकराए. किंतु वह अपना जीवनसाथी उसी को चुनेगी जो उसके मापदंडों पर खरा उतरेगा. मयूर अपनी शराफत, प्यार करने की काबिलियत, और सच्चाई के कारण अव्वल आया. दो वर्ष पूर्व जब मयूर एक कजिन की शादी में उस से टकराया तब उसे पहली नजर में वह एक शांत, सुशील और विनम्र लड़का लगा. फोन नंबर एक्सचेंज होते ही कितने अच्छे और मिठास भरे मैसेज भेज कर मयूर ने ईशा का मन पिघला दिया. और उसने इस रिश्ते के लिए जल्दी ही हामी भर दी. चट मंगनी पट ब्याह कर ईशा, मयूर के घर आ गई.

तब से लेकर आज तक दोनों एक दूसरे के प्यार में डुबकियां लगाते आए हैं. प्रेम का सागर होता ही इतना मीठा है कि चाहे जितनी बार गोते लगा लो यह प्यास नहीं बुझती. शादी के पश्चात कई महीनों तक दोनों इसी प्यार की लहरों में डूबा उभरा करते, एक दूसरे की आगोश में खोए जिंदगी के हसीन पलों का आनंद लेते. एक-दूसरे के साथ सामंजस्य बिठाते हुए दोनों ने धीरे-धीरे अपनी ज़िंदगी को रोज़मर्रा की पटरी पर दौड़ने के लायक बना लिया. मयूर, एक प्राइवेट कंपनी में उच्च पदासीन, ईशा की हर चाह को जुबान पर आने से पहले ही पूरा कर दिया करता. ईशा पूरे आनंद के साथ घर संभालने लगी. विवाहित जीवन सुखमय था. इससे ज्यादा की कामना भी नहीं थी ईशा को.

 

“इस शनिवार को हमारी कंपनी ने फैमिली डे का आयोजन रखा है. मेरी कंपनी हर साल यह आयोजन करती है जिसमें सभी अपने परिवारों के साथ आते हैं. खूब धूम मचती है – तरह तरह के खेल खिलाए जाते हैं, खाना-पीना, नाचना-गाना. सब एक दूसरे के परिवार के सदस्यों से भी मिल लेते हैं. पिछली बार तुम अपने मायके गयी हुई थीं इसलिए अबकी बार तुम पहले-पहल सबसे मिलोगी.”

“अच्छा, फिर तो बहुत मजा आएगा. इसी बहाने मैं तुम्हारी कंपनी के सहकर्मियों व उनके परिवारों से मिलूंगी”, मयूर की बात सुन ईशा भी खुश हो गई.

शनिवार को मयूर की मनपसंद मोरिया नीले रंग की पटोला साड़ी में ईशा का गोरा रंग और भी निखर आया. उस पर सोने का हल्का सेट पहनने से मानो उसकी खूबसूरती में चार चांद लग गए. सलीके से किया हुआ  मेकअप और स्ट्रेटन किए हुए कमर तक लहराते केश. ईशा को लेकर जैसे ही मयूर पार्टी में दाखिल हुआ सब निगाहें उसकी ओर उठ गईं. जोड़ी वाकई काबिले तारीफ लग रही थी.

फैमिली डे पर कहीं कोई भेदभाव नहीं था. जैसे कंपनी के मैनेजमेंट वैसे ही कंपनी के कर्मचारी और उसी तरह कंपनी के वर्कर्स के साथ भी बर्ताव किया जा रहा था. सभी अपने-अपने परिवारों के साथ घुल मिल रहे थे. कुछ ही देर में नाच गाना शुरू हुआ. कंपनी में काम करने वाले कुछ वर्कर्स आए और मयूर को कंधों पर उठाकर डांस फ्लोर की ओर ले गए. यह दृश्य देखकर ईशा का मन बाग-बाग हो गया. अपने पति के प्रति उसके मातहतों का इतना प्यार देख कर उसे आज मयूर पर नाज हो उठा. आज फैमिली डे में आकर ईशा को ज्ञात हुआ कि मयूर अपने परिश्रमी स्वभाव के कारण अपनी कंपनी में कितना चहेता है.

तभी एक हैंडसम नवयुवक ईशा के पास की कुर्सी खींच कर बैठते हुए बोला, “हाय, मेरा नाम निशांत है. मैं मयूर का दोस्त हूं. आपकी शादी में भी आया था पर इतने लोगों के बीच शायद मुलाकात याद ना रही हो.”

ईशा उस मुलाक़ात को कैसे भूल सकती थी भला! उसे अपनी शादी का वो मंज़र याद हो आया जब मयूर के सभी दोस्त स्टेज पर आकर फोटो खिंचवा रहे थे. तब सभी मित्र दुल्हा-दुल्हन बने मयूर और ईशा को घेरकर आगे-पीछे खड़े होने लगे. इतने में निशांत हँसकर ईशा के पास आ गया, “हम तो अपनी दुल्हनिया के पास बैठेंगे”, और उसी के सोफ़े पर उससे चिपक कर बैठ गया. अपनी बाँह ईशा के गले में डालते हुए उसने फोटोग्राफर से कहा था, “अब खींच ले, भाई, हमारी फोटो.”

ईशा को निशांत का नाम तब ज्ञात नहीं था किन्तु उसे उसकी दिलेरी बहुत भा गई. वो स्वयं भी एक बिंदास लड़की होने के कारण निशांत द्वारा भरी सभा में खुलेआम की गई ये हरकत उसे आकर्षित कर गई. मयूर बेहद नियमानुसार चलने वाला लड़का था. हर बात घरवालों के कहे अनुसार करना, हर निर्णय लेने से पहले बड़ों से पूछना, छोटे से छोटे कानून का पालन करना. उसके साथ रहने पर ईशा भी एक सीधी-सादी लड़की की भाँति रहने लगी क्योंकि आखिर ये एक अरेंज मैरिज थी, और वो चाहती थी कि मयूर आरंभ से उससे प्रभावित हो जाए.

आज ईशा ने निशांत को यहाँ देखने की उम्मीद नहीं की थी किन्तु जब वो सामने आया तो वह अंजान बनी रही, “ठीक कह रहे हैं आप. शादी के समय जितने लोगों से मिलना जुलना होता है वह कहां याद रह पाता है.

“जी नहीं, मैं तो ऑपरेशंस में हूं. देखा आपने, मयूर को वर्कर्स कितना पसंद करते हैं. बहुत सीधा है. सब में घुल मिल जाता है.”

“जी”, ईशा के चेहरे की मुस्कुराहट थमने का नाम नहीं ले रही थी.

“डांस करना पसंद करेंगी?”, कहते हुए निशांत ने अपना सीधा हाथ आगे बढ़ाया. ईशा आगे कुछ सोच पाती उससे पहले निशांत बोला, “मयूर बुरा नहीं मानेगा, उसे वर्कर्स के साथ डांस करने में ज्यादा मजा आ रहा है.”

आज निशांत ने पुनः ईशा के समक्ष अपनी अपरंपरागत सोच दर्शाई. कुछ ना कहते हुए ईशा, निशांत के साथ डांस फ्लोर पर उतर गई. नाचते-नाचते निशांत कहने लगा, “कहां आप – इतनी स्मार्ट और आकर्षक, और कहां मयूर! मेरा मतलब है आपकी स्मार्टनेस के आगे मयूर थोड़ा भोंदू ही लगता है.”

ईशा के अचकचा कर देखने पर निशांत ने आगे कहा, “बुरा मत मानिएगा, मेरा दोस्त है इसलिए कह सकता हूं.”
मयूर के आने पर निशांत बोला, “हूर के साथ लंगूर कैसे?!”

पर उत्तर में मयूर केवल हँसता रहा. फिर सारी पार्टी में निशांत, ईशा के आसपास ही घूमता रहा, कभी उसके लिए रसमलाई लाता तो कभी कोक का गिलास. उसकी उपस्थिति में निशांत, मयूर की हँसी भी उड़ाता रहा, और मयूर सब कुछ सुनकर हँसता रहा.

“यह निशांत कैसा लड़का है?”

“बहुत अच्छा लड़का है. मेरा बहुत अच्छा दोस्त है. बहुत इंटेलिजेंट है. अपने डिपार्टमेंट का हीरा है.”

मयूर ने निशांत की प्रशंसा के पुल बांध दिए. “ठीक ही कह रहा था वह – मयूर वाकई भोंदू है जो यह नहीं समझता कि कौन उसका सच्चा दोस्त है और कौन नहीं”, ईशा सोच में पड़ गई. ईशा, निशांत की उससे फ़्लर्ट करने की कोशिश भली प्रकार समझ रही थी. निशांत की ये हरकतें ईशा को बुरी नहीं लगीं अपितु मन के किसी कोने में पुलकित कर गईं.

उसी हफ्ते एक दुपहरी ईशा को एक फोन आया. “सरप्राइस कर दिया न तुम्हें? देखा, कितना स्मार्ट हूं मैं, तुम्हारा नंबर निकाल लिया,” दूसरी ओर से निशांत की विजय से ओतप्रोत हँसी की आवाज़ आई.

परंतु ईशा इतनी जल्दी प्रभावित होने वाली कहाँ थी. अपने पीछे मजनुओं की पंक्तियों की उसे आदत थी. “कभी-कभी ज़्यादा स्मार्टनेस भारी पड़ जाती है. जनाब, अपना नाम तो बताइये”, ईशा ने पलटवार किया.

“सेव कर लो ये नंबर”, निशांत बोला, “निशांत बोल रहा हूँ, मैडम. मैंने तुम दोनों को अपने घर लंच पर बुलाने के लिए फोन किया है. मयूर को मैं ऑफिस में ही न्योता दे चुका हूं पर तुम्हें भी निजी तौर पर आमंत्रित करना चाहता था इसलिए फोन किया”, उसने अपनी बात पूरी की.

शाम को जब मयूर घर लौटा तो ईशा ने निशांत के फोन की बात बताई.

“हां, पता है. मुझसे ही तुम्हारा नंबर लिया था उसने”, मयूर ने लापरवाही से कहा.

“मेरा नंबर देने की क्या जरूरत थी? तुम्हें बुलाया, मुझे बुलाया, एक ही बात है”, ईशा इस सिलसिले में मयूर की  मानसिकता टटोलना चाहती थी.

“क्या फर्क पड़ता है… उसका मन था तुमसे बात करने का”, मयूर सरलता से कह गया. “इस रविवार दोपहर का लंच हम निशांत के साथ करेंगे. बहुत दूर नहीं है उसका घर.”

रविवार को ईशा ने फूलों की प्रिंट वाली ड्रेस के साथ हाई हील्स पहनी और अपने बालों को हाई पोनीटेल में बांध लिया. इस वेषभूषा में वो अपनी साड़ी वाली छवि से बिलकुल उलट लग रही थी. इस नए अवतार में  निशांत ने उसे देखा तो वह पूरे जोर-शोर से ईशा के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा. उसे लगने लगा मानो ईशा उसे अपने व्यक्तित्व का हर रंग दिखाना चाहती है. पाश्चात्य परिधान में उसे देखकर निशांत उस पर और भी मोहित हो गया, “अरे रे रे, मैं तो तुम्हें भारतीय नारी समझा था पर तुम तो दो धारी तलवार निकलीं. बेचारा मयूर! उसके पास तो ऐसी तलवार के लायक कमान भी नहीं है”, धीरे से ईशा के कानों में फुसफुसा कर कहता हुआ निशांत साइड से निकल गया.

मन ही मन ईशा हर्षाने लगी. शादीशुदा होने के उपरांत भी उसमें आशिक बनाने की कला जीवित थी, यह जानकार वह संतुष्ट हुई. उसपर ऐसा भी नहीं था कि निशांत, मयूर की आँख बचाकर यह सब कह रहा था. उस दिन निशांत, मयूर के सामने भी कई बार ईशा से फ्लर्ट करने की कोशिश करता रहा और मयूर हँसता रहा.

घर लौटते समय ईशा ने मयूर से निशांत की शिकायत की, “देखा तुमने, निशांत कैसे फ़्लर्ट करने की कोशिश करता है.” वह नहीं चाहती थी कि मयूर के मन में उसके प्रति कोई गलतफहमी हो जाए.

ईशा की बात को मयूर ने यह कहकर टाल दिया, “निशांत तो है ही मनमौजी किस्म का लड़का. और फिर तुम उसकी भाभी लगती हो. देवर भाभी में तो हँसी-मजाक चलता रहता है. पर तुम उसे गलत मत समझना, वह दिल का बहुत साफ और नेक लड़का है.”

अगले हफ्ते मयूर कंपनी के काम से दूसरे शहर टूर पर गया. हर रोज की तरह ईशा दोपहर में कुछ देर सुस्ता रही थी कि अचानक दरवाजे की घंटी बजी. किसी कोरियर बॉय की अपेक्षा करती ईशा ने जब दरवाजा खोला तो सामने निशांत को खड़ा देख वह हतप्रभ रह गई, “तुम… इस वक्त यहां? लेकिन मयूर तो ऑफिस के काम से बाहर गए हैं.”

“मुझे पता है. मैं तुमसे ही मिलने आया हूं. अंदर नहीं बुलाओगी”, निशांत की साफगोई पर ईशा मन ही मन मोहित हो उठी. ऊपर से चेहरे पर तटस्थ भाव लिए उसने निशांत को अंदर आने का इशारा किया और स्वयं सोफे पर बैठ गई.

निशांत ठीक उसके सामने बैठ गया, “अरे यार, तुम्हारे यहां घर आए मेहमान को चाय-कॉफी पूछने का रिवाज नहीं है क्या?”

“मैंने सोचा ऑफिस के टाइम पर यहां आए हो तो ज़रूर कोई खास बात होगी. पहले वही सुन लूं”, ईशा ने अपने बालों में उँगलियाँ घुमाते हुए कहा. निशांत के साथ ईशा का बातों में नहले पर दहला मारना दोनों को पसंद आने लगा. आँखों ही आँखों के इशारे और जुबानी जुगलबाजी उनकी छेड़खानी में नए रंग भरते.

“खास बात नहीं, खास तो तुम हो. सोचा मयूर तो यहां है नहीं, तुम्हारा हालचाल पूछता चलूं”, निशांत के चेहरे पर लंपटपने के भाव उभरने लगे.

“मैं अपने घर में हूं. मुझे भला किस बात की परेशानी?”, ईशा ने दो-टूक बात की. वो देखना चाह रही थी कि निशांत कहाँ तक जाता है.

“ईशा, तुम शायद मुझे गलत समझती हो इसीलिए मुझसे यूं कटी-कटी रहती हो. क्या मैं तुम्हें हैंडसम नहीं लगता?”, संभवतः निशांत को अपने सुंदर रंग रूप का आभास भली प्रकार था.

“ऐसी कोई बात नहीं. असल में, निशांत, तुम मयूर के दोस्त हो, मेरे नहीं.”

“यह कैसी बात कह दी तुमने? दोस्ती करने में कितनी देर लगती है… फ्रेंड्स?”, कहते हुए निशांत ने अपना हाथ आगे बढ़ाया तो प्रतिउत्तर में ईशा ने अदा से अपना हाथ निशांत के हाथ में दे दिया. “ये हुई न बात”, कह निशांत पुलकित हो उठा.

फिर कॉफी पीकर, कुछ देर बैठकर निशांत लौट गया. आज पहली मुलाक़ात में इतना पर्याप्त था – दोनों ने अपने मन में यही सोचा. निशांत को आगे बढ्ने में कोई संकोच नहीं था किन्तु वो ईशा के दिल के अंदर की बात नहीं जनता था. इतनी जल्दी वो कोई खतरा उठाने के मूड में नहीं था. कहीं ईशा उसपर कोई आरोप लगा दे तो उसकी क्या इज्ज़त रह जाएगी समाज में! उधर ईशा विवाहिता होने के कारण हर कदम फूँक-फूँक कर रखने के पक्ष में थी. वैसे भी निशांत, मयूर का मित्र है. उसकी अनुपस्थिति में आया है. कहीं ऐसा न हो कि इसे मयूर ने ही भेजा हो… ईशा के मन में कई प्रकार के विचार आ रहे थे. दुर्घटना से देर भली!

मयूर के लौटने पर ईशा ने उसे निशांत के आने की बात स्वयं ही बता दी. मयूर को ज़रा-सा अटपटा लगा, “अच्छा! मेरी गैरहाजरी में क्यूँ आया?” उसकी प्रतिक्रिया से ईशा आश्वस्त हो गयी कि निशांत के आने में मयूर का कोई हाथ नहीं. फिर उसने स्वयं ही बात संभाल ली, “मैं खुश हुई निशांत के आने से. कम से कम तुम्हारे यहाँ ना होने पर इस नए शहर में मेरी खैर-खबर लेने वाला कोई तो है.” ईशा की बात से मयूर शांत हो गया. “निशांत सच में तुम्हारा एक अच्छा मित्र है”, ईशा ने बात की इति कर दी.

अब ईशा के फोन पर निशांत के कॉल अक्सर आने लगे. सावधानी बरतते हुए उसने नंबर याद कर लिया पर अपने फोन में सेव नहीं किया. ऐसे में कभी उसका फोन मयूर के हाथ लग भी जाए तो बात खुलने का कोई डर नहीं.

किन्तु ऐसे संबंध मन की चपलता को जितनी हवा देते हैं, मन के अंदर छुपी शांति को उतना ही छेड़ बैठते हैं. एक दिन मयूर के फोन पर निशांत का कॉल आया. मयूर बाथरूम में था. ईशा ने देखा कि निशांत का कॉल है तो उसका दिल फोन उठाने का कर गया. “मयूर, तुम्हारे लिए निशांत का कॉल है. कहो तो उठा लूँ?”, ईशा ने बाथरूम के बाहर से पुकारा.

“रहने दो, मैं बाहर आकर कर लूँगा”, मयूर से इस उत्तर की अपेक्षा नहीं थी ईशा को.

दिल के हाथों मजबूर उसने फोन उठा लिया. “हेलो”, बड़े नज़ाकत भरे अंदाज़ में उसने कहा तो निशांत भी मचल उठा, “पता होता कि फोन पर आपकी मधुर आवाज़ सुनने को मिल जाएगी तो ज़रा तैयार होकर बैठता.” निशांत ने फ़्लर्ट करना शुरू कर दिया.

ईशा मुस्कुरा उठी. वो कुछ कहती उससे पहले मयूर पीछे से आ गया, “किससे बात कर रही हो?”

“बताया तो था कि निशांत का कॉल है.”

“मैंने तुम्हें फोन उठाने के लिए मना किया था. मैं बाद में कॉल कर लेता. खैर, अब लाओ मुझे दो फोन”, मयूर के तल्खी-भरी स्वर ने ईशा को डगमगा दिया. उसने सोचा नहीं था कि मयूर उससे इस सुर में बात करेगा.

“क्या मयूर को निशांत और मुझ पर शंका होने लगी है? क्या मयूर ने कभी निशांत का कोई मेसेज पढ़ लिया मेरे फोन पर? पर मैं तो सभी डिलीट कर देती हूँ. कहीं गलती से कभी कोई छूट तो नहीं गया…”, ईशा के मन में अनगिनत खयाल कौंधने लगे. निशांत से रंगरलियों में ईशा को जितना आनंद आने लगा उतना ही मयूर के सामने आने पर बात बिगड़ जाने का डर सताने लगा. जैसे उस दिन जब ईशा और निशांत एक कैफ़े में मिले थे तब कैसे ईशा ने निशांत को एक भी पिक नहीं खींचने दी थी. ये चोरी पकड़े जाने का डर नहीं तो और क्या था!

अगले दिन निशांत की ज़िद पर ईशा फिर उससे मिलने चल दी. सोचा “आज निशांत से मिलना भी हो जाएगा और रिटेल थेरेपी का आनंद भी ले लूँगी”, तैयार होकर ईशा शहर के चुनिंदा मॉल पहुँची. जब तक निशांत पहुँचता, उसने थोड़ी विंडो शॉपिंग करनी शुरू की कि किसी ने उसका बाया कंधा थपथपाया. पीछे मुड़ी तो सागरिका को सामने देख जड़ हो गई.

“अरे, क्या हुआ, पहचानना भी भूल गई क्या? ऐसा तो नहीं होना चाहिए शादी के बाद कि अपनी प्यारी सहेली को ही भुला बैठे”, सागरिका बोल उठी. वह वहां खड़ी खिलखिलाने लगी लेकिन ईशा उसे अचानक सामने पा थोड़ी हतप्रभ रह गई. फिर दोनों बचपन की पक्की सहेलियां गले मिलीं और एक कॉफी शॉप में बैठकर गप्पे लगाने लगीं. अपनी शादीशुदा जिंदगी के थोड़े बहुत किस्से सुनाकर ईशा, सागरिका से उसका हाल पूछने लगी.

“क्या बताऊं, ईशु, हेमंत मेरी जिंदगी में क्या आया बहार आ गई. उस जैसा जीवनसाथी शायद ही किसी को मिले. मेरी इतनी प्रशंसा करता है, हर समय साथ रहना चाहता है. आज भी मुझे लेने आने वाला है. तुम भी मिल लेना”, सागरिका ने बताया.

“नहीं-नहीं सागू, मुझे लेट हो जाएगा. मुझे निकलना होगा”, ईशा, हेमंत की शक्ल नहीं देखना चाहती थी. वह तुरंत वहाँ से घर के लिए निकल गई. रास्ते में निशांत को फोन करके अचानक तबीयत बिगड़ जाने का बहाना बना दिया. रास्ते भर ईशा विगत की गलियों से गुजरते हुए अपने कॉलेज के दिनों में पहुँच गई जब बहनों से भी सगी सखियों सागरिका और ईशा के सामने हेमंत एक छैल छबीले लड़के के रूप में आया था. ऊंची कद काठी, एथलेटिक बॉडी, बास्केटबॉल चैंपियन और पूरे कॉलेज का दिल मोह लेने वाला. ईशा की दोस्ती जल्दी ही हेमंत से हो गई क्योंकि ईशा को स्वयं भी बास्केटबॉल में रुचि थी. वह हेमंत से बास्केटबॉल खेलने के पैंतरे सीखने लगी. फिर सागरिका के कहने पर निकट आते वैलेंटाइंस डे पर ईशा ने हेमंत से अपने दिल की बात कहने की ठानी. किंतु वैलेंटाइंस डे से पहले रोज डे पर हेमंत ने सागरिका को लाल गुलाब देकर अचानक प्रपोज कर दिया. ईशा के साथ-साथ सागरिका भी हक्की बक्की रह गई. कुछ कहते ना बना. बाद में अकेले में ईशा ने अपने दिल को समझा लिया कि हेमंत की तरफ से कभी कोई संदेश नहीं आया था और ना ही उसने कभी उससे कुछ ऐसा कहा था. वो दोनों सिर्फ अच्छे दोस्त थे.

मगर वह जवानी ही क्या जो रास्ता ना भटके. जवानी में हमारे हारमोंस हमसे वह सब करवा जाते हैं जिसको बाद में स्वीकारना तक कठिन हो जाए. युवावस्था ऐसा काल है जिसमें केवल वर्तमान होता है, ना भूत, ना भविष्य. आज जो कदम हम उठा रहे हैं उसका कल हमें क्या भुगतान करना पड़ सकता है, यह सोचना जवानी का काम नहीं.

कॉलेज के आखिरी साल में एक दिन ईशा अपने हॉस्टल के कमरे से बाहर आ रही थी कि हेमंत वहाँ आ गया. उसने अचानक उसका हाथ पकड़ लिया, “ईशा, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं.”

“क्या हुआ?”, ईशा अचकचा गई.

“ईशा, मैंने तुम्हारी आंखों में अपने लिए कुछ पढ़ा है लेकिन अफसोस तुम मेरी आंखों में झांकने से चूक गईं.”

“यह कैसी बात कर रहे हो, हेमंत? तुम सागरिका के बॉयफ्रेंड हो.”

“क्या केवल एक दिन के लिए… आज के लिए तुम यह बात भूल नहीं सकती? क्या मैं तुम्हें क्यूट नहीं लगता? क्या तुम मुझे पसंद नहीं करती? अगर मैं झूठ बोल रहा हूं तो बेशक तुम फौरन इस कमरे से चली जाओ.”

ईशा का दिमाग यह कह रहा था कि यह सागरिका के साथ धोखा होगा परंतु उसका मन इस बात से हर्षित होने लगा कि जिस हेमंत को वह मन ही मन चाहती थी, वो भी उसे अपने समीप लाना चाहता है. आखिर दिल दिमाग पर हावी हो गया. उस दिन ईशा और हेमंत अपनी सीमाएं लाँघते हुए एक दूसरे की आगोश में समा गए. जवानी का उबाल दूध की तरह उफनने लगा. दोनों ने सारी हदें पार कर दीं.

जब यह तूफान शांत हुआ तब ईशा का ध्यान सागरिका की ओर गया. अपने दिल की बात सुनकर क्षणिक सुख की खातिर ईशा ने हेमंत के साथ जो किया उसके कारण अब उसका मन ग्लानि से भरने लगा. अपनी सबसे प्यारी सखी को धोखा देकर वह बहुत पछताने लगी. उस घटना के पश्चात जब कभी ईशा, सागरिका के सामने आती, उसे धोखा देने का घाव एक बार फिर हरा हो जाता. इससे बचने हेतु ईशा, सागरिका से नजरें चुराती, उससे ना मिलने के बहाने खोजती फिरती. अपने बचपन की सहेली को यूँ खो बैठने का दुख ईशा को बहुत सताता किन्तु सागरिका की आँखों में देखकर बात करने की हिम्मत अब ईशा खो चुकी थी. यहाँ तक कि अंतिम वर्ष की परीक्षाओं के पश्चात उसने माता पिता के सुझाए रिश्ते के लिए फौरन हामी भर दी. ईशा का विवाह हो गया और वह अपनी नई दुनिया में खो गई.

आज सागरिका को पुनः मिलने के कारण ईशा के सामने सारा अतीत फिर से तनकर खड़ा हो गया. उस समय ईशा किसी से जुड़ी नहीं थी. उसके जीवन में किसी के प्रति कोई जवाबदेही नहीं थी. हेमंत ने भी यही कहकर उसके मन में उठ रहे संदेह को दबा दिया था, “तुम किसी प्रकार की ग्लानि क्यों ओढ़ती हो? आखिर तुम तो किसी से कमिटेड नहीं हो. यदि किसी को आपत्ति होनी चाहिए तो वह मैं या सागरिका हैं. मुझे कोई परेशानी नहीं, और सागरिका को इस बात की भनक भी नहीं पड़ने दूंगा.” हेमंत उसके अंदर चल रहे द्वंद को कुचलने में सफल रहा था. परंतु आज स्थिति विलग है.

चाहने, ना चाहने की ये लकीर चाकू की धार से भी ज्यादा पेनी होती है. कुछ कट जाने का डर होता है. ईशा वही गलती दोहराना नहीं चाहती थी. सागरिका उसकी सहेली थी इसलिए वो उससे दूरी बना पायी, किन्तु यदि मयूर को उसपर शक हो गया या उसे निशांत से उसके चोरी-छुपे मिलने-जुलने के बारे में पता चल गया तो क्या वह अपने चंचल मन की खातिर अपनी बसी-बसाई गृहस्थी तोड़ सकेगी? क्या वह इतनी बड़ी कीमत चुकाने को तैयार है?

घर लौटते हुए ईशा का सिर दर्द से फटने लगा. विचारों के अनगिनत घोड़े उसके दिलो-दिमाग को रौंदने लगे.  घर पहुँचकर ईशा ने माथे पर बाम लगाया और बिस्तर पर ढेर हो गई. शाम घिर आई थी. छुटपुट अंधेरा होने लगा. किंतु ईशा का मन आज घर की बत्तियां जलाने का भी नहीं हुआ. यूं ही बैठे-बैठे वह बाहर के वातावरण से मेल खाते अपने हृदय के अंधेरों में भटकने लगी. क्या करे उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था, “कितनी बड़ी बेवकूफ हूँ मैं जो अपने सुनहरे जीवन में खुद ही आग लगाने का काम कर बैठी.” उसका मन दो भागों में बट गया और दोनों ही पलड़े अपनी-अपनी ओर झुकने लगे. एक मन कहता कि जो हो गया सो हो गया. आगे नहीं होगा. इस अध्याय को यहीं समाप्त करो. दूसरा मन कहता कहीं निशांत ने मयूर को बता दिया तो उसकी गृहस्थी का क्या होगा! क्या जवाब देगी वो मयूर को! सिर पकड़कर बैठी ईशा, मयूर के घर लौटने से चेती.

“क्या हुआ? अंधेरे में क्यूँ बैठी हो?”, मयूर ने घर में प्रवेश करते ही पूछा.

“सिर में दर्द है इसलिए रोशनी में जाने की इच्छा नहीं की”, ईशा ने उदासीन सुर में उत्तर दिया.

मयूर ने ईशा के सिर को दबाया, खाना बनाया, फिर उसे दवाई देकर जल्दी सोने भेज दिया. “कितनी बड़ी गलती कर बैठी मैं जो इतना खयाल रखने वाले पति के होते हुए बाहर भटकने लगी. क्या प्यार करने वाले जीवनसाथी के बावजूद मुझे बाहर वालों की प्रशंसा की इतनी लालसा है कि उसके बदले मैं अपना बसा-बसाया जीवन बर्बाद कर दूँ? अपने पीछे चाहनेवालों की कतार की लौलुपता इतनी तीव्र हो गयी कि मैं अपना वर्तमान भुला बैठी. ये कितना बड़ा अनर्थ करने जा रही थी मैं!”, ईशा मानो निद्रा से जाग गयी. केवल बंद नयनों में ही नींद नहीं आती, कितनी बार वो जागृत अवस्था को भी शिथिल बनाने के योग्य होती है. किन्तु जब जागो तभी सवेरा. ईशा के मन-मस्तिष्क में छाया अब हर धुंधलका साफ हो गया.

ईशा एक सुखमय विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए अपने मन पर कोई अनावश्यक बोझ नहीं चाहती थी. उसने निशांत से अपने बढ़ रहे संबंधों की इति करने का निश्चय कर लिया. वैसे भी अभी देर नहीं हुई. उन दोनों के मध्य कोई ऐसा अध्याय नहीं खुला था जिसकी कीमत उसे अपना स्वर्णिम कल देकर चुकानी पड़े.

अब जब कभी निशांत ने ईशा के घर आना चाहा, या फिर उसे बाहर मिलने का न्यौता दिया, ईशा ने हर बार कोई न कोई बहाना बना दिया. हर बार वो अबाध गति से स्थिति से निकलने में सफल रही. किन्तु बारंबार ऐसा होने पर निशांत को संदेह होना स्वाभाविक था.

“मुझे ऐसा क्यों लग रहा है जैसे तुम मुझसे मिलना नहीं चाहती. कोई भूल हो गयी क्या मुझसे?”, उसे ईशा की उपेक्षा खलने लगी. वह ईशा की विमुखता का कारण जानना चाहता था.

“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. तुम तो जानते हो कि मैं एक विवाहिता स्त्री हूँ. घर-गृहस्थी के चक्करों में बेहद व्यस्त रहती हूँ”, ईशा गृहस्थ जीवन की व्यस्तता का बहाना देकर सभ्यतः बच गई. “मयूर के साथ आओ कभी घर पर, या फिर किसी संडे हम दोनों आते हैं तुम्हारे घर.”

निशांत एक शातिर लड़का था. ईशा के जवाबों और प्रतिक्रियाओं से उसे समझते देर न लगी कि अब इस इस गली में उसका प्रवेश निषेध है. आखिर ‘नो एंट्री’ के बोर्ड के आगे वो कितनी देर अपनी गाड़ी का हॉर्न बजाता रहता.

घमंडी: जब पति ने पत्नी पर लगाया चरित्रहीन होने का आरोप

‘‘यह चांद का टुकड़ा कहां से ले आई बहू?’’ दादी ने पोते को पहली बार गोद में ले कर कहा था,  ‘‘जरा तो मेरे बुढ़ापे का खयाल किया होता. इस के जैसी सुंदर बहू कहां ढूंढ़ती फिरूंगी.’’

कालेज तक पहुंचतेपहुंचते दादी के ये शब्द मधुप को हजारों बार सुनने के कारण याद हो गए थे और वह अपने को रूपरंग में अद्वितीय समझने लगा था. पापा का यह कहना कि सुंदर और स्मार्ट लगने से कुछ नहीं होगा, तुम्हें पढ़ाई, खेलकूद में भी होशियारी दिखानी होगी, भी काम कर गया था और अब वह एक तरह से आलराउंडर ही बन चुका था और अपने पर मर मिटने को तैयार लड़कियों में उसे कोईर् अपने लायक ही नहीं लगती थी. इस का फायदा यह हुआ कि वह इश्कविश्क के चक्कर से बच कर पढ़ाई करता रहा. इस का परिणाम अच्छा रहा और आईआईटी और आईआईएम की डिगरियां और बढि़या नौकरी आसानी से उस की झोली में आ गिरी. लेकिन असली मुसीबत अब शुरू हुई थी. शादी पारिवारिक, सामाजिक और शारीरिक जरूरत बन गई थी, लेकिन न खुद को और न ही घर वालों को कोई लड़की पसंद आ रही थी. अचानक एक शादी में मामा ने दूर से कशिश दिखाई तो मधुप उसे अपलक देखता रह गया. तराशे हुए नैननक्श सुबह की लालिमा लिए उजला रंग और लंबा कद. बचपन से पढ़ी परी कथा की नायिका जैसी.

‘‘पसंद है तो रिश्ते की बात चलाऊं?’’ मां ने पूछा. मधुप कहना तो चाहता था कि चलवानेवलवाने का चक्कर छोड़ कर खुद ही जा कर रिश्ता मांग लोे, लेकिन हेकड़ी से बोला,  ‘‘शोकेस में सजाने के लिए तो ठीक है, लेकिन मुझे तो बीवी चाहिए अपने मुकाबले की पढ़ीलिखी कैरियर गर्ल?’’

‘‘कशिश क्वालीफाइड है. एक मल्टीनैशनल कंपनी में सैक्रेटरी है. अब तुम उसे अपनी टक्कर के लगते हो या नहीं यह मैं नहीं कह सकता,’’ मामा ने मधुप की हेकड़ी से चिढ़ कर नहले पर दहला जड़ा.

खिसियाया मधुप इतना ही पूछ सका,  ‘‘आप यह सब कैसे जानते हैं?’’

‘‘अकसर मैं रविवार को इस के पापा के साथ गोल्फ खेल कर लंच लेता हूं. तभी परिवार के  बारे में बातचीत हो जाती है.’’

‘‘आप ने उन को मेरे बारे में बताया?’’

‘‘अभी तक तो नहीं, लेकिन वह यहीं है, चाहो तो मिलवा सकता हूं?’’

कहना तो चाहा कि पूछते क्यों हैं, जल्दी से मिलवाइए, पर हेकड़ी ने फिर सिर उठाया,  ‘‘ठीक है, मिल लेते हैं, लेकिन शादीब्याह की बात आप अभी नहीं करेंगे.’’

‘‘मैं तो कभी नहीं करूंगा, परस्पर परिचय करवा कर तटस्थ हो जाऊंगा,’’ कह कर मामा ने उसे डाक्टर धरणीधर से मिलवा दिया. जैसा उस ने सोचा था, धरणीधर ने तुरंत अपनी बेटी कशिश और पत्नी कामिनी से मिलवाया और मधुप ने उन्हें अपने मम्मीपापा से. परिचय करवाने वाले मामा शादी की भीड़ में न जाने कहां खो गए. किसी ने उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश भी नहीं की. चलने से पहले डा. धरणीधर ने उन लोगों को अगले सप्ताहांत डिनर पर बुलाया जिसे मधुप के परिवार ने सर्हष मान लिया. मधुप की बेसब्री तो इतनी बढ़ चुकी थी कि 3 रोज के बाद आने वाला सप्ताहांत भी बहुत दूर लग रहा था और धरणीधर के घर जा कर तो वह बेचैनी और भी बढ़ गई. कशिश को खाना बनाने, घर सजाने यानी जिंदगी की हर शै को जीने का शौक था. ‘‘इस का कहना है कि आप अपनी नौकरी या व्यवसाय में तभी तरक्की कर सकते हो जब आप उस से कमाए पैसे का भरपूर आनंद लो. यह आप को अपना काम बेहतर करने की ललक और प्रेरणा देता है,’’ धरणीधर ने बताया,  ‘‘अब तो मैं भी इस का यह तर्क मानने लग गया हूं.’’

उस के बाद सब कुछ बहुत जल्दी हो गया यानी सगाई, शादी. मधुप को मानना पड़ा कि कशिश बगैर किसी पूर्वाग्रह के जीने की कला जानती यानी जीवन की विभिन्न विधाओं में तालमेल बैठाना. न  तो उसे अपने औफिस की समस्याओं को ले कर कोई तनाव होता और न ही किसी घरेलू नौकर के बगैर बताए छुट्टी लेने पर यानी घर और औफिस सुचारु रूप से चला रही थी. मधुप को भी कभी आज नहीं, आज बहुत थक गई हूं कह कर नहीं टाला था.

समय पंख लगा कर उड़ रहा था. शादी की तीसरी सालगिरह पर सास और मां ने दादीनानी बनाने की फरमाइश की. कशिश भी कैरियर में उस मुकाम पर पहुंच चुकी थी जहां पर कुछ समय के लिए विराम ले सकती थी. मधुप को भी कोई एतराज नहीं था. सो दोनों ने स्वेच्छा से परिवार नियोजन को तिलांजलि दे दी. लेकिन जब साल भर तक कुछ नहीं हुआ तो कशिश ने मैडिकल परीक्षण करवाया. उस की फैलोपियन ट्यूब में कुछ विकार था, जो इलाज से ठीक हो सकता था. डा. धरणीधर शहर की जानीमानी स्त्रीरोग विशेषज्ञा डा. विशाखा से अपनी देखरेख में कशिश का उपचार करवाने लगे. प्रत्येक टैस्ट अपने सामने 2 प्रयोगशालाओं में करवाते थे.

उस रात कशिश और मधुप रात का खाना खाने ही वाले थे कि अचानक डा. धरणीधर और कामिनी आ गए. डा. धरणीधर मधुप को बांहों में भर कर बोले,  ‘‘साल भर पूरा होने से पहले ही मुझे नाना बनाओ. आज की रिपोर्ट के मुताबिक कशिश अब एकदम स्वस्थ है सो गैट सैट रैडी ऐंड गो मधुप. मगर अभी तो हमारे साथ चलो, कहीं जश्न मनाते हैं.’’

‘‘आज तो घर पर ही सैलिब्रेट कर लेते हैं पापा,’’ कशिश ने शरमाते हुए कहा, ‘‘बाहर किसी जानपहचान वाले ने वजह पूछ ली तो क्या कहेंगे?’’

‘‘वही जो सच है. मैं तो खुद ही आगे बढ़ कर सब को बताना चाह रहा हूं. मगर तुम कहती हो तो घर पर ही सही,’’ धरणीधर ने मधुप को छेड़ा, ‘‘नाना बनने वाला हूं, उस के स्तर की खातिर करो होने वाले पापाजी.’’

डा. धरणीधर देर रात आने वाले मेहमानों के आगमन की तैयारी की बातें करते रहे. कामिनी ने याद दिलाया कि घर चलना चाहिए, सुबह सब को काम पर जाना है, वे नाना बनने वाले हैं इस खुशी में कल छुट्टी नहीं है.

‘‘पापा, आप के साथ ड्राइवर नहीं है. आप अपनी गाड़ी यहीं छोड़ दें. सुबह ड्राइवर से मंगवा लीजिएगा. अभी आप को हम लोग घर पहुंचा देते हैं,’’ मधुप ने कहा.

‘‘तुम लोग तो अब बेटाजी, तुरंत आने वाले मेहमान को लाने की तैयारी में जुट जाओ. हमारी फिक्र मत करो. गाड़ी क्या आज तो मैं हवाईजहाज भी चला सकता हूं,’’ धरणीधर जोश से बोले.

उसी जोश में तेज गाड़ी भगाते हुए उन्होंने सड़क के किनारे खड़े ट्रक को इतनी जोर से टक्कर मार दी कि गाड़ी में तुरंत आग लग गई, जिस के बुझने पर राख में सिर्फ अस्थिपंजर और लोहे के भाग मिले. शेष सब कुछ पल भर में ही भस्म हो गया. कशिश तो इस हादसे से जैसे विक्षप्त ही हो गई थी. अकेली संतान होने के कारण समझ ही नहीं पा रही थी कि कैसे खुद को संभाले और कैसे मम्मीपापा द्वारा छोड़ी गई अपार संपत्ति को. मधुप उस के अथाह दुख को समझ रहा था और यथासंभव उस की सहायता भी कर रहा था, लेकिन कशिश को शायद उस दुख के साथ जीने में ही मजा आ रहा था. औफिस तो जाती थी, लेकिन मधुप और घर की ओर से प्राय: उदासीन हो चली थी. मधुप का संयम टूटने लगा था. एक रोज कशिश ने बताया कि उस ने वकील से पापा की संपत्ति का समाजसेवा संस्था के लिए ट्रस्ट बनाने को कहा था मगर उन का कहना है कि फिलहाल कोठी को किराए पर चढ़ा दो और पैसे को फिक्स्ड डिपौजिट में डालती रहो. कुछ वर्षों के बाद जब पापा के नातीनातिन बड़े हो जाएं तो उन्हें फैसला करने देना कि वे उस संपत्ति का क्या करना चाहते हैं.

‘‘बिलकुल ठीक कहते हैं वकील साहब. मम्मीपापा जीवित रहते तो यही करते और तुम्हें भी वही करना चाहिए जो मम्मीपापा की अंतिम इच्छा थी,’’ मधुप ने कहा.

‘‘अंतिम इच्छा क्या थी?’’

‘‘अपने नातीनातिन को जल्दी से दुनिया में बुलवाने की. हमें उन की यह इच्छा जल्दी से जल्दी पूरी करनी चाहिए,’’ मधुप ने मौका लपका और कशिश को अपनी बांहों में भर लिया.

कशिश कसमसा कर उस की बांहों से निकल गई. फिर बोली,  ‘‘मम्मीपापा के घर से निकलते ही तुम रात भर उन की यह इच्छा तो पूरी करने में लगे रहे थे और इसलिए बारबार बजने पर भी फोन नहीं उठाया था…’’

‘‘फोन उठा कर भी क्या होता कशिश?’’ मधुप ने बात काटी, ‘‘फोन तो सब

कुछ खत्म होने के बाद ही आया था.’’

‘‘हां, सब कुछ ही तो खत्म हो गया,’’ कशिश ने आह भर कर कहा.

‘‘कुछ खत्म नहीं हुआ कशिश, हम हैं न मम्मीपापा के सपने जीवित रखने को,’’ कह कर मधुप ने उसे फिर बांहों में भर लिया.

‘‘प्लीज मधुप, अभी मैं शोक में हूं.’’

‘‘कब तक शोक में रहोगी? तुम्हारे इस तरह से शोक में रहने से मम्मीपापा लौट आएंगे?’’

कशिश ने मायूसी से सिर हिलाया. फिर बोली, ‘‘मगर मुझे सिवा उन की याद में रहने के और कुछ भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘मगर मुझे ब्रह्मचारी बन कर रहना अच्छा नहीं लग रहा. अपनी पुरानी जिंदगी के साथ ही मुझे अब बच्चा भी चाहिए, मधुप ने आजिजी से कहा.’’ ‘‘कहा न, मैं अभी उस मनोस्थिति में नहीं हूं.’’ ‘‘मनोस्थिति बनाना अपने हाथ में होता है कशिश. मैं अब बच्चे के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना चाहता. औलाद सही उम्र में होनी चाहिए ताकि अपनी सेवानिवृत्ति से पहले आप अपने बच्चों को जीवन में व्यवस्थित कर सकें,’’ मधुप ने समझाने के स्वर में कहा.

‘‘उफ, तो आप भी सोचने लगे हैं और वह भी बहुत दूर की,’’ कशिश व्यंग्य से बोली. मधुप तिलमिला गया. कशिश समझती क्या है अपने को? बजाय इस के कि उस के संयम और सहयोग की सराहना करे, कशिश उस का मजाक उड़ा रही है. बहुत हो गया, अब कशिश को उस की औकात बतानी ही पड़ेगी.

‘‘बेहतर रहेगा तुम भी ऐसा ही सोचने लगो,’’ मधुप ने भी उसी अंदाज में कहा.

‘‘अगर न सोचूं तो?’’ ‘‘तो मुझे मजबूरन तुम्हें तलाक दे कर औलाद के लिए दूसरी शादी करनी होगी. बहुत इंतजार कर लिया, अब मैं और मेरे मातापिता बच्चे के लिए और इंतजार नहीं कर सकते.’’

कशिश फिर व्यंग्य से हंस पड़ी, ‘‘यही वजह तलाक के लिए काफी नहीं होगी.’’ ‘‘जानता हूं और उंगली टेढ़ी करनी भी. तुम्हें चरित्रहीन साबित कर के आसानी से तलाक ले सकता हूं. फर्जी गवाह या फोटो तो 1 हजार मिलते हैं.’’ ‘‘तुम्हें तो उन की तलाश भी नहीं करनी पड़ेगी… मेरी तरक्की से जलेभुने बहुत लोग हैं, तुम जो चाहोगे उस से भी ज्यादा मुफ्त में कह देंगे,’’ कशिश के कहने के ढंग से मधुप भी हंस पड़ा.

तलाक की बात कशिश को बुरी तो बहुत लगी थी, लेकिन इस समय वह बात को बढ़ा कर एक और समस्या खड़ी नहीं करना चाहती थी सो उस ने बड़ी सफाईर् से बात बदल दी, ‘‘फोटो के जिक्र पर याद आया मधुप, आज के अखबार में तुम ने सुशील का फोटो देखा?’’

‘‘हां और उसे पेज थ्री पर आने के लिए बधाई भी दे दी,’’ मधुप हंसा, ‘‘कब से हाथपैर मार रहा था इस के लिए.’’ बात आईगई हो गई. 3-4 रोज के बाद कशिश अपनी अलमारी में कुछ ढूंढ़ रही थी कि सैनेटरी नैपकिन के पैकेट पर नजर पड़ते ही वह चौंक पड़ी. 2 महीने से ज्यादा हो गए, उस ने उन का इस्तेमाल ही नहीं किया. इस की वजह अवसाद भी हो सकती है. मगर क्या पता खुशी दरवाजे पर दस्तक दे रही हो? उस ने तुरंत डा. विशाखा को फोन किया. कुछ काम निबटा कर वह डा. विशाखा के पास जाने को निकल ही रही थी कि कुरियर से जानेमाने वकील अर्देशीर द्वारा भिजवाया गया मधुप का तलाक का नोटिस मिला. कशिश का सिर घूम गया.

वह कुछ देर कुछ सोचती रही फिर मुसकरा कर बाहर आ गई. डा. विशाखा उस की जांच करने के बाद मोबाइल नंबर मिलाने लगीं, ‘‘बधाई हो मधुप, कशिश को 10 सप्ताह का गर्भ है. तुम तुरंत मेरे नर्सिंगहोम में पहुंचो, मैं तुम दोनों को एकसाथ कुछ सलाह दूंगी,’’ कह विशाखा कशिश की ओर मुड़ी, ‘‘अब तक सब ठीक रहा है, तो आगे भी ठीक रहेगा वाला रवैया नहीं चलेगा. तुम्हें अपना बहुत खयाल रखना होगा, जो तुम तो रखने से रहीं इसलिए मधुप को यह जिम्मेदारी सौपूंगी.’’

कशिश मुसकरा दी. उस मुसकराहट में छिपा विद्रूप और व्यंग्य डा. विशाखा ने नहीं देखा. मधुप से खुशी समेटे नहीं सिमट रही थी. बोला, ‘‘आप फिक्र मत करिए डा. विशाखा. मैं साए की तरह कशिश के साथ रहूंगा, लंबी छुट्टी ले लूंगा काम से.’’

‘‘मगर मैं तो जब तक जा सकती हूं, काम पर जाऊंगी,’’ कशिश ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘घर में बेकार बैठ कर बोर होने का असर मेरी सेहत पर पड़ेगा.’’

‘‘वह तो है, जरूर काम पर जाओ मगर निश्चित समय पर खाओपीओ और आराम करो,’’ कह कर विशाखा ने दोनों को क्या करना है क्या नहीं यह बताया.

‘‘हम दोनों लंच के लिए घर आया करेंगे, फिर आराम करने के बाद कुछ देर के बाद जरूरी हुआ तो औफिस जाएंगे, फिर रात के खाने के बाद नियमित टहलने. इस में तुम कोईर् फेरबदल नहीं कारोगी,’’ मधुप ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘करूंगी तो तुम मुझे तलाक दे दोगे?’’ कशिश के स्वर में व्यंग्य था.

‘‘उस का तो अब सवाल ही नहीं उठता, तुम्हारे 7 या 70 खून भी माफ,’’ मधुप हंसा. मगर उस के स्वर में क्षमायाचना या पश्चात्ताप नहीं था. समझ तो गया कि कशिश को तलाक के कागज मिल गए हैं और यह कह कर कि अब उस का सवाल ही नहीं उठता, उस ने बात भी खत्म कर दी थी व कशिश को उस की गुस्ताखी और औकात की याद भी दिला दी थी. यों तो उसे वकील से भी संपर्क करना चाहिए था पर इस से अहं को ठेस लगती. कशिश से जवाब न मिलने पर जब वकील उस से अगले कदम के बारे में पूछेगा तो कह देगा कशिश ने भूल सुधार ली है.

मधुप को कशिश के औफिस जाने पर तो एतराज नहीं था, लेकिन जबतब मम्मीपापा के घर जा कर कशिश का उदास होना उसे पसंद नहीं था. घर की देखभाल के लिए जाना भी जरूरी था, नौकरों के भरोसे तो छोड़ा नहीं जा सकता था. मधुप ने कशिश को समझाया कि क्यों न पापा के क्लीनिक संभालने वाले विधुर डा. सुधीर से कोठी में ही रहने को कहें. सुन कर कशिश फड़क उठी जैसे किसी बहुत बड़ी समस्या का हल मिल गया हो. उस के बाद कशिश पूर्णतया सहज और तनावमुक्त हो गई.

‘‘आज मैं औफिस नहीं जाऊंगी, घर पर रह कर छोटेमोटे काम करूंगी जैसे कपड़ों की अलमारी में आने वाले महीनों में जो नहीं पहनने हैं उन्हें सहेज कर रखना और जो ढीले हो सकते हैं उन्हें अलग रखना वगैरह,’’ एक रोज कशिश ने बड़े सहज भाव से कहा, ‘‘फिक्र मत करो, थकाने वाला काम नहीं है और फिर घर पर ही हूं. थकान होगी तो आराम कर लूंगी.’’

मधुप आश्वस्त हो कर औफिस चला गया. जब वह लंच के लिए घर आया तो कशिश घर पर नहीं थी. नौकर ने बताया कि कुछ देर पहले गाड़ी में सामान से भरे हुए कुछ बैग और सूटकेस ले कर मैडम बाहर गई हैं.

‘‘यह नहीं बताया कि कब आएंगी या कहां गई हैं?’’

‘‘नहीं साहब.’’

जाहिर था कि सामान ले कर कशिश अपने पापा के घर ही गई होगी. मधुप ने फोन करने के बजाय वहां जाना बेहतर समझा. ड्राइव वे में कशिश की गाड़ी खड़ी थी. उस की गाड़ी को देखते ही बजाय दरवाजा खेलने के चौकीदार ने रुखाई से कहा, ‘‘बिटिया ने कहा है आप को अंदर नहीं आने दें.’’

तभी अंदर से डा. सुधीर आ गया. बोला, ‘‘कशिश से अब आप का संपर्क केवल अपने वकील द्वारा ही होगा सो आइंदा यहां मत आइएगा.’’

‘‘कैसे नहीं आऊंगा… कशिश मेरी बीवी है…’’

‘‘वही बीवी जिसे आप ने बदचलनी के आरोप में तलाक का नोटिस भिजवाया है?’’ सुधीर ने व्यंग्य से बात काटी, ‘‘आप अपने वकील से कशिश की प्रतिक्रिया की प्रति ले लीजिए.’’

मधुप का सिर भन्ना गया. बोला, ‘‘मुझे कशिश को नोटिस भेजने की वजह बतानी है.’’

‘‘जो भी बताना है वकील के द्वारा बताइए. कशिश से तो आप की मुलाकात अब कोर्ट में ही होगी,’’ कह कर सुधीर चला गया. ‘‘आप भी जाइए साहब, हमें हाथ उठाने को मजबूर मत करिए,’’ चौकीदार ने बेबसी से कहा. मधुप भिनभिनाता हुआ अर्देशीर के औफिस पहुंचा.

‘‘आप की पत्नी भी बगैर किसी शर्त के आप को तुरंत तलाक देने को तैयार है सो पहली सुनवाई में ही फैसला हो जाएगा. हम जितनी जल्दी हो सकेगा तारीख लेने की कोशिश करेंगे,’’ अर्देशीर ने उसे देखते ही कहा.

‘‘मगर मुझे तलाक नहीं चाहिए. मैं अपने आरोप और केस वापस लेना चाहता हूं. आप तुरंत इस आशय का नोटिस कशिश के वकील को भेज दीजिए,’’ मधुप ने उतावली से कहा. अर्देशीर ने आश्चर्य और फिर दया मिश्रित भाव से उस की ओर देखा.

‘‘ऐसे मामलों को वकीलों द्वारा नहीं आपसी बातचीत द्वारा सुलझाना बेहतर होता है.’’

‘‘चाहता तो मैं भी यही हूं,

लेकिन कशिश मुझ से मिलने को ही तैयार नहीं है. आप तुरंत उस के वकील को केस और आरोप वापस लेने का नोटिस भिजवा दें.’’

‘‘इस से मामला बहुत बिगड़ जाएगा. कशिश की वकील सोनाली उलटे आप पर अपने क्लाइंट को बिन वजह परेशान करने और मानसिक संत्रास देने का आरोप लगा देगी.’’

‘‘कशिश की वकील सोनाली?’’

‘‘जी हां, आप उन्हें जानते हैं?’’

‘‘हां. कशिश की बहुत अच्छी सहेली है.’’‘‘तो आप उन से मिल कर समझौता कर लीजिए. वैसे भी हमारे लिए तो अब इस केस में करने के लिए कुछ रहा ही नहीं है,’’ अर्देशीर ने रुखाई से कहा.

मधुप तुंरत सोनाली के घर गया. उस की आशा के विपरीत सोनाली उस से बहुत अच्छी तरह मिली. ‘‘मैं बताना चाहता हूं कि मैं ने वह नोटिस कशिश को महज झटका देने को भिजवाया था. उसे अपनी गलती का एहसास करवाने को. उस के गर्भवती होने की खबर मिलते ही मैं ने उस से कहा भी था कि अब तलाक का सवाल ही नहीं उठता, तो बात को रफादफा करने के बजाय कशिश ने मामला आगे क्यों बढ़ाया सोनाली?’’

‘‘क्योंकि तुम ने उस के स्वाभिमान को ललकारा था मधुप या यह कहो उस पर अपनी मर्दानगी थोपनी चाही थी. यदि उसी समय तुम नोटिस भिजवाने के लिए माफी मांग लेते तो हो सकता था कि कशिश मान जाती. लेकिन तुम ने तो अपने वकील को भी नोटिस खारिज करने

को नहीं कहा, क्योंकि इस से तुम्हारा अहं आहत होता था. मानती हूं सर्वसाधारण से हट कर हो तुम, लेकिन कशिश भी तुम से 19 नहीं है शायद 21 ही होगी. फिर वह क्यों बनवाए स्वयं को डोरमैट, क्यों लहूलुहान करवाए अपना सम्मान?’’ सोनाली बोली.

‘‘मेरे चरित्रहीनता वाले मिथ्या आरोप को मान कर क्या वह स्वयं ही खुद पर कीचड़ नहीं उछाल रही?’’

‘‘नहीं मधुप, कशिश का मानना है कि विवाह एक पवित्र रिश्ता है, जो 2 प्यार करने वालोेंके बीच होना चाहिए. बगैर प्यार के शादी या एकतरफा प्यार में पतिपत्नी की तरह रहना लिव इन रिलेशनशिप से भी ज्यादा अनैतिक है, क्योंकि लिव इन में प्यार को परखने का प्रयास तो होता है, लेकिन एकतरफा प्यार अभिसार नहीं व्याभिचार है सो अनैतिक कहलाएगा और अनैतिक रिश्ते में रहने वाली स्त्री चरित्रहीन…’’

‘‘मगर कशिश का एकतरफा प्यार कैसे हो गया? वह अच्छी तरह जानती है कि मैं उसे कितनी शिद्दत से प्यार करता हूं,’’ मधुप ने बात काटी. ‘‘कशिश का कहना है कि तुम सिर्फ खुद से और खुद की उपलब्धियों से प्यार करते हो. कशिश जैसी ‘ब्रेन विद ब्यूटी’ कहलाने वाली बीवी भी एक उपलब्धि ही तो थी तुम्हारे लिए… अगर तुम्हें उस से वाकई में प्यार होता तो तुम उस के लिए चरित्रहीन जैसा घिनौना शब्द इस्तेमाल ही नहीं करते.’’

‘‘वह तो मैं ने कशिश के उकसाने पर ही किया था. खैर, अब बोलो आगे क्या करना है या तुम क्या कर सकती हो?’’

‘‘बगैर तुम्हारे आरोप की धज्जियां उड़ाए या तुम्हारे वकील को कशिश के चरित्र पर कीचड़ उछालने का मौका दिए, आपसी समझौते से तलाक दिलवा सकती हूं.’’

‘‘मगर मैं तलाक नहीं चाहता सोनाली.’’ ‘‘कशिश चाहती है और मैं कशिश की वकील हूं,’’ सोनाली ने सपाट स्वर में कहा, ‘‘वही करूंगी जो वह चाहती है.’’

‘‘तो तलाक करवा दो, मगर इस शर्त पर कि मुझे अपने बच्चे को देखने का हक होगा.’’

‘‘चरित्रहीन का आरोप लगाने के बाद तुम किस मुंह से यह शर्त रख सकते हो मधुप?’’ बच्चे के लिए यह तलाक हो जाने के बाद या तो तुम दूसरी शादी कर लेना या अपनी उपलब्धियों अथवा घमंड को पालते रहना बच्चे की तरह,’’ कह कर सोनाली व्यंग्य से हंस पड़ी.

‘‘सलाह के लिए शुक्रिया,’’ घमंडी मधुप इतना ही कह सका. पर उसे लग रहा था कि उस के पैरों में अभी जंजीरें पड़ी हैं. चांद का टुकड़ा तो वह था पर चांद का जिस पर न कोई जीवन है, न हवा, न पानी, बस उबड़खाबड़ गड्ढे हैं.

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