Latest Hindi Stories : वजूद – क्या छिपा रही थी शहला

Latest Hindi Stories : ‘‘शहला… अरी ओ शहला… सुन रही है न तू? जा, जल्दी से तैयार हो कर अपने कालेज जा,’’ आंगन में पोंछा लगाती अम्मी ने कहा, तो रसोईघर में चाय बनाती शहला को एकबारगी अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ.

हैरान सी शहला ने नजर उठा कर इधरउधर देखा. अम्मी उस से ही यह सब कह रही थीं.

शहला इतना ही कह पाई, ‘‘अम्मी, वह चाय…’’

‘‘मैं देख लूंगी. तू कालेज जा.’’

फिर क्या था, शहला को मानो पर लग गए थे. अगले 10 मिनट में वह तैयार हो कर किताबें संभाल अपनी साइकिल साफ कर के चलने को हुई, तो अम्मी ने आवाज लगाई, ‘‘रोटी सेंक दी है तेरे लिए. झटपट चाय के साथ खा ले, नहीं तो भूखी रहेगी दिनभर.’’

अम्मी में आए इस अचानक बदलाव से हैरान शहला बोल उठी, ‘‘अरे अम्मी, रहने दो न. मैं आ कर खा लूंगी. कालेज को देर हो जाएगी.’’

हालांकि शहला का पेट अम्मी द्वारा दी गई खुशी से लबालब था, फिर भी ‘अच्छाअच्छा, खा लेती हूं’ कह कर उस ने बात को खत्म किया.

शहला अम्मी को जरा सा भी नाराज नहीं करना चाहती थी, इसलिए जल्दी से नाश्ता किया, बीचबीच में वह चोर निगाहों से अम्मी के चेहरे की तरफ देखती रही, फिर उस ने नजरें इधरउधर घुमा कर अपनी खुशी बांटने के लिए अब्बू को तलाशा. इस उम्मीद में कि शायद वे खेत से लौट आए हों, पर भीतर से वह जानती थी कि उन के लौटने में अभी देरी है.

सो, नफीसा के सिर पर हाथ फेर कर जावेद को स्कूल के लिए तैयार होने की कह कर मन ही मन अब्बू को सलाम कर के शहला ने अपनी साइकिल आंगन से बाहर निकाल ली. बैग कैरियर में लगाने के बाद वह ज्यों ही साइकिल पर सवार हुई, तो लगा मानो आज उस की साइकिल को पर लग गए हों.

चाय की इक्कादुक्का दुकानों को छोड़ कर शहर के बाजार अभी बंद ही थे. तेजी से रास्ता पार कर शहला अपने कालेज जा पहुंची.

चौकीदार राजबीर काका के बच्चे स्कूल जाने को तैयार खड़े थे. उन्होंने उसे नमस्ते किया और उस ने राजबीर काका को. स्टैंड पर साइकिल खड़ी कर के वह तकरीबन दौड़ती हुई पीछे मैदान में उस के पास जा पहुंची.

एक पल ठिठक कर उसे देखा और लिपट गई उस से. अब तक ओस की ठिठुरन से सिकुडा सा खड़ा वह अचानक उस की देह की छुअन, लिपटी बांहों की गरमी पा कर खुशी में झरने लगा था और उस को सिर से पैर तक भर दिया नारंगी डंडी वाले दूधिया फूलों से.

शहला कहने लगी, ‘‘बस बाबा, बस, अब बंद करो ये शबनम भीगे फूलों को बरसाना और जल्दी से मेरी बात सुनो,’’ वह उतावली हो रही थी.

शहला के गांव का स्कूल 12वीं जमात तक ही था. उस की जिगरी सहेलियों विद्या और मीनाक्षी को उन की जिद पर उन के मातापिता शहर के कालेज में भेजने को राजी हो गए, लेकिन शहला के लाख कहने पर भी उसे आगे पढ़ने की इजाजत नहीं मिली.

इस बात से शहला बहुत दुखी थी. उस की अम्मी की जिद के आगे किसी की न चली और उसे अपनी पक्की सहेलियों से बिछुड़ जाना पड़ा. यहां कुछ लड़कियों से उस की दोस्ती हो गई थी, पर विद्या और मीनाक्षी से जो दिल का रिश्ता था, वह किसी से न बन पाया, इसलिए वह खाली समय में अपने दिल की बात कहनेबांटने के लिए कालेज के बड़े से बगीचे के इस हरसिंगार के पेड़ के पास चली आती.

यह हरसिंगार भी तो रोज फूल बरसा कर उस का स्वागत करता, सब्र के साथ उस की बात सुनता, उसे मुसकराने की प्रेरणा दे कर उस को हौसला देता.

पर आज की बात ही कुछ और है, इसलिए शहला हरसिंगार के तने से पीठ टिका कर बैठी और कहने लगी, ‘‘आज अम्मी ने मुझे खुद कालेज आने के लिए कहा. उन्होंने मन लगा कर पढ़ने को कहा. अव्वल रहने को कहा और आगे ऊंची पढ़ाई करने को भी कहा.

‘‘मालूम है, उन अम्मी ने, उन्होंने… हरसिंगार तू जानता है न मेरी पुराने खयालात वाली अम्मी को. इसी तंगखयाली के मारे उन्होंने मुझे 12वीं के आगे पढ़ाने से मना कर दिया था. उन पर तो बस मेरे निकाह का भूत सवार था. दिनरात, सुबहशाम वे अब्बू को मेरे निकाह के लिए परेशान करती रहतीं.

‘‘इसी तरह अब्बू से दिनरात कहसुन कर उन्होंने कुछ दूर के एक गांव में मेरा रिश्ता तय करवा दिया था. लड़के वालों को तो और भी ज्यादा जल्दी थी. सो, निकाह की तारीख ही तय कर दी.

‘‘अच्छा, क्या कह रहा है तू कि मैं ने विरोध क्यों नहीं किया? अरे, किया…   अब्बू ने मेरी छोटी उम्र और पढ़ाई की अहमियत का वास्ता दिया, पर अम्मी ने किसी की न सुनी.

‘‘असल में मेरी छोटी बहन नफीसा  बहुत ही खूबसूरत है, पर कुदरत ने उस के साथ बहुत नाइंसाफी की. उस की आंखों का नूर छीन लिया.

‘‘3-4 साल पहले सीढ़ी से गिर कर उस के सिर पर चोट लग गई थी. इसी चोट की वजह से उस की आंखों की रोशनी चली गई थी. उस से छोटा मेरा भाई जावेद…

‘‘इसलिए… अब तू ही कह, जब अम्मी की जिद के आगे अब्बू की नहीं चली, तो मेरी मरजी क्या चलती?

‘‘हरसिंगार, तब तक तुम से भी तो मुलाकात नहीं हुई थी. यकीन मानो, बहुत अकेली पड़ गई थी मैं… इसलिए बेचारगी के उस आलम में मैं भी निकाह के लिए राजी हो गई.

‘‘पर तू जानता है हरसिंगार… मेरा निकाह भी एक बड़े ड्रामे या कहूं कि किसी हादसे से कम नहीं था…’’

हरसिंगार की तरफ देख कर शहला मुसकराते हुए आगे कहने लगी, ‘‘हुआ यों कि तय किए गए दिन बरात आई.

‘‘बरात को मसजिद के नजदीक के जनवासे में ठहराया गया था और वहीं सब रस्में होती रहीं. फिर काजी साहब ने निकाह भी पढ़वा दिया.

‘‘सबकुछ शांत ढंग से हो रहा था कि अम्मी की मुरादनगर वाली बहन यानी मेरी नसीम खाला रास्ते में जाम लगा होने की वजह से निकाह पढ़े जाने के थोड़ी देर बाद घर पहुंचीं.

‘‘बड़ी दबंग औरत हैं वे. जल्दबाजी में तय किए गए निकाह की वजह से वे अम्मी से नाराज थीं…’’ कहते हुए शहला ने हरसिंगार के तने पर अपनी पीठ को फिर से टिका लिया और आगे बोली, ‘‘इसलिए बिना ज्यादा किसी से बात किए वे दूल्हे को देखनेमिलने की मंसा से जनवासे में चली गईं. उस वक्त बराती खानेपीने में मसरूफ थे. उन्हें खाला की मौजूदगी का एहसास न हो पाया.

‘‘वे जनवासे से लौटीं और अचानक अम्मी पर बरस पड़ीं, ‘आपा, शहला का दूल्हा तो लंगड़ा है. तुम्हें ऐसी भी क्या जल्दी पड़ रही थी कि अपनी शहला के लिए तुम ने टूटाफूटा लड़का ढूंढ़ा?’

‘‘यह जान कर अम्मी, अब्बू और बाकी रिश्तेदार सब सकते में आ गए. मामले की तुरंत जांचपड़ताल से पता चला कि दूल्हा बदल दिया गया था.

‘‘लड़के वालों ने अब्बू के भोलेपन का फायदा उठा कर चालाकी से असली दूल्हे की जगह उस के बड़े भाई से मेरा निकाहनामा पढ़वा दिया था.

‘‘बात खुलते ही बिचौलिया और कुछ बराती दूल्हे को ले कर मौके से फरार हो गए.

‘‘हमारे खानदान व गांव के लोग इस धोखाधड़ी के चलते बहुत गुस्से में थे. सो, गांव की पंचायत व दूसरे लोगों के साथ मिल कर उन्होंने बाकी बरातियों को जनवासे के कमरे में बंद कर दिया.

‘‘अब मरता क्या न करता वाली बात होने पर दूल्हे के गांव की पंचायत और कुछ लोग बंधक बरातियों को छुड़ाने पहुंच गए. दोनों गांवों की पंचायतों और बुजुर्गों ने आपस में बात की. लड़के वाले किसी भी तरह से निकाह को परवान चढ़ाए रखना चाहते थे.

‘‘वे कहने लगे, ‘विकलांग का निकाह कराना कोई जुर्म तो नहीं, जो तुम इतना होहल्ला कर रहे हो. वैसे भी अब तो निकाह हो चुका है. बेहतर यही है कि तुम लड़की की रुखसती कर दो.

‘‘‘तुम लड़की वाले हो और लड़कियां तो सीने का पत्थर हुआ करती हैं. अब तुम ने तो लड़की का निकाह पढ़वा दिया है न. छोटे भाई से नहीं, तो बड़े से सही. क्या फर्क पड़ता है. तुम समझो कि तुम्हारे सिर से तो लड़की का बोझ उतर ही गया.’

‘‘सच कहूं, उस समय मुझे एहसास हुआ कि हम लड़कियां कितनी कमजोर होती हैं. हमारा कोई वजूद ही नहीं है. तभी अब्बू की भर्राई सी आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘मेरी बेटी कोई अल्लाह मियां की गाय नहीं, जो किसी भी खूंटे से बांध दी जाए और न ही वह मेरे ऊपर बोझ है. वह मेरी औलाद है, मेरा खून है. उस का सुख मेरी जिम्मेदारी है, न कि बोझ… अगर वह लड़की है, तो उसे ऐसे ही कैसे मैं किसी के भी हवाले कर दूं.’

‘‘और कुछ देर बाद हौसला कर के उन्होंने पंचायत से तलाकनामा के लिए दरख्वास्त करते हुए कहा, ‘जनाब, यह ठीक है कि विकलांग होना या उस का निकाह कराना कोई जुर्म नहीं, पर दूसरों को अंधेरे में रख कर या दूल्हा बदल कर ऐसा करना तो दगाबाजी हुई न?

‘‘‘मैं दगाबाजी का शिकार हो कर अपनी पढ़ीलिखी, सलीकेदार, जहीन लड़की को इस जाहिल, बेरोजगार और विकलांग के हाथ सौंप दूं, क्या यही पंचायत का इंसाफ है?’

‘‘यकीन मानो, मुझे उस दिन पता चला कि मैं कोई बोझ नहीं, बल्कि जीतीजागती इनसान हूं. उस दिन मेरी नजर में अब्बू की इज्जत कई गुना बढ़ गई थी, क्योंकि उन्होंने मेरी खातिर पूरे समाज, पंचायत से खिलाफत करने की ठान ली थी.

‘‘लेकिन, पुरानी रस्मों को एक झटके से तोड़ कर मनचाहा बदलाव ले आना, चाहे वह समाज के भले के लिए ही क्यों न हो, इतना आसान तो नहीं. चारों तरफ खुसुरफुसुर शुरू हो गई थी… दोनों गांवों के लोग और पंचायत अभी भी सुलह कर के निकाह बरकरार रखने की सिफारिश कर रहे थे.

‘‘अब्बू उस समय बेहद अकेले पड़ गए थे. उस बेबसी के आलम में हथियार डालते हुए उन्होंने गुजारिश की, ‘ठीक है जनाब, पंच परमेश्वर होते हैं. मैं ने अपनी बात आप के आगे रखी, फिर भी अगर मेरी बच्ची की खुशियां लूट कर और उसे हलाल करने का गुनाह मुझ से करा कर शरीअत की आन और आप लोगों की आबरू बचती है, तो मैं निकाह को बरकरार रखते हुए अपनी बच्ची की रुखसती कर दूंगा, लेकिन मेरी भी एक शर्त है.

‘‘‘बात यह है कि शहला की छोटी बहन नफीसा बहुत ही खूबसूरत है और जहीन भी, लेकिन एक हादसे में उस की नजर जाती रही. बस, यही एक कमी है उस में.

‘‘‘आप के कहे मुताबिक जब बेटियों को हम बोझ ही समझते हैं और आप सब मेरे खैरख्वाह एक बोझ को उतारने में मेरी इतनी मदद कर रहे हैं. मुझे तो अपने दूसरे बोझ से भी नजात पानी है और फिर किसी शारीरिक कमी वाले शख्स का निकाह कराना कोई गुनाह भी नहीं, तो क्यों न आप नफीसा का निकाह इस लड़के के छोटे भाई यानी जिसे हम ने अपनी शहला के लिए पसंद किया था, उस से करा दें? हिसाबकिताब बराबर हो जाएगा और दोनों बहनें एकसाथ एकदूसरे के सहारे अपनी जिंदगी भी गुजार लेंगी.’

‘‘बस, फिर क्या था, हमारे गांव की पंचायत व बाकी लोग एक आवाज में अब्बू की बात की हामी भरने लगे, पर दूल्हे वालों को जैसे सांप सूंघ गया.

‘‘हां, उस के बाद जो कुछ भी हुआ, मेरे लिए बेमानी था. मैं उस दिन जान पाई कि मेरा भी कोई वजूद है और मैं भेड़बकरी की तरह कट कर समाज की थाली में परोसे जाने वाली चीज नहीं हूं.

‘‘मेरे अब्बू अपनी बेटी के हक के लिए इस कदर लड़ाई लड़ सकते हैं, मैं सोच भी नहीं सकती थी. फिर तो… दूल्हे वालों ने मुझे तलाक देने में ही अपनी भलाई समझी. मैं तो वैसे भी इस निकाह के हक में नहीं थी, बल्कि आगे पढ़ना चाहती थी.

‘‘हां, उस के बाद कुछ दिन तक घर में चुप्पी का माहौल रहा, फिर परेशानी के आलम में अम्मी अब्बू से कहने लगीं, ‘जावेद के अब्बू, तुम्हीं कहो कि अब इस लड़की का क्या होगा. क्या यह बोझ सारी उम्र यों ही हमारे गले में बंधा रहेगा?’

‘‘हरसिंगार, तू जानना चाहता है कि अब्बू ने अम्मी से क्या कहा?’’ अब्बू बोले, ‘नुसरत, बेटियां बोझ नहीं हुआ करतीं. वे तो घर की रौनक होती हैं. बोझ होतीं तो कोई हमारे घर के बोझ को यों मांग कर के अपने घर ले जाता. बेटियां तो एक छोड़ 2-2 घर आबाद करती हैं. अब मत कोसना इन्हें.

‘‘‘कल मैं शहर के अस्पताल में नफीसा की आंखों के आपरेशन के लिए बात करने गया था. वहां आधे से ज्यादा तो लेडी डाक्टर थीं और वे भी 25-26 साल की लड़कियां. उन में से 2 तो मुसलिम हैं, डाक्टर जेबा और डाक्टर शबाना. क्या वे किसी की लड़कियां नहीं हैं?

‘‘‘हां, डाक्टर ने उम्मीद दिलाई है कि हमारी नफीसा फिर से देख सकेगी. और हां, तू इन के निकाह की चिंता मत कर. सब ठीक हो जाएगा.

‘‘‘अरे हां नुसरत, तब तक क्यों न शहला को आगे पढ़ने दें? कोई हुनर हाथ में होगा, तो समाजबिरादरी में सिर उठा कर जी सकेगी हमारी शहला.

‘‘‘अब जमाना बदल चुका है. तू भी लड़कियों के लिए अपनी तंगखयाली छोड़ उन के बारे में कुछ बढि़या सोच…’

‘‘और हरसिंगार, अब्बू ने जमाने की ऊंचनीच समझा कर, मेरी भलाई का वास्ता दे कर अम्मी को मना तो लिया, पर मुझे बड़े शहर भेज कर पढ़ाने को वे बिलकुल राजी नहीं हुईं, इसलिए अब्बू ने उन की रजामंदी से यहां कसबे के इस आईटीआई में कटिंगटेलरिंग और ड्रैस डिजाइनिंग कोर्स में मेरा दाखिला भी करा दिया.

‘‘अब मैं हर रोज साइकिल से यहां पढ़ने आने लगी. यहां नए लोग, नया माहौल, नया इल्म तो मिला ही, उस के साथसाथ हरदम व हर मौसम में खिलखिलाने वाले एक प्यारे दोस्त के रूप में तुम भी मिल गए और मेरी जिंदगी के माने ही बदल गए.

‘‘पर अम्मी अभी भी अंदर से घबराई हुईं और परेशान रहती हैं. जबतब मुझे कोसती रहती हैं, ताने मारती हैं और छोटेबड़े काम के लिए मुझे छुट्टी करने पर मजबूर करती हैं.

‘‘इसी बीच पिछले हफ्ते शहर के एक बड़े अस्पताल में अब्बू ने नफीसा की आंखों का आपरेशन करा दिया. उस दिन अम्मी भी हमारे साथ अस्पताल गई थीं और आपरेशन थिएटर के बाहर खड़ी थीं.

‘‘तभी आपरेशन थिएटर का दरवाजा खुला और डाक्टर शबाना ने मुसकराते हुए कहा, ‘आंटीजी, मुबारक हो. आपरेशन बहुत मुश्किल था, इसलिए ज्यादा समय लग गया, पर पूरी तरह से कामयाब रहा.’

‘‘जानता है हरसिंगार, अम्मी हैरत में पड़ी उन्हें बहुत देर तक देखती रहीं, फिर उन से पूछने लगीं, ‘बेटी, यह आपरेशन तुम ने किया है क्या?’

‘‘वे बोलीं, ‘जी हां.’

‘‘अम्मी ने कहा, ‘कुछ नहीं बेटी, मैं तो बस…’

‘‘उस के बाद अम्मी जितना वक्त अस्पताल में रहीं, वहां की लेडी डाक्टरों और नर्सों को एकटक काम करते देखती रहती थीं.

‘‘उस दिन से अम्मी काफी चुपचाप सी रहने लगी थीं. कल नफीसा के घर लौटने के बाद अब्बू से कहने लगीं, ‘शहला के अब्बू, सुनो…’

‘‘अब्बू ने अम्मी से पूछ ही लिया, ‘नुसरत, आज कुछ खास हो गया क्या, जो तुम मुझे जावेद के अब्बू की जगह शहला के अब्बू कह कर बुलाने लगी?’

‘‘अम्मी ने कहा, ‘अरे, तुम ही तो कहते हो कि लड़का और लड़की में कोई फर्क नहीं होता और फिर तुम शहला के बाप न हो क्या?’

‘‘वे आगे कहने लगीं, ‘मैं तो यह कह रही थी कि नफीसा की आंख ठीक हो जाए, तो उसे भी दोबारा स्कूल पढ़ने भेज देंगे. पढ़लिख कर वह भी डाक्टर बन जाए, तो कैसा रहेगा?’

‘‘यह सुन कर अब्बू ने कहा, ‘अब तुम कह रही हो, तो ठीक ही रहेगा.’

‘‘इतना कह कर अब्बू मेरी तरफ देख कर मुसकराने लगे थे और आज सुबह अम्मी ने मेरे कालेज जाने पर मुहर लगा दी.’’

खुशी में सराबोर शहला खड़ी हो कर फिर से लिपट गई अपने दोस्त से और आसमान की तरफ देख कर कहने लगी, ‘‘देखो न हरसिंगार, आज की सुबह कितनी खुशनुमा है… बेदाग… एकदम सफेद… है न?

‘‘आज तुझ से सब कह कर मैं हलकी हो गई हूं. निकाह के वाकिए को तो मैं एक बुरा सपना समझ कर भूल चुकी हूं. याद है तो मुझे अपनी पहचान, जिस से रूबरू होने के बाद अब जिंदगी मुझे बोझ नहीं, बल्कि एक सुरीला गीत लगती है,’’ कहतेकहते शहला की आंखों में जुगनू झिलमिलाने लगे.

Hindi Stories Online : ममता – क्या थी गायत्री और उसकी बेटी प्रिया की कहानी

Hindi Stories Online : दालान से गायत्री ने अपनी बेटी की चीख सुनी और फिर तेजी से पेपर वेट के गिरने की आवाज आई तो उन के कान खड़े हो गए. उन की बेटी प्रिया और नातिन रानी में जोरों की तूतू, मैंमैं हो रही थी. कहां 10 साल की बच्ची रानी और कहां 35 साल की प्रिया, दोनों का कोई जोड़ नहीं था. एक अनुभवों की खान थी और दूसरी नादानी का भंडार, पर ऐसे तनी हुई थीं दोनों जैसे एकदूसरे की प्रतिद्वंद्वी हों.

‘‘आखिर तू मेरी बात नहीं सुनेगी.’’

‘‘नहीं, मैं 2 चोटियां करूंगी.’’

‘‘क्यों? तुझे इस बात की समझ है कि तेरे चेहरे पर 2 चोटियां फबेंगी या 1 चोटी.’’

‘‘फिर भी मैं ने कह दिया तो कह दिया,’’ रानी ने अपना अंतिम फैसला सुना डाला और इसी के साथ चांटों की आवाज सुनाई दी थी गायत्री को.

रात गहरा गई थी. गायत्री सोने की कोशिश कर रही थीं. यह सोते समय चोटी बांधने का मसला क्यों? जरूर दिन की चोटियां रानी ने खोल दी होंगी. वह दौड़ कर दालान में पहुंचीं तो देखा कि प्रिया के बाल बिखरे हुए थे. साड़ी का आंचल जमीन पर लोट रहा था. एक चप्पल उस ने अपने हाथ में उठा रखी थी. बेटी का यह रूप देख कर गायत्री को जोरों की हंसी आ गई. मां की हंसी से चिढ़ कर प्रिया ने चप्पल नीचे पटक दी. रानी डर कर गायत्री के पीछे जा छिपी.

‘‘पता नहीं मैं ने किस करमजली को जन्म दिया है. हाय, जन्म देते समय मर क्यों नहीं गई,’’ प्रिया ने माथे पर हाथ मार कर रोना शुरू कर दिया.

अब गायत्री के लिए हंसना मुश्किल हो गया. हंसी रोक कर उन्होंने झिड़की दी, ‘‘क्या बेकार की बातें करती है. क्या तेरा मरना देखने के लिए ही मैं जिंदा हूं. बंद कर यह बकवास.’’

‘‘अपनी नातिन को तो कुछ कहती नहीं हो, मुझे ही दोषी ठहराती हो,’’ रोना बंद कर के प्रिया ने कहा और रानी को खा जाने वाली आंखों से घूरने लगी.

‘‘क्या कहूं इसे? अभी तो इस के खेलनेखाने के दिन हैं.’’

इस बीच गायत्री के पीछे छिपी रानी, प्रिया को मुंह चिढ़ाती रही.

प्रिया की नजर उस पर पड़ी तो क्रोध में चिल्ला कर बोली, ‘‘देख लो, इस कलमुंही को, मेरी नकल उतार रही है.’’

गायत्री ने इस बार चौंक कर देखा कि प्रिया अपनी बेटी की मां न लग कर उस की दुश्मन लग रही थी. अब उन के लिए जरूरी था कि वह नातिन को मारें और प्रिया को भी कस कर फटकारें. उन्होंने रानी का कान ऐंठ कर उसे साथ के कमरे में धकेल दिया और ऊंची आवाज में बोलीं, ‘‘प्रिया, रानी के लिए तू ऐसा अनापशनाप मत बका कर.’’

प्रिया गायत्री की बड़ी लड़की है और रानी, प्रिया की एकलौती बेटी. गरमियों में हर बार प्रिया अपनी बेटी को ले कर मां के सूने घर को गुलजार करने आ जाती है.

गायत्री ने अपने 8 बच्चों को पाला है. उन की लड़कियां भी कुछ उसी प्रकार बड़ी हुईं जिस तरह आज रानी बड़ी हो रही है. बातबात पर तनना, ऐंठना और चुप्पी साध कर बैठ जाना जैसी आदतें 8-10 वर्ष की उम्र से लड़कियों में शुरू होने लगती हैं. खेलने से मना करो तो बेटियां झल्लाने लगती हैं. पढ़ने के लिए कहो तो काटने दौड़ती हैं. घर का थोड़ा काम करने को कहो तो भी परेशानी और किसी बात के लिए मना करो तो भी.

प्रिया के साथ जो पहली घटना घटी थी वह गायत्री को अब तक याद है. उन्होंने पहली बार प्रिया को देर तक खेलते रहने के लिए चपत लगाई थी तो वह भी हाथ उठा कर तन कर खड़ी हो गई थी. गायत्री बेटी का वह रूप देख कर अवाक् रह गई थीं.

प्रिया को दंड देने के मकसद से घर से बाहर निकाला तो वह 2 घंटे का समय कभी तितलियों के पीछे भागभाग कर तो कभी आकाश में उड़ते हवाई जहाज की ओर मुंह कर ‘पापा, पापा’ की आवाज लगा कर बिताती रही थी पर उस ने एक बार भी यह नहीं कहा कि मां, दरवाजा खोल दो, मैं ऐसी गलती दोबारा नहीं करूंगी.

घड़ी की छोटी सूई जब 6 को भी पार करने लगी तब गायत्री स्वयं ही दरवाजा खोल कर प्रिया को अंदर ले आई थीं और उसे समझाते हुए कहा था, ‘ढीठ, एक बार भी तू यह नहीं कह सकती थी कि मां, दरवाजा खोल दो.’

प्रिया ने आंखें मिला कर गुस्से से भर कर कहा था, ‘मैं क्यों बोलूं? मेरी कितनी बेइज्जती की तुम ने.’

अपने नन्हे व्यक्तित्व के अपमान से प्रिया का गला भर आया था. गायत्री हैरान रह गई थीं. उस दिन के बाद से प्रिया का व्यवहार ही जैसे बदल सा गया था.

ऐसी ही एक दूसरी घटना गायत्री को नहीं भूलती जब वह सिरदर्द से बेजार हो कर प्रिया से बोली थीं, ‘बेटा, तू ये प्लेटें धो लेना, मैं डाक्टर के पास जा रही हूं.’

प्रिया मां की गोद में बिट्टो को देख कर ही समझ गई थी कि बाजार जाने का उस का पत्ता काट दिया गया है.

गायत्री बाजार से घर लौट कर आईं तो देखा कि प्रिया नदारद है और प्लेट, पतीला सब उसी तरह पड़े हुए थे. गायत्री की पूरी देह में आग लग गई पर बेटी से उलझने का साहस उन में न हुआ था. क्योंकि पिछली घटना अभी गायत्री भूली नहीं थीं. गोद के बच्चे को पलंग पर बैठा कर क्रोध से दांत किटकिटाते हुए उन्होंने बरतन धोए थे. चूल्हा जला कर खाना बनाने बैठ गई थीं.

इसी बीच प्रिया लौट आई थी. गायत्री ने सभी बच्चों को खाना परोस कर प्रिया से कहा था, ‘तुझे घंटे भर बाद खाना मिलेगा, यही सजा है तेरी.’

प्रिया का चेहरा फक पड़ गया था. मगर वह शांत रह कर थोड़ी देर प्रतीक्षा करती रही थी. उधर गायत्री अपने निर्णय पर अटल रहते हुए 1 घंटे बाद प्रिया को बुलाने पहुंचीं तो उस ने देखा कि वह दरी पर लुढ़की हुई थी.

गायत्री ने उसे उठ कर रसोई में चलने को कहा तो प्रिया शांत स्वर में बोली थी, ‘मैं न खाऊंगी, अम्मां, मुझे भूख नहीं है.’

गायत्री ने बेटी को प्यार से घुड़का था, ‘चल, चल खा और सो जा.’

प्रिया ने एक कौर भी न तोड़ा. गायत्री के पैरों तले जमीन खिसक गई थी. इस के बाद उन्होंने बहुत मनाया, डांटा, झिड़का पर प्रिया ने खाने की ओर देखा भी नहीं था. थक कर गायत्री भी अपने बिस्तर पर जा बैठी थीं. उस रात खाना उन से भी न खाया गया था.

दूसरे दिन प्रिया ने जब तक खाना नहीं खाया गायत्री का कलेजा धकधक करता रहा था.

उस दिन की घटना के बाद गायत्री ने फिर खाने से संबंधित कोई सजा प्रिया को नहीं दी थी. प्रिया कई बार देख चुकी थी कि गायत्री उस की बेहद चिंता करती थीं और उस के लिए पलकें बिछाए रहती थीं. फिर भी वह मां से अड़ जाती थी, उस की कोई बात नहीं मानती थी. इतना ही नहीं कई बार तो वह भाईबहन के युद्ध में अपनी मां गायत्री पर ताना कसने से भी बाज नहीं आती, ‘हां…हां…अम्मां, तुम भैया की ओर से क्यों न बोलोगी. आखिर पूरी उम्र जो उन्हीं के साथ तुम्हें रहना है.’

गायत्री ने कई घरों के ऐसे ही किस्से सुन रखे थे कि मांबेटियों में इस बात पर तनातनी रहती है कि मां सदा बेटों का पक्ष लेती हैं. वह इस बात से अपनी बेटियों को बचाए रखना चाहती थीं पर प्रिया को मां की हर बात में जैसे पक्षपात की बू आती थी.

ऐसे ही तानों और लड़ाइयों के बीच प्रिया जवानी में कदम रखते ही बदल गई थी. अब वह मां का हित चाहने वाली सब से प्यारी सहेली हो गई थी. जिस बात से मां को ठेस लग सकती हो, प्रिया उसे छेड़ती भी नहीं थी. मां को परेशान देख झट उन के काम में हाथ बंटाने के लिए आ जाती थी. मां के बदन में दर्द होता तो उपचार करती. यहां तक कि कोई छोटी बहन मां से अकड़ती, ऐंठती तो वही प्रिया उसे समझाती कि ऐसा न करो.

बेटों के व्यवहार से मां गायत्री परेशान होतीं तो प्रिया उन की हिम्मत बढ़ाती. गायत्री उस के इस नए रूप को देख चकित हो उठी थीं और उन्हें लगने लगा था कि औरत की दुनिया में उस की सब से पक्की सहेली उस की बेटी ही होती है.

यही सब सोचतेविचारते जब गायत्री की नींद टूटी तो सूरज का तीखा प्रकाश खिड़की से हो कर उन के बिछौने पर पड़ रहा था. रात की बातें दिमाग से हट गई थीं. अब उन्हें बड़ा हलका महसूस हो रहा था. जल्दी ही वह खाने की तैयारी में जुट गईं.

आटा गूंधते हुए उन्होंने एक बार खिड़की से उचक कर प्रिया के कमरे में देखा तो उन के होंठों पर हंसी आ गई. प्रिया रानी के सिरहाने बैठी उस का माथा सहला रही थी. गायत्री को लगा वह प्रिया नहीं गायत्री है और रानी, रानी नहीं प्रिया है. कभी ऐसे ही तो ममता और उलझन के दिन उन्होंने भी काटे हैं.

गायत्री ने चाहा एक बार आवाज दे कर रानी को उठा ले फिर कुछ सोच कर वह कड़ाही में मठरियां तलने लगीं. उन्हें लगा, प्रिया उठ कर अब बाहर आ रही है. लगता है रानी भी उठ गई है क्योंकि उस की छलांग लगाने की आवाज उन के कानों से टकराई थी.

अचानक प्रिया के चीखने की आवाज आई, ‘‘मैं देख रही हूं तेरी कारस्तानी. तुझे कूट कर नहीं धर दिया तो कहना.’’

कितना कसैला था प्रिया का वाक्य. अभी थोड़ी देर पहले की ममता से कितना भिन्न पर गायत्री को इस वाक्य से घबराहट नहीं हुई. उन्होंने देखा रानी, प्रिया के हाथों मंजन लेने से बच रही है. एकाएक प्रिया ने गायत्री की ओर देखा तो थोड़ा झेंप गई.

‘‘देखती हो अम्मां,’’ प्रिया चिड़चिड़ा कर बोली, ‘‘कैसे लक्षण हैं इस के? कल थोड़ा सा डांट क्या दिया कि कंधे पर हाथ नहीं धरने दे रही है. रात मेरे साथ सोई भी नहीं. मुझ से ही नहीं बोलती है मेरी लड़की. तुम्हीं बोलो, क्या पैरों में गिर कर माफी मांगूं तभी बोलेगी यह,’’ कह कर प्रिया मुंह में आंचल दे कर फूटफूट कर रो पड़ी.

ऐंठी, तनी रानी का सारा बचपन उड़ गया. वह थोड़ा सहम कर प्रिया के हाथ से मंजनब्रश ले कर मुंह धोने चल दी.

गायत्री ने जा कर प्रिया के कंधे पर हाथ रखा और झिड़का, ‘‘यह क्या बचपना कर रही है. रानी आखिर है तो तेरी ही बच्ची.’’

‘‘हां, मेरी बच्ची है पर जाने किस जन्म का बैर निकालने के लिए मेरी कोख से पैदा हुई है,’’ प्रिया ने रोतेसुबकते कहा, ‘‘यह जैसेजैसे समझदार होती जा रही है, इस के रंगढंग बदलते जा रहे हैं.’’

‘‘तो चिंता क्यों करती है?’’ गायत्री ने फुसफुसा कर बेहद ममता से कहा, ‘‘थोड़ा धीरज से काम ले, आज की सूखे डंडे सी तनी यह लड़की कल कच्चे बांस सी नरम, कोमल हो जाएगी. कभी इस उम्र में तू ने भी यह सब किया था और मैं भी तेरी तरह रोती रहती थी पर देख, आज तू मेरे सुखदुख की सब से पक्की सहेली है. थोड़ा धैर्य रख प्रिया, रानी भी तेरी सहेली बनेगी एक दिन.’’

‘‘क्या?’’ प्रिया की आंखें फट गईं.

‘‘क्यों अम्मां, मैं ने भी कभी आप का इसी तरह दिल दुखाया था? कभी मैं भी ऐसे ही थी सच? ओह, कैसा लगता होगा तब अम्मां तुम्हें?’’

बेटी की आंखों में पश्चात्ताप के आंसू देख कर गायत्री की ममता छलक उठी और उन्होंने बेटी के आंसुओं को आंचल में समेट कर उसे गले से लगा लिया.

Hindi Fiction Stories : तुम्हारे अपनों के लिए – क्या श्रेया और सारंग के रिश्तों का तानाबाना उलझा रहा

Hindi Fiction Stories : दिल्ली से भोपाल तक का सफर  बहुत लंबा नहीं है, लेकिन भैया से मिलने की चाह में श्रेया को वह रात काफी लंबी लगी थी. ज्यादा खुशी और दुख दोनों में ही आंखों से नींद उड़ जाती है. बस, वही हाल दिल्ली से भोपाल आते हुए श्रेया का होता है. नींद उस की आंखों से कोसों दूर भाग जाती है. रातभर अपनी बर्थ पर करवटें बदलते हुए वह हर स्टेशन पर झांक कर देखती है.

‘भोपाल आ तो नहीं गया?’

‘अभी कितनी दूर है?’

जैसेतैसे सफर खत्म हुआ और टे्रन भोपाल पहुंची. खिड़की से ही उसे भैया दिख गए. वे फोन पर बातें कर रहे थे. ट्रेन रुकते ही भैया लपक कर डब्बे में उस की बर्थ ढूंढ़ते हुए आ गए. श्रेया बड़े भैया से लिपट गई. उस की आंखें भीग गईं. उस के बड़े भाई श्रेयस की आंखें भी छोटी बहन को देखते ही छलक गईं.

दोनों स्टेशन से बाहर निकले और कार में बैठ कर घर की ओर चल दिए. श्रेया भाई से बातें करने के साथ ही एकएक सड़क और आसपास की हर एक घरदुकान को बड़े कुतूहल से देख रही थी. वह अकसर ही भाई के यहां आती रहती थी. जहां बचपन गुजरा हो उस जगह का मोह सब चीजों से ऊपर ही होता है. जल्दी ही कार उन के पुश्तैनी मकान के आगे रुकी. श्रेया ने नजरभर घर को देखा और भैया के साथ अंदर चली गई.

रसोई से श्रेया के पसंदीदा व्यंजनों की खुशबू आ रही थी. कार की आवाज सुनते ही उस की भाभी स्नेहा लपक कर बाहर आई.

‘‘भाभी, कैसी हो?’’ श्रेया भाभी स्नेह के गले में बांहें डाल कर झूल गई.

‘‘इतनी बड़ी हो गई पर अभी तक बचपना नहीं गया,’’ स्नेहा ने प्यार से उस का गाल थपथपाते हुए कहा.

‘‘मैं कितनी भी बड़ी हो जाऊं मगर तुम्हारी तो बेटी ही रहूंगी न भाभी,’’ श्रेया ने लाड़ से कहा.

‘‘वह तो है. जा अपने कमरे में जा कर फ्रैश हो जा, मैं नाश्ता लगाती हूं,’’ स्नेहा बोली. श्रेया अपने कमरे में चली आई.

2 साल हो गए उस की शादी को लेकिन उस का कमरा आज भी बिलकुल वैसा का वैसा ही है. समय पर कमरे की सफाई हो जाती है. शादी के पहले की उस की जो भी चीजें, किताबें, सामान था सब ज्यों का त्यों करीने से रखा था. श्रेया का मन अपनी भाभी के लिए आदर से भर उठा. भैया उस से पूरे 10 साल बड़े थे. वह 12वीं में ही थी कि मां चल बसी. जल्दी ही पिताजी भी चले गए. भैयाभाभी ने ही उसे मांबाप का प्यार दिया और शादी की.

श्रेया बाहर आई तो टेबल पर नाश्ता लग चुका था. सारी चीजें उस की पसंद की बनी थीं, सूजी का हलवा, पनीर के पकौड़े व फ्रूट क्रीम नाश्ता करने के बाद तीनों बैठ कर बातें करने लगे.

दोपहर को श्रेया के दोनों भतीजे 7 साल का अंकुर और 4 साल का अंशु स्कूल से लौटे, तो बूआ को देख कर वे खुशी से उछल गए. श्रेया दोनों को साथ ले कर अपने कमरे में चली गई और उन के लिए लाई चीजें उन्हें दिखाने लगी.

रात को दोनों भतीजे श्रेया के साथ ही सोते थे. स्नेहा जब अपने काम निबटा कर कमरे में आई तो उस ने देखा कि श्रेयस तकिये से पीठ टिकाए बैठे हैं.

‘‘क्या बात है, किस चिंता में डूबे हुए हैं इतना?’’ स्नेहा ने पास बैठते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं, बस, श्रेया के लिए ही परेशान हूं. उस का बारबार इस तरह यहां चले आना, ऐसा बचपना ठीक नहीं है,’’ श्रेयस ने चिंता जाहिर की.

‘‘अभी छोटी है, समझ जाएगी,’’ स्नेहा ने दिलासा दिया.

‘‘स्नेहा, अब इतनी छोटी भी नहीं रही वह. सारंग भी आखिर कब तक सहन करेगा. तुम समझाओ न उसे. तुम्हारे तो बहुत नजदीक है वह.’’

‘‘हां, नजदीक तो है लेकिन उस के साथ जो समस्या है उस विषय पर मेरा उस के साथ बात करना ठीक नहीं रहेगा. कुछ रिश्ते बहुत नाजुक डोर से बंधे होते हैं. इस बारे में तो आप ही उस से बात करना,’’ स्नेहा ने श्रेयस को समझाते हुए कहा.

‘‘शायद तुम ठीक कहती हो, मैं ही मौका देख कर बात करता हूं उस से,’’ श्रेयस ने कहा.

आंख बंद कर के वह पलंग पर लेट गया, लेकिन नींद तो आंखों से कोसों दूर थी. 2 साल हो गए श्रेया और सारंग की शादी को. सारंग बहुत अच्छा और समझदार लड़का है. श्रेया को प्यार भी बहुत करता है. दोनों ही एकदूसरे के साथ बहुत खुश थे. परंतु अपने वैवाहिक जीवन में श्रेया ने खुद ही समस्या खड़ी कर ली.

सारंग दिल्ली में एक मल्टीनैशनल कंपनी में उच्चपद पर आसीन है. उस के मातापिता उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर में रहते हैं. सारंग पढ़ाई में बहुत तेज था. वह दिल्ली में रह कर पढ़ा और वहीं जौब भी लग गई. भले ही उस का उठनाबैठना दिल्ली के उच्चवर्ग के साथ है, मगर वह खुद जमीन से जुड़ा हुआ है.

श्रेया अपने जीवन में बस, सारंग का साथ चाहती है. उसे सारंग की फैमिली, मातापिता, बहनजीजा सब बैकवर्ड लगते हैं. वह न तो उन लोगों का अपने घर आनाजाना पसंद करती है और न ही सारंग का वहां जाना उसे पसंद है. दीवाली पर भी श्रेया खुद तो अपनी ससुराल जाती नहीं है और सारंग को भी जाने नहीं देती. हर त्योहार वह चाहती है कि सारंग भोपाल आ कर मनाए. राखी व भाईदूज पर भी सारंग सालभर से घर नहीं जा पाया है. इस वजह से वह अंदर ही अंदर घुटता रहता है.

अब तो उस के घर वालों को भी श्रेया का स्वभाव समझ आ गया है इसलिए वे भी खुद उस से कटेकटे रहने लगे हैं. लेकिन सारंग बेचारा तो 2 पाटों के बीच पिस रहा है. वह श्रेया से भी बहुत प्यार करता है और अपने घर वालों से भी. उस के घर वाले इतने भले लोग हैं कि उन्होंने सारंग से यही कहा कि उन की चिंता वह न करे, बस, श्रेया को खुश रखे.

लेकिन श्रेया है कि खुश नहीं है. तब भी उसे यही लगता है कि सारंग उस से ज्यादा अपने घर वालों की परवा करता है. श्रेया से तो उसे प्यार है ही नहीं. सारंग के प्रति श्रेया यही सोच पाले बैठी है. मगर उसे यह समझ नहीं आता कि घर वालों से अलग रह कर सारंग गुमसुम सा क्यों न रहेगा. बस, उसे यही शिकायत है कि वह तो सारंग के लिए सबकुछ करती है, तब भी सारंग खुश नहीं है और वह उस की जरा भी कद्र नहीं करता.

आजकल श्रेया इसी दुख में जबतब भोपाल आ जाती है. श्रेयस को बहन का घर आना बुरा नहीं लगता, लेकिन वह अपने घर को उपेक्षित कर के और सारंग के प्रति मन में गांठ बांध कर आती है, वह ठीक नहीं है.

सारंग के आगे श्रेयस खुद को अपराधी महसूस करता है, क्योंकि उस की बहन की वजह से वह अपने मांबाप से दूर हो रहा है.

दूसरे दिन औफिस से आ कर जब  श्रेयस चाय पी चुका तो स्नेहा ने  उसे इशारा किया कि दोनों बच्चों को पार्क में ले जाने के बहाने एकांत में बैठ कर वह श्रेया से बात करे. श्रेयस दोनों बच्चों और श्रेया के साथ पार्क में चला आया. दोनों बच्चे आते ही दूसरे बच्चों के साथ खेलने और झूला झूलने में मगन हो गए. श्रेयस और श्रेया पास ही एक बैंच पर बैठ कर दोनों को देखने लगे.

‘‘सारंग से कुछ बात हुई? कैसा है वह?’’ श्रेयस ने बात शुरू की.

‘‘नहीं, कोई बात नहीं, कोई फोन नहीं. उसे मेरी फिक्र होती तो मुझे बारबार यहां भाग कर आने का मन क्यों होता.’’ श्रेया उदास हो गई.

‘‘ये भी तुम्हारा ही घर है. जब चाहो, जितनी भी बार चाहो, आ जाओ. लेकिन सारंग को तुम्हारी फिक्र नहीं है, ऐसी गलतफहमी मन में मत पालो, श्रेया.’’

‘‘तो आप ही बताइए, मुझे यहां आए 2 दिन हो गए हैं, एक बार भी उस का फोन नहीं आया. उस ने यह तक नहीं पूछा कि मैं पहुंच गई या नहीं. अब मैं और क्या सोचूं.’’ श्रेया बोली.

‘‘तो क्या तुम ने भी उसे मैसेज डाला या फोन किया कि तुम पहुंच गई. तुम भी तो कर सकती थी. और यह मत सोचो कि उसे तुम्हारी फिक्र नहीं है. कल तुम्हारी ट्रेन पहुंचने से पहले से ही उस के फोन आ रहे थे कि मैं स्टेशन पहुंचा या नहीं, तुम ठीक से पहुंच गई कि नहीं,’’ श्रेयस ने बताया, ‘‘तुम ही उसे गलत समझ रही हो.’’

‘‘मैं गलत नहीं समझ रही भैया. आप भाभी से कितने अटैच्ड हो, उन का हर कहा मानते हो. मगर सारंग को तो वह मुझ से लगाव है नहीं,’’ श्रेया की आवाज में उदासी थी.

‘‘रिश्तों में प्यार एकतरफा नहीं होता श्रेया, पाने से पहले हमें खुद देना पड़ता है. तुम सिर्फ लेना चाह रही हो, देना नहीं.’’

‘‘भैया, मैं क्या कमी करती हूं सारंग के लिए, उस के कपड़े धोना, उस का पसंदीदा खाना बनाना, उस का पूरा ध्यान रखती हूं और अब इस से ज्यादा क्या करूं?’’ श्रेया ने तुनक कर कहा.

‘‘शादी के बाद लड़की सिर्फ पति के साथ ही नहीं जुड़ती है, बल्कि उस के पूरे परिवार के साथ भी जुड़ती है. तुम्हारी समस्या यह है कि तुम परिवार के नाम पर सिर्फ और सिर्फ सारंग को ही चाहती हो, उस के घर वालों को अपनाना नहीं चाहती. तुम ने उस बेचारे को अनाथ बना कर रख दिया है. उसे उस के अपनों से अलगथलग कर दिया है. फिर तुम उम्मीद करती हो कि वह तुम से दिल से अटैच्ड रहे? तब भी वह अभी तक तो तुम से बहुत प्यार करता है श्रेया, लेकिन अगर तुम्हारा ऐसा ही रवैया रहा तो जल्दी ही वह तुम से दूर हो जाएगा,’’ श्रेयस ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘भैया, मैं ने सारंग से शादी की है, उस के बैकवर्ड घर वालों के साथ नहीं,’’ श्रेया की आवाज में अहं की झलक थी.

‘‘ऐसी मतलबी सोच रख कर चलने से रिश्ते नहीं निभाए जाते श्रेया,’’ श्रेयस की आवाज में बहन की सोच पर गहरा अफसोस छलक रहा था, ‘‘जीवनसाथी के दिल को जीतने के रास्ते बहुत सी राहों से गुजरते हैं, उन में सब से महत्त्वपूर्ण उस के अपने हैं. तुम सारंग के मन पर तभी राज कर सकती हो, जब उस के अपनों के मन को अपने प्यार से जीत लोगी.’’

‘‘मुझे किसी का मन जीतने की जरूरत नहीं है,’’ श्रेया रूखे स्वर में बोली.

‘‘फिर तो तुम बहुत जल्दी ही सारंग को खो दोगी और ताउम्र उस के प्यार के लिए तरसती रहोगी,’’ श्रेयस सख्ती से बोला, ‘‘अच्छा श्रेया, जैसा व्यवहार तुम सारंग के घर वालों के साथ करती हो, वैसे ही अवहेलना स्नेहा तुम्हारी करने लगे तो तब तुम्हें कैसा लगेगा?’’

‘‘भैया…’’ श्रेया अवाक हो कर उस का मुंह देखने लगी.

‘‘मैं सच बताऊं, मैं स्नेहा से क्यों इतना अटैच्ड हूं, क्यों उस पर इतना भरोसा करता हूं? क्योंकि वह तुम पर और मेरे बाकी अपनों पर जान छिड़कती है. मुझ से भी ज्यादा तुम सब से वह प्यार करती है. तुम जब भी आने वाली होती हो, वह अलार्म लगा कर सोती है ताकि तुम्हें स्टेशन लेने जाने में मुझे देरी न हो जाए. तुम्हारा कमरा भी पिछले 2 वर्षों से उसी की जिद से वैसा का वैसा रखा गया है ताकि तुम्हें कभी यह न लगे कि यहां किसी भी तरह से हम लोगों में या परिस्थितियों में फर्क आ गया है. तुम जब भी आओ, तुम्हें वही माहौल और घर मिले. उस की सोच भी तुम्हारी तरह होती तो क्या आज तुम बारबार यहां आ पाती, क्या मैं ही उस से इतना प्यार कर पाता?

‘‘जितना प्यार मैं स्नेहा से करता हूं श्रेया, बिना मांगे, बिना कहे उस ने उस से कहीं अधिक मुझे और मेरे अपनों को दिया है. तुम्हें तो फिर भी कुछ न दे कर बहुतकुछ मिल रहा है अब तक. अफसोस यह है कि तुम सिर्फ स्नेहा का प्राप्य देख रही हो पर अपनी छोटी सोच के चलते तुम यह देखना भूल गई कि उस ने इस घर में पैर रखते ही हम सब को कितना अधिक दिया है.

‘‘सारी जिम्मेदारियां उस ने कितनी कुशलता से निभाई हैं. औरत पति से पूरा लगाव, पूरी तवज्जुह चाहती है तो उसे भी पति के अपनों को पूरी तवज्जुह और प्यार देना आना चाहिए. स्नेहा ने यह बात समझी, तभी वह सब को साथ ले कर सब का प्यार, सम्मान और साथ पा रही है. मगर तुम ने…’’ एक गहरी सांस ले कर श्रेयस चुप हो गया.

अंधेरा घिरने लगा था. दोनों बच्चों को ले कर वे घर आ गए. दूसरे दिन चाय की ट्रे ले कर श्रेयस और स्नेहा गैलरी में आए तो देखा  श्रेया फोन पर बात कर रही थी. ‘‘न, न, अम्मा, कोई बहाना नहीं चलेगा. इस बार की दीवाली आप सब हमारे साथ ही मनाएंगे, बस.’’ अम्मा आगे कुछ बोलती उस से पहले श्रेया ने अम्मा की बात काटते हुए कहा, ‘‘इस बार मैं भैयाभाभी को भी अपने पास दिल्ली बुला लूंगी तो एकसाथ सब की भाईदूज एक ही जगह हो जाएगी और हां, गुड्डी से कहिए, लहंगा व पायल न खरीदे, मैं यहां ले कर रखूंगी.

‘‘और अम्मा, आते समय मेरे लिए मावे वाली गुझिया और अनरसे जरूर बना कर लाइएगा. मुझे आप के हाथ के बने बहुत पसंद हैं. अच्छा अम्मा रखती हूं, बाबूजी को प्रणाम कहिएगा. गुड्डी स्कूल से आ जाए, फिर शाम को उस से बात करती हूं.’’

स्नेहा और श्रेयस ने संतोषभरी मुसकान के साथ एकदूसरे की ओर देखा और दोनों की आंखें भीग गईं. अब श्रेया को सारंग से कभी कोई शिकायत नहीं होगी क्योंकि वह उस के अपनों का महत्त्व जान कर उन की कद्र करना सीख गईर् थी.

Famous Hindi Stories : सौतेले लोग – क्या हुआ कौशल के साथ

Famous Hindi Stories : कौशल के जीवन में जैसे कोई सुनामी आ गई थी. वे अपने दफ्तर के दौरे पर थे. पत्नी अंकिता बच्चों को स्कूल भेज कर घर की साफसफाई कर रही थी. आज जाने उसे क्या सूझा था कि उस ने घर को धो डालने का प्लान बना लिया था. जैसे ही उस ने पाइप लगा कर कमरे में पानी डाला, अचानक बिजली आ गई. उसे आहट भी नहीं हुई होगी कि बिजली उस की मौत का पैगाम ले कर आई है. कमरे में कूलर लगा था और उसी के करैंट में वह बिलकुल स्याह हो चुकी थी. पूरा घर अंदर से बंद था. लगभग 3 बजे जब दोनों बच्चे स्कूल से आए और दरवाजा खोलने की कोशिश की तो पता ही नहीं चला अंदर क्या हुआ है. अड़ोसीपड़ोसी इकट्ठे हो गए. दरवाजा खुला तो कौशल को फोन से सारी बातें बताई गईं. पुलिस बुलाई गई. ससुराल से ले कर स्वजनों तक खबर करैंट की भांति दौड़ गई.

2 मासूम बच्चे 3 साल की बेटी और 5 साल का बेटा. सभी सहमे और डरे हुए थे. नियति को तो जो करना था उस ने अपना खेल, खेल लिया था. कौशल उजड़ गए थे. न बच्चे संभलते, न गृहस्थी, न नौकरी. दोनों बच्चों को उन्होंने ननिहाल भेज दिया था. तब उन्हें अपनी मां की बड़ी याद आई थी. एक वर्ष पहले ही उन की मौत हुई थी. वे होतीं तो बच्चे आज बिना घरघाट के नहीं रहते. कौशल का सबकुछ लुट चुका था. दिमाग और दिल से भी वे डर गए थे. पत्नी का नीलावर्ण उन की आंखों से दूर नहीं हो पा रहा था. कौशल की नजर अब अखबारों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों और मैरिज पोर्टल्स पर भी जाती पर उन की नैया को दोबारा कौन पार उतारेगा, कहीं आस न बंधती. ड्यूटी पर जाते तो दोनों बच्चों का मासूम चेहरा याद आता. पत्नी का स्नेह याद आता. सोचते कि अब जाने कैसे होंगे दोनों.

वे जब भी ससुराल जाते, उन्हें दोनों बच्चों के रूखे बाल दिखाई देते और उन के भोले प्रश्न उन्हें अंदर से कुरेद देते, पापा, ‘आप हम लोगों के साथ क्यों नहीं रहते? मम्मी रहतीं तो हम लोग आप के पास ही होते न.’ उन्हें बच्चों से अलग रहना इसलिए भी नहीं भाता कि ये उन के अक्षरज्ञान का समय था. मां नहीं है और पिता भी इतनी दूर. इस से वे तड़प जाते. हजार कोशिशों के बाद जो रिश्ते मिलते, उन में संदेह ज्यादा जबकि संभावना कम दिखाई देती. एक टीचर उन से ब्याह के लिए राजी थी. उस का नाम था कला. उस से कौशल कुमार ने शादी से संबंधित बातें कीं. वह बहुत ही व्यस्त टीचर थी. स्कूल में पढ़ाने के बाद भी बच्चों के 3 बैच उस से ट्यूशन पढ़ने आते. उस के लिए शादी सामान्य सी बात थी. क्या हुआ, आप के 2 बच्चे हैं तो वे भी मेरे साथ मेरे ही स्कूल में पढ़ लेंगे. मैं शादी के लिए राजी हूं, पर नौकरी छोड़ पाना मेरे लिए संभव नहीं होगा.

कौशल कला की नौकरी छोड़ने वाली बात को दिल से लगा बैठे थे. बच्चों के लिए मां ढूंढ़ रहे थे. पर मां कहां मिली. वह तो मास्टरनी ही होगी. टुकुरटुकुर बेचारे बिना मुंह के बच्चे देखते रह जाएंगे. ‘मम्मा खीर बनाओ,’ बेटा तो मम्मी से पीले चावल की फरमाइश करता था. बच्चे नहीं खाते तो पत्नी सुबह ही पुआपूरी बना कर खिला देती थी. अब सिर्फ उंगली पकड़ कर तीनों भागते ही नजर आएंगे. उन की आंखों के कोर भीग गए.

कौशल की चिंता जायज थी. एक जीवन खुशियों से भरा था, दूसरा डरावना महसूस हो रहा था. 2 नादान मासूम बच्चे और हजार प्रश्नों से घिरे कौशल. किसी ने उन्हें दूसरी लड़की का पता भी बताया पर मालूम हुआ उस के तो विवाहपूर्व ही प्रेमप्रसंग काफी चर्चे में हैं. वह भी कौशल से ब्याह करना चाहती थी. इस विषय पर पूछे जाने पर उस ने बड़ी बेबाकी से कहा, इतने दिनों तक ब्याह नहीं हुआ तो थोड़ाबहुत तो चलता है और आप कौन सा मुझ से पहली शादी करने वाले हैं, आप के साथ मुझे आप के बच्चों को भी तो संभालना पड़ेगा. कौशल उस की बातों से दुखी हो गए. वे जानबूझ कर विवाह के लिए कैसे हां करते. उस के चरित्र का प्रभाव बच्चों पर भी पड़ेगा. इतने बोल्ड तो कौशल नहीं हो पाते. उन्हें लगता वे मर जाते तो पत्नी कुछ भी कर के बच्चों को पाल लेती पर वे अकेले 2 बच्चों की नैया पार नहीं लगा सकते. वे अपने दोस्तों के घर भी जाते तो उन के लिए सिर्फ संवेदना दी जाती.

उन्हें तो जीवन चाहिए था. एक खुशगवार घर का, एक मुसकराती पत्नी का, 2 हंसतेखेलते बच्चों के विकास का. पता नहीं वे कुछ समझ नहीं पा रहे थे. उन्हें अपने विधुर जीवन पर तरस आता. अंकिता और दोनों बच्चों की तसवीर ले कर वे घंटों रो लेते पर जीवन का हल नहीं दिखाई पड़ता. कईकई दिनों तक वे छुट्टियां ले कर बिना खाए घर में ही रह जाते. न किसी से मिलते न बातें करते. अखबार के विज्ञापन में पत्नी ढूंढ़ते. इसी तलाश में वे गरीब से गरीब घर की लड़कियों को भी देख आए थे. विधवा और छोड़ दी गई महिलाओं के साथ भी वे गठबंधन को राजी थे पर कुछ न कुछ फेरे सामने आते ही गए. विधवा स्त्री भी 2 बच्चों के पिता के नाम पर तैयार नहीं हुई थी. एक महिला तो कौशल से पूछ बैठी थी, पत्नी दुर्घटना में मरी या मारा था. कौशल टूट चुके थे. हालांकि वे बच्चों के लिए सौतेली मां नहीं लाना चाहते थे. यह उन के जीवन की मजबूरी थी. उन्होंने मन को कड़ा किया और एक विवाह प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी. जीवन की मजबूरियों ने उन्हें बहुत मजबूर किया था. इस बार अनामिका से विवाह की सहमति उन्होंने दे दी.

कौशल एक अच्छे इंसान थे. अनामिका उन के सामने दुबली सी आम लड़की थी. उस ने उन की मजबूरियों को सुना था, जाना था और अपनी सहमति दे दी थी. विवाह हो गया. अनामिका ने गृहस्थी संभाल ली. सभी कहते थे, ‘सौतेली मां बच्चों का खयाल नहीं रखेगी, अपनी ही सुखसुविधाओं का खयाल रखेगी.’ वर्षों की धारणा को अनामिका ने मिट्टी में मिला दिया था. बेटी को उस ने कंठहार बना लिया था. बेटे को भी वह पूरी देखरेख में रखती. कौशल का अब समय अच्छा था कि उन्हें अनामिका जैसी पत्नी मिली थी. खानापीना, झाड़ूबुहारू, बरतनकपड़े और आखिर में पति के पांव दबा कर सोना उस की आदत थी. कौशल के घर वाले दबाव बनाते कि एक कामवाली बाई को क्यों नहीं रखते. बच्चों के लिए ट्यूटर क्यों नहीं रखते. पत्नी को मशीन क्यों बनाया है. कईर् बार उन्होंने अनामिका से कहा पर उस ने कहा कि वह सारे दिन घर में क्या करेगी.

वे कहते थे कि घर अनामिका का अधिकार क्षेत्र है, वही जाने कैसे घर चलाना है. अनामिका भी तुरंत कौशल के पक्ष में खड़ी हो जाती. मुझे सारे काम करने पसंद हैं. मैं कर पाती हूं, फिर क्या जरूरत है इन सब की. धीरेधीरे बच्चे पढ़ने लगे. नौकरी में आ गए. अनामिका वैसे ही सेवाभाव से कार्यरत रही. पुरानी मान्यताएं और परंपराएं उस के सामने गलत साबित होती गईं. समझ में नहीं आता किस के कैसे रूप हैं. घर वालों को लगता कौशल ही सौतेला व्यवहार कर रहे हैं. पर उन्हें खाना मिलता है. बच्चे खुशीखुशी पढ़ाई कर रहे हैं. जब सबकुछ दिखाई पड़ रहा है तो कोई चाहे जैसे अपनी गृहस्थी चलाए. सब के रिश्ते तो सौतेले ही हैं. बच्चे मां को आदर देना सीख गए थे. कोई काम बिना बताए नहीं करते.

दूसरों को गृहस्थी में टांग अड़ाने की न तो गुंजाइश थी, न जरूरत. इसलिए सभी मन मसोस कर चुप रहते. तभी पड़ोस में मदन भैया की अचानक मौत हो गई. सुना था कि उन्होंने अपनी पत्नी के मरने के बाद दूसरा विवाह किया था जबकि उन के 4 बच्चे थे. पर मदन भैया की दूसरी पत्नी बीमारी का ऐसा स्वांग रचती कि बेचारे मदन भैया ही खाना बना कर पत्नी व बच्चों को खिलाते.

पैसों के लिए भी तकरार होती. इसी बीच मदन भैया को हार्टअटैक हो गया. अब पत्नी सौतेले बच्चों से बातें भी नहीं करती. कैसे चलेगी गृहस्थी उन पांचों की. मदन भैया के क्रियाकर्म के बाद सौतेले लोग क्या कहेंगे, समझ में नहीं आया पर अनामिका की सेवा, उस की कर्तव्यनिष्ठा ने सारे रिश्तों को मात दे दी थी.

अनामिका से जब मुलाकात हुई तो उस ने हंसते हुए कहा, ‘दीदी, हर कोई अपनाअपना वर्तमान बनाता है. क्या फर्क पड़ता है अगर मैं सुबह से शाम तक खटती हूं. ऐसा तो हर मां करती है. मेरी मां भी किया करती थीं. फिर मेरा तो परिवार ही छोटा है.’ तब लगने लगा कि कौशल मेरी नजरों में, पत्नी के साथ जो सौतेला व्यवहार करता है वह सौतेला नहीं, बल्कि मोहब्बत से भरा अपनापन है. मैं अपने नजरिए से उन का अपनापन नहीं जान पाई थी. आखिर, मैं भी कितना जानती थी अनामिका और कौशल को. पर मुझे उन के बीच सौतेलापन दिखाई पड़ता था. पर अब लगा, सौतेले लोगों को समझ पाना इतना भी आसान नहीं. सचमुच जीवन जीना एक कला है, सभी इसे समझ नहीं पाते.

Latest Hindi Stories : अर्पण – क्यों रो बैठी थी अदिति

Latest Hindi Stories :  आदमकद आईने के सामने खड़ी अदिति खुद के ही प्रतिबिंब को मुग्धभाव से निहार रही थी. उस ने कान में पहने डायमंड के इयररिंग को उंगली से हिला कर देखा. खिड़की से आ रही साढ़े 7 बजे की धूप इयररिंग से रिफ्लैक्ट हो कर उस के गाल पर पड़ रही थी, जिस से वहां इंद्रधनुष चमक रहा था. अदिति ने आईने में दिखाई देने वाले अपने प्रतिबिंब पर स्नेह से हाथ फेरा, फिर वह अचानक शरमा सी गई. इसी के साथ वह बड़बड़ाई, ‘वाऊ, आज तो हिमांशु मुझे जरूर कौंपलीमैंट देगा.’

फिर उस के मन में आया, यदि यह बात मां सुन लेतीं तो कहतीं, ‘हिमांशु कहती है? वह तेरा प्रोफैसर है.’

‘सो व्हाट?’ अदिति ने कंधे उचकाए और आईने में स्वयं को देख कर एक बार फिर मुसकराई.

अदिति शायद कुछ देर तक स्वयं को इसी तरह आईने में देखती रहती लेकिन तभी उस की मां की आवाज  उस के कानों में पड़ी, ‘‘अदिति, खाना तैयार है.’’

‘‘आई, मम्मी,’’ अदिति बाल ठीक करते हुए डाइनिंग टेबल की ओर भागी.

अदिति का यह लगभग रोज का कार्यक्रम था. प्रोफैसर साहब के यहां जाने से पहले आईने के सामने ही वह अपना अधिक से अधिक समय स्वयं को निहारते हुए बिताती थी. शायद आईने को यह सब अच्छा लगने लगा था, इसलिए वह भी अदिति को थोड़ी देर बांधे रखना चाहता था. इसीलिए तो उस का इतना सुंदर प्रतिबिंब दिखाता था कि अदिति स्वयं पर ही मुग्ध हो कर निहारती रहती. आईना ही क्यों अदिति को तो जो भी देखता, देखता ही रह जाता. वह थी ही इतनी सुंदर. छरहरी, गोरी काया, मछली जैसी काली आंखें, घने काले रेशम जैसे बाल. वह हंसती तो सुंदरता में चारचांद लगाने के लिए गालों में गड्ढे पड़ जाते थे. अदिति की मम्मी उस से अकसर कहती थीं, ‘तू एकदम अपने पापा जैसी लगती है. एकदम उन की कार्बनकौपी.’ इतना कहतेकहते अदिति की मम्मी की आंखें भर आतीं और वे दीवार पर लटक रही अदिति के पापा की तसवीर को देखने लगतीं.

अदिति जब ढाई साल की थी, तभी उस के पापा का देहांत हो गया था. अदिति को तो अपने पापा का चेहरा भी ठीक से याद नहीं था. उस की मम्मी जिस स्कूल में नौकरी करती थीं उसी स्कूल में अदिति की पढ़ाई हुई थी. अदिति स्कूल की ड्राइंगबुक में जब भी अपने परिवार का चित्र बनाती, उस में नानानानी और मम्मी के साथ वह स्वयं होती थी. अदिति के लिए उस का इतना ही परिवार था.

अदिति के लिए पापा घर की दीवार पर लटकती तसवीर से अधिक कुछ नहीं थे. कभी मम्मी की वह आंखों से बहते आंसुओं में पापा की छवि महसूस करती तो कभी अलबम की ब्लैक ऐंड ह्वाइट तसवीर में वह स्वयं को जिस पुरुष की गोद में पाती वह ही तो उस के पापा थे. अदिति की क्लासमेट अकसर अपनेअपने पापा के बारे में बातें करतीं. टैलीविजन के विज्ञापनों में पापा के बारे में देख कर अदिति शुरूशुरू में कच्ची उम्र में पापा को मिस करती थी. परंतु धीरेधीरे उस ने मान लिया कि उस के घर में 2 स्त्रियां वह और उस की मम्मी रहती हैं और आगे भी वही दोनों रहेंगी.

बिना बाप की छत्रछात्रा में पलीबढ़ी अदिति कालेज की अपनी पढ़ाई पूरी कर के कब कमाने लगी, उसे पता  ही नहीं चला. वह ग्रेजुएशन के फाइनल ईयर में पढ़ रही थी, तभी वह अपने एक प्रोफैसर हिमांशु के यहां पार्टटाइम नौकरी करने लगी थी. डा. हिमांशु जानेमाने साहित्यकार थे. यूनिवर्सिटी में हैड औफ द डिपार्टमैंट. अदिति इकोनौमिक्स ले कर बीए करना चाहती थी परंतु डा. हिमांशु का लैक्चर सुनने के बाद उस ने हिंदी को अपना मुख्य विषय चुना था.

डा. हिमांशु अदिति में व्यक्तिगत रुचि लेने लगे थे. उसे नईनई पुस्तकें सजैस्ट करते, किसी पत्रिका में कुछ छपा होता तो पेज नंबर सहित रैफरेंस देते. यूनिवर्सिटी की ओर से. प्रमोट कर के 2 सेमिनारों में भी अदिति को भेजा. अदिति डा. हिमांशु की हर परीक्षा में प्रथम आने के लिए कटिबद्ध रहती थी. इसी लिए वे अदिति से हमेशा कहते थे कि वे उस में बहुतकुछ देख रहे हैं. वह जीवन में जरूर कुछ बनेगी.

वे जब भी अदिति से यह कहते, तो कुछ बनने की लालसा अदिति में जोर मारने लगती. उन्होंने अदिति को अपनी लाइब्रेरी में पार्टटाइम नौकरी दे रखी थी. वे जानेमाने नाट्यकार, उपन्यासकार और कहानीकार थे. उन की हिंदी की तमाम पुस्तकें पाठ्यक्रम में लगी हुई थीं. उन का लैक्चर सुनने और उन से मिलने वालों की भीड़ लगी रहती थी. नवोदित लेखकों से ले कर नाट्य जगत, साहित्य जगत और फिल्मी दुनिया के लोग भी उन से मिलने आते थे.

अदिति यूनिवर्सिटी में डा. हिमांशु को मात्र अपने प्रोफैसर के रूप में जानती थी. वे पूरे क्लास को मंत्रमुग्ध कर देते हैं, यह भी उसे पता था. उसी क्लास में अदिति भी तो थी. अदिति उन की क्लास कभी नहीं छोड़ती थी. पहली बैंच पर बैठ कर उन्हें सुनना अदिति को बहुत अच्छा लगता था. लंबे, स्मार्ट, सुदृढ़ शरीर वाले डा. हिमांशु की आंखों में एक अजीब सा तेज था. सामान्य रूप से हल्के रंग की शर्ट और ब्लू डेनिम पहनने वाले डा. हिमांशु पढ़ने के लिए सुनहरे फ्रेमवाला चश्मा पहनते, तो अदिति मुग्ध हो कर उन्हें देखती ही रह जाती. जब वे अदिति के नोट्स या पेपर्स की तारीफ करते, तो उस दिन अदिति हवा में उड़ने लगती.

फाइनल ईयर में जब डा. हिमांशु की क्लास खत्म होने वाली थी तो एक दिन उन्होंने मिलने के लिए उसे डिपार्टमैंट में बुलाया. अदिति उन के कक्ष में पहुंची तो उन्होंने कहा, ‘अदिति, मैं देख रहा हूं कि इधर तुम्हारा ध्यान पढ़ाई में नहीं लग रहा है. तुम अकसर मेरी क्लास में नहीं रहती हो. पहले 2 सालों में तुम फर्स्ट आई हो. यदि तुम्हारा यही हाल रहा तो इस साल तुम पिछले दोनों सालों की मेहनत पर पानी फेर दोगी.’

डा. हिमांशु अपनी कुरसी से उठ कर अदिति के पास आ कर खड़े हो गए. उन्होंने अपना हाथ अदिति के कंधे पर रख दिया. उन के हाथ रखते ही अदिति को लगा, जैसे वह हिमाच्छादित शिखर के सामने खड़ी है. उस के कानों में घंटियों की मधुर आवाज गूंजने लगी थीं.

‘तुम्हें किसी से प्रेम हो गया है क्या?’ उन्होंने पूछा.

अदिति ने रोतेरोते गरदन हिला कर इनकार कर दिया.

‘तो फिर?’

‘सर, मैं नौकरी करती हूं, इसलिए पढ़ने के लिए समय कम मिलता है.’

‘क्यों? डा. हिमांशु ने आश्चर्य से कहा, ‘शायद तुम्हें शिक्षा का महत्त्व पता नहीं है. शिक्षा केवल कमाई का साधन ही नहीं है. शिक्षा संस्कार, जीवनशैली और हमारी परंपरा है. कमाने के चक्कर में तुम्हारी पढ़ाई में रुचि खत्म हो गई है. इस तरह मैं ने तमाम विद्यार्थियों की जिंदगी बरबाद होते देखी है.’

‘सर,’ अदिति ने हिचकी लेते हुए कहा, ‘मैं पढ़ना चाहती हूं, इसीलिए तो नौकरी करती हूं.’

उन्होंने ‘आई एम सौरी, मुझे पता नहीं था,’ अदिति के सिर पर हाथ रख कर कहा.

‘इट्स ओके, सर.’

‘क्या काम करती हो?’

‘एक वकील के औफिस में मैं टाइपिस्ट हूं.’

‘मैं नई किताब लिख रहा हूं. मेरी रिसर्च असिस्टैंट के रूप में काम करोगी?’

अदिति ने आंसू पोंछते हुए ‘हां’ में गरदन हिला दी.

उसी दिन से अदिति डा. हिमांशु की रिसर्च असिस्टैंट के रूप में काम करने लगी. इस बात को आज 2 साल हो गए हैं. अदिति ग्रेजुएट हो गई है. वह फर्स्ट क्लास आई थी यूनिवर्सिटी में. डा. हिमांशु एक किताब खत्म होते ही अगली पर काम शुरू कर देते. इस तरह अदिति का काम चलता रहा. अदिति ने एमए में ऐडमिशन ले लिया था. अकसर उस से कहते, ‘अदिति, तुम्हें पीएचडी करनी है. मैं तुम्हारे नाम के आगे डाक्टर लिखा देखना चाहता हूं.’

फिर तो कभीकभी अदिति बैठी पढ़ रही होती, तो  कागज पर प्रोफैसर के साथ अपना नाम जोड़ कर लिखती फिर शरमा कर उस कागज पर इतनी लाइनें खींचती कि वह नाम पढ़ने में न आता. परंतु बारबार कागज पर लिखने की वजह से यह नाम अदिति के हृदय में इस तरह रचबस गया कि वह एक भी दिन उन को न देखती तो उस का समय काटना मुश्किल हो जाता.

पिछले 2 सालों में अदिति प्रोफैसर के घर का एक हिस्सा बन गई थी. सुबह घंटे डेढ़ घंटे उन के घर काम कर के वह साथ में यूनिवर्सिटी जाती. फिर 5 बजे साथ ही उन के घर आती, तो उसे अपने घर जाने में अकसर रात के 8 बज जाते. कभीकभी तो 10 भी बज जाते. डा. हिमांशु मूड के हिसाब से काम करते थे. अदिति को भी कभी घर जाने की जल्दी नहीं होती थी. वह तो उन के साथ अधिक से अधिक समय बिताने का बहाना ढूंढ़ती रहती थी.

इन 2 सालों में अदिति ने देखा था कि प्रोफैसर को जानने वाले तमाम लोग थे. उन से मिलने भी तमाम लोग आते थे. अपना काम कराने और सलाह लेने वालों की भी कमी नहीं थी. फिर भी एकदम अकेले थे. घर से यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी से घर, यही उन की दिनचर्या थी. वे कहीं बाहर आनाजाना या किसी गोष्ठी में भाग लेना पसंद नहीं करते थे. बड़ी मजबूरी में ही वे किसी समारोह में भाग लेने जाते थे. अदिति को यह सब बड़ा आश्चर्यजनक लगता था. वे पढ़ाई के अलावा किसी से भी कोई फालतू बात नहीं करते थे. अदिति उन के साथ लगभग रोज ही गाड़ी से आतीजाती थी. परंतु इस आनेजाने में शायद ही कभी उन्होंने उस से कुछ कहा हो. दिन के इतने घंटे साथ बिताने के बावजूद उन्होंने काम के अलावा कोई भी बात अदिति से नहीं की थी. अदिति कुछ कहती तो वे चुपचाप सुन लेते. मुसकराते हुए उस की ओर देख कर उसे यह आभास करा देते कि उन्होंने उस की बात सुन ली है.

किसी बड़े समारोह या कहीं से डा. हिमांशु वापस आते तो अदिति बड़े ही अहोभाव से उन्हें देखती रहती. उन की शौल ठीक करने के बहाने, फूल या किताब लेने के बहाने, अदिति उन्हें स्पर्श कर लेती. टेबल के सामने डा. हिमांशु बैठ कर लिख रहे होते तो अदिति उन के पैर पर अपना पैर स्पर्श करा कर संवेदना जगाने का प्रयास करती. वे उस की नजरों और हावभाव से उस के मन की बात जान गए थे. फिर भी उन्होंने अदिति से कुछ नहीं कहा. अब तक अदिति का एमए हो गया था. डा. हिमांशु के अंडर में ही वह रिसर्च कर रही थी. उस की थिसिस भी अलग से तैयार ही थी.

अदिति को आभास हो गया था कि डा. हिमांशु उस के मन की बात जान गए हैं. फिर भी वे ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उन्हें कुछ पता ही न हो. उन के प्रति अदिति का आकर्षण धीरेधीरे बढ़ता ही जा रहा था. आईने के सामने खड़ी स्वयं को निहार रहीअदिति ने तय कर लिया था कि आज वह डा. हिमांशु से अपने मन की बात अवश्य कह देगी. फिर वह मन ही मन बड़बड़ाई, ‘प्रेम करना कोई अपराध नहीं है. प्रेम की कोई उम्र नहीं होती.’

इसी निश्चय के साथ अदिति डा. हिमांशु के घर पहुंची. वे लाइब्रेरी में बैठे थे. अदिति उन के सामने रखे रैक से टिक कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से आंसू बरसने की तैयारी में थे. उन्होंने अदिति को देखते ही कहा, ‘‘अदिति, बुरा मत मानना, डिपार्टमैंट में प्रवक्ता की जगह खाली है. सरकारी नौकरी है. मैं ने कमेटी के सभी सदस्यों से बात कर ली है. तुम अपनी तैयारी कर लो. तुम्हारा इंटरव्यू फौर्मल ही होगा.’’

‘‘परंतु मुझे यह नौकरी नहीं करनी है,’’ अदिति ने यह बात थोड़ी ऊंची आवाज में कही. आंखों के आंसू गालों पर पहुंचने के लिए पलकों पर लटक आए थे.

डा. हिमांशु ने मुंह फेर कर कहा, ‘‘अदिति, अब तुम्हारे लिए यहां काम नहीं है.’’

‘‘सचमुच?’’ अदिति ने उन के एकदम नजदीक जा कर पूछा.

‘‘हां, सचमुच,’’ अदिति की ओर देखे बगैर बड़ी ही मृदु और धीमी आवाज में डा. हिमांशु ने कहा, ‘‘अदिति, वहां वेतन बहुत अच्छा मिलेगा.’’

‘‘मैं वेतन के लिए नौकरी नहीं करती,’’ अदिति और भी ऊंची आवाज में बोली, ‘‘सर, आप ने मुझे कभी समझा ही नहीं.’’

वे कुछ कहते, उस के पहले ही अदिति उन के एकदम करीब पहुंच गई. दोनों के बीच अब नाममात्र की दूरी रह गई थी. उस ने डा. हिमांशु की आंखों में आंखें डाल कर कहा, ‘‘सर, मैं जानती हूं, आप सबकुछ जानतेसमझते हैं. प्लीज, इनकार मत कीजिएगा.’’

अदिति के आंसू आंखों से निकल कर कपोलों को भिगोते हुए नीचे तक बह गए थे. वह कांपते स्वर में बोली, ‘‘आप के यहां काम नहीं है? इस अधूरी पुस्तक को कौन पूरी करेगा? जरा बताइए तो, चार्ली चैपलिन की आत्मकथा कहां रखी है? बायर की कविताएं कहां हैं? विष्णु प्रभाकर या अमरकांत की नई किताबें कहां रखी हैं…?’’

डा. हिमांशु चुपचाप अदिति की बातें सुन रहे थे. उन्होंने दोनों हाथ बढ़ा कर अदिति के गालों के आंसू पोंछे और एक लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘तुम्हारे आने के पहले मैं किताबें ही खोज रहा था. तुम नहीं रहोगी तो भी मैं किताबें ढूंढ़ लूंगा.’’

अदिति को लगा कि उन की आवाज यह कहने में कांप रही थी.

डा. हिमांशु ने आगे कहा, ‘‘इंसान पूरी जिंदगी ढूंढ़ता रहे तो भी शायद उसे न मिले और यदि मिले भी तो इंसान ढूंढ़ता रहे. उसे फिर भी प्राप्त न हो सके, ऐसा भी हो सकता है.’’

‘‘जो अपना हो उस का तिरस्कार कर के,’’ इतना कह कर अदिति दो कदम पीछे हटी और चेहरे को दोनों हाथों में छिपा कर रोने लगी. फिर लगभग चीखते हुए बोली, ‘‘क्यों?’’

डा. हिमांशु ने अदिति को थोड़ी देर तक रोने दिया. फिर उस के नजदीक जा कर कालेज में पहली बार जिस सहानुभूति से उस के कंधे पर हाथ रखा था उसी तरह उस के कंधे पर हाथ रखा. अदिति को फिर एक बार लगा कि हिमालय के शिखरों की ठंडक उस के सीने में समा गई है. कानों में मधुर घंटियां बजने लगीं. उस ने स्नेहिल नजरों से डा. हिमांशु को देखा. फिर आगे बढ़ कर अपनी दोनों हथेलियों में उन के चेहरे को भर कर चूम लिया. फिर वह उन से लिपट गई. वह इंतजार करती रही कि डा. हिमांशु की बांहें उस के इर्दगिर्द लिपटेंगी परंतु ऐसा नहीं हुआ. वे चुपचाप बिना किसी प्रतिभाव के आंखें फाड़े उसे ताक रहे थे. उन का चेहरा शांत, स्थितप्रज्ञ और निर्विकार था.

‘‘आप मुझ से प्यार नहीं करते?’’

डा. हिमांशु उसे देखते रहे.

‘‘मैं आप के लायक नहीं हूं?’’

डा. हिमांशु के होंठ कांपे, पर शब्द नहीं निकले.

‘‘मैं अंतिम बार पूछती हूं,’’ अदिति की आवाज के साथ उस का शरीर भी कांप रहा था. स्त्री हो कर स्वयं को समर्पित कर देने के बाद भी पुरुष के इस तिरस्कार ने उस के पूरे अस्तित्व को हिला कर रख दिया था. आंखों से आंसुओं की जलधारा बह रही थी. एक लंबी सांस ले कर वह बोली, ‘‘मैं पूछती हूं, आप मुझे प्यार करते हैं या नहीं? या फिर मैं आप के लिए केवल एक तेजस्विनी विद्यार्थिनी से  अधिक कुछ नहीं हूं?’’ फिर डा. हिमांशु का कौलर पकड़ कर झकझोरते हुए बोली, ‘‘सर, मुझे अपनी बातों का जवाब चाहिए.’’

डा. हिमांशु उसी तरह जड़ बने खड़े थे. अदिति ने लगभग धक्का मार कर उन्हें छोड़ दिया. रोते हुए वह उन्हें अपलक ताक रही थी. उस ने दोनों हाथों से आंसू पोंछे. पलभर में ही उस का हावभाव बदल गया. उस का चेहरा सख्त हो गया. उस की आंखों में घायल बाघिन का जनून आ गया था. उस ने चीखते हुए कहा, ‘‘मुझे इस बात का हमेशा पश्चात्ताप रहेगा कि मैं ने एक ऐसे आदमी से प्यार किया जिस में प्यार को स्वीकार करने की हिम्मत ही नहीं है. मैं तो समझती थी कि आप मेरे आदर्श हैं, सामर्थ्यवान हैं. परंतु आप में एक स्त्री को सम्मान के साथ स्वीकार करने की हिम्मत ही नहीं है. जीवन में यदि कभी समझ में आए कि मैं ने आप को क्या दिया है, तो उसे स्वीकार कर लेना. जिस तरह हो सके, उस तरह. आज के आप के तिरस्कार ने मुझे छिन्नभिन्न कर दिया है. जो टीस आप ने मुझे दी है, हो सके तो उसे दूर कर देना क्योंकि इस टीस के साथ जिया नहीं जा सकता.’’

इतना कह कर अदिति तेजी से पलटी और बाहर निकल गई. उस ने एक बार भी पलट कर नहीं देखा. फिर भी उस ने उसी कालेज में आवेदन कर दिया जिस में डा. हिमांशु ने नौकरी की बात कर रखी थी. 2-3 माह में वह कालेज भी जाने लगी पर डा. हिमांशु से कोई संपर्क नहीं किया. कुछ दिन बाद अदिति अखबार पढ़ रही थी, तो अखबार में छपी एक सूचना पर उस की नजर अटक गई. सूचना थी-‘प्रसिद्ध साहित्यकार, यूनिवर्सिटी के हैड औफ द डिपार्टमैंट डा. हिमांशु की हृदयगति रुकने से मृत्यु हो गई है. उन का…’

अदिति ने इतना पढ़ कर पन्ना पलट दिया. रोने का मन तो हुआ, लेकिन जी कड़ा कर के उसे रोक दिया. अगले दिन अखबार में डा. हिमांशु के बारे में 2-4 लेख छपे थे. अदिति ने उन्हें पढ़े बगैर ही उस पन्ने को पलट दिया था. इस के 4 दिन बाद औफिस में अदिति को पाठ्यपुस्तक मंडल की ओर से ब्राउनपेपर में लिपटा एक पार्सल मिला. भेजने वाले का नाम उस पर नहीं था. अदिति ने जल्दीजल्दी उस पैकेट को खोला. उस पैकेट में वही पुस्तक थी जिसे वह अधूरी छोड़ आई थी. अदिति ने प्यार से उस पुस्तक पर हाथ फेरा. लेखक का नाम पढ़ा. उस ने पहला पन्ना खोला, किताब के नाम आदि की जानकारी थी. दूसरा पन्ना खोला, लिखा था :

‘अर्पण

मेरे जीवन की एकमात्र स्त्री को, जिसे मैं ने हृदय से चाहा, फिर भी उसे कुछ दे न सका. यदि वह मेरी एक पल की कमजोरी को माफ कर सके, तो इस पुस्तक को अवश्य स्वीकार कर ले.’

उस किताब को सीने से लगाने के साथ ही अदिति एकदम से फफकफफक कर रो पड़ी. पूरा औफिस एकदम से चौंक पड़ा. सभी उठ कर उस के पास आ गए. हर कोई एक ही बात पूछ रहा था, ‘‘क्या हुआ अदिति? क्या हुआ?’’

रोते हुए अदिति मात्र गरदन हिला रही थी. उसे खुद ही पता नहीं था कि उसे क्या हुआ है.

Hindi Kahaniyan : चलो जीया जाए

Hindi Kahaniyan : एक तरफ लैपटौप पर किसी प्राइवेट कंपनी की वैब साइट खुली थी तो दूसरी ओर शाहाना अपने फोन पर शुभम से चैटिंग में व्यस्त थी.

अचानक मां के पैरों की आहट सुनाई दी तो. उस ने फोन पलट कर रख दिया और लैपटौप पर माउस चलाने लगी. दोपहर के 2 बज रहे थे. इस समय कंपनी के काम से उसे ब्रेक मिलता था. मां ने खाने के लिए बुलाया शाहाना को.

शाहाना ने मां को कमरे में खाना देने को कहा. कहा कि ब्रेक नहीं मिला है आज.

46 साल की निशा यानी शाहाना की मां उस की पसंद का खाना उस के पास रख गई. हिदायत दी कि याद से खा ले.

21 वर्ष की शाहाना अभी 6 महीने पहले भुवनेश्वर से होटल मैनेजमैंट में ग्रैजुएशन की पढ़ाई पूरी कर के लौटी है. उसे अपने रिजल्ट के आने का इंतजार है और तब तक उस ने खुद की कोशिश से एक प्राइवेट कंपनी में वर्क फ्रौम होम वाली जौब ढूंढ़ ली है. लेकिन बात यह है कि जैसे ही सालभर होने को होगा उसे इस कंपनी के मेन औफिस दिल्ली जा कर जौब करनी होगी. यह कितनी खुशी की बात है, शाहाना ही जानती है. लेकिन सामने इस से भी बड़ी चिंता की दीवार खड़ी है उस के, जिस का उसे समाधान ढूंढे़ नहीं मिल रहा. रोज वह औफिस जाती है, उसे शाबाशी मिलती है और खुश होने के बजाय वह और ज्यादा चिंतित हो जाती है.

शाहाना सुदेश की बेटी है. 50 साल का सुदेश रेलवे में नौकरी करता है और अकसर उस की नाइट शिफ्ट रहती है. सुदेश की पत्नी यानी निशा की मां अपने 70 और 78 साल के क्रमश: अपने सास और ससुर की सेवा में लगी रहती है क्योंकि वे कुछ ज्यादा ही लाचार हैं.

दरअसल, किसी भी घर में वहां का माहौल बच्चों को बनाता है. आज जो शाहाना इतनी आजाद खयाल और खुद की आर्थिक आजादी के लिए दीवानी है उस के पीछे भी उस का घर और घर के लोग हैं. निस्संदेह. मगर कुछ अलग तरह से.

बूढ़े मातापिता सुदेश की जिम्मेदारी है लेकिन पैसे के इंतजाम के सिवा कभीकभार मातापिता को डाक्टर को दिखाने के सिवा सारी देखभाल शाहाना की मां निशा के जिम्मे थी और इस में निशा का पत्नी भाव कम नौकरानी का भाव ज्यादा था. अलिखित जैसी संधि थी कि यहां रहोगी तो वह सबकुछ करना होगा जो कमाने वाला पुरुष चाहता है. बचपन से ही शाहाना ने देखा है कि मां के दांपत्य भाव को कभी भाव ही नहीं दिया गया. उसे क्यों और किस तरह इस परिवार से कभी लगाव महसूस होता जहां परिवार की जड़ें ही एकदूसरे से न जुड़ी हों. दादादादी भी सिर्फ अपना काम करवाने और बाकी समय बहू की निंदा करने में व्यतीत करते. यहां सिर्फ व्यापार भर का जीवन था. लेकिन  शाहाना इस घर में  सिर्फ इसलिए ही घुटन महसूस करती हो, यह बात नहीं थी. कारण इस से भी बड़ा था.

पिता के लिए शाहाना बेटी के रूप में एक स्त्री थी और यह तब से था जब शाहाना खुद भी खुद के लड़की होने की बात को समझ भी नहीं पाई थी. यानी उस के बचपन से ही उस के पिता उसे बेटी कम, एक औरत जात ज्यादा समझते.

इधर शाहाना की मां निशा को बातबात पर उस के पिता न कमाने की उलाहने देते लेकिन लड़कियों की आर्थिक आजादी पर उन का रंग बदल जाता.

घोर परंपरावादी पिता की छत्रछाया में शाहाना पलते हुए बस एक ही बात सोचती, एक ही ध्यान करती कि कब वह इस घर से दूर कहीं, बहुत दूर चली जाएगी.

मुश्किलें थीं, उस की मां भी बड़ी लाचार थी. पढ़ीलिखी होने के बावजूद मां में अपने लिए आवाज उठाने की हिम्मत नहीं थी.

निशा अपने मातापिता की इकलौती संतान थी सो कभी अपने मातापिता, कभी सासससुर इन्हीं में उलझ कर रह गई थीं उन की जिंदगी.

मजबूर निशा शाहाना को समझती, ‘‘किसी तरह तू अपने पैरों पर खड़ी हो जा, फिर तेरा दुख दूर हो जाएगा.’’

होटल मैनेजमैंट की पढ़ाई के दौरान शाहाना को शुभम मिल गया. 2 साल सीनियर शुभम पहलवान सा दिखता था आकर्षक था. उस की हाइट शाहाना से बस 2 इंच ज्यादा यानी 5 फुट 7 इंच थी.

रोमांटिक चेहरे की स्वामिनी और खूबसूरत दुबलीपतली, सुघड़ बदन की मलिका शाहाना को एक सुंदर साथी की तलाश थी जो उसे समझे, सराहे और उस की आजादी को महत्त्व दे. इसलिए शुभम के सौंदर्य को कभी उस ने खुद से नापा ही नहीं.

होस्टल की एक सीनियर लड़की आभा जो शुभम की दोस्त थी, के संरक्षण में शुभम से शाहाना की दोस्ती दिनबदिन गहरी होती गई.

शाहाना को उस के पापा फोन पर चाहे हर बार रुपए भेजते समय उसे फटकार लगाए या नीचा दिखाए, शाहाना बीमार पड़े या उसे कहीं दूर किसी अच्छे स्पौट घूमने जाना हो, शुभम उस का संरक्षक, गाइड और प्यार बन चुका था.

ऐसा था कि शुभम अपने कालेज के लड़कों के बीच अपने अडि़यल स्वभाव और बात को खींच कर किसी भी तरह खुद को सही साबित करने वालों में जाना जाता था. लेकिन शुभम जैसा एक मजबूत सहारा शाहाना के लिए इतना कीमती था कि शाहाना को दोस्तों की सम?ाइश में जलन की बू आती. उस ने शुभम को जाननेसम?ाने के लिए किसी भी बाहरी सूचना को स्वीकार ही नहीं किया.

शुभम जब अपना कोर्स खत्म कर के अपने घर पुणे चला गया और वहां उस ने एमबीए जौइन कर लिया, तब शाहाना भुवनेश्वर में ही अपनी ग्रैजुएशन का दूसरा साल पूरा करती रही. जब तक शाहाना अपना कोर्स खत्म कर घर आई, शुभम को जयपुर में एक ट्रैवल कंपनी में मैनेजर पद की नौकरी मिल चुकी थी. कंपनी छोटी और नई थी, शुभम की सरकारी कालेज से एमबीए की डिगरी ने उसे 35 हजार की नौकरी दिला दी.

शाहाना घर तो आ गई थी लेकिन फिर से उस के पिता सुदेश की हुकुमदारी शुरू हो गई थी. 21 साल की आजाद खयाल और बहुत सैंसिटिव लड़की को नफरत भरी दकियानूसी सहन नहीं हो रही थी. वह यहां से बस कोई नौकरी पा कर निकल भागना चाहती थी. मगर नौकरी तो कोई खुद के बगीचे का आम नहीं था कि जब मन चाहा तोड़ लिया.

किसी भी प्राइवेट कंपनी में जौब पाने के लिए एक फ्रैशर्स को कम से कम 6 महीने तो इंटर्नशिप ट्रेनिंग की जरूरत होती है और उस के बाद नौकरी मिलेगी या नहीं कोई गारंटी नहीं.

होटल मैनेजमैंट कर के अगर कोई सीधे होटल की जौब में न जाना चाहे तो उसे इस तरह ही नौकरी ढूंढनी पड़ती है.

दरअसल, होटल की जौब में जबकि शाहाना ने सेफ की पढ़ाई नहीं की थी, हाउस कीपिंग में उस के चेहरेमोहरे और फिगर को प्रायौरिटी देते हुए उसे रिसैप्शनिस्ट की नौकरी मिली भी थी, लेकिन पढ़ाई के दौरान इंटर्नशिप में वह 17 घंटे खड़े हो कर काम करने का अनुभव ले चुकी थी और उस के पैर तब सूज जाते थे.

शुभम के सु?ाव से उस ने वर्क फ्रौम होम की एक प्राइवेट नौकरी की ट्रेनिंग ढूंढ़ी. तब से लगातार शुभम और उस के काम के बीच दोनों की चैटिंग चलती रहती. इतनी बात तो ठीक थी. लेकिन आगे की जिंदगी तक जाने वाली सड़क के बीच एक दीवार आ गई थी. यह वह दीवार थी जिस से हर बार उड़ने से पहले शाहाना के पंखों को टकरा कर घायल होना पड़ता.

बचपन से शाहाना पिता के मनुवादी संदेश सुनसुन कर थक चुकी थी कि बेटी पहले पिता के हाथ की फिर पति के हाथ की और अंत में बेटे की हाथ की यानी कुल मिला कर पुरुषों के हाथ की कठपुतली है.

उस की मां को कंट्रोल में रखते हुए भी सुदेश लगातार उलाहने देता रहता, कभी संतुष्ट नहीं होता क्योंकि वह मानता है कि अगर उस ने पत्नी के प्रति प्रेम दिखाया तो वह कुछ न कुछ मांग कर देगी और उसे पूरा करने का मतलब ही है कि स्त्री को भाव देना. इस से स्त्रियां कंट्रोल से निकल जाती हैं. ऐसे में बेटी इस पिता से जयपुर, दिल्ली या आगरा अपनी नौकरी के लिए कैसे कहे? कैसे इस मजबूत दीवार से टकराए?

इधर शाहाना जहां अभी ट्रेनिंग कर रही है उस के 6 महीने पूरे होने को आए थे और वे अपनी दिल्ली के औफिस में उसे नौकरी औफर कर रहे थे. इन हैंड 22 हजार का औफर था. अभी शाहाना की यह पहली नौकरी थी, फिर उसे घर से निकलना था, पिता जो पालक नहीं मालिक के दया के चंगुल से बाहर आना था, इस हाल में यह रकम उस के लिए बेहतर विकल्प थी.

शाहाना की कोफ्त बढ़ती जा रही थी क्योंकि वह कोई शब्द और वाक्य ऐसा नहीं पा रही थी जिस से इस रूखे और स्वार्थी व्यक्ति को राजी किया जा सके. दरअसल, अभी उस के पास बाहर जाने और रहने को शैल्टर के लिए पैसे नहीं थे, सुदेश को कहे बिना निकले कैसे.

खैर, शाहाना को इन्हीं परिस्थितियों ने बहुत मजबूत बनाया था और आगे की विपत्तियों ने उसे लौह शक्ति में कैसे बदल डाला यह जानना भी दिलचस्प होगा.

खाने की मेज पर अब आमनेसामने सुदेश और शाहाना. 1 घंटे में उस के तर्क को उस के पिता ने जितनी ही बार काटा, उसे लताड़ा, नीचा दिखाया, शाहाना ने अपनी आंखों में आंसुओं की बाढ़ एक तरफ रोक, लगातार पिता का प्रतिरोध सह कर खुद पर विश्वास के साथ पिता के प्रत्येक परंपरावादी बात को तर्क सहित काट डाला.

आखिर तय यह हुआ कि दिल्ली न जा कर वह कोई और शहर ढूंढे़ जो अपेक्षाकृत लड़कियों के लिए थोड़ा सुरक्षित हो. दिल्ली जा कर शाहाना बिगड़ सकती है. अत: शाहाना को दिल्ली वाली नौकरी ठुकरा कर दूसरी नौकरी की तलाश शुरू करनी पड़ी.

अंतत: शुभम ने उसे जयपुर बुलाया जिस कंपनी में वह खुद मैनेजर था. बिना मेघ के बारिश मिल गई उसे. शाहाना ने अब तक आसपास की हवाओं को भी पता लगने नहीं दिया था कि शुभम नाम का कोई शख्स उस की जिंदगी में है. काफी मशक्कत के बाद शाहाना को बाहर जाने की इजाजत मिली. पिता साथ गए और एक कालेज जाने वाली लड़कियों के पीजी में शाहाना को रखवा दिया, जिस में शाहाना का कमरा चौथी मंजिल पर था. पहली मंजिल पर खाने का इंतजाम था.

शाहाना के कमरे में 2 और कालेजगोइंग लड़कियां थीं जिन के साथ शाहाना एडजस्ट नहीं हो पा रही थी. यहां और भी कई सारी दिक्कतें थीं, साथ ही महीने के 5 हजार लग रहे थे जो नई नौकरी में उस के लिए भारी मुश्किल थे.

इस बीच शुभम ने कहा था कि औफिस के पास ही वह जिस फ्लैट की तीसरी मंजिल में रहता है, वहां लिफ्ट के साथ रहने के लिए सारी सुविधाएं हैं और एक कमरे का 5 हजार है. इस फ्लैट में 3 कमरे हैं. दोनों में 1-1 लड़की हैं जो शुभम के ही औफिस में सीनियर हं. उन में से एक शायद एक महीने में किसी और शहर में नौकरी लेकर शिफ्ट होने वाली है. फिलहाल वह राजी है कमरा शेयर करने में, एक गद्दा खरीद कर शाहाना उस लड़की के कमरे में आ सकती है, बाद में वह कमरा शाहाना का हो जाएगा, कम से कम यहां अपनी आजादी से रह सकेगी.

यह फ्लैट अच्छे बड़े एरिया में था. तीसरी मंजिल के इस फ्लैट में 3 कमरे, कौमन डाइनिंग और किचन थी. मकानमालिक को भी पैसे के सिवा और किसी चीज से कोई मतलब नहीं था. यहां कंपनी में काम करने वाले लड़केलड़कियां पैसे की कमी के चलते इस तरह रहते थे.

अचानक शाहाना खुश हो उठी कि अब पापा सुदेश से महीने के अंत में पैसों के लिए हजार झिड़कियां नहीं खानी पड़ेंगी. उसे अब कभी घर जाने की मजबूरी नहीं होगी. मां का उसे अफसोस होता कि इतनी पढ़ीलिखी और कई कलाओं में पारंगत होने के बावजूद सिर्फ 2 मुट्ठी अन्न तक ही जिंदगी सिमटा ली. खैर, अब वह शुभम के साथ अपने सपनों का संसार सजाएगी.

जिस दिलोजान से शुभम को शाहाना ने चाह लिया था, जो उस की जिंदगी में एक पिता के खाली स्थान को अपने प्यार और विश्वास, स्नेह और देखभाल के जरीए भरने आया था, शाहाना उस के लिए क्या कुछ कर सकती है, यह उस का मन ही जानता था.

शुभम के प्रति शहाना कृतज्ञता से दबी जाती थी, जब घर में हमेशा उसे सहारा और प्रेम देने के बदले पिता से उलाहने और बेसहारा छोड़ दिए जाने का एहसास मिला हो, ऐसे में शुभम की छोटी से छोटी बात भी उस के लिए बेहद अहम थी और ऐसा लगता था शाहाना खुद को शुभम पर लुटा देने का संकल्प कर चुकी है.

मगर एक बड़ी मनोवैज्ञानिक गहरी बात है. जब जिंदगी की सचाई बन कर वह बात सामने आती है जिस से इंसान सब से ज्यादा डरता है तो इंसान उसे अपने साथ हुआ देख भी मान नहीं पाता. दूसरी बात यह थी कि इतनी खूबसूरत, मौडर्न, स्टाइलिश, इंटैलीजैंट लड़की खुद शुभम पर दीवानी हुई तो शुभम को अपना ग्रेड अचानक बहुत ऊंचा महसूस होने लगा. उसे अब महसूस होता कि वह बहुत कम में संतुष्ट हो रहा है. उसे तो बहुत कुछ मिल सकता है क्योंकि वह बहुत खास है.

इधर शाहाना ने शुभम के आसपास अपने प्रेम का मजबूत घेरा बना कर खुद ही उस में प्रवेश कर गई थी.

शाहाना की नौकरी औरों की तरह अच्छी चल रही थी. महीना खत्म होते ही पैसे आ रहे थे. वह दिल खोल कर शुभम के लिए खर्च करती. उस ने समझ लिया था शुभम है तो अब उस की जिंदगी बेफिक्र है. शुभम ने भी उसे कह रखा था जल्द ही वह अपने घर वालों से मिला देगा. 2 बार वीडियो कौल में वह शाहाना से घर वालों को मिलवा चुका था और शाहाना फूली नहीं समा रही थी कि ऐसा ही कोई परिवार उसे चाहिए था जो उसे भरपूर तवज्जो दे.

जयपुर में शाहाना रहने को तो शुभम के साथ रहती थी, लेकिन उस ने हमेशा अपने दायरे निश्चित कर रखे थे. वह आजाद खयाल थी, अपने हिसाब से जीना चाहती थी लेकिन उसे बखूबी अपनी मर्यादा मालूम थी. जब शुभम के घर वालों ने भी इस बात पर कोई सवाल नहीं उठाया कि एक ही फ्लैट में दोनों रहते हैं तो वह शुभम के घर वालों की उदारता देख काफी प्रसन्न हुई. वह इस बात को ले कर खुश थी कि सभी पैसे बचाने की जरूरत को समझ रहे थे. अभी शाहाना के पिता होते तो उफ. तोहमतों की बाढ़ आ जाती.

सबकुछ सही चल रहा था और शुभम की बात पर उस के घर वाले शाहाना को देख कर  चांदी की पायलें और मोती के कान के टौप्स दे कर गए थे. शाहाना के पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

शुभम के लिए वह बिछबिछ जाती और उस के किसी भी बुरे लगने वाले व्यवहार को आंख मूंद कर इगनोर करती. एक दिन औफिस में किसी लड़की को शुभम पीठ पर लाद कर हंसीमजाक करते सीढि़यों को अपनी से नीचे उतारता, शाहाना ने देखा, मगर उस पर उसे खुद से ज्यादा विश्वास था.

कई बार ऐसा होता कि शाहाना को घर भेज कर रात के 1 बजे तक पूल पार्टी में लड़कियों के साथ जलकेली कर के वापस आता. शाहाना उस के लिए इंतजार करती, खाना सर्व करती और कुछ पूछने की हिम्मत भी नहीं करती कि कहीं रूठ गया तो?

अब शुभम भी शाहाना को अपना अधिकार और अपनी संपत्ति सम?ाने लगा था. यह वह लड़की थी जो शुभम के अलावा किसी भी लड़के से कोई मतलब नहीं रखती थी. खुद को शुभम के आगे तुच्छ सम?ाती, उसके प्यार के बदले अपना प्यार उसे बहुत कम लगता. इस कृतज्ञता ने शाहाना को शुभम के आगे दिनोंदिन कमजोर कर दिया. अकसर शुभम औफिस के बाद देर से आता, शाहाना का बनाया डिनर करता, मीनमेख निकालता और सो जाता. शाहाना यह सोचती शुभम उसे अपना मानता है तभी इतना अधिकार जताता है.

इसी दौरान बरसात का मौसम आ गया यानी टूर ऐंड ट्रैवल कंपनी की मंदी का वक्त. इस मौसम में इन के औफिस में कुछ नए ट्रेनी कर्मचारियों की छंटनी कर दी जाती और सितंबर महीने से फिर नए ट्रेनी की खोज शुरू होती, जो कम से कम तनख्वाह में काम करें. इस तरह कमर्चारियों के भत्ते और तनख्वाह बढ़ाने से पहले ही कुछ कर्मचारियों की छंटनी कर कंपनी की बचत कराई जाती.

शुभम सीनियर था, उसे पता लग गया था कि छंटनी में 5 कर्मचारियों में एक शाहाना भी है. शुभम के लिए भी यह दिक्कत वाली बात थी, घर वाले नौकरी वाली लड़की चाहते थे, जिस से शुभम के पैसे उस की मां अनुपमा ले सके जैसे वह हमेशा लेती ही आई है.

शाहाना को बात पता लगी और उस ने यह नौकरी छोड़ एक नामी कंपनी में नौकरी कर ली जिस में काल सैंटर के वर्क फ्रौम होम की नाइट शिफ्ट थी.

महीनेभर में ही शाहाना को महसूस हुआ कि वह बस इतना ही नहीं चाहती है. आज के बाद जब वह शुभम के साथ पुणे जाएगी तो उसकी नौकरी फिर छूटेगी, उसे फिर से नौकरी के लिए हाथपांव मारने होंगे क्योंकि वह महज घरेलू बीवी बन कर जी नहीं पाएगी.

इधर शुभम का भी दिल बेजार, बेस्वाद हो गया. शाहाना कमाऊ बीवी के रूप में ही उसे स्वीकार है, लेकिन ऐसी नाइट शिफ्ट कर के कब तक काम चलेगा.

शाहाना ने बहुत सोचा और तय किया कि उसे इस नौकरी के साथ अलग कुछ करना होगा. अब तक शाहाना को उस का कमरा पूरी तरह मिल चुका था. उस ने एक नया आइडिया शुभम को बताया और इस से बढि़या क्या हो सकता था.

शाहाना अभी जहां नई जौब पर लगी है वह कंपनी काम करने का सारा सैटअप शाहाना के कमरे में इंस्टौल कर के गई थी, जहां से वह वर्क फ्रौम होम करती थी.

शाहाना रात 11 बजे से सुबह 8 बजे तक ड्यूटी करती थी. फिर फ्रैश हो कर नाश्ता बनाती शुभम और खुद के लिए. उस के बाद दोपहर 1 बजे तक सोकर उठ जाती और नहाधो कर लैपटौप खोल काम पर बैठ जाती. दोपहर 3 बजे तक कभी ओट्स उपमा या खिचड़ी या दालचावल बना कर खाती. जरूरत हुई तो बाजार जाती और शैड्यूल से फिर अपने लैपटौप ले कर काम पर बैठ जाती. शाम को उठ कर अपने कमरे की या कपड़ों की साफसफाई कर लेती, कुछ बिस्कुट वगैरह ले कर फिर काम. वैसे तो शाम 6 बजे शुभम के औफिस की छुट्टी हो जाती थी लेकिन अब जब शाहाना शुभम वाले औफिस नहीं जाती, शुभम के वापस आने का वक्त लगातार आगे बढ़ रहा था. आजकल वह 9-10 बजे आता और शाहाना को डिनर बनाते देख कर पैर फैला कर सो जाता. कभी मुंह भी फुलाता कि अभी तक डिनर रैडी कर लेना चाहिए था क्योंकि वह औफिस से आया है और उसे तुरंत खाना चाहिए.

शाहाना चुप रह कर काम करने वाली लड़कियों में से थी. वह और जल्दी हाथ चलाती. जब शुभम सो जाता वह फिर से नाइट ड्यूटी पर बैठ जाती.

कुल मिला कर एक अच्छा जीवन पाने और खास शुभम के साथ एक आजाद जिंदगी जीने के लिए उस ने एक ऐसा नया काम शुरू किया था, जिस से शाहाना की तो क्या शुभम और उस के पूरे खानदान की जिंदगी बदलने वाली थी.

आखिर शाहाना की दिनरात की मेहनत रंग लाई. उस का टूर ऐंड ट्रैवल का बिजनैस ‘लैट्स लिव’ यानी ‘चलो जीया जाए’ नाम की कंपनी की वैबसाइट शाहाना ने बना कर तैयार कर ली. इस बिजनैस में तकनीक और ताकत के साथसाथ ताउम्र शुभम के साथ चलने जैसा वादा और सपना था. अब बारी थी, इसे सरकारी मुहर लगा कर रजिस्टर्ड करवाने की.  कंपनी तैयार हो जाने के बाद शाहाना शुभम से बहुत प्यार और केयर की उम्मीद कर रही थी क्योंकि यह एक बहुत बड़ा काम उस ने अकेले कर दिखाया था.

शुभम इस बारे में बाहर जा कर अपने पिता से बात कर के आ गया और तय हुआ कि पिता ही कंपनी रजिस्टर्ड कराने का बीड़ा उठाएंगे, पैसे भरेंगे, कंपनी उन के पुणे के घर के पते से शुरू होगी.

शुभम अपने पैर में फ्रैक्चर होने का बहाना कर 8 महीने की छुट्टी ले कर अपने घर पुणे चला गया ताकि कंपनी रजिस्टर्ड करवा कर कंपनी का काम शुरू कर सके.

शाहाना तो जैसे धीरेधीरे अपनी जिंदगी का बटन शुभम को ट्रांसफर करती जा रही थी. वह उस के कहने पर जयपुर से ही बिजनैस का काम देखती और रात को नाइट ड्यूटी करती.

2 महीने बाद जब शाहाना की बनाई हुई कंपनी ‘लैट्स लिव’ रजिस्टर्ड हो कर वास्तव में शुरू हो गई तो शाहाना को पुणे बुला लिया गया और शाहाना घर पर बिना कुछ बताए सीधे अपना सामान ले कर और नौकरी से इस्तीफा दे कर पुणे आ गई. साथ में सपने और उम्मीदों की गठरी थी बहुत बड़ी.

पुणे आ कर शहाना ने मां को खबर दी कि उस की सहेली मेघना के घर रुकी है और वहीं से उस ने अपना बिजनैस शुरू किया है. लड़के का नाम सुनते ही पिता कहीं उस का सारा काम न बंद करवा दे इस का उसे डर था.

पिता का दिमाग गरम हो गया. लेकिन फिर सोचा छोड़ो, पैसे बच रहे हैं, जो करे सो करे.

इधर बिजनैस के लिए जितने घंटे शाहाना लैपटौप पर बैठे उतने ही कम होते. सारा टैक्निकल काम शाहाना को ही करना था क्योंकि बिजनैस उसी ने शुरू किया था. उसे ही सब पता था. शुभम सिर्फ लोगों से कौंटैक्ट करता था. लेकिन इधर बिजनैस के लाखों रुपए भी शुभम की मां को चाहिए, उधर शाहाना को बैठे काम करते देख भी उसे कोफ्त हो जाती. बेटे को भड़काती. औरत कहीं लैपटौप पर काम करे और मर्द को जो बोले सो करे. तू उस की बात क्यों मानता है? तू क्यों नहीं काम करता? उसे बरतन मांजने भेज, ढेर बरतन पड़े, हैं, पोंछा नहीं लगा अभी तक.’’

शाहाना के यहां आते ही कामवाली को हटा दिया गया था. अपने घर में रहने दे रहे हैं तो हिसाब इधर से बराबर करना था. शाहाना को यह सम?ा नहीं आया था.

दरअसल, शुभम की मां अनुपमा ऊपर से मीठी और अंदर से तेजाब थी. एक तरह से कहा जाए तो पिचर प्लांट. बेटा हो या पति हलका सा उस ने मुंह खोला और सारे हो गए उस के अंदर. समर्पित और आज्ञाकारी.

अपने रूपयौवन में सोलह कलाओं में पारंगत. ये उत्तर प्रदेश के कट्टर ब्राह्मण थे. शुभम के पिता बैंक कर्मचारी थे, और बाल विवाह किया था.

नतीजा अभी उन की 46 की उम्र और पत्नी की 40 की उम्र में अब उन के बेटे की उम्र 25 और बेटी 22 की. ऐसे में घमंड से भरी थी अनुपमा कि जिस उम्र में उस की उम्र की औरतें 8 या 10 साल के बच्चों को ले कर पस्त दिखाई देती हैं, वह हर जगह अपने बेटे या बेटी की दीदी सी लगती है. शाहाना को तब हैरान हुई जब अनुपमा ने यह कह डाला कि मैं तो इतनी जबान दिखती हूं कि बेटे को लोग मेरा पति सम?ा लेते हैं और बेटी को इस के पापा की पत्नी.’’

शाहाना को एहसास होने लगा कि वह गलत जगह आ गई है. फिर भी शाहाना ने जिंदगी को खुशी से जीने के लिए कई बड़े कदम उठा लिए. अब वापस आने का रास्ता उसे नहीं दिखता, दूसरे, सोचती शुभम के लिए यहां आई है, शुभम की मां के लिए चली जाए यह तो ठीक नहीं.

यह बिसनैस शहाना को बहुत कुछ दे रहा था. लोगों में उस के नाम से पहचान बन रही थी, कौंटैक्ट बढ़े थे उस के. काफी टूर भी हुआ था. 6-7 महीनों में शुभम और शाहाना क्लाइंट ले कर सिक्किम, लद्दाख, केदारनाथ आदि घूम आए थे. शाहाना को इस की बेहद खुशी थी. सोचती जिसे पिता ने हमेशा नाकारा, भोंदू, चरित्रहीन कह कर तब ताने मारे जब वह बहुत छोटी और मासूम थी. जब उस के पंख उगे ही नहीं थे, तभी से पिता ने कह दिया था यह लड़की कुछ नहीं कर सकेगी, इस से कुछ होगा ही नहीं.

भोली सी शाहाना पर कितना बुरा असर पड़ा था, खूंख्वार पिता को पता ही नहीं चला और अब तो एक परिवार की जिंदगी हिज बदल दी थी उस ने.

शाहाना के अंदर खुद को ले कर जो आत्मविश्वास की कमी थी, वह अब दूर हो गई थी, उस के अंदर अब एक शक्तिशाली और जिद्दी लड़की की पैदाइश हो गई थी. अब उस ने धीरेधीरे हर एक इंसान को अच्छी तरह पढ़ना भी शुरू कर दिया था. बिजनैस बढ़ाने की ताकीद भी यही थी कि लोगों को पहचाना जाए, उनके अंदर की बात को उन के न चाहते हुए भी समझ लिया जाए.

अनुपमा और संतोष ट्रांसफर की वजह से मुंबई चले जाने वाले थे. अब 2 कर्मचारी भी रखे गए थे, वे दूर शहर से आए थे, इसलिए इन के भी रहने का इंतजाम इसी मकान में किया जाने वाला था ताकि पैसे की बचत हो जाए सब की.

अब विदेश जाने की आइटनरी भी बनने लगी थी, किसकिस जगह के टूर पैकेज बन सकते हैं सब फाइनल करने के बाद शाहाना ने इस कंपनी को अब प्राइवेट लिमिटेड बनाने के प्रोसैस के लिए शुभम पर जोर डालना शुरू किया.

विदेशी टूर से ही वास्तव में अच्छा रोजगार हो सकता था लेकिन इस के लिए कंपनी का प्राइवेट लिमिटेड होना और पार्टनरशिप डील स्पष्ट होनी जरूरी थी.

खाता खुला और शाहाना के पैरों तले की जमीन टूट धंस गई. इसी वजह से शुभम ज्यादा कानूनी पचड़े में नहीं पड़ना चाहता था और जैसेतैसे शाहाना को काम में व्यस्त किए रहता.

शाहाना का माथा गरम हुआ और पहली बार वह चीख पड़ी. इस समय पूरे परिवार के लोग शुभम के मामा के घर गए थे क्योंकि अगले हफ्ते वे लोग मुंबई शिफ्ट हो रहे थे.

पूरी ‘लैट्स लिव’ कंपनी शुभम के नाम पर रजिस्टर थी. शाहाना का कहीं नामोनिशान नहीं था. बात खुली तो शाहाना को पता चला कि शुभम के पिता ने जब रजिस्ट्री के पैसे दिए तो जिस शाहाना ने पूरी कंपनी का आइडिया दिया और खुद इतनी मेहनत से अकेले एक कंपनी को खड़ा किया उस का ही पूरा अस्तित्व मिटा डाला. पूरी कंपनी सिर्फ शुभम के नाम से रजिस्टर कराने का आइडिया शुभम के पिता का ही था.

शाहाना ने शुभम को पूछा, ‘‘ऐसा नहीं था क्या कि हम दोनों मिल कर 15 हजार में कंपनी रजिस्टर करवा लेते? फिर पुणे में तुम्हारे घर का ही पता क्यों दिया गया और कंपनी सिर्फ तुम्हारे नाम से? क्यों मैं कहां गई? क्या तुम्हारे पिता ने इस कंपनी को झटका लेने के लिए यहां मुझे नहीं बुलवाया? तुम्हें भी ये सब आसान लगा?’’

‘‘तो तुझे इतना लालच भी क्यों है. शादी के बाद कौन सा तू बिजनैस करेगी? बच्चे पैदा करेगी, उन्हें संभालेगी, मां के साथ रहेगी, उन की सेवा करेगी. तुझे नाम की क्या जरूरत? पैसे चाहिए तो मुझ से मांगेगी.’’

शाहाना को लगा रेत पर उकेरे उस के सारे सपनों पर किसी ने अपने जूते घिस दिए हैं. थोड़ी देर आश्चर्य से शुभम को देखती रही. फिर दर्द से पिघली और जकड़ी हुई आवाज में पूछा, ‘‘यानी जिस पिता की स्वार्थी सोच से भागने के लिए मैं ने इतने दर्द और अपमान सहे, आज मेहनत और बुद्धि से इतनी बड़ी कंपनी खड़ी कर देने के बाद और तुम्हें ये पैसे वाला कैरियर बना देने के बाद तुम्हें अपनी कमाई के जमाए पैसे से 2 लाख की बाइक खरीद देने के बाद, तुम्हें कई महंगे गिफ्ट देने के बाद, तुम्हारे मांबाप का घर भरने के बाद, तुम यह कहोगे कि मैं इस कंपनी की सीईओ नहीं,  तुम्हारी मां की कामवाली हूं.’’

शुभम ने अपने नए 2 कर्मचारियों के सामने शाहाना को कस कर तमाचा जड़ दिया, ‘‘तू ने मेरे मांबाप को कुछ कहा तो तुझे अभी घर से बाहर निकाल दूंगा. चल जा अपने कमरे में, बड़ी आई कंपनी की सीईओ. ऐसा हुआ तो शादी नहीं करूंगा तुझ से.’’

शाहाना को इस व्यवहार का जितना दुख था उस से कहीं ज्यादा उसे शुभम का भरोसा और विश्वास टूट जाने का आश्चर्य था. उसे कभी ऐसा नहीं लगा था कि शुभम दकियानूसी है या उस के सम्मान का खयाल नहीं रखेगा. उस ने तो सोचा था शादी के बाद भी शुभम और शाहाना मिल कर कंपनी चलाएंगे, बाहर कस्टमर ले कर भी साथ जाएंगे और चूंकि इस के मातापिता की उम्र अभी कम है, जिम्मेदारी उतनी नहीं रहेगी, इसलिए उन के पास आनाजाना बनाए रखते हुए भी कुछ साल आसानी से बिजनैस को बढ़ाने में जुटे रह सकेंगे.

शाहाना ने यहां आने के बाद बड़ी खुशी से घर का काम निबटाया, साथ खाना भी बनाया और बिजनैस भी पूरी शिद्दत से संभाला लेकिन बिजनैस में बैठते ही शुभम की मां का ताना और उसी सांचे में ढल कर शुभम का रिएक्शन, शुभम के पिता का हमेशा शाहाना को सीख दे कर कंट्रोल में रखने की कोशिश, यहां तक कि घर से बाहर निकलने पर भी पाबंदी क्योंकि बाहर के लोग अगर देखेंगे और कहीं शादी नहीं हुई तो शुभम को फिर मोटे दहेज के साथ दुलहन मिलना मुश्किल होगा, शाहाना के दिलोदिमाग पर एक बड़ा प्रश्न चिह्न बना रहा था.

बात दोनों के बीच भले ही बंद थी लेकिन मसला इस कंपनी का था. शाहाना ने इस कंपनी में अपना खून डाला था, इतनी जल्दी निकल नहीं सकती थी. शुभम को भी विदेश के टूर से ढेरों पैसे कमाने थे. शाहाना की जिद पर राजी हो कर उस ने खुद और शाहाना के नाम आधेआधे की पार्टनरशिप की नई कंपनी फिर से खोली. इस बार शाहाना ने फिर से मेहनत की और नई कंपनी सामने आई ‘लिवाना’ नाम से. ‘लिवाना प्राइवेट लिमिटेड’ की रजिस्ट्री भी अब शाहाना ने कंपनी के पैसे से दोनों के नाम करवा. अब ‘लिवाना’ की रजिस्टर्ड सीईओ शाहाना थी.

अनुपमा और संतोष मुंबई से अकसर आते रहते और उस वक्त शाहाना पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता. मानसिक, शारीरिक तकलीफों से जुझते हुए भी उसे सारे काम करने पड़ते.

मगर जिंदगी ने सचाई की उंगली जो शाहाना की आंखों में घुसा दी थी, इस से उस का वजूद अब बहुत अलग सा हो गया था. उस में गजब की मल्टी टास्किंग कैपैसिटी बढ़ गई थी. अपने लिए उस ने स्कूटी खरीदी थी और किन्हीं भी अत्याचार के दिनों में वह स्कूटी ले कर निकल पड़ती और सड़क पर घूमती, लेकिन उन के तानों को बैठे नहीं सुनती. बिजनैस का नुकसान होता. शुभम मां को चुप कराता. एक तरह से वे लोग बिजनैस के लिए शाहाना पर निर्भर थे क्योंकि शुभम को टैक्निकल काम नहीं आते थे.

शाहाना ने बाहर से मां को एक रात फोन किया और सारी बातें बताईं. निशा बिलकुल आश्चर्यचकित नहीं हुई. किशोर बच्ची को पिता के रूप में जब एक पुरुष का नेह और केयर मिलती है तब उस के दरदर भटकने की संभावना नहीं रहती. जिस का पिता ही बेटी के अस्तित्व को रौंद रहा हो तो स्वाभाविक था जहां से उसे सहारा मिलने का भाव मिला होगा टूटी, भीगी चिडि़या उस पेड़ के आश्रय में तो जाएगी ही न. अब उस चिडि़या को क्या मालूम कि यह पेड़ भी खून चूसने वाला होगा.

मां ने कहा, ‘‘तू एक मासूम और पवित्र लड़की है, तू दिल सख्त कर के उस नर्क से निकल आ.’’

‘‘ये लोग आने नहीं देंगे इन का बिजनैस अभी पूरी तरह बना नहीं है, इसे बनाने और संभालने का काम मैं ही कर रही हूं.’’

‘‘तू अपनी लाइफ को बचा, बिजनैस फिर बना लेना. अपने बाजुओं के दम पर भरोसा रख. पापा से कहो अपने बिजनैस की बात, लालची हैं तेरे पापा, वे खुद तुम्हें वहां से निकाल लाएंगे. बाद में फिर और बुद्धि निकाली जाएगी.’’

उस दिन शाहाना को पहली बार लगा कि उस की मां कितनी सम?ादार और बड़े दिल की है. मां से लंबी बातचीत के बाद शाहाना ने खुद को तैयार कर लिया कि किश्ती बदली जाए.

वह बिजनैस पर काम कर रही थी. वह लोगों के दुर्व्यवहार और उपेक्षा की शिकार थी, वह घर का सारा काम निबटाती, वह रात तक जग कर क्लाइंट के साथ कंपनी के डिस्प्यूट सुल?ाती, शुभम के साथ कस्टमर के झगड़े के समाधान देती, नए लड़कों और लड़कियों को काम सिखाती, कंपनी के लिए ट्रेनी हायर करती और उन्हें टास्क देती और उस के बाद अपने लिए रास्ता तलाशती कि कैसे इस घर से निकले और जब सोने जाती तब सीने में शुभम से बिछड़ने का दर्द महसूस करते हुए थक कर सो जाती.

काम तो फैल रहा था और कस्टमर ले कर वे उन की कंपनी के जरीए जापान, थाईलैंड, मलयेशिया, बाली, वियतनाम घूमने जा रहे थे. शाहाना अपनी तरफ से शुभम को पाने के लिए कभीकभी दिलोजान से कोशिश भी करती लेकिन शुभम अब लगातार अपनी मां के कौंटैक्ट में रहता, हर पल उस की मां की इंस्ट्रक्शन चलती और शुभम का उसी तरह व्यवहार दिखता.

विदेशी भूमि पर भी शुभम ने शाहाना से अपनापन नहीं दिखाया, अकेले कई बार मुसीबत में छोड़ा और शाहाना ने शुभम को समझने की कोशिश की तो थप्पड़ भी जड़ा.

इधर शुभम की मां ने अब शाहाना को यह कहना शुरू कर दिया था, ‘‘बेटे की शादी हम तुम्हारे पिता के बिना नहीं करेंगे. हमारे में दमदार दहेज के बिना शादी नहीं होती. समाज में इज्जत के लिए हम उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों को दहेज लेना ही पड़ता है.’’

उन्हें दहेज में कम से कम बीस लाख की गाड़ी और डैस्टिनेशन वैडिंग के साथसाथ घर भर की सामान, नए खरीदे फ्लैट का इंटीरियर, सोने के गहने, चांदी के बरतन, घर वालों को महंगे गिफ्ट और कैश इतना देना होगा जिस से वे अपनी बेटी की शादी भी निबटा लें.

शाहाना के पिता की आर्थिक स्थिति भी सामान्य थी और वह पिता जो बेटी पर एक दूध के पैसे के भी सौ हिसाब मांगता था, वह बेटी के लिए क्या खड़ा होता. आपसी समझ वाली बात ही नहीं थी यहां.

और शुभम चुप था, ‘‘मां के आगे मैं कुछ नहीं कहूंगा. मै एक आज्ञाकारी पुत्र हूं.’’

शाहाना शुभम को जितना पहचान रही थी वह खुद की पसंद पर नफरत करने लगी थी. शुभम के पास रीढ़ की हड्डी ही नहीं थी. एक तो दहेज और वो भी प्रेम में. रुपयों के लालच में वह मां के अन्याय को आज्ञा कह कर हाथ ?ाड़ रहा था.

शाहाना हार गई थी अपने प्रेम में. उस ने अचानक ठान लिया कि यह रिश्ता अकेले के वश की बात नहीं है. शादी के बाद इस से भी बुरा होगा. इस से अच्छा वह निकल ही आए इस रिश्ते से, भले ही अंदर घाव कितना भी गहरा हो जाए. उस ने इंडिया वापस आने के बाद अपने पापा को फोन किया और मां के कहेअनुसार बात की.

पापा सुदेश को जब मालूम हुआ कि बेटी किसी बड़ी टूर ट्रैवल कंपनी की सीईओ है और अगर कंपनी किसी तरह वह यहां शिफ्ट कर लेती है तो शुभम को हटा कर वह खुद कंपनी की आधी पार्टनरशिप रख लेगा. इस से एक तो वह नौकरी छोड़ देगा और ढेरों पैसे बेटी के मेहनत पर ही पा जाएगा, दूसरे बेटी घर पर रहेगी तो पूरी तरह उस के कब्जे में. कई लोगों में दूसरों को कंट्रोल में रखने का एक जनून होता है, हो सकता है यह एक मानसिक बीमारी हो.

शाहाना ने अभी पापा से कुछ और नहीं कहा सिवा इस के कि बिजनैस कर के पैसा कमाने के लिए वह इन लोगों के पास आई थी लेकिन ये लोग सारे पैसे लूट लेना चाहते हैं और अब वह अपने पिता के पास आना चाहती है.

सुदेश को लगा बेटी और उस के बिजनैस को हाथ करना आसान होगा, क्योंकि वह बहुत सीधी है. अत: वह पुणे आया और काफी बहसबाजी के बाद सुदेश के साथ शाहाना अपने घर की ओर रवाना हुई पर रवाना हुई दिल पर बहुत सारे चुभे हुए कांटे ले कर. दर्द की इंतहा थी. कालेज के दिनों का शुभम बुरी तरह याद आ रहा था.

आज शुभम की वजह से ही शुभम को खो दिया उस ने और इस नासूर से रिसते खून के दर्द को शुभम देख ही नहीं पाया. वह उस के लिए बस पैसे बनाने और घर के काम करने की एक मशीन हो कर रह गई थी. जहां प्यार और सम्मान न हो, कितना ही दुख क्यों न हो, उस रिश्ते से निकल आना ही बेहतर है.

घर आ कर शाहाना को इतने बड़े झटके से उबरने का मौका ही नहीं दिया गया. उस के शोक उस के दिल में लगातार घाव कुरेद रहे थे और वह पिता को अलग झेल रही थी. ‘लिवाना’ का काम उसे करना पड़ रहा था क्योंकि क्लाइंट आ रहे थे, उन्हें फेंका नहीं जा सकता था. उन के सामने शाहाना की साख की भी बात थी. मगर वह धीरेधीरे सब सोच भी रही थी कि इस कंपनी से कैसे निकले या अपने लिए कोई नई कंपनी खोले लेकिन इस के पिता उसे दिन रात इस कंपनी में पार्टनरशिप देने या जल्दी नई कंपनी खोलने के लिए इतना ज्यादा विवश करने लगे कि वह फिर से खुद को सिलबट्टे में पिसा हुआ महसूस करने लगी.

शाहाना की दिक्कतों को समझे बिना सुदेश अपने लिए पीछे ही पड़ गया. शाहाना की रात की नींद उड़ गई. शुभम भी फोन कर के परेशान करने लगा. सिर्फ पैसे और पैसे, पिता हो या प्यार सभी दमड़ी के लिए मक्खी की तरह उस की चमड़ी खींचते चले जा रहे थे. पिता दिनरात उसे धमकाता, शुभम दिनरात पैसे मांगता क्योंकि कंपनी के अकाउंट का होल्ड शाहाना के पास था और शुभम और उस के मां बाप कंपनी खाली करने में लगे थे.

शाहाना ने तय किया, ‘‘बस अब और नहीं. निकाल फेंकना है जिंदगी से इन स्वार्थी कीड़ों को. उस ने मां से अपनी मंशा बताई और मां ने उसे गले लगा कर आशीष दिया.

शाहाना अब एक बड़े शहर में आ गई है. किराए पर अपना फ्लैट लिया है, खुद की मेहनत और तपस्या के फल ‘लिवाना’ कंपनी से खुद को अलग कर लिया है, साथ ही दिल लोहे का कर लिया है.

एक नई कंपनी के साथ फिर से अपनी नई जिंदगी की शुरुआत की है शाहाना ने. भले ही उस ने दर्द देने वाले बहुत सारे रिश्तों को खो दिया है लेकिन बदले में खुद को पाया है. इस बार खुद के प्यार में है वह. खुद से कहते हुए कि चलो जिया जाए.

Hindi Fiction Stories : एक किरण आशा की

Hindi Fiction Stories : हर पटाखे की आवाज मेनका के सीने पर हथौड़े की तरह पड़ रही थी. उन चोटों से होने वाले दर्द से वह किसी विरहिणी की तरह तड़प रही थी. जब उस से रहा नहीं गया तो वह उन आवाजों से बचने के लिए भीतर के कमरे की ओर बढ़ गई.

‘‘मां,’’ अभी मेनका 2 कदम भी नहीं चल पाई थी कि उस की 8 वर्षीय बेटी डिक्की ने पुकारा.

‘‘क्या है?’’ मेनका को न चाहते हुए भी रुकना पड़ा.

‘‘आज आप पटाखे नहीं चलाएंगी?’’ डिक्की उस के पास आ कर उस की टांगों से लिपटती हुई बोली. मेनका के मन में उठ रहे तूफान से वह पूरी तरह अनजान थी.

मेनका ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘नहीं, बेटी.’’

‘‘क्यों?’’ डिक्की उसी तरह उस से लिपटी रही.

‘‘मेरा दिल नहीं करता, बेटी. बेटे सुप्रीम कोर्ट ने भी मना किया कि पौल्यूशन की वजह से पटाखे नहीं चलाओ. इस से धुआं फैलता है,’’ कहते हुए मेनका का स्वर भर्रा गया और आंखें भीग गईं क्योंकि यह बात उस के मन से नहीं निकली थी, डिक्की को चुप करने का बहाना ही था.

डिक्की ने अभी मां की आंखों की ओर नहीं देखा था. मां से अपनी बात मनवाने के लिए उन्हें पिछली दीवाली की याद दिलाते हुए कहा, ‘‘पर पिछली दीवाली पर तो आप न खूब पटाखे चलाए थे. इस बार आप का दिल क्यों नहीं कर रहा है?’’

डिक्की की भोली सी बात सुन कर मेनका को लगा कि उस के भीतर कुछ चटक गया है. एकसाथ न जाने कितनी यादों ने उसे चारों ओर से घेर लिया.

‘‘चलो न मां,’’ उसे खामोश पा कर डिक्की ने फिर अपना आग्रह दोहराया.

डिक्की के नन्हे से हाथ का स्पर्श पाते ही मेनका अतीत में से निकल कर वर्तमान में आ गई, ‘‘जिद नहीं करते, बेटी,’’ किसी तरह उस से पीछा छुड़ाने की चाह में मेनका ने उसे बहलाना चाहा, ‘‘आज मेरी तबीयत सचमुच ठीक नहीं है.’’

‘‘मैं सम?ा गई,’’ मेनका के मनोभावों को देख कर डिक्की ने भोलेपन के साथ कहा, ‘‘आज आप पटाखे क्यों नहीं चला रहीं?’’

डिक्की की बात के उत्तर में मेनका कुछ भी न कह पाई. पत्थर की मूर्ति बनी डिक्की की ओर देखती रह गई मानो पूछ रही हो, ‘क्या… क्या सम?ा गई तुम?’

मासूम डिक्की मां की आंखों में उठे प्रश्न को तो न पढ़ पाई लेकिन मेनका को खामोश पा कर उस ने अपने दिल की बात कह ही दी, ‘‘आज पापा हमारे घर होते तो आप भी पिताजी के साथ पिछली दीवाली की तरह बहुत सारे पटाखे चलातीं. चाहे जितना भी बैन लगा हो.’’

डिक्की की बात ने मां के अस्तित्व का झकझोर कर रख दिया. कितने ही प्रश्नों ने एकसाथ उस के  मन में जन्म ले लिया. उसे अपने चारों ओर प्रश्न ही प्रश्न दिखाई देने लगे थे. डिक्की के सामने वह खुद को बौनी सी महसूस करती हुई सोचने लगी कि अगर डिक्की उसी प्रकार उस से प्रश्न करती रही तो वह पागल हो जाएगी. डिक्की की बातों में छिपी सचाई को सहन करने में वह खुद को बुरी तरह असमर्थ पा रही थी.

‘‘डिक्की…’’ तभी एक बच्चा दौड़ता हुआ उस के पास आ कर बोला, ‘‘जल्दी चलो वरना सैम सारे पटाखे चला देगा.’’

डिक्की असमंजस में पड़ गई. मां को छोड़ कर जाने का उस का मन नहीं था पर पटाखों के समाप्त हो जाने की बात उस के नन्हे से मन को बुरी तरह मथ गई. थोड़ी देर के लिए वह यही सोचती रही कि उसे क्या करना चाहिए.

‘‘जाओ, बेटी,’’ डिक्की से मुक्ति पाने का सुनहरा अवसर पा कर मेनका ने कहा, ‘‘वरना तुम्हारे सारे पटाखे खत्म हो जाएंगे. फिर तुम क्या चलाओगी? बाजार में वैसे भी अब नहीं मिलते. न जाने ये बच्चे कहां से ले कर आए थे.’’

‘‘चलो,’’ डिक्की मेनका की बात सुनते ही उस बच्चे का हाथ थाम कर बाहर की ओर भाग गई.

उन के जाते ही मेनका ने चैन की सांस ली. इस भय से कि कहीं डिक्की फिर न आ जाए, वह तेज कदमों से चलती हुई कमरे में जा कर लेट गई.

जिन यादों से बचने के लिए मेनका वहां आई थी, उन्हीं यादों ने उसे यहां भी आ घेरा. प्रत्येक घटना उस की आंखों के सामने सिनेमा की फिल्म की तरह घूमने लगी…

‘‘माधवी का फोन आया था,’’ उस दिन जैसे ही रमन ने कमरे में प्रवेश किया, मेनका ने और दिनों की तरह मुसकराते हुए उस का स्वागत करने के स्थान पर यह संदेश दिया.

माधवी का नाम सुनते ही रमन रोमांचित सा हो गया और भूल गया कि उस समय वह अपनी पत्नी से बात कर रहा था, ‘‘वह… वह कहां से आ टपकी?’’ अपनी ही रौ में उस ने पहले प्रश्न का उत्तर मिले बिना एक और प्रश्न कर डाला, ‘‘क्या कह रही थी.’’

मेनका बड़े ध्यान से उस के चेहरे पर आनेजाने वाले भावों को देखती रही. उन्हीं भावों को देखते हुए उस ने महसूस किया कि माधवी कभी जरूर रमन के मन की कमजोरी रह चुकी होगी. उस का नारी मन ईर्ष्या से भर उठा. रमन की बात का उत्तर दे कर उस ने पूछा, ‘‘यह माधवी कौन है?’’

मेनका का कमजोर लेकिन चुभता हुआ स्वर सुन कर रमन को अपनी भूल का एहसास हो गया. दिल में आया कि वह बात बदल दे लेकिन मेनका के चेहरे पर छाए भावों को देख कर उसे लगा कि उस का झूठ सच नहीं बन सकता. बात को गोल करते हुए उस ने बताया, ‘‘हम दोनों कालेज में एकसाथ पढ़ा करते थे.’’

मेनका के होंठों पर एक विषभरी मुसकान तैर गई, ‘‘सिर्फ साथ पढ़ा करते थे या कुछ और भी था आप दोनों के बीच?’’

रमन चारों ओर से घिर गया था. सच बोलने का उस में साहस नहीं रह गया था और ?ाठ को वह सच बना नहीं पा रहा था. स्वयं को आने वाले तूफान का सामना करने के लिए तैयार करते हुए उस ने पूछा, ‘‘सच जानना चाहती हो?’’

‘‘सच क्या है, यह तो मैं वैसे भी जान चुकी हूं.’’

‘‘क्या जान लिया है तुम ने?’’

‘‘अगर मेरा विचार गलत नहीं है तो आप उसे प्यार करते रहे हैं. उस के साथ कई रातें रह चुके हैं.’’

‘‘हां,’’ न चाहते हुए भी रमन को स्वीकार करना पड़ा, ‘‘लेकिन यह तब की बात है, जब हम कालेज में पढ़ा करते थे.’’

तभी दरवाजे की घंटी की आवाज सुन कर मेनका ने मोबाइल पर समय देखा. समय देखते ही उस के मुंह से निकल गया, ‘‘शायद वे लोग आ गए.’’

‘‘कौ… कौन लोग?’’ अनचाहे ही रमन

पूछ बैठा.

‘‘आप की माधवी,’’ मेनका के स्वर में कटाक्ष था, ‘‘6 बजे आने को कहा था उस ने,’’ दरवाजे की ओर बढ़ते हुए मेनका ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘6 बजने ही वाले हैं. वही होगी अपने हब्बी के साथ.’’

‘‘सुनो,’’ मेनका के पीछे चलते हुए रमन ने उसे पुकारा.

मेनका रुक गई और पलट कर खामोश सी वह रमन की ओर देखने लगी.

रमन मन ही मन डर रहा था कि कहीं मेनका माधवी को बुराभला न कह दे. यही कहने के लिए रमन ने उसे रोका था लेकिन कहने का साहस नहीं कर पाया. मेनका को अपनी ओर प्रश्नसूचक निगाहों से देखता पा कर उस ने सिर ?ाका लिया.

‘‘सम?ा रही हूं कि इस समय आप के दिल में क्या है और आप क्या कहना चाह रहे हैं,’’ मेनका उसी की ओर देखती हुई बोली, ‘‘घर आए गैस्ट की किस तरह रिस्पैक्ट की जाती है, मैं अच्छी तरह जानती हूं. आप चिल रहिए. जो आप के दिल में है वैसा कुछ नहीं होगा,’’ और रमन को वहीं खड़ा छोड़ कर वह आगे बढ़ गई.

रमन के मन पर से जैसे मनों बो?ा उतर गया. स्वयं को नौर्मल बनाने की कोशिश करता हुआ मेनका के पीछेपीछे डोर की ओर बढ़ गया.

मेनका का विचार ठीक ही निकला. माधवी और उस का पति दोनों डोर पर खड़े थे. स्माइल फेंकते हुए उन को वैलकम करती मेनका उन्हें भीतर ले आई.

अपने पति का परिचय रमन से करवाते हुए माधवी ने कहा, ‘‘यह ता तुम जान ही गए होंगे कि ये मेरे पति हैं.’’

उस का इशारा अपने पति की ओर था, ‘‘इन का नाम राहुल है.’’

रमन ने मुसकराते हुए राहुल से हाथ मिलाते हुए कुछ औपचारिक शब्द कहने के बाद पूछा, ‘‘क्या मु?ो भी इन का परिचय देना होगा?’’ उस का संकेत मेनका की ओर था.

‘‘नहीं,’’ उत्तर माधवी ने ही दिया, ‘‘हम फोन पर एकदूसरे का परिचय पा चुकी हैं.’’

अब तक वे ड्राइंगरूम में पहुंच चुके थे. उन्हें बैठाने के बाद राहुल की बगल में बैठते हुए रमन ने बातों का सिलसिला चालू रखने के लिए पूछा, ‘‘आप को हमारा फोन नंबर कहां से मिल गया?’’

‘‘इसे तुम संयोग ही कह सकते हो,’’ माधवी ने कहा, ‘‘हमारे पड़ोस वाले फ्लैट में हमारा क्लासफैलो दीपक रहता है. उसी ने मुझे तुम्हारे बारे में बताया. वरना मुझे तो यह भी मालूम नहीं था कि तुम आजकल सुंदर नगर में ही हो…’’

‘‘रमन, तुम्हारे साथ अपने रिलेशन के बारे में इस ने मुझे बहुत पहले बता दिया था,’’ माधवी की बात काट कर राहुल ने कहना शुरू किया, ‘‘उसी दिन आप को देखने, आप से मिलने की जिज्ञासा मन में पैदा हो गई और जब कल इस ने बताया कि आप यहां सुंदर नगर में ही हैं तो मैं आप से मिलने के लोभ को न छोड़ सका. आप का पता मिलते ही चले आए हम.’’

तभी मेड चाय ले आई. चाय की चुसकियां लेते समय भी उन की बातें जारी रहीं.  उस दिन मेनका ने उन्हें खाना खाने के बाद ही भेजा.

इस के बाद उन की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता ही गया. माधवी का अब जब भी दिल करता वह उन से मिलने आ जाती. कभी अकेले ही और कभी राहुल के साथ. रमन भी उन से कई बार मिलने जा चुका था. 2-1 बार मेनका भी उस के साथ गई थी.

कुछ दिन बाद रमन एकाएक देर से घर आने लगा. मेनका तो पहले ही से ईर्ष्या की आग में जल रही थी. रमन के देर से आने में उस आग ने घी का काम किया. उसे इस बात का पूरा यकीन हो गया कि रमन केवल माधवी के कारण ही देर से आता है.

स्वयं को उपेक्षित सी पा कर एक दिन मेनका का स्वयं पर से संयम उठ गया. जैसे ही रमन ने कमरे में प्रवेश किया, मेनका ने कटु स्वर में पूछा, ‘‘लगता है कालेज के मस्ती भरे दिन फिर लौट आए हैं.’’

‘‘क्या?’’ रमन विस्मित सा उस की ओर देखते हुए बोला, ‘‘क्यों कह रही हो तुम?’’

‘‘वही जो सच है.’’

‘‘और सच क्या है?’’

‘‘क्या आप नहीं जानते?’’

‘‘अगर जानता होता तो तुम से पूछता क्यों?’’

‘‘इस तरह अनजान बन कर आप सचाई को ?ाठला नहीं सकते,’’ अपने मन की भड़ास निकालती हुई मेनका आवेश में बोली, ‘‘क्या यह सच नहीं है कि आजकल आप माधवी के साथ अपनी शामों को रंगीन बना रहे हैं?’’

मेनका के क्रोध का कारण सम?ा आते ही रमन हलके से मुसकरा दिया, ‘‘नहीं, तुम ने जो कुछ भी कहा है उस में लेशमात्र भी सचाई नहीं है?’’

‘‘फिर आप देर से क्यों आते हैं.’’

‘‘सच मानो माधबी से मिले मुझे 7 दिन हो गए हैं,’’ रमन ने अपनी सफाई दी, ‘‘रमेश छुट्टी गया हुआ है. आजकल उस काम भी मुझे ही निबटाना पड़ता है और…’’

‘‘काम का झूठा बहाना बना कर आप मुझे बहला नहीं सकते,’’ रमन की बात पूरी होने से पहले ही मेनका ने काट दी.

रमन का चेहरा एकदम गंभीर हो गया. सोफे पर पीठ टिका कर बिना कुछ कहे वह मेनका की ओर देखता रहा. देर तक उस प्रकार देखते रहने के बाद उस ने कहा, ‘‘मैना,’’ प्यार से रमन मेनका को इसी नाम से पुकारता था, ‘‘पतिपत्नी के संबंधों की जड़ विश्वास हुआ करती है. जब उस जड़ को शकरूपी घुन लग जाता है तो एक दिन संबंधों का पौधा स्वयं ही गिर जाता है. तुम्हारे मन में भी शक पैदा हो गया है और एक दिन तुम्हारे मन का यही बहम हमारे घर को तबाह कर देगा.’’

‘‘क्या आप चाहते हैं कि यह घर बरबाद न हो?’’

‘‘हां, लेकिन सिर्फ मेरे चाहने से कुछ नहीं होगा. इसे बचाने के लिए तुम्हें भी मेरे कंधे से कंधा मिला कर चलना होगा.’’

‘‘क्या करना होगा मुझे?’’

‘‘अपने मन में से वहम को निकालना होगा.’’

‘‘अगर आप सचमुच यह चाहते हैं तो आप माधवी से मिलना छोड़ दीजिए,’’ मेनका ने अपनी शर्त रख दी, ‘‘उसे साफसाफ कह दीजिए कि वह यहां न आया करे.’’

‘‘यह मुझ से नहीं होगा,’’ रमन ने उस की बात मानने से इनकार कर दिया.

‘‘इस का मतलब यह कि आप मेरी बात नहीं मान रहे हैं?’’

‘‘अगर तुम्हारी बात में थोड़ा सा भी वजन होता तो मैं जरूर मानता. जो कुछ भी तुम ने कहा है वह सब तुम्हारे वहम की उपज है,’’ रमन का स्वर कठोर हो गया था.

कमरे में मरघट जैसी खामोशी छा गई थी. बहुत देर बाद मेनका ने ही उस खामोशी को तोड़ा एक विस्फोट के साथ, ‘‘अगर आप उस से मिलना नहीं छोड़ सकते तो आप को हम दोनों में से एक को चुनना होगा.’’

‘‘मेरा यकीन करो, मैना,’’ उसे अपनी बात का यकीन दिलाने के लिए रमन ने सामान्य स्तर में कहा, ‘‘जो तुम सोच रही हो हमारे बीच वैसा कुछ भी नहीं है. तुम बेकार में ही तिल का पहाड़ बना रही हो.’’

‘‘आप जो चाहे कह सकते हैं, लेकिन आप को फैसला करना ही होगा.’’

‘‘फैसला मु?ो नहीं, तुम्हें ही करना होगा,’’ रमन ने सारी बात उस पर छोड़ दी, ‘‘लेकिन कोई भी निर्णय लेने से पहले मेरी बातों को ठंडे दिमाग से सोच लेना. कहीं ऐसा न हो कि आवेश में लिया गया तुम्हारा निर्णय तुम्हें जिंदगीभर पश्चात्ताप की आग में जलाता रहे.’’

‘‘देखा जाएगा,’’ मेनका ने लापरवाही भरे स्वर में कहा और फिर रमन को वहीं छोड़ कर दूसरे कमरे में चली गईर्.

यह सोच कर कि गुस्सा उतर जाने पर मेनका स्वयं ही सामान्य हो जाएगी, रमन वहीं बैठा रहा.

‘‘मैं जा रही हूं,’’ थोड़ी देर बाद मेनका एक हाथ में अटैची और दूसरे में डिक्की की उंगली पकड़े रमन के सामने आ खड़ी हुई.

मेनका को इस तरह घर छोड़ने को तैयार देख कर रमन सकते में आ गया. बहुत कुछ कहना चाह कर भी वह कुछ नहीं कह पाया. बस फटीफटी आंखों से मेनका की ओर देखता रहा.

‘‘सुनो,’’ रमन एकाएक उठ खड़ा हुआ. मेनका को रोकने के लिए उस ने पुकारा, ‘‘सुनो, मैना.’’

मेनका रुक गईर्. पलट कर रमन की ओर देखते हुए उस ने पूछा, ‘‘अब क्या है?’’

उसे मनाने के लिए रमन उस के पास चला आया था, ‘‘परसों दीवाली है और…’’

‘‘मेरे होने या न होने से आप को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला,’’ मेनका ने चोट की, ‘‘आप की दीवाली को रोशन करने के लिए आप की माधवी आ जाएगी,’’ और फिर रमन को वहीं छोड़ कर वह तेज कदमों से आगे बढ़ गई.

रमन पत्थर का बुत बना खड़ा रहा. उस में इतना साहस भी नहीं रह गया था कि आगे बढ़ कर मेनका को रोक लेता.

‘‘अरे तुम…’’ मेनका को डिक्की के साथ आया हुआ देख कर उस की भाभी विभा ने आश्चर्यभरे स्वर में पूछा. उस के हाथ से अटैची लेते हुए विभा ने अपने पहले प्रश्न का उत्तर लिए बिना ही स्नेहभरे स्वर में कहा, ‘‘आने से पहले फोन ही कर दिया होता. हम तुम्हें लेने स्टेशन

आ जाते.’’

‘‘कार्यक्रम इतनी जल्दी में बना कि फोन करने का समय ही नहीं मिला,’’ मेनका ने सचाई छिपाते हुए कहा.

विभा ध्यान से उस की ओर देखती रही. उस की ओर देख कर विभा के दिल में एक संदेह पैदा हो गया. उसी को मिटाने के लिए उस ने पूछा, ‘‘रमन नहीं आया?’’

‘‘नहीं,’’ रमन का नाम सुनते ही मेनका की आंखों में पानी भर गया. विभा की गोद में सिर रखने के बाद उस ने उसे सारी बात बता दी.

‘‘पागल हो तुम तो,’’ उस की बातें सुनने के बाद विभा उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरती हुई बोली, ‘‘मु?ो दुख है कि 10 साल तक रमन के साथ रहने के बाद भी तुम उसे पहचान नहीं सकी हो. उस ने ठीक ही कहा है कि यह सब तुम्हारे दिमाग की उपज है और इस में सचाई नाम की कोई चीज नहीं है.’’

विभा की बातों ने मेनका को सोचने पर विवश कर दिया. हरेक घटना को याद करने के बाद वह इसी नतीजे पर पहुंची कि उसे रमन को छोड़ कर नहीं आना चाहिए था.

मन में इस विचार के आते ही उस के भीतर कुछ चटक गया. वह एकाएक उठ बैठी. विभा की ओर देखते हुए उस ने पूछा, ‘‘अब… अब मुझे क्या करना चाहिए.’’

‘‘अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है,’’ विभा ने सलाह दी, ‘‘रमन के पास वापस चली जाओ.’’

विभा की बातों पर मनन करने के बाद मेनका भी इसी निर्णय पर पहुंची कि उसे वापस चले जाना चाहिए, लेकिन इस तरह वापस जा कर वह अपनी हेठी नहीं करवाना चाहती थी और फिर वह डर रही थी कि  अगर रमन ने उसे अपनाने से इनकार कर दिया तो क्या होगा. उस के मन का यही भय उसे अपने निर्णय पर अमल नहीं करने दे रहा था.

‘‘क्या सोचने लगी?’’ उसे खामोश पा कर विभा ने पूछा.

‘‘क्या इस तरह वापस जा कर मेरा अपमान नहीं होगा?’’ अपने मन की बात को मेनका होंठों पर ले ही आई.

‘‘तुम्हारे सोचने का ढंग बहुत ही गलत है मैना,’’ उस की बात पर हलके से मुसकराते

हुए विभा ने कहा, ‘‘पतिपत्नी का रिश्ता ही कुछ ऐसा है. इस में मानअपमान स्वयं ही खत्म हो जाता है. जो लोग रिश्ते में बंधने के बाद भी अपने अहं को नहीं छोड़ पाते उन का जीवन विषाक्त बन जाता है.’’

‘‘वह तो ठीक है, भाभी, लेकिन…’’

‘‘सम?ा रही हूं कि मेरी बात मान लेने के बाद भी तुम खुद वापस नहीं जाना चाह रही हो,’’ मेनका की बात पूरी होने से पहले ही विभा ने कहा, ‘‘अगर तुम्हें जाना होता तो तुम इस बहस में ही न पड़तीं. खैर, कोई बात नहीं मैं कल सुबह ही तेरे भैया को रमन को लाने भेज दूंगी.’’

‘‘और अगर उन्होंने आने से इनकार कर दिया तो,’’ मेनका के दिल में नया शक पैदा हो गया?

‘‘किसी चीज से डर कर उस से मुंह नहीं मोड़ लिया जाता,’’ विभा ने उसे सांत्वना दी, ‘‘और फिर जिंदगी निराशा का नहीं, आशा का नाम है.’’

उसी आशा की एक किरण के सहारे मेनका ने रात काट दी. सुबह होते ही उस का भाई राजीव रमन को लेने चला गया.

दिनभर मेनका आशानिराशा के ?ाले में ?ालती रही. जैसेतैसे शाम गहराने लगी. उस

की आशाकी किरण धुंधली पड़ने लगी. इंतजार करती हुई आंखें पथरा गईं. पटाखों की आवाज ने उसे परेशान कर दिया था. पटाखों की उसी आवाज से बचने के लिए वह भीतर वाले कमरे में जा लेटी थी.

तभी किसी के कदमों की आवाज को अपनी ओर आता हुआ सुन कर मेनका के दिल में आया कि शायद राजीव रमन को साथ ले आया. मस्तिष्क में इस विचार के आते ही उस के निढाल पड़ गए बदन में स्फूर्ति भर गई. एक पल भी गंवाए बिना उस ने अपनी साड़ी के पल्लू से अपनी आंखों को पोंछ डाला. आंखों में आशा की झलक लिए वह दरवाजे की ओर देखने लगी.

मगर आशा के विपरीत दरवाजे पर राजीव की जगह विभा को देख कर उस का दिल धक से रह गया. आशा की वह धुंधली सी किरण भी बुझ गई. अनजाने में ही वह पूछ बैठी, ‘‘भैया नहीं आए?’’

‘‘मैं तो आ गया हूं, लेकिन…’’

‘‘लेकिन…’’ मेनका का मन आशंका से भर उठा. राजीव की बात काट कर उस ने पूछा, ‘‘लेकिन क्या?’’ किसी प्रश्नचिह्न की तरह मेनका उस के सामने आ खड़ी हुई.’’

‘‘रमन नहीं आया,’’ कहते हुए राजीव ने सिर ?ाका लिया.

‘‘क्यों? मेनका की आंखों से पानी की बूंदें निकल कर उस के गालों से होती हुईं फर्श को भिगोने लगीं, ‘‘क्यों…क्यों नहीं आए वे? क्या कहा है उन्होंने?’’

मेनका का तड़प भरा स्वर सुन कर राजीव के पीछे छिपा हुआ रमन स्वयं पर नियंत्रण न रख सका. राजीव को एक ओर हटा कर वह मेनका के सामने जा खड़ा हुआ.

रमन को देखते ही मेनका के बुझे हुए चेहरे पर चमक आ गई. रमन की ओर तिरछी निगाहों से मुसकरा कर देखने के बाद उस ने विभा का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘दीवाली के दिन घर में यह मातम क्यों छाया हुआ है,’’ विभा को लगभग घसीटती हुई ही वह बाहर की ओर ले जाती हुई बोली, ‘‘आओ न, पटाखे चलाएं. सुप्रीम कोर्ट की चिंता यहां कौन करता है.’’

मेनका की बात पर केवल विभा ही नहीं, राजीव और रमन भी ठहाका मार कर हंस पड़े. विभा दीए और लाइटें जलाने चल पड़ी.

Hindi Stories Online : आसमान की ओर

Hindi Stories Online :  मेरी यात्रा लगातार जारी है. मैं शायद किसी बस में हूं. मुझे यों प्रतीत हो रहा है. बस के भीतर बैठने की सीटें नहीं हैं. सब लोग नीचे ही बस के तले पर बैठे हैं. कुछ लोग इसी तल पर लेटे हैं. बस से बाहर जाने का कोई भी मार्ग अभी तक मुझे दिखाई नहीं दिया है और न ही किसी और कोे.

बस की दीवारों में छोटेछोटे छेद हैं, जिन में से रोशनी कभीकभी छन कर भीतर आ जाती है. जब रोशनी उन छिद्रों से बस के भीतर आती है तो उस से रोशनी की लंबीलंबी लकीरें बन जाती हैं. मेरे सहित सब लोग उसे पकड़ने की भरसक कोशिश करते हैं, लेकिन नाकाम हो जाते हैं. कोईर् भी उन को पकड़ नहीं पाया है. बहुत देर से कई लोग इस तरह की कोशिश कर चुके हैं.

बस को कौन चला रहा है, इस बात का भी अभी तक किसी को पता नहीं है. मैं कभीकभार बस के भीतर घूम लेता हूं, लेकिन यह खत्म होने को ही नहीं आती है. शायद यह बहुत लंबी है. मैं थकहार कर फिर वहीं आ बैठता हूं जहां से मैं उठ कर गया था. मेरी तरह और भी बहुत सारे लोग इस बस में घूमघूम कर फिर से वहीं आ बैठते हैं जहां से वे उठ कर जाते हैं.

यह एक बस है और यह कई सदियों से ऐसे ही चल रही है. सच बताऊं तो, पता मुझे भी पूरी तरह से नहीं है. मैं कई बार यह समझने की कोशिश करता हूं कि यह बस है या फिर कुछ और. लेकिन सच का पता नहीं चल रहा है. अजीब किस्म का रहस्य है, जिस का पता नहीं चल रहा है.

कभीकभार कुछ लोग आते हैं और हमारा खून निकाल कर ले जाते हैं. पूछने पर कुछ नहीं बताते. जब कभी गुस्सा कर लें, तो फिर बहुत एहसान से बताते हैं कि वे लोग इस बस को चला रहे हैं. इस बस को चलाने के लिए उन को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, इस का तो उन लोगों को ही पता है. पूछें तो कहते हैं कि यह बस उन के अपने खून से चल रही है.

‘‘लेकिन खून तो आप लोग हमारा ले रहे हो?’’ हम में से कोई बोलता है.

‘‘तुम्हारा खून तो हम कभीकभार लेते हैं, बस तो हम अपने खून से ही चलाते हैं.’’

फिर जब हम अपनी ओर देखते हैं तो हम तो नुचेसिकुड़े से कमजोर से हैं और वे हट्टेकट्टे, हृष्टपुष्ट जवान. समझ कुछ भी नहीं आता है. हर समय हम लोग परेशान रहते हैं. उन की पूंछें सदैव ऊपर आसमान की तरफ तनी हुई रहती हैं और हमारी जमीन पर लटकी रहती हैं, जैसे कि इन में हड्डी ही न हो. खून लेने आने वाले लोग कुछ देर बाद बदल जाते हैं. बहुत ही एहसान से वे हमारा खून ले कर जाते हैं जैसे कि वे लोग हम पर बहुत दया कर रहे हों. हम भी इस डर से खून दे देते हैं कि कहीं हमारी बस रुक ही न जाए. पसोपेश वाली स्थिति है कि यह बस है या फिर कुछ और, और यह हमें कहां ले जा रही है.

बस चलाने वाले पूछने पर गुस्सा करते हैं, कहते हैं, ‘‘आप लोग चुप रहो, आराम से बैठो, आप को कुछ नहीं पता है. आप, बस, हमें अपना खून दो.’’

कुछ देर बाद खून लेने वाले फिर बदल जाते हैं. यह भी समझ नहीं आता कि पहले वाले लोग कहां गए. पूछने पर कोई जवाब नहीं देते हैं. बारबार पूछने पर कहते हैं, ‘‘वे पहले वाले लोग सारा का सारा खून खुद ही डकार गए हैं, खून वाली सारी टंकी खाली है. अब हम क्या करें, हमें खून चाहिए, वरना बस नहीं चलेगी.’’

हम फिर अपना हाथ खून देने के लिए उन के आगे कर देते हैं. फिर बस चलती रहती है. फिर बस की दीवारों के छेदों से रोशनी की लकीरें अंदर तक पहुंचती हैं. फिर से हम लोग उन को पकड़ने की पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन वे किसी के भी हाथ नहीं आतीं. सब थकहार कर फिर वहीं बैठ जाते हैं. कुछ दिनों पहले उड़ती हुई एक अफवाह आईर् थी कि बस को चलाने वाले कुछ लोग हमारे से लिए खून में से ज्यादा खून तो खुद ही पी जाते हैं और बाकी जो बच जाता है उसे बस की टंकी में डाल देते हैं. और कई बार तो वे लोग बस के पुर्जे तक खा जाते हैं.

यह तो गनीमत है कि बस के जो पुर्जे कम हो जाते हैं, वे कुछ दिनों बाद खुदबखुद ही पनप उठते हैं. बस में सफर करने वाले सब लोग भोलेभाले, ईमानदार और साफ दिल के हैं. कभीकभी वे लोग इस तरह की बातें सुन कर निराश हो जाते हैं. लेकिन कुछ समय बाद वे लोग फिर अपनेआप ही ठीक हो जाते हैं. यही आम आदमी की विशेषता है. वैसे इस के अलावा उन के पास और कोई चारा भी नहीं है. और फिर जब उन का खून ले लिया जाता है तो वे फिर अपनेआप शांत हो जाते हैं.

बस बहुत समय से ऐसे ही चल रही है. कहां जा रही है, क्यों जा रही है, यह रहस्य है जो किसी को पता नही है. कभीकभार खून लेने वाले ही कह जाते हैं कि –

‘‘बस स्वर्ग जा रही है’’

‘‘परंतु इतनी देर…’’ हम में से कोई कहता है.

‘‘धैर्य रखो, रास्ता बहुत लंबा और मुश्किल है, समय तो लगता ही है,’’ वे कहते हैं.

हम लोग फिर उन की बातें सुन कर चुप हो जाते हैं. हम यह सोचते हैं कि ये चालाक व समझदार लोग हैं, ठीक ही कहते होंगे. देखेंभालें तो न बस का चालक दिखता है, न ही कोई इंजन और न ही कोई टैंक. खून किस टंकी में पड़ता है, कहां जाता है, यह भी पता नहीं चलता है. सभी रहस्यमयी विचारों में उलझे रहते हैं.

अभी कुछ दिनों पहले की बात है. कुछ लोग हमारा खून लेने के लिए आए थे. वे लोग नएनए ही लग रहे थे. वे बहुत जोशीले थे. वे बहुत ही चालाकी से बातें कर रहे थे. वे पूरे वातावरण में एक अलग तरह का उत्साह भर रहे थे. वे बहुत प्यार से हमारा खून ले रहे थे. सब ने उन की बातें सुन कर उन को बहुत ही प्यार व सम्मान सहित अपना खून दिया.

वे लोग सब को यह भरोसा दिला रहे थे कि हम लोग बहुत जल्दी स्वर्ग पहुंच जाएंगे. सब उन की बातें सुनसुन कर बहुत खुश हो रहे थे. कितनी देर से दबेकुचले हम लोग भी आखिरकार स्वर्ग को जा रहे हैं, यह सोचसोच कर बहुत खुशी हो रही थी. सब लोग मारे खुशी के उन की जयजयकार कर रहे थे.

कुछ दिनों बाद फिर वे लोग हमारा खून लेने के लिए आए. ये पहले से कुछ जल्दी आ गए थे. उन्होंने फिर हमारे भीतर जोश भरा. हमें फिर सब्जबाग दिखाए. हमारी बांछें खिल उठीं. हम फिर मुसकराए. उन की बातों में बहुत उत्साह व जोश था. उन की बातें सुनसुन कर हमारे भीतर भी जोश आ गया. चारों ओर फिर उन की जयजयकार होने लगी. जोश ही जोश में उन्होंने हमारा खून निकालने वाले टीके निकाल लिए और हमारा खून निकालना शुरू कर दिया.

सब ने बहुत खुशीखुशी अपना खून दिया. परंतु इस बार हमारा खून निकालने वाले टीके पहले से कुछ बड़े थे. लेकिन हमारे भीतर जोश इतना भर गया था कि हमें सब पता होते हुए भी बुरा न लगा. कुछ अजीब तो लगा परंतु ज्यादा बुरा न लगा. थोड़ा सा बुरा लगा लेकिन यह तो होना ही है, ठीक है, अब बस को चलाने के लिए हमें भी तो कुछ करना ही है. सब की आस्था बस के ठीक रहने और उस के स्वर्ग तक पहुंचने की है. बस, इसी जोश और जज्बे के चलते हर कोई अपना सबकुछ न्योछावर करने को तैयार बैठा है.

अजीब बात तब हुई जब वे लोग फिर हमारे पास आए और हम से हमारी थोड़ीथोड़ी टांगों की मांग करने लगे. मतलब कि उन को हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े चाहिए थे. सब ने उन की इस मांग पर आपत्ति की. कोई भी उन को अपनी टांगें देने को तैयार नहीं था. उन को हमारी टांगें क्यों चाहिए, इस बात का किसी के पास कोई जवाब न था.

आखिर उन में से एक ने बताया कि वे लोग हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े ले कर बस में लगाएंगे ताकि बस तेजी से स्वर्ग की ओर जा सके. मेरे साथसाथ सब को बहुत बुरा लगा. सब ने फिर विरोध किया. कोई अपनी टांगों के टुकड़े देने को तैयार न था. आखिर वे लोग जोरजबरदस्ती पर उतर आए और हमारी टांगों के छोटेछोट टुकड़े उतार कर ले गए. हमारे सब के कद छोटे हो गए. आहिस्ताआहिस्ता यह परंपरा बन गई.

अब जब वे लोग हमारा खून लेने के लिए आते हैं तो वे हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े भी उतार कर ले जाते हैं. पूछने पर कहते कि बस को बहुत सारी टांगों की जरूरत है. उस में लगा रहे हैं. परंतु अजीब बात तो यह है कि हम बस में लगी अपनी टांगें देख नहीं पाते हैं क्योंकि बस में से बाहर जाने को हमारे लिए कोईर् रास्ता ही नहीं है. बस को चलाने वाले कैसे बाहर जाते हैं, हमें इस का भी कोई पता नहीं है.

हमें कभीकभी अपनी अवस्था गुलामों जैसी लगती है. लेकिन जब हम उन खून लेने वाले लोगों की बातें सुनते हैं तो हमें लगता है कि हम लोग ही सबकुछ हैं, लेकिन कई बार लगता है कि हम लोग कुछ भी नहीं है. यह भी बहुत अजीब तरह का एहसास है.

एक और अजीब बात है कि हमारे कद तो छोटे होते जा रहे हैं और हमारा खून लेने वालों के कद बड़े. हम लोग सूखते जा रहे हैं और वे लोग ताकतवर होते जा रहे हैं. हमारी पूंछें तो जमीन पर लटकती जा रही हैं और उन की तनती जा रही हैं.

अजीब बात है कि हम लोगों को लगता है कि हमारी पूंछ में कोई हड्डी ही नहीं. बस चलाने वाले अकसर यह कहते है कि वे लोग बस में हमारी टांगें लगा कर उस को रेलगाड़ी बना देंगे और अगर आप का ऐसा ही सहयोग रहा तो एक दिन रेलगाड़ी को हवाईजहाज बना देंगे. उन की बातों में बहुत ही जोश है और बहुत ही उत्साह. सब लोग उन की ऐसी बातें सुन कर बहुत ही उत्साह में आ जाते हैं. सब को उन की बातें सुन कर ऐसा लगता है कि ये लोग एक न एक दिन उन को स्वर्ग जरूर पहुंचा देंगे. हमारी बस को रेलगाड़ी और रेलगाड़ी को एक न एक दिन हवाईजहाज जरूर बना देंगे.

इसी विश्वास के साथ हम लोग हर बार उन की मांग के अनुसार उन को खून देने के लिए अपनेआप को उन के सम्मुख कर देते हैं. अपनी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े भी उतार कर दे देते हैं, चाहे आहिस्ताआहिस्ता हमारा खून निकालने वाले टीकों के आकार बढ़ते जा रहे हों. हमारे कद छोटे होते जा रहे हैं और उन के बड़े. उन की पूंछें आसमान की ओर तनी जा रही हैं और हमारी जमीन पर लटकती जा रही हैं. लेकिन हम तो यही सोच कर अपना सबकुछ समर्पित करते जा रहे हैं कि एक न एक दिन ये लोग हमें स्वर्ग जरूर पहुंचा देंगे. लेकिन हमारे नौजवान उन की आसमान की ओर तनी पूछें देख कर अकसर दांत पीसते नजर आते हैं.   यह भी खूब रही राम अपने कंजूस दोस्त श्याम को कथा सुनाने ले गया. दोनों जब वहां पहुंचे तो देखा कि चारों तरफ पंडाल रंगबिरंगे कपड़ों से सजा हुआ था. फूलमाला पहने कथावाचक लोगों को दानपुण्य की महिमा बता रहे थे. कहने का मतलब पूरी कथा में दानपुण्य की महिमा बताई गई थी. वापस आने के बाद राम ने पूछा, ‘‘अब तुम्हारा क्या विचार है दान देने के बारे में?’’

श्याम ने कहा, ‘‘भाई, मैं तो धन्य हो गया आज की कथा सुन कर. सोच रहा हूं, मैं भी दान मांगना शुरू कर दूं.’’ यह सुनते ही राम की बोलती बंद हो गई.

मेरा बेटा 9 महीने का था. दिसंबर का महीना होने की वजह से कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. एक दिन रात को करीब 3 बजे मेरे बेटे ने सोते समय पोटी कर दी. दांत निकल रहे थे, इसलिए पोटी पतली होने की वजह से उस के पैर भी गंदे हो गए थे.

पानी एकदम बर्फ की तरह ठंडा होेने की वजह से मैं ने बराबर में दूसरे बिस्तर पर सो रहे अपने पति को उठाया कि थोड़ा पानी गरम कर दें. जिस से मैं बेटे की पोटी साफ कर सकूं और उसे ठंड न लगे. किंतु मेरी बहुत कोशिश के बावजूद मेरे पति उठने को तैयार नहीं हुए. करवट बदल कर दूसरी तरफ मुंह कर के लिहाफ में दुबक कर सो गए.

मजबूर हो कर मैं ने बर्फ जैसे पानी से ही अपने बेटे की पोटी को साफ किया. पानी इतना ठंडा था कि मेरा बेटा बुरी तरह रो रहा था. मेरी भी उंगलियां ठंडे पानी की वजह से गली जा रही थीं. किंतु मेरे पतिदेव अब भी लिहाफ से मुंह ढक कर सो रहे थे. मैं ने जैसेतैसे बेटे को कपड़े से पोंछ कर सुखाया और लिहाफ में गरम कर के सुला दिया.

किंतु मेरी आंखों में नींद बिलकुल नहीं थी. मुझे पति पर गुस्सा आ रहा था कि उन के पानी न गरम करने की वजह से मुझे अपने बेटे को ठंडे पानी से साफ करना पड़ा और उसे परेशानी हुई.

अचानक मैं उठी और वही बर्फ जैसा पानी बालटी में ले आई. फिर गहरी नींद में सो रहे अपने पति के ऊपर उलट दिया. अब गुस्सा होने की बारी उन की थी. उन्होंने उठ कर एक जोर का चांटा मेरे गाल पर जड़ दिया. किंतु, फिर भी मैं उन को गीला करने के बाद अपने लिहाफ में चैन से सो गई.

आज उस घटना को 18 वर्ष बीत चुके, किंतु अब भी उस घटना को याद कर के हम लोग हंस पड़ते हैं.

Interesting Hindi Stories : कुढ़न – औरत की इज्जत से खेलने पर आमादा समाज

Interesting Hindi Stories : हर साल इस नदी के किनारे मेला लगता है. इस बार भी मेला लगा. मेले में कमला भी रमिया बूआ को अपने साथ ले कर आई थीं. तभी जोर का शोर उठा.

2 संत वेशधारी आपस में जगह के लिए झगड़ पड़े और देखते ही देखते कुछ ही देर में एक छोटी तमाशाई भीड़ जुट गई. जो संत वेशधारी अभीअभी लोगों की श्रद्धा का पात्र बने प्रवचन दे रहे थे, उन का इस तरह झगड़ पड़ना मनोरंजन की बात बन गया.

कमला बहुत देख चुकी थीं ऐसे नाटक. क्या पुजारी, क्या मुल्ला, सभी अपना मतलब साधते हैं और दूसरों को आपस में लड़ाने की कोशिश करते हैं. सब दुकानदारी करते हैं. डरा कर लोगों की अंटी ढीली कराते हैं. कमला के पति किसना पिछले कई महीनों तक बीमार रहे थे. डाक्टर ने उन्हें टीबी की बीमारी बताई थी. कितना इलाज कराया, कितनी सेवा की उन की, तनमनधन से. अपने सारे जेवर, यहां तक कि सुहाग की निशानियां भी बेच दीं. जिस ने जोजो बताया, वे सब करती चली गईं और आखिर में उन के किसना बिलकुल ठीक हो गए, बल्कि अब तो वे पहले से भी कहीं ज्यादा सेहतमंद हैं.

लोग कहते नहीं थकते हैं कि कमला अपने पति किसना को मौत के मुंह से वापस खींच कर ले आई हैं. इस बात से उन की इज्जत बढ़ी है. कमला को घर लौटने की जल्दी हो रही थी, पर रमिया बूआ का मन अभी भरा नहीं था.

‘‘अब चलो भी बूआ, बहुत देर हो गई है,’’ बूआ को मनातेसमझाते उन्हें अपने साथ ले कर कमला अपने घर की ओर लौट चलीं. अपनी झोंपड़ी की ओर कमला आगे बढ़ीं कि उन के इंतजार में आंखें बिछाए शन्नोमन्नो भाग कर आती दिखीं.

कमला ने प्यार से उन के लिए लाई चूड़ी, माला दोनों को पहना दीं, तब तक किसना भी आ गए, कमला ने उन्हें भी मिठाई दे दी. तभी इन पलों का सम्मोहन एक झटके से टूट गया. एक लंबी, छरहरी, खूबसूरत औरत कमला से आ लिपटी. इस धक्के से अपने परिवार में मगन कमला संभलतेसंभलते भी लड़खड़ा गईं.

‘‘दीदी, मुझे अपनी शरण में ले लो. अब तो तुम्हारा ही आसरा है,’’ वह औरत बोली. ‘‘ऐसे कैसे आई लक्ष्मी? क्या हुआ?’’ उसे पहचानते ही किसी अनहोनी के डर से कमला का दिल बैठने लगा. किसना भी हैरानी से खड़े रहे.

लक्ष्मी को हांफतीकांपती देख कमला उसे सहारा दे कर झोंपड़ी के अंदर ले आईं और पानी लाने के लिए मुड़ीं, तो शन्नो को कटोरे में संभाल कर पानी लाते देखा. पानी का घूंट भरते ही लक्ष्मी ने रोतेबिलखते टूटे शब्दों में जो बताया, उस का मतलब यह था कि कुछ ही दिन पहले लक्ष्मी का मरद उसे अपने मांबाप के पास छोड़ कर दूसरे शहर में काम करने चला गया. कल सुबह तक तो सब ठीक ही चला, पर शाम को जब सासू मां रोज की तरह पड़ोस में चली गईं, उस के ससुर काम पर से जल्दी घर लौट आए और आते ही उस से पानी मांगा. जब वह पानी देने गई, तो उन्होंने उस का हाथ ही पकड़ लिया. उन की बदनीयती भांप कर उन्हें एक जोर से धक्का दे कर वह सीधी बाहर भाग ली.

लक्ष्मी का भोला चेहरा और रोने से गुड़हल सी लाल और सूजी आंखें देख कर कमला ने पूछा, ‘‘पर, तू यहां तक आई कैसे? तुझे अकेले बाहर निकलते डर नहीं लगा? कहीं कुछ हो जाता तो?’’ ‘‘नहीं दीदी, डर तो अपने ही घर में लगा, तभी तो अपनी लाज बचाने के लिए यहां भाग आई. पहले तो कभी अकले घर की दहलीज भी नहीं लांघी थी, पर उस समय इतना डर गई कि और कुछ समझ में ही नहीं आया, होश उड़ गए थे मेरे. बस, फिर तुम्हारा ध्यान आया और निकल भागी इधर की ओर,’’ लक्ष्मी ने बताया.

कमला अपने जंजालों को भूल लक्ष्मी को अपने साथ ले कर पीसीओ तक आई और उस के मरद से बात कराई. मरद से बात हो जाने पर लक्ष्मी ने किलकती आवाज में उन्हें बताया कि उस के मरद ने कहा है कि अभी वह दीदी के पास ही रहे.

झोंपड़ी पर पहुंच कर कमला ने फौरन चाय का पानी चढ़ा दिया. किसना दुकान से डबलरोटी ले आए. मासूम बच्चियां बहुत भूखी थीं. कमला अपने हिस्से का भी उन्हें खिला कर किसना को जरूरी हिदायतें दे कर लक्ष्मी को साथ ले कर अपने काम पर चल दी. मेहंदीरत्ता मेमसाहब के यहां आज किटी पार्टी है. उन्होंने काफी मेहमान बुला रखे हैं. लक्ष्मी साथ रहेगी, तो थोड़ा हाथ बंटा देगी. जल्दी काम हो जाएगा.

लक्ष्मी यह देख कर हैरान थी कि मेहंदीरत्ता मेमसाहब अपनी किटी पार्टी में मस्त थीं और साहब अकेले अपने कमरे में कंप्यूटर और मोबाइल फोन में बिजी थे. कमला ने लक्ष्मी से कहा, ‘‘जरा साहब को चाय दे आ.’’

अपने में मस्त साहब ने चाय देने आई ताजगी से भरी लक्ष्मी को नजर उठा कर देखा और देखते ही मुसकरा कर उस से कुछ ऐसी हलकी बात कह दी कि वह घबरा कर फिर कमला के पास भाग गई. लौटते समय रास्ते में लक्ष्मी बोली, ‘‘इतने पढ़ेलिखे आदमी हैं, लेकिन नजरें बिलकुल वैसी ही.

‘‘हम लोग तो ढोरडंगरों की जिंदगी जीते हैं, पर ऐसी शानदार जिंदगी जीने वाले सफेदपोश लोग भी कितने ओछे होते हैं.’’ लक्ष्मी की इस बात पर कमला

चुप थीं. लक्ष्मी ने फिर पूछा, ‘‘दीदी, क्या सभी बड़े आदमी ऐसे होते हैं?’’

‘‘नहीं, सब ऐसे नहीं होते. अच्छेबुरे, ओछे आदमी तो कभी भी कहीं भी हो सकते हैं,’’ कमला ने कहा, फिर कुछ याद कर वे कहने लगीं, ‘‘जानती हो, कुछ समय पहले यहां से थोड़ी दूरी पर एक साहब व मेमसाहब रहते थे और साथ में उन का एक छोटा सा खूबसूरत बच्चा था. दोनों ही एकदूसरे से बड़ा प्यार करते थे. मेमसाहब कभी झगड़ती भी थीं, तो साहब उन्हें प्यार से मना लेते थे.

‘‘उन्होंने अपने ही घर में एक बड़े कमरे में कोई प्रयोगशाला बनाई थी, वहीं दोनों मिल कर कुछ किया करते, फिर एक दिन…’’ कहतेकहते कमला का गला रुंध आया, ‘‘मेमसाहब प्रयोगशाला में कुछ कर रही थीं. साहब बाहर चंदा मांगने वाले आए थे, उन्हें चंदा दे रहे थे, हम भी तभी काम करने पहुंचे कि अंदर से धमाके की आवाज आई और आग की लपटें… ‘‘साहब बदहवास अंदर भागे. वहां सब धूंधूं कर जल रहा था. मेमसाहब और बच्चे को साहब जलती आग की लपटों से खींच लाए थे, पर वे उन्हें बचा नहीं पाए…

‘‘वे खुद भी बुरी तरह झुलस गए थे, एक खूबसूरत, प्यार भरा घर उजड़ गया. फिर उन के कई आपरेशन हुए. बाद में चलनेफिरने लायक होते ही अपनी सारी जायदाद महिला आश्रम और बाल आश्रम को दान कर न जाने कहां चले गए. ‘‘कुछ लोग बताते हैं कि वे शायद वैरागी हो गए हैं,’’ कमला ने एक गहरी सांस ली.

बातों में न समय का पता चला और न ही रास्ते का, झोंपड़ी आ गई थी. कमला ने झोंपड़ी के अंदर ही शन्नोमन्नो के साथ लक्ष्मी के भी सोने का इंतजाम कर दिया. वे और किसना बाहर खुले में सो जाएंगे.

अचानक ही किसी ने कमला को झकझोर कर उठा दिया. थरथर कांपती लक्ष्मी उन के कान में फुसफुसा रही थी, ‘‘अंदर कोई नरपिशाच है दीदी.’’ कमला झटके से उठीं, ढिबरी जला कर पूरी झोंपड़ी में देखने लगीं. कनस्तर और संदूक के पीछे भी देखा. कहीं कोई नहीं था.

‘‘तुझे वहम हुआ होगा, कौन आएगा यहां,’’ चिढ़ कर कमला ने झिड़क दिया लक्ष्मी को, फिर वे रसोई की तरफ बढ़ी थीं कि वहां उकड़ू बैठे, मुंह छिपाए अपने पति को देख झट से ढिबरी बुझाई और बोलीं, ‘‘यहां तो कोई नहीं, चल तू आराम से सो जा. मैं दरवाजे पर बैठी हूं.’’ अंधेरे में कमला ने अपने पति किसना को बाहर निकल जाने दिया. फिर वे भरभरा कर दरवाजे पर ही ढह गईं.

Hindi Fiction Stories : समन का चक्कर – थानेदार की समझाइशों का जगन्नाथ पर कैसा हुआ असर

Hindi Fiction Stories :  अजीब मुसीबत है भई, जब मैं जगन्नाथ हूं तो विश्वनाथ नाम का चोला क्यों गले में डालूं. थानेदार की समझाइशों का असर मुझ पर होने ही वाला था कि दिमाग की बत्ती जल गई वरना हम तो गए थे काम से.

घर पहुंचा तो माताश्री ने एक कागज मेरी ओर बढ़ाया, ‘‘2 पुलिस वाले आए थे, उन्होंने कहा, जब तुम घर पहुंचो तो तुम्हें यह दिखला दूं.’’

पुलिस की बात सुनते ही मेरे हाथपांव फूल गए. कागज फौरन मैं ने लपक लिया. यह एसडीएम कोर्ट से जारी किसी विश्वनाथ नामक व्यक्ति के लिए समन था. इसे पुलिस वाले बिना पूछताछ किए मेरी माताजी को थमा कर चले गए थे. गांव की निपट मेरी अशिक्षित माताश्री ने बिना सोचेसमझे इसे ले कर ‘आ बैल मुझे मार’ जैसी स्थिति मेरे लिए कर दी थी.

मामला कोर्ट का था. इस आई बला को टालने मैं फौरन थाने जा पहुंचा. पुलिस वालों की गलती बताते हुए समन वापस करना चाहा तो थानेदार ने हवलदार को तलब किया.

‘‘महल्ले वालों ने ही इन के घर का पता बताया था,’’ मुझे टारगेट करते हुए हवलदार ने बयान दिया,  ‘‘घर के बाहर टंगी इन की नेमप्लेट और यहां तक कि घर का नंबर मिलान करने के बाद ही समन तामील किया था.’’

‘‘अब तुम इनकार कर ही नहीं सकते, तुम वे नहीं हो, जिसे समन तामील किया गया है. यह समन तुम्हारा ही है. संभाल कर इसे रखो. बड़े काम की चीज है यह तुम्हारे लिए. कोर्ट में हाजिरी के समय इसे दिखाना पड़ेगा,’’ थानेदार ने मुझे समन का हकदार बता दिया.

बहरहाल, समन तामीली के सिलसिले में हवलदार ने मेरे घर का नंबर और उस के बाहर टंगी नेमप्लेट का हवाला दिया तो आखिर माजरा क्या है, मेरी समझ में आ गया.

दरअसल, जिस घर में मैं रहने लगा हूं, 2 दिन ही हुए थे किराए पर लिए उसे. पहले के किराएदार को 2-3 दिन ही हुए थे इसे खाली किए. घर खाली उस ने कर तो दिया, अपनी नेमप्लेट ले जाना भूल गया. यह विश्वनाथ वही व्यक्ति था, समन जिसे जारी किया गया था. घर को ठीक करने की हड़बड़ी में उस की नेमप्लेट की ओर मैं ध्यान दे नहीं पाया. इसी को देख कर पुलिस वालों ने माना होगा कि विश्वनाथ रहता यहीं है. वे मेरी माताजी को विश्वनाथ की माता समझ कर समन सौंप कर चले गए होंगे.

इस पूरे घटनाक्रम का बयान कर थानेदार के सामने मैं ने अपनी बात रखी, ‘‘फिर भी समन देते समय पुलिस वालों को साफसाफ बतला देना था कि वह किस के नाम है?’’

‘‘कहना तो तुम्हें यह चाहिए कि तामील करते वक्त महल्ले वालों का पंचनामा बनवा क्यों नहीं लिया गया?’’ थानेदार पुलिस की गलती मानने को तैयार नहीं था, ‘‘चूक सरासर तुम्हारी है, घर किराए पर लेते समय देख तो लेना था. बिना देखे आपराधिक रिकौर्ड वाले किराएदार के बाद घर आंख मूंद कर ले लिया. ऊपर से घर के बाहर टंगी उस की नेमप्लेट का इस्तेमाल भी करते रहे. आप को इस का मोल कभी न कभी चुकाना ही था. जब चुकाने की बारी आई तो अपनी गलतियों का ठीकरा पुलिस के सिर फोड़ने लगे.’’

‘‘आप की बातें अपनी जगह ठीक हैं, पर इस समन का मैं करूंगा क्या?’’ थानेदार को मैं ने मनाने की कोशिश की कि समन वापस ले कर वे मुझे बख्श दें.

‘‘समन की तामीली रिपोर्ट कोर्ट में पेश की जा चुकी है. अब करना जो भी है, वह कोर्ट तय करेगा. तुम्हारे हक में करने को बस यह है कि समय पर कोर्ट में हाजिर हो जाओ,’’ थानेदार ने एक तरह से मेरी बेचारगी की बात कही.

‘‘क्या मैं आप को बलि का बकरा नजर आता हूं, विश्वनाथ के बदले जिस की बलि दी जा सके. अजीब मुसीबत है. मैं जब विश्वनाथ हूं ही नहीं, कोर्ट में फिर पेश क्यों होऊं? मुझे नहीं होना कोर्ट में पेश.’’

‘‘गिरफ्तारी वारंट जब जारी होगा, फिर तो होओगे न कोर्ट में पेश?’’ मेरी जिद का खमियाजा भुगतने की वह चेतावनी देने लगा.

‘‘यह तो नाइंसाफी है,’’ मैं ने विरोध किया.

‘‘समन जिस के करकमलों में दिया जाता है, बाद में जब उस की गिरफ्तारी की नौबत आती है, तुम्हीं बताओ, पुलिस किसे करेगी गिरफ्तार?’’ थानेदार ने कानून की दुहाई दी, ‘‘नाइंसाफी तब होगी जब समन की तामीली किसी और को और गिरफ्तारी किसी और की की जाएगी.’’

‘‘कोईर् तोड़ तो होगा इस चक्रव्यूह को भेदने का?’’ मैं ने उपाय पूछा.

‘‘इतनी देर से मैं तुम को समझा क्या रहा हूं? तुम्हारी मुक्ति के सभी रास्ते बंद हैं सिवा एक के, वह जाता सीधे कोर्ट को है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर जैसे ही जाने को हुआ, थानेदार के मन में अचानक मेरे लिए सहानुभूति उमड़ पड़ी, ‘‘वैसे क्या नाम बताया था आप ने अपना?’’

‘‘यदि मैं अपने मौलिक नाम के साथ कोर्ट में हाजिर होऊं तो? जानबूझ कर दूसरे का अपराध अपने सिर लेने की इजाजत मेरा जमीर मुझे दे नहीं रहा है.’’

‘‘मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि इतना समझाने के बावजूद तुम्हारे अंदर की गलत सोच जा क्यों नहीं रही? ठीक है, अपनी असलियत साबित करने के लिए कोर्ट के जब चक्कर पे चक्कर लगाने पड़ेंगे, फिर यह भी याद नहीं रहेगा कि जमीर किस चिडि़या का नाम है? कान उलटा क्यों पकड़ना चाहते हो?’’ थानेदार ने कोर्ट की दुनियादारी से रूबरू करवाया.

‘‘आप के कहने का मतलब है कि मेरी भलाई इसी में है कि कोर्ट के लिए मैं विश्वनाथ बना रहूं.’’

‘‘लगता है, तुम्हारे भेजे में बात घुसती देर से है,’’ उस ने मुझे आश्वस्त करने का प्रयास किया, ‘‘अभी तक मैं तुम्हें समझा क्या रहा हूं?’’

‘‘इतना भर और समझा दीजिए कि कोर्ट के सामने मुझे कहना क्या होगा?’’

‘‘मेरी समझाइशों का असर तुम पर होने लगा है,’’ उत्साहित हो कर उस ने कार्यक्रम बताया, ‘‘एसडीएम साहब के सामने कान पकड़ कर तुम्हें कहना है कि भविष्य में तुम महल्ले वालों से लड़ाईझगड़ा करने से तोबा करते हो. एकदो पेशी के बाद व्यवहार ठीक रखने की शर्त पर कोर्ट मामला बंद कर देगा.’’

दूसरे दिन एसडीएम कोर्ट जा कर पेशकार से मिला. मामले की पूरी जानकारी उसे दी. साथ ही, इस के निबटारे की दिशा में थानेदार की सलाह पर उस की प्रतिक्रिया जाननी चाही. यह सोच कर कि कहीं पुलिस वालों की गलती पर परदा डालने के लिए दूसरे का अपराध अपने सिर लेने के लिए थानेदार मुझे प्रोत्साहित तो नहीं कर रहा?

‘‘ऐसी खास सलाह कोई सुलझा हुआ पुलिस वाला ही दे सकता है,’’ थानेदार की वह प्रशंसा करने लगा, ‘‘भावुकता में बह कर भूले से भी अपनी असलियत कोर्ट को जाहिर मत कर देना.’’

‘‘वरना?’’ नतीजा मैं ने जानना चाहा.

‘‘थानेदार ने बताया नहीं?’’

‘‘आप के श्रीमुख से भी सुनना चाहता हूं.’’

‘‘मालूम होता है कि कोर्ट से पाला कभी पड़ा नहीं आप का. आप के कहने भर से कोर्ट आप को जगन्नाथ नहीं मान लेगा, साबित करना पड़ेगा? खुद को खुद साबित करने आप को जाने कितने पापड़ बेलने पड़ेंगे. मामले में पेशीदरपेशी से परेशान हो कर हो सकता है कि इस के लिए आप को किसी वकील की सेवा में जाना पड़े. इस चक्कर में गांठ से पैसा जाएगा, सो अलग.’’ उस ने भी वही बात कही, जो थानेदार ने मुझ से कही थी.

‘‘कोर्टकचहरी के चक्कर में कभी पड़े?’’ कुछ देर बाद उस ने जानना चाहा.

‘‘नहीं.’’

‘‘तो विश्वनाथ बन कर अब पड़ जाओ. लेकिन इस मौके को हाथ से जाने मत दो. असल मामले में अदालत से सामना जब होगा, इस का तजरबा आप के काम आएगा,’’ प्रेरित करतेकरते वह उपदेश देने लगा, ‘‘आप को तो विश्वनाथजी का एहसानमंद होना चाहिए जिस की बदौलत अदालती कार्यवाहियों से रूबरू होने का मौका जो आप को मिलने जा रहा है.’’

सलाह के लिए उस का शुक्रिया अदा कर जैसे ही जाने लगा, उस ने मुझ से पूछ लेना जरूरी समझा, ‘‘यह तो बताते जाओ कि पेशी में पालनहार के किस रूप में अवतरित होगे?’’ उस ने आगे खुलासा किया, ‘‘कहने का मतलब है कि विश्वनाथ बन कर या जगन्नाथ के नाम से? पूछ इसलिए रहा हूं, यदि जगन्नाथ के रूप में प्रकट होना है तो आप की सुविधा के लिए कोई वकील तय कर के रखूंगा.’’

‘‘थानेदार और आप की लाख समझाइशों के बावजूद क्या मुझे किसी पागल कुत्ते ने काटा है जो जगन्नाथ का चोला पहन कर आऊं?’’ हालत के मद्देनजर आखिरकार मैं ने हथियार डाल दिया, ‘‘समझ लीजिए जगन्नाथ तब तक के लिए मर गया है जब तक कोर्ट के लिए विश्वनाथ जिंदा है,’’ मैं ने उसे यकीन दिलाया.

‘‘यह की न बुद्धिमानों वाली बात.’’ अपनी शहादत के लिए अनुकूल विकल्प चुनने पर मेरी तारीफ किए बिना वह रह नहीं सका.

घर पहुंचते ही फौरन उस को खाली करने में मैं ने अपनी खैरियत समझी. इस आशंका से कि मेरा पर्यायवाची ‘विश्वनाथ’ इस घर में रहते हुए जाने और क्याक्या गुल खिला कर गया हो? उस के दुष्कमों का अदृश्य साया इस घर पर मंडराते हुए मुझे महसूस होने लगा था.

लेखक- दौलतराम देवांगन

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें