वे बच्चे: कौन था वह भिखारी

लाल बत्ती पर जैसे ही कार रुकी वैसे ही भिखारी और सामान बेचने वाले उन की तरफ लपके. बड़ा मुश्किल हो जाता है इन भिखारियों से पीछा छुड़ाना. जब तक हरी बत्ती न हो जाए, भिखारी आप का पीछा नहीं छोड़ते हैं. अब तो इन के साथसाथ हिजड़ों ने भी टै्रफिक सिग्नलों पर कार वालों को परेशान करना शुरू कर दिया है. सब से अधिक परेशान अब संपेरे करते हैं, यदि गलती से खिड़की का शीशा खुला रह जाए तो संपेरे सांप आप की कार के अंदर डाल देते हैं और आप चाह कर भी पीछा नहीं छुड़ा पाते हैं.

‘‘कार का शीशा बंद कर लो,’’ मैं ने पत्नी से कहा.

‘‘गरमी में शीशा बंद करने से घुटन होती है,’’ पत्नी ने कहा. ‘‘डेश बोर्ड पर रखे सामान पर नजर रखना. भीख मांगने वाले ये छोटे बच्चे आंख बचा कर मोबाइल फोन, पर्स चुरा लेते हैं,’’ मैं ने कहा.

इतने में एक छोटी सी बच्ची कार के दरवाजे से सट कर खड़ी हो गई और पत्नी से भीख मांगने लगी. कुछ सोचने के बाद पत्नी ने एक सिक्का निकाल कर उस छोटी सी लड़की को दे दिया. वह लड़की तो चली गई, लेकिन उस के जाने के फौरन बाद एक और छोटा सा लड़का आ टपका और कार से सट कर खड़ा हो गया.

‘‘एक को दो तो दूसरे से पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है. देखो, इस को कुछ मत देना, नहीं तो तीसरा बच्चा आ जाएगा,’’ मैं बोला. इसी बीच बत्ती हरी हो गई और कार स्टार्ट कर के मैं आगे बढ़ गया.

‘‘इन छोटेछोटे बच्चों को भीख मांगते देख कर बड़ा दुख होता है. स्कूल जाने की उम्र में पता नहीं इन को क्याक्या करना पड़ता है. इन का तो बचपन ही खराब हो जाता है,’’ पत्नी ने कहा.

‘‘यह हम सोचते हैं, लेकिन भीख मांगना इन के लिए तो एक बिजनेस की तरह है. रोज इसी सड़क से आफिस जाने के लिए गुजरता हूं, इस लाल बत्ती पर रोज इन्हीं भिखारियों को सुबहशाम देखता हूं. कोई नया भिखारी नजर नहीं आता है. मजे की बात यह कि भिखारी सिर्फ कार वालों से ही भीख मांगते हैं. लाल बत्ती पर कभी इन को स्कूटर, बाइक वालों से भीख मांगते नहीं देखा है,’’ मैं ने कहा, ‘‘भिखारियों के साथसाथ अब सामान बेचने वालों से भी सावधान रहना पड़ता है.’’

‘‘छोड़ो इन बातों को,’’ पत्नी ने कहा, ‘‘कभीकभी तरस आता है.’’

‘‘फायदा क्या इन पर तरस दिखाने का,’’ मैं ने कहा, ‘‘जरा ध्यान रखना, फिर से लाल बत्ती आ गई.’’

‘‘अपनी भाषा कभी नहीं सुधार सकते. लाल, हरी बत्ती क्या होती है. ट्रैफिक सिग्नल नहीं कह सकते क्या,’’ पत्नी ने कहा.

‘‘फर्क क्या पड़ता है, बत्ती तो लाल और हरी ही है,’’ मैं ने कहा.

‘‘मैनर्स का फर्क पड़ता है. हमेशा सही बोलना चाहिए. अगर तुम्हें किसी को टै्रफिक सिग्नल पर मिलना हो और तुम उसे लाल बत्ती पर मिलने को कहो और मान लो, टै्रफिक सिग्नल पर हरी बत्ती हो या फिर बत्ती खराब हो तो वह व्यक्ति क्या करेगा? अगली लाल बत्ती पर आप का इंतजार करेगा, जोकि गलत होगा. इसीलिए हमेशा सही शब्दों का प्रयोग करना चाहिए,’’ पत्नी ने कहा. ‘‘अब इस बहस को बंद करते हैं. फिर से बत्ती लाल हो गई है.’’ इस बार एक छोटा सा 7-8 साल का बच्चा मेरी तरफ आया. ‘‘अंकल, टायर, एकदम नया है, सिएट, एमआरएफ, लोगे?’’ बच्चा बोला. मैं चुप रहा. ‘‘एक बार देख लो,’’ बच्चा बोला, ‘‘सस्ता लगा दूंगा.’’

‘‘नहीं लेना,’’ मैं ने कहा. ‘‘एक बार देख तो लो. देखने के पैसे नहीं लगते,’’ बच्चा बोला.‘‘कितने का देगा?’’ मैं ने पूछा. ‘‘मारुति 800 का नया टायर शोरूम में लगभग 1,100 रुपए में मिलेगा. आप के लिए सिर्फ 800 रुपए में,’’ बच्चा बोला.‘‘मेरे लिए सस्ता क्यों? टायर चोरी का तो नहीं?’’ मैं ने कहा.‘‘हम लोगों की कंपनी में सेटिंग है, इसलिए सस्ते मिल जाते हैं.’’‘‘एक टायर कितने में लाते हो?’’ ‘‘सिर्फ 50 रुपए एक टायर पर कमाते हैं.’’‘‘50 रुपए में टायर देगा?’’ ‘‘नहीं लेना तो मना कर दो, क्यों बेकार में मेरा टाइम खराब कर रहे हो,’’ बच्चा बोला. ‘‘टायर बेचने बेटे तुम आए थे, मैं चल कर तुम्हारे पास नहीं गया था,’’ मैं ने कहा.‘‘सीधे मना कर दो,’’ बच्चा बोला. ‘‘मना किया तो था, लेकिन फिर भी तुम चिपक गए तो मैं ने सोचा, चलो जब तक लाल बत्ती है तुम्हारे साथ टाइम पास कर लूं,’’ मैं ने कहा. ‘‘टाइम पास करना है तो आंटी के साथ करो न. मेरा बिजनेस टाइम क्यों खराब कर रहे हो,’’ कह कर बच्चा चला गया.

‘‘बात तो बच्चा सही कह गया,’’ पत्नी बोली, ‘‘मेरे साथ बात नहीं कर सकते थे, टाइम पास करने के लिए वह बच्चा ही मिला था. ऊपर से जलीकटी बातें भी सुना गया.’’ ‘‘आ बैल मुझे मार. चुप रहो तो मुसीबत, पीछा ही नहीं छोड़ते और बोलो तो जलीकटी सुना जाते हैं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जब टायर लेना नहीं था तो उस के साथ उलझे क्यों?’’ पत्नी ने कहा. ऐसे ही बातोंबातों में घर आ गया.

दिल्ली शहर की भागदौड़ की जिंदगी में घर और दफ्तर का रुटीन है, इसी में इतनी जल्दी दिन बीत जाता है कि अपनों से भी बात करने का समय निकालना मुश्किल हो जाता है.

एक दिन आगरा घूमने का कार्यक्रम बना कर सुबह अपनी कार से रवाना हुए. खुशनुमा मौसम और सुबह के समय खाली सड़कें हों तो कार चलाने का आनंद ही निराला हो जाता है.

फरीदाबाद की सीमा समाप्त होते ही खुलाचौड़ा हाइवे और साफसुथरे वातावरण से मन और तन दोनों ही प्रसन्न हो जाते हैं. बीचबीच में छोटेछोटे गांव और कसबों में से गुजरते हुए कोसी पार कर मैं पत्नी से बोला, ‘‘चलो, वृंदावन की लस्सी पी कर आगे चलेंगे. वैसे हम दोनों पहले भी वृंदावन घूमने आ चुके हैं. मंदिरों व भगवान में अपनी कोई रुचि नहीं लेकिन यहां के बाजार में लस्सी पीने अैर भल्लाटिक्की खाने का अलग ही मजा है.’’

कार एक तरफ खड़ी कर इस्कान मंदिर के सामने की दुकान में हम लस्सी पीने के लिए बैठ गए.

लस्सी पी कर बाहर निकले तो पत्नी बोली, ‘‘चलो, अब थकान कम हो गई.’’

कार के पास जा कर जेब से चाबी निकाली और कार का दरवाजा खोलने के लिए चाबी को दरवाजे पर लगाया ही था कि तभी एक छोटा सा बच्चा आ कर दरवाजे से सट कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘अंकल, पैसे.’’

भिखारियों को मैं कभी पैसे नहीं दिया करता पर पता नहीं क्यों उस बच्चे पर मुझे तरस आ गया और जेब से 1 रुपए का सिक्का निकाल कर उस छोटे से बच्चे को दे दिया.

वह तो चला गया लेकिन उस के जाने के बाद पता नहीं कहां से छोटे बच्चों का एक  झुंड आ गया और चारों तरफ से हमें घेर लिया.

‘‘अंकल, पैसे,’’ एक के बाद एक ने कहना शुरू किया. मैं ने एक बार पत्नी की तरफ देखा, फिर उन बच्चों को.

जी में तो आया कि डांट कर सब को भगा दूं पर जिस तरह बच्चों की भीड़ ने हमें घेर रखा था और लोग तमाशबीन की तरह हमें देख रहे थे, शायद उस से विवश हो कर मेरा हाथ जेब में चला गया और फिर हर बच्चे को 1-1 सिक्का देता गया. किसी बच्चे को 1 रुपए का और किसी को 2 रुपए का सिक्का मिला. किसी के साथ भेदभाव नहीं था. यह इत्तफाक ही था कि जेब में 2 सिक्के रह गए और बच्चे भी 2 ही बचे थे. एक बच्चे को 5 रुपए का सिक्का चला गया और आखिरी वाले को 50 पैसे का सिक्का मिला.

‘‘क्यों, अंकल, उसे 5 रुपए और मुझे 50 पैसे?’’

‘‘जितने सिक्के जेब में थे, खत्म हो गए हैं. और सिक्के नहीं हैं, अब आप जाओ.’’

‘‘ऐसे कैसे चला जाऊं,’’ बच्चे ने अकड़ कर कहा.

‘‘और पैसे मैं नहीं दूंगा. सारे सिक्के खत्म हो गए. तुम कार के दरवाजे से हटो,’’ मैं ने कहा.

‘‘मतलब ही नहीं बनता यहां से जाने का. फटाफट पैसे निकालो. दूसरे बच्चे दूर चले गए हैं. उन्हें भाग कर पकड़ना है. अपने पास ज्यादा टाइम नहीं है. अंकल, आप के पास पैसे खत्म हो गए हैं तो आंटी के पास होंगे,’’ बच्चे ने पत्नी की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘आंटी, पर्स से फटाफट पैसे निकालो.’’

मैं और मेरी पत्नी दोनों एकदम अवाक् हो एकदूसरे की शक्ल देखने लगे.

पत्नी ने चुपचाप पर्स से 5 रुपए का सिक्का निकाला और उस बच्चे को दे दिया.

सिक्का पा कर छोटा सा बच्चा जातेजाते कहता गया,  ‘‘इतनी बड़ी कार ले कर घूमते हैं. पैसे देने को 1 घंटा लगा दिया.’’

फटाफट कार में बैठ कर  मैं ने कार स्टार्ट की और अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा.

हम आगरा पहुंचे तो काफी थक चुके थे. पत्नी ने मेरे चेहरे की थकान को देख कर कहा, ‘‘चलो, किसी गेस्ट हाउस में चलते हैं.’’

गेस्ट हाउस के कमरे में बिस्तर पर लेटेलेटे सामने दीवार पर टकटकी लगा कर मुझे सोचते देख पत्नी ने पूछा, ‘‘क्या सोच रहे हो?’’

‘‘उस छोटे बच्चे की बात मन में बारबार आ रही है. एक तो भीख दो, ऊपर से उन की जलीकटी बातें भी सुनो. सोच रहा हूं कि दया का पात्र मैं हूं या वे बच्चे. दया की भीख मैं उन से मांगूं या उन को भीख दूं. कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि भिखारी कौन है. आखिर सुकून की जिंदगी कब और कहां मिलेगी. कहीं भी चले जाओ, ये भिखारी हर जगह सारा मजा किरकिरा कर देते हैं.’’

‘‘चलो, इस किस्से को अब भूल जाओ और हम दोनों ही प्रतिज्ञा करते हैं कि आज के बाद कभी भी किसी को भीख या दान नहीं देंगे, चाहे वह व्यक्ति कितना ही जरूरतमंद क्यों न हो.’’

‘‘करे कोई, भरे कोई,’’ मेरे मुंह से हठात निकल पड़ा.

‘‘किसी के चेहरे पर लिखा नहीं होता कि वह जरूरतमंद है.’’

‘‘सही बात है. हमें खुद अपनेआप को देखना है. दूसरों की चिंता में अपना आज क्यों खराब करें. अब आराम करते हैं.

 

हंसी के घुंघरु

उस दिन मेरे पिता की बरसी थी. मैं पिता के लिए कुछ भी करना नहीं चाहता था. शायद मुझे अपने पिता से घृणा थी. यह आश्चर्य की बात नहीं, सत्य है. मैं घर से बिलकुल कट गया था. वह मेरे पिता ही थे, जिन्होंने मुझे घर से कटने पर मजबूर कर दिया था.

नीरा से मेरा प्रेम विवाह हुआ था. मेरे बच्चे हुए, परंतु मैं ने घर से उन अवसरों पर भी कोई संपर्क नहीं रखा.

लेकिन मेरे पिता की पुण्य तिथि मनाने के लिए नीरा कुछ अधिक ही उत्साह से सबकुछ कर रही थी. मुझे लगता था कि शायद इस उत्साह के पीछे मां हैं.

मैं सुबह से ही तटस्थ सा सब देख रहा था. बाहर के कमरे में पिता की तसवीर लग गई थी. फूलों की एक बड़ी माला भी झूल रही थी. मुझे लगता था कि मेरी देह में सहस्रों सूइयां सी चुभ रही हैं. नीरा मुझे हर बार समझाती थी, ‘‘बड़े बड़े होते हैं. उन का हमेशा सम्मान करना चाहिए.’’

नीरा ने एक छोटा सा आयोजन कर रखा था. पंडितपुरोहितों का नहीं, स्वजनपरिजनों का. सहसा मेरे कानों में नीरा का स्वर गूंजा, ‘‘यह मेरी मां हैं. मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं अपनी सास के साथ हूं.’’

बातें उड़उड़ कर मेरे कानों में पड़ रही थीं. हंसीखुशी का कोलाहल गूंज रहा था. मैं मां की सिकुड़ीसिमटी आकृति को देखता रहा. मां कितनी सहजता से मेरी गृहस्थी में रचबस गई थीं.

मैं नीरा की इच्छा जाने बिना ही मां को जबरन साथ ले आया था. साथ क्या ले आया था, मुझे लाना पड़ा था. कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं था.

राजू व रमेश विदेश में बस गए थे. पिता की मृत्यु पर वे शोक संवेदनाएं भेज कर निश्चिंत हो गए थे. रीना, इला और राधा आई थीं. मैं श्राद्ध के दिन अकेला ही गांव पहुंचा था.

नीरा नहीं आई थी. मैं ने जोर नहीं दिया था. शायद मैं भी यही चाहता था. जब मेरे हृदय में मृत पिता के लिए स्नेह जैसी कोई चीज ही नहीं थी तो नीरा के हृदय की उदासीनता समझी जा सकती थी.

मेरी दोनों बेटियां मां के पास रह गई थीं. परिवार के दूसरे बच्चे भी सचाई को पहचान गए थे. लोगों की देखादेखी, जब वे बहुत छोटी थीं तो दादादादी की बातें पूछा करती थीं. मैं पता नहीं क्यों ‘दादा’, ‘दादी’ जैसे शब्दों के प्रति ही असहिष्णु हो गया था.

‘दादी’ शब्द मेरे मानस पर दहशत से अधिक घृणा ही पैदा करता था. मेरे बचपन की एक दादी थीं, किंतु कहानियों वाली, स्नेह देने वाली दादी नहीं. हुकूमत करने वाली दादी, मुझे ही नहीं मेरी मां को छोटीछोटी बात पर चिमटे से पीटने वाली दादी. मैं अब भी नहीं समझ पाता हूं, मेरी मां का दोष क्या था?

मेरा घर मध्यवर्गीय बिहारी घर था. सुबह होती कलह से, रात होती कलह से. मेरे पिता का कायरपन मुझे बचपन से ही उद्दंड बनाता गया.

मेरी एक परित्यक्ता बूआ थीं. अम्मां से भी बड़ी बूआ, हर मामले में हम लोगों से छोटी मानी जाती थीं. खानेपहनने, घूमने में उन का हिस्सा हम लोगों जैसा ही होता था. किंतु उन की प्रतिस्पर्धा अम्मां से रहती थी. सौतन सी, वह हर चीज में अम्मां का अधिक से अधिक हिस्सा छीनने की कोशिश करती थीं. बूआ दादी की शह पर कूदा करती थीं.

दादी और बूआ रानियों की तरह आराम से बैठी रहती थीं. हुकूमत करना उन का अधिकार था. मेरी मां दासी से भी गईबीती अवस्था में खटती रहती थीं. पिता बिस्तर से उठते ही दादी के पास चले जाते. दादी उन्हें जाने क्या कहतीं, क्या सुनातीं कि पिता अम्मां पर बरस पड़ते.

एक रोज अम्मां पर उठे पिता के हाथ को कस कर उमेठते हुए मैं ने कहा था, ‘‘खबरदार, जो मेरी मां पर हाथ उठाया.’’

पहले तो पिता ठगे से रह गए थे. फिर एकाएक उबल पड़े थे, लेकिन मैं डरा नहीं था. अब तो हमारा घर एक खुला अखाड़ा बन गया था. दादी मुझ से डरती थीं. मेरे दिल में किसी पके घाव को छूने सी वेदना दादी को देखने मात्र पर होती. मैं दादी को देखना तक नहीं चाहता था.

मैं सोचा करता, ‘बड़ा हो कर मैं अच्छी नौकरी कर लूंगा. फिर अम्मां को अपने पास रखूंगा. रहेंगी दादी और बूआ पिता के पास.’

उन का बढ़ता अंतराल मेरे अंतर्मन में घृणा को बढ़ाता गया. मेरी अम्मां कमजोर हो कर टूटती चली गईं.

उस दिन वह घर स्नेहविहीन हो जाएगा, ऐसा मैं ने कभी सोचा भी नहीं था. अम्मां सारे कामों को निबटा कर सो गई थीं. राधा उन की छाती से चिपटी दूध पी रही थी. मैं बगल के कमरे में पढ़ रहा था.

दादी का हुक्म हुआ, ‘‘जरा, चाय बनाना.’’

कोई उत्तर नहीं मिला. वैसे भी अम्मां तो कभी उत्तर दिया ही नहीं करती थीं. 10 मिनट बाद दादी के स्वर में गरमी बढ़ गई. चाय जो नहीं मिली थी. दादी जाने क्याक्या बड़बड़ा रही थीं. अम्मां की चुप्पी उन के क्रोध को बढ़ा रही थी.

‘‘भला, सवेरेसवेरे कहीं सोया जाता है. कब से गला फाड़ रही हूं. एक कप चाय के लिए, मगर वह राजरानी है कि सोई पड़ी है,’’ और फिर एक से बढ़ कर एक कोसने का सिलसिला.

मैं पढ़ाई छोड़ कर बाहर आ गया. अम्मां को झकझोरती दादी एकाएक चीख उठीं. मैं दरवाजा पकड़ कर खड़ा रह गया. सारे काम निबटा कर निर्जला अम्मां प्राण त्याग चुकी थीं.

दादी ने झट अपना मुखौटा बदला, ‘‘हाय लक्ष्मी…हाय रानी…तुम हमें छोड़ कर क्यों चली गईं,’’ दादी छाती पीटपीट कर रो रही थीं. बूआ चीख रही थीं. मेरे भाईबहन मुझ से सहमेसिमटे चिपक गए थे. अम्मां की दूधविहीन छाती चबाती राधा को यत्न से अलग कर मैं रो पड़ा था.

दादी हर आनेजाने वाले को रोरो कर कथा सुनातीं. पिता भी रोए थे.

अम्मां के अभाव ने घर को घर नहीं रहने दिया. बूआ कोई काम करती नहीं थीं. आदत ही नहीं थी. पिता को थोड़ी कमाई में एक बावर्ची रखना संभव नहीं था. वैसे भी कोई ऐसा नौकर तो बहू के सिवा मिल ही नहीं सकता था, जो बिना बोले, बिना खाए खटता रहे. समय से पूर्व ही रीना को बड़ा बनना पड़ा.

देखते-देखते अम्मां की मृत्यु को 6 माह बीत गए. दादी रोजरोज पिता के नए रिश्ते की बात करतीं. 1-2 रिश्तेदारों ने दबीदबी जबान से मेरी शादी की चर्चा की, ‘‘लड़का एम.एससी. कर रहा है. इसी की शादी कर दी जाए.’’

पर मेरे कायर पिता ने मां की आज्ञा मानने का बहाना कर के मुझ से भी छोटी उम्र की लड़की से ब्याह कर लिया.

मेरा मन विद्रोह कर उठा. लेकिन उस लड़की लगने वाली औरत में क्या था, नहीं समझ पाया. वह बड़ी सहजता से हम सब की मां बन गई. हम ने भी उसे मां स्वीकार कर लिया. मुझे दादी के साथसाथ पिता से भी तीव्र घृणा होने लगती, जब मेरी नजर नई मां पर पड़ती.

‘क्या लड़कियों के लिए विवाह हो जाना ही जीवन की सार्थकता होती है?’ हर बार मैं अपने मन से पूछा करता.

मां के मायके में कोई नहीं था. विधवा मां ने 10वीं कक्षा में पढ़ती बेटी का कन्यादान कर के निश्ंिचता की सांस ली थी.

मेरी दूसरी मां भी मेरी अम्मां की तरह ही बिना कोई प्रतिवाद किए सारे अत्याचार सह लेती थीं. अम्मां की मृत्यु के बाद घर से मेरा संबंध न के बराबर रह गया था.

पहली बार नई मां के अधर खुले, जब रीना के ब्याह की बात उठी. वह अड़ गईं, ‘‘विवाह नहीं होता तो मत हो. लड़की पढ़ कर नौकरी करेगी. ऐसेवैसे के गले नहीं मढूंगी.’’

पिता सिर पटक कर रह गए. दादी ने व्यंग्यबाण छोड़े. लेकिन मां शांत रहीं, ‘‘मैं योग्य आदमी से बेटी का ब्याह करूंगी.’’

मां की जिद और हम सब का सम्मिलित परिश्रम था कि अब सारा घर सुखी है. हम सभी भाईबहन पढ़लिख कर अपनीअपनी जगह सुखआनंद से थे.

नई मां ही थीं वह सूत्र जिस ने पिता के मरने के बाद मुझे गांव खींचा था. दादी मरीं, बूआ मरीं, पिता के बुलावे आए, पर मैं गांव नहीं आया. पता नहीं, कैसी वितृष्णा से मन भर गया था.

मैं अपनेआप को रोक नहीं पाया था. पिता के श्राद्ध के दिन घर पहुंचा था. भरे घर में मां एक कोने में सहमीसिकुड़ी रंग उड़ी तसवीर जैसी बैठी थीं. पूरे 10 साल बाद मैं गांव आया था. उन 10 सालों ने मां से जाने क्याक्या छीन लिया था.

पिता ने कुछ भी तो नहीं छोड़ा था उन के लिए. हर आदमी मुझे समझा रहा था, ‘‘अपना तो कोई नहीं है. एक तुम्हीं हो.’’

मां की सहमी आंखें, तनी मुद्रा मुझे आश्वस्त कर रही थीं, ‘‘मोहन, घबराओ नहीं. मुझे कुछ साल ही तो और जीना है. मेहनतमजदूरी कर के जी लूंगी.’’

सामीप्य ने मां की सारी निस्वार्थ सेवाएं याद दिलाईं. जन्म नहीं दिया तो क्या, स्नेह तो दिया था. भरपूर  स्नेह की गरमाई, जिस ने छोटे से बड़ा कर के हमें सुंदर घर बनाने में सहारा दिया था.

पता नहीं किस झोंक में मां के प्रतिवाद के बाद भी मैं उन्हें अपने साथ ले आया था.

‘नीरा क्या समझेगी? क्या कहेगी? मां से उस की निभेगी या नहीं?’ यह सब सोचसोच कर मन डर रहा था. कभीकभी अपनी भावुकता पर खीजा भी था. हालांकि विश्वास था कि मेरी मां ‘दादी’ नहीं हो सकती है.

अब 1 साल पूरा हो रहा था. मां ने बड़ी कुशलता से नीरा ही नहीं, मेरी बेटियों का मन भी जीत लिया था.

शुरू शुरू में कुछ दिन अनकहे तनाव में बीते थे. मां के आने से पहले ही आया जा चुकी थी. नई आया नहीं मिल रही थी. नौकरों का तो जैसे अकाल पड़ गया था. नीरा सुबह 9 बजे दफ्तर जाती और शाम को थकीहारी लौटती. अकसर अत्यधिक थकान के कारण हम आपस में ठीक से बात नहीं कर पाते थे. मां क्या आईं, एक स्नेहपूर्ण घर बन गया, बेचारी नीरा आया के  नहीं रहने पर परेशान हो जाती थी. मां ने नीरा का बोझ बांट लिया. मां को काम करते देख कर नीरा लज्जित हो जाती. मां घर का काम ही नहीं करतीं, बल्कि नीरा के व्यक्तिगत काम भी कर देतीं.

कभी साड़ी इस्तिरी कर देतीं. कभी बटन टांक देतीं.

‘‘मां, आप यह सब क्यों करती हैं?’’

‘‘क्या हुआ, बेटी. तुम भी तो सारा दिन खटती रहती हो. मैं घर मैं खाली बैठी रहती हूं. मन भी लग जाता है. कोई तुम पर एहसान थोड़े ही करती हूं. ये काम मेरे ही तो हैं.’’

नीरा कृतज्ञ हो जाती.

‘‘मां, आप पहले क्यों नहीं आईं?’’ गले लिपट कर लाड़ से नीरा पूछती. मां हंस देतीं.

नीरा मां का कम खयाल नहीं रखती थी. वह बुनाई मशीन खरीद लाई थी. मेरे नाराज होने पर हंस कर बोली, ‘‘मां का मन भी लगेगा और उन में आर्थिक निर्भरता भी आएगी.’’

मैं अतीत की भूलभूलैया से वर्तमान में लौटता. नीरा का अंगअंग पुलक रहा था. वह मां के स्नेह व सेवा तथा नीरा के आभिजात्य और समर्पित अनुराग का सौरभ था, जो मेरे घरआंगन को महका रहा था.

कैसे बहुओं की सासों से नहीं पटती? क्या सासें केवल बुरी ही होती हैं? लेकिन मेरी मां जैसी सास कम होती हैं, जो बहू की कठिनाइयों को समझती हैं. घावों पर मरहम लगाती हैं और लुटाती हैं निश्छल स्नेह.

रात शुरू हो रही थी. नीरा थकी सी आरामकुरसी पर बैठी थी. लेकिन आदतन बातों का सूत कात रही थी. मेरी दोनों बेटियां दादी की देह पर झूल रही थीं.

‘‘दादीजी, आज कौन सी कहानी सुनाओगी?’’

‘‘जो मेरी राजदुलारी कहेगी.’’

मैं ने मां को देखा, कैसी शांत, निद्वंद्व वह बच्चों की अनवरत बातों में मुसकराती ऊन की लच्छियां सुलझा रही थीं. मुझे लग रहा था कि वह मेरी सौतेली नहीं, मेरी सगी मां हैं. उम्र में बड़ा हो कर भी मैं बौना होने लगा था. मैं ने नीरा को मां के सामने ही कुरसी से उठा लिया, ‘‘लो, संभालो अपनी इस राजदुलारी को. इसे भी कोई कहानी सुना दो. यह कब से मेरा सिर खा रही है.’’

‘‘मां, सिर में भेजा हो तब तो खाऊं न.’’

नीरा मुसकरा दी. मां की दूध धुली खिलखिलाहट ने हमारा साथ दिया. देखते ही देखते हंसी के घुंघरुओं की झनकार से मेरा घरआंगन गूंज उठा.

जब मियां बीवी राजी तो क्यूं करें रिश्तेदार दखलअंदाजी

‘‘दादू …’’ लगभग चीखती हुई झूमुर अपने दादू से लिपट गई.

‘‘अरेअरे, हौले से भाई,’’ दादू बैठे हुए भी झूमुर के हमले से डगमगा गए, ‘‘कब बड़ी होगी मेरी बिटिया?’’

‘‘और कितना बड़ी होऊं? कालेज भी पास कर लिया, अब तो नौकरी भी लग गई है मुंबई में,’’ झूमुर की अपने दादू से बहुत अच्छी घुटती थी. अब भी वह मातापिता व अपने छोटे भाई के साथ सपरिवार उन से मिलने अपने ताऊजी के घर आती, झूमुर बस दादू से ही चिपकी रहती. ‘‘अब की बार मुझे बीकानेर भी दिल्ली जितना गरम लग रहा है वरना यहां की रात दिल्ली की रात से ठंडी हुआ करती है.’’

‘‘चलो आओ, खाना लग गया है. आप भी आ जाएं बाबूजी,’’ ताईजी की पुकार पर सब खाने की मेज पर एकत्रित हो गए. मेज पर शांति से सब ने भोजन किया. अकसर परिवारों में जब सब भाईबहन इकट्ठा होते हैं तो खूब धमाचौकड़ी मचती है. लेकिन यहां हर ओर शांति थी. यहां तक कि पापड़ खाने में भी आवाज नहीं आ रही थी. ऐसा रोब था राधेश्याम यानी सब से बड़े ताऊजी का. यों देखने में उन्हें कोई इतना सख्त नहीं मान सकता था- साधारण कदकाठी, पतली काया. किंतु रोब सामने वाले के व्यक्तित्व में होता है, शरीर में नहीं. राधेश्याम का रोब पूरे परिवार में प्रसिद्घ था. न कोई उन से बहस कर सकता था और न ही कोई उन के विरुद्घ जा सकता था. कम बोलने वाले मगर अमिताभ बच्चन की स्टाइल में जो बोल दिया, सो बोल दिया.

हर साल एक बार सभी ताऊ, चाचा व बूआ अपनेअपने परिवार सहित बीकानेर में एकत्रित हुआ करते थे. पूरे परिवार को एकजुट रखने में इस एक हफ्ते की छुट्टियों का बड़ा योगदान था. चूंकि दादाजी यहीं रहते थे राधेश्याम के परिवार के साथ, इसलिए यही घर सब का हैड औफिस जैसा था.

राधेश्याम के फैक्टरी जाते ही सब भाईबहन अपने असली रंग में आ गए. शाम तक खूब मस्ती होती रही. सारी महिलाएं कामकाज निबटाने के साथ ढेर सारी गपें भी निबटाती रहीं. झूमुर के पापा व चाचा अखबार की सुर्खियां चाट कर, थोड़ी देर सुस्ता लिए.  इसी बीच झूमुर फिर अपने दादू के पास हो ली,  ‘‘कुछ बढि़या से किस्से सुनाओ न दादू.’’ बुजुर्गों को और क्या चाहिए भला. पोतेपोतियां उन के जमाने के किस्से सुनना चाहें तो बुजुर्गों में एक नूतन उमंग भर जाती है.

‘‘बात 1950 की है जब मैं हाईस्कूल में पढ़ता था. हमारे एक मास्साब थे, मतलब टीचर हरगोविंद सर. एक बार…,’’ इस से पहले कि दादू आगे किस्सा सुनाते, झूमुर बीच में ही कूद पड़ी, ‘‘स्कूल का नहीं दादू, कोई और किस्सा. अच्छा यह बताइए, आप दादी से कैसे मिले थे. आप ठहरे राजस्थानी और दादी तो बंगाल से थीं. तो आप दोनों की शादी कैसे हुई?’’

‘‘अच्छा, तो आज दादूदादी की प्रेमकहानी सुननी है?’’ कह दादू हंसे. दादी को इस जग से गए काफी समय बीत चुका था. कई वर्षों से वे अकेले थे, बिना जीवनसाथी के. अब केवल दादी की यादें ही उन का साथ देती थीं. पूर्ण प्रसन्नता से उन्होंने अपनी कहानी आरंभ की, ‘‘बात 1957 की है. मैं ने अपना नयानया कारोबार शुरू किया था. बाजार से ब्याज पर 3,500 रुपए उठा कर मैं ने यहीं बीकानेर में बंधेज के कपड़ों का कारखाना शुरू किया था. लेकिन राजस्थान का काम राजस्थान में कितना बिकता और मैं कितना  मुनाफा कमा लेता? फिर मुझे बाजार से उठाया असल और सूद भी लौटाना था, और अपने पैरों पर खड़ा भी होना था…’’

‘‘ओहो दादू, आप तो अपने कारोबार के किस्सों में उलझ गए. असली मुद्दे पर आओ न,’’ झूमुर खीझ कर बोली.

‘‘थोड़ा धीरज रख, उसी पर आ रहा हूं. कारोबार को आगे बढ़ाने हेतु मैं कोलकाता पहुंचा. वहां तुम्हारी दादी के पिताजी की अपनी बहुत बड़ी दुकान थी कपड़ों की, लाल बाजार में. उन से मुलाकात हुई. मैं ने अपना काम दिखाया, बंधेज की साडि़यों व चुन्नियों के कुछ सैंपल उन के पास छोड़े. कुछ महीनों में वहां भी मेरा काम चल निकला.’’

‘‘और दादी? वे तो अभी तक पिक्चर में नहीं आईं,’’ झूमुर एक बार फिर उतावली हो उठी.

‘‘तेरा नाम शांति रखना चाहिए था. जरा भी धैर्य नहीं. आगे सुन, दादी के पिताजी ने ही हमारी शादी की बात चलाई. मेरे पिताजी को रिश्ता भा गया और हमारी शादी हो गई.’’

‘‘धत्त तेरे की. इस कहानी में तो कोई थ्रिल नहीं- न कोई विलेन आया और न ही कोई व्हाट नैक्स्ट मोमैंट. इतनी सहजता से हो गया सब? और जो कोई न मानता तो?’’ पूछने के साथ झूमुर का उत्साह कुछ फीका पड़ गया.

‘‘ओहो बिटिया, तू तो अपने दादू के किस्सों में उलझ गई. असली मुद्दे पर आ,’’ दादू झूमुर की नकल उतारते हुए बोले. आखिर उन्होंने बाल धूम में सफेद नहीं किए थे. उन के पास वर्षों का अनुभव तथा पारखी नजर थी. ‘‘तेरे दादू उड़ती चिरैया के पर गिन लेते हैं, समझी?’’ झूमुर की उत्सुकता, उस का अचानक दादूदादी की कहानी में रुचि दिखाना देख दादू भांप गए थे कि झूमुर उन से कुछ कहना चाहती है, ‘‘बात क्या है?’’

शाम ढलने को थी. राधेश्याम फैक्टरी से घर लौट चुके थे. हर तरफ फिर शांति थी. रात के भोजन के समय एक बार फिर ताईजी की पुकार पर सब मेज पर पहुंच गए. इस पूरे परिवार में झूमुर सब से निकट अपने दादू से थी. शुरू से ही उस ने दादू को सब से सरल , समझदार और खुले विचारों का पाया था. कैसी अजीब बात है कि ऐसे दादू के बेटे, अगली पीढ़ी के होते हुए भी संकीर्ण सोच के वारिस थे. उसे याद है कि छोटे ताऊजी की बेटी, रेणु दीदी, ने अपने कालेज के एक जाट लड़के को पसंद कर लिया था किंतु परिवार का कोई सदस्य नहीं माना था. उन्हें समाज में कमाई गई अपनी इज्जत और रुतबे की चिंता ज्यादा थी. राधेश्याम के कहने पर आननफानन रेणु की शादी अपनी जाति के एक परिवार में तय कर दी गई थी. हालांकि उस की शादी परिवार की इच्छा से की गई थी, फिर भी आज तक उसे माफ नहीं किया गया था. परिवार में सब ओर उस की बेशर्मी के किस्से बांचे जाते थे. उस ने भी कभी इस परिवार के किसी समारोह में हिस्सा नहीं लिया था.

अगली सुबह झूमुर बगीचे में झूले पर गुमसुम बैठी थी कि वहां दादू पहुंच गए, ‘‘बताई नहीं तूने मुझे असली बात.’’ वे भी झूमुर के साथ झूले पर बैठ गए.

‘‘एक आप ही हो दादू जिस से मैं अपने मन की बात…’’

‘‘जानता हूं. असली बात पर आ, वरना फिर कोई आ धमकेगा और हमारी बात बीच में ही रह जाएगी.’’

‘‘कालेज में मेरे साथ एक लड़का पढ़ता था- रिदम.  अच्छा लड़का है, नौकरी भी बहुत अच्छी लग गई है हैदराबाद में.’’

‘‘समझ गया. तुझे वह लड़का पसंद है. तो दिक्कत क्या है?’’

‘‘वह लड़का हमारे धर्म का नहीं है, ईसाई है.’’

‘‘हूं…’’ कुछ क्षण दोनों के बीच चुप्पी छाई रही. मुद्दा वाकई गंभीर था. दूसरे प्रांत या दूसरी जाति का ही नहीं, बल्कि दूसरे धर्म का प्रश्न था. उस पर इन के परिवार की गिनती शहर के जानेमाने रईस, इज्जतदार खानदानों में होती है.

‘‘हम ने अपने कालेज के दीक्षांत समारोह में दोनों परिवारों को मिलवाया. रिदम के परिवार को कोई एतराज नहीं है. मम्मी को रिदम व उस का परिवार बहुत पसंद आया है. किंतु पापा राजी नहीं हैं. उन की मजबूरी है- परिवार जो रजामंद नहीं होगा.’’ झूमुर की चिंता का कारण वाजिब था, ‘‘मैं ने पापा की काफी खुशामद की, काफी समय से उन्हें मना रही हूं. दादू, यदि रिदम नहीं तो कोई नहीं-यह बात मैं ने पापामम्मी से कह भी दी है.’’ आजकल की पीढ़ी अपनी बात रखने में कोई झिझक, कोई संकोच नहीं दिखाती है. झूमुर ने भी साफतौर से अपने दादू को सब बता दिया.

‘‘तो मामला गंभीर है. देख बिटिया, वैसे तो उम्र के इस पड़ाव में, सबकुछ देख चुकने के बाद मैं यह मानता हूं कि जो कुछ है, यही जीवन है. इसे अच्छे से जियो, खुश रहो, बस. यदि तुझे विश्वास है कि तू उस लड़के के साथ खुश रहेगी तो मैं दूंगा तेरा साथ किंतु तुझे मेरी एक बात माननी होगी-एकदम चुप रहना होगा.’’ दादू की बात मान कर झूमुर ने अपने होंठ सिल लिए. उसे अपने दादू पर पूरा विश्वास था.

दादू ने भी बिना समय गंवाए अपने बेटे बृजलाल से इस विषय में बात की. बृजलाल अचरज में थे कि पिताजी को यह बात किस ने बता दी. ‘‘मुझ से यह बात स्वयं झूमुर ने साझा की है. अब तू यह बता कि परिवार की खुशी के आगे क्या अपनी इकलौती बिटिया की खुशी खोने को तैयार है?’’

‘‘पिताजी, यही तो दुविधा है. मैं झूमुर को उदास भी नहीं देख सकता हूं और अपने परिवार को नाराज भी नहीं कर सकता हूं.’’

‘‘और यदि दोनों ही न रूठें तो?’’ दादू के दिमाग में खिचड़ी पक रही थी. उन्होंने बृजलाल से अपना आइडिया बांटा. उन के कहने पर झूमुर ने उसी शाम परिवार वालों के लिए फिल्म की टिकटें मंगवा दीं. जब सभी खुशीखुशी फिल्म देखने चल पड़े तो अचानक दादू ने तबीयत नासाज होने की बात कर अपने संग राधेश्याम और बृजलाल को घर में रोक लिया. अब सब जा चुके थे. सो, दादू चैन से अपने दोनों बेटों से बात कर सकते थे. ‘‘देखो भाई, मुझे तुम दोनों से एक बहुत ही गंभीर विषय में बात करनी है. मेरी एक समस्या है और इस का उपाय तुम दोनों के पास है,’’ कहते हुए उन्होंने पूरी बात राधेश्याम और बृजलाल के समक्ष रख दी.  दोनों मुंह खोले एकदूसरे को ताकने लगे. इस से पहले कि कोई कुछ बोलता, दादू आगे बोले, ‘‘मैं पहले ही एक पोती को अपनी जिंदगी से खो चुका हूं सिर्फ इसी सिलसिले में. झूमुर मेरी सब से प्यारी पोती है और सब जानते हैं सूद असल से प्यारा होता है. मैं नहीं चाहता हूं कि झूमुर को भी खो दूं या हमारी झूठी शान और इज्जत के चक्कर में झूमुर अपनी हंसीखुशी खो बैठे. इस परेशानी का हल तुझे निकालना है राधे, और वह भी ऐसे कि किसी को कानोंकान खबर न हो.’’

‘‘मैं, पिताजी?’’ राधेश्याम हतप्रभ रह गए. एक तो विधर्म विवाह की बात से वे परेशान थे, ऊपर से पिताजी इस का हल निकालने का बीड़ा उन्हें ही दे बैठे थे.

‘‘बस, यह समझ ले कि मेरे परिवार के हित में मेरी यह आखिरी इच्छा है. मेरी पोती की खुशी और घरपरिवार की इज्जत-दोनों का खयाल रखना है,’’ पिताजी की आज्ञा सर्वोपरि थी.

राधेश्याम ने बहुत सोचा-पहले तो बृजलाल से आंखोंआंखों में मूक शिकायत की लेकिन उस की झुकी गरदन के आगे वे भी बेबस थे. दोनों भाइयों ने मिल कर सोचा कि रिदम के परिवार से मिला जाए और आगे की बात तय की जाए. परिवार के बाकी सदस्यों को बिना खबर किए दोनों दूसरे शहर रिदम के घर चले गए. वहां बातचीत वगैरा हो गई और अपने घर लौट कर दोनों भाइयों ने बताया कि एक अच्छा रिश्ता मिल गया. सो, बात पक्की कर दी गई. शादी की तैयारियां आरंभ हो गईं.

किंतु रिश्तेदारों से कोई बात छिपाना ऐसे है जैसे धूप में बर्फ जमाना. रिश्तेनाते मकड़ी के जालों की भांति होते हैं. बड़े ताऊजी ने बूआ को कह डाला, साथ ही ताकीद की कि वह आगे किसी से कुछ नहीं बताएगी. बूआ के पेट में मरोड़ उठी तो उन्होंने अपनी बेटी को बता दिया. और सब रिश्तेदारों में बात फैल गई कि यह रिश्ता झूमुर की पसंद का है, तथा लड़का ईसाई है लेकिन सभी चुप थे. यह बवाल अपने सिर कौन लेता कि बात किस ने फैलाई.

बड़े संयुक्त परिवारों की यह खासीयत होती है कि मुंह के सामने ‘हम साथसाथ हैं’ और पीठ फिरते ही ‘हम आप के हैं कौन?’ सभी रिश्तेदार शादी वाले घर में एकदूसरे का काम में हाथ बंटवाते, स्त्रियां बढ़चढ़ कर रीतिरिवाज निभाने में लगी रहतीं, कोई न कोई रिवाज बता कर उलझउलझाती रहतीं परंतु जहां मौका पड़ता, कोई न कोई कह रहा होता, ‘‘अब हमारे बच्चों पर इस का क्या असर होगा, आखिर हम कैसे रोक पाएंगे आगे किसी को अपनी मनमानी करने से. ऐसा ही था तो छिपाने की क्या आवश्यकता थी. बेचारी रेणु के साथ ऐसा क्यों किया था फिर…’’

दादू के कानों में भी खुसुरफुसुर पड़ गई. यह तो अच्छा नहीं है कि पता सब को है, सब पीठ पीछे बातें भी बना रहे हैं किंतु मुंह पर मीठे बने हुए हैं. दादू को पारिवारिक रिश्तों में यह दोगलापन नहीं भाया. उन के अनुभवी मस्तिष्क में फिर एक विचार आया किंतु इस बार उन्होंने स्वयं ही इसे परिणाम देने की ठानी. न किसी दूसरे को कुछ करने हेतु कहेंगे, न वह किसी और से कहेगा, और न ही बात फैलेगी.

नियत दिन पर बरात आई. धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ. फिर कुछ ऐसा हुआ जिस की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. अचानक विवाह समारोह में एक व्यक्ति आए हाथ में रजिस्टर कलम पकड़े. उन के लिए एक कुरसी व मेज लगवाई गई. और दादू ने हाथ में माईक पकड़ घोषणा करनी शुरू कर दी, ‘‘मेरी पौत्री के विवाह में पधारने हेतु आप सब का बहुतबहुत आभार…आप सब ने मेरी पौत्री को पूरे मन से आशीष दिए. हम सब निश्चितरूप से यही चाहते हैं कि झूमुर तथा रिदम सदैव प्रसन्न रहें. इस अवसर पर मैं आप सब को एक खुशखबरी और देना चाहता हूं. मेरा परिवार इस पूरे शहर में, बल्कि आसपास के शहरों में भी काफी प्रसिद्ध श्रेणी में आता है किंतु मेरे परिवार के ऊपर एक कलंक है, अपनी एक बेटी की इच्छापालन न करने का दोष. आज मैं वह कलंक धोना चाहता हूं. हम कब तक अपनी मर्यादाओं के संकुचित दायरों में रह कर अपने ही बच्चों की खुशियों का गला घोंटते रहेंगे? जब हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षादीक्षा प्रदान करते हैं तो उन के निर्णयों को मान क्यों नहीं दे सकते?’’

‘‘मेरी झूमुर ने एक ईसाई लड़के  को चुना. हमें भी वह लड़का व उस का परिवार बहुत पसंद आया. और सब से अच्छी बात यह है कि न तो झूमुर अपना धर्म बदलना चाहती है और न ही रिदम. दोनों को अपने संस्कारों, अपनी संस्कृतियों पर गर्व है. कितना सुदृढ़ होगा वह परिवार जिस में 2-2 धर्मों, भिन्न संस्कृतियों का मेल होगा. लेकिन कानूनन ऐसी शादियां सिविल मैरिज कहलाती हैं जिस के लिए आज यहां रजिस्ट्रार साहब को बुलाया गया है.’’

दादू के इशारे पर झूमुर व रिदम दोनों रजिस्ट्रार के पास पहुंचे और दस्तखत कर अपने विवाह को कानूनी तौर पर साकार किया.

इस प्रकार खुलेआम सारी बातें स्पष्ट रूप से कहने और स्वीकारने से रिश्तेदारों द्वारा बातों की लुकाछिपी बंद हो गई तथा आगे आने वाले समय के लिए भी बात खुलने का डर या किसी प्रकार की शर्मिंदगी का प्रश्न समाप्त हो गया. दादू की दूरंदेशी और समझदारी ने न केवल झूमुर के निर्णय की इज्जत बनाई बल्कि परिवार में भी एकरसता घोल दी. पूरे शहर में इस परिवार की एकता व हौसले के चर्चे होने लगे. विदाई के समय झूमुर सब के गले मिल कर रो रही थी. किंतु दादू के गले मिलते ही, उन्होंने उस के कान में ऐसा क्या कह दिया कि भीगे गालों व नयनों के बावजूद वह अपनी हंसी नहीं रोक पाई. जब मियांबीवी राजी तो क्यों करें रिश्तेदार दखलबाजी.

कैसी दूरी: क्या शीला की बेचैनी रवि समझ पाया?

आधी रात का गहरा सन्नाटा. दूर कहीं थोड़ीथोड़ी देर में कुत्तों के भूंकने की आवाजें उस सन्नाटे को चीर रही थीं. ऐसे में भी सभी लोग नींद के आगोश में बेसुध सो रहे थे.

अगर कोई जाग रहा था, तो वह शीला थी. उसे चाह कर भी नींद नहीं आ रही थी. पास में ही रवि सो रहे थे.

शीला को रहरह कर रवि पर गुस्सा आ रहा था. वह जाग रही थी, मगर वे चादर तान कर सो रहे थे. रवि के साथ शीला की शादी के15 साल गुजर गए थे. वह एक बेटे और एक बेटी की मां बन चुकी थी.

शादी के शुरुआती दिन भी क्या दिन थे. वे सर्द रातों में एक ही रजाई में एकदूसरे से चिपक कर सोते थे. न किसी का डर था, न कोई कहने वाला. सच, उस समय तो नौजवान दिलों में खिंचाव हुआ करता था.

शीला ने तब रवि के बारे में सुना था कि जब वे कुंआरे थे, तब आधीआधी रात तक दोस्तों के साथ गपशप किया करते थे.

तब रवि की मां हर रोज दरवाजा खोल कर डांटते हुए कहती थीं, ‘रोजरोज देर से आ कर सोने भी नहीं देता. अब शादी कर ले, फिर तेरी घरवाली ही दरवाजा खोलेगी.’रवि जवाब देने के बजाय हंस कर मां को चिढ़ाया करते थे.

जैसे ही रवि के साथ शीला की शादी हुई, दोस्तों से दोस्ती टूट गई. जैसे ही रात होती, रवि चले आते उस के पास और उस के शरीर के गुलाम बन जाते. भंवरे की तरह उस पर टूट पड़ते. उन दिनों वह भी तो फूल थी. मगर शादी के सालभर बाद जब बेटा हो गया, तब खिंचाव कम जरूर पड़ गया.

धीरेधीरे शरीर का यह खिंचाव खत्म तो नहीं हुआ, मगर मन में एक अजीब सा डर समाया रहता था कि कहीं पास सोए बच्चे जाग न जाएं. बच्चे जब बड़े हो गए, तब वे अपनी दादी के पाससोने लगे.

अब भी बच्चे दादी के पास ही सो रहे हैं, फिर भी रवि का शीला के प्रति वह खिंचाव नहीं रहा, जो पहले हुआ करता था. माना कि रवि उम्र के ढलते पायदान पर है, लेकिन आदमी की उम्र जब 40 साल की हो जाती है, तो वह बूढ़ा तो नहीं कहलाता है.

बिस्तर पर पड़ेपड़े शीला सोच रही थी, ‘इस रात में हम दोनों के बीच में कोई भी तो नहीं है, फिर भी इन की तरफ से हलचल क्यों नहीं होती है? मैं बिस्तर पर लेटीलेटी छटपटा रही हूं, मगर ये जनाब तो मेरी इच्छा को समझ ही नहीं पा रहे हैं.

‘उन दिनों जब मेरी इच्छा नहीं होती थी, तब ये जबरदस्ती किया करते थे. आज तो हम पतिपत्नी के बीच कोई दीवार नहीं है, फिर भी क्यों नहीं पास आते हैं?’

शीला ने सुन ही नहीं रखा है, बल्कि ऐसे भी तमाम उदाहरण देखे हैं कि जिस आदमी से औरत की ख्वाहिश पूरी नहीं होती है, तब वह औरत दूसरे मर्द के ऊपर डोरे डालती है और अपने खूबसूरत अंगों से उन्हें पिघला देती है. फिर रवि के भीतर का मर्द क्यों मर गया है?

मगर शीला भी उन के पास जाने की हिम्मत क्यों नहीं कर पा रही है? वह क्यों उन की चादर में घुस नहीं जाती है? उन के बीच ऐसा कौन सा परदा है, जिस के पार वह नहीं जा सकती है?

तभी शीला ने कुछ ठाना और वह रवि की चादर में जबरदस्ती घुस गई. थोड़ी देर में उसे गरमाहट जरूर आ गई, मगर रवि अभी भी बेफिक्र हो कर सो रहे थे. वे इतनी गहरी नींद में हैं कि कोई चिंता ही नहीं.

शीला ने धीरे से रवि को हिलाया. अधकचरी नींद में रवि बोले, ‘‘शीला, प्लीज सोने दो.’’

‘‘मुझे नींद नहीं आ रही है,’’ शीला शिकायत करते हुए बोली.

‘‘मुझे तो सोने दो. तुम सोने की कोशिश करो. नींद आ जाएगी तुम्हें,’’ रवि नींद में ही बड़बड़ाते हुए बोले और करवट बदल कर फिर सो गए.

शीला ने उन्हें जगाने की कोशिश की, मगर वे नहीं जागे. फिर शीला गुस्से में अपनी चादर में आ कर लेट गई, मगर नींद उस की आंखों से कोसों दूर जा चुकी थी.

सुबह जब सूरज ऊपर चढ़ चुका था, तब तक शीला सो कर नहीं उठी थी. उस की सास भी घबरा गईं. सब से ज्यादा घबराए रवि.

मां रवि के पास आ कर बोलीं, ‘‘देख रवि, बहू अभी तक सो कर नहीं उठी. कहीं उस की तबीयत तो खराब नहीं हो गई?’’

रवि बैडरूम की तरफ लपके. देखा कि शीला बेसुध सो रही थी. वे उसे झकझोरते हुए बोले, ‘‘शीला उठो.’’

‘‘सोने दो न, क्यों परेशान करते हो?’’ शीला नींद में ही बड़बड़ाई.

रवि को गुस्सा आ गया और उन्होंने पानी का एक गिलास भर कर उस के मुंह पर डाल दिया.शीला घबराते हुए उठी और गुस्से से बोली, ‘‘सोने क्यों नहीं दिया मुझे? रातभर नींद नहीं आई. सुबह होते ही नींद आई और आप ने उठा दिया.’’

‘‘देखो कितनी सुबह हो गई?’’ रवि चिल्ला कर बोले, तब आंखें मसल कर उठते हुए शीला बोली, ‘‘खुद तो ऐसे सोते हो कि रात को उठाया तो भी न उठे और मुझे उठा दिया,’’ इतना कह कर वह बाथरूम में घुस गई.यह एक रात की बात नहीं थी. तकरीबन हर रात की बात थी.मगर रवि में पहले जैसा खिंचाव क्यों नहीं रहा? या उस से उन का मन भर गया? ऐसा सुना भी है कि जिस मर्द का अपनी औरत से मन भर जाता है, फिर उस का खिंचाव दूसरी तरफ हो जाता है. कहीं रवि भी… नहीं उन के रवि ऐसे नहीं हैं.

सुना है कि महल्ले के ही जमना प्रसाद की पत्नी माधुरी का चक्कर उन के ही पड़ोसी अरुण के साथ चल रहा है. यह बात पूरे महल्ले में फैल चुकी थी. जमना प्रसाद को भी पता थी, मगर वे चुप रहा करते थे.

रात का सन्नाटा पसर चुका था. रवि और शीला बिस्तर में थे. उन्होंने चादर ओढ़ रखी थी.रवि बोले, ‘‘आज मुझे थोड़ी ठंड सी लग रही है.’’

‘‘मगर, इस ठंड में भी आप तो घोडे़ बेच कर सोते रहते हो, मैं कितनी बार आप को जगाती हूं, फिर भी कहां जागते हो. ऐसे में कोई चोर भी घुस जाए तो पता नहीं चले. इतनी गहरी नींद क्यों आती है आप को?’’

‘‘अब बुढ़ापा आ रहा है शीला.’’

‘‘बुढ़ापा आ रहा है या मुझ से अब आप का मन भर गया है?’’

‘‘कैसी बात करती हो?’’

‘‘ठीक कहती हूं. आजकल आपको न जाने क्या हो गया,’’ यह कहते हुए शीला की आंखों में वासना दिख रही थी. रवि जवाब न दे कर शीला का मुंह ताकते रहे.

शीला बोली, ‘‘ऐसे क्या देख रहे हो? कभी देखा नहीं है क्या?’’

‘‘अरे, जब से शादी हुई है, तब से देख रहा हूं. मगर आज मेरी शीला कुछ अलग ही दिख रही है,’’ शरारत करते हुए रवि बोले.

‘‘कैसी दिख रही हूं? मैं तो वैसी ही हूं, जैसी तुम ब्याह कर लाए थे,’’ कह कर शीला ने ब्लाउज के बटन खोल दिए, ‘‘हां, आप अब वैसे नहीं रहे, जैसे पहले थे.’’

‘‘क्यों भला मुझ में बदलाव कैसे आ गया?’’ अचरज से रवि बोले.

‘‘मेरा इशारा अब भी नहीं समझ रहे हो. कहीं ऐसा न हो कि मैं भी जमना प्रसाद की पत्नी माधुरी बन जाऊं.’’

‘‘अरे शीला, जमना प्रसाद तो ढीले हैं, मगर मैं नहीं हूं,’’ कह कर रवि ने शीला को अपनी बांहों में भर कर उस के कई चुंबन ले लिए.

Mother’s Day Special: पुनरागमन- भाग 2- क्या मां को समझ पाई वह

‘‘अब बताओ, हुआ क्या है, इतनी परेशान क्यों हो?’’

‘‘मैं ने मांजी से बारबार कहा कि कपड़े गंदे न करें, जरूरत पड़ने पर मुझे बताएं. सुबह मैं ने उन से बाथरूम चलने के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया और दो मिनट बाद ही बिस्तर गंदा कर दिया. मैं ने उन की सफाई के साथ ही साथ उन से नहाने के लिए भी कहा तो वे बोलीं, ‘पानी कमरे में ही ले आओ, मैं कमरे में ही नहाऊंगी.’ बहुत समझाने पर भी जब मांजी नहीं मानीं तो मैं पानी कमरे में ले आई. वैसे भी अकेले मेरे लिए मांजी को उठाना मुश्किल था. मैं ने सोचा था कि गीले कपड़े से पोंछ दूंगी, फिर खाना खिला दूंगी. पर मांजी ने तो गुस्से में पैर से पानी की पूरी बालटी ही उलट दी और खाने की थाली उठा कर नीचे फेंक दी. मैं तो दिनभर कमरा साफ करकर के थक जाती हूं.’’

नीरू ने मां के कमरे में पैर रखा तो उस का दिल घबरा गया. पूरे कमरे में पानी ही पानी भरा था. खाने की थाली एक ओर पड़ी थी और कटोरियां दूसरी तरफ. रोटी, दाल, चावल सब जमीन पर फैले थे. मां मुंह फुलाए बिस्तर पर बैठी थीं.

नीरू ने मां के पास जा कर पूछा, ‘‘क्या हुआ मां, खाना क्यों नहीं खाया? तुम ने कल रात को भी खाना नहीं खाया. इस तरह तो तुम कमजोर हो जाओगी.’’

मैं आया के हाथ का खाना नहीं खाऊंगी, आया गंदी है. उसे भगा दो. मुझ से कहती है कि मेरी शिकायत तुम से करेगी, फिर तुम मुझे डांटोगी. तुम डांटोगी मुझे?’’ मां ने किसी छोटे बच्चे की तरह भोलेपन से पूछा तो नीरू को हंसी आ गई. उस ने मां के गले में हाथ डाल कर प्यार किया और कहा, ‘‘मैं अपनी प्यारी मां को अपने हाथों से खाना खिलाऊंगी. बोलो, क्या खाओगी?’’

‘‘मिठाई दोगी?’’ मां ने आशंकित हो कर कहा.

‘‘मिठाई? पर मिठाई तो खाना खाने के बाद खाते हैं. पहले खाना खा लो, फिर मिठाई खा लेना.’’

‘‘नहीं, पहले मिठाई दो.’’

‘‘नहीं, पहले खाना, फिर मिठाई.’’ नीरू ने मां की नकल उतार कर कहा तो मां ताली बजा कर खूब हंसीं और बोलीं, ‘‘बुद्धू बना रही हो, खाना खा लूंगी तो मिठाई नहीं दोगी. पहले मिठाई लाओ.’’

नीरू ने मिठाई ला कर सामने रख दी तो मां खुश हो कर बोलीं, ‘‘पहले एक पीस मिठाई, फिर खाना.’’

‘‘अच्छा, ठीक है, लड्डू लोगी या रसगुल्ला?’’

‘‘रसगुल्ला,’’ मां ने खुश हो कर कहा.

नीरू ने एक रसगुल्ला कटोरी में रख कर उन्हें दिया और उन के लिए थाली में खाना निकालने लगी. दो कौर खाने के बाद ही मां फिर खाना खाने में आनाकानी करने लगीं. ‘‘पेट गरम हो गया, अब और नहीं खाऊंगी,’’ मां ने मुंह बना कर कहा.

‘‘अच्छा, एक कौर मेरे लिए, मां. देखो, तुम ने कल भी कुछ नहीं खाया था, अभी दवाई भी खानी है और दवाई खाने से पहले खाना खाना जरूरी है वरना तबीयत बिगड़ जाएगी.’’

‘‘नहीं, मैं नहीं खा सकती. अब एक कौर भी नहीं.’’ तुम तो दारोगा की तरह पीछे लग जाती हो. मुझे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता. मेरी अम्मा बनने चली हो. अब पेट में जगह नहीं है तो क्या करूं, पेट बड़ा कर लूं,’’ कहते हुए मां ने पेट फुला लिया तो नीरू को हंसी आ गई. उस ने हंसते हुए थाली की ओर हाथ बढ़ाया तो मां ने समझा कि नीरू फिर उस से खाने के लिए कहेगी. सो, अपनी आंखें बंद कर के लेट गईं. तभी फोन की घंटी बजी तो नीरू फोन पर बात करने लगी. बात करतेकरते नीरू ने देखा कि मां ने धीरे से आंखें खोल कर देखा और रसगुल्ले की ओर हाथ बढ़ाया पर नीरू को अपनी ओर आते देखा तो झट से बोलीं, ‘‘हम रसगुल्ला थोड़े उठा रहे थे, हम तो उस पर बैठा मच्छर भगा रहे थे.’’

‘‘तुम्हें एक रसगुल्ला और खाना है?’’ नीरू ने हंस कर पूछा.

‘‘हां, मुझे रसगुल्ला बहुत अच्छा लगता है.’’

‘‘तो पहले रोटी खाओ, फिर रसगुल्ला भी खा लेना.’’

‘रसगुल्ला, कचौड़ी, कचौड़ी फिर रसगुल्ला, फिर कचौड़ी…’ मां मुंह ही मुंह में बुदबुदा रही थीं. नीरू ने सुना तो उसे हंसी आ गई.

‘‘शाम को मेहमान आने वाले हैं. तब तुम्हारी पसंद की कचौड़ी बनाऊंगी,’’ नीरू ने मां को मनाने के लिए कहा तो मां प्रसन्न हो कर बोलीं, ‘‘हींग वाली कचौड़ी?’’

‘‘हां, हींग वाली. लो, अब एक रोटी खा लो, फिर शाम को कचौड़ी खाना.’’

‘‘तो मैं शाम को रोटी नहीं खाऊंगी, हां. मुझे पेटभर कचौड़ी देना.’’

‘‘अच्छा बाबा. मैं तो इसलिए रोकती हूं कि मीठा और तलाभुना खाने से तुम्हारी शुगर बढ़ जाती है. आज शाम को जो तुम कहोगी मैं तुम्हें वही खिलाऊंगी पर अभी एक रोटी खाओ.’’

नीरू ने मां को रोटी खाने के लिए मना ही लिया. शाम को मां अपने कमरे में अकेली बैठी कसमसा रही थीं. बाहर के कमरे से लगातार बातों के साथसाथ हंसने की भी आवाजें आ रही थीं. ‘क्या करूं, नीरू को बुलाने के लिए आवाज दूं क्या? नहींनहीं, नीरू गुस्सा करेगी. तो फिर? मन भी तो नहीं लग रहा है. मैं भी उसी कमरे में चली जाऊं तो? ये मेहमान भी चले क्यों नहीं जाते. 2 घंटे से चिपके हैं. अभी न जाने कितनी देर तक जमे रहेंगे. मैं पूरे दिन नीरू का इंतजार करती हूं कि शाम को नीरू के साथ बातें करूंगी वरना इस कमरे में अकेले पड़ेपड़े कितना जी घबराता है, किसी को क्या पता?’

अचानक मां के कमरे से ‘हाय मर गई. हे प्रकृति, तू मुझे उठा क्यों नहीं लेती,’ की आवाज आने लगी तो सब का ध्यान मां के कमरे की ओर गया. सब दौड़ते हुए कमरे में पहुंचे तो देखा मां अपने बिस्तर पर पड़ी कराह रही हैं. नीरू ने मां से पूछा, ‘‘क्या हुआ मां, कराह क्यों रही हो?’’

‘‘मेरा पेट गरम हो रहा है. देखो, और गरम होता जा रहा है. गरमी बढ़ती जा रही है. खड़ीखड़ी क्या कर रही हो? मेरे पेट की आग से पूरा घर जल जाएगा. सब जल जाएंगे.’’

मां की बात सुन कर नीरू ने कहा, ‘‘चलो, अस्पताल चलते हैं.’’ फिर नीरू ने मेहमानों से कहा, ‘‘आप आराम से बैठें, मैं मां को डाक्टर को दिखा कर आती हूं.’’

समय की नजाकत को भांपते हुए मेहमानों ने भी कहा, ‘‘आप मां को अस्पताल ले जाएं, हम फिर कभी आ जाएंगे.’’

यथार्थ: सरला ने क्यों किया था शादी के लिए मना

सरला आंटी के सहयोग  से ही उसे एक फ्लैट में बतौर ‘पेइंग गेस्ट’ स्थान मिला था. इस पार्टी में आने के लिए सरला आंटी ने ही जोर दिया था. वह पार्टी की गहमागहमी से अलगथलग शीतल पेय का गिलास लिए किनारे की कुरसी पर बैठी थी. अचानक अपने सामने कुरसी खींच कर बैठे शख्स को उस ने ध्यान से देखा.

‘‘मुझे पहचाना, मैं भगवानदास,’’ उस शख्स ने पूछा.

‘‘हां, हां,’’ उस ने कहा. उस शख्स को तो वह भूल ही नहीं सकती थी. 10 वर्ष पूर्व वह उसे देखने आया था और इस प्रकार संकोच में बैठा था मानो कोई दुलहन हो. इलाहाबाद विश्वविद्यालय की तेजतर्रार मोहना के सामने उस के बोलने की क्षमता जैसे समाप्त हो गई थी. नाम पूछने पर जब उस ने अपना नाम ‘भगवान दास’ बताया तब वह खूब हंसी थी और आहत व अपमानित भगवानदास चुपचाप बैठा रहा था.

बाद में मोहना ने घर वालों से कह दिया था कि उसे ऐसे दब्बू, भोंदू भगवान के दासों में कोई दिलचस्पी नहीं है. वह पहले प्रशासनिक सेवा में जाना चाहती है. किंतु आज 10 वर्ष बाद भगवानदास पूरा सामर्थ्यवान पुरुष लग रहा था. उस की भेदती दृष्टि का वह सामना नहीं कर पा रही थी. बातचीत से पता चला कि वह बैंक मैनेजर हो गया था. उस के द्वारा बताने पर कि वह सिंचाई विभाग में बतौर स्टेनो काम कर रही है, वह व्यंग्य से मुसकराया, ‘‘आप तो प्रशासनिक अधिकारी बनना चाहती थीं?’’

‘‘चाहने से ही तो सब संभव नहीं हो जाता,’’ उस ने बेजारी से कहा और जाने के लिए उठ खड़ी हुई. वहां रुकना उसे अब भारी लग रहा था. सरला आंटी से इजाजत ले कर जब वह अपने कमरे में लौटी तो दरवाजे का ताला खोलते हुए उस के हाथ कांप रहे थे. सर्वप्रथम आईने में उस ने स्वयं का अवलोकन किया. 30 वर्ष की उम्र में भी वह सुंदर और कमनीय लग रही थी, इस से उसे कुछ संतोष का अनुभव हुआ. बिस्तर पर लेटते ही उस का दिमाग अतीत में भटकने लगा.

 

वह मां-बाप की इकलौती पुत्री व दोनों भाइयों की लाडली छोटी बहन थी. पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहने के कारण उस के ख्वाब बहुत ऊंचे थे. वह उच्चाधिकारी बन कर घरपरिवार की सहा-यता करना चाहती थी और उस के लिए प्रयत्न भी कर रही थी किंतु विश्वविद्यालय के रंगीन वातावरण और सहशिक्षा के आकर्षण ने उसे मनचली बना दिया था. साथी छात्रों द्वारा दिए गए कमेंटों से उसे रोमांच का अनुभव होता था. अत: मानसिक भटकन का दौर आरंभ हो गया.  मोहना अपनी उन सहेलियों को हिकारत भरी नजर से देखती, जो शादी कर के बच्चे पाल रही थीं. विवाहोपरांत रोटी बना कर घर में जीवन व्यतीत करने वाली स्त्रियां उसे गुलामी की प्रतीक लगतीं. उस के संपर्क में आने वाले लोग जब उस से पूछते कि वह शादी कब तक करेगी तब वह कहती कि पढ़ाई पूरी कर के नौकरी में जमने के बाद ही वह इस बारे में सोचेगी.

उस दौरान आए सभी रिश्ते उस ने बेदर्दी से ठुकरा दिए थे, अत: घर वालों ने उसे उस की मरजी पर छोड़ दिया था. उस ने प्रशासनिक सेवा की प्रतियोगिता परीक्षा में 2 बार प्रयास किया किंतु असफल रही. हार कर वह बैंक की नौकरी के लिए कोशिश करने लगी, किंतु वहां भी सफलता हाथ न लगी. उस की लगभग सभी सहेलियों ने विवाह कर के घर बसा लिए किंतु उसे किसी मामूली पुरुष से विवाह करना कबूल न था.

मोहना को ऐसे लोगों और ऐसी व्यवस्था से भी घृणा थी जो एक लड़की की सारी खूबियों व योग्यता को शादी के मापदंड पर तोलते थे.

वह शादी की अहमियत समझती थी लेकिन मन के मुताबिक आदमी भी तो मिलना जरूरी था. उसे मनमाफिक नौकरी भी नहीं मिली. नौकरी के नाम पर बस स्टेनो का जाब मिला. उस ने शुरू में सोचा कि अच्छी नौकरी मिलने पर इसे छोड़ देगी किंतु बाद में यही नौकरी उस की नियति बन गई.

कई वर्ष बाद इस शहर में स्थानां-तरण होने तक सब कुछ शांत व घटना-विहीन चल रहा था, किंतु भगवानदास से हुई भेंट ने मानो शांत जल में कंकड़ फेंक दिया था. उसे याद आया कि उस ने क्या कुछ सोचा था किंतु उसे क्या मिला? शायद यह था सपने और यथार्थ में अंतर.

इत्तिफाकन इस बीच मोहना की भगवानदास से कई बार भेंट हुई. उस ने उसे स्कूटर पर लिफ्ट भी दी. साथसाथ काफी भी पी. इस के अलावा भगवानदास अकसर उस के छोटे से कमरे में भी पहुंच जाता. मोहना को भगवानदास का इत्तिफाकन या जानबूझ कर इस प्रकार मिलना, उस में रुचि जाहिर करना अच्छा लगता. कभीकभी वह उस के शरीर या चेहरे पर प्रशासनिक दृष्टि डालता, कभी उस के कपड़ों को आकर्षक बताता. मोहना एक अनजाने आकर्षण की गिरफ्त में आ गई थी. वर्षों पहले उस के ऊंचे उड़ते ख्वाबों ने जिस व्यक्ति को नाकाबिल सिद्ध कर दिया था, आज हृदय उसे अपनाने को उत्सुक हो उठा था. वह बेसब्री से उस के उस विशेष प्रस्ताव की प्रतीक्षा कर रही थी, जो उन्हें एक अटूट बंधन में बांध देता.

एक रात मम्मी ने मोहना को फोन कर के कहा, ‘‘मोहना, तेरे रंजन चाचा की लड़की छम्मो आजकल लखनऊ में ही रह रही है. उस का जेठ ललित अभी 2 सप्ताह पूर्व स्थानांतरण के बाद वहां पहुंचा है. वह अपर पुलिस अधीक्षक है. शादी के 3 महीने के अंदर ही किसी कारणवश उस का तलाक हो गया था. उस घटना के 10 वर्ष बाद अब वह पुन: विवाह का इच्छुक है. छम्मो ने ही सब कुछ बताया. तू कल ही जा कर छम्मो से मिल ले.’’

‘‘मम्मी, तुम्हें वहां बैठ कर भी चैन नहीं है क्या?’’ मोहना उखड़ कर बोली.

‘‘देख मोहना, तू कोई बच्ची नहीं है. सबकुछ समय से अच्छा लगता है. शादीब्याह की भी एक उम्र होती है.’’

‘‘क्यों, क्या हो गया है, मुझे? बूढ़ी हो गई हूं? इस उम्र तक शादी नहीं हुई तो क्या किसी से भी शादी कर लूं?’’ वह फोन पर ही चीखने लगी.

‘‘मोहना, मांबाप बच्चों को राह दिखाने के लिए सदैव जीवित नहीं रहते. तुम छम्मो का पता लिखो,’’ कहने के बाद मम्मी ने उस छम्मो का पता बताया.

मम्मी के ठंडे, नाराजगी भरे स्वर ने मोहना को संयत कर दिया. उस ने चुपचाप पता लिख लिया. छम्मो उस की चचेरी बहन थी. बचपन से ही वे एकदूसरे की प्रतियोगी थीं. उन में जरा भी नहीं पटती थी. छम्मो अनिंद्य सुंदरी थी. उस का विवाह एक करोड़पति परिवार में हुआ था. वह मोहना और उस की महत्त्वाकांक्षाओं का अकसर मजाक उड़ाती थी. मोहना उस से दूर ही रहती थी. उस से मिल कर उस में हीनभावना जाग्रत हो जाती थी. आज उसी छम्मो की मार्फत उस के लिए दुहाजू व्यक्ति का रिश्ता आया था. अपनी विवशता पर उसे रोना आया किंतु उसे छम्मो के घर जाना ही था अन्यथा मम्मी बेहद नाराज हो जातीं.

अगले दिन मोहना ने कार्यालय से छुट्टी ले ली और छम्मो के घर जाने के लिए तैयार हो गई. वह तैयार हो कर खुद को आईने में निहार ही रही थी कि तभी मकान मालकिन का नौकर उसे ताजे फूलों का एक गुलदस्ता और एक चिट दे गया. चिट में लिखा था, ‘‘मिस मोहना, कल किसी विशेष मसले पर बात के लिए आप से मिलूंगा. कार्यालय के बाहर मेरा इंतजार करिएगा-भगवानदास.’’

मोहना के अधरों पर मुसकराहट आ गई. उसे लगा कि यह विशेष मसला अवश्य ही विवाह का प्रस्ताव होगा. वह छम्मो से मिलने उत्साह से चल पड़ी.

छम्मो का घर ढूंढ़ने में उसे विशेष परेशानी नहीं हुई. आलीशान घर और पोर्टिकों में खड़ी लंबी विदेशी गाड़ी देख कर उसे कोफ्त हुई कि वह तो बसों में धक्के खाती है और छम्मो मौज उड़ाती है. ठंडी सांस ले कर उस ने घंटी दबा दी. दरवाजा वर्दीधारी नौकर ने खोला. वह आदर से उसे बैठा कर अंदर चला गया. कुछ देर में छम्मो वहां आई. उसे देख कर मोहना आसमान से जमीन पर गिरी. दुबलीपतली छम्मो की तुलना वह सामने खड़ी भीमकाय महिला से बिलकुल नहीं कर पा रही थी. उस की कमर, गले, हाथों, बांहों पर अतिरिक्त मांस की थैलियां लटक रही थीं. मोटापे के कारण दोनों बांहें शरीर से अलग फैले अंदाज में झूल रही थीं.

‘‘मुझे पता था कि तुम खुद ही मुझ से मिलने आओगी,’’ वह व्यंग्य से हंस रही रही थी. उस का शरीर हंसी के साथ हिलने लगा. उस का व्यंग्यात्मक लहजा मोहना को अपमानजनक लगा.

‘यह मुटल्ली सोच रही होगी कि मैं उस के जेठ से विवाह के चक्कर में भागी चली आ रही हूं,’ मोहना ने सोचा, लेकिन नपेतुले लहजे में बोली, ‘‘मम्मी ने तुम से मिलने को कहा था इसलिए चली आई. खैर, तुम सुनाओ, आजकल क्या खापी रही हो? तुम्हारा तो कालाकल्प हो गया है.’’

पल भर के लिए छम्मो का चेहरा उतर गया लेकिन संभलते हुए उस ने घमंड भरे लहजे में कहा, ‘‘सेठ मनसुख नारायण की इकलौती बहू भला क्या खाएगीपिएगी, यह कोई पूछने की बात है. तुम्हारी तरह मुझे रोटी की चिंता तो है नहीं इसलिए थोड़ा मांस चढ़ गया है शरीर पर. खैर, तुम सुनाओ, किस के इंतजार में अभी तक कुंआरी बैठी हो?’’

मोहना तिलमिला गई, लेकिन संतुलित लहजे में बोली, ‘‘किसी की प्रतीक्षा में कुंवारी नहीं बैठी हूं. परिस्थितियां ही कुछ ऐसी बन गईं कि शादी की नौबत नहीं आई.’’

मोहना के रुख से छम्मो भी नरम पड़ गई. उस ने कहा, ‘‘मोहना, यह तेरे लिए खुशी की बात है कि ललित भाई साहब से तेरे रिश्ते की बात चली है. यदि  वह तुझे पसंद कर लेते हैं तो तू झट से विवाह की तैयारी शुरू दे.’’

छम्मो की बात को मोहना खिन्न भाव से सुनती रही. उसे छम्मो के डी.वाई.एस.पी. जेठ में तनिक भी रुचि न थी. तभी नौकर चाय के लिए बुलाने आया. छम्मो ने घुटनों पर बल दे कर एक छोटे से ‘उफ’ के साथ अपनी विशाल काया को उठाया. हिरनी सी दौड़ने वाली सुंदर दुबलीपतली छम्मो याद आई मोहना को. दीदी की शादी में मंगल गीतों में ठुमकती छम्मो को देख कर ही तो स्वरूप मोहित हो गया था. फिर उन की शादी भी हो गई थी. सुंदर छम्मो का रूप, गर्व और व्यंग्यात्मक बातें मोहना को कभी अच्छी नहीं लगती थीं. छम्मो की खूब-सूरती का वर्तमान हाल विश्वास के काबिल न था.

इस वक्त छम्मो

मोहना की सुगठित देहयष्टि व आत्म-विश्वास से भरी मुखाकृति को दबीछिपी दृष्टि से देख रही थी.

चाय क्या अच्छीखासी दावत का इंतजाम था. मोहना को खाने के लिए कह कर छम्मो विभिन्न तश्तरियों में सजी मिठाइयों पर टूट पड़ी. पिज्जा, कचौडि़यां, कटलेट जैसे व्यंजनों से मेज अटी पड़ी थी. छम्मो की खुराक ने उस की वर्तमान सेहत का राज खोल दिया.

तभी भारी बूटों की आवाज से घर गूंज उठा. मोहना चौंक कर बूटों की आवाज की दिशा में देखने लगी. एक 6 फुट ऊंचा व्यक्ति बेझिझक अंदर आ गया, ‘‘छम्मो, अकेलेअकेले चाय पी जा रही है?’’

‘‘आइएआइए, मोहना आई है. इस के बारे में मैं ने आप से बताया था न,’’ छम्मो ने खड़ी हो कर आंचल सिर पर डालने का उपक्रम किया.

‘‘ओह, अच्छा,’’ कह कर वह मोहना के बिलकुल बगल की सीट पर बैठ गया. एक भरपूर नजर उस पर डाल कर वह खाने में जुट गया. अपर पुलिस अधीक्षक की वरदी उस के मजबूत शरीर पर जंच रही थी. सिर पर घने बाल थे. कनपटी के सफेद बालों को छिपाने का यत्न नहीं किया गया था. मोटी मूंछें और जुड़ी भवें उस की सख्त प्रवृत्ति को सिद्ध कर रही थीं.

‘‘आप यहां अकेली रहती हैं?‘‘ अचानक ललित ने पूछा.

‘‘जी,’’ मोहना ने संक्षिप्त उत्तर दिया.

‘‘तब तो आप की शामें हम लोगों के साथ बीतनी चाहिए,’’ उस ने अर्थपूर्ण स्वर में कहा.

मोहना ने उत्तर नहीं दिया. उस की चुप्पी पर ललित ने लापरवाही से कंधे उचकाए और चाय सिप करने लगा. नाश्ते के बाद वह वहां से चला गया. उस में अपने रुतबे की हेकड़ी थी. मोहना शाम तक वहां ठहरी. अंधेरा होने से पहले वह उठ खड़ी हुई. छम्मो उसे छोड़ने बाहर आई. लान में ललित चेक की शर्ट और जींस पहने अपने मातहतों से घिरा बैठा कुछ फाइलें देख रहा था. उस के होंठों पर सुलगती सिगरेट थी. मोहना को देख कर उस ने सिगरेट फेंक दी और उस के पास गया.

‘‘मोहनाजी, आप से मिल कर बहुत अच्छा लगा,’’ ललित ने कहा.

‘‘मुझे भी,’’ मोहना ने औपचारिकता निभाई.

‘‘मैं आप से मिल कर कुछ महत्त्वपूर्ण फैसले करना चाहता हूं. क्या कल हम पुन: मिल सकते हैं?’’ उस ने आग्रह किया.

मोहना हिचकिचा गई. वह ललित से पुन: मिलना या बात करना चाहती ही नहीं थी. उसे भगवानदास से मिल कर कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय करना था. मगर इस तरह किसी के अनुरोध को नकारना असभ्यता होती इसलिए भरसक नम्र हो कर उस ने कहा, ‘‘कल शाम को यदि मौका मिला तो मैं फोन कर दूंगी.’’

‘‘ओ. के.’’ ललित ने कहा. उस का चेहरा उतर गया. वह उलटे पैर अपने सहयोगियों के पास लौट गया.

‘‘हाथ आए अच्छे अवसर को गंवाना सरासर मूर्खता है, मोहना. भाई साहब ने तो तुझे पसंद भी कर लिया था,’’ छम्मो ने उद्विग्न स्वर में कहा.

‘‘महत्त्वपूर्ण फैसले सोचसमझ कर लिए जाते हैं,’’ मोहना ने मुसकरा कर कहा.

‘‘तुझे क्या लगता है कि अब भी सोचनेसमझने का वक्त बाकी है? मुझे तो लगता है कि तेरे भाग्य में अविवाहित रहना ही लिखा है. ताईजी के कहने पर मैं बेमतलब में इस झमेले में फंसी,’’ छम्मो ने नाराज स्वर में कहा.

‘‘तुम्हारी शुभेच्छा के लिए धन्यवाद. मैं फोन करूंगी.’’

‘‘कभी मेरे कमरे में भी आना,’’ मोहना ने कहा, पर छम्मो चुप रही.

मोहना तेजी से बाहर निकल गई. घर पहुंचने पर उसे बाहर ही मकानमालकिन मिल गईं, ‘‘आज तो बहुत अच्छी लग रही हो. आफिस नहीं गई थीं क्या? कहां से आ रही हो?’’

‘‘कजिन से मिल कर आ रही हूं,’’ मोहना उन के प्रश्नों की बौछार से घबरा गई, ‘‘यह बताइए, कोई मुझ से मिलने आया था क्या?’’

‘‘हां, भगवानदास आया था.’’

‘‘अच्छाअच्छा, वह तो कल मिलने आने वाला था. आज ही चला आया.’’

‘‘मोहना, भगवानदास को तुम कैसे जानती हो?’’

‘‘कई वर्ष पहले उस से मिली थी. अब यहीं भेंट हुई है.’’

‘‘इन वर्षों में तुम लोग एकदूसरे से नहीं मिले?’’

‘‘नहीं, लगभग 10 वर्ष बाद हम मिल रहे हैं.’’

‘‘मोहना, भगवानदास अकसर तुम से मिलता है. मुझे लगता है तुम दोनों एकदूसरे को पसंद करते हो.’’

‘‘आप ठीक समझ रही हैं, आंटी. इसीलिए कोई निर्णय लेने के लिए वह आने वाला है.’’

‘‘क्या यह तुम अच्छा कर रही हो? मेरा मतलब भगवानदास के बीवीबच्चों से है. क्या उन के साथ अन्याय नहीं हो रहा है?’’

‘‘क्या वह विवाहित है?’’ मकान मालकिन की बात सुन कर मोहना को जोरदार झटका लगा.

‘‘मुझे आश्चर्य है. तुम इतनी महत्त्वपूर्ण जानकारी के बिना उस से मिलती रही हो?’’ मकान मालकिन के स्वर में कड़कड़ाहट थी.

दरअसल मोहना को भगवान एक सुखद सपने सा लगा था. वह जानबूझ कर उन अप्रिय सवालों से अनभिज्ञ रहना चाहती थी जो उस के सपने को तोड़ देते. फिर भगवानदास ने स्वयं भी तो कुछ नहीं बताया. उसे लगा होगा कि वह जीवन के उस पड़ाव पर है जहां मात्र एक पुरुष साथी ही संतोष के लिए पर्याप्त होता है. वह उस से ‘फ्लर्ट’ कर रहा था. घर में पत्नीबच्चे थे और वह उसे मनोरंजन के साधन के रूप में इस्तेमाल कर रहा था.

मकान मालकिन गौर से मोहना की उड़ गई रंगत और लाल आंखों को देख रही थीं. उन के चेहरे पर सहानुभूति थी. मोहना चुपचाप कमरे में आ गई. वह बहुत देर तक सोती रही. उसे कई बार वक्त के थपेड़ों से मार्मिक आघात लगा था, जिस ने उस के स्वाभिमान को क्षतविक्षत कर दिया था, परंतु आज की घटना से तो उस का विश्वास ही डोल गया. उस का विवेक चेतनाशून्य हो गया था. वह धोखेबाज महत्त्वपूर्ण निर्णय के लिए आएगा. शायद बिना शादी किए साथ रहने के लिए कहे, क्या वह बर्दाश्त कर  पाएगी?

अचानक कुछ सोच कर मोहना झटकेसे उठी. उस ने आंसू भरे चेहरे को इस तरह पोंछा जैसे जीवन से अवसाद को पोंछ रही हो. कमरे से निकल कर वह मकान मालकिन की बैठक में पहुंची. वहां कोई नहीं था. उस ने फोन पर नंबर घुमाया. उधर से जिस भारीभरकम स्वर ने ‘हेलो’ कहा वह उसी की अपेक्षा कर रही थी कि वही रिसीवर उठाए. वह ललित ही था. मोहना ने कहा, ‘‘ललित साहब, आप महत्त्वपूर्ण फैसले के लिए मुझ से मिलना चाह रहे थे. मैं कल शाम आप की प्रतीक्षा करूंगी.’’

‘‘तो मुहतरमा को मौका मिल गया. बंदा कल हाजिर हो जाएगा,’’ ललित की जीवन से भरपूर आवाज ने मोहना के कानों में नवजीवन की घंटियां बजा दीं.

 

एक रिश्ता ऐसा भी: क्या हुआ था मिस मृणालिनी ठाकुर के साथ

यों यह था तो शहर का एक बौयज कालेज अर्थात लड़कों का कालेज, लेकिन पढ़ाने वाले शिक्षकों में आधे से अधिक संख्या महिलाओं की थी. लेडीज क्या थीं रंगबिरंगी, एक से बढ़ कर एक नहले पे दहला वाला मामला था. इन रंगों में मिस मृणालिनी ठाकुर का रंग बड़ा चोखा था.

लंबे कद, छरहरे बदन और पारसी स्टाइल में रंगबिरंगी साडि़यां पहनने वाली मिस मृणालिनी ठाकुर सब से योग्य टीचरों में गिनी जाती थीं. अपने विषय पर उन्हें महारत हासिल था. फिर रुआब ऐसा कि लड़के पुरुष टीचर्स का पीरियड बंक कर सकते थे, मगर मिस मृणालिनी ठाकुर के पीरियड में उपस्थिति अनिवार्य थी.

लड़का मिस मृणालिनी का शागिर्द हो और कालेज में होते हुए उन का पीरियड मिस करे, ऐसा बहुत कम ही होता था, इस लिहाज से मिस मृणालिनी ठाकुर भाग्यशाली कही जा सकती थीं कि लड़के उन से डरते ही नहीं थे, बल्कि उन का सम्मान भी करते थे.

इस तरह के भाग्यशाली होने में कुछ अपने विषय पर महारत हासिल होने का हाथ था तो कुछ मिस मृणालिनी ठाकुर की मनुष्य के मनोविज्ञान की समझ भी थी. वह अपने स्टूडेंट्स को केवल पढ़ा देना और कोर्स पूरा कराने को ही अपनी ड्यूटी नहीं समझती थीं, बल्कि वह उन के बहुत नजदीक रहने को भी अपनी ड्यूटी का एक महत्त्वपूर्ण अंग समझती थीं.

हालांकि उन के साथियों को उन का यह व्यवहार काफी हद तक मजाकिया लगता था. मिसेज अरुण तो हंसा करती थीं, उन का कहना था, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर लेक्चरर के बजाय प्राइमरी स्कूल की टीचर लगती हैं.’’

मगर मिस मृणालिनी ठाकुर को इस की बिल्कुल भी फिक्र नहीं थी कि उन के व्यवहार के बारे में लोगों की क्या राय है, उन का कहना था कि जो बच्चे हम से शिक्षा लेने आते हैं हम उन के लिए पूरी तरह उत्तरदायी हैं, इसलिए हमें अपना कर्तव्य नेकनीयती और ईमानदारी से पूरा करना चाहिए.

मिस मृणालिनी ठाकुर के साथियों की सोचों से अलग स्टूडेंट्स की अधिकतर संख्या उन के जैसी थी. उन्हें सच में किसी प्राइमरी स्कूल के टीचर की तरह मालूम होता था कि लड़के का पिता क्या करता है, कौन फीस माफी का अधिकारी है? कौन पढ़ाई के साथ पार्टटाइम जौब करता है? आदि आदि.

पता नहीं यह स्टूडेंट्स से नजदीकी का परिणाम था या किसी अपराध की सजा कि एक सुबह कालेज आने वालों ने लोहे के मुख्य दरवाजे के एक बोर्ड पर चाक से बड़े अक्षरों में लिखा देखा—आई लव मिस मृणालिनी ठाकुर.

इस एक वाक्य को 3 बार कौपी करने के बाद लिखने वाले ने अपना व क्लास का नाम बड़ी ढिठाई से लिखा था: शशि कुमार सिंह, प्रथम वर्ष, विज्ञान सैक्शन बी.

किसी नारे की सूरत में लिखा यह वाक्य औरों की तरह मिस मृणालिनी ठाकुर को अपनी ओर आकर्षित किए बिना न रह सका. क्षण भर को तो वह सन्न रह गईं.

उन्होंने चोर निगाहों से इधरउधर देखा. शायद कोई न होता तो वह अपनी सिल्क की साड़ी के पल्लू से वाक्य को मिटा देतीं. मगर स्टूडेंट ग्रुप पर ग्रुप की शक्ल में आ रहे थे, बेतहाशा धड़कते दिल को संभालती मिस मृणालिनी ठाकुर स्टाफरूम तक पहुंचीं और अंदर दाखिल होने के बाद अपना सिर थामती हुई कुरसी पर गिर गई.

‘‘यकीनन आप देखती हुई आई हैं,’’ मिसेज जयराज की आवाज मिस मृणालिनी ठाकुर को कहीं दूर से आती मालूम हुई. उन्होंने सिर उठा कर मिसेज जयराज की ओर देखा और कंपकंपाती आवाज में बोलीं, ‘‘आप ने भी देखा?’’

‘‘भई हम ने क्या बहुतों ने देखा और देखते आ रहे हैं. दरअसल लिखने वाले ने लिखा ही इसलिए है कि लोग देखें.’’

‘‘मिसेज जयराज, प्लीज इसे किसी तरह…’’ मिस मृणालिनी ठाकुर गिड़गिड़ाईं.
तभी मिसेज आशीष और मिस रचना मिस मृणालिनी ठाकुर को विचित्र नजरों से देखती हुई स्टाफरूम में दाखिल हुईं.

कुछ ही देर के बाद रामलाल चपरासी झाड़न संभाले अपनी ड्यूटी निभाने आया तो मिस मृणालिनी ठाकुर फौरन उस की ओर लपकीं और कानाफूसी वाले लहजे में बोलीं, ‘‘रामलाल यह झाड़न ले कर जाओ और चाक से मेनगेट पर जो कुछ लिखा है मिटा आओ.’’

‘‘हैं जी,’’ रामलाल ने बेवकूफों की तरह उन का चेहरा तकते हुए कहा.
‘‘जाओ, जो काम मैं ने कहा वो फौरन कर के आओ,’’ मिस मृणालिनी ठाकुर की आवाज फंसीफंसी लग रही थी.

‘‘घबराइए मत मिस ठाकुर, यह बात तो लड़कों में आप की पसंदीदगी की दलील है.’’ मिस चेरियान के लहजे में व्यंग्य साफ तौर पर झलक रहा था.

‘‘अब तो यूं ही होगा भई, लड़के तो आप के दीवाने हैं,’’ मिस तरन्नुम का लहजा दोधारी तलवार की तरह काट रहा था.
मिस शमा अपना गाउन संभाले मुसकराती हुई अंदर दाखिल हुईं और मिस मृणालिनी के नजदीक आ कर राजदारी से बोलीं, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर गेट पर…’’

मिस मृणालिनी ठाकुर को अत्यंत भयभीत पा कर मिसेज जयराज ने उन के करीब आ कर उन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं मृणालिनी, टीचर और स्टूडेंट में तो आप के कथनानुसार एक आत्मीय संबंध होता है.’’

फिर उन्होंने मिस तरन्नुम की ओर देख कर आंख दबाई और बोलीं, ‘‘कुछ स्टूडेंट इजहार के मामले में बड़े फ्रैंक होते हैं और होना भी चाहिए. क्यों मृणालिनी, आप का यही विचार है न कि हमें स्टूडेंट्स को अपनी बात कहने की आजादी देनी चाहिए.’’

मिसेज जयराज की इस बात पर मिस मृणालिनी का चेहरा क्रोध से दहकने लगा.
‘‘शशि सिंह वही है न बी सैक्शन वाला. लंबा सा लड़का जो अकसर जींस पहने आता है.’’ मिस रौशन ने पूछताछ की.

मिसेज गोयल ने उन के विचार को सही बताते हुए हामी भरी.
‘‘वह तो बहुत प्यारा लड़का है.’’ मिसेज गुप्ता बोलीं.

‘‘बड़ा जीनियस है, ऐसेऐसे सवाल करता है कि आदमी चकरा कर रह जाए,’’ मिसेज कपाडि़या जो फिजिक्स पढ़ाती थीं बोलीं.

मिसेज जयराज ने मृणालिनी को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘मृणालिनी आप तो अपने स्टूडेंट्स को उन लोगों से भी अच्छी तरह जानती होंगी, आप की क्या राय है उस के बारे में?’’

‘‘वह वाकई अच्छा लड़का है, मुझे तो ऐसा लगता है कि किसी ने उस के नाम की आड़ में शरारत की है.’’
‘‘हां ऐसा संभव है.’’ मिसेज गुप्ता ने उन की बात का समर्थन किया.

‘‘सिर्फ संभव ही नहीं, यकीनन यही बात है क्योंकि लिखने वाला इस तरह ढिठाई से अपना नाम हरगिज नहीं लिख सकता था,’’ मिसेज जयराज ने फिर अपनी चोंच खोली.यह बात मिस मृणालिनी को भी सही लगी.

शशि सिंह के बारे में मिस मृणालिनी ठाकुर की राय बहुत अच्छी थी. हालांकि सेशन शुरू हुए 3 महीने ही गुजरे थे, लेकिन इस दौरान जिस बाकायदगी और तन्मयता से उस ने क्लासेज अटेंड की थीं वह शशि सिंह को मिस मृणालिनी के पसंदीदा स्टूडेंट्स में शामिल कराने के लिए काफी थीं. ‘

लेक्चर वह अत्यंत तन्मयता से सुनता और लेक्चर के मध्य ऐसे ऐसे प्रश्न करता, जिन की उम्मीद एक तेज स्टूडेंट से ही की जा सकती थी.

मिस मृणालिनी लेक्चर देना ही काफी नहीं समझती थीं बल्कि असाइनमेंट देना और उसे चैक करना भी जरूरी समझती थीं. शशि सिंह कई बार अपना काम चैक कराने मिस मृणालिनी और मिस्टर अंशुमन के कौमन रूम में आया था. वह जब भी आता, बड़े सलीके और सभ्यता के साथ. इस आनेजाने के बीच मिस मृणालिनी ने उस के बारे में यह मालूमात हासिल की थी कि उस के मातापिता दक्षिण अफ्रीका में थे, वह यहां अपनी नानी के पास रहा करता था.

शशि जैसे सभ्य स्टूडेंट से मिस मृणालिनी को इस किस्म की छिछोरी हरकत की उम्मीद भी नहीं थी. उन्हें यकीन था कि यह हरकत किसी और की थी मगर उस ने शरारतन या रंजिशन शशि सिंह का नाम लिख दिया था.

बहरहाल, रामलाल ने कोई 15 मिनट बाद आ कर यह समाचार सुनाया कि मेनगेट पर से एकएक शब्द मिटा आया है. मगर यह बताते हुए उस के चेहरे पर अजीब सी मुसकराहट थी. मिस मृणालिनी ने अपने हैंड बैग में रखा छोटा सा पर्स निकाल कर 20 रुपए का नोट रामलाल की ओर बढ़ा दिया.मगर बात तो फैल चुकी थी, न सिर्फ टीचरों, बल्कि स्टूडेंट्स के बीच भी तरहतरह की बातें हो रही थीं.

घंटी बज गई. लड़के अपनीअपनी क्लासों में चले गए. मृणालिनी भी पीरियड लेने चली गईं. मजे की बात यह हुई कि उन का पहला पीरियड फर्स्ट ईयर साइंस बी सैक्शन में ही था. मिस मृणालिनी पहली बार क्लास में जाते हुए झिझक रही थीं, उन के कदम लड़खड़ा रहे थे. लेकिन जाना तो था ही, सो गईं और लेक्चर दिया.

लेक्चर के दौरान उन की निगाह शशि सिंह पर भी पड़ी, वह रोज की तरह तन्मयता से सुन रहा था. मिस मृणालिनी लेक्चर देती रहीं, लेकिन आंखें रोज की तरह लड़कों के चेहरों पर पड़ने के बजाए झुकीझुकी थीं. पहली बार मिस मृणालिनी को क्लास के चेहरों पर दबीदबी मुसकराहटें दिखीं.

जैसेतैसे पीरियड समाप्त हुआ तो मृणालिनी ठाकुर कमरे की ओर चल दीं. वह कमरे में पहुंची तो मिस्टर अंशुमन पहले ही मौजूद थे. मिस मृणालिनी ने रोज की तरह उन का अभिवादन किया और अपनी सीट पर बैठ गईं.

जरा देर बाद मिस्टर अंशुमन खंखारे और चंद क्षणों की देरी के बाद उन की आवाज मिस मृणालिनी के कानों से टकराई.

‘‘शशि सिंह से पूछा आप ने?’’

ओह तो इन्हें भी पता चल गया. मिस मृणालिनी ने आंखों के कोने से मिस्टर अंशुमन की ओर देखते हुए सोचा और पहलू बदल कर बोलीं, ‘‘जी नहीं.’’
‘‘क्यों?’’

‘‘मेरा विचार है यह किसी और की शरारत है, शशि सिंह बहुत अच्छा लड़का है.’’
‘‘आप ने पूछा तो होता, आप के विचार के अनुसार अगर उस ने नहीं लिखा तो संभव है उस से कोई सुराग मिल सके.’’

मिस्टर अंशुमन ने घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया.
कुछ देर बाद शशि सिंह नीची निगाहें किए फाइल हाथ में लिए अंदर दाखिल हुआ. मिस्टर अंशुमन कड़क कर बोले, ‘‘क्या तुम बता सकते हो गेट पर किस ने लिखा था?’’

‘‘यस सर.’’ बिना देरी किए जवाब आया.
मृणालिनी ठाकुर ने घबरा कर और चौंक कर शशि की ओर देखा.
‘‘किस ने लिखा था?’’ अंशुमन सर की रौबदार आवाज गूंजी.
‘‘मैं ने..’’ शशि ने कहा.

मिस मृणालिनी चौंकी. उन्होंने देखा शशि अपराध की स्वीकारोक्ति के बाद बड़े इत्मीनान से खड़ा था.
अंशुमन सर ने मृणालिनी की ओर देखा, मानो उन की आंखें कह रही थीं, ‘मिस मृणालिनी आप का तो विचार था…’मृणालिनी ने नजरें झुका लीं.

‘‘मैं मेनगेट की बात कर रहा हूं, वहां मिस मृणालिनी के बारे में तुम ने ही लिखा था?’’ अंशुमन सर ने साफतौर पर पूछा ‘‘यस सर.’’ बड़े इत्मीनान से जवाब दिया गया.

‘‘यू इडियट… तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई?’’

अंशुमन दहाड़े, वह कुरसी से उठे और शशि के गोरेगोरे गाल ताबड़तोड़ चांटों से सुर्ख कर दिए. शशि सिर झुकाए किसी प्राइमरी कक्षा के बच्चे की तरह खड़ा पिटता रहा.

अंशुमन सर जिन का गुस्सा कालेज भर में मशहूर था, जिस कदर हंगामा कर सकते थे, उन्होंने किया. उस के 2 कारण हो सकते थे. पहला तो खुद मृणालिनी में उन की दिलचस्पी और आकर्षण और दूसरा स्टूडेंट्स और साथियों से यह कहलवाने का शौक कि अंशुमन सर बहुत सख्त इंसान हैं.

शोर सुन कर अंशुमन सर के कमरे के दरवाजे पर भीड़ सी इकट्ठी हो गई. मगर अंशुमन सर ने बाहर निकल कर घुड़की लगाई तो ज्यादातर रफूचक्कर हो गए. मगर चंद दादा किस्म के लड़के शशि की हिमायत में सीना तान कर आ गए.

मिस मृणालिनी बेहोश होने को थीं मगर इस से पहले उन्होंने भयानक नजरों से शशि की ओर देखा और पूरी ताकत से चिल्लाईं, ‘‘गेट आउट फ्राम हियर.’’
वह चुपचाप निकल गया. और फिर कभी कालेज नहीं आया.

फिर भी मिस मृणालिनी को उस का खयाल कई बार आया. इस घटना का फौरी और स्थाई परिणाम यह हुआ कि मिस मृणालिनी और उन के स्टूडेंट्स के बीच एक सीमा रेखा खिंच गई.

12 साल गुजर गए. उस घटना को समय की दीमक आहिस्ताआहिस्ता चाट गई. अंशुमन सर ने मिस मृणालिनी की ओर से मायूस हो कर शादी कर ली और कनाडा चले गए. कालेज में कई परिवर्तन आए, मिस मृणालिनी ठाकुर अपनी योग्यता और अनथक परिश्रम के सहारे वाइस प्रिंसिपल के पद पर नियुक्त हो गईं.

12 साल पहले की 28 वर्षीय मिस मृणालिनी एक अधेड़ सम्मानीय औरत की शक्ल में बदल गईं. 12 साल बाद जनवरी की एक सुबह चपरासी ने मिस मृणालिनी को एक विजिटिंग कार्ड थमाते हुए कहा, ‘‘मैडम, एक साहब आप से मिलने आए हैं.’’

मिस मृणालिनी जो चंद कागजात देखने में व्यस्त थीं, कार्ड देखे बिना बोलीं, ‘‘बुलाओ.’’
जरा देर बाद उच्च क्वालिटी का लिबास पहने लंबे कद और भरेभरे जिस्म वाला व्यक्ति अंदर दाखिल हुआ. उन्होंने बिखरे हुए कागजात इकट्ठा करते हुए कहा, ‘‘तशरीफ रखिए.’’

वह बैठ गया और जब मिस मृणालिनी ठाकुर कागजात इकट्ठा करने के बाद उस की ओर मुखातिब हुईं तो वह बहुत ही साफसुथरी अंग्रेजी में बोला, ‘‘आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं.’’

मिस मृणालिनी ठाकुर एक लम्हा को मुसकराईं और फिर एक निगाह उस के चेहरे पर डाल कर बोलीं, ‘‘पुराने स्टूडेंट हैं आप?’’

‘जी हां.’’

‘‘दरअसल इतने बच्चे पढ़ कर जा चुके हैं कि हर एक को याद रखना मुश्किल है.’’ मिस मृणालिनी ठाकुर का चेहरा अपने स्टूडेंट्स के जिक्र के साथ दमक उठा.
‘‘माफ कीजिएगा मैडम, बड़ा निजी सा सवाल है.’’ वह खंखारा.

मिस मृणालिनी चौंकी.
‘‘आप अब तक मिस मृणालिनी ठाकुर हैं या…’’

‘‘हां, अब तक मैं मिस मृणालिनी ठाकुर ही हूं.’’ स्नेह उन के चेहरे से झलक रहा था.
‘‘आप ने वाकई में नहीं पहचाना अब तक?’’ वह मुसकराकर बोला.

मिस मृणालिनी ने बहुत गौर से देखा और घनी मूंछों के पीछे से वह मासूम चेहरे वाला सभ्य सा शशि सिंह उभर आया.

‘‘क्या तुम शशि सिंह हो?’’ मस्तिष्क के किसी कोने में दुबका नाम तुरंत उन के होठों पर आ गया.
‘‘यस मैडम.’’ वह अपने पहचान लिए जाने पर खुश नजर आया.
‘‘ओह…’’ मिस मृणालिनी की समझ में कुछ न आया क्या करें, क्या कहें.

‘‘मैं डर रहा था अंशुमन सर न टकरा जाएं कहीं.’’ वह बेतकल्लुफी से बोल रहा था. मिस मृणालिनी ठाकुर शांत व बिलकुल चुप थीं.

‘‘मैं दक्षिण अफ्रीका चला गया था. फिर वहां से डैडी ने अंकल के पास इंग्लैंड भेज दिया. अब सर्जन बन चुका हूं और अपने देश आ गया हूं. मैं आप को कभी भूल न सका. मुझे विश्वास था आप कभी न कभी, कहीं न कहीं फिर मुझे मिलेंगी. और वाकई आप मिल गईं, उसी जगह जहां मैं छोड़ कर गया था.’’
‘‘माइंड यू बौय.’’ मिस मृणालिनी ने उस की बेतकल्लुफी पर कुछ नागवारी के साथ कहा.

‘‘मेरी मम्मी भी किसी हालत में यह स्वीकार नहीं करतीं कि मैं अब बच्चा नहीं रहा.’’

मिस मृणालिनी ठाकुर ने देखा वह बड़े सलीके से मुसकरा रहा था. वह फर्स्ट ईयर का स्टूडेंट था, पता नहीं कहां जा छिपा था.

‘‘आई स्टिल लव यू मिस मृणालिनी.’’ वह 12 साल बाद एक बार फिर अपने अपराध को स्वीकार रहा था.

‘‘शट अप!’’ मिस मृणालिनी का चेहरा लाल हो गया.
‘‘नो मैडम, आई कान्ट! और क्यों मैं अपनी जुबान बंद रखूं. अगर एक बेटे को यह अधिकार है कि वह अपनी मां को चूम कर उस के गले में बांहें डाल कर उस से अपने प्रेम का इजहार कर सकता है तो इतना अधिकार हर स्टूडेंट को है वह अपने रुहानी मातापिता से प्रेम कर सके. क्या गलत कह रहा हूं मिस मृणालिनी ठाकुर? क्या गुरु से प्रेम की स्वीकारोक्ति अपराध है मैडम?’’

मिस मृणालिनी ठाकुर ने हैरानी से देखा वह कह रहा था.
‘‘अगर अंशुमन सर की तरह आप ने भी इसे अपराध मान लिया तो यह वाकई में बड़ा दुखद होगा.’’
मिस मृणालिनी अविश्वास से उस की ओर देख रही थीं.

‘‘यस मैडम आइ लव यू.’’ उस ने एक बार फिर स्वीकार किया.

‘‘ओह डियर….’’ भावनाओं के वेग से मिस मृणालिनी की जुबान गूंगी हो चली थी. बिलकुल उस मां की तरह जिस का बेटा सालों बाद घर लौट आया हो.

कल्पवृक्ष: विवाह के समय सभी मजाक क्यों कर रहे थे?

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सूना गला: शादी के बाद कैसी हो गई थी उसकी जिंदगी

उस की मां थी ही निर्मल, निश्छल, जैसी बाहर वैसी अंदर. छल, प्रपंच, घृणा और लालच से कोसों दूर, सब के सुख से सुखी, सब के दुख से दुखी. कभीकभी सौरभ अपनी मां के स्वभाव की सादगी देख अचंभित रह जाता कि आज के प्रपंची युग में भी उस की मां जैसे लोग हैं, विश्वास नहीं होता था उसे.

बचपन से ही सौरभ देखता आ रहा था कि मां हर हाल में संतुष्ट रहतीं. पापा जो भी कमा कर उन के हाथ में थमा देते बिना किसी शिकवाशिकायत के उसी में जोड़तोड़ बिठा कर वह अपना घर चलातीं, कभी अपने अभावों का पोटला किसी के सामने नहीं खोलतीं.

तभी मां की नजर उस पर पड़ गई थी, ‘‘अरे, तू कब जग गया. और ऐसे क्या टुकुरटुकुर देखे जा रहा है.’’

मां की स्निग्ध हंसी ने उसे ममता से सराबोर कर दिया.

‘‘बस, यों ही…आप को अलमारी ठीक करते देख रहा था.’’

वह कैसे कह देता कि कमरे में बैठा उन के निश्छल स्वभाव और संघर्षपूर्ण, त्यागमय जीवन का लेखाजोखा कर रहा था. उन के अपने परिवार के लिए किए गए समर्पण और संघर्ष का, उस सूने गले का जो कभी भारीभरकम सोने की जंजीर और मीनाकारी वाले कर्णफूल से सजासंवरा उन की संपन्नता का प्रतीक था. पिछले 6 वर्षों से उस के नौकरी करने के बाद भी मां का गला सूना ही पड़ा था.

मां को खुद महसूस हो या न हो लेकिन जब भी उस की नजर मां के सूने गले पर पड़ती, मन में एक हूक सी उठती. उसे लगता जैसे उन के जीवन का सारा सूनापन उन के खाली गले और कानों पर सिमट आया हो. इतनी श्रीहीन तो वह तब भी नहीं लगती थीं जब पापा की मृत्यु के बाद उन की दुनिया ही उजड़ गई थी.

सौरभ ने होश संभालने के बाद से ही मां के गले में एक मोटी सी जंजीर और कानों में मीनाकारी वाले कर्णफूल ही देखे थे. तब मां कितनी खुश रहती थीं. हरदम हंसती, गुनगुनाती उस की मां का चेहरा बिना किसी सौंदर्य प्रसाधन के ही दमकता रहता था.

फिर मां की खुशियों और बेफिक्र जिंदगी पर तब पहाड़ टूट कर आ गिरा जब अचानक एक सड़क दुर्घटना में उस के पापा की मौत हो गई. इस असमय आई मुसीबत ने मां को तो पूरी तरह तोड़ ही दिया. वह सूनीसूनी निगाहों से दीवार को देखती बेजान सी महीनों पड़ी रहीं. लेकिन जल्दी ही मां अपने बच्चों के बदहवासी और सदमे से रोते, सहमे चेहरे देख अपनी व्यथा दिल में ही दबा उन्हें संभालने में जुट गई थीं. एक नई जिम्मेदारी के एहसास ने उन्हें फिर से जीवन की मुख्य धारा से जोड़ दिया था.

पति के न रहने से एकाएक ढेरों कठिनाइयां उन के सामने आ खड़ी हुई थीं. पैसों की कमी, जानकारीयों का अभाव, कदमकदम पर जिंदगी उन की परीक्षा ले रही थी. उन का खुद का बनाया संसार उन की ही आंखों के सामने नष्ट होने लगा था लेकिन मां ने धैर्य का पल्लू कस कर थामे रखा.

बचपन में पिता और बाद में पति के संरक्षण में रहने के कारण मां का कभी दुनियादारी और उस के छलप्रपंच से आमनासामना हुआ ही नहीं. अब हर कदम पर उन का सामना वैसे ही लोगों से हो रहा था. लेकिन कहते हैं न कि समय और अभाव आदमी को सबकुछ सिखा देता है, मां भी दुनियादारी सीखने लगी थीं.

मां अपने टूटते आत्मबल और अपनी सारी अंतर्वेदनाओं को अपने अंतस में छिपाए सामान्य बने रहने की कोशिश करतीं लेकिन उन की तमाम कोशिशों के बावजूद सौरभ से कुछ भी छिपा नहीं था. वही एकमात्र गवाह था मां के कतराकतरा टूटने और जुड़ने का. कितनी बार ही उस ने देखा था मां को रात में अपने बच्चों से छिप कर रोते, पापा को याद कर तड़पते. तब उस के दिल में तड़प सी उठती कि कैसे क्या करे जो मां के सारे दुख हर ले.

वह चाह कर भी मां के लिए कुछ नहीं कर पाया, जबकि मां ने उन दोनों भाईबहनों का जीवन संवारने के लिए जो कर दिखाया, सभी के लिए आशातीत था. क्या नहीं किया मां ने, पोस्टआफिस की एजेंसी, स्कूल की नौकरी, ट्यूशन, कपड़ों की सिलाई यानी एकएक पैसे के लिए संघर्ष करतीं.

जब भी वह मां के संघर्ष से विचलित हो कर अपने लिए काम ढूंढ़ता, मां उसे काम करने की इजाजत ही नहीं देतीं. बस, उन्हें एक ही धुन थी कि किसी तरह उन का बेटा पढ़लिख कर सरकारी नौकरी में ऊंचा पद प्राप्त कर ले.

पापा के साथ जब वह भयंकर दुर्घटना हुई थी तब सौरभ 10वीं में पढ़ता था. मांबेटा दोनों ही व्यापार में पूरी तरह कोरे थे जिस का फायदा व्यापार में उस के पिता के साथ काम कर रहे दूसरे लोगों ने उठाया और व्यापार में लगा उस के पापा का करीबकरीब सारा पैसा डूब गया. थोड़ाबहुत जो भी पैसा बचा था, नेहा दीदी की शादी का खयाल कर मां ने बैंक में जमा करवा दिया.

नेहा दीदी की शादी में सारी जमापूंजी के साथसाथ मां के करीबकरीब सारे गहने निकल गए थे, फिर भी मां बेहद खुश थीं. नेहा को सुंदर, संस्कारी और विवेकशील पति के साथसाथ ससुराल में संपन्नता भरा परिवार जो मिला था.

नेहा दीदी की शादी के बाद 4 वर्ष बड़े ही संघर्षपूर्ण रहे. स्नातक करने के बाद सौरभ नौकरी प्राप्त करने के अभियान में जुट गया. जल्दी ही उसे सफलता भी मिली. एक बैंक अधिकारी के पद पर उस की नियुक्ति हो गई. इस दौरान जगहजगह इतने फार्म भरने पडे़ कि गहनों के नाम पर मां के गले में बची एकमात्र जंजीर भी उतर गई.

मां की साड़ी पर भी जगहजगह पैबंद नजर आने लगे थे. इतनी विकट परिस्थिति में भी मां ने हिम्मत नहीं हारी, न ही किसी रिश्तेदार के घर आर्थिक तंगी का रोना रोने या सहायता मांगने गईं. परिस्थिति ने उन्हें धरती सा सहिष्णु बना दिया था.

नौकरी मिलने के बाद जब उस ने पहली पगार मां को सौंपी थी तब खुशी के आंसू पोंछती मां ने उसे गले से लगा लिया था, ‘अरे, पगले…मां भला इन रुपयों का क्या करेगी? अब तो सारी जिम्मेदारियां तू ही संभाल, मैं तो बस, बैठेबैठे आराम करूंगी.’

इस के बाद भी सौरभ हर महीने तनख्वाह का सारा पैसा ला कर मां के हाथों में देता रहा और मां पूर्ववत घर चलाती रहीं.

शादी के लिए आए कई प्रस्तावों में से मां को निधि की सुंदरता ने इस कदर प्रभावित किया कि बिना ज्यादा खोजबीन किए वे निधि से उस की शादी करने के लिए तैयार हो गईं. जब दहेज की बात आई तो उन्होंने शादी में किसी तरह का दहेज लेने से साफ मना कर दिया. ऐसा कर शायद वह अपने पति के उन आदर्शों को कायम रखना चाहती थीं जो उन्होंने खुद की शादी में दहेज न ले कर लोगों और समाज के सामने कायम किया था. जितना भी उन के पास पैसा था उसी से उन्होंने शादी की सारी व्यवस्था की.

मां के आदर्शों और भावनाओं को समझने के बदले अमीर घर की निधि की नजरों में दहेज न लेना बेवकूफी भरी आदर्शवादिता थी. हमेशा अपनी आधुनिका मां की तुलना में वह अपनी सास के साधारण से रहनसहन को उन का देहातीपन समझ मजाक उड़ाती रहती और जबतब अपनी जबान की कैंची से उसे कतरती रहती. ऐसे मौके पर उस का दिल चाहता कि निधि से पूछे कि सभ्यता का यह कौन सा सड़ागला रूप है जिस में ससुराल के बुजुर्गों की नहीं, सिर्फ मायके के बुजुर्गों की इज्जत करना सिखाई जाती है, लेकिन वह चुप ही रहता.

 

ऐसा नहीं था कि वह निधि से डरता था, कहीं मां पर निधि की असलियत जाहिर न हो जाए, इसी भय से भयभीत रहता था. जिंदगी के इस सुखद मोड़ पर वह नहीं चाहता था कि निधि की किसी बात से मां आहत हों और वर्षों से उन के दिल में जो बहू की तसवीर पल रही थी वह धुंधली हो जाए.

निधि समझे या न समझे वह जानता था, मां निधि को बेहद प्यार करती थीं.

निधि ने घर में आते ही मां के सीधेसादे स्वभाव को परख कर बड़ी होशियारी से उन के बेटे, पैसे और घर पर अपना अधिकार कर, उन के अधिकारों को इस तरह सीमित कर दिया कि वह अपने ही घर में पराई बन कर रह गई थीं.

वह हर बार सोचता, इस महीने जरूर मां के लिए सोने की जंजीर ले आएगा, लेकिन कोई न कोई खर्च हर महीने निकल आता और वह चाह कर भी जंजीर नहीं खरीद पाता. वैसे भी शादी के बाद से घर के खर्च काफी बढ़ गए थे. अब तक साधारण ढंग से चलने वाले घर का रहनसहन काफी ऊंचे स्तर का हो गया था. एक नौकर भी आ गया था जो निधि के हुक्म का गुलाम था.

तभी सौरभ की तंद्रा मां की आवाज से टूट गई थी.

‘‘कब से पुकारे जा रही हूं, कहां खोया बैठा है. चाय बना दूं?’’

मां को यों सामने पा कर जाने क्यों सौरभ की आंखें भर आई थीं. इनकार में सिर हिला, अपने आंसू छिपाता वह बाथरूम में जा घुसा था.

उसी दिन आफिस जाने के बाद सौरभ अपनी एक फिक्स्ड डिपोजिट तोड़ कर मां के लिए एक जंजीर और मीनाकारी वाला कर्णफूल खरीद लाया था. यह सोच कर कि एक हफ्ते बाद मां के आने वाले जन्मदिन पर उन्हें देगा, उस ने गहनों का डब्बा अपनी अलमारी में संभाल कर रख दिया.

रात को उस ने अपने इस ‘सरप्राइज गिफ्ट’ की बात जैसे ही निधि को बताई, उस के तो तनबदन में आग लग गई. अब तक शब्दों पर चढ़ा मुलम्मा उतार, मां के सारे बलिदानों पर पानी फेरते हुए वह बिफर पड़ी थी, ‘‘यह तुम्हें क्या सूझी है, बुढ़ापे में अब वह इतने भारी गहनों को ले कर क्या करेंगी? अब तो उन के नातीपोते खिलाने के दिन हैं फिर भी उन की तो जैसे गहनों में ही जान अटकी पड़ी है.’’

पूरा हफ्ता उस चेन को ले कर निधि के साथ उस का शीतयुद्ध चलता रहा, फिर भी वह डटा रहा. अभी वह इतना गयागुजरा नहीं था कि उस की बातों में आ कर मां के प्रति अपने प्यार और फर्ज को भूल जाता.

एक सप्ताह बाद जब मां का जन्मदिन आया, सुबहसुबह मां को जन्मदिन की मुबारकबाद दे कर उस ने जतन से पैक किया गया गहनों का डब्बा उन के हाथों में थमा दिया था.

‘‘अरे, बेटा, यह क्या ले आया तू? अब क्या मेरी उम्र है उपहार लेने की. अच्छा, देखूं तो मेरे लिए तू क्या ले आया है.’’

डब्बा खोलते ही मां जड़ सी हो गई थीं. जाने कब तक किंकर्तव्यविमूढ़ हो यों ही खड़ी रहतीं, अगर सौरभ उन्हें गहनों को पहनने की याद नहीं दिलाता. सौरभ की आवाज में जाने कैसी कशिश थी कि जंजीर पहनतेपहनते उन की आंखें छलछला आई थीं. फिर कुछ सोच सौरभ का गाल थपथपा कर निधि को बुलाने लगीं.

कमरे में कदम रखते ही निधि की नजर मां के गले में पड़ी जंजीर पर गई, जिसे देखते ही चोट खाई नागिन सी उस की आंखों से लपट सी उठी थी, जो सौरभ से छिपी नहीं रही, पर उस की सीधीसादी मां को उस का आभास तक नहीं हुआ. तभी अपने गले से जंजीर निकाल कर निधि के गले में डालते हुए मां बोलीं, ‘‘बहू, इसे तुम मेरी तरफ से रख लो. जाने कितने अरमान थे मेरे दिल में अपनी बहू के लिए. जब सौरभ छोटा था तभी से अपने कितने ही गहने तुम्हारे नाम रख छोडे़ थे. सोचती थी एक ही तो बहू होगी मेरी, सजा दूंगी गहनों से, लेकिन परिस्थितियां ऐसी पलटीं कि सारे अरमान दिल में ही दफन हो गए.’’

सौरभ अभी कुछ बोलना चाह ही रहा था कि मां जाने कैसे समझ गईं.

‘‘न…तू कुछ नहीं बोलेगा. यह मेरे और बहू के बीच की बातें हैं. वैसे भी इस उम्र में मैं गहनों का क्या करूंगी.’’

मां के इस अप्रत्याशित फैसले ने निधि को भौचक कर दिया था. अपने छोटेपन का आभास होते ही वह सौरभ से नजरें नहीं मिला पा रही थी. उस की सारी कुटिलताएं मां के सीधेपन के सामने धराशायी हो चुकी थीं. जिस जंजीर के लिए उस ने अपने पति का जीना हराम कर रखा था, इतनी आसानी से मां उसे सौंप चुकी थीं.

निधि की नजरों में आज पहली बार सास के लिए सच्ची श्रद्धा उत्पन्न हुई थी. साथ ही यह बात शिद्दत से उसे शूल की तरह चुभ रही थी कि जिस सास को मां की तुलना में वह हमेशा गंवार और बेवकूफ समझती थी और अपनी ससुराल वालों की तुलना में अपने मायके वालों को श्रेष्ठ और आधुनिक दिखाने की कोशिश करती थी, उस की उसी सास के सरल, सादे और ऊंचे संस्कारों के सामने अब उसे अपनी गर्वोक्ति व्यर्थ का प्रलाप लगने लगी थी.

दूसरे दिन सौरभ को यह देख कर सुखद आश्चर्य हो रहा था कि निधि एक सोने की जंजीर मां को जबरदस्ती पहना रही थी. मां के बारबार मना करने पर भी वह जिद पर उतर आई थी.

‘‘मांजी, मैं ने बडे़ प्यार से इसे आप के लिए खरीदा है और अगर आप ने लेने से इनकार कर दिया तो मुझे लगेगा कि आप ने कभी मुझे बेटी माना ही नहीं.’’

इस के बाद मां इनकार नहीं कर सकी थीं. सदा से ही कम बोलने वाली मां की आंखों में अपनी बहू के लिए ढेर सारा प्यार और अपनापन उमड़ पड़ा था. मां की खुशी देख सौरभ ने नजरों से ही निधि के प्रति अपनी कृतज्ञता जता दी थी, जिसे संभालना निधि के लिए मुश्किल हो रहा था. वह नजरें चुराती, यहांवहां काम में व्यस्त होने का नाटक करने लगी.

आज पहली बार अपनी गलतियों का एहसास निधि को बुरी तरह कचोट रहा था. सास के सच्चे प्रेम और अपनेपन ने उस की आत्मा को झकझोर दिया था. बारीबारी वे बातें याद आ रही थीं जिस का समय रहते उस ने कभी कोई मूल्य नहीं समझा था. वह बीमार पड़ती तो सास उस की देखभाल बडे़ प्यार और लगन से अपने बच्चों की तरह करतीं. इतने प्यार और लगन से तो कभी उस की अपनी मां ने भी उस की सेवा नहीं की थी.

जिस सास ने अपना बेटा, घर, संपत्ति सबकुछ उसे सौंप, अपना विश्वास, प्यार और सम्मान दिया, उसी सास को महज अपना वर्चस्व साबित करने के लिए उस ने घरपरिवार से भी बेगाना कर रखा था. शादी के बाद से आज यह पहला अवसर था जब सौरभ उस के किसी काम से इतना खुश और संतुष्ट नजर आ रहा था. अपने लिए उस की नजरों से छलकता प्यार और कृतज्ञता देख निधि को बारबार नानी की नसीहतें याद आ रही थीं.

उस की नानी के पास जब भी उस की मां अपनी सास की शिकायतों की पोटली खोलतीं, नानी उन्हें समझातीं, ‘देख…नंदनी, एक बात तू गांठ बांध ले कि पति के बचपन का पहला प्यार उस की मां ही होती है, जिस का तिरस्कार वह कभी बरदाश्त नहीं कर पाता है. अगर पति का सच्चा प्यार और घर का सुख प्राप्त करना है तो उस से ज्यादा उस की मां को अहमियत देना सीख. उन की सेवा कर, उन का खयाल रख तो कुछ ही दिनों बाद उसी सास में तुम्हें अपनी मां भी दिखेगी, साथ ही तुम्हें पति को भी अपनी अहमियत जताने की जरूरत नहीं पडे़गी. वह खुद ही प्यार के अटूट बंधन में बंधा ताउम्र तुम्हारे ही चक्कर लगाएगा.’

मां हमेशा नानी की नसीहत को मजाक में उड़ा, अपनी मनमानी करतीं, नतीजतन, अपने सारे रिश्तों से मां अलग तो हुईं ही, पापा के साथ रहते हुए भी जीवन की इस संध्या बेला में काफी अकेली हो गई थीं.

एकांत पाते ही निधि अपने सारे मानअपमान और स्वाभिमान को भूल कर सौरभ के पास आ गई थी. शर्मिंदगी के भाव से भरी उस की आंखों से अविरल आंसू बह निकले.

बिना कुछ कहे पति की शांत और मुग्ध दृष्टि से आश्वस्त हो कर निधि उस की बांहों में समा गई थी. निधि को अपनी बांहों में समेटते हुए सौरभ को लगा जैसे कई दिनों की बारिश के बाद काले बादल छंट गए हैं और आकाश में खिल आई धूप ने मौसम को काफी सुहावना बना दिया है.

 

फर्क: इरा की कामयाबी सफलता थी या किसी का एहसान

इरा की स्कूल में नियुक्ति इसी शर्त पर हुई थी कि वह बच्चों को नाटक की तैयारी करवाएगी क्योंकि उसे नाटकों में काम करने का अनुभव था. इसीलिए अकसर उसे स्कूल में 2 घंटे रुकना पड़ता था.

इरा के पति पवन को कामकाजी पत्नी चाहिए थी जो उन की जिम्मेदारियां बांट सके. इरा शादी के बाद नौकरी कर अपना हर दायित्व निभाने लगी.

वह स्कूल में हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्य रचना ‘मातादीन इंस्पेक्टर चांद पर’ का नाट्य रूपांतर कर बच्चों को उस की रिहर्सल करा रही थी. प्रधानाचार्य ने मुख्य पात्र के लिए 10वीं कक्षा के एक विद्यार्थी मुकुल का नाम सुझाया क्योंकि वह शहर के बड़े उद्योगपति का बेटा था और उस के सहारे पिता को खुश कर स्कूल अनुदान में खासी रकम पा सकता था.

मुकुल में प्रतिभा भी थी. इंस्पेक्टर मातादीन का अभिनय वह कुशलता से करने लगा था. उसी नाटक के पूर्वाभ्यास में इरा को घर जाने में देर हो जाती है. वह घर जाने के लिए स्टाप पर खड़ी थी कि तभी एक कार रुकती है. उस में मुकुल अपने पिता के साथ था. उस के पिता शरदजी को देख इरा चहक उठती है. शरदजी बताते हैं कि जब मुकुल ने नाटक के बारे में बताया तो मैं समझ गया था कि ‘इरा मैम’ तुम ही होंगी.

इरा उन के साथ गाड़ी में बैठ जाती है. तभी उसे याद आता है कि आज उस के बेटे का जन्मदिन है और उस के लिए तोहफा लेना है. शरदजी को पता चलता है तो वह आलीशान शापिंग कांप्लेक्स की तरफ गाड़ी घुमा देते हैं. वह इरा को कंप्यूटर गेम दिलवाने पर उतारू हो जाते हैं. इरा बेचैन थी क्योंकि पर्स में इतने रुपए नहीं थे. अब आगे…

3ह्म्द्मड्डस्र द्यह्य 1द्म3ह्य्न्न्न

एक महंगा केक और फूलों का बुके आदि तमाम चीजें शरदजी गाड़ी में रखवाते चले गए. वह अवाक् और मौन रह गई.

शरदजी को घर में भीतर आने को कहना जरूरी लगा. बेटे सहित शरदजी भीतर आए तो अपने घर की हालत देख सहम ही गई इरा. कुर्सियों पर पड़े गंदे,  मुचड़े, पहने हुए वस्त्र हटाते हुए उस ने उन्हें बैठने को कहा तो जैसे वे सब समझ गए हों, ‘‘रहने दो, इरा… फिर किसी दिन आएंगे… जरा अपने बेटे को बुलाइए… उस से हाथ मिला लूं तब चलूं. मुझे देर हो रही है, जरूरी काम से जाना है.’’

इरा ने सुदेश और पति को आवाज दी. वे अपने कमरे में थे. दोनों बाहर निकल आए तो जैसे इरा शरम से गड़ गई हो. घर में एक अजनबी को बच्चे के साथ आया देख पवन भी अचकचा गए और सुदेश भी सहम सा गया पर उपहार में आई ढेरों चीजें देख उस की आंखें चमकने लगीं… स्नेह से शरदजी ने सुदेश के सिर पर हाथ फेरा. उसे आशीर्वाद दिया, उस से हाथ मिला उसे जन्मदिन की बधाई दी और बेटे मुकुल के साथ जाने लगे तो सकुचाई इरा उन्हें चाय तक के लिए रोकने का साहस नहीं बटोर पाई.

पवन से हाथ मिला कर शरदजी जब घर से बेटे मुकुल के साथ बाहर निकले तो उन्हें बाहर तक छोड़ने न केवल इरा ही गई, बल्कि पवन और सुदेश भी गए.

उन्होंने पवन से हाथ मिलाया और गाड़ी में बैठने से पहले अपना कार्ड दे कर बोले, ‘‘इरा, कभी पवनजी को ले कर आओ न हमारे झोंपड़े पर… तुम से बहुत सी बातें करनी हैं. अरसे बाद मिली हो भई, ऐसे थोड़े छोड़ देंगे तुम्हें… और फिर तुम तो मेरे बेटे की कैरियर निर्माता हो… तुम्हें अपना बेटा सौंप कर मैं सचमुच बहुत आश्वस्तहूं.’’

पवन और सुदेश के साथ घर वापस लौटती इरा एकदम चुप और खामोश थी. उस के भीतर एक तीव्र क्रोध दबे हुए ज्वालामुखी की तरह भभक रहा था पर किसी तरह वह अपने गुस्से पर काबू रखे रही. इस वक्त कुछ भी कहने का मतलब था, महाभारत छिड़ जाना. सुदेश के जन्मदिन को वह ठीक से मना लेना चाहती थी.

सुदेश के जन्मदिन का आयोजन देर रात तक चलता रहा था. इतना खुश सुदेश पहले शायद ही कभी हुआ हो. इरा भी उस की खुशी में पूरी तरह डूब कर खुश हो गई.

बिस्तर पर जब वह पवन के साथ आई तो बहुत संतुष्ट थी. पवन भी संतुष्ट थे, ‘‘अरसे बाद अपना सुदेश आज इतना खुश दिखाई दिया.’’

‘‘पर खानेपीने की चीजें मंगाने में काफी पैसा खर्च हो गया,’’ न चाहते हुए भी कह बैठी इरा.

‘‘घर वालों के ही खानेपीने पर तो खर्च हुआ है. कोई बाहर वालों पर तो हुआ नहीं. पैसा तो फिर कमा लिया जाएगा… खुशियां हमें कबकब मिलती हैं,’’ पवन अभी तक उस आयोजन में डूबे हुए थे.

‘‘सोया जाए… मुझे सुबह फिर जल्दी उठना है. सुदेश का कल अंगरेजी का टेस्ट है और मैं अंगरेजी की टीचर हूं अपने स्कूल में. मेरा बेटा ही इस विषय में पिछड़ जाए, यह मैं कैसे बरदाश्त कर सकती हूं? सुबह जल्दी उठ कर उस का पूरा कोर्स दोहरवाऊंगी…’’

‘‘आजकल की यह पढ़ाई भी हमारे बच्चों की जान लिए ले रही है,’’ पवन के चेहरे पर से प्रसन्नता गायब होने लगी, ‘‘हमारे जमाने में यह जानमारू प्रतियोगिता नहीं थी.’’

‘‘अब तो 90 प्रतिशत अंक, अंक नहीं माने जाते जनाब… मांबाप 99 और 100 प्रतिशत अंकों के लिए बच्चों पर इतना दबाव बनाते हैं कि बच्चों का स्वास्थ्य तक चौपट हुआ जा रहा है. क्यों दबा रहे हैं हम अपने बच्चों को… कभीकभी मैं भी बच्चों को पढ़ाती हुई इन सवालों पर सोचती हूं…’’

‘‘शायद इसलिए कि हम बच्चों के भविष्य को ले कर बेहद डरे हुए हैं, आशंकित हैं कि पता नहीं उन्हें जिंदगी में कुछ मिलेगा या नहीं… कहीं पांव टिकाने को जगह न मिली तो वे इस समाज में सम्मान के साथ जिएंगे कैसे?’’ पवन बोले, ‘‘हमारे जमाने में शायद यह गलाकाट प्रतियोगिता नहीं थी पर आजकल जब नौकरियां मिल नहीं रहीं, निजी कामधंधों में बड़ी पूंजी का खेल रह गया है. मामूली पैसे से अब कोई काम शुरू नहीं किया जा सकता, ऐसे में दो रोटियां कमाना बहुत टेढ़ी खीर हो गया है, तब बच्चों के कैरियर को ले कर सावधान हो जाने को मांबाप विवश हो गए हैं… अच्छे से अच्छा स्कूल, ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं, साधन, अच्छे से अच्छा ट्यूटर, ज्यादा से ज्यादा अंक, ज्यादा से ज्यादा कुशलता और दक्षता… दूसरा कोई बच्चा हमारे बच्चे से आगे न निकल पाए, यह भयानक प्रत्याशा… नतीजा तुम्हारे सामने है जो तुम कह रही हो…’’

‘‘मैं तो समझती थी कि तुम इन सब मसलों पर कुछ न सोचते होंगे, न समझते होंगे… पर आज पता चला कि तुम्हारी भी वही चिंताएं हैं जो मेरी हैं. जान कर सचमुच अच्छा लग रहा है, पवन,’’ कुछ अधिक ही प्यार उमड़ आया इरा के भीतर और उस ने पवन को एक गरमागरम चुंबन दे डाला.

पवन ने भी उसे बांहों में भर, एक बार प्यार से थपथपाया, ‘‘आदमी को तुम इतना मूर्ख क्यों मानती हो? अरे भई, हम भी इसी धरती के प्राणी हैं.’’

‘‘यह नाटक मैं ठीक से करा ले जाऊं और शरदजी को उन के बेटे के माध्यम से प्रसन्न कर पाऊं तो शायद उस एहसान से मुक्त हो सकूं जो उन्होंने मुझ पर किए हैं. जानते हो पवन, शरदजी ने अपने निर्देशन में मुझे 3 नाटकों में नायिका बनाया था. बहुत आलोचना हुई थी उन की पर उन्होंने किसी की परवा नहीं की थी. अगर तब उन्होंने मुझे उतना महत्त्व न दिया होता, मेरी प्रतिभा को न निखारा होता तो शायद मैं नाटकों की इतनी प्रसिद्ध नायिका न बनी होती. न ही यह नौकरी आज मुझे मिलती. यह सब शरदजी की ही कृपा से संभव हुआ.’’

नाटक उम्मीद से कहीं अधिक सफल रहा. मुकुल ने इंस्पेक्टर मातादीन के रूप में वह समां बांधा कि पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. स्कूल प्रबंधक और प्रधानाचार्या अपनेआप को रोक नहीं सके और दोनों उठ कर इरा के पास मंच के पीछे आए, ‘‘इरा, तुम तो कमाल की टीचर हो भई.’’

मुकुल के पिता शरदजी तो अपने बेटे की अभिनय क्षमता और इरा के कुशल निर्देशन से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने वहीं, मंच पर आ कर स्कूल के लिए एक वातानुकूलित कंप्यूटर कक्ष और 10 कंप्यूटर अत्यंत उच्च श्रेणी के देने की घोषणा कर प्रबंधक और प्रधानाचार्या के मन की मुराद ही पूरी कर दी.

जब वे आयोजन के बाद चायनाश्ते पर अन्य अतिथियों के साथ प्रबंधक के पास बैठे तो न जाने उन के कान में क्या कहते रहे. इरा ने 1-2 बार उन की ओर देखा भी पर वे उन से ही बातें करते रहे. बाद में इरा को धन्यवाद दे वे जातेजाते पवन और सुदेश की तरफ देख हाथ हिला कर बोले, ‘‘इरा…मुझे अभी तक उम्मीद है कि किसी दिन तुम आने के लिए मुझे दफ्तर में फोन करोगी…’’

‘‘1-2 दिन में ही तकलीफ दूंगी, सर, आप को,’’ इरा उत्साह से बोली थी.

‘‘जो आदमी खुश हो कर लाखों रुपए का दान स्कूल को दे सकता है, उस से हम बहुत लाभ उठा सकते हैं, इरा… और वह आदमी तुम से बहुत खुश और प्रभावित भी है,’’ अपना मंतव्य आखिर पवन ने घर लौटते वक्त रास्ते में प्रकट कर ही दिया.

परंतु इरा चुप रही. कुछ बोली नहीं. किसी तरह पुन: पवन ने ही फिर कहा, ‘‘क्या सोच रही हो? कब चलें हम लोग शरदजी के घर?’’

‘‘पवन, तुम्हारे सोचने और मेरे सोचने के ढंग में बहुत फर्क है,’’ कहते हुए बहुत नरम थी इरा की आवाज.

‘‘सोच के फर्क को गोली मारो, इरा. हमें अपने मतलब पर ध्यान देना चाहिए, अगर हम किसी से अपना कोई मतलब आसानी से निकाल सकते हैं तो इस में हमारे सोच को और हमारी हिचक व संकोच को आड़े नहीं आना चाहिए,’’ पवन की सूई वहीं अटकी हुई थी, ‘‘तुम अपने घरपरिवार की स्थितियों से भली प्रकार परिचित हो, अपने ऊपर कितनी जिम्मेदारियां हैं, यह भी तुम अच्छी तरह जानती हो. इसलिए हमें निसंकोच अपने लिए कुछ हासिल करने का प्रयास करना चाहिए.’’

‘‘मैं तुम्हें और सुदेश को ले कर उन के बंगले पर जरूर जाऊंगी, पर एक शर्त पर… तुम इस तरह की कोई घटिया बात वहां नहीं करोगे. शरदजी के साथ मैं ने नाटकों में काम किया है, मैं उन्हें बहुत अच्छी तरह जानती हूं. वह इस तरह से सोचने वाले व्यक्ति नहीं हैं. बहुत समझदार और संवेदनशील व्यक्ति हैं. उन से पहली बार ही उन के घर जा कर कुछ मांगना मुझे उन की नजरों में बहुत छोटा बना देगा, पवन. मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती.’’

दूसरे दिन इरा जब स्कूल में पहुंची तो प्रधानाचार्या ने उसे अपने दफ्तर में बुलाया, ‘‘हमारी कमेटी ने तय किया है कि यह पत्र तुम्हें दिया जाए,’’ कह कर एक पत्र इरा की तरफ बढ़ा दिया.

एक सांस में उस पत्र को धड़कते दिल से पढ़ गई इरा. चेहरा लाल हो गया, ‘‘थैंक्स, मेम…’’ अपनी आंतरिक प्रसन्नता को वह मुश्किल से वश में रख पाई. उसे प्रवक्ता का पद दिया गया था और स्कूल की सांस्कृतिक गतिविधियों की स्वतंत्र प्रभारी बनाई गई थी. साथ ही उस के बेटे सुदेश को स्कूल में दाखिला देना स्वीकार किया गया था और उस की इंटर तक फीस नहीं लगेगी, इस का पक्का आश्वासन कमेटी ने दिया था.

शाम को जब घर आ उस ने वह पत्र पवन, ससुरजी व घर के अन्य सदस्यों को पढ़वाया तो जैसे किसी को विश्वास ही न आया हो. एकदम जश्न जैसा माहौल हो गया, सुदेश देर तक समझ नहीं पाया कि सब इतने खुश क्यों हो गए हैं.

इरा ने नजदीकी पब्लिक फोन से शरदजी को दफ्तर में फोन किया, ‘‘आप को हार्दिक धन्यवाद देने आप के बंगले पर आज आना चाहती हूं, सर. अनुमतिहै?’’

सुन कर जोर से हंस पड़े शरदजी, ‘‘नाटक वालों से नाटक करोगी, इरा?’’

‘‘नाटक नहीं, सर. सचमुच मैं बहुत खुश हूं. आप के इस उपकार को कभी नहीं भूलूंगी,’’ वह एक सांस में कह गई, ‘‘कितने बजे तक घर पहुंचेंगे आप?’’

‘‘मेरा ड्राइवर तुम्हें लगभग 9 बजे घर से लिवा लाएगा… और हां, सुदेश व पवनजी भी साथ आएंगे,’’ उन्होंने फोन रख दिया था.

अपनी इरा मैम को अपने घर पर पाकर मुकुल बेहद खुश था. देर तक अपनी चीजें उन्हें दिखाता रहा. अगले नाटकों में भी इरा मैम उसे रखें, इस का वादा कराता रहा.

पूरे समय पवन कसमसाते रहे कि किसी तरह इरा मतलब की बात कहे शरदजी से. शरदजी जैसे बड़े आदमी के लिए यह सब करना मामूली सी बात है, पर इरा थी कि अपने विश्वविद्यालय के उन दिनों के किए नाटकों के बारे में ही उन से हंसहंस कर बातें करती रही.

जब वे लोग वापस चलने को उठे तो शरदजी ने अपने ड्राइवर से कहा, ‘‘साहब लोगों को इन के घर छोड़ कर आओ…’’ फिर बड़े प्रेम से उन्होंने पवन से हाथ मिलाया और उन की जेब में एक पत्र रखते हुए बोले, ‘‘घर जा कर देखना इसे.’’

रास्ते भर पवन का दिल धड़कता रहा, माथे पर पसीना आता रहा. पता नहीं, पत्र में क्या हो. जब घर आ कर पत्र पढ़ा तो अवाक् रह गए पवन… उन की नियुक्ति शरदजी ने अपने दफ्तर में एक अच्छे पद पर की थी.

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