शौक : कोठे पर जाना क्यों पड़ा अखिलेश को महंगा

‘यह नया पंछी कहां से आया है?’’ जैम की शीशियां गत्ते के बड़े डब्बे में पैक करते हुए सुरेश ने सामने कुरसी पर बैठे अखिलेश की तरफ देखते हुए अपने साथी रमेश से पूछा.

‘‘उत्तर प्रदेश का है,’’ रमेश ने कहा.

‘‘शहर?’’ सुरेश ने फिर पूछा.

‘‘पता नहीं,’’ रमेश ने जवाब दिया.

‘‘शक्ल से तो मास्टरजी लगता है,’’ अखिलेश की आंखों पर चश्मे को देख हलकी हंसी हंसते हुए सुरेश ने कहा.

‘‘खाताबही बनाना मास्टरजी का ही काम होता है,’’ रमेश बोला.

फलों और सब्जियों को प्रोसैस कर के जूस, अचारमुरब्बा और जैम बनाने की इस फैक्टरी में दर्जनों मुलाजिम काम करते थे. सुरेश, रमेश और कई दूसरे पुराने लोग धीरेधीरे काम सीखतेसीखते अब ट्रेंड लेबर में गिने जाते थे. फैक्टरी में सामान्य शिफ्ट के साथ दोहरी शिफ्ट में भी काम होता था, जिस के लिए ओवर टाइम मिलता था. इस का लेखाजोखा अकाउंटैंट रखता था. अखिलेश एमए पास था. वह इस फैक्टरी में अकाउंटैंट और क्लर्क भरती हुआ था. मुलाजिमों के कामकाज के घंटे और दूसरे मामलों का हिसाबकिताब दर्ज करना और बिल पास करना इस के हाथ में था. अपने फायदे के लिए फैक्टरी के सभी मुलाजिम अकाउंटैंट से मेलजोल बना कर रखते थे.

‘‘पहले वाला बाबू कहां गया?’’ रामचरण ने पूछा.

‘‘उस का तबादला कंपनी की दूसरी ब्रांच में हो गया है.’’

‘‘ये सब बाबू लोग ऊपर से सीधेसादे होते हैं, पर अंदर से पूरे चसकेबाज होते हैं,’’ रमेश ने धीमी आवाज में कहा.

‘‘इन का चसकेबाज होने में अपना फायदा है. सारे बिल फटाफट पास हो जाते हैं.’’ शाम को शिफ्ट खत्म हुई. दूसरे सब चले गए, पर सुरेश, रमेश और रामचरण एक तरफ खड़े हो गए.

अखिलेश उन को देख कर चौंका.

‘‘सलाम बाबूजी,’’ सुरेश ने कहा.

‘‘सलाम, क्या बात है?’’ अखिलेश ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, आप से दुआसलाम करनी थी. आप कहां से हो?’’

अखिलेश ने गांव के बारे में बताया.

‘‘साहब, एकएक कप चाय हो जाए?’’ रमेश ने जोर दिया.

अखिलेश उन के साथ फैक्टरी की कैंटीन में चला आया. चाय के दौरान हलकीफुलकी बातें हुईं. कुछ दिनों तक यह सिलसिला चला, फिर धीरेधीरे मेलजोल बढ़ता गया.

‘‘साहब, आज कुछ अलग हो जाए…’’ एक शाम सुरेश ने मुसकराते हुए अखिलेश से कहा.

‘‘अलग… मतलब?’’ अखिलेश ने हैरानी से पूछा.

सुरेश ने अंगूठा मोड़ कर मुंह की तरफ शराब पीने का इशारा किया.

‘‘नहीं भाई, मैं शराब नहीं पीता,’’ अखिलेश ने कहा.

‘‘साहब, थोड़ी चख कर तो देखो.’’

उस शाम सुरेश के कमरे में शराब का दौर चला. नया पंछी धीरेधीरे लाइन पर आ रहा था. कुछ दिनके बाद सुरेश ने अखिलेश से पूछा, ‘‘साहब, आप ने सवारी की है?’’

‘‘सवारी…?’’

‘‘मतलब, कभी सैक्स किया है?’’

‘‘नहीं भाई, अभी तो मैं कुंआरा हूं. मेरी पिछले महीने ही मंगनी हुई है,’’ अखिलेश ने कहा.

‘‘सुहागरात को अगर आप चुक गए, तो सारी उम्र आप की बीवी आप का रोब नहीं मानेगी,’’ रामचरण बोला. इस पर अखिलेश सोच में पड़ गया. वह 25 साल का था, लेकिन अभी तक किसी लड़की से सैक्स नहीं किया था.

‘‘साहब, आज आप को जन्नत की सैर कराते हैं,’’ सुरेश ने कहा.

इस सोच के साथ कि सुहागरात को वह ‘अनाड़ी’ या ‘नामर्द’ साबित न हो जाए, अखिलेश सहमत हो कर उन के साथ चल पड़ा. वे चारों एक सुनसान दिखती गली में पहुंचे. गली के मुहाने पर ही एक पान वाले की दुकान थी.

‘‘4 पलंगतोड़ पान बनाना,’’ एक सौ रुपए का नोट थमाते हुए सुरेश ने कहा.

पान बंधवा कर वे सब आगे चले.

‘‘यह पलंगतोड़ पान क्या होता है?’’ अखिलेश ने पूछा.

‘‘साहब, यह बदन में जोश भर देता है. औरत भी ‘हायहाय’ करने लगती है. अभी आप भी आजमाना,’’ रामशरण ने समझाते हुए कहा. एक दोमंजिला मकान के बाहर रुक कर सुरेश ने कालबैल बजाई. एक औरत ने खिड़की से बाहर झांका. अपने पक्के ग्राहकों को देख कर उस औरत ने राहत की सांस ली. दरवाजा खुला. सभी अंदर चले गए. एक बड़े से कमरे में 3-4 पलंग बिछे थे. कई छोटीबड़ी उम्र की लड़कियां, जिन में से कई नेपाली लगती थीं, मुंह पर पाउडर पोते, होंठों पर लिपस्टिक लगाए बैठी थीं.

‘‘सोफिया नजर नहीं आ रही?’’ अपनी पसंदीदा लड़की को न देख सुरेश कोठे की आंटी से पूछ बैठा.

‘‘बाहर गई है वह.’’

‘‘इस को सब से ज्यादा ‘मस्त’ वही नजर आती है,’’ रामचरण बोला.

‘‘नए साहब आए हैं. इन को खुश करो,’’ आंटी ने लड़कियों की तरफ देखते हुए कहा.

सभी लड़कियां एक कतार में खड़ी हो गईं. कइयों ने अपनेअपने उभारों को यों तान दिया, जैसे फौज में आया जवान अपनी छाती फुला कर दिखाता है.

‘‘साहब, आप को कौन सी जंच रही है?’’ रामचरण ने अखिलेश से पूछा.

अखिलेश के लिए यह नया तजरबा था. सैक्स के लिए उस को एक लड़की छांटनी थी, जबकि उस को तो ठेले पर सब्जी छांटनी नहीं आती थी. आंटी तजरबेकार थी. वह समझ गई थी कि नया चश्माधारी बाबू अनाड़ी है. उस ने लड़कियों की कतार में खड़ी मीनाक्षी की तरफ इशारा किया. मीनाक्षी अखिलेश की कमर में बांहें डाल कर बोली, ‘‘आओ, अंदर चलें.’’

इस के बाद वह अखिलेश को एक छोटे केबिननुमा कमरे में ले गई. बाकी तीनों भी अपनीअपनी पसंद की लड़की के साथ अलगअलग केबिनों में चले गए. कमरे की सिटकिनी बंद कर लड़की ने अपने नए ग्राहक की तरफ देखा. अखिलेश ने भी उसे देखा. नेपाली मूल की उस लड़की का कद औसत से छोटा था. उस के मुंह पर ढेरों पाउडर पुता था. होंठों पर गहरे रंग की लिपस्टिक थी. लड़की ने एकएक कर के सारे कपड़े उतार दिए, फिर अखिलेश के पास आ कर खड़ी हो गई. अखिलेश ने चश्मे में से ही उस की तरफ देखा. उस के उभार ब्लाउज उतर जाने के बाद ढीलेढाले से लटके थे. उभारों, बांहों, जांघों पर दांतों के काटने के निशान थे.

उसे देख कर अखिलेश को जोश की जगह तरस आने लगा था.

‘‘अरे बाबू, क्या हुआ? सैक्स नहीं करोगे?’’ उस लड़की ने पूछा.

‘‘नहीं, मुझे जोश नहीं आ रहा,’’ अखिलेश ने कहा.

‘‘कपड़े उतार दो, जोश अपनेआप आ जाएगा,’’ वह लड़की बोली.

‘‘मुझ से नहीं होगा.’’

‘‘पनवाड़ी से पान तो लाए होगे?’’

‘‘हां है. तुम खा लो,’’ पान की पुडि़या उसे थमाते हुए अखिलेश ने कहा.

‘‘आप खा लो… गरमी आ जाएगी.’’

‘‘तुम खा लो.’’

लड़की ने पान चबाया. अखिलेश पछता रहा था कि वह यहां क्यों आया.

‘‘तुम्हें कितने पैसे मिलते हैं?’’

‘‘यह आंटी को पता है.’’

‘‘मुझ से क्या लोगी?’’

‘‘यह भी आंटी बताएगी. तुम कुछ करोगे?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘मैं कपड़े पहन लूं?’’

अखिलेश चुप रहा. लड़की ने कपड़े पहने और बाहर चली गई. अखिलेश भी बाहर चला आया. इतनी जल्दी ग्राहक निबट गया था. आंटी ने टेढ़ी नजरों से उस की तरफ देखा. मीनाक्षी ने भद्दा इशारा किया. पलंग पर बैठी सभी लड़कियां हंस पड़ीं. आधेपौने घंटे बाद बाकी तीनों भी बाहर आ गए. अखिलेश को बाहर आया देख वे सभी चौंके.

‘‘क्या बात है साहब?’’ सुरेश बोला.

‘‘मुझ से नहीं हुआ,’’ अखिलेश ने बताया.

‘‘पहली बार आए हो न साहब. धीरेधीरे सीख जाओगे.’’

आंटी को पैसे थमा कर वे सब बाहर चले आए. अगले कई दिनों तक उन तीनों ने अखिलेश को उकसाने की कोशिश की, मगर उस ने वहां जाने से मना कर दिया. एक शाम मौसम सुहावना था. शराब के 2 पैग पीने के बाद अखिलेश घूमने निकल पड़ा. अचानक ही अखिलेश के कदम उस गली की तरफ मुड़ गए. चश्माधारी बाबूजी को देख आंटी पहले चौंकी, फिर हंसते हुए बोली, ‘‘आओ बाबूजी.’’

मीनाक्षी भी मुसकराई. वह उस को अपने केबिन में ले गई.

‘‘आप फिर आ गए?’’

‘‘मौसम ले आया.’’

‘‘अकेले?’’

‘‘हां.’’

‘‘मैं अपने कपड़े उतारूं?’’

अखिलेश खामोश रहा. लड़की ने कपड़े उतार दिए. पहले की तरह अखिलेश ने उस के बदन को देखा.

‘‘अब आप भी अपने कपड़े उतारो,’’ लड़की बोली.

अखिलेश ने भी अपने कपड़े उतारे और उस के करीब आया. उसे अपनी बांहों भरा और चूमा, फिर बिस्तर पर खींच लिया. लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी अखिलेश में जोश नहीं आया. आखिरकार तंग आ कर मीनाक्षी ने  पूछा, ‘‘क्या तुम ने पहले कभी सैक्स किया है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘फिर तुम यहां क्यों आए हो?’’

‘‘अगले महीने मेरी शादी है. वहां खिलाड़ी साबित करने के लिए मैं यहां आया हूं.’’

यह सुन कर मीनाक्षी खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘तुम से कुछ नहीं हो सकता. तुम चले जाओ.’’

कपड़े पहन कर अखिलेश बाहर जाने को हुआ, तभी मीनाक्षी बोली, ‘‘अपना पर्स, घड़ी और अंगूठी उतार कर मुझे दे दो,’’

‘‘क्यों?’’ अखिलेश ने पूछा.

तभी एक कद्दावर गुंडे ने वहां आ कर चाकू तान दिया. अखिलेश ने अपने पर्स की सारी नकदी, अंगूठी और घड़ी उतार कर पलंग पर रख दी और चुपचाप बाहर चला आया.

आते वक्त भी मौसम खुशगवार था, लौटते वक्त भी. मगर आते समय अखिलेश शराब के नशे में था, लौटते समय उस का नशा उतर चुका था.

नाम तो सही लिखिए

‘‘इस नाम से कोई खाता नहीं है.’’ बैंक मैनेजर ने भी वही दोहराया जो क्लर्क ने कहा था. हम समझ नहीं पा रहे थे कि कुछ महीने पहले तक हम इस खाते में चैक जमा कर रहे थे और हमें वह रकम मिल भी रही थी. अब अचानक ऐसा क्या हो गया जो हमारा खाता ही गायब हो गया. हम ने बैंक मैनेजर से बारबार कहा कि हम इसी खाते में नकद और चैक जमा करते आ रहे हैं और पैसा निकालते आ रहे हैं पर वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था. ‘‘मुझे और भी काम हैं,’’ कह कर उस ने हमें सम्मानपूर्वक बाहर निकल जाने को कहा.

हर जगह जानपहचान होना कितना जरूरी है, यह हमें उस दिन पता चला. जब तक मैं अपने शहर में था और मेरा मित्र उस बैंक में था तब तक कोई दिक्कत नहीं आई थी. आज क्या हो गया. मैं ने बारबार चैक देखा. मेरा सरनेम गलत लिखा था. ‘गुप्ते’ की जगह ‘गुप्ता’ लिखा था. जब तक मेरा मित्र इस बैंक में था तब तक इस गलत सरनेम की समस्या नहीं आई थी. सोचा था कि इस नए शहर में भी कोई दिक्कत नहीं होगी.

आजकल तो किसी भी शहर में बैंक से पैसा निकाल सकते हैं और जमा कर सकते हैं. इसी भरोसे पर चैक जमा कर दिया. पेइनस्लिप पर जमा करने वाले का नाम और पता लिखा होता है, इसलिए वह चैक यहां के पते पर लौट आया. हम चैक ले कर बैंक पहुंचे. जांच करने पर हकीकत का पता चला. अब क्या हो? शहर अनजाना, ऐसे में पैसे की जरूरत आन पड़ी. रुपए निकालने गया तो पता चला कि अपना अस्तित्व ही खो गया. एक माह पहले लेखन पारिश्रमिक का चैक जमा करवाया था.

हम ने एक बार फिर मैनेजर को वस्तुस्थिति से परिचित करवाया. ‘‘हम कुछ नहीं कर सकते. यदि आज आप के खाते में चैक जमा कर देंगे तो कल को सचमुच का ही ‘गुप्ता’ सरनेम का ग्राहक आ गया तो हमारी नौकरी चली जाएगी. आप चैक वापस कर दीजिए,’’ उस ने कुछ नरम हो कर कहा.

देश के इस हिस्से में आ कर मैं ने पाया कि हम भारतवासी दूसरे प्रांत के लोगों से, उन की भाषा से, उन के नामों से कितने अपरिचित हैं. जो नाम अपनी जानकारी का होता है उसी को सही मानते हैं और उस से मिलताजुलता नाम हो सकता है, यह मानते ही नहीं. मेरे सरनेम को ही बारबार कहने के बावजूद लोग गलत लिखते हैं. जवाब मिलता है, ‘‘क्या फर्क पड़ता है? यह लिख दिया तो क्या गुनाह किया. आप तो वही हैं न?’’

मैं ने भी इस बात पर ज्यादा जोर नहीं दिया. वैसे भी जानपहचान का आदमी होने के कारण कभी आज जैसी समस्या नहीं आई थी. अब मैं इस शहर में आ गया. यहां के आदमी ने अपनी समझ से काम लिया और चैक खाते में जमा नहीं किया. गलती मेरी ही थी. मुझे पहले ही अपना सरनेम सही लिखने को कह देना चाहिए था. जब बिना कुछ किए काम हो रहा था तो बेकार में क्यों तकलीफ उठाई जाए, यही सोच कर चुप रहा.

आज पता चला कि घोड़े की नाल में सही समय पर कील न ठोंकने पर लड़ाई हार जाने की कहावत कितनी सही है. अगर मैं ने अब अपना सरनेम सही नहीं करवाया और लोगों को सही लिखनेबोलने पर जोर नहीं डाला तो कल गुप्ता सरनेम के किसी अपराधी की जगह पुलिस मुझे पकड़ कर ले जा सकती है. इस विचार से मैं गरमी के मौसम में पसीना पोंछतेपोंछते कांप भी गया.

सरनेम के गलत लिखे जाने का एकमात्र शिकार मैं ही नहीं हूं. मेरे एक परिचित कलैक्टर के दफ्तर के बाबू से हुई बिंदी की गलती के कारण मिलने वाली वैधानिक संपत्ति से हाथ धो बैठे. उन का सरनेम था ‘लोढ़ा’. पर बाबू ने ‘ढ’ के नीचे बिंदी न लगा कर उन्हें ‘लोढा’ लिखा. विपक्षी ने इसी का सहारा ले कर उन्हें झूठा साबित कर दिया. जरा सी बिंदी ने सही आदमी को गलत और गलत आदमी को सही साबित कर दिया.

यह आम धारणा है कि हिंदी अलग से सीखने की जरूरत नहीं है, वह तो राष्ट्रभाषा है. पर भाषा की शुद्धता भी तो आनी चाहिए. मराठी में भी एक कारकुन ने ‘कोरडे’ को ‘कोर्ड’ लिख कर उसे मराठी कायस्थ बना दिया. बेचारा सरनेम सही करवाने के लिए सरकारी दफ्तरों में रिश्वत खिलाता फिरा.

भाषा की लापरवाही से जाति का वैमनस्य बढ़ सकता है, क्योंकि महाराष्ट्र में जातिवाद सुशिक्षित लोगों में भी बहुत गहरा है. सिर्फ सवर्ण और पिछड़ी जातियां ही नहीं, ब्राह्मण और कायस्थ भी एकदूसरे को नापसंद करते हैं. सरनेम पता चलते ही शरीफ आदमी को भी किराए का मकान नहीं मिलता.

वह तो बाबू था. उस का लिखनेपढ़ने का एकमात्र उद्देश्य नौकरी पाना था. भाषाई शुद्धता से उसे कुछ नहीं करना था. लेकिन समाचारपत्र भी कम नहीं हैं, जहां पढ़ेलिखे और जागरूक लोग भरती किए जाते हैं. वे भी धड़ल्ले से नामों में गलती पर गलती किए जाते हैं. दुख की बात तो यह है कि उन्हें बारबार लिखने पर भी वे अपनी गलती नहीं स्वीकारते. इस के लिए दोष इंग्लिश के माथे मढ़ दिया जाता है. लेकिन उस से भी बड़ा दोष दूसरी भाषा की तरफ झांक कर न देखने वाले लोगों का है.

हिंदी और मराठी भाषाएं एक ही लिपि यानी देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं. मजाल है कि कोई हिंदी वाला मराठी अखबार उठा ले. अगर गलती से उठा भी लिया तो भाषा में फर्क नजर आते ही एकदम फेंक देगा मानो कोई गंदी चीज हाथ में आ गई हो. यही दुर्भावना मराठी लोगों में भी हिंदी के प्रति है. इसी कारण कई लोगों के नाम हास्यास्पद हो जाते हैं.

क्रिकेटर सचिन तेंडुलकर का नाम तो दुनियाभर में जानापहचाना है. लेकिन दिल्ली के अखबार और टीवी वाले बेचारे को ‘तेंदुलकर’ लिखते हैं. वह तो एहसान मानिए कि आयकर विभाग में इंग्लिश में कामकाज किया जाता है. वरना होता यह कि बेचारा सचिन अपना आयकर भरता ‘तेंडुलकर’ सरनेम से और वसूली या कुर्की का नोटिस आता ‘तेंदुलकर’ सरनेम से.

अब क्रिकेट की बात आई ही है तो एक और उदाहरण दिया जा सकता है. गांगुली को हिंदी वाले और मराठी वाले ‘सौरव’ लिखते हैं क्योंकि इंग्लिश में वैसा ही लिखा आता है. जो लोग बांग्ला भाषा जानते हैं उन्हें मालूम है कि इस भाषा में ‘व’ शब्द नहीं है. इसीलिए तो ‘विमल’ को ‘बिमल’. ‘वरुण’ को ‘बरुण’ और ‘वर्तमान’ को ‘बर्तमान’ लिखापढ़ा जाता है. और तो और, जो लोग भाषा की जरा सी भी जानकारी रखते हैं वे इस नए शब्द ‘सौरव’ पर हैरान होंगे. शायद वे सोचते होंगे कि ‘कौरव’ की ही तरह ‘सौरव’ शब्द भी होगा. असल में सौरव नाम का कोई शब्द ही नहीं होता. सही शब्द है सौरभ. इसीलिए ‘सुमन सौरभ’ नाम की पत्रिका निकलती है, ‘सुमन सौरव’ नाम की नहीं.

बांग्ला में इंग्लिश के ‘वी’ का उच्चारण ‘भी’ होता है और उसे वैसा ही लिखा जाता है. इसीलिए बांग्लाभाषी ‘अमिताभ’ को इंग्लिश में ‘अमिताव’ और ‘शोभना नारायण’ को ‘शोवना नारायण’ लिखते हैं. अखबार वाले बिना मेहनत किए उसे इंग्लिश के हिसाब से ही लिखते हैं.

ऐसे में यदि वे इंग्लिश में लिखे ‘रामा’ को ‘रमा’ लिख कर बिना औपरेशन के लड़के को लड़की बना दें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. क्रिकेटर अजीत आगरकर को हमेशा ‘अगरकर’ लिखा जाता है. वह इसलिए कि उस का मध्य प्रदेश के आगर या ताज महल वाले आगरा से कोई संबंध नहीं है.

भारत जैसे विशाल देश में एक नाम के एक से अधिक नगर हैं. दंगों के लिए ख्यात औरंगाबाद बिहार में भी है तो सूखे के लिए प्रसिद्ध महाराष्ट्र में भी है. बेचारे अजीत को आगरा से या आगर से संबंधित न होने के कारण ‘अगरकर’ ही बना दिया गया.

हिंदी के अखबार तो इस बात पर भी एकमत नहीं हैं कि अभिनेत्री ऐश्वर्या राय का सही नाम ऐश्वर्य है या ऐश्वर्या. ‘ऐश्वर्य’ नाम तो लड़के का होता है. ठीक वैसे ही जैसे ‘दिव्य’ लड़के का होता है और ‘दिव्या’ लड़की का. ‘नक्षत्र’ लड़के का होता है और ‘नक्षत्रा’ लड़की का. ‘नयन’ लड़के का और ‘नयना’ लड़की का.

इसी तरह मद्रास के नए नाम पर भी विवाद है. यदि एक अखबार ‘चेन्नै’ लिखता है तो दूसरा ‘चेन्नई’. यही हाल मदुराई और ‘मदुरै’ का है. क्यों नहीं हम उन्हें तमिल उच्चारणों के हिसाब से लिखते?

अब पंजाब के एक रेलवे स्टेशन का नाम गुरुमुखी में लिखा है ‘बठिंडा’. लेकिन इस नाम से इसे देश में शायद ही कोई जानता हो. इसे ‘भटिंडा’ ही लिखा और बोला जाता है. ‘बठिंडा’ से ‘भटिंडा’ बनाने की तुक समझ में नहीं आती.

कुछ वर्षों पहले तक वडोदरा शहर के 4 नाम थे. हिंदी में बड़ौदा, इंग्लिश में बरोडा, मराठी में बडोदें और गुजराती में वडोदरा. अलगअलग भाषाओं में एक ही शहर के इतने नामों की तुक समझ नहीं आती. हिंदी अखबार ‘भांडारकर’ को हमेशा ‘भंडारकर’ लिख कर अपने ज्ञान के भंडार का प्रदर्शन करते हैं. ‘मालाड’ को ‘मलाड’ और ‘सातारा’ को ‘सतारा’ लिखने में इन्हें क्या मजा आता है, ये ही जानें.

दिल्ली के कई अखबार देव आनंद को ‘देवानंद’ लिख कर अपने संस्कृतबाज होने का सुबूत देते हैं जिस से स्वर संधि का उपयोग होता है. पता नहीं वे लक्ष्मी आनंद या सरस्वती आनंद को कैसे लिखते होंगे? शायद ‘लक्ष्म्यानंद’ या फिर ‘सरस्वत्यानंद’.

हिंदी के एक महान पत्रकार ने प्रभात फिल्म कंपनी की एक फिल्म ‘वहां’ का मजेदार अनुवाद किया. उस ने यह शब्द आंखें मूंद कर इंग्लिश से चुराया. इंग्लिश में लिखा था डब्ल्यूएएचएएन. उस ज्ञानी ने लगाया अपना दिमाग और उसे बना दिया ‘वहाण’ जिस का मराठी में अर्थ होता है ‘जूता’. अखबार के लेखक को भाषा के इस अति ज्ञान के बारे में बताया गया तो महाशय चुप्पी साध गए.

हिंदी में ‘गजानन’ को ‘गजानंद’ लिखने वाले भी कई मिल जाएंगे. खुद को ‘गजानंद’ लिखने वालों की भी कमी नहीं. वे इसे ‘विवेकानंद’ से जोड़ कर देखते हैं. किसी व्यक्ति के नाम को गलत लिखना लिखने वाले की नासमझी और उस व्यक्ति के प्रति असम्मान जताता है. अपनी भूल मंजूर करना और उसे फिर से न दोहराना न सिर्फ बड़े दिलदिमाग की निशानी है, बल्कि नई बात सीखने की चाह भी जाहिर करता है.

दुख की बात है कि ऐसा नहीं है.

‘‘हम जो लिखते हैं, वही सही है,’’ का दंभ रखने वालों के कारण बंगाली ‘दे’ सही सरनेम होने पर भी गलत लगने लगता है.

मराठी भी अजीब भाषा है. उस के अखबार इंग्लिश के बिना नहीं चलते. इसी कारण वे लोगों के नामों का कत्ल करते हैं. जिस तरह बच्चे नामों को बिगाड़ कर आनंद लेते हैं वही वृत्ति हिंदीमराठी में है. मराठी में मंसूर अली खां पटौदी को ‘पतौडी’ लिखते हैं. जानकार लोग जब ‘पतौडी’ पढ़तेसुनते हैं तो लगता है कि सिर पर हथौड़ी चल रही हो. उन के संवाददाता दिल्ली में बैठे हुए हैं पर उन्होंने कभी कुछ ही किलोमीटर दूर बसे गांव पटौदी की सुध नहीं ली जहां के मंसूर अली खां कभी नवाब थे.

इसी तरह भिंडरांवाले को सभी मराठी अखबार बेधड़क ‘भिन्द्रनवाले’ लिखते हैं. लाजपत राय को ‘लजपत’ लिखने में उन्हें आनंद आता है. चोपड़ा या कक्कड़ को वे कभी भी सही नहीं लिखते. वे बड़ी शान से लिखेंगे ‘चोप्रा’ या ‘कक्कर’. ‘गुड़गांव’ को वे आज तक ‘गुरगाव’ ही लिखते हैं. ऐसा नहीं कि मराठी में ‘ड़’ धवनि नहीं है. रवींद्रनाथ ठाकुर को वे बेधड़क ‘टागोर’ लिखतेबोलते हैं. जबकि मराठी में ‘ठाकूर’ सरनेम होता है.

एक अखबार ने तो पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री पर भरापूरा लेख लिखा पर हर जगह उन का नाम ‘बिधन चंद्र’ लिख कर उस लेख का महत्त्व मिट्टी में मिला दिया. इसी तरह विख्यात लेखक नीरद चौधुरी को ‘नीराद’ लिख कर उन की हंसी उड़वा दी.

पता नहीं किस झोंक में आ कर मराठी अखबारों ने सही नाम ‘ढाका’ लिखना शुरू कर दिया वरना कुछ वर्षो पहले तो वे इंग्लिश की लिपि को देवनागरी में बदल कर ‘डक्का’ लिखते थे. मराठी में आज भी ‘बरूआ’ को ‘बारूआ’ और ‘सान्याल’ को ‘सन्याल’ लिखा जाता है. कुछ समय पहले तो ‘गुवाहाटी’ को ‘गोहत्ती’ लिखा जाता था.

गुजराती लिपि में अहमदाबाद को ‘अमदाबाद’ लिखा जाता है. क्यों? इस का जवाब नहीं मालूम.

किसी जमाने में डिस्को किंग कहे जाने वाले संगीतकार बापी लाहिड़ी का नाम भी गलत लिखा जाता है. उन्हें ‘बप्पी’ या ‘बाप्पी’ लिखा करते हैं. ‘बापी’ बंगालियों में किसी का पुकारा जाने वाला नाम (डाक नाम) होता है. अंधविश्वास के कारण बापी ने अपनी स्पैलिंग में एक अतिरिक्त ‘पी’ जोड़ा है पर जनता ने इसे गलत तरीके से लिया है और वह ‘बप्पी’ या ‘बाप्पी’ लिखती है. ‘लाहिड़ी’ का ‘लहरी’ या ‘लाहिरी’ बन जाना तो इंग्लिश की मेहरबानी से हुआ है. इसे ठीक करना मुश्किल नहीं है, पर करे कौन?

माना कि हर भाषा का अनुशासन अलग होता है, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि नामों का मजाक उड़ाया जाए. इन विदू्रपीकरण से नफरत बढ़ती है. यह भी सही है कि यह जरूरी नहीं है कि हर आदमी सभी भाषाएं जाने. पर यह तो जरूरी है कि वह सही बोले या लिखे. यह जिम्मेदारी मीडिया पर है. और मीडिया इतना तो कर ही सकता है कि वह जनता को सही नाम बताए.

इंग्लिश का सहारा ले कर कब तक जीना चाहेंगे. इंग्लिश अखबारों तक ने ‘कानपुर’ की स्पैलिंग ‘सी’ के बजाय ‘के’ से लिखनी शुरू कर दी है. ‘गंगा’ को वे पहले की तरह ‘गैंजेस’ नहीं लिखते. ‘मथुरा’ को ‘मुथरा’ नहीं लिखा जाता. अगर इंग्लिश को ही दोष देना है तो उस में ‘मनोरंजन दास’ को ‘एंटरटेनमैंट स्लेव’ लिखना चाहिए. पर ‘रवि किरण’ को ‘सन रे’, ‘वीर सिंह’ को ‘ब्रेव लौयन’ नहीं लिखा जाता.

जब इंग्लिश मीडिया ने भारतीय नामों को स्वीकार कर लिया है तो हिंदीमराठी मीडिया को भी सही नाम लिखने में झिझक नहीं होनी चाहिए. इस के लिए मानक तय होने चाहिए ताकि उत्तर भारत के आदमी को दक्षिण भारत वाले जानवर न समझें और न ही दक्षिण भारत का कोई आदमी उत्तर भारत में अजूबे की तरह लिया जाए. लेकिन जो लोग ‘भारत’ को ‘इंडिया’ बना कर अपनी गरदन ऊंची कर सकते हैं उन से यह उम्मीद नहीं की जा सकती.

अधूरे जवाब: क्या अपने प्यार के बारे में बता पाएगी आकांक्षा?

कहानी- संदीप कुमरावत

कैफे की गैलरी में एक कोने में बैठे अभय का मन उदास था. उस के भीतर विचारों का चक्रवात उठ रहा था. वह खुद की बनाई कैद से आजाद होना चाहता था. इसी कैद से मुक्ति के लिए वह किसी का इंतजार कर रहा था. मगर क्या हो यदि जिस का अभय इंतजार कर रहा था वह आए ही न? उस ने वादा तो किया था वह आएगी. वह वादे तोड़ती नहीं है…

3 साल पहले आकांक्षा और अभय एक ही इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ते थे. आकांक्षा भी अभय के साथ मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही थी, और यह बात असाधारण न हो कर भी असाधारण इसलिए थी क्योंकि वह उस बैच में इकलौती लड़की थी. हालांकि, अभय और आकांक्षा की आपस में कभी हायहैलो से ज्यादा बात नहीं हुई लेकिन अभय बात बढ़ाना चाहता था, बस, कभी हिम्मत नहीं कर पाया.

एक दिन किसी कार्यक्रम में औडिटोरियम में संयोगवश दोनों पासपास वाली चेयर पर बैठे. मानो कोई षड्यंत्र हो प्रकृति का, जो दोनों की उस मुलाकात को यादगार बनाने में लगी हो. दोनों ने आपस में कुछ देर बात की, थोड़ी क्लास के बारे में तो थोड़ी कालेज और कालेज के लोगों के बारे में.

फिर दोनों की मुलाकात सामान्य रूप से होने लगी थी. दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई थी. मगर फिर भी आकांक्षा की अपनी पढ़ाई को ले कर हमेशा चिंतित रहने और सिलेबस कम्पलीट करने के लिए हमेशा किताबों में घुसे रहने के चलते अभय को उस से मिलने के लिए समय निकालने या परिस्थितियां तैयार करने में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती थी. पर वह उस से थोड़ीबहुत बात कर के भी खुश था.

दोस्ती होते वक्त नारी सौंदर्य के प्रखर तेज पर अभय की दृष्टि ने भले गौर न किया हो पर अब आकांक्षा का सौंदर्य उसे दिखने लगा था. कैसी सुंदरसुंदर बड़ीबड़ी आंखें, सघन घुंघराले बाल और दिल लुभाती मुसकान थी उस की. वह उस पर मोहित होने लगा था.

शुरुआत में आकांक्षा की तारीफ करने में अभय को हिचक होती थी. उसे तारीफ करना ही नहीं आता था. मगर एक दिन बातों के दौरान उसे पता चला कि आकांक्षा स्वयं को सुंदर नहीं मानती. तब उसे आकांक्षा की तारीफ करने में कोई हिचक, डर नहीं रह गया.

आकांक्षा अकसर व्यस्त रहती, कभी किताबों में तो कभी लैब में पड़ी मशीनों में. हर समय कहीं न कहीं उलझी रहती थी. कभीकभी तो उसे उस के व्यवहार में ऐसी नजरअंदाजगी का भाव दिखता था कि अभय अपमानित सा महसूस करने लगता था. वह बातें भी ज्यादा नहीं करती थी, केवल सवालों के जवाब देती थी.

अपनी पढ़ाई के प्रति आकांक्षा की निष्ठा, समर्पण और प्रतिबद्धता देख कर अभय को उस पर गर्व होता था, पर वह यह भी चाहता था कि इस तकनीकी दुनिया से थोड़ा सा अवकाश ले कर प्रेम और सौहार्द के झरोखे में वह सुस्ता ले, तो दुनिया उस के लिए और सुंदर हो जाए. बहुत कम ऐसे मौके आए जब अभय को आकांक्षा में स्त्री चंचलता दिखी हो. वह स्त्रीसुलभ सब बातों, इठलाने, इतराने से कोसों दूर रहा करती थी. आकांक्षा कहती थी उसे मोह, प्रेम या आकर्षण जैसी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं. उसे बस अपने काम से प्यार है, वह शादी भी नहीं करेगी.

अचानक ही अभय अपनी खयालों की दुनिया से बाहर निकला. अपनेआप में खोया अभय इस बात पर गौर ही नहीं कर पाया कि आसपास ठहाकों और बातचीतों का शोर कैफे में अब कम हो गया है.

अभय ने घड़ी की ओर नजर घुमाई तो देखा उस के आने का समय तो कब का निकल चुका है, मगर वह नहीं आई. अभय अपनी कुरसी से उठ कैफे की सीढि़यां उतर कर नीचे जाने लगा. जैसे ही अभय दरवाजे की ओर तेज कदमों से बढ़ने लगा, उस की नजर पास वाली टेबल पर पड़ी. सामने एक कपल बैठा था. इस कपल की हंसीठिठोलियां अभय ने ऊपर गैलरी से भी देखी थीं, लेकिन चेहरा नहीं देख पाया था.

लड़कालड़की एकदूसरे के काफी करीब बैठे थे. दोनों में से कोई कुछ नहीं बोल रहा था. लड़की ने आंखें बंद कर रखी थीं मानो अपने मधुरस लिप्त होंठों को लड़के के होंठों की शुष्कता मिटा वहां मधुस्त्रोत प्रतिष्ठित करने की स्वीकृति दे रही हो.

अभय यह नजारा देख स्तब्ध रह गया. उसे काटो तो खून नहीं, जैसे उस के मस्तिष्क ने शून्य ओढ़ लिया हो. उसे ध्यान नहीं रहा कब वह पास वाली अलमारी से टकरा गया और उस पर करीने से सजे कुछ बेशकीमती कांच के मर्तबान टूट कर बिखर गए.

इस जोर की आवाज से वह कपल चौंक गया. वह लड़की जो उस लड़के के साथ थी कोई और नहीं बल्कि आकांक्षा ही थी. आकांक्षा ने अभय को देखा तो अचानक सकते में आ गई. एकदम खड़ी हो गई. उसे अभय के यहां होने की बिलकुल उम्मीद नहीं थी. उसे समझ नहीं आया क्या करे. सारी समझ बेवक्त की बारिश में मिट्टी की तरह बह गई. बहुत मुश्किलों से उस के मुंह से सिर्फ एक अधमरा सा हैलो ही निकल पाया.

अभय ने जवाब नहीं दिया. वह जवाब दे ही नहीं सका. माहौल की असहजता मिटाने के आशय से आकांक्षा ने उस लड़के से अभय का परिचय करवाने की कोशिश की. ‘‘साहिल, यह अभय है, मेरा कालेज फ्रैंड और अभय, यह साहिल है, मेरा… बौयफ्रैंड.’’ उस ने अंतिम शब्द इतनी धीमी आवाज में कहा कि स्वयं उस के कान अपनी श्रवण क्षमता पर शंका करने लगे.  अभय ने क्रोधभरी आंखें आकांक्षा से फेर लीं और तेजी से दरवाजे से बाहर निकल गया.

आकांक्षा को कुछ समझ नहीं आया. उस ने भौचक्के से बैठे साहिल को देखा. फिर दरवाजे से निकलते अभय को देखा और अगले ही पल साहिल से बिना कुछ बोले दरवाजे की ओर दौड़ गई. बाहर आ कर अभय को आवाज लगाई. अभय न चाह कर भी पता नहीं क्यों रुक गया.

आधी रात को शहर की सुनसान सड़क पर हो रहे इस तमाशे के साक्षी सितारे थे. अभय पीछे मुड़ा और आकांक्षा के बोलने से पहले उस पर बरस पड़ा, ‘‘मैं ने हर पल तुम्हारी खुशियां चाहीं, आकांक्षा. दिनरात सिर्फ यही सोचता था कि क्या करूं कि तुम्हें हंसा सकूं. तमाम कोशिशें कीं कि गंभीरता, कठोरता, जिद्दीपन को कम कर के तुम्हारी जिंदगी में थोड़ी शरारतभरी मासूमियत के लिए जगह बना सकूं. तुम्हें मझधार के थपेड़ों से बचाने के लिए मैं खुद तुम्हारे लिए किनारा चाहता था. मगर, मैं हार गया. तुम दूसरों के साथ हंसती, खिलखिलाती हो, बातें करती हो, फिर मेरे साथ यह भेदभाव क्यों? तकलीफ तो इस बात की है कि जब तुम्हें किनारा मिल गया तो मुझे बताना भी जरूरी नहीं समझा तुम ने. क्यों आकांक्षा?’’

आकांक्षा अपराधी भाव से कहने लगी, ‘‘मैं तुम्हें सब बताने वाली थी. तुम्हें ढेर सारा थैंक्यू कहना चाहती थी. तुम्हारी वजह से मेरे जीवन में कई सारे सकारात्मक बदलावों की शुरुआत हुई. तुम मुझे कितने अजीज हो, कैसे बताऊं तुम्हें. तुम तो जानते ही हो कि मैं ऐसी ही हूं.’’

आकांक्षा का बोलना जारी था, ‘‘तुम ने कहा, मैं दूसरों के साथ हंसती, खिलखिलाती हूं. खूब बातें करती हूं. मतलब, छिप कर मेरी जासूसी बड़ी देर से चल रही है. हां, बदलाव हुआ है. दरअसल, कई बदलाव हुए हैं. अब मैं पहले की तरह खड़ ूस नहीं रही. जिंदगी के हर पल को मुसकरा कर जीना सीख लिया है मैं ने. तुम्हारा बढ़ा हाथ है इस में, थैंक्यू फौर दैट. और तुम भी यह महसूस करोगे मुझ से अब बात कर के, अगर मूड ठीक हो गया हो तो.’’ अब वह मुसकराने लगी.

अभय बिलकुल शांत खड़ा था. कुछ नहीं बोला. अभय को कुछ न कहते देख आकांक्षा गंभीर हो गई. कहने लगी, ‘‘तुम्हें तो खुश होना चाहिए. तुम मेरे नीरस जीवन में प्यार की मिठास घोलना चाहते थे तो अपनी ही इच्छा पूरी होने पर इतने परेशान क्यों हो गए? मुझे साहिल के साथ देख कर इतना असहज क्यों हो गए? मेरे खिलाफ खुद ही बेवजह की बेतुकी बातें बना लीं और मुझ से झगड़ रहे हो. कहीं…’’ आकांक्षा बोलतेबोलते चुप हो गई.

इतना सुन कर भी अभय चुप ही रहा. आकांक्षा ने अभय को चुप देख कर एक लंबी सांस लेते हुए कहा, ‘‘तुम ने बहुत देर कर दी, अभय.’’

यह सुन कर उस के पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई. हृदय एक अजीब परंतु परिपूर्ण आनंद से भर गया. उस का मस्तिष्क सारे विपरीत खयालों की सफाई कर बिलकुल हलका हो गया. ‘तुम ने बहुत देर कर दी, अभय,’ इस बात से अब वह उम्मीद टूट चुकी थी जिसे उस ने कब से बांधे रखा था. लेकिन, जो आकांक्षा ने कहा वह सच भी तो था. वह न कभी कुछ साफसाफ बोल पाया न वह समझ पाई और अब जब उसे जो चाहिए था मिल ही गया है तो वह क्यों उस की खुशी के आड़े आए.

अभय ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘कम से कम मुझ से समय से मिलने तो आ जातीं.’’ यह सुन कर आकांक्षा हंसने लगी और बोली, ‘‘बुद्धू, हम कल मिलने वाले थे, आज नहीं.’’ अभय ने जल्दी से आकांक्षा का मैसेज देखा और खुद पर ही जोरजोर से हंसने लगा.

एक झटके में सबकुछ साफ हो गया और रह गया दोस्ती का विस्तृत खूबसूरत मैदान. आकांक्षा को वह जितना समझता है वह उतनी ही संपूर्ण और सुंदर है उस के लिए. उसे अब आज शाम से ले कर अब तक की सारी नादानियों और बेवकूफीभरे विचारों पर हंसी आने लगी. उतावलापन देखिए, वह एक दिन पहले ही उस रैस्टोरैंट में पहुंच गया था जबकि उन का मिलना अगले दिन के लिए तय था.

अभय ने कुछ मिनट लिए और फिर मुसकरा कर कहा, ‘‘जानबूझ कर मैं एक दिन पहले आया था, माहौल जानने के लिए आकांक्षा, यू डिजर्व बैटर.’’

एक बाती बुझती हुई: बसंती ने कैसे निभाया अपना फर्ज?

‘‘माताजी, मैं जाऊं,’’ माताजी का सिर सहलाते बसंती ने पूछा तो वे क्षीण स्वर में बोलीं, ‘‘अभी मत जा…’’

बीमारी ने माताजी का शरीर जर्जर और मस्तिष्क कुंद कर दिया था. पिछले सवा साल से वे बिस्तर पर थीं. पहले जबान लड़खड़ाई, फिर कदम बेजान हो गए तो वे बिस्तर की हो कर रह गईं. जब तक वे थोड़ाबहुत चल पाती थीं, यही बसंती बाथरूम तक जाने में उन की मदद कर देती थी. उन का दिमाग ठीक था तो वे बसंती के हाथ में कुछ न कुछ रख देती थीं. कभी रुपए, कभी साड़ी, कभी कुछ और यानी उसे कभी खाली हाथ नहीं जाने देतीं. वे सोचतीं किस के लिए जोड़ना है. अब जो उन की सेवा कर दे, उसी को दे दें.

बसंती उन के घर में पिछले 20 साल से काम कर रही थी. उन की दोनों बहुएं भी उसी के सामने आई थीं. खुद बसंती भी तब 20 की थी अब 40 की हो गई थी.

बसंती भी कितनी देर तक रहती. दूसरे वह कई घरों में काम भी करती थी. धीरेधीरे माताजी इस लायक भी नहीं रह गईं कि अलमारी से निकाल कर उसे कुछ दे सकें. फिर भी बसंती उन का काम कर देती थी. घर में 2 बेटे, 2 बहुएं थीं. बेटों का अपनी बीवियों को नौकरी करने के लिए मना करने पर, माताजी की जिद व प्रयासों से वे नौकरी कर पाई थीं लेकिन आज जब वे बिस्तर की हो कर रह गईं तो बहुएं उन के कमरे में झांकती भी नहीं थीं. छोटी बहू आ कर दवाइयां सामने रख जाती थी…जब तक वे खुद खा पातीं, खा लेती थीं. जब नहीं खा पाईं तब बसंती का इंतजार करतीं. बड़ी बहू बेमन से भोजन की थाली रख जाती.

माताजी के कपड़े जब मलमूत्र से गंदे हो जाते तो उन्हें वैसे ही रह कर बसंती का इंतजार करना पड़ता. बहुएं कमरे में दवाई और खाना रखने आतीं तो बदबू के मारे नाकभौं सिकोड़ कर चली जातीं. बसंती सुबहशाम तो उन की सफाई कर देती पर दिनभर तो वह नहीं रहती थी. वे अकेले ही घर में पड़ी रहतीं. बहूबेटे घर पर ताला लगा कर चले जाते.

जिन नातेरिश्तेदारों से घर हमेशा भरा रहता था, जीवन के इस अंतिम समय में जैसे उन्होंने भी मुंह फेर लिया. कमरे की दुर्गंध की वजह से वे दरवाजे से झांक कर चले जाते. बीमारी की वजह से उन की याददाश्त कमजोर हो गई थी. इसलिए वे कुछ को पहचान पातीं, कुछ को नहीं. उन के मन में बारबार यही आता कि इस जीवन से तो अच्छी मौत है.

उन की इस दुर्गति को देख कर बेटों का दिल पसीजा तो दोनों ने मिल कर उन के लिए एक नर्स का प्रबंध र दिया. चूंकि बैंक में उन का थोड़ाबहुत पैसा पड़ा था इसलिए कोई दिक्कत नहीं थी.

‘‘ठीक से देखभाल करना माताजी की…कोई शिकायत का मौका न देना,’’ बड़ा बेटा बोला.

‘‘जी, साब,’’ नर्स बोली.

छोटा बेटा आनेजाने वाले रिश्तेदारों से कहता, ‘‘हमें माताजी की बहुत चिंता रहती है, इसलिए नर्स रख दी है…’’

‘‘बहुत कर रहे हो…’’ रिश्तेदार कहते.

दिनभर घर में कोई नहीं रहता. नर्स सुबह सफाई करती और शाम को सब के घर आने से पहले कर देती, बाकी समय कुरसी पर बैठी या तो पत्रिका पढ़ती या स्वेटर बुनती रहती. बसंती इधरउधर से काम निबटा कर माताजी को देखने पहुंच जाती. कमरे में पहुंचती तो नर्स को अपनेआप में ही व्यस्त पाती.

‘‘गंध आ रही है, कहीं माताजी ने पौटी तो नहीं कर दी.’’

‘‘पता नहीं, अभी तो साफ की थी… माताजी को भी चैन नहीं…जब देखो, तब कपड़े खराब करती रहती हैं…सारा दिन यही काम है…’’

बसंती को देख कर माताजी की अधखुली आंखों में चमक आ जाती. वे किसी को पहचानें न पहचानें पर बसंती को अवश्य पहचान जातीं. जिंदगी भर शान से जीने वाली माताजी, एक नर्स की डांट खा कर, सहम कर और भी सिकुड़ जातीं.

‘‘देखो, पेशाब की थैली भर गई… गिर जाएगी…ये भी खाली नहीं की तुम ने…’’ बसंती नर्स को उस के काम की याद दिलाती.

‘‘तुझे क्या मतलब है,’’ नर्स तिलमिला कर कहती, ‘‘घर की मालकिन है क्या…मुझ से सवालजवाब करती रहती है…यह मेरा काम है, मैं देख लूंगी…’’

इतने में बसंती माताजी को पलटा कर देखने लग जाती तो पाती माताजी पूरी तरह गंदगी में सनी हुई हैं. नर्स वापस लौटती तो बसंती को चुपचाप सफाई करते हुए पाती. बसंती के चेहरे पर गुस्सा होता. पर जानती थी अभी कुछ बोलेगी तो झगड़ा हो जाएगा. बसंती को सफाई करते देख, नर्स को थोड़ा शर्मिंदगी का एहसास होता और वह कहती, ‘‘अभी तो सफाई की थी, फिर कर दी होगीं.’’

साब लोगों से बसंती नर्स की शिकायत नहीं कर पाती. सोचती दिनभर घर में कोई रहता नहीं है. डांट पड़ने पर नर्स भी भाग गई तो इस सूने घर में माताजी के साथ कोई भी न रहेगा. बसंती का हृदय माताजी के लिए करुणा से भर जाता.

इन बड़ीबड़ी महलनुमा कोठियों में ऐसा ही होता है. कई घरों का हाल देख चुकी है बसंती, बेटेबहुएं बड़ीबड़ी नौकरी करते हैं और दिनभर घर से गायब रहते हैं. बच्चे पढ़ने के लिए बाहर चले जाते हैं और बुजुर्ग इसी तरह एक कमरे में, बिस्तर पर अकेले पड़े हुए मौत का इंतजार करते हैं.

दिन बीतते जा रहे थे. धीरेधीरे माताजी की आवाज भी कम होने लगी. वे कभीकभार ही कुछ शब्द बोल पातीं, लेकिन बसंती को देख कर अभी भी उन की आंखें चमक जातीं और उन के होंठों के हिलने से लगता कि वे बसंती से कुछ बोल रही हैं. लेटेलेटे माताजी के पीछे की तरफ घाव होने लगे तो बसंती ने हिम्मत कर के छोटी बहू से कह दिया, ‘‘बहूजी, माताजी की पीठ में घाव होने लगे हैं…डाक्टर को दिखा दो…’’

‘‘वे तेरी सास हैं या मेरी…बड़ी फिक्र पड़ी है तुझे…’’ छोटी बहू कड़कती हुई बोलीं.

‘‘बहूजी, मैं तो सिर्फ बता रही थी.’’

‘‘तू ने कब देखा…नर्स ने तो कुछ नहीं बताया…नर्स किसलिए रखी है…अपनेआप देखेगी वह…सारा दिन लेटी रहती हैं, घाव तो होंगे ही…अब इस से ज्यादा कोई क्या करे…फुलटाइम नर्स तो रख दी है…’’

‘‘लेकिन बहूजी, सेवा तो अपने हाथ से होती है…आप लोग तो घर में रहते नहीं हो…नर्स थोड़े ही इतना करेगी,’’ बसंती किसी तरह हिम्मत कर बोल गई.

तभी बड़ी बहू बीच में बोल पड़ी, ‘‘तू जरा कम बोला कर और अपने काम पर ध्यान ज्यादा दिया कर.’’

‘‘अपने काम पर तो ध्यान देती हूं,’’ बसंती धीरेधीरे बुदबुदाती हुई अपने काम पर लग गई. फिर एक दिन बसंती से न रहा गया इसलिए बोल पड़ी :

‘‘बहूजी, आप जो खाना रख कर जाती हो वैसे ही पड़ा रहता है…माताजी से सब्जीरोटी कहां खाई जाती होगी, कुछ जूस, सूप, दलिया, खिचड़ी आदि बना दिया करो न उन के लिए…’’

‘‘हां, कई नौकर लगे हैं न यहां…और कोई काम तो है नहीं हमारे पास…सिवा एक काम के…’’ दोनों बहुएं एकसाथ बड़बड़ाने लगतीं और बसंती चुपचाप माताजी के क्षीण होते शरीर को देखती रहती.

माताजी के बैडसोर बड़े होने लगे थे. नर्स घावों की सफाई भी ठीक से नहीं करती, ऊपर से माताजी का पेट चलता तो दवाई भी ठीक से न दे पाती. कमरा सड़ांध से भरा रहता और बसंती उन की दुर्दशा पर चुपचाप आंसू बहाती रहती.

उस ने माताजी का वह समय देखा था, जब यहां काम करना शुरू किया था. तब वह माताजी को देख कर कितनी हुलसित हो जाती थी. कितनी शानदार लगती थीं माताजी तब…क्या शरीर था उन का… ममतामयी माताजी उसे बहुत ही अच्छी लगतीं. तब साहब भी जिंदा थे. पूरे घर की बागडोर माताजी के हाथ में थी. उन के दोनों बेटे उस के देखतेदेखते ही बड़े हुए थे.

उस के कितने ही सुखदुख में माताजी ने उस का साथ दिया और बदले में वह भी माताजी के पूरे काम आती. कितना देती- करती थीं माताजी उसे…उस के बच्चे बीमार पड़ते तो बिना काम के भी उसे रुपए पकड़ा देतीं. वह अपने शराबी आदमी से परेशान होती तो माताजी उसे धैर्य बंधातीं…सास के तानों से तारतार होती तो माताजी उसे पास बिठा कर समझातीं और इसी तरह उस की जीवन नैया पार लगी. आज बसंती के खुद के बच्चे भी बड़े हो गए हैं.

आज उन्हीं माताजी को तिलतिल कर मरते देख वह कुछ नहीं कर पा रही थी. हां, इतना जरूर था कि वह जब होती तो नर्स के साथ लग जाती. जब नहीं होती तो नर्स क्या करती, क्या नहीं करती वह नहीं जानती थी. एक दिन जब बसंती काम निबटा कर माताजी को देखने पहुंची तो कमरे से माताजी की कराहने की आवाज आ रही थी और नर्स की फोन पर बात करने की. वह कमरे में गई तो देखा, माताजी उघड़े बदन आधीअधूरी सफाई में वैसे ही ठंड में पड़ी हैं और नर्स फोन पर बात कर रही है. बसंती को देख कर उस ने फोन बंद कर दिया.

‘‘तुम काम छोड़ फोन पर बात कर रही हो और माताजी उघड़े बदन पड़ी हैं… उन्हें ठंड नहीं लग रही होगी,’’ बसंती का चेहरा गुस्से से तमतमा गया.

‘‘कर तो रही थी पर बीच में कोई फोन आ जाए तो क्या न उठाऊं.’’

‘‘तुम्हें यहां तनख्वाह माताजी का काम करने की मिलती है…फोन पर बात करने की नहीं…’’ बसंती अपने गुस्से को रोक नहीं पा रही थी.

‘‘तू जरा जबान संभाल कर बात किया कर…तू नहीं देती है मुझे तनख्वाह…’’

‘‘हां…जो तनख्वाह देते हैं, उन्हें तो पता नहीं कि तू क्या करती है…आज तो मैं कह कर रहूंगी.’’

‘‘जा…जा…कह दे, बहुत देखे तेरे जैसे…’’

नर्स भी कहां चुप रहने वाली थी. उस अकेले घर में बिस्तर पर असहाय बीमार पड़ी माताजी के सामने बसंती व नर्स की तूतू, मैंमैं होती रही. बसंती का मन उस दिन बहुत खराब हो गया. उस ने सोच लिया था कि अब चाहे काम छूटे या डांट पड़े, उसे माताजी के बहूबेटों को सबकुछ बताना ही पड़ेगा. रात भर वह सो न सकी. दूसरे दिन जब काम पर आई तो बड़ी बहू से बोली :

‘‘बहूजी, आप दोनों रहती नहीं…नर्स माताजी की ठीक तरह से देखभाल नहीं करती…’’

‘‘तो क्या करें अब…तू फिर शुरू हो गई…’’ बड़ी बहू को यह टौपिक बिलकुल भी पसंद नहीं था.

‘‘आप दोनों बारीबारी से छुट्टियां ले कर माताजी की देखभाल कर लो बहूजी…पुण्य लगेगा…अब…खाना तक तो छूट गया उन का…नर्स रखने भर से बुजुर्गों की सेवा नहीं होती. कितना प्यार दिया है माताजी ने आप लोगों को…इस समय उन्हें आप दोनों की बहुत जरूरत है,’’ स्वर में यथासंभव मिठास ला कर बसंती बोली.

‘‘तू हमें सिखाने चली है,’’ बड़ी बहू को गुस्सा आ गया, ‘‘बकवास बंद कर और अपना काम कर…और हां, अपनी औकात में रह कर बात किया कर…’’

‘‘ठीक है बहूजी…20 साल हो गए हैं आप के घर में काम करते हुए…माताजी ने कभी ऐसी तीखी बात नहीं कही…हमारी औकात ही क्या है…वह तो माताजी की ममता हमारे सिर चढ़ कर बोल जाती है, हम नहीं देख पाते हैं उन की यह दुर्दशा… आप कोई दूसरी ढूंढ़ लो…मुझ से नहीं हो पाएगा अब आप के घर का काम,’’ कह कर बसंती काम छोड़ कर चली गई.

अगले दिन उन्होंने दूसरी काम वाली ढूंढ़ ली. बसंती ने काम पर जाना तो छोड़ दिया लेकिन माताजी को देखने के लिए उस का दिल तड़पता रहता पर अब किस मुंह से जाए, मन ही मन तड़पती रह जाती. नर्स की तो अब और भी मनमानी हो गई. माताजी मृत्यु के थोड़ा और करीब पहुंच गई थीं.

एक दिन के लिए बोल कर नर्स छुट्टी पर गई तो दूसरे दिन भी नहीं आई. माताजी का कमरा ऐसा भभका मार रहा था कि दरवाजे पर खड़ा होना भी मुश्किल था. बहुओं ने, गंध बाहर न आए, इसलिए कमरे का दरवाजा बंद कर दिया. शाम को बेटे घर आए तो अपनी बीवियों से पूछा :

‘‘नर्स आई थी आज…’’

‘‘नहीं…’’

‘‘तो क्या, मां वैसे ही पड़ी हैं अब तक…किसी ने सफाई नहीं की…खाना नहीं खिलाया…’’

‘‘कौन करता सफाई…’’ बहुएं चिढ़ गईं.

‘‘अरे, बसंती को ही जा कर बुला लाते…मां के लिए वह आ जाती…’’

‘‘कौन बुलाता उस नकचढ़ी को… कैसे पैर पटक कर काम छोड़ कर गई थी… हम से न हो पाएगा यह सब…’’

बीवियों से भिड़ना बेकार था, यह दोनों बेटे जानते थे. बड़ा बेटा बसंती के घर गया और उसे बुला लाया.

माताजी का नाम सुन कर बसंती ने आने में एक पल भी नहीं लगाया. बहुओं ने उसे देख कर मुंह फेर लिया. बसंती ने पूरे मनोयोग से माताजी की सफाई की. गीले तौलिए से पूरे शरीर को पोंछा, मालिश की. उन की चादर और कपड़े बदले और सारे कपड़े धो कर सुखाने डाल दिए. फिर माताजी के लिए पतली खिचड़ी बनाई और मनुहार से खिलाई. बसंती के प्यारमनुहार से माताजी ने 1-2 चम्मच खिचड़ी खा ली.

बसंती को आज माताजी की हालत और दिनों से भी गिरी हुई लगी. अनुभवी आंखें समझ गईं कि माताजी कल का सूरज शायद ही देख पाएंगी. इसलिए वह बड़े बेटे से बोली :

‘‘साब, नर्स नहीं है तो आज रात मैं यहीं रुक जाती हूं…बहूबेटे खुश हो गए. रात बसंती माताजी के कमरे में सो गई. बसंती को सामने देख कर माताजी भी चैन से सो गईं. उन के सोने के बाद बसंती भी लेट गई.’’

सुबह माताजी की खांसी की आवाज सुन कर बसंती की नींद टूट गई. उन की इकहरी होती सांसों को सुन कर बसंती चौंक गई. भाग कर बहूबेटों का दरवाजा खटखटा आई और माताजी का सिर अपनी गोद में रख लिया. सांस लेतेलेते माताजी ने निरीह नजरों से अपने बेटेबहुओं को देखा, फिर बसंती के चेहरे पर जा कर उन की नजर टिक गई. उन का मुंह हलका सा कुछ बोलने को खुला और प्राणपखेरू उड़ गए. बसंती का विलाप उस बड़ी कोठी के बाहर भी सुनाई दे रहा था. दूसरे दिन माताजी की अंतिम यात्रा का प्रबंध हो गया. रिश्तेदार आए. बहूबेटों ने छुट्टी ली और पूरी औपचारिकता निभाई. शाम को बसंती जाने लगी तो बहुओं ने उस के काम के रुपए ला कर उस के हाथ में रख दिए.

‘‘यह क्या है?’’ बसंती ने पूछा.

‘‘तुम्हारे काम का पैसा है…माताजी तुम को बहुत चाहती थीं. इसलिए ज्यादा ही दिया है.’’

‘‘बहूजी…’’ बसंती कसैले स्वर में बोली, ‘‘माताजी तो मेरी अन्नदाता थीं… बहुत दिया है उन्होंने हमें जिंदगी भर…हम उन के प्यार का कर्ज तो कभी नहीं उतार पाएंगे…माताजी के लिए किए काम का हमें कुछ नहीं चाहिए…उन का आशीष मिल गया हमें…आखिरी समय उन के मुंह में अन्नजल डाल पाए…हमारे लिए यही बहुत है…यह रुपया आप संभाल कर रख लो…जब आप लोग बुढ़ापे में इस बिस्तर पर पड़ोगे, तब आया को देने के काम आएंगे…’’

यह कह सुबकती हुई बसंती, गुस्से में दनदनाती चली गई और एक अनपढ़, साधारण नौकरानी की बात को मन ही मन तोलते, चारों उच्च शिक्षित, तथाकथित सभ्य समाज के कर्णधार भौचक्के से खड़े एकदूसरे की शक्ल देखते रह गए.

वो एक लड़की: जिस लड़की से वह बेतहाशा प्यार करती थी

अब इस की हत्या के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं बचा मेरे पास. मैं क्या करूं, कुछ समझ नहीं पा रही हूं. इस मामले से छुटकारा पाने का बस एक ही तरीका दिख रहा है कि इस लड़की की हत्या कर दी जाए. मैं इस लड़की को अच्छी तरह से जान गई हूं. हल्ला मचा रखा है इस ने बैगन की सब्जी खाने के लिए. उस दिन मेरे औफिस में मेरी सहेली ने मुझे बैगन की सब्जी ला कर दी. बैगन मुझे बिलकुल पसंद नहीं हैं… बैगन यानी बेगुण. बचपन मेें हम अपनी कक्षा की एक सांवली लड़की रामकली को ऐसे ही चिढ़ाया करते थे- कालीकलूटी, बैगन लूटी.

मैं ने बहुत झिझकते हुए बैगन लिए थे, जबकि बैगन की सब्जी वास्तव में देखने में बहुत अच्छी दिख रही थी. बिलकुल ताजगी से भरी, जबकि जब भी मैं बैगन बनाती हूं तो वे बनने के बाद बिलकुल सिकुड़ जाते हैं. ठीक है, बैगन बहुत खूबसूरत दिख रहे थे पर खाने में तो बेस्वाद और कसैले ही होंगे न.

वैसे आप को बताऊं यदि मेरा बस चले तो मैं यह सब्जी कभी बनाऊं ही नहीं पर क्या करूं. घर में बाकी सब इसे बड़े शौक से खाते हैं और मैं भी मन मार के खा ही लेती हूं. अब कौन अपने लिए अलग से कुछ बनाए.

अरे मैं भी कहां की कहां पहुंच गई. हां तो जब मैं ने अपनी सहेली के बनाए बैगन झिझकते हुए खाए तो इतने स्वादिष्ठ लगे कि मैं पूरा डब्बा ही चट कर गई. बस मुझ से गलती यह हुई कि मैं ने इस लड़की को भी वह सब्जी खिला दी. कमबख्त बिना मुझे बताए मेरी सहेली से बैगन बनाने की पूरी विधि सीख आई.

तब से यह लड़की रोज मेरे पीछे पड़ी है. कहती है दीदी बैगन तो फ्रिज में रखे ही हैं. चलो बनाते हैं और तो और मेरी बचत के पैसों से गोडा मसाला भी खरीद लाई. पूरे क्व50 का. इस महंगाई के जमाने में जब अपने बच्चों की जरूरतें भी पूरी नहीं होतीं तो ऐसे में इस कमबख्त की जुर्रत तो देखिए.

मैं रोज इसे बहला रही हूं कि चल आज बच्चों की पसंद के भरवां बैगन बना लेते हैं या पति की पंसद के इमली दाल वाले बैगन बना लेते हैं पर यह कपटी लड़की मुझ से मनुहार करती है कि नहीं दीदी वैसे वाले बैगन बनाओ न जैसे आशा ने बनाए थे. अब बताइए सब की फरमाइशें पूरी करने के लिए मैं समय कहां से लाऊं.

मैं ने आप से बताया नहीं इस के बारे में अभी तक. मुझ से भूल हुई कि शादी के बाद मैं इसे भी अपने साथ ले आई ससुराल में. तूफान मचा रखा है इस ने मेरी जिंदगी में. जरा भी कहना नहीं मानती मेरा. क्याक्या बताऊं आप को इस के बारे में. मेरी तो जगहंसाई कराती है. कभी सड़क पर यह ऊंट सी लड़की गुनगुनाने लगती है तो कभी बच्चों की तरह किसी को भी देख कर बिना वजह मुसकराने लगती है.

तंग आ गई हूं इस से. मरी के अंदर कोलंबस कौंप्लैक्स भरा पड़ा है. नएनए रास्तों पर मुझे भी घुमा लाती है. बीच सड़क पर किसी से भी बतियाने लगती है. मुझ सदगृहस्थन की इतनी बदनामी कराती है. बहुत समझाया कि अच्छी लड़कियों की तरह सलीके से रह पर यह सुनती ही नहीं.

अब मैं इस की हत्या की योजना बना रही हूं. मरना ही होगा इसे. एक म्यान में एक ही तलवार रह सकती है. इस घर में या तो यह रहेगी या मैं. यह सोचते ही मेरे मन में ठंडक सी पड़ जाती है. यह जीएगी तो मैं रोज मरती रहूंगी और यह जब मर जाएगी तो मैं चैन की जिंदगी जी सकूंगी. आज बस इस की जिंदगी का आखिरी दिन होगा. कल से इस की आवाज भी नहीं सुननी पड़ेगी मुझे और इस की हत्या ऐसे करूंगी कि किसी को कानोंकान खबर भी नहीं पड़ेगी.

चलो इस के पहले मैं उस जी के जंजाल बैगन को बच्चों के पसंदीदा ढंग से बना कर चलता करूं. पड़ेपड़े मुरझा रहे हैं. कहीं इस नासपीटी ने मुझे देख लिया तो कहर ढाएगी कि वैसे वाले बैगन बनाओ. वैसे वाले…

मैं रसोई में पहुंची ही थी कि यह नासपीटी खिलखिलाती हुई मेरे पीछेपीछे आ पहुंची. बोली कि दीदी आज तो इतवार है. अब तो बनाओ न वैसे वाले बैगन. कैसे समझाऊं इस नासपीटी को कि हम कामकाजी औरतों का कौन सा इतवार होता है.

छुट्टी के दिन तो दोगुना काम होता है हमें. बच्चों की पसंद का, पति की पसंद का नाश्ता, खाना बनाओ, हफ्तेभर के पैंडिंग काम करो. सांस लेने की भी फुरसत नहीं मिलती. मैं झुंझला उठी. मेरा गुस्सा चरम सीमा पर पहुंच गया. पगली ने अपनी मौत को खुद न्योता दिया है.

मैं सिलबट्टे से इस का सिर फोड़ने जा ही रही थी कि इस ने पीछे से आ कर मेरे मुंह में कपड़ा ठूंस दिया. जकड़ दिया मेरे हाथपैरों को रस्सी से. मैं फटी आंखों से देखती रही… अपने मन की कर ही ली इस ने. बना ही लिए इस ने वैसे वाले बैगन जिस के लिए हफ्ते भर से किचकिच कर रही थी.

बैगन बना कर न केवल तसल्ली से उंगलियां चाटचाट कर खाए इस ने बल्कि मुझे भी जबरदस्ती खिला दिए. इस को खिलखिलाते देख कर में चौंक गई. आज तो मुझे इसे मार डालना था पर यहां तो सब उलटा पड़ गया. इस ने बड़ी चतुराई से खुद को भी बचा लिया और मुझे भी जिंदा छोड़ दिया.

यह लड़की मुझ से जीत गई. मेरी आंखें भर आईं… मैं कहां मारना चाहती हूं इसे. कितना प्यार करती हूं इस बच्ची से मैं… कितना छिपछिप कर दुलारती भी तो हूं इसे. कभी बाजार घुमा लाती हूं इसे तो कभी इस का जन्मदिन चुपचाप इस के साथ मनाती हूं. इसे इस की पसंद का उपहार भी देती हूं.

आप हैरान हो रहे होंगे न कि क्या लगती है यह लड़की मेरी जो पिछले 20 सालों से जोंक की तरह मेरे साथ चिपकी हुई है जो न खुद मरती है और न मुझे मरने देती है. जिस से मैं नफरत भी करती हूं और बेतहाशा प्यार भी. आखिर क्या रिश्ता है इस का और मेरा?

अरे, आप ने पहचाना नहीं इसे? यह लड़की मेरे भीतर की सदगृहस्थन के अंदर बैठी है… मेरी बालसुलभ अस्मिता जो अपने लिए भी जीना चाहती है और मुट्ठी भर खुशी भी ढूंढ़ती है अपने लिए. आम औरतों की तरह मैं ने भी इस लड़की को मारने की कोशिश तो की पर मार न सकी.

आज आम औरतें गहने बनवातीं और गहने तुड़वातीं, साडि़यां की सेल में घूमतीं, किट्टी पार्टियों में जातीं, पति और बच्चों की पसंद के नशे में अपने वजूद को मार डालती हैं. किताबों, पत्रपत्रिकाओं से रिश्ता ही तोड़ लेती है… अपनी पसंद को भूल जाती हैं.

शुक्र है कि वो लड़की मेरे भीतर अभी भी जिंदा है जो शादी के इतने सालों बाद भी खुल कर सांस लेने की कोशिश करती है और कभीकभी अपने लिए भी सोचती है. चाहे पल भर के लिए ही सही, खिलखिला कर हंसती है और जी हां, जिस ने मेरी पसंद के बैगन भी मुझे बना कर खिला दिए.

काश, हर औरत अपने भीतर की उस लड़की की हत्या न करे और हंसती रहे वो लड़की.

इस्तेमाल: कौलेज में क्या हुआ निम्मो के साथ?

कालेज से आते ही निम्मो ने अपना बैग जोर से पटका तो सरला सम झ गई कि जरूर आज फिर कालेज में कुछ ऐसावैसा घटित हुआ है.

‘‘क्या हुआ?’’ सरला ने पूछा.

‘‘अवनि… अवनि… अवनि… पता नहीं यह जिन्न मु झे कब छोड़ेगा,’’ निम्मो गुस्से में बड़बड़ाई.

‘‘लेकिन हुआ क्या है?’’ सरला ने फिर पूछा.

‘‘वही, जो आज तक होता आया है. हमारी तुलना और क्या? मु झे मैम ने ऐनुअल फंक्शन में होने वाले रैंप शो का शो स्टौपर बनने से आउट कर दिया,’’ निम्मो ने बताया.

‘‘अरे, कल तक तो तुम्हीं शो स्टौपर थी, पिछले 10 दिनों से तुम लगातार प्रैक्टिस कर रही हो, तुम्हारी तो कौस्ट्यूम भी फाइनल हो चुकी थी फिर अचानक ऐसा क्या हुआ?’’ सरला ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘आज जब फाइनल रिहर्सल हो रहा था तो अचानक अवनि ने रैंप पर आ कर कहा कि मैं बताती हूं तुम्हें कैसे वौक करना चाहिए.

‘‘फिर उस ने रैंप पर वौक कर के दिखाया तो प्रिंसिपल मैम को बहुत पसंद आया. उन्होंने कहा कि इस फैशन शो में शो स्टौपर के लिए अवनि को ही फाइनल कर दो और मु झे आउट कर दिया गया,’’ निम्मो ने मुंह सिकोड़ते हुए कालेज का सारा घटनाक्रम कह सुनाया.

‘‘यह तो दुनिया की बहुत पुरानी रीत है. लोग 2 बहनों में तुलना करते ही हैं,’’ कहते हुए सरला ने उसे सहज करने की कोशिश की.

‘‘लेकिन क्यों? मैं मैं हूं और अवनि अवनि. हम दोनों अलग हैं. फिर लोग क्यों हमें एकदूसरे से जोड़ कर देखते हैं? मैं खुद के जैसी ही रहना चाहती हूं किसी और के जैसी नहीं बनना चाहती,’’ निम्मो आवेश में आ गई.

निम्मो के अपने तर्क थे और वे अपनीजगह सही भी थे, मगर सरला जानती थी

कि अपनेआप को ही बदला जा सकता है, दुनिया को नहीं. वह रसोई में जा कर निम्मो के लिए खाना गरम करने लगी.

खाना खा कर निम्मो सो गई.  सरला भी वहीं लेटी धीरेधीरे उस के बालों में हाथ फेरती रही. इस के साथ ही कई पुरानी बातें भी जेहन में घूमने लगीं…

अवनि सरला के भाई रवि की बेटी है और निम्मो से केवल 4 दिन ही बड़ी है. दोनों बहनों ने एकसाथ एक ही स्कूल में पहला कदम रखा था. दोनों को एक ही स्कूल में एडमिशन दिलाया गया था ताकि दोनों को एकदूसरे का साथ मिल सके और उन्हें वहां अकेलापन न खले, साथ ही होमवर्क आदि में भी मदद मिल सके.

मगर 2 जनों में तुलना करना लोगों का स्वभाव होता है. तब तो और भी ज्यादा जब उन का आपस में कोई नजदीकी संबंध हो. सब से पहले उन की स्कूल टीचर्स ने दोनों बहनों की आपस में तुलना करनी शुरू की. कभी उन के मार्क्स को ले कर तो कभी उन की क्लास में परफौर्मैंस को ले कर… कभी स्पोर्ट्स में उन के प्रदर्शन की तुलना होती तो कभी हैल्थ और हाइट को आपस में कंपेयर किया जाता. निम्मो अकसर हर बात में अवनि से उन्नीस ही रहती. सब उसे अवनि का उदाहरण देते और कमतरी का एहसास कराते. सुन कर निम्मो बु झ जाती.

सरला को पहली बार बेटी के दर्द का एहसास उस दिन हुआ था जब वह केजी क्लास में पढ़ती थी. निम्मो ने एक दिन स्कूल से आते ही कहा था, ‘‘मु झे नहीं पढ़ना इस स्कूल में. यह स्कूल अच्छा नहीं है. यहां सब अवनि को ही प्यार करते हैं. मु झे कोई प्यार नहीं करता.’’

सरला के पूछने पर निम्मो ने बताया, ‘‘आज क्लास में टीचर ने ड्राइंग बनवाई थी. मेरी शीट देख कर मैडम ने कहा कि अवनि की शीट देखो, कितनी सफाई से ड्रा की है. इसे कहते हैं ड्राइंग. कुछ सीखो अपनी बहन से,’’ और निम्मो फिर रोने लगी.

सरला के लिए यह बड़ी मुश्किल घड़ी थी. एक तरफ बेटी थी और दूसरी तरफ भतीजी. धर्मसंकट में फंसी सरला को कोई उपाय नहीं सू झ रहा था. रोती हुई निम्मो को सीने से लगाने के अलावा उस के पास कोई और उपाय था भी नहीं.

अवनि जहां स्वभाव में तेजतर्रार और स्मार्ट थी वहीं निम्मो शांत और सहनशील. अवनि उस की सहनशीलता का पूरा फायदा उठाती थी. वह अकसर निम्मो पर हावी हो जाती. कई बार तो अपना होमवर्क भी निम्मो से करवा लेती थी. धीरेधीरे अवनि के खुद से बेहतर होने का भाव निम्मो के भीतर जड़ें जमाने लगा. वह स्कूल में तो अवनि का विरोध नहीं कर पाती थी, मगर घर आ कर रोने लगती थी. अवनि के सामने निम्मो का व्यक्तित्व दबने लगा. अवनि निम्मो के लिए उस बरगद के पेड़ जैसी हो गई थी जिस के नीचे निम्मो पनप नहीं पा रही थी.

सरला उसे बहुत सम झाया करती थी कि इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति परफैक्ट नहीं होता. हर किसी में कोई न कोई कमी होती ही है. लेकिन वे लोग बहुत बहादुर होते हैं जो उसे स्वीकार कर लेते हैं और वे तो विरले ही होते हैं, जो उस पर विजय पा लेते हैं. वे भी कुछ कम नहीं होते जो अपनी कमियों के साथ जीना सीख लेते हैं. मगर निम्मो का बालमन शायद अभी इन बातों को सम झने के लिए परिपक्व नहीं था.

एक दिन निम्मो स्कूल से आई और आते ही घर में बने मंदिर में हाथ जोड़ने लगी.

सरला को बड़ा आश्चर्य हुआ, उस ने पूछा, ‘‘आज हमारी निम्मो क्या मांग रही है कुदरत से?’’

निम्मो ने मासूमियत से कहा, ‘‘मां, मैं कुदरत से प्रे कर रही हूं कि वह अगले जन्म में मु झे अवनि जैसी सुंदर और स्मार्ट बना दे.’’

उस के मुंह से ऐसी बात सुन कर सरला हैरान रह गई. उस ने निम्मो से कहा, ‘‘बिट्टो, अगलापिछला कोई जन्म नहीं होता. जो कुछ है सब यही है. कुदरत ने हर इंसान को अपनेआप में बहुत ही खास बनाया है और एकदूसरे से अलग भी. इसीलिए तुम दोनों बहनें भी एकदूसरे से अलग हैं. तुम दोनों की अपनीअपनी खासीयत है. हां, इस जन्म में अगर तुम अच्छे काम करोगी तो बहुत अच्छी इंसान जरूर बन जाओगी.’’

मगर निम्मो को मां की बातें ज्यादा सम झ में नहीं आईं उस के दिमाग में तो हर वक्त अपने आप को अवनि से बेहतर साबित करने की तरकीबें ही चलती रहतीं.

सैकंडरी स्कूल के रिजल्ट वाले दिन प्रिंसिपल मैम ने असैंबली में उन सब बच्चों के लिए तालियां बजवाई, जिन्हें 80% से ज्यादा नंबर मिले थे. निम्मो और अवनि को भी स्टेज पर बुलाया गया.

मार्क शीट देख कर टीचर ने कहा, ‘‘यहां भी हमेशा की तरह अवनि ने ही बाजी मारी. उसे निम्मो से 4 नंबर अधिक मिले हैं.’’

बस फिर क्या था, निम्मो ने घर आ कर रोरो कर बुरा हाल कर लिया. खुद को कमरे में बंद कर लिया और स्कूल छोड़ने की जिद पर अड़ गई. यह देख कर सरला ने सैकंडरी स्कूल के बाद निम्मो का स्कूल चेंज करवा दिया.

भाई ने कारण पूछा तो सरला ने सब्जैक्ट चेंज करने का बहाना बना कर उसे टाल दिया. चूंकि अवनि पहले ही आर्ट्स सब्जैक्ट चुन चुकी थी, इसलिए निम्मो ने इंटरैस्ट न होते हुए भी कौमर्स सब्जैक्ट चुना और इस बहाने से अपना स्कूल बदल लिया.

अवनि से दूर होते ही निम्मो का मानसिक तनाव छूमंतर हो गया और सालभर में ही उस का व्यक्तित्व निखर आया. बेटी का बढ़ता हुआ आत्मविश्वास देख कर सरला उस के स्कूल बदलने के अपने निर्णय पर खुश थी.

2 साल में ही निम्मो ने अपना कद निकाल लिया. हालांकि निम्मो की शारीरिक बनावट अवनि जैसी सांचे में ढली हुई नहीं थी, मगर उस की सादगी में भी एक कशिश थी. जहां अवनि को देख कर कामुकता का एहसास होता था वहीं निम्मो की सुंदरता में शालीनता और गरिमा थी.

मेरी आंखों के कोर भीग गए थे. ऐसा लगा मेरा अहं किसी कोने से जरा सा संतुष्ट

हो गया है. सोचती थी, पति की जिंदगी में मेरी जरूरत ही नहीं रही.मगर मांबेटी का यह सुख सिर्फ 2 साल से ज्यादा कायम नहीं रह सका. स्कूल खत्म होते ही अवनि ने भी निम्मो के ही कालेज में एडमिशन ले लिया. फिर से वही पुरानी कहानी दोहराई जाने लगी. फिर से वही दोनों बहनों में तुलना. मगर अब सरला के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था, क्योंकि कसबे में एक ही कालेज था और इसी कालेज में पढ़ना दोनों की मजबूरी थी.

‘‘अब तुम बच्ची नहीं हो निम्मो. अपनी लड़ाई अपने हथियारों से लड़ना सीखो. तुम्हारा आत्मविश्वास ही तुम्हारा सब से पैना हथियार है.’’ सरला बेटी को आने वाले कल के लिए तैयार करने में जुटी थी.

यह उन के कालेज का पहला ही साल था यानी दोनों में ही अभी स्कूल का लड़कपन बाकी था. जब ऐनुअल फंक्शन के रैंप शो में निम्मो की जगह अवनि को शो स्टौपर बना दिया गया तो निम्मो का स्वाभिमानी मन बहुत आहत हुआ और उस ने शो में मौडलिंग करने से ही मना कर दिया.

‘‘तुम चाहो तो अपना यह आउटफिट ले कर जा सकती हो. यू नौ अवनि किसी की इस्तेमाल की हुई चीजें नहीं लेती. मैं ने अपने लिए दूसरा आउटफिट मंगवा लिया है,’’ प्रैक्टिस रूम छोड़ कर बाहर आती निम्मो ने अवनि का ताना सुना, लेकिन कुछ बोली नहीं. चुपचाप रूम से बाहर निकल आई.

अवनि जब अदा से अपने जलवे बिखेरती रैंप पर आई तो औडिटोरियम में बैठी सभी लड़कियां तालियां बजाने लगीं और लड़के सीटियां. निम्मो फंक्शन बीच में ही छोड़ कर औडिटोरियम से बाहर आ गई.

औडिटोरियम से बाहर निकलती निम्मो के कदमों की दृढ़ता और चाल का आत्मविश्वास बता रहा था कि उस के मन के भीतर चल रहे संघर्ष को विराम लग गया है. विचारों की उफनती नदी में डगमगाती नाव निर्णय के तट पर आ लगी है.

या तो निम्मो ने इस बात को स्वीकार कर लिया था कि तुलना करना मानव स्वभाव मात्र है, इसे दिल पर लेना सम झदारी नहीं है या फिर यह हवाओं में तेज बरसात से पहले वाली चुप्पी है.

अवनि ने अपनी अलग ही दुनिया बसा रखी थी. उसे अपनी मौडल सी कदकाठी पर बहुत घमंड था. उसी के अनुरूप वह कपड़े भी पहना करती थी, जो उस पर बहुत फबते भी थे और अधिक आधुनिक बनने के चक्कर में उस ने सिगरेट भी पीना सीख लिया था. कभीकभी दोस्तों के साथ एकाध पैग भी लगाने लगी थी. जहां पूरा कालेज अवनि का दीवाना था वहीं अवनि का दिल विकास में आ कर अटक गया.

इन दिनों सरला निम्मो में अलग तरह का चुलबुलापन देख रही थी. हर समय बिना मेकअप के रहने वाली निम्मो आजकल न्यूड मेकअप करने लगी थी. सुबह जल्दी उठ कर कुछ देर योग व्यायाम भी करने लगी थी जिस का असर उस के चेहरे की बढ़ती चमक पर साफसाफ दिखाई देने लगा था. सरला बेटी में आए इस सकारात्मक परिवर्तन को देख कर खुश थी.

‘‘इस बहाने फालतू की बातों से दूर रहेगी,’’ सोच कर सरला मुसकरा देती.

उधव अवनि का विकास के प्रति  झुकाव बढ़ने लगा था. पूरा कालेज उन दोनों के बीच होने वाली नोक झोंक के प्यार में बदलने की प्रतीक्षा कर रहा था. शीघ्र ही उन का यह इंतजार खत्म हुआ. इन दिनों अवनि और विकास साथसाथ देखे जाने लगे थे.

साल बीतने को आया. एक बार फिर से ऐजुअल फंक्शन की तैयारियां जोर

पकड़ने लगीं. यह वर्ष कालेज की स्थापना का स्वर्ण जयंती वर्ष था इसलिए नवाचार के तहत कालेज प्रशासन ने कालेज में 50 साल पहले मंचित नाटक ‘शकुंतलादुष्यंत’ के पुनर्मंचन का निर्णय लिया.

औडिशन के बाद विकास को जब दुष्यंत का पात्र अभिनीत करने का प्रस्ताव मिला तो सब ने स्वाभाविक रूप से अवनि के शकुंतला बनने का कयास लगाया, लेकिन तब सब को आश्चर्य हुआ जब कमेटी द्वारा अवनि को दरकिनार कर इस रोल के लिए निम्मो का चयन किया.

कमर तक लंबे घने बाल, बड़ीबड़ी बोलती आंखें और मासूम सौंदर्य, शायद यही पैमाना रहा होगा इस रोल के लिए निम्मो के चयन का.

कालेज के बाद देर तक नाटक का रिहर्सल करना और उस के बाद देर होने पर विकास का निम्मो को घर तक छोड़ना… रोज का नियम था. वैसे भी अवनि इस सदियों पुराने नाटक में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए कालेज में रुक कर विकास का इंतजार करना उसे बोरियत भरा महसूस होता था. हवा का  झोंका भी कभी एक जगह ठहरा है भला जो अवनि ठहरती.

कई साथियों ने निम्मो और विकास को ले कर उसे छेड़ा भी, मगर आत्मविश्वास से भरी अवनि को अपने रूपसौंदर्य पर पूरा भरोसा था. क्या मजाल जो एक बार इस भूलभुलैया में भटका मुसाफिर बिना उस की इजाजत बाहर निकल सके.

रिहर्सल लगभग फाइनल हो चुका था. विकास की अगुआई में कालेज कैंटीन में बैठा छात्रों का दल चाय की चुसकियों के साथ गरमगरम समोसों का आनंद ले रहा था. निम्मो और अवनि भी अन्य लड़कियों के साथ इस गैंग में शामिल थीं.

‘‘यार विकास, इतने दिनों से तू दुष्यंत बना घूम रहा है, अब तो शकुंतला को अंगूठी पहना ही दे,’’ एक दोस्त ने उसे कुहनी मारी.

विकास की नजर लड़कियों के दल की तरफ घूम गई. सब ने अवनि की इतराहट देखी. निम्मो बड़े आराम से समोसा खा रही थी.

‘‘हांहां, यह तो होना ही चाहिए. कैसा रहेगा यदि फंक्शन वाले दिन नाटक मंचन के बाद वही अंगूठी असल वाली शकुंतला की उंगली में भी पहनाई जाए?’’ दूसरे दोस्त ने प्रस्ताव रखा तो शेष गैंग ने भेजें थपथपा कर उस का अनुमोदन किया. शरमाई अवनि अपनी उंगली सहलाने लगी. बेशक वह एक बोल्ड लड़की थी, लेकिन इस तरह के प्रकरण आने पर लड़कियों का संकुचित होना स्वाभाविक सी बात है.

‘‘तुम सब कहते हो तो चलो? मु झे भी यह चुनौती मंजूर है. तो तय रहा. फंक्शन वाले दिन… नाटक के बाद… डन,’’ विकास ने दोस्तों की चुनौती पर अपनी सहमति की मुहर लगाई और इस के साथ ही मीटिंग खत्म हो गई.

ऐनुअल फंक्शन की शाम… निम्मो का निर्दोष सौंदर्य देखते ही बनता था. श्वेत परिधान संग धवल पुष्पराशि के शृंगार में निम्मो असल शकुंतला का पर्याय लग रही थी. विकास और निम्मो के प्रणयदृश्य तो इतने स्वाभाविक लग रहे थे मानो स्वयं दुष्यंतशकुंतला इन अंतरंग पलों को साक्षात भोग रहे हों. औडिटोरियम में बारबार बजती सीटियां और मंचन के समापन पर देर तक गूंजता तालियों का शोर नाटक की सफलता का उद्घोष कर रहा था. परदा गिरने के बाद विकास जब निम्मो का हाथ थामे मंच पर सब का अभिवादन करने आया तो बहुत से उत्साही मित्र उत्साह के अतिरेक में नाचने लगे.

देर रात फंक्शन के बाद मित्रमंडली एक बार फिर से जुटी थी. सब लोग विकास और निम्मो को घेरे खड़े थे. दोनों विनीत भाव से सब की बधाइयां बटोर रहे थे.

‘‘अरे शकुंतला, वह अंगूठी कहां है जो दुष्यंत ने तुम्हें निशानी के रूप में दी थी,’’ अवनि के कहते ही मित्रों को विकास को दी गई चुनौती याद आई.

‘‘अरे हां, वह अंगूठी तो तुम आज अपनी असली शकुंतला को पहनाने वाले थे न. चलो भाई, जल्दी करो. देर हो रही है,’’ मित्र ने कहा.

अवनि अपनी योजना की सफलता पर मुसकराई. इसी प्रसंग को जीवित करने के लिए तो उस ने अंगूठी प्रकरण छेड़ा था. विकास भी मुसकराने लगा. उस ने अपनी जेब की तरफ हाथ बढ़ाया. जेब से हाथ बाहर निकला तो उस में एक सोने की अंगूठी चमचमा रही थी.

‘‘तुम ने उंगली की नाप तो ले ली थी न? कहीं छोटीबड़ी हुई तो?’’ मित्र ने चुहल की.

अवनि की निगाहें अंगूठी पर ठिठक गईं. विकास अंगूठी ले कर लड़कियों

की तरफ बढ़ा. सब की निगाहें विकास के चेहरे पर जमी थीं. अवनि शर्म के मारे जमीन में गढ़ी जा रही थी.

विकास ने निम्मो का बांयां हाथ पकड़ा और उस की अनामिका में सोने की अंगूठी पहना दी. यह दृश्य देख कर वहां मौजूद हर व्यक्ति हैरान खड़ा रह गया, क्योंकि किसी ने इस की कल्पना तक नहीं की थी. अपमान से अवनि की आंखें छलक आईं. निम्मो कभी अपनी उंगली तो कभी विकास के चेहरे की तरफ देख रही थी. पूरे माहौल को सांप सूंघ गया था.

निम्मो धीरेधीरे चलती हुई आई और अवनि के सामने खड़ी हो गई. अवनि निरंतर जमीन को देख रही थी. सब ने देखा कि अपमान की कुछ बूंदें उस की आंखों से गिर कर घास पर जमी ओस का हिस्सा बन गई थीं.

निम्मो ने अपनी उंगली से अंगूठी उतारी और अवनि की हथेली पर रख दी. बोली, ‘‘तुम चाहो तो यह अंगूठी रख सकती हो. यू नो, निम्मो को भी किसी की इस्तेमाल की हुई चीजें पसंद नहीं,’’ कहती हुई आत्मविश्वास से भरी निम्मो सब को हैरानपरेशान छोड़ कर कालेज के मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ गई.

बहूबेटी : क्यों बदल गए सपना की मां के तेवर

जब से वे सपना की शादी कर के मुक्त हुईं तब से हर समय प्रसन्नचित्त दिखाई देती थीं. उन के चेहरे से हमेशा उल्लास टपकता रहता था. महरी से कोई गलती हो जाए, दूध वाला दूध में पानी अधिक मिला कर लाए अथवा झाड़ पोंछे वाली देर से आए, सब माफ था. अब वे पहले की तरह उन पर बरसती नहीं थीं. जो भी घर में आता, उत्साह से उसे सुनाने बैठ जातीं कि उन्होंने कैसे सपना की शादी की, कितने अच्छे लोग मिल गए, लड़का बड़ा अफसर है, देखने में राजकुमार जैसा. फिर भी एक पैसा दहेज का नहीं लिया. ससुर तो कहते थे कि आप की बेटी ही लक्ष्मी है और क्या चाहिए हमें. आप की दया से घर में सब कुछ तो है, किसी बात की कमी नहीं. बस, सुंदर, सुसंस्कृत व सुशील बहू मिल गई, हमारे सारे अरमान पूरे हो गए. शादी के बाद पहली बार जब बेटी ससुराल से आई तो कैसे हवा में उड़ी जा रही थी. वहां के सब हालचाल अपने घर वालों को सुनाती, कैसे उस की सास ने इतने दिनों पलंग से नीचे पांव ही नहीं धरने दिया. वह तो रानियों सी रही वहां. घर के कामों में हाथ लगाना तो दूर, वहां तो कभी मेहमान अधिक आ जाते तो सास दुलार से उसे भीतर भेजती हुई कहती, ‘‘बेचारी सुबह से पांव लगतेलगते थक गई, नातेरिश्तेदार क्या भागे जा रहे हैं कहीं. जा, बैठ कर आराम कर ले थोड़ी देर.’’

और उस की ननद अपनी भाभी को सहारा दे कर पलंग पर बैठा आती. यह सब जब उन्होंने सुना तो फूली नहीं समाईं. कलेजा गज भर का हो गया. दिन भर चाव से रस लेले कर वे बेटी की ससुराल की बातें पड़ोसिनों को सुनाने से भी नहीं चूकतीं. उन की बातें सुन कर पड़ोसिन को ईर्ष्या होती. वे सपना की ससुराल वालों को लक्ष्य कर कहतीं, ‘‘कैसे लोग फंस गए इन के चक्कर में. एक पैसा भी दहेज नहीं देना पड़ा बेटी के विवाह में और ऐसा शानदार रोबीला वर मिल गया. ऊपर से ससुराल में इतना लाड़प्यार.’’

उस दिन अरुणा मिलने आईं तो वे उसी उत्साह से सब सुना रही थीं, ‘‘लो, जी, सपना को तो एम.ए. बीच में छोड़ने तक का अफसोस नहीं रहा. बहुत पढ़ालिखा खानदान है. कहते हैं, एम.ए. क्या, बाद में यहीं की यूनिवर्सिटी में पीएच.डी. भी करवा देंगे. पढ़नेलिखने में तो सपना हमेशा ही आगे रही है. अब ससुराल भी कद्र करने वाला मिल गया.’’ ‘‘फिर क्या, सपना नौकरी करेगी, जो इतना पढ़ा रहे हैं?’’ अरुणा ने उन के उत्साह को थोड़ा कसने की कोशिश की.

‘‘नहीं जी, भला उन्हें क्या कमी है जो नौकरी करवाएंगे. घर की कोठी है. हजारों रुपए कमाते हैं हमारे दामादजी,’’ उन्होंने सफाई दी. ‘‘तो सपना इतना पढ़लिख कर क्या करेगी?’’

‘‘बस, शौक. वे लोग आधुनिक विचारों के हैं न, इसलिए पता है आप को, सपना बताती है कि सासससुर और बहू एक टेबल पर बैठ कर खाना खाते हैं. रसोई में खटने के लिए तो नौकरचाकर हैं. और खानेपहनाने के ऐसे शौकीन हैं कि परदा तो दूर की बात है, मेरी सपना तो सिर भी नहीं ढकती ससुराल में.’’ ‘‘अच्छा,’’ अरुणा ने आश्चर्य से कहा.

मगर शादी के महीने भर बाद लड़की ससुराल में सिर तक न ढके, यह बात उन के गले नहीं उतरी. ‘‘शादी के समय सपना तो कहती थी कि मेरे पास इतने ढेर सारे कपड़े हैं, तरहतरह के सलवार सूट, मैक्सी और गाउन, सब धरे रह जाएंगे. शादी के बाद तो साड़ी में गठरी बन कर रहना होगा. पर संयोग से ऐसे घर में गई है कि शादी से पहले बने सारे कपड़े काम में आ रहे हैं. उस के सासससुर को तो यह भी एतराज नहीं कि बाहर घूमने जाते समय भी चाहे…’’

‘‘लेकिन बहनजी, ये बातें क्या सासससुर कहेंगे. यह तो पढ़ीलिखी लड़की खुद सोचे कि आखिर कुंआरी और विवाहिता में कुछ तो फर्क है ही,’’ श्रीमती अरुणा से नहीं रहा गया. उन्होंने सोचा कि शायद श्रीमती अरुणा को उन की पुत्री के सुख से जलन हो रही है, इसीलिए उन्होंने और रस ले कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं तो डरती थी. मेरी सपना को शुरू से ही सुबह देर से उठने की आदत है, पराए घर में कैसे निभेगी. पर वहां तो वह सुबह बिस्तर पर ही चाय ले कर आराम से उठती है. फिर उठे भी किस लिए. स्वयं को कुछ काम तो करना नहीं पड़ता.’’

‘‘अब चलूंगी, बहनजी,’’ श्रीमती अरुणा उठतेउठते बोलीं, ‘‘अब तो आप अनुराग की भी शादी कर डालिए. डाक्टर हो ही गया है. फिर आप ने बेटी विदा कर दी. अब आप की सेवाटहल के लिए बहू आनी चाहिए. इस घर में भी तो कुछ रौनक होनी ही चाहिए,’’ कहतेकहते श्रीमती अरुणा के होंठों की मुसकान कुछ ज्यादा ही तीखी हो गई.

कुछ दिनों बाद सपना के पिता ने अपनी पत्नी को एक फोटो दिखाते हुए कहा, ‘‘देखोजी, कैसी है यह लड़की अपने अनुराग के लिए? एम.ए. पास है, रंग भी साफ है.’’ ‘‘घरबार कैसा है?’’ उन्होंने लपक कर फोटो हाथ में लेते हुए पूछा.

‘‘घरबार से क्या करना है? खानदानी लोग हैं. और दहेज वगैरा हमें एक पैसे का नहीं चाहिए, यह मैं ने लिख दिया है उन्हें.’’ ‘‘यह क्या बात हुई जी. आप ने अपनी तरफ से क्यों लिख दिया? हम ने क्या उसे डाक्टर बनाने में कुछ खर्च नहीं किया? और फिर वे जो देंगे, उन्हीं की बेटी की गृहस्थी के काम आएगा.’’

अनुराग भी आ कर बैठ गया था और अपने विवाह की बातों को मजे ले कर सुन रहा था. बोला, ‘‘मां, मुझे तो लड़की ऐसी चाहिए जो सोसाइटी में मेरे साथ इधरउधर जा सके. ससुराल की दौलत का क्या करना है?’’

‘‘बेशर्म, मांबाप के सामने ऐसी बातें करते तुझे शर्म नहीं आती. तुझे अपनी ही पड़ी है, हमारा क्या कुछ रिश्ता नहीं होगा उस से? हमें भी तो बहू चाहिए.’’ ‘‘ठीक है, तो मैं लिख दूं उन्हें कि सगाई के लिए कोई दिन तय कर लें. लड़की दिल्ली में भैयाभाभी ने देख ही ली है और सब को बहुत पसंद आई है. फिर शक्लसूरत से ज्यादा तो पढ़ाई- लिखाई माने रखती है. वह अर्थशास्त्र में एम.ए. है.’’

उधर लड़की वालों को स्वीकृति भेजी गई. इधर वे शादी की तैयारी में जुट गईं. सामान की लिस्टें बनने लगीं. अनुराग जो सपना के ससुराल की तारीफ के पुल बांधती अपनी मां की बातों से खीज जाता था, आज उन्हें सुनाने के लिए कहता, ‘‘देखो, मां, बेकार में इतनी सारी साडि़यां लाने की कोई जरूरत नहीं है, आखिर लड़की के पास शादी के पहले के कपड़े होंगे ही, वे बेकार में पड़े बक्सों में सड़ते रहें तो इस से क्या फायदा.’’

‘‘तो तू क्या अपनी बहू को कुंआरी छोकरियों के से कपड़े यहां पहनाएगा?’’ वह चिल्ला सी पड़ीं. ‘‘क्यों, जब जीजाजी सपना को पहना सकते हैं तो मैं नहीं पहना सकता?’’

वे मन मसोस कर रह गईं. इतने चाव से साडि़यां खरीद कर लाई थीं. सोचा था, सगाई पर ही लड़की वालों पर अच्छा प्रभाव पड़ गया तो वे बाद में अपनेआप थोड़ा ध्यान रखेंगे और हमारी हैसियत व मानसम्मान ऊंचा समझ कर ही सबकुछ करेंगे. मगर यहां तो बेटे ने सारी उम्मीदों पर ही पानी फेर दिया. रात को सोने के लिए बिस्तर पर लेटीं तो कुछ उदास थीं. उन्हें करवटें बदलते देख कर पति बोले, ‘‘सुनोजी, अब घर के काम के लिए एक नौकर रख लो.’’

‘‘क्यों?’’ वह एकाएक चौंकीं. ‘‘हां, क्या पता, तुम्हारी बहू को भी सुबह 8 बजे बिस्तर पर चाय पी कर उठने की आदत हो तो घर का काम कौन करेगा?’’

वे सकपका गईं. सुबह उठीं तो बेहद शांत और संतुष्ट थीं. पति से बोलीं, ‘‘तुम ने अच्छी तरह लिख दिया है न, जी, जैसी उन की बेटी वैसी ही हमारी. दानदहेज में एक पैसा भी देने की जरूरत नहीं है, यहां किस बात की कमी है, मैं तो आते ही घर की चाबियां उसे सौंप कर अब आराम करूंगी.’’ ‘‘पर मां, जरा यह तो सोचो, वह अच्छी श्रेणी में एम.ए. पास है, क्या पता आगे शोधकार्य आदि करना चाहे. फिर ऐसे में तुम घर की जिम्मेदारी उस पर छोड़ दोगी तो वह आगे पढ़ कैसे सकेगी?’’ यह अनुराग का स्वर था.

उन की समझ में नहीं आया कि एकाएक क्या जवाब दें. कुछ दिन बाद जब सपना ससुराल से आई तो वे उसे बातबात पर टोक देतीं, ‘‘क्यों री, तू ससुराल में भी ऐसे ही सिर उघाड़े डोलती रहती है क्या? वहां तो ठीक से रहा कर बहुओं की तरह और अपने पुराने कपड़ों का बक्सा यहीं छोड़ कर जाना. शादीशुदा लड़कियों को ऐसे ढंग नहीं सुहाते.’’

सपना ने जब बताया कि वह यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रही है तो वे बरस ही पड़ीं, ‘‘अब क्या उम्र भर पढ़ती ही रहेगी? थोड़े दिन सासससुर की सेवा कर. कौन बेचारे सारी उम्र बैठे रहेंगे तेरे पास.’’ आश्चर्यचकित सपना देख रही थी कि मां को हो क्या गया है?

कहो, कैसी रही चाची: आखिर चाची में ऐसा क्या था

लड़की लंबी हो, मिल्की ह्वाइट रंग हो, गृहकार्य में निपुण हो… ऐसी बातें तो घरों में तब खूब सुनी थीं जब बहू की तलाश शुरू होती थी. जाने कितने फोटो मंगाए जाते, देखे जाते थे. फिर लड़की को देखने का सिलसिला शुरू होता था. लड़की में मांग के अनुसार थोड़ी भी कमी पाई जाती तो उसे छांट दिया जाता. यों, अब सुनने में ये सब पुरानी बातें हो गई हैं पर थोड़े हेरफेर के साथ घरघर की आज भी यही समस्या है.

अब तो लड़कियों में एक गुण की और डिमांड होने लगी है. मांग है कि कानवेंट की पढ़ी लड़की चाहिए. यह ऐसी डिमांड थी कि कई गुणसंपन्न लड़कियां धड़ामधड़ाम गिर गईं. अच्छेअच्छे वरों की कतार से वे एकदम से बाहर कर दी गईं. उन में कुंभी भी थी जो मेरे पड़ोस की भूली चाची की बेटी थी.

‘‘कानवेंट एजुकेटेड का मतलब?’’ पड़ोस में नईनई आईं भूली चाची ने पूछा, जो दरभंगा के किसी गांव की थीं. ‘‘अंगरेजी जानने वाली,’’ मैं ने बताया.

‘‘भला, अंगरेजी में ऐसी क्या बात है भई, जो हमारी हिंदी में नहीं…’’ चाची ने आंख मटकाईं. ‘‘अंगरेजी स्कूलों में पढ़ने वाली लड़कियां तेजतर्रार होती हैं. हर जगह आगे, हर काम में आगे,’’ मैं ने उन्हें समझाया, ‘‘फटाफट अंगरेजी बोलते देख सब हकबका जाते हैं. अच्छेअच्छों की बोलती बंद हो जाती है.’’

‘‘अच्छा,’’ चाची मेरी बात मानने को तैयार नहीं थीं, इसलिए बोलीं, ‘‘यह तो मैं अब सुन रही हूं. हमारे जमाने की कई औरतें आज की लड़कियों को पछाड़ दें. मेरी कुंभी तो अंगरेजी स्कूल में नहीं पढ़ी पर आज जो तमाम लड़कियां इंगलिश मीडियम स्कूलों में पढ़ रही हैं, कुछ को छोड़ बाकी तो आवारागर्दी करती हैं.’’ ‘‘छी…छी, ऐसी बात नहीं है, चाची.’’

‘‘कहो तो मैं दिखा दूं,’’ चाची बोलीं, ‘‘घर से ट्यूशन के नाम पर निकलती हैं और कौफी शौप में बौयफे्रंड के साथ चली जाती हैं, वहां से पार्क या सिनेमा हाल में… मैं ने तो खुद अपनी आंखों से देखा है.’’ ‘‘हां, इसी से तो अब अदालत भी कहने लगी है कि वयस्क होने की उम्र 16 कर दी जाए,’’ मैं ने कुछ शरमा कर कहा.

‘‘यानी बात तो घूमफिर कर वही हुई. ‘बालविवाह की वापसी,’’’ चाची बोलीं, ‘‘अच्छा छोड़ो, तुम्हारी बेटी तो अंगरेजी स्कूल में पढ़ रही है, उसे सीना आता है?’’ ‘‘नहीं.’’

‘‘खाना पकाना?’’ ‘‘नहीं.’’

‘‘चलो, गायनवादन तो आता ही होगा,’’ चाची जोर दे कर बोलीं. ‘‘नहीं, उसे बस अंगरेजी बोलना आता है,’’ यह बताते समय मैं पसीनेपसीने हो गई.

चाची पुराने जमाने की थीं पर पूरी तेजतर्रार. अंगरेजी न बोलें पर जरूरत के समय बड़ेबड़ों की हिम्मत पस्त कर दें. उस दिन चाची के घर जाना हुआ. बाहर बरामदे में बैठी चाची साड़ी में कढ़ाई कर रही थीं. खूब बारीक, महीन. जैसे हाथ नहीं मकड़ी का मुंह हो.

‘‘हाय, चाची, ये आप कर रही हैं? दिखाई दे रहा है इतना बारीक काम…’’ ‘‘तुम से ज्यादा दिखाई देता है,’’ चाची हंस कर बोलीं, ‘‘यह तो आज दूसरी साड़ी पर काम कर रही हूं. पर बिटिया, मुझे अंगरेजी नहीं आती, बस.’’

मैं मुसकरा दी. फिर एक दिन देखा, पूरे 8 कंबल अरगनी पर पसरे हैं और 9वां कंबल चाची धो रही हैं. ‘‘चाची, इस उम्र में इतने भारीभारी कंबल हाथ से धो रही हैं. वाशिंगमशीन क्यों नहीं लेतीं?’’

‘‘वाशिंगमशीन तो बहू ने ले रखी है पर मुझे नहीं सुहाती. एक तो मशीन से मनचाही धुलाई नहीं हो पाती, कपड़े भी जल्दी पतले हो जाते हैं, कालर की गंदगी पूरी हटती नहीं जबकि खुद धुलाई करने पर देह की कसरत हो जाती है. एक पंथ दो काज, क्यों.’’

चाची का बस मैं मुंह देखती रही थी. लग रहा था जैसे कह रही हों, ‘हां, मुझे बस अंगरेजी नहीं आती.’ उस दिन बाजार में चाची से भेंट हो गई. तनु और मैं केले ले रही थीं. केले छांटती हुई चाची भी आ खड़ी हुईं. मैं ने 6 केलों के पैसे दिए और आगे बढ़ने लगी.

चाची, जो बड़ी देर से हमें खरीदारी करते देख रही थीं, झट से मेरा हाथ पकड़ कर बोलीं, ‘‘रुक, जरा बता तो, केले कितने में लिए?’’ ‘‘30 रुपए दर्जन,’’ मैं ने सहज बता दिया.

‘‘ऐसे केले 30 रुपए में. क्या देख कर लिए. तू तो इंगलिश मीडियम वाली है न, फिर भी लड़ न सकी.’’ ‘‘मेरे कहने पर दिए ही नहीं. अब छोड़ो भी चाची, दोचार रुपए के लिए क्या बहस करनी,’’ मैं ने उन्हें समझाया.

‘‘यही तो डर है. डर ही तो है, जिस ने समाज को गुंडों के हवाले कर दिया है,’’ इतना कह कर चाची ने तनु के हाथ से केले छीन लिए और लपक कर वे केले वाले के पास पहुंचीं और केले पटक कर बोलीं, ‘‘ऐसे केले कहां से ले कर आता है…’’ ‘‘खगडि़या से,’’ केले वाले ने सहजता से कहा.

‘‘इन की रंगत देख रहा है. टी.बी. के मरीज से खरीदे होंगे 5 रुपए दर्जन, बेच रहा है 30 रुपए. चल, निकाल 10 रुपए.’’ ‘‘अब आप भी मेरी कमाई मारती हो चाची,’’ केले वाला घिघिया कर बोला, ‘‘आप को 10 रुपए दर्जन के भाव से ही दिए थे न.’’

‘‘तो इसे ठगा क्यों? चल, निकाल बाकी पैसे वरना कल से यहां केले नहीं बेच पाएगा. सारा कुछ उठा कर फेंक दूंगी…’’ और चाची ने 10 रुपए ला कर मेरे हाथ में रख दिए. मैं तो हक्कीबक्की रह गई. पतली छड़ी सी चाची में इतनी हिम्मत.

एक दिन फिर चाची से सड़क पर भेंट हो गई. सड़क पर जाम लगा था. सारी सवारियां आपस में गड्डमड्ड हो गई थीं. समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे रास्ता निकलेगा. ट्रैफिक पुलिस वाला भी नदारद था. लोग बिना सोचेसमझे अपनेअपने वाहन घुसाए जा रहे थे. मैं एक ओर नाक पर अपना रुमाल लगाए खड़ी हो कर भीड़ छंटने की प्रतीक्षा कर रही थी.

तभी चाची दिखीं. ‘‘अरे, क्या हुआ? इतनी तेज धूप में खड़ी हो कर क्या सोच रही है?’’

‘‘सोच रही हूं, जाम खुले तो सड़क के दूसरी ओर जाऊं.’’ ‘‘जाम लगा नहीं है, जाम कर दिया गया है. यहां सारे के सारे अंगरेजी पढ़ने वाले जो हैं. देखो, किसी में हिम्मत नहीं कि जो गलत गाडि़यां घुसा रहे हैं उन्हें रोक सके. सभ्य कहलाने के लिए नाक पर रुमाल लगाए खड़े हैं या फिर कोने में बकरियों की तरह मिमिया रहे हैं.’’

‘‘तो आप ही कुछ करें न, चाची,’’ उन की हिम्मत पर मुझे भरोसा हो चला था. चाची हंस दीं, ‘‘मैं कोई कंकरीट की बनी दीवार नहीं हूं और न ही सूमो पहलवान. हां, कुछ हिम्मती जरूर हूं. बचपन से ही सीखा है कि हिम्मत से बड़ा कोई हथियार नहीं,’’ फिर हंस कर बोलीं, ‘‘बस, अंगरेजी नहीं पढ़ी है.’’

चाची बड़े इत्मीनान से भीड़ का मुआयना करने लगीं. एकाएक उन्हें ठेले पर लदे बांस के लट्ठे दिखे. चाची ने उसे रोक कर एक लट्ठा खींच लिया और आंचल को कमर पर कसा और लट्ठे को एकदम झंडे की तरह उठा लिया. फिर चिल्ला कर बोलीं, ‘‘तुम गाड़ी वालों की यह कोई बात है कि जिधर जगह देखी, गाड़ी घुसा दी और सारी सड़क जाम कर दी है. हटो…हटो…हटो…पुलिस नहीं है तो सब शेर हो गए हो. क्या किसी को किसी की परवा नहीं?’’

पहले तो लोग अवाक् चाची को इस अंदाज से देखने लगे कि यह कौन सी बला आ गई. फिर कुछ चाची के पीछे हो लिए. ‘‘हां, चाची, वाह चाची, तू ही कुछ कर सकती है…’’ और थोड़ी ही देर में चाची के पीछे कितनों का काफिला खड़ा हो गया. मैं अवाक् रह गई.

गलतसलत गाडि़यां घुसाने वाले सहम कर पीछे हट गए. चाची ने मेरा हाथ पकड़ा और बोलीं, ‘‘चल, धूप में जल कर कोयला हो जाएगी,’’ और बांस को झंडे की तरह लहराती, भीड़ को छांटती पूरे किलोमीटर का रास्ता नापती चाची निकल गईं. जाम तितरबितर हो चला था. कुछ मनचले चिल्ला रहे थे : ‘‘चाची जिंदाबाद…चाची जिंदाबाद.’’

चाची किसी नेता से कम न लग रही थीं. बस, अंगरेजी न जानती थीं. भीड़ से निकल कर मेरा हाथ छोड़ कर कहा, ‘‘यहां से चली जाएगी या घर पहुंचा दूं?’’ ‘‘नहींनहीं,’’ मैं ने खिलखिला कर कहा, ‘‘मैं चली जाऊंगी पर एक बात कहूं.’’

‘‘क्या? यही न कहेगी तू कि कानवेंट की है, मुझे अंगरेजी नहीं आती?’’ ‘‘अरे, नहीं चाची, पूरा दुलार टपका कर मैं ने कहा, ‘‘मैं जब बहू खोजूंगी तब लड़की का पैमाना सिर्फ अंगरेजी से नहीं नापूंगी.’’

चाची खिलखिला दीं, शायद कहना चाह रही थीं, ‘‘कहो, कैसी रही चाची?’’

किरचें: पिता की मौत के बाद सुमन ने अपनी मां के मोबाइल में ऐसा क्या देखा?

‘ट्यूशन के लिए देर हो रही है… यह नेहा की बच्ची अभी तक नहीं आई. फोन करना ही पड़ेगा,’ मन ही मन बड़बड़ाती सुमन फोन की तरफ बढ़ी.

‘‘इस के भी अलग ही नखरे हैं… जब देखो जनाब का मुंह फूला रहता है,’’ सुमन ने डैड पड़े फोन को गुस्से में पटका.

अपनी सहेली को फोन करने के लिए सुमन ने मम्मी का मोबाइल उठाया तो उस में एक बिना पढ़ा मैसेज देख कर उत्सुकता से पढ़ लिया. किसी अनजान नंबर से आए इस मैसेज में एक रोमांटिक शायरी लिखी थी. आ गया होगा किसी का गलती से. दिमाग को झटकते हुए उस ने नेहा को फोन लगाया तो पता चला कि उस की तबीयत खराब है. आज नहीं आ रही. इस सारे घटनाक्रम में ट्यूशन जाने का टाइम निकल गया तो सुमन मन मार कर अपनी किताबें खोल कर बैठ गई. मगर मन बारबार उस अनजान नंबर से आए रोमांटिक मैसेज की तरफ जा रहा था.

‘कहीं सचमुच ही तो कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जो मम्मी को इस तरह के संदेश भेज रहा है,’ सोच सुमन ने फिर से मम्मी का मोबाइल उठा लिया. 1 नहीं, इस नंबर से तो कई मैसेज आए थे.

तभी बाथरूम का दरवाजा खुलने की आवाज आई तो सुमन ने घबरा कर मम्मी का मोबाइल यथास्थान रख दिया और किताब खोल कर पढ़ने का ड्रामा करने लगी.

जैसे ही मम्मी रसोई में घुसीं सुमन ने तुरंत मोबाइल से वह अनजान नंबर अपनी कौपी में नोट कर लिया. अगले दिन नेहा के मोबाइल पर वह नंबर डाल कर देखा तो किसी डाक्टर राकेश का नंबर था. कौन है डाक्टर राकेश? मम्मी से इस का क्या रिश्ता है? उस ने अपने दिमाग के सारे घोड़े दौड़ा लिए, मगर कोई सूत्र हाथ नहीं लगा.

15 वर्षीय सुमन की मम्मी सुधा एक सिंगल पेरैंट हैं. उस के पापा एक जांबाज और ईमानदार पुलिस अधिकारी थे. खनन और ड्रग माफिया दोनों उन के दुश्मन बने हुए थे. अवैध खनन रोकने के विरोध में एक दिन कुछ बदमाशों ने उन की सरकारी जीप पर ट्रक चढ़ा दिया. जख्मी हालत में अस्पताल ले जाते समय उन की रास्ते में ही मौत हो गई. सुधा ने स्नातक तक की पढ़ाई की थी, इसलिए उन्हें सरकारी नियमानुसार पुलिस विभाग में अनुकंपा के आधार पर लिपिक की नौकरी मिल गई. मांबेटी की आर्थिक समस्या तो दूर हो गई, मगर सुधा के औफिस जाने के बाद सुमन जब स्कूल से घर लौटती तो मां के औफिस से वापस आने तक अकेली रहती. उस की सुरक्षा की चिंता सुधा को औफिस में भी सताती रहती. कुछ समय तक तो सुमन की दादी उस के साथ रही थीं. फिर एक दिन वे भी इस दुनिया से चल दीं.

मांबेटी फिर से अकेली हो गईं. बहुत सोचविचार कर सुधा ने अपने घर की ऊपरी मंजिल पर बना कमरा डाक्टर रानू को किराए पर दे दिया. उस की ड्यूटी अकसर नाइट में होती थी. रानू सुधा को दीदी कहती थी और बड़ी बहन सा मान भी देती थी. अब सुधा सुमन की तरफ से बेफिक्र हो कर अपनी नौकरी कर रही थीं. सुमन पढ़ाई में काफी होशियार थी. उस के पापा उसे इंजीनियर बनाना चाहते थे. वह भी उन का सपना पूरा करना चाहती थी, इसलिए स्कूल के बाद शाम को अपनी सहेली नेहा के साथ प्रीइंजीनियरिंग प्रतियोगी परीक्षा की ट्यूशन ले रही थी.

अगले दिन सुबहसुबह ज्यों ही मम्मी के मोबाइल में एसएमएस अलर्ट बजा, स्कूल जाती सुमन का ध्यान अनायास पहले मोबाइल पर और फिर मम्मी के चेहरे की तरफ चला गया. मम्मी को मुसकराते देख उस के चेहरे का रंग उड़ गया. वह ठिठक कर वहीं खड़ी रह गई.

‘‘सुमन, स्कूल की बस मिस हो जाएगी,’’ मम्मी ने चेताया तो चेतनाशून्य सी सुमन मेन गेट की तरफ बढ़ गई.

शाम को सुधा के घर लौटते ही सुमन ने सब से पहले उन का मोबाइल मांगा. आज फिर 3 रोमांटिक शायरी वाले संदेश… ओहो, आज तो व्हाट्सऐप पर मिस्ड कौल भी. ‘कोई मैसेज तो नहीं है व्हाट्सऐप पर… हुंह डिलीट कर दिया होगा,’ सोच सुमन ने नफरत से मोबाइल एक ओर फेंक दिया.

सुधा औफिस से लौटते समय उस के मनपसंद समोसे ले कर आई थीं. ओवन में गरम कर के चाय के साथ लाईं तो सुमन ने भूख नहीं है कह खाने से मना कर दिया. सुधा को थोड़ा अटपटा तो लगा, मगर टीनऐज मूड समझते हुए इसे अधिक गंभीरता से नहीं लिया.

कुछ दिनों से सुधा को महसूस हो रहा था कि सुमन उन से खिंचीखिंची सी रह रही है. न उन से बात करती है, न ही किसी चीज की फरमाइश. कुछ पूछो तो ठीक से जवाब भी नहीं देती. कभीकभी तो सुधा को झिड़क भी देती. क्या हो गया है इस लड़की को? शायद पढ़ाई और प्रीइंजीनियरिंग कंपीटिशन का प्रैशर है. सुधा हर तरह से अपनेआप को समझाने का प्रयास करतीं और अधिक से अधिक उस के नजदीक रहने की कोशिश करतीं, मगर जितना वे पास आतीं उतना ही सुमन को अपने से दूर पातीं.

सुधा का माथा तो तब ठनका जब पीटीएम में सुमन की क्लास टीचर ने उन से अकेले में पूछा कि क्या सुमन को कोई मानसिक परेशानी है? किसी लड़केवड़के का कोई चक्कर तो नहीं? आजकल क्लास में पढ़ाई पर बिलकुल ध्यान नहीं देती. बस खोईखोई सी रहती है. जरा सा डांटते ही आंखों में आंसू भर लाती है. साथ ही नसीहत भी दे डाली कि देखिए सुमन के लिए मां और बाप दोनों आप ही हैं. उसे बेहतर परवरिश दीजिए… उसे समय दीजिए… कहीं ऐसा न हो कि वह किसी गलत राह पर चल पड़े और हाथ से निकल जाए.

‘सुमन से बात करनी ही पड़ेगी,’ सोच अपनेआप को शर्मिंदा सा महसूस करती हुई सुधा स्कूल से सीधे औफिस चली गईं. अचानक दोपहर 3 बजे रानू का फोन आया. घबराई हुई आवाज में बोली, ‘‘दीदी आप तुरंत घर आ जाइए.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘बस आप आ जाइए,’’ कह कर उस ने फोन काट दिया.

औफिस से तुरंत परमिशन ले कर सुधा टैक्सी पकड़ घर पहुंच गईं. सामने का दृश्य देख कर उन के होश उड़ गए. सुमन अर्धचेतना अवस्था में बिस्तर पर पड़ी थी. डाक्टर उस के सिरहाने बैठी थी.

‘‘क्या हुआ इसे?’’ सुधा दौड़ कर सुमन के पास पहुंचीं.

‘‘इस ने नींद की गोलियों की ओवरडोज ले ली… वह तो शुक्र है कि मैं फ्रिज से सब्जी लेने नीचे आ गई और इसे इस हालत में देख लिया वरना पता नहीं क्या होता… मैं ने इसे दवा दे कर उलटी करवा दी है. अभी बेहोश है. मगर खतरे से बाहर है,’’ रानू ने सारी बात एक ही सांस में कह डाली.

‘‘मगर इस ने ऐसा कदम क्यों उठाया?’’ दोनों के दिमाग में यही उथलपुथल चल रही थी.

तभी सुमन नीम बेहोशी की हालत में बड़बड़ाई, ‘‘मां, प्लीज मुझे अकेला छोड़ कर मत जाओ… पहले पापा, फिर दादी मां और अब तुम भी चली जाओगी तो मैं कहां जाऊंगी…’’

‘‘नहीं मेरी बच्ची… मम्मी तुम्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी… तुम्हीं तो मेरी दुनिया हो,’’ सुधा जैसे अपनेआप को दिलासा दे रही थीं.

इसी बीच सुमन को होश आ गया.

‘‘सुमन, यह क्या किया बिटिया तू ने? एक बार भी नहीं सोचा कि तेरे बाद तेरी मां का क्या होगा,’’ सुधा ने उस का सिर प्यार से सहलाते हुए भरे गले से कहा.

‘‘आप ने भी तो नहीं सोचा कि आप की बेटी का क्या होगा…’’ बात अधूरी छोड़ कर सुमन ने नफरत से मुंह फेर लिया.

‘‘मैं ने क्या गलत किया?’’

सुमन ने कोई जवाब नहीं दिया.

रानू ने कहा, ‘‘सुमन तुम एक बहादुर मां की बहादुर बेटी हो, तुम्हें ऐसी कायरता वाली हरकत नहीं करनी चाहिए थी.’’

‘‘बहादुर या चरित्रहीन?’’ सुमन बिफर पड़ी.

‘‘चरित्रहीन?’’ सुधा और रानू दोनों को जैसे एकसाथ किसी बिच्छू ने काट लिया हो.

‘‘हांहां चरित्रहीन… क्या आप बताएंगी कि कौन है यह डाक्टर राकेश जो आप को रोमांटिक संदेश भेजता है?’’ सुमन ने जलती निगाहों से सुधा से प्रश्न किया.

‘‘डाक्टर राकेश?’’ सुधा और रानू दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा.

सुधा ने कोई जवाब नहीं दिया बस खामोशी से जमीन की तरफ देखने लगीं.

‘‘देखा, कोई जवाब नहीं है न इन के पास,’’ सुमन ने फिर जहर उगला.

‘‘दीदी, आप नीचे जाइए. 3 कप कौफी बना कर लाइए. तब तक हम दोनों बैस्ट फ्रैंड्स बातें करते हैं,’’ रानू ने संयत स्वर में कहा.

रानू ने सुमन का हाथ अपने हाथ में लिया और कहने लगी, ‘‘सुमन, तुम बहुत बड़ी

गलतफहमी का शिकार हो गई हो. इस में सुधा दीदी का कोई दोष नहीं है. चरित्रहीन तुम्हारी मां नहीं, बल्कि डाक्टर राकेश है और उस से तुम्हारी मम्मी का नहीं बल्कि मेरा रिश्ता है. वह मेरा मंगेतर था, मगर मैं ने उस के चरित्र के बारे में कई लोगों से उलटासीधा सुन रखा था. बस अपना शक दूर करने के लिए मैं ने सुधा दीदी का सहारा लिया. उन के मोबाइल से राकेश को कुछ मैसेज भेजे. 3-4 मैसेज के बाद ही जैसाकि हमें शक था उस के रिप्लाई आने लगे. मैं ने जानबूझ कर बात को थोड़ा और आगे बढ़ाया तो उस के चरित्र का कच्चापन सामने आ गया. सचाई सामने आते ही मैं ने अपनी सगाई तोड़ ली.

‘‘सगाई टूटने के बाद तो राकेश और भी गिर गया. उस ने मुझ से तो अपना संबंध खत्म कर लिया, मगर तुम्हारी मम्मी के मोबाइल पर आने वाले उस के संदेश अब रोमांटिक से अश्लील होने लगे. बस 1-2 दिन में हम तुम्हारी मां की इस सिम को बदल कर नई सिम लेने वाले थे ताकि इस राकेश का सारा किस्सा ही खत्म हो जाए, मगर इस से पहले ही तुम ने यह नादानी भरी हरकत कर डाली. पगली एक बार अपनी मां से न सही, मुझ से ही अपने दिल की बात शेयर कर ली होती.’’

‘‘मुझे बहलाने की कोशिश मत कीजिए. मैं जानती हूं आप मम्मी का दोष अपने सिर ले रही हैं. मगर मम्मी का उस से कोई रिश्ता नहीं है तो वे उस के संदेश पढ़ कर मुसकराती क्यों थीं?’’ सुमन को अब भी रानू की बात पर यकीन नहीं हो रहा था.

‘‘वह इसलिए पगली कि जो रोमांटिक मैसेज मैं राकेश को भेजती थी वही मैसेज फौरवर्ड कर के वह तुम्हारी मम्मी वाले मोबाइल पर भेज देता था और दीदी की हंसी छूट जाती थी.’’

तभी सुधा कौफी ले आईं. सुमन उठने की स्थिति में नहीं थी. उस ने बैड पर लेटेलेटे ही अपनी बांहें मां की तरफ फैला दीं. सुधा ने उसे कस कर गले से लगा लिया. मांबेटी के साथसाथ डाक्टर रानू की भी आंखें भर आईं. आंसुओं में सारी गलतफहमी बह गई. मन में चुभी संदेश और अविश्वास की किरचें भी अब निकल चुकी थीं.

मेरी खातिर : मातापिता के झगड़े से अनिका की जिंदगी पर असर

कहानी- मेहर गुप्ता

‘‘निक्कीतुम जानती हो कि कंपनी के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं. मैं छोटेछोटे कामों के लिए बारबार बौस के सामने छुट्टी के लिए मिन्नतें नहीं कर सकता हूं. जरूरी नहीं कि मैं हर जगह तुम्हारे साथ चलूं. तुम अकेली भी जा सकती हो न. तुम्हें गाड़ी और ड्राइवर दे रखा है… और क्या चाहती हो तुम मुझ से?’’

‘‘चाहती? मैं तुम्हारी व्यस्त जिंदगी में से थोड़ा सा समय और तुम्हारे दिल के कोने में अपने लिए थोड़ी सी जगह चाहती हूं.’’

‘‘बस शुरू हो गया तुम्हारा दर्शनशास्त्र… निकिता तुम बात को कहां से कहां ले जाती हो.’’

‘‘अनिकेत, जब तुम्हारे परिवार में कोई प्रसंग होता है तो तुम्हारे पास आसानी से समय निकल जाता है पर जब भी बात मेरे मायके

जाने की होती है तो तुम्हारे पास बहाना हाजिर होता है.’’

‘‘मैं बहाना नहीं बना रहा हूं… मैं किसी भी तरह समय निकाल कर भी तेरे घर वालों के हर सुखदुख में शामिल होता हूं. फिर भी तेरी शिकायतें कभी खत्म नहीं होती हैं.’’

‘‘बहुत बड़ा एहसान किया है तुम ने इस नाचीज पर,’’ मम्मी के व्यंग्य पापा के क्रोध की अग्निज्वाला को भड़काने का काम करते थे.

‘‘तुम से बात करना ही बेकार है, इडियट.’’

‘‘उफ… फिर शुरू हो गए ये दोनों.’’

‘‘मम्मा व्हाट द हैल इज दिस? आप लोग सुबहशाम कुछ देखते नहीं… बस शुरू हो जाते हैं,’’ आंखें मलते हुए अनिका ने मम्मी से कहा.

‘‘हां, तू भी मुझे ही बोल… सब की बस मुझ पर ही चलती है.’’

पापा अंदर से दरवाजा बंद कर चुके थे, इसलिए मुझे मम्मी पर ही अपना रोष डालना पड़ा था.

अनिका अपना मूड अच्छा करने के लिए कौफी बना, अपने कमरे की खिड़की के पास जा खड़ी हो गई. उस के कमरे की खिड़की सामने सड़क की ओर खुलती थी, सड़क के दोनों तरफ  वृक्षों की कतारें थीं, जिन पर रात में हुई बारिश की बूंदें अटकी थीं मानो ये रात में हुई बारिश की चुगली कर रही हों. अनिका उन वृक्षों के हिलते पत्तों को, उन पर बसेरा करते पंछियों को, उन पत्तियों और शाखाओं से छन कर आती धूप की उन किरणों को छोटी आंखें कर देखने पर बनते इंद्रधनुष के छल्लों को घंटों निहारती रहती. उसे वक्त का पता ही नहीं चलता था. उस ने घड़ी की तरफ देखा 7 बज गए थे. वह फटाफटा नहाधो कर स्कूल के लिए तैयार हो गई. कमरे से बाहर निकलते ही सोफे पर बैठे चाय पीते पापा ने ‘‘गुड मौर्निंग’’ कहा.

‘‘गुड मौर्निंग… गुड तो आप लोग मेरी मौर्निंग कर ही चुके हैं. सब के घर में सुबह की शुरुआत शांति से होती पर हमारे घर में टशन और टैंशन से…’’ उस ने व्यंग्यात्मक लहजे में अपनी भौंहें चढ़ाते हुए कहा.

‘‘चलिए बाय मम्मी, बाय पापा. मुझे स्कूल के लिए देर हो रही है.’’

‘‘पर बेटे नाश्ता तो करती जाओ,’’ मम्मी डाइनिंग टेबल पर नाश्ता लगाते हुए बोली.

‘‘सुबह की इतनी सुहानी शुरुआत से मेरा पेट भर गया है,’’ और वह चली गई.

अनिका जानती थी अब उन लोगों के

बीच इस बात को ले कर फिर से बहस छिड़

गई होगी कि सुबह की झड़प का कुसूरवार

कौन है. दोनों एकदूसरे को दोषी ठहराने पर तुल गए होंगे.

शाम को अनिका देर से घर लौटी. घर जाने से बेहतर उसे लाइब्रेरी में बैठ कर

पढ़ना अच्छा लगा. वैसे भी वह उम्र के साथ बहुत एकांतप्रिय और अंतर्मुखी बनती जा रही थी. घर में तो अकेली थी ही बाहर भी वह ज्यादा मित्र बनाना नहीं सीख पाई.

‘‘मम्मी मेरा कोई छोटा भाईबहन क्यों नहीं है? मेरे सिवा मेरे सब फ्रैंड्स के भाईबहन हैं और वे लोग कितनी मस्ती करती हैं… एक मैं ही हूं… बिलकुल अकेली,’’ अनगिनत बार वह मम्मी से शिकायत कर अपने मन की बात कह चुकी थी.

‘‘मैं हूं न तेरी बैस्ट फ्रैंड,’’ हर बार मम्मी यह कह कर अनिका को चुप करा देतीं. अनिका अपने तनाव को कम करने और बहते आंसुओं को छिपाने के लिए घंटों खिड़की के पास खड़ी हो कर शून्य को निहारती रहती.

घर में मम्मीपापा उस का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. दरवाजे की घंटी बजते ही दोनों उस के पास आ गए.

‘‘आज आने में बहुत देर कर दी… फोन भी नहीं उठा रही थी… कितनी टैंशन हो गई थी हमें,’’ कह मम्मी उस का बैग कंधे से उतार कर उस के लिए पानी लेने चली गई.

‘‘हमारी इन छोटीमोटी लड़ाइयों की

सजा तुम स्वयं को क्यों देती हो,’’ ?पापा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘किस के मम्मीपापा ऐसे होंगे, जिन के बीच अनबन न रहती हो.’’

‘‘पापा, इसे हम साधारण अनबन का नाम तो नहीं दे सकते. ऐसा लगता है जैसे आप दोनों रिश्तों का बोझ ढो रहे हो. मैं ने भी दादू, दादी, मां, चाची, चाचू, बूआ, फूफाजी को देखा है पर ऐसा अनोखा प्रेम तो किसी के बीच नहीं देखा है,’’ अनिका के कटाक्ष ने पापा को निरुत्तर कर दिया था.

‘‘बेटे ऐसा भी तो हो सकता है कि तुम अतिसंवेदनशील हो?’’

पापा के प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उस ने पापा से पूछा, ‘‘पापा, मम्मी से शादी आप ने दादू के दबाव में आ कर की थी क्या?’’

पापा को 20 साल पहले की अपनी पेशी याद आ गई जब पापा, बड़े पापा और घर के अन्य सब बड़े लोगों ने उन के पैतृक गांव के एक खानदानी परिवार की सुशील और पढ़ीलिखी कन्या अर्थात् निकिता से विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था. घर वालों ने उन का पीछा तब तक नहीं छोड़ा था जब तक उन्होंने शादी के लिए हां नहीं कह दी थी.

पापा ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटे ऐसी कोई बात नहीं है… 19-20 की जोड़ी थी पर ठीक है. आधी जिंदगी निकल गई है आधी और कट ही जाएगी.’’

‘‘वाह पापा बिलकुल सही कहा आपने… 19-20 की जोड़ी है… आप उन्नीस है और मम्मा बीस… क्यों पापा सही कहा न मैं ने?’’

‘‘मम्मी की चमची,’’ कह पापा प्यार से उस का गाल थपथपा कर उठ गए.

उस दिन उस के जन्मदिन का जश्न मना कर सभी देर से घर लौटे थे. अनिका बेहद

खुश थी. वह 1-1 पल जी लेना चाहती थी.

‘‘मम्मा, आज मैं आप दोनों के बीच में सोऊंगी,’’ कहते हुए वह अपनी चादर और तकिया उन के कमरे में ले आई. वह अपनी जिंदगी में ऐसे पलों का ही तो इंतजार करती थी. उस की उम्र की अन्य लड़कियों का दिल नए मोबाइल, स्टाइलिश कपड़े और बौयफ्रैंड्स के लिए मचलता था, जबकि अनकि को खुशी के ऐसे क्षणों की ही तलाश रहती थी जब उस के मम्मीपापा के बीच तकरार न हो.

पापा हाथ में रिमोट लिए अधलेटे से टीवी पर न्यूज देख रहे थे. मम्मी रसोई में तीनों के लिए कौफी बना रही थी.

तभी फोन की घंटी बजने लगी. अमेरिका

से बूआ का वीडियोकौल थी. हमारे लिए दिन

का आखिरी पहर था, जबकि बूआ के लिए

दिन की शुरुआत थी उन्होंने अपनी प्यारी

भतीजी को जन्मदिन की शुभकामनाएं देने के

लिए फोन किया था. बोली, ‘‘हैप्पी बर्थडे माई डार्लिंग,’’

मैं ने और पापा ने कुछ औपचारिक बातों के बाद फोन मम्मी की तरफ कर दिया.

‘‘हैलो कृष्णा दीदी,’’ कह कुछ देर बात कर मम्मी ने फोन रख दिया.

‘‘दीदी ने कानों में कितने सुंदर सौलिटेयर पहन रखे थे न, दीदी की बहुत मौज है.’’

‘‘दीदी पढ़ीलिखी, आधुनिक महिला है. एक मल्टीनैशनल कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत है. खुद कमाती है और ऐश करती है.’’

जब भी बूआ यानी पापा की बड़ी बहन की बात आती थी पापा बहुत उत्साहित हो जाते थे. बहुत फक्र था उन्हें अपनी बहन पर.

‘‘आप मुझे ताना मार रहे हैं.’’

‘‘ताना नहीं मार रहा, कह रहा हूं.’’

‘‘पर आप के बोलने का तरीका तो ऐसा

ही है. मैं ने भी तो अनिका और आप के लिए अपनी नौकरी छोड़ अपना कैरियर दांव पर

लगाया न.’’

‘‘तुम अपनी टुच्ची नौकरी की तुलना दीदी की बिजनैस ऐडमिनिस्ट्रेशन की जौब से कर रही हो?’’ कहां गंगू तेली, कहां राजा भोज.

मम्मी कालेज के समय से पहले एक स्कूल में और बाद में कालेज में हिंदी पढ़ाती थीं. वे पापा के इस व्यंग्य से तिलमिला गईं.

‘‘बहुत गर्व है न तुम्हें अपनी दीदी और खुद पर… हम लोगों ने आप को किसी धोखे में नहीं रखा था. बायोडेटा पर साफ लिखा था पोस्टग्रैजुएशन विद हिंदी मीडियम. हम लोग नहीं आए थे आप लोगों के घर रिश्ता मांगने… आप के पिताजी ही आए थे हमारे खानदान की आनबान देख कर हमारी चौखट पर नाक रगड़ने…’’

‘‘निकिता, जुबान को लगाम दो वरना…’’

‘‘पहली बार अनिका ने पापा का ऐसा रौद्र रूप देखा था. इस से पहले पापा ने मम्मी पर कभी हाथ नहीं उठाया था.’’

‘‘पापा, आप मम्मी पर हाथ नहीं उठा सकते हैं. आप भी बाज नहीं आएंगे… मम्मी का दिल दुखाना जरूरी था?’’

‘‘तू भी अपनी मम्मी का पक्ष लेगी. तेरी मम्मी ठीक तरह से 2 शब्द इंग्लिश के नहीं

बोल पाती.’’

‘‘पापा, आप मम्मी की एक ही कमी को कब तक भुनाते रहोगे, मम्मी में बहुत से ऐसे गुण भी हैं जो मेरी किसी फ्रैंड की मम्मी में नहीं हैं.’’

क्षणभर में अनिका की खुशी काफूर हो गई. वह भरी आंखों के साथ उलटे पैर अपने कमरे में लौट गई.

पापा ने औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से एमबीए किया था जबकि मम्मी ने सूरत के लोकल कालेज से एमए. शायद दोनों का बौद्धिक स्तर दोनों के बीच तालमेल नहीं बैठने देता था.

अनिका ने एक बात और समझी थी पापा के गुस्से के साथ मम्मी के नाम में प्रत्ययों की संख्या और सर्वनाम भी बदलते जाते थे. वैसे पापा अकसर मम्मी को निक्कु बुलाते थे. गुस्से के बढ़ने के साथसाथ मम्मी का नाम निक्की से होता हुआ निकिता, तुम से तू और उस में ‘इडियट’ और ‘डफर’ जैसे विशेषणों का समावेश भी हो जाता था. अपने बचपन के अनुभवों से पापा द्वारा मम्मी को पुकारे गए नाम से ही अनिका पापा का मूड भांप जाती थी.

इस साल मार्च महीने से ही सूरज ने अपनी प्रचंडता दिखानी शुरू कर दी थी. ऐग्जाम

की सरगर्मी ने मौसम की तपिश को और बढ़ा दिया था. वह भी दिनरात एक कर पूरे जोश के साथ अपनी 12वीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षा में जुटी हुई थी. सुबह घर से निकलती, स्कूल कोचिंग पूरा करते हुए शाम

8 बजे तक पहुंच पाती. मम्मीपापा के साथ बिलकुल समय नहीं बिता पा रही थी. इतवार के दिन उस की नींद थोड़ी जल्दी खुल गई थी. वह सीधे हौल की तरफ गई तो नजर डाइनिंग टेबल पर रखे थर्मामीटर की

तरफ गई.

‘‘मम्मा यह थर्मामीटर क्यों निकला है?’’ उस ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘तेरे पापा को कल से तेज बुखार है. पूरी रात खांसते रहे. मुझे जरा देर को भी नींद नहीं लग पाई.’’

‘‘एकदम से गला इतना कैसे खराब हो गया? डाक्टर को दिखाया?’’

‘‘बच्चे थोड़े हैं जो हाथ पकड़ कर डाक्टर के पास ले जाऊं,’’ मम्मी के स्वर में झुंझलाहट थी.

‘‘मम्मा आप भी हद करती हैं… पापा को तेज बुखार है और आप… मानती हूं आप सारी रात परेशान हुईं. पर अपनी बात को रखने का भी एक समय होता है.’’

‘‘तू भी अपने पापा की ही तरफदारी करेगी न…’’

मेरी हालत भी पेंडुलम की तरह थी… कभी मेरी संवेदनाएं मम्मी की तरफ और कभी मम्मी से हट कर बिलकुल पापा की तरफ हो जाती थी. प्रकृति पूरा साल अपने मौसम बदलती पर हमारे घर में बारहों मास एक ही मौसम रहता था कलह और तनाव का. मैं उन दोनों के बीच की वह डोर थी जिस के सहारे उन के रिश्ते की गाड़ी डगमग करती खिंच रही थी.

उस दिन मेरा अंतिम पेपर था. मैं बहुत हलका महसूस कर रही थी. मैं अपने अच्छे परिणाम को ले कर आश्वस्त थी. आज बहुत दिनों बाद हम तीनों इकट्ठे डिनर टेबल पर थे. मम्मी ने आज सबकुछ मेरी पसंद का बनाया था.

‘‘मम्मीपापा, मैं आप दोनों से कुछ कहना चाहती हूं.’’ आज अनिका की भावभंगिता कुछ गंभीरता लिए थी, जिस के मम्मीपापा अभ्यस्त नहीं थे.

‘‘बोलो बेटे… कुछ परेशान सी लग रही हो?’’ वे दोनों एकसाथ बोल चिंतित निगाहों से उसे देखने लगे.

उस ने बहुत आहिस्ता से कहना शुरू किया जैसे कोई बहुत बड़ा रहस्य उजागर करने जा रही हो, ‘‘पापा, मैं आगे की पढ़ाई सूरत में नहीं, बल्कि अहमदाबाद से करना चाहती हूं.’’

‘‘ये कैसी बातें कर रही हो बेटा… तुम्हें तो सूरत के एनआईटी कालेज में आसानी से एडमिशन मिल जाएगा.’’

‘‘मिल तो जाएगा पापा, पर सूरत के कालेजों की रेटिंग काफी नीचे है.’’

‘‘बेटे, यह तुम्हारा ही फैसला था न कि ग्रैजुएशन सूरत से ही कर पोस्टग्रैजुएशन विदेश से कर लोगी, तुम्हारे अचानक बदले इस फैसले का कारण क्या हम जान सकते हैं?’’ पापा के माथे पर तनाव की रेखाएं साफ झलक रही थी.

घर में अनजानी खामोशी पसर गई. यह खामोशी उस खामोशी से बिलकुल अलग थी जो मम्मीपापा की बहस के बाद घर में पसर जाती थी…बस आ रही थी तो घड़ी की टिकटिक की आवाज.

अपनी जान से प्यारे अपने मम्मीपापा को उदास देख अनिका के गले से रोटी

कैसे उतर सकती थी. वह एक रोटी खा कर वाशबेसिन पर पर हाथ धोने लगी. मुंह धोने के बहाने नल से निकलते पानी के साथ उस के आंसू भी धुल गए. वह नैपकिन से अपना मुंह पोंछ रही थी तो सामने लगे आइने में उस ने देखा मम्मीपापा की निगाहें उस पर ही टिकी हैं जिन में बेबस सी अनुनय है.

‘‘आज मुझे महसूस हो रहा है कि सच में जमाना बहुत फौरवर्ड हो गया है… आखिर हमारी बेटी भी इस जमाने के तौरतरीकों बहाव में खुद को बहने से नहीं रोक पाई,’’ पापा के रुंधे स्वर

में कहा.

‘‘ये सब आप के लाडप्यार का नतीजा है, और सुनाओ उसे अपने हौस्टल लाइफ के किस्से चटखारे ले कर… तुम तो चाहते ही थे न कि तुम्हारी बेटी तुम्हारी तरह स्मार्ट बने. तो चली हमारी बेटी आजाद पंछी बन जमाने के साथ

ताल मिलाने. उस ने एक बार भी हमारे बारे में नहीं सोचा.’’

‘‘पापामम्मी के बीच चल रही बातचीत

के कुछ अंश अनिका के कानों में भी पड़ गए

थे. मम्मी ने रोरो कर अपनी आंखें सुजा ली थीं, नाक लाल हो गई थी. पर क्या किया जा

सकता था, आखिर यह उस की पूरी जिंदगी

का सवाल था.’’

आज अनिका स्कूल गई थी. उस ने अपने सारे कागजात निकलवा कर उन की फोटोकौपी बनवानी थी. वहां जा कर उसे ध्यान आया वह अपनी 10वीं और 11वीं कक्षा की मार्कशीट्स घर पर ही भूल गई है. उस ने तुरंत मम्मी को फोन लगाया, ‘‘मम्मा, मेरी अलमारी में दाहिनी तरफ की दराज में आप को लाल रंग की एक फाइल दिखेगी, उस में से प्लीज मेरी 10वीं और 11वीं की मार्कशीट्स के फोटो भेज दो.’’

फोटो भेजने के बाद उस फाइल के नीचे दबी एक गुलाबी डायरी पर लिखे सुंदर शब्दों ने मम्मी का ध्यान अपनी ओर खींचा-

‘‘की थी कोशिश, पलभर में काफूर उन लमहों को पकड़ लेने की जो पलभर पहले हमारे घर के आंगन में बिखरे पड़े थे.’’

शायद मेरे चले जाने के बाद उन दोनों का अकेलापन उन्हें एकदूसरे के करीब ले आए. इसीलिए तो अपने दिल पर पत्थर रख उसे इतना कठोर फैसला लेना पड़ा था. पेज पर तारीख 15 जून अंकित थी यानी अनिका का जन्मदिन.

मम्मी के मस्तिष्क में उस रात हुई कलह के चित्र सजीव हो गए. एक मां हो कर मैं अपनी बच्ची की तकलीफ को नहीं समझ पाई. अपने अहम की तुष्टि के लिए वक्तबेवक्त वाक्युद्ध पर उतर जाते थे बिना यह सोचे कि उस बच्ची के दिल पर क्या गुजरती होगी.

उन की नजर एक अन्य पेज पर गई,

‘‘मुझे आज रात रोतेरोते नींद लग गई और मैं

सोने से पहले बाथरूम जाना भूल गई और मेरा बिस्तर गीला हो गया. अब मैं मम्मा को क्या जवाब दूंगी.’’

पढ़कर निकिता अवाक रह गई थी. जगहजगह पर उस के आंसुओं ने शब्दों की स्याही को फैला दिया था, जो उस के कोमल मन की पीड़ा के गवाह थे. जिस उम्र में बच्चे नर्सरी राइम्ज पढ़ते हैं उस उम्र में उन की बच्ची की ये संवेदनशीलता और जिस किशोरवय में लड़कियां रोमांटिक काव्य में रुचि रखती हैं उस उम्र में

यह गंभीरता. आज अगर यह डायरी उन के

हाथ नहीं लगी होती तो वे तो अपनी बेटी के फैसले के पीछे का कठोर सच कभी जान ही

नहीं पातीं.

‘‘आप आज अनिका के घर पहुंचने से पहले घर आ जाना, मुझे आप से बहुत जरूरी बात करनी है,’’ मम्मी ने तुरंत पापा को फोन मिलाया.

‘‘निक्की, मुझे ध्यान है नया फ्रिज खरीदना है पर मेरे पास अभी उस से भी महत्त्वपूर्ण काम है… और फिलहाल सब से जरूरी है अनिका का कालेज में एडमिशन.’’

‘‘और मैं कहूं बात उस के बारे में ही है.’’

‘‘मम्मी के इस संयमित लहजे के पापा आदी नहीं थे. अत: उन की अधीरता जायज थी,’’

‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘आप घर आ जाइए, फिर शांति से बैठ कर बात करते हैं.’’

‘‘पहेलियां मत बुझाओ, साफसाफ क्यों नहीं कहती हो, जब बात अनिका से जुड़ी थी तो पापा कोई ढील नहीं छोड़ना चाहते थे. अत: काम छोड़ तुरंत घर के लिए निकल गए.’’

‘‘देखिए यह अनिका की डायरी.’’

पापा जैसेजैसे पन्ने पलटते गए, अनिका के दिल में घुटी भावनाएं परतदरपरत खुलने लगीं और पापा की आंखें अविरल बहने लगीं. मम्मी भी पहली बार पत्थर को पिघलते देख रही थी.

‘‘कितना गलत सोच रहे थे हम अपनी बेटी के बारे में इस तरह दुखी कर के तो हम उसे घर से हरगिज नहीं जाने दे सकते,’’ उन्होंने अपना फोन निकाल अनिका को मैसेज भेज दिया.

‘‘कोशिश को तेरी जाया न होने देंगे, उस कली को मुरझाने न देंगे,

जो 17 साल पहले हमारे आंगन में खिली थी.’’

‘‘शैतान का नाम लिया और शैतान हाजिर… वाह पापा आप का यह कवि रूप तो पहली बार दिखा,’’ कहती हुई अनिका घर में घुसी और मम्मीपापा को गले लगा लिया.

‘‘हमें माफ कर दे बेटा.’’

‘‘अरे, माफी तो आप लोगों से मुझे मांगनी चाहिए, मैं ने आप लोगों को बुद्धू जो बनाया.’’

‘‘मतलब?’’ मम्मीपापा आश्चर्य के साथ बोले.

‘‘मतलब यह कि घी जब सीधी उंगली से नहीं निकलता है तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है. इतनी आसानी से आप लोगों का पीछा थोड़े छोड़ने वाली हूं. हां, बस यह अफसोस है कि

मुझे अपनी डायरी आप लोगों से शेयर करनी पड़ी. पर कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता

है न?’’

‘‘अच्छा तो यह बाहर जा कर पढ़ने का फैसला सिर्फ नाटक था…’’

‘‘सौरी मम्मीपापा आप लोगों को करीब लाने का मुझे बस यही तरीका सूझा,’’ अनिका अपने कान पकड़ते हुए बोली.

‘‘नहीं बेटे, कान तुम्हें नहीं, हमें पकड़ने चाहिए.’’

‘‘हां, और मुझे इस ऐतिहासिक पल को कैमरे में कैद कर लेना चाहिए,’’ कह वह तीनों की सैल्फी लेने लगी.

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