Hindi Short Story : पहचान

Hindi Short Story : बाढ़ राहत शिविर के बाहर सांप सी लहराती लंबी लाइन के आखिरी छोर पर खड़ी वह बारबार लाइन से बाहर झांक कर पहले नंबर पर खड़े उस व्यक्ति को देख लेती थी कि कब वह जंग जीत कर लाइन से बाहर निकले और उसे एक कदम आगे आने का मौका मिले.

असम के गोलाघाट में धनसिरी नदी का उफान ताडंव करता सबकुछ लील गया है. तिनकातिनका जुटाए सामान के साथ पसीनों की लंबी फेहरिस्त बह गई है. बह गए हैं झोंपड़े और उन के साथ खड़ेभर होने तक की जमीन भी. ऐसे हालात में राबिया के भाई 8 साल के अजीम के टूटेफूटे मिट्टी के खिलौनों की क्या बिसात थी.

खिलौनों को झोंपड़ी में भर आए बाढ़ के पानी से बचाने के लिए अजीम ने न जाने क्याक्या जुगतें की, और जब झोंपड़ी ही जड़ से उखड़ गई तब उसे जिंदगी की असली लड़ाई का पता मालूम हुआ.

राबिया ने 20 साल की उम्र तक क्याक्या न देखा. वह शरणार्थी शिविर के बाहर लाइन में खड़ीखड़ी अपनी जिंदगी के पिछले सालों के ब्योरे में कहीं गुम सी हो गई थी.

राबिया अपनी मां और छोटे भाई अजीम को पास ही शरणार्थी शिविर में छोड़ यहां सरकारी राहत कैंप में खाना व कपड़ा लेने के लिए खड़ी है. परिवार के सदस्यों के हिसाब से कंबल, चादर, ब्रैड, बिस्कुट आदि दिए जा रहे थे.

2 साल का ही तो था अजीम जब उस के अब्बा की मौत हो गई थी. उन्होंने कितनी लड़ाइयां देखीं, लड़ीं, कब से वे भी शांति से दो वक्त की रोटी को दरबदर होते रहे. एक टुकड़ा जमीन में चार सांसें जैसे सब पर भारी थीं. कौन सी राजनीति, कैसेकैसे नेता, कितने छल, कितने ही झूठ, सूखी जमीन तो कभी बाढ़ में बहती जिंदगियां. कहां जाएं वे अब? कैसे जिएं? लाखों जानेअनजाने लोगों की भीड़ में तो बस वही चेहरा पहचाना लगता है जो जरा सी संवेदना और इंसानियत दिखा दे.

पैदा होने के बाद से ही देख रही थी राबिया एक अंतहीन जिहाद. क्यों? क्यों इतना फसाद था, इतनी बगावत और शोर था?

अब्बा के पास एक छोटी सी जमीन थी. धान की रोपाई, कटाई और फसल होने के बाद 2 मुट्ठी अनाज के दाने घर तक लाने के लिए उन्हें कितने ही पापड़ बेलने पड़ते. और फिर भूख और अनाज के बीच अम्मी की ढेरों जुगतें, ताकि नई फसल होने तक भूख का निवाला खुद ही न बन जाएं वे.

इस संघर्ष में भी अम्मी व अब्बा को कभी किसी से शिकायत नहीं रही. न तो सरकार से, न ग्राम पंचायती व्यवस्था से और न जमाने से. जैसा कि अकसर सोनेहीरों में खेलने वाले लोगों को रहती है. शिकायत भी क्या करें? मुसलिम होने की वजह से हर वक्त वे इस कैफियत में ही पड़े रहते कि कहीं वे बंगलादेशी घुसपैठिए न करार दे दिए जाएं. अब्बा न चाहते हुए भी इस खूनी आग की लपटों में घिर गए.

वह 2012 के जुलाई माह का एक दिन था. अब्बा अपने खेत गए हुए थे. खेत हो या घर, हमेशा कई मुद्दे सवाल बन कर उन के सिर पर सवार रहते. ‘कौन हो?’ ‘क्या हो?’ ‘कहां से हो?’ ‘क्यों हो?’ ‘कब से हो?’ ‘कब तक हो?’

इतने सारे सवालों के चक्रव्यूह में घिरे अब्बा तब भी अमन की दुआ मांगते रहते. बोडो, असमिया लोगों की आपत्ति थी कि असम में कोई बाहरी व्यक्ति न रहे. उन का आंतरिक मसला जो भी हो लेकिन आम लोग जिंदगी के लिए जिंदगी की जंग में झोंके जा चुके थे.

अब्बा खेत से न लौटे. बस, तब से भूख ने मौत के खौफ की शक्ल ले ली थी. भूख, भय, जमीन से बेदखल हो जाने का संकट, रोजीरोटी की समस्या, बच्चों की बीमारी, देशनिकाला, अंतहीन अंधेरा. घर में ही अब्बा से या कभी किसी पहचान वाले से राबिया ने थोड़ाबहुत पढ़ा था.

पागलों की तरह अम्मी को कागज का एक टुकड़ा ढूंढ़ते देखती. कभी संदूकों में, कभी बिस्तर के नीचे, कभी अब्बा के सामान में. वह सुबूत जो सिद्ध कर दे कि उन के पूर्वज 1972 के पहले से ही असम में हैं. नहीं मिल पाया कोई सुबूत. बस, जो था वह वक्त के पंजर में दफन था. अब्बा के जाने के बाद अम्मी जैसे पथरा गईर् थीं. आखिरकार 14 साल की राबिया को मां और भाई के लिए काम की खोज में जाना ही पड़ा.

कभी कहीं मकान, कभी दुकान में जब जहां काम मिलता, वह करती. बेटी की तकलीफों ने अम्मी को फिर से जिंदा होने को मजबूर कर दिया. इधरउधर काम कर के किसी तरह वे बच्चों को संभालती रहीं.

जिंदगी जैसी भी हो, चलने लगी थी. लेकिन आएदिन असमिया और अन्य लोगों के बीच पहचान व स्थायित्व का विवाद बढ़ता ही रहा. प्राकृतिक आपदा असम जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों के लिए नई बात नहीं थी, तो बाढ़ भी जैसे उनकी जिंदगी की लड़ाई का एक जरूरी हिस्सा ही था. राबिया अब तक लाइन के पहले नंबर पर पहुंच गई थी.

सामने टेबल बिछा कर कुरसी पर जो बाबू बैठे थे, राबिया उन्हें ही देख रही थी.

‘‘कार्ड निकालो जो एनआरसी पहचान के लिए दिए गए हैं.’’

‘‘कौन सा?’’ राबिया घबरा गई थी.

बाबू ने थोड़ा झल्लाते हुए कहा, ‘‘एनआरसी यानी नैशनल रजिस्टर औफ सिटिजन्स का पहचानपत्र, वह दिखाओ, वरना सामान अभी नहीं दिया जा सकेगा. जिन का नाम है, पहले उन्हें मिलेगा.’’

‘‘जी, दूसरी अर्जी दाखिल की हुई है, पर अभी बहुतों का नाम शामिल नहीं है. मेहरबानी कर के सामान दे दीजिए. मैं कई घंटे से लाइन में लगी हूं. उधर अम्मी और छोटा भाई इंतजार में होंगे.’’

मिलने, न मिलने की दुविधा में पड़ी लड़की को देख मुहरवाले कार्डधारी पीछे से चिल्लाने लगे और किसी डकैत पर टूट पड़ने जैसा राबिया पर पिल पड़ते हुए उसे धकिया कर निकालने की कोशिश में जुट गए. राबिया के लिए जैसे ‘करो या मरो’ की बात हो गई थी. 2 जिंदगियां उस की राह देख रही थीं. ऐसे में राबिया समझ चुकी थी कि कई कानूनी बातें लोगों के लिए होते हुए भी लोगों के लिए ही तकलीफदेह हो जाती हैं.

बाबू के पीछे खड़े 27-28 साल के हट्टेकट्टे असमिया नौजवान नीरद ने राबिया को मुश्किल में देख उस से कहा, ‘‘आप इधर अंदर आइए. आप बड़े बाबू से बात कर लीजिए, शायद कुछ हो सके.’’

राबिया भीड़ के पंजों से छूट कर अंदर आ गई थी. लोग खासे चिढ़े थे. कुछ तो अश्लील फब्तियां कसने से भी बाज नहीं आ रहे थे. राबिया दरवाजे के अंदर आ कर उसी कोने में दुबक कर खड़ी हो गई.

नीरद पास आया और एक मददगार की हैसियत से उस ने उस पर नजर डाली. दुबलीपतली, गोरी, सुंदर, कजरारी आंखों वाली राबिया मायूसी और चिंता से डूबी जा रही थी. उस ने हया छोड़ मिन्नतभरी नजरों से नीरद को देखा.

नीरद ने आहिस्ते से कहा, ‘‘सामान की जिम्मेदारी मेरी ही है, मैं राहत कार्य निबटा कर शाम को शिविर आ कर तुम्हें सामान दे जाऊंगा. तुम अपना नाम बता दो.’’

राबिया ने नाम तो बता दिया लेकिन खुद की इस जिल्लत के लिए खुद को ही मन ही मन कोसती रही.

नीरद भोलाभाला, धानी रंग का असमिया युवक था. वह गुवाहाटी में आपदा नियंत्रण और सहायता विभाग में सरकारी नौकर था. नौकरी, पैसा, नियम, रजिस्टर, सरकारी सुबूतों के बीच भी उस का अपना एक मानवीय तंत्र हमेशा काम करता था. और इसलिए ही वह मुश्किल में पड़े लोगों को अपनी तरफ से वह अतिरिक्त मदद कर देता जो कायदेकानूनों के आड़े आने से अटक जाते थे.

उस ने राबिया से कहा, ‘‘अभी मैं तुम्हें यहां से सामान दे दूं तो नैशनल रजिस्टर में नाम दर्ज का अलग ही बखेड़ा खड़ा होगा. तुम्हारे परिवार का नाम छूटा है इस पहचान रजिस्टर में.’’

‘‘क्या करें, हम भी उन 40 लाख समय के मारों में शामिल हैं, जिन के सरकारी रजिस्टर में नागरिक की हैसियत से नाम दर्ज नहीं हैं. अब्बा नहीं हैं. जिंदगी जीने के लाले पड़े हुए हैं. नाम दर्ज करवाने के झमेले कैसे उठाएं?’’

‘‘ठीक है, तुम लोग पास ही के सरकारी स्कूल में बने शरणार्थी शिविरों में रह रहे हो न. मैं काम खत्म कर के 6 बजे तक सामान सहित वहां पहुंच जाऊंगा. तुम फिक्र न करो, मैं जरूर आऊंगा?’’

शिविर में आ कर राबिया की आंखें घड़ी पर और दिल दरवाजे पर अटका रहा. 2 कंबल, चादर और खानेपीने के सामान के साथ नीरद राबिया के पास पहुंच चुका था.

अम्मी तो धन्यवाद करते बिछबिछ जाती थीं. राबिया ने बस एक बार नीरद की आंखों में देखा. नीरद ने भी नजरें मिलाईं. क्या कुछ अनकहा सा एकदूसरे के दिल में समाया, यह तो वही जानें, बस, इतना ही कह सकते हैं कि धनसिरी की इस बाढ़ ने भविष्य के गर्भ में एक अपठित महाकाव्य का बीज ला कर रोप दिया था.

शरणार्थी शिविर में रोज का खाना तो दिया जाता था लेकिन नैशनल रजिस्टर औफ सिटिजन्स में जिन का नाम नहीं था, बिना किसी तकरार के वे भेदभाव के शिकार तो थे ही, इस मामले में आवाज उठाने की गुंजाइश भी नहीं थी क्योंकि स्थानीय लोगों की मानसिकता के अनुरूप ही था यह सबकुछ.

बात जब गलतसही की होती है, तब यह सुविधाअसुविधा और इंसानियत पर भी रहनी चाहिए. लेकिन सच यह है कि लोगों की तकलीफों को करीब से देखने के लिए हमेशा एक अतिरिक्त आंख चाहिए होती है.

बेबसी, अफरातफरी, इतिहास की खूनी यादें, बदले की झुलसाती आग, अपनेपरायों का तिकड़मी खेल और भविष्य की भूखी चिंता. राबिया के पास इंतजार के सिवा और कुछ न था.

नीरद जबजब आ जाता, राबिया, अजीम और उन की अम्मी की सांसें बड़ी तसल्ली से चलने लगतीं, वरना वही खौफ, वही बेचैनी.

राबिया नीरद से काफीकुछ कहना चाहती, लेकिन मौन रह जाती. हां, जितना वह मौन रहती उस का अंतर मुखर हो जाता. वह रातरातभर करवटें लेती. भीड़ और चीखपुकार के बीच भी मन के अंदर एक खाली जगह पैदा हो गई थी उस के. राबि?या के मन की उस खाली जगह में एक हरा घास का मैदान होता, शाम की सुहानी हवा और पेड़ के नीचे बैठा नीरद. नीरद की गोद में सिर रखी हुई राबिया. नीरद कुछ दूर पर बहती धनसिरी को देखता हुआ राबिया को न जाने प्रेम की कितनी ही बातें बता रहा है. वह नदी, हां, धनसिरी ही है. लेकिन कोई शोर नहीं, बदला नहीं, लड़ाई और भेदभाव नहीं. सब को पोषित करने वाली अपनी धनसिरी. अपनी माटी, अपना नीरद.

आज शाम को किराए के अपने मकान में लौटते वक्त आदतानुसार नीरद आया. नीरद के यहां आते अब महीनेभर से ऊपर होने को था.

राबिया एक  कागज का टुकड़ा झट से नीरद को पकड़ा उस की नजरों से ओझल हो गई.

अपनी साइकिल पर बैठे नीरद ने कागज के टुकड़े को खोला. असमिया में लिखा था, ‘‘मैं असम की लड़की, तुम असम के लड़के. हम दोनों को ही जब अपनी माटी से इतना प्यार है तो मैं क्या तुम से अलग हूं? अगर नहीं, तो एक बार मुझ से बात करो.’’

नीरद के दिल में कुछ अजीब सा हुआ. थोड़ा सा पहचाना, थोड़ा अनजाना. उस ने कागज के पीछे लिखा, ‘‘मैं तुम्हारी अम्मी से कल बात करूंगा?’’ राबिया को चिट्ठी पकड़ा कर वह निकल गया.

चिट्ठी का लिखा मजमून पढ़ राबिया के पांवों तले जमीन खिसक गई. ‘‘पता नहीं ऐसा क्यों लिखा उस ने? कहीं शादीशुदा तो नहीं? मैं मुसलिम, कहीं इस वजह से वह गुस्सा तो नहीं हो गया? क्या मैं ने खुद को असमिया कहा तो बुरा मान गया वह? फिर जो भी थोड़ाबहुत सहारा था, छिन गया तो?’’

राबिया का दिल बुरी तरह बैठ गया. बारबार खुद को लानत भेज कर भी जब उस के दिल पर ठंडक नहीं पड़ी तो अम्मी के पास पहुंची. उन्हें भरसक मनाने का प्रयास किया कि वे तीनों यहां से चल दें. जो भी हो वह नीरद को अम्मी से बात करने से रोकना चाहती थी.

अम्मी बेटी की खुद्दारी भी समझती थीं और दुनियाजहान में अपने हालात भी, कहा, ‘‘बेटी, बाढ़ से सारे रास्ते कटे पड़े हैं. कोई ठौर नहीं, खाना नहीं, फिर जिल्लत जितनी यहां है, उस से कई गुना बाहर होगी. जान के लाले भी पड़ सकते हैं. नन्हे अजीम को खतरा हो सकता है. तू चिंता न कर, मैं सब संभाल लूंगी.’’

शाम को कुछ रसद के साथ नीरद हाजिर हुआ और सामान राबिया को पकड़ा कर अम्मी के पास जा बैठा. अम्मी का हाथ अपने हाथों में ले कर उस ने कहा, ‘‘राबिया की वजह से आप से और अजीम से जुड़ा. अब मैं सचमुच यह चाहता हूं कि आप तीनों मेरे साथ गुवाहाटी चलें. जब मेरा यहां का काम खत्म हो जाए तब मैं आप सब से हमेशा के लिए बिछुड़ना नहीं चाहता. गुवाहाटी में मैं राबिया को एक एनजीओ संस्था में नौकरी दिलवा दूंगा. अजीम का दाखिला भी स्कूल में हो जाएगा. आप सिलाई वगैरह का कोई काम देख लेना. और रहने की चिंता बिलकुल न करिए. वहां हमारा अपना घर है. आप को किसी चीज की कोई चिंता न होने दूंगा.’’

राबिया की तो जैसे रुकी हुई सांस अचानक चल पड़ी थी. बारिश में लथपथ हवा जैसे वसंत की मीठी बयार बन गई थी. अम्मी ने नीरद के गालों को अपनी हथेलियों में भर कर कहा, ‘‘बेटा, जैसा कहोगे, हम वैसा ही करेंगे. अब तुम्हें हम सब अपना ही नहीं, बल्कि जिगर का टुकड़ा भी मानते हैं.’’

अजीम यहां से जाने की बात सुन नीरद की पीठ पर लद कर नीरद को दुलारने लगा. नीरद ने राबिया की ओर देखा. राबिया मारे खुशी के बाहर दौड़ गई. वह अपनी खुशी की इस इंतहा को सब पर जाहिर कर शर्मसार नहीं होना चाहती थी जैसे.

महीनेभर बाद वे गुवाहाटी आ गए थे. नीरद के दोमंजिला मकान से लगी खाली जगह में एक छोटा सा आउटहाउस किस्म का था, शायद माली आदि के लिए. छत पर ऐसबेस्टस था. लेकिन छोटा सा 2 कमरे वाला हवादार मकान था. बरामदे के एक छोर पर रसोई के लिए जगह घेर दी गई थी. वहां खिड़की थी तो रोशनी की भी सहूलियत थी. पीछे छोटा सा स्नानघर आदि था. एक अदद सूखी जमीन पैर रखने को, एक छत सिर ढांपने को, बेटी राबिया की एनजीओ में नौकरी, अजीम का सरकारी स्कूल में दाखिला और खुद अम्मी का एक टेलर की दुकान पर सिलाई का काम कर लेना- इस से ज्यादा उन्हें चाहिए भी क्या था.

पर बात यह भी थी कि उन के लिए इतना पाना ही काफी नहीं रहा. नैशनल रजिस्टर औफ सिटिजन्स का सवाल तलवार बन कर सिर पर टंगा था. अगर जी लेना इतना आसान होता तो लोग पीढ़ी दर पीढ़ी एक आशियाने की तलाश में दरबदर क्यों होते? क्यों लोग अपनी कमाई हुई रोटी पर भी अपना हक जताने के लिए सदियों तक लड़ाई में हिस्सेदार होते? नहीं था इतना भी आसान जीना.

अभी 3-4 दिन हुए थे कि नीरद की मां आ पहुंची उन से मिलने. राबिया की मां ने सोचा था कि वे खुद ही उन से मिलने जाएंगी, लेकिन नीरद ने मना कर दिया था. जब तक वे दुआसलाम कर के उन के बैठने के लिए कुरसी लातीं, नीरद की मां ने तोप के गोले की तरह सवाल दागने शुरू किए.

‘‘नीरद ढंग से बताता कुछ नहीं, आप लोग हैं कौन? धर्मजात क्या है आप की? आप की बेटी रोज कहां जाती है? नीरद ने किराया कुछ बताया भी है या नहीं? हम ने यह घर माली के लिए बनवाया था. अब जब तक आप लोग हो, मेरा बगीचा फिर से सही कर देना. वैसे, हो कब तक आप लोग?’’

अम्मी ने हाथ जोड़ दिए, कहा, ‘‘दीदी, नीरद बड़ा अच्छा बच्चा है. बाढ़ में हमारा घरबार सब डूब गया. समय थोड़ा सही हो जाए, चले जाएंगे.’’

सिर से पांव तक राबिया की अम्मी को नीरद की मां ने निहारा और कहा, ‘‘घरवालों के सीने में मूंग दल कर बाहर वालों पर रहमकरम कर रहा है, अच्छा बच्चा तो होगा ही.’’

नीरद की मां का इस तरह बोल कर निकल जाना अम्मी को काफी मायूस कर गया. अब चोरों की तरह अपनी ही नजरों से खुद को छिपाना भारी हो गया था. हमेशा बस यही डर कि किसी को पता न लग जाए कि वे सरकारी लिस्ट के बाहर के लोग हैं. जाने कितनी पुश्तों से इस माटी में रचेबसे अब अचानक खुद को घुसपैठिए सा महसूस करने लगे हैं. जैसे धरती पर बोझ. जैसे चोरी की जिंदगी छिपाए नहीं छिप रही.

भरोसा उन्हें इस अनजान धरती पर भले ही नीरद का था, लेकिन काम के सिलसिले में वह भी तो अकसर शहर से बाहर ही रहता. इस घटना को अभी 4-5 दिन बीते होंगे. नीरद अभी भी शहर से बाहर ही था और दूसरे दिन आने वाला था. राबिया ने शाम को अपनी रसोई की खिड़की से एक साया सा देखा. वह साया एक पल को खिड़की के सामने रुक कर तुरंत हट गया.

उस रात थोड़ा डर कर भी वह शांत रह गई, किसी से कुछ नहीं कहा. नीरद दूसरे दिन घर वापस आया और उन से मिला भी, लेकिन बात आईगईर् हो गई. नीरद 3 दिनों बाद फिर शहर से बाहर गया. शाम को रसोई की खिड़की के बाहर राबिया ने फिर एक आकृति देखी. एक पल रुक कर वह आकृति सामने से हट गई. राबिया दौड़ कर बाहर गई. कोई नहीं था. राबिया पसोपेश में थी. अम्मी खामख्वाह परेशान हो जाएंगी. यह सोच कर वह बात को दबा गई.

हां, राबिया को इन सब से छुट्टी नहीं मिली. खिड़की, एक आकृति, इन सब का डर और फिर बाहर झपटना और कुछ न देख पाना. राबिया मानसिक रूप से लगातार टूट रही थी.

अगले हफ्ते नीरद वापस आया तो उसे सारी बातें बताने की सोच कर भी वह डर कर पहले चुप रह गई.

दरअसल, राबिया का डर लाजिमी था. एक तो नीरद ने उन दोनों के आपसी रिश्ते पर अब तक बात नहीं की थी, दूसरे, अम्मी और अजीम की जिंदगी राबिया की किसी गलती की वजह से अधर में न लटक जाए. दरअसल, राबिया तो अब तक नीरद की चुप्पी देख खुद के एहसासों को भी खत्म कर लेने का जिगर पैदा कर चुकी थी.

खिड़की पर रोजरोज किसी का दिखना कोई छोड़ा जाने वाला मसला नहीं लगा राबिया को और उस ने हिम्मत कर ही ली कि नीरद को सारी बातें बताई जाएं.

नीरद समझदार था. उसे अंदेशा हुआ कि हो न हो कोई राबिया के लिए ही आता हो. गिद्दों की नजर पड़ने में देर ही कहां लगती है. एक परिवार को वह खुद के भरोसे उन की जमीन से उखाड़ लाया है. क्या वह राबिया के लिए कोई जिम्मेदारी महसूस करता है? क्या यह सिर्फ जिम्मेदारी ही है?

अजीम बाहर खेल रहा था, और अम्मी टेलर की दुकान से अभी तक नहीं लौटी थीं. नीरद को यह सही वक्त लगा. उस ने राबिया से कहा, ‘‘राबिया, मैं तुम से एक बात पूछना चाहता हूं.’’

राबिया की धड़कनें धनसिरी के उफानों से भी तेज चलने लगीं. आशानिराशा के बीच डोलती उस की आंखों की पुतलियां भरसक स्थिर होने की कोशिश में लगीं नीरद की आंखों से जा टकराईं.

नीरद ने कहा, ‘‘राबिया, तुम्हारा नाम मुझे लंबा लगता है, मैं तुम्हें ‘राबी’ कह कर बुलाना चाहता हूं. इजाजत है?’’

‘‘है, है, सबकुछ के लिए इजाजत है.’’

राबिया का दिल खुशी के मारे मन ही मन बल्लियों उछल पड़ा. मगर शर्मीली राबिया बर्फ की मूरत बनी एक ही जगह शांत खड़ी रही और जमीन की ओर देखती स्वीकृति में बस सिर ही हिला सकी.

नीरद ने धीरे से पूछा, ‘‘तुम्हारी पसंद में कोई लड़का है जिस से तुम शादी कर सको? मुझे बता दो, यहां मैं ही तुम सब का अपना हूं?’’

‘इस की बातें किसी पराए की तरह चुभती हैं. कभी इस ने मेरे मन को टटोलने की कोशिश नहीं की. जबकि मैं न जाने इसे कब से अपना सबकुछ…’ राबिया आक्रोश पर काबू नहीं रख सकी और नीरद के सामने अपनेआप को जैसे पूरा खोल कर रख दिया अचानक, ‘‘चूल्हे में जाए तुम्हारा अपनापन. आठों पहर दिल में कुढ़ती हूं, आंखों का पानी अब तेजाब बन गया है. अब सब्र नहीं मुझ में.’’

नीरद नजदीक आ कर उस की दोनों बांहें पकड़ उस की आंखों की गहरी झील में उतरता रहा. कितनी सीपियां यहां मोती छिपाए पड़ी हैं. वह कितना बेवकूफ था जो झिझकता ही रह गया.

राबिया प्रेम समर्पण और लज्जा से थरथरा उठी. धीरेधीरे वह नीरद के बलिष्ठ बाजुओं के घेरे में खुद को समर्पित कर उस के सीने से जा लगी.

नीरद ने उस पर अपनी पकड़ मजबूत करते हुए पूछा, ‘‘शादी करोगी मुझ से?’’

‘‘पर कैसे? तुम कर पाओगे? मेरा तो कोई नहीं, लेकिन तुम्हारा परिवार और समाज?’’

‘‘तुम प्यार करती हो न मुझ से?’’

‘‘क्या अब और भी कुछ कहना पड़ेगा मुझे?’’

‘‘फिर तुम मेरी हो चुकी, राबी. कोईर् इस सच को अब झुठला नहीं सकता.’’

नीरद के मन की हूर अब नीरद के लिए सच बन कर जमीन पर उतर चुकी थी. लेकिन इस सच को परिवार और समाज की जड़बुद्धि को कुबूल करवाना कोई हंसीखेल नहीं था.

असम के ग्रामीण इलाकों में बाढ़ का प्रकोप कुछ कम हुआ तो एनआरसी यानी नैशनल रजिस्टर औफ सिटीजन्स का प्रकरण फिर शुरू हुआ.

राबिया का परिवार अपना घरबार, जमीन खो कर जड़ से कट चुका था. अभी के हालात में दो जून की रोटी और अमन से जीने की हसरत इतनी माने रखती थी कि अम्मी और राबिया फिर से उसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहती थीं.

इधर, नीरद चाहता था कि एनआरसी की दूसरी लिस्ट में उन का नाम आ जाए. अभी नीरद इसी मामले में बात कर अपने घर की सीढि़यों से ऊपर चढ़ा ही था, और बाहर तक उसे छोड़ने आई राबिया अपने घर की तरफ मुड़ी ही थी, कि शाम के धुंधलके वाले सन्नाटे में कोई राबिया का मुंह झटके से अपने हाथों में दबा, तेजी से पीछे जंगल की ओर घसीट ले गया. वह इतनी फुरती में था कि राबिया को संभलने का मौका न मिला.

राबिया के घर के पीछे घनी अंधेरी झाडि़यों में ले जा कर उस ने राबिया को जमीन पर पटक दिया और उस के सीने पर बैठ गया. उस के चेहरे के पास अपना चेहरा ले जा कर अपना मोबाइल औन कर के उस ने अपना चेहरा दिखाया और शैतानी स्वर में पूछा, ‘‘पहचाना?’’

राबिया घृणा और भय से सिहर उठी. उस ने अपना चेहरा राबिया के चेहरे के और करीब ला कर फुसफुसा कर कहा, ‘‘जो सोचा भी नहीं जा सकता वह कभीकभी हो जाता है. अब तुम्हारे सामने 3 विकल्प हैं. पहला, तुम रोज रात को इसी जगह मेरी हसरतें पूरी करो चाहे नीरद से रिश्ता रखो. दूसरा, अपने परिवार को ले कर चुपचाप यहां से चली जाओ, किसी से बिना कुछ कहे, नीरद से भी नहीं. अंतिम विकल्प, मुझ से बगावत करो, इसी घर में रहो, नीरद को फांसो और अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहो.

‘‘वैसे, अंजाम भी सुन ही लो. 3 जिंदगियां खतरे में होंगी. नीरद, अजीम और तुम्हारी अम्मी की. हां, तुम्हें आंच नहीं आने दूंगा जानेमन. तुम तो मेरी हसरतों की आग में घी का काम करोगी.’’

सन्नाटे पर चोट सी पड़ती उस की खूंखार आवाज से बर्फ सी ठंडी पड़ चुकी राबिया दहल गई थी. उस के शरीर को अश्लील तरीके से छूता हुआ वह परे हट बैठा और अपनी कठोर हथेली में उस के गालों को भींच कर बोला, ‘‘देखा, मैं कितना शानदार इंसान हूं. मैं तुम्हें आसानी से हासिल कर सकता था, लेकिन मैं चाहता हूं तुम खुद को खुद ही मुझे सौंपो. जैसे सौंपोगी नीरद को. उफ, वह क्या मंजर होगा. तुम मेरी आगोश में होगी- और वह पल, नीरद के साथ धोखा… कयामत आएगी उस पर.

‘‘लगेहाथ यह भी बता दूं, नीरद की शादी तय हो गई है, खानदानी लड़की से, सरकारी लिस्ट वाली.’’

राबिया बेहोशी सी हालत में घर पहुंची तो यथासंभव खुद को संभाले रही और नीरद के साथ बाहर चले जाने का बहाना बना दिया. लड़की जात ही ऐसी होती है, ड्रामेबाज. कभी मां से, कभी प्रेमी, पति, भाई या पिता से झूठ बोलती ही रहती है. अपना दर्द छिपाती है, डर छिपाती है ताकि अपने निश्चित रहें, शांत और खुश रहें.

सुबह हुई तो राबिया को फिर शाम का डर सताने लगा. इतने में नीरद आ गया. उस का व्यवहार उखड़ा सा था. आते ही वह कह पड़ा, चलो, अब और नहीं रुकूंगा. रजिस्ट्री मैरिज के लिए आज ही आवेदन दे दूंगा.’’

राबिया सकते में थी. ‘‘इतनी जल्दी? सब मानेंगे कैसे?’’ फिर रजिस्ट्री होगी कैसे? वह तो सब की नजर में घुसपैठिया है.

कागज का टुकड़ा जाने कब कहां किस बाढ़ में बह गया. वे तो बेगाने ही हो गए. नीरद ने अम्मी के पांव छू लिए. कहा, ‘‘अम्मी, आप बस आशीर्वाद दे दो, बाकी मैं संभाल लूंगा. रात को घर में मां और भाई ने खूब हंगामा किया.

‘‘मां ने मेरी शादी एक नामी खानदानी परिवार में तय कर रखी है. मोटी रकम देंगे वे. मुझे कल रात यह बात पता चली. मेरे पिता की मृत्यु के बाद से मैं ही घर की जिम्मेदारी उठा रहा हूं. पिता की पैंशन से मां मनमाना खर्च करती हैं और 32 साल के मेरे निकम्मे बड़े भाई को दे देती हैं. बड़ा भाई पहली शादी से तलाक ले कर आवारागर्दी करता है. पार्टी से जुड़ा है और पार्टी फंड के नाम पर उगाही कर के जेब गरम करता है. अब इन दोनों का मेरी निजी जिंदगी में दखल मैं कतई बरदाश्त नहीं करूंगा.’’

राबिया के दिल में तूफान उठा. वह अपने साथ हुए उस भयानक हादसे को जेहन में रोक कर न रख सकी. आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा, ‘‘नीरद,’’ कहते हुए उस की हिचकियां बंध गईं. अम्मी अजीम को ले कर बाहर चली गईं.

नीरद पास आ गया था. उस की आंखों में बेइंतहा प्रेम और हाथों में अगाध विश्वास का स्पर्श था. उस ने पूछा, ‘‘क्या हुआ है, राबी? बताओ मुझे. शायद कहीं मेरा अंदेशा तो सही नहीं? तुम ही बताओ राबी?’’

‘‘तुम्हारा बड़ा भाई,’’ सिर झुकाए हुए आंसुओं की धार में राबिया के सारे मलाल बाहर निकल आए. नीरद को गुस्से में होश न रहा, चिल्ला कर पूछा, ‘‘क्या कर दिया कमजर्फ ने?’’

राबिया सकते में आ गई. नीरद के हाथ पकड़ कर विनती के स्वर में कहा, ‘‘कुछ कर नहीं पाया, मगर जंगल में खींच कर ले गया था मुझे.’’ बाकी बातें सुनते ही नीरद आपे से बाहर हो गया, कहा, ‘‘चलो थाने, रिपोर्ट लिखाएंगे.’’

‘‘आप के परिवार की इज्जत?’’

‘‘तुम्हारे दुख से बड़ी नहीं. क्या तुम ने उस का चेहरा देखा था? उस ने जैसा तुम्हें धमकाया था, वैसा वाकई कर दिखाया?’’

‘‘साफसाफ देखा मैं ने उसे. वह खुद चाहता था कि मैं उसे पहचानूं, खौफ खाऊं.’’

नीरद उन तीनों को ले कर थाने तो गया लेकिन वहां उन की नागरिकता के प्रश्न पर उन्हें जलील ही होना पड़ा. पुलिस वालों ने कहा, ‘‘तब तो पहले एनआरसी में नाम दर्ज करवाओ, फिर यहां आओ. जब हमारे यहां के नागरिक हो ही नहीं, तो हमें क्या वास्ता?’’

न्याय, अन्याय और सुखदुख की मीमांसा अब इंसानियत के हाथों में नहीं थी. बाध्य हो कर नीरद ने अपने कद्दावर दोस्त माणिक का सहारा लिया. वह एक सामाजिक संस्था का मुखिया था और समाज व राजनीतिक जीवन में उस की गहरी पैठ थी.

उस ने उन लोगों को शरण भी दी और देखभाल का जिम्मा भी लिया. नीरद भी कुछ दिन माणिक के घर से औफिस आनाजाना करता रहा.

इस बीच, नीरद ने अपने बड़े भाई की हरकतों का उस की ही पार्टी के राज्य हाईकमान से शिकायत की और उसे काबू में रखने का इशारा करते हुए उन की पार्टी की बदनामी का जिक्र किया. हाईकमान को बात समझ आ गई. उसी शाम जब वह फिर राबिया को तहसनहस करने के मंसूबे बांध उस के खाली घर के पास बिना कुछ जाने मंडरा रहा था. पार्र्टी हाईकमान के गुर्गों ने राबिया के घर के पीछे की झाडि़यों में ले जा कर उस की सारी हसरतें पूरी कर दीं. साथ ही, हाईकमान का आदेश भी सुना दिया, ‘पार्टी बदनाम हुई तो वह जिंदा नहीं बचेगा.’

इधर, यह कहानी यहां रुक तो गई, लेकिन नीरद की जिंदगी की नई कहानी कैसे शुरू हो? रजिस्ट्री तो तब होगी जब राबिया खुद को असम की लड़की साबित कर पाएगी.

पर क्या नीरद का प्रेम इन बातों का मुहताज है? जब उस ने धर्मजाति नहीं देखी तो अब नागरिकता पर अपने प्रेम की बलि चढ़ा दे?

प्रेम तो मासूम तितली सा नादान, दूसरों के दर्द, दूसरों की खुशी का वाहक  है जैसे परागकणों को तितलियां ले जाती हैं एक से दूसरे फूलों में.

नीरद ने अपना तबादला दिसपुर कर देने की अर्जी लगाई. भले ही वहां काम ज्यादा हो, लेकिन राबिया को नजदीक पाने के लिए वह कुछ ज्यादा भी मेहनत कर लेगा.

सच कहते हैं, भला मानुष कभी अकेला नहीं पड़ता. चार दुश्मन अगर उस के हों भी, सौ दोस्त भी उस के हर सुखदुख में साथ होते हैं. नीरद भी ऐसा ही था. ज्यादातर वह लोगों से मदद लेता कम था, देता अधिक था. औफिस के सारे स्टाफ वाले उस की अच्छाई के कायल थे. इसलिए कानून भले ही अड़ंगा था, मगर इंसानों ने इंसानियत का तकाजा अपने कंधों पर संभाल लिया था. नीरद और राबिया के प्यार की मासूमियत को सभी दिल से महसूस कर रहे थे और औफिस में फाइलें आगे बढ़ाते हुए उस के दिसपुर स्थानांतरण की राह प्रशस्त कर दी थी.

दिसपुर पहुंच कर नीरद और नीरद की राबी ने गुवाहाटी और दिसपुर के कुछ लोगों के सामने एकदूसरे को अपना बना लिया.

देश अभी भी बड़ी अफरातफरी में था. इंसानों पर जाति, धर्म और नागरिकता के टैग लगाने की बड़ी रेलमपेल लगी थी. इधर, नीरद और राबी ने दुनिया की रीत पर लिख दी अपने प्यार की पहचान. इंसान की सब से बड़ी पहचान राबी और उस के परिवार को मिल गई थी.

Dilchasp Kahani : कभीकभी ऐसा भी

Dilchasp Kahani :शौपिंग कर के बाहर आई तो देखा मेरी गाड़ी गायब थी. मेरे तो होश ही उड़ गए कि यह क्या हो गया, गाड़ी कहां गई मेरी? अभी थोड़ी देर पहले यहीं तो पार्क कर के गई थी. आगेपीछे, इधरउधर बदहवास सी मैं ने सब जगह जा कर देखा कि शायद मैं ही जल्दी में सही जगह भूल गई हूं. मगर नहीं, मेरी गाड़ी का तो वहां नामोनिशान भी नहीं था. चूंकि वहां कई और गाडि़यां खड़ी थीं, इसलिए मैं ने भी वहीं एक जगह अपनी गाड़ी लगा दी थी और अंदर बाजार में चली गई थी. बेबसी में मेरी आंखों से आंसू निकल आए.

पिछले साल, जब से श्रेयस का ट्रांसफर गाजियाबाद से गोरखपुर हुआ है और मुझे बच्चों की पढ़ाई की वजह से यहां अकेले रहना पड़ रहा है, जिंदगी का जैसे रुख ही बदल गया है. जिंदगी बहुत बेरंग और मुश्किल लगने लगी है.

श्रेयस उत्तर प्रदेश सरकार की उच्च सरकारी सेवा में है, सो हमेशा नौकर- चाकर, गाड़ी सभी सुविधाएं मिलती रहीं. कभी कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ी. बैठेबिठाए ही एक हुक्म के साथ सब काम हो जाता था. पिछले साल प्रमोशन के साथ जब उन का तबादला हुआ तो उस समय बड़ी बेटी 10वीं कक्षा में थी, सो मैं उस के साथ जा ही नहीं सकती थी और इस साल अब छोटी बेटी 10वीं कक्षा में है. सही माने में तो अब अकेले रहने पर मुझे आटेदाल का भाव पता चल रहा था.

सही में कितना मुश्किल है अकेले रहना, वह भी एक औरत के लिए. जिंदगी की कितनी ही सचाइयां इस 1 साल के दौरान आईना जैसे बन कर मेरे सामने आई थीं.

औरों की तो मुझे पता नहीं, लेकिन मेरे संग तो ऐसा ही था. शादी से पहले भी कभी कुछ नहीं सीख पाई क्योंकि पापा भी उच्च सरकारी नौकरी में थे, सो जहां जाते थे, बस हर दम गार्ड, अर्दली आदि संग ही रहते थे. शादी के बाद श्रेयस के संग भी सब मजे से चलता रहा. मुश्किलें तो अब आ रही हैं अकेले रह के.

मोबाइल फोन से अपनी परेशानी श्रेयस के साथ शेयर करनी चाही तो वह भी एक मीटिंग में थे, सो जल्दी से बोले, ‘‘परेशान मत हो पूरबी. हो सकता है कि नौनपार्किंग की वजह से पुलिस वाले गाड़ी थाने खींच ले गए हों. मिल जाएगी…’’

उन से बात कर के थोड़ी हिम्मत तो खैर मिली ही मगर मेरी गाड़ी…मरती क्या न करती. पता कर के जैसेतैसे रिकशा से पास ही के थाने पहुंची. वहां दूर से ही अपनी गाड़ी खड़ी देख कर जान में जान आई.

श्रेयस ने अभी फोन पर समझाया था कि पुलिस वालों से ज्यादा कुछ नहीं बोलना. वे जो जुर्माना, चालान भरने को कहें, चुपचाप भर के अपनी गाड़ी ले आना. मुझे पता है कि अगर उन्होंने जरा भी ऐसावैसा तुम से कह दिया तो तुम्हें सहन नहीं होगा. अपनी इज्जत अपने ही हाथ में है, पूरबी.

दूर रह कर के भी श्रेयस इसी तरह मेरा मनोबल बनाए रखते थे और आज भी उन के शब्दों से मुझ में बहुत हिम्मत आ गई और मैं लपकते हुए अंदर पहुंची. जो थानेदार सा वहां बैठा था उस से बोली, ‘‘मेरी गाड़ी, जो आप यहां ले आए हैं, मैं वापस लेने आई हूं.’’

उस ने पहले मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा, फिर बहुत अजीब ढंग से बोला, ‘‘अच्छा तो वह ‘वेगनार’ आप की है. अरे, मैडमजी, क्यों इधरउधर गाड़ी खड़ी कर देती हैं आप और परेशानी हम लोगों को होती है.’’

मैं तो चुपचाप श्रेयस के कहे मुताबिक शांति से जुर्माना भर कर अपनी गाड़ी ले जाती लेकिन जिस बुरे ढंग से उस ने मुझ से कहा, वह भला मुझे कहां सहन होने वाला था. श्रेयस कितना सही समझते हैं मुझे, क्योंकि बचपन से अब तक मैं जिस माहौल में रही थी ऐसी किसी परिस्थिति से कभी सामना हुआ ही नहीं था. गुस्से से बोली, ‘‘देखा था मैं ने, वहां कोई ‘नो पार्किंग’ का बोर्ड नहीं था. और भी कई गाडि़यां वहां खड़ी थीं तो उन्हें क्यों नहीं खींच लाए आप लोग. मेरी ही गाड़ी से क्या दुश्मनी है भैया,’’ कहतेकहते अपने गुस्से पर थोड़ा सा नियंत्रण हो गया था मेरा.

इतने में अंदर से एक और पुलिस वाला भी वहां आ पहुंचा. मेरी बात उस ने सुन ली थी. आते ही गुस्से से बोला, ‘‘नो पार्किंग का बोर्ड तो कई बार लगा चुके हैं हम लोग पर आप जैसे लोग ही उसे हटा कर इधरउधर रख देते हैं और फिर आप से भला हमारी क्या दुश्मनी होगी. बस, पुलिस के हाथों जब जो आ जाए. हो सकता है और गाडि़यों में उस वक्त ड्राइवर बैठे हों. खैर, यह तो बताइए कि पेपर्स, लाइसेंस, आर.सी. आदि सब हैं न आप की गाड़ी में. नहीं तो और मुश्किल हो जाएगी. जुर्माना भी ज्यादा भरना पड़ेगा और काररवाई भी लंबी होगी.’’

उस के शब्दों से मैं फिर डर गई मगर ऊपर से बोल्ड हो कर बोली, ‘‘वह सब है. चाहें तो चेक कर लें और जुर्माना बताएं, कितना भरना है.’’

मेरे बोलने के अंदाज से शायद वे दोनों पुलिस वाले समझ गए कि मैं कोई ऊंची चीज हूं. पहले वाला बोला, ‘‘परेशान मत होइए मैडम, ऐसा है कि अगर आप परची कटवाएंगी तो 500 रुपए देने पड़ेंगे और नहीं तो 300 रुपए में ही काम चल जाएगा. आप भी क्या करोगी परची कटा कर. आप 300 रुपए हमें दे जाएं और अपनी गाड़ी ले जाएं.’’

उस की बात सुन कर गुस्सा तो बहुत आ रहा था, मगर मैं अकेली कर भी क्या सकती थी. हर जगह हर कोने में यही सब चल रहा है एक भयंकर बीमारी के रूप में, जिस का कोई इलाज कम से कम अकेले मेरे पास तो नहीं है. 300 रुपए ले कर चालान की परची नहीं काटने वाले ये लोग रुपए अपनीअपनी जेब में ही रख लेंगे.

मुझ में ज्यादा समझ तो नहीं थी लेकिन यह जरूर पता था कि जिंदगी में शार्टकट कहीं नहीं मारने चाहिए. उन से पहुंच तो आप जरूर जल्दी जाएंगे लेकिन बाद में लगेगा कि जल्दबाजी में गलत ही आ गए. कई बार घर पर भी ए.सी., फ्रिज, वाशिंग मशीन या अन्य किसी सामान की सर्विसिंग के लिए मेकैनिक बुलाओ तो वे भी अब यही कहने लगे हैं कि मैडम, बिल अगर नहीं बनवाएंगी तो थोड़ा कम पड़ जाएगा. बाकी तो फिर कंपनी के जो रेट हैं, वही देने पड़ेंगे.

श्रेयस हमेशा यह रास्ता अपनाने को मना करते हैं. कहते हैं कि थोड़े लालच की वजह से यह शार्टकट ठीक नहीं. अरे, यथोचित ढंग से बिल बनवाओ ताकि कोई समस्या हो तो कंपनी वालों को हड़का तो सको. वह आदमी तो अपनी बात से मुकर भी सकता है, कंपनी छोड़ कर इधरउधर जा भी सकता है मगर कंपनी भाग कर कहां जाएगी. इतना सब सोच कर मैं ने कहा, ‘‘नहीं, आप चालान की रसीद काटिए. मैं पूरा जुर्माना भरूंगी.’’

मेरे इस निर्णय से उन दोनों के चेहरे लटक गए, उन की जेबें जो गरम होने से रह गई थीं. मुझे उन का मायूस चेहरा देख कर वाकई बहुत अच्छा लगा. तभी मन में आया कि इनसान चाहे तो कुछ भी कर सकता है, जरूरत है अपने पर विश्वास की और पहल करने की.

वैसे तो श्रेयस के साथ के कई अफसर यहां थे और पापा के समय के भी कई अंकल मेरे जानकार थे. चाहती तो किसी को भी फोन कर के हेल्प ले सकती थी लेकिन श्रेयस के पीछे पहली बार घर संभालना पड़ रहा था और अब तो नईनई चुनौतियों का सामना खुद करने में मजा आने लगा था. ये आएदिन की मुश्किलें, मुसीबतें, जब इन्हें खुद हल करती थी तो जो खुशी और संतुष्टि मिलती उस का स्वाद वाकई कुछ और ही होता था.

पूरा जुर्माना अदा कर के आत्म- विश्वास से भरी जब थाने से बाहर निकल रही थी तो देखा कि 2 पुलिस वाले बड़ी बेदर्दी से 2 लड़कों को घसीट कर ला रहे थे. उन में से एक पुलिस वाला चीखता जा रहा था, ‘‘झूठ बोलते हो कि उन मैडम का पर्स तुम ने नहीं झपटा है.’’

‘‘नाक में दम कर रखा है तुम बाइक वालों ने. कभी किसी औरत की चेन तो कभी पर्स. झपट कर बाइक पर भागते हो कि किसी की पकड़ में नहीं आते. आज आए हो जैसेतैसे पकड़ में. तुम बाइक वालों की वजह से पुलिस विभाग बदनाम हो गया है. तुम्हारी वजह से कहीं नारी शक्ति प्रदर्शन किए जा रहे हैं तो कहीं मंत्रीजी के शहर में शांति बनाए रखने के फोन पर फोन आते रहते हैं. बस, अब तुम पकड़ में आए हो, अब देखना कैसे तुम से तुम्हारे पूरे गैंग का भंडाफोड़ हम करते हैं.’’

एक पुलिस वाला बके जा रहा था तो दूसरा कालर से घसीटता हुआ उन्हें थाने के अंदर ले जा रहा था. ऐसा दृश्य मैं ने तो सिर्फ फिल्मों में ही देखा था. डर के मारे मेरी तो घिग्गी ही बंध गई. नजर बचा कर साइड से निकलना चाहती थी कि बड़ी तेजी से आवाज आई, ‘‘मैडम, मैडम, अरे…अरे यह तो वही मैडम हैं…’’

मैं चौंकी कि यहां मुझे जानने वाला कौन आ गया. पीछे मुड़ कर देखा. बड़ी मुश्किल से पुलिस की गिरफ्त से खुद को छुड़ाते हुए वे दोनों लड़के मेरी तरफ लपके. मैं डर कर पीछे हटने लगी. अब जाने यह किस नई मुसीबत में फंस गई.

‘‘मैडम, आप ने हमें पहचाना नहीं,’’ उन में से एक बोला. मुझे देख कर कुछ अजीब सी उम्मीद दिखी उस के चेहरे पर.

‘‘मैं ने…आप को…’’ मैं असमंजस में थी…लग तो रहा था कि जरूर इन दोनों को कहीं देखा है. मगर कहां?

‘‘मैडम, हम वही दोनों हैं जिन्होंने अभी कुछ दिनों पहले आप की गाड़ी की स्टेपनी बदली थी, उस दिन जब बीच रास्ते में…याद आया आप को,’’ अब दूसरे ने मुझे याद दिलाने की कोशिश की.

उन के याद दिलाने पर सब याद आ गया. इस गाड़ी की वजह से मैं एक नहीं, कई बार मुश्किल में फंसी हूं. श्रेयस ने यहां से जाते वक्त कहा भी था, ‘एक ड्राइवर रख देता हूं, तुम्हें आसानी रहेगी. तुम अकेली कहांकहां आतीजाती रहोगी. बाहर के कामों व रास्तों की तुम्हें कुछ जानकारी भी नहीं है.’ मगर तब मैं ने ही यह कह कर मना कर दिया था कि अरे, मुझे ड्राइविंग आती तो है. फिर ड्राइवर की क्या जरूरत है. रोजरोज मुझे कहीं जाना नहीं होता है. कभीकभी की जरूरत के लिए खामखां ही किसी को सारे वक्त सिर पर बिठाए रखूं. लेकिन बाद में लगा कि सिर्फ गाड़ी चलाना आने से ही कुछ नहीं होता. घर से बाहर निकलने पर एक महिला के लिए कई और भी मुसीबतें सामने आती हैं, जैसे आज यह आई और आज से करीब 2 महीने पहले वह आई थी.

उस दिन मेरी गाड़ी का बीच रास्ते में चलतेचलते ही टायर पंक्चर हो गया था. गाड़ी को एक तरफ रोकने के अलावा और कोई चारा नहीं था. बड़ी बेटी को उस की कोचिंग क्लास से लेने जा रही थी कि यह घटना घट गई. उस के फोन पर फोन आ रहे थे और मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्या करूं. गाड़ी में दूसरी स्टेपनी रखी तो थी लेकिन उसे लगाने वाला कोई चाहिए था. आसपास न कोई मैकेनिक शौप थी और न कोई मददगार. कितनी ही गाडि़यां, टेंपो, आटोरिक्शा आए और देखते हुए चले गए. मुझ में डर, घबराहट और चिंता बढ़ती जा रही थी. उधर, बेटी भी कोचिंग क्लास से बाहर खड़ी मेरा इंतजार कर रही थी. श्रेयस को फोन मिलाया तो वह फिर कहीं व्यस्त थे, सो खीझ कर बोले, ‘अरे, पूरबी, इसीलिए तुम से बोला था कि ड्राइवर रख लेते हैं…अब मैं यहां इतनी दूर से क्या करूं?’ कह कर उन्होंने फोन रख दिया.

काफी समय यों ही खड़ेखड़े निकल गया. तभी 2 लड़के मसीहा बन कर प्रकट हो गए. उन में से एक बाइक से उतर कर बोला, ‘मे आई हेल्प यू, मैडम?’

समझ में ही नहीं आया कि एकाएक क्या जवाब दूं. बस, मुंह से स्वत: ही निकल गया, ‘यस…प्लीज.’ और फिर 10 मिनट में ही दोनों लड़कों ने मेरी समस्या हल कर मुझे इतने बड़े संकट से उबार लिया. मैं तो तब उन दोनों लड़कों की इतनी कृतज्ञ हो गई कि बस, थैंक्स…थैंक्स ही कहती रही. रुंधे गले से आभार व्यक्त करती हुई बोली थी, ‘‘तुम लोगों ने आज मेरी इतनी मदद की है कि लगता है कि इनसानियत और मानवता अभी इस दुनिया में हैं. इतनी देर से अकेली परेशान खड़ी थी मैं. कोई नहीं रुका मेरी मदद को.’’ थोड़ी देर बाद फिर श्रेयस का फोन आया तो उन्हें जब उन लड़कों के बारे में बताया तो वह भी बहुत आभारी हुए उन के. बोले, ‘जहां इस समाज में बुरे लोग हैं तो अच्छे लोगों की भी कमी नहीं है.’

और आज मेरे वे 2 मसीहा, मेरे मददगार इस हालत में थे. पहचानते ही तुरंत उन के पास आ कर बोली, ‘‘अरे, यह सब क्या है? तुम लोग इस हालत में. इंस्पेक्टर साहब, इन्हें क्यों पकड़ रखा है? ये बहुत अच्छे लड़के हैं.’’

‘‘अरे, मैडम, आप को नहीं पता. ये वे बाइक सवार हैं जिन की शिकायतें लेले के आप लोग आएदिन पुलिस थाने आया करते हैं. बमुश्किल आज ये पकड़ में आए हैं. बस, अब इन के संगसंग इन के पूरे गिरोह को भी पकड़ लेंगे और आप लोगों की शिकायतें दूर कर देंगे.’’

इतना बोल कर वे दोनों पुलिस वाले उन्हें खींचते हुए अंदर ले गए. मैं भी उन के पीछेपीछे हो ली.

मुझे अपने साथ खड़ा देख कर वे दोनों मेरी तरफ बड़ी उम्मीद से देखने लगे. फिर बोले, ‘‘मैडम, यकीन कीजिए, हम ने कुछ नहीं किया है. आप को तो पता है कि हम कैसे हैं. उन मैडम का पर्स झपट कर हम से आगे बाइक सवार ले जा रहे थे और उन मैडम ने हमें पकड़वा दिया. हम सचमुच निर्दोष हैं. हमें बचा लीजिए, प्लीज…’’

एक लड़का तो बच्चों की तरह जोरजोर से रोने लगा था. दूसरा बोला, ‘‘इंस्पेक्टर साहब, हम तो वहां से गुजर रहे थे बस. आप ने हमें पकड़ लिया. वे चोर तो भाग निकले. हमें छोड़ दीजिए. हम अच्छे घर के लड़के हैं. हमारे मम्मीपापा को पता चलेगा तो उन पर तो आफत ही आ जाएगी.’’

हालांकि मैं उन्हें बिलकुल नहीं जानती थी. यहां तक कि उन का नामपता भी मुझे मालूम नहीं था लेकिन कोई भी अच्छाबुरा व्यक्ति अपने कर्मों से पहचाना जाता है. मेरी मदद कर के उन्होंने साबित कर दिया था कि वे अच्छे लड़के हैं और अब उन की मदद करने की मेरी बारी थी. ऐसे कैसे ये पुलिस वाले किसी को भी जबरदस्ती पकड़ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेंगे और गुनाहगार शहर में दंगा मचाने को आजाद घूमते रहेंगे.

मैं ने कहा, ‘‘इंस्पेक्टर साहब, मैं इन्हें जानती हूं. ये बड़े अच्छे लड़के हैं. मेरे भाई हैं. आप गलत लोगों को पकड़ लाए हैं. इन्हें छोड़ दीजिए.’’

‘‘अरे मैडम, इन के मासूम और भोले चेहरों पर मत जाइए. जब चोर पकड़ में आता है तो वह ऐसे ही भोला बनता है. बड़ी मुश्किल से तो ये दोनों पकड़ में आए हैं और आप कहती हैं कि इन्हें छोड़ दें… और फिर ये आप के भाई कैसे हुए? दोनों तो मुसलिम हैं और अभी आप ने चालान की रसीद पर पूरबी अग्रवाल के नाम से साइन किया है तो आप हिंदू हुईं न,’’ बीच में वह पुलिस वाला बोल पड़ा जिस से मैं ने अपनी गाड़ी छुड़वाई थी.

उस के बेढंगे बोलने के अंदाज पर मुझे बहुत ताव आया और बोली, ‘‘इंस्पेक्टर, कुछ इनसानियत के रिश्ते हर धर्म, हर जाति से बड़े होते हैं. वक्त पड़ने पर जो आप के काम आ जाए, आप का सहारा बन जाए, बस उस मानवतारूपी धर्म और जाति का ही रिश्ता सब से बड़ा होता है. कुछ दिन पहले मैं एक मुसीबत में फंस गई थी, उस समय मेरी मदद करने को तत्पर इन लड़कों ने मुझ से मेरी जाति और धर्म नहीं पूछा था. इन्होंने मुझ से तब यह नहीं कहा था कि अगर आप मुसलिम होंगी तभी हम आप की मदद करेंगे. इन्होंने महज इनसानियत का धर्म निभाया था और मुश्किल में फंसी मेरी मदद की थी.’’

‘‘इंस्पेक्टर साहब, शायद मेरी समझ से जो इस धर्म को अपना ले, वह इनसान सच्चा होता है, निर्दोष होता, बेगुनाह होता है, गुनहगार नहीं. उस वक्त अपनी खुशी से मैं ने इन्हें कुछ देना चाहा तो इन्होंने लिया नहीं और आप कह रहे हैं कि…’’

मेरी उन बातों का शायद उन पुलिस वालों पर कुछ असर पड़ा. लड़के भी मेरी तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखने लगे थे. एक बोला, ‘‘मैडम, आप बचा लीजिए हमें. यह जबरदस्ती की पकड़ हमारी जिंदगी बरबाद कर देगी.’’

मैं ने भरोसा दिलाते हुए उन से कहा, ‘‘डोंट वरी, कुछ नहीं होगा तुम लोगों को. अगर उस दिन मैं ने तुम्हें न जाना होता और तुम ने मेरी मदद नहीं की होती तो शायद मैं भी कुछ नहीं कर पाती लेकिन किसी की निस्वार्थ भाव से की गई सेवा का फल तो मिलता ही है. इसीलिए कहते हैं न कि जिंदगी में कभीकभी मिलने वाले ऐसे मौकों को छोड़ना नहीं चाहिए. अपनी तरफ से पूरी कोशिश करनी चाहिए कि आप के हाथों किसी का भला हो जाए.’’

मेरी बातों के प्रभाव में आया एक पुलिस वाला नरम लहजे में बोला, ‘‘देखिए मैडम, इन लड़कों को उस पर्स वाली मैडम ने पकड़वाया है. अब अगर वह अपनी शिकायत वापस ले लें तो हम इन्हें छोड़ देंगे. नहीं तो इन्हें अंदर करने के अलावा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है.’’

‘‘तो वह मैडम कहां हैं? फिर उन से ही बात करते हैं,’’ मैं ने तेजी से कहा. ऐसा लग रहा था जैसे कि कुछ अच्छा करने के लिए ऊर्जा अंदर से ही मिल रही थी और रास्ता खुदबखुद बन रहा था.

‘‘वह तो इन लोगों को पकड़वा कर कहीं चली गई हैं. अपना फोन नंबर दे गई हैं, कह रही थीं कि जब ये उन के पर्स के बारे में बता दें तो आ जाएंगी.’’

‘‘अच्छा तो उन्हें फोन कर के यहां बुलाइए. देखते हैं कि वह क्या कहती हैं? उन से ही अनुरोध करेंगे कि वह अपनी शिकायत वापस ले लें.’’

पुलिस वाले अब कुछ मूड में दिख रहे थे. एक पुलिस वाले ने फोन नंबर डायल कर उन्हें थाने आने को कहा.

फोन पहुंचते ही वह मैडम आ गईं. उन्हें देखते ही मेरे मुंह से निकला, ‘‘अरे, मिसेज सान्याल…’’ वह हमारे आफिसर्स लेडीज क्लब की प्रेसीडेंट थीं और मैं सेके्रटरी. इसी चक्कर में हम लोग अकसर मिलते ही रहते थे. आज तो इत्तफाक पर इत्तफाक हो रहे थे.

मुझे थाने में देख कर वह भी चौंक गईं. बोलीं, ‘‘अरे पूरबी, तुम यहां कैसे?’’

‘‘मिसेज सान्याल, मेरी गाड़ी को पुलिस वाले बाजार से उठा कर थाने लाए थे, उसी चक्कर में मुझे यहां आना पड़ा. पर ये लड़के, जिन्हें आप ने पकड़वाया है, असली मुजरिम नहीं हैं. आप देखिए, क्या इन्होंने ही आप का पर्स झपटा था.’’

‘‘पूरबी, पर्स तो वे मेरा पीछे से मेरे कंधे पर से खींच कर तेजी से चले गए थे. एक बाइक चला रहा था और दूसरे ने चलतेचलते ही…’’ इत्तफाक से मेरे पीछे से एक पुलिस जीप आई, जिस में ये दोनों पुलिस वाले बैठे थे. मेरी चीख सुन के इन्होंने मुझे अपनी जीप में बिठा लिया. तेजी से पीछा करने पर बाइक पर सवार ये दोनों मिले और बस पुलिस वालों ने इन दोनों को पकड़ लिया. मुझे लगा भी कि ये दोनों वे नहीं हैं, क्योंकि इतनी तेजी में भी मैं ने यह देखा था कि पीछे बैठने वाले के, जिस ने मेरा पर्स झपटा था, घुंघराले बाल नहीं थे, जैसे कि इस लड़के के हैं. वह गंजा सा था और उस ने शाल लपेट रखी थी, जबकि ये लड़के तो जैकेट पहने हुए हैं.

‘‘इन पुलिस वाले भाईसाहब से मैं ने कहा भी कि ये लोग वे नहीं हैं मगर इन्होंने मेरी सुनी ही नहीं और कहा कि अरे, आप को ध्यान नहीं है, ये ही हैं. जब मारमार के इन से आप का कीमती पर्स निकलवा लेंगे न तब आप को यकीन आएगा कि पुलिस वालों की आंखें आम आदमी से कितनी तेज होती हैं.’’

फिर मिसेज सान्याल ने तेज स्वर में उन से कहा, ‘‘क्यों, कहा था कि नहीं?’’

पुलिस वालों से तो कुछ कहते नहीं बना, लेकिन बेचारे बेकसूर लड़के जरूर अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए बोले, ‘‘मैडम, अगर हम आप का पर्स छीन कर भागे होते तो क्या इतनी आसानी से पकड़ में आ जाते. अगर आप को जरा भी याद हो तो आप ने देखा होगा कि मैं बहुत धीरेधीरे बाइक चला रहा था क्योंकि अभी कुछ दिनों पहले ही मेरे हाथ में फ्रैक्चर हो गया था. आप चाहें तो शहर के जानेमाने हड्डी रोग विशेषज्ञ डा. संजीव लूथरा से पता कर सकते हैं, जिन्होंने मेरा इलाज किया था.

‘‘हम दोनों यहां के एक मैनेजमेंट कालिज से एम.बी.ए. कर रहे हैं. आप चाहें तो कालिज से हमारे बारे में सबकुछ पता कर सकती हैं. इंस्पेक्टर साहब, आप की जरा सी लापरवाही और गलतफहमी हमारा कैरियर चौपट कर देगी. देश का कानून और देश की पुलिस जनता की रक्षा के लिए है, उन्हें बरबाद करने के लिए नहीं. हमें छोड़ दीजिए, प्लीज.’’

अब बात बिलकुल साफ हो चुकी थी. पुलिस वालों की आंखों में भी अपनी गलती मानने की झलक दिखी. मिसेज सान्याल ने भी पुलिस से अपनी शिकायत वापस लेते हुए उन लोगों को छोड़ देने और असली मुजरिम को पकड़ने की प्रार्थना की. मुझे भी अपने दिल में कहीं बहुत अच्छा लग रहा था कि मैं ने किसी की मदद कर एक नेक काम किया है.

सचमुच, जिंदगी में कभीकभी ऐसे मोड़ भी आ जाते हैं जो आप के जीने की दिशा ही बदल दें. पुलिस के छोड़ देने पर वे दोनों लड़के वाकई मेरे भाई जैसे ही बन गए. बाहर निकलते ही बोले, ‘‘आप ने पुलिस से हमें बचाने के लिए अपना भाई कहा था न, आज से हम आप के बस भाई ही हैं. अब आप को हम मैडम नहीं ‘दीदी’ कहेंगे और हमारे अलगअलग धर्म कभी हमारे और आप के पाक रिश्ते में आड़े नहीं आएंगे. हमारा मोबाइल नंबर आप रख लीजिए, कभी भी, कहीं भी, किसी भी समय अच्छीबुरी कोई बात हो, अपने इन भाइयों को जरूर याद कर लेना दीदी, हम तुरंत आप की सेवा में हाजिर हो जाएंगे.’’

उन का मोबाइल नंबर अपने मोबाइल में फीड कर के मैं मुसकरा दी थी और अपनी पकड़ी गई गाड़ी को ले कर घर आ गई. विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये सब हकीकत में मेरे साथ हुआ, लग रहा था कि जैसे किसी फिल्म की शूटिंग देख कर आ रही हूं. घर पहुंच कर, इत्मीनान से चाय के सिप लेती हुई श्रेयस को फोन किया और सब घटना उन्हें सुनाई तो खोएखोए से वह भी कह उठे, ‘‘पूरबी, होता है, कभीकभी ऐसा भी जिंदगी में…’’

Story Telling 2025 : कुछ खट्टा कुछ मीठा

Story Telling 2025 : फोनकी घंटी लगातार बज रही थी. सब्जी के पकने से पहले ही उस ने तुरंत आंच बंद कर दी और मन ही मन सोचा कि इस समय किस का फोन हो सकता है. रिसीवर उठा कर कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो ममा,’’ उधर मिनी थी.

मिनी का इस समय फोन? सोच उस ने पूछा, ‘‘तू अभी तक औफिस नहीं गई?’’

‘‘बस जा रही हूं. सोचा जाने से पहले आप को फोन कर लूं,’’ मिनी का उत्तर था.

‘‘कोई खास बात?’’ उस ने जानना चाहा.

‘‘नहीं, वैसे ही. आप ठीक हैं न?’’ मिनी ने पूछा.

‘‘लो, मुझे क्या हुआ है? भलीचंगी हूं,’’ उस ने हैरान हो कर कहा.

‘‘आप ने फोन देर से उठाया न, इसलिए पूछ रही हूं,’’ मिनी बोली.

‘‘मैं किचन में काम कर रही थी,’’ उस ने कहा.

‘‘और सुनाइए कैसा चल रहा है?’’ मिनी ने बात बढ़ाई.

‘‘सब ठीक है,’’ उस ने उत्तर दिया, पर मन ही मन सोच रही थी कि मिनी को क्या हो गया है. एक तो सुबहसुबह औफिस टाइम पर फोन और उस पर इतने इतमीनान से बात कर रही है. कुछ बात तो जरूर है.

‘‘ममा, पापा का अभी फोन आया था,’’ मिनी बोली.

‘‘पापा का फोन? पर क्यों?’’ सुन कर वह हैरान थी.

‘‘कह रहे थे मैं आप से बात कर लूं. 3-4 दिन से आप का मूड कुछ उखड़ाउखड़ा है,’’ मिनी ने संकोच से कहा.

अच्छा तो यह बात है, उस ने मन ही मन सोचा और फिर बोली, ‘‘कुछ नहीं, बस थोड़ा थक जाती हूं. अच्छा तू अब औफिस जा वरना लेट हो जाएगी.’’

‘‘आप अपना ध्यान रखा करो,’’ कह कर मिनी ने फोन काट दिया.

वह सब समझ गई . पिछले हफ्ते की बात है. वीर टीवी देख रहे थे. उस ने कहा, ‘‘आज दोपहर को आनंदजी के घर चोरी हो गई है.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘आनंदजी की पत्नी बस मार्केट तक ही गई थीं. घंटे भर बाद आ कर देखा तो सारा घर अस्तव्यस्त था. चोर शायद पिछली दीवार फांद कर आए थे. आप सुन रहे हैं न?’’ उस ने टीवी की आवाज कम करते हुए पूछा.

‘‘हांहां सब सुन रहा हूं. आनंदजी के घर चोरी हो गई है. चोर सारा घर अस्तव्यस्त कर गए हैं. वे बाहर की दीवार फांद कर आए थे वगैरहवगैरह. तुम औरतें बात को कितना खींचती हैं… खत्म ही नहीं करतीं,’’ कहते हुए उन्होंने टीवी की आवाज फिर ऊंची कर दी.

सुन कर वह हक्कीबक्की रह गई. दिनदहाड़े कालोनी में चोरी हो जाना क्या छोटीमोटी है? फिर आदमी क्या कम बोलते हैं? वह मन ही मन बड़बड़ा रही थी.

उस दिन से उस के भी तेवर बदल गए. अब वह हर बात का उत्तर हां या न में देती. सिर्फ मतलब की बात करती. एक तरह से अबोला ही चल रहा था. तभी वीर ने मिनी को फोन किया था. उस का मन फिर अशांत हो गया, ‘जब अपना मन होता तो घंटों बात करेंगे और न हो तो जरूरी बात पूछने पर भी खीज उठेंगे. बोलो तो बुरे न बोलो तो बुरे यह कोई बात हुई. पहले बच्चे पास थे तो उन में व्यस्त रहती थी. उन से बात कर के हलकी हो जाती थी, पर अब…अब,’ सोचसोच कर मन भड़क रहा था.

उसे याद आया. इसी तरह ठीक इसी तरह एक दिन रात को लेटते समय उस ने कहा,  ‘‘आज मंजू का फोन आया था, कह रही थी…’’

‘‘अरे भई सोने दो. सुबह उठ कर बात करेंगे,’’ कह कर वीर ने करवट बदल ली.

बहुत बुरा लगा कि अपने घर में ही बात करने के लिए समय तय करना पड़ता है, पर चुपचाप पड़ी रही. सुबह वाक पर मंजू मिल गई. उस ने तपाक से मुबारकबाद दी.

‘‘किस बात की मुबारकबाद दी जा रही है. कोई हमें भी तो बताए,’’ वीर ने पूछा.

‘’पिंकू का मैडिकल में चयन हो गया है. मैं ने फोन किया तो था,’’ मंजू तुरंत बोली.

‘‘पिंकू के दाखिले की बात मुझे क्यों नहीं बताई?’’ घर आ कर उन्होंने पूछा.

‘‘रात आप को बता रही थी पर आप…’’

उस की बात को बीच ही में काट कर वीर बोल उठे,  ‘‘चलो कोई बात नही. शाम को उन के घर जा कर बधाई दे आएंगे,’’ आवाज में मिसरी घुली थी.

शाम को मंजू के घर जाने के लिए तैयार हो रही थी. एकाएक याद आया कुछ दिन पहले शैलेंद्र की शादी की वर्षगांठ थी.

‘‘जल्दी से तैयार हो जाओ, हम हमेशा लेट हो जाते हैं,’’ वीर ने आदेश दिया था.

‘‘मैं तो तैयार हूं.’’

‘‘क्या कहा? तुम यह ड्रैस पहन कर जाओगी…और कोई अच्छी ड्रैस नहीं है तुम्हारे पास? अच्छे कपड़े नहीं हैं तो नए सिलवा लो,’’ वीर की प्रतिक्रिया थी.

उस ने तुरंत उन की पसंद की साड़ी निकाल कर पहन ली.

‘‘हां? अब बनी न बात,’’ आंखों में प्रशंसा के भाव थे.

अपनी तारीफ सुनना कौन नहीं चाहता. इसीलिए  तो भी उस दिन उस ने 2-3 साडि़यां निकाल कर पूछ लिया, ‘‘इन में से कौन सी पहनूं?’’

‘‘कोई भी पहन लो. मुझ से क्यों पूछती हो?’’ वीर ने रूखे स्वर में उत्तर दिया.

कहते हैं मन पर काबू रखना चाहिए, पर वह क्या करे? यादें थीं कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थीं. उस पर मिनी के फोन ने आग में घी का काम किया था. कड़ी से कड़ी जुड़ती जा रही थी. मंजू और वह एक दिन घूमने गईं. रास्ते में मंजू शगुन के लिफाफे खरीदने लगी. उस ने भी एक पैकेट ले लिया. सोचा 1-2 ले जाऊंगी तो वीर बोलेंगे कि जब खरीदने ही लगी थी तो पूरा पैकेट ले लेती.

उस के हाथ में पैकेट देखते ही वीर पूछ बैठे, ‘‘कितने में दिया.’’

‘‘30 में.’’

इतना महंगा? पूरा पैकेट लेने की क्या जरूरत थी? 1-2 ले लेती. कलपरसों हम मेन मार्केट जाने वाले हैं.’’

सुनते ही याद आया. ठीक इसी तरह एक दिन वह लक्स की एक टिक्की ले रही थी.

‘‘बस 1?’’ वीर ने टोका.

‘‘हां, बाकी मेन मार्केट से ले आएंगे,’’ वह बोली.

‘‘तुम क्यों हर वक्त पैसों के बारे में सोचती रहती हो. पूरा पैकेट ले लो. मेन मार्केट पता नहीं कब जाना हो,’’ उन का जवाब था.

वह समझ नही पा रही थी कि वह कहां गलत है और कहां सही या क्या वह हमेशा ही गलत होती है. यादों की सिलसिला बाकायदा चालू था. आज उस पर नैगेटिव विचार हावी होते जा रहे थे. पिछली बार मायके जाने पर भाभी ने पनीर के गरमगरम परांठे बना कर खिलाए थे. वीर तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे. सुनसुन कर वह ईर्ष्या से जली जा रही थी. परांठे वाकई स्वादिष्ठ थे. पर जो भी हो, कोई भी औरत अपने पति के मुुंह से किसी दूसरी औरत की प्रशंसा नहीं सुन सकती. फिर यहां तो मामला ननदभाभी का था. उस ने भी घर आ कर खूब मिर्चमसाला डाल कर खस्ताखस्ता परांठे बना डाले. पर यह क्या पहला टुकड़ा मुंह में डालते ही वीर बोल उठे,  ‘‘अरे भई, कमाल करती हो? इतना स्पाइसी… उस पर लगता है घी भी थोक में लगाया है.’’

सुन कर वह जलभुन गई. दूसरे बनाएं तो क्रिस्पी, वह बनाए तो स्पाइसी…पर कर क्या सकती थी. मन मार कर रह गई. कहते हैं न कि एक चुप सौ सुख.

मन का भटकाव कम ही नहीं हो रहा था. याद आया. उस के 2-4 दिन इधरउधर होने पर जनाब उदास हो जाते थे. बातबात में अपनी तनहाई का एहसास दिलाते, पर पिछली बार मां के बीमार होने पर 15 दिनों के लिए जाना पड़ा. आ कर उस ने रोमांचित होते हुए पूछा, ‘‘रात को बड़ा अकेलापन लगता होगा?’’

‘‘अकेलापन कैसा? टीवी देखतेदेखते कब नींद आ जाती थी, पता ही नहीं चलता था.’’

वाह रे मैन ईगो सोचसोच कर माथा भन्ना उठा सिर भी भारी हो गया. अब चाय की ललक उठ रही थी. फ्रिज में देखा, दूध बहुत कम था. अत: चाय पी कर घड़ी पर निगाह डाली, वीर लंच पर आने में समय था. पर दुकान पर पहुंची ही थी कि फोन बज उठा, ‘‘इतनी दोपहर में कहां चली गई हो? मैं घर के बाहर खड़ा हूं. मेरे पास चाबी भी नहीं है,’’ वीर एक ही सांस में सब बोल गए. आवाज से चिंता झलक रही थी.

‘‘घर में दूध नहीं था. दूध लेने आई हूं.’’

‘‘इतनी भरी दोपहर में? मुझे फोन कर दिया होता, मैं लेता आता.’’

उस के मन में आया कह दे कि फोन करने पर पैसे नहीं कटते क्या? पर नहीं जबान को लगाम लगाई .

‘‘ बोली सोचा सैर भी हो जाएगी.’’

‘‘इतनी गरमी में सैर?’’ बड़े ही कोमल स्वर में उत्तर आया.

आवाज का रूखापन पता नहीं कहां गायब हो गया था. मन के एक कोने से आवाज आई कह दे कि मार्च ही तो चल रहा है. कौन सी आग बरस रही है पर नहीं बिलकुल नहीं दिमाग बोला रबड़ को उतना ही खींचना चाहिए जिस से वह टूटे नहीं.

रहना तो एक ही छत के नीचे है न. वैसे भी अब यह सब सुनने की आदत सी हो गई है. फिर इन छोटीछोटी बातों को तूल देने की क्या जरूरत है? उस ने अपने उबलते हुए मन को समझाया और चुपचाप सुनती रही.

‘‘तुम सुन रही हो न मैं क्या कह रहा हूं?’’

‘‘हां सुन रही हूं.’’

‘‘ठीक है, तुम वहीं ठहरो. मैं गाड़ी ले कर आता हूं. सैर शाम को कर लेंगे,’’ शहद घुली आवाज में उत्तर आया.

‘‘ठीक है,’’ उस ने मुसकरा कर कहा.

‘‘इतनी मिठास. इतने मीठे की तो वह आदी नहीं है. नहीं, ज्यादा मीठा सेहत के लिए अच्छा नहीं होता, यह सोच कर वह स्वयं ही खिलखिला कर हंस पड़ी मन का सारा बोझ उतर चुका था. वह पूरी तरह हलकी हो चुकी थी.

Hindi Short Story 2025 : सुख की पहचान

Hindi Short Story 2025 : “सुनते हो, आज एटीएम से ₹10 हजार निकाल कर ले आना. राशन नहीं है घर में,” किचन से चिल्ला कर बिंदु ने अपने पति सतीश से कहा.

सतीश बाथरूम से निकलते हुए झुंझलाए स्वर में बोला,” फिर से रुपए? अभी 10 दिन पहले ही तो ₹12 हजार निकाल कर लाए थे.”

“तुम क्या सोचते हो मैं ने सारे पैसे उड़ा दिए ? खर्चे कम हैं क्या तुम्हारे घर के? बेटे के ट्यूशन में ₹ 2 हजार चले गए. दूधवाले के ₹ 2 हजार, डाक्टर की फीस में ₹ 12 सौ. तुम ने भी तो ₹4 हजार लिए थे मुझ से, सेठ का उधार चुकाने को. इस तरह के दूसरे छोटेमोटे खर्च में ही ₹ 10 हजार तक खर्च हो गए. बाकी बचे रुपए फलसब्जी आदि में लग गए.”

“देखो बिंदु मैं हिसाब नहीं मांग रहा. मगर तुम्हें हाथ दबा कर खर्च करना होगा. मैं कोई हर महीने लाख दो लाख सैलरी पाने वाला बंदा तो हूं नहीं. मकान किराए पर चढ़ाने का व्यवसाय है मेरा जो आजकल मंदा चल रहा है. ”

“तुम बताओ कौन सा खर्च रोकूं? घर के खर्चे, राशन, दूध, बिजली, पानी, सब्जी, बच्चे की पढ़ाई… इन सब में तो खर्च होने जरूरी हैं न. फिर हर महीने कुछ न कुछ ऐक्स्ट्रा खर्च भी आते ही रहते हैं. उस पर तुम ₹3-4 हजार तक की शराब भी गटक जाते हो.”

“तो क्या शराब मैं अकेला पीता हूं? तुम भी पीती ही हो न,” सतीश ने चिढ़ कर कहा.

“मैं कभीकभार तुम्हारा साथ देने को पीती हूं. पर तुम पीने के लिए जीते हो. खाना नहीं बना तो चलेगा पर शराब जरूर होनी चाहिए. फ्रिज में दूध नहीं तो चलेगा मगर अलमीरा में दारू की बोतल न हो तो हंगामा कर दोगे.”

“तुम केवल दिमाग खराब करती रहती हो मेरा… मैं ले आऊंगा रुपए,” कह कर सतीश भुनभुनाते हुए बाहर निकल गया.

ऐसे झगड़े बिंदु और सतीश के जीवन में रोज की कहानी है. मध्यवर्गीय परिवार में वैसे भी पैसों की किचकिच हमेशा चलती ही रहती है.
सतीश शराब में भी काफी रुपए फेंकता है. हजारों रुपयों की शराब तो वह बिंदु की नजर में आए बिना ही गटक जाता है. वैसे और कोई ऐब नहीं है सतीश में. मेहनत से अपना काम करता है. यारदोस्तों के सुखदुख में शरीक होने की पूरी कोशिश करता है. कभी मन खुश हो या बिजनैस अच्छा चल निकले तो बीवीबच्चे के लिए नए कपड़े और तोहफे भी खरीद कर लाता है. बस शराब के आगे बेबस हो जाता है. शराब सामने हो तो फिर उसे कुछ भी नहीं दिखता.

इस बीच देश में कोरोना के बढ़ते मामलों की वजह से लौकडाउन हो गया. सतीश को शराब खरीद कर जमा करने का मौका ही नहीं मिला. शराब की जो बोतलें अलमीरा में छिपा कर रखी थीं उन के सहारे 20- 25 दिन तो निकल गए. मगर फिर सतीश को शराब की तलब लगने लगी. शराब के बिना उस का कहीं मन नहीं लगता. वैसे भी रोजगार ठप्प पड़ गया था. प्रौपर्टी बिजनैस शून्य था. उस के पास मकान और औफिस तो था पर नकदी की कमी थी. पैसे आ नहीं रहे थे. बैंक से निकाल कर किसी तरह घर का खर्च चल रहा था. तीसरे लौकडाउन के दौरान शराब बिकने की शुरुआत हुई तो सतीश खुश हो उठा. पहले दिन तो 2-3 घंटे लाइन में लग कर उस ने अपने पास बचे रूपयों से 4-6 बोतल शराब खरीद ली. शराब के चक्कर में उसे पुलिस की लाठियां भी खानी पड़ीं. हजारों की भीड़ थी उस दिन.

अगले दिन भी वह शराब लेना चाहता था. सतीश के मन में खौफ था कि ठेके फिर से बंद न हो जाएं. इसलिए उस ने शराब स्टौक में रखने की सोची. रुपए पास में थे नहीं. बैंक अकाउंट में भी ₹ 10- 12 हजार से अधिक नहीं था. इतने रुपए तो घर के राशन के लिए जरूरी था.

सतीश अपनी बीवी के पास पहुंचा और प्यार से बोला, “यार बिंदु मुझे शराब खरीदनी है. तूने कुछ रुपए बचाए हैं तो दे दो या फिर अपने गहने…”

गहनों का नाम सुनते ही बिंदु फुफकार उठी,” खबरदार जो गहनों का नाम भी लिया. तुम ने नहीं बनवाए हैं. मेरी मां के दिए गहने हैं और इन्हें दारू खरीदने के लिए नहीं दे सकती. जाओ गटर में जा कर लोटो या शराबी दोस्तों से भीख मांगो. मगर मेरे गहनों की तरफ देखना भी मत.”

बिंदु की बात सुन कर सतीश को भी गुस्सा आ गया. उस ने बिंदु के बाल पकड़ कर खींचते हुए कहा,” कलमुंही मैं ने प्यार से बोला कि कुछ रुपए या जेवर दे दे, तो तुम्हारे भेजे में आग लग गई.”

“आग तो मैं तुम्हारे कलेजे में लगाती हूं. ठहरो… कहती हुई बिंदु गई और एक बड़ी लाठी उठा लाई,” खबरदार मेरे गहनों या पैसों को हाथ लगाया तो हाथ तोड़ दूंगी.”

“तू हाथ तोड़ेगी मेरा? ठहर अभी दिखाता हूं मैं,” सतीश ने लाठी छीन कर उसी को जमा दी.

वह अपना आपा खो चुका था. चीखता हुआ उल्टीसीधी बातें बोलने लगा,” तू नहीं दे सकती तो जा अपने यार से ले कर आ पैसे.”

“यार ? कौन सा यार पाल रखा है मैं ने? बददिमाग कहीं का. घिन नहीं आती तुझे ऐसी बातें बोलते हुए?”

“हां सतीसावित्री तो बनना मत. सारे कारनामे जानता हूं मैं. किस के लिए सजधज कर निकलती है. उसी की दुकान पर जाती है रोज मरने.”

बिंदु होश खो बैठी. दहाड़ती हुई उठी और सतीश की गरदन पकड़ कर चीखी,” एक शब्द भी तू ने मुंह से निकाला तो अभी टेंटुआ दबा दूंगी. फिर लगाते रहना इल्जाम मुझ पर.”

सतीश ने आव देखा न ताव और लाठी बिंदु के सिर पर दे मारी. वह दर्द से बिलबिलाती हुई गिर पड़ी तो सतीश ने जल्दी से अलमारी में से गहने निकाले. सामने 7 साल का पिंकू सहमा खड़ा मम्मीपापा की लड़ाई देख रहा था. सतीश ने दरवाजा भिड़ाया और तेजी से बाहर निकल आया.

10 मिनट सामने की पुलिया पर बैठा रहा. फिर सोचना शुरू किया कि अब गहने किस के पास गिरवी रखे जाएं. उसे अपने दोस्त श्यामलाल का ख्याल आया. मन में सोचा कि चलो आज उसी से रुपए मांगे जाएं.

सतीश श्यामलाल के घर के दरवाजे पर पहुंचा और दस्तक दी तो अंदर से उस की बीवी की आवाज आई,” हां जी भाईसाहब, बोलिए क्या काम है?”

“भाभी जरा श्याम को भेजना. उस से कुछ काम था.”
“माफ कीजिएगा. कोरोना के डर से वे आजकल कहीं नहीं निकलते. वैसे भी अभी तो वे सो रहे हैं. उन की तबीयत ठीक नहीं.”

“अच्छा”, कह कर सतीश ने कदम पीछे कर लिए. श्यामलाल के अलावा सुदेश से भी उस की अच्छी पटती थी. वह सुदेश के घर पहुंचा. सुदेश ने दरवाजे से ही उसे यह कह कर टरका दिया कि अभी खुद पैसों की तंगी है. कोविड-19 के इस बदहाल समय में जेवर ले कर पैसे नहीं दे सकता.

1-2 और लोगों के पास भी सतीश ने जा कर गुहार लगाई. मगर किसी ने उसे घर में घुसने भी नहीं दिया. सब ने अपनेअपने बहाने बना दिए. साथ ही सब ने उस पर यह तोहमत भी लगाई कि तू कैसा आदमी है जो ऐसे समय में पत्नी के जेवर बेचने निकला है?

सतीश के पास अब एक ही रास्ता था कि वह किसी ज्वैलर से ही संपर्क करे. उस ने ज्वैलरी की दुकान के आगे लिखे नंबर पर फोन किया. उसे उम्मीद थी कि अब काम बन जाएगा. सामने से किसी ने फोन उठाया तो सतीश ने कहा,” सर जी, मुझे गहने बेचने हैं.”

“क्यों ऐसी क्या समस्या है जो पत्नी के गहने बेच रहे हो? कौन हो तुम?”

“सर जी मुसीबत में हूं. रुपए चाहिए. इसलिए बेचना चाहता हूं.”

“सारी मुसीबतें जानता हूं मैं तुम लोगों के. जरूर दारू खरीदनी होगी तभी पैसे चाहिए. सरकार ने भी जाने क्यों ठेके खोल दिए. पैसे नहीं तो भी दारू पीनी इतनी जरूरी है.”

“हां जी जरूरी है और फ्री में रुपए देने नहीं कह रहा. गहने लो और पैसे दो,” सतीश भी भड़क उठा.

“समझा क्या है तू ने बेवकूफ? पूरा देश कोविड-19 से लड़ रहा है और तुझे अपनी तलब बुझानी है. जिंदगी में कुछ अच्छे काम भी करने चाहिए. कभी देख गरीबों के बच्चों को. 2 रोटी के लिए तरस रहे हैं. दूसरों का भला करने के लिए रुपए मांगता तो तुरंत दे देता पर तुझे तो…”

सतीश ने फोन काट दिया. इतना उपदेश सुनने के मूड में नहीं था वह. हताश हो कर वापस घर की तरफ लौट चला. कदम आगे नहीं बढ़ रहे थे. अपनी बेचारगी पर गुस्सा आ रहा था. इस महामारी ने जिंदगी बदल दी थी उस की.

वह घर पहुंचा तो देखा कि दरवाजा खुला हुआ है. अंदर बेटा एक कोने में बैठा रो रहा है और बिस्तर पर बिंदु बेसुध पड़ी है. उस के हाथों में नींद की गोलियों की डब्बी पड़ी थी. दोचार गोलियां इधरउधर बिखरी हुई थीं. बाकी गोलियां खा कर वह बेहोश हो गई थी.

सतीश की काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गई. उस ने जल्दी से ऐंबुलैंस वाले को फोन किया. बेटे को कमरे में बंद कर खुद बिंदु को गोद में उठा कर बाहर निकल आया. बिंदु को ऐंबुलेंस में बैठा कर पास वाले अस्पताल में पहुंचा तो उसे ऐंट्री करने से भी रोक दिया गया. बताया गया कि अस्पताल कोविड-19 के लिए बुक है. सतीश ने दूसरे अस्पताल का रुख किया. वहां भी उसे रिसैप्शन से ही टरका दिया गया. बिंदु की हालत खराब होती जा रही थी. इस डर से कि कहीं बिंदु को कुछ हो न जाए वह पसीने से तरबतर हो रहा था. 3-4 अस्पतालों के चक्कर लगाने पर भी जब कोई मदद नहीं मिली तो वह हार कर वापस घर लौट आया.

बिंदु को बेड पर लिटा कर वह खुद भी बगल में लुढ़क गया. रोता हुआ पिंकू भी आ कर उस से लिपट गया. सतीश को खयाल आया कि इतनी देर से पिंकू भूखा होगा. वह किचन में गया और ब्रैड गरम कर दूध के साथ पिंकू को दे दिया. खुद भी चाय पी कर सो गया.

अगले दिन उस की नींद देर से खुली. किसी तरह पिंकू को नहला कर उसे नाश्ता कराया और खुद चायब्रैड खा कर बिंदु के बगल में आ कर बैठ गया. अचेत पड़ी बिंदु पर उसे बहुत प्यार आ रहा था.

वह पुराने दिन याद करने लगा. 2- 3 महीने पहले तक उस की जिंदगी कितनी अच्छी थी. बिंदु ने कितने सलीके से घर संभाला हुआ था. बेटे और पत्नी के साथ वह एक खूबसूरत जिंदगी जी रहा था. मगर आज बिंदु को अपनी आंखों के आगे अचेत पड़ा देख मन में तड़प उठ रही थी.

बिंदु की इस हालत का जिम्मेदार वह खुद था. दारू की लत में पड़ कर उस ने अपने सुखी संसार में आग लगा ली थी. कितना बेबस था वह. कितनी कोशिश की कि बिंदु की जान बचाई जा सके. मगर हर जगह से निराश और बेइज्जत हो कर लौटना पड़ा.

कितनी दयनीय स्थिति हो गई थी उस की. बिंदु का हाथ पकड़े हुए वह उस के सीने पर सिर रख कर सिसकसिसक कर रोने लगा.

तभी उसे लगा जैसे बिंदु के शरीर में कोई हरकत हुई है. वह एकदम से उठ बैठा और बिंदु को आवाज देने लगा. बिंदु ने किसी तरह आंखें खोलीं और पानी कह कर फिर से आंखें बंद कर लीं. सतीश दौड़ कर पानी ले आया. 1-2 घूंट पी कर बिंदु फिर सो गई. शाम तक सतीश बिंदु के बगल में यह सोच कर बैठा रहा कि शायद वह फिर से आंखें खोलेगी.

शाम 5 बजे के करीब बिंदु ने फिर से आंखें खोलीं. सतीश ने उसे तुरंत पानी पिलाया. अब वह थोड़ी बेहतर लग रही थी. सतीश उस के लिए संतरे और अनार का जूस बना लाया. बिंदु की स्थिति में और भी सुधार हुआ. वह किसी तरह उठ कर बैठ गई. पिंकू को सीने से लगा कर रोने लगी.

सतीश ने अलमीरे से दारू की बची हुई बोतलें निकालीं और बिंदु के आगे ही उन बोतलों को बाहर फेंक दिया. फिर वह बिंदु को गले लगा कर रोता हुआ बोला,” बिंदु मुझे मेरा खुशहाल परिवार चाहिए दारू नहीं,” बिंदु हौले से मुसकरा उठी.

आज सतीश को असली सुख की पहचान हो गई थी.

Emotional Story In Hindi : चौकलेट चाचा

Emotional Story In Hindi : रूपल के पति का तबादला दिल्ली हो गया था. बड़े शहर में जाने के नाम से ही वह तो खिल गई थी. नया शहर, नया घर, नए तरीके का रहनसहन. बड़ी अच्छी जगह के अपार्टमैंट में फ्लैट दिया था कंपनी ने. नीचे बहुत बड़ा एवं सुंदर पार्क था, जिस में शाम के समय ज्यादातर महिलाएं अपने बच्चों को ले कर आ जातीं. बच्चे वहीं खेल लेते और महिलाएं भी हवा व बातों का आनंद लेतीं. हरीभरी घास में रंगबिरंगे कपड़े पहने बच्चे बड़े ही अच्छे लगते. रूपल ने भी सोसाइटी के रहनसहन को जल्दी ही अपना लिया और शाम के समय अपनी डेढ़ वर्षीय बेटी को पार्क में ले कर जाने लगी. एक दिन उस ने देखा कि एक बुजुर्ग के पार्क में आते ही सभी बच्चे दौड़ कर उन के पास पहुंच गए और चौकलेट चाचा, चौकलेट चाचा कह कर उन से चौकलेट लेने लगे. सभी बच्चों को चौकलेट दे वे रूपल के पास भी आए और उस से भी बातें करने लगे. फिर रूपल व उस की बेटी को भी 1-1 चौकलेट दी. पहले तो रूपल ने झिझकते हुए चौकलेट लेने से इनकार कर दिया, किंतु जब चौकलेट चाचा ने कहा कि बच्चों के चेहरे पर खुशी देख उन्हें बहुत अच्छा लगता है, तो उस ने व उस की बेटी ने चौकलेट ले ली.

पूरे अपार्टमैंट के लोग उन्हें चौकलेट चाचा के नाम से पुकारते, इसलिए अब रूपल की बेटी भी उन्हें चौकलेट चाचा कहने लगी और उन से रोज चौकलेट लेने लगी. वह भी और बच्चों की तरह उन्हें देख कर दौड़ पड़ती. ऐसा करतेकरते 6 माह बीत गए. अब तो रूपल की अपार्टमैंट में सहेलियां भी बन गई थीं. एक दिन उस की एक सहेली ने जिस की 10 वर्षीय बेटी थी, उस से पूछा, ‘‘क्या तुम चौकलेट चाचा को जानती हो?’’

रूपल ने कहा, ‘‘हां बहुत अच्छे इंसान हैं. सारे बच्चों को बहुत प्यार करते हैं.’’ उस की सहेली ने कहा, ‘‘मैं ने सुना है कि चौकलेट के बदले लड़कियों को अपने गालों पर किस करने के लिए बोलते हैं.’’

रूपल बोली, ‘‘ऐसा तो नहीं देखा.’’

सहेली ने आगाह करते हुए कहा, ‘‘तुम थोड़ा ध्यान देना इस बार जब वे पार्क में आएं.’’

रूपल ने जवाब में ‘हां’ कह दिया. अगले ही दिन जब रूपल अपनी बेटी को ले कर पार्क गई तो उस ने देखा कि चौकलेट चाचा वहां बैठे थे. उस की बेटी दौड़ कर उन के पास गई और उन के गालों पर किस कर दिया. रूपल तो यह देखते ही सन्न रह गई. वह तो समझ ही न पाई कि कब व कैसे चौकलेट चाचा ने उस की बेटी को किस करने के लिए ट्रेंड कर दिया था. वह चौकलेट के लालच में उन्हें किस करने लगी थी. अब जब भी वह पार्क में जाती तो चौकलेट चाचा को देखते ही सतर्क हो जाती और हर बार उन्हें मना करती कि वे उस की बेटी को चौकलेट न दें. वह यह भी देखती कि चौकलेट चाचा अन्य लड़कियों को गले लगाते एवं कुछ की छाती व पीठ पर भी मौका पाते ही हाथ फिरा देते. यह सब देख उसे घबराहट होने लगी थी और वह स्तब्ध रह जाती थी कि चौकलेट चाचा कैसे सब लड़कियों को ट्रेनिंग दे रहे थे और उन की मासूमियत और अपने बुजुर्ग होने का फायदा उठा रहे थे.

उस ने अपने पति को भी यह बात बताई, तो जब कभी वह अपने पति व बेटी के साथ पार्क जाती और चौकलेट चाचा को देखती तो उस के पति यह कह देते कि उन की बेटी को डाक्टर ने चौकलेट खाने के लिए मना किया है, इसलिए वे उसे न दें. पर चौकलेट चाचा तो उसे चौकलेट दिए बिना मानते ही नहीं थे. दोनों पतिपत्नी ने उन्हें कई बार समझाया, पर वे किसी न किसी तरह उन की बेटी को चौकलेट दे ही देते. अब रूपल चौकलेट चाचा को देखते ही अपनी बेटी को उन के सामने से हटा ले जाती, लेकिन चौकलेट चाचा तो अपार्टमैंट में सब जगह घूमते और उस की बेटी को चौकलेट दे ही देते. बदले में उस की बेटी उन्हें बिना बोले ही किस कर देती. अब रूपल मन ही मन डरने लगी थी कि इस तरह तो उस की बेटी चौकलेट या किसी अन्य वस्तु के लिए किसी के भी पीछे चल देगी. और वह इतनी बड़ी भी न थी कि वह उसे समझा सके. इस तरह तो कोई भी उस की बेटी को बहलाफुसला सकता है. उस ने फैसला कर लिया कि अब वह चौकलेट चाचा को मनमानी नहीं करने देगी.

अगले दिन जब चौकलेट चाचा अपने अन्य बुजुर्ग मित्रों के साथ पार्क में आए और जैसे ही उस की बेटी को चौकलेट देने लगे, वह चीख कर बोली, ‘‘मैं आप को कितनी बार बोलूं कि आप मेरी बेटी को चौकलेट न दें.’’ इस बार चौकलेट चाचा रूपल का मूड समझ गए. उन के मित्र तो इतना सुन कर वहां से नदारद हो गए. चौकलेट चाचा भी बिना कुछ बोले वहां से खिसक लिए. किसी बुजुर्ग से इस तरह व्यवहार करना रूपल को अच्छा न लगा, इसलिए वह पार्क में अकेले ही चुपचाप बैठ गई. तभी वे सभी महिलाएं जो आसपास थीं और यह सब होते देख रही थीं, उस के पास आईं. उन में से एक बोली, ‘‘हां, तुम ने ठीक किया. हम सभी चौकलेट चाचा की इन हरकतों से बहुत परेशान हैं. ये तो लिफ्ट में आतीजाती महिलाओं को भी किसी न किसी बहाने स्पर्श करना चाहते हैं. मगर इन की उम्र का लिहाज करते हुए महिलाएं कुछ बोल नहीं पातीं.’’ उस के इतना कहने पर सब एकएक कर अपनेअपने किस्से बताने लगीं. अब रूपल को समझ में आ गया था कि चौकलेट चाचा की हरकतों को कोई भी पसंद नहीं कर रहा था, लेकिन कहते हैं न कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे, इसीलिए सभी चुप थीं.

उस दिन वह गहरी सोच में पड़ गई कि क्या यही है हमारा सभ्य समाज, जहां लोग अपनी उम्र की आड़ में या फिर लोगों द्वारा किए गए लिहाज का फायदा उठाते हुए मनमानी या यों कहिए कि बदतमीजी करते हैं? और तो और मासूम बच्चों को भी नहीं छोड़ते. अब उसे अपने किए पर कोई पछतावा न था और अपने उठाए कदम की वजह से वह अपार्टमैंट की सभी महिलाओं की अच्छी सहेली बन गई थी. उस के द्वारा की गई पहल पर सब उसे बधाइयां  दे रहे थे.

Best Kahani : अंतिम फैसला

Best Kahani : रमा सुबह जल्दी उठ जाया करती थी. गांव में थी तब भी दिन की शुरुआत सुबह 5 बजे से हो जाती थी. गांव में तो करने को ढेरों काम और बहुत सारी बातें थीं लेकिन यहां शहर आ कर तो उस की जिंदगी जैसे 2 कमरों में सिमट कर रह गई थी. गांव में अच्छीखासी खेतीबाड़ी होने के बावजूद सुकेश की जिद के आगे उस की एक न चल पाई और उस के पीछे उसे गांव का भरापूरा परिवार छोड़ कर अकेले शहर आना पड़ा.

सुकेश वैसे तो प्रकृति प्रेमी युवक था और अपने खेतों से बहुत प्यार करता था, लेकिन उस की जिंदगी में कुछ नया करने की महत्त्वाकांक्षा उसे गांव की धूलमिट्टी से सनी गलियों से निकाल कर शहर की चकाचौंध वाली दुनिया में ले आई थी.

एमएससी ऐग्रीकल्चर से करने के बाद शहर की एक नामी ऐग्रीकल्चर कंपनी में उस की नौकरी लगने पर वह अकेले ही शहर आ कर रहने लगा था. रमा से शादी तो उस के बीएससी कर लेने के बाद ही हो गई थी.

रमा सुकेश की तरह बहुत पढ़ीलिखी तो न थी लेकिन गांव के स्कूल से 12वीं तक की पढ़ाई उस ने पूरी की थी. सुकेश महत्त्वाकांक्षी जरूर था लेकिन गांव और अपने परिवार के संस्कार उस की नसनस में बसे हुए थे। इसी से रमा के कम पढ़ेलिखे होने की बात उस के वैवाहिक जीवन में बाधा न बन सकी.

शादी के बाद गांव में सासससुर,  ननद और काका ससुर के संयुक्त परिवार के संग रहते हुए उसे सुकेश से दूर रहते हुए बहुत ज्यादा परेशानी नहीं हुई. वैसे तो सुकेश किसी न किसी बहाने हर महीने गांव आता रहता था लेकिन फिर भी 2 साल तक दोनों पतिपत्नी इसी तरह परदेशी की तरह अपनी गृहस्थी की गाड़ी आगे बढ़ा रहे थे. एमएससी करने के बाद नौकरी मिलते ही सुकेश जिद कर उसे अपने साथ शहर ले आया था.

गांव से यहां आ कर पिछले 1 महीने में वह सुकेश की नौकरी के समय के अनुसार उस की जरूरतों को संभालने की अभ्यस्त हो चुकी थी. सुकेश रोज सुबह 7 बजे टिफिन लेकर नौकरी के लिए निकल पड़ता और शाम को 7 बजे तक ही वापस घर आ पाता.

रमा के लिए घर में सारा दिन करने के लिए कोई खास काम न था. दिनभर टीवी के सामने बैठ कर कभी समाचार तो कभी कोई फिल्म या कोई धारावाहिक देख कर जैसेतैसे वह शहर के इस एकांतवास को भोग रही थी. बहुत मन होता तो कभी अपने मायके और कभी अपनी ससुराल में अपनी हमउम्र ननद से बतिया लेती.

सुकेश ने उसे अपनी गैरहाजरी में घर से बाहर निकलने को मना किया हुआ था और जिस फ्लैट में वे लोग रहते थे उस में अभी गिन कर 5 परिवार ही रहने आए थे. रमा 1 महीने के इस समय में यहां किसी से ज्यादा जानपहचान नहीं कर पाई थी.

किराया सस्ता पड़ने की वजह से शहर की सीमारेखा से कुछ दूरी पर होने के बावजूद भी सुकेश ने नया बना यह फ्लैट 2 महीने पहले ही किराए पर लिया था.

रोज की आदत के मुताबिक आज भी रमा की नींद तो सुबह 5 बजे ही खुल गई थी. उस ने अपनी बगल में सोए हुए सुकेश पर नजर डाली. वह अपनी आदत अनुसार सिर से पैर तक चादर ओढ़ कर चैन से सो रहा था.

पिछले कुछ दिनों शहर में चल रहे लौकडाउन की वजह से जल्दी उठ कर नौकरी जाने की कोई झंझट न थी. रमा ने पिछले 1 महीने के समय में पिछले 2 दिनों से ही सुकेश को चैन की नींद ले कर सोते देखा वरना नौकरी के कामकाज और तनाव से गुजरते हुए वह आधीआधी रात तक जागता हुआ न जाने क्या करता रहता था. रमा कुछ देर यों ही बिस्तर पर करवट ले कर पड़ी रही लेकिन फिर कुछ सोच कर उठ कर कमरे का दरवाजा खोल कर बाहर गैलरी में आकर खड़ी हो गई.

रात को हुई हलकी बारिश की वजह से सुबहसुबह चल रही ठंडी हवा का स्पर्श पा कर वह रोमांचित हो उठी.

उस पर पक्षियों का कलरव उस के मन को बरबस ही गांव की ओर खींच कर ले जाने लगा. वह इस सुंदर क्षणों को सुकेश के साथ महसूस करना चाह रही थी. उस ने खुले हुए दरवाजे से पीछे मुड़ कर देखा, सुकेश अभी भी गहरी नींद में था. एक पल को उस का मन हुआ कि सुकेश को नींद से जगाए और साथसाथ गरमगरम चाय पीते हुए दोनों गैलरी में बैठ कर खूब बातें करे लेकिन दूसरे ही पल उसे गहरी नींद में सोया पा कर उस ने अपने मन को समझा लिया. वह चुपचाप वहां खड़ी आंखें बंद कर गांव की पुरानी यादों को याद करने लगी.

काफी देर तक अपने में खोई वह वहां खड़ी रही. तभी उस के कानों में मोबाइल की रिंग की आवाज सुनाई दी.

सुकेश अपना मोबाइल अपने तकिए के नीचे ही रख कर सोया हुआ था लेकिन काफी देर तक रिंग बजने के बावजूद भी वह फोन नहीं उठा रहा था. रमा को सुकेश के इस आलसीपने पर गुस्सा आया और वह फुरती से अंदर आ गई. सुकेश के तकिए के नीचे से उस का मोबाइल उठाया तो मोबाइल स्क्रीन पर इस वक्त मि. रंजन ऐग्रीफार्मा प्राइवेट लिमिटेड नाम झलकता देख वह चौंक सी गई. सुकेश ने बातोंबातों में उसे बताया था कि मि. रंजन उस के बौस का नाम है. उस ने सुकेश को उठाने के लिए अपना हाथ आगे बढाया लेकिन तब तक रिंग आनी बंद हो गई.

रमा ने मोबाइल बिस्तर पर रखा और बड़े ही प्यार से सुकेश को उठाने के लिए चादर उस के सिर पर से खींची. सुकेश ने रमा की इस हरकत का कोई प्रतिकार नहीं किया तो रमा ने शरारत करते हुए उस के बालों को सहलाया. इस पर भी सुकेश ने अपनी कोई प्रतिक्रिया न दी. रमा ने इस दफा उसे जोर से हिलाया लेकिन सुकेश की तरफ से कोई भी हलचल न पा कर वह घबरा गई.

“सुकेश, यह क्या मजाक है. उठो न…” रमा ने कांपते हुए स्वर में एक बार फिर से उसे हिलाया. सुकेश इस बार भी न हिला और न ही अपनी तरफ से कोई प्रतिक्रिया दी. उस के शरीर में कोई हलचल न न पाकर रमा की घबराहट और भी ज्यादा बढ़ गई.

सहसा उस ने अपने कान उस की छाती के पास ले जा कर उस की धड़कन को सुनने का प्रयास किया. उस ने महसूस किया उस की छाती में सांसों के चलने से होने वाली हलचल नदारत थी. उस ने एक बार फिर से सुकेश को पकड़ कर जोर से हिलाया.

सुकेश उतना ही हिला जितनी रमा ने उसे हिलाया. रमा ने घबराते हुए अपनी 2 उंगलियां सुकेश की नाक के पास ले जा कर रख दी. थोड़ी देर पहले अनहोनी को ले कर मन में समाई हुई घबराहट ने अब रुलाई का रूप ले लिया. रमा सुकेश से लिपट कर रोने लगी. काफी देर तक वह घबराहट की वजह से वह कुछ सोच न पाई. तभी कांपते हाथों से उस ने सुकेश का मोबाइल उठाया और काल लौग में से अपने ससुरजी से की गई बात वाले नंबर पर काल कर दी।

“सुकेश बेटा, आज इतने सवेरे कौन सा काम आ गया?”अपनी सास का स्वर सुन कर रमा की रुलाई फूट पड़ी.

“बहू, तू रो रही है? क्या बात हो हुई?” रमा की रुलाई सुन कर उस की सास ने घबराते हुए पूछा.

“मांजी, यह…यह…” रमा के मुंह से शब्द नहीं निकल पा रहे थे.

“क्या हुआ? सुकेश को फोन दो. तुम क्यों रो रही हो?” रमा की सास के स्वर में घबराहट और बढ़ गई.

“यह उठ ही नहीं रहे हैं,” एक ही सांस में बोलते हुए रमा रोने लगी.

“तो रोती क्यों है? उस की तो आदत है परेशान करने की. सुबह उठने के नाम पर मुझे भी बहुत परेशान करता था. एक लोटा पानी डाल दे उस के मुंह पर. गधे की तरह चिल्ला कर खड़ा हो जाएगा,” रमा की बात सुन कर उस की सास की घबराहट दूर हुई.

“नहीं, सच में नहीं उठ रहे हैं,” रमा आगे कुछ न बोल पाई और फोन बिस्तर पर रख कर वह अपना सिर पकड़ कर रोने लगी.

सुकेश के मोबाइल पर कुछ देर तक हैलोहैलो… का स्वर गूंजता रहा और फिर फोन बंद हो गया. तभी रमा के मोबाइल की रिंग बजने लगी. रमा ने अपना हाथ बढ़ा कर मोबाइल अपने हाथ में लिया. आंखों में उभर आए आंसुओं की वजह से उसे मोबाइल स्क्रीन पर झलकता हुआ ‘पापाजी’ नाम धुंधला सा नजर आया.

उस की हिम्मत ही नहीं हुई कि अपने ससुरजी से बात कर सके. थोड़ी देर रिंग बजने के बाद बंद हो गई लेकिन फिर अगले ही क्षण फिर से उस का फोन बजने लगा. इस बार उस के फोन की स्क्रीन पर उस की ननद का नंबर झलक रहा था. रमा ने हिम्मत कर बात शुरू की.

“हैलो…रानू… तेरे भैया…” रमा ने रोते हुए कहा.

“भाभी, क्या हुआ भैया को? मम्मी आप से बात कर बुरी तरह से घबरा गई हैं और भैया का मोबाइल स्विच्ड औफ क्यों आ रहा है? आप भी पापा का फोन नहीं उठा रही हैं? क्या हुआ भाभी?” रानू ने एकसाथ ढेर सारे सवाल कर डाले.

रानू की बात सुन कर रमा ने
सुकेश का मोबाइल हाथ में लिया. उस का मोबाइल सच में स्विच्ड औफ हो चुका था.

“तेरे भैया की सांस नहीं चल रही है रानू … मैं क्या करूं?” रमा ने हिम्मत जुटा कर आगे बात बढ़ाई.

“क्या? आप पागल तो नहीं हो गईं? भैया तो भैया… आप भी उन की संगत में ऐसा बेहूदा मजाक करने लगीं,” रानू अब भी रमा की बात पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. वह सुकेश की हर समय मजाक करने की आदत से वाकिफ थी और सुकेश ने कई दफा खुद के मरने का नाटक कर सब को डराया भी था। इसी से रानू रमा द्वारा की गई हकीकत को समझ नहीं पा रही थी.

“नहीं रानू, मैं मजाक नहीं कर रही हूं,” कहते हुए रमा की रुलाई फूट पड़ी. तभी रमा को अपने ससुर का स्वर सुनाई दिया, “बहू, आसपास कोई डाक्टर रहता है?”

“मैं यहां किसी को नहीं जानती पापाजी और इन के मोबाइल की बैटरी भी खत्म हो गई है,” रमा अब तक कुछ हिम्मत जुटा पाई थी.

“आसपड़ोस में किसी को उठा कर बात करो,” उस के ससुर ने हिम्मत रखते हुए रमा को सुझाया.

“जाती हूं पापाजी,” कहते हुए रमा बदवहाश सी बाहर की तरफ दौड़ी. सहसा उसे याद आया कि उस के पड़ोस में रहने वाले अमितजी अपने परिवार को ले कर लौकडाउन की घोषणा होने के 1 दिन पहले ही अपने पैतृक शहर चले गए थे. बाकि के 2 फ्लैट खाली थे.

वह तेज कदमों से सीढ़ियां उतर कर तीसरी मंजिल पर आ गई. उस का यहां किसी से खास परिचय न था. वह सभी को केवल नाम से जानती थी और उन के व्यवहार से अपरिचित थी लेकिन फिर भी उस ने बारीबारी से घबराहट के मारे सभी 4 फ्लैटों की डोरबेल बजा दी. एकएक कर 3 दरवाजे खुले.

रमा बदवहाश सी सब के सामने खड़ी बारीबारी से सब के चेहरों को ताक रही थी. सभी लोग अपनेअपने घरों की दहलीज पर खड़े बाहर आने से कतरा रहे थे.

“क्या हुआ? आप इतनी परेशान सी क्यों है?”

“वो…वो… सुकेश… उठ नहीं रहे हैं… डाक्टर…” रमा समझ नहीं पा रही थी वह कैसे अपनी बात कहे. घबराहट के मारे उस का पूरा बदन कांप रहा था.

“मिसेस सुकेश, आप घबरा क्यों रही हैं? क्या हुआ सुकेशजी को?” तभी 301 में रहने वाले मि. शाह ने रमा से पूछा.

मि. शाह सुकेश को अकसर औफिस जाते हुए लिफ्ट देते थे। इसी से वह उस के बारे में थोड़ाबहुत जानते थे.

“भाई साहब, डाक्टर… डाक्टर… वे उठ नहीं रहे हैं,” कहते हुए रमा की आंखों से आंसू झरने लगे. उस ने अपनी साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछने का यत्न किया.

“चलिए….मैं चल कर देखता हूं. डाक्टर तो शायद इस वक्त यहां जल्दी से पहुंच न सकें,” कहते हुए मि. शाह ने बाहर निकलने के लिए जैसे ही अपना पैर उठाया तभी उन के पीछे खड़ी उन की पत्नी ने उन का हाथ पकड़ कर आंखों के इशारे से घर से बाहर जाने से मना किया.

इस मंजिल पर केवल 3 परिवार ही रहते थे। उन में से केवल मि. शाह का ही यह खुद का फ्लैट था बाकि के दोनों परिवार किराए पर रहते थे और रमा से उन का ज्यादा परिचय न था.

“बस 2 मिनट में जा कर आ जाऊंगा. कुछ नहीं होगा,” मि. शाह ने अपनी पत्नी से कहा और उस के उत्तर की परवाह किए बिना वे रमा के पीछे तेज कदमों से सीढियां चढ़ने लगे.

रमा हांफते हुए अंदर बैडरूम में दाखिल हुई और उन के पीछे मि. शाह झिझकते हुए अंदर आए. वह सुकेश के नजदीक गए और उस की कलाई अपने हाथ में ले कर उस की नब्ज देखने लगे. फिर उन्होंने उस की नाक के आगे अपनी उंगली रख कर उस की सांस की गति जानने की कोशिश की लेकिन फिर उस के शरीर में कोई हलचल न पा कर उन्होंने अपने मोबाइल से एक नंबर डायल किया. किसी से संक्षेप में बात कर वे रमा को सांत्वना देने लगे.

“भाभीजी, यहां और कोई रहता है आपका? सुकेश को शायद हार्ट अटैक आया हो. कोई उम्मीद तो जान नहीं पड़ रही, फिर भी मेरे एक परिचित डाक्टर आ रहे हैं।”

मि. शाह की बात सुन कर रमा बिस्तर पर सिर पकड़ कर बैठ गई. तभी उस का मोबाइल फिर से बजने लगा. रमा ने कोई सुध न ली तो मि. शाह ने मोबाइल लिया और बात करनी शुरू की…

“मैं सुकेश का पड़ोसी बोल रहा हूं. रमाजी इस वक्त बात करने की हालत में नहीं हैं।”

“मैं सुकेश का पिता बोल रहा हूं. कैसा है सुकेश अब?”

मि. शाह सुकेश के पिता की बात सुन कर दो पल को ठिठक गए फिर कुछ स्वस्थ हो कर वह बोले, “अंकल, डाक्टर को बुलाया है लेकिन कोई उम्मीद जान नहीं पड़ रही है. सुकेश की सांस नहीं चल रही है.”

“नहीं नहीं… डाक्टर के कहे बिना आप किसी नतीजे पर कैसे पहुंच सकते हैं? आप मेरी बहू को फोन दीजिए,” सुकेश के पिता का स्वर कांप रहा था.

“मैं इस वक्त सुकेश के घर पर ही हूं. भाभीजी कुछ भी बोल नहीं पा रही हैं,” मि. शाह ने रमा को फोन देने की कोशिश की लेकिन रमा अपने में ही खोई हुई थी.

“ओह, मैं अभी शहर आने के लिए निकलता हूं,” सुकेश के पिता बोले.

“अंकल, शहर में कोरोना की वजह से कल ही एक मौत हुई है. इसी से लौकडाउन की वजह से बहुत ही कठोरता से अमल किया जा रहा है. शहर से बाहर तो क्या हरएक कालोनी से बाहर निकलने नहीं दिया जा रहा है. न तो हम सुकेश को वहां ले कर आ सकते हैं और न ही आप यहां आ सकते हैं. हम सभी को खतरा है.”

तभी रमा अचानक से अपनी जगह से खड़ी हुई और मि. शाह के हाथ से मोबाइल ले लिया.

“पापाजी, आप जल्दी आ जाइए. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है क्या करूं,” कहते हुए रमा रोने लगी.

‘बहू, धीरज रखो। मैं कुछ करता हूं,” कह कर सुकेश के पिता ने फोन रख दिया.

अपने पति को काफी देर तक वापस आया न देख मिसेज शाह रमा के यहां आ गई. सारी परिस्थिति देख कर वे अपना भय दूर रख कर रमा के पास आकर बैठ गईं और उसे सांत्वना देने लगीं.

कुछ ही देर में डाक्टर ने आ कर हार्ट अटैक से सुकेश की मौत होने की पुष्टि कर दी. रमा अब तक कुछ संभल चुकी थी. वह बैडरूम से बाहर आ गई। तभी उस के मोबाइल की रिंग बजी. स्क्रीन पर झलकते नंबर को देख कर उस ने तेजी से फोन रिसीव किया, “भैया… भैया… आप जल्दी से यहां आ जाओ. मुझे समझ नहीं आ रहा क्या करूं. अब तो डाक्टर ने भी कह दिया,” अपने भाई से बात करते हुए रमा एक बार फिर से धीरज खो कर रोने लगी.

“रमा, धीरज रखो बहन, तुम्हारे ससुरजी का फोन आया था अभी. मैं कुछ करता हूं। हिम्मत रखो,” भाई का स्वर सुन कर रमा और जोरजोर से रोने लगी.

तभी उस ने जोर से छींक दी। उसे इस तरह छींकते देख मिसेज शाह घबरा गईं और अपने पति के कान में कुछ कहने लगी.

“इस हालत में कैसे अकेला छोड़ दें इन्हें. हमें ही कुछ करना होगा. यहां सुकेश का कोई नहीं है,” मि. शाह ने धीरे से अपनी पत्नी की बात का जवाब देते हुए कहा.

“आप सरकारी अस्पताल वालों को फोन कर दो. वे लाश को निकाल देंगे.”

“क्या बकवास कर रही हो तुम? मानवता भी कोई चीज होती है. रमा को एक सामान्य सी छींक आने से डर कर उसे इस कठिन परिस्थिति में अकेला नहीं छोड़ सकते. कुछ नहीं होगा,” मि. शाह का स्वर गुस्से से तेज हो गया.

अपने घर बात करते हुए रमा का ध्यान उन की तरफ गया लेकिन तभी फोन पर उस की मां आने पर उस की सिसकियां और ज्यादा बढ़ गईं.

“मम्मी…” रमा रोने लगी.

“रमा, हिम्मत से काम ले बेटी. इस वक्त तू हिम्मत खो कर बैठ गई तो क्या होगा… हम सब प्रयास कर रहे वहां आने के लिए,” रमा की मम्मी उसे सांत्वना देने लगी.

तभी मि. शाह अपने मोबाइल से किसी से बात करने लगे. बारीबारी से कुछ लोगों से बात कर जब उन्होंने अपना मोबाइल जेब में रखा तब तक रमा अपनी बात कर चुपचाप एक कोने में बैठ गई थी.

“भाभीजी, मैं ने पुलिस, डाक्टर और टैक्सी वालों से बात की है. पुलिस का कहना है कि वे श्मशान तक जाने की व्यवस्था करवा देंगे लेकिन शहर के बाहर से किसी का किसी भी वजह से आना और यहां से बाहर जाना नामुमकिन है,”  मि. शाह ने रमा के सामने खड़े हो कर अब तक अपनी हुई बातों का सार बताते हुए कहा.

“मेरे ससुर की काफी पहुंच है। वे कुछ न कुछ कर जरूर आ जाएंगे और मैं सुकेश को ले कर गांव जाऊंगी,” रमा की आंखों में विश्वास झलक रहा था.

मि. शाह कुछ कहने ही जा रहे थे कि तभी रमा का मोबाइल फिर से बजने लगा.

“पापाजी, सब हो गया न? आप कब तक आ रहे है?”

“बहू, बहुत प्रयास किए… पर…”

“नहीं, आप आ कर लेकर जाइए मुझे और सुकेश को,” अपने ससुर की बात सुन कर रमा दुखी हो गई.

“बहू, तू बहादुर है और देशभक्त भी. देखो, इस वक्त भावनाओं में बह कर कोई भी ऐसा फैसला लेने का नहीं है जिस से पूरा मानव समुदाय खतरे में पड़ जाए. हिम्मत से काम लो. वहां समय के हिसाब से फैसला ले कर सुकेश की अंतिम क्रिया करवा दो।”

रमा ने महसूस किया कि उसे हिम्मत बंधाते हुए उस के ससुर बड़ी ही मुश्किल से बात कर पा रहे थे.

‘पर पापाजी, उन के अंतिम दर्शन…” रमा ने मायूसी भरे शब्दों में पूछा.

“उस की चिंता मत करो तुम। रानू फोन से वीडियो पर बात करेगी. बस, फोन से देख कर ही अपना मन मना लेंगे. जाने वाला तो चला गया लेकिन उसे छोड़ने जाने के पीछे दूसरे लोगों की जान खतरे में नहीं डाल सकता मैं,” रमा के ससुर ने कहा और जानबूझ कर फोन बंद कर दिया.

रमा कुछ देर चुपचाप बैठी रही फिर मि. शाह की ओर देख कर हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई.

“भाई साहब, इस घड़ी आप ही मेरे सगे हैं. उन्हें श्मसान तक पहुंचाने की व्यवस्था करवा दीजिए. मेरा परिवार देश की सुरक्षा को ध्यान में रख कर नहीं पहुंच पाएगा,” रमा ने बड़ी मुश्किल से कहा और अपने मोबाइल से एक काल की।

“मम्मी, भैया से कहना कि अपनी और किसी और की जान जोखम में न डालें. मैं देशभक्त परिवार की बहू हूं और देश की सुरक्षा की खातिर आप से विनती करती हूं. मुझे इस वक्त अकेला ही रहने दो. उन के पापा से बात हो गई है. मैं अंतिम क्रिया की तैयारी करवा रही हूं. आप को वीडियो काल करूंगी, अपने जमाई के अंतिम दर्शन कर लेना,” रमा ने आगे किसी की बात सुने बिना फोन बंद कर दिया.

मि. शाह ने हाथ जोड़ कर रमा के निर्णय का सम्मान किया और फोन पर बात करते हुए सुकेश की अंतिम क्रिया की तैयारियों करने में जुट गए.

लेखक- आशीष दलाल

Best Hindi Kahaniyan : सुर्खाब के पंख टूटे तो

Best Hindi Kahaniyan : ‘‘आईमी, कितनी बार मैं तुम्हें आवाज लगा कर गया. कब उठोगी? संडे है, इस का मतलब यह नहीं कि दोपहर तक सोती रहो. 10 बजने को हैं, एयरपोर्ट जाने का वक्त हो गया, दादी का प्लेन जमीन पर उतर रहा होगा. सौरभ बेटी पर खीझ उठे थे.’’

रितिका बाथरूम से नहाधो कर निकल चुकी थी. 46 वर्ष की रितिका स्त्री लालित्य में अभी भी शोडशी बाला को टक्कर दे सकती थी. कम से कम यह एक कारण तो था कि सौरभ अपना 5वां दशक पार करने के बावजूद स्वयं को युवा और कामातुर समझने में लज्जित नहीं थे. रितिका अपनी झीनी सी स्किन कलर की नाइटी में गीले व उलझे बालों में हाथ फिराती मदमस्त सी सौरभ की ओर अग्रसर हुई, कामुक मुसकान बिखेरती उन के बदन से लिपटती रितिका ने कहा, ‘‘मेरे सैक्सी, (यह रितिका का सौरभ के लिए शौर्टफौर्म था) दादी को बच्चों के लिए हौआ मत बनाओ. आने दो न उन्हें. सबकुछ बदलना जरूरी नहीं है. जो जैसा है, वैसा चलने दो. वे अपने हिसाब से रहेंगी.’’

‘‘ठीक है, पर तुम साड़ी तो पहन लोगी न? इस में से तो सबकुछ दिख रहा है.’’

‘‘अच्छा, सबकुछ?’’

‘‘मेरा मतलब है, मां को बुरा लगेगा.’’

‘‘सैक्सी, जब उन के आने का वक्त होता है, तुम हमसब को इतना बदलने क्यों लग जाते हो? ऐसे तो हम उन से डरने लगेंगे. उन्हें हमें स्वीकार करना ही होगा, हम जैसे हैं, वैसे ही. वे विदेश में रहती हैं. दुनिया कितनी आगे बढ़ चुकी है, उन्हें पता है. उन्हें इन सब से फर्क नहीं पड़ना चाहिए. उन की दूसरी बहू एलिसा तो विदेशी है. क्या वह भी साड़ी में लिपटी रहती है? तुम जाओ, उन्हें ले आओ. वैसे भी, मैं यह ड्रैस बदलने वाली हूं.’’

रितिका ने 3 बैडरूम और एक हौल वाले फ्लैट को अत्याधुनिक संसाधनों से सजा रखा था. सौरभ का हीरों का व्यवसाय था. आयातनिर्यात तक लंबा फैला था व्यवसाय. रितिका बचपन से ही स्वच्छंद प्रकृति की थी और सौरभ भी खुले दिल के थे.

कार के दरवाजे को बंद करने की आवाज से रितिका को पता चल गया कि मां आ चुकी हैं. लिफ्ट में आती ही होंगी. घंटी बजने से पहले ही उस ने दरवाजा खोल दिया.

करुणा एक छोटे से सूटकेस और एक एयरबैग के साथ अपार्टमैंट में दाखिल हो गईं.

बड़े ही करीने से आसमानी साड़ी पहनी हुई, स्टेप कट बालों में 70 की उम्र की करुणा ऊर्जा और बौद्धिक व्यक्तित्व से भरी हुई थीं.

रितिका बुदबुदाई, ‘आ गई सलाह की पोटली.’

‘‘लिफ्ट नहीं चल रही क्या? ज्यादा देर लग गई?’’ रितिका ने पूछा.

सौरभ ने कहा, ‘‘कैसी लिफ्ट? मां सीढि़यों से चढ़तीउतरती हैं. मैं सामान ले कर लिफ्ट में आ गया. वे नहीं मानीं. देखो तो सही, अब भी वे कितनी फिट हैं.’’

रितिका कमाल की अभिनेत्री थी. उस ने कहा, ‘‘वाकई मम्मीजी, आप से हमें बहुतकुछ सीखना होगा.’’

‘‘अरे नहीं, थोड़ी थकावट हो गई है. चलो छोड़ो ये सब रितु, अब तुम्हारे हाथ की चाय पिऊं. अलबेली से अलग क्या बनाती हो, मैं भी देखूं?’’ मुसकराती हुई वे सोफे पर बैठ गईं.

रितिका को कुछ बुरा सा लगा, ‘‘एलिसा की मेड का नाम अलबेली है क्या?’’

‘‘नहींनहीं, मेरी छोटी बहू एलिसा आजकल मुझ से साड़ी पहनना सीख रही थी. उस ने कहा, ‘मौम 7 सालों से आप मेरे पास हो, कभी भी आप ने मुझे अपना कल्चर अपनाने पर जोर नहीं दिया. अब इंडिया जा रही हो तो साड़ी पहननी सिखा कर जाओ.’ फिर क्या था. घरभर में साड़ी पहन कर ऐसी अलबेली सी घूमती रहती कि बस तब से मैं ने उस का नया नाम अलबेली रख दिया.’’ करुणा ने हलकेफुलके मूड में कहा.

डाइनिंग टेबल पर रितिका हौंगकौंग से लाए टी सैट में चाय, चीज रोल और  सैंडविच आदि ले कर आ गई थी.

‘‘रितु, इतनी जल्दी तुम्हारी चाय भी बन गई?’’

‘‘नहीं मम्मीजी, ये सारी चीजें मेड ने बनाई हुई थीं, चाय भी. खाना, किचन सब दोनों मेड की जिम्मेदारियां हैं. आप विदेशी खाना पसंद करती होंगी, इसलिए इटैलियन, अमेरिकन आज यही सब बनवाया है.’’

करुणा 2 मिनट चुप रहीं, फिर बोलीं, ‘‘रितु बेटा, देश की मिट्टी की सोंधी सुगंध मेरे खून में रचीबसी है. विदेश और विदेशी भी अच्छे हैं, पर उन्हें अपनाने के फेर में मैं खुद को भुलाना पसंद नहीं करती. रही बात विदेशी खाने की, तो एलिसा नौकरी के साथसाथ खाना बनाने की भी शौकीन है. उसे मैं ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों की कई रैसिपीज बनानी सिखाई हैं.’’

‘‘मम्मीजी, अब वे दिन लदने को हैं जब माना जाता था कि लड़कियों को खाना बनाना आना ही चाहिए. आजकल पैसे से सबकुछ खरीदा जा सकता है.’’

करुणा ने स्थिति बदलते हुए कहा, ‘‘भई, बच्चों को तो बुलाओ. डलास से मुंबई और फिर इधर नागपुर तक का सफर काफी थका देने वाला था, जरा अपने सूदब्याज को देख कर दिल को ठंडक तो पहुंचाऊं.’’

सौरभ झेंपते हुए से बोले, ‘‘मम्मी, बच्चे देररात तक पढ़ते हैं न.’’ रितिका ने बीच में टोका, ‘‘सौरभ, कहो न, बच्चे सो रहे हैं, संडे को 12 बजे से पहले नहीं उठते. जब उठेंगे, मिल लेंगे. मम्मीजी, तब तक आप फ्रैश हो लीजिए.’’

करुणा ने फ्रैश होने के लिए उठते हुए पूछा, ‘‘रितु, मैं अपना सामान कहां रखूं?’’

‘‘फिलहाल स्टोर में रख लीजिए. अभी हौल के दीवान पर आराम करिए.’’

बेटे के लाचार से चेहरे पर नजर पड़ते ही करुणा खुद ही अपना सामान स्टोर की ओर ले जाने लगीं. रितिका अपने बैडरूम में गई तो पीछे से सौरभ भी वहां पहुंच गए.

‘‘रितु, कहा था न, आईमी के साथ मम्मी रूम शेयर करेंगी.’’

‘‘आईमी मना कर चुकी है, सैक्सी.’’ समझा करो, उस की पर्सनललाइफ भी है. वह अब बच्ची नहीं रही कि दादीनानी की कहानी सुनते 10 बजे तक सो जाएगी. वह देररात में सोती है. मम्मीजी को दिक्कत होगी.’’

सौरभ का चेहरा गंभीर हो गया. वे बोले, ‘‘मां ने बहुत संघर्ष किया है. मैं जब 10वीं में था, पापा गुजर गए. संकेत 5वीं में था. मम्मी नौकरी करती थीं तो हम किसी तरह पढ़ेलिखे और व्यवसाय खड़ा किया. माना कि मम्मी को इसलिए हर परिस्थिति में रहने की आदत है, रितु, पर…’’ सौरभ कुछ और कहते कि रितु ने टोक दिया.

‘‘बच्चों पर तुम उन्हें थोप रहे हो, सौरभ. जबरदस्ती मत करो.’’

ज्यादा बहस किए बिना सौरभ वहां से उठ कर ड्राइंगरूम में आ गए.

बच्चे उठे और कुछ तरोताजा हुए तो करुणा मिलने उन के कमरे में गईं. पूरा कमरा अत्याधुनिक सामानों से लैस था. पलंग के पास मूविंग टेबल पर आईमी का आधा खाया खाना पड़ा था. पूरा बिस्तर अब भी फैला हुआ था, शायद पार्टटाइम मेड सुधा, जो अब तक पूरा घर सजा कर जा चुकी थी, आईमी के कमरे को समेट नहीं पाई थी क्योंकि उसे अपने सोने में किसी का खलल मंजूर नहीं था.

दादी के कमरे में आने से और उस के पलंग पर बैठने से आईमी को खास फर्क नहीं पड़ा. वह व्यस्त थी कुछ नटखटपन में मुसकराती, फोन पर फर्राटे से उंगलियां चलाते हुए.

करुणा को यह उपेक्षा बहुत बुरी लग रही थी. मगर परिस्थितियां संभालने की उन की पुरानी आदत थी. उन्होंने कहा, ‘‘आईमी, कितनी बड़ी हो गई तू. 7 साल से नहीं देखा, पूरी 24 की होने जा रही है. आजा, दादी के गले नहीं लगेगी?’’

ग्रैनी, प्लीज 1 मिनट, जरूरी बात कर रही हूं न.’’

‘‘बेटा, मुझ से तो मिल ले, कितनी दूर से आई हूं तुम सब से मिलने.’’

‘‘अरे, आई तो दूर से हो मगर कौन सा भागी जा रही हो. अभी तो यहां रहोगी ही न.’’

करुणा आहत थीं. बड़ों को थोड़ा मान देने, अपने हाथों से अपना काम करने, दूसरों से मधुर व्यवहार करने, कुछ अनुशासित रहने में भला कौन सा पिछड़ापन झलकता है, सोचती हुई वे लौट कर हौल में दीवान पर आ कर बैठ गईं.

इसी बीच, ईशान को अपने कमरे से बाहर आया देख करुणा अवाक रह गईं. सिर के बाल खड़ेखड़े, हिप्पी सी ड्रैस, कान में इयरफोन लगा हुआ.

करुणा इस से पहले कुछ कह पातीं, ईशान ने करुणा की ओर देख कर हाथ हिलाते हुए कहा, ‘‘हाय ग्रैनी, हाउ आर यू? सीइंग आफ्टर लौंग टाइम. हैव अ ग्रेट डे.’’ फिर ईशान मां से मुखातिब हुआ, ‘‘ममा, आज फ्रैंड्स के साथ मेरी कुछ प्लानिंग है, लंच बाहर ले लूंगा. डिनर के बाद ही आऊंगा. डौंट कौल मी.’’

‘‘रात को थोड़ा जल्दी आना, बेटा,’’ रितिका ने धीरे से कहा.

‘‘ऐज यूजुअल, चाबी है मेरे पास, डौंट वरी ममा.’’

लंच के समय आईमी को बुलाते वक्त करुणा ने देखा वह फोन पर व्यस्त थी. रितिका और करुणा आईमी का इंतजार कर रही थीं कि आईमी एक स्लीवलैस डीप कट ब्लाउज और मिनी स्कर्ट में उन के सामने आ खड़ी हुई. स्कूटी की चाबी घुमाते हुए उस ने कहा, ‘‘ममा, कालेज में अर्जैंट क्लास रखे गए हैं, मैं देर से आऊंगी.’’

करुणा के अब परेशान होने की बारी थी. व्याकुल हो, पूछ बैठीं, ‘‘बेटा, क्लासैज कब तक चलेंगी?’’

‘‘ग्रैनी, ये हमारे हाथ में नहीं,’’ गुस्से से कहती हुई आईमी निकल गई.

करुणा बिस्तर पर लेटे अनायास ही विचारों में डूबने लगीं. उन्होंने जिंदगीभर साड़ी ही पहनी लेकिन अमेरिका जा कर एलिसा के कहने पर पैंटशर्ट भी पहनी. वहां की संस्कृति से बहुतकुछ सीखा. मगर अपने व्यक्तित्व को यथावत बनाए रखा. भाषा को ज्ञान के लिहाज से लिया और दिया. अपनी शालीनतासभ्यता को कभी भी उन्होंने जाने नहीं दिया. देर रात हो चुकी थी लेकिन आईमी और ईशान का कोई अतापता न था. वे चिंतित थीं, मगर बहू के कारण कुछ खुल कर कह नहीं पा रही थीं. फिर भी जब रहा न गया तो डाइनिंग टेबल पर वे सौरभ से बोल पड़ीं, ‘‘रात के 10 बज चुके हैं, दोनों का ही पता नहीं. कम से कम आईमी के लिए तो पूछपरख करो?’’

रितिका कुछ उत्तेजित सी बोलीं, ‘‘मम्मीजी, आप जब से आई हैं, बस, दोनों बच्चों के पीछे पड़ी हैं.’’

बहू मेरी अनुभवी आंखें चैन नहीं रख पा रहीं. कहीं कुछ ठीक नहीं है. तुम लोग गहराई में नहीं देख रहे.’’

‘‘आप जब नहीं थीं, तब भी हमारी जिंदगी ऐसी ही चल रही थी, सब को अपनी जिंदगी जीने दें, आईमी की ही क्यों पूछपरख हो. वह लड़की है इसलिए? वह भी बेटे की तरह जिएगी. आप लोग अपनी दकियानूसी सोच बदलिए.’’

‘‘रितु, मैं ने बेटे की भी चिंता समानरूप से की, लेकिन बेटियों का खयाल ज्यादा रखना पड़ता है क्योंकि कुछ भी दुर्घटना हो जाए, भुगतना उसे ही पड़ता है. थोड़ा वास्तविकता को समझो.’’

सौरभ बेबस सा महसूस करने लगे थे. उन्होंने देखा, रितिका अब ऐसा कुछ कह सकती है जिस से मां ज्यादा आहत हो जाएंगी. उन्होंने टोका, ‘‘मम्मी, रहने दो, उन के लिए रात के 12 बजे तक घर लौटना आमबात है.’’

रितिका और सौरभ के अपने कमरे में चले जाने के बाद करुणा निढाल हो, अपने बिस्तर पर पड़ गईं. विदेश में 5 साल की कुक्कू यानी संकेत की बेटी उन्हें दादी कहती है. संकेत ने उसे ऐसा ही कहना सिखाया है. एलिसा और कुक्कू दोनों ही खूब प्यारी हैं, और एलिसा कितनी व्यवहारकुशल. और यहां ये लोग विदेशी सभ्यता की गलतियों को आधुनिक होने के नाम पर मैडल बना कर गले में लटकाए घूम रहे हैं.

अचानक फ्लैट के दरवाजे पर चाबी घूमने की आवाज आई. करुणा ने देखा, आईमी लड़खड़ाते कदमों से अपने कमरे में चली गई. करुणा निश्चिंत भी हुईं और परेशान भी. 11 बजे चुके थे. करुणा की नजर दरवाजे पर टिकी थी. इतने में ईशान भी आ गया और अपने कमरे में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया.

करुणा सोचसोच कर परेशान थीं, आखिर कैसी विचित्र जिंदगी जीते हैं यहां लोग. न पारिवारिक सदस्यों के बीच कोई बैठक, न सुखदुख की बातें, न साथ खानापीना और न ही एकदूसरे के जीवन में कोई रुचि. सभी अपनेअपने गैजेट्स में व्यस्त हैं, और बाहरी दुनिया में रमे हैं.

करुणा उठ बैठीं. आईमी का जीवन उन्हें सामान्य नहीं लग रहा था. अकसर लड़कियां घरपरिवार में रचीबसी होती हैं. करुणा ने आईमी के कमरे में झांक कर देखा, वह औंधेमुंह बिस्तर पर पड़ी थी. उन्होंने उसे सीधा किया और उस के फोन को उठाया. उन्होंने सोचा, इस से काफी सुराग मिल सकते हैं. पर जैसी जिंदगी वह जीती है, जरूर फोन लौक रखती होगी. क्या करें, उन्हें एक उपाय सूझा, अगर काम कर जाए तो…आईमी के मुख से शराब की बू आ रही थी. उस के कान के पास मुंह ले जा कर उन्होंने धीरे से बुदबुदाया, ‘फोन लौक का पिन?’ नशे में बुझी आवाज से नींद में ही आईमी अचानक कह उठी, ‘‘7494.’’

करुणा जल्दी से फोन ले कर हौल में चली आईं. करुणा को एलिसा ने आधुनिक गैजेट्स की पूरी जानकारी दी हुई थी. उसी के बल पर आईमी के फोन में उन्होंने सेंध मारी. उन्होंने उस के ढेर सारी रेव पार्टियों के अश्लील वीडियो और कई लड़कों के सान्निध्य में खींची गई तसवीरों को अपने मोबाइल में फौरवर्ड किया. उन्हें आईमी के इतना स्वच्छंद होने की उम्मीद नहीं थी. कई अश्लील वीडियो में आईमी सारी सीमाएं लांघ गई थी. वे पसीनापसीना होने लगीं. तुरंत उन्होंने फोन आईमी के कमरे में छोड़ा और अपने बिस्तर पर आ कर लेट गईं.

सुबह रितिका करुणा को चाय देने के लिए हौल में गई और बोली,

‘‘मम्मीजी, आप की चाय.’’

‘‘नहीं बहू, मैं गरम पानी में नीबू और शहद लेती हूं.’’

करुणा को व्यायाम करते देख सौरभ भी सुबह की हलकी धूप का मजा लेने टैरेस पर आ गए और वहीं बैठ गए. करुणा को लगा अगर सौरभ से बात छिपाई जाए तो अब और कुछ भी नहीं बचेगा. कैरियर के आखिरी पड़ाव में बेटी का इस तरह मनमानी करना न सिर्फ उस के स्वास्थ्य और जीवन की खुशियों को प्रभावित करेगा बल्कि उस के महत्त्वपूर्ण समय को भी कभी न लौट कर आने के गर्त में ढकेल देगा.

करुणा ने अपने मन को कड़ा करते हुए सौरभ से कहा, ‘‘बेटा, पिता की जिम्मेदारी परिवार में कुछ कम नहीं होती. एक पति की हैसियत से ही उसे घर का मुख्य व्यक्ति नहीं माना जाता है बल्कि पिता की भूमिका उस से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. आज आईमी या ईशान जो भी हैं, तुम दोनों की मानसिकता की प्रतिकृति हैं. मेरा फोन तुम ले जाओ. अपने कार्यालय में बैठ कर उन फोटोग्राफ्स और वीडियो को देखना जो आईमी के हैं. फिर अपने मन में विचारना कि क्या आंखें मूंद लेने से सचाई छिप जाती है?’’

सौरभ अपने हृदय के तूफान को मौन की जेब में भर वहां से उठ गए. फोन जो आज उन के हाथ में था, वह क्या था, प्रलय या प्रलय से बचने की सूचना?

इधर, दोपहर तक आईमी उठ नहीं पाई. 2 दिनों बाद उस का तीसरा और आखिरी सैमेस्टर था.

कुछ चिंतित सी रितिका ने आईमी के कमरे का दरवाजा खोला था. अंदर उस ने बैड के नीचे उल्टी की हुई थी और अपने अटैच बाथरूम से बाहर निकल रही थी.

‘‘क्या हुआ, आईमी?’’

‘‘मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा, मौम. आज कालेज नहीं जा पाऊंगी,’’ आईमी ने रितिका के कंधे पर सिर टिका दिया.

थोड़ी देर के बाद रितिका आईमी के कमरे से बाहर आ गई लेकिन करुणा ने आईमी पर पूरी नजर रखी. 3-4 बार उलटियां कर चुकने के बाद आईमी पस्त हो चुकी थी. रितिका ने घरेलू डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने ऊपरी चैकअप के बाद कहा, ‘‘अच्छा होगा कि आप इसे गाइनी से चैक कराएं. मुझे शक है, तसल्ली कर लीजिए.’’ रितिका को डाक्टर की बातों में बड़ी मुसीबत के संकेत दिखे. उस ने फोन पर समय ले कर बेटी को कार में जैसेतैसे सहारा दे कर बैठाया. खुद ही कार ड्राइव कर निकल गई. वापस आने के बाद रितिका का उतरा चेहरा किसी से भी छिप न पाया.’’

वह अपने कमरे में चली गई. बेटा अपनी धुन में रमा रहा. बेटी अपने कमरे में बंद. नौकरचाकर सब अपना काम कर चलते बने.

करुणा महसूस कर रही थी कि सौरभ को शायद अकेलापन खलता हो इन के बीच, लेकिन काम और व्यवसाय में डूब कर वह भी किसी तरह अपने दिन निकाल रहा होगा. बहू को शौपिंग, पार्टी, पार्लर और सहेलियों से फुरसत मिले, तभी वह अपनी बेटी को कुछ मार्गदर्शन दे, और बेटे को संबल. आखिरकार करुणा ने रितिका के पास जा कर बात करना ही मुनासिब समझा.

बहू के सिर पर हाथ फिराते हुए कहा,  ‘‘रितु, मैं तुम सब की मां हूं, अनुभव भी है, और कुछ जानकारी भी. मैं समझ रही हूं, आईमी किसी बड़ी मुसीबत में है. तुम ने भी शायद वह सब न देखा होगा जो मैं ने देखा है. बस, अब और क्या हुआ है, इतना बता दो ताकि हम दोनों मिल कर राह निकालें.’’

‘‘मम्मी, सारी गलती मेरी है. मेरे मायके में बेटाबेटी में बहुत फर्क हुआ. मैं ने सोचा, अब मेरी बारी है. मैं वे सारे सुख अपनी बेटी को उठाने दूंगी जो मुझे नहीं मिल पाए थे. मैं अपनी सारी इच्छाओं को अपनी बेटी में फलतेफूलते देखना चाहती थी. पर वह शर्मनाक हदें पार कर गई. मैं ने यह पूछा भी कि लड़का कौन है? तब किसी भी तरह उन दोनों की शादी करवाई जा सकती थी और गर्भ ठहरने की बात ढकी रह जाती. मगर वह कहती है, ‘आजकल वैसा कुछ भी नहीं होता, लड़के शादी करने के लिए संबंध नहीं बनाते और हम भी ऐसा नहीं सोचते कि प्रेम हो, तभी शरीर का सुख हो.

‘‘‘आजकल की रेव पार्टियां हर चीज की खुली छूट देती हैं. वहां सभी नशे में धुत लोग कौन, किस के साथ, कब संबंध बना रहे हैं, किसी को फर्क नहीं पड़ता. सब मजे लेते हैं जिंदगी के. आप ने मुझे कभी किसी बात पर रोकाटोका नहीं, आप जैसी और भी मांएं हैं जो मौडर्न विचार रखती हैं. ऐसा हो जाता है तो एबौर्शन करवा लेती हैं.’’’ इतना कह कर रितु फफक कर रो पड़ी, ‘‘मैं ने बेटी को बेटा बनाने के चक्कर में क्या कर डाला.’’

‘‘रितु बेटा,’’ करुणा की आवाज जैसे अंधी खाई से आ रही थी, ‘‘सोच अगर संतुलित हो तो इंसान पुराने अच्छे और नए अच्छे में सामंजस्य बैठा ही लेता है. हर नए दौर में कुछ पुरानी अच्छाई पीछे छूटती जाएगी, उन्हें साथ ले कर आगे बढ़ो तो आधुनिकता के साथसाथ वास्तविक खुशी भी बनी रहती है. खैर, अनुचित था लेकिन आईमी के फोन से उस के वीडियो ले कर मैं ने सौरभ को दिए हैं. मैं सौरभ को समझा लूंगी, मगर अभी हमें आईमी के बारे में सोचना है. आज डाक्टर से बात करो, गर्भपात करवा लेते हैं, फिर कुछ महीने उसे मेरे हाथ में छोड़ देना. मैं सारे घाव भर दूंगी.’’

रितिका छोटी बच्ची की तरह करुणा की गोद में अपना चेहरा छिपा कर रो पड़ी. महीनेभर बाद जैसे इस घर का कायापलट हो चुका था. आईमी और ईशान अब उठतेबैठते दादी के संग. व्यायाम, नाश्ता, पढ़ाई, कालेज, कोचिंग की पूरी तैयारी, सभी कुछ अनुशासन से. फिर वक्त मिलता तो दादी के साथ चेस, कैरम या बैडमिंटन खेलते.

सौरभ के चेहरे की रौनक देख अब करुणा भी खुशी महसूस कर रही थीं. अकेले में सौरभ ने मां से पूछा, ‘‘मां, कैसे कर दिया तुम ने इतना कुछ? ये बच्चे तो सुनते ही नहीं थे किसी की?’’

‘‘बेटा, मैं ने गरम लोहे पर तुरंत चोट की ताकि इन का आकार बदल सकूं. तुम्हें भी एक बात बताऊं, बेटीबेटे की बराबरी को तुम लोग बहुत छोटी सोच में बांध कर रखते हो. देर रात बाहर रहना, मर्दों के साथ शालीनता की तमाम सीमाएं लांघ जाना या मौर्डन ड्रैस पहन कर इतराना भर बराबरी नहीं है. स्त्रियों को उन सारे कामों में सबल बनना है जो कभी लड़कों के लिए ही सुरक्षित थे. स्त्री अपनी पहचान और काम की सीमा न बांधे, बराबरी का यह पूरा सच है. और बेटों को भी इतनी छूट क्यों दे दी जाए कि वे दूसरी लड़कियों के लिए खतरा बन जाएं.’’

सौरभ गर्वभरी दृष्टि मां की ओर डाल बोल उठे, ‘‘मम्मी, तुम ने सुनहरे से दिखने वाले कृत्रिम पंखों को तोड़ हमें वास्तविक उड़ान के पंख दे दिए.’’

करुणा आज कुछ सार्थक कर पाने की खुशी से संतुष्ट थीं, बहुत संतुष्ट.

Heart Touching Love Story : मन का बोझ

Heart Touching Love Story :  सिनेमाघर से निकल कर अम्लान व मानसी थोड़ी दूर ही गए थे कि मानसी के पड़ोसी शीतल मिल गए. उन्हें देखते ही मानसी ने अभिवादन में हाथ जोड़ दिए. शीतल कुछ विचित्र भाव से मुसकराए.

‘‘कहिए, कैसी हैं, मानसीजी?’’

‘‘ठीक हूं.’’

‘‘कब आ रहे हैं, सुदीप बाबू?’’

‘‘अभी 4 माह शेष हैं.’’

‘‘ओह, लगता है आप अकेली काफी बोर हो रही हैं?’’ शीतल कुछ अजीब से अंदाज में बोले.

न जाने क्यों मानसी को अच्छा न लगा. वह सोचने लगी, ‘पता नहीं क्यों व्यंग्य सा कर रहे थे? सुदीप के सामने तो कभी इस तरह नहीं बोलते थे.’

‘‘क्या हुआ? पड़ोसी की बात का बुरा मान गईं क्या? इतना भी नहीं समझतीं मनु दीदी, जलते हैं. पड़ोसी हैं न, इसलिए तुम्हारी हर गतिविधि पर नजर रखना अपना कर्तव्य समझते हैं,’’ अम्लान मुसकराया.

‘‘भाड़ में जाएं ऐसे पड़ोसी,’’ मानसी तीखे स्वर में बोली.

‘‘चलो, कहीं बैठ कर कुछ खाते हैं, बहुत भूख लगी है,’’ अम्लान ने सामने से जाते आटोरिकशा को रोक लिया.

‘‘नहीं, घर चलो, वहीं कुछ खा लेंगे. रेस्तरां में जाने का मन नहीं है, सिर में दर्द है.’’

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ अम्लान ने आटोचालक से मानसी के घर की ओर चलने को कह दिया. घर पहुंचते ही सिर में बाम लगा कर मानसी ने सैंडविच व पकौड़े बनाए और फिर कौफी तैयार करने लगी.

‘‘लाओ, मैं कुछ मदद करता हूं,’’ तभी अम्लान ने रसोईघर में प्रवेश किया.

‘‘हां, अवश्य, ये प्लेटें खाने की मेज पर रखो और खाना प्रारंभ करो,’’ वह मुसकराई. पर दूसरे ही क्षण न जाने क्या हुआ कि अजीब सी नजरों से देखते हुए अम्लान आगे बढ़ा और उसे अपनी बांहों के घेरे में कस लिया.

‘‘यह क्या तमाशा है, छोड़ो मुझे,’’ मानसी ने स्वयं को मुक्त कराने का यत्न किया पर अम्लान की पकड़ कसती ही जा रही थी. अब मानसी सचमुच घबरा गई. पूरी शक्ति लगा कर अम्लान को धक्का देने के साथ ही उस ने अपने दांत उस के हाथ में गड़ा दिए. अम्लान एक झटके के साथ दूर जा गिरा. मानसी लड़खड़ाती हुई बैठक में जा बैठी. शीघ्र ही स्वयं को संभाल कर अम्लान भी बैठक में आ गया तनिक ऊंचे स्वर में बोला, ‘‘समझती क्या हो, तुम? घर आने का आमंत्रण दे कर इस तरह का व्यवहार?’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो? दीदी कहते हो, राखी बंधवाते हो मुझे से और ऐसा घटिया व्यवहार? अम्लान, मुझे  स्वप्न में भी तुम से ऐसी आशा न थी,’’ मानसी अब भी स्वयं को संभाल नहीं सकी थी.

‘‘हां, दीदी कहता हूं तुम्हें, मुंहबोली बहन हो तुम, क्योंकि किस भारतीय महिला में इतना साहस है कि किसी पुरुष को अपना मित्र कह कर लोगों को उस का परिचय दे सके? भाईबहन बनाने पर ही समाज स्त्रीपुरुष संबंधों को किसी तरह सह लेता है. याद है तुम ने अपने पति सुदीप तथा सभी पड़ोसियों से मेरा परिचय अपना मुंहबोला भाई कह कर करवाया था, मित्र कह कर नहीं,’’ अम्लान अब भी बहुत क्रोधित था.

‘‘मुझे नहीं पता था कि तुम्हारे दिमाग में मुझे ले कर इतनी ऊलजलूल बातें भरी हैं. तुम ने यह भी नहीं सोचा कि मैं विवाहित हूं, सुदीप की अमानत हूं, जिसे ‘जीजाजी’ कहते तुम्हारी जबान थकती नहीं,’’ मानसी आंसुओं के बीच बोली.

‘‘विवाहिता? सुदीप की अमानत? उस से क्या अंतर पड़ता है? इसी से तो समाज में तुम्हें मनमानी करने की छूट मिल जाती है. मेरे मुंह से अपने रंगरूप की प्रशंसा सुन कर तुम कैसे पुलक हो उठती हो. अपनी प्रशंसा से प्रसन्न हो कर तुम्हारे चेहरे पर आने वाली लाली क्या मेरा भ्रममात्र थी, बोलो?’’

‘‘अम्लान, बहुत हो गया. तुम इसी समय मेरे घर से निकल जाओ. मैं भविष्य में तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहती,’’ मानसी स्वयं पर नियंत्रण खो कर चीख उठी. एक क्षण को तो अम्लान भी बौखला गया, ‘‘हूं, बहुत देखी हैं तुम्हारी जैसी सतीसावित्री,’’

वह मुख्यद्वार को जोर से बंद करता हुआ बाहर निकल गया. मानसी को लगा, उस की टांगों में इतनी शक्ति भी नहीं बची है कि वह खड़ी हो कर द्वार तक पहुंच कर उसे बंद कर सके. आंखों से अनवरत अश्रुधारा बहने लगी. धुंधलाई अश्रुपूरित आंखों में न जाने कितने चेहरे गड्डमड्ड होते जा रहे थे. मानसी एक छोटे से नगर में पलीबढ़ी थी, जहां लोग अब भी कसबाई मनोवृत्ति रखते थे. वहां विवाहिता या कुंआरी का किसी अन्य पुरुष के साथ घूमनाफिरना उस के चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगा देता था. पर सुदीप से विवाह के पश्चात वह हैदराबाद चली आई थी. उसे भली प्रकार याद है कि प्रारंभ में जब सुदीप का कोई मित्र आता था तो वह दौड़ कर अंदर के कक्ष में चली जाती थी. ‘यह क्या तमाशा है, कोई घर आए तो उस का स्वागत करने के बजाय तुम दौड़ कर भीतर चली जाती हो,’ एक दिन सुदीप क्रोधित स्वर में बोला.

‘वे सब आप के मित्र हैं, आप से मिलने आते हैं. मुझे उन के सामने बैठना अच्छा नहीं लगता,’ मानसी ने नजरें झुका लीं. ‘तुम्हारे कारण मेरे सभी मित्र मेरा उपहास उड़ाते हैं. तुम पढ़ीलिखी हो, गूंगीबहरी भी नहीं हो, फिर क्या कारण है कि इस प्रकार का व्यवहार करती हो?’ सुदीप ऐसे अवसर पर बुरी तरह झुंझला जाता था. पति का सहयोग मिलने के कारण मानसी को अपना कसबाई आवरण उतार फेंकने में अधिक समय न लगा. उस ने चित्रकला में स्नातक की उपाधि ली थी. सो, सुदीप के कहने पर उस ने विज्ञापन के क्षेत्र में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करना प्रारंभ कर दिया. प्रशिक्षण समाप्त होने से पहले ही जब मानसी को एक विज्ञापन कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई तो सुदीप भी चकित रह गया. नई नौकरी ने कुछ ही माह में मानसी का कायापलट कर दिया. विवाहोपरांत मानसी का उपहास करने वाला सुदीप अब गर्वपूर्वक पत्नी की उपलब्धियों की चर्चा करता. अम्लान से मानसी की पहली भेंट विज्ञापन कंपनी के कार्यालय में हुई थी. न जाने अम्लान के व्यक्तित्व में कैसा आकर्षण था कि मानसी पहली ही भेंट में औपचारिकता भूल कर उस से घुलमिल गई. पहली बार मानसी को अपने व्यवहार पर आश्चर्य हुआ. मानसी का व्यक्तित्व बेहद अंतर्मुखी था. बचपन में उस के परिवार का वातावरण इतना रूढि़वादी था कि किसी भी परपुरुष से सहज भाव से मित्रता कर पाना उस के लिए संभव ही न था.

पर अम्लान की बात अलग ही थी. सहजता से उस ने मानसी को ‘दीदी’ संबोधन दिया तो वह पुलक उठी. वह परिवार में सब से छोटी थी, दीदी कहने वाला कोई नहीं था. यही नहीं, अम्लान ने शीघ्र ही सुदीप से भी घनिष्ठता स्थापित कर ली. ऐसे में स्वाभाविक ही था कि जब मानसी दीदी थी तो सुदीप जीजा बन गया. धीरेधीरे अम्लान घर का ही सदस्य बन गया. वह घंटों सुदीप व मानसी से बातें करता रहता. अम्लान अकसर डिनर भी उन्हीं के साथ ले लेता. मानसी को उस के आत्मीय व्यवहार में कहीं भी कोई खोट कभी नजर न आई थी. वह  दिन आज भी मानसी की स्मृति में ज्यों का त्यों ताजा था, जब सुदीप इतराता व पुलकित होता घर लौटा था.

‘क्या हुआ, बहुत प्रसन्न नजर आ रहे हो?’ मानसी अपनी उत्सुकता दबा न सकी थी.

‘सुनोगी तो फड़क उठोगी. लगभग सौ लोगों में से विदेश में प्रशिक्षण के लिए मुझे चुना गया है,’ सुदीप अपनी ही प्रसन्नता में इस प्रकार डूबा था कि मानसी के चेहरे के बदलते रंग की ओर उस का ध्यान ही न गया.

‘कितनी अवधि के लिए जाना होगा?’ मानसी ने डूबते स्वर में प्रश्न किया. ‘1 वर्ष के लिए, क्या बात है, तुम्हें प्रसन्नता नहीं हुई?’ सुदीप ने मानो मानसी के मनोभावों को पढ़ लिया.

‘मैं इतने लंबे समय तक अकेली नहीं रह पाऊंगी,’ मानसी ने अपने मनोभाव प्रकट किए थे.

‘क्या गंवारोें जैसी बातें कर रही हो, अब तुम छोटे से कसबे से आई अबोध मानसी नहीं हो, अब तो तुम आत्मविश्वास से भरपूर आधुनिका हो, जो स्वयं अपने पैरों पर खड़ी है.’

‘नहीं, मैं अकेली 1 वर्ष तक यहां नहीं रह सकूंगी,’ मानसी ने घोषणा कर दी तो सुदीप सोच में पड़ गया. उस के व मानसी के परिवार में कोई भी तो ऐसा नहीं था, जो आ कर 1 वर्ष के लिए उस के साथ रह सकता. पर अम्लान ने अपने अकाट्य तर्कों से न केवल सुदीप को आश्वस्त किया बल्कि मानसी को भी अपनी भावी योजना बदलने को प्रेरित किया, ‘मनु दीदी, तुम्हें डर किस बात का है? कितना अच्छा पड़ोस है. सुरक्षा की कोई समस्या ही नहीं. आवास योजना के अधिकारी काफी चुस्तदुरुस्त हैं और मैं हूं न तुम्हारी सहायता के लिए?’ अम्लान के स्वर ने उसे पूर्णतया आश्वस्त कर दिया था. सुदीप के जाने के बाद अम्लान ने उस की प्रतिदिन की जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर ले लिया. सच तो यह था कि अम्लान ने एक दिन के लिए भी सुदीप की अनुपस्थिति या अकेलापन उसे महसूस न होने दिया. पर आज जो हुआ, उस के लिए मानसी तनिक भी तैयार नहीं थी, मानो किसी ने अचानक उसे उठा कर तेल की खौलती कड़ाही में फेंक दिया हो. न जाने कितनी देर तक उस के आंसू अनवरत बहते रहे, मानो मन का सारा गुबार आंखों की राह ही बह जाना चाहता हो. जब आंसू स्वत: ही सूख गए तो बहुत साहस कर के वह उठी. सैंडविच और पकौड़े खाने की मेज पर यों ही पड़े थे, पर उस की तो भूख ही उड़ चुकी थी. किसी तरह पानी के कुछ घूंट गले से उतार कर वह बिस्तर पर जा पड़ी पर नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी.

मानसी को बचपन में मां द्वारा दी गई हिदायतें याद आ रही थीं. मां ने उसे व उस की बहन को सदा यही समझाया था कि किसी पर भी आंख मूंद कर विश्वास मत करो. इस संसार में ज्यादातर लोग अवसर का अनुचित लाभ उठाने से नहीं चूकते. मां अकसर बातबात में कहती थीं कि यदि स्त्री के मन में खोट न हो तो किसी पुरुष का साहस नहीं कि उस पर बुरी नजर डाल सके. मानसी के मन में बारबार एक ही बात आ रही थी कि क्या अम्लान के ऐसे व्यवहार के लिए वह स्वयं ही उत्तरदायी है? वह जितना भी सोचती उतनी ही उस की अपने प्रति घृणा बढ़ती जाती. अम्लान भी तो उस पर लांछन लगा कर अपमानित कर गया था. यह सच था कि अम्लान अकसर ही उस के सौंदर्य की प्रशंसा किया करता था और वह सुन कर पुलक उठती थी. पर उस का अर्थ सदा उस ने यही समझा था कि सौंदर्य होता ही प्रशंसा के लिए है. सच तो यह है कि बचपन से ही उसे अपनी सुदंरता की प्रशंसा सुनने की आदत पड़ी हुई थी. सो, उसे अम्लान की प्रशंसा में कुछ भी खोट नजर न आई थी.

पर अब उसे लगा, शायद अम्लान बारबार उस के सौंदर्य की प्रशंसा कर के स्त्री की सब से बड़ी कमजोरी का लाभ उठाना चाहता था. सुदीप ने भी तो उस के सौंदर्य पर रीझ कर ही उसे अपनाया था. पर विवाह के बाद कभी उस की प्रशंसा के पुल न बांधे. शायद उस ने कभी उसे अनावश्यक रूप से प्रसन्न करने की आवश्यकता न समझी थी. वैसे भी सुदीप अंतर्मुखी प्रवृत्ति का व्यक्ति था. व्यर्थ का दिखावा करना उस की आदत में शुमार न था. क्या इसीलिए अनजाने ही अम्लान से उस की घनिष्ठता बढ़ती चली गई थी? मानसी को आश्चर्य हो रहा था कि सुदीप ने कभी इस घनिष्ठता पर आपत्ति नहीं की थी. करता भी क्यों? वह बेचारा कहां जान पाया होगा कि अम्लान का ‘दीदी’ संबोधन केवल दिखावा है. पर वह स्वयं इस छलावे से छली गई थी, यह तो उस से भी अधिक आश्चर्य की बात थी.

रातभर इन्हीं सब विचारोें के तूफान में डूबतेउतराते कब वह सो गई, उसे पता ही न चला. सुबह कामवाली बाई व दूध वाले ने द्वार की घंटी बजाई तो उसे लगा कि दिन काफी चढ़ आया है. किसी तरह पैर घसीटते हुए उस ने दरवाजा खोला.

‘‘क्या हुआ मेमसाहब, अभी तक सो रही हैं? तबीयत खराब है क्या?’’

‘‘हां, सिर दर्द से फटा जा रहा है. आज दफ्तर से छुट्टी ले लूंगी. जाने का मन नहीं है,’’ मानसी धीरे से बोली.

‘‘सिर दबा दूं क्या?’’ राधा ने पूछा.

‘‘नहीं, तुम दूध गरम कर के मेरे लिए कुछ नाश्ता बना दो. कल रात को भी कुछ नहीं खाया था. शायद इसीलिए तबीयत खराब हो गई,’’ उस ने राधा को हिदायत दी. मानसी जब तक तरोताजा हो कर लौटी, राधा ने नाश्ता मेज पर सजा दिया था. राधा दोपहर में आ कर भी हालचाल पूछ गई थी. यों शारीरिक रूप से मानसी स्वस्थ ही थी, पर मानसिक रूप से अम्लान के व्यवहार ने उसे पंगु बना कर रख दिया था. तीसरे दिन भी मानसी की वही दशा थी. दिन ढलने तक वह बिस्तर पर ही पड़ी थी. अचानक द्वार की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो सामने उस की सहयोगी विभा खड़ी थी.

‘‘विभा दीदी,’’ उसे देखते ही मानसी उस से लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘क्या हुआ, मानसी? खैरियत तो है? मैं ने सोचा तुम 3 दिनों से कार्यालय नहीं आईं, इसलिए मिलने चली आई,’’ विभा आश्चर्यचकित सी बोली. जरा सी सहानुभूति पाते ही मानसी के अंदर जमा लावा बह चला. आंसुओं के बीच सिसकते हुए उस ने अम्लान और उस के बीच घटी पूरी घटना कह सुनाई.

‘‘बड़ी मूर्ख है, तू भी, इतनी सी बात के लिए आंसू बहा रही है. जिस तरह तुम्हारी व अम्लान की घनिष्ठता बढ़ रही थी, ऐसा कुछ होना कोई आश्चर्य की बात तो नहीं थी,’’ विभा ने अपनी राय दी.

‘‘क्या कह रही हैं, विभा दीदी?’’ मानसी चौंकी थी.

‘‘चाहे तुम्हें बुरा भी लगे, पर मैं सच ही कहूंगी. जब सारे कार्यालय में तुम्हारे व अम्लान के घनिष्ठ संबंधों की चर्चा हो रही थी, तब तुम उस से अनजान कैसे बनी रहीं?’’

‘‘आप ने पहले मुझ से कभी भी कुछ नहीं कहा?’’ मानसी आश्चर्यचकित थी.

‘‘ऐसे अवसरों पर कहनेसुनने का कोई विशेष प्रभाव नहीं होता. हर व्यक्ति अपने व्यक्तिगत अनुभवों से ही सबक लेता है. मुझे लगा कि यदि मैं कुछ कहने का प्रयत्न करूं भी तो शायद तुम उस का गलत अर्थ निकालो. फिर मैं ने सोचा कि सुदीप के आने पर खुद ही अम्लान से तुम्हारी घनिष्ठता कम हो जाएगी.’’

‘‘क्या कहूं, मुझे तो स्वयं पर ही शर्म आ रही है. मैं सुदीप को क्या मुंह दिखाऊंगी,’’ मानसी ने इतने धीमे स्वर में अपने विचार प्रकट किए, मानो स्वयं से ही बात कर रही हो.

‘‘अम्लान की भूल के लिए स्वयं को दोषी ठहराने की कोई आवश्यकता नहीं है. मैं तो तुम्हें केवल यह समझाने का यत्न कर रही हूं कि हम महिलाओं को पुरुषों से मित्रता की सीमारेखा अवश्य रखनी चाहिए, अवसर मिलने पर अपने संबंधी तक अवसर का लाभ उठाने से नहीं चूकते.’’

‘‘आप ठीक कह रही हैं, दीदी. मेरा अनुभव मुझे भविष्य में अवश्य ही सतर्क रहने की प्रेरणा देगा, पर अभी मैं क्या करूं? सुदीप भी यहां नहीं हैं?’’

‘‘वाह, यह खूब रही, तुम से दुर्व्यवहार कर के भी अम्लान प्रतिदिन कार्यालय आता है, सब से सामान्य व्यवहार करता है. क्या पता तुम से अपने घनिष्ठ संबंधों की चर्चा वह अपने साथियों से भी करता हो. फिर तुम क्यों मुंह छिपाए घर में पड़ी हो? कल से कार्यालय और घर में सामान्य कामकाज प्रारंभ करो. सुदीप से छिपाने जैसा भी इस में कुछ नहीं है, बल्कि उसे तो गर्व ही होगा कि थोड़े से साहस से काम ले कर तुम एक दुर्घटना से बच गईं,’’ विभा ने मानसी को समझाया. कुछ जलपान कर के व मानसी को समझाबुझा कर विभा चली गई. जातेजाते यह भी कह गई कि उस के होते हुए उसे घबराने या चिंता करने की आवश्यकता नहीं है. रातभर उधेड़बुन में खोए रहने के बाद मानसी ने निर्णय ले ही लिया कि निर्दोष होते हुए भी भला वह अपराधबोध को क्यों ढोए? उस ने तो अम्लान को केवल भाई समझा था. यदि वह एक भाई की गरिमा को नहीं समझ सका तो इस में उसी का दोष है. कार्यालय पहुंच कर एक क्षण को तो उसे ऐसा लगा, मानो सभी की निगाहें उसी पर टिकी हैं. पर शीघ्र ही सबकुछ सामान्य हो गया.

शाम को कार्यालय से छुट्टी होने के बाद वह बस स्टौप पर खड़ी थी कि अम्लान का स्कूटर आ कर रुका, ‘‘आइए मनु दीदी, मैं आप को छोड़ दूं,’’ वह बोला तो मानसी का मन हुआ उस का मुंह नोच ले

‘‘यह संबोधन तुम्हारे मुंह से शोभा नहीं देता. मैं तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहती,’’ मानसी तीखे स्वर में बोली.

‘‘ओह, तो आप अभी तक नाराज हैं? हमारी मित्रता क्या ऐसी छोटीमोटी बातों से समाप्त हो जाएगी?’’ अम्लान धृष्टता से बोला.

‘‘छोटीमोटी बात कहते हो तुम उस घटना को?’’ उत्तर में अम्लान पर मानसी ने ऐसी आग्नेय दृष्टि डाली कि वह एक क्षण के लिए भी वहां न रुक सका. मानसी घर पहुंची तो द्वार खोलते ही सामने सुदीप का पत्र दिखाई दिया. उस ने शीघ्रता से लिफाफा खोला. पत्र में सुदीप के मोती जैसे अक्षर चमक रहे थे.

‘‘प्रिय मानसी,

तुम्हारा पत्र पढ़ कर आज मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया है. मेरी अनुपस्थिति में संभवतया तुम्हें एक त्रासदी से गुजरना पड़ा. पर इस के लिए अकेली तुम ही उत्तरदायी नहीं हो. मैं भी तुम्हारा अपराधी हूं. मैं हर परिस्थिति में तुम्हारे साथ हूं.

‘‘तुम ने 6 महीनों का लंबा समय कितनी कठिनाई से गुजारा होगा, मैं समझ सकता हूं. अब तो केवल 6 मास शेष हैं. मैं तो चाहता हूं कि उड़ कर तुम्हारे पास पहुंच जाऊं या तुम्हें यहां बुला लूं, पर ऐसा संभव नहीं है. तुम चाहो तो छुट्टी ले कर मायके जा सकती हो. मेरे मातापिता तो हैं नहीं, वरना मैं तुम्हें वहीं जाने की सलाह देता. तुम अपना निर्णय लेने को स्वतंत्र हो. मैं हर परिस्थति में तुम्हारे साथ हूं.

‘‘तुम्हारा, सुदीप.’’

पत्र पढ़ कर मानसी देर तक रोती रही. उसे ऐसा महसूस हुआ, मानो मन का बोझ आंखों की राह बह जाना चाहता हो और पत्र के माध्यम से सुदीप स्वयं उसे सांत्वना देने चला आया हो. सुदीप का विचार मन में आते ही उस ने आंसू पोंछ डाले और मन को दृढ़ किया. उसे ऐसा लगा, जैसे शरीर में नए उत्साह का संचार हो रहा हो. वह सोचने लगी, उस का सुदीप उस के साथ है तो वह किसी भी परिस्थिति का साहस से सामना कर सकती है. क्यों डरे वह किसी से? क्यों जाए कहीं. इसी घर में सुदीप के इसी प्यार के साथ वह 6 महीने भी काट लेगी.

Family Drama 2025 : पछतावा

Family Drama 2025 : सनोबर ने फर्स्ट डिविजन में बीएससी कर लिया. अख्तर एमबीए कर के एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब पर लग गया. सनोबर आगे पढ़ना चाहती थी पर उस की अम्मा आमना का खयाल था कि उस की शादी कर दी जाए. आमना ने पति सगीर से कहा, ‘‘अख्तर अब एमबीए कर के नौकरी पर लग गया है. अब आप उस के पिता जमाल से शादी की बात कर लीजिए. सनोबर को आगे पढ़ना है तो अख्तर आगे पढ़ाएगा. दोनों में अच्छी अंडरस्टैंडिंग है.’’ दूसरे दिन सगीर और आमना मिठाई ले कर अपने पड़ोसी जमाल के घर गए.

सगीर ने जमाल भाई से कहा, ‘‘अब सनोबर ने ग्रेजुएशन कर लिया है. अख्तर भी एमबीए कर के नौकरी पर लग गया है. यह शादी का सही वक्त है. देर करने से कोई फायदा नहीं.’’

जमाल खुश हो कर बोले, ‘‘सगीर, तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो. बेगम, कैलेंडर ले कर आओ, सही समय देख कर हम अख्तर और सनोबर की शादी की तारीख तय कर देते हैं.’’

खुतेजा मुंह बना कर बोली, ‘‘इतनी जल्दी क्या है. मेरे भाई की बेटी की शादी तय हो रही है. पहले वह तय हो जाए. कहीं हमारी तारीख उन की तारीख से टकरा न जाए. हम अपनी तारीख बाद में तय करेंगे.’’ खुतेजा की बात पर सगीर चुप रहे. जमाल अपनी पत्नी से दबते थे. कुछ ज्यादा न कह सके.

उस दिन वे लोग नाकाम लौट आए. अख्तर, रिदा, फिजा घर में बैठे खुशखबरी का इंतजार कर रहे थे. आमना ने जब बताया कि चाची ने शादी की तारीख नहीं तय की, बाद में तय करने को कहा है, तो सभी के चेहरे लटक गए.

अम्माअब्बा की परेशानी जायज थी. सनोबर का रिश्ता बरसों से अख्तर से तय था. अख्तर के पिता जमाल रिश्ते में अब्बा के भाई थे. वे पड़ोस में ही रहते थे. जमाल का एक ही बेटा था अख्तर. अच्छी हाइट, खूबसूरत, भूरी आंखों वाला. सनोबर के पिता सगीर को अख्तर बहुत पसंद था.

सगीर नेक और सुलझे हुए इंसान थे. उन का प्लास्टिक का सामान बनाने का छोटा सा कारखाना था. गुजरबसर अच्छे से हो रही थी. कुछ बचत भी हो जाती थी. जमाल और सगीर का रिश्ते के अलावा दोस्ती का संबंध भी था.

जमाल की पत्नी खुतेजा यों तो अच्छी थी पर मिजाज की थोड़ी तेज और पुराने खयालात की थी. रस्मोंरिवाज और पुरानी कही हुई बातों पर बहुत यकीन रखती थी वह. सगीर की पत्नी आमना बहुत मिलनसार, नरमदिल व खुशमिजाज औरत थी. सब से मोहब्बत से पेश आती और मदद करने को तैयार रहती. जेठजेठानी से उस के बहुत अच्छे संबंध थे.

अख्तर जब 5 साल का था तब सनोबर पैदा हुई थी. बहुत ही खूबसूरत, नन्ही परी लगती थी वह. अख्तर पूरे वक्त उसे उठाए फिरता. उसे खूब प्यार करता. दोनों को साथ देख कर आमना और खुतेजा बहुत खुश होतीं. जब सनोबर थोड़ी बड़ी हुई तो उस का रिश्ता अख्तर से तय कर दिया गया. दोनों घरों में खूब खुशियां मनाई गईं.

सनोबर के बाद आमना के 2 बेटियां और हुईं. सगीर ने भी बड़ी मोहब्बत से तीनों लड़कियों की परवरिश की. उसे कोई मलाल न था कि उसे बेटा नहीं मिला. सनोबर भी दोनों बहनों से बहुत प्यार करती. बहनें उस से करीब 5 साल छोटी थीं. सनोबर को खेलने के लिए जैसे खिलौने मिल गए. दोनों जुड़वां बच्चियां थीं. उन के नाम रखे गए फिजा और रिदा.

दिन गुजर रहे थे. अख्तर के बाद खुतेजा के यहां एक लड़का और हुआ. आमना महसूस कर रही थी बेटा होने के बाद से खुतेजा के बरताव में फर्क आ गया. बच्चियों से भी पहले जैसी मोहब्बत और अपनापन नहीं रहा. सनोबर का भी वह पहले जैसा लाड़ नहीं करती. आमना ने कोई खास तवज्जुह नहीं दी, लड़कियों की परवरिश में मसरूफ रही. सनोबर पढ़ने में बहुत होशियार थी. क्लास में रैंक लाती. रिदा और फिजा भी दिल लगा कर पढ़तीं.

खुतेजा की बात सुन कर सब का मूड बिगड़ चुका था. सब सोच में डूबे थे कि ऐसा क्यों हुआ. अख्तर भी अपनी मां की बात सुन कर मायूस हो गया. उस की आंखों में उदासी आ गई. इतने सालों से दोनों की बात तय थी. मोहब्बत घर जमा चुकी थी. दोनों के दिल एकदूसरे के नाम से धड़कते थे. इस खबर से दोनों ही चुप हो गए. अभी शायद उन की मोहब्बत को और इंतजार करना था.

इंतजार में डेढ़दो माह निकल गए. एक बार फिर सगीर ने फोन पर बात की, पर खुतेजा ने टाल दिया. अब तो आमना, सगीर और सनोबर तीनों ही परेशान हो गए. आखिर में उन लोगों ने सोच लिया कि दोटूक बात कर ली जाए. एक बार फिर आमना और सगीर शादी की तारीख तय करने जमाल के यहां पहुंच गए.

आमना ने साफ कहा, ‘‘भाभी, अब आप इसी महीने की कोई तारीख दे दीजिए. बेवजह शादी में देर करने का कोई मतलब नहीं है. इस महीने की 21 तारीख अच्छी रहेगी. हम ने सबकुछ सोच कर तारीख तय की है. अब आप अपनी राय बताइए.’’

खुतेजा ने तीखे लहजे में कहा, ‘‘देखिए भाई साहब और भाभी, असल बात यह है कि मैं यह शादी नहीं करना चाहती. मुझे अपने अख्तर के लिए सनोबर पसंद नहीं आ रही है.’’

यह सुन कर सब सन्न रह गए. जमाल भी चुप से रह गए. सगीर ने पूछा, ‘‘भाभी, आखिर मंगनी तोड़ कर शादी न करने की कोई वजह तो होनी चाहिए. इतनी पुरानी मंगनी तोड़ने की कोई खास वजह होनी चाहिए.’’

खुतेजा ने फिर रूखे लहजे में कहा, ‘‘वजह है और बहुत खास वजह है.’’

सगीर जल्दी से बोल उठे, ‘‘फिर बताइए, क्या वजह है?’’

‘‘वजह यह है कि सनोबर का कोई भाई नहीं है. भाई की तरफ से कोई रस्म आप के यहां नहीं होगी. जब मैं ने सनोबर से मंगनी की थी तब वह 5 साल की थी. मुझे उम्मीद थी कि अब आमना के यहां लड़का होगा. लेकिन जुड़वां लड़कियां हो गईं. और आमना ने औपरेशन भी करा लिया. अब लड़का होने के कोई चांस नहीं बचे. तभी से सनोबर की तरफ से मेरा दिल बदल गया था. और आमना भी 4 बहनें हैं. उन का भी कोई भाई नहीं है. मतलब यह है कि नुक्स खानदान में ही है. जब सनोबर ब्याह कर हमारे घर आएगी तो अपनी मां की तरह लड़कियों को ही जन्म देगी. हमारी तो नस्ल ही खत्म हो जाएगी.’’

सगीर बोले, ‘‘लड़का या लड़की होना मौके की बात है. यह जरूरी नहीं है कि आमना के कोई बेटा नहीं है, तो सनोबर के यहां भी बेटा नहीं होगा. आप कुदरत के कानून को अपने हाथ में क्यों ले रही हैं? यह सब समय पर छोड़ दीजिए. शादी न करने की यह कोई जायज वजह नहीं है.’’

खुतेजा उलझ कर बोली, ‘‘वजह क्यों नहीं है. मेरा भाईर् जिस लड़की को बहू बना कर लाया है उस की मां के भी कोई भाई नहीं है. अब मेरा भाई पोते की शक्ल देखने को तरस रहा है. बहू ने 3 बेटियों को जन्म दिया. सारे इलाज करा चुके. किसी तरह भी लड़का न हुआ. सो, मैं अपने अख्तर की शादी ऐसी लड़की से करूंगी जिस का भाई हो. यह मेरा आखिरी फैसला है. अभी सिर्फ मंगनी ही तो हुईर् है, टूट भी सकती है. कई लोगों की मंगनियां टूटती हैं. इस में कौन सी कयामत आ गई है.’’

जब से आमना के यहां जुड़वां बेटियां हुई थीं तब से खुतेजा के दिल में यह बात बैठ गई थी कि बिना भाई की लड़की से हरगिज शादी नहीं करेगी. तब से ही वह शादी के खिलाफ हो गई थी.

अख्तर यह सुन कर बेहद परेशान हो गया. उसे सनोबर से मोहब्बत थी. वह किसी कीमत पर दूसरी लड़की से शादी नहीं करना चाहता था. उस ने मां को बहुत समझाया पर वह अपनी जिद पर अड़ी रही. किसी कीमत पर भी शादी के लिए तैयार नहीं हुई. उस ने साफ कह दिया कि अगर अख्तर ने सनोबर से शादी की तो वह जहर खा लेगी.

बहुत दिनों तक बहस चलती रही. पर खुतेजा ने अख्तर की बात मानने से साफ इनकार कर दिया. अख्तर अपनी मोहब्बत खोना नहीं चाहता था. वह सनोबर के पास आया और बोला, ‘‘सनोबर, अम्मा तो किसी कीमत पर शादी करने को राजी नहीं हैं. मैं ने हजार मिन्नतें कीं, लेकिन वे अपनी जिद पर अड़ी हैं. खुदकशी करने की धमकी दे रही हैं. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता. चलो, हम कोर्ट मैरिज कर लेते हैं. जो होगा, देखा जाएगा.’’

सनोबर खुद गम से निढाल थी. उस की मोहब्बत दांव पर लगी हुई थी. पर वह समझदार थी. वह खुतेजा को जानती थी. वह हठधर्म औरत बड़ी शक्की थी, वहम और पुराने खयालात छोड़ नहीं सकती थी. ऐसे में अगर वह अख्तर से कोर्ट मैरिज कर लेती और खुतेजा जहर खा लेती तो मौत की बुनियाद पर शादी की शहनाई उन्हें उम्रभर रुलाती. वह एक अच्छी बेटी थी और एक बेमिसाल बहू बनना चाहती थी. शादी बस 2 दिलों का मेल ही नहीं, बल्कि 2 खानदानों का आपसी संबंध है.

सनोबर ने कहा, ‘‘मान लो शादी के बाद तुम्हारी मां कुछ कर लेती हैं तो यह शादी शादमानी के बजाय उम्रभर की परेशानी बन जाएगी. मैं खुद आप से बेहद मोहब्बत करती हूं. पर जो अफसाना अंजाम तक पहुंचना नामुमकिन हो, उसे एक खूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा है. आप अपनी राह बदल लीजिए. अपनी मां की खातिर अपनी मोहब्बत कुरबान कर दीजिए. मां का दिल दुखा कर हम सुखी नहीं रह सकेंगे. आप उन की मरजी से शादी कर लीजिए.

‘‘मैं ने आप को अपनी मोहब्बत और मंगनी के बंधन से आजाद किया. आप मां की खुशी की खातिर अपना फैसला बदल लीजिए. मैं वादा करती हूं, मैं खुश रहने की पूरी कोशिश करूंगी और अगर कोई रिश्ता आता है तो शादी भी कर लूंगी. मैं अपने मांबाप को अपने लिए आंसू बहाता नहीं देख सकती. आइए, अब हम बीते हुए समय को भुला कर एक नई शुरुआत करते हैं. आप को हमारी मोहब्बत की खातिर, यह बात माननी पड़ेगी.’’

सनोबर ने इस तरह से समझाया कि अख्तर को उस की बात माननी पड़ी. उन्होंने वादा किया कि अब वे दोनों नहीं मिलेंगे. यह फैसला तकलीफदेह है, पर जरूरी है. एक खूबसूरत कहानी बिना अपने अंजाम को पहुंचे बीच में ही खत्म हो गई.

अख्तर ने मां से कहा, ‘‘आप जहां चाहें, मेरी शादी कर दें.’’

खुतेजा ने देर नहीं की. 2 महीने के अंदर ही वह अपने रिश्ते की बहन की बेटी रुखसार को बहू बना कर ले आई. रुखसार अच्छी, खूबसूरत लड़की थी. सब से बड़ी बात, 4 भाइयों की इकलौती बहन थी. उस की मां भी 2 भाइयों की एक बहन थी. खुतेजा बेहद खुश थी. उसे मनचाही, मरमरजी की बहू मिल गई थी. सगीर और आमना रस्म निभाने की खातिर शादी में शामिल हुए. दोनों सनोबर के लिए दुखी थे. अकसर एक दरवाजा बंद होता है तो दूसरा दरवाजा खुल जाता है.

सगीर के खास दोस्त नोमान का बेटा अरशद दुबई में जौब करता था. वह शादी के लिए इंडिया आया हुआ था. नोमान और उस की बीवी अच्छी लड़की की तलाश में थे. यहांवहां लड़कियां देख रहे थे. एक दिन वे दोनों सगीर से मिलने घर आए. वहां सनोबर से मिले. उस की खूबसूरती, व्यवहार और सलीका देख कर वे बहुत प्रभावित हुए. उन लोगों ने 2 दिनों बाद अरशद को भी लड़की दिखा दी. उसे सनोबर बहुत पसंद आई. वह तो जीजान से फिदा हो गया.

दूसरे दिन ही नोमान, उन की पत्नी सनोबर के लिए अरशद का रिश्ता ले कर आ गए. बहुत अरमानों से सनोबर की मांग करने लगे. सगीर के जानेपहचाने लोग थे. पढ़ालिखा खानदान था. अरशद की जौब भी बहुत अच्छी थी. आमना ने सनोबर की मरजी पूछी. उस ने कोई एतराज नहीं किया क्योंकि जो कहानी खत्म हो चुकी थी उस पर आंसू बहाना फुजूल था. पर उस ने एक शर्त रखी कि अरशद को उस की मंगनी टूटने के बारे में बता दिया जाए.

नोमान को यह बात पहले से ही पता थी क्योंकि वह सगीर का खास दोस्त था. यह बात अरशद को भी बता दी गई. उसे इस बात पर कोई एतराज न हुआ. 15 दिनों के अंदर अरशद से सनोबर की शादी धूमधाम से हो गई. अरशद ने सनोबर को दुबई बुलाने की कारर्रवाई शुरू कर दी. अरशद छुट्टी खत्म होने पर इस वादे के साथ दुबई रवाना हुआ कि वह जल्दी ही सनोबर को दुबई बुला लेगा.

अरशद बहुत मोहब्बत करने वाला पति साबित हुआ. 3 महीने के अंदर ही उस ने सनोबर को दुबई बुला लिया. उस की मोहब्बत ने धीरेधीरे सनोबर के जख्म भर दिए. वे दोनों खुशहाल जिंदगी गुजारने लगे.

सनोबर की शादी के एक साल बाद ही उस के यहां बेटा हुआ जबकि अख्तर के यहां बेटी हुई. बेटी देख कर खुतेजा फूटफूट कर रोई. सगीर और आमना ने शुक्र अदा किया कि उन की बेटी पर लगा बेहूदा इलजाम गलत साबित हो गया. खुतेजा ने लड़की होने पर रुखसार को बुराभला कहना शुरू किया. पर वह दबने वाली बहू न थी. 4 भाइयों की इकलौती बहन थी. मिजाज बहुत ऊंचे थे. उस ने साफ कह दिया, ‘‘आप मुझे इलजाम न दें. लड़का या लड़की होने के लिए मर्द जिम्मेदार होता है. औरत तो सिर्फ उस के दिए हुए तोहफे को कोख में पालती है. इस में औरत कुछ नहीं कर सकती. चाहें तो आप डाक्टर से पूछ लें. और दोष ही देना है, तो अपने बेटे को दीजिए. वही इस के लिए जिम्मेदार है.’’

रुखसार ने ऐसा खराखरा जवाब दिया कि खुतेजा की बोलती बंद हो गई. उस ने बेटे की तरफ मदद के लिए देखा, पर अख्तर बाप की तरह सीधासादा था. रुखसार के आगे कुछ बोल न सका. वैसे भी, रुखसार ने साइंस का हवाला दिया था जो कि सच था.

2 साल और गुजर गए. एक बार फिर सनोबर के यहां बेटा हुआ और अख्तर के यहां फिर बेटी हुई. खुतेजा मारे सदमे के बेहोश हो गई. होश आने पर फूटफूट कर रोने लगी. जमाल और अख्तर ने उस की अच्छी खबर ली और कहा, ‘‘अपनी मरजी से अपनी पसंद की बहू लाई थी 2 दिल तोड़ कर, बरसों पुरानी मंगनी ठुकरा कर. सो, अब क्यों रोती हो. सब कियाधरा तो तुम्हारा है. तुम तो खुशियां मनाओ. अपनी दकियानूसी सोच व वहम की वजह से 2 दिलों की मोहब्बत रौंद डाली.’’

लेखिका- शकीला एस हुसैन

Best Short Story : मीठी छुरी

 Best Short Story : चंचला भाभी के स्वभाव में जरूरत से कुछ ज्यादा मिठास थी जो शुरू से ही मेरे गले कभी नहीं उतरी, लेकिन घर का हर सदस्य उन के इस स्वभाव का मुरीद था. वैसे भी हर कोई चाहता है कि उस के घर में गुणी, सुघड़, सब का खयाल रखने वाली और मीठे बोल बोलने वाली बहू आए. हुआ भी ऐसा ही. चंचला भाभी को पा कर मां और बाबूजी दोनों निहाल थे, बल्कि धीरेधीरे चंचला भाभी का जादू ऐसा चला कि मां और बाबूजी नवीन भैया से ज्यादा उन की पत्नी यानी चंचला भाभी को प्यार और मान देने लगे. कभी बुलंदियों को छूने का हौसला रखने वाले, प्रतिभाशाली और आकर्षक व्यक्तित्व वाले नवीन भैया अपनी ही पत्नी के सामने फीके पड़ने लगे.

मेरे  4 भाईबहनों में सब से बड़े थे मयंक भैया, फिर सुनंदा दी, उस के बाद नवीन भैया और सब से छोटी थी मैं. हम  चारों भाईबहनों में शुरू से ही नवीन भैया पढ़ने में सब से होशियार थे. इसलिए घर के लोगों को भी उन से कुछ ज्यादा ही आशाएं थीं. आशा के अनुरूप, नवीन भैया पहली बार में ही भारतीय प्रशासनिक सेवा की मुख्य लिखित परीक्षा में चुन लिए गए और उस दौरान मौखिक परीक्षा की तैयारियों में जुटे हुए थे, जब एक शादी में उन की मुलाकात चंचला भाभी से हुई.

निम्न  मध्यवर्गीय परिवार की साधारण से थोड़ी सुंदर दिखने वाली चंचला भाभी को नवीन भैया में बड़ी संभावनाएं दिखीं या वाकई प्यार हो गया, किसे मालूम, लेकिन नवीन भैया उन के प्यार के जाल में ऐसे फंसे कि उन्होंने अपना पूरा कैरियर ही दांव पर लगा दिया. उन से शादी करने की ऐसी जिद ठान ली कि उस के आगे झुक कर उन की मौखिक परीक्षा के तुरंत बाद उन की शादी चंचला भाभी से कर दी गई.

शादी के बाद भाभी ने घर वालों से बहुत जल्द अच्छा तालमेल बना लिया, लेकिन नवीन भैया को पहला झटका तब लगा जब भारतीय प्रशासनिक सेवा का फाइनल रिजल्ट आया. आईएएस तो दूर की बात उन का तो पूरी लिस्ट में कहीं नाम नहीं था. अब उन्हें अपना सपना टूटता नजर आया, वे चंचला भाभी को मांबाबूजी के सुपुर्द कर नए सिरे से अपनी पढ़ाई शुरू करने दिल्ली चले गए.

नवीन भैया भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में 3 बार शामिल हुए. हर बार असफल रहे. भैया हतप्रभ थे. बारबार की इस असफलता ने उन के आत्मविश्वास को जड़ से हिला दिया.

जिन नौकरियों को कभी नवीन भैया ने पा कर भी ठोकर मार दी थी, अब उन्हीं को पाने के लिए लालायित रहते, कोशिश करते पर हर बार असफलता हाथ आती. जब किसी काम को  करने से पहले ही आत्मविश्वास डगमगाने लगे तो सफलता प्राप्त करना कुछ ज्यादा ही मुश्किल हो जाता है. उन के साथ यही हो रहा था.

नवीन भैया पटना लौट आए थे. यहां भी वे नौकरी की तलाश में लग गए, कहीं कुछ हो नहीं पा रहा था. बाबूजी उन का आत्मविश्वास बढ़ाने के बदले उन्हें हमेशा निकम्मा, कामचोर और न जाने क्याक्या कहते रहते.

प्रतिभाशाली लोगों को चाहने वालों की कमी नहीं होती और उन से ईर्ष्या करने वाले भी कम नहीं होते. होता यह है कि जब कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति कामयाबी की राह नहीं पकड़ पाता तो उस के चाहने वाले उस से मुंह मोड़ने लगते हैं और ईर्ष्या करने वाले ताने कसने का कोई मौका नहीं छोड़ते.

नवीन भैया से जलने वाले रिश्तेदारों और पड़ोसियों को भी मौका मिल गया उन पर तरहतरह के व्यंग्यबाण चलाते रहने का. उन की असफलता से आहत उन के अपने भी उन्हें जबतब जलीकटी सुनाने लगे. पासपड़ोस के लोग तो अकसर उन्हें कलैक्टर बाबू कह उन के जले पर नमक छिड़कते, जिसे सुन एक बार नवीन भैया तो मरनेमारने पर उतारू हो गए थे. जब बाबूजी को इस घटना के बारे में मालूम हुआ तो वे क्रोध में अंधे हो उन्हें बेशर्म और नालायक जैसे अपशब्दों से नवाजते हुए मारने तक दौड़ पड़े थे.

पूरी तरह टूट चुके नवीन भैया देर तक ड्राइंगरूम के एक कोने में सुबकसुबक कर रोते रहे थे. उन का तो आत्मविश्वास के साथ जैसे स्वाभिमान भी खत्म हो रहा था. दूसरे ही दिन नौकरी की तलाश में जाने के लिए उन्होंने बाबूजी से ही रुपए मंगवाए थे. भाई की दुर्दशा से आहत बड़े भैया ने दूसरा कोई रास्ता न देख समझाबुझा कर उन का दाखिला ला कालेज में करवा दिया.

नवीन भैया के ऐसे कठिन समय में उन का साथ देने के बदले चंचला भाभी मां और बाबूजी के पास बैठी उन्हें कोसती रहतीं और आंसू बहाती रहतीं जिस से उन लोगों की पूरी सहानुभूति बहू के साथ होती चली गई और नवीन भैया के लिए उन के अंदर गरम लावे की तरह उबलता गुस्सा ही बचा रह गया था.

क्षणिक आवेश में लिए गए जीवन के एक गलत फैसले ने नवीन भैया को कहां से कहां पहुंचा दिया था. विपरीत परिस्थितियों के शिकार नवीन भैया के मन की स्थिति समझने के बदले जबतब उन के जन्मदाता बाबूजी ही उन के विरुद्ध कुछ न कुछ बोलते रहते. वे अपनी सारी सहानुभूति और वात्सल्य  चंचला भाभी पर न्योछावर करते और अपनी सारी नफरत नवीन भैया पर उड़ेलते.

चंचला भाभी ने अपनी मीठी जबान और सेवाभाव से सासससुर को अपने हिसाब से लट्टू की तरह नचाना शुरू कर दिया था. वे जो चाहतीं, जैसा चाहतीं, मांबाबूजी वैसा ही करते. नवीन भैया वकालत पास कर कोर्ट जाने तो लगे पर उन की वकालत ढंग से चल नहीं पा रही थी. पैसों की तंगी हमेशा बनी रहती.

इस दौरान उन के 2 लड़के भी हो गए अंश और अंकित. शुरू से ही बड़ी होशियारी से चंचला भाभी अपने दोनों बच्चों को नवीन भैया से दूर अपने अनुशासन में रखतीं. बातबात में जहर उगल कर बच्चों के मन में पिता के प्रति उन्होंने इतना जहर भर दिया था कि अपने पिता की अवज्ञा करना उन के दोनों बेटों के लिए शान की बात थी. घर के बड़े ही जब घर के किसी सदस्य की उपेक्षा करने लगते हैं तो क्या नौकर, क्या बच्चे, कोई भी उसे जलील करने से नहीं चूकता.

अंश और अंकित पूरी तरह बाबूजी के संरक्षण में पलबढ़ रहे थे पर उन का रिमोट कंट्रोल हमेशा चंचला भाभी के पास रहता. नवीन भैया तो अपने बच्चों के लिए भी कोई फैसला लेने से वंचित हो गए थे. धीरेधीरे उन के अंदर भी एक विरक्ति सी उत्पन्न होने लगी थी, अब वे देर रात तक यहांवहां घूमते रहते. घर आते बस खाने और सोने के लिए.

घर के लोग चंचला भाभी की चाहे जितनी बड़ाई करें पर मैं जब भी उन के स्वभाव का विश्लेषण करती, मुझे लगता कुछ है जो सामान्य नहीं है. चंचला भाभी की जरूरत से ज्यादा फर्ज निभाने का उत्साह मेरे मन में संशय भरता. मैं अकसर मां से कहती, ‘‘मां, ज्यादा मिठास की आदत मत डालो, कहीं तुम्हें डायबिटीज न हो जाए.’’

मेरी बातें सुनते ही बड़ों की आलोचना करने के लिए मां दस नसीहतें सुना देतीं.

यह चंचला भाभी के मीठे वचनों का ही असर था जो मयंक भैया अंश और अंकित को भी अपने तीनों बच्चों में शामिल कर अपने बच्चों की तरह पढ़ातेलिखाते और उन की सारी जरूरतों को पूरा करते. पर्वत्योहार में जैसी साड़ी भैया भाभी के लिए खरीदते वैसी ही साड़ी चंचला भाभी के लिए भी खरीदते. वैसे भी मां की मयंक भैया को सख्त हिदायत थी कि कपड़ा हो या और कोई दूसरी वस्तु, दोनों बहुओं के लिए एक समान होनी चाहिए. भैया भी मां की इस बात का मान रखते.

वैसे चंचला भाभी भी कुछ कम नहीं थीं, जबतब बड़ी भाभी के कीमती सामान पर भी मीठी छुरी चलाती रहतीं. कभी कहतीं, ‘‘हाय भाभी, कितने सुंदर कर्णफूल आप ने बनवाए हैं. इन पर तो मेरी पसंदीदा मीनाकारी है. मैं तो इन के कारण लाचार हूं, इन्होंने इतनी छोटीछोटी चीजों को भी मेरे लिए दुर्लभ बना दिया है.’’

झट बड़ी भाभी अपना बड़प्पन दिखातीं, ‘‘अरे नहीं, चंचला, इतना मायूस मत हो. तू इन्हें रख ले. मैं अपने लिए दूसरे बनवा लूंगी.’’

पहले वे मना करतीं, ‘‘नहींनहीं, भाभी, मैं भला इन्हें कैसे ले सकती हूं. ये आप ने अपने लिए बनवाए हैं.’’

बड़ी भाभी जब जिद कर उन्हें थमा ही देतीं तब बोलतीं, ‘‘मैं खुश हूं कि मुझे आप जैसी जेठानी मिलीं. भला इस दुनिया में कितने लोग हैं जिन के दिल आप के जैसे सोने के हैं. आप मुझे छोटी बहन मानती हैं तो पहन ही लूंगी.’’

चंचला भाभी की तारीफ सुन कर बड़ी भाभी फूल कर कुप्पा हो जातीं.

सुनंदा दी जब भी चेन्नई से आतीं, सब के लिए साडि़यां लातीं. यह सोच कर कि नवीन तो शायद ही चंचला के लिए अच्छी साड़ी ला पाता होगा, सब से पहले चंचला भाभी को ही साड़ी पसंद करने को बोलतीं और चंचला भाभी अकसर 2 साडि़यों के बीच कन्फ्यूज हो जातीं कि कौन सी साड़ी ज्यादा अच्छी है. तब सुनंदा दी इस का हंस कर समाधान निकालतीं, ‘‘तुम दोनों ही साडि़यां रख लो.’’

जितना जादू चंचला भाभी के मधुर वचनों का घर के लोगों पर बढ़ता जा रहा था, उतना ही नवीन भैया अपने घर में  बेगाने होते जा रहे थे.

नवीन भैया की शादी के समय बाबूजी ने छत पर एक कमरा बनवाया था, उसी कमरे में नवीन भैया और चंचला भाभी रहते थे. जब भाभी नीचे का काम खत्म कर सोने जातीं तब सीढि़यों से दरवाजा बंद कर लेतीं.

एक बार देर रात तक पढ़तेपढ़ते मैं बुरी तरह थक कर आंगन में आ बैठी. सामने सीढि़यों का दरवाजा खुला देख, मैं ठंडी हवा  का आनंद उठाने छत पर आ गई. तभी चंचला भाभी की कर्कश और फुफकारती हुई धीमी आवाज सुन जैसे मेरी रीढ़ की हड्डी में एक ठंडी लहर सी दौड़ गई. नवीन भैया को चंचला भाभी किसी बात पर सिर्फ डांट ही नहीं रही थीं, अपशब्द भी बोल रही थीं. फिर धक्कामुक्की की आवाज सुनाई पड़ी. उस के तुरंत बाद ऐसा लगा जैसे कुछ गिरा. मेरा तो यह हाल हो गया था कि काटो तो खून नहीं.

अचानक नवीन भैया दरवाजा खोल कर बाहर आ गए. कमरे से आती धीमी रोशनी में भी मुझे सबकुछ साफसाफ दिख रहा था. वे बुरी तरह हांफ रहे थे, उन के बाल बिखरे और कपड़े जगहजगह से फटे हुए नजर आ रहे थे. अपने हाथ से रिसते खून को अपनी शर्ट के कोने से साफ करने की कोशिश करते नवीन भैया को देख, मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरा कलेजा चाक कर दिया हो.

मेरी उपस्थिति से अनजान चंचला भाभी ने फटाक से दरवाजा बंद कर लिया और नवीन भैया सीढि़यों की तरफ बढ़े. तभी सीढि़यों पर जलते बल्ब की रोशनी में हम दोनों की आंखें टकराईं. भैया मुझे विवश दृष्टि से देख तेजी से आगे बढ़ गए.

हमेशा से सहनशील रहे नवीन भैया का चेहरा उस समय इतना दयनीय दीख रहा था कि वहां खड़ी मैं हर पल शर्म के बोझ तले दबती जा रही थी. इन्हीं चंचला भाभी की लोग मिसाल अच्छी बहू के रूप में देते हैं जिन्होंने अपने पति को इस कदर प्रताडि़त करने के बाद भी, दुनियाभर में उन पर तरहतरह के आरोप लगा उन को बदनाम कर रखा था. मैं ने किसी से कुछ भी नहीं कहा. परिवार के लोगों पर तो अभी भाभी का जादू छाया हुआ था. मेरी कौन सुनता.

उन्हीं दिनों मयंक भैया का ट्रांसफर रांची हो गया था. संयोग से उसी साल मुझे भी रांची मैडिकल कालेज में दाखिला मिल गया. मैं पटना से रांची आ गई.

मयंक भैया के पटना से हटते ही बाबूजी की चिंता नवीन भैया के परिवार के लिए कुछ ज्यादा बढ़ गई थी. अभी तक बड़े भैया एक परिवार की तरह सब को संभाले हुए थे. घर से बाहर निकलने पर कई तरह के खर्चे बढ़े, फिर भी अंश और अंकित की पढ़ाई का पूरा खर्च भेजते रहे. लेकिन बाबूजी संतुष्ट नहीं थे. वे नवीन भैया के परिवार की निश्चित आय की व्यवस्था करना चाहते थे.

नौकरी से अवकाश प्राप्त करने के बाद उन्होंने एक मार्केट कौंप्लैक्स बनवाया था, जिस से उन की अच्छीखासी आमदनी हो जाती थी. उन्होंने उस मार्केट कौंप्लैक्स को मयंक भैया के मना करने के बावजूद चंचला भाभी के नाम कर दिया. मयंक भैया चाहते थे कि वह मार्केट कौंप्लैक्स नवीन भैया के नाम हो. लेकिन बाबूजी के लिए तो नवीन भैया एक गैरजिम्मेदार और निकम्मे इंसान थे. उन की बहू ने उन के दिमाग में यह बात बिठा दी थी.

मयंक भैया के हटते ही चंचला भाभी ने मांबाबूजी की जिम्मेदारी के साथसाथ उन की सारी आमदनी भी अपनी मुट्ठी में कर ली थी. फिर भी हम सभी चंचला भाभी के इस तरह सबकुछ संभाल लेने से मांबाबूजी की तरफ से चिंतामुक्त हो गए थे. अकसर बाबूजी मयंक भैया को फोन कर नवीन भैया की गैरजिम्मेदाराना हरकतों से अवगत कराते रहते. इतने दिनों बाद भी बाबूजी यह नहीं समझ पा रहे थे कि नवीन भैया को फटकार के बदले अपनों के प्यार और सहानुभूति की कितनी जरूरत है.

वह जनवरी की ठिठुरती शाम थी. हम सभी शाम होते ही उस हाड़ कंपा देने वाली ठंड से बचने के लिए एक कमरे में आग जला कर बैठे गपशप कर रहे थे. तभी फोन की घंटी बजी. फोन उठाते ही मां ने रोतेरोते बताया, बाबूजी की तबीयत बहुत खराब है. उन्हें आईसीयू में भरती कराया गया है. मां को आश्वस्त कर हम फौरन पटना के लिए रवाना हो गए.

नवीन भैया द्वारा बताए पते पर सीधे अस्पताल पहुंचे. वार्ड के बाहर ही नवीन भैया और मां बैठे मिले. चंचला भाभी कहीं नजर नहीं आ रही थीं. हम लोगों को देख मां को थोड़ी तसल्ली हुई. जब मयंक भैया ने चंचला भाभी के बारे में पूछा तो उस चिंता, दुख, अनिश्चितता और भय की स्थिति में भी जो कुछ मां ने सुनाया, सुनते ही जैसे हम सब के पैरों तले जमीन खिसक गई. किंकर्तव्यविमूढ़ बने हम सब मां की बातें सुनते रहे.

मां ने बताया, ‘जब बाबूजी को दिल का दौरा पड़ने से अस्पताल में भरती करवाया गया, आननफानन डाक्टरों ने लाखों के खर्चों की फेहरिस्त थमा दी. हमेशा की तरह जब मां ने चंचला भाभी से पैसा निकालने के लिए कहा तो उन्होंने थोड़े से पैसे निकाल कर देने के बाद, यह कह कर पैसे निकालने से मना कर दिया कि अकाउंट में पैसे हैं ही नहीं. जबकि चंचला भाभी के साथ जौइंट अकाउंट में बाबूजी ने अच्छीखासी रकम जमा करवा रखी थी. 1 मिनट में चंचला भाभी ने मांबाबूजी के अटूट विश्वास की धज्जियां उड़ा कर रख दी थीं.

मां ने धैर्य से काम लेते हुए मकान और उस के बगल वाले जमीन के कागजात बाबूजी से मांगे, ताकि उन्हें गिरवी रख पैसों का इंतजाम करें. तब उन्हें पता चला, दुकान की रजिस्ट्री के समय वे सब भी चंचला भाभी ने अपने नाम करवा लिए थे. परिस्थिति को देखते हुए हम सब ने अभी मां को चुप रहने की सलाह दी और खुद भी खामोश रहे. मयंक भैया ने सारे खर्च संभाल लिए थे, पर डाक्टरों की लाख कोशिश के बाद भी बाबूजी को बचाया नहीं जा सका.

बाबूजी की तेरहवीं तक इस बारे में सब चुप रहे. जब सारे रिश्तेदार चले गए, मयंक भैया ने चंचला भाभी को बुलवा कर मां द्वारा लगाए गए आरोपों की सत्यता जाननी चाही तब बिना किसी संकोच के मां द्वारा लगाए गए सारे आरोपों को सही बताते हुए वे बोलीं, ‘‘हां, मैं ने ऐसा किया है, क्योंकि मैं नहीं चाहती कि मैं और मेरे दोनों बच्चे हमेशा आप लोगों के मुहताज रहें.’’

उन की आंखों में एक अजीब सी हिंसक ईर्ष्या धधक उठी, जिसे देख भैया ने समझाना चाहा कि तुम ऐसा क्यों सोचती हो कि हम सब तुम्हारे अपने नहीं हैं.

भैया की बातें सुनते ही वे और भी भड़क उठीं. हमेशा से सीधीसादी दिखने वाली चंचला भाभी ने एकाएक बहुत उग्र रूप धारण कर लिया. कहीं बहस में रिश्तों की मर्यादा न टूट जाए, यह सोच मयंक भैया खामोशी से मां के बचेखुचे सामान और गहने समेट हम सब को साथ रांची ले जाने के लिए कार में आ बैठे.

हम सभी घर से निकले ही थे कि नवीन भैया बीच रास्ते में आ खड़े हो गए. मयंक भैया के कार रोकते ही वे दौड़ कर आए और भैया का हाथ थामते हुए बोले, ‘‘भैया, मुझे अकेला छोड़ कर मत जाइए, मैं आप लोगों के बिना जी नहीं सकूंगा.’’

भैया कुछ बोलते, उस के पहले ही भाभी गाड़ी से उतर नवीन भैया का हाथ थाम अपने बगल में बैठाते हुए बोलीं, ‘‘चलो, तुम मेरे साथ चलो. इतना प्रतिभाशाली हो कर भी किस कदर तुम ने अपनी जिंदगी को नरक बना लिया. बहुत हुआ यह सब. तुम्हें मैं ने हमेशा अपना छोटा भाई समझा है. देखना, मैं तुम्हें फिर से कैसे बुलंदियों पर पहुंचाती हूं. जितना तुम ने जिंदगी में चाहा होगा उस का चौगुना तुम पाओगे, यह तुम्हारी भाभी का तुम से वादा है. एक दिन तुम यह भी देखोगे कि कैसे तुम्हारे यही बीवीबच्चे सिर के बल दौड़े तुम्हारे पास आएंगे.’’

गाड़ी आगे बढ़ी, अब मेरे बोलने की बारी थी, ‘‘आप लोगों को चंचला भाभी पर अटूट विश्वास करते देख मैं हमेशा खामोश रही, वरना मैं तो शुरू से ही उन्हें अच्छी तरह समझ रही थी. जो जितना उन की मीठी वाणी का मुरीद हुआ उस के गले पर उन की मीठी छुरी उतनी ही तेज चली. आप लोगों के तो फिर भी धनसंपत्ति पर ही उन की मीठी छुरी चली, जरा नवीन भैया की सोचिए, जिन की पूरी जिंदगी ही बरबाद हो गई.’’

किसी के पास अब इस बात का भला क्या जवाब था? सब मीठी छुरी के मारे हुए थे. सब को राहत इस बात की थी कि चलो घाव भले हुआ, प्राण तो बचे. शायद इसीलिए उस विषम परिस्थिति में भी सब के चेहरों पर मुसकराहट छा गई.

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