पतझड़ में वसंत : सुषमा और राधा के बनते बिगड़ते हालात

‘प्रिय राधा,

‘स्नेह, मैं सुषमा, तेरी सहेली, तेरी पड़ोसिन, तेरी कलीग. शायद तू मुझे भूल गई होगी पर इन 10 बरसों में कोई दिन ऐसा न था जब तेरा हंसताखिलखिलाता चेहरा जेहन में न उभरा हो. बहुत याद आती है इंडिया की, इंडिया के लोगों की. मुझे तुझ से एक फेवर चाहिए. मैं यूएस से इंडिया आना चाहती हूं. क्या मैं कुछ दिन तेरे पास रह सकती हूं? मेरा आना न आना, तेरी हां या न पर है. ईमेल का जवाब फौरन देना. मैं अगले महीने की 20 तारीख तक चलने का प्रोग्राम बना रही हूं. मेरी बात हो सकता है तुझे अजीब लगे, उस के लिए माफी चाहती हूं. सबकुछ आ कर बताऊंगी.

‘तेरी सुषमा.’

ईमेल सुषमा का था. 10 बरस पहले यूएस में अपने बेटों के पास जा बसी थी. आज इतने लंबे समय के बाद वापस आ रही है. पर क्यों? लोग तो वहां जा कर वापस आना ही नहीं चाहते. फिर यह

तो बेटों के बुलाने पर ही गई थी. सोचतेसोचते बरामदे में पड़ी कुरसी पर आ बैठी. अतीत सामने आ कर खड़ा हो गया.

सामने वाली दीवार के पीछे सुषमा का परिवार रहता था. लंबीचौड़ी कोठी थी, 10-15 लोग रहते थे. ठीक, राधा के परिवार की तरह. दोनों की छतें इस तरह जुड़ी थीं कि गरमी में रात को जब परिवार के बच्चेबूढ़े सोने आते तो पता ही नहीं लगता कि घरों का आदि कहां, अंत कहां है. वैसे भी दोनों परिवार में बहुत अपनापन था. बच्चे भी बहुत हिलमिल कर रहते थे. उसे आज भी याद है, जब भी दोनों घरों में कोई खुशी आती, सब मिलजुल कर बांटते. चाहे किसी बच्चे का जन्मदिन हो या किसी को कंपीटिशन में जबरदस्त कामयाबी मिली हो.

राधा और सुषमा एक ही स्कूल में नौकरी करती थीं. दोनों ने अपने और बच्चों से जुड़े किसी भी फैसले को कभी अकेला नहीं लिया. स्कूल से रिटायर होने के बाद भी वे एकदूसरे की सलाह लेने में कोताही नहीं करती थीं.

राधा के 2 बेटे हैं तो सुषमा 3 बच्चों की मां है. कोईर् वक्त था जब पढ़ाई में दोनों के बच्चों में होड़ सी लगी होती. जिन्हें देख कर दोनों परिवारों के दूसरे बच्चे भी इस होड़ में शामिल हो जाते. दोनों सहेलियों ने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के सपने देखे थे. वक्त के साथ सपनों में रंग भरने लगे. वैसे भी टीचर्स के बच्चों की सोच में सिर्फ और सिर्फ कैरियर होता है.

राधा के दोनों बेटों ने इंजीनियरिंग की और बाहर का रुख किया. सुषमा के तीनों बेटे भी मैडिकल की पढ़ाई कर के अमेरिका चले गए. कुछ वर्षों बाद तीनों भाइयों ने मिल कर एक हौस्पिटल का शुभारंभ किया. बेटों की तरक्की से दोनों माएं खुश थीं. यही नहीं, दोनों के परिवारों के बाकी बच्चे भी अच्छी नौकरी ले कर दूसरे शहरों में जा बसे थे. इतने बड़े घर में केवल राधा व राधा के पति कमलेश्वर थे. उधर, सुषमा व उस के पति रमेश रह गए थे. दोनों को रिटायर होने में समय था. सब के दिमाग में यही प्रश्न था, रिटायर हो कर वे कहां, क्या करेंगे?

बच्चों ने नए देश व माहौल में अपने को ढालने में देर न लगाई. दोनों दंपती जानते थे कि अब बच्चे वहीं बसेंगे, कोईर् यहां बसने नहीं आएगा.

राधा के बेटों ने मम्मीपापा को अमेरिका आ कर बसने का प्रस्ताव रखा. उन्होंने पहले तो इस प्रस्ताव पर ध्यान नहीं दिया पर जब बेटों ने बारबार कहा तो कमलेश्वर ने पत्नी से कहा, ‘बच्चों की भावनाओं को मैं समझता हूं, पर यह समझ लो, हम कहीं नहीं जाएंगे. जहां हम रह रहे हैं वही ठिकाना ही हमारा सम्मान है. साधु अपनी कुटिया में रहता है, तो चार लोग उस से मिलने आते हैं. कुटिया छोड़ कर घरघर भीख मांगने जाएगा तो लोग दुत्कार भी सकते हैं.

‘सो, हम अपनी इस कुटिया में ही भले. जिस को मिलना है, यहां आ कर मिल जाए. और फिर हम बूढ़े पेड़ की तरह हैं, एक जगह से उखड़ कर दूसरी जगह की मिट्टी में नहीं जम सकते. चिडि़या अपने बच्चों को उड़ना सिखाती है, सदा उन के साथ नहीं उड़ती. यह देख कर कि उन्होंने उड़ना सीख लिया है, वह उन्हें आजाद छोड़ देती है. हम ने भी बच्चों को अच्छी शिक्षा व संस्कारों के मजबूत पंख दिए हैं. उन्हें अब हमारी जरूरत नहीं है. हम दोनों ही अपने तरीके से जीने के लिए आजाद हैं.’

बच्चे इस बात को नहीं मानते. उन का कहना था, ‘आप दोनों का शरीर इस उम्र में आने वाली तकलीफोें को कैसे झेलेगा? कोई तो साथ होना चाहिए. यहां हमारे पास होगे तो किसी अनहोनी का डर तो न होगा.’

बच्चों की मजबूरी और कमलेश्वर का स्वाभिमानी तर्क, दोनों अपनी जगह ठीक थे. पतिपत्नी के हठ के आगे बच्चों को घुटने टेकने पड़े.

सुषमा व उस के पति रमेश की सोच इन से अलग है. उन के बच्चों ने दोनों को जब अमेरिका आने का निमंत्रण दिया, तो वे मना न कर सके. ‘राधा, मेरे तीनों बेटों ने एक हौस्पिटल खोला है. बड़े हौस्पिटल के मालिक होने के साथ एक होटल भी खरीदा है. होटल का उद्घाटन हमारे हाथ से कराना चाहते हैं. हम दोनों के न जाने पर बच्चे नाराज हो जाएंगे. सो, हम ने भी सोचा है कि हम सबकुछ बेच कर वहीं बच्चों के पास क्यों न रहें.’

जाने से पहले सुषमा, सहेली से मिलने आईर् थी. बहुत खुश थी. अमेरिका जाने की खुशी से चमकती आंखों में न जाने कितने ही सपने थे.

‘मुझे भूल तो न जाएगी?’ सुषमा ने पूछा.

‘नहीं, कभी नहीं. जब जी करे, फोन कर लेना. मैं यहीं हूं, यहीं रहूंगी. यह तेरी सहेली, तेरे वापस आने का इंतजार करेगी,’ राधा ने उसे गले लगाते हुए कहा.

जाने के बाद राधा सोच रही थी, क्यों उस ने सुषमा से कहा, ‘तेरे वापस आने का इंतजार करूंगी. कहीं बुरा न मान गई हो. इस बात को 10 साल हो गए, लगता है सुषमा से मिले सदियां गुजर गईं. क्या उसे आज भी वे पुरानी बातें याद होंगी? आएगी, तो पूछूंगी. वैसे उस की खनकती हंसी और मुसकराती आंखें आज भी उस की उपस्थिति का उसे एहसास कराती हैं.

वक्त कभीकभी कितने सितम ढाता है, कौन जानता है? एक ऐक्सिडैंट में राधा के पति की अचानक मृत्यु हो गई. उस की तो दुनिया ही लुट गई. बच्चों ने एक बार फिर दोहराया, ‘मम्मी, यहां कैसे अकेली रहोगी, हमारे साथ अमेरिका में रहना ठीक होगा.’

‘नहीं, तुम्हारे पापा मुझे यहीं बैठा गए हैं. इस घर में आज भी तुम्हारे पापा हैं, उन के साथ जुड़ी यादें है. मुझे अभी यहीं रहने दो.’

‘बेटे अनिल और सुनील मां के मन की दशा को समझते थे. सो, चुप रहे. हां, एक पुरानी कामवाली व उस के बेटे से कहा, ‘आज से, तुम दोनों हमारे घर में ही रहोगे. कोई तो हो जो मां के साथ हो.’ कामवाली कमला और उस के बेटे बौबी को, अनिल और सुनील अच्छी तरह जानते थे, सो, तसल्ली थी.

ऐसे समय पर राधा को सुषमा की बड़ी याद आई. वक्त से बढ़ कर मरहम भी कोई नहीं है. फिर भी बच्चों ने सलाह दी कि मम्मी को कोई काम पकड़ना चाहिए. काम में व्यस्त रहेंगी तो मन लगा रहेगा.

राधा ने एक एनजीओ जौइन कर लिया. वक्त आसानी से कट जाता. लेकिन कई बार उसे लगता, 5 कमरों के इस दोमंजिले घर का ऊपरी हिस्सा तो बंद ही रहता है. साफसफाई के साथ आएदिन मरम्मत की जरूरत भी मुंहबाए खड़ी रहती है. कई लोगों ने बच्चों को सलाह दी, ‘इस मकान को बेच दो, अच्छे पैसे मिल जाएंगे? बदले में मां को एक छोटा फ्लैट खरीद दो. आधे दाम में एवन सोसायटी में बड़ा अच्छा फ्लैट मिल सकता है.’

‘वक्त की दौड़ में शामिल होना समझदारी हो सकती है. पर मेरे घर को ले कर ऐसा कुछ सोचना, समझदारी न होगी. नहीं, इस घर में हमारा बचपन बीता है, हमारे बचपन की मीठी यादें इस से जुड़ी हैं. यह घर हमारे दादीदादा की धरोहर है. इस का कोई मोल नहीं है.’ बेटों के मुंह से पति की भाषा सुन कर राधा को बड़ी खुशी हुई.

‘क्यों न हम ऊपर की मंजिल को किराए पर चढ़ा दें?’ बेटों ने प्रस्ताव रखा.

‘यह ठीक रहेगा, चहलपहल भी रहेगी और आमदनी भी होगी,’ राधा को बात पसंद आई. ऊपर की मंजिल में एक लाइब्रेरी है जिसे एक ट्रस्ट चलाता है. किराया भी अच्छा मिल जाता है. यह बच्चों की सूझबूझ से हुआ है. इस बीच, आसमान में बदलों के गरजने की जोरदार आवाज आई तो राधा के विचारों का सफर खत्म हुआ.

आज जब राधा को, सुषमा का मेल आया तो वह लाइब्रेरी में ही थी. ट्रस्ट के मैनेजर कई बार उस से कह चुके हैं ‘मैडम, हमें कोई लाइब्रेरियन बताएं. हमारे पास कोई लाइब्रेरियन नहीं है.’ वह सोच रही थी, ‘काश, आज सुषमा होती…’ ईमेल फिर से पढ़ कर सोचने लगी, ‘क्या जवाब दूं?’

‘प्रिय सुषमा

‘तेरी तरह मैं भी तुझे कभी नहीं भूली. यह दिल, घर का यह दरवाजा हमेशा ही तेरे स्वागत में खुला है. यह हिंदुस्तान है, यहां लोग किसी के घर पूछबता कर नहीं आते. फिर तू ने क्यों पूछा? शायद, विदेशी सभ्यता में ढल गई है. आएगी तो कान खींचूंगी, भला अपनी सभ्यता क्यों भूली.

‘तेरी अपनी राधा.’

एक दिन सुबहसुबह दरवाजे पर सुषमा को देख राधा चौंक पड़ी

‘‘अरे, यह कैसा सुखद संयोग.’’

‘‘लो, तूने ही तो मुझे याद दिलाया था कि यह हिंदुस्तान है. बस, मुंह उठाए चली आई. कोई शक?’’

‘‘नहीं, कोई शक नहीं,’’ राधा ने देखा, दोनों के मिलनसुख में सुषमा के नयन कटोरे छलछला रहे हैं. राधा भी अपने को रोक न सकी. दोनों सहेलियां बहुत देर तक अनकहे दुख से एकदूसरे को भिगोती रहीं. पतियों की बातें, उन की मृत्यु का दुखद आगमन, फिर बच्चे. बच्चों की बात पर सुषमा चुप हो गई. राधा को कुछ अजीब सा लगा.

सो, आगे कुछ भी न बोली. सोचा, थकी है शायद, जैटलैग उतरेगा, तभी सामान्य हो पाएगी. बच्चों की बातें फिर कभी.

ये भी पढ़ें- कौन जिम्मेदार: किशोरीलाल ने कौनसा कदम उठाया

सुषमा को आए डेढ़ महीना गुजर गया था. पर चेहरे की उदासी न गई. हंसताखिलखिलाता चेहरा जैसे वह अमेरिका में ही छोड़ आई थी.

‘‘क्या तुझे यहां मेरे घर में कुछ परेशानी है?’’ राधा के मन में कहीं अपराधबोध भी था.

‘‘अरे नहीं, बस यों ही,’’ सुषमा बात को टालना चाहती थी.

एक दिन एनजीओ से लौटी तो देखा सुषमा फूटफूट कर रो रही थी.

उसे रोता देख राधा घबरा गई, ‘‘क्या हुआ? बताती क्यों नहीं. मुझ से तो कहती है, मैं तेरी सहेली हूं. फिर क्यों अंदर ही अंदर घुट रही है?’’

यह सुन कर सुषमा का रोना और तेज हो गया.

राधा ने उसे झकझोर कर कहा, ‘‘मैं जो समझ पा रही हूं वह शायद यह है कि कोई ऐसी बात तो जरूर है जो तू मुझ से छिपा रही है. वैसे, मैं होती कौन हूं यह सब पूछने वाली? मैं तेरी कलीग ही तो हूं. बहुत बदल गईर् है, तू.’’

‘‘राधा, नहीं ऐसा मत कह, तू ही तो है जिस से आज तक मैं ने हर बात साझा की है,’’ वह बताने लगी, ‘‘10 साल पहले हम ने इंडिया छोड़ने से पहले देहरादून में फ्लैट खरीदा था. यह सोच कर कि कभी इंडिया आएंगे तो ठाठ से रहेंगे. जाते समय फ्लैट की चाबी जेठ के बेटे रवि को दे गई थी. यहां आने से पहले मैं ने रवि से फोन पर कहा, साफसफाई करा कर रखना. मैं इंडिया आ रही हूं. काफी समय से मैं उस के संपर्क में हूं. कुछ दिनों पहले कहता था, घर तैयार नहीं है.

‘‘आज फोन किया तो बताया, ‘आंटी, वह मकान मैं ने बेच दिया है. जल्दी दूसरा खरीद दूंगा. मुझे एक महीने का समय दो.’ राधा, मैं तो कहीं की नहीं रही. पहले तो मेरे बच्चों ने दुत्कार दिया, अब यहां ये सब…’’

‘‘क्या? बेटों ने तुझे दुत्कारा? मुझे कुछ अंदाजा तो था कि आज डेढ़ महीने से अंदर ही अंदर किसी दर्द को ले कर तू तड़प रही है,’’ राधा ने मन की बात कह दी.

‘‘हां, आज मैं तुझे सारी कहानी सुनाऊंगी, 10 वर्षों पहले मेरे बेटों ने खूबसूरत साजिश रची थी. हम दोनों को इमोशनल ब्लैकमेल कर के, हमें अमेरिका आने का निमंत्रण दिया. हम ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया तो कहा, ‘आप दोनों के नाम से हम एक होटल खोलना चाहते हैं. इस में आप का शेयर भी होगा.’ रमेश को लगा, बच्चों ने ठीक सोचा है. घर का पैसा घर में ही रहेगा. कुछ पैसे से हम ने देहरादून में फ्लैट खरीद लिया. जिस के बारे में बच्चों को आज भी जानकारी नहीं है. हां, कुछ पैसे हम ने यहां बैंक में भी छोड़ दिए थे.

‘‘अमेरिका पहुंच कर हम दोनों की खुशी दूनी हो गई जब पता लगा हम दोनों दादादादी बनने वाले हैं. बड़े बेटे विशाल के घर मेहमान आने वाला है. सोच कर मैं ने बहू को अपने गले की चेन देने का मन बना लिया था. बहू के घर बेटा हुआ. मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था. बहू की सेवा में मैं दिनरात लगी रहती थी.

‘‘बच्चा 6 महीने का हो गया तो बहू औफिस जाने लगी. दिनभर बच्चा मेरे पास रहता, रात को बहू के आने पर मैं रसोई में घुस जाती. पर अब तक मैं थक कर चूर हो चुकी होती थी. बच्चा 2 साल का हो गया तो नर्सरी जाने लगा. मैं ने राहत की सांस ली. तभी एक दिन छोटी बहू का फोन आया, ‘मांजी, आप फिर से दादी बनने वाली हैं. मैं आप को आ कर ले जाऊंगी.’

‘‘ठीक है, बहू की बात सुन कर मन तो खुश हुआ पर याद आया, कुछ दिनों पहले इसी के पति (मेरे बेटे) ने बताया था. ‘इंडिया से मेरी सास आई हैं. कुछ महीने रहेंगी.’ क्या बहू अपनी मां को प्रसव तक रोक नहीं सकती थी?

‘‘पहली बार लगा, मुझे इन लोगों ने फालतू समझा है? चुप रही. छोटे के घर बेटी ने जन्म लिया. मैं पिछला सब भूल कर फिर अपनी पुरानी फौर्म में आ गई. सोचने लगी, मेरे पास और काम ही क्या है, ये तो अपने बच्चे हैं. मैं जब नौकरी करती थी, तब मेरी सास बच्चों को संभालती थीं. मैं कुछ अनोखा तो कर नहीं रही. हां, यह जरूर था अब मैं पहले की अपेक्षा थकने लगी थी. मेरी थकान से जिसे सब से ज्यादा तकलीफ होती थी, मेरे पति थे. वे कहते, ‘क्यों सारा दिन खटती हो. बिलकुल नौकरमाई बन गई हो. छोड़ोे सब.’ मैं जानती थी. मेरी तकलीफ पति के सिवा कोई नहीं समझता.

‘‘एक दिन रमेश को दिल का दौरा पड़ा. बहुत कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया न जा सका. मेरी तो जैसे दुनिया ही उजड़ गईर् थी. दिनरात अकेले पड़ी रोती रहती. कभी कोई बेटा या बहू पूछने भी न आते. कभीकभार छोटी बिटिया मेरे आंसू पोंछ कर तोतली भाषा में पूछ लेती, ‘दादी मम्मा, आप क्यों रो रही हो?’ मन करता खूब चिल्लाचिल्ला कर रोऊं. कितनी दुखी और बेबस हूं मैं. इन सब से तो यह 5 वर्ष की बिटिया भली है जो मेरे आंसू देख कर बेचैन हो जाती है. राधा, मैं बिलकुल टूट चुकी थी. तब मुझे यहां की बहुत याद आई. जी करता पंख लगा कर उड़ जाऊं, इंडिया पहुंच जाऊं.

ये भी पढ़ें- मार्मिक बदला: रौनक से कौनसा बदला लेना चाहती थी रागिनी

‘‘एक रोज बीच वाली बहू ने फोन किया, ‘मम्मी, अब आप मेरे पास रहेंगी.’

‘‘‘नहीं बेटा, मुझे माफ करो. अब मैं तुम लोगों की सेवा न कर पाऊंगी.’

‘‘‘क्यों?’

‘‘मैं रुलाई रोक न पाई. उधर से बहू ने फोन पलट दिया. मैं रोती रही. उस दिन मुझे यकीन हो गया कि इन बच्चों ने मुझे आयानौकर से ज्यादा कुछ भी नहीं समझा. ये बच्चे मेरे दुख को क्यों नहीं समझते? पति को गए सिर्फ 6 महीने हुए हैं. मुझे तो दोशब्द संवेदना के चाहिए. ये फोन पटक कर अपना गुस्सा दिखा रहे हैं.

‘‘राधा, इस घटना के बाद सब के चेहरे का नकाब उतरने लगा. मुझे ले कर बहूबेटों में खुसरफुसुर होने लगी. परोक्ष से कई बार सुना. ‘मम्मी, हम तीनों के पास 4-4 महीने रहेंगी.’ एक बहू बोली, ‘न, न, न.’ दूसरी ने कहा, ‘तो क्या करें?’

‘‘राधा, बस, मैं ने समझ लिया था कि यहां रुकना ठीक नहीं हैं. किंतु जाऊंगी कहां? कोई न कोई रास्ता तो निकालना होगा.

‘‘एक दिन बड़े बेटे विशाल ने कहा, ‘मम्मी, हम नया हौस्पिटल खोल रहे हैं. हमें कुछ पैसा चाहिए. पापा के जो 20 लाख रुपए जमा हैं, उन में से 15 लाख रुपए दे दो.’

‘‘‘सोचूंगी.’

‘‘मैं ने सोच रखा था, इन्हें तो अब एक कौड़ी न दूंगी. एक दिन छोटे बेटे विभव ने कहा, ‘मम्मी, एक  और बात, हम लोगों का छोटे फ्लैट में शिफ्ट होने का इरादा है. ऐसे में हम तीनों के साथ आप रह न सकोगी. सो, 6 महीने के लिए आप ओल्डएज होम में रह लो. नया घर बनते ही हम आप को ले आएंगे.’

‘‘मैं निशब्द, लगा, सारे शरीर का खून निचुड़ गया है. मैं ने हिम्मत दिखाई. मन के भीतर जो उमड़ रहा था, सब कह देना चाहती थी. सो, ‘ठीक है बेटा, तुम सब ने मिल कर बढि़या खेल रचा है. पहले हमें इमोशनल ब्लैकमेल कर के बच्चे पालने के लिए यहां बुला लिया. 10 वर्षों तक तुम हम से काम लेते रहे. जब मैं ने मानसिक व शारीरिक असमर्थता दिखाई, तो ओल्डएज होम का रास्ता दिखा दिया. अरे, गोरों के साथ रह कर तुम्हारे तो खून भी सफेद हो गए हैं. लानत है मुझ पर, मेरी कोख पर, जिस ने ऐसी निकम्मी औलादें पैदा कीं.’

‘‘‘कहां गए वे संस्कार, वे भारतीयों के जीवन मूल्य? थू है तुम पर, तुम्हारी शिक्षा पर.’ मेरी तीखी आवाज सुन कर बेटे इधरउधर हो गए थे. बहुएं तो पहले ही खिसक गई थीं. मैं बड़ी देर तक अकेली रोती रही. कमरे से बाहर आ कर किसी ने संवेदना के दोशब्द भी न कहे.

‘‘राधा, विश्वास नहीं होता था ये हमारे बेटे हैं. मैं ने तय कर लिया था, मैं इंडिया वापस जाऊंगी, यहां रही तो घुटघुट कर मर जाऊंगी. पर सवाल यह था, जाऊंगी कहां, रहूंगी कहां? मन अतीत के पन्ने पलटने लगा.

‘‘मन की लिस्ट में सब से ऊपर तेरा नाम था. इसीलिए मेल डाला था, ‘इंडिया पहुंच कर क्या मैं तेरे पास रुक सकती हूं? शुक्र है, अंतिम समय, अपनी धरती तो नसीब हो गई. नहीं तो किसी ओल्डएज होम की दीवारों से टक्कर मारमार कर मर जाती.’’

सुषमा अचानक चुप हो गई थी. सिर्फ आंखें बह रही थीं. राधा अपने को न रोक पाई. सहेली ने जो कुछ झेला है, दिल दहला देने वाला है. ठीक कह रही है- यकीन नहीं होता कि ये अपने बच्चे हैं जिन के संस्कारों और अनुशासन की पूरा महल्ला दुहाई देता था. उसी परिवार की एक मां आज बच्चों के दुर्व्यवहार से कितनी दुखी है. राधा जानती थी, रो कर सुषमा का मन हलका हो जाएगा.

‘‘10 मिनट बाद सुषमा ने कहा, अच्छा राधा, यह बता मैं कहां गलत थी?’’

‘‘नहींनहीं, तू कहीं गलत न थी. गलत तो समय की चाल थी. हां, इंडिया आने का तेरा फैसला बिलकुल सही था. बस, यह समझ, तू यहां सुरक्षित है. कई बार भावावेश में हम ऐसे फैसले ले लेते हैं जिन के परिणाम का हमें एहसास नहीं होता. सुषमा, मेरी समझ से महत्त्वाकांक्षी होना अच्छा है. पर स्वाभिमान को मार कर महत्त्वाकांक्षाएं पूरी करना गलत है. सच तो यह है कि तेरे बेटों ने तेरे स्वाभिमान का सौदा किया है, जिसे तू समझ नहीं पाई. जब समझ आई, तो बहुत देर हो चुकी थी.’’

‘‘तू ठीक कहती है राधा,’’ सुषमा खामोश थी.

‘‘वैसे, तेरे बच्चों का भी कोई कुसूर नहीं है. वहां का माहौल ही ऐसा है. हमारे अपने वहां सहूलियतों और पैसों की चमक में रिश्तों की गरिमा को भूल जाते हैं. वे कोई ऐसी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते है जिस में उन की आजादी में बाधा पड़े. देखने में तो यह आया है कि विदेश जा कर बसे बच्चे, मांबाप को अपने पास सिर्फ जरूरत पड़ने पर बुलाते हैं. आ भी गए तो अपने साथ रखना नहीं चाहते हैं. इसीलिए तेरे बच्चों को जब लगा कि मां एक बोझ है तो बेझिझक, ओल्डएज होम का रास्ता दिखा दिया.

‘‘बदलाव यहां भी आया है. बच्चे यहां भी अलग रहना चाहते हैं. फिर भी एक चीज जो यहां है वहां नहीं है, रिश्तों की गरमाहट का एहसास. साथ ही, यहां बच्चों में बूढ़ों के दर्द को महसूस करने और उन की संवेदनाओं को समझने का जज्बा है. यही एहसास उन्हें मांबाप से दूर हो कर भी पास रखता है. तेरे बेटे रिश्तों की गरमाहट की कमी को तब महसूस करेंगे जब इन के बच्चे अपने मांबाप यानी उन को ओल्डएज होम का रास्ता दिखाएंगे. मन मैला मत कर. बच्चों से हमारी ममता की डोर कभी नहीं टूटती. हम उन का बुरा कभी नहीं चाहेंगे. वे जहां भी रहें, खुश रहें. अब आगे की सोच.’’

‘‘हां, वही सोच रही थी. रवि ने तो मेरी सोच के सारे दरवाजे बंद कर दिए.’’

‘‘जब सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं तो एक दरवाजा तो जरूर खुला होता है.’’

‘‘बता, कौन सा दरवाजा खुला है?’’

‘‘राधा का दरवाजा. देख, ध्यान से सुन, मैं यहां अकेली हूं. तू साथ रहेगी, तो मुझे भी हिम्मत बंधी रहेगी. मैं तुझ से सच कह रही हूं.’’

‘‘लेकिन कब तक?’’ सुषमा को राधा का प्रस्ताव कुछ अजीब सा लगा, ‘‘पर तेरे बेटे? वे क्या सोचेंगे?’’

‘‘यह घर मेरा है. मुझे अपने घर में किसी को बुलाने, रखने का पूरा हक है. वे दोनों तो खुश होंगे, कहेंगे, मम्मी, बहुत अच्छा किया जो सुषमा आंटी ने आप के साथ रहने का मन बना लिया है. अब हमें बेफिक्री रहेगी. कम से कम आप दो तो हो. सच तो यह है कि हम दोनों ने जीवन में वसंत को साथसाथ जिया. हर खुशी व तकलीफ में साथ थे. घरपरिवार के हरेक फैसले साथ लेते थे. आज भी हम साथ हैं. बेशक, यह उम्र का पतझड़ है, पर इसे हम वसंत की तरह तो जी सकते हैं. मेरे बेटे कहते हैं, ‘मम्मी, जो इस उम्र में साथ देता है वही सच्चा मित्र है. वे चाहे बच्चे हों, पड़ोसी हों या कोई और हो.’’’

‘‘राधा, तू कितनी खुश है जो ऐसी सोच वाले बच्चे हैं. एक मेरे…’’

‘‘ओह, तू फिर अपनों को कोसने लगी. छोड़ वह सब, आज में जीना सीख.’’

‘‘पर यह तो सोच, मैं यहां सारा दिन अकेली…’ सुषमा बोली थी.

‘‘नहीं, मेरे पास उस का भी तोड़ है. वह ऊपर की लाइब्रेरी तू संभालेगी.’’

‘‘मैं, इस उम्र में लाइब्रेरियन…’’

‘‘क्यों, मैं भी तो एनजीओ के लिए काम करती हूं. एक बात कहूंगी, यों खाली बैठ कर तू भी रोटी नहीं खाएगी. जानती हूं, पहचानती हूं तुझे और तेरे सम्मान को.’’

‘‘ठीक है, सोचूंगी.’’

दूसरे दिन सुबहसुबह खटरपटर सुन कर राधा ने रजाई से झांका, ‘‘कहां चली मैडम, सुबहसुबह?’’

‘‘लो, खुद ही तो नौकरी दिलाई. अरे, भूल गई? चल लाइब्रेरी तक तो छोड़ कर आ जा. पहला दिन है.’’

दोनों हंस रही थीं.

आज राधा ने कितने दिनों बाद सुषमा को खिलखिलाते देखा था. वही पहली वाली हंसी थी. कहीं मन में किसी ने कहा, खुशी ही तो जीवन की सब से नियामत है. इसे कहते हैं, पतझड़ में वसंत.

यह भी खूब रही एक बार मैं अपनी चाचीजी के साथ उन के पीहर गई. चाचीजी के पैर में पोलियो है, वे वाकर के सहारे से चलती हैं. उम्र 70 साल है. वे बहुत ही दुबलीपतली हैं. उन के पीहर का फ्लैट 5वें तले पर है. कुरसी पर बैठा कर 2 व्यक्ति उन्हें ऊपर चढ़ा देते हैं.

उस दिन हम ज्यों ही टैक्सी से उतरे, सामने झाकावला (बड़ी टोकरी में सामान ले जाने वाला) दिखाई दिया. उन्होंने उस से कहा, ‘‘भैया, इधर आ, सामान ढोएगा.’’

उस के हां कहने पर वे उस में बैठ गईं. झाकावाला उन्हें ऊपर ले गया. वहां पर सभी आश्चर्यचकित देखने लगे. फिर तो सब को बहुत हंसी आई. मैं भी जब इस घटना को याद करती हूं, मुसकराए बिना नहीं रहती.      अमराव बैद मैं अपने 5 साल के बेटे के साथ कुछ सामान खरीदने गई. उसी दुकान पर मेरे बेटे की ही कक्षा का लड़का भी अपने पिता के साथ कुछ खरीद रहा था. दोनों बच्चे आपस में बातें करने लगे. मैं ने अपने बेटे से कहा कि पास की ही दुकान से चौकलेट लेती हूं, आप बात कर के जल्दी आ जाइए.

मैं पास की दुकान पर चली गई. दुकानदार से कुछ टौफियां व 4 बड़ी चौकलेट मांगीं. दुकान पर कुछ मनचले युवक भी खडे़ थे. एक युवक ने कटाक्ष किया, ‘‘क्या बात है? टौफी खुद टौफी खाती है.’’

दूसरे ने कहा, ‘‘तभी तो टौफी जैसी है.’’

मैं ने गुस्से से उन की ओर देखा. दुकानदार ने मुझे पैकेट थमाते हुए कहा,

‘‘70 रुपए.’’

लड़का फिर बोला, ‘‘मैडम, गुस्सा क्यों दिखाती हैं, आज टौफियां हमारी ओर से ही खाइए.’’

यह कहने के साथ ही उस ने बड़ी शान से सौ रुपए का नोट दुकानदार की ओर उछाल दिया.

इतने में ही मेरा लड़का दौड़ते हुए आया और पूछा, ‘‘मम्मी, चौकलेट ले ली आप ने?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘बेटा, आज चौकलेट इन अंकल ने आप के लिए ली है.’’

बच्चे ने भी बड़े मजे से कहा, ‘‘थैंक्यू अंकल.’’

अब उन लोगों की शक्लें देखने लायक थीं. बचे पैसे दुकानदार मुसकराते हुए उन्हें लौटा रहा था और मैं मुसकराते हुए अपने बेटे के साथ दुकान से निकल रही थी.

बच्चे की चाह में : राजो क्या बचा पाई अपनी इज्जत

लेखक- प्रदीप कुमार शर्मा

भौंरा की शादी हुए 5 साल हो गए थे. उस की पत्नी राजो सेहतमंद और खूबसूरत देह की मालकिन थी, लेकिन अब तक उन्हें कोई औलाद नहीं हुई थी. भौंरा अपने बड़े भाई के साथ खेतीबारी करता था. दिनभर काम कर के शाम को जब घर लौटता, सूनासूना सा घर काटने को दौड़ता. भौंरा के बगल में ही उस का बड़ा भाई रहता था. उस की पत्नी रूपा के 3-3 बच्चे दिनभर घर में गदर मचाए रखते थे. अपना अकेलापन दूर करने के लिए राजो रूपा के बच्चों को बुला लेती और उन के साथ खुद भी बच्चा बन कर खेलने लगती. वह उन्हीं से अपना मन बहला लेती थी.

एक दिन राजो बच्चों को बुला कर उन के साथ खेल रही थी कि रूपा ने न जाने क्यों बच्चों को तुरंत वापस बुला लिया और उन्हें मारनेपीटने लगी. उस की आवाज जोरजोर से आ रही थी, ‘‘तुम बारबार वहां मत जाया करो. वहां भूतप्रेत रहते हैं. उन्होंने उस की कोख उजाड़ दी है. वह बांझ है. तुम अपने घर में ही खेला करो.’’

राजो यह बात सुन कर उदास हो गई. कौन सी मनौती नहीं मानी थी… तमाम मंदिरों और पीरफकीरों के यहां माथा रगड़ आई, बीकमपुर वाली काली माई मंदिर की पुजारिन ने उस से कई टिन सरसों के तेल के दीए में मंदिर में जलवा दिए, लेकिन कुछ नहीं हुआ. बीकमपुर वाला फकीर जबजब मंत्र फुंके हुए पानी में राख और पता नहीं कागज पर कुछ लिखा हुआ टुकड़ा घोल कर पीने को देता. बदले में उस से 100-100 के कई नोट ले लेता था. इतना सब करने के बाद भी उस की गोद सूनी ही रही… अब वह क्या करे?

राजो का जी चाहा कि वह खूब जोरजोर से रोए. उस में क्या कमी है जो उस की गोद खाली है? उस ने किसी का क्या बिगाड़ा है? रूपा जो कह रही थी, क्या सचमुच उस के घर में भूतप्रेत रहते हैं? लेकिन उस के साथ तो कभी ऐसी कोई अनहोनी घटना नहीं घटी, तो फिर कैसे वह यकीन करे? राजो फिर से सोच में डूब गई, ‘लेकिन रूपा तो कह रही थी कि भूतप्रेत ही मेरी गोद नहीं भरने दे रहे हैं. हो सकता है कि रूपा सच कह रही हो. इस घर में कोई ऊपरी साया है, जो मुझे फलनेफूलने नहीं दे रहा है. नहीं तो रूपा की शादी मेरे साथ हुई थी. अब तक उस के 3-3 बच्चे हो गए हैं और मेरा एक भी नहीं. कुछ तो वजह है.’

भौंरा जब खेत से लौटा तो राजो ने उसे अपने मन की बात बताई. सुन कर भौंरा ने उसे गोद में उठा लिया और मुसकराते हुए कहा, ‘‘राजो, ये सब वाहियात बातें हैं. भूतप्रेत कुछ नहीं होता. रूपा भाभी अनपढ़गंवार हैं. वे आंख मूंद कर ऐसी बातों पर यकीन कर लेती हैं. तुम चिंता मत करो. हम कल ही अस्पताल चल कर तुम्हारा और अपना भी चैकअप करा लेते हैं.’’

भौंरा भी बच्चा नहीं होने से परेशान था. दूसरे दिन अस्पताल जाने के लिए भाई के घर गाड़ी मांगने गया. भौंरा के बड़े भाई ने जब सुना कि भौंरा राजो को अस्पताल ले जा रहा है तो उस ने भौंरा को खूब डांटा. वह कहने लगा, ‘‘अब यही बचा है. तुम्हारी औरत के शरीर से डाक्टर हाथ लगाएगा. उसे शर्म नहीं आएगी पराए मर्द से शरीर छुआने में. तुम भी बेशर्म हो गए हो.’’ ‘‘अरे भैया, वहां लेडी डाक्टर भी होती हैं, जो केवल बच्चा जनने वाली औरतों को ही देखती हैं,’’ भौंरा ने समझाया.

‘‘चुप रहो. जैसा मैं कहता हूं वैसा करो. गांव के ओझा से झाड़फूंक कराओ. सब ठीक हो जाएगा.’’ भौंरा चुपचाप खड़ा रहा.

‘‘आज ही मैं ओझा से बात करता हूं. वह दोपहर तक आ जाएगा. गांव की ढेरों औरतों को उस ने झाड़ा है. वे ठीक हो गईं और उन के बच्चे भी हुए.’’ ‘‘भैया, ओझा भूतप्रेत के नाम पर लोगों को ठगता है. झाड़फूंक से बच्चा नहीं होता. जिस्मानी कमजोरी के चलते भी बच्चा नहीं होता है. इसे केवल डाक्टर ही ठीक कर सकता है,’’ भौंरा ने फिर समझाया.

बड़ा भाई नहीं माना. दोपहर के समय ओझा आया. भौंरा का बड़ा भाई भी साथ था. भौंरा उस समय खेत पर गया था. राजो अकेली थी. वह राजो को ऊपर से नीचे तक घूरघूर कर देखने लगा. राजो को ओझा मदारी की तरह लग रहा था. उस की आंखों में शैतानी चमक देख कर वह थोड़ी देर के लिए घबरा सी गई. साथ में बड़े भैया थे, इसलिए उस का डर कुछ कम हुआ.

ओझा ने ‘हुं..अ..अ’ की एक आवाज अपने मुंह से निकाली और बड़े भैया की ओर मुंह कर के बोला, ‘‘इस के ऊपर चुड़ैल का साया है. यह कभी बंसवारी में गई थी? पूछो इस से.‘‘ ‘‘हां बहू, तुम वहां गई थीं क्या?’’ बड़े भैया ने पूछा.

‘‘शाम के समय गई थी मैं,’’ राजो ने कहा.

‘‘वहीं इस ने एक लाल कपडे़ को लांघ दिया था. वह चुड़ैल का रूमाल था. वह चुड़ैल किसी जवान औरत को अपनी चेली बना कर चुड़ैल विद्या सिखाना चाहती है. इस ने लांघा है. अब वह इसे डायन विद्या सिखाना चाहती है. तभी से वह इस के पीछे पड़ी है. वह इस का बच्चा नहीं होने देगी.’’ राजो यह सुन कर थरथर कांपने लगी.

‘‘क्या करना होगा?’’ बड़े भैया ने हाथ जोड़ कर पूछा. ‘‘पैसा खर्च करना होगा. मंत्रजाप से चुड़ैल को भगाना होगा,’’ ओझा ने कहा.

मंत्रजाप के लिए ओझा ने दारू, मुरगा व हवन का सामान मंगवा लिया. दूसरे दिन से ही ओझा वहां आने लगा. जब वह राजो को झाड़ने के लिए आता, रूपा भी राजो के पास आ जाती.

एक दिन रूपा को कोई काम याद आ गया. वह आ न सकी. घर में राजो को अकेला देख ओझा ने पूछा, ‘‘रूपा नहीं आई?’’ राजो ने ‘न’ में गरदन हिला दी.

ओझा ने अपना काम शुरू कर दिया. राजो ओझा के सामने बैठी थी. ओझा मुंह में कुछ बुदबुदाता हुआ राजो के पूरे शरीर को ऊपर से नीचे तक हाथ से छू रहा था. ऐसा उस ने कई बार दोहराया, फिर वह उस के कोमल अंगों को बारबार दबाने की कोशिश करने लगा.

राजो को समझते देर नहीं लगी कि ओझा उस के बदन से खेल रहा है. उस ने आव देखा न ताव एक झटके से खड़ी हो गई. यह देख कर ओझा सकपका गया. वह कुछ बोलता, इस से पहले राजो ने दबी आवाज में उसे धमकाया, ‘‘तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, मैं समझ रही हूं. तुम्हारी भलाई अब इसी में है कि चुपचाप यहां से दफा हो जाओ, नहीं ंतो सचमुच मेरे ऊपर चुड़ैल सवार हो रही है.’’

ओझा ने चुपचाप अपना सामान उठाया और उलटे पैर भागा. उसी समय रूपा आ गई. उस ने सुन लिया कि राजो ने अभीअभी अपने ऊपर चुड़ैल सवार होने की बात कही है. वह नहीं चाहती थी कि राजो को बच्चा हो. रूपा के दिमाग में चल रहा था कि राजो और भौंरा के बच्चे नहीं होंगे तो सारी जमीनजायदाद के मालिक उस के बच्चे हो जाएंगे.

भौंरा के बड़े भाई के मन में खोट नहीं था. वह चाहता था कि भौंरा और राजो के बच्चे हों. राजो को चुड़ैल अपनी चेली बनाना चाहती है, यह बात गांव वालों से छिपा कर रखी थी लेकिन रूपा जानती थी. उस की जबान बहुत चलती थी. उस ने राज की यह बात गांव की औरतों के बीच खोल दी. धीरेधीरे यह बात पूरे गांव में फैलने लगी कि राजो बच्चा होने के लिए रात के अंधेरे में चुड़ैल के पास जाती है. अब तो गांव की औरतें राजो से कतराने लगीं. उस के सामने आने से बचने लगीं. राजो उन से कुछ पूछती भी तो वे उस से

सीधे मुंह बात न कर के कन्नी काट कर निकल जातीं. पूरा गांव उसे शक की नजर से देखने लगा. राजो के बुलाने पर भी रूपा अपने बच्चों को उस के पास नहीं भेजती थी.

2-3 दिन से भौंरा का पड़ोसी रामदा का बेटा बीमार था. रामदा की पत्नी जानती थी कि राजो डायन विद्या सीख रही है. वह बेटे को गोद में उठा लाई और तेज आवाज में चिल्लाते हुए भौंरा के घर में घुसने लगी, ‘‘कहां है रे राजो डायन, तू डायन विद्या सीख रही है न… ले, मेरा बेटा बीमार हो गया है. इसे तू ने ही निशाना बनाया है. अगर अभी तू ने इसे ठीक नहीं किया तो मैं पूरे गांव में नंगा कर के नचाऊंगी.’’ शोर सुन कर लोगों की भीड़ जमा

हो गई. एक पड़ोसन फूलकली कह रही थी, ‘‘राजो ने ही बच्चे पर कुछ किया है, नहीं तो कल तक वह भलाचंगा खापी रहा था. यह सब इसी का कियाधरा है.’’

दूसरी पड़ोसन सुखिया कह रही थी, ‘‘राजो को सबक नहीं सिखाया गया तो वह गांव के सारे बच्चों को इसी तरह मार कर खा जाएगी.’’ राजो घर में अकेली थी. औरतों की बात सुन कर वह डर से रोने लगी. वह अपनेआप को कोसने लगी, ‘क्यों नहीं उन की बात मान कर अस्पताल चली गई. जेठजी के कहने में आ कर ओझा से इलाज कराना चाहा, मगर वह तो एक नंबर का घटिया इनसान था. अगर मैं उस की चाल में फंस गई होती तो भौंरा को मुंह दिखाने के लायक भी न रहती.’’

बाहर औरतें उसे घर से निकालने के लिए दरवाजा पीट रही थीं. तब तक भौंरा खेत से आ गया. अपने घर के बाहर जमा भीड़ देख कर वह डर गया, फिर हिम्मत कर के भौंरा ने पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी, राजो को क्या हुआ है?’’ ‘‘तुम्हारी औरत डायन विद्या सीख रही है. ये देखो, किशुना को क्या हाल कर दिया है. 4 दिनों से कुछ खायापीया भी नहीं है इस ने,’’ रामधनी काकी

ने कहा. गुस्से से पागल भौंरा ने गांव वालों को ललकारा, ‘‘खबरदार, किसी ने राजो पर इलजाम लगाया तो… वह मेरी जीवनसंगिनी है. उसे बदनाम मत करो. मैं एकएक को सचमुच में मार डालूंगा. किसी में हिम्मत है तो राजो पर हाथ उठा करदेख ले,’’ इतना कह कर वह रूपा भाभी का हाथ पकड़ कर खींच लाया.

‘‘यह सब इसी का कियाधरा है. बोलो भाभी, तुम ने ही गांव की औरतों को यह सब बताया है… झूठ मत बोलना. सरोजन चाची ने मुझे सबकुछ बता दिया है.’’

सरोजन चाची भी वहां सामने ही खड़ी थीं. रूपा उन्हें देख कर अंदर तक कांप गई. उस ने अपनी गलती मान ली. भौंरा ओझा को भी पकड़ लाया, ‘‘मक्कार कहीं का, तुम्हारी सजा जेल में होगी.’’

दूर खड़े बड़े भैया की नजरें झुकी हुई थीं. वे अपनी भूल पर पछतावा कर रहे थे.

समझदार सासूमां: नौकरानी की छुट्टी पर जब बेहाल हुईं श्रीमतीजी

किचनमें पत्नीजी के द्वारा जिस तरह से जोरजोर से बरतन पटके जा रहे थे, उस से मुझे अंदाजा हो गया कि घर में काम करने वाली ने एक सप्ताह की छुट्टी ले ली है, इसलिए नाराजगी बरतनों पर निकल रही है.

नौकरानी का घर पर नहीं आने का दोष भला बरतनों पर क्यों उतारा जाए? मैं सोचता रहा लेकिन उन से कुछ कहा नहीं. रात को बिस्तर में जाने से पहले वे फोन पर अपनी मां से नौकरानी की शिकायतें करती रहीं, ‘‘मम्मी, ये कमला ऐसे ही नागा करती है. इस का वेतन काटो तो बुरा मुंह बना लेती है. मैं तो यहां की नौकरानियों से तंग आ चुकी हूं.’’

उधर सासूजी न जाने क्या कह रही थीं, जिसे सुन कर पत्नीजी हांहूं किए जा रही थीं. फिर वे कह उठीं, ‘‘नहीं मम्मीजी, ऐसा मत कहो,’’ और फिर जोरों से हंस दीं.

आखिर मामला क्या है? सोच कर मेरा दिल जोरों से धड़क उठा.

पत्नीजी ने टैलीफोन रखा और गीत गुनगुनाती हुई आ कर लेट गईं.

‘‘बड़ी खुश हो, क्या नई नौकरानी खोज ली?’’ मैं ने उन से पूछा.

‘‘मेरी खुशी भी नहीं देखी जाती?’’ उन्होंने तमक कर कहा.

‘‘यही समझ लो, फिर भी बताओ तो कि मामला क्या है? क्या सासूजी आ रही हैं?’’

‘‘आप को कैसे पता?’’ पत्नी ने खुशीखुशी कहा.

मुझे तो जैसे बिजली का करंट लग गया. मैं ने सोचा सासूजी आएंगी तो कई महीने रह कर घर का बजट किसी भूकंप की तरह तहसनहस कर के ही जाएंगी.

मैं भी कल से 7-8 दिनों की छुट्टी ले कर कहीं चला जाता हूं, मैं ने मन ही मन विचार किया.

‘‘तुम्हें इतना खुश देख कर समझ गया था कि तुम्हारी मम्मीजी आ रही हैं,’’ मैं ने उन से कहा.

‘‘तुम कितने समझदार हो,’’ पत्नीजी ने मुझ से कहा तो सच जानिए मैं शरमा गया.

‘‘इसीलिए तो तुम ने मुझ से विवाह किया,’’ मैं ने कहा और उन के चेहरे को पढ़ने लगा. वे भी शर्म से लाल हो रही थीं.

मैं ने फिर प्रश्न किया, ‘‘वह घर की नौकरानी कब तक आ रही है?’’

पत्नीजी ने कहा, ‘‘एक बात सुन लीजिए. जब तक किसी के जीवन में चुनौतियां न हों, जीने का मजा ही नहीं आता. और प्रत्येक व्यक्ति के पीछे एक सैकंड लाइन होनी आवश्यक है.’’

मैं ने सुना तो मैं घबरा गया. पत्नीजी आखिर ये कैसी बातें कर रही हैं? मैं ने तो कभी पत्नीजी के पीछे किसी सैकंड लाइन के विषय में सोचा तक नहीं और आज ये क्या कह रही हैं? क्या मैं छुट्टी पर जा रहा हूं तो कोई दूसरा पुरुष मेरे स्थान पर यहां होगा? सोच कर ही मेरी रूह कांप गई. मेरे चेहरे पर आ रहे भावों को देख कर वे ताड़ गईं कि मेरे मन में क्या भाव चल रहा है.

हंसते हुए उन्होंने कहा, ‘‘मैं आप के विषय में नहीं कह रही हूं…’’

‘‘फिर?’’

‘‘मैं घर की नौकरानी कमला के बारे में कह रही हूं. उस की नागा, उस के अत्याचार इतने बढ़ चुके हैं कि आप विश्वास नहीं करेंगे कि मुझे उस से डर लगने लगा है. कभी भी नागा कर जाती है, वेतन काटो तो नौकरानियों के यूनियन में जाने की धमकी देती है. काम ठीक से करती नहीं. लेकिन मैं काम से निकाल नहीं सकती, क्योंकि घर में काम बहुत अधिक है…’’

‘‘फिर क्या सोचा…?’’

‘‘प्रत्येक परेशानी का कोई न कोई उपाय तो निकलता ही है.’’

‘‘क्या उपाय है वह?’’

‘‘वह उपाय ले कर ही तो मम्मीजी आ रही हैं,’’ पत्नीजी ने रहस्य को उजागर करते हुए कहा.

‘‘क्या उपाय है कुछ तो बताओ.’’

‘‘यह तो उन्होंने बताया नहीं, लेकिन वे कह रही थीं कि पूरी कालोनी की कामवाली बाइयों को सुधार कर रख दूंगी.’’

चूंकि सासूजी से मेरी कभी पटी नहीं थी, इसलिए मैं ने फिर सोचा कि उन के आने पर 7-8 दिनों की छुट्टी ले कर मैं शहर से बाहर घूम आता हूं. फिर मैं जिस सुबह बाहर गया, उसी रात को सासूजी ने मेरे घर में प्रवेश किया. पूरे 8 दिनों बाद मैं जब घर लौट कर आया तो देखा कि बालकनी में हमारी पत्नी गरमगरम पकौड़े खा रही हैं. सासूजी झूले में लेटी हैं और कमला यानी घर की नौकरानी रसोई में पकौड़े तलतल कर खिला रही है.

हमें आया देख कर पत्नीजी दौड़ कर हम से लिपट गईं और कहने लगीं, ‘‘यहां सब ठीक हो गया.’’

‘‘यानी कमला बाई वाला मामला…?’’

‘‘हां, कमला बाई एकदम ठीक हो गई.’’

‘‘कैसे…?’’

‘‘वह मैं बाद में बताऊंगी.’’

इतनी देर में कमला बाई प्रकट हो गई. हमारा सामान उठाया, कमरे में रखा और घर के बरतन साफ कर के, किचन में पोंछा लगा कर जातेजाते हमारे कमरे में आई और पत्नीजी से कहने लगी, ‘‘जाती हूं मेम साब नमस्ते.’’ यह कह कर वह सासूजी की ओर पलटी और बोली, ‘‘मैं जाती हूं अध्यक्षजी,’’ फिर वह विनम्रता के साथ चली गई.

घमंड में चूर रहने वाली कमला, जो एक भी अतिरिक्त काम नहीं करती थी और हमेशा अतिरिक्त काम का अतिरिक्त रुपया मांगती थी, आखिर ऐसा क्या हो गया कि इतनी बदल गई? मैं सोच रहा था, लेकिन कुछ समझ नहीं पा रहा था.

रात को भोजन के बाद जब पत्नीजी, मैं और सासूजी बैठ कर गप्पें मारने बैठे तो पत्नीजी ने बताया, ‘‘मैं कमला से बहुत परेशान हो गई थी. इस का असर पूरी गृहस्थी पर पड़ रहा था. मम्मीजी से मैं ने यह बात शेयर की, तो मम्मीजी ने कहा कि मैं आ कर एक दिन में सब परेशानियों को निबटा दूंगी.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘वही तो बता रही हूं पर आप को एक पल का भी चैन नहीं है. हुआ यह कि मम्मीजी ने मुझे आने पर बताया कि उन का परिचय कमला बाई से यह कह कर करवाया जाए कि जहां ये रहती हैं वहां की नौकरानियों की यूनियन अध्यक्ष हैं. मैं ने वही किया भी. मम्मीजी ने यहां के काम को देखा और कमला बाई के सामने मुझ से कहा कि पूरी कालोनी में कितनी नौकरानियों की जरूरत है? मैं कामवाली बाइयों को काम भी दिलवाती हूं और इस समय 150 से अधिक काम करने वाली महिलाओं का पंजीयन मेरे पास है. वे सब यहां दिल्ली में काम करने के लिए आने को भी तैयार हैं. यहां काम कम, वेतन अधिक है और शहर की सारी सुविधाएं हैं.

‘‘लेकिन मम्मीजी इतनी कामवाली बाइयां रहेंगी कहां?’’ मैं ने पूछा तो वे बोलीं कि तू उस की चिंता मत कर. वैलफेयर डिपार्टमैंट ऐसी महिलाओं के निवास की व्यवस्था कम से कम दामों में कर देता है.

‘‘मम्मीजी पूरी कालोनी में 10 काम करने वाली महिलाओं की जरूरत है, मैं ने मम्मीजी से कहा तो उन्होंने तुरंत मोबाइल निकाल कर कमला बाई के सामने नंबर मिलाया ही था कि कमला ने दौड़ कर मम्मीजी के पांव पकड़ लिए और रोते हुए कहने लगी कि मैडमजी पीठ पर लात मार लो, लेकिन किसी के पेट पर लात मत मारो.

‘‘क्यों क्या हुआ? मम्मीजी बोलीं तो वह बोली कि मैडमजी सारी कामवाली बाइयां बेरोजगार हो जाएंगी.

‘‘लेकिन तुम भी तो परेशान करने में कसर नहीं करती हो, यह कहने पर उस का कहना था कि ऐसा नहीं है मैडमजी, हम जानबूझ कर छुट्टी ले कर केवल अपनी उपयोगिता बताना चाहते हैं कि हम भी इंसान हैं और हमारे नहीं आने से आप के कितने काम डिस्टर्ब हो जाते हैं. इसलिए आप हमें इंसान समझ कर इंसानों को जो बुनियादी सुविधाएं मिलनी चाहिए उन्हें हमें भी दिया करें.’’

‘‘कह तो यह सच रही है, मेरी ओर मम्मीजी ने देख कर कहा.

‘‘मैं पूरी बुनियादी सुविधाएं देने को तैयार हूं,’’ मैं ने झट से कहा.

‘‘आप को कभी मुझ से शिकायत नहीं मिलेगी. मुझ से ही नहीं कालोनी की काम करने वाली किसी भी महिला से,’’ उस ने मुझे आश्वासन दिया तो मम्मीजी ने मोबाइल बंद कर दिया और उसी दिन से कमला के व्यवहार में 100% परिवर्तन आ गया,’’ पत्नीजी ने पूरी बात का खुलासा करते हुए कहा.

‘‘वाह, क्या समझदारी का सुझाव सासूजी ने दिया. सांप भी मर गया, लाठी भी नहीं टूटी,’’ मैं ने प्रसन्नता से कहा.

‘‘लेकिन आप नौकरानी यूनियन की अध्यक्ष कब बनीं?’’ मैं ने सासूजी से हैरत से पूछा.

‘‘लो कर लो बात. तुम भी कितने भोले हो. अरे वह तो उस को ठीक करने का नाटक था,’’ सासूजी बोलीं.

फिर हम सभी जोर से हंस पड़े. हमें अपनी समझदार सासूमां की तरकीब पर गर्व हो आया.

उत्तरजीवी: क्यों रह गई थी फूलवती की जिंदगी में कड़वाहट?

लेखक- के मेहरा

नारायणदास, यह देखो, तुम्हारा इकलौता पोता रोहित, तुम्हारे बेटे अजीत का बेटा, आज घोड़ी चढ़ रहा है.

मोगरा के फूल बिखरे पड़े हैं. मोगरा, जो मैं तुम्हारे लिए सफेद चादर पर बिछा देती थी, अपने जूड़े में छिपा लेती थी, मुट्ठी भरभर कर तुम्हारे ऊपर बिखेरती थी, जब तुम मेरे पास खुली छत पर चांदनी बटोरने चले आते थे.

शहनाई बज रही है. कभी मैं ने भी चाहा था कि मेरी बरात आए और शहनाई बजे. आज भी वही धुन बज रही है जो हमतुम गुनगुनाते थे, ‘तेरे सुर और मेरे गीत, दोनोें मिल कर बनेंगे प्रीत.’ मेरा रोमरोम झनक रहा है. मैं अंतर्मन से भीगी इस बच्चे को आशीष दे रही हूं. काश, तुम जिंदा होते, यह मंजर देखने के लिए.

रोहित की दुलहन का पिता कर्नल है. दादा राजदूत रह चुका है. बड़ेबड़े राजनेता आए हैं शादी में. मिलिटरी बैंड से बरात चढ़ रही है. एक से बढ़ कर एक गाड़ी, सब घोड़ी के पीछे रेंग रही हैं और उन में बैठी हैं राजरानियां, हीरेमोती चमकाती, साडि़यां सरसराती, खुशबू फैलाती.

तुम कहां हो? और कहां है तुम्हारी घमंडी बीवी राजरानी? दिल नहीं चाहता कि आगे सोचूं. बस, अपने चश्मे के मोटे शीशों से आज का नजारा देख रही हूं, अकेली मैं. बेटियांबहुएं दादीजीदादीजी की गुहार बीसियों बार लगा चुकी हैं, कानों पर विश्वास नहीं होता. अजीत का बेटा मेरे पांव छू कर मुझ से मेरा आशीर्वाद लेने आया घोड़ी चढ़ने से पहले. अजीत और उस की बहू ने भी पांव छुए. यकीन नहीं होता.

तुम ने यह हक मुझे जीतेजी कभी नहीं दिया था. तुम्हारी मौत ने दे दिया. तुम नहीं रहे, राजरानी नहीं रही, न रही तुम्हारी खबीसनी बहन, देशी. मैं तुम सब से उम्र में छोटी थी, सो अभी तक जिंदा हूं तुम्हारे हिस्से के सुखदुख उठाने को.

अजीत की बहू सुनंदा ने न्यौता भिजवाया था, साथ में 10 हजार रुपए नकद, 4 बढि़या, कीमती सूट, नई चप्पलें, शौल, पर्स, शृंगार का सारा सामान, और भी न जाने क्याक्या. पत्र में लिखा था, ‘चाचीजी, अब बस आप ही हमारे सिर की छतरी हैं. इस परिवार के सब बुजुर्ग उम्र से पहले ही गुजर गए. अपने इस इकलौते वंशदीप को आशीर्वाद देने के लिए ब्याह में जरूर आइएगा. मेरी छोटी बहन आप को लिवाने आएगी ताकि आप को कोई असुविधा न हो.’

भला हो सुनंदा का. नारायणदास, तुम्हारे गलत कामों की गिनती नहीं मगर कहीं कोई अच्छा काम जरूर तुम्हारे खाते में जमा रहा होगा जो तुम्हें ऐसे सुंदर कर्मों वाली लायक बहू मिली. कितनी अभागी थी राजरानी जोे जल्दी चली गई.

मैं ने सुना है, अजीत ने मां को क्लोरोफौर्म का डबल इंजैक्शन दे कर हमेशा के लिए सुला दिया, जैसा कि खानसामा प्यारेलाल ने बताया. सबकुछ होते हुए भी राजरानी पागल हो गई.

मैंराजरानी नहीं हूं, उस की सौत भी नहीं हूं. तुम्हारे संग अपने रिश्ते को क्या नाम दूं? बता कर तो जाते एक बार. राजरानी की गुनाहगार मैं थी तो इस की सजा मुझे मिलनी चाहिए थी. राजरानी क्यों पागल हो गई? हजार दुख तो मैं ने सहे थे, चुपचाप. कहती भी तो किस से? मैं क्यों न पागल हो गई?

उस के मायके वाले जयपुर के पुराने रईस थे. उस के पिता और फिर छोटे भाई जीवनभर उस के नाम से रुपयापैसा भेजते रहे, वह भी हजारों में. तुम सब उस पैसे से ऐश करते थे. उस के जेवर बेचबेच कर पैसा कारोबार में लगा दिया. घर खरीदा तो उस के जड़ाऊ कंगन बेच दिए. चोरी का इलजाम प्यारेलाल पर लगा दिया. फिर भी प्यारेलाल घर में बना रहा. राजरानी ने उसे निकालने को कहा तो तुम ने कहा कि रहने दो, गरीब है, पुराना खादिम है. कितनी भोली थी वह, बेवकूफ थी परले दरजे की. फूलों में पली, कौनवैंट में पढ़ी. तुम देखने गए थे तो वह स्कर्ट पहन कर साइकिल चला रही थी अपने लौन में. न बदन न काठी. तुम उसे बच्ची समझे थे.

सच बताऊं, मुझे उस से जलन थी. तुम जब बीमार पड़े और फालिज से निकम्मे हो गए थे तब मैं छिपछिप कर उसे तुम्हारी बेकार देह की मालिश करते देखती तो मेरे कलेजे को एक अजीब सी ठंडक मिलती. वह खाना बना कर नहानेधोने जाती, मैं रसोई में घुस कर सब्जी चुरा लाती.

जयपुर वाली रसोई खूब अच्छी बनाती थी. तुम्हें उसी के हाथ का खाना पसंद था. थूकपसीने की दोस्ती मुझ से और खाना बीवी के संग मेज सजा कर. जी जलता था मेरा. मन में आता था, जा कर मेजपोश खींच दूं और सारा तामझाम जमीन पर गिरा दूं मगर जब्त कर लेती थी अपना गुस्सा. फिर वह फितूर दिमाग से उतर कर मेरी नसनस में बहने लगता. खाना खा कर वह ठाट से सोती थी.

मैं मौका देखती रहती थी. उस की नाक बजने की आवाज के साथ ही मेरी नसों में दौड़ता गुस्सा नशा बन कर मुझ पर छा जाता था और मैं उसे लांघ कर तुम्हारे शरीर से आ लिपटती थी. तुम ने क्या कभी रोका मुझे? कितनी फुरती से हम उड़ जाते थे अपनी दुनिया में.

मगर तुम तो लाए ही मुझे इसीलिए थे. नेपालगंज तुम लकड़ी का व्यापार करने आए थे. साथ में था तुम्हारा भाई बिशनदास. मेरा पहाड़ी पंडित बाप लकड़ी का दलाल था. घर ले आया तुम को.

‘साब को चाय पिला, फूलवती. कुछ मीठाशीठा भी ला.’

मैं हिरनी सी कुलांचें भरती पहाड़ी ढलान के नीचे वाली गली के हलवाई से ताजा गुलाबजामुन ले आई थी. तुम्हें गुलाबजामुन से ज्यादा मीठी मैं लगी थी.

लकड़ी का ठेका तो अपनी जगह रहा. तुम मुझे अपने भाई की दुलहन बना कर ले आए. न बरात न बाजा…चार फेरों की शादी. मैं ने सोचा बड़े लोग हैं, बड़ा शहर, ऐश करूंगी. नहीं पता था कि मुझे दुख भोगने हैं. तुम्हारे भाई को तो भयंकर दमा था. मैं नादान उस बीमार पति की सेवा करती रही. कभी उस की पीठ पर, कभी छाती पर वैद्यजी का तेल मलती. कभी गरम पानी में पिपरमिंट डाल कर भाप दिलाती. उस का गोरागोरा पिलपिला मांस, कुरता, बनियान, लकीरों वाला पायजामा, सब में वही बास. चूड़े वाले हाथों से मैं साबुन से कपड़े धोती, मगर बास पीछा नहीं छोड़ती थी.

तुम्हारी विधवा बहन जहानभर के काढ़े बनाती. वह काढ़ा पी कर चुपचाप सो जाता. 5 महीने बाद मैं मायके गई, पहली और आखिरी बार. मां ने मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा. मेरे चूड़े का रंग उतरउतर कर बदरंग, पीला सा पड़ गया था. मेरे हाथ सूखे, पांव फटेफटे. उस का मुंह उतर गया. मैं आंख चुरा कर पहाड़ी जंगलों में भाग गई. चीड़ और भांग की मिलीजुली खुशबू में लंबीलंबी सांसें लेती घंटों भटकती रही. मन हुआ, वहीं रह जाऊं. खूब दहाड़ मार कर रोई. मां से लिपटलिपट कर दुहाई दी कि मत भेजो अपने से दूर. मगर मां जल्लाद निकली.

‘अरी कम्बख्त, कोई नहीं कहेगा कि तू छोड़ आई. सब कहेंगे गंवार थी, छोड़ गए. हमारी इज्जत रख. तेरे और भी भाईबहन हैं.’

इस के बाद वह बूढ़ी नाइन को बुला लाई. नाइन ताई ने मुझे पत्नीधर्म की शिक्षा दी. मैं हंसहंस कर दोहरी हो गई. तब उस ने मेरे गाल पर चांटा जड़ दिया. जोर से चिल्लाई, ‘तेरी जिंदगी में दुख ही दुख हैं. अब अपनी कोशिश से जिंदगी सुधार ले वरना कहीं की नहीं रहेगी.’

उस की दी गई हिदायतें गांठ बांध लीं और चुपचाप वापस आ गई. भले ही नादान थी पर इतना तो पता था कि पतिपत्नी के रिश्ते का आधार क्या होता है.

सारे नुस्खे आजमाती रही तुम्हारे भाई पर. वह हंसनेमुसकराने लगा. मेरी ठोढ़ी उठा कर मुंह भी चूमता कभी. मैं सिकुड़ कर कछुआ बन जाती. जैसेतैसे मेरी गृहस्थी चलने लगी, मगर अकसर उस की सांस फूलने लगती. वह लाचार सा मुझे छोड़ कर खांसने लगता.

मैं डर जाती. अगर उसे ऐसावैसा कुछ हो जाता तो तुम्हारी बहन चिल्लाती, ‘क्या कर दिया उसे करमजली. जब से पांव धरा है, घर में रोज लड़का बीमार हो जाता है. पहले छठेछमासे अटैक होता था, अब आएदिन पड़ जाता है. अपने मौजमजे के मारे प्राण लेगी क्या?’

किस की मौज, किस का मजा. उस की कमजोरी मुझे खाने लगी. मैं ने तुम से एक दिन दोटूक बात की कि मुझे वापस भेज दो, जहां से लाए थे. तुम कुटिलाई से मुसकरा कर बोले, ‘पहले अपनी मां से पूछ ले फूलवती, फिर बोल. तेरे बाप को बराबर 500 रुपए महीना भिजवा रहा हूं.’

गोया मैं कोई नौकरानी थी और जैसे तुम मेरी तनख्वाह भेज रहे थे मेरे गांव. मेरा बाप, क्या तुम्हारे लकड़ी के ठेके नहीं पूरा कर रहा था? माल तो वही भिजवाता था जिस से तुम हजारों कमाते थे.

मुझे तो नहीं, अलबत्ता 1 हफ्ते बाद तुम ने राजरानी को उस के मायके जयपुर भेज दिया. तुम ने कहा कि तुम्हें बलूत की लकड़ी लाने असम जाना पड़ेगा. 2-4 महीने का चक्कर लगेगा. अंधा क्या मांगे दो आंखें. राजरानी क्या मांगे, अपना मायका.

उसे भेजने में तो तुम्हारा लाभ ही लाभ था. हर बार वह ढेर सारे सामान से लदीफंदी लौटती थी.

वह चली गई तो सारा काम मेरे जिम्मे. ऊपर से हुकूमत तुम्हारी बहन की. तुम झूठे, न कहीं जाना न आना. बिशन तुम्हारे लालच से चिढ़ता था. एकएक कर के सारे कीड़े रेंगरेंग कर बाहर आ रहे थे.

एक दिन मुझ पर जैसे पागलपन सवार हो गया. मैं आंगन में सिर झटकझटक कर नाचने लगी. मेरा पति चिल्लाता रहा मगर मुझे रोक नहीं पाया. तब तुम ने आ कर मुझे अपनी बलिष्ठ गिरफ्त में थाम लिया. मैं वहीं सब के सामने तुम से लिपट कर फूटफूट कर रोई.

बिशनदास तुम्हारे दफ्तर में कागजपत्तर संभालता था. रोज सुबह सफेद कमीज और सफेद पतलून पहन कर, काला बैग ले कर वह औफिस में जा बैठता था. खाना खाने के लिए 1 बजे घर आता था. अकसर उसी के रिकशे में देशी सौदासुलफ लाने बाजार चली जाती थी. घर पर मैं अकेली रहती थी.

उस दिन भी सुबह की रसोई समेट कर मैं छत पर चली गई. धूप में टंकी के पास बैठ कर कपड़े धोए और नहाई. छत के दरवाजे की ओर मेरी पीठ थी. तुम चुपके से आए और दरवाजे की सांकल लगा दी. मैं मुड़ कर देखती इस के पहले ही तुम ने मुझे गोद में उठा लिया. मैं चिल्लाई तो हथेली से मुंह दबा दिया.

‘चिल्लाचिल्ला…और जोर से चिल्ला. सुन कौन रहा है तेरी? देशी सुनेगी, प्यारेलाल सुनेगा. हां, मगर वे क्या तेरी तरफदारी करेंगे? तुझे ही इलजाम लगेगा. सोच ले. उन का दानापानी तो मुझ से है.’

मैं छटपटाती रही मगर छूट न पाई. फिर यह हरकत रोज का किस्सा बन गई. जितना ही मैं डरती, बचती उतना ही तुम रंग दिखाते. किसी को पता नहीं चला. मगर मैं मुंहजोर हो गई. एकदम निर्भीक. देशी की गालियों का मुंहतोड़ जवाब देती. प्यारेलाल पर रौब से हुक्म चलाती. जब मरजी घूमनेफिरने बाजार चली जाती. मुझे लगता था सब मेरे गुनाहगार थे, अव्वल दरजे के मक्कार.

बस, बिशन से दोस्ती बनाए रखी. उस पर मेरा हक था. वह सीधासादा मासूम इंसान था. तुम्हारे हथकंडों से बेखबर. मुझे सिनेमा ले जाता था. सोने की चूडि़यां बनवा दीं. उस के प्यार करने में आग नहीं थी मगर सुकून तो था, जो मुझे अपनी नियति समझ आती थी. मैं उसे ठग रही थी मगर तुम्हारी मरजी से. बेबस जो थी.

राजरानी वापस आई. मैं ने सोचा, चलो जान छूटी. मगर तुम घाघ थे. कोई न कोई मौका जुटा ही लेते. पहले मैं राजरानी से डरती रही, फिर वह डर भी निकल गया. तुम चोर थे तो मैं सीनाजोर.

मेरे हावभाव देख राजरानी का माथा ठनका. उस ने तुम पर अपनी गिरफ्त कस ली. जाने कैसे, शादी के वर्षों बाद उसे गर्भ रह गया. तुम फूले न समाए. तुम्हारा सारा ध्यान राजरानी पर केंद्रित हो गया. मैं गई भाड़ में. जलन ने मुझे कुटिल बना दिया. ऊपरऊपर से मैं खुशी दिखाती, अंदरअंदर कुढ़ती. मुझे बच्चा चाहिए था. अपना बच्चा, बिशनदास का बच्चा. बहुत जतन किए. कुछ नहीं हुआ.

राजरानी जचगी के लिए मायके चली गई. उसे वहां छोड़ कर तुम वापस आए तो तुम्हें फिर से मेरी तलब लगी. मन में आया कि तुम पर थूक दूं, मगर मुझे बच्चा चाहिए था, कैसे भी. मैं मुसकरा कर फिर से तुम्हारी हो ली. बच्चा आया, मेरा मन गुलजार हो गया. मैं ने चुपके से तुम्हें बताया पर तुम्हारे तो चेहरे का रंग फीका पड़ गया.

‘निकलवा, अभी गिरवा दे इसे.’

‘नहीं, हरगिज नहीं. कोई नहीं जानता कि यह तुम्हारा है. सब इसे बिशन का ही मानेंगे. नहीं गिरवाऊंगी.’

‘सब बिशन का ही मानेंगे इसे, सिवा बिशन के.’

‘क्या मतलब?’

‘बिशन बच्चा नहीं पैदा कर सकता और यह बात उसे पता है. सुन फूलवती, तू उस की दूसरी बीवी है. उस की पहली को जब पता चला, वह वापस नहीं आई. किसी और के संग जा बैठी. इसीलिए बिशन शुरूशुरू में तुझ से हाथ समेट कर बैठा रहा. जब तू पहली बार मायके जा कर लौट आई तब उस ने तुझे अपनाया, याद कर. बिशन को अगर पता चला कि तू पेट से है तो वह समझ जाएगा कि तू क्या कर रही है.’

मेरे हाथ के तोते उड़ गए यह कहानी सुन कर. मुझे तुम्हारे घर आए तीसरा साल था. इतना बड़ा किस्सा और मुझ से ही छिपा कर रखा तुम सब ने, राजरानी ने भी. तभी तुम ने यह भी बताया कि बिशनदास तुम्हारा जुड़वां भाई था, तुम से 2 घंटे छोटा. पैदाइश के समय सिर्फ डेढ़ किलो वजन था उस का. हजारों तकलीफें उठा कर उसे तुम्हारी मां ने पाला था और अब यह रोल तुम्हारी बहन अदा कर रही है.

‘कितने बेईमान हो तुम सब? कितने झूठे. ऐसे आदमी की शादी ही क्यों की?’

‘तुझे यहां कैसे लाता? तेरा रूप जो डंक मार गया. फूलवती, तू बेहद सुंदर जो थी.’

‘ओ हो, तो फिर राजरानी पर क्यों इतना लुटे जाते हो?’

‘अब पैसा भी तो कोई चीज है न. बस, तू अपनी जगह वह अपनी जगह. तू मुझे खुश रख, मैं हमेशा तेरा खयाल रखूंगा. पर तू यह बच्चेवच्चे का चक्कर छोड़ दे.’

मैं मरती क्या न करती. रोरो कर अंधी हो गई. मेरी अंदर की व्यथा कौन समझता. दुख जैसेतैसे छिपाया. कहा कि नजला हुआ है. बदले में तुम ने मुझे जड़ाऊ टीका और कंधे तक लटकते झुमके बनवा दिए. बड़ी चालाकी से तुम ने वे गहने अपने भाई को दिए और जताया कि बेटे होने की खुशी में उपहार दे रहे हो. बिशनदास खुश हो गया. खुद अपने हाथ से उस ने मुझे पहनाए और फिर मेरे साथ फोटो खिंचवाई. मैं फूली न समाई.

लकड़ी के ठेके से तुम ने हजारों कमाए मगर मेरे नाम कोई रकम जमा नहीं की जो मैं जिंदगीभर खाती. बिशनदास को तुम क्या देते थे? सिर्फ 250 रुपए महीना.

हमारा राज कब तक छिपा रहता? जिस दिन पकड़ा गया, तुम्हारे भाई ने जहर खा लिया. मैं विधवा हो गई. तुम्हारे खोटे करम एक अच्छेभले इंसान को खा गए. कितना शरीफ था. कुदरत ने भी क्या बंटवारा किया जुड़वां बच्चों में. एक को सारे सद्गुण, विद्या, लगन, कलाप्रियता, संवेदना सब दे कर सेहत छीन ली और दूसरे को सेहत दे कर मतलबी, बेईमान और ऐय्याश बना दिया. भाईबहन तुम्हें बहुत प्यारे थे, मगर अपनी ऐय्याशी सब से ज्यादा.

बिशनदास ने मरतेमरते मुझ से बदला लिया. उस ने अपना सारा हिस्सा देशी के नाम लिख दिया. तुम्हारे मांबाप उस की सेहत की चिंता के मारे अपनी पुरानी हवेली उसी के नाम कर गए थे. तुम ने बेसाख्ता उस की अंतिम इच्छा का मान रखा. दसियों छोटेमोटे किराएदार उस में बसे थे. वह किराया देशी को मिलने लगा. मुझे? मुझे क्या मिला, ठेंगा. मैं और भी निहत्थी और बेबस हो गई.

बिशनदास से मेरे रिश्ते का एक नाम था. उस के रहते मैं सुहागिन कहलाती थी, शृंगार करती थी. चवन्नीभर बिंदी मेरे उजले माथे पर चमचम करती थी. मेरा रूप जगमगाता था. अब मैं न सजसंवर सकती थी, न हंसबोल सकती थी. मेरा नाम एक गाली बन गया. मेरा अंतर्मन मुझे डसता. सोचा, तुम्हारी मनहूस दहलीज छोड़ कर मायके जा बैठूं. मगर वहां कौन खजाना गड़ा था. टीबी की मारी मां. भाई की कच्ची गृहस्थी, बूढ़ा बाप. सबकुछ बदल गया था.

बेटे के सामने होते तो तुम ऐसा दिखाते कि मुझे जानते भी नहीं. मगर अकेले में?

मैं ने अपने किवाड़ उढ़का लिए. तुम ने दर्जनों सफेद साडि़यां ला कर डाल दीं. औरगंडी कोटा, चंदेरी, शिफौन, सब राजरानी से चोरीचोरी. मैं सफेद साड़ी पहने उतरी तो तुम ने घेर लिया. तुम बोले कि फूलवती, तू हंसिनी लगती है. अपने नैनों में मुझे छिपा ले. कह कर तुम ने मेरी छाती में अपना सिर गड़ा दिया.

बेचारी राजरानी. मेरा अपराधी मन कभी भी उस की सेज पर डाका नहीं डालना चाहता था मगर तुम न माने.

मैं ने पूजापाठ में मन लगाया. आश्रम में जा कर रहने लगी. तुम चार दिन में इज्जत का ढोंग कर के वापस ले आए. आश्रम वाले अभिभूत हो गए. मैं ने हथियार डाल दिए. तुम्हारा दिया खाने के एवज में फर्ज भी तो अदा करना था. मैं तुम्हें पाले रही. मैं झूठ क्यों बोलूं. मेरी जवान देह तो वैसी की वैसी ही थी, भूखी, प्यासी.

तुम्हारा बेटा बड़ा हुआ तो राजरानी ने उसे अजमेर पढ़ने भेज दिया. अब वह रोजरोज उस से मिलने के बहाने चली जाती. तुम खुद भी चले जाते अकसर. मैं और देशी अकेले इस कोठी में. न हम आपस में बोलते थे न एकदूसरे को सह पाते थे. प्यारेलाल खाना बना देता. दोनों अलगअलग कमरों में बैठ कर उसे निगल लेते थे.

मुझे प्यारेलाल का ही आसरा था. शायद वह मेरे दर्द को समझता था. शायद वह मुझे भी अपने जैसा समझता था. महज एक खिदमतगार. मैं उस को देशी की तरह फटकारती नहीं थी. धीरेधीरे, मेरी शह पा कर उस के आधे दर्जन बच्चे हमारे आंगन में कूदनेफांदने लगे. देशी नाराज होती तो मैं उसे डांट देती. आखिरकार वह पुरानी हवेली में रहने चली गई. प्यारेलाल ने मुझ से कहा, ‘मालकिन, इन्हें पढ़ालिखा दिया करें. कुछ जोड़बाकी सीख जाएंगे.’

सच पूछो तो मुझे एक आसरा मिल गया. रोज स्कूल लगा कर बैठ जाती. धीरेधीरे महल्लेभर के गरीब बच्चे आ कर बैठने लगे.

तुम दोनों वापस आते तो स्कूल बंद. घर तुम्हें सजासजाया मिलता. रोटी, पानी, राशन, बगीचा सब एकदम ठीक. वक्त गुजरा. अजीत एअरफोर्स का बड़ा अफसर बना. हर तरह से सुंदर होशियार. उस के बौस ने ही उस को दामाद बना लिया. सुनंदा आई सर्वगुणसंपन्न. राजरानी का घमंड सातवें आसमान पर. तुम दोनों एक हो गए.

सफेद बालों के साथसाथ तुम ने इज्जत का जामा पहन लिया. मैं छिटक कर दूर जा पड़ी. घर के कोने में रखी हुई झाड़ू की तरह. अजीत बेंगलुरु में जा बसा. तुम भी वहीं चले जाते. जब यहां आते, देशी भी रहने आ जाती वरना शक्ल भी न दिखाती. उस के पास आमदनी थी, मेरे पास कुछ भी नहीं.

कितनी बार मैं ने मांग रखी. क्या मेरा हक नहीं था? बिशनदास क्या मेरा ब्याहता पति न था? मगर तुम मामूली हाथ खर्च दे कर टालते गए. बिशनदास के संभाले ही तुम्हारा कारोबार टिका  था. उस के मरने के बाद तुम्हारा मानो दाहिना हाथ ही कट गया. सारा बिजनैस चौपट हो गया. तुम ने कभी सोचा कि जिस भाई की शादी तुम ने अपनी जिम्मेदारी पर करवाई थी उस की विधवा को रोटीपानी की जरूरत पड़ेगी बुढ़ापे में? मेरा बच्चा आज होता तो वह भी अजीत जितना होता, कमा रहा होता.

राजरानी का पर्स नोटों से भरा रहता था और मेरे पास? पर्स ही नहीं था. जब तक तुम्हारा शरीर चला, तुम ने मुझे भोगा. राजरानी ने अपने घमंड में कभी जाहिर नहीं किया मगर मैं जानती हूं कि उसे पता था. वह अपने सुहाग का दिखावा करती थी. तुम्हारे सामने मीठी बनी रहती थी मगर पीठ पीछे, उस की आंखों की नफरत मुझ से सहन नहीं होती थी.

शायद मेरी बददुआ ही तुम को लगी कि तुम्हें फालिज मार गया. कोई कुछ न कर सका. प्यारेलाल और राजरानी तुम्हें संभालते रहे. 6 साल तुम पलंग पर पड़े रहे. पानी की तरह पैसा बहने लगा. मैं दूर से देखती रहती. राजरानी सबकुछ भूल कर तुम्हारे पास बैठी रहती.

नारायणदास, तुम्हारी जैसी नीयत थी वैसा तुम्हें फल भी मिला. सुनंदा जैसी बहू का कोई सुख नहीं मिला. पोता हुआ, पर तुम उसे चाह कर भी देख नहीं पाए. समझ ही नहीं थी. तुम मरे तो अजीत विदेश में था. जिस बच्चे को देखदेख कर मेरी ममता तरसती रही, उस का कंधा भी तुम्हें नसीब नहीं हुआ.

तुम्हारे जाने के बाद राजरानी बिखरने लगी. जब मैं उसे समझातीबुझाती, वह मुझे ही कोसने लगती. मेरा छुआ हुआ खाना तक नहीं खाती थी. दोचार बार आमनेसामने हमारी तकरार हुई. मैं ने डंके की चोट पर उसे साफसाफ सुना दिया :

‘राजरानी, मुझे दोष मत लगा. गलती तेरी है. मां की लाडो बनी रही जनमजिंदगी. बौराया मरद छोड़ कर तू मायके दौड़ जाए तो वह जहां चाहे, मुंह मारेगा ही. जवानी तो अंधी होती है. मैं तो दोनों तरफ से लुट गई. न इज्जत रही न रखवाला. और आज भिखारन बनी तेरे दो टुकड़ों के लिए यहां पड़ी हूं, तो तू डंडे बरसा रही है? शरम कर. मेरा आदमी मरा तेरे आदमी के कारण. तेरे पास तो पैसा है और पूत भी. मेरे पास क्या है?’

‘मेरे पूत का नाम न ले अपनी काली जबान से.’

‘तो जा न उसी के पास. यहां क्यों बैठी है? यह घर तो मनहूस है.’

उस के बाद राजरानी का डेरा बेटेबहू के पास लग गया. मैं घर में निपट अकेली. प्यारेलाल को भी कहां से पालती? चुपचाप राजरानी की भरीपूरी गृहस्थी में से चोरियां करने लगी. कभी कोई भांडा, कभी चांदी का सामान, कभी उस की विदेशी साड़ी. वह छठेछमासे आती, उसे पता भी न चलता. उस की याददाश्त कम होने लगी थी. धीरेधीरे उस का आना कम होने लगा. किसे होश था सामान का?

प्यारेलाल ने मोटर हथिया ली जो अजीत के नामकरण के वक्त राजरानी के मायके से आई थी. वह उस को टैक्सी में चलाने लगा. मैं ने उस से अपना कट रखवा लिया. वह रोज के रोज 30-40 रुपए दे देता. मैं ने कोठी को सजासंवार कर रखा. कोई ब्याहबरात होती तो सामने का बगीचा और कमरे किराए पर दे देती.

महल्लेभर के बच्चे इस आंगन को आबाद रखते. मैं खुद 8वीं तक पढ़ी थी मगर उन बच्चों का होमवर्क करातेकराते कुछ ज्यादा ही पढ़लिख गई. जिसे भी जरूरत होती मेरे पास सीखनेसमझने आ बैठता. बिशनदास का कमरा किताबों से भरा पड़ा था. मैं खूब पढ़ती. मेरा नाम चाचीजी पड़ गया. सिर्फ अजीत की नहीं जगतभर की चाची.

एक दिन सुना कि राजरानी बहुत बीमार है. मैं ने प्यारेलाल को खबर लाने के लिए भेजा. मगर उस के बेंगलुरु पहुंचने से पहले ही वह मर चुकी थी. बड़ी बुरी तरह मरी. दिमाग नहीं रहा था उस का. जहांतहां गंदगी फैला देती. पलंग पकड़ लिया था. पड़ेपड़े घाव हो गए. पूरे शरीर में गलन आ गई. हालांकि अजीत और सुनंदा ने सेवादवा में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. आखिरकार अजीत ने…

चलो, जो हुआ भला हुआ. निजातमिली.

राजरानी के मरने के बाद अजीत आया था. सुनंदा को राजरानी ने सब बताया था, मगर वह नेक स्वभाव की पढ़ीलिखी लड़की निकली. उस ने आदर से पूछा, ‘चाचीजी, मम्मी का बहुत सा सामान पड़ा है. आप को देखभाल करनी पड़ती है. आप चाहें तो हम ले जाएं?’

‘हां बेटी, सब तुम्हारा है. जो चाहे ले जाओ.’

वह तीनचार दिन तक सामान खोलतीछांटती रही. जो उसे ठीक लगा, ले गई. बाकी यहीं धरा है. मेरे मरने तक पड़ा रहेगा. घर तो कितना जर्जर हो चुका है. मेरा बुढ़ापा भी तो यहीं आ कर पसरा है जाने कब से.

अजीत कह गया था कि जब तक मैं जिंदा हूं वह कोठी नहीं बेचेगा. देशी कब की मर चुकी. पुरानी हवेली पर किराएदारों ने कब्जा जमा लिया. कौन कोर्टकचहरी कर रहा है? अजीत और सुनंदा के पास बहुत है. बेंगलुरु में ठाट से रहते हैं. एक बेटा, वह भी न्यूयौर्क में जा बसा है. आजकल फैशन है विदेश में बच्चों को भेज देने का.

मेरी रोटीपानी, सेवादवा सब इन बच्चों के तमाम गरीब मांबाप देख लेते हैं. बगीचे में सब्जियां लगी हैं. जो पेड़ तुम ने बोए थे खूब फल देते हैं. आम, लीची, अमरूद, अनार. मैं खुश हूं. तुम सब के मरने के बाद बांटबांट कर खाती हूं.

कहते हैं न कि सब से अच्छा प्रतिशोध है, बाद तक बचे रहना.

बरात दुलहन के घर तक पहुंच गई. अगवानी और मिलनी हो रही है. दुलहन की दादी, राजदूत की बीवी ने मुझे यानी रोहित की दादी को गले लगाया, मिलनी की और पशमीने की शौल ओढ़ाई. कल जब दुलहन की डोली घर आएगी तो मुंहदिखाई में उसे मैं अपना वही जड़ाऊ मांगटीका और झुमके दूंगी जो तुम ने मुझे दिलाए थे. आखिर मैं ठहरी उत्तरजीवी.

वे 20 दिन : क्या राजेश से शादी करना चाहती थी रश्मि?

लेखक- किशोर

नेहरू प्लेस से राजीव चौक का करीब आधे घंटे का मैट्रो का सफर कुछ ज्यादा रुहानी हो गया है. अब यह मैट्रो स्टेशन रात को भी सपने में नजर आता है. क्यों नहीं आएगा? यहीं मैं ने उसे पहली बार देखा था. देखा क्या? पहली नजर में उस से प्यार करने लगा. पता नहीं कि यह मेरा प्यार है या महज आकर्षण. पहला दिन, दूसरा दिन और फिर शुरू हो गया आनेजाने का सिलसिला.

स्टेशन पर जब वह नजर आती तो मेरा दिल उछलने लगता. अगर नहीं दिखती तो एकदम उदास हो जाता. पूरे 24 घंटे उस की तसवीर मेरी आंखों के इर्दगिर्द घूमती रहती. एक सवाल मुझे परेशान करता रहता कि क्या उस की किसी और से दोस्ती है? रोजाना यही सोच कर जाता कि आज तो दिल की बात उस से कह ही दूंगा, लेकिन उस के सामने आते ही मेरी घिग्घी बंध जाती. मुझे उस से कभी एकांत में मिलने का मौका ही नहीं मिला.

देखने में तो वह मुझ से बस 2-3 साल ही छोटी लगती. उस पर नीली जींस और लाल टौप खूब फबता. कभीकभी तो वह सलवारकुरते में भी बेहद खूबसूरत नजर आती. उस के बौब कट बाल और कानों में बड़ेबड़े झुमके, काला चश्मा, हलका मेकअप उस की सादगी को बयान करते. मैं उस की इसी सादगी का कायल

हो गया था. मैट्रो में पूरे सफर के दौरान मेरी नजरें उसी के चेहरे पर टिकी रहतीं.

मैं सोचता, ‘कैसी लड़की है? मेरी तरफ देखती तक नहीं,‘ फिर दिल को किसी तरह तसल्ली दे देता. फिर सोचता कि कभी तो उसे तरस आएगा.

दोस्त कहते हैं, ‘लड़कियां तो पहली नजर में ही अपने मजनू को ताड़ जाती हैं.’ मैं भी तो उस का मजनू हूं, फिर क्यों… मैट्रो में मोबाइल की लीड लगा कर उस का गाना सुनना मुझे अखरता रहता. कभीकभी तो वह गाने सुनने के साथसाथ अंगरेजी उपन्यास

भी पढ़ना शुरू कर देती. मैट्रो में राजीव चौक स्टेशन की घोषणा होते ही वह सीट से उठ जाती और तेजी से चल पड़ती. मैं भी भीड़ के साथसाथ उस के पीछे हो लेता. रीगल सिनेमाहौल के आसपास कहीं उस का कार्यालय था.

जब तक वह मेरी आंखों से ओझल नहीं हो जाती, तब तक मैं खड़ा एकटक उसे देखता रहता. बाद में धीरेधीरे मैं भी अपने कार्यालय की ओर चल पड़ता. कार्यालय में काम करने का मन ही नहीं करता. मेरा पूरा ध्यान तो घड़ी की सूई पर टिका रहता. कब 1 बजे और मैं लंच का बहाना बना कर नीचे उतरूं. क्या पता, मार्केट में मुझे कहीं उस के दर्शन हो जाएं. एकाध बार तो वह नजर आई थी, लेकिन तब उस के साथ कार्यालय के कई सहयोगी थे. हफ्ता बीत गया. मेरी बेचैनी दिनोदिन बढ़ती जा रही थी. कितना दब्बू हूं मैं…  लड़का हूं, मुझे तो पहले पहल करनी चाहिए थी. डरता हूं कि कहीं कोई तमाशा खड़ा न हो जाए.

कुछ दिन से तो खानासोना पूरी तरह से हराम हो गया था. जब टिफिन का खाना वापस घर लौटने लगा तो भाभी नाराज होने लगीं. शिकायत मां तक पहुंची. सुबह भी मेरा नाश्ता ढंग से नहीं होता. वजह एक ही थी कि कहीं मैट्रो न छूट जाए.

‘‘छोटू, क्या बात है?’’ बड़े भाई ने पूछा.

मां बोलीं, ‘‘शायद इस की तबीयत खराब होगी. जवान लड़का है. बाजार में खट्टीमीठी चीजें खा लेता होगा.’’

‘‘नहींनहीं सासूजी, राजू बाहर कुछ खाता नहीं है, समझ में नहीं आ रहा है कि इस लड़के को किस बात की जल्दबाजी रहती है. मैं समय पर नाश्ता बना लेती हूं. कल थोड़ी देर क्या हो गई, बरस पड़ा था. पहले तो इस की कभी बोलने की भी हिम्मत नहीं होती थी. देवरानी आ जाएगी तो दिमाग ठिकाने लगा देगी,’’ भाभी बोलीं.

‘‘हां, मेरी नजर में मास्टर देवधरजी की बेटी नीता है. इसी साल उस ने 12वीं की परीक्षा अच्छे अंकों से पास की है. देखने में गोरीचिट्टी, सुंदर और सुशील है,’’ भैया बोले, ‘‘राजेश से बात तो चलाओ. मुझ से तो वह शरमाता है. मां, तुम ही उस से बात कर के देख लो.’’

रविवार को छुट्टी का दिन था. मैं अपने कमरे में बैठा उन सब लोगों की बातें सुन रहा था. मुझे लगा कि अब तो मां मेरे कमरे में आ ही जाएंगी.

मैं फौरन उठा और अपने 8 साल के भतीजे को आवाज लगाई, ‘‘सोनू, चल, छत पर पतंग उड़ाते हैं.’’

‘‘अच्छा चाचू, आया, लेकिन चाचू मम्मी ने पढ़ने को कहा है.’’

‘‘चल तो सही, मैं भाभी से कह दूंगा.’’

‘‘राजेश सुन,’’ मां ने आवाज दी पर मैं ने मां की आवाज को अनसुना कर दिया. भतीजे को कंधे पर बैठाया और तेज कदमों से छत पर चला गया. पीछे से भाभी की आवाज सुनाई दी, ‘‘राजू, सुन नाश्ता तो कर ले.’’

‘‘बाद में भाभी.’’

इतने में भैया बोले, ‘‘शरमा गया है. लगता है कि उस ने हमारी बातें सुन ली हैं. चलो, इतनी भी जल्दी क्या है? आराम से बात कर लेंगे,’’ भैया यह कह कर बाहर चले गए और मांभाभी अपनेअपने काम में व्यस्त हो गईं.

छत पर जाना तो मेरा बस, एक बहाना था. मैं फिर उस की यादों में खो गया और सोचने लगा, ‘कल तो कुछ भी हो जाए, मैं उस से अवश्य बात करूंगा.’

‘‘चाचूचाचू, कहां ध्यान है आप का. डोर तो ठीक से पकड़ो. हमारी पतंग कट जाएगी.’’

‘‘अच्छाअच्छा, तू ढील तो छोड़,’’ छत पर काफी देर हो गई. भाभी से रहा नहीं गया तो वे नाश्ता ले कर ऊपर छत पर ही आ गईं. भाभी से मेरा बचपन से ही गहरा लगाव था.

बचपन में मुझे नहलानेधुलाने की सारी जिम्मेदारी उन्हीं की होती थी. भाभी से रहा नहीं गया और बोलीं, ‘‘राजेश, नाश्ता कर ले. कब तक भूखा रहेगा? आखिर ऐसी क्या नाराजगी है. अब तो दोपहर के खाने का समय होने वाला है.’’

‘‘हां, भाभी, रख दो. खा लूंगा.’’

‘‘नहींनहीं. पहले खा क्योंकि तब तक मैं जाने वाली नहीं. तेरे भैया ने सुन लिया तो दोनों को डांट पड़ेगी.’’

‘‘क्या बनाया है भाभी?’’

‘‘आलू के परांठे और आम की चटनी है.’’

‘‘अरे वाह,’’ और फिर मैं खाने पर टूट पड़ा.

भाभी मेरे बदले व्यवहार से परेशान थीं, इसलिए वह अकेले में मुझ से बात करने का बहाना तलाश रही थीं, ‘‘अरे, राजू, कब तक भाभी से छिपाता फिरेगा. मैं तुझ से बहुत बड़ी हूं. जिंदगी की समझ मुझे तुझ से ज्यादा है.’’

‘‘नहींनहीं, भाभी, ऐसी कोई बात नहीं है.’’

‘‘कहीं तेरा कोई प्यारव्यार का चक्कर तो नहीं है. मुझे बता दे. अब तो घर में तेरी शादी की बातें होने लगी हैं. तुझे कोई लड़की पसंद है तो मुझे बता दे. तेरे भैया को बता दूंगी. वे आधुनिक विचारों के हैं. मान जाएंगे. हां, सासूजी को मैं मना लूंगी. बाकी जैसी तेरी मरजी. मैं चलती हूं दोपहर के खाने का समय हो गया है. तुम दोनों भी जल्दी नीचे

आ जाना और सोनू को स्कूल का होमवर्क करा देना.’’

‘‘ठीक है भाभी, हम दोनों आते हैं.’’

खाना खाने के बाद मैं बिस्तर पर लेट गया. नींद तो कोसों दूर थी. रात के खाने पर मां ने शादी की बात छेड़ने की कोशिश की. मैं बोला, ‘‘इतनी भी जल्दी क्या है?’’

इतने में भाभी बोल पड़ीं, ‘‘ठीक है, मैं राजेश को समझा दूंगी. अभी उसे खाना तो खा लेने दो. सप्ताह में एक दिन तो घर पर रहता है.’’

मैं भतीजे को ले कर अपने कमरे में चला गया. भाभी मेरा कितना खयाल रखती हैं. उन से कोई बात छिपानी नहीं चाहिए. लेकिन पहले उस लड़की से बात तो हो जाए. सोमवार से सोचतेसोचते शुक्रवार बीत गया. इस बीच उस से बात करने का मौका नहीं मिला. अब तो मुझे सोमवार का इंतजार करना पड़ेगा. शनिवाररविवार को तो उस का अवकाश होता है. आज शनिवार था इसलिए मुझे उठने की जल्दी नहीं थी.

सुबह का नाश्ता मैं ने आराम से किया. मैट्रो स्टेशन पहुंचा तो उसे देख कर चौंक पड़ा. वह पीछे वाले कोच की तरफ जा रही थी. आज कोच में कम लोग थे. मैं फौरन उस की बगल वाली सीट पर जा बैठा.

मैं कांपती आवाज में उस से बोल पड़ा, ‘‘मैं राजेश.’’

उस ने पहले मेरे चेहरे की ओर देखा और बोल पड़ी, ‘‘आई एम रश्मि. तुम भी रोजाना राजीव चौक जाते हो. कई बार तुम्हें देखा है. क्या करते हो?’’

‘‘एमबीए किया है मैं ने. एक पीआर कंपनी में नौकरी करता हूं.’’

‘‘मैं भी एक टायर कंपनी में काम करती हूं. वैसे शनिवार को छुट्टी होती है, लेकिन आज औफिस में काम कुछ ज्यादा था इसलिए आना पड़ा.’’

कब राजीव चौक आ गया पता ही नहीं चला.

‘‘अच्छा, चलती हूं.’’

आज पूरे 13 दिन के तनाव व बेचैनी के बाद मुझे राहत मिली. ‘अब तो भाभी को बता ही दूंगा. नहींनहीं,’ आज तो पहली बार बात हुई है. 2-3 बार मिलेगी तो खुल कर बात करने का मौका मिल जाएगा,’ मैं ने मन ही मन सोचा.

सोमवार को वह दिखाई नहीं दी. लगता है कि पहले निकल गई होगी. जब 2-3 दिन ऐसे ही गुजर गए तो मेरी बेचैनी बढ़ने लगी. ’कहां गई होगी? काश, मैं ने उस से मोबाइल नंबर मांग लिया होता.’ सोचसोच कर मैं परेशान हो उठा. शाम को पूरी तरह से निराश था. उम्मीद ही नहीं थी कि रश्मि से मुलाकात हो जाएगी.

रश्मि का चेहरा कुछ थकाथका सा लग रहा था. पास पहुंचा तो बोल पड़ी, ‘‘अरे, राजेश, कैसे हो.’’

‘‘ठीक हूं. क्या बात है 3-4 दिन…’’

‘‘हां, मैं हैदराबाद गई थी. मामाजी का देहांत हो गया था. आज सुबह की फ्लाइट से दिल्ली लौटी हूं.’’

मैट्रो तेज रफ्तार पकड़ चुकी थी. बातचीत में सफर कब कट गया, पता ही नहीं चला. नेहरू प्लेस स्टेशन आते ही वह उतरी और तेज कदमों से आटो ले कर घर चली गई. मैं भी अपने घर चला गया. घर पहुंचा तो भाभी मेरी चालढाल से समझ गईं. ‘‘देवरजी, आज तो चेहरे पर रौनक नजर आ रही है. क्या कोई खुशखबरी है?’’

‘‘नहीं भाभी, आप तो…’’

‘‘चल, चाय बना कर लाती हूं. हाथमुंह धो ले.’’

मां भी आ गईं. मां कुछ पूछें उस से पहले ही मैं कपड़े बदलने का बहाना बना कर अपने कमरे में चला गया. भतीजा भी मेरे पीछेपीछे हो लिया.

‘‘चाचू, 10 रुपए…’’

‘‘क्यों, कुछ लेना है. ठीक है, लेकिन मम्मीपापा को मत बताना.’’

आज दिल बहुत खुश था. सबकुछ अच्छा लग रहा था. भाभी को बताना चाहता था इसलिए किचन में चला गया.

‘‘अरे, देवरजी, किचन में क्यों आ गए.’’

‘‘क्यों, मैं यहां नहीं आ सकता भाभी?‘‘

’’क्यों नहीं. कोई न कोई बात होगी. पहले तो कभी नहीं आया था. तेरे पास हमारे साथ बात करने का तो समय ही नहीं होता. बोल, खाने में क्या बनाऊं तेरे लिए.’’

‘‘पनीर खाने का मन हो रहा है, भाभी.’’

‘‘ठीक है,’’ भाभी ने कहा, ‘‘बाजार से खरीद कर ले आ. मैं बना देती हूं. बहुत

दिन से सोनू भी पनीर खाने की जिद कर रहा था.’’

अचानक मां आ गईं और बोलीं, ‘‘क्या बातचीत हो रही है दोनों देवरभाभी में.’’

‘‘कुछ नहीं मां, मैं भाभी से कह रहा था कि पनीर की सब्जी बना दो.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. ठीक है, पालक भी ले आना. पालकपनीर की सब्जी तेरे भाई को पसंद है.’’

मैं फौरन बाजार की तरफ निकल पड़ा. बाजार क्या पहुंचा? पुराने दोस्तों की टोली मिल गई. मैं चाह कर भी उन से पीछा नहीं छुड़ा पाया. फिर तो मेरी खिंचाई का दौर शुरू हो गया. ’घर में बैठेबैठे क्या करते हो.’ ’शादी के लिए कोई लड़की पसंद की है कि नहीं,’ एकसाथ कई सवालों ने मेरा दिमाग खराब कर दिया…

’’अरे भाई, अब जाने भी दो. भाभी ने पनीर और पालक के लिए भेजा है. भैया भी आते होंगे. देर हो गई तो मुझे डांट पड़ेगी.’’

‘‘आज तो तुझे इतनी जल्दी नहीं छोड़ेंगे बच्चू. बहुत दिन बाद बड़ी मुरगी जाल में फंसी है. नौकरी की पार्टी हमें अभी तक नहीं मिली है.’’

‘‘सब ठीक है अगली बार… पक्का.’’

‘‘रविवार को हम सब इंतजार करेंगे.’’

बाप रे, पीछा छूटा, और कोई पुराना दोस्त मिले इस से पहले घर भागता हूं. सब्जी की दुकान पर पहुंचा तो नीता अपने पापा और छोटी बहन के साथ खड़ी थी. नजरें मिलीं तो शरमा गई और मुंह फेर लिया. उसे इस बात की भनक लग चुकी थी कि मेरे साथ उस के रिश्ते की बात चल रही है. इस से पहले कि उस के पापा की नजर मुझ पर पड़ती, मैं फौरन घर भाग लिया. मैं घर के अंदर कदम रख ही रहा था कि भैया नीता के रिश्ते के बारे में मां से पूछ रहे थे, ‘‘मां, राजू से बात की.’’

‘‘नहीं, अभी नहीं. पहले उस की हां तो हो जाए फिर सभी उन के घर चल पड़ेंगे.’’

मैं ने नीता को बचपन से देखा था. हम दोनों साथसाथ खेलते थे. पिछली बार देखा तो पहचान नहीं पाया. तभी दोस्तों ने बताया कि वह नीता है. अब घर वाले उस के हाथ पीले करने की सोच रहे हैं. मैं आधुनिक और पढ़ीलिखी लड़की को अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं, नीता की तरफ मेरा ध्यान ही नहीं गया था. रश्मि तो पढ़ीलिखी है. अच्छी नौकरी है. घर वालों को जल्दी पसंद आ जाएगी. बस, अब रश्मि का इंतजार है. दोचार दिन में हम दोनों पूरी तरह से घुलमिल गए थे, लेकिन अभी तक इतनी हिम्मत नहीं हुई कि दिल की बात कह सकूं.

सोचता हूं कि जल्दबाजी में कहीं बात बिगड़ न जाए. रश्मि वैसे भी खुले विचारों की युवती थी. खुल कर बात होने लगी. अगले शनिवार को रश्मि ने मेरा घूमने का प्रस्ताव मान लिया. दिन में हम ने दिल्ली दरबार में लंच किया और फिर आटो पकड़ कर इंडिया गेट की तरफ चल पड़े. खूब घूमेफिरे, लेकिन दिल की बात करने का मौका ही नहीं मिला. असल में रश्मि ने ऐसा कोई मौका ही नहीं दिया.

औफिस और हैदराबाद की बातों में ही पूरा दिन निकल गया. घर वापसी में ज्यादा बात नहीं हो पाई. वह थोड़ी परेशान नजर आई. नेहरू प्लेस स्टेशन आते ही वह तेजी से बाहर निकली और मुझे बाय करते हुए चल पड़ी. 1-2 घंटे पहले तो सब ठीक था. अचानक इसे क्या हो गया? कोई समस्या होगी. अगले 2 दिन तक रश्मि नजर नहीं आई. आखिर क्या बात हो गई. किसी ने हमें साथ घूमते देख तो नहीं लिया. मिलने पर ही सारी स्थिति स्पष्ट हो पाएगी. बुधवार को रश्मि से मुलाकात हो गई.

‘‘क्या हुआ रश्मि?’’

वह बोली, ‘‘पहले आराम से बैठते हैं, फिर बातें करते हैं.’’

उस का चेहरा बुझाबुझा सा लग रहा था. आज ठीक से मेकअप भी नहीं किया. लगता है कि रातभर सोई नहीं होगी. मेरे कई सवालों का उस ने एक उत्तर दिया. ‘‘बहुत जल्दबाजी करते हो,’’ कहते ही वह अचानक गंभीर हो गई.

‘‘राजेश, तुम बहुत अच्छे लड़के हो. अच्छी नौकरी है. दिखने में हैंडसम हो. एक अच्छे दोस्त के नाते तुम्हें एक सलाह देती हूं कि जल्दी ही शादी कर लो.’’

‘‘लेकिन…’’

‘‘मैं सब समझती हूं. शायद तुम्हें पता नहीं कि मैं शादीशुदा हूं और 2 बच्चों की मां हूं. पति आर्मी में हैं. उन की ड्यूटी ज्यादातर सीमा पर रहती है. मैं सासससुर के साथ रहती हूं. मैं दोस्ती तोड़ने को थोड़े कह रही हूं. वह तो चलती ही रहेगी. यह सब अलग बात है. जिंदगी की गाड़ी चलाना अलग बात है.’’

मैं पूरी तरह से जड़वत हो गया. क्या सोचा था? क्या हो गया? एक ही झटके में सब खत्म हो गया. अचानक रश्मि सीट से उठी और तेजी से चल पड़ी. मैं अवाक् रह गया.

उस के जाते ही मैं ने खुद को संभाला. मेरी क्या गलती थी? स्टेशन पर उतरने के बाद मैं धीरेधीरे घर की ओर चल पड़ा. पैर जमीन पर ठीक से नहीं पड़ रहे थे. दरवाजे पर पहुंचा ही था कि भाभी खड़ी थीं. ‘‘अरे राजू, तू आ गया. क्या बात है तेरे चेहरे पर तो पूरे 12 बजे हैं.‘‘

‘‘नहीं, भाभी, ऐसा कुछ नहीं है,’’ अचानक मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘‘भाभी, आप लोग नीता को देखने कब जा रहे हो. भाभी, मुझे नीता पसंद है.’’

भाभी को एकाएक विश्वास ही नहीं हुआ. उन्होंने उत्साह में भैया को जोर से आवाज दी, ‘‘अजी, सुनते हो…’’

‘‘क्या है, क्यों इतना चिल्ला रही हो?’’ भैया बोले.

‘‘जल्दी से बाजार से 2 किलो अच्छी बरफी तो ले आओ.’’

‘‘आखिर ऐसी क्या बात हो गई. कौन सी खुशी की बात है.’’

‘‘अपने राजू को नीता पसंद आ गई है. वह शादी के लिए मान गया है.’’

मां भी दौड़ीदौड़ी बाहर आ गईं. घर में पूरी तरह से खुशी का माहौल था. भतीजे ने सुना तो वह भी खुशी से पागल हो गया.

‘‘मैं अपने दोस्तों को बताने जा रहा हूं, चाचू. मेरे चाचू की शादी होगी. बहुत मजे आएंगे.’’

प्यार के रंग : क्यों अपराधबोध महसूस कर रही थी वर्षा?

लेखिका- नीलम राकेश

सफेद कोट पहने और गले में आला लटकाए वह अपलक उसे आता देख रहा था. कुछ तो बात थी उस लड़की में कि डाक्टर मृणाल सा उस की ओर खिंचता जा रहा था.

मझोला कद, साधारण नैननक्श के बावजूद उस लड़की में एक कशिश थी जो डाक्टर मृणाल को बेचैन कर रही थी. कुछ भी तो नहीं जानता था वह उस के बारे में, सिवा इस के कि उस की एक मरीज चांदनी को देखने वह रोज सुबहशाम आती है. 6 महीने से यह क्रम बिना नागा चला आ रहा है, जबकि वह जानती है कि उस का आना चांदनी को पता नहीं चलता.

आज डाक्टर मृणाल ने तय कर लिया था कि वे आज उस से कुछ पूछेंगे. “गुड मौर्निंग डाक्टर, आप को कुछ चाहिए?” रिसैप्शनिस्ट विनम्रता से पूछ रही थी.

“नहीं, धन्यवाद. मैं किसी की प्रतीक्षा कर रहा था,” कहते हुए डाक्टर मृणाल रिसैप्शन से हट कर उस के पीछे चल दिए.

उन की मरीज चांदनी एक साधारण परिवार से थी. किसी हादसे के कारण वह कोमा में चली गई थी. शुरू में उस के भाई, भाभी, पिता सब उसे देखने आते थे. परंतु इलाज के खर्चे के आगे घुटने टेकने लगे. अस्पताल से दबाव पड़ा कि और पैसे जमा करो या मरीज को घर ले जाओ, तो परिजनों ने आना बंद कर दिया. बेचारी को अस्पताल के रहमोकरम पर छोड़ दिया. परंतु, यह लड़की लगातार सुबहशाम आती रहती है.

वार्ड में वह चांदनी के सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए कुछ बोल रही थी इस बात से अनजान कि उस की बात चांदनी नहीं, पीछे खड़े डाक्टर मृणाल सुन रहे हैं, “तुझे ठीक होना होगा चांदनी, मैं तुझे इस तरह से नहीं देख सकती.”

“आप का विश्वास इसे ठीक करेगा, मिस…” डाक्टर मृणाल ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी.

” वर्षा, मेरा नाम वर्षा है डाक्टर,” वह उठती हुई बोली.

“वर्षा जी, आप इन की बहन हैं?”

“नहीं डाक्टर, यह मेरी सहेली है.”

“सहेली ? आप सहेली के लिए…” डाक्टर मृणाल को कुछ सूझा नहीं तो वे चुप हो गए.

” जी हां, मैं अपनी सहेली के लिए ही आती हूं. आप को एतराज है क्या डाक्टर?” वह सीधे डाक्टर की आंखों में देख रही थी.

“क्षमा करें, आप की भावना को आहत करने का मेरा इरादा नहीं था. पर आजकल … आप समझ रही हैं न वर्षा जी, मैं क्या कहना चाह रहा हूं.”

“जी डाक्टर, समझ रही हूं. मैं भी क्षमा चाहती हूं. मुझे इस तरह उत्तेजित नहीं होना चाहिए था.”

“क्षमा तो आप को मिल सकती है वर्षा जी, अगर आप कैंटीन में चल कर मेरे साथ एक कप कौफी पिएं.”

अपने हाथ में बंधी घड़ी पर नजर डालते हुए वर्षा बोली, “लेकिन मुझे जाना है.”

“क्या 10 मिनट भी नहीं निकाल सकतीं?”

“ठीक है, 10 मिनट तो हैं.”

“आइए.”

दोनों मौन कैंटीन की ओर चल दिए. वहां पहुंच कर डाक्टर मृणाल बैठने से पहले काउंटर पर 2 कौफी बोल आए.

“वर्षा जी, आप क्या कर रही हैं?”

“मैं स्कूल में पढ़ा रही हूं डॉक्टर,” मृदु मुसकान के साथ वर्षा बोली.

“आप मुझे मृणाल ही कहें. मृणाल, मेरा नाम है,” विनम्रता से डाक्टर मृणाल बोले.

“बहुत अच्छा नाम है.”

“आप को देख कर तो लगता है आप पढ़ ही रही होंगी.”

“मैं पढ़ ही रही थी डाक्टर…मेरा मतलब है मृणाल जी.”

“अं…?”

“परिस्थितियां बदल गईं मृणाल जी और मुझे पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करनी पड़ी.”

“हां, समय बहुत बलवान होता है.”

“अरे, समय हो गया, मुझे निकलना होगा. मेरे स्कूल का टाइम हो गया,” अपना कप रखती हुई वर्षा उठ खड़ी हुई.

“कौफी पर मेरा साथ देने के लिए धन्यवाद वर्षा जी.”

मृणाल वहीं बैठा वर्षा को जाता देखता रहा. धीरेधीरे यह रोज की दिनचर्या बन गई. मृणाल सुबहसुबह वर्षा के आने के समय पर चांदनी के वार्ड में पहुंच जाता और शाम को फिर वर्षा को वहीं मिलता.

एक दिन वर्षा ने हंसते हुए पूछा, “मृणाल, आप मेरी सहेली के इलाज में कुछ ज्यादा ही रुचि लेते हैं, क्या बात है?”

“आप की सहेली तो मेरी मरीज है. उस के प्रति मेरी जिम्मेदारी है. लेकिन आप से मुझे प्यार हो गया है.”

“नहीं…” कहती हुई वर्षा उठी और तेजी से कमरे से बाहर भाग गई.

हतप्रभ सा मृणाल कुछ समझ ही नहीं पाया. अगली सुबह मृणाल बेसब्री से वार्ड में टहल रहा था, सोच रहा था, वह आएगी या नहीं. तभी वह रोज की तरह आती दिखाई दी और मृणाल की जान में जान आ गई.

“गुडमौर्निंग वर्षा.”

“गुडमौर्निंग डाक्टर.”

“क्या बात है वर्षा, तुम ठीक तो हो?” वर्षा की लाल आंखों की ओर देखते हुए मृणाल ने पूछा.

“मैं ठीक हूं डाक्टर. लेकिन क्षमा चाहती हूं, यदि मेरी किसी बात से आप के मन में यह प्यार वाली बात आई है तो.”

“वर्षा…”

“डा. मृणाल, प्यार या ऐसी सारी कोमल भावनाएं मेरे जीवन से दूर जा चुकी हैं. मेरे जीवन का एक ही लक्ष्य है, कि मेरी चांदनी ठीक हो जाए. उस के पहले मैं और कुछ नहीं सोच सकती.”

“तुम्हें पता है, चांदनी ठीक भी हो सकती है और…”

“जानती हूं, आप सब डाक्टरों यही बताया है.”

“फिर?”

“अपने जीवन का निर्णय लेने का अधिकार तो मुझे है ही.”

“वर्षा, तुम्हारा यह निस्वार्थ समर्पण, तुम्हें औरों से अलग खड़ा करता है.”

“एक मिनट, डाक्टर मुझे महान समझने की भूल मत करिएगा.”

“तुम महान हो वर्षा. जो जीवन में अकेला होता है, इस निश्च्छ्ल स्नेह की कीमत वही जानता है. आज से 4 वर्षों पहले जब मुझे पहली सैलरी मिली थी तब मैं ने अपने मम्मीपापा को तीर्थयात्रा के लिए भेजा था. यह उन का सपना था. परंतु मेरा समय देखो, लौटते समय उन की बस खाई में गिर गई और कोई नहीं बचा. डाक्टर हो कर भी मैं कुछ नहीं कर सका. मेरी दुनिया उजड़ गई. मैं बिलकुल अकेला हो गया. इस दर्द को मैं ने भोगा है. फिर मैं ने चांदनी को अकेले होते हुए देखा. परंतु समय की बलवान है वह, कि अपनों द्वारा छोड़े जाने के बाद भी तुम ने उसे नहीं छोड़ा. तुम्हारे लिए मेरे मन में प्यार के साथसाथ बहुत आदर भी है.”

“नहीं डाक्टर मृणाल, मैं इस प्यार और आदर के योग्य नहीं हूं. जहां तक बात अपनों के तिरस्कार की है तो डूबते सूरज को कौन जल चढ़ाता है? और अगर मेरी बात करें तो यह मेरा प्रायश्चित्त भी है. कहीं ना कहीं मैं खुद

को दोषी पाती हूं.”

“भरोसा कर सको, तो मुझे पूरी बात बताओ. पर प्लीज, मुझे मृणाल ही कहो.”

“भरोसा तो जाने क्यों आप पर हो गया है. और जहां तक अकेलेपन की बात है, तो चांदनी का साथ देने का निर्णय ले कर मैं भी पूरी तरह अकेली ही हो गई हूं.”

“बैठो,” स्टूल वर्षा की ओर खिसकाते हुए डाक्टर मृणाल बोले.

दोनों चांदनी की बैड के पास 2 स्टूलों पर बैठ गए. वर्षा शून्य में देखती हुई बोली, “मेरे मम्मीपापा नहीं हैं. केवल भाई, भाभी हैं. उन पर मैं बोझ हूं. चांदनी के पापा हैं और भाई, भाभी भी हैं. भाभी को वह फूटी आंख नहीं सुहाती. दुनियादारी निभाने कुछ समय वे लोग अस्पताल आए और अब खुश हैं कि उस की शादी का खर्चा बचा. अंकल खुद बेटे के ऊपर ही आश्रित हैं. हम दोनों सहेलियां बचपन से साथ ही पढ़ी हैं. घर हमारा भले ही दूर था, पर मन बहुत करीब था. हमारे दर्द साझा थे. हम दोनों पढ़ कर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहते थे. परंतु चांदनी के जीवन में तपन नाम का एक लड़का आ गया. दोनों के बीच गहरा प्रेम था, ऐसा मुझे लगता था. चांदनी मेरे घर आने का बहाना कर तपन के साथ समय बिताती थी. पर हमेशा मुझे बता देती थी ताकि मैं घर वालों के प्रश्नों को संभाल लूं. सबकुछ ठीक ही चल रहा था. उस दिन तपन ने मुझे फोन कर कहा, ‘मैं चांदनी को सरप्राइज देना चाहता हूं. चांदनी को विराट होटल के कमरा नंबर 16 में भेज दो. मेरा जन्मदिन है और मैं चाहता हूं कि मैं आज के दिन ही उसे प्रपोज करूं.’ मैं बहुत खुश हो गई और उस के सरप्राइज में शामिल हो गई. चांदनी को फोन कर के वहां बुला लिया.”

यह सब बोलतेबोलते वर्षा फफक कर रो पड़ी. मृणाल ने उठ कर उसे गिलास में पानी दिया. शून्य में देखते हुए ही उस ने पानी पी कर गिलास मृणाल को पकड़ा दिया.

“मैं चांदनी के फोन की प्रतीक्षा कर रही थी. पर उस का फोन नहीं आया. मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था कि इतनी बड़ी बात वह मुझे क्यों नहीं बता रही. जब नहीं रहा गया तो मैं ने उसे फोन लगाया. पर फोन नहीं उठा. थकहार कर मैं ने उस की भाभी को फोन मिलाया. वे बोलीं, ‘तुम्हारी सहेली तुम्हारे घर जाने का बहाना कर जाने कौन सा गुल खिलाने होटल विराट चली गई थी. वहां गिर गई है. पता नहीं बचेगी कि नहीं. हम लोग अस्पताल में हैं.’

“मैं भागतीदौड़ती अस्पताल पहुंची. उस की हालत देख कर साफ पता चल रहा था कि उस के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश हुई है. मैं ने पुलिस को, भैया और अंकल को उस के होटल विराट जाने का कारण बताया और तपन का नंबर दे दिया. पता चला तपन एक रईस परिवार का बिगड़ा हुआ लड़का था और उस ने गलत इरादे से चांदनी को वहां बुलाया था. कमरे में वह 2 दोस्तों के साथ उस की प्रतीक्षा कर रहा था. परंतु चांदनी ने उन सब का डट कर मुकाबला किया और आखिर में खुद को बचाने के लिए खिड़की से कूद गई. उस का सिर दीवार से टकराया था और वह कोमा में चली गई. तपन ने पुलिस वालों के साथसाथ चांदनी के भाई को भी मोटी रकम दे कर केस वापस करा लिया. और अब वे लोग उस का इलाज भी नहीं करा रहे हैं. इसलिए, मैं ने पढ़ाई छोड़ कर 2 महीना पहले यह नौकरी जौइन कर ली, ताकि चांदनी का इलाज न रुके. मैं और कुछ तो नहीं कर सकती, पर उस का इलाज तो जरूर करवाऊंगी,” यह कह कर वह फिर रो पड़ी.

मृणाल ने धीरे से वर्षा के कंधे पर हाथ रखा, “वर्षा, तुम अपने इस निर्णय पर मुझे हमेशा अपने साथ खड़ा पाओगी. आंसू पोंछ लो वर्षा.”

वर्षा ने नजर उठा कर मृणाल की ओर देखा जैसे तोल रही हो.

“वर्षा हम दोस्त हैं, और दोस्त ही रहेंगे. यह दोस्ती प्यार के रिश्ते में तब ही बदलेगी जब तुम चाहोगी. मैं सारी उम्र तुम्हारी प्रतीक्षा कर सकता हूं. रही बात चांदनी के इलाज की, तो मैं तुम से वादा करता हूं, आज से यह जिम्मेदारी मेरी है.”

“मृणाल…”

“कुछ मत बोलो वर्षा. बस, मुझे अपने साथ खड़े रहने की अनुमति दे दो.”

एक महीने बाद डा. मृणाल और वर्षा एक सादे समारोह में परिणय सूत्र में बंध गए. मृणाल के छोटे से घर में पहुंच कर वर्षा ने चारों ओर नजर घुमाई. सलीके और सादगी से सजा घर मृणाल के व्यक्तित्व से मेल खा रहा था. उसी समय मृणाल ने पीछे से आ कर उसे बांहों में भर लिया. इस अनोखी छुअन से वह सिहर उठी और आंखें बंद कर मृणाल की आगोश में समा गई.

“वर्षा, तुम्हें कुछ दिखाना है, आओ मेरे साथ.”

वर्षा मृणाल के पीछे चल दी. एक कमरे का दरवाजा खोल कर मृणाल उस का हाथ पकड़ कर अंदर प्रविष्ट हुआ. चकित सी वर्षा देखती रह गई. वह कमरा अस्पताल का कमरा लग रहा था, जिस में सारी मैडिकल सुविधाएं उपलब्ध थीं. और ठीक बीचोंबीच अस्पताल वाला लोहे का एक बैड पड़ा हुआ था.

“वर्षा, यह कमरा तुम्हारी सहेली और मेरी बहन चांदनी के लिए है. कल हम दोनों चल कर उसे यहां ले आएंगे. अब से वह अपने घर में रहेगी और हम दोनों मिल कर उस की देखभाल करेंगे.”

वर्षा आश्चर्य से मृणाल की ओर पलटी और उस के गले से लग कर सिसक उठी, “मृणाल.”

“वर्षा,” मृणाल ने कस कर उसे अपनी बांहों में ले लिया.

“आप बहुत महान हैं मृणाल. शायद ही किसी पति ने अपनी पत्नी को इतना अनमोल तोहफा दिया होगा.”

“नहीं वर्षा, तुम्हारे लिए तो कुछ भी किया जाए वह कम ही है. आज के समय में किसी के लिए अपना पूरा जीवन उत्सर्ग करने को कोई तत्पर हो तो वह हीरा ही है. और ऐसा हीरा मेरे जीवन में आया है. तो उसे तो मैं पलकों पर बिठा कर ही रखूंगा.”

“मृणाल, प्यार पर से तो मेरा विश्वास ही उठ गया था. पर तुम ने मेरे जीवन को प्यार से सराबोर कर दिया,” कह कर वर्षा फिर आलिंगनबद्ध हो गई.

दोनों का तनमन प्यार की फुहार से भीग रहा था.

मैं झूठ नहीं बोलती: ममता को सच बोलना क्यों पड़ा भारी?

‘‘निधि रुक जा, कहां भागी जा रही है? बस निकल जाएगी, ममता ने गेट की ओर तेजी से जाती हुई निधि को पुकारा, पर निधि तो अपनी ही धुन में थी. उस ने ममता को वहीं रुकने का इशारा किया और गेट से बाहर निकल गई. तब तक बस आ गई और सभी छात्राएं उस में बैठने लगीं. ममता जानती थी कि यदि वह निधि के पीछे गई तो उस की बस भी निकल जाएगी. अत: वह बस में जा कर बैठ गई.

तभी निधि दौड़ती हुई बस की ओर आई और बोली, ‘‘ममता, मां पूछें तो कह देना कि मेरी ऐक्सट्रा क्लास है.’’

‘‘मैं क्यों झूठ बोलूं, दादीमां कहती हैं कि सब बुराइयां झूठ से ही शुरू होती हैं,’’ ममता ने चिढ़ कर उत्तर दिया.

‘‘सतयुग में एक राजा हरिश्चंद्र थे और कलियुग में तू, तेरे जो मन में आए कह देना. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता,’’ निधि झुंझलाते हुए बोली और देखते ही देखते आंखों से ओझल हो गई. ममता उसे पुकारती ही रह गई, लेकिन उस ने पीछे मुड़ कर देखा भी नहीं. उधर बस में बैठी छात्राएं निधि और ममता की बातचीत के मजे ले कर खूब हंस रही थीं.

‘‘अब तो निधि ने भी आज्ञा दे दी है. आज ही जा कर निधि की मम्मी को सब सच बता देना. समझा देना कि आजकल उन की बेटी कक्षा में कम और कैंटीन में आशीष के साथ अधिक नजर आती है. तू ने इतना सा साहस दिखा दिया तो उस के घर वाले तुझे उपहारों से लाद देंगे,’’ रचना बोली तो बस में फिर से ठहाके गूंज उठे.

‘‘क्या हो रहा है ये सब? रचना, मैं ने तुम से सलाह मांगी है क्या?’’ ममता गुस्से से बोली.

हंसहंस कर दोहरी हो रही रचना पर ममता इतनी जोर से चीखी कि हवा जैसे थम सी गई.

‘‘तुम जानो और तुम्हारी सहेली. हमें क्या पड़ी है दूसरों के झमेलों में पड़ने की,’’ रचना ने बड़ी अदा से मुंह बनाया व अपनी अन्य सहेलियों के साथ गपें हांकने लग गई. अन्य छात्राएं भी शीघ्र ही निधि प्रकरण को भूल गईं और ममता ने चैन की सांस ली. पर असली समस्या तो अभी भी मुंहबाए खड़ी थी. सत्या आंटी ने अगर पूछ लिया कि उन की बेटी निधि कहां है तो वह क्या उत्तर देगी. न वह झूठ बोल सकती है और न ही सच. निधि उस की सब से प्यारी सहेली है. उस के राज को राज रखना उस का कर्तव्य भी तो बनता है.

निधि की मां, सत्या आंटी अपने गेट के पास निधि की प्रतीक्षा में खड़ी रहती थीं. आज उन्हें वहां खड़ा न देख कर ममता ने चैन की सांस ली और लपक कर अपने घर में घुस गई.

‘‘क्या हुआ, इस तरह दौड़ कर क्यों घर में घुस गई? मैं बाहर दरवाजे पर खड़ी तेरी प्रतीक्षा कर रही थी, मुझे देखा तक नहीं तू ने,’’ उस की मां निशा अचरज से बोलीं.

‘‘बात ही कुछ ऐसी है मां, मुझे लगा कहीं सत्या आंटी सामने मिल गईं तो मैं क्या करूंगी,’’ ममता ने अपनी मां को अपना स्वर नीचे रखने का इशारा किया.

‘‘क्यों, ऐसा क्या किया है तुम ने, जो सत्या से डर रही हो,’’ मां चकित स्वर में बोलीं.

‘‘मैं ने कुछ नहीं किया है मां पर निधि…’’

‘‘क्या हुआ निधि को?’’

‘‘कुछ नहीं हुआ उसे, पर आप ने क्या देखा नहीं कि निधि मेरे साथ बस से नहीं उतरी?’’

‘‘अरे, हां, कहां गई वह? घर क्यों नहीं आई?’’

‘‘यही तो मुश्किल है मां, वह अपने मित्र के साथ घूमने गई है. मुझ से कहा कि अगर उस की मम्मी पूछें तो कह दूं कि उस की आज ऐक्स्ट्रा क्लास है.’’

‘‘पर गई कहां है वह?’’

‘‘उस का एक मित्र है, आशीष, आजकल उसी के साथ घूमती रहती है. कई बार तो कक्षा छोड़ कर भी चली जाती है.’’

‘‘आशीष? यह तो लड़के का नाम है.’’

‘‘वह लड़का ही है मां, आप भी न बस…’’

‘‘पर तुम्हारा स्कूल तो केवल लड़कियों के लिए है. वहां यह आशीष कहां से आ गया?’’

‘‘स्कूल तो लड़कियों के लिए है पर स्कूल के बाहर तो लड़के भी होते हैं, मां. हमारे स्कूल के आसपास तो लड़के कुछ अधिक ही मंडराते रहते हैं.’’

‘‘हो क्या गया है निधि को. 9वीं कक्षा में पढ़ने वाली इतनी सी लड़की को डर नहीं लगता क्या? किसी के भी साथ चल पड़ती है.’’

‘‘निधि बहुत निडर और स्मार्ट है, मां. मेरी तरह डरपोक नहीं है.’’

‘‘क्या मतलब, तुम डरपोक नहीं होती तो किसी के साथ भी घूमने चल पड़ती,’’ मां तीखे स्वर में बोलीं.

‘‘मैं ने ऐसा कब कहा मां. आप हर बात का गलत अर्थ क्यों निकालती हो. कुछ खाने को दो न, बहुत भूख लगी है.’’

‘‘ड्रैस बदल कर और हाथमुंह धो कर आओ, तब तक खाना लगाती हूं,’’ मां रसोई में जातेजाते बोलीं.

‘‘पर मन में ममता की बातें गूंजती रहीं. किसी अनहोनी की आशंका से मन कांप उठा. खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है. कहीं निधि को देख कर ममता भी उसी राह पर चल पड़ी तो क्या करूंगी,’’ सोचतेसोचते निशा अपनी बेटी से बोली, ‘‘देख ममता, निधि तेरी मित्र है इसीलिए कह रही हूं, उस की मम्मी को सबकुछ सचसच बता दे नहीं तो बहुत बुरा मानेंगी वे.’’

‘‘और अगर सच बता दिया तो निधि मुझे कच्चा चबा जाएगी. वह मेरी सब से अच्छी मित्र है, मुझ पर विश्वास कर के ही वह अपने राज मुझे बताती है. 2 सहेलियों के बीच विश्वास ही नहीं रहा तो बचेगा क्या,’’ ममता कुछ ऐसे अंदाज में बोली कि मां अपनी हंसी नहीं रोक पाईं.

‘‘मांबेटी के बीच क्या गंभीर वार्त्तालाप चल रहा है हम भी तो सुनें,’’ तभी ममता की दादी ने कमरे में प्रवेश किया.

‘‘कुछ नहीं मांजी, यों ही स्कूल की बातें कर रही थी. कह रही थी कि दादी कहती हैं कि झूठ बोलने से बड़ा पाप और कोई नहीं है,’’ मां फिर हंस दीं.

‘‘अरे, वाह, मेरी गुडि़या तो बहुत सयानी हो गई है. जीवन में पढ़तेलिखते तो सब हैं पर गुनते बहुत कम लोग हैं और ममता गुनने वालों में से है. देख लेना यह एक दिन अवश्य तुम दोनों का नाम रोशन करेगी.’’

‘‘क्या नाम रोशन करेगी मांजी. आजकल नाम सच बोलने से नहीं पढ़नेलिखने से होता है. ममता को तो आप जानती ही हैं कि कभी 50% से अधिक अंक नहीं आए इस के.’’

‘‘अभी तो मुझे यह बताओ कि यह क्या बात थी जिस के लिए ममता झूठ बोलने से कतरा रही थी.’’

‘‘कुछ नहीं, पड़ोस में इस की सहेली निधि रहती है. एक लड़के से दोस्ती है उस की. स्कूल के बाद उस से मिलतीजुलती है, घूमने जाती है और ममता से कहती है कि उस की मम्मी पूछें तो कह देना कि स्कूल में ऐक्स्ट्रा क्लास है.’’

‘‘यह तो बहुत गलत बात है. सच बोलने के लिए बड़े साहस की आवश्यकता होती है. सत्य बोलना कायरों का काम नहीं है. तुम्हें अपनी सहेली के लिए झूठ बोलने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘वही तो रोना है मांजी, दोस्ती में न कुछ कहते बनता है न छिपाते. फिर ममता अपनी सहेली को खोना भी नहीं चाहती. पता नहीं किस ने उसे बता दिया है कि अपनी सहेली के राज को राज ही रखना चाहिए,’’ मां ने झिझकते हुए बताया.

‘‘अब जमाना बहुत बदल गया है. अब केवल सच बोलने से काम नहीं चलता. आज की दुनिया में बड़ा जोड़तोड़ करना पड़ता है.’’

‘‘कहना क्या चाहती हो तुम.’’

‘‘मेरा मतलब बस इतना है कि हमें दूसरों के झमेलों में पड़ने की क्या जरूरत है. मैं नहीं चाहती कि इन सब बातों का असर ममता की पढ़ाई पर पड़े.’’

‘‘सच नहीं बोलेगी तो उस पर असर पड़ेगा. हर बार अपनी सहेली के बारे में ही सोचती रहेगी ममता. तुम बच्चों के मनोविज्ञान को नहीं समझती हो,’’ दादीमां भी अपनी बात पर अड़ गईं.

‘‘आप दोनों शांत हो जाइए. मैं वादा करती हूं कि मैं किसी को भी शिकायत का अवसर नहीं दूंगी,’’ ममता नाराज हो कर अपने कमरे में चली गई.

थोड़ी ही देर में बात आईगई हो गई. ममता ही नहीं उस की मां और दादी भी सारे प्रकरण को भूल चुकी थीं, अचानक रात के 10 बजे घंटी बजी.

ममता की मां ने जैसे ही दरवाजा खोला तो सामने निधि की मां सत्या खड़ी थीं.

‘‘जी, कहिए,’’ न चाहते हुए भी वह अचकचा गईं.

‘‘ममता कहां है, कृपया उसे बुलाइए,’’ निधि की मम्मी बोलीं.

सत्या आंटी की आवाज सुन कर ममता स्वयं ही चली आई.

‘‘ममता, निधि कहां है अब तक घर नहीं आई.’’

‘‘क्या अब तक नहीं आई,’’ मां और ममता एकसाथ बोलीं.

‘‘कुछ कह कर गई थी क्या?’’

‘‘ऐक्स्ट्रा क्लास थी ऐसा कुछ कह कर तो गई थी पर अब तक उस का कोई अतापता नहीं है, इसी से चिंता हो रही है. तुम कितने बजे घर पहुंची,’’ उन्होंने ममता से पूछा.

‘‘मैं तो स्कूल बस से ही आ गई थी. आज कोई ऐक्स्ट्रा क्लास नहीं थी,’’ डरतेडरते बोली.

‘‘तुम्हारी नहीं रही होगी. निधि कह रही थी कि यह क्लास केवल 90त्न से अधिक वाली छात्राओं के लिए है जिन की 10वीं में मैरिट लिस्ट में आने की आशा है,’’ सत्या तनिक गर्व से बोलीं.

‘‘कोई फोन आदि,’’ ममता की मां ने दोबारा पूछा.

‘‘यही तो रोना है. स्कूल वाले फोन ले जाने की अनुमति कहां देते हैं. फिर भी निधि छिपा कर ले जाती थी, पर आज भूल गई, पता नहीं कहां होगी मेरी बच्ची?’’ सत्या रो पड़ी.

‘‘धीरज रखिए, मिल जाएगी,’’ ममता की मां ने उन्हें ढाढ़स बंधाना चाहा.

‘‘क्या धीरज रखूं? मैं ने सोचा था कि शायद ममता को कुछ पता हो पर यहां भी निराशा ही हाथ लगी.’’

‘‘आंटी, मुझे पता है. आज कोई ऐक्स्ट्रा क्लास नहीं थी. निधि तो आशीष के साथ डिस्को गई थी. वह नवीन जूनियर कालेज का विद्यार्थी है, निधि उस से अकसर मिलती है.’’

‘‘क्या, इतना घटिया आरोप मेरी बेटी पर? मैं ने तो सोचा था कि तुम निधि की मित्र हो. पर अब समझ में आया कि तुम मन ही मन उस से जलती हो.’’

‘‘नहीं यह सच नहीं है. मैं भला निधि से क्यों जलने लगी.’’

‘‘मां, जल्दी घर चलो. दीदी के स्कूल की प्राचार्या का फोन आया है. वह किसी के साथ मोटरसाइकिल पर जा रही थी कि दुर्घटनाग्रस्त हो गई. वह निर्मल अस्पताल में भरती है,’’ तभी निधि के भाई ने सारी बात बताई और सत्या के साथ ममता के मातापिता भी अस्पताल के लिए रवाना हो गए. रह गई थीं केवल ममता और उस की दादी दमयंती.

ममता फूटफूट कर रो रही थी और दादी उसे समझा रही थीं कि सच बोलने वालों को तो इस तरह की हर बात के लिए तैयार रहना चाहिए. पर ममता के पल्ले उन की बात पड़ी या नहीं.

वसंत लौट गया : क्या था किन्नी का फैसला

टेलीविजन पर मेरा इंटरव्यू दिखाया जा रहा है. मुझे साहित्य का इतना बड़ा सम्मान जो मिला है. बचपन से ही कागज काले करती आ रही हूं. छोटेबड़े और सम्मान भी मिलते रहे हैं लेकिन इतना बड़ा सम्मान पहली बार मिला है. इसलिए कई चैनल वाले मेरा इंटरव्यू लेने पहुंच गए थे.

मैं ने इस बारे में अपने घर में किसी को कुछ भी नहीं बताया. बताना भी किसे था? आज तक कभी किसी ने मेरी इस प्रतिभा को सराहा ही नहीं. घर की मुरगी दाल बराबर. न पति को, न बच्चों को, न मायके में और न ही ससुराल में किसी को भी आज तक मेरे लेखिका होने से कोई मतलब रहा है.

मैं एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नी, अच्छी मां बनूं यह आशा तो मुझ से सभी ने की, लेकिन मैं एक अच्छी लेखिका भी बनूं, मानसम्मान पाऊं, ऐसी कोई चाह किसी अपने को नहीं रही. मैं अपनों की उम्मीद पर पता नहीं खरी उतरी या नहीं लेकिन आलोचकों और पाठकों की उम्मीदों पर पूरी तरह खरी उतरी. तभी तो आज मैं साहित्य के इस शिखर पर पहुंची हूं.

इंटरव्यू लेने वाले भी कैसेकैसे प्रश्न पूछते हैं? शायद अनजाने में हम लेखक ही कुछ ऐसा लिख जाते हैं जो पाठकों को हमारे अंतर्मन का पता दे देता है जबकि लेखकों को लगता है कि वे मात्र दूसरों के जीवन को, उन की समस्याओं को, उन के परिवेश को ही कागज पर उतारते हैं.

इंटरव्यू लेने वाले ने बड़े ही सहज ढंग से एक सवाल मेरी तरफ उछाला था, ‘‘वैसे तो जीवन में कभी किसी को रीटेक का मौका नहीं मिलता फिर भी यदि कभी आप को जीवन की एक भूल सुधारने का अवसर दिया जाए तो आप क्या करेंगी? क्या आप अपनी कोई भूल सुधारना चाहेंगी?’’

मैं ने 2 बार इस सवाल को टालने की कोशिश की, लेकिन हर बार शब्दों का हेरफेर कर उस ने गेंद फिर मेरे ही पाले में डाल दी. मैं उत्तर देने से बच न सकी. झूठ मैं बोल नहीं पाती, इसीलिए झूठ मैं लिख भी नहीं पाती. मैं ने जीवन की अपनी एक भूल स्वीकार कर ली और कहा कि अगर मुझे अवसर मिले तो मैं अपनी वह एक भूल सुधारना चाहूंगी जिस ने मुझ से मेरे जीवन के वे कीमती 25 साल छीन लिए हैं, जिन्हें मैं आज भी जीने की तमन्ना रखती हूं, हालांकि यह सब अब बहुत पीछे छूट गया है.

प्रोग्राम कब का खत्म हो चुका था लेकिन मैं वर्तमान में तब लौटी जब फोन की घंटी बजी.

बेटी किन्नी का फोन था. मेरे हैलो कहते ही वह चहक कर बोली, ‘‘क्या मम्मा, आप को इतना बड़ा सम्मान मिला, इतना अच्छा इंटरव्यू टैलीकास्ट हुआ और आप ने हमें बताया तक नहीं? वह तो चैनल बदलते हुए एकाएक आप को टैलीविजन स्क्रीन पर देख कर मैं चौंक गई.’’

‘‘इस में क्या बताना था? यह सब तो…’’

‘‘फिर भी मम्मा, बताना तो चाहिए था. मुझे मालूम है आप को एक ही शिकायत है कि हम कभी आप का लिखा कुछ पढ़ते ही नहीं. खैर, छोड़ो यह शिकायत बहुत पुरानी हो गई है. मम्मा, बधाई हो. आई एम प्राउड औफ यू.’’

‘‘थैंक्स, किन्नी.’’

‘‘सिर्फ इसलिए नहीं कि आप मेरी मम्मा हैं बल्कि आप में सच बोलने की हिम्मत है. पर यह सच मेरी समझ से परे है कि आप ने इस को स्वीकारने में इतने साल क्यों लगा दिए? मैं ने तो जब से होश संभाला है मुझे हमेशा लगा कि पता नहीं आप इस रिश्ते को कैसे ढो रही हैं? मैं तो यह सोच कर हैरान हूं कि जब आप इसे अपनी भूल मान रही थीं तो ढो क्यों रही थीं?’’

‘‘तुम दोनों के लिए बेटा, तब इस भूल को सुधार कर मैं तुम दोनों का जीवन और भविष्य बरबाद कर कोई और भूल नहीं करना चाहती थी. भूल का प्रायश्चित्त भूल नहीं होता, किन्नी.’’

‘‘ओह, मम्मा, हमारे लिए आप ने अपना पूरा जीवन…इस के लिए थैंक्स. आई एम रियली प्राउड आफ यू. अच्छा मम्मा, जल्दी ही आऊंगी. अभी फोन रखती हूं. मिलने पर ढेर सारी बातें करेंगे,’’ कहते हुए किन्नी ने फोन रख दिया.

किन्नी हमेशा ऐसे ही जल्दी मेें होती है. बस, अपनी ही कहती है. मुझे तो कभी कुछ कहने या पूछने का अवसर ही नहीं देती. इस से पहले कि मैं कुछ और सोचती फोन फिर बज उठा. दीपक का फोन था.

‘‘हैलो दीपू, क्या तुम ने भी प्रोग्राम देखा है?’’

‘‘हां, देख लिया है. वह तो मेरे एक दोस्त, रवि का फोन आया कि आंटी का टैलीविजन पर इंटरव्यू आ रहा है, बताया नहीं? मैं उसे क्या बताता? पहले मुझे तो कोई कुछ बताए,’’ दीपक नाराज हो रहा था.

‘‘वह तो बेटा, तुम लोग इस सब में कभी रुचि नहीं लेते तो सोचा क्या बताना है,’’ मैं ने सफाई देते हुए कहा.

‘‘मम्मा, यह तो आप को पता है कि हम रुचि नहीं लेते, लेकिन आप ने कभी यह सोचा है कि हम रुचि क्यों नहीं लेते? क्या यही सब सुनने और बेइज्जत होने के लिए हम रुचि लें इस सब में?’’

‘‘क्या हुआ, बेटा?’’

‘‘इस इंटरव्यू का आखिर मतलब क्या है? क्या हम सब की सोसाइटी में नाक कटवाने के लिए आप यह सब…आज तो इंटरव्यू देखा है, किताबों में पता नहीं क्याक्या लिखती रहती हैं. पता तो है न कि हम आप का लिखा कुछ पढ़ते नहीं.’’

‘‘बेटा, तुम ही नहीं पढ़ते, मैं ने तो कभी किसी को पढ़ने से नहीं रोका. बल्कि मुझे तो खुशी ही होगी अगर कोई मेरी…’’

‘‘वैसे पढ़ कर करना भी क्या है? कभी सोचा ही नहीं था कि पापा से अपनी शादी को आप भूल मानती आ रही हैं, तो क्या मैं और किन्नी आप की भूल की निशानियां हैं?’’ बेटे का स्वर तीखा होता जा रहा था.

‘‘यह तू क्या कह रहा है दीपू. मेरे कहने का मतलब यह नहीं था.’’

‘‘वैसे जब 25 साल तक चुप रहीं तो अब मुंह खोलने की क्या जरूरत थी? चुप भी तो रह सकती थीं आप?’’

‘‘बेटा, इंटरव्यू में कहे मेरे शब्दों का यह मतलब नहीं था. तू समझ नहीं रहा है मैं…’’

‘‘मैं क्या समझूंगा, पापा भी कहां समझ पाए आप को? दरअसल, औरतों को तो बड़ेबड़े ज्ञानीध्यानी भी नहीं समझ पाए. पता नहीं आप किस मिट्टी से बनी हैं, कभी खुश रह ही नहीं सकतीं,’’ कहते हुए उस ने फोन पटक दिया था.

मैं तो ठीक से समझ भी नहीं पाई कि उसे शिकायत मेरे इंटरव्यू के उत्तर से थी या अपनी पत्नी से लड़ कर बैठा था, जो इतना भड़का हुआ था. यह इतनी जलीकटी सुना कर भड़क रहा है, दूसरी तरफ बेटी है जो गर्व अनुभव कर रही है.

औरत को खानेकपड़े के अलावा भी जीवन में बहुत कुछ चाहिए होता है. यह बात जब पिछले 25 वर्षों में मैं इस के पापा को नहीं समझा पाई तो भला इसे क्या समझा पाऊंगी? बहुत सहा है इन 25 वर्षों में, आज पहली बार मुंह खोला तो परिवार में तूफान के आसार बन गए. कैसे समझाऊं अपने बेटे को कि मेरे कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि यदि कभी पता होता कि शादीशुदा जीवन में इतनी घुटन, इतनी सीलन, इतना अकेलापन, इतने समझौते हैं तो मैं शादी ही नहीं करती.

मैं तो उस पल में वापस जाना चाहती हूं जब इंद्रजीत को दिखा कर मेरे मम्मीपापा ने शादी के लिए मेरी राय पूछी थी और मैं ने इन की शिक्षा, इन का रूप देख कर शादी के लिए हां कर दी थी. तब मुझे क्या पता था कि साल में 8 महीने घर से दूर रहने वाला यह व्यक्ति अपने परिवार के लिए मेहमान बन कर रह जाएगा. इस का सूटकेस हमेशा पैक ही रहेगा. न जाने कब एक फोन आएगा और यह फिर काम पर निकल जाएगा.

बच्चों का क्या है…बचपन में कीमती तोहफों से बहलते रहे, बड़े हुए तो पढ़ाई और कैरियर की दौड़ में दौड़ते हुए मित्रों के साथ मस्त हो गए और शादी के बाद अपने घरपरिवार में रम गए. मां और बाप दोनों की जिम्मेदारियां उठाती हुई घर की चारदीवारी में मैं कितनी अकेली हो गई हूं, इस ओर किसी का कभी ध्यान ही नहीं गया. जब मुझे जीवन अकेले अपने दम पर ही जीना था और कलम को ही अपने अकेलेपन का साथी बनाना था तो इस शादी का मतलब ही क्या रह जाता है?

बेटे के गुस्से को देख कर तो मुझे इंद्रजीत की तरफ से और भी डर लगने लगा है. अगर उन्होंने भी यह इंटरव्यू देखा होगा तो क्या होगा? पता नहीं क्या कहेंगे? मैं जब इतने वर्षों में अपनी परेशानी कभी उन्हें नहीं कह पाई तो अब अपनी सफाई में क्या कह पाऊंगी? वे कहीं मुझे तलाक ही न दे दें और कहें कि लो, मैं ने तुम्हारी भूल सुधार दी है.

मैं परेशान हो उठी. वर्षों से सच उजागर करने वाली मैं अपने जीवन के एक सच का सामना नहीं कर पा रही थी. आंसुओं से मेरा चेहरा भीग गया. पहली बार मुझे सच बोलने पर खेद हो रहा था. मेरा मन मुझे धिक्कार रहा था. बेटा ठीक ही तो कह रहा था कि अब इस उम्र में मुझे मुंह खोलने की क्या जरूरत थी. काश, इंटरव्यू देते समय मैं ने यह सब सोच लिया होता.

ये मीडिया वाले भी कैसे हैं… ‘मौका पाते ही सामने वाले को नंगा कर के रख देते हैं.’

अचानक फोन की घंटी बज उठी. इंद्रजीत का फोन था. मैं ने कांपते हाथों से फोन उठाया. मेरे रुंधे गले से आवाज ही नहीं निकल रही थी. मुझे लगा अभी उधर से आवाज आएगी, ‘तलाक… तलाक…’

‘‘सुभी…हैलो सुभी…’’ वह मुझे पुकार रहे थे.

‘‘हैलो…’’ मैं चाह कर भी इस के आगे कुछ नहीं बोल पाई.

‘‘अरे, सुभी, मैं ने तो सोचा था खुशी से चहकती हुई फोन उठाओगी. तुम तो शायद रो रही हो? क्या हुआ, सब ठीक तो है न?’’ उन के स्वर में घबराहट थी. मैं ने पहली बार उन्हें अपने लिए परेशान पाया था.

‘‘अरे, भई, इतना बड़ा सम्मान मिला है. तुम्हें बताना तो चाहिए था? खैर, मैं परसों दोपहर पहुंच रहा हूं फिर सैलीब्रेट करेंगे तुम्हारे इस सम्मान को.’’

पति का यह रूप मैं ने 25 साल में पहली बार देखा था. आज अचानक यह परिवर्तन कैसा? मैं भय से कांप उठी. कहीं यह किसी तूफान की सूचना तो नहीं?

‘‘क्या आप ने टैलीविजन पर मेरा इंटरव्यू देखा है?’’ मैं ने घबराते हुए पूछा. मुझे लगा शायद उन्हें किसी से मुझे मिले सम्मान की बात पता लगी है.

‘‘देखा है सुभी, उसे देख कर ही तो सब पता लगा है, वरना तुम कब कुछ बताती हो?’’

‘‘क्या आप ने इंटरव्यू पूरा देखा था?’’ मेरी शंका अभी भी अपनी जगह खड़ी थी. पति में आए इस परिवर्तन को मैं पचा नहीं पा रही थी.

‘‘पूरा देखा ही नहीं रिकार्ड भी कर लिया है. रिकार्डिंग भी साथ ले आ रहा हूं.’’

‘‘फिर भी आप नाराज नहीं हैं?’’

‘‘नाराज तो मैं अपनेआप से हो रहा हूं. मैं ने अनजाने में तुम्हें कितनी तकलीफ पहुंचाई है. तुम इतनी बड़ी लेखिका हो, जिस का सम्मान पूरा देश कर रहा है उसे मेरे कारण अपनी शादी एक भूल लग रही है. काश, मैं तुम्हारी लिखी किताबें पढ़ता होता तो यह सब मुझे बहुत पहले पता लग जाता. खैर, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है, शेष जीवन प्रायश्चित्त के लिए बहुत है,’’ इंद्रजीत हंसने लगे.

‘‘मैं क्षमा चाहती हूं, क्या आप मुझे माफ कर पाएंगे?’’ मैं रोंआसी हो गई.

‘‘क्षमा तो मुझे मांगनी चाहिए पगली, लेकिन मैं मात्र क्षमा मांग कर इस भूल का प्रायश्चित्त नहीं करना चाहता, बल्कि तुम्हारे पास आ रहा हूं, तुम्हारे हिस्से की खुशियां लौटाने. वास्तव में यह तुम्हारी भूल नहीं मेरे जीवन की भूल थी जो मैं ने अपनी गुदड़ी में पड़े हीरे को नहीं पहचाना.’’

मेरे आंसू खुशी के आंसुओं में बदल चुके थे. मुझे इंद्रजीत का बेसब्री से इंतजार था. उन के कहे शब्द मेरे लिए किसी भी सम्मान से बड़े थे. मैं वर्षों से इसी प्यार के लिए तो तरस रही थी.

जैसे तेज बारिश और तूफान अपने साथ सब गंदगी बहा ले जाए और निखरानिखरा सा, खिलाखिला सा प्रकृति का कणकण दिलोदिमाग को अजीब सी ताजगी से भर दे कुछ ऐसा ही मैं महसूस कर रही थी. खुशियों के झूले में झूलते हुए न मालूम कब आंख लग गई. सपने भी बड़े ही मोहक आए. अपने पति की बांहों में बांहें डाल मैं फूलों की वादियों में, झरनों, पहाड़ों में घूमती रही.

सुबह दरवाजे की घंटी से नींद खुली. सूरज सिर पर चढ़ आया था. संगीता काम करने आई होगी यह सोच कर मैं ने जल्दी से जा कर दरवाजा खोला तो सामने किन्नी खड़ी थी. मुझे देखते ही मुझ से लिपट गई. मैं वर्षों से अपनी सफलताओं पर किसी अपने की ऐसी ही प्रतिक्रिया, ऐसे ही स्वागत की इच्छुक थी. मैं भी उसे कस कर बांहों में समेटे हुए ड्राइंगरूम तक ले आई. मन अंदर तक भीग गया.

‘‘मम्मा, मुझे हमेशा लगता था कि आप नहीं समझेंगी, लेकिन कल टैलीविजन पर आप का इंटरव्यू देख कर लगा, मैं गलत थी,’’ किन्नी मेरी बांहों से अपने को अलग करती हुई बोली.

‘‘क्या नहीं समझूंगी? क्या कह रही है?’’ मैं वास्तव में कुछ नहीं समझी थी.

‘‘मम्मा, मैं ने तय कर लिया है कि मैं कार्तिक के साथ अब और नहीं रह सकती,’’ किन्नी एक ही सांस में बोल गई.

‘‘क्या…क्या कह रही है तू? किन्नी, यह कैसा मजाक है?’’ मैं ने उसे डांटते हुए कहा.

‘‘मैं मजाक नहीं कर रही. यह सच है. यह कोई जरूरी तो नहीं कि मैं भी अपनी भूल स्वीकार करने में 25 वर्ष लगा दूं?’’

‘‘लेकिन कार्तिक के साथ शादी करने का फैसला तो तुम्हारा ही था?’’

‘‘तभी तो इसे मैं अपनी भूल कह रही हूं. फैसले गलत भी तो हो जाते हैं. यह बात आप से ज्यादा कौन समझ सकेगा?’’

‘‘बेटा, मैं ने कहा था कि मैं शादी ही करने की भूल नहीं करती, न कि तुम्हारे पिता से शादी करने की भूल नहीं करती. तुम गलत समझ रही हो. दोनों में बहुत फर्क है.’’

‘‘आप अपनी बात को शब्दों में कैसे भी घुमा लो, मतलब वही है. मैं कार्तिक के साथ और नहीं रह सकती. बस, मैं ने फैसला कर लिया है,’’ कहते हुए उस ने अपने दोनों हाथ कुछ इस तरह से सोफे की सीट पर फेरे मानो अपनी शादी की लिखी इबारत को मिटा रही हो.

मैं हैरान सी उस का चेहरा देख रही थी. ठीक इसी तरह 2 वर्ष पहले उस ने कार्तिक के साथ शादी करने का अपना फैसला हमें सुनाया था. कार्तिक पढ़ालिखा, अच्छे संस्कारों वाला, कामयाब लड़का है इसलिए हमें भी हां करने में कोई ज्यादा सोचना नहीं पड़ा. वैसे भी आज के दौर में मातापिता को अपने बच्चों की शादी में अपनी राय देने का अधिकार ही कहां है? हमारी पीढ़ी से चला वक्त बच्चों की पीढ़ी तक पहुंचतेपहुंचते कुछ ऐसी ही करवट ले चुका है.

लेकिन अब क्या करूं? क्या आज भी किन्नी की हां में हां मिलाने के अलावा मेरे पास कोई रास्ता नहीं है? एकदूसरे को समझने के लिए तो पूरा जीवन भी कम पड़ जाता है, 2 वर्षों की शादीशुदा जिंदगी होती ही कितनी है?

बहुत पूछने पर भी किन्नी ने अपने इस फैसले का कोई ठोस कारण नहीं बताया. उस का कहना था, मैं नहीं समझ पाऊंगी. मैं जो लोगों के भीतर छिपे दर्द को महसूस कर लेती हूं, उस के बताने पर भी कुछ नहीं समझ पाऊंगी, ऐसा उस का मानना है.

मैं जानती हूं आज की पीढ़ी के पास रिश्तों को जोड़ने, निभाने और तोड़ने की कोई ठोस वजह होती ही नहीं फिर भी इतने बड़े फैसले के पीछे कोई बड़ा कारण तो होना ही चाहिए.

एक दिन वह उस के बिना नहीं रह सकती थी तो शादी का फैसला कर लिया. अब उस के साथ नहीं रह सकती तो तलाक का फैसला ले लिया. जीवन कोई गुड्डेगुडि़यों का खेल है क्या? लेकिन मैं उसे कुछ भी न समझा पाई क्योंकि वह कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थी. अपनी तथा परिवार की नजरों में भी मैं इस के लिए कुसूरवार थी. इंद्रजीत को भी किन्नी के फैसले का पता लग गया था. अगले दिन लौटने वाले वे अगले महीने भी नहीं लौटे थे. कोई नया प्रोजैक्ट शुरू कर दिया था. दीपक उस दिन से ही नाराज है. अब उसे कौन समझाता. किन्नी का यह फैसला मेरी खुशियों पर तुषारापात कर गया.

यह नया दर्द, यह उपेक्षा, यह साहिल पर उठा भंवर फिर किसी कालजयी रचना का माहौल बना रहा है. सभी खिड़कीदरवाजे बंद कर मैं ने कलम उठा ली है.

बहू हो या बेटी

रूबी ताई ने जैसे ही बताया कि हिना छत पर रेलिंग पकड़े खड़ी है तो घर में हलचल सी मच गई.

‘‘अरे, वह छत पर कैसे चली गई, उसे तीसरे माले पर किस ने जाने दिया,’’ शारदा घबरा उठी थीं, ‘‘उसे बच्चा होने वाला है, ऐसी हालत में उसे छत पर नहीं जाना चाहिए.’’

आदित्य चाय का कप छोड़ कर तुरंत सीढि़यों की तरफ दौड़ा और हिना को सहारा दे कर नीचे ले आया. फिर कमरे में ले जा कर उसे बिस्तर पर लिटा दिया.

हिना अब भी न जाने कहां खोई थी, न जाने किस सोच में डूबी हुई थी.

हिना का जीवन एक सपना जैसा ही बना हुआ था. खाना बनाती तो परांठा तवे पर जलता रहता, सब्जी छौंकती तो उसे ढकना भूल जाती, कपड़े प्रेस करती तो उन्हें जला देती.

हिना जब बहू के रूप में घर में आई थी तो परिवार व बाहर के लोग उस की खूबसूरती देख कर मुग्ध हो उठे थे. उस के गोरे चेहरे पर जो लावण्य था, किसी की नजरों को हटने ही नहीं देता था. कोई उस की नासिका को देखता तो कोई उस की बड़ीबड़ी आंखों को, किसी को उस की दांतों की पंक्ति आकर्षित करती तो किसी को उस का लंबा कद और सुडौल काया.

सांवला, साधारण शक्लसूरत का आदित्य हिना के सामने बौना नजर आता.

शारदा गर्व से कहतीं, ‘‘वर्षों खोजने पर यह हूर की परी मिल पाई है. दहेज न मिला तो न सही पर बहू तो ऐसी मिली, जिस के आगे इंद्र की अप्सरा भी पानी भरने लगे.’’

धीरेधीरे घर के लोगों के सामने हिना के जीवन का दूसरा पहलू भी उजागर होने लगा था. उस का न किसी से बोलना न हंसना, न कहीं जाने का उत्साह दिखाना और न ही किसी प्रकार की कोई इच्छा या अनिच्छा.

‘‘बहू, तुम ने आज स्नान क्यों नहीं किया, उलटे कपडे़ पहन लिए, बिस्तर की चादर की सलवटें भी ठीक नहीं कीं, जूठे गिलास मेज पर पडे़ हैं,’’ शारदा को टोकना पड़ता.

फिर हिना की उलटीसीधी विचित्र हरकतें देख कर घर के सभी लोग टोकने लगे, पर हिना न जाने कहां खोई रहती, न सुनती न समझती, न किसी के टोकने का बुरा मानती.

एक दिन हिना ने प्रेस करते समय आदित्य की नई शर्ट जला डाली तो वह क्रोध से भड़क उठा, ‘‘मां, यह पगली तुम ने मेरे गले से बांध दी है. इसे न कुछ समझ है न कुछ करना आता है.’’

उस दिन सभी ने हिना को खूब डांटा पर वह पत्थर बनी रही.

शारदा दुखी हो कर बोलीं, ‘‘हिना, तुम कुछ बोलती क्यों नहीं, घर का काम करना नहीं आता तो सीखने का प्रयास करो, रूबी से पूछो, मुझ से पूछो, पर जब तुम बोलोगी नहीं तो हम तुम्हें कैसे समझा पाएंगे.’’

एक दिन हिना ने अपनी साड़ी के आंचल में आग लगा ली तो घर के लोग उस के रसोई में जाने से भी डरने लगे.

‘‘हिना, आग कैसे लगी थी?’’

‘‘मांजी, मैं आंचल से पकड़ कर कड़ाही उतार रही थी.’’

‘‘कड़ाही उतारने के लिए संडासी थी, तौलिया था, उन का इस्तेमाल क्यों नहीं किया था?’’ शारदा क्रोध से भर उठी थीं, ‘‘जानती हो, तुम कितनी बड़ी गलती कर रही थीं…इस का दुष्परिणाम सोचा है क्या? तुम्हारी साड़ी आग पकड़ लेती तब तुम जल जातीं और तुम्हारी इस गलती की सजा हम सब को भोगनी पड़ती.’’

आदित्य हिना को मनोचिकित्सक को दिखाने ले गया तो पता लगा कि हिना डिप्रेशन की शिकार थी. उसे यह बीमारी कई साल पुरानी थी.

‘‘डिपे्रशन, यह क्या बला है,’’ शारदा के गले से यह बात नहीं उतर पा रही थी कि अगर हिना मानसिक रोगी है तो उस ने एम.ए. तक की पढ़ाई कैसे कर ली, ब्यूटीशियन का कोर्स कैसे कर लिया.

‘‘हो सकता है हिना पढ़ाई पूरी करने के बाद डिप्रेशन की शिकार बनी हो.’’

आदित्य ने फोन कर के अपने सासससुर से जानकारी हासिल करनी चाही तो उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर कर दी.

शारदा परेशान हो उठीं. लड़की वाले साफसाफ तो कुछ बताते नहीं कि उन की बेटी को कौन सी बीमारी है, और कुछ हो जाए तो सारा दोष लड़के वालों के सिर मढ़ कर अपनेआप को साफ बचा लेते हैं.

‘‘मां, इस पागल के साथ जीवन गुजारने से तो अच्छा है कि मैं इसे तलाक दे दूं,’’ आदित्य ने अपने मन की बात जाहिर कर दी.

घर के दूसरे लोगोें ने आदित्य का समर्थन किया.

घर में हिना को हमेशा के लिए मायके भेजने की बातें अभी चल ही रही थीं कि एक दिन उसे जोरों से उलटियां शुरू हो गईं.

डाक्टर के यहां ले जाने पर पता चला कि वह मां बनने वाली है.

‘‘यह पागल हमेशा को गले से बंध जाए इस से तो अच्छा है कि इस का एबौर्शन करा दिया जाए,’’ आदित्य आक्रोश से उबल रहा था.

शारदा का विरोध घर के लोगों की तेज आवाज में दब कर रह गया.

आदित्य, हिना को डाक्टर के यहां ले गया,  पर एबौर्शन नहीं हो पाया क्योंकि समय अधिक गुजर चुका था.

घर में सिर्फ शारदा ही खुश थीं, सब से कह रही थीं, ‘‘बच्चा हो जाने के बाद हिना का डिप्रेशन अपनेआप दूर हो जाएगा. मैं अपनी बहू को बेटी के समान प्यार दूंगी. हिना ने मेरी बेटी की कमी दूर कर दी, बहू के रूप में मुझे बेटी मिली है.’’

अब शारदा सभी प्रकार से हिना का ध्यान रख रही थीं, हिना की सभी प्रकार की चिकित्सा भी चल रही थी.

लेकिन हिना वैसी की वैसी ही थी. नींद की गोलियों के प्रभाव से वह घंटों तक सोई रहती, परंतु उस के क्रियाकलाप पहले जैसे ही थे.

‘‘अगर बच्चे पर भी मां का असर पड़ गया तो क्या होगा,’’ आदित्य का मन संशय से भर उठता.

‘‘तू क्यों उलटीसीधी बातें बोलता रहता है,’’ शारदा बेटे को समझातीं, ‘‘क्या तुझे अपने खून पर विश्वास नहीं है? क्या तेरा बेटा पागल हो सकता है?’’

‘‘मां, मैं कैसे भूल जाऊं कि हिना मानसिक रोगी है.’’

‘‘बेटा, जरूर इस के दिल को कोई सदमा लगा होगा, वक्त का मरहम इस के जख्म भर देगा. देख लेना, यह बिलकुल ठीक हो जाएगी.’’

‘‘तो करो न ठीक,’’ आदित्य व्यंग्य कसता, ‘‘आखिर कब तक ठीक होगी यह, कुछ मियाद भी तो होगी.’’

‘‘तू देखता रह, एक दिन सबकुछ ठीक हो जाएगा…पहले घर में बच्चे के रूप में खुशियां तो आने दे,’’ शारदा का विश्वास कम नहीं होता था.

पूरे घर में एक शारदा ही ऐसी थीं जो हिना के पक्ष में थीं, बाकी लोग तो हिना के नाम से ही बिदकने लगे थे.

शारदा अपने हाथों से फल काट कर हिना को खिलातीं, जूस पिलातीं, दवाएं पिलातीं, उस के पास बैठ कर स्नेह दिखातीं.

प्यार से तो पत्थर भी पिघल जाता है, फिर हिना ठहरी छुईमुई सी लड़की.

‘‘मांजी, आप मेरे लिए इतना सब क्यों कर रही हैं,’’ एक दिन पत्थर के ढेर से पानी का स्रोत फूट पड़ा.

हिना को सामान्य ढंग से बातें करते देख शारदा खुश हो उठीं, ‘‘बहू, तुम मुझ से खुल कर बातें करो, मैं यही तो चाहती हूं.’’

हिना उठ कर बैठ गई, ‘‘मैं अपनी जिम्मेदारियां ठीक से नहीं निभा पा रही हूं.’’

‘‘तुम मां बनने वाली हो, ऐसी हालत में कोई भी औरत काम नहीं कर सकती. सभी को आराम चाहिए, फिर मैं हूं न. मैं तुम्हारे बच्चे को नहलाऊंगी, मालिश करूंगी, उस के लिए छोटेछोटे कपडे़ सिलूंगी.’’

हिना अपने पेट में पलते नवजात शिशु की हलचल को महसूस कर के सपनों में खो जाती, और कभी शारदा से बच्चे के बारे में तरहतरह के प्रश्न पूछती रहती.

‘‘हिना ठीक हो रही है. देखो, मैं कहती थी न…’’ शारदा उत्साह से भरी हुई सब से कहती रहतीं.

आदित्य भी अब कुछ राहत महसूस कर रहा था और हिना के पास बैठ कर प्यार जताता रहता.

एक शाम आदित्य हिना के लिए जामुन खरीद कर लाया तो शारदा का ध्यान जामुन वाले कागज के लिफाफे की तरफ आकर्षित हुआ.

‘‘देखो, इस कागज पर बनी तसवीर हिना से कितनी मिलतीजुलती है.’’

आदित्य के अलावा घर के अन्य लोग भी उस तसवीर की तरफ आकर्षित हुए.

‘‘हां, सचमुच, यह तो दूसरी हिना लग रही है, जैसे हिना की ही जुड़वां बहन हो, क्यों हिना, तुम भी तो कुछ बोलो.’’

हिना का चेहरा उदास हो उठा, उस की आंखें डबडबा आईं, ‘‘हां, यह मेरी ही तसवीर है.’’

‘‘तुम्हारी?’’ घर के लोग आश्चर्य से भर उठे.

‘‘मैं ने कुछ समय मौडलिंग की थी. पैसा और शौक पूरा करने के लिए यह काम मुझे बुरा नहीं लगा था, पर आप लोग मेरी इस गलती को माफ कर देना.’’

‘‘तुम ने मौडलिंग की, पर मौडल बनना आसान तो नहीं है?’’

‘‘मैं अपने कालिज के ब्यूटी कांटेस्ट में प्रथम चुनी गई थी. फिर…’’

‘‘फिर क्या?’’ शारदा ने उस का उत्साह बढ़ाया, ‘‘बहू, तुम ब्यूटी क्वीन चुनी गईं, यह बात तो हम सब के लिए गर्व की है, न कि छिपाने की.’’

‘‘फिर इस कंपनी वालों ने खुद ही मुझ से कांटेक्ट कर के मुझे अपनी वस्तुओं के विज्ञापनों में लिया था,’’ इतना बताने के बाद हिना हिचकियां भर कर रोने लगी.

काफी देर बाद वह शांत हुई तो बोली, ‘‘मुझे एक फिल्म में सह अभिनेत्री की भूमिका भी मिली थी, पर मेरे पिताजी व ताऊजी को यह सब पसंद नहीं आया.’’

अब हिना की बिगड़ी मानसिकता का रहस्य शारदा के सामने आने लगा था.

हिना ने बताया कि उस के रूढि़वादी घर वालों ने न सिर्फ उसे घर में बंद रखा बल्कि कई बार उसे मारापीटा भी गया और उस के फोन सुनने पर भी पाबंदी लगा दी गई थी.

शारदा के मन में हिना के प्रति वात्सल्य उमड़ पड़ा था.

हिना के मौडलिंग की बात खुल जाने से उस के मन का बोझ हलका हो गया था. वह बोली, ‘‘मांजी, मुझे डर था कि आप लोग यह सबकुछ जान कर मुझे गलत समझने लगेंगे.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचा तुम ने?’’

‘‘लोग मौडलिंग के पेशे को अच्छी नजर से नहीं देखते और ऐसी लड़की को चरित्रहीन समझने लगते हैं. फिर उस लड़की का नाम कई पुरुषों के साथ जोड़ दिया जाता है, मेरे साथ भी यही हुआ था.’’

‘‘बेटी, सभी लोग एक जैसे नहीं हुआ करते. आजकल तुम खुश रहा करो. खुश रहोगी तो तुम्हारा बच्चा भी खूबसूरत व निरोग पैदा होगा.’’

शारदा का स्नेह पा कर हिना अपने को धन्य समझ रही थी कि आज के समय में मां की तरह ध्यान रखने वाली सास भी है, वरना उस ने तो सास के बारे में कुछ और ही सुन रखा था.

नियत समय पर हिना ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया तो घर में खुशियों की शहनाई गूंज उठी.

हिना बेटे की किलकारियों में खो गई. पूरे दिन बच्चे के इतने काम थे कि उस के अलावा और कुछ सोचने की उसे फुरसत ही नहीं थी.

एक दिन शारदा की इस बात ने घर में विस्फोट जैसा वातावरण बना दिया कि हिना धारावाहिक में काम करेगी. पारस, मेरी सहेली के पति हैं और वह एक पारिवारिक धारावाहिक बना रहे हैं. उन्होंने हिना को कई बार देखा है और मेरे सामने प्रस्ताव रखा है कि आदर्श बहू की भूमिका वह हिना को देना चाहते हैं.

‘‘मां, तुम यह क्या कह रही हो. हिना को धारावाहिक में काम दिलवाओगी, वह कहावत भूल गईं कि औरत को खूंटे से बांध कर रखना चाहिए. एक बार औरत के कदम घर से बाहर निकल जाएं तो घर में लौटना कठिन रहता है,’’ आदित्य आक्रोश से उबल रहा था.

शारदा भी क्रोध से भर उठीं, ‘‘क्या मैं औरत नहीं हूं? पति के मरने के बाद मैं ने घर से बाहर जा कर सैकड़ों जिम्मेदारियां पूरी की हैं. मां बन कर तुम्हें जन्म दिया और बाप बन कर पाला है. सैकड़ों कष्ट झेले, पैसा कमाने को छोटीछोटी नौकरियां कीं, कठिन परिश्रम किया, तो क्या मैं ने अपना घर उजाड़ लिया? पुरुष तो सभी जगहों पर होते हैं, रूबी ताई भी तो दफ्तर में नौकरी कर रही है, क्या उस ने अपना घर उजाड़ लिया है. फिर हिना के बारे में ही ऐसा क्यों सोचा जा रहा है?

‘‘अगर तुम हिना को खूंटे से ही बांधना चाहते हो तो पहले मुझे बांधो, रूबी को बांधो. हिना का यही दोष है न कि वह सामान्य से कुछ अधिक ही खूबसूरत है, पर यह उस का दोष नहीं है. अरे, कोई खूबसूरत चीज है तो लोगों की नजरें उस तरफ उठेंगी ही.’’

शारदा के तर्कों के आगे सभी की जुबान पर ताले लग गए थे.

हिना शारदा की गोद में मुंह छिपा कर रो रही थी. फिर अपने आंसुओं को पोंछ कर बोली, ‘‘मां, तुम सचमुच मेरे लिए मेरा आदर्श ही नहीं बल्कि मां भी हो.’’

एक दिन जब हिना का धारावाहिक टेलीविजन पर प्रसारित हुआ तो उस के अभिनय की सभी ने तारीफ की और बधाइयां मिलने लगीं.

हिना उत्तर देती, ‘‘बधाई की पात्र तो मेरी सास हैं, उन्हीं ने मुझे डिप्रेशन से मुक्ति दिलाई और एक नया सम्मान से भरा जीवन दिया.’’

शारदा सिर्फ मुसकरा कर रह जातीं, ‘‘बहू हो या बेटी, दोनों ही एक हैं. दोनों के प्रति एक ही प्रकार से फर्ज निभाना चाहिए.’’

चिड़िया का बच्चा

लेखिका- कोमल तुलसानी

‘टिंग टांग…टिंग टांग’…घंटी बजते ही मैं बोली, ‘‘आई दीपू.’’

मगर जब तक दरवाजा न खुल जाए, दीपू की आदत है कि घंटी बजाता ही रहता है. बड़ा ही शैतान है. दरवाजा खुलते ही वह चहकने लगा, ‘‘मौसी, आप को कैसे पता चलता है कि बाहर कौन है?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘पता कैसे नहीं चलेगा.’’

तभी अचानक मेरे मुंह से चीख निकल गई, मैं ने फौरन दीपू को उस जगह से सावधानी से परे कर दिया. वह हैरान हो कर बोला, ‘‘क्या हुआ, मौसी?’’

मैं आंगन में वहीं बैठ गई जहां अभीअभी एक चिडि़या का बच्चा गिरा था. मैं ने ध्यान से उसे देखा. वह जिंदा था. मैं फौरन ठंडा पानी ले आई और उसे चिडि़या के बच्चे की चोंच में डाला. पानी मिलते ही उसे कुछ आराम मिला. मैं ने फर्श से उठा कर उसे एक डब्बे पर रख दिया. फिर सोच में पड़ गई कि अगर दीपू का पांव इस के ऊपर पड़ गया होता तो? कल्पना मात्र से ही मैं सिहर उठी.

मैं ने ऊपर देखा. पड़ोसियों का वृक्ष हमारे आंगन की ओर झुका हुआ था. शायद उस में कोई घोंसला होगा. बहुत सारी चिडि़यां चूंचूं कर रही थीं. मुझे लगा, जैसे वे अपनी भाषा में रो रही हैं. पशुपक्षी बेचारे कितने मजबूर होते हैं. उन का बच्चा उन से जुदा हो गया पर वह कुछ नहीं कर पा रहे थे.

‘‘करुणा…’’ कमला दीदी की आवाज ने मुझे चौंका दिया. मैं ने फौरन चिडि़या के बच्चे को उठाया और नल के पास ऊंचाई पर बनी एक सुरक्षित जगह पर रख दिया.

छुट्टियों में हमारे घर बड़ी रौनक रहती है. इस बार तो मेरी दीदी और उस के बच्चे भी अहमदाबाद से आए थे. इत्तफाक से विदेश से फूफाजी भी आए हुए थे. फूफाजी को सब लोग ‘दादाजी’ कहते थे. यह विदेशी दादाजी हमारे छोटे शहर के लिए बहुत बड़ी चीज थे. सुबह से शाम तक लोग उन्हें घेरे ही रहते. कभी लोग मेहमानों से मिलने आते तो कभी मेहमान लोग घूमनेफिरने निकल जाते.

मेहमानों के लिए शाम का नाश्ता तैयार कर के मैं फिर चिडि़या के बच्चे के पास चली आई. वह अपना छोटा सा मुंह पूरा खोले हुए था. ऐसा लगता था जैसे वह पानी पीना चाहता है. पर नहीं, पानी तो बहुत पिलाया था. मुझे अच्छी तरह पता भी तो नहीं था कि यह क्या खाएगा?

‘‘ओ करुणा मौसी, चिडि़या को पानी में डाल दो,’’ दीपू ने मेरे पास रखी गेंद उठाते हुए कहा.

मैं ने उसे पकड़ा, ‘‘अरे दीपू, सामने जो सफेद प्याला पड़ा है, उसे ले आ. मैं ने उस में दूधचीनी घोल कर रखी है. इसे भूख लगी होगी.’’

मेरी बात सुन कर दीपू जोर से हंसा, ‘‘मौसी, इसे उठा कर बाहर फेंक दो,’’ कहते हुए वह गेंद नचाते हुए बाहर चला गया.

मैं दूध ले आई, चिडि़या का बच्चा बारबार मुंह खोल रहा था. मैं अपनी उंगली दूध में डुबो कर दूध की बूंदें उस की चोंच में डालने लगी.

‘‘बूआ…’’ मेरी भतीजी उर्मिला की आवाज थी, ‘‘अरे बूआ, यहां क्या कर रही हो?’’ वह करीब आ कर बोली.

मैं ने उसे चिडि़या के बच्चे के बारे में बताया. मैं चाहती थी कि मेरी गैरमौजूदगी में उर्मिला जरा उस का खयाल रखे.

‘‘वाह बूआ, वाह, भला चिडि़या के बच्चे के पास बैठने से क्या फायदा?’’ कह कर वह अंदर चली गई. नल के पास बैठे हुए जो भी मुझे देखता वह खिलखिला कर हंस पड़ता. सब के लिए चिडि़या का बच्चा मजाक का विषय बन गया था.

मैं फिर रसोई में चली गई. थोड़ी देर बाद मैं ने बाहर झांका तो देखा कि मेरी भतीजी जूली, उर्मिला और कुछ अन्य लड़कियां नल के पास आ कर खड़ी हो गई थीं. मैं एकदम चिल्लाई, ‘‘अरे, रुको.’’

मैं उन के पास आई तो वे बोलीं, ‘‘क्या बात है?’’

‘‘वहां एक चिडि़या का बच्चा है.’’

‘‘चिडि़या का बच्चा? अरे हम ने सोचा, पता नहीं क्या बात है जो आप इतनी घबराई हुई हैं,’’ वे भी जोरदार ठहाके मारती हुई चली गईं.

मैं खीज उठी और शीघ्र ही ऊपर चली गई. वहां आले में रखे एक घोंसले को देखा,जो इत्तफाक से खाली था. मैं ने उस में चिडि़या के बच्चे को रख कर घोंसले को ऊपर एक कोने में रख दिया.

मैं रसोई में आ गई और सब्जी काटने लगी. तभी पड़ोसन सुषमा बोली, ‘‘आज तो पता नहीं, करुणा का ध्यान कहां है? मैं रसोई में आ गई और इसे पता नहीं चला.’’

‘‘इस का ध्यान चिडि़या के बच्चे में है,’’ नमिता ने उसे चिडि़या के बच्चे के बारे में बताया.

‘‘अरे, पक्षी बिना घोंसले के बड़ा नहीं होगा. उसे किसी घोंसले में रखो,’’ सुषमा सलाह देती हुई बोली.

‘‘मैं उसे घोंसले में ही रख कर आई हूं,’’ मैं ने खुश होते हुए कहा.

रात को सब लोग खाना खाने के बाद घूमने गए. शायद किशनचंद के यहां से भी हो कर आए थे, ‘‘भई, हद हो गई, किशनचंद की औरत इतनी बीमार है. इतनी छटपटाहट घर के लोग कैसे देख रहे थे?’’ यह दादाजी की आवाज थी.

सब लोग आंगन में बैठे बातचीत कर रहे थे. दादाजी विदेश की बातें सुना रहे थे, ‘‘भई, हमारे अमेरिका में तो कोई इस कदर छटपटाए तो उसे ऐसा इंजेक्शन दे देते हैं कि वह फौरन शांत हो जाए. भारत न तो कभी बदला है और न ही बदलेगा. अभी मैं मुंबई से हो कर ही राजस्थान आया हूं. वहां मूलचंद की दादी की मृत्यु हो गई. अजीब बात है, अभी तक यहां लोग अग्निसंस्कार करते हैं.’’

सुनते ही अम्मां बोलीं, ‘‘आप लोग मृत व्यक्ति का क्या करते हैं?’’

‘‘अरे, बस एक बटन दबाते हैं और सारा झंझट खत्म. अमेरिका में तो…’’ दादाजी पता नहीं कैसी विचित्र बातें सुना रहे थे.

मैं ने सोने से पहले चिडि़या के बच्चे की देखभाल की और फिर सो गई. सुबह उठते ही देखा, चिडि़या का बच्चा बड़ा ही खुश हो कर फुदक रहा था. दीपू ने उस की ओर पांव बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मौसी, रख दूं पैर इस के ऊपर?’’

‘‘अरे, नहीं…’’ मैं उस का पैर हटाते हुए चीख पड़ी. अचानक मैं ने सामने देखा, ‘‘अरे, यह तो वही आदमी है…’’

शायद जीजाजी ने मेरी बात सुन ली थी. वह बाहर ‘विजय स्टोर’ की तरफ देखते हुए बोले, ‘‘तुम जानती हो क्या उस आदमी को?’’

मेरे सामने एक दर्दनाक दृश्य ताजा हो उठा, ‘‘हां,’’ मैं ने कहा, ‘‘यह वही आदमी है. एक प्यारा सा कुत्ता लगभग मेरे ही पास पलता था, क्योंकि मैं उसे कुछ न कुछ खिलाती रहती थी. एक दिन वह सामने भाभी के घर से दीदी के घर की तरफ आ रहा था कि इस आदमी का स्कूटर उसे तेजी से कुचलता हुआ निकल गया. कुत्ता बुरी तरह तड़प कर शांत हो गया. हैरत की बात यह थी कि इस आदमी ने एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा था.’’

जीजाजी पहले तो ठहाका मार कर हंसे फिर जरा क्र्रोधित होते हुए बोले, ‘‘अब कहीं वह फिर तुम्हें नजर आ जाए तो उसे कुछ कह मत देना. हम कुत्ते वाली फालतू बात के लिए किसी से कहासुनी करेंगे क्या?’’

कुछ दिन पहले की ही तो बात है. पड़ोस में शोर उठा, ‘अरे पास वाली झाडि़यों से सांप निकला है,’ सुनते ही मेरा बड़ा भतीजा फौरन एक लाठी ले कर गया और कुछ ही पलों में खुश होते हुए उस ने बताया कि सांप को मार कर उस ने तालाब में फेंक दिया है.

‘‘क्या?…तुम ने उसे जान से मार दिया है?’’ मैं ने सहमे स्वर में पूछा.

‘‘मारता नहीं तो क्या उसे घर ले आता? अगर किसी को काट लेता तो?’’

एक दिन दादाजी बालकनी में कुछ लोगों के साथ बैठे कौफी पी रहे थे, बाहर का दृश्य देखते हुए बोले, ‘‘अफ्रीका में सूअर को घंटों खौलते हुए पानी में डालते हैं और फिर उसे पकाने के लिए…’’ दादाजी बोले जा रहे थे और मैं सूअर की दशा की कल्पना मात्र से ही तड़प उठी थी. मुझे डर लगने लगा कि कहीं चिडि़या के बच्चे को कोई बाहर न फेंक दे.

घोंसले में झांका तो देखा कि बच्चा उलटा पड़ा था. मैं ने डरतेडरते हाथों में कपड़ा ले कर उसे सीधा किया. बिना कपड़ा लिए मेरे नाखून उसे चुभ जाते.

‘‘करुणा मौसी, आप ने चिडि़या के बच्चे को हाथ लगाया?’’ ज्योति ने पूछा.

‘‘हां, क्यों?’’ मैं ने उसे आश्चर्य से देखा.

‘‘अब देखना मौसी, चिडि़या के बच्चे को उस की मां अपनाएगी नहीं. मनुष्य के हाथ लगाने के बाद दूसरे पक्षी उस की ओर देखते भी नहीं.’’

‘‘अरे, उठाती कैसे नहीं, आंगन के बीचोबीच पड़ा था. किसी का पांव आ जाता तो?’’ मैं ने कहा और अपने काम में लग गई.

3 दिन गुजर गए. जराजरा सी देर में मैं चिडि़या के बच्चे की देखभाल करती. चौथे दिन बहुत सवेरे ही चिडि़यों के झुंड के झुंड घोंसले के पास आ कर जोरजोर से चींचीं, चूंचूं करने लगे. मुझे लगा जैसे वे रो रहे हों. मैं ने घोंसले के अंदर देखा. चिडि़या का बच्चा बिलकुल शांत पड़ा था. मेरा दिल भर आया. तरहतरह के खयाल मन में उठे. रात को वह बिलकुल ठीक था. कहीं सच में दीपू ने उस के ऊपर पांव तो नहीं रख दिया?

चिडि़या के बच्चे पर किसी तरह के हमले का कोई निशान नहीं था. मगर फिर भी मैं ने दीपू से पूछा, ‘‘सच बता दीपू, तू ने चिडि़या के बच्चे को कुछ किया तो नहीं?’’

पर दीपू ने तो जैसे सोच ही रखा था कि मौसी को दुखी करना है. वह बोला, ‘‘मौसी, मैं ने सुबह उठते ही पहले उस का गला दबाया और फिर सैर करने चला गया.’’

मैं सरला दीदी से बोली, ‘‘दीदी, ऐसा नहीं लगता कि यह आराम से सो रहा है?’’

दीपू ने मुझे दुखी देख कर फिर कहा, ‘‘मौसी, मैं ने इसे मारा ही ऐसे है कि जैसे हत्या न लग कर स्वाभाविक मौत लगे.’’

पता नहीं क्यों, मुझ से उस दिन कुछ खायापिया नहीं गया. संगीतशाला भी नहीं गई. दिल भर आया था. कागजकलम ले कर दिल के दर्द को रचना के जरिए कागज की जमीन पर उतारने लगी. रचना भेजने के बाद लगा कि जैसे मैं ने उस चिडि़या के बच्चे को अपनी श्रद्धांजलि दे दी है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें