ढाई आखर प्रेम का: क्या अनुज्ञा की सास की सोच बदल पाई

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शेष जीवन: विनोद के खत में क्या लिखा था

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छोटू की तलाश : क्या पूरी हो पाई छोटू की तलाश

सुबह का समय था. घड़ी में तकरीबन साढे़ 9 बजने जा रहे थे. रसोईघर में खटरपटर की आवाजें आ रही थीं. कुकर अपनी धुन में सीटी बजा रहा था. गैस चूल्हे के ऊपर लगी चिमनी चूल्हे पर टिके पतीलेकुकर वगैरह का धुआं समेटने में लगी थी. अफरातफरी का माहौल था.

शालिनी अपने घरेलू नौकर छोटू के साथ नाश्ता बनाने में लगी थीं. छोटू वैसे तो छोटा था, उम्र यही कोई 13-14 साल, लेकिन काम निबटाने में बड़ा उस्ताद था. न जाने कितने ब्यूरो, कितनी एजेंसियां और इस तरह का काम करने वाले लोगों के चक्कर काटने के बाद शालिनी ने छोटू को तलाशा था.

2 साल से छोटू टिका हुआ, ठीकठाक चल रहा था, वरना हर 6 महीने बाद नया छोटू तलाशना पड़ता था. न जाने कितने छोटू भागे होंगे. शालिनी को यह बात कभी समझ नहीं आती थी कि आखिर 6 महीने बाद ही ये छोटू घर से विदा क्यों हो जाते हैं?

शालिनी पूरी तरह से भारतीय नारी थी. उन्हें एक छोटू में बहुत सारे गुण चाहिए होते थे. मसलन, उम्र कम हो, खानापीना भी कम करे, जो कहे वह आधी रात को भी कर दे, वे मोबाइल फोन पर दोस्तों के साथ ऐसीवैसी बातें करें, तो उन की बातों पर कान न धरे, रात का बचाखुचा खाना सुबह और सुबह का शाम को खा ले.

कुछ खास बातें छोटू में वे जरूर देखतीं कि पति के साथ बैडरूम में रोमांटिक मूड में हों, तो डिस्टर्ब न करे. एक बात और कि हर महीने 15-20 किट्टी पार्टियों में जब वे जाएं और शाम को लौटें, तो डिनर की सारी तैयारी कर के रखे.

शालिनी के लिए एक अच्छी बात यह थी कि यह वाला छोटू बड़ा ही सुंदर था. गोराचिट्टा, अच्छे नैननक्श वाला. यह बात वे कभी जबान पर भले ही न ला पाई हों, लेकिन वे जानती थीं कि छोटू उन के खुद के बेटे अनमोल से भी ज्यादा सुंदर था. अनमोल भी इसी की उम्र का था, 14 साल का.

घर में एकलौता अनमोल, शालिनी और उन के पति, कुल जमा 3 सदस्य थे. ऐसे में अनमोल की शिकायतें रहती थीं कि उस का एक भाई या बहन क्यों नहीं है? वह किस के साथ खेले?

नया छोटू आने के बाद शालिनी की एक समस्या यह भी दूर हो गई कि अनमोल खुश रहने लग गया था. शालिनी ने छोटू को यह छूट दे दी कि वह जब काम से फ्री हो जाए, तो अनमोल से खेल लिया रे.

छोटू पर इतना विश्वास तो किया ही जा सकता था कि वह अनमोल को कुछ गलत नहीं सिखाएगा.

छोटू ने अपने अच्छे बरताव और कामकाज से शालिनी का दिल जीत लिया था, लेकिन वे यह कभी बरदाश्त नहीं कर पाती थीं कि छोटू कामकाज में थोड़ी सी भी लापरवाही बरते. वह बच्चा ही था, लेकिन यह बात अच्छी तरह समझता था कि भाभी यानी शालिनी अनमोल की आंखों में एक आंसू भी नहीं सहन कर पाती थीं.

अनमोल की इच्छानुसार सुबह नाश्ते में क्याक्या बनेगा, यह बात शालिनी रात को ही छोटू को बता देती थीं, ताकि कोई चूक न हो. छोटू सुबह उसी की तैयारी कर देता था.

छोटू की ड्यूटी थी कि भयंकर सर्दी हो या गरमी, वह सब से पहले उठेगा, तैयार होगा और रसोईघर में नाश्ते की तैयारी करेगा.

शालिनी भाभी जब तक नहाधो कर आएंगी, तब तक छोटू नाश्ते की तैयारी कर के रखेगा. छोटू के लिए यह दिनचर्या सी बन गई थी.

आज छोटू को सुबह उठने में देरी हो गई. वजह यह थी कि रात को शालिनी भाभी की 2 किट्टी फ्रैंड्स की फैमिली का घर में ही डिनर रखा गया था. गपशप, अंताक्षरी वगैरह के चलते डिनर और उन के रवाना होने तक रात के साढे़ 12 बज चुके थे. सभी खाना खा चुके थे. बस, एक छोटू ही रह गया था, जो अभी तक भूखा था.

शालिनी ने अपने बैडरूम में जाते हुए छोटू को आवाज दे कर कहा था, ‘छोटू, किचन में खाना रखा है, खा लेना और जल्दी सो जाना. सुबह नाश्ता भी तैयार करना है. अनमोल को स्कूल जाना है.’

‘जी भाभी,’ छोटू ने सहमति में सिर हिलाया. वह रसोईघर में गया. ठिठुरा देने वाली ठंड में बचीखुची सब्जियां, ठंडी पड़ चुकी चपातियां थीं. उस ने एक चपाती को छुआ, तो ऐसा लगा जैसे बर्फ जमी है. अनमने मन से सब्जियों को पतीले में देखा. 3 सब्जियों में सिर्फ दाल बची हुई थी. यह सब देख कर उस की बचीखुची भूख भी शांत हो गई थी. जब भूख होती है, तो खाने को मिलता नहीं. जब खाने को मिलता है, तब तक भूख रहती नहीं. यह भी कोई जिंदगी है.

छोटू ने मन ही मन मालकिन के बेटे और खुद में तुलना की, ‘क्या फर्क है उस में और मुझ में. एक ही उम्र, एकजैसे इनसान. उस के बोलने से पहले ही न जाने कितनी तरह का खाना मिलता है और इधर एक मैं. एक ही मांबाप के 5 बच्चे. सब काम करते हैं, लेकिन फिर भी खाना समय पर नहीं मिलता. जब जिस चीज की जरूरत हो तब न मिले तो कितना दर्द होता है,’ यह बात छोटू से ज्यादा अच्छी तरह कौन जानता होगा.

छोटू ने बड़ी मुश्किल से दाल के साथ एक चपाती खाई औैर अपने कमरे में सोने चला गया. लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी. आज उस का दुख और दर्र्द जाग उठा. आंसू बह निकले. रोतेरोते सुबकने लगा वह और सुबकते हुए न जाने कब नींद आ गई, उसे पता ही नहीं चला.

थकान, भूख और उदास मन से जब वह उठा, तो साढे़ 8 बज चुके थे. वह उठते ही बाथरूम की तरफ भागा. गरम पानी करने का समय नहीं था, तो ठंडा पानी ही उडे़ला. नहाना इसलिए जरूरी था कि भाभी को बिना नहाए किचन में आना पसंद नहीं था.

छोटू ने किचन में प्रवेश किया, तो देखा कि भाभी कमरे से निकल कर किचन की ओर आ रही थीं. शालिनी ने जैसे ही छोटू को पौने 9 बजे रसोईघर में घुसते देखा, तो उन की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘छोटू, इस समय रसोई में घुसा है? यह कोई टाइम है उठने का? रात को बोला था कि जल्दी उठ कर किचन में तैयारी कर लेना. जरा सी भी अक्ल है तुझ में,’’ शालिनी नाराजगी का भाव लिए बोलीं.

‘‘सौरी भाभी, रात को नींद नहीं आई. सोया तो लेट हो गया,’’ छोटू बोला.

‘‘तुम नौकर लोगों को तो बस छूट मिलनी चाहिए. एक मिनट में सिर पर चढ़ जाते हो. महीने के 5 हजार रुपए, खानापीना, कपड़े सब चाहिए तुम लोगों को. लेकिन काम के नाम पर तुम लोग ढीले पड़ जाते हो…’’ गुस्से में शालिनी बोलीं.

‘‘आगे से ऐसा नहीं होगा भाभी,’’ छोटू बोला.

‘‘अच्छाअच्छा, अब ज्यादा बातें मत बना. जल्दीजल्दी काम कर,’’ शालिनी ने कहा.

छोटू और शालिनी दोनों तेजी से रसोईघर में काम निबटा रहे थे, तभी बैडरूम से अनमोल की तेज आवाज आई, ‘‘मम्मी, आप कहां हो? मेरा नाश्ता तैयार हो गया क्या? मुझे स्कूल जाना है.’’

‘‘लो, वह उठ गया अनमोल. अब तूफान खड़ा कर देगा…’’ शालिनी किचन में काम करतेकरते बुदबुदाईं.

‘‘आई बेटा, तू फ्रैश हो ले. नाश्ता बन कर तैयार हो रहा है. अभी लाती हूं,’’ शालिनी ने किचन से ही अनमोल को कहा.

‘‘मम्मी, मैं फ्रैश हो लिया हूं. आप नाश्ता लाओ जल्दी से. जोरों की भूख लगी है. स्कूल को देर हो जाएगी,’’ अनमोल ने कहा.

‘‘अच्छी आफत है. छोटू, तू यह दूध का गिलास अनमोल को दे आ. ठंडा किया हुआ है. मैं नाश्ता ले कर आती हूं.’’

‘‘जी भाभी, अभी दे कर आता हूं,’’ छोटू बोला.

‘‘मम्मी…’’ अंदर से अनमोल के चीखने की आवाज आई, तो शालिनी भागीं. वे चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘क्या हुआ बेटा… क्या गड़बड़ हो गई…’’

‘‘मम्मी, दूध गिर गया,’’ अनमोल चिल्ला कर बोला.

‘‘ओह, कैसे हुआ यह सब?’’ शालिनी ने गुस्से में छोटू से पूछा.

‘‘भाभी…’’

छोटू कुछ बोल पाता, उस से पहले ही शालिनी का थप्पड़ छोटू के गाल पर पड़ा, ‘‘तू ने जरूर कुछ गड़बड़ की होगी.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं ने कुछ नहीं किया… वह अनमोल भैया…’’

‘‘चुप कर बदतमीज, झूठ बोलता है,’’ शालिनी का गुस्सा फट पड़ा.

‘‘मम्मी, छोटू का कुसूर नहीं था. मुझ से ही गिलास छूट गया था,’’ अनमोल बोला.

‘‘चलो, कोई बात नहीं. तू ठीक तो है न. जलन तो नहीं हो रही न? ध्यान से काम किया कर बेटा.’’

छोटू सुबक पड़ा. बिना वजह उसे चांटा पड़ गया. उस के गोरे गालों पर शालिनी की उंगलियों के निशान छप चुके थे. जलन तो उस के गालोंपर हो रही थी, लेकिन कोई पूछने वाला नहीं था.

‘‘अब रो क्यों रहा है? चल रसोईघर में. बहुत से काम करने हैं,’’ शालिनी छोटू के रोने और थप्पड़ को नजरअंदाज करते हुए लापरवाही से बोलीं.

छोटू रसोईघर में गया. कुछ देर रोता रहा. उस ने तय कर लिया कि अब इस घर में और काम नहीं करेगा. किसी अच्छे घर की तलाश करेगा.

दोपहर को खेलते समय छोटू चुपचाप घर से निकल गया. महीने की 15 तारीख हो चुकी थी. उस को पता था कि 15 दिन की तनख्वाह उसे नहीं मिलेगी. वह सीधा ब्यूरो के पास गया, इस से अच्छे घर की तलाश में.

उधर शाम होने तक छोटू घर नहीं आया, तो शालिनी को एहसास हो गया कि छोटू भाग चुका है. उन्होंने ब्यूरो में फोन किया, ‘‘भैया, आप का भेजा हुआ छोटू तो भाग गया. इतना अच्छे से अपने बेटे की तरह रखती थी, फिर भी न जाने क्यों चला गया.’’ छोटू को नए घर और शालिनी को नए छोटू की तलाश आज भी है. दोनों की यह तलाश न जाने कब तक पूरी होगी.

ढाई आखर प्रेम का: भाग 2- क्या अनुज्ञा की सास की सोच बदल पाई

घर में बैडरूम से अटैच बाथरूम को धोने के लिए ड्राइंगरूम को पार करते हुए बैडरूम में घुस कर ही बाथरूम जाया जा सकता था. 3 बैडरूम का मकान होने के कारण अलग से पूजाघर नहीं बना पाए थे. स्टोर में ही मंदिर रख कर पूजाघर बना लिया था पर स्टोर भी इतना बड़ा तथा हवादार नहीं था कि उस में कोई इंसान घंटे 2 घंटे बैठ कर पूजा कर पाए. वैसे भी सुबह कई बार उसे स्वयं ही कोई न कोई सामान निकालने स्टोर में जाना ही पड़ता था जिस से मांजी की पूजा में विघ्न पड़ता था. मांजी ऐसी ढकोसलेबाजी में कुछ ज्यादा ही विश्वास करती थी. इसलिए आरती कर के वे बैडरूम में ही कुरसी डाल कर पूजा किया करती थीं.

जिस समय रामू सफाई करने आता, वही उन का पूजा का समय रहता था. कई बार उस से उस समय आने के लिए मना किया पर उस का कहना था, 9 से 5 बजे तक मेरी नगरनिगम के औफिस में ड्यूटी रहती है, यदि इस समय सफाई नहीं कर पाया तो शाम के 5 बजे के बाद ही आ पाऊंगा.

मजबूरी के चलते उस का आना उसी समय होता था. उस के आते ही मांजी उसे हिकारत की नजर से देखते हुए अपनी साड़ी के पल्लू से अपनी नाक ढक लेती थीं तथा उस के जाते ही जहांजहां से उस के गुजरने की संभावना होती, पोंछा लग जाने के बाद भी फिर पोंछा लगवातीं तथा गंगाजल छिड़क कर स्थान को पवित्र करने का प्रयास करते हुए यह कहने से बाज नहीं आती थीं कि इस ने तो मेरी पूजा ही भंग कर दी.

अनुज्ञा चाह कर भी नहीं कह पाती थी कि वह भी तो एक इंसान है. जैसे अन्य अपना काम करते हैं वैसे ही वह भी अपना काम कर रहा है. अब उस के आने से उन की पूजा कैसे भंग हो गई. उन्हें समझाना उस के क्या अमित के बस में भी नहीं था. वैसे भी 2 पुत्रियों के बाद फैमिली प्लानिंग का औपरेशन करवाने के कारण अनुज्ञा उन्हें फूटी आंख भी नहीं सुहाती थी. दरअसल, मांजी को लगता था कि इस निर्णय के पीछे अनुज्ञा का हाथ है. किसी भी मां को अपना पुत्र कभी गलत लगता ही नहीं है, अगर कहीं कुछ गलत हो रहा है तो वह पुत्र नहीं, बहू के कारण हो रहा है. शायद, इसी मनोस्थिति के कारण सासबहू में सदा छत्तीस का आंकड़ा रहता है.

अपने इस आक्रोश को जबतब छोटीछोटी बात पर उसे जलीकटी सुना कर निकालती रहती थीं. वह तो अभ्यस्त हो चली थी लेकिन जब वे शीतल और शैलजा को अपने आक्रोश का निशाना बनातीं तब उस से सहन नहीं होता था लेकिन फिर भी घर में अशांति न हो या जैसी भी हैं, अमित की मां हैं, सोच कर वह अपने क्रोध को शांत करने का प्रयास करती थी लेकिन शीतल और शैलजा चुप नहीं रहती थीं. यही कारण था कि उन की अपनी पोतियों से भी नहीं बना करती थी.

रामू तो रामू, काम वाली कमली की 5 वर्षीय बेटी काजल भी यदि गलती से उन से छू जाती तो उसे भी वे कोसने से नहीं चूकती थीं, तुरंत साड़ी बदलतीं, काम वाली के धोए बरतन वे फिर पानी से इसलिए धुलवातीं कि कहीं उस ने प्राकृतिक मासिक चक्र के दौरान बरतन न धो दिए हों.

अनुज्ञा सोचती जिस चीज के कारण प्रकृति ने औरत को नारीत्व होने का सब से बड़ा गौरव दिया, भला उस के कारण वह ‘अपवित्र’ कैसे हो सकती है? वैसे काम वाली को सख्त हिदायत थी कि इन दिनों वह काम नहीं करेगी पर फिर भी उन्हें विश्वास नहीं था, उन के इस विचार के कारण कामवाली को 4 दिन की अतिरिक्त छुट्टी देनी पड़ती थी.

व्यर्थ के बढ़े इन कामों के कारण कभीकभी मन आक्रोश से भर उठता था पर घर की सुखशांति के लिए संयम बरतना उस की मजबूरी थी. वह जानती थी कि अमित को भी यह सब पसंद नहीं है पर मां के उग्र स्वभाव के कारण वे भी चुप रहते थे. कभी वे कुछ कहने का प्रयास करते तो तुरंत कहतीं, ‘हम सरयूपारीय ब्राह्मण हैं, तुम भूल सकते हो पर मैं नहीं. आज अगर तुम्हारे पिताजी होते, तुम्हारे घर का दानापानी भी ग्रहण नहीं करते. प्रकृति मुझे न जाने किन पापों की सजा दे रही है.’ इस के साथ ही उन का रोना प्रारंभ हो जाता.

अमित के पिताजी गांव के मंदिर में पुजारी थे, 4 पीढि़यों से चला आ रहा यह व्यवसाय उन्हें विरासत में मिला था. प्रकांड विद्वान होने के कारण आसपास के अनेक गांवों में उन की बेहद प्रतिष्ठा थी. दानस्वरूप प्रचुर मात्रा में मिले धन के कारण धनदौलत की कोई कमी नहीं थी. पुरखों की जमीन अलग से धनवर्षा करती रहती थी. एक दिन वे ऐसे सोए कि उठ ही नहीं पाए. अमित परिवार में सब से बड़े थे. दोनों भाई बाहर होस्टल में रह कर पढ़ रहे थे. कोई भी भाई अपने परिवार का पुश्तैनी व्यवसाय यानी पंडिताई तथा खेतीबारी अपनाने को तैयार नहीं था. इसलिए सबकुछ बेच कर तथा खेती को बटाई में दे कर वे मां को ले कर चले आए.

उस समय शीतल 2 वर्ष की थी, उस के कारण सर्विस में भी समस्या आने लगी थी. मांजी के आने से उसे लगा कि अब शीतल को संभालने में आसानी होगी पर हुआ विपरीत. दंभी और उग्र स्वभाव की होने के साथ उन की टोकाटाकी तथा छुआछूत की आदत के कारण कभीकभी उसे लगता था कि उस का सांस लेना ही दूभर हो गया है. इस के साथ उन का एक ही जुमला दोहराना कि ‘हम सरयूपारीय ब्राह्मण हैं, तुम भूल सकते हो पर मैं नहीं,’ उसे अपराधबोध से जकड़ने लगा था. गलती शायद उन की भी नहीं थी, बचपन से जो जिस माहौल में पलाबढ़ा हो, उस के लिए इन सब को एकाएक छोड़ पाना संभव ही नहीं है. इन हालात में घर संभालना ही कठिन हो रहा था इसलिए नौकरी से त्यागपत्र दे दिया.

3 दिन तक मांजी को आईसीयू में रखा गया. दवाओं के बावजूद वे स्टेबल नहीं हो पा रही थीं. डाक्टर इस चिंता में थे कि कहीं इस का कारण, उन को दिया गया खून तो नहीं है, शायद उन का शरीर उसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है. रामू लगातार अनुज्ञा को देखने आता रहा था. जब वह घर जाती तब वह उस के पास बैठा रहता. शीतल और शैलजा की परीक्षाएं चल रही थीं. अंतिम 2 पेपर बाकी थे इसलिए वे भी उस के पास ज्यादा देर तक बैठ नहीं पा रही थीं. सच तो यह है कि रामू के कारण वह संकट की इस घड़ी को आसानी से पार कर गई थी.

अमित भी सूचना पा कर शीघ्र लौट आए थे. आखिर 5वें दिन उन की हालत में थोड़ा सुधार आना प्रारंभ हुआ, तब चैन आया. मांजी को आईसीयू से प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. उसी दिन शीतल और शैलजा के पेपर समाप्त हुए थे. वे भी मांजी से मिलने आई थीं. उसी समय रामू भी मांजी का हालचाल लेने पहुंच गया. उसे देखते ही शीतल ने मांजी की ओर देखते हुए कहा, ‘दादी, रामू की सहायता से ही ममा आप को अस्पताल ले कर आ पाईं.’

‘क्या इस ने मुझे छूआ…?’ मांजी ने हकबका कर कहा.

‘दादी, रामू ने छुआ ही नहीं आप को अपना खून भी दिया,’ शैलजा ने कहा.

‘क्या कहा तू ने, इस का खून मुझे चढ़ाया गया?’

‘हां दादी, अगर यह नहीं होता तो आप को खून नहीं मिल पाता.’

‘इस का खून मुझे क्यों चढ़ाने दिया, इस से तो मुझे मर ही जाने देते,’ मांजी ने लगभग रोंआसे स्वर में कहा.

यह सुन कर रामू ने सिर झुका दिया तथा बिना कुछ कहे चला गया.

‘मां, मेरी अनुपस्थिति में इस ने तुम्हारी सेवा की, जो काम मुझे करना चाहिए वह इस ने किया. इस का हम से कोई संबंध नहीं है, है तो सिर्फ इंसानियत का और तुम इसे गलत समझ रही हो. तुम्हें इस के खून से परहेज है क्योंकि तुम्हारी नजरों में वह नीच जाति का है. पर मां खून तो खून ही है, इस का धर्म और जाति से भला क्या वास्ता. अगर ऐसा होता तो तुम्हारा खून इस से कैसे मेल खाता. मां, हर इंसान का खून एक जैसा है, हम इंसानों ने ही कभी कार्य, कभी जाति तो कभी धर्म के आधार पर एकदूसरे को बांट दिया है.’

‘मां, यह रामू का नहीं, उस के जैसे अनेक लोगों का दोष है कि उन्होंने एक सवर्ण के घर नहीं बल्कि तथाकथित निम्नवर्ण में जन्म लिया. मां, वह छोटा नहीं, हम से बड़ा है. जहां हम अपनी गंदगी स्वयं साफ करने में झिझकते हैं, वहीं इन्हें उसे साफ करने में कोई संकोच नहीं होता. जरा सोचो, मां, अगर यह भी हमारी तरह गंदगी को साफ करने से मना कर दे तो? क्या यह दुनिया रहने लायक रह पाएगी? अमित उन की बात सुन कर चुप न रह पाए तथा उन्हें समझाते हुए कहा.

अमित की बात सुन कर आशा के विपरीत वे कुछ नहीं बोलीं पर उन की मुखमुद्रा से स्पष्ट लग रहा था कि वे कुछ सोच रही हैं. शायद, पुत्र की बात आज उन्हें सही लग रही थी पर वे चाह कर भी दिल की बात जबां पर नहीं ला पा रही थीं. नहीं कह पा रही थीं कि तू ठीक कह रहा है बेटा, आज तक व्यर्थ ही मैं इन ढकोसलों में पड़ी रही. मैं भूल गई थी, कार्य ही इंसान को महान बनाते हैं.

‘कैसी हैं मांजी आप?’ डाक्टर ने अंदर प्रवेश करते हुए पूछा. ‘अब ठीक हूं, तुम ने बचा लिया, वरना…’ मांजी ने चौंकते हुए कहा.

‘मांजी, मुझे नहीं, अपनी बहू और रामू को धन्यवाद दीजिए. यदि ये समय पर आप को यहां नहीं ला पाते या रामू अपना खून न देता तो मैं कुछ भी नहीं कर पाता,’ डाक्टर विनय ने उन से कहा.

ढाई आखर प्रेम का: भाग 1- क्या अनुज्ञा की सास की सोच बदल पाई

‘‘मांजी, देखिए तो कौन आया है,’’ अनुज्ञा ने अपनी सासूमां के कमरे में प्रवेश करते हुए कहा.

‘‘कौन आया है, बहू…’’ उन्होंने उठ कर चश्मा लगाते हुए प्रतिप्रश्न किया.

‘‘पहचानिए तो,’’ अनुज्ञा ने एक युवक को उन के सामने खड़े करते हुए कहा.

‘‘दादीजी, प्रणाम,’’ वे कुछ कह पातीं इस से पूर्व ही उस युवक ने उन के चरणों में झुकते हुए कहा.

‘‘तू चंदू है?’’

‘‘हां दादीजी, मैं चंद्रशेखर.’’

‘‘अरे, वही तो, बहुत दिन बाद आया है. कैसी चल रही है तेरी पढ़ाई?’’ उसे अपने पास बिठाते हुए मांजी ने कहा.

‘‘दादीमां, पढ़ाई अच्छी चल रही है, आप के आशीर्वाद से नौकरी भी मिल गई है, पढ़ाई समाप्त होते ही मैं नौकरी जौइन कर लूंगा. सैमेस्टर समाप्त होने पर हफ्तेभर की छुट्टी मिली थी, इसलिए आप सब से मिलने चला आया.’’

‘‘यह तो बहुत खुशी की बात है. सुना बहू, इसे नौकरी मिल गई है. इस का मुंह तो मीठा करा. और हां, चाय भी बना लाना.’’

मांजी के निर्देशानुसार अनुज्ञा रसोई में गई. चाय बनाने के लिए गैस पर पानी रखा पर मस्तिष्क में अनायास ही वर्षों पूर्व की वह घटना मंडराने लगी जिस के कारण उस की जिंदगी में एक सुखद परिवर्तन आ गया था.

दिसंबर की हाड़कंपाती ठंड वाला दिन था. अमित टूर पर गए थे, शीतल और शैलजा को स्कूल भेजने के बाद वह रसोई में सुबह का काम निबटा रही थी कि गिरने की आवाज के साथ ही कराहने की आवाज सुन कर वह गैस बंद कर अंदर भागी तो देखा उस की सासूमां नीचे गिरी पड़ी हैं. अलमारी से अपने कपड़े निकालने के क्रम में शायद उन का संतुलन बिगड़ गया था और उन का सिर लोहे की अलमारी में चूड़ी रखने के लिए बने भाग से टकरा गया था, उस का नुकीला सिरा माथे से कनपटी तक चीरता चला गया जिस के कारण खून की धार बह निकली थी. वे बुरी तरह तड़प रही थीं.

उस ने तुरंत एक कपड़ा उन के माथे से बांध दिया, हाथ से कस कर दबाने के बाद भी खून रुकने का नाम नहीं ले रहा था तथा मांजी धीरेधीरे अचेत होती जा रही थीं. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे.

आसपास ऐसा कोई नहीं था जिस से वह सहायता ले पाती, अमित के स्थानांतरण के कारण वे 2 महीने पूर्व ही इस कसबे में आए थे, घर को व्यवस्थित करने तथा बच्चों के ऐडमिशन के कारण वह इतनी व्यस्त रही कि किसी से जानपहचान ही नहीं हो पाई. घर भी बस्ती से दूर ही मिला था, घर अच्छा लगा, इसलिए ले लिया था.

15 वर्ष बड़े शहर में नौकरी के बाद इस छोटे से कसबे कासिमपुर में पोस्टिंग से अमित बच्चों की पढ़ाई को ले कर परेशान थे. उन का कहना था कि तुम बच्चों को ले कर यहीं रहो पर अनुज्ञा का मानना था कि वहां भी तो स्कूल होंगे ही. अभी बच्चे छोटे हैं, सब मैनेज हो जाएगा. दरअसल, वह मांजी के उग्र स्वभाव के कारण छोटे बच्चों को ले कर अलग नहीं रहना चाहती थी. उन की चिंता का शीघ्र ही निवारण हो गया जब उन्हें पता चला कि यहां डीएवी स्कूल की एक ब्रांच है तथा उस का रिजल्ट भी अच्छा रहता है.

मांजी के कराहने की आवाज उसे बेचैन कर रही थी, सारी बातों से ध्यान हटा कर उस ने सोचा, टैलीफोन कर के एंबुलेंस को बुलवाए. टैलीफोन उठाया तो वह डैड था. उस समय मोबाइल तो क्या हर घर में टैलीफोन भी नहीं हुआ करते थे. अगर थे भी तो वे लाइन में गड़बड़ी के कारण अकसर बंद ही रहते थे. अगर चलते भी थे तो आवाज ठीक से सुनाई नहीं देती थी. एसटीडी करने के लिए कौल बुक करनी पड़ती थी. अर्जेंट कौल भी कभीकभी 1 से 2 घंटे का समय ले लिया करती थी.

मांजी की हालत देख कर उस दिन जिस तरह से वह स्वयं को लाचार व बेबस महसूस कर रही थी, वैसा उस ने कभी महसूस नहीं किया था. आत्मनिर्भरता उस में कूटकूट कर भरी थी. वह एक कंपनी में सोशल वैलफेयर औफिसर थी. विवाह के पूर्व तथा पश्चात भी उस ने कार्य जारी रखा था.

अभी सोच ही रही थी कि क्या करे, तभी डोरबैल बजी, मांजी को वहीं लिटा कर उस ने जल्दी से दरवाजा खोला तो सामने रामू को देख कर संतोष की सांस लेते हुए, उस से कहा, ‘तू जरा मांजी के पास बैठ कर उन के माथे को दबा कर रख. मैं तब तक गाड़ी निकालती हूं.’

‘क्या हुआ मांजी को?’ चिंतित स्वर में रामू ने पूछा.

‘वे गिर गई हैं, उन के माथे से खून बह रहा है जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा. प्लीज, मेरी मदद कर.’

‘लेकिन मैं?’ वह उस का प्रस्ताव सुन कर हड़बड़ा गया था.

‘मैं तेरी हिचकिचाहट समझ सकती हूं पर इस समय इस के अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं है, प्लीज मदद कर,’ अनुज्ञा की आवाज में दयनीयता आ गई थी.

वह मांजी की छुआछूत के बारे में जानती थी पर इस समय रामू की सहायता लेने के अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं था, यह तो गनीमत थी कि उसे कार चलानी आती थी.

अब वह अकेली नहीं थी. रामू भी साथ में था. उस ने रामू की सहायता से मांजी को गाड़ी में लिटाया तथा ताला बंद कर बच्चों के नाम एक स्लिप छोड़ कर ड्राइव करने ही वाली थी कि रामू ने स्वयं ही कहा, ‘मेमसाहब, हम भी चलें क्या?’

‘तुझे तो चलना ही होगा. यहां जो भी अच्छा अस्पताल हो, वहां ले कर चल. और हां, मांजी को पकड़ कर बैठना.’

हड़बड़ी में वह उसे बैठने के लिए कहना भूल गई थी. वैसे भी एक से भले दो, न जाने कब क्या जरूरत आ जाए. नई जगह भागदौड़ के लिए एक आदमी साथ रहेगा तो अच्छा है.

अत्यधिक खून बहने के कारण मांजी अचेत हो गई थीं, घबराहट में वह भूल ही गई थी कि यदि कहीं से खून निकल रहा हो तो उस स्थान पर बर्फ रख देने से खून के बहाव को रोका जा सकता है. मांजी अचेत थीं, ब्लडप्रैशर के साथ डायबिटीज की भी उन्हें शिकायत थी. शायद इसीलिए उस के पट्टी बांधने के बावजूद खून का बहना नहीं रुक पा रहा था.

अस्पताल ज्यादा दूर नहीं था, पहुंचते ही उन्हें ऐडमिट कर लिया गया. घाव में टांके लगाने के लिए उन्हें औपरेशन थिएटर में ले जाया जाने लगा तब उस की घबराहट देख कर रामू उसे दिलासा देता हुआ बोला, ‘मेमसाहब, धीरज रखिए, सब ठीक हो जाएगा.’

उस की बात सुन कर भी वह सहज नहीं हो पा रही थी, उस के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी. तभी सिस्टर ने आ कर कहा, ‘चोट लगने से मरीज के माथे के पास की एक नस कट गई है जिस के कारण ब्लीडिंग काफी हो गई है. ब्लड देने की आवश्यकता पड़ेगी, यहां तो कोई ब्लडबैंक नहीं है, इस के लिए शहर जाना पड़ेगा पर इस में शायद देर हो जाए.’

‘सिस्टर, आप कुछ भी कीजिए पर मांजी को बचा लीजिए,’ अनुज्ञा की स्वर में विवशता आ गई थी. अमित की बहुत याद आ रही थी. काश, उन की बात मान कर यहां न आती तो शायद यह सब न झेलना पड़ता

‘आप डाक्टर साहब से बात कर लीजिए.’

डाक्टर साहब से बात की तो उन्होंने कहा, ‘स्थिति गंभीर है. अगर आप की स्वीकृति हो तो हम फ्रैश खून चढ़ा

देंगे वरना…’

‘आप मेरा खून चैक कर लीजिए डाक्टर साहब पर मांजी को बचा लीजिए.’

‘मेरा भी, डाक्टर साहब,’ रामू ने कहा.

आखिर रामू का खून मांजी के खून से मैच हो गया. अनुज्ञा से स्वीकृतिपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया. भरे मन से उस ने उस पर हस्ताक्षर कर दिए क्योंकि इस के अलावा कोई चारा न था.

मांजी को जब रामू का खून चढ़ाया जा रहा था तब वह सोच रही थी, जिस आदमी को मांजी सदा हीन और अछूत समझ कर उस का तिरस्कार करती रही थीं वही आज उन के प्राणों का रक्षक बन गया है.

शेष जीवन: भाग 3- विनोद के खत में क्या लिखा था

लौट कर आए तो तबीयत ठीक नहीं लग रही थी. दूसरे दिन कचहरी नहीं जाना चाहते थे, मगर गए. न जाने का मतलब अपना नुकसान. एक दिन सुमन से कहने लगे, ‘मेरा मन कचहरी जाने का नहीं करता. लोग कहते हैं कि वकील कभी रिटायर नहीं होता, क्यों नहीं होता. वह क्या हाड़मांस का नहीं बना होता? शरीर उस का भी कमजोर होता है. यह क्यों नहीं कहते कि वकील रोज कचहरी नहीं जाएगा तो खाएगा क्या?’ सुमन को विनोद व खुद पर तरस आया. सरकारी नौकरी में लोग बड़े आराम से अच्छी तनख्वाह लेते हैं. उस के बाद आजन्म पैंशन का लुत्फ उठा कर जिंदगी का सुख भोगते हैं. यहां तो न जवानी का सुख लिया, न ही बुढ़ापे का. मरते दम तक कोल्हू के बैल की तरह जुतो. काले कोट की लाज ढांपने में ही जीवन अभाव में गुजर जाता है. एक रात विनोद के सीने में दर्द उभरा. सुमन घबरा गई. पासपड़ोस के लोगों को बुलाया, मगर कोई नहीं आया. भाई को फोन लगाया. वह भागाभागा आया. उन्हें पास के निजी अस्पताल में ले जाया गया. वहां डाक्टरों ने कुछ दवाएं दीं. विनोद की हालत सुधर गई. अगले दिन डाक्टर ने सुमन से कहा कि वे इन्हें तत्काल दिल्ली ले जाएं. सुमन के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं. डाक्टर बोले, ‘‘इन के तीनों वौल्व जाम हो चुके हैं. अतिशीघ्र बाईपास सर्जरी न की गई तो जान जा सकती है.’’

सुमन की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. बाईपास सर्जरी का मतलब 3-4 लाख रुपए का खर्चा. एकाएक इतना रुपया आएगा कहां से. लेदे कर एकडेढ़ लाख रुपया होगा. इतने गहने भी नहीं बचे थे कि उन्हें बेच कर विनोद की जान बचाई जा सके. मकान बेचने का खयाल आया जो तत्काल संभव नहीं था. ऐसे समय सुमन अपनेआप को नितांत अकेला महसूस करने लगी. उस के मन में बुरेबुरे खयाल आने लगे. अगर विनोद को कुछ हो गया तब? वह भय से सिहर गई. अकेली जिंदगी किस के भरोसे काटेगी? क्या बेटी के पास जा कर रहेगी? लोग क्या कहेंगे? सुमन जितना सोचती, दिल उतना ही बैठता. उस की आंखों में आंसू आ गए. भाई राकेश की नजर पड़ी तो वह उस के करीब आया, ‘‘घबराओ मत, सब ठीक हो जाएगा. 1 लाख रुपए की मदद मैं कर दूंगा.’’ सुमन को थोड़ी राहत मिली. तभी रेखा का फोन आया, ‘‘मम्मी, रुपयों की चिंता मत करना. मैं तुरंत बनारस पहुंच रही हूं.’’

सुमन की जान में जान आई. अपने आंसू पोंछे. वह सोचने लगी कि अभी किसी तरह विनोद की जान बचनी चाहिए, बाद में जब वे ठीक हो जाएंगे तब मकान बेच कर सब का कर्ज चुका देंगे. विनोद को प्लेन से दिल्ली ले जाया गया. मगर इलाज से पूर्व ही विनोद की सांसें थम गईं. सुमन दहाड़ मारमार कर रोने लगी. वह बारबार यही रट लगाए हुए थी कि अब मैं किस के सहारे जिऊंगी. रेखा ने किसी तरह उन्हें संभाला. तेरहवीं खत्म होने के एक महीने तक रेखा सुमन के पास ही रही. राकेश उसे अपने पास ले जाना चाहता था जबकि रेखा चाहती थी कि मां उस के पास शेष जीवन गुजारे. सब से बड़ी समस्या थी जीविकोपार्जन की. विनोद के जाने के बाद आमदनी का स्रोत खत्म हो गया था. कचहरी से 50 हजार रुपए मिले थे. 50 हजार के आसपास बीमा के. कुछ वकीलों ने सहयोग किया. सुमन ने काफी सोचविचार कर दोनों से कहा, ‘‘मैं यहीं रह कर कोई छोटीमोटी दुकान कर लूंगी. अकेली जान, दालरोटी चल जाएगी. मैं तुम लोगों पर बोझ नहीं बनना चाहती.’’ ‘‘कैसी बात कर रही हो मम्मी,’’ रेखा नाराज हो गई, ‘‘तुम्हारे बेटा नहीं है तो क्या, बेटी तो है. मैं तुम्हारा खयाल रखूंगी. यहां रातबिरात आप की तबीयत बिगड़ेगी तो कौन संभालेगा?’’ ‘‘मैं मर भी गई तो क्या फर्क पड़ेगा. मेरी जिम्मेदारी तुम थीं जिसे मैं ने निभा दिया. जब तक अकेले रह पाना संभव होगा, रहूंगी. उस के बाद तुम लोग तो हो ही,’’ सुमन के इनकार से दोनों को निराशा हुई.

‘‘जैसी तुम्हारी मरजी. मैं तुम्हारी रोजाना खबर लेता रहूंगा. तुम भी निसंकोच फोन करती रहना. मोबाइल के रिचार्ज की चिंता मत करना, मैं समयसमय पर पैसे डलवाता रहूंगा,’’ राकेश बोला. सब चले गए. घर अकेला हो गया. विनोद थे तो इंतजार था. अब तो जैसी सुबह वैसी रात. 3 कमरों में सुमन टहलती रहती. एक रोज अलमारी की सफाई करते हुए उसे एक खत मिला. खत को गौर से देखा तो लिखावट विनोद की थी. वह पढ़ने लगी :

‘‘प्रिय सुमन,

अब मुझ से काम नहीं होता. 70 साल की अवस्था हो गई है. रोजाना 10-12 किलोमीटर साइकिल चला कर कचहरी जाना संभव नहीं. सोचता हूं कि घर बैठ जाऊं पर घरखर्च कैसे चलेगा. इस सवाल से मेरी रूह कांप जाती. ब्लडप्रैशर और शुगर ने जीना मुहाल कर दिया है, सो अलग. कभीकभी सोचता हूं खुदकुशी कर लूं. फिर तुम्हारा खयाल आता है कि तुम अकेली कैसे रहोगी? क्यों न हम दोनों एकसाथ खुदकुशी कर लें. हो सकता है कि यह सब तुम्हें बचकाना लगे. जरा सोचो, कौन है जो हमारी देखभाल करेगा? एक बेटा भी तो नहीं है. क्या बेटीदामाद से सेवा करवाना उचित होगा? बेटी का तो चल जाएगा मगर दामादजी, वे भला हमें क्यों रखना चाहेंगे? मैं तुम्हें कोई राय नहीं देना चाहूंगा क्योंकि हर आदमी को अपनी जिंदगी पर अधिकार है. हां, अगर मेरे करीब मौत आएगी तो मैं बचाव का प्रयास नहीं करूंगा. इस के लिए मुझे क्षमा करना. मैं ने मकान तुम्हारे नाम कर दिया है. मकान बेच कर तुम इतनी रकम पा सकती हो कि शेष जिंदगी तुम बेटीदामाद के यहां आसानी से काट सको.

तुम्हारा विनोद.’’

खत पढ़ कर सुमन की आंखें भीग गईं. तो क्या उन्हें अपनी मौत का भान था? यह सवाल सुमन के मस्तिष्क में कौंधा. सुमन ने अलमारी ठीक से खंगाली. उस में उसे एक जांच रिपोर्ट मिली. निश्चय ही रिपोर्ट में उन के हार्ट के संबंध में जानकारी होगी? रिपोर्ट 6 माह पुरानी थी. इस का मतलब विनोद को अपनी बीमारी की गंभीरता का पहले से ही पता था? उन्होंने जानबूझ कर इलाज नहीं करवाया. इलाज का मतलब लंबा खर्चा. कहां से इतना रुपया आएगा? यही सब सोच कर विनोद ने रिपोर्ट को छिपा दिया था. सुमन गहरी वेदना में डूब गई.

शेष जीवन: भाग 2- विनोद के खत में क्या लिखा था

‘‘तुम्हें तो बहाना चाहिए मुझे ताना मारने का.’’

‘‘क्यों न मारूं ताना? एक बाली तक खरीद कर ला न सके. जो हैं वही बेटी के काम आ रहे हैं. मुझे पहनने का मौका कब मिला?’’ ‘‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम,’’ विनोद ने हंसी की, ‘‘अब कौन सा सजसंवर कर बरात की शोभा बढ़ानी है तुम्हें.’’

‘‘जब थी तब ही कौन सा गहनों से लाद दिया था.’’

‘‘स्त्री का सब से बड़ा गहना उस का पति होता है.’’

‘‘रहने दीजिए, रहने दीजिए. खाली बातों से हम औरतों का दिल नहीं भरता. मैं मर्दों के चोंचले अच्छी तरह से जानती हूं. हजारों सालों से यही जुमले कह कर आप लोगों ने हम औरतों को बहलाया है.’’

‘‘तुम्हें कौन बहला सकता है.’’

‘‘बहकी हूं तभी तो 30 साल तुम्हारे साथ गुजार दिए.’’

‘‘नहीं तो क्या किसी के साथ भाग जातीं?’’

‘‘भाग ही जाती अगर कोई मालदार मिलता,’’ सुमन ने भी हंसी की. ‘‘भागना क्या आसान है? मुझ जैसा वफादार पति चिराग ले कर भी ढूंढ़तीं तो भी नहीं मिलता.’’ ‘‘वफादारी की चाशनी से पेट नहीं भरता. अंटी में रुपया भी चाहिए. वह तो आप से ताउम्र नहीं हुआ. थोड़े से गहने बचे हैं, उन्हें बेटी को दे कर खाली हो जाऊंगी,’’ सुमन जज्बाती हो गई, ‘‘औरतों की सब से बड़ी पूंजी यही होती है. बुरे वक्त में उन्हें इसी का सहारा होता है.’’ ‘‘कल कुछ बुरा हो गया तो दवादारू के लिए कुछ भी नहीं बचेगा.’’ सुमन के साथ विनोद भी गहरी चिंता में डूब गए, जब उबरे तो उसांस ले कर बोले, ‘‘यह मकान बेच देंगे.’’

‘‘बेच देंगे तो रहेंगे कहां?’’

‘‘किराए पर रह लेंगे.’’ ‘‘कितने दिन? वह भी पूंजी खत्म हो जाएगी तब क्या भीख मांगेंगे?’’ ‘‘तब की तब देखी जाएगी. अभी रेखा की शादी निबटाओ,’’ विनोद यथार्थ की तरफ लौटा. गहने लगभग 3 लाख रुपए के थे. एकाध सुमन अपने पास रखना चाहती थी. एकदम से खाली गले व कान से रहेगी तो समाज क्या कहेगा? खुद को भी अच्छा नहीं लगेगा. यही सोच कर सुमन ने तगड़ी और कान के टौप्स अपने पास रख लिए. वैसे भी 2 लाख रुपए के गहने ही देने का तय था. जैसेजैसे शादी के दिन नजदीक आ रहे थे वैसेवैसे चिंता के कारण सुमन का ब्लडप्रैशर बढ़ता जा रहा था. एकाध बार वह चक्कर खा कर गिर भी चुकी थी. विनोद ने जबरदस्ती ला कर दवा दी. खाने से आराम मिला मगर बीमारी तो बीमारी थी. अगर जरा सी लापरवाही करेगी तो कुछ भी हो सकता है. विनोद को शुगर और ब्लडप्रैशर दोनों था. तमाम परेशानियों के बाद भी वे आराम महसूस नहीं कर पाते. वकालत का पेशा ऐसा था कि कोई मुवक्किल बाजार का बना समोसा या मिठाई ला कर देता तो ना नहीं कर पाते. सुमन का हाल था कि वह अपने को देखे कि विनोद को. आखिर शादी का दिन आ ही गया, जिस को ले कर दोनों परेशान थे. रेखा सजने के लिए ब्यूटीपार्लर गई. विनोद की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘अब यह खर्चा कहां से दें? 5 हजार रुपए कम होते हैं. एकएक पैसा बचा रहा हूं जबकि मांबेटी बरबाद करने पर तुली हुई हैं.’’ ‘‘बेटी पैदा की है तो सहन करना भी सीखिए. इस का पेमैंट रेखा खुद करेगी. अब खुश.’’

यह सुन कर विनोद ने राहत की सास ली और चैन से बैठ गया. फुटकर सौ तरह के खर्च थे. शादी के चंद दिनों पहले वर के पिता बोले कि सिर्फ डीजे लाएंगे. अगर बैंड पार्टी करनी हो तो अपने खर्च पर करें. विनोद को तो कोई फर्क नहीं पड़ा, सुमन ने मुंह बना लिया, ‘‘कैसा लगेगा बिना बैंड पार्टी के?’’ ‘‘जैसा भी लगे, हमें क्या. हमें शादी से मतलब है. रेखा सात फेरे ले ले तो मैं गंगा नहाऊं.’’ विनोद के कथन पर सुमन चिढ़ गई, ‘‘चाहे तो अभी नहा लीजिए. लोकलाज भी कुछ चीज है. सादीसादी बरात आएगी तो कैसा लगेगा?’’ ‘‘जैसा भी लगे. मैं फूटी कौड़ी भी खर्च करने वाला नहीं,’’ थोड़ा रुक कर, ‘‘जब उन्हें कोई एतराज नहीं तो हम क्यों बिलावजह टांग अड़ाएं?’’

‘‘मुझे एतराज है,’’ सुमन बोली.

‘‘तो लगाओ अपनी जेब से रुपए,’’ विनोद खीझे.

‘‘मेरे पास रुपए होते तो मैं क्या आप का मुंह जोहती,’’ सुमन रोंआसी हो गई. तभी राकेश आया. दोनों का वार्त्तालाप उस के कानों में पड़ा. ‘‘दीदी, तुम बिलावजह परेशान होती हो. बाजे का मैं इंतजाम कर देता हूं.’’ सुमन ने जहां आंसू पोंछे वहीं विनोद के रुख पर वह लज्जित हुई. विनोद को अब भी आशंका थी कि लड़के वाले ऐन मौके पर कुछ और डिमांड न कर बैठें. सजधज कर रेखा बहुत ही सुंदर दिख रही थी. विनोद और सुमन की आंखें भर आईं. भला किस पिता को अपनी बेटी से लगाव नहीं रहेगा. विनोद को आज इस बात की कसक थी कि काश, उस की अच्छी कमाई होती तो निश्चय ही रेखा की बेहतर परवरिश करता. रातभर शादी का कार्यक्रम चलता रहा. भोर होते ही रेखा की विदाई होने लगी तो सभी की आंखें नम थीं. रेखा का रोरो कर बुरा हाल था. सिसकियों के बीच बोली, ‘‘मम्मी, पापा, मैं चली जाऊंगी तो आप लोगों का खयाल कौन करेगा?’’

‘‘उस की चिंता मत करो, बेटी,’’ सुमन नाक पोंछते हुए बोली. अपनी बड़ी मौसी की तरफ मुखातिब हो कर रेखा भर्राए कंठ से  बोली, ‘‘मौसी, इन का खयाल रखना. इन का मेरे सिवा है ही कौन?’’

‘‘ऐसा नहीं कहते, हम लोग भरसक इन की देखभाल करेंगे,’’ मौसी रेखा के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं. ‘‘मम्मी को अकसर गरमी में डिहाइड्रेशन हो जाता है. आप खयाल कर के दवा का इंतजाम कर दीजिएगा ताकि रातबिरात मां की हालत बिगड़े तो संभाला जा सके.’’

‘‘तू उस की फिक्र मत कर. मैं अकसर आतीजाती रहूंगी.’’ सुमन इस कदर रोई कि उस की हालत बिगड़ गई. एक हफ्ता बिस्तर पर थी. विनोद का भी मन नहीं लग रहा था. ऐसा लग रहा था मानो उन के शरीर का कोई हिस्सा उन से अलग हो गया हो. हालांकि रेखा 2 साल से बाहर नौकरी कर रही थी लेकिन तब तक एहसास था कि वह विनोद के परिवार का हिस्सा थी. अब तो हमेशा के लिए दूसरे परिवार का हिस्सा बन गई. उन्हीं के तौरतरीके से जीना होगा उसे. सुमन की तबीयत संभली तो रेखा को फोन किया.

‘‘हैलो, बेटा…’’

‘‘कैसी हो, मम्मी,’’ रेखा का गला भर आया.

‘‘ठीक हूं.’’

‘‘अपना खयाल रखना.’’

‘‘अब रखने का क्या औचित्य? बेटाबहू होते तो जीने का बहाना होता,’’ सुमन का कंठ भीग गया.

‘‘मम्मी,’’ रेखा ने डांटा, ‘‘आइंदा इस तरह की बातें कीं तो मैं आप से बात नहीं करूंगी,’’ उस ने बातचीत का विषय बदला, ‘‘जयपुर जा रही हूं,’’ रेखा के स्वर से खुशी स्पष्ट थी. ‘‘यह तुम लोगों ने अच्छा सोचा. यही उम्र है घूमनेफिरने की. बाद में कहां मौका मिलता है, घरगृहस्थी में रम जाओगी.’’ रेखा ने फोन रख दिया. विनोद ने सुना तो खुश हो गए. यहां भी सुमन ताना मारने से बाज न आई, ‘‘एक हमारी शादी हुई. बहुत हुआ तो आप ने रिकशे पर बिठा कर किसी हाटबाजार के दर्शन करा दिए. हो गया हनीमून…’’

‘‘बुढ़ापे में तुम्हें हनीमून सूझ रहा है.’’

‘‘मैं जवानी की बात कर रही हूं. शादी के पहले दिन आप रुपयों का रोना ले कर बैठ गए. आज 30 साल बाद भी रोना गया नहीं. कम से कम रेखा का पति इतना तो समझदार है कि अपनी बीवी को जयपुर घुमाने ले जा रहा है.’’ ‘‘सारी दुनिया बनारस घूमने आती है और तुम्हें जयपुर की पड़ी है,’’ विनोद ने अपनी खीझ मिटाई. ‘‘आप से तो बहस करना ही बेकार है. नईनई शादी की कुछ ख्वाहिशें होती हैं. उन्हें क्या बुढ़ापे में पूरी करेंगे?’’ ‘‘अब ऊपर जा कर पूरी करना,’’ कह कर विनोद अपने काम में लग गए. 3 साल गुजर गए. इस बीच रेखा 1 बेटे की मां बनी. ससुराल वाले ननिहाल का मुख देखने लगे. सुमन ने अपने हाथों की एक जोड़ी चूड़ी बेच कर अपने नाती के लिए सोने की पतली सी चेन, कपड़े और फल व मिठाइयों का प्रबंध किया. विनोद की हालत ऐसी नहीं थी कि वे इस सामान को ले जा सकें. वजह, उन्हें माइनर हार्ट का दौरा पड़ा था. चूंकि घर में और कोई नहीं था सो वे ही किसी तरह इलाहाबाद गए.

शेष जीवन: भाग 1- विनोद के खत में क्या लिखा था

‘‘ननदोईजी ठीक कहते हैं कि आप नाम के वकील हैं,’’ सुमन चिढ़ कर बोली.

‘‘खोज लेतीं कोई नाम वाला वकील. 6 बेटियों को पैदा करते हुए तुम्हारे बाप ने यह नहीं सोचा कि मेरे जैसे वकील से ही शादी होगी,’’ सुमन के पति विनोद ने उसी लहजे में जवाब दिया.

‘‘सोचा होता तो 6 बेटियां पैदा ही क्यों करते?’’

‘‘तो चुप रहो. मेरी ओर देखने से पहले अपने बारे में सोचो. तुम्हारे ननदोई को मैं अच्छी तरह से जानता हूं. वह एक नंबर का लंपट है. सारी जिंदगी नौकरी छोड़ कर भागता रहा. एकमात्र बेटी की शादी ढंग से न कर सका. चला है हम पर उंगली उठाने. मैं तो कम से कम अपनी जातिबिरादरी में बेटी की शादी कर रहा हूं. उस से तो वह भी नहीं करते बना.’’ जब से दोनों की इकलौती बेटी रेखा की शादी सुमन के भाई राकेश ने तय कराई तब से आएदिन दोनों में तूतू मैंमैं होती. इस की वजह दहेज में दी जाने वाली रकम थी. विनोद सारी जिंदगी वकालत कर के उम्र के 65वें बरस में सिर्फ 10-12 लाख रुपए ही जुटा पाए. इस में से 10 लाख रुपए खर्च हो गए तो भविष्य के लिए क्या बचेगा? यही सोचसोच कर दोनों दुबले हुए जा रहे थे. विनोद को यह आशंका सता रही थी कि अब वे कितने दिन वकालत कर पाएंगे? 2-4 साल तक और खींचतान कर कचहरी जा सकेंगे. उस के बाद? पुत्र कोई है नहीं जो बुढ़ापे में दोनों का सहारा बने. रहीसही इकलौती संतान बेटी थी जो एक प्राइवेट संस्थान में नौकरी करती थी. कल वह भी विदा हो कर चली जाएगी तब क्या होगा? उन की देखभाल कौन करेगा? घरखर्च कैसे चलेगा?

दहेज में दिया जाने वाला एकएक पैसा विनोद पर भारी पड़ रहा था. जबजब बैंक से रुपया निकालने जाते तबतब उन्हें लगता अपने खून का एक अंश बेच कर आ रहे हैं. मन झल्लाता तो कहते, रेखा भी प्रेमविवाह कर लेती तो ठीक होता. कम से कम दहेज से तो बच जाते. जातिबिरादरी का यह हाल है कि कमाऊ लड़की भी चाहिए, दहेज भी. इन को इतनी भी तमीज नहीं कि जब लड़की कमा रही है तो दहेज कहां से बीच में आ गया? विनोद की रातों की नींद गायब थी. वे अचानक उठ कर टहलने लगते. जितना सोचते, दिल उतना ही बैठने लगता. भविष्य में क्या होगा अगर मैं बीमार पड़ गया तो? अभी तक तो वकालत कर ली. घर से रोजाना 10 किलोमीटर कचहरी जाना क्या आसान है? 65 का हो चला हूं. रेखा 28वीं में चल रही थी. जहां भी शादी की बात चलाते 10 लाख से नीचे कोई बात ही नहीं करता. 23 साल की उम्र में रेखा ने सरकारी पौलिटैक्निक संस्थान से डिप्लोमा किया था. नौकरी लगी तो सब ने सोचा कि चलो, लड़की अपने पैरों पर खड़ी है तो लड़के वाले दहेज नहीं मांगेंगे. इस के बावजूद दहेजलोभियों का लोभ कम नहीं हुआ. विनोद झुंझलाते, कोई पुत्र होता तो वे भी दहेज ले कर हिसाब पूरा कर लेते.

सुमन रोजाना कुछ न कुछ खरीदने के लिए बाजार जाती. अभी से थोड़ीथोड़ी चीजें जुटाएगी तभी तो शादी कर पाएगी. आसपास कोई इतना करीबी भी नहीं था जिसे साथ ले कर बाजार निकल जाए. ले दे कर भाभी थीं जो उस के घर से 5 किलोमीटर दूर रहती थीं. अंगूठी एक से एक थीं, मगर सब महंगी. बड़ी मुश्किल से एक अंगूठी पसंद आई. विनोद को लगा सुमन ने कुछ ज्यादा महंगी अंगूठी खरीद ली. इसी बात पर वह उलझ गया, ‘‘क्या जरूरत थी महंगी अंगूठी खरीदने की?’’ ‘‘सोने का भाव कहां जा रहा है, आप को कुछ पता है. सब से सस्ती ली है.’’ ‘‘सब ढकोसला है. क्या हमारे समय में इतना भव्य इंगेजमैंट होता था? अधिक से अधिक दोचार लोग लड़की की तरफ से, चार लोग लड़के वालों की तरफ से 5 किलो लड्डू दिए, कुछ मेवे और फलफूल. हो गई रस्म. मगर नहीं, आज सौ लोगों को खिलाओपिलाओ, उस के बाद नेग भी दो. वह भी लड़की वालों के बलबूते पर,’’ विनोद की त्यौरियां चढ़ गईं.

‘‘करना ही होगा वरना चार लोग थूकेंगे. अपनी बेटी को भी अच्छा नहीं लगेगा. वह भी दस जगह गई है. उस के भी कुछ अरमान होंगे. उस का सादासादा इंगेजमैंट होगा तो उस के दिल पर क्या गुजरेगी.’’ ‘‘क्या वह हमारे हालात से वाकिफ नहीं है?’’ ‘‘बच्चों को इस से क्या मतलब? उन की भी कुछ ख्वाहिशें होती हैं. उन्हें चाहे जैसे भी हों, पूरी करनी ही पड़ेंगी,’’ सुमन ने दोटूक कहा. वह आगे बोली, ‘‘हम ने रेखा को दिया ही क्या है. अब तक वह बेचारी अभावों में ही पलीबढ़ी. लोगों के बच्चे महंगे अंगरेजी स्कूलों में पढ़े जबकि हम ने उसे सरकारी स्कूल में पढ़ाया. न ढंग से कपड़ा दिया, न ही खाना. सिर्फ बचाते ही रहे ताकि उस की शादी अच्छे से कर सकें,’’ वह भावुक हो गई. विनोद का भी जी भर आया. एकाएक उन के सोचने की दिशा बदल गई. रेखा ही उन के घर रौनक थी. जब वह विदा हो कर चली जाएगी तब वे दोनों अकेले घर में क्या करेंगे? कैसे समय कटेगा? सोच कर उन की आंखें पनीली हो गईं. सुमन की नजरों से उन के जज्बात छिप न सके. वह बोली, ‘‘क्या आप भी वही सोच रहे हैं जो मैं?’’

अपने मन में उमड़ते भावों के ज्वार को छिपाते हुए वे बोले, ‘‘मैं समझा नहीं?’’ ‘‘बनते क्यों हैं? आप की यही आदत मुझे पसंद नहीं.’’

‘‘तुम्हें तो मैं हमेशा नापसंद रहा.’’

‘‘गलत क्या है? आप से शादी कर के मुझे कौन सा सुख मिला? आधाअधूरा आप के पिता का बनवाया यह मकान उस पर आप के पेशे की थोड़ी सी कमाई.’’

‘‘भूखों तो नहीं मरने दिया.’’

‘‘मन का भोजन न मिले तो समझो भूखे ही रहे. राशन की दुकान सभी ने छोड़ दी. कौन जाए पूरा दिन खराब करने? एक मैं ही थी जो आज तक 10 किलो गेहूं खरीदने के लिए दिनभर राशन की दुकान की लाइन में लगती रही. शर्म आती है मुझे एक वकील की बीवी कहते हुए.’’ ‘‘देखो, मेरा दिमाग मत खराब करो. बेटी की शादी कर लेने दो.’’

‘‘उस के बाद क्या कुबेर का खजाना मिलेगा?’’

‘‘मौत तो मिलेगी. कम से कम तुम्हारे उलाहने से मुक्ति तो मिलेगी,’’ विनोद का स्वर तल्ख था. तभी किसी के आने की आहट हुई. सुमन का भाई राकेश था. दोनों ने चुप्पी साध ली. सुमन को एक तरफ ले जा कर उस ने कुछ रुपए दिए. ‘‘ये 10 हजार रुपए हैं, रख लो. आगे भी जो बन पड़ेगा, देता रहूंगा. इस बार गांव में गेहूं की फसल अच्छी हुई है. आटे की चिंता मत करना.’’ सुमन की आंखें भर आईं. जैसे ही वह गया, सुमन फिर विनोद से उलझ पड़ी, ‘‘एक आप के परिवार के लोग हैं. मदद तो दूर झांकने भी नहीं आते.’’

‘‘झांकने लायक तुम ने किसी को छोड़ा है?’’

‘‘तुम्हीं लायक बन जाते उन के लिए.’’ ‘‘लायक होता तो तुम्हारी लताड़ सुनता. आजकल सब रुपयों के भूखे हैं. न मेरे पास रुपए थे, न ही परिवार वालों ने हमें तवज्जुह दी.’’

‘‘अब समझ में आया.’’

‘‘समझ तो मैं पहले ही गया था. तभी तो अपने बेटे की बीमारी में बड़ी बहन रुपए मांगती रही, मगर मैं ने फूटी कौड़ी भी नहीं दी. जबकि खेत बेचने के बाद उस समय मेरे पास रकम थी.’’ ‘‘अच्छा किया, दे देते तो आज भीख मांगते नजर आते.’’ इंगेजमैंट में सुमन ने सिर्फ अपने भाईबहनों को न बुला कर यही संदेश दिया कि उस की कूवत नहीं है बहुत ज्यादा लोगों को खिलानेपिलाने की. इस में दोराय नहीं, ऐसा ही था. मगर थोड़े से रपए बचा कर बिलावजह रिश्तेदारों को नाराज करना कहां की समझदारी थी. सुमन के पास अपनी सास के चढ़ाए कुछ गहने थे, जो उस ने सहेज कर रखे थे. शादीब्याह में भी पहन कर नहीं जाती थी कि कहीं गिर गए तो? विनोद की इतनी कमाई नहीं थी कि वे उसे एक तगड़ी भी खरीद कर दे सकें. ताउम्र उस की साध ही रह गई कि पति की कमाई से एक तगड़ी और चूड़ी अपनी पसंद की खरीदें, यह कसक आज भी ज्यों की त्यों थी. सुमन संदूक खोल कर उन गहनों को देख रही थी. विनोद भी पास थे. ‘‘काफी वजनी गहने हैं मेरी मां के,’’ विनोद की आंखें चमक उठीं. ‘‘मां के ही न,’’ सुमन के चेहरे पर व्यंग्य की रेखा तिर गई.

बंद खिड़की: मंजू का क्या था फैसला

‘‘मौसी की बेटी मंजू विदा हो चुकी थी. सुबह के 8 बज गए थे. सभी मेहमान सोए थे. पूरा घर अस्तव्यस्त था. लेकिन मंजू की बड़ी बहन अलका दीदी जाग गई थीं और घर में बिखरे बरतनों को इकट्ठा कर के रसोई में रख रही थीं.

अलका को काम करता देख रचना, जो उठने  की सोच रही थी ने पूछा, ‘‘अलका दीदी क्या समय हुआ है?’’

‘‘8 बज रहे हैं.’’

‘‘आप अभी से उठ गईं? थोड़ी देर और आराम कर लेतीं. बहन के ब्याह में आप पूरी रात जागी हो. 4 बजे सोए थे हम सब. आप इतनी जल्दी जाग गईं… कम से कम 2 घंटे तो और सो लेतीं.

अलका मायूस हंसी हंसते हुए बोलीं, ‘‘अरे, हमारे हिस्से में कहां नींद लिखी है. घंटे भर में देखना, एकएक कर के सब लोग उठ जाएंगे और उठते ही सब को चायनाश्ता चाहिए. यह जिम्मेदारी मेरे हिस्से में आती है. चल उठ जा, सालों बाद मिली है. 2-4 दिल की बातें कर लेंगी. बाद में तो मैं सारा दिना व्यस्त रहूंगी. अभी मैं आधा घंटा फ्री हूं.’’ रचना अलका दीदी के कहने पर झट से बिस्तर छोड़ उठ गई. यह सच था कि दोनों चचेरी बहनें बरसों बाद मिली थीं. पूरे 12 साल बाद अलका दीदी को उस ने ध्यान से देखा था. इस बीच न जाने उन पर क्याक्या बीती होगी.

उस ने तो सिर्फ सुना ही था कि दीदी ससुराल छोड़ कर मायके रहने आ गई हैं. वैसे तो 1-2 घंटे के लिए कई बार मिली थीं वे पर रचना ने कभी इस बारे में खुल कर बात नहीं की थी. गरमी की छुट्टियों में अकसर अलका दीदी दिल्ली आतीं तो हफ्ता भर साथ रहतीं. खूब बनती थी दोनों की. पर सब समय की बात थी. रचना फ्रैश हो कर आई तो देखा अलका दीदी बरामदे में कुरसी पर अकेली बैठी थीं.

‘‘आ जा यहां… अकेले में गप्पें मारेंगे…. एक बार बचपन की यादें ताजा कर लें,’’ अलका दीदी बोलीं और फिर दोनों चाय की चुसकियां लेने लगीं.

‘‘दीदी, आप के साथ ससुराल वालों ने ऐसा क्या किया कि आप उन्हें छोड़ कर हमेशा के लिए यहां आ गईं?’’

‘‘रचना, तुझ से क्या छिपाना. तू मेरी बहन भी है और सहेली भी. दरअसल, मैं ही अकड़ी हुई थी. पापा की सिर चढ़ी लाडली थी, अत: ससुराल वालों की कोई भी ऐसी बात जो मुझे भली न लगती, उस का जवाब दे देती थी. उस पर पापा हमेशा कहते थे कि वे 1 कहें तो तू 4 सुनाना. पापा को अपने पैसे का बड़ा घमंड था, जो मुझ में भी था.’’

दीदी ने चाय का घूंट लेते हुए आगे कहा, ‘‘गलती तो सब से होती है किंतु मेरी गलती पर कोई मुझे कुछ कहे मुझे सहन न था. बस मेरा तेज स्वभाव ही मेरा दुश्मन बन गया.’’

चाय खत्म हो गई थी. दीदी के दुखों की कथा अभी बाकी थी. अत: आगे बोलीं, ‘‘मेरे सासससुर समझाते कि बेटा इतनी तुनकमिजाजी से घर नहीं चलते. मेरे पति सुरेश भी मेरे इस स्वभाव से दुखी थे. किंतु मुझे किसी की परवाह न थी. 1 वर्ष बाद आलोक का जन्म हुआ तो मैं ने कहा कि 40 दिन बाद मैं मम्मीपापा के घर जाऊंगी. यहां घर ठंडा है, बच्चे को सर्दी लग जाएगी.’’ मैं दीदी का चेहरा देख रही थी. वहां खुद के संवेगों के अलावा कुछ न था.

‘‘मैं जिद कर के मायके आ गई तो फिर नहीं गई. 6 महीने, 1 वर्ष… 2 वर्ष… जाने कितने बरस बीत गए. मुझे लगा, एक न एक दिन वे जरूर आएंगे, मुझे लेने. किंतु कोई न आया. कुछ वर्ष बाद पता लगा सुरेश ने दूसरा विवाह कर लिया है,’’ और फिर अचानक फफकफफक कर रोने लगीं. मैं 20 वर्ष पूर्व की उन दीदी को याद कर रही थी जिन पर रूपसौंदर्य की बरसात थी. हर लड़का उन से दोस्ती करने को लालायित रहता था. किंतु आज 35 वर्ष की उम्र में 45 की लगती हैं. इसी उम्र में चेहरा झुर्रियों से भर गया था.

मुझे अपलक उन्हें देखते काफी देर हो गई, तो वे बोलीं, ‘‘मेरे इस बूढ़े शरीर को देख रही हो… लेकिन इस घर में मेरी इज्जत कोई नहीं करता. देखती नहीं मेरे भाइयों और भाभियों को? वे मेरे बेटे आलोक और मुझे नौकरों से भी बदतर समझते हैं. पहले सब ठीक था. पापा के जाते ही सब बदल गए. भाभियों की घिसी साडि़यां मेरे हिस्से आती हैं तो भतीजों की पुरानी पैंटकमीजें मेरे बेटे को मिलती हैं. इन के बच्चे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं और मेरा बेटा सरकारी स्कूल में. 15 वर्ष का है आलोक 7वीं में ही बैठा है. 3 बार 7वीं में फेल हो चुका है. अब क्या कहूं,’’ और दीदी ने साड़ी के किनारे से आंखें पोंछ कर धीरे से आगे कहा, ‘‘भाई अपने बेटों के नाम पर जमीन पर जमीन खरीदते जा रहे हैं, पर मेरे बेटे के लिए क्या है? कुछ नहीं. घर के सारे लोग गरमी की छुट्टियों में घूमने जाते हैं और हम यहां बीमार मम्मी की सेवा और घर की रखवाली करते हैं.

‘‘तू तो अपनी है, तुझ से क्या छिपाऊं… जवान जोड़ों को हाथ में हाथ डाल कर घूमते देखती हूं तो मनमसोस कर रह जाती हूं.’’

मैं दीदी को अवाक देख रही थी, किंतु वे थकी आवाज में कह रही थीं, ‘‘रचना, आज मैं बंद कमरे का वह पक्षी हूं जिस ने अपने पंखों को स्वयं कमरे की दीवारों से टक्कर मार कर तोड़ा है. आज मैं एक खाली बरतन हूं, जिसे जो चाहे पैर से मार कर इधर से उधर घुमा रहा है…’’  आज मैं अकेलेपन का पर्याय बन कर रह गई हूं.’’

दीदी का रोना देखा न जाता था, किंतु आज मैं उन्हें रोकना नहीं चाहती थी. उन के मन में जो था, उसे बह जाने देना चाहती थी. थोड़ी देर चुप रहने के बाद अलका दीदी आगे बोलीं, ‘‘सच तो यह है कि मेरी गलती की सजा मेरा बेटा भी भुगत रहा है… मैं उसे वह सब न दे पाई जिस का वह हकदार था… न पिता का प्यार न सुखसुविधाओं वाला जीवन… कुछ भी तो न मिला. सोचती हूं आखिर मैं ने यह क्या कर डाला? अपने साथ उसे भी बंद गली में ले आई… क्यों मैं ने उस की खुशियों की खिड़की बंद कर दी,’’ और फिर दीदी की रुलाई फूट पड़ी. उन का रोना सुन कर 2-3 रिश्तेदार भी आ गए. पर अच्छा हुआ जो तभी बूआ ने किचन से आवाज लगा दी, ‘‘अरी अलका, आ जल्दी… आलू उबल गए हैं.’’

दीदी साड़ी के पल्लू से अपनी आंखें पोंछते हुए उठ खड़ी हुईं. फिर बोली, ‘‘देख मुझे पता है कि तू भी अपनी मां के पास आ गई है, पति को छोड़ कर. पर सुन इज्जत की जिंदगी जीनी है तो अपना घर न छोड़ वरना मेरी तरह पछताएगी.’’ अलका दीदी की बात सुन कर रचना किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई. यह एक भयानक सच था. उसे लगा कि राजेश और उस के बीच जरा सी तकरार ही तो हुई है. राजेश ने किसी छोटी से गलती पर उसे चांटा मार दिया था, पर बाद में माफी भी मांग ली थी. फिर रचना की मां ने भी उसे समझाया था कि ऐसे घर नहीं छोड़ते. उस ने तुझ से माफी भी मांग ली है. वापस चली जा. रचना सोच रही थी कि अगर कल को उस के भैयाभाभी भी आलोक की तरह उस के बेटे के साथ दुर्व्यवहार करेंगे तो क्या पता मेरे साथ भी दीदी जैसा ही कुछ होगा… फिर नहीं… नहीं… कह कर रचना ने घबरा कर आंखें बंद कर लीं और थोड़ी देर बाद हीपैकिंग करने लगी. अपने घर… यानी राजेश के घर जाने के लिए. उसे बंद खिड़की को खोलना था, जिसे उस ने दंभवश बंद कर दिया था. बारबार उन के कानों में अलका दीदी की यह बात गूंज रही थी कि रचना इज्जत से रहना चाहती हो तो घर अपना घर कभी न छोड़ना.

अनोखा रिश्ता: कौन थी मिसेज दास

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