पढ़ी-लिखी तन्वी भी सुखशांति, मायके की इज्जत और छोटी बहनों के भविष्य के बारे में सोचसोच कर वर्षों तक अजीत की ज्यादतियां बरदाश्त करती रही और अपमान के कड़वे घूंट पी कर भी चुप रही, पर अब सब कुछ असहनीय हो गया था. तन्वी को लगने लगा कि अब वह और नहीं बरदाश्त कर पाएगी और अंतत: उसे अपना घर छोड़ने जैसा कदम उठाना पड़ गया.
अपना अपमान और तिरस्कार तो तन्वी कैसे भी बरदाश्त कर रही थी, पर आस्था के साथ भी अजीत का वही रवैया उस से बरदाश्त न हो पाया. कुछ दिन पहले ही आस्था की तबीयत खराब होने पर अजीत का जो व्यवहार था, उसे देख कर भविष्य में अजीत के सुधरने की जो एक छोटी सी उम्मीद थी, वह भी जाती रही.
उस ने सुना था कि बच्चा होने के बाद पतिपत्नी में प्यार बढ़ता है, क्योंकि बच्चा दोनों को आपस में बांध देता है. इसी उम्मीद पर उस ने 10 वर्ष तक संयम रखा कि शायद पिता बनने के बाद अजीत के अंदर कुछ परिवर्तन आ जाए, पर ऐसा कुछ भी न हुआ. शादी के 10 साल बाद इतनी मुश्किलों से हुई बेटी से भी अजीत का कोई लगाव नहीं झलकता था. आस्था के प्रति अजीत का उस दिन का रवैया सोच कर आज भी तन्वी की आंखें नम हो जाती हैं.
उस दिन सुबह जब तन्वी ने आस्था को गोद में उठाया, तो उसे ऐसा लगा कि उस का शरीर कुछ गरम है. थर्मामीटर लगाया तो 102 बुखार था. दिसंबर का महीना था और बेमौसम बारिश से गला देने वाली ठंड पड़ रही थी. ऐसे में आटोरिकशा में आस्था को डाक्टर के पास ले कर जाना तन्वी को ठीक नहीं लगा. अत: उस ने औफिस फोन कर के अजीत को आने को कहा तो उस ने थोड़ी देर में आने के लिए कहा.
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तन्वी इंतजार करती रही थी पर शाम तक न ही अजीत आया और न ही उस का फोन. आस्था का बुखार बढ़ता गया और शाम होतेहोते उसे लूज मोशन के साथसाथ उलटियां भी होने लगीं. घबरा कर उस ने दोबारा अजीत को फोन किया, तो उस ने बताया कि वह अपने बौस के यहां बर्थडे पार्टी में है और 2 घंटे में घर पहुंचेगा.
तन्वी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि जिस की बेटी बुखार में तप रही हो वह उसे डाक्टर को दिखाने के बजाय बर्थडे पार्टी अटैंड कर रहा है. बाहर का मौसम और आस्था की हालत देखते हुए तन्वी के हाथपैर ठंडे हो गए और उस की आंखों से बेबसी के आंसू निकल पड़े.
उस ने किसी तरह खुद को संयत किया और पड़ोस में रहने वाली अपनी एक सहेली को फोन कर के उस से मदद मांगी. संयोग से उस के पति औफिस से आ चुके थे. वे अपनी गाड़ी से आस्था और तन्वी को डाक्टर के पास ले गए. वहां डाक्टर ने आस्था की हालत देख कर तन्वी को खूब डांट लगाई कि बच्चे को अब तक घर पर रख कर उस की हालत इतनी बिगाड़ दी. अपने आवेगों पर नियंत्रण रख बुखार में तपती बेसुध आस्था को ले कर जब तन्वी घर पहुंची तो घर के बाहर अजीत को खड़ा पाया. हड़बड़ी में ताला लगा कर तन्वी चाबी पड़ोस में देना भूल गई थी.
तन्वी को देखते ही अजीत उस पर बरस पड़ा, ‘‘चाबी दे कर नहीं जा सकती थीं? घंटे भर से बाहर खड़ा इंतजार कर रहा हूं मैं.’’
हालांकि अजीत का ऐसा अमानवीय व्यवहार तन्वी के लिए कोई आश्चर्यजनक नहीं था, फिर भी साथ में खड़ी सहेली और उस के पति की वजह से तन्वी का चेहरा अपमान से लाल हो गया. लेकिन उस ने अपने सारे संवेगों को दबाते हुए बात को सहज बनाते हुए कहा, ‘‘आस्था की हालत देख कर मैं इतनी घबरा गई कि हड़बड़ी में चाबी देना याद ही नहीं रहा.’’
‘‘बुखार ही तो था कोई मर तो नहीं रही थी, जो सुना रही हो कि हालत बिगड़ रही थी,’’ कहते हुए उस ने तन्वी के हाथ से चाबी ली और दरवाजा खोल कर अंदर चला गया.
बाहर खड़ी तन्वी की सहेली और उस के पति को धन्यवाद के शब्द कहना तो दूर उन की ओर नजर उठा कर देखने तक की जहमत नहीं उठाई उस ने. अपमान से लाल हुई तन्वी मुंह से कुछ न कह सकी, बस हाथ जोड़ कर अपनी डबडबाई आंखों से उन के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर कर दी.
अजीत की अमानवीयता पर आश्चर्यचकित वे दोनों तन्वी को आंखों से ही हौसला बंधाते हुए वहां से चले गए. तन्वी अंदर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि अजीत का अगला बाण चल निकला, ‘‘यारों के साथ ही जाना था, तो मुझे फोन करने का नाटक करने की क्या जरूरत थी?’’
उस समय तन्वी का मन किया था कि पास पड़ा गुलदस्ता उठा कर अजीत के सिर पर दे मारे, पर आस्था की मम्मीमम्मी की आवाज सुन उस ने स्वयं को रोक लिया और ‘तुम जैसा गंदी मानसिकता वाला इंसान इस से ज्यादा और सोच ही क्या सकता है?’ कहते हुए स्वयं को आस्था के साथ कमरे में बंद कर लिया.
उस रात तन्वी बहुत आहत हुई थी. ऐसा नहीं था कि अजीत ने पहली बार उस के साथ इतना संवेदनहीन व्यवहार किया था, पर इस बार बात केवल तन्वी के दिल को पहुंची चोट तक ही सीमित नहीं थी. बेटी का तिरस्कार और उस के लिए ‘मर तो नहीं रही थी’ जैसे शब्द, पड़ोसियों का अपमान, पड़ोसियों के सामने उस की बेइज्जती और फिर उस के चरित्र पर कसा हुआ फिकरा, सब कुछ एकसाथ मिल कर उस के मस्तिष्क में कुलबुलाहट पैदा कर रहा था और सब्र को तारतार कर रहा था.
इस तरह का व्यवहार करना इंसान की कायरता की पहली निशानी होती है. कायर इंसान ही अपनी गलती को छिपाने के लिए अनायास दूसरों पर चीखते और चिल्लाते हैं. वे समझते हैं कि चीख और चिल्ला कर, अपनी गलती दूसरे पर थोप कर वे सब के सामने निर्दोष सिद्ध हो जाएंगे, पर वे बहुत गलत सोचते हैं.
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उन के ऐसे व्यवहार से दूसरों के मन में उन के लिए नफरत के अलावा और कुछ उत्पन्न नहीं होता. अजीत ने भी वही किया. उस के समय पर न पहुंचने के लिए उसे तन्वी या कोई और कुछ कह न सके, इस से बचने के लिए उस ने पहले ही तन्वी पर आरोपों की झड़ी लगा कर खुद की गलती ढकने की एक तुच्छ कोशिश की. अजीत की बातों से आहत तन्वी की वह सारी रात रोतेरोते ही गुजर गई.
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