बहू: दीपक ने शोभा को क्यों त्याग दिया था?

बहू शब्द सुनते ही मन में सब से पहला विचार यही आता है कि बहू तो सदा पराई होती है. लेकिन मेरी शोभा भाभी से मिल कर हर व्यक्ति यही कहने लगता है कि बहू हो तो ऐसी. शोभा भाभी ने न केवल बहू का, बल्कि बेटे का भी फर्ज निभाया. 15 साल पहले जब उन्होंने दीपक भैया के साथ फेरे ले कर यह वादा किया था कि वे उन के परिवार का ध्यान रखेंगी व उन के सुखदुख में उन का साथ देंगी, तब से वह वचन उन्होंने सदैव निभाया.

जब बाबूजी दीपक भैया के लिए शोभा भाभी को पसंद कर के आए थे तब बूआजी ने कहा था, ‘‘बड़े शहर की लड़की है भैयाजी, बातें भी बड़ीबड़ी करेगी. हमारे छोटे शहर में रह नहीं पाएगी.’’

तब बाबूजी ने मुसकरा कर कहा था, ‘‘दीदी, मुझे लड़की की सादगी भा गई. देखना, वह हमारे परिवार में खुशीखुशी अपनी जगह बना लेगी.’’

बाबूजी की यह बात सच साबित हुई और शोभा भाभी कब हमारे परिवार का हिस्सा बन गईं, पता ही नहीं चला. भाभी हमारे परिवार की जान थीं. उन के बिना त्योहार, विवाह आदि फीके लगते थे. भैया सदैव काम में व्यस्त रहते थे, इसलिए घर के काम के साथसाथ घर के बाहर के काम जैसे बिजली का बिल जमा करना, बाबूजी की दवा आदि लाना सब भाभी ही किया करती थीं.

मां के देहांत के बाद उन्होंने मुझे कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी. इसी बीच राहुल के जन्म ने घर में खुशियों का माहौल बना दिया. सारा दिन बाबूजी उसी के साथ खेलते रहते. मेरे दोनों बच्चे अपनी मामी के इस नन्हे तोहफे से बेहद खुश थे. वे स्कूल से आते ही राहुल से मिलने की जिद करते थे. मैं जब

भी अपने पति दिनेश के साथ अपने मायके जाती तो भाभी न दिन देखतीं न रात, बस

सेवा में लग जातीं. इतना लाड़ तो मां भी नहीं करती थीं.

एक दिन बाबूजी का फोन आया और उन्होंने कहा, ‘‘शालिनी, दिनेश को ले कर फौरन चली आ बेटी, शोभा को तेरी जरूरत है.’’

मैं ने तुरंत दिनेश को दुकान से बुलवाया और हम दोनों घर के लिए निकल पड़े. मैं सारा रास्ता परेशान थी कि आखिर बाबूजी ने इस समय हमें क्यों बुलाया और भाभी को मेरी जरूरत है, ऐसा क्यों कहा? मन में सवाल ले कर जैसे ही घर पहुंची तो देखा कि बाहर टैक्सी खड़ी थी और दरवाजे पर 2 बड़े सूटकेस रखे थे. कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है. अंदर जाते ही देखा कि बाबूजी परेशान बैठे थे और भाभी चुपचाप मूर्ति बन कर खड़ी थीं.

भैया गुस्से में आए और बोले, ‘‘उफ, तो अब अपनी

वकालत करने के लिए शोभा ने आप लोगों को बुला लिया.’’

भैया के ये बोल दिल में तीर की तरह लगे. तभी दिनेश बोले, ‘‘क्या हुआ भैया आप सब इतने परेशान क्यों हैं?’’

इतना सुनते ही भाभी फूटफूट कर रोने लगीं.

भैया ने गुस्से में कहा, ‘‘कुछ नहीं दिनेश, मैं ने अपने जीवन में एक महत्त्वपूर्ण फैसला लिया है जिस से बाबूजी सहमत नहीं हैं. मैं विदेश जाना चाहता हूं, वहां बहुत अच्छी नौकरी मिल रही है, रहने को मकान व गाड़ी भी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है भैया,’’ दिनेश ने कहा.

दिनेश कुछ और कह पाते, तभी भैया बोले, ‘‘मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई दिनेश, मैं अब अपना जीवन अपनी पसंद से जीना चाहता हूं, अपनी पसंद के जीवनसाथी के साथ.’’

यह सुनते ही मैं और दिनेश हैरानी से भैया को देखने लगे. भैया ऐसा सोच भी कैसे सकते थे. भैया अपने दफ्तर में काम करने वाली नीला के साथ घर बसाना चाहते थे.

‘‘शोभा मेरी पसंद कभी थी ही नहीं. बाबूजी के डर के कारण मुझे यह विवाह करना पड़ा. परंतु कब तक मैं इन की खुशी के लिए अपनी इच्छाएं दबाता रहूंगा?’’

मैं बाबूजी के पैरों पर गिर कर रोती हुई बोली, ‘‘बाबूजी, आप भैया से कुछ कहते क्यों नहीं? इन से कहिए ऐसा न करें, रोकिए इन्हें बाबूजी, रोक लीजिए.’’

चारों ओर सन्नाटा छा गया, काफी सोच कर बाबूजी ने भैया से कहा, ‘‘दीपक, यह अच्छी बात है कि तुम जीवन में सफलता प्राप्त कर रहे हो पर अपनी सफलता में तुम शोभा को शामिल नहीं कर रहे हो, यह गलत है. मत भूलो कि तुम आज जहां हो वहां पहुंचने में शोभा ने तुम्हारा भरपूर साथ दिया. उस के प्यार और विश्वास का यह इनाम मत दो उसे, वह मर जाएगी,’’ कहते हुए बाबूजी की आंखों में आंसू आ गए.

भैया का जवाब तब भी वही था और वे हम सब को छोड़ कर अपनी अलग

दुनिया बसाने चले गए.

बाबूजी सदा यही कहते थे कि वक्त और दुनिया किसी के लिए नहीं रुकती, इस बात का आभास भैया के जाने के बाद हुआ. सगेसंबंधी कुछ दिन तक घर आते रहे दुख व्यक्त करने, फिर उन्होंने भी आना बंद कर दिया.

जैसेजैसे बात फैलती गई वैसेवैसे लोगों का व्यवहार हमारे प्रति बदलता गया. फिर एक दिन बूआजी आईं और जैसे ही भाभी उन के पांव छूने लगीं वैसे ही उन्होंने चिल्ला कर कहा, ‘‘हट बेशर्म, अब आशीर्वाद ले कर क्या करेगी? हमारा बेटा तो तेरी वजह से हमें छोड़ कर चला गया. बूढ़े बाप का सहारा छीन कर चैन नहीं मिला तुझे अब क्या जान लेगी हमारी? मैं तो कहती हूं भैया इसे इस के मायके भिजवा दो, दीपक वापस चला आएगा.’’

बाबूजी तुरंत बोले, ‘‘बस दीदी, बहुत हुआ. अब मैं एक भी शब्द नहीं सुनूंगा. शोभा इस घर की बहू नहीं, बेटी है. दीपक हमें इस की वजह से नहीं अपने स्वार्थ के लिए छोड़ कर गया है. मैं इसे कहीं नहीं भेजूंगा, यह मेरी बेटी है और मेरे पास ही रहेगी.’’

बूआजी ने फिर कहा, ‘‘कहना बहुत आसान है भैयाजी, पर जवान बहू और छोटे से पोते को कब तक अपने पास रखोगे? आप तो कुछ कमाते भी नहीं, फिर इन्हें कैसे पालोगे? मेरी सलाह मानो इन दोनों को वापस भिजवा दो. क्या पता शोभा में ऐसा क्या दोष है, जो दीपक इसे अपने साथ रखना ही नहीं चाहता.’’

यह सुनते ही बाबूजी को गुस्सा आ गया और उन्होंने बूआजी को अपने घर से चले जाने को कहा. बूआजी तो चली गईं पर उन की

कही बात बाबूजी को चैन से बैठने नहीं दे रही थी. उन्होंने भाभी को अपने पास बैठाया और कहा, ‘‘बस शोभा, अब रो कर अपने आने

वाले जीवन को नहीं जी सकतीं. तुझे बहादुर बनना पड़ेगा बेटा. अपने लिए, अपने बच्चे

के लिए तुझे इस समाज से लड़ना पड़ेगा.

तेरी कोई गलती नहीं है. दीपक के हिस्से

तेरी जैसी सुशील लड़की का प्यार नहीं है.

तू चिंता न कर बेटा, मैं हूं न तेरे साथ और हमेशा रहूंगा.’’

वक्त के साथ भाभी ने अपनेआप को संभाल लिया. उन्होंने कालेज में नौकरी कर ली और शाम को घर पर भी बच्चों को पढ़ाने लगीं. समाज की उंगलियां भाभी पर उठती रहीं, पर उन्होंने हौसला नहीं छोड़ा. राहुल को स्कूल में डालते वक्त थोड़ी परेशानी हुई पर भाभी ने सब कुछ संभालते हुए सारे घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली.

भाभी ने यह साबित कर दिया कि अगर औरत ठान ले तो वह अकेले पूरे समाज से लड़ सकती है. इस बीच भैया की कोई खबर नहीं आई. उन्होंने कभी अपने परिवार की खोजखबर नहीं ली. सालों बीत गए भाभी अकेली परिवार चलाती रहीं, पर भैया की ओर से कोई मदद नहीं आई.

एक दिन भाभी का कालेज से फोन आया, ‘‘दीदी, घर पर ही हो न शाम को?

आप से कुछ बातें करनी हैं.’’

‘‘हांहां भाभी, मैं घर पर ही हूं आप

आ जाओ.’’

शाम 6 बजे भाभी मेरे घर पहुंचीं. थोड़ी परेशान लग रही थीं. चाय पीने के बाद मैं ने उन से पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी कुछ परेशान लग रही हो? घर पर सब ठीक है?’’

थोड़ा हिचकते हुए भाभी बोलीं, ‘‘दीदी, आप के भैया का खत आया है.’’

मैं अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. बोली, ‘‘इतने सालों बाद याद आई उन को अपने परिवार की या फिर नई बीवी ने बाहर निकाल दिया उन को?’’

‘‘ऐसा न कहो दीदी, आखिर वे आप के भाई हैं.’’

भाभी की बात सुन कर एहसास हुआ कि आज भी भाभी के दिल के किसी कोने में भैया हैं. मैं ने आगे बढ़ कर पूछा, ‘‘भाभी, क्या लिखा है भैया ने?’’

भाभी थोड़ा सोच कर बोलीं, ‘‘दीदी, वे चाहते हैं कि बाबूजी मकान बेच कर उन के साथ चल कर विदेश में रहें.’’

‘‘क्या कहा? बाबूजी मकान बेच दें? भाभी, बाबूजी ऐसा कभी नहीं करेंगे और अगर वे ऐसा करना भी चाहेंगे तो मैं उन्हें कभी ऐसा करने नहीं दूंगी. भाभी, आप जवाब दे दीजिए कि ऐसा कभी नहीं होगा. वह मकान बाबूजी के लिए सब कुछ है, मैं उसे कभी बिकने नहीं दूंगी. वह मकान आप का और राहुल का सहारा है. भैया को एहसास है कि अगर वह मकान नहीं होगा तो आप लोग कहां जाएंगे? आप के बारे में तो नहीं पर राहुल के बारे में तो सोचते. आखिर वह उन का बेटा है.’’

मेरी बातें सुन कर भाभी चुप हो गईं और गंभीरता से कुछ सोचने लगीं. उन्होंने यह बात अभी बाबूजी से छिपा रखी थी. हमें समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें, तभी दिनेश आ गए और हमें परेशान देख कर सारी बात पूछी. बात सुन कर दिनेश ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, आप को यह बात बाबूजी को बता देनी चाहिए. दीपक भैया के इरादे कुछ ठीक नहीं लग रहे.’’

यह सुनते ही भाभी डर गईं. फिर हम तीनों तुरंत घर के लिए निकल पड़े. घर जा कर

भाभी ने सारी बात विस्तार से बाबूजी को बता दी. बाबूजी कुछ विचार करने लगे. उन के चेहरे से लग रहा था कि भैया ऐसा करेंगे उन्हें इस बात की उम्मीद थी. उन्होंने दिनेश से पूछा, ‘‘दिनेश, तुम बताओ कि हमें क्या करना चाहिए?’’

दिनेश ने कहा, ‘‘दीपक आप के बेटे हैं तो जाहिर सी बात है कि इस मकान पर उन का अधिकार बनता है. पर यदि आप अपने रहते यह मकान भाभी या राहुल के नाम कर देते हैं तो फिर भैया चाह कर भी कुछ नहीं कर सकेंगे.’’

दिनेश की यह बात सुन कर बाबूजी ने तुरंत फैसला ले लिया कि वे अपना मकान भाभी के नाम कर देंगे. मैं ने बाबूजी के इस फैसले को मंजूरी दे दी और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे सही कर रहे हैं.

ठीक 10 दिन बाद भैया घर आ पहुंचे और आ कर अपना हक मांगने लगे. भाभी पर इलजाम लगाने लगे कि उन्होंने बाबूजी के बुढ़ापे का फायदा उठाया है और धोखे से मकान अपने नाम करवा लिया है.

भैया की कड़वी बातें सुन कर बाबूजी को गुस्सा आ गया. वे भैया को थप्पड़ मारते हुए बोले, ‘‘नालायक कोई तो अच्छा काम किया होता. शोभा को छोड़ कर तू ने पहली गलती की और अब इतनी घटिया बात कहते हुए तुझे जरा सी भी लज्जा नहीं आई. उस ने मेरा फायदा नहीं उठाया, बल्कि मुझे सहारा दिया. चाहती तो वह भी मुझे छोड़ कर जा सकती

थी, अपनी अलग दुनिया बसा सकती थी पर उस ने वे जिम्मेदारियां निभाईं जो तेरी थीं.

तुझे अपना बेटा कहते हुए मुझे अफसोस

होता है.’’

भाभी तभी बीच में बोलीं, ‘‘दीपक, आप बाबूजी को और दुख मत दीजिए, हम सब की भलाई इसी में है कि आप यहां से चले जाएं.’’

भाभी का आत्मविश्वास देख कर भैया दंग रह गए और चुपचाप लौट गए.

भाभी घर की बहू से अब हमारे घर का बेटा बन गई थीं.

अशुभ घड़ी: सुचि ने कैसे हटाया परिवार के अंधविश्वास से परदा ?

सावित्री देवी के घरआंगन में शहनाई की मधुर ध्वनि गूंज रही थी. सारे घर में उल्लास का वातावरण था. नईनवेली दुलहन शुचि व दूल्हा अभय ऐसे लग रहे थे जैसे वे एकदूसरे के लिए ही बने हों.

अभय का साथ पा कर शुचि प्रसन्न थी. परंतु दिन बीतने के साथ शुचि को यह एहसास होने लगा था कि एक असमानता उस के व अभय के बीच है. शुचि जहां एक प्रगतिशील परिवार की मेधावी लड़की थी, वहीं अभय का परंपरागत रूढिवादी परिवार था. यहां तक कि इंजीनियर होते हुए भी अभय के व्यक्तित्व में परिवार में व्याप्त अंधविश्वास की   झलक शुचि को स्पष्ट दिखाई देने लगी थी.

शुचि को याद है कि शादी के बाद पहली बार जब वह अभय के साथ बाहर घूमने जा रही थी तो बड़ी जेठानी ने उसे टोक दिया था, ‘‘शुचि, नई दुलहन तब तक घर से बाहर नहीं निकलती जब तक पंडितजी शुभ मुहूर्त नहीं बताते. यह इस घर की परंपरा है.’’ और फिर एक सरसरी निगाह शुचि व अभय पर डाल कर वे चली गई थीं.

शुचि तब और दुखी हो गई, जब अभय ने भी उन की बात मान कर घूमने जाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया.

हर रोज इसी तरह की कोई न कोई घटना होती. शुचि का मन विद्रोह करने को आतुर हो उठता, परंतु नई बहू की लज्जा उसे रोक देती. हर कार्य के लिए सावित्री देवी को पंडित से सलाह लेना जरूरी था. घर का हर सदस्य पंडित की बताई बातों को ही मानता था. इस के लिए पता

नहीं कितने रुपए पंडितों के घर पहुंच जाते.

दिन बीतने लगे. अभय को शुचि सम  झाती पर बचपन के संस्कार और जो अंधविश्वास उस में भर दिए गए थे उन से वह मुक्त नहीं हो पा रहा था. तभी एक दिन जब घर के सदस्यों को शुचि के पांव भारी होने की खबर मिली  तो सारे घर में खुशी की लहर दौड़ गई. जल्दी से शुचि की सास सावित्री देवी मंदिर में प्रसाद चढ़ा आईं. उधर खबर मिलते ही पंडित रामधन शास्त्री अपने पोथेपत्रियों को ले कर आ धमके.

भरपेट जलपान करने के बाद अपनी भारीभरकम तोंद पर हाथ फेरते हुए पंडित सावित्री देवी से बोले, ‘‘देखो पुत्री, अब तुम्हें बहू का खास ध्यान रखना होगा. पूरे

9 महीने बहू को मुहूर्त देख कर ही घर से बाहर निकलने देना होगा. और हां, कोई ऊंचीनीच न हो, इस के लिए भी उपाय करने होंगे.’’

‘‘क्या उपाय हैं पंडितजी? मैं आने वाले बच्चे की भलाई के लिए सब करूंगी,’’ सावित्री देवी पंडित रामधन शास्त्री के चरणों में   झुक कर बोलीं.

मुसकराते रामधन शात्री मन ही मन प्रसन्न थे कि चलो अब साल भर तक तो मुफ्त का चढ़ावा मिलेगा. फिर बोले, ‘‘देखो पुत्री, अभीअभी बहू के पांव भारी हुए हैं, इसलिए अभी तुम्हें हवन कराना होगा ताकि शुरू का महीना ठीक से बीते.’’

‘‘कितना खर्च आएगा पंडितजी?’’ सावित्री देवी ने पूछा.

‘‘यही कोई 5 हजार रुपए. हवन की सामग्री मंगानी होगी और मेरे साथ हवन संपन्न

कराने 4 ब्राह्मण और आएंगे,’’ पंडित बोले.

सावित्री देवी पैसे ले आईं,

‘‘लीजिए पंडितजी, अब सब जिम्मेदारी आप की है और हां, हवन शीघ्र करवाइए.’’

‘‘चिंता न करो पुत्री सब भला होगा,’’ अपनी पोथी उठा कर शास्त्रीजी उठ खड़े हुए.

शुचि यह सब देख कर

दुखी हो उठी. हिम्मत कर के सावित्री देवी के पास जा कर बोली, ‘‘मांजी, विज्ञान के इस

युग में पंडितों की बात का विश्वास नहीं करना चाहिए.

ये हवनपूजन सब अंधविश्वास

है मांजी.’’

‘‘देखो बहू, माना तुम नए जमाने की हो पर हम ने भी दुनिया देखी है. ये केश धूप में सफेद नहीं हुए हैं हमारे. और हां, आइंदा हमारे काम में दखल नहीं देना,’’ सावित्री देवी बोलीं.

शुचि चुप हो गई. वह सम  झ गई कि मांजी उस की बात नहीं सम  झेंगी. मांजी क्या, इस परिवार का कोई भी सदस्य नहीं सम  झेगा.

कुछ दिन बीतने के बाद पंडित रामधन शास्त्री अपने

साथी पंडितों के साथ हवन

कराने आ पहुंचे. सावित्री देवी ने उन्हें आदरपूर्वक बैठा कर उन के चरण स्पर्श किए. फिर परिवार के सभी सदस्यों ने भी उन के चरण स्पर्श किए.

‘‘पंडितजी, हवन करने से सब बाधाएं दूर हो जाएंगी न?’’ सावित्री देवी बोलीं.

‘‘हां पुत्री, सब कुशल होगा,’’ पंडितजी बोले.

शुचि को भी अभय के साथ हवन में बैठना पड़ा. मन ही मन इन ढोंगी पंडितों को देख कर शुचि दुखी थी पर परिवार के सभी सदस्यों के मन पर छाए अंधविश्वास ने जो चक्रव्यूह शुचि के इर्दगिर्द रचा था, उसे वह तोड़ नहीं पा रही थी.

हवन की समाप्ति के बाद पंडितजी और उन के साथियों ने जलपान किया और दानदक्षिणा ले कर विदा ली.

रात में शुचि ने अभय को सम  झाने की कोशिश की, ‘‘अभय, देखो यह अंधविश्वास है. हवनपूजन में इतना समय और पैसा खर्च करना गलत है. आजकल डाक्टर ही यह बता सकते हैं कि बच्चा स्वस्थ होगा या नहीं. पंडित तो सिर्फ ग्रहों के   झूठे हेरफेर में फंसा कर अपनी रोजीरोटी चलाते हैं.’’

‘‘देखो शुचि, मां और परिवार के बाकी सदस्य तुम्हारे भले के लिए ही सोच रहे हैं. हमारे घर में हमेशा ही पंडितों

से पूछ कर सारे शुभ कार्य होते हैं, इसलिए तुम चुप रहो यही अच्छा होगा,’’ अभय गुस्से से बोला.

दिन बीतने लगे. शुचि स्वयं को

असहाय महसूस करने लगी. पर वह डा. सीमा के पास जब भी चैकअप के लिए जाती उसे यह सुन कर तसल्ली मिलती कि सब

ठीक है.

2 महीने बाद एक दिन दोपहर को दरवाजे की घंटी

बजने पर सावित्री देवी ने दरवाजा खोला तो सामने एक पंडितजी खड़े थे. रामनामी धोती, माथे

पर बड़ा सा टीका लगाए जनेऊ पहने पंडितजी के हाथों में पोथीपत्रियां थीं. अंदर आने

को आतुर पंडितीजी से

सावित्री देवी बोलीं, ‘‘मैं ने आप को पहचाना नहीं पंडितजी?’’

पंडितजी इधरउधर नजरें घुमाते हुए बोले, ‘‘घोर संकट. पुत्री, घोर संकट. मैं इस घर के सामने से गुजर रहा था तभी मु  झे महसूस हुआ कि इस घर में एक नया मेहमान आने वाला है और उस पर ग्रहों का भारी संकट है. उन का उपाय जरूरी है पुत्री.’’

‘‘पर पंडितजी…’’ सावित्री देवी की बात बीच में ही काट कर पंडितजी बोल पड़े, ‘‘कुछ न कहो पुत्री, तुम ने पंडित दीनानाथ शर्मा का नाम नहीं सुना? मैं वही हूं. मेरी बात कभी न टालना वरना अनर्थ हो जाएगा.’’

घबरा कर सावित्री देवी बोलीं, ‘‘जैसा आप कहेंगे वैसा ही होगा पंडितजी.’’

यह सब देख कर शुचि तिलमिला उठी. अब फिर वही सब होगा. राह चलता कोई भी घर आ कर पूजापाठ के बहाने पैसे ऐंठ ले, यह कैसी विडंबना है. वह कुछ कहने ही वाली थी कि तुरंत सावित्री देवी ने उसे घूर कर देखा, ‘‘शुचि, जाओ स्वामीजी के लिए जलपान ले कर आओ.’’

शुचि मन ही मन दुखी थी. चुपचाप वह अंदर चली गई. उसे सम  झ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे.

उधर पंडितजी पंचांग निकाल कर ग्रहों की गणना कर रहे थे.

‘‘तुम्हारी बहू का चौथा महीना चल रहा है न पुत्री? क्या राशि है बहू की?’’ उन्होंने पूछा,

‘‘जी तुला राशि है बहू की,’’ सावित्री देवी ने कहा.

‘‘बहुत भारी ग्रह है पुत्री. बच्चे

व मां की रक्षा के लिए उपाय आवश्यक है.’’

‘‘कुछ दानदक्षिणा दो, उपाय हम स्वयं कर देंगे,’’ मन ही मन मुसकराते हुए पंडितजी सावित्री देवी से बोले. जलपान कर के पूरे 1,100 रुपए दक्षिणा ले कर पंडितजी विदा हुए.

तभी अभय भी घर आ गया. पूरी बात जानने के बाद वह बहुत प्रसन्न हुआ, ‘‘चलो मां, राह चलते ही सही, उन्होंने इस घर का भला तो सोचा.’’

शुचि जानती थी कि इन को सम  झाना बेकार है.

इसी तरह दिन बीतते जा रहे थे. किसी

को भी यह पता नहीं था कि वह राह चलता पंडित, जो उन का भला करने की कह गया था पंडित रामधन शास्त्री का ही भेजा गया था. उसे पहले से शुचि और सावित्री देवी परिवार के बारे में जानकारी थी. सब खुश थे कि अब उन का कुछ नहीं बिगड़ सकता.

एक दिन शुचि रसोई में थी. तभी पंडित रामधन शास्त्री की आवाज सुनी तो सम  झ गई कि एक बार फिर वही सब दोहराया जाएगा.

शुचि का 9वां महीना चल रहा था. उस की सास ने ही पंडितजी को बुलवाया था. अपनी सास व पंडितजी की बात सुन कर शुचि सन्न रह गई. इतना अधिक अंधविश्वास इतनी रूढिवादिता. शुचि की सास उस की जन्मपत्री पंडितजी को दिखा कर यह पूछ रही थीं कि वह कौन सा शुभ मुहूर्त है, जिस में बच्चे का जन्म होने पर वह तेजस्वी, प्रतिभावान व

दीर्घायु होगा?

पंडितजी पत्री देख कर गणना कर रहे थे. उधर शुचि सकते में थी. वह सोच रही थी कि यह कैसा अंधविश्वास है, यह कैसा इंसाफ है कि प्रकृति के बनाए नियमों में भी इंसान ने अपना दखल देना शुरू कर दिया है?

एक बच्चे का जन्म, जो पूर्णतया प्रकृति के हाथ में है उस पर भी ग्रहनक्षत्रों का तानाबाना बुन दिया गया है और पढ़ेलिखे व्यक्ति दिग्भ्रमित होने लगे हैं.

परंतु यह सब सुन कर उस ने निश्चय कर लिया था कि उसे ही इस अंधविश्वास का अंत करना है. इस सोच के साथ ही शुचि अपनी योजना को मूर्तरूप देने के लिए तत्पर हो उठी. वह इस योजना में डा. सीमा को भी शामिल करना चाहती थी, क्योंकि उन के सहयोग के बिना यह असंभव था.

2 दिन बाद ही शुचि को डा. सीमा के यहां चैकअप के लिए जाना पड़ा. चैकअप के बाद उस ने डा. सीमा को शुभ मुहूर्त में बच्चे के जन्म करवाने की अपनी सास की इच्छा के विषय में बताया और साथ ही यह भी कहा कि वह ऐसा नहीं चाहती है, इसलिए उन्हें उस की योजना में उस का साथ देना होगा.

डा. सीमा शुचि की बात सुन कर बोलीं, ‘‘शुचि, आजकल समाज के हर वर्ग में शुभ मुहूर्त देख कर औपरेशन द्वारा बच्चे का जन्म करवाना प्रचलन में है. यह काम जो पूर्णतया प्रकृति के वश में था, उस पर भी  अब पंडितों ने ग्रहनक्षत्रों का लेबल लगा दिया है.’’

कुछ विशेष परिस्थितियों में तो औपरेशन कर के बच्चे का जन्म कराया जाता है, परंतु अब पंडितों के साथसाथ कुछ नर्सिंगहोम्स में भी डाक्टर पैसों के लिए लोगों द्वारा बताए गए समय पर ही बच्चों का जन्म कराने लगे हैं. पर तुम चिंता न करो, क्योंकि किसी न किसी को तो पहल करनी ही होगी. मैं तुम्हारे साथ हूं.

डा. सीमा के कैबिन से बाहर निकल कर शुचि ने महसूस किया कि अब वह निश्चिंत

थी कि उस का बच्चा अंधविश्वास की बलि

नहीं चढ़ेगा.

बड़ी जेठानी नेहा पूछती रहीं कि शुचि तुम्हें अंदर बहुत देर लग गई, परंतु शुचि ने उन की बात टाल दी.

उधर 9वां महीना पूरा होने के पश्चात शुचि

की सास पंडितजी द्वारा बताए मुहूर्त पर शुचि को ले कर नर्सिंगहोम पहुंचीं. डा. सीमा ने उन्हें शुचि का चैकअप कर के बताया, ‘‘इसे ऐडमिट करना होगा, क्योंकि रक्तचाप बहुत बढ़ा हुआ है.’’

‘‘पर डा. साहब, कल ही तो वह शुभ मुहूर्त है, जिस में बच्चे का जन्म होना चाहिए. मैं आप को मुंहमांगी कीमत देने को तैयार हूं ताकि शुभ मुहूर्त पर ही बच्चे का जन्म हो,’’ सावित्री देवी बोलीं.

‘‘हद करती हैं आप मांजी. बढ़े हुए रक्तचाप में मैं ऐसा कुछ नहीं कर सकती. पहले शुचि की शारीरिक स्थिति ठीक होने दीजिए. और हां, यह कीमत अपने पास ही रखिए, क्योंकि मु  झे शुचि व उस के बच्चे की जान ज्यादा प्यारी है,’’ डा. सीमा क्रोध से बोलीं.

सावित्री देवी गुमसुम सी एक तरफ बैठ गईं. परिवार के सभी सदस्य एकएक कर के नर्सिंगहोम पहुंच चुके थे. शायद सभी शुभ मुहूर्त पर होने वाले बच्चे को देखना चाहते थे पर शुचि की हालत की बात जान कर सभी चुप हो गए.

उधर शुचि मन ही मन प्रसन्न थी, क्योंकि वह डा. सीमा के साथ अपने मकसद में कामयाब हो रही थी.

उधर सावित्री देवी फिर से पंडित रामधन शास्त्री के पास पहुंचीं और उन्हें बहू की हालत बताई. पंडितजी तो लालची थे ही. अत: उन्होंने तुरंत उन्हें 1 हफ्ते बाद का मुहूर्त बता दिया और आसानी से 501 रुपए दक्षिणा में प्राप्त कर लिए. अब सावित्री देवी खुश थीं. वे 1 हफ्ते के लिए चिंतामुक्त जो हो गई थीं.

उधर 2 दिन बाद शुचि ने एक स्वस्थ व सुंदर बालक को जन्म दिया. जहां अपने पोते को देख सावित्री देवी व परिवार के सभी सदस्य प्रसन्न थे, वहीं उस के शुभ मुहूर्त में न होने को ले कर उस के भविष्य को ले कर शंकित भी थे. तभी डा. सीमा ने वहां प्रवेश किया.

‘‘डाक्टर साहिबा, पंडितजी ने तो 1 हफ्ते बाद का मुहूर्त निकाला था पर बच्चे का जन्म तो आज ही हो गया. आप देख लीजिए यह स्वस्थ तो है या नहीं? मैं अभी पंडितजी को बुलवाती हूं,’’ घबराए स्वर में सावित्री देवी बोलीं.

‘‘मांजी, कैसी बात कर रही हैं आप. इस का जन्म तो प्रकृति के विधान के अनुसार ही हुआ है. इसीलिए तो यह पूर्णतया स्वस्थ है. और हां, आज मैं आप को एक राज की बात बताना चाहती हूं. वास्तव में यह मेरी और शुचि की योजना थी. शुचि बिलकुल स्वस्थ थी, पर हम आप के पंडित द्वारा बताए मुहूर्त पर इसलिए बच्चे का जन्म नहीं कराना चाहते थे, क्योंकि हम आप के दिल व दिमाग पर छाए अंधविश्वास को हटाना चाहते थे.

‘‘आज शुचि ने एक स्वस्थ एवं सुंदर  बालक को प्रकृति द्वारा निश्चित समय पर जन्म दिया है और इस से यह बात साबित हो गई है कि शुभअशुभ कुछ नहीं होता. ये सब अंधविश्वास हैं, जो पंडितों  द्वारा फैलाए गए हैं. शुचि ने ही इस अंधविश्वास को दूर करने की पहल की है, इसलिए यह बधाई की पात्र है.’’

डा. सीमा की बात सुन कर सभी सन्न

थे मानो उन्होंने सब की आंखों से परदा हटा दिया हो.

सभी आने वाले कल की कल्पना कर के मुसकरा उठे.

सर्टिफिकेट: रत्ना को सालों बाद अपनी गलती का एहसास कैसे हुआ?

‘‘इतना लापरवाह कोई कैसे हो सकता है? मैं बता रहा हूं, यह ऐसे ही गैरजिम्मेदार रहा न तो फिर जीवन के हर मोड़ पर हमेशा गिरता रहेगा और संभालने के लिए हम वहां नहीं होंगे,’’ आशीष अपने 15 साल के बेटे वैभव पर चिल्ला रहा था.

2 दिन बाद वैभव की 10वीं कक्षा की परीक्षा शुरू होने वाली थी और उस ने प्रवेशपत्र खो दिया था. वैभव रोआंसा सा चुपचाप खड़ा था. वह बारबार याद कर रहा था कि उस ने तो प्रवेशपत्र लैमिनेट करवाया था फिर रमन और आकाश के साथ औटो में बैठ कर सीधे घर आ गया था. अनजाने में ही सही, गलती तो हुई थी. पूरा दिन अपनी फाइल ढूंढ़ता रहा, लेकिन कहीं पता न चला.

तभी उसे याद आया कि उस के हाथ में बैग और फाइल थी, जिस कारण गलती से फाइल शायद औटो में ही छूट गई होगी. काश, उस ने फाइल अपने बैग में रखी होती तो पापा से इतनी जलीकटी नहीं सुननी पड़ती. उस ने डर के मारे यह बात पापा को नहीं बताई.

आशीष ने फैसला किया कि वह वैभव के स्कूल जा कर इस बारे में प्रिंसिपल से बात करेगा. शायद कोई समाधान निकल आए और वैभव को परीक्षा में बैठने की अनुमति मिल जाए. लता ने भी सहमति जताई. दोनों स्कूल जाने के लिए तैयार होने लगे तभी दरवाजे की घंटी बजी. लता ने दरवाजा खोला तो सामने बहुत ही अजनबी महिला खड़ी थी.

‘‘जी… कहिए?’’ लता ने पूछा.

‘‘क्या यह आशीषजी का घर है?’’ महिला ने पूछा.

‘‘जी… हां,’’ लता ने उत्तर दिया.

‘‘आप… मैं ने पहचाना नहीं,’’ लता ने सकपकाते हुए कहा.

‘‘जी मेरा नाम रत्ना है और मैं…’’

तभी आशीष हड़बड़ी में वैभव के साथ बाहर जाने के लिए निकलने लगा. उस की नजर रत्ना पर पड़ी और जातेजाते अचानक रुक गया और वापस रत्ना के पास आ कर बोला, ‘‘अरे, रत्न तुम? यहां? कितने सालों बाद तुम्हें…’’ आशीष कहतेकहते रुक गया.

‘‘शुक्र है, तुम ने मुझे पहचान लिया. मुझे तो लगा कि तुम मुझे भूल ही गए होंगे.’’

रत्ना आशीष को कुछ देर देखते रह गई. बीता हुआ कल आंखों के सामने जैसे फिल्म की तरह ताजा हो आया…

‘‘इन से मिलो, ये लता हैं मेरी पत्नी और लता ये रत्ना हैं. मैं ने तुम्हें बताया था न, ये

हमारी पड़ोसी हुआ करती थीं. ये वही हैं,’’ आशीष, रत्ना का ध्यान स्वयं से हटाने के

लिए लता और रत्ना का एकदूसरे से परिचय करवाने लगा.

‘‘अच्छा… तो यही रत्नाजी हैं. आप सच में बहुत खूबसूरत हैं,’’ लता ने कहा.

‘‘धन्यवाद, आप भी तो खूबसूरत हैं,’’ रत्ना ने कहा.

लता मुसकरा भर दी.

‘‘बैठिए न,’’ लता ने कहा.

आशीष की नजर घड़ी पर पड़ी, ‘‘अरे

10 बज गए,’’ वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ.

‘‘अच्छा रत्ना, तुम लता के साथ गपशप करो. मैं, वैभव के स्कूल से 1 घंटे में आता हूं,’’ कह कर आशीष और वैभव जाने लगे.

‘‘तुम्हें स्कूल जाने की जरूरत नहीं, जो

चीज तुम ढूंढ़ रहे हो, वह मेरे पास है,’’ रत्ना

ने कहा.

सब एकटक रत्ना को देखने लगे. तभी रत्ना ने अपने हैंडबैग से फाइल निकाल कर आशीष के हाथ में रख दी.

‘‘अरे इस फाइल को ही हम ढूंढ़ रहे थे पर यह, तुम्हारे पास कैसे आई?’’ आशीष ने सवाल किया.

वैभव ने झट से पापा के हाथों से फाइल ले ली और फाइल खोल कर अपने सर्टिफिकेट देखने लगा. प्रवेशपत्र देखते ही वह सुकून और आत्मविश्वास से भर गया.

‘‘दरअसल, मैं परसों हौस्पिटल जा रही

थी जैसे ही औटो में बैठी मु?ो यह फाइल दिखी. मैं ने औटो वाले से इस फाइल के बारे में पूछा तो उसने कहा कि ये फाइल उस की नहीं है. उस ने कहा कि अभी कुछ बच्चे पिछले सिगनल पर छोड़ गए हैं शायद उन में से किसी की होगी. मैं ने उस से कहा भी कि चलो जा कर देखते हैं. इस पर औटो वाले ने कहा कि अब तक तो बच्चे

चले गए होंगे. कहां ढूंढ़ेंगे उन्हें? फिर मैं ने यह फाइल रख ली ताकि मैं उस बच्चे को यह फाइल लौटा सकूं.

लेकिन उस समय मैं बहुत जल्दी में थी इसलिए लौटा नहीं पाई. आज मेरी नजर इस फाइल पर पड़ी- खोल कर देखा तो परीक्षा का प्रवेशपत्र और पहचानपत्र था. मैं समझ गई कि ये बच्चे के लिए कितने जरूरी हैं और कल मेरी वापसी की फ्लाइट है तो सोचा, आज ही फाइल लौटा दू,’’ रत्ना ने कहा.

‘‘आप ने मेरे बेटे का यह साल खराब

होने से बचा लिया. आप का जितना भी शुक्रिया करूं, कम होगा,’’ आभार व्यक्त करते हुए लता

ने कहा.

‘‘लता सही कह रही है. तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद,’’ आशीष ने कहा.

‘‘तुम तो मुझे जितना धन्यवाद दो उतना कम है. मैं ने तुम्हारे कपड़े, नोटबुक और जाने क्याक्या…’’ कहतेकहते रत्ना रुक गई.

आशीष झेंप गया और माहौल को सामान्य करते हुए उस ने कहा, ‘‘अरे तुम ने यह तो बताया ही नहीं कि तुम दिल्ली में कैसे?’’

‘‘बड़े पापा के लड़के… वसंत भइया 3 साल से दिल्ली में ही पोस्टेड हैं. यही रोहिणी में रहते हैं,’’ रत्ना ने कहा.

‘‘अच्छा तो तुम उन से मिलने आई थी,’’ आशीष ने कहा.

‘‘नहीं दरअसल पिताजी बीमार थे और उन का यहां इलाज चल रहा था. मैं उन से मिलने

आई थी.’’

‘‘अच्छा… अब उन की तबीयत कैसी है?’’

‘‘अब वे नहीं रहे,’’ रत्ना ने कहा.

‘‘ओह, बहुत अफसोस हुआ जानकर,’’ आशीष ने अफसोस जताते हुए कहा.

तभी लता चायनाश्ता ले आई.

‘‘आप कहां रहती हैं? पति क्या करते हैं? आप के कितने बच्चे हैं?’’ लता ने सवालों की झड़ी लगा दी.

‘‘मैं ने शादी नहीं की,’’ रत्ना ने आशीष की तरफ देखते हुए कहा.

आशीष, उस की बात सुन कर स्तब्ध रह गया.

‘‘ परीक्षा के लिए ‘औल द बैस्ट,’ बेटा. चलो, मैं अब निकलती हूं. मु?ो पैकिंग भी करनी है. आप सब से मिल कर बहुत अच्छा लगा,’’ कह कर रत्ना ने विदा ली.

‘‘आशीष आत्मग्लानि से भर गया और लता को एक कप चाय बनाने को कह कर वहीं सोफे पर बैठ पुरानी यादों में खो गया…

रत्ना और आशीष एक ही कालेज में पढ़ते थे. रत्ना के पिता विश्वनाथजी सिविल इंजीनियर थे. दूसरे शहर से तबादला होने के बाद कानपुर आए और अशीष के पड़ोसी बन गए. आशीष के पिता महेंद्रजी बिजली विभाग में कार्यरत थे. शहर में नए होने के कारण आशीष के परिवार ने विश्वनाथजी को यहां बसने में बहुत मदद की. कुछ ही दिनों में दोनों परिवार एकदूसरे से घुलमिल गए.

आशीष के कहने पर ही रत्ना का एडमिशन उसी के कालेज में करवा दिया गया. धीरेधीरे दोनों परिवारों में गहरी दोस्ती हो गई. दोनों परिवार दुखसुख में एकदूसरे का साथ देने लगे. रत्ना और आशीष के लिए दोनों घर अपने ही थे. धीरेधीरे आशीष और रत्ना के बीच प्यार का अंकुर फूटने लगा और फिर प्यार परवान चढ़ने लगा. समय बीतने लगा आशीष इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने दूसरे शहर चला गया. रत्ना इंटरमीडिएट पास करने के बाद बी. कौम. की पढ़ाई करने लगी. रत्ना आशीष के मातापिता का खूब खयाल रखती थी. आशीष की मां तो रत्ना को मन ही मन अपनी बहू मान चुकी थी. बस रत्ना के मातापिता की रजामंदी बाकी थी.

दशहरे की छुट्टियों में आशीष घर आया था. शांतिजी चाहती थीं इस बार शादी

की बात पक्की कर लें. बातों ही बातों में एक दिन आशीष की मां शांति ने माया से कह दिया, ‘‘माया, अगर तुम्हारी जानकारी में कोई अच्छी लड़की हो तो मेरे आशीष के लिए बताना.

1-2 सालों में मैं अपने घर बहू लाना चाहती हूं.’’

‘‘दीदी मेरी नज़र में एक लड़की तो है अगर आप चाहें तो,’’ कहतेकहते माया ने कमरे में पढ़ रही रत्ना को ला कर शांति के सामने खड़ा कर दिया. शांति खुशी से फूली न समाई और रत्ना को गले से लगा लिया. दोनों की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले.

‘‘दीदी, मैं आप के मन की बात जानती थी क्योंकि मैं भी यही चाहती थी पर आप से बात करने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी. रत्ना अगर आप की बहू बन जाए तो मुझ से अधिक खुश कौन होगा.’’

दोनों की बातें सुन कर रत्ना खुशी से फूले नहीं समा रही थी.

अब वह आशीष का इंतजार करने लगी कि कब वह बाजार से घर वापस आए और वह उसे यह खुशखबरी दे.

इसी खुशी में माया ने रात के खाने पर आशीष के परिवार को बुला लिया. अभी आशीष के पिता और रत्ना के पिता को इस बात की जानकारी न थी तो माया ने सोचा इसी बहाने

दोनों परिवार मिलबैठ कर इस विषय पर बात

कर लेंगे.

आशीष के पिता जब औफिस से आए तो शांति ने अपने मन की बात कही जिसे सुन कर महेंद्रजी भी खुश हो गए, ‘‘शांति, मुझे रत्ना बेटी पहले से ही पसंद थी लेकिन… खैर, चलो विश्वनाथ के घर चलते हैं.’’

समय पर आशीष का परिवार रत्ना के घर पहुंच गया और फिर महेंद्र ने बात छेड़ी जिसे सुन कर विश्वनाथ के चेहरे का रंग फीका पड़ गया. उन्होंने इस रिश्ते से साफ इनकार कर दिया. हांलाकि महेंद्र ने विश्वनाथजी को बहुत सम?ाया लेकिन उन का साफ कहना था कि वह लड़की अपनी ही बिरादरी में देंगे. दोनों परिवारों की

खुशी एक पल में खत्म हो गई. सब ने विश्वनाथजी को सम?ाने की बहुत कोशिश

की, लेकिन वह न माने और धीरेधीरे दोनों परिवारों में ईर्ष्या, गलतफहमियां और दूरियां बढ़ती चली गईं.

रत्ना परिवार के खिलाफ जा कर शादी करने को तैयार थी, लेकिन आशीष रत्ना के पिता का भरोसा नहीं तोड़ना चाहता था. इस कारण रत्ना उस से नाराज हो गई.

रत्ना ने आशीष से बात करना, मिलनाजुलना तक छोड़ दिया. ऐसे ही दिन बीतते गए. कुछ दिनों बाद आशीष वापस चला गया. एक दिन अचानक रत्ना के घर का सामान पैक होने लगा. शांति ने माया से पूछा तो उन्होंने बताया कि विश्वनाथ ने दूसरी जगह ट्रांसफर करवा लिया है, कल ही वे लोग चले जाएंगे, कह कर माया शांति के गले लग कर फूटफूट कर रोने लगी. अगले दिन वे लोग चले गए. वक्त के साथ आशीष के घाव पर मरहम लग गया. पढ़ाई पूरी करने के बाद उसे नौकरी मिल गई और मातापिता के कहने पर उस ने अपना घर बसा लिया. लेकिन आज जीवन के इस मोड़ पर वह रत्ना से ऐसे मिलेगा, आशीष ने सोचा भी न था.

मैं अपनी जिंदगी में आगे निकल गया और रत्ना… वो आज भी मु?ा से प्यार करती है और मैं… मैं ने उसे बीच म?ाधार में छोड़ दिया. मैं अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा. आशीष अपनेआप से जद्दोजहद कर रहा था.

तभी लता की आवाज उस के कानों से टकराई, ‘‘यह लो तुम्हारी चाय.’’

इतना सुनते ही आशीष की तंद्रा भंग हुई.

आशीष ने अपनेआप को संभाला. अब

उस के पास पछतावे के सिवा कुछ नहीं रह गया था. वह एक बार रत्ना से मिल कर अपनी गलतियों की मांफी मांगना चाहता था. लेकिन रत्ना तो जा चुकी थी. तभी उसे वसंत भइया का पता याद आया जोकि बातों ही बातों में रत्ना ने बताया था.

‘‘क्या बात है तुम बहुत दुखी लग रहे हो? रत्ना के बारे में सोच कर न? मु?ो भी बुरा लगा. वह तुम से सच्चा प्यार करती थी. तभी तो उस ने अपना घर नहीं बसाया. शायद आज तक तुम्हारा इंतजार कर रही थी,’’ लता ने कहा.

‘‘हां लता… मेरे प्यार में ही खोट था. समाज के कायदेकानून से परे जाने की हिम्मत न थी मु?ा में और रत्ना लड़की हो कर भी बहुत हिम्मती थी. लेकिन मैं उस से एक बार मिल कर अपनी गलतियों की माफी मांगना चाहता हूं. तुम मेरा साथ दोगी?’’ आशीष ने लता से नजरें चुराते

हुए कहा.

‘‘मेरी तरफ से कोई बंदिश नहीं आशीष… मु?ो तुम पर अपने से ज्यादा भरोसा है. मैं खुद भी चाहती हूं जो भी गलतफहमियां तुम दोनों के बीच है वो मिट जाए और तुम दोनों बिना किसी बो?ा के अपनीअपनी जिंदगी में आगे बढ़ो,’’ लता ने आशीष का हाथ अपने हाथ में ले कर विश्वास दिलाते हुए कहा.

‘‘लता, मैं अपने आप को बहुत खुश मानता हूं कि मु?ो तुम जैसी जीवनसंगिनी मिली जो मु?ा पर आंख मूंद कर के भरोसा करती है. परिस्थिति चाहे जैसी भी हो, तुम ने हमेशा मेरा साथ दिया है. तुम्हारा जितना शुक्रिया कहूं कम होगा,’’ आशीष भावविभोर हो उठा.

‘‘अरे रत्ना की फ्लाइट है कल की तो तुम्हें आज ही मिलना होगा उस से. तुम अभी चले जाओ,’’ लता ने कहा.

‘‘हां… तुम ठीक कहती हो.’’

आशीष वसंत भैया के घर पहुंच गया. रत्ना ने दरवाजा खोला, ‘‘अरे

आशीष तुम यहां? कोई बात थी क्या?’’ रत्ना ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘माफ करना रत्ना, मैं तुम्हें तकलीफ देने चला आया. मेरे दिल में बहुत बड़ा बो?ा है मैं तुम से माफी मांग कर उसे हलका करना चाहता हूं. क्या हम बाहर जा कर बात कर सकते हैं?’’

‘‘हां… यहां पास ही एक पार्क है वहां चल सकते हैं,’’ कुछ देर सोचते हुए रत्ना ने कहा.

दोनों पार्क में पहुंचे और आशीष रत्ना से अपनी बुजदिली के लिए माफी मांगने लगा.

‘‘आशीष इस की जरूरत नहीं है. अब इस बात को 20 साल गुजर गए. अब तो गिलेशिकवों के लिए कोई जगह नहीं रही. हम दोनों अपनीअपनी जिंदगी में आगे बढ़ गए हैं.’’

‘‘मैं तो आगे बढ़ गया लेकिन तुम आगे

नहीं बढ़ पाई. अगर तुम आगे बढ़ती तो आज तुम्हारा एक भरापूरा परिवार होता. तुम ने शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘आशीष, लड़की किसी को अपने मनमंदिर में एक बार ही बसाती है फिर वह किसी और की तरफ देखती नहीं है. मेरे मन में तो तुम थे फिर मैं किसी और की पूजा कैसे कर सकती थी? तुम से और तुम्हारे परिवार से दूर रखने के लिए पापा ने अपना तबादला इंदौर करा लिया जहां बड़े पापा का परिवार रहता था. मैं ने कानपुर छोड़ने से पहले बहुत कोशिश की आंटी से मिलने की, तुम्हारा पता पूछने की लेकिन मैं नाकाम रही. तुम्हारे भागकर शादी न करने पर मैं ने गुस्से में तुम से बातचीत करना छोड़ दिया था पर प्यार करना नहीं छोड़ा था.

‘‘पापा हम दोनों को एकदूसरे से दूर करने के लिए ऐसा कदम उठाएंगे इस की मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. वहां जाते ही मेरे लिए लड़का देखने लगे लेकिन मैं ने साफ इनकार कर दिया और मैं ने ठान लिया कि मैं अपनेआप को आत्मनिर्भर बनाऊंगी ताकि किसी पर आश्रित न रहूं. मैं ने सबकुछ भुला कर अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाया और प्रोफैसर बन गई. ऐसा एक पल भी नहीं गुजरा जब मैं ने तुम्हें याद नहीं किया हो. दुख बस इस बात का है कि मां मेरे और पापा के बीच पिस गईं. वे मेरा घर बसते हुए देखना चाहती थीं लेकिन इसी सपने को दिल में दबाए दुनिया से चली गईं. मुझे इस बात की कोई शिकायत नहीं की तुम ने अपना घर बसा लिया क्योंकि मुझे पता है कृष्ण सिर्फ रुक्मिणी के हो सकते हैं राधा के नहीं.

‘‘मैं बस एक बार तुम से मिलना चाहती थी, तुम्हें देखना चाहती थी जोकि कुदरत ने मुझे तुमसे मिला दिया. अब और मुझे कुछ नहीं चाहिए. तुम कभी अपने दिल में मेरे लिए कोई बोझ मत रखना,’’ रत्ना ने अपनी बात खत्म की.

आशीष रत्ना की बात सुन कर नि:शब्द हो चुका था. जिस बोझ को वह वर्षों से दिल पर लिए फिर रहा था वह एक पल में हलका हो गया. आशीष ने रत्ना से विदा ली. रत्ना वहीं खड़ी आशीष को दूर तक जाते हुए देखती रही.

नया पड़ाव: भाग 4- जब पत्नी को हुआ अपनी गलती का अहसास

राकेश की निष्ठुरता पर भी खूब क्रोध आता. उन के शाम को जल्दी आ जाने पर भी खीजी हुई मैं रसोई से ही चाय बना कर पिंकी के हाथ भिजवा देती और स्वयं काम में उलझ रहती. थोड़ी देर पिंकी के साथ गुप्पें लड़ा कर राकेश फिर बाहर चले जाते.

मुझे महसूस होता मेरे अंदर एक बांध है जो किसी दिन टूट जाएगा तो सबकुछ उस में बह जाएगा. पर यह बांध कभी टूट नहीं पाया. ठंडी रिक्तता हम दोनों के बीच बनी रही.

रंजू ने इस बीच बीटैक कर ली थी. देहरादून के रिसर्च इंस्टिट्यूट में जब उस की नौकरी लग गई तो मैं और पिंकी काफी अकेले पड़ गए. अकसर रंजू से मोबाइल पर बात होती रहती थी. उसे मेरी बहुत याद आती थी.

फिर एक दिन रंजू का मैसेज आया, ‘‘मैं ने अपनी पसंद की एक ईसाई लड़की से कचहरी में शादी करर ली है. ऐसा इसलिए किया क्योंकि शायद पता चलने पर आप और पिताजी इस के लिए कभी राजी न होते. कुछ दिन बाद छुट्टियां मिलने पर आप का आशीर्वाद लेने आऊंगा.’’

मैसेज पढ़ कर मैं तो एकदम से टूट ही गई. कैसे पलपल घुटघुट कर सारी इच्छाएं और उमंगें मैं ने रंजू पर कुरबान कर दी थीं और उस ने मुझे शादी कर के कैसे सूचना भेजी है. अपनी इस जीवनसंध्या में जब मैं पिंकी के ससुराल जाने के बाद रंजू की बहू से ही दिल बहलाने के ढेरों ख्वाब संजो रही थी, वे सारे उस के पत्र ने बिखेर कर रख दिए. उस की उम्र ही अभी क्या थी जो शादी कर ली. शहरों में तो लड़के 30-32 में शादी करते हैं.

राकेश तो मैसेज पढ़ कर खूब हंसे.

बोले, ‘‘देख लिया बच्चों पर बेहद कुरबान होने का नतीजा. न तुम इधर की रहीं, न उधर की. और भुगतोे.’’

राकेश तो कह कर रोज की तरह लापरवाही से बाहर चले गए, पर मैं बहुत रोई थी. काफी दिन उदास रही. मन ही मन रोती रही. गुस्से के मारे रंजू को बधाई भी नहीं दी. पिंकी उन दिनों मैडिकल की पढ़ाई कर रही थी. अब जिंदगी के इस पड़ाव पर आ कर मैं अकेली रह गई थी तो इस के लिए किस को दोष देती. शायद इस में राकेश का कम और मेरा ज्यादा दोष था या सिर्फ मेरा ही था.

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया. मैं अपने में लौट आई. राकेश घूम कर लौट आए थे. मुझे उदास देख कर लापरवाही से बोले, ‘‘क्यों भई, यह उदासी कैसी है? अरे हां, मैं तो तुम्हें शाम को बताना ही भूल गया. मैं तो खाना खा कर आया हूं, तुम खा लो. फिर जरा मेरी तैयारी करनी है. 3-4 दिन के लिए दफ्तर की तरफ से मुझे कल लखनऊ जाना है,’’ कह कर वे स्वयं भी अपना सामान अटैची में रखने लगे.

मैं असमंजस में पड़ कर सामान रखवाने लगी कि पीछे से अकेली कैसे रहूंगी. खैर, मैं ने

खाना यों ही समेट कर रख दिया. भूख न जाने कहां उड़ गई थी. पूरी रात न जाने कैसेकैसे संकल्प करती रही.

सुबह मैं ने उन्हें विदा किया. पर अब मैं उदास नहीं थी. सोचा, जैसे भी हो जो गुजर गया है उस लौटाना होगा मुझे. आगत के सामने नए सिरे से खड़े हो सकने की सामर्थ्य तो पैदा करनी ही होगी अपने अंदर. राकेश के साथ हर पल गुजारने के लिए उन के मनमुताबिक बनना ही होगा मुझे.

दोपहर को बाजार जा कर अच्छी सी

दुकान से पैर और हाथ साफ करने का सारा सामान, कोल्ड क्रीम, हैंड लोशन, ग्लिसरीन, गुलाबजल, नेलपौलिश, इत्र यहां तक कि बाल काले करने का तेल भी खरीद लाई. एक पास के ब्यूटी सैलून में गई और बालों से ले कर पैरों तक को ट्रीट कराया. 3-4 घंटे लगे और कुछ हजार का बिल भी आया पर मुझे संतोष था कि मैं सही कर रही हूं.

फिर पता ही नहीं चला कि 4 दिन कैसे गुजर गए. मैं शीशे के आगे स्वयं जाजा कर कायाकल्प पर हैरान होती रहती. आखिर राकेश दौरे से लौटे. दरवाजा खुलते ही मुझे देख कर हैरान हो गए.

मैं उन से लिपट कर बोली, ‘‘भूल गई थी मैं कि जीवनसाथी जीवनसाथी ही होता है. हम दोनों की ही जीवनसंध्या अब करीब है. जिंदगी के इस पड़ाव पर हमें एकदूसरे की सख्त जरूरत है. अब से हर पल मैं तुम्हारी हूं.’’

सुन कर और हाथ की अटैची नीचे रख कर राकेश ने मुझे गरमजोशी से गले लगा लिया.

अनजाने पल: भाग 1- क्यों सावित्री से दूर होना चाहता था आनंद

औटो चेन्नई के अडयार स्थित पुष्पा शौपिंग कौंप्लैक्स से गुजर रहा था कि तभी नीलिमा पर नजर पड़ी. 3-4 बरस के एक लड़के का हाथ थामे वह दुकान से निकल रही थी. मैं अपनी उत्सुकता रोक न पाई. मातृत्व मानो बांध तोड़ कर छलछलाने को बेताब हो गया था.

मैं ने औटो रुकवाया और उसे पैसे दे कर उतर गई. धीरेधीरे उस के पास पहुंची और आवाज दी, ‘‘नीलिमा.’’

वह एकाएक चौंक कर मुड़ी, फिर तेजी से मुझ से लिपट गई और फूटफूट कर रोने लगी. भय से सिमट कर वह लड़का भी रोने लगा. मेरे शरीर के निस्तब्ध तार नीलिमा के स्पर्श से झनझना उठे. रोमरोम में एक अजीब सा आनंद समाने लगा. इतने बरसों बाद जिसे पाया था, उसे अपने से अलग करने का मन ही नहीं हो रहा था.

काफी देर रोने के बाद जब उस ने आवाज सुनी, ‘दीदी, मुझे डर लग रहा है, पिताजी के पास चलो.’ तभी वह संभली. आंसू पोंछ कर मेरी ओर देखा और मुसकराई. फिर बोली, ‘‘मां, हम यहां मलर अस्पताल में हैं. पिताजी 5वीं मंजिल पर कमरा नंबर 18 में हैं. देर हो रही है, मैं जाती हूं. हो सके तो शाम को आ जाइएगा. यह मेरा भाई अभय है,’’ फिर अपने भैया के कंधे पर हाथ रख वह मेरी नजरों से ओझल हो गई.

नीलिमा का आकर्षण इतना था कि मैं यह भूल ही गई कि मुझे विकास से सवेरा होटल में मिलना है. मैं सोचने लगी कि कहां मुझ से नफरत करने वाली उस दिन की गोरीचिट्टी खूबसूरत नीलू और कहां आज की दुख और वेदना का बोझ ढोए बचपन में ही प्रौढ़ता लिए यह नीलिमा. मैं ने शौपिंग कौंप्लैक्स से विकास को सूचना भिजवाई कि 15 मिनट में मैं आ रही हूं और जल्दी से औटो ले कर चल पड़ी.

अनायास मेरी आंखों में आनंद का चेहरा घूम गया. मेरे मांबाप ने उस का लंबा कद, गोरा रंग, मस्तीभरी जवानी और आकर्षक व्यक्तित्व देख कर मेरा विवाह उस से तय किया था. मैं ने हिंदी साहित्य में एमफिल किया था और एक कालेज में पढ़ाती थी. आनंद बैंक में अफसर था. हम दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर के शादी की थी. शादी के तुरंत बाद उस का तबादला दिल्ली हो गया, इसलिए हम लोग वहां चले गए. शादी होते ही मैं ने नौकरी छोड़ दी थी, हालांकि आनंद को यह अच्छा नहीं लगा था. परंतु मैं तबादले के झमेलों में पड़ना नहीं चाहती थी.

दिल्ली जैसे महानगर में खर्चे तो बढ़ते ही जाते हैं, एक दिन आनंद ने ही बात छेड़ी, ‘सावित्री, सारा दिन घर में बैठे तुम्हें घुटन महसूस नहीं होती? मेरा दोस्त कह रहा था कि कालेज में हिंदी प्राध्यापक की जगह खाली है. कहो तो बात चलाऊं?’

मैं ने कहा, ‘वैसे मेरी नौकरी करने की अभी इच्छा नहीं है. घर पर भी तो बहुत सारे काम होते हैं. बुनाई, कढ़ाई आदि सीख रही हूं. ढंग से खाना बनाना भी तो अभी ही सीख रही हूं.’

आनंद को मेरी बात अच्छी नहीं लगी. उस ने कहा, ‘अभी तो हमारे बच्चे भी नहीं हैं. इतनी शिक्षा हासिल करने के बाद तुम्हारा इस तरह घर में बैठे रहना मुझे अच्छा नहीं लगता. फिर महंगाई भी कितनी है…तुम हाथ बंटाओगी तो हम घर के लिए कुछ चीजें खरीद सकेंगे.’ आनंद की बात उस समय मुझे भी अच्छी लगी. उसी ने दौड़धूप कर मुझे श्रीराम कालेज में नौकरी दिलाई.

दिन गुजरते गए. 8-9 वर्षों बाद ही नीलिमा का जन्म हुआ था. उस के जन्म के बाद से सबकुछ बदल गया. आनंद को बेटी से बहुत अधिक लगाव था. जब तक वह 5 साल की हुई, तब तक मेरी सास हमारे साथ रहीं. अकेली विधवा सास का हमें बहुत अधिक सहारा था. मेरी और पति की तनख्वाह से गृहस्थी की गाड़ी मौज से चल रही थी.

मैं ने पीएचडी के लिए रजिस्ट्रेशन करवा लिया था. कालेज में प्रिंसिपल की जगह खाली होने वाली थी. मेरी पीएचडी के खत्म होने में 6 महीने बाकी थे, इसलिए पूर्व प्रिंसिपल ने मेरी सिफारिश की थी. मैं जीजान से पीएचडी की समाप्ति में लगी थी. अचानक मेरी सास गुजर गईं.

आनंद को मां की मृत्यु से ज्यादा बेटी का अकेलापन खटकने लगा. उस ने मां की तेरहवीं होते ही कहा, ‘मैं चाहता हूं कि तुम नौकरी छोड़ दो. जब नीलू बड़ी हो जाए तो फिर नौकरी कर लेना.’

मैं चौंकी. फिर स्थिति को संभालते हुए कहा, ‘ऐसा कैसे हो सकता है, हम ऐशोआराम की जिंदगी के आदी हो चुके हैं. मेरी तनख्वाह नहीं होगी तो दिल्ली जैसे शहर में तुम्हारे अकेले की तनख्वाह से गुजरबसर कैसे होगी?’

‘कम से कम पीएचडी छोड़ दो. देर से घर आओगी तो नीलिमा बहुत दुखी हो जाएगी. वह दिनभर अकेली कैसे रह पाएगी.’

‘उसे तुम क्यों नहीं संभाल लेते. 4 महीने में मेरी थीसिस पूरी हो जाएगी. फिर जल्दी ही मैं प्रिंसिपल का पद संभाल लूंगी. कालेज की तरफ से वहीं घर भी मिल जाएगा. फिर नीलू की परवरिश में कोई बाधा नहीं आएगी.’

आनंद उस समय खामोश रह गया. परंतु उस के मन में ज्वालामुखी ने धधकना आरंभ कर दिया. मैं ने नीलू को कालेज के पास शिशु सदन में छोड़ना शुरू कर दिया. मैं रोज सवेरे उसे छोड़ आती और शाम को आनंद उसे ले आता.

मुझे थीसिस का काम खत्म कर लौटने में रात को देर हो जाती. नीलिमा उदास रहने लगी थी. उस की खामोशी मुझे कभीकभी बहुत अखरती, परंतु मैं अपनी थीसिस अधूरी नहीं छोड़ सकती थी.

हम दोनों के बीच अकसर मनमुटाव होता. वह अकसर कहता, ‘मांबाप के रहते दिनभर बच्ची इस प्रकार अनाथों की तरह रहे, मुझे अच्छा नहीं लगता.’

मैं तपाक से उत्तर देती, ‘तो मैं क्या करूं? यह तो होता नहीं कि कोई उचित सुझाव दो, बस सदा कोसते ही रहते हो.’

बात जब बहुत बढ़ जाती तो वह कहता, ‘तुम अपनी थीसिस को अपनी बेटी की परवरिश से ज्यादा जरूरी समझती हो? कैसी मां हो?’

मैं कहती, ‘तुम मुझ से जलते हो. तुम्हारा अहं इस बात की इजाजत नहीं देता कि मैं तुम से ऊंचे पद पर पहुंचूं. तभी तुम मुझे ताने देते रहते हो. यह मत भूलो कि मुझे नौकरी पर जाने को मजबूर तुम ने ही किया था.’

नीलिमा ही सदा हम दोनों के आपसी झगड़ों में बीचबचाव करती. वह सदा एक ही बात कहती, ‘मैं ने तो कभी कोई शिकायत नहीं की. मुझे ले कर आप लोग क्यों लड़ते रहते हैं.’

वैसे नीलिमा चिड़चिड़ी सी रहती, बातबात पर जिद करती. ऊपर से आनंद उसे मेरे विरुद्ध हमेशा कुछ न कुछ कह कर भड़काता रहता. मुझे घर के माहौल में घुटन सी होने लगती. परंतु थीसिस अधूरी छोड़ने के लिए मैं कतई तैयार न थी. मेरी बच्ची मेरे जिगर का टुकड़ा थी, उस के रोने की आवाज मुझे परेशान कर देती.

नया पड़ाव: भाग 3- जब पत्नी को हुआ अपनी गलती का अहसास

कभीकभी मैं रोज के क्रम से ऊब कर कुछ मनोरंजन चाहती, छुट्टी वाले रोज राकेश को बच्चों के साथ कहीं पिकनिक पर चलने को कहती तो वे बगैर कुछ बोले विद्रूपता से हंस कर अकेले ही बाहर चले जाते. मैं उदासी से ऊब कर बच्चों से ही दिल बहला लेती.

इसी तरह दिन बीतते गए. पिंकी जब 3 साल की हो गई तो मैं ने उसे भी स्कूल में

डाल दिया. अब दोपहर का थोड़ा सा वक्त मुझे खाली मिल जाता था, पर मैं तब अपने पर ध्यान न दे कर बच्चों के कपड़े सीती, स्वैटर बुनती या फिर सो जाती.

शाम को बच्चे आते तो मैं फिर उन में रम जाती. गरम खाना बना कर देती. घर में मक्खन से घी बना कर पौष्टिक खाने का इंतजाम करती. उन्हें पढ़ाती और उस से वक्त बचता तो फटेउधड़े कपड़े ठीक करती.

अब तक मोबाइल भी चलाना सीख लिया था. मोबाइल पर बहनों, चचेरी बहनों, बूआ से खूब बातें करती क्योंकि वे सब या तो बच्चों की बातें करतीं या तीजत्योहार और पंडितों की. मुझे जैसी कसबाई लड़की को यही अच्छा लगता. पड़ोस में कोई भी खास संबंध नहीं बना क्योंकि हम लोग पिछड़ी जाति के माने जाते थे और पासपड़ोस के लोग ऊंची जातियों के थे जो घास नहीं डालते थे हमें.

राकेश रात को लौटते, थकेथके से, चुपचुप से. मैं समझती, काम की अधिकता इनसान को चुप रहना सिखा देती है. झटपट उन्हें गरम खाना परोस कर देती और एकाध बात का हांहूं में जवाब दे कर बिस्तर में घुस जाते. मैं जब तक सब कुछ समेट कर कमरे में आती, तब तक राकेश सो जाते.

बच्चे अपने पिता के आने पर सहम कर चुप हो जाते थे क्योंकि राकेश ने कभी उन्हें प्यार से पुचकार कर गोद में नहीं उठाया और न कोई लाड़प्यार किया. बच्चों को प्यार की कोई कमी महसूस न हो, इसलिए मैं उन्हें और भी ज्यादा प्यार करती, उन्हीं में रमी रहती.

राकेश के पिता भी ऐसे ही थे. हां राकेश ने शादी के शुरू के महीनों में बताया था कि शहर आने पर उसे पता चला कि मांबाप किस तरह बच्चों के दोस्त बन जाते हैं पर हमारे परिवारों में यह संभव नहीं था.

बच्चे धीरेधीरे बड़े होने लगे थे. मुझे एक दिन उड़तीउड़ती खबर मिली कि राकेश अपने दफ्तर की स्टैनोग्राफर के साथ शाम गुजारते हैं. सुन कर बहुत अटपटा सा लगा.

गृहस्थी चलाने में क्या सजसंवर कर औरत

प्रेमप्यार का नाटक कर सकती है भला? मुझे लगा, मर्द की इस विविधता की चाह तो मिटा पाना असंभव है. पत्नी आखिर पत्नी है और प्रेमिका प्रेमिका ही यही सोच कर मैं चुप्पी साध गई कि बात खुल जाने पर बच्चों पर हमारी बहस का बुरा प्रभाव पड़ेगा.

राकेश अकसर दफ्तर की तरफ से 3-4 दिनों के लिए टूर पर जाया करते थे. पर इस बात के पता चलने पर उन के दौरे पर जाने के बाद मन कहीं टिकता ही न था. क्या पता इस वक्त राकेश क्या कर रहे हों. यही सोचसोच कर मैं रातरातभर जागती रहती. 2-4 बार फोन आने पर वे हांहूं कर के बाद बंद कर देते. उन के  लौटने पर ही मन कुछ संयत होता.

दिन गुजरते रहे और मैं राकेश से दूर होती चली गई. रंजू और पिंकी दोनों अब जवान हो

गए थे. रंजू तो पिता से ज्यादा बात ही नहीं करता था. उन के आने पर चुपचाप अपने कमरे में खिसक जाता.

मगर एक दिन पिंकी ने पिता से पूछ ही लिया, ‘‘पिताजी, आप रात को इतनी देर से घर क्यों आते हैं? आखिर हमें भी तो आप थोड़ा वक्त दिया कीजिए. मेरी सब सहेलियों के पिता तो उन के साथ कैरम, बैडमिंटन बगैरा खेलते हैं.’’

तब राकेश झेंपते हुए बोले थे, ‘‘हां भई, अब तुम कहती हो तो जल्दी आ जाया करेंगे, अभी तक तुम्हारी मां ने तो हम से कभी कहा ही नहीं कि जल्दी आया करो. न तुम्हारी मां के पिता ने उन से कभी बात की होगी न मेरे पिता ने. अब जमाना बदल रहा है पर हम वहीं रह गए.’’

मैं तब कट कर रह गई. मगर उस दिन से राकेश शाम को जल्दी आने लगे थे. फिर भी बच्चों के सामने राकेश के सम्मुख मैं कम ही पड़ती थी. न जाने क्यों हीनता की भावना घर

कर गई थी मुझ में. राकेश की इधरउधर की ताक?ांक से भी मन कुछ चिढ़ सा गया था.

मौन गुस्सा दिखा कर राकेश को उन के व्यवहार की गलती बतातीबताती मैं उन से छिटकती

चली गई.

कही अनकही: मां- बेटी के रिश्ते की कहानी

सूर्योदय से पहले उठ जाने की मेरी आदत नौकरी से अवकाश प्राप्त   करने के बाद भी नहीं बदली थी. लालिमा के बीच धीरेधीरे निकलता सूर्य का सुर्ख गोला मुझे बहुत भाता था. पक्षियों का कलरव और हवा की सरसराहट में जैसे रात का रहस्यमय मौन घुलने लगता. तन को छूती ठंडी हवा मेरे मनप्राण को शांति और सुकून से भर देती.

हर दिन की तरह मैं लौन में बैठी इस अद्भुत अनुभूति में खोई आम के उस पौधे को निहार रही थी जिस का बिरवा आदित्य ने लगाया था. उसे भी मेरी तरह भिन्नभिन्न प्रकार के पौधे लगाने का शौक है. जब आदित्य को 1 वर्ष के लिए आफिस की तरफ से न्यूयार्क जाना पड़ा तो जाने से पहले वह मुझे हिदायतें देता रहा, ‘मां, 1 साल के लिए अब मेरे इन सारे पौधों की देखभाल की जिम्मेदारी आप पर है. खयाल रखिएगा, एक भी पौधा मुरझाने न पाए.’

सिर्फ 6 महीने अमेरिका में व्यतीत करने के बाद उस ने वहीं रहने का मन बना लिया. पौधे तो पौधे उसे तो अपनी मां तक की चिंता न हुई कि उस के बिना कैसे उस के दिन गुजरेंगे. अब यह सब सोचने की उसे फुरसत ही कहां थी. वह तो सात समंदर पार बैठा अपने भौतिक सुख तलाश रहा था. बस, दिल को इसी बात से सुकून मिलता कि बेटा जहां भी है सुखी है, खुश है, अपने सपनों को पूरा कर रहा है.

मेरे पति समीर भी अपने व्यापार के काम में व्यस्त हो कर अपना ज्यादातर समय शहर से बाहर ही बिताते जिस से मेरा अकेलापन दिनोदिन बढ़ता ही जा रहा था.

तभी ऊपर के कमरे से आती तेज आवाज के कारण मेरी तंद्रा भंग हो गई. लगा था तन्वी आज किसी बात को ले कर एक बार फिर अपनी मम्मी नेहा से उलझ गई. तन्वी का इस तरह अपनी मां से उलझना मुझे अचंभित कर जाता है. न जाने इस नई पीढ़ी को क्या होता जा रहा है. न बड़ों के मानसम्मान का खयाल रहता है न बात करने की तमीज.

नेहाजी मेरे मकान के ऊपर वाले हिस्से में बतौर किराएदार रहती थीं. इस से पहले मैं ने कभी अपना मकान किराए पर नहीं दिया था, लेकिन पति और बेटे दोनों के अपनीअपनी दुनिया में व्यस्त हो जाने के कारण मैं काफी अकेली पड़ गई थी. जीवन में फैले इस एकाकीपन को दूर करने के लिए मैं ने घर के ऊपर का हिस्सा किराए पर दे दिया.

नेहा और उन की बेटी तन्वी ये 2 ही लोग रहने आए. नेहा किसी मल्टीनैशनल कंपनी में उच्च अधिकारी थीं और तन्वी बी.ए. द्वितीय वर्र्ष की छात्रा. मेरी सोच के विपरीत नेहा इतनी नापतौल कर बातें करतीं कि चाह कर भी मैं उन के साथ बातों का सिलसिला बढ़ा नहीं पाती. न जाने क्यों दोनों मांबेटी गाहेबगाहे उलझती रहतीं, जो कभीकभी तो गहन युद्ध का रूप ले लेता.

तभी उन की बेटी तन्वी कंधे पर बैग टांगे दनदनाती हुई सीढि़यां उतरी और गेट खोल कर सड़क की तरफ बढ़ गई. पीछेपीछे उस की मां उसे रोकने की कोशिश करती गेट तक आ गईं. पर तब तक वह आटोरिकशा में बैठ वहां से जा चुकी थी.

नेहा का सामना करने से बचने के लिए मैं क्यारियों में लगे फूलों को संवारने में व्यस्त हो गई, जैसे वहां जो घटित हो रहा था, उस से मैं पूरी तरह अनजान थी. लाख कोशिशों के बावजूद हम दोनों की नजरें टकरा ही गईं. नेहा एक खिसियाई सी हंसी के साथ जाने क्या सोच कर मेरे बगल में पड़ी कुरसी पर आ बैठीं. धीरे से मुझे लक्ष्य कर के बोलीं, ‘‘क्या बताऊं, आजकल के बच्चे छोटीछोटी बातों में भी आवेश में आ जाते हैं. इन लोगों के बड़ों से बात करने के तौरतरीके इतने बदल गए हैं कि इन के द्वारा दिया गया सम्मान भी, सम्मान कम अपमान ज्यादा लगता है. हमारे समय भी जेनेरेशन गैप था, मतभेद थे पर ऐसी उच्छृंखलता नहीं थी.’’

मैं भी उन के साथ हां में हां मिलाती हंसने की नाकाम कोशिशें करती रही. हंसी के बीच भी नेहा की भर आई आंखें और चेहरे पर फैली विषाद की रेखाएं, स्पष्ट बता रही थीं कि बात को हंसी में उड़ा देने की उन की चेष्टा निरर्थक थी. लड़की के अभद्र आचरण की अवहेलना से मां को गहरा सदमा लगा था.

तभी सुमन 2 कप कौफी रख गई. हम दोनों चुपचाप बैठे कौफी पीते रहे. कभीकभी निस्तब्ध चुप्पी भी वह सारी अनकही कह जाती है, जिसे शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल होता है. हम दोनों के बीच भी कुछ वैसी ही मौन संवेदनाओं का आदानप्रदान हो रहा था.

उस दिन के बाद नेहाजी आतेजाते कुछ देर के लिए मेरे पास बैठ जाती थीं. धीरेधीरे वे अपनी निजी बातें भी मुझ से शेयर करने लगीं. टुकड़ोंटुकड़ों में उन्हीं से पता चला कि उन का अपने पति रंधीर के साथ तलाक तो नहीं हुआ है, लेकिन वह इसी शहर में अलग रहता है. 8 वर्ष की तन्वी को छोड़ कर जाने के बाद से न कभी उस से मिलने आया और न ही उस ने उस की कोई जिम्मेदारी उठाई.

तन्वी की बढ़ती उद्दंडता और स्वच्छंदता नेहाजी के लिए चिंता, तनाव और भय का कारण बन गई थी. दिनोदिन तन्वी के दोस्तों में बढ़ते लड़कों की संख्या और सिनेमा तथा पार्टियों का बढ़ता शौक देख नेहा का सर्वांग सिहर उठता लेकिन वे तन्वी के सामने असहाय थीं. अपनी ढेरों कोशिशों के बावजूद तन्वी पर नियंत्रण रखना उन के लिए संभव नहीं था.

मैं भी उन की कोई मदद नहीं कर पा रही थी. उस उद्दंड, घमंडी और निरंकुश लड़की के चढ़े तेवर देख कर ही मेरा मन कुंठित हो उठता. एक दिन सुबह से ही बिजली गायब थी. दोपहर तक टंकी का पानी समाप्त हो गया. मैं यों ही बैठी एक पत्रिका के पन्ने पलट रही थी कि तभी दस्तक की आवाज सुन दरवाजा खोलते ही मैं अचंभित रह गई, सामने पानी का जग लिए तन्वी खड़ी थी.

‘‘क्या थोड़ा सा पानी…’’

मैं बीच में ही उस की बात काटते हुए बोली, ‘‘क्यों नहीं, मैं हमेशा कुछ पानी टब में जमा कर के रखती हूं.’’  मैं जब पानी ले कर लौटी तो अचानक ही मेरा ध्यान उस की अंगारों सी दहकती आंखों और क्लांत शरीर की तरफ गया. पानी लेते समय जैसे ही उस का हाथ मेरे हाथों से सटा, उस के हाथों की तपन से मुझे आभास हो गया कि इसे तेज बुखार है.

अनायास ही मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘अरे, तुम्हें तो तेज बुखार है,’’ और खुदबखुद मेरा हाथ उस के सिर पर चला गया. अचानक ही जैसे उसे बिजली का झटका लगा. वह तेजी से दरवाजे की तरफ पलटते हुए बोली, ‘‘आप चिंता न करें, मैं अपना खयाल खुद रख सकती हूं. मुझे इस की आदत है.’’

जैसे तेजी से धूमकेतु सी प्रकट हुई थी वैसे ही तेजी से वह गायब हो गई.

तेज बुखार में तन्वी का अकेले रहना ठीक नहीं था, पर जिस तरह वह उद्दंड लड़की अपने तेवर दिखा गई, मेरा मन नहीं कर रहा था कि उस के पास जाऊं. थोड़ी देर के अंतर्द्वंद्व के बाद मैं 1 कप तुलसी की चाय बना कर उस के पास जा पहुंची. दरवाजा खुला था. सामने ही पलंग पर वह मुंह तक चादर खींचे लेटी अपने कांपते शरीर का संतुलन बनाने की कोशिश कर रही थी. उस के पास ही पड़े एक दूसरे कंबल से मैं ने उस का शरीर अच्छी तरह ढक, उस से गरम चाय पी लेने का अनुरोध किया तो उस ने चुपचाप चाय पी ली.

इस बीच बिजली भी आ गई थी. मैं फ्रिज से ठंडा पानी ला कर उस के सिर पर पट्टियां रखने लगी. थोड़ी ही देर में उस का बुखार उतरने लगा और वह पहले से काफी स्वस्थ नजर आने लगी. नेहाजी को सूचित करना जरूरी था, इसलिए मैं ने सामने पड़ा फोन उठा कर उन का नंबर जानना चाहा तो एकाएक उठ कर उस ने मेरे हाथों से फोन झपट लिया.

‘‘नहीं, मिसेज मीनू…आप ऐसा नहीं कर सकतीं.’’

मैं हतप्रभ खड़ी रह गई.

‘‘क्यों…वे तुम्हारी मां…’’

वह बीच में ही मेरी बात काटती हुई बोली, ‘‘मानती हूं, आज आप ने मेरे लिए बहुत कुछ किया फिर भी आप से अनुरोध है कि आप हमारे निजी मामलों में दखलंदाजी न करें.’’

तन्वी की रूखी और कठोर वाणी से मैं तिलमिला उठी, थोड़ी देर को रुकी, फिर अपने कमरे में वापस लौट गई. फ्रिज से सूप निकाल कर गरम कर बे्रड के साथ खाने बैठी तो मुझे तन्वी का मुरझाया चेहरा याद आ गया. सोचा, पता नहीं उस ने कुछ खाया भी है या नहीं. सूप लिए हुए एक बार फिर मैं उस के पास जा पहुंची.

‘‘तुम्हें शायद मेरा यहां आना पसंद न हो, फिर भी मैं थोड़ा सा गरम सूप लाई हूं, पी लो.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं…’’ तन्वी धीरे से बोली और सूप पीने लगी. सूप समाप्त करने के बाद, उस के चेहरे पर बच्चों जैसी एक तृप्ति भरी मासूम मुसकान दौड़ गई.

‘‘थैंक्स… मिसेज मीनू, सूप बहुत ही अच्छा बना था.’’

अब मुझ से रहा नहीं गया सो बोली, ‘‘कम से कम मेरी उम्र का लिहाज कर. तुम मुझे आंटी तो कह ही सकती हो.’’

उस की शांत और मासूम आंखों में फिर से वही विद्रोही झलक कौंध उठी.

‘‘मैं किसी रिश्ते में विश्वास नहीं करती इसलिए किसी को भी अपने साथ रिश्तों में जोड़ने की कोशिश नहीं करती.’’

उस की कुटिल हंसी ने उस की सारी मासूमियत को पल में धोपोंछ कर बहा दिया.

मैं भी उस का सामना करने के लिए पहले से ही तैयार थी.

‘‘हर बात को भौतिकता से जोड़ने वाले नई पीढ़ी के तुम लोग क्या जानो कि आदमी के लिए जिंदगी में रिश्तों की क्या अहमियत होती है. अरे, रिश्ता तो कच्चे धागे से बंधा प्यार का वह बंधन है जिस के लिए लोग कभीकभी अपने सारे सुख ही नहीं, अपनी जिंदगी तक कुरबान कर देते हैं.’’

तभी नेहाजी आ गईं और मैं उन्हें संक्षेप में तन्वी के बीमार होने की बात बता कर लौट आई. इस घटना के करीब 2 दिन बाद मैं बैठी सूखे कपड़ों की तह लगा रही थी कि अचानक तन्वी मेरे सामने आ खड़ी हुई. वह सारे संकोच त्याग सहज ही मुसकराते हुए मेरे बगल में आ बैठी. उस लड़की की सारी उद्दंडता जाने कहां गुम हो गई थी. उस का सहज व्यवहार मुझे भी सहज बना गया.

‘‘कहो तन्वी, आज तुम्हें मेरी याद कैसे आ गई?’’

वह थोड़ी देर चुपचाप बैठी रही जैसे अपने अंदर बोलने का साहस जुटा रही हो, फिर बोली, ‘‘आंटी, मैं अपनी उस दिन की उद्दंडता के लिए आप से माफी मांगने आई हूं. आप ने ठीक ही कहा था कि मुझे किसी भी रिश्ते की अहमियत नहीं मालूम. जिंदगी में किसी ने पहली बार निस्वार्थ भाव से मेरी देखभाल की, मेरा खयाल रखा पर मैं ने उस प्यार और ममता के बंधन को भी स्वयं ही नकार दिया. सचमुच, आंटी मैं बहुत बुरी हूं.’’

‘‘तन्वी बेटा, तुम ने तो मेरी बातों को दिल से ही लगा लिया. तुम चिंता मत करो, मैं तुम्हारे जैसे मासूम बच्चों की बातों का बुरा नहीं मानती.’’

‘‘सच, आंटी, मैं आप को खोना नहीं चाहती,’’ और खुशी से किलकते हुए उस ने अपनी दोनों बांहें मेरे गले में डाल दीं. आज पहली बार तन्वी मुझे बेहद निरीह लगी.

‘‘एक बात बता, तू ने अपने पास इतने सारे विषबाण कहां से जमा कर रखे हैं. जब चाहा, जिस पर जी चाहा, तड़ से चला दिया.’’

वह खिलखिला कर हंस पड़ी. फिर कुछ गंभीर होती हुई बोली, ‘‘हां, आंटी, आज मैं भी आप से वे सारी कहीअनकही बातें कहना चाहती हूं जिन्हें आज तक मैं किसी के सामने नहीं कह पाई.

‘‘शायद आप को पता नहीं, मेरे मम्मीपापा ने अपने सारे रिश्तेनाते तोड़ प्रेमविवाह किया था. पहले दोनों एक ही आफिस में काम करते थे. पापा की अपेक्षा मम्मी शुरू से ही ज्यादा जहीन, मेहनती और योग्य थीं. इसलिए उन की शीघ्रता से पदोन्नति होती गई. वहीं पापा की पदोन्नति काफी धीमी गति से होती रही थी. पदों के बीच बढ़ती दूरियों ने दोनों को पतिपत्नी से प्रतिस्पर्द्धी बना दिया. धीरेधीरे मम्मीपापा के बीच तनाव बढ़ता गया. उसी तनाव भरे माहौल में मेरा जन्म हुआ.

‘‘मेरा जन्म भी दोनों की महत्त्वा- कांक्षाओं पर अंकुश नहीं लगा सका. वे पहले की तरह अपनीअपनी नौकरियों में व्यस्त रहते. मेरा पालनपोषण आयाओं के सहारे हो रहा था. जब मैं बीमार पड़ती तो मम्मी व पापा में इस बात पर जंग छिड़ जाती कि छुट्टियां कौन लेगा. दोनों में से किसी के पास मेरे लिए टाइम नहीं था. बीमार अवस्था में भी मुझे आया या फिर डाक्टरों के क्लीनिक में नर्सों के सहारे रहना पड़ता.

‘‘मम्मी के अतिव्यस्त रहने के कारण उन के द्वारा रखी गई आया मुझे तरहतरह से प्रताडि़त करती. ख्याति, यश और वैभव की कामना ने मम्मी को अंधा और बहरा बना रखा था. अपनी बेटी की अंतर्वेदना उन्हें सुनाई नहीं देती थी. मैं आयाओं के व्यवहार से क्रोध, विवशता और झुंझलाहट से पागल सी हो जाती. धीरेधीरे जीवन को अपनाने और संसार में घुलमिल जाने की चेष्टा घटती चली गई और मैं अपनेआप में सिमट कर रह गई, जिस ने मुझे असामाजिक बना दिया.

‘‘मेरी स्थिति से बेखबर मेरे मातापिता लड़तेझगड़ते एक दिन अलग हो गए. बिना किसी दर्द के पापा मुझे छोड़ कर चले गए. मम्मी की मजबूरी थी, उन्हें मुझे झेलना ही था. मैं एक आश्रिता थी, आश्रयदाता पापा हैं कि मम्मी, मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता था. निरर्थक, उद्देश्यहीन मेहनत ने मुझे पढ़ाई में भी सफल नहीं होने दिया. यही मेरे भटकाव की पहली सीढ़ी थी.’’

तन्वी थोड़ी देर को रुकी. वह उठी और बड़े अधिकार से फ्रिज को खोला. उस में से बोतल निकाल कर पानी पिया, फिर बोतल को एक तरफ रखते हुए मेरे पास आ कर बैठ गई और बोलने लगी :

‘‘धीरेधीरे मम्मी और पापा के प्रति मेरे मन में एक गहरी असंतुष्टि  हलचल मचाए रहती और एक अघोषित युद्ध का गंभीर घोष मेरे अंदर गूंजता रहता. मैं मम्मीपापा की सुखशांति को, मानसम्मान को यहां तक कि अपनेआप को भी तहसनहस करने के लिए बेचैन रहती. हर वह काम लगन से करती जो मम्मीपापा को दुखी करता… मेरी उद्दंडता और आवारागर्दी की कहानी पापा तक पहुंच कर उन्हें दुखी कर रही है, यह जान कर मुझे असीम सुख मिलता. आज भी मेरी वही मानसिकता है, दूसरे को चोट पहुंचाना. शायद इसी कारण मैं ऐसी हूं.

‘‘मेरे बीमार पड़ने पर जिस प्यार और अपनेपन से आप ने मेरी देखभाल की वह मेरे दिल को छू गया. मुझे लगा आप ही वह पात्र हैं जिस के सामने मैं अपने दिल की व्यथा उड़ेल सकती हूं. अब सबकुछ जानने के बाद आप से मिली सलाह ही मेरी पथप्रदर्शक होगी. इसलिए प्लीज, आंटी, मेरी मदद कीजिए. मैं बहुत कन्फ्यूज्ड हूं.’’

तन्वी सबकुछ उगल चुपचाप बैठ गई. उस के गालों पर ढुलक आए आंसुओं को अपने आंचल से पोंछ कर मैं बोली थी, ‘‘कितनी मूर्ख हो तुम. बिना गहराई से परिस्थितियों का अवलोकन किए, तुम ने अपनी मां को ही अपना दुश्मन मान लिया और उन के दुखदर्द और शोक का कारण बनी रहीं. अपनी मम्मी की तरफ से सोचो कि वे अपनी मरजी से शादी कर, अपने सारे रिश्तों को खो चुकी थीं. वे मजबूर थीं. आवश्यकताओं की लंबी फेहरिस्त, दिल्ली जैसे महानगर के बढ़ते खर्चे, तुम्हारी देखभाल, सभी के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसों की जरूरत थी और इस के लिए वे जीतोड़ कोशिशें कर रही थीं.

‘‘वहीं नौकरी में तुम्हारी मां का दिनोदिन बढ़ता कद तुम्हारे पापा के पुरुषार्थ के अहं को आहत कर रहा था. एक दिन वे अपने अहं की तुष्टि के लिए सारी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ कर परिवार से ही पलायन कर गए. रह गईं अकेली तुम्हारी मां, जिन्हें तुम्हारे साथसाथ नौकरी की भी जिम्मेदारी संभालनी थी. फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी… पर तकदीर की विडंबना देखो कि जिस बेटी के लिए वे इतना संघर्ष कर रही थीं, वही उन की व्यथा को समझने में सर्वदा असमर्थ रही और उन्हें चोट पहुंचा कर अपनी नादानियों से सबकुछ नष्ट करने पर उतारू हो गई.’’

तन्वी चुपचाप बड़े ही ध्यान से मेरी बातें सुन रही थी.

‘‘कभी तुम ने सोचा है कि जिंदगी बिगाड़ना बहुत आसान है पर जो एक बार बिगड़ गया, उसे संभालने में कभीकभी बरसों और कभीकभी तो पूरी जिंदगी निकल जाती है. खुद को चोट दे कर अपनों को दुख पहुंचाना कहां की बुद्धिमानी है. मेरी नानी अथर्ववेद का एक वाक्य मुझे हमेशा सुनाया करती थीं :

‘‘प्राच्यो अगाम नृत्ये हंसाय.’’

(अर्थात यह जीवन हंसतेखेलते हुए जीने के लिए है. चिंता, भय, शोक, क्रोध, निराशा, ईर्ष्या और तृष्णा में बिलखते रहना मूर्खता है.)

‘‘तुम्हारे जीवन में जो घटा वह तुम्हारे बस में नहीं था. वह वक्त का कहर था, मगर अब जो घट रहा है यह सब तुम्हारी विपरीत सोच का परिणाम है, जो तुम्हारी मां की खुशियों को ही नहीं तुम्हें भी बरबाद कर रहा है. जब कोई खुशियों का इंतजार करतेकरते अचानक दुखों को न्योता देने लगे तो समझो वह परिवार के विनाश को बुलावा दे रहा है. तुम विनाश का कारण क्यों बनना चाहती हो? क्या मिलेगा दुख बांट कर? एक बार सुख बांट कर देखो, तुम्हारे सारे दर्द मिट जाएंगे.

‘‘अपने सारे आक्रोश त्याग कर, बीते समय को भुला कर, अपनी खुशियों के लिए सोचो, उन्हें पाने की कोशिश करो तो तुम्हारे सारे मनस्ताप खुदबखुद धुल जाएंगे. वक्त का कर्म तुम्हारे साथ होगा, अगर तुम ने अब भी देर कर दी और वक्त को मुट्ठी में नहीं लिया तो धीरेधीरे समय तुम्हें तोड़ देगा. बस, मुझे इतना ही कहना है. अब फैसला तुम्हारे हाथों में है.’’

वह धीरे से उठी और मेरी गोद में सिर रख कर फर्श पर बैठ गई. प्यार से उस के बालों में उंगलियां फिराते ही वह निशब्द रोने लगी. मैं ने भी उसे रोका नहीं, जी भर रो लेने दिया. थोड़ी देर बाद शांत हो कर बोली, ‘‘आंटी, आज आप ने मेरी जिंदगी की उलझनों को कितनी आसानी और सरलता से सुलझाया, मेरे अंदर भरे गलतफहमियों के जहर को दूर कर दिया. अपनी गलतियों के एहसास ने तो मेरी सोच ही बदल दी. अब तक तो मैं सभी के दुख का कारण बनी रही, लेकिन अब सुख का कारण बनने की कोशिश करूंगी.’’

दूसरे दिन मैं बरामदे में बैठी सुन रही थी. वह बालकनी में खड़ी वहीं से अपने दोस्तों को लौट जाने के लिए कह रही थी.

‘‘नहींनहीं…तुम लोगों के साथ मुझे कहीं नहीं जाना. मुझे पढ़ना है.’’

उस के दोस्तों ने साथ चलने के लिए काफी मिन्नतें कीं, पर वह नहीं मानी. एक दिन मैं नेहाजी के साथ लौन में बैठी बातें कर ही रही थी कि तभी तन्वी हाथ में ट्रे ले कर पहुंच गई. 2 कप चाय के साथ पकौड़ों की प्लेट भी थी.

‘‘आंटी, आज मैं ने पकौड़े किताब पढ़ कर बनाए हैं. जरा चख कर तो देखिए.’’

अनाड़ी हाथों के अनगढ़ पकौड़ों में मुझे वह स्वाद आया जो आज से पहले कभी नहीं आया था. बेटी के बदले रूप को देख, नेहा की आंखों में मेरे लिए कृतज्ञता के आंसू झिलमिला रहे थे.

मैं खुद पर इतराई थी

मुकम्मल जहां तो आज तक किसी  को भी नहीं मिला, कहीं कुछ  कमी रह गई तो कहीं कुछ. तुम चाहो तो सारी उम्र गुजार लो, जितनी चाहो कोशिश कर लो…कभी यह दावा नहीं कर सकते कि सब पा लिया है तुम ने.

शुभा का नाम आते ही कितनी यादें मन में घुमड़ने लगीं. मुझे याद है कालेज के दिनों में मन में कितना जोश हुआ करता था. हर चीज के लिए मेरा लपक कर आगे बढ़ना शुभा को अच्छा नहीं लगता था. ठहराव था शुभा में. वह कहती भी थी :

‘जो हमारा है वह हमें मिलेगा जरूर. उसे कोई भी नहीं छीन सकता…और जो हमारा है ही नहीं…अगर नहीं मिल पाया तो कैसा गिलाशिकवा और क्यों रोनाधोना? जो मिला है उस का संतोष मनाना सीखो सीमा. जो खो गया उसे भूल जाओ. वे भी लोग हैं जो जूतों के लिए रोते हैं…उन का क्या जिन के पैर ही नहीं होते.’

बड़ी हैरानी होती थी मुझे कि इतनी बड़ीबड़ी बातें वह कहां से सीखती थी. सीखती थी और उन पर अमल भी करती थी. सीखने को तो मैं भी सीखती थी परंतु अमल करना कभी नहीं सीखा.

‘अपनी खुशी को ऐसी गाड़ी मत बनाओ जो किसी दूसरी गाड़ी के पीछे लगी हो. जबजब सामने वाली गाड़ी अपनी रफ्तार बढ़ाए आप को भी बढ़ानी पड़े. जबजब वह ब्रेक लगाए आप को भी लगाना पड़े, नहीं तो टकरा जाने का खतरा. अपना ही रास्ता स्वयं क्यों नहीं बना लेते कि अपनी मरजी चलाई जा सके. आप की खुशियां किसी दूसरे के हावभाव और किसी अन्य की हरकतों पर निर्भर क्यों हों? आप के किसी रिश्तेदार या मित्र ने आप से प्यार से बात नहीं की तो आप दुखी हो गए. उस का ध्यान कहीं और होगा, हो सकता है उस ने आप को देखा ही न हो. आप ऐसा सोचो ही क्यों, कि उस ने आप को अनदेखा कर दिया है. क्या अपने आप को इतना बड़ा इंसान समझते हो कि हर आनेजाने वाला सलाम ठोकता ही जाए. अपने को इतना ज्यादा महत्त्व देते ही क्यों हो?’

‘आत्मसम्मान नाम की कोई चीज होती है न…क्या नहीं होती?’ मैं पूछती.

‘आत्मसम्मान तब तक आत्मसम्मान है जब तक वह अपनी सीमारेखा के अंदर है, जब वह सामने वाले को दबाने लगे, उस के आत्मसम्मान पर प्रहार करने लगे, तब वह अहम बन जाता है… व्यर्थ की अकड़ बन जाती है और जब दोनों पक्ष दुखी हो जाएं तब समझो आप ने अपनी सीमा पार कर ली. अपने मानसम्मान को अपने तक रखो, किसी दूसरे के गले का फंदा मत बनाओ, समझी न.’

‘कैसे भला?’

‘वह इस तरह कि मैं यह उम्मीद ही क्यों करूं कि तुम मेरी सारी बातें मान ही लो. जरूरी तो नहीं है न कि तुम वही करो जो मैं कहूं. मेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी इच्छा है. ऐसा तो नहीं है न, कि मेरा ही कहा माना जाए. तुम मेरा कहा न मानो तो मेरा आत्मसम्मान ही ठेस खा जाए. तुम्हारा भी तो आत्मसम्मान है. तुम्हें सुनना पसंद है, मुझे नहीं. जरूरी तो नहीं कि तुम मेरी खुशी के लिए गजल सुनने लगो ‘हर इंसान का अपना शौक है. अपना स्वाद है. कुदरत ने सब को अलगअलग सांचे में ढाल कर उन का निर्माण किया है. कोई गोरा है, कोई काला है. कोई मोटा है कोई पतला. किसी पर सफेद रंग जंचता है किसी पर काला रंग. अपनीअपनी जगह सब उचित हैं, सब सुंदर हैं. सब का मानसम्मान आदरणीय है, सभी इंसान उचित व्यवहार के हकदार हैं.

‘हम कौन हैं जो किसी को नकार दें या उसे अपने से कम या ज्यादा समझें? अपना सम्मान करो लेकिन दूसरे का सम्मान भी कम मत होने दो. अपनी मरजी चलाओ, लेकिन यह भी ध्यान रखो कि किसी और की मरजी में तो आप का दखल नहीं हो रहा है. सोचो जरा.’

‘आप की दोस्त थी न शुभा,’ मेरे देवर मुझ से पूछ रहे थे.

‘हमारे नए मैनेजर की पत्नी हैं. कल ही हम उन से मिले थे. बातों में बात निकली तो मेरे मुंह से निकल गया कि मेरी भाभी भी जम्मू की हैं. आप का नाम लिया तो इतनी खुश हो गईं कि मेरी बांह ही पकड़ ली. वे तो यह भी भूल गईं कि उन के पति मेरे अफसर हैं. आप को बहुत याद कर रही थीं. बड़ी सीधी सी महिला हैं…बड़ी ही सरल…मेरा पता ले लिया है. कह रही थीं कि जरा घर संभल जाए तो वे आप से मिलने आ जाएंगी.’

सोम शुभा के बारे में बता कर चले गए और मैं सोचने लगी कि क्या सचमुच शुभा मुझ से मिलने आएगी? जब मेरी शादी हुई तब उस के पिताजी का तबादला हो चुका था. मेरी शादी में वह आ नहीं पाई थी और जब उस की शादी हुई थी तो मैं अपने ससुराल में व्यस्त थी. कभीकभार उस की कोई खबर मिल जाती थी. मेरे पति सफल बिजनैसमैन हैं. नौकरी करना उन्हें पसंद नहीं. यह अलग बात है कि मेज के उस पार बैठने वाले की जरूरत उन्हें कदमकदम पर पड़ती है. मेरे देवर का बैंक में नौकरी करना उन्हें पसंद नहीं आया था. चाहते थे वे भी उन के साथ ही हाथ बंटाएं लेकिन देवर की स्पष्टवादिता भी कहीं न कहीं सही थी.

‘नहीं भाई साहब, वेतनभोगी इंसान को अपनी चादर का पता होता है. मैं अपनी चादर का छोटाबड़ा होना पसंद नहीं कर पाऊंगा.’

चादर से याद आया कि शुभा भी कुछ ऐसा ही कहा करती थी. चादर से बाहर पैर पसारना उसे भी पसंद नहीं आता था. मेरे देवर से उस की सोच मिलतीजुलती है. शायद इसीलिए उन्हें भी शुभा अच्छी लगी थी. मेरे पिताजी को भी शुभा बहुत पसंद थी. एक बार तो उन की इच्छा इतनी प्रबल हो गई थी कि उन्होंने शुभा को अपनी बहू बनाने का भी विचार किया था. मेरे भैया अमेरिका से आए थे शादी करने. हमारा घर शुभा के घर से बीस ही था. उन्नीस होते हुए भी शुभा ने मना कर दिया था.

‘अपने देश की मिट्टी छोड़ कर मैं अमेरिका क्यों जाऊं. क्या यहां रोटी नहीं है खाने को?’

‘जिंदगी एक बार मिलती है शुभा, उसे ऐशोआराम से काटना नहीं चाहोगी?’

‘यहां मुझे कोई कमी है क्या? मैं तो बहुत सुखी हूं. प्रकृति ने मेरे हिस्से में जो था, मुझे दे रखा है और वक्त आने पर कल भी मुझे वह सब मिलेगा जिस की मैं हकदार हूं. मैं कुदरत के विरुद्ध नहीं जाना चाहती. उस ने इस मिट्टी में भेजा है तो क्यों कहीं और जाऊं?’ शुभा का साफसाफ इनकार कर देना मुझे चुभ गया था. मेरा आत्म सम्मान, हमारे परिवार का आत्मसम्मान ही मानो छिन्नभिन्न हो गया था. भला, लड़की की क्या औकात जो मना कर दे. मुझे लगा था कि उस ने मेरा अपमान किया है, मेरे भाई का तिरस्कार किया है.

‘रिश्ता विचार मिला कर करना चाहिए, सीमा. समान विचारों वाले इंसान ही साथ रहें तो अच्छा है. सुखी तभी होंगे जब सोच एक जैसी होगी. विपरीत स्वभाव मात्र तनाव और अलगाव पैदा करता है. क्या तुम चाहोगी कि तुम्हारा भाई दुखी रहे? मैं वैसी नहीं हूं जैसा तुम्हारा भाई है. न मैं चैन से रह पाऊंगी न वही अपना जीवन चैन से बिता पाएगा.’

‘तुम हमारा अपमान कर रही हो, शुभा.’

‘इसे मान व अपमान का प्रश्न न बनाओ सीमा. तुम्हारा मान बचाने के लिए अपने जीवन की गाड़ी मैं तुम्हारी इच्छा के पीछे तो नहीं लगा सकती न. तुम्हारी खुशी के लिए क्या मैं अपने विचार बदल लूं.’

शुभा का समझाना सब व्यर्थ गया था. 15 साल हो गए उस बात को. उस प्रसंग के बाद जल्दी ही उस के पिता का तबादला हो गया था. अपनी शादी में मैं ने अनमने भाव से ही निमंत्रण भेज दिया था मगर वह आ नहीं पाई थी. उस के भी किसी नजदीकी रिश्तेदार की शादी थी. वह किस्सा जो तब समाप्त सा हो गया था, आज पुन: शुरू हो पाएगा या नहीं, मुझे नहीं पता…और अगर शुरू हो भी जाता है तो किस दिशा में जाएगा, कहा नहीं जा सकता.

वैचारिक मतभेद जो इतने साल पहले था वह और भी चौड़ा हो कर खाई का रूप ले चुका  होगा या वक्त की मार से शून्य में विलीन हो चुका होगा, पहले से ही अंदाजा लगाना आसान नहीं था.

शुभा के बारे में हर पल मैं सोचती थी. अपनी हार को मैं भूल नहीं पाई थी जबकि शुभा भी गलत कहां थी. उस का अपना दृष्टिकोण था जिसे मैं ने ही मान- अपमान का प्रश्न बना लिया था. अपना पूरा जीवन, अपनी पसंद, मात्र मेरी खुशी के लिए वह दांव पर क्यों लगा देती. मैं तो किसी की पसंद का लाया रूमाल तक पसंद नहीं करती. अपने पति से बहुत प्यार है मुझे, लेकिन उन की लाई एक साड़ी मैं आज तक पहन नहीं पाई क्योंकि वह मुझे पसंद नहीं है.

सच कहती थी शुभा. एक सीमा के बाद हर इंसान की सिर्फ अपनी सीमा शुरू हो जाती है जिस का सम्मान सब को करना चाहिए, किसी को बदलने का हमें क्या अधिकार जब हम किसी के लिए जरा सा भी बदल नहीं सकते. हमारा स्वाभिमान अगर हमें बड़ा प्यारा है तो क्या किसी दूसरे का स्वाभिमान उसे प्यारा नहीं होगा. किसी ने अपनी इच्छा जाहिर कर दी तो हमें ऐसा क्यों लगा कि उस ने हमारे स्वाभिमान को ठोकर लगा दी.

‘‘भाभी, शुभाजी आप से मिलना चाहती हैं. फोन पर हैं. आप से बात करना चाहती हैं,’’ कुछ दिन बाद एक शाम मेरे देवर ने आवाज दी मुझे. महीना भर हो चुका था शुभा को मेरे शहर में आए. मेरे मन में उस से मिलने की इच्छा तो थी पर एक अकड़ ने रोक रखा था. चाहती थी वही पहल करे. नाराजगी तो मुझे थी न, मैं क्यों पहल करूं.

एक दंभ भी था कि मैं उस से कहीं ज्यादा अमीर हूं. मेरे पति उस से कहीं ज्यादा कमाते हैं. रुपयापैसा और अन्य नेमतों से मेरा घर भरा पड़ा है. पहले वही आए मेरे घर पर और मेरा वैभव देखे. वह मेरे भाई के बारे में जाने. उसे भी तो पता चले कि उस ने क्याक्या खो दिया है. बारबार पुकारा मेरे देवर ने. मैं ने हाथ के इशारे से संकेत कर दिया.

‘‘अभी व्यस्त हूं, बाद में बात करने को कह दो.’’

अवाक् था मेरा देवर. उस के अफसर की पत्नी का फोन था. क्या कहता वह. इस से पहले कि वह कोई उत्तर देता, शुभा ने ही फोन काट दिया. बुरा लगा होगा न शुभा को. उसे पीड़ा का आभास दिला कर अच्छा लगा था मुझे.

कुछ दिन और बीत गए. संयोग से एक शादी समारोह में जाना हुआ. गहनों से लदी मैं पति के साथ पहुंची. काफी लोग थे वहां. हम जैसों की अच्छीखासी भीड़ थी जिस में ‘उस की साड़ी मेरी साड़ी से सुंदर क्यों’ की तर्ज पर खासी जलन और नुमाइश थी. कहीं किसी की साड़ी ऐसी तो नहीं जो दूसरी बार पहनी गई हो. पोशाक को दोहरा कर पहनना गरीबी का संकेत होता है न हमारी सोसायटी में.

‘‘कैसी हो, सीमा? पहचाना मुझे?’’

किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा. चौंक कर मैं ने देखा तो सामने शुभा खड़ी थी. गुलाबी रेशमी साड़ी जिस की किनारी सुनहरी थी. गले में हलकी सी मटरमाला और हाथों में सोने की 4 चूडि़यां.

‘‘कैसी हो, सीमा? पहचाना नहीं क्या?’’

28 हजार की मेरी साड़ी थी और लाखों के थे मेरे शरीर पर जगमगाते हीरे. इन की चमक में मुझे अपनी गरीब सी दिखने वाली सहेली भला कहां नजर आती. थोड़ी सी मोटी भी हो गई थी शुभा. दर्प से अकड़ गई थी मेरी गर्दन.

‘‘आइए मैडम, मेरे साथ…’’

तभी श्रीमान ग्रोवर हमारे पास चले आए. शहर के करोड़पति आसामी हैं. उन का झुक कर शुभा का अभिवादन करना बड़ा अजीब सा लगा मुझे.

‘‘आइए, नवविवाहित जोड़े से मिलाऊं. आप शहर में नएनए आए हैं. जरा सी जानपहचान हो जाए.’’

‘‘पहले पुरानी पहचान से तो पहचान हो जाए. मेरी कालेज के जमाने की मित्र है. पहचान ही नहीं पा रही मुझे.’’

वही अंदाज था शुभा का. मैं जैसे उसे न पहचानने ही का उपक्रम कर रही थी.

‘‘जल्दी चलो शुभा, देर हो रही है. जल्दी से दूल्हादुलहन को शगुन दो. रात के 12 बज रहे हैं. घर पर बच्चे अकेले हैं.’’

एक बहुत ही सौम्य व्यक्ति ने पुकारा शुभा को. आत्मविश्वास से भरा था दोनों का ही स्वरूप. दोनों ठिठक कर मुझे निहारने लगे. अच्छा लग रहा था मुझे. मेरा उसे न पहचानना कितनी तकलीफ दे रहा होगा न शुभा को. इतने लोगों की भीड़ में कितना बुरा लग रहा होगा शुभा को. बड़ी गहरी नजरें थीं शुभा की. सब समझ गई होगी शायद. शायद मेरा हाथ पकड़ कर मुझे याद दिलाएगी और कहेगी :

‘सीमा, याद करो न, मैं शुभा हूं. जम्मू में हम साथसाथ थे न. मैं ने तुम्हारा मन दुखाया था…तुम्हारा कहा नहीं माना था. कैसे हैं तुम्हारे भैया. अभी भी अमेरिका में ही हैं या कहीं और चले गए?’

‘‘बरसों पहले खो दिया था मैं ने अपनी प्यारी सखी को…आज भी बहुत याद आती है. पता चला था इसी शहर में है. आप को देख कर उस का धोखा हो गया, सो बुला लिया. आप वह नहीं हैं… क्षमा कीजिएगा.’’

मुसकरा दी शुभा. एक रहस्यमयी मुसकान. हाथ जोड़ कर उस ने माफी मांगी और दोनों पतिपत्नी चले गए. स्तब्ध रह गई मैं. शुभा ने नजर भर कर न मुझे देखा, न मेरे गहनों को. सादी सी शुभा की नजरों में गहनोंकपड़ों की कीमत कल भी शून्य थी और आज भी. कल भी वह संतोष से भरी थी और आज भी उस का चेहरा संतोष से दमक रहा था. सोचा था, मैं उसे पीड़ा पहुंचा रही हूं, नहीं जानती थी कि वही मुझे नकार कर इस तरह चली जाएगी कि मैं ही पीडि़ता हो कर रह जाऊंगी.

खुशियों के फूल: क्या था लिपि के पिता का विकृत चेहरा?

‘‘रश्मि आंटी ई…ई…ई…’’ यह पुकार सुन कर लगा जैसे यह मेरा सात समंदर पार वैंकूवर में किसी अपने की मिठास भरी पुकार का भ्रम मात्र है. परदेस में भला मुझे कौन पहचानता है?  पीछे मुड़ कर देखा तो एक 30-35 वर्षीय सौम्य सी युवती मुझे पुकार रही थी. चेहरा कुछ जानापहचाना सा लगा. हां अरे, यह तो लिपि है. मेरे चेहरे पर आई मुसकान को देख कर वह अपनी वही पुरानी मुसकान ले कर बांहें फैला कर मेरी ओर बढ़ी.

इतने बरसों बाद मिलने की चाह में मेरे कदम भी तेजी से उस की ओर बढ़ गए. वह दौड़ कर मेरी बांहों में सिमट गई. हम दोनों की बांहों की कसावट यह जता रही थी कि आज के इस मिलन की खुशी जैसे सदियों की बेताबी का परिणाम हो.

मेरी बहू मिताली पास ही हैरान सी खड़ी थी. ‘‘बेटी, कहां चली गई थीं तुम अचानक? कितना सोचती थी मैं तुम्हारे बारे में? जाने कैसी होगी? कहां होगी मेरी लिपि? कुछ भी तो पता नहीं चला था तुम्हारा?’’ मेरे हजार सवाल थे और लिपि की बस गरम आंसुओं की बूंदें मेरे कंधे पर गिरती हुई जैसे सारे जवाब बन कर बरस रही थीं.

मैं ने लिपि को बांहों से दूर कर सामने किया, देखना चाहती थी कि वक्त के अंतराल ने उसे कितना कुछ बदलाव दिया.

‘‘आंटी, मेरा भी एक पल नहीं बीता होगा आप को बिना याद किए. दुख के पलों में आप मेरा सहारा बनीं. मैं इन खुशियों में भी आप को शामिल करना चाहती थी. मगर कहां ढूंढ़ती? बस, सोचती रहती थी कि कभी तो आंटी से मिल सकूं,’’ भरे गले से लिपि बोली.

‘‘लिपि, यह मेरी बहू मिताली है. इस की जिद पर ही मैं कनाडा आई हूं वरना तुम से मिलने के लिए मुझे एक और जन्म लेना पड़ता,’’ मैं ने मुसकरा कर माहौल को सामान्य करना चाहा.

‘‘मां के चेहरे की खुशी देख कर मैं समझ सकती हूं कि आप दोनों एकदूसरे से मिलने के लिए कितनी बेताब रही हैं. आप अपना एड्रैस और फोन नंबर दे दीजिए. मैं मां को आप के घर ले आऊंगी. फिर आप दोनों जी भर कर गुजरे दिनों को याद कीजिएगा,’’ मिताली ने नोटपैड निकालते हुए कहा.

‘‘भाभी, मैं हाउसवाइफ हूं. मेरा घर इस ‘प्रेस्टीज मौल’ से अधिक दूरी पर नहीं है. आंटी को जल्दी ही मेरे घर लाइएगा. मुझे आंटी से ढेर सारी बातें करनी हैं,’’ मुझे जल्दी घर बुलाने के लिए उतावली होते हुए उस ने एड्रैस और फोन नंबर लिखते हुए मिताली से कहा.

‘‘मां, लगता है आप के साथ बहुत लंबा समय गुजारा है लिपि ने. बहुत खुश नजर आ रही थी आप से मिल कर,’’ रास्ते में कार में मिताली ने जिक्र छेड़ा.

‘‘हां, लिपि का परिवार ग्वालियर में हमारा पड़ोसी था. ग्वालियर में रिटायरमैंट तक हम 5 साल रहे. ग्वालियर की यादों के साथ लिपि का भोला मासूम चेहरा हमेशा याद आता है. बेहद शालीन लिपि अपनी सौम्य, सरल मुसकान और आदर के साथ बातचीत कर पहली मुलाकात में ही प्रभावित कर लेती थी.

‘‘जब हम स्थानांतरण के बाद ग्वालियर शासकीय आवास में पहुंचे तो पास ही 2 घर छोड़ कर तीसरे क्वार्टर में चौधरी साहब, उन की पत्नी और लिपि रहते थे. चौधरी साहब का अविवाहित बेटा लखनऊ में सर्विस कर रहा था और बड़ी बेटी शादी के बाद झांसी में रह रही थी,’’ बहुत कुछ कह कर भी मैं बहुत कुछ छिपा गई लिपि के बारे में.

रात को एकांत में लिपि फिर याद आ ग. उन दिनों लिपि का अधिकांश समय अपनी बीमार मां की सेवा में ही गुजरता था. फिर भी शाम को मुझ से मिलने का समय वह निकाल ही लेती थी. मैं भी चौधरी साहब की पत्नी शीलाजी का हालचाल लेने जबतब उन के घर चली जाती थी.

शीलाजी की बीमारी की गंभीरता ने उन्हें असमय ही जीवन से मुक्त कर दिया. 10 वर्षों से रक्त कैंसर से जूझ रही शीलाजी का जब निधन हुआ था तब लिपि एमए फाइनल में थी. असमय मां का बिछुड़ना और सारे दिन के एकांत ने उसे गुमसुम कर दिया था. हमेशा सूजी, पथराई आंखों में नमी समेटे वह अब शाम को भी बाहर आने से कतराने लगी थी. चौधरी साहब ने औफिस जाना आरंभ कर दिया था. उन के लिए घर तो रात्रिभोजन और रैनबसेरे का ठिकाना मात्र ही रह गया था.

लिपि को देख कर लगता था कि वह इस गम से उबरने की जगह दुख के समंदर में और भी डूबती जा रही है. सहमी, पीली पड़ती लिपि दुखी ही नहीं, भयभीत भी लगती थी. आतेजाते दी जा रही दिलासा उसे जरा भी गम से उबार नहीं पा रही थी. दुखते जख्मों को कुरेदने और सहलाने के लिए उस का मौन इजाजत ही नहीं दे रहा था.

मुझे लिपि में अपनी दूर ब्याही बेटी  अर्पिता की छवि दिखाई देती थी.  फिर भला उस की मायूसी मुझ से कैसे बर्दाश्त होती? मैं ने उस की दीर्घ चुप्पी के बावजूद उसे अधिक समय देना शुरू कर दिया था. ‘बेटी लिपि, अब तुम अपने पापा की ओर ध्यान दो. तुम्हारे दुखी रहने से उन का दुख भी बढ़ जाता है. जीवनसाथी खोने का गम तो है ही, तुम्हें दुखी देख कर वे भी सामान्य नहीं हो पा रहे हैं. अपने लिए नहीं तो पापा के लिए तो सामान्य होने की कोशिश करो,’ मैं ने प्यार से लिपि को सहलाते हुए कहा था.

पापा का नाम सुनते ही उस की आंखों में घृणा का जो सैलाब उठा उसे मैं ने साफसाफ महसूस किया. कुछ न कह पाने की घुटन में उस ने मुझे अपलक देखा और फिर फूटफूट कर रोने लगी. मेरे बहुत समझाने पर हिचकियां लेते हुए वह अपने अंदर छिपी सारी दास्तान कह गई, ‘आंटी, मैं मम्मी के दुनिया से जाते ही बिलकुल अकेली हो गई हूं. भैया और दीदी तेरहवीं के बाद ही अपनेअपने शहर चले गए थे. मां की लंबी बीमारी के कारण घर की व्यवस्थाएं नौकरों के भरोसे बेतरतीब ही थीं. मैं ने जब से होश संभाला, पापा को मम्मी की सेवा और दवाओं का खयाल रखते देखा और कभीकभी खीज कर अपनी बदकिस्मती पर चिल्लाते भी.

‘मेरे बड़े होते ही मम्मी का खयाल स्वत: ही मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया. पापा के झुंझलाने से आहत मम्मी मुझ से बस यही कहती थीं कि बेटी, मैं बस तुम्हें ससुराल विदा करने के लिए ही अपनी सांसें थामे हूं. वरना अब मेरा जीने का बिलकुल भी जी नहीं करता. लेकिन मम्मी मुझे बिना विदा किए ही दुनिया से विदा हो गईं.

‘पापा को मैं ने पहले कभी घर पर शराब पीते नहीं देखा था लेकिन अब पापा घर पर ही शराब की बोतल ले कर बैठ जाते हैं. जैसेजैसे नशा चढ़ता है, पापा का बड़बड़ाना भी बढ़ जाता है. इतने सालों से दबाई अतृप्त कामनाएं, शराब के नशे में बहक कर बड़बड़ाने में और हावभावों से बाहर आने लगती हैं. पापा कहते हैं कि उन्होंने अपनी सारी जवानी एक जिंदा लाश को ढोने में बरबाद कर दी. अब वे भरपूर जीवन जीना चाहते हैं. रिश्तों की गरिमा और पवित्रता को भुला कर वासना और शराब के नशे में डूबे हुए पापा मुझे बेटी के कर्तव्यों के निर्वहन का पाठ पढ़ाते हैं.

‘मेरे आसपास अश्लील माहौल बना कर मुझे अपनी तृप्ति का साधन बनाना चाहते हैं. वे कामुक बन मुझे पाने का प्रयास करते हैं और मैं खुद को इस बड़े घर में बचातीछिपाती भागती हूं. नशे में डूबे पापा हमारे पवित्र रिश्ते को भूल कर खुद को मात्र नर और मुझे नारी के रूप में ही देखते हैं.

‘अब तो उन के हाथों में बोतल देख कर मैं खुद को एक कमरे में बंद कर लेती हूं. वे बाहर बैठे मुझे धिक्कारते और उकसाते रहते हैं और कुछ देर बाद नींद और नशे में निढाल हो कर सो जाते हैं. सुबह उठ कर नशे में बोली गई आधीअधूरी याद, बदतमीजी के लिए मेरे पैरों पर गिर कर रोरो कर माफी मांग लेते हैं और जल्दी ही घर से बाहर चले जाते हैं.

‘ऊंचे सुरक्षित परकोटे के घर में मैं सब से सुरक्षित रिश्ते से ही असुरक्षित रह कर किस तरह दिन काट रही हूं, यह मैं ही जानती हूं. इस समस्या का समाधान मुझे दूरदूर तक नजर नहीं आ रहा है,’ कह कर सिर झुकाए बैठ गई थी लिपि. उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी थी.

मैं सुन कर आश्चर्यचकित थी कि चौधरी साहब इतना भी गिर सकते हैं. लिपि अपने अविवाहित भाई रौनक के पास भी नहीं जा सकती थी और झांसी में उस की दीदी अभी संयुक्त परिवार में अपनी जगह बनाने में ही संघर्षरत थी. वहां लिपि का कुछ दिन भी रह पाना मुश्किल था.  घबरा कर लिपि आत्महत्या जैसे कायरतापूर्ण अंजाम का मन बनाने लगी थी. लेकिन आत्महत्या अपने पीछे बहुत से अनुत्तरित सवाल छोड़ जाती है, यह समझदार लिपि जानती थी. मैं ने उसे चौधरी साहब और रौनक के साथ गंभीरतापूर्वक बात कर उस के विवाह के बाद एक खुशहाल जिंदगी का ख्वाब दिखा कर उसे दिलासा दी. अब मैं उसे अधिक से अधिक समय अपने साथ रखने लगी थी.  मुझे अपनी बेटी की निश्चित डेट पर हो रही औपरेशन द्वारा डिलीवरी के लिए बेंगलुरु जाना था. मैं चिंतित थी कि मेरे यहां से जाने के बाद लिपि अपना मन कैसे बहलाएगी?

यह एक संयोग ही था कि मेरे बेंगलुरु जाने से एक दिन पहले रौनक लखनऊ से घर आया. मेरे पास अधिक समय नहीं था इसलिए मैं उसे निसंकोच अपने घर बुला लाई. एक अविवाहित बेटे के पिता की विचलित मानसिकता और उन की छत्रछाया में पिता से असुरक्षित बहन का दर्द कहना जरा मुश्किल ही था, लेकिन लिपि के भविष्य को देखते हुए रौनक को सबकुछ थोड़े में समझाना जरूरी था.  सारी बात सुन कर उस का मन पिता के प्रति आक्रोश से?भर उठा. मैं ने उसे समझाया कि वह क्रोध और जोश में नहीं बल्कि ठंडे दिमाग से ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचे जो लिपि के लिए सुरक्षित और बेहतर हो.

अगली सुबह मैं अकेली बेंगलुरु के लिए रवाना हो गई थी और जा कर अर्पिता की डिलीवरी से पूर्व की तैयारी में व्यस्त हो गई थी कि तीसरे दिन मेरे पति ने फोन पर बताया कि तुम्हारे जाने के बाद अगली शाम रौनक लिपि को झांसी भेजने के लिए स्टेशन गया था कि पीछे घर पर अकेले बैठे चौधरी साहब की हार्टअटैक से मृत्यु हो गई.

रौनक को अंदर से बंद घर में पापा टेबल से टिके हुए कुरसी पर बैठे मिले. बेचारे चौधरी साहब का कुछ पढ़ते हुए ही हार्ट फेल हो गया. लिपि और उस की बहन भी आ गई हैं. चौधरी साहब का अंतिम संस्कार हो गया है और मैं कल 1 माह के टूर पर पटना जा रहा हूं.’

चौधरी साहब के निधन को लिपि के लिए सुखद मोड़ कहूं या दुखद, यह तय नहीं कर पा रही थी मैं. तब फोन भी हर घर में कहां होते थे. मैं कैसे दिलासा देती लिपि को? बेचारी लिपि कैसे…कहां… रहेगी अब? उत्तर को वक्त के हाथों में सौंप कर मैं अर्पिता और उस के नवजात बेटे में व्यस्त हो गई थी.

3माह बाद ग्वालियर आई तो चौधरी साहब के उजड़े घर को देख कर मन में एक टीस पैदा हुई. पति ने बताया कि रौनक चौधरी साहब की तेरहवीं के बाद घर के अधिकांश सामान को बेच कर लिपि को अपने साथ ले गया है. मैं उस वक्त टूर पर था, इसलिए जाते वक्त मुलाकात नहीं हो सकी और उन का लखनऊ का एड्रैस भी नहीं ले सका.

लिपि मेरे दिलोदिमाग पर छाई रही लेकिन उस से मिलने की अधूरी हसरत इतने सालों बाद वैंकूवर में पूरी हो सकी.  सोमवार को नूनशिफ्ट जौइन करने के लिए तैयार होते समय मिताली ने कहा, ‘‘मां, मेरी लिपि से फोन पर बात हो गई है. मैं आप को उस के यहां छोड़ देती हूं. आप तैयार हो जाइए. वह आप को वापस यहां छोड़ते समय घर भी देख लेगी.’’

लिपि अपने अपार्टमैंट के गेट पर ही हमारा इंतजार करती मिली. मिताली के औफिस रवाना होते ही लिपि ने कहा, ‘‘आंटी, आप से ढेर सारी बातें करनी हैं. आइए, पहले इस पार्क में धूप में बैठते हैं. मैं जानती हूं कि आप तब से आज तक न जाने कितनी बार मेरे बारे में सोच कर परेशान हुई होंगी.’’

‘‘हां लिपि, चौधरी साहब के गुजरने के बाद तुम ग्वालियर से लखनऊ चली गई थीं, फिर तुम्हारे बारे में कुछ पता ही नहीं चला. चौधरी साहब की अचानक मृत्यु ने तो हमें अचंभित ही कर दिया था. प्रकृति की लीला बड़ी विचित्र है,’’ मैं ने अफसोस के साथ कहा.

‘‘आंटी जो कुछ बताया जाता है वह हमेशा सच नहीं होता. रौनक भैया उस दिन आप के यहां से आ कर चुप, पर बहुत आक्रोशित थे. पापा ने रात को शराब पी कर भैया से कहा कि अब तुम लिपि को समझाओ कि यह मां के गम में रोनाधोना भूल कर मेरा ध्यान रखे और अपनी पढ़ाई में मन लगाए.

‘‘सुन कर भैया भड़क गए थे. पापा के मेरे साथ ओछे व्यवहार पर उन्होंने पापा को बहुत खरीखोटी सुनाईं और कलियुगी पिता के रूप में उन्हें बेहद धिक्कारा. बेटे से लांछित पापा अपनी करतूतों से शर्मिंदा बैठे रह गए. उन्हें लगा कि ये सारी बातें मैं ने ही भैया को बताई हैं.

‘‘भैया की छुट्टियां बाकी थीं लेकिन वे मुझे झांसी दीदी के पास कुछ दिन भेज कर किसी अन्य शहर में मेरी शिक्षा और होस्टल का इंतजाम करना चाहते थे. वे मुझे झांसी के लिए स्टेशन पर ट्रेन में बिठा कर वापस घर पहुंचे तो दरवाजा अंदर से बंद था.

‘‘बारबार घंटी बजाने पर भी जब दरवाजा नहीं खुला तो भैया पीछे आंगन की दीवार फांद कर अंदर पहुंचे तो पापा कुरसी पर बैठे सामने मेज पर सिर के बल टिके हुए मिले. उन के सीधे हाथ में कलम था और बाएं हाथ की कलाई से खून बह रहा था. भैया ने उन्हें बिस्तर पर लिटाया. तब तक उन के प्राणपखेरू उड़ चुके थे. भैया ने डाक्टर अंकल और झांसी में दीदी को फोन कर दिया था. पापा ने शर्मिंदा हो कर आत्महत्या करने के लिए अपने बाएं हाथ की कलाई की नस काट ली थी और फिर मेरे और भैया के नाम एक खत लिखना शुरू किया था. ‘‘होश में रहने तक वे खत लिखते रहे, जिस में वे केवल हम से माफी मांगते रहे. उन्हें अपने किए व्यवहार का बहुत पछतावा था. वे अपनी गलतियों के साथ और जीना नहीं चाहते थे. पत्र में उन्होंने आत्महत्या को हृदयाघात से स्वाभाविक मौत के रूप में प्रचारित करने की विनती की थी.

‘‘भैया ने डाक्टर अंकल से भी आत्महत्या का राज उन तक ही सीमित रखने की प्रार्थना की और छिपा कर रखे उन के सुसाइड नोट को एक बार मुझे पढ़वा कर नष्ट कर दिया था.

‘‘हम दोनों अनाथ भाईबहन शीघ्र ही लखनऊ चले गए थे. मैं अवसादग्रस्त हो गई थी इसलिए आप से भी कोई संपर्क नहीं कर पाई. भैया ने मुझे बहुत हिम्मत दी और मनोचिकित्सक से परामर्श किया. लखनऊ में हम युवा भाईबहन को भी लोग शक की दृष्टि से देखते थे लेकिन तभी अंधेरे में आशा की किरण जागी. भैया के दोस्त केतन ने भैया से मेरा हाथ मांगा. सच कहूं, तो आंटी केतन का हाथ थामते ही मेरे जीवन में खुशियों का प्रवेश हो गया. केतन बहुत सुलझे हुए व्यक्ति हैं. मेरे दुख और एकाकीपन से उबरने में उन्होंने मुझे बहुत धैर्य से प्रेरित किया. मेरे दुख का स्वाभाविक कारण वे मम्मीपापा की असामयिक मृत्यु ही मानते हैं.

‘‘मैं ने अपनी शादी का कार्ड आप के पते पर भेजा था. लेकिन बाद में पता चला कि अंकल के रिटायरमैंट के बाद आप लोग वहां से चले गए थे. मैं और केतन

2 वर्ष पहले ही कनाडा आए हैं. अब मैं अपनी पिछली जिंदगी की सारी कड़ुवाहटें भूल कर केतन के साथ बहुत खुश हूं. बस, एक ख्वाहिश थी, आप से मिल कर अपनी खुशियां बांटने की. वह आज पूरी हो गई. आप के कंधे पर सिर रख कर रोई हूं आंटी. खुशी से गलबहियां डाल कर आप को भी आनंदित करने की चाह आज पूरी हो गई.’’

लिपि यह कह कर गले में बांहें डाल कर मुग्ध हो गई थी. मैं ने उस की बांहों को खींच लिया, उस की खुशियों को और करीब से महसूस करने के लिए.

‘‘आंटी, मैं पिछली जिंदगी की ये कसैली यादें अपने घर की दरोदीवार में गूंजने से दूर रखना चाहती हूं, इसलिए आप को यहां पार्क में ले आई थी. आइए, आंटी, अब चलते हैं. मेरे प्यारे घर में केतन भी आज जल्दी आते होंगे, आप से मिलने के लिए,’’ लिपि ने उत्साह से कहा और मैं उठ कर मंत्रमुग्ध सी उस के पीछेपीछे चल दी उस की बगिया में महकते खुशियों के फूल चुनने के लिए.

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