Hindi Stories Online : यक्ष प्रश्न

Hindi Stories Online : अनुभा ने अस्पताल की पार्किंग में बमुश्किल गाड़ी पार्क की. ‘उफ, इतनी सारी गाडि़यां… न सड़क में जगह, न पार्किंग स्पेस में. गाड़ी रखना भी एक मुसीबत हो गई है. कहीं भी जगह नहीं है. अब तो लोग फुटपाथों पर भी गाडि़यां पार्क करने लगे हैं. सरकारी परिसर हो या निजी आवासीय क्षेत्र, हर जगह एकजैसा हाल. इस के बावजूद लोग गाडि़यां खरीदना बंद नहीं कर रहे हैं,’ यही सब सोचती वह अस्पताल की सीढि़यां चढ़ रही थी.

दूसरी मंजिल पर सेमीप्राइवेट वार्ड में अनुभा की सहेली कम सहकर्मी भरती थी. उसे किडनी में पथरी थी. उसी के औपरेशन के लिए भरती थी. कल उस का औपरेशन हुआ था. अनुभा आज उसे देखने जा रही थी.

सहेली से मिलने और उस का हालचाल पूछने के बाद जब अनुभा उस के बिस्तर पर बैठी तो उस ने कमरे में इधरउधर निगाह डाली. सेमीप्राइवेट वार्ड होने के कारण उस में 2 मरीज थे. दूसरी मरीज भी महिला ही थी. उस ने गौर से दूसरी मरीज को देखा, तो उसे वह कुछ जानीपहचानी लगी. उस ने दिमाग पर जोर दे कर सोचा. वह मरीज भी उसे गौर से देख रही थी. उस की बुझी आंखों में एक चमक सी आ गई जैसे कई बरसों बाद वह अपने किसी आत्मीय को देख रही हो.

दोनों की आंखें एकदूसरे के मनोभावों को पढ़ रही थीं और फिर जैसे अचानक  एकसाथ दोनों के मन से दुविधा और संकोच की बेडि़यां टूट गई हों अनुभा चौंकती सी उस की तरफ लपकी, ‘‘निमी…’’

मरीज के सूखे होंठों पर फीकी सी मुसकराहट फैल गई, ‘‘तुम ने मुझे पहचान लिया?’’

निम्मी के स्वर से ऐसा लग रहा था जैसे इस दुनिया में उस का कोई जानपहचान वाला नहीं है. अनुभा अचानक आसमान से आ टपकी थी, वरना वह इस संसार में असहाय और अनाथ जीवन व्यतीत कर रही थी.

‘‘निमी, तुम यहां और इस हालत में?’’ अनुभा ने उस के हाथों को पकड़ कर कहा.

निमी का नाम निमीषा था, परंतु उस के दोस्त और सहेलियां उसे निमी कह कर बुलाते थे.

अनुभा एक पल को चुप रही, फिर बोली,  ‘‘तुम्हें क्या हुआ है? मैं ने तो कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन तुम्हें इस हालत में देखूंगी. तुम्हारी सुंदर काया को क्या हुआ… चेहरे की कांति कहां चली गई?  ऐसा कैसे हुआ?’’

निमी ने पलंग से उठ कर बैठने का प्रयास किया, परंतु उस की सांस फूलने लगी. अनुभा ने उसे सहारा दिया. पलंग को पीछे से उठा दिया, जिस से निमी अधलेटी सी हो गई.

‘‘तुम ने इतने सारे सवाल कर दिए… समझ में नहीं आता कैसे इन के जवाब दूं. एक दिन में सबकुछ बयां नहीं किया जा सकता… मैं ज्यादा नहीं बोल सकती… हांफ जाती हूं… फेफड़े कमजोर हैं न. ’’

‘‘तुम्हें हुआ क्या है?’’ अनुभा ने पूछा.

‘‘एक रोग हो तो बताऊं… अब तुम मिली हो, तो धीरेधीरे सब जान जाओगी. क्या तुम्हारे पास इतना समय है कि रोज आ कर मेरी बातें सुन सको.’’

‘‘हां, मैं रोज आऊंगी और सुनूंगी,’’ अनुभा को निमी की हालत देख कर तरस नहीं, रोना आ रहा था जैसे वह उस की जान हो, जो उसे छोड़ कर जा रही थी. उस ने कस कर निमी का हाथ पकड़ लिया.

निमी के बदन में एक सुरसुरी सी दौड़ गई. उस के अंदर एक सुखद एहसास ने अंगड़ाई ली. वह तो जीने की आस ही छोड़ चुकी थी, परंतु अनुभा को देख कर उसे लगा कि उसे देखनेसमझने वाला कोई है अभी इस दुनिया में. फिर कोई जब चाहने वाला पास हो, तो जीने की लालसा स्वत: बढ़ जाती है.

‘‘तुम्हारे साथ कोई नहीं है?’’ अनुभा ने आंखें झपकाते हुए पूछा, ‘‘कोई देखभाल करने वाला… तुम्हारे घर का कोई?’’

निमी ने एक ठंडी सांस लेते हुए कहा,  ‘‘नहीं, कोई नहीं.’’

‘‘क्यों, घर में कोई नहीं है क्या?’’

‘‘जो मेरे अपने थे उन्हें मैं ने बहुत पहले छोड़ दिया था और जीवन के पथ पर चलते हुए जिन्हें मैं ने अपना बनाया वे बीच रास्ते छोड़ कर चलते बने. अब मैं नितांत अकेली हूं. कोई नहीं है मेरा अपना. आज वर्षों बाद तुम मिली हो, तो ऐसा लग रहा है जैसे मेरा पुराना जीवन फिर से लौट आया हो. मेरे जीवन में भी खुशी के 2 फूल खिल गए हैं, जिन की सुगंध से मैं महक रही हूं. काश, यह सपना न हो… तुम दोबारा आओगी न?’’

‘‘हांहां, निमी, मैं आऊंगी. तुम से मिलने ही नहीं, तुम्हारी देखभाल करने के लिए भी… तुम्हारा अस्पताल का खर्चा कौन उठा रहा है?’’

निमी ने फिर एक गहरी सांस ली, ‘‘है एक चाहने वाला, परंतु उस ने मेरी बीमारियों के कारण मुझ से इतनी दूरी बना ली है कि वह मुझे देखने भी नहीं आता. कभीकभी उस का नौकर आ जाता है और अस्पताल का पिछला बिल भर कर कुछ ऐडवांस दे जाता है ताकि मेरा इलाज चलता रहे. बस मेरे प्यार के बदले में इतनी मेहरबानी वह कर रहा है.’’

उस दिन अनुभा निमी के पास बहुत देर नहीं रुक पाई, क्योंकि वह औफिस से आई थी. शाम को आने का वादा कर के वह औफिस आ गई, परंतु वहां भी उस का मन नहीं लगा. निमी की दुर्दशा देख कर उसे अफसोस के साथसाथ दुख भी हो रहा था. उसे कालेज के दिन याद आने लगे जब वे दोनों साथसाथ पढ़ती थीं…

निमीषा और अनुभा दोनों ही शिक्षित परिवारों से थीं. अनुभा के पिता आईएएस अफसर थे, तो निमी के पिता वरिष्ठ आर्मी औफिसर. दोनों एक ही क्लास में थीं, दोस्त थीं, परंतु दोनों के विचारों में जमीनआसमान का अंतर था. अनुभा पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों व मान्यताओं को मानने वाली लड़की थी, तो निमी को स्थापित मूल्य तोड़ने में मजा आता था. परंपराओं का पालन करना उसे नहीं भाता था. नैतिकता उस के सामने पानी भरती थी, तो मूल्य धूल चाटते नजर आते थे. संभवतया सैनिक जीवन की अति स्वछंदता और खुलेपन के माहौल में जीने के कारण उस के स्वभाव में ऐसा परिवर्तन आया हो.

निमीषा बहुत बड़ी अफसर बनना चाहती थी, परंतु अनुभा को पता नहीं था

कि वह क्या बन गई? हां, वह शादी भी नहीं करना चाहती थी. उस का मानना था शादी का बंधन स्त्री के लिए एक लिखित आजीवन कारावास का अनुबंध होता है. तब युवाओं के बीच लिव इन रिलेशनशिप का चलन बढ़ने लगा था. निमी ऐसे संबंधों की हिमायती थी. कालेज के दौरान ही उस ने लड़कों के साथ शारीरिक संबंध बना लिए थे.

इस का पता चलने पर अनुभा ने उसे समझाया था, ‘‘ये सब ठीक नहीं है. दोस्ती तक तो ठीक है, परंतु शारीरिक संबंध बनाना और वह भी शादी के पहले व कई लड़कों के साथ को मैं उचित नहीं समझती.’’

निमी ने उस का उपहास उड़ाते हुए कहा,  ‘‘अनुभा, तुम कौन से युग में जी रही हो? यह मौडर्न जमाना है, स्वछंद जीवन जीने का. यहां व्यक्तिगत पसंद से रिश्ते बनतेबिगड़ते हैं, मांबाप की पसंद से नहीं. इट्स माई लाइफ… मैं जैसे चाहूंगी जीऊंगी.’’

अनुभा के पास तर्क थे, परंतु निमी के ऊपर उन का कोई असर न होता. कालेज के बाद दोनों सहेलियां अलग हो गईं. अनुभा के पिता केंद्र सरकार की प्रतिनियुक्ति से वापस लखनऊ चले गए. अनुभा ने वहां से सिविल सर्विसेज की तैयारी की और यूपीएससी की गु्रप बी सेवा में चुन ली गई. कई साल लखनऊ, इलाहाबाद और बनारस में पोस्टिंग के बाद अब उस का दिल्ली आना हुआ था. इस बीच उस की शादी भी हो गई. पति केंद्र सरकार में ग्रुप ए अफसर थे. दोनों ही दिल्ली में तैनात थे. उस की 10 वर्ष की 1 बेटी थी.

अनुभा को निमी के जीवन के पिछले 15 वर्षों के बारे में कुछ पता नहीं था. उसे उत्सुकता थी, जल्दी से जल्दी उस के बारे में जानने की. आखिर उस के साथ ऐसा क्या हुआ था कि उस ने अपने शरीर का सत्यानाश कर लिया… तमाम रोगों ने उस के शरीर को जकड़ लिया. वह शाम होने का इंतजार कर रही थी. प्रतीक्षा में समय भी लंबा लगने लगता है. वह बारबार घड़ी देखती, परंतु घड़ी की सूइयां जैसे आगे बढ़ ही नहीं रही थीं.

किसी तरह शाम के 5 बजे. अभी भी 1 घंटा बाकी था, परंतु वह अपने सीनियर को अस्पताल जाने की बात कह कर बाहर निकल आई. गाड़ी में बैठने से पहले उस ने अपने पति को फोन कर के बता दिया कि वह अस्पताल जा रही है. घर देर से लौटेगी.

अनुभा को देखते ही निमी के चेहरे पर खुशी फैल गई जैसे उस के अंदर असीम ऊर्जा और शक्ति का संचार होने लगा हो.

अनुभा उस के लिए फल लाई थी. उन्हें सिरहाने के पास रखी मेज पर रख कर वह निमी के पलंग पर बैठ गई. फिर उस का हाथ पकड़ कर पूछा, ‘‘अब कैसा महसूस हो रहा है?’’

निमी के होंठों पर खुशी की मुसकान थी, तो आंखों में एक आत्मीय चमक… चेहरा थोड़ा सा खिल गया था. बोली, ‘‘लगता है अब मैं बच जाऊंगी.’’

रात में अनुभा ने अपने पति हिमांशु को निमी के बारे में सबकुछ बता दिया. सुन कर उन्हें भी दुख हुआ. अगले दिन सुबह औफिस जाते हुए वे दोनों ही निमी से मिलने गए. हिमांशु ने डाक्टर से मिल कर निमी की बीमारियों की जानकारी ली. डाक्टर ने जो कुछ बताया, वह बहुत दर्दनाक था. निमी के फेफड़े ही नहीं, लिवर और किडनियां भी खराब थीं. वह शराब और सिगरेट के अति सेवन से हुआ था. अनुभा को पता नहीं था कि वह इन सब का सेवन करती थी. हिमांशु ने जब उसे बताया, तो वह हैरान रह गई. पता नहीं किस दुष्चक्र में फंस गई थी वह?

खैर, हिमांशु और अनुभा ने यह किया कि रात में निमी के पास अपनी नौकरानी को देखभाल के लिए रख दिया. हिमांशु नियमित रूप से उस के इलाज की जानकारी लेते. उन के कारण ही अब डाक्टर विशेषरूप से निमी का ध्यान रखने लगे थे. वह बेहतर से बेहतर इलाज उसे मुहैया करा रहे थे.

इस सब का परिणाम यह हुआ कि निमी 1 महीने के अंदर ही इतनी ठीक हो गई कि अपने घर जा सकती थी. हालांकि दवा नियमित लेनी थी.

जिस दिन उसे अस्पताल से डिस्चार्ज होना था वह कुछ उदास थी. उस का सौंदर्य पूर्णरूप से तो नहीं, परंतु इतना अवश्य लौट आया था कि वह बीमार नहीं लगती थी.

अनुभा ने पूछा, ‘‘तुम खुश नहीं लग रही हो… क्या बात है? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि ठीक हो कर घर जा रही हो?’’

निमी ने खाली आंखों से अनुभा को देखा और फिर फीकी आवाज में कहा, ‘‘कौन सा घर? मेरा कोई घर नहीं है.’’

‘‘अपने दोस्त के यहां, जो तुम्हारा इलाज करवा रहा था…’’

एक फीकी उदास हंसी निमी के होंठों पर तैर गई, ‘‘जो व्यक्ति मुझ से मिलने अस्पताल में कभी नहीं आया, जिसे पता है कि मेरे शरीर के महत्त्वपूर्ण अंग बेकार हो चुके हैं. वह मुझे अपने घर रखेगा?’’

‘‘फिर वह तुम्हारा इलाज क्यों करवा रहा था?’’

‘‘बस एक यही एहसान उस ने मेरे ऊपर किया है. मेरे प्यार का कुछ कर्ज उसे अदा करना ही था. वह बहुत पैसे वाला है, परंतु एक बीमार औरत को घर में रखने का फैसला उस के पास नहीं है. उसे रोज अनगिनत सुंदर और कुंआरी लड़कियां मिल सकती हैं, तो वह मेरी परवाह क्यों करेगा. वैसे मैं स्वयं उस के पास नहीं जाना चाहती हूं. मैं किसी भी मर्द के पास नहीं जाना चाहती. मर्दों ने ही मुझे प्यार की इंद्रधनुषी दुनिया में भरमा कर मेरी यह दुर्गति की है… मैं किसी महिला आश्रम में जाना चाहूंगी,’’ उस के स्वर में आत्मविश्वास सा आ गया था.

अनुभा सोच में पड़ गई. उस ने हिमांशु से सलाह ली. फिर निमी से बोली, ‘‘तुम कहीं और नहीं जाओगी, मेरे घर चलोगी.’’

‘‘तुम्हारे घर?’’ निमी का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘हां, और अब इस के बाद कोई सवाल नहीं, चलो.’’

अनुभा और हिमांशु को मोतीबाग में टाइप-5 का फ्लैट मिला था. उस में पर्याप्त कमरे थे. 1 कमरा उन्होंने निमी को दे दिया. निमी अनुभा और हिमांशु की दरियादिली, प्रेम और स्नेह से अभिभूत थी. उस के पास धन्यवाद करने के लिए शब्द नहीं थे.

निमी के पिता आर्मी औफिसर थे. मां भी उच्च शिक्षित थीं. आर्मी में रहने के कारण उन्हें तमाम सुविधाएं प्राप्त थीं. पिता रोज क्लब जाते थे और शराब पी कर लौटते थे. मां भी कभीकभार क्लब जातीं और शराब का सेवन करतीं. उन के घर में शराब की बोतलें रखी ही रहतीं. कभीकभार घर में भी महफिल जम जाती. निमी के पिता के यारदोस्त अपनी बीवियों के साथ आते या कोई रिश्तेदार आ जाता, तो महफिल कुछ ज्यादा ही रंगीन हो जाती.

निमी बचपन से ही ये सब देखती आ रही थी. उस के कच्चे मन में वैसी ही संस्कृति और संस्कार घर कर गए. उसे यही वास्तविक जीवन लगता. 15 साल की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते उस ने शराब का स्वाद चोरीछिपे चख लिया था और सिगरेट के सूट्टे भी लगा लिए थे.

ग्रैजुएशन करने के बाद निमी ने मम्मीपापा से कहा, ‘‘मैं यूपीएसी का ऐग्जाम देना चाहती हूं.’’

‘‘तो तैयारी करो.’’

‘‘कोचिंग करनी पड़ेगी. अच्छे कोचिंग इंस्टिट्यूट डीयू के आसपास मुखर्जी नगर में हैं.’’

‘‘क्या दिक्कत है? जौइन कर लो.’’

‘‘परंतु इतनी दूर आनेजाने में बहुत समय बरबाद हो जाएगा. मैं चाहती हूं कि यहीं आसपास बतौर पीजी रह लूं और सीरियसली कंपीटिशन की तैयारी करूं… तभी कुछ हो पाएगा,’’ निमी ने कहा.

मम्मीपापा ने एकदूसरे की आंखों में एक पल के लिए देखा, फिर पापा ने उत्साह से कहा,  ‘‘ओके माई गर्ल. डू व्हाटएवर यू वांट.’’

‘‘किंतु यह अकेले कैसे रहेगी?’’ मम्मी ने शंका व्यक्त की.

‘‘क्या दकियानूसी बातें कर रही हो. शी इज ए बोल्ड गर्ल. आजकल लड़कियां विदेश जा रही हैं पढ़ने के लिए. यह तो दिल्ली शहर में ही रहेगी. जब मरजी हो जा कर मिल आया करना. यह भी आतीजाती रहेगी.’’

‘‘यस मौम,’’ निमी ने दुलार से कहा. जब बापबेटी राजी हों, तो मां की कहां चलती है. उसे परमीशन मिल गई. उस ने 1 साल का कन्सौलिडेटेड कोर्स जौइन कर लिया और मुखर्जी नगर में ही रहने लगी.

जैसाकि निमी का स्वभाव था, वह जल्दी लड़कों में लोकप्रिय हो गई. कोचिंग में पढ़ने वाले कई लड़के उस के दोस्त बन गए. सभी धनाढ्य घरों के थे. उन के पास अनापशनाप पैसे आते थे. आएदिन पार्टियां होतीं. निमी उन पार्टियों की शान समझी जाती थी.

लड़के उस के सामीप्य के लिए एड़ीचोटी का जोर लगा देते. दिन, महीनों में नहीं बदले, उस के पहले ही निमी कई लड़कों के गले का हार बन गई. उस के बदन के फूल लड़कों के बिस्तर पर महकने लगे.

बहुत जल्दी उस के मम्मीपापा को उस की हरकतों के बारे में पता चल गया. मम्मी ने समझाया, ‘‘बेटा, यह क्या है? इस तरह का जीवन तुम्हें कहां ले जा कर छोड़ेगा, कुछ सोचा है? हम ने तुम्हें कुछ ज्यादा ही छूट दे दी थी. इतनी छूट तो विदेशों में भी मांबाप अपने बच्चों को नहीं देते. चलो, अब तुम पीजी में नहीं रहोगी… जो कुछ करना है हमारी निगाहों के सामने घर पर रह कर करोगी.’’

‘‘मम्मी, मेरी कोचिंग तो पूरी हो जाने दो,’’  निमी ने प्रतिरोध किया.

‘‘जो तुम्हारे आचरण हैं, उन से क्या तुम्हें लगता है कि तुम कोचिंग की पढ़ाई कर पाओगी… कोचिंग पूरी भी कर ली, तो कंपीटिशन की तैयारी कर पाओगी? पढ़ाई करने के लिए किताबें ले कर बैठना पड़ता है, लड़कों के हाथ में हाथ डाल कर पढ़ाई नहीं होती,’’ मां ने कड़ाई से कहा.

‘‘मम्मी, प्लीज. आप पापा को एक बार समझाओ न,’’ निमी ने फिर प्रतिरोध किया.

‘‘नहीं, निमी. तुम्हारे पापा बहुत दुखी और आहत हैं. मैं उन से कुछ नहीं कह सकती. तुम अपने मन की करोगी, तो हम तुम्हें रुपयापैसा देना बंद कर देंगे. फिर तुम्हें जो अच्छा लगे करना.’’

निमी अपने घर आ तो गई, परंतु अंदर से बहुत अशांत थी. घर पर ढेर सारे प्रतिबंध थे. अब हर क्षण मां की उस पर नजर रहती.

शराब, सिगरेट और लड़कों से वह भले ही दूर हो गई थी, परंतु मोबाइल फोन के माध्यम से उस के दोस्तों से उस का संपर्क बना हुआ था.

जब फोन करना संभव न होता, फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप के माध्यम से संपर्क हो जाता. लड़के इतनी आसानी से सुंदर मछली को फिसल कर पानी में जाने देना नहीं चाहते.

लड़कों ने उसे तरहतरह से समझाया. वे सभी उस का खर्चा उठाने के लिए तैयार थे. रहनेखाने से ले कर कपड़ेलत्ते और शौक तक… सब कुछ… बस वह वापस आ जाए. प्रलोभन इतने सुंदर थे कि वह लोभ संवरण न कर सकी. मांबाप के प्यार, संरक्षण और सलाहों के बंधन टूटने लगे.

निमी ने बुद्धि के सारे द्वार बंद कर दिए. विवेक को तिलांजलि दे दी और एक दिन घर से कुछ रुपएपैसे और कपड़े ले कर फरार हो गई. दोस्तों ने उस के खाने व रहने के लिए एक फ्लैट का इंतजाम कर रखा था. काफी दिनों तक वह बाहरी दुनिया से दूर अपने घर में बंद रही.

पता नहीं उस के मांबाप ने उसे ढूंढ़ने का प्रयत्न किया था या नहीं. उस ने अपना फोन नंबर ही नहीं, फोन सैट भी बदल लिया था. मांबाप अगर पुलिस में रिपोर्ट लिखाते तो उस का पता चलना मुश्किल नहीं था. उस के पुराने फोन की काल डिटेल्स से उस के दोस्तों और फिर उस तक पुलिस पहुंच सकती थी, परंतु संभवतया उस के मांबाप ने पुलिस में उस के गुम होने की रिपोर्ट नहीं लिखाई थी.

निमी का जीवन एक दायरे में बंध कर रह गया था. खानापीना और ऐयाशी, जब तक वह नशे में रहती, उसे कुछ महसूस न होता, परंतु जबजब एकांत के साए घेरते उस के दिमाग में तमाम तरह के विचार उमड़ते, मांबाप की याद आती.

न तो समय एकजैसा रहता है, न कोई वस्तु अक्षुण्ण रहती है. निमी ने धीरेधीरे महसूस किया, उस के जो मित्र पहले रोज उस के पास आते थे, अब हफ्ते में 2-3 बार ही आते थे. पूछने पर बताते व्यस्तता बढ़ रही है. दूसरे काम आ गए हैं. मगर सत्य तो यह था उन के जीवन में एकरसता आ गई थी. अनापशनाप पैसा खर्च हो रहा था. मांबाप सवाल उठाने लगे थे. निमी की तरह बेवकूफ तो थे नहीं, उन्हें अपना कैरियर बनाना था. कुछ की कोचिंग समाप्त हो गई, तो वे अपने घर चल गए. जो दिल्ली के थे, वे कभीकभार आते थे, परंतु अब उन के लिए भी निमी का खर्चा उठाना भारी पड़ने लगा था.

निमी वरुण को अपना सर्वश्रेष्ठ हितैषी समझती थी. एक दिन उसी से पूछा, ‘‘वरुण, एक बात बताओ, मैं ने तुम लोगों की दोस्ती के लिए अपना घरपरिवार और मांबाप छोड़ दिए, अब तुम लोग मुझे 1-1 कर छोड़ कर जाने लगे हो. मैं तो कहीं की न रही… मेरा क्या होगा?’’

वरुण कुछ पल सोचता रहा, फिर बोला, ‘‘निमी, मेरी बात तुम्हें कड़वी लगेगी, परंतु सचाई यही है कि तुम ने हमारी दोस्ती नहीं अपने स्वार्थ और सुख के लिए घर छोड़ा था. यहां कोई किसी के लिए कुछ नहीं करता, सब अपने लिए करते हैं. अपनी स्वार्थ सिद्धि के बाद सब अलग हो जाते हैं, जैसा अब तुम्हारे साथ हो रहा है.

यह कड़वी सचाई तुम्हें बहुत पहले समझ जानी चाहिए थी. हम सभी अभी बेरोजगार हैं, मांबाप के ऊपर निर्भर हैं, कैरियर बनाना है. ऐसे में रातदिन हम  भोगविलास में लिप्त रहेंगे, तो हमारा भविष्य चौपट हो जाएगा.’’

अपनी स्थिति पर उसे रोना आ रहा था, परंतु वह रो नहीं सकती थी. आगे आने वाले दिनों के बारे में सोच कर उस का मन बैठा जा रहा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे?

‘‘मैं क्या करूं, वरुण?’’ वह लगभग रोंआसी हो गई थी, ‘‘नासमझी में मैं ने क्या कर डाला?’’

‘‘बहुत सारी लड़कियां जवानी में ऐसा कर गुजरती हैं और बाद में पछताती हैं.’’

‘‘तुम ने भी मुझे कभी नहीं समझाया, मैं तो तुम्हें सब से अच्छा दोस्त समझती थी.’’

वरुण हंसा, ‘‘कैसी बेवकूफी वाली बातें कर रही हो. तुम कभी एक लड़के के प्रति वफादार नहीं रही. तुम्हारी नशे की आदत और तुम्हारी सैक्स की भूख ने तुम्हारी अक्ल पर परदा डाल दिया था. तुम एक ही समय में कई लड़कों के साथ प्रेमव्यवहार करोगी, तो कौन तुम्हारे साथ निष्ठा से प्रेमसंबंध निभाएगा… सभी लड़के तुम्हारे तन के भूखे थे और तुम उन्हें बहुत आसान शिकार नजर आई. बिना किसी प्रतिरोध के तुम किसी के भी साथ सोने के लिए तैयार हो जाती थी. ऐसे में तुम किसी एक लड़के से सच्चे और अटूट प्रेम की कामना कैसे कर सकती हो?’’

वरुण की बातों में कड़वी सचाई थी. निमी ने कहा, ‘‘मैं ने जोश में आ कर अपना सब कुछ गवां दिया. दोस्त भी 1-1 कर चले गए. तुम तो मेरा साथ दे सकते हो.’’

वरुण ने हैरान भरी निगाहों से उसे देखा, ‘‘तुम्हारा साथ कैसे दे सकता हूं? मैं तो स्वयं तुम से दूर जाने वाला था. 1 साल मेरा बरबाद हो गया. इस बार प्री ऐग्जाम भी क्वालिफाई नहीं कर पाया. तुम्हारे चक्कर में पढ़ाईलिखाई हो ही नहीं पाई. घर में मम्मीपापा सभी नाराज हैं. ऐयाशी और मौजमस्ती छोड़ कर मैं ईमानदारी से तैयारी करना चाहता हूं. मैं तुम से कोई वास्ता नहीं रखना चाहता. वरना मेरा जीवन चौपट हो जाएगा.’’

निमी ने उस के दोनों हाथों को पकड़ कर अपने सीने पर रख लिया, ‘‘वरुण, मैं जानती हूं मैं ने गलती की है. मछली की तरह एक से दूसरे हाथ में फिसलती रही, परंतु सच मानो मैं ने तुम्हें सच्चे मन से प्यार किया है. जब कभी मन में अवसाद के बादल उमड़े मैं ने केवल तुम्हें याद किया. मुझे इस तरह छोड़ कर न जाओ.’’

‘‘निमी, तुम समझने का प्रयास करो, मैं ने अगर तुम्हारा साथ नहीं छोड़ा, तो मेरा भविष्य मेरे रास्ते से गायब हो जाएगा. मुझे कुछ बन जाने दो.’’

‘‘मैं तुम से प्यार की भीख नहीं मांगती. प्यार और सैक्स को पूरी तरह से भोग लिया है मैं ने परंतु पेट की भूख के आगे मनुष्य सदा लाचार रहता है. मेरे पास जीविका का कोई साधन नहीं है. जहां इतना सब कुछ किया, मेरे प्यार के बदले इतना सा उपकार और कर दो. रहने के लिए 1 कमरा और पेट की रोटी के लिए दो पैसे का इंतजाम कर दो. मैं वेश्यावृत्ति नहीं अपनाना चाहती,’’ निमी की आवाज दुनियाभर की बेचारगी और दीनता से भर गयी थी.

वरुण अपने दोस्तों की तरह कठोर नहीं था. उस के अंदर सहज मानवीय भाव थे. वह काफी संवेदनशील था और निमी के प्रति दयाभाव भी रखता था, परंतु उस के लिए वह अपना भविष्य दांव पर नहीं लगा सकता था. अत. कुछ सोच कर बोला, ‘‘तुम प्राइवेट नौकरी कर सकती हो?’’

‘‘हां, मेरे पास और चारा भी क्या है?’’

‘‘तो फिर ठीक है, तुम इसी फ्लैट में रहो. इस का किराया मैं दे दिया करूंगा. मैं अपने पिता से बात कर के तुम्हें किसी कंपनी में काम दिलवा दूंगा, जिस से तुम्हारा गुजारा चल सके.’’

‘‘मैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगी.’’

वरुण ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘या तुम अपने घर चली जाओ.’’

निमी ने आश्चर्य से उसे देखा. फिर बोली, ‘‘कौन सा मुंह ले कर जाऊं उन के पास? क्या बताऊंगी उन्हें कि मैं ने इतने दिन क्या किया है? नहीं वरुण, मैं उन के पास जा कर उन्हें और परेशान नहीं करना चाहती.’’

वरुण के पिता सरकारी विभाग में अच्छे पद थे. उस ने पिता से कह कर निमी को एक प्राइवेट कंपनी में लगवा दिया. 20 हजार महीने पर. निमी का जो लाइफस्टाइल था, उस के हिसाब से उस की यह सैलरी ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर थी, परंतु मुसीबत की घड़ी में मनुष्य को तिनके का सहारा भी बहुत होता है.

निमी ने उन्मुक्त यौन संबंधों से तो छुटकारा पा लिया, परंतु वह शराब और सिगरेट से छुटकारा नहीं पा सकी. एकांत उसे परेशान करता, पुरानी यादें उसे कचोटतीं, मांबाप की याद आती, तो वह पीने बैठ जाती.

वरुण जब भी उस से मिलने आता, वह उस की बांहों में गिर कर रोने लगती. वह समझाता, ‘‘मत पीया करो इतना, बीमार हो जाओगी.’’

‘‘वरुण, एकाकी जीवन मुझे बहुत डराता है,’’ वह उस से चिपक जाती.

‘‘मातापिता के पास वापस चली जाओ. वे तुम्हें माफ कर देंगे,’’

वह कई बार निमी से यह बात कह चुका था, पर हर बार निमी का यही जवाब होता, ‘‘कौन सा मुंह ले कर जाऊं उन के पास? वे मुझे क्या बनाना चाहते थे और मैं क्या बन बैठी… माफ तो कर देंगे, परंतु समाज को क्या जवाब देंगे.’’

‘‘वही, जो अभी दे रहे होंगे.’’

‘‘अभी वे मुझे मरा समझ कर माफ कर देंगे, परंतु उन के पास रह कर मैं उन्हें बहुत दुख दूंगी.’’

‘‘एक बार जा कर तो देखो.’’

‘‘नहीं वरुण, तुम मेरे मांबाप को नहीं जानते. वे मुझे माफ नहीं करेंगे. अगर उन्हें माफ करना होता, तो अब तक मुझे ढूंढ़ लिया होता. यह बहुत मुश्किल नहीं था. उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट भी नहीं की होगी,’’ वरुण के समझाने का उस पर कोई प्रभाव न पड़ता.

यथास्थिति बनी रही. बस वरुण सिविल सर्विसेज की तैयारी में निरंतर जुटा रहा. इस का परिणाम यह रहा कि वह यूपीएससी परीक्षा पास कर गया.

जब वरुण ट्रेनिंग के लिए जाने लगा तो निमी ने कहा, ‘‘अब तुम पूरी तरह से मुझ से दूर चले जाओगे.’’

‘‘वह तो जाना ही था,’’ वरुण ने उसे समझाते हुए कहा.

निमी के मन में बहुत कुछ टूट गया. वह जानती थी, वरुण उस का नहीं हो सकता है,

फिर भी उस के दिल में कसक सी उठी. वह खोईखोई आंखों से वरुण को देख रही थी. वरुण ने उस के सिर को सहलाते हुए कहा, ‘‘देखो, निमी, मेरा कहना मानो, अब भटकने से कोई फायदा नहीं. तुम ने अपने जीवन को जितना गिराना था, गिरा लिया. अब सावधानी से उठने की कोशिश करो. तुम्हारी तनख्वाह बढ़ गई है. कुछ बचा कर पैसे जोड़ लो और किसी लड़के से शादी कर के घर बसा लो. मेरी तरफ से जो हो सकेगा मैं मदद करूंगा.’’

निमी ने जवाब नहीं दिया. अगले कुछ दिनों में वरुण मसूरी चला गया. निमी पूरी तरह टूट गई. उस ने अपनी सोच पर ताले लगा लिए. जैसे वह सुधरना ही नहीं चाहती थी.

1 साल की ट्रेनिंग के दौरान वरुण उस से मिलने केवल एक बार आया और रातभर उस के साथ रुका. तब भी उस ने निमी को घर बसाने की सलाह दी. परंतु वह चुप ही रही.

कई साल बीत गए. वरुण की पोस्टिंग हो गई थी. वह एक जिले का कलैक्टर बन गया था. उसे छुट्टी नहीं मिलती थी या दिल्ली आ कर भी वह उस से मिलना नहीं चाहता था, परंतु हर माह वह एक अच्छी राशि निमी के खाते में जमा करा देता था.

निमी ने तय कर लिया था कि वह शादी नहीं करेगी. वरुण उस का नहीं है, फिर भी उस का इंतजार करती थी. इंतजार जितना लंबा हो रहा था, उस के शराब पीने की मात्रा भी उतनी ही बढ़ती जा रही थी. फिर पता चला कि वरुण की शादी किसी चीफ सैक्रेटरी की आईएएस बेटी से हो गई है. निमी के अंदर जो थोड़ी सी आस बची थी, वह पूर्णरूप से टूट गई. उस की शराब की मात्रा इतनी ज्यादा हो गई कि अब वह दफ्तर भी नहीं जा पाती थी.

वरुण से उस का कोई सीधा संपर्क नहीं था. कभीकभी वरुण के पिता का नौकर उस के हालचाल पूछ जाता था. वही वरुण के बारे में बताता था और उस के बारे में वही वरुण को खबर करता होगा.

अत्यधिक शराब के सेवन से उस की तबीयत खराब रहने लगी. वरुण के पिता का नौकर लगभग रोज उस के पास आने लगा था. एक दिन उसी के सामने निमी को खून की उलटी हुई. उसे आननफानन में अस्पताल में भरती करवाया गया.

मैडिकल रिपोर्ट से यह साबित हो गया था कि अत्यधिक शराब के सेवन से उस के सारे अंदरूनी अंग खराब हो गए हैं. वरुण ने अपने नौकर के माध्यम से उसे सेमी प्राइवेट वार्ड में भरती करवा दिया था. इलाज का सारा खर्च वह भेज रहा था, परंतु कभी मिलने नहीं आया.

उस के इलाज में कोई कमी नहीं थी, परंतु उस का दुख उसे खाए जा रहा था जैसे वह किसी बीमारी से नहीं, अपने दुख से ही मरेगी, परंतु इसी बीच संयोग से अस्पताल में अनुभा प्रकट हुई और उस के जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन आ गया. अब वह ठीक हो कर घर आ गई थी. घर तो आ गई थी, परंतु किस के  घर? उस का अपना घर, संसार कहां था?

यक्ष प्रश्न अभी भी उस के सामने खड़ा था. अब आगे क्या? 35 वर्ष की अवस्था में अब वह कोई युवती नहीं थी. बीमारी ने उस की सुंदरता को काफी हद तक क्षीण कर दिया था. नौकरी हाथ से जा चुकी थी, वरुण से भी व्यक्तिगत संपर्क टूट चुका था.

हिमांशु केंद्र सरकार में उच्च अधिकारी थे. उन्होंने अपने प्रयासों से निमी को एक संस्था से जोड़ दिया. यह संस्था अनाथ बच्चों की देखभाल और उन्हें शिक्षा प्रदान करती थी. कुछ दिन तक निमी अनुभा के घर पर रही. फिर उस की संस्था ने उसे एक घर लीज पर दिलवा दिया. साफसफाई के बाद जिस दिन निमी ने अपने घर में प्रवेश किया, तब अनुभा और उस के पति के कुछ दोस्त मौजूद थे. छोटी सी पार्टी रखी गई थी.

शाम को पार्टी के बाद जब अनुभा निमी को छोड़ कर जाने लगी, तो निमी ने कहा, ‘‘मैं फिर अकेली हो जाऊंगी.’’

‘‘नहीं, तुम अकेली नहीं हो. हम सब तुम्हारे साथ हैं. पहले जो लोग तुम से जुड़े थे, वे स्वार्थवश जुड़े थे. इसीलिए तुम पतन की राह पर चल पड़ी थी. अब तुम्हारे सामने एक लक्ष्य है, बच्चों का भविष्य सुधारने का. इस लक्ष्य को ध्यान में रखोगी और अपनी पिछली जिंदगी के बारे में विचार करोगी, तो तुम एकाकी जीवन जीते हुए भी कभी गलत रास्ते पर नहीं चलोगी.’’

निमी ने शरमा कर सिर झुका लिया. अनुभा ने उस का चेहरा ऊपर उठाया. उस की आंखों में आंसू थे. कई वर्षों बाद उस की आंखों में खुशी के आंसू आए थे.

Famous Hindi Stories : जाएं तो जाएं कहां

Famous Hindi Stories : हमारे एक बुजुर्ग थे. वे अकसर हमें समझाया करते थे कि जीवन में किसी न किसी नियम का पालन इंसान को अवश्य करना चाहिए. कोई भी नियम, कोई भी उसूल, जैसे कि मैं झूठ नहीं बोलता, मैं हर किसी से हिलमिल नहीं सकता या मैं हर किसी से हिलमिल जाता हूं, हर चीज का हिसाबकिताब रखना चाहिए या हर चीज का हिसाबकिताब नहीं रखना चाहिए.

नियम का अर्थ कि कोई ऐसा काम जिसे आप अवश्य करना चाहें, जिसे किए बिना आप को लगे कुछ कमी रह गई है. मैं अकसर आसपास देखता हूं और कभीकभार महसूस भी होता है कि पक्का नियम जिसे हम जीतेमरते निभाते हैं वह हमें बड़ी मुसीबत से बचा भी लेता है. हमारे एक मित्र हैं जिन की पत्नी पिछले 10 साल से सुबह सैर करने जाती थीं. 2-3 पड़ोसिनें भी कभी साथ होती थीं और कभी नहीं भी होती थीं.

‘‘देखा न कुसुम, भाभी रोज सुबह सैर करने जाती हैं तुम भी साथ जाया करो. जरा तो अपनी सेहत का खयाल रखो.’’

‘‘सुबह सैर करने जाना मुझे अच्छा नहीं लगता. सफाई कर्मचारी सफाई करते हैं तो सड़क की सारी मिट्टी गले में लगती है. जगहजगह कूड़े के ढेरों को आग लगाते हैं…गली में सभी सीवर भर जाते हैं. सुबह ही सुबह कितनी बदबू होती है.’’  बात शुरू कर के मैं तो पत्नी का मुंह ही देखता रह गया. सुबह की सैर के लाभ तो बचपन से सुनता आया था पर नुकसान पहली बार समझा रही थी पत्नी.

‘‘ताजी हवा तब शुरू होती है जब आबादी खत्म हो जाती है और वहां तक पहुंचतेपहुंचते सन्नाटा शुरू हो जाता है. खेतों की तरफ निकल जाओ तो न आदमी न आदमजात. इतने अंधेरे में अकेले डर नहीं लगता क्या कुसुम भाभी को.’’

‘‘इस में डरना क्या है. 6 बजे तक वापस आतेआते दिन निकल आता है. अपना ही इलाका है, डर कैसा.’’

‘‘नहीं, शाम की सैर ठीक रहती है. न बच्चों को स्कूल भेजने की चिंता और न ही अंधेरे का डर. भई, अपनेअपने नियम हैं,’’ पत्नी ने अपना नियम मुझे बताया और वह क्यों सही है उसे प्रमाणित करने के कारण भी मुझे समझा दिए. सोचा जाए तो अपनेअपने स्थान पर हर इंसान सही है. पुरानी पीढ़ी के पास नई पीढ़ी को कोसने के हजार तर्क हैं और नई पीढ़ी के पास पुरानी को नकारने के लाख बहाने. इसी मतभेद को दिल से लगा कर अकसर हम अपने अच्छे से अच्छे रिश्ते से हाथ धो लेते हैं.

मेरी बड़ी बहन, जो आगरा में रहती हैं, का एक नियम बड़ा सख्त है. कभी किसी का गहना या कपड़ा मांग कर नहीं पहनना चाहिए. कपड़ा तो कभी मजबूरी में पहनना भी पड़ सकता है क्योंकि तन ढकना तो जरूरत है, लेकिन गहनों के बिना प्राण तो नहीं निकल जाएंगे.

हम किसी शादी में जाने वाले थे. दीदी भी उन दिनों हमारे पास आई हुई थीं. जाहिर है, भारी गहने साथ ले कर नहीं आई थीं. मेरी पत्नी ने अनुरोध किया कि वे उस के गहने ले लें, तो दीदी ने साफ मना कर दिया. मेरी पत्नी को बुरा लगा.

‘‘दीदी ने ऐसा क्यों कहा कि वे कभी किसी के गहने नहीं पहनतीं. मैं कोई पराई हूं क्या? कह रही हैं अपनेअपने उसूल हैं, ऐसे भी क्या उसूल…’’

दीदी शादी में गईं पर उन्हीं हल्केफुल्के गहनों में जिन्हें पहन कर वे आगरा से आई थीं. घर आ कर भी मेरी पत्नी अनमनी सी रही जिसे दीदी भांप गई थीं.

‘‘बुरा मत मानना भाभी और तुम भी अपने जीवन में यह नियम अवश्य बना लो. यदि तुम्हारे पास गहना नहीं है तो मात्र दिखावे के लिए कभी किसी का गहना मांग कर मत पहनो. अगर तुम से वह गहना खो जाए तो पूरी उम्र एक कलंक माथे पर लगा रहता है कि फलां ने मेरा हजारों का नुकसान कर दिया था. जिस की चीज खो जाती है वह भूल तो नहीं पाता न.’’

‘‘अगर मुझ से ही खो जाए तो?’’

‘‘तुम चाहे अपने हाथ से जितना बड़ा नुकसान कर लो…चीज भी तुम्हारी, गंवाई भी तुम ने, अपना किया बड़े से बड़ा नुकसान इंसान भूल जाता है पर दूसरे द्वारा किया सदा याद रहता है.

‘‘मुझे याद है 10वीं कक्षा में हमारी अंगरेजी की किताब में एक कहानी थी ‘द नैकलेस’ जिस में नायिका मैगी मात्र अपनी एक अमीर सखी के घर पार्टी पर जाने के लिए दूसरी अमीर सखी का हीरों का हार उधार मांग कर ले जाती है. हार खो जाता है. पतिपत्नी नया हार खरीदते हैं और लौटा देते हैं. और फिर पूरी उम्र उस कर्ज को उतारते रहते हैं जो उन्होंने लाखों का हार चुकाने को लिया था.

‘‘लगभग 15 साल बाद बहुत गरीबी में दिन गुजार चुकी मैगी को वही सखी बाजार में मिल जाती है. दोनों एकदूसरे का हालचाल पूछती हैं और अमीर सखी उस की गिरी सेहत और बुरी हालत का कारण पूछती है. नायिका सच बताती है और अमीर सखी अपना सिर पीट लेती है, क्योंकि उस ने जो हार उधार दिया था वह तो नकली था.

‘‘नकली ले कर असली चुकाया और पूरा जीवन तबाह कर लिया. क्या पाया उस ने भाभी? इसी कहानी की वजह से मैं कई दिन रोती रही थी.’’

दीदी ने प्रश्न किया तो मुझे भी वह कहानी याद आई. सच है, दीदी अकसर किस्सेकहानियों को बड़ी गंभीरता से लेती थीं. यही एक कहानी गहरी उतर गई होगी मन में.

‘‘दोस्ती हमेशा अपने बराबर वालों से करो, जिन के साथ उठबैठ कर आप स्वयं को मखमल में टाट की तरह न महसूस करो. क्या जरूरत है जेब फाड़ कर तमाशा दिखाने की. अपनी औकात के अनुसार ही जिओ तो जीवन आसान रहता है. मेरा नियम है भाभी कि जब तक जीवनमरण का प्रश्न न बन जाए, सगे भाईबहन से भी कुछ मत मांगो.’’

चुप रहे हम पतिपत्नी. क्या उत्तर देते, अपनेअपने नियम हैं. उन्हें कभी भी नहीं तोड़ना चाहिए. अप्रत्यक्ष में दीदी ने हमें भी समझा दिया था कि हम भी इसी नियम पर चलें. ऐसे नियमों से जीवन आसान हो जाता है, यह सच है क्योंकि हम पूरा का पूरा वजन अपने उस नियम पर डाल देते हैं जिसे सामने वाला चाहेअनचाहे मान भी लेता है. भई, क्या करें नियम जो है.

‘‘रवि साहब, किसी का जूठा नहीं खाते, क्या करें भई, नियम है न इन का. वैसे एक घूंट मेरे गिलास से पी लेते तो हमारा मन रह जाता.’’

‘‘अब कोई इन से पूछे कि जूठा पानी अगर रवि साहब पी लेते तो इन का मन क्यों रह जाता. इन का मन हर किसी के नियम तोड़ने को बेचैन भी क्यों है. इन का जूठा अमृत है क्या, जिसे रविजी जरूर पिएं. संभव है इन्हें खांसी हो, जुकाम हो या कोई मुंह का संक्रमण. रविजी इन का मन रखने के लिए मौत के मुंह में क्यों जाएं? सत्य है, रविजी का नियम उन्हें बीमार होने से तो बचा ही गया न.’’

मेरे एक अन्य मित्र हैं. एक दिन हम ने साथसाथ कुछ खर्च किया. उन्होंने झट से 20 रुपए लौटा दिए.

‘‘20 रुपए हों या 20 लाख रुपए मेरे लिए दोनों की कीमत एक ही है. सिर पर कर्ज नहीं रखता मैं और दोस्ती में तो बिलकुल भी नहीं. दोस्त के साथ रिश्ते साफसुथरे रहें, उस के लिए जब हिसाब करो तो पैसेपैसे का करो. अपना नियम है भई, उपहार चाहे हजारों का दो और लो, कर्ज एक पैसे का भी नहीं. यही पैसा दोस्ती में जहर घोलता है.’’

चुप रहा मैं क्योंकि उन का यह पक्का नियम मुझे भी तोड़ना नहीं चाहिए. सत्य भी यही है कि अपनी जेब से बिना वजह लुटाना भी कौन चाहता है. हमारी एक मौसी बड़ी हिसाब- किताब वाली थीं. वे रोज शाम को खर्च की डायरी लिखती थीं. बच्चे अकसर हंसने लगते. वे भी हंस देती थीं. घर में एक ही तनख्वाह आती थी. कंजूसी भी नहीं करती थीं और फुजूल- खर्ची भी नहीं. रिश्तेदारी में भी अच्छा लेनदेन करतीं. कभी बात चलती तो वे यही कहती थीं :

‘‘अपनी चादर में रहो तो क्या मजाल कि मुश्किल आए. रोना तभी पड़ता है जब इंसान नियम से न चले. जीवन में नियम का होना बहुत आवश्यक है.’’

हमारे एक बहनोई हैं. हम से दूर रहते हैं इसलिए कभीकभार ही मिलना होता है. एक बार शादी में मिले, गपशप में दीदी ने उलाहना सा दे दिया.

‘‘सब से मिलना इन्हें अच्छा ही नहीं लगता,’’ दीदी बोलीं, ‘‘गिनेचुने लोगों से ही मिलते हैं. कहते हैं कि हर कोई इस लायक नहीं जिस से मेलजोल बढ़ाया जाए.’’

‘‘ठीक ही तो कहता हूं सोम भाई, अब आप ही बताइए, बिना किसी को जांचेपरखे दोस्त बनाओगे तो वही हाल होगा न जो संजय दत्त का हुआ. दोस्तीयारी में फंस गया बेचारा. अब किसी के माथे पर लिखा है क्या कि वह चोरउचक्का है या आतंकवादी.

‘‘अपना तो नियम है भाई, हाथ सब से मिलाते चलो लेकिन दिल मिलाने से पहले हजार बार सोचो.’’

आज शाम मैं घर आया तो विचित्र ही खबर मिली. ‘‘आप ने सुना नहीं, आज सुबह कुसुम भाभी को किसी ने सराय के बाहर जख्मी कर दिया. उन के साथ 2 पड़ोसिनें और थीं. कानों के टौप्स खींच कर धक्का दे दिया. सिर फट गए. तीनों अस्पताल मेें पड़ी हैं. मैं ने कहा था न कि इतनी सुबह सैर को नहीं जाना चाहिए.’’

‘‘क्या सच?’’ अवाक् रह गया मैं.

‘‘और नहीं तो क्या. सोना ही दुश्मन बन गया. नशेड़ी होंगे कोई. गंड़ासा दिखाया और अंगूठियां उतरवा लीं. तीनों से टौप्स उतारने को कहा. तभी दूर से कोई गाड़ी आती देखी तो कानों से खींच कर ही ले गए…आप कहते थे न, अपना ही इलाका है, तुम भी जाया करो.’’

निरुत्तर हो गया मैं. मेरी नजर पत्नी के कानों पर पड़ी. सुंदर नग चमक रहे थे. उंगली में अंगूठी भी 10 हजार की तो होगी ही. अगर इस ने अपना नियम तोड़ कर मेरा कहा मान लिया होता तो इस वक्त शायद यह भी कुसुम भाभी के साथ अस्पताल में होती.

आज के परिवेश में क्या गलत और क्या सही. सुबह की सैर का नियम जहां कुसुम भाभी को मार गया, वहीं शाम की सैर का नियम मेरी पत्नी को बचा भी गया. सोना इतना महंगा हो गया है कि जानलेवा होने लगा है. सोच रहा हूं कि एक नियम मैं भी बना लूं. चाहे जो भी हो जाए पत्नी को गहने पहन कर घर से बाहर नहीं जाने दूंगा. परेशान हो गई थी पत्नी.

‘‘नकली गहने पहने तो कौन सा जान बच गई. कुसुम भाभी के टौप्स तो नकली थे. अंगूठी भी सोने की नहीं थी. उन्होंने कहा भी कि भैया, सोना नहीं पहना है.’’

‘‘तो क्या कहा उन्होंने?’’

‘‘बोले, यह देखने का हमारा काम है. ज्यादा नानुकर मत करो.’’

क्या जवाब दूं मैं. आज हम जिस हाल में जी रहे हैं उस हाल में जीना वास्तव में बहुत तंग हो गया है. खुल कर सांस कहां ले पा रहे हैं हम. जी पाएं, उस के लिए इतने नियमों का निर्माण करना पड़ेगा कि हम कहीं के रहेंगे ही नहीं. सिर्फ नियम ही होंगे जो हमें चलाएंगे, उठाएंगे और बिठाएंगे.

रात में हम दोनों पतिपत्नी अस्पताल गए. कुसुम भाभी के सिर की चोट गहरी थी. दोनों कान कटे पड़े थे. होश नहीं आया था. उन के पति परेशान थे, सीधासादा जीवन जीतेजीते यह कैसी परेशानी चली आई थी.

‘‘यह बेचारी तो सोना पहनती ही नहीं थी. पीतल भी पहनना भारी पड़ गया. अब इन हालात में इंसान जिए तो कैसे जिए, सोम भाई. कभी किसी का बुरा नहीं किया इस ने. इसी के साथ ऐसा क्यों?’’

वे मेरे गले से लग कर रोने लगे थे. मैं उन का कंधा थपथपा रहा था. उत्तर तो मेरे पास भी नहीं है. कैसे जिएं हम. जाएं तो जाएं कहां. कितना भी संभल कर चलो, कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है कि सब धरा का धरा रह जाता है.

Hindi Fiction Stories : एकदूसरे की पूरक थी मानसी और अनुजा

Hindi Fiction Stories : मानसी और अनुजा बचपन से ही अच्छी सहेलियां थीं. हमेशा से मनु और अनु की जोड़ी उन की पूरी मित्रमंडली में मशहूर थी. नर्सरी से एक ही स्कूल में गईं और जब कालेज चुनने की बात आई तो दोनों ने कालेज भी एक ही चुना. कालेज घर से दूर होने के कारण दोनों पास ही एक रूम ले कर उस में एकसाथ रहने लगीं.

बचपन से साथ खेलने और पढ़ने के बावजूद दोनों के स्वभाव में काफी अंतर था. एक ओर अनुजा सीधीसादी और सामान्य सी दिखने वाली लड़की थी, तो दूसरी ओर मानसी बेहद स्मार्ट और आकर्षक. अनुजा को पढ़ाई में रुचि थी तो मानसी को खेलकूद में. मानसी तो बस पास होने के लिए पढ़ाई करती जबकि अनुजा पढ़ाई में इस कदर खो जाती कि उसे अपने आसपास की दीनदुनिया की खबर ही नहीं रहती. दोनों एकदूसरे की पूरक बन अपनी मित्रता निभाती आई थीं.

कालेज के दिनों में दोनों से टकराया विपुल, जोकि एक छैलछबीले लड़के के रूप में सामने आया. ऊंची कदकाठी, ऐथलैटिक बौडी, पढ़ाई में अच्छे नंबर लाने वाला. बौस्केटबौल चैंपियन को पूरे कालेज का दिल मोह लेने में अधिक समय नहीं लगा.

सब से पहले विपुल पर मानसी की नजर पड़ी. गरमी के दिनों पसीने से तरबतर विपुल बौस्केटबौल कोर्ट में प्रैक्टिस किया करता, क्योंकि मानसी को स्वयं भी बौस्केटबौल में रुचि थी. उस ने विपुल से दोस्ती करने में अधिक देर न लगाई. कुछ ही हफ्तों में वह विपुल से बौस्केटबौल खेलने के पैंतरे सीखने लगी. अनुजा अकसर दोनों का खेल देखा करती.

महीना बीततेबीतते विपुल उन के रूम पर आने लगा जो उन्होंने कालेज के पास ले रखा था. जब वह रूम पर आता तो मानसी उस से पढ़ाई से संबंधित नोट्स शेयर करती, नएनए गुर सीखती. विपुल उसे पूरे मन से सिखाता.

“न जाने कब इस पढ़ाई से पीछा छूटेगा. एक बार कालेज खत्म हो जाए तो मैं इन किताबों को हाथ भी नहीं लगाऊंगी. इन को तो क्या मैं किसी भी किताब को हाथ नहीं लगाऊंगी”, मानसी बोली.

“कैसी बातें करती हो तुम? किताबों के अलावा दुनिया के बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकती”, उस की बात सुन कर अनुजा से चुप न रहा गया.

“तुम्हें भी पढ़ने में रुचि है? मुझे भी. बिना पढ़े तो मुझे 1 दिन भी नींद नहीं आती”, विपुल ने कहा.

*उस* दिन के बाद से विपुल की दोस्ती अनुजा से भी हो गई. अब तीनों केवल कालेज में ही नहीं बल्कि उन के रूम पर भी बतियाया करते. मानसी विपुल के लुक्स और अदाओं की दीवानी थी तो विपुल अनुजा के सामान्य ज्ञान और पढ़ने के प्रति रुचि का. कुछ ही हफ्तों में वे एक तिगड़ी के रूप में पहचाने जाने लगे. तीनों अच्छे दोस्त बन गए थे. साथ पढ़ते, साथ घूमने जाते और समय व्यतीत करते.

“विपुल आता ही होगा”, फटाफट तैयार हो लिपस्टिक को फ्रैश करती मानसी ने कहा.

“ओहो, तो यह सारी तैयारी विपुलजी के लिए हो रही है?”अनुजा ने उस की टांग खींची.

“हां यार, क्या करूं, दिल है कि मानता नहीं…”, अचानक ही मानसी गुनगुनाने लगी और दोनों सहेलियां हंसने लगीं.

आज फिर पढ़ते समय मानसी धीरेधीरे अपने मन में उठ रहे विचारों की पर्चियां बना कर विपुल की ओर पास करने लगी. विपुल ने पर्चियां खोलकर पढ़ीं. पहली पर्ची में लिखा था, ‘कितना सुहाना मौसम है.’

दूसरी पर्ची में लिखा था,’आज तो लौंग ड्राइव पर जाना बनता है.’

तभी मानसी ने तीसरी पर्ची उस की ओर सरकाई तो वह कुछ चिढ़ गया, “तुम्हारा मन पढ़ाई में क्यों नहीं लगता, मानसी?” विपुल ने कहा तो मानसी बस खिसिया कर हंस पड़ी.

“अरे, यह तो बचपन से ऐसी ही है. पर्चियों से इस का नजदीकी रिश्ता है. आखिर, उन्हीं के बल पर पास होती आई है”, अनुजा ने राज खोला.

“अच्छा, तो पर्चियों से पुराना नाता है. देखो न, अभी भी पढ़ते समय न जाने क्या कुछ पर्चियों पर लिख कर मेरी ओर सरकाती रहती है”, विपुल की बात पर तीनों हंस पड़े.

“और यह मैडम न जाने क्या कुछ पढ़ने में मगन रहती हैं”, कहते हुए मानसी से अनुजा के हाथ से किताब छीनी.

“अरे, मुझे तो पढ़ने दो. बहुत अच्छा आलेख प्रकाशित हुआ है इस पत्रिका में. जानते हो, हम सब की आदर्श कार मर्सिडीज का नाम कैसे पड़ा? जरमनी के एक उद्योगपति ऐमिल येलेनेक कारों को बेचने का व्यापार करते थे. उन्होंने डाइमर मोटर्स की कई गाड़ियां खरीदीं और बेचीं. गाड़ियों की इस कंपनी को लिखे कई खतों में उन्होंने यह शर्त रखी कि अपनी स्पोर्ट्स कार का नाम ऐमिल की बड़ी बेटी मर्सिडीज येलेनैक के नाम पर रखा जाए, क्योंकि उन के साथ व्यापार करने से कंपनी को काफी लाभ होता था. कंपनी ने उन की शर्त मान ली. उस वक्त मर्सिडीज केवल 11 वर्ष की थीं जब दुनिया इस दौर को ‘मर्सिडीज इरा’ पुकारने लगी.

बड़ी होने पर मर्सिडीज की 2 शादियां हुईं मगर एक भी सफल नहीं रही. अपने 2 बच्चों को पालने के लिए उन्हें लोगों के आगे हाथ पसारने पड़े. फिर उन्हें कैंसर हो गया और केवल 39 वर्ष की आयु में उन की मृत्यु हो गई. सोचो जरा, जिस कार का नाम समृद्धि और सफलता का पर्याय बन गया है, वह जिस व्यक्ति के नाम पर रखी गई उस का अपना जीवन कितना संघर्ष में बीता. है न यह कितनी बड़ी विडंबना.”

“तुम भी न जाने क्या कुछ ढूंढ़ कर पढ़ती रहती हो”, अनुजा की बात पूरी होने पर मानसी बोली.

“मेरी बकेट लिस्ट में दुनिया घूमना शामिल है”, विपुल बोला, “ऐसी रोचक जानकारियों को जानने के बाद मेरी इन जगहों को देखने की इच्छा और प्रबल हो जाती है. अब मर्सिडीज कार को देखने का मेरा नजरिया बदल जाएगा. तुम ने इतनी अच्छी जानकारी दी, उस के लिए धन्यवाद, अनुजा”, विपुल अनुजा के पढ़ने के शौक से प्रभावित हुआ. उसे भी अनुजा की तरह इतिहास, भूगोल और सामान्य ज्ञान में बेहद रूचि थी.

*शाम* को तीनों बाहर रेस्तरां में खाना खाने गए. तीनों ने अपनीअपनी पसंद का भोजन और्डर किया.

“कमाल है, तुम दोनों के खाने की पसंद भी कितनी मिलती है”, अनुजा और विपुल के साउथ इंडियन खाना और्डर करने पर मानसी ने कहा, “मैं तो मुगलई खाना मंगवाऊंगी.”

कालेज की अन्य सहेलियां मानसी की नजरों में विपुल के प्रति उठ रहे जज्बातों को पढ़ने में सक्षम होने लगी थीं. वे अकसर मानसी को विपुल के नाम से छेड़तीं. कुछ लड़कियां विपुल को मानसी का बौयफ्रेंड तक बुलाने लगी थीं. ऐसी संभावना की कल्पना मात्र से ही मानसी का मन तितली बन उड़ने लगता. चाहती तो वह भी यही थी मगर कहने में शरमाती थीं. सहेलियों को धमका कर चुप करा देती. बस चोरीछिपे मन ही मन फूट रहे लड्डुओं का स्वाद ले लिया करती.

“कल मूवी का कार्यक्रम कैसा रहेगा?”, मानसी के प्रश्न उछालने पर अनुजा इधरउधर झांकने लगी.

विपुल बोला, “कौन सी मूवी चलेंगे? मुझे बहुत ज्यादा शौक नहीं है फिल्म  देखने का.”

“लगता है तुम दोनों पिछले जन्म के भाईबहन हो. अनुजा को भी मूवी का शौक नहीं. उसे तो बस कोई किताबें दे दो, तुम्हारी तरह. लेकिन कभीकभी दोस्तों की खुशी के लिए भी कुछ करना पड़ता है तो इसलिए इस शनिवार हम तीनों फिल्म देखने जाएंगे, मेरी खुशी के लिए”, इठलाते हुए मानसी ने अपनी बात पूरी की.

विपुल के चले जाने के बाद अनुजा, मानसी से बोली, “तुम दोनों ही चले जाना फिल्म देखने. तुम्हारे साथ होती हूं तो लगता है जैसे कबाब में हड्डी बन रही हूं.”

“कैसी बातें करती हो? ऐसी कोई बात नहीं है. हम दोनों सिर्फ अच्छे दोस्त हैं,” मानसी ने उसे हंस कर टाल दिया.

जब तक विपुल के मन की टोह न ले ले, मानसी अपने मन की भावनाएं जाहिर करने के लिए तैयार नहीं थी.

“जो कह रही हूं, कुछ सोचसमझ कर कह रही हूं. तेरी आंखों में विपुल के प्रति आकर्षण साफ झलकता है. पता नहीं उसे कैसे नहीं दिखा अभी तक”, अनुजा की इस बात सुन कर मानसी के अंदर प्यार का वह अंकुर जो अब तक संकोचवश उस के दिल की तहों के अंदर दब कर धड़क रहा था, बाहर आने को मचलने लगा.

विपुल को देख कर उसे कुछ कुछ होता था, पर यह बात वह विपुल को कैसे कहे, इसी उधेड़बुन में उस का मन भटकता रहता.

‘अजीब पगला है विपुल. इतने हिंट्स देती हूं उसे पर वह फिर भी कुछ समझ नहीं पाता. क्या मुझे ही शुरुआत करनी पड़ेगी…’, मानसी अकसर सोचा करती.

*आजकल* मानसी का मन प्रेम हिलोरे खाने लगा था. विपुल को देखते ही उस के गालों पर लालिमा छा जाती. अब तो उस का दिल पढ़ाई में बिलकुल भी न लगता. उस का मन करता कि विपुल उस के साथ प्यारभरी मीठी बातें करे. जब भी वह विपुल से मिलती, चहक उठती. उस का मन करता कि विपुल उस के साथ ही रहे, छोड़ कर न जाए. आजकल वह प्रेमभरे गीत सुनने लगी थी और अपने कमजोर शब्दकोश की सहायता से प्यार में डूबी कविताएं भी लिखने लगी थी. लेकिन यह सारे राज उस ने अपनी निजी डायरी में कैद कर रखे थे. विपुल तो क्या, अनुजा भी इन गतिविधियों से अनजान थी.

*उस* शाम जब अनुजा किसी काम से बाहर गई हुई थी तो विपुल रूम पर आया. मानसी तभी सिर धो कर आई थी और उस के गीले बाल उस के कंधों पर झूल रहे थे. मानसी अकसर अपने बालों को बांध कर रखा करती थी मगर आज उस के सुंदर केश बेहद आकर्षक लग रहे थे.

“आज तुम बहुत सुंदर लग रही हो. अपने बालों को खोल कर क्यों नहीं रखतीं?” विपुल ने मुसकराते हुए कहा.

“केवल मेरे बाल अच्छे लगते हैं, मैं नहीं?”, मानसी ने खुल कर सवाल पूछे तो उत्तर में विपुल शरमा कर हंस पड़ा.

दोनों नोट्स पूरे करने बैठ गए.

“ओह, कितनी सर्दी हो रही है आजकल. यहां बैठना असहज हो रहा है. चलो, अंदर हीटर चला कर बैठते हैं”, कहते हुए मानसी विपुल को बैडरूम में चलने का न्योता देने लगी.

“आर यू श्योर?”, विपुल इस से पहले कभी अंदर नहीं गया था. जब भी आया बस लिविंगरूम में ही बैठा.

“हां.. हां…. चलो अंदर आराम से बैठ कर पढ़ेंगे. फिर मैं तुम्हें गरमगरम कौफी पिलाऊंगी.”

विपुल और मानसी दोनों बिस्तर पर बैठ कर पढ़ने लगे. मानसी ने तह कर रखी रजाई पैरों पर खींच लीं. दोनों सट कर बैठे पढ़ रहे थे कि अचानक बिजली कड़कने लगी. हलकी सी एक चीख के साथ मानसी विपुल से चिपक गई, “मुझे बिजली से बहुत डर लगता है. जब तक अनुजा वापस नहीं आ जाती प्लीज मुझे अकेला छोड़ कर मत जाना.”

“ठीक है, नहीं जाऊंगा. डरती क्यों हो? मैं हूं न”, विपुल उस की पीठ सहलाते हुए बोला.

फिर एक बात से दूसरी बात होती चली गई. बिना सोचे ही विपुल और मानसी एकदूसरे की आगोश में समाते चले गए. कुछ ही देर में उन्होंने सारी लक्ष्मणरेखाएं लांघ दीं. बेखुदी में दोनों जो कदम उठा चुके थे उस का होश उन्हें कुछ समय बाद आया.

बाहर छिटपुट रोशनी रह गई थी. सूरज ढल चुका था. कमरे में अंधेरा घिर आया. मानसी धीरे से उठी और कमरे से बाहर निकल गई. विपुल भी चुपचाप बाहर आया और कुरसी खींच कर बैठ गया. दोनों एकदूसरे से कुछ कह पाते इस से पहले अनुजा वापस आ गई. उस के आते ही विपुल “देर हो रही है,” कह कर अपने घर चला गया. जो कुछ हुआ वह अनजाने में हुआ था मगर फिर भी मानसी आज बेहद खुश थी. उसे अपने प्यार का सानिध्य प्राप्त हो गया था. आगे आने वाले जीवन के सुनहरे स्वप्न उस की आंखों में नाचने लगे. आज देर रात तक उस की आंखों में नींद नहीं झांकी, केवल होंठों पर मुस्कराहट  तैरती रही.

“क्या बात है, आज बहुत खुश लग रही हो?” अनुजा ने पूछा तो मानसी ने अच्छे मौसम की ओट ले ली.

*अगले* दिन विपुल मानसी के रूम पर उसे पढ़ाने नहीं आया बल्कि कालेज में भी कुछ दूरदूर ही रहा. करीब 4 दिनों के बाद मानसी कालेज कैंटीन में बैठी चाय पी रही थी कि अचानक विपुल आ कर सामने बैठ गया. उसे देखते ही मानसी का चेहरा खिल उठा.

“हाय, कैसे हो?”, मानसी ने धीरे से पूछा.

पर विपुल को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे वह पतला हो गया हो.

‘तो क्या विपुल बीमार था, इस वजह से दिखाई नहीं दिया’, मानसी सोचने लगी, ‘और मैं ने इस का हालतक नहीं पूछा. मन ही मन मान लिया कि उस दिन की घटना के कारण शायद विपुल सामना करने में असहज हो रहा हो.’

“मानसी, मैं तुम से कुछ बात करना चाहता हूं. उस शाम हमारे बीच जो कुछ हुआ वह… मैं ने ऐसा कुछ सोचा भी नहीं था. बस यों ही अकस्मात हालात ऐसे बनते चले गए. प्लीज, हो सके तो मुझे माफ कर दो और इस बात को यहीं भूल जाओ. मैं भी उस शाम को अपनी याददाश्त से मिटा दूंगा.”

‘तो इस कारण विपुल पिछले कुछ दिनों से रूम पर नहीं आया.’ मानसी का शक सही निकला. उस दिन की घटना के कारण ही विपुल मिलने नहीं आ रहा था.

उस शाम मानसी को विपुल का साथ अच्छा लगा था. वह पहले से ही विपुल की ओर आकर्षित थी. अब यदि उस का और विपुल का रिश्ता आगे बढ़ता है तो मानसी को और क्या चाहिए. वह खुश थी मगर आज विपुल की इस बात पर उस ने ऊपर से केवल यही कहा, “मैं ने बुरा नहीं माना, विपुल. मैं तो उस बात को एक दुर्घटना समझ कर भुला भी चुकी हूं. तुम भी अपने मन पर कोई बोझ मत रखो.”

मानसी चाहती थी कि अब उसका और विपुल का प्यार आगे बढ़े, पहली सोपान चढ़े और धीरेधीरे गहराता जाए. इसलिए विपुल को किसी भी तनाव में रख कर इस रिश्ते के बारे में सोचा नहीं जा सकता, यह बात वह अच्छी तरह समझ चुकी थी. प्यार की क्यारी को पनपने के लिए जो कोमल मिट्टी मन के आंगन में चाहिए उसे अब वह अपनी सहज बातों और मीठे व्यवहार की खुरपी से रोपना चाहती थी.

इस घटना का जिक्र मानसी ने केवल अपनी डायरी में किया. अनुजा को उस शाम के बारे में कुछ नहीं पता था.

तीनों एक बार फिर पुराने दोस्तों की तरह मिलनेजुलने लगे. विपुल फिर सै रूम पर आने लगा. तीनों घूमनेफिरने जाने लगे. अब तक विपुल और अनुजा की भी अच्छी निभने लगी. एक तरफ विपुल के लिए मानसी की चाहत तो दूसरी तरफ विपुल से अनुजा की बढ़ती मित्रता, इस तिगड़ी में सभी बेहद प्रसन्न रहने लगे.

*एक* शाम जब अनुजा रूम पर आई तो मानसी ने हड़बड़ा कर अपनी डायरी जिस में वह कुछ लिख रही थी, बंद कर किताबों के पीछे छिपा दी.

“मुझे सब पता है क्या लिखती रहती हो तुम इस डायरी में”, अनुजा ने चुटकी ली.

“ऐसा कुछ नहीं है. तुम न जाने क्याक्या सोचती रहती हो…” मानसी हंसी और कमरे से बाहर निकल गई. अनुजा उस के पीछेपीछे आई और कहने लगी, “मानसी, अगर विपुल आगे नहीं बढ़ पा रहा तो तुम्हें शुरुआत करनी चाहिए. मुझे लगता है अब समय आ गया है. हम तीनों की दोस्ती को 1 साल होने को आया है. हम एकदूसरे को अच्छी तरह समझने लगे हैं. अब ज्यादा सोचविचार में और समय मत गंवाओ. विपुल जैसा अच्छा लड़का सब को नहीं मिलता…आगे बढ़ो और अपने मन की बात विपुल से कह डालो.”

अनुजा ने मानसी को समझाया तो वह विपुल से अपने दिल की बात करने को राजी हो गई. अनुजा ने सुझाव दिया कि निकट आते वैलेंटाइन डे पर मानसी विपुल से अपने दिल की बात कह दे, मगर  वैलेंटाइन डे से पहले रोज डे पर विपुल ने अनुजा को लाल गुलाब दे कर अचानक प्रपोज कर दिया. ऐसे किसी कदम की उसे उम्मीद न थी. अनुजा हक्कीबक्की रह गई. कुछ कहते न बना. बस खामोशी से गुलाब हाथ में लिए वह रूम पर लौट आई. जब मानसी को इस घटना के बारे में पता लगा तो उसे अनुजा से भी ज्यादा ठेस लगी. वह तो विपुल को अपना बनाने की ख्वाब संजो रही थी लेकिन विपुल ने तो बाजी ही पलट दी.

अनुजा जानती थी कि मानसी के मन में विपुल को ले कर आकर्षण पनप रहा है. वह तो स्वयं ही मानसी को विपुल की ओर धकेल रही थी. मगर विपुल ने आज जो किया उस के बाद अनुजा मानसी से नजरें मिलाने में भी सकुचाने लगी.

‘न जाने मेरी सहेली मेरे बारे में क्या सोचेगी?’ अनुजा मन ही मन परेशान होने लगी. उस की बेचैनी उस के चेहरे पर साफ झलकने लगी.

मानसी ने अनुजा के अंदर उठ रहे तूफान को पढ़ लिया. आखिर दोनों बचपन से एकदूसरे का साथ निभाती आई थीं. भावनाएं बांटती आई थीं. अनुजा के चेहरे पर उठ रहे व्यग्रता के भावों को देख मानसी ने अपने चेहरे पर जरा भी व्याकुलता नहीं आने दी. एक सच्ची सहेली की तरह उस ने अनुजा के सामने स्वयं को उस की खुशी में प्रसन्न दर्शाया. उस ने अनुजा को यह कह कर समझाया कि जो कुछ वह सोच रही थी, ऐसा कुछ नहीं था. वे तीनों अच्छे मित्र हैं और मानसी के मन की भावनाएं केवल अनुजा की कल्पना मात्र हैं. विपुल की तरफ से कभी भी इस प्रकार का न तो कोई संदेश आया, न ही इशारा. वह दोनों केवल अच्छे दोस्त रहे.

“तुम्हें गलतफहमी हो गई थी, मेरी जान. विपुल मुझे नहीं तुम्हें पसंद करता है और इस का साक्षी है उस का दिया यह गुलाब का फूल. अब खुशी से फूल को अपनाओ और विपुल के साथ एक सुखी जीवन बिताओ. मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं”, मानसी ने कहा तब जा कर अनुजा को थोड़ी शांति मिली.

मानसी ने यह सब केवल अनुजा को शांत करने के लिए कहा, मगर उस के अंदर जो ज्वालामुखी फट रहे थे उस का सामना करना उस के लिए कठिन हो रहा था. विपुल ने उसे धोखा दिया है. वह उस के साथ ऐसा कैसे कर सकता है? क्या मानसी की आंखों में विपुल ने कभी कुछ नहीं पढ़ा? और उस शाम का क्या जो उन दोनों ने एकदूसरे की बांहों में गुजारीं? मानसी को इन सभी सवालों के दैत्य घेरने लगे. वह भीतर ही भीतर सुलगने लगी. अपनी सब से प्यारी सहेली की खुशी में वह बाधा नहीं बनना चाहती पर दिल का क्या करे.

अगला पूरा हफ्ता इसी उहापोह में बीता. अनुजा के समक्ष ऊपर से शांत और प्रसन्न दिखने वाली मानसी अंदर ही अंदर घुल रही थी.

आखिर दिल पर दिमाग हावी हो ही गया. इतने दिनों से चल रही मगजमारी में मानसी का शैतानी मन उस के शांत मन से जीत गया. उस ने ठान लिया कि वह विपुल को सबक सिखा कर रहेगी और उस की सचाई अनुजा के सामने खोल देगी. इसी आशय से उस ने सुबूत के तौर पर अपनी डायरी उठाई और तैयार हो कर कालेज चली गई. आज वह इस डायरी में बंद हर राज को अनुजा के समक्ष रख देगी.

*कालेज* में हर जगह लाल रंग की लाली छाई हुई थी. आज वैलेंटाइन डे था. हर ओर लाल गुब्बारे, दिल की शेप के कटआउट, लाल रिबन, लड़कियां भी लाललाल पोशाकों में सजी हुईं अपने अपने बौयफ्रैंड के साथ इठलाती घूम रही थीं. कहां आज ही के दिन मानसी ने विपुल से अपने दिल की बात कहने की सोची थी और कहां आज वह विपुल और अनुजा के बनते हुए रिश्ते को तोड़ने जा रही है.

मानसी ने कैफेटेरिया में विपुल और अनुजा को एकसाथ बैठे देख लिया. उस की तरफ उन दोनों की पीठ थी. सधे हुए तेज कदमों से बढ़ती हुई वह उन की तरफ लपकी. इस से पहले कि वह उन्हें आड़े हाथों लेती उस के कानों में उनका वार्तालाप सरक गया.

“अनुजा, तुम मुझे पहले ही दिन से पसंद आ गई थीं. तुम्हारा मितभाषी स्वभाव मेरे अपने अंतर्मुखी स्वभाव से मेल खाता है”, विपुल बोला.

“हां, और देखो न हमारे स्वाद, हमारी इच्छाएं और आकांक्षाएं भी कितनी मिलतीजुलती हैं. सच कहूं तो मैं ने तुम्हें कभी उस नजर से देखा नहीं था”, अनुजा कह रही थी, “बल्कि मैं तो कुछ और ही समझती रही थी अब तक,” संभवतया अनुजा का इशारा मानसी की ओर था.

“समझने में मुझे भी कुछ समय जरूर लगा. कभीकभी मन में कुछ संशय भाव भी उभरे. पर यह निर्णय मैं ने बहुत सोचसमझ कर किया है. जीवन में गलती सभी से हो जाती है मगर समझदार वही व्यक्ति है जो अपनी गलतियों से सीख कर आगे बढ़ता है”, विपुल ने अपनी बात पूरी की.

पीछे खड़ी मानसी सब सुन रही थी. ‘सच ही तो कह रहे हैं दोनों. एकदूसरे के लिए यही बने हैं. दोनों के स्वभाव एकदूसरे के अनुकूल हैं. क्या एक बार सोने से प्यार हो जाता है? नहीं न… विपुल और उस के बीच जो हुआ वह प्यार का नहीं जवानी के आकर्षण व जोश का परिणाम था, जो शायद किसी के भी साथ हो सकता है. एक बार हुई ऐसी घटना के बलबूते पूरे जीवन के निर्णय नहीं लिए जा सकते और न ही लेने चाहिए. विपुल ने सही निर्णय लिया जो सोचसमझ कर अपने अनुरूप साथी का चयन किया. दोनों साथ में कितने खुश हैं. मेरे दोस्त हैं. क्या इन की खुशी पर वज्रपात कर के मैं खुश रह पाऊंगी? क्या ऐसा करने के बाद मैं स्वयं को कभी माफ कर पाऊंगी? निर्णय वही लेना चाहिए जिस से जीवन सुखी हो. आज भावेश में आ कर मैं यह क्या करने जा रही थी…’, मानसी ने अपने कदम रोक लिए. अपनी डायरी को उस ने वापस अपने बैग में छिपा दिया. अब इसकी जरूरत कभी नहीं पड़ेगी.

नभ में छाई घटाएं खुलने लगीं. बसंत के मध्यम सूरज की सुहानी किरणें हर ओर उजाले की बौछारें करने लगीं. मानसी के मन के अंदर भी यह उजाला उतरने लगा. उस के चेहरे पर मुसकराहट आने लगी.

“अच्छा बच्चू, मुझ से गुपचुप यहां अकेले पार्टी करने का प्रोग्राम है. तुम दोनों भले ही एक कपल बन गए हो पर मैं कबाब में हड्डी बनने से संकोच नहीं करूंगी. मुझे भी तुम्हारे साथ पार्टी करनी है”, कहते हुए मानसी ने अपनी दोनों बांहें पसार दीं.

अनुजा और विपुल ने भी हंसते हुए उसे अपनी बांहों में ले लिया. तीनों ने कौफी और केक का और्डर दिया. अनगिनत बातों का पिटारा फिर खुलने लगा.

Inspirational Hindi Stories : हिजड़ा

Inspirational Hindi Stories : पिछले कई दिनों से बस स्टैंड के दुकानदार उस हिजड़े से परेशान थे जो न जाने कहां से आ गया था. वह बस स्टैंड की हर दुकान के सामने आ कर अड़ जाता और बिना कुछ लिए न टलता. समझाने पर बिगड़ पड़ता. तालियां बजाबजा कर खासा तमाशा खड़ा कर देता.

एक दिन मैं ने भी उसे समझाना चाहा, कुछ कामधंधा करने की सलाह दी. जवाब में उस ने हाथमुंह मटकाते हुए कुछ विचित्र से जनाने अंदाज में अपनी विकलांगता (नपुंसकता) का हवाला देते हुए ऐसीऐसी दलीलें दे कर मेरे सहित सारे जमाने को कोसना प्रारंभ किया कि चुप ही रह जाना पड़ा. कई दिनों तक उस की विचित्र भावभंगिमा के चित्र आंखों के सामने तैरते रहते और मन घृणा से भर उठता.

फिर एकाएक उस का बस स्टैंड पर दिखना बंद हो गया तो दुकानदारों ने राहत की सांस ली, लेकिन उस के जाने के 2-3 दिन बाद ही न जाने कहां से एक अधनंगी मैलीकुचैली पगली बस स्टैंड व ट्रांसपोर्ट चौराहे पर घूमती नजर आने लगी थी. अस्पष्ट स्वर में वह न जाने क्या बुदबुदाती रहती और हर दुकान के सामने से तब तक न हटती जब तक कि उसे कुछ मिल न जाता.

जब कोई कुछ खाने को दे देता तो कुछ दूर जा कर वह सड़क पर बैठ कर खाने लगती. जबकि पैसों को वह अपनी फटी साड़ी के आंचल में बांध लेती, कोई दया कर के कपड़े दे देता तो उसे अपने शरीर पर लपेट लेती. कभी वह बड़ी ही विचित्र हंसी हंसने लगती तो कभी सिसकियां भरभर कर रोने लगती. उस का हास्य, उस का रुदन, सब उस के जीवन के रहस्य की तरह ही अबूझ पहेली थे.

कभी किसी ने उसे नहाते न देखा था, मैल की परतों से दबे उस के शरीर से ऐसी बदबू का भभका उठता कि दुकान में उस के आते ही दुकानदार जल्दी से उस के पास 1-2 रुपए का सिक्का फेंक कर उसे दूर भगाने का प्रयास करते. लेकिन इन सब के बावजूद वह उम्र के लिहाज से जवान थी और यह जवानी ही शायद उस दिन कामलोलुप, शराब के नशे में धुत्त युवकों की नजरों में चढ़ गई.

दिनभर बस स्टैंड व ट्रांसपोर्ट चौराहे पर घूमती यह पगली रात्रि को किसी भी दुकान के बरामदे पर या बस स्टैंड के होटलों के दालानों में बिछी बैंच पर सो जाया करती थी. उस दिन भी वह इन होटलों में से किसी एक होटल की लावारिस पड़ी बैंच पर रात के अंधियारे में दुबक कर सोई हुई थी.

रात्रि को 12 बजे के लगभग मैं अपना पीसीओ बंद कर ही रहा था कि तभी सामने बस स्टैंड के इन होटलों में से किसी एक होटल के बरामदे से वह पगली अस्तव्यस्त हालत में भागती हुई बाहर निकली. उस के पीछे महल्ले के ही 2 अपराधी प्रवृत्ति के शराब के नशे में धुत्त युवक बाहर निकल कर उसे पकड़ने का प्रयास कर रहे थे. वह उन से पीछा  छुड़ाने के प्रयास में भागते हुए पीठ के बल गिर पड़ी, उस के मुंह से विचित्र तरह की चीख निकली.

मैं पूरी घटना को देखते हुए अपनी दुकान के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा था. मैं उन दोनों युवकों के आपराधिक कृत्यों से भलीभांति परिचित था. अभी कुछ माह पूर्व ही उन लोगों ने कसबे के एक वकील को गोली मार कर घायल कर दिया था. उन की पीठ पर कसबे के कुख्यात कोलमाफिया का हाथ है. फलस्वरूप कुछ माह में ही जमानत पर वे लोग बाहर आ गए. एक पहल में ही उन के आपराधिक कृत्यों का इतिहास मेरी आंखों के सामने कौंध गया और मैं उन को रोकने का साहस न जुटा सका लेकिन बिना प्रतिरोध किए रह भी नहीं पा रहा था.

सो, उन्हें तेज आवाज में डांटना चाहा लेकिन मेरे मुंह से ऐसी सहमी, मरी हुई आवाज में प्रतिरोध का स्वर निकला कि मैं खुद सहम गया. जबकि जवाब में उन युवकों ने गुर्रा कर डपटा, ‘‘गुलशन चाचा, अपने काम से काम रखो नहीं तो…’’ फिर उस के बाद गालियों, धमकियों का ऐसा रेला उन्होंने मेरी तरफ उछाल दिया कि मैं भयभीत हो गया, डर से घबरा कर जल्दी से दुकान का शटर बंद कर घर में दुबकते हुए चोर नजर से उन की तरफ देखा तो… लगभग घसीटते हुए वे उस पगली को होटल के अंधेरे बरामदे में पड़ी बैंच की ओर ले जा रहे थे.

वह पगली विचित्र अस्पष्ट स्वर में सिसक रही थी, उस के प्रतिरोध का प्रयास भी शिथिल हो गया था, शायद उस ने बचने की कोई सूरत न देख कर आत्मसमर्पण कर दिया था. मैं शटर बंद कर घर में दुबक गया था. बस स्टैंड पर सन्नाटा पसर गया था और शायद काफी गहराई तक मेरे अंदर भी वह सन्नाटा उतरता चला गया.

अगले दिन से फिर वह पगली बस स्टैंड तो क्या पूरे कसबे में ही कहीं नजर नहीं आई. वे 2 युवक जब भी मुझे देखते उन के चेहरे पर व्यंग्य, उपहासभरी मुसकान कौंध जाती और न जाने क्यों मेरा चेहरा पीला पड़ जाता. उस दिन की घटना के बाद मेरा पीसीओ भी रात्रि 8 बजे बंद होने लगा. न जाने क्यों मैं देर रात तक पीसीओ खुले रखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. मैं अपनेआप को अकसर समझाता रहता कि अरे इस तरह से लावारिस घूमने वाली पगली व भिखारिन औरतों के साथ ऐसी घटनाओं का होना कोई नई बात नहीं है. ऐसा तो होता ही रहता है.

मैं भला सक्रिय रूप से उन्हें रोकने का प्रयास कर के भी क्या कर लेता? यही न कि उन युवकों की मारपीट का शिकार हो कर घायल हो जाता, और कहीं वे प्रतिशोध में मेरे घर पर न रहने पर घर में घुस कर मेरी पत्नी के साथ जोरजबरदस्ती कर बैठते तो…कल्पना कर के ही सिहर उठता. न बाबा न, उन से दुश्मनी न मोल ले कर मैं ने ठीक ही किया. लेकिन उस घटना के बाद न जाने मुझे क्या होता जा रहा है.

Hindi Stories Online : खोई हुई संपत्ति

लेखक- डा. रमेश यादव

Hindi Stories Online : “मुन्ना के पापा सुनो तो, आज मुन्ना नया घर तलाशने की बात कर रहा था. वह काफी परेशान लग रहा था. मुझ से बोला कि मैं आप से बात कर लूं.”

“मगर, मुझ से तो वह कुछ नहीं बोला. बात क्या है मुन्ने की अम्मां? खुल कर बोलो. कई वर्षों से बिल्डिंग को ले कर समिति, किराएदार, मालिक और हाउसिंग बोर्ड के बीच लगातार मीटिंग चल रही है. ये तो मैं जानता हूं, पर आखिर में फैसला क्या हुआ?”

“वह कह रहा था कि हमारी बिल्डिंग अब बहुत पुरानी और जर्जर हो चुकी है, इसलिए बरसात के पहले सभी किराएदारों को घर खाली करने होंगे. सरकार की नई योजना के अनुसार इसे फिर से बनाया जाएगा. पर तब तक सब को अपनीअपनी छत का इंतजाम खुद करना होगा. वह कुछ रुपयों की बात कर रहा था. जल्दी में था, इसलिए आप से मिले बिना ही चला गया.”

गंगाप्रसाद तिवारी अब गहरी सोच में डूब गए. इतने बड़े शहर में बड़ी मुश्किल से घरपरिवार का किसी तरह से गुजारा हो रहा था. बुढ़ापे के कारण उन की अपनी नौकरी भी अब नहीं रही. ऐसे में नए सिर से फिर से नया मकान ढूंढ़ना, उस का किराया देना, नाको चने चबाने जैसा है. गैलरी में कुरसी पर बैठेबैठे तिवारीजी शून्य में खो गए थे. उन की आंखों के सामने तीस साल पहले का वह मंजर किसी चलचित्र की तरह चलने लगा.

‘दो छोटेछोटे बच्चे और मुन्ने की मां को ले कर जब वे पहली बार इस शहर में आए थे, तब यह शहर अजनबी सा लग रहा था. पर समय के साथ वे यहीं के हो कर रह गए.

‘सेठ किलाचंदजी एंड कंपनी में मुनीमजी की नौकरी, छोटा सा औफिस, एक टेबल और कुरसी. मगर व्यापार करोड़ों का था, जिस का मैं एकछत्र सेनापति था. सेठजी की ही मेहरबानी थी कि उस कठिन दौर में बड़ी मुश्किल से लाखों की पगड़ी का जुगाड़ कर पाया और अपने परिवार के लिए एक छोटा सा आशियाना बना पाया, जो ऊबदार घर कब बन गया, पता ही नहीं चला. दिनभर की थकान मिटाने के लिए अपने हक की छोटी सी जमीन, जहां सुकून से रात गुजर जाती थी और सुबह होते ही फिर वही रोज की आपाधापी भरी तेज रफ्तार वाली शहर की जिंदगी.

‘पहली बार मुन्ने की मां जब गांव से निकल कर ट्रेन में बैठी, तो उसे सबकुछ अविश्वसनीय सा लग रहा था. दो रात का सफर करते हुए उसे लगा, जैसे वह विदेश जा रही हो. धीरे से वह कान में फुसफुसाई, “अजी, इस से तो अच्छा अपना गांव था. सभी अपने थे वहां. यहां तो ऐसा लगता है जैसे हम किसी पराए देश में आ गए हों? कैसे गुजारा होगा यहां?”

“चिंता मत करो मुन्ने की अम्मां, सब ठीक हो जाएगा. जब तक मन करेगा यहां रहेंगे और जब घुटन होने लगेगी तो गांव लौट जाएंगे. गांव का घर, खेत, खलिहान इत्यादि सब है. अपने बड़े भाई के जिम्मे सौंप कर आया हूं. बड़ा भाई पिता समान होता है.”

इन तीस सालों में इस अजनबी शहर में हम ऐसे रचबस गए, मानो यही अपनी तपस्वी कर्मभूमि है. आज मुन्ने की मां भी गांव में जा कर बसने का नाम नहीं लेती. उसे इस शहर से प्यार हो गया है. उसे ही क्यों, खुद मेरे और दोनों बच्चों के रोमरोम में यह शहर बस गया है. माना कि अब मैं थक चुका हूं, मगर अब बच्चों की पढ़ाई पूरी हो गई है. उन्हें ढंग की नौकरी मिल जाएगी तो उन के हाथ पीले कर दूंगा और जिंदगी की गाड़ी फिर से पटरी पर अपनी रफ्तार से दौड़ने लगेगी. अचानक किसी की आवाज ने तिवारीजी की तंद्रा भंग की. देखा तो सामने मुन्ने की मां थी.

“अजी किस सोच में डूबे हो? सुबह से दोपहर हो गई. चलो, अब भोजन कर लो. मुन्ना भी आ गया है. उस से पूरी बात कर लो और सब लोग मिल कर सोचो कि आगे क्या करना है ? आखिर कोई समाधान तो निकालना ही पड़ेगा.”

भोजन के बाद तिवारीजी का पूरा परिवार एकसाथ बैठ कर विमर्श करने लगा. मुन्ने ने बताया, “पापा, हमारी बिल्डिंग का हाउसिंग बोर्ड द्वारा रिडेवलपमेंट किया जा रहा है. सबकुछ अब फाइनल हो गया है. एग्रीमेंट के मुताबिक हमें मालिकाना अधिकार का 250 स्क्वेयर फीट का फ्लैट मुफ्त में मिलेगा. मगर वह काफी छोटा पड़ेगा. इसलिए यदि कोई अलग से या मौजूदा कमरे से जोड़ कर एक और कमरा लेना चाहता हो, तो उसे एक्स्ट्रा कमरा मिलेगा, पर उस के लिए बाजार भाव से दाम देना होगा.”

”ठीक कहते हो मुन्ना, मुझे तो लगता है कि यदि हम गांव की कुछ जमीन बेच दें तो हमारा मसला हल हो जाएगा और एक कमरा अलग से मिल जाएगा. अधिक रुपयों का इंतजाम हो जाए तो यह बिलकुल संभव है कि हम अपना एक और फ्लैट खरीद लेंगे.” तिवारीजी बोले.

बरसात से पहले तिवारीजी ने सरकारी डेवलपमेंट बोर्ड को अपना रूम सौंप दिया और पूरे परिवार के साथ अपने गांव आ गए.

गांव में प्रारंभ के दिनों में बड़े भाई और भाभी ने उन की काफी आवभगत की, पर जब उन्हें पूरी योजना के बारे में पता चला तो वे लोग पल्ला झाड़ने लगे. यह बात गंगाप्रसाद तिवारी की समझ में नहीं आ रही थी. उन्हें कुछ शक हुआ. धीरेधीरे उन्होंने अपनी जगह जमीन की खोजबीन शुरू की. हकीकत का पता चलते ही उन के पैरों तले की जमीन ही सरक गई, मानो उन पर आसमान टूट पड़ा हो.

“अजी क्या बात हैं? खुल कर बताते क्यों नहीं, दिनभर घुटते रहते हो? यदि जेठजी को हमारा यहां रहना भारी लग रहा है, तो वे हमारे हिस्से का घर, खेत और खलिहान हमें सौंप दें, हम खुद अपना बनाखा लेंगे.”

“धीरे बोलो भाग्यवान, अब यहां हमारा गुजारा नहीं हो पाएगा. हमारे साथ धोखा हुआ है. हमारे हिस्से की सारी जमीनजायदाद उस कमीने भाई ने जालसाजी से अपने नाम कर ली है. झूठे कागजात बना कर उस ने दिखाया है कि मैं ने अपने हिस्से की सारी जमीनजायदाद उसे बेच दी है. हम बरबाद हो गए मुन्ने की अम्मां… अब तो एक पल के लिए भी यहां कोई ठौरठिकाना नहीं है. हम से सब से बड़ी भूल यह हुई कि साल दो साल में एकाध बार यहां आ कर अपनी जमीनजायदाद की कोई खोजखबर नहीं ली.”

“अरे दैय्या, ये तो घात हो गया. अब हम कहां रहेंगे? कौन देगा हमें सहारा? कहां जाएंगे हम अपने इन दोनों बच्चों को ले कर? बच्चों को इस बात की भनक लग जाएगी तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा,” विलाप कर के मुन्ने की मां रोने लगी. पूरा परिवार शोक में डूब गया. न चाहते हुए भी तिवारीजी के मन में घुमड़ती पीड़ा की गठरी आखिर खुल ही गई थी.

इस के बाद तिवारी परिवार में कई दिनों तक वादविवाद, विमर्श होता रहा. सुकून की रोटी जैसे उन के नसीब की परीक्षा ले रही थी.

अपने ही गांवघर में अब गंगाप्रसादजी का परिवार बेगाना हो चुका था. उन्हें कोई सहारा नहीं दे रहा था. वे लोग जान चुके थे कि उन्हें लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी होगी. पर इस समय गुजरबसर के लिए छोटी सी झुग्गी भी उन के पास नहीं थी. गांव की जमीन के हिस्से की पावर औफ एटोर्नी बड़े भाई को दे कर उन्होंने बहुत बड़ी भूल की थी. उसी के चलते आज वे दरदर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर थे.

उसी गांव में मधुकर चौहान नामक संपन्न दलित परिवार था. गांव में उन की अपनी बड़ी सी किराने की दुकान थी. बड़ा बेटा रामकुमार पढ़ालिखा और आधुनिक खयालात का था. जब उसे छोटे तिवारीजी के परिवार पर हो रहे अन्याय के बारे में पता चला तो उस का खून खौल उठा, पर वह मजबूर था. गांव में जातिबिरादरी की राजनीति से वह पूरी तरह परिचित था. एक ब्राह्मण परिवार को मदद करने का मतलब, अपनी बिरादरी से रोष लेना था. पर दूसरी तरफ उसे शहर से आए उस परिवार के प्रति लगाव भी था.

उस दिन घर में उस के पिताजी ने तिवारीजी को ले कर बात छेड़ी, “जानते हो तुम लोग, हम वही दलित परिवार हैं, जिस के पुरखे किसी जमाने में उसी तिवारीजी के यहां पुश्तों से हरवाही किया करते थे. तिवारीजी के दादाजी बड़े भले इनसान थे. जब हमारा परिवार रोटी के लिए मुहताज था, तब इस तिवारीजी के दादाजी ने आगे बढ़ कर हमें गुलामी की दास्तां से मुक्ति दे कर अपने पैरों पर खड़े होने का हौसला दिया था. उस अन्नदाता परिवार के एक सदस्य पर आज विपदा की घड़ी आई है. ऐसे में मुझे लगता है कि हमें उन के लिए कुछ करना चाहिए. आज उसी परिवार की बदौलत गांव में हमारी दुकान है और हम सुखी हैं.”

”हां बाबूजी, हमें सच का साथ देना चाहिए. मैं ने सुना है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद जब बैंक के दरवाजे सामान्य लोगों के लिए खुले, तब बड़े तिवारीजी ने हमें राह दिखाई थी. यह उसी परिवर्तन के दौर का नतीजा है कि कभी दूसरों के टुकड़ों पर पलने वाला गांव का यह दलित परिवार आज संपन्न परिवार में गिना जाता है और शान से रहता है,” रामकुमार ने अपनी जोरदार हुंकारी भरी.

रामकुमार ताल ठोंक कर अब छोटे तिवारीजी के साथ खड़ा हो गया था. काफी सोचसमझ कर चौहान परिवार ने छोटे तिवारीजी से गहन विचारविमर्श किया.

“हम आप को दुकान खुलवाने और सिर पर छत के लिए जगह, जमीन, पैसा इत्यादि की हर संभव मदद करने को तैयार हैं. आप अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे, तो यह लड़ाई आसान हो जाएगी. एक दिन आप को आप का हक जरूर मिलेगा.”

चौहान परिवार का भरोसा और साथ मिल जाने से तिवारी परिवार का हौसला बढ़ गया था. रामकुमार के सहारे अंकिता अपनी दुकानदारी को बखूबी संभालने लगी थी. इस से घर में पैसे आने लगे थे. धीरेधीरे उन के पंखों में बल आने लगा और वे अपने पैरों पर खड़े हो गए.

तिवारीजी की दुकानदारी का भार उन की बिटिया अंकिता के जिम्मे था, क्योंकि तिवारीजी और उन का बड़ा बेटा अकसर कोर्टकचहरी और शहर के फ्लैट के काम में व्यस्त रहते थे.

इस घटना से गांव के ब्राह्मण घरों में जातिबिरादरी की राजनीति जन्म लेने लगी. कुंठित दलित बिरादरी के लोग भी रामकुमार और अंकिता को ले कर साजिश रचने लगे. चारों ओर तरहतरह की अफवाहें रंग लेने लगीं, पर बापबेटे ने पूरे गांव को खरीखोटी सुनाते हुए अपने हक की लड़ाई जारी रखी. इस काम में रामकुमार तन, मन और धन से उन के साथ था. उस ने जिले के नामचीन वकील से तिवारीजी की मुलाकात कराई और उस की सलाह पर ही पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई.

छोटीमोटी इस उड़ान को भरतेभरते अंकिता और रामकुमार कब एकदूसरे को दिल दे बैठे, इस का उन्हें पता ही नहीं चला. इस बात की भनक पूरे गांव को लग जाती है. लोग इस बेमेल प्यार को जाति का रंग दे कर तिवारी और चौहान परिवार को बदनाम करने की कोशिश करते हैं. इस काम में अंकिता के ताऊजी अग्रणी भर थे.

गंगाप्रसादजी के परिवार को जब इस बात की जानकारी होती है, तो वे राजीखुशी इस रिश्ते को स्वीकार कर लेते हैं. इतने वर्षों तक बड़े शहर में रहते हुए उन की सोच भी बड़ी हो चुकी होती है. जातिबिरादरी के बजाय सम्मान, इज्जत और इनसानियत को वे तवज्जुह देना जानते थे. जमाने के बदलते दस्तूर के साथ परिवर्तन की आंधी अब अपना रंग जमा चुकी थी.

अंकिता ने अपना निर्णय सुनाया, “बाबूजी, मैं रामकुमार से प्यार करती हूं और हम शादी के पवित्र बंधन में बंध कर अपनी नई राह बनाना चाहते हैं.”

“बेटी, हम तुम्हारे निर्णय का स्वागत करते हैं. हमें तुम पर पूरा भरोसा है. अपना भलाबुरा तुम अच्छी तरह जानती हो. चौहान परिवार के हम पर बड़े उपकार हैं.”

आखिर में चौहान और तिवारी परिवार आपसी रजामंदी से उसी गांव में विरोधियों की छाती पर मूंग दलते हुए अंकिता और रामकुमार की शादी बड़े धूमधाम से संपन्न करा दी.

एक दिन वह भी आया, जब गंगाप्रसादजी अपनी जमीनजायदाद की लड़ाई जीत गए और उन की खोई हुई संपत्ति उन्हें वापस मिल गई. जालसाजी के केस में उन के बड़े भाई को जेल जाने की नौबत आ गई.

Hindi Thriller Stories : इकबाल से शादी करने के लिए क्या था निभा का झूठ?

Hindi Thriller Stories : इकबाल जल्दीजल्दी निभा के लिए केक बना रहा था. दरअसल, आज निभा का बर्थडे था. इकबाल ने अपने औफिस से छुट्टी ले ली थी. वह निभा को सरप्राइज देना चाहता था.

उस ने निभा की पसंद का खाना बनाया था, पूरा घर सजाया था और निभा के लिए एक खूबसूरत सी ड्रैस भी खरीदी थी. आज की शाम वह निभा के लिए यादगार बना देना चाहता था.

शाम में जब निभा घर लौटी तो इकबाल ने दरवाजा खोला. निभा के अंदर कदम रखते ही इकबाल ने पंखा चला दिया और रंगबिरंगे फूल निभा के ऊपर गिरने लगे. निभा को बांहों में भर कर इकबाल ने धीरे से कहा,”जन्मदिन मुबारक हो मेरी जान.”

इकबाल का हाथ थाम कर निभा ने कहा,”सच इकबाल, तुम मेरी जिंदगी की सच्ची खुशी हो. कितना प्यार करते हो मुझे. ख्वाहिशों का आसमान छू लिया है मैं ने तुम्हारे दम पर… अब तमन्ना यही है मेरा दम निकले तुम्हारे दर पर…”

इकबाल ने उस के होंठों पर उंगली रख दी,”दम निकलने की बात दोबारा मत करना निभा. तुम ने मेरी जिंदगी हो. तुम्हारे बिना मैं अधूरा हूं.”

केक काट कर और गिफ्ट दे कर जब इकबाल ने अपने हाथों से तैयार किया हुआ खाना डाइनिंग टेबल फर सजाया तो निभा की आंखों में आंसू आ गए,”इतना प्यार मत करो मुझ से इकबाल. हम लिवइन में रहते हैं मगर तुम तो मुझे पत्नी से ज्यादा मान देते हो. हमारा धर्म एक नहीं पर तुम ने प्यार को ही धर्म बना दिया. मेरे त्योहार तुम मनाते हो. मेरे रिवाज तुम निभाते हो. मेरा दिल हर बार तुम चुराते हो. कब तक चलेगा ऐसा?”

“जब तक धरती पर मैं हूं और आसमान में चांद है…”

दोनों एकदूसरे की बांहों में खो गए थे. धर्म, जाति, ऊंचनीच, भाषा, संस्कृति जैसे हर बंधन से आजाद उन का प्यार पिछले 5 सालों से परवान चढ़ रहा था.

5 साल पहले एक कौमन फ्रैंड की पार्टी में दोनों मिले थे. उस वक्त दोनों ही दिल्ली में नए थे और जौब भी नईनई थी. समय के साथसाथ दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई. एकदूसरे के विचार और व्यवहार से प्रभावित इकबाल और निभा धीरेधीरे करीब आने लगे थे. दोनों के बीच दूरियां सिमटने लगीं और फिर दोनों अलगअलग घर छोड़ कर एक ही घर में शिफ्ट हो गए. किराया तो बचा ही जीवन को नई खुशियां भी मिलीं.

जल्दी ही दोनों ने मिल कर एक फ्लैट किस्तों पर ले लिया. दोनों मिल कर मकान की किस्त भी देते और घर के दूसरे खर्चे भी करते. दोनों के बीच प्यार गहरा होता गया. रिश्ता गहरा हुआ तो दोनों ने घर वालों को बताने की सोची.

इकबाल के घर वालों में केवल मां थीं जो बहुत सीधी थीं. वह तुरंत मान गई थीं. मगर निभा के यहां स्थिति विपरीत थी. उस के पिता इलाहाबाद के जानेमाने उद्योगपति थे. शहर में अपनी कोठी थी. 3-4 फैक्ट्रियां थीं. 100 से ज्यादा मजदूर काम करते थे. उन की शानोशौकत ही अलग थी. पैसों की कोई कमी नहीं थी पर पतिपत्नी दोनों ही अव्वल दरजे के धार्मिक और कट्टरमिजाज थे. मां अकसर ही धार्मिक कार्यक्रमों में शरीक हुआ करती थीं.

धर्म की तो बात ही अलग है. यहां तो जाति के साथसाथ गोत्र, वर्ण, कुंडली सब कुछ देखा जाता था. ऐसे में निभा को हिम्मत ही नहीं हो रही थी कि वह घर वालों से कुछ कहे.

एक बार दीवाली की छुट्टियों में जब वह घर गई तो उसे शादी के लिए योग्य लड़कों की तसवीरें दिखाई गईं. निभा ने तब पिता से सवाल किया,”पापा क्या मैं अपनी पसंद के लड़के से शादी नहीं कर सकती?”

पापा ने गुस्से से उस की तरफ देखा. तब तक मां ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया और बोलीं,” देख बेटा, तू अपनी पसंद की शादी करने को तो कर सकती है, पर इतना ध्यान रखना कि लड़का अपने धर्म, अपनी जाति और अपनी हैसियत का होना चाहिए. थोड़ा भी इधरउधर हम स्वीकार नहीं करेंगे. इसलिए प्यार करना भी है तो आंखें खोल कर. वरना तू तो जानती ही है गोलियां चल जाएंगी.”

“जी मां,” कह कर निभा खामोश हो गई.

उसे पता था कि इकबाल के बारे में बता कर वह खुद ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी दे मारेगी. इसलिए उस ने रिश्ते का सच छिपाए रखना ही उचित समझा. वक्त इसी तरह बीतता रहा.

एक दिन सुबह निभा बड़ी परेशान सी बालकनी में खड़ी थी. इकबाल ने पीछे से उसे बांहों में भरते हुए पूछा,”हमारी बेगम के चेहरे पर उदासी के बादल क्यों छाए हुए हैं?”

निभा ने खुद को छुड़ाते हुए परेशान स्वर में कहा,”क्योंकि आप के शहजादे दुनिया में आने के लिए निकल चुके हैं.”

“क्या?”

“हां इकबाल. मैं मां बनने वाली हूं और यह जिम्मेदारी मैं अभी उठा नहीं सकती. एक तरफ घर वालों को कुछ पता नहीं और दूसरी तरफ मेरा कैरियर भी पीक पर है. मैं यह रिस्क अभी नहीं ले सकती.”

“तो ठीक है निभा गर्भपात करा लो. मुझे भी यही सही लग रहा है.”

“पर क्या यह इतना आसान होगा?”

“आसान तो नहीं होगा बट डोंट वरी, हम पतिपत्नी की तरह व्यवहार करेंगे और कहेंगे कि एक बच्चा पहले से है और इसलिए अभी दूसरा बच्चा इतनी जल्दी नहीं चाहते.”

“देखो क्या होता है. शाम को आ जाना मेरे औफिस में. वहीं से लैडी डाक्टर के पास चलेंगे. ”

और फिर निभा ने वह बच्चा गिरा दिया. इस के 5-6 महीने बाद एक बार फिर गर्भपात कराना पड़ा. निभा को काफी अपराधबोध हो रहा था. शरीर भी कमजोर हो गया था. पर वह करती क्या…. उसे कोई और रास्ता ही समझ नहीं आया था. पर अब इस बात को ले कर वह काफी सतर्क हो गई थी और जरूरी ऐहतियात भी लेने लगी थी.

एक दिन औफिस में ही उस के पास खबर आई कि उस के पिता का ऐक्सीडैंट हो गया है और वे काफी गंभीर अवस्था में हैं. निभा एकदम बदहवाश सी घर लौटी और जरूरी सामान बैग में डाल कर निकल पड़ी. अगली सुबह वह हौस्पिटल में थी. उस के पापा आखिरी सांसें ले रहे थे.

उसे देखते ही पापा ने कुछ बोलने की कोशिश की तो वह करीब खिसक आई और हाथ पकड़ कर कहने लगी,” बोलो पापा, आप क्या कहना चाहते हैं?”

“बेटा मैं चाहता हूं कि मेरा सारा काम तुम्हारा चचेरा भाई नहीं बल्कि तुम संभालो. वादा कर बेटा…”

निभा ने उन के हाथों पर अपना हाथ रख कर वादा किया. फिर कुछ ही देर बाद उन का देहांत हो गया. अंतिम संस्कार की पूरी प्रक्रिया कर वह 14 दिनों बाद दिल्ली लौटी. इकबाल भी औफिस से जल्दी आ गया था. निभा उस के गले लग कर बहुत रोई और फिर अपना सामान पैक करने लगी.

इकबाल चौंकता हुआ बोला,”यह क्या कर रही हो निभा?”

“मुझे हमेशा के लिए घर लौटना पड़ेगा इकबाल. पापा ने वादा लिया है मुझ से. उन का सारा कारोबार मुझे संभालना है.”

“वह तो ठीक है मगर एक बार मेरी तरफ भी तो देखो. मैं यहां अकेला तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा? मकान की किस्तें, अकेलापन और तुम्हारे बिना जीने का दर्द कैसे उठा पाऊंगा? नहीं निभा नहीं. मैं नहीं रह पाऊंगा ऐसे…”

“रहना तो पड़ेगा ही इकबाल. अब मैं क्या करूं?”

“मत जाओ निभा. यहीं से संभालो अपना काम. कोई मैनेजर नियुक्त कर लो जो तुम्हें जरूरी जानकारी देता रहेगा.”

“इकबाल लाखोंकरोड़ों का कारोबार ऐसे नहीं संभलता. पापा अपने कारोबार के प्रति बहुत जनूनी थे. उन्होंने कोई भी काम मातहतों पर नहीं छोड़ा. हर काम में खुद आगे रहते थे. तभी आज इस मुकाम तक पहुंचे. उन्हें मेरे चचेरे भाई पर भी यकीन नहीं. मेरे भरोसे छोड़ कर गए हैं सब कुछ और मैं उन को दिया गया अंतिम वचन कभी तोड़ नहीं सकती.”

“और मुझ से किए गए प्यार के वादे? उन का क्या? उन्हें ऐसे ही तोड़ दोगी? नहीं निभा, तुम्हारे बिना मैं यहां 2 दिन भी नहीं रह सकता.”

“तो फिर चले आओ न…” आंखों में चमक लिए निभा ने कहा.

“मतलब?”

“देखो इकबाल, तुम एक बार मेरे पास इलाहाबाद आ जाओ. हमें एकदूसरे की कंपनी मिल जाएगी और फिर देखेंगे…कोई न कोई रास्ता भी निकाल ही लेंगे.”

फिर क्या था 10 दिन के अंदर ही इकबाल इलाहाबाद पहुंच गया. दोनों ने एक होटल में मुलाकात कर आगे की योजना तैयार की.

अगली सुबह इकबाल मैनेजर बन कर निभा के घर में खड़ा था. निभा ने अपनी मां से इकबाल का परिचय कराया,” मां यह बाला हैं. हमारे नए मैनेजर.”

इकबाल ने बढ़ कर मां के पैर छू लिए तो मां एकदम से अलग होती हुई बोलीं,”अरे नहीं बेटा. तुम मैनेजर हो. मेरे पैर क्यों छू रहे हो?”

“क्योंकि बड़ों के आशीर्वाद से ही सफलता के रास्ते खुलते हैं मां.”

“बेटा अब तुम ने मुझे मां कहा है तो यही आशीष देती हूं कि तुम्हारी हर इच्छा पूरी हो.”

बाला यानी इकबाल ने हाथ जोड़ कर आशीर्वाद लिया और अपने काम में लग गया. निभा ने मां को बताया, “मां, दरअसल बाला कालेज में मेरा क्लासमैट था. इस ने एमबीए की पढ़ाई की हुई है. पढ़ाई के बाद कुछ समय से दिल्ली में काम कर रहा था. यहां मुझे अकेले इतना बड़ा कारोबार संभालना था तो मेरी हैल्प के लिए आया है. वैसे इस का घर तो जमशेदपुर में है. यहां बिलकुल अकेला है यह. मां, क्या हम इसे अपने बड़े से घर में रहने के लिए एक छोटा सा कमरा दे सकते हैं?”

“क्यों नहीं बेटा? इसे गैस्टरूम में ठहरा दो. कुछ दिनों में यह खुद अपने लिए कोई घर ढूंढ़ लेगा.”

“जी मां…” कह कर निभा अपने कैबिन में चली गई. योजना का पहला चरण सफलतापूर्वक संपन्न हुआ था. इकबाल घर में आ भी गया था और मां को कोई शक भी नहीं हुआ था. मैनेजर के रूप इकबाल बाला बन कर निभा के साथ काम करने लगा.

धीरेधीरे समय बीतने लगा. इकबाल और निभा ने मिल कर कारोबार अच्छी तरह संभाल लिया था. मां भी खुश रहने लगी थीं. इकबाल समय के साथ मां के संग काफी घुलमिल गया. वह मां की हरसंभव सहायता करता. हर मुश्किल का हल निकालता. बेटे की तरह अपनी जिम्मेदारियां निभाता. यही नहीं, कई बार उस ने अपने हाथों से बना कर मां को स्वादिष्ठ खाना भी खिलाया. उस के बातव्यवहार से मां बहुत खुश रहती थीं.

इस बीच दीवाली आई तो इकबाल ने उन के साथ मिल कर त्योहार मनाया. किसी को कभी एहसास ही नहीं हुआ कि वह हिंदू नहीं है.

एक बार कारोबार के किसी काम के सिलसिले में निभा को दिल्ली जाना था. इकबाल भी साथ जा रहा था. तभी मां ने कहा कि वे भी दिल्ली घूमना चाहती हैं. बस फिर क्या था, तीनों ने काम के साथसाथ घूमने का भी कार्यक्रम बना लिया.

तीनों अपनी गाड़ी से दिल्ली के लिए निकले. लेकिन नोएडा के पास हाईवे पर अचानक निभा की गाड़ी का ऐक्सीडैंट हो गया. उस वक्त निभा गाड़ी चला रही थी और मां बगल में बैठी थीं. ऐक्सीडैंट इतना भयंकर हुआ कि गाड़ी पूरी तरह डैमेज हो गई. निभा को गहरी चोटें लगीं पर उतनी नहीं जितनी मां को लगीं. मां के सिर में कांच घुस गए थे और खून बह रहा था. वह बीचबीच में होश में आ रही थीं और फिर बेहोश हो जा रही थीं.

करीब 2 किलोमीटर की दूरी पर एक बड़ा अस्पताल था. निभा ने मां को वहीं ऐडमिट करने का फैसला लिया.

रात का समय था. हाईवे का वह इलाका थोड़ा सुनसान था. हाथ देने पर भी कोई भी गाड़ी रुकने का नाम नहीं ले रही थी. कोई और उपाय न देख कर इकबाल ने मां को गोद में उठाया और तेजी से अस्पताल की तरफ भागा. पीछेपीछे निभा भी भाग रही थी.

निभा ने ऐंबुलैंस वाले को काल किया मगर ऐंबुलैंस को आने में वक्त लग रहा था. इतनी देर में इकबाल खुद ही मां को गोद में उठाए अस्पताल पहुंच गया.

मां को तुरंत आईसीयू में ऐडमिट किया गया. उन्हें खून की जरूरत थी. संयोग था कि इकबाल का ब्लड ग्रुप ओ पौजिटिव था. उस ने मां को अपना खून दे दिया. मां को बचा लिया गया था. इस दौरान इकबाल लगातार दौड़धूप करता रहा.

इस घटना ने मां के दिल में इकबाल की जगह बहुत ऊंची कर दी थी. वापस घर लौट कर एक दिन मां ने इकबाल को सामने बैठाया और प्यार से उस के बारे में सब कुछ पूछने लगीं. पास ही निभा भी बैठी हुई थी.

निभा ने मां का हाथ पकड़ कर कहा,”मां मैं आज आप से एक हकीकत बताना चाहती हूं.”

“वह क्या बेटा?”

“मां यह बाला नहीं इकबाल है. हम ने झूठ कहा था आप से.”

इतना कह कर वह खामोश हो गई और मां की तरफ देखने लगी. मां ने गौर से इकबाल की तरफ देखा और वहां से उठ कर अपने कमरे में चली गईं. दरवाजा बंद कर लिया. निभा और इकबाल का चेहरा फक्क पड़ गया. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि अब इस परिस्थिति से कैसे निबटें.

अगले दिन तक मां ने दरवाजा नहीं खोला तो निभा को बहुत चिंता हुई. वह दरवाजा पीटती हुई रोतीरोती बोली,”मां, माफ कर दो हमें. तुम नहीं चाहती हो तो मैं इकबाल को वापस भेज दूंगी. गलती मैं ने की है इकबाल ने नहीं. मैं ने ही उसे बाला बन कर आने को कहा था. प्लीज मां, माफ कर दो.”

मां ने दरवाजा खोल दिया और मुंह घुमा कर बोलीं,”गलती तुम्हारी नहीं. गलती बाला की भी नहीं. गलती तो मेरी है जो मैं उसे पहचान न सकी.”

निभा और इकबाल परेशान से एकदूसरे की तरफ देखने लगे. तभी पलटते हुए मां ने हंस कर कहा,”बेटा, मैं ही पहचान न सकी कि तुम दोनों के बीच कितना गहरा प्यार है. इकबाल कितना अच्छा इंसान है. धर्म या जाति से क्या होता है? यदि सोचो तो समझ आएगा. बेटा, पलभर में मेरा धर्म भी तो बदल गया न जब इकबाल ने मुझे अपना खून दिया. मेरे शरीर में उसी का खून तो बह रहा है. फिर क्या अंतर है हम में या उस में. इतने दिनों में जितना मैं ने समझा है इकबाल मुझे एक शरीफ, ईमानदार और साथ निभाने वाले लड़का लगा है. इस से बेहतर जीवनसाथी तुम्हें और कौन मिलेगा?”

“सच मां, आप मान गईं…” कह कर खुशी से निभा मां के गले लग गई. आज उसे जिंदगी की सब से बड़ी खुशी मिल गई थी. पास ही इकबाल भी मुसकराता हुआ अपने आंसू पोंछ रहा था

Latest Hindi Stories : वतन की मिट्टी से क्यों था इतना प्यार?

लेखिका- वीना टहिल्यानी

Latest Hindi Stories : संकरी सी बंद गली का वह आखिरी मकान था. खूब खुला. खूब बड़ा. लाल पत्थर का बना. खूब सुविधाजनक. मकान का नाम था ‘जफर मंजिल’. आजादी के कुछ वर्षों बाद यहीं हमारा जन्म हुआ. ‘जफर मंजिल’ हमारा घर था. मां को घर का मुसलमानी नाम बिलकुल नापसंद था पर घर के मुख्यद्वार के ऊपर एक बडे़ से पत्थर पर खूब सजावट सहित उर्दू हर्फों में खुदा था, ‘जफर मंजिल-1907.’

डाक के पत्र भी ‘जफर मंजिल’ लिखे पते पर ही मिलते थे. वही नाम घर की पहचान थी.

मां का बस चलता तो वे उस पत्थर को उखड़वा देतीं. डाकखाने में नए बदले नाम की अरजी डलवा देतीं. उन्होंने तो नाम भी सोच रखा था, ‘कराची कुंज’. लेकिन तब आर्थिक हालात इतने खराब थे कि एक पत्थर उखड़वा कर नया लगवाना महल खड़ा करने के समान था. फिर भी मां को यह उम्मीद थी कि भविष्य में वे यह काम अवश्य करेंगी. जबतब वे इस बात की चर्चा करती रहती थीं.

मां को भले ही घर का मुसलमानी नाम पसंद न हो पर आज सोचती हूं तो लगता है कि कैसेकैसे तो अचरज थे उस घर में. छोटी मुंडेर वाली लंबी छत पर दादी द्वारा बिखेरे चुग्गे पर कैसे झुंड के झुंड पंछी उमड़ते थे.

ऊंची दीवारों वाली बड़ी चौकोर छत गरमियों की रातों में सोने के काम आती. चांदनी रातों में पूरी की पूरी छत धवल दूध का दरिया बन जाती. मां, दादी की कहानियों पर हुंकारे भरते हम नींद के सागर में गुम हो जाते. अमावस्या की यहां से वहां तक तारे ही तारे.

कहां गुम हो गए वे सारे के सारे सुग्गे और सितारे?

अपने नाम के अनुरूप ‘जफर मंजिल’ के पूर्व मालिक मुसलमान ही थे. असल में यह पूरा पाड़ा ही मुसलमानों का था. गली के सब घरों में मुसलमान रहते थे जो विभाजन के वक्त पाकिस्तान पलायन कर गए. गली के एक घर में अब भी एक बुजुर्ग मुसलमान दंपती रहते थे. बाकी खाली पड़े घर, सरकार द्वारा पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को दिए गए.

पिताजी को भी यह मकान क्लेम में मिला था. वे भी शरणार्थी थे. बचपन में बारबार सुने ‘क्लेम’ शब्द का अर्थ मैं बहुत बाद में कुछ बड़ी होने पर ही जान पाई. बंटवारे की भागमभाग में पीछे छूट गई धनसंपत्ति के बदले में शरणार्थियों ने मुआवजे की मांग की थी. आवश्यक औपचारिकताएं पूरी होने पर किसी को ‘क्लेम’ में मकान मिला तो किसी को दुकान और किसी को कुछ भी नहीं.

अब किस के पीछे क्या छूटा, इस का हिसाब भी कैसे रखा जाता? यहां तो पूरी की पूरी सभ्यता और संस्कृति ही छूट गई थी. बंटवारे की आग में कितना कुछ भस्म हो चुका था. मुआवजे का उचित अनुमान असंभव था.

माटी की गंध और आकाश के रंग तो अनमोल थे पर कराची की कोठियों, नवाब शाह की हवेलियों, लहलहाती फसलों के बदले एक घर तो मिला. सिर को छत और पैरों को जमीन मिली तो नई जगह पर नए सिरे से रचनेबसने का संघर्ष आरंभ हो गया.

विभाजन की बात पर पहले तो किसी को विश्वास ही न हुआ था. उसे एक अजब अनोखी अफवाह ही माना गया. ‘बंटवारा…? क्यों भला…? और…और… हम क्यों छोड़ें अपनी धरती, अपनी जमीन…अपने घर…कोई ठिठोली है क्या…’ इतिहास की इस करवट पर सब हतप्रभ, हैरान थे. भूगोल की नई सीमाएं बहुतों को स्वीकार न थीं. बात जब तक पूरी समझ में आती, काफी देर हो चुकी थी.

धर्मांधता की वीभत्सता ने उन्हें कहीं का न छोड़ा. विभाजित सिंधपंजाब, बंगाल के निवासी भागे भी तो जान हथेली पर रख कर.

रक्तपात के रेलों को लांघते, आग के दरिया को फलांगते, कहां से कहां चले और कहां आ निकले.

‘आजादी अहिंसा से पाई’ का कथन उन्हें हास्यास्पद लगता. इतनी मारकाट, खून- खराबा. वह क्या हिंसा न थी? इस से तो अच्छा था कि मिल कर अंगरेजों से भिड़ जाते, देश को टुकड़ाटुकड़ा होने से बचाते और मर भी जाते तो शहीद कहलाते.

शरणार्थी शिविरों के हालात बुरे थे. प्रत्येक परिवार अपने किसी न किसी सगेसंबंधी के लिए कलप रहा था. कहीं कोई लापता था तो कहीं किसी को मर कर भी अग्नि न मिली थी. हर हृदय में हाहाकार था. कोई आखिर कितना रोता, कितना मातम करता. रुदन और मातम के बीच भी जीवनसंघर्ष जारी रहा.

ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बीच मां की सब से छोटी बहन बीमार पड़ गईं और उचित उपचार के अभाव में चल बसीं. अफरातफरी और भगदड़ में उन की मां और छोटे इकलौते भाई ऐसे लापता हुए कि बरसों बाद ही उन का सुराग मिला. तब तक जीवन कितना आगे निकल गया था. सबकुछ कितना बदल गया था.

पीछे छूट गई धनसंपत्ति, वैभवविलास के लिए मां कभी न तड़पीं. सब आजादी के हवन में होम हो गया. स्वतंत्रता पाना सरल तो नहीं. स्वराज के लिए कोई क्या कुछ नहीं करता. हम ने भी किया. छोटा सा बलिदान ही तो दिया पर धर्म के नाम पर मिले मानसिक दुखदर्दों ने उन्हें विक्षिप्त सा कर दिया. मुसलमानों के प्रति उन के मन में घनघोर कटुता घर कर गई. ‘कैसा छल? कितना बड़ा धोखा? कैसे कर सके वे इतना सबकुछ…?’

चार सगेसंबंधी जहां जुड़ कर बैठते, बस, वतन को याद करते. पीछे छूट गई हवा, पानी और मिट्टी की बात करते. फिर उन सुमधुर स्मृतियों के साथ अनायास ही आ जुड़ते बंटवारे के अत्याचारों के कटुकठोर अनुभव और बतकही की बैठक सदा ही आंसुओं से भीग जाती.

विभाजन के समय की इन वारदातों को सुन कर हमारे मन भी मैले हो गए. दिलों में दहशत सी बैठ गई. राह चलते दूर से बुरके वाली दिख जाए तो दिल बैठ जाता. गली में आतेजाते अगर कोई मुसलमान दिख जाए तो छक्के छूट जाते.

घर से निकलने से पहले झांक कर सुनसान गली को भलीभांति निरखपरख लेती. छड़ी टेकते मियांजी दिख जाएं तो झट से द्वार के ओट में हो जाती. उन के घर के सामने से निकलती तो चाल में अतिरिक्त तेजी आ जाती. हर बार लगता, इस मुसलमानी घर से दो हाथ निकल कर मेरी गरदन धरदबोचेंगे, मुझे खींच कर घर के अंदर कर लेंगे.

हमारे घर से सटी एक बड़ी पुरानी मसजिद भी थी, जिस का फाटक मुख्य सड़क पर था. गली की तरफ का छोटा सा द्वार सदा ही बंद रहता था. ‘जफर मंजिल’ और मसजिद की साझा दीवार बहुत ऊंची तथा खूब मोटी और मजबूत थी, जिस से इधरउधर की गतिविधियों का तनिक भी आभास न होता था.

हां, गरमियों के दिनों में जब बाहर आंगन में अथवा छत पर सोना होता, तो सवेरे की पहली अजान पर दादी की आंख खुल जाती, जागते ही वे आदत के अनुसार ‘जप-जी साहिब’ जपने लगतीं. उन के जाप से पिताजी जाग जाते और पौधों में पानी डालने के लिए निकल पड़ते.

दशक बीत गए. वह घर, वह गली, वह नगर तो कब का कहीं  छूट गया पर वे ध्वनियां मन में आज भी प्रतिध्वनित होती हैं. जब कभी सुबह जल्दी जाग जाऊं तो अंतस से उठती ‘ओमओंकार’ और ‘अल्लाह’ की आवाजों से चकित, रोमांचित हो पुराने माहौल में खो जाती हूं.

एक दिन सुबहसवेरे मुख्यद्वार पर लटकी लोहे की सांकल खूब जोर से खड़की. हम सब स्कूल जाने की तैयारी में थे. मां रसोईघर में व्यस्त थीं. आंगन में दादी मेरी चोटी बांध रही थीं. कोने में नल पर छोटा भाई नहा रहा था. द्वार पिताजी ने खोला. दूर से मियांजी दिखे. दादी चौंकीं. चोटी बनाते उन के हाथ रुक गए. मियांजी ने पिताजी से कुछ कहा और पिताजी ने गलियारे में रखी साइकिल उठाई और तुरंत गली में निकल गए.

पिताजी मां अथवा दादी को बिना कुछ बताए बाहर निकल जाएं, यह अनहोनी थी.

‘क्या हुआ…? क्या हुआ…’ कहते दादी दौड़ पड़ीं. पर वे जब तक दरवाजे तक पहुंचीं, पिताजी गली लांघ चुके थे.

मियांजी ने ही बताया कि उन की बेगम गुजर गई हैं. वे चूंकि घर में अकेले थे, इसलिए पिताजी, अगले महल्ले में उन के नातेरिश्तेदारों को खबर करने गए हैं. यह कह कर मियांजी तो लाठी टेकते चलते बने और दादी सकते में आ गईं. मां को भी जैसे काठ मार गया, बच्चे सहम गए. मैं अधबनी चोटी हाथ में पकड़े बैठी थी. कुछ वक्त तक सब खामोश, बेचैन…

देखते ही देखते सामने वाली गली से, रिश्ते की दादियां, चाचियां, ताइयां दौड़ी चली गईं, ‘मुसलमानी बस्ती में गया है… वह भी अकेला…मत मारी गई है रामचंद्र की…इतना  सब देखसुन कर भी क्या सीखा…? ये आजकल के लड़के भी न…’ इस चिंता उत्तेजना ने सब को बेहाल बना दिया. आधा घंटा आधे युग से भी लंबा निकला. ज्यों ही गली में पिताजी की साइकिल मुड़ी सब की जान में जान लौटी.

पिताजी अपने साथ साइकिल पर ही किसी को लिवा लाए थे…और यह क्या? उस के साथ ही पिताजी भी मियांजी के मकान में चले गए. घर में फिर से हल्लाहड़कंप मच गया. मियांजी से मातमपुर्सी कर पिताजी आए तो सीधा गुसलखाने में घुस गए और घर वालों की बमबारी से बचने के लिए खूब देर तक नहाते रहे.

अगले कई दिनों तक गली में काले बुरके वाली औरतें और गोल टोपी वाले मर्दों का आनाजाना लगा रहा फिर धीरेधीरे सबकुछ पहले जैसा सुनसान हो गया.

उस दिन आंगन में शाम की बैठक थी. बीते दिनों की बातों के बीच वर्तमान के संघर्ष को सुना जा रहा था. आने वाले समय के सपनों को बुना जा रहा था.

इसी बातचीत के बीच बाहर की कुंडी खड़की. पिताजी ने द्वार खोला. बाहर मियांजी खड़े थे. औपचारिकता कहती थी कि उन्हें बाहर की बैठक में बिठाया जाए पर पिताजी अपने उदार स्वभाव के अनुसार उन्हें अंदर आंगन में ही लिवा लाए.

आदाबनमस्कार के बाद उन्हें बैठने के लिए पीढ़ा दिया गया. एक अनजान के अकस्मात प्रवेश से सभा में सन्नाटा छा गया. सब शांत और असहज हो उठे.

मौन मियांजी ने ही तोड़ा, ‘असल में मैं आप सब का शुक्रिया अदा करने आया हूं…आड़े वक्त में आप की बड़ी मदद मिली…’ अब इस का कोई क्या जवाब देता. पल भर की खामोशी के बाद मियांजी ने ही जोड़ा, ‘शुक्रिया के साथ अलविदा कहना भी जरूरी है… मेरा दानापानी भी उठ गया है यहां से…’

शिष्टाचार का तकाजा था कि उत्सुकता जताई जाए सो दादाजी ने पूछ ही लिया, ‘क्यों…क्यों…मियांजी, कहां जा रहे हैं आप…?’

‘अब और कहां जाऊंगा बिरादर… पाकिस्तान जो बना है मेरी खातिर…’ अब सन्नाटा और भी गाढ़ा हो गया.

मौन को फिर मियांजी ने ही तोड़ा, ‘मेरे चारों बेटेबहू, दोनों बेटीदामाद, एकएक कर पाकिस्तान चले गए. हर बार उन की जिद रही कि हम भी साथ जाएं पर वतन छोड़ने के नाम से ही मेरी रूह फना होती है. दिल बैठ जाता है. चाहेअनचाहे, एकएक कर गली के सारे संगीसाथी भी चले गए. फिर भी नसरीन साथ थी तो हम एकदूसरे के सहारे जिद पर जमे रहे…पर अब क्या करूं…उस ने तो अपनी मिट्टी पा ली पर मेरी मिट्टी देखिए…? इस उम्र में वतन छोड़ने की जिल्लत भी झेलनी थी…अपने जफर भाई भी खूब रोए थे यह घर, यह गली छोड़ते वक्त…यहीं इसी जगह उन्हें भी आखिरी सलाम कहा था…’ कहतेकहते मियांजी का गला रुंध गया.

यहां तो पहले से ही सब लोग व्याकुल थे. साझे दुख ने सीधा दिलों पर वार किया. दिलासा देना तो दूर किसी से कुछ भी बोलते न बना. सब एकदूसरे से आंखें चुराने लगे.

सिमरनी फेरती दादी का हाथ अचानक ही तीव्र हो गया. दादाजी यों ही खांसे. आंचल के छोर से आंखें पोंछती मां रसोई में चली गईं.

कुछ ही देर में मां, मटके के पानी में नीबू और चीनी घोल लाईं. गला गीला करने के बाद ही फिर बोलनेबतियाने की स्थिति बनी.

कुछ देर बाद छड़ी के सहारे मियांजी उठ खड़े हुए. जाने को पलटे तो उन के ठीक पीछे मैं बैठी थी, ‘अरे, तुम्हें तो अकसर देखता हूं गली में आतेजाते… स्कूल जाती हो…’

‘जी…’ मैं खड़ी हो गई. नमस्कार में हाथ जोड़ दिए.

‘खुश रहो… खुश रहो…’ उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और आशीर्वाद दिया.

‘खूब पढ़ना…वतन का नाम करना…’ कह कर उन का हाथ थर्राया और आवाज भर्रा गई.

इस बात को बरस नहीं दशक बीत गए पर उस कमजोर जर्जर हाथ की वह थरथराहट आज भी ज्यों की त्यों मेरे दिल पर धरी है.

उस छोटी उमर में उस कंपन का अधिक अर्थअनुमान भी न लगा पाई पर बीतते बरसों के साथ थरथराहट तेज से तेज होती गई है.

वतन के मोह में वे व्याकुल थे और उन का वतन तो बस अब छूटा जा रहा था…कोई उपाय न था…उन की अपनी धरती, उन के सामने द्विखंडित लहूलुहान पड़ी थी…उन्हें तो अब जाना ही होगा…

वह धुंधली धूसर शाम हमारे जीवन में मील का पत्थर सिद्ध हुई.

मियांजी से उस मुलाकात के बाद मन के कितने ही भय, भ्रम मिट गए. सूनी गलियों और भीड़ भरी सड़कों का आतंक समाप्त हो गया. एक धर्म विशेष के प्रति दुराग्रह जाता रहा. मां ने भी फिर कभी ‘जफर मंजिल’ का नाम बदलने की बात न छेड़ी.

Hindi Kahaniyan : बुरके के पीछे का दर्द

लेखक- मनमोहन सरल

Hindi Kahaniyan : उस दिन अपने एक डाक्टर मित्र के यहां बैठा था. बीमारियों का मौसम चल रहा था, इसलिए मरीजों की भीड़ कुछ ज्यादा ही थी. उन में कई बुरकानशीन खातून भी थीं जो ज्यादा उम्र की थीं, वे आपस में बातें कर रही थीं. कुछ बीच की उम्र वाली भी रही होंगी, जो ज्यादातर चुप ही थीं लेकिन उन में से किसी के साथ एक कमसिन जैसी भी थी, जिस के कमसिन होने का अंदाजा उस के चुलबुलेपन से लगता था, क्योंकि वह कभी एक जगह नहीं बैठती थी. साफ था कि उस को बुरका मजबूरी में पहनाया गया था.

आखिर आजिज आ कर उस ने अपना नकाब उलट ही दिया. उफ, वह तो बला की खूबसूरत निकली. काले बुरके से निकले उस के गोरेगुदाज हाथ तो पहले ही दिखाई दे चुके थे और अब उस का नजाकत से तराशा हुआ चेहरा भी सामने था. एकबारगी मेरे मन में यह खयाल कौंधा कि खूबसूरत नाजनीनों को बुरके में अपना हुस्न छिपाने का हक किस ने दिया? क्या यह हम मर्दों पर जुल्म नहीं है?

उस पर से निगाह हटती ही न थी, पर लगातार उधर देखते रहना, बेअदबी होती. इसलिए मैं रिसाले के पन्ने पलटने लगा, जो शायद कई साल पुराना था.

गए वक्त की एक अदाकारा की एक थोड़ी शोख अदा वाली तसवीर पर नजर गड़ाए था कि अचानक मेरे बगल वाली सीट पर एक बुरकानशीन आ कर बैठ गई. मैं ने उधर गरदन घुमाई तो उस ने अपना नकाब उठा दिया.

‘‘अरे, तुम?’’ मुंह से बेसाख्ता निकला.

यह नसीम थी, जो 4 साल पहले मेरी स्टूडैंट रह चुकी थी. वह इंस्टिट्यूट में भी दाखिल बुरके में ही होती थी, पर बिल्डिंग का गेट पार करतेकरते बुरका उतर जाता था और क्लास में पहुंचने तक वह तह कर के बैग के हवाले भी हो चुका होता था.

‘‘जी सर, आप कैसे हैं? डाक्टर के पास क्यों?’’

मुझे ध्यान आया कि यह वही थी जो इस दौरान मुझे अपने नकाब की ओट से लगातार घूरे जा रही थी. पर उस के लगातार मु झे देखे जाने पर मैं ने तवज्जुह नहीं दी थी. पर अब तो नसीम बगल में ही थी. मैं ने कहा, ‘‘मैं ठीक हूं. डाक्टर मेरे मित्र हैं. मिलने आया था. पर तुम तो लखनऊ चली गई थीं? मु झे याद है कि तुम ने बताया था कि यह कोर्स करने के बाद तुम्हारी वहां के एक अखबार में नौकरी पक्की है.’’

‘‘जी, बल्कि उन लोगों ने ही मु झे यह कोर्स करने के लिए मुंबई भेजा था.’’ ‘‘फिर क्या हुआ?’’ मैं जानना चाहता था.

‘‘कुछ नहीं. 2 साल मैं ने वहां ही काम किया.’’

तभी डाक्टर की रिसैप्शनिस्ट ने उस का नाम पुकारा. वह चैंबर में जाने के लिए उठ खड़ी हुई. वह जातेजाते बोली, ‘‘सर, आप जाइएगा नहीं. मु झे आप से जरूरी बात करनी है.’’

मैं ने ‘अच्छा’ कहा और मैं 4 साल पहले की नसीम को याद करने लगा. बड़ी जहीन लड़की थी वह, पूरी क्लास में. उस का स्टडीपेपर भी बहुत अच्छा बना था, खूब मेहनत से सारे डाटा इकट्ठे किए थे, उस के लिए. थोड़ी चुलबुली भी थी और दूसरे स्टूडैंट से खासी फ्री भी थी. पर इस बीच क्या घटा होगा, मैं कयास नहीं लगा पा रहा था. उस की इस बात से कि उसे मु झ से कोई जरूरी बात करनी है, मैं अजीब पसोपेश में था. दरअसल, मरीजों से फ्री होने के बाद मेरा डाक्टर मित्र अपने साथ मु झे कहीं ले जाना चाहता था, इसलिए इंतजार तो मु झे करना ही था. पर अब नसीम की जरूरी बात के बाद क्या करना होगा, तय नहीं कर पा रहा था.

नसीम को डाक्टर के पास कुछ समय लगा. वह लौटी तो मैं ने कहा, ‘‘तुम अपनी दवा बनवाओ, मैं डाक्टर से मिल कर आता हूं.’’

रिसेप्शनिस्ट से कहा कि मु झे 2 मिनट को अंदर जाने दे और मैं ने कल आने को कह कर डाक्टर से छुट्टी ले ली और तुरंत बाहर आ गया. तब तक नसीम अपनी दवा बनवा चुकी थी.

उस ने अपना नकाब फिर से ओढ़ लिया और हम साथ ही वहां से निकल पड़े.

उस को देख कर मन में सवालों का सैलाब घुमड़ रहा था. पर तमाम रास्ते हम में कोई बात न हुई. वह मुंबई वापस क्यों आ गई? लखनऊ में उस के साथ कोई हादसा तो नहीं हुआ? वह मु झ से कौन सी जरूरी बात करना चाहती है? आदि तमाम जिज्ञासाएं थीं.

संकरी गलियों से गुजरते हुए आखिर हम एक मकान के सामने जा कर रुके, जिस के दरवाजे पर ताला लगा हुआ था. नसीम ने बड़ी खुफिया निगाह से इधरउधर देखा फिर चाबी मु झे थमाती हुई बोली, ‘‘आप दरवाजा खोल कर अंदर चले जाइए. मैं बाद में आती हूं. पर दरवाजा अंदर से बंद न करिएगा,’’ और मैं ने देखा कि वह जल्दी से बगल वाली दूसरी गली के मोड़ पर छिप गई.

मैं ताला खोल कर अंदर तो आ गया पर उस के इस तरह से अपनी मौजूदगी को पोशीदा रखने और सहमे हुए बरताव से मैं हैरत में था और चौकन्ना भी.

चंद मिनटों में ही वह अंदर आ गई. मैं तब तक खड़ा ही था और उस छोटे से घर को देख रहा था. पुराने ढंग का मकान था जो करीबकरीब खंडहर सा हो चला था. सिर्फ एक छोटा सा कमरा, उस से जुड़ा टौयलेट और दूसरी तरफ रसोई जो इतनी छोटी थी कि पैंट्री ही ज्यादा लगती थी. कमरे में 1 बैड, 2 कुरसियां, 1 मेज,

1 छोटी सी अलमारी और दीवार पर टंगा आईना. बस, कुल जमा यही था उस घर का जुगराफिया.

वह कुछ बात शुरू करे या मेरी उत्सुकताओं का जवाब दे, मैं ने उस से पूछा, ‘‘यह घर तो डाक्टर के क्लीनिक के एकदम पीछे ही था, फिर गलियोंगलियों इतना घुमाफिरा कर तुम क्यों लाईं?’’

वह जवाब न दे कर सिर्फ मुसकराई, फिर बोली, ‘‘सर, आप खुद सब सम झ जाएंगे. फिलहाल मैं चाय बना कर लाती हूं. आप वहां बैठेबैठे बोर हो चुके होंगे और आगे भी जब मैं अपनी कहानी सुनाऊंगी तो और भी बोर होंगे.’’

बोर होने से कहीं ज्यादा मैं उत्सुकता के तूफान में घिरा हुआ था. पता नहीं वह कौन सी मजबूरी है जो वह इतने खुफिया तरीके से रह रही है.

चाय  बना कर लाने में उसे ज्यादा देर नहीं लगी. चाय की चुस्कियों के साथ हम आमनेसामने बैठ गए. मैं ने एक सवालिया निशान वाली नजर उस पर उछाली, जिसे उस ने भांप लिया.

नसीम ने अपनी दास्तान सुनानी शुरू की, ‘‘2 साल मेरे ठीकठाक बीते. अकरम भी उसी अखबार में था, डेस्क पर नहीं, रिपोर्टर था. मु झे सिटी न्यूज संभालना था. हम जल्दी ही एकदूसरे के करीब आ गए. वह सजीला बांका जवान था. कोई भी उस से प्यार कर बैठता. एक दिन वह मेरे पास औफर ले कर आया कि मुंबई के सब से बड़े अखबार ने उसे बुलाया है और उस का एडिटर उस की पहचान का है. अगर हम दोनों ही मुंबई चलें तो हमारी जिंदगी ही बदल जाएगी. अपना कैरियर तो मैं भी बनाना चाहती थी, इसलिए उस की बात मु झे जंच रही थी, पर मेरा कहना था कि पहले हम निकाह कर लें, फिर मुंबई जाएं.’’

‘‘हां, तुम्हारा सोचना वाजिब था. पर वह उस पर क्या बोला?’’ मु झे भी अब उस की कहानी में रस आने लगा था.

‘‘पर वह हर बार यही कहता कि पहले हम नया जौब जौइन कर लें और मुंबई में सैटल हो लें, फिर वहीं निकाह कर लेंगे. मैं पूरी तरह उस के प्यार की गिरफ्त में आ चुकी थी, उस की बात मान कर हम लोग मुंबई चले आए. उसे तो औफर था ही, मु झे भी उसी अखबार में नौकरी मिल गई. जिंदगी ने रफ्तार पकड़ ली. वरली में हम ने एक फ्लैट भी ले लिया.’’

‘‘कैसे? इतनी जल्दी इतना पैसा कैसे आया?’’

‘‘यह सवाल मेरे मन में भी उठा था. उस ने कहा कि फ्लैट किराए पर लिया है. जब पैसा हो जाएगा, खरीद लेंगे. मैं उसे शिद्दत से प्यार करती थी, इसलिए सवालजवाब की गुंजाइश ही न थी. जो वह कहता, मैं उस पर यकीन कर लेती थी. वहां वह क्राइम बीट पर था. देर रात तक उस की ड्यूटी रहती. देर से लौटता और सुबह देर तक सोता रहता. तब तक मैं तो औफिस जा चुकी होती, पता नहीं, वह न जाने कितने बजे उठता. इस तरह जिंदगी चल रही थी. मैं बारबार निकाह जल्दी करने पर जोर देती पर वह हर बार टाल देता. हम लोग करीब होते जा रहे थे. एक रात नाजुक लमहों में मैं पूरी तरह समर्पित हो गई. तमाम प्रीकौशंस धरी की धरी रह गईं.’’

‘‘तुम ने किसी पल उसे रोका नहीं.’’

‘‘नहीं. मैं उस के प्यार में इस कदर डूब गई थी कि मैं खुद अपने ऊपर काबू नहीं रख सकी. पर अगली सुबह मैं ने जिद पकड़ ली कि कल ही हम निकाह कर लेंगे. उस ने कहा कि मैं आज ही मौलवी से बात करता हूं, हम अगली जुमेरात को निकाह कर लेंगे पर वह अगली जुमेरात कभी नहीं आई.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’ मैं ने पूछा.

‘‘वह कोई न कोई बहाना बना कर टाल जाता कि मौलवी नहीं मिला, एक बड़ी स्टोरी कर रहा हूं, सो वक्त नहीं मिल पा रहा है. वक्त मिलते ही जरूर सब इंतजाम कर डालूंगा…वगैरहवगैरह.

‘‘एक रोज मेरा औफ था. अकरम उस रात बहुत देर से लौटा था और ड्राइंगरूम में ही सोफे पर सो गया था, इसलिए उसे पता न था कि आज मैं घर पर हूं. करीब 11 बजे कौलबैल बजी. उस वक्त मैं किचन में थी और आटा गूंध रही थी. दरवाजा उसी ने खोला. जो आया था, उसे उस ने ड्राइंगरूम में बैठा लिया और देर तक वे आपस में बातें करते रहे. जब मैं खाली हुई तो देखने आई कि कौन आया है. यह भी कि उस के लिए चायनाश्ते का इंतजाम करूं. मैं ने परदे की आड़ से ही देखा, आने वाला कोई शेख था और उस के सामने मेज पर नोटों की गड्डियां रखी थीं. मैं एकाएक सकते में आ गई, पर जब वह चला गया तो मैं सामने आई.

‘‘अकरम मु झे घर में पा कर कुछ चौंका, फिर पूछा कि मैं आज इस वक्त घर पर कैसे हूं. मैं ने बताया कि आज मेरा वीकली औफ है और मैं ने दरियाफ्त करनी चाही कि कौन आया था. उस ने बताया कि शेख शारजाह का एक बड़ा बिजनैसमैन है. मैं उस के कारोबार पर फीचर कर रहा हूं, उसी के सिलसिले में आया था. वहां एक अखबार निकालना चाहता है, जिस का एडिटर मु झे

बनाएगा और तुम भी वहीं असिस्टेंट एडिटर बनोगी.

‘‘ ‘अच्छा,’ कह कर मेरी आंखें खुशी से चमक उठीं. पर मैं ने पूछा कि इतने सारे रुपए किसलिए? क्या वह फीचर करने का नजराना दे रहा है?

‘‘‘नहीं, शारजाह जाने के टिकट, वीजा वगैरह के खर्च के मद में हैं ये रुपए.’

‘‘अब किसी तरह के शक की गुंजाइश न थी.

‘‘मैं खुद भी बहुत खुश थी कि नई जगह जाने से और ज्यादा आजादी से काम करने का मौका मिलेगा. आननफानन अकरम ने सब तैयारी कर ली और एक दिन कोरियर वाला दरवाजे पर खड़ा था, टिकट और पासपोर्ट लिए. मैं खुशीखुशी दरवाजे पर पहुंची. पर यह क्या? डिलीवरी बौय ने सिर्फ मेरा टिकट और पासपोर्ट दिया. मैं सकते में आ गई, क्या सिर्फ अकेले मु झे जाना है? पूरा दिन मैं अकरम का मोबाइल मिलाती रही, पर वह हमेशा बंद मिला और रात को वह इतनी देर से आया कि मु झे अपने सवालों और जिज्ञासाओं के साथ ही सोना पड़ा. सुबह मु झे ड्यूटी पर जाना था और वह जैसे घोड़े बेच कर सो रहा था. आखिर, मु झ से रहा न गया तो उसे  झं झोड़ कर जगाना पड़ा. वह आंखें मलता हुआ उठा. जब मैं ने बताया कि सिर्फ मेरा टिकट आया है, तुम्हारा क्यों नहीं. क्या मैं अकेली जाऊंगी?

‘‘उस ने उनींदे स्वर में ही कहा कि अभी तुम जा कर सब ठीकठाक करोगी, मैं बाद में आऊंगा.’’

‘‘अरे, तुम ने कहा नहीं कि ठीकठाक करने तो पहले उसे जाना चाहिए, तुम्हें तो बाद में जाना चाहिए,’’ मैं बोला.

‘‘जी हां सर, मैं ने उस से यही सवाल किया था, जिस का जवाब दिया कि उसे अभी यहां कई काम निबटाने हैं और दफ्तर वाले उसे एकदम छोड़ने को तैयार नहीं हैं. उस ने आगे कहा कि मैं बेफिक्र हो कर जाऊं. वे लोग अच्छी तरह मेरा खयाल रखेंगे. और मैं निरुत्तर हो गई.’’

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. मैं चौंका लेकिन उस ने बेफिक्री से कहा, ‘‘बाई होगी, सर. वह इसी तरह दस्तक देती है.’’

हां, बाई ही थी. पहले दरवाजे की दरार से उस ने देखा, फिर बड़ी एहतियात से इधरउधर देखते हुए दरवाजा खोला.

एक कमसिन लड़की थी, जो तुरंत अंदर दाखिल हुई और चोर निगाह से मु झे देखते हुए अपने काम में लग गई.

नसीम ने उसे बताया कि मैं उस का टीचर रहा हूं और मु झ से कहा कि उस लड़की का नाम रेशमा है. वह दो वक्त आती है और भरोसे की है. वह घर का ही नहीं, उस का भी बहुत खयाल रखती है.

‘‘सर, आप मेरी दास्तान सुनतेसुनते ऊब गए होंगे,’’ फिर रेशमा से मुखातिब हो कर बोली, ‘‘रेशमा, पहले चाय बना लो. तुम भी पी लेना.’’

लड़की स्मार्ट थी. आननफानन चाय बना लाई और एक तिपाई खिसका कर बड़ी नफासत से हम दोनों के बीच रख दी.

‘‘क्या फिर तुम शारजाह गईं?’’ चाय का?घूंट भरते हुए मैं ने नसीम से पूछा.

‘‘कहां, सर?’’ उस ने बातों का सिलसिला पकड़ते हुए शुरू किया, ‘‘अगले दिन मु झे पता लगा कि मैं प्रैग्नैंट हूं. डाक्टर से तसदीक करा लेने के बाद जब मैं ने उसे यह खबर दी तो सुनते ही उस ने माथा पीट लिया और  झुं झला कर बोला, ‘अरे, तुम ने तो सारा प्लान ही चौपट कर दिया.’

‘‘मैं सकते में आ गई, बोली, ‘कौन सा प्लान? तुम को तो खुश होना चाहिए कि तुम बाप बनने वाले हो.’ वह बोला, ‘पर हम अभी बच्चा अफोर्ड नहीं कर सकते. फिर तुम्हें तो अगले जुमे को शारजाह जाना है. वहां काफी काम होगा. ऐसी हालत में तुम सब कैसे कर सकोगी?’

‘‘ ‘क्यों नहीं कर पाऊंगी? फिर अभी तो शुरुआत है और हफ्ते दो हफ्ते में तो तुम भी आ ही जाओगे,’ नसीम ने कहा.

‘‘ ‘हां, पर तुम्हें कैसे बताऊं कि तुम्हारे लिए वहां कितना काम है,’ वह बोला.

‘‘मैं उस का मतलब नहीं सम झ पाई. उस ने जोर दे कर कहा कि ऐसे में अब यही रास्ता बचा है कि मैं अबौर्शन करा लूं. उस की इस बात से तो मैं थोड़ा घबरा गई. मेरे मना करने पर तो वह मु झे मारने को भी तैयार हो गया. मु झे उसी समय लगने लगा कि मैं ने उसे ले कर जो सपने बुने थे, वे सब जमींदोज होने को हैं.

‘‘मेरी एक न चली और मु झे अबौर्शन कराना ही पड़ा. उसी में कुछ कौंप्लिकेशंस हो गए, जिन की वजह से मु झे इलाज कराना पड़ रहा है. उसी सिलसिले में मु झे डाक्टर के पास जाना पड़ रहा है, जहां आप से मुलाकात हुई.’’

‘‘अब कैसी हो?’’ मैं ने दरियाफ्त करना जरूरी सम झा.

‘‘अब काफी कुछ ठीक हूं.’’

काम करने वाली लड़की आई और चाय के कप उठाती हुई नसीम से पूछा, ‘‘अब, मैं जाऊं?’’

नसीम ने इशारे से इजाजत दे दी. इस बार मैं ने रेशमा को नजदीक से देखा. सचमुच वह आम मेड जैसी नहीं लगती थी. काफी सलीकेदार थी और भरसक सूफियाना सजधज के साथ काम पर आई थी. उस ने एक भरपूर नजर मु झ पर डाली और बड़ी एहतियात से इधरउधर देखते हुए दरवाजा खोला और तेजी से निकल गई.

रेशमा के जाने के बाद नसीम ने अपनी बात फिर शुरू की. उस ने बताया कि अबौर्शन के बाद उसे बैडरैस्ट की सलाह दी गई है, इसलिए उसे मजबूरन काम से छुट्टी लेनी पड़ी.

उस ने आगे बताया, ‘‘एक दिन दोपहर को मु झे कुछ सुनाई पड़ा कि कोई आया हुआ है और अकरम उस से बात कर रहा है. थोड़ी देर बाद आने वाले की आवाज तेज हो गई कि जैसे वह अकरम को डांट रहा हो. उन की बातों के चंद लफ्ज मेरे कानों में पड़े, जिन से मु झे पता लगा कि उन की बातों के केंद्र में मैं हूं.

‘‘कोशिश कर के मैं दरवाजे तक खिसक आई और उन की बातें सुनने लगी. मैं जैसे आसमान से गिरी. जो सुना, उस पर एकाएक यकीन न हुआ. मैं ने अकरम को पूरी ईमानदारी से प्यार किया था और उस पर मैं अपने से भी ज्यादा भरोसा करने लगी थी. सोच भी नहीं सकती थी कि वह मेरे साथ ऐसा छल कर सकता है. वह मु झे उस शेख को बेच चुका था. नोटों का भारी बंडल और शारजाह मु झे अकेले भेजने की तैयारी…सब मेरी आंखों में घूम गया. मेरी आंखों के आगे अंधेरा घिर आया और मैं अपना सिर पकड़ कर बैठ गई. हाय, अब मैं क्या करूं, कैसे इन के चंगुल से बचूं, मैं कुछ सोच न पा रही थी. कमजोरी भी इतनी थी कि एकदम भाग भी नहीं सकती थी. और भाग कर जाऊंगी कहां? लखनऊ लौट नहीं सकती थी. वह वहां से मु झे फिर पकड़ लाएगा.’’

‘‘फिर कहां जाओगी? मुंबई में रहीं तो कब तक बच पाओगी,’’ मैं ने भी अपनी फिक्र जाहिर की.

‘‘जी सर, मुंबई में अब नहीं रह पाऊंगी. मर्ुिशदाबाद में मेरी एक फूफी हैं, दूर के रिश्ते की. उन का उसे पता नहीं है. वहां वे मु झे काम भी दिलवा रही हैं.’’

‘‘हां. यह ठीक रहेगा, पर तुम वहां से निकली कैसे?’’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘कुछ दिन मैं ने ऐसा बरताव किया कि जैसे मु झे कुछ इल्म ही न हो. अनजान ही बनी रही. इन डाक्टर साहब का पता मु झे मालूम था. ये दूर के रिश्ते में मेरे मामू लगते हैं. इन का इलाज तो चल ही रहा था. मैं टैक्सी ले कर अकेले ही आती थी. एक दिन आई तो लौटी ही नहीं. यह जगह मैं ने चुपचाप तय कर ली थी. तब से यहीं छिप कर रहती हूं. मु झे पता है कि वह मु झे तलाश रहा है.

‘‘एक दिन डाक्टर साहब के क्लीनिक के पास भी दिखाई दिया था. मैं बहुत डर गई थी, पर न जाने कैसे बच गई. एक दिन मैं ने दरवाजे की दरार से उसे यहां भी देखा था. आसपास में पूछताछ कर रहा था. मैं किसी से मिलती नहीं हूं, इसलिए मु झे कोई जानता नहीं है. तब से ऐसे ही डरीछिपी रहती हूं और पूरी एहतियात बरतती हूं. अब थोड़ी ताकत आ गई है, अब आगे की सोच सकती हूं. पर पहले मैं उसे सबक सिखाना चाहती हूं. उसे रंगेहाथ पकड़वाना चाहती हूं. मैं ने जितनी शिद्दत से उसे प्यार किया था, अब उतनी ही ज्यादा उस से नफरत करती हूं. मु झे पता लगा है कि वह क्राइम बीट पर काम करतेकरते लड़कियां सप्लाई करने का धंधा करने लगा है. उस ने बहुत अच्छे कौंटैक्ट बना लिए हैं. खूब कमाया है. मु झे शक तो शुरू से ही था, अब कनफर्म हो गया कि वरली वाला फ्लैट उसे किसी ने गिफ्ट किया है.’’

‘‘हो सकता है, वैसे वरली में तो किराए पर रहना भी हर कोई अफोर्ड नहीं कर सकता,’’ मैं ने कहा.

‘‘ठीक कहा आप ने, सर इसीलिए तो मु झे पहले दिन ही शक हुआ था, लेकिन मैं उस से इस कदर प्यार करती थी कि यकीन न करने का सवाल ही नहीं उठता था. सर, मैं ने एक प्लान बनाया है. बस, उस में मु झे आप की मदद की जरूरत पड़ेगी. आप से इमदाद की गुजारिश तो कर ही सकती हूं न?’’

‘‘क्यों नहीं?’’ मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारे बिना बताए ही मैं सम झ गया कि तुम्हारा प्लान क्या है.’’

वह मुसकराई और बोली, ‘‘आप ने मेरी मेड रेशमा को तो अभी देखा न? वह पूरे तौर पर मेरे साथ है.’’

‘‘मैं ने कयास लगा लिया है कि तुम क्या करने वाली हो. पर तुम कोई बड़ा जोखिम उठाना चाहती हो. यह सब उतना आसान नहीं है जितना तुम सम झ रही हो. मैं तुम्हें डिसकरेज नहीं करना चाहता पर तुम्हें आगाह जरूर करना चाहता हूं कि इस में न सिर्फ तुम्हारे बल्कि रेशमा के लिए भी बड़ा खतरा है. अकरम कोई अकेला नहीं है, ऐसे अकरम एक नहीं कई हैं. पूरा का पूरा माफिया है. तुम किसकिस से लड़ोगी?’’

‘‘तो मैं क्या करूं, सर? क्या चुप बैठ कर उसे मनचाहा करने दूं? नहीं सर, उसे सबक सिखाना तो जरूरी है.’’

‘‘मैं तो फिर भी यही सोचता हूं कि तुम्हें जल्द से जल्द मुर्शिदाबाद चले जाना चाहिए. तुम्हारे प्लान में बड़ा खतरा है. मान लो, तुम इस में कामयाब भी हो गईं तो तुम्हें हासिल क्या होगा? और अगर नाकामयाब रहीं तो तुम्हारा जीना तक मुश्किल हो सकता है.’’

‘‘मैं सम झ रही हूं, सर, और यह भी कि आप को अपनी इज्जत का खयाल है. नहीं, मैं आप पर आंच नहीं आने दे सकती. आप बेफिक्र रहें. लेकिन क्या डर कर बैठना ठीक होगा? किसी न किसी को तो पहल करनी होगी. पत्रकारिता के सिद्धांत पढ़ाते वक्त आप ने भी तो यही सिखाया है, सर.’’

मु झे एकबारगी कोई जवाब नहीं सू झा, फिर भी बोला, ‘‘तुम अकेली जान क्या कर लोगी? फिर हमें प्रैक्टिकल होना चाहिए. सब अच्छी तरह सोच लो, तभी कोई कदम उठाना.’’

‘‘जी, मैं इस पर कुछ और सोचती हूं.’’

मैं ने उठते हुए कहा, ‘‘मेरा मोबाइल नंबर लिख लो. जब भी मेरी जरूरत पड़े, मैं आ जाऊंगा और जो हो सकेगा, करूंगा,’’ दरवाजे तक पहुंचतेपहुंचते फिर कहा, ‘‘बहुत एहतियात रखना.’’

‘‘जी, सर,’’ वह दरवाजे तक आई.

कई दिन तक उस का कोई फोन नहीं आया. मैं ने सम झ लिया कि शायद उस ने अपना खयाल बदल लिया होगा और मुर्शिदाबाद चली गई होगी. एक दिन उस घर तक भी गया, जहां वह मु झे ले गई थी, पर दरवाजे पर ताला लगा था. दरार से  झांका तो अंदर कुछ नजर नहीं आया.

Famous Hindi Stories : एक कौल का रहस्य

Famous Hindi Stories : “वान्या, अब तुम ही संभालना घर और मेरे इस अनाड़ी से भाई को. अगर फ्लाइट्स बंद नहीं हो रही होतीं तो मैं कुछ दिन तुम लोगों के साथ बिताकर जाती. चलो ठीक भी है हमारा जल्दी जाना. बच्चे दादा-दादी को खूब तंग कर रहे होंगे कोलकाता में. बहुत चाह रहे थे बच्चे अपनी दुल्हन मामी से मिलना. जल्दबाज़ी में सब कुछ नहीं करना पड़ता तो सबको लेकर आती.” सुरभि अपनी नई-नवेली भाभी वान्या को टैक्सी में पीछे की सीट पर बैठे हुए बता रही थी. वान्या मुस्कुराते हुए सिर हिलाकर कभी सुरभि को देखती तो कभी पास ही बैठे अपने पति आर्यन को.

सुरभि का बोलना जारी था, “शादी चाहे जल्दबाज़ी में हुई, लेकिन सही फ़ैसला है. अब मुझे आर्यन की फ़िक्र तो नहीं रहेगी. कोविड-19 ने तो ऐसा आतंक मचाया है कि डर लगने लगा है. तुम लोग भी ध्यान रखना अपना. हो सके तो अभी घर पर ही रहना, घूमने के लिए तो उम्र पड़ी है…..!”

“बस, बस….रहने दो. टीचर है भाभी तुम्हारी और हमारे साले साहब आर्यन भी बेवकूफ़ थोड़े ही हैं कि जब इंडिया में भी कोरोना अपने पैर फैला रहा है तब बिना सोचे-समझे चल देगें कहीं घूमने. क्यों साले साहब?” ड्राईवर के साथ आगे की सीट पर बैठे सुरभि के पति विशाल ने सिर पीछे घुमाकर आर्यन पर मुस्कुराती दृष्टि डालते हुए कहा.

वान्या और आर्यन का विवाह दो दिन पहले ही हुआ था. जुलाई में डेट थी शादी की, लेकिन कोरोना के कारण आर्यन ने ही फ़ैसला किया था कि सादे समारोह में केवल पारिवारिक सदस्यों के बीच विवाह जल्दी से जल्दी हो जाये. वान्या का घर दिल्ली में था, इसलिए विवाह का आयोजन वहीं हुआ था. आर्यन हिमाचल-प्रदेश के बड़ोग शहर का रहने वाला था. परिवार के नाम पर आर्यन की एक बड़ी बहन सुरभि थी, जो कोलकाता में अपने परिवार के साथ रहती थी. पति के साथ विवाह में सम्मिलित होने सुरभि वहां से सीधा दिल्ली पहुंच गयी थी. आज वे दोनों वापिस जा रहे थे, वान्या को लेकर आर्यन भी अपने घर आ रहा था. दीदी, जीजू  को एअरपोर्ट छोड़ने के बाद उनको रेलवे स्टेशन जाना था. दिल्ली से कालका तक वे ट्रेन से जाने वाले थे, जो रात 11 बजे चलकर सुबह 4 बजे कालका पहुंचती है. वहां से टैक्सी द्वारा उन्हें आगे का सफ़र तय करना था.

“लो बातों बातों में पता ही नहीं लगा और एअरपोर्ट आ भी गया.” सुरभि के कहते ही टैक्सी रुक गयी. आर्यन सामान उतारने लगा और विशाल दौड़कर ट्रौली ले आया. सुरभि और विशाल हाथ हिलाकर एअरपोर्ट के गेट की ओर चल दिए.

आर्यन और वान्या को लेकर टैक्सी रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हो गयी.

ट्रेन अपने निर्धारित समय पर चली. रात सोते हुए कब बीत गयी पता ही नहीं लगा. सुबह वे ट्रेन से उतरकर बाहर आये तो वान्या को ठंडी हवा के झोंके स्वागत करते से प्रतीत हुए. “मार्च में भी इतना ठंडा मौसम?” वान्या पूछ बैठी.
“यह कोई ठंड है? अभी तो पहाड़ पर चढ़ना है मैडम. ठंड से आपकी मुलाक़ात तो होनी बाकी है अभी.” आर्यन ने कहा तो वान्या ख्यालों में ही ठिठुरने लगी. उसका चेहरा देख आर्यन ठहाका लगाकर हंसते हुए बोला, “अरे, डर गयीं? बड़ोग में इस समय सिर्फ़ रातें ठंडी होंगी, दिन में तो मौसम सुहाना ही होगा. तुम कभी हिली एरियाज़ में नहीं गयीं इसलिए पता नहीं होगा.”

टैक्सी आई तो दोनों की बातचीत का सिलसिला टूट गया. चलती टैक्सी में वान्या उनींदी आंखों से बाहर झांक रही थी. भोर के नीरव अंधेरे में जलते बल्बों की मद्धम रोशनी से पेड़ भी ऊंघते हुए लग रहे थे. कुछ देर बाद सूर्य उदय हुआ तो खिलती धूप से उर्जा पाकर वातावरण में नवजीवन संचरित हो उठा.
परवाणु आने तक वान्या प्रकृति की सुन्दरता को मन में क़ैद करती रही, आगे का रास्ता तन में झुरझुरी बढ़ाने लगा था. एक ओर खाई तो दूसरी ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर घने दरख्त !

धरमपुर आकर ड्राईवर ने चाय पीने के लिए टैक्सी रोकी. हवा की ताज़गी वान्या भीतर तक महसूस कर रही थी. सड़क किनारे बने ढाबे में जाकर आर्यन चाय ले आया. वान्या की निगाहें चारों ओर के मनोरम दृश्य को अपनी आंखों में समेट लेना चाहती थी. मौसम की खनक और आर्यन का साथ….वान्या के दिल में बरसों से छुपकर बैठे अरमान अंगडाई लेने लगे.

धरमपुर से बड़ोग अधिक दूर नहीं था. पाइनवुड होटल आया तो टैक्सी चौड़ी सड़क से निकलकर संकरे रास्ते पर चलती हुई एक घर के सामने रुक गयी. बंगलेनुमा मकान देख वान्या ठगी सी रह गयी. सफ़ेद मार्बल से जड़ा उजला, धवल महल सा तनकर खड़ा मकान जैसे याद दिला रहा था कि वान्या अब हिमाचल प्रदेश में है. हिम का उज्जवल रंग आर्यन की तरह ही अब उसके जीवन का अभिन्न अंग बन जायेगा.

सामान निकालकर आर्यन टैक्सी वाले का बिल चुका दो सूटकेसों पर बैग्स रख पहियों के सहारे खींचता हुआ ला रहा था. वान्या भी अपना पर्स थामे कदम बढ़ाने लगी. पहाड़ में बनी चार-पांच सीढ़ियां चढ़ने पर वे गेट के सामने थे, जिसे किले का फ़ाटक कहना उचित होगा. गेट के भीतर दोनों ओर मखमली घास कालीन सी बिछी थी. बंगले की ऊंची दीवारों के साथ-साथ लगे लम्बे पाइन के पेड़ सुंदरता में चार चांद लगा रहे थे.
आर्यन ने चाबी निकालकर लकड़ी का नक्काशीदार भारी-भरकम दरवाज़ा खोला और दोनों कमरे के भीतर दाखिल हो गए. कमरा क्या एक विशाल हौल था. लकड़ी के फ़र्श पर मोटा रंग-बिरंगी आकृतियों के काम वाला तिब्बती कालीन बिछा था. बैठने के लिए सोफ़े के तीन सेट रखे थे. उनकी लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई राजसी शोभा लिए थी. सोफ़ों से कुछ दूरी पर एक दीवान बिछा हुआ था. उसे देखकर वान्या को म्यूज़ियम में रखे शाही तख़्त की याद आ गयी. तख़्त के एक ओर हाथीदांत की नक्काशी वाली लकड़ी की तिपाही पर नीली लम्बी सुराही रखी थी. नीचे ज़मीन पर पीतल के गमले में सेब का बोनसाई किया पौधा लगा था, जिसमें लाल-लाल नन्हे सेब ऐसे लग रहे थे जैसे क्रिसमस ट्री पर बौल्स सजाई गयी हों.

“सामान अन्दर के कमरे में रख देते हैं….फिर मैं चाय बना लेती हूं, किचन कहां है?” वान्या समझ नहीं पा रही थी कि ऐसे बंगले में रसोई किस ओर होगी? उसे तो लग रहा था जैसे वह किसी महल में खड़ी है.
“आउटहाउस से नरेन्द्र आता ही होगा. वह लगा देगा सामान….उसकी वाइफ़ प्रेमा किचन संभालती है, तुम फ्रैश हो जाओ बस.” कहते हुए आर्यन ने खिडकियां खोल मोटे पर्दे हटा दिए. जाली से छनकर कमरे में आ रही धूप हल्के ठंडे मौसम में सुकून दे रही थी.

“यहां घर अधिकतर ऐसे बने होते हैं कि ठंड का असर कम से कम हो. यह मकान मेरे परदादा ने बनवाया था, मोटी-मोटी दीवारें हैं और फ़र्श लकड़ी से बने हैं. छत ढलुआं है ताकि बरसात और बर्फ़ बिल्कुल न ठहरे.” आर्यन बता रहा था कि डोरबैल बज गयी. नरेन्द्र और प्रेमा आये थे. दोनों ने घर का काम शुरू कर दिया.

“अच्छा अब मैं नहा लेता हूं.” कहकर आर्यन चल दिया, वान्या भी उसके पीछे-पीछे हो ली. कमरे से बाहर निकल लम्बी गैलरी में नीले रंग के कारपेट पर चलते हुए पैरों की पदचाप खो गयी थी. गैलरी के दोनों ओर कमरे दिख रहे थे. घर के बाकी कमरे भी बड़े-बड़े होंगे इसकी वन्या ने कल्पना भी नहीं की थी. एक कमरे में दाखिल हो आर्यन ने दस फुट ऊंची महागनी की गोलाकार फ्रैंच स्टाइल में बनी अलमारी खोल कपड़े निकाले और बाथरूम में चला गया.

वान्या की आंखें कमरे का मुआयना करने लगीं. चौड़ी सिहांसननुमा कुर्सी को देख वान्या का दिल चाह रहा था कि उस पर बैठ आंखें मूंद रास्ते की सारी थकान भूल जाये, लेकिन पहले नहाना ज़रूरी है सोचते हुए वापिस ड्राइंग-रूम में जा अपना सूटकेस खोल कपड़े देखने लगी.

अचानक तिपाही पर रखा आर्यन का मोबाइल बज उठा. ‘वंशिका कौलिंग’ देखा तो याद आया यह सुरभि दीदी की बेटी का नाम है. वान्या ने फ़ोन उठा लिया. उसके हैलो कहते ही किसी बच्चे की आवाज़ सुनाई दी, “पापा कहां है?”

दीदी के बच्चे तो बड़े हैं. यह तो किसी छोटे बच्चे की आवाज़ है, सोचते हुए वान्या बोली, “किस से बात करनी है आपको? यह नंबर तो आपके पापा का नहीं है. दुबारा मिलाकर देखो, बच्चे!”
“आर्यन पापा का नाम देखकर मिलाया था मैंने….आप कौन हो?” बच्चा रुआंसा हो रहा था.

वान्या का मुंह खुला का खुला रह गया. इससे पहले कि वह कुछ और बोलती आर्यन बाथरूम से आ बाहर आ गया. “किसका फ़ोन है?” पूछते हुए उसने वान्या के हाथ से मोबाइल ले लिया और तोतली आवाज़ में बातें करने लगा.

निराश वान्या कपड़े हाथ में लेकर बाथरूम की ओर चल दी. ‘किसने किया होगा फ़ोन? आर्यन भी जुटा हुआ है उससे बातें करने में. क्या आर्यन की पहले शादी हो चुकी है? हां, लगता तो यही है. तलाक़ हो चुका है शायद. मुझे बताया भी नहीं….यह तो धोखा है!’ वान्या अपने आप में उलझती जा रही थी.

आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस कमरे के आकार का बाथरूम जिसके वह सपने देखती थी, उसकी निराशा को कम नहीं कर रहा था. एअर फ्रैशनर की भीनी-भीनी ख़ुशबू, हल्की ठंड और गरम पानी से भरा बाथटब! जी चाह रहा था कि अभी आर्यन आ जाये और अठखेलियां करते हुए उसे कहे कि ‘फ़ोन उसके लिए नहीं था, किसी और आर्यन का नंबर मिलाना चाहता था वह बच्चा. मुझे पापा कब बनना है, यह तो तुम बताओगी….!’ वान्या फूट-फूट कर रोने लगी.

बाहर आई तो डायनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए आर्यन उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. ऊंची बैक वाली गद्देदार काले रंग की कुर्सियां वान्या को कोरी शान लग रहीं थी. वान्या के बैठते ही आर्यन उसके बालों से नाक सटाकर लम्बी सांस लेता हुआ बोला, “कौन सा शैम्पू लगाया है? कहीं यह ख़ुशबू तुम्हारे बालों की तो नहीं? महक रहा हूं अन्दर तक मैं!”

वान्या को आर्यन की शरारती मुस्कान फिर से मोहने लगी. सब कुछ भूल वह इस पल में खो जाना चाहती थी. “जल्दी से खा लो. अभी प्रेमा सफ़ाई कर रही है. उसे जल्दी से वापिस भेज देंगे….अपना बैड-रूम तो तुमने देखा ही नहीं अब तक. कब से इंतज़ार कर रहा है मेरा बिस्तर तुम्हारा ! ” आर्यन का नटखट अंदाज़ वान्या को मदहोश कर रहा था.

नाश्ता कर वान्या बैडरूम में पहुंच गयी. शानदार कमरे में कदम रखते ही रोमांस की ख़ुमारी बढ़ने लगी. “मुझे ज़रूर ग़लतफहमी हुई है, आर्यन के साथ कोई हादसा हुआ होता तो वह प्यार के लम्हों को जीने के लिए इतना बेताब न दिखता. उसका इज़हार तो उस आशिक़ जैसा लग रहा है, जिसे नयी-नयी मोहब्बत हुई हो.” सोचते हुए वान्या बैड पर लेट गयी. फ़ोम के गद्दे में धंसे-धंसे ही मखमली चादर पर अपना गाल रख सहलाने लगी. प्रेमा और नरेंद्र के जाते ही आर्यन भी कमरे में आ गया. खड़े-खड़े ही झुककर वान्या की आंखों को चूम मुस्कुराते हुए उसे अपने बाहुपाश में ले लिया.

“कैसा है यह मिरर? कुछ दिन पहले ही लगवाया है मैंने?” बैड के पास लगे विंटेज कलर फ़्रेम के सात फुटिया मिरर की ओर इशारा करते हुए आर्यन बोला.

दर्पण में स्वयं को आर्यन की बाहों में देख वान्या के चेहरे का रंग भी आईने के फ़्रेम सा सुर्ख़ हो गया.
प्रेमासिक्त युगल एकाकार हो एक-दूसरे की आगोश में खोए-खोए कब नींद की आगोश में चले गए, पता ही नहीं लगा.

सायंकाल प्रेमा ने घंटी बजाई तो उनकी नींद खुली. ग्रीन-टी बनवाकर अपने-अपने हाथों में मग थामे दोनों घर के पीछे की ओर बने गार्डन में रखी बेंत की कुर्सियों पर जाकर बैठ गए. वहां रंग-बिरंगे फूल खिले थे. कतार में लगे ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की शाखाएं हवा चलने से एक-दूसरे के साथ बार-बार लिपट रहीं थीं. सभी पेड़ों पर भिन्न आकार के फल लटक रहे थे, रंग हरा ही था सबका. वान्या की उत्सुक निगाहों को देख आर्यन बताने लगा, “मेरे राइट हैंड साइड वाले चार पेड़ आलूबुखारे के और आगे वाले तीन खुबानी के हैं. अभी कच्चे हैं, इसलिए रंग हरा दिख रहा है. दीदी की बेटी को बहुत पसंद है कच्ची खुबानी. हमारी शादी में नहीं आ सकी, वरना खूब एंजौय करतीं.”

“अपने बच्चों को साथ क्यों नहीं लाईं दीदी? वे दोनों आ गए तो बच्चे भी आ सकते थे. दीदी की बेटी नाम वंशिका है न? सुबह इसी नाम से कौल आई तो मैंने अटैंड कर ली, पर वह तो किसी और का था. किस बच्चे के साथ बात कर रहे थे तुम?” वान्या का मस्तिष्क फिर सुबह वाली घटना में जाकर अटक गया.
“तुम्हें देखते ही शादी करने को मन मचलने लगा था मेरा. दीदी से कह दिया था कि कोई आ सकता है तो आ जाये, वरना मैं अकेले ही चला जाऊंगा बारात लेकर! सबको लाना पौसिबल नहीं हुआ होगा तो जीजू को लेकर आ गयीं देखने कि वह कौन सी परी है जिस पर मेरा भाई लट्टू हो गया!”
आर्यन का मज़ाक सुन वान्या मुस्कुराकर रह गयी.

“एक मिनट…..शायद प्रेमा ने आवाज़ दी है, वापिस जा रही होगी, मैं दरवाज़ा बंद कर अभी आया.” वान्या की पूरी बात का जवाब दिए बिना ही आर्यन दौड़ता हुआ अन्दर चला गया.

कुछ देर तक जब वह लौटकर नहीं आया तो वान्या उस बच्चे के विषय में सोचकर फिर संदेह से घिर गयी. व्याकुलता बढ़ने लगी तो बगीचे से ऊपर की ओर जाती हुई सफ़ेद रंग की घुमावदार लोहे की सीढ़ियों पर चढ़ गयी. ऊपर खुली छत थी, जहां से दूर तक का दृश्य साफ़ दिखाई दे रहा था. ऊंची-ऊंची फैली हुई पहाड़ियों पर पर पेड़ों के झुरमुट, सर्प से बलखाते रास्ते और छोटे-बड़े मकान. मकानों की छतों का रंग अधिकतर लाल या सलेटी था. सभी मकान एक-दूसरे से कुछ दूरी पर थे. ‘क्या ऐसी ही दूरी मेरे और आर्यन के बीच तो नहीं? साथ हैं, लेकिन एक फ़ासला भी है. क्या राज़ है उस फ़ोन का आखिर?’ वान्या सोच में डूबी थी. सहसा दबे पांव आकर आर्यन ने अपने हाथों से उसकी आंखें बंद कर दीं.

“तुम ही तो आर्यन….! कब आये छत पर?”

“हो सकता है यहां मेरे अलावा कोई और भी रहता हो और तुम्हें कानों कान ख़बर भी न हो.” आर्यन शरारत से बोला.
“और कौन होगा?” वान्या घबरा उठी.

“अरे कितनी डरपोक हो यार….यहां कौन हो सकता है?” वान्या की आंखों से हाथों को हटा उसकी कमर पर एक हाथ से घेरा बनाकर आर्यन ने अपने पास खींच लिया. “चलो, छत पर और आगे. तुम्हें यहां से ही कुछ सुन्दर नज़ारे दिखाता हूं.”

आर्यन से सटकर चलते हुए वान्या को बेहद सुकून मिल रहा था. उसकी छुअन और ख़ुशबू में डूब वान्या के मन में चल रही हलचल शांत हो गयी. दोनों साथ-साथ चलते हुए छत की मुंडेर तक जा पहुंचे. देवदार के बड़े-बड़े शहतीरों को जोड़कर बनाई गयी मुंडेर की कारीगरी देखते ही बनती थी. ‘काश! इन शहतीरों की तरह मैं और आर्यन भी हमेशा जुड़े रहें.’ वान्या सोच रही थी.

“देखो वह सामने सीढ़ीदार खेत, पहाड़ों पर जगह कम होने के कारण बनाये जाते हैं ऐसे खेत…..और दूर वहां रंगीन सा गलीचा दिख रहा है? फूलों की खेती होती है उधर.”

कुछ देर बाद हल्का कोहरा छाने लगा. आर्यन ने बताया कि ये सांवली घटायें हैं जो अक्सर शाम को आकाश के एक छोर से दूसरे तक कपड़े के थान सी तन जाती हैं. कभी बरसती हैं तो कभी सुबह सूरज के आते ही अपने को लपेट अगले दिन आने के लिए वापिस चली जाती हैं.”
सूरज ढलने के साथ अंधेरा होने लगा तो दोनों नीचे नीचे आ गए. घर सुन्दर बल्बों और शैंडलेयर्स से जगमग कर रहा था. वान्या का अंग-अंग भी आर्यन के प्रेम की रोशनी से झिलमिला रहा था. सुबह वाली बात मन के अंधेरे में कहीं गुम सी हो गयी थी.

प्रेमा के खाना बनाकर जाने के बाद आर्यन वान्या को डायनिंग रूम के पास बने एक कमरे में ले गया. कमरे की अलमारी में महंगी क्रौकरी, चांदी के चम्मच, नाइफ़ और फ़ोर्क आदि वान्या को बेहद आकर्षित कर रहे थे, लेकिन थकान से शरीर अधमरा हो रहा था. कमरे में बिछे गद्देदार सिल्वर ग्रे काउच पर वह गोलाकार मुलायम कुशन के सहारे कमर टिकाकर बैठ गयी. आर्यन ने कांच के दो गिलास लिए और पास रखे रेफ़्रीजरेटर से एप्पल जूस निकालकर गिलासों में उड़ेल दिया. वान्या ने गिलास थामा तो पैंदे पर बाहर की ओर क्रिस्टल से बने गुलाबी कमल के फूल की सुन्दरता में खो गयी.

“फूल तो ये हैं….कितने खूबसूरत !” कहते हुए आर्यन ने अपने ठंडे जूस में डूबे अधरों से वान्या के होठों को छू लिया. वान्या मदहोश हो खिलखिला उठी.

“जूस में भी नशा होता है क्या? मैं अपने बस में कैसे रहूं?” आर्यन वान्या के कान में फुसफुसाया.
“नशा तो तुम्हारी आंखों में है.” कांपते लबों से इतना ही कह पायी वान्या और आंखें मूंद लीं.

सहसा आर्यन का फ़ोन बज उठा. आर्यन सब भूल जूस का गिलास टेबल पर रख बच्चे से बातें करने लगा.
रात को अकेले बिस्तर पर लेटी हुई वान्या विचित्र मनोस्थिति से गुज़र रही थी. ‘कभी लगता है आर्यन जैसा प्यार करने वाला न जाने कैसे मिल गया? लेकिन अगले ही पल स्वयं को छला हुआ महसूस करती हूं. सिर से पांव तक प्रेम में डूबा आर्यन एक फ़ोन के आते ही सब कुछ बिसरा देता है? क्या है यह सब?’ आर्यन की पदचाप सुन वान्या आंखें मूंदकर सोने का अभिनय करते हुए चुपचाप लेटी रही. आर्यन ने लाइट औफ़ की और वान्या से लिपटकर सो गया.

अगले दिन भी वान्या अन्यमनस्क थी. स्वास्थ्य भी ठीक नही लग रहा था उसे अपना. सारा दिन बिस्तर पर लेटी रही. आर्यन बिज़नस का काम निपटाते हुए बीच-बीच में हाल पूछता रहा. वान्या के घर से फ़ोन आया. अपने मम्मी-पापा को उसने अपने विषय में कुछ नहीं बताया, लेकिन उनकी स्नेह भरी आवाज़ सुन वह और भी बेचैन हो उठी.

रात को आर्यन खाने की दो प्लेटें लगाकर उसके पास बैठ गया. टीवी औन किया तो पता लगा कि अगले दिन ‘जनता कर्फ़्यू’ की घोषणा हो गयी है.

“अब क्या होगा? लगता है पापा का कहा सच होने वाला है. वे आज ही फ़ोन पर कह रहे थे कि लौकडाउन कभी भी हो सकता है.” वान्या उसांस लेते हुए बोली.

आर्यन ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए, “घबराओ मत तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा. प्रेमा कहीं दूर थोड़े ही रहती है कि लौकडाउन में आएगी नहीं. तुम क्यों उदास हो रही हो? लौकडाउन हो भी गया तो हम दोनों साथ-साथ रहेंगे सारा दिन….मस्ती होगी हमारी तो!”

वान्या को अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. पानी पीकर सोने चली गयी. मन की उलझन बढ़ती ही जा रही थी. ‘पहले क्या मैं कम परेशान थी कि यह जनता कर्फ़्यू ! लौकडाउन हुआ तो अपने घर भी नहीं जा सकूंगी मैं. आर्यन से फ़ोन के बारे में कुछ पूछूंगी और उसने कह दिया कि हां, मेरी पहले भी शादी हो चुकी है. तुम्हें रहना है तो रहो, नहीं तो जाओ. जो जी में आये करो तो क्या करूंगी? यहां इतने बड़े घर में कैसी पराई सी हो गयी हूं. आर्यन का प्रेम सच है या ढोंग?’ अजीब से सवाल बिजली से कौंध रहे थे वान्या के मन-मस्तिष्क में.
अपने आप में डूबी वान्या सोच रही थी कि इस विषय में कहीं से कुछ पता लगे तो उसे चैन मिल जाये. ‘कल प्रेमा से सफ़ाई करवाने के बहाने पूरे घर की छान-बीन करूंगी, शायद कोई सुराग हाथ लग जाये.’ सोच उसे थोड़ा चैन मिला तो नींद आ गयी.

अगले दिन सुबह से ही प्रेमा को हिदायतें देते हुए वह सारे बंगले में घूम रही थी. आर्यन मोबाइल में लगा हुआ था. दोस्तों के बधाई संदेशों का जवाब देते हुए कुछ की मांग पर विवाह के फ़ोटो भी भेज रहा था. वान्या को प्रेमा के साथ घुलता-मिलता देख उसे एक सुखद अहसास हो रहा था.

इतना विशाल बंगला वान्या ने पहले कभी नहीं देखा था. जब दो दिन पहले उसने बंगले में इधर-उधर खड़े होकर खींची अपनी कुछ तस्वीरें सहेलियों को भेजी थीं तो वे आश्चर्यचकित रह गयीं थीं. उसे ‘किले की महारानी’ संबोधित करते हुए मैसेजेस कर वे रश्क कर रहीं थी. इतने बड़े बंगले का मालिक आर्यन आखिर उस जैसी मध्यमवर्गीया से सम्बन्ध जोड़ने को क्यों राज़ी हो गया? और तो और कोरोना के बहाने शादी की जल्दबाजी भी की उसने.

वान्या का मन बेहद अशांत था. प्रेमा के साथ-साथ घर में घूमते हुए लगभग दो घंटे हो चुके थे. रहस्यमयी निगाहों से वह घर को टटोल रही थी. बैडरूम के पास वाले एक कमरे में चम्बा की सुप्रसिद्ध कशीदाकारी ‘नीडल पेंटिंग’ से कढ़ी हुई हीर-रांझा की खूबसूरत वौल हैंगिंग में उसे आर्यन और अपनी सौतन दिख रही थी. पहली बार लौबी में घुसते ही दीवार पर टंगी मौडर्न आर्ट की जिस पेंटिंग के लाल, नारंगी रंग उसे उसे रोमांटिक लग रहे थे, वही अब शंका के फनों में बदल उसे डंक मार रहे थे. बैडरूम में सजी कामलिप्त युगल की प्रतिमा, जिसे देख परसों वह आर्यन से लिपट गयी थी आज आंखों में खटक रही थी. ‘क्या कोई अविवाहित ऐसा सामान सजाने की बात सोच सकता है? शादी तो यूं हुई कि चट मंगनी पट ब्याह, ऐसे में भी आर्यन को ऐसी स्टेचू खरीदकर सजाने के लिए समय मिल गया….हैरत है!’ घर की एक-एक वस्तु आज उसे काटने को दौड़ रही थी. ‘कैसा बेकार सा है यह मनहूस घर’ वह बुदबुदा उठी.

लगभग सारे घर की सफ़ाई हो चुकी थी. केवल एक ही कमरा बचा था, जो अन्य कमरों से थोड़ा अलग, ऊंचाई पर बना था. पहाड़ के उस भाग को मकान बनाते समय शायद जान-बूझकर समतल नहीं किया गया होगा. बाहर से ही छत से थोड़ा नीचे और बाकी मकान से ऊपर उस कमरे को देख वान्या बहुत प्रभावित हुई थी. प्रेमा का कहना था कि उस बंद कमरे में कोई आता-जाता नहीं इसलिए साफ़-सफ़ाई की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन वान्या तो आज पूरा घर छान मारना चाहती थी. उसके ज़ोर देने पर प्रेमा झाड़ू, डस्टर और चाबी लेकर कमरे की ओर चल दी. लकड़ी की कलात्मक चौड़ी लेकिन कम ऊंचाई वाली सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे कमरे तक पहुंच गए. प्रेमा ने दरवाज़े पर लटके पीतल के ताले को खोला और दोनों अन्दर आ गए.

कमरे में अखरोट की लकड़ी से बनी एक टेबल और लैदर की कुर्सी रखी थी. काले रंग की वह कुर्सी किसी भी दिशा में घूम सकती थी. पास ही ऊंचे पुराने ढंग के लकड़ी के पलंग पर बादामी रंग की याक के फ़र से बनी बहुत मुलायम चादर बिछी थी. कुछ फ़ासले पर रखी एक आराम कुर्सी और कपड़े से ढके प्यानो को देख वान्या को वह कमरा रहस्य से भरा हुआ लगने लगा. दीवार पर घने जंगल की ख़ूबसूरत पेंटिंग लगी थी. वान्या पेंटिंग को देख ही रही थी कि दीवार के रंग का एक दरवाज़ा दिखाई दिया. ‘कमरे के अन्दर एक और कमरा’ उसका दिमाग चकरा गया. तेज़ी से आगे बढ़कर उसने दरवाज़े को धक्का दे दिया. चरर्र की आवाज़ करता हुआ दरवाज़ा खुल गया.

छोटा सा वह कमरा खिलौनों से भरा हुआ था, उनमें अधिकतर सौफ़्ट टौयज़ थे. पास ही आबनूस का बना एक वार्डरोब था, वान्या ने अचंभित होकर वार्डरोब खोलने का प्रयास किया, लेकिन वह खुल नहीं रहा था. पीतल के हैंडल को कसकर पकड़ जब उसने अपना पूरा दम लगाया तो वार्डरोब झटके से खुल गया और तेज़ धक्का लगने के कारण अन्दर से कुछ तस्वीरें निकलकर गिर गयीं. वान्या ने झुककर एक फ़ोटो उठाया तो सन्न रह गयी. आर्यन एक विदेशी लड़की के साथ बर्फ़ पर स्कीइंग कर रहा था. गर्म लम्बी जैकेट, कैप, आंखों पर गौगल्स और हाथों में दस्ताने पहने दोनों बेहद खुश दिख रहे थे. बदहवास सी वह अन्य तस्वीरें उठा ही रही थी कि प्रेमा की आवाज़ सुनाई दी, “मेम साब, इस कमरे में क्या कर रहीं हैं आप?”

वान्या ने झटपट सारी तस्वीरें वार्डरोब में वापिस रख दीं. “यहां की सफ़ाई करनी होगी. मोबाइल के ज़माने में यहां कौन सी फ़ोटो रखी हैं? सामान को निकालकर इस रैक को साफ़ कर लेते हैं.” अपने को संयत कर वान्या ने वार्डरोब की ओर इशारा कर दिया.

“नहीं, ऐसा मत कीजिये. आप जल्दी-जल्दी मेरे साथ अब नीचे चलिए. साहब आ गए तो….!”

“साहब आ गए तो क्या हो जायेगा? घर साफ़ करना है या नहीं?” वान्या बेचैनी और गुस्से से कांपने लगी.

“साहब कितने खुश हैं आपके साथ. यहां आ गए तो….दुखी हो जायेंगे. मेम साब आप चलिए न नीचे….मैं

नहीं करूंगी आज यहां की सफ़ाई.” वान्या का हाथ पकड़ खींचते हुए प्रेमा कातर स्वर में बोली.

“नहीं जाऊंगी मैं यहां से…..बताओ मुझे कि यहां आकर क्यों दुखी हो जायेंगे साहब.”

“सुरभि मेम साब ने मुझे आपको बताने से मना किया था, लेकिन अब आप ही मेरी मालकिन हो. जैसा आप कहोगी मैं करुंगी. ऐसा करते हैं इस छोटे कमरे से निकलकर बाहर वाले बड़े कमरे में चलते हैं.”

बड़े कमरे में आकर वान्या पलंग पर बैठ गयी. प्रेमा ने दरवाज़े को चिटकनी लगाकर बंद कर दिया और वान्या के पास आकर धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया, “मेम साब, यह कमरा आर्यन साहब के बड़े भाई का है. उन दोनों की उम्र में तीन साल का फ़र्क था, लेकिन प्यार वे पिता की तरह करते थे आर्यन साहब को. आपको पता होगा कि साहब के मां-पिताजी को गुजरे कई साल हो चुके हैं. बड़े भाई ने अपने पिता का धंधा अच्छी तरह संभाल लिया था. एक बार जब बड़े साहब काम के सिलसिले में देश से बाहर गए तो वहां अंग्रेज लड़की से प्यार कर बैठे. शादी भी कर ली थी दोनों ने. अंग्रेज मैडम डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहीं थी,

इसलिए साहब के साथ यहां नहीं आयीं थीं. साहब वहां आते-जाते रहते थे. एक साल बाद उनका बेटा भी हो गया. बड़े साहब बच्चे को यहां ले आये थे. यह बात आज से कोई ढाई-तीन साल पहले की है. उस टाइम आर्यन साहब पढ़ाई कर रहे थे और मुम्बई में रह रहे थे. जब पिछले साल अंग्रेज मैडम की पढ़ाई पूरी हुई तो बड़े साहब उनको हमेशा के लिए लाने विदेश गए थे. वहां….बहुत बुरा हुआ मेम साब.” प्रेमा अपने सूट के दुपट्टे से आंसू पोंछ रही थी. वान्या की प्रश्नभरी आंखें प्रेमा की ओर देख रही थी.
“मेम साब, बर्फ़ पर मौज-मस्ती करते हुए अचानक साहब तेज़ी से फिसल गए और वे लड़खड़ा कर गिरे तो अंग्रेज मैडम भी गिरीं, क्योंकि दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े थे. लुढ़कते-लुढ़कते दोनों नीचे तक आ गए और जब तक लोग अस्पताल ले जाते, बहुत देर हो चुकी थी. साथ-साथ हाथ पकड़े हुए चले गए दोनों इस दुनिया से. उनका बेटा कृष अब सुरभि दीदी के पास रहता है.”

वान्या दिल थामकर सब सुन रही थी. रुंधे गले से प्रेमा का बोलना जारी था. “मेम साब, इस दुर्घटना के बाद जब सुरभि दीदी यहां आईं थीं तो कृष आर्यन साहब को देखकर लिपट गया और पापा, पापा कहकर बुलाने लगा, क्योंकि बड़े साहब और छोटे साहब की शक्ल बहुत मिलती थी. ये देखो….!” प्रेमा ने प्यानों पर ढका कपड़ा उठा दिया. प्यानों की सतह पर एक पोस्टर के आकार वाली फ़ोटो चिपकी थी जिसमें आर्यन और बड़ा भाई एक-दूसरे के गले में हाथ डाले हंसते हुए दिख रहे थे. दोनों का चेहरा एक-दूसरे से इतना मिल रहा था कि किसी को भी जुड़वां होने का भ्रम हो जाये.

“मेम साब, अभी आप कह रही थीं न कि मोबाइल के टाइम में भी ऐसे फ़ोटो? ये बड़े साहब ने पोस्टर बनवाने के लिए रखे हुए थे. बहुत शौक था बड़े-बड़े फ़ोटो से उन्हें घर सजाने का.” प्रेमा आज जैसे एक-एक बात बता देना चाहती थी वान्या को.
“ओह! अच्छा एक बात बताओ, कृष ने आर्यन से अपनी मम्मी के बारे में कुछ नहीं पूछा ?” वान्या व्यथित होकर बोली.
“नहीं, अपनी मां के साथ तो वह तब तक ही रहा जब दो महीने का था. बताया था न मैंने कि बड़े साहब ले आये थे उसको यहां. कभी-कभी साहब के साथ जाता था तभी मिलता था उनसे. वैसे भी वे छह महीने की ट्रेनिंग पर थीं और कहती थीं कि अभी बच्चा मुझे मम्मी न कहे सबके सामने. कृष कोई दीदी-वीदी समझता होगा शायद उनको.”

वान्या सब सुनकर गहरी सोच में डूब गयी. कुछ देर तक शांत रहने के बाद प्रेमा फिर बोली, “मेम साब, जब आपका रिश्ता पक्का नहीं हुआ था और साहब आपसे मिलकर आये थे तो आपकी फ़ोटो साहब ने मुझे और मेरे पति को दिखाई थी. हमें उन्होंने आपके बारे में बताते हुए कहा था कि इनका चेहरा जितना भोला-भाला लग रहा है, बातों से भी उतनी मासूम हैं. वैसे स्कूल में टीचर हैं, समझदार हैं, मेरे पास रुपये-पैसे की तो कोई कमी नहीं है. मुझे ज़रुरत है तो उसकी जो मेरा साथ दे, मेरे अकेलेपन को दूर कर दे, जिसके सामने अपना दर्द बयां कर सकूं. मैंने इनको तुम्हारी मेम साब बनाने का फ़ैसला कर लिया है….!”

वान्या प्रेमा के शब्दों में अभी भी खोयी हुई थी. प्रेमा के “मेम साब अब नीचे चलते हैं” कहते ही वह गुमसुम सी सीढियां उतरने लगी.

प्रेमा के वापिस चले जाने के बाद वह आर्यन के साथ लंच कर आराम करने बैडरूम में आ गयी. वान्या को प्यार से अपनी ओर खींचते हुए आर्यन बोला, “रात में बहुत नींद आ रही थी, अब नहीं सोने दूंगा.”
“लेकिन एक शर्त है मेरी.” वान्या आर्यन के सीने पर सिर रखकर बोली.

“कहो न ! कोई भी शर्त मानूंगा तुम्हारी.” वान्या के चेहरे से अपना चेहरा सटा आर्यन बोला.”
“कोरोना के हालात ठीक होने के बाद हम दीदी के पास चलेंगे और अपने बेटे कृष को हमेशा के लिए अपने साथ ले आयेंगे.”

आर्यन की सांस जैसे वहीं थम गयी. “प्रेमा ने बताया न !” भर्राये गले से वह इतना ही बोल सका.
वान्या ने मुस्कुराकर ‘हां’ में सिर हिला दिया.

आर्यन वान्या को अपने सीने से लगाये ख़ामोश होकर भी बहुत कुछ कह रहा था. वान्या को प्रेम में डूबे युगल की मूर्ति आज बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी. मन ही मन वह कह उठी, ‘बेकार नहीं, मनहूस नहीं….ये घर बहुत हसीन है!’

अचानक तिपाही पर रखा आर्यन का मोबाइल बज उठा. ‘वंशिका कौलिंग’ देखा तो याद आया यह सुरभि दीदी की बेटी का नाम है. वान्या ने फ़ोन उठा लिया. उसके हैलो कहते ही किसी बच्चे की आवाज़ सुनाई दी, “पापा कहां है?”

दीदी के बच्चे तो बड़े हैं. यह तो किसी छोटे बच्चे की आवाज़ है, सोचते हुए वान्या बोली, “किस से बात करनी है आपको? यह नंबर तो आपके पापा का नहीं है. दुबारा मिलाकर देखो, बच्चे!”
“आर्यन पापा का नाम देखकर मिलाया था मैंने….आप कौन हो?” बच्चा रुआंसा हो रहा था.
वान्या का मुंह खुला का खुला रह गया. इससे पहले कि वह कुछ और बोलती आर्यन बाथरूम से आ बाहर आ गया. “किसका फ़ोन है?” पूछते हुए उसने वान्या के हाथ से मोबाइल ले लिया और तोतली आवाज़ में बातें करने लगा.
निराश वान्या कपड़े हाथ में लेकर बाथरूम की ओर चल दी. ‘किसने किया होगा फ़ोन? आर्यन भी जुटा हुआ है उससे बातें करने में. क्या आर्यन की पहले शादी हो चुकी है? हां, लगता तो यही है. तलाक़ हो चुका है शायद. मुझे बताया भी नहीं….यह तो धोखा है!’ वान्या अपने आप में उलझती जा रही थी.
आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस कमरे के आकार का बाथरूम जिसके वह सपने देखती थी, उसकी निराशा को कम नहीं कर रहा था. एअर फ्रैशनर की भीनी-भीनी ख़ुशबू, हल्की ठंड और गरम पानी से भरा बाथटब! जी चाह रहा था कि अभी आर्यन आ जाये और अठखेलियां करते हुए उसे कहे कि ‘फ़ोन उसके लिए नहीं था, किसी और आर्यन का नंबर मिलाना चाहता था वह बच्चा. मुझे पापा कब बनना है, यह तो तुम बताओगी….!’ वान्या फूट-फूट कर रोने लगी.

बाहर आई तो डायनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए आर्यन उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. ऊंची बैक वाली गद्देदार काले रंग की कुर्सियां वान्या को कोरी शान लग रहीं थी. वान्या के बैठते ही आर्यन उसके बालों से नाक सटाकर लम्बी सांस लेता हुआ बोला, “कौन सा शैम्पू लगाया है? कहीं यह ख़ुशबू तुम्हारे बालों की तो नहीं? महक रहा हूं अन्दर तक मैं!”

वान्या को आर्यन की शरारती मुस्कान फिर से मोहने लगी. सब कुछ भूल वह इस पल में खो जाना चाहती थी. “जल्दी से खा लो. अभी प्रेमा सफ़ाई कर रही है. उसे जल्दी से वापिस भेज देंगे….अपना बैड-रूम तो तुमने देखा ही नहीं अब तक. कब से इंतज़ार कर रहा है मेरा बिस्तर तुम्हारा ! ” आर्यन का नटखट अंदाज़ वान्या को मदहोश कर रहा था.

नाश्ता कर वान्या बैडरूम में पहुंच गयी. शानदार कमरे में कदम रखते ही रोमांस की ख़ुमारी बढ़ने लगी. “मुझे ज़रूर ग़लतफहमी हुई है, आर्यन के साथ कोई हादसा हुआ होता तो वह प्यार के लम्हों को जीने के लिए इतना बेताब न दिखता. उसका इज़हार तो उस आशिक़ जैसा लग रहा है, जिसे नयी-नयी मोहब्बत हुई हो.” सोचते हुए वान्या बैड पर लेट गयी. फ़ोम के गद्दे में धंसे-धंसे ही मखमली चादर पर अपना गाल रख सहलाने लगी. प्रेमा और नरेंद्र के जाते ही आर्यन भी कमरे में आ गया. खड़े-खड़े ही झुककर वान्या की आंखों को चूम मुस्कुराते हुए उसे अपने बाहुपाश में ले लिया.
“कैसा है यह मिरर? कुछ दिन पहले ही लगवाया है मैंने?” बैड के पास लगे विंटेज कलर फ़्रेम के सात फुटिया मिरर की ओर इशारा करते हुए आर्यन बोला.
दर्पण में स्वयं को आर्यन की बाहों में देख वान्या के चेहरे का रंग भी आईने के फ़्रेम सा सुर्ख़ हो गया.
प्रेमासिक्त युगल एकाकार हो एक-दूसरे की आगोश में खोए-खोए कब नींद की आगोश में चले गए, पता ही नहीं लगा.

सायंकाल प्रेमा ने घंटी बजाई तो उनकी नींद खुली. ग्रीन-टी बनवाकर अपने-अपने हाथों में मग थामे दोनों घर के पीछे की ओर बने गार्डन में रखी बेंत की कुर्सियों पर जाकर बैठ गए. वहां रंग-बिरंगे फूल खिले थे. कतार में लगे ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की शाखाएं हवा चलने से एक-दूसरे के साथ बार-बार लिपट रहीं थीं. सभी पेड़ों पर भिन्न आकार के फल लटक रहे थे, रंग हरा ही था सबका. वान्या की उत्सुक निगाहों को देख आर्यन बताने लगा, “मेरे राइट हैंड साइड वाले चार पेड़ आलूबुखारे के और आगे वाले तीन खुबानी के हैं. अभी कच्चे हैं, इसलिए रंग हरा दिख रहा है. दीदी की बेटी को बहुत पसंद है कच्ची खुबानी. हमारी शादी में नहीं आ सकी, वरना खूब एंजौय करतीं.”

“अपने बच्चों को साथ क्यों नहीं लाईं दीदी? वे दोनों आ गए तो बच्चे भी आ सकते थे. दीदी की बेटी नाम वंशिका है न? सुबह इसी नाम से कौल आई तो मैंने अटैंड कर ली, पर वह तो किसी और का था. किस बच्चे के साथ बात कर रहे थे तुम?” वान्या का मस्तिष्क फिर सुबह वाली घटना में जाकर अटक गया.
“तुम्हें देखते ही शादी करने को मन मचलने लगा था मेरा. दीदी से कह दिया था कि कोई आ सकता है तो आ जाये, वरना मैं अकेले ही चला जाऊंगा बारात लेकर! सबको लाना पौसिबल नहीं हुआ होगा तो जीजू को लेकर आ गयीं देखने कि वह कौन सी परी है जिस पर मेरा भाई लट्टू हो गया!”
आर्यन का मज़ाक सुन वान्या मुस्कुराकर रह गयी.

“एक मिनट…..शायद प्रेमा ने आवाज़ दी है, वापिस जा रही होगी, मैं दरवाज़ा बंद कर अभी आया.” वान्या की पूरी बात का जवाब दिए बिना ही आर्यन दौड़ता हुआ अन्दर चला गया.

कुछ देर तक जब वह लौटकर नहीं आया तो वान्या उस बच्चे के विषय में सोचकर फिर संदेह से घिर गयी. व्याकुलता बढ़ने लगी तो बगीचे से ऊपर की ओर जाती हुई सफ़ेद रंग की घुमावदार लोहे की सीढ़ियों पर चढ़ गयी. ऊपर खुली छत थी, जहां से दूर तक का दृश्य साफ़ दिखाई दे रहा था. ऊंची-ऊंची फैली हुई पहाड़ियों पर पर पेड़ों के झुरमुट, सर्प से बलखाते रास्ते और छोटे-बड़े मकान. मकानों की छतों का रंग अधिकतर लाल या सलेटी था. सभी मकान एक-दूसरे से कुछ दूरी पर थे. ‘क्या ऐसी ही दूरी मेरे और आर्यन के बीच तो नहीं? साथ हैं, लेकिन एक फ़ासला भी है. क्या राज़ है उस फ़ोन का आखिर?’ वान्या सोच में डूबी थी. सहसा दबे पांव आकर आर्यन ने अपने हाथों से उसकी आंखें बंद कर दीं.

“तुम ही तो आर्यन….! कब आये छत पर?”

“हो सकता है यहां मेरे अलावा कोई और भी रहता हो और तुम्हें कानों कान ख़बर भी न हो.” आर्यन शरारत से बोला.
“और कौन होगा?” वान्या घबरा उठी.

“अरे कितनी डरपोक हो यार….यहां कौन हो सकता है?” वान्या की आंखों से हाथों को हटा उसकी कमर पर एक हाथ से घेरा बनाकर आर्यन ने अपने पास खींच लिया. “चलो, छत पर और आगे. तुम्हें यहां से ही कुछ सुन्दर नज़ारे दिखाता हूं.”

आर्यन से सटकर चलते हुए वान्या को बेहद सुकून मिल रहा था. उसकी छुअन और ख़ुशबू में डूब वान्या के मन में चल रही हलचल शांत हो गयी. दोनों साथ-साथ चलते हुए छत की मुंडेर तक जा पहुंचे. देवदार के बड़े-बड़े शहतीरों को जोड़कर बनाई गयी मुंडेर की कारीगरी देखते ही बनती थी. ‘काश! इन शहतीरों की तरह मैं और आर्यन भी हमेशा जुड़े रहें.’ वान्या सोच रही थी.

“देखो वह सामने सीढ़ीदार खेत, पहाड़ों पर जगह कम होने के कारण बनाये जाते हैं ऐसे खेत…..और दूर वहां रंगीन सा गलीचा दिख रहा है? फूलों की खेती होती है उधर.”

कुछ देर बाद हल्का कोहरा छाने लगा. आर्यन ने बताया कि ये सांवली घटायें हैं जो अक्सर शाम को आकाश के एक छोर से दूसरे तक कपड़े के थान सी तन जाती हैं. कभी बरसती हैं तो कभी सुबह सूरज के आते ही अपने को लपेट अगले दिन आने के लिए वापिस चली जाती हैं.”

सूरज ढलने के साथ अंधेरा होने लगा तो दोनों नीचे नीचे आ गए. घर सुन्दर बल्बों और शैंडलेयर्स से जगमग कर रहा था. वान्या का अंग-अंग भी आर्यन के प्रेम की रोशनी से झिलमिला रहा था. सुबह वाली बात मन के अंधेरे में कहीं गुम सी हो गयी थी.

प्रेमा के खाना बनाकर जाने के बाद आर्यन वान्या को डायनिंग रूम के पास बने एक कमरे में ले गया. कमरे की अलमारी में महंगी क्रौकरी, चांदी के चम्मच, नाइफ़ और फ़ोर्क आदि वान्या को बेहद आकर्षित कर रहे थे, लेकिन थकान से शरीर अधमरा हो रहा था. कमरे में बिछे गद्देदार सिल्वर ग्रे काउच पर वह गोलाकार मुलायम कुशन के सहारे कमर टिकाकर बैठ गयी. आर्यन ने कांच के दो गिलास लिए और पास रखे रेफ़्रीजरेटर से एप्पल जूस निकालकर गिलासों में उड़ेल दिया. वान्या ने गिलास थामा तो पैंदे पर बाहर की ओर क्रिस्टल से बने गुलाबी कमल के फूल की सुन्दरता में खो गयी.

“फूल तो ये हैं….कितने खूबसूरत !” कहते हुए आर्यन ने अपने ठंडे जूस में डूबे अधरों से वान्या के होठों को छू लिया. वान्या मदहोश हो खिलखिला उठी.

“जूस में भी नशा होता है क्या? मैं अपने बस में कैसे रहूं?” आर्यन वान्या के कान में फुसफुसाया.
“नशा तो तुम्हारी आंखों में है.” कांपते लबों से इतना ही कह पायी वान्या और आंखें मूंद लीं.

सहसा आर्यन का फ़ोन बज उठा. आर्यन सब भूल जूस का गिलास टेबल पर रख बच्चे से बातें करने लगा.
रात को अकेले बिस्तर पर लेटी हुई वान्या विचित्र मनोस्थिति से गुज़र रही थी. ‘कभी लगता है आर्यन जैसा प्यार करने वाला न जाने कैसे मिल गया? लेकिन अगले ही पल स्वयं को छला हुआ महसूस करती हूं. सिर से पांव तक प्रेम में डूबा आर्यन एक फ़ोन के आते ही सब कुछ बिसरा देता है? क्या है यह सब?’ आर्यन की पदचाप सुन वान्या आंखें मूंदकर सोने का अभिनय करते हुए चुपचाप लेटी रही. आर्यन ने लाइट औफ़ की और वान्या से लिपटकर सो गया.

अगले दिन भी वान्या अन्यमनस्क थी. स्वास्थ्य भी ठीक नही लग रहा था उसे अपना. सारा दिन बिस्तर पर लेटी रही. आर्यन बिज़नस का काम निपटाते हुए बीच-बीच में हाल पूछता रहा. वान्या के घर से फ़ोन आया. अपने मम्मी-पापा को उसने अपने विषय में कुछ नहीं बताया, लेकिन उनकी स्नेह भरी आवाज़ सुन वह और भी बेचैन हो उठी.

रात को आर्यन खाने की दो प्लेटें लगाकर उसके पास बैठ गया. टीवी औन किया तो पता लगा कि अगले दिन ‘जनता कर्फ़्यू’ की घोषणा हो गयी है.

“अब क्या होगा? लगता है पापा का कहा सच होने वाला है. वे आज ही फ़ोन पर कह रहे थे कि लौकडाउन कभी भी हो सकता है.” वान्या उसांस लेते हुए बोली.

आर्यन ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए, “घबराओ मत तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा. प्रेमा कहीं दूर थोड़े ही रहती है कि लौकडाउन में आएगी नहीं. तुम क्यों उदास हो रही हो? लौकडाउन हो भी गया तो हम दोनों साथ-साथ रहेंगे सारा दिन….मस्ती होगी हमारी तो!”

वान्या को अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. पानी पीकर सोने चली गयी. मन की उलझन बढ़ती ही जा रही थी. ‘पहले क्या मैं कम परेशान थी कि यह जनता कर्फ़्यू ! लौकडाउन हुआ तो अपने घर भी नहीं जा सकूंगी मैं. आर्यन से फ़ोन के बारे में कुछ पूछूंगी और उसने कह दिया कि हां, मेरी पहले भी शादी हो चुकी है. तुम्हें रहना है तो रहो, नहीं तो जाओ. जो जी में आये करो तो क्या करूंगी? यहां इतने बड़े घर में कैसी पराई सी हो गयी हूं. आर्यन का प्रेम सच है या ढोंग?’ अजीब से सवाल बिजली से कौंध रहे थे वान्या के मन-मस्तिष्क में.

अपने आप में डूबी वान्या सोच रही थी कि इस विषय में कहीं से कुछ पता लगे तो उसे चैन मिल जाये. ‘कल प्रेमा से सफ़ाई करवाने के बहाने पूरे घर की छान-बीन करूंगी, शायद कोई सुराग हाथ लग जाये.’ सोच उसे थोड़ा चैन मिला तो नींद आ गयी.

अगले दिन सुबह से ही प्रेमा को हिदायतें देते हुए वह सारे बंगले में घूम रही थी. आर्यन मोबाइल में लगा हुआ था. दोस्तों के बधाई संदेशों का जवाब देते हुए कुछ की मांग पर विवाह के फ़ोटो भी भेज रहा था. वान्या को प्रेमा के साथ घुलता-मिलता देख उसे एक सुखद अहसास हो रहा था.
इतना विशाल बंगला वान्या ने पहले कभी नहीं देखा था. जब दो दिन पहले उसने बंगले में इधर-उधर खड़े होकर खींची अपनी कुछ तस्वीरें सहेलियों को भेजी थीं तो वे आश्चर्यचकित रह गयीं थीं. उसे ‘किले की महारानी’ संबोधित करते हुए मैसेजेस कर वे रश्क कर रहीं थी. इतने बड़े बंगले का मालिक आर्यन आखिर उस जैसी मध्यमवर्गीया से सम्बन्ध जोड़ने को क्यों राज़ी हो गया? और तो और कोरोना के बहाने शादी की जल्दबाजी भी की उसने.

वान्या का मन बेहद अशांत था. प्रेमा के साथ-साथ घर में घूमते हुए लगभग दो घंटे हो चुके थे. रहस्यमयी निगाहों से वह घर को टटोल रही थी. बैडरूम के पास वाले एक कमरे में चम्बा की सुप्रसिद्ध कशीदाकारी ‘नीडल पेंटिंग’ से कढ़ी हुई हीर-रांझा की खूबसूरत वौल हैंगिंग में उसे आर्यन और अपनी सौतन दिख रही थी. पहली बार लौबी में घुसते ही दीवार पर टंगी मौडर्न आर्ट की जिस पेंटिंग के लाल, नारंगी रंग उसे उसे रोमांटिक लग रहे थे, वही अब शंका के फनों में बदल उसे डंक मार रहे थे. बैडरूम में सजी कामलिप्त युगल की प्रतिमा, जिसे देख परसों वह आर्यन से लिपट गयी थी आज आंखों में खटक रही थी. ‘क्या कोई अविवाहित ऐसा सामान सजाने की बात सोच सकता है? शादी तो यूं हुई कि चट मंगनी पट ब्याह, ऐसे में भी आर्यन को ऐसी स्टेचू खरीदकर सजाने के लिए समय मिल गया….हैरत है!’ घर की एक-एक वस्तु आज उसे काटने को दौड़ रही थी. ‘कैसा बेकार सा है यह मनहूस घर’ वह बुदबुदा उठी.

लगभग सारे घर की सफ़ाई हो चुकी थी. केवल एक ही कमरा बचा था, जो अन्य कमरों से थोड़ा अलग, ऊंचाई पर बना था. पहाड़ के उस भाग को मकान बनाते समय शायद जान-बूझकर समतल नहीं किया गया होगा. बाहर से ही छत से थोड़ा नीचे और बाकी मकान से ऊपर उस कमरे को देख वान्या बहुत प्रभावित हुई थी. प्रेमा का कहना था कि उस बंद कमरे में कोई आता-जाता नहीं इसलिए साफ़-सफ़ाई की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन वान्या तो आज पूरा घर छान मारना चाहती थी. उसके ज़ोर देने पर प्रेमा झाड़ू, डस्टर और चाबी लेकर कमरे की ओर चल दी. लकड़ी की कलात्मक चौड़ी लेकिन कम ऊंचाई वाली सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे कमरे तक पहुंच गए. प्रेमा ने दरवाज़े पर लटके पीतल के ताले को खोला और दोनों अन्दर आ गए.

कमरे में अखरोट की लकड़ी से बनी एक टेबल और लैदर की कुर्सी रखी थी. काले रंग की वह कुर्सी किसी भी दिशा में घूम सकती थी. पास ही ऊंचे पुराने ढंग के लकड़ी के पलंग पर बादामी रंग की याक के फ़र से बनी बहुत मुलायम चादर बिछी थी. कुछ फ़ासले पर रखी एक आराम कुर्सी और कपड़े से ढके प्यानो को देख वान्या को वह कमरा रहस्य से भरा हुआ लगने लगा. दीवार पर घने जंगल की ख़ूबसूरत पेंटिंग लगी थी. वान्या पेंटिंग को देख ही रही थी कि दीवार के रंग का एक दरवाज़ा दिखाई दिया. ‘कमरे के अन्दर एक और कमरा’ उसका दिमाग चकरा गया. तेज़ी से आगे बढ़कर उसने दरवाज़े को धक्का दे दिया. चरर्र की आवाज़ करता हुआ दरवाज़ा खुल गया.

छोटा सा वह कमरा खिलौनों से भरा हुआ था, उनमें अधिकतर सौफ़्ट टौयज़ थे. पास ही आबनूस का बना एक वार्डरोब था, वान्या ने अचंभित होकर वार्डरोब खोलने का प्रयास किया, लेकिन वह खुल नहीं रहा था. पीतल के हैंडल को कसकर पकड़ जब उसने अपना पूरा दम लगाया तो वार्डरोब झटके से खुल गया और तेज़ धक्का लगने के कारण अन्दर से कुछ तस्वीरें निकलकर गिर गयीं. वान्या ने झुककर एक फ़ोटो उठाया तो सन्न रह गयी. आर्यन एक विदेशी लड़की के साथ बर्फ़ पर स्कीइंग कर रहा था. गर्म लम्बी जैकेट, कैप, आंखों पर गौगल्स और हाथों में दस्ताने पहने दोनों बेहद खुश दिख रहे थे. बदहवास सी वह अन्य तस्वीरें उठा ही रही थी कि प्रेमा की आवाज़ सुनाई दी, “मेम साब, इस कमरे में क्या कर रहीं हैं आप?”

वान्या ने झटपट सारी तस्वीरें वार्डरोब में वापिस रख दीं. “यहां की सफ़ाई करनी होगी. मोबाइल के ज़माने में यहां कौन सी फ़ोटो रखी हैं? सामान को निकालकर इस रैक को साफ़ कर लेते हैं.” अपने को संयत कर वान्या ने वार्डरोब की ओर इशारा कर दिया.

“नहीं, ऐसा मत कीजिये. आप जल्दी-जल्दी मेरे साथ अब नीचे चलिए. साहब आ गए तो….!”

“साहब आ गए तो क्या हो जायेगा? घर साफ़ करना है या नहीं?” वान्या बेचैनी और गुस्से से कांपने लगी.

“साहब कितने खुश हैं आपके साथ. यहां आ गए तो….दुखी हो जायेंगे. मेम साब आप चलिए न नीचे….मैं

नहीं करूंगी आज यहां की सफ़ाई.” वान्या का हाथ पकड़ खींचते हुए प्रेमा कातर स्वर में बोली.

“नहीं जाऊंगी मैं यहां से…..बताओ मुझे कि यहां आकर क्यों दुखी हो जायेंगे साहब.”

“सुरभि मेम साब ने मुझे आपको बताने से मना किया था, लेकिन अब आप ही मेरी मालकिन हो. जैसा आप कहोगी मैं करुंगी. ऐसा करते हैं इस छोटे कमरे से निकलकर बाहर वाले बड़े कमरे में चलते हैं.”

बड़े कमरे में आकर वान्या पलंग पर बैठ गयी. प्रेमा ने दरवाज़े को चिटकनी लगाकर बंद कर दिया और वान्या के पास आकर धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया, “मेम साब, यह कमरा आर्यन साहब के बड़े भाई का है. उन दोनों की उम्र में तीन साल का फ़र्क था, लेकिन प्यार वे पिता की तरह करते थे आर्यन साहब को. आपको पता होगा कि साहब के मां-पिताजी को गुजरे कई साल हो चुके हैं. बड़े भाई ने अपने पिता का धंधा अच्छी तरह संभाल लिया था. एक बार जब बड़े साहब काम के सिलसिले में देश से बाहर गए तो वहां अंग्रेज लड़की से प्यार कर बैठे. शादी भी कर ली थी दोनों ने. अंग्रेज मैडम डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहीं थी,

इसलिए साहब के साथ यहां नहीं आयीं थीं. साहब वहां आते-जाते रहते थे. एक साल बाद उनका बेटा भी हो गया. बड़े साहब बच्चे को यहां ले आये थे. यह बात आज से कोई ढाई-तीन साल पहले की है. उस टाइम आर्यन साहब पढ़ाई कर रहे थे और मुम्बई में रह रहे थे. जब पिछले साल अंग्रेज मैडम की पढ़ाई पूरी हुई तो बड़े साहब उनको हमेशा के लिए लाने विदेश गए थे. वहां….बहुत बुरा हुआ मेम साब.” प्रेमा अपने सूट के दुपट्टे से आंसू पोंछ रही थी. वान्या की प्रश्नभरी आंखें प्रेमा की ओर देख रही थी.
“मेम साब, बर्फ़ पर मौज-मस्ती करते हुए अचानक साहब तेज़ी से फिसल गए और वे लड़खड़ा कर गिरे तो अंग्रेज मैडम भी गिरीं, क्योंकि दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े थे. लुढ़कते-लुढ़कते दोनों नीचे तक आ गए और जब तक लोग अस्पताल ले जाते, बहुत देर हो चुकी थी. साथ-साथ हाथ पकड़े हुए चले गए दोनों इस दुनिया से. उनका बेटा कृष अब सुरभि दीदी के पास रहता है.”

वान्या दिल थामकर सब सुन रही थी. रुंधे गले से प्रेमा का बोलना जारी था. “मेम साब, इस दुर्घटना के बाद जब सुरभि दीदी यहां आईं थीं तो कृष आर्यन साहब को देखकर लिपट गया और पापा, पापा कहकर बुलाने लगा, क्योंकि बड़े साहब और छोटे साहब की शक्ल बहुत मिलती थी. ये देखो….!” प्रेमा ने प्यानों पर ढका कपड़ा उठा दिया. प्यानों की सतह पर एक पोस्टर के आकार वाली फ़ोटो चिपकी थी जिसमें आर्यन और बड़ा भाई एक-दूसरे के गले में हाथ डाले हंसते हुए दिख रहे थे. दोनों का चेहरा एक-दूसरे से इतना मिल रहा था कि किसी को भी जुड़वां होने का भ्रम हो जाये.

“मेम साब, अभी आप कह रही थीं न कि मोबाइल के टाइम में भी ऐसे फ़ोटो? ये बड़े साहब ने पोस्टर बनवाने के लिए रखे हुए थे. बहुत शौक था बड़े-बड़े फ़ोटो से उन्हें घर सजाने का.” प्रेमा आज जैसे एक-एक बात बता देना चाहती थी वान्या को.

“ओह! अच्छा एक बात बताओ, कृष ने आर्यन से अपनी मम्मी के बारे में कुछ नहीं पूछा ?” वान्या व्यथित होकर बोली.

“नहीं, अपनी मां के साथ तो वह तब तक ही रहा जब दो महीने का था. बताया था न मैंने कि बड़े साहब ले आये थे उसको यहां. कभी-कभी साहब के साथ जाता था तभी मिलता था उनसे. वैसे भी वे छह महीने की ट्रेनिंग पर थीं और कहती थीं कि अभी बच्चा मुझे मम्मी न कहे सबके सामने. कृष कोई दीदी-वीदी समझता होगा शायद उनको.”

वान्या सब सुनकर गहरी सोच में डूब गयी. कुछ देर तक शांत रहने के बाद प्रेमा फिर बोली, “मेम साब, जब आपका रिश्ता पक्का नहीं हुआ था और साहब आपसे मिलकर आये थे तो आपकी फ़ोटो साहब ने मुझे और मेरे पति को दिखाई थी. हमें उन्होंने आपके बारे में बताते हुए कहा था कि इनका चेहरा जितना भोला-भाला लग रहा है, बातों से भी उतनी मासूम हैं. वैसे स्कूल में टीचर हैं, समझदार हैं, मेरे पास रुपये-पैसे की तो कोई कमी नहीं है. मुझे ज़रुरत है तो उसकी जो मेरा साथ दे, मेरे अकेलेपन को दूर कर दे, जिसके सामने अपना दर्द बयां कर सकूं. मैंने इनको तुम्हारी मेम साब बनाने का फ़ैसला कर लिया है….!”
वान्या प्रेमा के शब्दों में अभी भी खोयी हुई थी. प्रेमा के “मेम साब अब नीचे चलते हैं” कहते ही वह गुमसुम सी सीढियां उतरने लगी.

प्रेमा के वापिस चले जाने के बाद वह आर्यन के साथ लंच कर आराम करने बैडरूम में आ गयी. वान्या को प्यार से अपनी ओर खींचते हुए आर्यन बोला, “रात में बहुत नींद आ रही थी, अब नहीं सोने दूंगा.”
“लेकिन एक शर्त है मेरी.” वान्या आर्यन के सीने पर सिर रखकर बोली.

“कहो न ! कोई भी शर्त मानूंगा तुम्हारी.” वान्या के चेहरे से अपना चेहरा सटा आर्यन बोला.”
“कोरोना के हालात ठीक होने के बाद हम दीदी के पास चलेंगे और अपने बेटे कृष को हमेशा के लिए अपने साथ ले आयेंगे.”

आर्यन की सांस जैसे वहीं थम गयी. “प्रेमा ने बताया न !” भर्राये गले से वह इतना ही बोल सका.
वान्या ने मुस्कुराकर ‘हां’ में सिर हिला दिया.

आर्यन वान्या को अपने सीने से लगाये ख़ामोश होकर भी बहुत कुछ कह रहा था. वान्या को प्रेम में डूबे युगल की मूर्ति आज बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी. मन ही मन वह कह उठी, ‘बेकार नहीं, मनहूस नहीं….ये घर बहुत हसीन है!’

Husband Wife Comedy : श्रीमतीजी की अभासी दुनिया

Husband Wife Comedy : पिछले2-3 महीनों से श्रीमतीजी को न जाने व्हाट्सऐप का क्या शौक लगा है कि रातरात भर बैठ कर मैसेज भेजती रहती हैं. कभी अचानक नींद खुले तो देख कर डर जाएं कि वे हंस रही हैं.

उस रात भी हम देख कर घबरा कर पूछ बैठे, ‘‘क्यों क्या बात है?’’

‘‘एक जोक आया है, गु्रप में शामिल हूं न तो फोटो और मैसेज आते रहते हैं. सुनाऊं?’’ श्रीमतीजी ने रात को 2 बजे उत्साहित स्वर में पूछा.

हम ने ठंडे स्वर में कहा, ‘‘सुना दो.’’

वे सुनाने लगीं. जब खत्म हो गया तो हम ने उत्साह बढ़ाते हुए कहा, ‘‘बहुत बढि़या है.’’

‘‘एक प्रेरक कथा भी आई है. उसे भी सुनाऊं?’’ और फिर हमारी मरजी जाने बिना शुरू हो गईं.

अचानक हमारी नींद खुली. श्रीमतीजी हमें झकझोर रही थीं. हम घबरा गए. पूछा, ‘‘क्यों क्या हुआ?’’

‘‘कहानी कैसी लगी?’’

‘‘कौन सी?’’

‘‘जो मैं सुना रही थी.’’

‘‘सौरी डियर हमें नींद आ गई थी.’’

‘‘मैं कब से पढ़पढ़ कर सुना रही थी,’’ कुछ नाराजगी भरे स्वर में श्रीमतीजी ने कहा.

‘‘डियर रात के 2 बजे इनसान सोएगा नहीं तो सुबह काम कैसे करेगा?’’ हम ने अपनी आंखें मलते हुए कहा.

‘‘तुम्हें अपनी श्रीमतीजी के द्वारा सुनाई जा रही कहानी की बिलकुल चिंता नहीं है,’’ वे कैकेई की तरह क्रोध धारण कर के बोलीं.

‘‘अच्छा, सुना दो,’’ कह कर हम उठ बैठे और वे बिना सिरपैर की कथा का मोबाइल पर देखदेख कर वाचन करने लगीं. 3 बजे तक हम जागे और सुबह कार्यालय लेट पहुंचे.

हमें यह देख कर आश्चर्य हो रहा था कि जो श्रीमतीजी 2 माह पहले तक हम से बातचीत करती थीं. हमारे कार्यालय से लौट आने पर नाश्ते की, चाय की बातें करती थीं वे अचानक इतनी कैसे बदल गईं? हमेशा वे अपने मोबाइल पर बैठ कर न जाने किसकिस को मैसेज करती रहती थीं. नैट और मोबाइल का जो भी चार्ज लगता वह हमारी जेब से जा रहा था. अब तो नाश्ता भी हमें खुद निकालना पड़ता था. भोजन में वह पहले जैसा स्वाद नहीं रहा था. लगता था खानापूर्ति के लिए भोजन पका दिया गया है. हम अपना माथा ठोंकने के अलावा और कर ही क्या सकते थे?

हम ने जब अपनी सासूमां से यह बात शेयर की तो उन्होंने कहा, ‘‘बेबी को डांटना नहीं, बात कर के देख लें.’’

सासूमां के लिए हमारी प्रौढ श्रीमतीजी अभी तक बेबी ही थीं. खैर, हम ने विचार किया कि हम इस विषय पर चर्चा जरूर करेंगे.

एक छुट्टी के दिन हम ने श्रीमतीजी से कहा, ‘‘यह आप दिन भर इस स्मार्ट फोन में क्याक्या करती रहती हैं? आंखें खराब हो जाएंगी.’’

‘‘नहीं होंगी… एक काम करो न… आप भी यह ले लो और हमारे ग्रुप में शामिल हो जाओ… सच में हमारे दोस्तों का एक बहुत शानदार ग्रुप है. हम खूब मजे करते हैं. खूब बातें करते हैं… क्या आविष्कार बनाया गया है यह मोबाइल का… यह व्हाट्सऐप का?’’ श्रीमतीजी अपने में मगन कहे जा रही थीं.

हम उन की बातें सुन कर अपना माथा ठोंकने के अलावा क्या करते. हम जब औफिस से लौटते तो वे हमें अपने आभासी मित्रों (जाहिर है महिला मित्रों) की ढेर सी बातें बतातीं. हम उन से कहते, ‘‘इस आभासी दुनिया में सब झूठे हैं.’’

लेकिन वे मानने को तैयार नहीं थीं.

हमारा वैवाहिक जीवन पूरी तरह से बरबादी की ओर अग्रसर था. आखिर हम करें तो क्या करें? हमें कोई उपाय दूरदूर तक दिखाई नहीं दे रहा था.

शनिवार की रात को जब हम बिस्तर पर पहुंचे तो श्रीमतीजी ने बहुत प्रेम से हम से कहा, ‘‘जानते हो…?’’

‘‘क्या?’’

‘‘इस व्हाट्सऐप से बहुत अच्छे लोगों से मुलाकात, बातचीत, दोस्ती हो जाती है.’’

‘‘अच्छा?’’ हम ने कोई रुचि नहीं ली.

‘‘बहुत अमीर और बहुत पहुंच वाली महिलाओं से बातचीत हो जाती है,’’ श्रीमतीजी कहे जा रही थीं.

हम चुप थे.

‘‘मैं ने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मेरे संसार में इतने सारे ग्रुपों में डेढ़ हजार दोस्तों की लिस्ट होगी.’’

‘‘जिस के इतने दोस्त हों उस का कोई भी दोस्त नहीं होता. दोस्त तो मात्र जीवन में 1 या 2 ही होते हैं, समझीं?’’ हम ने चिढ़े स्वर में कहा.

‘‘आप तो जलते हो.’’

‘‘हम क्यों जलने लगे?’’

‘‘मेरे सब फ्रैंड अच्छे परिवारों से हैं और अमीर हैं.’’

‘‘तो हम क्या करें?’’ हम चिढ़ गए थे.

‘‘मैं तो एक विशेष बात आप को बता रही थी.’’

‘‘कैसी विशेष बात?’’ हमारे कान खड़े हो गए थे.

‘‘मेरी 2-3 सहेलियां कल मुझ से मिलने आ रही हैं. वे सब बहुत अमीर हैं.’’

‘‘तो हम क्या करें?’’

‘‘प्लीज, कल आप बाजार से शानदार नाश्ता ले आना. कुछ मैं बना लूंगी… जानते हो हम पहली बार मिलेंगी… वाह कितने रोमांचक होंगे वे क्षण जब एकदम अपरिचित सहेलियों से भेंट होगी.’’

‘‘वे कहां रहती हैं?’’

‘‘यहीं भोपाल की ही हैं.’’

‘‘अच्छा, तो कल उन की पार्टी है.’’

‘‘पार्टी ही समझ लो. वे 3 आ रही हैं, फिर मैं भी उन से मिलने जाऊंगी. जीवन एकदूसरे से मिलने, एकदूसरे के विचारों को जानने का ही तो नाम है,’’ श्रीमतीजी ने किसी चिंतक की तरह कहा.

‘‘प्लीज, हमें सो जाने दो. जानती हो न महीने के आखिरी दिन चल रहे हैं और आप को पार्टी देने की सूझ रही है.’’

‘‘आप चिंता न करो. जो भी खर्च होगा मैं पेमैंट कर दूंगी.’’

‘‘हम पेमैंट करें चाहे आप, लेकिन खर्च तो अपना ही होगा न डियर? इस आभासी दुनिया से बाहर आओ… इस में कुछ नहीं रखा है,’’ हम ने कुछ चिढ़ते हुए कहा.

‘‘लेकिन वे सब तो कल आ रही हैं?’’

‘‘आने दो, हम ताला लगा कर घूमने चले जाएंगे.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. यह तो अपने वचन से पलट जाना हुआ. मैं कदापि ऐसा नहीं कर सकती,’’ श्रीमतीजी ने हम से दोटूक शब्दों में कहा.

‘‘फिर बताओ क्या करना है?’’

‘‘उन के लिए शानदार नाश्ते की व्यवस्था कर दो.’’

‘‘एक बार सोच लो, जिस आभासी दुनिया (फेसबुक) से आप मिली नहीं, जानती नहीं उसे क्यों और किसलिए निमंत्रण दे रहीं?’’ हम ने झल्लाते हुए कहा.

‘‘प्लीज, इस बार देखते हैं, अगर यह अनुभव खराब रहा तो मैं हमेशा के लिए व्हाट्सऐप से दूर हो जाऊंगी,’’ श्रीमतीजी ने हमें आश्वस्त करते हुए कहा.

श्रीमती सुबह जल्दी उठ गईं. ड्राइंगरूम ठीक किया, नाश्ता तैयार किया. फिर हमें उठा कर कहने लगीं, ‘‘उन का 10 बजे तक आना होगा. आप बाजार जा कर सामान ले आओ,’’ और फिर सामान की एक लंबी लिस्ट हमें थमा दी.

हम विचार करने लगे कि यह नाश्ते की लिस्ट है या पूरे महीने के राशन की है? जो फल हम ने कभी खाए नहीं, जिन मिठाइयों के नाम हम ने सुने नहीं थे वे सब उस लिस्ट में मौजूद थीं. कुछ नोट हमारे हाथ पर रख दिए. हम अपना पुराना स्कूटर ले कर बाजार निकल गए.

आटोरिकशा में सारा सामान रख कर हम घर आ गए.

श्रीमतीजी खुशी से हम से लिपट गईं. ऐसा लगा जैसे आम के फलदार वृक्ष पर नागफनी की बेल फैल गई हो. हम ने स्वयं को बचा कर दूर किया और अपने कमरे में जा पहुंचे.

श्रीमतीजी किचन में सामान को सजाने लगी थीं. हमारे जीवन का यह प्रथम अनुभव था जहां जान न पहचान और सलाम की प्रक्रिया हो रही थी. हम उन की व्यग्रता को देख रहे थे. थोड़ी देर बाद उन के मोबाइल पर संदेश आया, ‘‘मकान खोज रहे हैं… मिल नहीं रहा है.’’

इधर से श्रीमतीजी ने पूरा दिमाग लगा कर भारत का नक्शा उन्हें बताते हुए कहा, ‘‘मैं घिस्सू हलवाई की दुकान पर इन्हें लेने भेज रही हूं.’’

घिस्सू हलवाई महल्ले का प्रसिद्ध हलवाई था. श्रीमतीजी ने हम पर नजर डाली. हम बिना कुछ कहे अपने स्कूटर की तरफ चल दिए.

श्रीमतीजी उन्हें मोबाइल पर फोन कर के हमारे रंगरूप के विषय में, कपड़ों के विषय में विस्तार से जानकारी दे रही थीं ताकि उन्हें हमें पहचानने में कोई दिक्कत न हो. हम स्कूटर ले कर घिस्सू हलवाई की दुकान पर खड़े हो गए.

तभी एक काली महंगी कार आ कर रुकी और उस में बैठे ड्राइवर ने हमें देख कर पूछा, ‘‘आप ही चपड़गज्जूजी हैं?’’

‘‘जी हां, हम ही हैं.’’ हम ने घबराए स्वर में कहा.

‘‘आप के घर जाना है.’’

‘‘जी, हम लेने ही तो आए हैं,’’ हम ने कहा. अंदर कौन है, नहीं जान पाया, क्योंकि गाड़ी के अंदर कांच के ऊपर परदे चढ़े थे.

अब हम घिसेपिटे स्कूटर पर आगेआगे चल रहे थे और वे महंगी कार में हमारे पीछेपीछे.

कुछ ही देर बाद हम ने स्कूटर रोक दिया, क्योंकि आगे गली में तो कार जा नहीं सकती थी. हम ने कहा, ‘‘यहां से पैदल चलना होगा,’’ और फिर हम ने अपना स्कूटर एक दीवार से सटा कर खड़ा कर दिया.

तभी कार का दरवाजा खुला. 3 हट्टीकट्टी, गहनों से लदीफंदी, महंगे कपड़ों में, फिल्मी अंदाज में मेकअप किए उतरीं. हमारा दिल तो धकधक, तक धिनाधिन होने लगा था. हमें पहली बार अपनी श्रीमतीजी पर गर्व हो आया कि वाह क्या अमीरों से दोस्ती की है.

हम किसी पालतू कुत्ते की तरह दुम हिलाते, कूंकूं मुसकराते चल रहे थे. महल्ले की खिड़कियां खुल रही थीं. सब बहुत आश्चर्य से देख रहे थे कि इन छछूंदरों के घर ये अमीर क्या करने आए हैं…? हम उन्हें अपने गरीबखाने पर लाए.

श्रीमतीजी दरवाजे पर ही मिल गईं. हम ने अनुभव किया कि वे उतनी खुश नहीं थीं जितनी होनी चाहिए थीं. फिर भी मुसकरा कर अंदर ड्राइंगरूम में लाईं. पंखा चालू किया. तीनों इधरउधर देख रही थीं कि क्या एसी नहीं है?

सच तो यही है कि लोगों की अमीरी देख कर ही स्वयं की गरीबी का एहसास होता है. श्रीमतीजी ने तत्काल उन्हें पानी पीने को दिया. श्रीमतीजी का व्यवहार कुछ ऐसा था कि आभासी दुनिया वाली तुरंत चली जाएं. शायद इसलिए भी कि श्रीमतीजी को अपनी निर्धनता का कटु एहसास हो रहा होगा. कुल जमा चंद बातचीत के बाद नाश्ता कर वे जाने को उठ गईं. विदाई के समय तो हमारा सामना होना जरूरी था. हम देख रहे थे कि श्रीमतीजी अत्यधिक बेचैन हैं. क्यों, यह हम नहीं जान पाए थे. ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ये जल्दी चली जाएं. हम भी बागड़ बिल्ले की तरह उपस्थित हो कर विदाई बेला में खड़े रहना चाहते थे.

‘‘अच्छा जीजाजी चलते हैं,’’ एक मोटी सी फटी आवाज कानों में आई.

‘‘जीजी,’’ हम ने घबराए स्वर में कहा.

हम उन्हें छोड़ने जा रहे थे तो दूसरी ने कहा, ‘‘बस भी कीजिए… हम चली जाएंगी,’’ उस की आवाज भी कुछ विचित्र सी थी.

वे चली गईं तो श्रीमतीजी ने माथे का पसीना पोंछा. अचानक हमें बात समझ में आई और फिर हम जोर से हंस पड़े, ‘‘हा…हा…हा…’’

‘‘बस भी करो,’’ श्रीमतीजी नाराजगी भरे स्वर में बोलीं.

‘‘तो ये थीं आप की किन्नर सहेलियां,’’ कह हम फिर जोर से हंसने लगे.

‘‘उन्होंने मुझ से यह बात छिपा रखी थी,’’ श्रीमतीजी ने सफाई दी.

‘‘तो ऐसी सहेलियां होती हैं तुम्हारी आभासी दुनिया की,’’ हम ने कहा और फिर पेट पकड़ कर हंसने लगे.

अब श्रीमतीजी को बहुत क्रोध आ गया. वे जोर से नाराजगी भरे स्वर में कहने लगीं, ‘‘क्यों किन्नर इनसान नहीं हैं? इन की इच्छा दोस्ती करने की, सहेली बनाने की, हम जैसे सामान्यों से बात करने की, सामान्य व्यक्तियों के घरों में आनेजाने की इच्छा नहीं होती है? हम इन्हें हंसने वाली चीज समझ कर कब तक इन का मजाक उड़ाते रहेंगे? हमें इन की प्रौब्लम समझनी होगी, इन्हें भी प्लेटफार्म देना होगा जहां ये इज्जत के साथ, सामान्य व्यक्तियों की तरह रह सकें.’’

श्रीमतीजी की ये बातें सुन हमारी हंसी गायब हो गई और हम यह सोचने को मजबूर हो गए कि जो कहा गया है वह सत्य है और इस पर हम सब को सोचने कीजरूरत है न कि हंसने की. श्रीमतीजी की इस परिपक्व सोच पर हमें उन पर गर्व हो आया. उन्होंने शतप्रतिशत सच कहा था.

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