नमस्ते जी: भाग 3- नितिन ने कैसे तोड़ा अपनी पत्नी का भरोसा?

सुबह के समय नितिन के फैक्टरी जाने से पहले वह आने लगी थी ताकि अंकिता को वह संभाल सके और मैं उन के लिए अच्छे से नाश्ता तैयार कर सकूं. जब कभी नितिन आयशा के सामने आ जाते तो वह हलका सा मुसकराती हुई कहती-‘नमस्ते जी.’

उस का मुसकराने का अंदाज बड़ा ही शर्मीला था. नितिन भी उसी के अंदाज में मुसकराते हुए जवाब देते थे. आयशा जब भी मेरे पास बैठती तो हमारे बारे में ही पूछती. कभी पूछती थी कि आंटीजी आप की ‘लवमैरिज’ है क्या? कभी कहती थी कि आंटीजी, अंकलजी बहुत ‘स्मार्ट’ हैं, आप ने कहां से ढूंढ़ा इन्हें? जाने कब भोलेपन में मैं ने वे सारी बातें नितिन को बता दी थीं. वक्त गुजरता जा रहा था.

एक दिन रविवार की शाम को मैं रसोई में खाना पका रही थी और नितिन पहली मंजिल पर अपने बैडरूम में टेलीविजन देख रहे थे. मांजी रसोई के साथ लगते अपने कमरे में बैठ कर कोई किताब पढ़ रही थीं. अंकिता को भी आयशा के साथ पहली मंजिल पर बच्चों के कमरे में खेलने के लिए छोड़ा हुआ था. मुझे अचानक याद आया कि नितिन रात के खाने में कभीकभार प्याज तो खा ही लेते हैं इसलिए सोचा कि चलो क्यों न काटने से पहले पूछ ही लिया जाए. पहले तो आवाज लगाई थी. नितिन ने टेलीविजन की आवाज इतनी तेज कर रखी थी कि कोई फायदा न जान मैं सीढि़यां चढ़ते हुए अपने बैडरूम की तरफ चल दी थी. मैं ने जैसे ही कमरे में प्रवेश किया तो जो देखा उसे देखने के साथ तो मेरी सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई थी. मैं कभी स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी, जो मेरे सामने हो रहा था.

आयशा अंकिता को फर्श पर खिलौने के साथ छोड़ कर खुद सोफे पर नितिन के होंठों में होंठ लगाए अनंत आनंद की यात्रा में तल्लीन थी. नितिन ने एक हाथ से आयशा को पूरी तरह से कसकर भींच रखा था तो उन का दूसरा हाथ आयशा के शरीर का मंथन कर रहा था.

अपनी बेटी की देखभाल व रक्षा के लिए रखी गई दूसरे की बेटी के जिस्म का यह कैसा मंथन था? मैं देख कर सन्न रह गई थी. कुछ पलों के बाद जब मुझे वहां अपने खड़े रहने का आभास हुआ तो मैं जोर से चिल्लाई थी, ‘नितिन.’

नितिन की नजर जब मुझ पर पड़ी तो उन का पूरा शरीर कांप उठा था. ठंडे पड़ते बदन में अब इतनी भी हिम्मत नहीं रही थी कि वे आयशा को अपने से अलग कर सके. आयशा ने पलट कर मेरी तरफ देखा तो वह झटके से उठ कर बाथरूम की तरफ भाग गई. और फिर बाथरूम की टोटी से पानी गिरने की आवाजें आने लगी थीं. उस पल पता नहीं मेरे मन में क्या आया, मैं ने अपनी चप्पल पैर से निकाली थी और नितिन के मुंह में ठूंस दी थी. फिर जोर से चिल्लाई थी, ‘गंदगी में ही मुंह मारना है तो लो मैं ही खिला देती हूं तुम्हें.’

तभी नीचे से मांजी की आवाज आई थी, ‘बहू क्या हुआ?’

मांजी की आवाज सुनते ही नितिन मेरे पैरों में पड़ गए थे. वे कुछ ही क्षणों में वह सबकुछ कह गए थे जो एक पत्नी को अपने पति के अहम को तोड़ने के लिए काफी होता है. मांजी जब तक सीढि़यां चढ़ कर हमारे बैडरूम में पहुंचीं तब तक नितिन वापस सोफे पर बैठ चुके थे व मैं ने अंकिता को गोद में उठा लिया था.

‘बहू, क्या हुआ था जो इतनी जोर से चिल्लाई?’

‘कुछ नहीं मांजी, बैडरूम से कुछ गिरने की आवाज आई थी. मैं ने आ कर देखा तो अंकिता बैड से नीचे गिरी हुई थी. उसे देख कर मेरे मुंह से चीख निकल गई.’

‘आयशा कहां है?’ मांजी के पूछने पर मैं ने कह दिया कि वह बाथरूम में है. मेरा जवाब सुन कर मांजी यह कहते हुए वापस अपने कमरे की तरफ चली गई थीं कि पता नहीं आजकल के मांबाप क्या करते रहते हैं? 2 बच्चों की भी ढंग से देखभाल नहीं कर सकते. उस के लिए भी अलग से कामवालियां. अरे, हम ने भी तो बच्चे पाले हैं, एक नहीं…

मांजी के जाने के बाद मैं ने आयशा को बाथरूम से जल्दी बाहर निकलने को कहा था. वह जब तक बाथरूम से बाहर नहीं आई, मैं अंकिता को गोद में लिए फनफनाती हुई बाथरूम के आगे ही उस की प्रतीक्षा में चक्कर लगाती रही. बाथरूम की कुंडी खुली तो मेरी निगाहें दरवाजे पर जा कर अटक गई थीं. आयशा ने जिन कपड़ों को पहन रखा था वह उन्हीं कपड़ों में नहा कर बाथरूम से बाहर निकल आई थी. उस को देखने से ऐसा आभास हो रहा था कि जैसे उस के तनबदन में अब भी कामाग्नि हिलौरे ले रही थी. आयशा की आंखों में कहीं भी अपराधबोध, आत्मग्लानि व पश्चात्ताप के भाव नजर नहीं आ रहे थे. तब मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने उस के गीले गाल पर अपने उलटे हाथ का एक जोरदार थप्पड़ जड़ते हुए कहा था, ‘आयशा, जल्दी से कपड़े बदल कर मेरे कमरे में आओ.’

वह थोड़ी देर के बाद हमारे बैडरूम में हम दोनों के बीच थी, मगर कोई शिकन उस के चेहरे पर नहीं थी. मैं उस के इस रूप को देख कर हैरान व परेशान थी. मैं ने ही मन में सोचा कि इस लड़की को नितिन ने ऐसा कौन सा पाठ पढ़ा दिया है जो यह इतनी बड़ी भूल करने के बाद भी बिलकुल सामान्य हो कर खड़ी है.

मैं ने एकाएक आयशा से पूछा, ‘आयशा, यह सब कब से चल रहा है?’

‘मुझ से क्या पूछती हो आंटी, अंकल से पूछो न.’

उस का यह उत्तर सुन कर मैं ने अपना रुख नितिन की ओर किया तो नितिन ने अपना मुंह नीचे फर्श पर गड़ा दिया. मुझे लगा था कि नितिन का मन पश्चात्ताप के कुएं में डुबकियां मार रहा था.

आयशा का दाहिना हाथ पकड़ कर उसे दूसरे कमरे में ले गई और वहां उसे एक सोने की लौंग व 3-4 पुराने सूट दे कर कहा, ‘अपना सारा सामान अभी समेट लो…और ध्यान से सुन, तू इस बात का किसी से भी जिक्र नहीं करेगी…और हां, अपनी मां को कह देना कि अब हमें तुम्हारी जरूरत नहीं रही.’

आयशा वाली घटना को अभी 7-8 महीने ही हुए होंगे कि नितिन ने रात को देर से आना शुरू कर दिया था. पूछने पर कहा था, ‘आजकल आर्डर अधिक हैं, सो रात वाली शिफ्ट में भी लेबर से काम होता है.’

तब नितिन ने मेरी आंखों पर मेहनत की बातों का ऐसा चश्मा चढ़ाया था कि जब तक मेरी आंखों ने परदे के पीछे की सचाई को देखना शुरू किया तब तक नितिन एक और सांवलीसलोनी के साथ जाने कब ऐसे घुलमिल गए जैसे पानी के साथ चीनी. और उस सावंलीसलोनी औरत के साथ नितिन न जाने अपनी कितनी रातें रंगीन कर चुके थे. बाद में पता लगा था कि उस औरत को उस के पति ने छोड़ रखा था और वह ऐसे ही शिकार की तलाश में रहती थी.

मेरा जब कभी भी फैक्टरी में जाना होता तो वह औरत हलकी सी हंसी होंठों पर ला कर बड़े ही अंदाज से ‘नमस्तेजी’ कहती थी.

मेरी यादों में जीवित होहो कर उन सब की ‘नमस्तेजी’ अब भी व्यंग्य कसती है मुझ पर. मैं आज तक उन हादसों से अपनेआप को नहीं निकाल पाई हूं. पति पर शक करना अपनी गृहस्थी में कांटे बोना जैसा होता है. पर जब शक विश्वास में बदल जाए तो जिंदगी नीरस हो कर रह जाती है.

मैं शादी के बंधन से ही विश्वास खो बैठी हूं और शायद, तभी से खुद को वैसा कभी नहीं पाया जैसा विश्वास टूटने से पहले…बस, गृहस्थी की डगर पर चलती जा रही हूं. शायद यह सोच कर कि वैवाहिक जीवन के आधे से अधिक का रास्ता तय करने के बाद भारतीय नारी के लिए पलट कर वापस पहले छोर पर जाने की गुंजाइश कहां रहती है, क्योंकि इसी रास्ते पर हमारे पीछेपीछे कुछ नन्हेनन्हे पांव भी चल रहे होते हैं. अगर कदम वापस लिए तो ये नन्हेनन्हे पांव असंतुलित हो, हम से भी पहले गिर सकते हैं और कुचल भी सकते हैं.

यह सब सोच कर ही मैं नहीं रुकने देती गृहस्थी के पहिए को…और चलती जा रही है नितिन के साथसाथ मेरी जिंदगी की गाड़ी सुनसान मोड़ों पर, ऊबड़खाबड़, पथरीले रास्तों से गुजरती हुई एक अनजान मंजिल की तरफ.

आज चेहरा दूसरा है. आयशा की जगह धोबी की लड़की है. मगर ‘नमस्ते जी’ के पीछे छिपे अभिप्राय को मैं जहां तक समझ पाई हूं, वह केवल एक ऐसा मर्द ढूंढ़ना है जो सभ्यता व संस्कार का मुखौटा लगाए तलाश में रहता है प्रतिपल एक नए संबोधन की कि कोई मुसकराए और धीरे से कहे,

‘‘नमस्ते जी.’’

नया पड़ाव: भाग 2- जब पत्नी को हुआ अपनी गलती का अहसास

राकेश रात के 8 बजे लौटे. मुझे अनदेखा कर के बोले, ‘‘खाना तैयार हो तो

ले लाओ नहीं तो कल से खाना भी बाहर खा लिया करूंगा. फिर तुम्हें रंजू के लिए और ज्यादा वक्त मिल सकेगा.’’

मुझे गुस्सा तो बहुत आया परंतु चुप रहना ही उचित समझ खाना परोस कर ले आई. इतने व्यंग्य सुन कर मेरी भूख मिट गई थी. गले में ग्रास अटके जाते थे, पर जैसेतैसे खाना निबटा कर मैं उठ गई. राकेश ने मेरे कम खाने पर कुछ नहीं पूछा तो मन और उदास हो गया क्योंकि ऐसा पहली बार ही हुआ था.

सोचा, रात के एकांत में राकेश जरूर मुझे प्यार करेंगे. अपनी गलती के लिए कुछ कहेंगे परंतु बरतन समेट कर कमरे में आई तब तक राकेश सो चुके थे. उस पूरी रात मैं ठीक से सो भी नहीं सकी. आंखें बारबार भीगती रहीं.

मन में यह भी विचार आया कि राकेश कहीं किसी चक्कर में तो नहीं फंस गए. पर अंत में यह सोच कर कि आगे से राकेश के आने के वक्त से ठीक से तैयार हो जाया करूंगी, मैं हलकी हो कर सो गई.

सुबह देर से आंख खुली. रंजू बेतहाशा रो रहा था और राकेश अखबार पढ़ रहे थे. मैं ?ाटके से उठी. रंजू को उठाया और राकेश से बोली, ‘‘इतनी देर से रो रहा है, क्या यह सिर्फ मेरा

ही बेटा है जो आप इस की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते.’’

राकेश चिढ़ कर बोले, ‘‘अलार्म का

काम कर रहा था तुम्हारा सुपूत, सो मैं बैठा

रहा ताकि तुम उठ कर चाय तो तैयार करो.

अब इस के होने पर न जाने क्याक्या बंद होने वाला है मेरा.’’

जैसे मुझे खिजाते हुए वे दोबारा अखबार पढ़ने लगे. मैं ने उठ कर रंजू को दूध दिया. फिर स्वयं बाथरूम से निबट कर चाय बना कर लाई तो राकेश बोले, ‘‘अब बैड टी तो गोल यह नाश्ते का वक्त है, कुछ साथ में ले आती तो नाश्ता गोल होने से बच जाता.’’

राकेश के इस तरह के व्यवहार की क्या वजह थी मुझे समझ में नहीं आ रहा था. फिर सुबहसुबह लड़ाई कर के बात बढ़ाना बेकार समझ मैं ने राकेश को घूर कर बिस्कुट का डब्बा पकड़ा दिया और चुपचाप चाय पीने लगी.

अभी बेइंतहा काम मेरा इंतजार कर रहा था. पहले ही काफी देर हो गई थी. मैं खाली चाय पी कर रसोई में आ गई. राकेश के लिए लंच बाक्स तैयार करना था.

रंजू को वाकर में बैठा कर मैं रसोई में ही ले आई. झटपट सब्जी बनाई और आटा गूंध कर परांठे तैयार किए. तब तक राकेश तैयार हो चुके थे.

मैं ने चुपचाप लंच बौक्स राकेश को पकड़ा दिया. बाहर तक छोड़ने आई तो राकेश मेरी ओर बगैर ध्यान दिए चल दिए.

सारा दिन मन बुझ रहा. अंदर का खालीपन और गहरा हो गया. रंजू की तबीयत

अब थोड़ी ठीक थी. मैं सारा काम चुपचाप करती रही. दिन में मां को पूरी बात बताई तो उन्होंने अपनी पुरानी कहानी शुरू कर दी कि पति की सेवा ही स्त्री का धर्म है. पति को कैसे भी मना और भूल कर भी लड़ना नहीं. शाम हुई तो मैं तैयार हो कर राकेश का इंतजार करने लगी.

मगर राकेश शाम के 7 बजे आए. मैं ने अच्छी साड़ी पहनी थी पर  उसे रंजू ने 3 बार गीला कर दिया था और वह जगहजगह से मुस गई थी. गोदी में उछलउछल कर उस ने मेरे बाल भी अस्तव्यस्त कर दिए थे.

राकेश देर से आने की कैफियत दिए बगैर बोले, ‘‘भारत की औरतों में एक बात है. बच्चों के पीछे सरी जिंदगी तबाह कर देती हैं. गीली साड़ी, उलझे बाल, खुरदुरे हाथ और मुरझया चेहरा. बस, बच्चों के बाद यही तसवीर मिलेगी औरतों की. अरे बाहर की औरतों को भी देखो, कैसे बच्चे पालती हैं. घर का काम भी करती हैं, बाहर का भी. फिर भी फूल की तरह मुसकराती रहती हैं.’’

मैं बिना कुछ कहे हिचकियां भरभर कर रोने लगी. रोतेरोते ही बोली, ‘‘सारा दिनभर खप कर काम किया है. फिर सज कर आप का इंतजार करती रही. इतनी देर से आए और अब भाषण देने लगे. बच्चों के लिए बड़ी आयानौकरानी रख दी है न, जो सारा दिन फूल सा मुककराता चेहरा ले कर आप के आगेपीछे घूमती रहूं. बरतन, सफाई, कपड़े, रंजू की देखभाल सब मेरे जिम्मे है. आप को तो सिर्फ बातें बनानी आ गई हैं… काम से लौट कर जख्मी तीर चला देते हो. अब रंजू को आप ही संभालो, मैं कुछ दिनों के लिए मायके

जा रही हूं,’’ कह कर मैं सचमुच अपने कपड़े समेटने लगी.

राकेश सिटपिटा कर बोले, ‘‘अरे भई, मैं तो मजाक कर रहा था. तुम्हारे बगैर कहीं मेरा गुजारा है. छोड़ो भी यार, हम तो कहते हैं हमारा भी कुछ खयाल रख लिया करो, बस.’’

मैं पिघल गई. राकेश ने उस रात मुझे खूब प्यार किया. खाना खा कर राकेश टहलने गए तो मेरे लिए एक कोल्ड क्रीम और हैंड लोशन खरीद लाए. बोले, ‘‘काम के बाद इन्हें इस्तेमाल किया करो, हाथ खराब नहीं होंगे.’’

सुन कर मुझे लगा कि राकेश अब भी मुझे बहुत प्यार करते हैं. मैं ही बुरी हूं जो उन का ध्यान नहीं रखती.

कुछ दिन मैं ने राकेश का खूब ध्यान रखा. थोड़ा जल्दी सुबह उठने से राकेश के लिए वक्त निकल आता था. पर थोड़े दिनों बाद मैं इस क्रम से ऊब गई क्योंकि दिनभर रंजू मुझे सोने नहीं देता था और रात को भी जगाता था. नींद पूरी न हो पाने से मैं चिड़चिड़ी हो गई और हार कर मैं ने सुबह देर से उठना शुरू कर दिया.

सारा दिन फिर उसी क्रम से सब काम देर से होते गए और शाम तक राकेश के लौटने तक मैं कामों में ही उलझ रहने लगी. स्वयं अपने पर ध्यान देने और सजने के लिए वक्त निकालने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था.

कभी राकेश किसी पत्रिका में त्वचा की देखभाल या हाथपैरों की सुरक्षा पर कोई लेख पढ़ कर मुझे पढ़ने को कहते तो पढ़ने पर मुझे लगता कि वे सब किताबी बातें हैं, क्योंकि ढेर से काम निबटाने के बाद जब रात होती तो सिर्फ जल्दी से बिस्तर में घुसना ही याद रहता. गरम पानी से हाथपैर साफ कर के उन पर क्रीम और लोशन मलने में आधा घंटा भी गुजारना मुझे व्यर्थ लगता. सुबह फिर उसी क्रम से व्यस्तता शुरू हो जाती. इस व्यस्तता ने मेरे हाथपैर और चेहरे को बेरौनक कर दिया था. पर मैं सोचती इस में मैं क्या कर सकती हूं. घर का सारा काम भी तो मुझे ही निबटाना है.

राकेश ने देर से घर आना शुरू कर दिया

था. पर रंजू की देखभाल और घर की व्यवस्था

में उलझ मैं राकेश के देर से आने को कभी महत्त्व नहीं दे पाई क्योंकि उन के जल्दी घर

आने का मतलब था कि मैं भी साथ तैयार हो कर कहीं घूमने निकलूं, जो मुझे खलने लगा था. बच्चों के साथ कहीं ये सब संभव है? अच्छी साड़ी की दुर्दशा से बचने के लिए मैं अकसर गाउन ही पहने रहती.

राकेश ने अब कहना छोड़ दिया था. मैं ने भी कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि राकेश घर क्यों देर से आते हैं.

रंजू 3 साल का हो गया था. काम कुछ कम होता, इस से पहले ही पिंकी पैदा हो गई और फिर मैं उसी क्रम से उल?ाती चली गई. घर, बच्चे और मैं. न जाने कब सुबह होती और कब रात. काम खत्म होने को ही नहीं आते थे. बच्चों के मोह में अटकी में सारा दिन उन के आगेपीछे घूम कर खानापीना या दूध दिया करती. नहीं  खाते तो हाथ से ग्रास बनाबना कर खिलाती.

रंजू अब स्कूल जाने लगा था. उसे पढ़ाने का काम और बढ़ गया था. राकेश सुबह दफ्तर जाते तो रात के 7-8 बजे ही घर लौटते और फिर खापी कर सो जाते.

नया पड़ाव: भाग 1- जब पत्नी को हुआ अपनी गलती का अहसास

उस दिन मेरा मन बहुत बुझाबुझा सा था. मेरी बेटी पिंकी 4 साल का मैडिकल कोर्स करने के लिए कजाकिस्तान चली गई थी. जातेजाते वह घर को बुरी तरह फैला गई थी. न जाने कहांकहां उस का सामान पड़ा रहता था. बड़ी मुश्किल से जुगाड़ लगा कर 8-10 लाख रुपए का लोन ले कर उसे भेजा था. महीनों वह इस तरह के कालेजों में एडमिशन की जानकारी लेती रही थी. मैरिट में उस को वह रैंक नहीं मिली थी कि इतने में भारतीय निजी कालेज में पढ़ाई कर सके.

8 दिन बाद मेरा बेटा रंजू भी जब अपनी नौकरी पर देहरादून चला गया तो मैं काफी अकेलापन महसूस करने लगी थी. पर फिर भी घर समेटने में मुझे 8 दिन और लग गए.

शादी के 2-3 दिन बाद राकेश ने भी दफ्तर जाना शुरू कर दिया था. उस दिन मुझे सुबह से लग रहा था कि अब कोई काम ही नहीं है.

अब तक अपने वैवाहिक जीवन में मैं हमेशा काम समेटने के चक्कर में, घर चलाने व सुव्यवस्थित रखने की हायतोबा में और बच्चे पालनेपोसने में ही जिंदगी जीती आई थी. शांति से बैठने, अपने बारे में सोचने का कभी वक्त ही नहीं मिला. हमारी शादी अरैंज्ड मैरिज थी पर बच्चे जल्दी हो गए और मैं बिहार के एक कसबे से दिल्ली आ गई. अपने शहर में कभी ब्यूटीपार्लर नहीं गई थी. शादी के टाइम पहली बार गई थी. पिंकी बहुत बार कहती कि ममा चलो. पर मुझे लगता था कि मैं ऐसे ही ठीक हूं.

जब भी किसी पत्रिका में हाथों की देखभाल, पांवों की सुरक्षा या त्वचा की देखभाल पर कोई लेख पढ़ती थी तो लगता था ये सब खाली वक्त के चोंचले हैं या फिर उन लोगों के लिए हैं जिन के घर में नौकरचाकर हैं अथवा उन के लिए हैं जो मौडलिंग करती हैं.

मगर अब जिंदगी के इस मोड़ पर पहुंच कर जब मैं दोनों बच्चों की शादियां निबटा चुकी थी फुरसत के क्षण जैसे मेरे आगेपीछे बिखर गए हैं. अब जब मैं ने अपने खुरदुरे हाथों और बिवाई पड़े पैरों पर निगाह डाली तो हैरानी हुई है कि इन पर कभी ध्यान क्यों नहीं गया?

मैं उठ कर शीशे के आगे जा खड़ी हो

गई. उफ क्या यह मैं ही हूं. बाल किस कदर कालेसफेद हो गए हैं. चेहरे की रौनक खत्म

हो गई है. झुर्रियां और आंखों के नीचे का कालापन मेरी लापरवाही का संकेत है या मैं सचमुच बूढ़ी हो गई हूं. दिमाग पर जोर दिया तो याद आया अगले दिन ही तो पूरे 39 वर्ष की हो जाऊंगी मैं. सोच कर उदासी की परत और गहरी हो गई.

अब न मैं बूढ़ी कही जा सकती थी और न ही जवान. बच्चे अपनेअपने ठिकानों पर जा चुके थे और राकेश अपने में ही मस्त थे. रह गई थी

तो सिर्फ मैं. अपनी जिंदगी के अकेलेपन का एहसास होते ही वीरानी और निराशा सी महसूस करने लगी.

अतीत को टटोला तो लगा अपनी नासमझ या फिर जिद्दीपन या दोनों ही की वजह से मैं अपने बच्चों की सिर्फ मां बन सकी हूं, एक अच्छी पत्नी नहीं. राकेश भी बिहार से दिल्ली आया था और उस के विवाह के पहले के बहुत से दोस्त थे. कई तो कई साल तक रूममेट भी थे. उन के साथ उसे अपनापन लगता था.

फिर सोचा, खैर जो हुआ सो हुआ अब अपना फुरसत का साथी अपने पति को ही बनाना होगा. बच्चों के पीछे तो सारी जिंदगी ही बिना दी मैं ने.

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया. मैं ने विचारों की केंचुली से निकल कर दरवाजा खोला. देखा, मेरे पति राकेश दफ्तर से लौट आए हैं. मैं ने मुसकरा कर उन का स्वागत किया.

राकेश बोले, ‘‘ओह, आज यह सूरज कहां से उगा है? तुम और फुरसत से मुसकरा कर मेरा स्वागत करो? क्यों भई, तुम्हें तो इस वक्त रसोई में होना चाहिए था या मोबाइल पर भाभी या फिर मां से चुगली करने में व्यस्त.’’

राकेश का व्यंग्य मुझेअंदर तक कचोट गया. सारा उत्साह बटोर कर बोली, ‘‘अब दोनों बच्चे चले गए. आखिर कभी तो फुरसत होनी

ही चाहिए.’’

‘‘पर मुझे अब फुरसत नहीं है. मेरे फुरसत के क्षणों पर मेरे उन दोस्तों का अधिकार हो गया है, जो शादी से पहले साथ थे,’’ राकेश बोले. फिर कुछ उदास से हो कर आगे कहने लगे, ‘‘मैं ने कितना चाहा कि तुम मेरे साथ रहो. मेरी हमदम रहो शादी के पहले साल ही रंजू हो गया, पर तुम्हें तो बस बच्चों के आगे कभी कुछ सू?ा ही नहीं. मैं ने कहा भी था कि गर्भपात करा लो पर तुम्हारी दकियानूसी मां नहीं मानी. अब मैं मजबूर हूं. चाहो तो रोज की तरह रसोई से चाय बना कर पिंकी के हाथ भेज दो. मैं तब तक तैयार हो रहा हूं. आधे घंटे में हम सब अपने छड़े दोस्त के फ्लैट पर मिल रहे हैं.’’

राकेश मुझे आहत कर के दूसरे कमरे में चले गए. मैं हताश सी दूसरे कमरे से निकल कर रसोई में आ गई. राकेश यह भी भूल गए थे कि रोज उन्हें चाय पहुंचाने वाली पिंकी अब ससुराल जा चुकी है.

चाय बनातेबनाते मैं सोचती रही कि आज राकेश उस के जाने के बाद पहली बार दफ्तर

गए हैं, इसीलिए शायद रोज के क्रम को याद कर रहे हैं.

चाय बना कर मैं ने राकेश को दे दी. प्याला पकड़ते हुए वे बोले, ‘‘ओह, मैं तो भूल ही गया था पिंकी तो अब है ही नहीं.’’

मुझे ऐसा लगा जैसे मैं रो पड़ूंगी, पर रोई नहीं. जैसेतैसे चाय समाप्त हो गई. राकेश भी चुपचाप चाय पी कर मेरे हाथों में प्याला

पकड़ाते हुए बोले, ‘‘खैर, मैं चलता हूं, देर हो

रही है.’’

मैं ने निरीह सी हो कर उन के जाने के बाद दरवाजा बंद कर लिया.

मुझे राकेश पर बहुत गुस्सा आया. एक तो मैं इतना अकेलापन महसूस कर रही थी, उस पर व्यंग्यबाण चला कर मुझे और आहत कर गए. निढाल सी पड़ कर मैं अनायास रोने लगी कि

एक दिन दोस्तों के साथ महफिल न सजाते तो क्या हो जाता. यही सोचसोच कर मैं काफी देर तक रोती रही.

फिर मुझे लगा कि शायद ऐसी स्थिति पर पहुंचने के लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूं. आज कुछ नया तो नहीं घटा. फिर 17 वर्षों के बाद ही क्यों मुझे राकेश का इस तरह जाना खल रहा है.

ऐसा तो हर शाम होता था, पर मुझे कभी कुछ खास नहीं लगा या शायद बच्चों के झंझटों से निकल कर मैं ने कभी इस बात पर ज्यादा गौर ही नहीं किया. लगा कि अब शायद सचमुच मैं बहुत फुरसत में हूं. तभी तो 19 वर्ष पूर्व के अपने सुनहले रुपहले दिन याद आने लगे थे.

मैं 22 की थी, राकेश 28 के. राकेश से जिस वक्त मेरी शादी हुईर् थी उस वक्त मैं और

राकेश एकदूसरे में ही खोए रहते थे. राकेश के दफ्तर जाने तक मैं उन के आगेपीछे ही घूमती रहती थी. उन की हर जरूरत का ध्यान रखती. राकेश तब मुझे पा कर फूले न समाते थे. इतना खयाल तो कभी उन की मां ने भी नहीं किया था. ऐसा उन का कहना था. हम लोग एक बड़े कसबे से आए थे. अच्छी पढ़ाईलिखाई के बावजूद मुझे घर में रहना ही पसंद था. राकेश ने बहुत कहा कि कोई नौकरी कर लो पर मैं नहीं मानी कि बच्चों को कौन देखेगा.

शुरूशुरू में दिनभर मैं राकेश के इंतजार में उन की मनपसंद चीजें बनाती रहती. आने का वक्त होता तो सजधज कर उन का स्वागत करती और फिर हम चाय पी कर घूमने निकल जाते. छुट्टी वाले रोज कभी कहीं घूमते, कभी कहीं. कभी पिक्चर तो कभी पिकनिक.

पड़ोसी तब हमें ‘युगल कपोत’ कहा करते थे क्योंकि मैं शादी के 1 साल में ही गर्भवती हो गई. इच्छा पूरी होती तो मैं ने उस की एहतियात के लिए घूमनाफिरना काफी कम कर दिया. राकेश को घूमने और पिक्चर देखने का बेहद शौक था, पर मैं उन्हें, ‘‘थोड़े ही दिन की तो बात है,’’ कह कर उन प्रोग्रामों को टालने लगी.

फिर 9 महीने बाद रंजू जब मेरी गोद में आया तो मानो मुझे सबकुछ मिल गया. राकेश भी खुश थे. हम ने प्यार से उस का नाम रंजू रखा.

40 दिन के आराम के बाद राकेश ने

पिक्चर का प्रोग्राम बनाया तो मैं ने यह कह कर मना कर दिया, ‘‘वहां रंजू रोएगा. बीच में उस

के दूध का वक्त होगा. वहां कैसे पिलाऊंगी.

आप का बहुत मन हो तो किसी दोस्त के साथ चले जाओ.’’

राकेश उस दिन मन मार कर अकेले

पिक्चर देख आए थे. पर फिर यह एक दिन का क्रम नहीं रहा. मैं रंजू के मोह में धीरेधीरे फंसती चली गई और मेरे घूमनेफिरने पर एकदम पाबंदी सी लग गई.

जब कभी राकेश उत्साहित हो कर कहीं चलने का प्रोग्राम बनाते तो मु?ो लगता बच्चे के साथ बाहर निकलना बहुत मुश्किल है. सर्दी

होती तो कहती, ‘‘रंजू को सर्दी लग जाएगी, बाहर बहुत हवा है. गरमी होती तो उसे लू लग जाने का भय बताती और बरसात होने पर उस के भीग जाने का.’’

सुन कर राकेश कभीकभी चिढ़ जाते थे. कभीकभी राकेश अपनी कमीज के बटन टूटने

की ओर ध्यान दिलाते तो मैं मुसकरा कर

कहती, ‘‘वक्त ही नहीं मिला आप के लाडले से. सारा दिन नचाए रखता है. अच्छा आज जरूर लगा दूंगी.’’

अकसर मैं उन के बताए काम भूल जाती. उन के आगेपीछे घूमना तो

मैं ने छोड़ ही दिया था. इस तरह रंजू की देखभाल में मैं न जाने कब राकेश को खोती चली गई, इस का मुझे पता ही नहीं चला.

राकेश के साथ घूमने में जो मजा आता था, उस से ज्यादा मजा मुझे रंजू को गोद में ले कर निहारते रहने में आता.

दिनभर रंजू के साथ कब गुजर जाता, मुझे पता ही न चलता. यह भी याद न रहता कि राकेश के आने का वक्त हो गया है.

एक दिन की बात है. राकेश ने दफ्तर जाते वक्त मुझे से पैंटकमीज निकाल देने को कहा. उस वक्त रंजू अपने नैपकिन को गोली कर के रो रहा था. मैं बोली कि रंजू हो रहा है, तुम जरा अपनेआप निकाल लो, तब तक मैं इस का नैपकिन बदल देती हूं.

मैं गुनगुनाती हुई रंजू का काम करने लगी. राकेश ने अपनेआप कपड़े तो निकाल कर पहन लिए, परंतु नाश्ते के वक्त मुझ से बिलकुल नहीं बोले, ‘‘आप को तो खुश होना चाहिए कि मैं आप के ही खून की अपने हाथों से देखभाल करती हूं, किसी आया या नौकरानी पर नहीं छोड़ती. अब बच्चे के साथ काम तो बढ़ ही जाता है. ऐसे में उलटे आप को चाहिए कि मेरा हाथ बंटाओ, कभीकभार सब्जी कटवा दो, चाय बना दो या रंजू का कोई काम कर दो. अपने कपड़े तो अपनेआप निकालने ही चाहिए आप को. अब पहले की तरह मैं खाली तो हूं नहीं जो हर वक्त आप के आगेपीछे घूमती रहूं.’’

सुन कर राकेश मुझे घूरते रहे. फिर दफ्तर चले गए. मैं ने बाहर जा कर उन्हें विदा भी नहीं किया… रंजू ने उलटी कर दी थी. उसे ही साफ करने में लगी रही.

उस दिन रंजू ने कई बार उलटियां कीं. घबरा कर मैं उसे डाक्टर के पास ले गई. दवा पीने के बाद वह आराम से सो पाया.

मैं ने रंजू की उलटियों से खराब हुए कपड़े धोने शुरू ही किए थे कि राजेश दफ्तर से लौट आए. शाम के 5 बज गए थे. मुझे पता ही नहीं चला था.

उलझे बालों और भीगे गाउन से मैं ने दरवाजा खोला तो राकेश् को फिर गुस्सा आ गया. बगैर मुझ से बोले ही वे अंदर दाखिल हो गए.

रंजू तब तक जाग गया था. मैं राकेश से बोली, ‘‘राकेश रंजू को उठा लो. मैं तब तक कपड़े सूखने डाल कर आप के लिए चाय बना देती हूं.’’

सुन कर राकेश बोले, ‘‘सारा दिन दफ्तर

में काम करतेकरते थक कर घर आया हूं, अब क्या यहां की नौकरी बजाऊं? तुम चाय रहने दो. तुम्हें तो अब इतनी भी फुरसत नहीं कि अपने बाल संवारो, वक्त पर कपड़े धोओ और मेरे

लिए कुछ वक्त निकालो. मैं कहीं बाहर ही चाय पी लूंगा.’’

राकेश मेरी दिनभर की व्यस्तता का लेखाजोखा लिए बगैर बाहर चले गए. मेरा दिल रोने को हो आया. दरवाजा बंद कर के रोतेरोते रंजू को उठा कर मैं ने चुप कराया. उसे दूध गरम कर पिलाया, दवा दी. वह खेलने लगा तो मैं ने फटाफट कपड़े धो कर सूखने डाल दिए. शाम की चाय अकेले ही पी.

अब तक मैं सुबह से काम करतेकरते थक गईर् थी, परंतु रात का खाना अभी तैयार करना था. जल्दीजल्दी वह भी काम निबटाया और स्वयं तैयार हो कर राकेश का इंतजार करने लगी.

नमस्ते जी: भाग 2- आज उस ने अपनी बड़ी लड़की को काम पर क्यों भेजा…

एक दिन दोपहर में लगभग ढाई बजे के आसपास जब मैं अंकिता को दूध पिला रही थी तो प्रीति मेरे पास कमरे में आई. वैसे तो यह समय उस का आराम करने का होता था. उस की सांस कुछ फूली हुई सी थी और उस के सिर के बाल बेतरतीब से फैले हुए थे. मैं ने उस को नीचे से ऊपर तक निहारा तो लगा कि उस के साथ कुछ हुआ है. मैं ने पूछा था, ‘प्रीति, तुम इतनी घबराई हुई सी क्यों लग रही हो? क्या बात है?’

‘मेमसाहिब, आप कोई और काम करने वाली ढूंढ़ लो. मैं अब आप के घर काम नहीं कर सकती.’

‘क्यों प्रीति, ऐसा क्या हुआ जो तुम अचानक इस तरह दोपहर में काम छोड़ कर जा रही हो? तुम्हारे साथ हम सब अच्छे से बरताव करते हैं. तुम्हें यहां किसी तरह की कोई रोकटोक भी नहीं है. अपनी इच्छा से काम करती हो. जब मन में आता है तब घर घूम आती हो. फिर आज अचानक ऐसा क्यों…’

प्रीति तब कुछ नहीं बोल पाई थी. बस, वापस मुड़ कर अपनी चुनरी के एक कोने को मुंह में दबाए भाग ली थी वह. मैं कुछ भी नहीं समझ पाई थी. अंकिता को सोता छोड़ कर मैं दूसरे कमरे में आ गई थी जहां नितिन सोए थे. मैं ने उन्हें जगाया तो आंख भींचते हुए बोले, ‘क्या बात है छुट्टी वाले दिन तो आराम कर लेने दिया करो?’

मैं ने सारा वृतांत उन्हें सुनाते हुए पूछा, ‘तुम्हें कुछ समझ में आ रहा है कि प्रीति ऐसे अचानक क्यों भाग गई?’

‘प्रीति अपने घर चली गई? मैं आराम करने के लिए जब कमरे में आया था तब तो वह बरामदे में लेटी हुई थी. हो सकता है सोते हुए उस ने कोई बुरा स्वप्न देख लिया हो. शायद डर गई हो, बेचारी. कहीं तुम ने या मां ने तो कुछ नहीं कह दिया? काम करते वक्त उसे कुछ कह तो नहीं दिया आज सुबह या कल शाम को?’

‘नहीं तो, इतने दिन हो गए भला आज तक कुछ कहा है, जो आज. हां, हो सकता है सोते हुए उस ने कोई बुरा स्वप्न देखा हो. खैर, चलो छोड़ो, मैं शाम को उस के घर हो आऊंगी.’

यह कह कर मैं अपने कमरे में आ तो गई लेकिन मुझे चैन नहीं पड़ा रहा था. मैं बैड पर लेटेलेटे सोचती रही कि आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो वह भरी दोपहर में घर वापस जाने को मजबूर हो गई? मांजी से पूछा तो उन्होंने कह दिया कि उन की तो आज प्रीति से कोई बात ही नहीं हुई.

मुझे जब असमंजस में और अधिक नहीं रहा गया तो मैं प्रीति के घर पहुंच गई थी. प्रीति एक कोने में अलग सी बैठी थी. मुझे दहलीज पर देख कर भी कुछ नहीं बोली, वैसे ही बैठी रही थी, वरना तो उठ कर मेरा स्वागत करती थी. मैं ने जब काम छोड़ने के बारे में जानना चाहा तो उस की मां ने इतना ही कहा था, ‘मेमसाहिब, अब प्रीति तुम्हारे घर काम नहीं करेगी. अब यह गांव जाएगी इस की वहां शादी तय हो गई है.’

‘ऐसे अचानक, कैसे?’

‘बस, मेमसाहिब, हम गरीब लोगों के साथ कब, कैसे, क्या गुजर जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता. आप ठहरे बड़े आदमी, हम छोटे लोग भला क्या कह सकते हैं? बाकी अब प्रीति आप के घर नहीं जाएगी.’

मेरी लाख कोशिशों के बावजूद प्रीति ने काम छोड़ने का कारण नहीं बतलाया और मैं अपना सा मुंह ले कर वापस घर आ गई थी. घर आ कर मैं कुछ देर तक सोचती रही थी.

‘आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो प्रीति यों काम छोड़ कर चली गई और अब उस की शादी करने की बातें हो रही हैं. जिस के लिए उसे गांव भेजा जा रहा है. अभी तो प्रीति की उम्र 13 वर्ष की ही होगी, फिर इतनी जल्दी वह भी एकाएक.’

जब समझ में कुछ नहीं आया तो मैं नितिन के पास आ गई और उन से किसी दूसरी काम वाली लड़की का इंतजाम करने को कहा.

अनमने मन से नितिन ने कहा, ‘हां, देखता हूं. इतनी जल्दी थोड़ी ही काम वाली लड़कियां मिलती हैं, वह भी तुम्हारी पसंद की.’

तब मैं ने कहा था, ‘कोई बात नहीं. कैसी भी ले आओ, चलेगी. बच्चों का ध्यान कैसे रखना है, वह सबकुछ मैं समझा दूंगी.’

अगले ही दिन नितिन ने अपनी जानकारी में कइयों को काम वाली के बारे में कह दिया था. उस के 4-5 दिन के बाद शर्माजी के यहां काम करने वाली बाई ने ‘डोर बेल’ बजाई तो सास ने उस के पास जा कर पूछा था, ‘हां रमा, क्या बात है. कैसे आई हो?’

‘बीबीजी को एक लड़की चाहिए न बच्चों की देखभाल के लिए, सो उसी की खातिर आई थी.’

मैं ने घर के अंदर से ही कह दिया था. ‘हां रमा, चाहिए. लेकिन कौन है?’

‘मेमसाहिब, मेरी बड़ी लड़की 14-15 साल की है मगर…’

‘मगर क्या?’ सास ने पूछा था.

‘जी वह पैर से थोड़ी अपाहिज है. लेकिन घर का सारा काम कर लेती है. मेरी 4 लड़कियां उस से छोटी हैं. वही मेरे पीछे से घर का सारा काम करती है और अपनी छोटी बहनों की देखभाल भी. अब खर्चा बढ़ गया है न. शर्माजी की बीवी ने कहा था कि आप को तो सिर्फ काम वाली 2 घंटे सुबह और 2 घंटे शाम को चाहिए तो वह इतना वक्त निकाल लेगी.’

तब तक मैं भी अपनी सास के पास आ कर खड़ी हो गई थी. मैं ने उस से पूछा था कि महीने के हिसाब से कितने पैसे लोगी? हम उसे दोनों समय खाना तो देंगे ही साथ में कपड़े भी दे देंगे.

उस ने कहा था कि जो मरजी दे देना मांजी. वैसे मैं एक घर में बरतन करने का 300 रुपए लेती हूं.

मैं ने तपाक से कहा था, ‘अच्छा चल, कुल मिला कर महीने के 500 रुपए दे देंगे. अगर ठीक है तो आज शाम से ही भेज दो.’

500 रुपए सुन कर उस ने झट से हां की और हमारा अभिवादन कर के चली गई.

शाम को उस ने अपनी बड़ी लड़की को हमारे यहां काम के लिए भेज दिया था. लड़की का हुलिया दयनीय था. मोटेमोटे काले होंठ, उभरे हुए दांत जिन पर गंदगी साफ देखी जा सकती थी, मैलेकुचैले कपड़े. छाती पर इतना ही उभार था कि बस यह महसूस किया जा सके कि लड़की है. मेरे नाम पूछने पर उस ने अपना नाम आयशा बतलाया था. उसे देख कर मैं मन ही मन सोचने लगी कि ‘यह क्या काम करेगी? पहले तो मुझे ही इस के लिए कुछ करना पड़ेगा.’

मैं ने तब नहाने का साबुन व बदलने के लिए दूसरे कपड़े देते हुए उसे ताकीद की थी कि पहले तुम अच्छे से नहा कर आओ और दांत साफ करना मत भूलना. उस ने मुझ से कपड़े और साबुन लिए और पूछा, ‘आंटीजी, बाथरूम किस तरफ है?’

मैं चौंक गई थी. ‘अरे, तुम अपने घर जा कर नहा कर आओ.’

तब उस ने कहा था कि आंटी, हमारे घर बाथरूम कहां. मैं तो अंधेरा होने पर ही घर के आंगन में नहा लेती हूं या फिर सूरज निकलने से पहले.

मैं सोच में पड़ गई थी कि क्या करूं, क्या न करूं? यह कैसी मुसीबत आ गई. मांजी को पता चल गया तो. खैर, उसे चुपचाप बाथरूम में भेज मैं आंगन में बिछी चारपाई पर अंकिता को ले कर बैठ गई थी. वह थोड़ी ही देर में नहा कर बाहर आ गई थी. मैं ने उसे उस का सारा काम समझाते हुए उस से पहले बाथरूम की जम कर सफाई करवाई थी.

आयशा मेरी सोच से अधिक समझदार निकली. जो भी कहती वह उसे आगे से आगे, बिना ज्यादा बुलवाए, पूरा कर देती थी. जब भी उस को समय मिलता तो वह अंकिता को ले मेरे पास आ बैठती और कहती थी, ‘आंटी आप कितनी सुंदर हैं. आप क्या लगाती हैं अपने मुंह पर? कौन सी क्रीम लगाती हैं? कौन सा तेल इस्तेमाल करती हैं? आप के बालों से बहुत अच्छी महक आती रहती है.’

आयशा मेरी तारीफ करनी शुरू कर देती थी तो रुकती ही नहीं. मैं उसे अब अकसर शैंपू, तेल, साबुन, क्रीम दे दिया करती. उसे नए कपड़े भी सिलवा कर दे दिए थे. मेरे कहने से दांत मंजन करतेकरते न जाने कब आयशा आंख में अंजन भी करने लगी थी.

अपने अपने सच: भाग 3- पहचान बनाने के लिए क्या फैसला लिया स्वर्णा की मां ने?

मेरा एक कमरे वाला घर आ गया तो उन्होंने स्वयं नीचे उतर कर मेरी तरफ की खिड़की खोली, ‘आओ, स्वर्णा…’ इतना सम्मान…

‘चाय नहीं लेंगे सर?’ मैं ने संकोच छोड़ आग्रह सा किया, ‘मां दरवाजे पर खड़ी हैं, उन से नहीं मिलेंगे…?’

वे सिर्फ मुसकराते रहे. फिर कभी आने को कह गाड़ी आगे बढ़ा ले गए.

लतिका के पापा को देख कर मां बहुत खुश हुईं और पूछ बैठीं, ‘कौन था यह आलीशान गाड़ी वाला?’

‘मेरी सहेली लतिका के पापा,’ मैं उत्साह से सराबोर थी, ‘मैं ने जिंदगी में ऐसा शानदार बंगला नहीं देखा मम्मी, जैसा इन का है…और पता है मम्मी, इन्होंने नाश्ते में मुझे क्याक्या खिलाया?’ इस तरह मां को मैं बहुत कुछ बता गई. पर उन की जांघ मेरी नंगी जांघ से सटी रही, मुझे यह छुअन अद्भुत लगी, इस बात को मैं ने छिपाए रखा और इस अनुभव को मैं गोल कर गई.

मैं सोच रही थी कि देर से आने के लिए मां मुझे जरूर डांटेंगी पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, उलटे वे बहुत खुश हुईं और बोलीं, ‘चलो, बड़े लोगों के संपर्क में आ कर तुझे कुछ उठनेबैठने का ढंग आ जाएगा.’

उस के बाद कई बार लतिका के साथ मैं और उस के पापा रेस्तराओं में गए. किताबों के मेले में गए. किला और जू देखने गए. हर जगह वे जिद कर के कुछ न कुछ मुझे खरीदवा देते जिसे एक संकोच के साथ ही मैं घर ला पाती.

जीवन में अपने पापा का अभाव ऐसे में मुझे बेहद खलता. काश, लतिका की तरह मुझे भी पापा का लाड़प्यार मिला होता. मेरी मां अगर ऐसा न करतीं तो हम भी अपने पापा के साथ कितने खुश होते. दूसरे क्षण ही, मैं यह भी सोच जाती कि लतिका के पापा एक तरह से मेरे  भी तो पापा ही हुए. पापा जितनी ही उम्र होगी इन की. बस, व्यवहार बहुत अलग किस्म का है. एकदम लाड़प्यार भरा.

एक दिन मां ने खुश हो कर मुझे बताया, ‘ले, तेरी एक और इच्छा मैं पूरी कर रही हूं. हम जल्दी ही एक छोटे लेकिन अपने फ्लैट में जाने वाले हैं.’

‘फ्लैट और वह भी हमारा अपना… इतने पैसे कहां से आए आप के पास?’ मैं ने कुपित स्वर में मां से पूछा तो वे अचकचा गईं.

‘तुझे आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से?’ उन्होंने एक प्रकार से मुझे डांटा और कहा, ‘बस, कल तक उस फ्लैट में हमें पहुंचना है, इसलिए आज से ही अपना सामान ठीक से समेटना शुरू कर दे…लतिका के पापा ने तुझे ढेरों कपड़े ले दिए हैं…उन को ठीक से पैक करना…’

एक दिन लतिका ने स्कूल में बताया,

‘हम लोग बाहर पिकनिक पर चलेंगे. पापा अपनी गाड़ी से हमें ले चलेंगे…खूब मजा करेंगे हम लोग…’

सुन कर मैं एकदम उत्साह और खुशी से उछल पड़ी, ‘लेकिन मम्मी पता नहीं तैयार होंगी मुझे कहीं भेजने को.’

‘उन्हें मना लेना,’ लतिका बोली, ‘कहना, मैं साथ चल रही हूं, पापा साथ होंगे फिर डर किस बात का…?’

नए फ्लैट की एक चाबी मां के पास रहती थी, और दूसरी मेरे पास. हम लोग अपनेअपने वक्त पर आजादी के साथ नए घर में आजा सकते थे. मुझे देर होती तो, मां चिंता नहीं करती थीं, वे जानती थीं कि मेरे साथ लतिका होगी, या उस के पापा.

उस दिन अपने खयालों में खोई मैं ने धीरे से दरवाजा खोला तो एकदम चौंक सी गई. मां बिस्तर पर किसी के साथ सोई थीं. मैं एकदम हड़बड़ा कर अपने कमरे में चली गई. वहां देर तक थरथर कांपती रही. जो देखा क्या वह सच था? कहीं आंखों को धोखा तो नहीं हुआ था? मां के साथ कोई आदमी ही था या वे अकेली थीं?

लेकिन मां तो इस समय अस्पताल में होती हैं. यहां कैसे आ गईं? इस आदमी को इस से पहले तो कभी मां के साथ नहीं देखा. फिर…? अनजाने भय और आशंका ने मुझे जकड़ लिया. चुपचाप कांपती मैं देर तक कमरे में बैठी रही.

जब कमरे से बाहर निकली तो सामने मां एकदम सहज सी दिखीं. मुझे देख कर मुसकराईं, ‘आज तू स्कूल से जल्दी आ गई.’

‘हां, किसी की मौत हो गई तो स्कूल में छुट्टी हो गई.’

मैं उदास थी पर मां हंस रही थीं. मन हुआ पूछूं, कौन था वह? पर पूछने का साहस नहीं जुटा सकी.

‘कभीकभी ये आया करेंगे…’ मेज पर खाना लगाती हुई मां बोलीं. मैं समझ गई थी, मां उसी आदमी के बारे में कह रही हैं, ‘यह फ्लैट इन्होंने ही दिया है हमें…दिल्ली के बड़े बिल्डर हैं. बहुत अच्छे आदमी हैं.’

खाने के बाद मैं बोली, ‘मैं लतिका के साथ इन छुट्टियों में पहाड़ पर घूमने जाऊंगी…लतिका के पापा, मैं और लतिका…आप जाने देंगी?’ फिर कुछ सोच कर मैं बोली, ‘लतिका के पापा ने कहा है कि खर्चे की फिक्र न करूं मैं… लतिका के साथ होटल में रहूंगी. उस के पापा अलग कमरे में रहेंगे…गरम कपड़े वे ही खरीद देंगे.’

जाने क्यों यह सब सुन कर मां बहुत खुश हुईं और बोलीं, ‘बहुत अच्छे आदमी लगते हैं लतिका के पापा…एकदम लतिका की तरह ही तुझे प्यार करते हैं.’

मेरा मन हुआ कि मैं मां से अपने भीतर का सच उगल दूं… वे भले ही मुझे अपनी बेटी लतिका की तरह प्यार करते हों पर मुझे न जाने क्यों बहुत अच्छे लगते हैं… इतने अच्छे कि जी चाहता है उन्हें बांहों में भर कर सीने में भींच लूं.

हालांकि अपने इस निजी एहसास से मैं स्वयं झेंप जाती. मेरी रगों में गरम खून लावे की तरह धधकने लगता.

लतिका के पापा के साथ भेजने के लिए मां इतनी उतावली क्यों हो रही हैं? इसलिए तो नहीं कि पीछे उन्हें भी अकेले रहने का मौका मिलेगा और वह ‘बिल्डर’ मां के पास दिन में भी बेखटके आ सकेगा. यह सोचते ही मन में अजीब सी कसमसाहट हुई. पर मेरे पास उन्हें रोकने के लिए कोई तर्क नहीं था. कैसे रोकती?

लतिका के पापा लतिका और मुझे ले कर एक मौल में गए. गरम कपड़े खरीदवाए. मैं तो चुप ही रही. बड़े महंगे कपड़े थे…एकदम नए फैशन के.

‘तुम अपनी पसंद क्यों नहीं बतातीं, स्वर्णा…?’ लतिका के पापा ने जिन नजरों से मेरी ओर देखा, उस से मैं लाल पड़ गई, ‘आप की पसंद खुद ही बहुत अच्छी है…आप को जो ठीक लगे, ले दीजिए…’ कहती हुई मैं झेंप गई.

लतिका अपनी कोई खास ड्रैस पसंद करने जब दूसरी गैलरी में गई तो वे मौका पा कर नजदीक आ कर हौले से बोले, ‘मैं चाहता हूं कि तुम यह ड्रैस मेरे साथ एक दिन पहाड़ पर पहनो…पर लतिका को न दिखाना,’ ड्रैस देख कर मैं एकदम सकपका सी गई.

मन में आया, कहूं कि लतिका को न दिखाया तो पहाड़ पर पहन भी कैसे सकूंगी? वह तो साथ होगी…और वह साथ होगी तो देखेगी ही. फिर भी मैं ने चुपचाप एक बड़े बैग में वह ड्रैस रख ली.

मौल से वापसी के समय मैं लतिका और उस के पापा के बीच बैठी. मुझे उन का साथ बहुत अच्छा लग रहा था. एकदम गुनगुना, प्यार भरा, अपनत्व भरा और तनबदन महकादहका देने वाला.

लतिका चहक रही थी कि उस ने बहुत अच्छी ड्रैसें अपने लिए पसंद की हैं.

पहाड़ की यात्रा पर भी मैं लतिका और उस के पापा के बीच में ही बैठी. जाने क्यों ऐसा करने से मैं अपने को रोक नहीं पा रही थी. मैं हर समय उन के संग का सुख चाहती थी. आदमी का साथ, आदमी का कामुक स्पर्श कितना मादक होता है, उस का कैसा जादू भरा असर तन और मन पर होता है, इस का अनुभव जीवन में मैं पहली बार कर रही थी.

कहीं मन में गहरे यह भी चाह उठ रही थी कि काश, इस वक्त बस मैं होती और लतिका के पापा होते…

पहाड़ पर पहुंचतेपहुंचते लतिका को पता नहीं क्या हो गया कि उस का गला बैठ गया. शायद उसे सर्दी लग गई. माथा हलका गरम हो गया. होटल के कमरे में पहुंच कर पापा ने डाक्टर को बुला कर दिखाया तो डाक्टर ने फ्लू जैसा अंदेशा बता हमें डरा ही दिया. दवा दे कर लतिका को आराम करने के लिए कह दिया.

लतिका को अफसोस होने लगा कि इतने उत्साह के साथ वह पहाड़ पर आई और बीमार पड़ गई. वह बोली, ‘पर स्वर्णा, तू अपना मजा क्यों खराब करेगी? तू पापा के साथ घूमफिर… यहां सबकुछ देखने लायक है. पापा कई बार आ चुके हैं. तुझे सबकुछ बहुत अच्छी तरह घुमा देंगे…है न पापा…?’

 

लतिका आराम से रात भर सो सके इस के लिए डाक्टर ने उसे ऐसी दवा दे दी कि खाते ही वह नींद में बेसुध हो गई. मैं उस के पास पड़े सोफे पर बैठी रही और वहीं सोफे पर ही सोने के बारे में सोचने लगी कि कमरे का दरवाजा धीरे से खुला. लतिका के पापा थे. नजदीक आ कर बैठ गए. इधरउधर की बातों के बाद बोले, ‘लतिका सो गई?’ वे लगातार मेरी आंखों में देखे जा रहे थे. आदमी की निगाहों में ऐसा कौन सा सम्मोहन होता है कि लड़की का दिल उस के सीने से निकल कर आदमी के कदमों में जा गिरता है?

उन्होंने अपना एक हाथ बढ़ा कर मेरी कमर के इर्दगिर्द हौले से कसा और मुझे अपनी तरफ खींचा. मैं चाह कर भी उन्हें रोक न पाई. न जाने क्या हुआ कि मैं ने अपना सिर उन के कंधे पर रख दिया. वे देर तक मेरे बाल, मेरे गाल, मेरे होंठ, मेरी गरदन सहलाते रहे और फिर एकाएक उन्होंने झुक कर मेरी ठुड्डी ऊपर उठाई और मेरे नरमनरम होंठों का चुंबन ले लिया.

शायद यह मेरे अपनेआप को रोके रखने की अंतिम सीमा थी. उन के गले में बांहें डाल कर उन के सीने से सट कर मैं ने अपने चेहरे को छिपा लिया.

‘लतिका सोती रहेगी. तुम मेरे कमरे में चल सकती हो?’ उन्होंने मेरे कान में फुसफुसाते हुए कहा.

मैं ने जवाब नहीं दिया. सिर्फ उठ कर उन के साथ चलने को तैयार हो गई.

पूरा गलियारा पार कर उन का कमरा था. उन्होंने मुझे सीधे अपने बिस्तर पर बैठा लिया और ताबड़तोड़ मेरे होंठ, मेरा माथा, मेरा सिर, मेरी गरदन, मेरी हथेलियां, मेरी उंगलियां चूमते चले गए और मैं उन्हें रोकना चाह कर भी नहीं रोक सकी.

धौंकनी की तरह चलती अपनी सांसों पर किसी तरह काबू पा कर अपना तपता चेहरा एकदम उन के नजदीक ले जा कर पूछा, ‘मुझे आप हमेशा इतना ही प्यार  करेंगे?’

‘मैं तो हैरान हूं जो इस उम्र में तुम्हारी जैसी कमसिन लड़की बांहों में भरने को मिल गई.’

उठ कर लतिका के पापा ने फूलदान में से गुलाब के कई फूल निकाले और मेरे पैरों में रखे.

अंतिम सीमा थी यह. रुक नहीं सकी फिर. उन्हें अपने साथ बिस्तर पर खींच लिया और बोली, ‘इतना मान मत दीजिए मुझे…इस काबिल नहीं हूं…अपने पांव की धूल को सिर पर जगह मत दीजिए…’

‘तुम्हारी जगह कहां है यह तुम क्या जानो मेरी जान,’ वे तड़प उठे. उन की थरथराती उंगलियों ने मेरे सारे कपड़े एकएक कर उतारने शुरू कर दिए और मैं अपनी आंखों को बंद किए लजाती- शरमाती, अपनी अनछुई काया को अपने हाथों से ढांपने का असफल प्रयास करती रही.

अपने साथ कंबल में दबोच लिया उन्होंने मुझे और मैं उन के सीने में समा कर अपना होश खो बैठी.

‘मुझे इतना ही प्यार करोगी, स्वर्णा? ऐेसे ही देहसुख दोगी?’ वे बोले, ‘हालांकि शुरू में मुझे अजीब लग रहा था…मेरी बेटी लतिका की सहेली हो, उसी की हमउम्र. मन में बहुत संकोच हो रहा था, पर जब तुम्हारी आंखों में भी अपने लिए चाहत देखी तो हौसला हुआ और मैं ने तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ा दिया…’

‘जीवन में पिता का अभाव बहुत गहरे अनुभव किया है, सर…हमेशा हसरत रही कि कोई पिता जैसा व्यक्ति मेरे जीवन में भी हो जो मेरी हर इच्छा, चाहत को पूरी करे…मेरी परवा एक संरक्षक की तरह करे और मैं उस की बांहों में अपना सर्वस्व भूल जाऊं…खो जाऊं…मुझे गहरी सुरक्षा का एहसास हो…और आप की वे बांहें जब मेरी तरफ उठीं तो मैं उन में समा गई.’

‘जानती हो स्वर्णा…मुझे पत्नी का सुख पिछले कई साल से नहीं मिला,’ वे मुझे अपनी बांहों में कसे चूमते रहे. मेरे बाल कानों पर टांकते रहे, ‘पैसे की कमी नहीं है. चाहता तो बाजार में एक से एक कमसिन लड़कियां आजकल मिल जाती हैं…पर मन नहीं हुआ. बहुत बड़ा एहसान है मुझ पर तुम्हारा कि तुम्हारी जैसी लड़की मुझे मन से मिली…यह एहसान मैं ताजिंदगी नहीं भुला सकूंगा…’

वे मेरे सीने के उभारों से खेलते रहे. मैं इठलाती, हंसती उन की तरफ ताकती रही. वे बोले, ‘लतिका 2 साल की थी जब पत्नी को दिल की बीमारी ने जकड़ लिया. डाक्टर ने मना कर दिया…शारीरिक संबंध मत बनाना. उस से उत्तेजना उत्पन्न होगी. बिस्तर पर ही मर जाएगी…इसलिए भयवश उसे तब से छुआ तक नहीं…और…स्वर्णा…कोई आदमी बिना औरत के जिस्म को पाए कब तक अपने को रोके रख सकता है? एक विश्वामित्र ही क्यों…अनेक कई विश्वामित्र होंगे दुनिया में जो औरत की आंच से मोम की तरह पिघल कर बहे होंगे.’

‘औरत भी तो आदमी की देह की आंच से ऐसे ही पिघल कर बहने लगती है जैसे मैं बहकती हुई बह गई…पागल बनी,’ हंसने लगी मैं.

बस, इस के बाद मैं ने उन के सीने में मुंह छिपा लिया और आराम से निश्ंिचत हो सोने लगी. उन की मजबूत बांहें मुझे कसती रहीं. निचोड़ती रहीं. भींचभींच कर पीसती रहीं और मुझे लगता रहा जैसे कोई सलमान खान जैसा हृष्टपुष्ट जवान हीरो मुझे अपनी मांसल बांहों में चिडि़या के बच्चे की तरह दबोचे है.

काफी रात गए आंख खुली तो बोली, ‘अब आप मुझे अपने कमरे में जाने दीजिए. लतिका जाग गई तो क्या सोचेगी?’

‘ठीक है. जाओ, पर याद रखना, अब हर रात हमारी ऐसे ही बीते…और मौका मिलते ही तुम बिना मेरी प्रतीक्षा किए मेरे पास चली आना…’ ढिठाई से हंसने लगे तो मैं ने झुक कर उन के होंठ चूम लिए, ‘गुड नाइट, सर.’

3 दिन की योजना बना कर आए थे. पूरे 2 दिन तो लतिका बिस्तर पर ही पड़ी रही. मजबूरन उस के पापा के साथ मैं अकेली ही घूमने गई. और घूमी क्या… सच तो यह है कि आदमी का पूरा सुख लेने की चाहत ने मुझे बाहर के नजारे देखने ही नहीं दिए. हर वक्त मन में होता, वे बांहों में कस लें, चूम लें. वे मेरे बाल सहलाएं. गाल सहला कर मेरे रसीले होंठ पी डालें.

तीसरे दिन लतिका किसी तरह साथ चली पर ऐसे स्थानों पर ही जहां उसे ज्यादा चढ़नाउतरना नहीं पड़े. वह जल्दी थक कर बैठ जाती थी. हम लोग मजे करते किसी ऐसे एकांत में पहुंच जाते जहां से वह दिखाई न देती और हम एकदूसरे की बांहों में खो जाते.

हंस दिए लतिका के पापा, ‘तुम्हें नहीं लगता स्वर्णा कि हम लोग यहां हनीमून पर आए हैं और तुम मेरी बीवी हो.’

वापस लौटने पर मां ने मुझे बहुत गहरी नजरों से एक बार ऊपर से नीचे तक देखा तो मैं सिहर सी गई. क्या देख रही हैं मां? कहीं सबकुछ जान तो नहीं लेंगी? बहुत तेज नाक है उन की. जहां कोई गंध नहीं होती वहां भी गंध सूंघ लेने में माहिर…

‘ऐसे क्या देख रही हैं आप?’ न जाने क्यों झेंपती हुई हंस दी.

‘3 दिन में ही तू एकदम औरत बन कर लौटी है स्वर्णा,’ वे हंस दीं, ‘लग रहा है, टूर पर नहीं गई थी, हनीमून पर गई थी लतिका के पिता के साथ…’

‘नहीं, मम्मी, वह बात नहीं…’ हकला गई मैं. फिर मेरी नजरें अपने फ्लैट में वह सब ढूंढ़ने लगीं जो मां से गलती से छूट गया होगा, उस आदमी…उस बिल्डर के साथ रहते हुए…रात को और दिन को भी. पीछे कोई रोकटोक तो थी नहीं…मुझ से कह रही हैं कि मैं लड़की से एकदम औरत बन कर लौटी हूं और वे खुद क्या बन गई होंगी इस बीच…?

2 दिन भी लतिका के पापा से बिना मिले बिताना मेरे लिए कठिन हो गया. मन हर वक्त चाहता कि किसी बहाने उन के पास पहुंच जाऊं. उन की बांहों में समा जाऊं…क्या एक बार प्यास जागने पर हर औरत की यही दशा होती है?

4 दिन बाद मैं खुद ही लतिका से बोली, ‘आज तेरे घर चलूंगी.’

एक बार पैनी नजरों से लतिका ने मुझे देखा, ‘क्यों…? क्या पापा की याद सता रही है?’ और एकदम हंस पड़ी.

‘कैसे हैं पापा…?’ यह पूछते ही मेरी सांस की गति तेज हो गई.

‘शाम को संग चल कर खुद देख लेना…फिर वही तुझे तेरे घर पहुंचा देंगे…’ और लतिका ने मुझे मोबाइल फोन पकड़ाया, ‘पापा ने दिया है तेरे लिए. कहा है, जब मन करे, उन से बात कर लिया कर.’

लतिका के साथ उस के घर पहुंची तो उस के पापा वहीं थे. लतिका की मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई थी. डाक्टर आए हुए थे. दवा दे रहे थे. लतिका उन के पास चली गई.

मैं अकेली लौबी में छूट गई. ऐसा अकेलापन मुझे अपनी अवहेलना-सा प्रतीत हुआ. लगा, सब मुझे अनदेखा कर रहे हैं, मैं अनचाहे वहां मौजूद हूं. उठ कर जाने की सोचने लगी कि लतिका के पापा डाक्टरों को छोड़ने के लिए बाहर निकले.

वापस आए तो मेरी तरफ देख कर पहले की तरह मुसकराए नहीं. गंभीर बने रहे.

‘क्या मम्मी की तबीयत ज्यादा गड़बड़ है?’ मैं ने पूछा.

‘अपनी मां से जा कर पूछना?’ लतिका के पापा कठोर स्वर में बोले, ‘यहां आईं और लतिका की मम्मी से न जाने क्याक्या कह गईं. मैं सामने पड़ा तो सीधे सौदे पर उतर आईं…मुझे नहीं पता था, वे अपनी बेटी का सौदा मुझ से करेंगी…धंधा करती हैं क्या? घर में चकला खोल कर बैठ जाओ तुम लोग… खूब आमदनी होगी मांबेटी की. दोनों अभी जवान हो, पूरी दिल्ली लूट लो…’

बोलते चले गए लतिका के पापा. मैं हड़बड़ा कर उठी और बिना कुछ और आगे सुने, उन के बंगले से बाहर भाग आई…जो आटो मिल गया, उसी में बैठ कर घर आई.

मां सामने पड़ गईं तो एकदम अपनी सारी किताबें उन के ऊपर फेंक कर मार दीं, ‘आप लतिका की मम्मी से मिलने गई थीं?’

‘हां, गई थी. तेरी तरह और तेरे बाप की तरह बेवकूफ नहीं हूं मैं,’ मां भी गुस्से से बोलीं, ‘मुफ्त में बूढ़े बिलौटे को अपनी मलाई चाटने दूं, यह कच्ची गोली मैं नहीं खेलती, समझी…मुझे इस मलाई की कीमत चाहिए…बिना मोल तो आजकल शुद्ध हवा और पानी तक नहीं मिलता…तू तो जवान होती लड़की है…वह खूसट मुझे बिना कुछ दिए मेरा खजाना लूटेगा? हरगिज नहीं.’

यह मेरी ही मां हैं? फटीफटी आंखों से उन के तमतमाए चेहरे की तरफ कुछ पल देखती रही…फिर न जाने क्या सोच कर घर छोड़ कर बाहर निकल आई. निकल तो आई पर बाहर आ कर सोचने लगी कि अब जाऊं कहां? दिल्ली है यह. एक से एक दुराचारी, दुष्ट, हत्यारे और बलात्कारी सड़कों पर घात लगाए डोल रहे हैं.

कुछ सोच कर पापा को फोन लगाया तो पता चला कि उन का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया है. जिस ने फोन उठाया था उसी से पापा का नया नंबर मिला था. पापा का फोन देर से लगा. दूसरी ओर से हलो होते ही मैं सुबक उठी, ‘पापा…मैं बहुत अकेली रह गई हूं. कोई नहीं है अब मेरे साथ…प्लीज, मुझे अपने पास बुला लीजिए,’ और पापा ने इनकार नहीं किया. यहां, उन के पास आ गई.

नमस्ते जी: भाग 1- शाम को अचानक एक फोन आया और फिर..

हम दोनों पतिपत्नी सुबह बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजने के बाद सैर करने की नीयत से जैसे ही कोठी के बाहर निकले कि पति की निगाहें गली में खड़ी धोबी की लड़की पर जा कर ठहर गईं. वह लड़की अकसर इस्तरी के लिए आसपास की कोठियों से कपड़े लेने आती थी. उसे देख कर नितिन का अंदाज बड़ा ही रोमांटिक हो आया. वे गाना ‘तुम को देखा तो ये खयाल आया, जिंदगी धूप तुम घना साया…’ गाते हुए उस की बगल से गुजरने लगे तो वह भी अपने एक खास अंदाज में मुसकरा दी. उन दोनों की नजरें मिलीं तो धोबी की लड़की ने धीरे से कहा, ‘‘नमस्ते जी.’’

नितिन की बाछें खिल उठीं. मानो कोई अप्सरा स्वर्ग से उतर कर उस के सामने खड़ी, उस का अभिनंदन कर रही हो. नितिन के कदम कुछ क्षणों के लिए ठहर से गए. बदले में उस ने भी मुसकराहट के साथ उस का अभिवादन स्वीकार करते हुए पूछा, ‘‘कैसी हो?’’

वह शोख अंदाज में फिर मुसकराई और धीरे से बोली, ‘‘ठीक हूं.’’

मुझे यह सब ठीक नहीं लगा तो थोड़ा आगे चलने के बाद मैं ने नितिन को टोक दिया.

‘‘तुम एक फैक्टरी के मालिक और एक हैसियतदार आदमी हो. तुम्हारा बस नमस्ते कहना ही काफी था. मगर गाना गाना, हंसना और ज्यादा मुंह लगाना ठीक नहीं. खासकर इस तरह की लड़कियों को. देखो, धोबी की लड़की है. इस्तरी के लिए घरघर कपड़े मांग रही है और हाथ में 8-10 हजार का मोबाइल लिए है…उसे देख कर कौन कहेगा कि यह धोबी की लड़की है.’’

‘‘तुम तो बस किसी के भी पीछे पड़ जाती हो. अरे, तुम्हारे जैसी किसी ‘मेम’ ने पुराना सूट दे दिया होगा और फिर फैशन करना कौन सी बुरी बात है? यह मोबाइल तो अब  आम हो गया है.’’

नितिन ने उस के पक्ष में यह सब कहा तो मुझे 3-4 दिन पहले का वह वाकया याद हो आया जब नितिन ने मुझे बालकनी में बुला कर कहा था.

‘देख निक्की, इस धोबी की लड़की को. यह जब हंसती है तो इस के दोनों गालों पर पड़ते हुए डिंपल कितने प्यारे लगते हैं? कितनी अच्छी ‘हाइट’ है इस की, उस पर छरहरा बदन कितनी सैक्सी लगती है यह?’ मेरे दिमाग में फिर एक और दास्तान ताजा हो आई थी.

अभी बच्चों की गरमियों की छुट्टियों में  मैं 15-16 दिन गांव में रह कर आई थी. पीछे से नितिन अकेले ही रहे थे. मैं जब गांव से वापस आई तो देखा कि साहब ने ढेर सारे कपड़े इस्तरी करा रखे थे. यहां तक कि जिन कपड़ोें को पहनना छोड़ रखा था, वे भी धुल कर इस्तरी हो चुके थे.

मैं ने चकित भाव से नितिन से पूछा, ‘‘ये इतने कपड़े क्यों इस्तरी करा रखे हैं? इन कपड़ों को दे कर तो मुझे बरतन लेने थे और तुम ने इन को धुलवा कर इस्तरी करवा दिया. और तो और जो पहनने…’’

मेरी बात को बीच में ही काट कर नितिन ने झट से कहा, ‘‘वह सब छोड़ो, एक बात याद रखना कि मेरे कपड़े इस्तरी करने के लिए उस लड़के को मत देना. वह ठीक से इस्तरी नहीं करता. वह जो सांवली लड़की कपड़े लेने के लिए आती है, उसे दिया करो. वह इस्तरी भी बढि़या करती है और समय पर वापस भी दे जाती है.’’

मैं कुछ परेशान सी यह सब अपने मन में याद करती हुई चली जा रही थी कि अचानक मेरी नजर नितिन के चेहरे पर पड़ी तो देखा कि वह मंदमंद मुसकरा रहे हैं. मैं ने टोक दिया, ‘‘क्या बात है, बड़े मुसकरा रहे हो. मेरी बात पर गौर नहीं किया क्या?’’

‘‘कौन सी बात?’’

‘‘यही कि थोड़ा रौब से रहा करो.’’

बात पूरी होने से पहले ही नितिन बोल पड़े, ‘‘निक्की, अगर तुम बुरा न मानो तो एक बात कहूं. तुम थोड़ी मोटी हो गई हो और वह धोबी की लड़की सैक्सी लगती है, शायद इसलिए.’’

यह सुन कर मेरा मूड खराब हो गया. मैं वापस घर चली आई. ऐसे ही दिन गुजर गया, रात हो आई. न मैं ने बात की न ही नितिन ने.

2 दिन बाद शाम को जालंधर से इन की किसी परिचित का फोन आ गया. नितिन व उस के बीच लगभग 6 मिनट फोन पर बातचीत चली थी. बातों को सुन कर पता चला कि किसी की बेटी का पी.जी. के तौर पर गर्ल्स हास्टल में रहने का प्रबंध कराना था. जब मैं ने पूछा कि कौन थी? किसे पी.जी. रखवाने की बात हो रही थी? तो नितिन टाल गए. मैं ने भी बात को अधिक बढ़ाना उचित नहीं समझा और घर के काम में लग गई.

नितिन कभी जूते पालिश नहीं करते. हमेशा मैं ही करती हूं लेकिन अगले दिन सुबह उठ कर खुद उन को जूते चमकाते देखा तो अचरज सा हुआ. मैं ने पूछा, ‘‘आज शूज बड़े चमकाए जा रहे हैं, क्या बात है?’’

‘‘गर्ल्स हास्टल का पता करने कई जगह जाना है.’’

यह सुन कर मैं ने अपनी मंशा जाहिर करते हुए कहा, ‘‘कहो तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूं, एक से भले दो.’’

‘‘रहने दो, तुम नाहक ही थक जाओगी, फिर आजकल धूप भी तेज होती है.’’

‘‘हां, भई हां, मेरा तो रंग काला पड़ जाएगा. मैं छुईमुई की तरह हूं जो मुरझा जाऊंगी. साफसाफ यह क्यों नहीं कहते कि मुझे अकेले जाना है. मैं सब जानती हूं लेकिन पिछली बार जब मेरी सहेली ने अपनी बेटी को पी.जी. रखवाने के लिए फोन किया था तो तुम उन्हें ले कर अकेले ही गए थे. अब की बार मैं तुम्हारे साथ चलूंगी. मुझे अच्छा नहीं लगता, तुम्हारा जवान लड़कियों के ‘हास्टल’ में जा कर पूछताछ करना. मैं औरत हूं, मेरा पूछना हमारी सभ्यता के लिहाज से ठीक है.’’

‘‘नहीं…नहीं, मैं अकेला ही पता कर के आऊंगा,’’ यह कह कर नितिन गाना गाने लगे, ‘‘अभी तो मैं जवान हूं…अभी तो मैं…’’

नितिन को चिढ़ाने के अंदाज में मैं ने कहा, ‘‘अगर आज तुम अकेले गए तो मैं भी तुम्हारे पीछेपीछे आऊंगी और तुम यह मत सोचना कि मैं तुम्हें अब गुलछर्रे उड़ाने का मौका आसानी से दे दूंगी.’’

यह सुन कर नितिन एकदम गंभीर हो गए और सख्त लहजे में बोले, ‘‘बस निक्की, अब तुम आगे एक भी शब्द नहीं बोलोगी. अगर कुछ उलटा बोला तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’’

‘‘हां…हां, जानती हूं, और तुम कर भी क्या सकते हो, मुझ कमजोर को पीटने के अलावा. मगर आज मैं तुम्हें अकेले पी.जी. के बारे में पता करने नहीं जाने दूंगी, चाहे कुछ भी हो जाए. तुम जरा अकेले जा कर तो देखो?’’

एकदो भद्दी गाली देने के साथ दोचार थप्पड़ मार कर नितिन ने मुझे घसीटते हुए ला कर बिस्तर पर पटक दिया और दरवाजे को जोर से बंद करते हुए घर से बाहर निकल गए.

बौखलाहट में मुझ पर न जाने कहां से पागलपन सा सवार हो गया. मैं ने उठ कर अपनी व नितिन की फ्रेमजडि़त तसवीर ली और फर्श पर दे मारी तथा साथ में रखा हुआ गुलदान दीवार पर और गुस्से में शादी वाली सोने की अंगूठी उतार कर दूर फेंकते हुए बैड पर धड़ाम से गिर पड़ी. फिर न जाने कब मैं अतीत की स्मृतियों के गहरे सागर में डूबती चली गई.

धीरेधीरे मुझे वे दिन याद आने लगे जब मात्र डेढ़ साल के अंतराल में मैं दूसरी बार मां बनी थी और मैं ने फूल सी कोमल नन्ही गुडि़या को जन्म दिया था. मेरी ननद 10 दिन से अधिक नहीं रुक पाई थीं. वैसे भी उन से जच्चा का काम नहीं होता था. अंकुर व अंकिता, दोनों को एकसाथ संभालना मेरे वश से बाहर था.

मैं ने अपने लिए किसी काम वाली को रखने की बात नितिन से कही तो उन्होंने पड़ोसियों के यहां काम करने वाली निर्मला की 12-13 साल की बेटी प्रीति को घर में मेरी मदद करने के लिए रख लिया था. धीरेधीरे बेटी गोद को समझने लगी थी. दिन छिपने के बाद वह तब तक चुप नहीं होती थी जब तक उसे कोई उठा कर छाती से न लगा ले. प्रीति के साथ वह हिलमिल गई थी. उस का स्पर्श पाते ही अंकिता एकदम चुप हो जाती थी जैसे कि उसे उस की मां ही मिल गई हो.

अपने अपने सच: भाग 2- पहचान बनाने के लिए क्या फैसला लिया स्वर्णा की मां ने?

अपनी बेटी से मैं अकसर कहने लगी थी, ‘आदमी पर नहीं, पैसों पर भरोसा करना बेटी. आदमी धोखा दे सकता है पर बैंक में जमा पैसा हमें कभी धोखा नहीं देता.’

पता नहीं क्यों मेरी बेटी दिनोदिन उद्दंड होती जा रही थी. उसे भी अपने बाप की तरह मेरे चरित्र पर संदेह होने लगा था. हो सकता है उस की यह सोच इसलिए बनी हो कि मेरी सास मुझे अकसर कुलच्छनी कहा करती थीं. जलीकटी सुनाने पर आतीं तो जबान पर काबू नहीं रहता था, ‘जवानी फट रही है इस औरत की. पता नहीं कहांकहां, किसकिस के बिस्तर पर पड़ी रहती है और यहां आ कर सतीसावित्री बनने का नाटक दिखाती है. मैं क्या अंधीबहरी हूं कि मुझे कुछ दिखाई और सुनाई नहीं देता?’

खूब कलह होती. उन से कहती कि लड़की पर क्या असर पड़ेगा जरा यह तो सोचें. पर वे कतई कुछ न सोचतीं. एकदम भड़क जातीं, ‘तेरी तरह वह भी शरीर का धंधा करेगी और क्या होगा? खानदान का नाम वह भी रोशन करेगी.’

ऐसे माहौल में न खुद मैं रहना चाहती थी, न अपनी बेटी को रखना चाहती थी. जितनी जल्दी हो सके मैं अपनी बेटी को ले कर किसी बड़े शहर में चली जाना चाहती थी, जहां अच्छे अस्पताल हों और मेरे अनुभव और कुशलता के अनुरूप जहां अच्छी तनख्वाह पर नौकरी मिल सके. लड़की का भी यह गंदा माहौल बदले और इस बुढि़या से नजात मिले.

दिल्ली के एक नामी अस्पताल में काम मिला तो मैं ने वहां जाने की तैयारी कर ली. लड़की ने सुना तो तुनकी, ‘आप चली जाएं, मैं यहीं दादी के पास रहूंगी.’

‘क्यों?’ मेरी भवें तनीं.

‘उस बड़े शहर में जहां हमारा कोई परिचित नहीं होगा…कोई मित्र, कोई सहेली नहीं…नया स्कूल होगा…नए लोग और नई बस्ती…वहां कैसे जा कर अपने को जमा पाऊंगी?’ पर मैं ने उस की एक न सुनी.

पति लोचन ने कहीं मेरे मन को बहुत गहरी ठेस पहुंचाई थी. अगर वे मुझे छोड़ कर मेरठ चले जाते तो शायद मेरे अंतर्मन को इतनी चोट न पहुंचती जितनी कि उन के किसी दूसरी औरत के साथ से पहुंची. मुझे वह सब अपनी औरत जाति का अपमान महसूस हुआ. मुझे लगा कि मेरे सौंदर्य, मेरे यौवन, मेरे बदन का यह घोर अपमान है. उन्हीं पर फिदा होने वाली लड़कियां नहीं हैं, मुझ में भी अभी बहुत कुछ ऐसा बचा है जिस के लिए जीभ लपलपाते तमाम लोग बढ़ आएंगे.

यहां इस छोटे से शहर में यह सब संभव नहीं था. एक तो सब हमें जानते थे. दूसरे, सब को हमारी सचाई का पता था. देह पाने के मतलब से भले कोई चोरीछिपे संपर्क बनाता पर दिल से चाहने वाला शायद ही कोई मिलता.

उस बड़े शहर में इस सब की असीम संभावनाएं थीं. सब अपरिचित होंगे. महल्ले में कोई किसी को न जानता है, न किसी की परवा करता है. यहां तो हर वक्त जासूसी नजरें आप का पीछा करती रहती हैं. वहां किसे फुरसत है आप को देखने की? ऐसे माहौल में बहुत आसानी से कोई मन का मीत मिल सकता था. पति लोचन मुझे ऐसा करने से रोक भी नहीं सकते थे.

फिर मैं अभी कुल 36-37 साल की हूं. यह उम्र सतीसाध्वी बनने की नहीं होती…खेलनेखाने की होती है, बशर्ते कोई मनमाफिक मिल जाए.

स्वर्णा : बेटी

शुरू में मां ने एक कमरे का मकान लिया, जिस में उस कमरे के अलावा मात्र एक रसोई व एक छोटा बरामदा और बाथरूम था. मुझे यह नया घर कतई पसंद नहीं आया. मेरी नाराजगी वैसी ही बनी रही. अकसर मां से कहती थी, ‘अपना पहले वाला घर कितना अच्छा था, मेरे लिए पढ़ने का अलग कमरा था और वहां जितनी बड़ी रसोई थी उतना बड़ा तो यहां का कमरा मिला है. मां, यहां कहां तो मैं अपनी पढ़ने की मेज लगाऊंगी, कहां अपनी किताबकापियां रखूंगी.’

मां गुस्से से बिफर उठतीं, ‘इस शहर में लोग हम से भी ज्यादा तकलीफ में रहते हैं. तुम ने अभी जिंदगी को ठीक से देखा कहां है?’

‘हम क्या पूरी जिंदगी तकलीफें उठाने के लिए पैदा हुए हैं?’ मैं मां से उलझती, ‘वहां जब आप नहीं होती थीं तो दादी घर में होती थीं और उन से मैं बातें कर लिया करती थी.’

‘बस कुछ दिनों की बात है,’ मां कहतीं, ‘फिर तेरा एक अच्छे स्कूल में दाखिला हो जाएगा. तेरा पूरा दिन वहां निकल जाएगा…हो सकता है, इस बीच हमें कोई अच्छा सा मकान भी मिल जाए…मैं लगातार कोशिश कर रही हूं…’

‘कहां से अच्छा मकान पा लोगी?’

‘वह सब तुम्हारी नहीं मेरी चिंता का विषय है. तुम सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना,’ मां मुझे चुप करा देतीं.

दिल्ली में अच्छे स्कूल में दाखिला आसान काम नहीं था. मां को न जाने किनकिन के आगे हाथ जोड़ने पड़े. पर उस दिन मैं मां को मान गई जिस दिन वे एक फार्म ले कर घर आईं और मुझ से उस पर हस्ताक्षर कराए.

फार्म पर स्कूल का नाम पढ़ कर मैं चकित हुई और बोली, ‘मां, फीस के इतने सारे पैसे कहां से आएंगे…’

‘कह दिया न, मेरी नजर व्यक्ति पर नहीं हमेशा उस के पैसे पर रहती है क्योंकि दुनिया का एकमात्र सच पैसा है. उसी से आदर मिलता है, उसी से सुविधाएं, उसी से हौसला. तुम्हें आम खाने से मतलब रखना चाहिए, पेड़ गिनने से नहीं,’ मां उत्साह से बोलीं.

मां ने स्कूल की महंगी ड्रेस ही नहीं बनवाई बल्कि दिनरात पहनने के लिए भी मुझे अच्छे कपड़े खरीद दिए और बोलीं, ‘मेरी बेटी फटेहाल रहे यह मुझे मंजूर नहीं है.’

मैं ने अनुभव किया कि मां से मिलने एक ढलती उम्र के सज्जन आया करते हैं. वे अकसर मां को अपनी गाड़ी में बैठा कर कहीं ले जाते हैं. मैं घर पर अकेली रहते हुए डरती रहती. पासपड़ोस से भी मेरा परिचय नहीं हुआ था. स्कूल में लड़के आएदिन की घटनाओं पर चर्चा करते पर मैं किसी से कुछ कहती नहीं थी.

मैं किसी लड़के या लड़की से कहूं तो तब जब कोई गहरा दोस्त बने या पक्की सहेली. अकेली ही पूरे स्कूल में घूमती रहती. पता नहीं, कैसे स्कूल में सब लड़कों को पता चल गया कि मेरी आर्थिक हालत अच्छी नहीं है. उस स्कूल में मैं ज्यादातर बच्चों के बीच एकदम अनफिट थी.

कई महीने बाद मेरी एक सहेली बनी लतिका. मेरी तरह ही वह भी अकेली, शर्मीली, चुपचाप रहने वाली थी. शायद हम दोनों के अकेलेपन ने ही हमें एकदूसरे से जोड़ दिया और कुछ ही दिनों में दो शरीर एक जान बन गए. लोग हमारी दोस्ती पर हंसते पर हमें इस की चिंता नहीं होती.

एक दिन लतिका मुझे अपने साथ लेकर घर गई. उस का बंगला देख कर मैं हैरान रह गई. इस दिल्ली में लोगों के पास इतनी जगह भी है? ऐसे शानदार बंगले भी हैं? इतना लंबाचौड़ा बगीचा, संगमरमर के चमचमाते फर्श. लतिका का अलग आलीशान कमरा, जिस में वह रहती व पढ़ती थी.

सबकुछ देख कर सहम सी गई…इतने बड़े घर की लड़की से दोस्ती कैसे निभेगी? कहां यह, कहां मैं. अपना छोटापन, अपनी असहायता मुझे एकदम दबोचने लगी.

बाथरूम जाने की जरूरत पड़ी तो लतिका के ही बाथरूम में गई और उस की साजसज्जा देख कर तो हैरत में पड़ गई. बाप रे, लतिका ऐसे भव्य बाथरूम में इतने सुखसाधनों के बीच रहती है?

‘तुम ने क्या सोच कर मुझ से दोस्ती की लतिका?’ उस दिन मैं ने उस से पूछा.

‘दोस्ती कुछ सोच कर नहीं की जाती, वैसे ही जैसे प्यार किसी से सोच कर नहीं किया जाता,’ वह हंस दी, ‘असल में मेरी मां बहुत बीमार रहती हैं. मैं उन से बहुत बातें नहीं कर पाती. इसलिए मैं स्कूल में अकेली रहती हूं क्योंकि अकेले रहना मेरी आदत बन गई है. वही आदत मैं ने तुम्हारी देखी तो हम लोग मित्र बन गए.’

‘क्या बीमारी है तुम्हारी मम्मी को?’ यह कह कर मैं लतिका के साथ ही उस की मां के कमरे में गई. वे सचमुच शांत लेटी हुई थीं. चेहरा एकदम पीला. मरी मछली की तरह बिस्तर पर पसरी हुई थीं. वहां पहुंची तो उन्होंने उठने की कोशिश की, फिर किसी तरह तकिए के सहारे बैठीं. मुझे अपने पास बैठाया. मेरे सिर पर हाथ फेरती रहीं, स्नेहासिक्त स्वर में कुछ सवाल पूछे तो मैं ने बिना लागलपेट के सचसच जवाब दे दिए.

वे मुसकराईं, ‘कोई बात नहीं. इस घर में तुम हमेशा आजा सकती हो. इसे अपना ही घर समझो. लतिका अब से तुम्हारी सहेली नहीं, सगी बहन की तरह रहेगी तुम्हारे साथ.’

सुन कर बहुत अच्छा लगा. लतिका भी मुसकराई. उस ने उठने का इशारा किया तो चुपचाप उठ कर उस के साथ उस कमरे से बाहर निकल आई.

लौबी में लगी लतिका के पापा की फोटो देख कर चकित हुई कि इतने सुंदरसुदर्शन व्यक्ति ने ऐसी बेकार थुलथुल औरत से शादी कैसे कर ली? क्या देखा होगा इस में? सोच तो गई पर लतिका से पूछा नहीं. सच तो यह है कि लतिका की मां मुझे कतई अच्छी नहीं लगी थीं.

शाम को लतिका के पापा आए तो आते ही पहले पत्नी के कमरे में गए. लतिका मुसकराई, ‘अब वे अपनी मुटल्लो से पूछेंगे, हाय हनी, कैसी हो? फिर उस के फूलेफूले गाल सहलाएंगे… दवा ली डार्लिंग…सांस लेने में तो कोई तकलीफ नहीं हो रही? उठ कर कुछ दूर चलफिर सकी हो या नहीं?’

सुन कर मैं भी मुसकरा दी, ‘आखिर तो वे पापा की पत्नी हैं और तुम्हारी मां. उन्हें उन की ऐसी परवा करनी भी चाहिए…’

‘हिस्स,’ लतिका हिकारत से बोली, ‘पापा को जो कारखाना मिला है वह वास्तव में मम्मी के पिताजी यानी मेरे नाना का है. वे तो अब इस दुनिया में हैं नहीं. यह ठाटबाट सब मम्मी के पैसों की देन है…इसलिए पापा उन की लल्लोचप्पो करते हैं.’

मैं क्या कहती? ये सब लतिका की मम्मी और उस के पापा के बीच की बातें थीं. मुझे कोई हक नहीं था उन के बीच बोलने का.

कुछ देर बाद पापा बाहर निकल आए और लौबी में आ कर अपनी बेटी लतिका से पूछा, ‘तुम्हारे साथ यह अप्सरा सी लड़की कौन है?’

उन के कहे शब्द मुझे बहुत गहरे तक झनझना गए. इतना अच्छा लगा कि मैं एकदम सुर्खलाल पड़ गई. दर्पण में जब खुद को देखती थी तो मुझे लगता तो था कि मैं बहुत सुंदर हूं…अपनी मां से भी कहीं ज्यादा सुंदर, पर मेरी तरफ कोई लड़का कभी ध्यान नहीं देता था, इसलिए यह सोचने लगी थी कि शायद मुझ में वह बात नहीं है, जो औरों में होती होगी…

आखिर औरों में कोई तो ऐसी खूबी होती होगी जिस कारण लड़कों की आंखें उन्हें ढूंढ़ती रहती हैं, दिखाई देते ही उन की आंखों में चमक पैदा हो जाती है. ऐसा कुछ उन की आंखों में मैं अपने लिए कतई नहीं पाती थी.

‘पापा, यह मेरी सहेली स्वर्णा है. मेरी क्लास में ही पढ़ती है. अब तक स्कूल में सिर्फ यही मुझे अपनी सच्ची दोस्त लगी है,’ लतिका उत्साह से बोली.

‘तो अपनी इस दोस्त को कुछ खिलायापिलाया या सिर्फ बातें ही करती रहीं?’ यह कहने के साथ ही लतिका ने महाराज को आवाज दी और मेज पर चायनाश्ता लगाने को कहा.

बाथरूम से फ्रैश हो कर जब वे बाहर आए. तब तक चायनाश्ता लग चुका था. उन के साथ मेज पर मैं बैठना नहीं चाहती थी. पर सहसा मुझे अमिताभ बच्चन द्वारा बोला गया वह संवाद याद हो आया जो कुछ दिनों पहले अखबारों में चर्चा का विषय बना था, ‘वे राजा हैं, हम रंक. राजा की मरजी है, वह जिस से चाहे दोस्ती रखे, जिस से न चाहे न रखे…हम रंकों को यह हक कहां है?’

नाश्ते में इतनी सारी चीजें मेज पर सजी देख कर मैं चकराई…ऐसी तमाम चीजें थीं जिन्हें मैं पहली बार देख रही थी. यहां तक कि उन्हें खाया कैसे जाएगा, यह भी मुझे मालूम नहीं था. जब पापा या लतिका खाने लगते तभी उन चीजों को लेती थी.

‘पापा प्लीज, देर हो गई है. आप मेरी दोस्त को उस के घर छोड़ देंगे? आप तो शाम को क्लब जाते ही हैं…उधर से ही क्लब निकल जाइएगा…’ लतिका ने पापा से अनुनय किया.

‘ओ.के. डियर. मैं तो अपनी बिटिया के हुक्म का गुलाम हूं…’ कहते हुए वे हंसते- हंसते कपड़े बदलने के लिए अपने कमरे में चले गए. जब मैं उन के साथ बाहर निकली और उन की गाड़ी की तरफ बढ़ी तो चकित रह गई. लतिका के पापा की बगल वाली सीट पर बैठी तो धंस गई.

रास्ते में लतिका के पापा ने मेरे बारे में सबकुछ पूछ लिया और मैं ने भी उन से कुछ छिपाया नहीं. यह सोच कर कि छिपाने से क्या लाभ. अभी वे मुझे ले कर कमरे तक पहुंचेंगे तो सब देखते ही समझ जाएंगे. तेज आदमी हैं. लाखोंकरोड़ों का कारोबार करते हैं. दुनिया की सारी ऊंच- नीच जानते होंगे.

पता नहीं कैसे लतिका के पापा की एक जांघ मेरी गोरीगुदाज जांघ से सट गई. सटते ही भीतर तमाम बिजलियां दौड़ने लगीं. जानबूझ कर मैं ने अपनेआप को सिकोड़ा नहीं क्योंकि तब मेरा मन मचल सा उठा था. मन हो रहा था, खुद को उन के और नजदीक कर लूं…उन से और सट जाऊं और इस अद्भुत छुअन का और सुख लूटूं…

औकात: भाग 3- जब तन्वी के सामने आई पति की असलियत

मगर तन्वी को उन का लार टपकाता, बात करने का लहजा बिलकुल पसंद नहीं

आया. उसे शराब और शराब पीने वालों से सख्त नफरत थी. वह एक मध्यवर्गीय ऐसे सिद्धांतवादी परिवार से थी जहां सोशल ड्रिंकिंग तक को बहुत बुरा समझ जाता था. उस ने बेहद सपाट स्वरों में उन महानुभाव से कह दिया, ‘‘सर, मैं ऐसी पार्टी ऐंजौय नहीं करती, न ही पीनापिलाना पसंद करती. सो मैं यहीं कोने में ठीक हूं. प्लीज कैरी औन ऐंड ऐंजौय द पार्टी.’’

फिर पति पर आंखें तरेरते हुए बोली, ‘‘अब बस भी करो पदम. कितना पीयोगे. एक के बाद एक पैग पीए जा रहे हो. फिर कल हैंगओवर होगा और फिर मुझे ही परेशान करोगे.’’

स्थिति की नजाकत देखते हुए उस वक्त

तो पदम चुप रहा, लेकिन घर लौट कर उस ने तन्वी को आड़े हाथों लिया, ‘‘तुम बौस से कायदे से बात नहीं कर सकती थी? उस ने तुम से जरा साथ बैठने के लिए ही तो कहा था. एकाध ड्रिंक ले लेती तो क्या गजब हो जाता? जानती भी हो, कितनी ऊंची पोस्ट पर हैं वे? वे मेरा इमीडिएट बौस हैं. उफ, मेरा सारा बनाबनाया इंप्रैशन बिगाड़ दिया.’’

‘‘मुझे तुम्हारे बौस का बात करने का लहजा कतई पसंद नहीं आया. उस की नजर और नीयत दोनों में ही मुझे खोट दिखा. बस इसलिए मैं ने उसे लिफ्ट नहीं दी.’’

‘‘आखिर तुम अपनेआप को समझती क्या हो? जन्नत की हूर? बड़ी आई लिफ्ट नहीं देने वाली. अरे वह मेरा सीनियर है, सीनियर. यह बात तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आती मूर्ख औरत? उस के हाथ में मेरी कौन्फिडैंशियल रिपोर्ट है. कहीं मुझ से खुंदक खा कर वह बिगाड़ दी तो मैं कहीं का नहीं रहूंगा. तुम कल मेरे साथ उस के घर चलोगी ताकि बिगड़ी बात बन जाए.’’

‘‘मैं उस लंपट इंसान के घर हरगिज नहीं जाऊंगी. मुझे उस की नजर ठीक नहीं लगी. हम औरतों की छठी इंद्रीय एक नजर में किसी की भी नीयत को भांप लेती है.’’

‘‘कोई लंपट नहीं हैं वे. अच्छेभले जैंटलमैन हैं. तुम्हें पता भी है, वे एक बेहद संभ्रांत परिवार

से हैं. वह आज तुम से साफसाफ नाराज हो कर गए हैं. तुम्हें कल मेरे साथ उन के यहां चलना

ही होगा.’’

पदम की इस जिद पर तन्वी ने उस वक्त

तो कुछ नहीं कहा, लेकिन अगले

दिन तन्वी के उस के साथ बौस के घर जाने के लिए मना करने पर उन दोनों में जम कर तूतू,

मैंमैं हुई.

‘‘औकात दो कौड़ी की और नखरे सौ मन के. तुम कहीं औफिसर होती तो न जाने क्या कहर ढाती. चुपचाप सीधेसीधे उन के घर जाने के लिए तैयार हो जाओ, नहीं तो तुम्हारा वह हश्र करूंगा कि जिंदगीभर याद रखोगी.’’

‘‘मैं कोई तुम्हारी बांदी नहीं जो तुम्हारी हर बात आंखें मूंद मान लूंगी, पदम. अफसर हो तो औफिस में. घर में तुम मेरे पति हो, जिस का फर्ज है कि वह हर हाल में अपनी वाइफ का मान बनाए रखे, लेकिन तुम्हें मेरे मानसम्मान से क्या लेनादेना? मैं ऐसे इंसान की लल्लोचप्पो हरगिज नहीं करूंगी, जिस की नजरों में खोट हो. तुम मेरा क्या हश्र करोगे, मैं अभी इसी वक्त तुम्हें और तुम्हारे घर को छोड़ कर जा रही हूं. कर लो जो करना है. मैं तुम जैसे इंसान को अपना पति मानने से इनकार करती हूं, जो अपनी पत्नी तक को उस की हैसियत के तराजू पर तोलता है,’’ कहते हुए आननफानन में उस ने अपना बैग पैक किया और मायके चली गई.

कानों में अनवरत पदम के अल्फाज गूंज

रहे थे, ‘‘औकात दो कौड़ी की और नखरे सौ

मन के. तुम औफिसर होती तो न जाने क्या

कहर ढाती.’’

पदम की नजरों में उस का कोई मोल न था. उसे वास्ता था तो महज हैसियत से. तो अब वह उसे अपनी हैसियत बना कर दिखाएगी. उस से बड़ा अफसर बन कर दिखाएगी. वह मन ही मन प्रण ले रही थी, कुछ भी हो जाए, अब उसे पदम से बड़ा पद हासिल करना ही है. पदम ने उसकी जूनियर पोस्ट को ले कर कितना बावेला मचाया. उस के चलते उसे कदमकदम पर प्रताडि़त किया. तो अब वह कड़ी मेहनत कर उस से बड़ा पद हासिल कर के ही दम लेगी. अब यही उस का मकसद होगा और अपना लक्ष्य पूरा करना उस

की जिंदगी का एकमात्र ध्येय. इस सोच ने उसे दिली सुकून पहुंचाया और वह बाजार जा कर अपने बैंक के डिपार्टमैंटल ऐग्जाम्स की किताबें खरीद लाई.

उस दिन के बात से तन्वी की जिंदगी बस नौकरी और डिपार्टमैंटल ऐग्जाम्स की तैयारी के इर्दगिर्द सिमट गई. नियत अवधि पर बैंक और डिपार्टमैंटल ऐग्जाम्स में अपनी परफौर्मैंस के दम पर प्रमोशन लेना उस का जनून बन गया.

वक्त अपनी चाल से आगे बढ़ता गया. आज तन्वी की जिंदगी की एक महत्त्वाकांक्षा पूरी हुई थी. आज वह पदम की भांति अकसर बन कर ट्रांसफर पर दूसरे शहर फ्लाइट से जा रही थी. प्लेन मंथर गति से आसमान में ऊपर चढ़ रहा था. उसी के साथ जेहन में पुरानी खट्टीमीठी यादों के पैराशूट खुलने लगे थे.

पदम उस का बचपन का साथी था. पदम का घर उस की कालोनी में ही था. दोनों ने एक ही स्कूल, कालेज से पढ़ाई की. पदम स्कूल के जमाने से उसे पसंद करता था. वक्त के साथ वह भी उसे चाहने लगी थी.

कालेज की पढ़ाई खत्म होने पर पदम ने एमबीए कर मैनेजर के पद पर एक बैंक जौइन किया और उस ने क्लर्क के पद पर एक दूसरा बैंक जौइन किया. बस तभी से दोनों की राहों में कांटे बिछने लगे.

जब से पदम औफिसर बना था, उसे यह बात शिद्दत से चुभ रही थी कि उस की भावी पत्नी उस से जूनियर पद पर है. वह इस बात को किसी तरह से स्वीकार नहीं कर पा रहा था और उस के मन का असंतोष यदाकदा उस की बातों से झलक पड़ता.

तन्वी को आज भी अच्छी तरह से याद है, उस दिन उन के कौमन फ्रैंड्स की एक गैटटुगैदर में किसी फ्रैंड ने उस से उन दोनों की पोस्ट पूछी, ‘‘सुना तुम दोनों को बैंक में बहुत ऊंची पोस्ट पर पोस्टिंग मिली.’’

पदम ने मुंह बनाते हुए उस पर कटाक्ष किया, ‘‘हम दोनों को नहीं, बस मुझे. इन मैडम को फैशन, बनाव, शृंगार और अपनी सहेलियों से फुरसत मिले, तब तो ये पढ़ने की जहमत उठाएं. अब बिना पढे़ तो क्लर्की से ज्यादा कुछ नहीं मिलने वाला. हमारी मैडम तो क्लर्क ही बन पाई हैं. मुझे अलबत्ता मैनेजर की पोस्ट पर अपौइंमैंट मिला है.’’

पदम के इस तंज पर तन्वी कट कर रह गई और कई दिनों तक बेहद आहत महसूस करती रही. पदम का उसे नीचा दिखाने का यह लहजा बेहद तकलीफदायक लगा. इसी के साथ उस

की उस पर रोब झड़ने की आदत भी उसे त्रस्त करती, लेकिन पदम के साथ पलीबढ़ी तन्वी

सोच नहीं पा रही थी कि वह इस सब से कैसे छुटकारा पाए.

दोनों के परिवारों में बेहद घनिष्ठता थी और उन की ओर से उन के संबंध की बाबत कोई ऐतराज नहीं था. दोनों ही परिवार उन की शादी को ले कर बहुत उत्साहित थे. दोनों के घरों में

उन दोनों की नौकरी लगने के बाद विवाह की योजना बनने लगी थी, लेकिन तन्वी की जब

से नौकरी लगी थी, वह पदम के साथ अपने

रिश्ते को ले कर कुछ असहज फील करने

लगी थी. जबतब अपनी क्लर्की को ले कर

सुनाए गए उस के ताने, उलाहने उसे बेहद असुरक्षित कर देते.

उन के संबंधों के ताबूत में आखिरी कील तब ठुकी जब सगाई से माहभर पहले एक दिन

पदम ने तन्वी के घर पर कई रिश्तेदारों की मौजूदगी में उस की कड़ी आलोचना की. उस के सहज और बिंदास स्वाभाव की जम कर बुराई करी. उस पर अनेक आक्षेप लगाए कि उस के बारबार चेताने पर भी उस ने बैंक में अफसरी की परीक्षा की पूरी मेहनत से तैयारी नहीं की और महज क्लर्क बन कर उसे शर्मिंदा कर दिया.

तन्वी के मातापिता को भावी दामाद के मुंह से अपनी बेटी की बुराई सहन नहीं हुई. घर के बड़ेबुजुर्गों ने इस बात का बहुत बुरा मनाया

और इस की चर्चा तन्वी से की. तन्वी पहले से

ही पदम की बात बात पर उस की उंगली करने की आदत से मन ही मन घुट रही थी. उस ने

भी उन्हें उस की बहानेबहाने पर ताने कसने

और धौंस जमाने की आदत के बारे में बताया. उस की बातें सुन कर मातापिता ने उसे सम?ाया कि जो लड़का शादी से पहले उस की बुराई करने से बाज नहीं आ रहा, वह उसे शादी के बाद कैसे खुश रखेगा?

तन्वी ने इस मुद्दे पर बहुत संजीदगी से सोचा और इस निष्कर्ष पर पहुंची कि मातापिता सही कह रहे हैं और दिल पर पत्थर रख कर उन के कहे अनुसार उस से सारे संबंध तोड़ लिए.

कुछ समय बाद मातापिता ने एक सीए लड़के सजल को उस के लिए पसंद किया. तन्वी और सजल ने 5-6 माह डेटिंग की और तन्वी को पदम की अपेक्षा सजल हर माने में बेहतर लगा.  वह एक केयरिंग, सहृदय युवक था, जिस ने तन्वी को हमेशा अपने बराबर का दर्जा दिया.

नियत वक्त पर दोनों की सगाई हुई और शादी का दिन आ पहुंचा. उस दिन की याद कर गले में एक सुबकी उठी, और तभी  प्लेन में पायलट के उतरने की घोषणा के साथ वह वर्तमान में लौट आई.

अकसर बनने के बाद उस की जिंदगी मात्र

बैंक, अपने औफिशियल उत्तरदायित्यों के निर्वाह के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई. अकसर के तौर पर नियुक्ति के बाद पूरी बैंक शाखा की जिम्मेदारी उस के ऊपर आ गई. वह रोजाना औफिस के नियत वक्त से 2 घंटे पहले बैंक पहुंच जाती और अपनी सीट का काम करती. पूरा दिन कब व्यस्तता में गुजर जाता, उसे भान न होता. अपने नियत टार्गेट पूरा करना मानो उस की जिंदगी का मकसद बन गया था, जिस में वह सुबह से शाम तक जीजान से जुटी रहती.

तन्वी अपने मीठे, सहृदय और सहयोगी रवैए से अपनी शाखा के सभी छोटेबड़े कर्मचारियों को अपना मुरीद बना लिया. पूरा स्टाफ उस की बढ़ाई करते नहीं थकता, साथ ही वह अपनी बैंक के उपभोक्ताओं के लिए हर समय उपलब्ध रहती. अपने स्टाफ द्वारा उन्हें बेहतरीन सेवा प्रदान करवाती. जीजान से उन की शिकायतों का निबटारा करती. सो कुछ अपवादों को छोड़ कर शाखा में आने वाली जनता भी उस के और उस के बैंक के स्टाफ के कार्य से बहुत हद तक

संतुष्ट रहती.

बैंक की ओर से तन्वी को बड़ा क्वार्टर आवंटित हुआ, लेकिन अकेले सांयसांय करता घर उसे काटने को दौड़ता. जब भी अकेली होती, अतीत की काली छाया उस के संपूर्ण वजूद को घेर लेती और उस का दम घुटता. सुकून मिलता तो महज अपने काम में. सो वह सुबहसवेरे

ठीक आठ बजे अपनी शाखा में पहुंच जाती और रात के 9 बजे तक अपने काम में लगी रहती. अमूमन रात के 9 तक तनमन से क्लांत घर पहुंचती और खापी कर, कुछ देर अपनी मां,

पिता और बहनों से बात कर नींद के आगोश में चली जाती. उस का काम उस का जनून बन

गया था, जिस में व्यस्त रह कर उसे आत्मिक सुकून मिलता.

उधर पदम ने तन्वी से अलगाव के वर्षभर बाद ही उस से तलाक ले कर दूसरा विवाह किया, लेकिन उस की दूसरी पत्नी स्वभाव से उस की डुप्लिकेट थी, साथ ही वह बेहद ?ागड़ालू भी थी. इस वजह से आए दिन उन के बीच महाभारत मचा रहता, जिस की वजह से यह शादी भी मात्र 2 वर्षों तक चली और दूसरी पत्नी ने कोर्ट में उस के विरुद्ध एक भारी ऐलीमनी की मांग करते हुए तलाक का केस फाइल कर दिया.

इस सब का असर उस की नौकरी पर पड़ा और वह अपनी नौकरी में अपना बैस्ट न दे पाया, साथ ही उस का बड़बोलापन, रोब भरा व्यवहार, बेमानी, ऐंठ और अकड़ से उस का स्टाफ और उस की शाखा के उपभोक्ता उस से निरंतर असंतुष्ट रहते. उस के सीनियर भी इन्हीं सब वजहों से उस से कोई खास खुश न रहते. इस सब से उस की परफौर्मैंस अछूती न रही और उस की सफलता का ग्राफ निरंतर घटता गया.

साल दर साल यों ही गुजरते गए. आज

एक बार फिर तन्वी की जिंदगी का एक बेहद खास दिन था. पिछले माह ही तन्वी का प्रमोशन हुई थी और आज वह पदम से 2 पायदान ऊपर की अफसर बन उसी के बैंक की कालोनी में ठीक उस के सामने वाले क्वार्टर में रहने आ

रही थी.

पदम अपने ड्राइंगरूम में बैठा हुआ अखबार पढ़ रहा था कि तभी घर के सामने शोरगुल सुन कर उस ने अपनी खिड़की से बाहर ?ांका. किसी के घर के सामान से लदा ट्रक उस के क्वार्टर के ठीक सामने रुका था.

तभी उस ने देखा तन्वी अपनी शानदार चमचमाती गाड़ी से उतर रह थी. आत्मविश्वास

से भरी हुई वह सामान ढोने वाले मजदूरों को कड़क आवाज में निर्देश दे रही थी. बैंक के

कुछ जूनियर कर्मचारी उस के सामने हाथ बांधे खड़े थे.

तन्वी को यों इतने रोबदाब से कर्मचारियों के मध्य खड़ा देख पदम के सीने पर मानो मुक्का पड़ा. ?ाटपट चप्पलें पहन उस की अगवानी करने बाहर आ गया. आखिर वह उस की इमीडिएट बौस थी.

पूर्व पत्नी के नए अवतार को देख कर पदम दंग रह गया था. इतने बरसों बाद भी उस के चेहरे का नमकीन जादू बरकरार था. बस चेहरे पर तनिक संजीदा गांभीर्य आ गया था और सिर पर रुपहली चांदनी छिटक आई थी, जिस ने उस के संपूर्ण वजूद को एक गांभीर्य पूर्ण ठहराव प्रदान किया था.

उस दिन के बाद से एक ही कालोनी में रहते हुए अकसर उस का सामना उस से हो जाता. कभी वह शाम को कालोनी के कुछ बच्चों के साथ हंसते, चहकते बैडमिंटन खेलती नजर आती तो कभी टैनिस.

उस दिन तन्वी अचानक उस के घर आई, ‘‘पदम, अगले मंडे मेरी 2 किताबों का टाउन हौल में विमोचन है. तुम्हें जरूर आना है. याद रखना, अगले सप्ताह. आज मैं कुछ फ्रैंड्स के साथ मलयेशिया के ट्रिप पर जा रही हूं. संडे को लौटूंगी. फिर तुम्हें रिमाइंड करने का टाइम नहीं होगा. इसलिए भूलना मत.’’

‘‘किताबें? यह तुम ने लिखना कब से शुरू कर दिया? पहले तो कभी देखा नहीं कि तुम लिखती हो?’’

एक पल को उन की आंखें मिली थीं और उस पल में मानो समय थम सा गया था.

तभी उससे नजरें हटाते हुए तन्वी उस से बोली, ‘‘पिछले कुछ सालों से निरंतर लिख रही हूं. अब तो लिखना मेरी जिंदगी है. एक दिन भी न लिखूं तो अधूराअधूरा लगता है.’’

पदम अगले मंडे टाउन हौल पहुंचा. कैमरे की चमकती फ्लैश लाइटों के बीच अनेक मशहूर लेखकों और शहर की प्रमुख हस्तियों के बीच तन्वी की किताबों का विमोचन हुआ. आत्मगौरव के उन क्षणों में उस वक्त उस के मुसकराते चेहरे की अपूर्व दमक देखने लायक थी. हौल में अनवरत तालियां बज रही थीं.

अनायास मन में बरसों पहले उस की कलहकलेश और चिल्लाहट सुनती, भीगी आंखों वाली बेबस तन्वी और आज की भरपूर आत्मविश्वास से खिलीखिली प्रतिष्ठित लेखिका और वरिष्ठ अफसर तन्वी का चमकता चेहरा देख पदम के कानों में उस से कहे गए उस के ही अपने शब्द गूंजने लगे कि आखिर तुम्हारी औकात क्या है? आज उसे औकात के असली माने समझ आ गए थे.

कौन चरित्रहीन: सालों बाद आभा ने बच्चों की कस्टडी क्यों मांगी?

उसके हाथों में कोर्ट का नोटिस फड़फड़ा रहा था. हत्प्रभ सी बैठी थी वह… उसे एकदम जड़वत बैठा देख कर उस के दोनों बच्चे उस से चिपक गए. उन के स्पर्श मात्र से उस की ममता का सैलाब उमड़ आया और आंसू बहने लगे. आंसुओं की धार उस के चेहरे को ही नहीं, उस के मन को भी भिगो रही थी. न जाने इस समय वह कितनी भावनाओं की लहरों पर चढ़उतर रही थी. घबराहट, दुख, डर, अपमान, असमंजस… और न जाने क्याक्या झेलना बाकी है अभी. संघर्षों का दौर है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. जब भी उसे लगता कि उस की जिंदगी में अब ठहराव आ गया है, सबकुछ सामान्य हो गया है कि फिर उथलपुथल शुरू हो जाती है.

दोनों बच्चों को अकेले पालने में जो उस ने मुसीबतें झेली थीं, उन के स्थितियों को समझने लायक बड़े होने के बाद उस ने सोचा था कि वे कम हो जाएंगी और ऐसा हुआ भी था. पल्लवी 11 साल की हो गई थी और पल्लव 9 साल का. दोनों अपनी मां की परेशानियों को न सिर्फ समझने लगे थे वरन सचाई से अवगत होने के बाद उन्होंने अपने पापा के बारे में पूछना भी छोड़ दिया था. पिता की कमी वे भी महसूस करते थे, पर नानी और मामा से उन के बारे में थोड़ाबहुत जानने के बाद वे दोनों एक तरह से मां की ढाल बन गए थे. वह नहीं चाहती थी कि उस के बच्चों को अपने पापा का पूरा सच मालूम हो, इसलिए कभी विस्तार से इस बारे में बात नहीं की थी. उसे अपनी ममता पर भरोसा था कि उस के बच्चे उसे गलत नहीं समझेंगे.

कागज पर लिखे शब्द मानो शोर बन कर उस के आसपास चक्कर लगा रहे थे, ‘चरित्रहीन, चरित्रहीन है यह… चरित्रहीन है इसलिए इसे बच्चों को अपने पास रखने का भी हक नहीं है. ऐसी स्त्री के पास बच्चे सुरक्षित कैसे रह सकते हैं? उन्हें अच्छे संस्कार कैसे मिल सकते हैं? इसलिए बच्चों की कस्टडी मुझे मिलनी चाहिए… एक पिता होने के नाते मैं उन का ध्यान ज्यादा अच्छी तरह रख सकता हूं और उन का भविष्य भी सुरक्षित कर सकता हूं…’

चरित्रहीन शब्द किसी हथौड़े की तरह उस के अंतस पर प्रहार कर रहा था. मां को रोता देख पल्लवी ने कोर्ट का कागज मां के हाथों से ले लिया. ज्यादा कुछ तो समझ नहीं आया. पर इतना अवश्य जान गई कि मां पर इलजाम लगाए जा रहे हैं.

‘‘पल्लव तू सोने जा,’’ पल्लवी ने कहा तो वह बोला, ‘‘मैं कोई छोटा बच्चा नहीं हूं. सब जानता हूं. हमारे पापा ने नोटिस भेजा है और वे चाहते हैं कि हम उन के पास जा कर रहें. ऐसा कभी नहीं होगा. मम्मी आप चिंता न करें. मैं ने टीवी में एक सीरियल में देखा था कि कैसे कोर्ट में बच्चों को लेने के लिए लड़ाई होती है. मैं नहीं जाऊंगा पापा के पास. दीदी आप भी नहीं जाना.’’

पल्लव की बात सुन कर वह हैरान रह गई. सही कहते हैं लोग कि वक्त किसी को भी परिपक्व बना सकता है.

‘‘मैं भी नहीं जाऊंगी उन के पास और कोर्ट में जा कर कह दूंगी कि हमें मम्मी के पास ही रहना है. फिर कैसे ले जाएंगे वे हमें. मुझे तो उन की शक्ल तक याद नहीं. इतने सालों तक एक बार भी हम से मिलने नहीं आए. फिर अब क्यों ड्रामा कर रहे हैं?’’ पल्लवी के स्वर में रोष था.

कोई गलती न होने पर भी वह इस समय बच्चों से आंख नहीं मिला पा रही थी. छि: कितने गंदे शब्द लिखे हैं नोटिस में… किसी तरह उस ने उन दोनों को सुलाया.

रात की कालिमा परिवेश में पसर चुकी थी. उसे लगा कि अंधेरा जैसे धीरेधीरे उस की ओर बढ़ रहा है. इस बार यह अंधेरा उस के बच्चों को छीनने के लिए आ रहा है. भयभीत हो उस ने बच्चों की ओर देखा… नहीं, वह अपने बच्चों को अपने से दूर नहीं होने देगी… अपने जिगर के टुकड़ों को कैसे अलग कर सकती है वह?

तब कहां गया था पिता का अधिकार जब उसे बच्चों के साथ घर छोड़ने पर मजबूर किया गया था? बच्चों की बगल में लेट कर उस ने उन के ऊपर हाथ रख दिया जैसे कोई सुरक्षाकवच डाल दिया हो.

उस के दिलोदिमाग में बारबार चरित्रहीन शब्द किसी पैने शीशे की तरह चुभ रहा था. कितनी आसानी से इस बार उस पर एक और आरोप लगा दिया गया है और विडंबना तो यह है कि उस पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाया गया है जिसे कभी झल्ली, मूर्ख, बेअक्ल और गंवारकहा जाता था. आभा को लगा कि नरेश का स्वर इस कमरे में भी गूंज रहा है कि तुम चरित्रहीन हो… तुम चरित्रहीन हो… उस ने अपने कानों पर हाथ रख लिए. सिर में तेज दर्द होने लगा था.

समय के साथ शब्दों ने नया रूप ले लिया, पर शब्दों की व्यूह रचना तो बरसों पहले ही हो चुकी थी. अचानक ‘तुम गंवार हो… तुम गंवार हो…’ शब्द गूंजने लगे… आभा घिरी हुई रात के बीच अतीत के गलियारों में भटकने लगी…

‘‘मांबाप ने तुम जैसी गंवार मेरे पल्ले बांध मेरी जिंदगी खराब कर दी है. तुम्हारी जगह कोई पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा बीवी होती तो मुझे कितनी मदद मिल जाती. एक की कमाई से घर कहां चलता है. तुम्हें तो लगता है कि घर संभाल रही हो तो यही तुम्हारी बहुत बड़ी क्वालिफिकेशन है. अरे घर का काम तो मेड भी कर सकती है, पर कमा कर तो बीवी ही दे सकती है,’’ नरेश हमेशा उस पर झल्लाता रहता.

आभा ज्यादातर चुप ही रहती थी. बहुत पढ़ीलिखी न सही पर ग्रैजुएट थी. बस आगे कोई प्रोफैशनल कोर्स करने का मौका ही नहीं मिला. कालेज खत्म होते ही शादी कर दी गई. सोचा था शादी के बाद पढ़ेगी, पर सासससुर, देवर, ननद और गृहस्थी के कामों में ऐसी उलझी कि अपने बारे में सोच ही नहीं पाई. टेलैंट उस में भी है. मूर्ख नहीं है. कई बार उस का मन करता कि चिल्ला कर एक बार नरेश को चुप ही करा दे, पर सासससुर की इज्जत का मान रखते हुए उस ने अपना मुंह ही सी लिया. घर में विवाद हो, यह वह नहीं चाहती थी.

मगर मन ही मन ठान जरूर लिया था कि वह पढ़ेगी और स्मार्ट बन कर दिखाएगी…

स्मार्ट यानी मौडर्न और वह भी कपड़ों से…

ऐसी नरेश की सोच थी… पर वह स्मार्टनैस सोच में लाने में विश्वास करती थी. जल्दीजल्दी 2 बच्चे हो गए, तो उस की कोशिशें फिर ठहर गईं. बच्चों की अच्छी परवरिश प्राथमिकता बन गई. मगर खर्चे बढ़े तो नरेश की झल्लाहट भी बढ़ गई. बहन की शादी पर लिया कर्ज, भाई की भी पढ़ाई और मांबाप की भी जिम्मेदारी… गलती उस की भी नहीं थी. वह समझ रही थी इसलिए उस ने सिलाई का काम करने का प्रस्ताव रखा, ट्यूशन पढ़ाने का प्रस्ताव रखा पर गालियां ही मिलीं.

‘‘कोई सौफिस्टिकेटेड जौब कर सकती हो तो करो… पर तुम जैसी गंवार को कौन नौकरी देगा. बाहर निकल कर उन वर्किंग वूमन को देखो… क्या बढि़या जिंदगी जीती हैं. पति का हाथ भी बंटाती हैं और उन की शान भी बढ़ाती हैं.’’

आभा सचमुच चाहती थी कि कुछ करे. मगर वह कुछ सोच पाती उस से पहले ही विस्फोट हो गया.

‘‘निकल जा मेरे घर से… और अपने इन बच्चों को भी ले जा. मुझे तेरी जैसी गंवार की जरूरत नहीं… मैं किसी नौकरीपेशा से शादी करूंगा. तेरी जैसी फूहड़ की मुझे कोई जरूरत नहीं.’’

सकते में आ गई थी वह. फूहड़ और गंवार मैं हूं कि नरेश… कह ही नहीं पाई वह.

सासससुर के समझाने पर भी नरेश नहीं माना. उस के खौफ से सभी डरते थे. उस के चेहरे पर उभरे एक राक्षस को देख उस समय वह भी डर गई थी. सोचा कुछ दिनों में जब उस का गुस्सा शांत हो जाएगा, वह वापस आ जाएगी. 2 साल की पल्लवी और 1 साल के पल्लव को ले कर जब उस ने घर की देहरी के बाहर पांव रखा था तब उसे क्या पता था कि नरेश का गुस्सा कभी शांत होगा ही नहीं.

मायके में आ कर भाईभाभी की मदद व स्नेह पा कर उस ने ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमैंट की पढ़ाई की. फिर जब एक कंपनी में उसे नौकरी मिली तो लगा कि अब उस के सारे संघर्ष खत्म हो गए हैं. बच्चों को अच्छे स्कूल में डाल दिया. खुद का किराए पर घर ले लिया.

इतने सालों बाद फिर से यह झंझावात कहां से आ गया. यह सच है कि नरेश ने तलाक नहीं लिया था, पर सुनने में आया था कि किसी पैसे वाली औरत के साथ ऐसे ही रह रहा था. सासससुर गांव चले गए थे और देवर अपना घर बसा कर दूसरे शहर में चला गया था. फिर अब बच्चे क्यों चाहिए उसे…

वह इस बार हार नहीं मानेगी… वह लड़ेगी अपने हक के लिए. अपने बच्चों की खातिर. आखिर कब तक उसे नरेश के हिसाब से स्वयं को सांचे में ढालते रहना होगा. उसे अपने अस्तित्व की लड़ाई तो लड़नी ही होगी. आखिर कैसे वह जब चाहे जैसा मरजी इलजाम लगा सकता है और फिर किस हक से… अब वह तलाक लेगी नरेश से.

अदालत में जज के सामने खड़ी थी आभा. ‘‘मैं अपने बच्चों को किसी भी हालत में इसे नहीं सौंप सकती हूं. मेरे बच्चे सिर्फ मेरे हैं. पिता का कोई दायित्व कब निभाया है इस आदमी ने…’’

‘‘तुम्हारी जैसी महत्त्वाकांक्षी, रातों को देर तक बाहर रहने वाली, जरूरत से ज्यादा स्मार्ट और मौडर्न औरत के साथ बच्चे कैसे सुरक्षित रह सकते हैं? पुरुषों के साथ मीटिंग के बहाने बाहर जाती है, उन से हंसहंस कर बातें करती है… मैं ने इसे छोड़ दिया तो क्या यह अब किसी भी आदमी के साथ घूमने के लिए आजाद है? जज साहब, मैं इसे अभी भी माफ करने को तैयार हूं. यह चाहे तो वापस आ सकती है. मैं इसे अपना लूंगा.’’

‘‘नहीं. कभी नहीं. तुम इसलिए मुझे अपनाना चाहते हो न, क्योंकि मैं अब कमाती हूं. तुम्हें उस अमीर औरत ने बेइज्जत कर के बाहर निकाल दिया है और तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें कमा कर खिलाऊं? नरेश मैं तुम्हारे हाथों की कठपुतली बनने को तैयार नहीं हूं और न ही तुम्हें बच्चों की कस्टडी दूंगी. हां, तुम से तलाक जरूर लूंगी.

‘‘जज साहब अगर बच्चों को अच्छी जिंदगी देने के लिए मेहनत कर पैसा कमाना चारित्रहीनता की निशानी है तो मैं चरित्रहीन हूं. जब मैं घर की देहरी के अंदर खुश थी तो मुझे गंवार कहा गया, जब मैं ने घर की देहरी के बाहर पांव रखा तो मैं चरत्रिहीन हो गई. आखिर यह कैसी पुरुष मानसिकता है… अपने हिसाब से तोड़तीमरोड़ती रहती है औरत के अस्तित्व को, उस की भावनाओं को अपने दंभ के नीचे कुचलती रहती है… मुझे बताइए मैं चरित्रहीन हूं या नरेश जैसा पुरुष?’’ आभा के आंसू बांध तोड़ने को आतुर हो उठे थे. पर उस ने खुद को मजबूती से संभाला.

‘‘मैं तुम्हें तलाक देने को तैयार नहीं हूं. तुम भिजवा दो तलाक का नोटिस. चक्कर लगाती रहना फिर अदालत के बरसों तक,’’ नरेश फुफकारा था.

केस चलता जा रहा था. पल्लवी और पल्लव को आभा को न चाहते हुए भी केस में घसीटना पड़ा. जज ने कहा कि बच्चे इतने बड़े हैं कि उन से पूछना जरूरी है कि वे किस के साथ रहना चाहते हैं.

‘‘हम इस आदमी को जानते तक नहीं हैं. आज पहली बार देख रहे हैं. फिर इस के साथ कैसे जा सकते हैं? हम अपनी मां के साथ ही रहेंगे.’’

अदालत में 2 साल तक केस चलने के बाद जज साहब ने फैसला सुनाया, ‘‘नरेश को बच्चों की कस्टडी नहीं मिल सकती और आभा पर मानसिक रूप से अत्याचार करने व उस की इज्जत पर कीचड़ उछालने के जुर्म में उस पर मानहानि का मुकदमा चलाया जाए. ऐसी घृणित सोच वाले पुरुष ही औरत की अस्मिता को लहूलुहान करते हैं और समाज में उसे सम्मान दिलाने के बजाय उस के सम्मान को तारतार कर जीवन में आगे बढ़ने से रोकते हैं. आभा को परेशान करने के एवज में नरेश को उन्हें क्व5 लाख का हरजाना भी देना होगा.’’

आभा ने नरेश के आगे तलाक के पेपर रख दिए. बुरी तरह से हारे हुए नरेश के सामने कोई विकल्प ही नहीं बचा था. दोनों बच्चों के लिए तो वह एक अजनबी ही था. कांपते हाथों से उस ने पेपर्स पर साइन कर दिए. अदालत से बाहर निकलते हुए आभा के कदमों में एक दृढ़ता थी. दोनों बच्चों ने उसे कस कर पकड़ा था.

ब्यूटी क्वीन: कैसे बदली होशियार आएशा की जिंदगी?

आएशा का सपना था कि वह बड़ी हो कर कंप्यूटर के क्षेत्र में अपना नाम कमाए. इसी सपने को ले कर वह अपने गांव से इलाहाबाद के एक प्रसिद्ध कालेज पहुंची थी, पर वहां सीनियर्स को देख कर अचकचा गई. उसे कुछ ऐसा महसूस होने लगा जैसे वे सब उस से अलग हैं. उन के व्यक्तित्व के आगे वह खुद को बौना महसूस करती. उस के पास गिनेचुने 3-4 सलवारसूट थे. अन्य लड़कियां जींस और टौप पहन कर घूमतीं.

आएशा को अंगरेजी उतनी ही आती थी जितनी कंप्यूटर प्रोग्राम लिखने के लिए जरूरी होती है जबकि उस के अन्य सहपाठी फर्राटेदार अंगरेजी बोलते. लड़कियों के बाल भी मौडर्न स्टाइल में कटे होते. आएशा के बाल लंबे थे. वह 2 चोटियों के अलावा कोई और स्टाइल बनाना जानती ही नहीं थी.

अपने इन खयालों की वजह से वह किसी से बातचीत करने में भी अचकचाती थी. वैसे भी हौस्टल में उस की रूममेट आलिया को किसी कारणवश कालेज जौइन करते ही घर जाना पड़ गया था. पहले से वह किसी को जानती नहीं थी, इसलिए ज्यादातर वह अकेली ही रहती. कक्षा में अन्य छात्र उसे अकसर चिढ़ाते. कभीकभी सीधे कटाक्ष भी करते थे. वह काफी उदास रहने लगी. हालांकि वह पढ़ाई में बहुत होशियार थी, पर उस का ध्यान इन चीजों की वजह से पढ़ाई में लगना कुछ कम हो गया था.

एक दिन आएशा अपने कमरे में इसी तरह उदास बैठी थी कि अचानक दस्तक हुई. ‘उस के कमरे में कौन आ गया’, यह सोचते हुए उस ने दरवाजा खोला. सामने एक खूबसूरत लड़की खड़ी थी. उस ने हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘हाय, आई

एम आलिया, योर रूममेट. तुम जरूर आएशा होगी?’’

डर के मारे एक क्षण के लिए आएशा के मुंह से कुछ नहीं निकला. उस ने यह तो सोचा ही नहीं था कि उस की रूममेट को भी उसे झेलना पड़ेगा. उस के मन में यही विचार चलने लगे थे कि यह आलिया भी उस का मजाक बनाएगी. उस ने सहमते हुए अपना हाथ आलिया से मिलाया पर आलिया के चेहरे पर फैली मुसकान देख कर वह अपना डर कुछ भूल गई.

आलिया ने कहा, ‘‘मैं ने सुना है कि तुम बहुत होशियार हो और 12वीं में तुम्हारे बहुत अच्छे नंबर आए थे. भई, मैं तो पढ़ाई में बहुत पीछे हूं. मुझ से अंगरेजी कितनी ही बुलवा लो, पिक्चरों की कहानियां कितनी ही पूछ लो और लेटैस्ट फैशन स्टाइल के बारे में कुछ भी जान लो, पर पढ़ाई में तो मेरा हाल बड़ा ही बुरा है. मैं तो यह जान कर खुश हो गई कि तुम मेरी रूममेट हो. खूब जमेगी अपनी,’’ कह कर आलिया ने आएशा को गले लगा लिया. उस का चुलबुलापन देख कर आएशा भी मुसकराए बिना रह न सकी. दोनों ने मिल कर कुछ देर तक बातें की और फिर दोनों सो गईं.

आलिया में न जाने क्या बात थी कि वह जल्दी ही आएशा की दोस्त बन गई पर आलिया के अन्य दोस्तों से वह कभी दोस्ती नहीं कर सकी. वह ऐसी जगहों पर आलिया के पास जाती ही नहीं थी, जहां पर उस के अन्य दोस्त होते.

आलिया की खास सहेलियां तारा और शिवानी तो उसे खासकर अच्छी नहीं लगती थीं. वह अकसर उस का और उस के कपड़ों का खूब मजाक बनाती थीं. उस के बोलने के तरीके पर तो वे कई बार उस के सामने ही उस का मजाक उड़ा दिया करती थीं.

एक दिन आएशा पढ़ने में व्यस्त थी. आलिया अपना मोबाइल छोड़ कर कहीं गई हुई थी. मोबाइल बारबार बज रहा था. उस ने देखा कि उस पर डैडी लिखा आ रहा है. आएशा को लगा कि हो सकता है, कोई जरूरी फोन हो. वह आलिया को ढूंढ़ने लगी. ढूंढ़तेढूंढ़ते वह तारा और शिवानी के कमरे के पास पहुंची. अंदर से आवाजें आ रही थीं, ‘‘यार, आलिया तेरी कोई बात समझ में नहीं आती. तू खुद तो इतनी मस्त है पर उस आएशा को अपने साथ क्यों टांगे रखती है?’’ शायद यह तारा और शिवानी की मिलीजुली आवाजें थीं.

आलिया ने जवाब दिया, ‘‘यार, तुम लोग हर किसी को एक ही नजरिए से देखते हो, जबकि हर किसी में कुछ न कुछ खासीयत होती है. वह हमारी तरह मौडर्न भले ही न हो, पर पढ़नेलिखने में हम से बहुत आगे है. उस की देखादेखी मैं भी थोड़ाबहुत पढ़ने लगी हूं.’’

ये सब बातें सुन कर आएशा की आंखें भर आईं. तभी आलिया का फोन एक बार फिर बज उठा. आलिया और उस की सहेलियों का ध्यान एकदम से फोन लाने वाले की ओर गया. आएशा ने आलिया से कहा, ‘‘मैं तुम्हें तुम्हारा मोबाइल देने आई थी.’’

आलिया ने उस की आंखों के आंसू देख लिए थे. वह अपना मोबाइल ले कर और सहेलियों को बाय कह कर अपने कमरे में आ गई.

आलिया की मम्मी की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी. पिछली बार भी उस को इसी वजह से घर जाना पड़ा था. उस की मम्मी उस से बात करना चाह रही थीं. बात खत्म होने के बाद उस ने आएशा को देखा. वह बिस्तर पर लेट कर किताब पढ़ने की कोशिश करने कर रही थी आलिया समझ गई कि उस का ध्यान पढ़ाई की तरफ नहीं है. वह सोचने लगी कि यदि इस तरह उस का ध्यान भटकता रहा तो उस की पढ़ाई ठीक तरह से नहीं हो पाएगी. वह अब तक उसे अच्छे से जाननेसमझने लगी थी.

आलिया उस के पास जा कर बैठी. उस ने सब से पहले उस की किताब उठा कर साइड में रख दी, फिर उस का काले फ्रेम वाला चश्मा निकाल दिया. उस की दोनों चोटियों को खोल दिया. आएशा उसे ध्यान से देख रही थी. वह समझ नहीं पा रही थी कि आलिया करना क्या चाह रही है.

आलिया उसे उठा कर शीशे के आगे ले गई और कहा, ‘‘देखो आएशा, तुम कितनी सुंदर हो. तुम कैसी दिखती हो, इस से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, पर मैं यह देख रही हूं कि हमारी अन्य क्लासमेट्स को इस से फर्क पड़ता है और तुम को भी पड़ने लगा है. तो क्यों न इस बार  कुछ ऐसा कर दें कि उन का भी मुंह बंद हो जाए और तुम को भी अपने पर कुछ एतबार हो जाए. बोलो, हो तैयार?’’

आएशा के यह कहने पर कि उसे इन सब से कोई फर्क नहीं पड़ता आलिया उसे चुपचाप देखती और सुनती रही. लेकिन अचानक आएशा फट पड़ी और जोर से चिल्लाई, ‘‘हां, पड़ता है मुझे फर्क. तुम्हारे अलावा हर कोई मुझ से बात करने से कतराता है. आज मैं ने सुना कि तुम्हारी सहेलियां भी किस तरह मेरा मजाक उड़ा रही थीं. मुझे सब फूहड़गंवार समझते हैं,’’ वह रोती हुई बिस्तर पर औंधे मुंह लेट कर सुबकने लगी.

आलिया उस के पास आ कर बैठी और धीरे से बोली, ‘‘अगर कोई और तुम्हें कुछ नहीं समझता है तो यह उस की दिक्कत है. पर मेरे पास एक आइडिया है. तुम्हें मेरे अनुसार ही चलना होगा. 2 महीने बाद हमारे कालेज में ब्यूटी क्वीन का चुनाव होना है. तुम उस में भाग लोगी और तुम्हारी पूरी टे्रनिंग मेरे जिम्मे है. वैसे मैं फ्री में कोई काम नहीं करती हूं. इस के बदले तुम्हें मुझे पढ़ाना होगा.’’

आएशा उस की ओर देखती हुई बोली, ‘‘ब्यूटी क्वीन और मैं? दिमाग तो नहीं फिर गया है तुम्हारा?’’

आलिया ने उस के होंठों पर उंगली रखते हुए कहा, ‘‘मैडम… तुम को कुछ बोलना नहीं है, सिर्फ करना है. यह बात अभी हम किसी को नहीं बताएंगे.’’

अब आलिया रोज शाम को पहले आएशा से कंप्यूटर सीखती और फिर उस को अंगरेजी बोलना सिखाती, उस को चलने व बात करने का तरीका और न जाने किनकिन चीजों पर लैक्चर देती. 2 महीने में आएशा काफी फर्राटेदार अंगरेजी बोलना सीख गई थी.

प्रतियोगिता के एक दिन पहले उसे ले जा कर आलिया ने उस के बाल स्टाइलिश तरीके से कटवा दिए. खुद के अच्छे कपड़े आएशा को पहना कर उसे ट्राई करवाती रहती थी. उस ने अपनी सब से अच्छी डै्रस प्रतियोगिता के दिन आएशा को पहनने को दी.

जब प्रतियोगिता के दिन आएशा को ले कर आलिया पहुंची तो कुछ क्षण के लिए किसी ने आएशा को पहचाना ही नहीं. प्रतियोगिता में तारा और शिवानी भी भाग ले रही थीं, पर सभी आएशा को देख कर आश्चर्यचकित थे. मन ही मन दोनों सोच रही थीं, ‘रूप अच्छा बना लिया, पर भाषा का क्या करेगी?’

थोड़ी ही देर में जब जजेस ने प्रश्न पूछे तो उस के उत्तर सुन कर वे काफी प्रभावित हुए.

आएशा जब ब्यूटी क्वीन चुन ली गई तो आएशा के साथसाथ आलिया की खुशी का भी ठिकाना न था. वह खुशी से झूम उठी. तारा और शिवानी ने उसे आ कर बधाई दी और अपने व्यवहार के लिए माफी मांगी.

कार्यक्रम खत्म होने के बाद आएशा जब वापस अपने कमरे में पहुंची तो  आलिया को धन्यवाद देने लगी. आलिया ने कहा, ‘‘मैडम, इस के बदले आप को अभी मुझे बहुत पढ़ाना है. मुझे भी तुम्हारी ही तरह जीत हासिल करनी है.’’

फिर आलिया धीरे से मुसकराती हुई बोली, ‘‘जिस क्षेत्र को हम ने चुना है, उसे  मैं बहुत अच्छी तरह जानती हूं कि आगे बढ़ने के लिए रूप से ज्यादा दिमाग की जरूरत पड़ेगी. पर चूंकि लोग तुम पर कमैंट मारते थे और तुम भी थोड़ी सी उदास रहने लगी थी, इसलिए मैं ने बस, तुम्हारी थोड़ी सी मदद की, पर मेहनत और गुण तो तुम्हारे ही थे. अब इन बातों में तुम भी कभी ध्यान नहीं दोगी, यह मैं जानती हूं. मैं अपने उन दोस्तों को भी अच्छी तरह जानती हूं जो तुम्हारा मजाक बनाते थे. देख लेना कल ही तुम से दोस्ती करने आ जाएंगे.’’

सुबह उठते ही उन के दरवाजे पर दस्तक हुई. आलिया सो रही थी. आएशा ने दरवाजा खोला तो सामने तारा और शिवानी बुके लिए हुए खड़ी थीं. वे उस के गले लग कर उस से एक बार फिर माफी मांगती हुई बोलीं, ‘‘आएशा, क्या तुम हमें भी अपना दोस्त बना सकती हो?’’

आएशा वापस 2 चोटियों में आ गई थी, पर उस के चेहरे पर एक नए आत्मविश्वास का तेज था. उस ने कहा, ‘‘क्यों नहीं, आखिर तुम दोनों मेरी सब से अच्छी सहेली की दोस्त जो हो.’’

आलिया भी तब तक जग गई थी और उन की बातें सुन मुसकरा उठी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें