ममता की मूरत : सास के प्रति कैसे बदली सीमा की धारणा?

रात का लगभग 8 बजे का समय था. मैं औफिस से आ कर खाना बना रही थी और राकेश अपने लैपटौप पर अभी भी औफिस के ही काम में उलझे हुए थे. तभी फोन की घंटी बजी. किस का फोन है, यह उत्सुकता मुझे किचन से खींच लाई. मैं ने देखा राकेश फोन पर बात करते हुए बहुत परेशान हो उठे हैं.

‘प्लीज, आप उन्हें अस्पताल पहुंचा दीजिए. मैं फौरन निकल रहा हूं, फिर भी मुझे पहुंचने में 2-3  घंटे तो लग ही जाएंगे,’ इतना कहते हुए उन्होंने फोन रख दिया. इस से पहले कि मैं कुछ पूछती उन्होंने हड़बड़ी में मुझे पूरी बात बताते हुए अपने कुछ कपड़े और जरूरी सामान बैग में रखना शुरू कर दिया.

राकेश की चाचीजी, जो मथुरा में रहती हैं अचानक बहुत बीमार हो गई थीं. उन की हालत को देखते हुए किसी पड़ोसी ने हमें फोन किया था. चाचीजी का हमारे सिवा इस दुनिया में और है ही कौन? उन की अपनी औलाद तो है नहीं और चाचाजी का कुछ वर्ष हुए देहांत हो चुका है.

हमारी शादी में चाचीजी ने ही मेरी सास की सारी रस्में की थीं. राकेश के मातापिता तो बहुत पहले एक कार ऐक्सीडैंट में मारे गए थे. तब राकेश की दीदी गरिमा तो अपनी पढ़ाई पूरी कर नौकरी की तलाश कर रही थीं, लेकिन राकेश स्कूल में पढ़ रहे थे. अपनी दीदी से 8 साल छोटे जो हैं. तब चाचाचाची ने ही दीदी की शादी की थी और राकेश को स्कूल के बाद आगे की पढ़ाई के लिए होस्टल भेज दिया था. चाचाचाची ने दीदी को और मुझे अपनी औलाद की तरह प्यार दिया है, यह बात इन 2 वर्षों में राकेश मुझे कई बार बता चुके हैं.

पहले पूरा परिवार साथ ही रहता था लेकिन राकेश जब चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तभी इन के चाचाजी का तबादला मथुरा हो गया था. इस के बाद तो उन के तबादला कई और शहरों में भी होता रहा लेकिन मथुरा में उन्होंने अपना घर बना लिया था, इसलिए उन के देहांत के बाद चाचीजी मथुरा आ गई थीं. और वे जाती भी कहां?

मेरा चाचीजी से ज्यादा परिचय नहीं था. हमारी शादी के वक्त वे सिर्फ 5-6 दिन हमारे साथ रही थीं. दरअसल, हम दोनों बैंकाक घूमने जाना चाहते, इसलिए वे मथुरा लौट गई थीं. मैं क्याक्या सोचने लग गई थी. राकेश की आवाज से मैं वर्तमान में लौटी. वे कह रहे थे कि देखो जल्दी में मैं कहीं कुछ रखना तो नहीं भूल गया.

बैग पैक हो गया तो राकेश अकेले चाचीजी को कैसे संभालेंगे यह सोच कर मैं ने भी साथ चलने की बात की तो वे बोले कि पहले जा कर स्थिति देख लूं, जरूरत हुई तो तुम्हें भी बुला लूंगा. फिर वे मथुरा के लिए रवाना हो गए.

शादी के बाद यह पहला अवसर था जब मैं रात के समय घर में अकेली थी. अजीब सा डर व बेचैनी मुझे सोने नहीं दे रही थी. रात 2 बजे के लगभग राकेश से मेरी बात हुई. पता लगा चाचीजी बेहोश हैं. कई तरह के टैस्ट हो रहे हैं, अभी कुछ ठीक से कहा नहीं जा सकता. राकेश काफी परेशान लग रहे थे.

अगली सुबह 11 बजे राकेश का फोन आया कि वे चाचीजी के इलाज तथा डाक्टरों के रवैये से संतुष्ट नहीं हैं. वे उन्हें ले कर दिल्ली आ रहे हैं. दिल्ली के एक अस्पताल से बातचीत चल रही है.

शाम होतेहोते वे चाचीजी को ले कर दिल्ली पहुंच गए. नीम बेहोशी की हालत में चाचीजी बहुत ही कमजोर लग रही थीं. रंग भी पीला पड़ा हुआ था. उन के अस्पताल पहुंचने से पहले ही मैं वहां पहुंच गई. डाक्टरों ने तत्परता से इलाज शुरू कर दिया.

5 दिनों बाद चाचीजी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई, लेकिन डाक्टरों ने दवा के साथसाथ परहेज और आराम करने की सख्त हिदायत दी थी. हम उन्हें घर ले आए. बीमारी कोई विशेष नहीं थी. बढ़ती उम्र, अकेलापन, चिंता, काम की थकान, उस पर ठीक से समय पर न खाना बीमारी के कारण थे.

हम दोनों के लिए अब और छुट्टियां लेना मुश्किल था. उन के लिए किसी नौकर या नर्स का प्रबंध नहीं हो पा रहा था, इसलिए हम ने घर पर काम करने वाली बाई को ही दिन भर में 2-3 चक्कर लगा कर उन्हें दूध, चाय, नाश्ता आदि देते रहने के लिए कहा और औफिस जाना शुरू कर दिया था. हां, दिन में कई बार हम फोन पर चाचीजी से बात कर लेते थे. उन का हालचाल जान लेते थे. कोई परेशानी तो नहीं? पूछते रहते थे.

राकेश की तो पता नहीं हां, मेरी परेशानियां कुछ बढ़ गई थीं. आज तक जो घर सिर्फ हमारा था वह एकाएक मुझे मेरी ससुराल लगने लगा था. अब उठनेबैठने, पहननेओढ़ने में मैं कुछ बंदिशें महसूस करने लगी थी. हालांकि चाचीजी ने इस बारे कभी कुछ कहा नहीं था, लेकिन उन का घर पर होना ही मेरे लिए काफी था.

लेकिन मैं पूरे उत्साह से यह सब कर रही थी, क्योंकि चाचीजी आशा से कहीं जल्दी स्वास्थ्य लाभ कर रही थीं. 1 सप्ताह बाद ही उन्हें कामवाली की जरूरत नहीं रही. वे अपने छोटेछोटे काम स्वयं ही उठ कर करने लगी थीं. मैं खुश थी कि वे जल्दी ही ठीक हो कर मथुरा लौट जाएंगी. कुछ ही दिनों की तो बात है.

एक दिन राकेश बोले कि अब हम चाचीजी को वापस नहीं जाने देंगे. वे अब हमारे साथ ही रहेंगी. अब इस उम्र में उन का अकेले रहना मुश्किल है. फिर बीमार हो गईं तो? फिर हमारा भी तो उन के प्रति कोई कर्तव्य है. उन्होंने हमारे लिए बहुत कुछ किया है. राकेश ने कुछ गलत तो नहीं कहा था लेकिन मेरा मन बेचैन हो उठा.

मुझे याद है जब मेरे लिए राकेश का रिश्ता आया तो मम्मीपापा ने मेरी राय पूछी थी. राकेश दिखने में कैसे हैं? पढ़ेलिखे कितना हैं? कमाते कितना हैं? यह सब जानने की मुझे जरूरत ही महसूस नहीं हुई थी क्योंकि लगा था कि मम्मीपापा और मामाजी ने देख लिया है तो सब ठीक ही होगा. मेरे लायक ही होगा. मैं तो लड़के के परिवार के बारे में जानना चाहती थी. पूछा तो पता लगा कि घर में सासससुर नहीं हैं. बस एक बड़ी बहन है, जो शादीशुदा है. मेरे लिए इतना ही जानना काफी था क्योंकि मेरे दिमाग में सास की छवि ऐसी थी जिस से बहू हमेशा डरीसहमी रहती है. मेरी सहेली जया, जिस की शादी कुछ ही महीने पहले हुई थी, उस से जब भी बात होती थी वह अपने पति के बारे में कम सास के बारे में बात ज्यादा करती थी. हमेशा परेशान रहती थी.

उस पर मेरी दीदी जबतब मायके आतीं तो कई दिनों तक लौटने का नाम नहीं लेती थीं. हमेशा मां ही उन्हें समझाबुझा कर वापस भेजती थीं. उन्हें भी पति या देवर से नहीं सास से ही ढेरों शिकायतें होती थीं.

लेकिन हमारे यहां तो राकेश की चाचीजी रहने वाली थीं. अपनी सास की तो चलो कोई 2 बात सुन भी ले, चचियासास की बातें, ताने, उलाहने भला कोई क्यों सुने? हालांकि ऐसा सोचना बड़ा ही गलत था, स्वार्थी सोच था, लेकिन मुझे बहुत परेशान करने लगा था.

एक शाम औफिस से घर पहुंची तो देखा चाचीजी ने मशीन लगा कर घर भर के मैले कपड़े इकट्ठा कर धो डाले थे. मैं तो इतवार को ही मशीन लगा कर सप्ताह भर के कपड़े धोती हूं. पिछले दिनों चाचीजी की बीमारी के चक्कर में यह काम रह ही गया था. इतने कपड़े एकसाथ धुले देख कर मैं हैरान रह गई, ‘‘यह क्या चाचीजी, आप ने यह सब क्यों किया? आप को तो अभी आराम करना चाहिए.’’

‘‘दिन भर आराम ही तो करती हूं सीमा, फिर आजकल मशीन में कपड़े धोना भी कोई काम है?’’ कहते हुए चाचीजी हंस दीं.

अब रात के खाने के वक्त गपशप का दौर चलने लगा था. चाचीजी राकेश के बचपन की आदतों, शरारतों के बारे में बतातीं. मुझे मेरी ससुराल के बारे में बहुत सी ऐसी बातें भी बतातीं, जिन्हें बताने वाला कोई नहीं था. राकेश की चिढ़, पसंदनापसंद के बारे में भी मुझे पता लग रहा था. अब मुझे उन्हें चिढ़ाने, छेड़ने में बड़ा मजा आ रहा था. ऐसे में चाचीजी भी हंसते हुए मेरा पूरा साथ देती थीं.

हम शाम को औफिस से लौटते तो चाचीजी बढि़या सा स्वादिष्ठ नाश्ता बना कर हमारा इंतजार कर रही होतीं. अब सुबहशाम मुझे सब्जी कटी हुई मिलती, सलाद तैयार और तरहतरह की चटनियां पिसी मिलतीं. वे अकसर आटा भी गूंध दिया करती थीं. यह सब देख कर यही लगता कि वे दिन भर पल भर को भी बैठती नहीं हैं.

अब घर में कोई हर चीज अपने ठिकाने पर करीने से रखी मिलती, जिन्हें पहले हम अकसर समय की कमी के कारण यहांवहां इस्तेमाल के बाद छोड़ दिया करते थे.

एक छुट्टी के दिन हम चाचीजी को मौल घुमाने ले जा रहे थे. उन्होंने रास्ते में एक जगह गाड़ी रोकने के लिए कहा तो हम हैरान रह गए. फिर भी राकेश ने तुरंत गाड़ी रोकी तो चाचीजी फौरन उतर कर पास के एटीएम की ओर बढ़ गईं. 2 ही मिनटों बाद वे नोट हाथ में ले कर लौटीं.

हमें हैरान देख कर वे बोलीं, ‘‘हैरान मत हो. अपनी हालत को देखते हुए यह कार्ड मैं ने अस्पताल के सामान के साथ रख लिया था. वहां अस्पताल में पैसों की जरूरत तो पड़नी ही थी न? पर मुझे क्या पता था मेरी हालत इतनी बिगड़ जाएगी कि पड़ोसी को फोन कर के तुम्हें बुलाना पड़ेगा.’’

‘‘वह तो ठीक है  चाचीजी, लेकिन अब तो हम हैं. आप को पैसे निकलवाने की क्या जरूरत थी? वैसे क्षमा करना, आप को आए इतने दिन हो गए, खयाल ही नहीं आया मुझे. आप से पूछना चाहिए था आप की जरूरत के बारे में,’’ राकेश ने झेंपते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं बेटा मुझे भला पैसों का क्या करना है? लेकिन पहली बार अपने बेटेबहू के साथ बाजार जा रही हूं तो पैसे पास में होने ही चाहिए. चलोचलो देर हो रही है,’’ चाचीजी ने पूरे उत्साह से कहा.

मौल में पहुंचते ही चाचीजी रेडीमेड कपड़ों के शोरूम में चली गईं. हमें लगा वे बीमारी की हालत में इतनी जल्दी में अस्पताल आईं कि साथ में बहुत सी चीजें नहीं ला पाईं. उन्हें कपड़ों के लिए परेशानी होती होगी, इसलिए वहां गई हैं. लेकिन रेडीमेड शर्ट और जींस के काउंटर पर जा कर वे राकेश से कपड़े खरीदने के लिए कहने लगीं. राकेश ने बहुत मना किया लेकिन वे कब मानने वाली थीं.

राकेश जींस ट्राई कर रहे थे तब मुझ से बोलीं, ‘‘आजकल की सब लड़कियां जींस पहनती हैं. दफ्तर जाने वाली तो कहती हैं कि इस में उन्हें सुविधा रहती है. बहू, तुम नहीं पहनतीं?’’

उन की बात सुन कर मैं हैरान रह गई. पुरानी पीढ़ी की हो कर भी वे ऐसी बात कह रही हैं?

‘‘नहींनहीं चाचीजी मैं भी…’’ कहते हुए मैं रुक गई. लगा कहीं यों ही बातोंबातों में मुझ से कुछ उगलवाना तो नहीं चाह रहीं.

‘‘पहनती हो लेकिन मेरे कारण रोज साड़ी और सूट की बंदिशों में कैद हो गई हो. लेकिन मैं ने तो कभी कुछ कहा ही नहीं,’’ चाचीजी बड़ी मासूमियत से बोलीं.

‘‘बहू, तुम भी अपने लिए एक जींस और एक बढि़या सी टौप खरीद लो. मैं भी तो देखूं मेरी बहू इन कपड़ों में कैसी लगती है,’’ कहते हुए उन्होंने मेरे लिए कपड़े पसंद करने शुरू कर दिए. मैं हैरान सी खड़ी उन्हें देखती रह गई. अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं आ रहा था, लेकिन यह सब सच था सपना नहीं.

कपड़े खरीदते ही चाचीजी बोलीं, ‘‘भई, बहुत भूख लग रही है. वैसे भी मेरे ठीक होने की खुशी में एक बढि़या सी दावत होनी ही चाहिए.’’

रेस्टोरैंट में हमारे मना करने पर भी चाचीजी ने बहुत कुछ मंगवा लिया, उस पर आइसक्रीम भी. बाद में राकेश जब वहां पैसे देने लगे तो उन्होंने तुरंत नोट उन के हाथ में पकड़ाते हुए कहा, ‘‘ये लो तुम ही दे दो. क्या फर्क पड़ता है.’’ इस पर हम तो हंस ही रहे थे, बिल लाने वाला वेटर भी अपनी हंसी नहीं रोक पाया.

घर आ कर राकेश ने कहा कि आप को इतने पैसे खर्च नहीं करने चाहिए थे तो वे बोलीं, ‘‘तुम्हारे चाचाजी के बाद अब मुझे पैंशन मिलती है. मैं अकेली जान अब इस उम्र में अपने पर कितना खर्च करूंगी?’’

वे जब से ठीक हुई हैं अकसर शाम को सैर करने चली जाती हैं. फल, सब्जियां, दूध और मिठाई न जाने क्याक्या ले कर ही लौटती हैं. खाली हाथ कभी नहीं आतीं.

सुबह हम औफिस के लिए तैयार हो रहे थे तो वे पास आ कर बोलीं, ‘‘बेटा राकेश, अब मैं बिलकुल ठीक हूं. अब मेरा वापसी का टिकट करवा दो.’’

सुनते ही हम दोनों अवाक रह गए.

‘‘क्या हुआ चाचीजी, आप को यहां कोई परेशानी है क्या?’’ हम दोनों एकसाथ बोल उठे.

‘‘नहींनहीं बेटा, अपने घर में कैसी परेशानी. फिर भी लौटना तो होगा ही न.

2 महीने हो गए हैं, मैं कब तक तुम लोगों…’’

सुनते ही मैं परेशान हो उठी, ‘‘चाचीजी, आप से इतना तो मना करते हैं फिर भी आप अपनी मरजी से दिन भर काम में लगी रहती हैं.’’

‘‘नहींनहीं सीमा, मैं काम की बात नहीं कर रही. यह भी कोई काम है. बटन दबाया कपड़े धुल गए. बटन दबाया चटनी, मसाला पिस गया. घर की सफाई और बरतन का काम तो कामवाली कर जाती है. दिन भर में काम ही कितना होता है? लेकिन बेटा 2 महीने हो गए हैं, कब तक तुम लोगों पर बोझ बनी रहूंगी?’’

बोझ शब्द सुनते ही मेरी आंखें भर आईं. मैं उन से लिपट गई. ऐसी ममता की मूरत भला बोझ कैसे हो सकती है? कितनी गलत सोच थी मेरी सास के बारे में. मुझे चाचीजी से कोई शिकायत नहीं. कितनी परेशान हो गई थी मैं जब राकेश ने उन के यहीं रहने की बात की थी. लेकिन अब मैं उन के बिना जीने की कल्पना ही नहीं कर सकती थी. उन के प्यार, आशीर्वाद और उन की उपस्थिति के बिना हमारा जीवन, हमारा घरपरिवार कितना अधूरा रह जाएगा. कौन हर शाम घर पर हमारा इंतजार करेगा? कौन भूख न होने पर भी मनुहार कर के हमें खाना खिलाएगा? कौन बिना किसी स्वार्थ के हम पर इतना निश्छल स्नेह लुटाएगा?

हम दोनों ने उन्हें साफ शब्दों में कह दिया कि वे अब कहीं नहीं जाएंगी. अब इस उम्र में हमारे होते हुए वे अकेली नहीं रहेंगी. अब यह उन की मरजी है कि वे अपने मथुरा वाले घर पर ताला लगाना चाहती हैं या उसे किराए पर उठाना चाहती हैं. हमारी जिद और हमारे प्यार के आगे उन की एक नहीं चली.

चाचीजी कुछ सोच कर बोलीं, ‘‘तुम इतना कहते हो तो तुम्हारे पास ही रह जाऊंगी, लेकिन मेरी एक शर्त है.’’

मैं समझ गई कि चाचीजी क्या कहना चाहती हैं. मैं झट से बोली, ‘‘आप एक बार मथुरा जा कर अपने कुछ कपड़े, कुछ जरूरी सामान लाना चाहती हैं न? इस में शर्त की क्या बात है, अगले ही वीक ऐंड पर हम दोनों आप को मथुरा ले चलेंगे.’’

‘‘वह तो मैं जाऊंगी ही पर मेरी शर्त तो कुछ और ही है.’’

चाचीजी के इतना कहते ही मैं कुछ परेशान हो गई. सोचा, पता नहीं वे क्या शर्त रखेंगी.

तभी राकेश बोल उठे, ‘‘चाचीजी, शर्त क्यों आप तो आदेश दीजिए क्या चाहिए?’’

हमारे परेशान चेहरे को देख कर चाचीजी की हंसी निकल गई. वे हंसते हुए बोलीं, ‘‘हांहां, शर्त नहीं मेरा आदेश ही है कि यदि मुझे यहां रोकना है तो मुझे जल्दी से एक पोता देना होगा. 2 साल हो गए हैं शादी को, कब तक यों ही डोलते रहोगे?’’

सुनते ही हम दोनों शरमा गए. जिस प्यार और अधिकार से चाचीजी ने कहा है तो हमारे सोचने के लिए कुछ बचा ही कहां है. चाचीजी ने हमारे जीवन को नए माने दे दिए हैं. पता नहीं ममता की यह मूरत वर्षों बिना औलाद के कैसे रही होगी? चलो बीमारी के बहाने ही सही, वे हमारे पास अपनी ममता लुटाने तो आ गई हैं.

कहीं किसी रोज : जब जोया से मिला विमल

स्विमिंग पूल के किनारे एक तरफ जा कर विमल ने हाथ में लिए होटल के गिलास से ही सूर्य को जल चढ़ाया, सुबह की हलकीहलकी खुशनुमा सी ताजगी हर तरफ फैली थी, जल चढ़ाते हुए उस ने कितने ही शब्द होठों में बुदबुदाते हुए कनखियों से पूल के किनारे चेयर पर बैठी महिला को देखा, आज फिर वह अपनी बुक में खोई थी.

कुछ पल वहीं खड़े हो कर वह उसे फिर ध्यान से देखने लगा, सुंदर, बहुत स्मार्ट, टीशर्ट, ट्रैक पैंट में, शोल्डर कट बाल, बहुत आकर्षक, सुगठित देहयष्टि.

विमल को लगा कि वह उस से उम्र में कुछ बड़ी ही होगी, करीब चालीस की तो होगी ही, वह उसे निहार ही रहा था कि उस स्त्री ने उस की तरफ देख कर कहा, ‘‘इतनी दूर से कब तक देखते रहेंगे, आप की पूजाअर्चना हो गई हो और अगर आप चाहें तो यहां आ कर बैठ सकते हैं.‘‘

विमल बहुत बुरी तरह झेंप गया. उसे कुछ सूझा ही नहीं कि चोरी पकडे जाने पर अब क्या कहे, चुपचाप चलता हुआ उस स्त्री से कुछ दूर रखी चेयर पर जा कर बैठ गया.

स्त्री ने ही बात शुरू की, ‘‘आप भी मेरी तरह लौकडाउन में इस होटल में फंस गए हैं न? आप को रोज देख रही हूं पूजापाठ करते. और आप भी मुझे देख ही रहे हैं, यह भी जानती हूं.‘‘

विमल झेंप रहा था, बोला, ‘‘हां, यहां देहरादून में औफिस के टूर पर आया था, अचानक लौकडाउन में फंस गया, मैं लखनऊ में रहता हूं और आप…?‘‘

‘‘मैं देहरादून घूमने आई थी. मैं बैंगलोर में रहती हूं, वहीं जौब भी करती हूं.‘‘

‘‘अकेले आई थीं घूमने?‘‘ विमल हैरान हुआ.

‘‘जी, मगर आप इतने हैरान क्यों हुए?‘‘

विमल चुप रहा, महिला उठ खड़ी हुई, ‘‘चलती हूं, मेरा एक्सरसाइज का टाइम हो गया. थोड़ी रीडिंग के बाद ही मेरा दिन शुरू होता है.‘‘

विमल ने झिझकते हुए पूछा, ‘‘आप का शुभ नाम?‘‘

‘‘जोया.‘‘

‘‘आगे?‘‘

‘‘आगे क्या?‘‘

‘‘मतलब, सरनेम?‘‘

‘‘मुझे बस अपना नाम अच्छा लगता है, मैं सरनेम लगा कर किसी धर्म के बंधन में नहीं बंधना चाहती, सरनेम के बिना भी मेरा एक स्वतंत्र व्यक्तित्व हो सकता है. आप भी मुझे अपना नाम ही बताइए, मुझे किसी के सरनेम में कभी कोई दिलचस्पी नहीं होती.‘‘

विमल का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘यह औरत है, क्या है,’’ धीरे से बोला विमल.

‘‘ओके, बाय,‘‘ कह कर जोया चली गई. विमल जैसे एक जादू के असर में बैठा रह गया.

लौकडाउन के शुरू होने पर रूड़की के इस होटल में 8-10 लोग फंस गए थे, कुछ यंग जोड़े थे जो कभीकभी दिख जाते थे, कुछ ऐसे ही टूर पर आए लोग थे, दिनभर तो विमल लैपटौप पर औफिस के काम में बिजी रहता. वह बहुत ही धर्मभीरु, दब्बू किस्म का इनसान था, उस की पत्नी और दो बच्चे लखनऊ में रहते थे, जिन से वह लगातार टच में था, जोया को वह अकसर ऐसे ही स्विमिंग पूल के आसपास खूब देखता. अकसर वह इसी तरह बुक में ही खोई रहती.

जोया एक बिंदास, नास्तिक महिला थी, बैंगलोर में अकेली रहती थी, एक कालेज में फाइन आर्ट्स की प्रोफेसर थी, विवाह किया नहीं था. पेरेंट्स भाई के पास दिल्ली रहते थे, घूमनेफिरने का शौक था, खूब सोलो ट्रैवेलिंग करती, खूब पढ़ती, हमेशा बुक्स साथ रखती, अब लौकडाउन में फंसी  थी तो बुक्स पढ़ने के शौक में समय बीत रहा था. वह बहुत इंटेलीजेंट थी, कई फिलोसोफर्स को पढ़ चुकी थी, कई दिन से देख रही थी कि विमल उसे चोरीचोरी खूब देखता है, उसे मन ही मन हंसी भी आती, विमल देखने में स्मार्ट था, पर उसे एक नजर देखने से ही जोया को अंदाजा हो गया था कि वह धर्म में पोरपोर डूबा इनसान है.

होटल में स्टाफ अब बहुत कम  था, खानेपीने की चीजें सीमित थीं, पर काम चल रहा था. विमल का आज काम में दिल नहीं लगा, आंखों के आगे जोया का जैसे एक साया सा लहराता रह गया.

शाम होते ही लैपटौप बंद कर स्विमिंग पूल की तरफ भागा, जोया अपनी बुक में डूबी थी. विमल उस के पास जा कर खड़ा हो गया, ‘‘गुड ईवनिंग, जोयाजी.”

बुक बंद कर जोया मुसकराई, ‘‘गुड ईवनिंग, आइए, फ्री हैं तो बैठिए.”

विमल तो उस के पास बैठने के लिए ही बेचैन था, जोया बहुत प्यारी लग रही थी, नेवई ब्लू, टीशर्ट में उस का गोरा सुनस
सुंदर चेहरा खिलाखिला लग रहा था. जोया ने छेड़ा, ‘‘देख लिया हो तो कोई बात करें.”

हंस पड़ा विमल, ‘‘आप बहुत स्मार्ट हैं, नजरों को खूब पढ़ती हैं.”

‘‘हां जी, यह तो सच है,” जोया ने दोस्ताना ढंग से कहा, तो दोनों में कुछ बढ़ा, जोया ने कहा, ‘‘आजकल तो यहां जितनी भी सुविधाएं मिल रही हैं, बहुत हैं, मेरी सुबहशाम तो स्विमिंग पूल पर कट रही है और दिन होटल के कमरे में. आप क्या करते रहते हैं?”

‘‘औफिस का काम काफी रहता है, बस यों ही टाइम बीत जाता है.”

जोया ने पूछा, ‘‘और आप की फैमिली में कौनकौन हैं?”

विमल ने बता कर उस से भी पूछा. जोया ने जब बताया कि वह अविवाहित है. विमल हैरानी से उस का मुंह देखता रह गया.

यह देख जोया हंस पड़ी, ‘‘आप बहुत हैरान होते हैं, बातबात पर.‘‘ विमल को अब तक जोया के जौली नेचर का अंदाजा हो गया था. जोया ने फिर कहा, “मैं अपनी लाइफ अपने तरीके से ऐंजौय कर रही हूं, पता नहीं, लोग मेरी लाइफ पर हैरान ही होते रहते हैं, जैसे मैं जीती हूं, मुझे उस पर गर्व है.”

‘‘आप को एक फैमिली की जरूरत महसूस नहीं होती?”

‘‘पेरेंट्स हैं, भाई हैं, बाकी पति, बच्चे जैसी चीजों की कमी कभी नहीं महसूस हुई. मैं तो यहां लौकडाउन में फंसा होना भी ऐंजौय कर रही हूं, आप के पास पैसा हो तो आप को लाइफ ऐसे ही ऐंजौय करनी चाहिए, डेनिस रोडमैन ने तो कह ही दिया, ‘‘इनसान के जीवन में ५० पर्सेंट सैक्स होता है और ५० पर्सेंट पैसा.”

विमल का चेहरा शर्म से लाल हो गया. पहली बार कोई महिला उस के सामने बैठी सैक्स शब्द ऐसे खुलेआम बोल रही थी, जोया ने फिर कहा, ‘‘आप को अजीब लगा न कि कोई महिला कैसे सैक्स शब्द खुलेआम बोल रही है, इस विषय पर तो आप लोगों का कौपीराइट है,‘‘ कह कर जोया बहुत प्यारी हंसी हंसी.

विमल इस हंसी में कहीं खो सा गया, बोला, ‘‘आप सब से बहुत अलग हैं.”

‘‘जी, मैं जानती हूं.”

‘‘आजकल आप क्या पढ़ रही हैं?”

‘‘कार्ल मार्क्स.”

‘‘और क्याक्या शौक हैं आप के?”

‘‘खुश रहने का शौक है मुझे, बाकी सब चीजें इस के साथ अपनेआप जुड़ती चली गईं. आज डिनर साथ करें क्या?”

‘‘आज तो मेरा फास्ट है. मंगलवार है न. मैं जरा धार्मिक किस्म का इनसान हूं.”

जोया मुसकराई, तो विमल ने पूछ लिया, ‘‘आप किस धर्म को मानती हैं?”

‘‘मैं तो धर्म के खिलाफ हूं, क्योंकि इस में मेरे तर्कों का कोई जवाब नहीं. लोगों ने मुझे हमेशा दिमाग से काम लेने की सलाह दी. मैं ने मानी, बस, मैं फिर नास्तिक हो गई, है न ये मजेदार बात. जब लोग मुझ से मेरा धर्म पूछते हैं, मैं कह देती हूं, नॉन डेलूशनल.

‘‘मैं तो यह मानता हूं कि ऊपर वाला हर वस्तु में है और सब से ऊपर भी, भगवान को अपने आसपास ही महसूस करता हूं, इसी अनुभूति से जीवन सफल हो सकता है, भगवान ही हमारी हर मुश्किल का अंत कर सकते हैं.”

‘‘और मैं कार्ल मार्क्स की इस बात को मानती हूं कि लोगों की खुशी के लिए पहली जरूरत धर्म का अंत है और धर्म लोगों का अफीम है.”

‘‘आप विदेशी लेखकों की बुक्स शायद ज्यादा पढ़ चुकी हैं.”

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है, मुझे बीआर अंबेडकर की यह बात बहुत पसंद है, जो उन्होंने कहा है कि मैं ऐसे धर्म को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए.”

‘‘पर, जोयाजी.”

‘‘आप मुझे सिर्फ जोया ही कह सकते हैं, यह जी मुझे अकसर बहुत फिजूल की चीज लगती है.”

विमल थोड़ा हिचकिचाया, पर उसे अपने मुंह से निकलता सिर्फ जोया बहुत प्यारा लगा, वह इस नाम पर ही अब मरमिटा था, इस नाम ने ही उस के अंदर एक हलचल मचा दी थी, उसे लग रहा था कि सामने बैठी, उस से उम्र में बड़ी महिला सारी उम्र बस उस के सामने ऐसे ही बैठी रहे और वह उस की बातें सुनता रहे, उसे देखता रहे, ब्यूटी विद ब्रेन.

‘‘तो आज आप फास्ट में डिनर में क्या खाएंगे?”

‘‘फ्रूट्स और मिल्क,”
जोया मुसकराई, ‘‘मैं ने तो अपनी लाइफ में कभी कोई फास्ट नहीं रखा.”

‘‘मैं सचमुच हैरान हूं, आप किसी भी धर्म को नहीं मानती? अच्छा, ठीक है, चलो, मुझे यह तो बता दो कि आप के पेरेंट्स का सरनेम क्या है?”

जोया बहुत जोर से हंसी, ‘‘आप उन्ही लोगों में से हैं न, जो सामने वाले के धर्म, जाति पूछ कर आगे बात करते हैं, तरस आता है मुझे ऐसे लोगों पर, जिन की दुनिया बस इतनी ही छोटी है जिस में सरनेम ही रह सकता है. खैर, मैं हूं जोया सिद्दीकी.”

विमल का चेहरा उतर गया, मुंह से निकल ही गया, ‘‘ओह्ह्ह.”

जोया ने छेड़ा, ‘‘आया मजा? क्या हुआ? झटका लगा न? अब बात नहीं कर पाएंगे?”

‘‘नहीं, नहीं, ऐसा तो नहीं है.”

दोनों फिर यों ही कुछ देर बात करते रहे, विमल जोया की नौलेज से प्रभाावित था, कमाल की थी जोया, विमल अपने रूम में आ कर भी सिर्फ जोया के बारे में ही सोचता रहा, पूरी रात उस के बारे में करवटें बदल बदल कर गुजारीं, जोया को भी विमल की सादगी बहुत अच्छी लगी थी, वह भी उस के बारे में सोच कर मुसकराती रही, अगली सुबह विमल ने उसे देखते ही बेचैनी से कहा, ‘‘आज तो मैं सो ही नहीं पाया.”

जोया ने बड़े स्टाइल से कहा, ‘‘जानती हूं.”

‘‘अरे, आप को कैसे पता?”

‘‘अकसर लोग मुझ से मिल कर जल्दी सो नहीं पाते.”

विमल थोड़ा फ्लर्ट के मूड में आ गया, ‘‘बहुत जानती हैं आप ऐसे लोगों को?”

‘‘हां, जनाब, बहुत देखे हैं.”

दोनों ने अपनेआप को एकदूसरे के कुछ और करीब महसूस किया, दोनों स्विमिंग पूल के किनारे चहलकदमी करते हुए बातें कर रहे थे, जोया ने कहा, ‘‘आज आप ने नहाधो कर सूर्य को जल नहीं चढ़ाया.”

‘‘हां, आज मन ही नहीं हुआ, मैं ठीक से सोता नहीं तो मेरा सारा काम उलटापुलटा हो जाता है.”

‘‘आप के भगवान मुझ से गुस्सा तो नहीं हो जाएंगे कि मेरी वजह से आप सो नहीं पाए. वैसे, अच्छा ही हुआ एक गिलास पानी वेस्ट होने से बच गया. आप ने कभी सोचा नहीं कि आप के भगवान को सचमुच उस पानी की जरूरत है? मुझे इस के पीछे का लौजिक समझा दीजिए, प्लीज.”

विमल ने हाथ जोड़े, ‘‘मैं समझ चुका हूं कि मैं आप से जीत नहीं सकता, जोया. मैं आप से हार चुका हूं,” उस के इस भोले से व्यवहार पर जोया मुसकरा दी. जोया ने कहा, ‘‘फिर तो बात ही खत्म, हारे हुए इनसान को क्या कहना? आज नाश्ता साथ करें?”

‘‘बिलकुल, फ्रेश हो कर मिलते हैं, इन का रैस्टोेरैंट तो बंद ही है आजकल, औफिस की मीटिंग में एक घंटा है, मेरे रूम में आओगी?”

‘‘हां, मिलते हैं.”

घुटने तक की एक ड्रेस, शोल्डर कट बाल शैंपू किए, हलका सा मेकअप, उस के पास से आती बढ़िया परफ्यूम की खुशबू, तैयार विमल ने जब अपने रूम का दरवाजा खोला, तो जोया को देखता ही रह गया. वह बहुत सुंदर थी, उस के रूप के जादू से बचना विमल को बहुत मुश्किल सा लग रहा था. वह पूरी तरह उस के होशोहवास पर छा चुकी थी, विमल ने उस की पसंद पूछ कर नाश्ता आर्डर किया, वेटर स्टेचू सा चेहरा लिए चला गया, तो जोया हंसी, ‘‘आज तो इन लोगों को भी टाइमपास करने का हमारा टौपिक मिल गया, ये बेचारे भी लौकडाउन में ऐसी बातों के लिए तरस गए होंगे.”

विमल को बहुत जोर से हंसी आई, ‘‘क्याक्या सोच लेती हो आप भी?”

‘‘तुम भी कहोगे मुझे तो अच्छा लगेगा, आप बहुत दूर कर देता है सामने वाले को.”

‘‘पर, आप मुझ से बड़ी हैं शायद.”

‘‘शायद नहीं, बड़ी ही हूं, पर मुझे तुम से तुम ही सुनना अच्छा लगेगा, विमल, जब करीब आ ही रहे हैं तो फौर्मलिटीज क्यों?”

नाश्ता करते हुए जोया की रोचक बातों में डूबा रहा विमल. जोया बता रही थी, ‘‘तुम्हें पता है, जब मैं यूरोप से अपनी आर्ट्स की पढ़ाई खत्म कर के  लौटी, और वहां के न्यूड स्कल्प्चर के बारे में स्टूटेंड्स को  बताती, उन्हें पढ़ाती, उन के चेहरे शर्म से लाल हो जाते. मुझे बड़ा मजा आता, मैं बहुत जगह घूमी, तुम्हें पता है डेनमार्क और स्वीडन में धार्मिक लोग सब से कम हैं और वहां सब से अच्छी शिक्षा है, अपराध न के बराबर हैं. ईमानदार लोग है,” जोया और विमल ने काफी अच्छे मूड में नाश्ता खत्म किया, जोया फिर उठ गई और बोली, ‘‘अब तुम औफिस के काम करो, मैं चलती हूं.”

विमल का मन ही नहीं कर रहा था कि जोया उस के पास से जाए, पर मजबूरी थी, एक मीटिंग थी, बोला, ‘‘तुम क्या करती हो पूरा दिन होटल में जोया?”

‘‘आराम, बुक्स, एक्सरसाइज, कुछ फोन पर बातें, फोन पर नेटफ्लिक्स भी देखती हूं.”

‘‘अच्छा? कौनकौन से शोज देखे हैं अब तक?”

‘‘सेक्रेड गेम्स देख रही हूं आजकल, वैसे और भी बहुत से देख लिए.”

विमल की आंखें कुछ चौड़ी हुईं, ‘‘सेक्रेड गेम्स?”

‘‘हां, फिर हैरान हुए तुम?”

विमल हंस पड़ा, जोया चली गई.

शाम को दोनों फिर बहुत देर तक स्विमिंग पूल के किनारे बैठे रहे, चाय भी साथ पी, जोया ने शरारती स्वर में कहा, ‘‘आज डिनर मेरे रूम में?”

विमल ने हां में सिर हिला दिया. विमल अब उस से अपनी फैमिली की बातें करता रहा, अपनी वाइफ और बच्चों के बारे में बताता रहा, जोया पूरी रुचि से सुनती रही, फिर बोली, ‘‘आप अपनी वाइफ को मेरे बारे में बताएंगे?”

‘‘नहीं,” कहता हुआ विमल मुसकरा दिया, तो जोया भी हंस पड़ी, कहा, ‘‘इसलिए मैं ने शादी नहीं की.” दोनों इस बात पर एकदूसरे को छेड़ते रहे, रात को डिनर के लिए जब विमल तैयार होने लगा, मन ही मन यही सोच रहा था कि वह अपनी वाइफ को धोखा दे रहा है, भगवान उसे कभी माफ नहीं करेंगे, यह पाप है वगैरह, पर जब जोया की हसीन कंपनी याद आती, सब नैतिकता धरी की धरी रह जाती.

जोया विमल के साथ समय बिताने के लिए उत्साहित थी, उसे विमल का स्वभाव सरल, सहज लगा था, वह उस से खूब मजाक करने लगी थी, उसे अपनी बातों पर विमल का झेंपना बहुत अच्छा लगता, रात को विमल उस के रूम में आया, दोनों ने काफी सहज हो कर बहुत देर बातें कीं, डिनर आर्डर किया, खूब हंसतेहंसाते खाना खाया, वेटर सब क्लीन कर  गया, तो जोया ने कहा, ‘‘विमल, मुझे तुम से मिल कर अच्छा लगा. यह और बात है कि हम एकदूसरे से बिलकुल अलग हैं.”

‘‘जोया, मैं ने बहुत सोचा कि तुम से दूरी न बढ़ाऊं, पर दिल है कि अब मानता  नहीं,” कहतेकहते विमल ने उसे खींच कर अपनी बांहों में भर लिया. जोया भी उस के सीने से जा लगी, फिर जो होना था, वही हुआ. पूरी रात दोनों ने एक बेड पर ही बिताई. सुबह जोया ही उठ कर फ्रेश हुई पहले, विमल को झकझोर कर हिलाया, ‘‘उठो, आज क्या इरादा है?”

‘‘तुम्हारे साथ ही रातदिन बिताने का इरादा है, और क्या?”

‘‘तुम्हे पता है जौन अपड़ाईक ने कहा है, सैक्स बिलकुल पैसे की तरह होता है, जितना मिले, उतना कम.

‘‘और मुझे डीएच लौरेंस की बात भी सही लगती है कि सैक्स वास्तव में इनसान के लिए सब से करीबी स्पर्शों में से एक स्पर्श होता है, लेकिन इनसान इसी स्पर्श से डरता है.”

‘‘अब तो वही सही लगता है, जो तुम्हें सही लगता है, कभी भी नहीं सोचा था कि ऐसे किसी के करीब आऊंगा.”

जोया की संगत का ऐसा असर हुआ कि हर बात में धर्म और ईश्वर की बात आंख मूंद कर मानने वाले विमल को अब कुछ याद न आता, औफिस के पहले और बाद का सारा समय जोया के साथ होता, वेटर्स और बाकी स्टाफ से दोनों की नजदीकी छुपने वाली थी ही नहीं, पर दोनों को परवाह भी नहीं थी किसी की, विमल पूरे का पूरा बदल रहा था, न उसे सुबह जीवनभर का नियम सूरज पर जल चढ़ाना याद रहता, न कोई फास्ट, अब उसे जोया की तर्कपूर्ण बातें भातीं, दुनियाभर के दार्शनिकों की कोट्स जोया के मुंह से सुन कर उस का दिल खुश हो जाता कि आजकल वह कितनी इंटेलीजेंट महिला के साथ रातदिन बिता रहा है, अपनी फैमिली से बात करता हुआ भी वह अब परेशान न होता, बल्कि उसे फोन रखने की जल्दी होती, वह इस लौकडाउन को अब मन ही मन थैंक्स कहने लगा था. जोया, वह तो थी ही अपनी तरह की एक ही बंदी, विमल का दीवानापन देख वह हंस देती.

अचानक ट्रेनें और बाकी सेवाएं शुरू हुईं, जोया के एक स्टूडेंट ने रूड़की में अपने किसी रिश्तेदार को कह कर पास दिलवा कर जोया के टैक्सी से दिल्ली जाने का इंतजाम कर दिया, वहां से वह अपने भाई के पास रह कर फिर बैंगलोर चली जाती, उस ने यह खबर जब विमल को दी तो विमल को ऐसा झटका लगा कि उस का चेहरा देख जोया भी गंभीर हुई, ‘‘विमल, हमारे रास्ते, मंजिल तो अलग हैं ही, इस में तुम इतना उदास मत हो, मुझे दुख हो रहा है.”

विमल ने उस का हाथ पकड़ लिया. गमगीन से स्वर में वह बोला, ‘‘मैं तो भूल ही गया था कि हमे बिछुड़ना भी होगा.”

जोया अपनी पैकिंग करने लगी.  होटल वालों को इस समय ध्यान रखने के लिए विशेष रूप से थैंक्स कहा, वेटर्स को बढ़िया टिप्स दी, विमल भी टूटे दिल से जाने के रास्ते खोजने लगा. चलते समय जोया विमल के गले लग गई, अपना कार्ड दिया, बोली, ‘‘जब मन करे, फोन कर लेना. वैसे, मैं जानती हूं कि कुछ ही दिन याद आएगी मेरी, फिर अपनी लाइफ में बिजी हो कर कभीकभी ही याद करोगे मुझे.”

‘‘और तुम…?”

जोया बस मुसकरा दी, कहा कुछ नहीं. टैक्सी आ गई, जोया बैठने लगी तो विमल ने बेकरारी से पूछा, ‘‘जोया, कब मिलेंगे?”

‘‘ऐसे ही, कभी भी, कहीं किसी रोज.”

टैक्सी चली गई. विमल का दिल जैसे बहुत उदास हुआ, मन ही मन कहा, ‘‘जोया सिद्दीकी, बहुत याद आओगी तुम.”

नेकी वाला पेड़ : क्या हुआ जब यादों से बना पेड़ गिरा?

लेखिका- मंजुला अमिय गंगराड़े

टन…टन… टन… बड़ी बेसब्री से दरवाजे की घंटी बज रही थी. गरमी की दोपहर और लौकडाउन के दिनों में थोड़ा असामान्य लग रहा था. जैसे कोई मुसीबत के समय या फिर आप को सावधान करने के लिए बजाता हो, ठीक वैसी ही घंटी बज रही थी. हम सभी चौंक उठे और दरवाजे की ओर लपके.

मैं लगभग दौड़ते हुए दरवाजे की ओर बढ़ी. एक आदमी मास्क पहने दिखाई दिया. मैं ने दरवाजे से ही पूछा, ‘‘क्या बात है?’’

वह जल्दी से हड़बड़ाहट में बोला, ‘‘मैडम, आप का पेड़ गिर गया.’’

‘‘क्या…’’ हम सभी जल्दी से आंगन वाले गेट की ओर बढ़े. वहां का दृश्य देखते ही हम सभी हैरान रह गए.

‘‘अरे, यह कब…? कैसे हुआ…?’’

पेड़ बिलकुल सड़क के बीचोबीच गिरा पड़ा था. कुछ सूखी हुई कमजोर डालियां इधरउधर टूट कर बिखरी हुई थीं. पेड़ के नीचे मैं ने छोटे गमले क्यारी के किनारेकिनारे लगा रखे थे, वे उस के तने के नीचे दबे पड़े थे. पेड़ पर बंधी टीवी केबल की तारें भी पेड़ के साथ ही टूट कर लटक गई थीं. घर के सामने रहने वाले पड़ोसियों की कारें बिलकुल सुरक्षित थीं. पेड़ ने उन्हें एक खरोंच भी नहीं पहुंचाई थी.

गरमी की दोपहर में उस समय कोई सड़क पर भी नहीं था. मैं ने मन ही मन उस सूखे हुए नेक पेड़ को निहारा. उसे देख कर मुझे 30 वर्ष पुरानी सारी यादें ताजा हो आईं.

हम कुछ समय पहले ही इस घर में रहने को आए थे. हमारी एक पड़ोसिन ने लगभग 30 वर्ष पहले एक छोटा सा पौधा लगाते हुए मुझ से कहा था, ‘‘सारी गली में ऐसे ही पेड़ हैं. सोचा, एक आप के यहां भी लगा देती हूं. अच्छे लगेंगे सभी एकजैसे पेड़.’’

पेड़ धीरेधीरे बड़ा होने लगा. कमाल का पेड़ था. हमेशा

हराभरा रहता. छोटे सफेद फूल खिलते, जिन की तेज गंध कुछ अजीब सी लगती थी. गरमी के दिनों में लंबीपतली फलियों से छोटे हलके उड़ने वाले बीज सब को बहुत परेशान करते. सब के घरों में बिन बुलाए घुस जाते और उड़ते रहते. पर यह पेड़ सदा हराभरा रहता तो ये सब थोड़े दिन चलने वाली परेशानियां कुछ खास माने नहीं रखती थीं.

मैं ने पता किया कि आखिर इस पौधे का नाम क्या है? पूछने पर वनस्पतिशास्त्र के एक प्राध्यापक ने बताया कि इस का नाम ‘सप्तपर्णी’ है. एक ही गुच्छे में एकसाथ

7 पत्तियां होने के कारण इस का यह नाम पड़ा.

मुझे उस पेड़ का नाम ‘सप्तपर्णी’ बेहद प्यारा लगा. साथ ही, तेज गंध वाले फूलों की वजह से आम भाषा में इसे लोग ‘लहसुनिया’ भी कहते हैं. सचमुच पेड़ों और फूलों के नाम उन की खूबसूरती को और बढ़ा देते हैं. उन के नाम लेते ही हमें वे दिखाई पड़ने लगते हैं, साथ ही हम उन की खुशबू को भी महसूस करने लगते हैं. मन को कितनी प्रसन्नता दे

जाते हैं.

यह धराशायी हुआ ‘सप्तपर्णी’ भी कुछ ऐसा ही था. तेज गरमी में जब भी डाक या कुरियर वाला आता तो उन्हें अकसर मैं इस पेड़ के नीचे खड़ा पाती. फल या सब्जी बेचने वाले भी इसी पेड़ की छाया में खड़े दिखते. कोई अपनी कार धूप से बचाने के लिए पेड़ के ठीक नीचे खड़ी कर देता, तो कभी कोई मेहनतकश कुछ देर इस पेड़ के नीचे खड़े हो कर सुस्ता लेता. कुछ सुंदर पंछियों ने अपने घोंसले बना कर पेड की रौनक और बढ़ा दी थी. वे पेड़ से बातें करते नजर आते थे. टीवी केबल वाले इस की डालियों में अपने तार बांध कर चले जाते. कभीकभी बच्चों की पतंगें इस में अटक जातीं तो लगता जैसे ये भी बच्चों के साथ पतंगबाजी का मजा ले रहा हो.

दीवाली के दिनों में मैं इस के तने के नीचे भी दीपक जलाती. मुझे बड़ा सुकून मिलता. बच्चों ने इस के नीचे खड़े हो कर जो तसवीरें खिंचवाई थीं, वे कितनी सुंदर हैं. जब भी मैं कहीं से घर लौटती तो रिकशे वाले से बोलती, ‘‘भैया,

वहां उस पेड़ के पास वाले घर पर रोक देना.’’

लगता, जैसे ये पेड़ मेरा पता बन गया था. बरसात में जब बूंदें इस के पत्तों पर गिरतीं तो वे आवाज मुझे बेहद प्यारी लगती. ओले गिरे या सर्दी का पाला, यह क्यारी के किनारे रखे छोटे पौधों की ढाल बन कर सब झेलता रहता.

30 वर्ष की कितनी यादें इस पेड़ से जुड़ी थीं. कितनी सारी

घटनाओं का साक्षी यह पेड़ हमारे साथ था भी तो इतने वर्षों से… दिनरात, हर मौसम में तटस्थता

से खड़ा.

पता नहीं, कितने लोगों को सुकून भरी छाया देने वाले इस पेड़ को पिछले 2 वर्ष से क्या हुआ कि यह दिन ब दिन सूखता चला गया. पहले कुछ दिनों में जब इस की टहनियां सूखने लगीं, तो मैं ने कुछ मोटी, मजबूत डालियों को देखा. उस पर अभी भी पत्ते हरे थे.

मैं थोड़ी आश्वस्त हो गई कि अभी सब ठीक है, परंतु कुछ ही समय में वे पत्ते भी मुरझाने लगे. मुझे अब चिंता होने लगी. सोचा, बारिश आने पर पेड़ फिर ठीक हो जाएगा, पर सावनभादों सब बीत गए, वह सूखा ही बना रहा. अंदर ही अंदर से वह कमजोर होने लगा. कभी आंधी आती तो उसे और झकझोर जाती. मैं भाग कर सारे खिड़कीदरवाजे बंद करती, पर बाहर खड़े उस सूखे पेड़ की चिंता मुझे लगी रहती.

पेड़ अब पूरा सूख गया था. संबंधित विभाग को भी इस की जानकारी दे दी गई थी.

जब इस के पुन: हरे होने की उम्मीद बिलकुल टूट गई, तो मैं ने एक फूलों की बेल

इस के साथ लगा दी. बेल दिन ब दिन बढ़ती

गई. माली ने बेल को पेड़ के तने और टहनियों पर लपेट दिया. अब बेल पर सुर्ख लाल फूल खिलने लगे.

यह देख मुझे अच्छा लगा कि इस उपाय से पेड़ पर कुछ बहार तो नजर आ रही है… पंछी भी वापस आने लगे थे, पर घोंसले नहीं बना रहे थे. कुछ देर ठहरते, पेड़ से बातें करते और वापस उड़ जाते. अब बेल भी घनी होने लगी थी. उस की छाया पेड़ जितनी घनी तो नहीं थी, पर कुछ राहत तो मिल ही जाती थी. पेड़ सूख जरूर गया, पर अभी भी कितने नेक काम कर रहा था.

टीवी केबल के तार अभी भी उस के सूखे तने से बंधे थे. सुर्ख फूलों की बेल को

उस के सूखे तने ने सहारा दे रखा था. बेल को सहारा मिला तो उस की छाया में क्यारी के छोटे पौधे सहारा पा कर सुरक्षित थे. पेड़ सूख कर भी कितनी भलाई के काम कर रहा था. इसीलिए मैं इसे नेकी वाला पेड़ कहती. मैं ने इस पेड़ को पलपल बढ़ते हुए देखा था. इस से लगाव होना बहुत स्वाभाविक था.

परंतु आज इसे यों धरती पर चित्त पड़े देख कर मेरा मन बहुत उदास हो गया. लगा, जैसे आज सारी नेकी धराशायी हो कर जमीन पर पड़ी हो. पेड़ के साथ सुर्ख लाल फूलों वाली बेल भी दबी हुई पड़ी थी. उस के नीचे छोटे पौधे वाले गमले तो दिखाई ही नहीं दे रहे थे. मुझे और भी ज्यादा दुख हो रहा था.

घंटी बजाने वाले ने बताया कि अचानक ही यह पेड़ गिर पड़ा. कुछ देर बाद केबल वाले आ गए. वे तारें ठीक करने लगे. पेड़ की सूखी टहनियों को काटकाट कर तार निकाल रहे थे.

यह मुझ से देखा नहीं जा रहा था. मैं घर के अंदर आ गई, परंतु मन बैचेन हो रहा था. सोच रही थी, जगलों में भी तो कितने सूखे पेड़ ऐसे गिरे रहते हैं. मन तो तब भी दुखता है, परंतु जो लगातार आप के साथ हो वह आप के जीवन का हिस्सा बन जाता है.

याद आ रहा था, जब गली की जमीनको पक्की सड़क में तबदील किया जा रहा था, तो

मैं खड़ी हुई पेड़ के आसपास की जगह को

वैसा ही बनाए रखने के लिए बोल रही थी.

लगा, इसे भी सांस लेने के लिए कुछ जगह तो चाहिए. क्यों हम पेड़ों को सीमेंट के पिंजड़ों में कैद करना चाहते हैं? हमें जीवनदान देने वाले पेड़ों को क्या हम इतनी जमीन भी नहीं दे सकते? बड़ेबुजुर्गों ने भी पेड़ लगाने के महत्त्व को समझाया है.

बचपन में मैं अकसर अपनी दादी से कहती कि यह आम का पेड़, जो आप ने लगाया है, इस के आम आप को तो खाने को मिलेंगे नहीं.

यह सुन कर दादी हंस कर कहतीं कि यह तो मैं तुम सब बच्चों के लिए लगा रही हूं. उस समय मुझे यह बात समझ में नहीं आती थी, पर अब स्वार्थ से ऊपर उठ कर हमारे पूर्वजों की परमार्थ भावना समझ आती हैं. क्यों न हम भी कुछ ऐसी ही भावनाएं अगली पीढ़ी को विरासत के रूप में दे जाएं.

मैं ने पेड़ के आसपास काफी बड़ी क्यारी बनवा दी थी. दीवाली के दिनों में उस पर भी नया

लाल रंग किया जाता तो पेड़ और भी खिल जाता.

पर आज मन व्यथित हो रहा था. पुन: बाहर गई. कुछ देर में ही संबंधित विभाग के कर्मचारी भी आ गए. वे सब काम में जुट गए. सभी छोटीबड़ी सूखी हुई सारी टहनियां एक ओर पड़ी हुई थीं. मैं ने पास से देखा, पेड़ का पूरा तना उखड़ चुका था. वे उस के तने को एक मोटी रस्सी से खींच कर ले जा रहे थे.

आश्चर्य तो तब हुआ, जब क्यारी के किनारे रखे सारे छोटे गमले सुरक्षित थे. एक भी गमला नहीं टूटा

था. जातेजाते भी नेकी करना नहीं भूला था ‘सप्तपर्णी’. लगा, सच में नेकी कभी धराशायी हो कर जमीन पर नहीं गिर सकती.

मैं उदास खड़ी उन्हें उस यादों के दरफ्त को ले जाते हुए देख रही थी. मेरी आंखों में आंसू थे.

पेड़ का पूरा तना और डालियां वे ले जा चुके थे, पर उस की गहरी जड़ें अभी भी वहीं, उसी जगह हैं. मुझे पूरा यकीन है कि किसी सावन में उस की जड़ें फिर से फूटेंगी, फिर वापस आएगा ‘सप्तपर्णी.’

मेरी मां : आखिर क्या हुआ सुमी के साथ?

लेखक- प्रेमलता यदु
ऑफिस के लिए निकलते वक्त जब भी मोबाइल का रिंग बजता है खीझ सी महसूस होती है ऐसा लगता है जैसे इस छोटे से डिब्बे‌‌ ने सब को छका रखा है सारे फुरसत के क्षण और प्रायवेसी छीन ली है.कभी भी किसी भी वक्त बज उठता है, बड़बड़ाती और ऑफिस के लिए रेडी होती हुई, मैंने फोन रिसीव कर, स्पीकर ऑन कर दिया.मां का फोन था.
“हां मां बोलो”
 “तू कैसी है सुमी”
“मैं अच्छी हुं‌ मां.तुम बताओ तुमने फोन क्यों किया,मैंने तुम से कितनी दफा कहा है इस वक्त ‌फोन मत किया करो,मुझे बीसियों काम होते हैं.”
मेरे ऐसा कहते ही मां झुंझलाती हुई बोली-” हां तो यहां मैं कौन सा खाली बैठी हूं.वो तो तेरी बड़ी भाभी ने आज…..
मैं मां को बीच में ही टोकते हुए बोली- “मां…अब तुम सुबह सुबह बहू पुराण‌ शुरू मत करना.मुझे आज ऑफिस जल्दी पहुंचना है.मेरा आज बहुत important presentation है और उसमें अभी कुछ काम बाकी है. मुझे presentation से पहले उसे complete भी करना है.मैं ऑफिस पहुंच कर समय मिलने पर तुम्हें फोन करती हूं.ओ.के.बाय कह मैंने बिना मां की बात सुने और कुशलता पूछे फोन काट दिया.
कार की चाबी और ऑफिस बैग उठा घर से निकल पड़ी सारे रास्ते कभी मां, कभी ऑफिस और कभी presentation के विषय पर सोचती रही.
मैं ऑफिस तो वक्त पर पहुंच गई लेकिन मेरा मन मां के ही पास रह गया. मैं दो भाईयों की इकलौती बहन और अपने माता-पिता की सब से छोटी और लाड़ली बेटी हूं. मां और पापा का मुझसे विशेष स्नेह है. दोनों भैया और भाभियों की भी चहेती हूं.
हमारे बड़े भैया अनुराग जो एक बैंक में P.O.है और अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ ‌भोपाल के हमारे पैतृक मकान में मां और पापा के साथ ही ‌रहते है.बड़ी भाभी शिखा‌ होम मैनेजर है लेकिन बेचारी कुछ भी मेनेज नही कर सकती सारा मेनेजमेंट मां के हाथों ‌में‌ है, वैसे भाभी स्वभाव की बहुत अच्छी है.घर पर सभी का‌ ध्यान रखती है मां के कहे अनुसार ही सारे काम करती है लेकिन मां और भाभी की कभी बनी ही नही,मां हमेशा उनके‌ कामों में मीनमेख निकालती रहती है.
छोटे भैया अनिमेष एक  IT Company में जरनल मैनेजर है और Bangalore में अपनी पत्नी पूजा के साथ रहते है पूजा भाभी भी working है.दोनों well Settled है.अक्सर छुट्टी और तीज त्यौहार में ही घर आते है.
मां की छोटी भाभी से खूब पटती है कहते हैं ना दूर के ढोल सुहाने होते हैं .वैसे तो मां के ‌लिए सभी बच्चे एक समान होते हैं क्योंकि मां तो मां ही होती है,लेकिन हर मां को अपनी बेटियों से अत्यधिक प्रेम होता है इसलिए मां सब से ज्यादा जान मुझ पर ही छिड़कती हैं. एक दिन बात ना हो तो पूरा घर सर पर उठा लेती है,या यूं समझ लीजिए जब तक वो मुझे घर की एक एक बात की खबर रोज़ नही दे देती उन्हें चैन नही पड़ता.
मां का मुझ से विशेष लगाव है.पापा, मां की ‌बातों पर ध्यान नही देते.भाईयों के पास वक्त नही है और भाभियों से वो अपने दिल की बात कहना नही चाहती,अब बच जाती हूं मैं जिसे वो अपने दिल की हर छोटी-बड़ी बात बता कर अपना जी हल्का करती है‌ फिर चाहे भाभी की बुराई करनी हो या फिर कोई और ‌बात हो. मैं उनकी बातें कभी धैर्य से सुनती हूं और कभी कभी झुंझला भी जाती हूं उन पर.मां भी कभी मेरी बातों का‌ बुरा मान जाती है और कभी नहीं भी मानती. कुछ ऐसा है हम मां बेटी का रिश्ता.
मैंने सोचा जब तक मैं मां से बात नही ‌कर लूंगी मां परेशान रहेगी और अपना गुस्सा पापा और बड़ी भाभी पर निकालती रहेगी और मैं भी उनसे बगैर बात किये अपना presentation free mind  से नही दे पाऊंगी.फिर अभी थोड़ा वक्त भी था presentation में,इसलिए मैं ऑफिस boy को कौफी के लिए बोल मां को उनके नम्बर पर call लगाने ‌लगी.रिंग बजता रहा लेकिन मां ने फोन नही उठाया.फिर मैंने दोबारा फोन भाभी के नम्बर पर लगाया.भाभी से औपचारिक बातचीत के बाद मैंने भाभी से पूछा-” मां ‌कहां है”.
भाभी थोड़ी शिकायती लहजे में बोली-“दीदी, अम्मां जी आंगन में है ना जाने क्या हुआ है अब तक पापा जी को क‌ई बार सारा दिन केवल पेपर पढ़ते रहने का उलाहना दे चुकी है और मेरे मना करने के बावजूद खुद ही चांवल के पापड़ बनाने में लगी हुई है.
मैं समझ गई थी बात क्या है मैंने भाभी से कहा-” आप चिंता मत करो.मां से मेरी बात करा दो”.
मां फोन पर आते ही बोली-” देख सुमी मेरे पास अभी बहुत काम है. मैं घर पर खाली नहीं बैठी हूं  जल्दी बोल क्या बात है.”
“हां मां मैं जानती हूं तुम्हारे पास बहुत काम है. अभी presentation में थोड़ा वक्त है और उस समय तुम से बात नहीं हो पाई ना इसलिए फोन किया है.”
मेरा बस इतना कहना था कि मां की आवाज़ में खनक आ गई और मुझसे कहने लगी-“सुमी मैं तुझ से सुबह कह रही थी ना‌ कि आज तेरी भाभी ने…..”
 “क्या किया भाभी ने?”
“अरे कुछ नहीं किया उसने, ‌तुझे तो बस यही लगता है कि तेरी मां तेरी भौजाईयों की  शिकायत करने के लिए ही तुझे फोन करती है”
“अच्छा… अच्छा… I am sorry अब बताओ क्या बात है”.
अरे आज तेरी बड़ी भाभी मलाई कोफ्ता बनाई है. मैंने उससे कहा थोड़ी ज्यादा बना लेना.राजीव को भी पसंद हैं ना इसलिए”.
राजीव, मेरे पति, जिनका मान मेरी मां के लिए सर्वोपरि है.राजीव के आगे घर का‌ हर सदस्य नगण्य है .राजीव रेवेन्यू डिपार्टमेंट में अधिकारी है.हम दोनों पति-पत्नी यहां इसी शहर भोपाल में रहते हैं वैसे तो ‌मेरा ससुराल रतलाम है लेकिन हम दोनों की नौकरी इसी शहर में होने की वजह से हम यहीं रहते है.एक ही शहर में मायका होने के कारण मुझे कभी मायके की कमी महसूस नहीं हुई.
मां ने आगे कहा-” तुम एक काम करना  लंच ब्रेक में घर आ जाना और राजीव को भी आने का कह देना हम साथ लंच करेंगें.
“बस यही कहने को तुम मुझे फोन कर रही थी.”
“नही अरे सुमी तू सुन ना… मेरी बात, आज जैसे ही मैंने शिखा से मलाई कोफ़्ता बनाने को कहा तो उसका मुंह गुब्बारे की तरह फूल गया, और जब मैंने तेरे पापा से यह सब बात बताई तो वे कहने लगे ” तुम बहू को अपने हिसाब से बनाने दिया करो.तुम क्यों फरमाइशें करती रहती हो.अब तू ही बता क्या मैं घर में किसी से कुछ कह भी नही सकती”?.
“ऐसा कुछ नहीं है मां बस भाभी को घर पर बहुत काम होते है, इसलिए पापा ने आप से कहा होगा”.
“बस बस अब तू भी अपने पापा की भाषा बोलने लगी.मेरी बात तो किसी को सुनना ही नहीं है.अच्छा सब छोड़ तू ये बता लंच टाइम में आएगी ना?”
“नहीं मां possible नहीं है presentation खत्म होते होते समय लग जाएगा, लेकिन शाम को पक्का मैं और राजीव घर आते है.रात का खाना‌ हम सबके साथ ही खाएंगे‌.आप अपना‌ ध्यान रखना ‌और पापा से ज्यादा कुछ मत कहना, तुम बोलती ज्यादा हो, इतना कह मैंने फोन रख‌ दिया.
मैं सोचने लगी.भरा पूरा परिवार है.घर पर किसी चीज की कमी नहीं लेकिन मां और बड़ी भाभी की न जाने क्यों नहीं पटती.मां को सास होने का रौब जताना होता है यदि कभी मां भूल भी जाए कि वो सास है तो आस पड़ोस के लोग उन्हें भूलने नही देते कि वो सास है और उनका काम बहू के काम में मीनमेख निकालना है.
 “मैडम आप की कौफी “.से मेरी तन्द्रा भंग हुई.कौफी पीने के बाद मैं Presentation के लिए चली गई.
शाम को जब राजीव के संग घर पहुंची तो बड़े भैया और पापा हाल में न्यूज़ देख रहे थे.राजीव भी उनके साथ हो लिए.
 मुझे आया देख बंटी और चिंकी बुआ…. कहते हुए मुझसे लिपट ग‌ए.मैंने उन्हें अपने बैग से चिप्स और चाकलेट निकाल कर दिया,जिसे लेकर वो अपनी पढ़ाई करने लगे, और मैं सीधे किचन की ओर मुड़ गई.
किचन में मां और भाभी खाना बनाने में लगी हुई थी.मैं भाभी के कांधे पर हाथ रखती हूई बोली-” भाभी ये इतना सबकुछ क्यों बना रही हो, क्या जरूरत है इतने तामझाम की, भाभी कुछ कहती इससे पहले मां कहने लगी-“अरे वाह क्यों जरूरत नहीं है.क्या शिखा दामाद जी को दोपहर ‌का मलाई कोफ्ता ही खिलाएगी ? एक ही तो ननदोई है शिखा के, उनकी भी खातिरदारी नहीं करेगी ‌तो किसकी करेगी और कौन सा तुम लोग रोज़ रोज़ आते हो. मां के ऐसा कहने पर जब मैंने भाभी की ओर देखा तो भाभी मुस्कराने लगी जैसे आंखों ही आंखों में कह रही हो हां दीदी आप लोग कहां रोज़ आते हैं हर दो चार दिन बाद आते हैं.
सहसा ज़ोर से बड़े भैया की मां को पुकारने की आवाज आई .हम तीनों किचन से हाल की ओर दौडे.अचानक पापा की तबियत खराब हो गई थी.उन्हें सांस लेने में तकलीफ होने लगी,छाती में तेज़ दर्द उठा‌ और पापा बेहोश हो गए.हम पापा को लेकर तुरंत अस्पताल पहुंचे.जहां इमरजेंसी वार्ड में उनका ई सी जी,टी एम टी टेस्ट किया गया और फिर पापा को admit कर लिया गया.
भाभी ने बताया आज सुबह से ही पापा की छाती में हल्का हल्का जलन और दर्द था.शाम को बड़े भैया पापा‌ को check up के लिए ले जाना चाहते थे, लेकिन पापा यह कह कर टाल गए कि गैस, एसीडिटी है ठीक हो जाएगा.पापा दस दिनों तक हास्पिटल में admit रहे और मां उनके साथ हास्पिटल में ही रही.उसके बावजूद मुझे रोज फोन कर यहां वहां की बातें करती, कभी ‌कभी मैं चिढ़ भी जाती और उनसे कहती- “तुम सारा पंचायती छोड़ो पापा के स्वास्थ्य पर ध्यान दो”. कभी-कभी मैं सोचती मां ऐसे विषम परिस्थिति में भी अपने आपको इतना सहज और मजबूत कैसे रख पाती है.
पापा ये पहली बार एडमिट नही हुए थे. इससे पहले भी पापा कई बार एडमिट हो चुके थे. रिटायरमेंट के बाद पापा अक्सर बीमार ही ‌रहते हैं.पापा डरते थे कहीं उन्हें कुछ हो गया तो मां का क्या होगा.उन्हें लगता था मां और बड़ी भाभी का निभना मुश्किल है.पापा कभी कभी मां की चिंता करते हुए मुझसे कहते-“सुमी अगर मुझे कुछ हो गया तो तू अपनी मां को अपने साथ ले जाना.तेरी बड़ी भाभी तेरी मां को संभाल नही पाएगी और तेरी छोटी भाभी उसे अपने संग कभी ले के नहीं जाएगी”.
पापा की बातें सुन मैं हमेशा पापा से कहती -“आप क्यों बेफिजूल की बातें करते हैं .आप को कुछ नही होगा.ऐसा दिन कभी नही आएगा.
एक दिन अकस्मात ही सुबह सुबह बड़ी भाभी का फोन आया .भाभी रोते हुए बोली- दीदी आप जल्दी हास्पिटल आ जाईए.मां की तबियत खराब हो गई है. हास्पिटल पहुंचने पर मैंने देखा मां निश्चेत अवस्था में पड़ी हुई है.मुझे याद नहीं मैंने कभी मां को इस अवस्था में देखा हो.मैंने मां को  मुस्कुराते, खिलखिलाते, अविरल बोलते और सदा उर्जा से लबरेज ही देखा है.
आज मां को इस हालत में देख मेरी आंखें भर आईं.भाभी ने बताया मां को पैरालिसिस अटैक था.शरीर का बायां हिस्सा काम करना बंद कर चुका था.मां का मुंह टेढ़ा हो गया था.जो हरदम बड़-बड़ करती रहती थी अब बोल नही सकती‌ थी.वो पूरी ‌तरह से शांत हो गई थी. डॉक्टरों ने उन्हें घर ले जाने को कह दिया.हम उन्हें घर ले आए. मैं हर सुबह उनके फोन का इंतजार करती.उनकी बातें सुनना चाहती‌ पर अब यह संभव नही था.दिन बीतते चले गए, कैंलेंडर के पन्नें बदलते रहे,साल‌ दर साल गुजर गए लेकिन ना मां ठीक हूई ,ना दूबारा कुछ बोली और एक दिन मां हम सब को छोड़ कर हमेशा के लिए पंचतत्व में विलीन हो ग‌ई.
जब भी मां को स्मरण करती हूं, मुझे पापा से कही अपनी‌ वो बात याद आने लगती है ‌जो मैं अक्सर पापा से कहती – “पापा वो दिन कभी नहीं आएगा”. सच में अब वो दिन ‌कभी‌ नही आएगा जब मुझे मां को अपने घर ले जाना पड़ेगा.

और रिश्ते टूट गए : निशि की मौसीजी ने उसका कौनसा राज खोल दिया?

ौ‘‘सभी मौसियां राधास्वामी मत को मानने वाली बनी फिरती हैं, अक्ल धेले की नहीं है,’’ निशि, मेरी साली की बेटी के उक्त शब्द पास से गुजरते जब मेरे कानों में पड़े तो मेरे तनबदन में आग लग गई. सर्दी की इस उफनती रात में भी भीतर के कोप के कारण मैं ने स्वयं को अत्यंत उग्र पाया. इस का जवाब दिया जाना चाहिए. जैसे ही मैं पीछे को मुड़ा, मेरी पत्नी सरला मेरे मुड़ने का आशय समझ गई. सरला ने मुझे रोकते हुए कहा, ‘‘नहीं, इस समय नहीं. इस समय हम किसी के समारोह में आए हुए हैं, मैं नहीं चाहती, कुछ अप्रिय हो.’’

‘‘एक बच्ची हो कर उसे इस बात का खयाल नहीं है कि बड़ों से कैसे बात की जाती है या की जानी चाहिए, तो उसे इस बात का प्रत्युत्तर मिलना चाहिए. इस को उस की स्थिति का संज्ञान करवाना आवश्यक है. बस, तुम देखती जाओ.’’

मैं निशि के पास जा कर बैठ गया. उस के सासससुर भी बैठे हुए थे. मैं ने कहा, ‘‘निशि बेटा, क्या कहा तुम ने?’’ उस का ढीठपना तो देखो, उस ने वही बात दोहरा दी. उसे सासससुर का भी लिहाज नहीं रहा.

‘‘तुम ऐसा क्यों कह रही हो?’’ मेरे स्वर में तीखापन था.

‘‘देखो न बडे़ मौसा, परसों मेरे फूफा की मृत्यु उपरांत उठाला था. कोई मौसी नहीं आई,’’ वह हमेशा मुझे बड़े मौसा कह कर बुलाती थी.

‘‘क्यों, तुम ने अपने मम्मीपापा से नहीं पूछा?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘कुछ भी कहने से पहले तुम्हें उन से पूछना चाहिए था. नहीं पूछा तो कोई बात नहीं. वैसे तो तुम बच्ची हो, तुम्हें बड़ों की बातों में नहीं पड़ना चाहिए था. अब तुम पड़ ही गई हो तो तुम्हें हमारे मन के भीतर के तीखेपन का भी अनुभव करना पड़ेगा,’’ मैं अल्प समय के लिए रुका, फिर कहा, ‘‘तुम्हें अपने मायके के परिवार के बुजुर्गों की कहां तक याद है?’’

‘‘मुझे याद है जब पापा की चाची की मृत्यु हुई थीं.’’

‘‘तो फिर तुम्हें यह भी याद होगा कि हम सब यानी तुम्हारी मौसियां, मौसा तुम्हारे पापा की चाची, चाचा और मां यानी तुम्हारी दादी की मृत्यु पर कब हाजिर नहीं हुए? यहां तक कि आजादपुर मंडी के पास डीडीए फ्लैट में, मुझे नहीं पता वे तुम्हारे पापा के क्या लगते थे, हम वहां भी हाजिर थे. नोएडा में भी पता नहीं किस की मृत्यु हुई थी, हम पूछपूछ कर वहां भी हाजिर हुए थे. इतनी दूर फरीदाबाद से इन स्थानों पर जाना कितना मुश्किल होता है, तुम जैसी लड़की को इस बात का अनुभव हो ही नहीं सकता.’’

मैं ने अपने जज्बातों को काबू में किया और फिर बोला, ‘‘पिछले वर्ष मेरी मां की मृत्यु हुई थी. अपने भाई संग हरिद्वार में उन के फूल प्रवाहित करने के बाद जब घर लौटा तो सभी जाने कहांकहां से अफसोस करने आए थे. अपने पापा से पूछना, वे आए थे? अरे, आना तो दूर अफसोस का टैलीफोन तक नहीं किया.’’

‘‘मुझे याद है, उन दिनों पापा के घुटनों में दर्द था,’’ निशि ने सफाई देनी चाही.

‘‘सब बकवास है. टैलीफोन करने में घुटनों में दर्द होता है? उस के 2 रोज बाद तुम्हारे मामा ससुर की मृत्यु हुई थी. वहां 6 घंटे का सफर कर के श्रीगंगानगर अफसोस प्रकट करने गए थे, तब उन के घुटनों में दर्द नहीं हुआ? तब ये तुम्हारे फूफाजी भी जीवित थे. क्या उन का मेरी मां की मृत्यु पर अफसोस करना नहीं बनता था? तब वे कहां गए थे? तुम्हारे मम्मीपापा ने उन को बताया ही नहीं होगा, नहीं तो वे तुम्हारी तरह, तुम्हारे मम्मीपापा की तरह असभ्य नहीं हैं. मैं उन को तुम्हारे पापा की शादी के पहले से जानता हूं.

‘‘और जिन मौसियों के लिए तुम इस प्रकार के असभ्य शब्दों का प्रयोग कर रही हो उन्होंने भी तुम्हारे लिए बहुत कुछ किया है. वह सब तुम भूल गईं? याद करो, तुम्हारी पंजाबी बाग वाली मौसी और मौसा, जिन को आज तुम नमस्ते करना भी गंवारा नहीं समझतीं, तुम्हारे ब्याह की सारी मार्केटिंग उन्होंने ही करवाई. घर पर बुला कर न केवल तुम्हें बल्कि तुम्हारे ससुराल वालों को खाना खिलाया, शगुन भी दिए. न केवल इस मौसी ने बल्कि सभी मौसियों ने ऐसा ही किया. उन के बहूबेटों को किस ने खाना खिलाया अथवा शगुन दिए? तुम्हारी बेटी होने पर पंजाबी बाग वाली मौसी ने 9-9 किलो की देसी घी की पंजीरी अपने पल्ले से बना कर दी. तुम इतनी जल्दी भूल गईं. एहसानफरामोश कहीं की…अपने पापा की तरह.’’

‘‘आप को मेरे और मेरे पापा के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग करने का कोई अधिकार नहीं है.’’

‘‘और तुम्हें ‘धेले की अक्ल नहीं है’ कहने का अधिकार है? मैं बताता हूं, तुम्हारे पापा एहसानफरामोश कैसे हैं. तुम्हें याद होगा, तुम्हारे पापा के दिल का औपरेशन हो रहा था. नए वाल्व पड़ने थे.’’

‘‘जी, याद है.’’

‘‘औपरेशन के लिए 9 यूनिट खून चाहिए था. वह पूरा नहीं हो रहा था. तुम्हारे इसी पंजाबी बाग वाले मौसा ने और मैं ने अपना खून दे कर उस कमी को पूरा किया था. याद आया?’’

‘‘जी.’’

‘‘आज तक अनेक विसंगतियां होने के बावजूद हम मूक रहे तो केवल इसलिए कि हम खूनदान जैसे पवित्र कार्य को लज्जित नहीं करना चाहते थे. लेकिन तुम्हारे और तुम्हारे पापा के खराब व्यवहार ने हमें मजबूर कर दिया. यह नहीं है कि तुम्हारी मम्मी इस तरह के व्यवहार से अछूती हैं. जानेअनजाने में वे भी तुम्हारे पापा संग खड़ी हैं. न खड़ी हों तो मार खाएं, क्यों? यह तुम बड़ी अच्छी तरह से जानती हो.’’

निशि ने मेरी बातों का कोई उत्तर नहीं दिया. शायद उस के पास कोई उत्तर था ही नहीं. परंतु मैं प्रहार करने से नहीं चूका, ‘‘अरे छोड़ो, तुम्हारे पापा को हमारे दुख से दुख तो क्या हमारी खुशी से भी कोई खुशी नहीं थी. तुम्हें याद होगा, हमारी 25वीं मैरिज ऐनीवर्सरी में तुम किस प्रकार अंतिम क्षणों में पहुंचीं. तुम्हारे पापा फिर भी न आए जबकि तुम्हें पता है, तुम्हारे पापा को स्वयं मैं ने कितने प्यार और सम्मान से बुलाया था.

‘‘तुम्हारी मम्मी ने न आने के लिए कितना घटिया बहाना बनाया था, शायद तुम्हें याद न हो? वहां चोरियां हो रही हैं, इसलिए वे नहीं आए. क्या तुम अपने समारोहों में इस प्रकार के बहाने स्वीकार कर लेतीं? सत्य बात तो यह है, वे हमारी खुशी में कभी शामिल ही नहीं होना चाहते थे. कभी हुए भी तो मन से नहीं. यह तुम भी जानती हो और हम भी. यह बात अलग है, तुम इसे स्पष्ट रूप से स्वीकार न कर सको.

‘‘और मेरे बेटे सोमू की शादी में क्या हुआ? मौसा की मिलनी थी. बड़े मौसा होने के नाते मिलनी का अधिकार तुम्हारे पापा को था. कुछ समय पहले वे वहीं खड़े थे. हम ने आवाजें भी दीं परंतु वे जानबूझ कर वहां से खिसक गए. मिलनी तुम्हारे पंजाबी बाग वाले मौसा को करनी पड़ी. और उन की शराफत देखो, यह नहीं कि जो पैसे और कंबल मिला अपने पास रख लें बल्कि उस सब को तुम्हारे मम्मीपापा को दे दिया क्योंकि यह उन्हीं का अधिकार समझा गया. तुम्हारी शादी में मेरे साथ क्या हुआ? मिलनी के लिए 4 बार पगड़ी पहनाई गई, 4 बार उतारी गई और मिलनी फिर भी न करवाई गई. हम ने तो मिलनी करवाने के लिए नहीं कहा था. इस प्रकार बेइज्जत करने का अधिकार तुम्हारे मम्मीपापा को किस ने दिया?  इस प्रश्न का उत्तर है तुम्हारे मायके वालों के पास?

‘‘कालांत में सोचा था, तुम सब इस योग्य ही नहीं जिन से किसी प्रकार का संबंध रखा जाए, लेकिन तुम्हारे पापा तो अपनी हरकतों से बाज नहीं आए. क्या तुम अथवा तुम्हारी मम्मी इस के प्रति नहीं जानतीं? जानती हैं परंतु इसे दूसरों के समक्ष स्वीकार नहीं करना चाहतीं.

‘‘उसी शादी में तुम्हारे पापा ने कहा था कि मैं ने खाना ही नहीं खाया. जब वीडियो रील बन कर आई तो उस में प्लेट भर कर खाना खाते देखा गया. अपने पापा की इस हरकत को तुम किस संज्ञा का नाम दोगी? यह नहीं है कि तुम्हें, तुम्हारी मम्मी और तुम्हारे भाई को इस के प्रति पता नहीं है. बस, उक्त कारणों से तुम सब स्पष्ट स्वीकार नहीं कर पाते.’’

निशि ने फिर भी मेरी बातों का कोई उत्तर नहीं दिया या मुझे यह समझना चाहिए कि वह मेरे समक्ष निरुत्तर हो गई है परंतु मेरी बात अभी समाप्त नहीं हुई थी, ‘‘तुम्हारे भाई ने कार ली, हम सब ने बधाई दी. हमारे बच्चों ने भी कारें लीं, हमें किस ने बधाई दी? यह तीखा प्रश्न आज भी मेरे समक्ष मुंहबाए खड़ा है.

‘‘पिछले दिनों मैं और सरला अमृतसर में थे, तुम्हारे नानानानी के पास. तभी तुम्हारी मम्मी का टैलीफोन आया था कि कार लेने की इन को बधाई दे दो और कहना कि वे ब्यास गए हुए थे इसलिए बधाई देने में देर हो गई. बधाई दे दी गई. सभी तो चुप रहे पर तुम्हारी मामी बोली थीं कि जब कभी निशा दीदी यानी तुम्हारी मम्मी उन के सामने होगी तो वे पूछेंगी कि उन के भाई ने जाने कैसेकैसे अपना घर बनाया, उस को बधाई किस ने दी? मैं जानता हूं, उस समय इस प्रश्न का उत्तर न तुम्हारी मम्मी के पास होगा और न तुम्हारे पापा के पास. मुझे आश्चर्य नहीं होगा, उस समय इस प्रश्न से बचने के लिए तुम्हारे पापा जानबूझ कर कहीं खिसक जाएं जैसा वे अकसर करते हैं.

‘‘मामू के गृहप्रवेश में तुम्हारे भाई के जाने तक बात नहीं बनती थी बल्कि तुम्हारे मम्मीपापा का टैलीफोन पर बधाई देना भी बनता था. पूछना, बधाई दी थी? क्या औरों से ऐसी आशा करना मूर्खता नहीं है जो वे स्वयं नहीं कर सकते?

‘‘तुम्हें याद होगा निशि, अपने पापा की एक और बेमानी हरकत का? एक मौसी की बेटी की शादी में वे नहीं आए थे. जब तुम्हारी शादी हुई, सब के समझाने पर तुम्हारी वह मौसी न केवल स्वयं उपस्थित हुईं बल्कि अपने परिवार को ले कर आईं, यह सोच कर कि यदि एक व्यक्ति गलत है तो उसे खुद को गलत नहीं होना है. जानती हो…तुम भी तो वहीं थीं, प्रसंग उठने पर किस प्रकार तुम्हारे पापा ने उन की बेइज्जती करने में एक क्षण भी नहीं लगाया था, ‘हम ने कौन सा बुलाया है.’ उस समय मेरे मन में बड़े तीखे रूप से आया था कि तुम सब ऐसे हो ही नहीं जिन से किसी प्रकार का संबंध रखा जाए.

‘‘तुम्हें अफसोस होगा कि कल तुम्हारी मैरिज ऐनीवर्सरी थी और मौसियों ने तुम्हें बधाई नहीं दी. तुम मौसियों को ‘धेले की अक्ल नहीं है’ कहती हो और तुम्हारा भाई उन के राज खोलने की बात करता है. क्या तुम समझती हो ऐसी स्थिति में तुम से, तुम्हारे भाई से, तुम्हारे मम्मीपापा से किसी प्रकार के संबंध रखे जा सकते हैं? बल्कि यह कहने की आवश्यकता है कि हमें माफ करो, भविष्य में तुम्हें हमारे दुखसुख से कुछ लेनादेना नहीं है और न ही हमें. मुझे एक कहावत स्मरण हो रही है कि सांप के बच्चे सपोलिए.’’

मैं मूक हो गया था. शायद मेरे पास और कुछ कहने को शेष नहीं था. निशि भी मूक थी. उस का मुंह खुला का खुला रह गया था. अपने मायके वालों के ऐक्सपोज हो जाने से वह अवाक् थी. निशि के सासससुर भी मूक और भावशून्य बैठे थे. शायद वे भी अपनी बहू की बदतमीजी और बदजबानी के प्रति जानते थे. मुझे नहीं लगता है कि निकट भविष्य में कोई इन टूटते रिश्तों को बचा पाएगा.

जीवन की नई शुरुआत: क्या रघु का प्रेम और जिम्मेदारी मुन्नी बनी उनकी हमसफर?

अरे रे रे, कोई रोको उसे, मर जाएगा वो,” अचानक से आधी रात को शोर सुन कर सारे लोग जाग गए और जो देखा, देख कर वे भी चीख पड़े. जल्दी से उसे वहां से खींच कर नीचे उतारा गया, वरना जाने क्या अनर्थ हो गया होता.

यह तीसरी बार था, जब रघु अपनी जान देने की कोशिश कर रहा था.  लेकिन इस बार भी उसे किसी ने बचा लिया, वरना अब तक तो वह मर गया होता.

क्वारंटीन सेंटर का निरीक्षण करने पहुंचे डीएम यानी जिलाधिकारी को जब रघु की आत्महत्या करने की बात पता चली और यह भी कि वह न तो ठीक से खातापीता है और न ही किसी से बात करता है. वह खुद में ही गुमशुम रहता है. कुछ पूछने पर बस वह अपने घर जाने की बात कह रो पड़ता है, तो डीएम को भी फिक्र होने लगी कि अगर इस लड़के ने क्वारंटीन सेंटर में कुछ कर लिया तो बहुत बुरा होगा.

जिलाधिकारी ने वहां रह रहे एकांतवासियों से पूछा कि उन्हें दिया जा रहा भोजन गुणवत्तायुक्त है या नहीं? हाथ धोने के लिए साबुन, मास्क, तौलिया आदि की व्यवस्था के बारे में भी जानकारी ली, फिर वहां की देखभाल करने वाले केयर टेकर को खूब फटकार लगाई कि वह करता क्या है?एक इनसान आत्महत्या करने की क्यों कोशिश कर रहा है, उस से जानना नहीं चाहिए?

“फांसी लगाने की कोशिश कर रहे थे, पर क्यों?” उस जिलाधिकारी ने जब रघु के समीप जा कर पूछा, तो भरभरा कर उस की आंखें बरस पड़ीं.

“कोई तकलीफ है यहां? बोलो न, मरना क्यों चाहते हो? अपने परिवार के पास नहीं जाना है?”

जब जिलाधिकारी मनोज दुबे ने कहा, तो सिसकियां लेते हुए रघु कहने लगा, “जाना है साहब, कब से कह रहा हूं मुझे मेरे घर जाने दो, पर कोई मेरी सुनता ही नहीं.”

कहते हुए रघु फिर सिसकियां लेते हुए रो पड़ा, तो जिलाधिकारी मनोज को उस पर दया आ गई.

“हां, तो चले जाना, इस में कौन सी बड़ी बात है, बल्कि यहां कोई रहने नहीं आया है.  अवधि पूरी होगी, सभी को भेज दिया जाएगा अपनेअपने घर.  बताओ, और कोई बात है? यहां किसी चीज की समस्या हो रही है?”

“नहीं… लेकिन, मेरे मांबाप बूढ़े और बीमार हैं, उन्हें मेरी जरूरत है,” कहते हुए रघु का गला भर्रा गया.  लेकिन जिलाधिकारी को लग रहा था कि बात कुछ और भी है, जो रघु को खाए जा रही है.

अपने घरपरिवार से दूर क्वारंटीन सेंटर में 15-20 दिनों से रह रहे रघु पर मानसिक दबाव बढ़ने लगा था. वह रात को उठ कर यहांवहां घूमने लगता और अजीब सी हरकतें करता था. कभी वह क्वारंटीन सेंटर की ऊंची दीवार को नापता, तो कभी बड़े से लंबे दरवाजे को आंखें गड़ा कर देखता. कई बार तो वह पेड़ पर चढ़ जाता, ताकि वहां से फांद कर दीवार पार कर सके, पर कामयाब नहीं हो पाता.

रघु की इस हरकत पर उसे फटकार भी पड़ी थी.  लेकिन उस का कहना था कि उसे घर जाना है, क्योंकि अब उस के सब्र का बांध टूटने लगा है. उस ने कई बार मरने की भी धमकी दी थी कि अगर उसे उस के घर नहीं जाने दिया गया तो वह अपनी जान दे देगा. लेकिन कौन सुनने वाला था यहां उस का? सब उसे ‘पागल-बताहा’ कह कर चुप करा देते और हंसते. जैसे सच में वह कोई पागल हो.  लेकिन वह पागल नहीं था. यह बात कैसे समझाए सब को कि उसे यहां से जाना है, नहीं तो सब खत्म हो जाएगा.

जिलाधिकारी मनोज के पूछने पर रघु कहने लगा, “साहब, अच्छीखासी खुशहाल जिंदगी चल रही थी हमारी. किसी चीज की कमी नहीं थी. पर इस कोरोना ने एक झटके में सब बरबाद कर दिया साहब, कुछ नहीं बचा, कुछ नहीं, ना ही नौकरी और ना ही मेरा प्यार…”

बोलतेबोलते रघु की हिचकियां बंध गईं और वह बिलख कर रोने लगा, “साहब, हम गरीबों की तो किस्मत ही खराब है, वरना क्या दालरोटी पर भी मार पड़ जाती? अच्छीखासी जिंदगी चल रही थी हमारी.  मेहनतमजदूरी कर के खुश थे हम. लेकिन सब मटियामेट हो गया.”

अपने आंसू पोंछते हुए रघु बताने लगा कि अभी दो साल पहले ही वह अपने गांव सिवान से गुजरात आया था. वह यहां मिस्त्री का काम करता था, जिस से उस की अच्छीखासी कमाई हो जाती थी. अपने मांबाप के पास घर भी पैसे भेजता था. लेकिन अब क्या करेगा, समझ नहीं आ रहा है.

बताने लगा कि वह यहां अहमदाबाद में एक कमरे का घर ले कर रह रहा था. सोचा था कि मांबाप को भी ले आएगा, सब साथ मिल कर रहेंगे. लेकिन जिंदगी में ऐसी उथलपुथल मच जाएगी, नहीं सोचा था.

रघु हमेशा खुश रहने वाला, हंस कर बोलने वाला इनसान था और यही बात मुन्नी को, जो उस की ही बस्ती में रहती थी और वह नेपाल से थी, उस के करीब लाता था.

रघु का साथ मुन्नी को खूब भाता था. उस के पिता बड़े बाजार से थोक भाव में सब्जीफल ला कर बाजार में बेचते थे. उसी से उन के 8 परिवार का खर्चा चलता था. मुन्नी भी दोचार घरों में झाड़ूबरतन कर के कुछ पैसे कमा लेती थी. मगर रघु को मुन्नी का दूसरे के घरों में झाड़ूबरतन करना जरा भी अच्छा नहीं लगता था. उसे जब कोई गंदी नजरों से घूरता, तो रघु की आंखों में खून उतर आता. मन करता उस का कि जान ही ले ले उस की. कितनी बार उस ने मुन्नी से कहा कि छोड़ दे वह लोगों के  घरों में काम करना. पर मुन्नी उस की बात को यह कह कर टाल दिया करती कि उसे क्यों बुरा लगता है? कौन लगती है वह उस की?

वैसे तो मुन्नी को भी दूसरे के घरों में झाड़ूबरतन करना अच्छा नहीं लगता था, मगर क्या करे वह भी? अब  8-8 जनों का पेट एक की कमाई से थोड़े ही भर सकता था.  कितनी बार लोगों की भेदती नजरों का वह निशाना बनी है. जिन घरों में वह काम करती है, वहां के मर्द ही उस पर गंदी नजर रखते हैं.

कहते तो बेटीबहन समान है, पर गलत इरादों से यहांवहां छूछाप कर देते हैं. देखने की कोशिश करते हैं कि लड़की कैसी है? लेकिन मुन्नी उस टाइप की लड़की थी ही नहीं. वह तो अपने काम से मतलब रखती थी. गरीबों के पास एक इज्जत ही तो होती है, वही चली जाए तो मरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता है. कुछ बोल भी नहीं सकती थी, अगर आवाज उठती तो उलटे मुंह गिरती. सो बच कर रहने में ही अपनी भलाई समझती थी.

गलती मुन्नी के मांबाप की भी कम नहीं थी. एक बेटे की खातिर पहले तो धड़ाधड़ 5 बेटियां पैदा कर लीं और अब उसी बेटी को दूसरेतीसरे घरों में काम करने भेजने लगे, ताकि पैसे की कमाई होती रहे.

चूंकि मुन्नी घर में सब से बड़ी थी, इसलिए छोटे भाईबहनों की जिम्मेदारी भी उस के ऊपर ही थी. बेचारी दिनभर चक्करघिन्नी की तरह पिसती रहती, फिर भी मां से गालियां पड़तीं कि ‘करमजली कहां गुलछर्रे उड़ाती फिरती है पूरे दिन.’

इधर मुन्नी को देखदेख कर रघु का कलेजा दुखता रहता, क्योंकि प्यार जो करने लगा था वह उस से. अपने काम से वापस आ कर हर रोज वह घर के बाहर खटिया लगा कर बैठ जाता और मुन्नी को निहारता रहता था. लेकिन आज कहीं भी उसे मुन्नी नहीं दिख रही थी, सो हैरानपरेशान सा वह इधरउधर देख ही रहा था कि उस के सिर पर आ कर कुछ गिरा. देखा, तो पेड़ पर चढ़ी मुन्नी उस के सिर पर पत्ता तोड़तोड़ कर फेंक रही थी.

“ओय मुन्नी… तू ने फेंका?” रघु लपका.

“नहीं तो… फेंका होगा किसी ने,” एक पत्ता मुंह में दबाते हुए शरारती अंदाज में मुन्नी बोली.

“देख, झूठ मत बोल, मुझे पता है कि तुम ने ही फेंका है.”

“अच्छा… और क्याक्या पता है तुझे?” कह कर वह पेड़ से नीचे कूद कर भागने लगी कि रघु ने झपट कर उस का हाथ पकड़ लिया.

“छोड़ रघु, कोई देख लेगा,” अपना हाथ रघु की पकड़ से छुड़ाते हुए मुन्नी बोली.

“नहीं छोडूंगा. पहले ये बता, तू ने मेरे सिर पर पत्ता क्यों फेंका?” आज रघु को भी शरारत सूझी थी.

“हां, फेंका तो… क्या कर लेगा?” अपने निचले होंठ को दांतों तले दबाते हुए मुन्नी बोली और दौड़ कर अपने घर भाग गई.

दिनभर का थकाहारा रघु मुन्नी को देखते ही उत्साह से भर उठता और मुन्नी भी रघु को देखते बौरा जाती. भूल जाती  दिनभर के काम को और अपनी मां की डांट को भी.  एकदूसरे को देखते ही दोनों सुकून से भर उठते थे.

18 साल की मुन्नी और 22 साल के रघु के बीच कब और कैसे प्यार पनप गया, उन्हें पता ही नहीं चला. इश्क परवान चढ़ा तो दोनों कहीं अकेले मिलने का रास्ता तलाशने लगे. दोनों बस्ती के बाहर कहीं गुपचुप मिलने लगे. मोहब्बत की कहानी गूंजने लगी, तो बात मुन्नी के मातापिता तक भी पहुंची और मुन्नी के प्रति उन का नजरिया सख्त होने लगा, क्योंकि मुन्नी के लिए तो उन्होंने किसी और को पसंद कर रखा था.

इसी बस्ती का रहने वाला मोहन से मुन्नी के मातापिता उस का ब्याह कर देना चाहते थे और वह मोहन भी तो मुन्नी पर गिद्ध जैसी नजर रखता था. वह तो किसी तरह उसे अपना बना लेना चाहता था और इसलिए वह वक्तबेवक्त मुन्नी के मांबाप की पैसों से मदद करता रहता था.

मोहन रघु से ज्यादा कमाता तो था ही, उस ने यहां अपना दो कमरे का घर भी बना लिया था. और सब से बड़ी बात कि वह भी नेपाल से ही था, तो और क्या चाहिए था मुन्नी के मांबाप को? मोहन बहुत सालों से यहां रह रहा था तो यहां उस की काफी लोगों से पहचान भी बन गई थी. काफी धाक थी इस बस्ती में उस की. इसलिए तो वह रघु को हमेशा दबाने की कोशिश करता था. मगर रघु कहां किसी से डरने वाला था.  अकसर दोनों आपस में भिड़ जाते थे. लेकिन उन की लड़ाई का कारण मुन्नी ही होती थी.

मोहन को जरा भी पसंद नहीं था कि मुन्नी उस रघु से बात भी करे. दोनों को साथ देख कर वह बुरी तरह जलकुढ़ जाता.

मुन्नी के कच्चे अंगूर से गोरे रंग, मैदे की तरह नरम, मुलायम शरीर, बड़ीबड़ी आंखें, पतले लाललाल होंठ और उस के सुनहरे बाल पर जब मोहन की नजर पड़ती, तो वह उसे खा जाने वाली नजरों से घूरता.

मुन्नी भी उस के गलत इरादों से अच्छी तरह वाकिफ थी, तभी तो वह उसे जरा भी नहीं भाता था. उसे देखते ही वह दूर छिटक जाती. और वैसे भी कहां मुन्नी और कहां वह मोहन, कोई मेल था क्या दोनों का? कालाकलूटा नाटाभुट्टा वह मोहन मुन्नी से कम से कम 14-15 साल बड़ा था. उस की पत्नी प्रसव के समय सालभर पहले ही चल बसी थी. एक छोटा बेटा है, उस के ऊपर पांचेक साल की एक बेटी भी है, जो दादी के पास रहती है.  वही दोनों बच्चों की अब मां है.

वैसे भी पीनेखाने वाले मोहन की पत्नी मरी या उस ने खुद ही उसे मार दिया क्या पता? क्योंकि आएदिन तो वह अपनी पत्नी को मारतापीटता ही रहता था. राक्षस है एक नंबर का. अब जाने सचाई क्या है, मगर मुन्नी को वह फूटी आंख नहीं सुहाता था.

उसे देखते ही मुन्नी को घिन आने लगती थी. मगर उस के मांबाप जाने उस में क्या देख रहे थे, जो अपनी बेटी की शादी उस से करने को आतुर थे? शायद पैसा, जो उस ने अच्छाखासा कमा कर रखा हुआ था.

लेकिन मुन्नी का प्यार तो रघु था. उस के साथ ही वह अपने आगे के जीवन का सपना देख रही थी और उधर रघु भी जितनी जल्दी हो सके उसे अपनी दुलहन बनाने को व्याकुल था. अपनी मां से भी उस ने मुन्नी के बारे में बात कर ली थी.  मोबाइल से उस का फोटो भी भेजा था, जो उस की मां को बहुत पसंद आया था. कई बार फोन के जरीए मुन्नी से उन की बात भी हुई थी और अपने बेटे के लिए मुन्नी उन्हें एकदम सही लगी थी.

एक शाम… मुन्नी की कोमलकोमल उंगलियों को अपनी उंगलियों के बीच फंसाते हुए रघु बोला था, “मुन्नी, छोड़ दे न लोगों के घरों में काम करना. मुझे अच्छा नहीं लगता.”

“छोड़ दूंगी, ब्याह कर ले जा मुझे,” मुन्नी ने कहा था.

“हां, ब्याह कर ले जाऊंगा एक दिन. और देखना, रानी बना कर रखूंगा तुम्हें. मेरा बस चले न मुन्नी तो मैं आकाश की दहलीज पर बनी सात रंगों की इंद्रधनुषी अल्पना से सजी तेरे लिए महल खड़ा कर दूं,” कह कर मुसकराते हुए रघु ने मुन्नी के गालों को चूम लिया था.  लेकिन उन के बीच तो जातपांत और पैसों की दीवार आ खड़ी हुई थी. तभी तो मुन्नी के घर से बाहर निकलने पर पहरे गहराने लगे थे. जब वह घर से बाहर जाती तो किसी को साथ लगा दिया जाता था, ताकि वह रघु से मिल ना सके, उस से बात ना कर सके. लेकिन हवा और प्यार को भी कभी किसी ने रोक पाया है? किसी ना किसी वजह से दोनों मिल ही लेते.

इधर मुन्नी के मांबाप जितनी जल्दी हो सके, अपनी बेटी का ब्याह उस मोहन से कर देना चाहते थे. वह मोहन तो वैसे भी शादी के लिए उतावला हो रहा था. उसे तो लग रहा था शादी कल हो, जो आज ही हो जाए.

इधर रघु जल्द से जल्द बहुत ज्यादा पैसे कमा लेना चाहता था, ताकि मुन्नी के मांबाप से उस का हाथ मांग सके. और इस के लिए वह दिनरात मेहनत भी कर रहा था. दिन में वह  मिस्त्री का काम करता, तो रात में होटल में जा कर प्लेटें धोता था.

लेकिन अचानक से कोरोना ने ऐसी तबाही मचाई कि रघु का कामधंधा सब छूट गया. कुछ दिन तो रखे धरे पैसे से चलता रहा. इस बीच वह काम भी तलाशता रहा, लेकिन सब बेकार. अब तो दानेदाने को मोहताज होने लगा वह.  कर्जा भी कितना लेता भला. भाड़ा न भरने के कारण मकान मालिक ने भी कोठरी से निकल जाने का हुक्म सुना दिया.

इधर, उस मोहन का मुन्नी के घर आनाजाना कुछ ज्यादा ही बढ़ने लग गया, जिसे मुन्नी चाह कर भी रोक नहीं पा रही थी. आ कर ऐसे पसर जाता खटिया पर, जैसे इस घर का जमाई बन ही गया हो. चिढ़ उठती मुन्नी, पर कुछ कर नहीं सकती थी. लेकिन मन तो करता उस का मुंह नोच ले उस मोहन के बच्चे का या दोचार गुंडे से इतना पिटवा दे कि महीनाभर बिछावन पर से उठ ही न पाए.

दर्द एक हो तो कहा जाए. यहां तो दर्द ही दर्द था दोनों के जीवन में. जिस दुकान से रघु राशन लेता था, उस दुकानदार ने भी उधार में राशन देने से मना कर दिया.

उधर गांव से खबर आई कि रघु की चिंता में उस की मां की तबीयत बिगड़ने लगी है, जाने बच भी पाए या नहीं. मकान मालिक ने कोरोना के डर से जबरदस्ती कमरा खाली करवा दिया. अब क्या करे यहां रह कर और रहे भी तो कहां? इसलिए साथी मजदूरों के साथ रघु ने भी अपने घर जाने का फैसला कर लिया.

रघु के गांव जाने की बात सुन कर मुन्नी सहम उठी और उस से लिपट कर बिलख पड़ी यह कह कर कि ‘मुझे छोड़ कर मत जाओ रघु, मैं घुटघुट कर मर जाऊंगी. मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती. मुझे मंझदार में छोड़ कर मत जाओ.’

मुन्नी की आंखों से बहते अविरल आंसुओं को देख, रघु की भी आंखें भीग गईं, क्योंकि वह जानता था, मुन्नी और उस का साथ हमेशा के लिए छूट रहा है. उस के जाते ही मुन्नी के मांबाप मोहन से उस का ब्याह कर देंगे. लेकिन फिर भी कुछ क्षण उस के बालों में उंगलियां घुमाते हुए आहिस्ता से रघु ने कहा था, वह जल्द ही लौट आएगा.

मुन्नी जानती थी कि रघु झूठ बोल रहा है, वह अब वापस नहीं आएगा. लेकिन यह भी सच था कि वह रघु की है और उस की ही हो कर रहेगी, नहीं तो जहर खा कर अपनी जान खत्म कर लेगी. लेकिन उस अधेड़ उम्र के दुष्ट मोहन से कभी ब्याह नहीं करेगी.

मुन्नी के मांबाप ने जब उस दिन मोहन से उस की शादी का फरमान सुना दिया था, तब मुन्नी ने दोटूक भाषा में अपना फैसला दे दिया था कि वह किसी मोहनफोहन से ब्याह नहीं करेगी, वह तो रघु से ही ब्याह करेगी, नहीं तो मर जाएगी.

उस के मरने की बात पर मांबाप पलभर को सकपकाए थे, लेकिन फिर आक्रामक हो उठे थे. ‘उस रघु से ब्याह करेगी, जिस का ना तो कमानेखाने का ठिकाना है और ना ही रहने का. क्या खिलाएगा और कहां रखेगा वह तुम्हें ?’

मां ने भी दहाड़ा था कि ‘कल को कोई ऊंचनीच हो गई तो हमें मुंह छिपाने के लिए जगह भी नहीं मिलेगी. और बाकी चार बेटियों का कैसे बेड़ा पार लगेगा ?

‘लड़की की लाज मिट्टी का सकोरा होत है, समझ बेटियां तू’ मगर मुन्नी को कुछ समझनाबुझाना नहीं था.
दांत भींच लिए थे उस ने यह कह कर, “अगर तुम लोगों ने जबरदस्ती की तो मैं अपनी जान दे दूंगी सच कहती हूं,” और अपनी कोठरी में सिटकिनी लगा कर फूटफूट कर रो पड़ी थी.

मुन्नी की मां का तो मन कर रहा था बेटी का टेंटुवा ही दबा दे, ताकि सारा किस्सा ही खत्म हो जाए. ‘हां, क्यों नहीं चाहेगी, आखिर बेटियों से प्यार ही कब था इसे. हम बेटियां तो बोझ हैं इन के लिए’ अंदर से ही बुदबुदाई थी मुन्नी. ‘देखो इस कुलच्छिनी को, कैसे हमारी इज्जत की मिट्टी पलीद कर देना चाहती है. यह सब चाबी तो उस रघु की घुमाई हुई है, वरना इस की इतनी हिम्मत कहां थी. अरे नासपीटी, भले हैं तेरे बाप… कोई और होता तो दुरमुट से कूट के रख देता. मेरे भाग्य फूटे थे जो मैं ने तुझे पैदा होते ही नमक न चटा दिया’

खूब आग उगली थी उस रात मुन्नी की मां. उगले भी क्यों न, आखिर उसे अपने हाथ से तोते जो उड़ते नजर आने लगे थे. एक तो कमाऊ बेटी, ऊपर से पैसे वाला दामाद, जो हाथ से सरकता दिखाई देने लगा था. सोचा था, बाकी बेटियों का ब्याह भी मोहन के भरोसे कर लेगी, मगर यहां तो… ऊंचा बोलबोल कर आवाज फट चुकी थी मुन्नी की मां की, मगर फिर भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ा था. उस की जिद तो अभी भी यही थी कि वह रघु की है और उस की ही रहेगी.

रात में सब के सो जाने के बाद रघु को फोन लगा कर कितना रोई थी वह. उस के जाने के बाद उस के साथ क्याक्या हुआ, सब बताया और यह भी कि अगर वह उस की नहीं हो सकी, तो किसी की भी नहीं हो सकेगी. फिर कई बार रघु ने फोन लगाया, पर बंद ही आ रहा था.

कहते हैं, सारी मुसीबत एक बार आ धमकती है इनसान की जिंदगी में और यह बात आज रघु को सही प्रतीत पड़ रही थी.

कोरोना महामारी के कारण एक तो कामकाज और शहर छूटा, फिर पता चला कि वहां मां बीमार है और अब यह सब… कहीं मुन्नी ने कुछ कर लिया तो… सोच कर ही रघु का खून सूखा जा रहा था. लेकिन क्या करे वह भी? यहां से भाग भी तो नहीं सकता है? इसलिए उस ने भी अपनी जान खत्म करने की सोच ली थी. ना जिएगा, ना इतनी मुसीबत झेलनी पड़ेगी.

आज उसे मुन्नी का वह उदास चेहरा और थकी आंखें याद आ रही थीं. मन कर रहा था, करीब होती तो उस के अधरों पर अपने होंठ रख सारी उदासी सोख लेता.

मुसकरा भी पड़ा था वह दिन याद कर के, जब पहली बार मुन्नी को आलिंगन में भर कर उस के अधरों को चूम लिया था और लजा कर वह रघु के सीने में सिमट गई थी. जीवन में पुरुष के साथ उस का यह पहला भरपूर आलिंगन था. मुन्नी की रीढ़ में हलकी सी झुरझुरी दौड़ गई थी. दोनों को एकदूसरे की छूती हुई परस्पर आकर्षण की हिलोरें का एहसास था, तभी तो दोनों एकदूसरे के करीब आते चले गए थे बिना जमाने की परवाह किए. लतावितान के भीतर यह अनुभूति गहराई थी, जब रघु ने उस के होठों पर तप्त दबाव बढ़ाया था. योवन वेग के अनेक स्पंदन अचानक देह में चमक उठे थे. इस आलिंगन और चुंबन की अवधि दिनप्रतिदिन बढ़ती ही चली गई थी. लेकिन जमाने ने और कुछ इस कोरोना ने उन्हें जुदा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.

रघु की कहानी सुन कर जिलाधिकारी मनोज को उस पर दया आ गई कि एक गरीब इनसान को प्यार करने का भी हक नहीं होता? बुझीबुझी सी उम्मीदों पर कोरोना का खौफ सब की आंखों में साफ दिखाई दे रहा था. ख्वाहिशों व उम्मीदों को समेटे लोग खुश हो कर दूसरे शहरों में कमानेखाने गए थे? लेकिन एक वायरस ने इन का सबकुछ छीन लिया. इन गरीब मजदूरों ने जिस शहर को सजायासंवारा, उसी ने इन्हें गैर बना दिया. अब तो बस दर्द ही याद है’ अपने मन में ही सोच मनोज को उन मजदूरों  पर दया आ गई कि आखिर गरीब लोग ही हमेशा क्यों मारे जाते हैं? वे ही क्यों दरदर भटकने को मजबूर हो जाते हैं? सब से ज्यादा तो उन्हें रघु पर दया आ रहा था कि उस का प्यार भी छिन गया. लेकिन उन्होंने भी सोच लिया कि जहां तक हो सकेगा, वह इन मजदूरों की सहायता जरूर करेंगे.

इधर मोहन से शादी के जोर पड़ने पर मुन्नी धीरेधीरे टूटने लगी थी. कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, कैसे इस शादी को रोके? मन तो कर रहा था कि धतूरे का बीज खा कर अपनी जान खत्म कर ले. लेकिन ऐसा भी वह नहीं कर सकती थी. क्योंकि मरना तो कायरता है. किसी चीज को हासिल करने के लिए लड़ना पड़ता है और वह लड़ेगी अपने मांबाप से भी और इस जमाने से भी. सोच लिया उस ने और अपने मन में ही एक फैसला ले लिया. रात में सोने से पहले उस ने तकिए में मुंह छिपा कर रघु का नाम लिया. उस का चुंबन याद आया और वह पुरानी सिहरन शरीर में झनझना गई.

अपने प्लान के अनुसार, सुबह मुंहअंधेरे ही वह घर से निकल गई और पैदल चल रहे मजदूरों के संग हो ली. जानती थी पैदल चल कर रघु से मिलना इतना आसान नहीं होगा. पर अपने प्यार के लिए वह कुछ भी करेगी. हजारों क्या, लाखों किलोमीटर चलना पड़े तो चल कर अपने प्यार को पा कर रहेगी. यह भी जानती थी कि उसे घर में ना पा कर गुस्से से सब बौखला जाएंगे. जहां तक होगा, उसे ढूंढ़ने की कोशिश की जाएगी. लेकिन कोई फायदा नहीं, क्योंकि तब तक वह काफी दूर निकल चुकी होगी. रघु के गांवघर का पता तो उसे मालूम ही था, फिर डर किस बात का था.

5 दिन बाद थकेहारे कदमों से, मगर विजयी मुसकान के साथ वह अपने रघु के सामने खड़ी थी. रघु को तो अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था.  उसे तो लग रहा था, जैसे वह कोई सपना देख रहा हो. मगर यह सच था, मुन्नी उस के सामने खड़ी थी. दोनों बालिग थे, इसलिए उन की शादी में रुकावट की कोई गुंजाइश ही नहीं थी. क्वारंटीन अवधि पूरी होते ही जिलाधिकारी मनोज ने अपनी देखरेख में दोनों की शादी ही नहीं करवाई, बल्कि एक भाई की तरह मुन्नी को विदा भी किया. रघु को उन्होंने रोजगार दिलाने में भी मदद की, ताकि वह आत्मनिर्भर बन सके और अपनी जिंदगी अपने अनुसार जिए.

इस कोरोना काल में रघु ने बहुत मुसीबतें झेलीं, पर कहते हैं न, अंत भला तो सब भला.  रघु और मुन्नी के जीवन की नई शुरुआत हो चुकी थी.

दिव्या आर्यन : जब दो अनजानी राहों में मिले धोखा खा चुके हमराही

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘पता नहीं बस और गाड़ियों में रात में भी एसी क्यों चलाया जाता है, माना कि गरमी से नज़ात पाने के लिए एसी का चलाया जाना ज़रूरी है पर तब क्यों जब ज्यादा गरमी न हो,’ बस की खिड़की से बाहर देखती हुई दिव्या सोच रही थी. मन नहीं माना तो उस ने खिड़की को ज़रा सा खिसका भर दिया, एक हवा का झोंका आया और दिव्या की ज़ुल्फों से अठखेलियाँ करते हुए गुज़र गया.

कोई टोक न दे, इसलिए धीरे से खिड़की को वापस बंद कर दिया दिव्या ने. दिव्या जो आज अपने कसबे लालपुर से शहर को जा रही थी. वहां उसे कुछ दिन रुकना था. उस ने शहर के एक होटल में एक सिंगल रूम की बुकिंग पहले से ही करा रखी थी.

चर्रचर्र की आवाज़ के साथ बस रुकी. दिव्या ने बाहर की ओर देखा तो पाया कि पुलिसचेक है. शायद स्वतंत्रता दिवस करीब है, इसीलिए पुलिस वाले हर बस को रोक कर गहन तलाशी करते हैं. हरेक व्यक्ति की तलाशी और आईडी चेक होती है. पुलिस की चेकिंग के बाद बस आगे बढ़ी.

अब भी आधा सफर बाकी था. ‘अब तो लगता है मुझे पहुंचने में काफी रात हो जाएगी. तब, बसस्टैंड से होटल तक जाने में परेशानी होगी,’ दिव्या सोच रही थी.

ऐसा हुआ भी.

बस को शहर पहुंचने में काफी रात हो गई. दिव्या ने अपना सामान उठाया और किसी रिकशे या कैब वाले को देखने लगी. कई औटो रिकशे वाले खड़े थे पर उन में से कुछ ने होटल तक जाने से मना कर दिया तो कुछ औटो में ही सो रहे थे जबकि कुछ में ड्राइवर थे ही नहीं.

परेशान हो उठी दिव्या, ‘अगर कोई सवारी नहीं मिली तो मैं होटल कैसे जाऊंगी और बाकी की रात यहां कैसे बिताऊंगी!’

तभी उस की नज़र कोने में खड़े एक औटो पर पड़ी. दिव्या उस की तरफ गई तो देखा कि ड्राइवर उस के अंदर बैठबैठे हुआ सो रहा है.

“ए औटो वाले, खाली हो, होटल रीगल तक चलोगे?” दिव्या का स्वर पता नहीं क्यों तेज़ हो गया था. उस की आवाज़ सुन कर वह उठ गया और इधरउधर देखने लगा.

“ज…जी, वह आखिरी बस आ गई क्या? मैं ज़रा सो गया था. हां, बताइए मैडम, कहां जाना है?”

“होटल रीगल जाना है मुझे,” दिव्या बोली थी.

“हां जी, बैठिए,” कह कर उस ने औटो स्टार्ट कर के आगे बढ़ा दिया.

“होटल रीगल यहां से कितनी दूर होगा?” दिव्या ने पूछा

“वह मैडम, कुछ नहीं तो 16 किलोमीटर तो पड़ ही जाएगा. बात ऐसी है न मैडम, कि यह बसस्टैंड शहर के काफी बाहर और सुनसान जगह पर बनवा दिया गया है, इसीलिए यहां से हर चीज़ दूर पड़ती है. पर, आप घबराइए मत, हम अभी पहुंचाए देते हैं,” औटो वाले ने जवाब दिया.

औटो वाले का चेहरा तो नहीं दिख रहा था पर उस के कान में एक चेन में पिरोया हुआ कोई बुंदा पहना हुआ था, जो बारबार बाहर की चमक पड़ने पर रोशनी बिखेर देता था. उस चमक से बारबार दिव्या का ध्यान औटो वाले के कानों पर चला जाता.

अचानक से औटो के अंदर रोशनी सी भर गई. औटो वाले और दिव्या दोनों का ध्यान उस रोशनी पर गया. 4 लड़के थे जो अपनी बाइक की हेडलाइट को जानबूझ कर औटो के अंदर तक पंहुचा रहे थे .

इन को भी कहीं जाना होगा, ऐसा सोच कर दिव्या ने अपना ध्यान वहां से हटा लिया पर औटो वाले की आंखें लगातार पीछे आने वाली बाइकों पर थीं और वह उन लोगों की नीयत भांप चुका था.

अचानक से औटो वाले ने अपनी गति बढ़ा दी जितनी बढ़ा सकता था और औटो को मुख्य सड़क से हटा कर किसी और सड़क पर चलाने लगा.

“क्या हुआ, यह तुम इतनी तेज़ क्यों चला रहे हो और औटो को किस दिशा में ले जा रहे हो? बात क्या है आखिर?” दिव्या ने कई सवाल दाग दिए.

“जी, कुछ नहीं मैडम, आप डरिए नहीं. दरअसल, इस शहर में कुछ भेड़िए इंसानी भेष में रोज़ रात को लड़कियों का मांस नोचने के लिए निकल पड़ते हैं और आज इन लोगों ने आप को अकेले देख लिया है. पर आप घबराइए नहीं, मैं इन के मंसूबे कामयाब नहीं होने दूंगा,” आंखों को रास्ते और साइड मिरर पर जमाए हुए औटो वाला बोल रहा था.

पीछे आती हुई बाइकों ने अपनी गति और बढ़ा दी और वे औटो के बराबर में आने लगे .

औटो वाले ने अचानक औटो को एक दिशा में लहरा दिया और औटो के लहराने से बाइक वाला संभल नहीं पाया और बाइक कंट्रोल से बाहर हो गई. और वह लहराता हुआ गिर गया.

अपने साथी को गिरा देख कर दूसरा गुस्से में भर गया और बाइक चलाते हुए अंदर बैठी दिव्या के बराबर हाथ पहुंचाया. तुरंत ही दिव्या ने अपने साथ में लाए हुए लेडीज़ छाते का एक ज़ोरदार वार उस के हेलमेट पर कर दिया. इस अप्रत्याशित वार से वह भी बाइक समेत गिर गया. अपने 2 साथियों के चोटिल होने के बाद बाकी के दोनों सवारों का हौसला टूट गया उन दोनों ने पीछे आना छोड़ कर अपनी बाइकों को मोड़ लिया.

उन गुंडों से पीछा छुड़ाने के चक्कर में औटो मुख्य सड़क से भटक कर पास में छोटी सड़क पर चलने लगा था और औटोवाला ड्राइवर बगैर इस बात का ध्यान करे औटो भगाता जा रहा था. और अब जब उसे इस बात का भान हुआ तब तक औटो शहर के किसी दूसरे हिस्से में आ गया था. वहां चारों और घुप्प अंधेरा था. बस, जितनी दूर औटो की रोशनी जाती उतना ही रास्ता दिखाई दे रहा था.

औटो चला जा रहा था. तभी अचानक औटो से खटाक की आवाज़ आई और औटो रुक गया. औटो ड्राइवर को जितनी तकनीक मालूम थी वह सबकुछ अपना लिया. पर कुछ न हो सका .

“मैडम, अफ़सोस की बात है, हम शहर के किसी बाहरी हिस्से में आ गए हैं और वापसी का कोई उपाय नहीं है. अब हमें रात यही कहीं काटनी होगी.”

“क्या मतलब, यहां कहां और कैसे?”

“अब क्या करें मैडम, मजबूरी है,” औटोवाला युवक बोला, फिर कहने लगा, “वह सामने आसमान में ऊंचाई पर एक लाल बल्ब चमक रहा है, वहां चलते हैं. ज़रूर वहां हमे सिर छिपाने लायक जगह मिल जाएगी.” अपनी उंगली दिखाते हुए उस ने कहा और एक झटके से दिव्या का बैग उठा लिया और तेज़ी से चल पड़ा.

उस का अंदाज़ा सही था. यह एक निर्माणाधीन बहुमंज़िली इमारत थी, जिस के एक हिस्से में कुछ मज़दूर सो रहे थे और बाकी की इमारत खाली थी. दोनों चलते हुए ऊपर वाले फ्लोर पर पहुंचे और एक कोने में सामान रख दिया.

यह सब दिव्या को बड़ा अजीब लग रहा था और वह यह भी सोच रही थी, एक अजनबी के साथ वह इतनी देर से है, फिर भी उसे कोई असुरक्षा का भाव क्यों नहीं आ रहा है?

“इधर आ जाइए, हवा अच्छी आ रही है,” युवक ने बालकनी में आवाज़ देते हुए कहा.

“वैसे, तुम्हारा नाम क्या है?” अचानक से दिव्या ने पूछा.

“ज जी, मेरा नाम आर्यन है,” युवक ने थोड़ा झिझकते हुए उत्तर दिया.

” भाई वाह, क्या नाम है, वैरी गुड़,” दिव्या ने अपने पर्स में रखे हुए बिस्कुट निकाल कर आर्यन की ओर बढ़ाते हुए कहा.

“जी मैडम, बात ऐसी है कि मेरी मां शाहरुख खान की बहुत बड़ी फैन थी और जब ‘मोहब्बतें’ फिल्म रिलीज़ हुई न, तब मैं उस के पेट में था और तभी उस ने सोच लिया था कि अगर बेटा पैदा हुआ तो उस का नाम आर्यन रखेगी.”

आर्यन की सरल बातें सुन कर बिना मुसकराए न रह सकी दिव्या. पानी पीते हुए घड़ी पर निगाह डाली तो अभी रात का 2 बज रहा था. अभी तो पूरी रात यहीं काटनी है, इस गरज से दिव्या ने बातचीत जारी रखी.

“दिखने में तो खूबसूरत लगते हो और पढ़े लिखे भी. फिर, यह औटो चलाने की जगह कोई नौकरी क्यों नहीं करते?” दिव्या ने पूछा.

“मैडम, मैं ने एमए किया है वह भी इंग्लिश में. पर आजकल इस पढ़ाई से कुछ नहीं होता. या तो बहुत बड़ी डिग्री हो या फिर किसी की सिफारिश. और अपने पास दोनों ही नहीं. मरता क्या न करता, इसलिए औटो लाने लगा.

“ऊं…मोहब्बतें… तो कुछ अपनी मोहब्बत के बारे में भी बताओ. किसी लड़की से प्यारव्यार भी हुआ है या फिर…?” दिव्या ने पूछा.

उस की इस बात पर पहले तो आर्यन कुछ शरमा सा गया, फिर उस की आंखों में गुस्सा उत्तर आया, बोला, “हां मैडम, मुझे भी प्यार हुआ तो था पर अफ़सोस कि लड़की ने धोखा दे दिया…एक दिन मैं औटो ले कर घर वापस जा रहा था. तभी सड़क के किनारे मैं ने देखा कि एक लड़का पड़ा हुआ है. उस के सिर से खून बह रहा है और भीड़ मोबाइल से वीडियो बना रही है. कोई उस लड़के को अस्पताल ले कर नहीं जा रहा. उस लड़के के साथ एक बदहवास सी लड़की भी थी. मुझे उन दोनों पर दया आई और इंसानियत के नाते मैं ने उन दोनों को अस्पताल पहुंचाया. “अस्पताल में उस लड़के को जब खून की ज़रूरत पड़ी तो उस लड़की ने मुझ से मदद मांगी. मुझ से कहा कि वह लड़का उस का भाई है और खून का इंतज़ाम करना है.

“मैं क्या करता, मैं ने अपना खून उस लड़के को दिया और उस की जान बचाई. उस लड़की ने मुझे शुक्रिया कहा और बदले में मेरे को अपने घर का पता व अपना मोबाइल नंबर दिया, साथ ही मेरा नंबर लिया भी. और फिर रोज़ सुबह ही उस लड़की का व्हाट्सऐप्प पर मैसेज आता और चैटिंग भी करती. वह मुझ से पूछती कि वह उसे कैसी लगती है. और इसी तरह की कई दूसरी बातें भी पूछती थी.

“एक दिन मेरे मोबाइल पर उसी लड़की का फोन आया और उस ने मुझे अपने घर पर बुलाया. मैं उस से मिलने के लिए आतुर था, इसलिए तैयार हो कर उस के घर पहुंच गया. पता नहीं क्यों मुझे लगने लगा था कि वह लड़की मुझ से प्यार करने लगी है, इसलिए मैं उस के लिए एक लाल गुलाब भी ले कर गया था. जब मैं वहां पहुंचा तो उस ने मेरा खूब स्वागत भी किया. उस के घर में सिर्फ उस की मां ही रहती थी पर उस दिन वह कहीं गई हुई थी.

“जब मैं ने उस लड़की से पूछा कि उस का वह भाई कहां है तो उस ने बताया कि वह भी मां के साथ ही कहीं गया है. अकेलापन देख कर मैं ने उस लड़की को शादी का प्रस्ताव दे डाला.

“अभी तक उस लड़की ने मेरा नाम नहीं पूछा था. नाम पूछने पर जब मैं ने उसे अपना नाम आर्यन डिसूजा बताया तब उस ने मेरे ईसाई होने पर सवाल खड़ा कर दिया और निराश हो कर कहने लगी, ‘मुझे भूल जाओ. मैं शादी तुम से नहीं कर सकती क्योंकि मेरी मां और पापा कट्टर हिंदू हैं, वे किसी गैरधर्म वाले लड़के से मेरी शादी नहीं करेंगे.’ हालांकि उस के भाई को खून देने को ले कर किसी को कोई एतराज नहीं था पर शादी की बात आते ही जातिधर्म सब आ गया. बस मैडम, मेरी पहली और आखिरी कहानी यही थी,” यह कह कर आर्यन चुप हो गया.

“काफी अजीब कहानी है तुम्हारे प्यार की. पर है बहुत ही इमोशनल और नई सी. इस पर कोई फिल्म वाला एक फिल्म बना सकता है,” दिव्या ने हंसते हुए कहा.

“हां जी, हो सकता है. पर आप ने कुछ अपने बारे में नहीं बताया, मसलन आप के मांबाप?” आर्यन भी दिव्या की प्रेमकथा ही जानना चाहता था, पर वह बात कहने की हिम्मत नहीं कर पाया, इसलिए मांबाप का नाम ले लिया.

“मेरे बाप एक फार्मा कंपनी में काम करते थे. उन का सेल्स का काम था, तो अकसर घर के बाहर रहते. घर में सबकुछ था, ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं. जब वे घर आते तो हम सब को खूब समय और तोहफे भी देते…” कहतेकहते चुप हो गई दिव्या.

“जी, और आप की मां?”

“मां, अब उस के बारे में क्या बताऊं. उस का पेट हर तरह से भरा हुआ था- रुपए से, पैसे से. पर कुछ औरतों को अपने जिस्म की भूख मिटाने के लिए रोज़ एक नया मर्द चाहिए होता है न, कुछ ऐसी ही थी मेरी मां. वह कहीं भी जाती तो अपने लिए गुर्गा तलाश ही लेती और उसे अपना फोन नंबर दे देती. और जब वह आदमी घर तक आ जाता तो मुझे किसी बहाने से घर के बाहर भेज देती और उस आदमी के साथ जिस्मानी ताल्लुकात बनाती.

“धीरेधीरे उस की बेशर्मी इतनी बढ़ गई थी कि वह मेरे सामने ही किसी भी गैरमर्द के साथ प्रेम की अठखेलियां करने लगती. उस की ये हरकतें पापा को पता चलीं, तो उन्होंने तुरंत ही उसे तलाक़ दे दिया और मुझे मां के पास ही छोड़ दिया. तलाक़ के बाद मां को सम्भल जाना चाहिए था, पर वह और भी निरंकुश हो गई. “अब तो आदमी आते और घर पर ही पड़े रहते, बल्कि आदमी लोग शिफ्टों में आने लगे थे और मेरी मां जीभर सेक्स का मज़ा लेती थी. मां की हरकतें देख कर मैं ने अपने घर की छत पर जा कर आत्महत्या करने की कोशिश की, पर तभी मेरे पड़ोस में रहने वाले लड़के ने अपनी जान पर खेलते हुए मेरी जान बचाई.

“मुझे किसी का सहारा चाहिए था. मैं उस लड़के के कंधे पर सिर रख कर खूब रोई. मैं सिसकियों में बंध सी गई थी.

उस लड़के ने मुझे ऐसे वक्त में सहारा दिया कि मुझे उस से प्यार हो जाना स्वाभाविक ही था. प्यार तो उस को भी मुझ से हो गया था पर हमारी शादी के बीच मेरी मां का दुष्चरित्र आ गया और उस लड़के ने मुझ से साफ कह दिया कि उस के मांबाप किसी ऐसी लड़की से उस की शादी नहीं कराना चाहते जिस की तलाकशुदा मां कई मर्दों से सम्बन्ध रखती हो,” इतना कह कर चुप हो गई थी दिव्या.

दोनों चुप थे. रात का सन्नाटा भी बखूबी उन का साथ दे रहा था. हवा आआ कर अब भी कभीकभी दिव्या की ज़ुल्फों को उड़ा दे रही थी, जिन्हें वह परेशान हो कर बारबार संभालती थी.

“पर मैडम, मेरी कहानी कुछ नई लग सकती है आप को पर आप की कहानी में तो दर्द के अलावा कुछ नहीं है” पास में बैठे हुए आर्यन ने कहा.

प्रतिउत्तर में कोई जवाब नहीं आया, सिर्फ एक छोटी सी सिसकी ही आई जिसे चाह कर भी दिव्या छिपा न सकी थी.

“क्या तुम रो रही हो?” आर्यन ने पूछा.

बिना कोई उत्तर दिए ही आर्यन के सीने से लिपट गई दिव्या…रोती रही…शायद बचपन से ले कर अब तक कोई कंधा नहीं नसीब हुआ था उसे जिस पर वह सिर रख सके. रोती रही वह जब तक उस का मन हलका नहीं हो गया.

और आर्यन ने भी अपनी मज़बूत बांहों का घेरा दिव्या के गिर्द डाल दिया था. और दिव्या के माथे पर चुम्बन अंकित कर दिया. वह खामोश इमारत अब उन के मिलन की गवाह बन रही थी.

सूरज की पहली किरण फूटी पर वे दोनों अब भी किसी लता की तरह एकदूसरे से लिपटे हुए थे.

तभी दूर से एक दुग्ध वाहन आता हुआ दिखाई दिया. दिव्या ने आर्यन का हाथ पकड़ा और आर्यन ने बैग उठाया और दोनों ने दौड़ कर उस वाहन में लिफ्ट मांगी.

“हम कहां जा रहे हैं …और मेरा औटो तो वहीं रह गया मैडम,” आर्यन ने पूछा.

“अगर तुम्हें कोई और काम मिले तो क्या तुम करोगे ?” दिव्या ने आर्यन की आंखों में झांकते हुए कहा.

“हां मैडम, क्यों नहीं करूंगा.”

“पर हो सकता है तुम्हें उम्रभर मेरा साथ देना पड़े?”

“हां, पर तुम्हें साथ देना होगा तो ही करूंगा मैडम.”

“मैडम नहीं, दिव्या नाम है मेरा,” दिव्या ने कहा.

बदले में आर्यन सिर्फ मुसकरा कर रह गया.

शहर आ गया था. दोनों पूछतेपाछते होटल रीगल पहुंच गए.

रिसेप्शन पर जा कर दिव्या ने मैनेजर से कहा, “जी, मैं ने अपने लिए एक सिंगल बैडरूम बुक कराया था. मुझे आने में देर हो गई. पर, अब मुझे सिंगल नहीं बल्कि डबल बैडरूम चाहिए.”

“जी मैडम, किस नाम से रूम बुक था?” मैनेजर ने पूछा.

“मेरा कमरा दिव्या नाम से बुक था. पर अब आप रजिस्टर में मेरे पति आर्यन डिसूजा और दिव्या डिसूजा का नाम लिख सकते हैं,” दिव्या ने आर्यन की तरफ देखते हुए कहा.

प्रिया : क्या था प्रिया के खुशहाल परिवार का सच?

जैसे ही प्लेन के पहियों ने रनवे को छुआ, विकास के दिल की धड़कनें तेज हो गईं. वह 3 साल बाद मां के बेहद जोर देने पर अपनी बहन के विवाह में शामिल होने के लिए इंडिया आया था. इस से पहले भी कितने मौके आए, लेकिन वह काम का बहाना बना कर टालता रहा. लेकिन इस बार वह अपनी बहन नीलू को मना नहीं कर सका. दिल्ली से उसे पानीपत जाना था, वहां फिर उस की याद आएगी. वह सोच रहा था कि यह कैसी मजबूरी है? वह उसे भूल क्यों नहीं जाता? क्यों आखिर क्यों? कोई किसी से इतना प्यार करता है कि अपना वजूद तक भूल जाता है? प्रिया अब किसी और की हो चुकी थी. लेकिन विकास उस की जुदाई सह नहीं पाया था, इसलिए पहले उस ने शहर और फिर एक दिन देश ही छोड़ दिया. भूल जाना चाहता था वह सब कुछ. उस ने खुद को पूरी तरह बिजनैस में लगा दिया था.

पलकों पर नमी सी महसूस हुई तो उस ने इधरउधर देखा. सभी अपनीअपनी सीट पर अपने खयालों में गुम थे. विकास एक गहरी सांस लेते हुए खुद को नौर्मल करने की कोशिश करने लगा.

बाहर आ कर उस ने टैक्सी ली और ड्राइवर को पता समझा कर पिछली सीट पर सिर टिका कर बाहर देखने लगा. दिल्ली की सड़कों पर लगता है जीवन चलता नहीं, बल्कि भागता है. तभी उस का मोबाइल बज उठा. विकास अमर का नाम देख कर मुसकराया और बोला, ‘‘बस, पहुंच ही रहा हूं.’’

विकास जब अपने सभी अरमानों को दफना कर खामोशी से लंदन आया था, तो कुछ ही दिनों बाद उस की मुलाकात अमर से हुई थी, जो अपनी कंपनी की तरफ से ट्रेनिंग के सिलसिले में लंदन आया हुआ था. दोनों के फ्लैट पासपास ही थे. दोनों में दोस्ती हो गई थी. इसी बीच अमर का ऐक्सिडैंट हुआ तो विकास ने दिनरात उस का खयाल रखा, जिस कारण दोनों एकदूसरे के अच्छे दोस्त बन गए.

अमर ट्रेनिंग पूरी कर के भारत लौट आया. फिर कुछ दिनों बाद उस का विवाह भी हो गया. अब दोनों फोन पर बातें करते थे. दोस्ती का रिश्ता कायम था. अमर के बारबार कहने पर विकास ने उस से मिलते हुए पानीपत जाने का प्रोग्राम बनाया था. अमर के बारे में सोचते हुए उस ने टैक्सी ड्राइवर को पैसे दे कर डोरबैल बजा दी.

कुछ ही पलों में अमर का मुसकराता चेहरा गेट पर नजर आया, ‘‘सौरी यार, तुम्हें लेने एअरपोर्ट नहीं आ पाया.’’

‘‘कोई बात नहीं, बस अचानक आने का प्रोग्राम बना. मम्मी की जिद थी कि बहन की शादी में जरूर आऊं. एअरपोर्ट से ही मैं ने तुम्हें फोन किया था. सोचा तुम से मिलता जाऊं. सच पूछो तो घर वालों के साथसाथ मुझे तुम्हारी दोस्ती, तुम्हारा प्यार भी खींच लाया है.’’

अमर मुसकराता हुआ विकास के गले लग गया. फिर बातें करतेकरते विकास को ड्राइंगरूम में ले कर आया.

‘‘कैसा लगा घर?’’ अमर ने पूछा.

‘‘बहुत शांति है तुम्हारे घर में, लगता है स्वर्ग में रह रहे हो?’’

‘‘औफकोर्स, लेकिन बस एक ही अप्सरा है इस स्वर्ग में,’’ और फिर दोनों के की हंसी से ड्राइंगरूम गूंज उठा.

थोड़ी देर बाद अमर उठ कर अंदर गया और फिर गोद में एक बच्चे को ले कर आया और बोला, ‘‘विकास, इस से मिलो. सनी है यह.’’

विकास ने उठ कर सनी को गोद में लिया. बच्चा था ही ऐसा कि देख कर उस पर प्यार आ जाए.

‘‘अमर, खाना तैयार है,’’ कहते हुए वह गुलाबी साड़ी में अंदर आई तो विकास को लगा जैसे दिल की धड़कनें अभी बंद हो जाएंगी. और फिर वह अचानक उठ खड़ा हुआ.

‘‘विकास, यह प्रिया है, तुम्हारी भाभी,’’ प्रिया की नजरों में पहचान का कोई भाव नहीं था.

‘‘आप बैठिए न, अमर आप को बहुत याद करते हैं. और आज तो आप के फोन के बाद से आप की ही बातें चल रही हैं.’’

बेवफा, धोखेबाज, विकास मन ही मन उस के अनजान बनने पर कुढ़ कर रह गया.

प्रिया मुसकराते हुए अमर के पास बैठ गई. फिर कहने लगी, ‘‘अमर, खाना मैं ने टेबल पर लगा दिया है, सनी के सोने का टाइम हो रहा है. मैं इसे सुला कर आती हूं,’’ और वह बच्चे को ले कर चली गई.

अमर कहने लगा, ‘‘विकास, इस घर की सारी खूबसूरती और शांति प्रिया से है.’’

उधर विकास सोचने लगा कि इस बेवफा को वह एक पल में गलत साबित कर सकता है. विकास के दिल में प्रिया के खिलाफ नफरत का तूफान उठ रहा था. कुछ जख्म ऐसे होते हैं, जो दिखाई देते हैं, लेकिन दिखाई न देने वाले जख्म ज्यादा तकलीफ देते हैं. बीते दिनों का एहसास एक बार फिर विकास के मन में जाग उठा. यकीनन मेरा डर प्रिया के दिल में उतर चुका होगा, फिर वह बोला, ‘‘अमर, भाभी हमारे साथ खाना नहीं खाएंगी?’’

‘‘तुम शुरू करो, मैं बुलाता हूं,’’ लेकिन अमर के बुलाने से पहले ही वह आ गई और आते ही कहने लगी, ‘‘मैं सनी को सुलाने गई थी, वैसे मुझे भी बड़ी जोर की भूख लगी है,’’ और वह कुरसी खींच कर विकास के सामने बैठ गई.

विकास सोच रहा था यह प्यार भी अजीब चीज है. हम हमेशा उसी चीज से प्यार करते हैं, जो हमारे बस में नहीं होती. सब जानते हुए भी मजबूर हो जाते हैं. प्रिया का चेहरा आज भी खिलते गुलाब जैसा था. आज भी उस पर नजरें टिक नहीं रही थीं. जब तक लड़कियों की शादी नहीं हो जाती तब तक उन्हें लगता है वे अपने प्यार के बिना मर जाएंगी, लेकिन फिर वही लड़कियां अपने पति के प्यार में इतना आगे निकल जाती हैं कि उन्हें अपना अतीत किसी बेवकूफी से कम नहीं लगता.

विकास के मन में आया कि वह उस के हंसतेबसते घर को बरबाद कर दे… अगर वह बेचैन है तो प्रिया को भी कोई हक नहीं है चैन से रहने का…

‘‘विकास, तुम खा कम और सोच ज्यादा रहे हो.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं,’’ अमर के कहने पर वह चौंका.

‘‘लगता है खाना पसंद नहीं आया आप को,’’ प्रिया कहते हुए मुसकराई.

‘‘नहीं, खाना तो बहुत टेस्टी है.’’

‘‘प्रिया खाना बहुत अच्छा बनाती है,’’ अमर ने कहा तो वह हंस दी, फिर उठते हुए बोली, ‘‘आप लोग बातें करो, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

कुछ ही देर में प्रिया ट्रे उठाए आ गई. और बोली, ‘‘आप बता रहे थे आप के दोस्त शाम को चले जाएंगे… कम से कम 1 दिन तो आप को इन्हें रोकना चाहिए…’’

विकास उस की बातों से हैरान रह गया. उस के हिसाब से तो प्रिया उस से पीछा छुड़ाने की कोशिश करती.

‘‘अरे, मैं कहां जाने दूंगा इसे… कम से कम 1 दिन तो इसे यहां ठहरना ही पड़ेगा.’’

फिर विकास ने भी ज्यादा नानुकर नहीं की. वह मन में प्रिया से सारे हिसाब बराबर करने का फैसला कर चुका था. चाय के बाद अमर उसे थोड़ी देर आराम करने के लिए दूसरे रूम में छोड़ गया.

नर्म बैड, ठंडा कमरा, अभी लेट कर आंखें बंद की ही थीं कि प्रिया एक बार फिर सामने आ गई जिसे वर्षों बाद भी मन भुला नहीं पाया था…

उन के पड़ोस में जो नया परिवार आया था वह प्रिया का ही था. जल्द ही विकास की बहन नीलू की प्रिया से दोस्ती हो गई. अकसर उस की प्रिया से मुलाकात हो जाती थी. कभीकभी विकास भी उन दोनों की बातों में शामिल हो जाता था. गपशप के दौरान विकास को लगता कि प्रिया भी उसे पसंद करती है. उस की आंखों के पैगाम प्रिया के दिल तक पहुंच जाते. पता नहीं किस पल, किस वक्त वह इस तिलिस्म में कैद हुआ था, जिसे प्यार कहते हैं. लेकिन उस के दिल की बात कभी जबान तक नहीं आई थी.

घर में बड़ा बेटा होने के कारण विकास मांबाप का दुलारा था. उस ने एमबीए करने के बाद जब बिजनैस शुरू किया तो उस की इच्छा देखते हुए उस की मम्मी ने प्रिया की जन्मपत्री मंगा ली थी. लेकिन जब वह नहीं मिली तो दोनों के परिवार वाले इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हुए. विकास के तनबदन में आग लग गई. वह इस अंधविश्वास के कारण प्रिया से दूर नहीं रह सकता था. अत: उस ने मन की तसल्ली के लिए नीलू को प्रिया के मन का हाल जानने के लिए भेजा. हालांकि अब तक प्रिया से उस की कोई ऐसी गंभीर बात नहीं हुई थी फिर भी अगर वह विकास का साथ दे तो वे कोर्ट मैरिज कर सकते हैं.

लेकिन प्रिया के जवाब से विकास के दिल को बहुत ठेस पहुंची थी. उस का कहना था कि वह विकास की भावनाओं की कद्र करती है. वह उसे पसंद करती है, लेकिन वह विवाह मातापिता की सहमति से ही करेगी. विकास का बुरा हाल था. वह सोचता, वह सब कुछ क्या था? वह उसे देख कर मुसकराना, उस से बातें करना, क्या प्रिया उस की भावनाओं से खेलती रही? विकास को एक पल चैन नहीं आ रहा था. उसे लगा प्रिया ने उस के साथ धोखा किया है. उस के बाद प्रिया से बात नहीं हुई.

धीरेधीरे प्रिया ने घर आना भी छोड़ दिया. अब विकास का यहां दम घुटने लगा था. कुछ दिनों बाद वह लंदन आ गया. कभीकभी उसे लगता कि शायद यह एक दिमागी कमी है, जिसे इश्क कहते हैं. अतीत में खोए विकास को कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

जागने पर नहाने के बाद विकास ने स्वयं को फ्रैश महसूस किया. सारी थकान खत्म हो चुकी थी. दरवाजा खोल कर वह बाहर आया, प्रिया चाय की ट्रे मेज पर रख ही रही थी. हलके मेकअप ने उस के चेहरे को और भी निखार दिया था. विकास की नजर प्रिया के चेहरे पर जम कर रह गई. फिर उस ने पूछा, ‘‘अमर कहां है?’’

‘‘कुछ सामान लेने गए हैं, आते ही होंगे.’’

‘‘तुम चाय में साथ नहीं दोगी?’’ विकास का बेचैन दिल एक बार फिर उस की कंपनी के लिए मचलने लगा.

‘‘आप लीजिए, मैं किचन में बिजी हूं,’’ कह कर वह किचन की तरफ बढ़ गई.

विकास सोचने लगा, आखिर थी न बेवफा औरत, कैसे टिक सकती थी मेरे सामने. मगर मैं इतना बेवकूफ नहीं हूं प्रिया, यह तुम्हें जल्द ही पता चल जाएगा. और फिर अंदर की ईर्ष्या ने उसे ज्यादा देर बैठने नहीं दिया.

प्रिया किचन में थी और वह किचन के दरवाजे पर खड़ा उसे देख रहा था. समय ने उस के सौंदर्य में कमी के बजाय वृद्धि ही की थी.

‘‘क्या देख रहे हैं आप?’’ प्रिया लगी तो काम में थी, लेकिन ध्यान विकास पर ही था.

विकास बोला, ‘‘तुम जैसी लड़कियां प्यार किसी से करती हैं और शादी किसी और से, कैसे बिताती हैं ऐसा दोहरा जीवन?’’

प्रिया काम करते हुए ही बोली, ‘‘आप मुझ से क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘तुम इतनी अनजान क्यों बन रही हो? तुम मुझे क्यों बेवकूफ बनाती रहीं? क्या मैं इतना पागल नजर आता था?’’

विकास की तेज आवाज पर प्रिया ने हैरान हो कर उस की तरफ देखा, फिर आंच धीमी की और विकास की आंखों में देखती हुई बोली, ‘‘विकास, आप की पहली गलतफहमी यह है कि मैं ने आप को बेवकूफ बनाया. मैं ने आप से कभी थोड़ीबहुत जो बातें कीं वह मेरी गलती थी, लेकिन वे बातें प्यारमुहब्बत की तो थीं नहीं, आप ने अपनेआप को किसी भ्रम में डाल लिया शायद… जब मेरे मम्मीपापा ने आप के रिश्ते को मना किया तो मुझे दुख हुआ था, लेकिन ऐसा नहीं कि मैं खुद को संभाल न सकूं. मैं ने फिर आप के बारे में नहीं सोचा.’’

‘‘तुम झूठ बोल रही हो. तुम ने नीलू से क्यों कहा था कि मैं तुम्हें अच्छा लगता हूं, लेकिन तुम ने मेरा साथ नहीं दिया… जब मैं पूरी तरह तुम्हारे प्यार में डूब गया तो तुम ने मेरा दिल तोड़ दिया… अमर के जीवन में आने से पहले तुम ने यह खेल न जाने कितनों के साथ खेला होगा.’’

‘‘विकास,’’ प्रिया गुस्से से बोली, ‘‘शायद आप जानते होंगे कि रिश्ते तो हर लड़की के लिए आते हैं. आप का भेजा हुआ प्रपोजल कोई अनोखा नहीं था फर्क सिर्फ इतना था कि मैं आप को जानती थी.

‘‘मैं ने नीलू को बताया था कि आप मुझे बुरे नहीं लगते. आप बुरे थे भी नहीं. एक अच्छे इंसान में जो खूबियां होनी चाहिए वे सब आप में थीं. लेकिन जब मेरे मम्मीपापा की मरजी नहीं थी तो मैं आप का साथ देने की सोच भी नहीं सकती थी. अगर मैं मांबाप की मरजी के खिलाफ आप का साथ देती तो एक भागी हुई लड़की कहलाती और ऐसे प्यार का क्या फायदा जो इज्जत न दे सके? मैं ने आप के बारे में सोचा जरूर था, लेकिन आप से प्यार कभी नहीं किया. आप शायद एकतरफा मेरे लिए अपने दिल में जगह बना चुके थे, इसलिए मेरी शादी को आप ने बेवफाई माना. कुछ समय बाद मेरी अमर के साथ शादी हो गई, यकीन करें मैं ने आप के साथ कोई मजाक नहीं किया था. उस के बाद मैं ने कभी आप के बारे में सोचा भी नहीं. अमर का प्यार मुझे उन के अलावा कुछ और सोचने भी नहीं देता.’’

प्रिया की आवाज में अमर के लिए प्यार भरा हुआ था और विकास सोच रहा था, वह कितना बेवकूफ था अपने एकतरफा प्यार में… अपने जीवन का इतना लंबा समय बरबाद करता रहा.

‘‘क्या सोचने लगे, विकास?’’ किचन की तपिश ने उस के चेहरे को और खूबसूरत बना दिया था.

‘काश, तुम मेरी प्रिया होतीं. तुम्हारी यह खूबसूरती मेरे जीवन में होती, मेरा प्यार एकतरफा न होता,’ फिर अचानक शर्मिंदगी के एहसास ने विकास को घेर लिया कि यह सब वह अपने दोस्त की पत्नी के बारे में सोच रहा है.

प्रिया ध्यान से उस के चेहरे के उतारचढ़ाव को देख रही थी. वह उसे चुप देख कर बोली, ‘‘आप ड्राइंगरूम में बैठिए, यहां गरमी है, मैं अभी आती हूं.’’

विकास चुपचाप हारे कदमों से ड्राइंगरूम में आ गया, जहां सनी अभी तक खेल रहा था. कुछ देर में प्रिया भी आ गई और वहीं बैठ गई. दोनों काफी देर चुप रहे.

दिल ने एक बार फिर उकसाया तो विकास बोल उठा, ‘‘अगर मैं अमर को बता दूं कि मैं तुम्हें जानता हूं, बल्कि प्रपोज भी कर चुका हूं तो?’’ कह कर विकास ने उस के चेहरे पर नजरें जमा दीं.

प्रिया की गहरी आंखों में पल भर के लिए उलझन छाई, फिर धीरे से बोली, ‘‘यह जो पुरुष होता है न बड़ा अजीब होता है. अच्छाई पर आए तो फरिश्तों को भी मात कर दे और बुराई पर आए तो शैतान भी पनाह मांगे. आप का दिल जो चाहे, वह करो. आप अपने अधूरे प्यार का गुस्सा मेरे शांत जीवन को खत्म कर के उतारना चाहते हैं, अमर के सामने मेरा अपमान करना चाहते हैं जबकि आप का और मेरा ऐसा कोई रिश्ता था ही नहीं. क्या मेरा अपराध यही है कि मैं ने अपने मम्मीपापा की इच्छा के बिना आप का साथ नहीं दिया,’’ कहतेकहते प्रिया की आंखें भर आईं.

वह ठीक कह रही थी. विकास के दिमाग को उस की बातें स्वीकार्य थीं, लेकिन उस का दिल अब भी नहीं मान रहा था. और फिर दिमाग दिल पर हावी हो गया. विकास ने महसूस किया कि दिल और दिमाग में रस्साकशी चले तो दिमाग की बात मान लेनी चाहिए. इसीलिए शायद कुदरत ने बुद्धि को हृदय के ऊपर बैठाया है.

प्रिया की बातों ने विकास को शर्मिंदा सा कर दिया था. उस का मन ग्लानि से भर उठा. उस ने प्रिया को देखा तो उस के उदास चेहरे के घेरे में कैद सा हो गया. अपनी छोटी सोच पर उसे कुछ बोला ही नहीं गया, फिर हिम्मत कर के बोला, ‘‘आई एम सौरी, प्रिया, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए. मैं गलत सोच रहा था,’’ फिर दोनों थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहे.

कुछ ही देर में अमर आ गया. फिर सब ने खाना खाया, दोनों दोस्त बीते दिनों की बातें दोहराते रहे. प्रिया काम समेटती रही.

विकास के चलने का समय आया तो अमर गाड़ी निकालने लगा. प्रिया बोली, ‘‘आप फिर कब आएंगे?’’

‘‘शायद अब कभी नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘तुम्हें मुझे अपने घर बुलाते हुए डर नहीं लग रहा है?’’

‘‘वह क्यों?’’ प्रिया ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं तुम्हारा कोई नुकसान कर दूं तो?’’

‘‘मुझे पता है आप ऐसा कभी नहीं कर सकते.’’

‘‘वह क्यों?’’ अब हैरान होने की बारी विकास की थी.

‘‘इसलिए कि आप बहुत अच्छे इंसान हैं. आप अमर के दोस्त हैं, जब चाहें आ सकते हैं.’’

‘‘प्रिया बहुत शांति है तुम्हारे घर में, तुम्हारे जीवन में, मेरी कामना है कि यह हमेशा रहे,’’ विकास मुसकराया.

‘‘आप घर बसा लें ऐसी शांति आप को भी मिल जाएगी,’’ प्रिया की आंखों में खुशी दिखाई दे रही थी.

विरोधी भावों के तूफान से जूझने के

बाद विकास का मन पंख सा हलका हो गया था. मन का बोझ उतरने पर बड़ी शांति मिल रही थी, यही विकल्प था दीवाने मन का. विकास को लगा इतने वर्षों की थकान जैसे खत्म हो गई है.

पश्चात्ताप : आज्ञाकारी पुत्र घाना को किस बात की मिली सजा?

लेखक- धीरज कुमार

ट्रेन से उतर कर टैक्सी किया और घर पहुंच गया. महीनों बाद घर वापस आया था. मुझे व्यापार के सिलसिले में अकसर बाहर रहना पड़ता है. मैं लंबी यात्रा के कारण थका हुआ था, इसलिए आदतन सब से पहले नहाधो कर फ्रेश हुआ. तभी  पत्नी आंगन में चायनाश्ता ले आई. चाय पीते हुए मां से बातें कर रहा था. अगर मैं घर से बाहर रहूं और कुछ दिनों बाद वापस आता हूं तो  मां  घर की समस्याएं और गांवघर की दुनियाभर की बातें ले कर बैठ जाती है. यह उस की पुरानी आदत है. इसलिए कुछ उस की बातें सुनता हूं. कुछ बातों पर ध्यान नहीं देता हूं. परंतु इस प्रकार अपने गांवघर के बारे में बहुतकुछ जानकारी मिल जाती है.

मां ने बातोंबातों में बताया कि, “उस ने अपने बिसेसर चाचा की हत्या  डंडे से पीटपीट कर  कर दी है. उसे  जेल हो गई है.”

“कौन, मां, तुम किस के बारे में कह रही हो?” मैं ने हत्या और जेल के बारे में सुन कर जरा चौकन्ना होते हुए पूछा.

” घाना…ना…, घाना के बारे में बता रही हूं,” मां जोर देते हुए बोली.

” घाना ने किस की हत्या कर दिया, मां? ” मैं ने ज़रा आश्चर्य से पूछा था.

“अरे, वह अपने बिसेसर चाचा की, बउआ,” वह दृढ़ता से बोली थी.

यह सुन कर मुझे विश्वास नहीं हुआ. एक पल को लगा, शायद यह झूठ है. किंतु सच तो सच होता है न, कई दिनों तक उस के बारे में मेरे मन में विचार उमड़तेघुमड़ते रहे.

मुझे आज भी याद है. हम दोनों एकसाथ बचपन में खेलते थे. साथसाथ बगीचे से आम चुराते थे. खेतों से मटर ककी फलियां तोड़ना, एकसाथ पगडंडियों पर दौड़ना… दोनों साथ साथ खेलते हुए बड़े हुए थे.

आज मैं व्यापार के सिलसिले में अपने गांव से दूर रहता हूं और कभीकभार ही आ पाता हूं. समयाभाव के कारण मिलनाजुलना हम दोनों का कम हो गया था. किंतु आज भी हमदोनों की पटती है. जब भी मैं गांव  आता हूं, हम दोनों की घंटों बातें होती हैं.

उस के परिवार के लोगों की विसेसर चाचा से पुरानी रंजिश थी क्योंकि वे उस के गोतिया थे. मैं एक बार किसी काम से उस के घर जा रहा था. उस की चाची से उस की मां की तूतूमैंमैं हो रही थी. उस की मां जोरजोर से गालियां दे रही थी.

उस की चाची व उस की चचेरी बहनें भी उस की मां को  गालियां देने लगीं.

उस की मां  जोरजोर से चिल्लाने लगी, “दौड़ रे घाना…” इतना सुनते ही घाना अंदर से दौड़ पड़ा था. ऐसा लग रहा था, अभी वह चाची पर टूट पड़ेगा. वह भी मां की तरह से अनापशनाप बोलने लगा. मैं ने उस को डांटा और शांत किया. वह मेरी बात मानता था. मैं ने उस को समझाया, “छोटीछोटी बातों पर गुस्सा क्यों करते हो, आखिर, वह तुम्हारी चाची ही तो है.”

कुछ देर बाद मामला रफादफा हो गया था.

कुछ दिनों बाद उस ने बताया कि, “चाचा के परिवार से परेशान हो गया हूं. वे लोग जमीनजायदाद के बंटवारे को उलझा कर रखे हैं. उन्होंने बंटवारे में ज्यादा जमीन रख ली है. इसलिए हम दोनों परिवारों में झगड़ा और तनाव रहता है. वे दोबारा बंटवारे के लिए  तैयार नहीं हो रहे हैं.”

यह कहते हुए वह गंभीर हो गया था.

मैं ने उस को समझाया, “क्यों नहीं तुम लोग सहूलियत से ही  मांग लेते हो.”

“वे कभी नहीं देंगे. वे बहुत अड़ियल हैं,” वह निराश होते हुए बोला था.

वह मेरा बचपन का दोस्त था. मैं उस को भलीभांति जानता हूं. वह कभीकभी उखड़ जाता है, गुस्से पर नियंत्रण नहीं कर पाता है. परंतु वह इतना कठोर नहीं है कि हत्या जैसे अपराध में लिप्त हो जा.

गांव के लोगों से मालूम हुआ कि जब वह केस हार गया और उसे सजा मिल गई तो उस ने अपने मांबाबूजी से भी मिलने से इनकार कर दिया.

सभी लोग उसे अपराधी मान रहे थे. लेकिन मेरा मन नहीं मान रहा था. इसलिए मैं ने समय निकाल कर उस से मिलने के लिए सोचा.

मैं जेल के सामने खड़ा था. वह कुछ देर बाद  सलाखों के पीछे आ चुका था. मुझे देखते ही उस की आंखों में आंसू आ गए. उस के आंसू रुक नहीं रहे थे. मैं बारबार उसे चुप कराने की कोशिश कर रहा था.

“घाना,  मैं तुम से जानने आया हूं  कि आखिर यह सब कैसे हो गया?” मैं ने उस से सीधा सवाल किया था.

वह बहुत देर तक अपने आंसुओं पर काबू पाने की कोशिश करता रहा. जब आंसू रुके तो उस ने बोलना शुरू किया, “भैया, आप जानते हैं…”

मैं उस की उम्र से थोड़ा बड़ा हूं और गांवघर के रिश्ते में भाई भी लगता हूं, इसलिए वह मुझे भैया ही कहता है. फिर भी, वह मेरा दोस्त है.

एक बार फिर रुक कर उस ने बोला शुरू किया, “मैं गुस्से के आवेग में ऐसा कर गया. वहां मांबाबूजी और मेरी बहन  भी थी. मां मारोमारो की आवाज लगा रही थी. बहन ने आग में घी डालने का काम कर दिया. मैं आगेपीछे नहीं सोच पाया. किसी ने एक बार भी मुझ से यह नहीं कहा कि मत मारो. अगर  किसी ने एक बार भी रोका होता,  तो शायद मैं उन की हत्या न करता और कारावास का दंड न मिलता.”

मैं ने तसल्ली देने की कोशिश की, “अब जो हो गया,  हो गया. अब पछताने से कोई फायदा नहीं है.”

कुछ देर मुझ से नज़रें नहीं मिला पा रहा था वह. अपना चेहरा इधरउधर घुमा रहा था. वह स्वयं को अपराधी महसूस कर रहा था, ऐसा मुझे महसूस हो रहा था.

वह कुछ सोचते हुए अपना हाथ मलने लगा था. वह बारबार अपनी उन हथेलियों को देख रहा था जिन से उस ने हत्या की थी. भले ही वह हत्या के लिए पश्चात्ताप कर रहा था, यह बात तो स्पष्ट थी कि वह गुनाहगार और अपराधी तो बन ही गया. मैं कुछ देर तक गांवघर के बारे में इधरउधर की बातें कर उस का मन बहलाता रहा.

“मैं ने सुना है कि तुम अपने मांबाबूजी से अब नहीं मिलते हो. शायद, तुम ने  उन को मिलने से मना कर दिया है. लेकिन क्यों ?” मैं ने उस से सवाल किया.

उस का चेहरा कठोर हो गया था. उस ने बताया, “भैया, आप जानते हैं,  मांबाबूजी की आकांक्षाओं के कारण ही तो यह महाभारत हुआ है. अब मैं जिंदगीभर जेल में रहूंगा. इस के पीछे मेरे मांबाबूजी ही जिम्मेदार हैं. वे जमीन के कुछ टुकड़ों के लिए जिंदगीभर जहर भरते रहे. वे लोग एक बार भी रोके  होते तो शायद मैं  कारावास में जीवन नहीं भोगता.”

मैं सचाई सुन कर घाना के प्रति द्रवित हो रहा था. लेकिन इस परिस्थिति में मदद नहीं कर पा रहा था. मैं ने महसूस किया कि इन सहानुभूतियों का भी कोई फायदा नहीं है. मैं भारीमन से फिर मिलने का वादा कर के निकल गया.

उस ने कहा, “आते रहिएगा भैया, आप के सिवा अब मेरा कोई अपना नहीं है. अब मेरे मांबाबूजी अपने नहीं रहे जिन्होंने मुझे गुनाह के रास्ते पर धकेल दिया है.”

“ऐसा नहीं कहते मेरे भाई, वे तुम्हारे ही मांबाबूजी हैं. वे तुम्हारे ही रहेंगे,” मैं ने समझाने की कोशिश की.

उस की आंखों में घृणा और पश्चात्ताप के आंसू स्पष्ट दिख रहे थे.

मैं तो कुछ नहीं खाती

लेखक- प्रदीप मेहता

अपना देश उपवासों का देश है. हर माह, हर सप्ताह, हर रोज कोई न कोई त्योहार आते ही रहते हैं. दीपावली, होली जैसे कुछ खास त्योहारों को छोड़ दिया जाए, जिन में मिठाइयां,  चटपटे नमकीन पकवानों का छक कर उपयोग किया जाता है तो शेष त्योहारों में महिलाओं द्वारा उपवास रख कर पर्वों की इतिश्री कर दी जाती है.

कुछ उपवास तो निर्जला होते हैं. ये उपवास औरतों के लिए चुनौतीपूर्ण होते हैं. साथ ही सहनशीलता का जीताजागता उदाहरण भी हैं. आम औरतें तो बिना अन्न खाए रह सकती हैं मगर बिना पानी के रहना सच में साहस भरा कदम है. यह उपवास हरेक के बूते का रोग नहीं होता. घर में पानी से भरे मटके हों, फ्रिज में पानी से भरी ठंडी बोतलें हों, गरमी अपना रंग दिखा रही हो, गला प्यास से सूख रहा हो और निर्जला व्रत रखने वाली महिलाएं इन से अपना मुंह मोड़ लें. है न कमाल की बात. ठंडी लस्सी, शरबत, केसरिया दूध की कटोरी को छूना तो दूर वे इस सुगंधित स्वादिष्ठ पेय की ओर देखती तक नहीं हैं. धन्य है आर्य नारी, सच में ऐसी त्यागमयी मूर्ति की चरण वंदना करने को मन करता है.

ऐसा निर्जला उपवास करने वाली औरतों की संख्या उंगलियों पर होती है मगर खापी कर उपवास करने वाली घरेलू औरतें हर घर में मिल जाती हैं जो परिवार के स्वास्थ्य, सुखसमृद्धि के लिए गाहे- बगाहे उपवास करती रहती हैं. उपवास के नाम पर वे अन्न त्याग करने में अपनी जबरदस्त आस्था रखती हैं.

प्रात:काल स्नान कर घोषणा करती हैं कि उन का आज उपवास है. वह अन्न ग्रहण नहीं करेंगी. मगर फलाहार के नाम पर सब चलता है. मौसमी फलों की टोकरियां इस बात का प्रमाण होती हैं कि परिवार की महिलाएं कितनी सात्विक हैं. श्रद्धालु हैं, त्यागी हैं.

ऐसे तीजत्योहार में वे अनाज की ओर देखती तक नहीं हैं. बस, फल के नाम पर कुछ केले खा लिए. पपीता या चीकू की कुछ फांकें डकार लीं. कोई पूछता तो गंभीरता से कहती, ‘‘मैं तो कुछ खाती नहीं बस, थोड़े से भुने काजू ले लिए. कुछ दाने किशमिश, बादाम चबा लिए. विश्वास मानिए, मैं तो कुछ खाती नहीं. खापी कर उपवास किया तो उपवास का मतलब ही क्या रह गया.’’

‘‘आप सच कहती हैं, बहनजी. स्वास्थ्य की दृष्टि से सप्ताह में एक दिन तो अन्न छोड़ ही देना चाहिए. क्या फर्क पड़ता है यदि हम एक दिन अनाज न खाएं?’’ एक ही थैली की चट्टीबट्टी दूसरी महिला ने हां में हां मिलाते हुए कहा.

उपवास वाले दिन परिवार का बजट लड़खड़ा कर औंधेमुंह गिर जाता है. सिंघाड़े की सेव कड़ाही के तेल में तली जाने लगती है. कद्दू की खीर शुद्ध दूध में बनाई जाने लगती है. फलाहारी व्यंजन के नाम पर राजगीरा के बादशाही रोल्स बनने लगते हैं. फलाहार का दिन हो और किचन में सतरंगी चिवड़ा न बने, ऐसा कैसे हो सकता है? फलाहारी पकवान ही तो संभ्रांत महिलाओं को उपवास करने के लिए प्रेरित करते रहते हैं.

नएनए फलाहारी पकवान सुबह से दोपहर तक बनते रहते हैं. घरेलू औरतों के मुंह चलते रहते हैं. पड़ोस में फलाहारी पकवानों की डिश एक्सचेंज होती रहती हैं. एकदूसरे की रेसिपी की जी खोल कर प्रशंसा होती है, ‘‘बड़ा गजब का टेस्ट है. आप ने स्वयं घर पर बनाया है न?’’ एक उपवासव्रता नारी पूछती है.

‘‘नहीं, बहनजी, आजकल तो नएनए व्यंजनों की विधियां पत्रपत्रिकाओं में हर माह प्रकाशित होती रहती हैं. अखबारों के संडे एडीशन तो रंगीन चित्रों के साथ रेसिपीज से पटे रहते हैं. इसी बहाने हम लोग किचन में व्यस्त रहती हैं. आप को बताऊं हर टीवी चैनल वाले दोपहर को किचन टिप्स के नाम पर व्यंजन प्रतियोगिताएं आयोजित करते रहते हैं. ऊपर से पुरस्कारों की भी व्यवस्था रहती है. हम महिलाओं के लिए दोपहर का समय बड़े आराम से व्यंजन बनाने की विधियां देखने में बीत जाता है.

‘‘मैं तो कहती हूं, अच्छा भी है जो ऐसे रोचक व उपयोगी कार्यक्रम हमें व्यस्त रखते हैं, नहीं तो आपस में एकदूसरे की आलोचना कर हम टाइम पास करती रहती थीं. जब से मैं ने व्यंजन संबंधी कार्यक्रम टीवी पर देखने शुरू किए हैं विश्वास मानिए, पड़ोसियों से बिगड़े रिश्ते मधुर होने लगे हैं. मैं भी उपवास के नाम पर अब किचन में नएनए प्रयोग करती रहती हूं ताकि स्वादिष्ठ फलाहारी व्यंजन बनाए जा सकें.’’

विशेष पर्वों पर फलाहारी व्यंजन के कारण बाजार में सिंघाड़े, मूंगफली, राजगिरा, सूखे मेवे, तिल, साबूदाना और आलू जैसी फलाहारी वस्तुओं के भाव आसमान छूने लगते हैं. उपवास की आड़ में तेल की धार घर में बहने लगती है. नए परिधान में चहकती हुई महिलाएं जब उपवास के नाम पर फलाहारी वस्तुएं ग्रहण करती हैं, सच में वे काफी सौम्य लगती हैं. उन का दमकता चेहरा दर्शाता है कि उपवास रहने में सच संतोष व आनंद की अनुभूति होती है. बस, दुख इसी बात का रहता है कि हर नए व्यंजन का निराला स्वाद चटखारे के साथ लेते हुए कहती रहती हैं, ‘‘मैं तो कुछ खाती नहीं.’’

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