सूना आसमान: अमिता ने क्यों कुंआरी रहने का फैसला लिया

अमिता जब छोटी थी तो मेरे साथ खेलती थी. मुझे पता नहीं अमिता के पिता क्या काम करते थे, लेकिन उस की मां एक घरेलू महिला थीं और मेरी मां के पास लगभग रोज ही आ कर बैठती थीं. जब दोनों बातों में मशगूल होती थीं तो हम दोनों छोटे बच्चे कभी आंगन में धमाचौकड़ी मचाते तो कभी चुपचाप गुड्डेगुडि़या के खेल में लग जाते थे.

धीरेधीरे परिस्थितियां बदलने लगीं. मेरे पापा ने मुझे शहर के एक बहुत अच्छे पब्लिक स्कूल में डाल दिया और मैं स्कूल जाने लगा. उधर अमिता भी अपने परिवार की हैसियत के मुताबिक स्कूल में जाने लगी थी. रोज स्कूल जाना, स्कूल से आना और फिर होमवर्क में जुट जाना. बस, इतवार को वह अपनी मां के साथ नियमित रूप से मेरे घर आती, तब हम दोनों सारा दिन खेलते और मस्ती करते.

हाईस्कूल के बाद जीवन पूरी तरह से बदल गया. कालेज में मेरे नए दोस्त बन गए, उन में लड़कियां भी थीं. अमिता मेरे जीवन से एक तरह से निकल ही गई थी. बाहर से आने पर जब मैं अमिता को अपनी मां के पास बैठा हुआ देखता तो बस, एक बार मुसकरा कर उसे देख लेता. वह हाथ जोड़ कर नमस्ते करती, तो मुझे वह किसी पौराणिक कथा के पात्र सी लगती. इस युग में अमिता जैसी सलवारकमीज में ढकीछिपी लड़कियों की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता था. अमिता खूबसूरत थी, लेकिन उस की खूबसूरती के प्रति मन में श्रद्धाभाव होते थे, न कि उस के साथ चुहलबाजी और मौजमस्ती करने का मन होता था.

वह जब भी मुझे देखती तो शरमा कर अपना मुंह घुमा लेती और फिर कनखियों से चुपकेचुपके मुसकराते हुए देखती. दिन इसी तरह बीत रहे थे.

फिर मैं ने नोएडा के एक कालेज में बीटैक में दाखिला ले लिया और होस्टल में रहने लगा. केवल लंबी छुट्टियों में ही घर जाना हो पाता था. जब हम घर पर होते थे, तब अमिता कभीकभी हमारे यहां आती थी और दूर से ही शरमा कर नमस्ते कर देती थी, लेकिन उस के साथ बातचीत करने का मुझे कोई मौका नहीं मिलता था. उस से बात करने का मेरे पास कोई कारण भी नहीं था. ज्यादा से ज्यादा, ‘कैसी हो, क्या कर रही हो आजकल?’ पूछ लेता. पता चला कि वह किसी कालेज से बीए कर रही थी. बीए करने के बावजूद वह अभी तक सलवारकमीज में लिपटी हुई एक खूबसूरत गुडि़या की तरह लगती थी. लेकिन मुझे तो जींसटौप में कसे बदन और दिलकश उभारों वाली लड़कियां पसंद थीं. उस की तमाम खूबसूरती के बावजूद, संस्कारों और शालीन चरित्र से मुझे वह प्राचीनकाल की लड़की लगती थी.

गरमी की एक उमसभरी दोपहर थी. मैं अपने कमरे में एसी की ठंडी हवा लेता हुआ एक उपन्यास पढ़ने में व्यस्त था, तभी दरवाजे पर एक हलकी थाप पड़ी. मैं चौंक गया और लेटेलेटे ही पूछा, ‘‘कौन?’’

‘‘मैं, एक मीठी आवाज कानों में पड़ी. मैं पहचान गया, अमिता की आवाज थी, मैं ने कहा, आ जाओ, दरवाजे की सिटकिनी नहीं लगी है.’’

‘‘हां,’’ उस का सिर झुका हुआ था, आंखें उठा कर उस ने एक बार मेरी तरफ देखा. उस की आंखों में एक अनोखी कशिश थी, जो सामने वाले को अपनी तरफ आकर्षित कर रही थी. उस का चेहरा भी दमक रहा था. वह बहुत ही खूबसूरत लग रही थी. उस के नैनन बहुत सुंदर थे. मैं एक पल के लिए देखता ही रह गया और मेरे हृदय में एक कसक सी उठतेउठते रह गई.

‘‘तुम…अचानक…इतनी दोपहर को? कोईर् काम है?’’ मैं उस के सौंदर्य से अभिभूत होता हुआ बिस्तर पर बैठ गया. पहली बार वह मुझे इतनी सुंदर और आकर्षक लगी थी.

वह शरमातीसकुचाती सी थोड़ा आगे बढ़ी और अपने हाथों को आगे बढ़ाती हुई बोली, ‘‘मिठाई लीजिए.’’

‘‘मिठाई?’’

‘‘हां, आज मेरा जन्मदिन है. मां ने मिठाई भिजवाई है,’’ उस ने सिर झुकाए हुए ही कहा.

‘‘अच्छा, बधाई हो,’’ मैं ने उस के हाथों से मिठाई ले ली.

मैं उस वक्त कमरे में अकेला था और एक जवान लड़की मेरे साथ थी. कोई देखता तो क्या समझता. मेरा ध्यान भी उपन्यास में लगा हुआ था. कहानी एक रोचक मोड़ पर पहुंच चुकी थी. ऐसे में अमिता ने आ कर अनावश्यक व्यवधान पैदा कर दिया था. अत: मैं चाहता था कि वह जल्दी से जल्दी मेरे कमरे से चली जाए. लेकिन वह खड़ी ही रही. मैं ने प्रश्नवाचक भाव से उसे देखा.

‘‘क्या मैं बैठ जाऊं?’’ उस ने एक कुरसी की तरफ इशारा करते हुए कहा.

‘‘हां…’’ मेरी हैरानी बढ़ती जा रही थी. मेरे दिल में धुकधुकी पैदा हो गई. क्या अमिता किसी खास मकसद से मेरे कमरे में आई थी? उस की आंखें याचक की भांति मेरी आंखों से टकरा गईं और मैं द्रवित हो उठा. पता नहीं, उस की आंखों में क्या था कि डरने के बावजूद मैं ने उस से कह दिया, ‘‘हांहां, बैठो,’’ मेरी आवाज में अजीब सी बेचैनी थी.

कुरसी पर बैठते हुए उस ने पूछा, ‘‘क्या आप को डर लग रहा है?’’

‘‘नहीं, क्या तुम डर रही हो?’’ मैं ने अपने को काबू में करते हुए कहा.

‘‘मैं क्यों डरूंगी? आप से क्या डरना?’’ उस ने आत्मविश्वास से कहा.

‘‘डरने की बात नहीं है? चारों तरफ सन्नाटा है. दूरदूर तक किसी की आवाज सुनाई नहीं पड़ रही. भरी दोपहर में लोग अपनेअपने घरों में बंद हैं. ऐसे में एक सूने कमरे में एक जवान लड़की किसी लड़के के साथ अकेली हो तो क्या उसे डर नहीं लगेगा?’’

वह हंसते हुए बोली, ‘‘इस में डरने की क्या बात है? मैं आप को अच्छी तरह जानती हूं. आप भी तो कालेज में लड़कियों के साथ उठतेबैठते हैं, उन के साथ घूमतेफिरते हो. रेस्तरां और पार्क में जाते हो, तो क्या वे लड़कियां आप से डरती हैं?’’

मैं अमिता के इस रहस्योद्घाटन पर हैरान रह गया. कितनी साफगोई से वह यह बात कह रही थी. मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे मालूम कि हम लोग लड़कियों के साथ घूमतेफिरते हैं और मौजमस्ती करते हैं?’’

‘‘अब मैं इतनी भोली भी नहीं हूं. मैं भी कालेज में पढ़ती हूं. क्या मुझे नहीं पता कि किस प्रकार युवकयुवतियां एकदूसरे के साथ घूमते हैं और आपस में किस प्रकार का व्यवहार करते हैं?’’

‘‘लेकिन वे युवतियां हमारी दोस्त होती हैं और तुम…’’ मैं अचानक चुप हो गया. कहीं अमिता को बुरा न लग जाए. अफसोस हुआ कि मैं ने इस तरह की बात कही. आखिर अमिता मेरे लिए अनजान नहीं थी. बचपन से हम एकदूसरे को जानते हैं. जवानी में भले ही आत्मीयता या निकटता न रही हो, लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि वह मुझ से मिल नहीं सकती थी.

अमिता को शायद मेरी बात बुरी लगी. वह झटके से उठती हुई बोली, ‘‘अब मैं चलूंगी वरना मां चिंतित होंगी,’’ उस की आवाज भीगी सी लगी. उस ने दुपट्टा अपने मुंह में लगा लिया और तेजी से कमरे से बाहर भाग गई. मैं ने स्वयं से कहा, ‘‘मूर्ख, तुझे इतना भी नहीं पता कि लड़कियों से किस तरह पेश आना चाहिए. वे फूल की तरह कोमल होती हैं. कोई भी कठिन बात बरदाश्त नहीं कर सकतीं.’’

फिर मैं ने झटक कर अपने मन से यह बात निकाल दी, ‘‘हुंह, मुझे अमिता से क्या लेनादेना? बुरा मानती है तो मान जाए. मुझे कौन सा उस के साथ रिश्ता जोड़ना है. न वह मेरी प्रेमिका है, न दोस्त.’’

उन दिनों घर में बड़ी बहन की शादी की बातें चल रही थीं. वह बीए करने के बाद एक औफिस में स्टैनो हो गई थी. दूसरी बहन बीए करने के बाद प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी और सिविल सर्विसेज में जाने की इच्छुक थी. एक कोचिंग क्लास भी जौइन कर रखी थी. सब के साथ शाम की चाय पीने तक मैं अमिता के बारे में बिलकुल भूल चुका था. चाय पीने के बाद मैं ने अपनी मोटरसाइकिल उठाई और यारदोस्तों से मिलने के लिए निकल पड़ा.

मैं दोस्तों के साथ एक रेस्तरां में बैठ कर लस्सी पीने का मजा ले रहा था कि तभी मेरे मोबाइल पर निधि का फोन आया. वह मेरे साथ इंटरमीडिएट में पढ़ती थी और हम दोनों में अच्छी जानपहचान ही नहीं आत्मीयता भी थी. मेरे दोस्तों का कहना था कि वह मुझ पर मरती है, लेकिन मैं इस बात को हंसी में उड़ा देता था. वह हमारी गंभीर प्रेम करने की उमर नहीं थी और मैं इस तरह का कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता था. मेरे मम्मीपापा की मुझ से कुछ अपेक्षाएं थीं और मैं उन अपेक्षाओं का खून नहीं कर सकता था. अत: निधि के साथ मेरा परिचय दोस्ती तक ही कायम रहा. उस ने कभी अपने पे्रम का इजहार भी नहीं किया और न मैं ने ही इसे गंभीरता से लिया.

इंटर के बाद मैं नोएडा चला गया, तो उस ने भी मेरे नक्शेकदम पर चलते हुए गाजियाबाद के एक प्रतिष्ठान में बीसीए में दाखिला ले लिया. उस ने एक दिन मिलने पर कहा था, ‘‘मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाली.’’

‘‘अच्छा, कहां तक?’’ मैं ने हंसते हुए कहा था.

‘‘जहां तक तुम मेरा साथ दोगे.’’

‘‘अगर मैं तुम्हारा साथ अभी छोड़ दूं तो?’’

‘‘नहीं छोड़ पाओगे. 3 साल से तो हम आसपास ही हैं. न चाहते हुए भी मैं तुम से मिलने आऊंगी और तुम मना नहीं कर पाओगे. यहां से जाने के बाद क्या होगा, न तुम जानते हो, न मैं. मैं तो बस इतना जानती हूं, अगर तुम मेरा साथ दोगे, तो हम जीवनभर साथ रह सकते हैं.’’

मैं बात को और ज्यादा गंभीर नहीं करना चाहता था. बीटैक का वह मेरा पहला ही साल था. वह भी बीसीए के पहले साल में थी. प्रेम करने के लिए हम स्वतंत्र थे. हम उस उम्र से भी गुजर रहे थे, जब मन विपरीत सैक्स के प्रति दौड़ने लगता है और हम न चाहते हुए भी किसी न किसी के प्यार में गिरफ्तार हो जाते हैं. हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते थे.

वह मुझे अच्छी लगती थी, उस का साथ अच्छा लगता था. वह नए जमाने के अनुसार कपड़े भी पहनती थी. उस का शारीरिक गठन आकर्षक था. उस के शरीर का प्रत्येक अंग थिरकता सा लगता. वह ऐसी लड़की थी, जिस का प्यार पाने के लिए कोई भी लड़का कुछ भी उत्सर्ग कर सकता था, लेकिन मैं अभी पे्रम के मामले में गंभीर नहीं था, अत: बात आईगई हो गई. लेकिन हम दोनों अकसर ही महीने में एकाध बार मिल लिया करते थे और दिल्ली जा कर किसी रेस्तरां में बैठ कर चायनाश्ता करते थे, सिनेमा देखते थे और पार्क में बैठ कर अपने मन को हलका करते थे.

तब से अब तक 2 साल बीत चुके थे. अगले साल हम दोनों के ही डिग्री कोर्स समाप्त हो जाएंगे, फिर हमें जौब की तलाश करनी होगी. हमारा जौब हमें कहां ले जाएगा, हमें पता नहीं था.

मैं ने फोन औन कर के कहा, ‘‘हां, निधि, बोलो.’’

‘‘क्या बोलूं, तुम से मिलने का मन कर रहा है. तुम तो कभी फोन करोगे नहीं कि मेरा हालचाल पूछ लो. मैं ही तुम्हारे पीछे पड़ी रहती हूं. क्या कर रहे हो?’’ उधर से निधि ने जैसे शिकायत करते हुए कहा. उस की आवाज में बेबसी थी और मुझ से मिलने की उत्कंठा… लगता था, वह मेरे प्रति गंभीर होती जा रही थी.

मैं ने सहजता से कहा, ‘‘बस, दोस्तों के साथ गपें लड़ा रहा हूं.’’

‘‘क्या बेवजह समय बरबाद करते फिरते हो.’’

‘‘तो तुम्हीं बताओ, क्या करूं?’’

‘‘मैं तुम से मिलने आ रही हूं, कहां मिलोगे?’’

मैं दोस्तों के साथ था. थोड़ा असहज हो कर बोला, ‘‘मेरे दोस्त साथ हैं. क्या बाद में नहीं मिल सकते?’’

‘‘नहीं, मैं अभी मिलना चाहती हूं. उन से कोई बहाना बना कर खिसक आओ. मैं अभी निकलती हूं. रामलीला मैदान के पास आ कर मिलो,’’ वह जिद पर अड़ी हुई थी.

दोस्त मुझे फोन पर बातें करते देख कर मुसकरा रहे थे. वे सब समझ रहे थे. मैं ने उन से माफी मांगी, तो उन्होंने उलाहना दिया कि प्रेमिका के लिए दोस्तों को छोड़ रहा है. मैं खिसियानी हंसी हंसा, ‘‘नहीं यार, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ फिर बिना कोई जवाब दिए चला आया. रामलीला मैदान पहुंचने के 10 मिनट बाद निधि वहां पहुंची. वह रिकशे से आई थी. मैं ने उपेक्षित भाव से कहा, ‘‘ऐसी क्या बात थी कि आज ही मिलना जरूरी था. दोस्त मेरा मजाक उड़ा रहे थे.’’

उस ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘सौरी अनुज, लेकिन मैं अपने मन को काबू में नहीं रख सकी. आज पता नहीं दिल क्यों इतना बेचैन था. सुबह से ही तुम्हारी बहुत याद आ रही थी.’’

‘‘अच्छा, लगता है, तुम मेरे बारे में कुछ अधिक ही सोचने लगी हो.’’

हम दोनों मोटरसाइकिल के पास ही खड़े थे. उस ने सिर नीचा करते हुए कहा, ‘‘शायद यही सच है. लेकिन अपने मन की बात मैं ही समझ सकती हूं. अब तो पढ़ने में भी मेरा मन नहीं लगता, बस हर समय तुम्हारे ही खयाल मन में घुमड़ते रहते हैं.’’

मैं सोच में पड़ गया. ये अच्छे लक्षण नहीं थे. मेरी उस के साथ दोस्ती थी, लेकिन उस को प्यार करने और उस के साथ शादी कर के घर बसाने के बारे में मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

‘‘निधि, यह गलत है. अभी हमें पढ़ाई समाप्त कर के अपना कैरियर बनाना है. तुम अपने मन को काबू में रखो,’’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘मैं अपने मन को काबू में नहीं रख सकती. यह तुम्हारी तरफ भागता है. अब सबकुछ तुम्हारे हाथ में है. मैं सच कहती हूं, मैं तुम्हें प्यार करने लगी हूं.’’

मैं चुप रहा. उस ने उदासी से मेरी तरफ देखा. मैं ने नजरें चुरा लीं. वह तड़प उठी, ‘‘तुम मुझे छोड़ तो नहीं दोगे?’’

मैं हड़बड़ा गया. मोटरसाइकिल स्टार्ट करते हुए मैं ने कहा, ‘‘चलो, पीछे बैठो,’’ वह चुपचाप पीछे बैठ गई. मैं ने फर्राटे से गाड़ी आगे बढ़ाई. मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि ऐसे मौके पर कैसे रिऐक्ट करूं? निधि ने बड़े आराम से बीच सड़क पर अपने प्यार का इजहार कर दिया था. न उस ने वसंत का इंतजार किया, न फूलों के खिलने का और न चांदनी रात का… न उस ने मेरे हाथों में अपना हाथ डाला, न चांद की तरफ इशारा किया और न शरमा कर अपने सिर को मेरे कंधे पर रखा.

बड़ी शालीनता से उस ने अपने प्यार का इजहार कर दिया. मुझे बड़ा अजीब सा लगा कि यह कैसा प्यार था, जिस में प्रेमी के दिल में प्रेमिका के लिए कोई प्यार की धुन नहीं बजी.

एक अच्छे से रेस्तरां के एक कोने में बैठ कर मैं ने बिना उस की ओर देखे कहा, ‘‘प्यार तो मैं कर सकता हूं, पर इस का अंत क्या होगा?’’ मेरी आवाज से ऐसा लग रहा था, जैसे मैं उस के साथ कोई समझौता करने जा रहा था.

‘‘प्यार के परिणाम के बारे में सोच कर प्यार नहीं किया जाता. तुम मुझे अच्छे लगते हो, तुम्हारे बारे में सोचते हुए मेरा दिल धड़कने लगता है, तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मधुर संगीत घोलती है, तुम से मिलने के लिए मेरा मन बेचैन रहता है. बस, मैं समझती हूं, यही प्यार है,’’ उस ने अपना दायां हाथ मेरे कंधे पर रख दिया और बाएं हाथ से मेरा सीना सहलाने लगी.

मैं सिकुड़ता हुआ बोला, ‘‘हां, प्यार तो यही है, लेकिन मैं अभी इस मामले में गंभीर नहीं हूं.’’

‘‘कोईर् बात नहीं, जब रोजरोज मुझ से मिलोगे तो एक दिन तुम को भी मुझ से प्यार हो जाएगा. मैं जानती हूं, तुम मुझे नापसंद नहीं करते,’’ वह मेरे साथ जबरदस्ती कर रही थी.

क्या पता, शायद एक दिन मुझे भी निधि से प्यार हो जाए. निधि को अपने ऊपर विश्वास था, लेकिन मुझे अपने ऊपर नहीं… फिर भी समय बलवान होता है. एकदो साल में क्या होगा, कौन क्या कह सकता है?

इसी तरह एक साल बीत गया. निधि से हर सप्ताह मुलाकात होती. उस के प्यार की शिद्दत से मैं भी पिघलने लगा था और दोनों चुंबक की तरह एकदूसरे को अपनी तरफ खींच रहे थे. इस में कोई शक नहीं कि निधि के प्यार में तड़प और कसमसाहट थी. मेरे मन में चोर था और मैं दुविधा में था कि मैं इस संबंध को लंबे अरसे तक खींच पाऊंगा या नहीं, क्योंकि भविष्य के प्रति मैं आश्वस्त नहीं था.

एक साल बाद हमारे डिग्री कोर्स समाप्त हो गए. परीक्षा के बाद फिर से गरमी की छुट्टियां. मैं अपने शहर आ गया. छुट्टियों में निधि से रोज मिलना होता, लेकिन इस बार अपने घर आ कर मैं कुछ बेचैन सा रहने लगा था. पता नहीं, वह क्या चीज थी, मैं समझ ही नहीं पा रहा था. ऐसा लगता था, जैसे मेरे जीवन में किसी चीज का अभाव था. वह क्या चीज थी, लाख सोचने के बावजूद मैं समझ नहीं पा रहा था. निधि से मिलता तो कुछ पल के लिए मेरी बेचैनी दूर हो जाती, लेकिन घर आते ही लगता मैं किसी भयानक वीराने में आ फंसा हूं और वहां से निकलने का कोई रास्ता मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा.

अचानक एक दिन मुझे अपनी बेचैनी का कारण समझ में आ गया. उस दिन मैं जल्दी घर लौटा था. मां आंगन में अमिता की मां के साथ बैठी बातें कर रही थीं. अमिता की मां को देखते ही मेरा दिल अनायास ही धड़क उठा, जैसे मैं ने बरसों पूर्व बिछड़े अपने किसी आत्मीय को देख लिया हो. मुझे तुरंत अमिता की याद आई, उस का भोला मुखड़ा याद आया. उस के चेहरे की स्निग्धता, मधुर सौंदर्य, बड़ीबड़ी मुसकराती आंखें और होंठों को दबा कर मुसकराना सभी कुछ याद आया. मेरा दिल और तेजी से धड़क उठा. मेरे पैर जैसे वहीं जकड़ कर रह गए. मैं ने कातर भाव से अमिता की मां को देखा और उन्हें नमस्कार करते हुए कहा, ‘‘चाची, आजकल आप दिखाई नहीं पड़ती हैं?’’ वास्तव में मैं पूछना चाहता था कि आजकल अमिता दिखाई नहीं पड़ती.

मुझे अपनी बेचैनी का कारण पता चल गया था, लेकिन मैं उस का निवारण नहीं कर सकता था. अमिता की मां ने कहा, ‘‘अरे, बेटा, मैं तो लगभग रोज ही आती हूं. तुम ही घर पर नहीं रहते.’’

मैं शर्मिंदा हो गया और झेंप कर दूसरी तरफ देखने लगा. मेरी मां मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘लगता है, यह तुम्हारे बहाने अमिता के बारे में पूछ रहा है. उस से इस बार मिला कहां है?’’ मां मेरे दिल की बात समझ गई थीं.

अमिता की मां भी हंस पड़ीं, ‘‘तो सीधा बोलो न बेटा, मैं तो उस से रोज कहती हूं, लेकिन पता नहीं उसे क्या हो गया है कि कहीं जाने का नाम ही नहीं लेती. पिछले एक साल से बस पढ़ाई, सोना और कालेज… कहती है, अंतिम वर्ष है, ठीक से पढ़ाई करेगी तभी तो अच्छे नंबरों से पास होगी.’’

‘‘लेकिन अब तो परीक्षा समाप्त हो गई है,’’ मेरी मां कह रही थीं. मैं धीरेधीरे अपने कमरे की तफ बढ़ रहा था, लेकिन उन की बातें मुझे पीछे की तरफ खींच रही थीं. दिल चाहता था कि रुक कर उन की बातें सुनूं और अमिता के बारे में जानूं, पर संकोच और लाजवश मैं आगे बढ़ता जा रहा था. कोई क्या कहेगा कि मैं अमिता के प्रति दीवाना था…

‘‘हां, परंतु अब भी वह किताबों में ही खोई रहती है,’’ अमिता की मां बता रही थीं.

आगे की बातें मैं नहीं सुन सका. मेरे मन में तड़ाक से कुछ टूट गया. मैं जानता था कि अमिता मेरे घर क्यों नहीं आ रही थी. उस दिन की मेरी बात, जब वह मेरे कमरे में मिठाई देने के बहाने आई थी, उस के दिल में उतर गई थी और आज तक उसे गांठ बांध कर रखा था. मुझे नहीं पता था कि वह इतनी जिद्दी और स्वाभिमानी लड़की है. बचपन में तो वह ऐसी नहीं थी.

अब मैं फोन पर निधि से बात करता तो खयालों में अमिता रहती, उस का मासूम और सुंदर चेहरा मेरे आगे नाचता रहता और मुझे लगता मैं निधि से नहीं अमिता से बातें कर रहा हूं. मुझे उस का इंतजार रहने लगा, लेकिन मैं जानता था कि अब अमिता मेरे घर कभी नहीं आएगी. एक साल हो गया था, आज तक वह नहीं आई तो अब क्या आएगी? उसे क्या पता कि मैं अब उस का इंतजार करने लगा था. मेरी बेबसी और बेचैनी का उसे कभी पता नहीं चल सकता था. मुझे ही कुछ  करना पड़ेगा वरना एक अनवरत जलने वाली आग में मैं जल कर मिट जाऊंगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा.

मैं अमिता के घर कभी नहीं गया था, लेकिन बहुत सोचविचार कर एक दिन मैं उस के घर पहुंच ही गया. दरवाजे की कुंडी खटखटाते ही मेरे मन को एक अनजाने भय ने घेर लिया. इस के बावजूद मैं वहां से नहीं हटा. कुछ देर बाद दरवाजा खुला तो अमिता की मां सामने खड़ी थीं. वे मुझे देख कर हैरान रह गईं. अचानक उन के मुंह से कोई शब्द नहीं निकला. मैं ने अपने दिल की धड़कन को संभालते हुए उन्हें नमस्ते किया और कहा, ‘‘क्या मैं अंदर आ जाऊं?’’

‘‘आं… हांहां,’’ जैसे उन्हें होश आया हो, ‘‘आ जाओ, अंदर आ जाओ,’’ अंदर घुस कर मैं ने चारों तरफ नजर डाली. साधारण घर था, जैसा कि आम मध्यवर्गीय परिवार का होता है. आंगन के बीच खड़े हो कर मैं ने अमिता के घर को देखा, बड़ा खालीखाली और वीरान सा लग रहा था. मैं ने एक गहरी सांस ली और प्रश्नवाचक भाव से अमिता की मां को देखा, ‘‘सब लोग कहीं गए हुए हैं क्या,’’ मैं ने पूछा.

अमिता की मां की समझ में अभी तक नहीं आ रहा था कि वह क्या जवाब दें. मेरा प्रश्न सुन कर वे बोलीं, ‘‘हां, बस अमिता है, अपने कमरे में. अच्छा, तुम बैठो. मैं उसे बुलाती हूं,’’ उन्होंने हड़बड़ी में बरामदे में रखे तख्त की तरफ इशारा किया. तख्त पर पुराना गद्दा बिछा हुआ था, शायद रात को उस पर कोई सोता होगा. मैं ने मना करते हुए कहा, ‘‘नहीं, रहने दो. मैं उस के कमरे में ही जा कर मिल लेता हूं. कौन सा कमरा है?’’

अब तक शायद हमारी बातचीत की आवाज अमिता के कानों तक पहुंच चुकी थी. वह उलझी हुई सी अपने कमरे से बाहर निकली और फटीफटी आंखों से मुझे देखने लगी. वह इतनी हैरान थी कि नमस्कार करना तक भूल गई. मांबेटी की हैरानगी से मेरे दिल को थोड़ा सुकून पहुंचा और अब तक मैं ने अपने धड़कते दिल को संभाल लिया था. मैं मुसकराने लगा, तो अमिता ने शरमा कर अपना सिर झुका लिया, बोली कुछ नहीं. मैं ने देखा, उस के बाल उलझे हुए थे, सलवारकुरते में सिलवटें पड़ी हुई थीं. आंखें उनींदी सी थीं, जैसे उसे कई रातों से नींद न आई हो. वह अपने प्रति लापरवाह सी दिख रही थी.

‘‘बैठो, बेटा. मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं? तुम पहली बार मेरे घर आए हो,’’ अमिता की मां ऐसे कह रही थीं, जैसे कोई बड़ा आदमी उन के घर पर पधारा हो.

मैं कुछ नहीं बोला और मुसकराता रहा. अमिता ने एक बार फिर अपनी नजरें उठा कर गहरी निगाह से मुझे देखा. उस की आंखों में एक प्रश्न डोल रहा था. मैं तुरंत उस का जवाब नहीं दे सकता था. उस की मां के सामने खुल कर बात भी नहीं कर सकता था. मैं चुप रहा तो शायद वह मेरे मन की बात समझ गई और धीरे से बोली, ‘‘आओ, मेरे कमरे में चलते हैं. मां, आप तब तक चाय बना लो,’’ अंतिम वाक्य उस ने अपनी मां से कुछ जोर से कहा था.

हम दोनों उस के कमरे में आ गए. उस ने मुझे अपने बिस्तर पर बैठा दिया, पर खुद खड़ी रही. मैं ने उस से बैठने के लिए कहा तो उस ने कहा, ‘‘नहीं, मैं ऐसे ही ठीक हूं,’’ मैं ने उस के कमरे में एक नजर डाली. पढ़ने की मेजकुरसी के अलावा एक साधारण बिस्तर था, एक पुरानी स्टील की अलमारी और एक तरफ हैंगर में उस के कपड़े टंगे थे. कमरा साफसुथरा था और मेज पर किताबों का ढेर लगा हुआ था, जैसे अभी भी वह किसी परीक्षा की तैयारी कर रही थी. छत पर एक पंखा हूम्हूम् करता हुआ हमारे विचारों की तरह घूम रहा था.

मैं ने एक गहरी सांस ली और अमिता को लगभग घूर कर देखता हुआ बोला, ‘‘क्या तुम मुझ से नाराज हो?’’ मैं बहुत तेजी से बोल रहा था. मेरे पास समय कम था, क्योंकि किसी भी क्षण उस की मां कमरे में आ सकती थीं और मुझे काफी सारे सवालों के जवाब अमिता से चाहिए थे.

वह कुछ नहीं बोली, बस सिर नीचा किए खड़ी रही. मैं ने महसूस किया, उस के होंठ हिल रहे थे, जैसे कुछ कहने के लिए बेताब हों, लेकिन भावातिरेक में शब्द मुंह से बाहर नहीं निकल पा रहे थे. मैं ने उस का उत्साह बढ़ाते हुए कहा, ‘‘देखो, अमिता, मेरे पास समय कम है और तुम्हारे पास भी… मां घर पर हैं और हम खुल कर बात भी नहीं कर सकते, जो मैं पूछ रहा हूं, जल्दी से उस का जवाब दो, वरना बाद में हम दोनों ही पछताते रह जाएंगे. बताओ, क्या तुम मुझ से नाराज हो?’’

‘‘नहीं, उस ने कहा, लेकिन उस की आवाज रोती हुई सी लगी.’’

‘‘तो, तुम मुझे प्यार करती हो? मैं ने स्पष्ट करना चाहा. कहते हुए मेरी आवाज लरज गई और दिल जोरों से धड़कने लग गया. लेकिन अमिता ने मेरे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया, शायद उस के पास शब्द नहीं थे. बस, उस का बदन कांप कर रह गया. मैं समझ गया.’’

‘‘तो फिर तुम ने हठ क्यों किया? अपना मान तोड़ कर एक बार मेरे पास आ जाती, मैं कोई अमानुष तो नहीं हूं. तुम थोड़ा झुकती, तो क्या मैं पिघल नहीं जाता?’’

वह फिर एक बार कांप कर रह गई. मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘मेरी तरफ नहीं देखोगी?’’ उस ने तड़प कर अपना चेहरा उठाया. उस की आंखें भीगी हुई थीं और उन में एक विवशता झलक रही थी. यह कैसी विवशता थी, जो वह बयान नहीं कर सकती थी? मुझे उस के ऊपर दया आई और सोचा कि उठ कर उसे अपने अंक में समेट लूं, लेकिन संकोचवश बैठा रहा.

उस की मां एक गिलास में पानी ले कर आ गई थीं. मुझे पानी नहीं पीना था, फिर भी औपचारिकतावश मैं ने गिलास हाथ में ले लिया और एक घूंट भर कर गिलास फिर से ट्रे में रख दिया. मां भी वहीं सामने बैठ गईं और इधरउधर की बातें करने लगीं. मुझे उन की बातों में कोई रुचि नहीं थी, लेकिन उन के सामने मैं अमिता से कुछ पूछ भी नहीं सकता था.

उस की मां वहां से नहीं हटीं और मैं अमिता से आगे कुछ नहीं पूछ सका. मैं कितनी देर तक वहां बैठ सकता था, आखिर मजबूरन उठना पड़ा, ‘‘अच्छा चाची, अब मैं चलता हूं.’’

‘‘अच्छा बेटा,’’ वे अभी तक नहीं समझ पाई थीं कि मैं उन के घर क्यों आया था. उन्होंने भी नहीं पूछा. इंतजार करूंगा, कह कर मैं ने एक गहरी मुसकान उस के चेहरे पर डाली. उस की आंखों में विश्वास और अविश्वास की मिलीजुली तसवीर उभर कर मिट गई. क्या उसे मेरी बात पर यकीन होगा? अगर हां, तो वह मुझ से मिलने अवश्य आएगी.

पर वह मेरे घर फिर भी नहीं आई. मेरे दिल को गहरी ठेस पहुंची. क्या मैं ने अमिता के दिल को इतनी गहरी चोट पहुंचाई थी कि वह उसे अभी तक भुला नहीं पाई थी. वह मुझ से मिलती तो मैं माफी मांग लेता, उसे अपने अंक में समेट लेता और अपने सच्चे प्यार का उसे एहसास कराता. लेकिन वह नहीं आई, तो मेरा दिल भी टूट गया. वह अगर स्वाभिमानी है, तो क्या मैं अपने आत्मसम्मान का त्याग कर देता?

हम दोनों ही अपनेअपने हठ पर अड़े रहे. समय बिना किसी अवरोध के अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. इस बीच मेरी नौकरी एक प्राइवेट कंपनी में लग गई और मैं अमिता को मिले बिना चंडीगढ़ चला गया. निधि को भी जौब मिल  गया, अब वह नोएडा में नौकरी कर रही थी.

इस दौरान मेरी दोनों बहनों का भी ब्याह हो गया और वे अपनीअपनी ससुराल चली गईं. जौब मिल जाने के बाद मेरे लिए भी रिश्ते आने लगे थे, लेकिन मम्मी और पापा ने सबकुछ मेरे ऊपर छोड़ दिया था.

निधि की मेरे प्रति दीवानगी दिनबदिन बढ़ती जा रही थी, मैं उस के प्रति समर्पित नहीं था और न उस से मिलनेजुलने के लिए इच्छुक, लेकिन निधि मकड़ी की तरह मुझे अपने जाल में फंसाती जा रही थी. वह छुट्टियों में अपने घर न जा कर मेरे पास चंडीगढ़ आ जाती और हम दोनों साथसाथ कई दिन गुजारते.

मैं निधि के चेहरे में अमिता की छवि को देखते हुए उसे प्यार करता रहा, पर मैं इतना हठी निकला कि एक बार भी मैं ने अमिता की खबर नहीं ली. पुरुष का अहम मेरे आड़े आ गया. जब अमिता को ही मेरे बारे में पता करने की फुरसत नहीं है, तो मैं उस के पीछे क्यों भागता फिरूं?

अंतत: निधि की दीवानगी ने मुझे जीत लिया. उधर मम्मीपापा भी शादी के लिए दबाव डाल रहे थे. इसलिए जौब मिलने के सालभर बाद हम दोनों ने शादी कर ली.

निधि के साथ मैं दक्षिण भारत के शहरों में हनीमून मनाने चला गया. लगभग 15 दिन बिता कर हम दोनों अपने घर लौटे. हमारी छुट्टी अभी 15 दिन बाकी थी, अत: हम दोनों रोज बाहर घूमनेफिरने जाते, शाम को किसी होटल में खाना खाते और देर रात गए घर लौटते. कभीकभी निधि के मायके चले जाते. इसी तरह मस्ती में दिन बीत रहे थे कि एक दिन मुझे तगड़ा झटका लगा.

अमिता की मां मेरे घर आईं और रोतेरोते बता रही थीं कि अमिता के पापा ने उस के लिए एक रिश्ता ढूंढ़ा था. बहुत अच्छा लड़का था, सरकारी नौकरी में था और घरपरिवार भी अच्छा था. सभी को यह रिश्ता बहुत पसंद था, लेकिन अमिता ने शादी करने से इनकार कर दिया था. घर वाले बहुत परेशान और दुखी थे, अमिता किसी भी तरह शादी के लिए मान नहीं रही थी.

‘‘शादी से इनकार करने का कोई कारण बताया उस ने,’’ मेरी मां अमिता की मम्मी से पूछ रही थीं.

‘‘नहीं, बस इतना कहती है कि शादी नहीं करेगी और पहाड़ों पर जा कर किसी स्कूल में पढ़ाने का काम करेगी.’’

‘‘इतनी छोटी उम्र में उसे ऐसा क्या वैराग्य हो गया,’’ मेरी मां की समझ में भी कुछ नहीं आ रहा था. पर मैं जानता था कि अमिता ने यह कदम क्यों उठाया था? उसे मेरा इंतजार था, लेकिन मैं ने हठ में आ कर निधि से शादी कर ली थी. मैं दोबारा अमिता के पास जा कर उस से माफी मांग लेता, तो संभवत: वह मान जाती और मेरा प्यार स्वीकार कर लेती. हम दोनों ही अपनी जिद्द और अहंकार के कारण एकदूसरे से दूर हो गए थे. मुझे लगा, अमिता ने किसी और के साथ नहीं बल्कि मेरे साथ अपना रिश्ता तोड़ा है.

मेरी शादी हो गई थी और मुझे अब अमिता से कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए था, पर मेरा दिल उस के लिए बेचैन था. मैं उस से मिलना चाहता था, अत: मैं ने अपना हठ तोड़ा और एक बार फिर अमिता से मिलने उस के घर पहुंच गया. मैं ने उस की मां से निसंकोच कहा कि मैं उस से एकांत में बात करना चाहता हूं और इस बीच वे कमरे में न आएं.

मैं बैठा था और वह मेरे सामने खड़ी थी. उस का सुंदर मुखड़ा मुरझा कर सूखी, सफेद जमीन सा हो गया था. उस की आंखें सिकुड़ गई थीं और चेहरे की कांति को ग्रहण लग गया था. उस की सुंदर केशराशि उलझी हुई ऊन की तरह हो गई थी. मैं ने सीधे उस से कहा, ‘‘क्यों अपने को दुख दे रही हो?’’

‘‘मैं खुश हूं,’’ उस ने सपाट स्वर में कहा.

‘‘शादी के लिए क्यों मना कर दिया?’’

‘‘यही मेरा प्रारब्ध है,’’ उस ने बिना कुछ सोचे तुरंत जवाब दिया.

‘‘यह तुम्हारा प्रारब्ध नहीं था. मेरी बात को इतना गहरे अपने दिल में क्यों उतार लिया? मैं तो तुम्हारे पास आया था, फिर तुम मेरे पास क्यों नहीं आई? आ जाती तो आज तुम मेरी पत्नी होती.’’

‘‘शायद आ जाती,’’ उस ने निसंकोच भाव से कहा, ‘‘लेकिन रात को मैं ने इस बात पर विचार किया कि आप मेरे पास क्यों आए थे. कारण मेरी समझ में आ गया था. आप मुझ से प्यार नहीं करते थे, बस तरस खा कर मेरे पास आए थे और मेरे घावों पर मरहम लगाना चाहते थे.

‘‘मैं आप का सच्चा प्यार चाहती थी, तरस भरा प्यार नहीं. मैं इतनी कमजोर नहीं हूं कि किसी के सामने प्यार के लिए आंचल फैला कर भीख मांगती. उस प्यार की क्या कीमत, जिस की आग किसी के सीने में न जले.’’

‘‘क्या यह तुम्हारा अहंकार नहीं है?’’ उस की बात सुन कर मुझे थोड़ा गुस्सा आ गया था.

‘‘हो सकता है, पर मुझे इसी अहंकार के साथ जीने दीजिए. मैं अब भी आप को प्यार करती हूं और जीवनभर करती रहूंगी. मैं अपने प्यार को स्वीकार करने के लिए ही उस दिन आप के पास मिठाई देने के बहाने गई थी, लेकिन आप ने बिना कुछ सोचेसमझे मुझे ठुकरा दिया. मैं जानती थी कि आप दूसरी लड़कियों के साथ घूमतेफिरते हैं, शायद उन में से किसी को प्यार भी करते हों. इस के बावजूद मैं आप को मन ही मन प्यार करने लगी थी. सोचती थी, एक दिन मैं आप को अपना बना ही लूंगी. मैं ने आप का प्यार चाहा था, लेकिन मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई. फिर भी अगर आप का प्यार मेरा नहीं है तो क्या हुआ, मैं ने जिस को चाहा, उसे प्यार किया और करती रहूंगी. मेरे प्यार में कोई खोट नहीं है,’’ कहतेकहते वह सिसकने लगी थी.

‘‘अगर अपने हठ में आ कर मैं ने तुम्हारा प्यार कबूल नहीं किया, तो क्या दुनिया इतनी छोटी है कि तुम्हें कोई दूसरा प्यार करने वाला युवक न मिलता. मुझ से बदला लेने के लिए तुम किसी अन्य युवक से शादी कर सकती थी,’’ मैं ने उसे समझाने का प्रयास किया.

वह हंसी. बड़ी विचित्र हंसी थी उस की, जैसे किसी बावले की… जो दुनिया की नासमझी पर व्यंग्य से हंस रहा हो. वह बोली, ‘‘मैं इतनी गिरी हुई भी नहीं हूं कि अपने प्यार का बदला लेने के लिए किसी और का जीवन बरबाद करती. दुनिया में प्यार के अलावा और भी बहुत अच्छे कार्य हैं. मदर टेरेसा ने शादी नहीं की थी, फिर भी वह अनाथ बच्चों से प्यार कर के महान हो गईं. मैं भी कुंआरी रह कर किसी कौन्वैंट स्कूल में बच्चों को पढ़ाऊंगी और उन के हंसतेखिलखिलाते चेहरों के बीच अपना जीवन गुजार दूंगी. मुझे कोई पछतावा नहीं है.

‘‘आप अपनी पत्नी के साथ खुश रहें, मेरी यही कामना है. मैं जहां रहूंगी, खुश रहूंगी… अकेली ही. इतना मैं जानती हूं कि बसंत में हर पेड़ पर बहार नहीं आती. अब आप के अलावा मेरे जीवन में किसी दूसरे व्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं है,’’ उस की आंखों में अनोखी चमक थी और उस के शब्द तीर बन कर मेरे दिल में चुभ गए.

मुझे लगा मैं अमिता को बिलकुल भी नहीं समझ पाया था. वह मेरे बचपन की साथी अवश्य थी, पर उस के मन और स्वभाव को मैं आज तक नहीं समझ पाया था. मैं ने उसे केवल बचपन में ही जाना था. अब जवानी में जब उसे जानने का मौका मिला, तब तक सबकुछ लुट चुका था.

वह हठी ही नहीं, स्वाभिमानी भी थी. उस को उस के निर्णय से डिगा पाना इतना आसान नहीं था. मैं ने अमिता को समझने में बहुत बड़ी भूल की थी. काश, मैं उस के दिल को समझ पाता, तो उस की भावनाओं को इतनी चोट न पहुंचती.

अपनी नासमझी में मैं ने उस के दिल को ठेस पहुंचाई थी, लेकिन उस ने अपने स्वाभिमान से मेरे दिल पर इतना गहरा घाव कर दिया था, जो ताउम्र भरने वाला नहीं था.

सबकुछ मेरे हाथों से छिन गया था और मैं एक हारे हुए जुआरी की तरह अमिता के घर से चला आया.

पदचिह्न: क्या किया था पूजा ने?

बात बहुत छोटी सी थी किंतु अपने आप में गूढ़ अर्थ लिए हुए थी. मेरा बेटा रजत उस समय 2 साल का था जब मैं और मेरे पति समीर मुंबई घूमने गए थे. समुद्र के किनारे जुहू बीच पर हमें रेत पर नंगे पांव चलने में बहुत आनंद आता था और नन्हा रजत रेत पर बने हमारे पैरों के निशानों पर अपने छोटेछोटे पांव रख कर चलने का प्रयास करता था. उस समय तो मुझे उस की यह बालसुलभ क्रीड़ा लगी थी किंतु आज 25 वर्ष बाद नर्सिंग होम के कमरे में लेटी हुई मैं उस बात में छिपे अर्थ को समझ पाई थी.

हफ्ते भर पहले पड़े सीवियर हार्टअटैक की वजह से मैं जीवन और मौत के बीच संघर्ष करती रही थी, मैं समझ सकती हूं वे पल समीर के लिए कितने कष्टकर रहे होंगे, किसी अनिष्ट की आशंका से उन का उजला गौर वर्ण स्याह पड़ गया था. माथे पर पड़ी चिंता की लकीरें और भी गहरा गई थीं, जीवन की इस सांध्य बेला में पतिपत्नी का साथ क्या माने रखता है, इसे शब्दों में जाहिर कर पाना नामुमकिन है.

नर्सिंग होम में आए मुझे 6 दिन बीत गए थे. यद्यपि मुझे अधिक बोलने की मनाही थी फिर भी नर्सों की आवाजाही और परिचितों के आनेजाने से समय कब बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था. अगली सुबह डाक्टर ने मेरा चेकअप किया और समीर से बोले, ‘‘कल सुबह आप इन्हें घर ले जा सकते हैं किंतु अभी इन्हें बहुत एहतियात की जरूरत है.’’

घर जाने की बात सुनते ही हर्षित होने के बजाय मैं उदास हो गई थी. मन में बेचैनी और घुटन का एहसास होने लगा था. फिर वही दीवारें, खिड़कियां और उन के बीच पसरा हुआ भयावह सन्नाटा. उस सन्नाटे को भंग करता मेरा और समीर का संक्षिप्त सा वार्तालाप और फिर वही सन्नाटा. बेटी पायल का जब से विवाह हुआ और बेटा रजत नौकरी की वजह से दिल्ली गया, वक्त की रफ्तार मानो थम सी गई है. शुरू में एक आशा थी कि रजत का विवाह हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा. किंतु सब ठीक हो जाएगा जैसे शब्द इनसान को झूठी तसल्ली देने के लिए ही बने हैं. सबकुछ ठीक होता कभी नहीं है. बस, एक झूठी आशा, झूठी उम्मीद में इनसान जीता रहता है.

मैं भी, इस झूठी आशा में कितने ही वर्ष जीती रही. सोचती थी, जब तक समीर की नौकरी है, कभी बेटाबहू हमारे पास आ जाया करेंगे, कभी हम दोनों उन के पास चले जाया करेंगे और समीर के रिटायरमेंट के बाद तो रजत अपने साथ हमें दिल्ली ले ही जाएगा किंतु सोचा हुआ क्या कभी पूरा होता है? रजत के विवाह के बाद कुछ समय तक आनेजाने का सिलसिला चला भी. पोते धु्रव के जन्म के समय मैं 2 महीने तक दिल्ली में रही थी. समीर रिटायर हुए तो दिल्ली के चक्कर अधिक लगने लगे. बेटेबहू से अधिक पोते का मोह अपनी ओर खींचता था. वैसे भी मूलधन से ब्याज अधिक प्यारा होता है.

धु्रव की प्यारी मीठीमीठी बातों ने हमें फिर से हमारा बचपन लौटा दिया था. धु्रव के साथ खेलना, उस के लिए खिलौने लाना, छोटेछोटे स्वेटर बनाना, कितना आनंददायक था सबकुछ. लगता था धु्रव के चारों तरफ ही हमारी दुनिया सिमट कर रह गई थी. किंतु जल्दी ही मुट्ठी में बंद रेत की तरह खुशियां हाथ से फिसल गईं. जैसेजैसे मेरा और समीर का दिल्ली जाना बढ़ता गया, नेहा का हमारे ऊपर लुटता स्नेह कम होने लगा और उस की जगह ले ली उपेक्षा ने. मुंह से उस ने कभी कुछ नहीं कहा. ऐसी बातें शायद शब्दों की मोहताज होती भी नहीं किंतु मुझे पता था कि उस के मन में क्या चल रहा था. भयभीत थी वह इस खयाल से कि कहीं मैं और समीर उस के पास दिल्ली शिफ्ट न हो जाएं.

ऐसा नहीं था कि रजत नेहा के इस बदलाव से पूरी तरह अनजान था, किंतु वह भी नेहा के व्यवहार की शुष्कता को नजरअंदाज कर रहा था. मन ही मन शायद वह भी समझता था कि मांबाप के उस के पास आ कर रहने से उन की स्वतंत्रता में बाधा पड़ेगी. उस की जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी जिस से उस का दांपत्य जीवन प्रभावित होगा. उस के और नेहा के बीच व्यर्थ ही कलह शुरू हो जाएगी और ऐसा वह कदापि नहीं चाहता था. मैं ने अपने बेटे रजत का विवाह कितने चाव से किया था. नेहा के ऊपर अपनी भरपूर ममता लुटाई थी किंतु…

मैं ने एक गहरी सांस ली. मन में तरहतरह के खयाल आ रहे थे. शरीर में और भी शिथिलता महसूस हो रही थी. मन न जाने कैसाकैसा हो रहा था. मांबाप इतने जतन से बच्चों को पालते हैं और बच्चे क्या करते हैं मांबाप के लिए? बुढ़ापे में उन का सहारा तक बनना नहीं चाहते. बोझ समझते हैं उन्हें. आक्रोश से मेरा मन भर उठा था. क्या यही संस्कार दिए थे मैं ने रजत को?

इस विचार ने जैसे ही मेरे मन को मथा, तभी मन के भीतर कहीं छनाक की आवाज हुई और अतीत के आईने में मुझे अपना बदरंग चेहरा नजर आने लगा. अतीत की न जाने कितनी कटु स्मृतियां मेरे मन की कैद से छुटकारा पा कर जेहन में उभरने लगीं.

मेरा समीर से जिस समय विवाह हुआ, वह आगरा में एक सरकारी दफ्तर में एकाउंट्स अफसर थे. वह अपने मांबाप के इकलौते लड़के थे. मेरी सास धार्मिक विचारों वाली सीधीसादी महिला थीं. विवाह के बाद पहले दिन से ही उन्होंने मां के समान मुझ पर अपना स्नेह लुटाया. मेरे नाजनखरे उठाने में भी उन्होंने कमी नहीं रखी. सारा दिन अपने कमरे में बैठ कर मैं या तो साजशृंगार करती या फिर पत्रिकाएं पढ़ती रहती थी और वह अकेली घर का कामकाज निबटातीं.

उन में जाने कितना सब्र था कि उन्होंने मुझ से कभी कोई गिलाशिकवा नहीं किया. समीर को कभीकभी मेरा काम न करना खटकता था, दबे शब्दों में वह अम्मां की मदद करने को कहते, किंतु मेरे माथे पर पड़ी त्योरियां देख खामोश रह जाते. धीरेधीरे सास की झूठीझूठी बातें कह कर मैं ने समीर को उन के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया, जिस से समीर और उन के मांबाप के बीच संवादहीनता की स्थिति आ गई. आखिर एक दिन अवसर देख कर मैं ने समीर से अपना ट्रांसफर करा लेने को कहा. थोड़ी नानुकूर के बाद वह सहमत हो गए. अभी विवाह को एक साल ही बीता था कि मांबाप को बेसहारा छोड़ कर मैं और समीर लखनऊ आ गए.

जिंदगी भर मैं ने अपने सासससुर की उपेक्षा की. उन की ममता को उन की विवशता समझ कर जीवनभर अनदेखा करती रही. मैं ने कभी नहीं चाहा, मेरे सासससुर मेरे साथ रहें. उन का दायित्व उठाना मेरे बस की बात नहीं थी. अपनी स्वतंत्रता, अपनी निजता मुझे अत्यधिक प्रिय थी. समीर पर मैं ने सदैव अपना आधिपत्य चाहा. कभी नहीं सोचा, बूढ़े मांबाप के प्रति भी उन के कुछ कर्तव्य हैं. इस पीड़ा और उपेक्षा को झेलतेझेलते मेरे सासससुर कुछ साल पहले इस दुनिया से चले गए.

वास्तव में इनसान बहुत ही स्वार्थी जीव है. दोहरे मापदंड होते हैं उस के जीवन में, अपने लिए कुछ और, दूसरे के लिए कुछ और. अब जबकि मेरी उम्र बढ़ रही है, शरीर साथ छोड़ रहा है, मेरे विचार, मेरी प्राथमिकताएं बदल गई हैं. अब मैं हैरान होती हूं आज की युवा पीढ़ी पर. उस की छोटी सोच पर. वह क्यों नहीं समझती कि बुजुर्गों का साथ रहना उन के हित में है.

आज के बच्चे अपने मांबाप को अपने बुजुर्गों के साथ जैसा व्यवहार करते देखेंगे वैसा ही व्यवहार वे भी बड़े हो कर उन के साथ करेंगे. एक दिन मैं ने नेहा से कहा था, ‘‘घर के बड़ेबुजुर्ग आंगन में लगे वट वृक्ष के समान होते हैं, जो भले ही फल न दें, अपनी छाया अवश्य देते हैं.’’

मेरी बात सुन कर नेहा के चेहरे पर व्यंग्यात्मक हंसी तैर गई थी. उस की बड़ीबड़ी आंखों में अनेक प्रश्न दिखाई दे रहे थे. उस की खामोशी मुझ से पूछ रही थी कि क्यों मम्मीजी, क्या आप के बुजुर्ग आंगन में लगे वट वृक्ष के समान नहीं थे, क्या वे आप को अपनी छाया, अपना संबल प्रदान नहीं करते थे? जब आप ने उन के संरक्षण में रहना नहीं चाहा तो फिर मुझ से ऐसी अपेक्षा क्यों?

आहत हो उठी थी मैं उस के चेहरे के भावों को पढ़ कर और साथ ही साथ शर्मिंदा भी. उस समय अपने ही शब्द मुझे खोखले जान पड़े थे. इस समय मन की अदालत में न जाने कितने प्रसंग घूम रहे थे, जिन में मैं स्वयं को अपराधी के कटघरे में खड़ा पा रही थी. कहते हैं न, इनसान सब से दूर भाग सकता है किंतु अपने मन से दूर कभी नहीं भाग सकता. उस की एकएक करनी का बहीखाता मन के कंप्यूटर में फीड रहता है.

मैं ने चेहरा घुमा कर खिड़की के बाहर देखा. शाम ढल चुकी थी. रात्रि की परछाइयों का विस्तार बढ़ता जा रहा था और इसी के साथ नर्सिंग होम की चहल पहल भी थक कर शांत हो चुकी थी. अधिकांश मरीज गहरी निद्रा में लीन थे किंतु मेरी आंखों की नींद को विचारों की आंधियां न जाने कहां उड़ा ले गई थीं. सोना चाह कर भी सो नहीं पा रही थी, मन बेचैन था. एक असुरक्षा की भावना मन को घेरे हुए थी. तभी मुझे अपने नजदीक आहट महसूस हुई, चेहरा घुमा कर देखा, समीर मेरे निकट खड़े थे.

मेरे माथे पर हाथ रख स्नेह से बोले, ‘‘क्या बात है पूजा, इतनी परेशान क्यों हो?’’

‘‘मैं घर जाना नहीं चाहती हूं,’’ डूबते स्वर में मैं बोली.

‘‘मैं जानता हूं, तुम ऐसा क्यों कह रही हो? घबराओ मत, कल का सूरज तुम्हारे लिए आशा और खुशियों का संदेश ले कर आ रहा है. तुम्हारे बेटाबहू तुम्हारे पास आ रहे हैं.’’

समीर के कहे इन शब्दों ने मुझ में एक नई चेतना, नई स्फूर्ति भर दी. सचमुच रजत और नेहा का आना मुझे उजली धूप सा खिला गया. आते ही रजत ने अपनी बांहें मेरे गले में डालते हुए कहा, ‘‘यह क्या हाल बना लिया मम्मी, कितनी कमजोर हो गई हो? खैर कोई बात नहीं. अब मैं आ गया हूं, सब ठीक हो जाएगा.’’

एक बार फिर से इन शब्दों की भूलभुलैया में मैं विचरने लगी. एक नई आशा, नए विश्वास की नन्हीनन्ही कोंपलें मन में अंकुरित होने लगीं. व्यर्थ ही मैं चिंता कर रही थी, कल से न जाने क्याक्या सोचे जा रही थी, हंसी आ रही थी अब मुझे अपनी सोच पर. जिस बेटे को 9 महीने अपनी कोख में रखा, ममता की छांव में पालपोस कर बड़ा किया, वह भला अपने मांबाप की ओर से आंखें कैसे मूंद सकता है? मेरा रजत ऐसा कभी नहीं कर सकता.

नर्सिंग होम से मैं घर वापस आई तो समीर और बेटेबहू क्या घर की दीवारें तक जैसे मेरे स्वागत में पलकें बिछा रही थीं. घर में चहलपहल हो गई थी. धु्रव की प्यारीप्यारी बातों ने मेरी आधी बीमारी को दूर कर दिया था. रजत अपने हाथों से दवा पिलाता, नेहा गरम खाना बना कर आग्रहपूर्वक खिलाती. 6-7 दिन में ही मैं स्वस्थ नजर आने लगी थी.

एक दिन शाम की चाय पीते समय रजत ने कहा, ‘‘पापा, मुझे आए 10 दिन हो चुके हैं. आप तो जानते हैं, प्राइवेट नौकरी है. अधिक छुट्टी लेना ठीक नहीं है.’’

‘‘तुम ठीक कह रहे हो. कब जाना चाहते हो?’’ समीर ने पूछा.

‘‘कल ही हमें निकल जाना चाहिए, किंतु आप दोनों चिंता मत करना, जल्दी ही मैं फिर आऊंगा.’’

अपनी ओर से आश्वासन दे कर रजत और नेहा अपने कमरे में चले गए. एक बार फिर से निराशा के बादल मेरे मन के आकाश पर छाने लगे. हताश स्वर में मैं समीर से बोली, ‘‘जीवन की इस सांध्य बेला में अकेलेपन की त्रासदी झेलना ही क्या हमारी नियति है? इन हाथ की लकीरों में क्या बच्चों का साथ नहीं लिखा है?’’

‘‘पूजा, इतनी भावुकता दिखाना ठीक नहीं. जिंदगी की हकीकत को समझो. रजत की प्राइवेट नौकरी है. वह अधिक दिन यहां कैसे रुक सकता है?’’ समीर ने मुझे समझाना चाहा.

मेरी आंखों में आंसू आ गए. रुंधे कंठ से मैं बोली, ‘‘यहां नहीं रुक सकता किंतु हमें अपने साथ दिल्ली चलने को तो कह सकता है या इस में भी उस की कोई विवशता है. अपनी नौकरी, अपनी पत्नी, अपना बच्चा बस, यही उस की दुनिया है. बूढ़े होते मांबाप के प्रति उस का कोई कर्तव्य नहीं. पालपोस कर क्या इसीलिए बड़ा किया था कि एक दिन वह हमें यों बेसहारा छोड़ कर चला जाएगा.’’

‘‘शांत हो जाओ, पूजा,’’ समीर बोले, ‘‘तुम्हारी सेहत के लिए क्रोध करना ठीक नहीं. ब्लडप्रेशर बढ़ जाएगा, रजत अभी उतना बड़ा नहीं है जितना तुम उसे समझ रही हो. हम ने आज तक उसे कोई दायित्व सौंपा ही कहां है? पूजा, अकसर हम अपनों से अपेक्षा रखते हैं कि हमारे बिना कुछ कहे ही वे हमारे मन की बात समझ जाएं, वही बोलें जो हम उन से सुनना चाहते हैं और ऐसा न होने पर दुखी होते हैं. रजत पर क्रोध करने से बेहतर है, तुम उस से अपने मन की बात कहो. देखना, यह सुन कर कि हम उस के साथ दिल्ली जाना चाहते हैं, वह बहुत प्रसन्न होगा.’’

कुछ देर खामोश बैठी मैं समीर की बातों पर विचार करती रही और आखिर रजत से बात करने का मन बना बैठी. मैं उस की मां हूं, मेरा उस पर अधिकार है. इस भावना ने मेरे फैसले को बल दिया और कुछ समय के लिए नेहा की उपस्थिति से उपजा एक अदृश्य भय और संकोच मन से जाता रहा.

मैं कुरसी से उठी. तभी दूसरे कमरे में परदे के पीछे से नेहा के पांव नजर आए. मैं समझ गई परदे के पीछे खड़ी वह हम दोनों की बातें सुन रही थी. मेरा निश्चय कुछ डगमगाया किंतु अधिकार की बात याद आते ही पुन: कदमों में दृढ़ता आ गई. रजत के कमरे के बाहर नेहा के शब्द मेरे कानों में पड़े, ‘मम्मी ने स्वयं तो जीवनभर आजाद पंछी बन कर ऐश की और मुझे अभी से दायित्वों के बंधन में बांधना चाहती हैं. नहीं रजत, मैं साथ नहीं रहूंगी.’

नेहा से मुझे कुछ ऐसी ही नासमझी की उम्मीद थी. अत: मैं ने ऐसा दिखाया मानो कुछ सुना ही न हो. तभी मेरे कदमों की आहट सुन कर रजत ने मुड़ कर देखा, बोला, ‘‘अरे, मम्मी, तुम ने आने की तकलीफ क्यों की? मुझे बुला लिया होता.’’

‘‘रजत बेटा, मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं,’’ कहतेकहते मैं हांफने लगी.

रजत ने मुझे पलंग पर बैठाया फिर स्वयं मेरे नजदीक बैठ मेरा हाथ सहलाते हुए बोला, ‘‘हां, अब बताओ मम्मी, क्या कह रही हो?’’

‘‘बेटा, अब मेरा और तुम्हारे पापा का अकेले यहां रहना बहुत कठिन है. हम दोनों तुम्हारे पास दिल्ली रहना चाहते हैं. अकेले मन भी नहीं लगता.’’

इस से पहले कि रजत कुछ कहता, समीर भी धु्रव को गोद में उठाए कमरे में चले आए. बात का सूत्र हाथ में लेते हुए बोले, ‘‘रजत, तुम तो देख ही रहे हो अपनी मम्मी की हालत. इन्हें अकेले संभालना अब मेरे बस की बात नहीं है. इस उम्र में हमें तुम्हारे सहारे की आवश्यकता है.’’

‘‘पापा, आप दोनों का कहना अपनी जगह ठीक है किंतु यह भी तो सोचिए, लखनऊ का इतना बड़ा घर छोड़ कर आप दोनों दिल्ली के हमारे 2 कमरों के फ्लैट में कैसे एडजस्ट हो पाएंगे? जहां तक मन लगने की बात है, आप दोनों अपना रुटीन चेंज कीजिए. सुबहशाम घूमने जाइए. कोई क्लब अथवा संस्था ज्वाइन कीजिए. जब आप का यहां मन नहीं लगता है तो दिल्ली में कैसे लग सकता है? वहां तो अगलबगल रहने वाले आपस में बात तक नहीं करते हैं.’’

‘‘मन लगाने के लिए हमें पड़ोसियों का नहीं, अपने बच्चों का साथ चाहिए. तुम और नेहा जौब पर जाते हो, इस कारण धु्रव को कै्रच में छोड़ना पड़ता है. हम दोनों वहां रहेंगे तो धु्रव को क्रैच में नहीं भेजना पड़ेगा. हमारा भी मन लगा रहेगा और धु्रव की परवरिश भी ठीक से हो सकेगी.’’

‘‘क्रैच में बच्चों को छोड़ना आजकल कोई समस्या नहीं है पापा. बल्कि क्रैच में दूसरे बच्चों का साथ पा कर बच्चा हर बात जल्दी सीख जाता है, जो घर में रह कर नहीं सीख पाता.’’

‘‘इस का मतलब तुम नहीं चाहते कि हम दोनों तुम्हारे साथ दिल्ली में रहें,’’ समीर कुछ उत्तेजित हो उठे थे.

‘‘कैसी बातें करते हैं पापा? चाहता मैं भी हूं कि हम लोग एकसाथ रहें किंतु प्रैक्टिकली यह संभव नहीं है.’’

तभी नेहा बोल उठी, ‘‘इस से बेहतर विकल्प यह होगा पापा कि हम लोग यहां आते रहें बल्कि आप दोनों भी कुछ दिनों के लिए आइए. हमें अच्छा लगेगा.’’

‘कुछ’ शब्द पर उस ने विशेष जोर दिया था. उन की बात का उत्तर दिए बिना मैं और समीर अपने कमरे में चले आए थे.

शाम का अंधेरा गहराता जा रहा था. मेरे भीतर भी कुछ गहरा होता जा रहा था. कुछ टूट रहा था, बिखर रहा था. हताश सी मैं पलंग पर लेट कर छत को निहारने लगी. वर्तमान से छिटक कर मन अतीत के गलियारे में विचरने लगा था.

आगरा में मेरे सासससुर उन दिनों बीमार रहने लगे थे. समीर अकसर बूढ़े मांबाप को ले कर चिंतित हो उठते थे. रात के अंधेरे में अकसर उन्हें फर्ज और कर्तव्य जैसे शब्द याद आते, खून जोश मारता, बूढ़े मांबाप को साथ रखने को जी चाहता किंतु सुबह होतेहोते भावुकता व्याव- हारिकता में बदल जाती. काम की व्यस्तता और मेरी इच्छा को सर्वोपरि मानते हुए वह जल्दी ही मांबाप को साथ रखने की बात भूल जाते.

एक बार मैं और समीर दीवाली पर आगरा गए थे. उस समय मेरी सास ने कहा था, ‘समीर बेटे, मेरी और तुम्हारे बाबूजी की तबीयत अब ठीक नहीं रहती. अकेले पड़ेपड़े दिल घबराता है. काम भी नहीं होता. यह मकान बेच कर तुम्हारे साथ लखनऊ रहना चाहते हैं.’

इस से पहले कि समीर कुछ कहें मैं उपेक्षापूर्ण स्वर में बोल उठी थी, ‘अम्मां मकान बेचने की भला क्या जरूरत है? आप की लखनऊ आने की इच्छा है तो कुछ दिनों के लिए आ जाइए.’ ‘कुछ’ शब्द पर मैं ने भी विशेष जोर दिया था. इस बात से अम्मां और बाबूजी बेहद आहत हो उठे थे. उन के चेहरे पर न जाने कहां की वेदना और लाचारी सिमट आई थी. फिर कभी उन्होंने लखनऊ रहने की बात नहीं उठाई थी. काश, वक्त रहते अम्मां की आंखों के सूनेपन में मुझे अपना भविष्य दिखाई दे जाता.

तो क्या इतिहास स्वयं को दोहरा रहा है? जैसा मैं ने किया वही मेरे साथ भी.. मन में एक हूक सी उठी. तभी एक दीर्घ नि:श्वास ले कर समीर बोले, ‘‘मैं सोच भी नहीं सकता था पूजा कि हमारा रजत इतना व्यावहारिक हो सकता है. किस खूबसूरती से उस ने अपने फर्ज, अपने दायित्व यहां तक कि अपने मांबाप से भी किनारा कर लिया.’’

‘‘इस में उस का कोई दोष नहीं, समीर. सच पूछो तो मैं ने उसे ऐसे संस्कार ही कहां दिए जो वह अपने मांबाप के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करे. उन की सेवा करे. मैं ने हमेशा रजत से यही कहा कि मांबाप की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है. इस बात को मैं भूल ही गई कि बच्चों के ऊपर मांबाप के उपदेशों का नहीं बल्कि उन के कार्यों का प्रभाव पड़ता है.’’

‘‘चुप हो जाओ पूजा, तुम्हारी तबीयत खराब हो जाएगी.’’

‘‘नहीं, आज मुझे कह लेने दो, समीर. रजत और नेहा तो फिर भी अच्छे हैं. बीमारी में ही सही कम से कम इन दिनों मेरा खयाल तो रखा. मैं ने तो कभी अम्मां और बाबूजी से अपनत्व के दो शब्द नहीं बोले. कभी नहीं चाहा कि वे दोनों हमारे साथ रहें, यही नहीं तुम्हें भी सदैव तुम्हारा फर्ज पूरा करने से रोका. जब पेड़ ही बबूल का बोया हो तो आम के फल की आशा रखना व्यर्थ है.’’

समीर ने मेरे दुर्बल हाथ को अपनी हथेलियों के बीच ले कर कहा, ‘‘इस में दोष अकेले तुम्हारा नहीं, मेरा भी है लेकिन अब अफसोस करने से क्या फायदा? दिल छोटा मत करो पूजा. बस, यही कामना करो, हम दोनों का साथ हमेशा बना रहे.’’

मैं ने भावविह्वल हो कर समीर का हाथ कस कर थाम लिया, हृदय की संपूर्ण वेदना चेहरे पर सिमट आई, आंखों की कोरों से आंसू बह निकले, जो चेहरे की लकीरों में ही विलीन हो गए. आज मुझे समझ में आ रहा था कि समय की रेत पर हम जो पदचिह्न छोड़ जाते हैं, आने वाली पीढ़ी उन्हीं पदचिह्नों का अनुसरण कर के आगे बढ़ती है.

रिश्ता और समझौता: अरेंज मैरिज के लिए कैसे मान गई मौर्डन सुमन?

अमेरिका के जेएफके अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे में सारी औपचारिकताओं को पूरा कर के जब अपना सामान ले कर सुमन बाहर आई तो उस ने अपनी चचेरी बहन राधिका को हाथ लहराते देखा. सुमन बड़ी मुसकान के साथ उस की ओर बढ़ी और फिर दोनों एकदूसरे से गले मिलीं.

‘‘अमेरिका के न्यूयौर्क में आप का स्वागत है सुमन,’’ कह कर राधिका ने सुमन के गाल पर किस किया.

सुमन ने भी उसे गले लगाया और फिर दोनों निकास द्वार की ओर बढ़ने लगीं.

राधिका, सुमन की चाची की बेटी है. वे लगभग हमउम्र हैं. दोनों का बचपन इंदौर में अपने नानाजी के घर में एकसाथ गुजरा था. हर छुट्टी पर परिवार के सभी सदस्य अपने नाना के घर इंदौर में इकट्ठा होते थे और उन दिनों की खूबसूरत यादें सुमन के दिमाग में अभी भी ताजा हैं. अपने नानानानी की मृत्यु के बाद सुमन की मां ने अपनी बहनों से अपना संपर्क बनाए रखा और वे अकसर मुंबई आती थीं. राधिका ने खुद सुमन के घर में रह कर मुंबई में ही कैमिस्ट्री में पौस्टग्रैजुएशन किया था और उस समय सुमन भी कंप्यूटर साइंस में पोस्ट ग्रैजुएशन कर रही थी. राधिका नौकरी के सिलसिले में न्यूयौर्क चली गई और सुमन को मुंबई में एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी मिल गई.

‘‘चाची और चाचा कैसे हैं,’’ गाड़ी को पार्किंग से बाहर निकालते हुए राधिका ने पूछा.

सुमन मुसकराते हुए बोली, ‘‘वे ठीक हैं.’’

अब दोनों ओर से चुप्पी थी. अमेरिकी धरती पर उतरते ही सुमन से कोई भी निजी सवाल पूछ कर राधिका उसे उलझन में नहीं डालना चाहती थी. इसी बीच सुमन का फोन बजा. आशीष का था. सुमन को झिझक हुई तो राधिका ने कहा, ‘‘तुम कौल लेने में क्यों संकोच कर रही हो?’’

तब सुमन ने कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘हाय स्वीट हार्ट,’’ दूसरी ओर से आशीष की आवाज थी,‘‘तम न्यूयौर्क पहुंच गई हो… यात्रा कैसी रहीं. कोई कठिनाई तो नहीं हुई?’’ उस की आवाज में चिंता बहुत स्पष्ट थी.

‘‘हां आशीष मैं बिना किसी दिक्कत के न्यूयौर्क पहुंच चुकी हूं… सफर अच्छा था… बस थोड़ी थकान महसूस कर रही हूं.  मेरी बहन राधिका हवाईअड्डे मुझे लेने आ गई थीं. अब हम अपने घर जा रही हैं… मैं तुम्हें बाद में फोन करूंगी,’’ और फिर फोन काट दिया.

फिर घंटी बजी. सुमन की मां थीं. मां ने पूछा, ‘‘बेटा, तुम ठीक हो? क्या राधिका एअरपोर्ट आ गई थी? सुमन ने फोन राधिका को पकड़ा दिया. राधिका बोली, ‘‘मौसी मैं एअरपोर्ट कैसे नहीं आती… आप सुमन की चिंता न करो… वह यहां बिलकुल सुरक्षित है. हम घर पहुंच कर आप को फोन करते हैं.’’

‘‘ठीक है,’’ कह सुमन की मां ने फोन काट दिया.

राधिका का तीसरी मंजिल पर

3 बैडरूम वाला अपार्टमैंट था.

जैसे ही राधिका और सुमन ने घर में प्रवेश किया एक फिरंगी लड़की एक बैडरूम से बाहर आई और सुमन को गले लगा कर मुसकराते हुए उस का अभिवादन करते हुए बोली, ‘‘यूएस में आप का स्वागत है और आशा है कि आप मेरे साथ रहना पसंद करेंगी.’’

सुमन सोच में पड़ गई कि राधिका अकेली रह रही है तो यह लड़की कौन?

राधिका उसे कौफी का कप पकड़ाते हुए बोली,

‘‘सुमन यह जेनिफर है. हम ने इस अपार्टमैंट को मिल कर किराए पर लिया है. वह एक सौफ्टवेयर कंपनी में काम करती है और वे ही अपनी कंपनी में तुम्हें नौकरी दिलाने में मदद करने वाली है… न्यूयौर्क बहुत महंगा शहर है… हम इस तरह एक अपार्टमैंट अकेले किराए पर नहीं ले सकते. वह बहुत व्यस्त रहती है, इसलिए ज्यादातर खाना बाहर से मंगवाती है… हमारे बीच कोई समस्या नहीं. अब तुम भी आ गई तो हम तीनों अपार्टमैंट साझा कर सकती हैं,’’ राधिका ने कौफी पीते हुए कहा.

सुमन चुप रही. वैसे भी वह केवल 2 साल के लिए अमेरिका आई है और फिर भारत अपने प्रेमी आशीष के पास वापस चली जाएगी. इस बीच जब जेनिफर उन दोनों के पास आई तो वह औफिस जाने के लिए पूरी तरह तैयार थी. उस ने एक ईमेल आईडी देते हुए सुमन से कहा,‘‘राधिका ने मुझे बताया था कि आप को सौफ्टवेयर सैक्शन में नौकरी की जरूरत है और मैं उसी फील्ड में काम करती हूं… वास्तव में मेरी खुद की टीम में एक शख्स की जरूरत है. आज ही अपना सीवी इस आईडी पर भेजें ताकि जल्दी आप की नियुक्ति हो जाए. बाय… शाम को मिलते हैं,’’ और फिर राधिका को गले लगा अपनी गाड़ी की चाबी ले कर दफ्तर के लिए निकल गई.

‘‘तो क्या चल रहा है? सुमन तुम मुझ से दिल खोल कर बात कर सकती हो, क्योंकि हम केवल चचेरी बहनें ही नहीं बचपन की दोस्त भी हैं. याद है तुम्हें हम उन छोटेछोटे रहस्यों को कैसे साझा करते थे… मैं ने आज छुट्टी ले ली है ताकि तुम्हारे साथ समय बिता सकूं और तुम्हारी चीजों को व्यवस्थित करने के लिए मदद कर सकूं,’’ राधिका ने कहा.

सुमन ने लंबी सांस ली. मुंबई में अच्छी सैलरी वाली नौकरी से इस्तीफा दे कर

अमेरिका क्यों आई है, राधिका को यह बताने के लिए सुमन ने खुद को तैयार किया.

कुछ दिन पहले ही सुमन ने मां को पिता की मौजूदगी में बताया था.

‘‘सुमन तुम यह क्या कह रही हो? तुम

ऐसे सोच भी कैसे सकती हो,’’ उस की मां चिल्लाई थीं.

‘‘क्या आप ने सुना है कि आप की बेटी एक ऐसे लड़के से प्यार करती है, जो हमारी बिरादरी का नहीं है और इस से भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि वह उस के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहना चाहती है ताकि वे एकदूसरे को बेहतर तरीके से समझ सकें. फिर वे तय करेंगे कि शादी करनी है या नहीं,’’ यह कहते हुए सुमन की मां मुश्किल से सांस ले पा रही थीं.

सुमन की मां हर छोटी सी छोटी बात पर भी भावुक हो जाती है, उस के विपरीत उस के पिता एक संतुलित व्यक्ति हैं. उन्होंने ध्यान से अपनी बेटी की बात सुनी.

सुमन ने कहा, ‘‘पापा, आशीष और मैं एकदूसरे से प्यार करते हैं, लेकिन हम शादी में जल्दबाजी नहीं करना चाहते. मेरे अपने दफ्तर में 4 मित्र जोड़ों ने जल्दबाजी में शादी कर ली और फिर 1 साल के भीतर ही उन की शादी टूट गई. ऐसा इसलिए क्योंकि वे एकदूसरे को ठीक से समझे बगैर शादी कर बैठे. हम यह गलती नहीं दोहराना चाहते हैं. इन दिनों मुंबई में लिव इन रिलेशनशिप में रहना आम बात है. मेरे अपने दोस्त ऐसे ही रहते हैं. ऐसे साथ रहने से हम अपने साथी की ताकत और कमजोरी को समझ सकते हैं और एकदूसरे को बेहतर तरीके से जान सकते हैं. फिर तय कर सकते हैं कि एकदूसरे के लिए सही हैं या नहीं, हमारी शादी सफल हो सकती है या नहीं,’’ सुमन ने समझाया.

सुमन की मां बेशक सदमे की स्थिति में थीं, लेकिन उस के पिता हमेशा की तरह शांत थे. उन्होंने सुमन को अपनी बगल में बैठाया और फिर बोले, ‘‘तुम्हारे दोस्तों की शादियां टूट गईं और तुम्हें लगता कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने एकदूसरे को समझे बिना जल्दबाजी में शादी की. इस मामले में मेरा खयाल है कि तुम दोनों 1-2 साल के लिए अपनी दोस्ती बरकरार रख कर एकदूसरे को समझने की कोशिश करो और फिर शादी कर लो. यह लिव इन रिश्ता क्यों?’’ रामनाथ ने पूछा.

सुमन ने कहा, ‘‘पापा यही समस्या है. दरअसल, जब हम दोस्त होते हैं तो हम हमेशा दूसरे व्यक्ति को केवल अपना बेहतर पक्ष दिखाते हैं. हम सभी का एक और पक्ष है, जिसे हम जानबूझ कर दूसरों से छिपाते हैं. विवाह में ऐसा नहीं है. आप को अपने पूरे जीवन में एक व्यक्ति के साथ मिलजुल कर रहना होगा और आप को छोटी सी छोटी चीजें जैसे खाने से ले कर पैसे तक बड़े मामलों पर दोनों के बीच सहमति की जरूरत होती है.

‘‘उदाहरण के लिए मेरी एक दोस्त ने अपने बौयफ्रैंड से 4 साल तक डेटिंग करने के बाद शादी की. लेकिन शादी के बाद ही उसे समझ में आ गया कि जिस से उस ने ब्याह किया वह एक पुरुषवादी व्यक्ति है. यद्यपि मेरी सहेली उस से अधिक कमा रही थी, फिर भी उस के पति ने उस के साथ बदसलूकी की और पुराने जमाने की पत्नियों की तरह अपने परिवार की सेवा करने के लिए उसे मजबूर किया. इस के अलावा मेरी सहेली से उस की कमाई का हिस्सा मांगा… दुख की बात तो यह है कि उस लड़के ने मेरी सहेली की अपने मातापिता को किसी भी रूप से सहायता करने से सख्त मनाकर दिया. जब हम दोस्त होते हैं तब हमें एक मर्द के इस पहलू को नहीं जान सकते, क्योंकि उस वक्त सभी इंसान अपना अच्छा पक्ष ही दिखाएगा,’’ सुमन ने बताया.

थोड़ी देर रुक वह आगे बोली, ‘‘पापा, आज भी बहुत से भारतीय पुरुष हैं जो सोचते हैं कि वे घर के बौस हैं. पत्नी को केवल उन की आज्ञा का पालन करना चाहिए. स्त्री को उचित अधिकार और सम्मान नहीं दिए जाने की वजह से ही इन दिनों कई भारतीय शादियां टूट रही हैं. मैं नहीं चाहती कि मेरे साथ भी ऐसा हो. मैं ने सोचा कि जब हम एकसाथ रहते हैं तो हमारी सचाई एकदूसरे के सामने आती है तब हमें पता चलता है कि हम एकदूसरे के लिए सही हैं या नहीं.’’

रामनाथ ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम सही हो और मैं इस विषय में तुम से पूरी तरह सहमत हूं, लेकिन यह लिव इन रिलेशनशिप भी उतनी आसान नहीं जितना तुम समझ रही हो. यह भी बहुत सारी समस्याओं को जन्म देती है. तुम एक शिक्षित लड़की हो और मुझे तुम्हें बहुत समझाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि तुम स्मार्ट और बुद्धिमान हो. शादी जैसे बंधन के बिना लड़का और लड़की पतिपत्नी की तरह रहने से भी समस्याएं हो सकती हैं. पहली बात यह है कि दोनों तरफ कोई प्रतिबद्धता नहीं है और यह किसी भी रिश्ते के लिए अच्छा नहीं है.

‘‘अगर इस तरह साथ रहने में जिन दिक्कतों का लड़का और लड़की को सामना करना पड़ता है, उन के बारे में मैं कहूं तो तुम समझोगी कि मैं पिछली पीढ़ी का बूढ़ा आदमी हूं और लिव इन रिलेशनशिप के खिलाफ कहता हूं. इसलिए मेरे पास एक सुझाव है. लिव इन रिलेशनशिप की अवधारणा पश्चिमी देशों से आई है न? लेकिन अब वे महसूस कर रहे हैं कि शादी की हमारी परंपरा बेहतर है. हमारी राधिका न्यूयौर्क में है और तुम वहां जा कर काम करो और पश्चिमी लोगों के साथ काम करते दौरान उन के जीवन को करीब से देखो. तब तुम अपने लिए क्या सही है यह निर्णय करने की स्थिति में होगी और वह तुम्हारे लिए बेहतर होगा.’’

सुमन को भी लगा कि यह एक अच्छा विचार है.

‘‘तो मैं अब अमेरिका में हूं, जहां लिव इन रिलेशनशिप की संस्कृति को समझना है,’’ सुमन ने हंसते हुए कहा.

राधिका भी हंस पड़ी, ‘‘तुम्हें पता है कि जेनिफर अगले हफ्ते वास्तव में अपने बौयफ्रैंड के साथ इसी बिल्डिंग में एक और फ्लैट में जाने की योजना बना रही है. एक नई लड़की क्लारा हमारी रूममेट होगी,’’ कह कर राधिका चाय के कप रखने चल दी और सुमन खिड़की से नीचे चल रही गाडि़यों की जलूस देखने लगी.

धीरेधीरे 3 साल बीत गए. हर हरिवार को सुमन के मातापिता उस से कम

से कम 2 घंटे तक इंटरनैट पर बात करते थे. इकलौती औलाद होने के नाते सुमन के मातापिता उस पर अपनी जान छिड़कते थे. खासकर सुमन की मां जो अपनी बेटी से अलग नहीं रह पा रही थी. उन्होंने अपने पति से कहा कि वे अमेरिका जाएं अपनी बेटी के पास.

रामनाथ ने उन्हें यह कहते हुए रोक दिया, ‘‘नहीं हम वहां नहीं जा रहे हैं. हम ने सुमन को वहां संस्कृति का निजी ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजा है, जिस की भारतीय युवा पीढ़ी इतने उत्साह से पीछा कर रही हैं.’’

सुमन की मां के पास इसे मानने के अलावा कोई और चारा नहीं था.

आशीष हर हफ्ते उस से इंटरनैट पर बात करता था, क्योंकि उसे भी सुमन से अलग रहना अच्छा नहीं लग रहा था. जब उस ने भी यूएस आने का प्रस्ताव रखा तो सुमन ने तुरंत मना कर दिया और कहा, ‘‘मैं ने अपने पिताजी से वादा किया है कि मैं आप को यहां नहीं बुलाऊंगी… और मैं अपना वादा नहीं तोड़ूंगी.’’

आशीष मान गया.

नौकरी भी अच्छी चल रही थी. न्यूयौर्क एक तेजी से आगे बढ़ने वाला शहर है, जो उस के मुंबई से भी ज्यादा तेज है. सुमन को सुबह 8 बजे अपने दफ्तर में पहुंचना है और वह जिस फ्लैट में रह रही है, वहां से पहुंचने में समय लगता. लेकिन न्यूयौर्क में आवागमन करना कोई समस्या नहीं है.

सुमन हर सुबह अपने और राधिका के लिए भारतीय नाश्ता बनाती और लंच भी पैक कर के औफिस के लिए निकल जाती.

एक रिसर्च स्कौलर होने के कारण राधिका की नौकरी लैब में थी और उस के काम का निश्चित समय नहीं था. कभीकभी 3-3 दिन तक घर नहीं आती और इस की सूचना सुमन को पहले ही दे देती थी ताकि वह उस का इंतजार न करे.

अब तक सुमन और क्लारा अच्छे दोस्त बन गए थे. सुमन को लगा कि क्लारा एक अच्छी लड़की है. लेकिन उस के साथ एकमात्र समस्या यह थी कि वह हर रविवार को कुछ मांसाहारी भोजन बनाती थी. उस की गंध को बरदाश्त करना शाकाहारी सुमन के लिए बहुत मुश्किल था. लेकिन धीरेधीरे सुमन उस गंध की आदी हो गई.

सुमन को रविवार को भी जल्दी उठना पड़ता था, क्योंकि क्लारा के रसोई में आने से पहले ही सुमन अपना और राधिका का खाना बना सके.

एक रविवार सुमन टीवी देख रही थी. तभी दरवाजे की घंटी बजी. उस ने दरवाजा खोला तो सामने जेनिफर थी, जो अब उस की सहकर्मी है. उस के पास एक बैग था और उस की आंखें सूजी थीं. उस का हुलिया देख कर सुमन हैरान हो गई.

जेनिफर अंदर आई और बेकाबू हो कर बिलखबिलख कर रोने लगी. सुमन समझ नहीं पा रही थी कि कैसे रिएक्ट करें. फिर उस ने खुद को संभाला और पूछा, ‘‘क्या हुआ जेनी तुम रो क्यों रही हो? कुछ तो बताओ… क्या मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकती हूं?’’ सुमन ने जेनिफर को गले लगाते हुए कहा.

‘‘सुमन मेरा बौयफ्रैंड अव्वल नंबर का धोखेबाज निकला. उस का किसी दूसरी लड़की के साथ अफेयर चल रहा है. उस ने मुझ से यह बात छिपाई और ऊपर से मेरे सारे पैसे उस लड़की पर खर्च कर दिए. अब मैं बिलकुल कंगाल हूं. जब मैं ने उस से पूछा तो उस ने कहा कि हम दोनों अलग हो जाएंगे. हम कानूनी रूप से विवाहित तो नहीं जो मैं अदालत से मदद ले सकूं… गुजाराभत्ता के रूप में मोटी रकम ले सकूं. अगर इस में एक व्यक्ति दगाबाज निकले तो दूसरा कुछ भी नहीं कर सकता और मैं उसी हालत में हूं. मेरी सारी बचत को उस ने लूट लिया.’’

सुमन उसे सांत्वना देने की कोशिश कर रही थी. जेनिफर ने पूछा, ‘‘क्या मैं आप लोगों के साथ तब तक रह सकती हूं जब तक कि मुझे एक और अपार्टमैंट और रूममेट नहीं मिलता है?’’

सुमन ने कहा, ‘‘बेशक

जेनी यह भी कोई पूछने वाली बात है क्या?’’

जेनिफर की हालत देख कर क्लारा को भी तरस आ गया और उसे अपने साथ रहने की इजाजत दे दी.

शाम को दफ्तर से आने पर राधिका ने पूरी कहानी सुनी. उसे अजीब सी बेचैनी हुई कि एक आदमी इतना मतलबी कैसे हो सकता है और उस के साथ ऐसा व्यवहार भी कर सकता है, जो उस से प्यार कर के उस के साथ रहने आई थी. वह सोच भी नहीं सकती कि एक इंसान इतनी ओछी हरकत कर सकता है. तीनों सहेलियां एकसाथ खाना खा कर इसी बारे में बात करती रहीं.

बातोंबातों में क्लारा ने अपनी समस्या बताई, ‘‘मैं भी ऐसी मुश्किल घड़ी से गुजर चुकी हूं. जब मैं अपने बौयफ्रैंड से ब्रेकअप कर के बाहर आई थी तो पूरी तरह टूट चुकी थी और मेरा बैंक बैलेंस भी शून्य था. हमारे देश में यह एक मामूली समस्या बन चुकी है. ऐसा नहीं है कि केवल लड़के ही धोखा देते हैं. कभीकभी लड़कियां भी ऐसी गिरी हरकत करती हैं. इस तरह के रिश्ते की नींव आपसी विश्वास के अलावा कुछ भी नहीं है और अकेले ही इस स्थिति का सामना करना पड़ता है.

‘‘एक तरह से मुझे लगता है कि आप का देश अच्छा है सुमन. आप की शादियों में सभी बुजुर्ग और परिवार के अन्य सदस्य शामिल होते हैं और यह 2 व्यक्तियों का नहीं, बल्कि 2 परिवारों का मिलन बन जाता है. हमारे मामले में हम इस बड़ी दुनिया में अकेले हैं. 18 साल की उम्र में हम अपने परिवारों से बाहर आते हैं और हमें अकेले ही दुनिया का सामना करना पड़ता है. मेरे 3 ब्रेकअप हो चुके हैं और तुम जानती हो कि हर ब्रेकअप कितना दर्दनाक होता है… एक बार मैं एक गहरे मानसिक अवसाद में चली गई और अभी भी उस अवसाद के लिए गोलियां ले रही हूं… अब मैं अकेली हूं. वास्तव में मैं अब एक नए रिश्ते से डर रही हूं कि इस बार भी मुझे प्यार के बदले में छल ही मिलेगा,’’ और फिर क्लारा ने लंबी सांस भरी.

‘‘सुमन हर हफ्ते आप के मातापिता आप से बात करते हैं और यह एक अच्छा एहसास है कि इस दुनिया में कोई है, जो आप को बहुत प्यार देता है और आप की चिंता करता है. जब मैं 10 साल की थी तब मेरे मातापिता अलग हो गए थे और इस से मैं बहुत परेशान थी. मुझे अपनी मां के नए प्रेमी को स्वीकारने में बहुत समय लगा. मेरे पिताजी समय मिलने पर कभी फोन किया करते थे, लेकिन कभी भी मेरे साथ समय नहीं बिताया. मेरे 2 सौतेली बहनें और 2 सौतेले भाई हैं. मेरे पिता के अन्य महिलाओं के माध्यम से बच्चे हैं और मेरी मां के भी अन्य पुरुषों के साथ बच्चे हैं. मेरी मां कभी हम सब को मिलने के लिए बुलाती है. उस समय हम एकदूसरे से मिलते हैं… वह अवसर बहुत औपचारिक होता था,’’ क्लारा ने दुखी मन से बताया.

‘‘हमारे गुजाराभत्ता कानून महिलाओं के लिए बहुत सख्त और अनुकूल है और यही कारण है कि ज्यादातर अमीर पुरुष कानूनी शादी पसंद नहीं करते हैं. अगर हम शादीशुदा हैं और अलग हो गए हैं तो उन्हें हमारे द्वारा लिए गए पैसे वापस करने होंगे और गुजाराभत्ता के रूप में मोटी रकम भी चुकानी होगी. अब इस प्रकार के संबंधों में कानून कोई भूमिका नहीं निभाता है. हमें इसे अकेले ही निबटना होगा.

‘‘हर बार जब रिश्ते में धोखा खाते हैं तो लड़कियां हमेशा के लिए टूट जाती हैं. मुझे एक गहरी प्रतिबद्धता के साथ संबंध पसंद हैं. सुमन जब मैं आप की मां को आप से बात करते हुए देखती हूं, हालांकि मुझे आप की भाषा नहीं पता, मगर उन की अभिव्यक्ति से पता चलता है कि वे आप से कितना प्यार करती हैं… आप की खातिर किसी भी तरह का दुख भोगने के लिए तैयार हैं… हमारे देश में ऐसा नहीं है. यहां हर किसी को एक अलग व्यक्ति माना जाता है,’’ क्लारा की इस बात पर जेनिफर ने भी हामी भर ली.

राधिका सुमन की तरफ देख कर मुसकराई. सुमन समझ सकती थी कि वह क्या कहना चाहती है. सुमन को लगा कि हर जगह समस्याएं हैं. लिव इन रिलेशनशिप भी इतना आसान नहीं है, जितना हरकोई कल्पना करता है. भारतीय परिस्थितियों और भारतीय पुरुषों के साथ तो यह और भी कठिन है.

सुमन सोच में पड़ गई. एक बात उस की समझ में आई कि यदि आप के पास कानूनी सुरक्षा है, तो आप एक तरह से सुरक्षित हैं कि आप से आप का पैसा नहीं छीना जाएगा और ब्रेकअप के बाद आदमी को मुआवजा देना होगा और फिर जब आप विवाहित होते हैं तो आप की सामाजिक स्वीकृति भी होती है.

उस रविवार को जब उस के मातापिता लाइन पर आए तो सुमन ने अपने पिताजी से

कहा, ‘‘मैं अब उलझन में नहीं हूं पापा… ऐसा लग रहा है कि ऐसा कोई भी तरीका नहीं है, जो बिलकुल सही या बिलकुल गलत है.’’

‘‘तुम ठीक कह रही हो बेटा. कोई भी व्यवस्था हर माने में सही या गलत नहीं हो सकती… हमें ही समझदारी के साथ काम करना पड़ेगा.

‘‘बेटा कोई भी शादी या रिश्ता इस दुनिया में ऐसा नहीं चाहे वह न्यूयौर्क हो या मुंबई ऐसा नहीं जो सौ फीसदी परफैक्ट हो. कोई न कोई कमी तो होती ही है और उसे नजरअंदाज कर के आगे बढ़ने में ही बेहतरी होती है. किसी भी रिश्ते की सफलता के लिए हर किसी को कुछ देना पड़ता है. तुम ही एक उदाहरण हो. तुम शुद्ध शाकाहारी हो मगर क्लारा के साथ एक ही रसोई को साझा कर रही हो क्यों? क्योंकि तुम क्लारा को ठेस पहुंचाना नहीं चाहती और उस से भी बढ़ कर तुम क्लारा से अपने रिश्ते का मूल्य समझती हो और उस की इज्जत करती हो, है न? जीवन भी इसी तरह है. अगर आप रिश्ते को बनाए रखना चाहते हैं तो मुकाम पर आप को हर हाल में समझौता करना होगा.’’

‘‘हर संस्कृति की अपनी ताकत और कमजोरी होती है. अमेरिकी संस्कृति की अपनी ताकत है कि यह हर व्यक्ति को मजबूत और आत्मनिर्भर बनाती है और वह कम उम्र में ही दुनिया से अकेले लड़ने की सीख देती है. मगर उस के लिए उन लोगों को किनकिन कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है यह आप ने खुद देख लिया.

‘‘हमारी भारतीय संस्कृति हमेशा परिवार की अवधारणा में विश्वास करती है और रिश्ते हमेशा हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता रहे हैं. इस में कुछ ताकत और कमजोरी हो सकती है. समझौता हर रिश्ते का एक अभिन्न हिस्सा है, चाहे 2 लोग दोस्त हों या विवाहित.’’

अपने पिता से बात करने के बाद सुमन बहुत हलका महसूस कर रही थी. ‘जब वह एक रूममेट के लिए समझौता कर सकती है, वह भी एक विदेशी से तो फिर उस आदमी के लिए क्यों नहीं जो जीवनभर उस का साथी बनने वाला है, जो उस की सफलताओं और असफलताओं में उस के जीवन का हिस्सा बनने जा रहा है… वह है उस के जीवन का एक हिस्सा… यदि उस के लिए नहीं तो फिर वह किस के लिए समझौता करेगी,’ सुमन सोच रही थी.

अब सुमन ने फैसला कर लिया. वह आशीष से शादी करने के लिए तैयार थी और उस के साथ आने वाले समझौतों के लिए भी आशीष को वह मनाएगी ही क्योंकि 2 साल से वह भी उसी का इंताजर कर रहा है. आखिर समझौते के बिना जिंदगी ही क्या है.

तसवीर: क्या मालविका ने बड़ी उम्र के केशव का रिश्ता स्वीकार कर लिया?

‘‘मुझे कल तक तुम्हारा जवाब चाहिए,’’ कह कर केशवन घर से बाहर जा चुका था. मालविका में कुछ कहनेसुनने की शक्ति नहीं रह गई थी. वह एकटक केशवन को जाते तब तक देखती रही, जब तक उस की गाड़ी आंखों से ओझल नहीं हो गई.

उस ने सपने में भी न सोचा था कि एक दिन वह इस स्थिति में होगी. केशवन ने उस से शादी का प्रस्ताव रखा था. उस के मन की मुराद पूरी होने जा रही थी. लेकिन एक तरफ उस का मन नाचनेगाने को कर रहा था, तो दूसरी तरफ वह अपने घर वालों की प्रतिक्रिया की कल्पना कर के परेशान हो रही थी.

जब वे सुनेंगे कि मालविका वापस इंडिया लौट कर नहीं आ रही है, तो पहले तो आश्चर्य करेंगे, भुनभुनाएंगे और जब जानेंगे कि वह शादी करने जा रही है तो गुस्से से फट पड़ेंगे.

‘अरे इस मालविका को इस उम्र में यह क्या पागलपन सूझा?’ वे कहेंगे, ‘लगता है कि यह सठिया गई है. इस उम्र में घरगृहस्थी बसाने चली है…’

लोग एकदूसरे से कहेंगे, ‘कुछ सुना तुम ने? अपनी मालविका शादी कर रही है. बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम. पता नहीं किस आंख के अंधे और गांठ के पूरे ने उस को फंसाया है. सचमुच शादी करेगा या शादी का नाटक कर के उसे घर की नौकरानी बना कर रखेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता.’

मालविका अपनेआप से तर्क करती रही. क्या केशवन सचमुच उस से प्यार करने लगा था? वह ऐसी परी तो है नहीं कि कोई उस के रूप पर मुग्ध हो जाए.

उस की नजर सामने दीवार पर टंगे आदमकद आईने पर पड़ी. उस का चेहरा अभी भी आकर्षक था पर समय चेहरे पर अपनी छाप छोड़ चुका था. आंखें बड़ीबड़ी थीं पर बुझी हुईं. उन में एक उदास भाव निहित था. उस का शरीर छरहरा और सुडौल था पर उस की जवानी ढलान पर थी. वह हमेशा इसी कोशिश में रहती थी कि वह किसी की आंखों में न गड़े, इसलिए वह हमेशा फीके रंग के कपड़े पहनती थी. गहने भी नाममात्र को पहनती थी. वह इतने सालों से एक अनाम जिंदगी जीती आई थी. उस की कोई शख्सीयत नहीं थी, कोई अहमियत भी नहीं थी. बड़ी अदना सी इंसान थी वह. वह अभी भी समझ नहीं पा रही थी कि केशवन ने उस में ऐसा क्या देखा कि वह उस की ओर आकर्षित हो गया. अगर वह चाहता तो उसे एक से बढ़ कर एक सुंदर लड़की मिल सकती थी.

उस ने फिर से वह लमहा याद किया जब केशवन ने उस से शादी का प्रस्ताव रखा था. वह उस पल को बारबार जीना चाहती थी.

‘मालविका, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. क्या तुम मेरी बनोगी?’ उस ने कहा था.

‘यह क्या कह रहे हैं आप?’ वह स्तब्ध रह गई थी, ‘आप मुझ से शादी करना चाहते हैं?’

‘हां.’

‘लेकिन आप को लड़कियों की क्या कमी है? एक इशारा करेंगे तो उन की लाइन लग जाएगी.’

‘हां, लेकिन तुम ने यह कहावत सुनी है न कि दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है. एक बार शादी कर के मैं धोखा खा गया. दोबारा यहां की लड़की से शादी करने की हिम्मत नहीं होती.’

फिर उस ने उसे अपनी पहली शादी के बारे में विस्तार से बताया था.

‘नैन्सी उसी अस्पताल में नर्स थी, जिसे मैं ने यहां आ कर जौइन किया

था. मैं इस शहर में बिलकुल अकेला था. न कोई संगी न साथी. नैन्सी ने दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया तो मुझे अच्छा लगा. मैं उस के यहां जाने लगा और धीरेधीरे उस के करीब आता गया. एक दिन हम ने शादी करने का निश्चय कर लिया.

‘पहले 4 वर्ष अच्छे गुजरे पर धीरेधीरे नैन्सी में बदलाव आया. वह बेहद आलसी हो गई. दिन भर सोफे पर पड़ी टीवी देखती रहती थी. नतीजा वह मोटी होती चली गई. उसे खाना बनाने में भी आलस आता था. जब मैं थकामांदा घर लौटता तो वह मुझे फास्ट फूड की दुकान से लाया एक पैकेट पकड़ा देती. घर की साफसफाई करने से भी वह कतराती थी. यहां तक कि वह हमारी नन्ही बच्ची की ओर भी ध्यान नहीं देती थी. जब मैं कुछ कहता तो हम दोनों में जम कर लड़ाई होती.

‘आखिर तलाक की नौबत आ गई. चूंकि हमारी बेटी कुल 3 साल की ही थी, इसलिए उसे मां के संरक्षण में भेजा गया. धीरेधीरे नैन्सी ने मेरी बेटी के कान भर कर उसे मेरे से दूर कर दिया व उस ने दूसरी शादी कर ली. अब मैं अपने एकाकी जीवन से तंग आ गया हूं. मुझे यह शिद्दत से महसूस हो रहा है कि जीवन के संध्याकाल में मनुष्य को एक साथी की जरूरत होती है.’

‘लेकिन,’ उस ने कहा, ‘आप को मालूम है कि मैं 40 पार कर चुकी हूं.’

‘तो क्या हुआ? चाहत में उम्र नहीं देखी जाती. इस देश में तुम्हारी उम्र की औरतें अभी भी बनठन कर और चुस्तदुरुस्त रहती हैं और भरपूर जिंदगी जीती हैं. मैं तुम्हें सोचने के लिए 24 घंटे का समय देता हूं. अभी मैं अस्पताल जा रहा हूं. कल सुबह तक मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए,’ केशवन ने मुसकरा कर कहा.

मालविका ने खिड़की के बाहर आंखें टिका दीं. मन अतीत की गलियों में भटकने लगा. उसे अपना गांव याद आया जहां उस का बचपन गुजरा था. घर में सम्मिलित परिवार की भीड़. सहेलियों के साथ धमाचौकड़ी मचाना. त्योहारों पर सजनाधजना. वह दुनिया ही अलग थी. वे दिन बेफिक्री और मौजमस्ती के दिन थे. फिर अचानक उस की शादी की बात चली और देखते ही देखते तय भी हो गई. घर में मेहमानों की गहमागहमी थी. सारा वातावरण पकवानों की खुशबू और फूलों की महक से ओतप्रोत था. द्वार पर बंदनवार सजे थे. अल्हड़ युवतियों की खिलखिलाहट गूंजने लगी. सखियां चुहल करने लगीं. सब एक सपने जैसा लग रहा था.

फेरे हो चुके थे. मृदंग की थाप और शहनाई की ऊंची आवाज के बीच शादी की पारंपरिक रस्में जोरशोर से हो रही थीं.

बात विदाई की होने लगी तो वर के पिता अनंतराम मालविका के पिता की ओर मुड़े और बोले, ‘श्रीमानजी, पहले जरा काम की बात की जाए.’

वे उन्हें एक ओर ले गए और बोले, ‘हां, अब आप हमें वह रकम पकड़ाइए, जो आप ने देने का वादा किया था.’

नारायणसामी मानो आसमान से गिरे, ‘कौन सी रकम? मैं कुछ समझा नहीं.’

‘वाह, आप की याददाश्त तो बहुत कमजोर मालूम देती है. आप को याद नहीं जब हम लोग सगाई के लिए आए थे तो आप ने कहा था कि आप क्व2 लाख तक खर्च कर सकते हैं?’

‘ओह अब समझा. श्रीमानजी, मैं ने कहा था कि मैं बेटी की शादी में क्व2 लाख लगाऊंगा क्योंकि इतने की ही मेरी हैसियत है. मैं ने यह तो नहीं कहा था कि मैं यह रकम दहेज में दूंगा.’

‘बहुत खूब. अब हमें क्या मालूम कि आप का क्या मतलब था. हम तो यही समझ बैठे थे कि आप हमें क्व2 लाख वरदक्षिणा देने के लिए राजी हुए हैं. तभी तो हम ने इस रिश्ते के लिए हामी भरी.’

नारायणसामी ने हाथ जोड़े, ‘मुझे क्षमा कीजिए. मुझे सब कुछ साफसाफ कहना चाहिए था. मुझ से भारी गलती हो गई.’

‘खैर कोई बात नहीं. शायद हमारे समझने में ही भूल हो गई होगी. पर एक बात मैं बता दूं कि दहेज की रकम के बिना मैं यह रिश्ता हरगिज कबूल नहीं कर सकता. मेरे डाक्टर बेटे के लिए लोग क्व10-10 लाख देने को तैयार थे. वह तो मेरे बेटे को आप की बेटी पसंद आ गई थी, इसलिए हमें मजबूरन यहां संबंध करना पड़ा. अब आप जल्द से जल्द पैसों का इंतजाम कीजिए.’

नारायणसामी ने गिड़गिड़ा कर कहा, ‘इतने रुपए देना मेरे लिए असंभव है. मैं ठहरा खेतिहर. इतनी रकम कहां से लाऊंगा? मुझ पर तरस खाइए. मैं ने शादी में अपनी सामर्थ्य से ज्यादा खर्च किया है. और पैसे जुटाना मेरे लिए बहुत कठिन होगा.’

‘अरे, जब सामर्थ्य नहीं थी तो अपनी हैसियत का रिश्ता ढूंढ़ा होता. मेरे बेटे पर क्यों लार टपकाई?’

नारायणसामी कातर स्वर में बोले, ‘ऐसा अनर्थ न करें. मैं वादा करता हूं कि जितनी जल्दी हो सकेगा मैं पैसों का इंतजाम कर के आप तक पहुंचा दूंगा.’

‘ठीक है. आप की बेटी भी तभी विदा होगी.’

तभी मालविका के तीनों भाई अंदर घुस आए.

‘आप ऐसा नहीं कर सकते,’ वे भड़क कर बोले.

‘क्यों नहीं कर सकता?’ अनंतराम ने अकड़ कर कहा.

‘हमारी बहन की आप के बेटे से शादी हो चुकी है. अब वह आप के घर की बहू है. आप की अमानत है.’

‘तो हम कब इनकार कर रहे हैं?’

‘लेकिन इस समय दहेज की बात उठा कर आप क्यों बखेड़ा कर रहे हैं बताइए तो? क्या आप को पता नहीं कि दहेज लेना कानूनन जुर्म है? अगर हम पुलिस में खबर कर दें तो आप सब को हथकडि़यां पड़ जाएंगी.’

‘पुलिस का डर दिखाते हो. अब तो मैं हरगिज बहू को विदा नहीं कराऊंगा. कर लो जो करना हो. न मुझे तुम्हारे पैसे चाहिए और न ही तुम्हारे घर की बेटी. मैं अपने बेटे की दूसरी शादी कराऊंगा, डंके की चोट पर कराऊंगा.’

‘हांहां, जो जी चाहे कर लेना. यह धमकी किसी और को देना. हमारी इकलौती बहन हमें भारी नहीं है कि हम उस के लिए आप के सामने नाक रगड़ेंगे. हम में उसे पालने की शक्ति है. हम उसे पलकों पर बैठा कर रखेेंगे.’

‘ठीक है, तुम रखो अपनी बहन को. हम चलते हैं.’

मालविका के मातापिता समधी के हाथपैर जोड़ते रहे पर उन्होंने किसी की एक न सुनी. वे उसी वक्त बिना खाएपिए बरातियों समेत घर से बाहर हो गए.

‘अरे लड़को, तुम ने ये क्या कर डाला?’ शारदा रो कर बोलीं, ‘लड़की के फेरे हो चुके हैं. अब वह पराया धन है. अपने पति की अमानत है. उसे कैसे घर में बैठाए रखोगे?’

‘फिक्र न करो अम्मां. उस धनलोलुप के घर जा कर हमारी बहन दुख ही भोगती. वे उसे दहेज के लिए सतातेरुलाते. अच्छा हुआ कि समय रहते हमें उन लोगों की असलियत मालूम हो गई.’

‘लेकिन अब तुम्हारी बहन का क्या होगा? वह न तो इधर की रही न उधर की. विवाहित हो कर भी उस की गिनती विवाहित स्त्रियों में नहीं होगी. बेटा, शादी के बाद लड़की अपनी ससुराल में ही शोभा देती है. चाहे जैसे भी हो समधीजी की मांगें पूरी करने की कोशिश करो और मालविका को ससुराल विदा करो.’

‘अम्मां तुम बेकार में डर रही हो. हम समधीजी की मांगें पूरी करते रहे तो इस सिलसिले का कभी अंत न होगा. एक बार उन के आगे झुक गए तो वे हमें लगातार दुहते रहेंगे. हमें पक्का यकीन है कि देरसवेर वे अपनी गलती मान लेंगे और मालविका को विदा करा के ले जाएंगे.’

‘पर वे अपने बेटे की दूसरी शादी की धमकी दे कर गए हैं.’

‘अरे अम्मां, अगर लड़के वाले अपने बेटे का पुनर्विवाह करेंगे तो हम भी अपनी मालविका का दूसरा विवाह रचाएंगे.’

यह कहना आसान था पर कर दिखाना बहुत मुश्किल. दिन पर दिन गुजरते गए और मालविका के लिए कोई अच्छा वर नहीं मिला. कोई लड़का नजर में पड़ता तो वही लेनदेन की बात आड़े आती. किसी दुहाजू का रिश्ता आता तो वह उन को न जंचता. जब मालविका की उम्र 30 के करीब पहुंची तो रिश्ते आने बंद हो गए.

उस की मां उस की चिंता में घुलती रहीं. वे बारबार अपने पति से गिड़गिड़ातीं, ‘अजी कुछ भी करो. मेरे गहने बेच दो. यह मकान या जमीन गिरवी रख दो पर लड़की का कुछ ठिकाना करो. जवान बेटी को कितने दिन घर में बैठा कर रखोगे. मुझ से उस की हालत देखी नहीं जाती.’

एक बार नारायणसामी लड़कों से चोरीछिपे समधी के घर गए भी पर अपना सा मुंह ले कर वापस आ गए. अनंतराम ने बताया कि उन का बेटा पढ़ाई करने के लिए अमेरिका जा चुका है और उस के शीघ्र लौटने की कोई उम्मीद नहीं है. उन्होंने दोटूक शब्दों में कह दिया कि अच्छा होगा कि आप लोग अपनी बेटी के लिए कोई और वर देख लें.

अब रहीसही आशा भी टूट चुकी थी. नारायणसामी गुमसुम रहने लगे. एक दिन उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे नहीं रहे.

उन के तीनों बेटे शहर में नौकरी करते थे, ‘अम्मां,’ उन्होंने कहा, ‘तुम्हारा और मालविका का अब यहां गांव में अकेले रहना मुनासिब

नहीं. बेहतर होगा कि तुम दोनों हमारे साथ चल कर रहो.’

बड़े बेटे सुधीर को मुंबई में रेलवे विभाग में नौकरी मिली थी. रहने को मकान था. मांबेटी अपना सामान समेट कर उस के साथ चल दीं.

मां ने जाते ही बेटे के घर का चूल्हाचौका संभाल लिया और मालविका के जिम्मे आए अन्य छिटपुट काम. उस ने अपने नन्हे भतीजेभतीजी की देखरेख का काम संभाल लिया.

कुछ दिन बाद उस के मझले भाई का फोन आया, ‘मां, तुम्हारी बहू के बच्चा होने वाला है. तुम तो जानती हो कि उस की मां नहीं है. उसे तुम्हें ही संभालना होगा. हम तुम्हारे ही भरोसे हैं.’

‘हांहां क्यों नहीं,’ मां ने उत्साह से कहा और वे तुरंत जाने को तैयार हो गईं. मालविका को भी उन के साथ जाना पड़ा.

अब उन की जिंदगी का यही क्रम हो गया. बारीबारी से तीनों भाई मांबेटी को अपने यहां बुलाते. मां के देहांत के बाद भी मालविका इसी ढर्रे पर चलती रही. उस के मेहनती और निरीह स्वभाव से सब प्रसन्न थे. उस की अपनी मांगें अत्यंत सीमित थीं. उसे किसी से कोई अपेक्षा नहीं थी. उस की कोई आकांक्षा नहीं थी. उस के जीवन का ध्येय ही था दूसरों के काम आना. वह हमेशा सब की मदद करने को तत्पर रहती थी.

उस के भाइयों की देखादेखी उस के अन्य सगेसंबंधी भी उसे गरज पड़ने पर बुला लेते. हर कोई उस से कस कर काम लेता और अपना उल्लू सीधा करने के बाद उसे टरका देता.

मालविका के दिन किसी तरह बीत रहे थे. कभीकभी वह अपने एकाकी जीवन की एकरसता से ऊब जाती. जब वह अपनी हमउम्र स्त्रियों को अपनी गृहस्थी में रमी देखती, उन्हें अपने परिवार में मगन देखती, तो उस के कलेजे में एक हूक उठती. लोगों की भीड़ में वह अकेली थी. जबतब उस का मन अनायास ही भर आता और जी करता कि वह फूटफूट कर रोए. पर उस के आंसू पोंछने वाला भी तो कोई न था.

उस के ससुर की धनलोलुपता और उस के भाइयों की हठधर्मिता ने उस की जिंदगी पर कुठाराघात किया था. अब वह एक बिना साहिल की नाव के मानिंद डूबउतरा रही थी. उद्देश्यहीन, गतिहीन…

मालविका के बड़े भाई सुधीर की बेटी उषा की शादी हो गई और वह अमेरिका के न्यूजर्सी शहर में जा बसी. जब वह गर्भवती हुई तो उसे मालविका की याद आई, तो वह अपने पापा से बोली, ‘पापा, आप किसी तरह बूआजी को यहां भेज दो तो मेरी मुश्किल हल हो जाएगी. वे घर भी संभाल लेंगी और बच्चे को भी देख लेंगी. यहां के बारे में तो पता है न आप को? बेबी सिटर और नौकरानियां 1-1 घंटे के हिसाब से चार्ज करती हैं. इस से हमारा तो दीवाला ही निकल जाएगा.’

‘हांहां तुम्हारे लिए मालविका कभी मना नहीं करेगी. पर कुछ दिनों से वह गठिया के दर्द से परेशान है. अगर तुम लोग उस के लिए मैडिकल इंश्योरैंस करा लो तो अच्छा रहेगा. सुना है कि उस देश में बीमार पड़ने पर अस्पताल और डाक्टरों के इलाज में बड़ा भारी खर्च होता है.’

‘हांहां क्यों नहीं. ये कौन सी बड़ी बात है. बूआ का बीमा करा लिया जाएगा. बस आप उन्हें जल्द से जल्द रवाना कर दें.’

मालविका अमेरिका के लिए रवाना हो गई. उस की भतीजी उसे एअरपोर्ट पर लेने आई थी.

‘बेटी, तेरे देश में तो बड़ी ठंड है,’ मालविका ने ठिठुरते हुए कहा, ‘मेरी तो कंपकंपी छूट रही है.’

उषा हंस पड़ी, ‘अरे बूआजी, अपना घर वातानुकूलित है. बाहर निकलो तो कार में हीटर लगा हुआ है. शौपिंग मौल में भी टैंप्रेचर गरम रखा जाता है. फिर सर्दी से क्यों घबराना? हां, एक बात का खयाल रखना बाहर कदम रखो तो बर्फ में पांव फिसलने का डर रहता है, इसलिए जरा संभल कर रहना.’

फिर उस ने मालविका के गले लग कर कहा, ‘बूआजी तुम आ गईं तो मेरी सब चिंता दूर हो गई. अब तुम मुझे वे सभी चीजें बना कर खिलाना जिन्हें खाने के लिए मेरा मन ललचाता है.’

घर पहुंच कर उषा ने कहा, ‘बूआ, आप का बिस्तर बेबी के रूम में लगा दिया है. जब बेबी पैदा होगा तो शायद रात में एकाध बार बच्चे को दूध की बोतल देने के लिए उठना पड़ेगा और हां, सुबह रस्टी को जरा बाहर ले जाना होगा, क्योंकि आप को

तो पता है मेरी नींद आसानी से नहीं खुलती.’

‘ये रस्टी कौन है?’

‘अरे रस्टी हमारा छोटा सा कुत्ता है. कल ही दिलीप उसे खरीद कर लाए हैं. हम ने सोचा है कि बच्चे को उस का साथ अच्छा लगेगा.’

‘पर बेटी, इतने नन्हे बच्चे के साथ कुत्ता पालना अक्लमंदी है क्या? जानवर का क्या ठिकाना, कभी बच्चे को नुकसान पहुंचा दे तो?’

‘अरे नहीं बूआ, ऐसा कुछ नहीं होगा. आप नाहक डर रही हैं. वैसे दिलीप जब घर में होंगे तो वे ही कुत्ते का सब काम देखेंगे.’

कुछ समय बाद उषा ने एक बालक को जन्म दिया. मालविका ने घर का काम संभाल लिया और बच्चे की जिम्मेदारी भी ले ली. वह दिन भर बहुत सारे काम करती और रात को निढाल हो कर बिस्तर पर पड़ जाती. काम वह इंडिया में भी करती थी पर वहां और लोग भी थे उस का हाथ बंटाने के लिए. यहां वह अकेली पड़ गई थी.

एक दिन सुबह वह बच्चे का दूध बना रही थी कि रस्टी दरवाजे के पास आ कर कूंकूं करने लगा. ‘ओह तुझे भी अभी ही जाना है मुए,’ वह झुंझलाई.

जब रस्टी ने कूंकूं करना बंद न किया तो मालविका ने बच्चे को पालने में डाला और एक शौल लपेट कर रस्टी की चेन थामे घर से निकली.

पिछली रात बर्फ गिरी थी. सीढि़यों पर बर्फ जम गई थी और सीढि़यां कांच की तरह चिकनी हो गई थीं. मालविका ने हड़बड़ी में ध्यान न दिया और जैसे ही उस का पांव सीढ़ी पर पड़ा वह फिसल कर गिर पड़ी.

उस ने उठने की कोशिश की तो उस के पैर में भयानक दर्द हुआ. उस के मुंह से चीख निकल गई. उसे लगा उस भीषण ठंड में धरती पर पड़ेपड़े उस का शरीर अकड़ जाएगा और उस का दम निकल जाएगा.

काफी देर बाद उषा ने द्वार खोला तो उसे पड़ा देख कर उस के मुंह से भी चीख निकल गई, ‘ये क्या हुआ बूआ? तुम कैसे गिर पड़ीं? मैं ने तुम्हें आगाह किया था न कि बर्फ पर बहुत होशियारी से कदम रखना वरना पैर फिसलने का डर रहता है.’

‘अब मैं जान कर तो नहीं गिरी,’ उस ने कराह कर कहा, ‘जल्दीबाजी में पांव फिसल गया.’ उषा व उस का पति दिलीप उसे अस्पताल ले गए.

डाक्टर ने मालविका की जांच कर के बताया कि इन का टखना टूट गया है. औपरेशन करना होगा और हड्डी बैठानी होगी और इस में 10 हजार डौलर का खर्चा आएगा.

10 हजार सुन कर मालविका की सांस रुकने लगी, ‘उषा, तू ने मेरा मैडिकल बीमा करा लिया था न?’

‘मैं ने दिलीप से कह तो दिया था. क्यों जी, आप ने बूआजी का बीमा करा लिया था न?’

‘ओहो, ये बात तो मेरे ध्यान से बिलकुल उतर गई.’

उषा अपने हाथ मलने लगी, ‘ये आप ने बड़ी गलती की. अब इतने सारे पैसे कहां से आएंगे?’

वे इधरउधर फोन घुमाते रहे. आखिर उन्हें एक डाक्टर मिल गया जो मालविका का औपरेशन 3 हजार डौलर में करने को तैयार हो गया.

प्लास्टर उतरने वाले दिन उषा अपनी बूआ को अस्पताल ले गई. प्लास्टर उतरने के बाद जब मालविका ने पहला कदम उठाया तो देखा कि उस का टूटा हुआ पैर सीधा नहीं पड़ रहा था. उस के पैर डगमगाए और वह कुरसी में गिर पड़ी.

‘हाय ये क्या हो गया?’ उस के मुंह से निकला.

डाक्टर ने पैर की जांच की और बोले, ‘लगता है पैर सैट करने में जरा गलती हो गई. अब जब आप चलेंगी तो आप का एक पैर थोड़ा टेढ़ा पड़ेगा. आप को छड़ी का सहारा लेना होगा और कोई चारा नहीं है.’

मालविका की आंखों से झरझर आंसू बह निकले. हाय वह अपाहिज हो गई. अब वह बैसाखियों के सहारे चलेगी. बुढ़ापे में उसे दूसरों के आसरे जीना होगा.

तभी एक नर्स उस के पास आई, ‘मैडम, आप ओपीडी में चलिए. हमारे अस्पताल में न्यूयार्क से एक विजिटिंग डाक्टर आए हैं, जो आप के पैर की जांच करना चाहते हैं?’

‘कौन डाक्टर?’ मालविका ने अपना आंसुओं से भीगा चेहरा ऊपर उठाया.

‘डाक्टर केशवन.’

‘केशवन? यह कैसा नाम है?’

‘वे आप के ही देश के ही हैं. चलिए, मैं आप को व्हीलचेयर में ले चलती हूं.’

मालविका का हृदय जोरों से धड़क उठा. क्या ये वही थे? नहीं, उस ने अपना सिर हिलाया. इस नाम के और भी तो डाक्टर हो सकते हैं. पर डाक्टर को देखते ही उस का संशय दूर हो गया. वही हैं, वही हैं उस के हृदय में एक धुन सी बजने लगी. हालांकि मालविका उन्हें पूरे 20 साल बाद देख रही थी पर उन्हें पहचानने में उसे एक पल की देरी भी नहीं हुई. केशवन का बदन दोहरा हो गया था और सिर के बाल उड़ गए थे. पर चेहरामोहरा वही था.

ये छवि तो उस के हृदय में अंकित थी, उस ने भावुक हो कर सोचा. इन की तसवीर तो उस ने सहेज कर अपने बक्से में रखी हुई थी. वह हर रोज अकेले में तसवीर को निकालती, उसे निहारती और उस पर 2-4 आंसू बहाती. ये तसवीर उन दोनों की मंगनी के अवसर पर ली गई थी. एक प्रति मालविका ने सब की नजर बचा कर चुरा कर अपने पास रख ली थी.

उस ने सुना था कि केशवन अमेरिका जा कर वहीं के हो गए थे. उस ने एक उड़ती हुई खबर यह भी सुनी थी कि केशवन ने एक गोरी मेम से शादी कर ली थी और इस बात से उस के मातापिता बहुत दुखी थे. डाक्टर केशवन कैबिन में आए. मालविका ने उन पर एक भेदी नजर डाली. क्या उन्होंने उसे पहचान लिया था? शायद नहीं. उन्होंने उस का पैर जांचा.

‘आप का औपरेशन सही तरीके से नहीं किया गया है, इसीलिए आप की चाल टेढ़ी हो गई है. दोबारा हड्डी तोड़ कर फिर से जोड़नी पड़ेगी.’

‘ओह इस में तो भारी खर्च आएगा,’ मालविका चिंतित हो उठी.

‘डाक्टर, हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं,’ उषा बोल उठी,

‘हम सोच रहे हैं कि इन्हें वापस इंडिया भेज दें. वहां पर इन का इलाज हो जाएगा.’

‘पैसे की आप चिंता न करें,’ केशवन ने कहा, ‘मैं इन का इलाज अपनी क्लीनिक में करा दूंगा,

एक भारतीय होने के नाते हमें परदेश में एकदूसरे की मदद तो करनी ही चाहिए.’

‘ओह डाक्टर साहब आप ने हमें उबार लिया,’ उषा बोली.

‘मैं कल न्यूयार्क वापस जा रहा हूं. आप कहें तो इन्हें साथ ले जाऊंगा. औपरेशन के बाद इन्हें थोड़ा आराम की जरूरत है फिर ये इंडिया जा सकती हैं.’

औपरेशन होने के बाद केशवन ने पूछा, ‘अब आप क्या करना चाहेंगी? न्यूजर्सी अपनी भतीजी के पास रहेंगी या…’

‘और कहां जाऊंगी? मेरा तो और कोई ठौर नहीं है,’ मालविका ने कहा.

‘मेरा एक सुझाव है. यदि अन्यथा न समझें तो आप कुछ दिन मेरे यहां रह सकती हैं.’

‘आप के यहां?’ मालविका चौंक पड़ी, ‘लेकिन आप की पत्नी, आप का परिवार?’

केशवन हंस दिया, ‘मैं अकेला हूं. विश्वास कीजिए मुझे आप के रहने से कोई दिक्कत नहीं होगी बल्कि इस में मेरा भी एक स्वार्थ है. मैं कभीकभी अपने देश का खाना खाने को तरस जाता हूं. हो सके तो मेरे लिए एकाध डिश बना दिया करिए और कौफी का तो मैं बहुत ही शौकीन हूं. दिन में 5-6 प्याले पीता हूं. आप बना दिया करेंगी न?’

वह हंस पड़ी. वह उस से ढेरों सवाल करना चाहती थी. वह अकेला क्यों था? उस की बीवी कहां थी? लेकिन वह अभी उस के लिए नितांत अजनबी थी इसलिए उस ने चुप्पी साध ली.

केशवन के घर पर आ कर उसे ऐसा लगा था कि वह अपने मुकाम पर पहुंच गई है.

उसे एक फिल्मी गाना याद आया. ‘जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते…’

2 माह में ही वह ठीक हो कर चलने लगी. इतने दिन में केशवन के घर का चप्पाचप्पा उस का हो गया. उस ने बड़ी जतन से उसे ठीक कर दिया. वह डाक्टर का एहसान सेवा से चुकाना चाहती थी, उधर केशवन की बात ने उसे अंदर तक हिला दिया.

लेकिन मालविका ने सोचा, आज उस के जीवन में ये अनहोनी घटी थी. उस का गुजरा हुआ मुकाम फिर लौट आया था. जिस आदमी की तसवीर को देखदेख कर उस ने इतने साल गुजारे थे वह आज उस के सामने खड़ा था और उसे अपनाना चाह रहा था. ये एक चमत्कार नहीं तो क्या था. उस ने अपने लिए थोड़ी सी खुशी की कामना की थी. केशवन ने उस की झोली में दुनिया भर की खुशी उड़ेल दी थी.

भला ऐसा क्यों होता है कि इस भरी दुनिया में केवल एक व्यक्ति हमारे लिए अहम बन जाता है? उस ने सोचा. ऐसा क्यों लगता है कि हमारा जन्मजन्मांतर का साथ है, हम एकदूसरे के लिए ही बने हैं. एक चुंबकीय शक्ति हमें उस की ओर खींच ले जाती है. हर पल उस मनुष्य की शक्ल देखने को जी करता है, उस से बातें करने के लिए मन लालायित रहता है. उस की हर एक बात, हर एक आदत मन को भाती है. उस के बिना जीवन अधूरा लगता है, व्यर्थ लगता है. उस की छुअन शरीर में एक सिहरन पैदा करती है, तनमन में एक मादक एहसास होता है और हमारा रोमरोम पुकार उठता है- यही है मेरे मन का मीत, मेरा जीवनसाथी.

इस मनुष्य की तसवीर के सहारे उस ने इतने साल गुजार दिए थे. आज वह उस के सामने प्रार्थी बन कर खड़ा था. उस से प्यार की याचना करते हुए. क्या वह इस मौके को गवां देगी?

नहीं, उस ने सहसा तय कर लिया कि वह केशवन का प्रस्ताव स्वीकार कर लेगी. अगर उस ने ये मौका हाथ से निकल जाने दिया तो वह जीवन भर पछताएगी. आज तक वह औरों के लिए जीती आई थी. अब वह अपने लिए जिएगी और रही उस के परिवार की बात तो चाहे उन्हें अच्छा लगे चाहे बुरा, उन्हें उस के निर्णय को स्वीकार करना ही होगा.

घड़ी का घंटा बज उठा तो उस की तंद्रा भंग हुई. ओह वह बीते दिनों की यादों में इतना खो गई थी कि उसे समय का ध्यान ही न रहा. वह उठी और उस ने एकएक कर के घर का काम निबटाना शुरू किया. उस ने कमरों की सफाई की. आज उसे इस घर में एक अपनापन महसूस हो रहा था. हर एक वस्तु पर प्यार आ रहा था. उस ने केशवन के कपड़े करीने से लगाए. बगीचे से फूल ला कर कमरों में सजाए.

उस की निगाहें घड़ी की ओर लगी रहीं. जैसे ही घड़ी में 10 बजे घर का मुख्य द्वार खुला और केशवन ने प्रवेश किया.

‘‘ओह,’’ वह एक कुरसी में पसर कर बोला, ‘‘आज मैं बहुत थक गया हूं. आज सुबह 3 औपरेशन करने पड़े.’’

मालविका के मन में केशवन पर ढेर सारा प्यार उमड़ आया. उस ने कौफी का प्याला आगे बढ़ाया.

‘‘ओह, थैंक्स.’’

वह कौफी के घूंट भरता रहा और उसे एकटक देखता रहा.

वह तनिक असहज हो गई, ‘‘ऐसे क्या देख रहे हैं?’’

‘‘तुम्हें देख रहा हूं. आज तुम्हारे चेहरे पर एक नई आभा है, एक लुनाई है, एक अजब सलोनापन है. ये कायापलट क्यों हुई?’’

वह लजा गई, ‘‘क्या आप नहीं जानते?’’

‘‘शायद जानता हूं पर तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूं.’’

उस के मुंह से बोल न निकला.

‘‘मालविका, कल मैं ने तुम से कुछ पूछा था. उस का जवाब क्या है बोलो, हां कि ना?’’

मालविका ने धीरे से कहा , ‘‘हां.’’

केशवन ने उठ कर उसे अपनी बांहों में ले लिया.

‘‘मालविका, आज मैं बहुत खुश हूं मुझे मालूम था कि तुम मेरा प्रस्ताव नहीं ठुकराओगी. तभी मैं ने तुम्हारे लिए ये अंगूठी पहले से ही खरीद कर रखी थी.’’

उस ने जेब से एक मखमली डब्बी निकाली और उस में से एक हीरे की अंगूठी निकाल कर उस की उंगली में पहना दी.

‘‘मैं तुम्हें एक और चीज दिखाना चाहता था.’’

‘‘वह क्या?’’

‘‘केशवन ने अपना हाथ आगे किया. मालविका चिंहुक उठी. उसे लगा वह रंगे हाथों पकड़ी गई है.’’

‘‘अरे,’’ वह हकलाने लगी, ‘‘ये तसवीर तो मेरे बक्से में थी. ये आप को कहां से मिली?’’

‘‘ये तसवीर मैं ने आप के बक्से से नहीं ली मैडम. ये तो मेरे मेज की दराज में पड़ी रहती है.’’

‘‘मालविका अवाक उस की ओर देखने लगी. शर्म से उस की कनपटियां लाल हो गईं.’’

मालविका की प्रतिक्रिया देख कर केशवन हंस पड़ा, ‘‘अरे पगली, जिस तरह तुम ने हमारी मंगनी के अवसर पर ली गई ये तसवीर संभाल कर रखी थी, उसी तरह मैं ने भी एक तसवीर मौका पा कर उड़ा ली थी. इसे जबतब देख कर तुम्हारी याद ताजा कर लिया करता था.’’

वह झेंप गई. ‘‘ओह, तो आप जान गए थे कि मैं कौन हूं.’’

‘‘और नहीं तो क्या. तुम ने क्या सोचा कि मुझे अनजान लोगों का मुफ्त इलाज करने का शौक है? उस दिन अस्पताल में तुम्हें मैं पहली नजर में ही पहचान गया था. तुम्हें भला कैसे भूल सकता था? आखिर तुम मेरा पहला प्यार थीं.’’

‘‘और आप ने यह बात मुझ से इतने दिनों तक बड़ी होशियारी से छिपाए रखी,’’ उस ने मीठा उलाहना दिया.

‘‘और करता भी क्या. तुम्हारा आगापीछा जाने बगैर मैं अपना मुंह न खोलना चाहता था. मैं तो यह भी न जानता था कि तुम शादीशुदा हो या नहीं, तुम्हारे बालबच्चे हैं या नहीं. तुम्हें अचानक अपने सामने देख कर मैं चकरा गया था. जब तुम्हें रोते हुए देखा तो कारण जान कर तुम्हारी मदद करने का फैसला कर लिया.

‘‘जब हमारी बातों के दौरान यह पता चला कि तुम्हारी शादी नहीं हुई है और न ही तुम्हारे जीवन में और कोई पुरुष आया है तो मैं ने तुम्हें अपना बनाने का निश्चय कर लिया. मेरा तुम्हें अपने घर बुलाने का भी यही मकसद था. मैं तुम्हारा मन टटोलना चाहता था. मैं चाहता था कि हम दोनों में नजदीकियां बढ़ें. हम एकदूसरे को जानें और परखें और जब मैं ने जान लिया कि तुम्हारे मन में मेरे प्रति कोई कड़वाहट नहीं है, कोई मनमुटाव नहीं है तो मेरी हिम्मत बढ़ी. मैं ने तुम से शादी करने की ठान ली.’’

मालविका की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई. इतने बड़े संयोग की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

केशवन ने उसे बांहों में भींच लिया, ‘‘एक बार भारी गलती की कि अपने पिता का विरोध न कर तुम्हें खो दिया. शादी के बाद घर पहुंच कर मैं ने अपने पिता से बहुत बहस की पर वे यही कहते रहे कि उन्होंने मेरी पढ़ाई पर अपनी सारी पूंजी लगा दी है और ये रकम वे कन्या पक्ष से वसूल कर के ही रहेंगे. मैं ने भी गुस्से से भर कर अमेरिका जाने की ठान ली जहां से ढेर सारे डौलर कमा कर अपने पिता को भेज सकूं और उन की धनलोलुपता को शांत कर सकूं. उस के बाद नैन्सी मेरे जीवन में आई और मैं ने तुम्हें भुला देना चाहा.

‘‘मैं मानता हूं कि मैं ने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया. अब मैं तुम से शादी कर के इस का प्रतिकार करना चाहता हूं.

मालविका क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि हम दोनों का मिलन अवश्यंभावी था? किसी अज्ञात शक्ति ने हमें एकदूसरे से मिलाया है. नहीं तो न तुम अमेरिका आतीं और न हम यों अचानक मिलते.’’

उस ने मालविका के आंसू पोंछे, ‘‘यह समय इन आंसुओं का नहीं है. ये हमारी नई जिंदगी की शुरुआत है. मालविका, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. जो कुछ बीत गया उसे भुला दो और भावी जीवन की सोचो. हमें एकदूसरे का साथ मिला तो हम बाकी जिंदगी हंसतेखेलते गुजार देंगे, कल हम अपनी शादी के लिए रजिस्ट्रार औफिस जाएंगे.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘फिर भी शादी के लिए हमें 2-4 चीजों की जरूरत तो पड़ेगी ही. मसलन, नई साड़ी, मंगलसूत्र वगैरह…’’

‘‘मंगलसूत्र मेरे पास है.’’

‘‘अरे वह कैसे?’’

‘‘मैं आप का दिया हुआ ये मंगलसूत्र हमेशा अपने गले में पहने रहती हूं. यह 20 साल से एक कवच की तरह मेरे गले में पड़ा हुआ है.’’

‘‘सच?’’ केशवन हंस पड़ा. उस ने झुक कर मालविका का मुंह चूम लिया.

मालविका का सर्वांग सिहर उठा. उसे ऐसा लगा कि उस का शरीर एक फूल की तरह खिलता जा रहा है. वह केशवन के आगोश में सिमट गई. उसे अपनी मंजिल जो मिल गई थी.

तालमेल : क्या दोबारा गृहस्थी बना पाई ऋतु?

‘‘गोपाल जीजाजी सुनिए,’’ अचानक अपने लिए जीजाजी का संबोधन सुन कर विधुर गोपाल चौंक पड़ा. उस ने मुड़ कर देखा, ऋतु एक सुदर्शन युवक के साथ खड़ी मुसकरा रही थी. चंडीगढ़ में उस के परिवार के साथ गोपाल और उस की पत्नी रचना का दिनरात का उठनाबैठना था.

‘‘अरे, साली साहिबा आप? अरे, शादी कर ली और मुझे बताया तक नहीं?’’

‘‘आप का कोई अतापता होता तो शादी में बुलाती,’’ ऋतु ने शिकायत भरे स्वर में कहा और फिर युवक की ओर मुड़ कर बोली, ‘‘राहुल, यह गोपाल जीजाजी हैं.’’

‘‘मुझे मालूम है. जब पहली बार तुम्हारे घर आया था तो अलबम में इन की कई तसवीरें देखी थीं. पापा ने बताया था कि ये भी कभी परिवार के ही सदस्य थे. दिल्ली ट्रांसफर होने के बाद भी संपर्क रहा था. फिर पत्नी के आकस्मिक निधन के बाद न जाने कहां गायब हो गए,’’ राहुल बीच ही में बोल उठा.

‘‘रचना के निधन के बाद मनु को अकेले संभालना मुश्किल था, इसलिए उसे देहरादून में एक होस्टल में डाल दिया. यहां से देहरादून नजदीक है, इसलिए अपना ट्रांसफर भी यहीं करवा लिया. अकसर आप लोगों से संपर्क करने की सोचता था, मगर व्यस्तता के चलते टाल जाता था.’’

गोपाल ने जैसे सफाई दी, ‘‘चलो, सामने रेस्तरां में बैठ कर इतमीनान से बातें करते हैं. अकेले रहता हूं, इसलिए घर तो ले जा नहीं सकता.’’

‘‘तो हमारे घर चलिए न जीजाजी,’’ राहुल ने आग्रह किया.

‘‘तुम्हारे घर जाने और वहां खाना बनने में देर लगेगी और मुझे बहुत भूख लगी है. मैं रेस्तरां में खाना खाने जा रहा हूं, तुम भी मेरे साथ खाना खाओ. अब मुलाकात हो गई है तो घर आनाजाना तो होता ही रहेगा.’’

रेस्तरां में खाना और्डर करने के बाद गोपाल ने ऋतु से उस के परिवार का हालचाल पूछा और फिर राहुल से उस के बारे में. राहुल ने बताया कि वह एक फैक्टरी में इंजीनियर है.

‘‘नया प्लांट लगाने की जिम्मेदारी मुझ पर है, इसलिए बहुत व्यस्त रहता हूं. घर वालों से बहुत कहा था कि फिलहाल मेरे पास घरगृहस्थी के लिए बिलकुल समय नहीं होगा. अत: शादी स्थगित कर दें. मगर कोई माना ही नहीं और उस की सजा भुगतनी पड़ ही है बेचारी ऋतु को. खैर, अब आप मिल गए हैं तो मेरी चिंता दूर हो गई. अब आप इसे संभालिए और मैं अपनी नौकरी को समय देता हूं. अगर मैं यह प्रोजैक्ट समय पर यानी अगले 3 महीने में सफलतापूर्वक पूरा नहीं कर सका तो मेरी यह नौकरी ही नहीं पूरा भविष्य ही खतरे में पड़ जाएगा जीजाजी,’’ राहुल ने बताया.

‘‘दायित्व वाली नौकरी में तो ऐसे तनाव और दबाव रहते ही हैं. खैर, अब साली साहिबा की फिक्र छोड़ कर तुम अपने प्रोजैक्ट पर ध्यान दो और फिलहाल खाने का मजा लो, अच्छा लग रहा है न?’’

‘‘हां, क्या आप रोज यहीं खाना खाते हैं?’’ राहुल ने पूछा.

‘‘अकसर सुबह नौकरानी नाश्ता और साथ ले जाने के लिए लंच बना देती है, शाम को यहीं कहीं खा लेता हूं.’’

‘‘अब आप इधरउधर नहीं हमारे साथ खाना खाया करेंगे जीजाजी. ऋतु बढि़या खाना बनाती है.’’

‘‘जीजाजी को मालूम है, मैं ने रचना दीदी से ही तो तरहतरह का खाना बनाना सीखा है,’’ ऋतु बोली.

‘‘तब तो तुम्हें जीजा को क्याक्या पसंद है, यह भी मालूम होगा?’’ राहुल ने पूछा, तो ऋतु ने सहमति में सिर हिला दिया.

‘‘तो फिर कल रात का डिनर जीजाजी की पसंद का बनेगा,’’ राहुल ने कहा, ‘‘मना न करिएगा जीजाजी.’’

‘‘जीजाजी को अपने घर का पता तो बताओ,’’ ऋतु बोली.

‘‘आप के पास व्हीकल है न जीजाजी?’’ राहुल ने पूछा.

‘‘हां, मोटरसाइकिल है.’’

‘‘तो फिर पता क्या बताना तुम घर ही दिखा दो न. मैं यहां से सीधा फैक्टरी के लिए निकल जाता हूं. तुम जीजाजी के साथ घर जाओ, मैं एक राउंड लगा कर आता हूं. तब तक आप लोग बरसों की जमा की हुई बातें कर लेना.’’

‘‘कमाल के आदमी हो यार… कुछ देर पहले मिले अजनबी के भरोसे बीवी को छोड़ कर जा रहे हो.’’

‘‘क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं जीजाजी, ऋतु के घर में आप की भी वही इज्जत है, जो ललित जीजाजी की,’’ राहुल ने उठते हुए कहा.

गोपाल अभिभूत हो गया. ललित ऋतु की बड़ी बहन लतिका का पति था. मोटरसाइकिल पर ऋतु उस से सट कर बैठी. एक अरसे के बाद नारीदेह के स्पर्श से शरीर में एक अजीब सी अनुभूति का एहसास हुआ. लेकिन अगले ही पल उस ने उस एहसास को झटक दिया कि ऐसा सोचना भी राहुल और ऋतु के परिवार के साथ विश्वासघात है. बातों में समय कब बीत गया पता ही नहीं चला. राहुल के लौटने के बाद वह चलने के लिए उठ खड़ा हुआ.

‘‘आप कल जरूर आना जीजाजी,’’ राहुल ने याद दिलाया.

‘कल नहीं, आज शाम

को कहो, 12 बज चुके हैं बरखुरदार. वैसे भी शाम को मुझे औफिस में देर हो जाएगी, इसलिए फिर कभी आऊंगा.’’

‘‘देरसवेर से अपने यहां कुछ फर्क नहीं पड़ता जीजाजी और फिर देर तक काम करने के बाद तो घर का बना खाना ही खाना चाहिए,’’ राहुल ने जोड़ा.

‘‘लेकिन हलका, दावत वाला नहीं,’’ गोपाल ने हथियार डाल दिए.

‘‘हलका यानी दालचावल बना लूंगी, मगर आप को आना जरूर है,’’ ऋतु ठुनकी.

शाम को जब गोपाल ऋतु के घर पहुंचा तो राहुल तब तक नहीं आया था.

‘‘हो सकता है 10 मिनट में आ जाएं और यह भी हो सकता है कि 10 बजे तक भी न आएं… फोन कर बता देती हूं कि आप आ गए हैं,’’ ऋतु ने मोबाइल उठाते हुए कहा.

‘‘ठीक है, मैं खाना पैक कर देती हूं. आप ड्राइवर को आने के लिए कह दीजिए,’’ कह कर ऋतु ने मोबाइल रख दिया. बोली, ‘‘कहते हैं आने में देर हो जाएगी, ड्राइवर को खाना लाने भेज रहे हैं. आप टीवी देखिए जीजाजी, मैं अभी इन का टिफिन पैक कर के आती हूं.’’

‘‘मुझे फोन दो पूछता हूं कि यह कहां की शराफत है कि मुझे घर बुला कर खुद औफिस

में खाना खा रहा है,’’ गोपाल की बात सुन

कर ऋतु ने नंबर मिला कर मोबाइल उसे पकड़ा दिया.

‘‘आप घर पर हैं, इसलिए मैं भी समय पर घर का खाना खा लूंगा जीजाजी वरना

अकेली ऋतु के पास तो ड्राइवर को घर पर खाना लाने नहीं भेज सकता ना,’’ गोपाल की शिकायत सुन कर राहुल ने कहा, ‘‘आप के साथ ऋतु भी खा लेगी वरना भूखी ही सो जाती है.

आप मेरे रहने न रहने की परवाह मत करिए जीजाजी, बस जब फुरसत मिले ऋतु को कंपनीदे दिया करिए.’’

घर में वैसी ही महक थी जैसी कभी रचना की रसोई से आया करती थी. ऋतु डब्बा ले कर आई ही थी कि तभी घंटी बजी.

‘‘लगता है ड्राइवर आ गया.’’

गोपाल ने बढ़ कर दरवाजा खोला और ऋतु से डब्बा ले कर ड्राइवर को पकड़ा दिया.

‘‘खाने की खुशबू से मुझे भी भूख लग आई है ऋतु.’’

‘‘आप डाइनिंगटेबल के पास बैठिए, मैं अभी खाना ला रही हूं,’’ कह ऋतु ने फुरती से मेज पर खाना रख दिया. राई और जीरे से

बघारी अरहर की दाल और भुनवा आलू, लौकी का रायता.

‘‘आप परोसना शुरू करिए जीजाजी,’’ उस ने रसोई में से कहा, ‘‘मैं गरमगरम चपातियां ले कर आ रही हूं.’’

‘‘तुम भी आओ न,’’ गोपाल ने चपातियां रख कर वापस जाती ऋतु से कहा.

‘‘बस 1 और आप के लिए और 1 अपने लिए और चपाती बना कर अभी आई. मगर आप खाना ठंडा मत कीजिए.’’

‘‘तुम्हें यह कैसे मालूम कि मैं बस 2 ही चपातियां खाऊंगा?’’ गोपाल ने ऋतु के आने के बाद पूछा, ‘‘और भी तो मांग सकता हूं?’’

‘‘सवाल ही नहीं उठता. चावल के साथ आप 2 से ज्यादा चपातियां नहीं खाते और अरहर की दाल के साथ चावल खाने का मोह भी नहीं छोड़ सकते. मुझे सब पता है जीजाजी,’’ ऋतु ने कुछ इस अंदाज से कहा कि गोपालसिहर उठा. वाकई उस की पसंद के बारे में ऋतु को पता था. खाने में बिलकुल वही स्वाद था जैसा रचना के बनाए खाने में होता था. खाने के बाद रचना की ही तरह ऋतु ने अधभुनी सौंफ भी दी.

गोपाल ने कहना चाहा कि रचना के जाने के बाद पहली बार लगा है कि खाना खाया है, रोज तो जैसे जीने के लिए पेट भरता है. और जीना तो खैर है ही मनु के लिए, पर कह न पाया.

‘‘टीवी देखेंगे जीजाजी?’’

तो ऋतु को मेरी खाना खाने के बाद थोड़ी देर टीवी देखने की आदत का भी पता है, सोच गोपाल बोला, ‘‘अभी तो घर जाऊंगा साली साहिबा. स्वाद में ज्यादा खा लिया है. अत: नींद आ रही है.’’ हालांकि खाते ही चल पड़ना शिष्टाचार के विरुद्ध था, लेकिन न जाने क्यों उस ने ज्यादा ठहरना मुनासिब नहीं समझा.

‘‘आप अपनी नियमित खुराक से कभी ज्यादा कहां खाते हैं जीजाजी, मगर नींद आने वाली बात मानती हूं. कल भी आधी रात तक रोके रखा था हम ने आप को.’’

‘‘तो फिर आज जाने की इजाजत है?’’

‘‘इस शर्त पर कि कल फिर आएंगे.’’

‘‘कल तो हैड औफिस यानी दिल्ली जा रहा हूं.’’

‘‘कितने दिनों के लिए?’’

‘‘1 सप्ताह तो लग ही जाएगा… आ कर फोन करूंगा.’’

‘‘फोन क्या करना स्टेशन से सीधे यहीं आ जाइएगा. सफर से आने के बाद पेट भर घर का खाना खा कर आप कुछ देर सोते हैं और फिर औफिस जाते हैं. आप बिना संकोच आ जाना. मैं तो हमेशा घर पर ही रहती हूं गोलू जीजाजी.’’

गोपाल चौंक पड़ा. रचना उसे गोलू कहती थी यह ऋतु को कैसे मालूम, लेकिन प्रत्यक्ष में उस की बात को अनसुना कर के वह विदा ले कर आ गया. घर आ कर भी वह इस बारे में सोचता रहा. रचना कभी भी कुंआरी ऋतु से अपने

पति के बारे में बात करने वाली नहीं थी. उस का और ऋतु का परिवार एक सरकारी आवासीय कालोनी के मकान में ऊपरनीचे रहता था. मनु तो ज्यादातर ऋतु की मम्मी के पास ही रहता था. रचना भी उस के औफिस जाने के बाद नीचे चली जाती थी और जिस रोज ऋतु के पापा उस के औफिस से लौटने के पहले आ जाते थे तो उसे अपने पास ही बरामदे में बैठा लेते थे, ‘‘यहीं बैठ जाओ न गोपाल बेटे, तुम्हारे बहाने हमें भी एक बार फिर चाय मिल जाएगी.’’

छुट्टी के रोज अकसर सब लोग पिकनिक पर या कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने जाते थे. कई बार रचना के यह कहने पर कि आंटीजी और ऋतु फलां फिल्म देखना चाह रही हैं, वह किराए पर वीसीआर ले आता था और ऋतु के घर वाले फिल्म देखने ऊपर आ जाते थे. ऋतु का आनाजाना तो खैर लगा ही रहता था. दोनों में थोड़ीबहुत नोकझोंक भी हो जाती थी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं था जिसे देख कर लगे कि

ऋतु उस में हद से ज्यादा दिलचस्पी ले रही है. तो फिर अब और वह भी शादी के बाद ऋतु ऐसा व्यवहार क्यों कर रही है? माना कि राहुल व्यस्त है और नवविवाहिता ऋतु के साथ उतना समय नहीं बिता पा रहा जितना उसे बिताना चाहिए, लेकिन वह ऋतु की अवहेलना भी तो नहीं कर रहा? ऋतु को समझना होगा और वह भी बगैर उस से मिले.

गोपाल दिल्ली से 2 दिन बाद ही लौट आया, मगर उस ने ऋतु से संपर्क नहीं किया. 1 सप्ताह के बाद ऋतु को फोन किया.

‘‘आप कब आए जीजाजी?’’

‘‘कल रात को.’’

‘‘तो फिर आप घर क्यों नहीं आए? मैं ने कहा था न,’’ ऋतु ठुनकी.

‘‘रात के 11 बजे मैं सिवा अपने घर के कहीं और नहीं जाता,’’ उस ने रुखाई से कहा.

‘‘यह भी तो आप ही का घर है. अभी आप कहां हैं?’’

‘‘औफिस में.’’

‘‘वह क्यों? टूर से आने के बाद आराम नहीं किया?’’

‘‘रात भर कर तो लिया. अभी मैं एक मीटिंग में जा रहा हूं ऋतु. तुम से फिर बात करूंगा,’’ कह कर फोन बंद कर दिया.

शाम को ऋतु का फोन आया, मगर उस ने मोबाइल बजने दिया. कुछ देर के बाद फिर ऋतु ने फोन किया, तब भी उस ने बात नहीं की.मगर घर आने पर उस ने बात कर ली.

‘‘आप कौल क्यों रिसीव नहीं कर रहे थे जीजाजी?’’ ऋतु ने झुंझलाए स्वर में पूछा.

‘‘औफिस में काम छोड़ कर पर्सनल कौल रिसीव करना मुझे पसंद नहीं है.’’

‘‘आप अभी तक औफिस में हैं?’’

‘‘हां, दिल्ली जाने की वजह से काफी काम जमा हो गया है. उसे खत्म करने के लिए कई दिनों तक देर तक रुकना पड़ेगा.’’

‘‘खाने का क्या करेंगे?’’

‘‘भूख लगेगी तो यहीं मंगवा लेंगे नहीं तो घर जाते हुए कहीं खा लेंगे.’’

‘‘कहीं क्यों यहां आ जाओ न जीजाजी.’’

‘‘मेरे साथ और भी लोग रुके हुए हैं ऋतु और हम जब इकट्ठे काम करते हैं तो खाना भी इकट्ठे ही खाते हैं. अच्छा, अब मुझे काम करने दो, शुभ रात्रि.’’

उस के बाद कई दिनों तक यही क्रम चला और फिर ऋतु का फोन आया कि चंडीगढ़ से पापा आए हुए हैं और आप से मिलना चाहते हैं. अंकल से मिलने का लोभ गोपाल संवरण न कर सका और शाम को उन से मिलने ऋतु के घर गया. कुछ देर के बाद ऋतु खाना बनाने रसोई में चली गई.

‘‘तुम ने क्या नौकरी बदल ली है गोपाल?’’ अंकल ने पूछा.

‘‘नहीं अंकल.’’

‘‘ऋतु बता रही थी कि अब तुम बहुत व्यस्त रहते हो. पहले तो तुम समय पर घर आ जाते थे.’’

‘‘तरक्की होने के बाद काम और जिम्मेदारियां तो बढ़ती ही हैं अंकल.’’

‘‘तुम्हारी बढ़ी हुई जिम्मेदारियों में मैं एक और जिम्मेदारी बढ़ा रहा हूं गोपाल,’’ अंकल ने आग्रह किया, ‘‘ऋतु का खयाल भी रख लिया करो. राहुल बता रहा था कि तुम्हारे मिलने पर उसे थोड़ी राहत महसूस हुई थी, लेकिन तुम भी एक बार आने के बाद व्यस्त हो गए और ऋतु ने अपने को एकदम नकारा समझना शुरू कर दिया है. असल में मैं राहुल के फोन करने पर ही यहां आया हूं. अगले कुछ महीनों तक उस पर काम का बहुत ही ज्यादा दबाव है और ऐसे में ऋतु का उदास होना उस के तनाव को और भी ज्यादा बढ़ा देता है. अत: वह चाहता था कि मैं कुछ अरसे के लिए ऋतु को अपने साथ ले जाऊं, लेकिन मैं और तुम्हारी आंटी यह मुनासिब नहीं समझते. राहुल के मातापिता ने साफ कहा था कि राहुल की शादी इसलिए जल्दी कर रहे हैं कि पत्नी उस के खानेपहनने का खयाल रख सके. ऐसे में तुम्हीं बताओ हमारा उसे ले जाना क्या उचित होगा? मगर बेचारी ऋतु भी कब तक टीवी देख कर या पत्रिकाएं पढ़ कर समय काटे? पासपड़ोस में कोई हमउम्र भी नहीं है.’’

‘‘वह तो है अंकल, लेकिन मेरा आना भी अकसर तो नहीं हो सकता,’’ उस ने असहाय भाव से कहा.

‘‘फिर भी उस से फोन पर तो बात कर ही सकते हो.’’

‘‘वह तो रोज कर सकता हूं.’’

‘‘तो जरूर किया करो बेटा, उस का अकेलापन कुछ तो कम होगा,’’ अंकल ने मनुहार के स्वर में कहा.

घर लौटने के बाद गोपाल को भी अकेलापन खलता था. अत: वह ऋतु को रोज रात को फोन करने लगा. वह जानबूझ कर व्यक्तिगत बातें न कर के इधरउधर की बातें करता था, चुटकुले सुनाता था, किव्ज पूछता था. एक दिन जब किसी बात पर ऋतु ने उसे फिर गोलू जीजाजी कहा तो वह पूछे बगैर न रह सका, ‘‘तुम्हें यह नाम कैसे मालूम है ऋतु, रचना के बताने का तो सवाल ही नहीं उठता?’’

ऋतु सकपका गई, ‘‘एक बार आप दोनों को बातें करते सुन लिया था.’’

‘‘छिप कर?’’

‘‘जी,’’ फिर कुछ रुक कर बोली, ‘‘उस रोज छिप कर आप की और पापा की बातें भी सुनी थीं जीजाजी. आप कह रहे थे कि आप शादी करेंगे, मगर तब जब मनु भी अपनी अलग दुनिया बसा लेगा. उस में तो अभी कई साल हैं जीजाजी, तब तक आप अकेलापन क्यों झेलते हैं? मैं ने तो जब से आप को देखा है तब से चाहा है, तभी तो आप की हर पसंदनापसंद मालूम है. अब जब आप भी अकेले हैं और मैं भी तो क्यों नहीं चले आते आप मेरे पास?’’

‘‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है ऋतु,’’ गोपाल चिल्लाया, ‘‘6 फुट के पति के रहते खुद को अकेली कह रही हो?’’

‘‘6 फुट के पति के पास मेरे लिए 6 पल भी नहीं हैं जीजाजी. घर बस नहाने, सोने को आते हैं, आपसी संबंध कब बने थे, याद नहीं. अब तो बात भी हांहूं में ही होती है. शिकायत करती हूं, तो कहते हैं कि अभी 1-2 महीने तक या तो मुझे यों ही बरदाश्त करो या मम्मीपापा के पास चली जाओ. आप ही बताओ यह कोई बात हुई?’’

‘‘बात तो खैर नहीं हुई, लेकिन इस के सिवा समस्या का कोई और हल भी तो नहीं है.’’

‘‘है तो जो मैं ने अभी आप को सुझाया.’’

‘‘एकदम अनैतिक…’’

‘‘जिस से किसी पर मानसिक अथवा आर्थिक दुष्प्रभाव न पड़े और जिस से किसी को सुख मिले वह काम अनैतिक कैसे हो गया?’’ ऋतु ने बात काटी, ‘‘आप सोचिए मेरे सुझाव पर जीजाजी.’’

गोपाल ने सोचा तो जरूर, लेकिन यह कि ऋतु को भटकने से कैसे रोका जाए? राहुल जानबूझ कर तो उस की अवहेलना नहीं कर

रहा था और फिर यह सब उस ने शादी से पहले भी बता दिया था, लेकिन ऋतु से यह अपेक्षा करना कि वह संन्यासिनी का जीवन व्यतीत

करे उस के प्रति ज्यादती होगी. ऋतु को नौकरी करने या कोई कोर्स करने को कहना भी

मुनासिब नहीं था, क्योंकि मनचले तो हर जगह होते हैं और अल्हड़ ऋतु भटक सकती थी. इस से पहले कि वह कोई हल निकाल पाता, उस की मुलाकात अचानक राहुल से हो गई. राहुल उस के औफिस में फैक्टरी के लिए सरकार से कुछ अतिरिक्त सुविधाएं मांगने आया था.

गोपाल उसे संबंधित अधिकारी के पास ले गया और परस्पर परिचय करवाने के बाद बोला, ‘‘जब तक उमेश साहब तुम्हारी याचिका पर निर्णय लेते हैं, तुम मेरे कमरे में चलो राहुल, कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’

राहुल को असमंजस की स्थिति में देख कर उमेश हंसा, ‘‘बेफिक्र हो कर जाइए. गोपाल बाबू के साथ आए हैं, तो आप का काम तो सब से पहले करना होगा. कुछ

देर के बाद मंजूरी के कागज गोपाल बाबू के कमरे में पहुंचवा दूंगा.’’

राहुल के चेहरे पर राहत के भाव उभरे.

‘‘अगर वैस्ट वाटर पाइप को लंबा करने की अनुमति मिल जाती है तो मेरी कई परेशानियां खत्म हो जाएंगी जीजाजी और मैं काम समय से कुछ पहले ही पूरा कर दूंगा. अगर मैं ने यह प्रोजैक्ट समय पर चालू करवा दिया न तो मेरी तो समझिए लाइफ बन गई. कंपनी के मालिक दिनेश साहब हरेक को उस के योगदान का श्रेय देते हैं. वे मेरी तारीफ भी जरूर करेंगे जिसे सुन कर कई और बड़ी कंपनियां भी मुझे अच्छा औफर दे सकती हैं,’’ राहुल ने गोपाल के साथ चलते हुए बड़े उत्साह से बताया.

‘‘यानी तुम फिर इतने ही व्यस्त हो जाओगे?’’

‘‘एकदम तो नहीं. इस प्रोजैक्ट को सही समय पर चालू करने के इनाम में दिनेश साहब 1 महीने की छुट्टी और सिंगापुर, मलयेशिया वगैरह के टिकट देने का वादा कर चुके हैं. जब तक किसी भी नए प्रोजैक्ट की कागजी काररवाई चलती है तब तक मुझे थोड़ी राहत रहती है. फिर प्रोजैक्ट समय पर पूरा करने का काम चालू.’’

‘‘लेकिन इस व्यस्तता में ऋतु को कैसे खुश रखोगे?’’

‘‘वही तो समस्या है जीजाजी. नौकरी वह करना नहीं चाहती और मुझे भी पसंद नहीं है. खैर, किसी ऐसी जगह घर लेने जहां पासपड़ौस अच्छा हो और फिर साल 2 साल में बच्चा हो जाने के बाद तो इतनी परेशानी नहीं रहेगी. मगर समझ में नहीं

आ रहा कि फिलहाल क्या करूं? इस पाइप लाइन की समस्या को ले कर पिछले कुछ दिनों से इतने तनाव में था कि उस से ठीक से बात भी नहीं कर पा रहा. ऋतु स्वयं को उपेक्षित फील करने लगी है.’’

‘‘पाइप लाइन की समस्या तो समझो हल हो ही गई. तुम अब ऋतु को क्वालिटी टाइम दो यानी जितनी देर उस के पास रहो उसे महसूस करवाओ कि तुम सिर्फ उसी के हो, उस की बेमतलब की समस्याओं या बातों को भी अहमियत दो.’’

‘‘यह क्वालिटी टाइम वाली बात आप ने खूब सुझाई जीजाजी, यानी सौ बरस की जिंदगी से अच्छे हैं प्यार के दोचार दिन.’’

‘‘लेकिन एक एहसास तुम्हें उसे और करवाना होगा राहुल कि उस की शख्सीयत फालतू नहीं है, उस की तुम्हारी जिंदगी में बहुत अहमियत है.’’

‘‘वह तो है ही जीजाजी और यह मैं उसे बताता भी रहता हूं, लेकिन वह समझती ही नहीं.’’

‘‘ऐसे नहीं समझेगी. तुम कह रहे थे न कि दिनेश साहब सार्वजनिक रूप से तुम्हारे योगदान की सराहना करेंगे. तब तुम इस सब का श्रेय अपनी पत्नी को दे देना. बात उस तक भी पहुंच ही जाएगी…’’

‘‘उद्घाटन समारोह में तो वह होगी ही. अत: स्वयं सुन लेगी और बात झूठ भी नहीं

होगी, क्योंकि जब से ऋतु मेरी जिंदगी में आई है मैं चाहता हूं कि मैं खूब तरक्की करूं और उसे सर्वसुख संपन्न गृहस्थी दे सकूं.’’

गोपाल ने राहत की सांस ली. उस ने राहुल को व्यस्तता और पत्नी के प्रति दायित्व निभाने का तालमेल जो समझा दिया था.

परिंदा : अजनबी से एक मुलाकात ने कैसे बदली इशिता की जिंदगी

लेखक-रत्नेश कुमार

‘‘सुनिए, ट्रेन का इंजन फेल हो गया है. आगे लोकल ट्रेन

से जाना होगा.’’

आवाज की दिशा में पलकें उठीं तो उस का सांवला चेहरा देख कर पिछले ढाई घंटे से जमा गुस्सा आश्चर्य में सिमट गया. उस की सीट बिलकुल मेरे पास वाली थी मगर पिछले 6 घंटे की यात्रा के दौरान उस ने मुझ से कोई बात करने की कोशिश नहीं की थी.

हमारी ट्रेन का इंजन एक सुनसान जगह में खराब हुआ था. बाहर झांक कर देखा तो हड़बड़ाई भीड़ अंधेरे में पटरी के साथसाथ घुलती नजर आई.

अपनी पूरी शक्ति लगा कर भी मैं अपना सूटकेस बस, हिला भर ही पाई. बाहर कुली न देख कर मेरी सारी बहादुरी आंसू बन कर छलकने को तैयार थी कि उस ने अपना बैग मुझे थमाया और बिना कुछ कहे ही मेरा सूटकेस उठा लिया. मेरी समझ में नहीं आया कि क्या कुछ क हूं.

‘‘रहने दो,’’ मैं थोड़ी सख्ती से बोली.

‘‘डरिए मत, काफी भारी है. ले कर भाग नहीं पाऊंगा,’’ उस ने मुसकरा कर कहा और आगे बढ़ गया.

पत्थरों पर पांव रखते ही मुझे वास्तविकता का एहसास हुआ. रात के 11 बजे से ज्यादा का समय हो रहा था. घनघोर अंधेरे आकाश में बिजलियां आंखें मटका रही थीं और बारिश धीरेधीरे जोश में आ रही थी.

हमारे भीगने से पहले एक दूसरी ट्रेन आ गई लेकिन मेरी रहीसही हिम्मत भी हवा हो गई. ट्रेन में काफी भीड़ थी. उस की मदद से मुझे किसी तरह जगह मिल गई मगर उस बेचारे को पायदान ही नसीब हुआ. यह बात तो तय थी कि वह न होता तो उस सुनसान जगह में मैं…

आखिरी 3-4 स्टेशन तक जब ट्रेन कुछ खाली हो गई तब मैं उस का नाम जान पाई. अभिन्न कोलकाता से पहली बार गुजर रहा था जबकि यह मेरा अपना शहर था. इसलिए कालिज की छुट्टियों में अकेली ही आतीजाती थी.

हावड़ा पहुंच कर अभिन्न को पता चला कि उस की फ्लाइट छूट चुकी है और अगला जहाज कम से कम कल दोपहर से पहले नहीं था.

‘‘क्या आप किसी होटल का पता बता देंगी?’’ अभिन्न अपने भीगे कपड़ों को रूमाल से पोंछता हुआ बोला.

हम साथसाथ ही टैक्सी स्टैंड की ओर जा रहे थे. कुली ने मेरा सामान उठा रखा था.

लगभग आधे घंटे की बातचीत के बाद हम कम से कम अजनबी नहीं रह गए थे. वह भी कालिज का छात्र था और किसी सेमिनार में भाग लेने के लिए दूसरे शहर जा रहा था. टैक्सी तक पहुंचने से पहले मैं ने उसे 3-4 होटल गिना दिए.

‘‘बाय,’’ मेरे टैक्सी में बैठने के बाद उस ने हाथ हिला कर कहा. उस ने कभी ज्यादा बात करने की कोशिश नहीं की थी. बस, औपचारिकताएं ही पूरी हुई थीं मगर विदा लेते वक्त उस के शब्दों में एक दोस्ताना आभास था.

‘‘एक बात पूछूं?’’ मैं ने खिड़की से गरदन निकाल कर कुछ सोचते हुए कहा.

एक जोरदार बिजली कड़की और उस की असहज आंखें रोशन हो गईं. शायद थकावट के कारण मुझे उस का चेहरा बुझाबुझा लग रहा था.

उस ने सहमति में सिर हिलाया. वैसे तो चेहरा बहुत आकर्षक नहीं था लेकिन आत्मविश्वास और शालीनता के ऊपर बारिश की नन्ही बूंदें चमक रही थीं.

‘‘यह शहर आप के लिए अजनबी है और हो सकता है आप को होटल में जगह न भी मिले,’’ कह कर मैं थोड़ी रुकी, ‘‘आप चाहें तो हमारे साथ हमारे घर चल सकते हैं?’’

उस के चेहरे पर कई प्रकार की भावनाएं उभर आईं. उस ने प्रश्न भरी निगाहों से मुझे देखा.

‘‘डरिए मत, आप को ले कर भाग नहीं जाऊंगी,’’ मैं खिलखिला पड़ी तो वह झेंप गया. एक छोटी सी हंसी में बड़ीबड़ी शंकाएं खो जाती हैं.

वह कुछ सोचने लगा. मैं जानती थी कि वह क्या सोच रहा होगा. एक अनजान लड़की के साथ इस तरह उस के घर जाना, बहुत अजीब स्थिति थी.

‘‘आप को बेवजह तकलीफ होगी,’’ आखिरकार अभिन्न ने बहाना ढूंढ़ ही निकाला.

‘‘हां, होगी,’’ मैं गंभीर हो कर बोली, ‘‘वह भी बहुत ज्यादा यदि आप नहीं चलेंगे,’’ कहते हुए मैं ने अपने साथ वाला गेट खोल दिया.

वह चुपचाप आ कर टैक्सी में बैठ गया. इंसानियत के नाते मेरा क्या फर्ज था पता नहीं, लेकिन मैं गलत कर रही हूं या सही यह सोचने की नौबत ही नहीं आई.

मैं रास्ते भर सोचती रही कि चलो, अंत भला तो सब भला. मगर उस दिन तकदीर गलत पटरी पर दौड़ रही थी. घर पहुंच कर पता चला कि पापा बिजनेस ट्रिप से एक दिन बाद लौटेंगे और मम्मी 2 दिन के लिए रिश्तेदारी में दूसरे शहर चली गई हैं. हालांकि चाबी हमारे पास थी लेकिन मैं एक भयंकर विडंबना में फंस गई.

‘‘मुझे होटल में जगह मिल जाएगी,’’ अभिन्न टैक्सी की ओर पलटता हुआ बोला. उस ने शायद मेरी दुविधा समझ ली थी.

‘‘आप हमारे घर से यों ही नहीं लौट सकते हैं. वैसे भी आप काफी भीग चुके हैं. कहीं तबीयत बिगड़ गई तो आप सेमिनार में नहीं जा पाएंगे और मैं इतनी डरपोक भी नहीं हूं,’’ भले ही मेरे दिल में कई आशंकाएं उठ रही थीं पर ऊपर से बहादुर दिखना जरूरी था.

कुछ देर में हम घर के अंदर थे. हम दोनों बुरी तरह से सहमे हुए थे. यह बात अलग थी कि दोनों के अपनेअपने कारण थे.

मैं ने उसे गेस्टरूम का नक्शा समझा दिया. वह अपने कपड़ों के साथ चुपचाप बाथरूम की ओर बढ़ गया तो मैं कुछ सोचती हुई बाहर आई और गेस्टरूम की कुंडी बाहर से लगा दी. सुरक्षा की दृष्टि से यह जरूरी था. दुनियादारी के पहले पाठ का शीर्षक है, शक. खींचतेधकेलते मैं सूटकेस अपने कमरे तक ले गई और स्वयं को व्यवस्थित करने लगी.

‘‘लगता है दरवाजा फंसता है?’’ अभिन्न गेस्टरूम के दरवाजे को गौर से देखता हुआ बोला. उस ने कम से कम 5 मिनट तक दरवाजा तो अवश्य ठकठकाया होगा जिस के बारे में मैं भूल गई थी.

‘‘हां,’’ मैं ने तपाक से झूठ बोल दिया ताकि उसे शक न हो, पर खुद पर ही यकीन न कर पाई. फिर मेरी मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं.

किचन से मुझे जबरदस्त चिढ़ थी और पढ़ाई के बहाने मम्मी ने कभी जोर नहीं दिया था. 1-2 बार नसीहतें मिलीं भी तो एक कान से सुनी दूसरे से निकल गईं. फ्रिज खोला तो आंसू जमते हुए महसूस होने लगे. 1-2 हरी सब्जी को छोड़ कर उस में कुछ भी नहीं था. अगर घर में कोई और होता तो आसमान सिर पर उठा लेती मगर यहां खुद आसमान ही टूट पड़ा था.

एक बार तो इच्छा हुई कि उसे चुपचाप रफादफा करूं और खुद भूख हड़ताल पर डट जाऊं. लेकिन बात यहां आत्मसम्मान पर आ कर अटक गई थी. दिमाग का सारा सरगम ही बेसुरा हो गया था. पहली बार अफ सोस हुआ कि कुछ पकाना सीख लिया होता.

‘‘मैं कुछ मदद करूं?’’

आवाज की ओर पलट कर देखा तो मन में आया कि उस की हिम्मत के लिए उसे शौर्यचक्र तो मिलना ही चाहिए. वह ड्राइंगरूम छोड़ कर किचन में आ धमका था.

‘दफा हो जाओ यहां से,’ मेरे मन में शब्द कुलबुलाए जरूर थे मगर प्रत्यक्ष में मैं कुछ और ही कह गई, ‘‘नहीं, आप बैठिए, मैं कुछ पकाने की कोशिश करती हूं,’’ वैसे भी ज्यादा सच बोलने की आदत मुझे थी नहीं.

‘‘देखिए, आप इतनी रात में कुछ करने की कोशिश करें इस से बेहतर है कि मैं ही कुछ करूं,’’ वह धड़धड़ा कर अंदर आ गया और किचन का जायजा लेने लगा. उस के होंठों पर बस, हलकी सी मुसकान थी.

मैं ठीक तरह से झूठ नहीं बोल पा रही थी इसलिए आंखें ही इशारों में बात करने लगीं. मैं चाह कर भी उसे मना नहीं कर पाई. कारण कई हो सकते थे मगर मुझे जोरदार भूख लगी थी और भूखे इनसान के लिए तो सबकुछ माफ है. मैं चुपचाप उस की मदद करने लगी.

10 मिनट तक तो उस की एक भी गतिविधि समझ में नहीं आई. मुझे पता होता कि खाना पकाना इतनी चुनौती का काम है तो एक बार तो जरूर पराक्रम दिखाती. उस ने कढ़ाई चढ़ा कर गैस जला दी. 1-2 बार उस से नजर मिली तो इच्छा हुई कि खुद पर गरम तेल डाल लूं, मगर हिम्मत नहीं कर पाई. मुझे जितना समझ में आ रहा था उतना काम करने लगी.

‘‘यह आप क्या कर रही हैं?’’

मैं पूरी तल्लीनता से आटा गूंधने में लगी थी कि उस ने मुझे टोक  दिया. एक तो ऐसे काम मुझे बिलकुल पसंद नहीं थे और ऊपर से एक अजनबी की रोकटोक, मैं तिलमिला उठी.

‘‘दिखता नहीं, आटा गूंध रही हूं,’’ मैं ने मालिकाना अंदाज में कहा, पर लग रहा था कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. मैं ने एक बार उस की ओर नजर उठाई तो उस की दबीदबी हंसी भी दुबक गई.

‘‘आप रहने दें, मैं कर लूंगा,’’ उस ने विनती भरे स्वर में कहा.

आटा ज्यादा गीला तो नहीं था मगर थोड़ा पानी और मिलाती तो मिल्क शेक अवश्य बन जाता.

हाथ धोने बेसिन पर पहुंची तो आईना देख कर हृदय हाहाकार कर उठा. कान, नाक, होंठ, बाल, गाल यानी कोई ऐसी जगह नहीं बची थी जहां आटा न लगा हो. एक बार तो मेरे होंठों पर भी हंसी फिसल गई.

मैं जानबूझ कर किचन में देर से लौटी.

‘‘आइए, खाना बस, तैयार ही है,’’ उस ने मेरा स्वागत यों किया जैसे वह खुद के घर में हो और मैं मेहमान.

इतनी शर्मिंदगी मुझे जीवन में कभी नहीं हुई थी. मैं उस पल को कोसने लगी जिस पल उसे घर लाने का वाहियात विचार मेरे मन में आया था. लेकिन अब तीर कमान से निकल चुका था. किसी तरह से 5-6 घंटे की सजा काटनी थी.

मैं फ्रिज से टमाटर और प्याज निकाल कर सलाद काटने लगी. फिलहाल यही सब से आसान काम था मगर उस पर नजर रखना नहीं भूली थी. वह पूरी तरह तन्मय हो कर रोटियां बेल रहा था.

‘‘क्या कर रही हैं आप?’’

‘‘आप को दिखता कम है क्या…’’ मेरे गुस्से का बुलबुला फटने ही वाला था कि…

‘‘मेरा मतलब,’’ उस ने मेरी बात काट दी, ‘‘मैं कर रहा हूं न,’’ उसे भी महसूस हुआ होगा कि उस की कुछ सीमाएं हैं.

‘‘क्यों, सिर्फ काटना ही तो है,’’ मैं उलटे हाथों से आंखें पोंछती हुई बोली. अब टमाटर लंबा रहे या गोल, रहता तो टमाटर ही न. वही कहानी प्याज की भी थी.

‘‘यह तो ठीक है इशिताजी,’’ उस ने अपने शब्दों को सहेजने की कोशिश की, ‘‘मगर…इतने खूबसूरत चेहरे पर आंसू अच्छे नहीं लगते हैं न.’’

मैं सकपका कर रह गई. सुंदर तो मैं पिछले कई घंटों से थी पर इस तरह बेवक्त उस की आंखों का दीपक जलना रहस्यमय ही नहीं खतरनाक भी था. मुझे क्रोध आया, शर्म आई या फिर पता नहीं क्या आया लेकिन मेरा दूधिया चेहरा रक्तिम अवश्य हो गया. फिर मैं इतनी बेशर्म तो थी नहीं कि पलकें उठा कर उसे देखती.

उजाले में आंखें खुलीं तो सूरज का कहीं अतापता नहीं था. शायद सिर पर चढ़ आया हो. मैं भागतीभागती गेस्टरूम तक गई. अभिन्न लेटेलेटे ही अखबार पलट रहा था.

‘‘गुडमार्निंग…’’ मैं ने अपनी आवाज से उस का ध्यान खींचा.

‘‘गुडमार्निंग,’’ उस ने तत्परता से जवाब दिया, ‘‘पेपर उधर पड़ा था,’’ उस ने सफाई देने की कोशिश की.

‘‘कोई बात नहीं,’’ मैं ने टाल दिया. जो व्यक्ति रसोई में धावा बोल चुका था उस ने पेपर उठा कर कोई अपराध तो किया नहीं था.

‘‘मुझे कल सुबह की फ्लाइट में जगह मिल गई है,’’ उसे यह कहने में क्या प्रसन्नता हुई यह तो मुझे पता नहीं लेकिन मैं आशंकित हो उठी, ‘‘सौरी, वह बिना पूछे ही आप का फोन इस्तेमाल कर लिया,’’ उस ने व्यावहारिकतावश क्षमा मांग ली, ‘‘अब मैं चलता हूं.’’

‘‘कहां?’’

अभिन्न ने मुझे यों देखा जैसे पहली बार देख रहा हो. प्रश्न तो बहुत सरल था मगर मैं जिस सहजता से पूछ बैठी थी वह असहज थी. मुझे यह भी आभास नहीं हुआ कि यह ‘कहां’ मेरे मन में कहां से आ गया. मेरी रहीसही नींद भी गायब हो गई.

कितने पलों तक कौन शांत रहा पता नहीं. मैं तो बिलकुल किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई थी.

‘‘10 बज गए हैं,’’ ऐसा नहीं था कि घड़ी देखनी मुझे नहीं आती हो मगर कुछ कहना था इसलिए उस ने कह दिया होगा.

‘‘ह…हां…’’ मेरी शहीद हिम्मत को जैसे संजीवनी मिल गई, ‘‘आप चाहें तो इधर रुक सकते हैं, बस, एक दिन की बात तो है.’’

मैं ने जोड़तोड़ कर के अपनी बात पूरी तो कर दी मगर अभिन्न दुविधा में फंस गया.

उस की क्या इच्छा थी यह तो मुझे पता न था लेकिन उस की दुविधा मेरी विजय थी. मेरी कल्पना में उस की स्थिति उस पतंग जैसी थी जो अनंत आकाश में कुलांचें तो भर सकती थी मगर डोर मेरे हाथ में थी. पिछले 15 घंटों में यह पहला सुखद अनुभव था. मेरा मन चहचहा उठा.

‘‘फिर से खाना बनवाने का इरादा तो नहीं है?’’

उस के इस प्रश्न से तो मेरे अरमानों की दुनिया ही चरमरा गई. पता नहीं उस की काया किस मिट्टी की बनी थी, मुझे तो जैसे प्रसन्न देख ही नहीं सकता था.

‘‘अब तो आप को यहां रुकना ही पड़ेगा,’’ मैं ने अपना फैसला सुना दिया. वास्तव में मैं किसी ऐसे अवसर की तलाश में थी कि कुछ उस की भी खबर ली जा सके.

‘‘एक शर्त पर, यदि खाना आप पकाएं.’’

उस ने मुसकरा कर कहा था, सारा घर खिलखिला उठा. मैं भी.

‘‘चलिए, आज आप को अपना शहर दिखा लाऊं.’’

मेरे दिमाग से धुआं छटने लगा था इसलिए कुछ षड्यंत्र टिमटिमाने लगे थे. असल में मैं खानेपीने का तामझाम बाहर ही निबटाना चाहती थी. रसोई में जाना मेरे लिए सरहद पर जाने जैसा था. मैं ने जिस अंदाज में अपना निर्णय सुनाया था उस के बाद अभिन्न की प्रतिक्रियाएं काफी कम हो गई थीं. उस ने सहमति में सिर हिला दिया.

‘‘मैं कुछ देर में आती हूं,’’ कह कर मैं फिर से अंदर चली गई थी.

आखिरी बार खुद को आईने में निहार कर कलाई से घड़ी लपेटी तो दिल फूल कर फुटबाल बन गया. नानी, दादी की मैं परी जैसी लाडली बेटी थी. कालिज में लड़कों की आशिक निगाहों ने एहसास दिला दिया था कि बहुत बुरी नहीं दिखती हूं. मगर वास्तव में खूबसूरत हूं इस का एहसास मुझे कभीकभार ही हुआ था. गहरे बैगनी रंग के सूट में खिलती गोरी बांहें, मैच नहीं करती मम्मी की गहरी गुलाबी लिपस्टिक और नजर नहीं आती काजल की रेखाएं. बचीखुची कमी बेमौसम उमड़ आई लज्जा ने पूरी कर दी थी. एक बार तो खुद पर ही सीटी बजाने को दिल मचल गया.

घड़ी की दोनों सुइयां सीधेसीधे आलिंगन कर रही थीं.

‘‘चलें?’’ मैं ने बड़ी नजाकत से गेस्टरूम के  दरवाजे पर दस्तक दी.

‘‘बस, एक मिनट,’’ उस ने अपनी नजर एक बार दरवाजे से घुमा कर वापस कैमरे पर टिका दी.

मैं तब तक अंदर पहुंच चुकी थी. थोड़ी ऊंची सैंडल के कारण मुझे धीरेधीरे चलना पड़ रहा था.

उस ने मेरी ओर नजरें उठाईं और जैसे उस की पलकें जम गईं. कुछ पलों तक मुझे महसूस हुआ सारी सृष्टि ही मुझे निहारने को थम गई है.

‘‘चलें?’’ मैं ने हौले से उस की तंद्रा भंग की तो लगा जैसे वह नींद से जागा.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ उस ने इतने सीधे शब्दों में कहा कि मैं उलझ कर रह गई.

‘‘क्यों? क्या हुआ?’’ मेरी सारी अदा आलोपित हो गई.

‘‘क्या हुआ? अरे मैडम, लंगूर के साथ हूर देख कर तो शहर वाले हमारा काम ही तमाम कर देंगे न,’’ उस ने भोलेपन से जवाब दिया.

ऐसा न था कि मेरी प्रशंसा करने वाला वह पहला युवक था लेकिन ऐसी विचित्र बात किसी ने नहीं कही थी. उस की बात सुन कर और लड़कियों पर क्या गुजरती पता नहीं लेकिन शरम के मारे मेरी धड़कनें हिचकोले खाने लगीं.

टैक्सी में उस ने कितनी बार मुझे देखा पता नहीं लेकिन 3-4 बार नजरें मिलीं तो वह खिड़की के बाहर परेशान शहर को देखने लगता. यों तो शांत लोग मुझे पसंद थे मगर मौन रहना खलने लगा तो बिना शीर्षक और उपसंहार के बातें शुरू कर दीं.

अगर दिल में ज्यादा कपट न हो तो हृदय के मिलन में देर नहीं लगती है. फिर हम तो हमउम्र थे और दिल में कुछ भी नहीं था. जो मन में आता झट से बोल देती.

‘‘क्या फिगर है?’’

उस की ऊटपटांग बातें मुझे अच्छी लगने लगी थीं. मैं ने शरमाते हुए कनखियों से उस की भावभंगिमाएं देखने की कोशिश की तो मेरे मन में क्रोध की सुनामी उठने लगी. वह मेरी नहीं संगमरमर की प्रतिमा की बात कर रहा था. जब तक उस की समझ में आता कि उस ने क्या गुस्ताखी की तब तक मैं उसे खींचती हुई विक्टोरिया मेमोरियल से बाहर ले आई.

‘‘मैं आप की एक तसवीर उतार लूं?’’ अभिन्न ने अपना कैमरा निकालते हुए पूछा.

‘‘नहीं,’’ जब तक मैं उस का प्रश्न समझ कर एक अच्छा सा उत्तर तैयार करती एक शब्द फुदक कर बाहर आ गया. मेरे मन में थोड़ा नखरा करने का आइडिया आया था.

‘‘कोई बात नहीं,’’ उस ने यों कंधे उचकाए जैसे इसी उत्तर के लिए तैयार बैठा हो.

मैं गुमशुम सी तांबे की मूर्ति के साथ खड़ी हो गई जहां ज्यादातर लोग फोटो खिंचवाते थे. वह खुशीखुशी कैमरे में झांकने लगा.

‘‘जरा उधर…हां, ठीक है. अब जरा मुसकराइए.’’

उस की हरकतें देख मेरे चेहरे पर वे तमाम भावनाएं आ सकती थीं सिवा हंसने के. मैं ने उसे चिढ़ाने के लिए विचित्र मुद्रा में बत्तीसी खिसोड़ दी. उस ने झट बटन दबा दिया. मेरा नखरे का सारा नशा उतर गया.

रास्ते में पड़े पत्थरों को देख कर खयाल आया कि चुपके से एक पत्थर उठा कर उस का सिर तोड़ दूं. कमाल का लड़का था, जब साथ में इतनी सुंदर लड़की हो तो थोड़ाबहुत भाव देने में उस का क्या चला जाता. मेरा मन खूंखार होने लगा.

‘‘चलिए, थोड़ा रक्तदान कर दिया जाए?’’ रक्तदान का चलताफिरता शिविर देख कर मुझे जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. मैं बस, थोड़ा सा कष्ट उसे भी देना चाहती थी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. अभी मुझे बाहर जाना है.’’

‘‘चलिए, आप न सही मगर मैं रक्तदान करना चाहती हूं,’’ मुझे उसे नीचा दिखाने का अवसर मिल गया.

‘‘आप हो आइए, मैं इधर ही इंतजार करता हूं,’’ उस ने नजरें चुराते हुए कहा.

मैं इतनी आसानी से मानने वाली नहीं थी. उसे लगभग जबरदस्ती ले कर गाड़ी तक पहुंची. नामपता लिख कर जब नर्स ने सूई निकाली तो मेरी सारी बहादुरी ऐसे गायब हो गई जैसे मैं कभी बहादुर थी ही नहीं. पलभर के लिए इच्छा हुई कि चुपचाप खिसक लूं मगर मैं उसे दर्द का एहसास कराना चाहती थी.

किसी तरह खुद को बहलाफुसला कर लेट गई. खुद का खून देखने का शौक कभी रहा नहीं इसलिए नर्स की विपरीत दिशा में देखने लगी. गाड़ी में ज्यादा जगह न होने की वजह से वह बिलकुल पास ही खड़ा था. चेहरे पर ऐसी लकीरें थीं जैसे कोई उस के दिल में सूई चुभो रहा हो.

दर्द और घबराहट का बवंडर थमा तो वह मेरी हथेली थामे मुझे दिलासा दे रहा था. मेरी आंखों में थोड़े आंसू जरूर जमा हो गए होंगे. मन भी काफी भारी लगने लगा था.

बाहर आने से पहले मैं ने 2 गिलास जूस गटक लिया था और बहुत मना करने के बाद भी डाक्टरों ने उस का ब्लड सैंपल ले लिया.

इंडियन म्यूजियम से निकल कर हम ‘मैदान’ में आ गए. गहराते अंधकार के साथ हमेशा की तरह लोगों की संख्या घटने लगी थी और जोड़े बढ़ने लगे थे. यहां अकसर प्रेमी युगल खुले आकाश के नीचे बैठ सितारों के बीच अपना आशियाना बनाते थे. इच्छा तो बिलकुल नहीं थी लेकिन मैं ने सोच रखा था कि खानेपीने का कार्यक्रम निबटा कर ही वापस लौटूंगी. हम दोनों भी अंधेरे का हिस्सा बन गए.

मैं कुछ ज्यादा ही थकावट महसूस कर रही थी. इसलिए अनजाने ही कब उस की गोद में सिर रख कर लेट गई पता ही नहीं चला. मेरी निगाहें आसमान में तारों के बीच भटकने लगीं.

वे अगणित सितारे हम से कितनी दूर होते हैं. हम उन्हें रोज देखा करते हैं. वे भी मौन रह कर हमें बस, देख लिया करते हैं. हम कभी उन से बातें करने की कोशिश नहीं करते हैं. हम कभी उन के बारे में सोचते ही नहीं हैं क्योंकि हमें लगता ही नहीं है कि वे हम से बात कर सकते हैं, हमें सुन सकते हैं, हमारे साथ हंस सकते हैं, सिसक सकते हैं. हम कभी उन्हें याद रखने की कोशिश नहीं करते हैं क्योंकि हम जानते हैंकि कल भी वे यहीं थे और कल भी वे यही रहेंगे.

मुझे अपने माथे पर एक शीतल स्पर्श का एहसास हुआ. शायद शीतल हवा मेरे ललाट को सहला कर गुजर गई.

सुबह दरवाजे पर ताबड़तोड़ थापों से मेरी नींद खुली. मम्मी की चीखें साफ सुनाई दे रही थीं. मैं भाग कर गेस्टरूम में पहुंची तो कोई नजर नहीं आया. मैं दरवाजे की ओर बढ़ गई.

4 दिन बाद 2 चिट्ठियां लगभग एकसाथ मिलीं. मैं ने एक को खोला. एक तसवीर में मैं तांबे की मूर्ति के बगल में विचित्र मुद्रा में खड़ी थी. साथ में एक कागज भी था. लिखा था :

‘‘इशिताजी,

मैं बड़ीबड़ी बातें करना नहीं जानता, लेकिन कुछ बातें जरूर कहना चाहूंगा जो मेरे लिए शायद सबकुछ हैं. आप कितनी सुंदर हैं यह तो कोई भी आंख वाला समझ सकता है लेकिन जो अंधा है वह इस सच को जानता है कि वह कभी आप को नहीं देख पाएगा. जैसे हर लिखे शब्द का कोई अर्थ नहीं होता है वैसे ही हर भावना के लिए शब्द नहीं हैं, इसलिए मैं ज्यादा लिख भी नहीं सकता. मगर एक चीज ऐसी है जो आप से कहीं अधिक खूबसूरत है, वह है आप का दिल.

हम जीवन में कई चीजों को याद रखने की कोशिश नहीं करते हैं क्योंकि वे हमेशा हमारे साथ होती हैं और कुछ चीजों को याद रखने का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि वे हमारे साथ बस, एक बार होती हैं.

सच कहूं तो आप के साथ गुजरे 2 दिन में मैं ठीक से मुसकरा भी नहीं सका था. जब इतनी सारी हंसी एकसाथ मिल जाए तो इन्हें खोने का गम सताने लगता है. उन 2 दिनों के सहारे तो मैं दो जनम जी लेता फिर ये जिंदगी तो दो पल की है. जानता हूं दुनिया गोल है, बस रास्ते कुछ ज्यादा ही लंबे निकल आते हैं.

जब हम अपने आंगन में खड़े होते हैं तो कभीकभार एक पंछी मुंडेर पर आ बैठता है. हमें पता नहीं होता है कि वह कहां से आया. हम बस, उसे देखते हैं, थोड़ा गुस्साते हैं, थोड़ा हंसते भी हैं और थोड़ी देर में वह वापस उड़ जाता है. हमें पता नहीं होता है कि वह कहां जाएगा और उसे याद रखने की जरूरत कभी महसूस ही नहीं होती है.

जीवन के कुछ लमहे हमारे नाम करने का शुक्रिया.

-एक परिंदा.’’

दूसरी चिट्ठी में ब्लड रिपोर्ट थी. मुझे अपने बारे में पता था. अभिन्न की जांच रिपोर्ट देख कर पलकें उठाईं तो महसूस हुआ कि कोई परिंदा धुंधले आकाश में उड़ चला है…अगणित सितारों की ओर…दिल में  चुभन छोड़ कर.

मैं अहिल्या नहीं नंदिनी हूं

‘आखिर मेरा दोष क्या है जो मैं अपमान की पीड़ा से गुजर रही हूं? नाते रिश्तेदार, पास-पड़ोस यहां तक कि मेरा पति भी मुझे दोषी समझ रहा है. कहता है वह मुझ से शादी कर के पछता रहा है और लोग कहते हैं मुझे अपनी मर्यादा में रहना चाहिए था. पासपड़ोस की औरतें मुझे देखते ही बोल पड़ती हैं कि मुझ जैसी चरित्रहीन औरत का तो मुंह भी देखना पाप है. जो मेरी पक्की सहेलियां थीं वे भी मुझे रिश्ता तोड़ चुकी हैं. लेकिन मेरा दोष क्या है? यही सवाल मैं बारबार पूछती हूं सब से. मैं तो अपनी मर्यादा में ही थी. क्यों समाज के लोगों ने मुझे ही धर्मकर्म के कामों से दूर कर दिया यह बोल कर कि हिंदू धर्म में ऐसी औरत का कोई स्थान नहीं?’ अपने ही खयालों में खोई नंदिनी को यह भी भान नहीं रहा कि पीछे से गाड़ी वाला हौर्न पर हौर्न बजाए जा रहा है.

‘‘ओ बहनजी, मरना है क्या’’ जब उस अजनबी ने यह कहा तो वह चौंक कर पलटी.

‘‘बहनजी? नहींनहीं मैं किसी की कोई बहनवहन नहीं हूं,’’ बोल कर नंदिनी सरपट भागी और वह इंसान उसे देखता रह गया, फिर अपने कंधे उचका कर यह बोल कर आगे बढ़ गया कि लगता है कोई पागल औरत है.

घर आ कर नंदिनी दीवार की ओट से

लग कर बैठ गई. जरा सुस्ताने के बाद उस ने

पूरे घर को बड़े गौर से निहारा. सबकुछ तो वैसे ही था. सोफा, पलंग, टेबलकुरसी, अलमारी,

सब अपनीअपनी जगह व्यवस्थित रखे हुए.

मगर नंदिनी की ही जिंदगी क्यों इतनी अव्यवस्थित हो गई? क्यों उसे आज अपना ही घर पराया सा लगने लगा था? जो पति अकसर यह कहा करता था कि वह उस से बहुत प्यार करता है वही आज क्यों उस का चेहरा भी नहीं देखना चाहता?

जिन माता-पिता की वह संस्कारी बेटी थी, क्यों उन्होंने भी उस का बहिष्कार कर

दिया? ये सारे सवाल नंदिनी के दिल को मथे जा रहे थे. आखिर किस से कहे वह अपने दिल का दर्द और कहां जाए? मन कर रहा था उस का कि जोरजोर से चीखेचिल्लाए और कहे दुनिया वालों से कि उस की कोई गलती नहीं है.

अरे, उस ने तो इस इंसान को अपना भाई समझा था. लेकिन उस के मन में नंदिनी के लिए खोट था वह उसे कहां पता था.

‘‘दीदी’’, हिचकते हुए नंदिनी ने अपनी बड़ी बहन को फोन लगाया, ‘‘क्या आप भी मुझे ही गलत समझ रही हैं? आप को भी यही लगता है कि मैं ही उस इंसान पर गलत नजर रखती थी? नहीं दीदी ऐसी बात नहीं, बल्कि झूठा वह इंसान है, पर यह बात मैं कैसे समझाऊं सब को? मन तो कर रहा है कि मैं कहीं भाग जाऊं या फिर मर जाऊं ताकि इस जिंदगी से छुटकारा मिले,’’ कह कर नंदिनी सिसक पड़ी.

‘‘मरने या कहीं भाग जाने से क्या होगा नंदिनी? लोग तो तब भी वही कहेंगे न और मैं गुस्सा तुम से इस बात पर नहीं हूं कि तुम गलत हो. भरोसा है मुझे तुम पर, लेकिन गुस्सा मुझे

इस बात पर आ रहा है कि क्यों तुम ने उस

इंसान को माफ कर दिया? क्यों नहीं उस के खिलाफ थाने में रिपोर्ट लिखाई, जिस ने तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ा? तुम ने उसे अपना भाई

माना था न? रिश्तों की आड़ में पहले तो उस ने तुम्हारी आबरू लूटी और फिर उसी रिश्ते की दुहाई दे कर बच निकला और तुम ने भी तरस

खा कर उसे माफ कर दिया? क्यों, आखिर

क्यों नंदिनी?’’

‘‘उस के बच्चों की सोच कर दीदी, उस की पत्नी मेरे कदमों में गिर गिड़गिड़ाने लगी, बोली कि अगर उस का पति जेल चला जाएगा, तो वह मर जाएगी और फिर उस के बच्चे सड़क पर भीख मांगेंगे. दया आ गई मुझे उस के बच्चों पर दीदी और कुछ नहीं, सोचा उस के कर्मों की सजा उस के भोेलेभाले बच्चों को क्यों मिले.’’

‘‘अच्छा, और तुम्हारे बच्चे का क्या, जो

तुम से दूर चला गया? चलो

मान भी गए कि तुम ने उस के बच्चों का सोच कर कुछ नहीं कहा और न ही पुलिस में रपट लिखाई, लेकिन उस ने क्या किया तुम्हारे साथ? तुम्हें बदनाम कर खुद साफ बच निकला. पता भी है तुम्हें कि लोग तुम्हें ले कर क्याक्या बातें बना रहे हैं? कौन पिताभाई या पति यह बात सहन कर पाएगा भला? तुम्हारी सहेली रमा, सब से कहती फिर रही है कि भाईभाई कह कर तुम ने उस के पति को फंसाने की कोशिश की. मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है कि तुम क्यों कर रही हो ये सब?’’ ‘‘तुम कोई अहिल्या नहीं, जो दोषी न होते हुए भी पत्थर की शिला बन जाओ और कलंकिनी कहलाओ और इंतजार करो किसी राम के आने का जो तुम्हें तार सके. तुम आज की नारी हो नंदिनी आज की. भूल गई उस लड़के को, जो कालेज की हर लड़की को परेशान करता था और जब एक दिन उस ने मुझ पर हाथ डालने की कोशिश की, तो कैसे तुम उसे घसीटते हुए प्रिंसिपल के पास ले गई थी.

प्रिंसिपल को उस लड़के को कालेज से निकालना पड़ा था. जब उस लड़के के घमंडी पैसे वाले बाप ने तुम्हें धमकाने की कोशिश की, तब भी तुम नहीं डरी और न ही अपने शब्द वापस लिए थे. तो फिर आज कैसे तुम चुप रह गई नंदिनी? छल और बलपूर्वक जिस रावण ने तुम्हें छला उस का ध्वंस तुम्हें ही करना होगा. लोगों का क्या है. वे तो जो सुनेंगे वही दोहराएंगे. लेकिन तुम्हें यह साबित करना होगा कि तुम सही हो गलत वह इंसान है.’’

अपनी बहन की कही 1-1 बात नंदिनी को सही लग रही थी. पर वह साबित

कैसे करे कि वह सही है? कोसने लगी वह उस दिन को जब पहली बार वह रूपेश और रमा से मिली थी.

विकास और रूपेश दोनों बहुत अच्छे दोस्त थे और इसी वजह से नंदिनी और रमा भी अच्छी सहेलियां बन चुकी थीं. रूपेश नंदिनी को भाभी कह कर बुलाता था और नंदिनी उसे रूपेश भैया कह कर संबोधित करती थी. कहीं न कहीं रूपेश में उसे अपने भाई का अक्स दिखाई देता जो अब इस दुनिया में नही रहा.

जब भी रूपेश नंदिनी के घर आता वह उस के लिए वही सब करती, जो कभी अपने भाई के लिए किया करती थी. लेकिन रमा को ये सब अच्छा नहीं लगता. उसे लगता कि वह जानबूझ कर रूपेश के सामने अच्छा बनने की कोशिश करती है, दिखाती है कि वह उस से बेहतर है. कह भी देता कभी रूपेश कि सीखो कुछ नंदिनी भाभी से. चिढ़ उठती वह उस की बातों से, पर कुछ बोलती नहीं.

नंदिनी की सुंदरता, उस के गुण और जवानी को देख रमा जल उठती क्योंकि वह बेडौल औरत थी. इतनी थुलथुल कि जब चलती, तो उस का पूरा शरीर हिलता. कितना चाहा उस ने कि नंदिनी की तरह बन जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. वह जानती थी कि नंदिनी उस से हर मामले में 20 है और इसी बात से वह उस से जलती थी पर दिखाती नहीं थी.

दोनों के घर पासपास होने के कारण

अकसर वे एकदूसरे के घर आतेजाते रहते थे. नंदिनी के हाथों का बनाया खाना खा कर रूपेश बोले बिना नहीं रह पाता कि उस के हाथों में तो जादू है. कहता अगर रमा को भी वह कुछ बनाना सिखा दे, तो उस पर कृपा होगी, क्योंकि रोजरोज एक ही तरह का खाना खाखा कर वह ऊब जाता है. उस की बातों पर नंदिनी और विकास हंस पड़ते. लेकिन रमा चिढ़ उठती और कहती कि अब वह उस के लिए कभी खाना नहीं बनाएगी.

दोनों परिवारों के बीच इतनी मित्रता हो गई थी कि अकसर वे साथ घूमने निकल जाते. छुट्टी वाले दिन भी साथ फिल्म देखने जाते या फिर लौंग ड्राइव पर. कभी रमा अपने मायके जाती तो नंदिनी रूपेश के खानेपीने का ध्यान रखती और जब कभी नंदिनी कहीं चली जाती तो रमा विकास के खानेपीने का ध्यान रखती थी.

उस रोज भी यही हुआ था. रमा अपने भाई की शादी में गई थी, इसलिए रूपेश के खानेपीने की जिम्मेदारी नंदिनी पर ही थी. विकास भी औफिस के काम से शहर से बाहर गया था. कामवाली भी उस दिन नहीं आई थी. नंदिनी खाना पकाने के साथसाथ कपड़े भी धो रही थी. इसी बीच रूपेश आ गया, ‘‘भाभी,’’ उस ने हमेशा की तरह बाहर से ही आवाज लगाई.

‘‘अरे, भैया आ जाओ दरवाजा खुला ही है,’’ कह कर वह अपना काम करती रही.

रूपेश हमेशा की तरह सोफे पर बैठ गया और फिर टेबल पर पड़ा अखबार उठा कर पढ़ने लगा. तभी उस की नजर नंदिनी पर पड़ी, तो वह भौचक्का रह गया. भीगी सफेद साड़ी में नंदिनी का पूरा बदन साफ दिखाई दे रहा था और जब वह कपड़े सुखाने डालने के लिए अपने हाथ ऊपर उठाती तो उस का सुडौल वक्षस्थल का उभार और अधिक उभर आता. रूपेश अपलक देखे जा रहा था. उस के उरोज की सुडौलता देख कर उस का मन बेचैन हो उठा और उस ने अपनी नजर फेर ली, पर फिर बारबार उस की नजर वहीं जा कर टिक जाती.

‘‘भैया, चाय बनाऊं क्या?’’ कह कर नंदिनी ने जब अपनी साड़ी का पल्लू कमर में खोसा तो उस का गोरागोरा पूरा पेट दिखने लगा.

नंदिनी के मादक संगमरमरी जिस्म को देख रूपेश का पूरा शरीर थरथराने लगा. उसकी आंखें चौंधिया गईं और उत्तेजना की लहर पूरे जिस्म में फैल गई. आज से पहले नंदिनी को उस ने इस प्रकार कभी नहीं देखा था. नंदिनी को इस अवस्था में देख उस का अंगअंग फड़कने लगा और बेचैन रूपेश ने क्षण भर में ही एक फैसला ले लिया. नंदिनी कुछ समझ पाती उस

से पहले ही उस ने उसे अपनी बांहों में भींच लिया और फिर अपने जलते होंठ उस के अधरों पर रख दिए और जोरजोर से उस के होंठों को चूसने लगा.

नंदिनी कुछ बोल नहीं पा रही थी. अवाक सी आंखें फाड़े उसे एकटक देखे जा रही थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि जिसे वह भाईर् मानती आई है आज वह उस के साथ क्या करने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि रूपेश की सरलता और सहजता देख कभी उसे ऐसा नहीं लगा था कि उस के अंदर इतना यौन आक्रमण भरा हुआ है.

रूपेश का यह रूप देख नंदिनी सिहर उठी. भरसक अपनेआप को उस से छुड़ाने का प्रयास करने लगी, पर सब बेकार था. वह अभी भी नंदिनी के होठों को चूसे जा रहा था. उस का एक हाथ नंदिनी के स्तनों पर गया. जैसे ही उस ने नंदिनी के स्तन को जोर से दबाया वह चीख के साथ बेहोश हो गई और फिर जब होश आया तब तक अनहोनी हो चुकी थी.

अपनी करनी पर माफी मांग रूपेश तो वहां से भाग निकला, लेकिन वह रात नंदिनी के लिए अमावस्या की काली रात बन गई. कैसे उस ने पूरी रात खुद में सिमट कर बिताई, वही जानती. मुंह से कोई शब्द नहीं निकल पा रहा था. बस आंखों के रास्ते आंसुओं का दरिया बहे जा रहा था. समझ में नहीं आ रहा था कि किस से कहे और कैसे? जब विकास को इस बात का पता चला तो सहानभूति दिखाने के बजाय वह उसे ही भलाबुरा कहने लगा कि जरूर दोनों का पहले से ही नाजायज रिश्ता रहा होगा और अब जब उसे पता चल गया तो वह रोनेधोने का नाटक कर रही है.

विकास और नंदिनी के घर वाले रूपेश के खिलाफ पुलिस में बलात्कार का केस दर्ज कराने घर से निकल ही रहे थे कि तभी ऐन वक्त पर वहां रमा पहुंच गई और नंदिनी के पैरों में गिर कर गिड़गिड़ाते हुए अपने पति के जीवन की भीख मांगने लगी, अपने छोटेछोटे बच्चों की दुहाई देने

लगी. रूपेश भी नंदिनी के पैरों में लोट गया. कहने लगा कि चाहे नंदिनी उसे जो भी सजा दे दे, पर पुलिस में न जाए. वरना वह मर जाएगा. अपनी बेइज्जती बरदाश्त नहीं कर पाएगा.

दोनों पति पत्नी की दशा देख नंदिनी का दिल पसीज गया. कहने लगी कि उस के साथ जो होना था सो तो हो गया, अब क्यों इतनी जिंदगियां बरबाद हों? यह सुन कर तो सब का पारा गरम हो गया. विकास तो कहने लगा कि जरूर नंदिनी और रूपेश का नाजायज रिश्ता है और इसीलिए उस ने अपना फैसला बदल दिया.

नंदिनी के मां-पापा भी गुस्से से यह बोल कर निकल गए कि अब नंदिनी से उन का कोई वास्ता नहीं है, सोच लेंगे कि उन की 1 ही बेटी है. कितना समझया नंदिनी ने सब को कि ऐसी कोई बात नहीं है और इस से क्या हो जाएगा, उलटे उस की भी बदनामी होगी सब जगह, पर किसी ने उस की बात नहीं सुनी और उसे ही दोषी मान कर वहां से चले गए.

मगर नंदिनी गलत थी, क्योंकि कुछ महीने बाद ही रमा और रूपेश ने यह बात फैलानी शुरू कर दी कि नंदिनी अच्छी औरत नहीं है. दूसरे मर्दों को फंसा कर अपनी हवस पूरी करना उस की आदत है. रूपेश को भी उस ने अपने जाल में फंसा रखा था और मौका मिलते ही उसे अपनी हवस का शिकार बना डाला और फिर रोनेधोने का नाटक करने लगी.

यह सुन कर पासपड़ोस की औरतों ने अपनेअपने मुंह पर हाथ रख लिया और ‘हायहाय’ करने लगीं. जो महल्ले की औरतें नंदिनी से रोज बातें करती थीं, अब उसे देख कर मुंह फेरने लगीं और तरहतरह की बातें बनाने लगीं. रूपेश को ले कर विकास ने भी उस पर गंदेगंदे इलजाम लगाए, कहा कि अगर वह सही थी तो क्यों नहीं उस के खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज करवाया?

दुनिया की तो वह सुन ही रही थी पर जब उस का पति भी इस तरह उस पर इलजाम लगाने लगा, तो वह टूट गई. विकास की बातों ने उस का कलेजा छलनी कर दिया, ‘‘पहले तो मुझे शंका थी, पर अब वह यकीन में बदल गई. तुम जितनी सतीसावित्री दिखती हो उतनी हो नहीं. मेरी पीठ पीछे मेरे ही दोस्त के साथ… छि: और नाम क्या दे दिया इस रिश्ते को, भाईबहन का रिश्ता ताकि लोगों

को लगे कि यह तो बड़ा ही पवित्र रिश्ता है. है न? धूल झोंक रह थी मेरे आंखों में?

‘‘अरे, जो लोग मुझे टोकने तक की हिम्मत नहीं करते थे, आज वही लोग मेरी आंखों में आंखें मिला कर बात करने की जुर्रत करते हैं सिर्फ तुम्हारी वजह से. नहीं रहना अब मुझे इस घर में,’’ कह कर विकास घर से निकल गया और साथ में बच्चों को भी यह कह कर ले गया कि उस के साथ रह कर उन के भी संस्कार खराब हो जाएंगे. आज नंदिनी के साथ कोई नहीं था सिवा बदनामी के.

बड़ी हिम्मत कर एक रोज उस ने अपने मांबाप को फोन लगाया, पर उन्होंने फोन नहीं उठाया. जब विकास को फोन लगाया तो पहले तो उस ने फोन काटना चाहा, लेकिन फिर कहने लगा, ‘‘क्या यही सफाई देना चाहती हो कि तुम सही हो और लोग जो बोल रहे हैं वह गलत? तो साबित करो न, करो न साबित कि तुम सही हो और वह इंसान गलत. साबित करो कि छल से उस ने तुम्हारी इज्जत पर हाथ डाला.

‘‘माफ कर दूंगा मैं तुम्हें, लेकिन तुम ऐसा नहीं करोगी नंदिनी, पता है मुझे. इसलिए आज के बाद तुम मुझे कभी फोन मत करना,’’ कह कर विकास ने फोन पटक दिया. नंदिनी कुछ देर तक अवाक सी खड़ी रह गईर्.

‘सही तो कह रहे हैं विकास और मैं कौन सा रिश्ता निशा रही हूं और किस के साथ? जब उस ने ही रिश्ते की लाज नहीं रखी तो फिर मैं क्यों दुनिया के सामने जलील हुई जा रही हूं?’ परिवार से रुसवाई, समाज में जगहंसाई और

पति से विरह के अलावा मिला ही क्या मुझे? आज भी अपने पति के प्रति मेरी पूरी निष्ठा है. लेकिन छलपूर्वक मेरी निष्ठा को भ्रष्ट कर दिया उस दरिंदे ने. मेरा तनमन छलनी कर दिया उस ने, तो फिर क्यों मैं उस हैवान को बचाने की सोच रही हूं?

सही कहा था दीदी ने मैं कोई अहिल्या नहीं जो बिना दोष के ही शिला बन कर सदियों तक दुख भोगूं और इंतजार करूं किसी राम के आने का. मैं नंदिनी हूं नंदिनी जो गलत के खिलाफ हमेशा आवाज उठाती आई है, तो फिर आज जब मुझ पर आन पड़ी तो कैसे चुप रह गई मैं? नहीं, मैं चुप नहीं रहूंगी. बताऊंगी सब को कि उस दरिंदे ने कैसे मेरे तनमन को छलनी किया. कोमल हूं कमजोर नहीं, मन ही मन सोच कर नंदिनी ने अपनी दीदी को फोन लगाया.

नंदिनी के जीजाजी के एक दोस्त का भाई वकील था, पहले दोनों बहनें उन के पास गईं और फिर सारी बात बताई. सारी बात जानने के बाद वकील साहब कहने लगे, अगर यह फैसला रेप के तुरंत बाद लिया गया होता, तो नंदिनी का केस मजबूत होता, लेकिन सुबूतों के अभाव की वजह से अब यह केस बहुत वीक हो गया है, मुश्किल है केस जीत पाना. शायद पुलिस भी अब एफआईआर न लिखे.’’

‘‘पर वकील साहब, कोई तो रास्ता होगा न? ऐसे कैसे कुछ नहीं हो सकता? नंदिनी की दीदी बोली.

‘‘हो सकता है, अगर गुनहगार खुद ही अपना गुनाह कबूल कर ले तो,’’ वकील ने कहा.

‘‘पर वह ऐसा क्यों करेगा?’’ वकील की बातों से नंदिनी सकते में आ गई, क्योंकि उस के सामने एक बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई थी. लेकिन उसे उस इंसान को सजा दिलवानी ही है, पर कैसे यह सोचसोच कर वह परेशान हो उठी. घर आ कर भी नंदिनी चिंता में डूबी रही. बारबार वकील की कही यह बात कि सुबूत न होने की वजह से उस का केस बहुत वीक है उस का दिमाग झझकोर देती. वह न चैन से सो पा रही थी और न ही बैठ. परेशान थी कि कैसे वह रूपेश के खिलाफ सुबूत जुटाए और कैसे उसे जल्द से जल्द सजा दिलवाए. पर कैसे? यही बात उसे समझ में नहीं आ रही थी. तभी अचानक उस के दिमाग में एक बात कौंधी और तुरंत उस ने अपनी दीदी को फोन लगा कर सारा मामला समझा दिया.

‘‘पर नंदिनी, यह काम इतना आसान नहीं

है बहन,’’ चिंतातुर उस की दीदी ने कहा. उसे लगा कि कहीं नंदिनी किसी मुसीबत में न फंस जाए.

‘‘जानती हूं दीदी, पर मुश्किल भी नहीं, मुझे हर हाल में उसे सजा दिलवानी है, तो यह रिस्क उठाना ही पड़ेगा अब. कैसे छोड़ दूं उस इंसान

को मैं दीदी, जिस ने मेरी इज्जत और आत्मसम्मान को क्षतविक्षत कर दिया. उस के कारण ही मेरा पति, बच्चा मुझ से दूर हो गए,’’ कह वह उठ खड़ी हुई.

‘‘आप यहां?’’ अचानक नंदिनी को अपने सामने देख रूपेश चौंका.

‘‘घबराइए नहीं भा… सौरी, अब तो मैं आप को भैया नहीं बुला सकती न. वैसे हम कहीं बैठ कर बातें करें?’’ कह कर नंदिनी उसे पास की ही एक कौफी शौप में ले गई. वहां उस का हाथ पकड़ कर कहने लगी, ‘‘रूपेश, आप उस बात को ले किर गिल्टी फील मत कीजिए और सच तो यह है कि मैं भी आप को चाहने लगी थी. सच कहती हूं, जलन होती थी मुझे उस मोटी रमा से जब वह आप के करीब होती.

‘‘भैया तो मैं आप को इसलिए बुलाती थी ताकि विकास और रमा बेफिक्र रहें, उन्हें शंका न हो हमारे रिश्ते पर. जानते हैं जानबूझ कर मैं ने उस रोज अपनी बाई को छुट्टी दे दी थी. लगा विकास भी बाहर गए हुए हैं तो इस से अच्छा मौका और क्या हो सकता है.’’

‘‘जैसा प्लान बना रखा था मैं ने ठीक वैसा ही किया. पारदर्शी साड़ी पहनी.

दरवाजा पहले से खुला रखना भी मेरे प्लान में शामिल था रूपेश. अगर आप न हरकत करते उस दिन तो मैं ही आप के आगोश में आ जाती. खैर, बातें तो बहुत हो गईर्ं, पर अब क्या सोचा है?’’ उस की आंखों में झांकते हुए नंदिनी बोली, ‘‘कभी विकास और रमा को हमारे रिश्ते के बारे में पता न चले यह ध्यान मैं ने हमेशा रखा,’’ कह कर रूपेश को चूम लिया और जता दिया कि वह उस से क्या चाहती है.

पहले तो रूपेश को थोड़ा अजीब लगा, लेकिन फिर नंदिनी की साफसाफ बातों से उसे पता चल गया कि वह भी उसी राह की राही है जिस का वह.

फिर तय हुआ कल दोनों एक होटल में मिलेंगे, जो शहर से दूर है.

‘‘क्या बहाना बनाया आप ने रमा से?’’ रूपेश की बांहों में समाते हुए नंदिनी ने पूछा. ‘‘यही कि औफिस के काम से दूसरे शहर जा रहा हूं और तुम ने क्या बहाना बनाया?’’

‘‘मैं क्या बहाना बनाऊंगी, विकास मेरे साथ रहते ही नहीं अब,’’ अदा से नंदिनी ने कहा, ‘‘कब का छोड़ कर चला गया वह मुझे. अच्छा ही हुआ. वैसे भी वह मुझे जरा भी पसंद नहीं था,’’ कह कर नंदिनी ने रुपेश को चूम लिया.

पक्षी को जाल में फंसाने के लिए दाना तो डालना ही पड़ता है न, सो नंदिनी वही कर रही थी. पैग नंदिनी ने ही बनाया और अब तक 3-4 पैग हो चुके थे. नशा भी चढ़ने लगा था धीरे-धीरे.

‘‘अच्छा रूपेश, सचसच बताना, क्या तुम भी मुझे पसंद करते थे?’’ बात पहले उस ने ही छेड़ी.

‘‘सच कहूं नंदिनी,’’ नशे में वह सब सहीसही बकने लगा, ‘‘जब तुम्हें

पहली बार देखा था न तभी मुझे कुछकुछ होने लगा था. लगा था कि विकास कितना खुशहाल है जो तुम जैसी सुंदर पत्नी मिली और मुझे मोटी थुलथुल… जलन होती थी मुझे विकास से. जब भी मैं तुम्हें देखता था मेरी लार टपकने लगती थी. लगता कैसे मैं तुम्हें अपनी बांहों में भर लूं और फिर गोद में उठा कर कमरे में ले जाऊं और फिर… लेकिन जब तुम मुझे भैया कह कर बुलाती थी न, तो मेरा सारा जोश ठंडा पड़ जाता. ‘‘मौका ढूंढ़ता था तुम्हारे करीब आने का और उस दिन मुझे वह मौका मिल ही गया.

‘‘तुम्हारे गोरेगोरे बदन को देख उस दिन मैं पागल हो गया. लगा अगर तभी तुम्हें न पा लूं तो फिर कभी ऐसा मौका नहीं मिलेगा. सच में मजा आ गया था उस दिन तो,’’ एक बड़ा घूंट भरते हुए वह बोला, ‘‘जो मजा तुम में है न नंदिनी वैसा कभी रमा के साथ महसूस नहीं किया मैं ने. वैसे तुम चुप क्यों हो गई नंदिनी, बोलो कुछ…’’

जैसे ही उस ने ये शब्द कहे, कमरे की लाइट औन हो गई. सामने पुलिस को देख

रूपेश की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. फिर जब नंदिनी के व्यंग्य से मुसकराते चेहरे को देखा,

तो समझ गया कि ये सब उसे फंसाने की साजिश थी अब वह पूरी तरह इन के चंगुल में फंस

चुका है.

फिर भी सफाई देने से बाज नहीं आया, कहने लगा, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, म… म… मेरा कोई दोष नहीं है… इस ने मुझे यहां बुलाया था तो मैं आ गया.’’

‘‘हां, मैं ने ही तुम्हें यहां बुलाया था पर क्यों वह भी सुन लो’’, कह कर नंदिनी ने अपना सारा प्लान उसे बता दिया.

एक न चली रूपेश की, क्योंकि सारी सचाई अब पुलिस के सामने थी, सुबूत के साथ, जो नंदिनी ने अपने फोन में रिकौर्ड कर लिया था. पुलिस के डर से रूपेश ने अपना सारा गुनाह कबूल कर लिया. नंदिनी से जबरन बलात्कार और उसे बदनाम करने के जुर्म में कोर्ट ने रूपेश को 10 साल की सजा सुनाई.

गलत न होने के बाद भी नंदिनी को दुनिया के सामने जलील होना पड़ा, अपने पति बच्चों से दूर रहना पड़ा. सोच भी नहीं सकती थी वह कि जिस इंसान को उस ने दिल से भाई माना, वह उस के लिए इतनी गंदी सोच रखता था. रूपेश की सजा पर जहां नंदिनी ने सुकून की सांस ली वहीं विकास और उस के मायके वाले बहुत खुश थे.

अगर नंदिनी ने यह कदम न उठाया होता आज तो वह दरिंदा फिर किसी और नंदिनी को अपनी हवस का शिकार बना देता और फिर उसे ही दुनिया के सामने बदनाम कर खुद बच निकलता. रूपेश को उस के कर्मों की सजा मिल चुकी थी और नंदिनी को सुकून.

शरशय्या: त्याग और धोखे के बीच फंसी एक अनाम रिश्ते की कहानी

लेखक- ज्योत्स्ना प्रवाह

स्त्रियां अधिक यथार्थवादी होती हैं. जमीन व आसमान के संबंध में सब के विचार भिन्नभिन्न होते हैं परंतु इस संदर्भ में पुरुषों के और स्त्रियों के विचार में बड़ा अंतर होता है. जब कुछ नहीं सूझता तो किसी सशक्त और धैर्य देने वाले विचार को पाने के लिए पुरुष नीले आकाश की ओर देखता है, परंतु ऐसे समय में स्त्रियां सिर झुका कर धरती की ओर देखती हैं, विचारों में यह मूल अंतर है. पुरुष सदैव अव्यक्त की ओर, स्त्री सदैव व्यक्त की ओर आकर्षित होती है. पुरुष का आदर्श है आकाश, स्त्री का धरती. शायद इला को भी यथार्थ का बोध हो गया था. जीवन में जब जीवन को देखने या जीवन को समझने के लिए कुछ भी न बचा हो और जीवन की सांसें चल रही हों, ऐसे व्यक्ति की वेदना कितनी असह्य होगी, महज यह अनुमान लगाया जा सकता है. शायद इसीलिए उस ने आग और इलाज कराने से साफ मना कर दिया था. कैंसर की आखिरी स्टेज थी.

‘‘नहीं, अब और नहीं, मुझे यहीं घर पर तुम सब के बीच चैन से मरने दो. इतनी तकलीफें झेल कर अब मैं इस शरीर की और छीछालेदर नहीं कराना चाहती,’’ इला ने अपना निर्णय सुना दिया. जिद्दी तो वह थी ही, मेरी तो वैसे भी उस के सामने कभी नहीं चली. अब तो शिबू की भी उस ने नहीं सुनी. ‘‘नहीं बेटा, अब मुझे इसी घर में अपने बिस्तर पर ही पड़ा रहने दो. जीवन जैसेतैसे कट गया, अब आराम से मरने दो बेटा. सब सुख देख लिया, नातीपोता, तुम सब का पारिवारिक सुख…बस, अब तो यही इच्छा है कि सब भरापूरा देखतेदेखते आंखें मूंद लूं,’’ इला ने शिबू का गाल सहलाते हुए कहा और मुसकरा दी. कहीं कोई शिकायत, कोई क्षोभ नहीं. पूर्णत्वबोध भरे आनंदित क्षण को नापा नहीं जा सकता. वह परमाणु सा हो कर भी अनंत विस्तारवान है. पूरी तरह संतुष्टि और पारदर्शिता झलक रही थी उस के कथन में. मौत सिरहाने खड़ी हो तो इंसान बहुत उदार दिलवाला हो जाता है क्या? क्या चलाचली की बेला में वह सब को माफ करता जाता है? पता नहीं. शिखा भी पिछले एक हफ्ते से मां को मनाने की बहुत कोशिश करती रही, फिर हार कर वापस पति व बच्चों के पास कानपुर लौट गई. शिबू की छुट्टियां खत्म हो रही थीं. आंखों में आंसू लिए वह भी मां का माथा चूम कर वापस जाने लगा.

‘‘बस बेटा, पापा का फोन जाए तो फौरन आ जाना. मैं तुम्हारे और पापा के कंधों पर ही श्मशान जाना चाहती हूं.’’ एअरपोर्ट के रास्ते में शिबू बेहद खामोश रहा. उस की आंखें बारबार भर आती थीं. वह मां का दुलारा था. शिखा से 5 साल छोटा. मां की जरूरत से ज्यादा देखभाल और लाड़प्यार ने उसे बेहद नाजुक और भावनात्मक रूप से कमजोर बना दिया था. शिखा जितनी मुखर और आत्मविश्वासी थी वह उतना ही दब्बू और मासूम था. जब भी इला से कोई बात मनवानी होती थी, तो मैं शिबू को ही हथियार बनाता. वह कहीं न कहीं इस बात से भी आहत था कि मां ने उस की भी बात नहीं मानी या शायद मां के दूर होने का गम उसे ज्यादा साल रहा था.

आजकल के बच्चे काफी संवेदनशील हो चुके हैं, इस सामान्य सोच से मैं भी इत्तफाक रखता था. हमारी पीढ़ी ज्यादा भावुक थी लेकिन अपने बच्चों को देख कर लगता है कि शायद मैं गलत हूं. ऐसा नहीं कि उम्र के साथ परिपक्व हो कर भी मैं पक्का घाघ हो गया हूं. जब अम्मा खत्म हुई थीं तो शायद मैं भी शिबू की ही उम्र का रहा होऊंगा. मैं तो उन की मृत्यु के 2 दिन बाद ही घर पहुंच पाया था. घर में बाबूजी व बड़े भैया ने सब संभाल लिया था. दोनों बहनें भी पहुंच गई थीं. सिर्फ मैं ही अम्मा को कंधा न दे सका. पर इतने संवेदनशील मुद्दे को भी मैं ने बहुत सहज और सामान्य रूप से लिया. बस, रात में ट्रेन की बर्थ पर लेटे हुए अम्मा के साथ बिताए तमाम पल छनछन कर दिमाग में घुमड़ते रहे. आंखें छलछला जाती थीं, इस से ज्यादा कुछ नहीं. फिर भी आज बच्चों की अपनी मां के प्रति इतनी तड़प और दर्द देख कर मैं अपनी प्रतिक्रियाओं को अपने तरीके से सही ठहरा कर लेता हूं. असल में अम्मा के 4 बच्चों में से मेरे हिस्से में उन के प्यार व परवरिश का चौथा हिस्सा ही तो आया होगा. इसी अनुपात में मेरा भी उन के प्रति प्यार व परवा का अनुपात एकचौथाई रहा होगा, और क्या. लगभग एक हफ्ते से मैं शिबू को बराबर देख रहा था. वह पूरे समय इला के आसपास ही बना रहता था. यही तो इला जीवनभर चाहती रही थी. शिबू की पत्नी सीमा जब सालभर के बच्चे से परेशान हो कर उस की गोद में उसे डालना चाहती तो वह खीझ उठता, ‘प्लीज सीमा, इसे अभी संभालो, मां को दवा देनी है, उन की कीमो की रिपोर्ट पर डाक्टर से बात करनी है.’

वाकई इला है बहुत अच्छी. वह अकसर फूलती भी रहती, ‘मैं तो राजरानी हूं. राजयोग ले कर जन्मी हूं.’ मैं उस के बचकानेपन पर हंसता. अगर मैं उस की दबंगई और दादागीरी इतनी शराफत और शालीनता से बरदाश्त न करता तो उस का राजयोग जाता पानी भरने. जैसे वही एक प्रज्ञावती है, बाकी सारी दुनिया तो घास खाती है. ठीक है कि घरपरिवार और बच्चों की जिम्मेदारी उस ने बहुत ईमानदारी और मेहनत से निभाई है, ससुराल में भी सब से अच्छा व्यवहार रखा लेकिन इन सब के पीछे यदि मेरा मौरल सपोर्ट न होता तो क्या कुछ खाक कर पाती वह? मौरल सपोर्ट शायद उपयुक्त शब्द नहीं है. फिर भी अगर मैं हमेशा उस की तानाशाही के आगे समर्पण न करता रहता और दूसरे पतियों की तरह उस पर हुक्म गांठता, उसे सताता तो निकल गई होती उस की सारी हेकड़ी. लगभग 45 वर्ष के वैवाहिक जीवन में ऐसे कई मौके आए जब वह महीनों बिसूरती रही, ‘मेरा तो भविष्य बरबाद हो गया जो तुम्हारे पल्ले बांध दी गई, कभी विचार नहीं मिले, कोई सुख नहीं मिला, बच्चों की खातिर घर में पड़ी हूं वरना कब का जहर खा लेती.’ बीच में तो वह 3-4 बार महीनों के लिए गहरे अवसाद में जा चुकी है. हालांकि इधर जब से उस ने कीमोथैरेपी न कराने का निश्चय कर लिया था, और आराम से घर पर रह कर मृत्यु का स्वागत करना तय किया था, तब से वह मुझे बेहद फिट दिखाई दे रही थी. उस की  की धाकड़ काया जरूर सिकुड़ के बच्चों जैसी हो गई थी लेकिन उस के दिमाग और जबान में उतनी ही तेजी थी. उस की याददाश्त तो वैसे भी गजब की थी, इस समय वह कुछ ज्यादा ही अतीतजीवी हो गई थी. उम्र और समय की भारीभरकम शिलाओं को ढकेलती अपनी यादों के तहखाने में से वह न जाने कौनकौन सी तसवीरें निकाल कर अकसर बच्चों को दिखलाने लगती थी.

उस की नींद बहुत कम हो गई थी, उस के सिर पर हाथ रखा तो उस ने झट से पलकें खोल दीं. दोनों कोरों से दो बूंद आंसू छलक पड़े.

‘‘शिबू के लिए काजू की बरफी खरीदी थी?’’

‘‘हां भई, मठरियां भी रखवा दी थीं.’’ मैं ने उस का सिर सहलाते हुए कहा तो वह आश्वस्त हो गई.

‘‘नर्स के आने में अभी काफी समय है न?’’ उस की नजरें मुझ पर ठहरी थीं.

‘‘हां, क्यों? कोई जरूरत हो तो मुझे बताओ, मैं हूं न.’’

‘‘नहीं, जरूरत नहीं है. बस, जरा दरवाजा बंद कर के तुम मेरे सिरहाने आ कर बैठो,’’ उस ने मेरा हाथ अपने सिर पर रख लिया, ‘‘मरने वाले के सिर पर हाथ रख कर झूठ नहीं बोलते. सच बताओ, रानी भाभी से तुम्हारे संबंध कहां तक थे?’’ मुझे करंट लगा. सिर से हाथ खींच लिया. सोते हुए ज्वालामुखी में प्रवेश करने से पहले उस के ताप को नापने और उस की विनाशक शक्ति का अंदाज लगाने की सही प्रतिभा हर किसी में नहीं होती, ‘‘पागल हो गई हो क्या? अब इस समय तुम्हें ये सब क्या सूझ रहा है?’’

‘‘जब नाखून बढ़ जाते हैं तो नाखून ही काटे जाते हैं, उंगलियां नहीं. सो, अगर रिश्ते में दरार आए तो दरार को मिटाओ, न कि रिश्ते को. यही सोच कर चुप थी अभी तक, पर अब सच जानना चाहती हूं. सूझ तो बरसों से रहा है बल्कि सुलग रहा है, लेकिन अभी तक मैं ने खुद को भ्रम का हवाला दे कर बहलाए रखा. बस, अब जातेजाते सच जानना चाहती हूं.’’

‘‘जब अभी तक बहलाया है तो थोड़े दिन और बहलाओ. वहां ऊपर पहुंच कर सब सचझूठ का हिसाब कर लेना,’’ मैं ने छत की तरफ उंगली दिखा कर कहा. मेरी खीज का उस पर कोई असर नहीं था.

‘‘और वह विभा, जिसे तुम ने कथित रूप से घर के नीचे वाले कमरे में शरण दी थी, उस से क्या तुम्हारा देह का भी रिश्ता था?’’

‘‘छि:, तुम सठिया गई हो क्या? ये क्या अनापशनाप बक रही हो? कोई जरूरत हो तो बताओ वरना मैं चला.’’ मैं उन आंखों का सामना नहीं करना चाहता था. क्षोभ और अपमान से तिलमिला कर मैं अपने कमरे में आ गया. शिबू ने जातेजाते कहा था, मां को एक पल के लिए भी अकेला मत छोडि़एगा. ऐसा नहीं है कि ये सब बातें मैं ने पहली बार उस की जबान से सुनी हैं, पहले भी ऐसा सुना है. मुझे लगा था कि वह अब सब भूलभाल गई होगी. इतने लंबे अंतराल में बेहद संजीदगी से घरगृहस्थी के प्रति समर्पित इला ने कभी इशारे से भी कुछ जाहिर नहीं किया. हद हो गई, ऐसी बीमारी और तकलीफ में भी खुराफाती दिमाग कितना तेज काम कर रहा था. मेरे मन के सघन आकाश से विगत जीवन की स्मृतियों की वर्षा अनेक धाराओं में होने लगी. कभीकभी तो ये ऐसी मूसलाधार होती हैं कि उस के निरंतर आघातों से मेरा शरीर कहीं छलनीछलनी न हो जाए, ऐसा संदेह मुझ को होने लगता है. परंतु मन विचित्र होता है, उसे जितना बांधने का प्रयत्न किया जाए वह उतना ही स्वच्छंद होता जाता है. जो वक्त बीत गया वह मुंह से निकले हुए शब्द की तरह कभी लौट कर वापस नहीं आता लेकिन उस की स्मृतियां मन पर ज्यों की त्यों अंकित रह जाती हैं.

रानी भाभी की नाजोअदा का जादू मेरे ही सिर चढ़ा था. 17-18 की अल्हड़ और नाजुक उम्र में मैं उन के रूप का गुलाम बन गया था. भैया की अनुपस्थिति में भाभी के दिल लगाए रखने का जिम्मा मेरा था. बड़े घर की लड़की के लिए इस घर में एक मैं ही था जिस से वे अपने दिल का हाल कहतीं. भाभी थीं त्रियाचरित्र की खूब मंजी खिलाड़ी, अम्मा तो कई बार भाभी पर खूब नाराज भी हुई थीं, मुझे भी कस कर लताड़ा तो मैं भी अपराधबोध से भर उठा था. कालेज में ऐडमिशन लेने के बाद तो मैं पक्का ढीठ हो गया. अकसर भाभी के साथ रिश्ते का फायदा उठाते हुए पिक्चर और घूमना चलता रहा. इला जब ब्याह कर घर आई तो पासपड़ोस की तमाम महिलाओं ने उसे गुपचुप कुछ खबरदार कर दिया था. साधारण रूपरंग वाली इला भाभी के भड़कीले सौंदर्य पर भड़की थी या सुनीसुनाई बातों पर, काफी दिन तो मुझे अपनी कैफियत देते ही बीते, फिर वह आश्चर्यजनक रूप से बड़ी आसानी से आश्वस्त हो गई थी. वह अपने वैवाहिक जीवन का शुभारंभ बड़ी सकारात्मक सोच के साथ करना चाहती थी या कोई और वजह थी, पता नहीं.

भाभी जब भी घर आतीं तो इला एकदम चौकन्नी रहती. उम्र की ढलान पर पहुंच रही भाभी के लटकेझटके अभी भी एकदम यौवन जैसे ही थे. रंभाउर्वशी के जींस ले कर अवतरित हुई थीं वे या उन के तलवों में साक्षात पद्मिनी के लक्षण थे, पता नहीं? उन की मत्स्यगंधा देह में एक ऐसा नशा था जो किसी भी योगी का तप भंग कर सकता था. फिर मैं तो कुछ ज्यादा ही अदना सा इंसान था. दूसरे दिन नर्स के जाते ही वह फिर आहऊह कर के बैठने की कोशिश करने लगी. मैं ने तकिया पीछे लगा दिया.

‘‘कोई तुम्हारी पसंद की सीडी लगा दूं? अच्छा लगेगा,’’ मैं सीडी निकालने लगा.

‘‘रहने दो, अब तो कुछ दिनों के बाद सब अच्छा और शांति ही शांति है, परम शांति. तुम यहां आओ, मेरे पास आ कर बैठो,’’ वह फिर से मुझे कठघरे में खड़ा होने का शाही फरमान सुना रही थी.

‘‘ठीक है, मैं यहीं बैठा हूं. बोलो, कुछ चाहिए?’’

‘‘हां, सचसच बताओ, जब तुम विभा को दुखियारी समझ कर घर ले कर आए थे और नीचे बेसमैंट में उस के रहनेखाने की व्यवस्था की थी, उस से तुम्हारा संबंध कब बन गया था और कहां तक था?’’

‘‘फिर वही बात? आखिरी समय में इंसान बीती बातों को भूल जाता है और तुम.’’

‘‘मैं ने तो पूरी जिंदगी भुलाने में ही बिताई है,’’ वह आंखें बंद कर के हांफने लगी. फिर वह जैसे खुद से ही बात करने लगी थी, ‘‘समझौता. कितना मामूली शब्द है मगर कितना बड़ा तीर है जो जीवन को चुभ जाता है तो फांस का अनदेखा घाव सा टीसता है. अब थक चुकी हूं जीवन जीने से और जीवन जीने के समझौते से भी. जिन रिश्तों में सब से ज्यादा गहराई होती है वही रिश्ते मुझे सतही मिले. जिस तरह समुद्र की अथाह गहराई में तमाम रत्न छिपे होते हैं, साथ में कई जीवजंतु भी रहते हैं, उसी तरह मेरे भीतर भी भावनाओं के बेशकीमती मोती थे तो कुछ बुराइयों जैसे जीवजंतु भी. कोई ऐसा गोताखोर नहीं था जो उन जीवजंतुओं से लड़ता, बचताबचाता उन मोतियों को देखता, उन की कद्र करता. सब से गहरा रिश्ता मांबाप का होता है. मां अपने बच्चे के दिल की गहराइयों में उतर कर सब देख लेती है लेकिन मेरे पास में तो वह मां भी नहीं थी जो मुझे थोड़ा भी समझ पाती.

‘‘दूसरा रिश्ता पति का था, वह भी सतही. जब अपना दिल खोल कर तुम्हारे सामने रखना चाहती तो तुम भी नहीं समझते थे क्योंकि शायद तुम गहरे में उतरने से डरते थे क्योंकि मेरे दिल के आईने में तुम्हें अपना ही अक्स नजर आता जो तुम देखना नहीं चाहते थे और मुझे समझने में भूल करते रहे…’’

‘‘देखो, तुम्हारी सांस फूल रही है. तुम आराम करो, इला.’’

‘‘वह नवंबर का महीना था शायद, रात को मेरी नींद खुली तो तुम बिस्तर पर नहीं थे, सारे घर में तुम्हें देखा. नीचे से धीमीधीमी बात करने की आवाज सुनाई दी. मैं ने आवाज भी दी मगर तब फुसफुसाहट बंद हो गई. मैं वापस बैडरूम में आई तो तुम बिस्तर पर थे. मेरे पूछने पर तुम ने बहाना बनाया कि नीचे लाइट बंद करने गया था.’’ ‘‘अच्छा अब बहुत हो गया. तुम इतनी बीमार हो, इसीलिए मैं तुम्हें कुछ कहना नहीं चाहता. वैसे, कह तो मैं पूरी जिंदगी कुछ नहीं पाया. लेकिन प्लीज, अब तो मुझे बख्श दो,’’ खीज और बेबसी से मेरा गला भर आया. उस के अंतिम दिनों को ले कर मैं दुखी हूं और यह है कि न जाने कहांकहां के गड़े मुर्दे उखाड़ रही है. उस घटना को ले कर भी उस ने कम जांचपड़ताल नहीं की थी. विभा ने भी सफाई दी थी कि वह अपने नन्हे शिशु को दुलार रही थी लेकिन उस की किसी दलील का इला पर कोई असर नहीं हुआ. उसे निकाल बाहर किया, पता नहीं वह कैसे सच सूंघ लेती थी.

‘‘उस दिन मैं कपड़े धो रही थी, तुम मेरे पीछे बैठे थे और वह मुझ से छिपा कर तुम्हें कोई इशारा कर रही थी. और जब मैं ने उसे ध्यान से देखा तो वह वहां से खिसक ली थी. मैं ने पहली नजर में ही समझ लिया था कि यह औरत खूब खेलीखाई है, पचास बार तो पल्ला ढलकता है इस का, तुम को तो खैर दुनिया की कोई भी औरत अपने पल्लू में बांध सकती है. याद है, मैं ने तुम से पूछा भी था पर तुम ने कोई जवाब नहीं दिया था, बल्कि मुझे यकीन दिलाना चाहते थे कि वह तुम से डरती है, तुम्हारी इज्जत करती है.’’

तब शिखा ने टोका भी था, ‘मां, तुम्हारा ध्यान बस इन्हीं चीजों की तरफ जाता है, मुझे तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखता.’

मां की इन ठेठ औरताना बातों से शिखा चिढ़ जाती थी, ‘कौन कहेगा कि मेरी मां इतने खुले विचारों वाली है, पढ़ीलिखी है?’ उन दिनों मेरे दफ्तर की सहकर्मी चित्रा को ले कर जब उस ने कोसना शुरू किया तो भी शिखा बहुत चिढ़ गई थी, ‘मेरे पापा हैं ही इतने डीसैंट और स्मार्ट कि कोई भी महिला उन से बात करना चाहेगी और कोई बात करेगा तो मुसकरा कर, चेहरे की तरफ देख कर ही करेगा न?’ बेटी ने मेरी तरफदारी तो की लेकिन उस के सामने इला की कोसने वाली बातें सुन कर मेरा खून खौलने लगा था. मुझे इला के सामने जाने से भी डर लगने लगा था. मन हुआ कि शिखा को एक बार फिर वापस बुला लूं, लेकिन उस की भी नौकरी, पति, बच्चे सब मैनेज करना कितना मुश्किल है. दोपहर में खाना खिला कर इला को लिटाया तो उस ने फिर मेरा हाथ थाम लिया, ‘‘तुम ने मुझे बताया नहीं. देखो, अब तो मेरा आखिरी समय आ गया है, अब तो मुझे धोखे में मत रखो, सचसच बता दो.’’

‘‘मेरी समझ में नहीं आ रहा है, पूरी जिंदगी बीत गई है. अब तक तो तुम ने इतनी जिरह नहीं की, इतना दबाव नहीं डाला मुझ पर, अब क्यों?’’

‘‘इसलिए कि मैं स्वयं को धोखे में रखना चाहती थी. अगर तुम ने दबाव में आ कर कभी स्वीकार कर लिया होता तो मुझे तुम से नफरत हो जाती. लेकिन मैं तुम्हें प्रेम करना चाहती थी, तुम्हें खोना नहीं चाहती थी. मैं तुम्हारे बच्चों की मां थी, तुम्हारे साथ अपनी पूरी जिंदगी बिताना चाहती थी. तुम्हारे गुस्से को, तुम्हारी अवहेलना को मैं ने अपने प्रेम का हिस्सा बना लिया था, इसीलिए मैं ने कभी सच जानने के लिए इतना दबाव नहीं डाला.

‘‘फिर यह भी समझ गई कि प्रेम यदि किसी से होता है तो सदा के लिए होता है, वरना नहीं होता. लेकिन अब तो मेरी सारी इच्छाएं पूरी हो गई हैं, कोई ख्वाहिश बाकी नहीं रही. फिर सीने पर धोखे का यह बोझ ले कर क्यों जाऊं? मरना है तो हलकी हो कर मरूं. तुम्हें मुक्त कर के जा रही हूं तो मुझे भी तो शांति मिलनी चाहिए न? अभी तो मैं तुम्हें माफ भी कर सकती हूं, जो शायद पहले बिलकुल न कर पाती.’’ ओफ्फ, राहत का एक लंबा गहरा उच्छ्वास…तो इन सब के लिए अब ये मुझे माफ कर सकती है. वह अकसर गर्व से कहती थी कि उस की छठी इंद्रिय बहुत शक्तिशाली है. खोजी कुत्ते की तरह वह अपराधी का पता लगा ही लेती है. लेकिन ढलती उम्र और बीमारी की वजह से उस ने अपनी छठी इंद्रिय को आस्था और विश्वास का एनेस्थिसिया दे कर बेहोश कर दिया था या कहीं बूढ़े शेर को घास खाते हुए देख लिया होगा. इसी से मैं आज बच गया

सच और विश्वास की रेशमी चादर में इत्मीनान से लिपटी जब वह अपने बच्चों की दुनिया में मां और नानी की भूमिका में आकंठ डूबी हुई थी, उन्हीं दिनों मेरी जिंदगी के कई राज ऐसे थे जिन के बारे में उसे कुछ भी पता नहीं. अब इस मुकाम पर मैं उस से कैसे कहता कि मुझे लगता है यह दुनिया 2 हिस्सों में बंटी हुई है. एक, त्याग की दुनिया है और दूसरी धोखे की. जितनी देर किसी में हिम्मत होती है वह धोखा दिए जाता है और धोखा खाए जाता है और जब हिम्मत चुक जाती है तो वह सबकुछ त्याग कर एक तरफ हट कर खड़ा हो जाता है. मिलता उस तरफ भी कुछ नहीं है, मिलता इस तरफ भी कुछ नहीं है. मेरी स्थिति ठीक उसी बरगद की तरह थी जो अपनी अनेक जड़ों से जमीन से जुड़ा रहता है, अपनी जगह अटल, अचल. कैसे कभीकभी एक अनाम रिश्ता इतना धारदार हो जाता है कि वह बरसों से पल रहे नामधारी रिश्ते को लहूलुहान कर जाता है. यह बात मेरी समझ से परे थी.

अटूट प्यार: यामिनी से क्यों दूर हो गया था रोहित

‘कितने मस्ती भरे दिन थे वे…’ बीते दिनों को याद कर यामिनी की आंखें भर आईं.

कालेज में उस का पहला दिन था. कैमिस्ट्री की क्लास चल रही थी. प्रोफैसर साहब कुछ भी पूछते तो रोहित फटाफट जवाब दे देता. उस की हाजिरजवाबी और विषय की गहराई से समझ देख यामिनी के दिल में वह उतरता चला गया.

कालेज में दाखिले के बाद पहली बार क्लास शुरू हुई थी. इसीलिए सभी छात्रछात्राओं को एकदूसरे को जाननेसमझने में कुछ दिन लग गए. एक दिन यामिनी कालेज पहुंची तो रोहित कालेज के गेट पर ही मिल गया. उस ने मुसकरा कर हैलो कहा और अपना परिचय दिया. यामिनी तो उस पर पहले दिन से ही मोहित थी. उस का मिलनसार व्यवहार देख वह खुश हो गई.

‘‘और मैं यामिनी…’’ उस ने भी अपना परिचय दिया तो रोहत ने उसे कैंटीन में अपने साथ कौफी पीने का औफर कर दिया. वह मना नहीं कर सकी.

साथ कौफी पीते हुए रोहित टकटकी लगा कर यामिनी को देखने लगा. यामिनी उस की नजरों का सामना नहीं कर पा रही थी. लेकिन उस के दिल में खुशी का तूफान उमड़ रहा था. क्लास में भी दोनों साथ बैठे रहे.

शाम को घर लौटते समय रोहित ने यामिनी से अचानक प्यार का इजहार कर दिया. वह भौंचक्की रह गई. लेकिन अगले ही पल शर्म से लाल हो गई और भाग कर रिकशे पर बैठ गई. थोड़ी देर बाद यामिनी ने पीछे मुड़ कर देखा. रोहित अब तक अपनी जगह पर खड़ा उसे ही देख रहा था.

यामिनी के दिल की धड़कनें तेज हो गई थीं. खुशी से उस के होंठ लरज रहे थे. उस की आंखों में सिर्फ रोहित का मासूम चेहरा दिख रहा था. न जाने क्यों वह हर पल उसे करीब महसूस करने लगी.

अगले दिन सुबह यामिनी की नींद खुली तो आदतन उस ने अपना मोबाइल चेक किया. रोहित ने मैसेज भेजा था, ‘सुप्रभात, आप का दिन मंगलमय हो.’

यामिनी देर  तक उस मैसेज को देखती रही और रोमांचित होती रही. वह भी उसे एक खूबसूरत सा जवाब देना चाहती थी. लेकिन क्या जवाब दे, सोचने लगी. मैसेज टाइप करने के लिए अनजाने में उस की उंगलियां आगे बढ़ीं. लेकिन वे कांपने लगीं.

यामिनी फिर रोहित के मैसेज को प्यार से देखने लगी और जवाब के लिए कोई अच्छा सा मैसेज सोचने लगी. लेकिन दिमाग जैसे जाम सा हो गया. अच्छा मैसेज सूझ ही नहीं रहा था. आखिरकार उस ने ‘आप को भी सुप्रभात’ टाइप कर मैसेज भेज दिया.

यामिनी की जिंदगी की एक नई शुरुआत हो चुकी थी. रोहित से मिलना, उसे देखना और प्यार भरी बातें करना यामिनी को अच्छा लगने लगा. एकदूसरे से मिले बिना उन्हें चैन नहीं आता. जिस दिन किसी प्रोफैसर के छुट्टी पर रहने के कारण क्लास नहीं रहती, उस दिन दोनों आसपास के किसी पार्क में चले जाते या बाजार घूमते. मस्तियों में उन के दिन गुजर रहे थे. हालांकि कालेज में दोनों को ले कर तरहतरह की बातें होने लगी थीं. लेकिन उन दोनों को कोई परवाह नहीं थी.

बातों ही बातों में यामिनी को मालूम हुआ कि रोहित के मातापिता इस दुनिया में नहीं हैं. एक ऐक्सीडैंट में उन की मौत हो गई थी. रोहित के चाचाचाची ही उस की देखभाल कर रहे थे. रोहित का घर शहर से दूर एक गांव में था. वह यहां किराए का कमरा ले कर कालेज की पढ़ाई कर रहा था. रोहित पढ़ाई में अच्छा था. इसीलिए यामिनी को उस से मदद मिल जाती थी पढ़ाई में.

एक दिन यामिनी कालेज गई तो पाया कि रोहित कालेज नहीं आया है. बहुत देर इंतजार करने के बाद यामिनी ने उसे फोन किया, लेकिन रोहित ने फोन नहीं उठाया. जब यामिनी ने कई बार फोन किया तब रोहित ने काल रिसीव किया और दबी आवाज में बोला, ‘‘यामिनी, मैं कालेज नहीं आ पाऊंगा. बुखार है मुझे. तुम परेशान नहीं होना. मैं ठीक होते ही आऊंगा.’’

दूसरे दिन भी रोहित कालेज नहीं आया. इसीलिए कालेज में यामिनी का मन नहीं लग रहा था. उसे रहरह कर रोहित का खयाल आता. उस ने सोचा, ‘कहीं रोहित की बीमारी बढ़ न जाए. उस से मिलने जाना चाहिए. पता नहीं अकेले किस हाल में है? दवा ले रहा है या नहीं. खाना कैसे खा रहा है.’

बहुत मुश्किल से ढूंढ़तेढूंढ़ते यामिनी रोहित के कमरे पर पहुंची. देर तक दस्तक देने के बाद रोहित ने दरवाजा खोला. उस का बदन तप रहा था. उस की हालत देख कर दया से ज्यादा गुस्सा आ गया यामिनी को. बोली, ‘‘इतनी तेज बुखार है और तुम ने बताया भी नहीं. दवा ली क्या? घर पर किसी को बताया?’’

रोहित अधखुली पलकों से यामिनी को देखते हुए शिथिल आवाज में बोला, ‘‘नहीं. चाचाचाची को कष्ट नहीं देना चाहता और डाक्टर के पास जाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई.’’

2 दिनों में ही बहुत कमजोर पड़ गया था रोहित. आंखों के नीचे कालापन दिखने लगा था. यामिनी का मन रो पड़ा. रोहित ने शायद कुछ खाया भी नहीं था, क्योंकि खाना वह खुद बनाता था. होटल से लाया हुआ खाना एक स्टूल पर पड़ा था और सूख चुका था. एक शीशे के गिलास में थोड़ा सा पानी था. एक बिस्कुट का अधखुला पैकेट बगल में पड़ा था. कमरा भी अस्तव्यस्त था.

यह सब देख यामिनी से रहा नहीं गया. वह कमरा साफ करने लगी. रोहित हाथ के इशारे से मना करता रहा. पर यामिनी उसे आराम करने को कह कर सफाई में लगी रही. कमरे की सफाई करने के बाद वह पास की दुकान से ब्रैड और दूध ले आई और रोहित को खाने को दिया. रोहित एक ही ब्रैड खा पाया.

रोहित की हालत ठीक नहीं थी. वह अकेला था. यामिनी पास के एक डाक्टर से संपर्क कर दवा ले आई और रोहित को खिलाई. वह शाम तक उसी के पास बैठी रही. रोहित आंखों में आंसू लिए यामिनी को देखता रहा. यामिनी उसे बारबार समझाती, ‘‘मुझ से जितना होगा करूंगी. रोते क्यों हो?’’

‘‘तुम कितनी अच्छी हो यामिनी. बचपन से मैं प्यार को तरसा हूं. मम्मीपापा मुझे छोड़ कर चले गए. साथ में मेरी सारी खुशियां भी ले गए. चाचाचाची ने मुझे आश्रय जरूर दिया. लेकिन एक बोझ समझ कर. उन से प्यार कभी नहीं मिला. जब तुम मेरी जिंदगी में आई तो मैं ने जाना कि प्यार क्या होता है? तुम्हारा प्यार, तुम्हार सेवाभाव देख कर मुझे अपने मम्मीपापा की याद आ गई. इसीलिए मेरी आंखों में आंसू आ गए.

‘‘खैर मुझे अपने चाचाचाची से कोई शिकायत नहीं है. मैं उन की अपनी औलाद तो नहीं हूं. लेकिन बचपन से मुझे किसी का साया तो नसीब हुआ,’’ रोहित की आंखों से आंसू की धारा बह रही थी.

‘‘बस करो रोहित. अभी यह सब सोचने का वक्त नहीं. स्वास्थ्य पर ध्यान दो. खुद को अकेला नहीं समझो. मैं साथ देने से कभी पीछे नहीं हटूंगी,’’ कहते हुए यामिनी ने दुपट्टे से रोहित के आंसू पोंछ दिए.

वह करीब 2 घंटे तक रोहित के पास बैठी रही. शाम होने को आ गई थी. दवा के प्रभाव से रोहित को पसीना आ गया था. बुखार कम हुआ तो वह कुछ अच्छा महसूस करने लगा था. यामिनी ने कहा, ‘‘अब मैं चलूंगी. घर पर सब मेरा इंतजार कर रहे होंगे. तुम रात में दूध गरम कर ब्रैड के साथ ले लेना. दवा भी ले लेना. किसी तरह की परेशानी हो तो फोन जरूर करना. यह नहीं सोचना कि मैं क्या कर पाऊंगी? तुम्हारे लिए मैं कुछ भी कर सकती हूं.’’

रोहित को ढांढ़स बंधा कर यामिनी अपने घर आ गई. लेकिन उसे चिंता होती रही. रात में वह सब की नजर बचा कर घर की छत पर गई और फोन कर रोहित का हाल पूछा. रोहित ने कहा कि अभी वह ठीक महसूस कर रहा है. यह जान कर यामिनी को राहत महसूस हुई.

चौथे दिन रोहित ठीक हो गया. यामिनी पिछले 2 दिन उस के घर गई थी. सब से नजर बचा कर वह रोहित के लिए घर से खाना ले जाती थी और घंटों उस के पास बैठ कर बातें करती थी. 5वें दिन रोहित कालेज आया तो यामिनी बहुत खुश हुई. उस के ठीक होने की खुशी में वह उस के गले से लिपट गई. यामिनी अब रोहित के बहुत करीब आ चुकी थी.

ऐसे ही 3 साल कब बीत गए उन्हें एहसास ही न हुआ. खुशियों के वे पल जैसे पंख लगा कर उड़ गए और उन के जुदाई के दिन आ गए. दरअसल, उन की कालेज की पढ़ाई पूरी हो गई थी. रोहित ने आगे की पढ़ाई के लिए कालेज में ही पुन: दाखिला ले लिया. वह प्रोफैसर बनना चाहता था. लेकिन यामिनी के आगे की पढ़ाई के लिए उस के पापा ने मना कर दिया. इसीलिए अब उस का रोहित से मिलनाजुलना बेहद मुश्किल हो गया. हर पल उसे रोहित की याद आती. रोहित से दूर रहने के कारण उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता.

यामिनी के मम्मीपापा अब उस की शादी कर के अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे. इसीलिए यामिनी के लिए लड़का ढूंढ़ा जाने लगा था. उस का घर से बाहर निकलना बंद कर दिया गया था. रोहित से दिल की बात कहना भी कठिन हो गया उस के लिए. मोबाइल फोन का ही आसरा रह गया था. वह जब भी मौका पाती, रोहित को फोन कर देती और उसे कुछ करने के लिए कहती ताकि दोनों हमेशा के लिए एक हो जाएं. लेकिन रोहित को कोई उपाय नहीं दिखता.

जब घर में शादी की बात चलती तो यामिनी की हालत बुरी हो जाती. रोहित से दूर होने की बात सोच कर उस का मन अजीब हो जाता. अपने मम्मीपापा को रोहित के बारे में बताने की उस की हिम्मत नहीं होती थी. पापा पुलिस में थे. इसीलिए गरम मिजाज के थे. हालांकि शायद ही वह कभी गुस्सा हुए हों यामिनी पर. वह उन की इकलौती बेटी जो थी.

एक दिन यामिनी को उस की मां ने बताया कि उसे देखने कुछ मेहमान आएंगे. लड़का डाक्टर है. यह जान कर यामिनी की आंखों से आंसू निकल गए. वह किसी तरह सब से बच कर रोहित से मिलने गई. उस के गले से लिपट कर रो पड़ी. जब उस ने अपने लिए लड़का देखे जाने की बात बताई तो रोहित भी अपने आंसू नहीं रोक पाया.

तभी यामिनी बोली, ‘‘रोहित, तुम मुझे मेरे पापा से मांग लो. तुम्हारे बिना मैं जी नहीं पाऊंगी.’’

कुछ सोचते हुए मायूस शब्दों में रोहित बोला, ‘‘अभी इस दुनिया में मेरा खुद का ही कोई ठिकाना नहीं है. मैं किस मुंह से तुम्हारे पापा से तुम्हें मांग पाऊंगा. अगर उन्होंने मना कर दिया तो हमारी उम्मीद टूट जाएगी. जब तक मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता, तुम्हें धीरज रखना होगा. मेरे किसी योग्य होने तक अपनी शादी को किसी बहाने टलवा लो. मैं जल्दी ही तुम्हारा हाथ मांगने आऊंगा.’’

‘‘काश, मैं ऐसा कर पाती. जीवन की अंतिम सांस तक तुम्हारा इंतजार करूं, पर न जाने क्यों मेरे मम्मीपापा को मेरी शादी की जल्दी पड़ी है? रोहित, मेरे पापा से मेरा हाथ मांग लो. मैं जिंदगी भर तुम्हारा एहसान मानूंगी.’’ यामिनी अपनी रौ में कहती चली गई, ‘‘मैं किसी और से शादी नहीं कर सकती. तुम नहीं मिले तो मैं अपनी जान दे दूंगी.’’

रोहित ने घबरा कर कहा, ‘‘ऐसा गजब नहीं करना. तुम से दूर होने की बात मैं सोच भी नहीं सकता. लेकिन फिलहाल हमें इंतजार करना ही पड़ेगा.’’

यामिनी एक उम्मीद लिए अपने घर लौट आई. रोहित से जिंदगी भर के लिए मिलने के खयाल से उस के दिल की धड़कन बढ़ जाती. उस ने सोचा, क्या हसीन समां होगा जब वह और रोहित हमेशा के लिए साथ होंगे.

लेकिन चंद दिनों बाद ही यामिनी के खयालों की हसीन दुनिया ढहती नजर आई. उन की मां ने बताया कि अगले दिन ही उसे देखने मेहमान आ रहे हैं. यामिनी को काटो तो खून नहीं. उस ने घबरा कर रोहित को फोन किया. पर यह क्या? वह काल पर काल करती गई और उधर रिंग होती रही लेकिन रोहित ने फोन रिसीव नहीं किया. आखिर रोहित को आज हो क्या गया है? फोन क्यों नहीं उठा रहा है? वह काफी परेशान हो गई.

शायद वह किसी काम में व्यस्त होगा. इसलिए यामिनी ने थोड़ी देर ठहर कर कौल किया. लेकिन फिर भी उस ने फोन नहीं उठाया. ऐसा कभी नहीं हुआ था. वह तो तुरंत कौल रिसीव करता था या मिस्ड होने पर खुद ही कौलबैक करता था. आधी रात हो गई लेकिन यामिनी की आंखों से नींद कोसों दूर थी. वह रोहित को कौल करती रही. अंत में कोई जवाब दिए बिना रोहित का मोबाइल फोन स्विच औफ हो गया तो यामिनी की रुलाई फूट पड़ी.

अगले दिन सुबह पापा के ड्यूटी पर जाने के बाद यामिनी बहाना बना कर घर से निकल गई और रोहित के कमरे पर जा पहुंची, क्योंकि मेहमान शाम को आने वाले थे. पर यह क्या? वहां ताला लगा था. आसपास के लोगों से उस ने पूछा तो पता चला कि रोहित कमरा खाली कर कहीं जा चुका है. वह कहां गया है, यह कोई

नहीं बता पाया. यामिनी की आंखों में आंसू आ गए. अब वह क्या करे? कहां जाए? रोहित बिना कुछ कहे जाने कहां चला गया था. लेकिन रोहित ऐसा कर सकता है, यामिनी को यकीन नहीं हो रहा था.

शाम निकट आती जा रही थी और उस की दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी.

अगर लड़के वालों ने उसे पसंद कर लिया तो क्या होगा? वह कैसे मना कर पाएगी शादी के लिए? उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. उस ने सोचा, यह वक्त कहीं ठहर जाए तो कितना अच्छा हो. लेकिन गुजरते वक्त पर किस का अधिकार होता है.

धीरेधीरे शाम आ ही गई. लड़के वाले कई लोगों के साथ यामिनी को देखने आ गए. यामिनी का कलेजा जैसे मुंह को आ गया. जीवन में कभी खुद को उस ने इतना लाचार नहीं महसूस किया था. मां की जिद पर उस ने मन ही मन रोते हुए अपना शृंगार किया. उसे लड़के वालों के सामने ले जाया गया.

उस का दिल रो रहा था. रोहित से वह जुदा नहीं होना चाहती थी. यह सोच कर यामिनी की पीड़ा और बढ़ जाती कि अगर सब रजामंद हो गए तो क्या होगा? इस कठिन घड़ी में रोहित उसे बिना कुछ कहे कहां गायब हो गया था. यामिनी अकेले दम पर कैसे प्यार निभा पाएगी? उस ने क्या सिर्फ मस्ती करने के लिए प्यार किया था? जब निभाने और जिम्मेदारी उठाने की बात आई तो उसे छोड़ कर चुपचाप गायब हो गया. यह कैसा प्यार था उस का?

लेकिन यामिनी का मन रोहित के अलावा किसी और को स्वीकार करने को तैयार नहीं था. वह मन ही मन कामना कर रही थी कि लड़के वाले उसे नापसंद कर दें. लेकिन उन लोगों ने उसे पसंद कर लिया. अपने प्यार को टूटता देख यामिनी बेसब्र होती जा रही थी. इतनी कठिन घड़ी में वह अपनी भावनाओं के साथ अकेली थी. रोहित तो जाने किस दुनिया में गुम था. आखिर उस ने ऐसा क्यों किया? क्या प्यार उस के लिए मन बहलाने की चीज थी? यामिनी का विकल मन रोने को हो रहा था.

घर में खुशी का माहौल था. उस की मां सभी परिचितों एवं रिश्तेदारों को फोन पर लड़के वालों द्वारा यामिनी को पसंद किए जाने की सूचना दे रही थीं. पापा धूमधाम से शादी करने के लिए जरूरी इंतजाम के बारे में सोच रहे थे. लेकिन यामिनी मन ही मन घुट रही थी. रोहित को वह भूल नहीं पा रही थी. वह सोचती कि काश, उस की यह शादी न हो. उस के दिल में तो सिर्फ रोहित बसा था. वह कैसे किसी और के साथ न्याय कर पाएगी.

कुछ दिन बीते और इसी दौरान एक नई घटना घट गई. जिस बात को ले कर यामिनी घुली जा रही थी वह बिना कोशिश के ही हल हो गई. लड़के वाले शादी को ले कर आनाकानी करने लगे थे. जो शादी में मध्यस्थ का काम कर रहे थे उन्होंने बताया कि लड़के वालों ने ज्यादा दहेज के लालच में दूसरी जगह शादी पक्की कर ली. यह जान कर यामिनी को राहत सी महसूस हुई. कई दिनों के बाद उस की होंठों पर मुसकराहट आई.

शादी की बात टलते ही यामिनी को राहत मिली. पर अफसोस, रोहित अब भी उस के संपर्क में नहीं था. वह रोहित को याद कर हर पल बेचैन रहने लगी. बिना बताए वह कहां चला गया है? उस ने अपना मोबाइल फोन क्यों स्विच औफ कर लिया है? ज्योंज्यों दिन बीत रहे थे उस की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. कभीकभी उसे लगता कि रोहित ने उस के साथ धोखा किया है.

यामिनी हमेशा रोहित के नंबर पर कौल करती. लेकिन मोबाइल फोन हमेशा स्विच औफ मिलता. उस ने फेसबुक पर भी कई मैसेज पोस्ट किए पर कोई जवाब नहीं मिला. एक दिन उस ने देखा कि रोहित ने उसे फेसबुक पर भी ब्लौक कर रखा था. उस की इस हरकत पर यामिनी को बहुत गुस्सा आया. जिस के लिए उस ने अपना सारा चैन खो दिया, वह उस से दूर होने की हर कोशिश कर रहा है.

 

गुस्से से उस के होंठ कांपने लगे. बिना बताए इस तरह की हरकत? शादी नहीं करनी थी तो पहले बता देता. चोरों की तरह बिना कुछ बताए गायब हो जाना तो उस की कायरता है.

यामिनी की जिंदगी अजीब हो गई थी. रोहित पर उसे बहुत गुस्सा आता. लेकिन वह उस की यादों से दूर जाता ही नहीं था. उस की आंखों से जबतब आंसू छलक पड़ते. किसी काम में जी नहीं लगता. वह कभी मोबाइल चैक करती, कभी टीवी का चैनल बदलती तो कभी बालकनी में जा कर बाहर का नजारा देखती.

हर पल वह रोहितरोहित कह कर पुकारती. पता नहीं रोहित तक उस की आवाज पहुंचती भी थी या नहीं? वह यामिनी को लेने लौट कर आएगा भी या नहीं? कहीं वह अपनी नई दुनिया न बसा ले. यामिनी के दिल में डर बैठने लगता. फिर वह खुद ही अपने दिल को समझाती कि रोहित ऐसा नहीं है. एक दिन जरूर लौट कर आएगा और उसे अपना बना कर ले जाएगा.

लेकिन जैसेजैसे समय बीत रहा था यामिनी का मन डूबता जा रहा था. उस की उंगलियां रोहित का मोबाइल नंबर डायल करतेकरते शिथिल हो गईं. हर दिन वह उस की कौल आने का इंतजार करती. लेकिन न तो रोहित का कौल आया, न ही वह खुद आया. 2 महीने तक फोन लगालगा कर यामिनी हार गई तो उस ने मोबाइल फोन को छूना भी बंद कर दिया. उसे नफरत सी हो गई मोबाइल फोन से. एक दिन गुस्से में उस ने रोहित का मोबाइल नंबर ही अपने मोबाइल फोन से डिलीट कर दिया.

दिन बीतते रहे. एक दिन यामिनी के पापा के तबादले की खबर आई. वह उत्तर प्रदेश पुलिस में कौंस्टेबल थे. तबादले की वजह से पूरा परिवार आगरा आ गया.

यामिनी के मन से रोहित की उम्मीद अब लगभग खत्म सी हो गई थी.

आगरा में आ कर यामिनी को लगा कि शायद अपनी बीती जिंदगी को भूलने में अब आसानी हो. वह अकसर सोचती, ‘आगरा में ताजमहल है. कहते हैं वह मोहब्बत का प्रतीक है. लेकिन सचाई तो सारी दुनिया जानती है कि वह एक कब्र है. सही माने में वह मोहब्बत की कब्र है. ऊपर से रौनक है जबकि भीतर में एक दर्द दफन है. तो क्या उस के प्यार का भी यही हश्र होगा?’

घर में यामिनी की शादी की बात जब कभी होती तो उस का मन खिन्न हो जाता. शादी और प्यार दोनों से नफरत होने लगी थी उसे. जो चाहा वह मिला नहीं तो अनचाहे से भला क्या उम्मीद हो? उस ने सब को मना कर दिया कि कोई उस की शादी की बात न करे.

यामिनी को आगरा आए हुए 1 साल बीत चुका था. रोहित 3 साल से जाने किस दुनिया में गुम था. वह सोचती, ‘क्या रोहित को कभी मेरी याद नहीं आती होगी? अगर उस का प्यार छलावा था तो मुझे भुलावे में रखने की क्या जरूरत थी? एक बार अपने दिल की बात कह तो देता. मैं दिल में चाहे जितना भी रोती पर उसे माफ कर देती. कम से कम मेरा भ्रम तो टूट जाता कि प्यार सच्चा भी होता है?’

जब से यामिनी आगरा आई थी वह कहीं आतीजाती नहीं थी. नई जगह, नए लोग और अपने अधूरे प्यार में जलती रहती. कहीं भी उस का मन नहीं लगता. लेकिन एक दिन मां की जिद पर उसे पड़ोस में जाना पड़ा, क्योंकि पड़ोस की संध्या आंटी की बेटी नीला को लड़के देखने वाले आ रहे थे.

मां को लगा कि शायद शादीविवाह का माहौल देख कर यामिनी का मन कुछ बहल जाए. नीला का शृंगार करने की जिम्मेदारी यामिनी को सौंपी गई. अपना साजशृंगार भूल चुकी यामिनी नीला को सजाने में इतनी मसरूफ हुई कि नीला भी उस के कुशल हाथों की मुरीद हो गई. उस की सुंदरता से यामिनी को रश्क सा हो गया. शायद उस में ही कमी थी जो रोहित उस की दुनिया से दूर हो गया.

लड़के वाले आ चुके थे. नीला का शृंगार भी पूरा हो चुका था. नीला की मां चाहती थीं कि वही नीला को ले कर लड़के के पास जाए. यामिनी का जी नहीं कर रहा था. लेकिन संध्या आंटी का जी दुखाने का उस का इरादा न हुआ. वह बेमन से नीला के कंधे पर हाथ रख कर हाल की ओर चल पड़ी.

सामने सोफे पर बैठे लड़के को देख कर यामिनी गश खा कर गिर पड़ी. जिस का उस ने पलपल इंतजार किया, जिस के लिए आंसू बहाए, अपना सुखचैन छोड़ा और जो जाने क्यों चुपके से उस की जिंदगी से दूर चला गया था, वह बेवफा रोहित उस के सामने बैठा था, नीला के लिए किसी राजकुमार की तरह सज कर.

‘यामिनी… यामिनी…’ आंखें खोलो, तभी कोई मधुर आवाज यामिनी के कानों से टकराई. उस के मुंह पर पानी के छीटे मारे जा रहे थे. उस ने आंखें खोली. चिरपरिचित बांहों में उसे खुद के होने का एहसास हुआ.

‘‘आंखें खोलो यामिनी…’’ फिर वही मधुर आवाज हाल में गूंजी.

यामिनी के होंठ से कुछ शब्द फिसले, ‘‘तुम रोहित हो न?’’

‘‘हां यामिनी…मैं रोहित हूं.’’

यामिनी की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. वह बोल पड़ी, ‘‘तुम ने मुझ से बेवफाई क्यों की रोहित? कहां चले गए थे तुम मुझे बिना बताए. मैं आज तक तुम्हें ढूंढ़ रही हूं. तुम्हारे दूर जाने के बाद मैं कितना रोई हूं, कितना तड़पी हूं, तुम क्या जानो. अगर तुम मुझ से दूर होना चाहते थे तो मुझे बता देना चाहिए था न. मैं ही पागल थी जो तुम्हारे प्यार में घुलती रही आज तक.’’

‘‘मैं भी बहुत रोया हूं…बहुत तड़पा हूं,’’ रोहित बोला. उस ने कहा, ‘‘क्या वह दिन तुम्हें याद है जब तुम अंतिम बार मुझ से मिली थीं?’’

‘‘हां,’’ यामिनी बोली.

‘‘उस दिन तुम्हारे जाने के ठीक बाद तुम्हारे पापा आए थे 4-5 लोगों के साथ. सभी पुलिस की वरदी में थे.’’

‘‘क्या…’’ हैरानी से यामिनी की आंखें फटी की फटी रह गई.

रोहित ने आगे कहा, ‘‘तुम्हारे पापा ने कहा कि मैं तुम से कभी न मिलूं और तुम्हारी दुनिया से दूर हो जाऊं, नहीं तो अंजाम बुरा होगा. उन के एक सहकर्मी ने हम दोनों को एकसाथ पार्क में देख लिया था और तुम्हारे पापा को बता दिया था. इसीलिए तुम्हारे पापा बेहद नाराज थे. वे मुझे तुम से दूर कर तुम्हारी जल्द शादी कर देना चाहते थे. अब तुम्हीं बताओ यामिनी, मैं क्या करता? पुलिस वालों से मैं कैसे लड़ता वह भी तुम्हारे पापा से. तुम्हारी जिंदगी में कोई तूफान नहीं आए, इसीलिए तुम से दूर जाने के सिवा मेरे पास कोई उपाय नहीं था.’’

‘‘और इसीलिए मैं ने अपना सिम कार्ड तोड़ कर फेंक दिया और दिल पर पत्थर रख कर दिल्ली आ गया. दिल्ली में मैं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगा. 1 साल के बाद मुझे बैंक में पीओ के पद के लिए चुन लिया गया. लेकिन मेरी जिंदगी में तुम नहीं थीं. इसीलिए खुशियां भी मुझ से रूठ गई थीं. हर पल मेरी आंखें तुम्हें ढूंढ़ती रहती थीं. लेकिन फिर खयाल आता कि तुम्हारी शादी हो गई होगी अब तक. यादों के सहारे ही जिंदगी गुजारनी होगी मुझे. पर न जाने क्यों, मेरा दिल यह मानता ही न था. लगता था कि तुम मेरे सिवा किसी और की हो ही नहीं सकती.’’

‘‘कहीं तुम अब भी मेरा इंतजार न कर रही हो, इसीलिए हिम्मत कर तुम से मिलने इलाहाबाद गया ताकि सचाई का पता चल सके. पर तुम सपरिवार कहीं और जा चुकी थीं. तुम्हें ढूंढ़ने की हर मुमकिन कोशिश के बाद भी जब तुम नहीं मिलीं तो अपने चाचाचाची की जिद पर खुद को हालात के हवाले कर दिया. इसीलिए आज मैं यहां हूं. लेकिन अब तुम मुझे मिल गई. अब कोई मुझे तुम से जुदा नहीं कर सकता.’’

रोहित के मुंह से इन शब्दों को सुन कर यामिनी के दिल को एक सुकून सा  मिला. यामिनी को महसूस होने लगा कि सच में सच्चा प्यार अटूट होता है. लेकिन उस के पापा रोहित को धमकाने गए थे, यह जान यामिनी हैरत में थी. उसे अब रोहित पर गर्व हो रहा था, क्योंकि वह बेवफा नहीं था. वह चाहता तो यामिनी को ढूंढ़ने के बजाए पहले ही कहीं और शादी कर लेता.

उड़ान: उम्र के आखिरी दौर में अरुणा ने जब तोड़ी सारी मर्यादा

घर्रघर्र की आवाज करती बस कच्ची सड़क पर बढ़ती जा रही थी. उस में बैठी अरुणा हिचकोले खाती बाहर का दृश्य एकटक देख रही थी. नारियल के पेड़ों के झुंड, कौफी के बागान, अमराइयां, सुपारी के पेड़, लहलहाते धान के खेत, चारों तरफ हरियाली और प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य देख कर अरुणा की आंखें भर आईं.

बचपन में यही सफर वह बैलगाड़ी में तय करती थी. उस के गांव तिरुपुर में तब बस और मोटरें नहीं चलती थीं. आसपास के गांवों तक लोग बैलगाड़ी में ही आयाजाया करते थे.

अरुणा की आंखें शून्य में जा टंगीं. वह अतीत की यादों में खो गई.

वह अभी 16 साल की थी कि उस के मातापिता ने उस का ब्याह तय कर दिया. उस ने बहुत नानुकुर की पर उस की एक न चली. उस का मन आगे पढ़ने का था पर पिता बोले, ‘आगे पढ़ कर क्या करना है, वही चूल्हाचक्की न. बस, बहुत हो गया.’

इस बात की जानकारी जब उस के चाचा गोविंद को हुई तो वे शहर से दौड़े चले आए.

‘अन्ना, यह क्या करते हो? इतनी छोटी उम्र में बेटी की शादी?’

‘अरे, मेरा बस चलता तो इसे छुटपन में ही ब्याह देता,’ कृष्णस्वामी बोले, ‘लड़की रजस्वला हो उस से पहले उस का विवाह होना कल्याणकारी होता है. ऐसे ही विवाह को  ‘गौरी कल्याणम’ कहा जाता है और इसे बहुत श्रेष्ठ माना जाता है.’

‘लेकिन आजकल ये सब कौन करता है. अरुणा को आगे पढ़ने दीजिए.’

‘देखो गोविंद, बेटी को आगे पढ़ाने का मतलब है उसे शहर भेजना, क्योंकि हमारे गांव में कालेज तो है नहीं.’

‘इसे मेरे पास बेंगलुरु भेज दीजिए.’

‘नहीं, तुम्हारा अपना परिवार है.

तुम उस को देखो. अरुणा मेरी जिम्मेदारी है. उस के लिए अच्छा घरवर ढूंढ़ लिया है. और फिर अरुणा ठिकाने से लगेगी तभी न उस की छोटी बहनों के लिए रास्ता खुलेगा.’

शादी के 1 वर्ष बाद ही अरुणा के पति की एक ट्रेन दुर्घटना में मृत्यु हो गई. उस के ससुराल वालों का तो उस पर कहर ही टूट पड़ा, ‘अरे, कैसी सत्यानाशी, कुलक्षणी लड़की निकली यह जो आते ही हमारे बेटे को खा गई. हमें नहीं चाहिए यह मनहूस कुलनाशिनी,’ ससुराल में उस का जीना दूभर कर दिया गया.

पिता उसे ससुराल से घर ले आए.

‘तू फिक्र न कर मेरी बच्ची,’ उन्होंने उसे दिलासा दिया था, ‘जब तक

मांबाप का साया तेरे सिर पर है, तुझे किसी प्रकार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं. हम हैं न तेरी सरपरस्ती के लिए.’

‘हां अक्का,’ छोटे भाई राघव ने आश्वासन दिया, ‘मैं और केशव भी हैं जो आजन्म तुम्हें संभालेंगे.’

लेकिन क्या इन खोखले शब्दों से उस के आंसू थमने वाले थे? मांबाप का संरक्षण था, पर साथ ही बंदिशें भी थीं. उसे अपना भविष्य अंधकारमय नजर आता था.

पिता कृष्णस्वामी के धर्मगुरु स्वामी अनंताचार्य घर आए. पूरा घर हाथ जोड़े उन के स्वागत में लग गया.

‘यजमान, तुम्हारी बेटी के बारे में सुना, बड़ा दुख हुआ. पर होनी को कौन टाल सकता है. अब तुम लोगों को चाहिए कि बिटिया को धैर्य बंधाओ. पिछले जन्म के कर्मों की सजा इस जन्म में मिल रही है. इस जन्म में नेमधरम से रहेगी तभी अगला जन्म संवरेगा. हां, तो बिटिया के केशकर्तन कब करवा रहे हो?’

कृष्णस्वामी भारी सोच में पड़ गए. बेटी का उदास चेहरा, सूना माथा और  गला देख कर ही उन का कलेजा मुंह को आता था. उस के केश उतारे जाने की कल्पना से वे थर्रा गए.

अरुणा ने सुना तो वह बिलखबिलख कर रोने लगी, ‘पिताजी, मेरे केश मत उतरवाओ. मैं यह सह नहीं पाऊंगी.’

उस के लिए यही क्या कम था कि भरी जवानी में वैधव्य दुख भोग रही थी. पति के मरते ही उस की चूडि़यां तोड़ दी गई थीं. मंगलसूत्र गले से उतार लिया गया था. उसे सादे कपड़े पहनने के लिए बाध्य कर दिया गया था. माथे से सुहाग का चिह्न पोंछ दिया गया था सौंदर्य प्रसाधन, आमोदप्रमोद सब वर्जित हो गए. जब उस की सखीसहेलियां शादीब्याह में बनठन कर अठखेलियां करतीं तो वह उपेक्षित सी घर में मुंह लपेट कर पड़ी रहती.

उस के गोविंद चाचा जब शहर से गांव आए तो देखा कि सारा घर शोक में डूबा हुआ था.

‘यह क्या अन्ना, हमारे धर्मशास्त्रों में लिखा है कि जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता बसते हैं. लेकिन तुम्हारे घर की स्त्रियों की दयनीय दशा देखी नहीं जाती. एक तरफ भाभी रो रही हैं. बेटी अलग अपने गम में घुलती जा रही है और तुम हो कि उन की ओर से बिलकुल उदासीन हो.’

‘मैं क्या करूं गोविंद, मुझे तो कुछ सूझता नहीं है,’ कृष्णस्वामी ने बुझे हुए स्वर में कहा.

‘तुम अब अरुणा को मेरे जिम्मे छोड़ दो. मैं उसे शहर ले जाऊंगा. उसे कालेज में भरती कराऊंगा. बिटिया वहीं पढ़ाई करेगी.’

‘लेकिन…’

‘अब लेकिनवेकिन नहीं. मैं तुम्हारी एक न सुनूंगा.’

मांबाप ने भारी मन से अरुणा को विदा किया. सौ हिदायतें दीं. घर में थी तो बात और थी. वे उस के ऊपर कड़ा नियंत्रण रखते. पगपग पर टोकाटाकी करते. जवान लड़की के कहीं कदम बहक न जाएं, इस बात का उन्हें हमेशा डर लगा रहता.

अरुणा के चाचा उसे बेंगलुरु ले कर चले गए. उसे कालेज में दाखिला दिला दिया.

इस दौरान एक दिन अरुणा की मुलाकात श्रीकांत से हुई. वह पास के कालेज में पढ़ता था. सुदर्शन और मेधावी था. लड़कियां उस के पीछे दीवानी थीं. पर उस ने सब को छोड़ अरुणा को चुना था. वे चोरीछिपे मिलने लगे.

एक दिन श्रीकांत बोला, ‘तुम ने उडुपी कृष्णभवन का मसाला डोसा खाया है कभी?’

‘नहीं.’

‘चलो, आज चलते हैं.’

‘नहीं बाबा, तुम्हारे साथ रेस्तरां गई और किसी ने देख लिया तो?’

‘देख ले, हमारी बला से. कोई हमारा क्या कर लेगा? हम दोनों तो शादी करने वाले हैं.’

‘शादी,’ उस का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘श्रीकांत, यह तुम क्या कह रहे हो? क्या तुम जानते नहीं कि मैं विधवा हूं?’

‘जानता हूं. पर वह तुम्हारा गुजरा हुआ कल था. मैं तुम्हारा आने वाला कल हूं.’

उस के प्यार की भनक आखिर एक दिन घरवालों को लग ही गई. उस दिन घर में एक तूफान आ गया था.

‘विधवा का पुनर्विवाह,’ पिताजी गरजे थे, ‘असंभव. अरे पगली, तू उस देश में जन्मी है जहां स्त्रियां पति की चिता पर सहगमन करती थीं. हमारे वंश में न कभी ऐसा हुआ न कभी होगा. हम लोग ऐसेवैसे नहीं हैं. हम उच्च कोटि के ब्राह्मण हैं. मेरे दादा मैसूर महाराजा के राजपुरोहित थे. सभी काम नेमधरम से करते थे तब कहीं जा कर राजकाज संभालते थे. और तुझे मेरी मां की याद है?’

‘हां,’ उस ने अस्फुट स्वर में कहा.

अरुणा को अपनी दादी भलीभांति याद हैं. 20 साल की आयु में विधवा हुईं. घुटा हुआ सिर, एकवसना, एक जून खाना.

8 गज की तांत की साड़ी में अपना तन और सिर ढकतीं. हमेशा नेमधरम से रहतीं. वे सांध्य बेला में मंदिर जाना नहीं भूलतीं. एक दिन मंदिर में ही एक खंभे के सहारे बैठेबैठे, प्रवचन सुनते हुए उन के प्राणपखेरू उड़ गए थे.

लेकिन जैसे अरुणा का मन अंदर से चीख उठा था, ‘वह जमाना और था’. उसे इस बात का ज्ञान था कि वह आज के युग की नारी है, उस में सोचनेसमझने की शक्ति है, वह अपना भलाबुरा जानती है. वह नियति के आगे सिर कैसे झुका दे. वह कैसे एक अज्ञात मनुष्य के नाम की माला जपते हुए अपने बचेखुचे दिन गुजार दे.

माना कि वह पुरुष उस का पति था. अग्नि को साक्षी मान कर उस ने उस के साथ सात फेरे लिए थे. पर था तो वह उस के लिए एक अजनबी ही. यह जानते हुए कि यही विधि का विधान है, वह मन मार कर नहीं रह सकती. उस का मन विद्रोह करना चाहता है.

उसे अपने हिस्से की धूप चाहिए. उसे वे सभी खुशियां, वे सभी नेमतें चाहिए जिन पर उस का जन्मसिद्ध अधिकार हैं. उसे एक जीवनसाथी चाहिए, एक सहचर जिस के साथ वह अपना सुखदुख बांट सके. जिस पर अपना प्यार लुटा सके, जिस पर वह अपना अधिकार जमा सके, उसे चाहिए एक नीड़ जहां बच्चों का कलरव गूंजे.

वह यह सब अपने मातापिता से कहना चाहती थी. पर उस के मांबाप पुरातनपंथी थे, रूढि़वादी थे, संकीर्ण विचारों वाले परले सिरे के अंधविश्वासी थे. पिता उग्र स्वभाव के थे जिन के सामने उस की जबान न खुलती थी. मां पिता की हां में हां मिलातीं. वे उस की सुनने को तैयार ही न थे. श्रीकांत का उन्होंने जम कर विरोध किया.

‘देख अरुणा, हम तुझे बताए देते हैं, इस लड़के से ब्याह का विचार त्याग दे. हमारे जीतेजी यह मुमकिन नहीं. हमें बिरादरी से बाहर कर दिया जाएगा. जाने कहां का आवारा, लफंगा तुझे अपने जाल में फंसाना चाहता है. हम ठहरे ब्राह्मण, वह नीच जाति का. मैं कहे देता हूं, यदि तू ने उस छोकरे से ब्याह करने की जिद ठानी तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगा. मैं अपनी बात का धनी हूं. इस से पहले कि कुल पर आंच आए या कोई हम पर उंगली उठाए, हम मर जाएंगे. मैं कुएं में छलांग लगा दूंगा या आमरण अनशन करूंगा.’

अरुणा सहम गई. मांबाप के प्रति विद्रोह करने की उस में हिम्मत न थी. उस ने श्रीकांत के प्रस्ताव को ठुकरा दिया.

स्वामी अनंताचार्य घर आए. उन्होंने अरुणा के बारे में सुना.

‘देख वत्स, इसीलिए मैं कहता था कि बिटिया के केश उतरवा दो. विधवाओं के लिए यह नियम मनुस्मृति में लिखा गया है. लेकिन उस वक्त तुम ने मेरी बात नहीं मानी. अब देख लिया न परिणाम? तुम्हारी बेटी का  रूप व घनी केशराशि देख कर ऋषिमुनियों के मन भी डोल जाएं, मनुष्य की बिसात ही क्या?’

उन्होंने अरुणा से कहा, ‘बेटी, अब ईश्वर में लौ लगाओ. रोज मंदिर जाओ. भगवत सेवा करो. वही मुक्तिमार्ग है.’

कुछ रोज तो वह मंदिर जाती रही पर सांसारिक मोहमाया न त्याग सकी. मंदिर में भी उस का मन भटकता रहता था. आंखें प्रतिमा पर टिकी रहतीं पर मन में श्रीकांत की छवि बसी थी. कानों में स्वामीजी के प्रवचन गूंजते और वह श्रीकांत के खयालों में खोई रहती.

समय सरकता रहा. उस के भाईबहन अपनेअपने परिवार को ले कर मगन थे. मातापिता का देहांत हो चुका था. अरुणा ने पढ़ाई पूरी कर के अपने ही कालेज में व्याख्याता की नौकरी कर ली थी. पठनपाठन में उस का मन लग गया था. किताबें ही उस की मित्र थीं. पर कभीकभी उस का एकाकी जीवन उसे सालता था.

बस अचानक एक झटके से रुकी और अरुणा वर्तमान में लौट आई. उस का गांव आ गया था. उस के भाई व भाभी ने उस का स्वागत किया.

‘‘आओ अक्का, अब तो वापस शहर नहीं जाओगी न?’’ राघव ने उस के हाथ से बैग लेते हुए कहा.

‘‘नहीं, नौकरी से रिटायर हो चुकी हूं. मैं काम करकर के थक गई थी. अब यहीं शांति से रहूंगी.’’

‘‘अच्छा किया, मुझे भी आप की मदद की जरूरत है,’’ नागमणि बोली, ‘‘आप तो जानती हैं कि श्रीधर की शादी तय हो गई है. उस की तैयारी करनी है. जया के भी पांव भारी हैं. वह भी जचकी के लिए आने वाली है. आप को ही सब करनाकराना है.’’

‘‘तुम सब कुछ मुझ पर छोड़ दो, भाभी. मैं संभाल लूंगी.’’

वह बड़े उत्साह से शादी की तैयारी में लग गई. वधू के लिए गहने गढ़वाना, मेहमानों के लिए पकवान बनाना, रंगोली सजाना आदि ढेरों काम थे.

बहू बिदा हो कर आई थी. घर में गांव की स्त्रियों का जमघट लगा हुआ था.

वरवधू द्वाराचार के लिए खड़े थे.

‘‘अरे भई, आरती कहां है? कोई तो आरती उतारो,’’ किसी ने गुहार लगाई.

अरुणा ने सुना तो थाल उठा कर दौड़ी.

नागमणि ने झटके से उस के हाथ से थाली छीन ली, ‘‘यह क्या कर रही हैं अक्का? आप को कुछ होश है कि नहीं? यह काम सुहागिनों का है. आप की तो छाया भी नववधू पर नहीं पड़नी चाहिए. अपशकुन होगा.’’

अरुणा पर घड़ों पानी पड़ गया. कुछ क्षणों के लिए वह भूल बैठी थी कि वह विधवा है. शुभ अवसरों पर उसे ओट में रहना चाहिए. उसे याद आया कि घर में जब भी पिता बाहर निकलते और वह उन के सामने पड़ जाती तो वे उलटे पैरों लौट आते और थोड़ी देर बैठ कर पानी पी कर फिर निकलते.

शहर में लोग इन बातों की परवा नहीं करते थे, पर गांव की बात और थी. यहां लोग अभी भी कुसंस्कारों में जकड़े हुए थे. लीक पीटते जा रहे थे.

कुछ दिनों बाद नागमणि ने फिर

उस के रहनसहन पर आपत्ति खड़ी कर दी.

‘‘अक्का, आप रसोईघर और पूजाघर में न जाया करें.’’

‘‘क्यों भला?’’

‘‘स्वामी अनंताचार्यजी कह रहे थे कि आप ने विधवा हो कर भी केशकर्तन नहीं कराए जो हमारे शास्त्रों के विरुद्ध है और आप को अशुद्ध माना जा रहा है.’’

अरुणा के हृदय पर भारी चोट लगी. इतने सालों बाद यह कैसी प्रताड़ना? अभी भी उस के आचार पर लोगों की निगाहें गड़ी हैं. जीवन के संध्याकाल में इस दौर से भी गुजरना होगा, यह उस ने सोचा न था. उसे अपने ही लोगों ने अछूत की तरह जीने पर मजबूर कर दिया था. पगपग पर लांछन, पगपग पर तिरस्कार.

आखिर एक दिन उस का मन इतना विरक्त हुआ कि उस ने तय कर लिया कि वह अपने केश उतरवा देगी.

घर में उत्सव जैसा माहौल था. नाई आया. आंगन में एक पीढ़े पर वह बैठी. नाई ने अपना उस्तरा तेज किया और उस के सिर पर फेरना शुरू किया. केशगुच्छ जमीन पर गिरते गए. नाई के जाने के बाद घर की बड़ीबूढि़यां आईं और बोलीं, ‘‘चलो बेटी, अब नहा लो.’’

अरुणा उठ खड़ी हुई. नहा कर उस ने एक कोरी रेशम की साड़ी पहनी जो विधवाओं का लिबास था. अब उस की दिनचर्या बिलकुल बदल गई थी. उस के हिस्से में आए जप, तप, पूजापाठ, व्रतउपवास और संयमी जीवन.

उस के गांव से कुछ स्त्रियां तीर्थयात्रा पर जा रही थीं. अरुणा भी उन के साथ हो ली.

घर लौटी तो हमेशा की तरह उस के भाई उसे बसस्टैंड पर लेने आए थे.

‘‘कहो अक्का, तुम्हारी यात्रा सुखद रही न?’’ केशव ने पूछा.

‘‘हां,’’ वह बताने लगी, ‘‘मैं ने चारों धाम के दर्शन कर लिए. मेरा जीवन सार्थक हो गया.’’

उस ने देखा राघव कुछ अनमना सा था.

‘‘क्या बात है राघव, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, अक्का.’’

नागमणि द्वार पर खड़ी उस का रास्ता देख रही थी.

‘‘भाभी, मैं तुम सब के लिए उपहार लाई हूं,’’ अरुणा बोली, ‘‘तुम्हारे और जया के लिए चंदेरी साडि़यां…’’

कहतेकहते उस की निगाह अंदर सहन में झूले पर बैठी जया पर पड़ी तो वह ठिठक गई.

‘‘अरे, यह क्या?’’ उस के मुंह से निकला.

जया का गला व माथा सूना था. सारे सुहाग के चिह्न नदारद. एक मैली सी साड़ी लपेटे वह शून्य में ताकती अनमनी सी बैठी थी.

‘‘भाभी,’’ अरुणा ने अस्फुट चीत्कार किया, ‘‘यह क्या देख रही हूं मैं? यह कब और कैसे हुआ?’’

नागमणि ने रोरो कर बताया कि जया का पति उसे मायके छोड़ने आया था. सुबह नदी में नहाने गया. हेमावती नदी में बाढ़ आई हुई थी. सुरेश तैरते हुए एक भंवर में फंस गया और तुरंत डूब गया.

‘‘ओह, इतना बड़ा हादसा हो गया और आप लोगों ने मुझे खबर तक न की.’’

‘‘यही नहीं,’’ नागमणि रो कर बोली, ‘‘पति की मृत्यु की खबर से जया को इतना गहरा सदमा लगा कि उसी शाम उसे प्रसव वेदना हुई और एक सतमासा बच्चा पैदा हुआ, वह भी मरा हुआ. इस दोहरे आघात से लड़की एकदम विक्षिप्त सी हो गई है. न किसी से बोलतीचालती है न ठीक से खातीपीती है. बस, दिनभर गुमसुम सी इस झूले पर बैठी रहती है.’’

‘‘लेकिन आप लोगों ने इस के गहने क्यों उतरवा दिए? यह तो बड़ी ज्यादती है.’’

‘‘हम ने नहीं, इस ने खुद उतार फेंके हैं. मुझे तो डर है कि यह कहीं दुख से पागल न हो जाए.’’

‘‘ओह,’’ अरुणा ने ठंडा निश्वास छोड़ा. इस भतीजी से उसे बहुत लगाव था. पलभर में उस का सुखी संसार उजड़ गया था.

कुछ दिन बाद बैठक में भाई राघव, भाभी नागमणि, भतीजे श्रीधर और भतीजी जया के साथ अरुणा बैठी हुई थी. अचानक भाई ने प्रसंग छेड़ा.

‘‘स्वामीजी ने कहा था कि जया मांगलिक है इसलिए उस का एक वटवृक्ष से गठबंधन करा कर बाद में उस का विवाह करना चाहिए. हम ने वह भी किया. फिर भी पता नहीं क्यों यह हादसा हो गया? स्वामीजी के अनुसार तो यदि एक नवग्रह जाप करा कर ग्रहशांति के लिए एक छोटा सा यज्ञ करा दिया गया होता तो यह अनर्थ न होता.’’

‘‘उन की छोड़ो, आगे की सोचो. अब जया के बारे में क्या इरादा है?’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘उसे यों मझधार में तो छोड़ा नहीं जा सकता. तुम लोग उस की दूसरी शादी क्यों नहीं कर देते?’’

‘‘दूसरी शादी?’’

नागमणि भौचक उस का मुंह ताकने लगी. उस के होंठ कांपे और आंखों से आंसू ढुलकने लगे, ‘‘अक्का, क्या यह संभव है?’’

‘‘क्यों नहीं.’’

‘‘लेकिन लोग क्या कहेंगे? समाज इस की अनुमति देगा?’’ राघव ने टोका.

‘‘राघव, तुम किस समाज की बात कर रहे हो? हम लोग भी तो समाज का अंग हैं और तुम तो गांव के मुखिया हो. सब के अगुआ हो. तुम्हें यह क्रांतिकारी कदम उठाना ही होगा. तुम्हें एक दृष्टांत कायम करना होगा. आखिर किसी को तो पहल करनी चाहिए तभी तो इन कुरीतियों का अंत होगा.’’

‘‘लेकिन बिरादरी वाले हमें जीने नहीं देंगे.’’

‘‘न सही, पर बेटी पहले है या बिरादरी? जरा सोचो, जया के पति की अकाल मृत्यु हुई है, पर तुम लोग जया को जीतेजी मार रहे हो. क्षति उस की हुई और सजा भी वही भुगते. यह कहां का न्याय है?’’

‘‘अक्का ठीक कह रही हैं,’’ केशव ने कहा.

‘‘लेकिन मेरा मन इस की गवाही नहीं देता. हमारे हिंदू धर्म में विधवा विवाह वर्जित है.’’

‘‘अन्य धर्मों में विधवा विवाह की छूट है. मुसलमानों और ईसाइयों में विधवा विवाह होते रहते हैं. पता नहीं, हम हिंदू ही नारी के प्रति इतने बर्बर क्यों हैं? पुरुष एक छोड़ दस शादियां कर सकता है. एक पत्नी के मरने पर दोबारा कुंआरी कन्या से विवाह कर सकता है. ये सारे कायदेकानून, सारे प्रतिबंध स्त्रियों के लिए ही हैं. क्यों न हों, ये नियम पुरुषों ने ही तो बनाए हैं. लेकिन अब सारे देश में बदलाव की लहर बह रही है.

‘‘स्त्रियों के हित में नित नए कानून बन रहे हैं. स्त्रियां अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं. वे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठा रही हैं, पर अफसोस, हमारा गांव वहीं का वहीं है. वही संकीर्ण मानसिकता, वही पिछड़ापन. कुप्रथाओं के मकड़जाल में फंसा, तंत्रमंत्र, छुआछूत, टोनाटोटका, झाड़फूंक और अंधविश्वासों से घिरा है हमारा ग्रामीण समाज. ऊपर से हमारे धर्म के ठेकेदार हमें धर्म की दुहाई दे कर तिगनी का नाच नचाते रहते हैं. मैं यह सब इसलिए कह रही हूं कि हमें जया को आजीवन रोने व कलपने के लिए नहीं छोड़ना चाहिए. उस का भविष्य संवारने के लिए कोई ठोस कदम उठाना चाहिए.’’

‘‘मैं अक्का से सहमत हूं,’’ केशव बोला, ‘‘हमें जया की दूसरी शादी कर देनी चाहिए. मेरी नजर में एक अति उत्तम लड़का है. वह सुलझे विचारों वाला है. उस की सोच नई है. मैं उस से बात करूंगा.’’

‘‘ठीक है, पर एक बात, जातपांत को ले कर कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए. जया को इस माहौल से निकालो. उसे शहर भेजो. वहां के उन्मुक्त वातावरण में उसे सांस लेने दो. उस के पंख मत कतरो. उस पर अंकुश मत लगाओ. उसे उड़ान भरने दो. उसे स्वच्छंद विचरने दो. उस के  व्यक्तित्व को विकसित होने दो.’’

‘‘अक्का, तुम ने भी तो कम उम्र में अपने पति को गंवाया था. तुम ने भी तो सारी उम्र निष्ठा से वैधव्य धर्म का पालन किया.’’

‘‘राघव, उस समय मेरे सामने और कोई विकल्प नहीं था. मुझ में मातापिता के विरुद्ध जाने की हिम्मत नहीं थी. लेकिन यह जरूरी नहीं कि जया का हश्र मेरे जैसा हो. उस में और मुझ में एक पीढ़ी का फर्क है. हमारे समय में लड़कियों को पढ़ायालिखाया नहीं जाता था. उसे पहले पिता फिर पति और फिर पुत्र का आश्रित हो कर रहना पड़ता था. विधवा होना तो उस के लिए एक बड़ा अभिशाप था.

अपनी इच्छाओं का दमन कर, रूखासूखा खा कर, मोटाझोटा पहन कर वह एक उपेक्षित की जिंदगी गुजारती थी. उसे मनहूस, कुलच्छिनी माना जाता था और उस की दशा जानवरों से भी बदतर होती थी. तुम तो जानते हो कि हमारी तमिल भाषा में ‘मुंडे’ यानी ‘विधवा’ गाली है. ‘मुंडेदे’ यानी विधवा की अवैध संतान भी एक गाली है. लेकिन अब हम विधवा के प्रति सदय हैं. हम में जागरूकता आई है. हम ने कई पुरानी कुप्रथाओं का त्याग किया है. एक समय था कि हमारे देश में सती का चलन था. बालविवाह और देवदासी की प्रथा थी. हमारे दक्षिण भारत के गांवों में नवजात बच्चियों को दूध के गागर में डुबो कर मार दिया जाता था. अब जमाना बदल रहा है. हमें जमाने के साथ चलना चाहिए. जया पढ़ीलिखी है, सबल है, सक्षम है. उसे स्वावलंबी बनने दो. उसे नया जीवनदान दो.’’

नागमणि अरुणा के पैरों पर गिर पड़ी, ‘‘अक्का, मुझे क्षमा कर दो. मैं ने आप को बहुत जलीकटी सुनाई है. आप को बहुत दुख पहुंचाया है.’’

‘‘वह सब भूल जाओ. अब हमारे सामने जया की ज्वलंत समस्या है. इस का समाधान ढूंढ़ना है. जिंदगी जीने के लिए है, घुटघुट कर मरने के लिए नहीं.’’

वह उठ कर जया की बगल में जा बैठी. उस की पीठ पर हाथ फेरते हुए उस ने कहा, ‘‘क्यों बिटिया, मैं ने ठीक कहा न?’’

जया के निस्पंद शरीर में तनिक हरकत हुई. उस ने सिर घुमा कर अरुणा को देखा और बिना कुछ बोल अपना सिर उस के कंधे पर टिका दिया.

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