Stories : जली रोटी से तली पूरी तक, पिता की रसोई यात्रा

 Stories :  “यार मैं तुम्हारे बिना बच्चों को 10-12 दिनों तक अकेले कैसे संभालूंगा? क्या यह टूर इतना जरूरी है? कोई बहाना नहीं बना सकती ?”

“मेरे प्यारे पतिदेव यदि टूर पर जाने के लिए बौस का इतना दबाव न होता तो मैं नहीं जाती. वैसे यह भी सो तो सोचो कि इस तरह के असाइनमेंट्स से ही मेरी स्किल डेवलप होगी और फिर इसी बहाने मुझे बाहर जाने का मौका भी मिल रहा है. बस 10 -12 दिनों की बात है. वक्त कैसे गुजर जाएगा तुम्हें पता भी नहीं चलेगा.” नैना ने मुस्कुरा कर कहा पर मैं परेशान था.

“खाना बनाना, बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजना और फिर बच्चों की देखभाल… यह सब कौन करेगा?” मैं ने पूछा.

“देखो खानेपीने की चिंता तो बिल्कुल भी मत करो. मैं ने लाजो से कह दिया है. वह रोज सुबहसुबह आ कर नाश्ताखाना वगैरह बना देगी और बच्चों को तैयार कर के स्कूल भी भेज देगी. बच्चों को स्कूल से ला कर उन्हें खिला कर और फिर रात के लिए कुछ बना कर ही वह वापस अपने घर जाएगी. शाम में तुम आओगे तो सबकुछ तैयार मिलेगा. रही बात बच्चों के देखभाल की तो यार इतना तो कर ही सकते हो. वैसे बच्चे अब बड़े हो रहे हैं. ज्यादा परेशान नहीं करते.”

“ओके डार्लिंग फिर तो कोई दिक्कत नहीं. बस तुम्हें बहुत मिस करूंगा मैं.” मैं ने थोड़े रोमांटिक स्वर में कहा.

“जब भी मेरी याद आए तो बच्चों के साथ खेलने लगना. सब अच्छा लगने लगेगा.” उस ने समझाया

मैं ने नैना को बाहों में भर लिया.  वह पहली बार इतने दिनों के लिए बाहर जा रही थी. वैसे एकदो बार पहले भी गई है पर जल्दी ही वापस आ जाती थी.

अगले दिन सुबह नैना की फ्लाइट थी. 10 बजे के करीब मैं उसे विदा कर घर लौटा तो देखा कि बच्चे स्कूल से वापस लौट आए थे .

“पापा हमारे स्कूल 31 मार्च तक बंद हो गए हैं”. तान्या ने खुश हो कर कहा तो हर्ष ने वजह बताई,” पापा टीचर ने कहा है कि कोरोनावायरस से बचने के लिए घर में रहना जरूरी है.”

“ओके तो फिर ठीक है. पूरे दिन घर में रहो  और मजे करो. मगर थोड़ी पढ़ाई भी करना और लाजो दीदी की बात मानना. मैं ऑफिस से जल्दी आ जाया करूंगा.. ओके.” मैं ने तान्या को गोद में उठा कर पप्पी दी.

“ओके पापा” दोनों बच्चों ने एक साथ कहा.

मैं फटाफट तैयार हो कर 11 बजे के करीब ऑफिस के लिए निकल गया. पूरे दिन बच्चों का ख्याल आता रहा. दोतीन बार फोन कर के बच्चों का हालचाल भी लिया. शाम में जब घर पहुंचा तो बच्चे टीवी खोल कर बैठे हुए थे.

“…और बताओ, कैसा रहा आज का दिन?” मैं ने पूछा तो हर्ष ने जवाब दिया, “अच्छा रहा पापा. हम ने पूरे दिन मस्ती की. लाजो दीदी ने आलू की रसदार, चटपटी सब्जी के साथ पूरियां तल कर खिलाईं. मजा आ गया.”

“मगर मम्मी याद आ रही थीं. .”तान्या ने कहा.

“हां वह तो है. मम्मी तो मुझे भी याद आ रही हैं. चलो अब मैं कपड़े बदल कर चाय बना लूं फिर बातें करेंगे ”

कपड़े बदल कर मैं किचन में घुस गया. किचन बिल्कुल साफ़ सुथरा था और फ्रिज में खाना बना कर रखा हुआ था. मैं निश्चिंत हो गया और चाय बना कर ले आया. बच्चों के साथ थोड़ी मस्ती की, थोड़ा ऑफिस का काम देखा और टीवी देखतेदेखते खापी कर हम सो गए.

सुबहसुबह लाजो के द्वारा दरवाजे की घंटी बजाने से नींद टूटी. वह अपने काम में लग गई और मैं जल्दीजल्दी तैयार होने लगा. इसतरह 7-8 दिन तो अच्छी तरह गुजर गए मगर फिर उस रात प्रधानमंत्री ने कोरोना के कारण अचानक लौकडाउन की घोषणा कर दी. मेरे तो हाथपांव ही फूल गए. अब नैना कैसे आएगी. मैं ने तुरंत उसे फोन लगाया तो वह खुद घबराई हुई थी.

“मैं खुद समझ नहीं पा रही कि अब यहां से कैसे निकलूंगी. मेरे साथ औफिस के जो लोग आए हुए थे सभी रात में ही रिश्तेदारों के यहां जाने को निकल गए हैं.  मैं भी अमृता के घर जाने की सोच रही हूं.”

“अमृता कौन?”

“अरे वही मेरी सहेली… मैं ने तुम्हें मिलवाया था न .”

“अरे हां याद आया. ठीक है उस के घर चली जाओ. यह ठीक रहेगा. मगर मैं क्या करूंगा? तुम यहां तो आ नहीं सकोगी. सारी ट्रेनें और फ्लाइटस सब बंद हैं.  लाजो का भी फोन आया था. कह रही थी कि कल से नहीं आ सकेगी. अब मैं खाना कैसे बनाऊंगा? ”

“अब जो भी करना है तुम्हें ही करना है. देखो कोशिश करोगे तो कुछ न कुछ बना ही लोगे. प्लीज़ बच्चों का ख्याल रखना. अब मैं निकलती हूं वरना रात हो जाएगी.”

“ओके बाय” कह कर मैं ने फोन रख दिया.

अब मेरे सामने बहुत विकट समस्या खड़ी थी. क्या बनाऊं और कैसे बनाऊं? लग रहा था जैसे इस से कठिन परिस्थिति तो जिंदगी में आ ही नहीं सकती.

अगली सुबह उठा तो फ्रेश हो कर एक नईनवेली दुल्हन की तरह दबे पांव सब से पहले किचन में घुसा. दबे पांव इसलिए ताकि बच्चे न उठ जाएं. मेरे लिए मेरा ही किचन बिल्कुल अजनबी था. काम तो सारे नैना करती थी. मुझे तो यह भी नहीं पता था कि कौन सा सामान कहां रखा हुआ है.

मैं ने सब से पहले नैना को वीडियो कॉल किया और एकएक कर के समझने लगा कि कहां क्या चीज रखी हुई है.

इस के बाद नैना के कहे अनुसार मैं ने 4 कटोरी आटा निकाला और उस में एक कटोरी पानी मिला कर आटा गूंथने लगा. नैना ने बताया कि पानी ज्यादा लग रहा है थोड़ा आटा और डालो. मैं ने ऐसा ही किया और अच्छी तरह गूंथने की कोशिश करने लगा .

अब फोन रख कर मैं सब्जी काटने बैठा. मुझे बैगन काटना सब से आसान लगता है. इसलिए 2 बैगन और 4 आलू निकाल लिए. बड़ी मुश्किलों से आड़ीतिरछी कर के मैं ने सब्जी काटी. बनाने के लिए फिर से नैना को फोन किया. वह बताती गई और मैं बनाता गया. सब्जी नीचे से लग गई थी पर यह बात मैं ने नैना को बताई नहीं. गैस बंद कर के एक चम्मच में सब्जी निकाल कर चखी तो मेरा मुंह कसैला हो गया. एक तरफ तो सब्जी में जलने की गंध आ रही थी उस पर लग रहा था जैसे नमक का पूरा डब्बा उड़ेल दिया हो. मैं सिर पकड़ कर बैठ गया.

यह तो पहला दिन था. पता नहीं आगे क्याक्या होगा, यह सोच कर ही मुझे चक्कर आने लगे थे. अब मेरे सामने एक एक और बड़ा टास्क था और वह था रोटी बनाना. मैं ने जिंदगी में आज तक रोटियां नहीं बेली थीं. किसी तरह खुद को तैयार किया और आटे की लोई बना कर उसे चकरे पर रखा. नैना को फिर से मैं ने  वीडियो कॉल कर लिया था ताकि वह मुझे डायरेक्शन देती रहे.

मैं ने ठीक से आटे का परोथन नहीं लगाया था इसलिए रोटी चकरे से चिपक गई थी. नैना ने मेरी गलती की ओर मेरा ध्यान इंगित किया,”लोई को अच्छी तरह परोथन में लपेट कर फिर बेलो वरना यह चिपक जाएगी.”

मैं ने फिर से लौई बनाई और खूब सारा परोथन लगा कर रोटी बेलने लगा. मगर रोटी की हालत देखने लायक थी. रोटी के नाम पर तरहतरह के नक्शे और पशुपक्षियों की आकृतियां बन रही थीं. 2 रोटियां जल चुकी थीं. तीसरी पर काम हो रहा था. तभी तान्या आ गई और हाथ में रोटी ले कर नाचने लगी,” हरषू देख पापा ने कैसी रोटी बनाई है. जली हुई टेढ़ीमेढ़ी”

“दिखा जरा ” दौड़ता हुआ हर्ष भी आ गया और रोटी देख कर हंसने लगा फिर बोला, “पापा आप हमें यह खिलाओगे ? मैं तो नहीं खा रहा. आप मेरे लिए आमलेट तैयार कर दो.”

हर्ष की फरमाइश सुन कर मेरा मुंह बन गया था. जैसेतैसे अपने लिए 4 रोटियां बना कर मैं बच्चों के लिए किराने की शॉप से ब्रेड अंडा लेने चला गया. अंडा बॉयल किया. ब्रेड सेक कर बटर लगाई और बच्चों को दे दिया.

मैं ने नैना को फिर कॉल किया,” यार नैना कोई सब से आसान चीज बनाना बता दो मुझे.”

“ऐसा करो, दालचावल बना लो. कुकर में 2 गिलास पानी, एक कटोरी धुली दाल, हल्दी और नमक डाल कर चढ़ा दो. 2 सीटी आने पर गैस बंद कर देना. फिर करछुल में घी, जीरा और हींग रख कर गर्म करना. जीरा चटकने की आवाज आने पर दाल में छौंक लगा देना.” कह कर वह हंसने लगी.

मैं ने ऐसा ही किया. दाल और चावल बना दिया. यह बात अलग है कि दाल में नमक हल्का था और चावल नीचे से लग गए थे. बच्चों ने मुंह बनाते हुए खाना खाया और मैं इस चिंता में डूब गया कि कल क्या बनाऊंगा?

अगले दिन मैं ने बच्चों को सुबह नाश्ते में तो ब्रेड अंडा दे दिया मगर दोपहर के लिए मैं ने एक बार फिर रोटीसब्जी बनाने की सोची. भिंडी की सब्जी बनानी थी. मैं पहले भिंडी काटने बैठ गया. काट कर जब धोने के लिए उठा तो हर्ष चिल्लाया,”अरे पापा यह क्या कर दिया आप ने ? ममा तो भिंडी धोने के बाद उसे काटती थीं वरना वह लिसलिसी हो जाती है. यह बात ममा ने बताई थी मुझे”

“तो बेटा आप को पहले बताना चाहिए था न. अब मुझे इन को धोना तो पड़ेगा ही.”

जाहिर है उस दिन भिंडी कैसी बनी होगी आप समझ ही सकते हैं. रोटियां भी नक्शों के रूप में ढलती गईं. यह बात अलग है कि मैं ने उन्हें जलने नहीं दिया. बच्चों ने थोड़ा नानुकुर कर के आखिरकार दही के साथ खा लिया.

तीसरे दिन सुबह मैं ने एक्सपेरिमैंट करने की सोची. मेरी मम्मी बेसन का चीला बहुत अच्छा बनाती हैं . सो मैं ने भी वही ट्राई किया. मगर शायद तवा गलत हाथ लग गया था. मैं ने नॉन स्टिक नहीं बल्कि लोहे का तवा ले लिया था. चीला तवे में बुरी तरह चिपक गया. किसी तरह खुरचखुरच कर टूटाफूटा चीला निकाला तो बच्चे ताली बजाबजा कर हंसने लगे. अब तो वे मुझे खाना बनाता देख जानबूझकर कर किचन में आ धमकते और मेरा मजाक उड़ाते.

नैना से सलाह मांगी तो उस ने बताया कि तवा बदलो और पहले पानी छिड़को फिर थोड़ा तेल पसार कर डालो. इस के बाद चीला बनाओ. ऐसा करने पर वाकई अच्छे चीले तैयार हो गए. यानी तीसरे दिन मैं ने कुछ काम की चीज बनाई थी जिसे बच्चों ने भी बिना कुछ कहे खा लिया. दोपहर में मैं ने फिर से दालचावल ही बना दिए.

चौथे दिन मैं ने तय किया कि बच्चों को कुछ अच्छा और पौष्टिक भोजन खिलाऊंगा. रात में मैं ने साबुत मूंग और काले चने पानी में भिगो कर रख दिए थे.

सुबह उन्हें कुकर में डाल कर झटपट एक सीटी लगाई और फिर उस में प्याज, टमाटर, धनिया पत्ता, गाजर, खीरा, अनार के दाने आदि मिला कर टेस्टी स्प्राउट्स का नाश्ता तैयार कर दिया. बच्चों ने स्वाद ले कर खाया. दोपहर में रोटी के बजाय मैं ने आलू के परांठे बनाए. परांठे भले ही टेढ़ेमेढ़े थे मगर दही के साथ खा लिए गए. रात में खिचड़ी बना दी.

एक बात तो मैं बताना ही भूल गया. खाना बनाने के बाद ढेर सारे बर्तन मांजने और फिर किचन की सफाई का काम भी मेरा ही था. कपड़े भी मुझे ही धोने होते थे. यानी कुल मिला कर मैं फुलटाइम कामवाली बन गया था. पूरे दिन व्यस्त रहने लगा था.

पांचवें दिन सुबहसुबह मैं ब्रश करता हुआ सोच रहा था कि आज क्या बनाऊंगा. अचानक दिमाग में सैंडविच का आइडिया आया. मैं ने तुरंत आलू उबालने रखे और इधर ब्रेड सेक कर तैयार कर लिए. साथ ही साथ आलू में प्याज, धनिया पत्ता, अदरक, मिर्च आदि डाल कर उसे अच्छी तरह मैश किया और ब्रेड में भर कर सिंपल सैंडविच तैयार कर दी. इसे सॉस के साथ बच्चों को परोस दी. बच्चों ने खुश हो कर खा लिया.

अब मैं गहरी चिंता में था कि दोपहर में क्या बनाऊं. तभी मेरी ऑफिस कुलीग अविका का फोन आया, “हाय देव क्या कर रहे हो इन छुट्टियों में ? घर से काम करने का अलग ही मजा है न यार.”

“ऑफिस के काम का तो पता नहीं यार पर मैं घर के कामों में जरूर बुरी फंसा पड़ा हूं. कभी आड़ीतिरछी रोटियां बनाता हूं तो कभी जलीपकी दाल. कभी खिचड़ी बनाता हूं तो कभी चावलदाल. कभी बर्तन मांजता हूं तो कभी झाड़ू लगाता हूं.

मेरी बात सुन कर कर वह ठहाके लगा कर हंसने लगी, “मिस्टर देव कहां तो आप ऑफिस में जनरल मैनेजर के पोजीशन पर काम करते हो और कहां घर में रसोईए और सफाई वाले बने हुए हैं. ढंग से काम करना भी नहीं आता.”कह कर वह फिर हंसने लगी.

मैं ने नाराज होते हुए कहा,” हांहां उड़ा लो मेरा मजाक. मेरी बीवी ऑफिस टूर पर मुंबई गई हुई थी पर लौकडाउन में वह वहीं फंस गई और मैं बच्चों के साथ यहां.”

“चलो मैं तुम्हारी हेल्प कर देती हूं. तुम्हें कुछ ऐसे लिंक भेजती हूं जिन के जरिए तुम्हें खाना बनाने की बेसिक जानकारी मिल जाएगी. साथ ही कुछ अच्छी चीजें सिंपल तरीके से बनाना भी सीख जाओगे. ध्यान से यूट्यूब पर यह सारे कुकरी वीडियोज देखो और फिर सीखसीख कर चैन से खाना बनाओ.”

कह कर अविका ने मुझे कई लिंक्स और वीडियोज भेज दिए. उस ने मुझे कुछ डिजिटल पत्रिकाओं के ऑनलाइन कुकरी टिप्स और व्यंजन बनाने के तरीकों के लिंक भी भेजे. मैं दोतीन घंटे कमरे में बंद रह कर ये वीडियोज और लिंक्स देखता रहा. मुझे काफी जानकारी मिली, मैं ने कुकिंग के ने तरीके सीखे और बेसिक किचन टिप्स समझे.

अब मैं तैयार था. मैं ने वीडियो देखदेख कर पहले कढ़ी बनाई और फिर चावल बनाए. कढ़ी बहुत स्वादिष्ट तो नहीं बनी मगर कामचलाऊ बन गई थी. धीरेधीरे मुझे नमक का अभ्यास भी होने लगा था. अब मेरी रोटियां भी नहीं जलती थी.

छठे दिन मैं ने यूट्यूब चैनल पर देखदेख कर पुलाव बनाया. पुलाव काफी स्वादिष्ट बना था. बच्चों ने भी स्वाद लेले कर खाया. अब तो मुझे खुद पर काफी कॉन्फिडेंस आ गया था.

नैना हालचाल पूछती तो मैं कह देता कि हालात पहले से बेहतर हैं. मुझे अब उस से मदद लेने की जरूरत भी नहीं पड़ती थी.

सातवें दिन मैं ने बच्चों को नाश्ते में सांभर और चटनी के साथ इडली बना कर खिलाया. शाम में इडली के टुकड़े कर और उन्हें कड़ाही में प्याज,राई,करी पत्ते और कुछ मसालों में डाल कर भून दिया. उन्हें हरी चटनी और सौस के साथ बच्चों को खिलाया तो वे खुश हो गए. अब मुझे एहसास होने लगा था कि मैं कुछ बचे खाने को क्रिएटिव रूप भी दे सकता हूं.

आठवें दिन मैं ने राजमा चावल बनाया और रात में उन्हीं चावलों को प्याज, टमाटर और मटर आदि में फ्राई कर के फ्राईड राइस तैयार कर दिया. बच्चे अब मेरी कुकिंग को एंजॉय करने लगे थे. मैं उन्हें नईनई चीजें बना कर खिला रहा था.

नवें दिन मैं ने उन्हें नाश्ते में उपमा और खाने में मटर पनीर की सब्जी खिलाई तो वे उंगलियां चाटते रह गए.

दसवें दिन मैं ने बच्चों से पूछा,” आज मैं तुम्हारी पसंद की चीज बनाऊंगा. बताओ क्या खाना है ?”

“आलू की रसदार चटकदार सब्जी और पूरियां.” हर्ष ने होंठों पर जीभ फिराते हुए कहा,

“ओके डन.”

मैं किचन में घुस गया और सब्जी बनाने लगा. पूरियां गोल बनाने के लिए मैं ने एक नुस्खा अपनाया. इस के लिए स्टील की नुकीले धार वाली बड़ी कटोरी उलट कर रखता और आड़ीतिरछी बेली हुई पूरी में से गोल पूरी निकाल लेता.

1 घंटे के अंदर सब्जी और पूरी खाने की टेबल पर पहुंच गया. बच्चे खुश हो कर खाने लगे. तभी नैना ने वीडियो कॉल किया. बच्चों को खाता देख कर उस ने पूछा,” आज क्या बनाया पापा ने और दिखाना कैसा बनाया है?”

हर्ष ने गोलगोल पूरियां और सब्जी दिखाते हुए कहा,” ममा सच बताऊं, आज तो पापा ने कमाल कर दिया. जानते हो ममा पापा ने लाजो दीदी से भी अच्छी पूरियां बनाईं हैं और सब्जी भी बहुत टेस्टी है. मम्मा मैं तो कहता हूं पापा ने आप से भी अच्छा खाना बनाया है.”

पीछे से तान्या बोली,” पापा किचन किंग हैं”

यह सब सुन कर नैना हंस भी रही थी और चकित भी थी. जबकि मैं अपने बच्चों के द्वारा दिए गए ऐसे कांप्लीमैंट्स पर फूला नहीं समा रहा था. आज तक मुझे जिंदगी में कितनी ही सारे कांप्लीमैंट्स मिल चुके थे मगर आज से ज्यादा खुशी मुझे कभी नहीं हुई थी. क्योंकि मैं ही जानता था कि जली रोटी से तली पूरी तक का मेरा सफर कितना कठिन था.

Stories : शिकारी बना उपहास का शिकार

Stories : नीलू थक कर अभीअभी वापस आई थी. वह एक वित्तीय कंपनी में ट्रेनर का काम करती थी और आज एक सरकारी विभाग ने उसे डिजिटल फ्रौड के ऊपर सैशन लेने के लिए बुलाया था. उस की कंपनी में वैसे तो कई ट्रेनर थे पर डिजिटल फ्रौड के लिए उसे सब से अच्छा ट्रेनर माना जाता था. वैसे वह इस प्रकार के सैशन अपनी कंपनी में लेती रहती थी परंतु बात दूसरे विभाग की थी और वह भी सरकारी विभाग की. अत: जोरदार तरीके से तैयारी की थी. पावरपौइंट प्रेजैंटेशन भी बहुत ही शानदार बनाया था. उस की मेहनत रंग लाई. सभी मंत्रमुग्ध हो कर उस की बातों को सुन रहे थे. उस ने एकतरफा लैक्चर देने के स्थान पर सैशन को सहभागी बनाया था. वह प्रतिभागियों से प्रश्न पूछती थी और उन्हें प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करती थी. कई रोचक किस्से उस ने प्रतिभागियों से साझा किए और प्रतिभागियों को भी अपने अनुभव साझ करने के लिए प्रोत्साहित किया.

ऐसा लग रहा था कि नीलू प्रतिभागियों से चिरपरिचित है. परिणाम यह हुआ कि उस के सैशन को बहुत सराहना मिली और विभाग प्रमुख ने उसे हर महीने इस प्रकार का सैशन लेने के लिए आमंत्रित किया. निश्चित रूप से वह बहुत खुश थी सभी की इतनी सकारात्मक प्रतिक्रिया पा कर, पर उस स्थान की दूरी काफी थी और ट्रैफिक के कारण वह थकीथकी महसूस कर रही थी.

शाम के 5 बज गए थे. नीलू ने चाय बना कर पी और आंखें बंद कर आराम करने लगी. पास में ही उस का प्यारा टौमी भी बैठा हुआ था. वह उस की पीठ पर हाथ फेर रही थी. टौमी अपनी पूंछ हिला कर उस के स्पर्श पर प्रतिक्रिया कर रहा था.

तभी नीलू का मोबाइल बज उठा. उस ने देखा वीडियोकौल आ रही है. नंबर अनजान था. वह जानती थी कि आजकल वीडियोकौल कर कई तरह से लोगों को फंसाया जाता है. सैक्सटोर्शन और अन्य प्रकार का भयादोहन आम हो गया है आजकल और कोई वक्त होता तो शायद वह इस कौल को नहीं उठाती पर अभी उसे मनोरंजन की आवश्यकता थी. ‘चलो, मन कुछ फ्रैश कर लिया जाए,’ यह सोच कर उस ने कौल उठा ली.

उधर से कोई पुलिसवरदी में था. नीलू अभीअभी जिस विषय पर सैशन ले कर आई थी वह विषय प्रत्यक्ष सामने था. अगले सैशन में इस घटना को भी साझ करूंगी यह सोच कर उस ने कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘मैं एनआईए से एसीपी सतीश बोल रहा हूं. आप मिसेज नीलू बोल रही हैं?’’ उधर से वरदीधारी ने कहा.

‘‘जी सर, मैं नीलू ही बोल रही हूं पर मैं मिसेज नहीं मिस हूं. मेरी शादी नहीं हुई है और किसी हैंडसम पुलिस वाले से शादी करने का इरादा रखती हूं,’’ नीलू ने कहा.

‘‘देखिए मजाक मत कीजिए और मैं जो कह रहा हूं उसे ध्यान से सुनिए.

आप के आधार नंबर का प्रयोग कर के एक कनैक्शन लिया गया है और उस से आतंकवादी समूह से बात की गई है. मैं जानता हूं कि आप निर्दोष हैं परंतु यह मामला आतंकवाद से संबंधित है और इस के लिए आप को जेल हो सकती है,’’ एसीपी सतीश ने कहा.

‘‘सब से पहले मुझे निर्दोष मानने के लिए बहुतबहुत धन्यवाद एसीपी साहब. जेल तो ठीक है पर मैं कैसी लग रही हूं यह तो बताइए?’’ कह कर नीलू ने टौमी की ओर कैमरा घुमा दिया.

‘‘शायद आप का दिमाग ठिकाने नहीं है. मैं यह सोच कर आप को फोन कर रहा था कि आप की सहायता करूं पर आप लगता है जेल जाने के लिए बेताब हैं,’’ एसीपी क्रोधित हो गया.

इस बीच नीलू वाशरूम मोबाइल लिए हुए अपने हाथ धोने चली गई थी. उस ने कहा, ‘‘ऐसा मत कहिए एसीपी साहब. जो झूठ बोलता है उस का वाशरूम गंदा रहता है. देखिए मेरा वाशरूम कितना साफ है,’’ कह नीलू ने मोबाइल के कैमरे को कोमोड की ओर कर दिया.

अब एसीपी गुस्से से लाल हो गया. बोला, ‘‘बकवास बंद करो, यदि तुम खुद को बचाना चाहती हो तो एक खाता नंबर दे रहा हूं उस में 3 लाख रुपए भेज दो वरना 1 घंटे के अंदर सरकारी मेहमान बन जाओगी और यहां कोमोड इतना साफ नहीं मिलेगा.’’

‘‘सर आप तो नाराज हो गए, खाता नंबर बताइए,’’ नीलू ने कहा. एसीपी ने खाते का पूरा विवरण दे दिया.

इस बीच नीलू ने व्हाट्सऐप पर मैसेज कर के अपनी सहेली नेहा को भी बुला लिया. नेहा आई तो उसे इशारे में समझाया कि कुछ मजेदार चल रहा है. पहले तो नेहा स्क्रीन पर वरदीधारी को देख कर घबराई पर जब नीलू की उस से बातें सुनीं तो समझ गई कि मामला क्या है.

कुछ देर नीलू यों ही इधरउधर कुछ करती रहा. फिर बोली, ‘‘एसीपी साहब मैं ने तो 3 लाख की जगह 4 लाख रुपए भेजने की कोशिश की पर आप का खाता बड़ा ही ऐट्टीट्यूड वाला है पैसे ले ही नहीं रहा है. क्या मैं 5 लाख रुपए भेजने की कोशिश करूं?’’

‘‘मतलब साफ है तुम जेल की हवा खाना ही पसंद कर रही हो. चलो ठीक है, तुम्हारे घर पुलिस आती ही होगी. पर फोन को डिसकनैक्ट मत करना क्योंकि तुम डिजिटल अरैस्ट में हो,’’ एसीपी ने कहा.

‘‘एसीपी सर, क्या मैं अपनी सहेली को भी जेल साथ ला सकती हूं उस का नाम नेहा है. बड़ी ही सैक्सी है. देखोगे तो मस्त हो जाओगे. मना मत करना प्लीज. लो इस से भी बात कर लो,’’ कहते हुए नीलू ने नेहा को फोन दे दिया.

नेहा को नीलू की बात सुन कर हंसी आ गई, ‘‘हाय हैंडसम, कैसे हो? क्या मैं नीलू से कम खूबसूरत हूं कि तुम ने मुझे कौल नहीं की?’’ नेहा ने इतनी सैक्सी अदा से कहा कि नीलू की हंसी छूट गई.

दोनों की खिलखिलाहट की आवाज सुन कर अब एसीपी समझ चुका था कि वह गलत लोगों से उलझ गया है. उस ने कौल को डिसकनैक्ट कर दिया. हंसतेहंसते नीलू और नेहा दोनों का दम फूल रहा था. जब दोनों सामान्य हुईं तो फिर उस नंबर पर कौल बैक की. वह नंबर व्यस्त आ रहा था.

‘‘लगता है किसी और को फंसाने की कोशिश कर रहा है एसीपी सतीश. 1930 पर इस नंबर की जानकारी दें पहले, फिर बातें करते हैं,’’ नीलू ने कहा और 1930 नंबर डायल करने लगी.

Short Story : आप भी तो नहीं आए थे

Short Story :  सुबह 6 बजे का समय था. मैं अभी बिस्तर से उठा ही था कि फोन घनघना उठा. सीतापुर से बड़े भैया का फोन था जो वहां के मुख्य चिकित्सा अधिकारी थे.

वह बोले, ‘‘भाई श्रीकांत, तुम्हारी भाभी का आज सुबह 5 बजे इंतकाल हो गया,’’ और इतना बतातेबताते वह बिलख पड़े. मैं ने अपने बड़े भाई को ढाढ़स बंधाया और फोन रख दिया.

पत्नी शीला उठ कर किचन में चाय बना रही थी. उसे मैं ने भाभी के मरने का बताया तो वह बोली, ‘‘आप जाएंगे?’’

‘‘अवश्य.’’

‘‘पर बड़े भैया तो आप के किसी भी कार्य व आयोजन में कभी शामिल नहीं होते. कई बार लखनऊ आते हैं पर कभी भी यहां नहीं आते. इतने लंबे समय तक मांजी बीमार रहीं, कभी उन्हें देखने नहीं आए, उन की मृत्यु पर भी नहीं आए, न आप के विवाह में आए,’’ शीला के स्वर में विरोध की खनक थी.

‘‘पर मैं तो जाऊंगा, शीला, क्योंकि मां ऐसा ही चाहती थीं.’’

‘‘ठीक है, जाइए.’’

‘‘तुम नहीं चलोगी?’’

‘‘चलती हूं मैं भी.’’

हम तैयार हो कर 8 बजे की बस से चल पड़े और साढ़े 10 तक सीतापुर पहुंच गए. बाहर से आने वालों में हम ही सब से पहले पहुंचे थे, निकटस्थ थे, अतएव जल्दी पहुंच गए.

भैया की बेटी वसुधा भी वहीं थी, मां की बीमारी बिगड़ने की खबर सुन कर आ गई थी. वह शीला से चिपट कर रो उठी.

‘‘चाची, मां चली गईं.’’

शीला वसुधा को सांत्वना देने लगी, ‘‘रो मत बेटी, दीदी का वक्त पूरा हो गया था, चली गईं. कुदरत का यही विधान है, जो आया है उसे एक दिन जाना है,’’ वह अपनी चाची से लगी सुबकती रही.

इन का रोना सुन कर भैया भी बाहर निकल आए. उन के साथ उन के एक घनिष्ठ मित्र गोपाल बाबू भी थे और 2-3 दूसरे लोग भी. भैया मुझ से लिपट कर रोने लगे.

‘‘चली गई, बहुत इलाज कराया पर बचा न सका, कैंसर ने नहीं छोड़ा उसे.’’

मैं उन की पीठ सहलाता रहा.

थोड़ा सामान्य हुए तो बोले, ‘‘तन्मय (उन का बड़ा बेटा) को फोन कर दिया है. फोन उसी ने उठाया था पर मां की मृत्यु का समाचार सुन कर दुखी हुआ हो ऐसा नहीं लगा. कुछ भी तो न बोला, केवल ‘ओह’ कह कर चुप हो गया. एकदम निर्वाक्.

‘‘मैं ने ही फिर कहा, ‘तन्मय, तू सुन रहा है न बेटा.’

‘‘ ‘जी.’ फिर मौन.

‘‘कुछ देर उस के बोलने की प्रतीक्षा कर के मैं ने फोन रख दिया. पता नहीं आएगा या नहीं,’’ कह कर भैया शून्य में ताकने लगे.

बेटी वसुधा बोल उठी, ‘‘आएंगे… आएंगे…आखिर मां मरी है भैया की. मां…सगी मां, मां की मृत्यु पर भी नहीं आएंगे.’’

वह बोल तो गई पर स्वर की अनुगूंज उसे खोखली ही लगी, वह उदासी से भर गई.

इतने में चाय आ गई. सब चाय पीने लगे.

भैया के मित्र गोपाल बाबू बोल उठे, ‘‘कैंसर की एक से एक अच्छी दवाएं ईजाद हो गई हैं. तमाम डाक्टर दावा करते हैं कि अब कैंसर लाइलाज नहीं रहा…पर बचता तो शायद ही कोई मरीज है.’’

भैया बोल उठे, ‘‘आखिरी 15 दिनों में तो उस ने बहुत कष्ट भोगा. बहुत कठिनाई से प्राण निकले. वह तन्मय से बहुत प्यार करती थी उस की प्रतीक्षा में आंखें दरवाजे की ओर ही टिकाए रखती थी. ‘तन्मय को पता है न मेरी बीमारी के बारे में,’ बारबार यही पूछती रहती थी. मैं कहता था, ‘हां है, मैं जबतब फोन कर के उसे बतलाता रहता हूं.’ ‘तब भी वह मुझे देखने…मेरा दुख बांटने क्यों नहीं आता? बोलिए.’ मैं क्या कहता. पूरे 5 साल बीमार रही वह पर तन्मय एक बार भी देखने नहीं आया. देखने आना तो दूर कभी फोन पर भी मां का हाल न पूछा, मां से कोई बात ही न की, ऐसी निरासक्ति.’’

कहतेकहते भैया सिसक पड़े.

‘भैया, ठीक यही तो आप ने किया था अपनी मां के साथ. वह भी रोग शैया पर लेटी दरवाजे पर टकटकी लगाए आप के आने की राह देखा करती थीं, पर आप न आए. न फोन से ही कभी उन का हाल पूछा. वह भी आप को, अपने बड़े बेटे को बहुत प्यार करती थीं. आप को देखने की चाह मन में लिए ही मां चली गईं, बेचारी, आप भी तो निरासक्त बन गए थे,’ मैं मन ही मन बुदबुदा उठा.

भैया का दूसरा बेटा कनाडा में साइंटिस्ट है. उस का नाम चिन्मय है.

मैं ने पूछा, ‘‘चिन्मय को सूचना दे दी?’’

‘‘हां… उसे भी फोन कर दिया है,’’ भैया बोले, ‘‘जानते हो क्या बोला?

‘‘ ‘ओह, वैरी सैड…मौम चली गईं, खैर, बीमार तो थीं ही, उम्र भी हो चली थी. एक दिन जाना तो था ही, कुछ बाद में चली जातीं तो आप को थोड़ा और साथ मिल जाता उन का. पर अभी चली गईं. डैड, एक दिन जाना तो सब को ही है. धैर्य रखिए, हिम्मत रखिए. आप तो पढ़ेलिखे हैं, बहुत बड़े डाक्टर हैं. मृत्यु से जबतब दोचार होते ही रहते हैं. टेक इट ईजी.’

‘‘मैं सिसक पड़ा तो बोला, ‘ओह नो, रोइए मत, डैड.’

‘‘मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘जल्दी आ जाओ बेटा.’

‘‘ ‘ओह नो, डैड. मेरे लिए यह संभव नहीं है. मैं आ तो नहीं सकूंगा, जाने वाली तो चली गईं. मेरे आने से जीवित तो हो नहीं जाएंगी.’

‘‘ ‘कम से कम आ कर अंतिम बार मां का चेहरा तो देख लो.’

‘‘ ‘यह एक मूर्खता भरी भावुकता है. मैं मन की आंखों से उन की डेड बाडी देख रहा हूं. आनेजाने में मेरा बहुत पैसा व्यर्थ में खर्च हो जाएगा. अंतिम संस्कार के लिए आप लोग तो हैं ही, कहें तो कुछ रुपए भेज दूं. हालांकि उस की कोई कमी तो आप को होगी नहीं, यू आर अरनिंग ए वैरी हैंडसम अमाउंट.’

‘‘यह कह कर वह धीरे से हंसा.

‘‘मैं ने फोन रख दिया.’’

भैया फिर रोने लगे. बोले, ‘‘चिन्मय जब छोटा था हर समय मां से चिपका रहता था. पहली बार जब स्कूल जाने को हुआ तो खूब रोया. बोला, ‘मैं मां को छोड़ कर स्कूल नहीं जाऊंगा, मां तुम भी चलो?’ कितना पुचकार कर, दुलार कर स्कूल भेजा था उसे. जब बड़ा हुआ, पढ़ने के लिए विदेश जाने लगा तो भी यह कह कर रोया था कि मां, मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा. अब बाहर गया है तो बाहर का ही हो कर रह गया. मां के साथ सदा चिपके  रहने वाले ने एकदम ही मां का साथ छोड़ दिया. मां को एकदम से मन से बाहर कर दिया. मां गुजर गई तो अंतिम संस्कार में भी आने को तैयार नहीं. वाह रे, लड़के.’’

‘ऐसे ही लड़के तो आप भी हैं,’ मैं फिर बुदबुदा उठा.

धीरेधीरे समय सरकता गया. इंतजार हो रहा था कि शायद तन्मय आ जाए. वह आ जाए तो शवयात्रा शुरू की जाए, पर वह न आया.

जब 1 बज गया तो गोपाल बाबू बोल उठे, ‘‘भाई सुकांत, अब बेटे की व्यर्थ प्रतीक्षा छोड़ो और घाट चलने की तैयारी करो. उस को आना होता तो अब तक आ चुका होता. जब श्रीकांत 10 बजे तक आ गए तो वह भी 10-11 तक आ सकता था. लखनऊ यहां से है ही कितनी दूर. फिर उस के पास तो कार है. उस से तो और भी जल्दी आया जा सकता है.’’

प्रतीक्षा छोड़ कर शवयात्रा की तैयारी शुरू कर दी गई और 2 बजे के लगभग शवयात्रा शुरू हो गई. शवदाह से जुड़ी क्रियाएं निबटा कर लौटतेलौटते शाम के 6 बज गए.

तब तक कुछ अन्य रिश्तेदार भी आ चुके थे. सब यही कह रहे थे कि तन्मय क्यों नहीं आया? चिन्मय तो खैर विदेश में है, उस का न आना क्षम्य है, लेकिन तन्मय तो लखनऊ में ही है, उस को तो आना ही चाहिए था, उस की मां मरी है. उस की जन्मदात्री, कितनी गलत बात है.

किसी तरह रात कटी, भोर होते ही सब उठ बैठे.

भैया मेरे पास आ कर बैठे तो बहुत दुखी, उदास, टूटेटूटे और निराश लग रहे थे. वह बोले, ‘‘एकदो दिन में सब चले जाएंगे. फिर मैं रह जाऊंगा और मकान में फैला मरघट सा सन्नाटा. प्रेम से बसाया नीड़ उजड़ गया. सब फुर्र हो गए. अब कैसे कटेगी मेरी तनहा जिंदगी…’’ और इतना कहतेकहते वह फफक पड़े.

थोड़ी देर बाद मुझ से फिर बोले, ‘‘क्यों श्रीकांत? कभी तुम्हारी भेंट तन्मय से होती है?’’

‘‘कभीकभार सड़कबाजार में मिल जाता है या घूमने के दर्शनीय स्थलों पर टकरा जाता है अचानक. बस.’’

‘‘कभी तुम्हारे पास आताजाता नहीं?’’

‘‘नहीं.’’

भैया, फिर रोने लगे.

मैं लौन में जा कर टहलने लगा, कुछ देर बाद भैया मेरे पास आए और बोले, ‘‘अब कभी तन्मय तुम्हें मिले तो पूछना कि मां की मृत्यु पर क्यों नहीं आया. मां को एकदम ही क्यों भुला दिया?’’

तन्मय के इस बेगाने व रूखे व्यवहार की पीड़ा उन्हें बहुत कसक दे रही थी.

उन की इस करुण व्यथा के प्रति, उस बेकली के प्रति, मेरे मन में दया नहीं उपजी… क्रोध फुफकारने लगा, मन में क्षोभ उभरने लगा. मन में गूंजने लगा कि अपनी मां की मृत्यु पर तुम भी तो नहीं आए थे, तुम्हारे मन में भी तो मां के प्रति कोई ममता, कोई पे्रम भावना नहीं रह गई थी. यदि तुम्हारा बेटा अपनी मां की मृत्यु पर नहीं आया तो इतनी विकलता क्यों? क्या तुम्हारी मां तुम्हारे लिए मां नहीं थी, तन्मय की मां ही मां है. तन्मय की मां के पास तो धन का विपुल भंडार था, उसे तन्मय को पालतेपोसते वक्त धनार्जन हेतु खटना नहीं पड़ा था, पर तुम्हारी मां तो एक गरीब, कमजोर, बेबस विधवा थी. लोगों के कपड़े सींसीं कर, घरघर काम कर के उस ने तुम्हें पालापोसा, पढ़ाया, लिखाया था. जब तन्मय की मां अपने राजाप्रासाद में सुखातिरेक से खिल- खिलाती विचरण करती थी तब तुहारी मां दुख, निसहायता, अभाव से परेशान हो कर गलीगली पीड़ा के अतिरेक से बिलबिलाती घूमती थी. उसी विवश पर ममतामयी मां को भी तुम ने भुला दिया… भुलाया था या नहीं.

तेरहवीं बाद सब विदा होने लगे.

विदा होने के समय भैया मुझ से लिपट कर रोने लगे. बोले, ‘‘पूछोगे न भैया तन्मय से?’’

मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘‘यह पूछना निरर्थक है.’’

‘‘क्यों? निरर्थक क्यों है?’’

‘‘क्योंकि आप जानते हैं कि वह क्यों नहीं आया?’’

‘‘मैं जानता हूं कि वह क्यों नहीं आया,’’ यंत्रचलित से वह दोहरा उठे.

‘‘हां, आप जानते हैं…’’ मैं किंचित कठोर हो उठा, ‘‘जरा अपने दिल को टटोलिए. जरा अपने अतीत में झांक कर देखिए…आप को जवाब मिल जाएगा. याद कीजिए, जब आप अपनी मां के बेटे थे, अपनी मां के लाडले थे तो आप को अपनी बीमार मां का, आप के वियोग की व्यथा से जरूर दुखी मां का, आंसुओं से भीगा निस्तेज चेहरा दिखलाई देगा यही शिकायत करता हुआ जो आप को अपने बेटे तन्मय से है.

‘‘वह पूछ रही होगी, ‘बेटा, तू मुझे बीमारी में भी देखने कभी नहीं आया. तू ने बाहर जा कर धीरेधीरे मेरे पास आना ही छोड़ दिया, वह मैं ने सह लिया…मैं ने सोच लिया तू अपने परिवार के साथ खुश है. मेरे पास नहीं आता, मुझे याद नहीं करता, न सही. पर मैं लंबे समय तक रोग शैया पर लेटी बीमारी की यंत्रणा झेलती रही, तब भी तुझे मेरे पास आने की, बीमारी में मुझे सांत्वना देने की इच्छा नहीं हुई. तू इतना निर्दयी, इतना भावनाशून्य, क्योंकर हो गया बेटा, तू अपनी जन्मदात्री को, अपनी पालनपोषणकर्ता मां को ही भुला बैठा, तू मेरी मृत्यु पर मुझे कंधा देने भी नहीं आया, मैं ने ऐसा क्या कर दिया तेरे साथ जो तू ने मुझे एकदम ही त्याग दिया.

‘‘ ‘ऐसा क्यों किया बेटा तू ने? क्या मैं ने तुझे प्यार नहीं किया? अपना स्नेह तुझे नहीं दिया. मैं तुझे हर समय हर क्षण याद करती रही, मां को ऐसे छोड़ देता है कोई. बतला मेरे बेटे, मेरे लाल. मेरे किस कसूर की ऐसी निर्मम सजा तू ने मुझे दी. तुझे एक बार देखने की, एक बार कलेजे से लगाने की इच्छा लिए मैं चली गई. मुझे तेरा धन नहीं तेरा मन चाहिए था बेटा, तेरा प्यार चाहिए था.’ ’’

कह कर मैं थोड़ा रुका, मेरा गला भर आया था.

मैं आगे फिर कहने लगा, ‘‘आप अपने परिवार, अपनी पत्नी और संतान में इतने रम गए कि आप की मां, आप की जन्मदात्री, आप के अपने भाईबहन, सब आप की स्मृति से निकल गए, सब विस्मृति की वीरान वादियों में गुम हो गए. सब को नेपथ्य में भेज दिया आप ने. उन्हीं विस्मृति की वीरान वादियों में…उसी नेपथ्य में आप के बेटे तन्मय ने आप सब को भेज दिया, जो आप ने किया वही उस ने किया. सिर्फ इतिहास की पुनरावृत्ति ही तो हुई है, फिर शिकवाशिकायत क्यों? रोनाबिसूरना क्यों? वह भी अपने प्रेममय एकल परिवार में लिप्त है और आप लोगों से निर्लिप्त है, आप लोगों को याद नहीं करता. बस, आप को अपने बच्चोंं की मां दिखलाई दी पर अपनी मां कभी नजर नहीं आईं, उस को भी अपनी मां नजर नहीं आ रहीं.’’

कह कर मैं फिर थोड़ा रुका, ठीक से बोल नहीं पा रहा था. गला अवरुद्ध सा हुआ जा रहा था. कुछ क्षण के विराम के बाद फिर बोला, ‘‘लगता यह है कि जब धन का अंबार लगने लगता है, जीवन में सुखसुकून का, तृप्ति का, आनंद का, पारावार ठाठें मारने लगता है, तो व्यक्ति केवल निज से ही संपृक्त हो कर रह जाता है. बाकी सब से असंपृक्त हो जाता है. उस के मनमस्तिष्क से अपने मातापिता, भाईबहन वाला परिवार बिसरने लगता है, भूलने लगता है और अपनी संतान वाला परिवार ही मन की गलियों, कोनों में पसरने लगता है. सुखतृप्ति का यह संसार शायद ऐसा सम्मोहन डाल देता है कि व्यक्ति को अपना निजी परिवार ही यथार्थ लगने लगता है और अपने मातापिता वाला परिवार कल्पना लगने लगता है और यथार्थ तो यथार्थ होता है और कल्पना मात्र कल्पना.

‘‘आप को अपनी पत्नी की अपने पुत्र को देखने की ललक दिखलाई पड़ी. अपनी मां की अपने पुत्र को देखने की तड़प दिखलाई नहीं पड़ी. अपनी बीमार पत्नी की बेटे के प्रति चाह भरी आहेंकराहें सुनाई पड़ीं पर अपनी बीमार मां की, आप को देखने की दुख भरी रुलाई नहीं सुनाई पड़ी.

‘‘क्यों सुनाई पड़ती? क्योंकि आप भूल गए थे कि कोई आप की भी मां है, जैसे आप की पत्नी ने रुग्ण अवस्था में दुख भोगा था आप की मां ने भी भोगा था. जैसे आप की पत्नी ने अपने पुत्र के आगमन की रोरो कर प्रतीक्षा की थी वैसे ही दुख भरी प्रतीक्षा आप की मां ने आप की भी की थी. पर आप न आए. न आप पलपल मृत्यु की ओर अग्रसर होती मां को देखने आए और न ही उस के अंतिम संस्कार में शामिल हुए.

‘‘वही अब आप के पुत्र ने भी किया. यह निरासक्ति की, बेगानेपन की फसल, आप ने ही तो बोई थी. तो आप ही काटिए.’’

भैया कुछ न बोले…बस,

Stories : नई चादर – कोयले को जब मिला कंचन

Stories : शरबती जब करमू के साथ ब्याह कर आई तो देखने वालों के मुंह से निकल पड़ा था, ‘अरे, यह तो कोयले को कंचन मिल गया.’

वैसे, शरबती कोई ज्यादा खूबसूरत नहीं थी, थोड़ी ठीकठाक सी कदकाठी और खिलता सा रंग. बस, इतनी सी थी उस की खूबसूरती की जमापूंजी, मगर करमू जैसे मरियल से अधेड़ के सामने तो वह सचमुच अप्सरा ही दिखती थी.

आगे चल कर सब ने शरबती की सीरत भी देखी और उस की सीरत सूरत से भी चार कदम आगे निकली. अपनी मेहनतमजदूरी से उस ने गृहस्थी ऐसी चमकाई कि इलाके के लोग अपनीअपनी बीवियों के सामने उस की मिसाल पेश करने लगे.

करमू की बिरादरी के कई नौजवान इस कोशिश में थे कि करमू जैसे लंगूर के पहलू से निकल कर शरबती उन के पहलू में आ जाए. दूसरी बिरादरियों में भी ऐसे दीवानों की कमी न थी. वे शरबती से शादी तो नहीं कर सकते थे, अलबत्ता उसे रखैल बनाने के लिए हजारों रुपए लुटाने को तैयार थे.

धीरेधीरे समय गुजरता रहा और शरबती एक बच्चे की मां बन गई. लेकिन उस की देह की बनावट और कसावट पर बच्चा जनने का रत्तीभर भी फर्क नहीं दिखा. गांव के मनचलों में अभी भी उसे हासिल करने की पहले जैसे ही चाहत थी.

तभी जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका टूट पड़ा. करमू एक दिन काम की तलाश में शहर गया और सड़क पार करते हुए एक बस की चपेट में आ गया. बस के भारीभरकम पहियों ने उस की कमजोर काया को चपाती की तरह बेल कर रख दिया था.

करमू के क्रियाकर्म के दौरान गांव के सारे मनचलों में शरबती की हमदर्दी हासिल करने की होड़ लगी रही. वह चाहती तो पति की तेरहवीं को यादगार बना सकती थी. गांव के सभी साहूकारों ने शरबती की जवानी की जमानत पर थैलियों के मुंह खोल रखे थे, मगर उस ने वफादारी कायम रखना ही पति के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि समझते हुए सबकुछ बहुत किफायत से निबटा दिया.

शरबती की पहाड़ सी विधवा जिंदगी को देखते हुए गांव के बुजुर्गों ने किसी का हाथ थाम लेने की सलाह दी, मगर उस ने किसी की भी बात पर कान न देते हुए कहा, ‘‘मेरा मर्द चला गया तो क्या, वह बेटे का सहारा तो दे ही गया है. बेटे को पालनेपोसने के बहाने ही जिंदगी कट जाएगी.’’

वक्त का परिंदा फिर अपनी रफ्तार से उड़ चला. शरबती का बेटा गबरू अब गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाने लगा था और शरबती मनचलों से खुद को बचाते हुए उस के बेहतर भविष्य के लिए मेहनतमजदूरी करने में जुटी थी.

उन्हीं दिनों उस इलाके में परिवार नियोजन के लिए नसबंदी कैंप लगा. टारगेट पूरा न हो सकने के चलते जिला प्रशासन ने आपरेशन कराने वाले को एक एकड़ खेतीबारी लायक जमीन देने की पेशकश की.

एक एकड़ जमीन मिलने की बात शरबती के कानों में भी पड़ी. उसे गबरू का भविष्य संवारने का यह अच्छा मौका दिखा. ज्यादा पूछताछ करती तो किस से करती. जिस से भी जरा सा बोल देती वही गले पड़ने लगता. जो बोलते देखता वह बदनाम करने की धमकी देता, इसलिए निश्चित दिन वह कैंप में ही जा पहुंची.

शरबती का भोलापन देख कर कैंप के अफसर हंसे. कैंप इंचार्ज ने कहा, ‘‘एक विधवा से देश की आबादी बढ़ने का खतरा कैसे हो सकता है…’’

कैंप इंचार्ज का टका सा जवाब सुन कर गबरू के भविष्य को ले कर देखे गए शरबती के सारे सपने बिखर गए. बाहर जाने के लिए उस के पैर नहीं उठे तो वह सिर पकड़ कर वहीं बैठ गई.

तभी एक अधेड़ कैंप इंचार्ज के पास आ कर बोला, ‘‘सर, आप के लोग मेरा आपरेशन नहीं कर रहे हैं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कहते हैं कि मैं अपात्र हूं.’’

‘‘क्या नाम है तुम्हारा? किस गांव में रहते हो?’’

‘‘सर, मेरा नाम केदार है. मैं टमका खेड़ा गांव में रहता हूं.’’

‘‘कैंप इंचार्ज ने टैलीफोन पर एक नंबर मिलाया और उस अधेड़ के बारे में पूछताछ करने लगा, फिर उस ने केदार से पूछा, ‘‘क्या यह सच है कि तुम्हारी बीवी पिछले महीने मर चुकी है?’’

‘‘हां, सर.’’

‘‘फिर तुम्हें आपरेशन की क्या जरूरत है. बेवकूफ समझते हो हम को. चलो भागो.’’

केदार सिर झुका कर वहां से चल पड़ा. शरबती भी उस के पीछेपीछे बाहर निकल आई.

उस के करीब जा कर शरबती ने धीरे से पूछा, ‘‘कितने बच्चे हैं तुम्हारे?’’

‘‘एक लड़का है. सोचा था, एक एकड़ खेत मिल गया तो उस की जिंदगी ठीकठाक गुजर जाएगी.’’

‘‘मेरा भी एक लड़का है. मुझे भी मना कर दिया गया… ऐसा करो, तुम एक नई चादर ले आओ.’’

केदार ने एक नजर उसे देखा, फिर वहीं ठहरने को कह कर वह कसबे के बाजार चला गया और वहां से एक नई चादर, थोड़ा सा सिंदूर, हरी चूडि़यां व बिछिया वगैरह ले आया.

थोड़ी देर बाद वे दोनों कैंप इंचार्ज के पास खड़े थे. केदार ने कहा, ‘‘हम लोग भी आपरेशन कराना चाहते हैं साहब.’’

अफसर ने दोनों पर एक गहरी नजर डालते हुए कहा, ‘‘मेरा खयाल है कि अभी कुछ घंटे पहले मैं ने तुम्हें कुछ समझाया था.’’

‘‘साहब, अब केदार ने मुझ पर नई चादर डाल दी है,’’ शरबती ने शरमाते हुए कहा.

‘‘नई चादर…?’’ कैंप इंचार्ज ने न समझने वाले अंदाज में पास में ही बैठी एक जनप्रतिनिधि दीपा की ओर देखा.

‘‘इस इलाके में किसी विधवा या छोड़ी गई औरत के साथ शादी करने

के लिए उस पर नई चादर डाली जाती है. कहींकहीं इसे धरौना करना या घर बिठाना भी कहा जाता है,’’ उस जनप्रतिनिधि दीपा ने बताया.

‘‘ओह…’’ कैंप इंचार्ज ने घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया और कहा, ‘‘इस आदमी को ले जाओ. अब यह अपात्र नहीं है. इस की नसबंदी करवा दें… हां, तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘शरबती.’’

‘‘तुम कल फिर यहां आना. कल दूरबीन विधि से तुम्हारा आपरेशन हो जाएगा.

‘‘लेकिन साहब, मुझे भी एक एकड़ जमीन मिलेगी न?’’

‘‘हां… हां, जरूर मिलेगी. हम तुम्हारे लिए तीसरी चादर ओढ़ने की गुंजाइश कतई नहीं छोड़ेंगे.’’

शरबती नमस्ते कह कर खुश होते हुए कैंप से बाहर निकल गई तो उस जनप्रतिनिधि ने कहा, ‘‘साहब, आप ने एक मामूली औरत के लिए कायदा ही बदल दिया.’’

‘‘दीपाजी, यह सवाल तो कायदेकानून का नहीं, आबादी रोकने का है. ऐसी औरतें नई चादरें ओढ़ओढ़ कर हमारी सारी मेहनत पर पानी फेर देंगी. मैं आज ही ऐसी औरतों को तलाशने का काम शुरू कराता हूं,’’ उन्होंने फौरन मातहतों को फोन पर निर्देश देने शुरू कर दिए.

दूसरे दिन शरबती कैंप में पहुंची तो वहां मौजूद कई दूसरी औरतों के साथ उस का भी दूरबीन विधि से नसबंदी आपरेशन हो गया. कैंप की एंबुलैंस पर सवार होते समय उसे केदार मिला और बोला, ‘‘शरबती, मेरे घर चलो. तुम्हें कुछ दिन देखभाल की जरूरत होगी.’’

‘‘मेरी देखभाल के लिए गबरू है न.’’

‘‘मेरा भी तो फर्ज बनता है. अब तो हम लिखित में मियांबीवी हैं.’’

‘‘लिखी हुई बातें तो दफ्तरों में पड़ी रहती हैं.’’

‘‘तुम्हारा अगर यही रवैया रहा तो तुम एक बीघा जमीन भी नहीं पाओगी.’’

‘‘नुकसान तुम्हारा भी बराबर होगा.’’

‘‘मैं तुम्हें ऐसे ही छोड़ने वाला नहीं.’’

‘‘छोड़ने की बात तो पकड़ लेने के बाद की जाती है.’’

शरबती का जवाब सुन कर केदार दांत पीस कर रह गया.

कुछ साल बाद गबरू प्राइमरी जमात पास कर के कसबे में पढ़ने जाने लगा. एक दिन उस के साथ उस का सहपाठी परमू उस के घर आया.

परमू के मैलेकुचैले कपड़े और उलझे रूखे बाल देख कर शरबती ने पूछा, ‘‘तुम्हारी मां क्या करती रहती

है परमू?’’

‘‘मेरी मां नहीं है,’’ परमू ने मायूसी से बताया.

‘‘तभी तो मैं कहूं… खैर, अब तो तुम खुद बड़े हो चुके हो… नहाना, कपड़े धोना कर सकते हो.’’

परमू टुकुरटुकुर शरबती की ओर देखता रहा. जवाब गबरू ने दिया, ‘‘मां, घर का सारा काम परमू को ही करना होता है. इस के बापू शराब भी पीते हैं.’’

‘‘अच्छा शराब भी पीते हैं. क्या नाम है तुम्हारे बापू का?’’

‘‘केदार.’’

‘‘कहां रहते हो तुम?’’

‘‘टमका खेड़ा.’’

शरबती के कलेजे पर घूंसा सा लगा. उस ने गबरू के साथ परमू को भी नहलाया, कपड़े धोए, प्यार से खाना खिलाया और घर जाते समय 2 लोगों का खाना बांधते हुए कहा, ‘‘परमू बेटा, आतेजाते रहा करो गबरू के साथ.’’

‘‘हां मां, मैं भी यही कहता हूं. मेरे पास बापू नहीं हैं, तो मैं जाता हूं कि नहीं इस के घर.’’

‘‘अच्छा, इस के बापू तुम्हें अच्छे लगते हैं?’’

‘‘जब शराब नहीं पीते तब… मुझे प्यार भी खूब करते हैं.’’

‘‘अगली बार उन से मेरा नाम ले कर शराब छोड़ने को कहना.’’

इसी के साथ ही परमू और गबरू के हाथों दोनों घरों के बीच पुल तैयार होने लगा. पहले खानेपीने की चीजें आईंगईं, फिर कपड़े और रोजमर्रा की दूसरी चीजें भी आनेजाने लगीं.

फिर एक दिन केदार खुद शरबती के घर जा पहुंचा.

‘‘तुम… तुम यहां कैसे?’’ शरबती उसे अपने घर आया देख हक्कीबक्की रह गई.

‘‘मैं तुम्हें यह बताने आया हूं कि मैं ने तुम्हारा संदेश मिलने से अब तक शराब छुई भी नहीं है.’’

‘‘तो इस से तो परमू का भविष्य संवरेगा.’’

‘‘मैं अपना भविष्य संवारने आया हूं… मैं ने तुम्हें भुलाने के लिए ही शराब पीनी शुरू की थी. तुम्हें पाने के लिए ही शराब छोड़ी है शरबती,’’ कह कर केदार ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘अरे… अरे, क्या करते हो. बेटा गबरू आ जाएगा.’’

‘‘वह शाम से पहले नहीं आएगा. आज मैं तुम्हारा जवाब ले कर ही जाऊंगा शरबती.’’

‘‘बच्चे बड़े हो चुके हैं… समझाना मुश्किल हो जाएगा उन्हें.’’

‘‘बच्चे समझदार भी हैं. मैं उन्हें पूरी बात बता चुका हूं.’’

‘‘तुम बहुत चालाक हो. कमजोर रग पकड़ते हो.’’

‘‘मैं ने पहले ही कह दिया था कि मैं तुम्हें छोड़ूंगा नहीं,’’ केदार ने उस की आंखों में झांकते हुए कहा. शरबती की आंखें खुद ब खुद बंद हो गईं.

उस दिन के बाद केदार अकसर परमू को लेने के बहाने शरबती के घर आ जाता. गबरू की जिद पर वह परमू के घर भी आनेजाने लगी. जब दोनों रात में भी एकदूसरे के घर में रुकने लगे तो दोनों गांवों के लोग जान गए कि केदार ने शरबती पर नई चादर डाल दी है.

परमू, गबरू और केदार बहुत खुश थे. खुश तो शरबती भी कम नहीं थी, मगर उसे कभीकभी बहुत अचंभा होता था कि वह अपने पहले पति को भूल कर केदार की पकड़ में आ कैसे गई?

Interesting Hindi Stories : गलतफहमियां

Interesting Hindi Stories : सुबह औफिस के लिए घर से निकली पाखी रात के 8 बजे तक घर नहीं लौटी थी. उस का फोन भी आउट औफ कवरेज बता रहा था. इसलिए उस की मां विशाखा को उस की चिंता सताने लगी. वैसे बोल कर वह यही गई थी कि कालेज से सीधे अपनी दोस्त प्रार्थना के घर चली जाएगी.क्योंकि उस की तबीयत ठीक नहीं है. कुछ देर उस के साथ रहेगी तो उसे अच्छा लगेगा लेकिन इतनी देर. और फोन क्यों नहीं लग रहा उस का. चलो, एक बार प्रार्थना को फोन लगा कर देखती हूं, अपने मन में ही सोच विशाखा ने प्रार्थना को फोन लगा दिया. ‘‘हैलो प्रार्थना, अब तुम्हारी तबीयत कैसी है बेटा? पाखी तो वहीं होगी न, तुम्हारे साथ? जरा बात तो कराओ उस से.’’

‘‘मेरी तबीयत को क्या हुआ है. मैं तो बिलकुल ठीक हूं,’’ आंटी ‘‘प्रार्थना हंसी और बोली, ‘‘मैं तो देहरादून अपनी मौसी की बेटी की शादी में आई हुई है.’’

प्रार्थना की बात सुन कर विशाखा बुरी तरह चौंक पड़ी कि फिर पाखी ने उस से ?ाठ क्यों कहा कि इस की तबीयत खराब है और वह इसे देखने जा रही है.

‘‘उफ, शायद मुझ से ही सुनने में गलती हुई होगी. कोई बात नहीं, ऐंजौय करो तुम,’’ कह कर विशाखा ने फोन रख दिया. लेकिन उस का दिमाग झनझना उठा यह सोच कर कि उस की बेटी ने उस से ?ाठ कहा. पर क्यों?

तभी कौलबैल बजी, तो उसे लगा पाखी ही आई होगी लेकिन सामने अपने पति रजत को देख कर उस के मुंह से निकल गया, ‘‘अरे तुम हो?’’

‘‘क्यों, किसी और का इंतजार कर रही थी?’’ रजत हंसा.

‘‘नहीं, वह… मुझे लगा पाखी आई है. वैसे आने के पहले फोन क्यों नहीं किया तुम ने?’’

‘‘अब अपने घर आने के लिए भी फोन करना पड़ेगा मुझे,’’ अपनी आदतानुसार रजत हंस पड़ा और कहने लगा, ‘‘कल गुरुनानक जयंती की छुट्टी है तो सोचा घर जाकर तुम्हें सरप्राइज दूं. लेकिन तुम्हें देख कर तो लग रहा है मेरे आने की तुम्हें जरा भी खुशी नहीं हुई.’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. अच्छा तुम फ्रैश हो जाओ, तब तक मैं तुम्हारे लिए चाय बना लाती हूं.’’

‘‘नहीं, चाय की जरूरत नहीं है मुझे. तुम यहां आ कर बैठो,’’ विशाखा का गंभीर चेहरा देख कर रजत ने अंदाजा लगाया कि कोई बात जरूर है, ‘‘क्या हुआ सब ठीक है? और पाखी अभी तक औफिस से नहीं आई है क्या?’’

‘‘अब पता नहीं औफिस में है कि कहां है. क्योंकि घर से तो यही बोल कर गई थी कि उस की दोस्त प्रार्थना की तबीयत खराब है इसलिए औफिस से सीधे उस के घर चली जाएगी पर वह वहां भी नहीं है. फोन किया था मैं ने.’’

‘‘अरे, तो होगी अपनी किसी दूसरी दोस्त के घर, आ जाएगी. बेकार में टैंशन मत लो.’’ रजत ने कह तो दिया पर पता है उसे कि विशाखा फिर भी टैंशन लेगी ही क्योंकि आदत जो है उस की हर छोटीछोटी बात पर टैंशन लेने की. लेकिन रजत को नहीं पता कि वह फालतू में टैंशन नहीं ले रही है. रजत तो महीनेपंद्रह दिन पर मुश्किल से 5-6 दिन के लिए घर आता है, तो वह क्या जाने कि उस की बेटी पाखी क्या कर रही है. रोज कोई न कोई बहाना बना कर, अपनी मां से झूठ बोल कर वह उस लड़के रोहित से मिलने जाती है, जबकि जानती है विशाखा को वह लड़का जरा भी पसंद नहीं है. अरे, वह है ही नहीं पाखी के लायक. लेकिन जाने उस रोहित ने कौन सा मंत्र फूंक दिया है पाखी के कानों में कि वह उसी का नाम जपती रहती है. रोहित को देखते ही विशाखा को चिढ़ हो आती है क्योंकि शक्ल से ही चालबाज लगता है वह.

‘‘अच्छा, अब ज्यादा ओवरथिंकिंग करना बंद करो, समझ. बेकार में कुछ भी सोचती रहती हो और मेरा भी दिमाग खराब करती हो. अरे, दोस्त हैं दोनों, तो मिलने चली गई होगी. इस में कौन सी बड़ी बात हो गई,’’ विशाखा को गुम बैठे देख रजत बोला.

‘‘अरे, कोई दोस्तवोस्त नहीं है दोनों. प्यार करती है वह उस लफंगे से. अगर जाना ही था तो ?ाठ बोल कर जाने की क्या जरूरत थी?’’ विशाखा विफर उठी.

‘‘अब तुम जैसी हिटलर मां हो तो बेचारे बच्चे तो झूठ ही बोलेंगे न. वैसे सच कहूं तो मुझे भी तुम से बहुत डर लगता है,’’ बोल कर रजत ठहाके लगा कर हंसा तो विशाखा को जोर का गुस्सा आ गया.

‘‘तुम्हें हर बात में बस खीखी करना आता है. तुम ने ही बिगाड़ रखा है अपनी लाडली को. तुम्हारे कारण ही उस की नजरों में मैं एक बुरी मां साबित हो गई हूं क्योंकि मैं उस की मनमानी नहीं सहती न. तुम्हारी तरह उस की हर आलतूफालतू बात में हां बेटा हां बेटा नहीं करती न. तो मैं तो उस की दुश्मन लगूंगी ही.’’

विशाखा का गुस्सा देख रजत कहने लगा कि वह तो बस मजाक कर रहा था. और क्यों वह बेकार में इतनी टैंशन लेती है. पाखी कोई बच्ची थोड़े ही है. अपना भलाबुरा खूब समझती है वह. और विशाखा का कहना था कि बेवकूफ है वह लड़की. नहीं समझती कि वह लड़का केवल उसे यूज कर रहा है.

तभी गाड़ी रुकने की आवाज से विशाखा बालकनी में भागी तो देखा पाखी रोहित की गाडी से बाहर निकल रही है. दोनों को एकदूसरे को किस करते देख विशाखा के तनबदन में आग लग गई. मन तो किया उस का कि अभी नीचे जा कर उस लड़के को 2-4 थप्पड़ लगा दे और कहे कि पाखी को छूने की उस की हिम्मत भी कैसे हुई. मगर जब यहां अपना ही सिक्का खोटा है तो किसी और को क्या कहा जाए.

‘‘कहां थी तुम?’’ दरवाजा खोलते ही विशाखा फट पड़ी.

‘‘कहां थी का क्या मतलब है? अरे, बोल कर तो गई थी कि प्रार्थना की तबीयत ठीक नहीं है इसलिए औफिस से सीधे उस के घर चली जाऊंगी.’’

‘‘अरे, और कितना झूठ बोलोगी,’’ पाखी का कंधा पकड़ कर उस ने जोर से धकेला, तो वह हिल गई.

‘‘तुम्हें क्या लगा, तुम हमारी आंखों में धूल झांकती रहोगी और हमें कुछ दिखाई नहीं देगा? तुम फिर उस लफंगे रोहित से मिलने गई थी न? मैं ने तुम्हें उस से मिलने को मना किया था न? फिर क्यों गई उस से मिलने?’’ विशाखा चीख पड़ी.

‘‘ज्यादा चिल्लाओ मत,’’ पाखी ने भी आंखें तरेरीं, ‘‘हां, गई थी उस से मिलने तो? तो क्या कर लेंगी आप? आप सुन लो कान खोल कर. मैं रोहित से प्यार करती हूं और आप मुझे उस से मिलने से नहीं रोक सकतीं. वैसे भी आप होती कौन हो मुझे रोकने वाली?’’ पाखी की बात पर रजत ने उसे डांटा कि वह अपनी मम्मी से ऐसे कैसे बात कर रही है. तमीज नाम की कोई चीज है कि नहीं उस में?

‘‘और मम्मी में तमीज है कोई? हर समय जो वे, ‘वह लफंगा वह लफंगा’ कहती रहती हैं क्या उस का कोई नाम नहीं है? पापा आप ही बताओ, क्या मैं कोई मुजरिम हूं जो रोजरोज इन के सवालों के जबाव देने पड़े मुझे? जरा कभी औफिस से आने में देर क्या हो जाती है, पुलिस की तरह सवाल पर सवाल दागने लगती हैं. इन्हें क्यों लगता है कि रोहित आवारा, लफंगा लड़का है? मुझ में भी दिमाग है. मुझे पता है कि मेरे लिए कौन सही और कौन गलत है.’’

दोनों मांबेटी को यों लड़तेझगड़ते देख कर रजत परेशान हो उठा. किसी तरह पाखी को समझाबुझा कर उसे उस के कमरे में भेज कर विशाखा को भी चुप रहने को कह वह भी अपने कमरे में चला गया. समझ ही नहीं आ रहा था उसे कि यहां कौन सही है और कौन गलत. पाखी कोई 2 साल की बच्ची तो है नहीं न जो उसे हर बात के लिए रोकाटोका जाए. रस्सी को उतना ही खींचना चाहिए, जितना जरूरी हो वरना वह टूट जाएगी. विशाखा को यह बात समझासमझा कर हार गया था वह, पर वह समझती ही नहीं थी. जवान लड़की है, कहीं कुछ ऐसावैसा कर लिया तो क्या करेगी फिर?

‘‘नहीं, बहुत हो गया अब तो. मुझे अब इस घर में रहना ही नहीं है,’’ भुनभुनाती हुई पाखी अपने कमरे में जा कर अपना कपड़े अटैची में डालने लगी क्योंकि अपनी मां की रोजरोज के रोकटोक से वह तंग आ चुकी थी. अभी वह घर से बाहर निकलने ही लगी कि विशाखा ने उस का हाथ जोर से पकड़ लिया, ‘‘कहां जाओगी?’’ विशाखा को लगा कहीं बेटी सच में ही घर से चली न जाए. भले ही वह अपनी बेटी पर रोकटोक लगाती थी, मगर प्यार भी वह उस से बहुत करती थी. विशाखा को इसी बात की चिंता लगी रहती थी कि उस की मासूम बेटी कहीं किसी मुसीबत में न फंस जाए उस लफंगे के चक्कर में. जमाना ठीक नहीं है. किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता है. मगर पाखी को तो अपनी मां दुश्मन ही नजर आती.

‘‘कहीं भी, लेकिन इस घर से और आप से बहुत दूर. छोड़ो मुझे,’’ विशाखा का हाथ जोर से ?ाटकते हुए वह बोली, ‘‘मैं पूछती हूं आप मेरी जिंदगी में दखल देने वाली होती कौन हो?’’

‘‘तेरी जिंदगी. अब यह तेरी जिंदगी है? मैं ने तुम्हें 9 महीने अपनी कोख में रखा, पालापोसा, बड़ा किया और अब यह तुम्हारी जिंदगी हो गई. हम तुम्हें किसी मुसीबत में नहीं फंसने देना चाहते हैं, यह बात क्यों नहीं समझती तू? वह लड़का तेरे लिए कहीं से भी ठीक नहीं है. तू उस के साथ कभी खुश नहीं रह पाएगी. उस के साथ तेरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी बेटा,’’ एक मां होने के नाते उस ने पाखी को समझना चाहा. लेकिन पाखी कहां समझने वाली थी. उसे तो अपनी मां की कोई भी बात अच्छी नहीं लग रही थी.

‘‘सब से बड़ी मुसीबत तो आप हो मेरी जिंदगी में. आप बरबाद कर रही हैं मेरी जिंदगी. आप ने मुझे पैदा कर के कोई बहुत बड़ा एहसान नहीं किया है. बेटा यह मत करो, बेटा वह मत करो, यहां मत जाओ, वहां मत जाओ. अरे, थक चुकी हूं मैं आप से और आप के इन बेतुके सवालों से. मैं कह रही हूं आप निकल जाओ मेरी जिंदगी से,’’ पाखी चीख पड़ी, ‘‘नहीं आप मत निकलो, मैं ही निकल जाती हूं आप की जिंदगी से हमेशाहमेशा के लिए, खुश?’’

अपनी बेटी के व्यवहार को देख विशाखा की आंखों से आंसू गिर पड़े.

पाखी बाहर जानेलगी तो रजत ने उसे रोका कि इस तरह इतनी रात गए बाहर जाना उचित नहीं है, इसलिए वह अपने कमरे में जाए.

रजत का कहा मान कर वह अपने कमरे में जा कर उस ने इतनी जोर से दरवाजा लगाया कि अपने पापा का भी लिहाज नहीं किया कि उन्हें बुरा लगेगा.

पाखी का ऐसा व्यवहार देख कर रजत को बहुत दुख हुआ. लेकिन गुस्सा उसे विशाखा पर भी आ रहा था कि जरूरत ही क्या उसे कुछ बोलने की. वह अब बच्ची थोड़े है.

‘‘क्या फायदा हुआ बोलने का बोलो? तुम और उस की नजरों में बुरी बनती जा रही हो,’’ रजत ने अपनी पत्नी को समझाना चाहा.

‘‘फायदा? यह तुम्हारा बैंक नहीं है रजत जो हर चीज में लौस और प्रौफिट देखा जाए. पाखी हमारी बेटी है. जानबूझ कर उसे गड्ढे में गिरने नहीं दे सकते. हम उसे सही रास्ता नहीं दिखाएंगे तो और कौन दिखाएगा?’’

विशाखा सही ही कह रही थी, रोहित अच्छा लड़का नहीं है. लड़कियों के साथ घूमना, शराबसिगरेट और ड्रग्स पीना उस की आदत में शामिल है. यह भी सच है कि पहले उस की एक शादी हो चुकी है. लेकिन शादी के 2 महीने बाद ही उस की बीवी एक ऐक्सीडैंट में मर गई. अब पता नहीं ऐक्सीडैंट हुआ या करवाया गया.

विशाखा को यह सारी बातें अपनी एक किट्टी की फ्रैंड से पता चलीं जो उसी सोसायटी में रहती है जिस सोसायटी में रोहित और उस की मां रहती है. उस की दोस्त ने यह भी बताया कि रोहित के मातापिता का वर्षों पहले तलाक हो चुका है और वह सिंगल मदर है. रोहित की मां एलआईसी में जौब करती है और ज्यादातर वह अपने घर से बाहर ही रहती है. बेटा क्या करता है, कहां रहता है इस बात की उसे कोई खबर नहीं होती है.

ऐसा नहीं है कि रोहित अनपढ़ गंवार है. इंजीनियरिंग की है उस ने. जौब भी लगी पर वह जौब उस ने छोड़ दी क्योंकि उसे वहां मजा नहीं आ रहा था. वह बिजनैस करना चाहता था. मगर बिजनैस में भी वह फिसड्डी निकला. अभी वह फिर किसी छोटीमोटी प्राइवेट कंपनी में जौब कर रहा है. लेकिन उसे बहुत पैसा चाहिए, इसलिए उस ने पैसे वाली पाखी को अपने जाल में फंसाया, उस से प्यार का नाटक किया और अब उस से शादी करना चाहता है ताकि पूरी जिंदगी उस की आराम से कट सके. खैर, उन की निजी जिंदगी से विशाखा को कोई लेनादेना नहीं है. लेकिन वह इसलिए उस के बारे में जांचपड़ताल करती रहती है क्योंकि उस की बेटी रोहित के चक्कर में फंसी है.

विशाखा ने कई बार समझाया अपनी बेटी को कि रोहित उस से नहीं बल्कि उस के पैसों से प्यार करता है. जानता है कि पाखी इतनी बड़ी कंपनी में नौकरी करती है. पाखी के पापा यानी रजत भी बड़े सरकारी बैंक में ऊंचे ओहदे पर हैं. इस के अलावा उन की जितनी भी संपत्ति है, उन के बाद पाखी की ही होने वाली है. मगर पाखी यह बात मनाने को तैयार ही नहीं है कि रोहित उस से नहीं बल्कि उस के पैसों से प्यार करता है. पता नहीं क्या घुट्टी पिला दी है उस लड़के ने पाखी को कि उस के बारे में एक शब्द नहीं सुनना चाहती वह. उलटे अपनी मां से ही लड़ने लगती है जैसे वह उस की सब से बड़ी दुश्मन हो.

उस रात विशाखा बोलतेबोलते सुबक उठी कि कहीं उस लड़के ने उस की बेटी के साथ कुछ ऐसावैसा कर दिया तो क्या करेंगे वे? एक ही तो बेटी है उन की. कैसे जीएंगे उस के बिना?

‘‘एक मां होने के नाते तुम्हारी चिंता जायज है लेकिन यह भी तो हो सकता है तुम जो सोच रही हो वह निरधार हो? चलो अब सो जाओ, रात बहुत हो गई है,’’ अपने सिर पर हाथ रख रजत ऊपर छत की तरफ देखते हुए न जाने क्या सोचने लगा और फिर उस की आंख लग गई.

27 साल की पाखी कौरपोरेट जौब करती है. मोबाइल शौप में उस की मुलाकत रोहित से हुई थी. दोनों अकसर मिलने लगे तो उन की दोस्ती हो गई जो धीरेधीरे प्यार में बदल गई. दोनों 2 साल से रिलेशनशिप में हैं और अब वह अपने इस रिश्ते को एक नाम देना चाहते हैं. लेकिन हाल तो यह है कि विशाखा इस रिश्ते के खिलाफ है और पाखी है कि रोहित के अलावा और किसी से शादी के बारे में सोच भी नहीं सकती.

‘‘अब हमारे पास एक ही रास्ता बचता है और वह यह कि हम भाग कर शादी कर लें,’’ पार्क में घास पर लेटे रोहित ने सुझाया.

‘‘भाग कर? नहींनहीं मैं ऐसा नहीं कर सकती.’’

‘‘तो फिर जाओ, कर लो अपने मांपापा

के पसंद के लड़के से शादी,’’ रोहित जरा चिढ़ते हुए बोला.

‘‘और तुम क्या करोगे फिर?’’ पाखी मुसकराई.

‘‘मैं? मैं भी अपनी मां की पसंद की लड़की से शादी कर लूंगा और क्या. लेकिन एक बात सुनो. हम दोनों एकदूसरे की शादी में जरूर आएंगे, यह वादा करो,’’ रोहित की बात पर पाखी को हंसी आ गई.

रोज की तरह आज भी पाखी औफिस जाने के लिए तैयार हो रही थी. मगर उस के दिमाग में ढेरों उल?ानें चल रही थीं. सम?ा नहीं आ रहा था उसे कि बात कैसे और कहां से शुरू करे. वह अपनी मां विशाखा से उल?ाना नहीं चाहती थी बेकार में. लेकिन बात तो करनी ही होगी, अपनेआप में भुनभुनाते हुए जब उस की नजर घड़ी पर पड़ी तो घबरा उठी कि आज रोहित ने उसे जल्दी बुलाया है. तभी विशाखा ने आवाज लगाई कि वह आ कर नाश्ता कर ले, रोहित से ध्यान हट कर अपनी मां की बातों पर चला गया.

‘‘देखो, आज मैं ने तुम्हारी पसंद के छोलेभठूरे बनाए हैं,’’ प्लेट में उस के लिए नाश्ता परोसते हुए विशाखा बोली. कल की बात को ले कर विशाखा भी गिल्ट फिल कर रही थी कि पाखी को कितना कुछ सुना दिया उस ने. पाखी ने अजीब तरह से नाश्ते की तरफ देखा और यह कह कर कुरसी से उठ खड़ी हुई कि इतना औयली नाश्ता उस के गले से नहीं उतरेगा.

‘‘तो तो मैं तुम्हारे लिए उपमा या पोहा बना देती हूं न, अभी 2 मिनट में बन जाएगा.’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं चाहिए. वैसे भी मुझे देर हो रही है,’’ कह कर वह घर से निकल गई. न कोई बाय न यह बताया कि घर कब आएगी. किसी से फोन पर बात करते हुए बाहर निकल गई. अजीब व्यवहार होता जा रहा था उस का अपने मातापिता के प्रति और यह बात रजत भी अब नोटिस करने लगा था.

दरअसल, कल रात पाखी और उस के पापा के बीच शादी की बात को लेकर जरा अनबन हो गई. पाखी का कहना था कि वह रोहित से प्यार करती और उस से ही शादी करना चाहती है. लेकिन रजत का कहना था कि पहले वह जान तो ले कि रोहित उस के लायक है भी या नहीं. उस पर पाखी कहने लगी कि उसे पता है रोहित उस के लायक है. और कोई क्या सोचता है उन के रिश्ते के बारे, इस बात से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है.

पाखी का इशारा अपनी मां की तरफ था. उस की बात पर रजत को गुस्सा आ गया और उस ने कह दिया कि वे उस के मातापिता हैं. इसलिए उस का भला बुरा सोचना भी उन का ही काम है. वह अभी नासमझ है. उसे नहीं पता है कि दुनिया में कितने धोखेबाज इंसान, शराफत का चोला ओढ़े घूम रहे हैं

‘‘ठीक है आप लोगो को जो समझना है समझते रहिए. लेकिन रोहित मेरे लिए सही है और यही सच है. और मेरा फैसला अब भी वही है पापा की शादी तो मैं रोहित से ही करूंगी वरना उम्रभर कुंआरी रह जाऊंगी.’’

जवान बेटी से ज्यादा मुंह लगाना रजत को अच्छा नहीं लगा, इसलिए चुप रहने में ही भलाई समझ. पाखी को जिद पर अड़े देख कर रजत को अब डर लगने लगा था कि कहीं यह लड़की किसी मुसीबत में न फंस जाए. वह स्वयं तो 15 दिन पर मुश्किल से 2 रोज के लिए घर आ पाता है. बाकी के दिन तो वह दूसरे शहर में अपनी नौकरी में व्यस्त रहता है.

रजत ने जानबूझ कर बैंक से हफ्तेभर की छुट्टी ले ली ताकि उस रोहित के बारे में पर्सनली जानकारी जुटा सके. देखना चाहता था वह कि क्या सच में रोहित का कई लड़कियों से चक्कर है और यह भी कि वह कुछ कमाता भी है या यों ही डींगे मारता है.

मगर विशाखा ने जोजो बातें उस रोहित के बारे में बताईं वे सब सच निकलीं. रोहित एक बिगड़ा हुआ लड़का है. रोज नईनई लड़कियों के साथ घूमनाफिरना और ऐश करना उस की आदतों में शामिल है. शराबसिगरेट का भी आदी है वह. सब से बड़ी बात की उन का अपना कोई घर नहीं है. दोनों मांबेटे एक किराए के घर में रहते हैं, जिसे वह सब से अपना बताते फिरता है, जबकि उस मकान का मालिक कोई और ही है. हां, उस की पहले भी एक शादी हो चुकी है. इस के अलावा रोहित की मां का अपने पति से वर्षों पहले तलाक हो चुका है और रोहित के पिता दुबई में रहते हैं.

रोहित ने खूब सोचसमझ कर पाखी को अपने प्यार के जाल में फंसाया ताकि उस की जिंदगी आराम से गुजार सके. लेकिन रजत यह बात पाखी को बताएगा कैसे? और क्या वह रजत की बातों पर विश्वास करेगी. लेकिन बताना हो पड़ेगा.

मगर वही हुआ जिस का रजत को डर था. अपने पापा की बात समझने के बजाय वह उन से ही लड़ पड़ी और गुस्से में अपना सामान उठा कर रोहित के घर रहने चली गई. रोहित की मां का दूसरे शहर में ट्रांसफर हो गया तो रोहित यहां अकेले ही रह रहा था. अब पाखी भी उस के साथ उस के घर में रहने लगी. वहां से वह रोज औफिस आनेजाने लगी.

आज महीना हो चुका था पाखी को इस घर से गए. इस बीच न तो उस ने अपने मांपापा को कोई फोन किया न ही उन का फोन उठाया. एक रोज रजत और विशाखा जब उस से मिलने उस के औफिस पहुंचे तो उस ने अपने मातापिता से मिलने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वे उन के कुछ नहीं लगते. बेचारे दोनों रोंआसे से हो कर घर लौट आए. जो मांबाप अपने बच्चों के लिए क्याक्या नहीं करते हैं उन की खुशियों को पहले देखते हैं वही बच्चे इतने स्वार्थी और पत्थर दिल कैसे बन जाते हैं. खैर, रजत और विशाखा ने भी अब अपने दिल पर पत्थर रख लिया था.

उधर रोहित के साथ रहते हुए पाखी का दिन सोने के और रातें चांदी की हो गई थीं.

रोज वह उस के साथ घूमफिर और मौज कर रही थी. उसे तो अब अपने मांपापा की याद भी नहीं आती थी. जो भी था बस रोहित ही था उस के लिए. दोनों ने कोर्ट मैरिज करने का फैसला कर लिया था और इस के लिए उन्होंने कोर्ट में अर्जी में डाल दी थी.

कल रोहित का जन्मदिन था और पाखी ने उस के लिए कुछ सरप्राइज प्लान किया था. सुबह वह यह कह कर अपने औफिस के लिए निकल गई कि आज शायद उसे घर आने में थोड़ी देर हो जाए. इसलिए वह खाने पर उस का इंतजार न करे. लेकिन असल में उस ने 2 दिन की छुट्टी ले रखी थी ताकि रोहित का जन्मदिन अच्छे से सैलिब्रेट कर सके. मगर यह बात उस ने रोहित को बताई नहीं थी क्योंकि उसे सरप्राइज जो देना चाहती थी.

मौल जा कर उस ने रोहित के लिए ढेर सारी शौपिंग की. बढि़या होटल बुक किया. उस के लिए ऐक्पैंसिव गिफ्ट खरीदा. 4-5 घंटे तो उस के इसी सब में निकल गए. बहुत थक चुकी थी. इसलिए घर जा कर थोड़ा आराम करना चाहती थी क्योंकि फिर शाम की पार्टी की भी तैयारी करनी थी उसे. डुप्लिकेड चाबी से दरवाजा खोल कर जब वह घर के अंदर गई और जो उस ने देखा, उस के पांवों तले की जमीन खिसक गई. रोहित एक लड़की के साथ हमबिस्तर था. गुस्से के मारे वह थरथर कांपने लगी. वह कमरे के अंदर जा ही रही थी कि उन दोनों की बातों ने उस के कदम वहीं रोक लिए.

‘‘अब तो तुम उस पाखी से शादी करने जा रहे हो, फिर मुझे तो भूल ही जाओगे,’’ अपनी ऊंगली रोहित के बदन पर फिराते हुए वह लड़की बोली.

‘‘हां शादी तो करने जा रहा हूं पर उस से नहीं, बल्कि उस के पैसों से.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि शादी मैं किसी बंधन में बंधने के लिए नहीं कर रहा हूं बल्कि लग्जरी लाइफ जीने के लिए कर रहा हूं. पाखी तो बस एक जरीया है मेरी ऐशोंआराम के साधन का,’’ और रोहित ठहाके लगा कर हंसा, ‘‘बेवकूफ लड़की. उसे लगा वह कोई हूर की परी है और मैं उस की सुंदरता पर मर मिटा हूं. लेकिन उस की जैसी कितनी आई और गईं मेरी जिंदगी से और सब को मैं ने यों ही मसलमसल कर फेंक दिया. वह तो पाखी बहुत पैसे वाली बाप की एकलौती बेटी है इसलिए उस के साथ बेइंतहा प्यार का नाटक करना पड़ रहा है मु?ो और यह शादी भी एक नाटक ही है मेरी जान,’’ कह कर उस ने उस लड़की को अपनी आगोश में भर लिया और उसे यहांवहां चूमने लगा, जो पाखी से देखा नहीं गया. रोहित की बात सुन कर पाखी का खून खौल उठा. उस ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि रोहित इतना घटिया इंसान है.

‘‘और तुम्हें क्या लगता है पाखी तुम्हें इतने आराम से अपनी दौलत लुटाने देगी?’’ वह लड़की बोली.

‘‘हां, लेकिन उस के बाद तो उस की सारी संपत्ति का मालिक मैं ही होऊंगा न.’’

‘‘पर कैसे?’’ उस लड़की ने पूछा.

‘‘अब रोज कितने ही ऐक्सीडैंट होते हैं तो एक और सही.’’

रोहित की बात सुन कर पाखी की रूह कांप उठी. एकाएक उसे अपनी मां की कही बातें याद आने लगीं कि रोहित की पहले भी एक शादी हो चुकी है और उस की बीवी एक ऐक्सीडैंट में मर गई. तो क्या इस रोहित ने ही अपनी बीवी का… और क्या यह सिर्फ मेरे पैसों से प्यार करता है मुझ से नहीं? कितना सम?ाया मां ने, पापा ने मुझे कि रोहित अच्छा लड़का नहीं है. लेकिन मैं पागल उन्हें ही अपना दुश्मन सम?ा बैठी,’’ पाखी ने अपने बाल नोच लिए कि यह क्या कर लिया उस ने. कैसे नहीं समझ पाई इस रोहित को  और इस के नापाक इरादों को?

पाखी ने अपने आंसू पोंछे और रोहित की 1-1 बात अपने मोबाइल में रिकौर्ड कर ली और वहां से निकल गई क्योंकि अब यहां रुकना उस की जान के लिए खतरा था.

रात के 11 बजे दरवाजे की घंटी की आवाज से रजत और विशाखा दोनों घबरा उठ बैठे, ‘‘इतनी रात गए कौन हो सकता है?’’

‘‘पता नहीं, देखते हैं,’’ बोल कर जब विशाखा ने दरवाजा खोला और सामने पाखी को खड़े देखा तो हैरान रह गई.

कुछ बोलती उस से पहले ही पाखी अपनी मां के गले लग फूटफूट कर रोने लगी. कहने लगी कि उस की मां सही थी. रोहित अच्छा लड़का नहीं है. उस ने उस से चीट किया. उस से बहुत बड़ी गलती हो गई उसे पहचाने में. अपने मांपापा को ले कर जो गलतफहमियां उस ने अपने मन में पाल रखी थीं वे सब दूर हो चुकी थीं.

मगर सारी बातें जानने के बाद रजत का खून खौल उठा. सोच लिया कि वह रोहित को छोड़ेगा नहीं. उसे पुलिस में देगा. लेकिन विशाखा ने उसे शांत करते हुए कहा कि जो हुआ उस बात पर मिट्टी डालो. खुश हो जाओ कि हमारी बेटी हमारे पास वापस आ गई. लेकिन पाखी उस रोहित को सबक सिखाना चाहती थी.

उस के कई बार फोन करने के बाद भी जब पाखी ने उस का फोन नहीं उठाया तो रोहित खुद उस से मिलने उस के घर पहुंच गया और कहने लगा कि उसे पाखी की बहुत चिंता होने लगी कि कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया.

‘‘नहीं, कुछ नहीं हुआ है मुझे बल्कि मेरे साथ अनहोनी होतेहोते रह गई.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ तुम्हें? तुम ठीक तो हो?’’ पाखी के करीब जाते हुए रोहित बोला.

‘‘अब अपना यह नाटक बंद करो समझे?’’ कह उस ने रोहित के गाल पर तड़ातड़ 3-4 थप्पड़ जड़ दिए और उस की रिकौर्डिंग की हुई सारी बात उसे सुना दी, जिसे सुन कर वह सन्न रह गया.

‘‘तुम भी सोच रहे होंगे कि यह क्या हो गया? बात बनतेबनते रह गई. अब तुम्हारी ऐशोआराम का क्या होगा? नहीं, कोई सफाई देने की जरूरत नहीं है क्योंकि तुम्हारा असली चेहरा अब मेरे सामने है. इसलिए जाओ यहां से और कभी मुझे अपनी यह मनहूस शक्ल मत दिखाना नहीं तो सीधे जेल जाओगे,’’ कह उस ने रोहित को अपने घर से धक्का दे कर बाहर निकाल दिया और दरवाजा बंद कर दिया. मांबेटी के बीच जो भी गलतफहमियां थीं वे सब दूर हो चुकी थीं.

Love Stories : प्रीत का गुलाबी रंग

Love Stories : पुणे शहर के पौश इलाके में बनी रेशम नाम की आलीशान कोठी आज दुलहन की तरह सजी थी. मौका था कोठी के इकलौते वारिस विहान की सगाई का. उस की मंगेतर लता भी सम्मानित घराने से थी. विहान की मां वैदेही जिन्हें विहान मांजी कहता था, बेहद गरिमामय, उच्च विचारों वाली और शांत स्वभाव की महिला थीं. वे लता को बेहद पसंद करती थीं और उन की पसंद ही विहान की पसंद भी बनी इस बात की उन्हें बेहद खुशी थी.

रौयल ब्लू डिजाइनर सूट में विहान और रानी पिंक लहंगे में सजी लता को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे दोनों एकदूजे के लिए ही बने हैं. आयोजन में शामिल सभी मेहमानों ने इस खूबसूरत जोड़े की भूरीभूरी प्रशंसा की. वर्तमान समय में भी लता की नज़रें विहान को देखते हुए शरमा रही थीं और चेहरा सुर्ख हो रहा था.

‘‘भाभी,क्या बात है आप तो ऐसे शामा रही हैं जैसे विहान भैया को पहली बार देख रही हैं पर आप दोनों का प्रेम तो जन्मोंजन्मों से है,’’ वर्षा ने लता को शरारत भरे स्वर में छेड़ते हुए कहा.

‘‘क्या करूं वर्षा, पता नहीं क्या हो रहा

है आज, देख न दिल किस कदर जोरजोर से धड़क रहा है,’’ लता वर्षा की ओर देखते हुए धीमे से बोली.

वर्षा ने उसे गले से लगा लिया. वर्षा जानती थी लता पिछले कितने ही सालों से विहान को चाहती थी और आज उस के जीवन की सब से बड़ी इच्छा पूरी होने जा रही थी.

सगाई धूमधाम से संपन्न हो गई. आधी रात को जब लता बैड पर लेटी तो अपनी सगाई की अंगूठी देखतेदेखते विहान के खयालों में गुम हो गई…

आज से 10 साल पहले वैदेहीजी विहान और वर्षा के साथ लता की साथ वाली कोठी में रहने आईं थीं. लता के मम्मीपापा विवेक और अरुणा से उन के मधुर संबंध बन गए थे. वैदेहीजी अपने पति की असमय मृत्यु के पश्चात उन की फैक्टरी को बेहतर तरीके से संभाल रही थीं. इस की वजह से वे विहान और वर्षा पर थोड़ा कम ध्यान दे पाती थीं पर दोनों बच्चे छोटी आयु में ही समझदारी का परिचय दे रहे थे.

वे हालात को समझते थे और जितना भी वक्त उन्हें वैदेही के साथ मिलता उस में ही बेहद खुश रहते.

वर्षा और लता समान आयुवर्ग की थीं सो दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई थी. विहान उन दोनों से 2 साल बड़ा था और इस बात का फायदा भी वह बखूबी उठाता था. वर्षा और लता से अधिकतर आदेशात्मक स्वर में ही बात करता था.

लता पर तो खूब अधिकार जमाता था. घर में सहायक होते हुए भी उस का खयाल लता ही करे, ऐसी इच्छा रखता था और लता भी हंसतेमुसकराते उस के सारे काम करती जाती थी. न जाने ये सब कर के उस के दिल को एक अलग ही सुकून प्राप्त होता था.

यह वह तब सम?ा जब विहान था कालेज के लास्ट ईयर में और लता फर्स्ट ईयर में. रैंगिंग करते हुए कुछ लड़के लड़कियों का ग्रुप उस के नजदीक आया तो लता घबरा सी गई. तभी किसी की आवाज उस के कानों में पड़ी कि अरे, यह तो विहान भाई की दोस्त है, चलोचलो, यहां से. कह रखा था उन्होंने कि इसे कोई परेशान न करे.

‘‘तो इस के चेहरे पर क्या इस का नाम लिखा है जो तूने इसे पहचान लिया?’’ दूसरी आवाज आई.

‘‘अपने मोबाइल में इस का फोटो दिखाया था उन्होंने, अब छोड़ो इसे और सामने देखो, विहान भाई इधर ही आ रहे हैं.’’ सभी वहां से चले गए.

‘‘किसी ने कुछ कहा तो नहीं,’’ विहान ने उस के करीब पहुंच कर उस से पूछा.

लता ने उसे देखते हुए न में सिर हिला दिया.

‘‘गुड चलो, मैं चलता हूं, तुम्हारी क्लास यहां से सीधा फिर राइट हैंड पर पहली वाली है. चलो, औल द बैस्ट,’’ विहान सीधा वहां से निकल गया और लता उसे जाते हुए देखती रही.

कालेज की छुट्टी के वक्त लता ने गाड़ी वापस भेज दी और पैदल ही अपने घर चल पड़ी.

तभी अचानक बारिश शुरू हो गई. मिट्टीकी सोंधी खुशबू उसे जैसे किसी और ही दुनिया में ले गई. अचानक सब कितना खिलाखिला लगने लगा था. हर तरफ बारिश की फैली बूंदों में उसे एक ही चेहरा नजर आने लगा था और वह था विहान का.

‘‘कमाल है,अब जब एक ही कालेज में जाना है तो एक साथ ही जाओ न,’’ वर्षा ने विहान से कहा.

‘‘स्ट्रीम अलग, क्लासेज का टाइम अलग, साथ कैसे जा सकते हैं? जानती तो है कि मैं बाइक पर जाना ज्यादा पसंद करता हूं तो उसे कैसे ले जाऊंगा, बेकार ही सब लोग गलत सोचेंगे और मैं नहीं चाहता कि कोई उस और मेरे बारे में कोई उलटासीधा अनुमान लगाएं.’’

‘‘फिर भैया उसे रैगिंग से क्यों बचाया?’’ वर्षा भी सवाल दागे जा रही थी.

‘‘इतना तो कर ही सकता हूं उस के लिए,’’ कह कर विहान वहां से चला गया.

‘जानती हूं भैया कि आप क्याक्या कर सकते हैं लता के लिए, सिर्फ लता के लिए या लता भाभी के लिए,’ यह सोच कर वर्षा मन ही मन खुशी से झूम गई.

इधर लता अब विहान के सामने पड़ती तो नजरें चुराने लगती. उस का कमरा संभाल रही होती तो विहान के अंदर आते ही वह कमरे के बाहर जाने को मचलने लगती.

ऐसे ही एक दिन जब लता उस की अलमारी में कपड़े रख रही थी तो पीछे से विहान ने उस के बालों को पकड़ कर खींच दिया.

‘‘उई… मम्मी,’’ लता चिल्ला दी.

‘‘क्या मम्मी, आंटी कहां से आ गईं यहां…’’ विहान चिढ़ता हुआ सा बोला.

‘‘पहले बाल तो छोड़ो, दर्द हो रहा है,’’ लता अपने बाल उस की गिरफ्त से आजाद करने की कोशिश करते हुए बोली.

‘‘पहले यह बताओ कि आजकल मुझ से दूर क्यों भागती रहती हो? क्या लुकाछिपी खेल रही हो?’’ विहान ने उस के बालों को छोड़ते हुए कहा.

‘‘ऐसी तो कोई बात नहीं, कालेज के बाद तो अकसर मांजी और वर्षा के पास आ जाती हूं,’’ लता ने अलमारी बंद कर दी थी.

‘‘मांजी तो देर शाम ही मिलती होंगी पर वर्षा के साथ पहले तो बड़ा मुझसे लड़ाझगड़ा करती थी, बड़ी डिमांड होती थी तुम्हारी पिजाबर्गर पार्टी की और अब तो जैसे उपवास पर हो, बात क्या है आखिर?’’ कह कर विहान उस के चेहरे के आगे आ कर उस की आंखों में झांकने लगा.

लता का जिस्म जैसे हरारत से भर गया हो. विहान का इतने करीब आना उस के होशोहवास गुम कर रहा था. माथे पर पसीने की बूंदें उभरने लगी थीं. लता के मुंह से बोल नहीं निकल पा रहे थे. वह उलटे पांव वहां से भागी और नीचे जाने को सीढि़यां उतरने लगी.

‘‘मत बोलो कुछ, जा रहा हूं अब देश छोड़ कर, विदेश से अब तुम्हें और परेशान करने नहीं आऊंगा. लंदन जा रहा हूं अगले हफ्ते,’’ विहान तेज स्वर में बोला.

सीढि़यां उतरती लता के पांव जैसे वहीं जम गए हों. वह वापस भागती हुई विहान के पास आई और उस के हाथ से मोबाइल ले कर पलंग पर फेंकती हुई बोली, ‘‘क्या कहा तुम ने, तुम लंदन जा रहे हो, कब, क्यों?’’ लता बदहवास सी हो उठी.

‘‘ओ इंस्पैक्टर साहिबा, आराम से. पहले हम विश्वाम फरमाएंगे फिर पूरी बात बताएंगे,’’ विहान मस्ती के मूड में था.

‘‘उफ विहान, जल्दी बोलो न, क्यों सता रहे हो?’’  लता बहुत उतावली हो रही थी.

‘‘अरे बाबा,  बिजनैस मैनेजमैंट और क्या, मांजी चाहती हैं  और तुम भी तो समझती हो न कि इतने सालों से मांजी अकेले सारा कारोबार संभाले हुए हैं और अब उन की जिम्मेदारी उठाने के लिए मुझे और अधिक मजबूत बनना होगा, इतना सक्षम बनाना होगा खुद को कि मेरे कांधे समस्त जिम्मेदारियों को बोझ नहीं बल्कि पापा और मांजी के सपनों को पूरा करने वाले और उन्हें हर कदम पर गौरवान्वित महसूस कराने वाले आशीर्वाद समझें,’’ विहान की आंखों में भविष्य को ले कर एक अलग ही चमक उभरी थी.

लता की रुलाई फूट पड़ी.

‘‘अरे, इस में रोने की क्या बात है, हमेशा के लिए जा रहा हूं क्या?’’ विहान प्यार भरे स्वर में उस से बोला.

‘‘यह मोबाइल भी बहुत बढि़या चीज है लता, मुट्ठी में समाने वाले इस उपकरण ने पूरी दुनिया को मुट्ठी में कर रखा है, जाहिर है जब चाहें बात कर सकते हैं, एकदूसरे को देख सकते हैं, तो रोना बंद और मेरी पैकिंग शुरू कर देना मैडम वरना अगर अपनी पैकिंग मैं ने खुद की तो सूटकेस में सब्जीतरकारी ही जाएंगी,’’ विहान हंसता हुआ बोला.

उस की बात सुन कर लता भी रोते से हंस दी. जानती थी कि विहान कभीकभी किचन में अपने हाथ का जादू दिखाता था जिस के लिए लता और वर्षा न जाने उस की कितनी ही मिन्नतें करते थे और फिर विहान की बनाई डिशेज की दोनों जीभर कर तारीफ करती थीं. उन पलों को याद करते ही लता की आंखें एक बार फिर भर आईं.

‘‘लता, जानता हूं कि मांजी बेहद मजबूत हैं पर फिर भी सब से पहले एक मां हैं, मुझे जाता देख भीतर से जरूर कमजोर पड़ेंगी पर दर्शाएंगी नहीं, वादा करो कि उन का पूरा ध्यान रखोगी,’’ विहान ने गंभीर होते हुए लता से कहा.

‘‘बेफिक्र हो कर जाओ विहान, विश्वास रखो, मांजी का पूरा ध्यान रखूंगी,’’ लता ने अपने आंसू पोंछ लिए.

विहान ने मुसकराते हुए उस के सिर पर धीरे से हाथ फेर दिया.

वैदेहीजी और वर्षा के साथ लता भी एअरपोर्ट गई थी विहान को रवाना करने. विहान और लता की तब ज्यादा बातें तो न हो सकी थीं पर जिस क्षण भी दोनों की नजरें मिलतीं लता की आंखें भर जाती थीं.

वर्षा लता की हालत अच्छी तरह समझ रही थी. उस की सब से प्यारी सहेली ही उस की भाभी बने इस बात की उसे काफी खुशी हो रही थी. वह चाहती थी कि विहान और लता कुछ मिनटों के लिए ही सही पर अकेले में कुछ बातें कर सकें पर न जाते वक्त कार में और न ही एअरपोर्ट पर ऐसा कोई मौका मिल पाया.

एक दिन वर्षा ने लता से पूछा कि क्या वह अगले दिन फ्री है उस के साथ शौपिंग जाने के लिए?

‘‘शौपिंग किसलिए, अभी कौन सा फंक्शन आ रहा है?’’

‘‘औरों के लिए न सही तेरे लिए तो बहुत बड़ा मौका है सजने का, तैयार होने का, खुबसूरत लगने का,’’ वर्षा चंचल हो उठी थी.

‘‘क्या पहेलियां बुझाए जा रही है?’’ लता खिड़की से बाहर देखते हुए बोली.

‘‘कल विहान भैया आ रहे हैं, पूरे 2 हफ्तों के लिए.’’

‘‘क्या, विहान कल आ रहे हैं, मुझे क्यों नहीं बताया उन्होंने? अभी कल रात ही हमारी बात…’’ कहते हुए लता अचानक चुप हो गई.

‘‘चल  हट, जा रही हूं मैं अब,’’ लता का चेहरा गुलाबी हो उठा था.

‘‘हां भई, अब मेरे साथ क्यों दिल लगेगा, वह तो बल्लियों उछल कर लंदन जा पहुंचा था, अब कल वापस आ जाएगा कुछ दिनों के लिए, 4 दिन की चांदनी होने वाली है हमारी बन्नो की रातें.’’

लता उस की बात सुनते न सुनते अपनी रौ में भागती चली गई.

उसे ऐसे भागते देख वर्षा जोर से हंस पड़ी.

विहान सवेरे 5 बजे घर पहुंचा. वैदेहीजी और वर्षा को एअरपोर्ट आने के लिए पहले ही मना कर दिया था. घर पहुंचा तो दोनों ही खुशी से फूली नहीं समा रही थीं.

‘‘अरे, मांजी यह क्या हर दूसरे दिन तो वीडियो चैट करते हैं हम, फिर ये आंखें क्यों छलछला आईं हैं,’’ विहान ने वैदेहीजी के गले लगते हुए कहा.

‘‘क्या भैया, स्क्रीन पर क्या छू सकते हैं, मिल सकते हैं, ऐसे गले लग सकते हैं क्या?’’ वर्षा चहकती हुई बोली.

‘‘वे मांजी हैं और तू दादी मां है,’’ विहान ने उस के सिर पर हलकी सी चपत लगाते हुए कहा.

फिर तीनों ही एकसाथ अंदर चले आए.

लंच टाइम हो चला था जब वैदेहीजी ने विहान को उठाया.

कुनमुनाता सा उठा वह तो सामने वैदेहीजी को देख कर हैरान हो उठा, ‘‘मांजी, आप फैक्टरी नहीं गईं?’’

‘‘फैक्टरी कहां भागी जा रही है, सालभर बाद तुझे देख रही हूं, चाहती तो उड़ कर तेरे पास आ जाती पर बस तुझे देख कर न तुझे कमजोर चाहती थी और न खुद कमजोर पड़ना चाहती थी. अब कुछ वक्त तो बिताऊं तेरे साथ,’’ वैदेहीजी ने उस के बालों में हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘सच मांजी,  मां का प्यार ही सब से

बड़ा स्वर्ग है,’’ विहान उन की गोद में सिर रखते हुए बोला.

लंच टाइम भी बीत गया और शाम की चाय भी समाप्त हो गई.

वैदेहीजी कोई फाइल देखने के लिए अपने कमरे में पहुंचीं तो विहान ने वर्षा से पूछा, ‘‘अभी तक लता नहीं आई, शहर में नहीं है क्या?’’

‘‘हां भैया, वे सब लोग यह शहर छोड़ कर जा चुके हैं.’’

‘‘क्या बकबक कर रही है, अभी 2 दिन तक ऐसी कोई बात नहीं थी, रातोंरात शहर छोड़ दिया?’’ विहान उसे अजीब सी नजरों से घूरता हुआ बोला.

‘‘अरे तो जब पूरी खबर है उस के बारे में तो क्यों पूछ रहे हैं आप फिर, आप को क्या मतलब अब लता से, उसे बताया तक तो नहीं आप ने कि आप आने वाले हैं,’’ वर्षा बनावटी गुस्से से बोली.

‘‘अरे, सरप्राइज शब्द सुना है, है तेरी डिक्शनरी में?’’

‘‘हां है, और शौक शब्द भी है, सरप्राइज की जगह शौक दे देंगे आप तो उसे.’’

‘‘पहले तो तेरी खबर लेता हूं,’’ कह कर विहान ने पास पड़ा कुशन उठा कर वर्षा की ओर फेंका तो उसी पल वह कुशन लता के चेहरे से जा टकराया.

‘‘लो भैया, सच में शौक ही लग गया लता को तो,’’ वर्षा जोर से हंसती हुई वहां से चली गई.

‘‘सौरी लता, लगी तो नहीं?’’ विहान ने उस के नजदीक आते हुए पूछा.

कुशन हटा कर लता ने जब विहान को देखा तो कुछ पल को पलकें ?ापकाना भूल गई.

साक्षात अपने सामने उसे देख कर जैसे उस की जबान तालू से चिपक गई हो.

विहान ने उस की आंखों के आगे चुटकी बजाई तो जैसे लता होश में आई. पूछा, ‘‘कैसे हो विहान?’’

‘‘देख लो खुद ही, जैसा गया था बिलकल वैसा ही हूं. अच्छा लता, 2 हफ्तों के लिए आया हूं, कभी अपनों से दूर रहा नहीं तो रुका न गया पर अब शायद एक बार कोर्स पूरा कर के ही वापस आऊंगा, तो इन 2 हफ्तों को यादगार बना देना चाहता हूं ताकि ढेर सारी यादों के साथ वहां अपना वक्त गुजार सकूं. कल अब हम तीनों मौल चल रहे हैं और तुम बिना ननुकुर के आ रही हो, समझ, फिर एक दिन पिकनिक भी प्लान करते हैं, ठीक है?’’

‘‘जैसा तुम कहो,’’ लता तो उस की हर खुशी में खुश हो जाती थी.

‘‘मौल, अरे लंदन में पढ़ने वाला अब यहां क्या घूमेगा?’’ डिनर टाइम पर विवेक बोले.

‘‘अपना देश अपना ही होता है, मौल घूमने का तो सिर्फ बहाना है, असली बात तो साथ वक्त गुजारने की है,’’ अरुणा विवेक को सही बात सम?ाते हुए बोली और आंखों ही आंखों में उन्होंने विवेक को लता की ओर देखने को कहा जिस का खाने की ओर बिलकुल ध्यान नहीं था.

‘‘लता, खाना खाओ बेटे, कहां खोई हुई हो?’’

‘‘कहीं भी तो नहीं पापा,’’ कह कर लता रोटी का कौर तोड़ने लगी.

विवेक और अरुणा भी आपस में एकदूजे को देख कर मुसकरा दिए.

2 हफ्ते जैसे पलक झपकते गुजर गए. लता एक बार फिर विहान का बैग पैक करने में लगी हुई थी. यह सोच सोच कर कि अब की बार विहान जल्दी नहीं आएगा उस की आंखें बारबार छलक रही थीं.

परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि वैदेहीजी को एक महत्त्वपूर्ण मीटिंग के लिए जाना पड़ गया तो उन्होंने वर्षा और लता को कहा कि विहान को वे दोनों ही एअरपोर्ट सी औफ कर आएं.

‘‘मम्मी, मेरा तो आज प्रैक्टिकल है, मैं तो आज चाह कर भी छुट्टी नहीं कर सकती.’’

‘‘तो क्या सिर्फ लता जाएगी?’’

‘‘मांजी, आप क्यों चिंता कर रही हैं, ऐसा क्या हो गया कि मैं अकेला नहीं जा सकता.’’

‘‘घर का कोई साथ जाए तो कुछ प्रौब्लम है तुम्हें, लता तुम ही चली जाना.’’

वैदेहीजी का विहान के प्रति ऐसा क्रोध मिश्रित प्रेम देखसुन कर वर्षा की हंसी छूट गई और उस ने लता की ओर देखते हुए चुपके से एक आंख दबा दी.

एअरपोर्ट पर जब विहान और लता कार से उतरे तो विहान ने लता की ओर देख कर गुनगुनाते हुए कहा, ‘‘तो चलूं, तो चलूं, तो चलूं,’’ और फिर खुद ही हंस पड़ा.

‘‘विहान,’’ लता ने उसे एकटक देखते हुए उस का नाम लिया.

‘‘जल्दी बोलो मैडम, फ्लाइट न छूट जाए कहीं.’’

‘‘ विहान, मैं तुम्हें, मैं तुम से…’’ लता खुल कर कुछ नहीं कह पा रही थी.

‘‘क्या कहना चाह रही हो लता, क्या बात है?’’ विहान कुछ भी सम?ा नहीं पा रहा था.

कुछ पलों की खामोशी के बाद आखिरकार लता के होंठों से 3 शब्द निकले, ‘‘आई लव यू विहान.’’

विहान हैरानी से उसे देखता रह गया.

‘‘लता,’’ विहान के मुख से निकला.

‘‘विहान, मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं, तुम्हारे बिना नहीं रह सकती,’’ लता ने अपने दिल की बात विहान के सामने खुल कर कह दी.

पहले तो विहान हैरान हुआ और अब उस ने एक नजर भर लता को देखा फिर बिना कुछ कहे ऐंट्री गेट की ओर बढ़ गया.

लता की आंखों से आंसू बहते रहे और कुछ पलों बाद वह भी लौट चली.

अब लता और विहान की बातें न के बराबर हो गईं थीं. लता लाख चाह कर भी विहान से दोबारा उस बारे में बात न कर सकी. वर्षा भी कुछ पूछती तो मुसकरा कर टाल जाती.

वक्त गुजरता गया और विहान भी लौट आया.

वैदेहीजी अब जीवन के इस मोड़ पर आराम चाहती थीं और विहान ने भी अब उन्हें फैक्टरी की हर जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया था. सारा कारोबार अब वही संभालता था.

लता से औपचारिक बातें होती थीं पर विहान और लता ने किसी के भी समक्ष कुछ भी जाहिर नहीं होने दिया.

इसी बीच वर्षा का भी विवाह हो गया.

‘‘अब तो वर्षा भी अपने घर की हो गई, अब वैदेहीजी से लता और विहान की बात करें क्या?’’ विवेक अरुणा से बोले.

‘‘ठीक है, मैं कल ही उन से बात छेड़ती हूं.’’

लता ने उन की बातें सुन ली थीं. वह कुछ कहना चाहती थी पर उस का दिलोदिमाग उस का साथ नहीं दे रहा था पर अगले दिन उस के लिए जैसे कुछ चमत्कार हुआ.

अरुणा ने उसे बताया कि वैदेहीजी तो शुरू से ही उसे विहान के लिए पसंद करती थीं और कुछ दिन पहले उन्होंने विहान ने उस की शादी की बात भी की और लता का जिक्र भी किया.

विहान ने खुशी से उन का मान रखा और इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया.

लता को तो अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. उस का दिल चाह रहा था कि अभी उड़ कर विहान के पास पहुंच जाए और पूछे कि अगर वह भी उसे चाहता था तो उसे इतना क्यों सताया उसने पर अगले ही पल उस ने यह खयाल हवा में उड़ा दिया और आने वाले वक्त का बेसब्री से इंतजार करने लगी.

और आखिरकार लता की जिंदगी में वह खास दिन आ ही पहुंचा जिस का उसे हर पल से इंतजार था.

तभी सुबह की पहली किरण उस के कमरे में आई तो लता भी जैसे अपनी यादों के सफर से वापस वर्तमान की मंजिल पर लौट आई.

शादी की तैयारियां जोरोंशोरों से होने लगीं. वर्षा लगभग 10 दिन पहले आ गई थी. दोनों सहेलियां ऐसे मिलीं तो लगा जैसे पुराना वक्त जी रही हों. वर्षा लता के साथ शौपिंग करती तो विहान उसे छेड़ते हुए कहता कि ओ दल बदलू, भूल गई, तू लड़के वालों की तरफ से है.’’

‘‘मैं तो दोनों तरफ से हूं, आप भूलिए मत

कि आप की बीवी बनने से पहले लता भाभी

मेरी सहेली है और भाभी बनने के बाद भी वह पहले मेरी सहेली ही रहेगी,’’ वर्षा प्यार भरे स्वर

में बोला.

‘‘समझ गया वकील साहब.’’

‘‘अब हमारे पति वकील हैं तो कुछ असर तो हम पर भी पड़ेगा न,’’ वर्षा इतराते हुए बोली.

विवाह का दिन भी आ पहुंचा. यों तो लता बेहद खूबसूरत थी पर दुलहन के लिबास में जितनी सुंदर वह उस दिन लग रही थी उतनी उस से पहले कभी नहीं लगी. जो उसे देखता, देखता ही रह जाता.

वैदेहीजी भी उस दिन बहुत खुश थीं. वर्षा तो जीभर नाची भाई की शादी में.

जयमाला पूरी हुई तो विहान और लता के जोड़े पर से नजरें नहीं हटती थीं.

फेरे हो रहे थे तो ऐसा लगा जैसे आज आसमां भी उन पर अपना प्यार निछावर करने को पुष्पवर्षा कर रहा हो. मंत्रो की ध्वनि पूरे वातावरण को अपने मोहपाश में बांध लेने को आतुर थी.

लता का गृहप्रवेश हो गया था. विहान के घर में भी और उस की जिंदगी में भी.

सुहागरात का कमरा गुलाब के फूलों की खुशबू से सराबोर हो रहा था. बैड पर बैठी लता गठरी सी बनी खुद में ही सिमटी जा रही थी.

मौडर्न युग में भी नववधू होने का एहसास कितना प्यारा और शारमोहया से भरपूर होता है इस का अंदाजा लता को देख कर सहज ही लगाया जा सकता था.

विहान अंदर आया तो एकबारगी फिर से लता की खूबसूरती में खो सा गया. गुलाब की फूलों की लडि़यों के बीच बैठी लता खुद एक गुलाब प्रतीत हो रही थी.

लगभग 1 दशक साथ बिताने के बाद भी आज वे दोनों एकदूजे के साथ ऐसे पेश आ रहे थे जैसे 2 अजनबी एक कमरे में बंद हो गए हों.

विहान ने ही लता के पास बैठ कर कमरे की चुप्पी को तोड़ा, ‘‘लता, कभी सोचा न था तुम्हें अपने सामने इस रूप में भी देखूंगा, कब मेरी सब से प्यारी फ्रैंड मेरी लाइफ पार्टनर बन गई, पता ही नहीं चला,’’

लता धीमे से मुसकरा दी.

तभी विहान ने एक गिफ्ट बौक्स में से खूबसूरत कंगन निकाल कर लता की कलाई अपने हाथ में थाम कर कहा, ‘‘सोचा, तुम्हें अपनी पसंद का कुछ तो दूं,’’ पर जैसे ही उस ने कलाई देखी तो आश्चर्य से भर उठा.

लता ने कलाई पर उस के नाम का खूबसूरत टैटू बनवा रखा था.

‘‘यह कब करवाया तुम ने?’’ विहान ने हैरानी से पूछा.

‘‘उसी दिन जिस दिन तुम्हें अकेली एअरपोर्ट छोड़ने गई थी. तुम तो प्यार के इजहार में खामोश हो कर चले गए थे, सोचा अगर तुम मना भी करोगे तो तुम्हारे नाम की निशानी तो हमेशा मेरे साथ रहेगी,’’ लता का स्वर भीग रहा था.

अपने प्रति लता का इतना प्रेम देख कर विहान का दिल भर आया था पर तभी उस ने

लता को छेड़ने वाले अंदाज में कहा कि अच्छा तो कोई और तुम्हें ले जाता तब क्या करतीं तुम इस टैटू का, क्या बताती उसे कि कौन है ये?’’

‘‘ऐसा कभी नहीं होता, तुम्हारे अलावा तो मैं किसी और की होने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी, मर जाती पर…’’

तभी विहान ने उस के होंठों पर उंगली रख कर उसे शांत करा दिया.

‘‘आज नई जिंदगी की शुरुआत है, आज ऐसी कोई बुरी बात नहीं, न आज न कल और न ही कभी भी,’’ कह कर विहान ने उसे अपने सीने से लगा लिया.

तब खिड़की से दिखता चांद भी बादलों की ओट में छिप गया.

देखते ही देखते 4 साल बीत गए. वर्षा भी मां बन चुकी थी. प्यारा सा बेटा हुआ था उसे.

जब भी मायके आती थी तो लता तो कबीर को छोड़ती ही नहीं थी. इतना मन लगता था उस का कबीर के साथ.

‘‘भाभी, यहां आती हूं न तो तुम से यह इतना घुल मिल जाता है कि वापस जाने पर मु?ो मम्मी नहीं मामी कहना शुरू कर देता है.’’

उस की बात सुन कर हौल में बैठी वैदेहीजी, विहान और लता सभी जोर से हंस पड़े.

‘‘तू बूआ बन जा बस फिर मम्मी मामी को भूल कर अपने भाईबहन में रम जाएगा,’’ वैदेहीजी लाड जताते हुए बोलीं.

यह सुन कर लता हंसतेहंसते चुप सी हो गई. 4 साल बाद भी मां न बन पाने का गम उसे घुन की तरह भीतर से खोखला कर रहा था.

औलाद न होने के अवसाद की छाया लता के चेहरे पर पड़ी तो विहान ने बातों का रुख मोड़ दिया.

बहुत इलाज करवाया. एक बच्चे की खातिर. विहान ने अपनी और लता की हर किस्म की जांच करवाई. आईवीएफ प्रोसीजर से भी लता गुजर चुकी थी पर अभी तक उसे असफलता ही हाथ लगी थी.

दवा फिलहाल नाकामयाब साबित हो रही थी पर कभी भी वैदेहीजी या विहान ने लता को भूले से भी कुछ इस विषय में कड़वा नहीं सुनाया.

वे इस संवेदनशील मुद्दे को समझते थे और सब से बड़ी बात ये थी कि वे जानते थे कि इस में लता का कोई दोष नहीं. कोई नारी मन ऐसा नहीं होता जो मातृत्व का सुख न भोगना चाहे. उन लोगों को तो अपनेआप से ज्यादा लता के लिए मलाल होता था.

लता मन ही मन सब समझती थी. विहान का बच्चों के प्रति प्रेम उस से छिपा हुआ नहीं था पर वक्त के आगे वह बेबस पड़ चुकी थी और विहान ने उस से बच्चा गोद लेने की भी बात की थी लेकिन लता दिल से उस का यह आग्रह स्वीकर न कर सकी.

विहान ने कारोबार को नई ऊंचाइयां दी थीं. उस ने एक और फैक्टरी खोल ली थी.

नई फैक्टरी के मुहूर्त के बाद वैदेहीजी विवेकजी और अरुणा जी के साथ चार धाम की यात्रा पर चली गईं.

लता को मांजी के बिना कोठी बहुत खाली लग रही थी. उस ने सोचा कल अचानक फैक्टरी पहुंच कर विहान को चौंका देगी और लंच उसके साथ कहीं बाहर जा कर करेगी.

अगले दिन लता फैक्टरी पहुंची तो उसे पता लगा कि विहान दूसरी फैक्टरी का दौरा करने करने गया है.

‘‘अच्छा, सुबह तो उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं की थी.’’

‘‘सर तो अकसर ऐसे दूसरी फैक्टरी जाते ही रहते हैं,’’ मैनेजर कमल ने लता को बताया.

‘‘इट्स ओके, उन का मोबाइल भी नहीं मिल रहा है इसलिए जैसे ही यहां लौटे मु?ा से बात करने को कहिएगा,’’ कह कर लता बाहर आई तो देखा कि ड्राइवर कार का बोनट खोल कर कुछ ठीक करने की कोशिश कर रहा है.

कार ठीक नहीं हुई तो लता ने पास के टैक्सी स्टैंड से टैक्सी कर ली. कुछ आगे चलने पर दिखाई दिया कि किसी जुलूस की वजह से ट्रैफिक बुरी तरह जाम है. टैक्सी ड्राइवर ने टैक्सी दूसरे रास्ते पर घुमा ली.

टैक्सी अपने गंतव्य पर जा ही रही थी कि लता को ऐसा लगा कि उस के साथ वाली कार में विहान है और वह अकेला नहीं. उस ने मुड़ कर देखा, कार आगे जा चुकी थी.

नहीं यह नजरों का धोखा नहीं है. वह विहान ही था.

‘‘ड्राइवर, टैक्सी मोड़ो जल्दी,उस सफेद कार के पीछे चलो,’’ लता कुछ बेचैन सी हो उठी.

‘‘अरे, पीछा क्यों करना है, कुछ गड़बड़ वाला काम है क्या?’’ ड्राइवर शंकित सा हो

कर बोला.

‘‘अरे, नहीं भैया, बस मेरी सहेली है उस कार में, उस से ही मिलना है.’’

टैक्सी ड्राइवर सावधानी से कार के पीछे जाने लगा. सफेद कार एक साधारण से घर के आगे रुक गई.

लता ने टैक्सी पेड़ों की ओट में रुकवा ली, ‘‘बस भैया, कुछ मिनट, उस से अचानक मिलूंगी,’’ लता ने ड्राइवर को अपनी ओर देखते हुए सफाई दी.

कार में से जो उतरा वह विहान ही था और यह उस के साथ कौन है.

विहान के साथ एक लड़की थी. गोरा रंग, सुनहरे घुंघराले बाल, मध्यम कद, जितना बालों में छिपा चेहरा लता देख सकी उस से यही दिखाई दिया कि लड़की अच्छी शक्लसूरत की है पर उदासी और कमजोरी उस के चेहरे से झलक रही थी.

विहान ने उसे उस के कंधे पर हाथ लगा कर कार से उतारा और घर की डोरबैल बजाई.

दरवाजा एक बुजुर्ग महिला ने खोला, दिखने में वे काफी कमजोर थीं

और शायद उन की एक टांग भी समस्याग्रस्त थी. वे छड़ी के सहारे थीं और तभी जो हुआ उस पर विश्वास करना लता के लिए नामुमकिन था.

बुजुर्ग महिला के पीछे से एक लगभग 4 वर्ष का गोराचिट्टा सा बच्चा भागता हुआ आया और उस ने विहान को डैड कह कर पुकारा और उस लड़की को देख कर मौम कहा.

विहान ने भी उसे गोदी में उठा लिया और उस पर चुंबनों की बारिश कर दी. फिर सभी अंदर चले गए.

लता जैसे किसी गहरी खाई में गिरी हो.

चह तो काटो तो खून नहीं वाली स्थिति में पहुंच गई थी.

‘‘मेमसाहब, अभी और कितनी देर

यहां खड़ा रहना होगा… उस का ऐक्स्ट्रा पैसा लगेगा.’’

ड्राइवर की बात से उसे होश आया, ‘‘ह… क्या… हां वापस चलो,’’ लता जैसे खुद से ही कह रही हो.

घर पहुंचते ही वो आदमकद आइने के सामने जा खड़ी हुई और खुद को देखने लगी. आंखों के सामने एक ही दृश्य बारबार घूमने लगा, ‘‘डैड… डैड… डैड…’’ बच्चे का भागता हुआ आना और विहान का उसे अपनी बांहों में भर लेना.

जब लता की बरदाश्त से बाहर हो गया तो उस ने सामने रखी परफ्यूम की बौतल से आईना चकनाचूर कर दिया.

Valentine’s Special : बशर्ते तुम से इश्क हो

Valentine’s Special : गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर सिर टिकाए और होंठों पर मधुर मुसकान लिए अक्षत अपनी प्रेमिका के साथ बात करने में इस कदर मशरूफ था कि उसे बाहरी दुनिया की किसी भी खबर की भनक तक नहीं थी.

एक कौल जो बारबार उस के प्रेमालाप में बाधा उत्पन्न कर रही थी जिसे वह हर बार अनदेखा कर रहा था फिर भी वह कौल हर बार उसे बाधित करने के लिए दस्तक दे ही डालती.

अक्षत ने परेशान हो कर एक भद्दी सी गाली देते हुए, ‘‘एक बार होल्ड करना स्वीटहार्ट. कोई बेवकूफ मुझे बारबार फोन कर के डिस्टर्ब कर रहा है. पहले उस की कौल ले लूं, फिर आराम से बात करता हूं.’’

‘‘हैलो, कौन बात कर रहा है?’’ उस ने कड़क कर पूछा.

‘‘हैलो मैं पुलिस इंस्पैक्टर बोल रहा हूं.’’

‘‘जी, कहिए,’’ उस ने नर्म पड़ते हुए कहा.

‘‘मैं आप के फ्लैट से बोल रहा हूं, आप तुरंत यहां आइए.’’

‘‘जी, लेकिन बात क्या है सर?’’ उस की जबान लड़खड़ाने लगी.

‘‘आप आ जाइए. आप की पत्नी ने आत्महत्या कर ली है.’’

‘‘क्या? कब?’’ अक्षत के माथे पर पसीने की बूंदें उभरने लगीं और दिल की धड़कनें छाती फाड़ने के लिए प्रहार करती प्रतीत होने लगीं. भय से उस का गला सूखने लगा और मारे घबराहट के पूरे शरीर में कंपकंपी छूटने लगी. उस ने तुरंत गाड़ी स्टार्ट की और वहां से निकल लिया.

दनदनाती हुई कार फ्लैट के सामने आ कर रुकी तो अपनी आंखों के सामने ऐसा माहौल देख कर वह घबरा गया. पुलिस की गाड़ी और ऐंबुलैंस पर लगे सायरन ने चीखचीख कर सब को इकट्ठा कर लिया था. अक्षत गाड़ी से उतरा और फ्लैट की तरफ लपक पड़ा. बैडरूम के फर्श पर सफेद चादर में लिपटी लाश को देख कर वह दहाड़े मार कर उस से लिपट गया, ‘‘यह तुम ने क्या किया अलका, मु?ो छोड़ कर क्यों चली गई?’’ और उस की आंखों से अनवरत आंसू बहने लगे.

‘‘अब इस नाटक का कोई फायदा नहीं,’’ एक कर्कश आवाज ने उस का ध्यान भंग कर दिया, उस ने सिर उठा कर ऊपर देखा. तनी हुई भृकुटि से इंस्पैक्टर अक्षत को आपराधिक दृष्टि से घूर रहा था.

‘‘आप की पत्नी ने सुसाइड नोट छोड़ा है जिस में आप को इस आत्महत्या का जिम्मेदार ठहराया है. आप को अपनी पत्नी को आत्महत्या के लिए उकसाने के जुर्म में हिरासत में लिया जाता है.’’

अक्षत टकटकी लगा कर अलका के चेहरे को देख रहा था उसे ऐसा लग रहा था कि वह उस से कुछ कहने का प्रयास कर रही हो.

सायरन की तेज आवाज में दौड़ती हुई पुलिस की गाड़ी अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी और अक्षत अब भी सिर ?ाकाए सुबक रहा था. उस के सामने बैठे पुलिसकर्मी ने अलका का लिखा सुसाइड नोट खोला और उसे ऊंची आवाज में पढ़ना शुरू कर दिया. उस की आवाज सुन कर अक्षत ने अपना सिर ऊपर उठाया और खिड़की के बाहर झांकने लगा. ज्योंज्यों गाड़ी तीव्र गति से आगे बढ़ रही थी त्योंत्यों हर चीज पीछे छूटती जा रही थी और वह आगे बढ़ता ही जा रहा था लेकिन, केवल अतीत के पन्नों में…

ऐसा लग रहा था जैसे उस के अतीत के चलचित्र उस की आंखों के सामने चल रहे हैं और वह समय के बीते हुए लमहों में गोते खाता चला जा रहा है. वह जा रहा था वहां जहां से किया था शुरू उस ने सफर अपनी जिंदगी का.

स्नातकोत्तर की पढ़ाई के दौरान अलका की मुलाकात अक्षत से हुई और जल्द ही दोनों की दोस्ती ने प्रेम का रूप ले लिया. अंतर्जातीय विवाह  होने के कारण अलका और अक्षत को घर छोड़ना पड़ा और दूर शहर में अपना आशियाना बना लिया.

कुछ ही समय के संघर्ष के बाद कालेज में अक्षत की सहायक प्रोफैसर के रूप में नौकरी लग गई.

अलका ने घरगृहस्थी संभालने का फ़ैसला किया और दोनों खुशहाल जीवन बिताने लगे.

कालेज के दिनों में जब अलका को पहुंचने में देर हो जाती थी तो वह पलपल फोन कर के पूछता और उस की छोटीछोटी बातों को ले कर विचलित हो जाता था.

उस की चंचल आंखें कालेज गेट पर आने वाली हर बस पर टिकी होती थीं. वह हर क्षण अलका का बेसब्री से इंतजार करता था. वह जैसे ही उस के सामने आती वह लपक कर उस का हाथ थाम लेता और क्लास तक का सफर तय करता.

दोनों अकसर घंटों पेड़ के नीचे बैठते और अपनी आने वाली जिंदगी की ढेर सारी प्लानिंग करते रहते. अक्षत अलका की गोद में सिर रख लेता. वह भी उस के घुंघराले बालों में गोरी पतली नेलपैंट वाली उंगलियां घूमाती हुई कहा करती, ‘‘अगर हम एक नहीं हो पाए तो? तुम मुझे छोड़ कर जाओगे तो नही न?’’ वह ऐसे सैकड़ों सवाल एक पल में कर दिया करती.

अक्षत उसे अपनी बांहों में भरते हुए हर बार बस यही कहता, ‘‘पागल, मैं ने तुम्हें मन से अपना मान लिया है फिर जातिपाती की बात ही कहां रहती है? हमारी संस्कृति रही है कि प्राण जाए पर वचन न जाई.’’

एम. फिल के बाद घर वालों की नाराजगी के चलते दोनों ने कोर्ट मैरिज कर अपनी दुनिया बसा ली. प्रेमसिक्त पलों में 3 साल कब गुजरे पता ही नहीं चला.

मगर पिछले 1-2 सालों में अक्षत के स्वभाव में अचानक परिवर्तन होने लगा जिसे अलका सम?ा नहीं पाई वह तो समझती थी कि शायद यह बदलाव काम की व्यस्तता को ले कर है लेकिन माजरा तो कुछ और ही था.

उस रात तूफान ने प्रचंड रूप दिखाना शुरू कर दिया था. हवा के तेज झांके दरवाजे, खिड़कियों पर दस्तक दे रहे थे और गरजते बादल किसी अमंगल घटना के लिए ललकार रहे थे. कौंधती हुई बिजली बारबार आंखें दिखा कर यों गायब हो रही थी जैसे फुंफकारती नागिन के मुंह में जीभ.

बिजली गुल हो चुकी थी लेकिन खिड़की से आ रही मद्धम रोशनी से घर में अब भी थोड़ा उजाला शेष था.

अलका खिड़की के पास काले डरावने साए की तरह शांत खड़ी थी और अक्षत उस के सामने पीठ किए चुपचाप खड़ा था. घर में गहन सन्नाटा पसरा था जिस से तूफान और भी भयानक लगने लगा था. कौन जानता था कि तूफान जिंदगी में आने वाला है और बिजली रिश्तों पर गिरने वाली है.

‘‘क्यों. क्यों किया तुम ने ऐसा और कब से चल रहा है ये सब?’’ उस के शांत स्वर ने सन्नाटे को चीर कर रख दिया.

‘‘पिछले 1 साल से,’’ उस ने धीमें से

जवाब दिया.

‘‘एक बार भी खयाल नहीं आया मेरा?

क्या कमी रह गई थी मुझ में अक्षत जो बाहर मुंह मारने की नौबत आ गई?’’ अलका का लहजा कठोर और स्वर तेज होता गया, ‘‘मैं ने तुम्हारे लिए अपना सबकुछ छोड़ दिया, अपना घर, परिवार और अपने सपने भी. क्या इसलिए कि तुम मुझे छोड़ कर किसी और के साथ रंगरलियां मनाते फिरो?’’ वह चीखती हुई आगे बढ़ी और अक्षत को कंधे से पकड़ कर अपनी ओर पलट लिया. वह उस से नजरें नहीं मिला पा रहा था पर उस के चेहरे पर पश्चात्ताप का नहीं बल्कि गुस्से का भाव था.

अक्षत ने अलका के सामने यह साबित कर दिया था कि उस की जिंदगी में कोईऔर है जिस के बिना वह नहीं रह सकता. उस रात दोनों के बीच झगड़ा बढ़ता गया और इतना कि अक्षत ने अलका पर हाथ तक छोड़ दिया. उसी दिन इस खुशहाल घर में एक दरार पनपती गई और दूरियों की खाई बढ़ती गई.

अलका की भले उस से से बोलचाल बंद थी परंतु उसे उस की फिक्र आज भी उतनी ही थी जितनी पहले वह था कि उसे इग्नोर ही करता रहा.

एक घर, एक कमरे में, एक बिस्तर, एक कंबल में होने के बावजूद उन में दूरियों की खाई बढ़ती गई जिसे पाटना शायद अब मुमकिन न था.

आज की सुबह अलका के लिए निहायत बो?िल और उदासी भरी थी. वह जब बिस्तर से उठी तो देखा कि अक्षत अपने बिस्तर पर नहीं है. उस ने खिड़की के परदा हटाया तो हलकी धूप ने भीतर प्रवेश किया और पूरे कमरे में बिखर गई.

अक्षत बालकनी में खड़ा फोन पर बात कर रहा था. आज उस के होंठों पर मुसकान नहीं थी और वह बहुत गंभीर नजर आ रहा था.

अलका प्रतिदिन की भांति किचन में चली गई और कुछ देर बाद जब वह चाय ले कर लौटी तो अक्षत बिलकुल शांत भाव से बैडरूम में पलंग पर बैठा कुछ सोच रहा था.

‘‘क्या हुआ?  इतना परेशान क्यों हो? सब ठीक है न?’’ अलका ने चाय का कप अक्षत की तरफ बढ़ाते हुए एकसाथ कई सवाल कर डाले.

अक्षत कुछ नहीं बोला और उस ने कप को थाम लिया. अलका भी उस के सामने बैठ गई और उस की ओर देखने लगी. उसे फिक्र हो रही थी कि कुछ तो हुआ है जिस की वजह से वह इतना परेशान और गंभीर है.

अक्षत की चुप्पी अलका को परेशान कर रही थी. उस के मन को आज किसी अनहोनी होने की भनक लग गई थी शायद.

‘‘मैं तुम से अलग होना चाहता हूं अलका,’’ अचानक उस के मुंह से निकले इन शब्दों ने जैसे उसे हजारों टन मलबे के नीचे दबा दिया हो. उस की आंखें विस्मय से फट गईं और कलेजा छाती फाड़ कर बाहर निकलने को प्रहार करने लगा.

‘‘क्या…? तुम होश में तो हो अक्षत?’’

अक्षत कुछ नहीं बोला बस खिड़की से बाहर नजरें गढ़ाए सिर्फ शांत भाव से बैठा रहा.

‘‘मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकता अलका. अगर तुम मेरे साथ रहना चाहती हो तो तुम्हें दिव्यांशी के साथ रहना होगा इसी घर में,’’ उस ने अलका के सामने एक विकल्प पेश किया.

‘‘पागल हो गए हो तुम? मेरे ही घर में मेरे जीते जी किसी और औरत के साथ रहना होगा मु?ो? मैं पत्नी हूं तुम्हारी,’’ वह क्रोध से कांप रही थी.

‘‘जीते जी या मरने के बाद कैसे भी हो, दिव्यांशी इस घर में रहेगी मेरे साथ. यह मैं तुम्हें बता रहा हूं, तुम्हारी परमिशन नहीं ले रहा हूं. अगर तुम मेरे साथ रहना चाहती हो तो,’’ उस ने अपनी बात बहुत कठोरता से पूरी की.

अलका भी हार मानने वाली नहीं थी उस ने अपना विरोध जारी रखा. ‘‘मेरी मुहब्बत वैकलपिक नहीं है सम?ो तुम और न ही मैं ने तुम से प्यार करते समय कोई शर्त तय की थी. मैं तुम्हारी तरह स्वार्थी और बेशर्म नहीं जो मन भर जाने के बाद दूसरी जगह मुंह मारना शुरू कर दूं,’’ अलका ने अक्षत को गले से पकड़ते हुए क्रोधित स्वर में कहा.

अक्षत गुस्से से तमतमा उठा और फिर उसे पलंग पर धकेलते हुए बाहर निकल गया. वह निढाल सी बिस्तर पर औंधी पी सुबकती रही. अक्षत ने गाड़ी स्टार्ट की और घर से निकल गया.

अलका की सिसकारियां अब मंद पड़ चुकी थीं. घंटों तक आंसुओं की धारा बहती रही थी, उस की सुबकियां थमने का नाम नहीं ले रही थीं. आज उसे बीता हुआ हर वह पल याद आ रहा था जब उस ने निडर हो कर समाज और परिवार का सामना किया था, सिर्फ अक्षत को पाने के लिए और आज एक वक्त है कि वही अक्षत किसी और को पाना चाहता है. ज्योंज्यों एक के बाद एक दृश्य उस की आंखों के सामने आ रहे थे त्योंत्यों उस के चेहरे के भाव भी कठोर होते जा रहे थे.

उस ने अपने चेहरे पर बिखरे आंसुओं को अपनी उंगलियों से समेटा और चेहरे पर कठोर भाव लिए बिस्तर से उठी और डैस्क पर जा बैठी. उस ने कागजकलम उठाई और कुछ लिखने लगी. उस का चेहरा गुस्से से कठोर जरूर था पर उस की आंखों से अब भी अनवरत आंसुओं का बहना जारी था. उस ने कागज पर लिखे अपने अल्फाजों को मन ही मन पढ़ा और फिर उठ कर अलमारी की तरफ बढ़ गई.

उस ने अलमारी को खोला और उस में कुछ टटोलने लगी. ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी अतिमत्त्वपूर्ण चीज की तलाश में जुट गई हो.

अचानक उस की वह तलाश पूरी हो गई और वह जहर की एक छोटी सी शीशी को निहारती हुई मुसकराई.

अलका के होंठों पर एक हलकी सी मुसकान थी, ‘‘मैं ने तुम्हारे बिना एक पल भी रहने की कभी कल्पना तक नहीं की अक्षत. तुम मुझे छोड़ सकते हो पर मैं नहीं. मैं तुम्हें किसी और के साथ कभी नहीं देख सकती न जीते जी और न मरने के बाद. अलका अपना सबकुछ खो सकती है और उस ने खोया भी है केवल तुम्हारे लिए. तुम्हें पाने के लिए सबकुछ करेगी, सबकुछ बशर्ते कि मुहब्बत हो तुम से. अब तुम दिव्यांशी के साथ रहोगे तो जरूर लेकिन… जेल में. अपना खयाल रखना… अक्षत.’’

अलका की मुसकान और भी गहरी हो गई. वह मुसकान जो उस की जीत की थी. उस जीत की जो उस ने हासिल की थी, परिवार, समाज और रूढि़यों के विरुद्ध. उस जीत की जो उस ने हासिल की थी छद्म नारीवादी पुरुष के विरुद्ध. उस जीत की जो बीच थी धोखे और समर्पण के. उस ने अलमारी का जोर से बंद कर दिया.

पुलिसकर्मी ने सुसाइड नोट को पढ़ कर समेटना शुरू कर दिया. उस ने अक्षत की ओर गुस्से और नफरत भरी निगाहों से दृष्टिपात किया, पर वह अब भी शून्य में  झांक रहा था. वह अतीत के पन्नों से बाहर नहीं आना चाहता था, जहां सिर्फ प्यार ही प्यार था, अब तो सिर्फ और सिर्फ नफरत थी सब की नजरों में. उस के लिए.

शून्य में ठहरी उस की आंखें आंसू बहा रही थीं, दिल लानत बरसा रहा था और दुनिया जैसे नफरत से धिक्कार रही थी.

गाड़ी हौर्न बजाती हुई थाने में प्रवेश कर गई और अक्षत अपनी आखिरी मंजिल पर पहुंच गया.

डा. राजकुमारी

Valentine’s Special : एक थी इवा

Valentine’s Special :  फ्रांस का बीच टाउन नीस, फ्रैंच रिवेरिया की राजधानी है, जहां रोचक संग्रहालय हैं, खूबसूरत चर्च हैं, रशियन और्थोडौक्स कैथिड्रल है, वहीं पास स्थित होटल नीग्रेस्को के कैफेटेरिया में बैठे इवा और जावेद कौफी पी रहे थे. इवा ने चिंतित स्वर में कहा, ‘‘जावेद, तुम मुझ से प्रौमिस करो कि तुम कोई भी गलत कदम नहीं उठाओगे.’’

‘‘इवा, मैं बहुत परेशान हो गया हूं… मेरे अंदर एक आग सी लगी रहती है. मैं ने अपना बहुत अपमान सहा है. ये लोग मुझे ऐसी नजरों से देखते हैं जैसे मैं बहुत छोटी चीज हूं. मैं अब बहुत आगे बढ़ चुका हूं… मेरे कदम अब पीछे नहीं लौट सकते.’’

‘‘नहीं जावेद, तुम जानते हो न… मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती… तुम अगर कभी पकड़े गए तो पता है न क्या हश्र होगा तुम्हारा? तुम्हें उसी पल भून दिया जाएगा.’’

‘‘हां, ठीक है… मुझे मंजूर है. क्यों ये लोग मुझे मेरी शक्लसूरत के कारण नीचे नजरों से देखते हैं?’’

इवा ने जावेद को समझाने की बहुत कोशिश की, अपने प्यार का, अपने साथ भविष्य में देखे गए सुनहरे सपनों का वास्ता दिया पर जावेद आतंक की राह पर बहुत आगे निकल चुका था.

जावेद ने घड़ी देखते हुए कहा, ‘‘इवा, मुझे जाना है, एक जरूरी मीटिंग है, मुझे पहली बार कोई काम दिया गया है जिसे मुझे हर हाल में पूरा करना है… शाम को मौका मिला तो मिलूंगा,’’ औरवोर (बाय), कह कर जावेद उस के गाल पर किस कर के निकल गया.

इवा ने ठंडी सांस लेते हुए जाते हुए जावेद को भीगी आंखों से देखा. उस की सुंदर आंखें आंसुओं की नमी से धुंधली हो गई थीं.

इवा होटल नीग्रेस्को में ही हौस्पिटैलिटी इंचार्ज थी. जावेद की बातों से उदास हो कर उस का मन फिर अपनी ड्यूटी में नहीं लग रहा था. वह अपनी दोस्त केरा को बता कर थोड़ी देर के लिए बाहर आ गई. उसे घुटन सी हो रही थी. फार्मूला वन का एक बहुत अच्छा सर्र्किट नीस है, जो होटल के बिलकुल पीछे से जाता है. उस रास्ते से वह बीच पर पहुंच गई. क्वैदे एतादयूनिस बीच पर एक किनारे बैठ कर वह वहां खेलते बच्चों को देखने लगी. बच्चे अपनी दुनिया में मस्त थे. कभी गुब्बारों के पीछे दौड़ रहे थे, तो कभी रेत में लेट रहे थे.

इवा जावेद के बारे में सोच रही थी. उसे जावेद से अपनी पहली मुलाकात याद आई…

2 साल पहले वह एलियांज रिवेरिया स्टेडियम में फुटबौल का मैच देखते हुए जावेद से मिली थी. दोनों पासपास बैठे थे. दोनों ही लिवरपूल टीम के फैन थे. दोनों ही अपनी टीम को चीयर कर रहे थे. हर गोल पर दोनों जम कर खुश हो रहे थे. जब भी दोनों की आंखें मिलतीं, दोनों मुसकरा देते थे और जब उन की टीम जीत गई तो दोनों खुशी और उत्साह से एकदूसरे के गले लग गए. दोनों को अपनी इस हरकत पर हंसी आ गई. पल भर में ही दोस्ती हो गई. फिर प्यार हो गया. दोनों जैसे एकदूसरे के लिए बने थे.

जावेद बंगलादेश से एमबीए करने आया था. जावेद को फुटबौल मैच देखने का नशा था. वह कई बार हंस कर इवा से कहता था, ‘‘मैं यहां पढ़ने थोड़े ही आया हूं, मैं तो मैच देखने आया हूं.’’

अपने स्कूल और फिर कालेज की टीम का कैप्टन रहा था जावेद. पढ़ने में होशियार, सभ्य, आकर्षक व्यक्तित्व वाले जावेद को इवा दिलोजान से चाहने लगी थी. जावेद की पढ़ाई के बाद नौकरी मिलने पर वे दोनों विवाह का मन भी बना चुके थे.

जावेद ने बताया था, ‘‘मेरे परिवार वाले बहुत कट्टर हैं… एक फ्रैंच लड़की को कभी बहू नहीं बनाएंगे, पर मैं तुम्हारे प्यार के लिए उन की नाराजगी सहन कर लूंगा.’’

यह बात सुन कर इवा ने उसे चूम लिया था. दोनों शारीरिक रूप से भी एकदूसरे के बहुत करीब आ चुके थे. जावेद फ्रैंच क्लास में अच्छी तरह फ्रैंच सीख चुका था. इवा ने जावेद से हिंदी में कुछ बातें करना सीख लिया था. प्यार वैसे भी कोई देश, भाषा, जाति, रंग नहीं जानता. हो गया तो बस प्यार ही रहता है और कुछ नहीं. एकदूसरे की भाषा, सभ्यता अपना कर दोनों प्यार में आगे बढ़ते जा रहे थे पर अब जावेद के अंदर आया परिवर्तन इवा को चिंतित किए जा रहा था. वह बहुत परेशान थी. किसी को अपनी चिंता बता भी नहीं सकती थी. वह वैसे ही दुनिया में अकेली थी. जो उस की दोस्त थीं, यह परेशानी वह उन्हें भी नहीं बता सकती थी.

कालेज में कई बार रेसिज्म का शिकार होने पर जावेद के अंदर एक विद्रोह की भावना पनपने लगी थी, जो इवा के समझाने पर भी समय के साथ कम न हो कर बढ़ती ही जा रही थी. आज इवा को जावेद की 1-1 बात याद आ रही थी. जावेद सीधासादा, शांतिप्रिय, अपने काम से काम रखने वाला लड़का था. वह यहां कुछ बनने ही आया था. अच्छा भविष्य और फुटबौल, बस इन्हीं 2 चीजों में रुचि थी उस की, पर जातिवाद की 1-2 घटनाओं ने उस के अंदर दुख सा भर दिया था. कालेज में कोच मार्टिन ने हमेशा उस के खेलने की बहुत तारीफ की थी, पर जब कालेज टीम के चुनाव का समय आया तो जावेद का कहीं नाम ही नहीं था. उस ने कारण पूछा तो जवाब वहां उपस्थित लड़कों ने दिया, ‘‘तुम हमारी टीम में खेलने का सपना भी कैसे देख सकते हो?’’

इस बात पर सब की समवेत हंसी उस का दिल तोड़ती चली गई थी. उस के बाद कई बार कालेज में किसी भी गतिविधि में अपने विचार देने पर उस का मजाक उड़ाया जाने लगा था कि अब बंगलादेश से आए स्टूडैंट्स हमें अपने विचार बताएंगे.

वह धीरेधीरे रेसिज्म का शिकार होता जा रहा था. अब वह फेसबुक पर सीरियस स्टेटस डालने लगा था. जैसे लाइफ इज नौट ईजी या यहां आप की पहचान आप के गुणों से नहीं, आप की जाति से होती है या मैं थकने लगा हूं. इसी तरह के कई स्टेटस जिन्हें पढ़ कर साफसाफ समझ आ जाता था कि उस के अंदर दुख भरे विद्रोह की भावना पनपने लगी है.

ऐसे ही कभी इस तरह का स्टेटस पढ़ कर कुछ लोगों ने उस से संपर्क स्थापित कर लिया और वह धीरेधीरे आतंक की उस दुनिया में घुसता चला गया जहां से निकलना असंभव था.

इवा उस की हर बात जानती थी, उसे डर लगने लगा था. उस ने एक दिन जावेद से कहा था, ‘‘जावेद, मुझे बस तुम्हारे साथ रहना है. अगर तुम यहां कंफर्टेबल नहीं हो तो हम तुम्हारे गांव चलेंगे. मैं वहां तुम्हारे परिवार के साथ रहने के लिए तैयार हूं. मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती.’’

‘‘नहीं इवा, मेरा परिवार तुम्हें नहीं अपनाएगा. मैं तुम्हें दुखी नहीं देख पाऊंगा… मुझे अब यहीं अच्छा लगता है.’’

‘‘पर जावेद, तुम्हें गलत रास्ते पर जाते देख दुखी तो मैं यहां भी हूं?’’

‘‘यह गलत रास्ता नहीं है… ये लोग मेरी जाति के लिए मुझे नीचा नहीं दिखाते, इन के लिए कुछ करूंगा तो इज्जत मिलेगी.’’

‘‘इस रास्ते पर चल कर तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा जावेद. हम खत्म हो जाएंगे. अभी तो हमारा जीवन शुरू भी नहीं हुआ… अभी तो हमें बहुत प्यार करना है… घर बसाना है, कितने मैच एकसाथ देखने हैं, जीवन जीना है, अभी तो हम ने कुछ भी नहीं किया.’’

पर इवा की सारी बातों को नजरअंदाज कर पूरी तरह से जावेद का ब्रेनवाश हो चुका दिलोदिमाग अब एक ही बात समझता था- आतंक और बरबादी की बात. वह बात जिस से न कभी किसी का भला हुआ है, न होगा. वह अब ऐसी दुनिया का इनसान था जहां सिर्फ चीखें थीं, खून था, लाशें थीं.

जावेद जब शाम को इवा से मिलने आया तो इवा घबरा कर जावेद की बांहों में सिमट कर जोरजोर से रोने लगी. इवा का मन अनिष्ट की आशंका से कांप रहा था.

जावेद ने कहा, ‘‘इवा, मुझे गुडलक बोलो, आज पहले काम पर जा रहा हूं.’’

‘‘कौन सा काम? कहां?’’

‘‘आज बेस्टिल डे की परेड में एक ट्रक ले कर जाना है.’’

‘‘क्यों? क्या करना है?’’

‘‘कुछ नहीं, बस भीड़ में चलते चले जाना है.’’

रो पड़ी इवा, ‘‘जावेद, पागल हो गए हो क्या? किसी की जान चली गई तो? नहीं, तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे.’’

वैसे इवा को विश्वास नहीं था कि जावेद ऐसा कुछ करेगा. वह पहले भी कई बार मरने की धमकी दे चुका था. कभी कहता कि वह आत्मघाती बन जाएगा. कभी कि गोली से खुद को मार लेगा. पर अगले दिन सामान्य हो जाता.

‘‘सौरी इवा, जिंदा रहा तो जरूर मिलेंगे.’’

‘‘नहीं जावेद, मत जाओ. ज्यादा नाटक मत करो.’’

इवा के होंठों पर किस कर के जावेद ने उसे गले लगाया. साथ बिताए कितने ही पल

दोनों की आंखों के आगे घूम गए. फिर एक झटके में इवा को अलग कर जावेद तेज कदमों से चला गया.

इवा आवाज देती रह गई, ‘‘जावेद, रुक जाओ, जावेद, रात को कमरे में इंतजार करूंगी.’’

जावेद चला गया.

इवा का इस बार बुरा हाल था. वह रो रही थी. फिर अगले ही पल अपने को संभाल सोचने लगी कि जावेद को रोकना होगा. क्या वह मेरे प्यार के आगे किसी की जान ले सकता है? नहीं मैं ऐसे नहीं बैठ सकती. कुछ करना होगा. मेरा प्यार इतना कमजोर नहीं कि जावेद को बरबादी के रास्ते से वापस न ला सके… वह मुझे मार कर आगे नहीं बढ़ पाएगा… वह वहां से भागी. जावेद का कहना था कि वह एक ट्रक भीड़ में ले कर घुस जाएगा.

अगले दिन 14 जुलाई को बैस्टिल डे, फ्रैंच नैशनल डे मनाया जाता है. इस दिन यूरोप में सब से बड़ी मिलिटरी परेड होती है. सड़कें भीड़ से भरी थीं, जवान, बूढ़े, बच्चे सब आतिशबाजी देख रहे थे.

रात को जावेद इवा के पास नहीं आया था. इवा की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह

पुलिस को बताए. यह पक्का था कि बताने पर उसे खुद भी महीनों जेल में रहना पड़ेगा. शायद जावेद डरा रहा है. करेगा कुछ नहीं. फिर भी इवा जावेद की बताई जगह पहुंच गई. जावेद का फोन बंद था. इवा को उम्मीद थी कि शायद वह भीड़ में मिल जाए.

तभी भीड़ की तरफ बढ़ते ट्रक को देख कर एक बाइक सवार ने जावेद को रोकने की कोशिश की, लेकिन ट्रक नहीं रुका. इवा ने देख लिया कि ट्रक को जावेद चला रहा है. उसे और कुछ नहीं सूझा तो स्वयं ट्रक के आगे खड़ी हो गई.

जावेद के हाथ तब एक बार कांप गए जब उस ने इवा को ट्रक के आगे हाथ फैलाए खड़ी देखा. इवा रो रही थी. उस की टांगें कांप रही थीं, पर जावेद पर इतना जनून सवार था कि उस ने ट्रक की स्पीड कम न की. ट्रक इवा को कुचलता हुआ, साथ ही अनगिनत लोगों को भी कुचलता हुआ आगे बढ़ रहा था. पल भर में ही पुलिस की गोलियों ने जावेद को भून डाला. चारों तरफ चीखपुकार, सड़क पर पड़ी खून में डूबी लाशें, छोटे बच्चों को गोद में उठा कर इधरउधर भागते मातापिता, गिरतेपड़ते लोग, हर तरफ अफरातफरी का माहौल था.

इवा और जावेद दोनों इस दुनिया से जा चुके थे. एक बार फिर प्यार हार गया था, आतंक के खूनी खेल में. हर तरफ बिखरे सपने, टूटती सांसें, तड़पती जिंदगियां थीं, मातम था, खौफ था. अपने प्यार पर टूटा भरोसा लिए इवा जा चुकी थी और आतंक के रास्ते पर चलने के अंजाम के रूप में जावेद का रक्तरंजित शव पड़ा था.

Story In Hindi : ब्रह्मपिशाच – क्या था ओझा का सच?

Story In Hindi : शारदा बाबू एक बैंक के कर्मचारी थे. शहर से थोड़ी दूर पर उन का गांव था. उन की पत्नी ज्यादातर अपने गांव में ही रहती थी. उन की बेटी पुनीता करीब 16 या 17 साल की रही होगी. प्राइवेट हाईस्कूल की परीक्षा दे रही थी.

शारदा बाबू के 4 बेटे थे. सब से बड़ा राजेंद्र कादीपुर ब्लाक में विकास अधिकारी था. शारदा बाबू के मकान की छत से लगी हुई मेरी भी छत थी. मैं भी बैंक में ही टाइपिस्ट थी.

एक दिन पुनीता खुशखुश मेरे पास आई, ‘‘भाभीजी, भैया की शादी तय हो गई है. सुना है कि भाभी का स्वभाव बहुत ही अच्छा है. कल हम सब लोग शादी में गांव जा रहे हैं. आप भी चलिए न.’’

‘‘तू जा, बेटी. मेरी छुट्टियां थोड़े ही हैं,’’ कह कर मैं ने उसे टाल दिया.

सब से छोटी और इकलौती बेटी होने के कारण पुनीता अपने मांबाप और भाइयों की बहुत दुलारी थी. बड़ा भाई राजेंद्र उसे बहुत प्यार करता था.

जब भी वह गांव से आता, भाभी लाने की बात चलने पर वह उसे बड़े प्यार से थपथपा कर कहता, ‘‘बहुत जल्दी आएगी तेरी भाभी. आते ही पहले ही दिन उस को समझा दूंगा मैं, ‘देखो भई, पुनीता मेरी प्यारी बहन है. इसे एक शब्द भी कभी कड़ा मत कहना. मेरे बच्चे की तरह है यह.’’’

पुनीता यह सुन कर खुशी से नाच उठती. यही कारण था कि भाभी के आने की बात सुन कर उस का तनमन खुशी से नाच उठा था. पुनीता को कई बार टाइफाइड हो चुका था. उस का मस्तिष्क बीमारी के कारण कुछ कमजोर हो चला था. यही कारण था कि शारदा बाबू परेशान हो कर स्कूल में कई बार फेल होने पर उस को प्राइवेट परीक्षा ही दिला रहे थे.

तीसरे दिन गांव से लौट कर पुनीता अपने स्वभाव के अनुसार मेरे पास आई तो उस के गुलाबी हंसमुख चेहरे पर परेशानी झलक रही थी. आंखें ऐसी लग रही थीं जैसे रात भर कोई भयानक स्वप्न देखा हो. उस के खूबसूरत चेहरे पर पीड़ा फैली हुई थी.

‘‘कैसी है तेरी भाभी? खूब मजा आया होगा न? मेरे लिए मिठाई लाई है?’’ मैं ने प्यार से पूछा.

‘‘मिठाई?…कभी नहीं. नई भाभी जो आ गई है. अब मिठाई कभी नहीं मिलेगी. भाभीजी ने मुझे बहुत डांटा. मुझ से दाल में ज्यादा हो गया था…अरे हां, नमक ज्यादा हो गया था. तब भी भैया और भाभी को ऐसा नहीं करना चाहिए था. आप ही बताइए, अब मैं क्या करूं? क्या नदी में कूद पड़ूं?’’ कह कर उस ने मुझे झिंझोड़ दिया.

‘‘पुनीता, तू क्या कह रही है? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है. किसी भी छोटी सी बात का इतना बुरा नहीं मानते. तेरी तबीयत ठीक नहीं मालूम देती. अरे, तुझे तो तेज बुखार भी है. जा कर आराम कर.’’

मेरे कहने पर पुनीता चली गई

और मैं अपने काम में व्यस्त हो गई.

शाम को मैं दफ्तर से लौट कर कमरे में आई ही थी कि शारदा बाबू के घर

से चीखें और फिर बहुत शोरगुल सुनाई देने लगा.

मैं चाय पीना भूल कर उन की छत से लगी मुंडेर पर जा खड़ी हुई. शारदा बाबू की छत का दृश्य बहुत ही बुरा था. तिमंजिले की छत के किनारे पर बैठी पुनीता पागलों की तरह चीखचीख कर नीचे कूदने का प्रयास कर रही थी.

वह कभी हंसती, कभी रोती, अपना सिर झटकझटक कर कह रही थी, ‘‘मुझे छोड़ दो. नीचे वही बुला

रहा है…मैं नहीं कूदूंगी तो वह मुझे

खा जाएगा… वह हिंदुस्तान का राजा है. मुझे बहुत चाहता है, छोड़ दो मुझे, ह…ह…ह…’’

पुनीता को एक तरफ उस के पिताजी और दूसरी तरफ उस का छोटा भाई सुरेंद्र पकड़े हुए थे.

पुनीता की आंखें लाल सुर्ख और फूली हुई थीं. शायद उसे अब भी तेज बुखार था. उस के बाल खुले थे और चेहरे पर पूरे पागलपन के लक्षण थे.

उस को किसी प्रकार खींच कर शारदा बाबू नीचे ले गए और कमरे में बंद कर दिया.

पुनीता की मां जारजार रोती हुई बोलीं, ‘‘बहनजी, सुबह से यह कुछ बहकीबहकी बातें कर रही थी. मैं ने सोचा गांव में किसी से किसी बात पर नाराज हो कर बड़बड़ा रही होगी. लेकिन दोपहर के 12 बजतेबजते यह खूब जोर- जोर से रोने और बाहर भागने लगी. दरवाजे पर ताला लगा दिया तो सीढ़ी से चढ़ कर तिमंजिले पर भागी.

‘‘इस के पिताजी ने किसी काम के कारण छुट्टी ले रखी थी, नहीं तो अनर्थ हो जाता. पुनीता कूद कर आत्महत्या कर लेती. लड़की की जाति, अब मैं क्या करूं, बहनजी? कुछ भी समझ में नहीं  आ रहा है. आप ही बताइए न कोई उपाय…’’

यह कह कर पुनीता की मां दीनहीन सी बिलख पड़ीं. स्वाभाविक ही था

कि खूबसूरत जवान लड़की देखते ही देखते न जाने क्यों अपना संतुलन खो बैठी थी.

‘‘आप घबराइए नहीं. मुझे तो लगता है कि इसे किसी बात का धक्का पहुंचा है. कुछ दिमाग कमजोर तो है

ही इस का. बरदाश्त नहीं कर पाई और अपने दिमाग का संतुलन खो बैठी.

इस को जल्दी ही इलाहाबाद या लखनऊ ले जा कर किसी मानसिक इलाज

करने वाले डाक्टर को दिखाइए, नहीं तो इस की हालत खराब हो जाएगी. इस की जिंदगी आप को बचानी है तो जल्दी ही किसी बड़े डाक्टर के पास ले जाइए…’’

अभी मैं पुनीता की मां को सुझाव दे ही रही थी कि सामने रहने वाले नए किराएदार पंडितजी, हांफतेहांफते आ पहुंचे, ‘‘भाभीजी, काम हो गया, ओझा महाराज मिल गए. जरा सी देर में ही पुनीता ठीक हो जाएगी.’’

पंडितजी अपने शब्दों में करुणा भर कर बोल रहे थे, किंतु उन के चेहरे पर एक कुटिल मुसकान खेल रही थी. एक क्षण चुप रह कर वह अपनी आंख के कोरों को पोंछने लगे, ‘‘भाभीजी, अब देर मत कीजिए. दानदक्षिणा, जो कुछ भी ओझा महाराज मांगें, वह सब पूरा कर के अपनी बिटिया के प्राण लौटा लीजिए. इतनी खूबसूरत इकलौती बेटी है आप की. इस के लिए तो लाखों न्योछावर किया जा सकता है. इस की हालत देख कर तो मेरा कलेजा फटा जा रहा है…’’

कह कर अपनी लंबी चोटी ऐंठते हुए पंडितजी मुंह पोंछ कर धीरे से मुसकरा उठे, जिसे मेरे सिवा और कोई न देख सका.

पंडितजी के हृदय में बेटी के लिए इतनी करुणा देख कर पुनीता की मां को विश्वास हो गया कि ओझा महाराज अवश्य उस की बेटी के अंदर का भूतपिशाच अपनी मुट्ठी में कर के उस की बेटी को स्वस्थ कर देंगे.

पंडितजी सब को ले कर नीचे

उतर गए. मैं ने उन्हें रोक कर समझाना चाहा, किंतु इस समय तो उन लोगों पर पंडित और ओझा महाराज का पूरा विश्वास जम चुका था. जिज्ञासावश मैं भी छत पर से ही उन के आंगन का नजारा देखने लगी.

खद्दर का कुरताधोती, सिर पर पीली पगड़ी, एक फुट लंबी तोंद, कंधे पर लाल अंगोछा और बड़ा सा लटकता  झोला, ऐंठी सी खिचड़ी मूंछें और एक आंख पत्थर की. ऐसे थे ओझा महाराज.

उन की मनहूस सी सूरत देख कर पहले शारदा बाबू ने पत्नी को आंख के इशारे से मना किया, किंतु उन पर तो जैसे कोई जादू डाल दिया गया हो. ऐसी दृष्टि से उन्होंने शारदा बाबू को घूरा, जैसे कह रही हों, ‘चुप रहो, पैदा तो मैं ने किया है. फिर भला तुम क्या जानो संतान का दर्द?’

मरता क्या न करता. बेचारे शारदा बाबू चुप हो गए. अब ओझा महाराज ने अपना काम आरंभ किया.

उन्होंने एक थाली में फूल रख कर ढेर सारा गुग्गुल और लोबान सुलगा दिया. चारों तरफ धुआं फैलने लगा.

अब पुनीता को, जो कमरे में बंद थी, खोला गया. ओझा महाराज के सामने कई लोग उसे पकड़ कर बैठ गए. वह अपने को छुड़ाने के लिए हाथपैर मारने लगी और वहीं पास में रखे ओझा महाराज के डंडे को उठा कर उन्हीं की पीठ पर दे मारा.

अचानक इस मार से ओझा महाराज बिलबिला उठे, ‘‘देखा आप लोगों ने? यह कोई छोटामोटा भूतपिशाच नहीं है. पिशाचों में वरिष्ठ ब्रह्मपिशाच है. किसी निरपराध ब्राह्मण की हत्या होने पर उस की आत्मा ही ब्रह्मपिशाच बन जाती है. चलते समय ही मैं ने यह समझ लिया था कि यही होगा और एक मंत्र पढ़ कर मैं ने उस पर चोट कर दी थी. इसीलिए इस ने मुझे मारा है. अभी क्या, अभी तो यह ऐसी छलांग लगाएगी कि छत पर कूद जाएगी. जिस को यह पिशाच पकड़ता है, उस में हाथी की शक्ति आ जाती है. अरे बाबूजी, यह पिशाच कोई छोटीमोटी शक्ति नहीं है. चुटकी बजाते प्राण हर लेता है यह.’’

‘‘धन्य हैं, महाराज, आप बिलकुल ठीक बात कह रहे हैं. अभी यह छत से नीचे कूद रही थी…’’ पुनीता की मां अंतर्यामी ओझा महाराज पर पूरी तरह से न्योछावर होती हुई बोलीं.

वही नहीं, इस बात से वहां उपस्थित सभी लोग आश्चर्य से एकदूसरे का मुंह देखने लगे, सिर्फ पंडितजी मंदमंद मुसकरा रहे थे.

शारदा बाबू भी प्रभावित होते हुए बोले, ‘‘आप सच कह रहे हैं. इस के अंदर हाथी की ही शक्ति आ गई है. मुझे 2 जगह यह दांत भी काट चुकी है. जिस कमरे में यह बंद थी उस कमरे की सारी चीजों को तोड़फोड़ डाला है. कपड़ा देखिए, इस ने दांतों से फाड़फाड़ कर चिथड़ा कर दिया है. अब तो बेटी के प्राण आप ही बचा सकते हैं महाराज. अपनी मंत्र विद्या से जल्दी ही ब्रह्मपिशाच को अपनी मुट्ठी में कीजिए…’’ कहते- कहते शारदा बाबू भी रो पड़े.

‘‘आप चिंता न कीजिए, अभी मंत्र मार कर मैं इस की शक्ति अपनी मुट्ठी में जकड़ लेता हूं. हां, आप लोग इस को संभाल नहीं पाएंगे इसलिए चारपाई पर लिटा कर रस्सी से इस के हाथपैर इतने जकड़ दीजिए कि यह तनिक भी न हिलनेडुलने पाए. अगर ऐसा नहीं करेंगे तो यह एकाध को घायल भी कर देगी.’’

‘‘नहीं…’’ पुनीता आंखें निकाल कर जोर से चीखी, लेकिन तभी ओझा महाराज का इतनी जोर का झापड़ उस के गाल पर पड़ा कि पांचों उंगलियों के निशान उभर आए.

पुनीता चीखती रही, किंतु ओझा महाराज की जादुई गिरफ्त में आने वाले लोग भला अब कहां कुछ भी सुन सकते थे? एक लड़की 4 मर्दों से भला कैसे अपने को छुड़ा पाती? नतीजा यह कि वह चीखती रही और लोग बेरहमी से उसे चारपाई में बांधते रहे. उस के दोनों पैर चारपाई तथा हाथ खिड़की की छड़ से बांध दिए गए.

अब ओझा महाराज अपने झोले में से एक दोना निकाल कर शारदा बाबू को देते हुए बोले, ‘‘लीजिए, यही मेरा प्रसाद है. इस में 5 बताशे हैं. इसे मैं घर से ही अभिमंत्रित कर के लाया हूं. बस, यही दवा है. इस में से 2 अभी, 2 कल सुबह और 1 परसों सुबह…’’

अब बताशा खिला कर ओझा महाराज पुनीता पर धीरेधीरे अपना मंत्र पढ़पढ़ कर फूंक मारने लगे.

और लोगों ने आश्चर्य से देखा कि ओझा के फूंक मारते ही बस 5 मिनट में पुनीता ने धीरेधीरे चुप हो कर अपनी आंखें बंद कर लीं.

पुनीता के शांत हो जाने पर ओझा महाराज मुसकराए और मूंछों पर ताव देते हुए बोले, ‘‘देखा आप ने, मंत्र ने काम करना शुरू कर दिया. ब्रह्मपिशाच शांत हो गया. लेकिन कम से कम 3 दिन इसी तरह इसे रखना होगा. मैं घर जा कर 3 दिन, 3 रात उपवास रख कर इस की पूजा करूंगा, तब जा कर इसे उतार पाऊंगा. जरा सी भूलचूक हुई तो यह मेरे ही प्राण हर लेगा.

‘‘अच्छा, अब चलूं बाबूजी. हां, 1 हजार रुपए पूजा के लिए चाहिए या मैं जो सामान कहूं, वह मंगवा दीजिए. बात ऐसी है कि अब 3 दिन ब्रह्मपिशाच के साथियों, बरातियों को न्योता खिलाना पड़ेगा, तब कहीं जा कर छोड़ेगा यह…अरे हां, हर चीज बिलकुल पवित्र होनी चाहिए.

‘‘जो भी खाना यह खाना चाहे, चम्मच से इस के मुंह में डाल दीजिए. जरूरी काम होने पर रस्सी खोल कर फिर इसी तरह बांध दी जाए. तीसरे दिन मैं ही आ कर इसे पूरी तरह खोलूंगा. किसी डाक्टर की दवा न खिलाएंपिलाएं, नहीं तो यह ब्रह्मपिशाच इसी को ही नहीं, सारे कुटुंब को निगल जाएगा,’’ कहतेकहते ओझा महाराज ने ऐसा भयंकर मुंह बनाया कि सारा परिवार भय से थरथर कांप उठा.

भयभीत शारदा बाबू उसी दिन रुपए के लिए बैंक जाने लगे तो मैं ने उन्हें रोका, ‘‘शारदा बाबू, पढ़ेलिखे इनसान हो कर भी आप इन ओझा और मौलवियों के चक्कर में पड़ रहे हैं. मेरी बात मानिए तो पुनीता को जल्दी ही टैक्सी से लखनऊ ले जाइए.’’

मेरी बात अनसुनी कर के शारदा बाबू ने कहा, ‘‘जिस पर मुसीबत आती है वही उस का दर्द जानता है, दूसरा नहीं,’’ और वह तेजी से ओझा महाराज के साथ बैंक की तरफ चल दिए.

शाम को दफ्तर से लौटी तो लोगों ने बताया कि पुनीता तब से बराबर आंखें बंद किए बड़बड़ा रही है. खायापिया कुछ भी नहीं, किंतु चीखीचिल्लाई भी नहीं. ओझा महाराज का प्रताप है कि उन्होंने अपने मंत्र के बल से ब्रह्मपिशाच को शांत कर दिया. 1,001 रुपए ही तो लिए बेचारे ने. बेटी के प्राण तो बचा दिए.

सुन कर विश्वास तो नहीं हुआ, लेकिन करती क्या? चुपचाप अपने काम में व्यस्त हो गई.

दूसरे दिन शनिवार की शाम को दफ्तर से लौट कर अपने घर लखनऊ जाने के लिए मैं अपनी अटैची ठीक कर रही थी कि शारदा बाबू का बड़ा बेटा राजेंद्र रोतासिसकता आ खड़ा हुआ.

‘‘बहनजी, पुनीता अब नहीं बचेगी.’’

‘‘क्या बात है? वह तो अब ठीक हो रही थी,’’ मैं चौंक पड़ी.

‘‘अरे, वह साला फरेबी, जालसाज निकला. उसी को बुलाने तो मैं गया था.’’

‘‘तब?’’

‘‘पता चला कि वहां इस नाम का कोई आदमी नहीं रहता.’’

‘‘और पंडित?’’

‘‘वह भी कल से गायब है. मकान में एक ही महीने तो रहा वह. आधा किराया पेशगी दिया था, बाकी आधा किराया भी मार कर भाग गया. धोखा देने के लिए कोठरी में एक सड़ा सा ताला डाल गया.’’

‘‘अच्छा, मैं तो पहले ही समझ रही थी कि ये सब जरूर जालसाज हैं. अरे हां, अब पुनीता का क्या हाल है? क्या पुनीता उसी तरह बंधी पड़ी है?’’

‘‘नहीं, बहनजी, अब उसे खोल दिया गया है. लेकिन जगहजगह रस्सियों से उस के हाथपैर में नीले निशान पड़ गए हैं. उस का रंग काला हो गया है और शक्तिहीन सी आंखें बंद किए वह पड़ी है. न कुछ बोलती है और न कुछ खाती- पीती है. माताजी खूब रो रही हैं. पिताजी ने आप के पास मुझे भेजा है. आप का परिचय लखनऊ मेडिकल कालिज में जरूर होगा…’’

राजेंद्र ने ऐसी याचनाभरी दृष्टि से मुझे देखा कि मैं अंदर तक करुणा से भर उठी. नतीजा यह हुआ कि उसी वक्त हम लोग पुनीता को ले कर लखनऊ चल दिए.

वहां एक मनोचिकित्सा के विशेषज्ञ मेरे परिचित निकल आए. उन्होंने फौरन पुनीता को देखाभाला. उन्होंने बताया कि पुनीता को ओझा ने बताशा किसी ऐसी नशीली चीज में डुबो कर दिया था जिस से उसे नींद आ रही है. ब्रह्मपिशाच नहीं, इसे किसी बात का गहरा आघात लगा है. जो लोग दिमाग से कमजोर होते हैं, आघात खा कर अपना संतुलन खो बैठते हैं. आप लोगों की आंखें समय से खुल गईं, नहीं तो ओझा के चक्कर में आप की बेटी के प्राण निकल जाते और आप बस, हाथ मलते रह जाते.’’

1 माह तक उस डाक्टर की दवा करने से पुनीता बिलकुल ठीक हो गई. अब वह बाकायदा अपनी परीक्षा दे रही है. तब से उस के परिवार वालों ने कान पकड़ लिया है कि वे किसी ओझा और पंडित का विश्वास नहीं करेंगे.

कहानी- डा. माया शबनम

Short Story : जो बोया सो काटा

Short Story : बच्चों के साथ रहने के मामले में मनीषा व निरंजन के सुनेसुनाए अनुभव अच्छे नहीं थे. अपने दोस्तों व सगेसंबंधियों के कई अनुभवों से वे अवगत थे कि बच्चों के पास जा कर जिंदगी कितनी बेगानी हो जाती है, लेकिन अब मजबूरी थी कि उन्हें बच्चों के पास जाना ही था क्योंकि वे शारीरिक व मानसिक रूप से लाचार हो गए थे.

उम्र अधिक हो जाने से शरीर कमजोर हो गया था. निरंजन के लिए अब बाहर के छोटेछोटे काम निबटाना भी भारी पड़ रहा था. कार चलाने में दिक्कत होती थी. मनीषा वैसे तो घर का काम कर लेती थीं लेकिन अकेले ही पूरी जिम्मेदारी संभालना मुश्किल हो जाता था. नौकरचाकरों का कोई भरोसा नहीं, काम वाली थी, कभी आई कभी नहीं.

छुट््टियां न मिलने की वजह से बेटा अनुज भी कम ही आ पाता था. इसलिए उन्हें अब मानसिक अकेलापन भी खलने लगा था. अकेले रहने में अपनी बीमारियों से भी निरंजनजी डरते थे.

यही सब सोचतेविचारते अपने अनुभवों से डरतेडराते आखिर उन्होंने भी लड़के के साथ रहने का फैसला ले ही लिया.

इस बारे में उन्होंने पहले बेटे को चिट्ठी लिखना ठीक समझा ताकि बेटे और बहू के मूड का थोड़ाबहुत पहले से ही पता

चल जाए.

हफ्ते भर के अंदर ही बेटे का फोन आ गया कि पापा, आज ही आप की चिट्ठी मिली है. आप मेरे पास आना चाह रहे हैं, यह हम सब के लिए बहुत खुशी की बात है. बच्चे और नीता तो इतने खुश हैं कि अभी से आप के आने का इंतजार करने लगे हैं. आप बताइए, कब आ रहे हैं? मैं लेने आ जाऊं या फिर आप खुद ही आ जाएंगे?

फोन पर बेटे की बातें सुन कर निरंजन की आंखें भर आईं. प्रत्युत्तर में बोले, ‘‘हम खुद ही आ जाएंगे, बेटे… परसों सुबह यहां से टैक्सी से चलेंगे और शाम 7 बजे के आसपास वहां पहुंच जाएंगे.’’

‘‘ठीक है, पापा,’’ कह कर बेटे ने फोन रख दिया.

‘‘अनुज हमारे आने की बात सुन कर बहुत खुश है,’’ निरंजन बोले.

‘‘अभी तो खुश है पर पता नहीं हमेशा साथ रहने में कैसा रुख हो,’’ मनीषा अपनी शंका जाहिर करती हुई बोलीं.

‘‘सब अच्छा होगा, मनीषा,’’ निरंजन दिलासा देते हुए बोले.

शाम के 7 बजे जब निरंजन और मनीषा बेटे के घर पर पहुंचे तो बेटेबहू और बच्चे उन के इंतजार में बैठे थे. दरवाजे पर टैक्सी रुकने की आवाज सुन कर चारों घर से बाहर निकल पड़े.

दादाजी…दादाजी कहते हुए दोनों बच्चे पैर छूते हुए उन से चिपक गए. बेटेबहू ने भी पैर छुए. सब ने एकएक सामान उठा लिया. यहां तक कि बच्चों ने भी छोटा सामान उठाया और सब एकसाथ अंदर आ गए.

मन में शंका थी कि थोड़े दिन रहने की बात अलग थी पर हमेशा के लिए रहना…न जाने कैसा हो.

नीता चायनाश्ता बना कर ले आई. सभी बैठ कर गपशप करने लगे.

‘‘मम्मीपापा, आप फ्रेश हो लीजिए,’’ बहू नीता बोली, ‘‘इस कमरे में आप का सामान रख दिया है. आज से यह कमरा आप का है.’’

‘‘यह हमारा कमरा…पर यह तो बच्चों का कमरा है…’’

‘‘बच्चे  छोटे वाले कमरे में शिफ्ट हो गए हैं.’’

‘‘लेकिन तुम ने बच्चों का कमरा क्यों बदला, बहू…उन की पढ़ाईलिखाई डिस्टर्ब होगी. फिर उस छोटे से कमरे में दोनों कैसे रहेंगे?’’

‘‘कैसी बात कर रही हैं, मम्मीजी आप, घर के सब से बड़े क्या सब से छोटे कमरे में रहेंगे. बच्चों की पढ़ाई और सामान वगैरह के लिए अलग कमरा चाहिए…रात में तो दोनों आप के साथ ही घुस कर सोने वाले हैं,’’ नीता हंसते हुए बोली.

मनीषा को सुखद एहसास हुआ. बेटा तो अपना ही है लेकिन बहू के मुंह से ऐसे शब्द सुन कर जैसे दिल की शंकाओं का कठोर दरवाजा थोड़ा सा खुल गया.

सुबह बहुत देर से नींद खुली. निरंजन उठ कर बाथरूम हो आए. अंदर खटरपटर की आवाज सुन कर नीता ने चाय बना दी. उस दिन रविवार था.  बच्चे व अनुज भी घर पर थे.

चाय की टे्र ले कर नीता दरवाजे पर खटखट कर बोली, ‘‘मम्मीजी, चाय.’’

‘‘आजा…आजा बेटी…अंदर आजा,’’ निरंजन बोले.

‘‘नींद ठीक से आई, पापा,’’ नीता चाय की ट्रे मेज पर रखती हुई बोली.

‘‘हां, बेटी, बहुत अच्छी नींद आई. बच्चे और अनुज कहां हैं?’’ मनीषा ने पूछा.

‘‘सब उठ गए हैं. बच्चों ने तो अभी तक दूध भी नहीं पिया है. कह रहे थे कि जब दादाजी उठ जाएंगे तो वे चाय पीएंगे और हम दूध.’’

‘‘तुम ने भी अभी तक चाय नहीं पी,’’ मनीषा ट्रे में चाय के 4 कप देख कर बोलीं.

‘‘मम्मीजी, हम एक बार की चाय तो पी चुके हैं, दूसरी बार की चाय आप के साथ बैठ कर पीएंगे.’’

तभी बच्चे व अनुज कमरे में घुस गए और दादादादी के बीच में बैठ गए.

‘‘दादाजी, पापा कहते हैं कि वह आप से बहुत डरते थे. आप जब आफिस से आते थे तो वह एकदम पढ़ने बैठ जाते थे, सच्ची…’’ पोता बोला.

‘‘पापा यह भी कहते हैं कि वह बचपन में बहुत शैतान थे और दादी को बहुत तंग करते थे. है न दादी?’’ पोती बोली थी.

दोनों बच्चों की बातें सुन कर निरंजन व  मनीषा हंसने लगे.

‘‘सभी बच्चे बचपन में अपनी मम्मी को तंग करते हैं और अपने पापा से डरते हैं,’’ निरंजन बच्चों को प्यार करते हुए बोले.

‘‘हां, और मम्मी कहती हैं कि सभी मम्मीपापा अपने बच्चों को बहुत प्यार करते हैं…जैसे दादादादी मम्मीपापा को प्यार करते हैं और मम्मीपापा हमें.’’

पोती की बात सुन कर मनीषा व निरंजन की नजरें नीता के चेहरे पर उठ गईं. नीता का खुशनुमा चेहरा दिल में उतर गया. दोनों ने मन में सोचा, एक अच्छी मां ही बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकती है.

दोपहर के खाने में नीता ने कमलककड़ी के कोफ्ते और कढ़ी बना रखी थी.

‘‘पापा, आप यह कोफ्ते खाइए. ये बताते हैं कि आप को कमलककड़ी के कोफ्ते बहुत पसंद हैं,’’ नीता कोफ्ते प्लेट में रखती हुई बोली.

‘‘और मम्मी को कढ़ी बहुत पसंद है. है न मम्मी?’’ अनुज बोला, ‘‘याद है मैं कढ़ी और कमलककड़ी के कोफ्ते बिलकुल भी पसंद नहीं करता था. और मेरे कारण आप अपनी पसंद का खाना कभी भी नहीं बनाती थीं. अब आप की पसंद का खाना ही बनेगा और हम भी खाएंगे.’’

बेटा बोला तो मनीषा को अपने भावों पर नियंत्रण रखना मुश्किल हो गया. आंखों के कोर भीग गए.

‘‘नहीं बेटा, खाना तो बच्चों की पसंद का ही बनता है, जो बच्चों को पसंद हो वही बनाया करो.’’

रात को पोते व पोती में ‘बीच में कौन सोएगा’ इस को ले कर होड़ हो गई. आखिर दोनों बीच में सो गए.

थोड़ी देर बाद नीता आ गई.

‘‘चलो, बच्चो, अपने कमरे में चलो.’’

‘‘नहीं, हम यहीं सोएंगे,’’ दोनों चिल्लाए.

‘‘नहीं, दादादादी को आराम चाहिए, तुम अपने कमरे में सोओ.’’

‘‘रहने दे, बेटी,’’ निरंजन बोले, ‘‘2-4 दिन यहीं सोने दे. जब मन भर जाएगा तो खुद ही अपने कमरे में सोने लगेंगे.’’

दोनों बच्चे उस रात दादादादी से चिपक कर सो गए.

दिन बीतने लगे. नीता हर समय उन की छोटीछोटी बातों का खयाल रखती. बेटा भी आफिस से आ कर उन के पास जरूर बैठता.

एक दिन मनीषा शाम को कमरे से बाहर निकली तो नीता फोन पर कह रही थी, ‘‘मैं नहीं आ सकती… मम्मीपापा आए हुए हैं. यदि मैं आ गई तो वे दोनों अकेले रह जाएंगे. उन को खराब लगेगा,’’ कह कर उस ने बात खत्म कर दी.

‘‘कहां जाने की बात हो रही थी, बेटी?’’

‘‘कुछ नहीं, मम्मीजी, ऐसे ही, मेरी सहेली बुला रही थी कि बहुत दिनों से नहीं आई.’’

‘‘तो क्यों नहीं जा रही हो. हम अकेले कहां हैं, और फिर थोड़ी देर अकेले भी रहना पड़े तो क्या हो गया. देखो बेटी, तुम अगर नहीं जाओगी तो मैं बुरा मान जाऊंगी.’’

नीता कुछ न बोली और दुविधा में खड़ी रही.

मनीषा नीता के कंधे पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘बेटी, मम्मीपापा आ गए हैं इसलिए अगर तुम ने अपनी दिनचर्या में बंधन लगाए तो हम यहां कैसे रह पाएंगे. यह अब कोई 2-4 दिन की बात थोड़े न है, अब तो हम यहीं हैं.’’

‘‘कैसी बात कर रही हैं, मम्मीजी. आप का रहना हमारे सिरआंखों पर. मैं बंधन थोड़े न लगा रही हूं… और थोड़ाबहुत बंधन रहे भी तो क्या, बच्चों के कारण मांबाप बंधन में नहीं रहते हैं. फिर बच्चों को भी मांबाप के कारण बंधना पड़े तो कौन सी बड़ी बात है.’’

नीता की बात सुन कर मनीषा ने चाहा कि उस को गले लगा कर खूब प्यार करें.

मनीषा ने नीता को जबरन भेज दिया. धीरेधीरे मनीषा की कोशिश से नीता भी अपनी स्वाभाविक दिनचर्या में रहने लगी. उस ने 1-2 किटी भी डाली हुई थीं तो मनीषा ने उसे वहां भी जबरदस्ती भेजा.

उस की सहेलियां जब घर आतीं तो मनीषा चाय बना देतीं. नाश्ते की प्लेट सजा देतीं. नीता के मना करने पर प्यार से कहतीं, ‘‘तुम जो हमारे लिए इतना करती हो, थोड़ा सा मैं ने भी कर दिया तो कौन सी बड़ी बात कर दी.’’

अनुज व नीता को अब कई बातों की सुविधा हो गई थी. कहीं जाना होता तो दादादादी के होने से बच्चों की तरफ से दोनों ही निश्ंिचत रहते.

महीना खत्म हुआ. निरंजन को पेंशन मिली. उन्होंने अपना पैसा बहू को देने की पेशकश की तो अनुज व नीता दोनों नाराज हो गए.

‘‘पापा, आप कैसी बातें कर रहे हैं. पैसे दे कर ही रहना है तो आप कहीं भी रह सकते हैं. आप ने हमारे लिए जीवन भर इतना किया, पढ़ायालिखाया और मुझे इस लायक बनाया कि मैं आप की देखभाल कर सकूं,’’ अनुज बोला.

‘‘लेकिन बेटा, मेरे पास हैं इसलिए दे रहा हूं.’’

‘‘नहीं, पापा, पैसा दे कर तो आप मेरा दिल दुखा रहे हैं… जब दादीजी और दादाजी आप के पास रहने आए थे तो उन के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था तो क्या आप ने उन की देखभाल नहीं की थी. जितना आप से  बन सकता था आप ने उन के लिए किया और आप के पास पैसा है तो आप हम से हमारा सेवा करने का अधिकार क्यों छीनना चाहते हैं.’’

निरंजन निरुत्तर हो गए. मनीषा आश्चर्य से अपने उस लापरवाह बेटे को देख रही थीं जो आज इतना समझदार हो गया है.

अनुज ने जब पैसे लेने से साफ मना कर दिया तो निरंजन ने पोते और पोती के नाम से बैंक में खाता खोल दिया और जो भी पेंशन का पैसा मिलता उस में डालते रहते. बेटे ने उन का मान रखा था और वे बेटे का मान रख रहे थे.

एक दिन निरंजन सुबह उठे तो बदन टूट रहा था और कुछ हरारत सी महसूस कर रहे थे. मनीषा ने उन का उतरा चेहरा देखा तो पूछ बैठीं, ‘‘क्या हुआ…तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘हां, कुछ बुखार सा लग रहा है.’’

‘‘बुखार है,’’ मनीषा घबरा कर माथा छूती हुई बोली,  ‘‘अनुज कोे बुलाती हूं.’’

‘‘नहीं, मनीषा, उसे परेशान मत करो…शाम तक देख लेते हैं…शायद ठीक हो जाए.’’

मनीषा चुप हो गई.

लेकिन शाम होतेहोते बुखार बहुत तेज हो गया. दोपहर के बाद निरंजन लेटे तो उठे ही नहीं. शाम को आफिस से आ कर अनुज पापा के साथ ही चाय पीता था.

निरंजन जब बाहर नहीं आए तो नीता कमरे में चली गई. मनीषा निरंजन का सिर दबा रही थीं.

‘‘पापा को क्या हुआ, मम्मीजी?’’

‘‘तेरे पापा को बुखार है.’’

‘‘बुखार है…’’ कहती हुई नीता ने बहू की सारी औपचारिकताएं त्याग कर निरंजन के माथे पर हाथ रख दिया.

‘‘पापा को तो बहुत तेज बुखार है, तभी पापा आज सुबह से ही सुस्त लग रहे थे. आप ने बताया भी नहीं. मैं अनुज को बुलाती हूं,’’ इतना कह कर नीता अनुज को बुला लाई.

अनुज जल्दी ही आ गया और मम्मीपापा को तकलीफ न बताने के लिए एक प्यार भरी डांट लगाई, फिर डाक्टर को बुलाने चला गया. डाक्टर ने जांच कर के दवाइयां लिख दीं.

‘‘मौसमी बुखार है, 3-4 दिन में ठीक हो जाएंगे,’’ डाक्टर बोला.

बेटाबहू, पोता और पोती सब निरंजन को घेर कर बैठ गए. नीता ने जब पढ़ाई के लिए डांट लगाई तब बच्चे पढ़ने गए.

‘‘खाने में क्या बना दूं?’’ नीता ने पूछा.

निरंजन बोले,’’ तुम जो बना देती हो वही स्वादिष्ठ लगता है.’’

‘‘नहीं, पापा, बुखार में आप का जो खाने का मन है वही बनाऊंगी.’’

‘‘तो फिर थोड़ी सी खिचड़ी बना दो.’’

‘‘थोड़ा सा सूप भी बना देना नीता, पापा को सूप बहुत पसंद है,’’ अनुज बोला.

निरंजन को अटपटा लग रहा था कि अनुज उन के लिए इतना कुछ कर रहा है. उन की हिचकिचाहट देख कर अनुज बोला, ‘‘मैं कुछ नया नहीं कर रहा. आप दोनों ने दादा व दादी की जितनी सेवा की उतनी तो हम आप की कभी कर भी नहीं पाएंगे. पापा, मैं तब छोटा था. आज जो कुछ भी हम करेंगे हमारे बच्चे वही सीखेंगे. बड़ों का तिरस्कार कर हम अपने बच्चों से प्यार और आदर की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. यह कोई एहसान नहीं है. अब आप आराम कीजिए.’’

‘‘हमारा बेटा औरों जैसा नहीं है न…’’ मनीषा भर्राई आवाज में बोलीं.

‘‘हां, मनीषा, वह बुरा कैसे हो सकता है. तुम ने सुना नहीं, उस ने क्या कहा.’’

‘‘हां, बच्चों में संस्कार उपदेश देने से नहीं आते, घर के वातावरण से आते हैं. जिस घर में बड़ों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है उस घर में बच्चे बड़ों को आदर देना सीखते हैं और जिस घर में बड़ों का तिरस्कार होता है उस घर के बच्चे भी तो वही सीखेंगे.’’

एक पल रुक कर मनीषा फिर बोली, ‘‘हम दोनों ने अपने मातापिता की सेवा व उचित देखभाल की. हमारी गृहस्थी में उन का स्थान हमेशा ही महत्त्वपूर्ण रहा, वही हमारे बच्चों ने सीखा. लेकिन अधिकतर लोग अपने बच्चों से तो सेवा व आदर की उम्मीद करते हैं, लेकिन वे अपने जीवन में अपने बड़ों की मौजूदगी को भुला चुके होते हैं.’’

मनीषा के मन से आज सारे संशय खत्म हो चुके थे.

उन के सगेसंबंधियों, दोस्तों ने उन्हें अपने अनुभव बता कर उन के मन में बेटेबहू के प्रति डर व नकारात्मक विचार पैदा किए, अब वे अपने अनुभव बता कर दूसरों के मन में बेटेबहू के प्रति प्यार व सकारात्मक विचार भरेंगे.

निरंजन ने संतोष से आंखें मूंद लीं और मनीषा कमरे की लाइट बंद कर बहू की सहायता करने के लिए रसोई में चली गईं. आखिर इनसान जो अपनी जिंदगी में बोएगा वही तो काटेगा. कांटे बो कर फूलों की उम्मीद करना तो मूर्खता है.

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