Storytelling : सपने देखने वाली लड़की

Storytelling :  देवांश उसे दूर से एकटक देख रहा था. देख क्या रहा था,नजर पड़ गई और बस आंखें ही अटक गई उसपर !विश्वास नहीं होता – यह वही है या उस जैसी कोई दूसरी?

मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनल  स्टेशन पर पीठ पर एक बैग लादे वह अकेली खड़ी है !

देवांश का ध्यान अपने काम से भटक गया था.सवारी गई तेल लेने! पहले यह शंका तो निवारण कर ले! बिहार के समस्तीपुर से यहां मुंबई में अकेले! लग रहा है,अभी अभी ट्रेन से उतरी है.

चाहता है उसे अनदेखा कर सवारी ढूंढे, कहीं वह नहीं हुई तो थप्पड़ भी पड़ सकता है.

आजकल की स्टंटमैन लड़कियां! देवांश इनसे दूर ही रहता है!

लेकिन अगर वही हुई तो? यह जरूर उसका फिर नासमझी में उठाया  गया कदम होगा !

वह इसके घरवालों को जानता है, वे ऐसे बिलकुल नहीं कि बेटी को अकेले मुंबई आने दें! इसके पापा का साइकिल में हवा भरने, पंक्चर बनाने की एक छोटी सी दुकान है. एक बड़ा भाई है जो पहिए वाले ठेले पर माल ढुलाई करता है. इससे दो बड़ी बहनें हैं जिनकी जैसे तैसे शादी हुई थी.

आज से पांच साल पहले जब देवांश मुंबई भाग आया था तब यह शायद बारह साल के आसपास की रही होगी.उस वक्त देवांश बीस वर्ष का था. शिप्रा उस समय सरकारी स्कूल में पढ़ रही थी .सजने का बड़ा शौक था  इसे. इस कारण हरदम इसकी मां इस पर टिक टिक करती रहती.दुकान से लगे छोटे से घर में ये अपने भाई, मां, पप्पा के साथ रहती थी .

अब तक वह इधर उधर देखती ,कुछ सोचती, थोड़ा थोड़ा चलती देवांश से अनजान उसकी ओर ही बढ़ी चली आ रही थी.

देवांश भी अब तक उसके नजदीक आ चुका था.

“तुम शिप्रा हो न? यहां कैसे?”

पहले शिप्रा ने खुद को छिपाने का प्रयत्न किया लेकिन देवांश का अपनी बात पर भरोसा देख उसे मानना पड़ा कि वह समस्तीपुर के फुलचौक की शिप्रा ही है.

अपनी बात को टालने की गरज से शिप्रा ने प्रतिप्रश्न किया – “तुम यहां कैसे?”

“बीस साल की उम्र में मुंबई भाग आया था. हीरो बनना था. सालभर खूब एड़ियां घिसी, फिल्मी स्टूडियो के बाहर कतारें लगाई, प्रोड्यूसर डायरेक्टर के पीछे भागता रहा, लेकिन रात ?

वह तो पिशाचिनी की तरह भूखी प्यासी मुझे निगलने को आती थी.

स्टूडियो के बाहर नए लड़के लड़कियों की इतनी भीड़ कि कौन किसे पूछे? उनमें जिनके पहचान के  निकल जाते, उन्हें  किसी तरह अन्दर जाने का मौका मिल जाता.लेकिन इतना तो काफी नहीं होता न! मंजे हुए कलाकारों के सामने खड़े होने की भी कुबत कम लोगों में ही होती है! फिर गिड़गिड़ाना भी आना चाहिए, इज्जत पर बाट लगाकर काम के लिए हाथ फैलाना भी आना चाहिए! मैंने तो साल भर में हाथ जोड़ लिए! मेरा औटो जिंदाबाद! पहले भाड़े पर लेकर चलाता था, अब अपना है, मीरा रोड पर अपनी खोली भी है!  मगर तुम यहां क्यों आ गई? बारहवीं बोर्ड दिया?” एक साथ इतनी बातें कहने के पीछे देवांश की एक ही मंशा थी कि वो मुंबई की जिंदगी और अपने सपनों की वास्तविकता को समझे!

“देकर ही आई हूं! मुझे एक हीरो से मिलना है, उसके साथ मुझे हीरोइन का रोल करना है! मै ठान कर आई हूं, हार नहीं मानूंगी.”

अब तक शिप्रा अपने नए स्मार्ट फोन पर किसी का नंबर ढूंढने में लगी थी.

देवांश ने कहा-” तुम्हारे पप्पा मेरी साइकिल कई बार ऐसे ही ठीक कर दिया करते थे .कुछ तो मेरा भी फर्ज बनता है, अपने जगह की हो, कहां मारी मारी फिरोगी! अच्छा हुआ जो मै तुम्हे मिल गया! चलो मेरे घर. वहीं रहकर काम ढूंढ़ लेना.”

इस बीच शिप्रा की उससे बात हो जाती है जहां वह फोन लगा रही थी. बात समाप्त होते ही शिप्रा का रुख थोड़ा बदल सा जाता है. वह अब जल्दी निकलना चाहती है.

“देवांश जी मुझे जल्दी निकलना होगा, हरदीप जी से बात हो गई, उन्हीं के कहने पर यहां आई हूं . वे मुझे अपने स्टूडियो में बुला रहे हैं, इंटरव्यू करेंगे, और फोटो शूट भी!”

“ये सब पक्का है? देखो, मुंबई है ,सही गलत की पहचान जरूरी है, ठगी न जाओ!”

“देवांश जी मुझे अभी जाना है, आपको बाद में बताऊंगी .

आप भैया के साथ स्कूल पढ़े हो, मेरे घरवालों को पहचानते हो, अभी कुछ बताना मत उन्हें, पता चला तो मेरी जबरदस्ती शादी कर देंगे. मै बड़ी स्टार बनना चाहती हूं, दीदियों की तरह गृहस्थी में अभी से नहीं पीसना मुझे!”

जाना कहां है? चलो छोड़ देता हूं तुम्हे.”

“करजत नाम की कोई जगह है- वहीं कहीं बता रहे हैं”

“मेरा फोन नंबर रख लो, रात को वापिस आ जाना, अपना नंबर दे दो, मै अपना पता तुम्हे लिख भेजूंगा. मुंबई अनजान नई लड़कियों के लिए ठीक नहीं, शोषण हो सकता है!”

“मुझे जल्द पहुंचाइए देवांश जी, कहीं देर न हो जाए!”

औटो भीड़ को काटते जैसे तैसे गंतव्य की ओर दौड़ रहा था.

शिप्रा को अपने सपनों के आगे जिंदगी की चुनौतियां तुच्छ नजर आ रही थी.देवांश समझ चुका कि यह चट्टानों से टकराए बिना नहीं मानेगी.

देवांश भी तो ऐसा ही था. कितनी रातें उसने आंखों में काटी, कितने दिन फाकों में! और जब काम मिलने को हुआ तो जैसे सर दीवार से जा टकराया! गीगोलो! अमीर औरतों के ऐश के लिए खरीदा गया गुलाम; उसे धोखा देकर ले जाने की पूरी तैयारी हो चुकी थी कि अचानक जैसे उसे दो कदम पीछे आकर फिर से सोच लेने की मति आई, उसके तो होश ही उड़ गए! किसी तरह बच कर निकला था वह! औटो दौड़ाते वह बेचैन हो गया.

लड़की को पता नहीं कहां पहुंचाने जा रहा है वह!

“हरदीप जी को कैसे जानती हो?”

“फेसबुक से, मेरी सुन्दरता देख उन्होंने फेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी थी. बाद में मुझे समझाया कि मै आसानी से हीरोइन बन सकती हूं अगर किसी तरह मुंबई पहुंच जाऊं!  वे मुझे स्टार बना देंगे. जोखिम तो लेना पड़ता है सपने पूरे करने के लिए!”

“पैसे हैं तुम्हारे पास?”

“घर में रखे दो हजार उठा लाई हूं, मां के चांदी के पायल भी,जब तक चले, फिर तो रुपए मिल ही जाएंगे.”

“कई बार नई लड़कियों का शोषण होता है, सावधान रहना!”

मतलब?”

“कोई तुम्हारा नाजायज फायदा उठा कर तुम्हे ठग सकता है,जैसे कोई कहे कि हम तो तुम्हे नाम पैसा सब देंगे, बदले में तुम क्या दोगी,तो -”

” जो कहेंगे वही करने का कहूंगी!”

“अरे! तुम्हारी उम्र कितनी है! तुम्हे समझ नहीं आती क्या बात!”

“अठारह साल!”

” छोड़ो, इससे आगे और क्या क्या समझाऊं तुम्हे! अगर रात को वापिस मेरे पास आने का मन हो तो फोन कर लेना मुझे.”

उस रात तो क्या महीने भर देवांश को शिप्रा का पता नहीं लग पाया.

और एक रात अभी वह अपने कमरों की बत्ती बुझाकर सोने चला ही था कि उसके दरवाजे पर किसी ने आवाज दी .

थोड़ा झल्लाया, दिन भर के खटे मरे, नींद से बोझिल आंखों में स्वागत सत्कार का आल्हाद कहां से लाए? झल्लाहट में दरवाजा खोला और सामने शिप्रा को देख अवाक रह गया.

सुंदर सजीली,एक ही नजर में भा जाने वाली लडकी जैसे अचानक कोयले के खदान से उठ आई हो! आंखों के नीचे गहरी कालिख!तनाव से चेहरा सूखा सा! विषाद के गहरे बादल जैसे अभी बरस पड़ेंगे!

“आओ आओ, फोन कर देती तो लेने चला आता! कहां रही अब तक?

“अंदर आ जाने दो देवांश जी! सब बताती हूं!”

पहले से  ज्यादा समझदार लगी शिप्रा.

रात के दस बज रहे थे, देवांश ने अपना डिनर ले लिया था.सो उस ने बिहारी स्टाईल में दाल भात आलू चोखा ,पापड़, सलाद लगाकर शिप्रा को खिलाया, और  अपने छोटे से पलंग पर उसका बिस्तर लगा दिया.

देवांश बगल वाले छोटे कमरे में अपनी खटिया बिछा कर अभी जाने को हुआ कि शिप्रा ने उसकी कलाई पकड़ ली.

“यहीं इसी कमरे में सो जाओ.अलग मत सोओ !”

“अरे क्यों ?” देवांश को आश्चर्य हुआ.

शिप्रा ने अपना सर झुका लिया.

“कहो!” देवांश ने जोर दिया.

रात कोई दूसरे कमरे से आकर मुझ पर सोते वक्त हमला न कर दे इसका डर लगता है, अच्छा है कोई साथ ही सो रहे, किसी के दरवाजे खोल कर अंदर आ जाने के डर से मै रात को सो ही नहीं पाती!”

“क्या हुआ था, मुझे बताओ, मै तुम्हारा हर डर दूर कर दूंगा .”

उसके स्नेह भरे स्वर में अपनेपन की ऐसी आश्वस्ति थी कि शिप्रा का तनाव कुछ कम होने लगा.

देवांश के पलंग पर दोनो आसपास बैठे थे, शिप्रा कहने लगी-”

उस दिन प्रोड्यूसर हरदीप जी के स्टूडियो के बाहर वेटिंग हौल में रात के आठ बजे तक बैठी मै इंतजार करती रही, आपने मुझे वहां करीब दोपहर के एक बजे छोड़ा था. सोच रही थी आपको फोन कर ही लूं, कि पियोन आकर मुझे बुला ले गया. मुझे एक आलीशान बड़े से कमरे में ले आया वह. यहां सोफे से लेकर पलंग तक सब कुछ मेरी कल्पना से परे की बेहतरीन चीजें थीं.सब कुछ अब जैसे जल्दी होने लगा था. मै घबराई भी थी और उत्सुक भी!

बाहर से मै लौक कर दी गई थी, मुझे अच्छा नहीं लगा, मगर इंतजार करती रही.

कुछ देर बाद हरदीप जी आए.पचपन के आसपास की उम्र होगी उनकी .आराम से बात की, मुझे कुछ छोटे विकनी टाईप के कपड़े दिए और उसे पहन कर आने को कहा. मै झिझक गई, तो आंखें इस तरह तरेरी कि मुझे बदलने जाना पड़ा .बाथरूम से वापिस आई तो देखा तीन लोग शूट के लिए आ पहुंचे थे. जैसा कहा गया वैसा कर दिया, शूटिंग पूरी होने पर  हरदीप जी ने मुझसे कॉन्ट्रैक्ट पर हस्ताक्षर करवाये. बाकी लोगों के जाने के बाद हरदीप जी ने मुझे नजदीक बिठा कर शाबासी दी और उनके साथ सहयोग करने पर जल्द मुझे स्टार बनाकर मेरे पसंद के हीरो के साथ रोल देने का वादा किया. डिनर आ गया था, और वो बहुत लाजवाब था. हरदीप जी को मैंने अनुरोध किया कि वे बाहर से दरवाजा मत लगाएं,”

“ये तुम्हारा मामला नहीं है” कहकर वे बाहर से बन्द कर चले गए.

फिर ये सिलसिला चल निकला . कभी बाहर भी शूट को ले जाते तो उनकी वैन में, काम ख़तम होते ही मुझ पर ताला जड़ दिया जाता. कितना भी समझा लूं,  वे मुझे सांस लेने की इजाजत नहीं देते!”

“सोते हुए तुम पर कभी हमला हुआ था? क्या वजह है तुम्हारे डर की?”

“यूं तो जैसे मै उनकी खरीदी गुलाम थी. कभी साज सज्जा के नाम पर, कभी दृश्य और संवाद के कारण वे सभी मेरी देह को खिलौना ही समझते. लेकिन इसके बाद की वो रात मेरे लिए बुरा सपना था! मुझे सपनों से डर लगने लगा है!”

“कहोगी क्या हुआ था?”अनायास ही अधिकार का स्वर मुखर हो गया था देवांश में, लेकिन वह तुरंत संभल गया.

“इस तरह उनके कहे पर उठते बैठते बीस दिन हो गए थे. थकी हारी रात को मै सो रही थी.मध्य रात्रि में जैसे मेरे कमरे को किसी ने बाहर से खोला, मुझे अंदर से बन्द करने की सख्त मनाही थी.

नींद में होने की वजह से जब तक संभल पाती किसी ने अजगर की तरह मुझ पर कब्जा कर लिया, मै उसके पंजो में छटपटाती सी शिथिल पड़ गई. फिर तो यह सिलसिला ही चल पड़ा. लेकिन सुबह सब कुछ सामान्य रहता  जैसे किसी को कुछ मालूम ही न हो. मै पागल सी होने लगी. मै वहां से निकलना चाहती थी, हरदीप जी से कहा तो सबके सामने मेरा कांट्रैक्ट पेपर दिखा दिया. मुझे हस्ताक्षर करते वक़्त उसे पढ़ना चाहिए था. तीन महीने के मुझे पचास हजार मिलने थे,और एक दिन भी पहले छोड़ना चाहूं तो प्रति दिन दो सौ के हिसाब से जितना बने. मेरे सपनों पर काली स्याही फैल गई थी, मै स्टार बनने के लिए  तिल तिल कितना मरती! शायद पचास हजार का शिकंजा कसकर वे कई को रोक रखते थे और मनमानी करते थे, मुझे लगा आखिर तक शायद वे खुद ही ऐसे हालात पैदा कर दें कि मै तीन महीने से पहले ही छोड़ने को बाध्य हो जाऊं! फिर क्यों नहीं अभी ही निकल जाऊं! मैंने तय किया कि अब और नहीं!

मुझे उन्होंने छह हजार पकड़ा दिए, और मै अपना सबकुछ खो कर निकल आई.”

सब कुछ खोकर से क्या मतलब है तुम्हारा? क्या तुम इज्जत की बात कर रही हो? तुमने आगे बढ़ने और सपनों को पूरा करने के लिए जोखिम उठाया, इस जोखिम उठाने को इसलिए गलत नहीं कह सकते क्योंकि तुम एक लड़की हो और सपने बेचने वाले लोग गिद्ध है ! वे जो गिद्घ बने बैठे हैं, उन्हें अपनी इज्जत बचाने के लिए सभ्य होना चाहिए! हां तुम्हारी गलती इतनी है कि जब तुम्हे मैंने आगाह किया, सतर्क होने को समझाया तुमने अपनी धुन में मेरे अनुभव को तवज्जो नहीं दी, सपने देखना और उसके पीछे दौड़ना फिर भी आसान है, लेकिन सपनों को हकीकत में बदलने के लिए जुनून के साथ धीरज की जरूरत होती है, और यह जरा कठिन है!”

“क्या मुझे वापिस समस्तीपुर जाना चाहिए?”

“क्यों? जीवन में कुछ अच्छा सोचने के लिए देहरी तो लांघना ही पड़ता है. मुझे सपने देखना पसंद है, और सपने देखने वाली लड़की भी! अब चलो शुरू से शुरू करते हैं. तुम्हे अब आगे बढ़ाने में मै मदद करूंगा. जिंदगी मसाला चाय नहीं – कि बना और पीया, सपने अच्छे हैं, लेकिन उन्हें हासिल करने में समझदारी चाहिए! समझी !”देवांश ने उसकी आंखों में अपने नजर की मुस्कुराहट बिखेर कर हलके से शिप्रा की हथेली को दबाया. विश्वास और संवेदना से भरी लजाती सी मुस्कान शिप्रा के दिल का हाल बता रही थी.

“सपने पूरे हो जाएं और मुझे भी अपनी जिंदगी में शामिल करना चाहो तो बन्दा हमेशा हाजिर है ! कभी बता नहीं पाया मगर हमेशा चाहता था कि तुमसे दोस्ती हो जाय!”देवांश मन को धीरे धीरे खोल रहा था.

“देवांश तुम जैसे प्यारे इंसान क्या सचमुच के होते हैं? क्या यह भी तो कोई सपना नहीं ! ”

शिप्रा ने देवांश के कंधे पर अपना सर टिका दिया था.मन का बोझ पिघलने लगा था.सपने देखने का अपराध बोध जाता रहा, शिप्रा फिर से हसीन सपनों को सच करने का सपना देखने लगी थी.

Sad Story : रिश्ते सूईधागों से – सारिका ने विशाल के तिरस्कार का क्या दिया जवाब

Sad Story : आजसारिका बहुत उदास थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपने बिखरते घर को कैसे संभाले? चाय का कप ले कर बालकनी में खड़ी हो गई और अतीत के सागर में गोते लगाने लगी…

उस का विवाहित जीवन बहुत खुशमय बीत रहा था. विशाल उस का पति एक खुशमिजाज व्यक्ति था. 2 प्यारेप्यारे बेटों की मां थी सारिका. सबकुछ बहुत अच्छे से चल रहा था. मगर कहते हैं न खुशियों को ग्रहण लगते देर नहीं लगती. ऐसा ही सारिका के साथ हुआ.

अचानक एक दिन विशाल दफ्तर से आ कर गुमसुम बैठ गया तो सारिका ने पूछा, ‘‘क्या हुआ विशाल ऐसे चुप क्यों बैठे हो?’’

‘‘दफ्तर में कर्मचारियों की छंटनी हो रही है और उस में मेरा नाम भी शामिल है,’’ विशाल ने धीमी आवाज में जवाब दिया.

‘‘अरे ऐसा कैसे हो सकता है? तुम तो इतने पुराने और परिश्रमी कर्मचारी हो, दफ्तर के?’’ सारिका गुस्से में बोली.

‘‘यह प्राइवेट नौकरी है और यहां सब हो सकता है और तुम्हें आजकल के दफ्तरों में होने वाली राजनीति के बारे में पता नहीं शायद,’’ विशाल ने उत्तर दिया.

और सच में 3 महीने का नोटिस दे कर विशाल और अनेक कर्मचारियों को मंदी के चलते नौकरी से निकाल दिया गया. एक मध्यवर्गीय परिवार जिस में सिर्फ एक ही सदस्य कमाता हो उस की रोजीरोटी छिन जाने की पीड़ा एक भुग्तभोगी ही समझ सकता है.

उम्र के इस दौर में जहां विशाल 40 वर्ष को पार कर चुका था, अनुभव होने के बावजूद उस की सारी कोशिशें बेकार जा रही थीं. पूरे 2 महीने भटकने के बाद भी हताशा ही हाथ लगी.

आखिर हार कर सारिका ने ही विशाल को सुझव दिया कि कोई छोटामोटा अपना व्यवसाय शुरू करते हैं. स्वयं भी कहां अधिक पढ़ीलिखी थी सारिका. हंसतेखेलते परिवार को न जाने कैसे ग्रहण लग गया कि वह हर समय विशाल छोटीछोटी बातों पर झंझलाता या चिल्लाता.

‘‘सुनोजी, अपने महल्ले की मार्केट में एक दुकान किराए पर ले कर उस में बच्चों के खिलौने और महिलाओं के सौंदर्यप्रसाधन का सामान बेचना शुरू करते हैं. इस में यदि कमाई शुरू हुई तो फिर कुछ आगे बढ़ाने की सोचेंगे.’’

न चाहते हुए भी विशाल को सारिका की बात माननी पड़ी.

2 माह हो चुके थे दुकान खोले पर विशाल तो और चिडि़चिड़ा हो गया था. दोपहर को नौकर राजू विशाल का खाना लेने आया तो उस ने सारिका को बताया, ‘‘अभी फिर एक ग्राहक औरत से साहब ने दुकान में लड़ाई की और वह बिना सामान लिए चली गई,’’

सुन कर सारिका परेशान हो गई.

कहते हैं न औलाद चाहे कितनी भी दूर हो परंतु मां को उस के दुख, मन की थाह दूर बैठेबैठे ही हो जाती है. अभी अपने खयालो में सारिका डूबी हुई ही थी कि अचानक फोन की घंटी बजी. देखा तो उस की मां सरोज का फोन था. आवाज सुनते ही सारिका का रोना निकल गया.

‘‘बहुत दिनों से तू आई नहीं, कुछ देर के लिए मेरे से मिलने आ जा, फिर मांबेटी खूब बात करेंगे.’’

सरोज की बात सुन कर सारिका का भी मन मां से मिलने का कर गया. दोनों बच्चों को बता कर सारिका झटपट मां से मिलने निकल गई.

मायके पहुंचते ही मां की गोद में सिर रख कर फफक कर रो पड़ी. घर पर सिर्फ मां और भतीजा था, भाईभाभी तो अपने काम पर गए हुए थे. अनुभवी मां ने भी बेटी को जी भर कर रो लेने दिया. जानती थीं कि ऐसे ही उन की बेटी यों अचानक उन से मिलने नहीं आई है.

10 मिनट के बाद सरोज बोलीं, ‘‘चल अब बता क्या बात हुई जो मेरी बेटी इतनी परेशान है?’’

‘‘मां, पता नहीं विशाल को क्या हो गया है? हरदम खिलखिलाने वाला विशाल एकदम गुस्सैल व्यक्ति में तबदील हो गया है. आप को पता है कि दुकान पर ग्राहकों से भी गुस्से से बात करता है. अब ग्राहक चीज खरीदने आएंगे तो वे 2-4 तरह की चीजें देखेंगे और तभी खरीदेंगे न और पसंद न आने पर कितनी बार बिना खरीदे हुए भी जाएंगे. हम भी तो एक बार में चीज पसंद नहीं कर लेते न? परंतु विशाल तो ग्राहकों को ही भलाबुरा बोलने लगता है. भला दूसरी बार ग्राहक ऐसी दुकान पर सामान लेने क्यों आएंगे, फिर जहां उन का अपमान वहां?’’ सारिका ने सुबकते हुए कहा.

‘‘तुम ने भी तो दुकान पर जाना शुरू किया था, उस का क्या हुआ?’’ सरोज ने पूछा.

‘‘कुछ दिन मुझ को ले कर गए, फिर पता नहीं अचानक कहने लगे कि मैं अभी

तुम्हें बैठा कर खिला सकता हूं और दुकान पर एक नौकर रख लिया तथा मेरा दुकान पर जाना लगभग बंद कर दिया. अब बताओ आगे ही खर्चा पूरा नहीं पड़ता नौकर का खर्चा भी सिर पर बांध लिया, उस पर घर में रोज का कलहकलेश,’’ सारिका बोली.

‘‘देख बेटी, मेरी बात ध्यान से सुन. सब से पहले तो इस उम्र में नौकरी चले जाने से विशाल के अहं को बहुत बड़ी ठेस पहुंची है. माना उस की इस में कोई गलती नहीं थी, परंतु वह कहीं न कहीं इस के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानता है.

‘‘वैसे भी पुरुष को अपनी हार स्वीकार नहीं होती. दूसरा तेरा पैसा कमाने में सहायता करना बरदाश्त नहीं हो रहा. कहां वह दफ्तर में फाइलों में उलझ रहने वाला व्यक्ति और कहां उसे ऐसे महिलाओं और बच्चों को सामान दिखा कर पैसा कमाना पड़ रहा है, इस से उस के आत्मसम्मान को ठेस पहुंच रही है. हालांकि कोई काम छोटाबड़ा नहीं होता, फिर भी उसे ये सब मजबूरी में करना पड़ रहा है.

‘‘सो सब से पहले तो आज जा कर प्यार से उसे समझ कि इस मुसीबत की घड़ी में तू उस के साथ है. इतने वर्ष उस ने तुझे किसी चीज की कमी नहीं होने दी सो अब तू भी उस के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलना चाहती है. अगर हो सके तो अपनी भाभी का उदाहरण दे देना. दूसरी बात एक ही दिन में चीजें ठीक नहीं होंगी. विशाल के मन की कड़वाहट को मिठास में बदलने में समय लगेगा.

‘‘बेटा अगर विशाल आजकल सूई की तरह दूसरों को चुभने लगा है तो तू धागा बन जा अर्थात अकेली सूई की फितरत चुभने की होती है, परंतु धागे का साथ मिलते ही सूई की फितरत बदलने लगती है. दुकान पर ग्राहकों को सामान तू दिखा और पैसों के काउंटर पर विशाल को बैठा. तू प्रेमरूपी धागे से ग्राहकों को सामान बेच और विशाल ग्राहकों से मोलभाव कर के पैसों का आदानप्रदान करे. साथ ही साथ उस को नौकरी ढूंढ़ने के लिए भी प्रेरित करती रह.

‘‘देखना जब तेरा प्यारभरा साथ होगा तो विशाल अधिक दिन तक निराश नहीं रह पाएगा और हमें हमारा पुराना विशाल वापस मिल ही जाएगा. हर इंसान के वैवाहिक जीवन में कुछ कठिन दौर आते हैं पर यदि घर की औरत समझदारी से काम ले तो वह कठिन समय भी गुजर ही जाता है,’’ समझते हुए सरोज ने प्यार से अपनी बेटी सरोज के सिर पर हाथ फिराया.

अब सारिका के मुख से दुख के बादल छंट गए थे.

‘‘अरे, कहां चल दी?’’ सरोज ने अचानक खड़ी होती सारिका से पूछा.

‘‘इस से पहले मेरी सूई किसी और को चुभे उस का धागा बन कर अपने सपनों को बुनने,’’ सारिका मुसकराते हुए अपनी मां के गले लग कर बोली और चली गई.

आज उस के कदमों में एक नया उल्लास था. उसे उस की मां ने एक मूलमंत्र जो दे दिया था और उस को विश्वास था कि इस मूलमंत्र के साथ वह अपने पुराने विशाल को अवश्य पुन: प्राप्त कर लेगी.

‘‘क्या बात है? आज बहुत खुश लग रही हो?’’ रात को खाने के बाद विशाल ने पूछा.

‘‘आज मां से मिलने गई थी दोपहर को. बहुत दिनों बाद मां से मिल कर बहुत अच्छा लगा,’’ सारिका ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

‘‘मुझ से बिना पूछे तुम मां से मिलने चली गई? अब तो नौकरी के बाद मेरी कोई कद्र ही नहीं रह गई इस घर में,’’ विशाल झल्लाया.

‘‘यह क्या हर रोज एक ही जुमला कसते रहते हो? पहले भी तो मां से मिलने चली जाती थी न तो आज क्या हुआ? और हां, कल से मैं भी तुम्हारे साथ दुकान पर चलूंगी… पहले भी तुम ने कभी मुझे नौकरी करने की इजाजत नहीं दी और अब तो अपना काम है और तुम्हारे साथ दुकान में बैठने में क्या हरज है? राजू को काम से हटा देंगे, फालतू के खर्चे अभी नहीं पालने हमें,’’ आज सारिका की आवाज में एक दृढ़ विश्वास था.

कसमसा कर रह गया विशाल… कुछ

बोला नहीं.

अगले दिन से सारिका ने भी दुकान पर जाना शुरू कर दिया. 2-3 दिन में

ही विशाल ने देखा कि सारिका के प्रेम और कुशलतापूर्वक व्यवहार से दुकान की बिक्री में अधिक वृद्धि हो रही है और ग्राहक एक सामान लेने आता है परंतु सारिका बड़ी चतुराई से दूसरे सामान की भी ऐसी प्रशंसा करती है कि ग्राहक उस सामान को भी लेने को ललचा जाता है.

‘‘देख रहा हूं आजकल दुकान पर बहुत सजसंवर कर आने लगी हो?’’ फिर से विशाल का पौरुष उछाल मारने लगा.

‘‘अपनी ही दुकान का सामान पहन कर खड़ी होती हूं तो तुम ने देखा नहीं कि कल एक महिला ग्राहक ने मेरी पहनी बालियां देख कर खरीद लीं… इस से एक तो दुकान की बिक्री बढ़ती है दूसरा अपनी दुकान पर सजसंवर कर भी न बैठूं क्या? तुम्हारे दफ्तर में क्या औरतें यों ही उठ कर चली आती थीं?’’

सारिका के कहते ही विशाल को गुस्सा चढ़ गया. बहुत तेज गुस्से से बोला, ‘‘आजकल देख रहा हूं बहुत जबान चलने लगी है तुम्हारी. औरत हो औरत बन कर ही रहो, मर्द बन कर सिर पर नाचने की कोशिश न करो. 2-4 दिन से दुकान पर क्या आने लगी हो सोचती हो सारी कमाई तुम ही कर रही हो,’’ विशाल आवेश में बोलता चला जा रहा था उसे इतना भी ध्यान नहीं था कि कब से दरवाजे पर खड़ा उन का सप्लायर आकाश विशाल की सारी बातें सुन रहा था?

जैसे ही विशाल की निगाह उस पर पड़ी एकदम बात पलटते हुए बोला, ‘‘कितने दिनों से फोन कर रहे हैं तुम्हें आज फुरसत मिली, पता है तुम्हें कितना सामान खत्म हुआ पड़ा है और ग्राहक लौट कर जा रहे हैं.’’

विशाल की बात पर आकाश मौन रहा, परंतु सारिका की आंखों में आए आंसू आकाश से न छिप सके.

इतने में विशाल का फोन बजा जो बच्चों के विद्यालय से था कि आज स्कूल बस

नहीं आ पाएगी सो उसे बच्चों को अचानक उन के स्कूल ले जाना पड़ा.

‘‘मैडम आप ठीक तो हैं न?’’ आकाश ने विशाल के जाते ही सारिका से पूछा.

आंखों में आए आंसुओं को पोंछते हुए धीमे से सारिका ने सिर हिलाया. तुरंत सामने की दुकान से जा कर 2 कोल्ड ड्रिंक की बोतल ले आया और सारिका के आगे रख दी.

‘‘जी मैं ठीक हूं, आप ने क्यों तकलीफ की,’’ सारिका ने हिचकिचाहट से कहा.

‘‘आप रोने में व्यस्त थीं और मुझे प्यास लगी थी सो आप तो मुझे पानी पिलाने से रहतीं, इसलिए मैं ले आया और तकल्लुफ कैसा दुकानदार को मैं ने कह दिया है कि इस की पेमैंट सामने खड़ी वह खूबसूरत सी महिला करेगी, जो फिलहाल अपनी दुकान पर बाढ़ लाने में व्यस्त है.’’

आकाश के इस मजाक से सारिका खिलखिला कर हंस पड़ी.

ध्यान से देखा करीब 30 साल के आसपास की उम्र होगी आकाश की, देखने में भी अच्छाखासा था और मुख्य बात थी उस के बातचीत करने का लहजा. आज पहली बार मिलने से ही सारिका को लगा जैसे कोई पुराना दोस्त मिल गया हो और फिर दुकान का सामान खरीदतेखरीदते दोनों ने अपने फोन नंबर आदानप्रदान कर लिए.

जातेजाते आकाश मुड़ते हुए बोला, ‘‘इस बार की कोल्ड ड्रिंक मेरी तरफ से थी परंतु हमारी कौफी आप पर उधार है, सो जब कभी दिल करे एक फोन घुमा देना बंदा हाजिर हो जाएगा. और हां, इतनी खूबसूरत आंखों में आंसू अच्छे नहीं लगते और ऐसे व्यक्ति के कारण आंसू बहाना जिस को औरतों की इज्जत करना न आता हो बिलकुल उचित नहीं, मुझे नहीं मालूम आप ऐसे इंसान के साथ इतने बरसों से कैसे रह रही हैं.’’

आकाश के ये शब्द सारिका के दिल में बस गए. कितने बरसों बाद अपनी खूबसूरती की प्रशंसा सुनी थी. उसे याद ही नहीं था कब विशाल ने उस के साथ आखिरी बार प्यार से बात की थी. सच एक औरत यही तो चाहती है अपने पति से स्नेह भरे शब्द और सम्मान.

पूरी रात सारिका के जेहन में आकाश घूमता रहा. धीरेधीरे दोनों की घनिष्ठता बढ़ती चली गई. स्नेह को तरसी सारिका को उस समय आकाश की दोस्ती रास आने लगी. धीरेधीरे दोनों ने वह अदृश्य सामाजिक रेखा भी लांघ ली.

‘‘तुम क्यों होल सेल मार्केट जा रही हो, अकेले? यहां दुकान पर ही सप्लायर को बुला लेते हैं,’’ विशाल बोला. सारिका में आए परिवर्तन को वह भी देख रहा था.

काफी खुश रहने लगी थी आजकल और विशाल की कही बातों का अब उस पर असर भी नहीं होता था. कुसूर सारिका का नहीं था… जब पुरुष बेवजह के बंधन बांधने लगे, बातबात पर घर की स्त्री का तिरस्कार करने लगे तो औरत के कदम किसी और दिशा का रुख कर ही लेते हैं.

‘‘दुकान पर सप्लायर सिर्फ गिनाचुना सामान ही दिखाते हैं और होल सेल मार्केट में मैं स्वयं अपने यहां आने वाले ग्राहकों की पसंद के अनुरूप सामान खरीद सकती हूं. सौंदर्यप्रसाधनों की तुम्हें क्या पहचान और समझ सो मेरा जाना ही जरूरी है और हां आने वालों ग्राहकों से प्यार से बात करना नहीं तो कोई बिक्री नहीं होगी आज,’’ कहते हुए सारिका पर्स उठा कर चली गई.

विशाल ने गौर किया सारिका कि न केवल उस से सस्ता सामान लाती है बल्कि अधिकतर सप्लायर उसे अधिक समय तक उधारी भी देने को तैयार थे जबकि विशाल की आए दिन उन के साथ बहस होती रहती थी. यदि कुछ देर के लिए सारिका दुकान पर न होती थी तो ग्राहक बिना कुछ खरीदे ही वापस लौट जाते थे.

धीरेधीरे दुकान के कार्यों पर विशाल की पकड़ कम होती जा रही थी. बाहर का सारा कार्य सारिका ने ही संभाला हुआ था. विशाल की भूमिका नगण्य होती जा रही थी. विशाल भीतर ही भीतर सुलगता जा रहा था. सब से अधिक तकलीफ तो उसे उस दिन हुई जब विशाल के मना करने के बावजूद सारिका ने बेटी को पैसे दे कर उसे स्कूल ट्रिप पर भेज दिया. उस जैसे अहं में डूबे हुए इंसान के लिए यह स्वीकार करना बहुत मुश्किल था कि घर के फैसले खासतौर पर बच्चों के भविष्य के लिए एक मां भी निर्णय ले सकती है.

‘‘सुनो मैं 2 दिनों के लिए मुंबई जा रही हूं,’’ सारिका ने कहा.

‘‘मुंबई क्यों जाना है और किस के साथ?’’ आंखों में आए गुस्से को नियंत्रित करते हुए विशाल ने पूछा.

‘‘मैं ने आर्टिफिशियल आभूषणों का व्यापार शुरू करने की सोची है. आकाश वहां कुछ लोगों को जानता है तो उस के साथ वहां से जा कर खरीद कर लाने हैं. परसों सुबह की फ्लाइट से जाएंगे और अगले दिन रात तक वापस आ जाएंगे,’’ सारिका ने जवाब दिया.

‘‘किसी पराए मर्द के साथ तुम्हें जाना शोभा देता है? मैं चलता हूं तुम्हारे साथ,’’ विशाल बोला.

‘‘कमाल करते हो विशाल तुम भी. एक तो तुम वहां किसी को जानते नहीं हो, जबकि आकाश की वहां जानपहचान है और दूसरा यहां बच्चों का खयाल कौन रखेगा? डार्लिंग, यह बिसनैस टूर है कोई घूमनेफिरने थोड़ा जा रही हूं. आप भी तो कितने बिजनैस टूर पर जाते थे… मैं ने तो हमेशा कोऔपरेट किया आप से. बच्चों और ग्राहकों से प्यार से बात करना… पता चले मेरे आने तक बच्चे नानी के घर पहुंच गए और ग्राहक किसी और दुकान के ग्राहक बन गए. चलो अब सोने दो कल तैयारी भी करनी है और परसों सुबह मुझे निकलना है,’’ सारिका ने मुंह फेर कर लेटते हुए कहा.

अपनी ओर से विशाल ने सारिका को अप्रत्यक्ष रूप से रोकने की बहुत

कोशिश की परंतु इस बार विशाल की एक न चली. वह सारिका के इस बदले रूप से हैरान भी था और भयभीत भी.

2 दिन तक जहां सारिका आकाश के साथ मुंबई की सैर में मस्त तो वहीं ये 2 दिन विशाल की आंखें खोलने के लिए पर्याप्त थे. अभीअभी दुकान पर एक पुरानी महिला ग्राहक से विशाल की झड़प हो गई और गुस्से में उस महिला ने सब के सामने कहा, ‘‘भाई साहब बुरा न मानिएगा, आप को तो गर्व होना चाहिए जो सारिकाजी आप के साथ निभा रही है… मेरे जैसी होती तो आप जैसे कर्कश स्वभाव वाले पति से कब का तलाक ले चुकी होती.’’

उस महिला की बात ने विशाल को झकझर दिया. आत्मचिंतन करने पर उसे अपनी गलती का एहसास हुआ. सच ही तो था उस के बुरे बरताव के कारण ही तो सब लोग उस से दूर होते जा रहे थे… बच्चे, सारिका, ग्राहक, सप्लायर सभी… कहीं सारिका भी तो मुझ से तलाक लेने की नहीं सोच रही? नहींनहीं मैं ऐसा नहीं होने दूंगा… मैं अपने व्यवहार को तुरंत बदल कर अपनी सारिका के बहकते कदमों को रोक लूंगा… बस मन में यही दृढ़ निश्चय विशाल ने कर लिया कि वह आज से सभी के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करेगा और सारिका को भरपूर प्यार और सम्मान देगा. आज जीवन में प्रथम बार उसे सारिका के बजाय अपनी गलती दिखाई दी थी.

होंठों पर एक मुसकराहट ला कर अच्छे मन से विशाल सारिका के वापस आने का इंतजार करने लगा ताकि वह अपनी खोई हुई खुशियां वापस ला सके.

Valentine’s Special : पनाह – कौनसा गुनाह कर बैठी थी अनामिका

Valentine’s Special :  अलसाई हुई सी धूप लान की घास पर से उतरती हुई समुद्र किनारे की रेत पर आ बैठी थी. अनामिका आर्म चेयर पर आँखें मूँदे लेटी थी. इतने में एक तेज़ हवा के झोंके ने उसे कंपकँपा दिया और उसने अपना गुलाबी सिल्क का स्कार्फ़ कंधे पर से उतारकर अपने बदन पर लपेटकर उसे चूम लिया. अभी तक उसके वार्डरोब में इन शोख़ रंगो के लिए कोई जगह नहीं थी. बिलकुल उसके दिल की तरह जिसमें सिर्फ़ उदासी, एकाकीपन के सफ़ेद काले रंगों का ही साम्राज्य था . पर आर्यन नाम के रंगरेज ने उसकी ज़िंदगी को, उसके दिल को चटक रंगो से सरोबार कर दिया था.

उसने घड़ी की तरफ़ नज़र डाली और बेचैनी से आर्यन का इंतज़ार करने लगी. आर्यन बैंकाक से लौटने वाला था. अँधेरा गहराने पर वह आर्म चेयर पर से उठ खड़ी हुई और पैरों में स्लीपर डाले अपने कमरे में लगे बड़े आइने तक आयी. आर्यन के प्यार की मख़मली छींट ने उसके गुलाब से चेहरे की रंगत को और भी बढ़ा दिया था जिसे देखकर वह स्वयं मुग्ध हो गई. उसने नीले रंग का गाउन निकालकर पहन लिया. नीला रंग आर्यन को बेहद पसंद था. उसे मालूम था आर्यन उसे टीशर्ट और ट्रैकपैंट में देखते ही कहेगा,’क्यों अपने साथ इतनी नाइंसाफ़ी करती हो, कायनात ने दिल खोलकर नूर बरसाया है आप पर और आप हैं कि आपको इसकी बिल्कूल क़द्र ही नहीं है. मॉडर्न कपड़ों में आप नाज़ुक सी कॉलेज गोइंग गर्ल लगती हैं.’ सोचते ही अनामिका के लबों पर मुस्कान दौड़ गई .

आर्यन के ना पहुँचने पर अनामिका ने उसे फ़ोन लगाया .

” तुम अभी तक आए नहीं ? गाड़ी ड्राइवर तो तुम्हें एरपोर्ट पर मिल गए होंगे ना ?”

” हाई स्वीट हार्ट ! शिट! आई ऐम सो सॉरी! मैं आपको मैसेज करना ही भूल गया । जब आपका काल आया मैं मार्केट में था. वहाँ पर नेटवर्क इश्यू होने से आप से बात ही नहीं हो पाई. अच्छा एक गुड न्यूज़ है, डील पक्की हो गई है. वो लोग हर हफ़्ते माल इम्पोर्ट के लिए तैयार हो गए हैं.”

” ओके, बाई ! कल मिलते हैं. मिसिंग यू !” उसकी ख़ुशी उसकी आवाज़ में झलक रही थी.

” बच्चा है बिलकुल . जल्दी आ जाओ .. आई ऐम मिसिंग यू टू ” फ़ोन रख उसने साइड टेबल पर रखे फ़ोटो फ़्रेम में लगी आर्यन की फ़ोटो को चूमते हुए कहा. आज बहुत अरसे बाद उसने अपना ब्लॉग खोला था जिसमें वह अपनी भावनाओं को , ज़िंदगी के प्रति अपने दृष्टिकोण को बयां करती थी. उसके डैड कहा करते थे उसमें ये आदत उसकी माँ से आई है वह भी वक़्त निकालकर रोज़ एक कविता ज़रूर लिखती थी .माँ को उसने बचपन में ही खो दिया था .

उसके डैड प्रशासनिक सेवा में उच्च अधिकारी थे . उन्होंने उसे माँ बाप दोनों का प्यार देने की भरसक कोशिश की . वह बचपन से ही गम्भीर स्वभाव की थी . दो साल पहले पिता की अकस्मात् मृत्यु ने तो उसे बिलकुल ही ख़ामोश बना दिया था. एक गम्भीरता , रूखापन उसके वजूद का हिस्सा बन गए थे . इस अबेधी आवरण को तोड़कर उसके दिल तक पहुँचना किसी के लिए भी आसान नहीं था.

वह मुंबई की प्रसिद्ध मैनज्मेंट कॉलेज में बिज़्नेस प्लानिंग की प्रोफ़ेसर थी . बात क़रीब दो साल पहले की है . एमबीए की फ़र्स्ट ईयर की क्लास में पहला पिरीयड अनामिका का ही था . आर्यन अक्सर आधा पिरीयड निकल जाने पर क्लास में आ ता था. कईदिनों तक तो अनामिका कुछ नहीं बोली , पर उस दिन उसे वार्न कर दिया,

” आज का दिन आप क्लास के बाहर ही रहिए , कल अपने आप समय से क्लास में हाज़िर हो जाएँगे .” वह बिना किसी बहस के सिर झुकाता हुआ क्लास से बाहर निकल गया . बाद में स्टाफ़ रूम में उसकी इकलौती सहेली पल्लवी से उसे पता चला की वह किस मजबूरी के चलते लेट आ रहा था .

” आज तेरी क्लास के समय आर्यन लॉन में क्यों था ?”

“इन जैसे लड़कों को पढ़ने से कोई लेना – देना नहीं है ये अपने पिता की पावर के दम पर सिर्फ़ डिग्री हासिल करने कॉलेज चले आते हैं .”

” तू आर्यन के बारे में ग़लत सोच रही है . उसके तो पिता ही नहीं है . वह बोरिवली में एक एनजीओ द्वारा संचालित बॉय्ज़ होम में रहकर पला – बढ़ा है . उसे यहाँ तक पहुँचने में दो ट्रेन बदलनी पड़ती है . बहुत ही अच्छा लड़का है , दूसरों से बिलकुल हटकर . तू एक काम कर सकती है . उसे अपने बंगले पर पेइंग गेस्ट की तरह रख ले . इससे अंकल के जाने के बाद तेरी ज़िंदगी में आया सूनापन भी भर जाएगा .”

उस समय तो उसने पल्लवी की बात को हवा में उड़ा दिया था . पर साल भर में अनामिका ने भी परख लिया था कि आर्यन पढ़ाई के प्रति कितना गम्भीर है . वह अपना अतिरिक्त समय और लड़कों की तरह कैंटीन में ना बिता लाइब्रेरी में बिताता था और शाम के समय स्कूली बच्चों के ट्यूशन्स ले अपना ख़र्चा ख़ुद निकालता था .

बहुत सोच – विचार के बाद अनामिका ने पल्लवी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था . उसका ज़ूहु पर सी फ़ेसिंग बंगलो था जिससे कॉलेज दस मिनीट की ही दूरी पर था . अब आर्यन, अनामिका के साथ उसकी गाड़ी में ही कॉलेज जानेआने लगा था . आर्यन के सानिध्य से अनामिका के आँसू हँसी में और उदासी शोख़ी में बदल गई थी . दोनों साथ में बैठ कर पढ़ा करते थे . अनामिका अपनी थिसिस लिखती और आर्यन इग्ज़ाम की तैयारी करता . कुछ लिखते – पढ़ते समय उसके हाथ से आर्यन का हाथ छू जाए तो उसके मन के तार झन्कृत होने लगते थे . दोनों के दरमियान एक अजीब सी मादकता और तन्मयता पसरी रहती . एक दिन ऐसे ही अवसर पर आर्यन ने अनामिका का हाथ पकड़ लिया .

“मैम आपको नहीं लगता अब हमारे रिश्ते को एक नाम मिल जाना चाहिए ?” कहते हुए आर्यन कुर्सी पर से उठकर उसके पैरों के पास घास पर ही बैठ गया .

“विल यू मैरी मी ?”उसके स्वर में भावुक सी याचना थी . पल भर को वह सिर से पैर तक काँप उठी .

” पागल मत बनो आर्यन .. एक बार ये सोचने से पहले हम दोनों के बीच का उम्र का फ़ासला तो देख लेते . ”

” मैंने आपसे प्यार करते वक़्त आपकी उम्र को नही आपकी रूह को परखा था .”और उसने अनामिका के लिए एक शायरी कह डाली .

“पनाह मिल जाए रूह को

जिसका हाथ छूकर

उसी की हथेली को घर बना लो ”

” अच्छा तो आप शायरी भी कर लेते हैं ?”

” कॉपी पेस्ट है .” आर्यन ने शरारत से कहा .

. आर्यन , अनामिका की ज़िन्दगी में ताजे हवा के झोंके की तरह था . उसका ऐसा साथी जिसका साहचर्य उसे ख़ुशी देता था पर उसे वह बच्चा ही मानती थी . उनके बीच कभी प्रणय का फूल भी खिल सकता है इसकी तो अनामिका ने कभी कल्पना भी नहीं की थी .बड़ी देर तक इसी उधेड़बुन में डूबे जाने कब उसे गहरी नींद ने घेर लिया .

◦ सवेरे उसके कमरे की खिड़की पर बैठे कबूतर की गुटर गु ने उसे नींद से जगा दिया नहीं तो जाने वह कितनी देर तक सोती रहती . आज उसे मौसम और दिनों से अलग लग रहा था . आसमान में तैर रहे गुलाबी बादलों की आभा में उसकी खिड़की पर लटक कर आ रही रंगून क्रीपर भी गुलाबी लग रही थी क्योंकि आज उसके मन का मौसम गुलाबी हो रहा था .एक नई ज़िंदगी उसे बाँहें फैलाकर अपनी गोद में बुला रहे थे .

◦ आर्यन की फ़ाइनल इग्ज़ैम्ज़ हो जाने पर दोनों ने कोर्ट मैरिज कर ली और बैंकॉक के लिए निकल गए . बैंकॉक चुनने के पीछे एक और कारण था , आर्यन वहाँ से इम्पोर्ट का बिज़्नेस शुरू करना चाहता था . उन्होंने चाओ फ्राया रिवर के पास की होटेल में रूम ले लिया था . दोनों के लिए सबकुछ स्वप्न की तरह था . एक ख़ुमारी , एक अनकही सी अनुभूति भरे वह लम्हे जिसे हर दिल हमेशा के लिए संजो लेना चाहता हो . आर्यन , अनामिका को रिवर फ़्रंट पर बिठाकर ख़ुद पास ही स्थित परत्युमन मार्केट केलिए निकल जाता था. अनामिका घंटों बैठी हुई दूर – दूर तक फैले हुए उस नदी के विस्तार को , उसके दामन में विहार करती नौकाओं को निहारती रहती . उसकी छुट्टियाँ ख़त्म होने को थी . पंद्रह दिन बाद वो फिर से मुंबई आ गई और आर्यन दो दिन बाद लौटने वाला था .

सबकुछ बहुत अच्छा चल रहा था एक हसीन ख़्वाब की तरह .महीने भर बाद ही अनामिका को नन्हें क़दमों की आहट हुई थी . उस दिन उसने डिनर मेपुडिंग के तीन बोल डाइनिंग टेबल पर रखे . एक बोल उसने आर्यन के आगे कर दिया और दो बोल ख़ुद लेकर बैठ गई .

आप ग़लती से दो बोल ले आई है .”

” ग़लती से नहीं , एक मेरा और एक ..”उसने अपने पेट पर हाथ रख लिया .

“आई नो , आपको पुडिंग बहुत पसंद है . एक से आपका जी ही नहीं भरता है .” कहकर आर्यन खिलखिलाने लगा .

” बुद्धू तुम डैड बनने वाले हो .”

सुनकर आर्यन ख़ुश नहीं असमंजस में था. उसे समझ नहीं आया वह क्या प्रतिक्रिया दे . इसके लिए शायद वो मानसिक रूप से तैयार ही नहीं था .

एक महीने बाद अनामिका की डिलिवरी होने वाली थी . इधर आर्यन की व्यस्तता बढ़ती जा रही थी . उसका एक पैर बैंकॉक और एक मुंबई में रहता था . पर जितना समय वह अनामिका के पास रहता उसे पलकों पर बिठाकर रखता था .

” बस अब पंद्रह दिन अपने सारे टूर कैन्सल कर दो . मुझे अकेले डर लगता है . डॉक्टर कह रही थी अब बेबी कभी भी इस दुनिया में क़दम रख सकता है . मैं चाहती हूँ अब तुम पूरा समय मेरे साथ रहो . मुझे लेबर पेन के नाम से ही डर लगता है . “सुनते ही उसने अनामिका का चेहरा हाथ में ले लिया .

” मैं हूँ ना .. मैं अपनी अनामिका को कुछ नहीं होने दूँगा . ”

कहते हुए उसने अनामिका के हाथ की छोटी – छोटी अंगुलिया अपनी अंगुलियों के बीच फँसा ली .

“कहते है माँ के सामने जिसका चेहरा होता है बेबी में उसकी छवि आती है . ” आर्यन कभी भी अनामिका की बात नहीं टालता था . वह उसे हर हाल में ख़ुश देखना चाहता था . यही नहीं उसने लेबर रूम की विडीओ ग्राफ़ीकर उनके जीवन में आए उन अनमोल पलों को भी सदा के लिए क़ैद कर लिया .

उन्होंने उस नन्ही परी का नाम आर्या रखा . वह बिलकुल अपने पिता की शक्ल लिए थी . गोरा चिट्टा रंग , सुनहरे बाल और भोले चेहरे के बीच भूरी चमकीली आँखें . अब अनामिका की ज़िंदगी आर्या तक ही सिमट कर रह गई थी .

इधर कई दिनों से अनामिका ,आर्यन में बदलाव सा महसूस कर रही थी . अब वह जब तब आवेश में आकर उसे गोद में उठाने की , बाँहों में भरने की या बात बात पर उसे चूमने की चेष्टा नहीं करता था . हाँ वह आर्या से बहुत प्यार करता था . पर उसके प्रेम में पिता वाला बड़प्पन , दुलार या चिंता नहीं थी बल्कि एक बेफ़िक्री और आकर्षण था जो एक बच्चे को अपने प्रिय खिलौने के प्रति होता है . वह समझ गई थी उसे अपनी ज़िम्मेदारियों को समझने के लिए थोड़ा वक़्त देने की ज़रूरत है . अब आर्या एक महीने की हो गई थी . उस दिन वो पिंक नैट की फ़्रॉक में थी .

“वाउ ! माई स्वीट प्रीटी डॉल .. लेट्स टेक अ सेल्फ़ी ”

” ग्रेट आइडिया ! वैसे भी हमारी एक भी फ़ैमिली पिक नहीं है .” उस फ़ोटो को अनामिका ने अपने मोबाइल पर प्रोफ़ायल पिक की तरह सेट कर दिया और फिर आर्यन के फ़ोन को लेकर उस पर भी सेट करने लगी . इतने में स्क्रीन पर एक मैसेज पॉप अप हुआ . अनामिका ने उस मैसेज को खोला जिस पर लिखा था ” मिसिंग यू “.

अनामिका ने फ़ोन आर्यन की तरफ़ बढ़ा दिया . उसकी मासूम आँखों में प्रश्न थे .

” अनामिका मैं आपसे इस बारे में बात करने ही वाला था . ये चिमलिन है . आप ही की तरह बहुत प्यारी और मासूम है . मैं आप दोनों से बहुत प्यार करता हूँ पर इसे भी नहीं छोड़ सकता . ये मजबूरी के चलते सेक्स वर्कर की तरह काम कर रही थी . पर दिल की बहुत अच्छी है .इसकी वहाँ के होलसेल मार्केट्स में बहुत पहचान है . अनामिका आज मैं जो भी हूँ इसी की बदौलत हूँ . वर्ना मैं इतना बड़ा बिज़्नेस खड़ा नहीं कर पाता . उसे मेरी ज़रूरत है . और उसने मुझसे वादा किया है कि वह जल्दी ही उस दुनिया से बाहर आ जाएगी . आप उसे अपनी छोटी बहन की तरह नहीं अपना सकती ? मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि उसके आने से हमारे रिश्ते पर कोई आँच नहीं आएगी .”

अनामिका निशब्द सी सब सुन रही थी उसे लगा कोई उसके कानो में पिघला हुआ शीशा उँडेल रहा हो . कहते हुए आर्यन उसके कंधे पर अपना सिर रखने लगा . अनामिका धीरे से उसका सिर हटा देती है .

” आई ऐम सॉरी ! नाराज़ हो क्या ? “आर्यन केपूछने पर अनामिका चीख़ – चीख़ कर कहना चाहती थी उसे तुम्हारी ज़रूरत है और हम दोनों ? आज तुम जो भी हो उसकी बदौलत हो . मेरे प्यार का, समर्पण का क्या ? मैंने तुम्हें अपने दिल में पनाह दी अपने घर में जगह दी .” पर नहीं कह पाई जैसे उसकी आवाज़ गले में ही घुट गई थी . उसकी तरफ़ से कोई भी जवाब ना मिलने पर आर्यन वहाँ से उठकर चला गया . वह उसे तब तक देखती रहती है जब तक वह उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गया . उसे लगता है वह उन लोगों से बहुत दूर चला गया है .

,उस दिन के बाद से घर में एक ख़ामोशी , एक सूनापन सा पसर गया . आर्यन हफ़्ते भर से बैंकॉक में था . अनामिका निरुद्देश्य सी लॉन में बैठी हुई थी . शाम का धुँधलका उसके मन को और भी विचलित कर रहा था .लॉन पर रखी टेबल पर , बग़ीचे के मुस्कुराते फूलो पर उसे आर्यन का ही वजूद नज़र आ रहा था . उसकी नज़र सामने खड़े गुलमोहर के पेड़ के तने पर ख़ुदेदिल में लिखे दोनों के नाम पर जाती है और वह आँखें मूँद कर बैठ जाती है . ” तो क्या आर्यन का प्यार मात्र मेरा भ्रम था . एक छलावा था . नहीं वह स्पर्श जिसने उसके मेरे तन – मन को भिगो दिया था , उसकी आँखों से छलकता मौन प्रेम जो उसके हृदय को परत दर परत खोल कर रख देता है . भ्रम नहीं हो सकता . “वह आर्यन को फ़ोन लगाती है . तीन चार बार फ़ोन लगाने पर आर्यन फ़ोन नहीं उठाता है तो उसे लगता है आर्यन उनसे रूठ कर बहुत दूर चला गया है .

अनामिका की सारी रात करवटें बदलने में ही निकल गई . सुबह होने को है पर आसमान अभी भी अंधेरे की गिरफ़्त में है . उसे लगता है यह अंधकार धीरे – धीरे उस पर भी हावी हो रहा है . वह सहमकर बैठ जाती है . वह फिर से आर्यन को फ़ोन लगाती है . सामने से लड़की की आवाज़ सुनकर फ़ोन रखने ही वाली होती है कि , ” आई ऐम फ्रॉम सिटी हॉस्पिटल बैंकॉक .”

हॉस्पिटल का नाम सुनते ही फ़ोन पर से उसकी पकड़ ढीली होने लगती है पर वह अपने आप को संभाल लेती है . उसे बताया जाता हैं कि आर्यन में कोरोना वाइरस के प्रारम्भिक लक्षण दिख रहे हैं इसलिए उसे आइसोलेटेड वार्ड में रखा गया है . बहुत गुज़ारिश करने पर वो आर्यन की बात करवाने को तैयार हो जाते हैं .

” हेलो , अनामिका .. मुझे ले जाओ यहाँ से .. मैं बेहद अकेला पड़ गया हूँ . मुझे कुछ नहीं हुआ है , सिर्फ़ वाइरल था . मेरे रिपोर्ट्स भी नोर्मल आई है पर ये लोग कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है . “इसके बाद आर्यन की आवाज़ सिसकियों में बदल गई .

अनामिका की सांसें थम सी जाती है . उसे अपने शरीर में असीम पीड़ा का अनुभव होता है . तब उसे अहसास होता है आर्यन के प्यार की जड़ें उसके हृदय की कितनी गहराई तक जमी हुई है . वह अपने डैड के सम्पर्क के बल पर आर्यन को भारत लाने के लिए एड़ी – चोटी का ज़ोर लगा देती है .

उसकी भाग – दौड़ का नतीजा है कि आर्यन आज एक महीने बाद लौटने वाला है . पर आज से उसने अपनी कॉलेज भी जॉंइन कर ली है और आर्या के लिए भी वहीं डे केर की व्यवस्था कर दी है .वह आर्यन के लिए अपने बंगले के पास वाला क्वॉर्टर खुलवाँ देती है और आर्यन का सारा सामान भी वहीं शिफ़्ट करवा देती है . क्वार्टर के दरवाज़े पर आर्यन के लिए एक चिट छोड़ दी.

” अपने दिल में पनाह देने के लिए शुक्रिया ! मैं मानती हूँ जीवन के ख़ूबसूरत सफ़र में राही मिल जाया करते है. पर हम हर एक अनजान राही के साथ आशियाना बनाने की भूल तो नहीं करते है . बस मैं यही गुनाह कर बैठी . मेरा सब कुछ तुम्हारा है क्योंकि मैंने प्यार किया है तुमसे . सच्चा प्यार लेना नहीं देना सिखाता है . पर माफ़ करना आर्यन इस बेवफ़ाई के बदले में तुम्हें फिर से अपने दिल में पनाह ना दे पाऊँगी .

तुम्हारी ,

अनामिका मैम

लेखिका- मेहा गुप्ता 

Love Story 2025 : सबसे हसीन वह

Love Story 2025 : इन दिनों अनुजा की स्थिति ‘कहां फंस गई मैं’ वाली थी. कहीं ऐसा भी होता है भला? वह अपनेआप में कसमसा रही थी.

ऊपर से बर्फ का ढेला बनी बैठी थी और भीतर उस के ज्वालामुखी दहक रहा था. ‘क्या मेरे मातापिता तब अंधेबहरे थे? क्या वे इतने निष्ठुर हैं? अगर नहीं, तो बिना परखे ऐसे लड़के से क्यों बांध दिया मु झे जो किसी अन्य की खातिर मु झे छोड़ भागा है, जाने कहां? अभी तो अपनी सुहागरात तक भी नहीं हुई है. जाने कहां भटक रहा होगा. फिर, पता नहीं वह लौटेगा भी या नहीं.’

उस की विचारशृंखला में इसी तरह के सैकड़ों सवाल उमड़तेघुमड़ते रहे थे. और वह इन सवालों को  झेल भी रही थी.  झेल क्या रही थी, तड़प रही थी वह तो.

लेकिन जब उसे उस के घर से भाग जाने के कारण की जानकारी हुई, झटका लगा था उसे. उस की बाट जोहने में 15 दिन कब निकल गए. क्या बीती होगी उस पर, कोई तो पूछे उस से आ कर.

सोचतेविचारते अकसर उस की आंखें सजल हो उठतीं. नित्य 2 बूंद अश्रु उस के दामन में ढुलक भी आते और वह उन अश्रुबूंदों को देखती हुई फिर से विचारों की दुनिया में चली जाती और अपने अकेलेपन पर रोती.

अवसाद, चिड़चिड़ाहट, बेचैनी से उस का हृदय तारतार हुआ जा रहा था. लगने लगा था जैसे वह अबतब में ही पागल हो जाएगी. उस के अंदर तो जैसे सांप रेंगने लगा था. लगा जैसे वह खुद को नोच ही डालेगी या फिर वह कहीं अपनी जान ही गंवा बैठेगी. वह सोचती, ‘जानती होती कि यह ऐसा कर जाएगा तो ब्याह ही न करती इस से. तब दुनिया की कोई भी ताकत मु झे मेरे निर्णय से डिगा नहीं सकती थी. पर, अब मु झे क्या करना चाहिए? क्या इस के लौट आने का इंतजार करना चाहिए? या फिर पीहर लौट जाना ही ठीक रहेगा? क्या ऐसी परिस्थिति में यह घर छोड़ना ठीक रहेगा?’

वक्त पर कोई न कोई उसे खाने की थाली पहुंचा जाता. बीचबीच में आ कर कोई न कोई हालचाल भी पूछ जाता. पूरा घर तनावग्रस्त था. मरघट सा सन्नाटा था उस चौबारे में. सन्नाटा भी ऐसा, जो भीतर तक चीर जाए. परिवार का हर सदस्य एकदूसरे से नजरें चुराता दिखता. ऐसे में वह खुद को कैसे संभाले हुए थी, वह ही जानती थी.

दुलहन के ससुराल आने के बाद अभी तो कई रस्में थीं जिन्हें उसे निभाना था. वे सारी रस्में अपने पूर्ण होने के इंतजार में मुंहबाए खड़ी भी दिखीं उसे. नईनवेली दुलहन से मिलनजुलने वालों का आएदिन तांता लग जाता है, वह भी वह जानती थी. ऐसा वह कई घरों में देख चुकी थी. पर यहां तो एकबारगी में सबकुछ ध्वस्त हो चला था. उस के सारे संजोए सपने एकाएक ही धराशायी हो चले थे. कभीकभार उस के भीतर आक्रोश की ज्वाला धधक उठती. तब वह बुदबुदाती, ‘भाड़ में जाएं सारी रस्मेंरिवाज. नहीं रहना मु झे अब यहां. आज ही अपना फैसला सुना देती हूं इन को, और अपने पीहर को चली जाती हूं. सिर्फ यही नहीं, वहां पहुंच कर अपने मांबाबूजी को भी तो खरीखोटी सुनानी है.’ ऐसे विचार उस के मन में उठते रहे थे, और वह इस बाबत खिन्न हो उठती थी.

इन दिनों उस के पास तो समय ही समय था. नित्य मंथन में व्यस्त रहती थी और फिर क्यों न हो मंथन, उस के साथ ऐसी अनूठी घटना जो घटी थी, अनसुल झी पहेली सरीखी. वह सोचती, ‘किसे सुनाऊं मैं अपनी व्यथा? कौन है जो मेरी समस्या का निराकरण कर सकता है? शायद कोईर् भी नहीं. और शायद मैं खुद भी नहीं.’

फिर मन में खयाल आता, ‘अगर परीक्षित लौट भी आया तो क्या मैं उसे अपनाऊंगी? क्या परीक्षित अपने भूल की क्षमा मांगेगा मुझ से? फिर कहीं मेरी हैसियत ही धूमिल तो नहीं हो जाएगी?’ इस तरह के अनेक सवालों से जू झ रही थी और खुद से लड़ भी रही थी अनुजा. बुदबुदाती, ‘यह कैसी शामत आन पड़ी है मु झ पर? ऐसा कैसे हो गया?’

तभी घर के अहाते से आ रही खुसुरफुसुर की आवाजों से वह सजग हो उठी और खिड़की के मुहाने तक पहुंची. देखा, परीक्षित सिर  झुकाए लड़खड़ाते कदमों से, थकामांदा सा आंगन में प्रवेश कर रहा था.

उसे लौट आया देखा सब के मुर झाए चेहरों की रंगत एकाएक बदलने लगी थी. अब उन चेहरों को देख कोई कह ही नहीं सकता था कि यहां कुछ घटित भी हुआ था. वहीं, अनुजा के मन को भी सुकून पहुंचा था. उस ने देखा, सभी अपनीअपनी जगहों पर जड़वत हो चले थे और यह भी कि ज्योंज्यों उस के कदम कमरे की ओर बढ़ने लगे. सब के सब उस के पीछे हो लिए थे. पूरी जमात थी उस के पीछे.

इस बीच परीक्षित ने अपने घर व घर के लोगों पर सरसरी निगाह डाली. कुछ ही पलों में सारा घर जाग उठा था और सभी बाहर आ कर उसे देखने लगे थे जो शर्म से छिपे पड़े थे अब तक. पूरा महल्ला भी जाग उठा था.

जेठानी की बेटी निशा पहले तो अपने चाचा तक पहुंचने के लिए कदम बढ़ाती दिखी, फिर अचानक से अपनी नई चाची को इत्तला देने के खयाल से उन के कमरे तक दौड़तीभागतीहांफती पहुंची. चाची को पहले से ही खिड़की के करीब खड़ी देख वह उन से चिपट कर खड़ी हो गई. बोली कुछ भी नहीं. वहीं, छोटा संजू दौड़ कर अपने चाचा की उंगली पकड़ उन के साथसाथ चलने लगा था.

परीक्षित थके कदमों से चलता हुआ, सीढि़यां लांघता हुआ दूसरी मंजिल के अपने कमरे में पहुंचा. एक नजर समीप खड़ी अनुजा पर डाली, पलभर को ठिठका, फिर पास पड़े सोफे पर निढाल हो बैठ गया और आंखें मूंदें पड़ा रहा.

मिनटों में ही परिवार के सारे सदस्यों का उस चौखट पर जमघट लग गया. फिर तो सब ने ही बारीबारी से इशारोंइशारों में ही पूछा था अनुजा से, ‘कुछ बका क्या?’

उस ने एक नजर परीक्षित पर डाली. वह तो सो रहा था. वह अपना सिर हिला उन सभी को बताती रही, अभी तक तो नहीं.’

एक समय ऐसा भी आया जब उस प्रागंण में मेले सा समां बंध गया था. फिर तो एकएक कर महल्ले के लोग भी आते रहे, जाते रहे थे और वह सो रहा था जम कर. शायद बेहोशी वाली नींद थी उस की.

अनुजा थक चुकी थी उन आनेजाने वालों के कारण. चौखट पर बैठी उस की सास सहारा ले कर उठती हुई बोली, ‘‘उठे तो कुछ खिलापिला देना, बहू.’’ और वे अपनी पोती की उंगली पकड़ निकल ली थीं. माहौल की गर्माहट अब आहिस्ताआहिस्ता शांत हो चुकी थी. रात भी हो चुकी थी. सब के लौट जाने पर अनुजा निरंतर उसे देखती रही थी. वह असमंजस में थी. असमंजस किस कारण से था, उसे कहां पता था.

परिवार के, महल्ले के लोगों ने भी सहानुभूति जताते कहा था, ‘बेचारे ने क्या हालत बना रखी है अपनी. जाने कहांकहां, मारामारा फिरता रहा होगा? उफ.’

आधी रात में वह जगा था. उसी समय ही वह नहाधो, फिर से जो सोया पड़ा, दूसरी सुबह जगा था. तब अनुजा सो ही कहां पाई थी. वह तो तब अपनी उल झनोंपरेशानियों को सहेजनेसमेटने में लगी हुई थी.

वह उस रात निरंतर उसे निहारती रही थी. एक तरफ जहां उस के प्रति सहानुभूति थी, वहीं दूसरी तरफ गहरा रोष भी था मन के किसी कोने में.

सहानुभूति इस कारण कि उस की प्रेमिका ने आत्महत्या जो कर ली थी और रोष इस बात पर कि वह उसे छोड़ भागा था और वह सजीसंवरी अपनी सुहागसेज पर बैठी उस के इंतजार में जागती रही थी. वह उसी रात से ही गायब था. फिर सुहागरात का सुख क्या होता है, कहां जान पाई थी वह.

उस रात उस के इंतजार में जब वह थी, उस का खिलाखिला चेहरा पूनम की चांद सरीखा दमक रहा था. पर ज्यों ही उसे उस के भाग खड़े होने की खबर मिली, मुखड़ा ग्रहण लगे चांद सा हो गया था. उस की सुर्ख मांग तब एकदम से बु झीबु झी सी दिखने लगी थी. सबकुछ ही बिखर चला था.

तब उस के भीतर एक चीत्कार पनपी थी, जिसे वह जबरन भीतर ही रोके रखे हुए थी. फिर विचारों में तब यह भी था, ‘अगर उस से मोहब्बत थी, तो मैं यहां कैसे? जब प्यार निभाने का दम ही नहीं, तो प्यार किया ही क्यों था उस से? फिर इस ने तो 2-2 जिंदगियों से खिलवाड़ किया है. क्या इस का अपराध क्षमायोग्य है? इस के कारण ही तो मु झे मानसिक यातनाएं  झेलनी पड़ी हैं. मेरा तो अस्तित्व ही अधर में लटक गया है इस विध्वंसकारी के कारण. जब इतनी ही मोहब्बत थी तो उसे ही अपना लेता. मेरी जिंदगी से खिलवाड़ करने का हक इसे किस ने दिया?’ तब उस की सोच में

यह भी होता, ‘मैं अनब्याही तो नहीं कहीं? फिर, कहीं यह कोई बुरा सपना

तो नहीं?’

दूसरे दिन भी घर में चुप्पी छाई रही थी. वह जागा था फिर से. घर वालों को तो जैसे उस के जागने का ही इंतजार था.  झटपट उस के लिए थाली परोसी गई. उस ने जैसेतैसे खाया और एक बार फिर से सो पड़ा और बस सोता ही रहा था. यह दूसरी रात थी जो अनुजा जागते  बिता रही थी. और परीक्षित रातभर जाने क्याक्या न बड़बड़ाता रहा था. बीचबीच में उस की सिसकियां भी उसे सुनाई पड़ रही थीं. उस रात भी वह अनछुई ही रही थी.

फिर जब वह जागा था, अनुजा के समीप आ कर बोला, तब उस की आवाज में पछतावे सा भाव था, ‘‘माफ करना मु झे, बहुत पीड़ा पहुंचाई मैं ने आप को.’’

‘आप को,’ शब्द जैसे उसे चुभ गया. बोली कुछ भी नहीं. पर इस एक शब्द ने तो जैसे एक बार में ही दूरियां बढ़ा दी थीं. उस के तो तनबदन में आग ही लग गई थी.

रिमझिम, जो उस का प्यार थी, इस की बरात के दिन ही उस ने आत्महत्या कर ली थी. लौटा, तो पता चला. फिर वह भाग खड़ा हुआ था.

लौटने के बाद भी अब परीक्षित या तो घर पर ही गुमसुम पड़ा रहता या फिर कहीं बाहर दिनभर भटकता रहता. फिर जब थकामांदा लौटता तो बगैर कुछ कहेसुने सो पड़ता.

ऐसे में ही उस ने उसे रिमझिम झोड़ कर उठाया और पहली बार अपनी जबान खोली थी. तब उस का स्वर अवसादभरा था, ‘‘मैं पराए घर से आई हूं. ब्याहता हूं आप की. आप ने मु झ से शादी की है, यह तो नहीं भूले होंगे आप?’’

वह निरीह नजरों से उसे देखता रहा था. बोला कुछ भी नहीं. अनुजा को उस की यह चुप्पी चुभ गई. वह फिर से बोली थी, तब उस की आवाज विकृत हो आई थी.

‘‘मैं यहां क्यों हूं? क्या मु झे लौट जाना चाहिए अपने मम्मीपापा के पास? आप ने बड़ा ही घिनौना मजाक किया है मेरे साथ. क्या आप का यह दायित्व नहीं बनता कि सबकुछ सामान्य हो जाए और आप अपना कामकाज संभाल लो. अपने दायित्व को सम झो और इस मनहूसियत को मिटा डालो?’’

चंद लमहों के लिए वह रुकी. खामोशी छाई रही. उस खामोशी को खुद ही भंग करते हुए बोली, ‘‘आप के कारण ही पूरे परिवार का मन मलिन रहा है अब तक. वह भी उस के लिए जो आप की थी भी नहीं. अब मैं हूं और मु झे आप का फैसला जानना है. अभी और अभी. मैं घुटघुट कर जी नहीं सकती. सम झे आप?’’

अनुजा के भीतर का दर्द उस के चेहरे पर था, जो साफ  झलक रहा था. परीक्षित के चेहरे की मायूसी भी वह भलीभांति देख रही थी. दोनों के ही भीतर अलगअलग तरह के  झं झावात थे,  झुं झलाहट थी.

परीक्षित उसे सुनता रहा था. वह उस के चेहरे पर अपनी नजरें जमाए रहा था. वह अपने प्रति उपेक्षा, रिमिझम के प्रति आक्रोश को देख रहा था. जब उस ने चुप्पी साधी, परीक्षित फफक पड़ा था और देररात फफकफफक कर रोता ही रहा था. अश्रु थे जो उस के रोके नहीं रुक रहे थे. तब उस की स्थिति बेहद ही दयनीय दिखी थी उसे.

वह सकपका गई थी. उसे अफसोस हुआ था. अफसोस इतना कि आंखें उस की भी छलक आई थीं, यह सोच कर कि ‘मु झे इस की मनोस्थिति को सम झना चाहिए था. मैं ने जल्दबाजी कर दी. अभी तो इस के क्षतविक्षत मन को राहत मिली भी नहीं और मैं ने इस के घाव फिर से हरे कर दिए.’

उस ने उसे चुप कराना उचित नहीं सम झा. सोचा, ‘मन की भड़ास, आंसुओं के माध्यम से बाहर आ जाए, तो ही अच्छा है. शायद इस से यह संभल ही जाए.’ फिर भी अंतर्मन में शोरगुल था. उस में से एक आवाज अस्फुट सी थी, ‘क्या मैं इतनी निष्ठुर हूं जो इस की वेदना को सम झने का अब तक एक बार भी सोचा नहीं? क्या स्त्री जाति का स्वभाव ही ऐसा होता है जो सिर्फ और सिर्फ अपना खयाल रखती है? दूसरों की परवा करना, दूसरों की पीड़ा क्या उस के आगे कोई महत्त्व नहीं रखती? क्या ऐसी सोच होती है हमारी? अगर ऐसा ही है तो बड़ी ही शर्मनाक बात है यह तो.’

उस की तंद्रा तब भंग हुई थी जब वह बोला, ‘‘शादी हो जाती अगर हमारी तो वह आप के स्थान पर होती आज. प्यार किया था उस से. निभाना भी चाहता था. पर इन बड़ेबुजुर्गों के कारण ही वह चल बसी. मैं कहां जानता था कि वह ऐसा कर डालेगी.’’

‘‘पर मेरा क्या? इस पचड़े में मैं दोषी कैसे? मु झे सजा क्यों मिल रही है? आप कहो तो अभी, इसी क्षण अपना सामान समेट कर निकल जाऊं?’’

‘‘देखिए, मु झे संभलने में जरा वक्त लगेगा. फिर मैं ने कब कहा कि आप यह घर छोड़ कर चली जाओ?’’

तभी अनुजा फिर से बिफर पड़ी, ‘‘वह हमारे वैवाहिक जीवन में जहर घोल गई है. अगर वह भली होती तो ऐसा कहर तो न ढाती? लाज, शर्म, परिवार का मानसम्मान, मर्यादा भी तो कोई चीज होती है जो उस में नहीं थी.’’

‘‘इतनी कड़वी जबान तो न बोलो उस के विषय में जो रही नहीं. ऊलजलूल बकना क्या ठीक है? फिर उस ने ऐसा क्या कर दिया?’’ वह एकाएक आवेशित हो उठा था.

वह एक बार फिर से सकपका गई थी. उसे, उस से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा तो नहीं थी. फिर वह अब तक यह बात सम झ ही नहीं पाई थी कि गलत कौन है. क्या वह खुद? क्या उस का पति? या फिर वह नासपीटी?

देखतेदेखते चंद दिन और बीत गए. स्थिति ज्यों की त्यों ही बनी रही थी. अब उस ने उसे रोकनाटोकना छोड़ दिया था और समय के भरोसे जी रही थी.

परीक्षित अब भी सोते में, जागते में रोतासिसकता दिखता. कभी उस की नींद उचट जाने पर रात के अंधेरे में ही घर से निकल जाता. घंटों बाद थकाहारा लौटता भी तो सोया पड़ा होता. भूख लगे तो खाता अन्यथा थाली की तरफ निहारता भी नहीं. बड़ी गंभीर स्थिति से गुजर रहा था वह. और अनुजा  झुं झलाती रहती थी.

ऐसे में अनुजा को उस की चिंता सताने भी लगी थी. इतने दिनों में परीक्षित ने उसे छुआ भी नहीं था. न खुद से उस से बात ही की थी उस ने.

उस दिन पलंग के समीप की टेबल पर रखी रिमझिम की तसवीर फ्रेम में जड़ी रखी दिखी तो वह चकित हो उठा. उस ने उस फ्रेम को उठाया, रिमझिम की उस मुसकराती फोटो को देर तक देखता रहा. फिर यथास्थान रख दिया और अनुजा की तरफ देखा. तब अनुजा ने देखा, उस की आंखें नम थीं और उस के चेहरे के भाव देख अनुजा को लगा जैसे उस के मन में उस के लिए कृतज्ञता के भाव थे.

अनुजा सहजभाव से बोली, ‘‘मैं ने अपनी हटा दी. रिमझिम दीदी अब हमारे साथ होंगी, हर पल, हर क्षण. आप को बुरा तो नहीं लगा?’’

उस ने उस वक्त कुछ न कहा. काफी समय बाद उस ने उस से पूछा, ‘‘तुम ने खाना खाया?’’ फिर तत्काल बोला, ‘‘हम दोनों इकट्ठे खाते हैं. तुम बैठी रहो, मैं ही मांजी से कह आता हूं कि वे हमारी थाली परोस दें.’’

खाना खाने के दौरान वह देर तक रिमझिम के विषय में बताता रहा. आज पहली बार ही उस ने अनुजा को, ‘आप’ और ‘आप ने’ कह कर संबोधित नहीं किया था. और आज पहली बार ही वह उस से खुल कर बातें कर रहा था. आज उस की स्थिति और दिनों की अपेक्षा सामान्य लगी थी उसे. और जब वह सोया पड़ा था, उस रात, एक बार भी न सिसका, न रोया और न ही बड़बड़ाया. यह देख अनुजा ने पहली बार राहत की सांस ली.

मानसिक यातना से नजात पा कर अनुजा आज गहरी नींद में थी. परीक्षित उठ चुका था और उस के उठने के इंतजार में पास पड़े सोफे पर बैठा दिखा. पलंग से नीचे उतरते जब अनुजा की नजर  टेबल पर रखी तसवीर पर पड़ी तो चकित हो उठी. मुसकरा दी. परीक्षित भी मुसकराया था उसे देख तब.

अब उस फोटोफ्रेम में रिमझिम की जगह अनुजा की तसवीर लगी थी.

‘तुम मेरी रिमझिम हो, तुम ही मेरी पत्नी अनुजा भी. तुम्हारा हृदय बड़ा विशाल है और तुम ने मेरे कारण ही महीनेभर से बहुत दुख  झेला है, पर अब नहीं. मैं आज ही से दुकान जा रहा हूं.’

और तभी, अनुजा को महसूस हुआ कि उस की मांग का सिंदूर सुर्ख हो चला है और दमक भी उठा है. कुछ अधिक ही सुर्ख, कुछ अधिक ही दमक रहा है.

लेखक : केशव राम वाड़दे

Romantic Tales : उपहार

Romantic Tales : लेकिन मोहिनी थी कि उसे एक भी तोहफा न पसंद आता. आखिर में जब सत्या की मेहनत की कमाई से खरीदे छाते को भी नापसंद कर के मोहिनी ने फेंका तो…

‘‘सिर्फ एक बार, प्लीज…’’

‘‘ऊं…हूं…’’

‘‘मोहिनी, जानती हो मेरे दिल की धड़कनें क्या कहती हैं? लव…लव… लेकिन तुम, लगता है मुझे जीतेजी ही मार डालोगी. मेरे साथ समुद्र किनारे चलते हुए या फिर म्यूजियम देखते समय एकांत के किसी कोने में तुम्हारा स्पर्श करते ही तुम सिहर कर धीमे से मेरा हाथ हटा देती हो. एक बार थिएटर में…’’

‘‘सत्या प्लीज…’’

‘‘मैं ने ऐसी कौन सी अनहोनी बात कह दी. मैं तो केवल इतना चाहता हूं कि तुम एक बार, सिर्फ एक बार ‘आई लव यू’ कह दो. अच्छा यह बताओ कि तुम मुझे प्यार करती हो या नहीं?’’

‘‘नहीं जानती.’’

‘‘यह भी क्या जवाब हुआ भला? हम दोनों एक ही बिरादरी के हैं. हैसियत भी एक जैसी ही है. तुम्हारी और मेरी मां इस रिश्ते के लिए मना भी नहीं करेंगी. हां, तुम मना कर दोगी, दिल तोड़ दोगी, तो मैं…तो मर जाऊंगा, मोहिनी.’’

‘‘मुझे एक छाता चाहिए सत्या. धूप में, बारिश में, बाहर जाते समय काफी तकलीफ होती है. ला दोगे न?’’

‘‘बातों का रुख मत बदलो. छाता दिला दूं तो ‘आई लव यू’ कह दोगी न?’’

मोहिनी के जिद्दी स्वभाव के बारे में सोच कर सत्या तिलमिला उठा पर वह दिल के हाथों मजबूर था. मोहिनी के बिना वह अपनी जिंदगी सोच ही नहीं सकता था. लगा, मोहिनी न मिली तो दिल के टुकड़ेटुकड़े हो जाएंगे.

सत्या ने पहली बार जब मोहिनी को देखा तो उसे दिल में तितलियों के पंखों की फड़फड़ाहट महसूस हुई थी. उस की बड़ीबड़ी आंखें, सीधी नाक, ठुड्डी पर छोटा सा तिल, नमी लिए सुर्ख गुलाबी होंठ, लगा मोहिनी की खूबसूरती का बयान करने के लिए उस के पास शब्दों की कमी है.

मोहिनी से पहली मुलाकात सत्या की किसी इंटरव्यू देने के दौरान हुई थी. मिक्सी कंपनी में सेल्समैन व सेल्स गर्ल की आवश्यकता थी. वहां दोनों को नौकरी नहीं मिली थी.

कुछ दिनों बाद ही एक दूसरी कंपनी के साक्षात्कार के समय उस ने दोबारा मोहिनी को देखा था. गुलाबी सलवार कमीज में वह गजब की लग रही थी. कहीं यह वो तो नहीं? ओफ…वही तो है. उस के दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं.

मोहिनी ने भी उसे देखा.

‘बेस्ट आफ लक,’ सत्या ने कहा.

उस की आंखें चमक उठीं. गाल सुर्ख गुलाबी हो उठे.

‘थैंक यू,’ मोहिनी के होंठों से ये दो शब्द फूल बन कर गिरे थे.

यद्यपि वहां की नौैकरी को वह खुद न पा सका पर मोहिनी पा गई. माइक्रोओवन बेचने वाली कंपनी… प्रदर्शनी में जा कर लोगों को ओवन की खूबियों से परिचित करवा कर उन्हें ओवन खरीदने के लिए प्रेरित करने का काम था.

सत्या ने नौकरी मिलने की खुशी में मोहिनी को आइसक्रीम पार्टी दे डाली. मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता गया. छुट्टी के दिन व काम पूरा करने के बाद मोहिनी की शाम सत्या के साथ गुजरती. सत्या का हंसमुख चेहरा, मजाकिया बातें, दिल खोल कर हंसने का अंदाज मोहिनी को भा गया था. वह उस से सट कर चलती, उस की बातों में रस लेती. एक बार सिनेमाहाल में परदे पर रोमांस दृश्य देख विचलित हो कर अंधेरे में सत्या ने झट मोहिनी का चेहरा अपने हाथों में ले कर उस के होंठों पर अपने जलतेतड़पते होंठ रख दिए थे.

यह प्यार नहीं तो और क्या है? हां, यही प्यार है. सत्या के दिल ने कहा तो फिर ‘आई लव यू’ कहने में क्या हर्ज है?

पिछली बार मोहिनी के जन्म-दिन पर सत्या चाहता था कि वह अपने प्यार का इजहार करे. जन्मदिन पर मोहिनी ने उस से सूट मांगा. 500 रुपए का एक सूट उस ने दस दुकानों पर देखने के बाद पसंद किया था पर खरीदने के लिए उस के पास रुपए नहीं थे क्योंकि प्रथम श्रेणी में स्नातक होने के बाद भी वह बेरोजगार था.

घर के बड़े ट्रंक में एक पान डब्बी पड़ी थी. पिताजी की चांदी की… पुरानी…भीतर रह कर काली पड़ गई थी. मां को भनक तक लगे बिना सत्या ने चालाकी से उसे बेच दिया और मोहिनी के लिए सूट खरीदा.

आसमानी रंग के शिफान कपड़े पर कढ़ाई की गई थी. सुंदर बेलबूटे के साथ आगे की तरफ पंख फैलाया मोर. सत्या को भरोसा था कि इस उपहार को देख कर मोर की तरह मोहिनी का मन मयूर भी नाच उठेगा. उस से लिपट कर वह थैंक्यू कहेगी और ‘आई लव यू’ कह देगी. इन शब्दों को सुनने के लिए उस के कान कितने बेकरार थे पर उस के उपहार को देख कर मोहिनी के चेहरे पर कड़वाहट व झुंझलाहट के भाव उभरे थे.

‘यह क्या सत्या? इतना घटिया कपड़ा. और देखो तो…कितना पतला है, नाखून लगते ही फट जाएगा. यह देखो,’ कहते हुए उस ने अपने नाखून उस में गड़ाए और जोर दे कर खींचा तो कपड़ा फट गया. सत्या को लगा था यह कपड़ा नहीं, उस के पिताजी की पान डब्बी व मां के सेंटिमेंट दोनों तारतार हो गए हैं.

‘कितने का है?’ मोहिनी ने पूछा.

‘तुम्हें इस से क्या?’

‘रुपए कहां से मिले?’

‘बैंक से निकाले,’ सत्या ने सफाई से झूठ बोल दिया.

और इस बार छाता…उस ने मोलभाव किया. अपनेआप खुलने व बंद होने वाला छाता 2 सौ रुपए का था. दोस्तों से रुपए मिले नहीं. घर में जो कुछ ढंग की चीज नजर आई मां की आंखें बचा कर उसे बेच कर सिनेमा, ड्रामा, होटल के खर्चे में वह पहले से पैसे फूंक चुका था.

काश, एक नौकरी मिल गई होती. इस समय वह कितना खुश होता. मोहिनी के मांगने के पहले उस की आवश्यकताओं की वस्तुओं का अंबार लगा देता. चमचमाते जूते पर धूल न जमे, कपड़ों की क्रीज न बिगड़े, एक अदद सी नौकरी, बस, उसे और क्या चाहिए. पर वह तो मिल नहीं रही थी.

नौकरी तो दूर की बात, अब उस की प्रेमिका, उस की जिंदगी मोहिनी एक छाता मांग रही है. क्या करे? अचानक उसे रवींद्र का ध्यान आया जो बचपन में उस का सहपाठी था. बड़ा होने पर वह अपने पिता के साथ उन के प्रेस में काम करने लगा. बाद में पिता के सहयोग से उस ने प्रिंटिंग इंक बनाने की फैक्टरी लगा ली थी. बस, दिनरात उसी फैक्टरी में कोल्हू के बैल की तरह लगा रहता था.

एक दोस्त से पैसा मांगना सत्या को बुरा तो लग रहा था पर क्या करे दिल के हाथों मजबूर जो था.

‘‘उधार पैसे मांग रहे हो पर कैसे चुकाओगे? एक काम करो. ग्राइंडिंग मशीन के लिए आजकल मेरे पास कारीगर नहीं है. 10 दिन काम कर लो, 200 रुपए मिलेंगे. साथ ही कुछ सीख भी लोगे.’’

इंक बनाने के कारखाने में ग्राइंडिंग मशीन पर काम करने की बात सोच कर ही सत्या को घिन आने लगी थी. पर क्या करे? 200 रुपए तो चाहिए. किसी भी हाल में…और कोई चारा भी तो नहीं.

10 दिन के लिए वह जीजान से जुट गया. मशीनों की गड़गड़ाहट… पसीने से तरबतर…मैलेकुचैले कपड़े… थका देने वाली मेहनत, उस ने सबकुछ बरदाश्त किया. 10वें दिन उस ने छाता खरीदा. मोलभाव कर के उस ने 150 रुपए में ही उसे खरीद लिया. 50 रुपए बचे हैं, मोहिनी को ट्रीट भी दूंगा, उस की मनपसंद आइसक्रीम…उस ने सोचा.

तालाब के किनारे बना रेस्तरां. खुले में बैठे थे मोहिनी और सत्या. वह अपलक अपने प्यार को देख रहा था. हवा के झोंके मोहिनी की लटों को उलझा देते और वह उंगलियों से उन्हें संवार लेती. मोहिनी के चेहरे की खुशी, उस की सुंदरता का जादू, वातावरण की मादकता को बढ़ाए जा रही थी. सत्या का मन उसे भींच कर अपनी अतृप्त इच्छाओं को तृप्त कर लेने का था, किंतु बरबस उस ने अपनी कामनाओं को काबू में कर रखा था.

कटलेट…फिर मोहिनी की मनपसंद आइसक्रीम…सत्या ने बैग से छाता निकाला. वह मोहिनी की आंखों में चमक व चेहरे पर खुशी देखने के लिए लालायित था.

‘‘सत्या, यह क्या है?’’ मोहिनी ने पूछा.

‘‘तुम ने एक छाता मांगा था न…यह कंचन काया धूप में सांवली न पड़ जाए, बारिश में न भीगे, इसीलिए लाया हूं.’’ मोहिनी ने बटन दबाया. छाता खुला तो उस का चेहरा ढक गया. छाते के बारीक कपड़े से रोशनी छन कर भीतर आई.

‘‘छी…तुम्हें तो कुछ खरीदने की तमीज ही नहीं सत्या. देखो तो कितनी घटिया क्वालिटी का छाता है. इसे ले कर मैं कहीं जाऊं तो चार लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? छाते को झल्लाहट के साथ बंद कर के पूरे वेग से उस ने तालाब की ओर उसे फेंका. छाता नाव से टकरा कर पानी में डूब गया.’’

सत्या उसे भौंचक हो कर देखता रहा. क्षण भर…वह खड़ा हुआ, कुरसी ढकेल कर दौड़ पड़ा. सीढि़यां उतर कर नाव के समीप गया. नाव को हटा कर उस ने पानी में हाथ डाल कर टटोला. छाता पूरी तरह डूब गया था. हाथपैर से टटोल कर थोड़ी देर की मशक्कत के बाद वह उसे ले आया. उस के चेहरे पर क्रोध व निराशा पसरी हुई थी.

‘‘मोहिनी, इस छाते को खरीदने के लिए 10 दिन…पूरे 10 दिन मैं ने खूनपसीना एक किया है, हाथपैर गंदे किए हैं, इंक फैक्टरी में काम सीखा है. सोच रहा था कुछ दिनों में रुपए का जुगाड़ कर के क्यों न एक छोटी सी इंक फैक्टरी मैं भी खोल लूं. कितने अरमानों से इसे खरीद कर लाया था. तुम ने मेरी मेहनत को, मेरे अरमानों को बेकार समझ कर फेंक दिया. आई एम सौरी…वेरीवेरी सौरी मोहिनी…जिसे पैसों का महत्त्व नहीं मालूम ऐसी मूर्ख लड़की को मैं ने चाहा. लानत है मुझ पर…गुड बाय…’’

‘‘एक मिनट सत्या,’’ मोहिनी ने कहा.

‘‘क्या है?’’ सत्या ने मुड़ कर पूछा तो उस की आवाज में कड़वाहट थी.

‘‘तुम ने सूट खरीद कर दिया था, उसे भी मैं ने फाड़ दिया था, तब तो तुम ने कुछ कहा नहीं. क्यों?’’

‘‘बात यह है कि…’’

‘‘…कि वह तुम्हारी मेहनत के पैसों से खरीदा हुआ नहीं था. मैं तुम्हारी मां से मिली थी. तुम मेहनत से डरते हो, यह मैं ने उन की बातों से जाना. 500 रुपए के सूट को मैं ने फाड़ा तब तो तुम ने कुछ नहीं कहा और अब इस छाते के लिए कीचड़ में भी उतर गए, जानते हो क्यों? क्योंकि यह तुम्हारी मेहनत की कमाई का है.’’

‘‘मैं इसी सत्या को देखना चाहती थी कि जो मेहनत से जी न चुराए, किसी भी काम को घटिया न समझे, मेहनत कर के कमाए और मेहनत की खाए?’’

मोहिनी उस के समीप गई. उस के हाथों से उस छाते को लिया और बोली, ‘‘सत्या, यह मेरे जीवन का एक कीमती तोहफा है. इस के सामने बाकी सब फीके हैं. अब तुम मुझ से नाराज तो नहीं हो?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘उस के समीप जा कर मोहिनी ने उसे गले लगाया.’’

‘‘उफ्, मेरे हाथपैर कीचड़ से सने हैं, मोहिनी.’’

‘‘कोई बात नहीं. एक चुंबन दोगे?’’

‘‘क्या?’’

‘‘आई लव यू सत्या.’’

सत्या के दिल में तितलियों के पंखों की फड़फड़ाहट का एहसास उसी तरह से हो रहा था जैसे उस ने पहली बार मोहिनी को देखने पर अपने दिल में महसूस किया था.

Family Short Story : पति जो ठहरे

Family Short Story :  सलोनी की शादी के पीछे सब हाथ धो कर पड़े थे. कुछ तो अंधविश्वासी टाइप के लोग मुफ्त की सलाह भी देते,” देखो, शादी समय से होनी चाहिए नहीं तो बड़ी मुसीबत होगी और अच्छा पति भी नहीं मिलेगा. इसलिए 16 सोमवार का व्रत करो, वैभव लक्ष्मी का 11 शुक्रवार भी, शादी आराम से हो जाएगी…”

सलोनी ने सारे व्रतउपवास कर लिए. अब इंतजार था कि कोई राजकुमार आएगा और उसे घोड़े पर बैठा कर ले जाएगा और जिंदगी हो जाएगी सपने जैसी. प्रतीक्षा को विराम लगा और आ गए राजकुमार साहब, मगर घोड़ा नहीं कार पर चढ़ कर.

अब शादी के पहले का हाल भी बताना जरूरी है…

सगाई के बाद ही सलोनी को यह राजकुमार साहब लगे फोन करने. घंटों बतियाते, चिट्ठी भी लिखतेलिखाते. सलोनी के तो पौ बारह, पढ़ालिखा बांका जवान जो मिल गया था. खैर, शादी धूमधाम से हुई. सलोनी के पैर जमीन पर नहीं पङ रहे थे.

राजकुमार साहब भी शुरुआत में हीरो की माफिक रोमांटिक थे पर पति बनते ही दिमाग चढ़ गया सातवें आसमान पर,”मैं पति हूं…” सलोनी भी हक्कीबक्की कि इन महानुभाव को हुआ क्या? अभी तक तो बड़े सलीके से हंसतेमुसकराते थे, लेकिन पति बनते ही नाकभौं सिकोड़ कर बैठ गए. प्रेम के महल में हुक्म की इंतहा…. यह बात कुछ हजम नहीं हुई पर शादी की है तो हजम करना ही पड़ेगा. फिर तो सलोनी ने अपना पूरा हाजमा ठीक किया पर पति को यह कैसे बरदाश्त कि पत्नी का हाजमा सही हो रहा है, कुछ तो करना पड़ेगा वरना पति बनने का क्या फायदा?

“कपड़े क्यों नहीं फैलाए अभी तक?” पति महाशय ने हेकङी दिखाते हुए पूछा.

बेचारी सलोनी ने सहम कर कहा,”भूल गई थी.”

“कैसे भूल गईं? फेसबुक, व्हाट्सऐप, किताबें याद रहती हैं… यह कैसे भूल गईं?”

‘अब भूल गई तो भूल गई. भूल सुधार ली जाएगी,’ सलोनी मन ही मन बोली.

“कितनी बड़ी गलती है यह तो. अब जाओ, आइंदे से मेरा कोई काम मत करना, मैं खुद कर लूंगा,” पति महाशय ने ऐलान कर दिया.

‘ठीक है जनाब, कर लो… बहुत अच्छा. ऐसे भी मुझे कपड़े फैलाने पसंद नहीं,’ सलोनी ने मन में सोचा.

पति महाशय ने मुंह फुला लिया तो अब बात नहीं करेंगे. बात नहीं करेंगे तो वह भी कुछ घंटों नहीं बल्कि पूरे 3-4 दिनों तक. अब सलोनी का हाजमा कहां से ठीक हो, अब तो ऐसिडिटी होना ही है फिर सिरदर्द.

एक बार सलोनी पति महाशय के औफिस के टूअर पर साथ आई थी. पति महाशय ने रात को गैस्ट हाउस के कमरे में साबुन मांगा. सलोनी ने साबुनदानी पकड़ाई पर यह क्या, उस में तो पिद्दी सा साबुन का टुकड़ा था. पति महाशय का गुस्सा सातवें आसमान पर. फिर तो पूरे 1 हफ्ते बात नहीं की. औफिस के टूअर में घूमने आई सलोनी की घुमाई गैस्ट हाउस में ही रह गई, आखिर इतनी बड़ी भूल जो कर दी थी.

उस के बाद से सलोनी कभी साबुन ले जाना नहीं भूली. पति महाशय गर्व से सीना तान लिए कि सलोनी की इस गलती को उन्होंने सुधार दी. सलोनी ने भी सोचा कि पति के इस तरह मुंह फुलाने की गलती को सुधारा जाए पर पति कहां सुधरने वाले. उन का मुंह गुब्बारे जैसा फूला तो जल्दी पिचकेगा नहीं, आखिर पति जो ठहरे.

सलोनी एक बार घूमने गई थी बड़े शौक से. पति महाशय ने ऊंची एड़ी की सैंडिल खरीदी. सलोनी सैंडिल पहन कर ज्यों ही घूमने निकली कि ऊंची एड़ी की चप्पल गई टूट और पति महाशय गए रूठ. उस पर से ताना भी मार दिया,”कभी इतनी ऊंची एड़ी की चप्पलें पहनी नहीं तो खरीदी क्यों? अब चलो, बोरियाबिस्तर समेट वापस चलो. सलोनी हो गई हक्कीबक्की कि इतनी सी बात पर इतना बवाल? आखिर चप्पल ही है दूसरी ले लेंगे. पति महाशय का मुंह तिकोना हो गया तो सीधा होने में समय लगता है पर सलोनी को भी ऐसे आड़ेतिरछे सीधा करना खूब आता है. फिर तो “सौरी…” बोल कर मामला रफादफा किया.

कभीकभी पति महाशय का स्वर चाशनी में लिपटा होता है पर ऐसा बहुत कम ही होता है. एक बार बड़े प्यार से सलोनी को जन्मदिन पर घुमाने का वादा कर औफिस चले गए और लौटने पर सलोनी के तैयार होने में सिर्फ 5 मिनट की देरी पर बिफर पड़े. नाकभौं सिकोड़ कर ले गए मौल लेकिन मुंह से एक शब्द भी नहीं फूटा… सलोनी ने अपनी फूटी किस्मत को कोसा कि ऐसे नमूने पति मिले थे उसे.

सलोनी पति की प्रतीक्षा में थी कि पति टूअर से लौट कर आएंगे तो साथ में खाना खाएंगे. पति महाशय लौटे 11 बजे. जैसे ही सुना कि सलोनी ने खाना नहीं खाया तो बस जोर से डपट दिया और पूरी रात मुंह फुलाए लेटे रहे. सलोनी ने फिल्मों में कुछ और ही देखा था पर हकीकत तो कुछ और ही था.

वह दिन और आज का दिन सलोनी ने पति की प्रतीक्षा किए बगैर ही खाने का नियम बना लिया. अब भला कौन भूखे पेट को लात मारे और भूखे रह कर कौन से उसे लड्डू मिलने वाले थे.

कभीकभी भ्रम का घंटा मनुष्य को अपने लपेटे में ले ही लेता है. सलोनी को लगा कि पति महाशय का त्रिकोण अब सरलकोण में तब्दील होने लगा है पर भरम तो भरम ही होता है सच कहां होता है? सलोनी को प्रतीत हुआ कि उस का इकलौता पति भी सलोना हो गया है पर सूरत और सीरत में फर्क होता है न… सूरत से सलोना और सीरत… व्यंग्यबाण चला दिया,”आजकल बस पढ़तीलिखती ही रहती हो, घर का काम भी मन से कर लिया किया करो. नहीं तो कोई जरूरत नहीं करने की…”

सलोनी ने कुछ ऊंचे स्वर में कहा,”दिखता नहीं है कि मैं कितना काम करती हूं…” इतना कहना था कि पति जनाब ने फिर से मुंह फुला लिया. इस बार सलोनी ने भी ठान लिया कि वह पति को नहीं मनाएगी. पर हमेशा की तरह सलोनी ने ही मनाया.

सलोनी ने एक दिन अपनी माता से अपनी व्यथा कथा कह डाली,”मां, पापा तो ऐसे हैं नहीं?”

मां मुसकराईं,”बेटी, तुम्हारे पापा बहुत अच्छे हैं पर पति कैसे हैं उस का दुखड़ा अब तुम से क्या बताऊं…मेरी दुखती रग पर तुम ने हाथ रख दिया….दरअसल, यह पति नामक प्रजाति होती ही ऐसी है. इस प्रजाति में कोई भी जैविक विकास की अवधारणा लागू नहीं होती, इसलिए जो है जैसा है, इन्हीं से उलझे रहो. ये कभी सुलझने वाले नहीं. लड़के प्रेमी, भाई, मित्र, पिता सब रूप में अच्छे हैं पर पति बनते ही बौरा जाते हैं. सलोनी को वह गाना याद आने लगा, ‘भला है, बुरा है, जैसा भी है मेरा पति मेरा…’

“पर मां, स्त्री के अधिकारों का क्या और स्त्री विमर्श का प्रश्न?” सलोनी ने पूछा.

“सलोनी, तुम्हारा पति त्रिकोण ही सही पर तिकोना समोसा खिलाता है न…”

“हां, वह तो खिलाते हैं…”

“बस, फिर कोई बात नहीं, उस की बातें एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो. अपना काम धीरेधीरे करते चलो…”

सलोनी ने एक ठंडी आह भरी और मुंह से निकला,”ओह, पति जो ठहरे.”

Heart Touching Love Story : मन का बोझ

Heart Touching Love Story :  सिनेमाघर से निकल कर अम्लान व मानसी थोड़ी दूर ही गए थे कि मानसी के पड़ोसी शीतल मिल गए. उन्हें देखते ही मानसी ने अभिवादन में हाथ जोड़ दिए. शीतल कुछ विचित्र भाव से मुसकराए.

‘‘कहिए, कैसी हैं, मानसीजी?’’

‘‘ठीक हूं.’’

‘‘कब आ रहे हैं, सुदीप बाबू?’’

‘‘अभी 4 माह शेष हैं.’’

‘‘ओह, लगता है आप अकेली काफी बोर हो रही हैं?’’ शीतल कुछ अजीब से अंदाज में बोले.

न जाने क्यों मानसी को अच्छा न लगा. वह सोचने लगी, ‘पता नहीं क्यों व्यंग्य सा कर रहे थे? सुदीप के सामने तो कभी इस तरह नहीं बोलते थे.’

‘‘क्या हुआ? पड़ोसी की बात का बुरा मान गईं क्या? इतना भी नहीं समझतीं मनु दीदी, जलते हैं. पड़ोसी हैं न, इसलिए तुम्हारी हर गतिविधि पर नजर रखना अपना कर्तव्य समझते हैं,’’ अम्लान मुसकराया.

‘‘भाड़ में जाएं ऐसे पड़ोसी,’’ मानसी तीखे स्वर में बोली.

‘‘चलो, कहीं बैठ कर कुछ खाते हैं, बहुत भूख लगी है,’’ अम्लान ने सामने से जाते आटोरिकशा को रोक लिया.

‘‘नहीं, घर चलो, वहीं कुछ खा लेंगे. रेस्तरां में जाने का मन नहीं है, सिर में दर्द है.’’

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ अम्लान ने आटोचालक से मानसी के घर की ओर चलने को कह दिया. घर पहुंचते ही सिर में बाम लगा कर मानसी ने सैंडविच व पकौड़े बनाए और फिर कौफी तैयार करने लगी.

‘‘लाओ, मैं कुछ मदद करता हूं,’’ तभी अम्लान ने रसोईघर में प्रवेश किया.

‘‘हां, अवश्य, ये प्लेटें खाने की मेज पर रखो और खाना प्रारंभ करो,’’ वह मुसकराई. पर दूसरे ही क्षण न जाने क्या हुआ कि अजीब सी नजरों से देखते हुए अम्लान आगे बढ़ा और उसे अपनी बांहों के घेरे में कस लिया.

‘‘यह क्या तमाशा है, छोड़ो मुझे,’’ मानसी ने स्वयं को मुक्त कराने का यत्न किया पर अम्लान की पकड़ कसती ही जा रही थी. अब मानसी सचमुच घबरा गई. पूरी शक्ति लगा कर अम्लान को धक्का देने के साथ ही उस ने अपने दांत उस के हाथ में गड़ा दिए. अम्लान एक झटके के साथ दूर जा गिरा. मानसी लड़खड़ाती हुई बैठक में जा बैठी. शीघ्र ही स्वयं को संभाल कर अम्लान भी बैठक में आ गया तनिक ऊंचे स्वर में बोला, ‘‘समझती क्या हो, तुम? घर आने का आमंत्रण दे कर इस तरह का व्यवहार?’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो? दीदी कहते हो, राखी बंधवाते हो मुझे से और ऐसा घटिया व्यवहार? अम्लान, मुझे  स्वप्न में भी तुम से ऐसी आशा न थी,’’ मानसी अब भी स्वयं को संभाल नहीं सकी थी.

‘‘हां, दीदी कहता हूं तुम्हें, मुंहबोली बहन हो तुम, क्योंकि किस भारतीय महिला में इतना साहस है कि किसी पुरुष को अपना मित्र कह कर लोगों को उस का परिचय दे सके? भाईबहन बनाने पर ही समाज स्त्रीपुरुष संबंधों को किसी तरह सह लेता है. याद है तुम ने अपने पति सुदीप तथा सभी पड़ोसियों से मेरा परिचय अपना मुंहबोला भाई कह कर करवाया था, मित्र कह कर नहीं,’’ अम्लान अब भी बहुत क्रोधित था.

‘‘मुझे नहीं पता था कि तुम्हारे दिमाग में मुझे ले कर इतनी ऊलजलूल बातें भरी हैं. तुम ने यह भी नहीं सोचा कि मैं विवाहित हूं, सुदीप की अमानत हूं, जिसे ‘जीजाजी’ कहते तुम्हारी जबान थकती नहीं,’’ मानसी आंसुओं के बीच बोली.

‘‘विवाहिता? सुदीप की अमानत? उस से क्या अंतर पड़ता है? इसी से तो समाज में तुम्हें मनमानी करने की छूट मिल जाती है. मेरे मुंह से अपने रंगरूप की प्रशंसा सुन कर तुम कैसे पुलक हो उठती हो. अपनी प्रशंसा से प्रसन्न हो कर तुम्हारे चेहरे पर आने वाली लाली क्या मेरा भ्रममात्र थी, बोलो?’’

‘‘अम्लान, बहुत हो गया. तुम इसी समय मेरे घर से निकल जाओ. मैं भविष्य में तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहती,’’ मानसी स्वयं पर नियंत्रण खो कर चीख उठी. एक क्षण को तो अम्लान भी बौखला गया, ‘‘हूं, बहुत देखी हैं तुम्हारी जैसी सतीसावित्री,’’

वह मुख्यद्वार को जोर से बंद करता हुआ बाहर निकल गया. मानसी को लगा, उस की टांगों में इतनी शक्ति भी नहीं बची है कि वह खड़ी हो कर द्वार तक पहुंच कर उसे बंद कर सके. आंखों से अनवरत अश्रुधारा बहने लगी. धुंधलाई अश्रुपूरित आंखों में न जाने कितने चेहरे गड्डमड्ड होते जा रहे थे. मानसी एक छोटे से नगर में पलीबढ़ी थी, जहां लोग अब भी कसबाई मनोवृत्ति रखते थे. वहां विवाहिता या कुंआरी का किसी अन्य पुरुष के साथ घूमनाफिरना उस के चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगा देता था. पर सुदीप से विवाह के पश्चात वह हैदराबाद चली आई थी. उसे भली प्रकार याद है कि प्रारंभ में जब सुदीप का कोई मित्र आता था तो वह दौड़ कर अंदर के कक्ष में चली जाती थी. ‘यह क्या तमाशा है, कोई घर आए तो उस का स्वागत करने के बजाय तुम दौड़ कर भीतर चली जाती हो,’ एक दिन सुदीप क्रोधित स्वर में बोला.

‘वे सब आप के मित्र हैं, आप से मिलने आते हैं. मुझे उन के सामने बैठना अच्छा नहीं लगता,’ मानसी ने नजरें झुका लीं. ‘तुम्हारे कारण मेरे सभी मित्र मेरा उपहास उड़ाते हैं. तुम पढ़ीलिखी हो, गूंगीबहरी भी नहीं हो, फिर क्या कारण है कि इस प्रकार का व्यवहार करती हो?’ सुदीप ऐसे अवसर पर बुरी तरह झुंझला जाता था. पति का सहयोग मिलने के कारण मानसी को अपना कसबाई आवरण उतार फेंकने में अधिक समय न लगा. उस ने चित्रकला में स्नातक की उपाधि ली थी. सो, सुदीप के कहने पर उस ने विज्ञापन के क्षेत्र में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करना प्रारंभ कर दिया. प्रशिक्षण समाप्त होने से पहले ही जब मानसी को एक विज्ञापन कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई तो सुदीप भी चकित रह गया. नई नौकरी ने कुछ ही माह में मानसी का कायापलट कर दिया. विवाहोपरांत मानसी का उपहास करने वाला सुदीप अब गर्वपूर्वक पत्नी की उपलब्धियों की चर्चा करता. अम्लान से मानसी की पहली भेंट विज्ञापन कंपनी के कार्यालय में हुई थी. न जाने अम्लान के व्यक्तित्व में कैसा आकर्षण था कि मानसी पहली ही भेंट में औपचारिकता भूल कर उस से घुलमिल गई. पहली बार मानसी को अपने व्यवहार पर आश्चर्य हुआ. मानसी का व्यक्तित्व बेहद अंतर्मुखी था. बचपन में उस के परिवार का वातावरण इतना रूढि़वादी था कि किसी भी परपुरुष से सहज भाव से मित्रता कर पाना उस के लिए संभव ही न था.

पर अम्लान की बात अलग ही थी. सहजता से उस ने मानसी को ‘दीदी’ संबोधन दिया तो वह पुलक उठी. वह परिवार में सब से छोटी थी, दीदी कहने वाला कोई नहीं था. यही नहीं, अम्लान ने शीघ्र ही सुदीप से भी घनिष्ठता स्थापित कर ली. ऐसे में स्वाभाविक ही था कि जब मानसी दीदी थी तो सुदीप जीजा बन गया. धीरेधीरे अम्लान घर का ही सदस्य बन गया. वह घंटों सुदीप व मानसी से बातें करता रहता. अम्लान अकसर डिनर भी उन्हीं के साथ ले लेता. मानसी को उस के आत्मीय व्यवहार में कहीं भी कोई खोट कभी नजर न आई थी. वह  दिन आज भी मानसी की स्मृति में ज्यों का त्यों ताजा था, जब सुदीप इतराता व पुलकित होता घर लौटा था.

‘क्या हुआ, बहुत प्रसन्न नजर आ रहे हो?’ मानसी अपनी उत्सुकता दबा न सकी थी.

‘सुनोगी तो फड़क उठोगी. लगभग सौ लोगों में से विदेश में प्रशिक्षण के लिए मुझे चुना गया है,’ सुदीप अपनी ही प्रसन्नता में इस प्रकार डूबा था कि मानसी के चेहरे के बदलते रंग की ओर उस का ध्यान ही न गया.

‘कितनी अवधि के लिए जाना होगा?’ मानसी ने डूबते स्वर में प्रश्न किया. ‘1 वर्ष के लिए, क्या बात है, तुम्हें प्रसन्नता नहीं हुई?’ सुदीप ने मानो मानसी के मनोभावों को पढ़ लिया.

‘मैं इतने लंबे समय तक अकेली नहीं रह पाऊंगी,’ मानसी ने अपने मनोभाव प्रकट किए थे.

‘क्या गंवारोें जैसी बातें कर रही हो, अब तुम छोटे से कसबे से आई अबोध मानसी नहीं हो, अब तो तुम आत्मविश्वास से भरपूर आधुनिका हो, जो स्वयं अपने पैरों पर खड़ी है.’

‘नहीं, मैं अकेली 1 वर्ष तक यहां नहीं रह सकूंगी,’ मानसी ने घोषणा कर दी तो सुदीप सोच में पड़ गया. उस के व मानसी के परिवार में कोई भी तो ऐसा नहीं था, जो आ कर 1 वर्ष के लिए उस के साथ रह सकता. पर अम्लान ने अपने अकाट्य तर्कों से न केवल सुदीप को आश्वस्त किया बल्कि मानसी को भी अपनी भावी योजना बदलने को प्रेरित किया, ‘मनु दीदी, तुम्हें डर किस बात का है? कितना अच्छा पड़ोस है. सुरक्षा की कोई समस्या ही नहीं. आवास योजना के अधिकारी काफी चुस्तदुरुस्त हैं और मैं हूं न तुम्हारी सहायता के लिए?’ अम्लान के स्वर ने उसे पूर्णतया आश्वस्त कर दिया था. सुदीप के जाने के बाद अम्लान ने उस की प्रतिदिन की जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर ले लिया. सच तो यह था कि अम्लान ने एक दिन के लिए भी सुदीप की अनुपस्थिति या अकेलापन उसे महसूस न होने दिया. पर आज जो हुआ, उस के लिए मानसी तनिक भी तैयार नहीं थी, मानो किसी ने अचानक उसे उठा कर तेल की खौलती कड़ाही में फेंक दिया हो. न जाने कितनी देर तक उस के आंसू अनवरत बहते रहे, मानो मन का सारा गुबार आंखों की राह ही बह जाना चाहता हो. जब आंसू स्वत: ही सूख गए तो बहुत साहस कर के वह उठी. सैंडविच और पकौड़े खाने की मेज पर यों ही पड़े थे, पर उस की तो भूख ही उड़ चुकी थी. किसी तरह पानी के कुछ घूंट गले से उतार कर वह बिस्तर पर जा पड़ी पर नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी.

मानसी को बचपन में मां द्वारा दी गई हिदायतें याद आ रही थीं. मां ने उसे व उस की बहन को सदा यही समझाया था कि किसी पर भी आंख मूंद कर विश्वास मत करो. इस संसार में ज्यादातर लोग अवसर का अनुचित लाभ उठाने से नहीं चूकते. मां अकसर बातबात में कहती थीं कि यदि स्त्री के मन में खोट न हो तो किसी पुरुष का साहस नहीं कि उस पर बुरी नजर डाल सके. मानसी के मन में बारबार एक ही बात आ रही थी कि क्या अम्लान के ऐसे व्यवहार के लिए वह स्वयं ही उत्तरदायी है? वह जितना भी सोचती उतनी ही उस की अपने प्रति घृणा बढ़ती जाती. अम्लान भी तो उस पर लांछन लगा कर अपमानित कर गया था. यह सच था कि अम्लान अकसर ही उस के सौंदर्य की प्रशंसा किया करता था और वह सुन कर पुलक उठती थी. पर उस का अर्थ सदा उस ने यही समझा था कि सौंदर्य होता ही प्रशंसा के लिए है. सच तो यह है कि बचपन से ही उसे अपनी सुदंरता की प्रशंसा सुनने की आदत पड़ी हुई थी. सो, उसे अम्लान की प्रशंसा में कुछ भी खोट नजर न आई थी.

पर अब उसे लगा, शायद अम्लान बारबार उस के सौंदर्य की प्रशंसा कर के स्त्री की सब से बड़ी कमजोरी का लाभ उठाना चाहता था. सुदीप ने भी तो उस के सौंदर्य पर रीझ कर ही उसे अपनाया था. पर विवाह के बाद कभी उस की प्रशंसा के पुल न बांधे. शायद उस ने कभी उसे अनावश्यक रूप से प्रसन्न करने की आवश्यकता न समझी थी. वैसे भी सुदीप अंतर्मुखी प्रवृत्ति का व्यक्ति था. व्यर्थ का दिखावा करना उस की आदत में शुमार न था. क्या इसीलिए अनजाने ही अम्लान से उस की घनिष्ठता बढ़ती चली गई थी? मानसी को आश्चर्य हो रहा था कि सुदीप ने कभी इस घनिष्ठता पर आपत्ति नहीं की थी. करता भी क्यों? वह बेचारा कहां जान पाया होगा कि अम्लान का ‘दीदी’ संबोधन केवल दिखावा है. पर वह स्वयं इस छलावे से छली गई थी, यह तो उस से भी अधिक आश्चर्य की बात थी.

रातभर इन्हीं सब विचारोें के तूफान में डूबतेउतराते कब वह सो गई, उसे पता ही न चला. सुबह कामवाली बाई व दूध वाले ने द्वार की घंटी बजाई तो उसे लगा कि दिन काफी चढ़ आया है. किसी तरह पैर घसीटते हुए उस ने दरवाजा खोला.

‘‘क्या हुआ मेमसाहब, अभी तक सो रही हैं? तबीयत खराब है क्या?’’

‘‘हां, सिर दर्द से फटा जा रहा है. आज दफ्तर से छुट्टी ले लूंगी. जाने का मन नहीं है,’’ मानसी धीरे से बोली.

‘‘सिर दबा दूं क्या?’’ राधा ने पूछा.

‘‘नहीं, तुम दूध गरम कर के मेरे लिए कुछ नाश्ता बना दो. कल रात को भी कुछ नहीं खाया था. शायद इसीलिए तबीयत खराब हो गई,’’ उस ने राधा को हिदायत दी. मानसी जब तक तरोताजा हो कर लौटी, राधा ने नाश्ता मेज पर सजा दिया था. राधा दोपहर में आ कर भी हालचाल पूछ गई थी. यों शारीरिक रूप से मानसी स्वस्थ ही थी, पर मानसिक रूप से अम्लान के व्यवहार ने उसे पंगु बना कर रख दिया था. तीसरे दिन भी मानसी की वही दशा थी. दिन ढलने तक वह बिस्तर पर ही पड़ी थी. अचानक द्वार की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो सामने उस की सहयोगी विभा खड़ी थी.

‘‘विभा दीदी,’’ उसे देखते ही मानसी उस से लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘क्या हुआ, मानसी? खैरियत तो है? मैं ने सोचा तुम 3 दिनों से कार्यालय नहीं आईं, इसलिए मिलने चली आई,’’ विभा आश्चर्यचकित सी बोली. जरा सी सहानुभूति पाते ही मानसी के अंदर जमा लावा बह चला. आंसुओं के बीच सिसकते हुए उस ने अम्लान और उस के बीच घटी पूरी घटना कह सुनाई.

‘‘बड़ी मूर्ख है, तू भी, इतनी सी बात के लिए आंसू बहा रही है. जिस तरह तुम्हारी व अम्लान की घनिष्ठता बढ़ रही थी, ऐसा कुछ होना कोई आश्चर्य की बात तो नहीं थी,’’ विभा ने अपनी राय दी.

‘‘क्या कह रही हैं, विभा दीदी?’’ मानसी चौंकी थी.

‘‘चाहे तुम्हें बुरा भी लगे, पर मैं सच ही कहूंगी. जब सारे कार्यालय में तुम्हारे व अम्लान के घनिष्ठ संबंधों की चर्चा हो रही थी, तब तुम उस से अनजान कैसे बनी रहीं?’’

‘‘आप ने पहले मुझ से कभी भी कुछ नहीं कहा?’’ मानसी आश्चर्यचकित थी.

‘‘ऐसे अवसरों पर कहनेसुनने का कोई विशेष प्रभाव नहीं होता. हर व्यक्ति अपने व्यक्तिगत अनुभवों से ही सबक लेता है. मुझे लगा कि यदि मैं कुछ कहने का प्रयत्न करूं भी तो शायद तुम उस का गलत अर्थ निकालो. फिर मैं ने सोचा कि सुदीप के आने पर खुद ही अम्लान से तुम्हारी घनिष्ठता कम हो जाएगी.’’

‘‘क्या कहूं, मुझे तो स्वयं पर ही शर्म आ रही है. मैं सुदीप को क्या मुंह दिखाऊंगी,’’ मानसी ने इतने धीमे स्वर में अपने विचार प्रकट किए, मानो स्वयं से ही बात कर रही हो.

‘‘अम्लान की भूल के लिए स्वयं को दोषी ठहराने की कोई आवश्यकता नहीं है. मैं तो तुम्हें केवल यह समझाने का यत्न कर रही हूं कि हम महिलाओं को पुरुषों से मित्रता की सीमारेखा अवश्य रखनी चाहिए, अवसर मिलने पर अपने संबंधी तक अवसर का लाभ उठाने से नहीं चूकते.’’

‘‘आप ठीक कह रही हैं, दीदी. मेरा अनुभव मुझे भविष्य में अवश्य ही सतर्क रहने की प्रेरणा देगा, पर अभी मैं क्या करूं? सुदीप भी यहां नहीं हैं?’’

‘‘वाह, यह खूब रही, तुम से दुर्व्यवहार कर के भी अम्लान प्रतिदिन कार्यालय आता है, सब से सामान्य व्यवहार करता है. क्या पता तुम से अपने घनिष्ठ संबंधों की चर्चा वह अपने साथियों से भी करता हो. फिर तुम क्यों मुंह छिपाए घर में पड़ी हो? कल से कार्यालय और घर में सामान्य कामकाज प्रारंभ करो. सुदीप से छिपाने जैसा भी इस में कुछ नहीं है, बल्कि उसे तो गर्व ही होगा कि थोड़े से साहस से काम ले कर तुम एक दुर्घटना से बच गईं,’’ विभा ने मानसी को समझाया. कुछ जलपान कर के व मानसी को समझाबुझा कर विभा चली गई. जातेजाते यह भी कह गई कि उस के होते हुए उसे घबराने या चिंता करने की आवश्यकता नहीं है. रातभर उधेड़बुन में खोए रहने के बाद मानसी ने निर्णय ले ही लिया कि निर्दोष होते हुए भी भला वह अपराधबोध को क्यों ढोए? उस ने तो अम्लान को केवल भाई समझा था. यदि वह एक भाई की गरिमा को नहीं समझ सका तो इस में उसी का दोष है. कार्यालय पहुंच कर एक क्षण को तो उसे ऐसा लगा, मानो सभी की निगाहें उसी पर टिकी हैं. पर शीघ्र ही सबकुछ सामान्य हो गया.

शाम को कार्यालय से छुट्टी होने के बाद वह बस स्टौप पर खड़ी थी कि अम्लान का स्कूटर आ कर रुका, ‘‘आइए मनु दीदी, मैं आप को छोड़ दूं,’’ वह बोला तो मानसी का मन हुआ उस का मुंह नोच ले

‘‘यह संबोधन तुम्हारे मुंह से शोभा नहीं देता. मैं तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहती,’’ मानसी तीखे स्वर में बोली.

‘‘ओह, तो आप अभी तक नाराज हैं? हमारी मित्रता क्या ऐसी छोटीमोटी बातों से समाप्त हो जाएगी?’’ अम्लान धृष्टता से बोला.

‘‘छोटीमोटी बात कहते हो तुम उस घटना को?’’ उत्तर में अम्लान पर मानसी ने ऐसी आग्नेय दृष्टि डाली कि वह एक क्षण के लिए भी वहां न रुक सका. मानसी घर पहुंची तो द्वार खोलते ही सामने सुदीप का पत्र दिखाई दिया. उस ने शीघ्रता से लिफाफा खोला. पत्र में सुदीप के मोती जैसे अक्षर चमक रहे थे.

‘‘प्रिय मानसी,

तुम्हारा पत्र पढ़ कर आज मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया है. मेरी अनुपस्थिति में संभवतया तुम्हें एक त्रासदी से गुजरना पड़ा. पर इस के लिए अकेली तुम ही उत्तरदायी नहीं हो. मैं भी तुम्हारा अपराधी हूं. मैं हर परिस्थिति में तुम्हारे साथ हूं.

‘‘तुम ने 6 महीनों का लंबा समय कितनी कठिनाई से गुजारा होगा, मैं समझ सकता हूं. अब तो केवल 6 मास शेष हैं. मैं तो चाहता हूं कि उड़ कर तुम्हारे पास पहुंच जाऊं या तुम्हें यहां बुला लूं, पर ऐसा संभव नहीं है. तुम चाहो तो छुट्टी ले कर मायके जा सकती हो. मेरे मातापिता तो हैं नहीं, वरना मैं तुम्हें वहीं जाने की सलाह देता. तुम अपना निर्णय लेने को स्वतंत्र हो. मैं हर परिस्थति में तुम्हारे साथ हूं.

‘‘तुम्हारा, सुदीप.’’

पत्र पढ़ कर मानसी देर तक रोती रही. उसे ऐसा महसूस हुआ, मानो मन का बोझ आंखों की राह बह जाना चाहता हो और पत्र के माध्यम से सुदीप स्वयं उसे सांत्वना देने चला आया हो. सुदीप का विचार मन में आते ही उस ने आंसू पोंछ डाले और मन को दृढ़ किया. उसे ऐसा लगा, जैसे शरीर में नए उत्साह का संचार हो रहा हो. वह सोचने लगी, उस का सुदीप उस के साथ है तो वह किसी भी परिस्थिति का साहस से सामना कर सकती है. क्यों डरे वह किसी से? क्यों जाए कहीं. इसी घर में सुदीप के इसी प्यार के साथ वह 6 महीने भी काट लेगी.

Best Hindi Kahani : नया जमाना

Best Hindi Kahani :  डरबन की चमचमाती सड़कों पर सरपट दौड़ती इम्पाला तेजी से आगे बढ़ी जा रही थी. कुलवंत गाड़ी ड्राइविंग करते हिंदी फिल्म का एक गीत गुनगुनाने में मस्त थे. सुरभि उन के पास वाली सीट पर चुपचाप बैठी कनखियों से उन्हें निहारे जा रही थी. इम्पाला जब शहर के भीड़भाड़ वाले बाजार से गुजरने लगी तो सुरभि ने एक चुभती नजर कुलवंत पर डाली और बोली, ‘‘अंकल, कहीं मैडिकल की शौप नजर आए तो गाड़ी साइड में कर के रोक देना, मुझे दवा लेनी है.’’

कुलवंत के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आए. सुरभि की तरफ देख कर बोले, ‘‘क्यों, क्या हुआ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, तबीयत तो ठीक है.’’

‘‘फिर दवा किस के लिए लेनी है?’’

‘‘आप के लिए.’’

‘‘मेरे लिए, क्यों? मुझे क्या हुआ है? एकदम भलाचंगा तो हूं.’’

‘‘आप बड़े नादान हैं. नहीं समझेंगे. अब आप अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाना बंद कीजिए. मैडिकल शौप नजर आए तो वहां गाड़ी रोक देना. मैं 1 मिनट में वापस आ जाऊंगी.’’

कुलवंत को बात समझ में नहीं आई तो चुप्पी साध ली. उन की नजरें स्क्रीन विंडो से हो कर बाजार के दोनों तरफ दौड़ने लगीं. कुछ देर बाद एक मैडिकल शौप नजर आई, तो गाड़ी को साइड में ले कर शौप के आगे रोक दी.

‘‘लो, दवाइयों की दुकान आ गई. जल्दी से दवा ले कर आओ.’’

सुरभि ने फुरती से दरवाजा खोला और मैडिकल शौप पर पहुंच गई. कुलवंत गाड़ी में बैठेबैठे ही सुरभि को देखते रहे. उस ने क्या दवा ली, वे चाह कर भी नहीं जान पाए. सुरभि ने दवा को पर्स में डाला और पैसे दे कर फौरन वापस आ कर गाड़ी में बैठ गई. वह कुलवंत की तरफ देख कर बोली, ‘‘हो गया काम, घर चलिए.’’

कुलवंत को कुछ भी समझ में न आया. उन्होंने गाड़ी को गियर में डाला और ऐक्सिलरेटर पर दबाव बढ़ा दिया. गाड़ी अगले ही पल हवा से बातें करने लगी. ड्राइविंग करतेकरते उन्होंने सुरभि पर एक नजर डाली. न जाने क्यों आज उन्हें सुरभि में एक बदलाव सा नजर आ रहा था.

1 महीने पहले जब वे डरबन आए थे, तब की सुरभि और आज की सुरभि में जमीनआसमान का फर्क था. पिछले 2 दिनों में तो उस का हावभाव एकदम बदल सा गया था. यह सब सोचतेसोचते वे विचारों में खो गए.

कल सुबह वे धड़धड़ाते हुए स्नानघर में घुसे तो उन के पांवों के नीचे की जमीन खिसक गई थी. वहां पर सुरभि पहले से ही स्नान कर रही थी. उस के तन पर एक भी कपड़ा नहीं था. कुलवंत फौरन बाहर आ गए. सुरभि की पीठ दरवाजे की तरफ थी. शायद उस ने कुलवंत को नहीं देखा था. कुलवंत की सांसें धोंकनी की तरह चलने लगीं. वे सोफे पर गिर पड़े. सोचने लगे कि अच्छा हुआ जो सुरभि को कुछ भी मालूम नहीं चला. मगर इस में गलती तो सुरभि की ही थी. सुरभि को अंदर से दरवाजा बंद करना चाहिए था.

उस घटना को गुजरे 24 घंटे से ज्यादा का समय बीत चुका था, मगर कुलवंत की आंखों में स्नानघर वाला दृश्य बारबार घूम जाता था. यौवन की दहलीज पर खड़ी सुरभि के उस रूप ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था. उन्हें खुद से ज्यादा गुस्सा सुरभि पर आ रहा था. उस ने भीतर से दरवाजा बंद क्यों नहीं किया? यह लापरवाही थी या जानबूझ कर की गई कारस्तानी. नहीं, नहीं, यह लापरवाही नहीं हो सकती, यह सब सुरभि ने जानबूझ कर किया है. अच्छा होगा कि निशांत जल्दी से वापस आ जाए.

इन विचारों के साथ वे बचपन की यादों में खो गए. कुलवंत और निशांत बचपन के मित्र थे. दोनों के घर आसपास ही थे. साथ ही खेलतेकूदते बचपन गुजरा. एक ही स्कूल में शिक्षा पाई. यूनिवर्सिटी में साथ ही दाखिला लिया. बाद में निशांत ने सीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर के चार्टर्ड अकाउंटैंट का कार्य शुरू कर दिया.

कुलवंत ने अपने पिता का खेतीबाड़ी का काम संभाल लिया. एक दिन अच्छा रिश्ता आया तो प्रभुदयालजी ने अपने बेटे निशांत का विवाह सृजना के साथ धूमधाम से कर दिया. कुलवंत ब्याह के कार्यों में 1 महीने तक जुटा रहा. निशांत के सभी सूट उस ने अपनी पसंद से सिलवाए. बरातियों की लिस्ट बनाने से ले कर प्रीतिभोज का मेन्यू तय करने तक में उस ने प्रभुदयालजी की मदद की. लोग भी कहने लगे कि निशांत और कुलवंत दोस्त नहीं, बल्कि भाई हैं.

कुछ समय बाद कुलवंत की भी शादी हो गई. उस की शादी में निशांत तो आया, मगर उस की पत्नी सृजना नहीं आई थी. कुलवंत को बुरा लगा. उस ने अपने दोस्त को खूब खरीखोटी सुनाईं. निशांत उस दिन कुछ भी नहीं बोला. कुलवंत की हर बात को उस ने सहजता से लिया. घरगृहस्थी में बंधने के बाद दोनों अपनीअपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए. कभीकभार दोनों दोस्त मिलते तो एकदूसरे से शिकवाशिकायत करने में ही समय गंवा देते. कुलवंत को कई बार लगा कि निशांत की गृहस्थी में सबकुछ ठीक नहीं है. उन्हीं दिनों खबर लगी कि निशांत के लड़की हुई है. मिठाई और उपहार दे कर दोनों पतिपत्नी वापस आ गए.

कुछ दिनों बाद एक अन्य मित्र के द्वारा मालूम पड़ा कि निशांत और सृजना की आपस में नहीं बनती. दोनों में रोज ही झगड़े होते रहते हैं. पुत्र और बहू के झगड़ों से दुखी प्रभुदयालजी की एक दिन हार्ट अटैक से मौत हो गई. उन की मौत के बाद तो निशांत और सृजना का मामला बिगड़ता ही चला गया.

मित्र के घर के बुरे समाचारों के बाद कुलवंत भी चिंतित हो उठा. एक दिन वह अपनी निशा को ले कर निशांत के घर गया. वहां दोनों को खूब समझाया. यहां कुलवंत को पहली बार लगा कि सृजना बहुत ही आक्रामक स्वभाव की थी. निशांत ने तो उन की बात को धैर्य के साथ सुना, मगर सृजना ने उन्हें दोटूक शब्दों में कह दिया, ‘देखिए, कुलवंतजी, आप अपने घर को संभालें. हमारे घर के मामलों में आप को पंचायत करने की जरूरत नहीं है.’

उस दिन कुलवंत भारी मन से वापस घर आया तो रो पड़ा था. आज उस के मित्र का घर बिखराव पर है अैर वह कुछ भी नहीं कर पा रहा था. कुछ समय बाद समाचार मिला कि निशांत और सृजना में तलाक हो गया. कोर्ट के आदेश से सुरभि निशांत को मिल गई थी. एक दिन निशांत ने कुलवंत और निशा को अपने घर बुलाया और बताया कि वह सुरभि को ले कर डरबन जा रहा है. वहां एक मल्टीनैशनल कंपनी में अकाउंटैंट की नौकरी मिल गई है. उस ने कुलवंत को अपने घर की चाबी देते हुए कहा कि मकान किराए पर उठा देना या जैसा तुम्हें उचित लगे, करना. समयसमय पर सफाई जरूर करवा देना. उस समय सुरभि मात्र 8 वर्ष की थी.

वक्त की रफ्तार धीरेधीरे आगे बढ़ती रही. कुलवंत की जिंदगी में सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. लेकिन एक दिन निशा ने स्तन में दर्द होने की बात बताई. डाक्टर को दिखाया तो उस ने जांच के बाद बताया कि उस को कैंसर है. बीमारी लास्ट स्टेज पर थी. कैंसर ने ऐसी जड़ें जमाईं कि निशा कभी ठीक ही नहीं हो पाई. कुलवंत को घर का चिराग दिए बिना ही निशा चल बसी. मातापिता का तो पहले ही देहांत हो गया था. वह दुनिया में अकेला हो गया. कभीकभी उस का मिलना सृजना भाभी से हो जाता था. वह अपने किए पर बहुत रोती थी. देखतेदेखते 12 वर्ष बीत गए. एक दिन निशांत ने वीजा व हवाई जहाज का टिकट भेज कर कुलवंत को डरबन बुला लिया.

मित्र के बुलावे पर वह 1 महीने पहले डरबन आया था. जब उस ने डरबन की धरती पर पांव रखा तो निशांत खुद गाड़ी ले कर एअरपोर्ट आया था. वर्षों बाद एकदूसरे को देख कर दोनों के आंसू निकल आए थे. घर पहुंचे तो सुरभि को देख कर कुलवंत का मुंह खुला का खुला रह गया. 12 वर्ष पूर्व जिस सुरभि को उस ने भारत से विदा किया था, उस में व इस सुरभि में जमीनआसमान का फर्क था. आज तो वह बिलकुल अपनी मां जैसी लग रही थी. उस के  नैननक्श बिलकुल सृजना के जैसे थे.

निशांत और सुरभि के साथ रहने से कुलवंत में जीने की तमन्ना जाग उठी थी. उन दोनों के साथ रहते 1 महीना कब बीता, पता ही नहीं चला.

2 दिन पहले निशांत को किसी जरूरी कार्य से दुबई जाना पड़ा. उस ने रवाना होते समय कुलवंत से कहा था, ‘मैं 1 हफ्ते के बाद ही आ पाऊंगा. तुम्हारी देखभाल

के लिए सुरभि को कह दिया है. कोई विशेष कार्य हो तो मोबाइल पर बता देना.’

अचानक विचारतंद्रा टूटी तो कुलवंत ने देखा कि बंगला आ गया है. उन्होंने गाड़ी पार्किंग में खड़ी की. दोनों दरवाजे के पास पहुंचे तो यह देख कर दंग रह गए कि दरवाजा खुला हुआ है. दोनों ने एकदूसरे की तरफ प्रश्नवाचक नजरों से देखा. सुरभि ने आश्चर्य से कहा, ‘‘मैं ने जाते वक्त ताला लगाया था. पीछे से यह दरवाजा किस ने खोला?’’

दोनों तेजी से दौड़ते हुए भीतर गए तो वहां के हालात देख कर भौचक्के रह गए. पूरे बंगले का सामान इधरउधर बिखरा पड़ा था. सुरभि ने कुलवंत की तरफ देख कर कहा, ‘‘लगता है चोरों ने यहां अपना हाथ दिखा दिया है. मैं पुलिस को फोन करती हूं.’’

सूचना मिलते ही पुलिस की टीम वहां जा पहुंची. अधिकारी पूछताछ के बाद छानबीन में लग गए. लूट की रिपोर्ट लिखने के बाद पुलिस वापस लौट गई. सुरभि ने कुलवंत की तरफ देख कर कहा, ‘‘यार अंकल, यों मुंह लटकाए क्यों बैठे हो? यहां तो यह आम बात है. यह तो अच्छा हुआ हम दोनों घर पर नहीं थे, वरना लुटेरे हमें जान से मार भी सकते थे. मैं पापा को फोन कर के बता देती हूं. आप चाय तो बना कर पिला दीजिए.’’

कुलवंत सुरभि की बेतकल्लुफी पर हैरान था. वह चुपचाप उठा और रसोईघर की तरफ चल दिया. सुरभि ने मोबाइल फोन से घर में हुई लूट की बात अपने पापा को बता दी. उस ने यह भी बता दिया कि चिंता की बात नहीं है. कुलवंत अंकल और वह कुशलमंगल से हैं. कुलवंत ने तब तक चाय बना ली.

रात को दोनों ने मिल कर खाना बना लिया. खाना खाते समय दोनों चुपचुप रहे. खापी कर दोनों फ्री हुए तो कुलवंत अपने कमरे में आ कर पलंग पर लेट गए. उन्हें नींद नहीं आ रही थी. टीवी चालू कर के वे चैनल बदलने लगे. एक चैनल पर कोई संत कथा का वाचन कर रहे थे. उन्होंने मन में विचार किया कि चलो, आज कथा का ही आनंद ले लिया जाए.

इतने में सुरभि दूध का गिलास ले आई. कुलवंत को धार्मिक चैनल पर कथा सुनते देख आश्चर्यचकित हो उठी. उस ने दूध का गिलास टेबल पर रखते हुए कनखियों से कुलवंत की तरफ देखा और बोली, ‘‘वाह, आप को भी कथाओं का शौक है?’’

सुरभि की बात पर कुलवंत की  हंसी छूट गई. वे सुरभि की  तरफ देखे बगैर ही बोल पड़े, ‘‘सब अपनी रोजीरोटी के लिए दौड़ रहे हैं. अपने भारत में तो आजकल कथाकारों की बाढ़ आई हुई है. इन कथाओं में धन बरस रहा है. धर्म के नाम पर न तो लूटने वालों की कमी है और न ही लुटाने वालों की. मैं भी कभीकभी सोचता हूं कि सबकुछ छोड़ कर कथावाचक बन जाऊं. धन और शोहरत के साथ सुंदरसुंदर चेहरे वाली हसीनाओं के दर्शन का लाभ भी मिलता रहेगा.’’

‘‘अरे, रहने भी दो. हसीनाओं को देखना आप को आता ही कहां है? हां, साधु बन कर माला फेरनी हो तो बात दूसरी है.’’

कुलवंत सुरभि की बात सुन कर सन्न रह गए. वे समझ गए कि सुरभि का मूड आज बड़ा रोमांटिक है. उस की द्विअर्थी बातों में कुछ छिपा है. उन्होंने सुरभि की तरफ देख कर कहा, ‘‘ठीक है, तुम जाओ यहां से, रात काफी हो गई है, मैं सोना चाहता हूं. तुम भी अब अपने कमरे में जा कर सो जाओ.’’ सुरभि अपने कमरे में चली गई. उस के चेहरे पर मदमस्त कर देने वाली मुसकान थी. कुलवंत ने दूध के गिलास की तरफ देखा. आज दूध पीने की इच्छा नहीं हो रही थी. मन में विचार किया कि निशांत जल्दी से वापस आ जाए. वे टीवी का स्विच बंद कर के सो गए. कुछ देर बाद नींद ने डेरा डालना शुरू कर दिया. अभी पूरी आंख लगी भी नहीं थी कि अचानक चौंक कर उठ बैठे. आंखें खुलीं तो देखा पलंग के पास कोई खड़ा है.

‘‘कौन है?’’ घबराहट में मुंह से निकल गया.

‘‘मैं हूं.’’

‘‘मैं कौन?’’

‘‘सुरभि.’’

‘‘इस समय यहां क्या करने आई हो?’’

‘‘मुझे नींद नहीं आ रही. अपने कमरे में डर लग रहा है, मैं अकेली वहां नहीं सो सकती.’’

‘‘पागल मत बनो. जाओ, अपने कमरे में. अपनेआप नींद आ जाएगी.’’

‘‘नहीं, डर लगता है. मैं तो यहीं पर सोऊंगी.’’

‘‘समझा करो. तुम अब छोटी बच्ची नहीं रहीं.’’

‘‘इसीलिए तो यहां सोने आई हूं.’’

इतना कहते ही सुरभि कुलवंत के पास लेट गई. कुलवंत की सांसें एकाएक फूलने लगीं. वे पलंग पर एक कोने पर सरक गए. घबराहट के मारे बुरा हाल हो रहा था. उन्होंने सुरभि की तरफ देख कर कहा, ‘‘प्लीज, यह गलत है. हमारी संस्कृति इस की इजाजत नहीं देती. कम से कम हम दोनों की उम्र का फर्क तो देखो. मैं तुम्हारे पापा की उम्र का हूं.’’

सुरभि ने भी करवट बदली और कुलवंत से एकदम सट कर बोली, ‘‘मुझे बेकार की बातें मत समझाइए. आप को समझ में नहीं आता तो मैं बता देती हूं. अब जमाना बदल गया है. जो भूख लगने पर भोजन नहीं करता वह पागल है.’’

‘‘प्लीज, कहना मानो. कल तुम्हारे पापा को मालूम होगा तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगा.’’

‘‘डरिए मत, किसी को कुछ भी पता नहीं चलेगा. हो जाने दीजिए, जो कुछ होता है. जहां प्यार पनपता है वहां उम्र का हिसाब गौण हो जाता है. आजकल जमाना बदल गया है. प्यासी तृप्त होगी तो उस का परिणाम मिलेगा. यह व्यभिचार नहीं, उपकार होगा.’’

अचानक उस ने अपनी बंद मुट्ठी कुलवंत की तरफ बढ़ा दी.

‘‘क्या है?’’

‘‘तुम्हारी दवा. आज सुबह मैडिकल शौप से खरीदी थी.’’

इतना कहते हुए उस ने अपनी बंद मुट्ठी खोली. उस में एक ‘पैकेट’ था. यह देख कुलवंत की आंखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गईं. वह समझ गया कि वास्तव में जमाना बदल गया है. नए जमाने के सामने उस ने घुटने टेक दिए. अगले ही पल उस ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया.

लेखक- मिश्रीलाल पंवार

True Love Story : प्यार की खातिर

True Love Story :  प्यार कभी भी और कहीं भी हो सकता है. प्यार एक ऐसा अहसास है, जो बिन कहे भी सबकुछ कह जाता है. जब किसी को प्यार होता है तो वह यह नहीं सोचता कि इस का अंजाम क्या होगा और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह इनसान किसी के प्यार में इतना खो जाता है कि बस प्यार के अलावा उसे कुछ दिखाई नहीं देता है. तभी तो कहते हैं कि प्यार अंधा होता है. सबकुछ लुटा कर बरबाद हो कर भी नहीं चेतता और गलती पर गलती करता चला जाता है.

मोहन हाईस्कूल में पढ़ने वाला एक 16 साल का लड़का था. वह एक लड़की गीता से बहुत प्यार करने लगा. वह उस के लिए कुछ भी कर सकता था, लेकिन परेशानी की बात यह थी कि वह उसे पा नहीं सकता था, क्योंकि मोहन के पापा गीता के पापा की कंपनी में एक मामूली सी नौकरी करते थे. मोहन बहुत ज्यादा गरीब घर से था, जबकि गीता बहुत ज्यादा अमीर थी. वह सरकारी स्कूल में पढ़ता था और गीता शहर के नामी स्कूल में पढ़ती थी.

लेकिन उन में प्यार होना था और प्यार हो गया. मोहन गीता से कहता, ‘‘तुम मुझ से कभी दूर मत जाना क्योंकि मैं तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह पाऊंगा.’’ ‘‘हां नहीं जाऊंगी, लेकिन मेरे घर वाले कभी हमें एक नहीं होने देंगे,’’ गीता ने कहा.

‘‘क्यों?’’ मोहन ने पूछा. ‘‘क्योंकि तुम सब जानते हो. हमारा समाज हमें कभी एक नहीं होने देगा,’’ गीता बोली.

‘‘हम इस दुनिया, समाज सब को छोड़ कर दूर चले जाएंगे,’’ मोहन ने कहा. ‘‘नहींनहीं, मैं यह कदम नहीं उठा सकती. मैं अपने परिवार को समाज के सामने शर्मिंदा होते नहीं देख सकती,’’ गीता ने अपने मन की बात कही.

‘‘ठीक है, तो तुम मेरा तब तक इंतजार करना, जब तक मैं इस लायक न हो जाऊं और तुम्हारे पापा के सामने जा कर उन से तुम्हारा हाथ मांग सकूं. बोलो मंजूर है?’’ मोहन ने कहा. गीता हंसी और बोली, ‘‘क्या होगा, अगर मैं तुम से शादी कर के एकसाथ न रह सकी? हम चाहें दूर रहें या पास, मेरे दिल में तुम्हारा प्यार कभी कम नहीं होगा. तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगे.’’

यह सुन कर मोहन दिल ही दिल में रो पड़ा और सोच में पड़ गया. ‘‘क्या तुम मुझे छोड़ कर किसी और से शादी कर लोगी? मुझे भूल जाओगी? मुझ से दूर चली जाओगी?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘ऐसा तो मैं सोच भी नहीं सकती कि तुम्हें भूल जाऊं. मैं मरते दम तक तुम्हें नहीं भूल पाऊंगी,’’ गीता बोली. ‘‘फिर मेरा दिल दुखाने वाली बात क्यों करती हो? कह दो कि तुम मेरी हो कर ही रहोगी?’’ मोहन ने कहा.समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. मोहन दिनरात मेहनत कर के खुद को गीता के काबिल बनाने में लगा था, ताकि एक दिन उस के पिता के पास जा कर गीता का हाथ मांग सके. इधर गीता यह सोचने लगी, ‘मोहन मेरी अमीरी की खातिर मुझ से दूर जा रहा है. वह मुझे पा नहीं सकता इसलिए दूरी बना रहा है.’

इधर गीता के घर वाले उस के लिए लड़का देखने लगे और उधर मोहन जीजान से पढ़ाई में लगा हुआ था. उसे पता भी नहीं चला और गीता की शादी तय हो गई. जब यह बात मोहन को पता चली तो वह गीता की खुशी की खातिर चुप लगा गया, क्योंकि उस की शादी शहर के बहुत बड़े खानदान में हो रही थी. उस का होने वाला पति एक बड़ी कंपनी का मालिक था.

यह सब जानने और सुनने के बाद मोहन अपने प्यार की खुशी की खातिर उस से दूर जाने की कोशिश करने लगा, लेकिन यह तो नामुमकिन था. वह किसी भी कीमत पर जीतेजी उस से दूर नहीं हो सकता था. सचाई जाने बगैर ही उस ने एक गलत कदम उठाने की सोच ली. गीता अंदर ही अंदर बहुत दुखी थी और परेशान थी क्योंकि वह भी तो मोहन को बहुत प्यार करती थी.

जिस दिन गीता की शादी थी उसी दिन मोहन ने एक सुसाइड नोट लिखा और फांसी लगा ली. ठीक उसी समय गीता ने भी एक सुसाइड नोट लिखा और जब सब लोग बरात का स्वागत करने में लगे थे उस ने खुद को फांसी लगा कर खत्म कर लिया.

प्यार की खातिर 2 परिवार दुख के समंदर में डूब गए. बस उन दोनों की जरा सी गलतफहमी की खातिर. हम मिटा देंगे खुद को प्यार की खातिर जी नहीं पाएंगे पलभर तुम से दूर रह कर. कर के सबकुछ समर्पित प्यार के लिए बिखरते हैं कितना हम टूटटूट कर. विश्वास बहुत बड़ी चीज होती है. हमें अपनों पर और खुद पर भरोसा करना चाहिए, ताकि जो उन दोनों के साथ हुआ वैसा किसी के साथ न हो. अगर प्यार करो तो निभाना भी चाहिए और बात कर के गलतफहमियों को मिटाना भी चाहिए, क्योंकि प्यार वह अहसास है जो हमें जीने की वजह देता है.

अगर इस दुनिया में प्यार नहीं तो कुछ भी नहीं. प्यार अमीरीगरीबी, ऊंचनीच, धर्म, जातपांत कुछ भी नहीं देखता. अगर किसी को एक बार प्यार हो जाए तो वह उस की खुशी की खातिर अपनी जिंदगी की भी परवाह नहीं करता. प्यार तो कभी भी कहीं भी किसी से भी हो सकता है, पर सच्चा प्यार होना और मिलना बहुत मुश्किल होता है. खुद पर और अपने प्यार पर हमेशा भरोसा बनाए रखना चाहिए, क्योंकि इस फरेबी दुनिया में सच्चा प्यार बहुत मुश्किल से मिलता है.

लेखिका- सीमा असीम सक्सेना

Story Of Life : अधूरी कहानी

Story Of Life : बात उन दिनों की है, जब राघव 12वीं जमात पास कर के कालेज में पढ़ने गया था. माली हालत अच्छी न होने की वजह से उसे पापा के पास बेंगलुरु जाना पड़ा और इसी बीच वह वहीं काम भी करने लगा. समय मिलते ही राघव अपने सारे दोस्तों को मैसेज करता था. वह शायरी का तो शौकीन था ही, हर रोज नईनई शायरी दोस्तों को भेजता और बदले में वे तारीफ भेजते. वे ज्यादातर बातें मैसेज के जरीए ही करते थे. दोस्तों के अलावा राघव अपनी चचेरी भाभी सोनी को भी मैसेज करता था. वे खड़गपुर में राघव के भाई के साथ रहती थीं. राघव और सोनी दोनों जब भी बातें करते तो ऐसा नहीं लगता था कि कोई देवरभाभी बातें कर रहे हैं. ऐसा लगता था, मानो 2 जिगरी दोस्त बातें कर रहे हों.

एक दिन अचानक राघव के फोन पर एक नंबर से एक प्यारा सा मैसेज आया. वह पढ़ कर बहुत खुश हो गया. लेकिन अगले ही पल वह हैरान रह गया, क्योंकि जब उस नए नंबर पर उस ने फोन किया, तो फोन का जवाब नहीं मिल सका.

राघव ने उसी नंबर पर मैसेज किया, ‘कौन हो तुम?’

उधर से जवाब आया, ‘आप की अपनी दोस्त.’

राघव ने नाम पूछा, तो उस ने बताया नहीं. ‘फिर कभी…’ का मैसेज लिख दिया.

राघव ने सोचा, ‘शायद मेरा ही कोई दोस्त मुझे नए फोन नंबर से परेशान कर रहा है.’

रात को राघव ने उस नंबर पर फोन किया. एक लड़की ने फोन उठाया… और जैसे ही वह ‘हैलो’ बोली, राघव के रोंगटे खड़े हो गए.

राघव ने हकलाते हुए पूछा, ‘‘कौन हो तुम? मेरा नंबर तुम्हें किस ने दिया? तुम कहां से बोल रही हो?’’

उस लड़की ने बताया, ‘मेरा नाम पूजा है?’

इस के बाद उस ने राघव से कहा कि वह उसे पहले से जानती है. उस के बारे में बहुत सारी बातें भी बताईं. वह देखने में कैसा है, उस का कद कितना है वगैरह.

राघव ने पूछा, ‘‘मुझे कहां देखा आप ने?’’

उस लड़की ने कहा, ‘4 महीने पहले मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन पर देखा था, तभी से नंबर ढूंढ़ रही हूं.’

राघव चौंक गया, क्योंकि ठीक 4 महीने पहले वह अपनी मौसी को छोड़ने वहां गया था. वह खयालीपुलाव पकाते हुए सोचने लगा कि एक अनजान लड़की ने अनजान जगह पर उसे देखा और तब से उस का फोन नंबर ढूंढ़ रही है.

पहले तो वह अनजान था, पर अब राघव दोस्ती के नाते उस से बातें करने लगा. कुछ ही दिन हुए थे राघव और उस लड़की की दोस्ती को कि इसी बीच उस का एक मैसेज आया, जिस में लिखा था, ‘मुझे माफ कर देना. मैं नहीं चाहती कि हमारी दोस्ती की शुरुआत झूठ से हो. सच तो यह है कि मैं ने आप को कभी देखा ही नहीं. बस, सोनी भाभी के फोन पर आप का मैसेज पढ़ा, जो मुझे बहुत पसंद आया. इस के बाद भाभी से आप का नंबर ले कर मैसेज कर दिया.

‘मैं ने सोचा कि अगर आप को पहले ही सब बता देती, तो आप के बारे में इतना कुछ जानने का मौका न मिलता. इस झूठ के लिए मुझे माफ कर देना और मेरी दोस्ती को स्वीकार करना.’

यह मैसेज पढ़ कर राघव को थोड़ा गुस्सा तो आया, पर दोस्तों से इस बारे में जब उस ने बात की, तो वे भी उस की तारीफ के पुल बांधने लगे. उसे सलाह दी कि लड़की अच्छी है, तभी तो उस ने सब सचसच बता दिया. और तो और वह दोस्ती भी करना चाहती है. ऐसे सच्चे दोस्त कम ही मिलते हैं. उसे फोन कर और दोस्ती की नई शुरुआत कर. फिर क्या था, राघव का दिल बागबाग हो उठा.

अगली सुबह राघव ने मैसेज किया, ‘गुड मौर्निंग दोस्त.’

उधर से भी मैसेज आया, जिस में पूछा गया था, ‘मुझे माफ तो कर दिया न? फिर से सौरी ऐंड थैंक्यू… दोस्ती को आगे बढ़ाने के लिए.’

राघव ने भी फिल्मी अंदाज में लिख भेजा, ‘दोस्ती में नो थैंक्स, नो सौरी.’

उन दोनों की दोस्ती परवान चढ़ती गई. पहली बार घर जाते समय राघव उस से खड़गपुर रेलवे स्टेशन पर मिला. ट्रेन वहां ज्यादा देर नहीं रुकी, इसलिए बातें भी न हो सकीं. सिर्फ ‘हायहैलो’ ही हो पाई.

उस समय छठ पूजा की तैयारियां चल रही थीं. राघव घर पर ही था. सोनी भाभी हर साल छठ पूजा के समय गांव आ जातीं. इस बार भी वे आईं, पर अकेली नहीं, पूजा भी साथ थी.

राघव इतना खुश था कि बयां नहीं कर सकता था. उस ने पूजा को अपनी मां और बहनों से मिलवाया. वह पूरा दिन उसी के साथ रहा.

सोनी भाभी कहां चूकने वाली थीं. वे भी ताने कसतीं, ‘‘क्यों देवरजी, क्या इसे यहीं छोड़ दूं हमेशा के लिए?’’

भाभी की ऐसी बातें सुन कर राघव के मन में लड्डू फूटने लगते. काश, ऐसा ही होता.

पूजा थी ही ऐसी. गोरा रंग, लंबी नाक, लंबा कद, पतली कमर, मानो कोई अप्सरा हो. राघव मन ही मन उसे चाहने लगा था. उस के फोन की बैटरी और पैसे खत्म हो जाते, पर बातें नहीं. हर साल छठ पूजा पर पूजा भी सोनी भाभी के साथ उस से मिलने चली आती, लेकिन राघव की कभी हिम्मत नहीं हुई कि वह भी कभी उस के घर जाए. राघव जब भी गांव आता, उस से स्टेशन पर ही मिल कर चला जाता. प्यार वह भी उस से करती थी, पर बोलती नहीं थी. राघव उस से प्यार का इजहार करवा कर ही रहा. अब दोस्ती भूल कर प्यारमुहब्बत की बातें होने लगीं. बात शादी तक पहुंच गई. राघव ने हिम्मत कर के पड़ोसियों के जरीए अपने प्यार और शादी की बात मां तक पहुंचा दी. मां ने इस रिश्ते को एक बार में ही खारिज कर दिया. इस की वजह यह थी कि लड़की उन की बिरादरी की नहीं थी. पढ़ीलिखी है. शहर की रहने वाली है. गांव के बारे में क्या जानती है  मां के खयाल से शायद पूजा घरपरिवार न संभाल सके. उन को ऐसी लड़की चाहिए थी, जो घर को संभाल सके. घर तो पूजा संभाल ही लेती, पर मां को कौन समझाए. पुराने खयालों वाली मां जो एक बार बोल देती हैं, वही राघव के लिए पत्थर की लकीर हो जाता था. समय का पहिया अपनी रफ्तार से चलता रहा. राघव के दोस्तों, पड़ोसियों सभी ने उसे सलाह दी कि वह पूजा को भगा ले जाए. मां कुछ दिन नाराज रहेंगी, पर समय के साथ सब ठीक हो जाएगा.

राघव आगेपीछे की सोचने लगा, ‘जैसे हर मां के सपने होते हैं, वैसे ही मेरी मां के भी सपने होंगे. वे सोचती होंगी कि उन के बेटे की शादी होगी. बैंडबाजा बजेगा, वे खुशी के मारे नाचेंगी…’

राघव ने भी सोच लिया था कि पूरे परिवार के सामने उस की शादी होगी. वह अपनी मां के सपनों को नहीं तोड़ सकता. एक दिन राघव ने पूजा को अपने मन की बात बता दी. वह सुन कर रोने लगी. रोया तो वह भी था.

कुछ सोच कर पूजा ने कहा, ‘‘आप की शादी किसी से भी हो, पर आप हमेशा खुश रहना. मां का दिल कभी मत तोड़ना. आप वहीं शादी कीजिएगा, जहां आप की मां चाहती हैं. जब तक हम दोनों में से किसी एक की शादी नहीं होती, तब तक हम दोस्ती के नाते बातें तो कर ही सकते हैं.’’ फिर पूजा छठ पूजा पर गांव नहीं आई. राघव भी उदास रहने लगा. उन दोनों ने क्याक्या सपने देखे थे कि शादी होगी, शादी के बाद घर पर ही वह कोई काम करेगा, पूजा बच्चों को ट्यूशन पढ़ाएगी और वह दुकान चलाएगा. कहते हैं न कि आदमी जो सोचता है, वह हमेशा पूरा होता है, बल्कि सच में सोचा हुआ काम कभी पूरा नहीं होता. जो राघव ने सोचा था, वह सब तो अधूरा ही रह गया.

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