अविश्वास: रश्मि ने अकेलेपन को ख़त्म करने के लिए क्या तय किया?

अपनेकाम निबटाने के बाद मां अपने कमरे में जा लेटी थीं. उन का मन किसी काम में नहीं लग रहा था. शिखा से फोन पर बात कर वे बेहद अशांत हो उठी थीं. उन के शांत जीवन में सहसा उथलपुथल मच गई थी. दोनों रश्मि और शिखा बेटियों के विवाह के बाद वे स्वयं को बड़ी हलकी और निश्ंिचत अनुभव कर रही थीं. बेटेबेटियां अपनेअपने घरों में सुखी जीवन बिता रहे हैं, यह सोच कर वे पतिपत्नी कितने सुखी व संतुष्ट थे.

शिखा की कही बातें रहरह कर उन के अंतर्मन में गूंज रही थीं. वे देर तक सूनीसूनी आंखों से छत की तरफ ताकती रहीं. घर में कौन था, जिस से कुछ कहसुन कर वे अपना मन हलका करतीं. लेदे कर घर में पति थे. वे तो शायद इस झटके को सहन न कर सकें.

दोनों बेटियों की विदाई पर उन्होंने अपने पति को मुश्किल से संभाला था. बारबार यही बोल उन के दिल को तसल्ली दी थी कि बेटी तो पराया धन है, कौन इसे रख पाया है. समय बहुत बड़ा मलहम है. बड़े से बड़ा घाव समय के साथ भर जाता है, वे भी संभल गए थे.

बड़ी बेटी रश्मि के लिए उन के दिल में बड़ा मोह था. रश्मि के जाने के बाद वे बेहद टूट गए थे. रश्मि को इस बात का एहसास था, सो हर 3-4 महीने बाद वह अपने पति के साथ पिता से मिलने आ जाती थी.

शादी के कई वर्षों बाद भी भी रश्मि मां नहीं बन सकी थी. बड़ेबड़े नामी डाक्टरों

से इलाज कराया गया, पर कोईर् परिणाम नहीं निकला. हर बार नए डाक्टर के पास जाने पर रश्मि के दिल में आशा की लौ जागती, पर निराशारूपी आंधी उस की लौ को निर्ममता से बुझा जाती. किसी ने आईवीएफ तकनीक से संतान प्राप्ति का सुझाव दिया लेकिन आईवीएफ तकनीक में रश्मि को विश्वास न था.

अकेलापन जब असह्य हो उठा तो रश्मि ने तय किया कि वह अपनी पढ़ाई जारी रखेगी.

‘सुनो, मैं एमए जौइन कर लूं?’

‘बैठेबैठे यह तुम्हें क्या सूझा?’

‘खाली जो बैठी रहती हूं, इस से समय भी कट जाएगा और कुछ ज्ञान भी प्राप्त हो जाएगा.’

‘मुझे तो कोई एतराज नहीं, पर बाबूजी शायद ही राजी हों.’

‘ठीक है, बाबूजी से मैं स्वयं बात कर लूंगी.’

उस रात बाबूजी को खाना परोसते हुए रश्मि ने अपनी इच्छा जाहिर की तो एक पल को बाबूजी चुप हो गए. रश्मि समझी शायद बाबूजी को मेरी बात बुरी लगी है. अनुभवी बाबूजी समझ गए कि रश्मि ने अकेलेपन से ऊब कर ही यह इच्छा प्रकट की है. उन्होंने रश्मि को सहर्ष अनुमति दे दी.

कालेज जाने के बाद नए मित्रों और पढ़ाई के बीच 2 साल कैसे कट गए, यह स्वयं रश्मि भी न जान सकी. रश्मि ने अंगरेजी एमए की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास कर ली. उस के ससुर ने उसे एक हीरे की सुंदर अंगूठी उपहार में दी.

शिखा की शादी तय हो गई थी. रश्मि

के लिए शिखा छोटी बहन ही नहीं, मित्र व हमराज भी थी. शिखा ने व्हाट्सऐप पर लिखा कि, ‘सच में बड़ी खुशी की बात यह है कि तुम्हारे जीजाजी का तुम्हारे शहर में अपने व्यापार के संबंध में खूब आनाजाना रहेगा. मुझे तो बड़ी खुशी है कि इसी बहाने तुम्हारे पास हमारा आनाजाना लगा रहेगा.’

व्हाट्सऐप में मैसेज देख कर और उस में लिखा पढ़ कर रश्मि खिल उठी थी. कल्पना में ही उस ने अनदेखे जीजाजी के व्यक्तित्व के कितने ही खाके खींच डाले थे, पर दिल में कहीं यह एहसास भी था कि शिखा के चले जाने के बाद मां और बाबूजी कितने अकेले हो जाएंगे.

शिखा की शादी में रमेश से मिल कर रश्मि बहुत खुश हुई, कितना हंसमुख, सरल, नेक लड़का है. शिखा जरूर इस के साथ खुश रहेगी. रमेश भी रश्मि से मिल कर प्रभावित हुआ था. उस का व्यक्तित्व ही ऐसा था. शिखा की शादी के बाद एक माह रश्मि मांबाप के पास ही रही थी, ताकि शिखा की जुदाई का दुख उस की उपस्थिति से कुछ कम हो जाए.

शिखा अपने पति के साथ रश्मि के घर आतीजाती रही. हर बार रश्मि ने उन की जी खोल कर आवभगत की. उन के साथ बीते दिन यों गुजर जाते कि पता ही न लगता कि कब वे लोग आए और कब चले गए. उन के जाने के बाद रश्मि के लिए वे सुखद स्मृतियां ही समय काटने को काफी रहतीं.

शिखा शादी के बाद जल्द ही एकएक कर

2 बेटियों की मां बन गई थी. रश्मि ने शिखा के हर बच्चे के स्वागत की तैयारी बड़ी धूमधाम और लगन से की. अपने दिल के अरमान वह शिखा की बेटियों पर पूरे कर रही थी. मनोज भी रश्मि को खुश देख कर खुश था. उस की जिंदगी में आई कमी को किसी हद तक पूरी होते देख उसे सांत्वना मिली थी.

शिखा के तीसरे बच्चे की खबर सुन कर रश्मि अपने को रोक न सकी. शिखा की चिंता उस के शब्दों से साफ प्रकट हो रही थी. उस ने तय कर लिया कि वह शिखा के इस बच्चे को गोद ले लेगी. इस से उस के अपने जीवन का अकेलापन, खालीपन तथा घर का सन्नाटा दूर हो जाएगा. बच्चे की जरूरत उस घर से ज्यादा इस घर में है. रश्मि ने जब मनोज के सामने अपनी इच्छा जाहिर की तो मनोज ने सहर्ष अपनी अनुमति दे दी.

‘शिखा, घबरा मत, तेरे ऊपर यह बच्चा भार बन कर नहीं आ रहा है. इस बच्चे को तुम मुझे दे देना. मुझे अपने जीवन का अकेलापन असह्य हो उठा है. तुम अगर यह उपकार कर सको तो आजन्म तुम्हारी आभारी रहूंगी.’ रश्मि ने शिखा से फोन पर बात की.

शाम को जब रमेश घर आया तब शिखा ने मोबाइल पर हुई सारी बात उसे बताई.

‘रश्मि मुझे ही गोद क्यों नहीं ले लेती, उसे कमाऊ बेटा मिल जाएगा और मुझे हसीन मम्मी.’ रमेश ने मजाक किया.

‘क्या हर वक्त बच्चों जैसी बातें करते हो. कभी तो बात को गंभीरता से लिया करो.’

रमेश ने गंभीर मुद्रा बनाते हुए कहा, ‘लो, हो गया गंभीर, अब शुरू करो अपनी बात.’

नाराज होते हुए शिखा कमरे से जाने लगी तो रमेश ने उस का आंचल खींच लिया, ‘बात पूरी किए बिना कैसे जा रही हो?’

‘रश्मि के दर्द व अकेलेपन को नारी हृदय ही समझ सकता है. हमारा बच्चा उस के पास रह कर भी हम से दूर नहीं रहेगा. हम तो वहां आतेजाते रहेंगे ही. ‘हां’ कह देती हूं.’

‘बच्चे पर मां का अधिकार पिता से अधिक होता है. तुम जैसा चाहो करो, मेरी तरफ से

स्वतंत्र हो.’

शिखा ने रश्मि को अपनी रजामंदी दे दी. सुन कर रश्मि ने तैयारियां शुरू कर दीं. इस बार वह मौसी की नहीं, मां की भूमिका अदा कर रही थी. उस की खुशियों में मनोज पूरे दिल से साथ दे रहा था.

ऐसे में एक दिन उसे पता चला कि वह स्वयं मां बनने वाली है. रश्मि डाक्टर की बात का विश्वास ही न कर सकी.

उस ने अपने हाथों पर चिकोटी काटी.

मनोज ने खबर सुनते ही रश्मि को चूम लिया.

उसी रात रश्मि ने शिखा को फोन किया, ‘शिखा, तेरा यह बच्चा मेरे लिए दुनियाजहान की खुशियां ला रहा है. सुनेगी तो विश्वास नहीं आएगा. मैं मां बनने वाली हूं. कहीं तेरे बच्चे को गोद लेने के बाद मां बनती तो शायद तेरे बच्चे के साथ पूरा न्याय न कर पाती.’ रश्मि की आवाज में खुशी झलक रही थी.

‘आज मैं इतनी खुश हूं कि स्वयं मां बनने पर भी इतनी खुश न हुई थी. 14 साल बाद पहली बार तुम्हारे घर में खुशी नाचेगी,’ शिखा बहन की इस खुशी से दोगुनी खुश हो कर बोली.

मां और बाबूजी भी यह खुशखबरी सुन कर आ गए थे. रश्मि के ससुर की खुशी का

ठिकाना ही न था.

रश्मि ने अपनी बेटी का नाम प्रीति रखा था. प्रीति घरभर की लाड़ली थी. शिखा व रमेश का आनाजाना लगा ही रहता. शिखा के तीसरा बच्चा बेटा था. रश्मि ने यही सोच कर कि घर में बेटा होना भी जरूरी है, शिखा से उस का बेटा नहीं मांगा.

रश्मि की खुशियां शायद जमाने को भायी नहीं. शिखा व रमेश रश्मि के पास आए हुए थे. उन की दूर की मौसी प्रीति को देखने आई थीं. रश्मि को बधाई देते हुए उन्होंने कहा, ‘रश्मि, तेरा रूप बिटिया न ले सकी. यह तो अपने मौसामौसी की बेटी लगती है.’

‘यह तो अपनेअपने समझने की बात है, मौसी, मैं प्रीति को अपनी बेटी से बढ़ कर प्यार करता हूं.’

मौसी का कथन और रमेश का समर्थन शिखा के दिल में तीर बन कर चुभ गए. जिन आंखों से प्रीति के लिए प्यार उमड़ता था, वही आंखें अब उस का कठोर परीक्षण कर रही थीं. प्रीति का हर अंग उसे रमेश के अंग से मेल खाता दिखाई देने लगा. प्रीति की नाक, उस की उंगलियां रमेश से कितनी मिलती हैं, तो क्या प्रीति रमेश की बेटी है? शिखा के दिल में संदेह का बीज पनपने लगा. मौसी का विषबाण अपना काम कर चुका था.

‘रश्मि बच्चे की चाह में इतना गिर सकती है और रमेश ने मेरे विश्वास का यही परिणाम दिया,’ शिखा सोचती रही, कुढ़ती रही.

घर लौटते ही शिखा उबल पड़ी. सुनते ही रमेश सन्नाटे में आ गया. यह रश्मि की

सगी बहन बोल रही है या कोई शत्रु?

‘तुम पढ़ीलिखी हो कर भी अनपढ़ों जैसा व्यवहार कर रही हो. तुम में विश्वास नाम की कोई चीज ही नहीं. इतना ही भरोसा है मुझ पर.’

‘अविश्वास की बात ही क्या रह जाती है? प्रीति का हर अंग गवाह है कि तुम्हीं उस के बाप हो. औरत सौत को कभी बरदाश्त नहीं कर पाती, चाहे वह उस की सगी बहन ही क्यों न हो.’

‘किसी के रूपरंग का किसी से मिलना

क्या किसी को दोषी मानने के लिए काफी है? गर्भावस्था में मां की आंखों के सामने जिस की तसवीर होती है, बच्चा उसी के अनुरूप ढल

जाता है.’

‘अपनी डाक्टरी अपने पास रखो, तुम्हारी कोई सफाई मेरे लिए पर्याप्त नहीं.’

‘डाक्टर राजेश को तो जानती हो न? उस की बेटी के बाल सुनहरे हैं, पर पतिपत्नी में से किस के बाल सुनहरे हैं? राजेश ने तो आज तक कोई तोहमत अपनी पत्नी पर नहीं लगाई.’

‘मैं औरत हूं, मेरे अंदर औरत का दिल है, पत्थर नहीं.’

बेचैनी में शिखा अपनी परेशानी मां को बता चुकी थी. उस की रातें जागते कटतीं, भूख खत्म हो गई थी. फोन करने के बाद मां कितनी बेचैन हो उठेंगी, यह उस ने सोचा ही न था.

मां अंदर ही अंदर परेशान हो उठीं. दोपहर को जब पति सोने चले गए तो उन्होंने शिखा को फोन किया, ‘‘तुम्हारी बात ने मुझे बहुत अशांत कर दिया है. रश्मि तुम्हारी बहन है, रमेश तुम्हारा पति, तुम उन के संबंध में ऐसा सोच भी कैसे सकती हो. रश्मि अगर 14 साल बाद मां बनी है तो इस का अर्थ यह तो नहीं कि तुम उस पर लांछन थोप दो. तुम्हारा अविश्वास तुम्हारे घर के साथसाथ रश्मि का घर भी ले डूबेगा. जिंदगी में सुख व खुशी हासिल करने के लिए विश्वास अत्यंत आवश्यक है. बसेबसाए घरों में आग मत लगाओ. रश्मि को इतने वर्षों बाद खुश देख कर कहीं तुम्हारी ईर्ष्या तो नहीं जाग उठी?’’

मां से बात करने के बाद शिखा के अशांत मन में हलचल सी उठी. सचाई सामने होते आंखें कैसे मूंदी जा सकती हैं. बातबात पर झल्ला जाना, पति पर व्यंग्य कसना शिखा का स्वभाव बन

चुका था.

‘‘बचपना छोड़ दो, रश्मि सुनेगी तो कितनी दुखी होगी.’’

‘‘क्यों? तुम तो हो, उस के आंसू पोंछने

के लिए.’’

‘‘चुप रहो, तमीज से बात करो, तुम तो हद से ज्यादा ही बढ़ती जा रही हो. जो सच नहीं है, उसे तुम सौ बार दोहरा कर भी सच नहीं बना सकतीं.’’

शिखा को हर घटना इसी एक बात से संबद्घ दिखाई पड़ रही थी. चाह कर भी वह अपने मन से किसी भी तरह इस बात को निकाल न सकी.

इधर रमेश को रहरह कर मौसीजी पर गुस्सा आ रहा था, जो उन के शांत जीवन में पत्थर फेंक कर हलचल मचा गई थीं. पढ़लिख कर इंसान का मस्तिष्क विकसित होता है, सोचनेसमझने और परखने की शक्ति आती है, पर शिखा तो पढ़लिख कर भी अनपढ़ रह गई थी.

एकदूसरे के लिए अजनबी बन पतिपत्नी अपनीअपनी जिंदगी जीने लगे. आखिर हुआ वही जो होना था. बात रश्मि तक भी पहुंच गई. सुन कर उसे गुस्सा कम और दुख अधिक हुआ. मनोज को भी इस बात का पता लगा, पर व्यक्ति व्यक्ति में भी कितना अंतर होता है. रश्मि के प्रति विश्वास की जो जड़ें सालों से जमी थीं, वे इस कुठाराघात से उखड़ न सकीं.

रश्मि ने मन मार कर शिखा को फोन कर कहा, ‘‘इसे तुम चाहो तो मेरी तरफ से

अपनी सफाई में एक प्रयत्न भी समझ सकती हो. हमारा सालों का रिश्ता, खून का रिश्ता यों इतनी जल्दी तोड़ दोगी? शांत मन से सोचो, मैं तो तुम्हारा बच्चा गोद लेने वाली थी, फिर मुझे ऐसा करने की आवश्यकता क्यों होती? रमेश को मैं ने हमेशा छोटे भाई की तरह प्यार किया है, इस निश्चल प्यार को कलुषित मत बनाओ.

‘‘वैवाहिक जीवन की नींव विश्वासरूपी भूमि पर खड़ी है. अपनी बसीबसाई गृहस्थी में शंकारूपी कुल्हाड़ी से आघात क्यों करना चाहती हो? तनाव और कलह को क्यों निमंत्रण दे बैठी हो? रमेश को तुम इतने सालों में भी समझ नहीं सकी हो.’’

शिखा इन बातों से और जलभुन गई. रमेश उस की नजर में अभी भी अपराधी है. घर वह सोने और खाने को ही आता है. उस का घर से बस इतना ही नाता रह गया है. मां द्वारा पिता की उपेक्षा होते देख बच्चे भी उस से वैसा ही व्यवहार करते हैं.

शिखा ने स्वयं ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि आज न वह स्वयं खुश है, न उस का पति रमेश.

शहादत: खूबसूरत पड़ोसिन को देख जब पत्नीव्रता पति का मन डोला

विश्वास कीजिए, मैं एक अदद पत्नी का पत्नीव्रता पति और एक जोड़ी बच्चों का बौड़म सा पिता हूं. दुनिया की ज्यादातर महिलाएं मेरे लिए मांबहन के समान हैं. ज्यादातर सद्गृहस्थों की तरह मैं भी घर से नाक की सीध में आफिस जाता हूं और इसी तरह वापस आता हूं.

अपने छोटे से परिवार के साथ मैं एक बड़े से मल्टीस्टोरी कांप्लेक्स में सुखपूर्वक रह रहा था. मेरे ऊपर मुसीबतों का पहाड़ तब टूटा जब मेरे पड़ोस वाले फ्लैट में एक फुलझड़ी रहने आ गई. आप की तरह मेरी भी तबीयत खूबसूरत पड़ोसिन को देख कर झक्क हो गई. किंतु मेरे दिल का गुब्बारा अगले ही दिन पिचक गया जब पता चला कि वह एक पुलिस इंस्पेक्टर की अघोषित पत्नी है.

जैसे सरकारी बाबुओं की घोषित संपत्ति के अलावा अनेक अघोषित संपत्तियां होती हैं वैसे ही समझदार पुलिस वालों की घोषित पत्नी के अलावा अनेक अघोषित पत्नियां होती हैं. बेचारों को जनता की सेवा में दिनरात पूरे शहर की खाक छाननी पड़ती है. चौबीसों घंटे की ड्यूटी. थक कर चूर हो जाना लाजमी है. ऐसे में वे शहर के जिस कोने में हों वहीं थकावट दूर कर तरोताजा होने की व्यवस्था को उन की जनसेवा का ही अभिन्न अंग माना जाना चाहिए.

अपनी खूबसूरत पड़ोसिन के बारे में जो सूचना मुझ तक पहुंची उस के अनुसार कुछ दिनों पहले तक हमारी पड़ोसिन निराश्रित और जमाने के जुल्मों की शिकार थीं. एक बार मदद लेने की आस में पुलिस स्टेशन पहुंचीं तो इंस्पेक्टर साहब ने उन्हें पूरा संरक्षण प्रदान कर दिया. रोटी, कपड़ा और मकान के साथसाथ सारी मूलभूत आवश्यकताओं (आप समस्याएं भी कह सकते हैं) का जिम्मा अपने सिर ले लिया. बेचारे कुछ दिनों तक तो हर रात अबला को सुरक्षा प्रदान करने आते रहे किंतु वह लोकतांत्रिक व्यवस्था के पैरोकार थे. इसलिए किसी एक का पक्षपात करने के बजाय उन्होंने सप्ताह में अपना एक दिन हमारी पड़ोसिन के लिए आरक्षित कर दिया.

वह जब भी आते उन के दोनों हाथ भारीभरकम पैकेटों से लदे रहते. कई बार उन के साथ मजदूर टाइप के दोचार लोग भी होते जो कभी टीवी, कभी फ्रिज तो कभी वाशिंग मशीन जैसी चीजें उठाए रहते.

जिस दिन वह आते पड़ोसिन के फ्लैट में बड़ी चहलपहल रहती. बाकी के 6 दिन उन की आंखों में दुख का सागर लहराता रहता. कई बार मन में आता कि पड़ोसी धर्म का पालन कर उन के दुखदर्द को बांटूं किंतु इंस्पेक्टर का ध्यान आते ही सारा जोश फना हो जाता.

एक दिन मेरा बेटा नए मोबाइल के लिए जिद कर रहा था. मैं काफी देर तक उसे समझाता रहा और आखिर में अधिकांश भारतीय पिताआें की तरह उसे चांटा जड़ दिया. वह भी सच्चा सपूत था. रोरो कर बंदे ने आसमान सिर पर उठा लिया.

अगले दिन मैं आफिस जाने के लिए निकला तो लिफ्ट में पड़ोसिन मिल गईं. संयोग से वहां हम दोनों के अलावा और कोई न था. उन्होंने मेरी ओर अपनत्व भरी नजर से देखा फिर संजीदा होती हुई बोलीं, ‘‘देखिए, बच्चों का मन मारना अच्छी बात नहीं होती है. आप उस के लिए एक नया मोबाइल खरीद ही लीजिए.’’

‘‘जी, महीने का आखिरी चल…’’ मैं चाह कर भी अपना वाक्य पूरा नहीं कर पाया.

पड़ोसिन अत्यंत आत्मीयता से मुसकराईं और पर्स से 3 हजार रुपए निकाल कर मेरी ओर बढ़ाती हुई बोलीं, ‘‘यह लीजिए, मेरी ओर से खरीद दीजिएगा.’’

‘‘लेकिन मैं आप से रुपए कैसे ले सकता हूं,’’ मैं अचकचा उठा.

‘‘अरे, हम पड़ोसी हैं. एकदूसरे के सुखदुख में काम आना पड़ोसी का कर्तव्य होता है,’’ कहतेकहते उन्होंने इतने अधिकार से मेरी जेब में रुपए ठूंस दिए कि मैं न नहीं कर सका.

इस के बाद पड़ोसिन अकसर मुझे लिफ्ट में मिल जातीं और मेरी मदद कर देतीं. पता नहीं उन्हें मेरी जरूरतों के बारे में कैसे पता चल जाता था. जाने वह जादू जानती थीं या हम नौकरीपेशा गृहस्थों के चेहरे पर जरूरतों का बोर्ड टंगा रहता है. जो भी हो, मैं धीरेधीरे उन के एहसानों तले दबता चला जा रहा था.

मैं कमरतोड़ मेहनत करता था फिर भी बहुत मुश्किल से गाड़ी खींचने लायक कमा पाता था. उधर उन के पास जैसे जादू की डिबिया थी जिस में रुपए कभी कम ही नहीं होते थे. एक दिन मैं ने उन से पूछा तो वह खिलखिला पड़ीं, ‘‘जादू की डिबिया तो नहीं लेकिन मेरे पास जादू की पुडि़या जरूर है.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘अब आप से क्या छिपाना,’’ पड़ोसिन ने अपने पर्स से एक छोटी सी पुडि़या निकाली. उस में सफेद पाउडर जैसा कुछ भरा हुआ था. वह उसे दिखाती हुई मुसकराईं, ‘‘मुझे जितने पैसों की जरूरत होती है इन्हें बता देती हूं. ये इस पुडि़या के दम पर उतने पैसे किसी से भी मांग लेते हैं.’’

‘‘लेकिन कोई ऐसे ही पैसे कैसे दे देगा,’’ मुझे उस पुडि़या की जादुई शक्तियों पर भरोसा नहीं हुआ.

‘‘क्यों नहीं देगा,’’ वह रहस्यमय ढंग से मुसकराईं फिर मेरे कान में फुसफुसाते हुए बोलीं, ‘‘अगर इस पुडि़या में रखी कोकीन की बरामदगी आप की जेब से दिखा दी जाए तो आप क्या करेंगे? अपनी इज्जत बचाने की खातिर मुंहमांगी रकम देंगे या नहीं?’’

‘‘क्या वास्तव में यह कोकीन है?’’ मेरा सर्वांग कांप उठा.

‘‘यह तो फोरेंसिक रिपोर्ट आने के बाद कोर्ट में ही पता चलेगा, लेकिन तब तक आप की इज्जत का फलूदा बन जाएगा. सारे रिश्तेदार मान लेंगे कि इसी के दम पर आप कार पर घूमते थे,’’ उन्होंने बताया.

‘‘लेकिन कार तो मैं ने लोन ले कर खरीदी है,’’ मैं ने बचाव की कोशिश की.

‘‘सभी जानते हैं कि लोन आयकर वालों की आंखों में धूल झोंकने के लिए लिया जाता है,’’ उन्होंने मेरे रक्षाकवच को फूंक मार कर उड़ा दिया.

यह सुन कर मेरे चेहरे का रंग उड़ गया. यह देख वह हलका सा मुसकराईं फिर मेरे कंधे पर हाथ मारते हुए बोलीं, ‘‘लेकिन आप क्यों परेशान हो रहे हैं. आप तो हमारे शुभचिंतक हैं.’’

मेरी जान में जान आई और मैं सांस भरते हुए बोला, ‘‘इस का मतलब इंस्पेक्टर साहब जिस आदमी की चाहें उस की इज्जत मिनटों में धो सकते हैं?’’

‘‘आदमी की ही क्यों वह औरत की भी इज्जत धो सकते हैं,’’ वह नयनों को तिरछा कर मुसकराईं.

‘‘वह कैसे?’’

‘‘दुनिया के सब से पुराने व्यापार में लिप्त बता कर. सभी जानते हैं कि आजकल अमीर घराने की महिलाएं अपने शौक की खातिर, मिडिल क्लास महिलाएं अपने ख्वाब पूरा करने की खातिर और गरीब महिलाएं अपना पेट पालने के लिए इस धंधे में लिप्त रहती हैं. इसलिए जिस पर चाहो हाथ धर दो, जनता सच मान लेगी,’’ उन्होंने सत्य उजागर किया.

‘‘बाप रे, तब तो आप के वह बहुत खतरनाक आदमी हुए,’’ मैं हड़बड़ाते हुए बोला.

‘‘लेकिन मेरे इशारों पर नाचते हैं,’’ वह गर्व से मुसकराईं और कंधे उचकाते हुए चली गईं.

2 दिन के बाद मेरी श्रीमतीजी अचानक कुछ काम से मायके चली गईं. उन के बिना खाली फ्लैट काटने को दौड़ता था लेकिन मजबूरी थी. शाम को मैं मुंह लटकाए आफिस से लौट रहा था कि लिफ्ट में पड़ोसिन मिल गईं.

‘‘सुना है भाभीजी मायके गई हैं?’’ उन्होंने अत्यंत शालीनता से पूछा.

‘‘जी हां.’’

‘‘अकेले में तो बड़ी बोरियत होती होगी,’’ उन्होंने मेरी आंखों में झांका.

‘‘मजबूरी है,’’ मेरे होंठ हिले.

‘‘मैं रात को आप के फ्लैट में आ जाऊंगी. सारी बोरियत दूर हो जाएगी,’’ उन्होंने मादक निगाहों से मेरी ओर देखा.

‘‘न, न…आप मेरे फ्लैट पर मत आइएगा,’’ मैं बुरी तरह घबरा उठा.

‘‘ठीक है, तो तुम मेरे फ्लैट पर आ जाना,’’ वह बड़े अधिकार के साथ आप से तुम पर उतर आईं.

मैं कुछ कहने जा ही रहा था कि लिफ्ट रुक गई. कुछ लोग बाहर खड़े थे.

‘‘मेरी बात ध्यान में रखना,’’ उन्होंने आदेशात्मक स्वर में कहा और लिफ्ट का दरवाजा खुलते ही तेजी से बाहर निकल गईं.

मैं पसीने से लथपथ हो गया. हांफते हुए अपने फ्लैट में आया और ब्रीफकेस फेंक बिस्तर पर गिर पड़ा.

आज मेरी समझ में आ गया कि वह गाहेबगाहे मेरी मदद क्यों करती थीं. खुद तो किसी की रखैल थीं और मुझे अपना… छी…उन्होंने मुझे बिकाऊ माल समझ रखा है. मेरा अंतर्मन वितृष्णा से भर उठा. टाइम पास करने के लिए मैं ने एक पत्रिका उठा ली. किंतु उस के पन्नों पर भी पड़ोसिन का चेहरा उभर आया. उस की मादक हंसी मुझे पास आने के लिए मौन निमंत्रण दे रही थी किंतु मैं एक सदचरित्र गृहस्थ था. किसी भी कीमत पर उस नागिन के जाल में नहीं फंसूंगा. मैं ने पत्रिका को दूर उछाल दिया.

रिमोट उठा कर मैं ने टीवी चला दिया. एक आइटम गर्ल का उत्तेजक डांस आ रहा था. यह मेरा पसंदीदा गाना था. बच्चों से छिप कर मैं अकसर इस का आनंद लेता रहता था. आज तो घर में कोई नहीं था. मैं निश्ंिचत भाव से उसे देखने लगा. अचानक आइटम गर्ल की गर्दन पर पड़ोसिन का चेहरा चिपक गया. अपनी मादक अदाआें से वह मुझे पास आने का आमंत्रण दे रही थी. मेनका की तरह मेरी तपस्या भंग कर देने के लिए आतुर थी.

‘तुम मुझे अपनी तरह दलदल में नहीं घसीट सकतीं,’ मैं ने झल्लाते हुए टीवी बंद कर दिया और बिस्तर पर लेट गया.

धीरेधीरे रात गहराने लगी. मेरी भूखप्यास गायब हो चुकी थी. नींद मुझ से कोसों दूर थी. काफी देर तक मैं करवटें बदलता रहा. पड़ोसिन के शब्द मेरे कानों में अंगार की तरह दहक रहे थे. मेरे बारे में ऐसा सोचने की उस चरित्रहीन की हिम्मत कैसे हुई? अपमान से मेरा पूरा शरीर दहकने लगा था. अगर मेरे परिवार और रिश्तेदारों को इस बारे में पता चल जाए तो मैं तो किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं रहूंगा.

अचानक मेरी सोच को झटका लगा, ‘अगर मैं ने उस का कहना नहीं माना और उस ने इंस्पेक्टर से कह कर वह जादू की पुडि़या मेरी जेब से बरामद करवा दी तो क्या होगा? अपने जिस चरित्र को मैं बचाना चाहता हूं क्या उस की धज्जियां नहीं उड़ जाएंगी? क्या समाज के सामने मेरी इज्जत दो कौड़ी की नहीं रह जाएगी?

‘कुछ भी हो मैं उस के जाल में नहीं फंसने वाला. बड़ेबड़े महापुरुषों को सद्चरित्रता दिखलाने पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है. मेरी भी जो बेइज्जती होगी उसे सह लूंगा,’ मैं ने अटल निर्णय ले लिया.

‘ठीक है. तुम तो महापुरुषों की श्रेणी में आ जाओगे लेकिन यदि उस घायल नागिन ने बदला लेने की खातिर इंस्पेक्टर से कह कर तुम्हारी पत्नी के दामन पर दाग लगवा दिया तो? क्या वह बेचारी बेमौत नहीं मारी जाएगी? उस की पवित्रता का दामन तारतार नहीं हो जाएगा? जिस ने जीवन भर तुम्हारी निस्वार्थ सेवा की है, क्या अपने स्वार्थ की खातिर उस का जीवन बरबाद हो जाने दोगे?’ तभी मेरी अंतरआत्मा ने दस्तक दी.

एकएक प्रश्न हथौड़े की भांति मेरे मनोमस्तिष्क पर बरसने लगा. तेज कोलाहल से मेरे कान के परदे फटने लगे.

‘‘नहीं,’’ मैं अपने हाथों को दोनों कानों पर रख कर सिसक पड़ा. पत्नी की इज्जत की रक्षा करना तो पति का कर्तव्य होता है. मैं ने भी सात फेरों के समय इस बात की शपथ खाई थी. चाहे मेरा सर्वस्व ही क्यों न बरबाद हो जाए, मैं उस के चरित्र पर आंच नहीं आने दूंगा.

मैं ने मन ही मन एक कठोर फैसला लिया और अपने परिवार की इज्जत बचाने की खातिर पड़ोसिन के समक्ष आत्म- समर्पण करने चल दिया.

गुमनाम शिकायतें: क्यों एक निर्दोष को झेलनी पड़ी सजा

पिछले 6 महीने से मुझे पुलिस स्टेशन में बुलाया जा रहा है. मुझे शहर में घटी आपराधिक घटनाओं का जिम्मेदार मानते हुए मुझ पर प्रश्न पर प्रश्न तोप के गोले की तरह दागे जा रहे थे. अपराध के समय मैं कब, कहां था. पुलिस को याद कर के जानकारी देता. मुझे जाने दिया जाता. मैं वापस आता और 2-4 दिन बाद फिर बुलावा आ जाता. पहली बार तो एक पुलिस वाला आया जो मुझे पूरा अपराधी मान कर घर से गालीगलौज करते व घसीटते हुए ले जाने को तत्पर था.

मैं ने उस से अपने अच्छे शहरी और निर्दोष होने के बारे में कहा तो उस ने पुलिसिया अंदाज में कहा, ‘पकड़े जाने से पहले सब मुजरिम यही कहते हैं. थाने चलो, पूछताछ होगी, सब पता चल जाएगा.’

चूंकि न मैं कोई सरकारी नौकरी में था न मेरी कोई दुकानदारी थी. मैं स्वतंत्र लेखन कर के किसी तरह अपनी जीविका चलाता था. उस पर, मैं अकेला था, अविवाहित भी.

पहली बार मुझे सीधा ऐसे कक्ष में बिठाया गया जहां पेशेवर अपराधियों को थर्ड डिगरी देने के लिए बिठाया जाता है. पुलिस की थर्ड डिगरी मतलब बेरहमी से शरीर को तोड़ना. मैं घबराया, डरा, सहमा था. मैं ने क्या गुनाह किया था, खुद मुझे पता नहीं था. मैं जब कभी पूछता तो मुझे डांट कर, चिल्ला कर और कभीकभी गालियों से संबोधित कर के कहा जाता, ‘शांत बैठे रहो.’ मैं घंटों बैठा डरता रहा. दूसरे अपराधियों से पुलिस की पूछताछ देख कर घबराता रहा. क्या मेरे साथ भी ये अमानवीय कृत्य होंगे. मैं यह सोचता. मैं अपने को दुनिया का सब से मजबूर, कमजोर, हीन व्यक्ति महसूस करने लगा था.

मुझ से कहा गया आदेश की तरह, ‘अपना मोबाइल, पैसा, कागजात, पेन सब जमा करा दो.’ मैं ने यंत्रवत बिना कुछ पूछे मुंशी के पास सब जमा करा दिए फिर मुझ से मेरे जूते भी उतरवा दिए गए.

उस के बाद मुझे ठंडे फर्श पर बिठा दिया गया. तभी उस यंत्रणाकक्ष में दो स्टार वाला पुलिस अफसर एक कुरसी पर मेरे सामने बैठ कर पूछने लगा :

‘क्या करते हो? कौनकौन हैं घर में? 3 तारीख की रात 2 से 4 के बीच कहां थे? किनकिन लोगों के साथ उठनाबैठना है? शहर के किसकिस अपराधी गिरोह को जानते हो? 3 जुलाई, 2012 को किसकिस से मिले थे? तुम चोर हो? लुटेरे हो?’

बड़ी कड़ाई और रुखाई से उस ने ये सवाल पूछे और धमकी, डर, चेतावनी वाले अंदाज में कहा, ‘एक भी बात झूठ निकली तो समझ लो, सीधा जेल. सच नहीं बताओगे तो हम सच उगलवाना जानते हैं.’

मैं ने उस से कहा और पूरी विनम्रता व लगभग घिघियाते हुए, डर से कंपकंपाते हुए कहा, ‘मैं एक लेखक हूं. अकेला हूं. 3 तारीख की रात 2 से 4 बजे के मध्य में अपने घर में सो रहा था. मेरा अखबार, पत्रपत्रिकाओं के कुछ संपादकों से, लेखकों से मोबाइलवार्ता व पत्रव्यवहार होता रहता है. शहर में किसी को नहीं जानता. मेरा किसी अपराधी गिरोह से कोई संपर्क नहीं है. न मैं चोर हूं, न लुटेरा. मात्र एक लेखक हूं. सुबूत के तौर पर पत्रिकाओं, अखबारों की वे प्रतियां दिखा सकता हूं जिन में मेरे लेख, कविताएं, कहानियां छपी हैं.’

मेरी बात सुन कर वह बोला, ‘पत्रकार हो?’

‘नहीं, लेखक हूं.’

‘यह क्या होता है?’

‘लगभग पत्रकार जैसा. पत्रकार घटनाओं की सूचना समाचार के रूप में और लेखक उसे विमर्श के रूप में लेख, कहानी आदि बना कर पेश करता है.’

‘मतलब प्रैस वाले हो,’ उस ने स्वयं ही अपना दिमाग चलाया.

मैं ने उत्तर नहीं दिया. प्रैस के नाम से वह कुछ प्रभावित हुआ या चौंका या डरा, यह तो मैं नहीं समझ पाया लेकिन हां, उस का लहजा मेरे प्रति नरम और कुछकुछ दोस्ताना सा हो गया था. उस ने अपने प्रश्नों का उत्तर पा कर मुझे मेरा सारा सामान वापस कर के यह कहते हुए जाने दिया कि आप जा सकते हैं. लेकिन दोबारा जरूरत पड़ी तो आना होगा.

पहली बार तो मैं ‘जान बची तो लाखों पाए’ वाले अंदाज में लौट आया लेकिन जल्द ही दोबारा बुलावा आ गया. इस बार जो पुलिस वाला लेने आया था उस का लहजा नरम था.

इस बार मुझे एक बैंच पर काफी देर बैठना पड़ा. जिसे पूछताछ करनी थी, वह किसी काम से गया हुआ था. इस बीच थाने के संतरी से ले कर मुंशी तक ने मुझे हैरानपरेशान कर दिया. किस जुर्म में आए हो, कैसे आए हो, अब तुम्हारी खैर नहीं? फिर मुझ से चायपानी, सिगरेट के लिए पैसे मांगे गए. मुझे देने पड़े न चाहते हुए भी. फिर जब वह पुलिस अधिकारी आया, मैं उसे पहचान गया. वह पहले वाला ही अधिकारी था. उस ने मुझे शक की निगाहों से देखते हुए फिर शहर में घटित अपराधों के विषय में प्रश्न पर प्रश्न करने शुरू किए. मैं ने उसे सारे उत्तर अपनी स्मरणशक्ति पर जोर लगालगा कर दिए. कुछ इस तरह डरडर कर कि एक भी प्रश्न का उत्तर गलत हुआ तो परीक्षा में बैठे छात्र की तरह मेरा हाल होगा.

चूंकि उस का रवैया नरम था सो मैं ने उस से पूछा, ‘क्या बात है, सर, मुझे बारबार बुला कर ये सब क्यों पूछा जा रहा है, मैं ने किया क्या है?’

‘पुलिस को आप पर शक है और शक के आधार पर पुलिस की पूछताछ शुरू होती है जो सुबूत पर खत्म हो कर अपराधी को जेल तक पहुंचाती है.’

‘लेकिन मुझ पर इस तरह शक करने का क्या आधार है?’

‘आप के खिलाफ हमारे पास सूचनाएं आ रही हैं.’

‘सूचनाएं, किस तरह की?’

‘यही कि शहर में हो रही घटनाओं में आप का हाथ है.’

‘लेकिन…?’

उस ने मेरी बात काटते हुए कहा, ‘आप को बताने में क्या समस्या है? हम आप से एक सभ्य शहरी की तरह ही तो बात कर रहे हैं. पुलिस की मदद करना हर अच्छे नागरिक का कर्तव्य है.’

अब मैं क्या बताऊं उसे कि हर बार थाने बुलाया जाना और पुलिस के प्रश्नों का उत्तर देना, थाने में घंटों बैठना किसी शरीफ आदमी के लिए किसी यातना से कम नहीं होता. उस की मानसिक स्थिति क्या होती है, यह वही जानता है. पलपल ऐसा लगता है कि सामने जहरीला सांप बैठा हो और उस ने अब डसा कि तब डसा.

इस तरह मुझे बुलावा आता रहा और मैं जाता रहा. यह समय मेरे जीवन के सब से बुरे समय में से था. फिर मेरे बारबार आनेजाने से थाने के आसपास की दुकानवालों और मेरे महल्ले के लोगों को लगने लगा कि या तो मैं पेशेवर अपराधी हूं या पुलिस का कोई मुखबिर. कुछ लोगों को शायद यह भी लगा होगा कि मैं पुलिस विभाग में काम करने वाला सादी वर्दी में कोई सीआईडी का आदमी हूं. मैं ने पुलिस अधिकारी से कहा, ‘सर, मैं कब तक आताजाता रहूंगा? मेरे अपने काम भी हैं.’

उस ने चिढ़ कर कहा, ‘मैं भी कोई फालतू तो बैठा नहीं हूं. मेरे पास भी अपने काम हैं. मैं भी तुम से पूछपूछ कर परेशान हो गया हूं. न तुम कुछ बताते हो, न कुबूल करते हो. प्रैस के आदमी हो. तुम पर कठोरता का व्यवहार भी नहीं कर रहा इस कारण.’

‘सर, आप कुछ तो रास्ता सुझाएं?’

‘अब क्या बताएं? तुम स्वयं समझदार हो. प्रैस वाले से सीधे तो नहीं कुछ मांग सकता.’

‘फिर भी कुछ तो बताइए. मैं आप की क्या सेवा करूं?’

‘चलो, ऐसा करो, तुम 10 हजार रुपए दे दो. मेरे रहते तक अब तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी. न तुम्हें थाने बुलाया जाएगा.’ मैं ने थोड़ा समय मांगा. इधरउधर से रुपयों का बंदोबस्त कर के उसे दिए और उस ने मुझे आश्वस्त किया कि मेरे होते अब तुम्हें नहीं आना पड़ेगा.

मैं निश्चिंत हो गया. भ्रष्टाचार के विरोध में लिखने वाले को स्वयं रिश्वत देनी पड़ी अपने बचाव में. अपनी बारबार की परेशानी से बचने के लिए और कोई रास्ता भी नहीं था. मैं कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं था. न मेरा किसी बड़े व्यापारी, राजनेता, पुलिस अधिकारी से परिचय था. रही मीडिया की बात, तो मैं कोई पत्रकार नहीं था. मैं मात्र लेखक था, जो अपनी रचनाएं आज भी डाक से भेजता हूं. मेरा किसी मीडियाकर्मी से कोई परिचय नहीं था. एक लेखक एक साधारण व्यक्ति से भी कम होता है सांसारिक कार्यों में. वह नहीं समझ पाता कि उसे कब क्या करना है. वह बस लिखना जानता है.

अपने महल्ले में भी लोग मुझे अजीब निगाहों से देखने लगे थे, जैसे किसी जरायमपेशा मुजरिम को देखते हैं. मैं देख रहा था कि मुझे देख कर लोग अपने घर के अंदर चले जाते थे. मुझे देखते ही तुरंत अपना दरवाजा बंद कर लेते थे. महल्ले में लोग धीरेधीरे मेरे विषय में बातें करने लगे थे. मैं कौन हूं? क्या हूं? क्यों हूं? मेरे रहने से महल्ले का वातावरण खराब हो रहा है. और भी न जाने क्याक्या. मेरे मुंह पर कोई नहीं बोलता था. बोलने की हिम्मत ही नहीं थी. मैं ठहरा उन की नजर में अपराधी और वे शरीफ आदमी. अभी कुछ ही समय हुआ था कि फिर एक पुलिस की गाड़ी सायरन बजाते हुए रुकी और मुझ से थाने चलने के लिए कहा. मेरी सांस हलक में अटक गई. लेकिन इस बार मैं ने पूछा, ‘‘क्यों?’’

‘‘साहब ने बुलाया है. आप को चलना ही पड़ेगा.’’

यह तो कृपा थी उन की कि उन्होंने मुझे कपड़े पहनने, घर में ताला लगाने का मौका दे दिया. मैं सांस रोके, पसीना पोंछते, पुलिस की गाड़ी में बैठा सोचता रहा, ‘साहब से तो तय हो गया था.’ महल्ले के लोग अपनीअपनी खिड़कियों, दरवाजों में से झांक रहे थे.

थाने पहुंच कर पता चला जो पुलिस अधिकारी अब तक पूछताछ करता रहा और जिसे मैं ने रिश्वत दी थी उस का तबादला हो गया है. उस की जगह कोई नया पुलिस अधिकारी था.

मेरे लिए खतरनाक यह था कि उस के नाम के बाद उस का सरनेम मेरे विरोध में था. वह बुद्धिस्ट, अंबेडकरवादी था और मैं सवर्ण. मैं समझ गया कि अपने पूर्वजों का कुछ हिसाबकिताब यह मुझे अपमानित और पीडि़त कर के चुकाने का प्रयास अवश्य करेगा. इस समय मुझे अपना ऊंची जाति का होना अखर रहा था.

मैं ने कई पीडि़त सवर्णों से सुना है कि थाने में यदि कोई दलित अफसर होता है तो वह कई तरह से प्रताडि़त करता है. मेरे साथ वही हुआ. मेरा सारा सामान मुंशी के पास जमा करवाया गया. मेरे जूते उतरवा कर एक तरफ रखवाए गए. मुझे ठंडे और गंदे फर्श पर बिठाया गया. फिर एक काला सा, घनी मूंछों वाला पुलिस अधिकारी बेंत लिए मेरे पास आया और ठीक सामने कुरसी डाल कर बैठ गया. उस ने हवा में अपना बेंत लहराया और फिर कुछ सोच कर रुक गया. उस ने मुझे घूर कर देखा. नाम, पता पूछा. फिर शहर में घटित तथाकथित अपराधों के विषय में पूछा.

मैं ने अब की बार दृढ़स्वर में कहा, ‘‘मैं पिछले 6 महीने से परेशान हूं. मेरा जीना मुश्किल हो रहा है. मेरा खानापीना हराम हो गया है. मेरी रातों की नींद उड़ गई है. इस से अच्छा तो यह है कि आप मुझे जेल में डाल दें. मुझे नक्सलवादी, आतंकवादी समझ कर मेरा एनकाउंटर कर दें. आप जहां चाहें, दस्तखत ले लें. आप जो कहें मैं सब कुबूल करने को तैयार हूं. लेकिन बारबार इस तरह यदि आप ने मुझे अपमानित और प्रताडि़त किया तो मैं आत्महत्या कर लूंगा,’’ यह कहतेकहते मेरी आंखों से आंसू बहने लगे.

नया पुलिस अधिकारी व्यंग्यात्मक ढंग से बोला, ‘‘आप शोषण करते रहे हजारों साल. हम ने नीचा दिखाया तो तड़प उठे पंडित महाराज.’’

उस के ये शब्द सुन कर मैं चौंका, ‘पंडित महाराज, तो एक ही व्यक्ति कहता था मुझ से. मेरे कालेज का दोस्त. छात्र कम गुंडा ज्यादा.’

‘‘पहचाना पंडित महाराज?’’ उस ने मेरी तरफ हंसते हुए कहा.

‘‘रामचरण अंबेडकर,’’ मेरे मुंह से अनायास ही निकला.

‘‘हां, वही, तुम्हारा सीनियर, तुम्हारा जिगरी दोस्त, कालेज का गुंडा.’’

‘‘अरे, तुम?’’

‘‘हां, मैं.’’

‘‘पुलिस में?’’

‘‘पहले कालेज में गुंडा हुआ करता था. अब कानून का गुंडा हूं. लेकिन तुम नहीं बदले, पंडित महाराज?’’

उस ने मुझे गले से लगाया. ससम्मान मेरा सामान मुझे लौटाया और अपने औफिस में मुझे कुरसी पर बिठा कर एक सिपाही से चायनाश्ते के लिए कहा.

यह मेरा कालेज का 1 साल सीनियर वही दोस्त था जिस ने मुझे रैगिंग से बचाया था. कई बार मेरे झगड़ों में खुद कवच बन कर सामने खड़ा हुआ था. फिर हम दोनों पक्के दोस्त बन गए थे. मेरे इसी दोस्त को कालेज की एक उच्चजातीय कन्या से प्रेम हुआ तो मैं ने ही इस के विवाह में मदद की थी. घर से भागने से ले कर कोर्टमैरिज तक में. तब भी उस ने वही कहा था और अभी फिर कहा, ‘‘दोस्ती की कोई जाति नहीं होती. बताओ, क्या चक्कर है?’’

मैं ने उदास हो कर कहा, ‘‘पिछले 6 महीने से पुलिस बुलाती है पूछताछ के नाम पर. जमाने भर के सवाल करती है. पता नहीं क्यों? मेरा तो जीना हराम हो गया है.’’

 

‘‘तुम्हारी किसी से कोई दुश्मनी है?’’

‘‘नहीं तो.’’ ‘अपनी शराफत के चलते कभी कहीं ऐसा सच बोल दिया हो जो किसी के लिए नुकसान पहुंचा गया हो और वह रंजिश के कारण ये सब कर रहा हो?’’

‘‘क्या कर रहा हो?’’‘‘गुमनाम शिकायत.’’ ‘‘क्या?’’ मैं चौंक गया, ‘‘तुम यह कह रहे हो कि कोई शरारत या नाराजगी के कारण गुमनाम शिकायत कर रहा है और पुलिस उन गुमनाम शिकायतों के आधार पर मुझे परेशान कर रही है.’’

‘‘हां, और क्या? यदि तुम मुजरिम होते तो अब तक जेल में नहीं होते. लेकिन शिकायत पर पूछताछ करना पुलिस का अधिकार है. आज मैं हूं, सब ठीक कर दूंगा. तुम्हारा दोस्त हूं. लेकिन शिकायतें जारी रहीं और मेरी जगह कल कोई और पुलिस वाला आ गया तो यह दौर जारी रह सकता है. इसीलिए कह रहा हूं, ध्यान से सोच कर बताओ कि जब से ये गुमनाम शिकायतें आ रही हैं, उस के कुछ समय पहले तुम्हारा किसी से कोई झगड़ा या ऐसा ही कुछ और हुआ था?’’

मैं सोचने लगा. उफ्फ, मैं ने सोचा भी नहीं था. अपने पड़ोसी मिस्टर नंद किशोर की लड़की से शादी के लिए मना करने पर वह ऐसा कर सकता है क्योंकि उस के बाद नंद किशोर ने न केवल महल्ले में मेरी बुराई करनी शुरू कर दी थी बल्कि उन के पूरे परिवार ने मुझ से बात करनी भी बंद कर दी थी. उलटे छोटीछोटी बातों पर उन का परिवार मुझ से झगड़ा करने के बहाने भी ढूंढ़ता रहता था. हो सकता है वह शिकायतकर्ता नंद किशोर ही हो. लेकिन यकीन से किसी पर उंगली उठाना ठीक नहीं है. अगर नहीं हुआ तो…मैं ने अपने पुलिस अधिकारी मित्र से कहा, ‘‘शक तो है क्योंकि एक शख्स है जो मुझ से चिढ़ता है लेकिन यकीन से नहीं कह सकता कि वही होगा.’’

फिर मैं ने उसे विवाह न करने की वजह भी बताई कि उन की लड़की किसी और से प्यार करती थी. शादी के लिए मना करने के लिए उसी ने मुझ से मदद के तौर पर प्रार्थना की थी. लेकिन मेरे मना करने के बाद भी पिता ने उस की शादी उसी की जाति के ही दूसरे व्यक्ति से करवा दी थी.

‘‘तो फिर नंद किशोर ही आप को 6 महीने से हलकान कर रहे हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘यार, मुझे इस मुसीबत से किसी तरह बचाओ.’’

‘‘चुटकियों का काम है. अभी कर देता हूं,’’ उस ने लापरवाही से कहा.

फिर मेरे दोस्त पुलिस अधिकारी रामचरण ने नंद किशोर को परिवार सहित थाने बुलवाया. डांट, फटकार करते हुए कहा, ‘‘आप एक शरीफ आदमी को ही नहीं, 6 महीनों से पुलिस को भी गुमराह व परेशान कर रहे हैं. इस की सजा जानते हैं आप?’’

‘‘इस का क्या सुबूत है कि ये सब हम ने किया है?’’ बुजुर्ग नंद किशोर ने अपनी बात रखी.

पुलिस अधिकारी रामचरण ने कहा, ‘‘पुलिस को बेवकूफ समझ रखा है. आप की हैंडराइटिंग मिल गई तो केस बना कर अंदर कर दूंगा. जहां से आप टाइप करवा कर झूठी शिकायतें भेजते हैं, उस टाइपिस्ट का पता लग गया है. बुलाएं उसे? अंदर करूं सब को? जेल जाना है इस उम्र में?’’

पुलिस अधिकारी ने हवा में बातें कहीं जो बिलकुल सही बैठीं. नंद किशोर सन्नाटे में आ गए.

‘‘और नंद किशोरजी, जिस वजह से आप ये सब कर रहे हैं न, उस शादी के लिए आप की लड़की ने ही मना किया था. यदि दोबारा झूठी शिकायतें आईं तो आप अंदर हो जाएंगे 1 साल के लिए.’’

नंद किशोर को डांटडपट कर और भय दिखा कर छोड़ दिया गया. मुझे यह भी लगा कि शायद नंद किशोर का इन गुमनाम शिकायतों में कोई हाथ न हो, व्यर्थ ही…

‘‘मेरे रहते कुछ नहीं होगा, गुमनाम शिकायतों पर तो बिलकुल नहीं. लेकिन थोड़ा सुधर जा. शादी कर. घर बसा. शराफत का जमाना नहीं है,’’ उस ने मुझ से कहा. फिर मेरी उस से यदाकदा मुलाकातें होती रहतीं. एक दिन उस का भी तबादला हो गया.

मैं फिर डरा कि कोई फिर गुमनाम शिकायतों भरे पत्र लिखना शुरू न कर दे क्योंकि यदि यह काम नंद किशोर का नहीं है, किसी और का है तो हो सकता है कि थाने के चक्कर काटने पड़ें. नंद किशोर ने तो स्वीकार किया ही नहीं था. वे तो मना ही करते रहे थे अंत तक.

लेकिन उस के बाद यह सिलसिला बंद हो गया. तो क्या नंद किशोर ही नाराजगी के कारण…यह कैसा गुस्सा, कैसी नाराजगी कि आदमी आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाए. गुस्सा है तो डांटो, लड़ो. बात कर के गुस्सा निकाल लो. मन में बैर रखने से खुद भी विषधर और दूसरे का भी जीना मुश्किल. पुलिस को भी चाहिए कि गुमनाम शिकायतों की जांच करे. व्यर्थ किसी को परेशान न करे.

शायद नंद किशोर का गुस्सा खत्म हो चुका था. लेकिन अब मेरे मन में नंद किशोर के प्रति घृणा के भाव थे. उस बुड्ढे को देखते ही मुझे अपने 6 माह की हलकान जिंदगी याद आ जाती थी. एक निर्दोष व्यक्ति को झूठी गुमनाम शिकायतों से अपमानित, प्रताडि़त करने वाले को मैं कैसे माफ कर सकता था. लेकिन मैं ने कभी उत्तर देने की कोशिश नहीं की. हां, पड़ोसी होते हुए भी हमारी कभी बात नहीं होती थी. नंद किशोर के परिवार ने कभी अफसोस या प्रायश्चित्त के भाव भी नहीं दिखाए. ऐसे में मेरे लिए वे पड़ोस में रहते हुए भी दूर थे.

दो चुटकी सिंदूर : सविता की क्या थी गलती

‘‘ऐ सविता, तेरा चक्कर चल रहा है न अमित के साथ?’’ कुहनी मारते हुए सविता की सहेली नीतू ने पूछा.

सविता मुसकराते हुए बोली, ‘‘हां, सही है. और एक बात बताऊं… हम जल्दी ही शादी भी करने वाले हैं.’’

‘‘अमित से शादी कर के तो तू महलों की रानी बन जाएगी. अच्छा, वह सब छोड़. देख उधर, तेरा आशिक बैजू कैसे तुझे हसरत भरी नजरों से देख रहा है.’’ नीतू ने तो मजाक किया था, क्योंकि वह जानती थी कि बैजू को देखना तो क्या, सविता उस का नाम भी सुनना तक पसंद नहीं करती. सविता चिढ़ उठी. वह कहने लगी, ‘‘तू जानती है कि बैजू मुझे जरा भी नहीं भाता. फिर भी तू क्यों मुझे उस के साथ जोड़ती रहती है?’’

‘‘अरे पगली, मैं तो मजाक कर रही थी. और तू है कि… अच्छा, अब से नहीं करूंगी… बस,’’ अपने दोनों कान पकड़ते हुए नीतू बोली. ‘‘पक्का न…’’ अपनी आंखें तरेरते हुए सविता बोली, ‘‘कहां मेरा अमित, इतना पैसे वाला और हैंडसम. और कहां यह निठल्ला बैजू.

‘‘सच कहती हूं नीतू, इसे देख कर मुझे घिन आती है. विमला चाची खटमर कर कमाती रहती हैं और यह कमकोढ़ी बैजू गांव के चौराहे पर बैठ कर पानखैनी चबाता रहता है. बोझ है यह धरती पर.’’ ‘‘चुप… चुप… देख, विमला मौसी इधर ही आ रही हैं. अगर उन के कान में अपने बेटे के खिलाफ एक भी बात पड़ गई न, तो समझ ले हमारी खैर नहीं,’’ नीतू बोली.

सविता बोली, ‘‘पता है मुझे. यही वजह है कि यह बैजू निठल्ला रह गया.’’ विमला की जान अपने बेटे बैजू में ही बसती थी. दोनों मांबेटा ही एकदूसरे का सहारा थे. बैजू जब 2 साल का था, तभी उस के पिता चल बसे थे. सिलाईकढ़ाई का काम कर के किसी तरह विमला ने अपने बेटे को पालपोस कर बड़ा किया था.

विमला के लाड़प्यार में बैजू इतना आलसी और निकम्मा बनता जा रहा था कि न तो उस का पढ़ाईलिखाई में मन लगता था और न ही किसी काम में. बस, गांव के लड़कों के साथ बैठकर हंसीमजाक करने में ही उसे मजा आता था. लेकिन बैजू अपनी मां से प्यार बहुत करता था और यही विमला के लिए काफी था. गांव के लोग बैजू के बारे में कुछ न कुछ बोल ही देते थे, जिसे सुन कर विमला आगबबूला हो जाती थी.

एक दिन विमला की एक पड़ोसन ने सिर्फ इतना ही कहा था, ‘‘अब इस उम्र में अपनी देह कितना खटाएगी विमला, बेटे को बोल कि कुछ कमाएधमाए. कल को उस की शादी होगी, फिर बच्चे भी होंगे, तो क्या जिंदगीभर तू ही उस के परिवार को संभालती रहेगी?

‘‘यह तो सोच कि अगर तेरा बेटा कुछ कमाएगाधमाएगा नहीं, तो कौन देगा उसे अपनी बेटी?’’

विमला कहने लगी, ‘‘मैं हूं अभी अपने बेटे के लिए, तुम्हें ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है… समझी. बड़ी आई मेरे बेटे के बारे में सोचने वाली. देखना, इतनी सुंदर बहू लाऊंगी उस के लिए कि तुम सब जल कर खाक हो जाओगे.’’

सविता के पिता रामकृपाल डाकिया थे. घरघर जा कर चिट्ठियां बांटना उन का काम था, पर वे अपनी दोनों बेटियों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाना चाहते थे. उन की दोनों बेटियां थीं भी पढ़ने में होशियार, लेकिन उन्हें यह पता नहीं था कि उन की बड़ी बेटी सविता अमित नाम के एक लड़के से प्यार करती है और वह उस से शादी के सपने भी देखने लगी है.

यह सच था कि सविता अमित से प्यार करती थी, पर अमित उस से नहीं, बल्कि उस के जिस्म से प्यार करता था. वह अकसर यह कह कर सविता के साथ जिस्मानी संबंध बनाने की जिद करता कि जल्द ही वह अपने मांबाप से दोनों की शादी की बात करेगा.

नादान सविता ने उस की बातों में आ कर अपना तन उसे सौंप दिया. जवानी के जोश में आ कर दोनों ने यह नहीं सोचा कि इस का नतीजा कितना बुरा हो सकता है और हुआ भी, जब सविता को पता चला कि वह अमित के बच्चे की मां बनने वाली है.

जब सविता ने यह बात अमित को बताई और शादी करने को कहा, तो वह कहने लगा, ‘‘क्या मैं तुम्हें बेवकूफ दिखता हूं, जो चली आई यह बताने कि तुम्हारे पेट में मेरा बच्चा है? अरे, जब तुम मेरे साथ सो सकती हो, तो न जाने और कितनों के साथ सोती होगी. यह उन्हीं में से एक का बच्चा होगा.’’

सविता के पेट से होने का घर में पता लगते ही कुहराम मच गया. अपनी इज्जत और सविता के भविष्य की खातिर उसे शहर ले जा कर घर वालों ने बच्चा गिरवा दिया और जल्द से जल्द कोई लड़का देख कर उस की शादी करने का विचार कर लिया.

एक अच्छा लड़का मिलते ही घर वालों ने सविता की शादी तय कर दी. लेकिन ऐसी बातें कहीं छिपती हैं भला.अभी शादी के फेरे होने बाकी थे कि लड़के के पिता ने ऊंची आवाज में कहा, ‘‘बंद करो… अब नहीं होगी यह शादी.’’ शादी में आए मेहमान और गांव के लोग हैरान रह गए. जब सारी बात का खुलासा हुआ, तो सारे गांव वाले सविता पर थूथू कर के वहां से चले गए.

सविता की मां तो गश खा कर गिर पड़ी थीं. रामकृपाल अपना सिर पीटते हुए कहने लगे, ‘‘अब क्या होगा… क्या मुंह दिखाएंगे हम गांव वालों को? कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा इस लड़की ने हमें. बताओ, अब कौन हाथ थामेगा इस का?’’

‘‘मैं थामूंगा सविता का हाथ,’’ अचानक किसी के मुंह से यह सुन कर रामकृपाल ने अचकचा कर पीछे मुड़ कर देखा, तो बैजू अपनी मां के साथ खड़ा था. ‘‘बैजू… तुम?’’ रामकृपाल ने बड़ी हैरानी से पूछा.

विमला कहने लगी, ‘‘हां भाई साहब, आप ने सही सुना है. मैं आप की बेटी को अपने घर की बहू बनाना चाहती हूं और वह इसलिए कि मेरा बैजू आप की बेटी से प्यार करता है.’’

रामकृपाल और उन की पत्नी को चुप और सहमा हुआ देख कर विमला आगे कहने लगी, ‘‘न… न आप गांव वालों की चिंता न करो, क्योंकि मेरे लिए मेरे बेटे की खुशी सब से ऊपर है, बाकी लोग क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे, उस से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है.’’

अब अंधे को क्या चाहिए दो आंखें ही न. उसी मंडप में सविता और बैजू का ब्याह हो गया.

जिस बैजू को देख कर सविता को उबकाई आती थी, उसे देखना तो क्या वह उस का नाम तक सुनना पसंद नहीं करती थी, आज वही बैजू उस की मांग का सिंदूर बन गया. सविता को तो अपनी सुहागरात एक काली रात की तरह दिख रही थी.

‘क्या मुंह दिखाऊंगी मैं अपनी सखियों को, क्या कहूंगी कि जिस बैजू को देखना तक गंवारा नहीं था मुझे, वही आज मेरा पति बन गया. नहीं… नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, इतनी बड़ी नाइंसाफी मेरे साथ नहीं हो सकती,’ सोच कर ही वह बेचैन हो गई.

तभी किसी के आने की आहट से वह उठ खड़ी हुई. अपने सामने जब उस ने बैजू को खड़ा देखा, तो उस का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया.

बैजू के मुंह पर अपने हाथ की चूडि़यां निकालनिकाल कर फेंकते हुए सविता कहने लगी, ‘‘तुम ने मेरी मजबूरी का फायदा उठाया है. तुम्हें क्या लगता है कि दो चुटकी सिंदूर मेरी मांग में भर देने से तुम मेरे पति बन गए? नहीं, कोई नहीं हो तुम मेरे. नहीं रहूंगी एक पल भी इस घर में तुम्हारे साथ मैं… समझ लो.’’

बैजू चुपचाप सब सुनता रहा. एक तकिया ले कर उसी कमरे के एक कोने में जा कर सो गया.

सविता ने मन ही मन फैसला किया कि सुबह होते ही वह अपने घर चली जाएगी. तभी उसे अपने मातापिता की कही बातें याद आने लगीं, ‘अगर आज बैजू न होता, तो शायद हम मर जाते, क्योंकि तुम ने तो हमें जीने लायक छोड़ा ही नहीं था. हो सके, तो अब हमें बख्श देना बेटी, क्योंकि अभी तुम्हारी छोटी बहन की भी शादी करनी है हमें…’

कहां ठिकाना था अब उस का इस घर के सिवा? कहां जाएगी वह? बस, यह सोच कर सविता ने अपने बढ़ते कदम रोक लिए.सविता इस घर में पलपल मर रही थी. उसे अपनी ही जिंदगी नरक लगने लगी थी, लेकिन इस सब की जिम्मेदार भी तो वही थी.

कभीकभी सविता को लगता कि बैजू की पत्नी बन कर रहने से तो अच्छा है कि कहीं नदीनाले में डूब कर मर जाए, पर मरना भी तो इतना आसान नहीं होता है. मांबाप, नातेरिश्तेदार यहां तक कि सखीसहेलियां भी छूट गईं उस की. या यों कहें कि जानबूझ कर सब ने उस से नाता तोड़ लिया. बस, जिंदगी कट रही थी उस की.

सविता को उदास और सहमा हुआ देख कर हंसनेमुसकराने वाला बैजू भी उदास हो जाता था. वह सविता को खुश रखना चाहता था, पर उसे देखते ही वह ऐसे चिल्लाने लगती थी, जैसे कोई भूत देख लिया हो. इस घर में रह कर न तो वह एक बहू का फर्ज निभा रही थी और न ही पत्नी धर्म. उस ने शादी के दूसरे दिन ही अपनी मांग का सिंदूर पोंछ लिया था.

शादी हुए कई महीने बीत चुके थे, पर इतने महीनों में न तो सविता के मातापिता ने उस की कोई खैरखबर ली और न ही कभी उस से मिलने आए. क्याक्या सोच रखा था सविता ने अपने भविष्य को ले कर, पर पलभर में सब चकनाचूर हो गया था.

‘शादी के इतने महीनों के बाद भी भले ही सविता ने प्यार से मेरी तरफ एक बार भी न देखा हो, पर पत्नी तो वह मेरी ही है न. और यही बात मेरे लिए काफी है,’ यही सोचसोच कर बैजू खुश हो उठता था. एक दिन न तो विमला घर पर थी और न ही बैजू. तभी अमित वहां आ धमका. उसे यों अचानक अपने घर आया देख सविता हैरान रह गई. वह गुस्से से तमतमाते हुए बोली, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहां आने की?’’

अमित कहने लगा, ‘‘अब इतना भी क्या गुस्सा? मैं तो यह देखने आया था कि तुम बैजू के साथ कितनी खुश हो? वैसे, तुम मुझे शाबाशी दे सकती हो. अरे, ऐसे क्या देख रही हो? सच ही तो कह रहा हूं कि आज मेरी वजह से ही तुम यहां इस घर में हो.’’ सविता हैरानी से बोली, ‘‘तुम्हारी वजह से… क्या मतलब?’’

‘‘अरे, मैं ने ही तो लड़के वालों को हमारे संबंधों के बारे में बताया था और यह भी कि तुम मेरे बच्चे की मां भी बनने वाली हो. सही नहीं किया क्या मैं ने?’’ अमित बोला. सविता यह सुन कर हैरान रह गई. वह बोली, ‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया? बोलो न? जानते हो, सिर्फ तुम्हारी वजह से आज मेरी जिंदगी नरक बन चुकी है. क्या बिगाड़ा था मैं ने तुम्हारा?

‘‘बड़ा याद आता है मुझे तेरा यह गोरा बदन,’’ सविता के बदन पर अपना हाथ फेरते हुए अमित कहने लगा, तो वह दूर हट गई. अमित बोला, ‘‘सुनो, हमारे बीच जैसा पहले चल रहा था, चलने दो.’’ ‘‘मतलब,’’ सविता ने पूछा. ‘‘हमारा जिस्मानी संबंध और क्या. मैं जानता हूं कि तुम मुझ से नाराज हो, पर मैं हर लड़की से शादी तो नहीं कर सकता न?’’ अमित बड़ी बेशर्मी से बोला.

‘‘मतलब, तुम्हारा संबंध कइयों के साथ रह चुका है?’’ ‘‘छोड़ो वे सब पुरानी बातें. चलो, फिर से हम जिंदगी के मजे लेते हैं. वैसे भी अब तो तुम्हारी शादी हो चुकी है, इसलिए किसी को हम पर शक भी नहीं होगा,’’ कहता हुआ हद पार कर रहा था अमित.

सविता ने अमित के गाल पर एक जोर का तमाचा दे मारा और कहने लगी, ‘‘क्या तुम ने मुझे धंधे वाली समझ रखा है. माना कि मुझ से गलती हो गई तुम्हें पहचानने में, पर मैं ने तुम से प्यार किया था और तुम ने क्या किया?

‘‘अरे, तुम से अच्छा तो बैजू निकला, क्योंकि उस ने मुझे और मेरे परिवार को दुनिया की रुसवाइयों से बचाया. जाओ यहां से, निकल जाओ मेरे घर से, नहीं तो मैं पुलिस को बुलाती हूं,’’ कह कर सविता घर से बाहर जाने लगी कि तभी अमित ने उस का हाथ अपनी तरफ जोर से खींचा.

‘‘तेरी यह मजाल कि तू मुझ पर हाथ उठाए. पुलिस को बुलाएगी… अभी बताता हूं,’’ कह कर उस ने सविता को जमीन पर पटक दिया और खुद उस के ऊपर चढ़ गया. खुद को लाचार पा कर सविता डर गई. उस ने अमित की पकड़ से खुद को छुड़ाने की पूरी कोशिश की, पर हार गई. मिन्नतें करते हुए वह कहने लगी, ‘‘मुझे छोड़ दो. ऐसा मत करो…’’

पर अमित तो अब हैवानियत पर उतारू हो चुका था. तभी अपनी पीठ पर भारीभरकम मुक्का पड़ने से वह चौंक उठा. पलट कर देखा, तो सामने बैजू खड़ा था. ‘‘तू…’’ बैजू बोला.

अमित हंसते हुए कहने लगा, ‘‘नामर्द कहीं के… चल हट.’’ इतना कह कर वह फिर सविता की तरफ लपका. इस बार बैजू ने उस के मुंह पर एक ऐसा जोर का मुक्का मारा कि उस का होंठ फट गया और खून निकल आया. अपने बहते खून को देख अमित तमतमा गया और बोला, ‘‘तेरी इतनी मजाल कि तू मुझे मारे,’’ कह कर उस ने अपनी पिस्तौल निकाल ली और तान दी सविता पर.

अमित बोला, ‘‘आज तो इस के साथ मैं ही अपनी रातें रंगीन करूंगा.’’ पिस्तौल देख कर सविता की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. बैजू भी दंग रह गया. वह कुछ देर रुका, फिर फुरती से यह कह कह अमित की तरफ लपका, ‘‘तेरी इतनी हिम्मत कि तू मेरी पत्नी पर गोली चलाए…’’ पर तब तक तो गोली पिस्तौल से निकल चुकी थी, जो बैजू के पेट में जा लगी.

बैजू के घर लड़ाईझगड़ा होते देख कर शायद किसी ने पुलिस को बुला लिया था. अमित वहां से भागता, उस से पहले ही वह पुलिस के हत्थे चढ़ गया. खून से लथपथ बैजू को तुरंत गांव वालों ने अस्पताल पहुंचाया. घंटों आपरेशन चला. डाक्टर ने कहा, ‘‘गोली तो निकाल दी गई है, लेकिन जब तक मरीज को होश नहीं आ जाता, कुछ कहा नहीं जा सकता.’’

विमला का रोरो कर बुरा हाल था. गांव की औरतें उसे हिम्मत दे रही थीं, पर वे यह भी बोलने से नहीं चूक रही थीं कि बैजू की इस हालत की जिम्मेदार सविता है.

 

‘सच ही तो कह रहे हैं सब. बैजू की इस हालत की जिम्मेदार सिर्फ मैं ही हूं. जिस बैजू से मैं हमेशा नफरत करती रही, आज उसी ने अपनी जान पर खेल कर मेरी जान बचाई,’ अपने मन में ही बातें कर रही थी सविता. तभी नर्स ने आ कर बताया कि बैजू को होश आ गया है. बैजू के पास जाते देख विमला ने सविता का हाथ पकड़ लिया और कहने लगी, ‘‘नहीं, तुम अंदर नहीं जाओगी. आज तुम्हारी वजह से ही मेरा बेटा यहां पड़ा है. तू मेरे बेटे के लिए काला साया है. गलती हो गई मुझ से, जो मैं ने तुझे अपने बेटे के लिए चुना…’’

‘‘आप सविता हैं न?’’ तभी नर्स ने आ कर पूछा. डबडबाई आंखों से वह बोली, ‘‘जी, मैं ही हूं.’’ ‘‘अंदर जाइए, मरीज आप को पूछ रहे हैं.’’ नर्स के कहने से सविता चली तो गई, पर सास विमला के डर से वह दूर खड़ी बैजू को देखने लगी. उस की ऐसी हालत देख वह रो पड़ी. बैजू की नजरें, जो कब से सविता को ही ढूंढ़ रही थीं, देखते ही इशारों से उसे अपने पास बुलाया और धीरे से बोला, ‘‘कैसी हो सविता?’’

अपने आंसू पोंछते हुए सविता कहने लगी, ‘‘क्यों तुम ने मेरी खातिर खुद को जोखिम में डाला बैजू? मर जाने दिया होता मुझे. बोलो न, किस लिए मुझे बचाया?’’ कह कर वह वहां से जाने को पलटी ही थी कि बैजू ने उस का हाथ पकड़ लिया और बड़े गौर से उस की मांग में लगे सिंदूर को देखने लगा.

‘‘हां बैजू, यह सिंदूर मैं ने तुम्हारे ही नाम का लगाया है. आज से मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी हूं,’’ कह कर वह बैजू से लिपट गई.

 

झांकी: क्या हुआ था लल्लाजी के साथ

‘‘चाचाजी, शाम को जन्माष्टमी की झांकी और उत्सव सजेगा. उस के लिए 100 रुपए चंदा दे दीजिए,’’ टोली के अगुवा गप्पू ने बड़ी धृष्टता से कहा. ‘‘100 रुपए. मैं तो 10 रुपए ही दे सकती हूं.’’ ‘‘नहीं, नहीं चाचीजी, जब सब लोग 100 रुपए दे रहे हैं तो आप 50 तो दे ही दीजिए. अरे, कन्हैयालला को दान नहीं करेंगी तो परलोक कैसे सुधरेगा?’’ गप्पू की तेज नजरों ने गुप्ताइन चाची के छोटे से बटुए में 50 का नोट ताड़ कर उन की कमजोर नस पर चोट की थी.

लक्ष्मीजी ने 50 का नोट दिया और जाते बच्चों से बोलीं, ‘‘शाम को प्रसाद भेज देना.’’

गुप्ताजी अपने बरामदे में बैठ सबकुछ देख रहे थे. पत्नी के आते ही बिगडे़, ‘‘बगैर बात के उन छोरों को 50 रुपए पकड़ा आईं.’’

‘‘अब छोड़ो भी. पासपड़ोस का मामला है. मिलजुल कर चलना ही पड़ता है,’’ गुप्ताइन बोलीं.

‘‘हांहां, क्यों नहीं? जन्माष्टमी की झांकी के नाम पर चंदा उगाह कर ये उस से शराब पीएंगे, मुरगा खाएंगे और शाम को झांकी सजाने के नाम पर महल्ले की बीच सड़क को जाम कर देंगे. इस सब में इन का साथ देना भी तो पुण्य का काम है.’’

गुप्ताजी के पड़ोसी मास्टरजी अपने गेट के बाहर खड़े हो कर यह सबकुछ देख रहे थे. दरअसल, वह गुप्ताजी को साथ ले कर लल्ला के खिलाफ शिकायत करने थाने जाना चाह रहे थे पर पतिपत्नी दोनों की तकरार सुन कर वह अकेले ही थाने की ओर चल पडे़.

मास्टरजी को देखते ही थाना प्रभारी रामसिंह उठ खडे़ हुए, ‘‘नमस्ते सर, आप

ने कैसे तकलीफ की?’’ रामसिंह कभी मास्टरजी का छात्र रह चुका था इसलिए भी वह उन का बहुत आदर करता था.

‘‘तकलीफ सिर्फ मुझे नहीं, बल्कि महल्ले भर की है. लज्जत बार कम रेस्तरां वाले लल्लाजी इस साल भी जन्माष्टमी की झांकी सजाने जा रहे हैं. तुम तो जानते ही हो कि पिछले साल इसी वजह से महल्ले की पूरी सड़क जाम हो गई थी. एक तो लल्ला ने गैरकानूनी ढंग से रिहायशी कालोनी में बार और रेस्तरां चला रखा है, जहां आएदिन कसबे भर के लुच्चेलफंगों का जमावड़ा लगा रहता है, दूसरे कभी झांकी तो कभी जागरण के नाम पर लोगों से जबरन चंदा वसूलता है. क्या तुम उसे किसी तरह रोक नहीं सकते?’’

‘‘रोक तो सकता हूं मास्टरजी, पर आप भी उसे जानते हैं कि धर्म के नाम पर भीड़ जमा कर के बखेड़ा खड़ा कर देगा. धार्मिक काम में रोड़ा अटकाया गया, इस पर लंबाचौड़ा बयान दे कर किसी अखबार में इस मुद्दे को उछलवा देगा.’’

‘‘हां, यह तो है,’’ मास्टरजी ने गहरी सांस ली.

‘‘मैं शाम को वहां 2 सिपाही तैनात करवा देता हूं ताकि कोई अप्रिय घटना न घटे,’’ इंस्पेक्टर रामसिंह ने मास्टरजी को आश्वासन दिया.

थाने से लौटते हुए मास्टरजी ने देखा कि लज्जत रेस्तरां के बाहर आधी सड़क को घेर कर बल्ली- तंबू ताने जा रहे थे. दोपहर बीततेबीतते लाउडस्पीकर  पर कानफोड़ ू आवाज में भजनों का प्रसारण शुरू हो गया.

शर्माजी की बहू सीमा बाहर लेटर बाक्स में चिट्ठी देखने के लिए बाहर आई तो उन के पड़ोस की ऋचा स्कूटर बाहर निकाल रही थी.

‘‘कहां चल दी ऋचा, तुम्हारी तो परीक्षा चल रही है?’’

‘‘इसीलिए तो जा रही हूं भाभीजी, इस हल्लेगुल्ले में तो पढ़ाई होने से रही. अपनी एक सहेली के घर जा कर पढूंगी.’’

‘‘वाकई, लाउडस्पीकर के शोर ने तो महल्ले भर को परेशान कर रखा है.’’

शाम ढलने तक झांकियां रोशनी के साथ सजाई जा चुकी थीं. मंदिर से लौटते लोग झांकियां देखने के लिए वहां रुक रहे थे. धीरेधीरे भक्तों की भीड़ से लगभग पूरी सड़क जाम हो गई. वाहनों का निकलना मुश्किल हो रहा था.

दमे की मरीज मां की उखड़ती सांसें देख कर गोपालजी उन्हें कार में डाक्टर के पास ले जाने के लिए निकले तो यह देख कर झल्ला पडे़ कि कोई श्रद्धालु उन के गेट के सामने अपनी लंबी कार खड़ी कर के चला गया था. गोपालजी अपने मित्र पद्मचंदजी के घर तक मां को गोद में उठा कर ले गए और वहां से उन की कार में बैठा कर मां को अस्पताल ले गए.

मंदिर से लौटते हुए एक श्रद्धालु ने पुण्य कमाने के लिए गौ मां के सामने केले डाल दिए. उसे देख सड़क पार की 2-3 गायें और आ जुटीं. कुल्फी वाला अपने ठेला वहां लाया तो उसे देख कर

2-3 और ठेले वाले धंधा करने आ पहुंचे.

भीड़ का जायजा ले रहे दोनों सिपाही, थाना प्रभारी रामसिंह का संदेश पा कर वहां से चले गए, क्योंकि वहां से सटे बाजार में मारपीट की वारदात हो गई थी और उन्हें घटनास्थल पर फौरन पहुंचने का आदेश मिला था.

शहर की ओर से आ रही मिनी बस भीड़ भरे रास्ते पर रेंगती हुई चल रही थी. उस के चालक की नजर सजी हुई झांकी पर पड़ी तो बड़ी श्रद्धा से उस ने स्टीयरिंग छोड़ कर दोनों हाथ जोड़ सिर झुका दिया. उसी एक पल में मिनी बस लहराई और अपने आगे जा रहे हाथ ठेले से जा टकराई. ठेले में लदे लोहे के सरियों में से एक सरिया खिसक कर केले के छिलकों की जुगाली करती गाय की आंख में जा लगा. पीड़ा से उछल कर गाय ने दाएंबाएं सींग चलाए. इस से उस के पास खड़ी 2 गायें और बिदक गईं और उस लकड़ी के खंभे से जा टकराईं जिस पर झांकी का तंबू टिका हुआ था.

गायों के बिदकने से भीड़ में मची अफरातफरी, तंबू के गिरने से भगदड़ में बदल गई. खंभा जिन लोगों पर गिरा वे संभल भी न पाए थे कि भीड़ की भगदड़ से रौंद दिए गए. भगदड़ का लाभ उठाते हुए 3-4 लफंगों ने औरतों के कपड़ों में हाथ डाले तो चीखपुकार मच गई. तभी पास के एस.टी.डी. बूथ से किसी ने थाने में फोन कर दिया.

कुछ ही देर में रामसिंह अपने मातहतों के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए. उधर आसपास के घरों से भी लोग निकल कर बाहर आ गए थे . सभी घायलों को उठाने में मदद कर रहे थे. गंभीर रूप से घायल लोगों को अस्पताल भेजा गया. इस हादसे में 5 लोग अपने जीवन से हाथ धो बैठे थे और 20 से अधिक व्यक्ति घायल हो गए थे.

अगले दिन समाचारपत्र में इस पूरी घटना का विस्तृत वर्णन छपा था. लल्लाजी ने महल्ले की मुख्य सड़क को चौड़ी न करने को ले कर नगर  निगम की जम कर भर्त्सना की थी. पुलिस पर ऐसी भीड़ वाले कार्यक्रम में अनुपस्थित होने का आरोप लगाया गया. मिनी बस चालक के खिलाफ तेज रफतार से बस चलाने पर प्रशासन से काररवाई करने की मांग की गई थी.

उस दिन पूरे रवींद्र नगर में इसी घटना को ले कर चर्चा होती रही. मंदिर के पुजारी ने आकाश की ओर हाथ उठा कर कहा, ‘‘कैसा अहोभाग्य था उन लोगों का जो प्रभु के दर्शन करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए. इतनी पवित्र मृत्यु सब को कहां नसीब होती है.’’

रात को लल्लाजी और उन के बेटे व भतीजों की बैठक जमी हुई थी. गप्पू बोला, ‘‘चाचा, आखिर क्यों हम हर साल ये झांकियां सजाया करते हैं? हमारा पैसा भी खर्च होता है और फिर कल जैसा हंगामा होने का अंदेशा बना रहता है.’’

‘‘देख गप्पू,’’ लल्लाजी ने मुंह में तली मछली का टुकड़ा रख कर जुगाली की और बोले, ‘‘जैसा धंधा हम बीच महल्ले में बैठ कर कर रहे हैं, उन के साथ कभीकभार ऐसे धार्मिक आयोजन करते रहना चाहिए, ताकि लोगों की नजरें हम से हट कर कुछ समय के लिए इन में उलझ जाएं. हमारे धंधे की सेहत के लिए यह जरूरी है बेटा.’’ द्

फैसला: क्या आदित्य की हो पाई अवंतिका?

‘‘4 साल… और इन 4 सालों में कितना कुछ बदल गया है न,’’ अवंतिका बोली.

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं… तुम पहले भी 2 चम्मच चीनी ही कौफी में लिया करती थी और आज भी,’’ आदित्य ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘अच्छा, और तुम कल भी मुझे और मेरी कौफी को इसी तरह देखते थे और आज भी,’’ अवंतिका ने आदित्य की ओर देखते हुए कहा.

आदित्य एकटक दम साधे अवंतिका को देखे जा रहा था. दोनों आज पूरे 4 साल बाद एकदूसरे से मिल रहे थे. आदित्य का दिल आज भी अवंतिका के लिए उतना ही धड़कता था, जितना 4 साल पहले.

आदित्य और अवंतिका कालेज के दोस्त थे. दोनों ने एकसाथ अपनी पढ़ाई शुरू की और एकसाथ खत्म. आदित्य को अवंतिका पहली ही नजर में पसंद आ गई थी, लेकिन प्यार के चक्कर में कहीं प्यारा सा दोस्त और उस की दोस्ती खो न बैठे इसलिए कभी आई लव यू कह नहीं पाया. सोचा था, ‘कालेज पूरा करने के बाद एक अच्छी सी नौकरी मिलते ही अवंतिका को न सिर्फ अपने दिल की बात बताऊंगा, बल्कि उस के घर वालों से उस का हाथ भी मांग लूंगा.’

वक्त कभी किसी के लिए नहीं ठहरता. मेरे पास पूरे 2 साल थे अच्छे से सैटल होने के लिए, लेकिन 2 साल शायद अवंतिका के लिए काफी थे. उस शाम मुझे अवंतिका के घर से फोन आया कि कल अवंतिका की सगाई है. ये शब्द उस समय एक धमाके की तरह थे, जिस ने कुछ समय के लिए मुझे सन्न कर दिया.

मैं ने उसी दिन नौकरी के सिलसिले में बाहर जाने का बहाना बनाया और अपना शहर छोड़ दिया. मैं ने अवंतिका को बधाई देने तक के लिए भी फोन नहीं किया. मैं उस समय शायद अपने दिल का हाल बताने के काबिल नहीं था और अब उस का हाल जानने के लिए तो बिलकुल भी नहीं.

वक्त बदला, शहर बदला और हालात भी. हजार बार मन में अवंतिका का खयाल आया, लेकिन अब शायद उस के मन में कभी मेरा खयाल न आता हो और आएगा भी क्यों, आखिर उस की नई जिंदगी की शुरुआत हो गई है, जिस में उस का कोई भी दोष नहीं था.

मैं ने भी इसे एक अनहोनी मान लिया था या फिर जिस चीज को मैं बदल नहीं सकता उस के लिए खुद को बदल लिया था, लेकिन कहीं न कहीं अधूरापन, एक याद हमेशा मेरे साथ रहती थी.

वक्त की एक सब से बड़ी खूबी कभीकभी वक्त की सब से बड़ी कमी लगती है. शायद, यही मेरी अधूरी प्रेम कहानी का अंत था.

मेरी नौकरी और मेरे नए घर को पूरे 3 साल हो गए थे. रोज की ही तरह मैं अपने औफिस का कुछ काम कर रहा था. आज जल्दी काम हो गया तो अपना फेसबुक अकाउंट जो आज की जेनरेशन में बड़ा मशहूर है, को लौगइन किया. आज पता नहीं क्यों अवंतिका की बहुत याद आ रही थी.

कलैंडर पर नजर पड़ने पर याद आया कि आज तो अवंतिका का जन्मदिन है. मैं ने उस के पुराने मोबाइल नंबर को इस आशा से मिलाया कि अगर उस ने फोन उठा लिया तो उस को जन्मदिन की बधाई दे दूंगा. बहुत हिम्मत कर के मैं ने उस का नंबर मिलाया, लेकिन मोबाइल स्विचऔफ था.

पता नहीं क्यों, दिल ने कहा कि मैं उस को फेसबुक पर ढूंढं़ू, क्या पता खाली समय में वह भी फेसबुक लौगइन करती हो. अवंतिका नाम टाइप करते ही कई अवंतिकाओं की प्रोफाइल मेरी आंखों के सामने आ गई. कोई अवंतिका शर्मा, मल्होत्रा, खन्ना कितनी ही अवंतिका सामने आ गईं, लेकिन मेरी अवंतिका अभी तक नहीं मिली. आशा तो कोई थी नहीं, लेकिन एक अजीब सी निराशा हो रही थी.

अचानक मेरी नजर एक प्रोफाइल पर पड़ी. अवंतिका वर्मा… मुझे आश्चर्य हुआ कि शादी के बाद भी उस का सरनेम नहीं बदला और लोकेशन भी मुंबई की है. लगता है मुंबई के ही किसी शख्स से उस की शादी हुई होगी.

उस ने अपना फोटो नहीं डाला था और सबकुछ लौक कर रखा था. मैं फिर भी उस की प्रोफाइल को बारबार देख रहा था. मुझे विश्वास था यह मेरी ही अवंतिका है, लेकिन मुझे खुद पर विश्वास नहीं था. मैं ने उस को फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दी.

एक पुराने दोस्त के नाते वह मेरी रिक्वैस्ट जरूर स्वीकारेगी. उस रात मुझे नींद नहीं आई. मैं मन ही मन यह सोच रहा था कि कितनी बदल गई होगी न वह, शादी के बाद सबकुछ बदल जाता है.  अगर वह मुझे भूल गई होगी तो? अरे, ऐसे कैसे कोई कालेज के दोस्तों को भूलता है, भला? इसी असमंजस में पूरी रात बीत गई.

सुबह होते ही सब से पहले मैं ने फेसबुक अकाउंट चैक किया. आज पता चला कि लोग प्यार को बेवकूफ क्यों कहते हैं? उस दिन मुझे निराशा ही हाथ लगी.

2 दिन तक यही सिलसिला चलता रहा और 2 दिन बाद आखिर वह दिन आ ही गया जिस का मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा था. अवंतिका ने मेरी रिक्वैस्ट स्वीकार कर ली, लेकिन सबकुछ अच्छा होते हुए भी मुझे अचानक आश्चर्य हुआ, क्योंकि यह अवंतिका वर्मा तो सिंगल थी. उस का रिलेशनशिप स्टेटस सिंगल आ रहा था.

कहीं मैं ने किसी दूसरी अवंतिका को तो रिक्वैस्ट नहीं भेज दी. अचानक एक मैसेज मेरे फेसबुक अकाउंट पर आया. ‘‘कहां थे, इतने दिन तक.’’

यह मैसेज अवंतिका ने भेजा था. वह इस समय औनलाइन थी. मेरा दिल बहुत तेजी से धड़क रहा था. मन कर रहा था कि उस से सारे सवालों के जवाब पूछ लूं. किसी तरह अपनेआप पर काबू पाते हुए मैं ने जवाब दिया, ‘‘बस, काम के सिलसिले में शहर छोड़ना पड़ा.’’ तभी अवंतिका ने जवाब देते हुए कहा, ‘‘ऐसा भी क्या काम था कि एक बार भी फोन तक करने की जरूरत नहीं समझी.’’

‘‘वह सब छोड़ो, यह बताओ कि शादी के बाद उसी शहर में हो या कहीं और शिफ्ट हो गई हो? और हां, फेसबुक पर अपना फोटो क्यों नहीं डाला? बहुत मोटी हो गई हो क्या,’’ उसे लिख कर भेजा.

‘‘शादी… यह तुम्हें किस ने कहा,’’ अवंतिका ने लिख कर भेजा. ‘‘मतलब…’’ मैं ने एकदम पूछा.

‘‘तुम्हारी तो सगाई हुई थी न.’’ मैं ने लिखा. ‘‘हम्म…’’ अवंतिका ने बस इतना ही लिख कर भेजा.

‘‘तुम अपना नंबर दो मैं तुम्हें फोन करता हूं.’’ अवंतिका ने तुरंत अपना नंबर लिख दिया. मैं ने बिना एक पल गवांए अवंतिका को फोन कर दिया. उस ने तुरंत फोन रिसीव कर कहा, ‘‘हैलो…’’

आज मैं पूरे 4 साल बाद उस की आवाज सुन रहा था. एक पल के लिए लगा कि यह कोई खुली आंखों का ख्वाब तो नहीं. अगर यह ख्वाब है तो बहुत ही खूबसूरत है जिस ख्वाब से मैं कभी बाहर न निकलूं. मुझे खुद पर और उस पल पर विश्वास ही नही हो रहा था. उस की हैलो की दूसरी आवाज ने मुझे अपने विचारों से बाहर निकाला.

मैं ने कहा, ‘‘कैसी हो?’’ ‘‘मैं तो ठीक हूं, लेकिन तुम बताओ कहां गायब हो गए थे. वह तो शुक्र है आजकल की टैक्नोलौजी का वरना मुझे तो लगा था कि अब तुम से कभी बात ही नहीं हो पाएगी.’’

‘‘अरे, ऐसे कैसे बात नहीं हो पाएगी,’’ मैं ने कहा, ‘‘लेकिन तुम यह बताओ कि तुम ने शादी क्यों नहीं की अभी तक?’’ ‘‘अभी तक? क्यों, तुम्हारी शादी हो गई क्या,’’ अवंतिका ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘नहीं हुई,’’ मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘क्या कर रही हो आजकल.’’

उस ने हंसते हुए बताया, ‘‘जौब कर रही हूं. दिल्ली में एक सौफ्टवेयर कंपनी है पिछले 3 साल से वहीं जौब कर रही हूं.’’ ‘‘क्या?’’ मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था. उस पल पर, न अपने कानों पर, न ही अवंतिका पर. कौन कहता है अतीत अपनेआप को नहीं दोहराता? मेरा अतीत मेरे सामने एक बार फिर आ गया था. 3 साल से हम दोनों एक ही शहर में थे और आज इस तरह…‘‘तुम्हें पता है कि मैं कौन से शहर में हूं,’’ मैं ने उस से पूछा. ‘‘नहीं,’’ उस ने कहा. ‘‘मैं भी दिल्ली में ही हूं.’’ ‘‘पता है मुझे,’’ अवंतिका बोली. ‘‘क्या,’’ मैं ने उस से कहा. ‘‘मुझे तुम से मिलना है, जल्दी बोलो कब मिलेंगे.’’ ‘‘ठीक है… जब तुम फ्री हो तो कौल कर देना.’’

‘‘तुम से मिलने के लिए मुझे वक्त निकालने की जरूरत है क्या?’’ ‘‘ठीक है तो कल मिलते हैं.’’ ‘‘हां, बिलकुल,’’ मैं ने तपाक से कहा.आज मुझे अवंतिका से मिलना था. पूरे 4 साल बाद मैं जैसा इस समय महसूस कर रहा हूं, उसे बताने के लिए शब्दों की कमी पड़ रही थी. मेरा दिल बहुत तेजी से धड़क रहा था, जैसे मानों पेट में तितलियां उड़ रहीं थीं.

जिंदगी भी बड़ी अजीब होती है, जो पल सब से खूबसूरत होते हैं, उन्हीं पर विश्वास करना मुश्किल होता है. जब आप को जिंदगी दूसरा मौका देती है, तो आप चाहते हैं कि हर एक कदम संभलसंभल कर रखें. यही है जिंदगी, शायद ऐसी ही होती है जिंदगी.

मैं एक रेस्तरां के अंदर बैठा अवंतिका का इंतजार कर रहा था और सोच रहा था कि किस सवाल से बातों की शुरुआत करूं. मेरी निगाहें मेन गेट पर थीं. दिल की धड़कन बहुत तेजी से आवाज कर रही थी, लेकिन उसे सिर्फ मैं ही सुन सकता था.

आखिरकार, वह समय आ ही गया. जब अवंतिका मेरे सामने थी. वह बिलकुल भी नहीं बदली थी. उस में 4 साल पहले और अब में कोई फर्क नहीं आया था, मुझे ऐसा लग रहा था कि कल की एक लंबी रात के बाद जैसे आज एक नई सुबह में हम मिले हों. उस के वही पहले की तरह खुले बाल, वही मुसकराहट ओढ़े हुए उस का चेहरा… सबकुछ वही.

मैं ने अवंतिका से पूछा, ‘‘अच्छा, तुम्हारी मम्मी ने तो मुझे बताया था कि तुम्हारी सगाई है. मुझे तो लगा था अब तक तुम्हारी एक प्यारी सी फैमिली बन गई होगी.’’

‘‘हम्म… सोचा तो मैं ने भी यही था, लेकिन जो सोचा होता है अगर हमेशा वही हो तो जिंदगी का मतलब ही नहीं रह जाता. मेरा एक जगह रिश्ता तय हुआ तो था, लेकिन जिस दिन सगाई थी, जिस के लिए मेरी मम्मी ने तुम्हें इन्वाइट किया था, उसी दिन लड़के वालों ने दहेज में कार और कैश मांग लिया, उन्हें बहू से ज्यादा दहेज प्यारा था. मैं ने उसी समय उस लड़के से शादी करने से मना कर दिया. उस दिन काफी दुख हुआ था मुझे, सोचा तुम मिलोगे तो तुम्हें अपनी दिल की व्यथा सुनाऊंगी लेकिन तुम भी ऐसे गायब हुए जैसे कभी थे ही नहीं,’’ अवंतिका ने कहा.

उस वक्त मुझे अपने ऊपर इतना गुस्सा आ रहा था कि काश, मैं उस दिन अवंतिका के घर चला जाता… कितनी जरूरत रही होगी न उस वक्त उस को मेरी. जिस वक्त मैं यह सोच रहा था कि उस के साथ उस का हमसफर होगा उस वक्त उस के साथ तनहाई थी… मैं कितना गलत और स्वार्थी था.

‘‘यहां नौकरी कब मिली,’’ मैं ने अवंतिका से पूछा. ‘‘3 साल पहले,’’ उस ने बताया. 3 साल… 3 साल से हम दोनों एक ही शहर में थे. कभी हम दोनों गलती से भी नहीं टकराए,’’ मैं ने मन में सोचा. आज मैं इस सुनहरे मौके को गवांना नहीं चाहता था. आज मैं वह गलती नहीं करना चाहता था, जो मैं ने 4 साल पहले की थी.

मैं ने अवंतिका का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘अवंतिका मुझे माफ कर दो, पहले मुझ में इतनी हिम्मत नहीं थी कि तुम से अपने दिल की बात कह सकूं, लेकिन आज मैं इस मौके को खोना नहीं चाहता. मैं तुम्हारे साथ जिंदगी बिताना चाहता हूं, बोलो न, दोगी मेरा साथ,’’ अवंतिका मुझे एकटक देखे जा रही थी. उस ने धीरे से पास आ कर कहा, ‘‘ठीक है, लेकिन एक शर्त पर, तुम हफ्ते में एक बार डिनर बनाओगे तो,’’ इतना कह कर वह जोर से हंस दी. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था, लेकिन आखिर पूरे 4 साल बाद मैं अपने खो प्यार से जो मिला था.

 

अपने पराए: संकट की घड़ी में किसने दिया अमिता का साथ

मुहल्ले में जिस ने भी सुना, उस की आंखें विस्मय से फटी की फटी रह गईं… ‘सतीश दास मर गया.’ विस्मय की बात यह नहीं कि मरियल सतीश दास मर गया बल्कि यह थी कि वह पत्नी के लिए पूरे साढ़े 5 लाख रुपए छोड़ गया है. कोई सोच भी नहीं सकता था कि पैबंद लगे अधमैले कपड़े पहनने वाले, रोज पुराना सा छाता बगल में दबा कर सवेरे घर से निकलने, रात में देर से  लौटने वाले सतीश के बैंक खाते में साढ़े 5 लाख की मोटी रकम जमा होगी.

गली के बड़ेबूढ़े सिर हिलाहिला कर कहने लगे, ‘‘इसे कहते हैं तकदीर. अच्छा खाना- पहनना भाग्य में नहीं लिखा था पर बीवी को लखपती बना गया.’’ कुछ ने मन ही मन अफसोस भी किया कि पहले पता रहता तो किसी बहाने कुछ रकम कर्ज में ऐंठ लेते, अब कौन आता वसूल करने.

जीते जी तो सभी सतीश को उपेक्षा से देखते रहे, कोई खास ध्यान न देता जैसे वह कोई कबाड़ हो. किसी से न घनिष्ठता, न कोई सामाजिक व्यवहार. देर रात चुपचाप घर आना, खाना खा कर सो जाना और सवेरे 8 बजे तक बाहर…

महल्ले में लोगों को इतना पता था कि सतीश दास थोक कपड़ों की मंडी में दलाली किया करता है. कुछ को यह भी पता था कि जबतब शेयर मार्केट में भी वह जाया करता था. जो हो, सचाई अपनी जगह ठोस थी. पत्नी के नाम साढ़े 5 लाख रुपए निश्चित थे.

आमतौर पर बैंक वाले ऐसी बातें खुद नहीं बताते, नामिनी को खुद दावा करने जाना पड़ता है. वह तो बैंक का क्लर्क सुभाष गली में ही रहता है, उसी ने बात फैला दी. अमिता के घर यह सूचना देने सुभाष निजी रूप से गया था और इसी के चलते गली भर को मालूम हो गई यह बात.

वह नातेदार, पड़ोसी, जो कभी उस के घर में झांकते तक न थे, वह भी आ कर सतीश के गुणों का बखान करने लगे. गली वालों ने एकमत से मान लिया कि सतीश जैसा निरीह, साधु प्रकृति आदमी नहीं मिलता है. अपने काम से काम, न किसी की निंदा, न चुगली, न झगड़े. यहां तो चार पैसे पाते ही लोग फूल कर कुप्पा हो जाते हैं.

अमिता चकराई हुई थी. यह क्या हो गया, वह समझ नहीं पा रही थी.

उसे सहारा देने दूर महल्ले के मायके से मां, बहन और भाई आ पहुंचे. बाद में पिताजी भी आ गए. आते ही मां ने नाती को गोद में उठा लिया. बाकी सब भी अमिता के 4 साल के बच्चे राहुल को हाथोंहाथ लिए रहते.

मां ने प्यार से माथा सहलाते हुए कहा, ‘‘मुन्नी, यों उदास न रहो. जो होना था वह हो गया. तुम्हें इस तरह उदास देख कर मेरी तो छाती फटती है.’’

पिता ने खांसखंखार कर कहा, ‘‘न हो तो कुछ दिनों के लिए हमारे साथ चल कर वहीं रह. यहां अकेली कैसे रहेगी, हम लोग भी कब तक यहां रह सकेंगे.’’

‘‘और यह घर?’’ अमिता पूछ बैठी.

‘‘अरे, किराएदारों की क्या कमी है, और कोई नहीं तो तुम्हारे मामा रघुपति को ही रख देते हैं. उसे भी डेरा ठीक नहीं मिल रहा है, अपना आदमी घर में रहेगा तो अच्छा ही होगा.’’

‘‘सुनते हो जी,’’ मां बोलीं, ‘‘बेटी की सूनी कलाई देख मेरी छाती फटती है. ऐसी हालत में शीशे की नहीं तो सोने की चूडि़यां तो पहनी ही जाती हैं, जरा सुखलाल सुनार को कल बुलवा देते.’’

‘‘जरूर, कल ही बुला देता हूं.’’

अमिता ने स्थायी रूप से मायके जा कर रहना पसंद नहीं किया. यह उस के पति का अपना घर है, पति के साथ 5 साल यहीं तो बीते हैं, फिर राहुल भी यहीं पैदा हुआ है. जाहिर है, भावनाओं के जोश में उस ने बाप के घर जा कर रहने से मना कर दिया.

सुभाषचंद्र के प्रयास से वह बैंक में मैनेजर से मिल कर पति के खाते की स्वामिनी कागजपत्रों पर हो गई. पासबुक, चेकबुक मिल गई और फिलहाल के जरूरी खर्चों के लिए उस ने 25 हजार की रकम भी बैंक से निकाल ली.

अब वह पहले वाली निरीह गृहिणी अमिता नहीं बल्कि अधिकार भाव रखने वाली संपन्न अमिता है. राहुल को नगर निगम के स्कूल से हटा कर पास के ही एक अच्छे पब्लिक स्कूल में दाखिल करा दिया. अब उसे स्कूल की बस लाती, ले जाती है.

बेटी घर में अकेली कैसे रहेगी, यह सोच कर मां और छोटी बहन वीणा वहीं रहने लगीं. वीणा वहीं से स्कूल पढ़ने जाने लगी. छोटा भाई भी रोज 1-2 बार आ कर पूछ जाता. अब एक काम वाली रख ली गई, वरना पहले अमिता ही चौका- बरतन से ले कर साफसफाई का सब काम करती थी.

अमिता के मायके का रुख देख कर पासपड़ोस की औरतों ने आना लगभग छोड़ सा दिया. अमिता और उस के मायके वालों की महल्ले भर में कटु आलोचनाएं होने लगीं.

‘‘पैसा क्या मिला दिमाग आसमान पर चढ़ गया है… कोई पूछे, तमाम दुनिया में तुम्हीं एक अनोखी लखपती हो क्या?’’

‘‘हम तो गए थे हालचाल पूछने, घड़ी दो घड़ी बातचीत करने, लेकिन घर वाले यों घूर कर देखते हैं जैसे कुछ चुराने या मांगने आए हों.’’

‘‘लानत भेजो जी, तुम देखना, घर वाले सारा पैसा चूस कर अमिता को छोड़ देंगे…’’

पड़ोसियों की इन बातों से अमिता अनजान नहीं थी. मां ने अफसोस से कहा, ‘‘कैसा सूनासूना लगता है बेटी का गला. बेटी, मेरा हार यों ही पड़ा है. ठहरो, ला देती हूं. गले में कुछ डाले रहो…’’

यही मां है. अभी 2 साल की ही तो बात है, सतीश के साथ एक विवाह में अमिता को जाना पड़ा था. यों तो वह कहीं साथ नहीं जाते थे, लेकिन एक थोक कपड़ा व्यापारी सतीश के खास दोस्त थे, उन के घर विवाह में वह सपरिवार वहां निमंत्रित थे. अमिता के कानों में हलके रिंग थे, लेकिन कलाई और गले में भी तो कुछ चाहिए, सूना गला नहीं जंचता था. मां से हार मांगने गई थी कि शादी में पहनेगी और वापस कर देगी. लेकिन मां ने यह कह कर साफ इंकार कर दिया था कि शादीब्याह की भीड़ में कोई छीन कर भाग जाएगा तो?

और आज वही मां उस के सूने गले में अपना वही हार डालने को बेचैन हैं.

मन में कितनी कटु बातें उमड़ीं, लेकिन वह बोली, ‘‘नहीं मां, वह पुराने फैशन का हार मुझ से नहीं पहना जाएगा. मैं हार बनवा लूंगी…’’

कई बार सतीश से वह झगड़ी थी, ‘कहीं आनाजाना हो तो गले में कुछ तो चाहिए.’ वह चुपचाप सुन लेता.

मां ने सुखलाल सुनार से अमिता के खर्चे पर ही उसे 4 सोने की चूडि़यां बनवा दी थीं, लेकिन वह दोपहर में बिना किसी को कुछ बताए कपड़े बदल कर निकल पड़ी. जौहरी बाजार उस का देखा हुआ था. रिकशे से सीधी वहीं पहुंची और एक दुकान में घुस गई. दुकानदार ने हार दिखाए. दाम पूछ कर उस ने एक हलका सा किंतु कीमती हार चुन लिया. सोने की शुद्धता की गारंटी दुकानदार ने खुद दे दी और साथ में यह भी कहा, ‘‘बहनजी, इसे आप अपनी ही दुकान समझें. कुछ भी लेनादेना  या तुड़वाना हो तो हम सेवा के लिए ही हैं.’’

अमिता लौटी. मन में एक तृप्ति थी. रुपया भी क्या चीज है. उस के मन में एक सुखद अनुभूति थी. हार देख कर मां और बहन की आंखें फटी की फटी रह गईं.

अमिता मन में सोचने लगी कि रुपए के लिए वह बेचारे जिंदगी भर खटते रहे, मेहनत की, न अच्छा खायापिया न पहना और मुझ को लखपती बना गए. उस का मन भर आया. वह सतीश की फोटो के आगे सिर झुका कर बुदबुदाई, ‘तुम्हारी मेहनत के पैसों का…ध्यान रखूंगी…यों ही बरबाद न होने दूंगी…अपनेपराए बहुत पहचान में आ रहे हैं…पैसा सब की कलई उतार देता है…’

पिता नगर निगम की क्लर्की से रिटायर हुए थे. पेंशन से घर चलाना कठिन होने पर कपड़ा मंडी में उन्होंने एक दुकान का बहीखाता लिखने का काम संभाल लिया था. वह एक दिन घबराए हुए आए. बताया कि बरसों पहले आफिस से एक मित्र क्लर्क को बैंक से लोन लेने में उन्होंने अपनी जमानत दी थी. पूरा कर्ज वसूल न हो पाया, मित्र रिटायर हो कर न जाने कहां चला गया है, पता नहीं लगता और बैंक वालों ने उन पर दावा दायर कर दिया है. अब 15 दिनों में रकम जमा न करने पर घर का सामान नीलाम करा लेंगे या मुझे जेल यात्रा करनी पड़ेगी.

पिता के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. मां रोने लगीं.

‘‘कितनी रकम का कर्ज था?’’ अमिता ने सहमते हुए पूछा.

‘‘कर्ज तो 50 हजार का था पर उस ने किस्तों में 30 हजार दे दिए थे, बाकी के 20 हजार का दावा बैंक वालों ने किया है…’’

मां ने रोते हुए अमिता का हाथ पकड़ लिया, ‘‘बेटी, अब तुम्हारे ही ऊपर है, इन्हें जेल जाने से बचाओ…’’

अमिता ने बैंक द्वारा भेजे गए कागज देखने चाहे. पिता का चेहरा उतर गया. बोले, ‘‘बैंक ने अभी तो सम्मन नहीं भेजा है, लेकिन वहां के एक जानपहचान के आदमी ने बताया है कि जल्द भेजने की तैयारी हो रही है. उस ने राय दी है कि मैं मैनेजर से मिल लूं और शीघ्र रुपए की व्यवस्था करूं.’’

‘‘तो कागज आने दीजिए, तब देखेंगे.’’

‘‘तुम बात नहीं समझीं. सम्मन आने पर तुरंत बात फैल जाएगी, क्या इज्जत रहेगी तब?’’

मां ने कातर भाव से कहा, ‘‘बेटी, अब मांबाप की इज्जत तुम्हीं बचा सकती हो.’’

अमिता ने चेकबुक निकाली और पिता के नाम 20 हजार रुपए की राशि भर उन्हें चेक दे दिया.

मांबाप ने आशीर्वाद की झड़ी लगा दी. घर का वातावरण फिर सहज होने लगा.

अमिता ने हिसाब लगाया. खर्च के लिए पहले निकाली रकम 25 हजार लगभग खत्म होने को है. अब यह 20 हजार और बैंक की रकम से निकल गई. यों ही यदि चलता रहा, तो…

सुबह राहुल को स्कूल की बस ले गई तो वह कपड़े बदल कर बैंक के क्लर्क सुभाषचंद्र के घर गई. वह बैंक जाने की तैयारी में थे और उन की पत्नी टिफिन में खाना रख रही थी. दोनों ने बड़े अपनेपन से अमिता का स्वागत किया. सुभाष की पत्नी उस के लिए चाय बनाने चली गई.

‘‘सुभाषजी,’’ अमिता बोली, ‘‘मैं सोचती हूं कि बैंक में पड़ी रकम के लिए कुछ ऐसा उपाय हो कि जब तब उस में से रुपए निकाले न जा सकें, सुरक्षित रहें.’’

‘‘वही तो मैं आप को राय देना चाहता था,’’ सुभाषचंद्र ने उत्साह से कहा, ‘‘आप ने कल 20 हजार का एक चेक भुनवाया है. मेरी सलाह मानिए तो पूरी रकम को 5 साल के लिए फिक्स्ड डिपाजिट में डाल दें. ब्याज भी अधिक मिलेगा और रकम भी सुरक्षित रहेगी.’’

उन्होंने अमिता को विस्तार से चालू और सावधिक खातों के बारे में समझाया. अमिता ने राहुल की फीस, किताब, कापी, कपड़ों और अपने अन्य खर्चों के बारे में बताया तो सुभाष ने कहा, ‘‘आप की जो जमा रकम है, उस पर हर साल 25 हजार से ज्यादा का ब्याज मिलेगा. आप प्रतिमाह 2 हजार उस में से ले सकती हैं. इस के लिए आप को बैंक को लिखित रूप में देना होगा. इतने में तो आप के जरूरी घरेलू खर्च चल जाने चाहिए.’’

उन्होंने राहुल को नौमनी बनाते हुए अमिता को अपना जीवनबीमा करा लेने की सलाह भी दी.

अमिता के आगे सुरक्षा का नया संसार खुल गया. मन की चिंता दूर हो गई. सुभाष के साथ वह बैंक गई और जमा राशि को फिक्स्ड डिपाजिट में करवा देने की काररवाई उसी दिन पूरी कर दी.

बैंक से फोन कर सुभाष ने बीमा कार्यालय के एक एजेंट को वहां बुलवाया और अमिता से परिचय कराते हुए जीवन बीमा पालिसी के बारे में बातें कीं.

एजेंट विवेक ने अमिता को विभिन्न पालिसियों के बारे में समझाया और शाखा कार्यालय में ले जा कर फार्म भरवाने के साथसाथ अन्य जांचों की भी काररवाई पूरी करा दी.

बीमे की किस्त अमिता को हर 3 माह पर नकद देनी थी. विवेक ने जिम्मा लिया कि वह समय पर आ कर रुपए ले जा कर कागजी काररवाई निबटा देगा.

अमिता लगभग 4 बजे घर पहुंची तो सब चिंतित थे. मां ने पूछा, ‘‘इतनी देर कहां लगा दी, बेटी?’’

‘‘बैंक गई थी मां, कुछ और भी जरूरी काम थे…’’

घर वालों के चेहरे आशंकाओं से घिर गए कि बैंक क्या करने गई थी. पर पूछने का साहस किसी में न हुआ.

2 दिन बाद छोटा भाई ललित आया और बोला, ‘‘दीदी, कालिज से 20 लड़कों का एक ग्रुप विन्टरविकेशन में गोआ घूमने जा रहा है, हर लड़के को 5 हजार जमा करने पड़ेंगे…’’

अमिता ने सख्ती से कहा, ‘‘अभी, गरमियों की छुट्टी में तुम मसूरी घूमने गए थे न? हर छुट्टी में मटरगश्ती गलत है. तुम्हें छुट्टियों में यहीं रह कर वार्षिक परीक्षा की तैयारी करनी चाहिए. मैं इतने रुपए न जुटा सकूंगी…’’

ललित का चेहरा उतर गया. मां भी अमिता का रुख देख कुछ न कह सकीं.

3 माह पूरे होने पर विवेक आ कर बीमे की किस्त ले गया और कागजों पर उस से हस्ताक्षर भी कराए. अमिता ने साफ शब्दों में मां को बता दिया कि उसे अब राहुल की फीस और ललित की कोचिंग की फीस ही देने योग्य आय होगी, वीणा की फीस पिताजी जैसे पहले देते थे, दिया करें.

विवेक की सलाह से अमिता ने एक स्वयंसेवी संस्था की सदस्यता ग्रहण कर ली. उस के कार्यक्रमों में वह अधिकतर घर के बाहर ही रहने लगी. बाहरी अनुभव बढ़ने और व्यस्तता के चलते अब अमिता का तनमन अधिक खुश रहने लगा.

विवेक से अमिता की अच्छी पटने लगी. अकसर दोनों साथ ही बाहर घूमनेफिरने निकलते. यह देख कर मांपिता सहमते, किंतु सयानी और लखपती बेटी को क्या कहते. उस के कारण घर की हालत बदली थी.

साल भर बाद ही एक दिन अमिता, मां से बोली, ‘‘मां, मैं ने विवेक से विवाह करना तय कर लिया है, तुम्हारा आशीर्वाद चाहिए…’’

मां को तो कानों पर विश्वास ही न हुआ. हतप्रभ सी खड़ी रह गईं. बगल के कमरे से पिताजी भी आ गए, ‘‘क्या हुआ? मैं क्या सुन रहा हूं?’’

‘‘मैं विवेक के साथ विवाह करने जा रही हूं, आशीर्वाद दें.’’

मां फट पड़ीं, ‘‘तेरी बुद्धि तो ठीक है, भला कोई विधवा…’’ तभी विवेक आ गया. उसे देख कर मां खामोश हो गईं. लेकिन आतेआते उस ने उन की बातें सुन ली थीं, अंतत: हंस कर विवेक बोला, ‘‘मांजी, आप किस जमाने की बात कह रही हैं? अब जमाना बदल गया है. अब विधवा की दोबारा शादी को बुरा नहीं समझा जाता. जब हमें कोई आपत्ति नहीं है तो दूसरों से क्या लेनादेना. खैर, आप लोगों का आशीर्वाद हमारे साथ है, ऐसा हम ने मान लिया है. चलो, अमिता.’’

उसी दिन आर्यसमाज मंदिर में उन का विवाह संपन्न हो गया. मन में सहमति न रखते हुए भी अमिता के मातापिता व भाईबहन विवाह समारोह में शामिल हुए. मांपिता ने कन्यादान किया. विवेक के घर में केवल मां और छोटी बहन थीं और विवेक के आफिस के सहयोगी भी पूरे उत्साह के साथ सम्मिलित हुए. साथियों ने निकट के रेस्तरां में नवदंपती के साथ सब की दावत की.

अमिता ने मांपिता के पैर छुए. फिर अमिता के साथ सभी लोग उस के घर आ गए तो विवेक की मां ने कहा, ‘‘समधीजी, अब अमिता को विदा कीजिए. वह अब मेरी बहू है, उसे अपने घर जाने दें…’’

पिता की जबान खुली, ‘‘लेकिन, राहुल…’’

विवेक की मां ने हंस कर कहा, ‘‘राहुल विवेक को बहुत चाहता है, विवेक भी उसे अपने बेटे की तरह प्यार करता है. बच्चे को उस का पिता भी तो मिलना चाहिए.’’

अमिता बोली, ‘‘पिताजी, मेरे इस घर को फिलहाल किराए पर उठा दें. उस पैसे से भाईबहनों की पढ़ाई, घर की देखभाल आदि का खर्च निकल आएगा.’’

चलते समय विवेक ने अमिता के मातापिता से कहा, ‘‘पिताजी, मैं ने अमिता से स्पष्ट कह दिया है कि तुम्हारा जो धन है वह तुम्हारा ही रहेगा, तुम्हारे ही नाम से रहेगा. मैं खुद अपने परिवार, पत्नी और पुत्र के लायक बहुत कमा लेता हूं. आप ऐसा न सोचें कि उस के धन के लालच से मैं ने शादी की है. वह उस का, राहुल का है.’’

फिर मातापिता के पैर छू कर विवेक और अमिता थोड़े से सामान और राहुल को साथ लेकर चले गए.

 

पहला पहला प्यार : मां को कैसे हुआ अपने बेटे की पसंद का अहसास

‘‘दा,तुम मेरी बात मान लो और आज खाने की मेज पर मम्मीपापा को सारी बातें साफसाफ बता दो. आखिर कब तक यों परेशान बैठे रहोगे?’’

बच्चों की बातें कानों में पड़ीं तो मैं रुक गई. ऐसी कौन सी गलती विकी से हुई जो वह हम से छिपा रहा है और उस का छोटा भाई उसे सलाह दे रहा है. मैं ‘बात क्या है’ यह जानने की गरज से छिप कर उन की बातें सुनने लगी.

‘‘इतना आसान नहीं है सबकुछ साफसाफ बता देना जितना तू समझ रहा है,’’ विकी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘दा, यह इतना मुश्किल भी तो नहीं है. आप की जगह मैं होता तो देखते कितनी स्टाइल से मम्मीपापा को सारी बातें बता भी देता और उन्हें मना भी लेता,’’ इस बार विनी की आवाज आई.

‘‘तेरी बात और है पर मुझ से किसी को ऐसी उम्मीद नहीं होगी,’’ यह आवाज मेरे बड़े बेटे विकी की थी.

‘‘दा, आप ने कोई अपराध तो किया नहीं जो इतना डर रहे हैं. सच कहूं तो मुझे ऐसा लगता है कि मम्मीपापा आप की बात सुन कर गले लगा लेंगे,’’ विनी की आवाज खुशी और उत्साह दोनों से भरी हुई थी.

‘बात क्या है’ मेरी समझ में कुछ नहीं आया. थोड़ी देर और खड़ी रह कर उन की आगे की बातें सुनती तो शायद कुछ समझ में आ भी जाता पर तभी प्रेस वाले ने डोर बेल बजा दी तो मैं दबे पांव वहां से खिसक ली.

बच्चों की आधीअधूरी बातें सुनने के बाद तो और किसी काम में मन ही नहीं लगा. बारबार मन में यही प्रश्न उठते कि मेरा वह पुत्र जो अपनी हर छोटीबड़ी बात मुझे बताए बिना मुंह में कौर तक नहीं डालता है, आज ऐसा क्या कर बैठा जो हम से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. सोचा, चल कर साफसाफ पूछ लूं पर फिर लगा कि बच्चे क्या सोचेंगे कि मम्मी छिपछिप कर उन की बातें सुनती हैं.

जैसेतैसे दोपहर का खाना तैयार कर के मेज पर लगा दिया और विकीविनी को खाने के लिए आवाज दी. खाना परोसते समय खयाल आया कि यह मैं ने क्या कर दिया, लौकी की सब्जी बना दी. अभी दोनों अपनीअपनी कटोरी मेरी ओर बढ़ा देंगे और कहेंगे कि रामदेव की प्रबल अनुयायी माताजी, यह लौकी की सब्जी आप को ही सादर समर्पित हो. कृपया आप ही इसे ग्रहण करें. पर मैं आश्चर्यचकित रह गई यह देख कर कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उलटा दोनों इतने मन से सब्जी खाने में जुटे थे मानो उस से ज्यादा प्रिय उन्हें कोई दूसरी सब्जी है ही नहीं.

बात जरूर कुछ गंभीर है. मैं ने मन में सोचा क्योंकि मेरी बनाई नापसंद सब्जी या और भी किसी चीज को ये चुपचाप तभी खा लेते हैं जब या तो कुछ देर पहले उन्हें किसी बात पर जबरदस्त डांट पड़ी हो या फिर अपनी कोई इच्छा पूरी करवानी हो.

खाना खा कर विकी और विनी फिर अपने कमरे में चले गए. ऐसा लग रहा था कि किसी खास मसले पर मीटिंग अटेंड करने की बहुत जल्दी हो उन्हें.

विकी सी.ए. है. कानपुर में उस ने अपना शानदार आफिस बना लिया है. ज्यादातर शनिवार को ही आता है और सोमवार को चला जाता है. विनी एम.बी.ए. की तैयारी कर रहा है. बचपन से दोनों भाइयों के स्वभाव में जबरदस्त अंतर होते हुए भी दोनों पल भर को भी अलग नहीं होते हैं. विकी बेहद शांत स्वभाव का आज्ञाकारी लड़का रहा है तो विनी इस के ठीक उलट अत्यंत चंचल और अपनी बातों को मनवा कर ही दम लेने वाला रहा है. इस के बावजूद इन दोनों भाइयों का प्यार देख हम दोनों पतिपत्नी मन ही मन मुसकराते रहते हैं.

अपना काम निबटा कर मैं बच्चों के कमरे में चली गई. संडे की दोपहर हमारी बच्चों के कमरे में ही गुजरती है और बच्चे हम से सारी बातें भी कह डालते हैं, जबकि ऐसा करने में दूसरे बच्चे मांबाप से डरते हैं. आज मुझे राजीव का बाहर होना बहुत खलने लगा. वह रहते तो माहौल ही कुछ और होता और वह किसी न किसी तरह बच्चों के मन की थाह ले ही लेते.

मेरे कमरे में पहुंचते ही विनी अपनी कुरसी से उछलते हुए चिल्लाया, ‘‘मम्मा, एक बात आप को बताऊं, विकी दा ने…’’

उस की बात विकी की घूरती निगाहों की वजह से वहीं की वहीं रुक गई. मैं ने 1-2 बार कहा भी कि ऐसी कौन सी बात है जो आज तुम लोग मुझ से छिपा रहे हो, पर विकी ने यह कह कर टाल दिया कि कुछ खास नहीं मम्मा, थोड़ी आफिस से संबंधित समस्या है. मैं आप को बता कर परेशान नहीं करना चाहता पर विनी के पेट में कोई बात पचती ही नहीं है.

हालांकि मैं मन ही मन बहुत परेशान थी फिर भी न जाने कैसे झपकी लग गई और मैं वहीं लेट गई. अचानक ‘मम्मा’ शब्द कानों में पड़ने से एक झटके से मेरी नींद खुल गई पर मैं आंखें मूंदे पड़ी रही. मुझे सोता देख कर उन की बातें फिर से चालू हो गई थीं और इस बार उसी कमरे में होने की वजह से मुझे सबकुछ साफसाफ सुनाई दे रहा था.

विकी ने विनी को डांटा, ‘‘तुझे मना किया था फिर भी तू मम्मा को क्या बताने जा रहा था?’’

‘‘क्या करता, तुम्हारे पास हिम्मत जो नहीं है. दा, अब मुझ से नहीं रहा जाता, अब तो मुझे जल्दी से भाभी को घर लाना है. बस, चाहे कैसे भी.’’

विकी ने एक बार फिर विनी को चुप रहने का इशारा किया. उसे डर था कि कहीं मैं जाग न जाऊं या उन की बातें मेरे कानों में न पड़ जाएं.

अब तक तो नींद मुझ से कोसों दूर जा चुकी थी. ‘तो क्या विकी ने शादी कर ली है,’ यह सोच कर लगा मानो मेरे शरीर से सारा खून किसी ने निचोड़ लिया. कहां कमी रह गई थी हमारे प्यार में और कैसे हम अपने बच्चों में यह विश्वास उत्पन्न करने में असफल रह गए कि जीवन के हर निर्णय में हम उन के साथ हैं.

आज पलपल की बातें शेयर करने वाले मेरे बेटे ने मुझे इस योग्य भी न समझा कि अपने शादी जैसे महत्त्वपूर्ण फैसले में शामिल करे. शामिल करना तो दूर उस ने तो बताने तक की भी जरूरत नहीं समझी. मेरे व्यथित और तड़पते दिल से एक आवाज निकली, ‘विकी, सिर्फ एक बार कह कर तो देखा होता बेटे तुम ने, फिर देखते कैसे मैं तुम्हारी पसंद को अपने अरमानों का जोड़ा पहना कर इस घर में लाती. पर तुम ने तो मुझे जीतेजी मार डाला.’

पल भर के अंदर ही विकी के पिछले 25 बरस आंखों के सामने से गुजर गए और उन 25 सालों में कहीं भी विकी मेरा दिल दुखाता हुआ नहीं दिखा. टेबल पर रखे फल उठा कर खाने से पहले भी वह जहां होता वहीं से चिल्ला कर मुझे बताता था कि मम्मा, मैं यह सेब खाने जा रहा हूं. और आज…एक पल में ही पराया बना दिया बेटे ने.

कलेजे को चीरता हुआ आंसुओं का सैलाब बंद पलकों के छोर से बूंद बन कर टपकने ही वाला था कि अचानक विकी की फुसफुसाहट सुनाई पड़ी, ‘‘तुम ने देखा नहीं है मम्मीपापा के कितने अरमान हैं अपनी बहुओं को ले कर और बस, मैं इसी बात से डरता हूं कि कहीं बरखा मम्मीपापा की कल्पनाओं के अनुरूप नहीं उतरी तो क्या होगा? अगर मैं पहले ही इन्हें बता दूंगा कि मैं बरखा को पसंद करता हूं तो फिर कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि मम्मीपापा उसे नापसंद करें, वे हर हाल में मेरी शादी उस से कर देंगे और मैं यही नहीं चाहता हूं. मम्मीपापा के शौक और अरमान पूरे होने चाहिए, उन की बहू उन्हें पसंद होनी चाहिए. बस, मैं इतना ही चाहता हूं.’’

‘‘और अगर वह उन्हें पसंद नहीं आई तो?’’

‘‘नहीं आई तो देखेंगे, पर मैं ने इतना तो तय कर लिया है कि मैं पहले से यह बिलकुल नहीं कह सकता कि मैं किसी को पसंद करता हूं.’’

तो विकी ने शादी नहीं की है, वह केवल किसी बरखा नाम की लड़की को पसंद करता है और उस की समस्या यह है कि बरखा के बारे में हमें बताए कैसे? इस बात का एहसास होते ही लगा जैसे मेरे बेजान शरीर में जान वापस आ गई. एक बार फिर से मेरे सामने वही विकी आ खड़ा हुआ जो अपनी कोई बात कहने से पहले मेरे चारों ओर चक्कर लगाता रहता, मेरा मूड देखता फिर शरमातेझिझकते हुए अपनी बात कहता. उस का कहना कुछ ऐसा होता कि मना करने का मैं साहस ही नहीं कर पाती. ‘बुद्धू, कहीं का,’ मन ही मन मैं बुदबुदाई. जानता है कि मम्मा किसी बात के लिए मना नहीं करतीं फिर भी इतनी जरूरी बात कहने से डर रहा है.

सो कर उठी तो सिर बहुत हलका लग रहा था. मन में चिंता का स्थान एक चुलबुले उत्साह ने ले लिया था. मेरे बेटे को प्यार हो गया है यह सोचसोच कर मुझे गुदगुदी सी होने लगी. अब मुझे समझ में आने लगा कि विनी को भाभी घर में लाने की इतनी जल्दी क्यों मच रही थी. ऐसा लगने लगा कि विनी का उतावलापन मेरे अंदर भी आ कर समा गया है. मन होने लगा कि अभी चलूं विकी के पास और बोलूं कि ले चल मुझे मेरी बहू के पास, मैं अभी उसे अपने घर में लाना चाहती हूं पर मां होने की मर्यादा और खुद विकी के मुंह से सुनने की एक चाह ने मुझे रोक दिया.

रात को खाने की मेज पर मेरा मूड तो खुश था ही, दिन भर के बाद बच्चों से मिलने के कारण राजीव भी बहुत खुश दिख रहे थे. मैं ने देखा कि विनी कई बार विकी को इशारा कर रहा था कि वह हम से बात करे पर विकी हर बार कुछ कहतेकहते रुक सा जाता था. अपने बेटे का यह हाल मुझ से और न देखा गया और मैं पूछ ही बैठी, ‘‘तुम कुछ कहना चाह रहे हो, विकी?’’

‘‘नहीं…हां, मैं यह कहना चाहता था मम्मा कि जब से कानपुर गया हूं दोस्तों से मुलाकात नहीं हो पाती है. अगर आप कहें तो अगले संडे को घर पर दोस्तों की एक पार्टी रख लूं. वैसे भी जब से काम शुरू किया है सारे दोस्त पार्टी मांग रहे हैं.’’

‘‘तो इस में पूछने की क्या बात है. कहा होता तो आज ही इंतजाम कर दिया होता,’’ मैं ने कहा, ‘‘वैसे कुल कितने दोस्तों को बुलाने की सोच रहे हो, सारे पुराने दोस्त ही हैं या कोई नया भी है?’’

‘‘हां, 2-4 नए भी हैं. अच्छा रहेगा, आप सब से भी मुलाकात हो जाएगी. क्यों विनी, अच्छा रहेगा न?’’ कह कर विकी ने विनी को संकेत कर के राहत की सांस ली.

मैं समझ गई थी कि पार्टी की योजना दोनों ने मिल कर बरखा को हम से मिलाने के लिए ही बनाई है और विकी के ‘नए दोस्तों’ में बरखा भी शामिल होगी.

अब बच्चों के साथसाथ मेरे लिए भी पार्टी की अहमियत बहुत बढ़ गई थी. अगले संडे की सुबह से ही विकी बहुत नर्वस दिख रहा था. कई बार मन में आया कि उसे पास बुला कर बता दूं कि वह सारी चिंता छोड़ दे क्योंकि हमें सबकुछ मालूम हो चुका है, और बरखा जैसी भी होगी मुझे पसंद होगी. पर एक बार फिर विकी के भविष्य को ले कर आशंकित मेरे मन ने मुझे चुप करा दिया कि कहीं बरखा विकी के योग्य न निकली तो? जब तक बात सामने नहीं आई है तब तक तो ठीक है, उस के बारे में कुछ भी राय दे सकती हूं, पर अगर एक बार सामने बात हो गई तो विकी का दिल टूट जाएगा.

4 बजतेबजते विकी के दोस्त एकएक कर के आने लगे. सच कहूं तो उस समय मैं खुद काफी नर्वस होने लगी थी कि आने वालों में बरखा नाम की लड़की न मालूम कैसी होगी. सचमुच वह मेरे विकी के लायक होगी या नहीं. मेरी भावनाओं को राजीव अच्छी तरह समझ रहे थे और आंखों के इशारे से मुझे धैर्य रखने को कह रहे थे. हमें देख कर आश्चर्य हो रहा था कि सदैव हंगामा करते रहने वाला विनी भी बिलकुल शांति  से मेरी मदद में लगा था और बीचबीच में जा कर विकी की बगल में कुछ इस अंदाज से खड़ा होता मानो उस से कह रहा हो, ‘दा, दुखी न हो, मैं तुम्हारे साथ हूं.’

ठीक साढ़े 4 बजे बरखा ने अपनी एक सहेली के साथ ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. उस के घुसते ही विकी की नजरें विनी से और मेरी नजरें इन से जा टकराईं. विकी अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और उन्हें हमारे पास ला कर उन से हमारा परिचय करवाया, ‘‘बरखा, यह मेरे मम्मीपापा हैं और मम्मीपापा, यह मेरी नई दोस्त बरखा और यह बरखा की दोस्त मालविका है. ये दोनों एम.सी.ए. कर रही हैं. पिछले 7 महीने से हमारी दोस्ती है पर आप लोगों से मुलाकात न करवा सका था.’’

हम ने महसूस किया कि बरखा से हमारे परिचय के दौरान पूरे कमरे का शोर थम गया था. इस का मतलब था कि विकी के सारे दोस्तों को पहले से बरखा के बारे में मालूम था. सच है, प्यार एक ऐसा मामला है जिस के बारे में बच्चों के मांबाप को ही सब से बाद में पता चलता है. बच्चे अपना यह राज दूसरों से तो खुल कर शेयर कर लेते हैं पर अपनों से बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.

बरखा को देख लेने और उस से बातचीत कर लेने के बाद मेरे मन में उसे बहू बना लेने का फैसला पूर्णतया पक्का हो गया. विकी बरखा के ही साथ बातें कर रहा था पर उस से ज्यादा विनी उस का खयाल रख रहा था. पार्टी लगभग समाप्ति की ओर अग्रसर थी. यों तो हमारा फैसला पक्का हो चुका था पर फिर भी मैं ने एक बार बरखा को चेक करने की कोशिश की कि शादी के बाद घरगृहस्थी संभालने के उस में कुछ गुण हैं या नहीं.

मेरा मानना है कि लड़की कितने ही उच्च पद पर आसीन हो पर घरपरिवार को उस के मार्गदर्शन की आवश्यकता सदैव एक बच्चे की तरह होती है. वह चूल्हेचौके में अपना दिन भले ही न गुजारे पर चौके में क्या कैसे होता है, इस की जानकारी उसे अवश्य होनी चाहिए ताकि वह अच्छा बना कर खिलाने का वक्त न रखते हुए भी कम से कम अच्छा बनवाने का हुनर तो अवश्य रखती हो.

मैं शादी से पहले घरगृहस्थी में निपुण होना आवश्यक नहीं मानती पर उस का ‘क ख ग’ मालूम रहने पर ही उस जिम्मेदारी को निभा पाने की विश्वसनीयता होती है. बहुत से रिश्तों को इन्हीं बुनियादी जिम्मेदारियों के अभाव में बिखरते देखा था मैं ने, इसलिए विकी के जीवन के लिए मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी.

मैं ने बरखा को अपने पास बुला कर कहा, ‘‘बेटा, सुबह से पार्टी की तैयारी में लगे होने की वजह से इस वक्त सिर बहुत दुखने लगा है. मैं ने गैस पर तुम सब के लिए चाय का पानी चढ़ा दिया है, अगर तुम्हें चाय बनानी आती हो तो प्लीज, तुम बना लो.’’

‘‘जी, आंटी, अभी बना लाती हूं,’’ कह कर वह विकी की तरफ पलटी, ‘‘किचन कहां है?’’

‘‘उस तरफ,’’ हाथ से किचन की तरफ इशारा करते हुए विकी ने कहा, ‘‘चलो, मैं तुम्हें चीनी और चायपत्ती बता देता हूं,’’ कहते हुए वह बरखा के साथ ही चल पड़ा.

‘‘बरखाजी को अदरक कूट कर दे आता हूं,’’ कहता हुआ विनी भी उन के पीछे हो लिया.

चाय चाहे सब के सहयोग से बनी हो या अकेले पर बनी ठीक थी. किचन में जा कर मैं देख आई कि चीनी और चायपत्ती के डब्बे यथास्थान रखे थे, दूध ढक कर फ्रिज में रखा था और गैस के आसपास कहीं भी चाय गिरी, फैली नहीं थी. मैं निश्चिंत हो आ कर बैठ गई. मुझे मेरी बहू मिल गई थी.

एकएक कर के दोस्तों का जाना शुरू हो गया. सब से अंत में बरखा और मालविका हमारे पास आईं और नमस्ते कर के हम से जाने की अनुमति मांगने लगीं. अब हमारी बारी थी, विकी ने अपनी मर्यादा निभाई थी. पिछले न जाने कितने दिनों से असमंजस की स्थिति गुजरने के बाद उस ने हमारे सामने अपनी पसंद जाहिर नहीं की बल्कि उसे हमारे सामने ला कर हमारी राय जाननेसमझने का प्रयत्न करता रहा. और हम दोनों को अच्छी तरह पता है कि अभी भी अपनी बात कहने से पहले वह बरखा के बारे में हमारी राय जानने की कोशिश अवश्य करेगा, चाहे इस के लिए उसे कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े.

मैं अपने बेटे को और असमंजस में नहीं देख सकती थी, अगर वह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा है तो उस की बात को मैं ही कह कर उसे कशमकश से उबार लूंगी.

बरखा के दोबारा अनुमति मांगने पर मैं ने कहा, ‘‘घर की बहू क्या घर से खाली हाथ और अकेली जाएगी?’’

मेरी बात का अर्थ जैसे पहली बार किसी की समझ में नहीं आया. मैं ने विकी का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘तेरी पसंद हमें पसंद है. चल, गाड़ी निकाल, हम सब बरखा को उस के घर पहुंचाने जाएंगे. वहीं इस के मम्मीडैडी से रिश्ते की बात भी करनी है. अब अपनी बहू को घर में लाने की हमें भी बहुत जल्दी है.’’

मेरी बात का अर्थ समझ में आते ही पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मम्मीपापा को यह सब कैसे पता चला, इस सवाल में उलझाअटका विकी पहले तो जहां का तहां खड़ा रह गया फिर अपने पापा की पहल पर बढ़ कर उन के सीने से लग गया.

इन सब बातों में समय गंवाए बिना विनी गैरेज से गाड़ी निकाल कर जोरजोर से हार्न बजाने लगा. उस की बेताबी देख कर मैं दौड़ते हुए अपनी खानदानी अंगूठी लेने के लिए अंदर चली गई, जिसे मैं बरखा के मातापिता की सहमति ले कर उसे वहीं पहनाने वाली थी.

समर्पण: आलोक ने अपनी जिंदगी का क्या फैसला लिया

डा. सीताराम और मंत्रीजी की बातों को सुन कर आलोक समझ चुका था कि ‘आरक्षण’ का राग अलापने वाले मंत्रीजी की नजर में व्यक्तिगत योग्यता का कोई मोल नहीं है. उन की बातों से आहत आलोक यह तय नहीं कर पा रहा था कि उम्र के इस पड़ाव पर वह अपने अंतर्मन की आवाज सुने या अपनी परिस्थितियों से समझौता कर मंत्रीजी का साथ दे.

अचानक रात के 2 बजे टेलीफोन की घंटी बजी तो रीता ने आलोक की तरफ देखा. वह उस समय गहरी नींद में था. वैसे भी आलोक मंत्री दीनानाथ के साथ 4 दिन के टूर के बाद रात के 11 बजे घर लौटा था. 1 महीने बाद इलेक्शन था, उस का मंत्रीजी के साथ काफी व्यस्त कार्यक्रम था. कोई चारा न देख कर रीता ने अनमने मन से फोन उठाया. जब तक वह कुछ कह पाती, उधर से मंत्रीजी की पत्नी का घबराया स्वर सुनाई दिया, ‘‘आलोक, मंत्रीजी की तबीयत ठीक नहीं है. शायद हार्टअटैक पड़ा है. जल्दी किसी डाक्टर को ले कर पहुंचो.’’

‘‘जी मैम, वह तो सो रहे हैं.’’

‘‘अरे, सो रहा है तो उसे जगाओ न, प्लीज. और हां, जल्दी से वह किसी डाक्टर को ले कर यहां पहुंचे.’’

‘‘अभी जगाती हूं,’’ कह कर रीता ने फोन रख दिया.

आलोक को जगा कर रीता ने वस्तुस्थिति बताई तो उस ने झटपट शहर के मशहूर हृदय रोग विशेषज्ञ डा. नीरज सक्सेना को फोन मिलाया पर वह नहीं मिले, वह दिल्ली गए हुए थे.

उन के बाद डा. सीताराम का शहर में नाम था. आलोक ने उन्हें फोन मिलाया. वह मिल गए तो उन्हें मंत्रीजी की सारी स्थिति बताते हुए उन से जल्द से जल्द वहां पहुंचने का आग्रह किया.

जब आलोक मंत्रीजी के घर पहुंचा तो उसी समय डा. सीताराम भी अपनी गाड़ी से उतर रहे थे. उन्हें देखते ही मंत्रीजी की पत्नी बोलीं, ‘‘अरे, आलोक, इन्हें क्यों बुला लाए, इन्हें कुछ आता भी है…इन के इलाज से मुन्ने का साधारण बुखार भी महीने भर में छूटा था.’’

यह सुन कर डा. सीताराम भौचक्के से रह गए, पर आलोक ने गिड़गिड़ा कर कहा, ‘‘मैम, इन को चैक कर लेने दीजिए.’’

‘‘अरे, यह क्या चैक करेंगे. हमारे साहब की सिफारिश पर ही इन्हें डाक्टरी में दाखिला मिला था. वरना इन की औकात ही क्या थी?’’

‘‘डाक्टर साहब सर के परिचितों में से हैं. कम से कम इन्हें मंत्रीजी का प्राथमिक उपचार तो कर लेने दें. उस के बाद आप जहां चाहेंगी उन्हें ले जाएंगे. ऐसी स्थिति में कई बार थोड़ी सी देर भी जानलेवा सिद्ध हो जाती है,’’ आलोक गिड़गिड़ा उठा था.

‘‘ठीक है, आ जाओ,’’ मंत्री की पत्नी ने ऐसे कहा जैसे वह डाक्टर पर एहसान कर रही हैं.

डा. सीताराम निरपेक्ष भाव से मंत्रीजी को चैक करने लगे पर ऐसे समय में मंत्रीजी की पत्नी का यह व्यवहार आलोक की समझ से परे था. यह सच है कि डा. सीताराम हृदयरोग विशेषज्ञ नहीं हैं पर हर रोग पर उन की अच्छी पकड़ है. पिछले वर्ष ही उन्होंने अपना 10 बेड का एक नर्सिंग होम भी खोला है. वैसे भी एक डाक्टर, चाहे वह स्पेशलिस्ट हो या न हो, किसी भी बीमारी में शुरुआती उपचार दे कर मरीज की जान पर आए खतरे को टाल तो सकता ही है.

डा. सीताराम ने मंत्रीजी का चैकअप कर तुरंत इंजेक्शन लगाया तथा कुछ आवश्यक दवाएं लिख कर मंत्रीजी को अपने नर्सिंग होम में भरती करने की सलाह दी. भरती होते ही उन का इलाज शुरू हो गया, उन्हें सीवियर अटैक आया था.

इसी बीच आलोक ने दिल्ली फोन कर दिया और वहां से विशेषज्ञ डाक्टरों की एक टीम चल दी पर जब तक वह टीम पहुंची, डा. सीताराम के इलाज से मंत्रीजी की हालत काफी स्थिर हो चुकी थी. दिल्ली से आए डाक्टरों ने उन की सारी रिपोर्ट देखी तथा हो रहे इलाज पर अपनी संतुष्टि जताई.

उधर मंत्रीजी बीमारी के चलते अपनी इलेक्शन रैली न कर पाने के कारण बेहद परेशान थे. डाक्टर ने उन्हें आराम करने की सलाह दी और उन से यह भी कह दिया कि आप के लिए इस समय स्वस्थ होना जरूरी है. मंत्रीजी के लिए स्वास्थ्य के साथसाथ चुनाव जीतना भी जरूरी था. वैसे भी चुनाव से पहले के कुछ दिन नेता के लिए जनममरण की तरह महत्त्वपूर्ण होते हैं.

आखिर अस्पताल से ही मंत्रीजी ने सारी व्यवस्था संभालने की सोची. उन्होंने अपने भाषण की संक्षिप्त सीडी तैयार करवाई तथा आयोजित सभा में उस को दिखाने की व्यवस्था करवाई, इस के साथ ही सभा की जिम्मेदारी उन्होंने अपनी पत्नी और बेटी को सौंपी.

 

चुनाव में इस बात का काफी जोरशोर से प्रचार किया गया कि जनता की दुखतकलीफों के कारण उन्हें इतना दुख पहुंचा है कि हार्टअटैक आ गया जिस की वजह से वह आप के सामने नहीं आ पा रहे हैं पर आप सब से वादा है कि ठीक होते ही वह फिर आप की सेवा में हाजिर होंगे तथा आप के हर दुखदर्द को दूर करने में एड़ीचोटी की ताकत लगा देंगे.

चुनाव प्रचार के साथसाथ मंत्रीजी की कंडीशन स्टेबल होते ही उन के टेस्ट होने शुरू हो गए. डाक्टर की सलाह के अनुसार उन्होंने स्टे्रस टेस्ट करवाया. इस की रिपोर्ट आने पर चिंता और बढ़ गई. अब ऐंजियोग्राफी करवाई गई तो पता चला कि उन की 3 धमनियों में से एक 95 प्रतिशत, दूसरी 80 प्रतिशत तथा तीसरी 65 प्रतिशत अवरुद्ध है अत: बाई- पास करवाना होगा.

इस बीच चुनाव परिणाम भी आ गया. इस बार वह रिकार्ड मतों से जीते थे. उन की पार्टी भी दोतिहाई बहुमत की ओर बढ़ रही थी. उन का मंत्री पद पक्का हो गया था. एक फ्रंट तो उन्होंने जीत लिया था, अब दूसरे फ्रंट पर ध्यान देने की सोचने लगे.

डा. सीताराम उन्हें बधाई देने आए तथा स्वास्थ्य की ओर पूरा ध्यान देने के लिए कहते हुए आपरेशन के लिए चेन्नई के अपोलो अस्पताल का नाम लिया था.

‘‘यार, मुझे क्यों मरवाना चाहते हो. पता है, यह इंडिया है, यहां तुम्हारे जैसे ही डाक्टर भरे पड़े हैं. अगर मरीज बच गया तो उस की किस्मत… आखिर आरक्षण की बैसाखी थामे कोई कैसे योग्य डाक्टर या सर्जन बन सकता है.’’

‘‘मंत्रीजी, आप जिस दिन बीमार पड़े थे, उस दिन जब आप के पी.ए. के कहने पर मैं आप के इलाज के लिए घर पहुंचा था तब भाभीजी ने भी मुझे बहुत बुराभला कहा था पर उस समय मुझे बुरा नहीं लगा, क्योंकि मुझे लगा कि वह आप को ले कर परेशान हैं किंतु आप के द्वारा भी वही आरोप. जबकि आप जानते हैं कि आरक्षण की वजह से मुझे मेडिकल में प्रवेश अवश्य मिला था पर मुझे गोल्डमेडल अपनी योग्यता के कारण मिला है. यहां तक कि मेरा नर्सिंग होम आरक्षण के कारण नहीं वरन मेरी अपनी योग्यता की वजह से चल रहा है. सरकारी नौकरी में भले कोई आरक्षण के बल पर ऊंचा उठ जाए पर प्राइवेट में अपनी योग्यता के आधार पर ही उसे शोहरत मिल पाती है. और तो और आप को भले ही आरक्षण के कारण मंत्रिमंडल में जगह मिली हो, पर क्या आप में वह योग्यता नहीं है जो एक मंत्री में होनी चाहिए?’’ आखिर डा. सीताराम बोल ही उठे, उन के चेहरे पर तनाव स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था.

‘‘तुम तो बुरा मान गए बंधु. मेरी बात और है, मुझे तो सिर्फ बोलना पड़ता है, बोलने से किसी को नुकसान नहीं होता. पर यहां भावनाओं में बहने के बजाय वस्तुस्थिति को समझो. अमेरिका में कोई अच्छा अस्पताल हो तो बताओ. तुम्हें भी अपना पारिवारिक डाक्टर बना कर ले जाऊंगा.’’

‘‘मंत्रीजी, आप इलाज के लिए अमेरिका जा सकते हैं, पर दूसरे सब तो नहीं जा सकते. अगर आरक्षण आप की नजर में इतना ही खराब है तो इसे बंद

क्यों नहीं करा देते,’’ स्वभाव के विपरीत

डा. सीताराम आज चुप न रह सके.

‘‘कैसी बात कर रहे हो, आरक्षण बंद कर देंगे तो दलितों और पिछड़ों को ऊपर कैसे उठाएंगे. कम से कम दलित होते हुए मैं तो इस बात का कतई समर्थन नहीं करूंगा.’’

‘‘चाहे इस की वजह से हम जैसों को सदा लोगों के ताने ही क्यों न सुनने पड़ें… हमारी सारी सामाजिक समरसता ही क्यों न चौपट होने लगे…और फिर आप किन दलितों और पिछड़ों की बात कर रहे हैं? क्या वास्तव में उन्हें आरक्षण का लाभ मिल पाता है? मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि असली मलाई तो हम या आप जैसे लोग ही जीम जाते हैं. क्या यह सच नहीं है कि साधनसंपन्न होते हुए भी आप के बेटे को इंजीनियरिंग में दाखिला आरक्षित कोटे से ही मिला था?’’

‘‘आखिर इस में बुराई क्या है?’’

‘‘बुराई है, जब आप आरक्षण पा कर आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो गए हैं तो क्या अब भी आरक्षण के प्रावधान को अपनाकर आप किसी जरूरतमंद का हक नहीं छीन रहे हैं?’’

‘‘बहुत बकरबकर किए जा रहे हो, तुम जैसा नीच इनसान मैं ने पहले नहीं देखा. जिस थाली में अब तक खाते रहे हो उसी में छेद करने की सोचने लगे. अब तुम चले जाओ. वरना…’’ मंत्रीजी अपना आपा खो बैठे और अपना रौद्र रूप दिखाते हुए क्रोध से भभक उठे.

डा. सीताराम ने भी उन से ज्यादा उलझना ठीक नहीं समझा और चुपचाप चले गए.

आलोक यह सब देख कर स्तब्ध था. डा. सीताराम के पिता मंत्रीजी के अच्छे मित्रों में हुआ करते थे, उन के गर्दिश के दिनों में उन्होंने उन्हें बहुत सहारा दिया था और मंत्रीजी के कंधे से कंधा मिला कर उन की हर लड़ाई में वह साथ खड़े दिखते थे. यह बात और है कि जैसेजैसे मंत्रीजी का कद बढ़ता गया, डा. सीताराम के पिता पीछे छूटते गए या कहें मंत्रीजी ने ही यह सोच कर कि कहीं वह उन की जगह न ले लें, उन से पीछा छुड़ा लिया.

आलोक मंत्रीजी के साथ तब से था जब वह अपने राजनीतिक कैरियर के लिए संघर्ष कर रहे थे, उस समय वह बेकार था. पता नहीं उस समय उस ने मंत्रीजी में क्या देखा कि उन के साथ लग गया. उन्हें भी उस जैसे एक नौजवान खून की जरूरत थी जो समयानुसार उन की स्पीच तैयार कर सके, उन के लिए भीड़ जुटा सके और उन के आफिस को संभाल सके. उस ने ये सब काम बखूबी किए. उस की लिखी स्पीच का ही कमाल था कि लोग उन को सुनने के लिए आने लगे. धीरेधीरे उन की जनता में पैठ मजबूत होने लगी और वह दिन भी आ गया जब वह पहली बार विधायक बने. उन के विधायक बनते ही आलोक के दिन भी फिर गए पर आज डा. सीताराम के साथ ऐसा व्यवहार…वह सिहर उठा.

अपने पिता की उसी दोस्ती की खातिर डा. सीताराम अकसर मंत्रीजी के घर आया करते थे तथा एक पुत्र की भांति जबतब उन की सहायता करने के लिए भी तत्पर रहते थे पर आज तो हद ही हो गई…उन की इतनी बड़ी इंसल्ट…जबकि उन का नाम शहर के अच्छे डाक्टरों में गिना जाता है. क्या इनसान कुरसी पाते ही इस हद तक बदल जाता है?

वास्तव में मंत्रीजी जैसे लोगों की जब तक कोई जीहजूरी करता है तब तक तो वह भी उन से ठीक से पेश आते हैं पर जो उन्हें आईना दिखाने की कोशिश करता है उन से वे ऐसे ही बेरहमी से पेश आते हैं…अगर बात ज्यादा बिगड़ गई तो उस को बरबाद करने से भी नहीं चूकते.

आलोक अब तक सुनता रहा था पर आज वह वास्तविकता से भी परिचित हुआ…सारे मंत्री तथा वरिष्ठ आफिसर कुछ भी होने पर विदेश इसीलिए भागते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उन्होंने डाक्टरों की एक ऐसी जमात पैदा की है जो ज्ञान के नाम पर शून्य है फिर वह क्यों रिस्क लें? जनता जाए भाड़ में, चाहे जीए या मरे…उन्हें तो बस, वोट चाहिए.

आज यहां हड़ताल, कल वहां बंद, कहीं रैली तो कहीं धरना…अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए तोड़फोड़ करवाने से भी नेता नहीं चूकते. ऐसा करते वक्त ये लोग भूल जाते हैं कि वे किसी और की नहीं, अपने ही देश की संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे हैं. आम जनजीवन अलग अस्तव्यस्त हो जाता है, अगर इस सब में किसी की जान चली गई तो वह परिवार तो सदा के लिए बेसहारा हो जाता है पर इस की किसे परवा है. आखिर ऐसे दंगों में जान तो गरीब की ही जाती है. सामाजिक समरसता की परवा आज किसे है जब इन जैसों ने पूरे देश को ही विभिन्न जाति, प्रजातियों में बांट दिया है.

आलोक का मन कर रहा था कि वह मंत्रीजी का साथ छोड़ कर चला जाए. जहां आदमी की इज्जत नहीं वहां उस का क्या काम, आज उन्होंने डा. सीताराम के साथ ऐसा व्यवहार किया है कल उस के साथ भी कर सकते हैं.

मन ने सवाल किया, ‘तुम जाओगे कहां? जीवन के 30 साल जिस के साथ गुजारे, अब उसे छोड़ कर कहां जाओगे?’

‘कहीं भी पर अब यहां नहीं.’

‘बेकार मन पर बोझ ले कर बैठ गए… सचसच बताओ, जो बातें आज तुम्हें परेशान कर रही हैं, क्या आज से पहले तुम्हें पता नहीं थीं?’

‘थीं…’ कहते हुए आलोक हकला गया था.

‘फिर आज परेशान क्यों हो… अगर तुम छोड़ कर चल दिए, तो क्या मंत्रीजी तुम्हें चैन से जीने देंगे… क्या होगा तुम्हारी बीमार मां का, तुम्हारी 2 जवान बेटियों का जिन के हाथ तुम्हें पीले करने हैं?’

तभी सैलफोन की आवाज ने उस के अंतर्मन में चल रहे सवालजवाबों के बीच व्यवधान पैदा कर दिया. उस की पत्नी रीता का फोन था :

‘‘मांजी की हालत ठीक नहीं है… लगता है उन्हें अस्पताल में दाखिल करना पड़ेगा. वहीं शुभदा को देखने के लिए भी बरेली से फोन आया है, वे लोग कल आना चाहते हैं… उन्हें क्या जवाब दूं, समझ में नहीं आ रहा है.’’

‘‘बस, मैं आ रहा हूं… बरेली वालों का जो प्रोग्राम है उसे वैसा ही रहने दो. इस बीच मां की देखभाल के लिए जीजी से रिक्वेस्ट कर लेंगे,’’ संयत स्वर में आलोक ने कहा. जबकि कुछ देर पहले उस के मन में कुछ और ही चल रहा था.

‘‘आलोक, कहां हो तुम…गाड़ी निकलवाओ…हम 5 मिनट में आ रहे हैं,’’ मंत्रीजी की कड़कती आवाज में रीता के शब्द कहीं खो गए. याद रहा तो केवल उन का निर्देश…साथ ही याद आया कि आज 1 बजे उन्हें एक पुल के शिलान्यास के लिए जाना है.

उस के पास मंत्रीजी का आदेश मानने के सिवा कोई चारा नहीं था…घर के हालात उसे विद्रोह की इजाजत नहीं देते. शायद उसे ऐसे माहौल में ही जीवन भर रहना होगा, घुटघुट कर जीना होगा. अपनी मजबूरी पर वह विचलित हो उठा पर अंगारों पर पैर रख कर वह अपने और अपने परिवार के लिए कोई मुसीबत मोल लेना नहीं चाहता था. और तो और, अब वह जब तक शिलान्यास नहीं हो जाता, घर भी नहीं जा पाएगा.

सैलफोन पर ‘हैलो…क्या हुआ…’ सुन कर उसे याद आया कि वह रीता से बात कर रहा था…न आ पाने की असमर्थता जताते हुए मां को तुरंत अस्पताल में शिफ्ट करने की सलाह दी. वह जानता था, रीता उस की बात सुन कर थोड़ा भुनभुनाएगी पर उस की मजबूरी समझते हुए सब मैनेज कर लेगी. आखिर ऐसे क्षणों को जबतब उस ने बखूबी संभाला भी है.

हालात के साथ समझौता करते हुए ड्राइवर को गाड़ी निकालने का निर्देश दे कर व्यर्थ की बातों को दिमाग से निकाल वह स्पीच लिखने लगा. जाहिर है, यह उस का समर्पण है. उसे यह भी पता था कि मंत्रीजी के 5 मिनट 1 घंटे से कम नहीं होते.

एक लड़की- आखिर प्यार के नाम से क्यों आगबबूला हो जाती थी शबनम?

मैंने पकौड़ा खा कर चाय का पहला घूंट भरा ही था कि बाहर से शबनम की किसी पर बिगड़ने की तेज आवाज सुनाई दी. वह लगातार किसी को डांटे जा रही थी. उत्सुकतावश मैं बाहर निकली तो देखा कि वह गार्ड से उलझ रही है.

एक घायल लड़के को अपने कंधे पर एक तरह से लादे हुए वह अंदर दाखिल होने की कोशिश में थी और गार्ड लड़के को अंदर ले जाने से मना कर रहा था.

‘‘भैया, होस्टल के नियम तो तुम मुझे सिखाओ मत. कोई सड़क पर मर रहा है, तो क्या उसे मर जाने दूं? क्या होस्टल प्रशासन आएगा उसे बचाने? नहीं न. अरे, इंसानियत की तो बात ही छोड़ दो, यह बताओ किस कानून में लिखा है कि एक घायल को होस्टल में ला कर दवा लगाना मना है? मैं इसे कमरे में तो ले जा नहीं रही. बाहर ग्राउंड में जो बैंच है, उसी पर लिटाऊंगी. फिर तुम्हें क्या प्रौब्लम हो रही है? लड़कियां अपने बौयफ्रैंड को ले कर अंदर घुसती हैं तब तो तुम से कुछ बोला नहीं जाता,’’ शबनम झल्लाती हुई कह रही थी.

गार्ड ने झेंपते हुए दरवाजा खोल दिया और शबनम बड़बड़ाती हुई अंदर दाखिल हुई. उस ने किसी तरह लड़के को बैंच पर लिटाया और जोर से चीखी, ‘‘अरे, कोई है? ओ बाजी, देख क्या रही हो? जाओ, जरा पानी ले कर आओ.’’ फिर मुझ पर नजर पड़ते ही उस ने कहा, ‘‘नेहा, प्लीज डिटोल ला देना. इस के घाव पोंछ दूं और हां, कौटन भी लेती आना.’’

मैं ने अपनी अलमारी से डिटोल निकाला और बाहर आई. देखा, शबनम अब उस लड़के पर बरस रही है, ‘‘कर ली खुदकुशी? मिल गया मजा? तेरे जैसे लाखों लड़के देखे हैं. लड़की ने बात नहीं की तो या फेल हुए तो जान देने चल दिए. पैसा नहीं है, तो जी कर क्या करना है? अरे मरो, पर यहां आ कर क्यों मरते हो?’’

शबनम उसे लगातार डांट रही थी और वह खामोशी से शबनम को देखे जा रहा था. उस का दायां हाथ काफी जख्मी हो गया था. एक तरफ चेहरे और पैरों पर भी चोट लगी थी. माथे से भी खून बह रहा था.

बाजी बालटी में पानी भर लाईं और शबनम उस में रुई डुबाडुबा कर उस के घाव पोंछने लगी. फिर घाव पर डिटोल लगा कर पट्टी बांध दी और मुझ से बोली, ‘‘तू जरा इसे ठंडा पानी पिला दे, तब तक मैं इस के घर वालों को खबर कर देती हूं.’’

‘‘तू इसे पहले से जानती थी शबनम?’’ मैं ने पूछा तो वह मुसकराई.

‘‘अरे नहीं, मैं औफिस से आ रही थी, तो देखा यह लड़का जानबूझ कर गाड़ी के नीचे आ गया. इस के सिर पर चोट लगी थी, इसलिए यहां उठा लाई. अब घर वाले आ कर इसे अस्पताल ले जाएं या घर, उन की मरजी,’’ कह कर उस ने लड़के से उस के पिता का नंबर पूछा और उन्हें बुला लिया.

इधर मैं अपने कमरे में आ कर शबनम के बारे में सोचने लगी. आज कितना अलग रूप देखा था मैं ने उस का. उस लड़के के घाव पोंछते वक्त वह कितनी सहज थी. लड़कियां चाहे कुछ भी कहें, आज मैं ने महसूस किया था कि वह दिल की कितनी अच्छी है.

पूरे होस्टल में अक्खड़, मुंहफट और घमंडी कही जाने वाली शबनम की बुराई करने से कोई नहीं चूकता. लड़कियां हों या गार्ड या फिर कामवाली, हर किसी की यही शिकायत थी कि शबनम कभी सीधे मुंह बात नहीं करती है. अकड़ दिखाती है. टीवी देखने आती है तो जबरदस्ती वही चैनल लगाती है, जो उसे देखना हो. दूसरों की नहीं सुनती. वैसे ही उस की जिद रहती है कि काम वाली सुबह सब से पहले उस का कमरा साफ करे.

पहनावे में भी दूसरों से बिलकुल अलग दिखती थी वह. गरमी हो या सर्दी, हमेशा पूरी बाजू के कपड़े पहनती, जिस की नैक भी ऊपर तब बंद होती. उस की इस अटपटी ड्रैस की वजह से लड़कियां अकसर उस का मजाक उड़ाती थीं पर वह इस पर ध्यान नहीं देती थी.

देखने में वह खूबसूरत थी पर नाम के विपरीत चेहरे पर कोमलता नहीं सख्ती के भाव होते थे. डीलडौल भी काफी अच्छा था और आवाज काफी सख्त थी, जो उस की पर्सनैलिटी को दबंग बनाती थी और सामने वाला उस से पंगे लेने से बचता था.

वह मेरे कमरे के साथ वाले कमरे में रहती थी, इसलिए मुझ से उस की थोड़ीबहुत बातचीत होती रहती थी. हम 1-2 दफा साथ घूमने भी गए थे, पर हमेशा ही मुझे वह ऐसी बंद किताब लगी जिसे चाह कर भी पढ़ना मुमकिन नहीं था.

8-10 दिन बाद की बात है, मैं ने देखा, शबनम ग्राउंड में बैंच पर बैठी किसी लड़के से बात कर रही है. उस वक्त शबनम की आवाज इतनी तेज थी कि लग रहा था, वह उस लड़के को डांट रही है. 2-3 लड़कियां उधर से शबनम का मजाक उड़ाती हुई आ रही थीं.

एक कह रही थी, ‘‘लो आ गई उस लड़के की शामत. उसे नहीं पता कि किस लड़की से पाला पड़ा है उस का.’’

दूसरी ने कमैंट किया, ‘‘लड़का कह रहा होगा, मुझ पर करो न यों सितम…’’

मैं ने गौर से देखा, यह तो वही लड़का था, जिस की उस दिन शबनम ने मरहमपट्टी की थी. लड़का अब काफी हद तक ठीक हो चुका था पर माथे और हाथ पर अभी भी पट्टी बंधी थी.

बाद में जब मैं ने शबनम से उस के बारे में पूछा तो वह बोली, ‘‘धन्यवाद कहने आया था और हिम्मत तो देखो, मुझ से दोस्ती करना चाहता था. कह रहा था, फिर मिलने आऊंगा.’’

‘‘तो तुम ने क्या कहा?’’

‘‘अरे, मुझे क्या कहना था, अच्छी तरह समझा दिया कि मैं दोस्तीवोस्ती के चक्कर में नहीं पड़ने वाली. रोजरोज मेरा दिमाग खाने के लिए आने की जरूरत नहीं. लड़कों की फितरत अच्छी तरह समझती हूं मैं.’’

आगे उस लड़के का हश्र क्या होगा, यह मैं अच्छी तरह समझ सकती थी, इसलिए शबनम को और न छेड़ते हुए मैं मुसकराती हुई अपने कमरे में चली आई.

उस दिन के बाद 2-3 बार और भी मैं ने उस लड़के को शबनम से बातें करते देखा और हमेशा शबनम उसे झिड़कती हुई ही दिखी. एक दिन उस ने बताया कि वह लड़का हाथ धो कर पीछे पड़ गया है. फोन भी करने लगा है कि मैं तुम्हें पसंद करता हूं. अरे यार, बदतमीजी की भी हद होती है. घाव पर मरहम क्या लगाया, वह तो हाथ पकड़ने पर आमादा हो गया है.

‘‘तो इस में बुराई क्या है यार. वह तुझे इतना चाहता है, देखने में भी हैंडसम है. अच्छा कमाता है, घरपरिवार भी अच्छा है, तू ने ही बताया है. तो तू मना क्यों कर रही है? क्या कोई और है तेरी जिंदगी में?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं, कोई और नहीं है. जरूरत भी नहीं है मुझे. और वह जैसा भी है उस से मुझे क्या लेनादेना? आज पीछे पड़ा है, तो हो सकता है कल देखना भी न चाहे, अजनबी बन जाए. हजारों कमियां निकाले मुझ में. इतना ही अच्छा है तो ढूंढ़ ले न कोई अच्छी लड़की. मैं ने क्या मना किया है? मैं क्यों अपनी खुशियां किसी और के आसरे छोड़ूं? जैसी भी हूं, ठीक हूं…’’ कहतेकहते उस की आंखें नम हो उठीं.

‘‘शबनम, प्यार बहुत खूबसूरत होता है. वह वीरान जिंदगी में खुशियों की बहार ले कर आता है. किसी से हो जाए तो सूरत, उम्र, जाति कुछ नहीं दिखता. इंसान इस प्यार को पाने के लिए हर कुरबानी देने को तैयार रहता है.’’ मैं ने समझाना चाहा.

पर वह अकड़ती हुई बोली, ‘‘बहुत देखे हैं प्यार करने वाले. मैं इन झमेलों से दूर सही…’’ और अपने कमरे में चली गई.

अगले दिन वह लड़का मुझे होस्टल के गेट पर मिल गया. मुझ से विनती करता हुआ बोला, ‘‘प्लीज नेहाजी, आप ही समझाओ न शबनमजी को. वे मुझ से मिलना नहीं चाहतीं.’’

‘‘तुम प्यार करते हो उस से?’’ में ने सीधा प्रश्न किया तो चकित नजरों से उस ने मेरी तरफ देखा फिर सिर हिलाता हुआ बोला, ‘‘बहुत ज्यादा. जिंदगी में पहली दफा ऐसी लड़की देखी. खुद पर निर्भर, दूसरों के लिए लड़ने वाली, आत्मविश्वास से भरपूर. उस ने मुझे जीना सिखाया है. मुश्किलों से हार मानने के बजाय लड़ने का जज्बा पैदा किया है. मैं ने तो औरतों को सिर्फ पति के इशारों पर चलते, रोतेसुबकते और घरेलू काम करते देखा था. पर वह बहुत अलग है. जितना ही उसे देखता हूं, उसे पाने की तमन्ना बढ़ती जाती है. प्लीज, आप मेरी मदद करें. मेरे मन की बातें उस तक पहुंचा दें.’’

‘‘मैं कोशिश करती हूं,’’ मैं ने कहा तो उस के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई. मुझे नमस्ते कर के वह चला गया.

रात को मैं फिर से शबनम के कमरे में दाखिल हुई. वह अकेली थी. ‘‘आज वह गेट पर मिला था,’’ मैं ने कहा.

‘‘जानती हूं. मुझे बाहर बुला रहा था लेकिन मैं नहीं गई.’’

मैं ने उसे कुरेदा, ‘‘तू प्यार से भाग क्यों रही है? जानती है, प्यार हर दर्द मिटा देता है?’’

वह हंसी, ‘‘प्यार दर्द मिटाता नहीं, नए जख्म पैदा करता है. बहुत स्वार्थी होता है प्यार.’’

‘‘मैं आज वजह जान कर रहूंगी कि आखिर क्यों भागती है तू प्यार से? या तो मुझे हकीकत बता दे या फिर उस लड़के को अपना ले जो सिर्फ तेरी राह देख रहा है.’’

‘‘मैं ने भी देखी थी किसी की राह पर उस ने…,’’ कहते हुए अचानक उस की आंखें भीग गईं.

मैं ने प्यार से उस का माथा सहलाते हुए कहा, ‘‘शबनम, अपने दिल का दर्द बाहर निकाल. तभी तू खुश रह सकेगी. मुझे सबकुछ बता दे. मैं जानती हूं, तू दिल की बहुत अच्छी है. पर कुछ तो ऐसा है जो तेरे दिल को तड़पाता है. यह पीड़ा तुझे सामान्य नहीं रहने देती. तेरे चेहरे, तेरे व्यवहार में झलकने लगती है. यकीन रख, तू जो भी बताएगी, वह सिर्फ मुझ तक रहेगा. पर मुझ से कुछ मत छिपा. किस ने चोट पहुंचाई है तुझे?’’

वह थोड़ी नौर्मल हुई तो बिस्तर पर पीठ टिका कर बैठ गई और कहने लगी, ‘‘नेहा,

4 साल पहले तक मैं भी एक ऐसी लड़की थी जिस का दिल किसी के लिए धड़कता था. मैं भी प्यार को बहुत खूबसूरत मानती थी. मेरी भी तमन्नाएं थीं, कुछ सपने थे. दूसरों से प्रेम से बातें करना, मिल कर रहना अच्छा लगता था मुझे. जिसे प्यार किया, उसी के साथ पूरी उम्र गुजारना चाहती थी और उस की यानी विक्रम की भी यही मरजी थी. उस ने मुझे हमेशा ऐतबार दिलाया था कि वह मुझे प्यार करता है, मेरे साथ घर बसाना चाहता है. हमारी जोड़ी कालेज में भी मशहूर थी. पर वक्त की चोट ने उस की असलियत मेरे सामने ला कर रख दी.’’

‘‘एक दिन मैं ने देखा कि मेरी बांह और पीठ पर सफेद निशान हो गए हैं. मैं घबरा गई. डाक्टरों के चक्कर लगाने लगी पर दाग बढ़ते ही गए. जब मैं ने यह राज विक्रम के आगे खोला तो उस के चेहरे के भाव ही बदल गए और 2-4 दिनों के अंदर ही उस का व्यवहार भी बदलने लगा. अब वह मुझ से दूर रहने की कोशिश करता. हालांकि 1-2 दफा मेरे कहने पर वह मेरे साथ डाक्टर के यहां भी गया पर कुछ अनमना सा रहता था. धीरेधीरे वह मिलने से भी कतराने लगा.

‘‘उधर हमारी पढ़ाई पूरी हो गई और पापा को मेरी शादी की फिक्र होने लगी. मैं ने विक्रम से इस बारे में चर्चा की तो वह शादी से बिलकुल मुकर गया. मैं तड़प उठी. उस के आगे रोई, गिड़गिड़ाई पर सिर्फ इस सफेद दाग की वजह से वह मुझ से जुड़ने को तैयार नहीं हुआ.’’ कहते हुए उस ने अपने कुरते की बाजू ऊपर उठाई. उस की बांह पर कई जगह सफेद दाग थे.

शून्य की तरफ देखते हुए वह बोली, ‘‘मैं आज भी उसे भुला नहीं सकी पर कहां जानती थी कि उस का प्यार सिर्फ मेरे शरीर से जुड़ा था. शरीर में दोष उत्पन्न हुआ तो उस ने राहें बदल लीं. किसी और से शादी कर ली. तभी मैं ने समझा कितना स्वार्थी, कितना संकीर्ण होता है यह प्यार.

‘‘मैं ने तो विक्रम की शक्ल नहीं देखी थी. देखने में बिलकुल ऐवरेज था. सांवला, मोटा. मैं उस से बहुत खूबसूरत थी. मैं चाहती तो उस की कमियां गिना कर उसे ठुकरा सकती थी. पर मैं ने तो प्यार किया था और उस ने ऐसी चोट दी कि सारे जज्बात ही खत्म कर डाले. तभी से मुझ में एक तरह की जिद आ गई. मैं समझ गई कि जिंदगी में मांगने पर कुछ नहीं मिलता. मुझे जो चाहिए होता वह जबरदस्ती दूसरों से छीनने लगी. खुद को कमजोर महसूस नहीं कर सकती मैं. किसी की सहानुभूति भरी नजरें भी नहीं चाहिए. न ही किसी का इनकार सह पाती हूं. यही जिद मेरे व्यवहार में नजर आने लगा है. और शायद यही वजह है कि मैं 35 की हो गई पर शादी के नाम से दूर भागती हूं.’’

‘‘यह सब बहुत ही स्वाभाविक है शबनम. पर सच तो यह है कि विक्रम का प्यार मैच्योर नहीं था. वह दिल से तुझ से जुड़ ही नहीं सका था, इसीलिए तुम्हारे रिश्ते का धागा बहुत कमजोर था. वह हलकी सी चोट भी सह नहीं सका. पर अर्पण की आंखों में देखा है मैं ने, वाकई उस के दिल में सिर्फ तुम हो, क्योंकि उस ने सूरत देख कर नहीं, तुम्हारे गुण देख कर तुम्हें चाहा है. इसलिए वह तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ेगा. किसी स्वार्थी इंसान की वजह से खुद को खुशियों से बेजार रखना कहां की अक्लमंदी है?

‘‘शबनम, यदि ठंडी हवा के झोंके सा अर्पण का प्यार तुम्हारे जख्मों पर मरहम लगा सकता है, तो दिल की खिड़कियां बंद कर लेना सही नहीं.’’

‘‘मैं कैसे मान लूं कि अर्पण का प्यार सच्चा है, स्वार्थी नहीं.’’

‘‘ऐसा कर, उसे हर बात बता दे. फिर देख, वह क्या कहता है. मैं जानती हूं, उस का जवाब निश्चित रूप से हां होगा.’’

शबनम ने उसी वक्त फोन उठाया और बोली, ‘‘ठीक है, यह भी कर के देख लेती हूं. अभी तेरे सामने बताती हूं उसे सब कुछ.’’

फिर उस ने फोन मिलाया और स्पीकर औन कर बोली, ‘‘अर्पण, मैं तुम से बात

करना चाहती हूं अभी, इसी वक्त. समय है तुम्हारे पास?’’

‘‘बिलकुल, आप कहिए तो,’’ अर्पण ने जवाब दिया.

‘‘अर्पण, तुम्हारे दिल की बात नेहा ने मुझ तक पहुंचा दी है. अब मैं अपनी जिंदगी की असलियत तुम तक पहुंचाना चाहती हूं. बस एक हकीकत, जिसे सुन कर तुम्हारा सारा प्यार काफूर हो जाएगा…’’

‘‘ऐसा क्या है शबनमजी?’’

‘‘बात यह है कि मेरे पूरे शरीर पर सफेद दाग हैं, जो ठीक नहीं हो सकते. गले पर, पीठ पर, बांहों पर और आगे… हर जगह. अब बताओ, क्या है तुम्हारा फैसला?’’

‘‘फैसला क्यों बदलेगा शबनमजी? और दूसरी बात यह कि किस ने कहा दाग ठीक नहीं हो सकते? मेरे अंकल डाक्टर हैं, उन्हें दिखाएंगे हम. वक्त लगता है, पर ऐेसे दाग ठीक हो जाते हैं. मान लीजिए, ठीक न हुए तो भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि मैं आप को चाहता हूं. कमियां तो मुझ में भी हैं, पर उस से क्या? एकदूसरे को अपनाने का मतलब एकदूसरे की खूबियों और कमियों को स्वीकारना ही तो होता है. कल को मेरे शरीर पर कुछ हो जाए या मुझे कोई बीमारी हो जाए तो क्या आप मुझे छोड़ देंगी? नहीं न शबनमजी, बताइए? मेरी मम्मी पास ही बैठी हैं, उन्होंने सब कुछ सुन लिया है और उन की तरफ से भी हां है. आप बस मेरा साथ दीजिए. आप नहीं जानतीं, मैं ने बहुत कुछ सीखा है आप से. आप मेरे साथ रहेंगी तो मैं खुद को बेहतर ढंग से पहचान सकूंगा. जी सकूंगा अपनी जिंदगी. आई लव यू…’’

शबनम ने मेरी तरफ देखा. मैं ने उस से हां कहने का इशारा किया तो वह धीरे से बोल उठी, ‘‘आई लव यू टू…’’

फिर शबनम ने तुरंत फोन काट दिया और मेरे गले लग कर रोने लगी. मैं जानती थी. आज उस की आंखें भले ही रो रही हों पर दिल पहली दफा पूरी तरह प्यार में डूबा मुसकरा रहा था.

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