नशा: भाग 3- क्या रेखा अपना जीवन संवार पाई

रेखा ने बात जारी रखी, ‘‘सोचती थी देवेश को दिखाऊंगी तो गर्व करेंगे पत्नी पर. शादी के बाद जब मैं ने अपनी रचनाओं तथा पुस्तकों का उन से जिक्र किया तो वे बोले, ‘छोड़ो ये सब, मुझे तो तुम में रुचि है. ये आंखें, ये गुलाबी कपोल, खूबसूरत देह मेरे लिए यही कुदरत की रचना है.’

‘‘‘छोड़ो सब बेकार के काम, तुम्हारे लिए एक अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ता हूं. समय भी कट जाएगा और बैंक बैलेंस भी बढ़ेगा.’

‘‘मैं समझ गई कि देवेश की सोच का दायरा बहुत सीमित है. उस वक्त मैं चुप रह गई. हालांकि उन की बात मेरे लिए बहुत बड़ा आघात थी. लेकिन अपने को रोक पाना मेरे लिए मुश्किल था. मेरा अंदर का लेखक तड़पता था.

‘‘छिपछिप कर कुछ रचनाएं लिखीं, भेजीं और छपी भी थीं. छपी हुई रचनाएं जब देवेश को दिखाईं तो वे मुझी पर बरस पड़े, ‘यह क्या पूरी लाइब्रेरी बनाई हुई है. लो, अब पढ़ोलिखो…’ इन्होंने मेरी किताबों को आग के हवाले कर दिया.

‘‘मेरी आंखों में खून उतर आया लेकिन चुप रही. आप बताइए जो व्यक्ति जनून की हद तक किसी टेलैंट को प्यार करता हो, उस का जीवनसाथी ऐसा व्यवहार करे तो परिणाम क्या होगा?

‘‘सपना था मेरा प्रथम श्रेणी की लेखिका बनने का, पर वह बिखर गया. हताश हो मैं ने इस बंडल को इस स्टोर में डाल फेंका.

‘‘पति के जरमनी जाने के बाद कई बार सोचा कि फिर से शुरू करूं, अकेलापन दूर करने का यही एक साधन था मेरे पास. लेकिन इसी बीच दीपा से मेरा संपर्क हुआ. और मैं नशे में डूबती चली गई. अब तो पढ़नेलिखने का जी ही नहीं करता. अम्माजी, यह है इस बंडल की कहानी.’’ रेखा की आंखें डबडबा गई थीं.

अम्माजी को लगा कि आज पहली बार उस ने नशे की बात को स्वीकारा है. निश्चय ही जो यह कह रही है, वह सच है. जरा भी मिलावट नहीं है. और बेटे देवेश के लिए जो इस ने कहा, वह भी सच ही होगा. सुन कर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि शुरू से देवेश को सिर्फ पैसे से प्यार है. पैसे के अभाव में उस ने मुश्किल के दिन देखे हैं, सो, उस के जीवन का मकसद सिर्फ पैसा कमाना है.

इस के अलावा यह हो सकता है कि आघात पाने के बाद, रेखा ने सोचा हो, शराब में अपने को डुबो कर वह पति से बदला लेगी. या शायद अकेलेपन से घबरा कर उस ने यह रास्ता अपनाया हो.

यह तो अम्माजी को पता था कि एक बार बच्चे को ले कर दोनों में काफी खींचातानी हुई थी. देवेश बच्चा नहीं चाहता था, ‘जब तक घर अपना नहीं होगा मैं बच्चा नहीं चाहता.’ जबकि रेखा का कहना था, ‘बच्चा घर में होगा तो मैं व्यस्त रहूंगी, खालीपन मुझे काटने को दौड़ता है.’ जो भी हो, इस वक्त तो कोई रास्ता निकालना ही पड़ेगा कि जिस से रेखा के पीने की आदत पर रोक लग सके.

यहां मैं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पति की उस के टेलैंट के प्रति उपेक्षा सब से बड़ा कारण है. उत्साह व बढ़ावा देने की जगह देवेश ने उस की मानसिक जरूरत पर ध्यान नहीं दिया है, बस उसी का परिणाम ‘पीना’ लगता है. यह सोचतेसोचते अम्माजी ने एक बार फिर बड़े प्यार से उस से कहा, ‘‘बेटा, तुम मेरे साथ इरा के घर चलोगी? बड़ी समझदार महिला हैं, साथ ही मेरी बचपन की सहेली भी. वे तुम से मिलने को उत्सुक हैं.’’

‘‘ठीक है, चलती हूं.’’

कुछ देर बाद दोनों इरा के सामने थीं. वह इरा को देख कर अवाक थी. ये तो इतनी जबरदस्त लेखिका हैं, इन से तो लोग मिलने के लिए लाइन लगा कर खड़े होते हैं. ये मुझ से मिलना चाहती थीं. लोग अपनी पुस्तक के लिए इन से दो लाइनें लिखाने को घंटों इंतजार करते हैं. अम्माजी ने रेखा का परिचय कराया तो रेखा कहे बिना न रह सकी, ‘‘इराजी को कौन नहीं जानता, सारे साहित्य जगत में इन के लेखन की धूम है.’’ तभी अम्माजी ने वह बंडल इरा की मेज पर रखा, ‘‘इरा, मैं ने तुझे बताया था कि मेरी बहू भी लिखती है.’’

‘‘हां, बताया था.’’

‘‘ये हैं इस की कुछ रचनाएं और कुछ पुस्तकें.’’

रेखा लगातार इरा को देख रही थी. इरा रेखा की रचनाओं को पढ़ रही थीं. पढ़ने के बाद मुसकरा कर बोलीं, ‘‘अद्भुत. मैं हैरान हूं इतनी सी उम्र में, इतना सुंदर शब्द चयन, विषय चयन, और प्रस्तुति. मैं ने तो कितनी ही किताबें छपवाई हैं पर ऐसी रचनाएं… वाह.

‘‘बेटा, इस को आप मेरे पास छोड़ जाओ. कल तुम्हें फोन पर डिटेल बताऊंगी. फिर भी अल्पना, मैं यह भविष्यवाणी करती हूं कि ऐसे ही ये लिखती रही तो एक दिन ये उभरती हुई रचनाकारों की श्रेणी में उच्चतम स्तर पर होगी.’’

इरा से मुलाकात के बाद सासूमां के साथ रेखा लौट आई. रेखा को रास्ते भर यही लगा कि इराजी अभी भी वही वाक्य दोहरा रही हैं, ‘ऐसे ही ये लिखती रही…’

घर पहुंच कर वह अपने मन को टटोलती रही थी. यह कैसी भविष्यवाणी थी जिस ने उस के मन में खुशियां और उत्साह के फूल बरसाए थे. इतनी बड़ी लेखिका के मुंह से ऐसी तारीफ. सपने में भी वह आज की मुलाकात के मीठे सपने देखती रही थी.

सुबहसवेरे, आज उस ने अटैची में रखी कुछ और रचनाओं को निकाला था. उन्हें भी ठीकठाक कर के मेज पर छोड़ा था. तभी फोन की घंटी बज उठी-

‘‘मैं इरा बोल रही हूं. कल आप जिन रचनाओं को छोड़ गई थीं उन्हें मैं ने एक पुस्तक के रूप में सुनियोजित करने को दे दी हैं. पुस्तक का नाम मैं अपने अनुसार रखूं तो आप को आपत्ति तो नहीं होगी?’’

‘‘नहीं मैम, नहीं, कभी नहीं.’’

‘‘हां, एक बात और, साहित्यकार मीनल राज और प्रिया से इन कविताओं के लिए दो शब्द लिखवाने का निश्चय हम ने किया है. बाकी मिलोगी, तो बताऊंगी.’’

उसे लगा वह सपना देख रही है- मीनल राज और प्रिया, इतने दिग्गज लेखक हैं दोनों. खुशी उस के अंगअंग से फूट रही थी. वह बैठेबैठे मुसकरा रही थी.

‘‘अरे, क्या हुआ? किस का फोन था?’’ अम्माजी ने पूछ ही लिया, ‘‘इतनी क्यों खुश है?’’

‘‘वो, इरा मैम का फोन था. वे कह रही थीं…’’ उस ने सारी बात सासूमां को बताई.

उस के चेहरे पर थिरकती प्रसन्नता इस बात का सुबूत थी कि वह इसी की तलाश में थी. और उस ने रास्ता पा लिया है अपने खोए जनून और टेलैंट के लिए.

इस के बाद वह कई बार इरा मैम के पास गई. कभीकभी सारा दिन उन की लाइब्रेरी में पढ़ती रहती. पुस्तकों व रचनाओं को ले कर इरा मैम से विचारविमर्श करती.

इस बीच, दीपा कई बार उस के घर आई पर रेखा की सासू मां ने कहा, ‘‘बेटा, वह अब तुम्हारे चंगुल में कभी नहीं फंसेगी, जाओ…’’

2 महीने बाद, रेखा को एक लिफाफा मिला. उस में 20 हजार रुपए का एक ड्राफ्ट था और एक पत्र भी. पत्र में लिखा था-

‘‘प्रिय रेखा,

‘‘तुम्हारी 2 पुस्तकों के प्रकाशन कौपीराइट की कीमत है, स्वीकार लो. अगले महीने हम और तुम जयपुर पुस्तक मेले में जा रहे हैं.

‘‘एक और खुशखबरी है, समीक्षा हेतु तुम्हारी दोनों

पुस्तकों को कुछ पत्रपत्रिकाओं में भेजी है. ये पत्रिकाएं भी तुम्हारे पास जल्द ही पहुंचेंगी.

‘‘शुभकामनाओं सहित

इरा.’’

ड्राफ्ट देख उस की बाछें खिल गईं. ‘अम्माजी के हाथ में दूंगी, यह उन की मेहनत का फल है.’ यह सोच कर रेखा पीछे मुड़ी तो पाया, उस के हाथ में ड्राफ्ट देख अम्माजी मुसकरा रही थीं, ‘‘मिल गया ड्राफ्ट?’’

‘‘आप को कैसे पता?’’

‘‘कल शाम को इरा का फोन आया था. उस ने मुझे इस ड्राफ्ट के बारे में बताया था.’’

वे अभी भी मुसकरा रही थीं, शायद अपनी जीत पर.

‘‘लेट्स सैलीब्रेट, अम्माजी,’’ रेखा की खुशी देखते ही बनती थी.

‘‘अरे, आज तो खुल जाए बोतल,’’ अम्माजी ने चुटकी ली.

‘‘छोड़ो अम्माजी, जितना नशा मुझे आज चढ़ा है इस ड्राफ्ट से, उतना बोतल में कहां? आज हम दोनों डिनर बाहर करेंगे, आप की प्रिय मक्की की रोटी और सरसों का साग. साथ में…’’ वह अम्माजी की ओर देख रही थी. ‘‘मक्खन मार के लस्सी…’’ अम्माजी ने उस की बात पूरी की और खुशी से बहू को सीने से लगा लिया.

औकात से ज्यादा: सपनों की रंगीन दुनिया के पीछे का सच जान पाई निशा

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नशा: भाग 1- क्या रेखा अपना जीवन संवार पाई

‘‘अम्माजी, ऐसा कभी नहीं हो सकता. आप मेरी मां हैं, मैं आप की बात पर विश्वास करूंगा. किंतु लगता है आप को गलतफहमी हुई है. रेखा शराब पीने लगी है, यह कैसे मान लूं, मैं.’’

‘‘बेटा, तेरे घर में तूफान आया है. और मैं तेरी मां हूं. यदि तेरे घर को तबाह करने वाले तूफान की आहट न पा सकूं तो मुझ से बढ़ कर मूंढ़ कौन होगा. बस, मैं तो यही कहती हूं, जल्दी से जल्दी इंडिया आ जा और तूफान से होने वाली तबाही को रोक ले.’’

बेटे देवेश से बात कर के अम्माजी ने फोन रख दिया था. ‘देवेश आज यहां नहीं है, तो मेरा तो कर्तव्य है कि उस के घर के तिनके बिखरने से पहले उन्हें बचा लूं,’ सोचतेसोचते अम्माजी वहीं सोफे पर लेट गई थीं. बड़े आश्चर्य की बात है कि रेखा पीती है, वे जानती न थीं. वह तो सोसायटी के गेट पर बैठे चौकीदार ने सुबह बताया था, ‘माताजी, देवेश बाबू एक शरीफ और समझदार व्यक्ति हैं.

2 साल पहले जब वे विदेश जा रहे थे तो कहा था कि घर तुम पर छोड़ कर जा रहा हूं, मुझे यह भी याद है कि उन्होंने आप का फोन नंबर भी दिया था, कहा था कि जरूरत पड़े तो अम्माजी को सूचित कर देना. इसीलिए बता रहा हूं, मैम का देर से घर आना ठीक नहीं लगता. आप तो बुजुर्ग हैं. मैम आप की बहू हैं, कहते शर्म आती है. अच्छा हुआ जो आप आ गई हैं संभाल लेंगी.’ सुन कर अम्माजी सन्न रह गई थीं. चुपचाप फ्लैट पर आ गई थीं.

सुबह का समय था, रेखा घर में नहीं थी. ‘‘मैम तो सुबह निकल जाती हैं. देररात तक वापस आती हैं. मैं तो नौकरानी हूं, क्या कहूं? अच्छा हुआ आप आ गई हैं. अम्माजी, मैं अब यहां नहीं रहूंगी. आप ही ने मुझे यहां भेजा था, आप से ही छुट्टी चाहती हूं. बस, यह नशे की लत है ही बुरी. छोटा मुंह बड़ी बात. यदि झूठ बोलूं तो फूफी को सौ जूती मार लो…’’ नौकरानी फूफी ने भी जब चौकीदार की बात को दोहराया तो उन्हें लगा कि यहां हालात सचमुच ठीक नहीं हैं.

नौकरानी फूफी आगे बोली, ‘‘अम्माजी, बैठो, खाना तैयार है. मूली के परांठे बनाए हैं.’’ अम्माजी बड़ी अनमनी सी बोलीं, ‘‘छोड़ो फूफी, मन नहीं कर रहा. अभी तो बहू का इंतजार कर रही हूं. आज तो शनिवार है, जल्दी आ जाएगी.’’ वे सोफे पर बैठ गईं और अतीत में खो गईं.

देवेश और राकेश अम्माजी के 2 बेटे हैं. जब उन के पति की मृत्यु हुई थी तो दोनों की उम्र 12 वर्ष और 10 वर्ष थी. अम्माजी का वैसे तो नाम अल्पना है पर उन की समझदारी और सोच को देख पूरा महल्ला उन्हें अम्माजी कहता था. पति के न रहने पर उन्होंने बड़ी मुसीबतों में दिन काटे हैं. सब याद है उन्हें.

हरियाणा के छोटे से गांव में स्कूल की छोटी सी नौकरी थी. उसी में सारा गुजारा करना होता था. सो, बच्चों को भी कंजूसी से चलने की आदत थी.

अम्माजी ने दोनों बच्चों को इंजीनियर बनाया था. कितनी परेशानी से वे पढ़े थे, अम्माजी से ज्यादा कौन जानता था. फिर दोनों का विवाह भी किया था उन्होंने ही. ‘‘अम्माजी, खाना टेबल पर लगा दिया है,’’ नौकरानी की आवाज सुन कर वे वर्तमान में लौटीं.

अम्माजी 60 की होने वाली थीं. रिटायर होने के बाद देवेश के साथ रहने की सोच रही थीं. देवेश की शादी को 2 वर्ष बीते तो उसे कंपनी की तरफ से एक प्रोजैक्ट के लिए जरमनी जाना पड़ गया. 3 वर्षों का कौन्ट्रैक्ट था. पैसे भी अच्छे मिल रहे थे. ऐसे सुअवसर को देवेश छोड़ना नहीं चाहता था. देवेश के जाने के कुछ दिनों पहले रेखा ने भी एक नौकरी जौइन कर ली थी. औफिस, उस के घर से काफी दूर था.

एक दिन उस के एक सहयोगी ने कहा, ‘‘रेखा, यहीं औफिस के करीब सोसायटी फ्लैट है, चाहो तो किराए पर ले सकती हो. इतनी दूर आनंद विहार से द्वारका आनाजाना आसान नहीं है. आनंद विहार के फ्लैट सुंदर व सस्ते भी थे. कम किराए में सुंदर फ्लैट. अम्माजी, देवेश और रेखा तीनों को अच्छा लगा.

देवेश के जरमनी जाने से पहले घर बदल भी लिया था. एक रोज देवेश ने रेखा से कहा, ‘यह फ्लैट छोटा है पर गुजारे लायक है. जरमनी से लौटूंगा तो मैं काफी पैसा बचा लूंगा. 50 लाख रुपए के लगभग मेरे पास होंगे, तब मैं अपना फ्लैट खरीद लूंगा.’ ‘ठीक कहते हैं आप, दिल्ली में हमारा अपना मकान होगा. लोगों का यह सपना होता है. हमारा भी यह सपना है,’ रेखा बोली थी.

दरअसल, देवेश ने इस प्रोजैक्ट के लिए हामी भरी ही इसलिए थी. वह बरसों पहले देखा ‘अपना घर’ का सपना पूरा करना चाहता था. इसलिए एकएक पैसा इकट्ठा कर रहा था. बेशक, 3 वर्षों के लिए पत्नी से दूर होना पड़े, पर यही एक रास्ता था. यह बात रेखा भी जानती थी.

देवेश जरमनी चला गया. शुरू में रेखा को खालीपन लगता था. अकसर अम्माजी आ जाती थीं. पर उन की उम्र ढल रही थी. सो, आनाजाना आसान न था. महीनों गुजर जाते. बस, फोन पर सासबहू एकदूसरे का हाल ले लेतीं. रेखा एक समझदार लड़की है. आज तक सासबहू में तूतूमैंमैं कभी नहीं हुई. अम्माजी यहां आ कर पैर फैला कर सोती हैं. इस पर फूफी नौकरानी हमेशा कहती, ‘अच्छी बहू मिली है, अम्माजी.’ उसी फूफी के मुंह से यह सब सुन कर उन का मन खिन्न हो गया. तभी दरवाजे की घंटी बजी. अम्माजी ने समय देखा कि रात में पूरे 12 बजे थे. दिमाग घूम गया.

‘‘अरे फूफी, देखो, लगता है रेखा आ गई है.’’

‘‘हां, वही है.’’

अम्माजी को ड्राइंगरूम में बैठा देख वह सहम गई. ‘‘अम्माजी, आप?’’ उस ने खुद ही महसूस किया कि उस की आवाज लड़खड़ा रही है.

‘‘बहू, इतनी देर?’’

‘‘वह, मेरी सहेली की बेटी का जन्मदिन था. सो, लेट हो गई.’’ उस ने झूठ बोला था. अम्माजी जानती थीं. पर कुछ भी न कहा सिवा इस के, ‘‘अच्छा, हाथमुंह धो ले, मैं तेरे इंतजार में भूखी बैठी हूं.’’

वह हड़बड़ा कर बाथरूम में घुस गई थी. शावर लेते हुए वह सोचने लगी, कुछ देर पहले नशे में धुत्त थी. टैक्सी में बैठी बार वाली उस घटना पर हंस रही थी- नंदिनी और एक शराबी कैसे दोनों लिपटे हुए एकदूसरे को चूमचाट रहे थे. बाकी लोग तालियां बजा कर तमाशा देख रहे थे.

एक शराबी उस को खींच कर नाचने के डांस?फ्लोर पर ले आया. वह शर्म से पानीपानी हो गई थी. मौका ताड़ कर वह भाग कर बार से बाहर आ गई. नशा उतर रहा था, जो टैक्सी मिली, बैठ कर घर आ गई. अच्छा हुआ जो निकल आई, पता नहीं, शायद अम्माजी को शक हो गया है या उसे यों ही लग रहा है. और वह सोसायटी के गेट पर बैठा मुच्छड़ चौकीदार, गेट खोलते समय ऐसे घूर रहा था, जैसे कह रहा हो, ‘मैडमजी, आज तो बड़ी जल्दी घर लौट आईं.’

नहाधो कर वह काफी हलका महसूस कर रही थी. टेबल पर अम्माजी उस का इंतजार कर रही थीं.

‘‘बेटा, देवेश का फोन आया था. बता रहा था प्रोजैक्ट 6 महीने पहले खत्म हो रहा है. वह शायद इसी साल के दिसंबर में आएगा. और मैं भी दिसंबर में रिटायर हो कर तुम लोगों के पास रहूंगी.’’

‘देवेश जल्दी आ रहे हैं’ सुन कर रेखा के मन में खुशी की तरंग दौड़ गई. पर, अम्माजी हमारे साथ हेंगी, यह तो कभी सोचा भी न था.

‘‘अभी मैं 15 दिनों की छुट्टी ले कर आई हूं,’’ अम्माजी ने बरतन समेटते हुए सूचना दी थी. यानी 15 दिन अभी रहेंगी. उस के बाद रिटायर हो कर भी यहीं हमारे पास रहेंगी. इस का मतलब वह इन 15 दिनों तक डिं्रक से दूर रहेगी. और जब अम्मा यहां रहने आ जाएंगी तो फिर उस के पीने का क्या होगा? यही सब सोच रही थी रेखा.

वह डाइनिंग टेबल से उठ कर बिस्तर पर लेट गई और सोचने लगी, यह उसे क्या हो गया है ? उस की हर बात ड्रिंक से जुड़ी होती है. पीने के अलावा वह कुछ सोचती ही नहीं. अगर अम्माजी को पता लग गया, मैं क्लब जाती हूं, पीती हूं, तो क्या होगा? यह कैसा शौक पाल बैठी मैं?

बड़ा अजीब सा संयोग था जब दीपा ने उसे औफर दिया था, ‘तुम अकेली हो, तुम्हारे पति बाहर हैं, कैसे वक्त काटती हो?’

‘फिर क्या करूं खाली समय में?’ उस ने अचकचा कर दीपा से पूछा था.

‘अरे, मेरे साथ चलो, भूल जाओगी अकेलापन.’

‘कहां जाना होगा मुझे?’ मासूम सा प्रश्न किया रेखा ने.

‘चलोगी तो जान जाओगी,’ दीपा ने उस के साथ शाम का समय फिक्स किया था.

अंतिम पड़ाव का सुख: क्या गलत थी रेखा की सोच

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अंतिम पड़ाव का सुख- भाग 3: क्या गलत थी रेखा की सोच

‘सुधीर, धैर्यपूर्वक मेरी बात सुनो. और लता, तुम भी गौर करो,’ मैं बोलने लगी, ‘देखो, तुम ने हमेशा अपनी मां को सिर्फ ‘मां’ के रूप में ही देखा है, पर कभी तुम ने यह भी सोचा है कि वे मां होने के साथसाथ एक औरत भी हैं. कभी तो उन्हें इस नजर से भी देखना चाहिए. एक औरत की कुछ भावनाएं होती हैं. उन्होंने मां की जिम्मेदारी तो पूरी तरह निभा दी है. अब अगर वे एक औरत के रूप में जीना चाहती हैं तो इस में बुराई क्या है?’

‘अगर उन्हें किसी मर्द की जरूरत थी तो पहले ही विवाह कर लेतीं. अब इस उम्र में यह सब करना क्या ठीक है?’ लता कुछ रुष्ट होते हुए बोली.

‘अगर पहले विवाह कर लेतीं तो आज सुधीर की दशा कुछ और ही होती. लता, समझने की कोशिश करो. तुम भी एक औरत हो. मर्द हो या औरत, जवानी के दिन तो फिर भी निकल जाते हैं, पर प्रौढ़ावस्था में ही एकदूसरे की जरूरत महसूस होती है. हो सकता है, यही जरूरत उन दोनों को करीब लाई हो. जवानी तो संघर्षों के कारण बीत गई, पर अब जब सुधीर भी अपने पद पर स्थायी हो गया है, सुमन भी अपनी हमउम्र सहेलियों के साथ व्यस्त हो गई है तो अकेलापन तो तुम्हारी मां को ही महसूस होता होगा.’

‘तुम बेकार की बातें कर रही हो,’ सुधीर बोला, ‘दुनिया क्या कहेगी कि जवान बेटी घर पर बैठी है और मां की शादी हो रही है.’

‘कभी तो समाज का भय छोड़ कर अपने प्रियजनों के हित के बारे में सोचने की आदत डालो. समाज का क्या है, वह तो राई का पहाड़ बना देता है, शादी हो जाने के बाद कोई कुछ नहीं कहेगा. अगर कोई कहेगा तो थोड़े दिन बोलेगा, फिर अपनेआप ही सब चुप हो जाएंगे.’

‘लोग चुप नहीं होंगे, उलटे, सुमन की शादी करनी मुश्किल हो जाएगी.’

‘ठीक है, तुम्हें अगर सिर्फ यही फिक्र है तो सुमन की शादी के बाद सोच लेना. उस व्यक्ति से बात तो कर के देखो.’

‘उस का नाम मत लो. उस को देखते ही मुझे नफरत होने लगती है. और उसे मैं बाप बोलूंगा, हरगिज नहीं.’

‘मैं मानती हूं कि एकाएक उसे पिता का स्थान देना बहुत कठिन है, पर धीरेधीरे कोशिश करने पर सब सामान्य हो जाएगा. शादी के बाद सप्ताह में एक बार मुलाकात करना, फिर देखना तुम्हारी नफरत कैसे मिट जाती है. अपरिचित व्यक्ति भी कुछ दिन साथ रहने पर अपना लगने लगता है, फिर वह तो कुछ हक भी रखेगा.’

‘हक? मैं उसे कोई हक नहीं देने वाला,’ सुधीर अभी भी अपनी बात पर अड़ा हुआ था.

‘मैं जानती हूं कि हम जिसे प्यार करते हैं, उस पर किसी और की हिस्सेदारी बरदाश्त नहीं कर पाते. पर तुम एक बार अपनी मां के बारे में सोचो, सिर्फ एक बार,’ मैं उसे समझाते हुए बोली.

‘ठीक है, कभी सोचेंगे,’ सुधीर हथियार डालते हुए बोला.

‘अच्छा, मेरी बातों पर गौर करना.’

‘हां, भई हां, तुम्हारी मूल्यवान बातों को मैं कैसे भूल सकता हूं. खैर, कब वापस जा रही हो?’

‘अगले मंगलवार को.’

‘बस, इतने ही दिन?’

‘हां, मेरे पति के चाचा जा रहे हैं, उन का साथ मिल जाएगा.’

‘हम तुम्हें छोड़ने के लिए एयरपोर्ट आएंगे,’ सुधीर ने कहा.

इतने में सुमन के टीचर भी चले गए. फिर हम काफी देर तक बातें करते रहे. करीब 6 बजे मैं घर लौटी.

समय अपनी गति से चल रहा था. मेरे जाने का समय भी आ गया था. भावभीनी विदाई के बाद मैं विमान में चढ़ गई. अपनी गलियों, महल्लों को छोड़ते बहुत दुख हो रहा था. पति के यहां स्थायी रूप से रहने के कारण मुझे भी यहां रहना पड़ रहा था, वरना मन तो हमेशा भारत में ही भटकता रहता था.

सुधीर का यह तीसरा पत्र था. 2 पत्र वह पहले भी भेज चुका था. पहले पत्र में अपनी उन्नति के बारे में लिखा था और दूसरे पत्र में सुमन के विवाह के बारे में.

मैं ने फिर से उस पत्र को गौर से देख कर पढ़ना शुरू किया, जिस में लिखा था:

‘‘प्रिय रेखा,

‘‘असीम याद

‘‘आशा है, तुम पूरी तरह स्वस्थ व सुखी होगी. तुम्हें याद है, एक साल पहले की वह घटना, जब तुम ने मां की शादी करने के लिए लंबाचौड़ा भाषण दिया था.

‘‘आज तुम्हारा दिया हुआ वह भाषण काम आ गया है. तुम्हें जान कर हार्दिक खुशी होगी कि मैं ने मां का विवाह उसी व्यक्ति के साथ संपन्न करा दिया है. तुम सोच रही होगी कि यह सब कैसे हुआ.

‘‘दरअसल, बात यह थी कि सुमन की शादी के बाद मां रूखीरूखी सी रहने लगी थीं. धीरेधीरे उन का स्वास्थ्य गिरने लगा. इधर मैं भी अधिक व्यस्त हो चुका था, इसलिए मां को पूरा वक्त नहीं दे पाया.

‘‘मां की बीमारी के चलते लता भी काफी दुखी रहने लगी. वह मुझ पर जोर देती रही कि रेखा की बात मान लो. फिर मां ने जो बिस्तर पकड़ा तो 3 दिनों तक उठ ही न पाईं.

‘‘वह व्यक्ति भी मां से मिलने आया. पहले तो मुझे थोड़ा गुस्सा आया, पर लता के जोर देने पर मैं ने उस से बात की. वह शादी करने को तैयार हो गया. फिर मैं ने मां का विवाह कोर्ट में जा कर करा दिया. सुमन, उस का पति और जापान से उस व्यक्ति का बेटा भी आया था. मैं तुम्हें बता नहीं सकता कि मां उस दिन कितनी सुंदर लग रही थीं. अंतिम पड़ाव में मिले सुख के कारण वे भावविभोर हो गईं. शर्म के चलते वे मुझ से कुछ कह न पाईं और न ही मैं कुछ बोल पाया.

‘‘जापान से आया उस व्यक्ति का बेटा भी मेरे प्रति कृतज्ञता प्रकट करने लगा. उस ने कहा कि वह अब बेफिक्र हो कर जापान में काम कर सकता है. अब हम हर रविवार को मिलते हैं.

‘‘तुम ने सच ही कहा था कि साथ रहने से अपरिचित व्यक्ति भी अपना लगने लगता है. वास्तव में मुझे अब वे अच्छे लगने लगे हैं. उन की गंभीर बातें मेरे दिलोदिमाग में उतर जाती हैं. वे हमारा पूरा खयाल रखते हैं. अगर हम किसी दूसरे को पलभर के लिए भी खुशी दे सकें तो उस से बढ़ कर दूसरा कोई सुख नहीं, फिर मां तो मेरी अपनी ही हैं.

‘‘मेरा लंबाचौड़ा खत पढ़ कर शायद तुम बोर हो गई होगी. पर मैं और लता तुम्हारे प्रति हमेशा कृतज्ञ रहेंगे. जो कुछ तुम ने किया, उस के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.

‘‘तुम्हारा दोस्त,

‘‘सुधीर.’’

पत्र मेज पर रख मैं आंखें मूंद कर लेट गई. मुझे खुशी थी कि मैं अपनी जिंदगी में कम से कम एक व्यक्ति को तो सच्ची खुशी प्रदान कर सकी.

जाने क्यों लोग: क्या हुआ था अनिमेष और तियाशा के साथ

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अंतिम पड़ाव का सुख- भाग 2: क्या गलत थी रेखा की सोच

घर पहुंच कर उस ने अपनी भाभी से मेरा परिचय कराया. उस का नाम लता था. वह भी सुंदर थी, साथ ही सलीकेदार व्यवहार के कारण कुछ ही क्षणों में मुझ से घुलमिल गई.

मैं पूछना तो नहीं चाहती थी, पर रहा न गया. इसीलिए उस की भाभी से पूछ बैठी, ‘मौसीजी कहां हैं?’

‘वे बाजार गई हुई हैं,’ लता मुसकराती हुई बोली.

इतने में दरवाजे की घंटी बजी. लता एक झटके के साथ खुशीखुशी उठ खड़ी हुई. ‘शायद वे आ गए’ इतना कह कर वह दरवाजा खोलने चली गई.

‘रेखा, तुम?’ अपना नाम सुन कर सामने देखा.

‘सुधीर, तुम?’ सामने सुधीर को देख हैरान हो गई.

‘ये मेरे भैया हैं,’ सुमन परिचय कराते हुए बोली, ‘और सुधीर भैया, ये शीबा की बड़ी बहन हैं.’

‘तो तुम मेरी पड़ोसिन हो?’ सुधीर लता को ब्रीफकेस थमाते हुए बोला.

‘मैं नहीं, तुम मेरे पड़ोसी हो, क्योंकि बाद में तुम आए

हो. हम तो पहले से ही यहां रहते हैं.’

‘पर मैं ने सुना था, तुम्हारी शादी हो गईर् है और विदेश चली गई हो,’ सुधीर सोफे पर बैठता हुआ बोला.

‘जी हां, आप ने ठीक सुना. अभी महीनेभर से पीहर आईर् हुई हूं. पर, तुम्हें मेरे बारे में कैसे मालूम?’

‘भई, हम तो सभी दोस्तों के बारे में खबर रखते हैं. स्वार्थी तो लड़कियां होती हैं. जहां अपना सुख देखती हैं, वहीं चली जाती हैं. यहां तक कि मांबाप को भी छोड़ देती हैं.’

‘अच्छाअच्छा, अब चुप हो. लड़कियों की अपनी मजबूरियां होती हैं.’

‘हां भई, सारी मजबूरियां तो औरतों की ही होती हैं.’

‘बाप रे, आप लोगों ने तो लड़ना शुरू कर दिया,’ लता बोली, ‘आप लोग एकदूसरे को कैसे जानते हैं?’

‘हम दोनों एक ही कालेज में पढ़े हुए हैं,’ सुधीर उत्तर देते हुए बोला.

इतने में एक शख्स के आने से सुमन बोली, ‘दीदी, आप बातें करिए, मेरे तो टीचर आ गए. मैं पढ़ने जा रही हूं.’

मैं ने सिर हिला कर उसे स्वीकृति दे दी. फिर लता की ओर मुखातिब होते हुए बोली, ‘जानती हो, हम बिना झगड़े एक दिन भी नहीं बिता पाते थे.’

‘तुम्हारा अन्न जो हजम नहीं होता था,’ सुधीर हंसते हुए बोला.

‘पर तुम यहां कैसे?’

‘तुम तो जानती ही हो, मैं होस्टल में रह कर यहां पढ़ाई कर रहा था. बीकौम के बाद मैं ने सीए करना शुरू कर दिया. साथ ही एक बैंक में नौकरी भी

मिल गई. बस, मैं ने सब को यहीं बुलवा लिया. हमारी शादी को भी अभी 6 महीने ही हुए हैं. अब मुझे क्या मालूम था कि मैं तुम्हारे ही पड़ोस में रह रहा हूं.’

‘लता, मालूम है, सब सुधीर को ‘मां का भक्त’ कह कर पुकारते थे,’ मैं

उस की ओर देखते हुए बोली, ‘यह हमेशा कहता था कि मां जैसी ही पत्नी मुझे मिले.’

‘पर मैं तो उन जैसी नहीं हूं,’ लता ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा.

मुझे अपने ऊपर ही गुस्सा आया कि उस की मां के बारे में क्यों वार्त्तालाप छेड़ दिया.

लेकिन सुधीर ने बात संभालते हुए कहा, ‘तुम ने मेरी मां को देखा है?’

‘हां, एक दिन छत पर देखा था,’ मैं सामान्य स्वर में बोली.

‘तो यह उन की तरह ही सुंदर है कि नहीं.’

‘हां, है तो,’ मैं ने कहा.

लता अपनी तारीफ सुन शरमा गई.

‘इसे भी मां ने ही पसंद किया था, वरना तुम तो जानती ही हो, मेरी पसंद कैसी है,’ सुधीर हंसते हुए बोला.

‘हांहां, जानती हूं. तुम्हारी पसंद एकदम घटिया है.’

‘घटिया है, तभी तो तुम मेरी दोस्त बनीं,’ सुधीर ने चुटकी लेते हुए कहा.

‘क्या मतलब?’ मैं चीखते हुए बोली.

‘भई, आप लोग तो बहुत झगड़ते हैं. अब आराम से बैठ कर बातें करिए, मैं नाश्ता ले कर आती हूं,’ कहते हुए लता रसोई की तरफ चल दी.

लता के जाने के बाद सुधीर नम्रतापूर्वक बोला, ‘तुम लता की बातों का बुरा मत मानना. वह बहुत अच्छी है, पर कभीकभी अपना विवेक खो बैठती है. लेकिन इस में इस का कोई कुसूर नहीं है. परिस्थितियां ही कुछ ऐसी हो गई हैं कि…’

‘क्या बात है, सुधीर, तुम रुक क्यों गए?’

‘तुम ने मां के बारे में कभी कुछ सुना है?’ सुधीर हौले से बोला.

‘हां, सुना तो है,’ मैं नजरें नीची करती हुई बोली, ‘पर विश्वास नहीं हो रहा. तुम तो उन की बहुत तारीफ करते रहते थे कि कितने कष्टों से तुम्हें पालापोसा है.’

‘हां, यह सच है. हम दोनों भाईबहन छोटे थे, तभी पिताजी का देहांत हो गया. सभी रिश्तेदार पुनर्विवाह के लिए मां पर जोर देते, पर उन्होंने दृढ़तापूर्वक इनकार कर दिया था. सिलाई कर कर उन्होंने हमें पालापोसा. हमें अच्छी शिक्षा भी दिलाई. हम उन का सम्मान भी बहुत करते हैं, पर इन दिनों…’ कहते हुए सुधीर का गला रुंध गया.

‘वह व्यक्ति क्या करता है?’ मैं सीधे सुधीर से पूछ बैठी. कालेज के जमाने में हम काफी गहरे दोस्त थे, कोई बात एकदूसरे से छिपाते न थे.

‘व्यापारी है. यहीं अगले मोड़ पर उस की दुकान है. उस को देखता हूं तो खून खौल उठता है. जी तो चाहता है, उस का खून कर दूं, पर परिवार की तरफ देख मन मसोस कर रह जाता हूं,’ वह गुस्से से बोला.

‘उस के बच्चे भी होंगे?’

‘हां, एक है. पर वह भी जापान में बस गया है. वहीं उस ने शादी कर ली है.’

‘क्या मां के व्यवहार में भी कुछ बदलाव हुआ है?’

‘नहींनहीं, उन का व्यवहार हमारे प्रति पहले जैसा ही है. बदलाव तो हमारे दिलों में हुआ है. यों तो लता भी उन का काफी सम्मान करती है. उन दोनों में कभी अनबन भी नहीं हुई. हम ने शर्म व संकोच के कारण मां से कभी कुछ नहीं कहा, पर यह दिल ही जानता है कि हमारे अंदर क्या बीत रही है.’

कुछ पलों के लिए खामोशी छा गई. फिर मैं बोली, ‘तुम मां की शादी उस व्यक्ति से क्यों नहीं कर देते?’

‘क्या?’ सुधीर सोफे से उछल कर खड़ा हो गया.

‘तुम इतने हैरानपरेशान क्यों हो रहे हो? शांति से बात तो सुनो.’

‘शांति से बात सुनूं?’ सुधीर सिर हिलाते हुए बोला, ‘रेखा, तुम्हारा सिर फिर गया है. अमेरिका जा कर तुम पागल हो गई हो.’

‘इस में पागल होने की क्या बात है?’

‘और नहीं तो क्या? यह भारत है, तुम जानती हो न. यहां पश्चिमी सभ्यता की कोई जरूरत नहीं है.’

‘क्या हुआ, आप इतनी जोर से क्यों बोले?’ लता रसोई से आते हुए सुधीर से बोली.

‘रेखा की बात सुनो,’ सुधीर हाथ उचकाते हुए बोला, ‘कहती है, मां की शादी कर दो.’

‘क्या?’ अब उछलने की बारी लता की थी?

मैं सिर पकड़े थोड़ी देर बैठी रही. जब दोनों चुप हो गए तो मैं बोली, ‘अब थोड़े शांत हुए हो तो मैं कुछ बोलूं?’

‘कुछ क्या, तुम बहुत कुछ बोल सकती हो.’

अंतिम पड़ाव का सुख- भाग 1: क्या गलत थी रेखा की सोच

सुधीर का पत्र न जाने मैं ने कितनी बार पढ़ा होगा. हर बार एक सुखद सुकून का एहसास हो रहा था. फिर अपने वतन से आए पत्र की महक कुछ अलग ही होती है.

भारत से दूर अमेरिका में बसे मुझे करीब 3 साल हो गए. पत्र पढ़ने के बाद मुझे एक साल पहले की घटना याद आ गई जब मैं विवाह के बाद पहली बार भारत अपने पीहर गई थी. सप्ताहभर तो लोगों से मिलनाजुलना ही चलता रहा. रिश्तेदार मुझ से मिलने आते, पर मुझे सादे लिबास में देख कर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते, ‘अरे, तुम तो पहले जैसी ही हो.’

तमाम रिश्तेदारों को आश्चर्य होता कि विदेश जाने के बाद भी मुझ में फर्क क्यों नहीं आया. मैं उन की बातों पर हंस पड़ती, क्या विदेश जाने से अपनी सभ्यता को कोई भूल जाता है. जहां जन्म हुआ हो, वहां के संस्कार तो कभी मिट ही नहीं सकते. अपनी मिट्टी

की महक मेरे मन में इतनी अधिक समाई हुई थी कि अमेरिका में रहते

हुए भी कभी भारत को पलभर भी न भुला पाई.

जब मेलमुलाकातों का सिलसिला कुछ कम हुआ तो एक शाम मैं छत पर टहलने चली गई. हर घर को मैं बड़े गौर से देख रही थी, कहीं कुछ बदलाव नहीं हुआ था. तभी मैं सामने के घर से एक अपरिचित महिला को कपड़े उतारते हुए देखने लगी. इतने में मां भी छत पर आ गईं. मैं उस महिला को देखती हुई उन से पूछ बैठी, ‘सुरेशजी के घर में मेहमान आए हैं क्या?’

‘अब तुम तो 2 साल बाद लौटी हो. तुम्हें इधर की क्या खबर?’ मां कपड़े उतारती हुई बोलीं, ‘सुरेशजी तो सालभर पहले ही यह मकान खाली कर चुके हैं. नए लोग आ बसे हैं. इन की लड़की सुमन हर रोज शीबा के पास आती है. शीबा की अच्छी दोस्ती है. रोज शाम को दोनों मिलती हैं. कभी वह आ जाती है तो कभी शीबा उस के घर चली जाती है,’ फिर वे मेरी ओर देख कर बोलीं, ‘अब नीचे चलो, मैं चाय बना देती हूं.’

‘थोड़ी देर में आती हूं,’ कहते हुए मैं छत पर टहलने लगी.

शीबा मेरी छोटी बहन का नाम है, उसी ने मेरा सुमन से परिचय कराया था. मेरी दृष्टि उस औरत पर ही टिकी रही. उस की उम्र 37-38 वर्ष के करीब होगी, पर सुंदरता अभी भी लाजवाब थी. देखने में अपनी उम्र से वह काफी छोटी लग रही थी. मैं तो उस की लड़की को नजर में रख कर अनुमान लगा रही थी कि जब उस की बेटी बीए में पढ़ रही है तो उस की उम्र यही होनी चाहिए. शायद यह औरत विधवा थी, तभी तो न माथे पर बिंदिया थी, न मांग में सिंदूर और न ही गले में मंगलसूत्र.

तभी पक्षियों का एक झुंड मेरे ऊपर से गुजरा. सुबह के थकेहारे पक्षी अपनेअपने घोंसलों की ओर जा रहे थे. आसमान साफ नजर आ रहा था. तभी मैं ने देखा, एक विमान धुएं की लकीर छोड़ता उड़ा जा रहा है. बच्चे अपनीअपनी पतंगों को वापस खींच रहे थे. सूर्य भी धीरेधीरे डूबता जा रहा था.

मां की आवाज सुन कर मैं सीढि़यां उतरने लगी. नीचे हाल में शीबा और सुमन टीवी देखते हुए पकौड़े खा रही थीं. मैं सुमन की ओर देखते हुए बोली, ‘तुम्हारी मां बहुत खूबसूरत हैं.’

‘हां, हैं, तो,’ सुमन ने बोझिल स्वर में कहा.

थोड़ी देर सुमन बैठी रही. शीबा की बातों का भी वह अनमने ढंग से उत्तर देती रही. कुछ क्षणों के बाद वह शीबा से बोली, ‘मैं घर जा रही हूं.’

शीबा ने उसे रोकने की कोशिश न की. उस के जाने के बाद मैं शीबा से पूछ बैठी, ‘क्या बात है, सुमन बुझीबुझी सी क्यों हो गई?’

‘तुम ने उस का मूड जो खराब कर दिया,’ शीबा ने उत्तर दिया.

‘मैं ने क्या कहा? मैं ने तो उस की मां की तारीफ ही की थी.’

‘तभी तो…’

‘क्या मतलब? अपनी मां की तारीफ से भी कोईर् नाराज होता है क्या?’

‘तुम अगर मां को कुछ नहीं बताओ तो मैं उस की मां के बारे में कुछ बताऊं,’ शीबा मेरे पास आ कर फुसफुसाते हुए बोली.

‘हांहां, बोलो,’ मैं अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पा रही थी.

‘दरअसल, उस की मां का किसी से चक्कर है,’ शीबा हौले से बोली, ‘तुम मां को मत बताना, वरना वे मुझे सुमन से मिलने नहीं देंगी.’

‘मैं कुछ नहीं बताऊंगी. बेफिक्र रहो. पर यह बेसिरपैर की बातें मेरे सामने मत किया करो,’ मैं नाराज होते हुए बोली.

‘मैं सच कह रही हूं. सुमन ने खुद मुझे बताया था.’

‘अच्छा, क्या बताया था?’

‘यही कि उस की मां जब मंदिर जाती हैं तो 2 घंटे तक वापस नहीं आतीं और एक अधेड़ व्यक्ति से बातें करती रहती हैं.’

‘तुम ने कभी देखा है?’

‘मैं ने तो नहीं देखा, पर वही बता रही थी.’

‘और कौनकौन हैं उस के घर में?’

‘एक भाई है, जिस की शादी हो चुकी है. सब इसी घर में साथ रहते हैं.’

फिर मैं ने और अधिक बात बढ़ाना उचित न समझा. सोचा, हर घर में कुछ न कुछ घटित होता ही रहता है.

समय यों ही गुजरता गया. सुमन रोज आती थी. वह घर के सदस्य जैसी थी. मैं ने फिर कभी उस की मां का जिक्र उस के सामने नहीं छेड़ा. थोड़े ही दिनों में वह मुझ से भी काफी घुलमिल गई. मेरे वापस जाने में एक सप्ताह बाकी था. एक दिन मैं ने सोचा कि कुछ खरीदारी कर लूं. मैं शीबा से बोली, ‘चलो, आज बाजार चलते हैं. मुझे कुछ सामान खरीदना है.’

शीबा टैलीविजन देखने में मग्न थी. वह बोली, ‘दीदी, अभी बहुत बढि़या आर्ट फिल्म आ रही है. तुम सुमन को साथ ले जाओ.’

‘जब तुम ही चलने को तैयार नहीं हो तो सुमन कैसे जाएगी. वह भी तो फिल्म देखेगी,’ मैं नाराज होते हुए बोली.

‘नहीं दीदी, मैं चलती हूं,’ सुमन बोली, ‘मुझे आर्ट फिल्में पसंद नहीं. इन में सिर्फ समस्याएं दिखाई जाती हैं, जिन्हें सभी जानते हैं. कोई समाधान बताए तो बात बने.’

शीबा उस की पीठ पर एक मुक्का जमाते हुए बोली, ‘तुझे अच्छी नहीं लगतीं तो ज्यादा बुराई मत कर.’

हम दोनों 4 बजे तक खरीदारी करती रहीं. जब हम लौट रही थीं तो सुमन बोली, ‘दीदी, मेरे घर चलो न.’

‘अभी?’ मैं घड़ी देखते हुए बोली, ‘कल चलूंगी.’

‘नहीं, अभी चलिए न,’ वह जिद सी करती हुई बोली.

‘अच्छा, चलो,’ मैं उस के साथ चल पड़ी.

जाने क्यों लोग- भाग 3: क्या हुआ था अनिमेष और तियाशा के साथ

उस रात न.. न… करने पर भी अनिमेष तियाशा को उस के फ्लैट में छोड़ गए. दूसरे दिन रविवार की छुट्टी थी. सुबह के 8 भी न बजे थे कि दरवाजे पर नितिन को देख कर चौंक गई. जो बीता सो बीत गया कह कर वह चैप्टर बंद करना चाहती थी. नितिन को सामने पा कर दुविधा में पड़ गई. न चाहते हुए भी उसे बैठने को कहना पड़ा. तियाशा भी बैठ गई और सीधे पूछ लिया, ‘‘क्या जरूरत थी यहां आने की? सुना लोग बातें बना रहे हैं?’’

‘‘सुना तो सही है, मैं आता भी नहीं, लेकिन एक काम है.’’

‘‘कहो.’’

‘‘प्लीज तुम पारुल और उस की मां से कह दो कि मेरा इस में कोई हाथ नहीं, तुम ने ही खुद जोर दिया था कि मैं तुम्हारे साथ घूमूंफिरूं.’’

‘‘अरे. यह क्या? क्या साधारण सी दोस्ती को तुम भी इतना कुरूप बनाओगे और पारुल कौन है? कभी तुम ने मुझे बताया नहीं?’’

‘‘पारुल मेरी मंगेतर है. 2 महीने बाद हमारी शादी है इसलिए नहीं बताया था, सोचा था तुम बुरा मान जाओगी.’’

‘‘अरे. बुरा क्यों मानती? क्या तुम भी

वही समझते हो जो लोग बता रहे हैं और अब बता रहे हो क्योंकि पानी सिर के ऊपर से गुजर रहा है? तुम्हीं बताओ नितिन, क्या मैं ने तुम्हें

मेरे साथ उठनेबैठने की जबरदस्ती की है? फिर उन्हें ऐसा क्यों कहूं. मेरा तुस से अन्य कोई

संबंध भी नहीं सिवा एक सामान्य सी दोस्ती के. तुम लोगों के सामने यह तो साबित नहीं करो

कि हम दोनों के बीच कोई अनुचित संबंध है… इस में मैं ने तुम्हे विक्टिम बनाया है. नहीं, मैं ऐसा नहीं कहूंगी.’’

‘‘देखो तियाशा उम्र में तुम मुझ से बड़ी

हो. इसलिए लिहाज कर रहा हूं, तुम्हारा साथ देने की वजह से मैं फालतू बदनाम हो रहा हूं. लोगों की बातें सुनसुन कर पारुल का शक पक्का हो गया है, तुम नहीं कहोगी तो मैं सुगंधा या

मल्लिक से कहलवा लूंगा. तुम्हारे फोन पर मैं

उस का नंबर भेज रहा हूं, बात कर लेना, मेरी शादी अगर कैंसिल हुई तो यह तुम्हारे लिए बहुत बुरा होगा.’’

यद्यपि तियाशा को कुछ भी अच्छा नहीं

लग रहा था, लेकिन जिंदगी जब खुद को ही

दांव पर लगा देती है तो आप को खेलना तो

पड़ता ही है, चाहे इस खेल से निकलने के लिए ही सही.

बड़ी ऊहापोह थी और उस से भी ज्यादा थी गहरी चोट. नितिन का हंसनाबोलना

केयर करना याद आता रहा. पर अब तियाशा क्या करे? अगर नितिन की शादी टूटती है तो इस की जिम्मेदारी उस की होगी और इस के लिए उस के आसपास का समाज उस का दुश्मन बन बैठेगा, लेकिन सब से बड़ी दुश्मन तो होगी वह खुद ही खुद की. उस का धिक्कार उसे एक पल को भी चैन लेने देगा?

उस ने एक झटके में एक निर्णय लिया और अनिमेष को फोन लगाया. कुछ ही देर में औटो पकड़ कर वह रूबी मोड़ के पास अनिमेष के फ्लैट में थी. हलकीफुलकी बातचीत और अनिमेष की ओर से दोस्ती की पहल ने अब तक तियाशा को बहुत हद तक सहज कर दिया था. दोनों ने मिल कर चीज सैंडविच बनाए और रविवार की सुबह निकल पड़े बाबूघाट की ओर. गंगा नदी में बाबूघाट से हावड़ा तक ढेरों स्टीमर चलते हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में फेरी कहा जाता है. इसी फेरी में दोनों आसपास बैठे थे. कुनकुनी धूप जैसे आपसी पहचान में विश्वास का तानाबना बुन रही हो. रविवार होने की वजह से फेरी में

2-4 लोग ही इधरउधर बिखरे बैठे थे.

‘‘हां तो मैडम तियाशा आप ने कहा नितिन की धमकी से आप डरी हुई हैं, सोचिए तो मेरी पत्नी जब मेरी 10 साल की बेटी को छोड़ कर एक मुसलिम कश्मीरी शादीशुदा आदमी के साथ भाग जाती है, जोकि उस के साथ ही काम करता था और इस वजह से मुझे मेरे ब्राह्मण समाज से कठोर धमकी मिलती रही, समाज से मुझे बहिष्कृत कर दिया गया, मैं ने अकेले कैसे खुद को इन चीजों से उबारा? जबकि स्थितियां मेरी नाक के नीचे कब पैदा हुईं मुझे मालूम ही नहीं चला. वह तो भागने के आखिरी दिन तक मुझ से वैसे ही प्रेम और विश्वास से मिलती रही जैसे शुरुआती दिनों में था.

‘‘मैं जहां एक तरफ पत्नी के विश्वासघात और ब्राह्मण समाज के अडि़यल रवैए के दबाव में बुरी तरह टूट चुका था, वहीं दूसरी ओर उस कश्मीरी के अपनी बीवी को छोड़ कर भागने की वजह से उस की बीवी अपने घर वालों को ले कर अकसर मेरे घर पहुंच जाती कि उस के शौहर का पता लगाने में उस की मदद करूं. मुझ पर सब का दबाव था कि मैं अपनी बीवी की तलाश करूं.

‘‘अरे यह रिश्ता अब मैं जबरदस्ती ढो ही नहीं सकता था, बल्कि अपनी बीवी

को कभी देखना भी नहीं चाहता था मैं. इसलिए नहीं कि उस ने किसी और से प्रेम किया, इसलिए कि उसे मेरा प्रेम समझ ही नहीं आया था. मुझ से छिपाया. मुझे एक बार भी मौका नहीं दिया कि मैं उसे फिर से हासिल कर लूं.

‘‘वाकई जब हिस्से में रात आती है तो सूरज न सही चांद तो मिलता ही है और जब इतनी रोशनी मिल जाती है तो जीतने की हिम्मत रखने वाले सुबह होने तक सूरज हासिल कर ही लेते हैं. तो न केवल मैं ने उसे भुलाया, समाज से लड़ी, उस कश्मीरी की बीवी को दिलाशा दिया और आगे अपने पैरों पर खड़े होने के लिए उसे कुछ दिया ताकि वह अपना बुटीक खोल कर अपना खोया आत्मविश्वास लौटा सके. हालांकि उस ने

2 साल के अंदर खुद की कमाई से मेरा कर्ज लौटा दिया और मुझे बड़ा भाई सा मान दे कर मेरे प्रति कृतज्ञता जताई. मैं ने अपनी बेटी को भी पढ़ा लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा कर दिया. हां, यह बात अलग है कि बेटी अब हम से कोई रिश्ता नहीं रखती.’’

‘‘अरे, क्यों?’’

‘‘उस का मानना है कि मुझे उस के लिए ही सही उस की मां को ढूंढ़ना चाहिए था, पर तियाशा आप ही बताओ, वह भागी थी, हम तो वहीं थे, याद करती अगर बेटी को तो संपर्क कर सकती थी न. मुझ से न सही, बेटी से ही. यह थी मेरी सोच, जिसे मैं नहीं बदलूंगा. तो क्या अब इतनी कहानी सुनने के बाद आप फिर भी अपना निर्णय, अपनी जिंदगी लोगों के भरोसे छोड़ेंगी? लोग ऐसे खाली नहीं होते तियाशा जी. जब दूसरों के टांग खींचने की बारी आती है, लोग खुदवखुद फ्री हो जाते हैं.’’

‘‘पारुल को कैफियत देने नहीं जाऊंगी मैं और न ही नितिन की किसी धमकी से डरूंगी. अगर किसी को कुछ पूछना होगा तो वह खुद ही आएगा.’’

‘‘यह हुई न बात. अब एक बात और क्यों न हो जाए.’’

तियाशा अब थोड़ा खिलखिला कर हंस पड़ी.

अनिमेष ने बड़े स्नेह से उस की ओर देखते हुए कहा, ‘‘हमारी इस दोस्ती को एक प्यारे से रिश्ते का नाम देने की मेरी बड़ी तमन्ना है. अगर मैं जल्दीबाजी कर रहा हूं तो खफा मत होना, मैं बहुत सारा समय देने को तैयार हूं.’’

‘‘कौन सा नाम?’’ समझते हुए भी तियाशा शरारत से पूछ कर मुसकराई.

अब तक स्टीमर दूसरे घाट पर आ गया था. अनिमेष ने तियाशा का हाथ पकड़ कर घाट में उतारते हुए कहा, ‘‘यही, जिसे वसंत मंजरी

कहते हैं, पपीहा की पीहू और दिल का मचलना कहते हैं.’’

‘‘पर लोग,’’ मुसकराते हुए थोड़ी सी शंका भरी नजर रख दी तियाशा ने अनिमेष की पैनी आंखों में.

उस की हथेली पर अपना दबाव बनाते हुए अनिमेष ने जवाब दिया, ‘‘कल फिर

लोगों के सामने औफिस में बात पक्की कर

देता हूं.’’

तियाशा के हुए अनिमेष. किसी का कोई सवाल?

तियाशा खिलखिला कर हंस रही थी.

यह सुरमई शाम हंस रही थी, ये गोधूलि की लाली हंस रही थी. डूबता सा सूरज भरोसे की मुसकान दे कर जा रहा था, कल से साथ चलने के लिए.

जाने क्यों लोग- भाग 2: क्या हुआ था अनिमेष और तियाशा के साथ

औफिस आई तो उस के बौस को बुलावा था. तियाशा कैबिन में गई.  बौस अनिमेष, उम्र 45 के आसपास, चेहरे पर घनी काली दाढ़ी, बड़ीबड़ी आंखें, रंग गोरा, हाइट ऊंची… तियाशा ने उन्हें इतने ध्यान से देखा नहीं था कभी.

बौस ने अपने जन्मदिन पर उसे घर बुलाया था, छोटी सी पार्टी थी. औफिस से निकल कर उस ने एक बुके खरीदा और घर आ गई.

किंशुक के जाने के बाद अब तक जैसेतैसे जिंदगी काट रही थी वह. ऐसे भी समाज में कहीं किसी शुभ कार्य में सालभर जाना नहीं होता है. कहते हैं मृत्यु जैसे शाश्वत सत्य के कारण लोगों के मंगल कार्य में बांधा पड़ती है. और बाद के दिनों में? विधवा है. अश्पृश्य वैधव्य की शिकार. अमंगल की छाया है उस के माथे पर. पारंपरिक भारतीय समाज डरता है ऐसी स्त्री से कि क्या पता संगति से उन के घर भी अनहोनी हो जाए. उस पर दुखड़ा रो कर भीड़ जुटाने वाली स्त्री न हो और लोगों को सलाह देने, दया दिखाने का मौका न मिले तो वह तो और भी बहिष्कृत हो जाती है. पड़ोस में कई शुभ समारोह तो हुए, लेकिन तियाशा बुलाई न गई. अकेलापन उस का न चाहते हुए भी साथी हो गया है.

शादी से पहले तियाशा स्वाबलंबी थी. एक प्राइवेट कालेज में लैक्चरर थी. तब की बात कुछ अलग थी, मगर शादी के इन 7 सालों में जैसे वह किंशुक नाम के खूंटे से टंग कर रह गई थी. बाहर जाने के नाम पर किंशुक ने ही तो तनाव भरा था उस में. हमेशा कहता कि अब तुम कहां जाओगी, मैं ही जाता हूं. आखिरी दिनों के दर्दभरे एहसासों के बीच भी कहता कि दवा खत्म हो गई है, थोड़ी देर में मैं ही जाता हूं. काश, किंशुक समझ पाता कि इस तरह उसे आगे अकेले कितनी परेशानी होगी. दुविधा, भय और लोगों से मेलजोल में अपराध भावना हावी हो जाएगी उस की चेतना पर. अब देखो कितनी दूभर हो गई है रोजमर्रा की जिंदगी उस की. न तो खुल कर किसी से दिल का हाल कह पाती है और न ही अनापशनाप सवालों के तीखे जवाब दे पाती है.

नीली जौर्जट साड़ी और पर्ल के हलके सैट के साथ जब वह निकलने को तैयार हुई तो आइने के सामने एक पल को ठहर गई वह.

‘‘बहुत सुंदर तिया. जैसे रूमानी रात ने सितारों के कसीदे से सजा आसमान ओढ़ रखा हो,’’ उसे नीली साड़ी पहना देख किंशुक ने कहा था कभी. खुद के सौंदर्य पर खुश होने के बदले ?िझक सी गई वह.

अनिमेष के घर के, दफ्तर के लगभग सारा स्टाफ  ही जुटा था, जिस में नितिन भी था. बधाई दे कर वह एक किनारे बैठ गई. उम्मीद थी नितिन उसे अकेला देख कर उस के पास जरूर आएगा. लेकिन 30 साल का नौजवान नितिन उसे देख कर अनायास ही अनदेखा करता रहा.

तभी हायहैलो करते सुगंधा उस के पास आ बैठी. 34 के आसपास की सुगंधा अपने चौंधियाते शृंगार से सभी का ध्यान आकर्षित कर रही थी. आते ही सवाल दागे, ‘‘तियाशा नितिन आज कहां रह गया? दिखा नहीं आसपास?’’

पूछ रही थी या तंस कस रही थी? बड़ी कोफ्त हुई तियाशा को, लेकिन वह सहज रहने का अभिनय करती सी बोली, ‘‘हमेशा मेरे ही पास क्यों रहे?’’

कह तो दिया उस ने लेकिन क्या पता क्यों नितिन का व्यवहार उसे खटक गया था. आखिर उसे अनदेखा करने या तिरछी नजर देख कर मुंह फेर लेने जैसी क्या बात हुई होगी.

सुगंधा का अगला सवाल खुद उत्तर बन कर आ गया था, ‘‘और कौन घास डालता है उसे? वैसे अच्छा ही है, औफिस में तुम्हें साथ देने को कोई तो मिल जाता है.’’

इसे आखिर मुझ से चिढ़ किस बात की है. तियाशा मन ही मन दुखी होती हुई भी सहज रही.

तभी अंजलि दौड़ती हुई आ गई, ‘‘कहां छिप कर बैठी हो सुगंधा. कब से ढूंढ़ रही हूं तुम्हें,’’ अंजलि जोश में थी.

‘‘क्यों?’’

‘‘देखो मेरे इस हार को, हीरे का है, किस ने दिया पूछो?’’

‘‘और किस ने? तुम्हारे पतिदेव ने. कल हम लोग भी गए थे खरीदारी करने. उन्होंने बहुत कहा, पर मैं ने लिया नहीं, 2 तो पड़े हैं ऐसे ही. क्यों तियाशा तुम्हारा यह हार रियल पर्ल का है? वैसे पर्ल ही सही है आजकल. चोरउच्चक्कों का जमाना है, तुम बेचारी अकेली हो, क्यों भला गहने जमाओ.’’

‘‘अरे इसे क्यों पूछ रही हो, इस बेचारी को हीरे का हार ले कर देगा कौन?’’

‘‘अपने नितिन को कहना पड़ेगा, फ्री में बहुत घूम चुका,’’ सुगंधा ने रसभरी चुटकी ली.

सुगंधा और अंजलि हंसते हुए उठ कर चली गईं, लेकिन पीछे बैठी तियाशा की रगरग में दमघोंटू धुआं भर गईं.

अकेली चुप बैठी भी वह लोगों की नजर में

ज्यादा आ रही थी. औफिस के स्टाफ में से अधिकांश उस से ज्यादा घुलेमिले नहीं थे. अनिमेष गैस्ट संभालते हुए भी तियाशा को बीचबीच में देख लेते. वह कभी किसी को देख कर झेंप से भरी हुई मुसकराती, तो कभी अपने फोन पर जबरदस्ती व्यस्त होने का दिखावा करती. सब को खाने के बुफे की ओर भेज कर अनिमेष तियाशा के पास आ गए. दोनों को ही समझ नहीं आ रहा था कि बात कैसे शुरू की जाए. हौल अब लगभग खाली हो गया था. ज्यादातर लोग खापी कर घर निकल गए थे, कुछेक बचे लोग खाने की जगह इकट्ठा थे.

अनिमेष ने कहा, ‘‘चलिए आप भी, खाना खा ले.’’

वैसे अनिमेष ने कहा तो सही, लेकिन उन की इच्छा थी कि वे कुछ देर तियाशा के साथ अकेले बैठें, उस से बातें करें, उस के बारे में जानें.

उधर तियाशा को अनिमेष का साथ बुरा तो नहीं लग रहा था? लेकिन वह नितिन को ले कर परेशान सी थी. आखिर हंसताबोलता इंसान अचानक मुंह फेर कर बैठ जाए यह तो बेचैन करने वाली बात है न.

‘‘क्या हुआ, लगता है आप को मेरी पार्टी में आनंद नहीं आया? क्या मैं आप को परेशान कर रहा हूं?’’

यह अब दूसरी परेशानी. बौस है, कहीं खफा हो गया तो मुश्किलें और भी बढ़ जाएंगी. अत: अपनी उदासीनता छिपाते हुए उस ने कहा, ‘‘ऐसा नहीं है सर… वह आज तबीयत कुछ

ठीक नहीं.’’

‘‘तबीयत ठीक नहीं या नितिन को ले कर आप के बारे में लोग पीठ पीछे बातें बना रहे हैं इसलिए?’’

अब यह तो वाकई नई बात थी. तियाशा को तो मालूम नहीं था कि उस के पीछे नितिन के साथ उस का नाम जोड़ा जा रहा है.

तियाशा को अपना अकेलापन खलता था. कोई ऐसा नहीं था जो उस से खुले दिल से बात करे. इस समय नितिन से बातें करना, कभी उसे अपने घर बुलाकर साथ चाय पीना या कभी साथ कहीं शौपिंग पर चले जाना उसे मानसिक रूप से अच्छा महसूस कराता, मगर कभी यह बात दिल में नहीं आ पाई कि इस नितिन के साथ उस का नाम जोड़ कर पीठ पीछे बुराई की जाएगी. बेचारे मृत किंशुक को लोग किस नजर से देखेंगे… सभी तो यही सोच रहे होंगे कि किंशुक के मरते ही साल भर के अंदर कम उम्र के लड़के के साथ गुलछर्रे उड़ा रही है.

उस के चेहरे के उतरते रंग को अनिमेष कुछ देर देखते रहे, फिर कहा, ‘‘चलिए खाने पर चलते हैं… लोगों से डरना बंद करिए, आप अगर मेरी जिंदगी जानेंगी तो आप को अपनेआप ही रश्क हो आएगा. आइए…’’

सच, तियाशा को रहरह कर यह खयाल आ रहा था कि अनिमेष सर इस घर में अकेले क्यों दिखाईर् दे रहे हैं, इन की बीवी या बच्चे कहां हैं? पर संकोची स्वभाव की होने के कारण किसी से पूछ नहीं पाई.’’

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