पेशी : क्या थी न्यायाधीश के बदले व्यवहार की वजह?

लेखक- डा. नंदकिशोर चौरसिया

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, शिवपुर में डा. राजेश इकलौते चिकित्सक हैं. आज वे बहुत जल्दी में हैं क्योंकि उन्हें सरकारी गवाह के तौर पर गवाही देने के लिए 25 किलोमीटर दूर शाहगांव की अदालत में जाना है.

डा. राजेश ने चिकित्सालय में 2-4 मरीज देखे, फिर सिस्टर को बुला कर कहा, ‘‘सिस्टर, मैं शाहगांव कोर्ट जा रहा हूं, आप मरीजों को दवाएं दे दीजिएगा, कोई अधिक बीमार हो तो रेफर कर दीजिएगा.’’

डा. राजेश बाइक से शाहगांव के लिए चल दिए, वे ठीक 11 बजे न्यायालय पहुंच गए. न्यायालय के बाहर सन्नाटा था. कुछ पक्षी, विपक्षी और निष्पक्षी लोग, चायपान की दुकान में चायपान कर रहे थे.

डा. राजेश ने सोचा कि बयान हो जाए तभी खाना खाऊंगा और 1 बजे तक शिवपुर पहुंच जाऊंगा. इसलिए वे सीधे न्यायालय के कक्ष में चले गए. न्यायालय के कक्ष में 1-2 बाबू और 1 पुलिस वाला फाइलें उलटपलट रहे थे. डा. राजेश ने पुलिस वाले को समन दिखा कर उस को पदोन्नत करते हुए कहा, ‘‘चीफ साहब, मेरा बयान शीघ्र करा दें, अपने अस्पताल में मैं अकेला हूं.’’

‘‘साहब अभी चैंबर में हैं, उन के आने पर बात कर लीजिएगा,’’ पुलिस वाले ने

डा. राजेश से कहा.

डा. राजेश कक्ष में पड़ी एक बैंच पर बैठ गए. उन्होंने देखा कि न्यायाधीश की टेबल पर एक लैपटौप रखा है और टेबल के दोनों छोर पर एकएक टाइपिंग मशीन रखी थी. न्यायाधीश महोदय की कुरसी के पीछे की दीवार पर हृष्टपुष्ट और मुसकराते हुए गांधीजी की तसवीर टंगी थी. तसवीर के  गांधीजी अदालत की ओर न देख कर बाहर खिड़की की ओर देख रहे थे. तसवीर पर 4-5 माह पुरानी, सूखी फूलों की एक माला टंगी थी. केवल जज साहब की कुरसी के ऊपर पंखा चल रहा था. तब डा. राजेश ने न्यायालय के सेवक से कहा, ‘‘भाई, गरमी लग रही है, पंखा चला दो.’’

सेवक तपाक से बोला, ‘‘इन्वर्टर का कनैक्शन केवल साहब के लिए है.’’

कमरे के सारे लोग पसीनापसीना हो रहे थे. पक्षीविपक्षी (वादी, प्रतिवादी) अपने वकीलों के साथ आ कर बाबू से बात कर रहे थे, वे शायद अगली पेशी की सुविधाजनक तारीख ले रहे थे.

बाबू लोग फाइलें व कागज ले कर साहब के कक्ष में आजा रहे थे. फिर जज साहब के कक्ष से डिक्टेशन और टाइपिंग की आवाजें आने लगीं. वे शायद कोई फैसला लिखवा रहे थे. अब तक 1 बज गया था. डा. राजेश गरमी और अनावश्यक बैठने के कारण विचलित हो कर सोचने लगे कि जैसे उन्होंने अपराध किया हो. उन के मन में बचाव पक्ष के वकील के प्रश्नों, तर्कों, वितर्कों का भय और चिंतन भी था. तभी सेवक, साहब की टेबल पर 1 गिलास पानी रख गया.

साहब कुरसी पर आए. उन के चेहरे पर शासन और अभिजात्य की आभा प्रदीप्त थी. उन्होंने दो घूंट पानी पिया, कुछ फाइलें देखीं. तभी लोक अभियोजक, कुछ वकील और कुछ वादीप्रतिवादी आ गए. साहब ने जब तक फैसला सुनाया तब तक भोजनावकाश हो गया था.

भोजनावकाश के बाद जज साहब आए तब डा. राजेश ने विनती की, ‘‘सर, मैं डा. राजेश हूं, मेरा बयान हो जाए तो अच्छा है.’’

न्यायाधीश महोदय ने उन का समन देखा, फाइल देखी. उन्होंने प्रतिवादी को आवाज लगवाई परंतु तब तक प्रतिवादी का वकील नहीं आया था. तब जज साहब ने कहा, ‘‘डाक्टर साहब, थोड़ा और रुकें, आप को प्रमाणपत्र तो पूरे दिन का ही दिया जाएगा.’’

प्रतिवादी ने वकील को बुलवाया, वह करीब 4 बजे आया. वकील ने फाइल देख कर कहा कि डाक्टर ने तो वादी को कोई चोट ही नहीं लिखी, इसलिए बयान की कोई आवश्यकता नहीं है. डाक्टर को कोर्ट आने का प्रमाणपत्र दिया गया. डा. राजेश खिन्न मन से, भुनभुनाते हुए वापस शिवपुर लौट गए.

न्यायाधीश महोदय अवकाश के बाद शाहगांव लौट रहे थे. शिवपुर के पास ही दिन के 3 बजे उन की गाड़ी का ऐक्सीडैंट हो गया. उन के साथी को कई जगह चोट आई और सिर से खून बहने लगा. साथी को ले कर जज साहब शिवपुर अस्पताल आए पर अस्पताल में ताला लगा था. डाक्टर के आवास में भी ताला लगा था. अस्पताल का सेवक दौड़ कर सिस्टर को बुला लाया.

जज साहब ने सिस्टर को डांटते हुए कहा, ‘‘अस्पताल क्यों बंद है, डाक्टर कहां है?’’

सिस्टर ने धीरे से बताया, ‘‘सर, अस्पताल तो 1 बजे बंद हो जाता है और डाक्टर साहब तो पेशी पर गए हैं.’’

जज साहब ने सिस्टर से कहा, ‘‘फोन कर के तुरंत डाक्टर को बुलाओ.’’

सिस्टर ने डाक्टर को फोन लगाया और रिंग जाने पर उस ने फोन जज साहब को दे दिया.

उधर से आवाज आई, ‘‘हैलो.’’

‘‘मैं, सिविल जज, आप के अस्पताल से बोल रहा हूं. मेरे साथी को काफी चोट लगी है.’’

‘‘सर, मैं अभी आप के कोर्ट में ही हूं, जितनी देर में मैं आऊंगा उतनी देर में तो आप शाहगांव आ जाएंगे, फिर यहां पर सुविधा भी अधिक है,’’ डा. राजेश ने विनयपूर्वक  कहा.

जज साहब जब तक साथी को ले कर शाहगांव आए तब तक काफी खून बह चुका था. 2 यूनिट खून देने के बाद साथी को होश आया.

न्यायालय में आ कर जज साहब ने स्टाफ को निर्देशित किया कि अगर कोई चिकित्सक गवाही को आए तो यथाशीघ्र उस का बयान करा कर उसे जाने दिया जाए क्योंकि अस्पताल में बहुत से मरीज उस की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं.

फेसबुकिया समाज का सच

दुनिया में तरहतरह की जातियां, जनजातियां और उपजातियां हैं. सभी अपनेअपने में मस्त हैं. कभी दुखी हैं तो कभी सुखी. दुखसुख तो लगा ही रहता है. ऐसे ही है एक फेसबुकिया समाज, जहां हर छोटेबड़े, अमीरगरीब, हर धर्म व जाति के लोगों को बराबर का स्थान प्राप्त है.

फेसबुकिया कई प्रकार के होते हैं. एक बहुत ही हलके टाइप फेसबुकिया होते हैं जो कभीकभार भूलेभटके यहां विचरण करते हैं. इन से बढ़ कर मिडिल क्लास यानी वे फेसबुकिया होते हैं जो थोड़ेथोड़े समय के अंतराल पर इस समाज में घुसपैठ करते रहते हैं. हैलोहाय की, हिंदी, अंगरेजी या किसी भी भाषा में दसपांच लाइनें लिखींपढ़ीं, कुछ लाइकवाइक, कमैंटशमैंट किए और फिर बैक टू पवेलियन हुए.

एक होते हैं अत्यंत कट्टर फेसबुकिया. असल में फेसबुक इन्हीं लोगों की बदौलत चमकती है क्योंकि इन का उठनाबैठना, चलनाफिरना, खानापीना, सोनाजागना, आनाजाना, रोनाहंसना सब फेसबुक से ही होता है यानी फेसबुक के नाम से शुरू, फेसबुक के नाम पर खत्म. फेसबुक इन से और ये फेसबुक से होते हैं. ये फेसबुकिया किसी के मरने की खबर को भी लाइक करते हैं.

ये जो कट्टर फेसबुकिया होते हैं न, वे सुबह उठते ही ब्रश करने से पहले आंखें मींचते हुए फेसबुकियाने बैठ जाते हैं. जिसे कुछ आता है वह अपनी वाल पर कुछ लिखता है, जिसे नहीं आता वह भी कुछ लिखता ही है.

तमाम किताबें उलटतेपलटते जितना कि इग्जाम के समय कोर्स की किताबें भी नहीं उलटीपलटी होंगी या फिर किसी शेरोशायरी की किताब से ही कुछ उड़ा कर अपनी वाल पर लगा लेते हैं या लिख लेते हैं. और अगर कुछ नहीं मिला तो अपने घर की कोई रामकहानी, जैसे ‘कल मेरी बालकनी में एक गोरैया आई थी…’ या ‘मेरी बगिया में कल एक गुलाब की कली निकली…’ अथवा ‘मैं फलां जगह की यात्रा से लौटा हूं… या जाने वाला हूं’ वगैरहवगैरह लिखते हैं. लिखने के बाद उन के दिल की धड़कन तब तक रुकी रहती है जब तक उन के स्टेटस को कोई दूसरा फेसबुकिया लाइक न कर दे या फिर 2-4 कमैंट स्टेटस की झूठीसच्ची प्रशंसा में न ठोंक दे.

अगर जल्दी ही कुछ लोगों ने लाइक कर दिया और कोई कमैंट ठोंक दिया तो समझो कि उन का फेसबुकिया होना सार्थक हो गया. दिन भी बहुत अच्छा गुजरेगा. कहीं लाइक कमैंट करने वाले फेसबुकियों की संख्या उन के अनुमान से ज्यादा हो गई तो सोने पे सुहागा. ये वैसे ही खुश होते हैं जैसे कोई नेता अनुमान से कहीं अधिक वोट पा कर फूला नहीं समाता. और अगर किसी ने लाइक नहीं किया तो बेचारों का दिन खराब. मुंह ऐसे लटकता है जैसे जून की तपती धूप में पीले कनेर का मुरझाया फूल.

बड़े लुटेपिटे, थकेहारे भाव से वे उठ कर दैनिक क्रियाकलापों को निबटाना शुरू करते हैं. कुछ समय बाद फोन कर के कट्टर, हलके या अत्यंत हलके फेसबुकिया समाज के अन्य सदस्यों, जो उन के जरा ज्यादा करीब होते हैं, से अपने स्टेटस को बिना पढ़े लाइक करने और कुछ कमैंट करने का अनुरोध भी करते हैं, बड़ी विनम्रतापूर्वक डरते हुए कि कहीं अगला मना न कर दे या व्यस्तता का बहाना न बना दे.

असली फेसबुक पूजा मतलब किसी तप करने वाले साधुमहात्मा की तरह करने वाला हठयोग तो अब शुरू होता है. फोन करने के बाद लाइक, कमैंट के इंतजार करने में फेसबुक के सामने ही ब्रेकफास्ट करते हैं. और लंच तक वहीं डटे रहते हैं. समय गुजरता ही रहता है, उस का काम ही यही है, लेकिन ये लोग लंच के बाद शाम की चाय और फिर डिनर के बाद तक कर्तव्यनिष्ठ फेसबुकिया की तरह ऐसे जमे रहते हैं जैसे फ्रीजर में बर्फ. अरे भाई, वहां एक ही काम थोड़े ही होता है, बहुत काम रहते हैं.

दूसरों का स्टेटस भी लाइक करना होता है. उस पर कमैंट करना होता है. यानी इस हाथ ले उस हाथ दे… दूसरों के स्टेटस को लाइक, कमैंट या शेयर नहीं करेंगे तो भैया दूसरे भी नहीं करेंगे. क्यों करें, जमाना निस्वार्थ नहीं रहा न. बीचबीच में हरी बत्ती वालों से, मतलब औनलाइन उपस्थित रहने वालों से, बतियाना भी तो रहता है.

ये लोग तब तक नहीं उठते जब तक आंखें थक न जाएं, पलकें मना न कर दें और उंगलियां टाइप करतेकरते दर्द से कराहने न लगें. भारी मन से ये लोग फेसबुक छोड़ते हैं और छोड़ते समय विदाई पर दुलहन के उदास होने से ज्यादा उदास होते हैं. इन लोगों को तो सपने में भी फेसबुक ही दिखती है. किस ने क्या लिखा, कौन सी फोटो लगाई और न जाने क्याक्या…

फेसबुकिया समाज में कुछ विचित्र जीव ऐसे भी होते हैं जो किसी को हरा होता देख, माफ कीजिएगा औनलाइन होता देख हाय, हैलो, हाऊ आर यू, हाऊ योर लाइफ, हाऊ वाज योर डे… जैसे जुमले पीटने शुरू कर देते हैं. एकसाथ ढेर सारे लोगों से जब तक ये बतिया न लें तब तक इन का खाना क्या, पानी की बूंद भी हजम नहीं होती.

और भाई, कुछ थोड़े इतर जीव होते हैं जो जाने कहां से उड़ा कर, चुरा कर गीत, गजलें, शेरोशायरी और न जाने क्याक्या अपने व दूसरों की वाल पर झोंके रहते हैं, भड़भूंजे के भाड़ की तरह.

पहले जब मेरा अकाउंट फेसबुक पर नहीं था तब मैं कहीं जाती थी चाहे कोई सम्मेलन हो, गोष्ठी हो, बाजारहाट या नातेरिश्तेदारियों अथवा जानपहचान वालों के यहां, सब मिलने पर यही पूछते थे, ‘आप का फेसबुक पर अकाउंट है, है तो किस नाम से, प्रोफाइल पिक्स कैसी है?’

‘नहीं, मैं नहीं हूं, वहां.’ मेरे नकारात्मक जवाब पर लोग ऐसे देखते थे जैसे मैं कितनी पिछड़ी, जाहिल, गंवार हूं. जब ऐसा कई बार हुआ तो मैं बड़ी शर्मिंदगी महसूस करने लगी. अपनी काबिलीयत पर शक होने लगा. फिर भैया, मैं ने भी अपना अकाउंट फेसबुक पर बना ही डाला. अब कहीं जाती हूं तो किसी के पूछने पर तुरंत ‘हां’ कहती हूं. यकीन मानिए, बड़े गर्व का अनुभव होता है और मैं बड़े चहकते स्वर में दूसरों से पूछती हूं, ‘क्या आप का फेसबुक पर अकाउंट है?’

मेरी एक जानने वाली हैं, दीदी, चाची, बूआ, भाभी…कौन? यह मैं नहीं बताऊंगी वरना उन के नाराज होने का भयंकर खतरा है. वे बड़ी कट्टर फेसबुकिया हैं. सुबह उन की आंखें फेसबुक पर ही खुलती हैं. ब्रशमंजन, नहानाधोना सब बाद में. बड़े मनोयोग से फेसबुक का निरीक्षण करती हैं. फिर जो कुछ फेसबुक पर घटित हुआ रहता है यानी लिखापढ़ी, लाइक, कमैंट, फोटो, टैगिंग आदिआदि, उस की चर्चापरिचर्चा बड़े विस्तार से अपने अन्य जानने वालों से फोन पर करती हैं. यह नियम सुबह, दोपहर, शाम और रात तक बिना बाधित हुए चलता है.

संयोग से किसी दिन उन की फेसबुक नहीं चलती, तब तो वे मुझ से अपनी वाल की डिटेल फोन पर लेती ही हैं साथ में, अपने अन्य खास लोगों की वाल डिटेल, लाइक, कमैंट के साथ लेती हैं.

एक बार उन के घर कुछ मेहमान आने वाले थे. डिनर पर उन्होंने मुझे भी बुलाया था. 9 बजे का टाइम था. पर सभ्यता का पालन करते हुए मैं 8 बजे ही पहुंच गई. मोहतरमा फेसबुक पर ही मिलीं, कंप्यूटर स्क्रीन में डूबी हुई सी. मैं ने सोचा, लगता है इन्होंने डिनर की पूरी तैयारी कर ली है और अब निश्ंिचतता से बैठी हैं.

‘‘शुचिता, यह देखो, मैं ने कितनी अच्छी फोटो लगाई है. और हां, ओल्ड सौंग लगाया था. तुम ने लाइक नहीं किया, कोई कमैंट लिख देतीं यार,’’ उन्होंने कहा फिर खिलखिलाने लगीं, ‘‘अरे, यह देखो, इतने लोग मेरी कविता को लाइक कर चुके हैं और ये इतने सारे कमैंट. गजब… वाह, मजा आ गया.’’

‘‘हां, सचमुच यह तो बहुत अच्छा है,’’ मैं ने कहा, इस के अलावा मुझे कुछ और सूझा नहीं.

मैं एक पत्रिका उठा कर देखने लगी. मन में सोचते हुए कि ये उठें तो जरा एक नजर मैं भी अपनी फेसबुक देख लूं. करीब आधे घंटे तक खामोशी छाई रही, जिसे तोड़ने के उद्देश्य से मैं ने कहा, ‘‘मेहमानों के आने का टाइम हो गया है, क्यों?’’

‘‘आं, हां, हां, देखो न, ये लिंक बड़े अच्छे गानों के हैं. जरा सुनते हैं,’’ उन्होंने कहा.

‘‘हां, अच्छा है,’’ मैं ने कहा, ‘‘अरे, आप के मेहमान कहां हैं, पता कीजिए?’’ मैं ने फिर गुस्ताखी की.

‘‘हां, कितने बजे हैं अभी?’’ उन्होंने फेसबुक पर नजरें टिकाए हुए ही कहा.

‘‘पौने 9,’’ मैं ने कहा.

‘‘क्या? पौने 9? इतनी जल्दी कैसे पौने 9 बज गए?’’ उन्होंने नींद से जागते हुए कहा जैसे.

‘‘हां, पौने 9 ही बजे हैं,’’ मैं ने फिर से कहा.

अब उन्होंने फटाक से लौगआउट किया और सटाक से उठते हुए बोलीं, ‘‘यार, अभी तो मैं ने कुछ बनाया ही नहीं. असल में क्या हुआ, रमनजी ने बहुत बढि़या कविता लिखी थी, उसे पढ़ा और फिर सुमनजी से एक बड़े गंभीर विषय पर चैटिंग करने लग गई.’’

मुझे समझ में नहीं आया कि क्या करूं, क्या कहूं. मैं आश्चर्य से कभी कंप्यूटर को देखती तो कभी अपनी मेजबान को. तुरंत वे दौड़ती, हांफती किचन में पहुंचीं और हबड़तबड़ कुछ बनाना शुरू किया.

वह तो भला हो उन के मेहमानों का जो ट्रैफिक के कारण आधा घंटा लेट पहुंचे. आखिरकार चावल पकने तक हमसब को 20 मिनट इंतजार करना पड़ा था.

मेरी एक पड़ोसन हैं रागिनी शर्मा. जब भी सामने दिखेंगी, बस हायहैलो के अलावा कोई बात नहीं करतीं. मगर जब कभी फेसबुक पर औनलाइन मिलेंगी तो जाने कैसे दुनियाजहान की बातें उन्हें याद आती हैं बतियाने के लिए.

एक और पक्की फेसबुकिया हैं. एक बार मेरे यहां दावत पर आई थीं. सब लोग खाना खा रहे थे. सभी मटरपनीर और आलू की प्रशंसा कर रहे थे.

‘‘हां, कोफ्ता और भिंडी सचमुच बहुत टेस्टी बनी हैं,’’ उन्होंने बड़ी लंबी खामोशी के बाद अचानक कहा तो हम सब अचकचा कर उन का मुंह देखने लगे. लाइक, कमैंट की बात उन्होंने तुरंत शुरू कर दी और उन्हें यह भी पता नहीं चला कि क्या हुआ? खैर, मैं उन्हें क्या कहूं, जब से मैं खुद कट्टर फेसबुकिया बनी हूं मेरे घर, परिवार, अगलबगल, समाज, देशदुनिया में क्या हो रहा है, मुझे खुद किसी की फिक्र नहीं रहती, फिक्र रहती है तो बस फेसबुक की. यह एक तरह से अच्छा भी है, सुबह से रात तक इस की चिंता में डूबे रहने के कारण कोई और चिंता भी नहीं सताती.

बिजली, पानी, टैलीफोन का बिल जमा हो या न हो, कोई परवा नहीं करता है. लेकिन इंटरनैट का बिल नियत समय पर चाहे सर्दी हो, गरमी या बरसात, मैं बिना विलंब के जरूर जमा करने जाती हूं.

एक दिन पापा का शेविंग ब्रश कहीं खो गया. सब लोग उसे ढूंढ़ने में बिजी थे और मैं अपने प्रिय फेसबुक पर आनंदित थी. थोड़ी देर बाद पापा मेरे कमरे में आए और पूछने लगे, ‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘वो मैं… मैं आप का तौलिया ढूंढ़ रही हूं जो खो गया है,’’ हड़बड़ी में मेरे मुंह से यही निकला. मुझे सचमुच ध्यान नहीं था कि शेविंग ब्रश खोया है.

‘‘फेसबुक पर ढूंढ़ रही हो?’’ पापा ने कहा.

अब मुझे अपनी बेवकूफी और भूल का एहसास हुआ. उसी समय मेरे स्टेटस को कई लोगों ने लाइक किया था. सो, मैं खुश थी इसलिए कोई अफसोस नहीं हुआ. मैं फिर से वहीं जम गई और पापा चले गए.

मुझे तो फेसबुक की महिमा देख कर लगता है कि वह दिन दूर नहीं है जब एक ही घर के सदस्य अपनेअपने कमरे में बैठ कर फेसबुक पर ही औनलाइन बात करेंगे. अपनेअपने मोबाइल फोन से अपनी और अपने कुत्तेबिल्लियों की फोटो खींच अपडेट करेंगे और लाइक, कमैंट किया करेंगे… वैसे कितना अच्छा लगेगा,  जरा सोचिए… ‘जय हो फेसबुक की.’

ठंडक का एहसास

हमारे चाचाजी अपनी लड़की के लिए वर खोज रहे थे. लड़की कालेज में पढ़ाती थी. अपने विषय में शोध भी कर रही थी. जाहिर है लड़की को पढ़ालिखा कर चाचाजी किसी ढोरडंगर के साथ तो नहीं बांध सकते. वर ऐसा हो जिस का दिमागी स्तर लड़की से मेल तो खाए. हर रोज अखबार पलटते, लाल पैन से निशान लगाते. बातचीत होती, नतीजा फिर भी शून्य.

‘‘वकीलों के रिश्ते आज ज्यादा थे अखबार में…’’ चाचाजी ने कहा.

‘‘वकील भी अच्छे होते हैं, चाचाजी.’’

‘‘नहीं बेटा, हमारे साथ वे फिट नहीं हो सकते.’’

‘‘क्यों, चाचाजी? अच्छाखासा कमाते हैं…’’

‘‘कमाई का तो मैं ने उल्लेख ही नहीं किया. जरूर कमाते होंगे और हम से कहीं ज्यादा समझदार भी होंगे. सवाल यह है कि हमें भी उतना ही चुस्तचालाक होना चाहिए न…हम जैसों को तो एक अदना सा वकील बेच कर खा जाए. ऐसा है कि एक वकील का पेशा साफसुथरा नहीं हो सकता न. उस का अपना कोई जमीर हो सकता है या नहीं, मेरी तो यही समझ में नहीं आता. उस की सारी की सारी निष्ठा इतनी लचर होती है कि जिस का खाता है उस के साथ भी नहीं होती. एक विषधर नाग पर भरोसा किया जा सकता है लेकिन इस काले कोट पर नहीं. नहीं भाई, मुझे अपने घर में एक वकील तो कभी नहीं चाहिए.’’

चाचाजी के शब्द कहीं भी गलत नहीं थे. वे सच कह रहे थे. इस पेशे में सचझूठ का तो कोई अर्थ है ही नहीं. सच है कहां? वह तो बेचारा कहीं दम तोड़ चुका नजर आता है. एक ‘नोबल प्रोफैशन’ माना जाने वाला पेशा भी आज के युग में ‘नोबल’ नहीं रह गया तो इस पेशे से तो उम्मीद भी क्या की जा सकती है.

दोपहर को हम धूप सेंक रहे थे तभी पुराने कपड़ों के बदले नए बरतन देने वाली चली आई. उम्रदराज औरत है. साल में 2-3 बार ही आती है. कह सकती हूं अपनी सी लगती है. बरतन देखतेदेखते मैं ने हालचाल पूछा. पिछली बार मैं ने 2 जरी की साडि़यां उसे दे दी थीं. उस की बेटी की शादी जो थी.

‘‘शादी अच्छे से हो गई न रमिया… लड़की खुश है न अपने घर में?’’

‘‘जी, बीबीजी, खुश है…कृपा है आप लोगों की.’’

‘‘साडि़यां उसे पसंद आई थीं कि नहीं?’’

फीकी सी हंसी हंस गरदन हिला दी उस ने.

‘‘साडि़यां तो थानेदार ने निकाल ली थीं बीबीजी. आदमी को अफीम का इलजाम लगा कर पकड़ लिया था. छुड़ाने गई तो टोकरा खुलवा कर बरतन भी निकाल लिए और सारे कपड़े भी. पुलिस वालों ने आपस में बांट लिए. तब हमारा बड़ा नुकसान हो गया था. चलो, हो गया किसी तरह लड़की का ब्याह, यह सब तो हम गरीबों के साथ होता ही रहता है.’’

उस की बातें सुन कर मैं अवाक् रह गई थी. लोगों की उतरन क्या पुलिस वालों ने आपस में बांट ली. इतने गएगुजरे होते हैं क्या ये पुलिस वाले?

सहसा मेरे मन में कुछ कौंधा. कुछ दिन पहले मेरी एक मित्र के घर कोई उत्सव था और उस के घर हूबहू मेरी वही जरी की साड़ी पहने एक महिला आई थी. मित्र ने मुझे उस से मिलाया भी था. उस ने बताया था कि उस के पति पुलिस में हैं. तो क्या वह मेरी साड़ी थी? कितनी ठसक थी उस औरत में. क्या वह जानती होगी कि उस ने जिस की उतरन पहन रखी है, उसी के सामने ही वह इतरा रही है.

‘‘कौन से थाने में गई थी तू अपने आदमी को छुड़ाने?’’

‘‘बीबीजी, यही जो रेलवे फाटक के पीछे पड़ता है. वहां तो आएदिन किसी न किसी को पकड़ कर ले जाते हैं. जहान के कुत्ते भरे पड़े हैं उस थाने में. कपड़ा, बरतन न निकले तो बोटियां चबाने को रोक लेते हैं. मां पसंद आ जाए तो मां, बेटी पसंद आ जाए तो बेटी…’’

‘‘कोई कुछ कहता नहीं क्या?’’

‘‘कौन कहेगा और किसे कहेगा. उस से ऊपर वाला उस से बड़ा चोर होगा. कहां जाएं हम…बस, उस मालिक का ही भरोसा है. वही न्याय करेगा. इनसान से तो कोई उम्मीद है नहीं.’’

आसमान की तरफ देखा रमिया ने तो मन अजीब सा होने लगा मेरा. क्या कोई इतना भी नीचे गिर सकता है. थाली की रोटी तोड़ने से पहले इनसान यह तो देखता ही है कि थाली साफसुथरी है कि नहीं. लाख भूखा हो कोई पर नाली की गंदगी तो उठा कर नहीं खाई जा सकती.

रमिया से ऐसा कहा तो उस की आंखें भर आईं.

‘‘पेट की भूख और तन की भूख मैलीउजली थाली नहीं देखती बीबीजी. हम लोगों की हाय उन्हें दिनरात लगती है. अब देखना है कि उन्हें अपने किए की सजा कब मिलती है.’’

उस थानेदारनी के प्रति एक जिज्ञासा भाव मेरे मन में जाग उठा. एक दिन मैं अपनी उसी मित्र से मिलने गई. बातोंबातों में किसी बहाने उस का जिक्र छेड़ दिया.

‘‘उस की साड़ी बड़ी सुंदर थी. मेरी मां के पास भी ऐसी ही जरी की साड़ी थी. पीछे से उसे देख कर लग रहा था कि मेरी मां ही खड़ी हैं. कैसे लोग हैं…इस इलाके में नएनए आए हैं…वे कोई नई किट्टी शुरू कर रही थीं और कह रही थीं कि मैंबर बनना चाहें तो…तुम कैसे जानती हो उन्हें?’’

‘‘उन का बेटा मेरे राजू की क्लास में है. ज्यादा जानपहचान नहीं करना चाहती हूं मैं…इन पुलिस वालों के मुंह कौन लगे. अब राजू ने बुला लिया तो मैं क्या कहती. तुम किट्टी के चक्कर में उसे मत डालना. ऐसा न हो कि उस की किट्टी निकल आए और बाकी की सारी तुम्हें भरनी पड़े. उस की हवा अच्छी नहीं है. शरीफ आदमी नहीं हैं वे लोग. औरत आदमी से भी दो कदम आगे है. मुंह पर तो कोई कुछ नहीं कहता पर इज्जत कोई नहीं करता.’’

अपनी मित्र का बड़बड़ाना मैं देर तक सुनती रही. अपने राजू की उन के बेटे के साथ दोस्ती से वे परेशान थीं.

‘‘कापीकिताब लेने अकसर उस का लड़का आता रहता है. एक दिन राजू ने मना किया तो कहने लगा कि शराफत से दे दो, नहीं तो पापा से कह कर अंदर करवा दूंगा.’’

‘‘क्या सच में ऐसा…?’’

मेरी हैरानी का एक और कारण था.

‘‘इन पुलिस वालों की न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी. मैं तो परेशान हूं उस के लड़के से. अपनी कुरसी का ऐसा नाजायज फायदा…समझ में नहीं आता कि राजू को कैसे समझाऊं. बच्चा है कहीं कह देगा कि मेरी मां ने मना किया है तो…’’

एक बेईमान इनसान अपने आसपास कितने लोगों को प्रभावित करता है, यह मुझे शीशे की तरह साफ नजर आ रहा था. एक चरित्रहीन इनसान अपनी वजह से क्याक्या बटोर रहा है. बदनामी और गंदगी भी. क्या डर नहीं लगता है आने वाले कल से? सब से ज्यादा विकार तो वह अपने ही लिए संजो रहा है. कहांकहां क्याक्या होगा, जब यही सब प्रश्नचिह्न बन कर सामने खड़ा होगा तब उत्तर कहां से लाएगा.

सच है, अपने दंभ में मनुष्य क्याक्या कर जाता है. पता तो तब चलता है जब कोई उत्तर ही नहीं सूझता. वक्त की लाठी में आवाज नहीं होती और जब पड़ती है तब सूद समेत सब वापस भी कर देती है.

कहने को तो हम सभ्य समाज में रहते हैं और सभ्यता का ही कहांकहां रक्त बह रहा है, हमें समझ में ही नहीं आता. अगर दिखाई दे भी जाए तो हम उस से आंखें फेर लेते हैं. बुराई को पचा जाने की कितनी अच्छी तरह सीख मिल चुकी है हमें.

गरीब बरतन वाली की पीड़ा और उस जैसी औरों पर गिरती थानेदार की गाज ने कई दिन सोने नहीं दिया मुझे. क्या हम पढ़ेलिखे लोग उन के लिए कुछ नहीं कर सकते? क्या हमारी मानसिकता इतनी नपुंसक है कि किसी का दुख, किसी की पीड़ा हमें जरा सा भी नहीं रुलाती? अगर ऊंचनीच का भेद मिटा दें तो एक मानवीय भाव तो जागना ही चाहिए हमारे मन में. अपने पति से इस बारे में बात की तो उन्होंने गरदन हिला दी.

समाज इतना गंदा हो चुका है कि अपनी चादर को ही बचा पाना आज आसान नहीं रहा. दिन निकलता है तो उम्मीद ही नहीं कर सकते कि रात सहीसलामत आएगी कि नहीं. फूंकफूंक कर पैर रखो तो भी कीचड़ की छींटों से बचाव नहीं हो पाता. क्या करें हम? अपना मानसम्मान ही बचाना भारी पड़ता है और किसी को कोई कैसे बचाए.

मेरे पति जिस विभाग में कार्यरत हैं वहां हर पल पैसों का ही लेनदेन होता है. पैसा लेना और पैसा देना ही उन का काम है. एक ऐसा इनसान जिसे दिनरात रुपयों में ही जीना है, वही रुपए कब गले में फांसी का फंदा बन कर सूली पर लटका दें पता ही नहीं चल सकता. कार्यालय में आने वाला चोर है या साधु…समझ ही नहीं पाते. कैसे कोई काम कर पाए और कैसे कोई अपनी चादर दागदार होने से बचाए?

आज ईमानदारी और बेईमानी का अर्थ बदल चुका है. आप लाख चोरी करें, जी भर कर अपना और सामने वाले का चरित्रहनन करें. बस, इतना खयाल रखिए कि कोई सुबूत न छोड़ें. पकड़े न जाएं. यहीं पर आप की महानता और समझदारी प्रमाणित होती है. कच्चे चोर मत बनिए. जो पकड़ा गया वही बेईमान, जो कभी पकड़ा ही न जाए वह तो है ही ईमानदार, उस पर कैसा दोष?

इसी कुलबुलाहट में कितने दिन बीत गए. ‘कबिरा तेरी झोपड़ी गल कटियन के पास, करन गे सो भरन गे तू क्यों भेया उदास’ की तर्ज पर अपने मन को समझाने का मैं प्रयास करती रही. बुराई का अंत कब होगा…कौन करेगा…किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा था मुझे.

एक शाम मुझे जम्मू से फोन आया :

‘‘आप के शहर में कर्फ्यू लग गया है. क्या हुआ…आप ठीक हैं न?’’ मेरी बहन का फोन था.

‘‘नहीं तो, मुझे तो नहीं पता.’’

‘‘टीवी पर तो खबर आ रही है,’’ बहन बोली, ‘‘आप देखिए न.’’

मैं ने झट से टीवी खोला. शहर का एक कोना वास्तव में जल रहा था. वाहन और सरकारी इमारतें धूधू कर जल रही थीं. रेलवे स्टेशन पर भीड़ थी. रेलों की आवाजाही ठप थी.

एक विशेष वर्ग पर ही सारा आरोप आ रहा था. शहर के बाहर से आया मजदूर तबका ही मारकाट और आगजनी कर रहा था. एसएसपी सहित 12-15 पुलिसकर्मी भी घायल अवस्था में अस्पताल पहुंच चुके थे. मजदूरों के एक संगठन ने पुलिस पर हमला कर दिया था. मैं ने झट से पति को फोन किया. पता चला, उस तरफ भी बहुत तनाव है. अपना कार्यालय बंद कर के वे लोग बैठे हैं. कब हालात शांत होेंगे, कब वे घर आ पाएंगे, पता नहीं. बच्चों  के स्कूल फोन किया, पता चला वे भी डी.सी. के और्डर पर अभी छुट्टी नहीं कर पा रहे क्योंकि सड़कों पर बच्चे सुरक्षित नहीं हैं. दम घुटने लगा मेरा. क्या सभी दुबके रहेंगे अपनेअपने डेरों में. पुलिस खुद मार खा रही है, वह बचाएगी क्या?

अपनी सहेली को फोन किया. कुछ तो रास्ता निकले. उस का बेटा राजू भी अभी स्कूल में ही है क्या?

‘‘क्या तुम्हें कुछ भी पता नहीं है? कहां रहती हो तुम? मैं ने तो राजू को स्कूल जाने ही नहीं दिया था.’’

‘‘क्यों, तुम्हें कैसे पता था कि आज कर्फ्यू लगने वाला है?’’

‘‘उस थानेदार की खबर नहीं सुनी क्या तुम ने? सुबह उस की पत्नी और बेटे का अधकटा शव पटरी पर से मिला है. थानेदार के भी दोनों हाथ काट दिए गए हैं. भीड़ ने पुलिस चौकी पर हमला कर दिया था.’’

काटो तो खून नहीं रहा मुझ में. यह क्या सुना रही है मेरी मित्र? वह बहुत कुछ और भी कहतीसुनती रही. सब जैसे मेरे कानों से टकराटकरा कर लौट गया. जो सुना उसे तो आज नहीं कल होना ही था. सच कहा है किसी ने, अपनी लड़ाई सदा खुद ही लड़नी पड़ती है.

रमिया की सारी बातें याद आने लगीं मुझे. हम तो उस के लिए कुछ नहीं कर पाए. हम जैसा एक सफेदपोश आदमी जो अपनी ही पगड़ी बड़ी मुश्किल से बचा पाता है किसी की इज्जत कैसे बचा सकता है. यह पुलिस और मजदूर वर्ग की लड़ाई सामान्य लड़ाई कहां है, यह तो मानसम्मान की लड़ाई है. सब को फैलती आग दिखाई दे रही है पर किसी को वह आग क्यों नहीं दिखती जिस ने न जाने कितनों के घर का मानसम्मान जला दिया?

थानेदारनी और उस के बच्चे का अधकटा शव तो अखबार के पन्नों पर भी आ जाएगा, उन का क्या, जिन की पीड़ा अनसुनी रह गई. क्या करते गरीब लोग? तरीका गलत सही, सही तरीका है कहां? कानून हाथ में ले लिया, कानून है कहां? सुलगती आग एक न एक दिन तो ज्वाला बन कर जलाती ही.

‘‘शुभा, तू सुन रही है न, मैं क्या कह रही हूं. घर के दरवाजे बंद रखना, सुना है वे घरों में घुस कर सब को मारने वाले हैं. अपना बचाव खुद ही करना पड़ेगा.’’

फोन रख दिया मैं ने. अपना बचाव खुद करने के लिए सारे दरवाजेखिड़कियां तो बंद कर लीं मैं ने लेकिन मन की गहराई में कहीं विचित्र सी मुक्ति का भाव जागा. सच कहा है उस ने, अपना बचाव खुद ही करना पड़ता है. अपनी लड़ाई हमेशा खुद ही लड़नी पड़ती है. यह आग कब थमेगी, मुझे पता नहीं, मगर वास्तव में मेरी छाती में ठंडक का एहसास हो रहा था.

माध्यम: सास के दुर्व्यवहार को क्या भुला पाई मीना

बंबई से आए इस पत्र ने मेरा दिमाग खराब कर दिया है. दोपहर को पत्र आया था, तब प्रदीप दफ्तर में थे. अब रात के 9 बज गए हैं. मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए.

फाड़ कर फेंक दूं इसे? डाक विभाग पर दोष लगाना बड़ा सरल है. बाद में कभी प्रदीप या उन की मां ने इस विषय को उठाया तो मैं कह दूंगी कि वह पत्र मुझे कभी मिला ही नहीं.

या फिर प्रदीप से सीधी बात कर ली जाए. जैसेतैसे उन्हें छुट्टी मिली है. छुट्टी यात्रा भत्ता ले कर वह दक्षिण भारत की यात्रा पर जा रहे हैं. सिर्फ हम दोनों. बंगलौर, ऊटी, त्रिवेंद्रम, कोवलम और कन्याकुमारी. पिछले कई दिनों से तैयारियां चल रही हैं और परसों सुबह की गाड़ी से हमें रवाना हो जाना है. प्रदीप को इस पत्र के बारे में बताया तो संभव है कि हमारे पिछले 2 वर्ष के वैवाहिक जीवन में प्रथम बार यह यात्रा कार्यक्रम स्थगित हो जाए.

फिर मन इस मानवीय आधार पर पूरे प्रसंग की विवेचना करने लगा. प्रदीप की मां मेरी सास हैं. सास और मां में क्या अंतर है? कुछ भी तो नहीं. उन की बाईं टांग में प्लास्टर चढ़ा है. स्नानागार में फिसल गईं. टखने और घुटने की हड्डियों में दरार आ गई है. गनीमत हुई कि वे टूटी नहीं. उन्हें 3 सप्ताह तक बिस्तर पर विश्राम करने की सलाह दी गई है.

घर पर कौन है? प्रदीप के पिता, छोटा भाई और सीमा. अरे, सीमा कहां है? उस का तो पिछले वर्ष विवाह हो गया. पत्र में लिखा है कि सीमा को बुलाने के लिए दिल्ली फोन किया था पर उस की सास ने अनुमति नहीं दी. सीमा की ननद अपना पहला जापा करने मायके आई हुई है. सास का गठिया परेशान कर रहा है. उधर सीमा का पति किसी विभागीय परीक्षा के लिए तैयारी कर रहा है.

प्रदीप के भाई ने पत्र लिखा है. मांजी ने ही लिखवाया है. यह भी लिखा है कि घर के कामकाज में बड़ी दिक्कत हो रही है. नौकरानी भी छुट्टी कर गई है.

घर की इस दुर्दशा का वर्णन पढ़ कर मेरा अंतर द्रवित हो गया. मैं ने सोचा, संकट के समय अपने बच्चे ही तो काम आते हैं. मांजी चाहती हैं कि मैं उन की सेवा के लिए औरंगाबाद से बंबई आ जाऊं. पर शालीनता या संकोचवश उन्होंने लिखवाया नहीं. उन्हें पता है कि हम लोग 2 सप्ताह की छुट्टी ले कर घूमने जा रहे हैं.

एक मन किया, छुट्टी का सदुपयोग दक्षिण भारत की यात्रा नहीं, संकटग्रस्त परिवार की सेवा कर के किया जाए. पर तभी मन कसैला सा हो गया. शादी के पहले वर्ष में मेरे साथ मांजी ने जो व्यवहार किया था उस की कटु स्मृति आज तक मुझे छटपटाती है.

तब प्रदीप बंबई में ही नियुक्त थे. मैं अपने सासससुर के साथ ही रह रही थी. एक दिन नासिक से पिताजी का पत्र आया था. लिखा था कि कौशल्या बीमार है. उसे टायफाइड हुआ और बाद में पीलिया. डाक्टरों ने 4 हफ्ते पूर्ण विश्राम की सलाह दी है. वह बेहद परेशान है. पर मैं और तेरा छोटा भाई उस की देखभाल कर लेते हैं. खाना पकाने में दिक्कत होती है. पर पेट भरने के लिए कुछ कच्चापक्का बना ही लेते हैं. कभी दूध, डबलरोटी ले लेते हैं, कभी बाजार से छोलेभठूरे ले आते हैं.

पत्र पढ़ कर मेरी आंखों में आंसू आ गए. घर की ऐसी दुर्दशा. मेरा दिल किया कि मैं उड़ कर नासिक पहुंच जाऊं. शादी के बाद, पूरे 1 वर्ष में केवल रक्षाबंधन पर मैं 1 दिन के लिए अपने घर गई थी. प्रदीप साथ में थे.

मैं ने मांजी से घर जाने के लिए कहा तो वह संवेदनशून्य स्वर में बोलीं, ‘शादी के बाद लड़की को बातबेबात मायके जाना शोभा नहीं देता. उसे तो सिर्फ एक बार, और वह भी किसी त्योहार पर ही मां के घर जाना चाहिए.’

‘मांजी, मां को पीलिया हो गया है. घर में…’

‘बहू, घर में यह मामूली हारीबीमारी तो चलती रहती है. इस तरह छोटेमोटे बहाने से मायके की तरफ लपकना अच्छा लगता है?’ मांजी ने विद्रूप स्वर में ताना कसा.

‘पर भाई और पिताजी को ठीक से खाना नहीं मिल रहा है…’

‘देखो बहू, उस घर को भूल जाओ. अब तो तुम्हारा घर यह है. तुम्हारा पहला फर्ज बनता है हम लोगों की सेवा.’

‘मांजी, यह तो ठीक है पर जरा सोचिए, जिन मांबाप ने जन्म दिया, जिन्होंने पालपोस कर इतना बड़ा किया, शादीब्याह किया, क्या कोई लड़की उन्हें एकदम भुला सकती है? यह तो खून का अटूट संबंध है. इसे भुलाना संभव नहीं,’ मैं भावावेश में कह गई.

‘बहू, हमारे भी मांबाप थे. हमारे भी खून के संबंध थे. पर एक बार इस घर की चौखट के अंदर कदम रखा नहीं कि एक झटके से मायके को भूल गए. यह तो जग की रीति है. शादी होती है. सात फेरों के साथ लड़की का नया रिश्ता जुड़ता है. पुराना रिश्ता टूट जाता है. ऐसा ही होता आया है.’

‘वह तो ठीक है, मांजी. लड़की का कर्तव्य है कि वह सासससुर, पति, बच्चों की सेवा करे पर इस का यह अर्थ नहीं कि वह अपने जन्मदाताओं के सुखदुख में भी काम न आए. यह कैसी एकांगी विचारधारा है?’

‘जो शादीशुदा लड़कियां हर समय मायके वालों के चक्कर में पड़ी रहती हैं वे ससुराल में किसी को सुखी नहीं रख सकतीं. 2 घरों की एकसाथ देखभाल असंभव है.’

‘मांजी, क्या दोनों के बीच कोई संतुलन…’

‘मीना, तुम बहुत बहस करती हो, मानती हूं, तुम पढ़ीलिखी हो पर इस का यह मतलब नहीं कि…’

‘मैं बहस नहीं कर रही हूं. मैं 1 हफ्ते के लिए नासिक जाने की आज्ञा मांग रही हूं.’

‘मैं कुछ नहीं जानती. तुम जानो और तुम्हारा पति.’

मांजी का उखड़ा स्वर, फूला मुंह और मटकती हुई गरदन क्या मेरी प्रार्थना की अस्वीकृति के साक्षी नहीं थे? मेरा मन बुझ गया. क्या यह क्रूरता और हृदयहीनता नहीं? अपने स्वार्थ के लिए संबंधियों के सुखदुख में भागीदारी न करना क्या उचित है?

उद्विग्न और निराश मैं चुप लगा गई. जी में तो आया कि मांजी के इस अनुचित व्यवहार के विरुद्ध विरोध का झंडा खड़ा कर दूं.

कहूं, ‘कल को आप की बेटी का विवाह होगा. आप को कोई तकलीफ हो और आप उसे बुलाएं और उस के ससुराल वाले न भेजें तो आप को कैसा महसूस होगा, जरा सोचिए.’

मैं ने आगे बहस नहीं की. उस से कुछ नहीं होना था. केवल धैर्य, सहिष्णुता तथा उदारता के आधार पर ही हम पारिवारिक शांति स्थापित कर सकते हैं. वही मैं ने किया.

पर मेरे अंदर की घुटन को अभिव्यक्ति मिली रात में. जब हम दोनों बिस्तर पर अकेले थे तब प्रदीप ने मेरी उदासी का कारण पूछा था. मैं ने पूरा किस्सा उन्हें सुना दिया. सुन कर वह हंसे और बोले, ‘मांजी के इन विचारों का मैं स्वागत करता हूं.’

‘आप क्यों नहीं करेंगे? अरे, घुटना पेट की तरफ मुड़ता है. एक ही थैली के चट्टेबट्टे हैं आप दोनों.’

‘नहीं श्रीमतीजी, मांजी की बात में सार है. विवाह के बाद इतनी जल्दी पतिपत्नी विरह की अग्नि में जलें, कोई मां ऐसा चाहेगी.’

‘आप सोचते हैं, किसी लड़की के मांबाप. भाईबहन भूखे रहें और वह मिलन के गीत तू मेरा चांद, मैं तेरी चांदनी… गाती रहे.’

इस बार प्रदीप गंभीर हो गए. बोले, ‘भई, नाराज क्यों होती हो? अगर जाना चाहती हो तो ठीक है. कल सुबह मांजी को पटाने की कोशिश करेंगे.’

‘मैं जाऊं या न जाऊं, इस से कोई खास अंतर नहीं पड़ता पर मांजी का यह व्यवहार, संवेदनाशून्य, क्रूर और एकांगी नहीं है क्या? आप ही बताइए?’

‘हर व्यक्ति अपने हिसाब से काम करता है. मां ने जो कुछ कहा और किया वह उन का दृष्टिकोण है, जीवनदर्शन है. और यह दर्शन बनता है हमारी अतीत की अनुभूतियों से. मीना, शायद तुम्हें विश्वास न हो पर यह सच है कि मां एक ऐसे परिवार से आईं जहां लड़की का विवाह एक मुक्ति का एहसास माना जाता था और दोबारा मायके आना अभिशाप.’

‘वह क्यों?’ मैं ने उत्सुक हो कर पूछा.

‘इसलिए कि मां के मायके में 11 बहनभाई थे. 8 बहनें और 3 भाई. नानानानी एकएक लड़की की शादी करते और दोबारा उस का नाम नहीं लेते. मां भी इस घर में आईं. भीड़, अभाव और विपन्नता से शांति, समृद्धि और सुख के माहौल में एक बार इस घर में आईं तो फिर मुड़ कर उस घर को नहीं देखा. बस, शादीब्याह के मौके पर गईं या न गईं.’

‘वह तो ठीक है, पर…’

‘सच कहूं,’ प्रदीप ने कहा, ‘हम लोग ननिहाल जाते तो वहां पर मां का कोई खास स्वागत नहीं होता. हम लोग एक तरह से उन पर बोझ बन जाते. ज्यादा काम, मेहमानदारी पर खर्चा और लौटने पर बेटी और बच्चों को उपहार देने का संकट.’

‘ठीक है, प्रदीप, मैं मांजी की मनोदशा समझ गई. पर वह यह क्यों नहीं सोचतीं कि उन की और मेरी स्थिति में आकाशपाताल का अंतर है. उन के मायके में संकट में घर का काम करने के लिए और बहनें थीं. मैं अकेली हूं. उन को पीहर में एक बोझ समझा जाता था पर मेरा मेरे घर में अभूतपूर्व स्वागत होता है, आप स्वयं देख चुके हैं.’

‘ठीक है. मैं कल सुबह मांजी से बात करूंगा,’ कह कर प्रदीप ने मुझे अपने अंक में समेट लिया. शारीरिक उत्तेजना और रासरंग की बाढ़ में मेरे अंतर की समस्त कड़वाहट डूब गई.

अगले दिन सुबह मैं तो रसोईघर में नाश्ता बनाने में व्यस्त थी और मांबेटा बाहर मेरे नासिक जाने के प्रश्न पर ऐसी गंभीरता से विचार कर रहे थे जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ में निरस्त्रीकरण पर बहस.

मैं नाश्ता ले कर बाहर आई तो महसूस किया जैसे प्रदीप विजय के द्वार पर पहुंच गए हैं. मां उन से कह रही थीं, ‘बीवी का गुलाम हो गया है. उसी के स्वर में बोलने लगा है.’

मुझे देख, उन्होंने बनावटी गुस्से से कहा, ‘बहू, तू 2 हफ्ते के लिए नासिक चली जाएगी तो इस घर और प्रदीप की देखभाल कौन करेगा?’

‘आप जो हैं, मांजी,’ मेरे मुंह से अनायास निकल गया.

मैं नासिक गई. पहुंच कर देखा, मां पीली पड़ गई थीं. एकदम अशक्त और असहाय. पिताजी कैसे उलझे और अस्तव्यस्त से लग रहे थे…और भाई क्लांत. मुझे देखते ही तीनों के चेहरे खिल गए. एक मुक्ति, निश्चिंतता का भाव उन के मुख पर उभर आया.

‘तू आ गई, बेटी. अब कोई चिंता नहीं. तेरे बिना तो यह घर खाने को दौड़ता है, मैं बिस्तर पर पड़ गई. घर के रंगढंग ही बिगड़ गए,’ मां ने उदास स्वर में कहा.

काश, मेरी सास होतीं उस समय और देख पातीं उन लोगों के मुख पर उभरती संतुष्टि, कृतज्ञता तथा संकटमुक्ति की अनुभूति को.

‘‘मीना, क्या बात है? आज तो शाम से तुम गौतम बुद्ध हो गई हो. एकदम समाधिस्थ, चिंतन में डूबी.’’

प्रदीप ने मेरे दोनों कंधे पकड़ कर झकझोर दिया. मैं अतीत की गलियों से लौट कर, वर्तमान के राजपथ पर आ गई. हां, मैं सचमुच खो गई थी. 3 विकल्प थे मेरे सामने. 2 में बेईमानी, संवेदनशून्यता और क्रूरता थी.

अनायास मैं ने दोपहर को बंबई से आया पत्र प्रदीप की ओर बढ़ा दिया. उलझे हुए हावभाव का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने मुझ से पत्र लिया और गौर से पढ़ने लगे. मेरी दृष्टि प्रदीप के मुख पर टिकी थी. कुछ पल पूर्व की प्रफुल्लता उन के चेहरे से काफूर हो गई और उस का स्थान ले लिया, चिंता, ऊहापोह, उलझन और उदासी ने.

पत्र पढ़ कर प्रदीप ने मेरी तरफ याचक दृष्टि से ताका और बोले, ‘‘यह तो सब गड़बड़ हो गया. अब क्या करना है?

‘‘सीमा की ससुराल वाले भी कमाल के लोग हैं. मायके में इतनी परेशानी है. पर उन्हें तो अपने बेटे के इम्तिहान और बेटी के जापे की चिंता है, बहू की मां चाहे मरे या जिए, उन की बला से.’’

‘‘प्रदीप, हर सास ऐसे ही सोचती है. याद है, पिछले साल, आप का औरंगाबाद तबादला होने से पहले मेरे घर से चिट्ठी आई थी.’’

‘‘मैं ने तुम्हें भेजा था.’’

‘‘हां, प्रदीप. आप ने समझदारी से काम लिया था. पर मैं ने आप को एक बात नहीं बताई.’’

‘‘क्या?’’

‘‘मांजी ने मुझ से बड़ी कड़वी बातें कही थीं. उन्होंने कहा था कि जो लड़कियां बातबेबात मायके दौड़ती हैं, उन का अपना घर कभी सुखी नहीं रह सकता. लड़की की मां, बेटी की समस्याओं के लिए ससुराल वालों की आलोचना करती है, लड़की को भड़काती है. ससुराल वालों के प्रति उन के मन में वितृष्णा उत्पन्न करती है. फल यह होता है कि लड़की अपने घर जा कर स्थापित नहीं हो पाती.’’

‘‘मीना, उस को छोड़ो. अब बताओ, क्या करना है?’’ प्रदीप ने पूछा.

‘‘करना क्या है? हमें कल सुबह ही बंबई रवाना होना है.’’

‘‘और छुट्टी का क्या होगा?’’

‘‘प्रदीप, घूमनेफिरने के लिए पूरी जिंदगी पड़ी है. हम मांजी को बीमार और पिताजी तथा भैया को इस संकट में छोड़ कर सैरसपाटे के लिए कैसे जा सकते हैं? मायका हो या पति का घर, बच्चों तथा बहूबेटी का मांबाप, सासससुर की सेवा करना प्रथम कर्तव्य है.’’

‘‘और यह जो सामान बंधा हुआ है, उस का क्या होगा?’’

‘‘उसे भी बंबई लिए चलते हैं.’’

प्रदीप ने मेरी ओर अनुराग भरी दृष्टि डाली. क्या उस में केवल स्नेह था? नहीं, उस में प्रशंसा, गर्व, खुशी और संतोष सब का संगम था.

अगले दिन दोपहर बाद करीब साढ़े 3 बजे हम लोग बंबई पहुंच गए. अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के हमें आया देख कर मां, पिताजी और छोटे भैया के चेहरों पर सूर्योदय के बाद की सी चमक आ गई. वे कितने खुश, मुग्ध और चिंतारहित से लगने लगे थे.

मैं ने मांजी की दशा देखी तो अपने निर्णय की बुद्धिमत्ता का विचार आत्मतुष्टि उत्पन्न कर गया. वास्तव में वह काफी तकलीफ में थीं. साथ ही घर पूरी तरह से अस्तव्यस्त हो चुका था.

‘‘बहू आ गई. अब कोई चिंता नहीं,’’ यह थी पिताजी की प्रतिक्रिया. उन्होंने चैन की सांस ली.

‘‘भाभी, आप अचानक कैसे आ गईं?’’ मेरे देवर ने घोर आश्चर्य से पूछा.

‘‘बहू, तुम लोग तो दक्षिण भारत की यात्रा पर जाने वाले थे?’’ मांजी ने पूछा.

‘‘हां, मांजी. पर मातापिता की सेवा तो हम सब का प्रथम कर्तव्य है. आप की दुर्घटना की सूचना पा कर हम सैरसपाटे के लिए कैसे जा सकते थे?’’

मांजी कुछ नहीं बोलीं. केवल उन की आंखों में नमी उभर आई.

हमारे आगमन से घर में नवजीवन का संचार हो गया. मैं ने आते ही घर के संचालन की बागडोर संभाल ली. सफाई, धुलाई, रसोईघर का काम, खाना बनाना, मांजी की सेवा और समयसमय पर उन को दवा तथा खानपान देना.

3-4 दिन में ही घर का कायाकल्प हो गया.

चौथे दिन मांजी के मुख से निकल ही गया, ‘‘घर को पुरुष नहीं, औरत ही चला सकती है, चाहे वह बहू हो या बेटी.’’

मैं क्या कहती? शब्दों में नहीं, गरदन को हिला कर मैं ने मांजी के कथन से अपनी सहमति प्रकट कर दी.

‘‘सीमा की ससुराल वाले बड़े मतलबी और स्वार्थी हैं. जोत रखा होगा मेरी बेटी को. 4 दिन पहले ननद के बेटी हुई है. जच्चा का कितना काम फैल जाता है. सास की निर्दयता तो देखो, उसे इतना भी खयाल नहीं कि बहू की मां की टांग टूट गई है और घर पर कोई नहीं है देखभाल करने वाला…’’

मांजी की भुनभुनाहट सुन कर मुझे अंदर से खुशी हुई. इनसान पर जब बीतती है तब उसे पता चलता है. पिछले वर्ष मांजी को क्या हुआ? तब वह सास थीं और आज? केवल मां.

7वें दिन एक अप्रत्याशित घटना घटी. शाम के 7 बजे अचानक, बिना किसी पूर्व सूचना के सीमा आ धमकी. साथ में था अशोक, उस का पति.

घर में खुशी की धूम मच गई. मांजी की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले. बेटी और दामाद का अनायास आगमन निश्चित रूप से अभूतपूर्व सुख का क्षण था.

हमें देख कर वे दोनों चौंके. उन्होंने हमारे वहां होने की कल्पना तक नहीं की थी.

‘‘चिट्ठी पा कर दौड़े चले आए बेचारे. 1 सप्ताह से बहू ऐसी सेवा कर रही है कि बस पूछो मत,’’ मांजी के स्वर में सच्ची प्रशंसा थी.

‘‘भाभी, कितनी छुट्टियां बची हैं तुम्हारी?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘यही 8-10 दिन,’’ मैं ने एक दीर्घ निश्वास छोड़ कर कहा.

‘‘ठीक है. कल खिसको यहां से. अब मैं संभालती हूं यह मोरचा,’’ सीमा बोली.

‘‘पर अब आरक्षण वगैरह कैसे मिलेगा?’’ प्रदीप के स्वर में निराशा?थी.

‘‘भैया, मतलब तो छुट्टी और सैरसपाटे से है. दक्षिण नहीं जा सकते तो गोआ चले जाओ. बसें जाती हैं. वहां ठहरने के लिए जगह मिल ही जाएगी. कैलनगूट तट की सुनहरी बालू में अर्धनग्न लेट कर मस्ती मारो,’’ सीमा एक सांस में कह गई.

प्रदीप ने मेरी तरफ देखा और मैं ने उस की तरफ.

‘‘हां, बहू. अब सीमा आ गई है. तुम लोग कल चले जाओ. क्यों छुट्टियां बरबाद करते हो,’’ कह कर मांजी ने सीमा से पूछा, ‘‘क्यों री, तेरी सास ने तुझे कैसे छोड़ दिया?’’

‘‘पिताजी की चिट्ठी पढ़ कर उन्होंने खुद कहा कि मैं तुरंत बंबई जाऊं. उन्होंने तो पहले भी मना नहीं किया था. वह तो मुझे ही कहने का साहस नहीं हुआ. इन के इम्तिहान, मंजू बहनजी का जापा और फिर यह भी आप को देखने के लिए चिंतित हो गए.’’

मांजी के मुख पर रुपहली आभा बिखर गई. वह भावातिरेक से कांपने लगीं फिर कुछ क्षण बाद बोलीं, ‘‘सचमुच, मेरे बच्चे और संबंधी इतने उदार, कृपालु और प्रेमी हैं. कितना खयाल रखते हैं हमारा.’’

‘‘बहू,’’ मांजी ने मुझे संबोधित कर के कहा, ‘‘6 मास पूर्व के अपने आचरण पर मैं लज्जित हूं. पहले जमाने में परिवार के अंदर लड़कियों की सेना होती थी. एक गई तो दूसरी उस का स्थान ले लेती थी. पर आज? हम दो, हमारे दो. एकमात्र लड़की चली जाए तो बहुत खलता है. उस पर वह हारीबीमारी, सुखदुख में काम न आए तो बड़ा भावनात्मक कष्ट होता?है,’’ कह कर मांजी ने थकान के कारण आंखें बंद कर लीं.

‘‘आप आराम कीजिए, मांजी,’’ कह कर हम सब बगल के कमरे में चले गए और गप्पें मारने लगे.

मुझे अपने निर्णय पर संतोष था. साथ ही अगले दिन गोआ जाने का मन में उत्साह था. संभवत: मेरे लिए सब से ज्यादा गौरव की बात थी, मेरे अपने घर में मानवीय संबंधों के आधारभूत मूल्यों की पुन: स्थापना…शायद इस का माध्यम मैं ही थी.

बोझ: ससुरजी की मन की पीड़ा को कैसे किया बहू अंजू ने दूर

उस  रात अंजु और मनोज बुरी तरह झगड़े. मनोज अपने दोस्त के घर से पी कर आया था और अंजु ने अपनी सास के साथ झड़प हो जाने के बाद कुछ देर पहले ही तय किया था कि वह अपनी ससुराल में किसी से डरेगीदबेगी नहीं. इन दोनों कारणों से उन के बीच झगड़ा बढ़ता ही चला गया.

‘‘तुम्हें इस घर में रहना है, तो काम में मां का पूरा हाथ बंटाओ. तुम मटरगस्ती करती फिरो और मां रसोई में घुसी रहे, यह मैं बिलकुल बरदाश्त नहीं करूंगा,’’ मनोज की गुस्से से कांपती आवाज पूरे घर में गूंज उठी.

‘‘आज औफिस में ज्यादा काम था, इसलिए देर से आई थी. फिर भी मैं ने उन के साथ थोड़ा सा काम कराया… अपनी मां की हर बात सच मानोगे, तो हमारी रोज लड़ाई होगी,’’ अंजु भी जोर से चिल्लाई.

‘‘उन की रोज की शिकायत है कि जिस दिन तुम वक्त से घर आ जाती हो, उस दिन भी तुम उन के साथ कोई काम नहीं कराती हो.’’

‘‘यह झठ बात है.’’

‘‘झठी तुम हो, मेरी मां नहीं.’’

‘‘नहीं, झठी तुम्हारी मां है.’’

उस रात मनोज ने अपनी दूसरी पत्नी पर पहली बार हाथ उठा दिया. उन की शादी को अभी 2 महीने ही बीते थे.

‘‘तुम्हारी मुझ पर हाथ उठाने की जुर्रत कैसे हुई? अब दोबारा हाथ उठा कर देखो… मैं अभी पुलिस बुला लूंगी.’’

उस की चिल्ला कर दी गई इस धमकी को सुन कर राजनाथ और आरती अपने बेटेबहू को शांत कराने के लिए उन के कमरे में आए.

गुस्से से कांप रही अंजु ने अपनी सास को जलीकटी बातें सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. जवाब में आरती कुछ देर ही चुप रही. फिर वह भी ईंट का जवाब पत्थर से देते हुए उस से भिड़ गई.

‘‘मुझे नहीं रहना है इस नर्क में. मैं कल सुबह ही अपने मायके जा रही हूं. तुम्हारे मांबाप का बोझ मुझे नहीं ढोना है,’’ धमकी देने के बाद अंजु ने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

‘‘ये मुझे कैसे दिन देखने पड़ रहे हैं… पहली बीवी चरित्रहीन थी, सो मुझे छोड़ कर अपने प्रेमी के साथ भाग गई. अब यह दूसरी जो पल्ले पड़ी है, बहुत ही बदतमीज है,’’ अपने को कोसता मनोज उस रात सोफे पर ही सोया.

अगले दिन रविवार था. आंखों में गुस्सा भरी जब 10 बजे के करीब अंजु अपने कमरे से बाहर आई, तो उस ने मनोज को ड्राइंगरूम में मुंह लटकाए बैठे पाया.

उस के पूछे बिना मनोज ने उसे दुखी लहजे में बताया, ‘‘मम्मीपापा सुबह की गाड़ी से मामाजी के पास मेरठ चले गए हैं.’’

‘‘क्यों?’’ चाय बनाने रसोई में जा रही अंजु ने ठिठक कर पूछा.

‘‘ उन के जाने का कारण समझना क्या मुश्किल है?’’

‘‘मुझे जबरदस्ती कुसूरवार मत ठहराओ, प्लीज. तुम्हारी माताजी ने मुझे एक की चार सुनाई थीं.’’

‘‘वे दोनों बीमार रहते हैं. घर से दूर जा कर उन की कैसी भी दुर्गति हो, तुम्हारी बला से.’’

‘‘जब आज मैं ही घर छोड़ कर जाने वाली थी, तो तुम ने उन्हें रोका क्या नहीं?’’

‘‘मैं ने बहुत कोशिश करी, पर पापा नहीं माने.’’

‘‘वे कब तक लौटेंगे?’’

‘‘कुछ बता कर नहीं गए हैं,’’ मनोज ने थकेहारे अंदाज में अपना चेहरा हथेलियों से रगड़ा तो अंजु भी कुछ उदास सी हो गई.

दोनों दिनभर सुस्त ही रहे, पर शाम को उन का बाजार घूम आने का कार्यक्रम बन गया. पहले उन्होंने कुछ खरीदारी करी और फिर खाना भी बाहर ही खाया.

उस रात अंजु को जीभर के प्यार करते हुए मनोज को एक बार भी अपने मातापिता का ध्यान नहीं आया.

अगले 2-3 दिन उन के बीच झगड़ा नहीं हुआ. फिर एक दिन औफिस से अंजु देर से लौटी तो मनोज उस से उलझ पड़ा. दोनों के बीच काफी तूतू, मैंमैं हुई पर फिर जल्द ही सुलह भी हो गई. तब दोनों के मन में यह विचार एकसाथ उभरा कि अगर आरती घर में मौजूद होती, तो यकीनन झगड़ा लंबा खिंचता.

मनोज लगभग रोज ही अपने मातापिता से फोन पर बात कर लेता. अंजु ने उन से पूरा हफ्ता बीत जाने के बाद बात करी थी. उस ने उन दोनों का हालचाल तो पूछ लिया, पर उन के वापस घर लौट आने की चर्चा नहीं छेड़ी.

‘‘देखो, शायद अगले हफ्ते वापस आएं,’’ मनोज जब भी उन के घर लौटने की बात उठाता, तो राजनाथ उसे यही जवाब देते.

जब उन्हें मेरठ गए 1 महीना बीत गया तो अंजु और मनोज के मन की बेचैनी बढ़ने लगी. पड़ोसी और रिश्तेदार जब भी मिलते, तो आरती और राजनाथ के लौटने के बारे में ढेर सारे सवाल पूछते. तब उन्हें कोई झठा कारण बताना पड़ता और यह बात उन्हें अजीब से अपराधबोध का शिकार बना देती.

लोगों के परेशान करने वाले सवालों से बचने के लिए तब दोनों ने मेरेठ जा कर उन्हे वापस लाने का फैसला कर लिया.

‘‘अब वहां पहुंच कर उन से बहस में मत उलझना. उन्हें मनाने को अगर ‘सौरी’ बोलना पडे़, तो बोल देंगे. उन को साथ रखना हमारी जिम्मेदारी है, मामाजी या किसी और की नहीं,’’ मनोज सारे रास्ते अंजू को ऐसी बातें समझता रहा.

मामामामी के यहां 2 दिन बिताने के लिए शुक्रवार की रात को करीब 9 बजे उन के घर पहुंच गए.

उन दोनों से मामामामी बड़े प्यार से मिले. उन की नजरो में अपने लिए नाराजगी के भाव न देख कर अंजु मन ही मन हैरान हुई.

‘‘दीदी और जीजाजी खाना खाने के बाद पार्क में घूमने गए हैं,’’ अपने मामा की यह बात सुन कर मनोज हैरान रह गया.

‘‘पापामम्मी घूमने गए हैं? उन्होंने यह आदत कब से पाल ली?’’ मनोज की आंखों में अविश्वास के भाव पैदा हुए.

‘‘वे दोनों अब नियम से सुबह भी घूमने जाते हैं. तुम उन की फिटनैस में आए बदलाव को देखोगे, तो चकित रह जाओगे.’’

‘‘मम्मी की कमर का दर्द उन्हें घूमने की इजाजत देता है?’’

‘‘दर्द अब पहले से काफी कम है. जीजाजी दीदी का हौसला बढ़ा कर उन्हें सुस्त नहीं पड़ने देते हैं.’’

‘‘क्या मम्मी का किसी नए डाक्टर से इलाज चल रहा है?’’

‘‘हां, डाक्टर राजनाथ के इलाज में है दीदी,’’ अपने इस मजाक पर मामाजी ने जोरदार ठहाका लगाया, तो मनोज और अंजु जबरदस्त उलझन का शिकार बन गए.

जब वे सब चाय पी रहे थे, तब राजनाथ और आरती ने घर में प्रवेश किया. उन पर नजर पड़ते ही मनोज उछल कर खड़ा हो गया और प्रसन्न लहजे में बोला, ‘‘वाह, पापामम्मी. इन स्पोर्ट्स शूज में तो आप दोनों बड़े जंच रहे हो.’’

‘‘तुम्हारे मामाजी ने दिलाए हैं. अच्छे हैं न?’’ राजनाथ पहले किसी बच्चे की तरह खुश हुए और फिर उन्होंने मनोज को गले से लगा लिया.

अपनी मां के पैर छूते हुए मनोज ने उन की तारीफ करी, ‘‘ये बड़ी खुशी की बात है कि कमर का दर्द कम हो जाने से अब तुम्हे चलने में ज्यादा दिक्कत नहीं आ रही है. चेहरे पर भी चमक है. मामाजी के यहां लगता है खूब माल उड़ा रहे हैं.’’

‘‘मेरी यह शुगर की बीमारी कहां मुझे माल खाने देती है. तुम दोनों कैसे हो? आने की खबर क्यों नहीं दी?’’ अपने बेटेबहू को आशीर्वाद देते हुए आरती की पलकें नम हो उठीं.

‘‘तुम दोनों को भूख लग रही होगी. बोलो, क्या खाओगे?’’ बड़े उत्साहित अंदाज में अपनी हथेलियां आपस में रगड़ते हुए राजनाथ ने अपने बेटेबहू से पूछा.

‘‘ज्यादा भूख नहीं है, इसलिए बाजार से कुछ हलकाफुलका ले आते हैं,’’ कह मनोज अपने पिता के साथ जाने को उठ खड़ा हुआ.

‘‘बाजार से क्यों कुछ लाना है? आलूमटर की सब्जी रखी है. मैं फटाफट परांठे तैयार कर देती हूं,’’ कह मामी रसोई में जाने को उठ खड़ी हुई.

‘‘भाभी, आज आप अपने इस शिष्य को काम करने की आज्ञा दो,’’ रहस्यमयी अंदाज में मुसकरा रहे राजनाथ ने अपनी सलहज का हाथ पकड़ कर वापस सोफे पर बैठा दिया.

‘‘क्या परांठे आप बनाएंगे?’’ मनोज का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया.

‘‘पिछले दिनों तुम्हारी मामी से कुछ कुकिंग सीखी है मैं ने. बस 15 मिनट से ज्यादा समय नहीं लगेगा खाना लगाने में. तुम दोनों तब तक फ्रैश हो जाओ,’’ अपने बेटे का गाल प्यार से थपथपाने के बाद राजनाथ सीटी बजाते हुए रसोई की तरफ चले गए.

राजनाथ ने क्याक्या बनाना सीख लिया है, इस की जानकारी उन दोनों को देते हुए आरती और मामामामी की आंखें खुशी से चमक रही. ‘‘मटरपनीर, कोफ्ते, बैगन का भरता, भरवां भिंडी. पापा ये सब बना सकते हैं. मुझे विश्वास नहीं हो रहा है. कैसे हुआ यह चमत्कार?’’ मनोज सचमुच बहुत हैरान नजर आ रहा था, क्योंकि राजनाथ को तो पहले चाय भी ढंग से बनानी नहीं आती थी.

‘‘अरे, जीजाजी आजकल बड़े मौडर्न हो गए हैं. कहते हैं कि आज के समय में हर इंसान को घर और बाहर के सारे काम करने आने चाहिए. किसी पर आश्रित हो कर बोझ बन जाना नर्क में जीने जैसा है… अपने इस नए आदर्श वाक्य को वे दिन में कई बार हम सब को सुनाते हैं. इस उम्र में कोई इतना ज्यादा बदल सकता है, यह सचमुच हैरान करने वाली बात है,’’ मामाजी की इस बात का पूरा अर्थ मनोज को अगले 2 दिनों में समझ आया.

राजनाथजी ने उन्हें उस रात खस्ता परांठे बना कर खिलाए. फिर रेत गरम कर के उसे एक पोटली में भरा और आरती की कमर की सिंकाई करी. वे पहले बहुत कम बोलत थे, पर अब उन की हंसी से कमरा बारबार गूंज उठता था.

अगले दिन सब को बैड टी उन्होंने ही पिलाई. इस से पहले वे और आरती घंटाभर पास के पार्क में घूम आए थे. नाश्ते में ब्रैडपकौड़े मामीजी ने बनाए पर सब को गरमगरम पकौड़े खिलाने का काम उन्होंने बड़े उत्साह से किया.

आरती ने पूरे घर में झड़ू लगाया और डस्टिंग का काम राजनाथजी ने किया. फिर नहाधो कर वे लाइब्रेरी में अखबार पढ़ने चले गए.

मनोज और अंजु उन की चुस्तीफुरती देख कर बारबार हैरान हो उठते. ऐसा प्रतीत होता जैसे उन में जीने का उत्साह कूटकूट कर भर गया हो.

शाम को वे सब बाजार घूमने गए. चाट खाने की शौकीन अंजु को राजनाथजी ने एक मशहूर दुकान से चाट खिलाई. बाद में आइसक्रीम भी खाई.

वापस आने पर किसी को ज्यादा भूख नहीं थी, इसलिए पुलाव बनाने का कार्यक्रम बना. आरती और मामीजी यह काम करना चाहती थीं, लेकिन राजनाथजी ने किसी की न चलने दी और रसोई में अकेले घुस गए.

उन्होंने बहुत स्वादिष्ठ पुलाव बनाया. सब के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर वे फूले नहीं समाए.

काफी थके होने के बावजूद उन्होंने सोने से पहले आरती की कमर की सिंकाई करने के बाद मूव लगाने में कोई आलस नहीं किया.

रविवार की सुबह मामीजी ने सब को सांभरडोसे का नाश्ता कराया. राजनाथजी उन की बगल में खड़े हो कर डोसा बनाने की विधि बड़े ध्यान से देखते रहे.

सब ने इतना ज्यादा खाया कि लंच करने की जरूरत ही न रहे. कुछ देर आराम करने के बाद मनोज ने दिल्ली लौटने की तैयारी शुरू कर दी.

‘‘पापा, मम्मी, आप दोनों भी अपना सामान पैक करना शुरू कर दो. यहां से 2 बजे तक निकलना ठीक रहेगा. लेट हो गए तो शाम के ट्रैफिक में फंस जाएंगे,’’ मनोज की यह बात सुन कर राजनाथजी एकदम गंभीर हो गए तो आरती बेचैन अंदाज में उन की शक्ल ताकने लगी.

‘‘इन्हें अभी कुछ और दिन यहीं रहने दो, मनोज बेटा,’’ मामाजी भी सहज नजर नहीं आ रहे थे.

‘‘मामाजी, ये दोनों 1 महीना तो रह लिए हैं यहां. इन का अगला चक्कर मैं जल्दी लगवा दूंगा,’’  मनोज ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

राजनाथ ने एक बार अपना गला साफ करने के बाद मनोज से कहा, ‘‘हम अभी नहीं चल रहे हैं मनोज.’’

‘‘क्यों? क्या आप अब भी हम से नाराज हो?’’ मनोज एकदम से चिड़ उठा.

‘‘मेरी बात समझ बेटे. हमारे कारण तेरे घर में क्लेश हो, यह हम बिलकुल नहीं चाहते हैं,’’ राजनाथ असहज नजर आने लगे.

‘‘इस तरह के झगड़े घर में चलते रहते हैं, पापा. इन के कारण आप दोनों का घर छोड़ देना समझदारी की बात नहीं है.’’

‘‘तेरी मां की बहू से नहीं बनती है. किसी दिन लड़झगड़ कर अंजु घर छोड़े, इस से बेहतर है कि हम तुम दोनों को अकेले रहने दें.’’

‘‘हमे अकेले नहीं, बल्कि आप दोनों के साथ रहना है. अब आप पिछली बातें भुला कर सामान बांधना शुरू कर दो. अंजु, तुम क्यों नहीं कुछ बोल रही हो?’’ मनोज ने उन दोनों पर दबाव बनाने के लिए अपनी पत्नी से सहायता मांगी.

‘‘आप दोनों हमारे साथ चलिए, प्लीज,’’ अंजु ने धीमी आवाज में अपने ससुर से प्रार्थना करी.

राजनाथजी कुछ पलों की खामोशी के बाद बोले, ‘‘तुम दोनों जोर डालोगे, तो हम वापस चल पड़ेंगे, पर पहले मैं कुछ कहना चाहता हूं.’’

‘‘क्या यह कहनासुनना घर पहुंच कर नहीं हो सकता है, पापा?’’

‘‘अभी मैं ने तुम्हारे साथ वापस चलने का फैसला नहीं किया है, मनोज.’’

‘‘वापस तो मैं आप दोनों को ले ही जाऊंगा. हम से क्या कहना चाहते हो आप?’’

तब राजनाथजी ने भावुक स्वर में बोलना शुरू किया, ‘‘बहू, तुम भी मेरी बात ध्यान से सुनो. उस रात मनोज से लड़ते हुए गुस्से में तुम ने हमें बोझ बताया था. तुम्हारी उस शिकायत को दूर करने के लिए मैं ने खाना बनाना, घर साफ रखना और मशीन से कपड़े धोना सीख लिया है. तुम्हारी सास से ज्यादा काम नहीं होता, पर मैं तुम्हारा हाथ बंटाने लायक हो गया हूं.

‘‘तुम्हारी सास का भी गुस्सा तेज है. मैं ने यहां आ कर इसे बहुत समझया है… इस ने मुझ से वादा किया है कि यह तुम्हारे साथ अपना व्यवहार बदल लेगी.

‘‘उस रात मनोज से झगड़ते हुए जब तुम ने घर छोड़ कर मायके चले जाने की धमकी दी, तो मैं अंदर तक कांप उठा था. उसी रात मैं ने ये फैसला कर लिया था कि घर में सुखशांति बनाए रखने को अगर कोई घर छोड़ेगा, तो वे तुम्हारी सास और मैं, तुम नहीं.

‘‘बहू, मनोज को अपनी पहली पत्नी से तलाक आसानी से नहीं मिला था. जिन दिनों केस चल रहा था, हम शर्मिंदगी के मारे लोगों से नजर नहीं मिला पाते थे. उन के सवालों के जवाब देने से बचने के लिए हम ने घर से निकलना बिलकुल कम कर दिया था. वकीलों और पुलिस वालों ने हमें बहुत सताया था.

‘‘वैसा खराब वक्त मेरी जिंदगी में फिर से आ सकता है, ऐसी कल्पना भी मेरी रूह कंपा देती है. तभी मैं कह रहा हूं कि तुम दोनों हमें साथ ले जाने की जिद न करो. अगर तुम दोनों के बीच कभी अलगाव हुआ और मुझे वैसी शर्मिंदगी का बोझ एक बार फिर से ढोना पड़ा, तो मैं जीतेजी मर जाऊंगा.’’

‘‘पापा, आप अपने आंसू पोंछ लो, प्लीज… मैं वादा करती हूं कि घर छोड़ कर जाने की बात मेरे मुंह से कभी नहीं निकलेगी.’’ अपने ससुर के मन की पीड़ा को दूर करने के लिए अंजु ने भरे गले से तुरंत उन्हें  विश्वास दिलाया.

‘‘और मैं ने आज से शराब छोड़ दी,’’ मनोज के इस फैसले को सुन राजनाथजी ने भावविभोर हो कर उसे गले से लगा लिया.

‘‘आरती, तुम पैकिंग शुरू करो और मैं इस खुशी के मौके पर सब का मुंह हलवे से मीठा कराता हूं,’’ बहुत खुश नजर आ रहे राजनाथजी ने अपने बहूबेटे के सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया और फिर रसोई की तरफ चले गए.

एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा: कनिष्क के दिल में खूबसूरती के मायने बदलती रीतिका

उस ने उसे देखा तो बस देखता ही रह गया. कितने दिनों बाद किसी की आंखों में डूब जाने का मन हुआ था उस का. ऐसा लग रहा था जैसे इतने दिन इस पूरे चांद की आस में ही अधूरी चांदनी रातें गुजारी थीं उस ने. कनिष्क मैट्रो में सामने बैठी उस लड़की को पिछले कुछ मिनटों से देख रहा था, कभी पलकें झुकाता तो कभी उठाता. उस लड़की के चेहरे पर मास्क लगा हुआ था. आखिर लगा क्यों न होता, लगभग सभी ने मास्क पहना हुआ था, कोरोना का डर अभी तक गया जो नहीं था. कनिष्क का मास्क से दम घुटने लगा था और इसीलिए उस ने अपना मास्क उतार लिया था. उस ने अपने बगल में दाएंबाएं देखा तो बगल में बैठे दोनों ही लड़के अपने फोन की स्क्रीन में घुसे हुए थे. उस ने अपने हाथों में पकड़े फोन का कैमरा खोला और उस लड़की की फोटो खींचने लगा.

उस लड़की के हाथ में किताब थी. उस की नजरें अपनी किताब से हर आने वाले स्टेशन पर उठतीं और सामने खिड़की से बाहर देखने लगतीं. शायद उसे लगता हो कि उस का स्टेशन किताब के चक्कर में छूट न जाए. जब वह सामने की ओर देखती तो कनिष्क को लगता जैसे उसे देख रही हो. वह खुश हो जाता. अचानक उस लड़की के सामने एक वृद्ध अंकल आ कर खड़े हुए तो कनिष्क की ताकाझांकी में खलल पड़ गया. वह मन ही मन उन अंकल को दोतीन अपशब्द कहता, उस से पहले ही वह लड़की अपनी सीट से उठ गई और अंकल उसे थैंक्यू कहते हुए उस की सीट पर बैठ गए. कनिष्क को एक पल लगा कि उठ कर उस लड़की को अपनी सीट दे दे, लेकिन वह सोच में पड़ गया कि उठे या नहीं. वह लड़की जब खड़ी हुई तो राजेंद्र प्लेस आ चुका था. जैसे ही अगला स्टेशन करोल बाग आने वाला था, कनिष्क के बगल की सीट पर बैठा लड़का उठ खड़ा हुआ और वह कनिष्क के बगल में आ कर बैठ गई.

कनिष्क के मन में तो जैसे प्रेमगीत

गुनगुनाने लगे थे. वह उस लड़की के इतना करीब बैठा था लेकिन उस से कुछ कहने की उस की हिम्मत नहीं हुई. होती भी कैसे? आखिर उस लड़की को बुरा लग गया और उस ने मैट्रो में कोई तमाशा कर दिया तो? कनिष्क अपने सुंदर से चेहरे को उस लड़की के हाथों थप्पड़ खा कर लाल नहीं कराना चाहता था. वह लड़की अपनी किताब में खोई हुई थी कि अचानक उस के बैग में रखे फोन से नोटिफिकेशन की आवाज सुनाई दी. उस लड़की ने बैग से फोन निकाला. कनिष्क की नजरें भी उस के फोन पर जा अटकीं. स्क्रीन पर लिखा था, ‘नीतिका हैज मेंशंड इन अ स्टोरी’. यह इंस्टाग्राम का नोटिफिकेशन था जिस पर उस लड़की ने झट इंस्टाग्राम खोल लिया. उस का इंस्टाग्राम खुला और कनिष्क की नजर सब से ऊपर कोने में दिख रहे उस के यूजरनेम पर गई. यूजरनेम था ‘टोस्का’. कनिष्क ने यह शब्द ही पहली बार सुना था तो झट अपना इंस्टाग्राम खोल टोस्का टाइप कर उस लड़की  को ढूंढ़ने लगा कि तभी अनाउंसमैंट हुआ कि अगला स्टेशन राजीव चौक है. लड़की  झट उठी और बैग में किताब डालते हुए गेट पर जा खड़ी हुई. कनिष्क के देखते ही देखते गेट खुला और वह लड़की भी भीड़ में कहीं ओझल हो गई.

टोस्का….टोस्का…टोस्का….कनिष्क अपनी क्लास में बैठ अब भी उसी लड़की के बारे में सोच रहा था. लौकडाउन के बाद कालेज खुलने का यह तीसरा दिन ही था और सभी अपने क्वारंटाइन के दिनों की बातें करने में बिजी थे. कनिष्क बीएससी जूलोजी का सैकंड ईयर का स्टूडैंट था. तेजतर्रार डिबेटिंग सोसाइटी का मैंबर, वुमैन डेवलपमैंट सोसाइटी, बोटानिकल सोसाइटी, स्पिक मेके, लगभग हर करीकुलर एक्टिविटी से वह जुड़ा हुआ था.

वह स्कूलटाइम से ही कई रिलेशनशिप्स में रहा था. लेकिन कोई भी बहुत सीरियस कभी नहीं हुई थी और कालेज में पिछले एक साल में उस ने एकदो लड़कियों को डेट किया ही था. आज जब उस लड़की को देखा तो उसे लगा जैसे उसे कुछ महसूस हुआ है, कुछ नौर्मल से हट कर. हर मिनट वह इंस्टाग्राम पर चैक करता कि उस ने अब तक उस की फौलोरिक्वैस्ट एक्सैप्ट की है या नहीं. उस लड़की की प्रोफाइल प्राइवेट थी यानी डिस्प्ले पिक्चर के अलावा कनिष्क को कुछ भी नहीं दिख रहा था. डिस्प्ले पिक्चर में भी उस का चेहरा साफ नहीं था, उस ने अपने मुंह पर हाथ रखा हुआ था. कनिष्क बेताब हुआ जा रहा था उन हाथों के पीछे छिपे उस के खूबसूरत चेहरे को देखने के लिए. कनिष्क को इस तरह कशमकश में देख उस का दोस्त सुमित उस के बगल में आ कर बैठ गया.

‘‘कुछ बात है क्या,’’ सुमित ने सवाल किया.

‘‘नहीं, कुछ खास नहीं,’’ कनिष्क ने कहा.

‘‘ठीक है,’’ कह कर सुमित उठ ही रहा था कि कनिष्क बोल पड़ा, ‘‘कभी ऐसा हुआ है कि तू ने कोई लड़की देखी हो मैट्रो में और तुझे उस पर क्रश टाइप कुछ आ गया हो?’’

‘‘रोज ही आता है नया क्रश तो,’’ सुमित ने कहा और ठहाका मार हंसा.

‘‘फिर आगे? तू बात करता है उस से जा कर या कभी इंस्टाग्राम या फेसबुक पर मिली वह?’’

‘‘पागल है क्या? मैट्रो में देख कर उस का नाम थोड़ी पता चल जाता है. और वैसे भी, आजकल हर लड़की का बौयफ्रैंड होता ही है. सो, बिना जाने उसे अप्रोच करने का कोई फायदा नहीं है,’’ सुमित ने कहा.

‘‘ओह.’’

‘‘तुझे कौन पसंद आ गई?’’

‘‘नहीं, कोई नहीं,’’ कनिष्क ने बताया.

‘‘अब बता भी.’’

‘‘यार, एक लड़की दिखी थी आज मैट्रो में मास्क पहने हुए. महरून टौप, ब्लू जींस, लंबेघने बाल, स्पोर्टशूज पहने हुए थी. उस की आंखें इतनी सुंदर थीं कि क्या बताऊं. उस ने हैंडबैग ले रखा था और किताब पढ़ रही थी मुराकामी की, मतलब समझदार किस्म की थी. एक तो इतनी पतली थी, ऊपर से पर्सनैलिटी इतनी अच्छी, उठनेबैठने का तरीका इतना अच्छा था. देख, मैं ने उस की फोटो भी ली थी. चेहरा नहीं दिख रहा लेकिन पर्सनैलिटी देख यार,’’ कहते हुए कनिष्क सुमित को उस लड़की की तसवीर दिखाने लगा.

‘‘तो तू ने बात नहीं की?’’ सुमित बोल उठा.

‘‘नहीं न, यही तो प्रौब्लम है. लेकिन मैं ने उस का इंस्टा यूजरनेम देखा था और उसे रिक्वैस्ट भी भेज दी. अब वह एक्सैप्ट कर ले, तो कुछ बात बने.’’

‘‘हम्म, लेट्स सी.’’

कनिष्क पूरा दिन इंतजार करता रहा. लेकिन उस लड़की ने रिक्वैस्ट एक्सैप्ट नहीं की. आखिर उसे खुद को रोका नहीं गया और उस ने उसे मैसेज कर दिया, ‘हाय, आई एम कनिष्क. मैं ने तुम्हें मैट्रो में देखा था, आज तुम मेरे बगल में आ कर बैठी भी थीं. मैं तुम से बात करना चाहता था. और हां, मैं ने तुम्हारी कुछ तसवीरें भी ली थीं, तुम इतनी सुंदर लग रही थीं कि

मैं खुद को रोक नहीं पाया,’ कनिष्क ने इतना लिखा और तसवीरें उस लड़की को भेज दीं.

5 मिनट बाद ही उधर से रिप्लाई आ गया, ‘हाय, ये तसवीरें बहुत खूबसूरत हैं, थैंक्यू.’ कनिष्क तो मानो रिप्लाई देख कर उछल पड़ा. उस ने लिखा, ‘ओह वेल, आई एम ग्लैड. बाई द वे तुम्हारा नाम क्या है?’

‘रीतिका,’ रिप्लाई आया.

‘तुम्हारा नाम भी तुम्हारी तरह ही खूबसूरत है,’ कनिष्क ने लिखा और उस की मुसकराहट मानो जाने का नाम ही नहीं ले रही थी.

‘हाहाहा, इतनी तारीफ?’

‘तुम हो ही तारीफ के काबिल, वैसे मेरा नाम कनिष्क है. मैं हंसराज कालेज का स्टूडैंट हूं, और तुम?’

‘गार्गी कालेज, सैकंड ईयर बीकौम,’ रीतिका ने उधर से लिखा.

‘ओहह, इंप्रैसिव.’

‘थैंक्स.’

कनिष्क सोच में पड़ गया कि अब क्या लिखे. उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि अब आगे क्या कहे सो, वह पूछ उठा, ‘तुम ने अपना यूजरनेम टोस्का क्यों रखा?’

‘मुझे इस का अर्थ पसंद है, मैं खुद को इस शब्द से कनैक्ट कर पाती हूं.’

‘मैं ने इस शब्द को गूगल किया था. यह रूसी शब्द है जिस का अर्थ है अनंत दुख, दर्द, पीड़ा. आखिर इतने दुखी शब्द से तुम कनैक्ट कैसे कर लेती हो?’

‘बस, कर लेती हूं, कोई विशेष कारण नहीं है इस के पीछे.’

‘अच्छा, तुम्हें किताबें पढ़ना भी पसंद है न?’

‘हां, बेहद.’

‘अच्छा सुनो?’ कनिष्क ने लिखा.

‘कहो,’ रीतिका ने कहा.

‘तुम ने अब तक मेरी रिक्वैस्ट एक्सैप्ट नहीं की है, मैं तुम्हारी प्रोफाइल नहीं देख पा रहा हूं.’

‘हां, नैटवर्क में कुछ प्रौब्लम है शायद. नैटवर्क ठीक होते ही एक्सैप्ट कर लूंगी.’

‘ओह, कोई बात नहीं. वैसे एक बात कहूं?’

‘कहो.’

‘तुम्हें देखते ही तुम पर क्रश आ गया था मुझे,’ कनिष्क खुद को कहने से रोक नहीं पाया.

‘सचमुच?’

‘हां, सच. तुम ने तो मुझे बिलकुल नोटिस नहीं किया था वैसे.’

‘ऐसा तो कुछ नहीं है. तुम अपना फोन हाथ में ले कर बैठे थे, बारबार मेरी तरफ देख रहे थे. तुम ने ग्रीन शर्ट पहनी थी चैक वाली. ब्लैक स्पोर्ट्स शूज और ब्लू जींस. मैं तुम्हारे बगल में आ कर बैठी थी तो तुम्हारे चेहरे पर मुसकान आ गई थी.’

रीतिका का मैसेज देख कर कनिष्क सातवें आसमान पर पहुंच गया. वे दोनों रातभर एकदूसरे से बातें करते रहे. कौन सा गाना पसंद है, खाने में क्या पसंद है, कालेज की ऐक्टिविटीज, दोस्तयार. लगभग हर टौपिक पर दोनों बातें करते रहे. देखतेदेखते कब सुबह के 4 बज गए, दोनों को पता ही नहीं चला.

‘वैसे किताबें किस तरह की पढ़ती हो तुम, फिक्शन या नौनफिक्शन?’

‘दोनों ही, लेकिन मुझे फिक्शन ज्यादा पसंद है.’

‘ऐसा क्यों? हकीकत से बेहतर कल्पनाएं लगती हैं तुम्हें?’

‘हकीकत मुझे डराती है.’

‘अच्छा, फिर बीकौम क्यों ली तुम ने? उस में तो सब हकीकत ही है, कुछ कल्पना नहीं है.’ कनिष्क ने चुटकी लेने के अंदाज में पूछा.

‘हाहा, टौपर थी मैं स्कूल में और फर्स्ट सैमेस्टर की भी.’

‘तुम तो समझदार भी हो मतलब.’

‘वो तो मैं हूं.’

‘कल मिलोगी?’ कनिष्क ने मैसेज किया. उधर से मैसेज का जवाब आया, ‘सुबह

8:55, सुभाष नगर मैट्रो स्टेशन.’

‘मिलते हैं,’ आखिरी मैसेज में कनिष्क ने छोटा सा दिल भी भेज दिया और उधर से भी रिप्लाई में दिल आया तो उस की खुशी और बढ़ गई.

अगली सुबह कनिष्क 8:40 पर ही मैट्रो पर पहुंच गया. वह इंतजार में था कि कब रीतिका आए और वह उस का चेहरा देखे, उस से हाथ मिलाए, बातें करे. उस ने सुबह से अब तक रीतिका को कोई मैसेज नहीं भेजा. उसे लगा, कहीं वह ज्यादा उत्सुकता दिखाएगा तो रीतिका उसे डैसप्रेट न समझने लगे. वह मैट्रो में नवादा से चढ़ा था और लगभग 5 मिनट में ही सुभाष नगर पहुंच गया था. वह सुभाष नगर मैट्रो स्टेशन के प्लैटफौर्म पर रखी बैंच पर बैठ गया. उस की नजरें बारबार रीतिका के इंतजार में दाईं ओर मुड़ रही थीं.

वह सोच रहा था कि रीतिका से क्या कहेगा, हाय कैसी हो, नहीं यह नहीं. हाय यू लुक ब्यूटीफुल, नहीं यह तो बड़ा फ्लर्टी साउंड कर रहा है. हैलो, आज तो तुम कल से भी ज्यादा सुंदर लग रही हो, हां परफैक्ट, कनिष्क सब सोच ही रहा था कि एक लड़की उस के सामने आ कर रुक गई. वह समझ गया कि यह रीतिका है. आज उस ने पीला टौप पहना हुआ था, बाल खोले हुए थे और चेहरे पर अब भी मास्क था. रीतिका की आंखें खुशी से चमचमाती हुई दिख रही थीं. कनिष्क की आंखों में उस से मिलने की ललक साफसाफ झलक रही थी.

‘‘हाय,’’ रीतिका ने कहा और हाथ आगे बढ़ाया.

‘‘हैलो,’’ कनिष्क ने कहते हुए हाथ मिलाया. वह कुछ और कह पाता उस से पहले ही रीतिका ने अपना मास्क उतारना शुरू कर दिया. कनिष्क का चेहरा अचानक पीला पड़ गया. वह रीतिका का चेहरा देख कर दंग रह गया. रीतिका के होंठों का आकार बिगड़ा हुआ था, वे कटेफटे हुए लग रहे थे. ऐसा लग रहा था मानो कोई हादसा हुआ हो उस के साथ. उस की सारी खूबसूरती उस के होंठों की बदसूरती से धरी की धरी रह गई. कनिष्क की आंखें फटी हुई थीं. कुछ कहने के लिए जैसे उस की जबान पर ताले पड़ गए थे.

रीतिका शायद समझ चुकी थी कनिष्क के मन का हाल. उस ने कहा, ‘‘ओह, मैं अपने नोट्स घर भूल गई हूं आज सबमिट करने थे कालेज में. मैं तुम से बाद में मिलती हूं, तुम जाओ कालेज के लिए लेट हो जाओगे वरना,’’ रीतिका ने बनावटी मुसकराहट के साथ कहा.

कनिष्क ने ओके कहा और मैट्रो उस के सामने आ कर रुकी ही थी कि वह उस में चढ़ गया. पूरे रास्ते वह सोचता रहा कि अब क्या करे. अब उसे रीतिका की खूबसूरती नजर नहीं आ रही थी बल्कि उस के चेहरे का वह दाग बारबार उस की आंखों के सामने आ रहा था. उस ने फोन चैक किया तो रीतिका उस की फौलो रिक्वैस्ट एक्सैप्ट कर चुकी थी. उस ने उस की प्रोफाइल देखी तो एक बार फिर उस के होंठों की जगह मांस के लोथड़े को देख उस का मन खीझ उठा.वह कालेज पहुंचा और अपनी कैंटीन में जा कर बैठ गया. उस का अब क्लास में जाने का भी मन नहीं था. कुछ मिनटों बाद ही सुमित वहां आ गया.

‘‘यार, बड़ी गड़बड़ हो गई,’’ कनिष्क ने कहा.

‘‘क्या हो गया?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘वह लड़की याद है कल वाली, उस से मिला आज मैं.’’

‘‘ओहहो, यह कैसे हो गया, कैसा रहा सब. नाम क्या है उस का? नंबर लिया या नहीं?’’ सुमित एक के बाद एक सवाल करने लगा.

‘‘रीतिका नाम है उस का और नंबर मांगता मैं आज लेकिन… यार उस का चेहरा… यह देख,’’ कनिष्क ने फोन खोल रीतिका की इंस्टा पर जितनी तसवीरें थीं सुमित को दिखाईं.

तसवीरें देख कर सुमित का मुंह भी खुला का खुला रह गया. उस के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा, ‘‘भाईसाहब यह क्या है, कैसे, क्यों, मतलब यह कैसे हुआ?’’

‘‘यार, मुझे क्या पता. मैं बस उस की शक्ल नहीं देख पा रहा अब. मुझे कल ही उस की शक्ल दिख जाती तो ऐसा नहीं होता न.’’

‘‘तो कल तू ने शक्ल कैसे नहीं देखी? इंस्टाग्राम पर तो तुझे कल भी शक्ल दिख ही गई होगी.’’

‘‘उस ने मुझे फंसाया है,’’ कनिष्क बोल उठा.

‘‘क्या मतलब?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘पहले तो उस ने मेरी रिक्वैस्ट एक्सैप्ट नहीं की ताकि मैं उस की शक्ल न देख पाऊं, फिर इतनी मीठीमीठी बातें कीं मुझ से, लेकिन यह नहीं बताया कि उस की शक्ल ऐसी है. अब तो मुझे लग रहा है कल मेरे बगल में भी वह जानबूझ कर ही बैठी होगी और अपना यूजरनेम भी जान कर ही दिखाया होगा. आजकल की लड़कियां इतनी चालाक हैं न कि क्या बताऊं…’’ कनिष्क लगातार बोले ही जा रहा था कि उस के फोन पर इंस्टाग्राम का नोटिफिकेशन आ गया.

उस ने फोन खोला तो देखा रीतिका का मैसेज था, ‘‘हाय, मुझे तुम्हें देख कर लगा था तुम अलग हो पर तुम भी सब की तरह ही निकले. सौरी, मुझे तुम से बात करने से पहले अपनी शक्ल दिखा देनी चाहिए थी ताकि आज सुबह जो हुआ वह न होता. मेरी शक्ल के आगे तुम मेरी सारी खूबियां भूल गए होगे, है न? तुम पहले नहीं हो जिस ने ऐसा किया है. मेरा चेहरा बचपन से ही ऐसा है और यकीन मानो, मेरे लिए भी इसे देखना एक वक्त पर बहुत मुश्किल था, लेकिन अब नहीं है. तुम्हें मुझ से बात करने की या मुझे आगे जाननेसमझने की कोई जरूरत नहीं है, एक दिन में कौन सा तुम और मैं एकदूसरे को इतना जानते ही हैं जो किसी तरह की कोई मुश्किल होगी. चिल्ल करो.’’

कनिष्क और सुमित दोनों ने ही यह मैसेज पढ़ा. कनिष्क ने मैसेज पढ़ कर रिप्लाई किए बिना ही फोन बंद कर दिया.

‘‘तू रिप्लाई नहीं करेगा?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ कनिष्क बोला.

‘‘पर क्यों नहीं?’’ सुमित हैरान था.

‘‘तू ने देखा नहीं? एक तो इस की शक्ल इतनी बुरी है ऊपर से इतना घमंड, इतना एटीट्यूड, किस बात का? पहले खुद मुझे फंसाने की कोशिश की अब मुझे इमोशनल करने की कोशिश कर रही है अपना दुखड़ा सुना कर. ‘मुझे लगा तुम अलग हो’ इस का क्या मतलब है. खुद की शक्ल ऐसी है तो मैं क्या करूं. मुझे न इस से कोई बात करनी है न इस को देखना है. पता नहीं कौन सी घड़ी में मुझे यह अच्छी लग गई,’’ कनिष्क जिस मुंह से कल तक फूल गिरा रहा था, आज जहर उगल रहा था.

‘‘तू यह बोल क्या रहा है, कुछ सोच भी रहा है? तू उस के पीछे था, तू ने उसे सामने से अप्रोच किया, अब तू कह रहा है कि उस में सैल्फरिस्पैक्ट तक नहीं होनी चाहिए क्योंकि उस की शक्ल बुरी है. तू ही था न जिस ने पिछले साल एसिड अटैक पर भाषण दिया था स्टेज पर और कहा था कि खूबसूरती सीरत में होती है सूरत में नहीं, अब अपनी बात से ऐसे कैसे पलट रहा है.’’

‘‘यार, तू मेरा दोस्त है या उस का?’’ कनिष्क ने चिढ़ते हुए कहा.

‘‘हूं तो तेरा ही पर अब लग रहा है कि क्यों हूं. तेरी सारी खूबियां तेरी घटिया सोच के आगे फीकी पड़ गई हैं और यकीन मान, तू परफैक्ट नमूना है इस बात का कि लोग शक्ल से सुंदर हों तो जरूरी नहीं मन से भी हों.’’

‘‘मुझ से इस तरह बात करने की कोई जरूरत नहीं है सुमित,’’ कनिष्क ने कहा.

‘‘मेरे आगे किसी के बारे में इस तरह की बात करने की तुझे भी कोई जरूरत नहीं है. मैं तेरा दोस्त हूं, इस का मतलब यह नहीं तेरी हर गलतसलत बातें सुनूंगा. और पता है, मैं खुश हूं कि वह लड़की  बच गई. क्या कौन्फिडैंस है उस में. तुझ जैसे लड़के की गर्लफ्रैंड बनती तो आत्मग्लानि और इंसिक्योरिटी से भर जाती.’’ सुमित अपनी बात कह कर चला गया और कनिष्क गुस्से से भर गया. उस ने फोन उठाया और इंस्टाग्राम से रीतिका को ब्लौक कर दिया.

उस शाम कनिष्क न चाहते हुए भी बारबार रीतिका के बारे में ही सोच रहा था. उसे सुमित की कही बातें भी याद आ रही थीं. कनिष्क ने फोन उठाया और रीतिका को अनब्लौक कर मैसेज टाइप किया, ‘सौरी, मैं ने इतनी बुरी तरह बिहेव किया.’ कनिष्क के मैसेज भेजने के कुछ ही सैकंड्स में उसे रीतिका का रिप्लाई आया, ‘कोई बात नहीं.’

कनिष्क के चेहरे पर एक बार फिर मुसकराहट लौट आई थी. एक बार फिर उन दोनों की बातों का सिलसिला चल पड़ा था.

‘अपना नंबर ही दे दो, मुझ से इंस्टाग्राम पर बात करना बहुत बोरिंग लगता है,’ कनिष्क ने कहा तो रीतिका ने उसे अपना नंबर दे दिया. उन दोनों ने फिर कभी उस सुबह की बात नहीं की लेकिन फिर कभी मैं और तुम से हम होने का खयाल भी दोनों के जेहन में नहीं आया. कनिष्क इस बारे में बात नहीं करना चाहता था और रीतिका की अब हिम्मत नहीं थी इस बारे में कुछ कहने की. वह चाहे जितनी भी मजबूत थी लेकिन रिजैक्शन सहने का डर उस में अंदर तक घर कर चुका था. खैर, दोनों को ही एक नया दोस्त मिल चुका था. कभीकभी दोनों साथ मैट्रो से राजीव चौक तक जाते तो ढेरों बातें किया करते, उस के बाद अपनेअपने कालेज के रूट पर निकल जाया करते.

‘‘तू ने वह सीरीज देखी जो मैं ने रात में बताई थी?’’ कनिष्क मैट्रो में रीतिका से पूछने लगा.

‘‘हां, उस लड़की  का कैरेक्टर कितना मजबूत था न, मैं तो इंप्रैस हो गई उस से,’’ रीतिका उत्सुकता से भर कर कहने लगी.

‘‘तू भी तो वैसी ही है, मजबूत और नकचढ़ी,’’ कनिष्क कह कर हंसने लगा.

‘‘नकचढ़ी और मैं? तू न, जलता है मुझ से, बस, आया बड़ा,’’ रीतिका झूठा गुस्सा दिखाने लगी.

‘‘तुझ से जलूंगा मैं, हाहा, रहने दे सुबहसुबह हंसा मत.’’

‘‘चल जा न, तंग मत कर मुझे अब.’’

‘‘तुझे तंग नहीं करूंगा तो दिन कैसे कटेगा मेरा,’’ कनिष्क ने कहा तो रीतिका और वह दोनों ही हंस पड़े.

‘‘मैं आज राइटिंग कंपीटिशन में जा रही हूं. जीत गई तो तेरी पार्टी पक्की.’’

‘‘पिज्जा से कम कुछ नहीं चलेगा, पहले ही बता रहा हूं.’’

‘‘हां भुक्खड़, खा लियो पिज्जा.’’

यह वादा रहा : ऐसा क्या हुआ जो आशा की नजरें शर्म से झुक गईं?

‘‘निक्की डार्लिंग, गुड मौर्निंग,’’ नर्स ने निक्की के वार्ड में प्रवेश करते हुए कहा.

‘‘गुड मौर्निंग सिस्टर,’’ निक्की ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘अब कैसा महसूस कर रही हो?’’

‘‘पहले से बेहतर हूं, पर बहुत कमजोरी लग रही है,’’ निक्की ने करवट लेते हुए कहा.

इतनी कम उम्र में निक्की के साथ कुछ ऐसा हुआ कि उस का शरीर कमजोर हो गया है.

‘‘थोड़ी देर में डाक्टर साहब आएंगे तो बता देना. अभी आराम करो,’’ कह नर्स चली गई.

निक्की सोचने में पड़ गई, ‘अपनी इस हालत की जिम्मेदार मैं खुद हूं या मेरी मां? शायद हम दोनों. समझ में नहीं आता है कि किसे अपना समझूं, अपने रिश्तेदार को या बाहर वालों को? अकसर रिश्तों की आड़ में ही लड़कियां ज्यादा शोषित होती हैं. काश, मां ने मेरी बात सुन ली होती… मेरी भी गलती है. जब वह बारबार मुझे छूने की कोशिश करता था तभी मुझे सतर्क हो जाना चाहिए था. तब आज यह दिन न देखना पड़ता हमें. पापा डिप्रैशन में हैं, मां का रोरो कर बुरा हाल हो गया है और मैं यहां अस्पताल में पड़ी हूं.’

निक्की को उस दिन की बातें याद आने लगीं जब आशा (निक्की की मां) तरहतरह के पकवान बना कर टेबल पर रख रही थीं और गुनगुना भी रही थीं.

निक्की ने स्कूल से आते ही पूछा, ‘‘मां, क्या बना रही हो? बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है. कोई मेहमान आने वाला है क्या?’’

‘‘मोहित आ रहा है… उसे कितने दिनों बाद देखूंगी. अब तो बड़ा हो गया होगा. मैं ने उसे अपनी गोद में बहुत खिलाया है,’’ आशा बहुत खुश थीं कि उन की बड़ी बहन का बेटा आ रहा है.

‘‘क्यों आ रहे हैं?’’ निक्की ने पूछा.

‘‘मोहित को डाक्टर बनना है… यहीं कोटा में दाखिला हुआ है उस का. अब उस की सगी मौसी यहां रहती है, तो वह होस्टल में क्यों रहेगा? वैसे दीदी ने मुझ से कहा है कि तुम परेशान मत हो. वह होस्टल में रह लेगा, पर मैं ही नहीं मानी. ठीक किया न?’’ अपने पति संजय की तरफ देखते हुए आशा बोलीं.

‘‘निक्की, मोहित तुम से सिर्फ 3 साल बड़ा है. मेरी शादी में वह 1 साल का था. मैं ने ही उस का नाम मोहित रखा था. बड़ा ही प्यारा बच्चा है.’’

मोहित कोटा आ कर सब से घुलनेमिलने की कोशिश करने लगा. संजय को

कुछ ठीक नहीं लग रहा था कि एक जवान लड़का उस के घर आ कर रह रहा है. अपनी जवान होती बेटी की चिंता हो रही थी उन्हें पर आशा को कौन समझाए, यह सोच कर उन्हें चुप रहना ही बेहतर लगा.

संजय की चुप्पी को भांप कर आशा ने कहा, ‘‘आप चिंता न करो. हम ने अपनी बच्ची को अच्छे संस्कार दिए हैं.’’

आशा चाहती थीं कि निक्की मोहित से घुलमिल जाए, पर उसे मोहित जरा भी अच्छा नहीं लगता था.

एक दिन आशा ने निक्की से कहा, ‘‘निक्की तू मोहित के साथ ही स्कूल चली जाया करना.’’

आशा चाहती थीं कि अगर दोनों बच्चे आपस में हंसेबोलें नहीं तो मोहित बोर हो जाएगा.

संजय को कुछ दिनों के लिए औफिस के काम से बाहर जाना पड़ा, तो मजबूरी में निक्की को मोहित के साथ स्कूल जाना पड़ता था.

मोहित उसे स्कूल छोड़ कर वहीं से कालेज चला जाता था. इस तरह धीरेधीरे दोनों में दोस्ती हो गई. अब निक्की को भी अपने मोहित भैया के साथ बातें करना, कहीं घूमने जाना अच्छा लगने लगा. पहले निक्की चुपचुप रहती थी पर अब खुश रहने लगी थी. यह देख कर आशा भी खुश थीं.

निक्की अब स्कूल से आते ही मोहित के कमरे में चली जाती और मोबाइल में गेम खेलती, फिल्में देखती. ये बातें संजय को ठीक नहीं लग रही थीं.

‘‘निक्की अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो. हमेशा मोबाइल पर लगी रहती हो,’’ एक दिन संजय ने निक्की को डांटते हुए कहा तो मोहित बोल पड़ा, ‘‘मौसाजी, मोबाइल में हम पढ़ भी सकते हैं.’’

‘‘तेरे मौसाजी को क्या पता कि महंगे मोबाइल के क्याक्या फायदे हैं,’’ आशा मजाक के लहजे में बोलीं.

बात हंसीमजाक में खत्म हो गई, पर मोहित का नजरिया निक्की के लिए सही प्रतीत  नहीं हो रहा था. मोहित की कुछ हरकतें धीरेधीरे निक्की को परेशान करने लगीं.

वह कोई भी बात निक्की को छूछू कर कहता. कभी किसी बात पर हंसी आ जाए तो निक्की पर गिर ही जाता. फिर सौरी बोल देता.

निक्की सोचती कि अब बोल दूंगी भैया से कि इस तरह न किया करो. अच्छा नहीं लगता. पर अगले ही पल मोहित कुछ ऐसा करता कि  निक्की को लगता वह कुछ ज्यादा ही सोच रही है.

मोहित हर वक्त निक्की के इर्दगिर्द ही मंडराता रहता, लेकिन आशा इसे भाईबहनों का प्यार समझती रहीं.

‘‘निक्की, चल तुझे मोबाइल पर कार्टून दिखाता हूं,’’ एक दिन मोहित ने कहा.

‘‘कार्टून? वह भी मोबाइल में?’’ चहकते हुए निक्की ने कहा.

‘‘हां, मोबाइल में, मौसामौसी आओ आप भी देखो न,’’ मोहित सब के सामने अपने को अच्छा दिखाने की कोशिश करता रहता.

संजय को भी अब मोहित अच्छा लगने लगा था. कभीकभी संजय भी उन दोनों के साथ मोबाइल के गेम में शामिल हो जाते थे.

‘‘पापा, मुझे भी एक ऐसा मोबाइल ला दो,’’ एक दिन निक्की ने पापा से कहा.

‘‘मेरा ले ले, मैं दूसरा खरीद लूंगा,’’ मोहित ने अपना मोबाइल निक्की को देते हुए कहा.

‘‘निक्की, अभी 2 महीने बाद ही तुम्हारी परीक्षा शुरू होने वाली है न? उस के बाद दिला दूंगा,’’ संजय बेटी को समझाते हुए बोले तो वह मान गई.

अब जब भी दोनों पढ़ाई से बोर हो जाते तो मोबाइल में गेम खेलने लगते. दोनों का साथ हंसना या बातें करना अब संजय को भी अच्छा लगने लगा था.

आशा और संजय को एक रात किसी दूर के रिश्तेदार के घर शादी में जाना था. निक्की को भी ले जाना चाहते थे पर वह जाना नहीं चाहती थी.

‘‘निक्की, हम जा रहे हैं. दरवाजा ठीक से लगा लेना. हमें आने में थोड़ी देर हो जाएगी… तुम दोनों खाना खा लेना,’’ आशा जाते हुए निक्की को समझा गईं.

निक्की, मोहित को खाने को बुलाने गई तो वह हड़बड़ा गया. जब निक्की ने पूछा कि मोबाइल में क्या देख रहे थे? तो वह टालते हुए बोला कि कुछ नहीं… वह मेरे दोस्त ने एक वीडियो भेजा है. उसे देख रहा था.

थोड़ी देर रुक कर मोहित बोला, ‘‘हम खाना बाद में खाएंगे पहले तुम भी  यह वीडियो देखो. बहुत मजा आएगा,’’ कह कर उस ने मोबाइल औन कर दिया.

‘‘छि: भैया, यह तो बहुत गंदा वीडियो है… मुझे नहीं देखना,’’ कह कर निक्की जाने लगी.

‘‘अरे निक्की रुको तो… अच्छा मत देखो. कुछ और देखते हैं,’’ पर थोड़ी देर में मोहित ने फिर वही वीडियो शुरू कर दिया.

निक्की मना करती रही पर मोहित नहीं माना और अब तो वह निक्की के साथ गलत व्यवहार करने लगा.

‘‘भैया, यह क्या कर रहे हो? छोड़ो मुझे,’’ निक्की कहते रही पर मोहित कहां मानने वाला था. उस ने अपनी बहन के साथ ही कुकर्म कर डाला, भाईबहन के रिश्ते को तारतार कर डाला.

निक्की के मातापिता घर देर से आए. निक्की को सोता देख वे दोनों भी सो गए.

आशा सुबह जब निक्की के लिए कौफी ले कर गईं तो निक्की मां के गले लग कर रोने लगी.

‘‘क्या हुआ बेटा?’’ आशा ने आश्चर्य से पूछा.

निक्की कुछ कहती उस से पहले ही मोहित वहां आ गया, ‘‘कुछ नहीं मौसी रात को भूत वाला वीडियो देख कर डर गई…’’

‘‘तुम ने ऐसा वीडियो दिखाया ही क्यों जो यह डर गई?’’ संजय ने थोड़ा गुस्से में कहा.

निक्की जब भी अकेली होती तो मोहित उस के साथ संबंध बनाने की कोशिश करता.

‘‘मैं मां को सब बता दूंगी कि आप मेरे साथ क्या करते हो,’’ निक्की ने कहा तो मोहित उसे एक और वीडियो दिखाते हुए बोला, ‘‘अब बताओगी कुछ मौसीमौसा को? बोलो निक्की?’’

निक्की बहुत डरी हुई थी कि अब क्या करेगी वह… कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, किस से कहे. मोहित उसे उन दोनों के अंतरंग संबंध का वीडियो जो दिखा चुका था और यह भी कह गया कि अगर तुम ने किसी को भी हमारे संबंधों के बारे में बताने की कोशिश की तो यह वीडियो सार्वजनिक कर दूंगा.

अब यह सोच कर ही निक्की की रूह कांप जाती कि उस के मातापिता की क्या

इज्जत रह जाएगी और वह कहां जा कर अपना मुंह छिपाएगी.

निक्की अपनी मां आशा को अपने हावभाव से बारबार समझाने की कोशिश करती रही, पर मां की आंखों पर तो प्यार का परदा पड़ा था.

एक दिन फोन आया कि आशा के पिताजी की तबीयत बहुत खराब है पर निक्की नहीं चाहती थी कि उस की मां उसे यहां छोड़ कर जाएं.

‘‘मां, मुझे भी ले चलो. मैं यहां आप के बिना नहीं रह सकूंगी,’’ निक्की जिद करने लगी.

‘‘निक्की तुम कैसे जा सकती हो… कुछ दिनों बाद तुम्हारी परीक्षा शुरू होने वाली है… वैसे भी तुम कितनी बार मेरे बिना रह चुकी हो तो अब क्यों जिद कर रही हो?’’ आशा थोड़ा गुस्से में बोलीं.

आशा के चले जाने के बाद तो मोहित और भी ज्यादा बदतमीजी पर उतर आया. निक्की अपने पापा से भी कुछ कह नहीं पा रही थी. पूरे 1 हफ्ते बाद जब आशा आईं तो मां को देखते ही निक्की रो पड़ी.

‘‘निक्की, क्या हुआ बेटा? कितनी कमजोर हो गई हो… मैं हफ्ते भर के लिए चली क्या गई खानापीना ही छोड़ दिया… संजय, आप मेरी बेटी का ध्यान नहीं रखते थे क्या?’’ आशा चिंतित होते हुए बोलीं.

‘‘मुझे क्या पता होता था कि ये दोनों कब जाते और कब आते थे… मैं तो खाना बना कर औफिस चला जाता था.’’

निक्की करीब 2 महीने से ये सब झेल रही थी. अपने में ही  घुट रही थी. 1 महीने से ज्यादा हो गया था मासिकधर्म आए, यह बात भी उसे सताए जा रही थी, पर यह बात अपने मांपापा को कैसे बताती… पढ़ाई भी ठीक से नहीं हो पा रही थी.

एक दिन अचानक निक्की बेहोश हो कर गिर पड़ी. निक्की की आंखें खुलीं तो अपने सामने मां को रोते देखा.

‘‘मां,’’ निक्की के मुंह से निकला.

अपनी बेटी की आवाज सुन कर आशा की जान में जान आई.

‘‘मुझे क्या हुआ था मां?’’

‘‘कुछ नहीं बेटा… अब सब ठीक है.’’

डाक्टर की आवाज से निक्की अतीत में आई. डाक्टर के पूछने पर निक्की ने कहा कि उसे बहुत कमजोरी हो रही है.

‘‘गर्भपात के कारण बहुत ज्यादा खून बह गया है… शुक्र है जान बच गई,’’ निक्की ने डाक्टर को अपने मातापिता से यह कहते सुना.

‘‘आप की कृपा है डाक्टर साहब,’’ उस के मातापिता हाथ जोड़े खड़े थे.

डाक्टर कह रहे थे, ‘‘मैं सब समझता हूं, पर आप लोगों को पुलिस थाने में

एफआईआर लिखा देनी चाहिए. खैर, जो आप को ठीक लगे. कल आप इसे घर ले जा सकते हैं. दवा टाइम पर देते रहना. कोई परेशानी हो तो फिर दिखा जाना.’’

घर आते ही निक्की की आंखों के सामने वही सब कुछ घूमने लगा.

‘‘अगर वह लड़का यहां से भाग नहीं गया होता तो मैं उस का खून कर देता… ये सब तुम्हारे अंधविश्वास का नतीजा है, जो आज मेरी बेटी को भुगतना पड़ा… मुझे तो उस का हमारे घर आ कर रहना ही पसंद नहीं था, पर तुम मेरा बेटा, मेरा बेटा रटती रहती थीं,’’ गुस्से में तमतमाते हुए संजय ने अपनी पत्नी आशा से कहा.

‘‘हांहां, ये सब मेरी करनी का ही फल है… मेरी बेटी मुझे बारबार इशारा करती रही और मैं पागल उसी पापी को बेटा समझती रही… अपनी निक्की का बड़ा भाई समझती रही. अगर दीदी उस दिन फोन पर गिड़गिड़ाती नहीं तो मैं उसे उम्र भर की सजा करवाती… यह सोच कर भी चुप रही कि मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद हो जाएगी. लेकिन अब प्रण करती हूं कि किसी पर भी भरोसा नहीं करूंगी. संजय और निक्की आप दोनों मुझे माफ कर दीजिए… अब किसी पर भी जल्दी विश्वास नहीं करूंगी, अपनी बेटी की सुरक्षा और उस के मानसम्मान पर किसी की भी बुरी नजर नहीं पड़ने दूंगी. यह वादा है आप दोनों से.’’

भूलना मत : नम्रता की जिंदगी में क्या था उस फोन कौल का राज?

नम्रता ने फोन की घंटी सुन कर करवट बदल ली. कंबल ऊपर तक खींच कर कान बंद कर लिए. सोचा कोई और उठ कर फोन उठा लेगा पर सभी सोते रहे और फोन की घंटी बज कर बंद हो गई.

‘चलो अच्छा हुआ, मुसीबत टली. पता नहीं मुंहअंधेरे फोन करने का शौक किसे चर्राया,’ नम्रता ने स्वयं से ही कहा.

पर फोन फिर से बजने लगा तो नम्रता झुंझला गई, ‘‘लगता है घर में मेरे अलावा यह घंटी किसी को सुनाई ही नहीं देती,’’ उस ने उठने का उपक्रम किया पर उस के पहले ही अपने पिता शैलेंद्र बाबू की पदचाप सुन कर वह दोबारा सो गई. पिता ने फोन उठा लिया.

‘‘क्या? क्या कह रहे हो कार्तिक? मुझे तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं होता. पूरे देश में प्रथम स्थान? नहींनहीं, तुम ने कुछ गलत देखा होगा. क्या नैट पर समाचार है?’’

‘‘अब तो आप को मिठाई खिलानी ही पड़ेगी.’’

‘‘हां, है.’’

‘‘मिठाई?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, घर आओ तो, मिठाई क्या शानदार दावत मिलेगी तुम्हें,’’ शैलेंद्र बाबू फोन रखते ही उछल पड़े. थोड़ी देर पहले की मीठी नींद से उठने की खुमारी और बौखलाहट एक क्षण में उड़नछू हो गई.

‘‘सुचित्रा, नम्रता, अनिमेष, कहां हो तुम तीनों? देखो कितनी खुशी की बात है,’’ वे पूरी शक्ति लगा कर चीखे.

‘‘क्या है? क्यों सारा घर सिर पर उठा रखा है?’’ सुचित्रा पति की चीखपुकार सुन कर उठ आईं.

‘‘बात ही ऐसी है. सुनोगी तो उछल पड़ोगी.’’

‘‘अब कह भी डालो, भला कब तक पहेलियां बुझाते रहोगे.’’

‘‘तो सुनो, हमारी बेटी नम्रता भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रथम आई है.’’

‘‘क्या? मुझे तो विश्वास नहीं होता. किसी ने अवश्य तुम्हें मूर्ख बनाने का प्रयत्न किया है. किस का फोन था? अवश्य ही किसी ने मजाक किया होगा.’’

‘‘कार्तिक का फोन था और मैं उस की बात पर आंख मूंद कर विश्वास कर सकता हूं.’’

मातापिता की बातचीत सुन कर नम्रता और अनिमेष भी उठ कर आ गए.

‘‘मां ठीक कहती हैं, पापा. क्या पता किसी ने शरारत की हो. परीक्षा में सफल होना तो संभव है पर सर्वप्रथम आना…मैं जब तक अपनी आंखों से न देख लूं, विश्वास नहीं कर सकती,’’ नम्रता ने अपना मत प्रकट किया.

पर जब तक नम्रता कुछ और कहती अनिमेष कंप्यूटर पर ताजा समाचार देखने लगा जहां नम्रता के भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रथम आने का समाचार प्रमुखता से दिखाया जा रहा था. कुछ ही देर में समाचारपत्र भी आ गया और फोन पर बधाई देने वालों का तांता सा लग गया.

शैलेंद्र बाबू तो फोन पर बधाई स्वीकार करने और सब को विस्तार से नम्रता के आईएएस में प्रथम आने के बारे में बताते हुए इतने व्यस्त हो गए कि उन्हें नाश्ता तक करने का समय नहीं मिला.

दिनभर घर आनेजाने वालों से भरा रहा. नम्रता जहां स्थानीय समाचारपत्रों के प्रतिनिधियों व टीवी चैनलों को साक्षात्कार देने में व्यस्त थी, वहीं अनिमेष और सुचित्रा मेहमानों की खातिरदारी में.

शैलेंद्र बाबू के तो पांव खुशी के कारण जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. नम्रता ने एक ही झटके में पूरे परिवार को साधारण से असाधारण बना दिया था.

रात गहराने लगी तो अनेक परिचित विदा लेने लगे. पर दूर से आए संबंधियों के ठहरने, खानेपीने का प्रबंध तो करना ही था. सुचित्रा के तो हाथपैर फूल गए थे. तीन बुलाए तेरह आए तो सुना था उन्होंने पर यहां तो बिना बुलाए ही सब ने धावा बोल दिया था.

वे अनिमेष को बारबार बाजार भेज कर आवश्यकता की वस्तुएं मंगा रही थीं और स्वयं दिनभर रसोई में जुटी रहीं.

अतिथियों को खिलापिला व सुला कर जब पूरा परिवार साथ बैठा तो सभी को अपनी कहने और दूसरों की सुनने का अवसर मिला.

‘‘मुझ से नहीं होता इतने लोगों के खानेपीने का प्रबंध. कल ही एक रसोइए का प्रबंध करो,’’ सब से पहले सुचित्रा ने अपना दुखड़ा कह सुनाया.

‘‘क्यों नहीं, कल ही से रख लेते हैं. कुछ दिनों तक आनेजाने वालों का सिलसिला चलेगा ही,’’ शैलेंद्र बाबू ने कहा.

‘‘मां, घर में जो भी सामान मंगवाना हो उस की सूची बना लो. कल एकसाथ ला कर रख दूंगा. आज पूरे दिन आप ने मुझे एक टांग पर खड़ा रखा है,’’ अनिमेष बोला.

‘‘तुम लोगों को एक दिन थोड़ा सा काम करना पड़ जाए तो रोनापीटना शुरू कर देते हो. पर जो सब से महत्त्वपूर्ण बातें हैं उन की ओर तुम्हारा ध्यान ही नहीं जाता,’’ शैलेंद्र बाबू गंभीर स्वर

में बोले.

‘‘ऐसी कौन सी महत्त्वपूर्ण बात है जिस की ओर हमारा ध्यान नहीं गया?’’ सुचित्रा ने मुंह बिचकाया.

‘‘कार्तिक…आज सुबह सब से पहले कार्तिक ने ही मुझे नम्रता की इस अभूतपूर्व सफलता की सूचना दी थी. पर मैं पूरे दिन प्रतीक्षा करता रहा और वह नहीं आया.’’

‘‘प्रतीक्षा केवल आप ही नहीं करते रहे, पापा, मैं ने तो उसे फोन भी किया था. जितना प्रयत्न और परिश्रम मैं ने किया उतना ही उस ने भी किया. उसे तो जैसे धुन सवार थी कि मुझे इस प्रतियोगिता में सफल करवा कर ही मानेगा. मेरी सफलता का श्रेय काफी हद तक कार्तिक को ही जाता है.’’

‘‘सब कहने की बात है. ऐसा ही है तो स्वयं क्यों नहीं दे दी आईएएस की प्रवेश परीक्षा?’’

‘‘क्योंकि वह चाहता ही नहीं, मां. उसे पढ़नेपढ़ाने में इतनी रुचि है कि वह व्याख्याता की नौकरी छोड़ना तो दूर, अर्थशास्त्र में पीएचडी करने की योजना बना रहा है.’’

‘‘तो अब मेरी बात ध्यान से सुनो. अब तक तो तुम दोनों की मित्रता ठीक थी पर अब तुम दोनों का मिलनाजुलना मुझे पसंद नहीं है. बड़ी अफसर बन जाओगी तुम. अपनी बराबरी का वर ढूंढ़ो तो मुझे खुशी होगी. भूल गईं, सुधीर और उस के परिवार ने हमारे साथ कैसा व्यवहार किया था?’’ सुचित्रा बोलीं.

‘‘तो आप चाहती हैं कि मैं भी कार्तिक के साथ वही करूं जो सुधीर ने मेरे साथ किया था.’’

‘‘हां, तुम लोगों ने अपनी व्यस्तता में देखा नहीं, कार्तिक आया था, मैं ने ही उसे समझा दिया कि अब नम्रता उस से कहीं आगे निकल गई है तो किसी से बिना मिले मुंह छिपा कर चला गया,’’ सुचित्रा बोलीं.

‘‘क्या? आप ने मुझे बताया तक नहीं? कार्तिक जैसे मित्र बड़ी मुश्किल से मिलते हैं. हम दोनों तो जीवनसाथी बनने का निर्णय ले चुके हैं,’’ यह बोलते हुए नम्रता रो पड़ी.

‘‘मैं तुम से पूरी तरह सहमत हूं, बेटी. कार्तिक हीरा है, हीरा. उसे हाथ से मत जाने देना,’’ शैलेंद्रजी ने नम्रता को ढाढ़स बंधाया.

एकांत मिलते ही नम्रता ने कार्तिक का नंबर मिलाया. पर बहुत पहले की एक फोन कौल उस के मानसपटल पर हथौड़े की चोट करने लगी थी.

उस दिन भी फोन उस के पिता ने ही उठाया था.

‘नमस्ते शैलेंद्र बाबू. कहिए, विवाह की सब तैयारियां हो गईं?’ फोन पर धीर शाह का स्वर सुन कर शैलेंद्र बाबू चौंक गए थे.

‘सब आप की कृपा है. हम सब तो कल की तैयारी में ही व्यस्त हैं.’

इधरउधर की औपचारिक बातों के बाद धीर बाबू काम की बात पर आ गए.

‘ऐसा है शैलेंद्र बाबू, मैं ने तो लाख समझाया पर रमा, मेरी पत्नी तो कुछ सुनने को तैयार ही नहीं. बस, एक ही जिद पर अड़ी है. उसे तो तिलक में 10 लाख नकद चाहिए. वह अपने मन की सारी साध पूरी करेगी.’’

‘क्या कह रहे हैं आप, धीर बाबू? तिलक में तो लेनेदेने की बात तय नहीं हुई थी. अब एक दिन में 10 लाख का प्रबंध कहां से करूंगा मैं?’ शैलेंद्र बाबू का सिर चकराने लगा. आवाज भर्रा गई.

‘क्या कहूं, मैं तो आदर्शवादी व्यक्ति हूं. दहेज को समाज का अभिशाप मानता हूं. पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है. रमा ने तो जिद ही पकड़ ली है. वैसे गलती उस की भी नहीं है. आप के यहां संबंध होने के बाद भी लोग दरवाजे पर कतार बांधे खड़े हैं.’

सोचने व समझ पाने के लिए शैलेंद्र ने कहा, ‘मेरे विचार से ऐसे गंभीर विचारविमर्श फोन पर करना ठीक नहीं रहेगा. मैं अपनी पत्नी सुचित्रा के साथ आप के घर आ रहा हूं. वहीं मिलबैठ कर सब मसले सुलझा लेंगे.’

नम्रता ने शैलेंद्र बाबू और धीर शाह के बीच होने वाली बातचीत को सुन लिया था और किसी अशुभ की आशंका से वह कांप उठी थी.

शैलेंद्र बाबू और सुचित्रा जब धीर बाबू के घर गए तो उन्होंने 10 लाख की मांग को दोहराया, जिस से शैलेंद्र बाबू निराश हो गए.

जब नम्रता से सुधीर का संबंध हुआ था तब सुधीर डिगरी कालेज में साधारण सा व्याख्याता था पर अब वह भारतीय प्रशासनिक सेवा का अफसर बन गया था. इसी कारण वर का भाव भी बढ़ गया. अफसर बनते ही सुधीर का दुनिया के प्रति नजरिया भी बदल गया.

शैलेंद्र और सुचित्रा उठ खड़े हुए. घर आ कर बात साफ कर दी गई.

‘यह विवाह नहीं होगा. लगता है और कोई मोटा आसामी मिल गया है धीर बाबू को,’ शैलेंद्र बाबू ने सुचित्रा से कहा.

सुधीर और नम्रता ने कालेज की पढ़ाई साथ पूरी की थी. दोनों के प्रेम के किस्से हर आम और खास व्यक्ति की जबान पर थे. एमफिल करते ही जब दोनों को अपने ही कालेज में व्याख्याता के पद प्राप्त हो गए तो उन की खुशी का ठिकाना न रहा. उन के प्यार की दास्तान सुन कर दोनों ही पक्षों के मातापिता ने उन के विवाह की स्वीकृति दे दी थी.

नम्रता से विवाह तय होते ही जब सुधीर का आईएएस में चयन हो गया तो सुचित्रा और शैलेंद्र बाबू भी खुशी से झूम उठे. वे मित्रों, संबंधियों और परिचितों को यह बताते नहीं थकते थे कि उन की बेटी नम्रता का संबंध एक आईएएस अफसर से हुआ है.

नम्रता स्वयं भी कुछ ऐसा ही सोचने लगी थी. वह जब भी सुधीर से मिलती तो गर्व महसूस करती थी. पर आज सबकुछ बदला हुआ नजर आ रहा था.

सुधीर और उस का प्रेमप्रसंग तो पिछले 5 वर्षों से चल रहा था. सुधीर तो दहेज के सख्त खिलाफ था. फिर आज अचानक इतनी बड़ी मांग? वह छटपटा कर रह गई.

उस ने तुरंत सुधीर को फोन मिलाया. उसे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि सुधीर और उस का परिवार तिलक से ठीक पहले ऐसी मांग रख देंगे. वह सुधीर से बात कर के सब साफसाफ पूछ लेना चाहती थी. उन दोनों के प्यार के बीच में यह पैसा कहां से आ गया था.

‘हैलो, सुधीर, मैं नम्रता बोल रही हूं.’

‘हां, कहो नम्रता, कैसी हो? कल की सब तैयारी हो गई क्या?’

‘यही तो मैं तुम से पूछ रही हूं. यह एक दिन पहले क्या 10 लाख की रट लगा रखी है? मेरे पापा कहां से लाएंगे इतना पैसा?’

‘शांत, नम्रता शांत. इतने सारे प्रश्न पूछोगी तो मैं उन के उत्तर कैसे दे सकूंगा.’

‘बनो मत, तुम्हें सब पता है. तुम्हारी स्वीकृति के बिना वे ऐसी मांग कभी नहीं करते,’ नम्रता क्रोधित स्वर में बोली.

‘तो तुम भी सुन लो, क्या गलत कर रहे हैं मेरे मातापिता? लोग करोड़ों देने को तैयार हैं. कहां मिलेगा तुम्हें और तुम्हारे पिता को आईएएस वर? तुम लोग इस छोटी सी मांग को सुनते ही बौखला गए,’ सुधीर का बदला सुर सुनते ही स्तब्ध रह गई नम्रता. हाथपैर कांप रहे थे. वह वहीं कुरसी पर बैठ कर देर तक रोती रही.

अनिमेष सो रहा था. वह किसी प्रकार लड़खड़ाती हुई अपने कक्ष में गई और कुंडी चढ़ा ली.

शैलेंद्र और सुचित्रा घर पहुंचे तो देर तक घंटी बजाने और द्वार पीटने के बाद जब अनिमेष ने द्वार खोला तो शैलेंद्र बाबू उस पर ही बरस पड़े.

‘यहां जान पर बनी है और तुम लोग घोड़े बेच कर सो रहे हो.’

‘बहुत थक गया था. मैं ने सोचा था कि नम्रता दीदी द्वार खोल देंगी. वैसे भी उन की नींद जल्दी टूट जाती है,’ अनिमेष उनींदे स्वर में बोला.

‘नम्रता? हां, कहां है नम्रता?’ शैलेंद्र बाबू ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘अपने कमरे में सो रही हैं,’ अनिमेष बोला और फिर सो गया.

पर शैलेंद्र और सुचित्रा को कुछ असामान्य सा लग रहा था. मातापिता की चिंता से अवगत थी नम्रता. ऐसे में उसे नींद आ गई, यह सोच कर ही घबरा गए थे दोनों.

सुचित्रा ने तो नम्रता के कक्ष का द्वार ही पीट डाला. पर कोई उत्तर न पा कर वे रो पड़ीं. अब तो अनिमेष की नींद भी उड़ चुकी थी. शैलेंद्र बाबू और अनिमेष ने मिल कर द्वार ही तोड़ डाला.

उन का भय निर्मूल नहीं था. अंदर खून से लथपथ नम्रता बेसुध पड़ी थी. उस ने अपनी कलाई की नस काट ली थी.

अब अगले दिन के तिलक की बात दिमाग से निकल गई थी. वर पक्ष की मांग और उन के द्वारा किए गए अपमान की बात भुला कर वे नम्रता को ले कर अस्पताल की ओर भागे थे.

समाचार सुनते ही नम्रता के मित्र और सहकर्मी आ पहुंचे थे. सुचित्रा और अनिमेष का रोरो कर बुरा हाल था. शैलेंद्र बाबू अस्पताल में प्रस्तर मूर्ति की भांति शून्य में ताकते बैठे थे. कार्तिक ने न केवल उन्हें सांत्वना दी थी बल्कि भागदौड़ कर के सुचित्रा की देखभाल भी की थी.

कार्तिक रातभर नम्रता के होश में आने की प्रतीक्षा करता रहा था पर नम्रता तो होश में आते ही बिफर उठी थी.

‘कौन लाया मुझे यहां? मर क्यों नहीं जाने दिया मुझे? मैं जीना नहीं चाहती,’ वह प्रलाप करने लगी थी.

‘चुप करो, यह बकवास करने का समय नहीं है. तुम ऐसा कायरतापूर्ण कार्य करोगी, मैं सोच भी नहीं सकता था.’

‘मैं अपने मातापिता को और दुख देना नहीं चाहती.’

‘तुम ने उन्हें कितना दुख दिया है, देखना चाहोगी. तुम्हारी मां रोरो कर दीवार से अपना सिर टकरा रही थीं. बड़ी कठिनाई से अनिमेष उन्हें घर ले गया है. तुम्हारे पिता तुम्हारे कक्ष के बाहर बैंच पर बेहोश पड़े हैं.’

‘ऐसी परिस्थिति में मैं और कर भी क्या सकती थी?’

‘तुम पहली युवती नहीं हो जिस का विवाह टूटा है, कारण कोई भी रहा हो. दुख का पहाड़ तो पूरे परिवार पर टूटा था पर तुम बड़ी स्वार्थी निकलीं. केवल अपने दुख का सोचा तुम ने. तुम्हें तो उन्हें ढाढ़स बंधाना चाहिए था.’

नम्रता चुप रह गई. कार्तिक उस का अच्छा मित्र था. उस ने और कार्तिक ने एकसाथ कालेज में व्याख्याता के रूप में प्रवेश किया था. पर सुधीर के कालेज में आते ही नम्रता उस के लटकोंझटकों पर रीझ गई थी.

नम्रता स्वस्थ हो कर घर आ गई थी पर कार्तिक के सहारे ही वह सामान्य हो सकी थी. ‘स्वयं को पहचानो नम्रता,’ वह बारबार कहता. उस के प्रोत्साहित करने पर ही नम्रता ने आईएएस की तैयारी प्रारंभ की थी. उस की तैयारी में कार्तिक ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. पर आज न जाने उस पर क्या बीती होगी.

‘‘हैलो कार्तिक,’’ फोन मिलते ही नम्रता ने कार्तिक का स्वर पहचान लिया था.

‘‘कहो नम्रता, कैसी हो?’’

‘‘मैं कैसी हूं अब पूछ रहे हो तुम? सुबह से कहां थे?’’

‘‘मैं तो तुम से मिलने आया था पर तुम बहुत व्यस्त थीं.’’

‘‘और तुम बिना मिले चले गए? यह भी भूल गए कि तुम ने तो सुखदुख में साथ निभाने का वादा किया है.’’

‘‘आज के संसार में इन वादों का क्या मूल्य है?’’

‘‘मेरे लिए ये वादे अनमोल हैं, कार्तिक. हम कल ही मिल रहे हैं. बहुत सी बातें करनी हैं, बहुत से फैसले करने हैं. ठीक है न?’’ नम्रता ने व्यग्रता से पूछा था.

‘‘ठीक है, नम्रता. तुम भी मेरे लिए अनमोल हो. यह कभी मत भूलना.’’

कार्तिक ने अपने एक वाक्य में अपना हृदय ही उड़ेल दिया था. नम्रता की आंखों में आंसू झिलमिलाने लगे थे. तृप्ति व खुशी के आंसू.

प्रेरणा : क्या शादीशुदा गृहस्थी में डूबी अंकिता ने अपने सपनों को दोबारा पूरा किया?

लेखक- प्रकाश सक्सेना

‘‘बड़ी मुद्दत हुई तुम्हारा गाना सुने. आज कुछ सुनाओ. कोई भी राग उठा लो,  बागेश्वरी, विहाग या मालकोश, जो इस समय के राग हैं,’’ रात का भोजन करने के बाद मनोहर लाल ने अंकिता से इच्छा व्यक्त की. वे बड़े लंबे समय के बाद अपनी बेटी और दामाद के यहां उन से मिलने आए थे.

इस से पहले कि अंकिता कुछ कहती, उस की 14 साल की बेटी चहक पड़ी, ‘‘सुना तो है कि मां बड़ा अच्छा गाती थीं, संगीत विशारद भी हैं, लेकिन मैं ने तो आज तक इन के मुख से कोई गाना नहीं सुना.’’

‘‘यह मैं क्या सुन रहा हूं? तुम तो इतना बढि़या गाती थीं. कुछ और समय लखनऊ में रहना हो गया होता तो तुम ने संगीत में निपुणता प्राप्त कर ली होती.’’

‘‘अभ्यास छूटे एक युग बीत गया. अब गला ही नहीं चलता. मेरे पास शास्त्रीय संगीत के अनेक कैसेट पड़े हैं, उन में से कोई लगा दूं?’’

‘‘नहीं, वह सब कुछ नहीं. इतने परिश्रम से सीखी हुई विद्या तुम ने गंवा कैसे दी? शाम 4 बजे के बाद कालेज से लौटती थीं तो जल्दीजल्दी कुछ नाश्ता कर रिकशे से भातखंडे कालेज चल देती थीं. वहां से लौटतेलौटते रात के साढ़े 7 बज जाते थे. थक जाने पर भी रियाज करती थीं. जाड़ों में रात जल्दी घिर आती है. तब मैं तुम्हें लेने साइकिल से कालेज पहुंचता था. उस ओर से रिकशे के पैसे बचाने के लिए तुम कितने उत्साह से पैदल ही उछलतीकूदती चली आती थीं. हम लोगों के कैसे कठिन दिन थे वे. वह सारी साधना धूल में मिल गई.’’

‘‘पिताजी, आप तो समझते नहीं. शादी के बाद बराबर तो असम में रहना पड़ा. उस पर नौकरी के आएदिन के तबादले और दौरे. उस अनजाने क्षेत्र में अकेली कलपती मैं क्या अभ्यास करती. मुझे तो हर समय डर लगा रहता था. आप ने देख तो लिया, इतने सालों के बाद आप आए हैं, लेकिन फिर भी इन का दौरे पर जाना जरूरी है.’’

‘‘यह तो नौकरी की विवशता है. इस में तुम दोनों क्या कर सकते हो? अकेलेपन की जो समस्या तुम ने उठाई, उस में तो संगीत या पुस्तकों से उत्तम और कोई साथी होता ही नहीं. अच्छा, यह बताओ कि तुम ने संगीत सीखा क्यों था?’’

‘‘मां और आप को शास्त्रीय संगीत का शौक था. जिस काम से आप लोग प्रसन्न हों उसे करने में हम सभी भाईबहनों को तब आनंद आता था.’’

‘‘यह सही नहीं है. रुचि न होने पर कहीं पुरस्कार जीते जाते हैं? अच्छा, अब कुछ शुरू करो.’’

‘‘पिताजी, घर में तानपूरा तक तो है नहीं.’’

‘‘कोई बात नहीं, बिना तानपूरे के भी चलेगा. किसी संगीत सभा में थोड़े ही गा रही हो?’’

कुछ देर शांत रहने के बाद अंकिता ने गला साफ कर के खांसा. तुहिना किलक उठी, ‘‘आज आईं मां पकड़ में.’’

कुछ गुनगुनाने के बाद अंकिता का स्वर उभरा :

‘कौन करत तोसों विनती पियरवा,

मानो न मानो मोरी बात.’

गाने की इस प्रथम पंक्ति को 3-4 बार दोहराने के बाद अंकिता ने राग के अंतरे को उठाया :

‘जब से गए मोरी सुधि हू न लीनी,

कल न परत दिनरात.’

लेकिन वह खिंच नहीं सका और अंकिता हताशा में सिर झटकते हुए चुप हो गई.

मनोहर लाल, जो आंखें बंद किए बेटी का गायन सुन रहे थे, बोले, ‘‘अगर मुझे ठीक याद है तो बागेश्वरी के इसी गीत पर तुम्हें अंतरविद्यालय संगीत समारोह में पुरस्कार मिला था. आज यह हालत है कि तुम यह भी भूल गईं कि बागेश्वरी में 2 स्वर कोमल लगते हैं. तुम ने तो उन की जगह शुद्ध स्वर लगा दिए. अंतरा भी तुम इसलिए नहीं खींच पाईं क्योंकि अभ्यास छूटा हुआ है.’’

‘‘अब क्या करूं, पिताजी?’’ अंकिता ने झींक कर कहा.

‘‘मेरी बात मानो तो एक तानपूरा खरीद लो. तुहिना अब बड़ी हो गई है. उसे तबला सिखवा दो. मैं सच कहता हूं कि यह जो तुम्हें हर समय बोरियत सी महसूस होती रहती है, सब दूर भाग जाएगी.’’

‘‘कोशिश करूंगी.’’

‘‘कोशिश नहीं, समझ लो कि यह तो करना ही है. लोग इस देश से प्रतिभा पलायन को ले कर हंगामा खड़ा करते हैं. लेकिन यहां तो प्रत्यक्ष प्रतिभा पराभव को देख रहा हूं. यह कहां तक उचित है?’’

अगले दिन अचल भी दौरे से लौट आए. उन्होंने जब तुहिना से अंकिता की छीछालेदर की बात सुनी तो अपने ससुर को सफाई देने लगे, ‘‘पिताजी, मैं ने तो न जाने कितनी बार इन से कहा कि अपने संगीत ज्ञान को नष्ट न होने दें और रुचि बनाए रखें. कैसेट तो घर में दर्जनों आ गए हैं लेकिन गाने के नाम पर हमेशा यही सुनने को मिला कि गला ही साथ नहीं देता. शायद अब आप के कहने का कुछ असर पड़े.’’

मनोहर लाल तो 4 दिन रहने के बाद लौट गए परंतु अपने पीछे बेटी के घर में मोटरकार के पीछे उठे धूल के गुबार जैसा वातावरण छोड़ गए. अंकिता खिसियानी बिल्ली की तरह कई दिनों तक बातबात पर नौकर और तुहिना पर बरसती रही.

अभी इस घटना को बीते एक पखवाड़ा भी नहीं हुआ था कि एक शाम चपरासी ने अंदर आ कर अंकिता को सूचना दी, ‘‘छोटे साहब आए हैं. साथ में उन की पत्नी भी हैं. उन को बैठक में बैठा दिया है.’’

‘‘ठीक किया. हम लोग अभी आते हैं. रसोई में चंदन से कहना कि कुछ खाने की चीजें और 4 गिलास शरबत बैठक में पहुंचा जाए.’’

ठीक है कहता हुआ चपरासी रसोईघर की ओर चला गया.

‘‘अभी नए असिस्टैंट इंजीनियर की नियुक्ति हुई है. शायद वही मिलने आए होंगे,’’ अचल ने अंकिता को बताया.

अचल और अंकिता ने बैठक में जा कर देखा कि एक आकर्षक युवा दंपती बैठे प्रतीक्षा कर रहे हैं. शुरुआती शिष्टाचार के बाद दोनों पुरुषों में तो बातचीत शुरू हो गई लेकिन आगंतुक महिला को चुप देख अंकिता ने उस से पूछा, ‘‘आप कहां की हैं?’’

‘‘मेरी ससुराल तो बरेली में है लेकिन मायका लखनऊ में है.’’

‘‘मैं भी लखनऊ की हूं. इसलिए तुम मुझे ‘दीदी’ कह सकती हो. वैसे तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘जी, सिकता.’’

फिर तो अंकिता ने उस से उस के महल्ले, स्कूल, कालेज आदि सभी के बारे में पूछ डाला. यह भी पता चला कि सिकता ने भी भातखंडे संगीत विद्यालय में संगीत की शिक्षा पाई थी.

‘‘जब भी खाली समय हुआ करे और मन न लगे तो मेरे पास चली आया करो. अब संकोच न करना.’’

‘‘खाली समय तो बहुत रहता है क्योंकि ये तो जब देखो तब दौरे पर जाते रहते हैं और मैं अकेली घर में पड़ी ऊबती रहती हूं. अकेले घर में गाया भी नहीं जा सकता. नौकरचाकर न जाने क्या सोचें?’’

अंकिता के मस्तिष्क में सहसा बिजली सी कौंधी. वह बोली, ‘‘हम लोगों के क्लब में एक महिला समिति भी है, जिस में अफसरों की पत्नियां या तो ताश खेलती रहती हैं या फिर कभी ‘हाउसी’. क्यों न हम दोनों मिल कर कालोनी की लड़कियों के लिए संगीत की कक्षाएं शुरू करें. तुम्हारा तो अभी सबकुछ नया सीखा हुआ है. तुम्हारे सहारे मैं भी अपने पुराने अभ्यास पर धार लगाने का प्रयास करूंगी.’’

‘‘सच दीदी, आप ने तो मेरी बिन मांगी मुराद पूरी कर दी. आप जैसा भी कहेंगी, मैं करती रहूंगी. आप शुरू तो करें,’’ सिकता उत्साह से चहक उठी.

अंकिता ने अपने प्रभाव से क्लब की महिला समिति में एक कमरे में संगीत कक्षाएं चालू करा दीं, लेकिन शुरूशुरू में तथाकथित संभ्रांत महिलाओं ने खूब नाकभौं सिकोड़ी. कुछ ने तो यहां तक कह डाला कि यह 4 दिन की चांदनी है, फिर तो टांयटांय फिस्स होना ही है.

परंतु अंकिता को यह सब सुनने की फुरसत नहीं थी. सिकता और स्वयं के अतिरिक्त उस ने एक अन्य अध्यापक तथा तबलावादक को वेतन दे कर 3 घंटे प्रतिदिन के लिए नियुक्त कर लिया. कालोनी से संगीत सीखने की इच्छुक 10-12 लड़कियां और महिलाएं भी एकत्र हो गईं.

सिकता को तो संगीत सिखाना सहज लगता था लेकिन अंकिता को कुछ कक्षाएं पढ़ाने के लिए पहले घर पर घंटों अभ्यास करना पड़ा. उस पर एक नशा सा छाया हुआ था और वह जीतोड़ परिश्रम में लगी हुई थी. महिला समिति के फंड के अलावा वह अपने पास से भी काफी धन संगीत विद्यालय के लिए खर्च कर चुकी थी.

अंकिता को जैसेजैसे संगीत विद्यालय की आलोचना सुनने को मिलती, वैसेवैसे उस का संकल्प और दृढ़ होता जाता. देखतेदेखते 2 साल के अंदर ही इस संगीत विद्यालय ने अपनी पहचान बनानी आरंभ कर दी. महल्ले में क्या, पूरे शहर में उस की चर्चा होने लगी.

जहां किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन होता वहां संगीत विद्यालय की छात्राओं को भेजने के अनुरोध भी अंकिता को प्राप्त होने लगे. उस को इस से काफी आत्मसंतोष मिलता. वह इस तरह के सभी प्रस्तावों का स्वागत करती और हरेक कार्यक्रम को प्रस्तुत करने से पहले भाग लेने वाली छात्राओं को जम कर अभ्यास कराती. अधिकांश कार्यक्रमों का संचालन वह खुद ही करती.

क्लब में होली, तीज, ईद, दीवाली तथा राष्ट्रीय पर्वों पर होने वाले समारोहों में वह संगीत विद्यालय के विशेष कार्यक्रम रखती, जिन की सभी प्रशंसा करते. स्थानीय अखबारों में उन की रिपोर्ट छपती. कभीकभी आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी निमंत्रण मिलने लगा.

अचल का जल्द ही होने वाला तबादला अंकिता को अब चिंतित करने लगा था क्योंकि इस स्थान पर उन के 4 साल पूरे हो चुके थे. उसे डर था कि कहीं उस के जाने के बाद विद्यालय बंद न हो जाए, इसलिए अंकिता ने संगीत विद्यालय की संचालन समिति के मुख्य पदों को पदेन रूप से परिवर्तित कर दिया था, जिस से किसी व्यक्ति विशेष के रहने अथवा न रहने से विद्यालय के संचालन पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े. स्थानीय वेतनभोगी अध्यापकों की संख्या भी बढ़ा दी थी. कुछ प्रमुख रुचिसंपन्न महिलाओं को उस ने विद्यालय का संरक्षक भी बना दिया था.

अचल अकसर अंकिता को खिजाते, ‘‘तुम तो अब पूरी तरह संगीत विद्यालय को समर्पित हो गई हो. कहीं ऐसा न हो कि मैं भी काट दिया जाऊं.’’

‘‘कैसी बात करते हैं. आप के ही सहयोग से तो मुझे सार्थक जीवन की ये घडि़यां देखने को मिली हैं.’’

‘‘मेरे कहने की तुम ने कब चिंता की? यह तो पिताजी की झिड़की का प्रभाव है.’’

‘‘सच, हमारे विद्यालय के कार्यक्रमों में बड़ा निखार आ रहा है. डर यही लगता है कि कहीं हमारे तबादले के बाद यह उत्साह ठंडा न पड़ जाए.’’

‘‘तुम ने नींव तो इतनी मजबूत डाली है कि अब उसे चलते रहना चाहिए.’’

‘‘क्यों जी, हम लोगों का तबादला

1-2 साल के लिए रुक नहीं सकता?’’

‘‘इस बार तबादला तरक्की के साथ होगा. उसे रुकवाना हानिकारक होगा. चिंता क्यों करती हो, जिस जगह भी जाएंगे, वहां एक नया विद्यालय शुरू किया जा सकता है.’’

‘‘यहां सब जम गया था. कहांकहां नए गड्ढे खोदें और पौधे रोपें.’’

‘‘तो क्या हुआ? अब तो माली निपुण हो गया है. फिर वहां तुम्हारा स्तर ऊंचा होने का भी तो लाभ मिलेगा. वहां कौन काट सकेगा तुम्हारी बात?’’

‘‘अब जो होगा, देखूंगी. पर जगहजगह तंबू गाड़ना मुझे भाता नहीं.’’

‘‘भई, हम लोग तो गाडि़या लुहार हैं. दिन में सड़क किनारे गाड़ी रोकी, कुदाल, खुरपी, हंसिए बनाए, बेचे और बढ़ चले. इस जीवन का अपना अलग रस है.’’

‘‘हर कोई आप की तरह दार्शनिक नहीं होता.’’

बात पर तो विराम लग गया परंतु अंकिता के मन की चंचलता बनी रही.

वसंतपंचमी के अवसर पर दूरदर्शन के प्रादेशिक प्रसारण में संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत करने के प्रस्ताव को अंकिता ने स्वीकार तो कर लिया परंतु उस के लिए 2 गीत तैयार कराने में उसे और छात्राओं को बड़ा परिश्रम करना पड़ा. कार्यक्रम का सफल मंचन हो जाने पर उसे बड़ा संतोष मिला.

अंकिता अभी वसंत के कार्यक्रम की अपनी थकान उतार भी नहीं पाई थी कि उसे अपने पिता का पत्र मिला.

‘‘टीवी के प्रादेशिक कार्यक्रम में तुम्हारे विद्यालय द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम देखा. संचालिका के रूप में तुम्हें पहचान लिया. कार्यक्रम बहुत अच्छा था. मन बहुत प्रसन्न हुआ. लेकिन बेटी, एक बात याद रखना कि विद्या के क्षेत्र में प्रसाद वर्जित है.’’

पत्र पाने के बाद अंकिता आत्मसंतोष से भर उठी.

पक्की सहेलियां: किराएदार पंखुड़ी के आने क्यों डर गई थी विनिता?

पति निशांत की प्रमोशन और स्थानांतरण के बाद विनिता अपने 5 वर्षीय बेटे विहान को ले कर हजारीबाग से रांची आ गई. महत्त्वाकांक्षी निशांत को वहां की पौश कालोनी अशोक नगर में कपंनी द्वारा किराए का मकान मिला था, जिस में रांची पहुंचते ही वे शिफ्ट हो गए. मकान बड़ा, हवादार और दोमंजिला था. नीचे मकानमालिक रहते थे और ऊपर विनिता का परिवार.

मकान के पार्श्व में बने बड़े गैरेज के ऊपर भी एक बैडरूम वाला छोटा सा फ्लैट बना था, जो खाली पड़ा था. उस फ्लैट को ऊपरी मंजिल से इस तरह जोड़ा गया था कि दोनों फ्लैटों में रहने वाले आनेजाने के लिए कौमन सीढि़यों का उपयोग कर सकें.

रांची आते ही निशांत ने विहान का ऐडमिशन एक अच्छे स्कूल में करवा कर

औफिस जौइन कर लिया. स्कूल ज्यादा दूर नहीं था पर विनिता को स्कूटी चलाना न आने के कारण निशांत को अपनी कार से औफिस जाते समय विहान को स्कूल छोड़ना और लंच टाइम में आते वक्त उसे वापस लाना पड़ता था. कुछ दिनों तक तो ठीक चला पर नई जगह, नया पद और जिम्मेदारियां, इन सब ने निशांत को धीरेधीरे काफी व्यस्त कर दिया. अब निशांत सुबह 9 बजे निकल जाता और शाम के 7-8 बजे तक ही लौट पाता था, वह भी बिलकुल थका हुआ.

एक दिन निशांत ने विनिता से कहा, ‘‘तुम स्कूटी चलाना क्यों नहीं सीख लेतीं? कम से कम विहान को स्कूल पहुंचाने व लाने का तथा दूसरे छोटेमोटे काम तो कर ही सकती हो.’’

‘‘अरे मुझे क्या जरूरत है स्कूटी सीखने या बाहर के काम करने की. ये काम तो मर्दों के होते हैं, मैं तो घर में ही भली,’’ विनिता बोली.

मजबूरन विहान के लिए निशांत ने औटोरिकशा लगवा दिया. उस के बाद निशांत ने इस संबंध में कोई बात नहीं की. घरेलू और मिलनसार स्वभाव की विनिता खुद को घरगृहस्थी के कामों में ही व्यस्त रखती थी. लगभग डेढ़दो महीने उसे अपने घर को सुव्यवस्थित करने में लग गए. मकानमालकिन की मदद से अच्छी बाई मिल गई, तो विनिता ने चैन की सांस ली. विहान के स्कूल से आने के बाद अब वह उसी के साथ व्यस्त रहती.

घर सैट हो गया तो विनिता ने पासपड़ोस में अपनी पहचान बनानी शुरू करनी चाही पर छोटी जगह से आई विनिता को यह पता नहीं था कि ज्यादातर पौश कालोनी में रहने वाले पड़ोसियों का संबंध सिर्फ हायहैलो और स्माइल तक ही सीमित रहता है. कारण, वे सभी अपनेआप में हर तरह की सुविधा से आत्मनिर्भर होते हैं. 1-2 लोगों के साथ दोस्ती भी हुई पर सिर्फ औपचारिक तौर पर. अत: घर का काम खत्म होने पर जब कभी उसे खाली समय मिलता तो या तो वह टीवी देखती या फिर दिल बहलाने के लिए नीचे मकानमालिक के घर चली जाती.

मकानमालिक बुजुर्ग दंपती थे, जिन के बच्चे विदेश में बसे थे. वे साल में 6 महीने विदेश में ही रहते थे अपने बच्चों के पास. गृहकार्य में दक्ष विनिता कभी कुछ विशेष खाना बनाती तो नीचे जरूर भेजती. नए किराएदार निशांत और विनीता के व्यवहार से बुजुर्ग दंपती बहुत संतुष्ट थे. उन तीनों को अपने बच्चों की तरह प्यार करने लगे थे. ये दोनों भी उन्हें आंटीअंकल कह कर बुलाने लगे. ज्यादातर संडे को छुट्टी होने के कारण चारों कभी ऊपर तो कभी नीचे एकसाथ चाय पी लिया करते थे.

ऐसे ही एक संडे की शाम को निशांत और विनिता नीचे आंटीअंकल के साथ चाय पी रहे थे. तभी अंकल ने पूछा, ‘‘बेटा, आप दोनों को अभी छुट्टी ले कर घर तो नहीं जाना है?’’

निशांत ने कहा, ‘‘नहीं अंकल, अभी अगले 6-7 महीने तो सोच भी नहीं सकता, क्योंकि औफिस का बहुत सारा काम पूरा करना है मुझे.’’

विनिता से रहा नहीं गया तो उस ने पूछ लिया, ‘‘मगर अंकल आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘वह इसलिए कि हम दोनों निश्चिंत हो कर कुछ महीनों के लिए अपने बच्चों से मिलने विदेश उन के पास जा सकें,’’ आंटी ने कहा तो विनिता मन ही मन घबरा गई.

घर आ कर भी विनिता सोचती रही कि इन दोनों के जाने के बाद तो घर सूना हो जाएगा, वह बिलकुल अकेली हो जाएगी. भले ही वह रोज नहीं मिलती उन से, पर कम से कम उन की आवाजें तो आती रहती हैं उस के कानों में.

सोते समय निशांत ने विनिता को सीरियस देखा तो पूछ लिया, ‘‘क्या बात है,

आंटीअंकल के जाने से तुम परेशान क्यों हो रही हो?’’

विनिता ने अपने दिल की बात बताई तो निशांत को भी एहसास हुआ कि वाकई इतने बड़े घर में विनिता अकेली हो जाएगी.

थोड़ी देर बाद विनिता ने कहा, ‘‘निशांत, क्यों न आंटीअंकल को गैरेज वाले फ्लैट में एक किराएदार रखने की सलाह दी जाए, जिस से उन को इनकम हो जाएगी और हम लोगों का सूनापन दूर हो जाएगा.’’

निशांत को विनिता की बात जंच गई. अगले दिन औफिस जाते वक्त निशांत ने जब अंकल से इस बात की चर्चा की तो उन्होंने न केवल किराएदार रखने वाली उन की बात का स्वागत किया, बल्कि नया किराएदार ढूंढ़ने का जिम्मा भी निशांत को ही सौंप दिया.

3-4 दिनों के बाद शाम के समय विनिता नीचे आंटीअंकल के पास बैठी हुई निशांत का इंतजार कर रही थी. तभी चुस्त कपड़े, हाई हील पहने और बड़ा सा बैग कंधे से लटकाए एक आधुनिक सी दिखने वाली लड़की कार से उतर गेट खोल कर अंदर दाखिल हुई. आते ही उस ने बड़ी संजीदगी से पूछा, ‘‘माफ कीजिएगा, क्या उमेशजी का यही घर है?’’

‘‘जी हां, बताइए क्या काम है? मैं ही हूं उमेश,’’ अंकल बोले.

‘‘गुड ईवनिंग सर, मैं पंखुड़ी,’’ कह कर उस ने अंकल से हाथ मिलाया. फिर कहने लगी, ‘‘आज निशांत से पता चला कि आप के घर में एक फ्लैट खाली है किराए के लिए. मैं उसी सिलसिले में आई हूं.’’

‘अच्छा तो यह फैशनेबल सी लड़की किराएदार बनने आई है,’ सोच संकोची स्वभाव की विनिता उठ कर ऊपर जाने लगी. तभी अंकल ने अपनी पत्नी और विनिता से उस का परिचय करवाया. पंखुड़ी ने दोनों की तरफ मुखातिब होते हुए ‘हैलो’ कहा. फिर अंकल से बातचीत करने और फ्लैट देखने चली गई. बड़ा अटपटा लगा विनिता को कि उम्र में इतनी छोटी होने पर भी कितने आराम से उस ने सिर्फ हैलो कहा. कम से कम वह उसे न सही आंटी को नमस्ते तो कह सकती थी, उन की उम्र का लिहाज कर के. खैर, उसे क्या. उस ने मन ही मन सोचा.

अंकल से बात करते समय विनिता ने सुना कि पंखुड़ी एक मल्टी नैशनल कंपनी में ऐग्जीक्यूटिव पद पर है. वह अंकल से कह रही थी, ‘‘देखिए मेरे वर्किंग आवर्स फिक्स नहीं हैं, शिफ्टों में ड्यूटी करनी पड़ती है. मेरे आनेजाने का समय भी कोई निश्चित नहीं है, कभी देर रात आती हूं तो कभी मुंह अंधेरे निकल जाती हूं. कभीकभी तो टूअर पर भी जाना पड़ता है 2-3 दिनों के लिए. आप को कोई आपत्ति तो नहीं?

‘मैं इस बात को पहले ही पूछ लेना चाहती हूं, क्योंकि अभी जहां मैं रह रही हूं उन्हें इस बात पर आपत्ति है… लोग लड़की के देर रात घर आने को सीधे उस के करैक्टर से जोड़ कर देखते हैं… एकदम घटिया सोच,’’ कह कर वह चुप हो गई.

इस के बाद क्या हुआ, यह पता नहीं. विनिता वहां से अपने घर चली आई. उसे वह लड़की बहुत तेजतर्रार और बिंदास लगी.

उस शाम निशांत काफी देर से घर लौटा. खापी कर तुरंत सो गया. पंखुड़ी के बारे में पूछने का मौका ही नहीं मिला विनिता को. अगले शनिवार की शाम जब देर रात विनिता परिवार सहित शौपिंग कर के लौटी तो देखा खाली पड़े फ्लैट की लाइट जल रही है. शायद कोई नया किराएदार आ गया है. नीचे सीढ़ी का दरवाजा बंद कर के विनिता हैलो करने की नीयत से मिलने गई तो देखा ताला लगा था.

रात करीब 12 बजे घंटी की आवाज से विनिता की नींद खुली. उस ने निशांत को

उठाया और नीचे यह सोच कर भेजा कि अंकलआंटी को कुछ जरूरत तो नहीं?

थोड़ी देर में निशांत वापस आया और सोने लगा तो विनिता ने पूछा, ‘‘कौन था?’’

निशांत ने कहा, ‘‘अंकल की नई किराएदार पंखुड़ी.’’

विनिता ने तुरंत कहा, ‘‘निशांत, तुम कोई घरेलू, समझदार, किराएदार नहीं ढूंढ़ सकते थे अंकल के लिए? वक्तबेवक्त आ जा कर हमें डिस्टर्ब करती रहेगी. अंकल तो चले जाएंगे अपने बच्चों के पास, पर साथ रहना तो हम दोनों को ही है.’’

नींद से भरा निशांत उस समय बात करने के मूड में नहीं था. गुस्से से बोला, ‘‘अरे वह पढ़ीलिखी नौकरी करने वाली लड़की है. वह कब जाए या कब आए इस से हमें क्या फर्क पड़ेगा भला? आज पहला दिन है, अपने साथ सीढ़ी के दरवाजे की चाबी ले जाना भूल गई थी वह,’’ कह कर वह गहरी नींद में सो गया.

विनिता को निशांत का इस तरह बोलना बहुत बुरा लगा. उस दिन पंखुड़ी पर और भी गुस्सा आया. मृदुभाषी और समझदार स्वभाव की विनिता पति की व्यस्तता को समझती थी. उसे इस बात से कोई शिकायत नहीं रहती कि निशांत देर से घर क्यों आता है, बल्कि पति के आने पर मुसकराते हुए वह उसे गरमगरम चाय पिलाती ताकि उस की थकान मिट जाए.

अगली सुबह सब थोड़ी देर से उठे. चाय बनाने लगी तो विनिता को पंखुड़ी का ध्यान आया. उस ने निशांत से पूछे बगैर उस के लिए भी चाय बना दी और दरवाजा खटखटा कर चाय पहुंचा आई. उनींदी आंखों से पंखुड़ी ने दरवाजा खोल कप ले कर थैंक्स कह झट दरवाजा बंद कर लिया.

विनिता सकपका गई. कोई तमीज नहीं कि 2 मिनट बात ही कर लेती. शायद नींद डिस्टर्ब हो गई थी उस की. सारा दिन घर बंद रहा. सो रही होगी, शाम को सजधज

कर पंखुड़ी चाय का कप वापस करने विनिता के पास आई. वैसे तो वह विनिता से मिलने आई थी, पर सारा समय निशांत और विहान से ही इधरउधर की बातें करती रही.

विनिता के पूछने पर कि चाय बनाऊं तुम्हारे लिए पंखुड़ी ने कहा, ‘‘थैंक्स, मैं चाय नहीं पीती.’’ ‘चाय की जगह जरूर यह कुछ और पीती होगी यानी बोतल वाली चाय’ विनिता ने सोचा. फिर यह पूछने पर कि किचन में खाना बनाना अभी शुरू किया या नहीं. पंखुड़ी तपाक से बोली, ‘‘अरे, किचन का झमेला मैं नहीं रखती. कौन कुकिंग करे? समय की बरबादी है. बाहर ही खाती हूं या पैक्ड खाना मंगवा लेती हूं.’’

थोड़ी देर बाद उस ने अपनी कार निकाली और चली दी कहीं घूमने. जाते वक्त हंसते हुए कहा, ‘‘डौंट वरी निशांत आज मैं चाबी साथ लिए जा रही हूं.’’ इस बात पर निशांत और पंखुड़ी ने एक जोरदार ठहाका लगाया, पर पता नहीं हंसमुख स्वभाव वाली विनिता को हंसी क्यों नहीं आई.

रात को सोते समय विनिता ने निशांत से कहा, ‘‘हाय, कैसी है यह पंखुड़ी… लड़कियों वाले तो लक्षण ही नहीं हैं इस में. सारे काम मर्दों वाले करती है, शादी कर के कैसे घर बसाएगी यह? ऐसी ही लड़कियों की ससुराल और पति से नहीं बनती है. पति दुखी रहता है या तलाक हो जाता है. एक मैं थी कालेज पहुंचतेपहुंचते सिलाईकढ़ाई के अलावा घरगृहस्थी का भी सारा काम सीख लिया था?’’

निशांत ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘वह खाना बनाना नहीं जानती है, यह कौन सी बुराई हुई उस की? देखती नहीं कितनी स्मार्ट, मेहनती, आत्मनिर्भर और औफिस के कामों में दक्ष है वह… दुखी सिर्फ इस जैसी लड़की के पति ही क्यों, दुखी तो उन

घरेलू पत्नियों के पति भी हो सकते हैं, जो इस आधुनिक जमाने में भी खुद को बस घर की चारदीवारी में ही कैद रखना पसंद करती हैं. छोटेमोटे कामों के लिए भी पूर्णतया पिता, पति, भाई या बेटे पर निर्भर… बदलते समय के साथ ये खुद नहीं बदलती हैं उलटे जो बदल रहा है उस में भी कुछ न कुछ खोट निकालती रहती हैं.’’

विनिता ने निशांत का इशारा समझ लिया था कि पूर्णतया निर्भर होने वाली बात किसे इंगित कर के कही जा रही है. इस के अलावा निशांत द्वारा पंखुड़ी की इतनी तारीफ करना उसे जरा भी नहीं सुहाया. दिल ने हौले से कहा कि सावधान विनिता. ऐसी ही लड़कियां दूसरों का घर तोड़ती हैं. आजकल जब देखो निशांत पंखुड़ी की तारीफ करता रहता है.

कुछ दिनों बाद आंटीअंकल विदेश चले गए. पंखुड़ी अपनी दुनिया में मस्त और विनिता अपनी गृहस्थी में. मगर जानेअनजाने विनिता पंखुड़ी की हर गतिविधि पर ध्यान देने लगी थी कि कब वह आतीजाती है या कौन उसे ले जाने या छोड़ने आता है. ऐसा नहीं था कि पंखुड़ी को इस बात का पता नहीं था. वह सब समझती थी पर जानबूझ कर उसे इगनोर करती, क्योंकि उस के दिमाग में था कि विनिता जैसी हाउसवाइफ के पास कोई काम नहीं होता दिन भर सिवा खाना बनाने और लोगों की जासूसी करने के.

इस तरह आपस में हायहैलो होते हुए भी एक अदृश्य सी दीवार खिंच गई थी दोनों में.

2 नारियां, पढ़ीलिखी, लगभग समान उम्र की पर बिलकुल विपरीत सोच और संस्कारों वाली. एक के लिए पति, बच्चा और घरगृहस्थी ही पूरी दुनिया थी तो दूसरी के लिए घर सिर्फ रहने और सोने का स्थान भर.

एक बार विनिता ने पंखुड़ी को पिछले 24 घंटों से कहीं आतेजाते नहीं देखा. पहले

सोचा कि उसे क्या, वह क्यों चिंता करे पंखुड़ी की? उस की चिंता करने वाले तो कई लोग होंगे या फिर आज कहीं जाने के मूड में नहीं होगी स्मार्ट मैडम. पर जब दिल नहीं माना तो बहाना कर के विहान को भेज दिया यह कह कर कि जाओ पंखुड़ी आंटी के साथ थोड़ी देर खेल आओ. मगर कुछ ही देर में विहान दौड़ता हुआ आया और बोला, ‘‘मम्मी… मम्मी… मैं कैसे खेल सकता हूं आंटी के साथ, उन्हें तो बुखार है.’’

बुखार का नाम सुनते ही विनिता तुरंत पंखुड़ी के घर पहुंच गई. घंटी बजाई तो अंदर से धीमी आवाज आई, ‘‘दरवाजा खुला है. अंदर आ जाइए.’’

अंदर दाखिल होने पर विनिता ने देखा कि पंखुड़ी कंबल ओढ़े बिस्तर पर बेसुध पड़ी है. छू कर देखा तो तेज बुखार से बदन तप रहा था. चारों तरफ निगाहें दौड़ाईं, सारा घर अस्तव्यस्त दिख रहा था. एक भी सामान अपनी जगह नहीं. तुरंत भाग कर अपने घर आई, थर्मामीटर और ठंडे पानी से भरा कटोरा लिया और वापस पहुंची पंखुड़ी के पास. बुखार नापा, सिर पर ठंडे पानी की पट्टियां रखनी शुरू कीं. थोड़ी देर बाद बुखार कम हुआ और जब पंखुड़ी ने आंखें खोलीं तो विनिता ने पूछा, ‘‘दवाई ली है या नहीं?’’

पंखुड़ी ने न कहा और फिर इशारे से बताया कि दवा कहां रखी है? विनिता ने उसे बिस्कुट खिला दवा खिलाई और फिर देर तक उस का सिर दबाती रही. जब पंखुड़ी को थोड़ा आराम हुआ तो विनिता अपने घर लौट गई. आधे घंटे बाद वह ब्रैड और गरमगरम सूप ले कर पंखुड़ी के पास लौटी. उस के मना करने पर भी उसे बड़े प्यार से खिलाया. इस तरह पंखुड़ी के ठीक होने तक विनिता ने उस का हर तरह से खयाल रखा.

पंखुड़ी विनिता की नि:स्वार्थ सेवा देख शर्मिंदा थी. उसे अपनी इस सोच पर अफसोस हो रहा था कि विनिता जैसी हाउसवाइफ के पास कोई काम नहीं होता सिवा जासूसी करने और खाना पकाने के. अगर विनिता ने समय पर उस का हाल नहीं लिया होता तो पता नहीं उसे कितने दिनों तक बिस्तर पर रहना पड़ता.

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खैर, इस के बाद विनिता के प्रति पंखुड़ी का नजरिया बदल गया. अब जब भी विनिता के घर आती तो निशांत, विहान के साथसाथ विनिता से भी बातें करती. विनिता की संगति में रह कर अब उस ने अपने घर को भी सुव्यवस्थित रखना शुरू कर दिया था.

आजकल निशांत पहले से भी ज्यादा व्यस्त रहने लगा था. फिर एक दिन चहकता हुआ घर आया. चाय पीते हुए निशांत बता रहा था कि उस के काम से खुश हो कंपनी की तरफ से उसे फ्रांस भेजा जा रहा है प्रशिक्षण लेने के लिए. अगर वह अपने प्रशिक्षण में अच्छा करेगा तो अनुभव हासिल करने के लिए परिवार सहित 2 साल तक उसे फ्रांस में रहने का मौका भी मिल सकता है.

पति की इस उपलब्धि पर विनिता बहुत खुश हुई, लेकिन यह सुन कर कि प्रशिक्षण के दौरान निशांत को अकेले ही जाना है, उस का कोमल मन घबरा उठा. निशांत के बिना अकेले कैसे रह पाएगी वह विहान को ले कर? घर में भी कोई ऐसा फ्री नहीं है, जिसे 3 महीनों के लिए बुला सके. विनिता ने निशांत को बधाई दी फिर धीरे से कहा, ‘‘अगर फ्रांस जाना है तो हम दोनों को भी अपने साथ ले चलो वरना मैं तुम्हें अकेले नहीं जाने दूंगी, क्या तुम ने तनिक सोचा है कि तुम्हारे जाने के बाद यहां मैं अकेले विहान के साथ कैसे रह पाऊंगी 3 महीने?’’

भविष्य के सुनहरे ख्वाब देखने में डूबे निशांत को विनिता की यह बात जरा भी नहीं भाई. झल्लाते हुए कहा, ‘‘यह तुम्हारी समस्या है मेरी नहीं. कितनी बार कहा कि समय के साथ खुद को बदलो, नईनई जानकारी हासिल करो. बाहर का काम

निबटाना सीखो पर तुम ने तो इन कामों को भी औरतों और मर्दों के नाम पर बांट रखा है.

‘‘अब दिनरात मेहनत करने के बाद यह अवसर हाथ आया है तो क्या तुम्हारी इन बेवकूफियों के चक्कर में मैं इसे हाथ से गंवा दूं? हरगिज नहीं. अगर तुम अकेली नहीं रह सकती तो अभी चली जाओ विहान को ले कर अपनी मां या मेरी मां के घर. मेरी तो जिंदगी ही बरबाद हो गई ऐसी पिछड़ी मानसिकता वाली बीवी पा कर,’’ और फिर फ्रैश होने चला गया.

विनिता का दिल धक से रह गया. पति के इस कटु व्यवहार से उस की आंखों से आंसू बहने लगे. लगा उस की तो बसीबसाई गृहस्थी उजड़ जाएगी. साथ ही यह भी महसूस होने लगा कि निशांत भी क्या करे बेचारा, उस के कैरियर का सवाल है. दिल ने कहा इस स्थिति की जिम्मेदार भी काफी हद तक वह खुद ही है.

अब यह बात उस की समझ में आ चुकी थी कि वर्तमान समय में हाउसवाइफ को सिर्फ घर के अंदर वाले काम ही नहीं, बल्कि बाहर वाले जरूरी काम भी आने चाहिए. आज पढ़ीलिखी होने के बावजूद अपने को असफल, हीन और असहाय समझ रही थी. कारण घर के बाहर का कोई काम वह करने के लायक नहीं थी. इतनी बड़ी खुशी मिलने पर भी पतिपत्नी में तनाव उत्पन्न हो गया था.

अगले दिन चाय पीते समय पंखुड़ी भी वहां पहुंच गई. आते ही जोश के साथ निशांत को बधाई दी और पार्टी की मांग करने लगी.

निशांत का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ था. उस ने कहा, ‘‘अरे कैसी बधाई और कैसी पार्टी पंखुड़ी? मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा इस जिंदगी में कभी.’’

पंखुड़ी को निशांत की बात कुछ समझ नहीं आई. विनिता ने बात छिपानी चाही कि इस बिंदास लड़की से बताने का क्या फायदा, उलटे कहीं इस ने जान लिया तो खूब हंसी उड़ाएगी मेरी, पर गुस्से में निशांत ने अपनी सारी परेशानी पंखुड़ी को सुना

डाली.

विनिता तो मानो शर्म के मारे धरती के अंदर धंसी जा रही थी. मगर सारी बात ध्यान से सुनने के बाद पंखुड़ी हंसने लगी और फिर हंसतेहंसते ही बोली, ‘‘डौंट वरी निशांत, यह भी कोई परेशानी है भला? इस का समाधान तो कुछ दिनों में ही हो जाएगा. आप अपनी पैकिंग और मेरी पार्टी की तैयारी शुरू कर दीजिए.’’

निशांत हैरान सा पंखुड़ी का मुंह देखने लगा. विनिता की तरफ मुखातिब होते हुए पंखुड़ी ने कहा, ‘‘घबराने की कोई बात नहीं विनिता. अगर कुछ सीखने का पक्का निर्णय कर लिया हो तो आज से ही मैं तुम्हें इंटरनैट का काम सिखाना शुरू कर सकती हूं और निशांत के जाने के पहले धीरेधीरे बाहर के सारे काम भी मैं सिखा दूंगी,’’ और फिर अपना लैपटौप लेने अपने घर चली गई.

विनिता सन्न थी अपनी संकीर्ण सोच पर. जिस पंखुड़ी को वह तेजतर्रार और दूसरों का घर तोड़ने वाली लड़की समझती थी, वह इतनी जिम्मेदार और उसे ले कर इतनी संवेदनशील होगी, इस की तो कल्पना भी विनिता ने नहीं की थी.

मिनटों में पंखुड़ी वापस आ गई. अपना लैपटौप औन करते हुए बोली, ‘‘विनिता मैं तुम्हारी गुरु तो बनूंगी, पर एक शर्त है तुम्हें भी गुरु बनना पड़ेगा मेरी.’’

विनिता के मुंह से निकला, ‘‘भला वह क्यो?’’

पंखुड़ी ने कहा, ‘‘देखो, तुम्हें देख कर मैं ने भी अपना घर बसाने का फैसला कर लिया है, पर घरगृहस्थी के काम में मैं बिलकुल जीरो हूं. मैं ने महसूस किया है अगर आज के जमाने में हाउसवाइफ के लिए बाहर का काम सीखना जरूरी होता है तो उसी तरह सफल और शांतिपूर्ण घरगृहस्थी चलाने के लिए वर्किंग लेडी को भी घर और किचन का थोड़ाबहुत काम जरूर आना चाहिए. अगर तुम चाहो तो अब हम

दोनों एकदूसरे की टीचर और स्टूडैंट बन कर सीखनेसिखाने का काम कर सकती हैं. मैं तुम्हें बाहर का काम करना सिखाऊंगी और तुम मुझे किचन और घर संभालना.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. यह भी कोई पूछने की बात है?’’ खुश हो कर विनिता ने पंखुड़ी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘पर मेरी भी एक शर्त है कि यह सीखनेसिखाने का काम हम दोनों स्टूडैंटटीचर की तरह नहीं, बल्कि पक्की सहेलियां बन कर करेंगी.’’

‘‘मंजूर है,’’ पंखुड़ी बोली.

फिर एक जोरदार ठहाका लगा, जिस में इन दोनों के अलावा निशांत की आवाज भी शामिल थी. माहौल खुशनुमा बन चुका था.

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