असमंजस: भाग 3- क्यों अचानक आस्था ने शादी का लिया फैसला

आस्था एक दिन ऐसे ही विचारों में गुम थी कि काफी अरसे बाद एक बार फिर रंजना मैडम का खत आया. यह खत पिछले सारे खतों से अलग था. अब तक जितनी गर्द उन आंधियों ने आस्था के मन पर बिछाई थी, जो पिछले खतों के साथ आई थी, सारी की सारी इस खत के साथ आई तूफानी सुनामी ने धो दी.

आस्था बारबार उस खत को पढ़ रही थी :

‘प्रिय बेटी आस्था,

‘मुझे क्षमा करो, बेटी. मैं समझ नहीं पा रही हूं कि किस हक से मैं तुम्हें यह खत लिख रही हूं. आज तक मैं ने तुम्हें जो भी शिक्षा दी, जाने क्या असर हुआ होगा तुम पर, जाने कितनी खुशियों को तुम से छीन लिया है मैं ने. लेकिन सच मानो, आज तक मैं ने तुम्हें जो भी कहा, वह मेरे जीवन का यथार्थ था. मैं ने वही कहा जो मैं ने अनुभव किया था, जिया था. मुझे सच में, स्त्री की स्वतंत्रता ही उस के जीवन की सब से महत्त्वपूर्ण उपलब्धि लगती थी, जिसे मैं ने विवाह न कर के, परिवार न बसा कर पाया था. लेकिन पिछले 4 सालों में मैं ने स्वयं को जिस तरह अकेला, तनहा, टूटा हुआ महसूस किया है उसे मैं बयां नहीं कर सकती.

‘रिटायरमैंट से पहले तक समय की व्यस्तता के कारण मुझे एकाकी जीवन रास आता था लेकिन बाद में जब भी अपनी उम्र की महिलाओं को अपने नातीपोतों के साथ देखती तो मन में टीस सी उठती. यदि मैं ने सही समय पर अपना परिवार बसाया होता तो आज मैं भी इस तरह अकेली, नीरस जिंदगी नहीं जी रही होती. यही कारण है कि पिछले कुछ सालों से तुम्हारे खतों का जवाब देने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाती थी.

‘आखिर क्या कहती तुम्हें कि जिस रंजना मैडम को तुम अपना आदर्श मानती हो आज उस के लिए दिन के 24 घंटे काटना भी मुश्किल हो गया है. पिछले कुछ सालों ने मुझे एहसास दिला दिया है कि एक इंसान की जिंदगी में परिवार की क्या अहमियत होती है. आज जिंदगी के बयाबान में मैं नितांत अकेली भटक रही हूं, पर ऐसा कोई नहीं है जिस के साथ मैं अपना सुखदुख बांट सकूं. यह बहुत ही भयंकर और डरावनी स्थिति है, आस्था. मैं नहीं चाहती कि जीवन की संध्या में तुम भी मेरी तरह ही तनहा और निराश अनुभव करो. हो सके तो अब भी अपनी राह बदल दो.

‘जिस अस्तित्व को कायम रखने के लिए मैं ने यह राह चुनी थी अब वह अस्तित्व ही अर्थहीन लगता है. जिस समाज की भलाई और उन्नति के लिए हम ने यह एकाकीपन स्वीकार किया है उस समाज की सब से बड़ी भलाई इसी में है कि अनंतकाल से चली आ रही परिवार नाम की संस्था बरकरार रहे, सभी बेटी, बहन, पत्नी, मां, नानीदादी के सभी रूपों को जीएं. तुम यदि चाहो तो अब भी अपने शेष जीवन को इस अंधेरे गर्त में भटकने से रोक सकती हो.

‘जाने क्यों ऐसा लग रहा है कि स्त्री स्वतंत्रता के मेरे विचारों ने अब तक तुम्हारा अच्छा नहीं, बुरा चाहा था लेकिन आज मैं पहली बार तुम्हारा अच्छा चाहती हूं. चाहती हूं कि तुम अपने व्यक्तित्व के हर पहलू को जीओ. आशा है तुम निहितार्थ समझ गई होगी.

‘एक हताश, निराश, एकाकी, वृद्ध महिला जिस का कोई नहीं है.’

बारबार उस खत को पढ़ कर उस के सामने अतीत की सारी गलतियां उभर कर आ गईं. कैसे उस ने विवान का प्रस्ताव कड़े शब्दों में मना कर दिया था, किस प्रकार उस ने मांबाप को कई बार रूखे शब्दों में लताड़ दिया था, किस प्रकार उस ने अपनी बीमार, मृत्युशैया पर लेटी दादी की अंतिम इच्छा का भी सम्मान नहीं किया था. आज क्या है उस के पास, चापलूसों की टोली जो शायद पीठ पीछे उस के बारे में उलटीसीधी बातें करती होगी.

क्या वह जानती नहीं कि किस समाज का हिस्सा है वह. क्या वह जानती नहीं कि अकेली औरत के बारे में किस तरह की

बातें करते होंगे लोग. उस को जन्म देने वाले मांबाप ने अपनी विषम आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद बेटी की पढ़ाई- लिखाई पर कोई आंच नहीं आने दी, कभी भी किसी बात के लिए दबाव नहीं डाला, सलाह दी लेकिन निर्णय नहीं सुनाया. यदि उस के मांबाप इतनी उदार सोच रख सकते हैं तो क्या उस का हमवय पुरुष मित्र उस की स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करता.

आस्था ने निर्णय किया कि वह अपनी गलतियां सुधारेगी. उस ने मां को फोन मिलाया, ‘हैलो मां, कैसी हो?’

‘ठीक हूं. तू कैसी है, आशु. आज वक्त कैसे मिल गया?’ हताश मां ने कहा.

‘मां शर्मिंदा मत करो. मैं घर आ रही हूं. मुझे मेरी सारी गलतियों के लिए माफ कर दो. क्या हाथ पीले नहीं करोगी अपनी बेटी के?’

मां को अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ, ‘तू सच कह रही है न, आशु. मजाक तो नहीं कर रही है. तुझे नहीं पता तेरे पापा यह सुन कर कितने खुश होंगे. हर समय तेरी ही चिंता लगी रहती है.’

‘हां मां. मैं सच कह रही हूं. मैं ने देर जरूर की है लेकिन अंधेरा घिरने से पहले सही राह पर पहुंच गई हूं. अब तुम शादी की तैयारियां करो.’

कुछ ही महीनों में आस्था के लिए एक कालेज प्रोफैसर का रिश्ता आया जिस के लिए उस ने हां कह दी. आज बरसों बाद ही सही, आस्था के मांपापा की इच्छा पूरी होने जा रही थी.

‘‘बेटी आस्था.’’ किसी ने आस्था को पीछे से पुकारा और वह अपने वर्तमान में लौटी. वह पलटी, पीछे रंजना मैडम खड़ी थीं. उन के चेहरे पर खुशी की चमक थी, जिसे देख कर आस्था एक अजीब से भय में जकड़ गई क्योंकि मैडम ने तो खत में कुछ और ही लिखा था, लेकिन तभी भय की वह लहर शांत हो गई जब उस ने उन की मांग में सिंदूर, गले में मंगलसूत्र, हाथों में लाल चूडि़यां देखीं.

‘‘बेटी आस्था, इन से मिलो, ये हैं ब्रिगेडियर राजेश. कुछ दिनों पहले ही मैं ने एक मैट्रिमोनियल एजेंट से अपना जीवनसाथी ढूंढ़ने की बात की थी और फिर क्या था, उस ने मेरी मुलाकात राजेश से करवा दी जोकि आर्मी से रिटायर्ड विधुर थे और अपनी जिंदगी में एकाकी थे. हम ने साथ चलने का फैसला किया और पिछले हफ्ते ही

कोर्ट में रजिस्टर्ड शादी कर ली. इन सब में इतनी व्यस्त थी कि तुम्हें बता भी नहीं पाई.’’

मैडम को ब्रिगेडियर के हाथों में हाथ थामे इतना खुश देख कर आस्था की खुशी का ठिकाना नहीं था. वह खुश थी क्योंकि शादी करने का निर्णय ले कर आखिरकार उस के सारे असमंजस खत्म हो चुके थे.

बरसी मन गई : कैसे मनाई शीला ने बरसी

इधर कई दिनों से मैं बड़ी उलझन में थी. मेरे ससुर की बरसी आने वाली थी. मन में जब सोचती तो इसी नतीजे पर पहुंचती कि बरसी के नाम पर पंडितों को बुला कर ठूंसठूंस कर खिलाना, सैकड़ों रुपयों की वस्तुएं दान करना, उन का फिर से बाजार में बिकना, न केवल गलत बल्कि अनुचित कार्य है. इस से तो कहीं अच्छा यह है कि मृत व्यक्ति के नाम से किसी गरीब विद्यार्थी को छात्रवृत्ति दे दी जाए या किसी अस्पताल को दान दे दिया जाए.

यों तो बचपन से ही मैं अपने दादादादी का श्राद्ध करने का पाखंड देखती आई थी. मैं भी उस में मजबूरन भाग लेती थी. खाना भी बनाती थी. पिताजी तो श्राद्ध का तर्पण कर छुट्टी पा जाते थे. पर पंडित व पंडितानी को दौड़दौड़ कर मैं ही खाना खिलाती थी. जब से थोड़ा सा होश संभाला था तब से तो श्राद्ध के दिन पंडितजी को खिलाए बिना मैं कुछ खाती तक नहीं थी. पर जब बड़ी हुई तो हर वस्तु को तर्क की कसौटी पर कसने की आदत सी पड़ गई. तब मन में कई बार यह प्रश्न उठ खड़ा होता, ‘क्या पंडितों को खिलाना, दानदक्षिणा देना ही पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका है?’

हमारे यहां दादाजी के श्राद्ध के दिन पंडितजी आया करते थे. दादीजी के श्राद्ध के दिन अपनी पंडितानी को भी साथ ले आते थे. देखने में दोनों की उम्र में काफी फर्क लगता था. एक  दिन महरी ने बताया कि  यह तो पंडितजी की बहू है. बड़ी पंडितानी मर चुकी है. कुछ समय बाद पंडितजी का लड़का भी चल बसा और पंडितजी ने बहू को ही पत्नी बना कर घर में रख लिया.

मन एक वितृष्णा से भर उठा था. तब लगा विधवा विवाह समाज की सचमुच एक बहुत बड़ी आवश्यकता है. पंडितजी को चाहिए था कि बहू के योग्य कोई व्यक्ति ढूंढ़ कर उस का विवाह कर देते और तब वे सचमुच एक आदर्श व्यक्ति माने जाते. पर उन्होंने जो कुछ किया, वह अनैतिक ही नहीं, अनुचित भी था. बाद में सुना, उन की बहू किसी और के साथ भाग गई.

मन में विचारों का एक अजीब सा बवंडर उठ खड़ा होता. जिस व्यक्ति के प्रति मन में मानसम्मान न हो, उसे अपने पूर्वज बना कर सम्मानित करना कहां की बुद्धिमानी है. वैसे बुढ़ापे में पंडितजी दया के पात्र तो थे. कमर भी झुक गई थी, देखभाल करने वाला कोई न था. कभीकभी चौराहे की पुलिया पर सिर झुकाए घंटों बैठे रहते थे. उन की इस हालत पर तरस खा कर उन की कुछ सहायता कर देना भिन्न बात थी, पर उन की पूजा करना किसी भी प्रकार मेरे गले न उतरता था.

अपने विद्यार्थी जीवन में तो इन बातों की बहुत परवा न थी, पर अब मेरा मन एक तीव्र संघर्ष में जकड़ा हुआ था. इधर जब से मैं ने एक महिला रिश्तेदार की बरसी पर दी गई वस्तुओं के लिए पंडितानियों को लड़तेझगड़ते देखा तो मेरा मन और भी खट्टा हो गया था. पर क्या करूं ससुरजी की मृत्यु के बाद से हर महीने उसी तिथि पर एक ब्राह्मण को तो खाना खिलाया ही जा रहा था.

मैं ने एक बार दबी जबान से इस का विरोध करते हुए अपनी सास से कहा कि बाबूजी के नाम पर कहीं और पैसा दिया जा सकता है पर उन्होंने यह कह कर मेरा मुंह बंद कर दिया कि सभी करते हैं. हम कैसे अपने रीतिरिवाज छोड़ दें.

मेरी सास वैसे ही बहुत दुखी थीं. जब से ससुरजी की मृत्यु हुई थी, वे बहुत उदास रहती थीं, अकसर रोने लगती थीं. कहीं आनाजाना भी उन्होंने छोड़ दिया था. सो, उन्हें अपनी बातों से और दुखी करने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी. पर दूसरी ओर मन अपनी इसी बात पर डटा हुआ था कि जब हम चली आ रही परंपराओं की निस्सारता समझते हैं और फिर भी आंखें मूंद कर उन का पालन किए जाते हैं तो हमारे यह कहने का अर्थ ही क्या रह जाता है कि हम जो कुछ भी करते हैं, सोचसमझ कर और गुणदोष पर विचार कर के करते हैं.

मैं ने अपने पति से कहा कि वे अम्माजी से बात करें और उन्हें समझाने का प्रयत्न करें. पर उन की तरफ से टका सा जवाब मिल गया, ‘‘भई, यह सब तुम्हारा काम है.’’

वास्तव में मेरे पति इस विषय में उदासीन थे. उन्हें बरसी मनाने या न मनाने में कोई एतराज न था. अब तो सबकुछ मुझे ही करना था. मेरे मन में संघर्ष होता रहा. अंत में मुझे लगा कि अपनी सास से इस विषय में और बात करना, उन से किसी प्रकार की जिद कर के उन के दुखी मन को और दुखी करना मेरे वश की बात नहीं. सो, मैं ने अपनेआप को जैसेतैसे बरसी मनाने के लिए तैयार कर लिया.

हम लोग आदर्शों की, सुधार की कितनी बड़ीबड़ी बातें करते हैं. दुनियाभर को भाषण देते फिरते हैं. लेकिन जब अपनी बारी आती है तो विवश हो वही करने लगते हैं जो दूसरे करते हैं और जिसे हम हृदय से गलत मानते हैं. मेरे स्कूल में वादविवाद प्रतियोगिता हो रही थी. उस में 5वीं कक्षा से ले कर 10वीं कक्षा तक की छात्राएं भाग ले रही थीं. प्रश्न उठा कि मुख्य अतिथि के रूप में किसे आमंत्रित किया जाए. मैं ने प्रधानाध्यापिका के सामने अपनी सास को बुलाने का प्रस्ताव रखा, वे सहर्ष तैयार हो गईं.

पर मैं ने अम्माजी को नहीं बताया. ठीक कार्यक्रम से एक दिन पहले ही बताया. अगर पहले बताती तो वे चलने को बिलकुल राजी न होतीं. अब अंतिम दिन तो समय न रह जाने की बात कह कर मैं जोर भी डाल सकती थी.

अम्माजी रामचरितमानस पढ़ रही थीं. मैं ने उन के पास जा कर कहा, ‘‘अम्माजी, कल आप को मेरे स्कूल चलना है, मुख्य अतिथि बन कर.’’

‘‘मुझे?’’ अम्माजी बुरी तरह चौंक पड़ीं, ‘‘मैं कैसे जाऊंगी? मैं नहीं जा सकती.’’

‘‘क्यों नहीं जा सकतीं?’’

‘‘नहीं बहू, नहीं? अभी तुम्हारे बाबूजी की बरसी भी नहीं हुई है. उस के बाद ही मैं कहीं जाने की सोच सकती हूं. उस से पहले तो बिलकुल नहीं.’’

‘‘अम्माजी, मैं आप को कहीं विवाहमुंडन आदि में तो नहीं ले जा रही. छोटीछोटी बच्चियां मंच पर आ कर कुछ बोलेंगी. जब आप उन की मधुर आवाज सुनेंगी तो आप को अच्छा लगेगा.’’

‘‘यह तो ठीक है. पर मेरी हालत तो देख. कहीं अच्छी लगूंगी ऐसे जाती हुई?’’

‘‘हालत को क्या हुआ है आप की? बिलकुल ठीक है. बच्चों के कार्यक्रम में किसी बुजुर्ग के आ जाने से कार्यक्रम की रौनक और बढ़ जाती है.’’

‘‘मुझे तो तू रहने ही दे तो अच्छा है. किसी और को बुला ले.’’

‘‘नहीं, अम्माजी, नहीं. आप को चलना ही होगा,’’ मैं ने बच्चों की तरह मचलते हुए कहा, ‘‘अब तो मैं प्रधानाध्यापिका से भी कह चुकी हूं. वे क्या सोचेंगी मेरे बारे में?’’

‘‘तुझे पहले मुझ से पूछ तो लेना चाहिए था.’’

‘‘मुझे मालूम था. मेरी अच्छी अम्माजी मेरी बात को नहीं टालेंगी. बस, इसीलिए नहीं पूछा था.’’

‘‘अच्छा बाबा, तू मानने वाली थोड़े ही है. खैर, चली चलूंगी. अब तो खुश है न?’’

‘‘हां अम्माजी, बहुत खुश हूं,’’ और आवेश में आ कर अम्माजी से लिपट गई. दूसरे दिन मैं तो सुबह ही स्कूल आ गई थी. अम्माजी को बाद में ये नियत समय पर स्कूल छोड़ गए थे. एकदम श्वेत साड़ी से लिपटी अम्माजी बड़ी अच्छी लग रही थीं.

ठीक समय पर हमारा कार्यक्रम शुरू हो गया. प्रधानाध्यापिका ने मुख्य अतिथि का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘आज मुझे श्रीमती कस्तूरी देवी का मुख्य अतिथि के रूप में स्वागत करते हुए बड़ा हर्ष हो रहा है. उन्होंनेअपने दिवंगत पति की स्मृति में स्कूल को

2 ट्रौफियां व 10 हजार रुपए प्रदान किए हैं. ट्रौफियां 15 वर्षों तक चलेंगी और वादविवाद व कविता प्रतियोगिता में सब से अधिक अंक प्राप्त करने वाली छात्राओं को दी भी जाएंगी. 10 हजार रुपयों से 25-25 सौ रुपए 4 वषोें तक हिंदी में सब से अधिक अंक प्राप्त करने वाली छात्राओं को दिए जाएंगे. मैं अपनी व स्कूल की ओर से आग्रह करती हूं कि श्रीमती कस्तूरीजी अपना आसन ग्रहण करें.’’

तालियों की गड़गड़ाहट से हौल गूंज उठा. मैं कनखियों से देख रही थी कि सारी बातें सुन कर अम्माजी चौंक पड़ी थीं. उन्होंने मेरी ओर देखा और चुपचाप मुख्य अतिथि के आसन पर जा बैठी थीं. मैं ने देखा, उन की आंखें छलछला आई हैं, जिन्हें धीरे से उन्होंने पोंछ लिया.

सारा कार्यक्रम बड़ा अच्छा रहा. छात्राओं ने बड़े उत्साह से भाग लिया. अंत में विजयी छात्राओं को अम्माजी के हाथों पुरस्कार बांटे गए. मैं ने देखा, पुरस्कार बांटते समय उन की आंखें फिर छलछला आई थीं. उन के चेहरे से एक अद्भुत सौम्यता टपक रही थी. मुझे उन के चेहरे से ही लग रहा था कि उन्हें यह कार्यक्रम अच्छा लगा.

अब तक तो मैं स्कूल में बहुत व्यस्त थी. लेकिन कार्यक्रम समाप्त हो जाने पर मुझे फिर से बरसी की याद आ गई.

दूसरे दिन मैं ने अम्माजी से कहा, ‘‘अम्माजी, बाबूजी की बरसी को 15 दिन रह गए हैं. मुझे बता दीजिए, क्याक्या सामान आएगा. जिस से मैं सब सामान समय रहते ही ले आऊं.’’

‘‘बहू, बरसी तो मना ली गई है.’’

‘‘बरसी मना ली गई है,’’ मैं एकदम चौंक पड़ी, ‘‘अम्माजी, आप यह क्या कह रही हैं?’’

‘‘हां, शीला, कल तुम्हारे स्कूल में ही तो मनाईर् गई थी. कल से मैं बराबर इस बारे में सोच रही हूं. मेरे मन में बहुत संघर्ष होता रहा है. मेरी आंखों के सामने रहरह कर 2 चित्र उभरे हैं. एक पंडितों को ठूंसठूंस कर खाते हुए, ढेर सारी चीजें ले जाते हुए. फिर भी बुराई देते हुए, झगड़ते हुए. मैं ने बहुत ढूंढ़ा पर उन में तुम्हारे बाबूजी कहीं भी न दिखे.’’

‘‘दूसरा चित्र है   उन नन्हींनन्हीं चहकती बच्चियों का, जिन के चेहरों से अमित संतोष, भोलापन टपक रहा है, जो तुम्हारे बाबूजी के नाम से दिए गए पुरस्कार पा कर और भी खिल उठी हैं, जिन के बीच जा कर तुम्हारे बाबूजी का नाम अमर हो गया है.’’

मैं ने देखा अम्माजी बहुत भावुक हो उठी हैं.

‘‘शीला, तू ने कितने रुपए खर्च किए?’’

‘‘अम्माजी, 11 हजार रुपए. 5-5 सौ रुपए की ट्रौफी और 10 हजार रुपए नकद.’’

‘‘तू ने ठीक समय पर इतने सुंदर व अर्थपूर्ण ढंग से उन की बरसी मना कर मेरी आंखें खोल दीं.’’

‘‘ओह, अम्माजी.’’ मैं हर्षातिरेक में उन से लिपट गई. तभी ये आ गए, बोले, ‘‘अच्छा, आज तो सासबहू में बड़ा प्रेमप्रदर्शन हो रहा है.’’

‘‘अच्छाजी, जैसे हम लड़ते ही रहते हैं,’’ मैं उठते हुए बनावटी नाराजगी दिखाते हुए बोली.

ये धीरे से मेरे कान में बोले, ‘‘लगता है तुम्हें अपने मन का करने में सफलता मिल गई है.’’

‘‘हां.’’

‘‘जिद्दी तो तुम हमेशा से हो,’’ ये मुसकरा पड़े, ‘‘ऐसे ही जिद कर के तुम ने मुझे भी फंसा लिया था.’’

‘‘धत्,’’ मैं ने कहा और मेरी आंखें एक बार फिर अम्माजी के चमकते चेहरे की ओर उठ गईं.

परख : भाग 3- कैसे बदली एक परिवार की कहानी

‘‘मां, मैं आप के चेहरे से आप की पीड़ा सम झ सकती हूं. आप पापा के पास क्यों नहीं लौट जातीं,’’ एक दिन गौरिका ने मां श्यामला से साफ कह दिया. ‘‘कहना क्या चाहती हो तुम?’’ श्यामला ने प्रश्न किया. ‘‘यही कि इस आयु में मु झ से अधिक पापा को आप की आवश्यकता है.’’

‘‘उस की चिंता तुम न ही करो तो अच्छा है. तुम्हारे पापा ने ही मु झे यहां भेजा है पर यहां आ कर मु झे भी उन की बात सम झ में आने लगी है. तुम्हारे लक्षण ठीक नहीं नजर आ रहे हैं.’’

‘‘ऐसा क्या देख लिया आप ने जो मेरे लक्षण बिगड़ते दिखने लगे? अपने बेटे गुंजन के लक्षणों की कभी चिंता नहीं की आप ने?’’ गौरिका बेहद कटु स्वर में बोली.

‘‘अपने भाई पर इस तरह आरोप लगाते तुम्हें शर्म नहीं आती? मैं जब भी उस से मिलने जाती हूं आसपास के लोग उस की प्रशंसा करते नहीं थकते. जबकि यहां तुम श्याम भैया और नीता भाभी से लड़ झगड़ कर अकेले रहने चली आईं. तुम ही बताओ कि क्लब से नशे में धुत्त लौट कर तुम किस का सम्मान बढ़ा रही हो?’’

‘‘मामाजी और मामीजी से तो आप भी लड़ झगड़ आई हैं. मेरे ऊपर उंगली उठाने से पहले यह तो सोच लिया होता.’’

‘इसी मूर्खता पर तो मैं स्वयं को कोस रही हूं. वे तो तुम्हारे बारे में और कुछ भी बताना चाहते थे पर मैं ही अपनी मूर्खता से उन की बोलती बंद कर आई.’’

‘‘उस के लिए दुखी होने की आवश्यकता नहीं है. मेरे संबंध में कोई बात आप को किसी और से पता चले, उस से अच्छा तो यही होगा कि मैं स्वयं बता दूं. मैं और मेरा सहकर्मी अर्णव साथ रहते हैं. आप आ रही थीं इसलिए वह कुछ दिनों के लिए घर छोड़ कर चला गया है,’’ गौरिका बिना किसी लागलपेट के बोली.

‘‘उफ, यह मैं क्या सुन रही हूं? संस्कारी परिवार है हमारा. ऐसी बातें बिरादरी में फैल गईं तो तुम से कौन विवाह करेगा?’’ श्यामला बदहवास हो उठीं.

‘‘आप उस की चिंता न करो. मैं बिरादरी में विवाह नहीं करने वाली.’’

‘‘ठीक है, साथ ही रहना है तो विवाह क्यों नहीं कर लेते तुम दोनों?’’

‘‘अभी हम एकदूसरे को परख रहे हैं. कुछ समय साथ रहने के बाद यदि हमें लगा कि हम एकदूसरे के लिए बने हैं, तो विवाह की सोचेंगे. वैसे भी विवाह नाम की संस्था में मेरा या अर्णव का कोई विश्वास नहीं है. इस के बिना भी समाज का काम चल सकता है,’’ गौरिका अपनी ही रौ में बहे जा रही थी.

‘‘सम झ में नहीं आ रहा कि मैं रोऊं या हंसूं. तुम्हारे पापा को पता चला तो पता नहीं वे इस सदमे को सह पाएंगे या नहीं,’’ श्यामला रो पड़ीं.

‘‘मम्मी, यह रोनापीटना रहने दो. आप कहो तो अर्णव को यहीं बुला लूं. आप भी उसे जांचपरख लेंगी,’’ गौरिका ने प्रस्ताव रखा.

‘‘तुम्हारा साहस कैसे हुआ मेरे सामने ऐसा बेहूदा प्रस्ताव रखने का?’’ श्यामला की आंखों से चिनगारियां निकलने लगीं.

‘‘ठीक है, आप नाराज मत होइए. भविष्य में कभी ऐसी बात नहीं कहूंगी,’’ श्यामला का क्रोध देख कर गौरिका ने तुरंत पैतरा बदला.

पर श्यामला को चैन कहां था. वे रात भर करवटें बदलती रहीं. कभी बेचैनी से टहलने लगतीं तो कभी प्रलाप करने लगतीं. वे नभेश से बात करने का साहस भी नहीं जुटा पा रही थीं.

रात भर सोचविचार कर वे इस निर्णय पर पहुंचीं कि गौरिका की बात मान लेने में कोई बुराई नहीं है. अर्णव साथ आ कर रहेगा तो वे उस पर दबाव डाल कर उसे विवाह के लिए राजी कर लेंगी. अंतत: उन्होंने अर्णव को साथ रहने की अनुमति दे दी. वह दूसरे ही दिन साथ रहने के लिए आ धमका.

श्यामला को जब भी अवसर मिलता वे दोनों को विवाहबंधन के लाभ गिनातीं पर गौरिका और अर्णव अपने तर्कों द्वारा उन के हर तर्क को काट देते. इतनी मानसिक यातना उन्होंने कभी नहीं झेली थी.

वे मन ही मन इतनी डरी हुई थीं कि सारे प्रकरण की जानकारी नभेश को देने में मन कांप उठता था.

इसी ऊहापोह में कब 3 माह बीत गए, उन्हें पता ही नहीं चला. अपने सभी प्रयत्नों को असफल होते देख कर उन्होंने सारी जानकारी अपने पति को देने का निर्णय लिया. फिर उन्होंने फोन उठाया ही था कि गौरिका का फोन आ गया, ‘‘मम्मी, हम 8-10 सहेलियों ने रात्रि उत्सव का आयोजन किया है. मैं आज रात घर नहीं आऊंगी. कल सुबह मिलेंगे. शुभरात्रि,’’ कह गौरिका ने उन्हें सूचित किया और फोन काट दिया. उन की प्रतिक्रिया जानने का प्रयत्न भी नहीं किया.

‘‘कौन हैं ये सहेलियां जिन के साथ इस पार्टी का आयोजन किया जा रहा है?’’ उन्होंने अर्णव के आते ही प्रश्न किया.

‘‘फेसबुक पर गौरिका की सैकड़ों सहेलियां हैं. मैं कैसे जान सकता हूं कि वह किन के साथ पार्टी कर रही है? सच पूछिए तो हम एकदूसरे के व्यक्तिगत मामलों में दखल नहीं देते,’’ अर्णव ने हाथ खड़े कर दिए तो श्यामला विस्फारित नेत्रों से उसे ताकती रह गईं फिर उन्होंने तुरंत ही फोन पर पूरी जानकारी नभेश को दे दी.

सारी बात सुन कर वे देर तक उन्हें बुराभला कहते रहे. फिर वे काफी देर तक आंसू बहाती रहीं. पर उस दिन उन्हें बहुत दिनों बाद चैन की नींद आई. उन्हें लगा कि शीघ्र ही नभेश आ कर उन्हें इस यंत्रणा से मुक्ति दिला देंगे. वे बहुत गहरी नींद में थीं जब फोन की घंटी बजी, ‘‘हैलो, कौन?’’ उन्होंने उनींदे स्वर में पूछा. ‘‘जी मैं सुषमा, गौरिका की सहेली. हम लोग खापी कर मस्ती करने सड़क पर निकले थे.

गौरिका कार पर नियंत्रण नहीं रख सकी. उस की कार कुछ राह चलते लोगों पर चढ़ गई. हम मानसी पुलिस स्टेशन में हैं. आप अर्णव के साथ तुरंत वहां पहुंचिए.’’ बदहवास श्यामला ने अर्णव के कमरे का दरवाजा पीट डाला. अर्णव के दरवाजा खोलते ही उन्होंने पूरी बात बता दी. ‘‘ठीक है, मैं तैयार हो कर आता हूं,’’ और फिर दरवाजा बंद कर लिया. कुछ देर बाद दरवाजा खुला तो अर्णव अपने दोनों हाथों में सूटकेस थामे खड़ा था. ‘‘अरे बेटा, इस सब की क्या जरूरत है?’’ श्यामला ने प्रश्न किया.

‘‘आंटी, क्षमा कीजए. मैं आप के साथ नहीं जा रहा. मेरा एक सम्मानित परिवार है. मैं पुलिस, कचहरी के चक्कर में पड़ कर उन्हें ठेस नहीं पहुंचा सकता. मैं यह घर छोड़ कर जा रहा हूं. आप जानें और आप की सिरफिरी बेटी,’’ क्रोधित स्वर में बोल अर्णव बाहर निकल गया. जब तक श्यामला कुछ बोल पातीं वह कार स्टार्ट कर जा चुका था. उस अंधकार में उन्हें श्याम की ही याद आई. फोन पर ही उन्होंने क्षमायाचना की और सहायता करने का आग्रह किया. श्याम ने उन्हें धीरज बंधाया. आश्वासन दिया कि वे तुरंत पहुंच रहे हैं. रिसीवर रख श्यामला वहीं बैठ गईं. उन के आंसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. द्य

असमंजस: भाग 2- क्यों अचानक आस्था ने शादी का लिया फैसला

‘यदि मेरी बात एक हितैषी मित्र के रूप में मानती हो तो अपनी राह स्वयं तैयार करो. हिमालय की भांति ऊंचा लक्ष्य रखो. समंदर की तरह गहरे आदर्श. आशा करती हूं कि तुम अपनी जिंदगी के लिए वह राह चुनोगी जो तुम्हारे जैसी अन्य कई लड़कियों की जिंदगी में बदलाव ला सके. उन्हें यह एहसास करा सके कि एक औरत की जिंदगी में शादी ही सबकुछ नहीं है. सच तो यह है कि शादी के मोहपाश से बच कर ही एक औरत सफल, संतुष्ट जिंदगी जी सकती है.

‘एक बार फिर जन्मदिन मुबारक हो.

‘तुम्हारी शुभाकांक्षी,

रंजना.’

रंजना मैडम का हर खत आस्था के इस निश्चय को और भी दृढ़ कर देता कि उसे विवाह नहीं करना है. विवान और आस्था दोनों इसी उद्देश्य को ले कर बड़े हुए थे कि दोनों को अपनेअपने पिता की तरह सिविल सेवक बनना है. लेकिन विवान जहां परिवार और उस की अहमियत का पूरा सम्मान करता था वहीं आस्था की परिवार नाम की संस्था में कोई आस्था बाकी नहीं थी. उसे घर के मंदिर में पूजा करती दादी या रसोई में काम करती मां सब औरत जाति पर सदियों से हो रहे अत्याचार का प्रतीक दिखाई देतीं.

अपने पहले ही प्रयास में दोनों ने सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी. आस्था का चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा में हुआ था तो विवान का भारतीय राजस्व सेवा में. बस, अब क्या था, दोनों के परिवार वाले उन की शादी के सपने संजोने लगे. विवान के परिजनों के पूछने पर उस ने शादी के लिए हां कह दी किंतु वह आस्था की राय जानना चाहता था. विवान ने जब आस्था के सामने शादी की बात रखी तो एकबारगी आस्था के दिमाग में रंजना मैडम की दी हुई सीख जैसे गायब ही हो गई. बचपन के दोस्त विवान को वह बहुत अच्छे तरीके से जानती थी. उस से ज्यादा नेक, सज्जन, सौम्य स्वभाव वाले किसी पुरुष को वह नहीं जानती थी. और फिर उस की एक आजाद, आत्मनिर्भर जीवन जीने की चाहत से भी वह अवगत थी. लेकिन इस से पहले कि वह हां कहती, उस ने विवान से सोचने के लिए कुछ समय देने को कहा जिस के लिए उस ने खुशीखुशी हां कह दी.

वह विवान के बारे में सोच ही रही थी कि रंजना मैडम का एक खत उस के नाम आया. अपने सिलैक्शन के बाद वह उन के खत की आस भी लगाए थी. मैडम जाने क्यों मोबाइल और इंटरनैट के जमाने में भी खत लिखने को प्राथमिकता देती थीं, शायद इसलिए कि कलम और कागज के मेल से जो विचार व्यक्त होते हैं वे तकनीकी जंजाल में उलझ कर खो जाते हैं. उन्होंने लिखा था :

‘प्रिय मित्र,

‘तुम्हारी आईएएस में चयन की खबर पढ़ी. बहुत खुशी हुई. आखिर तुम उस मुकाम पर पहुंच ही गईं जिस की तुम ने चाहत की थी लेकिन मंजिल पर पहुंचना ही काफी नहीं है. इस कामयाबी को संभालना और इसे बहुत सारी लड़कियों और औरतों की कामयाबी में बदलना तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिए. और फिर मंजिल एक ही नहीं होती. हर मंजिल हमारी सफलता के सफर में एक पड़ाव बन जाती है एक नई मंजिल तक पहुंचने का. कामयाबी का कोई अंतिम चरण नहीं होता, इस का सफर अनंत है और उस पर चलते रहने की चाह ही तुम्हें औरों से अलग एक पहचान दिला पाएगी.

‘निसंदेह अब तुम्हारे विवाह की चर्चाएं चरम पर होंगी. तुम भी असमंजस में होगी कि किसे चुनूं, किस के साथ जीवन की नैया खेऊं, वगैरहवगैरह. तुम्हें भी शायद लगता होगा कि अब तो मंजिल मिल गई है, वैवाहिक जीवन का आनंद लेने में संशय कैसा? किंतु आस्था, मैं एक बार फिर तुम्हें याद दिलाना चाहती हूं कि जो तुम ने पाया है वह मंजिल नहीं है बल्कि किसी और मंजिल का पड़ाव मात्र है. इस पड़ाव पर तुम ने शादी जैसे मार्ग को चुन लिया तो आगे की सारी मंजिलें तुम से रूठ जाएंगी क्योंकि पति और बच्चों की झिकझिक में सारी उम्र निकल जाएगी.

‘यह मैं इसलिए कहती हूं कि मैं ने इसे अपनी जिंदगी में अनुभव किया है. तुम्हें यह जान कर हर्ष होगा कि मुझे राष्ट्रपति द्वारा प्रतिवर्ष शिक्षकदिवस पर दिए जाने वाले शिक्षक सम्मान के लिए चुना गया है. क्या तुम्हें लगता है कि घरगृहस्थी के पचड़ों में फंसी तुम्हारी अन्य कोई भी शिक्षिका यह मुकाम हासिल कर सकती थी?

‘शेष तुम्हें तय करना है.

‘हमेशा तुम्हारी शुभाकांक्षी,

रंजना.’

इस खत को पढ़ने के बाद आस्था के दिमाग से विवान से शादी की बात को ले कर जो भी असमंजस था, काफूर हो गया. उस ने सभी को कभी भी शादी न करने का अपना निर्णय सुना दिया. मांपापा और दादी पर तो जैसे पहाड़ टूट गया. उस के जन्म से ले कर उस की शादी के सपने संजोए थे मां ने. होलीदीवाली थोड़ेबहुत गहने बनवा लेती थीं ताकि शादी तक अपनी बेटी के लिए काफी गहने जुटा सकें लेकिन आज आस्था ने उन से बेटी के ब्याह की सब से बड़ी ख्वाहिश छीन ली थी. उन्हें अफसोस होने लगा कि आखिर क्यों उन्होंने एक निम्नमध्य परिवार के होने के बावजूद अपनी बेटी को आसमान के सपने देखने दिए. आज जब वह अर्श पर पहुंच गई है तो मांबाप की मुरादें, इच्छाओं की उसे परवा तक नहीं.

विवान ने भी कुछ वर्षों तक आस्था का इंतजार किया लेकिन हर इंतजार की हद होती है. उस ने शादी कर ली और अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गया. दूसरी ओर आस्था अपनी स्वतंत्र, स्वैच्छिक जिंदगी का आनंद ले रही थी. सुबहशाम उठतेबैठते सिर्फ काम में व्यस्त रहती थी. दादी तो कुछ ही सालों में गुजर गईं और मांपापा से वह इसलिए बात कम करने लगी क्योंकि वे जब भी बात करते तो उस से शादी की बात छेड़ देते. साल दर साल उस का मांपापा से संबंध भी कमजोर होता गया.

वह घरेलू स्त्रियों की जिंदगी के बारे में सोच कर प्रफुल्लित हो जाती कि उस ने अपनी जिंदगी के लिए सही निर्णय लिया है. वह कितनी स्वतंत्र, आत्मनिर्भर है. उस का अपना व्यक्तित्व है, अपनी पहचान है. बतौर आईएएस, उस के काम की सारे देश में चर्चा हो रही है. उस के द्वारा शुरू किए गए प्रोजैक्ट हमेशा सफल हुए हैं. हों भी क्यों न, वह अपने काम में जीजान से जो जुटी हुई थी.

परख : भाग 2- कैसे बदली एक परिवार की कहानी

‘‘तुम ने पूछा नहीं कि गौरिका यहां से क्यों चली गई?’’

‘‘पूछा था, पर वह तो आप को ही बुराभला कहने लगी, कहती है कि आप के कठोर अनुशासन में उस का दम घुटने लगा था.’’

‘‘स्वयं को सही साबित करने के लिए कुछ तो कहेगी ही. पर मैं तुम से कुछ नहीं छिपाऊंगा. आगे तुम्हें जो उचित लगे करना. हम बीच में नहीं पड़ेंगे,’’ श्याम बोले.

‘‘ऐसी क्या बात है भैया? मेरा दिल बैठा जा रहा है,’’ श्यामला घबरा उठी.

‘‘इस तरह कमजोर पड़ने की जरूरत नहीं है. तुम्हें युक्ति से काम लेना पड़ेगा.’’

‘‘पर बात क्या है भैया?’’

‘‘गौरिका यहां आई तो 2-3 सप्ताह तो सब ठीक रहा, पर फिर उस के ढेरों मित्र आने लगे. रात के 12-12, 1-1 बजे तक पार्टियां चलतीं, कानफोड़ू संगीत बजता. पहले तो हम ने कुछ नहीं कहा, पर जब पड़ोसी भी शिकायत करने लगे तो कहना पड़ा कि हमारी भी कोई मर्यादा है,’’ श्याम ने विस्तार से बताया.

‘‘आप से क्या छिपाना श्यामला दीदी. मैं ने स्वयं गौरिका के मित्रों को नशीली दवा तथा शराब लेते देखा है. इन युवाओं के व्यवहार के संबंध में क्या कहूं… उन्हें खुलेआम शालीनता की सभी सीमाएं लांघते देखा जा सकता था,’’ नीता ने भी अपनी बात कह डाली.

श्यामला को कुछ क्षण ऐसा लगा जैसे हवा भी थम गई हो. श्याम बाबू और नीता ने उन के चेहरे का रंग उड़ते और बदलते देखा.

‘‘श्यामला क्या हुआ? इस तरह चुप क्यों हो? कुछ तो कहो,’’ श्याम घबरा गए.

‘‘बोलूंगी भैया, अवश्य बोलूंगी, पर सब से पहले तो आप दोनों यह भलीभांति सम झ लीजिए कि मु झे गौरिका पर अटूट विश्वास है. आप को अपना सम झ कर उसे आप के साथ रहने को मनाया था. वह तो किसी संबंधी के साथ रहना ही नहीं चाहती थी,’’ श्यामला हर शब्द चबाचबा कर बोलीं.

‘‘क्या कह रही हो दीदी? गौरिका हमारी बेटी जैसी है. हम क्या उस पर  झूठे आरोप लगा रहे हैं?’’ नीता ने कहा.

‘‘बेटी जैसी है न पर बेटी तो नहीं है. इसीलिए तो आप लोग जलते हैं उस से. है कोई लड़की मेरी गौरिका जैसी पूरी बिरादरी में? हर कक्षा में सर्वप्रथम रही है वह. आज इतनी सी आयु में इतनी ऊंची नौकरी कर रही है, इसीलिए सब बौखला गए हैं,’’ और फिर श्यामला रो पड़ीं.

श्याम बाबू सन्न रह गए. उन की छोटी बहन उन पर ऐसा आरोप लगाएगी,

उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था.

‘‘नीता, जाओ चायनाश्ते का प्रबंध करो. अब इस संबंध में हम कोई बात नहीं करेंगे,’’ किसी प्रकार श्याम के मुंह से निकला.

‘‘नहीं खूब बात कीजिए. मेरी गौरिका को बदनाम किए बिना आप को चैन नहीं मिलेगा. आप ने हमारी बहुत सहायता की है. पूरा हिसाबकिताब कर लीजिए हम पाईपाई चुका देंगे. गौरिका का विवाह इतनी धूमधाम से करूंगी कि सब की आंखें खुली की खुली रह जाएंगी,’’ श्यामला अब भी स्वयं को शांत नहीं कर पा रही थीं.

‘‘चलो, मान लिया तुम्हारी गौरिका जैसी कोई नहीं है. हमारी शुभकामनाएं हैं कि वह दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करे. तुम्हारा बड़ा भाई हूं. अब क्षमा भी कर दो,’’ श्याम बाबू ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की तो श्यामला ने किसी प्रकार स्वयं को संभाला.

चायनाश्ते और इधरउधर की बातों के बीच कब शाम हो गई और गौरिका श्यामला को लेने आ गई, पता ही नहीं चला.

‘‘अब क्या होगा श्याम? असली बात तो श्यामला दीदी को बताई ही नहीं,’’ श्यामला के जाते ही नीता ने चिंता जताई.

‘‘क्यों, अभी कुछ और सुनना बाकी है क्या? गांधीजी की शिक्षा का पालन करो. बुरा न देखो, न सुनो, न बोलो. हम कुछ कहें भी तो वह कब सुनने वाली है. उसे पुत्री मोह के आगे कुछ नहीं सू झेगा,’’ श्याम ने पत्नी को दोटूक शब्दों में बताया.

‘‘मिल आईं अपने भाईभाभी से?’’ घर पहुंचते ही गौरिका ने प्रश्न किया.

‘‘मिल आई और खरीखरी भी सुना आई. वे होते कौन हैं मेरी बेटी पर आरोप लगाने वाले?’’ श्यामला गुस्से से भरे स्वर में बोलीं.

‘‘मैं कहती तो थी कि वे हम से ईर्ष्या करते हैं,’’ गौरिका को मां श्यामला की बात सुन कर बड़ी खुशी हुई.

‘‘चिंता न कर बेटी. ऐसा जवाब दे कर आई हूं कि भविष्य में कभी तेरी बुराई करने का साहस नहीं जुटा सकेंगे.’’

‘‘ऐसा क्या कह आईं आप?’’

‘‘जो मन में आया सुना दिया. भैया तो लगे हाथ जोड़ कर माफी मांगने. मैं तो यह सोच कर चुप रह जाती थी कि बड़े भाई हैं और कई बार सहायता करते रहे हैं पर हर बात की एक सीमा होती है.’’

‘‘मम्मी, अब गुस्सा थूक भी दो और तैयार हो जाओ. आज डिनर बाहर ही करेंगे,’’ गौरिका की खुशी उस के चेहरे पर साफ  झलक रही थी.

‘‘अब तो बस एक ही इच्छा है कि तेरे लिए ऐसा घरवर ढूंढ़ूं कि सभी मित्रों, संबंधियों की आंखें चौंधियां जाएं.’’

‘‘आप ऐसा कुछ नहीं करेंगी मां. अपने जीवनसाथी का चुनाव मैं स्वयं करूंगी और वह भी पूरी तरह जांचनेपरखने के बाद.’’

‘‘क्या कह रही है? कहीं किसी को पसंद तो नहीं कर लिया?’’ मन की बात तुरंत ही शब्दों में ढल गई.

‘‘नहीं मां ऐसा कुछ नहीं है. जांचनेपरखने में समय लगता है. अभी तो खोज शुरू हुई है,’’ गौरिका ने हंसी में बात टालनी चाही पर श्यामला का दिल दहल गया.

गौरिका डिनर के लिए उन्हें एक क्लब में ले गई. वहां उपस्थित युवकयुवतियों से वह ऐसे घुलमिल रही थी मानो उन्हें सदियों से जानती हो. गौरिका उन्हें जूस का गिलास थमा कर अपने मित्रों के साथ व्यस्त हो गई, जो तेज संगीत की धुन पर एकदूसरे में डूबे थिरक रहे थे.

खापी कर घर लौटते रात के 12 बज रहे

थे. तभी कार में अजीब गंध ने श्यामला को

चौंका दिया, ‘‘यह क्या है गौरिका? तुम ने पी रखी है क्या?’’

‘‘उफ मां, अपनी मध्यवर्गीय मानसिकता से बाहर निकलो. उच्चवर्ग में साथ देने के लिए थोड़ीबहुत पीने को बुरा नहीं मानते… यह तो आधुनिकता की निशानी है.’’

‘‘भाड़ में जाए ऐसी आधुनिकता… हमारे समाज में तो लड़कों का भी पीना अच्छा नहीं सम झा जाता लड़कियों की बात तो दूर रही.’’

‘‘आप तो श्याम मामा और मामीजी की तरह बात करने लगीं. थोड़ी सी पीने से कोई शराबी नहीं हो जाता. अगली बार मैं आप को क्लब के पब में ले जाऊंगी. वहां देखिएगा कितनी लड़कियां बैठी रहती हैं.’’

‘‘मु झे नहीं देखना कुछ भी. अच्छा हुआ कि तुम्हारा असली चेहरा सामने आ गया. मैं भी कितनी मूर्ख हूं. तुम्हारी बातों में आ कर मैं श्याम भैया से भी  झगड़ा कर बैठी,’’ और श्यामला रो पड़ीं.

अगले कुछ दिन श्यामला ने अपने अकेलेपन से जू झते हुए बिताए. वे गौरिका का एक नया ही रूप देख रही थीं. उस के काम पर जाने के बाद नभेश से बात कर के वे मन हलका कर लेती थीं.

सप्ताहांत में गौरिका अकसर आधी रात को घर लौटती. वे कुछ कहतीं

तो उस का यही घिसापिटा उत्तर होता कि वह उन की तरह चौकेचूल्हे में अपना जीवन नहीं गंवा सकती.

असमंजस: भाग 1- क्यों अचानक आस्था ने शादी का लिया फैसला

शहनाई की सुमधुर ध्वनियां, बैंडबाजों की आवाजें, चारों तरफ खुशनुमा माहौल. आज आस्था की शादी थी. आशा और निमित की इकलौती बेटी थी वह. आईएएस बन चुकी आस्था अपने नए जीवन में कदम रखने जा रही थी. सजतेसंवरते उसे कई बातें याद आ रही थीं.

वह यादों की किताब के पन्ने पलटती जा रही थी.

उस का 21वां जन्मदिन था.

‘बस भी करो पापा…और मां, तुम भी मिल गईं पापा के साथ मजाक में. अब यदि ज्यादा मजाक किया तो मैं घर छोड़ कर चली जाऊंगी,’ आस्था नाराज हो कर बोली.

‘अरे आशु, हम तो मजाक कर रहे थे बेटा. वैसे भी अब 3-4 साल बाद तेरे हाथ पीले होते ही घर तो छोड़ना ही है तुझे.’

‘मुझे अभी आईएएस की परीक्षा देनी है. अपने पांवों पर खड़ा होना है, सपने पूरे करने हैं. और आप हैं कि जबतब मुझे याद दिला देते हैं कि मुझे शादी करनी है. इस तरह कैसे तैयारी कर पाऊंगी.’

आस्था रोंआसी हो गई और मुंह को दोनों हाथों से ढक कर सोफे पर बैठ गई. मां और पापा उसे रुलाना नहीं चाहते थे. इसलिए चुप हो गए और उस के जन्मदिन की तैयारियों में लग गए. एक बार तो माहौल एकदम खामोश हो गया कि तभी दादी पूजा की घंटी बजाते हुए आईं और आस्था से कहा, ‘आशु, जन्मदिन मुबारक हो. जाओ, मंदिर में दीया जला लो.’

‘मां, दादी को समझाओ न. मैं मूर्तिपूजा नहीं करती तो फिर क्यों हर जन्मदिन पर ये दीया जलाने की जिद करती हैं.’

‘आस्था, तू आंख की अंधी और नाम नयनसुख जैसी है, नाम आस्था और किसी भी चीज में आस्था नहीं. न ईश्वर में, न रिश्तों में, न परंपराओं…’

दादी की बात को बीच में ही काट कर उस ने अपनी चिरपरिचित बात कह दी, ‘मुझे पहले अपनी पढ़ाई और कैरियर पर ध्यान देने दो. मेरे लिए यही सबकुछ है. आप के रीतिरिवाज सब बेमानी हैं.’

‘लेकिन आशु, सिर्फ कैरियर तो सबकुछ नहीं होता. न जाने भगवान तेरी नास्तिकता कब खत्म होगी.’

तभी दरवाजे पर घंटी बजी. आस्था खुशी में उछलते हुए गई, ‘जरूर रंजना मैडम का खत आया होगा,’ उस ने उत्साह से दरवाजा खोला. आने वाला विवान था, ‘ओफ, तुम हो,’ हताशा के स्वर में उस ने कहा. वह यह भी नहीं देख पाई कि उस के हाथों में उस के पसंदीदा जूही के फूलों का एक बुके था.

‘आस्था, हैप्पी बर्थडे टू यू,’ विवान ने कहा.

‘ओह, थैंक्स, विवान,’ बुके लेते हुए उस ने कहा, ‘तुम्हें दुख तो होगा लेकिन मैं अपनी सब से फेवरेट टीचर के खत का इंतजार कर रही थी लेकिन तुम आ गए. खैर, थैंक्स फौर कमिंग.’

आस्था को ज्यादा दोस्त पसंद नहीं थे. एक विवान ही था जिस से बचपन से उस की दोस्ती थी. उस का कारण भी शायद विवान का सौम्य, मृदु स्वभाव था. विवान के परिजनों के भी आस्था के परिवार से मधुर संबंध थे. दोनों की दोस्ती के कारण कई बार परिवार वाले उन को रिश्ते में बांधने के बारे में सोच चुके थे किंतु आस्था शादी के नाम तक से चिढ़ती थी. उस के लिए शादी औरतों की जिंदगी की सब से बड़ी बेड़ी थी जिस में वह कभी नहीं बंधना चाहती थी.

इस सोच को उस की रंजना मैडम के विचारों ने और हवा दी थी. वे उस की हाईस्कूल की प्रधानाध्यापिका होने के अलावा नामी समाजसेविका भी थीं. जब आस्था हाईस्कूल में गई तो रंजना मैडम से पहली ही नजर में प्रभावित हो गई थी. 45 की उम्र में वे 30 की प्रतीत होती थीं. चुस्त, सचेत और बेहद सक्रिय. हर कार्य को करने की उन की शैली किसी को भी प्रभावित कर देती.

आस्था हमेशा से ऐसी ही महिला के रूप में स्वयं को देखती थी. उसे तो जैसे अपने जीवन के लिए दिशानिर्देशक मिल गया था. रंजना मैडम को भी आस्था विशेष प्रिय थी क्योंकि वह अपनी कक्षा में अव्वल तो थी ही, एक अच्छी वक्ता और चित्रकार भी थी. रंजना मैडम की भी रुचि वक्तव्य देने और चित्रकला में थी.

आस्था रंजना मैडम में अपना भविष्य तो रंजना मैडम आस्था में अपना अतीत देखती थीं. जबतब आस्था रंजना मैडम से भावी कैरियर के संबंध में राय लेती, तो उन का सदैव एक ही जवाब होता, ‘यदि कैरियर बनाना है तो शादीब्याह जैसे विचार अपने मस्तिष्क के आसपास भी न आने देना. तुम जिस समाज में हो वहां एक लड़की की जिंदगी का अंतिम सत्य विवाह और बच्चों की परवरिश को माना जाता है. इसलिए घरपरिवार, रिश्तेनातेदार, अड़ोसीपड़ोसी किसी लड़की या औरत से उस के कैरियर के बारे में कम और शादी के बारे में ज्यादा बात करते हैं. कोई नहीं पूछता कि वह खुश है या नहीं, वह अपने सपने पूरे कर रही है या नहीं, वह जी रही है या नहीं. पूछते हैं तो बस इतना कि उस ने समय पर शादी की, बच्चे पैदा किए, फिर बच्चों की शादी की, फिर उन के बच्चों को पाला वगैरहवगैरह. यदि अपना कैरियर बनाना है तो शादीब्याह के जंजाल में मत फंसना. चाहे दुनिया कुछ भी कहे, अपने अस्तित्व को, अपने व्यक्तित्व को किसी भी रिश्ते की बलि न चढ़ने देना.’

आस्था को भी लगता कि रंजना मैडम जो कहती हैं, सही कहती हैं. आखिर क्या जिंदगी है उस की अपनी मां, दादी, नानी, बूआ या मौसी की. हर कोई तो अपने पति के नाम से पहचानी जाती है. उस का यकीन रंजना मैडम की बातों में गहराता गया. उसे लगता कि शादी किसी भी औरत के आत्मिक विकास का अंतिम चरण है क्योंकि शादी के बाद विकास के सारे द्वार बंद हो जाते हैं.

रंजना मैडम ने भी शादी नहीं की थी और बेहद उम्दा तरीके से उन्होंने  अपना कैरियर संभाला था. वे शहर के सब से अच्छे स्कूल की प्राचार्या होने के साथसाथ जानीमानी समाजसेविका और चित्रकार भी थीं. उन के चित्रों की प्रदर्शनी बड़ेबड़े शहरों में होती थी.

आस्था को मैडम की सक्रिय जिंदगी सदैव प्रेरित करती थी. यही कारण था कि रंजना मैडम के दिल्ली में शिफ्ट हो जाने के बाद भी आस्था ने उन से संपर्क बनाए रखा. कालेज में दाखिला लेने के बाद भी आस्था पर रंजना का प्रभाव कम नहीं हुआ, बल्कि बढ़ा ही.

हमेशा की तरह आज भी उन का खत आया और आस्था खुशी से झूम उठी. आस्था ने खत खोला, वही शब्द थे जो होने थे :

‘प्रिय मित्र, (रंजना मैडम ने हमेशा अपने विद्यार्थियों को अपना समवयस्क माना था. बेटा, बेटी कह कर संबोधित करना उन की आदत में नहीं था.)

‘जन्मदिन मुबारक हो.

‘आज तुम्हारा 21वां जन्मदिन है जो तुम अपने परिवार के साथ मना रही हो और 5वां ऐसा जन्मदिन जब मैं तुम्हें बधाई दे रही हूं. इस साल तुम ने अपना ग्रेजुएशन भी कर लिया है. निश्चित ही, तुम्हारे मातापिता तुम्हारी शादी के बारे में चिंतित होंगे और शायद साल, दो साल में तुम्हारे लिए लड़का ढूंढ़ने की प्रक्रिया भी शुरू कर देंगे. यदि एक मूक भेड़ की भांति तुम उन के नक्शेकदम पर चलो तो.

परख : भाग 1- कैसे बदली एक परिवार की कहानी

नीताभाभी का फोन आया था,’’ गौरिका के घर लौटते ही श्यामला ने बेटी को सूचित किया.

पर गौरिका तो मानों वहां हो कर भी वहां नहीं थी. उस ने अपना पर्स एक ओर फेंका, सैंडल उतारे और सोफे पर पसर गई.

कुछ देर तो श्यामला बात को मुंह में दबाए बैठी रहीं. फिर आंखें मूंदे लेटी अपनी इकलौती बेटी गौरिका को देखा.

मनमस्तिष्क में  झं झवात सा उठ रहा था. वे दिन भर गौरिका की प्रतीक्षा में बैठी रहती हैं, पर वह घर लौट कर मानों बड़ा उपकार करती है. उस के पास मां से बात करने का तो समय ही नहीं है.

मन हुआ, इतनी जोर से चीखें कि गौरिका तो क्या पासपड़ोस तक हिल उठें और उन के मन का सारा गुबार निकल जाए. पर वे भली प्रकार जानती थीं कि वे ऐसा कभी नहीं करेंगी. वे तो हर समय और हर कार्य में मर्यादा के ऐसे अबू झ बंधन में बंधी रहती थीं कि इस प्रकार के अभद्र व्यवहार की बात सोच भी नहीं सकतीं.

हार कर श्यामला ने टीवी खोल लिया और बेमन से रिमोट हाथ में थामे अलगअलग चैनलों का जायजा लेने लगीं.

उधर गौरिका सोफे पर ही सो गई थी. श्यामला ने एक नजर उस पर डाली, फिर मुंह फेर लिया. उन्होंने कितने लाड़प्यार से पाला है गौरिका को. उस के लिए उन्होंने न दिन को दिन सम झा न रात को रात. पर अब गौरिका अपने सामने किसी को कुछ सम झती ही नहीं.

वे तो उस घड़ी को कोस रही हैं जब उन्होंने गौरिका को राजधानी आ कर नौकरी करने की अनुमति दी थी. उन के पति नभेश ने साफ मना कर दिया था कि वे बेटी के अकेले अजनबी शहर में जा कर रहने के पक्ष में नहीं हैं. तब उन्होंने जोरशोर से बेटी के अधिकारों का  झंडा बुलंद किया था. उन का अकाट्य तर्क था कि जब बेटे को दूसरे शहर में रह कर पढ़ाई व नौकरी करने का हक है तो बेटी को क्यों नहीं?

नभेशजी ने मांबेटी की जिद के आगे हथियार डाल दिए थे. गौरिका राजधानी आ गई. पिछले 4-5 वर्षों में श्यामला ने गौरिका में थोड़ाबहुत परिवर्तन होते देखा था.

गौरिका जब ब्रैंडेड पोशाक पहन कर कंधे तक कटे केशों को बड़ी अदा से लहराती और गरदन को  झटकती अपने शहर आती तो पड़ोसियों, मित्रों और संबंधियों की आंखों में ईर्ष्या के भाव देख कर उन का दिल  झूम उठता था. इसी दिन के लिए तो वे जी रही थीं. उन्होंने अपना जीवन बड़ी तंगहाली में बिताया था. बड़े संयुक्त परिवार में उन का विवाह हुआ था, जिस में छोटीछोटी बातों के लिए भी मन मार कर रहना पड़ता था. पर गौरिका को एमबीए करते ही क्व25 लाख प्रतिवर्ष की नौकरी मिल जाएगी, ऐसा तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था. उन की नाक कुछ अधिक ही ऊंची हो चली थी.

श्यामला के भाई श्याम और भाभी नीता उसी शहर में रहते थे. नभेश बाबू अड़ गए कि गौरिका उन्हीं के साथ रहेगी. वे उसे अजनबी शहर में अकेले नहीं रहने देंगे.

इस में श्यामला को कोई आपत्ति नहीं थी. भाईभाभी से उन के मधुर संबंध थे. यों भी वे आवश्यकता पड़ने पर उन की सहायता करने को सदैव तत्पर रहते थे. गौरिका को यह प्रस्ताव अच्छा नहीं लगा था. उस ने नौकरी मिलते ही जिस उन्मुक्त उड़ान का सपना देखा था उस में यह प्रस्ताव बाधा बन रहा था. पर श्यामला ने उसे मना लिया. गौरिका भी सम झ गई थी कि अधिक जिद की तो नौकरी से हाथ धोने पड़ेंगे.

श्याम संपन्न व्यक्ति थे. पर वे और उन की पत्नी नीता घर में कड़ा अनुशासन रखते थे. वह अनुशासन गौरिका को रास नहीं आया और मामी की रोकटोक से तंग आ कर उस ने शीघ्र ही अलग फ्लैट ले लिया.

नभेश यह सुनते ही भड़क उठे थे और श्यामला को तुरंत बेटी के साथ रहने भेज दिया था. पर श्यामला 4 दिनों में ही ऊब गई थीं. गौरिका सुबह 9 बजे घर से निकलती तो फिर रात 8 बजे तक ही घर लौटती. घर में रहती भी तो या तो टीवी में व्यस्त रहती या फिर लैपटौप में. श्यामला का वश चलता तो वे कब की लौट जातीं पर नभेश की आज्ञा का उल्लंघन कर के वे नया बखेड़ा नहीं खड़ा करना चाहती थीं.

श्यामला न जाने कितनी देर अपने ही विचारों में खोई रहतीं कि तभी

गौरिका की आवाज ने उन्हें चौंका दिया, ‘‘मां, कहां खोई हो. चलो खाना खा लें.’’

‘‘उफ, तो तुम्हारी नींद पूरी हो गई? अपनी मां से बात करने का तो तुम्हें समय ही नहीं मिलता,’’ श्यामला तीखे स्वर में बोलीं.

‘‘मम्मी, नाराज हो गईं क्या?’’ कह गौरिका ने बड़े लाड़ से मां के गले में बांहें डाल दीं.

‘‘नाराज होने वाली मैं होती कौन हूं?’’

‘‘आप को नाराज होने का पूरा अधिकार है पर नाराज होने का कोई कारण भी तो हो.’’

‘‘मैं ने कहा था कि नीता भाभी का फोन आया था. पर तुम ने तो पलट कर उत्तर देना भी जरूरी नहीं सम झा.’’

‘‘मैं ने सुना था मां. पर उस में उत्तर देने जैसा क्या था? मैं भलीभांति जानती हूं कि नीता मामी ने क्या कहा होगा.’’

‘‘अच्छा बड़ी अंतर्यामी हो गई हो तुम. तो तुम्हीं बता दो क्या कहा था उन्होंने?’’ श्यामला चिहुंक उठीं.

‘‘मेरी बुराइयों का पिटारा खोल दिया होगा और क्या. मैं आप को सच बताऊं? उन के घर में 6 माह मैं ने कैसे बिताए हैं केवल मैं ही जानती हूं. मु झे तो उन के बच्चों अशीम और आभा पर दया आती है. इतना अनुशासन किस काम का कि दम घुटने लगे,’’ गौरिका एक ही सांस में बोल गई.

‘‘उन्होंने तो तुम्हारा नाम तक नहीं लिया बुराईभलाई की कौन कहे. वे तो बस यही कहती रहीं कि बिना मिले मत चली जाना.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है कहीं आनेजाने की. वे बड़े, धनीमानी होंगे तो अपने लिए, अब आप को उन का रोब सहने की कोई जरूरत नहीं है. हम उन का दिया नहीं खाते. अब मैं अपने पैरों पर खड़ी हूं.’’

‘‘कैसी बातें कर रही है गौरिका? माना तुम अब अपने पैरों पर खड़ी हो, अच्छा वेतन ले रही हो पर इस का अर्थ यह तो नहीं कि हम अपने सगेसंबंधियों से मुंह फेर लें और वह भी श्याम भैया और नीता भाभी जैसे लोगों से, जिन के हम पर अनगिनत उपकार हैं?’’

‘‘ठीक है, आप को जाना है तो जाओ, मेरे पास समय नहीं है. आप जब कहें मैं आप को उन के यहां छोड़ दूंगी.’’

‘‘अपने पांव धरती पर रखना सीख बेटी. पढ़ेलिखे लोगों को क्या ऐसा व्यवहार शोभा देता है?’’ श्यामला ने सम झाया.

‘‘आप लोगों के कहने से मैं उन के यहां रहने को तैयार हो गई थी. यों मैं ने कभी स्वयं को उन पर बो झ नहीं बनने दिया पर अब नहीं. उन की रोकटोक से तो मेरा दम घुटने लगा था,’’ गौरिका ने अपनी असमर्थता जताई.

‘‘ठीक है, जैसी तेरी मरजी. कल औफिस जाते समय मु झे छोड़ देना और लौटते समय ले लेना. वैसे भी दिन भर अकेले बैठे मन ऊब जाता है,’’ श्यामला ने बात समाप्त की.

अगले दिन श्यामला श्याम के यहां पहुंचीं तो पतिपत्नी दोनों ने बड़ी गर्मजोशी

से स्वागत किया. बहुत जोर डालने पर गौरिका अंदर तक आई और समय न होने का बहाना कर लौट गई.

‘‘जिस दिन से यहां से गई है आज सूरत दिखाई है, तुम्हारी बेटी ने,’’ नीता ने शिकायती लहजे में कहा.

‘‘उस की ओर से मैं क्षमा मांगती हूं. आजकल के बच्चों को तो तुम जानती ही हो, वे किसी की सुनते कहां हैं. पर मेरे मन में तुम दोनों के लिए अथाह श्रद्धा है,’’ श्यामला ने हाथ जोड़े.

‘‘क्षमायाचना मांगने का समय नहीं है श्यामला, सतर्क हो जाने का समय है. मैं किसी के व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता. पर तुम्हें बरबाद होते भी तो नहीं देख सकता.’’

‘‘क्या कह रहे हो भैया? मैं कुछ सम झी नहीं?’’ श्यामला का मन किसी अनजानी आशंका से धड़क उठा था.

सबक: संध्या का कौनसा राज छिपाए बैठा था उसका देवर

संध्या की आंखों में नींद नहीं थी. बिस्तर पर लेटे हुए छत को एकटक निहारे जा रही थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, जिस से वह आकाश के चंगुल से निकल सके. वह बुरी तरह से उस के चंगुल में फंसी हुई थी. लाचार, बेबस कुछ भी नहीं कर पा रही थी. गलती उस की ही थी जो आकाश को उसे ब्लैकमेल करने का मौका मिल गया.

वह जब चाहता उसे एकांत में बुलाता और जाने क्याक्या करने की मांग करता. संध्या का जीना दूभर हो गया था. आकाश कोई और नहीं उस का देवर ही था. सगा देवर. एक ही घर, एक ही छत के नीचे रहने वाला आकाश इतना शैतान निकलेगा, संध्या ने कल्पना भी नहीं की थी. वह लगातार उसे ब्लैकमेल किए जा रहा था और वह कुछ भी नहीं कर पा रही थी. बात ज्यादा पुरानी नहीं थी. 2 माह पहले ही संध्या अपने पति साहिल के साथ यूरोप ट्रिप पर गई थी. 50 महिलापुरुषों का गु्रप दिल्ली इंटरनैशनल एअरपोर्ट से रवाना हुआ.

15 दिनों की यात्रा से पूर्व सब का एकदूसरे से परिचय कराया गया. संध्या को उस गु्रप में नवविवाहित रितू कुछ अलग ही नजर आई. उसे लगा रितू के विचार काफी उस से मिलते हैं. बातबात पर खिलखिला कर हंसने वाली रितू से वह जल्द ही घुलमिल गई.

रितू का पति प्रणव भी काफी विनोदी स्वभाव का था. हर बात को जोक्स से जोड़ कर सब को हंसाने की आदत थी उस की. एक तरह से रितू और प्रणव में सब को हंसाने की प्रतिस्पर्धा चलती थी. संध्या इस नवविवाहित जोड़े से खासी प्रभावित थी. संध्या और उस के पति साहिल के बीच वैसे तो सब कुछ सामान्य था, लेकिन जब भी वह रितू और प्रणव की जोड़ी को देखती आहें भर कर रह जाती.

प्रणव के विपरीत साहिल गंभीर स्वभाव का इंसान था, जबकि संध्या साहिल से अलग खुले विचारों वाली थी. यूरोप यात्रा के दौरान ही संध्या, रितू और प्रणव इतना घुलमिल गए कि विभिन्न पर्यटन स्थलों में घूम आने के बाद भी होटल के रूम में खूब बातें करते, हंसीमजाक होता. साहिल संध्या का हाथ पकड़ खींच कर ले जाता. वह कहता कि चलो संध्या, बहुत देर हो गई. इन्हें भी आराम करने दो. हम भी सो लेते हैं. गु्रप लीडर ने सुबह जल्दी उठने को बोला है.

मगर संध्या को कहां चैन मिलता. वह अपने रूम में आ कर भी मोबाइल पर शुरू हो जाती. वहाट्सऐप पर शुरू हो जाता रितू से जोक्स, कौमैंट्स भेजने का सिलसिला. रितू ने संध्या के फेसबुक पर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज डाली. संध्या ने तुरंत स्वीकार कर ली. दिन में जो फोटोग्राफी वे लोग करते उसे वे व्हाट्सऐप पर एकदूसरे को भेजते. फोटो पर कौमैंट्स भी चलते. रात को रितू और संध्या के बीच व्हाट्सऐप पर घंटों बातें चलतीं. जोक्स से शुरू हो कर, समाजपरिवार की बातें होतीं. धीरेधीरे यह सिलसिला व्यक्तिगत स्तर पर आ गया. एकदूसरे की पसंद, रुचि से ले कर स्कूलकालेज की पढ़ाई, बचपन में बीते दिनों की बातें साझा करने लगीं.

एक रात रितू ने व्हाट्सऐप पर संध्या के सामने दिल खोल कर रख दिया. शादी से पहले के प्यार और शादी तक सब कुछ बता दिया. शादी से पहले रितू की लाइफ में प्रणव था. दोनों एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों का परिवार अलगअलग धर्म और जाति का था. उन के प्यार में कुछ अड़चनें आईं. शादी को ले कर दोनों परिवारों में तकरार हुई पर आखिर रितू और प्रणव ने सूझबूझ दिखाते हुए अपनेअपने परिवार को मना लिया.

रितू और प्रणव की शादी हो गई.व्हाट्सऐप पर रितू की लव स्टोरी पढ़ कर संध्या के मन में हलचल पैदा हो गई. उसे अपना अतीत याद हो आया. उस रात उस का मन किया वह भी रितू को वह सब कुछ बता दे जो उस का अतीत है, लेकिन वह हिम्मत नहीं कर पाई कि पता नहीं रितू क्या सोचेगी. वह उस के बारे में न जाने क्या धारणा बना ले. अजीब सी हलचल मन में लिए संध्या सो गई.

अगली रात संध्या अपनेआप को रोक नहीं पाई. रोज की तरह व्हाट्सऐप पर बातों का सिलसिला चल ही रहा था कि मौका देख कर संध्या ने लिख डाला कि मेरा भी एक अतीत है रितू. मैं भी किसी से प्यार करती थी. पर वह प्यार मुझे नहीं मिल सका.

रितू ने आश्चर्य वाला स्माइली भेजा और लिखा कि बताओ कौन था वह? क्या लव स्टोरी है तुम्हारी?

फिर संध्या ने रितू को अपनी लव स्टोरी बताने का सिलसिला शुरू कर दिया. वह मेरे कालेज में ही था. उस का नाम संजय था. हम दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते थे. हर 1-2 घंटे में मोबाइल पर हमारी बातें नहीं होतीं, तो लगता बहुत कुछ अधूरा है लाइफ में. दोनों में खूब बातें होतीं और तकरार भी. दुनिया से बेखबर हम अपने प्यार की दुनिया में खोए रहते. हमारा प्यार सारी हदें पार कर गया.

विश्वास था कि घर वाले हमारी शादी को राजी हो जाएंगे. इसी विश्वास को ले कर मैं ने खुद को संजय को सौंप दिया. संध्या ने रितू को व्हाट्सऐप पर आगे लिखा, उस दिन पापा ने मुझ से कहा कि बेटी, तुम्हारी पढ़ाई पूरी हो चुकी है. हम चाहते हैं कि अब अच्छा सा लड़का देख कर तुम्हारी शादी कर दें. मैं एकाएक पापा से कुछ नहीं बोल पाई. बस, इतना ही कहा कि पापा मुझे नहीं करनी शादी. अभी मेरी उम्र ही क्या हुई है.

इस पर पापा ने कहा कि उम्र और क्या होगी? 25 साल की तो हो चुकी हो. जब मैं ने कहा कि नहीं पापा, मुझे नहीं करनी शादी तो वे हंस पड़े. बोले सच में अभी बच्ची हो. मैं ने पापा की बात को गंभीरता से नहीं लिया, पर वे मेरी शादी को ले कर गंभीर थे. एक दिन पापा ने मुझे बताया कि एक अच्छे परिवार का लड़का है तेरे लायक. किसी बड़ी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर है.

25 लाख का पैकेज है. वे अगले हफ्ते तुझे देखने आ रहे हैं. पापा की बात सुन कर मैं अवाक रह गई. मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने हिम्मत जुटा कर पापा से कहा कि पापा, मैं एक लड़के से प्यार करती हूं. आप उन से बात कर लीजिए. पापा मेरी तरफ देखते रह गए. उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि उन की नजर में मैं सीधीसादी नजर आने वाली लड़की किस हद तक आगे बढ़ चुकी हूं.

पापा ने पूछा कि कौन है वह लड़का? मैं ने संजय का नाम, पता बताया तो पापा का गुस्सा बढ़ गया कि कभी उस परिवार में अपनी बेटी का रिश्ता नहीं करूंगा. मैं अंदर तक हिल गई. मुझे लगा मेरे सपने रेत से बने महल की तरह धराशायी हो जाएंगे. मैं ने तो संजय को सब कुछ सौंप दिया था. धरती हिलती हुई नजर आई उस दिन मुझे.

पापा और सब घर वालों ने 2-4 दिन में ऐसा माहौल बनाया कि मेरी और संजय की शादी नहीं हो पाई. अगले हफ्ते ही साहिल और उस के घर वाले मुझे देखने आ गए. मुझे पसंद कर लिया गया. रिश्ता पक्का हो गया. पापा ने सख्त हिदायत दी कि संजय का जिक्र भूल कर भी कभी न करूं. इस तरह मेरी शादी साहिल से हो गई. मैं अतीत भूल कर अपना घर बसाने में लग गई. शादी को 2 साल हो चुके हैं. संध्या ने रितू से व्हाट्सऐप पर अपने अतीत की बातें शेयर की और संजय का वह फोटो भेजा जो उस ने संजय के फेसबुक अकाउंट से डाउनलोड किया था.

‘‘अरे वाह, मैडम तुम ने तो बखूबी हैंडल कर लिया लाइफ को,’’ रितू ने संध्या की कहानी सुन कर लिखा.

इसी तरह हंसीमजाक और व्यक्तिगत बातें शेयर करते हुए यूरोप का ट्रिप पूरा हो गया. जब वे वापस घर पहुंचे तो संध्या और साहिल थक कर चूर हो चुके थे. तब रात के 2 बज रहे थे. सुबह देर तक सोते रहे. सास ने दरवाजा खटखटाया कि संध्या, साहिल उठ जाओ… सुबह के 11 बज चुके हैं. नहा कर नाश्ता कर लो. संध्या हड़बड़ा कर उठी. फटाफट फ्रैश हो कर तैयार हुई और किचन में आ गई. नाश्ता तैयार कर डाइनिंग टेबल पर लगाया तब तक साहिल भी तैयार हो चुका था. दोनों ने नाश्ता किया. तभी संध्या को खयाल आया कि मोबाइल कहां है. उस ने इधरउधर देखा पर नहीं मिला. आखिर कहां गया मोबाइल? उसे ध्यान आ रहा था कि रात को जब आई थी तो डाइनिंग टेबल पर रखा था.

‘‘संध्या मैं औफिस जा रहा हूं. आज बौस आ रहे हैं. 3 बजे उन के साथ मीटिंग है,’’ साहिल ने घर से निकलते हुए कहा.

‘‘ठीक है.’’

साहिल के जाने के बाद संध्या मोबाइल ढूंढ़ने में जुट गई. हर जगह देखा. वह अपने देवर आकाश के कमरे में जा पहुंची कि कहीं उस ने देखा हो. वह उस के कमरे में पहुंची तो मोबाइल आकाश के हाथों में देखा. वह मोबाइल स्क्रीन पर व्हाट्सऐप पर मैसेज पढ़ रहा था. वह मैसेज जो संध्या ने रितू को लिखे थे. वह सब कुछ पढ़ चुका था और मोबाइल को साइड में रखने ही जा रहा था.

‘‘आकाश, क्या कर रहे हो? मेरा मोबाइल तुम्हारे पास कहां से आया? क्या देख रहे थे इस में?’’ संध्या ने पूछा तो हमउम्र देवर आकाश के होंठों पर कुटिल मुसकान दौड़ गई.

‘‘कुछ नहीं भाभी, बस आप की लव स्टोरी पढ़ रहा था. आप के लवर का फोटो भी देखा. बहुत स्मार्ट है वह. क्या नाम था उस का संजय?’’ आकाश ने कहा तो संध्या की आंखों के सामने अंधेरा छा गया.

‘‘कुछ नहीं है… आकाश वे सब मजाक की बातें थीं,’’ संध्या ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘अगर भैया को ये सब मजाक की बातें बता दूं तो…?’’ आकाश ने तिरछी नजरें करते हुए कहा. उस की आंखों में शरारत साफ नजर आ रही थी.

संध्या को आकाश के इरादे नेक नहीं लगे. उसे अफसोस था कि उस ने किसी अनजानी दोस्त के सामने क्यों अपने अतीत की बातें व्हाट्सऐप पर लिखी. लिख भी दी थीं तो डिलीट क्यों नहीं कीं.

‘‘तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे आकाश. यह मजाक अच्छा नहीं है तुम्हारे लिए,’’ संध्या ने सख्त लहजे में कहा.

यह सुन कर आकाश अपनी औकात पर उतर आया, ‘‘भाभी जान, क्यों घबराती हो, ऐसा कुछ नहीं करूंगा. आप बस देवर को खुश कर दिया करो.’’

संध्या गुस्सा पीते हुए बोली, ‘‘मुझे क्या करना होगा? तुम क्या चाहते हो?’’

‘‘भाभी, इतना बताना पड़ेगा क्या आप को? आप शादीशुदा हैं. शादी से पहले भी आप काफी ज्ञान रखती थीं,’’ आकाश ने बेशर्मी से कहा.

संध्या को लगा वह बहुत बड़े जाल में फंसने जा रही है. अब करे भी तो क्या करे?

‘‘क्या सोच रही हो संध्या? आकाश अचानक भाभी से संध्या के संबोधन पर उतर आया.

‘‘मुझे सोचने का वक्त दो आकाश,’’ संध्या ने कहा.

‘‘ओके, नो प्रौब्लम. जैसा तुम्हें ठीक लगे. पर याद रखना मेरे पास बहुत कुछ है. भैया को पता चल गया तो धक्के मार कर घर से निकाल देंगे तुम्हें.’’

‘‘पता है, तुम किस हद तक नीचता कर सकते हो,’’ संध्या ने रूखे स्वर में कहा.

संध्या अब क्या करे? कैसे पीछा छुड़ाए आकाश से? वह देवरभाभी के रिश्ते को कलंकित करने पर उतारू था. वह जब भी मौका मिलता संध्या का रास्ता रोक कर खड़ा हो जाता कि क्या सोचा तुम ने?

आकाश मोबाइल पर संध्या को कौल करता, ‘‘इतने दिन हो गए, अभी तक सोचा नहीं क्या? क्यों तड़पा रही हो?’’

संध्या पर आकाश लगातार दबाव बढ़ा रहा था. उस का जीना दूभर हो गया. इसी उधेड़बुन में वह करवटें बदल रही थी. उस की नींद उड़ चुकी थी. वह सुबह तक किसी निर्णय पर पहुंचना चाहती थी. उस के सामने दुविधा यह थी कि वह खुद को बचाए या आकाश की वजह से परिवार में होने वाले विस्फोट से बचे. वह चाहती थी किसी तरह आकाश को समझा सके, ताकि यह बात अन्य सदस्यों तक नहीं पहुंचे, लेकिन करे तो क्या करें. अचानक उस के दिमाग में एक विचार कौंधा. हां, यही ठीक रहेगा. उस ने मन ही मन सोचा और गहरी नींद में सो गई. अगले दिन संध्या ने घर का कामकाज निबटाया और अपनी सास से बोली, ‘‘मम्मीजी, मुझे मार्केट जाना है कुछ घर का सामान लाने. घंटे भर में वापस जा जाऊंगी.’’

फिर संध्या जब घर लौटी तो उस के चेहरे पर चिंता की लकीरों के बजाय चमक थी. उस ने पढ़ा था कि राक्षस को मारने के लिए मायावी होना ही पड़ता है. वह आकाश को भी उसी के हथियार से मारेगी… उस का सामना करेगी. मार्केट से वह अपने मोबाइल में वायस रिकौर्डिंग सौफ्टवेयर डलवा आई. कुछ देर बाद ही आकाश ने घर से बाहर जा कर संध्या के मोबाइल पर कौल की. संध्या पूरी तरह तैयार थी.

‘‘हैलो संध्या क्या सोचा तुम ने?’’ आकाश ने पूछा.

‘‘मुझे क्या करना होगा?’’ संध्या ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं बस वही सब… तुम्हें बताना पड़ेगा क्या?’’

‘‘हां, बताना पड़ेगा. मुझे क्या पता तुम क्या चाहते हो?’’

‘‘तुम मेरे साथ…’’ और फिर सब कुछ बताता चला गया आकाश. कब, कहां, क्या करना होगा.

‘‘और अगर मैं मना कर दूं तो क्या करोगे?’’ संध्या ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं तुम्हारी लव स्टोरी सब को बता दूंगा.’’

संध्या गुस्से से चिल्ला पड़ी, ‘‘जाओ, सब को बताओ. परंतु एक बात याद रखना तुम जो मुझे ब्लैकमेल कर रहे हो न मैं इस की शिकायत पुलिस में करूंगी. ऐसी हालत कर दूंगी कि कई जन्मों तक याद रखोगे.’’

‘‘कैसे करोगी?’’ क्या प्रूफ है तुम्हारे पास?’’ आकाश ने कहा.

‘‘घर आ कर देख लेना यों कायरों की तरह घर से बाहर जा कर क्या बात कर रहे हो,’’ संध्या का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था.

शाम को आकाश घर आया. संध्या ने मौका मिलते ही धीमे से कहा ‘‘पू्रफ दूं या वैसे ही मान जाओगे? तुम ने जो भी बातें की हैं वह सब मोबाइल में रिकौर्ड हैं और इस की सीडी अपने लौकर में रख ली है.’’

आकाश को विश्वास नहीं हो रहा था कि संध्या इस कदर पलटवार करेगी. वह चुपचाप अपने कमरे में खिसक गया. संध्या आज अपनी जीत पर प्रसन्न थी. व्हाट्सऐप के जरीए जो मुसीबत उस पर आई थी, वह उस से छुटकारा पा चुकी थी.

थोड़ा दूर थोड़ा पास- भाग 3 : शादी के बाद क्या हुआ तन्वी के साथ

शुरूशुरू में तन्वी कुछ नाराजगी, कुछ डर के कारण नहीं गई. फिर धीरेधीरे उस ने भी जाना शुरू कर दिया. विजित के साथ छुट्टी के दिन या रविवार को वह भी मांपापा के पास चली जाती. ससुरजी का मूड तो कुछकुछ दिखाने के लिए सही हो गया पर सास का मूड उसे देख कर उखड़ा ही रहता. अभी उन्हें घर से अलग हुए 2 महीने भी नहीं हुए थे कि दिन वे सुबह औफिस जाने के लिए तैयार हो ही रहे थे कि विजित का मोबाइल बज उठा. पापा का फोन था. वे घबराए स्वर में बोल रहे थे. पापा बोल रहे थे कि मां का ऐक्सीडैंट हो गया है. जल्दी से घर आ जाओ.

‘‘हम अभी आते हैं पापा…’’ कह कर दोनों घबराए हुए दोनों जैसेतैसे घर की तरफ दौड़े… मां को उठा कर अस्पताल ले गए.

उन का ऐक्सरे हुआ तो पता चला पैर मुड़ने से पैर के बल गिरने से पैर में फ्रैक्चर हो गया है. प्लस्तर चढ़ गया. 45 दिन का प्लस्तर था. डाक्टर ने शुरू में तो पूर्ण आराम की सलाह दी थी. यहां तक कि बाथरूम तक भी व्हीलचेयर से ही ले जाना.

सबकुछ करा कर जब मां को ले कर विजित और तन्वी घर पहुंचे तो काफी देर हो गई थी.

तन्वी ने ही सब के लिए थकने के बावजूद जैसेतैसे खाना बनाया. उस रात दोनों वहीं रुक गए. रात को दोनों सोच में पड़ गए अब…?’’ पिता के बस का नहीं था मां की देखभाल करना,

‘‘मैं तो एकदम से छुट्टी भी नहीं ले सकता… कल से रिव्यू है… दिल्ली से बौस लोग आ रहे हैं… अलगे कुछ दिन मैं बहुत व्यस्त रहूंगा… इतने दिन से तैयारी कर रहा था…’’ विजित लाचारी और उल झन में बोला.

‘‘ऐसा करते हैं विजित…’’ विजित को सोच व उल झन में पड़े देख कर तन्वी बोली, ‘‘मेरी काफी छुट्टियां बाकी हैं… कल से मैं फिलहाल 15 दिन की छुट्टी ले लेती हूं… तब तक तुम्हारे रिव्यू खत्म हो जाएंगे. तब तुम छुट्टी लेने की कोशिश करना… उस के बाद दीदी को पूछ लो… यदि हफ्ते भर के लिए वे आ सकती हैं तो… फिर मैं दोबारा कोशिश करूंगी छुट्टी लेने की…’’

विजित ने चौंक कर तन्वी की तरफ देखा. उस के चेहरे पर मां की परेशानी  से उपजे चिंता के भाव थे. वह मुग्ध भाव से तन्वी को देखता रह गया कि पता नहीं मां तन्वी को क्यों नहीं सम झ पातीं. मां तन्वी की पीढ़ी की बहुओं को भी अपने जमाने की सासों के चश्मे से देखती हैं और उन की तुलना अपने जमाने की बहुओं से करती हैं. लेकिन तब से अब तक जमाने में, समाज में, शिक्षा में, लड़कियों के पालनपोषण में बहुत परिवर्तन आ चुका है, इस बात पर बिलकुल विचार करना नहीं चाहतीं.

इस घोर परेशानी व उल झन के समय में तन्वी के सहयोग से उस का दिल भर आया था, मां ने क्या कुछ नहीं कहा तन्वी को… पर प्रत्यक्ष में बोला, ‘‘ठीक है, पर तुम्हें छुट्टी लेने में दिक्कत तो नहीं होगी…’’

‘‘नहीं, मिल जाएगी… जरूरत पर नहीं मिलेंगी तो किस काम की ये छुट्टियां…’’

रात में वह निश्चिंत हो कर सो पाया. तन्वी ने छुट्टियां ले कर पूर्ण तनमन से मां की देखभाल की. चूंकि यह शुरू का समय था, इसलिए ज्यादा कष्टपूर्ण व नाजुक था. देखभाल की ज्यादा जरूरत थी. तन्वी की निश्छल देखभाल से मां का मन बारबार पिघलने को होता. हालांकि वे उन विचारों की अधिक थीं जिन में वे बहू का प्यार कम उस का फर्ज ज्यादा सम झती थीं.

15 दिन बाद तन्वी औफिस चली गई और विजित ने छुट्टियां ले ली. विजित की छुट्टियां खत्म हुईं तो 1 हफ्ते के लिए दीदी मां की देखभाल के लिए आ गई. दीदी गई तो तन्वी ने कुछ दिन की छुट्टियां दोबारा ले लीं.

मां अब काफी ठीक हो गई थीं. सहारे से बाथरूम जाने लगी थीं. तन्वी पूरी देखभाल  कर रही थी. धीरेधीरे मां पूरी तरह ठीक हो गईं.

विजित कृतज्ञ हो रहा था तन्वी के प्रति. उस ने इस परेशानी के समय मां के प्रति सभी पूर्वाग्रह भुला कर मन से उन की देखभाल व सेवा की थी और वह देख रहा था, कहीं न कहीं मां के मन को भी तन्वी की सेवा बांध गई थी.

तन्वी की जरूरतों पर कभी ध्यान न देने वाली मां उस से अब जबतब पूछ लेतीं कि उस ने खाना खा लिया या नहीं. चाय पी ली या फिर थोड़ी देर आराम कर ले तन्वी, थक गई होगी. विजित को खुशी होती यह देख कर.

कल से तन्वी की छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं. कल से उसे औफिस जाना था. मां अब पूरी तरह से ठीक थीं. रात का खाना खिला कर खाना खाने के बाद वे अपने घर जाने के लिए तैयार हो गए. तन्वी कमरे में जा कर मां से मिल कर बाहर आ गई.

विजित भी मां से मिलने कमरे में चला गया. बोला, ‘‘अच्छा मां चलते हैं… अब आप बिलकुल ठीक हैं… अपना ध्यान रखना… हम आतेजाते रहेंगे… तन्वी की भी काफी छुट्टियां हो गई हैं, कल से वह भी औफिस जाएगी…’’

‘‘हां बेटा, बहुत सेवा की तन्वी ने मेरी…’’ मां का स्वर कुछकुछ पश्चात्ताप से भरा था, ‘‘तन्वी को सम झाने में शायद भूल कर दी मैं ने…’’

‘‘कोई बात नहीं मां…’’ वह संतुष्ट होता हुआ बोला, ‘‘आप सम झ गईं, हमारे लिए यही काफी है और मातापिता की सेवा व देखभाल करना तो हमारा फर्ज है… आप को जब भी जरूरत होगी, हम आप के पास होंगे मां…’’ वह भीगे स्वर में बोला. मां की आंखों में भी नमी तैर गई.

‘‘विजित, तन्वी अब वापस आ जाए बेटा… क्यों अलग जा रहे हो रहने… जहां दो बरतन होंगे तो थोड़ेबहुत तो बजेंगे ही… पर इस का मतलब यह तो नहीं कि मैं तुम लोगों को प्यार नहीं करती… बड़ों की बातों का इतना भी क्या बुरा मानना…’’ मां का स्वर कातर हो गया था.

‘‘ओह, मां…’’ वह मां को गले लगाता हुआ बोला, ‘‘आप इतनी भावुक क्यों हो रही हैं… आप के ही तो बच्चे हैं हम… दूर थोड़े ही न हो गए हैं आप से… जरा सी दूरी पर ही तो हैं…’’ वह धीरेधीरे मां की पीठ सहलाने लगा.

‘‘मां, एक घर में एक छत के नीचे रह रहे थे… पास थे आप के, पर आप के दिल से दूर थे… जब थोड़ा दूर हैं तो दिल के पास हैं… पास रह कर दूर रहने से, दूर रह कर पास रहना ज्यादा अच्छा है मां… मु झे उम्मीद है आप मेरी बात सम झ रही होंगी…’’ वह मां से अलग होता हुआ बोला.

‘‘साथ रह कर थोड़े दिन बाद फिर वही सब शुरू हो, वही दमघोंटू वातावरण, वही रिश्तों की खींचतान, बहुत मुश्किल होती है मां मु झे… तन्वी के लिए भी ये सब मुश्किल है नौकरी के साथ  झेलना… मैं अब तन्वी के ऊपर अपनी कोई सोच लादना नहीं चाहता… अपने और तन्वी के रिश्ते को थोड़ा और समय दो… हो जाने दो इस रिश्ते को परिपक्व… बदल जाने दो अपने खुद के विचारों को आप… जैसे आप को तन्वी पर विश्वास हो गया, वैसे ही तन्वी का विश्वास भी हो जाने दो आप पर…

‘‘जब तक तन्वी मु झे स्वयं घर लौटने के लिए नहीं कहेगी, तब तक मैं यह कदम नहीं उठाऊंगा… और तब तक आप भी इंतजार करो. मैं जानता हूं तन्वी को, जिस दिन उसे अपने और आप के रिश्ते पर विश्वास हो जाएगा वह खुद ही वापस आ जाएगी…

‘‘मेरे लिए तो दोनों रिश्ते प्रिय हैं मां… मैं तो चाहूंगा ही कि आप और तन्वी के बीच प्यार और प्यारभरा रिश्ता विकसित हो…जैसे तन्वी ने आप का दिल जीता. आप का उस पर विश्वास लौटा… वैसे ही तन्वी का विश्वास भी लौट आएगा आप पर… मु झे पूरा भरोसा है… तभी साथ रहने का मजा है मां…’’ कह कर वह उठ खड़ा हुआ.

विजित पीछे मुड़ा तो पापा खड़े थे. आज पहली बार उसे पापा के चेहरे पर  अपनी कही बात पर सहमति के भाव नजर आए. उन्होंने बेहद अपनेपन व बेहद भरोसे से उस का कंधा थपथपा दिया. बाहर आया तो तन्वी उस का इंतजार कर रही थी. वह जानता था, मां अभीअभी मुश्किल दौर से निकली हैं, इसलिए इतनी बदली हुई हैं. वर्षों की आदतें और विचार 4 दिन में नहीं बदलते.

जब फिर से साथ रहना शुरू करेंगे तो फिर से उन्हें अपनी वाणी और विचारों पर अकुंश रखना मुश्किल होगा. अभी और समय देना होगा उन्हें तन्वी को सम झाने का… और उन फालतू बातों से अधिक अपने बच्चों की जरूरत अपनी जिंदगी में महसूस करने का. तब तक तन्वी भी कुछ मां के नजदीक आ जाएगी तो फिर शायद उसे उन की बात इतनी बुरी न लगे, जितनी अभी लगती है.

जैसे मातापिता की देखभाल और सेवा करना उस का फर्ज है वैसे ही तन्वी भी उस से ही बंधी हुई इस घर में आई है, उस की जिंदगी में आई है. उसे एक सुंदर, स्वच्छ, अच्छी, संतुलित जिंदगी देना भी उस का कर्तव्य है. सोचता हुआ वह तन्वी के साथ घर से बाहर निकल गया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें