पहली नजर का प्यार और अट्रैक्शन

यह पहली नजर का उफ क्या असर है. तुम्हारी कसम, डगमगाए से हम हैं… उंगलियों में चाबी का गुच्छा नचाते, फुल वौल्यूम में गाते हुए अतुल ने बंधु के कमरे में प्रवेश किया. मेज पर फैली अपनी किताबों को समेटते हुए बंधु ने अतुल से पूछा, ‘‘यार, क्या बात है, बड़ा खुश नजर आ रहा है?’’ ‘‘यार, बात ही ऐसी है,’’ कहते हुए अतुल गाने की फिर वही पंक्तियां दोहराने लगा.

बंधु ने अपनी बेचैनी दबाते हुए फिर पूछा, ‘‘अब कुछ बताएगा भी या यों ही गला फाड़ता रहेगा?’’ जब अतुल ने कालेज में ही पढ़ने वाली नीता के साथ अपनी पहली नजर में ही प्यार हो जाने का किस्सा सुनाया तो बंधु हंसने लगा और हंसतेहंसते बोला, ‘‘यार, तू इसे पहली नजर क्यों कह रहा है? मुझे तो लगता है यह शायद तेरी 26वीं नजर वाला प्यार है. एमए में हम दोनों को साथ पढ़ते हुए अभी सिर्फ एक साल ही बीता है, लेकिन इन 12 महीनों में तेरी नजरें 25 युवतियों से तो पहली नजर वाला प्यार कर ही चुकी हैं.

अपनी पहली नजर के प्यार की यों मखौल उड़ता देख अतुल चिढ़ सा गया, बोला, ‘‘मैं सब समझता हूं, तुझ से तो कुछ होता नहीं, बस, बैठाबैठा मेरी तरक्की देख कर जलता रहता है.’’ दोस्त को मनाते हुए बंधु बोला,’’ यार, तू तो नाराज हो रहा है. अरे, मैं क्यों तेरी तरक्की से जलने लगा, मैं तो चाहता हूं कि तू और तरक्की करे. लेकिन जिसे तू प्यार कह रहा है वह प्यार न हो कर मात्र आकर्षण है.’’

बंधु की बात बीच में ही काटता हुआ अतुल बोला, ‘‘यार, तेरी हर समय यह लैक्चरबाजी मुझे पसंद नहीं. अरे, दिलों की बात तू क्या जाने? नीता और मैं दोनों एकदूसरे को कितना चाहने लगे हैं, हम शादी भी करेंगे. तब तेरा मुंह बंद हो जाएगा.’’ कुछ दिनों बाद अतुल के नीता से चल रहे प्रेमप्रसंग का वही अंत हुआ जो उस के पिछले 25 का हुआ था. क्या सच में पहली नजर का प्यार प्रेमियों के अंदर पनपता है? अगर पहली नजर वाला प्यार उत्पन्न होता है तो कुछ समय बाद प्यार से लहराता दिल अचानक सूख क्यों जाता है.

विपरीत सैक्स के प्रति अपार आकर्षण पहली नजर में होने वाला प्यार काफी हद तक यौनाकर्षण से जुड़ा होता है. लड़केलड़कियां एकदूसरे से विपरीत सैक्स के कारण अपार आकर्षण अनुभव करने लगते हैं. उस आकर्षण को ही वे सच्चा प्यार समझने लगते हैं. वास्तव में यह प्यार नहीं होता. यह तो मात्र एक आकर्षण है, जो विपरीत सैक्स के बीच स्वाभाविक रूप से होता है.

विपरीत सैक्स की आपस में बहुत ज्यादा निकटता से कभीकभी प्यार होने जैसी गलतफहमी होने लगती है. 15 वर्ष की शालू को लगने लगा जैसे वह अपने मास्टर के बिना नहीं जी पाएगी. 25 वर्षीय मास्टरजी उसे घर में सितार सिखाने आते थे. एकांत कमरे में मास्टरजी की समीपता से उसे लगने लगा कि वह मास्टरजी से बहुत प्यार करने लगी है. वह तो अच्छा हुआ कि शालू पर चढ़ा मास्टरजी का आकर्षण सिर चढ़ कर बोलने लगा. रातदिन बेटी के मुंह से मास्टरजी के किस्से सुन कर शालू की मम्मी का माथा ठनका, बात बिगड़ने से पहले ही मम्मी ने संभाल ली. कुछ दिन तो शालू ने मास्टरजी को बहुत मिस किया, लेकिन धीरेधीरे वह मास्टरजी को भूलने लगी. अब तो मास्टरजी को देख कर उस का मन दुखी हो जाता है. वह स्वयं से प्रश्न करती है, आखिर इन बौनेकाले मास्टरजी में ऐसा क्या था जो मैं इन पर लट्टू हो गई थी. विपरीत सैक्स के आकर्षण का समीपता के अलावा और भी कारण हो सकते हैं जो दिल में प्यार पैदा कर देते हैं.

कल्पना के अनुरूप मिल जाना हर लड़का या लड़की की जीवनसाथी के बारे में जरूर कुछ न कुछ कल्पना होती है. कल्पना के अनुरूप कोई भी एक गुण मिल जाने पर प्यार हो जाता है. एक कौन्फ्रैंस में देवेश नागपुर गए थे. वहीं उन्होंने जींसटौप में सजी हंसमुख मीनाक्षी को देखा, तो उन्हें लगा वे उसे अपना दिल ही दे बैठे हैं. एक सप्ताह की कौन्फ्रैंस में 5 दिन दोनों ने साथसाथ बिताए. वहां आए सभी लोगों को भी देवेश और मीनाक्षी के प्रेम को प्रेमविवाह में बदलने का पूरा विश्वास था. लेकिन जाने से 2 दिन पहले की बात है. मीनाक्षी देवेश से मिलने उन के कमरे में आई.

देवेश उस समय चाय बना रहे थे. मीनाक्षी को आया देख कर उन्होंने उस के लिए भी चाय बनाई. 2 कपों में चाय बना कर देवेश ने मेज पर रखी, मीनाक्षी ने चाय उठाई. अपने कप में बाहर की ओर लगी चाय को उस ने रूमाल से नजाकत से पोंछा. देवेश इस उम्मीद में थे कि उन के कप में लगी चाय भी पोंछेगी, लेकिन उस ने उन के कप की ओर ध्यान ही नहीं दिया. चाय पी कर जूठे कपप्लेट वहीं छोड़ कर वह चली गई. देवेश मीनाक्षी के इस व्यवहार से आहत हो गए. मीनाक्षी के प्रति उन के मन में प्यार का छलकता सागर उसी समय सूख गया. यह अवश्य था कि उन की पसंद के अनुसार मीनाक्षी स्मार्ट थी, हंसमुख थी, लेकिन जिसे उन की जरा भी परवाह नहीं, ऐसी जीवनसाथी उन्हें जीवन में क्या सुख देगी.

उसी समय कई दिनों से बढ़ाई प्यार की डोर उन्होंने एक झटके से काट डाली. उस के बाद मीनाक्षी से उन्होंने कोई बात नहीं की. अगले दिन वे नागपुर से कानपुर लौट आए. जब मीनाक्षी की ही समझ में कोई कारण न आया तो औरों की समझ में क्या आता. आखिर सब ने देवेश के जाने के बाद उन्हें धूर्त, मक्कार तथा फ्लर्ट की संज्ञा दी.

अवगुण आकर्षण पर भारी प्यार हो जाने तथा प्यार के टूट जाने के पीछे मुख्य कारण है हमारी पंसद का बिखरी अवस्था में होना. हमारे दिमाग में जहां एक ओर गुणों की लंबीचौड़ी लिस्ट होती है, वहीं अवगुणों की लिस्ट भी मौजूद रहती है. हमारे इच्छित सभी गुणों का एकसाथ मिलना असंभव होता है.

जब किसी से प्यार होता है तो उस प्यार के पीछे हम उस के किसी गुण से आकर्षित हो कर उस से प्यार करते हैं. लेकिन प्यार में नजदीकी बढ़ने के साथ ही अगर कोई बुराई सामने आ जाती है, तो वह प्यार के आकर्षण को वहीं समाप्त कर देती है. एक श्रीमान हैं. उम्र 40 वर्ष के लगभग है. लेकिन अभी तक कुंआरे हैं. दिल हथेली पर लिए घूमते हैं. मौका मिलते ही दिल लड़की को सौंपने में नहीं हिचकिचाते, चाहे बदले में उन्हें जूते ही खाने पड़ें. लेकिन कई लड़कियों से दिल लगाने के बाद भी वे अकेले के अकेले हैं. कारण, एक न एक गुण तो उन्हें हर लड़की का आकर्षित कर ही लेता है. लेकिन प्यार में नजदीक आने के बाद कोई अवगुण उन के शादी के जोश को समाप्त कर देता है.

वैसे, दिल के साथ दिमाग का प्रयोग करने वाले प्रेमियों की संख्या काफी कम होती है. चूंकि प्यार अंधा होता है, इसलिए अवगुणों की ओर तो ध्यान जाता ही नहीं. प्यार में डूबे अकसर प्रेमीप्रेमिका एकदूसरे के अवगुणों के प्रति आंखें मूंद कर प्यार के अंधे होने को सत्य साबित करते हैं. किस की कौन सी अदा कब किस के दिल में

मुग्धा बस से दिल्ली जा रही थी. मुग्धा खिड़की से बाहर का दृश्य निहार रही थी अचानक सिगरेट का धुआं उस की नाक में घुसा. उस ने बुरा सा मुंह बनाते हुए पलट कर देखा. बगल की सीट पर ही बैठा नवयुवक बड़ी मस्ती से सिगरेट के छल्ले निकालनिकाल कर मंत्रमुंग्ध हो, उसे देख रहा था. मुग्धा बुरी तरह झल्लाई, ‘‘आप को कुछ तमीज है.’’ युवक ने सहम कर देखा और फौरन जली हुई सिगरेट अपने जूतों के नीचे मसल डाली. मुग्धा उसे देखती रह गई. अब बाहर के दृश्यों को देखने में उस का मन न लगा. रहरह कर आंखें उसी युवक पर टिक जातीं जो सिगरेट बुझा कर उदास सा बैठा था.

न जाने उस में मुग्धा को क्या लगा कि वह उस युवक के भोलेपन पर मुग्ध हो गई. कुछ देर पहले जितनी बेरुखी से उस ने उसे डांटा था, अब आवाज में उस से दोगुनी मिठास घोलते हुए उस ने युवक से पूछा, ‘‘आप इतनी सिगरेट क्यों पीते हैं?’’ फिर बातचीत का ऐसा सिलसिला चला कि कुछ ही घंटों में वे दोनों एकदूसरे के काफी करीब आ गए. इस घटना के कुछ ही समय बाद दोनों विवाहबंधन में भी बंध गए. ठीक इसी तरह निशा अंगरेजी वाले सर, आनंद की आवाज पर फिदा है. सहेलियों के बीच बैठी हो या परिवार वालों के, उस की बातों का केंद्रबिंदु आनंद सर ही रहते हैं.

‘‘क्या आवाज है उन की. लगता है जैसे कहीं बहुत दूर से आ रही है.’’ जितनी देर आनंद सर कक्षा में पढ़ाते, निशा पढ़ाईलिखाई भूल, मंत्रमुग्ध हो आनंद सर की आवाज के जादू में डूबी रहती. निशा अपने सर की आवाज की दीवानी है तो कक्षा में सब से स्मार्ट दिखने वाली शशि, ग्रामीण कैलाश को देखते न अघाती थी, उस के आकर्षण का केंद्रबिंदु था कैलाश की ठोड्डी में पड़ने वाला गड्ढा. इसी तरह न जाने किस की कौन सी अदा कब किसी के दिल में प्यार की चिनगारी सुलगा दे, यह बतलाना बहुत मुश्किल है.

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एक ताजमहल की वापसी- भाग 3: क्या एक हुए रचना और प्रमोद

उस ने रंगीन कागज के भीतर से ताजमहल की अनुकृति को झांकते पाया. उस के चेहरे पर रक्ताभा की एक परत सी छा गई. यह वह क्षण था जब वे दोनों आनंद के अतिरेक में आलिंगनबद्ध हो गए थे. एकदूसरे में समा गए थे.

न जाने कितनी देर तक वे उसी अवस्था में एकदूसरे के दिल की धड़कनों को सुन रहे थे. इस एक क्षण में उन्होंने मानो एक युग जी लिया था, प्यार का युग तो अनंतकाल से प्रेमीप्रेमिका को मिलने के लिए उकसाता रहता है.

अपने घर आ कर प्रमोद ने रचना का दिया हुआ उपन्यास खोल कर देखा. उस में एक पत्र रखा मिला. रचना ने बड़े सुंदर और सुडौल अक्षरों में लिखा था, ‘प्रमोद, मैं तुम्हें हृदय की गहराइयों में पाती हूं. यह प्यार रूपी अमृत का प्याला मैं रोज पीती हूं, पर प्यासी की प्यासी रह जाती हूं. यह तृप्तता आखिर क्या है? कैसी है? कब पूरी होगी. इस का उत्तर मैं किस से पूछूं. यदि आप को पता हो तो मुझे जरूर बताएं…रचना…’

प्रमोद को मानो दीवानगी का दौरा पड़ गया. उसे लगा कि ऐसा पत्र शायद ही किसी प्रेमिका ने अपने प्रेमी को लिखा होगा. वह संसार का सब से अच्छा प्रेमी है, जिस की प्रेमिका इतने उदात्त विचारों की है. वह एक अत्यंत सुंदरी और विदुषी प्रेमिका का प्रेमी है. इस मामले में वह संसार का सब से धनी प्रेमी है.

उसे नित्य नईनई अनुभूतियां होतीं. वह प्यार के खुमार में सदैव डूबा रहता. कभी खुद को चांद तो रचना को चांदनी कहता. कभी रचना हीर होती तो वह रांझा बन जाता. कभी वह किसी फिल्म का हीरो, तो रचना उस की हीरोइन. वह प्यार के अनंत सागर में डुबकियां लगाता लेकिन इस पर भी उस के मन को चैन न आता.

‘चैन आए मेरे दिल को दुआ कीजिए…’ अकसर वह इस फिल्मी गीत को गुनगुनाता और बेचैन रहता.

कभीकभी उसे लगता कि यह ठीक नहीं है. देवदास बन जाना कहां तक उचित है. दूसरे ही क्षण वह सोचता कि कोई बनता नहीं है, बस, अपनेआप ही देवदास बन जाने की प्रक्रिया चालू हो जाती है जो एक दिन उसे देवदास बना कर ही छोड़ती है. ‘वह भी देवदास बन गया है,’ यह सोच कर उसे अच्छा लगता. लगेहाथ ‘देवदास’ फिल्म देखने की उत्कंठा  भी उस में जागृत हो उठी.

विचारों की इसी शृंखला में सोतेजागते रहना उस की नियति बन गई, जिस दिन रचना उसे दिखाई नहीं देती तो उस के ख्वाबों में आ पहुंचती. उसे ख्वाबों से दूर करना भी उस के वश में नहीं रहता. यदि आंखें बंद करता तो वह उसे अपने एकदम करीब पाता. आंखें खोलने पर रचनाकृति गायब हो जाती और दुखद क्षणों की अनुभूति बन जाती.

इस बीच, प्रमोद को अचानक अपने मामा के यहां जाना पड़ गया. मामा कई दिन से बीमार चल रहे थे और एक दिन उन का निधन हो गया. उन की तेरहवीं तक प्रमोद का वहां रुकना जरूरी हो गया था.

एक दिन चंदा ने रचना को फोन किया तो पता चला कि रचना के उद्योगपति पिता ने उस का विवाह मुंबई के एक हीरा व्यापारी के बेटे के साथ तय कर दिया है. इस बात पर उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था. चंदा ने जब इस दुखद सामाचार को प्रमोद तक पहुंचाया तो फोन सुनते ही उसे लगा कि उस का गला सूख गया है. अमृत कलश खाली हो गया है. रचना इतनी जल्दी किसी और की अमानत हो जाएगी, उस की कल्पना से बाहर की बात थी. वह रोंआसा हो गया और तनमन दोनों से स्तब्ध हो कर रह गया था.

‘अपने को संभालो भाई, यह अनहोनी होनी थी सो हो गई, एक सप्ताह बाद ही उस का विवाह है. वह विवाह से पहले एक बार आप से मिलना चाहती है,’ चंदा ने फोन पर जो सूचना दी थी. उस से प्रमोद का सिर चकराने लगा. इस दुखद समाचार को सुन कर उस का भविष्य ही चरमरा गया था. उस ने तुरंत रचना से मिलने के लिए वापसी की ट्रेन पकड़ी.

दूसरे दिन प्रमोद उसी बरगद के पेड़ के नीचे खड़ा था जहां उस का प्रेममिलन हुआ था. रचना भी छिपतेछिपाते वहां आई और प्रमोद से लिपट कर जोरजोर से रोने लगी. वह प्रमोद को पिताजी के सामने हार कर शादी के लिए तैयार होने की दास्तान सुना रही थी. उस ने अपनी मां से भी प्रमोद के प्यार की बातें कही थीं, पर उन्होंने उस के मुंह पर अपनी उंगली रख दी.

तब से अब तक मां की उंगली मानो उस के होंठों से चिपकी हुई थी. वह न तो ठीक से रो सकती थी, न हंस सकती थी. उस ने अपने पास संभाल कर रखा ताजमहल का शोपीस प्रमोद को वापस देते हुए कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो प्रमोद, मैं तुम्हारे प्यार की कसौटी पर खरी नहीं उतरी. मैं प्यार के इस खेल में बुरी तरह हार गई हूं. मैं तुम्हारे प्यार की इस धरोहर को वापस करने के लिए विवश भी हो गई हूं. मुझे उम्मीद है कि तुम मेरी इस विवशता को समझोगे और इसे वापस ले कर अपने प्यार की लाज भी रखोगे.’’

रचना इतना कह कर वापस चली गई और वह उसे जाते देख स्तब्ध रह गया. अब रचना पर उस का कोई अधिकार ही कहां रह गया था. एक धनवान ने फिर एक पाकसाफ मुहब्बत का मजाक उड़ाया था. प्रमोद के हाथों में ताजमहल जरूर था पर उस की मुमताज महल तो कब की जा चुकी थी. उस के प्यार का ताजमहल तो कब का धराशायी हो गया था.

वह अपने अश्रुपूरित नेत्रों से बारबार उस ताजमहल की अनुकृति को देखता और ‘हाय रचना’ कह कर दिल थाम लेता. प्रमोद को ऐसा अहसास हो रहा था कि आज मानो संसार के सारे दुखों ने मिल कर उस पर भीषण हमला कर दिया हो. उस ने ताजमहल के शोपीस को यह कहते हुए उसी चबूतरे पर रख दिया कि जिन प्रेमियों का प्यार सफल और सच्चा होगा वही इसे रखने के अधिकारी होंगे उसे अपने पास रखने की पात्रता अब उस के पास नहीं थी. उस के प्यार की झोली खाली हो गई थी और उस में उसे रखने का अवसर उस ने खो दिया था.

एक ताजमहल की वापसी- भाग 2: क्या एक हुए रचना और प्रमोद

एक तेज खुशबूदार सैंट की महक उस में मादकता भरने के लिए काफी थी. चुंबक के 2 विपरीत ध्रुवों के समान रचना उसे अपनी ओर खींचती प्रतीत हो रही थी. कमरे में वे दोनों थे, जानबूझ कर चंदा उन के एकांत में बाधा नहीं बनना चाहती थी.

‘एक हारे हुए खिलाड़ी की ओर से यह एक छोटी सी भेंट स्वीकार कीजिए,’ कह कर रचना ने एक सुनहरी घड़ी प्रमोद को भेंट की तो वह इतना महंगा तोहफा देख कर हक्काबक्का रह गया.

‘जरा इसे पहन कर तो दिखाइए,’ रचना ने प्रमोद की आंखों में झांक कर उस से आग्रह किया.

‘इसे आप ही अपने करकमलों से बांधें तो…’ प्रमोद ने भी मृदु हास्य बिखेरा.

रचना ने जैसे ही वह सुंदर सी घड़ी प्रमोद की कलाई पर बांधी मानो पूरी फिजा ही सुनहरी हो गई. उसे पहली बार किसी हमउम्र युवती ने छुआ था. शरीर में एक रोमांच सा भर गया था. मन कर रहा था कि घड़ी चूमने के बहाने वह रचना की नाजुक उंगलियों को छू ले और छू कर उन्हें चूम ले. पर ऐसा हुआ नहीं और हो भी नहीं सकता था. प्यार की पहली डगर में ऐसी अधैर्यता शोभा नहीं देती. कहीं वह उसे उस की उच्छृंखलता न समझे. समय की पहचान हर किसी को होनी जरूरी है वरना वक्त का मिजाज बदलते देर नहीं लगती.

अब प्रमोद का भी रचना को कोई सुंदर सा उपहार देना लाजिमी था. प्रमोद की न जाने कितने दिन और कितनी रातें इसी उधेड़बुन में बीत गईं. एक युवती को एक युवक की तरफ से कैसा उपहार दिया जाए यह उस की समझ के परे था. सोतेजागते बस उपहार देने की धुन उस पर सवार रहती. उस के मित्रों ने सलाह दी कि कश्मीर की वादियों से कोई शानदार उपहार खरीद कर लाया जाए तो सोने पर सुहागा हो जाए.

मित्रों के उपहास का जवाब देते हुए प्रमोद बोला, ‘मुझे कुल्लूमनाली या फिर कश्मीर से शिकारे में बैठ कर किसी उपहार को खरीदने की क्या जरूरत है? मेरे लिए तो यहीं सबकुछ है जहां मेरी महबूबा है. मेरा मन कहता है कि रचना बनी ही मेरे लिए है. मैं रचना के लिए हूं और मेरा यह रचनामय संसार मेरे लिए कितना रचनात्मक है, यह मैं भलीभांति जानता हूं.’

यह सुन कर सभी दोस्त हंस पड़े. ऐसे मौके पर दोस्त मजाक बनाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते. हासपरिहास के ऐसे क्षण मनोरंजक तो होते हैं, लेकिन ये सब उस प्रेमी किरदार को रास नहीं आते, क्योंकि जिस में उस की लगन लगी होती है. उसे वह अपने से कहीं ज्यादा मूल्यवान समझने लगता है. उसे दरख्तों, झीलों, ऋतुओं और फूलों में अपने महबूब की छवि दिखाई देने लगती है, कामदेव की उन पर महती कृपा जो होती है. कुछ तो था जो उस के मनप्राण में धीरेधीरे जगह बना रहा था. वह खुद से पूछता कि क्या इसी को प्यार कहते हैं. वह कभी घबराता कि कहीं यह मृगतृष्णा तो नहीं है. उस का यह पहलापहला प्यार था.

कहते हैं कि प्यार की पहचान मन को होती है, पर मन हिरण होता है, कभी यहां, कभी वहां उछलकूद करता रहता है. वह ज्यादातर इस मामले में अपने को अनाड़ी ही समझता है.

आजकल वह एकएक पल को जीने की कोशिश कर रहा था. वह मनप्राण को प्यार रूपी खूंटे से बांध रहा था. प्रेमरस में भीगी इस कहानी को वह आगे बढ़ाना चाह रहा था. इस कहानी को वह अपने मन के परदे पर उतार कर प्रेम की एक सजीव मूर्ति बनना चाहता था.

धीरेधीरे रचना से मुलाकातें बढ़ रही थीं. अब तो रचना उस के ख्वाबों में भी आने लगी थी. वह उस के साथ एक फिल्म भी देख आया था और अब अपने प्यार में उसे दृढ़ता दिखाई देने लगी थी. अब उसे पूरा भरोसा हो गया था कि रचना बस उस की है.

प्रमोद मन से जरूर कुछ परेशान था. वह अपने मन पर जितना काबू करता वह उसे और तड़पा जाता. वह अकसर अपने मन से पूछता कि प्यार बता दुश्मन का हाल भी क्या मेरे जैसा है? ‘हाल कैसा है जनाब का…’ इस पंक्ति को वह मन ही मन गुनगुनाता और प्रेमरस में डूबता चला जाता. प्रेम का दरिया किसी गहरे समुद्र से भी ज्यादा गहरा होता है. आजकल प्रमोद के पास केवल 2 ही काम रह गए थे. नौकरी की तलाश और रचना का रचना पाठ.

रचना…रचना…रचना…यह कैसी रचना थी जिसे वह जितनी बार भी भजता, वह उतनी ही त्वरित गति से हृदय के द्वार पर आ खड़ी होती. हृदय धड़कने लगता, खुमार छाने लगता, दीवानापन बढ़ जाता, वह लड़खड़ाने लगता, जैसे मधुशाला से चल कर आ रहा हो.

इसी तरह हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ उसे पूरी तरह याद हो गई थी, जरूर ऐसे दीवाने को मधुशाला ही थाम सकती है, जिस के कणकण में मधु व्याप्त हो, रसामृत हो, अधरामृत हो, प्रेमी अपने प्रेमी के साथ भावनात्मक आत्मसात हो.

आत्मसात हो कर वह दीनदुनिया में खो जाए. तनमन के बीच कोई फासला न रह जाए. प्रकृति के गूढ़ रहस्य को इतनी आसानी से पा लिया जाए कि प्यार की तलब के आगे सबकुछ खत्म हो जाए, मन भ्रमर बस एक ही पुष्प पर बैठे और उसी में बंद हो जाए. वह अपनी आंखें खोले तो उसे महबूब नजर आए.

अपनी चचेरी बहन चंदा पर प्रेम प्रसंग उजागर न हो इसलिए रचना प्रमोद से बाहर बरगद के पेड़ के नीचे मिलने लगी. वे शंकित नजरों से इधरउधर देखते हुए एकदूसरे में अपने प्यार को तलाश रहे थे. प्रेम भरी नजरों से देख कर अघा नहीं रहे थे. यह प्रेममिलन उन्हें किसी अमूल्य वस्तु से कम नहीं लग रहा था.

उस ने रचना के लिए अपना मनपसंद गिफ्ट खरीद लिया. उसे लग रहा था कि इस से अच्छा कोई और गिफ्ट हो ही नहीं सकता. रंगीन कागज में लिपटा यह गिफ्ट जैसे ही धड़कते दिल से प्रमोद ने रचना को दिया, तो उस की महबूबा भी रोमांच से भर उठी.

‘इसे खोल कर देखूं क्या?’ अपनी बड़ीबड़ी पलकें झपका कर रचना बोली.

‘जैसा आप उचित समझें. यह गिफ्ट आप का है, दिल आप का है. हम भी आप के हैं,’ प्रमोद बोला.

‘वाऊ,’ रचना के मुंह से एकाएक निकला.

एक ताजमहल की वापसी- भाग 1: क्या एक हुए रचना और प्रमोद

रचना ने प्रमोद के हाथों में ताजमहल का शोपीस वापस रखते हुए कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो प्रमोद, मैं प्यार की कसौटी पर खरी नहीं उतरी. मैं प्यार के इस खेल में बुरी तरह हार गई हूं. मैं तुम्हारे प्यार की इस धरोहर को वापस करने को विवश हो गई हूं. मुझे उम्मीद है कि तुम मेरी इस विवशता को समझोगे और इसे वापस ले कर अपने प्यार की लाज भी रखोगे.’’ प्रमोद हैरान था. उस ने अभी कुछ दिन पहले ही अपने प्यार की मलिका रचना को प्यार का प्रतीक ताजमहल भेंट करते हुए कहा था, ‘यह हमारे प्यार की बेशकीमती निशानी है रचना, इसे संभाल कर रखना. यह तुम्हें हमारे प्यार की याद दिलाता रहेगा. जैसे ही मुझे कोई अच्छी जौब मिलेगी, मैं तुरंत शादी करने आ जाऊंगा. तब तक तुम्हें यह अपने प्यार से भटकने नहीं देगा.’

रचना रोतेरोते बोली, ‘‘मैं स्वार्थी निकली प्रमोद, मुझ से अपने प्यार की रक्षा नहीं हो सकी. मैं कमजोर पड़ गई…मुझे माफ कर दो…मुझे अब इसे अपने पास रखने का कोई अधिकार नहीं रह गया है.’’

प्रमोद असहज हो कर रचना की मजबूरी समझने की कोशिश कर रहा था कि रचना वापस भी चली गई. सबकुछ इतने कम समय में हो गया कि वह कुछ समझ ही नहीं सका. अभी कुछ दिन पहले ही तो उस की रचना से मुलाकात हुई थी. उस का प्यार धीरेधीरे पल्लवित हो रहा था. वह एक के बाद एक मंजिल तय कर रहा था कि प्यार की यह इमारत ही ढह गई. वह निराश हो कर वहीं पास के चबूतरे पर धम से बैठ गया. उस का सिर चकराने लगा मानो वह पूरी तरह कुंठित हो कर रह गया था.

कुछ महीने पहले की ही तो बात है जब उस ने रचना के साथ इसी चबूतरे के पीछे बरगद के पेड़ के सामने वाले मैदान में बैडमिंटन का मैच खेला था. रचना बहुत अच्छा खेल रही थी, जिस से वह खुद भी उस का प्रशंसक बन गया था.

हालांकि वह मैच जीत गया था लेकिन अपनी इस जीत से वह खुश नहीं था. उस के दिमाग में बारबार एक ही खयाल आ रहा था कि यह इनाम उसे नहीं बल्कि रचना को मिलना चाहिए था. बैडमिंटन का कुशल खिलाड़ी प्रमोद उस मैच में रचना को अपना गुरु मान चुका था.

अपनी पूरी ताकत लगाने के बावजूद वह रचना से केवल 1 पौइंट से ही तो जीत पाया था. इस बीच रचना मजे से खेल रही थी. उसे मैच हारने का भी कोई गम न था.

मैच जीतने के बाद भी खुद को वह उस खुशी में शामिल नहीं कर पा रहा था. सोचता, ‘काश, वह रचना के हाथों हार जाता, तो जरूर स्वयं को जीता हुआ पाता.’ यह उस के अपने दिल की बात थी और इस में किसी, क्यों और क्या का कोई भी महत्त्व नहीं था. उसे रचना अपने दिल की गहराइयों में उतरते लग रही थी. किसी खूबसूरत लड़की के हाथों हारने का आनंद भला लोग क्या जानेंगे.

दिन बीतते गए. एक दिन रचना की चचेरी बहन ने बताया कि वह बैडमिंटन मैच खेलने वाली लड़की उस से मिलना चाहती है. वह तुरंत उस से मिलने के लिए चल पड़ा. अपनी चचेरी बहन चंदा के घर पर रचना उस का इंतजार कर रही थी.

‘हैलो,’ मानो कहीं वीणा के तार झंकृत हो गए हों.

उस के सामने रचना मोहक अंदाज में खड़ी मुसकरा रही थी. उस पर नीले रंग का सलवारसूट खूब फब रहा था. वह समझ ही नहीं पाया कि रचना के मोहपाश में बंधा वह कब उस के सामने आ खड़ा हुआ था. हलके मेकअप में उस की नीलीनीली, बड़ीबड़ी आंखें, बहुत गजब लग रही थीं और उस की खूबसूरती में चारचांद लगा रही थीं. रूप के समुद्र में वह इतना खो गया था कि प्रत्युत्तर में हैलो कहना ही भूल गया. वह जरूर उस की कल्पना की दुनिया की एक खूबसूरत झलक थी.

‘कैसे हैं आप?’ फिर एक मधुर स्वर कानों में गूंजा.

वह बिना कुछ बोले उसे निहारता ही रह गया. उस के मुंह से बोल ही नहीं फूट पा रहे थे. चेहरे पर झूलती बालों की लटें उस की खूबसूरती को और अधिक बढ़ा रही थीं. वास्तव में रचना प्रकृति की सुंदरतम रचना ही लग रही थी. वह किंचित स्वप्न से जागा और बोला, ‘मैं अच्छा हूं और आप कैसी हैं?’

‘जी, अच्छी हूं. आप को जीत की बधाई देने के लिए ही मैं ने आप को यहां आने का कष्ट दिया है. माफी चाहती हूं.’

‘महिलाएं तो अब हर क्षेत्र में पुरुषों से एक कदम आगे खड़ी हैं. उन्हें तो अपनेआप ही मास्टरी हासिल है,’ प्रमोद ने हलका सा मजाक किया तो रचना की मुसकराहट दोगुनी हो गई.

‘चंदा कह रही थी कि आप ने कैमिस्ट्री से एमएससी की है. मैं भी कैमिस्ट्री से एमएससी करना चाहती हूं. आप की मदद चाहिए मुझे,’ प्रमोद को लगा, जैसे रचना नहीं कोई सिने तारिका खड़ी थी उस के सामने.

प्रमोद रचना के साथ इस छोटी सी मुलाकात के बाद चला आया, पर रास्ते भर रचना का रूपयौवन उस के दिमाग में छाया रहा. वह जिधर देखता उधर उसे रचना ही खड़ी दिखाई देती. रचना की मुखाकृति और मधुर वाणी का अद्भुत मेल उसे व्याकुल करने के लिए काफी था. यह वह समय था जब वह पूरी तरह रचनामय हो गया था.

दूसरी बार उसे फिर आलोक बिखेरती रचना द्वारा याद किया गया. इस बार रचना जींस में अपना सौंदर्य संजोए थी. चंदा ने उसे आगाह कर दिया था कि रचना शहर के एक बड़े उद्योगपति की बेटी है. इसलिए वह पूरे संयम से काम ले रहा था. उस के मित्रों ने कभी उसे बताया था कि लड़कियों के मामले में बड़े धैर्य की जरूरत होती है. पहल भी लड़कियां ही करें तो और अच्छा, लड़कों की पहल और सतही बोलचाल उन में जल्दी अनाकर्षण पैदा कर सकता है. इसलिए वह भी रचना के सामने बहुत कम बोल कर केवल हांहूं से ही काम चला रहा था. अब की बार रचना ने प्रमोद को शायराना अंदाज में ‘सलाम’ कहा तो उस ने भी हड़बड़ाहट में उसी अंदाज में ‘सलाम’ बजा दिया.

कोरोना लव: शादी के बाद क्या दूर हो गए अमन और रचना

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बुद्धू- भाग 3: अनिल को क्या पता चला था

‘‘शादी की सारी तैयारियां हो चुकी थीं. अचानक निवेदिता ने ही गड़बड़ी कर दी. मालूम पड़ा कि वह शादी न करने की जिद कर रही है.

‘‘भाभीजी ने मुझ से कहा था कि अब निवेदिता को भी तुम्हीं जा कर समझओ.

‘‘यह सुन कर मैं सुन्न हो गया और फिर बोला कि एकाएक निवेदिता को यह क्या हो गया है. मैं उसे क्या समझऊं.

‘‘यह सुन कर भाभी बोलीं कि अनिल तुम्हारे समझने से ही कुछ हो सकता है. तुम्हें मालूम होना चाहिए कि वह असल में तुम से प्यार करती है.

‘‘मैं भाभीजी का मुंह देखता रह गया था. मेरा चेहरा लाल हो उठा था. मैं चिंता में डूब गया. ब्याह की बात इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि अब पीछे हटने में मेरी बदनामी होती. मैं किसी को मुंह दिखाने लायक भी न रहता.

‘‘भाभीजी के कहने से मैं उस के पास गया. वह दूसरी मंजिल के एक कमरे में खिड़की के पास खड़ी रोती मिली. मैं ने उसे पुकारा. इतने दिनों में मेरी उस से यह पहली बार आमनेसामने बात हुई.

‘‘मैं ने कहा कि निवेदिता, बात इतनी आगे बढ़ चुकी है. क्या अब तुम सब को नीचा दिखाओगी.

‘‘उस ने नजरें उठा कर मेरी ओर देखा. फिर तुरंत ही बोली कि और मेरा प्यार, मेरा दिल?

‘‘मैं ने पूछा कि क्या तुम्हें इस रिश्ते में कोई परेशानी है?

‘‘उस का गोल चेहरा शर्म से और ज्यादा झक गया. वह अपनी चुन्नी का छोर लपेटने लगी.

‘‘मैं ने फिर कहा कि क्या तुम फिर एक  बार गंभीरता से इस बात को नहीं सोच सकतीं?

‘‘उस ने नजरें उठा कर कुछ पल मेरी ओर देखा. फिर बोली कि यह आप कह

रहे हैं?

‘‘निवेदिता का प्रश्न सुन कर मैं दंग रह गया. फिर बोला कि तुम्हारी मां, बूआजी आदि सभी की इच्छा है… उधर रोमित भी इंतजार में बैठा था…

‘‘बात अधूरी ही रह गई. मेरा गला भर आया. सहसा अपनेआप को ही सबकुछ वाहियात लगने लगा.

‘‘वह बोली कि यह सब तो मैं जानती हूं, लेकिन क्या आप भी ऐसा ही कह रहे हैं?

‘‘मैं जबरन मुसकरा कर बोला कि मैं तो ऐसा कहूंगा ही.

‘‘मेरी सुन कर वह बोली कि क्यों नहीं कहोगे वरना दोस्त के आगे सिर नीचा नहीं हो जाएगा?

‘‘मैं ने कहा कि नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. जो कुछ हो रहा है, तुम्हारी भलाई के लिए ही हो रहा है.

‘‘मेरी बात सुन कर वह बोली कि मेरी भलाई के लिए? बस यही बात है?

‘‘इस के आगे निवेदिता ने मुझे कुछ कहने का मौका नहीं दिया और शीघ्रता से कमरे से निकल फटाफट सीढि़यां उतर कर नीचे चली गई.

‘‘देखतेदेखते शादी का दिन आ गया. सारे घर में लोग होहल्ला मचा रहे थे. मैं दिखाने के लिए व्यस्त सा इधरउधर घूमता रहा, पर मेरा मन किसी काम में नहीं लग रहा था. बरात दरवाजे पर आ चुकी थी. ऐसे ही समय में भाभीजी को ढूंढ़ता हुआ दोमंजिले के उसी कमरे में जा पहुंचा. वहां महिलाओं का दल निवेदिता को घेरे बैठा था. पर बरात के आने की खबर सुन कर मेरे सामने ही सब 1-1 कर कमरे से बाहर हो गईं.

‘‘लाल रंग की बेहद खूबसूरत साड़ी पहने, माथे पर लाल गोल बिंदी व पैरों में लाल महावर लगा, चेहरे को दोनों घुटनों के बीच झकाए निवेदिता बैठी थी. उस समय वह बड़ी सुंदर लग रही थी. मैं एकटक उसे निहारता रहा. अचानक उस की नजरे ऊपर उठीं. वह कुछ देर मेरे मुंह को ताकती रही. मैं ने देखा, उस की दोनों आंखें बहुत लाल थीं. सुना था, ब्याह की रात सभी लड़कियां रोती हैं. शायद वह भी रोई थी. मुझे उस की लाल आंखें बड़ी भली लगीं.

निवेदिता उठ कर खड़ी हो गई और भारी गले से बोली कि आप की ऐसी ही इच्छा थी न? और उस की आंखों से झरझर आंसू झरने लगे.

‘‘फिर मैं वहां न ठहर सका. सिर झका कर अपराधी सा बाहर आ गया. उस दिन पहली बार मेरी आंखों में आंसू आ गए थे. पता नहीं क्यों इस के बाद उस घर में मेरा मन न लगा.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘श्रद्धा, इस के बाद फिर कुछ नहीं हुआ.’’

‘‘निवेदिता से फिर आप की कोई मुलाकात नहीं हुई?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘बड़े आश्चर्य की बात है.’’

‘‘श्रद्धा, तुम्हें आश्चर्य हो रहा है पर यह सच है कि शादी के 8 दिन बाद ही रोमित अपनी पत्नी को ले कर मुंबई लौट गया. शायद उस को ज्यादा छुट्टी नहीं मिली थी. इधर मेरा भी तबादला लखनऊ हो गया. इस के बाद हमारीतुम्हारी शादी हो गई और मैं भी कामकाज में घिर गया. तब से तो तुम साथ ही हो. लखनऊ के बाद कानपुर, फिर घाटमपुर तबादला हुआ और अब 12 वर्ष बाद फिर दिल्ली आ गया हूं. यद्यपि इन 12 सालों में अपने पास बुलाने के लिए रोमित और भाभीजी ने कई बार आग्रह भरे पत्र लिखे, पर रोमित और भाभीजी के पास जाने की इच्छा अधूरी ही रही.’’

‘‘अब तो हमें दिल्ली आए भी 1 महीना हो चुका है. इस 1 महीने में तुम भाभीजी के घर एक बार भी नहीं गए?’’

‘‘तुम ने यह कैसे समझ लिया कि मैं भाभीजी के घर गया ही नहीं?

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि तुम भाभीजी के घर के चक्कर लगते ही रहते हैं.’’

‘‘नहीं, रोजरोज यह कैसे संभव है?’’

‘‘ओह, तुम से तो कोईर् बात पूछना भी बेवकूफी है. तुम मर्द लोग पता नहीं किस दिमाग के होते हो?’’

‘‘तुम शायद गुस्सा हो गई हो. यहां आने के चौथे दिन ही मैं उन ममतामयी भाभी के दर्शन करने चला गया था. वहां जाने पर निवेदिता की भी याद आई, पर मैं ने भाभीजी से उस का कोई जिक्र नहीं किया.

‘‘बातोंबातों में भाभीजी ने ही बताया कि निवेदिता अपने पति के साथ बहुत सुखी है. दिल्ली आने पर मुझे याद करती है. सुन कर मुझे संतुष्टि अवश्य हुई.

‘‘उस के बाद मैं भाभीजी के घर चाह कर भी न जा सका. लेकिन संयोग से आज भाभीजी सैक्टर 3 के मोड़ पर मिल गईं और…’’

‘‘निवेदिता की मौत का दुखद समाचार

सुना गईं.’’

‘‘हां, यह मैं पहले ही तुम्हें बता चुका हूं.’’

‘‘अनिल, मुझे अफसोस है कि मैं निवेदिता को न देख सकी.’’

‘‘क्या करती देख कर?’’

‘‘यह तो देखने और मिलने के बाद ही बतला सकती थी. तुम ने एक बार भी उसे अपने

यहां नहीं बुलाया. बुरा मत मानना, तुम वाकई बड़े बुद्धू हो…’’

‘‘श्रद्धा, इस में बुरा मानने की क्या बात है? शायद तुम सही कहती हो. सोच रहा हूं, अब बेचारे रोमित का क्या होगा. उसे पत्र लिखना चाहता हूं, पर काफी सोचने पर भी शब्द नहीं मिल रहे हैं. ऐसे शब्द जिन से रोमित निवेदिता के छोड़े हुए अधखिले फूलों को खिला सके और उन की महक से अपनेआप को महका ले.’’

‘‘क्या किसी शब्दकोश में ऐसे शब्द नहीं हैं, जिन से मरा हुआ आदमी जिंदा हो जाए?’’

‘‘श्रद्धा, मुझ पर व्यंग्य कर रही हो?

पर सुनो, मेरे शब्दों में इतनी शक्ति तो नहीं कि मरे हुए इंसान को पुन: जीवित कर दें. पर मेरे शब्दों से 3 जिंदगियों के होंठों से छिनी मुसकान यदि फिर से वापस आ जाए तो मुझ जैसे बुद्धू आदमी के लिए यह एक महान कार्य ही होगा.’’

बुद्धू- भाग 2: अनिल को क्या पता चला था

‘‘इस के बाद विशेष कुछ नहीं है, पर हां, कभीकभी एक धुंधला सा चित्र आंखों के सामने आ जाता है. ठीक वैसे ही जैसे भोर की अर्धनिद्रा में आया स्वप्न हो, जिस का कोई आकार नहीं होता, पर उस की झलक मात्र से मनमस्तिष्क में बेचैनी सी छा जाती है. यदि तुम सोचती हो कि वह चित्र निवेदिता का होगा तो यह तुम्हारी भूल है. मैं कह नहीं सकता कि तुम स्त्रियों के साथ भी ऐसा होता है क्या?’’

‘‘औरतों की हालत कैसी होती है, यह तुम ने उस समय निवेदिता से पूछा होता तो इस का पता लग गया होगा.’’

‘‘मैं एक बार फिर तुम्हें  बता देता हूं कि हमारी आमनेसामने बातचीत शायद ही कभी हुई हो, यद्यपि जिस दिन भी वहां जाता था, हमारी मुलाकात अवश्य होती थी. भाभीजी, उस की मां और हम सभी शाम के समय अधिकतर लौन में कुरसियां डाल कर बैठ जाते थे. वह अपनी कुरसी कुछ दूर ही रखती थी. पता नहीं क्यों? हां, इतना अवश्य था कि भाभीजी जब भी उस से कहती थीं, वह गाना अवश्य सुना दिया करती थी. कभीकभी वह गीत में इतना खो जाती थी कि एक के बाद एक सुनाती जाती थी. उस का गाना रुक जाने के बाद बहुत देर तक हम लोग बातें करना भूल जाते थे.’’

‘‘वह कैसा गाती थी?’’

‘‘श्रद्धा, यह तो मैं नहीं जानता, वैसे उस के गाने की तारीफ सभी करते थे. लेकिन जब वह गाती थी तब मुझे ऐसा लगता था कि उस के गाने में जो दर्द, जो टीस है, वही मेरे दिल में है. पर मेरे पास उसे प्रकट करने के लिए कोई शब्द नहीं थे, भाषा नहीं थी. उस के कुछ गाने मैं ने चोरी से रिकौर्ड कर लिए थे.’’

‘‘गाने तो वह तुम्हारे लिए ही गाती थी, यही कहना चाहते हो न?’’

‘‘ऐसी बेतुकी बातें मैं ने कभी नहीं सोचीं. कोई लड़की अगर आंख उठा कर

देख ले और मैं सोचने लगूं कि वह मुझे किसी विशेष कारण से देख रही है तो यह मेरी बेवकूफी के सिवा और क्या होगा? और रही रिकौर्डिंग की बात तो उस के बाद तो न जाने कितनी बार मोबाइल बदले जा चुके हैं. अब कहां मिलेगी वह आवाज.’’

‘‘तुम्हारी यह बात मेरी बुद्धि में नहीं घुसी. खैर, आगे बताओ.’’

‘‘ठीक ही कहा तुम ने. उस की मां को उस की शादी की बड़ी जल्दी थी. पर मैं भाभीजी को अकसर यह कहते सुना करता था कि अरे, ऐसी भी क्या जल्दी है. लड़की अभी बीए तो कर ले. उसे पढ़ने भी दो, समय आने पर शादी हो जाएगी.

‘‘लेकिन उस की मां कहती थी कि शादीब्याह की कोशिश तो पहले से करनी पड़ती है. लड़की की शादी है, कोई हंसीमजाक तो नहीं.

‘‘एक दिन निवेदिता की मां ने मुझे से भी कहा कि अनिल, तुम इतनी अच्छी नौकरी पर हो. क्या निवेदिता के लिए अपने ही जैसे किसी लड़के को नहीं ढूंढ़ सकते?

‘‘तभी भाभीजी मेरा मजक उड़ाती हुई बोलीं कि तुम ने भी बड़े भले आदमी से जिक्र छेड़ा है. अपने छोटों से बात करने में तो यह पसीने में भीग जाता है, यह बिटिया के लिए क्या लड़का ढूंढ़ेगा. हां, इस की निगाह में एक लड़का जरूर है.

‘‘और वह यह कह कर मेरी ओर स्नेहभरी दृष्टि डाल कर मुसकरा पड़ीं.

‘‘उस की मां ने उत्सुकतापूर्वक तुरंत पूछा कि कौन है वह लड़का? कहां रहता है? क्या काम करता है?

‘‘पर भाभीजी मेरी ओर देख कर मुसकरा ही रही थीं. मुझ से वहां एक पल भी न ठहरा गया. मैं तुरंत उठ कर गली में आ गया. मेरा मन यह सोच कर बड़ा खराब हो गया कि भाभीजी ने मेरे विषय में क्या सोच रखा है.

‘‘मैं लज्जा से गड़ा जा रहा था. सोचता, आखिर भाभीजी को किस तरह प्रमाण दूं कि मैं निवेदिता के आकर्षण से उन के घर नहीं आता. किस तरह से उन्हें बताऊं कि मैं इतना गिरा हुआ इनसान नहीं कि भाभीजी के निस्स्वार्थ प्रेम का ऐसा दुरुपयोग करूंगा. निवेदिता के आने से पहले भी मैं अकसर आता था और अब भी कभीकभी चला आता हूं. क्या निवेदिता के आने के बाद मेरे व्यवहार में कोई तबदीली हुई? क्या मैं ने भाभीजी को ऐसा सोचने का मौका दिया? मैं रास्ते भर अपने मन को टटोलता रहा. मैं ने कोई गलती की है? कहीं मेरी किसी हरकत ने अनजाने से ही कुछ ऐसा तो प्रकट नहीं किया जिस से भाभीजी के नारीमन के बारीक परदे पर कुछ झलक गया हो. ऐसा कब हुआ. कैसे हुआ. कुछ भी, किसी भी तरह समझ में नहीं आया.

‘‘घर आ कर मैं आंखें मूंद कर चारपाई पर लेट गया. पर चैन न मिला. मन का

क्लेश बढ़ता ही गया. आखिर मैं ने स्वयं ही फैसला किया, भाभीजी का संदेह दूर करना ही होगा, इस के लिए चाहे कुछ भी करना पड़े.

‘‘उस के बाद से भाभीजी के घर जाने के लिए अपनेआप को तैयार करने में बड़ा असमर्थ पाने लगा, पर भाभीजी के निस्स्वार्थ प्यार के बारे में सोचसोच कर मेरा दिल भरभर जाता. मगर यह भी डर था कि अचानक जाना बंद करने से कहीं सब को शक न हो जाए. इसलिए बजाय एकदम जाना बंद करने के यह सोचा करता कि क्या किया जाए. तब सहसा मेरे दिमाग में यह बात आईर् कि क्यों न निवेदिता के लिए कोई अच्छा सा वर ढूंढ़ दूं. इस से अच्छा और कोई नेक काम नहीं हो सकता. सच, मैं इतने समय तक बेकार ही परेशान रहा.

‘‘इसी बीच अचानक एक दिनकनाटप्लेस में रोमित मिल गया. उस ने एमएससी मेरे साथ ही की थी. पर पढ़ने में तेज होने के कारण आई.

एएस प्रतियोगिता में चुन लिए जाने से राजपत्रित अधिकारी हो गया था. बातोंबातों में जब पता चला कि रोमित अभी कुंआरा है तो खुशी से मेरा दिल उछल पड़ा.

‘‘मैं ने जिक्र छेड़ने में देर करना उचित नहीं समझ. शुरू में तो बात मजाक में उड़ गई, पर थोड़ी देर बाद रोमित इस मामले में गंभीर दिखाई दिया. दिल्ली से बाहर का जीवन, फिर अकेले में उस का दिल भी नहीं लगता था. मैं ने मौका अच्छा समझ और निवेदिता का जिक्र छेड़ दिया.

‘‘बात जब लड़की को देखने की आई तो रोमित बोला कि कैसी बात करते हो, अनिल? अगर लड़की तुम्हारी निगाहों में मेरे लायक है तो बस ठीक है. पर मेरी मां लड़की को बिना देखे नहीं मानेंगी.

‘‘मैं ने कहा कि बेशक… बेशक, मुझे इस में क्या परेशानी हो सकती है? जब चाहो माताजी को ले कर आ जाओ.

‘‘वह बोला कि ठीक है, अनिल. मैं अगले चक्कर में कुछ दिनों की छुट्टी ले कर दिल्ली आऊंगा.

‘‘रोमित ने इस से ज्यादा कुछ नहीं कहा था, पर उस के चेहरे के भाव ने मुझे बहुत कुछ समझ दिया था.

‘‘उसी रात तो मैं ने भाभीजी को अकेले में रोमित के विषय में सब कुछ बता दिया. भाभीजी हैरान करती हुई बोलीं कि सच कह रहे हो, अनिल?

‘‘मैं ने कहा कि भाभीजी मैं ने आप से कभी मजाक किया है?

‘‘भाभीजी कुछ देर मेरे चेहरे को एकटक देखने के बाद बोलीं कि ठीक है.

‘‘उन की ओर से मुझे जितनी खुशी की आशा थी उतनी मैं उन के चेहरे पर न देख सका. पर निवेदिता की मां खुशी से फूली न समाईं और मुझे कंधे से पकड़ कर बोलीं कि अनिल, तुम्हें यह रिश्ता शीघ्र ही तय कर देना चाहिए. ऐसे वर बारबार नहीं मिलते.

‘‘कुछ ही दिनों में निवेदिता की शादी तय हो गई. निवेदिता की मां सभी नातेरिश्तेदारों में मेरी तारीफ के पुल बांधा करतीं और उत्तर में वे सब भी मेरी प्रशंसा करने लगे थे. मुझ जैसे बुद्धू व्यक्ति से इतना बड़ा नेक काम भी हो सकता है, किसी को ऐसी आशा तक नहीं थी.

मन बहुत प्यासा है: क्या थी शेखर की गलती

शाम बहुत उदास थी. सूरज पहाडि़यों के पीछे छिप गया था और सुरमई अंधेरा अपनी चादर फैला रहा था. घर में सभी लोग टीवी के सामने बैठे समाचार सुन रहे थे. तभी न्यूज ऐंकर ने बताया कि सुबह दिल्ली से चली एक डीलक्स बस अलकनंदा में जा गिरी है. यह खबर सुनते ही सब के चेहरे का रंग उड़ गया और टीवी का स्विच औफ कर दिया गया. मैं नवीन की कमीज थामे सन्न सी खड़ी रह गई. ढेर सारे खयाल दिलोदिमाग में हलचल मचाते रहे. क्या सचमुच नवीन इज नो मोर?

मां का विलाप सुन कर आंगन में आसपास की औरतें जुड़ने लगीं. उन में से कुछ रो रही थीं तो कुछ उन्हें सही सूचना आने तक तसल्ली रखने की सलाह दे रही थीं. बाबूजी ने मेरे डैडी को फोन किया और तुरंत घटनास्थल पर चलने को कहा. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं? क्या मैं सचमुच… इस के आगे सोचने से दिल घबराने लगा. 3 दिन तक जीनेमरने जैसी स्थिति रही. चौथे दिन हारे हुए जुआरी की तरह बाबूजी और डैडी वापस लौट आए. अलकनंदा में उफान के कारण लाशें तक निकाली नहीं जा सकी थीं. पता कर के आए मर्दों के चेहरों पर हताशा को पढ़ कर औरतें चीखचीख कर रोने लगीं. कुछ उस घड़ी को कोस रही थीं, जिस घड़ी नवीन ने घर से बाहर कदम निकाला था.

एक बूढ़ी औरत मेरे कमरे में आई और मुझे घसीटती हुई बाहर ले आई. कुछ औरतों ने आंखों ही आंखों में सरगोशियां कीं और मेरा चूडि़यों से भरा हाथ फर्श पर दे मारा. चूडि़यां टूटने के साथ खून की कुछ बूंदें मेरी कलाई पर छलक आईं पर इस की परवाह किस को थी. भरी जवानी में मेरे विधवा हो जाने से जैसे सब दुखी थीं और मुझे गले लगा कर रोना चाहती थीं. मैं पत्थर की शिला सी हो गई थी. मेरी आंखों में बूंद भर पानी भी नहीं था.

अपने विफल हो रहे प्रयासों से औरतों में खीज सी पैदा हो गई. कुछ मुझे घूरते हुए एकदूसरे से कुछ कह रही थीं, तो महल्ले की थुलथुली बहुएं, जो मेरी स्मार्टनैस से कुंठित थीं अपनी भड़ास निकालने की कोशिश कर रही थीं. मेरा लंबा कद, स्याह घने बाल, हिरनी जैसी आंखें और शादी में लाया गया ढेर सारा दहेज, जिस के कारण महल्ले की सासें अपनी बहुओं को ताने दिया करती थीं, आज बेमानी बन कर रह गया, तो मेरी सुंदर काया का मूल्य पल भर में कौडि़यों का हो गया.

मेरी उड़ती नजर आंगन के कोने में खड़ी मोटरसाइकिल पर गई. इसी मोटरसाइकिल के लिए मझे 4 दिन तक भूखा रखा गया था और 6 महीने तक मैं मायके में पड़ी रही थी. आखिर पापा ने अपने फंड में से पैसा निकाल कर नवीन को मोटरसाइकिल ले दी थी. अब कौन चलाएगा इसे? नवीन की मौत से हट कर मेरा

मन हर राउंड में लाई गई चीजों की फेहरिस्त बना रहा था.

कुल 2 साल ही तो हुए थे हमारी शादी को और हमारी बेट मिनी साल भर की है. खुद को कर्ज में डुबो कर बेटी का घर भर दिया था पापा ने. क्या मैं उस आदमी के लिए रोऊं जो हर वक्त कुछ न कुछ मांगता ही रहता था और हर चौथे दिन रुई की तरह धुन देता था. तभी औरतों की खींचातानी से मिनी रोई तो मेरी तंद्रा टूटी. मैं उसे औरतों की भीड़ से निकाल कर कमरे में ले आई.

औरतों का आनाजाना कई दिनों तक लगा रहा. कुछ मुझ कुलच्छनी बहू को घूरघूर कर एकदूसरे से बतियाती हुई आंसू बहातीं तो कुछ मेरे न रोनेधोने के कारण किसी रहस्य को सूंघने की कोशिश करतीं. पर मुझे उन की परवाह नहीं थी.

मां जो शेरनी की तरह दहाड़ती रहती थीं अब भीगी बिल्ली सी आंसू बहाती रहतीं. मेरी ननद गीता और उस के पति रजनीश भी आ गए थे. गीता मेरे कमरे के फेरे मारती रहती और एकएक कीमती चीज के दाम पूछती रहती. रजनीश की नजरमोटरसाइकिल पर थी.

गीता को वापस जाना था. रजनीश ने खिसियानी सी हंसी हंसते हुए कहा, ‘‘भाभी, अब इस मोटरसाइकिल का यहां क्या होगा? कहो तो मैं ले जाऊं. डीटीसी बसों में आतेजाते मैं तो तंग आ गया हूं. रोज देर हो जाती है तो बौस की डांट खानी पड़ती है.’’ फिर मोटरसाइकिल पर बैठ कर ट्रायल लेने लगा.

गीता भी पीछे नहीं रही, ‘‘भाभी, इस कौस्मैटिक बौक्स का अब आप क्या करेंगी? आप के लिए तो बेकार है. मैं ले जाती हूं इसे. कितने सारे तो परफ्यूम्स हैं. इतनी अच्छी चीजें इंडिया में कहां बनती हैं. आप के पापा का भी जवाब नहीं. हर चीज कीमती दी है आप को.’’

क्या संबंध स्वार्थ की कागजी नींव पर टिके होते हैं? यह सोचते हुए संबंधों पर से मेरी आस्था हटने लगी. यह वही गीता है, जो बारबार गश खा कर गिर रही थी और भाई की मौत को अभी 4 दिन भी नहीं गुजरे इस ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया.

गीता और रजनीश की नजर तो मेरे लैपटौप और महंगे मोबाइलों पर भी थी, क्योंकि बाबूजी ने कह दिया था कि मोटरसाइकिल वगैरह अभी यहीं रहने दो. बाद में देखेंगे. गीता ने एक बार झिझकते हुए कहा, ‘‘भाभी, आप के पास तो 2 मोबाइल हैं. वाऊ, कितने खूबसूरत हैं.’’

मैं ने जब कोई जवाब नहीं दिया तो वह बोली, ‘‘मैं तो ऐसे ही कह रही थी.’’

गीता और रजनीश के जाने के बाद घर में गहरा सन्नाटा छा गया. मां और बाबूजी दोनों ही शंकित थे कि कहीं मैं भी उन्हें छोड़ कर न चली जाऊं. पर अब कहां जाना था मुझे. हालांकि पापा ने मुझे साथ चलने को कहा था पर मैं ने मना कर दिया. बाबूजी का दुलार तो मुझे हमेशा ही मिलता रहा था पर मां और नवीन के सामने उन की चलती ही नहीं थी. पर अब कितना कुछ बदल गया था.

थोड़ी भागदौड़ के बाद मुझे नवीन की जगह नौकरी भी मिल गई. रसोईघर जहां मैं दिन भर खटती रहती थी, को मां ने संभाल लिया था. नौकरी पर आतेजाते मुझे लगता था कि कई आंखें मुझे घूर रही हैं. दरअसल, वे औरतें, जिन्हें मुझे ले कर निंदासुख मिलता था अब अजीब नजरों से मुझे देखती थीं.

एक अभी हुई विधवा रोज नईनई पोशाकें पहन कर दफ्तर जाए यह बात उन के गले से नहीं उतरती थी. मां का भी अब महल्ले की चौपाल पर बैठना लगभग बंद हो गया था, तो पड़ोसिनों का आनाजाना भी कम हो गया था.

मेरी नौकरी ने जैसे मुझे नया जीवन दे दिया था. ऐसा लगता था जैसे मरुस्थल में बरसाती बादल उमड़नेघुमड़ने लगे हों. इस से बेचैनी और भी बढ़ जाती, तो मैं सोचती कि मैं विधवा हो गई तो इस में मेरा क्या कुसूर? दहेज में मिली कई कीमती साडि़यों की तह अभी तक नहीं खुली थीं. मैं जब उन में से कोई साड़ी निकाल कर पहनती तो मां प्रश्नवाचक नजरों से चुपचाप देखती रहतीं और मैं जानबूझ कर अनजान बनी रहती. कालोनी की जवान लड़कियों को मेरा कलर कौंबिनेशन बहुत पसंद आता. वे प्रशंसनीय नजरों से मुझे देखतीं पर मैं इस सब से तटस्थ रहती. दफ्तर में मुझे सब से ज्यादा आकर्षित करता था शेखर. वह मेरे काम में मेरी मदद करता. फिर कभीकभी बाहर किसी रेस्तरां में कौफी पीने भी हम चले जाते. गपशप के दौरान कब वह मेरे करीब आता चला गया मुझे पता ही नहीं चला. धीरेधीरे हम दोनों एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगे.

एक दिन इतवार को दोपहर के समय जब मैं मिनी को गोद में लिए बाहर निकली तो मां ने प्रश्नवाचक नजरों से मुझे देखा. मुझे लगा जैसे मैं कोई अपराध करने जा रही हूं. पर अब मैं ने नजरों की भाषा को पढ़ना छोड़ दिया था. मन में एक अजीब सी प्यास थी और मैं मृगतृष्णा के पीछे दौड़ रही थी. देर शाम को जब घर लौटी तो मां की नजर में कई सवाल थे. वे मिनी को उठा कर बाहर ले गईं और लौटीं तो पूछा, ‘‘यह शेखर अंकल कौन है?’’ मैं सन्न रह गई. मां मुझ से ऐसा सीधा सवाल करेंगी यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था. मगर जल्दी ही मैं ने खुद को संभाला ओर बोली, ‘‘शेखर मेरे दफ्तर में काम करता है. मौल में मिल गया था.’’ मां ने हुंकार भरा और अपने कमरे में चली गईं. देर रात तक मां और बाबूजी की आवाजें कटकट कर मेरे कानों में आती रहीं और मैं दमसाधे सुनती रही. साथ में यह भी सोचती रही कि आखिर क्या चाहते हैं ये लोग? क्या मैं सारी उम्र यों ही गुजार दूं? मुझे अकसर औफिस से आतेआते देर हो जाती. तब बाबूजी मुझे बस स्टौप पर खड़े मिलते. मुझे देखते ही कहते, ‘‘मैं यों ही टहलता हुआ इधर निकल आया था. सोचा, तुम आ रही होगी.’’ फिर सिर झुकाए साथसाथ चलने लगते. मुझे ऐसा लगता जैसे मैं कांच के मकान में रह रही हूं, जरा सी ठोकर लगते ही टूट जाएगा.

मैं अपनी जिंदगी में आगे बढ़ना चाहती थी पर बाबूजी और मां का बुढ़ापा कैसे कटेगा यह सवाल मुझे सालता था. मैं शेयर के साथ अपनी तनहाई शेखर करना चाहती पर मां और बाबूजी का बुढ़ापा बीच में आ जाता था उन की आंखों का डर मुझे खुल कर जीने नहीं दे रहा था. शेखर कुछ दिनों की छुट्टी ले कर घर गया था. मैं सोच रही थी कि जब वह वापस आएगा तो उस से खुल कर बात करूंगी. उस ने वादा किया था कि वह अपने मांबाप को मना लेगा इसलिए मैं आश्वस्त थी. लेकिन एक दिन औफिस में मैं ने अपनी मेज पर एक लंबा लिफाफा रखा देखा. लिफाफा खुला ही था. अंदर से कागज निकाला तो देखा तो लगा छनाक से कुछ टूट गया हो. एक वैडिंग कार्ड था- शेखर विद सरोज. साथ में एक चिट्ठी भी थी जिस में लिखा था- मीरा, एक विधवा के साथ विवाह करने की बात मेरे मम्मीडैडी के गले नहीं उतरी. विधवा, उस पर एक बच्ची की मां. सच मानो मीरा मैं ने मम्मीडैडी को समझाने की बहुत कोशिश की पर अपने अविवाहित बेटे के लिए उन के दिल में बड़ेबड़े अरमान हैं. कैसे तोड़ दूं उन्हें… मुझे क्षमा कर देना, मीरा.

अगले दिन मैं ने निगाह घुमा कर देखा, शेखर मोटीमोटी फाइलों में गुम होने का असफल प्रयास कर रहा था. मैं ने खत सहित वैडिंग कार्ड को टुकड़ेटुकड़े कर डस्टबिन में डाला तो उस ने घूर कर मुझे देखा.मैं रोई नहीं. रोना मेरी आदत नहीं है. मैं तेजी से टाइप करती रही और मैं ने चपरासी को पंखा तेज करने को कहा, क्योंकि मन की तपिश और बढ़ गई थी.  शाम को जब औफिस से निकली तो खुली हवा के झोंके मन को सहलाने लगे मेरे कदम अपनेआप ही न्यू औप्टिकल स्टोर की ओर बढ़ गए. बाबूजी केलिए नया चश्मा बनवा कर जब निकली तो याद आया कि मां कई दिन से एक साड़ी लाने को कह रही थीं. एक ही क्षण में दुनिया कितनी बदल गई थी. बाबूजी डेढ़ महीने से नया चश्मा बनवाने को कह रहे थे पर उस ओर मेरा ध्यान ही नहीं जा रहा था. उन्हें पढ़नेलिखने में कितनी परेशानी हो रही थी, आज याद आया तो मन में अपराधबोध सा जागने लगा था. लगता है बाबूजी को शेखर के विवाह की बात पता चल गई थी. वे बस स्टौप पर भी नहीं आए. अगली सुबह देखा तो वे मोटरसाइकिल साफ कर रहे थे. मुझे लगा इसे बेचने की तैयारी है. मन में कसैलापन भर गया. पर तभी बोले, ‘‘बेटा, तुम्हें तो मोटरसाइकिल चलानी आती है न. चलो जरा डाक्टर की दुकान तक ले चलो. बसों में जाने में दिक्कत होती है.’’ मैं मुंह खोले उन्हें देखती रह गई और फिर उन के सीने से जा लगी, ‘‘बाबूजी…’’ मुझ से बोला नहीं जा रहा था. तभी मां की आवाज आई, ‘‘और हां, लौटते हुए बेकरी से एक केक लेती आना. आज तेरा जन्मदिन है न…’’

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