थोड़ा दूर थोड़ा पास- भाग 3 : शादी के बाद क्या हुआ तन्वी के साथ

शुरूशुरू में तन्वी कुछ नाराजगी, कुछ डर के कारण नहीं गई. फिर धीरेधीरे उस ने भी जाना शुरू कर दिया. विजित के साथ छुट्टी के दिन या रविवार को वह भी मांपापा के पास चली जाती. ससुरजी का मूड तो कुछकुछ दिखाने के लिए सही हो गया पर सास का मूड उसे देख कर उखड़ा ही रहता. अभी उन्हें घर से अलग हुए 2 महीने भी नहीं हुए थे कि दिन वे सुबह औफिस जाने के लिए तैयार हो ही रहे थे कि विजित का मोबाइल बज उठा. पापा का फोन था. वे घबराए स्वर में बोल रहे थे. पापा बोल रहे थे कि मां का ऐक्सीडैंट हो गया है. जल्दी से घर आ जाओ.

‘‘हम अभी आते हैं पापा…’’ कह कर दोनों घबराए हुए दोनों जैसेतैसे घर की तरफ दौड़े… मां को उठा कर अस्पताल ले गए.

उन का ऐक्सरे हुआ तो पता चला पैर मुड़ने से पैर के बल गिरने से पैर में फ्रैक्चर हो गया है. प्लस्तर चढ़ गया. 45 दिन का प्लस्तर था. डाक्टर ने शुरू में तो पूर्ण आराम की सलाह दी थी. यहां तक कि बाथरूम तक भी व्हीलचेयर से ही ले जाना.

सबकुछ करा कर जब मां को ले कर विजित और तन्वी घर पहुंचे तो काफी देर हो गई थी.

तन्वी ने ही सब के लिए थकने के बावजूद जैसेतैसे खाना बनाया. उस रात दोनों वहीं रुक गए. रात को दोनों सोच में पड़ गए अब…?’’ पिता के बस का नहीं था मां की देखभाल करना,

‘‘मैं तो एकदम से छुट्टी भी नहीं ले सकता… कल से रिव्यू है… दिल्ली से बौस लोग आ रहे हैं… अलगे कुछ दिन मैं बहुत व्यस्त रहूंगा… इतने दिन से तैयारी कर रहा था…’’ विजित लाचारी और उल झन में बोला.

‘‘ऐसा करते हैं विजित…’’ विजित को सोच व उल झन में पड़े देख कर तन्वी बोली, ‘‘मेरी काफी छुट्टियां बाकी हैं… कल से मैं फिलहाल 15 दिन की छुट्टी ले लेती हूं… तब तक तुम्हारे रिव्यू खत्म हो जाएंगे. तब तुम छुट्टी लेने की कोशिश करना… उस के बाद दीदी को पूछ लो… यदि हफ्ते भर के लिए वे आ सकती हैं तो… फिर मैं दोबारा कोशिश करूंगी छुट्टी लेने की…’’

विजित ने चौंक कर तन्वी की तरफ देखा. उस के चेहरे पर मां की परेशानी  से उपजे चिंता के भाव थे. वह मुग्ध भाव से तन्वी को देखता रह गया कि पता नहीं मां तन्वी को क्यों नहीं सम झ पातीं. मां तन्वी की पीढ़ी की बहुओं को भी अपने जमाने की सासों के चश्मे से देखती हैं और उन की तुलना अपने जमाने की बहुओं से करती हैं. लेकिन तब से अब तक जमाने में, समाज में, शिक्षा में, लड़कियों के पालनपोषण में बहुत परिवर्तन आ चुका है, इस बात पर बिलकुल विचार करना नहीं चाहतीं.

इस घोर परेशानी व उल झन के समय में तन्वी के सहयोग से उस का दिल भर आया था, मां ने क्या कुछ नहीं कहा तन्वी को… पर प्रत्यक्ष में बोला, ‘‘ठीक है, पर तुम्हें छुट्टी लेने में दिक्कत तो नहीं होगी…’’

‘‘नहीं, मिल जाएगी… जरूरत पर नहीं मिलेंगी तो किस काम की ये छुट्टियां…’’

रात में वह निश्चिंत हो कर सो पाया. तन्वी ने छुट्टियां ले कर पूर्ण तनमन से मां की देखभाल की. चूंकि यह शुरू का समय था, इसलिए ज्यादा कष्टपूर्ण व नाजुक था. देखभाल की ज्यादा जरूरत थी. तन्वी की निश्छल देखभाल से मां का मन बारबार पिघलने को होता. हालांकि वे उन विचारों की अधिक थीं जिन में वे बहू का प्यार कम उस का फर्ज ज्यादा सम झती थीं.

15 दिन बाद तन्वी औफिस चली गई और विजित ने छुट्टियां ले ली. विजित की छुट्टियां खत्म हुईं तो 1 हफ्ते के लिए दीदी मां की देखभाल के लिए आ गई. दीदी गई तो तन्वी ने कुछ दिन की छुट्टियां दोबारा ले लीं.

मां अब काफी ठीक हो गई थीं. सहारे से बाथरूम जाने लगी थीं. तन्वी पूरी देखभाल  कर रही थी. धीरेधीरे मां पूरी तरह ठीक हो गईं.

विजित कृतज्ञ हो रहा था तन्वी के प्रति. उस ने इस परेशानी के समय मां के प्रति सभी पूर्वाग्रह भुला कर मन से उन की देखभाल व सेवा की थी और वह देख रहा था, कहीं न कहीं मां के मन को भी तन्वी की सेवा बांध गई थी.

तन्वी की जरूरतों पर कभी ध्यान न देने वाली मां उस से अब जबतब पूछ लेतीं कि उस ने खाना खा लिया या नहीं. चाय पी ली या फिर थोड़ी देर आराम कर ले तन्वी, थक गई होगी. विजित को खुशी होती यह देख कर.

कल से तन्वी की छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं. कल से उसे औफिस जाना था. मां अब पूरी तरह से ठीक थीं. रात का खाना खिला कर खाना खाने के बाद वे अपने घर जाने के लिए तैयार हो गए. तन्वी कमरे में जा कर मां से मिल कर बाहर आ गई.

विजित भी मां से मिलने कमरे में चला गया. बोला, ‘‘अच्छा मां चलते हैं… अब आप बिलकुल ठीक हैं… अपना ध्यान रखना… हम आतेजाते रहेंगे… तन्वी की भी काफी छुट्टियां हो गई हैं, कल से वह भी औफिस जाएगी…’’

‘‘हां बेटा, बहुत सेवा की तन्वी ने मेरी…’’ मां का स्वर कुछकुछ पश्चात्ताप से भरा था, ‘‘तन्वी को सम झाने में शायद भूल कर दी मैं ने…’’

‘‘कोई बात नहीं मां…’’ वह संतुष्ट होता हुआ बोला, ‘‘आप सम झ गईं, हमारे लिए यही काफी है और मातापिता की सेवा व देखभाल करना तो हमारा फर्ज है… आप को जब भी जरूरत होगी, हम आप के पास होंगे मां…’’ वह भीगे स्वर में बोला. मां की आंखों में भी नमी तैर गई.

‘‘विजित, तन्वी अब वापस आ जाए बेटा… क्यों अलग जा रहे हो रहने… जहां दो बरतन होंगे तो थोड़ेबहुत तो बजेंगे ही… पर इस का मतलब यह तो नहीं कि मैं तुम लोगों को प्यार नहीं करती… बड़ों की बातों का इतना भी क्या बुरा मानना…’’ मां का स्वर कातर हो गया था.

‘‘ओह, मां…’’ वह मां को गले लगाता हुआ बोला, ‘‘आप इतनी भावुक क्यों हो रही हैं… आप के ही तो बच्चे हैं हम… दूर थोड़े ही न हो गए हैं आप से… जरा सी दूरी पर ही तो हैं…’’ वह धीरेधीरे मां की पीठ सहलाने लगा.

‘‘मां, एक घर में एक छत के नीचे रह रहे थे… पास थे आप के, पर आप के दिल से दूर थे… जब थोड़ा दूर हैं तो दिल के पास हैं… पास रह कर दूर रहने से, दूर रह कर पास रहना ज्यादा अच्छा है मां… मु झे उम्मीद है आप मेरी बात सम झ रही होंगी…’’ वह मां से अलग होता हुआ बोला.

‘‘साथ रह कर थोड़े दिन बाद फिर वही सब शुरू हो, वही दमघोंटू वातावरण, वही रिश्तों की खींचतान, बहुत मुश्किल होती है मां मु झे… तन्वी के लिए भी ये सब मुश्किल है नौकरी के साथ  झेलना… मैं अब तन्वी के ऊपर अपनी कोई सोच लादना नहीं चाहता… अपने और तन्वी के रिश्ते को थोड़ा और समय दो… हो जाने दो इस रिश्ते को परिपक्व… बदल जाने दो अपने खुद के विचारों को आप… जैसे आप को तन्वी पर विश्वास हो गया, वैसे ही तन्वी का विश्वास भी हो जाने दो आप पर…

‘‘जब तक तन्वी मु झे स्वयं घर लौटने के लिए नहीं कहेगी, तब तक मैं यह कदम नहीं उठाऊंगा… और तब तक आप भी इंतजार करो. मैं जानता हूं तन्वी को, जिस दिन उसे अपने और आप के रिश्ते पर विश्वास हो जाएगा वह खुद ही वापस आ जाएगी…

‘‘मेरे लिए तो दोनों रिश्ते प्रिय हैं मां… मैं तो चाहूंगा ही कि आप और तन्वी के बीच प्यार और प्यारभरा रिश्ता विकसित हो…जैसे तन्वी ने आप का दिल जीता. आप का उस पर विश्वास लौटा… वैसे ही तन्वी का विश्वास भी लौट आएगा आप पर… मु झे पूरा भरोसा है… तभी साथ रहने का मजा है मां…’’ कह कर वह उठ खड़ा हुआ.

विजित पीछे मुड़ा तो पापा खड़े थे. आज पहली बार उसे पापा के चेहरे पर  अपनी कही बात पर सहमति के भाव नजर आए. उन्होंने बेहद अपनेपन व बेहद भरोसे से उस का कंधा थपथपा दिया. बाहर आया तो तन्वी उस का इंतजार कर रही थी. वह जानता था, मां अभीअभी मुश्किल दौर से निकली हैं, इसलिए इतनी बदली हुई हैं. वर्षों की आदतें और विचार 4 दिन में नहीं बदलते.

जब फिर से साथ रहना शुरू करेंगे तो फिर से उन्हें अपनी वाणी और विचारों पर अकुंश रखना मुश्किल होगा. अभी और समय देना होगा उन्हें तन्वी को सम झाने का… और उन फालतू बातों से अधिक अपने बच्चों की जरूरत अपनी जिंदगी में महसूस करने का. तब तक तन्वी भी कुछ मां के नजदीक आ जाएगी तो फिर शायद उसे उन की बात इतनी बुरी न लगे, जितनी अभी लगती है.

जैसे मातापिता की देखभाल और सेवा करना उस का फर्ज है वैसे ही तन्वी भी उस से ही बंधी हुई इस घर में आई है, उस की जिंदगी में आई है. उसे एक सुंदर, स्वच्छ, अच्छी, संतुलित जिंदगी देना भी उस का कर्तव्य है. सोचता हुआ वह तन्वी के साथ घर से बाहर निकल गया.

थोड़ा दूर थोड़ा पास- भाग 2 : शादी के बाद क्या हुआ तन्वी के साथ

अकसर चुप रहने वाली तन्वी अब उस से कभीकभी प्रतिवाद करने लगी  थी. तर्क करने लगी थी और एक दिन उस की सहनशक्ति जवाब दे गई.

‘‘यह रोजरोज की चखचख मु झ से बरदाश्त नहीं होती विजित… औफिस से थक कर आओ और घर में आ कर ये सब सुनो… किचन में मां की मदद के लिए जाना चाहती हूं तो उन के रुख से भी डर लगता है… मैं भी कब तक चुप रहूं… एक ही काम तो नहीं है मेरा… एक छुट्टी के दिन भी न शरीर को आराम, न दिलदिमाग को… या तो तुम मां को सम झाओ या फिर अलग रहने की व्यवस्था करो…’’

‘‘सम झाता तो हूं मां को तन्वी… पर क्या करूं. वे मां हैं, बुरी तो नहीं हो सकतीं हमारे लिए… बस थोड़ा पुराने विचारों की हैं… तुम उन की बातों पर ध्यान मत दिया करो…’’

‘‘कितने दिन ध्यान न दो विजित… आखिर बातें जब कानों में पड़ती हैं तो दिल में भी उतरती ही हैं… दिमाग में बसती भी हैं… कितनी बार नजरअंदाज करूं… थकामांदा दिमाग भन्ना जाता है मेरा… ऐसे घुटनभरे वातावरण में कितने दिन रह पाऊंगी…

‘‘माना कि मां हैं… दिल की बुरी नहीं होंगी… हमें प्यार भी करती होंगी… पर वाणी भी कोई चीज होती है विजित… रोजरोज ताने नहीं सुने जाते… वाणी पर अकुंश रखना भी तो जरूरी है… यह उन का स्वभाव है… इंसान अपनी आदतें बदल सकता है पर अपना स्वभाव नहीं बदल सकता… उन के साथ मेरा निर्वाह नहीं हो पाएगा… मैं नहीं रह पाऊंगी उन के साथ…’’ तन्वी फैसला सा करते हुए बोली.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो तन्वी… मैं ने तुम्हें पहले ही इस बारे में स्पष्ट बता दिया था कि मैं इकलौता बेटा हूं… मैं मांबाप से अलग नहींजा पाऊंगा.’’

‘‘तब तुम ने यह नहीं बताया था कि उन का बोलना इतना बुरा है… दूसरी बातों के साथ, आदतों के साथ, दिनचर्या के साथ सामंजस्य बैठाया जा सकता है… पर बुरा बोलने वाले के साथ सामंजस्य बैठाना बहुत मुश्किल है विजित… प्यार के दो मीठे बोल, प्रसंशा के दो शब्द नहीं हैं उन के पास… हर समय कोई बुरा ही कैसे सुनता रहे, तुम्हीं बताओ… ऐसा क्या बुरा करती हूं मैं उन के साथ…’’ कहतेकहते तन्वी का स्वर भर्रा गया.

विजित मानसिक उल झन का शिकार होता जा रहा था. मां किसी भी तरह से अपने स्वभाव से बाज नहीं आती थीं और तन्वी जबतब उस पर अपनी भड़ास निकाल देती.

उसे सम झ नहीं आता क्या करे, क्या न करे. समस्या का कोई समाधान उसे न दिखता. अलग घर भी लेता है तो क्या कहेंगे नातेरिश्तेदार, समाज कि विजित उन्हीं बेटों में से एक निकला, जो विवाह के बाद बीवी की बातों में आ कर मांबाप को छोड़ कर अलग हो गया, पर वे यहां आ कर उस की रात दिन की उल झन को नहीं सम झ सकते कि उस की मां… उस के जीवन का सब से प्यारा व अहम रिश्ता… उस के जीवन, उस के दिल का एक अभिन्न अंग कैसे अपने स्वभाव, अपनी कर्कश वाणी से उस के जीवन को छिन्नभिन्न करने पर तुली है. बीवी बुरी हो तो इंसान तलाक दे दे, पर मां का क्या करे, सोचसोच कर वह भन्ना जाता.

अपने जीवन की उल झनों ने उसे सम झा दिया था  कि रिश्तों को बनाने के लिए सिर्फ एक की कोशिश काफी नहीं होती जब तक सभी कोशिश न करें. धीरेधीरे उस के और तन्वी के बीच में भी  झगड़े होने लगे.

वह अपनी खीज और उल झन कभीकभी तन्वी पर भी उतार देता और ऐसे ही एक दिन के  झगड़े और मनमुटाव के बाद तन्वी घर छोड़ कर मायके चली गई. वह जब औफिस से घर आया और उसे तन्वी के जाने का पता चला तो उस ने तन्वी को फोन किया.

तब तन्वी ने साफ ऐलान कर दिया कि अगर उसे उस के साथ जिंदगी बितानी है तो अलग रहने की व्यवस्था करे… वह उस के मातापिता के साथ नहीं रह पाएगी. उस ने कई बार कई तरह से मनाने की कोशिश की तन्वी को. कई तरह से सम झाया पर तन्वी टश से मश नहीं हुई. वह बस अलग रहने की शर्त पर आने को तैयार थी.

तब से एक साल होने को आया था और अब तो तन्वी कहने लगी थी कि उस के लिए अगर ये सब इतना मुश्किल है तो वह चाहे तो वे दोनों अब अपना रास्ता बदल सकते हैं. सुन कर वह सन्न रह गया था. इतना बड़ा फैसला कैसे कर सकती है तन्वी इतनी छोटीछोटी बातों पर…

गुस्से के मारे कुछ समय तक उस ने तन्वी को फोन ही नहीं किया. आज उस ने बहुत दिनों बाद जब उस का दिमाग कुछ शांत हुआ तो नए सिरे से सम झाने के लिए फोन किया था पर तन्वी का जवाब जैसे का तैसा था.

छोटीछोटी बातों ने उस के जीवन में इतनी बड़ी उल झन पैदा कर  दी थी कि उसे समस्या का कोई समाधान नहीं सू झ रहा था. कैसे अपना वैवाहिक जीवन बचाए वह. खिन्न मन से वह उठा. औफिस से बाहर निकला पर घर जाने का मन नहीं किया. कुछ सोच कर अपने दोस्त शिवम के घर चला गया. शिवम उस की उल झनों को अच्छी तरह से सम झता था.

‘‘हूं… मतलब कि तन्वी अलग रहने के सिवा किसी भी सूरत में वापस आने को तैयार नहीं है…’’ चाय का कप मेज पर रखता हुआ शिवम बोला.

‘‘आएगी भी कैसे शिवम… मां का रवैया वही है… वे कुछ भी सम झाने को तैयार नहीं हैं… समस्याएं वही हैं… कुछ भी तो नहीं बदला… फिर से सबकुछ वही होगा… मां के ताने… मां का बोलना, मां का स्वभाव, अपनी वाणी पर जरा भी अकुंश नहीं रख पाती हैं वे… मां के विचारों से पार पाना तन्वी के लिए आसान नहीं…’’

‘‘एक बात कहूं विजित…’’

‘‘हूं…’’ विजित ने अपनी प्रश्नवाचक दृष्टी उस के चेहरे पर तान दी.

‘‘तू फिलहाल तन्वी की बात मान क्यों नहीं लेता… ज्यादा दूर मत जा… बस जहां तक तन्वी को मां के ताने सुनाई न दें…’’ वह हंसता हुआ बोला, ‘‘इतनी दूरी पर किराए का घर देख ले… फिलहाल अपना घर तो बचा… तू और तन्वी साथ रहोगे, पास रहोगे, तो एकदूसरे के प्यार व आकर्षण में बंध कर समस्या का हल भी निकाल लोगे…

‘‘यों दूर रह कर तो समस्या और भी विकराल हो जाएगी. दूर रह कर तो तुम दोनों के रिश्ते भी नकारात्मक हो रहे हैं… और वैसे भी तुम जबरदस्ती तो तन्वी को साथ में रहने के लिए बाध्य नहीं कर सकते… ये सब अपनी मरजी से हो और उन दोनों के रिश्ते खुद सुधरें… तभी साथ रहने में शांति है विजित… नहीं तो क्या फायदा है ऐसे साथ रहने से…’’

‘‘लेकिन लोग क्या कहेंगे शिवम… रिश्तेदार, समाज… मातापिता दुखी होंगे, सो अलग…’’ विजित उल झन में बोला.

‘‘तू भी वही बात करने लगा… तु झे सब की चिंता है या अपना घर बचाने की… पहले एक सीढ़ी तो चढ़… अगली सीढ़ी की बाद में सोचना… तू मातापिता को कोई छोड़ थोड़े ही न रहा है, बस उन से थोड़ी दूरी पर रहेगा… उन की एक पुकार पर उन के पास पहुंच जाएगा…’’

बात कुछकुछ विजित की सम झ में आ गई. दूसरे दिन वह तन्वी से मिलने उस के औफिस में चला गया. तन्वी को इस बात पर क्या एतराज हो सकता था. विजित ने थोड़ी दूरी पर किराए का घर देखा और ऐडवांस दे दिया. अब बात मांबाप को बताने की थी.

जैसेकि उम्मीद थी. सुनते ही मां ने तूफान मचा दिया, ‘‘मैं क्या सम झ नहीं रही थी, उस के शुरू से ही लक्षण ऐसे दिख रहे थे… बड़ों की बातें सम झने और मनाने के बजाय बुरा मान कर मायके जा बैठी… वह तो मैं सम झ ही रही थी कि बेटे को मांबाप से अलग कर के ही मानेगी पागल कही की… और तू भी कुपूत निकला, जो बीवी की बातों में आ कर मांबाप को छोड़ने पर राजी हो गया… तु झे शर्म नहीं आई ये सब कहने में… इसीलिए औलाद को बड़ा करते हैं मांबाप…’’

मां के मुंह में जो आ रहा था वह बोल रही थीं. विजित के दिल में भी बहुत कुछ आ रहा था पर इस समय मां के साथ तर्क करना व्यर्थ था और वह चाहता भी नहीं था. वह जानता था उस के मातापिता का दिल उस के इस निर्णय से बहुत दुखी हुआ होगा, पर इस के पीछे उन्हें अपनी खामियां नजर नहीं आई होंगी.

पिता ने इस बार भी कुछ न बोल कर भी अपने हावभाव से अपनी पूरी नाराजगी जाहिर कर दी. किसी तरह मन मजबूत कर वह अपने इरादे पर कायम रहा और तन्वी को ले कर अलग गृहस्थी बसा ली. घर से वह कोई सामान ले कर नहीं गया. थोड़ाबहुत सामान बाजार से खरीदा. कुछ फर्नीचर मकानमालिक का था.

कुल मिला कर उन की गृहस्थी सुचारु रूप से चलने लगी. उस की रोज की दिनचर्या थी वह औफिस से आ कर पहले रोज मांपापा केपास जाता. वहां चाय पीता. फिर अपने घर चला जाता.

मुझे नहीं जाना: क्या वापस ससुराल गई अलका

शाम 7 बजे जब फोन की घंटी बजी तब ड्राइंगरूम में अलका, उस की मां गायत्री और पिता ज्ञानप्रकाश उपस्थित थे. फोन पर वार्तालाप अलका ने किया.

अलका की ‘हैलो’ के जवाब में दूसरी तरफ से भारी एवं कठोर स्वर में किसी पुरुष ने कहा, ‘‘मुझे अलका से बात करनी है.’’

‘‘मैं अलका ही बोल रही हूं. आप कौन?’’

‘‘मैं कौन हूं इस झंझट में न पड़ कर तुम उसे ध्यान से सुनो जो मैं तुम से कहना चाहता हूं.’’

‘‘क्या कहना चाहते हैं आप?’’

‘‘यही कि अपने पतिदेव को तुम फौरन नेक राह पर चलने की सलाह दो, नहीं तो खून कर दूंगा मैं उस का.’’

‘‘ये क्या बकवास कर रहे हो.’’

‘‘मैं बकवास न कर के तुम्हें चेतावनी दे रहा हूं. अलका मैडम,’’ बोलने वाले की आवाज क्रूर हो उठी, ‘‘अगर तुम्हारे पति राजीव ने फौरन मेरे दिल की रानी कविता पर डोरे डालने बंद नहीं किए तो जल्दी ही उस की लाश को चीलकौवे खा रहे होंगे.’’

‘‘ये कविता कौन है मैं नहीं जानती… और न ही मेरे पति का किसी से इश्क का चक्कर चल रहा है. आप को जरूर कोई गलतफहमी…’’

‘‘शंकर उस्ताद को कोई गलतफहमी कभी नहीं होती. मैं ने पूरी छानबीन कर के ही तुम्हें फोन किया है. अगर तुम अपने आप को विधवा की पोशाक में नहीं देखना चाहती हो तो उस मजनू की औलाद राजीव से कहो कि वह मेरी जान कविता के साए से भी दूर रहे.’’

अलका कुछ और बोल पाती इस से पहले ही फोन कट गया.

अपने मातापिता के पूछने पर अलका ने घबराई आवाज में वार्तालाप का ब्योरा उन्हें सुनाया.

गायत्री रोने ही लगीं. ज्ञानप्रकाश ने गुस्से से भर कर कहा, ‘‘तो राजीव इस कविता के चक्कर में उलझा हुआ है. मैं भी तो कहूं कि साल भर अभी शादी को हुआ नहीं और 2 महीने से पत्नी को मायके में छोड़ रखा है. जरूर उस ने इस कविता से गलत संबंध बना लिए हैं.’’

‘‘उस अकेले को दोष मत दो, जी,’’ गायत्री ने सुबकते हुए कहा, ‘‘दामादजी ने तो दसियों बार इस मूर्ख के सामने वापस लौट आने की विनती की होगी, लेकिन इस की जिद के आगे उन की एक न चली.’’

‘‘अलका को कुसूरवार मत कहो. हमारी बेटी ने राजीव से प्रेमविवाह किया है. उसे सुखी रखना उस का कर्तव्य है. अगर अलका अलग घर में जाने की जिद पर अड़ी हुई है तो वह मेरी समझ से कुछ गलत नहीं कर रही,’’ कह कर ज्ञानप्रकाश अलका की तरफ देखने लगे.

‘‘पापा, आप ठीक कह रहे हैं. मैं ने नौकरानी बनने के लिए शादी नहीं की थी राजीव से,’’ अलका ने अपने मन की बात फिर दोहराई.

‘‘अलका, तुम राजीव को फोन कर के इसी वक्त यहां आने के लिए कहो. ऐसी डांट पिलाऊंगा मैं उसे कि इश्क का भूत फौरन उस के सिर से उतर कर गायब हो जाएगा,’’ ज्ञानप्रकाश की आंखों में चिंता व क्रोध के मिलेजुले भाव नजर आ रहे थे.

अलका राजीव को फोन करने के लिए उठ खड़ी हुई.

करीब घंटे भर बाद राजीव अपनी ससुराल पहुंचा. उस के पिता ओंकारनाथ और मां कमलेश भी उस के साथ आए थे. उन तीनों के चेहरों पर चिंता और तनाव के भाव साफ झलक रहे थे.

कुछ औपचारिक वार्तालाप के बाद ओंकारनाथ ने परेशान लहजे में ज्ञानप्रकाश से कहा, ‘‘बहू से फोन पर मेरी भी बात हुई थी. मुझे लगा कि वह किसी बात को ले कर बहुत परेशान है. इसलिए राजीव के साथ उस की मां और मैं ने भी आना उचित समझा.’’

‘‘ये अच्छा ही हुआ कि आप दोनों साथ आए हैं राजीव के. सारी बात आप दोनों को भी मालूम होनी चाहिए. शाम को 7 बजे हमारे यहां एक फोन आया था. फोन करने वाले ने हमें राजीव के बारे में बड़ी गलत व गंदी तरह की सूचना दी है,’’ ज्ञानप्रकाश ने नाराज अंदाज में राजीव को घूरना शुरू कर दिया था.

‘‘फोन किसी शंकर नाम के आदमी का था?’’ कमलेश के इस सवाल को सुन कर अलका और उस के मातापिता बुरी तरह से चौंक उठे.

‘‘आप को कैसे मालूम पड़ा उस का नाम, बहनजी?’’ गायत्री अचंभित हो उठीं.

‘‘क्योंकि उस ने शाम 6 बजे के आसपास हमारे यहां भी फोन किया था. राजीव और उस के पिता घर पर नहीं थे, इसलिए मेरी ही उस से बातें हो पाईं.’’

‘‘क्या कहा उस ने आप से?’’

‘‘उस ने आप से क्या कहा?’’ कमलेश ने उलट कर पूछा.

गायत्री के बजाय ज्ञानप्रकाश ने गंभीर हो कर उन के प्रश्न का जवाब दिया, ‘‘बहनजी, शंकर ऐसी बात कह रहा था जिस पर विश्वास करने को हमारा दिल तैयार नहीं है, लेकिन वह बहुत क्रोध में था और राजीव को गंभीर नुकसान पहुंचाने की धमकी भी दे रहा था. इसलिए राजीव से हमें पूछताछ करनी ही पड़ेगी.’’

‘‘क्या वह किसी कविता नाम की लड़की से मेरे अवैध प्रेम संबंध होने की बात आप को बता रहा था?’’ राजीव गहरी उलझन और परेशानी का शिकार नजर आ रहा था.

अलका ने उस के चेहरे पर

पैनी नजरें गड़ा कर कहा, ‘‘हां,

कविता की ही बात कर रहा था वह. कौन है ये कविता?’’

‘‘मैं तो सिर्फ एक कविता को ही जानता हूं, जो मेरे विभाग में मेरे साथ काम करती है. तुम्हें याद है शादी के बाद हम एक रात नीलम होटल में डिनर करने गए थे. तब एक लंबी सी लड़की अपने बौयफैं्रड के साथ वहां आई थी. मैं ने तुम्हें उस से मिलाया था, अलका.’’

अलका ने अपनी सास की तरफ मुड़ कर कहा, ‘‘मम्मी, मैं ने आप से उस लड़की का जिक्र घर आ कर किया था. वह राजीव से बहुत खुली हुई थी. उसे ‘यार, यार’ कह कर बुला रही थी. वह अपने बौयफ्रैंड के साथ न होती तो राजीव से उस के गलत तरह के संबंध होने का शक मुझे उसी रात हो जाता. मेरा दिल कहता है कि राजीव जरूर उस के रूपजाल में फंस गया है और उस के पुराने प्रेमी शंकर ने क्रोधित हो कर उसे जान से मारने की धमकी दी है,’’ बोलते- बोलते अलका की आंखें डबडबा आईं, चेहरा लाल हो चला.

‘‘बेकार की बात मुंह से मत निकालो, अलका,’’ राजीव को गुस्सा आ गया, ‘‘घंटे भर से अपने मातापिता को यह बात समझाते हुए मेरा मुंह थक गया है कि कविता से मेरा कोई चक्कर नहीं चल रहा है. अब तुम भी मुझ पर शक कर रही हो. क्या तुम मुझे चरित्रहीन इनसान समझती हो?’’

‘‘अगर दाल में कुछ काला नहीं है तो ये शंकर क्यों जान से मार देने की धमकी तुम्हें दे रहा है?’’ अलका ने चुभते स्वर में पूछा.

‘‘उस का दिमाग खराब होगा. वह पागल होगा. अब मैं कैसे जानूंगा कि वह क्यों ऐसी गलतफहमी का शिकार हो गया है?’’ राजीव चिढ़ उठा.

‘‘अगर वह सही कह रहा हो तो तुम कौन सा अपने व कविता के प्रेम की बात सीधेसीधे आसानी से कुबूल कर लोगे?’’ अलका ने जवाब दिया.

‘‘तब मेरे पीछे जासूस लगवा कर मेरी इनक्वायरी करा लो, मैडम,’’ राजीव गुस्से से फट पड़ा, ‘‘मैं दोषी नहीं हूं, लेकिन मैं एक सवाल तुम से पूछना चाहता हूं. तुम 2 महीने से मुझ से दूर यहां मायके में जमी बैठी हो. ऐसी स्थिति में अगर मैं किसी दूसरी लड़की के चक्कर में पड़ भी जाता हूं तो तुम्हें परेशानी क्यों होनी चाहिए? जब तुम्हें मेरी फिक्र ही नहीं है तो मैं कुछ भी करूं, तुम्हें क्या लेनादेना उस से?’’

‘‘मेरा दिल कह रहा है कि तुम ने मुझ पर लौटने का दबाव बनाने के लिए ही शंकर वाला नाटक किया है. लेकिन तुम मेरी एक बात ध्यान से सुन लो. जब तक तुम मेरे मनोभावों को समझ कर उचित कदम नहीं उठाओगे तब तक मैं तुम्हारे पास नहीं लौटूंगी,’’ अलका झटके से उठ कर अपने कमरे में चली गई.

चायनाश्ता ले कर मेहमान अपने घर लौटने लगे. चलतेचलते ओंकारनाथ ने स्नेह भरा हाथ अलका के सिर पर रख कर कहा, ‘‘बहू, मैं ने कुछ प्रापर्टी डीलरों से कह दिया है तुम दोनों के लिए किराए का मकान ढूंढ़ने के लिए. तुम दोनों का साथसाथ सुखी रहना सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. किराए का मकान मिलने तक अगर तुम घर लौट आओगी तो हम सब को बहुत खुशी होगी.’’

जवाब में अलका तो खामोश रही लेकिन गायत्री ने कहा, ‘‘ये आगामी इतवार को पहुंच जाएगी आप के यहां.’’

मेहमानों के चले जाने के बाद अलका ने कहा, ‘‘मां, एक तो मुझे इस कविता के चक्कर की तह तक पहुंचना है. दूसरे, अगर मैं राजीव के साथ रहूंगी तो उस पर मकान जल्दी ढूंढ़ने के लिए दबाव बनाए रख सकूंगी. इन बातों को ध्यान में रख कर ही मैं ससुराल लौट रही हूं.’’

शुक्रवार की दोपहर में एक अजीब सा हादसा घटा. अलका अपने कमरे में आराम कर रही थी कि खिड़की का कांच टूट कर फर्श पर गिर पड़ा. वह भाग कर ड्राइंगरूम में पहुंची. तभी उस के पिता ने घबराई हालत में बाहर से बैठक में प्रवेश किया और अलका को देख कर कांपती आवाज में उस से बोले, ‘‘शंकर दादा के 2 गुंडों ने पत्थर मार कर शीशा तोड़ा है. पत्थर पर कागज लिपटा है…उसे ढूंढ़. उस में हमारे लिए संदेश लिख कर भेजा है शंकर दादा ने.’’

पत्थर पर लिपटे कागज में टाइप किए गए अक्षरों में लिखा था :

‘अलका मैडम,

अपने पति राजीव की करतूतों का फल भुगतने को तैयार हो जाओ. आज शीशा तोड़ा गया है, कल उस का सिर फूटेगा. कविता सिर्फ मेरी है. उस पर गंदी नजर डालने वाले के पूरे खानदान को तबाह कर दूंगा मैं, शंकर दादा.’

पत्र पढ़ने के बाद गायत्री, ज्ञानप्रकाश व अलका के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं.

पूरी घटना की खबर दोपहर में ही ओंकारनाथ के परिवार तक भी पहुंच गई. खबर सुन कर सभी मानसिक तनाव व चिंता का शिकार हो गए. सब से ज्यादा मुसीबत का सामना राजीव को करना पड़ा. हर आदमी उसे कविता से अवैध प्रेम संबंध रखने का दोषी मान रहा था. वह सब से बारबार कहता कि कविता से उस का कोई गलत संबंध नहीं है, पर कोई उस की बात पर विश्वास करने को राजी न था.

रविवार की सुबह अलका अपने पिता के साथ ससुराल पहुंच गई.

रात को शयनकक्ष में पहुंच कर उन दोनों के बीच बड़ी गरमागरमी हुई. राजीव अपने को दोषी नहीं मान रहा था और अलका का कहना था कि कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है जो शंकर उस्ताद यों गुस्से से फटा जा रहा है.

आखिरकार राजीव ने अलका को मना ही लिया. तभी उस ने अपनेआप को राजीव की बांहों के घेरे में कैद होने

दिया था.

पूरा एक सप्ताह शांति से गुजरा और फिर शंकर दादा की एक और हरकत ने उन की शांति भंग कर डाली. किसी ने रात में उस की मोटरसाइकिल की सीट को फाड़ डाला था. हैंडिल पर लगे शीशे फोड़ दिए थे. ऊपर से उस पर कूड़ा बिखेरा गया था.

उस के हैंडिल पर एक चिट लगी हुई थी जिस पर छपा था, ‘अब भी अपनी जलील हरकतों से बाज आ जा, नहीं तो इसी तरह तेरा पेट फाड़ डालूंगा.’

राजीव चिट उखाड़ कर उसे गायब कर पाता उस से पहले ही ओंकारनाथ वहां पहुंच गए. उन के शोर मचाने पर पूरा घर फिर वहां इकट्ठा हो गया. जो भी राजीव की तरफ देखता, उस की ही नजरों में शिकायत व गुस्से के भाव होते.

शंकर दादा का खौफ सभी के दिल पर छा गया. दिनरात इसी विषय पर बातें होतीं. राजीव को उस के घर व ससुराल का हर छोटाबड़ा सदस्य चौकन्ना रहने की सलाह देता.

शंकर दादा का अगला कदम न जाने क्या होगा, इस विषय पर सोचविचार करते हुए सभी के दिलों की धड़कनें बढ़ जातीं.

लगभग 10 दिन बिना किसी हादसे के गुजर गए. लेकिन ये खामोशी तूफान के आने से पहले की खामोशी सिद्ध हुई.

एक रात राजीव और अलका 10 बजे के आसपास घर लौटे. एक मारुति वैन उन के घर के गेट के पास खड़ी थी, इस पर उन दोनों ने ध्यान नहीं दिया.

राजीव की मोटरसाइकिल के रुकते ही उस वैन में से 3 युवक निकल कर बड़ी तेज गति से उन के पास आए और दोनों को लगभग घेर कर खड़े हो गए.

‘‘क…कौन हैं आप लोग? क्या चाहते हैं?’’ राजीव की आवाज डर के मारे कांप उठी.

‘‘अपना परिचय ही देने आए हैं हम तुझे, मच्छर,’’ बड़ीबड़ी मूंछों वाले ने दांत पीसते हुए कहा, ‘‘और साथ ही साथ सबक भी सिखा कर जाएंगे.’’

फिर बड़ी तेजी व अप्रत्याशित ढंग से एक अन्य युवक ने अलका के पीछे जा कर एक हाथ से उस का मुंह यों दबोच लिया कि एक शब्द भी उस के मुंह से निकलना संभव न था. बड़ीबड़ी मूंछों वाले ने राजीव का कालर पकड़ कर एक झटके में कमीज को सामने से फाड़ डाला. दूसरे युवक ने उस के बाल अपनी मुट्ठी में कस कर पकड़ लिए.

‘‘हमारे शंकर दादा की चेतावनी को नजरअंदाज करने की जुर्रत कैसे हुई तेरी, खटमल,’’ मूंछों वाले ने आननफानन में 5-7 थप्पड़ राजीव के चेहरे पर जड़ दिए, ‘‘बेवकूफ इनसान, ऐसा लगता है कि न तुझे अपनी जान प्यारी है, न अपने घर वालों की. कविता भाभी पर डोरे डालने की सजा के तौर पर क्या हम तेरी पत्नी का अपहरण कर के ले जाएं?’’

‘‘मैं सौगंध खा कर कहता हूं कि कविता से मेरा कोई प्रेम का चक्कर नहीं चल रहा है. आप मेरी बात का विश्वास कीजिए, प्लीज,’’ राजीव उस के सामने गिड़गिड़ा उठा.

2 थप्पड़ और मार कर मूंछों वाले ने क्रूर लहजे में कहा, ‘‘बच्चे, आज हम आखिरी चेतावनी तुझे दे रहे हैं. कविता भाभी से अपने सारे संबंध खत्म कर ले. अगर तू ने ऐसा नहीं किया तो तेरी इस खूबसूरत बीवी को उठा ले जाएंगे हम शंकर दादा के पास. बाद में जो इस के साथ होगा, उस की जिम्मेदारी सिर्फ तेरी होगी, मजनू की औलाद.’’ फिर उस ने अपने साथियों को आदेश दिया, ‘‘चलो.’’

एक मिनट के अंदरअंदर वैन राजीव व अलका की नजरों से ओझल हो गई. वैन का नंबर नोट करने का सवाल ही नहीं उठा क्योंकि नंबर प्लेट पर मिट्टी की परत चिपकी हुई थी.

पूरे घटनाक्रम की जानकारी पा कर ज्ञानप्रकाश व ओंकारनाथ के परिवारों में चिंता और तनाव का माहौल बन गया. 3 दिन बाद अलका के मातापिता ने सब को रविवार के दिन अपने घर लंच पर आमंत्रित किया.

कुछ मीठा ले आने के लिए ज्ञानप्रकाश और ओंकारनाथ बाजार की तरफ चल दिए. रास्ते में ज्ञानप्रकाश ने तनाव भरे लहजे में अपने समधी से पूछा, ‘‘अलका कैसी चल रही है?’’

ओंकारनाथ ने मुसकरा कर जवाब दिया, ‘‘बिलकुल ठीक है वह. कल मैं ने राजीव से कहा कि जा कर वह मकान देख आओ जिस का पता प्रापर्टी डीलर ने बताया है. अलका ने मेरी बात सुन कर फौरन कहा कि वह किसी किराए के मकान में जाने की इच्छुक नहीं है. उस का ऐसा ‘मुझे नहीं जाना’ वाला कथन सुन कर मुझे अपनी मुसकान को छिपाना बहुत मुश्किल हो गया था दोस्त. हमारी योजना सफल रही है.’’

‘‘यानी कि अलका की अकेले रहने की जिद समाप्त हुई?’’ ज्ञानप्रकाश एकाएक प्रसन्न नजर आने लगे थे.

‘‘बिलकुल खत्म हुई. सुनो, हमारा कितना नुकसान हुआ है कुल मिला कर?’’ ओंकारनाथ ने जानना चाहा.

‘‘छोड़ो यार,’’ ज्ञानप्रकाश ने कहा, ‘‘मेरी बेटी अलका का जो खून सूख रहा होगा आजकल उस की कीमत क्या रुपयों में आंकी जा सकती है समधी साहब.’’

‘‘ज्ञानप्रकाश, हमतुम अच्छे दोस्त न होते तो अलका की अलग रहने की जिद से पैदा हुई समस्या का समाधान इतनी आसानी से नहीं हो पाता. अब बहू सब के बीच रह कर घरगृहस्थी चलाने के तरीके बेहतर ढंग से सीख जाएगी और चार पैसे भी जुड़ जाएंगे उन के पास,’’ ओंकारनाथ ने अपने समधी के कंधे पर हाथ रख कर अपना मत व्यक्त किया.

‘‘आप का लाखलाख धन्यवाद कि उस के सिर से अलग होने का भूत उतर गया,’’ ज्ञानप्रकाश ने राहत की गहरी सांस ली.

‘‘मुझे धन्यवाद देने के साथसाथ अपने दोस्त के बेटे को भी धन्यवाद दो,  जिस ने शंकर उस्ताद की भूमिका में ऐसी जान डाल दी कि उस की आवाज व हावभाव को याद कर के अलका के अब भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं.’’

‘‘नाटकों में भाग लेने का उस का अनुभव हमारे खूब काम आया.’’

‘‘उस को हिदायत दे देना कि जो उस ने किया है हमारे कहने पर, उस की चर्चा किसी से न करे.’’

‘‘मेरे बेटे व बहू को अगर कभी पता लग गया कि उन की रातों की नींद उड़ाने वाला नाटक हमारे इशारे पर खेला गया था तो मेरा तो बुढ़ापा बिगड़ जाएगा. मैं कभी एक शब्द नहीं मुंह से निकालूंगा,’’ ओंकारनाथ ने संकल्प किया.

‘‘हम ने जो किया है, सब के भले को ध्यान में रख कर किया है, समधीजी. कांटे से कांटा निकल गया है. अब शंकर दादा गायब हो जाएंगे तो धीरेधीरे राजीव व अलका सामान्य होते चले जाएंगे. नतीजा अगर अच्छा निकले तो कुछ गलत कार्यशैली को उचित मानना समझदारी है,’’ ज्ञानप्रकाश की बात का सिर हिला कर ओंकारनाथ ने अनुमोदन किया और दोनों अपने को एकदूसरे के बेहद करीब महसूस करते हुए बाजार पहुंच गए.

नया प्रयोग: विजया ने कौनसी हदें पार की थी

‘‘इतना कुछ कह दिया बूआ ने, आप एक बार बात तो करतीं.’’

‘‘मधुमक्खी का छत्ता है यह औरत, अपनी औकात दिखाई है इस ने, अब इस कीचड़ में कौन हाथ डाले, रहने दे स्नेहा, जाने दे इसे.’’

मीना ने कस कर बांह पकड़ ली स्नेहा की. उस के पीछे जाने ही नहीं दिया. अवाक् थी स्नेहा. कितना सचझूठ, कह दिया बूआ ने. इतना सब कि वह हैरान है सुन कर.

‘‘आप इतना डरती क्यों हैं, चाची? जवाब तो देतीं.’’

‘‘डरती नहीं हूं मैं, स्नेहा. बहुत लंबी जबान है मेरे पास भी. मगर मुझे और भी बहुत काम हैं करने को. यह तो आग लगाने ही आई थी, आग लगा कर चली गई. कम से कम मुझे इस आग को और हवा नहीं देनी. अभी यहां झगड़ा शुरू हो जाता. शादी वाला घर है, कितने काम हैं जो मुझे देखने हैं.’’

अपनी चाची के शब्दों पर भी हैरान रह गई स्नेहा. कमाल की सहनशीलता. इतना सब बूआ ने कह दिया और चाची बस चुपचाप सुनती रहीं. उस का हाथ थपक कर अंदर चली गईं और वह वहीं खड़ी की खड़ी रह गई. यही सोच रही है अगर उस की चाची की जगह वह होती तो अब तक वास्तव में लड़ाई शुरू हो ही चुकी होती.

चाची घर के कामों में व्यस्त हो गईं और स्नेहा बड़ी गहराई से उन के चेहरे पर आतेजाते भाव पढ़ती रही. कहीं न कहीं उसे वे सारे के सारे भाव वैसे ही लग रहे थे जैसे उस की अपनी मां के चेहरे पर होते थे, जब वे जिंदा थीं. जब कभी भी बूआ आ कर जाती थी, पापा कईकई दिन घर में क्लेश करते थे. चाचा और पापा बहुत प्यार करते हैं अपनी बहन से और यह प्यार इतना तंग, इतना दमघोंटू है कि उस में किसी और की जगह है ही नहीं.

‘विजया कह रही थी, तुम ने उसे समय से खाना नहीं दिया. नाश्ता भी देर से देती थी और दोपहर का खाना भी.’

‘दीदी खुद ही कहती थीं कि वह नहा कर खाएगी. अब जब नहा लेगी तभी तो दूंगी.’

‘तो क्या 11 बजे तक वह भूखी ही रहती थी?’

‘तब तक 4 कप चाय और बिस्कुट आदि खाती रहती थी. कभी सेब, कभी पपीता और केला आदि. क्यों? क्या कहा उस ने? इस बार रुपए खो जाने की बात नहीं की क्या?’

चिढ़ जाती थीं मां. घर की शांति पूरी तरह ध्वस्त हो जाती. हम भी घबरा जाते थे जब बूआ आती थी. पापा बिना बात हम पर भड़कते रहते मानो बूआ को जताते रहते, देखो, मैं आज भी तुम से अपने बच्चों से ज्यादा प्यार करता हूं. खीजा करते थे हम कि पता नहीं इस बार घर में कैसा तांडव होगा और उस का असर कितने दिन चलेगा. बूआ का आना किसी बड़ी सूनामी जैसा लगता और उस के जाने  के बाद वैसा जैसे सूनामी के बाद की बरबादी. हफ्तों लग जाते थे हमें अपना घर संभालने में. मां का मुंह फूला रहता और पापा उठतेबैठते यही शिकायतें दोहराते रहते कि उन की बहन की इज्जत नहीं की गई, उसे समय पर खानापीना नहीं मिला, उस के सोने के बाद मां बाजार चली गईं, वह बोर हो गई क्योंकि उस से किसी ने बात नहीं की, खाने में नमक ज्यादा था. और खासतौर पर इस बात की नाराजगी कि जितनी बार बूआ ने चाय पी, मां ने उन के साथ चाय नहीं पी.

‘मैं बारबार चाय नहीं पी सकती, पता है न आप को. क्या बचपना है स्नेहा यह. तुम समझाती क्यों नहीं अपने पापा को. विजया आ कर चली तो जाती है, पीछे तूफान मचा जाती है. दिमाग उस का खराब है और भोगना हमें पड़ता है.’

यह बूआ सदा मुसीबत थी स्नेहा के परिवार के लिए. और अब यहां भी वही मुसीबत. स्नेहा के परिवार में तो साल में एक बार आती थी क्योंकि पापा की नौकरी दूसरे शहर में थी मगर यहां चाचा के घर तो वह स्थानीय रिश्तेदार है. वह भी ऐसी रिश्तेदार जो चाहती है भाई के घर में छींक भी मारी जाए तो बहन से पूछ कर.

5 साल पहले इसी तरह के तनाव में स्नेहा की मां की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी और सहसा कहानी समाप्त. मां की मौत पर सब सदमे में थे और बूआ की वही राम कहानीस्नेहा और उस का भाई तब होस्टल से घर आए थे. मां की जगह घर में गहरा शून्य था और उस की जगह पर थे पापा और बूआ के चोंचले. चाची रसोई संभाले थीं और पापा अपनी लाड़ली बहन को.

‘पापा, क्या आप को हमारी मां से प्यार था? कैसे इंसान हैं आप. हमारी मां की चिता अभी ठंडी नहीं हुई और बूआ के नखरे शुरू हो भी गए. ऐसा क्या खास प्यार है आप भाईबहन का. क्या अनोखे भाई हैं आप जिसे अपने परिवार का दुख बहन के चोंचलों के सामने नजर ही नहीं आता.’

‘क्या बक रहा है तू?’

‘बक नहीं रहा, समझा रहा हूं. रिश्तों में तालमेल रखना सीखिए आप. बहन की सच्चीझूठी बातों से अपना घर जला कर भी समझ में नहीं आ रहा आप को. हमारी मां मर गई है पापा और आप अभी भी बूआ का ही चेहरा देख रहे हैं.’

ऐसी दूरी आ गई तब पिता और बच्चों के बीच कि मां के जाते ही मानो वे पितृविहीन भी हो गए. स्नेहा की शादी हो गई और भाई बेंगलुरु चला गया अपनी नौकरी पर. पापा अकेले हैं दिल्ली में. टिफिन वाला सुबहशाम डब्बा पकड़ा जाता है और नाश्ते में वे डबलरोटी या फलदूध ले लेते हैं.

‘बूआ से कहिए न, अब आ कर आप का घर संभाले. मां आप दोनों भाईबहन की सेवा करती रहती थीं. तब आप को हर चीज में कमी नजर आती थी. अब क्यों नहीं बूआ आ कर आप का खानापीना देखती. अब तो आप की बहन की आंख की किरकिरी भी निकल चुकी है.’

पापा अपने पुत्र के ताने सुनते रहते हैं जिस पर उन्हें गुस्सा भी आता है और पीड़ा भी होती है. अफसोस होता है स्नेहा को अपने पापा की हालत पर. बहन से इतना प्रेम करते हैं कि उसे ऊंचनीच समझा ही नहीं पाते. कभी बूआ से यह नहीं कह पाए कि देखो विजया, तुम यहां पर सही नहीं हो. तुम्हारी अधिकार सीमा इस घर तक नहीं है.

चाची के घर आई है स्नेहा, भाई की शादी पर. इकलौता बच्चा है चाची का जिस की शादी चाची अपने तरीके से करना चाहती हैं. मगर यहां भी बूआ का पूरापूरा दखल जिस का असर उसे चाची के चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा है. समझ सकती है स्नेहा चाची के भीतर उठता तनाव. डर लग रहा है उसे कहीं अति तनाव में चाची का हाल भी मां जैसा ही न हो. चाची के साथ काम में हाथ बंटाती रही स्नेहा और साथसाथ चाची का चेहरा भी पढ़ती रही.

दोपहर में जब वह दरजी के यहां से, आने वाली भाभी के कुछ कपड़े ला कर चाची को दिखाने लगी तब चाचा का फोन आया. स्नेहा ने ही उठा लिया, ‘‘जी चाचाजी, कहिए, चाची थोड़ी देर के लिए लेटी हैं, आप मुझे बताइए, क्या काम है?’’

‘‘विजया दीदी से कोई बात हुई है क्या?’’

‘‘क्यों? क्या हुआ?’’

‘‘उन का फोन आया था, नाराज थीं, कह रही थीं, वह घर गई थी, उस की बड़ी बेइज्जती हुई?’’

‘‘बेइज्जती हुई, बेइज्जती, क्या मतलब?’’

अवाक् रह गई स्नेहा. आगेपीछे देखा उस ने, कहीं चाची सुन तो नहीं रहीं. झट से उठ कर दूसरे कमरे में चली गई और दरवाजा भीतर के बंद कर लिया.

‘‘हां चाचा, बताइए, क्या हुआ, क्या कहा चाची के बारे में बूआ ने? बेइज्जती कैसे हुई, बात क्या हुई?’’

‘‘यह तो उस ने बताया नहीं. बस, इतना ही कहा.’’

‘‘वाह चाचा, आप भी कमाल के हैं. बूआ ने चाबी भरी और आप का बोलना शुरू हो गया पापा की तरह. चाबी के खिलौने हैं क्या आप? 60 साल की उम्र हो गई और अभी तक आप को चाची के स्वभाव का पता ही नहीं चला. बहन से प्रेम कीजिए, मायके में बेटी का सम्मान भी कीजिए मगर अंधे बन कर नहीं. बहन जो दिखाए उसी पर अमल मत करते रहिए,’’ स्नेहा के भीतर का आक्रोश ज्वालामुखी सा फूटा, गला भी रुंध गया, ‘‘हमारी मां भी सारी उम्र पापा को सफाई ही देती रही कि उस ने बूआ की सेवा में कोई कमी नहीं की. मगर पापा कभी खुश नहीं हुए. आज हमारी मां नहीं हैं और पापा अकेले हैं. इस उम्र में आप भी क्या पापा की तरह ही अकेले बुढ़ापा काटना चाहते हैं? आई थी आप की बहन और बहुत अनापशनाप…झूठसच सुना कर गई है. चाची ने जबान तक नहीं खोली. कोई जवाब नहीं दिया कि बात न बढ़ जाए, शादी वाला घर है. उस पर भी नाराजगी और शिकायतें? आखिर बूआ चाहती क्या है? क्या आप का घर भी उजाड़ना चाहती है? आप अपनी बहन की जबान पर लगाम नहीं लगा सकते तो न सही, हम पर तो सवाल मत उठाइए.’’

उस तरफ चुप थे चाचा. कान के साथ लगा था फोन मगर जबान मानो तालू से जा चिपकी थी.

‘‘बूआ से कहिए अपनी इज्जत अपने हाथ में रखे. जगहजगह उसे सवाल बना कर उछालती फिरेगी तो जल्दी ही पैरों में आ गिरेगी. कल को आप की बहू आएगी. यह तो उसे भी टिकने नहीं देगी. चाची और मां में सहनशक्ति थी जो कल भी चुप रहीं और आज भी. हमारी पीढ़ी में तनाव पीने की इतनी क्षमता नहीं है जो सदियोंसदियों बढ़ती ही जाए. बूआ का कभी किसी ने अपमान नहीं किया और अगर हमारा सांस लेना भी उसे पसंद नहीं है तो ठीक है, आप उसे समझा दीजिए, हमारे घर न आए क्योंकि

हम चैन की सांस लेना चाहते हैं.’’

फोन काट दिया स्नेहा ने और धम से पलंग पर बैठ गई. इतना कुछ कह देगी, उस ने कभी सोचा भी नहीं था. तभी चाची दरवाजा खोल अंदर चली आईं.

‘‘क्या हुआ स्नेहा, किस का फोन था? तेरे ससुराल से किसी का फोन था? वहां सब राजीखुशी है न बेटी? क्या दामादजी का फोन था? नाराज हो रहे हैं क्या?’’

उस का तमतमाया चेहरा देख डर रही थी मीना. शादी से 10-12 दिन पहले ही चली आई थी न स्नेहा चाची की मदद करने को. हो सकता है ससुराल में उन्हें कोई असुविधा हो रही हो. मन डर रहा था मीना का.

‘‘मैं ने कहा था न, मैं अकेली जैसेतैसे सब संभाल लूंगी. तुम इतने दिन पहले आ गईं, उन्हें बुरा लग रहा होगा.’’

‘‘नहीं न, चाची. आप के दामाद ने मुझे खुद भेजा है यहां आप की मदद करने को. आप ही तो हैं हमारी मां की जगह. उन का फोन नहीं था, चाचा का फोन था. बूआ ने शिकायत लगाई है कि तुम ने उस की बेइज्जती की है.’’

‘‘और तुम ने अपने चाचा को भाषण दे दिया क्या? यह जो ऊंचाऊंचा कुछ बोल रही थी, क्या उन्हें ही सुना रही थी?’’

‘‘मैं भी तो घर की बेटी हूं न. क्या सारी उम्र बूआ की ही जबान चलेगी. घर की विरासत मुझे ही तो संभालनी है अब. कल वह बोलती थी, आज मैं भी तो बोलूंगी.’’

अवाक् थी मीना, चाहती है हर काम सुखचैन से बीत जाए मगर लगता नहीं कि ऐसा होगा. विजया सदा अड़चन डालती आई है और सदा उस की ही चली है. इस बार भी वह अपनी जायजनाजायज हर जिद मनवाना चाहती है. वह जराजरा सी बात को खींच कर कहानी बना रही है.

‘‘डर लग रहा है मझे स्नेहा, पहले ही मेरी तबीयत ठीक नहीं है, इस औरत ने और तंग किया तो पता नहीं क्या होगा.’’

चाची का हाथ कांपने लगा था आवेग में. उच्चरक्तचाप की मरीज हैं चाची. स्नेहा के हाथपैर फूलने लगे चाची का कांपता हाथ देख कर. उस की मां का भी यही हाल हुआ था. अगर यहां भी वही कहानी दोहराई गई तो क्या होगा, इसी घबराहट में स्नेहा ने चाचा को डाक्टर के साथ घर आने के लिए फोन कर दिया. नजर चाची पर थी जो बारबार बाथरूम जा रही थीं.

डाक्टर साहब आए, पूरी जांच की और वही ढाक के तीन पात.

डाक्टर ने कहा, ‘‘तनाव मत लीजिए. काम का बोझ है तो खुशीखुशी कीजिए न, शादी वाला घर है. बेचैनी कैसी है. बेटी की शादी थोड़े है जो समधन का डर है, बेटे की शादी है.’’

चाचा बोले, ‘‘बेटे की शादी है, इसी बात की तो चिंता है. सभी रूठेरूठे घूम रहे हैं. सब की मनमानी पूरी करतेकरते ही समय जा रहा है फिर भी नाराजगी किसी की भी कम नहीं हुई.’’

‘‘आप का दिमाग खराब हो गया है क्या, जो दुनिया को खुश करने चले हैं. बाल सफेद हो गए और अनुभव अभी तक नहीं हुआ. 60 साल की उम्र तक भी अगर आप नहीं समझे तो कब समझेंगे,’’ मजाक भी था पारिवारिक डाक्टर के शब्दों में और सत्य की कचोट भी. चाचा के शब्दों पर तनिक गंभीरता से बात की डाक्टर साहब ने, ‘‘अपनी सामर्थ्य और हिम्मत से ज्यादा कुछ मत कीजिए आप. गिलेशिकवे अगर कोई करता भी है तो उस का भी चरित्र देखिए न आप. जिसे कभी खुश नहीं कर पाए उसे उसी के हाल पर छोड़ दीजिए. पहले अपना घर देखिए. अपने परिवार की प्राथमिकता देखिए. जो न जीता है, न ही जीने देता है उसे जरा सा दूर रखिए. कहीं न कहीं तो एक रेखा खींचिए न.’’

स्नेहा चुपचाप सब देखतीसुनती रही और चाचा के चेहरे के हावभाव भी पढ़ती रही. डाक्टर साहब दवाएं लिख कर दे गए और चाची बुदबुदाई, ‘मुझे कोई दवा नहीं खानी. बस, यह औरत मेरे घर से दूर रहे.’

‘‘मेरी बहन है वह.’’

‘‘तो बहन की जबान पर लगाम लगाइए, चाचा. आप के ही अनुचित लाड़प्यार की वजह से, यह दिन आ गया कि चाची बूआ को ‘यह औरत’ कहने लगी है. पापा की तरह आप भी बस वही भाषा बोल रहे हैं. ‘स्याह करे, सफेद करे, मैं कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि वह मेरी बहन है.’ यह घर तभी तक घर रहेगा जब तक चाची जिंदा हैं और कोई बूआ को चायपानी पूछता है वह भी तब तक है जब तक चाची हैं. आप को भी अपनी बहन के जायजनाजायज तानेशिकवे तभी तक अच्छे लगेंगे जब तक उन को सहने वाली आप की पत्नी जिंदा है. जिस दिन चाची न रहेंगी, देखना, आप की यही बहन कभी देखने भी नहीं आएगी कि आप भूखे सो गए या कुछ खाया भी था,’’ रो पड़ी थी स्नेहा, ‘‘हमारे पापा का हाल देख रहे हैं न आप. अब बूआ वहां क्यों नहीं जाती, जाए न, रहे उस घर में जहां साल में 6 महीने इसी बूआ की वजह से दिनरात मनहूसियत छाई रहती थी.’’

अच्छाखासा तनाव हो गया. उस शाम चाची की तबीयत से परेशान स्नेहा खो चुकी अपनी मां को याद करकर के खूब परेशान रही. ऐसा भी क्या अंधा प्रेम जिसे रिश्ते में तालमेल भी रखना न आए. भावी दूल्हा यानी चाचा का बेटा भी बहन की हालत पर दुखी हो गया उस रात.

‘‘स्नेहा, थोड़ा तो खा ले न,’’ उस ने मनुहार की.

‘‘देख लेना बूआ का दखल एक दिन यहां भी सब तबाह कर देगा. कैसी औरत है यह जो भाई का सुख नहीं देख सकती.’’

‘‘तुम तो मेरा सुख देखो न, स्नेहा. मुझे भूख लगी है. आज कितना काम था औफिस में, क्या भूखा ही सुलाना चाहती हो?’’

हलकी सी चपत लगाई भाई ने उस के गाल पर. चाची भी भूखी बैठी थीं. वे बिना कुछ खाए दवा कैसे खा लेतीं. चाचा विचित्र चुप्पी में डूबे थे. स्नेहा मुखातिब हुई चाचा से, बोली, ‘‘इतने साल उस बेटी की चली, मैं भी ससुराल से आई हूं न, मेरा भी हक है इस घर पर. आप बूआ से कह दीजिए हमारे घर में हमारी मरजी चलने दीजिए. बस, मैं इतना ही चाहती हूं, चाचा. मेरी इतनी सी बात मान लीजिए, चाचा. चाचा, आप सुन रहे हैं न?

‘‘चाचा, मुझे इस घर में सुखचैन चाहिए जहां मेरी आने वाली भाभी खुल कर सांस ले सके. मेरी भाभी सुखी होगी तभी तो मेरा मायका खुशहाल होगा. वरना मुझे पानी के लिए भी कौन पूछेगा, जरा सोचिए.

‘‘मेरा घर, मेरा ससुराल है जहां मेरी मरजी चलती है. यह घर चाची का है, यहां चाची को जीने दीजिए और बूआ अपने घर में खुश रहे. बस, और तो कुछ नहीं मांग रही मैं.’’

गरदन हिला दी चाचा ने. पता नहीं सच में या झूठमूठ. सब ने मिल कर खाना खा लिया. तभी पता चला सुबह 6 बजे वाली गाड़ी से स्नेहा के पिता आ रहे हैं. स्नेहा का भाई बोला, ‘‘मैं शाम को ही बताने वाला था मगर घर में उठा तूफान देख मैं यह बताना भूल गया. ताऊजी का फोन आया था. पूरे 6 बजे मैं स्टेशन पहुंच जाऊं उन्हें लेने. कह रहे थे-घुटने का दर्द बढ़ गया है, इसलिए वे सामान के साथ प्लेटफौर्म नहीं बदल पाएंगे.’’ स्नेहा की चाची बोलीं, ‘‘मैं ने तो कहा भी है, भैया यहीं हमारे पास ही क्यों नहीं आ जाते. वहां अकेले रहते हैं. कौन है वहां देखने वाला.’’

‘‘भैया तो मान जाएं मगर विजया नहीं चाहती,’’ सहसा चाचा के होंठों से निकल गया. सब का मुंह खुला का खुला रह गया. हैरान रह गए सब. चाचा का रंग वास्तव में बदला सा लगा स्नेहा को. शायद अभीअभी उन का मोह भंग हुआ है अपनी पत्नी की हालत देख कर और भाई का उजड़ा घर देख कर.

‘‘भैया अगर मेरे साथ रहें तो विजया को समस्या क्या है? वही बेकार का अधिकार. हर जगह अपनी टांग फसाना शौक है इस का,’’ यह भी निकल गया चाचा के मुंह से.

सब उन का मुंह ही ताकते रह गए. चाचा ने स्नेहा का माथा सहला दिया, ‘‘कल से विजया का दखल समाप्त. अब भैया यहीं रहेंगे मेरे पास. तुम्हारी चाची और तुम्हारी आने वाली भाभी की चलेगी इस घर में. जैसा तुम चाहोगी वैसा ही होगा.’’चाचा का स्वर भीगाभीगा सा था. पता नहीं नाराज थे उस से या खुश थे मगर उन का चेहरा एक नई ही आशा से जरा सा चमक रहा था. शायद वे एक और बेटी की जिद मान एक नया प्रयोग करने को तैयार हो गए थे.

कन्यादान: ससुराल जाने से रिया ने क्यों मना कर दिया

“रिया की माँ आज दिल्ली से राम नाथ जी का phone आया था .उन्होंने रिया के लिए बहुत ही अच्छा लड़का बताया है ,” दयाशंकर जी ने चहकते हुए कहा.

सरिता जी रसोई से बहार निकलकर आई और उत्सुकता से पूछा ,”क्या करता है लड़का..?कैसा है देखने में….?नाम क्या है….?

“सारे सवाल एक ही बार में पूछ लोगी ,अरे सांस तो ले लो जरा …….,”,दयाशंकर जी ने हँसते हुए कहा .
लड़का तो इंजिनियर है और नाम है ‘अविनाश ‘.बस मुझे एक चीज़ की चिंता है की हम इतना दहेज़ कैसे दे पाएंगे?उन्होंने 15 लाख रूपए कैश बोले है .

सरिता जी ने कहा कि पहले लड़का देख लें ,कुंडली मिला लें ,फिर देखते हैं .आखिर हमारी गुडिया(रिया) से बढ़कर कुछ है क्या ?कहीं न कहीं से इंतज़ाम कर लेंगे.वैसे भी मेरे पास थोड़े जेवर पड़े है ,मैं इस बुढ़ापे में अब क्या करूंगी उनका. और जो आपने FD करा रखी थी हम दोनों के नाम से उसे भी तुडवा देंगे.बस हमारी गुडिया खुश रहे हमें और क्या चाहिए?

जब रिया शाम को कॉलेज से लौट कर आई तब उसके छोटे भाई ने उसे सारी बात बताई .रिया अपने पापा के पास गयी और गुस्साते हुए बोली की मुझे नहीं करनी ये शादी. मै अभी आपको छोड़कर कहीं नहीं जाउंगी.क्या मैं आप लोगों को बोझ लगती हूँ?जो आप मुझे पराये घर भेज रहे हो.

दयाशंकर जी ने उसके सर पर हाँथ फेरते हुए कहा,”नहीं मेरी गुडिया …ऐसा सोचना भी मत !बेटी तो पराई होकर भी परायी नहीं होती.एक बेटी ही तो है जिसकी याद माँ बाप के मरते दम तक उनके साथ रहती है.बेटे तो भाग्य से होते हैं पर बेटियां तो सौभाग्य से होती है.

रिया अपने पापा के गले लग गयी और बोली बस अब रहने दीजिये ,मुझे रुलएंगे क्या.?

इसी तरह कुछ महीने बीत गए .रिया का B.TECH भी कम्पलीट हो गया.अविनाश अपने घरवालों के साथ रिया को देखने उसके घर गया.सभी को रिया बहुत पसंद आई.रिया और रिया के माता-पिता को भी अविनाश अच्छा और सुलझा हुआ लगा.शादी की बात पक्की हो गयी.शादी की डेट 6 महीने बाद की निकली.

रिया के माता-पिता और भाई दिन रात शादी की योजना बनाते रहते.जैसे तैसे करके दहेज़ की रकम भी जुटा ली गयी थी.पर ये तो रिया ही जानती थी की इस रकम को जुटाने के पीछे उसके घर वालों ने अपने कितने सपने कुर्बान किये है.

रिया इस शादी से खुश तो थी पर कहीं न कहीं दहेज़ वाली बात उसके मन में चुभ रही थी.वो अनमने मन से अपने पापा के पास गयी और बोली,”पापा ये दहेज़ क्यूँ मांगते है लोग ?क्या बेटी होना कोई अभिशाप है ?एक तरफ तो लड़की अपने सारे रिश्ते नाते ,अपनी सारी यादों को दिल में समेट कर अपने पिता के घर को छोड़ कर किसी अनजान घर में अनजान लोगों के बीच जाती है ,उसपर भी ऊपर से ये दहेज़ !

पापा मुझे समाज के इस प्रथा से तो शिकायत है ही मुझे आप से भी एक शिकायत है.

दयाशंकर जी थोड़ा ठहरे फिर बोले,”क्या हुआ गुडिया ?मुझसे क्या शिकायत है.”?

रिया ने कहा ,”जब मैं छोटी थी और खेल- खेल में कहीं छिप जाती थी तब तो आप जमीन आसमान एक कर देते थे और आज आप मुझे किसी अनजान के हाथों में सौप रहे है……………

पापा आपको याद है जब मैं एक बार आँगन में आपके साथ खेल रही थी तब मैंने आँगन में लगे हुए एक पेड़ को देखकर कहा था की पापा इसे यहाँ से हटाकर अपने बागीचे में लगा लेते है तब आपने कहा था की बेटी ये 4 साल पुराना पेड़ है ,इसका नयी जगह,नयी मिटटी में ढल पाना मुश्किल होगा .आज मैं आपसे पूछती हूँ एक पौधा और भी तो है आपके आँगन का जो 22 साल पुराना है ,क्या वो नयी जगह ढल पायेगा?
दयाशंकर जी की आँखों में आंसू आ गए ,उनका गला रुंध गया .उन्होंने भरे हुए गले से कहा ,”बेटी जब तुमने मुझसे एक चिड़िया को देखकर कहा था की पापा मुझे भी पंख चाहिए ,मैं भी उड़ना चाहती हूँ.तब मैंने तुमसे कहा था न की तुम तो बिना पंखों के एक दिन उड़ कर परदेश चली जाओगी .बेटी यही जीवन का सत्य है .माँ बाप चाह कर भी अपनी बेटी को हमेशा के लिए अपने पास नहीं रख सकते और बेटी यह शक्ति सिर्फ एक औरत में ही होती ,जो खुद को नए माहौल में ढाल सकती हैं ,अनजाने लोगों को भी अपना बना सकती है.ताउम्र उनके लिए जीती है .एक माँ एक बहन और एक पत्नी बनकर.वो बेटियाँ ही तो होती है जिनके हाथों में अपने दोनों घरों की लाज होती है.

यह कहते हुए दयाशंकर जी रो पड़े और उन्होंने रिया को अपने गले से लगा लिया.

शादी का दिन आ चुका था.दरवाज़े पर बारात खड़ी थी .सब बारातियों की आवभगत में लगे हुए थे.रिया शादी के लाल जोड़े में तैयार अपने कमरे में बैठी थी .वो अपने बचपन के खिलौने को देख रही थी तभी रिया के पापा ने आकर उससे कहा चलो गुडिया जयमाल का समय हो गया है ,मै तुम्हे लेके चलूँगा .पर रिया के हाथों में उसके बचपन की गुडिया देखकर वो थोड़ा मुस्कुराये और बोले ,”गुडिया तुम्हे पता है ,मुझमे और तुममे एक चीज़ कॉमन है.रिया ने कहा ,”कौन सी ?

उसके पापा ने कहा की तुम्हे अपनी गुडिया से बहुत प्यार है और मुझे अपनी गुडिया से……..
रिया अपने पापा के गले लग गयी.तभी दयाशंकर जी ने कहा चलो गुडिया देर हो रही है.फिर वो दोनों नीचे आ गए.

धीरे-धीरे करके सारी रश्मे पूरी हो गयी .अब रश्मों का सबसे कठोर समय आया …. कन्यादान का समय.जिससे हर माता-पिता को डर लगता है.

जब पंडित ने उन्हें कन्यादान के लिए बुलाया तो उन्हें ऐसा लगा जैसे कोई उनके जिस्म से उनकी जान मांग रहा हो.वो अन्दर ही अन्दर सोच रहे थे की जिस नन्ही सी गुडिया हो अपने हाथों में खिलाया,जिसकी उंगली पकड़ कर चलना सिखाया ,आज कन्यादान करते समय उसी गुडिया से अपना हाथ छुडाना पड़ेगा.
पर रस्मे तो निभानी ही पड़ती हैं न …ये सोचकर वो आगे बढे .

रिया के माता पिता जब कन्यादान के लिए आये तब रिया अपने माता-पिता को देख कर सोचने लगी की की इन्हें अपने आंसुओ से कितना लड़ना पड़ा होगा.

जब कन्या दान पूरा होने के बाद माता पिता अपना हाथ हटाने लगे तब रिया बहुत रोने लगी और बोली ,”पापा क्या आज से आपने सचमुच मुझको छोड़ दिया………………
रिया की बाते सुनकर दयाशंकर जी से रहा नहीं गया और वो बदहवास रोने लगे .उस समय तो क्या लड़के वाले और क्या लड़की वाले,सभी की आँखों में ही आंसू थे.

सरिता जी ने दयाशंकर जी को संभाला और उन्हें वहां से ले गयी.
सारी रश्में पूरी हो चुकी थी.अब आया सबसे कठिन पल …विदाई का ….

रिया सब से लिपट कर बहुत रो रही थी आखिरकार उसके बचपन की यादों का घरौंदा जो छूट रहा था.रिया ने अपने भाई की तरफ देखा वो कोने में खड़ा सुबक-सुबक कर रो रहा था.उसे चुप करने वाला भी कोई नहीं था.

रिया अपने भाई के पास जाकर उसे च्गुप करने लगी और बोली तुम कहते थे न की मै जब चली जाउंगी तब तुम मुझे याद भी नहीं करोगे.लो अब मैं जा रही हूँ.
उसका भाई रिया से चिपककर बोला …………नहीं दीदी मत जाओ मैं कैसे रहूँगा तुम्हारे बिना.दोनों भाई बहन काफी देर तक एक दूसरे को दिलासा देते रहे.

सबसे मिलने के बाद रिया अपने पिता के पास गई .उसके पिता यहां वहां मुंह घुमा रहे थे .वो खुद को कमजोर नहीं दिखाना चाहते थे,रिया उनसे चिपट कर बहुत रोइ सहसा उनको भी रुलाई छूट गई और वह भी मेरी गुड़िया…….. मेरी गुड़िया………. कहकर बहुत रोए .उसके बाद वो रिया को गाडी में बैठने के लिए ले जा रहे थे.रिया सजाई गई गाड़ी के नजदीक आ गई.

वहीं पास में उसका पति अविनाश अपने दोस्तों से बातें कर रहा था. उसके दोस्त ने कहा ,”अविनाश यार सबसे पहले घर पहुंचते ही होटल चलकर बढ़िया सा खाना खाएंगे, यहां तेरी ससुराल में खाने का मजा नहीं आया.

तभी पास में खड़ा अविनाश का छोटा भाई राकेश बोला,” हां भैया पनीर कुछ ठीक नहीं था और रसमलाई में तो रस ही नहीं था ,यह कहकर वो खूब ठहाके लगाकर हंसने लगा.
रिया ये सब सुन रही थी .पर उसे विश्वास था की अविनाश इन सबको समझाएगा.लेकिन…………………………

लेकिन अचानक उसके कानो में अविनाश की आवाज़ पड़ी.वो कह रहा था ,” अरे हम लोग रास्ते मे जब रुकेंगे तब तुम लोगों को जो खाना है खा लेना, मुझे भी यहां खाने में मजा नहीं आया ,रोटियां तक गर्म नहीं थी “.

अब तक तो रिया सब बर्दास्त कर रही थी लेकिन जब उसने अपने होने वाले पति के मुंह से यह शब्द सुना तो जो रिया गाड़ी में बैठने जा रही थी ,वो वापस मुड़ी ………….. गाड़ी के दरवाजे को जोर से बंद किया और घूंघट हटा कर अपने पापा के पास पहुंची .

उसने अपने पापा का हाथ अपने हाथ में लिया और बोली पापा ,”मैं इनके साथ पूरी जिंदगी नहीं बिता सकती . मैं ससुराल नहीं जा रही हूं. मुझे यह शादी मंजूर नहीं है. यह शब्द उसने इतनी जोर से कहे कि सब लोग हक्के बक्के रह गए .सब उसके नजदीक आ गए. रिया के ससुराल वालों पर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा. मामला क्या था किसी को समझ में नहीं आ रहा था?

तभी रिया के ससुर राधेश्याम जी ने आगे बढ़कर रिया से पूछा,” लेकिन बात क्या है बहू? शादी हो गई है विदाई का समय है अचानक क्या हुआ क्यों तुम शादी को नामंजूर कर रही हो ?
अविनाश भी हक्का-बक्का रह गया उसने रिया के पास आकर कहा कि अब तक तो सही था अब तुम ऐसे क्यों कह रही हो , आखिरी वक्त पर ऐसा क्या हुआ कि तुम ससुराल जाने को मना कर रही हूं?
रिया ने अपने पिता का हाथ पकड़ रखा था. रिया ने अपने ससुर से कहा ,” पिताजी मेरे पापा ने अपने सपनों को मारकर हम दोनों भाई –बहन को पढ़ाया लिखाया व काबिल बनाया है. आप जानते हैं कि एक पिता के लिए एक बेटी क्या मायने रखती है.हो सकता आप ये ण समझ सके क्योंकि आपकी कोई बेटी नहीं है.

रिया रोती हुई बोली जा रही थी……………

आप जानते हैं कि मेरी शादी के लिए और शादी में बारातियों की आवभगत में कोई कमी ना रह जाए इसलिए मेरे पापा पिछले 6 महीने से रात को 2:00 से 3:00 तक शादी की तैयारियों की योजना बनाते रहते थे. खाने में क्या बनेगा ?रसोईया कौन होगा ? पूरी शादी भर वो सबके सामने हाथ जोड़ जोड़ कर खड़े थे जैसे एक बेटी को जन्म देकर कोई पाप कर दिया हो.

बाबु जी जरा सोचिये की वो चीज़ जो आपको पसंद है ,अगर आपसे कोई मांग ले तो आप हिचकिचाने लग जायेंगे,पर एक पिता का जिगर तो देखिये ,जो अपने जिगर का टुकड़ा सौंप देते हैं.
जिस दहेज़ को मांगने में लोगों को कुछ मिनट ही लगते है उसी रकम को जुटाने के लिए एक पिता दिन रात मेहनत करता है.मेरे पति को रोटी ठंड लगी……………उनके दोस्तों को पनीर में गड़बड़ लगी……………..

मेरे देवर को रसमलाई में रस ही नहीं मिला. पर क्या इनको पता है की यह सिर्फ खाना नहीं है ,ये किसी पिता के अरमान व जीवन का सपना होता है .मेरे माता-पिता ने कितने सपनों को मारा होगा..बेटी की शादी में बनने वाले पकवान में स्वाद कई सपनों के कुचलने के बाद आता है. उन्हें पकने में सालों लगते हैं .
पर इनका खिलखिला कर हंसना मेरे पिता के सम्मान को ठेस पहुंचाने की समान है.रिया हाफ रही थी .

रिया के पिता ने रोते हुए कहा ,”लेकिन बेटी इतनी छोटी सी बात!”

रिया ने उनकी बात बीच में काटी और बोली ये छोटी सी बात नहीं है पिताजी ..

मेरे पति को मेरे पिता की इज्जत नहीं है . आपने तो दिल खोलकर अपनी हैसियत से बढ़कर खर्च किया है. आप अपने दिल का टुकड़ा अपनी गुड़िया रानी को विदा कर रहे हैं .आप कितनी रात रोएंगे क्या मुझे पता नहीं .
वो लगातार रोती जा रही थी.
तभी रिया के ससुर ने आगे आकर रिया के आसू पोछे और कहा,”वाकई में किसी ने सच ही कहा है की हर बेटी के भाग्य में तो पिता होता है ,पर हर पिता के भाग्य में तुम्हारे जैसी बेटी नहीं होती’.बेटा तो तब तक अपना होता है जब तक उसे पत्नी नहीं मिलती,लेकिन बेटियां तो मरते दम तक साथ निभाती है…..अब मैंने जाना की भगवन ने मुझे बेटी क्यों नहीं दी.क्यूंकि मेरे नसीब में तो तेरे जैसी बेटी थी.”

रिया के ससुर ने रिया का हाथ पकड़ कर बोला ,”बेटी मेरे बच्चो को माफ़ कर दे.और मुझे मेरी बेटी लौटा दे.तुझे लिए बगैर मैं यहां से खाली हाथ नहीं जाऊंगा.”ये कहकर उनकी आँखों में आंसू आ गए.
रिया अपने ससुर को रोते देख कर उनके गले लग गयी और बोली नहीं पिताजी आप मत रोइए.
रिया के ससुर ने कहा ,”पिताजी नहीं बेटी ,’……………………..पापा’

अविनाश ने भी आकर दयाशंकर जी से माफ़ी मांगी .दयाशंकर जी ने उसे गले लगा लिया.
दयाशंकर जी ऐसी बेटी पाकर गौरव की अनुभूति कर रहे थे.रिया अब राजी खुशी अपने ससुराल रवाना हो गई थी और छोड़ गई थी आंसुओं से भीगी अपने मां पिताजी की आंखें. अपने पिता का वो आंगन जिसमें कल तक वो चहकती रहती थी.आज इस आंगन की चिड़िया उड़ गई थी .अब वो किसी दूसरी देश में और किसी पेड़ पर अपना घरौंदा बनाएगी.

विदाई के समय एक लड़की इसलिए नहीं रोती कि वो अपने माँ बाप से दूर जा रही है बल्कि वो इसलिए रोती है की उसके माँ बाप उसके बिना अकेले रह जायेंगे

ज्ञानोद: भाग 3

रिया ने नरमी बनाए रखते हुए कहा, ‘‘कैसे हो भैया? अगले महीने रक्षाबंधन है. मैं राखी भेज रही  हूं, मिलने पर सूचित करना.’’ रोहित ने कहा मैं ने जब मना किया है, तो फिर फोन क्यों करती हो? बंद करो सब नाटक. मुझे राखी भेजने की कोई जरूरत नहीं है. रोहित ने राखी का तो अपमान किया ही मुझे भी उस ने आड़े हाथों लिया. अपने अपमान से ज्यादा रोहित की हमारे प्रति दर्शायी गई बेरुखी ने रिया को आहत कर दिया. बचपन से ही रिया ऐसी थी कि किसी की क्या मजाल जो हमारे खिलाफ कुछ कह दे. रिया उस से झगड़ पड़ती थी. छोटेबड़े तक का लिहाज नहीं करती थी. हमेशा की तरह वह रोहित से झगड़ पड़ी.

रिया ने मुझे बताया, ‘‘मां भैया में थोड़ा भी बदलाव नहीं आया है, आज भी वह आप की पहले की तरह ही कोसता है.’’

फिर उस ने सारी बातें बताईं. सब कुछ सुन कर मैं रिया पर ही बरस पड़ी, ‘‘ठीक है, रोहित ने कड़वी बातें  कहीं, तुम्हें बुरा लगा यह भी जायज है, पर तुम्हें चुपचाप फोन रख देना चाहिए था. तुम ने उसे भलाबुरा क्यों कहा?’’

मैं ने रिया को डांट तो दिया पर सोचने लगी, 1 साल बीत जाने पर भी रोहित का व्यवहार ज्यों का त्यों है. इन सब बातों का असर मेरे स्वास्थ्य पर पड़ रहा है. अब बहुत हो गया. मैं ने रवि से कहा, ‘‘अब वक्त आ गया है कि हमें रोहित के पास जाना ही होगा. आमनेसामने बैठ कर बातें करेंगे तो उस की शिकायतों के भी हम सही जवाब दे पाएंगे.’’

रवि इस के लिए तैयार हो गए तो मैं ने तुरंत रोहित को संदेश भेजा कि हम आ रहे हैं.

रोहित का जवाब आया, ‘‘मैं नहीं चाहता कि आप लोग मेरे पास आएं. मैं ने मां के सारे ई मेल पढ़े हैं. आप लोगों ने मेरे साथ जो भी कुछ किया, उस के लिए मैं कभी आप लोगों को माफ नहीं कर पाऊंगा या नहीं, पता नहीं.’’

मैं ने रोहित को लिखा, ‘‘बेटा, तुम्हारे बरताव से हमें बहुत दुख हो रहा है. मेरा स्वास्थ्य भी गिरने लगा है. तुम जानते हो जिंदगी में मैं ने बहुत दुख सहा है. पर मुझे दुख पहुंचाने वाले मेरे अपने नहीं थे. तुम तो मेरे अपने हो, ऐसी कड़वी बातें कहने  लगे तो मै जीते जी मर जाऊंगी. मैं ने सिर्फ अपनी राय दी थी, कोई जोरजबरदस्ती तो नहीं की थी. हम सामने बैठ कर बातें करेंगे. तुम जैसा चाहोगे वैसा ही होगा आगे से. इसलिए हम आना चाहते हैं या फिर तुम यहां आ जाओ,’’

इस के बाद रोहित का जो जवाब आया, उस के आगे कहने को कुछ बचा ही नहीं था. उस ने लिखा था, ‘‘मैं आप लोगों को समझ कर थक गया हूं. मेरे मना करने के बावजूद यदि आप लोग जबरदस्ती यहां आते हैं, तो आप लोगों से सारे बंधन तोडु लूंगा.’’

मैं सेवानिवृत्त हो गई थी. सारा दिन खाली बैठ कर रोहित के बारे में ही सोचा करती थी. एकदिन अपनी सहेली के बताने पर मैं उस के साथ प्रवचन सुनने के लिए चली गई. वक्ता कोई महान व्यक्ति थे. मु?ा में ज्ञानोदय हो गया हो.

उस महान प्रवक्ता ने कहा, ‘‘हम जीवन में दुखी इसलिए होते हैं कि हम सिर्फ अपने परिवार के बारे में सोचते हैं. यदि हम अपना दायरा बड़ा कर दूसरों के बारे में भी सोचें, दूसरों की जिंदगी को सुधारने में हमारा थोड़ा भी योगदान रहे, तो न सिर्फ हम दूसरों का भला करेंगे, बल्कि इस से हमें जो खुशी मिलगी उस का अनुमान नहीं लगाया जा सकता.’’

मेरे जीवन में जो ज्ञानोदय हुआ था, उस से मैं ने निश्चय कर लिया कि मुझे अपने बिखरते वजूद को समेट कर नए क्षितिज की तलाश में आगे बढ़ना होगा.

मेरी कोशिश रंग लाई और आज मैं बेहद खुश हूं कि मैं ने अपनेआप को उन संस्थाओं से जोड़ लिया है, जो सड़क पर पल रहे जरूरतमंद बच्चों को शिक्षा दे कर उन्हें जीवन में कुछ बनने की प्रेरणा देते हैं. अपनेआप को व्यस्त रखने का तरीका तो मैं ने ढूंढ लिया था, पर रोहित की याद आते ही दिल में टीस सी उठती थीं. बड़े से बड़े घाव को भी भर देता है.

मुझे विश्वास था एक दिन रोहित भी अपने जख्मों के भरने पर मेरे पास लौट आएगा. रोहित द्वारा दिए गए जख्मों को भरने के लिए मुझे काफी जद्दोजहद करनी पड़ी थी. ऊपर से जख्म तो भर गए थे. लेकिन अंदर का घाव अभी भी हरा था. मैं ने तो कदम बढ़ा कर दोनों  के बीच की दूरी को पाटने की कोशिश की थी, पर रोहित ने मेरी ओर कदम बढ़ाने से इनकार कर दिया था. इसलिए मैं उसे कुछ वक्त देना चाहती थी. अगर रोहित एक कदम भी बढ़ाए तो मैं भाग कर सारा फासला मिटा दूंगी, ऐसा सोच रही थी मैं .

कल मुझे कही जाने की इच्छा नहीं थी. रवि सुबह ही पेंशन लेने बैंक के लिए निकल पड़े थे. एक ही जगह पर बैठेबैठे शून्य में नजर गड़ाए मैं बीते दिनों की यादों में खो गई. यादों के पन्ने पलटते चले गए. याद आया रोहित का बचपन, जब वह मेरा पल्लू पकड़ेपकड़े मेरे पीछेपीछे घूमता रहता था. याद आया लड्डू खाने का शौकीन रोहित, जिस के लिए तिल के लड्डू बना कर मैं उसी के कमरे में छिपा दिया करती थी. याद आता है वह दिन जब भारीभरकम फलों से भरा झेला उठाने में असमर्थ मेरे भारी कदमों को देख, खेल को बीच में छोड़ भाग कर आता रोहित और मुझ से झेला छीन कर घर पर रख आता. विश्वास नहीं हो रहा था कि आज वही मुझ से इतना नाराज है कि बात तक करने को तैयार नहीं. सोचने लगी मुझ से चूक कहां हुई? रवि और मैं ने बच्चों को कितने नाजों से पाला. रिया तो हम पर जान छिड़कती है, फिर रोहित कैसे इतने दिनों रूठा रह सकता है? शुरूशुरू में तो मैं इसे रोहित की नादानी समझ बैठी थी. अब मेरी नाराजगी बढ़तेबढ़ते गुस्से का स्थान लेने लगी. मैं  सोचने लगी क्या हमें इतना भी हक नहीं कि हम बच्चों को अपनी राय से वाकि फ करा सकें.

हर मांबाप अपने बच्चों को सही राय देते हैं और ये उन का हक भी है. मैं ने निश्चय कर लिया, ठीक है अगर वह बात नहीं करना चाहता तो ऐसा ही सही. यदि वह भविष्य में हमें अपने पास बुलाएगा तो मैं कभी नहीं जाऊंगी न कभी उसे किसी बात पर अपनी राय दूंगी.

यह सब सोचतेसोचते मैं इतनी अधिक तनावग्रस्त हो गई कि आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. पानी के लिए मैं ने रवि को पुकारा, पर वे अभी तक लौटे नहीं थे.

जब आंख खुली तो मैं ने अपनेआप को अस्पताल में पाया. रवि मुझे बताया कि जब  वे घर लौटे तो मैं बेहोश पड़ी थी. रवि ने तुरंत अपने मित्र डा. प्रकाश को फोन किया और मुझे ले कर अस्पताल आ गए, प्रारंभिक जांच के बाद डा. प्रकाश ने कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता कि कोई गंभीर बात है. लगता है इन्होंने सुबह से कुछ खाया नहीं है. कोई चिंता है, जो इन्हें खाए जा रही है. फिर भी 2-3 दिन अस्पताल में रह कर पूरी जांच कर लेनी चाहिए.’’

मैं ने सचमुच सुबह से कुछ खाया नहीं था और मैं काफी तनावग्रस्त हो गई थी. मैं जानती हूं यही कारण रहा होगा मेरी बेहोशी का पर रवि कहां मानने वाले थे. ऊपर से रिया और राजीव भी पहुंच गए थे. सभी ने काफी भाषण दिया कि मैं व्यर्थ में चिंता करती हूं. अपनी सेहत का ध्यान नहीं रखती वगैरह.

जांच के दौरान मुझेआराम मिले इसलिए नींद के इंजैक्शन भी दिए जाते थे. अगले दिन इंजैक्शन की वजह से अर्धजाग्रत अवस्था की स्थिति में थी कि रोहित की आवाज सुन कर चौंक कर आंखें खोल दी मैं ने. सामने रोहित को पा कर आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई.

जब उस ने मुझे जागा हुआ देखा तो पूछा, ‘‘कैसी हो मां?’’

इस आवाज को सुनने के लिए ही तो मेरे कान तरस गए थे, रोहित को देखते ही मेरी अपनी सारी नाराजगी भूल गई. दोनों हाथों  से मैं ने रोहित का हाथ कस कर पकड़ लिया, जैसे कि उसे जाने नहीं देना चाहती थी. कोशिश करने पर भी मुंह से कोई बोल नहीं निकल रहा था. आंखों से अश्रुधारा लगातार बहने लगी, मुश्किल से सिर्फ ‘बेटा’ कह पाई. रोहित भी अपनी आंखों के किनारों को पोंछ रहा था. दोनों के दिलों में जो कड़वाहट थी, वह सब आंसुओं की राह बाहर निकल गई थी.

बाद में पता चला कि मेरे बेहोश होते ही रिया और राजीव ने रोहित को खबर कर दी थी. मेरी सारी रिपोर्ट्स आ चुकी थी सब कुछ नौर्मल था. अस्पताल से मुझे उसी दिन छुट्टी मिल गई.

घर आते ही सोचने लगी रोहित के लिए क्या बनाऊं? रोहित मुझे रसोईघर से घसीट लाया. मुझे बिस्तर पर बैठा कर बोला ‘‘मां, तुम आराम करो’’

मैं न कहा, ‘‘रोहित तुम जानते हो, मुझए कोई बीमारी नहीं है.’’

उस ने मुझे पास बैठा लिया. कहने लगा, ‘‘मां, शायद तुम ठीक कहती हो, जो होता है सब अच्छे के लिए ही होता है, रिमैशन की वजह से मुझे ग्रीन कार्ड नहीं मिला, इसलिए मुझे जल्दी भारत लौटना पड़ेगा. मां लिंडा मैक्सिको से है, उस ने अमेरिका वासी से शादी की है इसलिए उसे ग्रीन कार्ड मिल जाएगा. मैं उस से शादी करता तो या तो लिंडा को भारत आ कर रहना पड़ता या मुझे मैक्सिको जाना पड़ता, जो हम दोनों ही नहीं चाहते थे. मां, मेरे लिए तुम्हारी राय बहुत माने रखती है अब मैं समझ गया हूं, चाहे मेरे पास जितनी भी डिग्रियां हो, तुम्हारे अनुभव के सामने सब फीकी हैं. मुझे माफ कर दो मां,’’

मैं ने आगे बढ़ कर रोहित को गले से लगा लिया. इस बार मेरी आंखों में जो आंसू  थे वे खुशी के थे.

मैं नाहक परेशान थी कि अपनी नापसंदगी का इजहार कर के मैं ने रोहित को खो तो नहीं दिया, आज एक और ज्ञानोदय हुआ मेरे जीवन में और मैं ने निश्चय किया कि मैं बच्चों को अपनी राय अवश्य दूंगी और जरूरत पड़ने पर अपनी नापसंदगी का इजहार  भी करूंगी. पर अपना निर्णय उन पर थोपूंगी नहीं.

अगर बच्चे अपना निर्णय खुद लेंगे तो मातापिता पर अपनी नाराजगी तो जाहिर नहीं करेंगे जिंदगी हर पल एक सीख देती है. जरूरत है उसे समझने की और उसे अपनी जिंदगी में उतारने की. आज मैं सचमुच बहुत खुश हूं, सिर्फ इसलिए नहीं कि मेरा रोहित मेरे पास वापस लौट आया, बल्कि इसलिए थोड़े दिनों का दुख मेरी जिंदगी में आया. इस दुख ने ही मुझे जिंदगी का नया पाठ भी पढ़ाया. मेरी जिंदगी में जो ज्ञानोदय हुआ, उस ने मेरे सुख को दोगुना कर दिया.

ज्ञानोद: भाग 2

अपने बच्चे को इस तरह आहत देख कर मेरा दिल भी रो उठा. जी चाहा गले से लगा कर उसे प्यार करूं. कितनी मजबूर थी मैं, अमेरिका इतनी दूर है कि जब जी चाहा नहीं जाया जा सकता. एक तो छुट्टी मिलनी मुश्किल है, ऊपर से पैसे भी कितने लगेंगे. मन मार कर फोन और ईमेल से ही समझौता करना पड़ा. दिन में 2 बार फोन कर के मैं रोहित को हिम्मत बंधाती रही. पर दिन और रात का ये फर्क, अमेरिका और भारत के बीच मेरे काम को और मुश्किल कर देता था.

जब रोहित मुश्किल के इस दौर से गुजर रहा था, फोन करने के लिए भारत में 5 बजने का इंतजार करता रहता था. कई दिन मेरे नित्यकर्मों से निबटने के पहले उस का फोन आ जाता था. उस वक्त उस के मित्रों ने भी उस से किनारा करना शुरू कर दिया था.

दूसरों के सुख में तो सभी सहभागी होते हैं, पर दूसरों के दुख को कोई अपना ही बांटता है. सेवानिवृत्त होने मेरे सिर्फ 2 महीने ही बचे थे. ऐसे में मेरा जाना नामुमकिन था. इन सब मामलों से रवि ने अपने को दूर ही रखा. वैसे भी शादीब्याह का मामला हो या बच्चों की पढ़ाई का मैं ही सब कुछ संभालती थी. हां अंत में ये अपनी मुहर जरूर लगा देते.  मुझ से कहते, ‘‘तुम ही संभालो उसे, वह तुम्हारे ज्यादा करीब है.’’

इस में रोहित ने मेरी मदद की. उस ने मुझे अक्षरश: समझ दिया कि मुझे लिंडा से क्या कहना है. मैं ने लिंडा को फोन कर के कहा, ‘‘मुझे तुम दोनों की शादी से कोई एतराज नहीं है, अगर तुम हां कहो तो मेरे परिवार में तुम्हारा स्वागत होगा,’’

लिंडा ने तेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया. तब मैं ने उस से कहा, ‘‘अगर चाहो तो थोड़ा वक्त ले सकती हो, हम तुम्हारे जवाब का इंतजार करेंगे, हम तुम्हारे बच्चे को भी अपनाने को तैयार हैं.’’

इस पर लिंडा ने मुझे धन्यवाद कहा, इस के बाद भी रोहित ने कहा कि लिंडा उस से  कभीकभार ही बात करती है.

मैं ने रोहित को इतना मायूस पहले कभी नहीं देखा था. अपने बेटे की इस हालत पर मैं भी बहुत दुखी थी. मैं उसे विश्वास दिलाती रही कि वह चिंता न करे सब कुछ ठीक हो जाएगा.

एक दिन रोहित को लिंडा का संदेश मिला, लिंडा ने लिखा था, ‘‘मैं अपने नए साथी से शादी कर रही हूं, अब मेरी जिंदगी में तुम्हारी कोई जगह नहीं है.’’

लिंडा के इस संदेश से रोहित की रहीसही आशा भी टूट गई. खबर पढ़ते ही उस ने मु?ो फोन किया. उस वक्त अमेरिका में तो दिन था, पर यहां रात के करीब 3 बज रहे थे. मैं फोन के बजने की आवाज सुन कर गहरी नींद से चौंक कर उठी, रोहित का ही फोन था, बेहद कमजोर आवाज में कहा, ‘‘मां, सब कुछ खत्म हो गया. लिंडा मुझे छोड़ कर जा चुकी है,’’

रोहित मुझे हमेशा की तरह फोन करता रहा. पर कभी उस ने मुझ से नाराजगी नहीं दर्शायी. मैं भी यही सोचती रही कि वह लिंडो को भूल गया है. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. एक दिन अचानक दिन में रोहित का फोन आया. मैं ने सोचा कि इस वक्त तो अमेरिका में आधी रात होगी.

रोहित ने इस वक्त क्यों फोन किया? शायद वह उलझन में होगा और उसे नींद नहीं आ रही होगी. मुझ से कहने लगा, ‘‘मां, मैं लिंडा को भुला नहीं पा रही हूं. उस के बिना जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकता, अब मैं उस के विरुद्ध आप से या पापा से कुछ नहीं सुनना चाहता. मुझे सिर्फ और सिर्फ लिंडा से ही शादी करनी है, यह मैं तय कर चुका हूं.’’

रोहित का दृढ़ निश्चय जान कर मैं ने भी हथियार डाल दिए. मैं ने कहा, ‘‘यदि तुम निश्चय कर ही चुके हो तो जैसी तुम्हारी मर्जी’’

दूसरे दिन फिर रोहित का फोन आया. इस बार उस की आवाज में काफी नाराजगी थी. कहने लगा, ‘‘मां, लिंडा मुझ से कितनी मिन्नतें करती रहीं, पर आप ने मेरे दिमाग में लिंडा के खिलाफ जहर घोला जिस की वजह से मैं ने उसे ठुकराया.

अब वह कहती है कि उस ने किसी से दोस्ती कर ली है. इस से पहले कि उस की दोस्ती प्यार में बदले, मे आप ही को उसे मनाना होगा मां. मैं ने उस से कहा था कि मैं मातापिता की इच्छा के विरुद्ध नहीं जा सकता, इसलिए उसे मेरी बातों पर विश्वास नहीं रहा. मां, तुम्हें उसे विश्वास दिलाना होगा कि बहू के रूप में स्वीकार करने में तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है वरना मैं उसे खो दूंगा.’’

मुझे इस तरह रोहित की तरफ से लिंडा से बात करना बहुत अटपटा लग रहा था. मेरे लिए उस के अंगरेजी उच्चारण को सम?ाना टेढ़ी खीर थी. समझ में नहीं आ रहा था कि लिंडा से क्या कहूं?

धीरेधीरे रोहित का फोन आना कम होता गया. फिर उस ने फोन करना बिलकुल बंद कर दिया. मेरे बारबार फोन करने पर भी फोन नहीं उठाता था. एक दिन उस ने फोन उठाया, पर मुझे काफी भलाबुरा कहने लगा, ‘‘मां, आप लोगों की  वजह से मैं न लिंडा को खोया. यह तो मेरी जिंदगी की बात थी.

फिर मैं ने आप लोगों की बात मानी ही क्यों? हमेशा से ही आप लोग मेरी जिंदगी में दखल देते आए हो. अब तो आप खुश हो न मां कि आप को किसी से कहना नहीं पड़ेगा कि तुम्हारे बेटे ने, तलाकशुदा व बच्चे की मां से शादी की. तुम्हें मेरी खुशी की परवाह नहीं है, लोग क्या कहेंगे इस की ज्यादा परवाह है.’’

रोहित ने कितने इलजाम लगाए थे मुझ पर. यहां तक कि मेरी परवरिश पर भी उस ने प्रश्नचिह्न लगाया था. सुन कर मुझे इतनी पीड़ा हुई कि आंसुओं का सैलाब सा उमड़ पड़ा फिर जल्द ही अपने को संभाल कर मैं ने रोहित से कहा, ‘‘मुझ पर इस तरह इलजाम मत लगाओ बेटा, तुम हम से इतनी दूर रहते हो…भला हम कैसे तुम्हारी जिंदगी में दखल दे सकते हैं? जो कुछ भी हुआ उसे बदला तो नहीं जा सकता? उस से सीख जरूर ली जा सकती है…लिंडा जिस तरह जिंदगी में आगे बढ़ चुकी है, तुम्हें भी आगे बढ़ना चाहिए,’’

इस पर रोहित और भड़क गया, कहने लगा, ‘‘मां बस करो, यह दर्शाना छोड़ दो कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं. एक हीरे को कांच समझ कर मैं ने ठुकरा दिया और इस की वजह सिर्फ आप और आप हो. मेरे लाख कहने पर भी कि लिंडा मुझे पसंद है, आप लोग समझते रहे कि पश्चिम कि लड़कियां अच्छी नहीं.’’

आप लोग कितना जानते हो उन की सभ्यता और संस्कृति के बारे में? इतने दिनों में मैं ने  उन्हें जितने करीब से जाना है, दिनप्रतिदिन मेरा उन से लगाव बढ़ ही रहा है. वे आप लोगों की तरह दकियानूसी नहीं है.’’ रोहित के इन इलजामों से मैं काफी आहत हो गई थी? मैं ने हमेशा ही बच्चों का भला चाहा था. रोहित के जिद पकड़ने पर क्या मैं ने उस का साथ नहीं दिया था? मैं ने उसे फिर से समझने की कोशिश की.

कांता मौसी का उदाहरण दिया. कांता मौसी का बेटा करण बिना मांबाप को बताए विदेशी लड़की से शादी कर के उसे घर ले आया. कांता मौसी ने जब दरवाजा खोला तो करण ने उन की बहू का परिचय उन से कराया. बेहोश हो कर गिर पड़ी थीं मौसी. फिर बाद में मौसी ने बहू को अपना लिया था. उन के 3 बच्चे भी हुए काफी साल बाद. बच्चों में से 2 तो किशोरावस्था तक पहुंच चुके थे, तीसरा अभी छोटा था.

तभी अचानक एक दिन उन की बहू घर छोड़ कर अपने देश लौट गई. बाद में पता

चला उस ने वहीं दूसरी शादी कर ली. मेरे ऐसे उदाहरणों का रोहित पर कोई असर नहीं हुआ, उलटे उस ने मुझे दोषी ठहराया कि मैं चुनचुन कर ऐसे उदाहरण उस के सामने पेश करती हूं.

रोहित ने मुझे फोन करना बिलकुल बंद कर दिया, न ही मेरे फोन का जवाब देता था. कुछ दिन बाद मैं ने उसे संदेश भेजा, ‘‘बेटा, अगर तुम्हें लगता है कि जो कुछ तुम्हारी जिंदगी में घटित हुआ, उस की जिम्मेदार मैं हूं तो मैं तुम से माफी मांगती हूं. विश्वास करो, आगे से मैं तुम्हें कोई राय नहीं दूंगी. तुम अपने जीवनसाथी का चुनाव करने में स्वतंत्र हो. मैं तुम्हारी हर शर्त को मानने को तैयार हूं. मुझे मेरा पुराना हंसताखेलता रोहित वापस कर दो. पहले की तरह मुझे फोन किया करो.’’ मगर मेरी किसी भी दलील या मिन्नत का रोहित पर कोई असर नहीं हुआ.

मेरी दुखों की साथी मेरी बेटी रिया है. मैं ने उस से पूछा, ‘‘बेटी सचसच बताओ, क्या मैं अच्छी मां नहीं हूं? मु?ा से कहां चूक हो गई कि रोहित आज मुझ से घृणा करने लगा है?’’

तब रिया ने कहा, ‘‘मां अपने आप को दोषी समझना बंद करो. आप ने कोई गलती नहीं की है.’’

जिस रिया को मैं ऊंचनीच समझाया करती थी वह मुझे समझने लगी, ‘‘मां, आप चिंता न करो. अभी रोहित बहक गया है. जिस दिन उस की अक्ल ठिकाने आएगी, उसे अपने कहे पर पछतावा होगा. जब आप ने कुछ गलत किया ही नहीं है, तो दुखी क्यों होती हो?’’

मुझे दुखी देख कर रिया ने रोहित से संपर्क साधने की कोशिश की. 1-2 बार उस ने रिया के फोन का जवाब भी दिया. पर जब भी रोहित उस से हमारे खिलाफ कुछ कहता, रिया के लिए वह बरदाश्त से बाहर हो जाता. दोनों की बातों का अंत झगड़े के रूप में होता रोहित के इस बरताव से मुझे बेहद दुख पहुंचा था. जब तब उस के बारे में सोचसोच कर मेरी आंखें भर आती थीं.

एक दिन मैं ने रवि से पूछा, ‘‘मैं हमेशा बकबक करती रहती हूं. आप पर इन सब बातों का असर नहीं होता?’’

तब रवि ने कहा, ‘‘रोहित के बरताव से दुख मुझे भी हुआ है. बच्चों के प्रति मैं ने अपना फर्ज ठीक तरह से पूरा किया है. इस के बावजूद रोहित मुझे गलत समझता है, तो ऐसा ही सही, मैं क्यों सोचसोच कर परेशान होऊं?’’

कहां तो मैं बच्चों की मुसीबत में पाल बन कर खड़ी रहती थी और आज कितनी असहाय और कमजोर पड़ गई हूं.

एक साल बीत गया रोहित का कोई फोन नहीं आया. एक रिया ही थी जो मेरा दुख सम?ाती थी. एक दिन रिया ने मुझे उदास देख कर चुटकी ली, ‘‘मां, भैया के इस बरताव का सब से ज्यादा फायदा किसे हुआ है जानती हो? मुझे हुआ है. तुम मेरे पास हो वरना 6 महीने तो तुम बेटे के पास ही रहतीं.’’

रक्षाबंधन का त्योहार आने वाला था. इसी बहाने रिया ने सोचा भैया को राखी भेज कर उस से संबंध सुधारने की कोशिश करेगी. रिया ने 1 महीने पहले ही राखी खरीद ली ताकि समय पर उसे मिल सके. रिया ने रोहित को फोन किया तो उसी कठोरता से रोहित ने पूछा, ‘‘क्या है? क्यों फोन किया?’’

फायदे का नुकसान : घर में हुई चोरी

रातके 2 बज रहे थे. शेखर के घर के आगे कुछ लोग इकट्ठा थे. पुलिस की 2 जीपें भी खड़ी थीं. 6-7 पुलिस वाले शेखर व उस की पत्नी स्मिता से घर के अंदर बातचीत कर रहे थे.

करीब 1 घंटा पहले उन की रसोई की दीवार तोड़ कर चोर घर में घुस आया था. स्टडीरूम से शेखर का मोबाइल, पर्स व घड़ी उठाने के बाद वह बैडरूम में आया जहां स्मिता अकेली सो रही थी. चोर ने जैसे ही उस के गले से सोने की चेन खींची वह जाग गई और जोरजोर से चिल्लाने लगी.

स्मिता का शोर सुन कर शेखर, जो उस रात मैच देखतेदेखते ड्राइंगरूम में ही सो गया था, बदहवास सा दौड़ादौड़ा आया और फिर तुरंत बैडरूम की लाइट जलाई. देखा, स्मिता डर के मारे कांप रही थी.

‘‘क्या हुआ?’’ शेखर ने पूछा तो उस के स्वर में घबराहट थी.

‘‘हम…हम… हमारे घर में कोई घुस आया है,’’ बड़ी मुश्किल से स्मिता के मुंह से निकला.

‘‘मतलब चोर?’’ शेखर घबराते हुए बोला.

‘‘हां शायद,’’ कह स्मिता ने अपने गले पर हाथ फेरा.

‘‘हाय, मेरी चेन ले गया चोर,’’ कह कर स्मिता रोने लगी.

‘‘बिस्तर झड़ कर देखो,’’ शेखर बोला.

‘‘यहां कहीं नहीं है,’’ स्मिता ने बिस्तर झड़ते हुए कहा.

‘‘मैं जा कर अशोकजी को जगाऊं क्या?’’ शेखर ने सकुचाते हुए पूछा.

‘‘हांहां, जल्दी जाओ,’’ कह कर स्मिता भी बाहर आ गई.

शेखर सामने अशोकजी को जगाने गया तो स्मिता भी बराबर वाले राजेंद्र अंकल को बुलाने दौड़ी.

दोनों घरों की लाइटें जलीं और सारे सदस्य बाहर आ गए. फिर सब

लोग स्मिता के घर पहुंचे व सारी घटना को सुना.

‘‘चलो, किचन की तरफ चलते हैं, वहीं से तो आया था चोर,’’ राजेंद्र अंकल बोले तो सभी उन के पीछे हो लिए

संयोग से स्मिता की चेन रसोई में ही पड़ी मिल गई. शायद जल्दबाजी में चोर के हाथ से छूट गई होगी.

‘‘अरे भाभीजी, शायद चोर को आप की चेन पसंद नहीं आई,’’ अशोकजी के बेटे निखिल ने चेन उठाते हुए कहा.

चेन पा कर स्मिता की जान में जान आई

‘‘कमबख्त ने कितना बड़ा छेद कर डाला है. दीवार में,’’ राजेंद्र अंकल की पत्नी ने चोर

को कोसा.

‘‘अरे, यह क्या है?’’ कह कर राजेंद्र

अंकल ने पौकेट से चश्मा निकाल कर पहना. चश्मा पहनते ही वे चौंक कर बोले, ‘‘अरे, यह

तो चाकू है?’’

‘‘स्मिता, तुम्हारे पास चोर चाकू ले कर आया था. गनीमत सम?ो जो बच गईं,’’ कह कर राजेंद्र अंकल की पत्नी ने और डरा दिया.

‘‘निखिल, पुलिस को फोन करो,’’ अशोकजी परेशान से बोले.

आधे घंटे में पुलिस भी वहां पहुंच गई.

इसी बीच राजेंद्र अंकल ने शेखर के दोनों बड़े भाइयों के टैलीफोन नंबर पूछ कर उन्हें भी

सूचित कर दिया. वे भी आधी रात को वहां

आ पहुंचे.

मझले भैया के साथ उन का 5 वर्षीय बेटा मोंटू भी आया था.

‘‘चाची, मुझे वह वाला बिस्कुट दोगी?’’ उस ने अलमारी में रखे डब्बे की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘हां, जितने चाहे ले लो,’’ स्मिता ने डब्बा ही मोंटू के हाथ में थमा दिया.

अब तक बड़े भैया भी अपने बेटे मनीष के साथ आ पहुंचे थे. सभी एक ही शहर में थोड़ीथोड़ी दूरी पर रहते थे. शेखर से लड़ाई कर के घर से अलग हो जाने के कारण सभी ने उस से रिश्ता तोड़ लिया था. रिश्ता निभाने की जहमत कभी शेखर ने नहीं उठाई थी. इसलिए तो पहले वाला किराए का मकान छोड़ कर जब वे लोग इस नई कालोनी में आए तो यहां भी शेखर ने किसी से ज्यादा जानपहचान नहीं बढ़ाई.

स्मिता के मिलनसार स्वभाव के कारण राजेंद्रजी व अशोकजी दोनों के परिवार उस से हिलमिल गए थे.

राजेंद्रजी बड़ी बहू वसंती भाभी, जो स्मिता के ठीक पीछे वाले मकान में अलग रह रही थीं को पुलिस के जाने के बाद करीब 3 बजे चोरी का पता चला.

‘‘यह कैसे हो गया स्मिता?’’ पहली बार उन के घर आई वसंती भाभी ने दुख प्रकट किया.

‘‘क्या कहूं भाभी, जब समय खराब होता है तो ऐसी घटनाएं होती रहती हैं,’’ और फिर स्मिता ने उन्हें पूरी घटना से अवगत कराया.

सभी ने रात 3 बजे चाय पीते हुए एकसाथ सहानुभूति जताई. मोंटू अब तक बिस्कुट के

2 पैकेट खाली कर चुका था.

रोशनी और नेहा कहां हैं?’’ बड़े भैया ने स्मिता से पूछा.

‘‘3 दिनों से नानी के पास हैं. छुट्टियां चल रही हैं न,’’ स्मिता ने कहा.

‘‘पर तुम दोनों अलगअलग कमरे में सोए ही क्यों? एकसाथ सोते तो शायद चोर स्मिता के पास आने की हिम्मत नहीं करता,’’ काफी देर से उधेड़बुन में लगीं वसंती भाभी ने आखिर पूछ ही लिया.

‘‘चुप रहो,’’ पास बैठे उन के पति ने गुस्से में उन का हाथ दबाया.

बाकी लोगों के चेहरों पर उस तनाव के माहौल में भी मुसकान देख वसंती भाभी ने अपने शब्दों पर गौर किया तो वे भी झोप गईं और स्मिता भी.

‘‘चाची टौयलेट जाना है,’’ मोंटू दोनों पैरों को आपस में जोड़े हुए बोला तो स्मिता उसे ले कर कमरे से बाहर आ गई.

अब तक 4 बज चुके थे. अशोक अंकल का परिवार

विदा ले चुका था. थोड़ी देर बाद

राजेंद्रजी का परिवार भी सुबह मिलते हैं कह कर चला गया.

‘‘पुलिस वालों को कुछ खिलानापिलाना पड़ेगा तभी वे कोशिश करेंगे,’’ सब के जाने के बाद बड़े भैया स्मिता से बोले.

म?ाले भैया ने भी इस में अपनी सहमति जताई. शेखर वहीं बैठा सब कुछ चुपचाप सुन रहा था. उसे बातचीत शुरू करने में थोड़ी ?ोंप महसूस हो रही थी. आखिर 2 साल बाद पहली बार दोनों बड़े भाई उन के घर आए थे. और वे भी इस तरह आधी रात को.

मुझे भैया भी अपने नए मकान में कुछ समय पहले ही मां की अनुमति से अलग रहने गए थे. मां बड़े भैया के साथ थीं.

लगभग 4.30 बजे तक वे भी चले गए.

शेखर को रसोई में ही चटाई बिछा कर सोना पड़ा, क्योंकि दीवार में बना छेद उन के अंदर डर पैदा कर गया था.

स्मिता कमरे में सोने चली गई. सुबह करीब 7 बजे कालबैल की आवाज से दोनों चौंक कर उठे. शेखर ने देखा कि दीवार के छेद से वसंती भाभी का 4 साल का बेटा दीपू अंदर आने की कोशिश कर रहा था.

‘‘कौन है वहां?’’ आंखें मलते हुए रसोई के दूसरे कोने में लेटे शेखर ने पूछा.

‘‘अंकल मैं हूं. मम्मी काफी देर से चाय लिए आप के दरवाजे की घंटी बजा रही हैं. उन्होंने ही मु?ो इस चोर वाले छेद से अंदर आ कर आप लोगों को जगाने को कहा,’’ दीपू मासूमियत से बोला.

यह सब सुन कर शेखर मुसकरा दिया. तब तक वसंती भाभी भी चाय की केतली ले कर स्मिता के संग रसोई में आ गईं.

‘‘लो भाई साहब चाय पी

लो. मैं ने सोचा आप दोनों काफी थके हुए होंगे, इसलिए मैं ही चाय बना लाई.’’

मौर्निंग वाक पर आ जा रहे कालोनी के दूसरे लोगों को चोरी की जानकारी देने का जिम्मा दीपू को सौंप कर वसंती भाभी फिर से उन के दुख में शामिल हो गई.

थोड़ी ही देर में बहुत से अनजान चेहरे उन के ड्राइंगरूम में मेहमान बने बैठे थे. सभी पहले उस दीवार में बने छेद को देखते, फिर ड्राइंगरूम में आ कर अपने दुख और विचारों का आदानप्रदान करते.

‘‘बताओ चोर काफी देर से दीवार तोड़ता रहा और आप लोगों को पता भी न चला,’’ कालोनी के सैके्रटरी नीरज ने आश्चर्यचकित हो कर कहा.

‘‘पुलिस वाले क्या कर लेंगे. सब उन की सहमति से ही तो होता है,’’ प्रोफैसर जानकीदास ने अपना गुस्सा पुलिस पर निकाला.

इसी बीच वसंती भाभी,

जो अकेले ही स्मिता की रसोई संभाल रही थीं सभी के लिए चाय बना लाईं.

सुबह की चाय थी अत:

सभी ने चाय का आनंद उठाते हुए चोर को और कोसा व शेखर को धीरज बंधाया.

शेखर व स्मिता इन 6-7 महीनों में इनलोगों से पहली बार मिल रहे थे. शेखर के एकांतप्रिय स्वभाव ने स्मिता की मिलनसारिता पर भी बंदिशें लगा दी थीं.चाय की चुसकियों के बीच ही सभी का परिचय हुआ. ‘‘मुझे चिंता इस बात की है कि पर्स में मेरा एटीएम कार्ड व ड्राइविंग लाइसैंस भी था,’’

थोड़ी देर बाद शेखर ने चिंतित स्वर में कहा.

‘‘कोई बात नहीं, दोबारा लाइसैंस तो मैं तुम्हारा बनवा दूंगा,’’ राजेशजी मेज पर चाय का कप रखते हुए बोले.

यह सुन नीता भला कैसे चुप रहतीं. वे तुरंत बोलीं, ‘‘शेखर, मैं

9 बजे तक बैंक के लिए निकलूंगी. तुम चाहो तो मेरे साथ बैंक चल पड़ना. मैं तुम्हारा पुराना एटीएम कार्ड कैंसिल करवा कर नया बनाने का इंतजाम कर दूंगी.’’

‘‘जी शुक्रिया, मैं सोमवार को ही बैंक जाऊंगा,’’ शेखर बोला.

भीड़ छंटने का नाम ही नहीं ले रही थी. औफिस जाने वाले सज्जन जल्दी अपनी हाजिरी लगा रहे थे इस वादे के साथ कि शाम को मिलेंगे.

स्कूलों की छुट्टी थी, इसलिए दीपू भी एक अच्छे पड़ोसी का फर्ज निभाते हुए सभी को चोरी की खबर सुना रहा था.

इसी बीच वसंती भाभी की नेक सलाह पर शेखर और स्मिता मौका मिलने पर नहाधो लिए.

करीब 9 बजे उस लाइन के आखिरी मकान में रहने वाली सुधा टीचर दोनों के लिए नाश्ता ले आईं.

‘‘सुबह से लोगों का आनाजाना लगा है. ऐसे में कहां समय है नाश्ता बनाने का. इसलिए मैं ही कचौरियां ले आई. सोचा तुम लोगों से परिचय भी हो जाएगा,’’ प्लेट में कचौरियां व चटनी सजाते हुए सुधा बोले जा रही थीं. उन्होंने सारांश में अपने जीवन के एकाकीपन का वर्णन करते हुए स्मिता को 2-3 व्यंजन बनाने की विधियां भी बता डालीं.

बहती गंगा में हाथ धोने में निपुण वसंती भाभी ने न जाने कब 4 कचौरियां पीछे की दीवार से पति को पार्सल कर दीं व दीपू को भी वहीं नाश्ता करा दिया. बेचारा आखिर सुबह से गेट पर खड़ा अपना फर्ज जो निभा रहा था.

‘‘अरे निखिल बुरा न मानो तो 6 पैकेट दूध ले आओ? शायद और चाय बनानी पड़ जाए,’’ सकुचाते हुए शेखर ने निखिल से कहा तो निखिल ने मुसकरा कर सिर हां में हिला दिया.

10.30 बजे तक 2 कारों में शेखर की रूठी मां, दोनों भाई, भाभियां व उन के बच्चे पहुंच गए. शेखर उस समय बाहर ही खड़ा था.

अब गेट पर ही खड़ा रखेगा या अंदर भी बुलाएगा?’’ मां ने जोर से कहा तो शेखर जैसे नींद से जागा. सभी को एकसाथ देख कर वह हक्काबक्का रह गया था.

‘‘अरे मां, शीतल भाभी, उमा भाभी अंदर आइए न,’’ आवाज सुन स्मिता अंदर से निकल कर गेट की ओर भागी.

ड्राइंगरूम में जगह नहीं थी, इसलिए

स्मिता ने पड़ोसियों से परिचय कराने के बाद उन सभी को बैडरूम में ले आई.

शेखर मां के पास ही बैठा था. आखिर 2 साल बाद मांबेटे का मिलन हो रहा था. मां से रहा न गया, तो वे बेटे से लिपट कर रो पड़ीं. भाभियों की आंखें भी नम हो गई थीं.

अब दीपू का साथ देने मोंटू भी पहुंच गया. एक से भले दो. दोनों नमकमिर्च लगा कर खबर फैला रहे थे.

थोड़ी देर में वसंती भाभी सब के लिए चाय ले आईं.

‘‘मम्मीजी, आप लोगों ने नाश्ता किया?’’ स्मिता ने उन के पास बैठते हुए पूछा.

‘‘हम सब ने कर लिया, तुम दोनों के लिए भी लाए हैं. शेखर की पसंद के आलू के परांठे व

नीबू का अचार,’’ शीतल भाभी ने डब्बा खोल कर शेखर को पकड़ाते हुए कहा.

शेखर ने भी फटाफट 2 परांठे खा लिए. गेट तक पहुंची अचार की महक ने दीपू व मोंटू को थोड़ी देर के लिए अपने फर्ज से मुंह मोड़ने पर मजबूर कर दिया.

करीब 11 बजे तक उस कालोनी की वाचाल महिला मंडली भी अपने सारे काम निबटा कर वहां शोक व्यक्त करने पहुंच गई.

फिर से चायनाश्ते का दौर शुरू हुआ. इस बार वसंती भाभी का साथ देने उमा भाभी भी पहुंच गईं.

महिलाएं कुछ ज्यादा ही उत्साह में थीं. राखी ने तो मौका देख कर रीना की बेटी के लिए 2-3 रिश्ते भी बता डाले. सुधा टीचर का विमला के साथ 4 दिन बाद दांतों के डाक्टर के पास जाना फिक्स हो गया. कई व्यंजनों की रैसिपीज का आदानप्रदान हुआ. कई सीरियलों की नायिकाएं दया की पात्र बनीं.

दरअसल, काफी समय बाद सभी इतनी फुरसत से एक जगह मिले थे, इसलिए सभी समय का पूरापूरा लाभ उठाना चाह रहे थे.

बीचबीच में शेखर व स्मिता उन के बीच बैठ कर उन्हें यह याद दिलाते कि वे सभी यहां चोरी का दुख प्रकट करने आए हैं. पर सब व्यर्थ था.

करीब 1 बजे तक दोनों भाई भी सब कुछ भूल कर शेखर से पहले की तरह

घुलमिल गए. यह नजारा स्मिता को अंदर तक खुशी दे गया. उस ने तो हमेशा से सभी का साथ चाहा था, परंतु पति के अक्खड़ स्वभाव के आगे उस की एक न चलती.

महिला मंडली को विदा कर सभी ने खाना खाया. राजेंद्रजी की पत्नी लौकी के कोफ्ते दे गईं तो अशोकजी की पत्नी भरवां भिंडी बना लाईं. सभी ने एकसाथ खाना खाया. पूरा घर किसी शादी के माहौल से कम नहीं लग रहा था.

हां, इस में वसंती भाभी व दीपू का पूरापूरा योगदान रहा. दोपहर को औफिस से लंच करने आए अपने पति को भी वसंती भाभी ने वहीं बुला लिया.

शाम 4 बजे तक दूसरे शहर से स्मिता के मम्मीपापा भी आ पहुंचे. रोशनी व नेहा दादी, ताऊजी, ताईजी व बच्चों को देख कर बहुत खुश हुईं.

बड़ेबुजुर्ग जहां एक ओर राजनीति व खेल पर चर्चा कर रहे थे वहीं बच्चे चोर द्वारा किए छेद के आरपार खेल कर मजा ले रहे थे.

औफिस से लौटने के बाद फिर से लोगों का आनाजाना शुरू हो गया. अब तक शेखर व स्मिता भी ये भूल गए थे कि कल रात उन के घर चोरी हुई थी. दोनों लोगों की आवभगत में बिजी हो गए थे.

शाम को फोन की घंटी की आवाज सुन

बड़े भैया ने रिसीवर उठाया. थाने से इंस्पैक्टर का फोन था थोड़ी देर बातचीत हुई. फिर भैया बैडरूम में आए. जहां वसंती भाभी व घर के सारे सदस्य बैठे थे.

शेखर से बोले, ‘‘थाने से इंस्पैक्टर साहब कह रहे हैं कि तुम व स्मिता थाने जा कर एफआईआर दर्ज कराओ. तभी वे आगे कुछ

कर पाएंगे.’’

‘‘हमें कोई एफआईआर दर्ज नहीं करानी है, भैया. आप ही उन से फोन पर कह दीजिए,’’ स्मिता के चेहरे पर मुसकान थी.

सभी उसे आश्चर्यचकित नजरों से घूरने लगे.

‘‘आप सभी मुझे यों न देखें. वह चोर यहां से 2-3 चीजें ही तो चुरा कर भागा है न… किसी को शारीरिक रूप से कोई नुकसान भी नहीं पहुंचाया. परंतु उस महान व्यक्ति के कारण

2 सालों से बिछड़ी मेरी ससुराल मुझे वापस मिल गई. यहां 6-7 महीनों से अजनबियों की तरह रह रहे कालोनी वालों का स्नेह और अपनापन मिल गया. मेरे खयाल से चोरी एक फायदे का सौदा रहा. वह चोर जहां भी रहे सलामत रहे,’’ स्मिता ने कहा तो सभी को मिलीजुली मुसकान ने वातावरण को हलका कर दिया.

घर में चोर : क्या पकड़ा गया चोर?

एकबार यों हुआ कि हमारे पासपड़ोस में धड़ाधड़ चोरियां होने लगीं. चोरियां किसी योजनाबद्ध ढंग से होतीं तो किसी को ताज्जुबन होता. किंतु चोर इतने बौखलाए हुए थे कि एक दिन जिस घर में चोरी कर जाते तीसरे दिन फिर उसी घर में सेंध लगाने पहुंच जाते. परिणामस्वरूप वहां उन्हें उसी माल से साबिका पड़ता जिसे 2 दिन पहले वे रद्दी सम?ा कर छोड़ गए थे. उदाहरण के लिए दीवाने गालिब, गीतांजलि आदि.

अत: हमारे महल्ले के एक महानुभाव ने एहतियात के तौर पर अपने मकान के बाहर गत्ते पर यह लिख कर लटका दिया, ‘इस घर

में एक बार पहले चोरी हो चुकी है. कृपया अब कोई और घर देखें. सितारों से आगे जहान और भी है.’

मैं ने उन महानुभाव से पूछा, ‘‘आप ने हिंदी और अंगरेजी में लिखा, उर्दू में क्यों नहीं लिखा?’’

वे बोले, ‘‘अजी, वह शेरोशायरी की भाषा है, चोरों के पल्ले क्या खाक पड़ती? जो

भी हो, चोरों ने चोरी की भी डैमोके्रसी समझो कर जब उस का बिना खटके प्रयोग शुरू कर दिया तो मेरी एकमात्र अद्वितीय बीवी ने माथे पर दोहत्थड़ मार कर कहा, ‘‘हाय, इस घर में आ कर तो मेरे भाग्य फूट गए.’’

मैं ने कहा, ‘‘जनाब, यह तो बीवियों का शताब्दियों पुराना वाक्य है. नई कविता के लहजे में ताकि उसे बिना समझे दाद दी जा सके और सम?ाने का कार्य आने वाली शताब्दियों पर छोड़ा जा सके.’’

वह बोली, ‘‘मैं ने आप से शादी की है और आप मुझो से मजाक कर रहे हैं.

मैं ने उत्तर दिया, ‘‘मजाक बिलकुल आगे नहीं. शादी तो मजाक की कब्र है. अब फरमाइए?’’

‘‘फरमाऊं क्या खाक? हर घर चोरियां हो रही हैं. मगर हमारे भाग्य निगोड़ा एक चोर भी नहीं.’’

मेरे जी में आया कह दूं, ‘डार्लिंग, तुम जो इस घर में हो, फिर चोर की क्या जरूरत है?’ सूचनार्थ निवेदन है कि मेरी जेब की रेजगारी प्राय: मेरी बीवी के खाते में चली जाती है, क्योंकि शादी के समय पवित्र अग्नि के फेरे लेते हुए हम दोनों ने शपथ ली थी कि हम एकदूसरे के सुखदुख में हिस्सा बंटाते रहेंगे.

इस शपथ का हम दोनों बराबर निर्वाह कर रहे हैं. फर्क इतना है कि वह दुख देती रहती है और सुख देने की ड्यूटी मेरे जिम्मे लगा रखी है.

मगर मैं घर के इस चोर साथी की बात जबान पर नहीं ला सका, क्योंकि अनुभव से सीखा था कि गृहस्थ जीवन एक शतरंज है. एक ऐसी शतरंज जिस में मात हमेशा पति की होती है. अत: मैं ने बीवी से कहा, ‘‘प्रिय, चोर का प्रबंध करना मेरे लिए बाएं हाथ का खेल है. मैं समाज का बड़ा प्रभावशाली व्यक्ति हूं. अभी पुलिस थाने में टैलीफोन कर दूं तो आधा घंटे में एक छोड़ दर्जन चोर पहुंच जाएंगे. वहां चोरों का बहुत बड़ा स्टौक रहता है.

मेरी यह वीरतापूर्ण घोषणा सुन कर मेरी बीवी 25 वर्ष बाद फिर मुझ पर फिदा हो गई. उस का एक बोसा मु?ा पर अंगड़ाई सी लेता हुआ मालूम हुआ. मगर मैं ने यह कह कर उसे टाल दिया कि पहले चोर आ जाए, बोसा उस के बाद सही और वैसे भी उस के बाद हमारे पास बोसे के सिवा और कौन सी चीज बाकी रह जाएगी.

फिर मैं ने सोचा कि थाने को फोन करने के बाद अगर चोर सचमुच आ गया तो हमारे घर में है ही क्या जो ले जाएगा. पिछले दिनों एक शायर के घर में चोर घुस आया था. उसे वहां से न तसवीरे बुतां मिली, न हसीनों के खुतूत, जिन की बिना पर वह शायर को ब्लैकमेल कर सकता. सुबह खाली हाथ लौटने पर उस ने मुंह से ?ाग वगैरह बहाए और उस की शायरी पर कठोर आलोचना लिख कर चला गया. आश्चर्य है कि उचित सीमा से अधिक पढ़ेलिखे लोग चोर क्यों बन जाते हैं? आलोचक क्यों नहीं बनते?

सहसा याद आया कि पड़ोस में हिंदी के एक कवि के घर चोरी हुई थी. चोर को भ्रम यह था कि आजकल हिंदी में प्रशंसा कम और पैसे अधिक मिलते हैं. उर्दू शायर की तरह नहीं जो गजल सुनाने के बाद जब पैसों की मांग करता है तो संयोजक कहते हैं, ‘‘मुकर्रर, मुकर्रर’’

शायर कहता है, ‘‘पैसे, पैसे.’’

जवाब मिलता है, ‘‘मुकर्रर, मुकर्रर.’’

मतलब यह कि उर्दू शायर को पैसा नहीं मिलता, मुकर्रर मिलता है और चोर इतिहास की सचाई से अच्छी तरह परिचित थे. किसी चोर ने मेरे घर का रुख नहीं किया, क्योंकि मैं भी एक जमाने में शायरी करता था. छोड़ इसलिए दी थी कि वह किसी की समझ में नहीं आती थी. यहां तक कि धीरेधीरे मेरी सम?ा में भी आनी बंद हो गई थी.

अत: मैं ने थाने में टैलीफोन करने से पहले उस हिंदी कवि को टैलीफोन किया और पूछा, ‘‘प्रशांतजी, सुना है आप के निवासस्थान पर चोर पधारा था.’’

वह गर्व से बोले, ‘‘हां, पधारा तो था.’’

मैं ने कहा, ‘‘बड़े खुशकिस्मत हो, यार. इधर हम हैं कि आंखें बिछाए बैठे हैं, लेकिन उन की नजर में चढ़ते ही नहीं. उर्दू में लिखते हैं न. हम पर न समाज की कृपा है न चोर की. मेरी बीवी तो इस गम में सुहाग की चूडि़यां तक तोड़ने पर उतारू है. आप के यहां जो चोर आया था, वह कैसा था?’’

वे बोले, ‘‘बहुत बढि़या. एकदम शानदार.’’

‘‘उस का अतापता बता सकते हो?’’ प्रशांतजी ने बताया, ‘‘मेरी तो उस से नमस्तेवमस्ते भी नहीं हुई, क्योंकि मैं कवि सम्मेलन में गया हुआ था और मेरी बीवी भी वहां वाहवाह करने के लिए पहुंची हुई थी. बच्चे स्कूल गए हुए थे.’’

मैं ने पूछा, ‘‘स्कूल, क्या चोर अब आधुनिक हो गए हैं. रात को सेंध नहीं लगाते, दिनदहाड़े आते हैं. मूल्यवान सूट पहन कर आते हैं. ताला तोड़ते नहीं, बाकायदा चाबी लगा कर खोलते

हैं. इस से चोर मालूम ही नहीं होते, रिश्तेदार मालूम होते हैं और फिर सामान उठा कर यों ले जाते हैं, जैसे चोरी न कर के मकान बदल कर जा रहे हों.’’

फिर मैं ने पूछा, ‘‘तो आप का कौन सा सामान शिफ्ट कर के ले गए?’’

‘‘मेरे सभी नए कपड़े ले गए. फटेपुराने कपड़े छोड़ गए.’’

‘‘कपड़ों के अतिरिक्त और कौन सी फटीपुरानी चीज छोड़ गए?’’

‘‘मेरी बीवी.’’

यह कह कर हिंदी कवि तो हंस दिए, मैं रो दिया. अगर चोरों ने मेरे घर आ कर भी

यही तरीका अपनाया तो… मगर फिर यह सोच कर कुछ आशा बंधी कि हिंदी कवि की बीवी तो दाद देने चली गई थी, मगर मेरी बीवी तो हमेशा घर में रहती है. इसीलिए एहतियात के तौर पर मैं ने चोरों की इस नीति का जिक्र बीवी से नहीं किया और तुरंत पुलिस चौकी का फोन नंबर मिलाने लगा. फोन एगेज निकला. चोरों की ज्यादा मांग और ज्यादा सप्लाई के कारण थाने का टैलीफोन प्राय: ऐंगेज रहने लगा है. इतने में अचानक तड़ाक से एक आवाज आई. आवाज में दहशत थी. फिर क्या देखता हूं कि एक साहब मेरे ड्राइंगरूम के रोशनदान से कूद कर फर्श पर प्रकट हुए और कड़क कर बोले, ‘‘हाथ ऊपर उठाओ.’’

मैं ने पूछा, ‘‘श्रीमान का शुभ नाम?’’

वह बोला, ‘‘मैं चोर हूं.’’

मैं ने चैन की सांस ली और कहा, ‘‘चोर हो? बड़ी देर की मेहरबां आतेआते… मेरी बीवी तो आप को बहुत याद कर रही थी.’’

वह कमीना जैसे राल टपकाते हुए

बोला, ‘‘क्यों?’’

मैं ने कहा, ‘‘निवेदन यह है कि पड़ोसी के घर में फ्रिज आ जाए तो बीवियां ईर्ष्या के

मारे जल उठती हैं. इसी तरह पासपड़ोस में चोर आने लगे तो भी जल उठती हैं कि हमारे भाग्य में एक चोर भी नहीं. अत: श्रीमान, आप हमारे लिए चोर नहीं फ्रिज हैं.’’

वह जलभुन कर बोला, ‘‘चुप रहो और दोनों हाथ ऊपर उठाओ.’’

मैं उस से कुछ कहना चाहता था लेकिन इस डर से कि कहीं बुरा न मान जाए मैं खामोश रहा. बड़ी मुश्किल से तो एक चोर घर आया था उसे भी नाराज कर दूं. मैं ने तुरंत ही एक मनोरंजक बात छेड़ दी. ‘‘जनाब चोर, आप रोशनदान तोड़ कर अंदर क्यों दाखिल हुए? सामने दरवाजे से पधारते तो अपने संबंधी लगते?’’

वह गरदन फुला कर बोला, ‘‘हम चोर हैं. सीधे रास्ते से आना अपना अपमान सम?ाते हैं.’’

मैं ने प्रशंसा में ताली बजाई, ‘मुकर्रर’ तक मुंह से निकल गया. बीवी को, जो चोर के आते ही मेरी पीठ में शरण ले चुकी थी, मैं ने बधाई दी, ‘‘तुम्हारी मनोकामना पूरी हुई. थानेदार का एहसान भी नहीं उठाना पड़ा. चोर खुद पधार गया है. इसे नमस्कार करो.’’

मगर बीवी कांप रही थी. चोर दहाड़ा, ‘‘यह क्या तुम ने ताली और मुकर्रर मुकर्रर लगा रखी है? और यह औरत कौन है?’’

मैं ने कहा, ‘‘यह एक शरणार्थी है.’’

वह गरजा, ‘‘मजाक बंद करो. मैं पूछता हूं, तुम इस के कौन हो?’’

‘‘मैं शरणार्थी शिविर का रखवाला हूं.’’

चोर में सैंस औफ ह्यूमर होती तो मेरे वाक्य की प्रशंसा करता मगर वह आलोचकोंकी सी आंखें निकाल कर बोला, ‘‘मेरा समय नष्ट मत करो. मुझो अभी 3 और घरों में चोरियां करनी हैं. अलमारी की चाबियां निकालो.’’

‘‘मैं आप के साथ चलूंगा और मार्गदर्शन करूंगा.’’

बीवी ने मेरे कान में कहा, ‘‘आप क्यों इस के साथ जा कर अपनी जान खतरे में डालते हैं? इसे अथार्टी लैटर दे दीजिए, खुद चला जाएगा.’’

मु?ो जीवन में पहली बार मालूम हुआ कि बीवी मुझो अलमारी से ज्यादा कीमती समझाती है.

मगर चोर को जैसे शक होने लगा कि हम इधरउधर की बातें कर के उसे टरका रहे हैं. अत: इस बार उस ने चाकू की नोक मेरी बीवी की गरदन पर रख दी और बोला, ‘‘अपना यह सोने का हार अपनेआप उतार कर मेरे हवाले करती हो या मैं खुद ही छीन लूं?’’

भारतीय नारियां गैर मर्दों से सीधे बात करना सभ्यता के विरुद्ध समझती हैं. अत: बीवी मुझो संबोधित करते हुए बोली, ‘‘इसे कह दीजिए कि यह नकली हार है, असली हार तो 7 दिन पहले सड़क पर एक ने छीन लिया था.’’

मगर मालूम होता था कि सभ्यता के विषय में चोर का ज्ञान मेरी बीवी से अधिक विस्तृत था. बोला, ‘‘तुम्हारा सोने के गहनों का डब्बा तो होगा. वह कहां रखा है?’’

चोर जानता था कि हर भारतीय नारी के पास गहनों का डब्बा अवश्य होता है. भारतीय संस्कृति का विद्वान होने के नाते चोर ने चाकू की नोक बीवी की गरदन पर अधिक जोर से दबाई तो पूरी भारतीय संस्कृति बाहर आ गई. बीवी कहने लगी, ‘‘डब्बा बैंक लौकर में है और यह है बैंक की रसीद और चाबी.’’

अब चोर कुछ अधिक तिलमिला उठा. उस ने हम दोनों को जबरदस्त धक्का दे कर फर्श पर गिरा दिया, कुछ इस कोण से कि हम दोनों जैसे गलबहियां से हो गए. गलबहियों का यह आनंद हमें सिर्फ हनीमून में आया था. चोर अब घर की वस्तुएं उलटपलट करने में व्यस्त हो गया. उसे बीवी के पर्स से दोढाई रुपए की रेजगारी मिली, जो मेरी पतलून से पर्स में और पर्स से चोर की मुट्ठी में जा पहुंची थी. कुछ फटेपुराने मैले वस्त्र मिले, जो हम ने बाढ़ पीडि़त लोगों को भेजने के लिए रख छोड़े थे. भेज इसलिए नहीं सके थे क्योंकि इस बीच कपड़ा बेचने वालों ने कपड़ों के मूल्य ढाई गुना बढ़ा दिए थे और हम नहीं चाहते थे कि एक पीडि़त परिवार दूसरे पीडि़त परिवार की सहायता करे. चोर ने मेरी अलमारी की कुछ पुस्तकें फर्श पर बिखेर दी थीं. उठा कर इसलिए नहीं ले गया, क्योंकि मार्केट में साहित्यिक रद्दी का भाव काफी गिर गया था और इस साहित्यिक धरोहर से एक खरबूजा तक नहीं खरीदा जा सकता था.

जब उसे काम की कोई भी वस्तु नहीं मिली तो वापस जाते हुए उस ने गुस्से में दरवाजा इस तरह जोर से बंद किया कि दरवाजे का एक छोटा शीशा टूट गया. बीवी कानाफूसी करते हुए बोली, ‘‘कमबख्त ख्वाहमख्वाह हमारा शीशा भी तोड़ गया. अब नया शीशा लगवाने के लिए पैसे कहां से लाएंगे?’’

चोर ने शायद सुन लिया और दरवाजे से झांक कर वही ढाई रुपए की रेजगारी मेरी बीवी के मुंह पर दे मारी और बोली, ‘‘भूखेनंगो, यह लो मेरी तरफ से नया शीश लगवा लेना.’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें