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लेखक- माधव जोशी

मैं ने मांजी से यह भी मालूम कर लिया कि पिताजी की मुंबई में ही प्लास्टिक के डब्बे बनाने की फैक्टरी है. अब मैं ने उन से मिलने की ठानी. इस के लिए मैं ने टैलीफोन डायरैक्ट्री में जितने भी उमाकांत नाम से फोन नंबर थे, सभी लिख लिए. अपनी एक सहेली के घर से सभी नंबर मिलामिला कर देखने लगी. आखिरकार मुझे पिताजी का पता मालूम हो ही गया. दूसरे रोज मैं उन से मिलने उन के बंगले पर गई. मुझे उन से मिल कर बहुत अच्छा लगा. लेकिन यह देख कर दुख भी हुआ कि इतने ऐशोआराम के साधन होते हुए भी वे नितांत अकेले हैं. उस के बाद मैं जबतब पिताजी से मिलने चली जाती, घंटों उन से बातें करती. मुझ से बात कर के वे खुद को हलका महसूस करते क्योंकि मैं उन के एकाकी जीवन की नीरसता को कुछ पलों के लिए दूर कर देती. पिताजी मुझे बहुत भोले व भले लगते. उन के चेहरे पर मासूमियत व दर्द था तो आंखों में सूनापन व चिरप्रतीक्षा. वे मां व जयंत के बारे में छोटी से छोटी बात जानना चाहते थे. मैं मानती थी कि पिताजी ने बहुत बड़ी भूल की है और उस भूल की सजा निर्दोष मां व जयंत भुगत रहे हैं. पर अब मुझे लगने लगा था कि उन्हें प्रायश्चित्त का मौका न दे कर जयंत पिताजी, मां व खुद पर अत्याचार कर रहे हैं.

शीघ्र ही मैं ने एक कदम और उठाया. शाम को मैं मां के साथ पार्क में घूमने जाती थी. पार्क के सामने ही एक दुकान थी. एक दिन मैं कुछ जरूरी सामान लेने के बहाने वहां चली गई और मां वहीं बैंच पर बैठी रहीं.

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