Latest Hindi Stories : कमाऊ मुरगी

Latest Hindi Stories : ‘‘मां,भैया देखो मैं किसे आप से मिलाने लाई हूं,’’ धैर्या ने कमरे में घुसते ही खुशी से अपने परिवार के लोगों को पुकारा. ‘‘अरे कौन है भई जो इतनी खुश नजर आ रही है मेरी बहना?’’ भाई अमन पत्नी के साथ अपने कमरे से बाहर आते हुए बोला.

अब तक मां भी ड्राइंगरूम में आ चुकी थीं. ‘‘मां, ये हैं मेजर वीर प्रताप सिंहजी.

इन की पूना में पोस्टिंग है,’’ धैर्या ने चकहते हुए अपने साथ आए एक लंबे कद के

आकर्षक पर्सनैलिटी वाले व्यक्ति से सब का परिचय कराया. ‘‘नमस्ते,’’ कह कर मेजर ने सब का अभिवादन किया.

चायनाश्ते के दौरान मेजर ने बताया कि वे हरियाणा के करनाल के रहने वाले हैं और अपने मातापिता के इकलौते बेटे हैं. वे जाट परिवार से हैं और अभी तक कुंआरे हैं. चायनाश्ता कर के मेजर धैर्या की ओर मुखातिब होते हुए बोले, ‘‘अच्छा धैर्या अब मैं चलता हूं, कल मिलते हैं.’’

‘‘जी, अच्छा,’’ कह धैर्या उन्हें बाहर तक छोड़ने गई. ‘‘2-4 दिनों में तुम्हें अपने मातापिता से मिलवाने की कोशिश करता हूं,’’ मेजर ने अपनी कार में बैठते हुए कहा.

जब धैर्या अंदर आई तो मां, भाई और भाभी सभी को अपनी ओर गुस्से से देखते हुए पाया. ‘‘कौन थे ये जनाब दीदी और हम से मिलवाने का क्या मतलब था?’’ भाभी व्यंग्यात्मक स्वर में बोलीं.

‘‘मां, ये सेना में अधिकारी हैं. उम्र में मुझ से 10 साल बड़े हैं, इसलिए आप से मिलवाने लाई थी,’’ एक सांस में सारी बात कह कर धैर्या अपने कमरे में चली गई. यह सुन कर घर के तीनों सदस्यों को जैसे सांप सूंघ गया. सब हैरान से एकदूसरे को देखने लगे.

‘‘दिमाग खराब हो गया है इस लड़की का. अब इस उम्र में शादी करेगी और वह भी गैरजाति के लड़के से… हमारी तो बिरादरी में नाक ही कट जाएगी,’’ मां अपना सिर पकड़ कर बोलीं. ‘‘बाहर आने दो, मैं बात करता हूं इस से,’’ भाई अमन बोला.

‘‘ननद रानी का तो दिमाग ही फिर गया है… शादी वह भी इतनी बड़ी उम्र के इंसान से?’’ भाभी धारिणी भला कहां चुप रहने वाली थी. ‘‘भाभी, क्या बुरा कर रही हूं मैं? इस संसार में सभी तो शादी करते हैं… आप भी तो शादी कर के ही इस घर में आई हैं. फिर उम्र से क्या फर्क पड़ता है? मेरी उम्र भी कौन सी कम है?’’ कमरे से बाहर आते हुए धैर्या बोली.

‘‘अच्छीभली तो चल रही है तेरी जिंदगी… क्यों उस में आग लगा रही है? एक तो पिछड़ी जाति का लड़का और फिर उम्र में भी तुझ से 10 साल बड़ा… न शक्ल न सूरत, तुझे उस में क्या दिखा, जो शादी करने की सोच ली. तेरे आगे कहीं नहीं लगता वह,’’ मां ने समझाने की कोशिश की. ‘‘ठीक है न मां, सारी जिंदगी तो आप सब के हिसाब से ही चली. अब कुछ अपने मन का भी करने दें,’’ कह धैर्या नहाने चली गई.

उस दिन से घर में जैसे तूफान आ गया. सुबह उस से किसी ने बात नहीं की. वह चुपचाप नाश्ता कर के औफिस चल दी. तभी मेजर का फोन आ गया, ‘‘हैलो गुड मौर्निंग डियर, हाऊ आर यू? नींद आई थी भी

या नहीं?’’ ‘‘मैं ठीक हूं,’’ धैर्या ने उत्तर दिया.

‘‘क्या हुआ कुछ मूड ठीक नहीं है. ऐनी प्रौब्लम?’’ धैर्या को रोना आ गया. बोली, ‘‘घर में कल आप के जाने के बाद जम कर कुहराम मचा… कोई मेरी शादी नहीं करना चाहता… ऐसा मैं ने क्या कर दिया,’’ वह रोंआसे स्वर में बोली.

‘‘कोई बात नहीं, तुम उदास न हो… ये सब हम बाद में हल कर लेंगे. कल मम्मीपापा आ रहे हैं अपनी लाड़ली बहू से मिलने, तुम तैयार रहना,’’ मेजर ने उत्साह से कहा. यह सुन धैर्या एकदम चौंक कर अपने आंसू पोंछते हुए बोली, ‘‘कल… क… ल… मैं कैसे कर पाऊंगी सब?’’ ‘‘तुम्हें करना ही क्या है. बस तैयार हो कर कल 11 बजे होटल ताज पहुंच जाना. मैं वहीं मिलूगा.’’

‘‘जी वे सब तो ठीक है, पर मैं बहुत नर्वस फील कर रही हूं,’’ धैर्या ने थोड़ा घबराते हुए कहा. ‘‘अरे, इस में नर्वस होने की क्या बात है. मेरे मातापिता बेहद सीधे हैं. वे कब से अपनी बहू के लिए तरस रहे हैं. बस मैं ही शादी के लिए तैयार नहीं था… उन का बस चले तो आज ही शादी कर के तुम्हें घर ले जाएं. ठीक है तो कल मिलते हैं,’’ कह कर मेजर ने फोन काट दिया.

शाम को औफिस से घर आ कर धैर्या कौफी का मग ले कर बालकनी में आ खड़ी

हुई. उस का मन आज से 6 माह पहले मेजर से हुई पहली मुलाकात पर चला गया था. होश संभालते ही घर की जिम्मेदारियों को निभातेनिभाते वह अपने बारे में सोचना ही भूल गई थी. बस मां, भाई, भाभी, भतीजा ही उस की दुनिया थे. पर पिछले कुछ दिनों से घर वालों का बर्ताव और कुछ कानों में पड़ी बातों ने उस के मन को बुरी तरह आहत कर दिया था. तभी उसे समझ आया कि घर में सब अपनेअपने में मसरूफ हैं… सभी को उस के पैसे से मतलब है न कि उस से. वह तपड़ उठी थी जब मौसी ने मां से उस की शादी के बारे में बात की थी. तब मां बोली थीं, ‘‘अरे जीजी धैर्या का ब्याह हो गया तो हमारी जिंदगी तो नर्क हो जाएगी. अमन की तो नौकरी लगतीछूटती रहती है… शादी के बाद ससुराल वाले मायके की मदद तो नहीं करने देंगे न.’’

मां की बातें सुन कर धैर्या के पैरों तले की जमीन जिसक गई. 1 सप्ताह के गंभीर मंथन के बाद वह किसी नतीजे पर पहुंचती, तभी उसे एक दिन औफिस जाते समय मैट्रो में अपनी बचपन की सहेली निशा मिल गई. धैर्या की आपबीती सुन कर निशा गुस्से से भर कर बोली, ‘‘तू अभी तक उन सब को ढो रही है. अंकल थे तब तू कमाऊ पूत थी और अंकल के जाने के बाद सब के लिए मात्र सोने के अंडे देने वाली कमाऊ मुरगी बन कर रह गई है, जिसे तेरे घर वाले शादी कर हलाल नहीं करना चाहते हैं. अब मैं तेरी एक नहीं सुनूंगी. बस तू अभी मेरे साथ चल,’’ कह कर वह उसे अपने एक जानपहचान के मैरिज ब्यूरो ले गई और फिर उस का वहां शादी के लिए रजिस्ट्रेशन करवा दिया.

मैरिज ब्यूरो से 1 माह बाद ही धैर्या के पास फोन आ गया और तब उस की मेजर सिंह से मुलाकात हुई. वे उसे पहली मुलाकात में ही भा गए थे. बिना लागलपेट के उन्होंने धैर्या को बताया कि वे 42 साल के हो कर भी सिर्फ इसलिए कुंआरे हैं कि वे अपनी नौकरी में मसरूफ थे. अपनी पोस्टिंग पर उन्हें परिवार को ले जाने की मनाही थी. छुट्टी भी बहुत कम मिलती थी. मातापिता की देखभाल के लिए किसी भी लड़की को ब्याह कर ससुराल में छोड़ना उन्हें पसंद नहीं था. अब उन की पोस्टिंग पूना में है और वे परिवार को अपने साथ रख सकते हैं. इसीलिए शादी को तैयार हो गए. धैर्या के बारे में सब सुन कर उन्होंने कहा, ‘‘आप जैसी जिम्मेदार लड़की से कौन शादी नहीं करना चाहेगा… आप को अपने घर ला कर मैं और मेरे मातापिता खुद को धन्य समझेंगे.’’

मेजर साहब से होटल में मिलने के बाद धैर्या ने वहीं से निशा को उन के बारे में बताया तो वह खुशी से बोली, ‘‘अब देर मत कर, भले ही तुझ से उम्र में 10 साल बड़े हैं, जाति और कल्चर अलग हैं, पर उस से कोई फर्क नहीं पड़ता. तुम दोनों समझदार हो. तू अपना सबकुछ लुटा कर भी परिवार वालों की सगी नहीं हो सकती… वे सिर्फ अपना मतलब निकाल रहे हैं. शादी कर के अपना घरपरिवार बसा और अपनी जिंदगी जी.’’ मेजर सिंह से कुछ मुलाकातों में ही उस की समझ में आने लगा कि जीवनसाथी के साथ जिंदगी बिताने का आनंद क्या होता है. खुद को अंदर से मजबूत कर के और शादी का पक्का मन बनाने के बाद ही उस ने मेजर सिंह को अपने परिवार वालों से मिलवाया.

अगले दिन सुबह धैर्या फीरोजी रंग की शिफौन की साड़ी पर हैदराबादी मोतियों का सैट पहन कर घर से निकली तो मां और भाभी उसे खा जाने वाली नजरों से देख रही थीं.

ताज होटल के कमरा नं. 403 के बाहर पहुंच कर घंटी पर हाथ रखते समय उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. उसे लग रहा था मानो वह जिंदगी का सब से बड़ा इम्तिहान देने जा रही हो.

जैसे ही दरवाजा खुला मेजर सिंह सामने खड़े थे. वे उस का हाथ पकड़ कर उसे अंदर तक ले गए. उसे देखते ही उन के मातापिता खड़े हो गए. उस ने हाथ जोड़ कर उन का अभिवादन किया. मेजर सिंह की मां ने उसे अपने गले से लगा लिया और फिर बोलीं, ‘‘कुदरत का लाखलाख शुक्र है जो उस ने हमें इतनी प्यारी लड़की बहू के रूप में दी. इस दिन के लिए मेरी आंखें कब से तरस रही थीं.’’

‘‘बैठो, बेटा आराम से बैठो,’’ मेजर सिंह के पिता ने उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा. धैर्या लजाते हुए सामने रखे सोफे पर बैठ गई.

‘‘बेटा, हम तुम से कुछ नहीं पूछना चाहते. हमें प्रताप ने सब बता दिया है. हम बस तुम्हें एक बार देखना चाहते थे, अब बस हम तुम्हारे परिवार वालों से मिल कर शादी की डेट तय करना चाहते हैं. शाम को हम तुम्हारे घर आ रहे हैं,’’ मेजर सिंह के पिता ने कहा. ‘‘जी, जैसा आप ठीक समझें,’’ धैर्या सिर नीचा किए शरमाते हुए बोली.

हलकेफुलके चायनाश्ते के बाद वह घर आ गई. फ्रैश हो कर चाय पीतेपीते वह गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मां, भैया, मेजर साहब के मातापिता आज शाम को आ कर आप दोनों से मिल कर हमारी शादी की तारीख तय करना चाहते हैं.’’ ‘‘शादी? कैसी शादी? हमें यह शादी मंजूर नहीं और न हम ऐसी किसी शादी में शामिल होंगे… हम ऐसी गैरजाति की बेमेल शादी नहीं होने देंगे.’’

भाई अमन तो मानो अपना आपा ही खो बैठा था. ‘‘पर मैं ने तय कर लिया है भैया कि मैं मेजर साहब से ही शादी करूंगी,’’ धैर्या दृढ़ता से बोली.

यह सुन कर अमन भी तेज आवाज में बोला, ‘‘मैं बरसों से पापा की बनीबनाई

इज्जत को मिट्टी में नहीं मिलने दूंगा.’’ ‘‘कुछ तो बोलो मां, आप क्यों चुप बैठी हो?’’ धैर्या ने शांति से तमाशा देख रहीं मां की ओर देख कर कहा.

मां पहले से ही कुढ़ी बैठी थीं. अत: गुस्से से बोलीं, ‘‘अरे मैं क्या बोलूं, जब तुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा.’’ ‘‘क्या समझ नहीं आ रहा मां? शादी ही तो कर रही हूं कोई गलत काम तो नहीं कर रही,’’ धैर्या ने लगभग रोंआसे स्वर में कहा.

‘‘ननद रानी आप तो बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम वाली बात कर रही हैं. शादी वह भी इस उम्र में?’’ भाभी ने भी अपनी औकात दिखा ही दी. ‘‘क्यों भाभी कल तक जब आप के लिए महंगे सूट, साडि़यां और गहने लाती थी, तब तो बड़ी प्यारी ननद और बहन कहतेकहते नहीं थकती थीं आप और आज मैं बूढ़ी घोड़ी हो गई? असल में आप तीनों ही मेरी शादी करना नहीं चाहते, क्योंकि मैं आप के लिए महज एक कमाऊ मुरगी हूं. मेरी कमाई से ही तो आप सब अपने शौक पूरे कर रहे हैं. आप सब अपनी दुनिया में मस्त हैं, कभी किसी ने मेरे बारे में सोचा है?’’

‘‘देख बेटा अब तू अपनी सीमाएं लांघ रही है. उस मेजर ने लगता है तेरा दिमाग खराब कर दिया है,’’ मां गुस्से से बोलीं. ‘‘नहीं मां मेरा दिमाग तो अब तक खराब था. आज ही ठिकाने आया है. याद है पिछले महीने जब मौसी ने मेरी शादी की बात आप से की थी तो आप ही कह रही थीं कि धैर्या की शादी कर दी तो हम कैसे रहेंगे? उसी से तो घर चलता है. बताइए, इसीलिए तो आप ने कभी मेरी शादी के बारे में नहीं सोचा.’’

‘‘छोटी बस कर, बहुत बोल ली तू… इस उम्र में ये शादीवादी के सपने देखना छोड़ दे. चैन से नौकरी कर और सब के साथ रह जैसे अब तक रहती आई है,’’ अमन ने थोड़ा नर्म होते हुए कहा. ‘‘भैया आप को याद है, आप और भाभी हमेशा हर नई फिल्म का पहला शो देखते हो. पिछली बार जब आप कोई फिल्म देख कर आए थे और भाभी से मेरी शादी की बात कर रहे थे, तब भाभी ने कहा था कि दीदी की शादी हो गई तो हमारा खर्चा नहीं चलेगा. इसलिए जैसा चल रहा है चलने दो और आप ने कहा था, यह तो है. मेरी तनख्वाह से तो हमारा घर का गुजारा नहीं हो सकता. फिल्म देखना तो दूर की बात है.’’

‘‘भैया आप अपनी दुनिया में इतने व्यस्त हो गए कि मुझ से 5 साल बड़े हो कर भी आप ने कभी मेरे बारे में नहीं सोचा,’’ धैर्या ने गुस्से में कहा तो भैया और भाभी निरुत्तर हो कर एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

‘‘देख बेटा अब इस उम्र में शादी के सपने देखना छोड़ दे. एक तो गैरजाति का लड़का ऊपर से उम्र में 10 साल बड़ा. ये लोग बड़े चालाक होते हैं. लड़कियों की कोई इज्जत नहीं होती इन के यहां. मुझे तो लगा वे बस तेरे पैसे के लालच में शादी करने की बात कर रहे हैं… तू पछताएगी,’’ मां ने अपना आखिरी दांव चला.

‘‘नहीं मांजी, आप गलत सोच रही हैं. मेरे परिवार को पैसों का कोई लालच नहीं है. हमारा परिवार तो धैर्या जैसी लड़की को अपने परिवार की बहू बना कर अपने को धन्य समझेगा. मैं उसे जीवन की वह हर खुशी दूंगा जिस पर एक लड़की और एक पत्नी का अधिकार होता है. शादी के बाद भी यह आप लोगों पर खर्च करना चाहे, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी,’’ मेजर सिंह की आवाज सुन कर धैर्या चौंक गई, जो दरवाजे की ओट में खड़े न जाने कब से घर के सदस्यों की बातें सुन रहे थे. ‘‘आप… आप यहां कब आए?’’ धैर्या ने अचकचाते हुए पूछा.

‘‘धैर्या, तुम जल्दीबाजी में अपना मोबाइल होटल में ही भूल आई थीं… मैं इसे देने यहां चला आया. अब मुझे लगता है कि मेरे मम्मीपापा को शादी तय करने के लिए यहां आने की जरूरत नहीं है.’’‘और मैं आप सब से भी कहना चाहता हूं कि आज से बल्कि अभी से इस के जीवन का हर सुखदुख मेरा है. मैं ने आप सब लोगों की सारी बातें सुन ली हैं और अब मैं इसे यहां आप लोगों के बीच एक पल भी नहीं रहने दूंगा. धैर्या, चलो मेरे साथ.’’ हम दोनों शादी कर रहे हैं. आप लोगों को यदि उचित लगे तो आशीर्वाद देने आ जाइएगा. शादी 1 माह बाद अदालत में होगी. उतने दिन धैर्या मेरे घर में मेहमान की तरह रहेगी. धैर्या के घर वालों को अपना फैसला सुना कर मेजर सिंह धैर्या का हाथ पकड़ कर उसे बाहर अपनी गाड़ी तक ले गए.

धैर्या तब तक अपना सामान पैक कर चुकी थी. परिवार के तीनों सदस्य धूल उड़ती गाड़ी को चुपचाप जाते देखते रह गए. धैर्या ने मेजर सिंह के कंधे पर सिर टिका कर अपनी आंखें मूंद लीं मानो जीवन में आने वाले नए उजाले के सपने देखने की कोशिश कर रही हो.

Romantic Hindi Stories : तिकोनी डायरी

नागेश की डायरी

Romantic Hindi Stories : कई दिनों से मैं बहुत बेचैन हूं. जीवन के इस भाटे में मुझे प्रेम का ज्वार चढ़ रहा है. बूढ़े पेड़ में प्रेम रूपी नई कोंपलें आ रही हैं. मैं अपने मन को समझाने का भरपूर प्रयत्न करता हूं पर समझा नहीं पाता. घर में पत्नी, पुत्र और एक पुत्री है. बहू और पोती का भरापूरा परिवार है, पर मेरा मन इन सब से दूर कहीं और भटकने लगा है.

शहर मेरे लिए नया नहीं है. पर नियुक्ति पर पहली बार आया हूं. परिवार पीछे पटना में छूट गया है. यहां पर अकेला हूं और ट्रांजिट हौस्टल में रहता हूं. दिन में कई बार परिवार वालों से फोन पर बात होती है. शाम को कई मित्र आ जाते हैं. पीनापिलाना चलता है. दुखी होने का कोई कारण नहीं है मेरे पास, पर इस मन का मैं क्या करूं, जो वेगपूर्ण वायु की भांति भागभाग कर उस के पास चला जाता है.

वह अभीअभी मेरे कार्यालय में आई है. स्टेनो है. मेरा उस से कोई सीधा नाता नहीं है. हालांकि मैं कार्यालय प्रमुख हूं. मेरे ही हाथों उस का नियुक्तिपत्र जारी हुआ है…केवल 3 मास के लिए. स्थायी नियुक्तियों पर रोक लगी होने के कारण 3-3 महीने के लिए क्लर्कों और स्टेनो की भर्तियां कर के आफिस का काम चलाना पड़ता है. कोई अधिक सक्षम हो तो 3 महीने का विस्तार दिया जा सकता है.

उस लड़की को देखते ही मेरे शरीर में सनसनी दौड़ जाती है. खून में उबाल आने लगता है. बुझता हुआ दीया तेजी से जलने लगता है. ऐसी लड़कियां लाखों में न सही, हजारों में एक पैदा होती हैं. उस के किसी एक अंग की प्रशंसा करना दूसरे की तौहीन करना होगा.

पहली नजर में वह मेरे दिल में प्रवेश कर गई थी. मेरे पास अपना स्टाफ था, जिस में मेरी पी.ए. तथा व्यक्तिगत कार्यों के लिए अर्दली था. कार्यालय के हर काम के लिए अलगअलग कर्मचारी थे. मजबूरन मुझे उस लड़की को अनुराग के साथ काम करने की आज्ञा देनी पड़ी.

मुझे जलन होती है. कार्यालय प्रमुख होने के नाते उस लड़की पर मेरा अधिकार होना चाहिए था, पर वह मेरे मातहत अधिकारी के साथ काम रही थी. मुझ से यह सहन नहीं होता था. मैं जबतब अनुराग के कमरे में चला जाता था. मेरे बगल में ही उस का कमरा था. उन दोनों को आमनेसामने बैठा देखता हूं तो सीने पर सांप लोट जाता है. मन करता है, अनुराग के कमरे में आग लगा दूं और लड़की को उठा कर अपने कमरे में ले जाऊं.

अनुराग उस लड़की को चाहे डिक्टेशन दे रहा हो या कोई अन्य काम समझा रहा हो, मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता. तब थोड़ी देर बैठ कर मैं अपने को तसल्ली देता हूं. फिर उठतेउठते कहता हूं, ‘‘नीहारिका, जरा कमरे में आओ. थोड़ा काम है.’’

मैं जानता हूं, मेरे पास कोई आवश्यक कार्य नहीं. अगर है भी तो मेरी पी.ए. खाली बैठी है. उस से काम करवा सकता हूं. पर नीहारिका को अपने पास बुलाने का एक ही तरीका था कि मैं झूठमूठ उस से व्यर्थ की टाइपिंग का काम करवाऊं. मैं कोई पुरानी फाइल निकाल कर उसे देता कि उस का मैटर टाइप करे. वह कंप्यूटर में टाइप करती रहती और मैं उसे देखता रहता. इसी बहाने बातचीत का मौका मिल जाता.

नीहारिका के घरपरिवार के बारे में जानकारी ले कर अपने अधिकारों का बड़प्पन दिखा कर उसे प्रभावित करने लगा. लड़की हंसमुख ही नहीं, वाचाल भी थी. वह जल्द ही मेरे प्रभाव में आ गई. मैं ने दोस्ती का प्रस्ताव रखा, उस ने झट से मान लिया. मेरा मनमयूर नाच उठा. मुझ से हाथ मिलाया तो शरीर झनझना कर रह गया. कहां 20 साल की उफनती जवानी, कहां 57 साल का बूढ़ा पेड़, जिस की शाखाओं पर अब पक्षी भी बैठने से कतराने लगे थे.

नीहारिका से मैं कितना भी झूठझूठ काम करवाऊं पर उसे अनुराग के पास भी जाना पड़ता था. मुझे डर है कि लड़की कमसिन है, जीवन के रास्तों का उसे कुछ ज्ञान नहीं है. कहीं अनुराग के चक्कर में न आ जाए. वह एक कवि और लेखक है. मृदुल स्वभाव का है. उस की वाणी में ओज है. वह खुद न चाहे तब भी लड़की उस के सौम्य व्यक्तित्व से प्रभावित हो सकती थी.

क्या मैं उन दोनों को अलग कर सकता हूं?

अनुराग की डायरी

नीहारिका ने मेरी रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया है. वह इतनी हसीन है कि बड़े से बड़ा कवि उस की सुंदरता की व्याख्या नहीं कर सकता है. गोरा आकर्षक रंग, सुंदर नाक और उस पर चमकती हुई सोने की नथ, कानों में गोलगोल छल्ले, रस भरे होंठ, दहकते हुए गाल, पतलीलंबी गर्दन और पतला-छरहरा शरीर, कमर का कहीं पता नहीं, सुडौल नितंब और मटकते हुए कूल्हे, पुष्ट जांघों से ले कर उस के सुडौल पैरों, सिर से ले कर कमर और कूल्हों तक कहीं भी कोई कमी नजर नहीं आती थी.

वह मेरी स्टेनो है और हम कितनी सारी बातें करते हैं? कितनी जल्दी खुल गई है वह मेरे साथ…व्यक्तिगत और अंतरंग बातें तक कर लेती है. बड़े चाव से मेरी बातें सुनती है. खुद भी बहुत बातें करती है. उसे अच्छा लगता है, जब मैं ध्यान से उस की बातें सुनता हूं और उन पर अपनी टिप्पणी देता हूं. जब उस की बातें खत्म हो जाती हैं तो वह खोदखोद कर मेरे बारे में पूछने लगती है.

बहुत जल्दी मुझे पता लग गया कि वह मन से कवयित्री है. पता चला, उस ने स्कूलकालेज की पत्रिकाओं के लिए कविताएं लिखी थीं. मैं ने उस से दिखाने के लिए कहा. पुराने कागजों में लिखी हुई कुछ कविताएं उस ने दिखाईं. कविताएं अच्छी थीं. उन में भाव थे, परंतु छंद कमजोर थे. मैं ने उन में आवश्यक सुधार किए और उसे प्रोत्साहित कर के एक प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेज दिया. कविता छप गई तो वह हृदय से मेरा आभार मानने लगी. उस का झुकाव मेरी तरफ हो गया.

शीघ्र ही मैं ने मन की बात उस पर जाहिर कर दी. वस्तुत: इस की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि बातोंबातों में ही हम दोनों ने अपनी भावनाएं एकदूसरे पर प्रकट कर दी थीं. उस ने मेरे प्यार को स्वीकार कर के मुझे धन्य कर दिया.

काम से समय मिलता तो हम व्यक्तिगत बातों में मशगूल हो जाते परंतु हमारी खुशियां शायद हमारे ही बौस को नागवार गुजर रही थीं. दिन में कम से कम 5-6 बार मेरे कमरे में आ जाते, ‘‘क्या हो रहा है?’’ और बिना वजह बैठे रहते, ‘‘अनुराग, चाय पिलाओ,’’ चाय आने और पीने में 2-3 मिनट तो लगते नहीं. इस के अलावा वह नीहारिका से साधिकार कहते, ‘‘मेरे कमरे से सिगरेट और माचिस ले आओ.’’

मेरा मन घृणा और वितृष्णा से भर जाता, परंतु कुछ कह नहीं सकता था. वे मेरे बौस थे. नीहारिका भी अस्थायी नौकरी पर थी. मन मार कर सिगरेट और माचिस ले आती. वह मन में कैसा महसूस करती थी, मुझे नहीं मालूम क्योंकि जब भी वह सिगरेट ले कर आती, हंसती रहती थी, जैसे इस काम में उसे मजा आ रहा हो.

एक छोटी उम्र की लड़की से ऐसा काम करवाना मेरी नजरों में न केवल अनुचित था, बल्कि निकृष्ट और घृणित कार्य था. उन का अर्दली पास ही गैलरी में बैठा रहता है. यह काम उस से भी करवा सकते थे पर वे नीहारिका पर अपना अधिकार जताना चाहते थे. उसे बताना चाहते थे कि उस की नौकरी उन के ही हाथ में है.

सिगरेट का बदबूदार धुआं घंटों मेरे कमरे में फैला रहता और वह परवेज मुशर्रफ की तरह बूट पटकते हुए नीहारिका को आदेश देते मेरे कमरे से निकल जाते कि तुम मेरे कमरे में आओ.

मैं मन मार कर रह जाता हूं. गुस्से को चाय की आखिरी घूंट के साथ पी कर थूक देता हूं. कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं, जिन पर मनुष्य का वश नहीं रहता. लेकिन मैं कभीकभी महसूस करता हूं कि नीहारिका को नागेश के आधिकारिक बरताव पर कोई खेद या गुस्सा नहीं आता था.

नीहारिका कभी भी इस बात की शिकायत नहीं करती थी कि उन की ज्यादतियों की वजह से वह परेशान या क्षुब्ध थी. वह सदैव प्रसन्नचित्त रहती थी. कभीकभी बस नागेश के सिगरेट पीने पर विरोध प्रकट करती थी. उस ने बताया था कि उस के कहने पर ही नागेश ने तब अपने कमरे में सिगरेट पीनी बंद कर दी, जब वह उन के कमरे में काम कर रही होती थी.

मुझे अच्छा नहीं लगता है कि घड़ीघड़ी भर बाद नागेश मेरे कमरे में आएं और बारबार बुला कर नीहारिका को ले जाएं. इस से मेरे काम में कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था पर मैं चाहता था कि नीहारिका जब तक आफिस में रहे मेरी नजरों के सामने रहे.

नीहारिका की डायरी

मैं अजीब कशमकश में हूं…कई दिनों से मैं दुविधा के बीच हिचकोले खा रही हूं. समझ में नहीं आता…मैं क्या करूं? कौन सा रास्ता अपनाऊं? मैं 2 पुरुषों के प्यार के बीच फंस गई हूं. इस में कहीं न कहीं गलती मेरी है. मैं बहुत जल्दी पुरुषों के साथ घुलमिल जाती हूं. अपनी अंतरंग बातों और भावनाओं का आदानप्रदान कर लेती हूं. उसी का परिणाम मुझे भुगतना पड़ रहा है. हर चलताफिरता व्यक्ति मेरे पीछे पड़ जाता है. वह समझता है कि मैं एक ऐसी चिडि़या हूं जो आसानी से उन के प्रेमजाल में फंस जाऊंगी.

इस दफ्तर में आए हुए मुझे 1 महीना ही हुआ और 2 व्यक्ति मेरे प्रेम में गिरफ्तार हो चुके हैं. एक अपने शासकीय अधिकार से मुझे प्रभावित करने में लगा है. वह हर मुमकिन कोशिश करता है कि मैं उस के प्रभुत्व में आ जाऊं. दूसरा सौम्य और शिष्ट है. वह गुणी और विद्वान है. कवि और लेखक है. उस की बातों में विलक्षणता और विद्वत्ता का समावेश होता है. वह मुझे प्रभावित करने के लिए ऐसी बातें नहीं करता है.

पहला जहां अपने कर्मों का गुणगान करता रहता है. बड़ीबड़ी बातें करता है और यह जताने का प्रयत्न करता है कि वह बहुत बड़ा अधिकारी है. उस के अंतर्गत काम करने वालों का भविष्य उस के हाथ में है. वह जिसे चाहे बना सकता है और जिसे चाहे पल में बिगाड़ दे. अपने अधिकारों से वह सम्मान पाने की लालसा करता है. वहीं दूसरी ओर अनुराग अपने व्यक्तित्व से मुझे प्रभावित कर चुका है.

नागेश से मुझे भय लगता है, अत: उस की किसी बात का मैं विरोध नहीं कर पाती. मुझे पता है कि मेरी किसी बात से अगर वह नाखुश हुआ तो मुझे नौकरी से निकालने में उसे एक पल न लगेगा. ऐसा उस ने संकेत भी दिया है. वह गंदे चुटकुले सुनाता और खुद ही उन पर जोरजोर से हंसता है. अपने भूतकाल की सत्यअसत्य कहानियां ऐसे सुनाता है जैसे उस ने अपने जीवन में बहुत महान कार्य किए हैं और उस के कार्यों में अच्छे संदेश निहित हैं.

मेरे मन में उस के प्रति कोई लगाव या चाहत नहीं है. वह स्वयं मेरे पीछे पागल है. मेरे मन में उस के प्रति कोई कोमल भाव नहीं है. वह कहीं से मुझे अपना नहीं लगता. मेरी हंसी और खुलेपन से उसे गलतफहमी हो गई है. तभी तो एक दिन बोला, ‘‘तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो. शायद मैं तुम्हें चाहने लगा हूं. क्या तुम मुझ से दोस्ती करोगी?’’

मेरे घर की आर्थिक दशा अच्छी नहीं है. घर में 3 बहनों में मैं सब से बड़ी हूं. घर के पास ही गली में पिताजी की किराने की दुकान है. बहुत ज्यादा कमाई नहीं होती है. बी.ए. करने के बाद इस दफ्तर में पहली अस्थायी नौकरी लगी है. अस्थायी ही सही, परंतु आर्थिक दृष्टि से मेरे परिवार को कुछ संबल मिल रहा है. अभी तो पहली तनख्वाह भी नहीं मिली थी. ऐसे में काम छोड़ना मुझे गवारा नहीं था.

मन को कड़ा कर के सोचा कि नागेश कोई जबरदस्ती तो कर नहीं सकता. मैं उस से बच कर रहूंगी. ऊपरी तौर पर दोस्ती स्वीकार कर लूंगी, तो कुछ बुरा नहीं है. अत: मैं ने हां कह दिया. उस ने तुरंत मेरा दायां हाथ लपक लिया और दोस्ती के नाम पर सहलाने लगा. उस ने जब जोर से मेरी हथेली दबाई तो मैं ने उफ कर के खींच लिया. वह हा…हा…कर के हंस पड़ा, जैसे पौराणिक कथाओं का कोई दैत्य हंस रहा हो.

‘‘बहुत कोमल हाथ है,’’ वह मस्त होता हुआ बोला तो मैं सिहर कर रह गई.

दूसरी तरफ अनुराग है…शांत और शिष्ट. हम साथ काम करते हैं परंतु आज तक उस ने कभी मेरा हाथ तक छूने की कोशिश नहीं की. वह केवल प्यारीप्यारी बातें करता है. दिल ही दिल में मैं उसे प्यार करने लगी हूं. कुछ ऐसे ही भाव उस के भी मन में है. हम दोनों ने अभी तक इन्हें शब्दों का रूप नहीं दिया है. उस की आवश्यकता भी नहीं है. जब दो दिल खामोशी से एकदूसरे के मन की बात कह देते हैं तो मुंह खोलने की क्या जरूरत.

हमारे प्यार के बीच में नागेश रूपी महिषासुर न जाने कहां से आ गया. मुझे उसे झेलना ही है, जब तक इस दफ्तर में नौकरी करनी है. उस की हर ज्यादती मैं अनुराग से बता भी नहीं सकती. उस के दिल को चोट पहुंचेगी.

नागेश के कमरे से वापस आने पर मैं हमेशा अनुराग के सामने हंसती- मुसकराती रहती थी, जिस से उस को कोई शक न हो. यह तो मेरा दिल ही जानता था कि नागेश कितनी गंदीगंदी बातें मुझ से करता था.

अनुराग मुझ से पूछता भी था कि नागेश क्या बातें करता है? क्या काम करवाता है? परंतु मैं उसे इधरउधर की बातें बता कर संतुष्ट कर देती. वह फिर ज्यादा नहीं पूछता. मुझे लगता, अनुराग मेरी बातों से संतुष्ट तो नहीं है, पर वह किसी बात को तूल देने का आदी भी नहीं था.

अब धीरेधीरे मैं समझने लगी हूं कि 2 पुरुषों को संभाल पाना किसी नारी के लिए संभव नहीं है.

नागेश को मेरी भावनाओं या भलाई से कुछ लेनादेना नहीं. वह केवल अपना स्वार्थ देखता है. अपनी मानसिक संतुष्टि के लिए मुझे अपने सामने बिठा कर रखता है. मुझे उस की नीयत पर शक है. हठात एक दिन बोला, ‘‘मेरे घर चलोगी? पास में ही है. बहुत अच्छा सजा रखा है. कोई औरत भी इतना अच्छा घर नहीं सजा सकती. तुम देखोगी तो दंग रह जाओगी.’’ मैं वाकई दंग रह गई. उस का मुंह ताकती रही…क्या कह रहा है? उस की आंखों में वासना के लाल डोरे तैर रहे थे. मैं अंदर तक कांप गई. उस की बात का जवाब नहीं दिया.

‘‘बोलो, चलोगी न? मैं अकेला रहता हूं. कोई डरने वाली बात नहीं है,’’ वह अधिकारपूर्ण बोला.

मैं ने टालने के लिए कह दिया, ‘‘सर, कभी मौका आया तो चलूंगी.’’

वह एक मूर्ख दैत्य की तरह हंस पड़ा.

आफिस प्रमुख नागेश अपने आफिस के एक अधिकारी अनुराग के लिए स्टेनो नीहारिका की अस्थायी नियुक्ति कर देते हैं. नागेश को स्थायी पी.ए. मिली हुई है. ये तीनों अपनीअपनी पर्सनल डायरी मेनटेन करते हैं. 57 साल के नागेश अपनी डायरी में 20 साल की नीहारिका की खूबसूरती के बारे में बयान करते हैं और अपनी सीट से उठउठ कर अपने कनिष्ठ अफसर अनुराग के कमरे में जाते हैं. कुछ देर बैठ कर नीहारिका को अपने कमरे में आने का निर्देश दे कर चले जाते हैं. वे आगे लिखते हैं कि एक दिन उन्होंने दोस्ती का प्रस्ताव रखा तो नीहारिका ने झट से मान लिया. वहीं नागेश को यह डर भी था कि नीहारिका कहीं अनुराग से प्रभावित न हो जाए.

उधर, अनुराग की डायरी बताती है कि नीहारिका ने उस की रात की नींद और दिन का चैन छीन लिया है. एक दिन बातोंबातों में हम दोनों ने अपनी भावनाएं प्रकट कर दी थीं. उस ने मेरे आग्रह को स्वीकार कर के मुझे धन्य कर दिया.

उधर, अपनी डायरी में नीहारिका लिखती है कि मैं अजीब कशमकश में हूं. मैं 2 पुरुषों के प्यार के बीच फंस गई हूं. एक अपने शासकीय अधिकार से प्रभावित करने में लगा है तो दूसरा अपने व्यक्तित्व से मुझे प्रभावित कर चुका है. नागेश से मुझे डर लगता है. अत: उस की किसी भी बात का मैं विरोध नहीं कर पाती. मेरी हंसी और खुलेपन से उसे गलतफहमी हो गई है. एक दिन वह बोला, ‘तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो. मैं तुम्हें चाहने लगा हूं. क्या तुम मुझ से दोस्ती करोगी?’ मेरे घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है. अस्थायी नौकरी ही सही, घर की कुछ तो मदद हो जाएगी. ये सोच कर मैं ने ‘हां’ कर दी. दूसरी तरफ अनुराग है…शांत और शिष्ट. वह केवल प्यारीप्यारी बातें करता है. दिल ही दिल में मैं उस से प्यार करने लगी हूं. कुछ ऐसे ही भाव उस के मन में भी हैं. हम दोनों ने इन्हें अभी शब्दों का रूप नहीं दिया है. आफिस में नागेश के निर्देश पर उस के कमरे में जाती फिर वहां से ड्यूटी रूम में आने पर मैं हमेशा अनुराग के सामने हंसतीमुसकराती रहती थी ताकि उसे किसी तरह की तकलीफ न पहुंचे.अब आगे…

नागेश की डायरी

2 महीने बीत चुके हैं. बात आगे बढ़ती नहीं दिखाई पड़ रही है. मैं अच्छी तरह जानता हूं. नीहारिका के प्रति मेरे मन में कोई प्यार नहीं. ढलती उम्र में प्यार की चोंचलेबाजी नहीं की जा सकती है. मैं नीहारिका को प्रेमपत्र नहीं लिख सकता, उस की गली के चक्कर नहीं लगा सकता, हाथ में हाथ डाल कर बागों में टहलना अब मेरे लिए संभव नहीं है. मैं केवल नीहारिका के सुंदर शरीर के प्रति आसक्त हूं. फिर उसे प्राप्त करने का क्या तरीका अपनाया जाए?

कितनी बार उस से कहा कि मेरे घर चले, पर वह हंस कर टाल देती है. क्या उसे मेरे कुटिल मनोभावों का पता चल चुका है. जवान लड़की, पुरुष की आंखों की भाषा समझ सकती है. फिर क्यों वह तिलतिल कर, जला कर मार रही है मुझे…परवाने जल जाते हैं, शमा को पता भी नहीं चलता.

नीहारिका के साथ ऐसी बात नहीं है. वह अच्छी तरह जानती है कि मैं उसे दिलोजान से चाहने लगा हूं और उस का सान्निध्य चाहता हूं. वह भी तो यही चाहती है, वरना मेरी दोस्ती क्यों कबूल करती. मेरी किसी बात का बुरा नहीं मानती है. मैं कितनी खुली बातें करता हूं, वह हंसती रहती है. क्या यह संकेत नहीं करता कि उस का दिल भी मुझ पर आ गया है?

मुझे लगता है कि अनुराग भी नीहारिका पर आसक्त हो चुका है. वह युवा है और अविवाहित भी. नीहारिका मेरी तुलना में उस को ज्यादा पसंद करेगी. उस के साथ ही रहती है. नीहारिका को हासिल करने के लिए मुझे शीघ्र ही कोई कदम उठाना पड़ेगा. कार्यालय में उस के साथ कुछ करना संभव नहीं है. बवाल मच सकता है. एक बार वह मेरे घर चलने के लिए राजी हो जाए, तो फिर कुछ किया जा सकता है. वह मेरे हाथों से बच नहीं सकती.

नीहारिका के हावभाव से तो नहीं लगता कि वह अनुराग को चाहती है. कई बार उस से कह चुका हूं कि प्यार में लड़के ही नहीं लड़कियां भी बरबाद हो जाती हैं. अपनी प्रतियोगी परीक्षाओं की तरफ ध्यान दे, ताकि स्थायी नौकरी लग सके. पर मेरे बरगलाने से क्या वह मान जाएगी? जवान लड़की क्या किसी बूढ़े व्यक्ति के चक्कर में अपना जीवन और भविष्य बरबाद करेगी? क्या वह नहीं समझती कि मैं उसे चक्कर में लेने का प्रयत्न कर रहा हूं? मेरी बातों से वह कैसे इस तरह प्रभावित हो सकती है कि किसी जवान लड़के का चक्कर छोड़ दे? वह अनुराग के साथ काम करती है, क्या उस से प्रभावित नहीं हो सकती? हां…अवश्य.

अनुराग के रहते मेरा काम बनने वाला नहीं है. मुझे नीहारिका को उस से अलग करना होगा. दोनों साथसाथ रहेंगे तो आपस में लगाव बढ़ेगा. उन्हें कोई ऐसा मौका नहीं देना कि मैं अपना ही मौका चूक जाऊं. मैं उसे एक पत्नी की तरह अपनाना चाहता हूं पर यह कैसे संभव हो सकता है? वह किसी और पुरुष के सान्निध्य में न आए तब…हां, उसे अनुराग से दूर करना ही होगा. मैं उसे किसी और के साथ लगा देता हूं. किस के साथ…इस बारे में ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है. हरीश के साथ अनिल काम कर रहा है. उसे हटा कर मैं अनुराग के साथ लगा देता हूं और नीहारिका को हरीश के साथ…अनुराग की तुलना में वह उम्रदराज है. भोंडे दांतों वाला है. आंखों पर मोटा चश्मा लगाता है. बात करता है तो टेढ़ेमेढ़े दांत बाहर निकल आते हैं. मुंह से झाग के छींटे फेंकता रहता है. देख कर उबकाई आती है. नीहारिका उस से अंतरंग नहीं हो सकती.

यह आदेश निकालने के बाद मुझे लगा कि मैं ने नीहारिका को प्राप्त कर लिया है. इस परिवर्तन से कार्यालय में क्या प्रतिक्रिया हुई, मुझे पता नहीं चला. न अनुराग ने मुझ से कुछ कहा न नीहारिका ने कोई शिकायत की. मैं मन ही मन खुश होता रहा.

नीहारिका को मैं पहले की तरह काम के लिए अपने कमरे में बुलाता रहा. वह आती और हंसतीमुसकराती काम करती. मैं अपनी कुरसी छोड़ उस के पीछे खड़ा हो जाता. उस का मुंह कंप्यूटर की तरफ होता. मैं डिक्टेशन देने के बहाने उस की कुरसी की पीठ से सट कर खड़ा हो जाता. फिर अनजान बनता हुआ थोड़ा झुक कर भी उस के कंधे पर, कभी पीठ पर हाथ रख देता.

नीहारिका न तो मेरी तरफ देखती, न कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करती. मेरा हौसला बढ़ता जाता और मैं उस की पीठ सहलाने लगता. तब वह उठ कर खड़ी हो जाती. कहती, ‘‘मैं 2 मिनट में आती हूं.’’ और वह चली जाती. फिर उस दिन उसे नहीं बुलाता. पता नहीं, उस के मन में क्या हो? यह जानने के लिए मैं थोड़ी देर में हरीश के कमरे में जाता तो वहां नीहारिका को प्रफुल्लित देखता. मतलब उस ने मेरी हरकतों का बुरा नहीं माना. मैं आगे बढ़ सकता हूं.

मैं दूसरे दिन का इंतजार करता. दूसरा दिन, फिर तीसरा दिन…दिन पर दिन बीतते जा रहे थे, पर बात शारीरिक स्पर्श से आगे नहीं बढ़ पा रही थी. नीहारिका पत्थर की तरह बन गई थी. मेरी हरकतों पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती. मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. शरीर में उफान सा आता, पर उसे ज्वार का रूप देना मेरे हाथ में नहीं था.

नीहारिका मेरा साथ नहीं दे रही थी. जब मैं उस के साथ कोई हरकत करता, वह बाहर चली जाती, दोबारा बुलाने पर भी जल्दी मेरे कमरे में नहीं आती थी. मुझे अर्दली को 2-3 बार भेजना पड़ता. तब कहीं आती और तबीयत ठीक न होने का बहाना बनाती. पर मैं प्रेमरोग से पीडि़त उस की बात की तरफ ध्यान न देता. उस की भावनाओं से मुझे कोई लेनादेना नहीं था.

पर एक दिन बम सा फट गया. मैं ने उस के साथ हरकत की और वह हो गया, जिस की मैं ने कभी उम्मीद नहीं की थी. मैं उस घटना के बारे में यहां नहीं लिख सकता. मैं इतना चकित और हैरान हूं कि ऐसा कैसे हो गया? क्या नीहारिका जैसी कमजोर लड़की मेरे साथ ऐसा कर सकती है?

अब नारी जाति से मेरा विश्वास उठ गया है. ऊपर से वह कुछ और दिखती है, मन में उस के कुछ और होता है. आसानी से उस के मन को पढ़ पाना या समझ पाना संभव नहीं है. मैं उस की हंसी और प्रेमिल व्यवहार से सम्मोहित हो गया था. समझ बैठा था कि वह मुझे प्रेम करने लगी है. परंतु नहीं…खूबसूरत पंछी सूने वीरान पेड़ पर कभी नहीं बैठता. नीहारिका के बारे में मैं ने बहुत गलत सोचा था. कभी नीहारिका से आप की मुलाकात होगी तो वह अवश्य इस बात का जिक्र करेगी.

मेरा प्रेम का ज्वर जिस तीव्रता से उठा था उसी तीव्रता के साथ झाग की तरह बैठ गया. नीहारिका मेरे सामने से चली गई. मैं उसे चाह कर भी नहीं रोक सकता था. रोकता भी तो वह नहीं रुकती. मेरे अंदर का सांप मर गया.

नागेश की ज्यादतियां बढ़ती जा रही हैं. नीहारिका को अब वह ज्यादा समय अपने कमरे में ही बिठा कर रखता है. काम क्या करवाता होगा, गप्पें ही मारता होगा. नीहारिका से पूछता हूं तो उस के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताती है. मैं मन मसोस कर रह जाता हूं. नागेश क्या मेरे और नीहारिका के बीच दूरियां बनाने का प्रयत्न कर रहा है? लेकिन वह इस में सफल नहीं होगा. नीहारिका और मेरे बीच अब कोई दूरी नहीं रह गई है. उस ने मेरे शादी के प्रस्ताव को मान लिया है. मैं जल्द ही उस के मांबाप से मिलने वाला हूं.

नीहारिका मेरी मनोदशा समझती है. इसीलिए वह नागेश के बारे में भूल कर भी बात नहीं करती है. मैं खोदखोद कर पूछता हूं…तब भी नहीं बताती. मैं खीझ कर कहता हूं, ‘‘वह हरामी कोई ज्यादती तो नहीं करता तुम्हारे साथ?’’

वह हंस कर कहती, ‘‘तुम को मेरे ऊपर विश्वास है न. तो फिर निश्ंिचत रहो. अगर ऐसी कोई स्थिति आई तो मैं स्वयं उस से निबट लूंगी. तुम चिंता न करो.’’

‘‘क्यों न करूं? तुम एक नाजुक लड़की हो और वह विषधर काला नाग. कमीना आदमी है. पता नहीं, कब कैसी हरकत कर बैठे तुम्हारे साथ? उस के साथ कमरे में अकेली जो रहती हो.’’

नीहारिका के चेहरे पर वैसी ही मोहक मुसकान है. आंखों में चंचलता और शैतानी नाच रही है. निचले होंठ का दायां कोना दांतों से दबा कर कहती है, ‘‘वैसी हरकत तो तुम भी कर सकते हो मेरे साथ. तुम्हारे साथ भी एकांत कमरे में रहती हूं.’’ उस ने जैसे मुझे निमंत्रण दिया कि मैं चाहूं तो उस के साथ वैसी हरकत कर सकता हूं. वह बुरा नहीं मानेगी. हम दोनों इंडिया गेट पर भीड़भाड़ से दूर एकांत में टहल रहे थे. अंधेरा घिरने लगा था. मैं ने इधरउधर देखा. कहीं कोई साया नहीं, आहट नहीं. मैं ने नीहारिका को अपनी बांहों में समेट लिया. वह फूल की तरह मेरे सीने में सिमट गई. नागेश रूपी सांप हमारे बीच से गायब हो चुका था.

नीहारिका ने जिस भाव से अपने को मेरी बांहों में सौंपा था, मुझे उस के प्रति कोई अविश्वास न रहा. मैं नागेश की तरफ से भी आश्वस्त हो गया कि नीहारिका उस की किसी भी बेजा हरकत से निबट लेगी. दोनों को ले कर मेरी चिंता निरर्थक है.

इधर लगता है, नागेश को नीहारिका के साथ मेरे प्यार को ले कर शक हो गया है. तभी तो उस ने आदेश पारित किया है कि अब वह हरीश के साथ काम करेगी. मुझे इस से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला. नीहारिका मेरे इतने करीब आ चुकी है कि उसे मुझ से जुदा करना नागेश के बूते की बात नहीं है. मुझे इंतजार उस दिन का है जब नीहारिका ब्याह कर मेरे घर आएगी.

नीहारिका की डायरी

बहुत कुछ बरदाश्त के बाहर होता जा रहा है. नागेश ने मुझे अपनी संपत्ति समझ लिया है. इसी तरह की बातें भी करता है और व्यवहार भी.

पता नहीं…शायद नागेश को शक हो गया है कि अनुराग और मेरे बीच अंतरंगता बढ़ती जा रही है. शायद शक न भी हो, पर उसे डर लगता है कि मैं या अनुराग एकदूसरे के ऊपर आसक्त हो जाएंगे. इसी डर की वजह से उस ने मुझे हरीश के साथ लगा दिया है.

मुझे इस से कोई अंतर नहीं पड़ता. दिन में न सही, शाम को हम दोनों मिलते हैं. अनुराग और मेरे दिलों के बीच क ी दूरी समाप्त हो चुकी है. बस, शादी के बंधन में बंधना है. इस में थोड़ी सी रुकावट है. मेरी पक्की नौकरी नहीं है. उम्र भी अभी कम है. मैं ने अनुराग से कह दिया है. कम से कम 1 साल उसे इंतजार करना पड़ेगा. वह तैयार है. तब तक कोई नौकरी मिल ही जाएगी. तब हम दोनों शादी के बंधन में बंध जाएंगे.

अब नागेश खुले सांड की तरह खूंखार होता जा रहा है. जब से हरीश के साथ लगाया है, एक पल के लिए पीछा नहीं छोड़ता या तो अपने कमरे में बुला लेता है या खुद हरीश के कमरे में आ कर बैठ जाता है और अनर्गल बातें करता है. उस के चक्कर में न तो हरीश कोई काम कर पाता है न वह मुझ से कोई काम करवा पाता है.

नागेश की वजह से पूरे दफ्तर में मैं बदनाम होती जा रही हूं. सब मुझे एसी वाली लड़की कहने लगे हैं. नागेश के कमरे में एसी जो लगा है. लोग जब मुझे एसी वाली लड़की कहते हैं मैं हंस कर टाल जाती हूं. किसी बात का प्रतिरोध करने का मतलब उस को बढ़ावा देना है, कहने वालों की सोच बेलगाम हो जाती और फिर मेरे और नागेश के बारे में तरहतरह की बातें फैलतीं, चर्चाएं होतीं. इस में मेरी ही बदनामी होती. नागेश का क्या जाता? उस से कोई कुछ भी न कहता. मैं अस्थायी थी. लोग सोचते, मैं नागेश को फंसा कर अपनी नौकरी की जुगाड़ में लगी हूं. सचाई किसी को पता नहीं है.

नागेश का मुंह तो चलता ही रहता है, अब उस के हाथ भी चलने लगे हैं. वह मेरे पीछे आ कर खड़ा हो जाता है और कंप्यूटर पर काम करवाने के बहाने कभी सर, कभी कंधे और कभी पीठ पर हाथ रख देता है. मुझे उस का हाथ मरे हुए सांप जैसा लगता है. कभीकभी मरा हुआ सांप जिंदा हो जाता है. उस का हाथ अधमरे सांप की तरह मेरी पीठ पर रेंगने लगता है. वह मेरी पीठ सहलाता है. मुझे गुदगुदी का एहसास होता है, परंतु उस में लिजलिजापन होता है.

मन में एक घृणा उपजती है, कोई प्यार नहीं. नागेश के प्रति मैं एक आक्रोश से भर जाती हूं, परंतु इसे बाहर नहीं निकाल सकती. मैं बरदाश्त करने की कोशिश करती हूं. देखना चाहती हूं कि वह किस हद तक जा सकता है. मेरी तय हुई हद के बाहर जाते ही वह परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहे…मैं ने मन ही मन तय कर लिया था. जैसे ही उस ने हद पार की, मेरा रौद्र रूप प्रकट हो जाएगा. अभी तक उस ने मेरी हंसी और प्यारी मुसकराहट देखी है. बूढ़े को पता नहीं है कि लड़कियां आत्मरक्षा और सम्मान के लिए चंडी बन सकती हैं.

जब वह मेरी पीठ सहलाता है मैं बहाना बना कर बाहर निकल जाती हूं. कोशिश करती हूं कि जल्दी उस के कमरे में न जाना पड़े. पर वह शैतान की औलाद…कहां मानने वाला है. बारबार बुलाता रहता है. मैं देर करती हूं तो वह खुद उठ कर हरीश के कमरे में आ जाता है…न खुद चैन से बैठता है न मुझे बैठने देता है.

उस दिन हद हो गई. उस ने सारी सीमाएं तोड़ दीं. उस का बायां हाथ अधमरे सांप की तरह मेरी पीठ पर रेंग रहा था. मैं मन ही मन सुलग रही थी. अचानक उस का हाथ आगे बढ़ा और मेरी बांह के नीचे से होता हुआ कुछ ढूंढ़ने का प्रयास करने लगा. मैं समझ गई, वह क्या चाहता था? मैं थोड़ा सिमट गई परंतु उस ने घात लगा कर मेरे बाएं वक्ष को अपनी हथेली में समेट लिया. उसी तरह जैसे चालाक सांप बेखबर मेढक को अपने मुंह में दबोच लेता है.

यह मेरी तय की हुई हद से बाहर की बात थी. मैं अपना होश खो चुकी थी. अचानक खड़ी हो गई. उस का हाथ छिटक गया. पर मेरा दायां हाथ उठ चुका था. बिजली की तरह उस के बाएं गाल पर चिपक गया, मैं ने जो नहीं सोचा था वह हो गया. जोर से तड़ाक की आवाज आई और वह दाईं तरफ बूढे़ बैल की तरह लड़खड़ा कर रह गया.

मैं ने उस के मुंह पर थूक दिया और किटकिटा कर कहा, ‘‘मैं ने दोस्ती की थी…शादी नहीं.’’ और तमतमाती हुई बाहर निकल गई.

फिर मैं वहां नहीं रुकी. नागेश के कमरे से बाहर आते ही मैं बिलकुल सामान्य हो गई. अनुराग को चुपके से बुलाया और कार्यालय के बाहर चली गई. बाहर आ कर मैं ने अनुराग को सबकुछ बता दिया. वह हैरानी से मेरा मुंह ताकने लगा, जैसे उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं ऐसा भी कर सकती हूं. वह मुझे बच्ची समझता था…20 वर्ष की अबोध बच्ची. परंतु मैं अबोध नहीं थी.

अनुराग ने चुपचाप मुझे एक बच्ची की तरह सीने से लगा लिया, जैसे उसे डर था कि कहीं खो न जाऊं. परंतु मैं खोने वाली नहीं थी क्योंकि मैं इस बेरहम और स्वार्थी दुनिया के बीच अकेली  नहीं थी, अनुराग के प्यार का संबल जो मुझे थामे हुए था.

Hindi Stories Online : यक्ष प्रश्न

Hindi Stories Online : अनुभा ने अस्पताल की पार्किंग में बमुश्किल गाड़ी पार्क की. ‘उफ, इतनी सारी गाडि़यां… न सड़क में जगह, न पार्किंग स्पेस में. गाड़ी रखना भी एक मुसीबत हो गई है. कहीं भी जगह नहीं है. अब तो लोग फुटपाथों पर भी गाडि़यां पार्क करने लगे हैं. सरकारी परिसर हो या निजी आवासीय क्षेत्र, हर जगह एकजैसा हाल. इस के बावजूद लोग गाडि़यां खरीदना बंद नहीं कर रहे हैं,’ यही सब सोचती वह अस्पताल की सीढि़यां चढ़ रही थी.

दूसरी मंजिल पर सेमीप्राइवेट वार्ड में अनुभा की सहेली कम सहकर्मी भरती थी. उसे किडनी में पथरी थी. उसी के औपरेशन के लिए भरती थी. कल उस का औपरेशन हुआ था. अनुभा आज उसे देखने जा रही थी.

सहेली से मिलने और उस का हालचाल पूछने के बाद जब अनुभा उस के बिस्तर पर बैठी तो उस ने कमरे में इधरउधर निगाह डाली. सेमीप्राइवेट वार्ड होने के कारण उस में 2 मरीज थे. दूसरी मरीज भी महिला ही थी. उस ने गौर से दूसरी मरीज को देखा, तो उसे वह कुछ जानीपहचानी लगी. उस ने दिमाग पर जोर दे कर सोचा. वह मरीज भी उसे गौर से देख रही थी. उस की बुझी आंखों में एक चमक सी आ गई जैसे कई बरसों बाद वह अपने किसी आत्मीय को देख रही हो.

दोनों की आंखें एकदूसरे के मनोभावों को पढ़ रही थीं और फिर जैसे अचानक  एकसाथ दोनों के मन से दुविधा और संकोच की बेडि़यां टूट गई हों अनुभा चौंकती सी उस की तरफ लपकी, ‘‘निमी…’’

मरीज के सूखे होंठों पर फीकी सी मुसकराहट फैल गई, ‘‘तुम ने मुझे पहचान लिया?’’

निम्मी के स्वर से ऐसा लग रहा था जैसे इस दुनिया में उस का कोई जानपहचान वाला नहीं है. अनुभा अचानक आसमान से आ टपकी थी, वरना वह इस संसार में असहाय और अनाथ जीवन व्यतीत कर रही थी.

‘‘निमी, तुम यहां और इस हालत में?’’ अनुभा ने उस के हाथों को पकड़ कर कहा.

निमी का नाम निमीषा था, परंतु उस के दोस्त और सहेलियां उसे निमी कह कर बुलाते थे.

अनुभा एक पल को चुप रही, फिर बोली,  ‘‘तुम्हें क्या हुआ है? मैं ने तो कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन तुम्हें इस हालत में देखूंगी. तुम्हारी सुंदर काया को क्या हुआ… चेहरे की कांति कहां चली गई?  ऐसा कैसे हुआ?’’

निमी ने पलंग से उठ कर बैठने का प्रयास किया, परंतु उस की सांस फूलने लगी. अनुभा ने उसे सहारा दिया. पलंग को पीछे से उठा दिया, जिस से निमी अधलेटी सी हो गई.

‘‘तुम ने इतने सारे सवाल कर दिए… समझ में नहीं आता कैसे इन के जवाब दूं. एक दिन में सबकुछ बयां नहीं किया जा सकता… मैं ज्यादा नहीं बोल सकती… हांफ जाती हूं… फेफड़े कमजोर हैं न. ’’

‘‘तुम्हें हुआ क्या है?’’ अनुभा ने पूछा.

‘‘एक रोग हो तो बताऊं… अब तुम मिली हो, तो धीरेधीरे सब जान जाओगी. क्या तुम्हारे पास इतना समय है कि रोज आ कर मेरी बातें सुन सको.’’

‘‘हां, मैं रोज आऊंगी और सुनूंगी,’’ अनुभा को निमी की हालत देख कर तरस नहीं, रोना आ रहा था जैसे वह उस की जान हो, जो उसे छोड़ कर जा रही थी. उस ने कस कर निमी का हाथ पकड़ लिया.

निमी के बदन में एक सुरसुरी सी दौड़ गई. उस के अंदर एक सुखद एहसास ने अंगड़ाई ली. वह तो जीने की आस ही छोड़ चुकी थी, परंतु अनुभा को देख कर उसे लगा कि उसे देखनेसमझने वाला कोई है अभी इस दुनिया में. फिर कोई जब चाहने वाला पास हो, तो जीने की लालसा स्वत: बढ़ जाती है.

‘‘तुम्हारे साथ कोई नहीं है?’’ अनुभा ने आंखें झपकाते हुए पूछा, ‘‘कोई देखभाल करने वाला… तुम्हारे घर का कोई?’’

निमी ने एक ठंडी सांस लेते हुए कहा,  ‘‘नहीं, कोई नहीं.’’

‘‘क्यों, घर में कोई नहीं है क्या?’’

‘‘जो मेरे अपने थे उन्हें मैं ने बहुत पहले छोड़ दिया था और जीवन के पथ पर चलते हुए जिन्हें मैं ने अपना बनाया वे बीच रास्ते छोड़ कर चलते बने. अब मैं नितांत अकेली हूं. कोई नहीं है मेरा अपना. आज वर्षों बाद तुम मिली हो, तो ऐसा लग रहा है जैसे मेरा पुराना जीवन फिर से लौट आया हो. मेरे जीवन में भी खुशी के 2 फूल खिल गए हैं, जिन की सुगंध से मैं महक रही हूं. काश, यह सपना न हो… तुम दोबारा आओगी न?’’

‘‘हांहां, निमी, मैं आऊंगी. तुम से मिलने ही नहीं, तुम्हारी देखभाल करने के लिए भी… तुम्हारा अस्पताल का खर्चा कौन उठा रहा है?’’

निमी ने फिर एक गहरी सांस ली, ‘‘है एक चाहने वाला, परंतु उस ने मेरी बीमारियों के कारण मुझ से इतनी दूरी बना ली है कि वह मुझे देखने भी नहीं आता. कभीकभी उस का नौकर आ जाता है और अस्पताल का पिछला बिल भर कर कुछ ऐडवांस दे जाता है ताकि मेरा इलाज चलता रहे. बस मेरे प्यार के बदले में इतनी मेहरबानी वह कर रहा है.’’

उस दिन अनुभा निमी के पास बहुत देर नहीं रुक पाई, क्योंकि वह औफिस से आई थी. शाम को आने का वादा कर के वह औफिस आ गई, परंतु वहां भी उस का मन नहीं लगा. निमी की दुर्दशा देख कर उसे अफसोस के साथसाथ दुख भी हो रहा था. उसे कालेज के दिन याद आने लगे जब वे दोनों साथसाथ पढ़ती थीं…

निमीषा और अनुभा दोनों ही शिक्षित परिवारों से थीं. अनुभा के पिता आईएएस अफसर थे, तो निमी के पिता वरिष्ठ आर्मी औफिसर. दोनों एक ही क्लास में थीं, दोस्त थीं, परंतु दोनों के विचारों में जमीनआसमान का अंतर था. अनुभा पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों व मान्यताओं को मानने वाली लड़की थी, तो निमी को स्थापित मूल्य तोड़ने में मजा आता था. परंपराओं का पालन करना उसे नहीं भाता था. नैतिकता उस के सामने पानी भरती थी, तो मूल्य धूल चाटते नजर आते थे. संभवतया सैनिक जीवन की अति स्वछंदता और खुलेपन के माहौल में जीने के कारण उस के स्वभाव में ऐसा परिवर्तन आया हो.

निमीषा बहुत बड़ी अफसर बनना चाहती थी, परंतु अनुभा को पता नहीं था

कि वह क्या बन गई? हां, वह शादी भी नहीं करना चाहती थी. उस का मानना था शादी का बंधन स्त्री के लिए एक लिखित आजीवन कारावास का अनुबंध होता है. तब युवाओं के बीच लिव इन रिलेशनशिप का चलन बढ़ने लगा था. निमी ऐसे संबंधों की हिमायती थी. कालेज के दौरान ही उस ने लड़कों के साथ शारीरिक संबंध बना लिए थे.

इस का पता चलने पर अनुभा ने उसे समझाया था, ‘‘ये सब ठीक नहीं है. दोस्ती तक तो ठीक है, परंतु शारीरिक संबंध बनाना और वह भी शादी के पहले व कई लड़कों के साथ को मैं उचित नहीं समझती.’’

निमी ने उस का उपहास उड़ाते हुए कहा,  ‘‘अनुभा, तुम कौन से युग में जी रही हो? यह मौडर्न जमाना है, स्वछंद जीवन जीने का. यहां व्यक्तिगत पसंद से रिश्ते बनतेबिगड़ते हैं, मांबाप की पसंद से नहीं. इट्स माई लाइफ… मैं जैसे चाहूंगी जीऊंगी.’’

अनुभा के पास तर्क थे, परंतु निमी के ऊपर उन का कोई असर न होता. कालेज के बाद दोनों सहेलियां अलग हो गईं. अनुभा के पिता केंद्र सरकार की प्रतिनियुक्ति से वापस लखनऊ चले गए. अनुभा ने वहां से सिविल सर्विसेज की तैयारी की और यूपीएससी की गु्रप बी सेवा में चुन ली गई. कई साल लखनऊ, इलाहाबाद और बनारस में पोस्टिंग के बाद अब उस का दिल्ली आना हुआ था. इस बीच उस की शादी भी हो गई. पति केंद्र सरकार में ग्रुप ए अफसर थे. दोनों ही दिल्ली में तैनात थे. उस की 10 वर्ष की 1 बेटी थी.

अनुभा को निमी के जीवन के पिछले 15 वर्षों के बारे में कुछ पता नहीं था. उसे उत्सुकता थी, जल्दी से जल्दी उस के बारे में जानने की. आखिर उस के साथ ऐसा क्या हुआ था कि उस ने अपने शरीर का सत्यानाश कर लिया… तमाम रोगों ने उस के शरीर को जकड़ लिया. वह शाम होने का इंतजार कर रही थी. प्रतीक्षा में समय भी लंबा लगने लगता है. वह बारबार घड़ी देखती, परंतु घड़ी की सूइयां जैसे आगे बढ़ ही नहीं रही थीं.

किसी तरह शाम के 5 बजे. अभी भी 1 घंटा बाकी था, परंतु वह अपने सीनियर को अस्पताल जाने की बात कह कर बाहर निकल आई. गाड़ी में बैठने से पहले उस ने अपने पति को फोन कर के बता दिया कि वह अस्पताल जा रही है. घर देर से लौटेगी.

अनुभा को देखते ही निमी के चेहरे पर खुशी फैल गई जैसे उस के अंदर असीम ऊर्जा और शक्ति का संचार होने लगा हो.

अनुभा उस के लिए फल लाई थी. उन्हें सिरहाने के पास रखी मेज पर रख कर वह निमी के पलंग पर बैठ गई. फिर उस का हाथ पकड़ कर पूछा, ‘‘अब कैसा महसूस हो रहा है?’’

निमी के होंठों पर खुशी की मुसकान थी, तो आंखों में एक आत्मीय चमक… चेहरा थोड़ा सा खिल गया था. बोली, ‘‘लगता है अब मैं बच जाऊंगी.’’

रात में अनुभा ने अपने पति हिमांशु को निमी के बारे में सबकुछ बता दिया. सुन कर उन्हें भी दुख हुआ. अगले दिन सुबह औफिस जाते हुए वे दोनों ही निमी से मिलने गए. हिमांशु ने डाक्टर से मिल कर निमी की बीमारियों की जानकारी ली. डाक्टर ने जो कुछ बताया, वह बहुत दर्दनाक था. निमी के फेफड़े ही नहीं, लिवर और किडनियां भी खराब थीं. वह शराब और सिगरेट के अति सेवन से हुआ था. अनुभा को पता नहीं था कि वह इन सब का सेवन करती थी. हिमांशु ने जब उसे बताया, तो वह हैरान रह गई. पता नहीं किस दुष्चक्र में फंस गई थी वह?

खैर, हिमांशु और अनुभा ने यह किया कि रात में निमी के पास अपनी नौकरानी को देखभाल के लिए रख दिया. हिमांशु नियमित रूप से उस के इलाज की जानकारी लेते. उन के कारण ही अब डाक्टर विशेषरूप से निमी का ध्यान रखने लगे थे. वह बेहतर से बेहतर इलाज उसे मुहैया करा रहे थे.

इस सब का परिणाम यह हुआ कि निमी 1 महीने के अंदर ही इतनी ठीक हो गई कि अपने घर जा सकती थी. हालांकि दवा नियमित लेनी थी.

जिस दिन उसे अस्पताल से डिस्चार्ज होना था वह कुछ उदास थी. उस का सौंदर्य पूर्णरूप से तो नहीं, परंतु इतना अवश्य लौट आया था कि वह बीमार नहीं लगती थी.

अनुभा ने पूछा, ‘‘तुम खुश नहीं लग रही हो… क्या बात है? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि ठीक हो कर घर जा रही हो?’’

निमी ने खाली आंखों से अनुभा को देखा और फिर फीकी आवाज में कहा, ‘‘कौन सा घर? मेरा कोई घर नहीं है.’’

‘‘अपने दोस्त के यहां, जो तुम्हारा इलाज करवा रहा था…’’

एक फीकी उदास हंसी निमी के होंठों पर तैर गई, ‘‘जो व्यक्ति मुझ से मिलने अस्पताल में कभी नहीं आया, जिसे पता है कि मेरे शरीर के महत्त्वपूर्ण अंग बेकार हो चुके हैं. वह मुझे अपने घर रखेगा?’’

‘‘फिर वह तुम्हारा इलाज क्यों करवा रहा था?’’

‘‘बस एक यही एहसान उस ने मेरे ऊपर किया है. मेरे प्यार का कुछ कर्ज उसे अदा करना ही था. वह बहुत पैसे वाला है, परंतु एक बीमार औरत को घर में रखने का फैसला उस के पास नहीं है. उसे रोज अनगिनत सुंदर और कुंआरी लड़कियां मिल सकती हैं, तो वह मेरी परवाह क्यों करेगा. वैसे मैं स्वयं उस के पास नहीं जाना चाहती हूं. मैं किसी भी मर्द के पास नहीं जाना चाहती. मर्दों ने ही मुझे प्यार की इंद्रधनुषी दुनिया में भरमा कर मेरी यह दुर्गति की है… मैं किसी महिला आश्रम में जाना चाहूंगी,’’ उस के स्वर में आत्मविश्वास सा आ गया था.

अनुभा सोच में पड़ गई. उस ने हिमांशु से सलाह ली. फिर निमी से बोली, ‘‘तुम कहीं और नहीं जाओगी, मेरे घर चलोगी.’’

‘‘तुम्हारे घर?’’ निमी का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘हां, और अब इस के बाद कोई सवाल नहीं, चलो.’’

अनुभा और हिमांशु को मोतीबाग में टाइप-5 का फ्लैट मिला था. उस में पर्याप्त कमरे थे. 1 कमरा उन्होंने निमी को दे दिया. निमी अनुभा और हिमांशु की दरियादिली, प्रेम और स्नेह से अभिभूत थी. उस के पास धन्यवाद करने के लिए शब्द नहीं थे.

निमी के पिता आर्मी औफिसर थे. मां भी उच्च शिक्षित थीं. आर्मी में रहने के कारण उन्हें तमाम सुविधाएं प्राप्त थीं. पिता रोज क्लब जाते थे और शराब पी कर लौटते थे. मां भी कभीकभार क्लब जातीं और शराब का सेवन करतीं. उन के घर में शराब की बोतलें रखी ही रहतीं. कभीकभार घर में भी महफिल जम जाती. निमी के पिता के यारदोस्त अपनी बीवियों के साथ आते या कोई रिश्तेदार आ जाता, तो महफिल कुछ ज्यादा ही रंगीन हो जाती.

निमी बचपन से ही ये सब देखती आ रही थी. उस के कच्चे मन में वैसी ही संस्कृति और संस्कार घर कर गए. उसे यही वास्तविक जीवन लगता. 15 साल की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते उस ने शराब का स्वाद चोरीछिपे चख लिया था और सिगरेट के सूट्टे भी लगा लिए थे.

ग्रैजुएशन करने के बाद निमी ने मम्मीपापा से कहा, ‘‘मैं यूपीएसी का ऐग्जाम देना चाहती हूं.’’

‘‘तो तैयारी करो.’’

‘‘कोचिंग करनी पड़ेगी. अच्छे कोचिंग इंस्टिट्यूट डीयू के आसपास मुखर्जी नगर में हैं.’’

‘‘क्या दिक्कत है? जौइन कर लो.’’

‘‘परंतु इतनी दूर आनेजाने में बहुत समय बरबाद हो जाएगा. मैं चाहती हूं कि यहीं आसपास बतौर पीजी रह लूं और सीरियसली कंपीटिशन की तैयारी करूं… तभी कुछ हो पाएगा,’’ निमी ने कहा.

मम्मीपापा ने एकदूसरे की आंखों में एक पल के लिए देखा, फिर पापा ने उत्साह से कहा,  ‘‘ओके माई गर्ल. डू व्हाटएवर यू वांट.’’

‘‘किंतु यह अकेले कैसे रहेगी?’’ मम्मी ने शंका व्यक्त की.

‘‘क्या दकियानूसी बातें कर रही हो. शी इज ए बोल्ड गर्ल. आजकल लड़कियां विदेश जा रही हैं पढ़ने के लिए. यह तो दिल्ली शहर में ही रहेगी. जब मरजी हो जा कर मिल आया करना. यह भी आतीजाती रहेगी.’’

‘‘यस मौम,’’ निमी ने दुलार से कहा. जब बापबेटी राजी हों, तो मां की कहां चलती है. उसे परमीशन मिल गई. उस ने 1 साल का कन्सौलिडेटेड कोर्स जौइन कर लिया और मुखर्जी नगर में ही रहने लगी.

जैसाकि निमी का स्वभाव था, वह जल्दी लड़कों में लोकप्रिय हो गई. कोचिंग में पढ़ने वाले कई लड़के उस के दोस्त बन गए. सभी धनाढ्य घरों के थे. उन के पास अनापशनाप पैसे आते थे. आएदिन पार्टियां होतीं. निमी उन पार्टियों की शान समझी जाती थी.

लड़के उस के सामीप्य के लिए एड़ीचोटी का जोर लगा देते. दिन, महीनों में नहीं बदले, उस के पहले ही निमी कई लड़कों के गले का हार बन गई. उस के बदन के फूल लड़कों के बिस्तर पर महकने लगे.

बहुत जल्दी उस के मम्मीपापा को उस की हरकतों के बारे में पता चल गया. मम्मी ने समझाया, ‘‘बेटा, यह क्या है? इस तरह का जीवन तुम्हें कहां ले जा कर छोड़ेगा, कुछ सोचा है? हम ने तुम्हें कुछ ज्यादा ही छूट दे दी थी. इतनी छूट तो विदेशों में भी मांबाप अपने बच्चों को नहीं देते. चलो, अब तुम पीजी में नहीं रहोगी… जो कुछ करना है हमारी निगाहों के सामने घर पर रह कर करोगी.’’

‘‘मम्मी, मेरी कोचिंग तो पूरी हो जाने दो,’’  निमी ने प्रतिरोध किया.

‘‘जो तुम्हारे आचरण हैं, उन से क्या तुम्हें लगता है कि तुम कोचिंग की पढ़ाई कर पाओगी… कोचिंग पूरी भी कर ली, तो कंपीटिशन की तैयारी कर पाओगी? पढ़ाई करने के लिए किताबें ले कर बैठना पड़ता है, लड़कों के हाथ में हाथ डाल कर पढ़ाई नहीं होती,’’ मां ने कड़ाई से कहा.

‘‘मम्मी, प्लीज. आप पापा को एक बार समझाओ न,’’ निमी ने फिर प्रतिरोध किया.

‘‘नहीं, निमी. तुम्हारे पापा बहुत दुखी और आहत हैं. मैं उन से कुछ नहीं कह सकती. तुम अपने मन की करोगी, तो हम तुम्हें रुपयापैसा देना बंद कर देंगे. फिर तुम्हें जो अच्छा लगे करना.’’

निमी अपने घर आ तो गई, परंतु अंदर से बहुत अशांत थी. घर पर ढेर सारे प्रतिबंध थे. अब हर क्षण मां की उस पर नजर रहती.

शराब, सिगरेट और लड़कों से वह भले ही दूर हो गई थी, परंतु मोबाइल फोन के माध्यम से उस के दोस्तों से उस का संपर्क बना हुआ था.

जब फोन करना संभव न होता, फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप के माध्यम से संपर्क हो जाता. लड़के इतनी आसानी से सुंदर मछली को फिसल कर पानी में जाने देना नहीं चाहते.

लड़कों ने उसे तरहतरह से समझाया. वे सभी उस का खर्चा उठाने के लिए तैयार थे. रहनेखाने से ले कर कपड़ेलत्ते और शौक तक… सब कुछ… बस वह वापस आ जाए. प्रलोभन इतने सुंदर थे कि वह लोभ संवरण न कर सकी. मांबाप के प्यार, संरक्षण और सलाहों के बंधन टूटने लगे.

निमी ने बुद्धि के सारे द्वार बंद कर दिए. विवेक को तिलांजलि दे दी और एक दिन घर से कुछ रुपएपैसे और कपड़े ले कर फरार हो गई. दोस्तों ने उस के खाने व रहने के लिए एक फ्लैट का इंतजाम कर रखा था. काफी दिनों तक वह बाहरी दुनिया से दूर अपने घर में बंद रही.

पता नहीं उस के मांबाप ने उसे ढूंढ़ने का प्रयत्न किया था या नहीं. उस ने अपना फोन नंबर ही नहीं, फोन सैट भी बदल लिया था. मांबाप अगर पुलिस में रिपोर्ट लिखाते तो उस का पता चलना मुश्किल नहीं था. उस के पुराने फोन की काल डिटेल्स से उस के दोस्तों और फिर उस तक पुलिस पहुंच सकती थी, परंतु संभवतया उस के मांबाप ने पुलिस में उस के गुम होने की रिपोर्ट नहीं लिखाई थी.

निमी का जीवन एक दायरे में बंध कर रह गया था. खानापीना और ऐयाशी, जब तक वह नशे में रहती, उसे कुछ महसूस न होता, परंतु जबजब एकांत के साए घेरते उस के दिमाग में तमाम तरह के विचार उमड़ते, मांबाप की याद आती.

न तो समय एकजैसा रहता है, न कोई वस्तु अक्षुण्ण रहती है. निमी ने धीरेधीरे महसूस किया, उस के जो मित्र पहले रोज उस के पास आते थे, अब हफ्ते में 2-3 बार ही आते थे. पूछने पर बताते व्यस्तता बढ़ रही है. दूसरे काम आ गए हैं. मगर सत्य तो यह था उन के जीवन में एकरसता आ गई थी. अनापशनाप पैसा खर्च हो रहा था. मांबाप सवाल उठाने लगे थे. निमी की तरह बेवकूफ तो थे नहीं, उन्हें अपना कैरियर बनाना था. कुछ की कोचिंग समाप्त हो गई, तो वे अपने घर चल गए. जो दिल्ली के थे, वे कभीकभार आते थे, परंतु अब उन के लिए भी निमी का खर्चा उठाना भारी पड़ने लगा था.

निमी वरुण को अपना सर्वश्रेष्ठ हितैषी समझती थी. एक दिन उसी से पूछा, ‘‘वरुण, एक बात बताओ, मैं ने तुम लोगों की दोस्ती के लिए अपना घरपरिवार और मांबाप छोड़ दिए, अब तुम लोग मुझे 1-1 कर छोड़ कर जाने लगे हो. मैं तो कहीं की न रही… मेरा क्या होगा?’’

वरुण कुछ पल सोचता रहा, फिर बोला, ‘‘निमी, मेरी बात तुम्हें कड़वी लगेगी, परंतु सचाई यही है कि तुम ने हमारी दोस्ती नहीं अपने स्वार्थ और सुख के लिए घर छोड़ा था. यहां कोई किसी के लिए कुछ नहीं करता, सब अपने लिए करते हैं. अपनी स्वार्थ सिद्धि के बाद सब अलग हो जाते हैं, जैसा अब तुम्हारे साथ हो रहा है.

यह कड़वी सचाई तुम्हें बहुत पहले समझ जानी चाहिए थी. हम सभी अभी बेरोजगार हैं, मांबाप के ऊपर निर्भर हैं, कैरियर बनाना है. ऐसे में रातदिन हम  भोगविलास में लिप्त रहेंगे, तो हमारा भविष्य चौपट हो जाएगा.’’

अपनी स्थिति पर उसे रोना आ रहा था, परंतु वह रो नहीं सकती थी. आगे आने वाले दिनों के बारे में सोच कर उस का मन बैठा जा रहा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे?

‘‘मैं क्या करूं, वरुण?’’ वह लगभग रोंआसी हो गई थी, ‘‘नासमझी में मैं ने क्या कर डाला?’’

‘‘बहुत सारी लड़कियां जवानी में ऐसा कर गुजरती हैं और बाद में पछताती हैं.’’

‘‘तुम ने भी मुझे कभी नहीं समझाया, मैं तो तुम्हें सब से अच्छा दोस्त समझती थी.’’

वरुण हंसा, ‘‘कैसी बेवकूफी वाली बातें कर रही हो. तुम कभी एक लड़के के प्रति वफादार नहीं रही. तुम्हारी नशे की आदत और तुम्हारी सैक्स की भूख ने तुम्हारी अक्ल पर परदा डाल दिया था. तुम एक ही समय में कई लड़कों के साथ प्रेमव्यवहार करोगी, तो कौन तुम्हारे साथ निष्ठा से प्रेमसंबंध निभाएगा… सभी लड़के तुम्हारे तन के भूखे थे और तुम उन्हें बहुत आसान शिकार नजर आई. बिना किसी प्रतिरोध के तुम किसी के भी साथ सोने के लिए तैयार हो जाती थी. ऐसे में तुम किसी एक लड़के से सच्चे और अटूट प्रेम की कामना कैसे कर सकती हो?’’

वरुण की बातों में कड़वी सचाई थी. निमी ने कहा, ‘‘मैं ने जोश में आ कर अपना सब कुछ गवां दिया. दोस्त भी 1-1 कर चले गए. तुम तो मेरा साथ दे सकते हो.’’

वरुण ने हैरान भरी निगाहों से उसे देखा, ‘‘तुम्हारा साथ कैसे दे सकता हूं? मैं तो स्वयं तुम से दूर जाने वाला था. 1 साल मेरा बरबाद हो गया. इस बार प्री ऐग्जाम भी क्वालिफाई नहीं कर पाया. तुम्हारे चक्कर में पढ़ाईलिखाई हो ही नहीं पाई. घर में मम्मीपापा सभी नाराज हैं. ऐयाशी और मौजमस्ती छोड़ कर मैं ईमानदारी से तैयारी करना चाहता हूं. मैं तुम से कोई वास्ता नहीं रखना चाहता. वरना मेरा जीवन चौपट हो जाएगा.’’

निमी ने उस के दोनों हाथों को पकड़ कर अपने सीने पर रख लिया, ‘‘वरुण, मैं जानती हूं मैं ने गलती की है. मछली की तरह एक से दूसरे हाथ में फिसलती रही, परंतु सच मानो मैं ने तुम्हें सच्चे मन से प्यार किया है. जब कभी मन में अवसाद के बादल उमड़े मैं ने केवल तुम्हें याद किया. मुझे इस तरह छोड़ कर न जाओ.’’

‘‘निमी, तुम समझने का प्रयास करो, मैं ने अगर तुम्हारा साथ नहीं छोड़ा, तो मेरा भविष्य मेरे रास्ते से गायब हो जाएगा. मुझे कुछ बन जाने दो.’’

‘‘मैं तुम से प्यार की भीख नहीं मांगती. प्यार और सैक्स को पूरी तरह से भोग लिया है मैं ने परंतु पेट की भूख के आगे मनुष्य सदा लाचार रहता है. मेरे पास जीविका का कोई साधन नहीं है. जहां इतना सब कुछ किया, मेरे प्यार के बदले इतना सा उपकार और कर दो. रहने के लिए 1 कमरा और पेट की रोटी के लिए दो पैसे का इंतजाम कर दो. मैं वेश्यावृत्ति नहीं अपनाना चाहती,’’ निमी की आवाज दुनियाभर की बेचारगी और दीनता से भर गयी थी.

वरुण अपने दोस्तों की तरह कठोर नहीं था. उस के अंदर सहज मानवीय भाव थे. वह काफी संवेदनशील था और निमी के प्रति दयाभाव भी रखता था, परंतु उस के लिए वह अपना भविष्य दांव पर नहीं लगा सकता था. अत. कुछ सोच कर बोला, ‘‘तुम प्राइवेट नौकरी कर सकती हो?’’

‘‘हां, मेरे पास और चारा भी क्या है?’’

‘‘तो फिर ठीक है, तुम इसी फ्लैट में रहो. इस का किराया मैं दे दिया करूंगा. मैं अपने पिता से बात कर के तुम्हें किसी कंपनी में काम दिलवा दूंगा, जिस से तुम्हारा गुजारा चल सके.’’

‘‘मैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगी.’’

वरुण ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘या तुम अपने घर चली जाओ.’’

निमी ने आश्चर्य से उसे देखा. फिर बोली, ‘‘कौन सा मुंह ले कर जाऊं उन के पास? क्या बताऊंगी उन्हें कि मैं ने इतने दिन क्या किया है? नहीं वरुण, मैं उन के पास जा कर उन्हें और परेशान नहीं करना चाहती.’’

वरुण के पिता सरकारी विभाग में अच्छे पद थे. उस ने पिता से कह कर निमी को एक प्राइवेट कंपनी में लगवा दिया. 20 हजार महीने पर. निमी का जो लाइफस्टाइल था, उस के हिसाब से उस की यह सैलरी ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर थी, परंतु मुसीबत की घड़ी में मनुष्य को तिनके का सहारा भी बहुत होता है.

निमी ने उन्मुक्त यौन संबंधों से तो छुटकारा पा लिया, परंतु वह शराब और सिगरेट से छुटकारा नहीं पा सकी. एकांत उसे परेशान करता, पुरानी यादें उसे कचोटतीं, मांबाप की याद आती, तो वह पीने बैठ जाती.

वरुण जब भी उस से मिलने आता, वह उस की बांहों में गिर कर रोने लगती. वह समझाता, ‘‘मत पीया करो इतना, बीमार हो जाओगी.’’

‘‘वरुण, एकाकी जीवन मुझे बहुत डराता है,’’ वह उस से चिपक जाती.

‘‘मातापिता के पास वापस चली जाओ. वे तुम्हें माफ कर देंगे,’’

वह कई बार निमी से यह बात कह चुका था, पर हर बार निमी का यही जवाब होता, ‘‘कौन सा मुंह ले कर जाऊं उन के पास? वे मुझे क्या बनाना चाहते थे और मैं क्या बन बैठी… माफ तो कर देंगे, परंतु समाज को क्या जवाब देंगे.’’

‘‘वही, जो अभी दे रहे होंगे.’’

‘‘अभी वे मुझे मरा समझ कर माफ कर देंगे, परंतु उन के पास रह कर मैं उन्हें बहुत दुख दूंगी.’’

‘‘एक बार जा कर तो देखो.’’

‘‘नहीं वरुण, तुम मेरे मांबाप को नहीं जानते. वे मुझे माफ नहीं करेंगे. अगर उन्हें माफ करना होता, तो अब तक मुझे ढूंढ़ लिया होता. यह बहुत मुश्किल नहीं था. उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट भी नहीं की होगी,’’ वरुण के समझाने का उस पर कोई प्रभाव न पड़ता.

यथास्थिति बनी रही. बस वरुण सिविल सर्विसेज की तैयारी में निरंतर जुटा रहा. इस का परिणाम यह रहा कि वह यूपीएससी परीक्षा पास कर गया.

जब वरुण ट्रेनिंग के लिए जाने लगा तो निमी ने कहा, ‘‘अब तुम पूरी तरह से मुझ से दूर चले जाओगे.’’

‘‘वह तो जाना ही था,’’ वरुण ने उसे समझाते हुए कहा.

निमी के मन में बहुत कुछ टूट गया. वह जानती थी, वरुण उस का नहीं हो सकता है,

फिर भी उस के दिल में कसक सी उठी. वह खोईखोई आंखों से वरुण को देख रही थी. वरुण ने उस के सिर को सहलाते हुए कहा, ‘‘देखो, निमी, मेरा कहना मानो, अब भटकने से कोई फायदा नहीं. तुम ने अपने जीवन को जितना गिराना था, गिरा लिया. अब सावधानी से उठने की कोशिश करो. तुम्हारी तनख्वाह बढ़ गई है. कुछ बचा कर पैसे जोड़ लो और किसी लड़के से शादी कर के घर बसा लो. मेरी तरफ से जो हो सकेगा मैं मदद करूंगा.’’

निमी ने जवाब नहीं दिया. अगले कुछ दिनों में वरुण मसूरी चला गया. निमी पूरी तरह टूट गई. उस ने अपनी सोच पर ताले लगा लिए. जैसे वह सुधरना ही नहीं चाहती थी.

1 साल की ट्रेनिंग के दौरान वरुण उस से मिलने केवल एक बार आया और रातभर उस के साथ रुका. तब भी उस ने निमी को घर बसाने की सलाह दी. परंतु वह चुप ही रही.

कई साल बीत गए. वरुण की पोस्टिंग हो गई थी. वह एक जिले का कलैक्टर बन गया था. उसे छुट्टी नहीं मिलती थी या दिल्ली आ कर भी वह उस से मिलना नहीं चाहता था, परंतु हर माह वह एक अच्छी राशि निमी के खाते में जमा करा देता था.

निमी ने तय कर लिया था कि वह शादी नहीं करेगी. वरुण उस का नहीं है, फिर भी उस का इंतजार करती थी. इंतजार जितना लंबा हो रहा था, उस के शराब पीने की मात्रा भी उतनी ही बढ़ती जा रही थी. फिर पता चला कि वरुण की शादी किसी चीफ सैक्रेटरी की आईएएस बेटी से हो गई है. निमी के अंदर जो थोड़ी सी आस बची थी, वह पूर्णरूप से टूट गई. उस की शराब की मात्रा इतनी ज्यादा हो गई कि अब वह दफ्तर भी नहीं जा पाती थी.

वरुण से उस का कोई सीधा संपर्क नहीं था. कभीकभी वरुण के पिता का नौकर उस के हालचाल पूछ जाता था. वही वरुण के बारे में बताता था और उस के बारे में वही वरुण को खबर करता होगा.

अत्यधिक शराब के सेवन से उस की तबीयत खराब रहने लगी. वरुण के पिता का नौकर लगभग रोज उस के पास आने लगा था. एक दिन उसी के सामने निमी को खून की उलटी हुई. उसे आननफानन में अस्पताल में भरती करवाया गया.

मैडिकल रिपोर्ट से यह साबित हो गया था कि अत्यधिक शराब के सेवन से उस के सारे अंदरूनी अंग खराब हो गए हैं. वरुण ने अपने नौकर के माध्यम से उसे सेमी प्राइवेट वार्ड में भरती करवा दिया था. इलाज का सारा खर्च वह भेज रहा था, परंतु कभी मिलने नहीं आया.

उस के इलाज में कोई कमी नहीं थी, परंतु उस का दुख उसे खाए जा रहा था जैसे वह किसी बीमारी से नहीं, अपने दुख से ही मरेगी, परंतु इसी बीच संयोग से अस्पताल में अनुभा प्रकट हुई और उस के जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन आ गया. अब वह ठीक हो कर घर आ गई थी. घर तो आ गई थी, परंतु किस के  घर? उस का अपना घर, संसार कहां था?

यक्ष प्रश्न अभी भी उस के सामने खड़ा था. अब आगे क्या? 35 वर्ष की अवस्था में अब वह कोई युवती नहीं थी. बीमारी ने उस की सुंदरता को काफी हद तक क्षीण कर दिया था. नौकरी हाथ से जा चुकी थी, वरुण से भी व्यक्तिगत संपर्क टूट चुका था.

हिमांशु केंद्र सरकार में उच्च अधिकारी थे. उन्होंने अपने प्रयासों से निमी को एक संस्था से जोड़ दिया. यह संस्था अनाथ बच्चों की देखभाल और उन्हें शिक्षा प्रदान करती थी. कुछ दिन तक निमी अनुभा के घर पर रही. फिर उस की संस्था ने उसे एक घर लीज पर दिलवा दिया. साफसफाई के बाद जिस दिन निमी ने अपने घर में प्रवेश किया, तब अनुभा और उस के पति के कुछ दोस्त मौजूद थे. छोटी सी पार्टी रखी गई थी.

शाम को पार्टी के बाद जब अनुभा निमी को छोड़ कर जाने लगी, तो निमी ने कहा, ‘‘मैं फिर अकेली हो जाऊंगी.’’

‘‘नहीं, तुम अकेली नहीं हो. हम सब तुम्हारे साथ हैं. पहले जो लोग तुम से जुड़े थे, वे स्वार्थवश जुड़े थे. इसीलिए तुम पतन की राह पर चल पड़ी थी. अब तुम्हारे सामने एक लक्ष्य है, बच्चों का भविष्य सुधारने का. इस लक्ष्य को ध्यान में रखोगी और अपनी पिछली जिंदगी के बारे में विचार करोगी, तो तुम एकाकी जीवन जीते हुए भी कभी गलत रास्ते पर नहीं चलोगी.’’

निमी ने शरमा कर सिर झुका लिया. अनुभा ने उस का चेहरा ऊपर उठाया. उस की आंखों में आंसू थे. कई वर्षों बाद उस की आंखों में खुशी के आंसू आए थे.

Hindi Love Stories : बेपनाह मुहब्बत

Hindi Love Stories : बात उन दिनों की है जब मैं प्रोमोशन और ट्रांसफर पर पंजाब के नंगल शहर से चंडीगढ़ पहुंचा था. कंपनी ने मेरे लिए सैक्टर 8 में एक अच्छे मकान की व्यवस्था कर दी थी. मकान में कारपेट ग्रास का लौन था, खूबसूरत फूलों की क्यारियां थीं. नए मकान में पहुंचने पर सामने की कोठी से लगभग 30 वर्ष की महिला किरण मुझ से मिलने आई, ‘‘मुझे जब से पता चला था कि इस मकान में आप रहने आ रहे हैं तो आप से मिलने की बहुत उत्सुकता थी. आप का इस शहर में स्वागत है. मैं सामने वाली कोठी में अपने पति और 1 छोटी बच्ची राखी के साथ रहती हूं.’’ मैं खुश था कि कोई साथ तो मिला. मेरी पत्नी वीना गर्भवती होने के कारण अपने मायके नंगल में ही रुक गई थी.

मैं ने किरण को बताया, ‘‘मेरी पत्नी अभी नंगल में ही है. डिलिवरी के बाद चंडीगढ़ ले आऊंगा.’’ किरण थर्मस में चाय ले कर आई थी. चाय को 2 कपों में डालते हुए बोली, ‘‘आशा है आप को चाय पसंद आएगी. मैं चाय अच्छी बना लेती हूं. मेरे पति उमेश को मेरे हाथों की बनी चाय बहुत अच्छी लगती है,’’ यह कहते हुए वह जिस सोफे पर मैं बैठा था उसी पर मेरे पास बैठ गई, ‘‘कांतजी, मैं ने आप का नाम बाहर लगी नेमप्लेट पर पढ़ लिया है. बहुत सुंदर नाम है आप का. मैं औपचारिकता में बिलकुल यकीन नहीं रखती हूं, इसीलिए बिना किसी हिचकिचाहट के आप के साथ बैठ गई हूं. इस से अपनेपन का एहसास होता है. हम साथसाथ चाय पीते हैं और एकदूसरे के साथ जानपहचान बनाते हैं.’’

‘‘थैंक्यू. मुझे भी आप का इस बेबाक तरीके से आना अच्छा लगा. वीना भी आप से मिल कर बहुत खुश होगी,’’ मैं ने किरण की ओर निहारते हुए कहा. किरण जाने से पहले मुझे अपने घर आने का निमंत्रण दे गई, ‘‘कल रविवार है. उमेश घर पर ही होंगे. कल लंच हमारे साथ ही करिएगा.’’ मैं ने हामी भर दी. मुझे अपनी पत्नी की गैरमौजूदगी खल रही थी. इसलिए किरण के परिवार से मेलजोल ने सोने में सुहागा का काम किया. किरण भी मेरी मौजूदगी में बेहद खुश रहती थी.  दूसरे दिन लंच पर मेरा उमेश से परिचय हुआ. सीधे, सरल और मिलनसार स्वभाव के उमेश शीघ्र ही मेरे घनिष्ठ मित्र बन गए. उन के घर मैं उन की गैरमौजूदगी में भी आताजाता रहता. उन्हें इस बात पर कोई एतराज नहीं था. उन्हें मालूम था किरण ऐसी है ही. किरण अपने चंचल स्वभाव से किसी को भी खासकर अपने हमउम्र पुरुषों को आकर्षित कर लेती थी. सजनेसंवरने में वह काफी समय बिताती थी और परपुरुषों के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर उसे बहुत अच्छा लगता था. इस विषय में उमेश रूखे थे. तभी तो किरण के इतना सजनेसंवरने के बावजूद कभी उन के मुंह से उस के लिए तारीफ के शब्द नहीं निकल पाते थे. किरण को यह बहुत खलता था.

मैं ने किरण की इस कमजोरी का पूरा फायदा उठाया. जब भी वह शृंगार कर मेरे सामने आती मेरे मुंह से यह वाक्य अनायास ही फूट पड़ता, ‘‘बहुत सुंदर लग रही हो.’’

खुश हो कर वह थैंक्यू कहती, ‘‘बस, कांतजी ऐसे ही तारीफ करते रहना.’’ जब भी वह मेरे घर आती नई साड़ी में सजीसंवरी होती. उस के पास हर रंग की साडि़यां थीं. हर बार वह अच्छा पोज देती और मैं मुसकराते हुए मोबाइल में उस के विलक्षण रूप को कैद कर लेता. उस ने मुझ से वादा लिया था कि जब कई सारे फोटो शूट हो जाएं तो मैं उन सब की 1-1 कौपी उसे भेंट कर दूं. मैं ने मुसकरा कर हामी भर दी थी.

एक दिन किरण ने मांग की, ‘‘कांतजी, अपनी पत्नी वीना का फोटो दिखाएंगे?’’

मैं ने अपने मोबाइल पर वीना का फोटो दिखाया तो बोली, ‘‘हां, सुंदर है,’’ फिर कुछ क्षण रुक कर बोली, ‘‘लेकिन मुझ से थोड़ी कम.’’ मैं ने यह मानते हुए कहा, ‘‘हां, वह सीधी और सरल है. शृंगार तो बहुत कम करती है,’’ मैं ने नोट किया कि इस बात पर वह बहुत खुश हुई. मेरी कोठी में रामलाल नामक नौकर काम करता था. अकसर किरण दिन के समय मेरे घर आ कर रामलाल से सफाई का काम करवा देती थी. दिन का खाना मैं औफिस में ही खाता था. रामलाल द्वारा रात का खाना तैयार होने के बावजूद कई बार किरण अपने घर से खाना भिजवा देती थी. किरण ने अपने बेटी राखी के लिए आया रखी थी. मैं जब भी शाम के समय उस के घर फोन कर के जाता था वह आया को बाजार कुछ खरीदने के लिए भेज चुकी होती थी. उस का कहना था हम दोनों की प्राइवेसी बनी रहे तो अच्छा होगा. वैसे भी उमेश का मार्केट में कपड़ों का शोरूम था. वे सवेरे 9 बजे जा कर रात 8 बजे के बाद ही लौटते थे. मेरा किरण से मिलनाजुलना और काफी समय साथ बिताना आसान होता चला गया. जब भी मैं उस के घर पहुंचता वह मुख्यद्वार पर इंतजार करती मिलती. मेरे पहुंचते ही कभी वह मुझे ‘हग’ कर के प्यार करती तो कभी मैं उसे प्यार करने की पहल करता. संबंध प्रगाढ़ होने के बावजूद हम दोनों ने ही कभी मर्यादा के बाहर जा कर दैहिक संबंध बनाने की चेष्टा नहीं की. इस बात को शायद किरण ने भी भविष्य की संभावनाओं के लिए स्थगित कर रखा था. मेरी ओर से इस बात की उत्सुकता अवश्य थी, क्योंकि वीना की डिलिवरी में अभी समय बाकी था. पति द्वारा नजरअंदाज होने के कारण किरण मुझ से मित्रता बढ़ाने में जोरशोर से लगी थी. जब भी उसे कोई बहाना मेरे घर आने का मिलता था तो उसे कतई छोड़ती नहीं थी. वैसे भी मेरी सेवा के द्वारा मुझे लुभाने का प्रयत्न उस की ओर से जारी था.

मुझे अपनी कंपनी के कार की सुविधा प्राप्त थी. किरण के पति उमेश के पास बाइक थी. एक बार जब कार इस्तेमाल करने के लिए किरण ने अनुरोध किया तो मैं ने उसे साफ शब्दों में समझाया, ‘‘देखो मेरी अच्छी किरण मेरी बात को अन्यथा मत लेना. मैं अपनी औफिस की कार तुम्हें अकेले कहीं जाने के लिए नहीं दे पाऊंगा. हां, कभी जरूरी हुआ तो मैं तुम्हें कार में अपने साथ ले जाऊंगा.’’ वह शीघ्र ही मेरी बात समझ गई थी. दोबारा कभी उस ने कार के लिए अनुरोध नहीं किया. एक दिन शाम के समय जब मैं औफिस से लौटा तो मैं ने देखा ड्राइंगरूम में सैंट्रल टेबल  पर एक गुलदस्ता रखा था.

रामलाल से पूछने पर उस ने बताया कि किरण मेम साहब रख गई हैं. कह रही थीं साहब को अच्छा लगेगा. उन्हें बता देना कि मैं आई थी. मैं ने मोबाइल पर किरण को धन्यवाद कहा तो वह बोली, ‘‘कांतजी, जिस दिन आप गुलदस्ता उस टेबल पर रखा देखो समझ लेना मेरी तरफ से संकेत है कि उमेशजी को घर लौटने में देर लगेगी. आप बेफिक्र मेरे पास आ सकते हो.’’ थोड़ी देर में ही मैं किरण के पास पहुंच गया. हलके आसमानी रंग की साड़ी में वह बहुत सुंदर लग रही थी. खुली बांहों में भर कर स्वागत करते हुए मेरा हाथ पकड़ कर ड्राइंगरूम में सोफे तक ले गई, ‘‘कांत, मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि जब से तुम से मित्रता हुई है मेरी खुशी कितनी बढ़ गई है.’’

‘‘तुम बहुत ब्यूटीफुल लग रही हो. लगता है आज तुम ने मेकअप में बहुत समय लगाया है. अगर मेकअप न भी करो तो भी तुम सुंदर लगती हो.’’

‘‘तारीफ करने की कला तो कोई तुम से सीखे. तुम तारीफ करते हुए बहुत अच्छे लगते हो. बैठो जब तक मैं चाय बना कर लाती हूं तुम टीवी पर कोई मनपसंद चैनल लगा लो,’’ कहते हुए उस ने रिमोट मुझे पकड़ा दिया. थोड़ी देर में वह ट्रे में 2 कप चाय और प्लेट में बिसकुट ले आई. फिर मेरे पास बैठ गई, ‘‘कांतजी, अब मैं आप को बता रही हूं कि उमेशजी दुकान के लिए माल लेने दिल्ली गए हैं. कल लौटेंगे. हमारे पास मौजमस्ती के लिए पर्याप्त समय है. जी भर कर मेरे पास रहिए और जो मन में इच्छा हो उसे पूरी कर लीजिए. मैं पूरा सहयोग दूंगी. मैं सच्चे दिल से आप से प्यार करती हूं’’

‘‘मैं आज सीरियस मूड में हूं और तुम्हें कुछ समझाना चाहता हूं. मैं शादीशुदा हूं. वीना मुझे बहुत प्यार करती है. और मैं नहीं चाहूंगा कि उमेश की गैरमौजूदगी का मैं फायदा उठाऊं. वे मेरे अच्छे दोस्त हैं. यह तो तुम्हारे प्यार का रिस्पौंस था जो मैं मित्रता की हद से बाहर तुम्हें कभीकभी ‘हग’ कर लेता था या तुम्हें ‘हग’  करने देता था. मेरी तुम्हें सलाह है, अब हमें खुद पर नियंत्रण लगा लेना चाहिए…’’

इस से पहले कि मैं अपनी बात पूरी कर पाती उलटे उस ने ही मुझे समझाना शुरू कर दिया, ‘‘कांतजी, बी प्रैक्टिकल. मैं आप और आप की पत्नी के बीच में आए बगैर भी तो प्यार कर सकती हूं. यदि हमारा संबंध गुप्त रहे तो हरज क्या है?’’ कहने को वह यह सब कह तो गई, फिर कुछ सोच कर मुसकराते हुए बोली, ‘‘आप मुझ से उम्र में काफी बड़े हो. मुझे अभी तक इस तरह समझाने वाला कोई नहीं मिला है. आप से मित्रता और प्यार मेरी जरूरत है. पत्नी का फर्ज मैं उमेशजी के साथ पूरी ईमानदारी से निभा रही हूं और निभाती रहूंगी, लेकिन उन से प्यार कभी नहीं हो पाया है. वे सीधेसरल अवश्य हैं, लेकिन प्यार करने के लिए न तो उन के पास समय है और न ही उन की सोच में प्यार का कोई महत्त्व है. सुखसुविधाओं के अलावा एक स्त्री को शारीरिक सुख की भी चाह होती है,’’ कहती हुई वह भावुक हो गई. आंखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली.

मैं ने उसे गले लगा कर पीठ थपथपाते हुए आश्वासन दिया, ‘‘मेरी मित्रता और प्यार जितना संभव होगा बना रहेगा.’’ वीना की डिलिवरी के समय मैं 1 सप्ताह की छुट्टी ले कर उस के मायके पहुंच गया. उस ने एक प्यारी सी गुडि़या को जन्म दिया. चंडीगढ़ लौट कर पुन: मैं अपने कामकाज में व्यस्त हो गया. किरण और मेरा एकदूसरे के घर आनाजाना पहले जैसा ही था. लगभग डेढ़ माह बाद वीना को उस का भाई चंडीगढ़ मेरे पास छोड़ गया. अभी वीना को देखभाल की जरूरत थी. किरण दिन के समय वीना के पास आ जाती थी और हर काम में उस की मदद करती थी. वीना को भी किरण बहुत अच्छी लगी, तो दोनों जल्दी ही पक्की सहेलियां बन गईं. किरण ने उसे बताया कि उस की शादी 20 की होतेहोते ही हो गई थी. पुरुषों के साथ संबंध में उसे कोई अनुभव नहीं था. उस ने वीना से मेरे बारे में बेबाक तरीके से कहा, ‘‘मुझे कांतजी बहुत अच्छे लगते हैं. कुदरत ने तुम्हारी जोड़ी बहुत अच्छी बनाई है. तुम सुंदर और सरल हो. वे भी प्यार पाने और देने के लिए जल्द ही लोगों की ओर आकर्षित हो जाते हैं…एक बात बताऊं वीना भाभी…कांत का दिल बहुत सहानुभूति और दूसरों की कद्र करने वाला है.’’

वीना ने संक्षेप में बस इतना ही कहा, ‘‘मेरे कर्म अच्छे थे जो वे मुझे मेरे जीवनसाथी के रूप में मिले.’’ वीना के साथ परिचय होने के बाद हम दोनों मित्र परिवारों में मिठाई और उपहारों के आदानप्रदान का सिलसिला शुरू हो चुका था. बर्थडे और शादी की सालगिरह हम दोनों परिवार एकसाथ एक उत्सव की भांति मनाते थे. कभी किरण हमारे घर आ कर किचन में वीना की खाना बनाने में सहायता करती तो कभी घर के सामान की झाड़पोंछ में उस की मदद करती. वह चाहती थी घर के कामकाज का बोझ वीना पर न पड़े. डिलिवरी के बाद धीरेधीरे वीना का स्वास्थ्य बेहतर होता जा रहा था. इस विषय में वह किरण की तारीफ उमेश के सामने करने से नहीं चूकती थी. एक दिन उमेश बोले, ‘‘किरण है ही ऐसी. सब की मदद करने में उसे बहुत खुशी मिलती है. हमेशा मुसकरा कर मदद करने का एहसान भी नहीं जताती है.’’ पहली बार उमेश के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर किरण की खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने मुझ से कहा, ‘‘आज पहली बार उमेशजी ने मेरी तारीफ में कुछ शब्द कहे हैं, तो पार्टी तो बनती ही है. आज शाम की चाय हम लोग मेरे घर पर पीएंगे,’’ मैं मान गया.

एक दिन शाम के समय जब मैं औफिस से घर लौटा तो देखा ड्राइंगरूम में टेबल पर गुलदस्ता रखा था. वीना ने बताया, ‘‘किरण यह गुलदस्ता लाई थी. कह रही थी उस का मन मेरे साथ चाय पीने का था. अभी 1 घंटा पहले ही अपने घर गई है.’’ मैं किरण की सांकेतिक भाषा समझ गया. किरण मुझ से अपने घर में मिलना चाहती है. वीना के साथ चाय पीने के बाद मैं ने वीना से कहा, ‘‘मैं औफिस के काम से 1 घंटे के लिए बाहर जा रहा हूं. 7 बजे तक आऊंगा.’’  मैं किरण के घर पहुंचा तो देखा वह मुख्यद्वार पर मेरा इंतजार कर रही थी. बड़ी बेसब्री के साथ मुझे बांहों में भर कर मेरा स्वागत किया.

फिर मुसकराते हुए शरारती लहजे में बोली, ‘‘कांतजी, मैं ने आज बहुत दिनों बाद तुम्हें घर बुला ही लिया. उमेश किसी काम से शहर से बाहर गए हुए हैं. हमें एकांत में बिताने के लिए पर्याप्त समय मिला है. बैठो मैं कुछ बना कर लाती हूं फिर ढेर सारी बातें करेंगे, प्यार भी…’’ मैं गुमसुम बैठा था. मन में विचार था कहीं वीना के प्रति नाइंसाफी तो नहीं है, जो चोरीछिपे मैं किरण से मिलने आया हूं. फिर सोचा जब मैं कुछ गलत नहीं कर रहा हूं तो पछतावा कैसा? बेशक हम दोनों एकांत में हैं, लेकिन आज हम रोमांस का कोई कृत्य नहीं करेंगे. मैं इन खयालों में खोया था कि पता ही नहीं चला कि कब वह मेरा हाथ पकड़ कर अपने बैडरूम में ले गई. बैड पर मुझे बैठाते हुए बडे़ प्यार भरे शब्दों में बोली, ‘‘आज तुम्हें मेरे साथ सोने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए.’’ मैं किंकर्तव्यविमूढ़ बिस्तर पर लेटा शून्य में देख रहा था. तभी किरण के मोबाइल पर फोन आया. उस ने अपने होंठों पर उंगली रख कर मुझे चुप रहने का इशारा किया, ‘‘वीना भाभी का फोन है.’’

‘‘किरण, कांत किसी काम से बाहर गए हैं. मैं उन की गैरमौजूदगी में बोर हो रही थी, इसलिए तुम से बात करने का मन किया,’’ वीना ने कहा.

जवाब में किरण बोली, ‘‘उमेशजी बाहर गए हुए हैं. मैं बस रात का खाना बनाने में व्यस्त थी.’’

‘‘ऐसा करो रात का खाना हमारे यहां ही खा लेना. कांत भी 8 बजे तक लौट आएंगे. थोड़ी गपशप भी हो जाएगी.’’

किरण खुश थी कि थोड़ा और वक्त कांत के साथ बिताने को मिल जाएगा. अत: उस ने हामी भर दी. किरण और मेरे नजरिए में आधारभूत फर्क यह था कि उसे प्यार के साथ दैहिक आनंद की तलाश थी जबकि मैं मन के मिलन का सुख चाहता था. वीना के साथ वैवाहिक सुख अपनी चरम सीमा तक मुझे उपलब्ध हो चुका था. वीना की बेपनाह मुहब्बत के चलते मेरे मन में यह विचार प्रबल हो रहा था कि मुझे किरण के दिल को कोई चोट नहीं पहुंचानी है. थोड़ा प्यार उसे भी दे दूं और वीना के प्रति ईमानदारी भी रहूं. इस में वीना का भी हित है, क्योंकि किरण वीना को बहुत चाहती. मेरे प्यार द्वारा किरण जितनी खुश होगी उतना ही वीना और किरण का संबंध गहरा होगा. अपने इस विचार पर क्षण भर को मुझे हंसी भी आई. एक दिन औफिस से घर आ कर मैं ने अनायास वीना को अपने बाहुपाश में ले कर चूम लिया. वीना के लिए यह अप्रत्याशित था. बोली, ‘‘क्या बात है, आज बहुत प्यार आ रहा है?’’

‘‘तुम ने फोन पर बताया था आज किरण तुम्हारे साथ काफी समय बिता कर शाम को गई है. तुम बहुत खुश दिखाई दे रही हो… मेरी पसंद की साड़ी पहन रखी है. मेकअप भी अच्छा किया है. तुम्हें इतना सुंदर देख कर मुझे बहुत अच्छा लग रहा है. ऐसे ही हर शाम को सजीसंवरी और प्रसन्न मूड में मिला करो,’’ मैं ने अपने बाहुपाश से उसे मुक्त करते हुए कहा. वीना भी बहुत खुश दिखाई दे रही थी. बोली, ‘‘इतनी तैयारी इसलिए की है कि आज हमारी शादी की सालगिरह है. शायद तुम भूल गए हो. मार्केट जा कर हम दोनों एकदूसरे के लिए गिफ्ट खरीदेंगे. वहीं चायकौफी भी पी लेंगे.’’

‘‘नहीं, मैं भूला नहीं था. मैं ने भी सोच रखा था कि कुछ ऐसा ही करेंगे. मार्केट जा कर कुछ सामान सैलिब्रेट करने के लिए ले आएंगे. किरण को फोन कर लो. अगर वह भी साथ चलना चाहे तो उसे भी साथ ले लेते हैं,’’ मैं ने कहा तो वीना ने तुरंत किरण को फोन कर दिया. तीनों ने रात का भोजन साथ बाहर कर के सालगिरह सैलिब्रेट की. अगले रविवार वीना ने डिनर पर उमेश और किरण को आमंत्रित करते हुए उमेशजी से फोन पर कहा, ‘‘उमेशजी, शादी की सालगिरह वाले दिन हम लोगों ने आप को बहुत मिस किया. वह कमी पूरी करने के लिए आज रात आप किरण के साथ हमारे घर डिनर के लिए आएंगे. हां, कोई गिफ्ट लाने की जरूरत नहीं है. किरण गिफ्ट दे चुकी है.’’ शाम को उमेशजी और किरण जल्दी ही मेरे घर पहुंच गए. पहले की तरह किरण मजैंटा साड़ी में पूरे मेकअप के साथ प्रसन्न मुद्रा में थी. वीना के सामने मैं ने उस की तारीफ करना उचित नहीं समझा. फिर भी किरण ने पूछ ही लिया, ‘‘मैं कैसी लग रही हूं इस साड़ी में?’’ मन नहीं था फिर भी दबे स्वर में मैं ने कहा, ‘‘अच्छी लग रही हो.’’

मेरे कुतूहल की सीमा नहीं थी जब दफ्तर से आने पर मैं ने वीना को एक सुंदर साड़ी में पूरे शृंगार के साथ देखा. इस विषय में मैं ने फिलहाल चुप रहना ही बेहतर समझा. उमेश और किरण के घर पहुंचने पर वीना ने कहा, ‘‘उमेशजी, आज का विशेष शृंगार मैं ने आप के लिए किया है, आशा है आप को मैं सुंदर लग रही हूं. बताइए न… मैं चाहती हूं दो शब्द आप मेरी तारीफ में कहें.’’ उमेशजी को यह सब अजीब लग रहा था. मगर वीना के अनुरोध को अनसुना करना भी ठीक न था. अत: बोले, ‘‘भाभी आप बिना मेकअप किए भी और मेकअप किए भी बहुत सुंदर लगती हैं.’’

‘‘बस यही तारीफ आप किरण की भी करने की आदत डाल लीजिए,’’ कह कर उस ने उमेश का हाथ पकड़ लिया और किचन की तरफ ले जाते हुए कहा, ‘‘देवरजी, मैं ने आप के लिए खीर बनाई है. आइए, उस का स्वाद चखाती हूं.’’ किरण और मैं मौन और आश्चर्यचकित हो यह देखते रहे. जब दोनों किचन से वापस आए तो सब ने एकसाथ खाना खाया. चलते समय वीना ने उमेश से बहुत आदर के साथ कहा, ‘‘उमेशजी, स्त्री प्यार की भूखी होती है. उसे प्यार की अभिव्यक्ति होने पर बहुत सुख मिलता है. व्यापार की समृद्धि अपनी जगह और पत्नीपरिवार का सुख अपनी जगह. मेरा कहना मानो आज से किरण की तारीफ करने की आदत डाल लो. आखिर कब तक कांतजी किरण की तारीफ करते रहेंगे. यह काम तो अब आप को ही करना होगा.’’

Husband Wife Comedy : गंदी…गंदी…गंदी बात

Husband Wife Comedy : लंच के बाद बालकनी में आरामकुरसी पर पसरे हम कुनकुनी धूप सेंक रहे थे. तभी श्रीमतीजी चांदी की ट्रे में स्पैशल ड्राईफू्रट्स ले आईं. पिछले साल मेरे औसत दर्जे के अपार्टमैंट के ठीक सामने ‘द मेवा शौप’ खुली थी. मैं ने आज तक उस एअरकंडीशंड मेवा शौप में प्रवेश करने का साहस नहीं किया है. वैसे कैश से महंगे मेवे की खरीदारी संभव नहीं है और कार्ड से खरीदारी की आदत से अब तक हम दूर ही रहे हैं. रात्रि वेला में ‘द मेवा शौप’ का ग्लो साइन बोर्ड मुझे चिढ़ाता रहा है. चमचमाती ट्रे में करीने से सजे काजू, किशमिश, पिस्ता, बादाम, चिलगोजे, छुहारे देख कर हम ने अपनी आंखें मूंद लीं.

‘‘दिल्ली में बटलू की रिंग सेरेमनी थी… शादी का निमंत्रण कार्ड आया है,’’ श्रीमतीजी ने हमें वस्तुस्थिति से अवगत कराया.

बटलू मेरे साले साहब के शहजादे थे. मुझे हलकीफुलकी जानकारी थी. विदेश में बिजनैस मैनेजमैंट की पढ़ाई की थी. भारतीय मूल की विदेशी कन्या से शादी करने जा रहे थे. श्रीमतीजी भारीभरकम, बेहद महंगा, डब्बानुमा निमंत्रण कार्ड ले कर आई थीं. मैरिज दिल्ली में होनी थी. श्रीमतीजी ने कार्ड के पन्नों को परत दर परत पलट कर दिखाया. शादी की अलगअलग रस्मों के लिए दिल्ली के कई पांचसितारा होटलों की बुकिंग थी. डब्बानुमा निमंत्रण कार्ड में पर्याप्त मात्रा में मेवा भरा गया था. महंगी विदेशी टौफियां भी थीं. श्रीमतीजी ने लैपटौप पर मुझे रिंग सेरेमनी के फोटो दिखाए. वे फेसबुक में पोस्ट किए गए थे. अपने रिटायरमैंट पीरियड में हम ने मासिक व्यय में कई कटौतियां की हैं ताकि इस उम्र की हैल्थ समस्याओं से निबटने के लिए पर्याप्त सेविंग कर सकें. काजू, किशमिश, पिस्ता, चिलगोजे सहित और अन्य कई लग्जरी से हम दूर ही रहे हैं.

काजू, किशमिश, पिस्ता, चिलगोजे चबाते हुए रिंग सेरेमनी में शहजादे ने ब्राइड को किस किया था. उस फोटो को देख कर हम श्रीमतीजी से छेड़खानी के मूड में आ गए.

‘गंदी बात… गंदी… गंदी… गंदी बात…’’ श्रीमतीजी ने फिल्मी अंदाज में मुसकराते हुए हमें टोका.

‘किस’ में क्या गंदी बात है… हम ने ‘किस’ को पूरी लाइफ मिस किया है…’’ हम ने श्रीमतीजी से शिकायती लहजे में कहा.

‘‘मुंह में बैक्टीरिया भरा होता है… किसिंग पार्टनर्स में लगभग 10 मिलियन से 1 बिलियन बैक्टीरिया का ऐक्सचेंज होता है… मोनोन्यूक्लियोसिस किसिंग रोग और हर्पीज वायरस का संचार होता है…’’ श्रीमतीजी ने माइक्रोबायोलौजी की पढ़ाई की थी… किसिंग के बिलकुल खिलाफ थीं. ‘‘किसिंग में 34 फेशियल मसल्स गतिशील होते हैं… अच्छा वर्कआउट है… चेहरे पर झुर्रियां नहीं पड़तीं… कई फैक्ट्स किसिंग की फेवर में हैं. यह गंदी बात नहीं है. कामसूत्र में 30 प्रकार के किस का वर्णन है. रोमांटिक फ्रैंच किस में 5 कैलोरीज तक बर्न होती हैं. होंठ बेहद सैंसिटिव होते हैं. ऐक्स्ट्रा सैलिवा दांतों की सड़न रोकता है…’’ हम ने श्रीमतीजी को किसिंग फैक्ट्स बताने की कोशिश की.

‘‘गंदी बात… गंदी… गंदी… गंदी बात,’’ श्रीमतीजी ने किसिंग के पौजिटिव फेक्ट्स को कंसीडर ही नहीं किया.

लाइफ में 2 वीक का समय सिर्फ किसिंग के नाम है… विदेशी बालाएं मैरिज से पहले 80 से भी अधिक बौयफ्रैंड्स को ‘किस’ कर चुकी होती हैं,’’ हम ने कई और किसिंग फैक्ट्स गिनाए.

‘‘गंदी बात… गंदी…गंदी…गंदी बात…’’ श्रीमतीजी ने कानों में उंगलियां डाल लीं.

श्रीमतीजी बैडरूम में बिस्तर पर महंगी नई साडि़यां फैला कर उन में मैचिंग फौल लगाने में व्यस्त थीं.

‘‘जोरदार तैयारी चल रही है… पांचसितारा होटलों की पार्टी है… भई शहजादे की मैरिज है,’’ हम ने मुसकरा कर श्रीमतीजी की ओर देखा. वे शहजादे संबोधन से थोड़ी बिदक गई थीं.

‘‘हम दोनों के एअर टिकट आए हैं,’’ श्रीमतीजी ने जानकारी दी. साथ ही जरूरी तैयारी की हिदायत भी मिली. हमारी गैरमौजूदगी में साले साहब अपनी मैडम के साथ सस्नेह निमंत्रण देने आए थे. हम पैंशनर की सालाना मीटिंग में गए थे. मोबाइल भूल आए थे. अत: फोन पर बात भी नहीं हो पाई.

‘‘साले साहब काफी इज्जत दे रहे हैं. लगता है हमें भी सूट पहनना पड़ेगा. अटपटा तो लगेगा, पर क्या करें शहजादे की मैरिज है,’’ वैसे सेवानिवृत्ति के बाद से हम ने कुरतापाजामा यानी परंपरागत पत्रकार वाली ड्रैस को अपना लिया था.

‘‘बटलू बुलाने से क्या परहेज है… हमारी मैरिज के बाद पैदा हुआ है. शहजादे का संबोधन बिलकुल नहीं सुहाता. आप बड़ेबुजुर्ग हैं,’’ श्रीमतीजी हम पर बरस पड़ीं.

श्रीमतीजी की नाराजगी बिलकुल जायज थी. हमारा संबोधन बिलकुल गलत था. इस संबोधन में हमारी मध्यवर्गीय मैंटेलिटी, हमारी अपनी सीमा छिपी थी. साले साहब की संपन्नता के प्रति शायद ईर्ष्या की भावना भी थी. शायद शानशौकत के प्रदर्शन के प्रति आक्रोश भी था. ‘‘शहजादे का संबोधन छोड़ दूंगा, लेकिन हमारी एक शर्त है. पौजिटिव फैक्ट्स को कंसीडर करते हुए ‘किस’ से बैन हटाना होगा. बैक्टीरिया के ऐक्सचेंज का खतरा उठाना होगा,’’ हम ने श्रीमतजी से सौरी कहा और फिर उन से मिन्नत की.

‘‘गंदी बात… गंदी…गंदी…गंदी बात,’’ श्रीमतीजी ने पहले के मुकाबले धीमी आवाज में कहा और फिर हामी भर दी.

Short Stories in Hindi : अनमोल तोहफा

लेखक- इश्तियाक सईद

Short Stories in Hindi : शाहिदा शेख प्रोफैसर महमूद शौकत की छात्रा रह चुकी थी. 3 साल पहले बीए की डिगरी ले कर वह घर बैठ गई थी. कुछ दिनों पहले न जाने कैसे और कब वह प्रोफैसर से आ मिली, कब दिलोदिमाग पर छाई, कब हवस बन कर रोमरोम में समा गई, उन्हें कुछ नहीं याद. यह भी याद नहीं कि पहले किस ने किस को बेपरदा किया था.

अगर याददाश्त में कुछ महफूज रखा था तो बस शाहिदा शेख की चंचलता, अल्हड़ता और उस का मादक शरीर जो उन की खाली जिंदगी और ढलती उम्र के लिए खास तोहफे की तरह था.

यही हाल शाहिदा शेख का भी था, क्योंकि दोनों ही एकदूसरे के बिना अधूरापन महसूस करते थे.

शाहिदा शेख अपने मांबाप की एकलौती औलाद थी, इसलिए एक प्रोफैसर का उन के घर आनाजाना किसी इज्जत से कम न था. उन्हें अपनी बेटी पर फख्र भी होता था कि यह इज्जत उन्हें उसी के चलते मिल रही थी. वे समझते थे कि प्रोफैसर उन की बेटी को अपनी बेटी की तरह मानते हैं.

प्रोफैसर महमूद शौकत को दिलफेंक, आशिकमिजाज या हवस का पुजारी कहा जाए, ऐसा कतई न था, बल्कि वे तो ऐसे लोगों में से थे जो हर समय गंभीरता ओढ़े रहते हैं. अलबत्ता, वे सठिया जरूर गए थे यानी उन की उम्र 60वें साल में घुस चुकी थी.

प्रोफैसर महमूद शौकत की पत्नी 10 साल पहले ही इस दुनिया से जा चुकी थीं. पत्नी की इस अचानक जुदाई से प्रोफैसर महमूद शौकत ऐसे बिखरे थे कि उन का सिमटना मुहाल हो गया था. कालेज जाना तो दूर खानेपीने तक की सुध न रहती थी. हां, कुछ होश था तो बस उन्हें अपनी बेटी का, जो जवानी की दहलीज पर थी. अब तो वह भी अपने घरबार की हो गई थी और

2 बच्चों की मां भी बन चुकी थी. बेटा कंप्यूटर इंजीनियर था और एक निजी कंपनी में मुलाजिम था. प्रोफैसर महमूद शौकत समय से पहले रिटायरमैंट ले कर खुद आराम से सुख भोग रहे थे.

इधर लगातार कई दिनों से प्रोफैसर महमूद शौकत शाहिदा शेख का दीदार न कर सके थे. इंतजार जब आंख का कांटा बन गया तो वे सीधे उस के घर जा पहुंचे. पता चला कि वह पिछले 10 दिनों से मलेरिया से पीडि़त थी. खैर, अब कुछ राहत थी लेकिन कमजोरी ऐसी कि उठनाबैठना मुहाल हो गया था.

प्रोफैसर महमूद शौकत जैसे ही शाहिदा शेख के बैडरूम में गए, उन्हें देखते ही शाहिदा की निराश आंखें चमक उठीं और बीमार मुरझाया चेहरा खिल गया.

इस बीच प्रोफैसर महमूद शौकत शाहिदा की नब्ज देखने के लिए उस पर झुके थे कि उस ने झट उन पर गलबहियां डाल दीं और अपने तपतेसुलगते होंठों को उन के होंठों में धंसा दिया.

शाहिदा शेख के ऐसे बरताव से प्रोफैसर महमूद शौकत शर्मिंदा हो उठे और खुद को उस की पकड़ से छुड़ाते हुए बोले, ‘‘प्लीज, मौके की नजाकत को समझो.’’

‘‘समझ रही हूं सर कि मम्मी हमारे बीच दीवार बनी हुई हैं. मैं तो उम्मीद कर रही हूं कि वे थोड़ी देर के लिए ही सही, किसी काम से बाहर चली जाएं और हम एकदूसरे में…’’

शाहिदा की पकड़ से छूट कर प्रोफैसर महमूद शौकत सोफे पर बैठे ही थे कि शाहिदा की मम्मी चायनमकीन लिए कमरे में आ धमकीं.

यह देख प्रोफैसर का जी धक से हो गया और चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वे सोचने लगे कि अगर वे कुछ समय पहले आ जातीं तो…

बहरहाल, चाय की चुसकियों के दौरान उन में बातें होने लगीं. फिर शाहिदा की मम्मी अपने घराने और शाहिदा से संबंधित बातों की गठरी खोल बैठीं. बातों ही बातों में उस के ब्याह की चर्चा छेड़ दी. वे कहने लगीं, ‘‘प्रोफैसर साहब, हम पिछले 3 महीनों से शाहिदा के लिए लड़का खोज रहे हैं, पर अच्छे लड़कों का तो जैसे अकाल पड़ा है. देखिए न कोई मुनासिब लड़का हमारी शाहिदा के लिए.’’

इस से पहले कि प्रोफैसर कुछ कहते, शाहिदा झट से बोल पड़ी, ‘‘सर, अपनी ही कालोनी में देखिएगा, ताकि शादी के बाद भी मैं आप के करीब रहूं.’’

उस रात प्रोफैसर सो नहीं सके थे. शाहिदा का कहा उन के दिमाग में गूंजने लगता और वे चौंक कर उठ बैठते.

इसी उधेड़बुन में वे धीरेधीरे फ्लैशबैक में चले गए.

होटल मेघदूत के आलीशान कमरे में नरम बिस्तर पर शाहिदा शेख बिना कपड़ों के प्रोफैसर महमूद शौकत की बांहों में सिमटी कह रही थी, ‘जी तो चाहता है सर, मैं जवानी की सभी घडि़यां आप की बांहों में बिताऊं. आप ऐसे ही मेरे बदन के तारों को छेड़ते

रहें और मैं आप की मर्दानगी से मस्त होती रहूं.’

इतना सुनने के बाद प्रोफैसर ने उस के रेशमी बालों से खेलते हुए पूछा था, ‘तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि हम जो कर रहे हैं, वह गुनाह है?’

शाहिदा ने न में सिर हिला दिया.

‘क्यों?’

‘क्योंकि, सैक्स कुदरत की देन है. इस को गुनाह कैसे कह सकते हैं. वैसे भी सर, मैं तो मानती हूं कि यह केवल हमारी शारीरिक जरूरत है. आप मर्द हैं और आप को मेरी जवानी चाहिए. मैं औरत हूं और मुझे आप की मर्दानगी की तलब है.’

‘ओह मेरी जान,’ शाहिदा की इस बात पर प्रोफैसर महमूद शौकत चहक उठे थे. साथ ही, उन के होंठ उस के होंठों पर झुकते चले गए.

शाहिदा इस अचानक हल्ले के लिए तैयार न थी, फिर भी उन की छुअन ने उस के शरीर को झनझना दिया था और उस का कोमल शरीर उन की बांहों के घेरे में फड़फड़ाने लगा था.

प्रोफैसर का यह कामुक हल्ला इतना तेज… इतना वहशियाना था कि शाहिदा का पोरपोर उधेड़े दे रहा था. शाहिदा भी अपने शरीर को ऐसे ढीला छोड़ रही थी मानो खुद को हारा हुआ मान लिया हो.

कुछ मिनट तक दोनों ऐसे ही बिस्तर पर उधड़ेउधड़े बिखरेबिखरे से रहे, फिर किसी तरह शाहिदा खुद को अपने में बटोरतेसमेटते फुसफुसाई, ‘सर…’

‘क्या…’

‘इस उम्र में भी आप में नौजवानों से कहीं ज्यादा मर्दानगी का जोश है.’

यह सुन कर प्रोफैसर महमूद शौकत हैरानी से उसे देखने लगे.

‘हां सर, मुझे तो अपने साथी लड़कों से कहीं ज्यादा सुख आप से मिलता है.’

‘लेकिन, तुम यह कैसे कह सकती हो?’ प्रोफैसर की आवाज में बौखलाहट आ गई थी.

‘आजमाया है मैं ने… 1-2 को नहीं, दसियों को.’

‘यानी तुम उन के साथ…’

‘बिलकुल, शायद पहले भी आप से कह चुकी हूं कि मेरे लिए जिंदगी मौत का नजरअंदाज किया हुआ एक पल है, तो क्यों न मैं हर पल को ज्यादा से ज्यादा भोगूं…’

यह सुन कर प्रोफैसर चौंक उठते हैं और फ्लैशबैक से वापस आ जाते हैं. वे फटीफटी आंखों से शून्य में घूरने लगते हैं और धीरेधीरे वह शून्य सिनेमा के परदे में बदल जाता है. उस में 2 धुंधली छाया निकाह कर रही होती हैं. जैसेजैसे दूल्हे के मुंह से ‘कबूल है’ की गिनती बढ़ती है, दुलहन शाहिदा का और दूल्हा प्रोफैसर का रूप धर लेता है.

उसी पल प्रोफैसर की बेटी अपने दोनों बच्चों की उंगली थामे शाहिदा के सामने आ खड़ी होती है और उन का यह सुंदर सपना इस तरह गायब हो जाता है जैसे बिजली गुल होने पर टैलीविजन स्क्रीन से चित्र.

सुबह होते ही प्रोफैसर शौकत बिना सोचेसमझे शाहिदा के घर जा पहुंचे. डोर बैल की आवाज पर शाहिदा की मम्मी ने दरवाजा खोला और अपने सामने प्रोफैसर को देख वे हैरत में डूब गईं, ‘‘प्रोफैसर साहब, आप…’’

प्रोफैसर महमूद शौकत चुपचाप निढाल कदमों से अंदर गए और खुद को सोफे पर गिराते हुए पूछा, ‘‘शेख साहब कहां हैं?’’

‘‘वे तो सो रहे हैं…’’ कहते हुए शाहिदा की मम्मी ने उन की आंखों में झांका, ‘‘अरे, आप की आंखें… लगता है, सारी रात आप जागते रहे हैं.’’

‘‘हां… मैं रातभर शाहिदा के निकाह को ले कर उलझा रहा… आप ने कहा था न कि मैं उस के लिए लड़का देखूं?’’

‘‘तो देखा आप ने?’’ मम्मी जानने के लिए उत्सुक हो गईं, ‘‘कौन है? क्या करता है? मतलब काम… फैमिली बैकग्राउंड क्या है?

‘‘अजी सुनते हो, उठो जल्दी… देखो, प्रोफैसर साहब आए हैं. हमारी शाहिदा के लिए लड़का देख रखा है इन्होंने. कितना ध्यान रखते हैं हमारी शाहिदा का.’’

‘‘महान नहीं, खुदा हैं खुदा,’’ शेख साहब ने आते हुए कहा.

‘‘खुदा तो आप हैं, एक हूर जैसी लड़की के पिता जो हैं. मगर आप दोनों मियांबीवी को एतराज न हो तो मैं शाहिदा को अपने घर… मतलब… मेरे बेटे को तो आप लोग जानते ही हैं, और…’’

‘‘बसबस, इस से बढ़ कर खुशी और क्या हो सकती है हमारे लिए,’’ मिस्टर शेख ने कहा, ‘‘हमारी शाहिदा आप के घर जाएगी तो हमें ऐसा लगेगा जैसे अपने ही घर में है, हमारे साथ.’’

फिर क्या था, आननफानन बड़े ही धूमधाम से शाहिदा प्रोफैसर के बेटे से ब्याह दी गई. वह प्रोफैसर के घर आ कर बहुत खुश थी. बेटा भी शाहिदा जैसी जीवनसाथी पा कर फूला न समाता था. दुलहनिया को ले कर हनीमून मनाने वह महाबलेश्वर चला गया.

प्रोफैसर चाहते हुए भी उसे रोक न सके और भीतर ही भीतर ऐंठ कर रह गए. खैर, दिन तो जैसेतैसे कट गया, पर रात काटे न कटती थी. वे जैसे ही आंखें मूंदते, उन्हें बेटे और बहू का वजूद आपस में ऐसे लिपटा दिखाई देता मानो दोनों एकदूसरे में समा जाना चाहते हों. ऐसे में उन्हें बेवफा महबूबा और बेटा अपना दुश्मन मालूम होने लगते. रहरह कर उन्हें ऐसा भी महसूस होता कि बेटे की मर्दानगी का जोश शाहिदा की जवानी की दीवानगी से हार रहा है.

बेटे और बहू को हनीमून पर गए

3 दिन बीत चुके थे. इस बीच प्रोफैसर की हालत पतली हो गई थी. घर में होते तो दिमाग पर शाहिदा का मादक यौवन छाया रहता या अपने ही बेटे की दुश्मनी में चुपकेचुपके सुलगते रहते. उन्हें यह तक खयाल न आता कि अब उन के और शाहिदा के बीच रिश्ते की दीवार खड़ी कर दी गई है. बेटे के संग गठबंधन ने उसे प्रेमिका से बहू बना दिया है. बहू यानी बेटी. वे अपनी इस चूक पर बस हाथ मलते थे.

इन्हीं दिनों उन का एक छात्र किसी काम के चलते उन से मिलने आया. इधरउधर की बातों के दौरान उस ने बताया कि बीकौम के बाद वह एक मैन पावर कंसलटैंसी में अकाउंटैंट के तौर पर काम कर रहा है. फिर उस ने प्रोफैसर के पूछने पर उस फर्म के काम करने के तरीके के बारे में बताया.

उस रात उन्हें काफी सुकून व बहके खयालात में ठहराव का अहसास हुआ. ऐसा महसूस होने लगा जैसे उस छात्र की मुलाकात ने उन्हें सांप के काटे का मंत्र सिखा दिया हो.

बेटा और बहू यानी प्रेमिका पूरे

20 दिन बाद हनीमून से लौटे थे. बेटा शाहिदा का साथ पा कर बेहद खुश दिखाई दे रहा था. देखने में तो शाहिदा भी खुश थी, पर उस की आंखों से खुशियों की चमक गायब थी.

प्रोफैसर की नजर ने सबकुछ पलक झपकते ही ताड़ लिया था और वे चिंता की गहराइयों में डूब गए थे.

अगले दिन चायनाश्ते के बाद प्रोफैसर महमूद शौकत ने अपने बेटे को कमरे में बुलाया और दुनियादारी, जमाने की ऊंचनीच का पाठ पढ़ाते हुए कहा, ‘‘बेटा, अब तक तुम केवल अपनी जिंदगी के जिम्मेदार थे, पर अब एक और जिंदगी तुम से जुड़ चुकी है यानी तुम एक से 2 हो चुके हो. आने वाले दिनों में 3, फिर 4 हो जाओगे.

‘‘जरूरतों और खर्चों में बढ़ोतरी लाजिमी है, जबकि आमदनी वही होगी जो तुम तनख्वाह पाते हो, इसलिए मैं ने तुम्हारे सुनहरे भविष्य के लिए, तुम्हारी मरजी जाने बिना मौजूदा नौकरी से बढि़या और 4 गुना ज्यादा तनख्वाह वाली नौकरी का जुगाड़ कर दिया है.’’

इस बीच प्रोफैसर महमूद शौकत की नजर के पीछे खड़ी शाहिदा पर जमी थी. उस की आंखों में खुशी की लहरें और होंठों पर कामुक मुसकान रेंग रही थी. उस के इस भाव से खुश होते हुए उन्होंने मेज की दराज से एक लिफाफा निकाला और उसे शहिदा की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘शाहिदा, यह मेरी ओर से तुम्हारे लिए एक छोटा सा तोहफा है.’’

‘‘शुक्रिया,’’ शाहिदा धीरे से बोली.

‘‘अगर अब तुम इस तोहफे को अपने हाथों से मेरे बेटे को दे दो तो यकीनन यह तोहफा बेशकीमती हो जाएगा.’’

वह उन की इच्छा भांप गई और एक अदा से लजाते, इठलाते हुए उस ने लिफाफा शौहर की ओर बढ़ा दिया.

बेटे को शाहिदा की इस अदा पर प्यार उमड़ आया. वह उसे चाहत भरी नजर से देखते हुए लिफाफा थाम कर ‘शुक्रिया डार्लिंग’ बोला.

लिफाफे में मोटे शब्दों में लिखा था, ‘पिता की तरफ से बेटे को अनमोल तोहफा’. उस में जो कागज था, वह

बेटे की दुबई में नौकरी का अपौंइटमैंट लैटर था. साथ में वीजा, पासपोर्ट और हवाईजहाज की टिकट भी थी. यह पढ़ते ही बेटे के हाथ कांपने लगे.

Interesting Hindi Stories : किसका हिसाब सही था, औटो वाले या पुलिस का?

Interesting Hindi Stories : ‘आज फिर 10 बज गए,’ मेज साफ करतेकरते मेरी नजर घड़ी पर पड़ी. इतने में दरवाजे की घंटी बजी.

‘कौन आया होगा, इस समय. अब तो फ्रिज में सब्जी भी नहीं है. बची हुई सब्जी मैं ने जबरदस्ती खा कर खत्म की थी,’ कई बातें एकसाथ दिमाग में घूम गईं.

थकान से शरीर पहले ही टूट रहा था. जल्दी सोने की कोशिश करतेकरते भी 10 बज गए थे. धड़कते दिल से दरवाजा खोला, सामने दोनों हाथों में बड़ेबड़े बैग लिए चेतना खड़ी थी. आगे बढ़ कर उसे गले लगा लिया, सारी थकान जैसे गायब हो गई और पता नहीं कहां से इतना जोश आ गया कि पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

‘‘अकेली आई है क्या?’’ सामान अंदर रखते हुए उस से पूछा.

‘‘नहीं, मां भी हैं, औटो वाले को पैसे दे रही हैं.’’

मैं ने झांक कर देखा, वीना नीचे औटो वाले के पास खड़ी थी. वह मेरी बचपन की सहेली थी. चेतना उस की प्यारी सी बेटी है, जो उन दिनों अपनी मेहनत व लगन से मैडिकल की तृतीय वर्ष की छात्रा थी. मुझे वह बहुत प्यारी लगती है, एक तो वह थी ही बहुत अच्छी – रूप, गुण, स्वभाव सभी में अव्वल, दूसरे, मुझे लड़कियां कुछ ज्यादा ही अच्छी लगती हैं क्योंकि मेरी अपनी कोई बेटी नहीं. अपने और मां के संबंध जब याद करती हूं तो मन में कुछ कसक सी होती है. काश, मेरी भी कोई बेटी होती तो हम दोनों अपनी बातें एकदूसरे से कह सकतीं. इतना नजदीकी और प्यारभरा रिश्ता कोई हो ही नहीं सकता.

‘‘मां ने देर लगा दी, मैं देखती हूं,’’ कहती हुई चेतना दरवाजे की ओर बढ़ी.

‘‘रुक जा, मैं भी आई,’’ कहती हुई मैं चेतना के साथ सीढि़यां उतरने लगी.

नीचे उतरते ही औटो वाले की तेज आवाज सुनाई देने लगी.

मैं ने कदम जल्दीजल्दी बढ़ाए और औटो के पास जा कर कहा, ‘‘क्या बात है वीना, मैं खुले रुपए दूं?’’

‘‘अरे यार, देख, चलते समय इस ने कहा, दोगुने रुपए लूंगा, रात का समय है. मैं मान गई. अब 60 रुपए मीटर में आए हैं. मैं इसे 120 रुपए दे रही हूं. 10 रुपए अलग से ज्यादा दे दिए हैं, फिर भी मानता ही नहीं.’’

‘‘क्यों भई, क्या बात है?’’ मैं ने जरा गुस्से में कहा.

‘‘मेमसाहब, दोगुने पैसे दो, तभी लूंगा. 60 रुपए में 50 प्रतिशत मिलाइए, 90 रुपए हुए, अब इस का दोगुना, यानी कुल 180 रुपए हुए, लेकिन ये 120 रुपए दे रही हैं.’’

‘‘भैया, दोगुने की बात हुई थी, इतने क्यों दूं?’’

‘‘दोगुना ही तो मांग रहा हूं.’’

‘‘यह कैसा दोगुना है?’’

‘‘इतना ही बनता है,’’ औटो वाले की आवाज तेज होती जा रही थी. सो, कुछ लोग एकत्र हो गए. कुछ औटो वाले की बात ठीक बताते तो कुछ वीना की.

‘‘इतना लेना है तो लो, नहीं तो रहने दो,’’ मैं ने गुस्से से कहा.

‘‘इतना कैसे ले लूं, यह भी कोई हिसाब हुआ?’’

मैं ने मन ही मन हिसाब लगाया कि कहीं मैं गलत तो नहीं क्योंकि मेरा गणित जरा ऐसा ही है. फिर हिम्मत कर के कहा, ‘‘और क्या हिसाब हुआ?’’

‘‘कितनी बार समझा दिया, मैं 180 रुपए से एक पैसा भी कम नहीं लूंगा.’’

‘‘लेना है तो 130 रुपए लो, वरना पुलिस के हवाले कर दूंगी,’’ मैं ने तनिक ऊंचे स्वर में कहा.

‘‘हांहां, बुला लो पुलिस को, कौन डरता है? कुछ ज्यादा नहीं मांग रहा, जो हिसाब बनता है वही मांग रहा हूं,’’ औटो वाला जोरजोर से बोला.

इतने में पुलिस की मोटरसाइकिल वहां आ कर रुकी.

‘‘क्या हो रहा है?’’ सिपाही कड़क आवाज में बोला.

‘‘कुछ नहीं साहब, ये पैसे नहीं दे रहीं,’’ औटो वाला पहली बार धीमे स्वर में बोला.

‘‘कितने पैसे चाहिए?’’

‘‘दोगुने.’’

‘‘आप ने कितने रुपए दिए हैं?’’ इस बार हवलदार ने पूछा.

‘‘130 रुपए,’’ वीना ने कहा.

‘‘कहां हैं रुपए?’’ हवलदार कड़का तो औटो वाले ने मुट्ठी खोल दी.

सिपाही ने एक 50 रुपए का नोट उठाया और उसे एक भद्दी सी गाली दी, ‘‘साला, शरीफों को तंग करता है, भाग यहां से, नहीं तो अभी चालान करता हूं,’’ फिर हमारी तरफ देख कर बोला, ‘‘आप लोग जाइए, इसे मैं हिसाब समझाता हूं.’’

हम चंद कदम भी नहीं चल पाई थीं कि औटो के स्टार्ट होने की आवाज आई.

मैं हतप्रभ सोच रही थी कि किस का हिसाब सही था, वीना का, औटो वाले का या पुलिस वाले का?

Best Satire In Hindi : जागो ठेकेदार लगी है कतार

लेखक- विनय कुमार पाठक

Best Satire In Hindi : शनिवार की एक रात. रेलवे प्लेटफार्म पर गहमागहमी का माहौल. सैकड़ों लोग ट्रेनों से उतर रहे थे या फिर ट्रेन पकड़ने का इंतजार कर रहे थे. पर एक जगह नजारा कुछ और ही था. वहां लोग कतार लगाए खड़े थे. यह उन के लिए शनि की साढ़ेसाती का प्रकोप था या और कुछ, पता नहीं.

जिस काम के लिए वे सब कतार में खड़े थे, वह ऐसा कुदरती काम है जिसे नित्यक्रिया कहते हैं. मतलब, वे मुंबई सैंट्रल टर्मिनल पर

बने एक शौचालय के बाहर खड़े थे.

वैसे, ‘आप कतार में हैं’ की आवाज तभी अच्छी लगती है जब आप सामान्य हालात में होते हैं या फिर कोई मीठी आवाज की औरत ऐसा बोलती है. शौचालय की कतार में खड़े हो कर किसी को यह सुनना अच्छा नहीं लगेगा.

हुआ यों कि शौचालय के मुलाजिम और ठेकेदार रेलवे की चादरें ‘चादर बिछाओ बलमा…’ गीत गाते हुए रेलवे के कंबल ओढ़ कर निद्रा देवी के आगोश में चले गए. इधर शौच के लिए जाने वाले लोग कतार में लगे अपने आगे के लोगों को गिनते रहे और अंकगणित के सवाल हल करते रहे कि अगर एक आदमी को शौच करने में तकरीबन

5 मिनट लगते हैं तो उन के आगे खड़े

7 लोगों को कितना समय लगेगा और उन के लिए वह सुनहरा वक्त कब आएगा जब वे खुद को एक बहुत बड़े तनाव से मुक्त कर सकेंगे.

वे बारबार अपनी जेब में रखा 2 का सिक्का छू कर तसल्ली कर रहे थे कि ऐन वक्त पर छुट्टे न होने के चलते उन्हें फिर से कतार में न लगना पड़े.

चाहे सदी के महानायक कहते रहें कि ‘अब इंडिया शौच करेगा तो दरवाजा बंद कर के’, पर शौचालय के अंदर जा कर कोई दरवाजा बंद कर के ही सो जाए तो इंडिया शौच कैसे करेगा? हांय? ऐसे में तो शौचालय तो शयनालय यानी सोने की जगह बन जाएगा.

बेचारे शौच के मारे मुसाफिरों का ‘तेरे द्वार खड़ा इक जोगी…’ गातेगाते गला बैठ गया. सिक्के को दबातेदबाते हाथ में छाले पड़ गए, पर दरवाजा अली बाबा के खजाने के दरवाजे की तरह खुलने का नाम ही नहीं ले रहा था.

उस दरवाजे को खोलने का ‘खुल जा सिमसिम’ टाइप कोडवर्ड क्या था, किसी को नहीं पता था.

रेलवे के अफसरों से शिकायत करने पर शौच जाने वालों को कभी इस अफसर के पास तो कभी उस अफसर के पास भेजा जाता रहा.

अब सोचिए कि उन भुक्तभोगियों की क्या हालत हो रही होगी. ऐसे विकट हालात में 2-4 कदम चलना भी मुश्किल होता है और उन बेचारों को दरदर की ठोकरें खानी पड़ रही थीं.

अब भैया, कुछ इमर्जैंसी वाले काम ऐसे होते हैं जिन की जरूरत कभी भी पड़ सकती है और हलका होना भी उन में से एक है.

कहा भी गया है कि ग्राहक, मौत और शौच कभी भी आ सकता है. वैसे कहा सिर्फ ग्राहक और मौत के लिए गया है, पर अभी भी देश में विकास पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है, इसलिए शौच को मौत के साथ जोड़ कर कहावत का विकास किया गया है.

जब गाड़ी 24 घंटे चलाते हो, मुसाफिर 24 घंटे रेलवे स्टेशन पर आजा सकते हैं, तो शौचालय को कैसे बंद

कर सकते हो?

यह कहां का नियम है कि रात के 12 बजे से सुबह के 5 बजे तक शौच नहीं कर सकते? अब लगता है कि शौच घोटाला भी कुछ दिनों में सामने आएगा. शौचालय के ठेकेदार लोग, आप अपनी रोजीरोटी पर खुद क्यों रोक लगा रहे हो?

जिस तरह ‘पैसे लो जूते दो’ की रट दुलहन के देवर लगाते हैं, उसी तरह एक शौच जाने वाले की यही गुजारिश है, ‘वाईफाई ले लो, पर शौचालय दे दो…’

Famous Hindi Stories : जाएं तो जाएं कहां

Famous Hindi Stories : हमारे एक बुजुर्ग थे. वे अकसर हमें समझाया करते थे कि जीवन में किसी न किसी नियम का पालन इंसान को अवश्य करना चाहिए. कोई भी नियम, कोई भी उसूल, जैसे कि मैं झूठ नहीं बोलता, मैं हर किसी से हिलमिल नहीं सकता या मैं हर किसी से हिलमिल जाता हूं, हर चीज का हिसाबकिताब रखना चाहिए या हर चीज का हिसाबकिताब नहीं रखना चाहिए.

नियम का अर्थ कि कोई ऐसा काम जिसे आप अवश्य करना चाहें, जिसे किए बिना आप को लगे कुछ कमी रह गई है. मैं अकसर आसपास देखता हूं और कभीकभार महसूस भी होता है कि पक्का नियम जिसे हम जीतेमरते निभाते हैं वह हमें बड़ी मुसीबत से बचा भी लेता है. हमारे एक मित्र हैं जिन की पत्नी पिछले 10 साल से सुबह सैर करने जाती थीं. 2-3 पड़ोसिनें भी कभी साथ होती थीं और कभी नहीं भी होती थीं.

‘‘देखा न कुसुम, भाभी रोज सुबह सैर करने जाती हैं तुम भी साथ जाया करो. जरा तो अपनी सेहत का खयाल रखो.’’

‘‘सुबह सैर करने जाना मुझे अच्छा नहीं लगता. सफाई कर्मचारी सफाई करते हैं तो सड़क की सारी मिट्टी गले में लगती है. जगहजगह कूड़े के ढेरों को आग लगाते हैं…गली में सभी सीवर भर जाते हैं. सुबह ही सुबह कितनी बदबू होती है.’’  बात शुरू कर के मैं तो पत्नी का मुंह ही देखता रह गया. सुबह की सैर के लाभ तो बचपन से सुनता आया था पर नुकसान पहली बार समझा रही थी पत्नी.

‘‘ताजी हवा तब शुरू होती है जब आबादी खत्म हो जाती है और वहां तक पहुंचतेपहुंचते सन्नाटा शुरू हो जाता है. खेतों की तरफ निकल जाओ तो न आदमी न आदमजात. इतने अंधेरे में अकेले डर नहीं लगता क्या कुसुम भाभी को.’’

‘‘इस में डरना क्या है. 6 बजे तक वापस आतेआते दिन निकल आता है. अपना ही इलाका है, डर कैसा.’’

‘‘नहीं, शाम की सैर ठीक रहती है. न बच्चों को स्कूल भेजने की चिंता और न ही अंधेरे का डर. भई, अपनेअपने नियम हैं,’’ पत्नी ने अपना नियम मुझे बताया और वह क्यों सही है उसे प्रमाणित करने के कारण भी मुझे समझा दिए. सोचा जाए तो अपनेअपने स्थान पर हर इंसान सही है. पुरानी पीढ़ी के पास नई पीढ़ी को कोसने के हजार तर्क हैं और नई पीढ़ी के पास पुरानी को नकारने के लाख बहाने. इसी मतभेद को दिल से लगा कर अकसर हम अपने अच्छे से अच्छे रिश्ते से हाथ धो लेते हैं.

मेरी बड़ी बहन, जो आगरा में रहती हैं, का एक नियम बड़ा सख्त है. कभी किसी का गहना या कपड़ा मांग कर नहीं पहनना चाहिए. कपड़ा तो कभी मजबूरी में पहनना भी पड़ सकता है क्योंकि तन ढकना तो जरूरत है, लेकिन गहनों के बिना प्राण तो नहीं निकल जाएंगे.

हम किसी शादी में जाने वाले थे. दीदी भी उन दिनों हमारे पास आई हुई थीं. जाहिर है, भारी गहने साथ ले कर नहीं आई थीं. मेरी पत्नी ने अनुरोध किया कि वे उस के गहने ले लें, तो दीदी ने साफ मना कर दिया. मेरी पत्नी को बुरा लगा.

‘‘दीदी ने ऐसा क्यों कहा कि वे कभी किसी के गहने नहीं पहनतीं. मैं कोई पराई हूं क्या? कह रही हैं अपनेअपने उसूल हैं, ऐसे भी क्या उसूल…’’

दीदी शादी में गईं पर उन्हीं हल्केफुल्के गहनों में जिन्हें पहन कर वे आगरा से आई थीं. घर आ कर भी मेरी पत्नी अनमनी सी रही जिसे दीदी भांप गई थीं.

‘‘बुरा मत मानना भाभी और तुम भी अपने जीवन में यह नियम अवश्य बना लो. यदि तुम्हारे पास गहना नहीं है तो मात्र दिखावे के लिए कभी किसी का गहना मांग कर मत पहनो. अगर तुम से वह गहना खो जाए तो पूरी उम्र एक कलंक माथे पर लगा रहता है कि फलां ने मेरा हजारों का नुकसान कर दिया था. जिस की चीज खो जाती है वह भूल तो नहीं पाता न.’’

‘‘अगर मुझ से ही खो जाए तो?’’

‘‘तुम चाहे अपने हाथ से जितना बड़ा नुकसान कर लो…चीज भी तुम्हारी, गंवाई भी तुम ने, अपना किया बड़े से बड़ा नुकसान इंसान भूल जाता है पर दूसरे द्वारा किया सदा याद रहता है.

‘‘मुझे याद है 10वीं कक्षा में हमारी अंगरेजी की किताब में एक कहानी थी ‘द नैकलेस’ जिस में नायिका मैगी मात्र अपनी एक अमीर सखी के घर पार्टी पर जाने के लिए दूसरी अमीर सखी का हीरों का हार उधार मांग कर ले जाती है. हार खो जाता है. पतिपत्नी नया हार खरीदते हैं और लौटा देते हैं. और फिर पूरी उम्र उस कर्ज को उतारते रहते हैं जो उन्होंने लाखों का हार चुकाने को लिया था.

‘‘लगभग 15 साल बाद बहुत गरीबी में दिन गुजार चुकी मैगी को वही सखी बाजार में मिल जाती है. दोनों एकदूसरे का हालचाल पूछती हैं और अमीर सखी उस की गिरी सेहत और बुरी हालत का कारण पूछती है. नायिका सच बताती है और अमीर सखी अपना सिर पीट लेती है, क्योंकि उस ने जो हार उधार दिया था वह तो नकली था.

‘‘नकली ले कर असली चुकाया और पूरा जीवन तबाह कर लिया. क्या पाया उस ने भाभी? इसी कहानी की वजह से मैं कई दिन रोती रही थी.’’

दीदी ने प्रश्न किया तो मुझे भी वह कहानी याद आई. सच है, दीदी अकसर किस्सेकहानियों को बड़ी गंभीरता से लेती थीं. यही एक कहानी गहरी उतर गई होगी मन में.

‘‘दोस्ती हमेशा अपने बराबर वालों से करो, जिन के साथ उठबैठ कर आप स्वयं को मखमल में टाट की तरह न महसूस करो. क्या जरूरत है जेब फाड़ कर तमाशा दिखाने की. अपनी औकात के अनुसार ही जिओ तो जीवन आसान रहता है. मेरा नियम है भाभी कि जब तक जीवनमरण का प्रश्न न बन जाए, सगे भाईबहन से भी कुछ मत मांगो.’’

चुप रहे हम पतिपत्नी. क्या उत्तर देते, अपनेअपने नियम हैं. उन्हें कभी भी नहीं तोड़ना चाहिए. अप्रत्यक्ष में दीदी ने हमें भी समझा दिया था कि हम भी इसी नियम पर चलें. ऐसे नियमों से जीवन आसान हो जाता है, यह सच है क्योंकि हम पूरा का पूरा वजन अपने उस नियम पर डाल देते हैं जिसे सामने वाला चाहेअनचाहे मान भी लेता है. भई, क्या करें नियम जो है.

‘‘रवि साहब, किसी का जूठा नहीं खाते, क्या करें भई, नियम है न इन का. वैसे एक घूंट मेरे गिलास से पी लेते तो हमारा मन रह जाता.’’

‘‘अब कोई इन से पूछे कि जूठा पानी अगर रवि साहब पी लेते तो इन का मन क्यों रह जाता. इन का मन हर किसी के नियम तोड़ने को बेचैन भी क्यों है. इन का जूठा अमृत है क्या, जिसे रविजी जरूर पिएं. संभव है इन्हें खांसी हो, जुकाम हो या कोई मुंह का संक्रमण. रविजी इन का मन रखने के लिए मौत के मुंह में क्यों जाएं? सत्य है, रविजी का नियम उन्हें बीमार होने से तो बचा ही गया न.’’

मेरे एक अन्य मित्र हैं. एक दिन हम ने साथसाथ कुछ खर्च किया. उन्होंने झट से 20 रुपए लौटा दिए.

‘‘20 रुपए हों या 20 लाख रुपए मेरे लिए दोनों की कीमत एक ही है. सिर पर कर्ज नहीं रखता मैं और दोस्ती में तो बिलकुल भी नहीं. दोस्त के साथ रिश्ते साफसुथरे रहें, उस के लिए जब हिसाब करो तो पैसेपैसे का करो. अपना नियम है भई, उपहार चाहे हजारों का दो और लो, कर्ज एक पैसे का भी नहीं. यही पैसा दोस्ती में जहर घोलता है.’’

चुप रहा मैं क्योंकि उन का यह पक्का नियम मुझे भी तोड़ना नहीं चाहिए. सत्य भी यही है कि अपनी जेब से बिना वजह लुटाना भी कौन चाहता है. हमारी एक मौसी बड़ी हिसाब- किताब वाली थीं. वे रोज शाम को खर्च की डायरी लिखती थीं. बच्चे अकसर हंसने लगते. वे भी हंस देती थीं. घर में एक ही तनख्वाह आती थी. कंजूसी भी नहीं करती थीं और फुजूल- खर्ची भी नहीं. रिश्तेदारी में भी अच्छा लेनदेन करतीं. कभी बात चलती तो वे यही कहती थीं :

‘‘अपनी चादर में रहो तो क्या मजाल कि मुश्किल आए. रोना तभी पड़ता है जब इंसान नियम से न चले. जीवन में नियम का होना बहुत आवश्यक है.’’

हमारे एक बहनोई हैं. हम से दूर रहते हैं इसलिए कभीकभार ही मिलना होता है. एक बार शादी में मिले, गपशप में दीदी ने उलाहना सा दे दिया.

‘‘सब से मिलना इन्हें अच्छा ही नहीं लगता,’’ दीदी बोलीं, ‘‘गिनेचुने लोगों से ही मिलते हैं. कहते हैं कि हर कोई इस लायक नहीं जिस से मेलजोल बढ़ाया जाए.’’

‘‘ठीक ही तो कहता हूं सोम भाई, अब आप ही बताइए, बिना किसी को जांचेपरखे दोस्त बनाओगे तो वही हाल होगा न जो संजय दत्त का हुआ. दोस्तीयारी में फंस गया बेचारा. अब किसी के माथे पर लिखा है क्या कि वह चोरउचक्का है या आतंकवादी.

‘‘अपना तो नियम है भाई, हाथ सब से मिलाते चलो लेकिन दिल मिलाने से पहले हजार बार सोचो.’’

आज शाम मैं घर आया तो विचित्र ही खबर मिली. ‘‘आप ने सुना नहीं, आज सुबह कुसुम भाभी को किसी ने सराय के बाहर जख्मी कर दिया. उन के साथ 2 पड़ोसिनें और थीं. कानों के टौप्स खींच कर धक्का दे दिया. सिर फट गए. तीनों अस्पताल मेें पड़ी हैं. मैं ने कहा था न कि इतनी सुबह सैर को नहीं जाना चाहिए.’’

‘‘क्या सच?’’ अवाक् रह गया मैं.

‘‘और नहीं तो क्या. सोना ही दुश्मन बन गया. नशेड़ी होंगे कोई. गंड़ासा दिखाया और अंगूठियां उतरवा लीं. तीनों से टौप्स उतारने को कहा. तभी दूर से कोई गाड़ी आती देखी तो कानों से खींच कर ही ले गए…आप कहते थे न, अपना ही इलाका है, तुम भी जाया करो.’’

निरुत्तर हो गया मैं. मेरी नजर पत्नी के कानों पर पड़ी. सुंदर नग चमक रहे थे. उंगली में अंगूठी भी 10 हजार की तो होगी ही. अगर इस ने अपना नियम तोड़ कर मेरा कहा मान लिया होता तो इस वक्त शायद यह भी कुसुम भाभी के साथ अस्पताल में होती.

आज के परिवेश में क्या गलत और क्या सही. सुबह की सैर का नियम जहां कुसुम भाभी को मार गया, वहीं शाम की सैर का नियम मेरी पत्नी को बचा भी गया. सोना इतना महंगा हो गया है कि जानलेवा होने लगा है. सोच रहा हूं कि एक नियम मैं भी बना लूं. चाहे जो भी हो जाए पत्नी को गहने पहन कर घर से बाहर नहीं जाने दूंगा. परेशान हो गई थी पत्नी.

‘‘नकली गहने पहने तो कौन सा जान बच गई. कुसुम भाभी के टौप्स तो नकली थे. अंगूठी भी सोने की नहीं थी. उन्होंने कहा भी कि भैया, सोना नहीं पहना है.’’

‘‘तो क्या कहा उन्होंने?’’

‘‘बोले, यह देखने का हमारा काम है. ज्यादा नानुकर मत करो.’’

क्या जवाब दूं मैं. आज हम जिस हाल में जी रहे हैं उस हाल में जीना वास्तव में बहुत तंग हो गया है. खुल कर सांस कहां ले पा रहे हैं हम. जी पाएं, उस के लिए इतने नियमों का निर्माण करना पड़ेगा कि हम कहीं के रहेंगे ही नहीं. सिर्फ नियम ही होंगे जो हमें चलाएंगे, उठाएंगे और बिठाएंगे.

रात में हम दोनों पतिपत्नी अस्पताल गए. कुसुम भाभी के सिर की चोट गहरी थी. दोनों कान कटे पड़े थे. होश नहीं आया था. उन के पति परेशान थे, सीधासादा जीवन जीतेजीते यह कैसी परेशानी चली आई थी.

‘‘यह बेचारी तो सोना पहनती ही नहीं थी. पीतल भी पहनना भारी पड़ गया. अब इन हालात में इंसान जिए तो कैसे जिए, सोम भाई. कभी किसी का बुरा नहीं किया इस ने. इसी के साथ ऐसा क्यों?’’

वे मेरे गले से लग कर रोने लगे थे. मैं उन का कंधा थपथपा रहा था. उत्तर तो मेरे पास भी नहीं है. कैसे जिएं हम. जाएं तो जाएं कहां. कितना भी संभल कर चलो, कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है कि सब धरा का धरा रह जाता है.

Interesting Hindi Stories : देवरानी के आने के बाद बदल गई राधिका की जिंदगी?

लेखिका- मीना गुप्ता

Interesting Hindi Stories : ‘‘कहींदूर जब दिन ढल जाए सांझ की दुलहन बदन चुराए…’’ गाना गुनगुनाते हुए राज बाथरूम से निकला और फिर बोला, ‘‘भाभीजी, मेरा नाश्ता… आज मुझे जल्दी जाना है.’’

‘‘क्या बात है देवरजी बड़े खुश नजर आ रहे हैं? रोज सांझ की दुलहन को याद करते हैं?’’

‘‘कुछ नहीं भाभी रेडियो पर बज रहा था न, तो यों ही दिल किया गुनगुनाने का.’’

‘‘जब कोई गीत गुनगुनाने का दिल करे तो इस का क्या मतलब होता है जानते हैं?’’

‘‘नहीं जानता,’’ राजन ने लापरवाही से कहा.

‘‘मतलब इस गीत के लफ्ज अंदर कहीं जगह बना रहे हैं. वह हर गीत जो हमारी जबान पर बारबार आता है कहीं न कहीं हमारे जज्बातों से जुड़ कर आता है.’’

‘‘ओह भाभी, आप भी… कोई नहीं है… आप यों ही…’’

‘‘कोई औफिस में देख ली क्या? मुझे धीरे से बता दीजिए. मैं आप के भैया से कह कर सब बात तय कर लूंगी.’’

‘‘नहीं है भाभी. अगर होती तो जरूर बताता.’’

‘‘सच?’’

‘‘हां भाभी, बिलकुल,’’ कह राजन ने राधिका को थोड़ा मुसकरा कर देखा और फट से बोला, ‘‘एक बात कहूं?’’

‘‘कहिए.’’

‘‘मुझे तो सांझ की दुलहन ही चाहिए.’’

‘‘देवरजी वह कैसी होती है. हम ने तो ऐसी कोई दुलहन सुनी ही नहीं.’’

‘‘बस बहुत सुंदर… ढलती शाम की तरह शांत, अपने आगोश में सारे उजाले को समेटे हुए… 2 पर्वतों के बीच डूबते सुरमई सूरज की तरह… पेड़ों की शाखाओं से झांकती किरणों की तरह, शाम को घर लौटते परिंदों की तरह और तारों भरे झिलमिल करते अंबर की तरह, जागती आंखों में सपनों की तरह, बहुत सुंदर.’’

‘‘तो आप यह क्यों नहीं कहते कि आप को किसी कविता से शादी करनी है?’’

‘‘कविता नहीं भाभी हकीकत होगी वह, हकीकत… वैसी ही हकीकत जैसे शाम अपनेआप में स्वप्निल हो कर भी एक हकीकत है. मुझे और कुछ नहीं चाहिए. कोई दहेज नहीं… कोई डिमांड नहीं.’’

‘‘तो मैं ये समझूं कि आप तलाश में हैं?’’

‘‘अभी तक ऐसी कोई नहीं.’’

‘‘तो फिर?’’

‘‘अभी तो सिर्फ बंद आंखों में झांकती है.’’

राधिका ने मजाक किया, ‘‘तो क्या कहती है? मैं भी तो सुनूं.’’

‘‘कुछ नहीं बस आती है और चली जाती है… कल शाम को आने का वादा कर के.’’

‘‘देवरजी ने सपने देखने शुरू कर दिए हैं… शुभ संकेत… बाबूजी को दे देती हूं,’’ नाश्ते की प्लेट पकड़ाते हुए राधिका मुसकराई.

राजन राधिका का देवर, बेहद भावुक और सहृदय. मन गंगा की तरह पवित्र…

सागर की गहराई भी उसे न छू सके. सब के साथ सब का हो कर रहना उस की खास पहचान. सारी कालोनी राजन भैया कह कर बुलाती और आतेजाते सभी से अनजाने ही पहचान हो जाती. कब, किस से कैसे पहचान बनी पूछने पर पता चलता कि यों ही चलते चलते.

रास्ते में कोई मिला अपनी परेशानी सुनाई और राजन भैया ने बिना जानेपहचाने कर दी मदद.

कौन था पूछने पर कहता कि जरूरतमंद था… मदद कर दी.

‘‘कब मिला था पहली बार वह तुम्हें?’’

‘‘बस यों ही चलतेचलते.’’

भाभी मजाक कर उठती, ‘‘देवरजी यों ही चलतेचलते वह नहीं मिलती?’’

‘‘वह ऐसे नहीं मिलेगी.’’

‘‘तो फिर कैसे मिलेगी?’’

‘‘उस के लिए तो आप को कोशिश करनी होगी. चलतेचलते तो बहुत मिलती हैं, लेकिन भाभी वह… वह नहीं होती.’’

राधिका और बाबूजी दोनों परेशान कि कब हां करेगा? कहता था कि शादी ही नहीं करूंगा.

बहुत दिनों बाद उस दिन उसे खुश देख कर राधिका ने यह सवाल किया कि कोई पसंद कर ली क्या?

राजन औफिस चला गया तो राधिका सोचने लगी कि कितना भोला है यह लड़का. आज के जमाने में इतना पवित्र सौंदर्य कहां मिलेगा? कैसे ढूंढें? आज शिब्बू से बात करती हूं.’’

‘‘क्या सोच रही हो?’’ अपने कमरे से बाहर आते हुए शिब्बू ने पूछा.

‘‘सोच रही हूं इतनी सुंदर कहां से लाएंगे?’’

‘‘क्या लेने जा रही हो तुम.’’

‘‘देवरजी के लिए सांझ की दुलहन.’’

‘‘क्या मजाक करती रहती हो?’’

‘‘हां अभीअभी कह कर निकले कि मुझे तो सांझ जैसी दुलहन चाहिए… वह स्वप्निल सांझ की तरह सुंदर हो… आज तुम्हारे भाई साहब भी पूरे शायर नजर आ रहे थे.’’

‘‘तो देवर किस का है?’’ शिब्बू ने राधिका की ओर तिरछी मुसकान डाल कर कहा, ‘‘चलो, कुछ बोला तो.’’

‘‘कुछ नहीं बहुत कुछ बोले.’’

‘‘तो ढूंढ़ दो न बहुत कुछ.’’

‘‘कहां से लाऊंगी ऐसी परी? नखरे भी तो उठाने पड़ेंगे उस के?’’

‘‘तो भाभी और देवर दोनों मिल कर उठाना… क्या उस ने कोई ढूंढ़ रखी है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो फिर?’’

‘‘कल्पना में तलाश रहे हैं. कहते हैं, हकीकत होगी… और आप उसे सच करेंगी.’’

‘‘तो फिर जाओ किसी शायर के पास… कोई अच्छी सी गजल लिखवा लाओ और फिर कहना यह लो आ गई तुम्हारी दुलहन… पगला है.’’

‘‘वह तो है, मगर उन्होंने बड़ी मुश्किल से हां की है, तो कोशिश करनी ही होगी.’’

‘‘हां तो करो कोशिश. तुम जाओ सांझ की दुलहन लेने और मैं चला अपने काम पर,’’ यह शिब्बू भी निकल गया अपनी अनवरत यात्रा पर. रुकने का नाम ही नहीं लेता. जब भी बात करता ऊंचे आसमान में उड़ने की. धरती पर कदम रखना छोड़ दिया था उस ने. उड़ना है… उड़ते ही जाना है. किसी ने रोका नहीं, किसी ने टोका नहीं और शिब्बू ने अपना काम इतना फैला लिया कि अब उस के पास खुद को समेटने के लिए भी वक्त नहीं.

राधिका आसमान में उड़ते पंछी को देखती रही जो शाम को घर वापस आ जाएगा. मगर कुछ परिंदे ऐसे भी होते हैं, जो रात ढले ही लौटते हैं. शायद यह परिंदा भी रात ढले ही आएगा और अपने नीड़ में चुपचाप बिना आहट के ही सो जाएगा. राधिका दूर तक उसे जाती देखती रही.

तभी बाहर से आवाज आई, ‘‘बहू दूध आ गया है.’’

‘‘हां बाबूजी… बाबूजी आप का नाश्ता भी तैयार है.’’

नाश्ता देते राधिका ने कहा, ‘‘बाबूजी, आप से कुछ कहना है.’’

‘‘कहो बहू?’’

‘‘राजन भैया ने शादी के लिए हां कर दी है.’’

‘‘अरे वाह, कब बोला और कैसी चाहिए उसे?’’

‘‘कहता है कि लड़की सुंदर होनी चाहिए.’’

‘‘तो उस में क्या है? हमारी रिश्तेदारी में अनेक सुंदर लड़कियां हैं. वह जिसे पसंद करेगा उस से रिश्ता तय समझो. बहू तुम उधर संभालो मैं इधर संभालता हूं,’’ बाबूजी ने खनकती आवाज में कहा…

‘‘कब से इस उम्मीद में था कि दूसरी बहू आएगी और…’’

‘‘और क्या बाबूजी?’’

‘‘कुछ नहीं बहू…’’ बाबूजी बात अधूरी छोड़ कर बोले.

मगर राधिका इस ओर से भलीभांति परिचित हो चुकी थी. उस के विवाह को 5 साल हो गए थे और बाबूजी तरस रहे थे अपने आंगन के खिलौने के लिए.

‘‘अरे विश्रुतजी, लड़की को आप देखते ही रह जाएंगे… न करने का तो सवाल ही नहीं उठेगा. बस एक नजर की ही बात रहेगी,’’ दूर के एक रिश्तेदार ने कहा.

शाम को राधिका ने ससुरजी की पूरी बात सुनी. परिवार के हर सदस्य की खुशी की परवाह में जीती राधिका का मन न जाने क्यों आशंकित हो उठा कि राजन बहुत भोला है और वह लड़की होस्टल में पढ़ने वाली.

फिर रात को शिब्बू के घर आते ही राधिका ने अपनी आशंका जाहिर की.

‘‘अरे, यह जरूरी तो नहीं कि होस्टल में पढ़ने वाली हर लड़की तेज हो…, हां स्मार्ट तो होगी ही. वहां का परिवेश ही ऐसा होता है. तुम अभी से क्यों परेशान हो.’’ शिब्बू ने कहा.

राजन को कुछ बताए बिना ही बाबूजी ने आदेश दिया, ‘‘आज एक मित्र के यहां जाना है. सभी के साथ तुम्हें भी चलना होगा.’’

राजन ने बिना कुछ पूछे ही हां कह दी. राधिका मन ही मन मुसकराई कि कितना भोला है… यह भी नहीं पूछा कि जाना कहां है?

लड़की आई. सच में बेहद खूबसूरत.

राधिका ने तो देखते ही कह दिया, ‘‘देवरजी  सांझ की दुलहन यही तो थी.’’

‘‘क्या यही है वह,’’ राजन ने धीरे से पूछा और फिर मुसकरा कर अपनी सहमति दे दी.

और किसी औपचारिकता की जरूरत नहीं थी. बाबूजी ने कहा, ‘‘हमें और कुछ नहीं चाहिए… पर एक बात बहुत साफ कहना चाहूंगा कि हमारे घर में एक और बहू है… बहुत संस्कारी है… नई बहू घर की खुशी बरकरार रखे हमें बस इतना ही चाहिए. ’’

राधिका सोच रही थी कि कभी उस ने अपने हाथों से गिलास भी नहीं उठाया होगा… कमरे में उस ने खुले पैर ही प्रवेश किया. नाजुक सी एडि़यां चुपचुप झांक पड़ी… चेहरे की लालिमा उन में आ गई थी. शरीर का हर अंग जैसे नापतोल कर बनाया गया था… कहीं भी कुछ अधिक या कम नहीं. जो था अपनी जगह सही और सटीक. शायद फुरसत में नहीं एकांत में बनाई गई थी वह रचना. अंगों का बांकपन और सौंदर्य की वह पराकाष्ठा…

राधिका ने एक बार पुन: अपनी शंका सब के सामने रखनी चाही, ‘‘इतनी सुंदर… इसे हम लोग संभाल पाएंगे? घर का कामकाज कर सकेगी?’’

‘‘नहीं करेगी तो क्या हुआ हम कर लेंगे,’’ राजन ने कहा.

‘‘इस के नाजनखरे भी उठाने पड़े तो?’’

‘‘हम उठा लेंगे,’’ राजन ने कहा.

‘‘वाह यह हुई न बात… तुम क्यों एक ही बात के पीछे पड़ी हो,’’ शिब्बू ने कहा.

बाबूजी ने भी कहा, ‘‘बहू वह राजन का काम है. इस की मरजी यह जैसा चाहेगा करेगा.’’

सारे दिन की थकान से चूर राधिका ने बिस्तर थामा था. फिर भी आंखों में नींद नहीं थी. एक बात अब भी घूम रही थी कि राजन बहुत सीधा है.

शादी की तैयारी में व्यस्त राधिका को पता ही नहीं रहता कहां है और किस जगह

नहीं है? हर जगह उस का होना जरूरी. घर में आने वाले मेहमानों के इंतजाम से ले कर दूल्हेदुलहन का जोड़ा भी उसे ही तैयार करना था. उस पर क्या अच्छा लगेगा यह राजन से ही पूछा जाता. राजन सुंदरी से पूछता.

‘‘मौडर्न जमाना है,’’ बाबूजी कहते.

दुलहन का जोड़ा पसंद होने के बाद राजन ने कहा, ‘‘भाभीजी आप के लिए पसंद कर दूं या भैया से करवाएंगी?’’

‘‘आप के भाई साहब ने इस के पहले कभी पसंद किया है जो अब करेंगे?’’ कह कर राधिका मन ही मन सोचने लगी कि शिब्बू तो कभी यह भी नहीं कहता कि तुम साड़ी में अच्छी लगती हो या इस रंग में तुम खिला जाती हो… उस से कहा भी था कि बहू के कपड़े पसंद करने तुम भी चलो तो उस ने कह दिया था कि तुम ही चली जाओ. मैं नहीं जा सकता… यह मेरा काम नहीं है… अपने देवर को ले जाओ, वह पसंद कर देगा. उस की आंखें क्यों नम हो आईं. कहीं राजन भैया का उत्साह तो इस पीड़ा का कारण नहीं?

‘‘अरे भाभी, क्या सोच रही हैं?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ राधिका ने चुपके से अपनी नम कोरों को पोछते हुए कहा.

‘‘अच्छा… चलिए अब आप के लिए पसंद करते हैं… आप पर यह जरी बौर्डर वाली काली साड़ी बहुत खिलेगी.’’

‘‘नहीं देवरजी काला रंग शुभ नहीं होता.’’

‘‘ऐसा किस ने कह दिया? यह रंग तो फैशन में है,’’ और फिर राजन ने राधिका पर किसी अनुभवी की तरह साड़ी डालते हुए कहा, ‘‘अब देखिए आप कैसी लग रही हैं?’’

राधिका के गोरे बदन पर वह साड़ी खिल उठी.

दुकानदार ने कहा, ‘‘वाह क्या पसंद है?’’

राजन चिढ़ गया. उसे मालूम था कि वह अपनी चीज की प्रशंसा कर रहा है, राधिका की नहीं.

राजन ने राधिका के आंसू देख लिए थे, इसलिए बोला, ‘‘भाभी, मैं उसे बहुत प्यार दूंगा उस की आंखों से गिरा हर आंसू मेरी ही आंख में पनाह लेगा.’’

‘‘राधिका के होंठों पर दर्द भरी मुसकान तैर गई, ‘‘देवरजी, आप सच में बहुत अच्छे हैं.’’

राजन ने शौपिंग का सारा खर्च उठाते हुए कहा, ‘‘भाभी आने दो उसे वह आप की दोस्त बन कर रहेगी.’’

राधिका को उस संध्या सुंदरी से जलन हो रही थी. फिर भी वह खुश थी. घर में सारे मेहमान आ चुके थे और वह स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रही थी. आखिर देवर के लिए रानी जो ला रही है. बाबूजी का हुक्म था जब तक शादी पूरी न हो जाए शहनाई बजती रहनी चाहिए. शहनाई की धुनों में ही बहू ने घर में कदम रखा. कलश पर पैर से ठोकर दे नववधू को चावल गिराने थे और राजन को समेटने थे. उस ने चावल इतनी दूर फैला दिए कि राजन बेचारा समेटता रह गया.

राधिका ने देखा तो कहा, ‘‘देवरानीजी धीरे मारिए, देवरजी को तकलीफ होगी समेटने में. ’’

कुछ ही दिनों बाद राधिका की आशंका सही साबित होने लगी. वह तो सच में रानी थी. 10 बजे सो कर उठती तो बाबूजी से छिप कर राजन उसे चाय बना कर देता.

जब बाबूजी ने उस से कहा कि बहू राधिका की मदद

किया करो तो वह असमर्थता सी जताते हुए बोली, ‘‘मुझे नहीं आता, कैसे करूं? बिगड़ गया तो?’’

‘‘वह तो सो कर ही 10 बजे उठती है बाबूजी… रहने दीजिए,’’ राधिका ने कहा.

उस की खूबसूरती में कहीं दाग न लग जाए यह सोच कर रसोई और अन्य कामों से दूर ही रखा गया. सारे नाज भी उठाए गए.

उस के  आने के बाद राधिका ने खुद को अकेला महसूस किया था. अब राजन रसोई में खड़ा हो कर उस से बातें नहीं करता. समय नहीं था. घर के बदले माहौल को राधिका ही संभाल कर रखती. सुंदरी की गलतियों को वह सब से छिपा जाती. यह बात सुंदरी ने समझ ली थी. वह राधिका की आड़ में खेल करती, जिसे राधिका जान कर भी अनजान बन जाती ताकि घर की सुखशांति बनी रहे. धीरेधीरे समझ जाएगी. मगर सुंदरी ने हर दिन परिवार के उसूलों को तोड़ने की कोशिश की. हर दिन राजन से एक फरमाइश. आए दिन पार्टी… आए दिन सिनेमा.

बाबूजी ने एक दिन ऐतराज किया.

‘‘तो इस में बुराई क्या है… अपनी सहेलियों के साथ ही तो हूं,’’  तीखे स्वर में उस ने जवाब दिया.

‘‘ठीक है तुम राजन से पूछ लो.’’

राजन ने हां कह दी.

घर से बाहर रहने का समय बढ़ता रहा. तब बाबूजी ने कहा, ‘‘राजन, देखो इतनी छूट सही नहीं. आखिर वह घर की बहू है. घर में एक बहू और भी तो है. उस ने तो कभी ऐसा नहीं किया?’’

‘‘क्या हुआ बाबूजी? सहेलियों के साथ ही तो है… आप परेशान न होइए. मैं हूं न.’’

‘‘मगर उस के होस्टल के लड़के भी तो गए हैं,’’ बाबूजी ने कड़क आवाज में कहा.

राजन ने पहली बार बाबूजी से तर्क किया, ‘‘होस्टल में पढ़ी है… खुले विचारों की है. कैसे मना करूं? धीरेधीरे समझ जाएगी.’’

राधिका ने भी बाबूजी को समझाया, ‘‘बाबूजी, एक संतान के आते ही बंध जाएगी. बस देर आने की है.’’

घर की नववधू ने रात 9 बजे घर में कदम रखा. साथ में कौन है, बाबूजी ने खिड़की से झांक कर देखना चाहा. सुंदरी उस लड़के के हाथ में हाथ डाले थी. वहीं 2 हाथ खिलखिलाहट के साथ हवा में लहरा गए और खिलखिलाहट की आवाज माहौल में गूंज उठी.

बाबूजी का तनमन कांप उठा. उन्हें अपनी सालों की कमाई दौलत, मानमर्यादा सरेआम बिकती दिखी. झांक कर देखा कितने घरों की खिड़कियां उस दृश्य की साक्षी बनीं. खिड़कियां ही नहीं उन में रहने वाले लोग भी आवाक थे.

दूसरे दिन भी वही घटना दोहराई गई. सुंदरी को छोड़ जब वह जाने लगा तब बाबूजी ने बुला कर कहा, ‘‘बेटा क्या नाम है तुम्हारा?’’

‘‘अनुभव?’’

‘‘लगते तो भले घर के हो, अनुभव तुम सुंदरी को कब से जानते हो?’’

‘‘मैं इस के साथ पढ़ा हूं,’’ कह कर वह जाने लगा तो बाबूजी ने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘शायद तुम्हें हमारे घर की मर्यादा नहीं मालूम. तुम्हारा रिश्ता अब सिर्फ सुंदरी से ही नहीं वरन उस के परिवार से भी है. वह तुम्हारी क्लासमेट ही नहीं है, वह किसी की पत्नी भी है और किसी घर की बहू बन चुकी है. इस तरह उस के साथ तुम्हारा आनाजाना ठीक नहीं है.’’

वह बिना कुछ बोले चला गया. सुंदरी अंदर कमरे में आ कर बिफर पड़ी, ‘‘बाबूजी को क्या हो गया है? क्यों बेवजह शोर मचा दिया… कुल की मर्यादा… कुल की मर्यादा… क्या करूं मैं कुल की मर्यादा का… सारा दिन घर में रह कर उसे पालूं? मुझ से नहीं होगा… क्या हुआ जो मेरा दोस्त मुझे घर छोड़ने आ गया?’’

राजन ने समझाया, ‘‘बात दोस्त की नहीं संस्कारों की है… मर्यादा की है. उस ने आ कर किसी से कोई परिचय नहीं करना चाहा… तुम्हें बाय कह कर जाने लगा.’’

‘‘तो क्या हुआ? राजन तुम भी…’’

धीरेधीरे उस का इस तरह आनाजाना साधारण सी बात हो गई, जिस की चर्चा भी नहीं की जाती.

हद तो तब हुई जब उस सांझ की दुलहन ने सच में रात ढले ही घर में कदम रखने शुरू किए. राजन ने सोचा कब तक बाबूजी की मर्यादा को यों सरेआम कुचलता देखूं. उस ने अलग घर ले लिया.

राजन सारा दिन औफिस में रहता और सुंदरी अपने दोस्तों के साथ. शाम को कभीकभी दोनों एकसाथ ही घर में प्रवेश करते. राजन जान चुका था कि कुछ कहना बेकार है. ऐसा नहीं कि उस ने उस की गलतियों को नजरअंदाज किया. वह जान कर भी अनजान बन जाता था, शायद खुद समझ जाए… उस की हर गलती पर खुद परदा डाल उसे सुधरने का मौका देता.

एक बार तो उस की आंखों के सामने ही सारा खेल हुआ. वह देखता रहा. बस इतना कह सका, ‘‘तुम्हें इस से क्या मिलता है?’’

‘‘वही जो तुम से नहीं मिलता… वह मेरा प्यार है… पहला प्यार…’’

‘‘मुझ से क्या नहीं मिला? तुम जिसे मिलना समझती हो वह मेरे परिवार की मर्यादाओं के खिलाफ है… अगर वह तुम्हारा प्यार है तो तुम ने मुझ से शादी क्यों की?’’

‘‘पापा ने कहा, शादी कर लो… हमारे घर से चली जाओ… फिर जैसी मरजी हो करना.’’

‘‘और तुम अपनी मरजी के कोड़े मुझ पर बरसा रही हो,’’ पहली बार चीखा राजन.

‘‘हां, क्योंकि तुम से मुझे बांधा गया है.’’

‘‘और तुम बंध नहीं सकीं… यही न?’’

‘‘तो अब तक तुम ने हमें धोखे में रखा था… क्या कमी रखी मैं ने तुम्हें खुश रखने में? सपनों की मलिका बना कर लाया था तुम्हें… सब से अलग भी कर लाया… किनारा कर लिया अपने घर से, अपने परिवार से. फिर भी तुम्हें नहीं जीत सका, शायद कमी मेरी ही थी कि मैं ने तुम्हें बहुत चाहा और यह नहीं जानना चाहा कि तुम्हें मेरी कितनी जरूरत है.’’

‘‘हां, मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं… मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी नहीं अपनी मरजी और शर्तों पर रह सकती हूं… तुम से पहले मेरे लिए अनुभव… मैं उस के बिना अपने एक पल की भी कल्पना नहीं कर सकती,’’ वह जोरजोर से चिल्ला रही थी.

राजन फिर भी नहीं हारा था. कई बार घर नहीं जाता. राधिका के पास चला जाता.

मगर सुंदरी यह भी जानने की कोशिश नहीं करती कि वह कहां है? उस दिन भी वह औफिस से सीधा राधिका के पास गया और फफक पड़ा.

‘‘क्या हुआ देवरजी?’’

‘‘उस ने सारी बात बता दी फिर बोला, भाभी अब आप ही कोई रास्ता निकालो.’’

‘‘क्या रास्ता निकालें देवरजी? मरजी आप की थी… हम लोग तो सिर्फ माध्यम बने थे आप की इच्छाओं के चलते… और मेरी आशंकाओं पर सभी ने आपत्ति जताई थी कि राजन सब संभाल लेगा.’’

‘‘हां भाभी, गलती मेरी थी. मेरी कल्पना सुंदर थी तो कोमल भी थी… इसलिए जल्दी टूट गई… वह तो बहुत कठोर है… जिस कल्पना सुंदरी को मैं हकीकत बना कर ला रहा हूं वह ऐसी होगी कि मेरी कल्पनाओं को ही निगल जाएगी, ऐसा तो मैं ने सोचा ही नहीं था. अगर कल्पना करना गुनाह था तो मेरा जुर्म सच में बहुत बड़ा है और मुझे उस की सजा मिल रही है. मेरी आंखों के सामने ही सब कुछ हो रहा है और मैं तमाशबीन बना हुआ हूं. उस के हर गुनाह का मैं एक ऐसा चश्मदीद गवाह हूं जिसे किसी भी अदालत में जा कर यह कहने की हिम्मत नहीं है कि मेरे घर में गुनाह पल रहा है. अब तो स्थिति यह है कि वे दोनों मेरे कमरे से लगी दीवार के पीछे होते हैं… मैं दीवारों के पार के दृश्य की कल्पना से कांप जाता हूं.’’

‘‘तो क्या आप यों ही देखते रहेंगे?’’

‘‘नहीं भाभी. मगर मैं करूं भी तो क्या?’’

‘‘बाहर करो देवरजी… जब घर की इज्जत खुद ही बाजार में बैठ जाए तो फिर उसे घर में रखना ठीक नहीं… उसे बिकना मंजूर है… आप क्या कर सकते हैं? मर्यादा की खातिर ही आप घर छोड़ कर गए थे कि लोगों की नजरों से दूर रहने पर बिगड़ी बात बन जाएगी, लेकिन…. मेरा कहा मानो तलाक ले लो.’’

‘‘लेकिन भाभी…’’

‘‘कोई लेकिनवेकिन नहीं… जब जिंदगी तुम से इतनी कुरबानियों के बाद भी खुश नहीं तो बेहतर है ऐसी जिंदगी से किनारा कर लो… आज तुम्हारे पास एक अच्छी नौकरी है, बंगला है, गाड़ी है सब कुछ है, तो फिर क्यों उस अप्सरा के पीछे भाग रहे हो? वह तुम्हारी नहीं… फिर उस ने खुद ही कह दिया है… खुद को कमजोर मत साबित करो देवरजी. रास्ते अनेक हैं, जिस मोड़ पर तुम खड़े हो उस से अनेक रास्ते जा रहे हैं और वह रास्ता भी जिस से तुम चले थे. अब एक ऐसी राह लो जहां से बीती गलियां नजर ही न आएं… छोड़ दो देवरजी उसे… छोड़ दो… अप्सरा किसी की नहीं होती… सब की हो कर भी किसी की नहीं हो पाती.’’

राजन फूटफूट कर रो पड़ा था. राधिका रो तो न सकी, मगर उस के लिए रास्ते की तलाश में जरूर निकल पड़ी.

आज वह निर्णय कर के रहेगा. इस हिम्मत के साथ वह घर में घुसा और जोर से दरवाजा पीटने लगा. दरवाजा सुंदरी ने खोला, ‘‘क्या हुआ? इतनी जोर से दरवाजा क्यों पीट रहे हो?’’

‘‘अब यह यहां नहीं होगा… मेरे घर में यह खेल अब नहीं होगा…’’

‘‘कौन सा नया पाठ पढ़ कर आए हो? यह कौन सी नई बात है?’’

सुंदरी को किनारे धकेलते हुए वह अंदर घुसा और अनुभव की कौलर पकड़ कर उसे घर से बाहर कर दिया.

सुंदरी पागलों की तरह चीखती रही. आज वह जान चुकी थी कि उसे अब किसी एक को थामना होगा. शाम को जब राजन घर आया तो वह जा चुकी थी. अपने प्रेमी अनुभव के साथ. घर में अब सिर्फ वह था और उस की रोतीसिसकती कामनाएं. कल्पनाएं, जिन्हें वह शाम तक बटोरता रहा.

तलाक के वक्त कोर्ट में इतना ही कह सका था, ‘‘मैं इस के लायक नहीं. यह जिसे चाहती है उस के साथ इसे रहने और जीने का पूरा हक है… यह हक इस के मांबाप नहीं दे सके, मगर मैं देता हूं… यह आजाद है.’’

तलाक हुए काफी अरसा हो गया था. राधिका ने कई बार देवर का मन टटोला, जानना चाहा कि वहां अब क्या चल रहा है. राजन कभीकभी कह भी देता, ‘‘भाभी अब नहीं…’’

कल्पना का कटुसत्य जिंदगी में जो कड़वाहट पैदा कर गया था उसे वह भूल नहीं पा रहा था. उस दर्द को भुलाने का एक ही रास्ता था, जो राधिका ने बताया.

‘‘देवरजी दूसरी शादी करिए और अपनी गृहस्थी बसाइए… वह तो अपनी जिंदगी मजे से जी रही है. फिर आप ने ऐसी जिंदगी क्यों अपना ली?’’

‘‘जिंदगी को मैं ने नहीं जिंदगी ने मुझे कुबूल किया है… उसे मैं इसी रूप में अच्छा लगता हूं.’’

‘‘ऐसा नहीं… आप जिसे जिंदगी कह रहे हैं वह ओढ़ी हुई जिंदगी है और यह आप ने सुंदरी के जाने के बाद ओढ़ी है. इसे उतार फेंकने की कोशिश ही नहीं की आप ने… जिस लाश को आप ढो रहे हैं उस से बदबू पैदा हो रही है… उतार फेंको उसे वरना उस की गंध आसपास फैल कर आप को सब से दूर कर देगी… अभी मौका है नई जिंदगी की शुरुआत करने का.’’

राधिका भाभी के लफ्ज उस के जेहन में रात भर गूंजते रहे. राजन सुंदरी को मन से निकाल नहीं पाया था. दूसरी का खयाल कैसे करे? वह सोच में पड़ गया कि क्या भाभी की बात मान कर दूसरी शादी कर ले… नहीं, नहीं, कहीं वह भी. वह भी ऐसी ही निकली तो? लेकिन भाभी ने जो कहा क्या वह सच है? वह सब से दूर जा रहा है? कितनी कातर दृष्टि से भाभी ने मुझे निहारा था और कहा था कि आप की खुशियों की खातिर हम ने सारे समझौते किए थे, लेकिन अब इस बार हमारी मरजी से फैसला लें… ऐसी लाएं जो समझदार हो, शालीन हो. क्या भाभी की तरह कोई मिल सकती है?

राजन ने अलसाई आंखों में ही सवेरा देखा और फिर अपने उजड़े घर पर ताला डाल कर घर पहुंच गया.

राधिका भाभी उस समय बाबूजी को सुबह की चाय दे रही थी. राजन को इतनी सुबह आता देख शंका से भर उठीं, ‘‘क्या हुआ देवरजी… आज इतनी सुबह?’’

‘‘हां भाभी, बहुत दिनों से सुबह की चाय आप के साथ नहीं पी न, इसलिए चला आया. छुट्टी है आज… सोचा थोड़ी देर बाबूजी से भी बातें हो जाएंगी.’’

राधिका ने राजन को बहुत दिनों बाद बदला पाया. पहले जब भी आता परेशान सा रहता. चाय का एक कप उसे पकड़ाया और खुद भी पास रखी कुरसी को और पास ला कर बैठ गईं. बोलीं, ‘‘चलिए अच्छा है… मैं आप को कई दिनों से याद कर रही थी.’’

बाबूजी ने भी कहा, ‘‘चलो अच्छा है… वैसे भी अब तुम उस घर में अकेले रह कर क्या करोगे. आ जाओ यहीं शिब्बू भी अकसर बाहर ही रहता है… राधिका अकेली बोर होती है.’

‘‘नहीं बाबूजी, मैं उस सुंदरी के कारण आप को बहुत चोट पहुंचा चुका हूं… मुझे सजा मिलनी ही चाहिए.’’

‘‘नहीं देवरजी, आप अपनी मरजी से नहीं गए थे… आप को उस की मरजी की खातिर जाना पड़ा था, जिसे आप बेहद प्यार करते थे और बेहतर भी यही था… लेकिन इस घर के दरवाजे आप के लिए खुले हैं… बाबूजी हमेशा रोते और कहते हैं कि मेरा राजन अपनी खातिर नहीं, अपनी मरजी से नहीं उस चुड़ैल की खातिर गया है… वह मेरे बेटे को खा जाएगी बहू. उसे बचा लो,’’ कहते हुए राधिका की आंखें भर आईं.

राजन प्रायश्चित की मुद्रा में जड़ हो चुका था. लड़खड़ाती जबान से यही कह सका, ‘‘भाभी, आप और बाबूजी जैसा चाहें मुझे मंजूर है.’’

राजन के इस निर्णय से राधिका और बाबूजी दोनों खुश हुए. बाबूजी ने सारे

रिश्तेदारों में खबर पहुंचा दी कि राजन ने दूसरी शादी के लिए हां कर दी है.

कई रिश्ते आए. राधिका और बाबूजी ने इस बार किसी भी धोखे की गुंजाइश नहीं रखनी चाही. लड़़की की समझदारी पर अनेक प्रश्न किए जाते और घर आ कर बाबूजी और राधिका घंटों चर्चा करते कि नहीं यह भी समझ में नहीं आ रही. होस्टल वाली तो बिलकुल नहीं चलेगी. घरेलू हो, कुलीन हो… कम पढ़ीलिखी भी चलेगी, लेकिन सलीके वाली हो.

काफी कोशिश के बाद जिस लड़की से रिश्ता तय हुआ वह बेहद पिछड़े इलाके से और गरीब घर की थी और 10वीं कक्षा पास. देखने में साधारण. बात तय कर के आ गए. राजन की हां भर चाहिए थी जो उस ने दे दी.

शादी की तारीख तय हुई. राधिका ने राजन से मजाक किया, ‘‘चलिए, अपनी दुलहन का जोड़ा पसंद कर लीजिए.’’

राजन उदास स्वर में बोला, ‘‘भाभी, आप  ही पसंद कर लीजिए… जोड़ी भी आप ही बना रही हैं… पहनावा भी आप ही तय कर लीजिए.’’

इस बार 24 घंटे वाली शहनाई नहीं बजी. बहू ने घर की चौखट पर कदम रखे. चावल का कलश फिर तैयार था. राजन की आंखें भर आईं, सुंदरी की याद में. नई बहू का पैर कलश पर था. उस ने बहुत समझदारी से चावल गिराए. राजन ने समेटे फिर फैलाए फिर समेटे. भाभी मुसकरा रही थीं.

नई बहू ने बहुत दिनों तक सब का दिल जीतना चाहा. समय पर उठ कर घर के काम में राधिका का हाथ भी बंटाती. बाबूजी का भी खयाल रखती.

राजन तो अपने सारे काम खुद कर लेता. इस बार वह बेहद सतर्क था, ‘‘जो भी पूछना हो भाभी से पूछो अनु. वे ही बता सकती हैं.’’

नई बहू की समझदारी थी या पुरानी वाली की कटु यादें बाबूजी और घर के बाकी लोग सभी अनु से खुश थे. उस ने घर में अपनी जगह बना ली थी. राजन पर भी उस ने धीरेधीरे अधिकार कर लिया.

घर की कुछ जिम्मेदारियों को राधिका ने अनु को सौंपने की सोची. फिर एक दिन तिजोरी खोलते हुए कहा, ‘‘राधिका, यह सब तुम्हारा है… इसे संभालो.’’

‘‘अभी बहू नई है. इतनी समझदार नहीं है… कुछ समय दो,’’ बाबूजी ने झिझकते हुए कहा ताकि कहीं राजन को बुरा न लगे.

‘‘जिम्मेदारी ही तो समझदार बनाएगी. फिर मैं भी तो जब इस घर में आई थी तो नई ही थी और अकेली भी… सब संभाला था,’’ यह सुन कर बाबूजी खुश हो उठे.

अपनी भाभी राधिका से, जिन की राजन बहुत इज्जत करता था, एक दिन अपने मन की बात कहते हुए स्वप्न सुंदरी से शादी करने की बात कह दी. भाभी राधिका परेशान थीं कि कहां और कैसे देवर राजन की शादी इतनी खूबसूरत लड़की से कराई जाए.

तब दूर की एक रिश्तेदारी में जिस स्वप्न सुंदरी की तलाश थी वह मिल गई. मगर जब शादी हो कर वह घर आई तो घर का अच्छाभला माहौल बिगड़ने लगा, जबकि राजन इस ओर से अनजान था. सुंदरी काफी खुले विचारों वाली थी.

कुछ दिनों बाद सुंदरी ने बताया कि उस की शादी राजन से जबरदस्ती उस के घर वालों ने करा दी, लेकिन वह शुरू से ही किसी और को चाहती है.

अब वह यदाकदा अपने प्रेमी को घर पर भी बुलाने लगी. अंतत: आपसी रजामंदी से दोनों ने तलाक ले लिया.

राजन अब दोबारा शादी नहीं करना चाहता था. पर भाभी और अन्य लोगों के दबाव के आगे उसे झुकना पड़ा और उस ने शादी करने की रजामंदी दे दी. राजन की शादी बेहद साधारण और कम पढ़ीलिखी लड़की के साथ हुई. नई बहू ने राजन का घर भी जल्द संभाल लिया. घर के लोग भी उस से खुश थे.

राजन दूसरी शादी से बहुत खुश था. पहली बार उस ने अनु को उस नजर से देखा था जिस नजर से सुंदरी को देखा करता था. आज वह उसे वह प्यार दे सकेगा, जो सुंदरी को देने चला था. मगर उस ने उस की कीमत नहीं समझी थी.

रात राजन और अनु की थी. राधिका तो माध्यम बनी थी, जो इस वक्त दोनों की हंसी से गूंज रहे माहौल में खुद को हलका महसूस कर रही थी.

सुबह उठ कर राधिका ने ही चाय बनाई और दरवाजे पर रख कर बोली, ‘‘आप लोगों की चाय आप को बुला रही है.’’

अनु ने चाय सर्व करते हुए कहा, ‘‘सुनो, आज मुझे थोड़ी शौपिंग करनी है. तुम चलोगे?’’

‘‘हां, क्यों नही?’’

अनु तैयार हो कर राधिका से कह कर शौपिंग के लिए निकल गई. राधिका खुश थी.

जब अनु और राजन घर लौटे राधिका रात के खाने पर दोनों का इंतजार कर रही थी. खाना खा कर दोनों अपने कमरे में, बाबूजी अपने कमरे में, राधिका अपने कमरे में. राधिका जाग रही थी. शिब्बू बिजनैस के सिलसिले में बाहर था. उसे नींद नहीं आ रही थी.

8 साल हो गए थे शादी को. उसे कोईर् संतान नहीं थी. वह इस अकेलेपन को अकसर जाग कर काट लिया करती थी. डाक्टर ने कहा था कोई संभावना नहीं है. फिलहाल बहू में कोई कमी नहीं. राधिका उस की भरपाई में शिब्बू और बाबूजी को खुश करने में लगी रहती. शिब्बू को इस बात का अफसोस नहीं था. मगर वह इस अफसोस में अकसर खिलौनों और गुड्डों से बातें करती रहती और इस प्रकार अपने मातृत्व की पूर्ति करती. तभी किचने से आवाज आई. राधिका ने देखना चाहा क्या हुआ. शायद बिल्ली होगी. लेकिन घर में बिल्ली के आने का कोई रास्ता नहीं था. बाहर आ कर देखा राजन के कमरे से लगी छत का दरवाजा खुला था.

‘तो क्या देवरजी दरवाजा खोल कर सो गए?’ सोच राधिका ने टौर्च की रोशनी से देखना चाहा.

छत पर उसे बात करने की आवाज सुनाई दी. सोचने लगी इतनी रात गए कौन हो सकता है. लगता है दोनों अभी तक जाग रहे हैं. फिर मन ही मन मुसकराई और तसल्ली के लिए पूछा, ‘‘छत पर कौन है?’’

‘‘मैं हूं भाभीजी अनु… लाइट चली गई थी न, तो गरमी के कारण छत पर आ गई.’’

‘‘ठीक है. मगर दरवाजा बंद कर के सोया करो… किचन में बिल्ली आ गई थी.’’

‘‘ठीक है भाभीजी, आप सो जाइए मैं देख लेती हूं किचन में कौन है… चूहा भी हो सकता है… आप सोई नहीं अभी तक?

‘‘नहीं. नींद नहीं आ रही है.’’

‘‘जाइए, अब सो जाइए.’’

राधिका ने बेचैनी से टहलते हुए बाबूजी के कमरे में झांक कर देखा. वे सो रहे थे.

सभी इतमीनान में हैं, फिर वह क्यों परेशान है? इस बेचैनी का कारण क्या है? शिब्बू का न होना या उस का निस्संतान होना या फिर कुछ और?

देर रात तक जागने पर भी भोर में ही राधिका की नींद खुल गई. देखा राजन का कमरा खुला था. लगता है राजन आज जल्दी उठ गया. अनु को आवाज देती हूं, बाबूजी को चाय दे देगी. आज तबीयत भारी हो रही है. रात भर नींद नहीं आई.

नीचे से ही आवाज दी, ‘‘अनु, नीचे आ जाओ. बाबूजी को चाय दे दो.’’

राजन बाहर आते हुए बोला, ‘‘भाभी, अनु यहां नहीं है. नीचे चली गई है.’’

राधिका ने फिर आवाज दी, ‘‘अनु कहां हो?’’ मगर उस के कहीं भी होने की आहट सुनाई नहीं दी. शायद बाथरूम में होगी. लेकिन वहां तो बाबूजी हैं. फिर कहां होगी? किचन में जा कर देखा वहां भी नहीं. शायद बाहर बगीचे में होगी. वहां भी नहीं. आखिर इतनी सुबह कहां जाएगी?

राधिका ने आवाज दी, ‘‘देवरजी देवरानी को नीचे भेज दो, मजाक मत करो.’’

‘‘भाभीजी मैं मजाक नहीं कर रहा. सच में अनु यहां नहीं है.’’

‘‘नहीं है?’’

बाबूजी बाथरूम से निकले तो बोले,

‘‘अरे बहू, आज तुम घर का दरवाजा बंद करना भूल गईं?’’

‘‘क्या घर का दरवाजा… छत का दरवाजा… अनु घर में नहीं है बाबूजी… यह सब क्या है? देवरजी, अनु घर पर नहीं है.’’

‘‘क्या तुम दोनों के बीच रात में कोई झगड़ा हुआ है?’’

‘‘नहीं.’’

कमरे में जा कर देखा तो अनु का सामान भी नहीं था. घर की तिजोरी भी खुली और खाली थी.

बहू घर छोड़ कर जा चुकी थी… ज्यादा ही समझदार निकली.

राधिका को रात की बिल्ली… छत का खुला दरवाजा… अनु का आश्वासन… सब कुछ बिजली की तरह कौंध गया. वह चकरा गई. बोली, ‘‘देवरजी, यह तो बहुत समझदार निकली.’’

राजन जो अब तक सब समझ चुका था, सिर थामे बैठा था.

देर तक घर में फैली खामोशी को कौन तोड़ता? किस में हिम्मत थी? भाभी में जिस ने राजन को दूसरी शादी के लिए प्रेरित किया था या बाबूजी में, जिन्होंने उस की समझदारी पर अनेक प्रश्न किए थे या फिर राजन जिस ने दोनों के निर्णय पर बंद आंखों से अपनी सहमति का अंगूठा लगा दिया था? कौन था समझदार? राधिका जिस ने राजन की गृहस्थी फिर से बसानी चाही, बाबूजी जो अपने आंगन में खेलताकूदता छोटा राजन चाहते थे या फिर राजन जिस के स्वभाव की सरलता ने अनु की बढ़ी समझदारी का कारण नहीं समझना चाहा. शायद इन तीनों से ज्यादा समझदार वह थी जिस ने तीनों की समझदारी पर पानी फेर दिया… सब कुछ ले गई… कुछ नहीं बचा.

रात में फोन आया, ‘‘मैं दूसरा विवाह करने जा रही हूं. उस दमघोंटू माहौल में मैं नहीं रह सकती थी और नई जिंदगी की शुरुआत के लिए पैसा तो चाहिए था सो मैं ले आई. मुझे ढूंढ़ने की कोशिश मत कीजिएगा. आखिर मैं आप के घर की बहू थी.

बाबूजी को काटो तो खून नहीं. राधिका भी जड़वत कि यह सब क्या हुआ? हमारे साथ इतना बड़ा धोखा? यह नजरों का धोखा था या फिर हमारी समझदारी का?

राजन दोनों के बीच मूकदर्शक था. भाभी क्या कहती हैं या बाबूजी क्या कहते हैं उस ने नहीं सुना. उसे लगा उस ने गलत सपना फिर देख लिया. हर बार रो कर चुप होना और फिर रोना. पहले सुंदरी के सौंदर्य ने धोखा दिया. इस बार समझदारी के बड़े भ्रम ने धोखा दिया. धोखा… धोखा… धोखा… कब तक? वह टूट चुका था. घर आने में भी उसे हिचक होती. उसे देखते ही राधिका हिचक जाती. सब एकदूसरे से नजर यों चुराते जैसे वे एकदूसरे के गुनहगार हैं और जिन की सजा यही है कि खुद को एकदूसरे से अलग कर लें. कहीं गुनाह का परदाफाश न हो जाए और ठीकरा किसी एक के सिर फोड़ दिया जाए.

इस बार बाबूजी का चोटिल सम्मान रहरह कर चटक उठता. समाज में उठनेबैठने और तन कर चल सकने की सारी हिम्मत जाती रही. रिश्तेदारी में जहां जाओ एक ही चर्चा. बहू क्यों चली गई? जरूर इस परिवार में ही कोई कमी है, जो दूसरी भी छोड़ कर चली गई. अनेक इलजाम जमाने ने लगाए. खुद को इतना छोटा महसूस करते कि जिस टोपी को उन्होंने कभी नहीं भुलाया था उसे लगाना भी उन्हें याद नहीं रहता. वे बिना टोपी के ही निकल जाते. राधिका याद दिलाती, ‘‘बाबूजी, टोपी…’’

विश्रुतिजी निरुत्साहित से उसे पकड़ते, मगर टोपी लगा कर खुद को निहारने का दुस्साहस अब नहीं करते.

इधर समय की कमी ने शिब्बू और राधिका के बीच जो रिक्तता पैदा की थी उस

जगह अब एक लंबी दीवार खड़ी हो रही थी. अकसर वह बिजनैस के सिलसिले में देर रात तक बाहर होता और जब आता थकान से चूर होता. उस थकान के बीच राधिका उस की जिंदगी में अगर कुछ भरना चाहती तो वह यह कह कर सो जाता, ‘‘राधिका, मैं थक गया हूं, तुम से कल बात करता हूं.’’ और कल थकान बेहिसाब बढ़ी होती. राधिका पास जाने की हिम्मत भी न जुटा पाती.

वह उस टूटी नाव की पतवार थामे चल रही थी, जिस पर अनजाने, अनचाहे अनेक गड्ढे बन चुके थे, जिन्हें पाटते उस की उम्र बीत रही थी.

बाबूजी अपने आहत सम्मान और दम तोड़ती इच्छाओं के बीच खुद को अकेला पाते और सब से अलग रहने के प्रयास में अपने कमरे से बाहर नहीं आते.

राजन अपनी खिड़की में ढलती शाम से ले कर ढलती रात तक न जाने किस का इंतजार करता. उसे घर में क्या चल रहा है, पता भी नहीं रहता. राधिका घर में फैली इस खामोशी में कभी खुद को ढूंढ़ती तो कभी खुद को भुला देती तो कभी राजन और बाबूजी की खामोशी को तोड़ने की हिम्मत करती. कभीकभी उन 4 आंखों में तलाश करती कि वह कहां है?

क्या बाबूजी की इस हिदायत में कि बहू तुम मेरी नहीं इस घर की बहू हो और इस घर को जो तुम दोगी वही पाओगी या फिर शिब्बू की उन हिदायतों में जब वह राधिका के हाथों में रुपयों से भरा बैग थमाते हुए कहता, ‘‘यह घर तुम्हारा है जैसा चाहो चलाओ. मैं कभी नहीं पूछूंगा. मगर इस की खुशियों की परवाह तुम्हें ही करनी होगी.’’

कागज के टुकड़ों को देख सोचती, ‘काश, मैं इन से इस घर की सारी खुशियां, बाबूजी का खोया सम्मान, उन के कुल के दीपक राजन भैया की उजड़ी गृहस्थी सब खरीद सकती. शिब्बू जिसे खुशी कहता है क्या उसी खुशी की तलाश है सभी को? शायद नहीं. मैं कब तक इन कागज के टुकड़ों को संभालती रहूंगी? ये मुझे चिढ़ाते से नजर आते हैं.

उस ने जब भी कुछ मांगा अपने बाबूजी और भाईर् की खुशी. कभी उस ने पूछा कि राधिका इन पैसों से तुम्हारी खुशी मिल सकेगी? रात का अकेलापन और जिंदगी का सूनापन अकसर उसे डसने लगता. शिब्बू तो बस आगे बढ़ने की धुन में बढ़ता जा रहा है. इस बढ़ने में उस के अपने पीछे छूट रहे हैं, उस ने भूल से भी यह नहीं सोचा. मुड़ कर ही नहीं देखना चाहा. कोई आवाज दे भी तो कैसे? वह तो ऐसी मंजिल को थामे चल रहा था, जिस के छूट जाने से वह बिखर जाता. महत्त्वाकांक्षा में वह भूल गया कि वह एक बेटा भी है, भाई भी है और एक पति भी है.

राजन भी अपनी तनख्वाह भाभी को देते हुए कहता, ‘‘भाभी, अब आप संभालो इसे भी. मैं नहीं संभाल सकता… क्या करूंगा मैं इस का?’’

‘‘और कितनी जिम्मेदारियों के बोझ तले मुझे दबना पड़ेगा? क्या इन कागज के टुकड़ों से घर की रौनक और खुशियां मैं ला सकूंगी? फिर मैं इन का क्या करूं? इन कागज के टुकड़ों में दबी कामनाएं दम तोड़ रही हैं देवरजी. मैं इन से बेजार सी हो रही हूं… अब और नहीं.’’

राधिका बोले जा रही थी और राजन सुनता जा रहा है. आज भाभी को उस ने पहली बार ऊबता महसूस किया था. उन की बातों में सदियों की तलखी थी. यह तलखी शायद हम से थी? नहीं तो फिर जिंदगी से? कब तक झेलेंगी? कौन है जिस से वे अपनी बात कहतीं? सोचता हुआ राजन राधिका के कमरे के सामने से गुजरा तो उसे सिसकने की आवाजें आईं. उस ने बाहर से ही आवाज दी, ‘‘भाभी…’’

‘‘हां, आती हूं,’’ कहते हुए बाहर आने का प्रयास किया मगर राजन उस से पहले ही अंदर पहुंच चुका था. पहली बार इस कमरे में आया था वह. भाभी का कमरा अपनी व्यवस्था से अव्यवस्थित सा लग रहा था. कांच का एक बड़ा सा शोकेस तरहतरह की गुडि़यों और गुड्डों से भरा था. बगल की ड्रैसिंगटेबल पर एक खूबसूरत परदा जो शायद ही कभी उठाया जाता होगा.

बिस्तर की चादर ठीक करते हुए राधिका बोली, ‘‘आइए देवरजी, आज कैसे इधर भटक गए?’’

‘‘यों ही भाभी… दिल किया आ गया.’’ तभी बिस्तर के सिरहाने रखी जापानी गुडि़या बोल पड़ी कि मम्मा, आई लव यू. राधिका ने उसे चुप कराया.

राजन ने कहा, ‘‘बोलने दीजिए अच्छा लग रहा है… भाभी एक बात पूछूं?’’

‘‘हां क्या पूछेंगे पूछिए. वैसे आप जो जानना चाहते हैं वह मुझे मालूम है. देवरजी, इस घर से खुशियों ने हमेशा के लिए मुंह फेर लिया है…

घर अब घर नहीं एक सरायखाना लगता है, जिस में सभी रह तो रहे हैं, मगर अजनबियों की तरह… कौन कब रोया, कब हंसा, किसे मालूम? किस की रात आंसुओं से भीगती रही या किस की शाम आंखों को धुंधला कर गई, किस ने जानना चाहा?’’

‘‘तो शिब्बू भैया…?’’ बेचैनी ने उसे वहां रुकने न दिया.

देर तक भाभी के आंसुओं में भीगे लफ्ज उस के जेहन में गूंजते रहे… मैं भी हूं इस घर

में. यह किसे पता है… सब अपने में गुम… मैं ने क्या पाया… कौन है मेरा… किसे फुरसत है मेरी खातिर?

शाम ढल रही थी, फिर भी राजन ने आज खिड़की नहीं खोली, न ही शाम ने खिड़की से दस्तक दी. बारबार राधिका का कुम्हलाया चेहरा याद आ रहा था कि उम्र में मुझ से सिर्फ 2 माह ही बड़ी हैं, मगर जिम्मेदारियों के बोझ ने उन्हें समय से पहले ही बहुत बड़ा कर दिया. बड़प्पन के एहसास तले उन्होंने खुद को भुला दिया और घर के 3-3 बड़े बच्चों को संभालती रहीं.

बाबूजी कमरे से बाहर नहीं आए थे. अब अकसर वे शाम के धुंधलके में ही घर से निकलते थे. राधिका ने शाम की रसोई शुरू कर दी.

बाबूजी घूम कर आए. बोले, ‘‘बहू खाना दे दो. जल्दी सो जाऊंगा,’’ और फिर खाना खा कर अपने कमरे में चले गए.

राधिका ने रसोई समेटी. किचन का दरवाजा बंद किया. जैसे ही अपने कमरे में जाना चाहा देखा राजन छत पर है. आवाज दी, ‘‘देवरजी.’’

कोई जवाब नहीं मिला… खुद जा कर देखना चाहा. राजन अपनी ही परछाईं के साथ आंखमिचौली कर रहा था. छत में फैली चांदनी सारी चीजों को स्पष्ट कर रही थी. फिर भी न जाने क्यों राजन कुछ ढूंढ़ता सा नजर आ रहा था.

‘‘क्या खो गया?’’ राधिका ने आज बहुत दिनों बाद छत पर कदम रखे थे. कभीकभी अनु के साथ आया करती थी.

अचानक भाभी को छत पर आया देख राजन बोला, ‘‘अरे भाभी आप? कुछ नहीं यों ही मेरी अंगूठी कहीं गिर गई है.’’

‘‘यहीं कहीं होगी,’’ कह राधिका ने छत से घर के अंदर जा रही सीढि़यों की तरफ झांकने का प्रयास किया. 2-3 सीढि़यां नीचे उतर कर देखा तो अंगूठी दिखाई दे गई. बोलीं, ‘‘देखिए देवरजी मिल गई.’’

‘‘अरे मैं कब से खोज रहा था. मिल ही नहीं रही थी.’’

‘‘पकडि़ए,’’ राधिका ने वहीं से देनी चाही. मगर उस का पैर डगमगा गया. चांदनी रात का उजाला सीढि़यों के अंधेरे को मिटा न सका था और राधिका उस अंधेरे से भिड़ने की कोशिश में डगमगा गई.

राजन भी तो राधिका को सीधे हाथ नहीं थाम सका उलटा हाथ पकड़ाया. संभल नहीं सका… लड़खड़ा गया. दूधिया चांदनी में राधिका के उजले चेहरे पर खुदी उदासी की गहरी रेखाएं भर आईं… सूखे और बिखरे बालों के बीच से झांकती आंखों का सूनापन महक उठा… बदन में वर्षों की सोई लचक जाग गई…

राजन ने देखा क्या ये वही राधिका भाभी हैं जिन्हें वर्षों से सिर्फ औरों के लिए खुश रहते देखा. आज पहली बार उन महकी आंखों में उन की ही खुशी तैरती दिखाई दी… इतना आवेग और इतना आकर्षण राधिका के सान्निध्य में? वह संभाल न सका था उस रूप को. राधिका के उस लड़खड़ा कर गिरने में सारा समर्पण समा गया और सारे आकाश ने उस समर्पण को अपनी बांहों में भर लिया कभी न छोड़ने के लिए और बोल पड़ा, ‘‘इन आंखों की खुशी मैं कभी सूखने नहीं दूंगा. परिवार की सारी खुशियां इन में भर दूंगा… यह मेरा वादा है… आखिर भैया को भी परिवार की खुशियां ही तो अजीज हैं.’’

तभी अचानक दरवाजे पर किसी ने आवाज दी, ‘‘भाभी,’’

‘‘अरे, यह तो सुंदरी की आवाज लग रही है.’’

‘‘मैं सुंदरी हूं. दरवाजा खोलिए,’’ फिर आवाज आई.

‘‘यह क्या, आज तो राजन ने खिड़की भी नहीं खोली फिर कौन सी सुंदरी आ गई…’’ सुंदरी यानी? राजन की पहली… नहींनहीं… अब नहीं.

बाबूजी ने कह दिया कि अब किसी सुंदरी की जगह हमारे यहां नहीं है.

दरवाजे पर हुई दस्तक को राजन ने भी सुना था और राधिका ने भी, लेकिन धोखा समझ कर कहा, ‘‘सुंदरी के लिए अब कोई दरवाजा नहीं… सांझ की दुलहन रात ढले घर नहीं आती… मेरी सांझ की दुलहन मुझे मिल गई है.’’

तभी दूर रेडियो पर गाना बज उठा, ‘कहीं तो ये दिल कभी मिल नहीं पाते, कहीं से निकल आए जन्मों के नाते, घनी थी उलझन बैरी अपना मन अपना ही हो कर सहे दर्द पराए, कहीं दूर जब दिन ढल जाए.’

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