तसवीर: भाग-1

‘‘मुझे कल तक तुम्हारा जवाब चाहिए,’’ कह कर केशवन घर से बाहर जा चुका था. मालविका में कुछ कहनेसुनने की शक्ति नहीं रह गई थी. वह एकटक केशवन को जाते तब तक देखती रही, जब तक उस की गाड़ी आंखों से ओझल नहीं हो गई.

उस ने सपने में भी न सोचा था कि एक दिन वह इस स्थिति में होगी. केशवन ने उस से शादी का प्रस्ताव रखा था. उस के मन की मुराद पूरी होने जा रही थी. लेकिन एक तरफ उस का मन नाचनेगाने को कर रहा था, तो दूसरी तरफ वह अपने घर वालों की प्रतिक्रिया की कल्पना कर के परेशान हो रही थी.

जब वे सुनेंगे कि मालविका वापस इंडिया लौट कर नहीं आ रही है, तो पहले तो आश्चर्य करेंगे, भुनभुनाएंगे और जब जानेंगे कि वह शादी करने जा रही है तो गुस्से से फट पड़ेंगे.

‘अरे इस मालविका को इस उम्र में यह क्या पागलपन सूझा?’ वे कहेंगे, ‘लगता है कि यह सठिया गई है. इस उम्र में घरगृहस्थी बसाने चली है…’

ये भी पढ़ें- 12 साल बाद: अजीत के तिरस्कार के बाद जब टूटा तन्वी के सब्र का बांध

लोग एकदूसरे से कहेंगे, ‘कुछ सुना तुम ने? अपनी मालविका शादी कर रही है. बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम. पता नहीं किस आंख के अंधे और गांठ के पूरे ने उस को फंसाया है. सचमुच शादी करेगा या शादी का नाटक कर के उसे घर की नौकरानी बना कर रखेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता.’

मालविका अपनेआप से तर्क करती रही. क्या केशवन सचमुच उस से प्यार करने लगा था? वह ऐसी परी तो है नहीं कि कोई उस के रूप पर मुग्ध हो जाए.

उस की नजर सामने दीवार पर टंगे आदमकद आईने पर पड़ी. उस का चेहरा अभी भी आकर्षक था पर समय चेहरे पर अपनी छाप छोड़ चुका था. आंखें बड़ीबड़ी थीं पर बुझी हुईं. उन में एक उदास भाव निहित था. उस का शरीर छरहरा और सुडौल था पर उस की जवानी ढलान पर थी. वह हमेशा इसी कोशिश में रहती थी कि वह किसी की आंखों में न गड़े, इसलिए वह हमेशा फीके रंग के कपड़े पहनती थी. गहने भी नाममात्र को पहनती थी. वह इतने सालों से एक अनाम जिंदगी जीती आई थी. उस की कोई शख्सीयत नहीं थी, कोई अहमियत भी नहीं थी. बड़ी अदना सी इंसान थी वह. वह अभी भी समझ नहीं पा रही थी कि केशवन ने उस में ऐसा क्या देखा कि वह उस की ओर आकर्षित हो गया. अगर वह चाहता तो उसे एक से बढ़ कर एक सुंदर लड़की मिल सकती थी.

उस ने फिर से वह लमहा याद किया जब केशवन ने उस से शादी का प्रस्ताव रखा था. वह उस पल को बारबार जीना चाहती थी.

‘मालविका, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. क्या तुम मेरी बनोगी?’ उस ने कहा था.

‘यह क्या कह रहे हैं आप?’ वह स्तब्ध रह गई थी, ‘आप मुझ से शादी करना चाहते हैं?’

‘हां.’

‘लेकिन आप को लड़कियों की क्या कमी है? एक इशारा करेंगे तो उन की लाइन लग जाएगी.’

‘हां, लेकिन तुम ने यह कहावत सुनी है न कि दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है. एक बार शादी कर के मैं धोखा खा गया. दोबारा यहां की लड़की से शादी करने की हिम्मत नहीं होती.’

फिर उस ने उसे अपनी पहली शादी के बारे में विस्तार से बताया था.

‘नैन्सी उसी अस्पताल में नर्स थी, जिसे मैं ने यहां आ कर जौइन किया

था. मैं इस शहर में बिलकुल अकेला था. न कोई संगी न साथी. नैन्सी ने दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया तो मुझे अच्छा लगा. मैं उस के यहां जाने लगा और धीरेधीरे उस के करीब आता गया. एक दिन हम ने शादी करने का निश्चय कर लिया.

‘पहले 4 वर्ष अच्छे गुजरे पर धीरेधीरे नैन्सी में बदलाव आया. वह बेहद आलसी हो गई. दिन भर सोफे पर पड़ी टीवी देखती रहती थी. नतीजा वह मोटी होती चली गई. उसे खाना बनाने में भी आलस आता था. जब मैं थकामांदा घर लौटता तो वह मुझे फास्ट फूड की दुकान से लाया एक पैकेट पकड़ा देती. घर की साफसफाई करने से भी वह कतराती थी. यहां तक कि वह हमारी नन्ही बच्ची की ओर भी ध्यान नहीं देती थी. जब मैं कुछ कहता तो हम दोनों में जम कर लड़ाई होती.

‘आखिर तलाक की नौबत आ गई. चूंकि हमारी बेटी कुल 3 साल की ही थी, इसलिए उसे मां के संरक्षण में भेजा गया. धीरेधीरे नैन्सी ने मेरी बेटी के कान भर कर उसे मेरे से दूर कर दिया व उस ने दूसरी शादी कर ली. अब मैं अपने एकाकी जीवन से तंग आ गया हूं. मुझे यह शिद्दत से महसूस हो रहा है कि जीवन के संध्याकाल में मनुष्य को एक साथी की जरूरत होती है.’

‘लेकिन,’ उस ने कहा, ‘आप को मालूम है कि मैं 40 पार कर चुकी हूं.’

‘तो क्या हुआ? चाहत में उम्र नहीं देखी जाती. इस देश में तुम्हारी उम्र की औरतें अभी भी बनठन कर और चुस्तदुरुस्त रहती हैं और भरपूर जिंदगी जीती हैं. मैं तुम्हें सोचने के लिए 24 घंटे का समय देता हूं. अभी मैं अस्पताल जा रहा हूं. कल सुबह तक मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए,’ केशवन ने मुसकरा कर कहा.

मालविका ने खिड़की के बाहर आंखें टिका दीं. मन अतीत की गलियों में भटकने लगा. उसे अपना गांव याद आया जहां उस का बचपन गुजरा था. घर में सम्मिलित परिवार की भीड़. सहेलियों के साथ धमाचौकड़ी मचाना. त्योहारों पर सजनाधजना. वह दुनिया ही अलग थी. वे दिन बेफिक्री और मौजमस्ती के दिन थे. फिर अचानक उस की शादी की बात चली और देखते ही देखते तय भी हो गई. घर में मेहमानों की गहमागहमी थी. सारा वातावरण पकवानों की खुशबू और फूलों की महक से ओतप्रोत था. द्वार पर बंदनवार सजे थे. अल्हड़ युवतियों की खिलखिलाहट गूंजने लगी. सखियां चुहल करने लगीं. सब एक सपने जैसा लग रहा था.

फेरे हो चुके थे. मृदंग की थाप और शहनाई की ऊंची आवाज के बीच शादी की पारंपरिक रस्में जोरशोर से हो रही थीं.

बात विदाई की होने लगी तो वर के पिता अनंतराम मालविका के पिता की ओर मुड़े और बोले, ‘श्रीमानजी, पहले जरा काम की बात की जाए.’

वे उन्हें एक ओर ले गए और बोले, ‘हां, अब आप हमें वह रकम पकड़ाइए, जो आप ने देने का वादा किया था.’

नारायणसामी मानो आसमान से गिरे, ‘कौन सी रकम? मैं कुछ समझा नहीं.’

‘वाह, आप की याददाश्त तो बहुत कमजोर मालूम देती है. आप को याद नहीं जब हम लोग सगाई के लिए आए थे तो आप ने कहा था कि आप क्व2 लाख तक खर्च कर सकते हैं?’

‘ओह अब समझा. श्रीमानजी, मैं ने कहा था कि मैं बेटी की शादी में क्व2 लाख लगाऊंगा क्योंकि इतने की ही मेरी हैसियत है. मैं ने यह तो नहीं कहा था कि मैं यह रकम दहेज में दूंगा.’

‘बहुत खूब. अब हमें क्या मालूम कि आप का क्या मतलब था. हम तो यही समझ बैठे थे कि आप हमें क्व2 लाख वरदक्षिणा देने के लिए राजी हुए हैं. तभी तो हम ने इस रिश्ते के लिए हामी भरी.’

नारायणसामी ने हाथ जोड़े, ‘मुझे क्षमा कीजिए. मुझे सब कुछ साफसाफ कहना चाहिए था. मुझ से भारी गलती हो गई.’

‘खैर कोई बात नहीं. शायद हमारे समझने में ही भूल हो गई होगी. पर एक बात मैं बता दूं कि दहेज की रकम के बिना मैं यह रिश्ता हरगिज कबूल नहीं कर सकता. मेरे डाक्टर बेटे के लिए लोग क्व10-10 लाख देने को तैयार थे. वह तो मेरे बेटे को आप की बेटी पसंद आ गई थी, इसलिए हमें मजबूरन यहां संबंध करना पड़ा. अब आप जल्द से जल्द पैसों का इंतजाम कीजिए.’

ये भी पढ़ें- Short Story: उम्र भर का रिश्ता-एक अनजान लड़की से कैसे जुड़ा एक अटूट बंधन

नारायणसामी ने गिड़गिड़ा कर कहा, ‘इतने रुपए देना मेरे लिए असंभव है. मैं ठहरा खेतिहर. इतनी रकम कहां से लाऊंगा? मुझ पर तरस खाइए. मैं ने शादी में अपनी सामर्थ्य से ज्यादा खर्च किया है. और पैसे जुटाना मेरे लिए बहुत कठिन होगा.’

‘अरे, जब सामर्थ्य नहीं थी तो अपनी हैसियत का रिश्ता ढूंढ़ा होता. मेरे बेटे पर क्यों लार टपकाई?’

नारायणसामी कातर स्वर में बोले, ‘ऐसा अनर्थ न करें. मैं वादा करता हूं कि जितनी जल्दी हो सकेगा मैं पैसों का इंतजाम कर के आप तक पहुंचा दूंगा.’

‘ठीक है. आप की बेटी भी तभी विदा होगी.’

तभी मालविका के तीनों भाई अंदर घुस आए.

‘आप ऐसा नहीं कर सकते,’ वे भड़क कर बोले.

‘क्यों नहीं कर सकता?’ अनंतराम ने अकड़ कर कहा.

‘हमारी बहन की आप के बेटे से शादी हो चुकी है. अब वह आप के घर की बहू है. आप की अमानत है.’

‘तो हम कब इनकार कर रहे हैं?’

‘लेकिन इस समय दहेज की बात उठा कर आप क्यों बखेड़ा कर रहे हैं बताइए तो? क्या आप को पता नहीं कि दहेज लेना कानूनन जुर्म है? अगर हम पुलिस में खबर कर दें तो आप सब को हथकडि़यां पड़ जाएंगी.’

‘पुलिस का डर दिखाते हो. अब तो मैं हरगिज बहू को विदा नहीं कराऊंगा. कर लो जो करना हो. न मुझे तुम्हारे पैसे चाहिए और न ही तुम्हारे घर की बेटी. मैं अपने बेटे की दूसरी शादी कराऊंगा, डंके की चोट पर कराऊंगा.’

‘हांहां, जो जी चाहे कर लेना. यह धमकी किसी और को देना. हमारी इकलौती बहन हमें भारी नहीं है कि हम उस के लिए आप के सामने नाक रगड़ेंगे. हम में उसे पालने की शक्ति है. हम उसे पलकों पर बैठा कर रखेेंगे.’

‘ठीक है, तुम रखो अपनी बहन को. हम चलते हैं.’

मालविका के मातापिता समधी के हाथपैर जोड़ते रहे पर उन्होंने किसी की एक न सुनी. वे उसी वक्त बिना खाएपिए बरातियों समेत घर से बाहर हो गए.

‘अरे लड़को, तुम ने ये क्या कर डाला?’ शारदा रो कर बोलीं, ‘लड़की के फेरे हो चुके हैं. अब वह पराया धन है. अपने पति की अमानत है. उसे कैसे घर में बैठाए रखोगे?’

‘फिक्र न करो अम्मां. उस धनलोलुप के घर जा कर हमारी बहन दुख ही भोगती. वे उसे दहेज के लिए सतातेरुलाते. अच्छा हुआ कि समय रहते हमें उन लोगों की असलियत मालूम हो गई.’

‘लेकिन अब तुम्हारी बहन का क्या होगा? वह न तो इधर की रही न उधर की. विवाहित हो कर भी उस की गिनती विवाहित स्त्रियों में नहीं होगी. बेटा, शादी के बाद लड़की अपनी ससुराल में ही शोभा देती है. चाहे जैसे भी हो समधीजी की मांगें पूरी करने की कोशिश करो और मालविका को ससुराल विदा करो.’

‘अम्मां तुम बेकार में डर रही हो. हम समधीजी की मांगें पूरी करते रहे तो इस सिलसिले का कभी अंत न होगा. एक बार उन के आगे झुक गए तो वे हमें लगातार दुहते रहेंगे. हमें पक्का यकीन है कि देरसवेर वे अपनी गलती मान लेंगे और मालविका को विदा करा के ले जाएंगे.’

‘पर वे अपने बेटे की दूसरी शादी की धमकी दे कर गए हैं.’

‘अरे अम्मां, अगर लड़के वाले अपने बेटे का पुनर्विवाह करेंगे तो हम भी अपनी मालविका का दूसरा विवाह रचाएंगे.’

यह कहना आसान था पर कर दिखाना बहुत मुश्किल. दिन पर दिन गुजरते गए और मालविका के लिए कोई अच्छा वर नहीं मिला. कोई लड़का नजर में पड़ता तो वही लेनदेन की बात आड़े आती. किसी दुहाजू का रिश्ता आता तो वह उन को न जंचता. जब मालविका की उम्र 30 के करीब पहुंची तो रिश्ते आने बंद हो गए.

उस की मां उस की चिंता में घुलती रहीं. वे बारबार अपने पति से गिड़गिड़ातीं, ‘अजी कुछ भी करो. मेरे गहने बेच दो. यह मकान या जमीन गिरवी रख दो पर लड़की का कुछ ठिकाना करो. जवान बेटी को कितने दिन घर में बैठा कर रखोगे. मुझ से उस की हालत देखी नहीं जाती.’

एक बार नारायणसामी लड़कों से चोरीछिपे समधी के घर गए भी पर अपना सा मुंह ले कर वापस आ गए. अनंतराम ने बताया कि उन का बेटा पढ़ाई करने के लिए अमेरिका जा चुका है और उस के शीघ्र लौटने की कोई उम्मीद नहीं है. उन्होंने दोटूक शब्दों में कह दिया कि अच्छा होगा कि आप लोग अपनी बेटी के लिए कोई और वर देख लें.

अब रहीसही आशा भी टूट चुकी थी. नारायणसामी गुमसुम रहने लगे. एक दिन उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे नहीं रहे.

उन के तीनों बेटे शहर में नौकरी करते थे, ‘अम्मां,’ उन्होंने कहा, ‘तुम्हारा और मालविका का अब यहां गांव में अकेले रहना मुनासिब

नहीं. बेहतर होगा कि तुम दोनों हमारे साथ चल कर रहो.’

बड़े बेटे सुधीर को मुंबई में रेलवे विभाग में नौकरी मिली थी. रहने को मकान था. मांबेटी अपना सामान समेट कर उस के साथ चल दीं.

मां ने जाते ही बेटे के घर का चूल्हाचौका संभाल लिया और मालविका के जिम्मे आए अन्य छिटपुट काम. उस ने अपने नन्हे भतीजेभतीजी की देखरेख का काम संभाल लिया.

कुछ दिन बाद उस के मझले भाई का फोन आया, ‘मां, तुम्हारी बहू के बच्चा होने वाला है. तुम तो जानती हो कि उस की मां नहीं है. उसे तुम्हें ही संभालना होगा. हम तुम्हारे ही भरोसे हैं.’

‘हांहां क्यों नहीं,’ मां ने उत्साह से कहा और वे तुरंत जाने को तैयार हो गईं. मालविका को भी उन के साथ जाना पड़ा.

ये  भी पढ़ें- 19 दिन 19 कहानियां: तालमेल- बुढापे में बच्चों के साथ रिश्ते की कहानी

अब उन की जिंदगी का यही क्रम हो गया. बारीबारी से तीनों भाई मांबेटी को अपने यहां बुलाते. मां के देहांत के बाद भी मालविका इसी ढर्रे पर चलती रही. उस के मेहनती और निरीह स्वभाव से सब प्रसन्न थे. उस की अपनी मांगें अत्यंत सीमित थीं. उसे किसी से कोई अपेक्षा नहीं थी. उस की कोई आकांक्षा नहीं थी. उस के जीवन का ध्येय ही था दूसरों के काम आना. वह हमेशा सब की मदद करने को तत्पर रहती थी.

उस के भाइयों की देखादेखी उस के अन्य सगेसंबंधी भी उसे गरज पड़ने पर बुला लेते. हर कोई उस से कस कर काम लेता और अपना उल्लू सीधा करने के बाद उसे टरका देता.

मालविका के दिन किसी तरह बीत रहे थे. कभीकभी वह अपने एकाकी जीवन की एकरसता से ऊब जाती. जब वह अपनी हमउम्र स्त्रियों को अपनी गृहस्थी में रमी देखती, उन्हें अपने परिवार में मगन देखती, तो उस के कलेजे में एक हूक उठती. लोगों की भीड़ में वह अकेली थी. जबतब उस का मन अनायास ही भर आता और जी करता कि वह फूटफूट कर रोए. पर उस के आंसू पोंछने वाला भी तो कोई न था.

उस के ससुर की धनलोलुपता और उस के भाइयों की हठधर्मिता ने उस की जिंदगी पर कुठाराघात किया था. अब वह एक बिना साहिल की नाव के मानिंद डूबउतरा रही थी. उद्देश्यहीन, गतिहीन…

क्रमश:

तसवीर: भाग-2

पूर्व कथा

केशवन का प्रस्ताव सुन कर मालविका चौंक उठी थी. उस ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि इस उम्र में कोई उस के सामने शादी का प्रस्ताव रखेगा. उस के सामने पूरा अतीत नाच उठा, जब दहेज की वजह से बरात दरवाजे से लौट गई थी. फिर मालविका के लिए कोई वरघर न मिला तो वह अपनी मां के साथ बारीबारी से तीनों भाइयों के पास रह कर नाव की तरह डूबउतरा रही थी.

अब आगे पढ़ें:

मालविका के बड़े भाई सुधीर की बेटी उषा की शादी हो गई और वह अमेरिका के न्यूजर्सी शहर में जा बसी. जब वह गर्भवती हुई तो उसे मालविका की याद आई, तो वह अपने पापा से बोली, ‘पापा, आप किसी तरह बूआजी को यहां भेज दो तो मेरी मुश्किल हल हो जाएगी. वे घर भी संभाल लेंगी और बच्चे को भी देख लेंगी. यहां के बारे में तो पता है न आप को? बेबी सिटर और नौकरानियां 1-1 घंटे के हिसाब से चार्ज करती हैं. इस से हमारा तो दीवाला ही निकल जाएगा.’

‘हांहां तुम्हारे लिए मालविका कभी मना नहीं करेगी. पर कुछ दिनों से वह गठिया के दर्द से परेशान है. अगर तुम लोग उस के लिए मैडिकल इंश्योरैंस करा लो तो अच्छा रहेगा. सुना है कि उस देश में बीमार पड़ने पर अस्पताल और डाक्टरों के इलाज में बड़ा भारी खर्च होता है.’

ये  भी पढ़ें- 19 दिन 19 कहानियां: तालमेल- बुढापे में बच्चों के साथ रिश्ते की कहानी

‘हांहां क्यों नहीं. ये कौन सी बड़ी बात है. बूआ का बीमा करा लिया जाएगा. बस आप उन्हें जल्द से जल्द रवाना कर दें.’

मालविका अमेरिका के लिए रवाना हो गई. उस की भतीजी उसे एअरपोर्ट पर लेने आई थी.

‘बेटी, तेरे देश में तो बड़ी ठंड है,’ मालविका ने ठिठुरते हुए कहा, ‘मेरी तो कंपकंपी छूट रही है.’

उषा हंस पड़ी, ‘अरे बूआजी, अपना घर वातानुकूलित है. बाहर निकलो तो कार में हीटर लगा हुआ है. शौपिंग मौल में भी टैंप्रेचर गरम रखा जाता है. फिर सर्दी से क्यों घबराना? हां, एक बात का खयाल रखना बाहर कदम रखो तो बर्फ में पांव फिसलने का डर रहता है, इसलिए जरा संभल कर रहना.’

फिर उस ने मालविका के गले लग कर कहा, ‘बूआजी तुम आ गईं तो मेरी सब चिंता दूर हो गई. अब तुम मुझे वे सभी चीजें बना कर खिलाना जिन्हें खाने के लिए मेरा मन ललचाता है.’

घर पहुंच कर उषा ने कहा, ‘बूआ, आप का बिस्तर बेबी के रूम में लगा दिया है. जब बेबी पैदा होगा तो शायद रात में एकाध बार बच्चे को दूध की बोतल देने के लिए उठना पड़ेगा और हां, सुबह रस्टी को जरा बाहर ले जाना होगा, क्योंकि आप को

तो पता है मेरी नींद आसानी से नहीं खुलती.’

‘ये रस्टी कौन है?’

‘अरे रस्टी हमारा छोटा सा कुत्ता है. कल ही दिलीप उसे खरीद कर लाए हैं. हम ने सोचा है कि बच्चे को उस का साथ अच्छा लगेगा.’

‘पर बेटी, इतने नन्हे बच्चे के साथ कुत्ता पालना अक्लमंदी है क्या? जानवर का क्या ठिकाना, कभी बच्चे को नुकसान पहुंचा दे तो?’

‘अरे नहीं बूआ, ऐसा कुछ नहीं होगा. आप नाहक डर रही हैं. वैसे दिलीप जब घर में होंगे तो वे ही कुत्ते का सब काम देखेंगे.’

कुछ समय बाद उषा ने एक बालक को जन्म दिया. मालविका ने घर का काम संभाल लिया और बच्चे की जिम्मेदारी भी ले ली. वह दिन भर बहुत सारे काम करती और रात को निढाल हो कर बिस्तर पर पड़ जाती. काम वह इंडिया में भी करती थी पर वहां और लोग भी थे उस का हाथ बंटाने के लिए. यहां वह अकेली पड़ गई थी.

एक दिन सुबह वह बच्चे का दूध बना रही थी कि रस्टी दरवाजे के पास आ कर कूंकूं करने लगा. ‘ओह तुझे भी अभी ही जाना है मुए,’ वह झुंझलाई.

जब रस्टी ने कूंकूं करना बंद न किया तो मालविका ने बच्चे को पालने में डाला और एक शौल लपेट कर रस्टी की चेन थामे घर से निकली.

पिछली रात बर्फ गिरी थी. सीढि़यों पर बर्फ जम गई थी और सीढि़यां कांच की तरह चिकनी हो गई थीं. मालविका ने हड़बड़ी में ध्यान न दिया और जैसे ही उस का पांव सीढ़ी पर पड़ा वह फिसल कर गिर पड़ी.

उस ने उठने की कोशिश की तो उस के पैर में भयानक दर्द हुआ. उस के मुंह से चीख निकल गई. उसे लगा उस भीषण ठंड में धरती पर पड़ेपड़े उस का शरीर अकड़ जाएगा और उस का दम निकल जाएगा.

काफी देर बाद उषा ने द्वार खोला तो उसे पड़ा देख कर उस के मुंह से भी चीख निकल गई, ‘ये क्या हुआ बूआ? तुम कैसे गिर पड़ीं? मैं ने तुम्हें आगाह किया था न कि बर्फ पर बहुत होशियारी से कदम रखना वरना पैर फिसलने का डर रहता है.’

‘अब मैं जान कर तो नहीं गिरी,’ उस ने कराह कर कहा, ‘जल्दीबाजी में पांव फिसल गया.’ उषा व उस का पति दिलीप उसे अस्पताल ले गए.

डाक्टर ने मालविका की जांच कर के बताया कि इन का टखना टूट गया है. औपरेशन करना होगा और हड्डी बैठानी होगी और इस में 10 हजार डौलर का खर्चा आएगा.

10 हजार सुन कर मालविका की सांस रुकने लगी, ‘उषा, तू ने मेरा मैडिकल बीमा करा लिया था न?’

‘मैं ने दिलीप से कह तो दिया था. क्यों जी, आप ने बूआजी का बीमा करा लिया था न?’

‘ओहो, ये बात तो मेरे ध्यान से बिलकुल उतर गई.’

उषा अपने हाथ मलने लगी, ‘ये आप ने बड़ी गलती की. अब इतने सारे पैसे कहां से आएंगे?’

वे इधरउधर फोन घुमाते रहे. आखिर उन्हें एक डाक्टर मिल गया जो मालविका का औपरेशन 3 हजार डौलर में करने को तैयार हो गया.

प्लास्टर उतरने वाले दिन उषा अपनी बूआ को अस्पताल ले गई. प्लास्टर उतरने के बाद जब मालविका ने पहला कदम उठाया तो देखा कि उस का टूटा हुआ पैर सीधा नहीं पड़ रहा था. उस के पैर डगमगाए और वह कुरसी में गिर पड़ी.

‘हाय ये क्या हो गया?’ उस के मुंह से निकला.

डाक्टर ने पैर की जांच की और बोले, ‘लगता है पैर सैट करने में जरा गलती हो गई. अब जब आप चलेंगी तो आप का एक पैर थोड़ा टेढ़ा पड़ेगा. आप को छड़ी का सहारा लेना होगा और कोई चारा नहीं है.’

मालविका की आंखों से झरझर आंसू बह निकले. हाय वह अपाहिज हो गई. अब वह बैसाखियों के सहारे चलेगी. बुढ़ापे में उसे दूसरों के आसरे जीना होगा.

तभी एक नर्स उस के पास आई, ‘मैडम, आप ओपीडी में चलिए. हमारे अस्पताल में न्यूयार्क से एक विजिटिंग डाक्टर आए हैं, जो आप के पैर की जांच करना चाहते हैं?’

‘कौन डाक्टर?’ मालविका ने अपना आंसुओं से भीगा चेहरा ऊपर उठाया.

‘डाक्टर केशवन.’

‘केशवन? यह कैसा नाम है?’

‘वे आप के ही देश के ही हैं. चलिए, मैं आप को व्हीलचेयर में ले चलती हूं.’

मालविका का हृदय जोरों से धड़क उठा. क्या ये वही थे? नहीं, उस ने अपना सिर हिलाया. इस नाम के और भी तो डाक्टर हो सकते हैं. पर डाक्टर को देखते ही उस का संशय दूर हो गया. वही हैं, वही हैं उस के हृदय में एक धुन सी बजने लगी. हालांकि मालविका उन्हें पूरे 20 साल बाद देख रही थी पर उन्हें पहचानने में उसे एक पल की देरी भी नहीं हुई. केशवन का बदन दोहरा हो गया था और सिर के बाल उड़ गए थे. पर चेहरामोहरा वही था.

ये छवि तो उस के हृदय में अंकित थी, उस ने भावुक हो कर सोचा. इन की तसवीर तो उस ने सहेज कर अपने बक्से में रखी हुई थी. वह हर रोज अकेले में तसवीर को निकालती, उसे निहारती और उस पर 2-4 आंसू बहाती. ये तसवीर उन दोनों की मंगनी के अवसर पर ली गई थी. एक प्रति मालविका ने सब की नजर बचा कर चुरा कर अपने पास रख ली थी.

उस ने सुना था कि केशवन अमेरिका जा कर वहीं के हो गए थे. उस ने एक उड़ती हुई खबर यह भी सुनी थी कि केशवन ने एक गोरी मेम से शादी कर ली थी और इस बात से उस के मातापिता बहुत दुखी थे. डाक्टर केशवन कैबिन में आए. मालविका ने उन पर एक भेदी नजर डाली. क्या उन्होंने उसे पहचान लिया था? शायद नहीं. उन्होंने उस का पैर जांचा.

‘आप का औपरेशन सही तरीके से नहीं किया गया है, इसीलिए आप की चाल टेढ़ी हो गई है. दोबारा हड्डी तोड़ कर फिर से जोड़नी पड़ेगी.’

‘ओह इस में तो भारी खर्च आएगा,’ मालविका चिंतित हो उठी.

‘डाक्टर, हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं,’ उषा बोल उठी,

‘हम सोच रहे हैं कि इन्हें वापस इंडिया भेज दें. वहां पर इन का इलाज हो जाएगा.’

‘पैसे की आप चिंता न करें,’ केशवन ने कहा, ‘मैं इन का इलाज अपनी क्लीनिक में करा दूंगा,

एक भारतीय होने के नाते हमें परदेश में एकदूसरे की मदद तो करनी ही चाहिए.’

ये  भी पढ़ें- दीमक: अविनाश के प्यार में क्या दीपंकर को भूल जाएगी नम्रता?

‘ओह डाक्टर साहब आप ने हमें उबार लिया,’ उषा बोली.

‘मैं कल न्यूयार्क वापस जा रहा हूं. आप कहें तो इन्हें साथ ले जाऊंगा. औपरेशन के बाद इन्हें थोड़ा आराम की जरूरत है फिर ये इंडिया जा सकती हैं.’

आगे पढ़ें- औपरेशन होने के बाद केशवन ने पूछा, ‘अब आप क्या करना चाहेंगी?

12 साल बाद: भाग-3

आसान नहीं था, फिर भी दूसरे दिन सुबह से तन्वी ने सब कुछ भुला कर सामान्य रूप से दिनचर्या शुरू कर दी, क्योंकि उसे अपने मानअपमान से ज्यादा आस्था की चिंता थी. वह नहीं चाहती थी कि उस की बेटी आस्था के कोमल मन पर उस के मातापिता की आपसी तकरार का बुरा असर पड़े.

जिस प्रकार गाड़ी का एक पहिया पंक्चर हो जाए तो गाड़ी सही तरीके से चल तो नहीं सकती सिर्फ कुछ दूर तक घसीटी जा सकती है, ठीक उसी तरह तन्वी को भी लगने लगा था कि जहां तक भी हो सके, अपनी जिंदगी की गाड़ी को घसीटते जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है.

गृहस्थी बचाने के लिए अंतर्मन पर पड़ती चोटों को लगातार अनदेखा करती जा रही तन्वी के मन में खुशहाल जिंदगी का सपना सच होने की एक उम्मीद अचानक जाग गई, जब एक दिन औफिस से बड़े अच्छे मूड में आ कर अजीत ने तन्वी से कहा कि औफिस में लगातार 3 दिनों की छुट्टी पड़ रही है अत: 2 दिन के फैमिली टूर का प्रोग्राम औफिस से बनाया गया है. तुम तैयारी कर लो. शुक्रवार की शाम को चलना है.

ये भी पढ़ें- 19 दिन 19 कहानियां: जिंदगी के रंग-क्या चतुर्वेदी परिवार को पता चला कमला का सच ?

सुन कर तन्वी को अच्छा लगा. वह सोचने लगी कि ऐसे कार्यक्रमों से थोड़ा मूड भी बदलेगा और दूसरे पतियों को देख कर शायद अजीत के व्यवहार में भी कुछ सुधार हो.

पर कुछ भी सुधार हुआ होता तो भला आज तन्वी अपने हाथों से अपनी जिंदगी बिखेर कर क्यों निकल पड़ती? शुक्रवार को निश्चित समय से पहले ही तन्वी पूरी तरह तैयार हो चुकी थी. घर से निकलने से पहले जब उस ने आस्था को गोद में उठाया, तो उस ने देखा कि आस्था ने पौटी की हुई है. उस ने अजीत से

2 मिनट में आने को कहा और आस्था को ले कर बाथरूम की ओर चल पड़ी.

‘‘इस निकम्मी को सिवा इस के और कुछ आता भी है?’’ बाथरूम की ओर जाती तन्वी के कान में अजीत का यह वाक्य पड़ा तो दिल किया कि पलट कर इस का करारा जवाब दे पर अच्छाखासा माहौल वह खराब नहीं करना चाहती थी अत: चुप रह गई. उस ने फटाफट आस्था को साफ किया और उस की नैपी को कागज में लपेट कर डस्टबिन में डाल दिया. आस्था को पैंट पहनाती हुई ही 2 मिनट से कम समय में ही तन्वी बाहर आ गई. बाहर आ कर देखा तो उसे अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. बाहर न तो आटो था और न ही अजीत. तन्वी का सूटकेस गेट के पास पड़ा हुआ था. अजीत तन्वी को छोड़ कर चला गया था.

आश्चर्य से तन्वी का मुंह खुला का खुला रह गया. अजीत ऐसा भी कर सकता है उस को यकीन नहीं आ रहा था. अपनी तसल्ली के लिए उस ने इधरउधर झांक कर देखा भी, पर उस का क्या फायदा था. उस की आंखें अपमान और आक्रोश के मिश्रित आंसुओं से झिलमिलाने लगीं. एक ऐसा आक्रोश, जिसे वह न चीख कर व्यक्त कर सकती थी न चिल्ला कर. अपमान की ऐसी अनुभूति, जो पल भर में ही पूरा शरीर जला गई. विवेकशून्य सी तन्वी दरवाजे पर ही खड़ी रह गई.

उस की सहेली नीरू को उस के प्रोग्राम की जानकारी थी और वह उसे बाय करने के मकसद से अपने घर के बाहर खड़ी थी. उस ने सब कुछ देखा तो सोच में डूब गई कि ऐसे इंसान के साथ आखिर तन्वी कैसे जीवन बिता रही है? तन्वी की दशा वह अच्छी तरह समझ रही थी अत: उस का मन बहलाने के लिए उसे अपने घर में चाय पीने के लिए बुला लिया. उस दिन नीरू के सामने तन्वी अपने को रोक न सकी और रोरो कर अपनी सारी पीड़ा बहा दी.

उस ने कहा, ‘‘नीरू, मैं यह अच्छी तरह समझ चुकी हूं कि अजीत एक कायर और कर्तव्यविमुख आदमी है. वह अपनी जिम्मेदारियों से हमेशा मुंह छिपाता रहता है और मैं या कोई और उसे कुछ कहे, इस से पहले ही वह मुझ पर आरोप मढ़ देता है और माहौल इतना खराब कर देता है कि मुख्य मुद्दा ही खत्म हो जाए. मैं उस की इस कमजोरी को समझ चुकी हूं और उस के आधार पर खुद को ढाल कर जीना शुरू कर दिया था, तो अब उस के अंदर की हीनभावना ने मेरा जीना हराम कर दिया है.

‘‘मेरा किया कोई अच्छा काम या किसी के द्वारा की गई मेरी तारीफ वह बरदाश्त नहीं कर पाता है और मौकेबेमौके जगहजगह पर मुझे अपमानित कर आत्मसंतुष्टि महसूस करता है. मेरे बरदाश्त की सीमा अब खत्म हो रही है, डर लगता है मैं कहीं कुछ कर न बैठूं. मेरी सहनशक्ति को अजीत मेरी कमजोरी मान बैठा है और दिनबदिन मेरा जीना हराम किए जा रहा है.’’

नीरू ने तन्वी को बड़े प्यार से समझाया कि घर की सुखशांति बनाए रखना और आस्था को बेहतर परवरिश देना दोनों की जिम्मेदारी उस की ही है. घर छोड़ देना या कुछ कर बैठना किसी समस्या का समाधान नहीं होता. वह थोड़ा सब्र करे और किसी दिन अच्छा समय देख कर अजीत से बात करे और उसे बताए कि उस के इस तरह के व्यवहार से न केवल उन की गृहस्थी पर बुरा असर पड़ रहा है, बल्कि आस्था का कोमल मन भी प्रभावित हो रहा है.

घर आ कर तन्वी बुरी तरह अपसैट थी. अजीत ने उस के साथ जो किया था उसे सोचसोच कर उस का दिल नफरत से भरता जा रहा था, पर नीरू की कही बात सोच कर उस ने एक बार अजीत से बात कर के सब कुछ ठीक करने की एक और कोशिश करने का निश्चय किया.

अजीत के वापस आने के कुछ ही दिन बाद उन की शादी की 12वीं सालगिरह पड़ी. तन्वी ने तय किया था कि उस दिन अजीत से बात कर के उपहार के बदले उस से उस के व्यवहार में कुछ परिवर्तन लाने का वादा लेगी.

उस दिन वह रोज की अपेक्षा जल्दी उठी और अजीत और आस्था के जगने से पहले ही घर का सारा काम यह सोच कर निबटा लिया कि आराम से बैठ कर अजीत से अपनी समस्याओं पर चर्चा करेगी. उस ने चाय बनाई और अजीत को उठाया. वह मन ही मन सोच रही थी कि किन शब्दों से अजीत को शादी की सालगिरह मुबारक कहे, तभी अजीत उस से अखबार मांग बैठा.

‘‘अखबार तो अभी नहीं आया है, थोड़ी देर में आएगा, तन्वी के इतना कहते ही अजीत ने चाय का कप दीवार पर दे मारा, ‘‘कितनी बार कहा है कि पेपर वाले को कहो कि पेपर जल्दी डाला करे, पेपर नहीं आया है तो क्या अपना थोबड़ा दिखाने के लिए उठा कर बैठा दिया मुझे?’’

बधाई देने और अपनी समस्या पर विचार करने के लिए हफ्ताभर सोचे गए उस के सारे शब्द धरे के धरे रह गए. वह पल ही तन्वी के लिए उस घर में अंतिम पल बन गया. पहली बार उस ने भी उस के ही शब्दों में उसे जवाब दिया और अपने हाथ में पकड़ा चाय का कप भी जमीन पर दे मारा. आक्रोश से भरी तन्वी ने उसी समय अपने और आस्था के कपड़े सूटकेस में डाले और सोती हुई आस्था को गोद में उठा कर घर से निकल गई.

अपने दुखद अतीत को पीछे छोड़ कर घर से निकल आई तन्वी रहरह कर अपने उठाए गए कदम और भविष्य को ले कर आशंकित होती जा रही थी, पर जब वह पिछले 12 वर्षों तक पाया तिरस्कार और अपमान याद करती थी तो उसे अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं होता था.

ये भी पढ़ें- 19 दिन 19 कहानियां: पवित्र प्रेम- क्या था रूपा की खुद से नफरत का कारण?

‘उस ने मुझे जो मानसिक यंत्रणाएं दी हैं, उस की सजा क्या मैं उसे दे सकूंगी? शायद पत्नी और बेटी के बिना उस के जीवन में आया खालीपन ही उस के लिए माकूल सजा होगा. अपने पैरों पर खड़े हो कर अपना व आस्था का भविष्य संवार पाने की आशा में ही मुझे अपना सुनहरा भविष्य दिखाई दे रहा है,’ आस्था के माथे पर हाथ रख कर यह सोचतेसोचते तन्वी ने आंखें बंद कर लीं.

12 साल बाद: भाग-2

पढ़ी-लिखी तन्वी भी सुखशांति, मायके की इज्जत और छोटी बहनों के भविष्य के बारे में सोचसोच कर वर्षों तक अजीत की ज्यादतियां बरदाश्त करती रही और अपमान के कड़वे घूंट पी कर भी चुप रही, पर अब सब कुछ असहनीय हो गया था. तन्वी को लगने लगा कि अब वह और नहीं बरदाश्त कर पाएगी और अंतत: उसे अपना घर छोड़ने जैसा कदम उठाना पड़ गया.

अपना अपमान और तिरस्कार तो तन्वी कैसे भी बरदाश्त कर रही थी, पर आस्था के साथ भी अजीत का वही रवैया उस से बरदाश्त न हो पाया. कुछ दिन पहले ही आस्था की तबीयत खराब होने पर अजीत का जो व्यवहार था, उसे देख कर भविष्य में अजीत के सुधरने की जो एक छोटी सी उम्मीद थी, वह भी जाती रही.

उस ने सुना था कि बच्चा होने के बाद पतिपत्नी में प्यार बढ़ता है, क्योंकि बच्चा दोनों को आपस में बांध देता है. इसी उम्मीद पर उस ने 10 वर्ष तक संयम रखा कि शायद पिता बनने के बाद अजीत के अंदर कुछ परिवर्तन आ जाए, पर ऐसा कुछ भी न हुआ. शादी के 10 साल बाद इतनी मुश्किलों से हुई बेटी से भी अजीत का कोई लगाव नहीं झलकता था. आस्था के प्रति अजीत का उस दिन का रवैया सोच कर आज भी तन्वी की आंखें नम हो जाती हैं.

उस दिन सुबह जब तन्वी ने आस्था को गोद में उठाया, तो उसे ऐसा लगा कि उस का शरीर कुछ गरम है. थर्मामीटर लगाया तो 102 बुखार था. दिसंबर का महीना था और बेमौसम बारिश से गला देने वाली ठंड पड़ रही थी. ऐसे में आटोरिकशा में आस्था को डाक्टर के पास ले कर जाना तन्वी को ठीक नहीं लगा. अत: उस ने औफिस फोन कर के अजीत को आने को कहा तो उस ने थोड़ी देर में आने के लिए कहा.

ये भी पढ़ें- एक अधूरा लमहा- क्या पृथक और संपदा के रास्ते अलग हो गए?

तन्वी इंतजार करती रही थी पर शाम तक न ही अजीत आया और न ही उस का फोन. आस्था का बुखार बढ़ता गया और शाम होतेहोते उसे लूज मोशन के साथसाथ उलटियां भी होने लगीं. घबरा कर उस ने दोबारा अजीत को फोन किया, तो उस ने बताया कि वह अपने बौस के यहां बर्थडे पार्टी में है और 2 घंटे में घर पहुंचेगा.

तन्वी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि जिस की बेटी बुखार में तप रही हो वह उसे डाक्टर को दिखाने के बजाय बर्थडे पार्टी अटैंड कर रहा है. बाहर का मौसम और आस्था की हालत देखते हुए तन्वी के हाथपैर ठंडे हो गए और उस की आंखों से बेबसी के आंसू निकल पड़े.

उस ने किसी तरह खुद को संयत किया और पड़ोस में रहने वाली अपनी एक सहेली को फोन कर के उस से मदद मांगी. संयोग से उस के पति औफिस से आ चुके थे. वे अपनी गाड़ी से आस्था और तन्वी को डाक्टर के पास ले गए. वहां डाक्टर ने आस्था की हालत देख कर तन्वी को खूब डांट लगाई कि बच्चे को अब तक घर पर रख कर उस की हालत इतनी बिगाड़ दी. अपने आवेगों पर नियंत्रण रख बुखार में तपती बेसुध आस्था को ले कर जब तन्वी घर पहुंची तो घर के बाहर अजीत को खड़ा पाया. हड़बड़ी में ताला लगा कर तन्वी चाबी पड़ोस में देना भूल गई थी.

तन्वी को देखते ही अजीत उस पर बरस पड़ा, ‘‘चाबी दे कर नहीं जा सकती थीं? घंटे भर से बाहर खड़ा इंतजार कर रहा हूं मैं.’’

हालांकि अजीत का ऐसा अमानवीय व्यवहार तन्वी के लिए कोई आश्चर्यजनक नहीं था, फिर भी साथ में खड़ी सहेली और उस के पति की वजह से तन्वी का चेहरा अपमान से लाल हो गया. लेकिन उस ने अपने सारे संवेगों को दबाते हुए बात को सहज बनाते हुए कहा, ‘‘आस्था की हालत देख कर मैं इतनी घबरा गई कि हड़बड़ी में चाबी देना याद ही नहीं रहा.’’

‘‘बुखार ही तो था कोई मर तो नहीं रही थी, जो सुना रही हो कि हालत बिगड़ रही थी,’’ कहते हुए उस ने तन्वी के हाथ से चाबी ली और दरवाजा खोल कर अंदर चला गया.

बाहर खड़ी तन्वी की सहेली और उस के पति को धन्यवाद के शब्द कहना तो दूर उन की ओर नजर उठा कर देखने तक की जहमत नहीं उठाई उस ने. अपमान से लाल हुई तन्वी मुंह से कुछ न कह सकी, बस हाथ जोड़ कर अपनी डबडबाई आंखों से उन के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर कर दी.

अजीत की अमानवीयता पर आश्चर्यचकित वे दोनों तन्वी को आंखों से ही हौसला बंधाते हुए वहां से चले गए. तन्वी अंदर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि अजीत का अगला बाण चल निकला, ‘‘यारों के साथ ही जाना था, तो मुझे फोन करने का नाटक करने की क्या जरूरत थी?’’

उस समय तन्वी का मन किया था कि पास पड़ा गुलदस्ता उठा कर अजीत के सिर पर दे मारे, पर आस्था की मम्मीमम्मी की आवाज सुन उस ने स्वयं को रोक लिया और ‘तुम जैसा गंदी मानसिकता वाला इंसान इस से ज्यादा और सोच ही क्या सकता है?’ कहते हुए स्वयं को आस्था के साथ कमरे में बंद कर लिया.

उस रात तन्वी बहुत आहत हुई थी. ऐसा नहीं था कि अजीत ने पहली बार उस के साथ इतना संवेदनहीन व्यवहार किया था, पर इस बार बात केवल तन्वी के दिल को पहुंची चोट तक ही सीमित नहीं थी. बेटी का तिरस्कार और उस के लिए ‘मर तो नहीं रही थी’ जैसे शब्द, पड़ोसियों का अपमान, पड़ोसियों के सामने उस की बेइज्जती और फिर उस के चरित्र पर कसा हुआ फिकरा, सब कुछ एकसाथ मिल कर उस के मस्तिष्क में कुलबुलाहट पैदा कर रहा था और सब्र को तारतार कर रहा था.

इस तरह का व्यवहार करना इंसान की कायरता की पहली निशानी होती है. कायर इंसान ही अपनी गलती को छिपाने के लिए अनायास दूसरों पर चीखते और चिल्लाते हैं. वे समझते हैं कि चीख और चिल्ला कर, अपनी गलती दूसरे पर थोप कर वे सब के सामने निर्दोष सिद्ध हो जाएंगे, पर वे बहुत गलत सोचते हैं.

ये भी पढ़ें- जरा सा मोहत्याग- ऐसा क्या हुआ था नीमा के साथ?

उन के ऐसे व्यवहार से दूसरों के मन में उन के लिए नफरत के अलावा और कुछ उत्पन्न नहीं होता. अजीत ने भी वही किया. उस के समय पर न पहुंचने के लिए उसे तन्वी या कोई और कुछ कह न सके, इस से बचने के लिए उस ने पहले ही तन्वी पर आरोपों की झड़ी लगा कर खुद की गलती ढकने की एक तुच्छ कोशिश की. अजीत की बातों से आहत तन्वी की वह सारी रात रोतेरोते ही गुजर गई.

आगे पढ़ें- मानअपमान से ज्यादा आस्था की चिंता थी. वह नहीं चाहती थी कि…

12 साल बाद: भाग-1

आज पूरे 12 साल बाद आखिर तन्वी के सब्र का बांध टूट ही गया. वह अपनी 2 साल की बेटी को गोद में उठाए अपना घर छोड़ कर निकलने को मजबूर हो गई. घर से सीधे रेलवे स्टेशन जा कर उस ने अपने मायके के शहर का टिकट लिया और टे्रन में चढ़ गई. गुस्से के मारे उस का शरीर उस के वश में नहीं था.

बेटी आस्था को सीट पर लिटा कर वह खुद खिड़की से सिर टिका कर बैठ गई. टे्रन ज्योंही स्टेशन छोड़ कर आगे बढ़ी, घंटों से रोका हुआ उस का आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा और वह अपनी हथेलियों से मुंह छिपा कर रो पड़ी. आसपास के सहयात्रियों की कुतूहल भरी निगाहों का एहसास होते ही उस ने अपनेआप को संभाला और आंसू पोंछ कर खुद को संयत करने की कोशिश करने लगी. थोड़ी ही देर में वह ऊपर से तो सहज हो गई पर भीतर का भयंकर तूफान उमड़ताघुमड़ता रहा.

आसान नहीं होता है किसी औरत के लिए अपना बसाबसाया घरसंसार अपने ही हाथों से बिखेर देना. पर जब अपने ही संसार में सांस लेना मुश्किल हो जाए, तो खुली हवा में सांस लेने के लिए बाहर निकलने के अलावा कोई चारा ही नहीं रह जाता. रहरह कर तन्वी की आंखें गीली होती जा रही थीं. सब कुछ भूलना और नई जिंदगी की शुरुआत कर पाना दोनों ही बहुत मुश्किल थे, पर अजीत के साथ पलपल मरमर कर जीना अब उस के बस की बात नहीं रह गई थी.

ये भी पढ़ें- 19 दिन 19 कहानियां: पवित्र प्रेम- क्या था रूपा की खुद से नफरत का कारण?

टे्रन अपनी पूरी गति से भागी जा रही थी और उसी गति से तन्वी के विचार भी चल रहे थे. आगे क्या होगा कुछ पता नहीं था. उसे इस तरह आया देख पता नहीं मायके में सब की प्रतिक्रिया कैसी होगी? शादी के बाद अपने पति का घर छोड़ कर मायके में लड़की कितने दिन इज्जत से रह पाए, कुछ कहा नहीं जा सकता. अपना तो कुछ नहीं पर आस्था के उज्ज्वल भविष्य के लिए उसे जल्दी से जल्दी अपना जीवन व्यवस्थित करना पड़ेगा और अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ेगा. तन्वी सोच रही थी कि सब कुछ जानने के बाद शुरू के कुछ दिन तो सब का रवैया सहानुभूतिपूर्ण और सहयोगात्मक रहेगा, पर धीरेधीरे वह सब पर बोझ बन जाएगी. वहां लोग उसे अपने पर बोझ समझें, इस से पहले ही उसे अपने पैरों पर हर हाल में खड़ा हो जाना होगा और अपना एक किराए का घर ले कर अलग रहने का इंतजाम करना होगा.

नौकरी और पैरों पर खड़े होने की बात दिमाग में आते ही तन्वी का ध्यान फिर से अजीत की तरफ चला गया. शादी से पहले अच्छीभली नौकरी कर रही थी तन्वी, पर अजीत की ही वजह से उसे वह नौकरी छोड़नी पड़ी थी.

तन्वी देखने और बातव्यवहार दोनों में ही अजीत से कहीं ज्यादा अच्छी थी और इसी वजह से औफिस से ले कर घर तक हर जगह उस की तारीफ हुआ करती थी. शुरू में तो इस का कोई खास असर नहीं पड़ा था अजीत पर, लेकिन शादी के बाद 3 साल के अंदर ही तन्वी को

2 प्रमोशन मिल गए और अजीत को 1 भी नहीं, तो धीरेधीरे अजीत के मन की हीनभावना बढ़ती चली गई और उस ने अलगअलग बहानों से घर में क्लेश करना शुरू कर दिया. उस का एक ही समाधान वह निकालता था कि तन्वी तुम नौकरी छोड़ दो. हार कर घर की सुखशांति के नाम पर तन्वी ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया.

उस समय तो तन्वी को इतना नहीं खला था, पर अब उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा है. अजीत की याद आते ही तन्वी फिर से असहज होने लगी. उस के द्वारा दी गई मानसिक यंत्रणाएं तन्वी के विचारों को मथने लगीं.

तन्वी सोचने लगी, ‘मैं और कितना बरदाश्त कर सकती थी. बरदाश्त की भी एक सीमा होती है. घरपरिवार की सुखशांति के नाम पर आखिर कोई औरत कब तक अपमान और तिरस्कार के घूंट पीती रह सकती है? सामने वाला किसी को हर पल यह एहसास दिलाता रहे कि हमारे जीवन में तुम्हारी कोई अहमियत नहीं है, तो क्या साथ रहना आत्मसम्मान को चोट नहीं पहुंचाता है? मानसिक यंत्रणाओं को आखिर कब तक मैं घर की सुखशांति और मानमर्यादा के नाम पर सहती और चुप रहती कि कम से कम मेरी चुप्पी से मेरी गृहस्थी तो बची रहेगी. घर का कलह बाहर वालों के सामने तो नहीं आएगा.’

अजीत को तो किसी की भी परवाह नहीं ?थी कि लोग क्या कहेंगे. उस की दुनिया तो उस से शुरू हो कर उस पर ही खत्म हो जाती थी. अपनेआप को किसी शहंशाह से कम नहीं समझता था अजीत.

अपना अतीत जैसेजैसे तन्वी को याद आता जा रहा था उस का मन और कसैला हुआ जा रहा था. उसे खुद पर आश्चर्य होता जा रहा था कि आखिर इतने सालों तक वह सब कुछ क्यों और कैसे बरदाश्त करती रही? उसे लगने लगा कि शायद पति के अत्याचार बरदाश्त करते रहना पत्नियों की आदत में ही शुमार होता है.

औरतों का एक तबका ऐसा होता है, जो रोज पति के लातघूंसे खाता है. ऐसी औरतें बिरादरी के सामने पति को गालियां देती हैं, लेकिन सब कुछ भूल कर दूसरे ही दिन पति के साथ हंसतीखिलखिलाती नजर आती हैं.

दूसरा तबका वह होता है, जो पति की एक धौंस भी बरदाश्त नहीं करता. ऐसी औरतें रातोंरात पति के अस्तित्व को ठोकर मार कर अपनी एक अलग दुनिया बसा लेती हैं. औरतों के ये दोनों तबके खुश रहते हैं.

ये भी पढ़ें- विश्वास की आन: क्या मृदुला का सिद्धार्थ पर भरोसा करना सही था?

सब से अधिक मजबूर होती हैं संतुलित परिवारों की महिलाएं, जो न तो इतनी सक्षम होती हैं कि रातोंरात पति से अलग हो कर एक अलग दुनिया बसा सकें और न ही इतनी आत्मसम्मानविहीन कि पति की ज्यादतियों को रात गई बात गई की तर्ज पर भुला सकें.

वे तो बस सहती हैं और चुप रहती हैं. कभी पड़ोसियों के कानों तक बात न पहुंचे यह सोच कर, तो कभी बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा यह सोच कर. कभी उन्हें यह भय सताता है कि अगर वे पति का घर छोड़ कर मायके चली गईं तो उन की छोटी बहनों के विवाह में दिक्कतें आएंगी, तो कभी यह डर सताता है कि उन के मातापिता इतना बड़ा सदमा बरदाश्त न कर सके तो?

आगे पढ़ें- मायके की इज्जत और छोटी बहनों के भविष्य के बारे में सोचसोच कर….

एक कप कौफी: भाग-2

गौतमी अब भी शांत थी. उस के चेहरे पर शिकन का नामोनिशान नहीं था. उस ने अनुप्रिया की ओर देख कर पूछा, ‘‘अगर तुम्हें एतराज न हो तो क्या मैं तुम से एक सवाल पूछ सकती हूं?’’ अनुप्रिया के स्वीकृति देने पर उस ने प्रश्न किया, ‘‘तुम तलाकशुदा हो न?’’

‘‘मेरी निजी जिंदगी से जुड़े सवाल पूछने का तुम्हें कोई हक नहीं है गौतमी,’’ अनुप्रिया ने गुस्से में कहा. ‘‘मुझे पूरा हक है अनुप्रिया. तुम ने मेरी निजी जिंदगी में दखल दे कर मेरे पति को मुझ से छीनने की ठान रखी है. फिर मैं तो सिर्फ सवाल ही पूछ रही हूं.’’

अनुप्रिया के पास गौतमी के इस तर्क की कोई काट नहीं थी. उस ने मन मार कर उत्तर दिया, ‘‘हां.’’ ‘‘तुम्हारा तलाक क्यों हुआ?’’

‘‘इस बात का मेरे और पराग के रिश्ते से कोई संबंध नहीं है.’’ ‘‘प्लीज अनुप्रिया…कुछ देर के लिए कड़वाहट भुला कर मेरे प्रश्नों के उत्तर दो. संबंध का पता तुम्हें खुद ही चल जाएगा. बदले में तुम जो चाहो मुझ से पूछ सकती हो.’’

अनुप्रिया गौतमी के सवालों के जवाब नहीं देना चाहती थी. उसे महसूस हो रहा था कि उस ने यहां आ कर गलती कर दी. पर अब यहां आ ही गई थी तो करती भी क्या? अगर वह चाहती तो यहां से उठ कर जा सकती थी, पर ऐसा कर के वह गौतमी के सामने खुद को कमजोर नहीं दिखाना चाहती थी. इसलिए उस ने अपनी पिछली जिंदगी के बारे में बताना शुरू किया, ‘‘मेरे पति तरुण का किसी निदा नाम की लड़की के साथ अफेयर था. जब मुझे पता चला तो मैं ने उन से तलाक लेने का फैसला कर लिया.’’ ‘‘उफ, तुम्हारी शादी कितने समय तक चली थी?’’ ‘‘लगभग डेढ़ साल. 2 साल पहले तलाक के बाद मैं दिल्ली आ गई थी.’’

‘‘दिल्ली आने के बाद तुम पराग से मिलीं और तुम दोनों का अफेयर शुरू हो गया,’’ गौतमी बोली.

‘‘हां…’’ ‘‘क्या तुम्हें शुरू से पता था कि पराग शादीशुदा हैं और उन का 1 बेटा भी है?’’

‘‘हां, मैं ने उन के दफ्तर में आप तीनों की तसवीर देखी थी.’’ गौतमी कुछ क्षण चुप रही. फिर अनुप्रिया की ओर गंभीरता से देख कर पूछा, ‘‘क्या तुम ने कभी तरुण को वापस पाने की कोशिश

नहीं की? उसे इतनी आसानी से तलाक क्यों दे दिया?’’ अनुप्रिया समझ रही थी कि गौतमी उसे अपनी बातों के जाल में फंसाना चाह रही है, पर उस ने यह सवाल पूछ कर अनुप्रिया को अपनी बात ऊपर रखने का बहुत अच्छा मौका दे दिया. उस ने बिना वक्त गंवाए उत्तर दिया, ‘‘नहीं, क्योंकि ऐसे आदमी के साथ रहने का कोई फायदा नहीं है जो किसी और से प्यार करता हो. इसलिए मैं ने उसे तलाक दे दिया. तुम्हें भी पराग को तलाक दे कर आजाद कर देना चाहिए.’’

‘‘स्मार्ट मूव,’’ गौतमी ने हंसते हुए कहा, ‘‘पर तुम में और मुझ में बहुत फर्क है. मैं पीठ दिखा या मैदान छोड़ भागने वालों में से नहीं हूं.’’ ‘इस औरत पर तो किसी बात का कोई असर ही नहीं हो रहा है. पता नहीं किस मिट्टी की बनी है,’ सोच कर अनुप्रिया मन ही मन खीज उठी. फिर तलखीभरे स्वर में कहा, ‘‘मैं ने तुम्हारे सवालों के जवाब दे दिए. अब सवाल पूछने की बारी मेरी है.’’

‘‘ठीक है, पूछो.’’ अनुप्रिया ने गौतमी की आंखों में आंखें डाल कर पूछा, ‘‘तुम्हारा पति मेरे साथ रिलेशनशिप में है, यह जानते हुए भी तुम यहां बैठ कर मेरे साथ कौफी पी रही हो. ऐसा क्यों?’’

‘‘तुम्हारे इस सवाल का जवाब तो मैं ने यहां आते ही दे दिया था. मैं तुम्हें यह बताने आई हूं कि पराग तुम से शादी नहीं करेगा.’’ ‘‘और मैं भी तुम्हें बता चुकी हूं कि पराग तुम से नहीं मुझ से प्यार करता है. वह बहुत जल्दी मुझ से शादी करेगा.’’

‘‘अगला सवाल,’’ गौतमी ने कौफी का घूंट भरते हुए पूछा.’’ ‘‘क्या तुम्हें मुझ से डर नहीं लगता है?’’ अनुप्रिया को लगा कि अब मुसकराने की बारी उस की है.

‘‘बिलकुल नहीं. डरता वह है जो गलत होता है. तुम अपने पति से धोखा खा कर तलाक ले चुकी हो और अब खुद दूसरी औरत बन कर पराग की जिंदगी में पड़ी हो. अब तुम्हें दूसरी बार भी धोखा ही मिलने वाला है, डरना तो तुम्हें चाहिए अनुप्रिया.’’ अनुप्रिया के चेहरे से मुसकान के साथ रंग भी उड़ गया. वह दांत पीसते हुए बोली, ‘‘हाऊ डेयर यू?’’

गौतमी ने सीधे बैठते हुए कहा, ‘‘बस इतनी बात पर तुम्हें गुस्सा आ गया? मैं तुम पर कटाक्ष नहीं कर रही हूं, बल्कि तुम्हें सच का आईना दिखा रही हूं और सच तो सब को मीठा नहीं लगता है न?’’ ‘‘तुम्हें क्या लगता है मैं तुम्हारी बातों से डर जाऊंगी?’’ अनुप्रिया ने आंखें तरेरी.

गौतमी ने हौले हंस कर कहा, ‘‘तुम्हें डराने का मेरा कोई इरादा भी नहीं है. यह तुम भी जानती हो कि तुम ने मेरे साथ बहुत गलत किया है पर क्या मैं ने अभी तक तुम से बदला लेने के लिए कुछ भी किया है? तुम पर चीखीचिल्लाई या इलजाम लगाए? अगर मैं ऐसा कुछ भी करूं तो तुम्हें भी पता है कि कितने लोग तुम्हें गलत कहेंगे और कितने मुझे सही कहेंगे.’’ अनुप्रिया चुप हो गई तो गौतमी ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘मैं जब से यहां आई हूं तुम ने बस एक ही रट लगा रखी है कि पराग तुम से शादी करेगा पर कब करेगा क्या तुम बस मुझे इतना बता सकती हो?’’

‘‘जल्द ही…’’ ‘‘जल्द ही कब अनुप्रिया? अगर पराग मुझे तलाक ही नहीं देगा तो तुम से शादी कैसे करेगा? कभी तुम ने यह सोचा है?’’

अनुप्रिया कुछ कहती उस से पहले ही गौतमी फिर बोल पड़ी, ‘‘पराग ने तुम से यही कहा होगा न कि वह मेरे साथ खुश नहीं है. मैं ने उस की जिंदगी नर्क बना रखी है और वह बस अपने बेटे की खातिर मुझे बरदाश्त कर रहा है?’’ ‘‘आप को यह सब कैसे पता है?’’ अनुप्रिया ने हैरानी प्रकट की.

‘‘तुम दिखने में तो समझदार लगती हो. जिंदगी में इतना कुछ देख चुकी हो. फिर इतना भी नहीं जानतीं कि पराग जैसे आदमी इसी तरह की बातों से पहले तुम जैसी लड़कियों की हमदर्दी और फिर प्यार हासिल करते हैं.

आगे पढ़ें- जब मैं तुम्हें फेसबुक पर ढूंढ़ कर तुम्हारे…

एक कप कौफी: भाग-1

मेजपर रखी कौफी ठंडी हो रही थी. अनुप्रिया ने कौफी मंगा तो ली थी पर उठा कर पीने की हिम्मत नहीं हो रही थी. दिल इतनी तेजी से धड़क रहा था मानो बाहर ही आ जाएगा. कई बार कलाई पर बंधी घड़ी में समय देख चुकी थी. 5 बजने में अभी 10 मिनट बाकी थे. यानी पराग की पत्नी के वहां आने में ज्यादा समय बाकी नहीं था. पराग की पत्नी के बारे में सोच कर अनुप्रिया फीकी सी हंसी हंस दी. उसे पराग की पत्नी का नाम तक मालूम नहीं था और वह उस का एक फोन आने पर उस से यहां मिलने के लिए तैयार हो गई थी. 5 बजे मिलने का समय तय कर के 4 बजे से यहां बैठ कर उस का इंतजार कर रही थी. कभी कैफे के दरवाजे को तो कभी कौफी मग पर बने स्माइली को निहार रही थी.

तभी कैफे का दरवाजा खुला और एक सुंदर महिला ने अंदर प्रवेश किया. कुछ क्षणों तक इधरउधर देखने के बाद वह महिला अनुप्रिया की ओर आने लगी. मेज के पास आ कर रुक गई और फिर पूछा, ‘‘आप अनुप्रिया हैं?’’ अनुप्रिया कुरसी से उठ खड़ी हुई, ‘‘जी हां और आप?’’

‘‘हैलो, मैं गौतमी. पराग की वाइफ.’’ ‘‘हैलो, प्लीज बैठिए,’’ कह कर अनुप्रिया ने सामने रखी कुरसी की ओर इशारा किया.

‘‘थैंक्स,’’ गौतमी ने कुरसी पर बैठ अपना पर्स मेज पर रख दिया और अनुप्रिया की ओर देख कर मुसकराई, ‘‘मुझ से यहां मिलने के लिए आप का शुक्रिया.’’ अनुप्रिया ने उस की बात को अनसुना कर पूछा, ‘‘आप क्या लेंगी?’’

‘‘कौफी और्डर करने के बाद कुछ पलों तक दोनों खामोश बैठी रहीं.

अनुप्रिया तिरछी नजरों से गौतमी की ओर देख रही थी. उस ने जैसा सोचा था गौतमी उस से बिलकुल उलट थी. वह अच्छीखासी स्मार्ट थी और बड़े ही शांत भाव से उस के सामने बैठी थी. लेकिन वह कैफे में इतने सारे लोगों के सामने और करती भी क्या. उस पर चिल्लाती, इलजाम लगाती कि उस ने उस के पति को अपने प्रेमजाल में क्यों फंसा रखा है या फिर उस के आगे रोती, गिड़गिड़ाती कि वह उस के पति की जिंदगी से हमेशा के लिए दूर चली जाए?’’ अनुप्रिया से गौतमी की चुप्पी बरदाश्त नहीं हो रही थी. वह चाहती थी कि उसे जो भी कहना हो कहे और यहां से चली जाए. तभी कौफी आ गई. अनुप्रिया ने हिम्मत कर पूछ ही लिया, ‘‘आप मुझ से क्यों मिलना चाहती थीं?’’

गौतमी ने मुसकरा कर कप हाथ में उठा लिया, ‘‘चलिए, आप ने मुझ से यह सवाल तो पूछा. मैं तो इंतजार कर रही थी कि आप मेरा निरीक्षण कर चुकी हों तो आप से बातें करना शुरू करूं.’’ अनुप्रिया सकपका गई. गौतमी के भीतर तेज दिमाग के साथ आत्मविश्वास भी कूटकूट कर भरा था. उस ने खुद को संभालते हुए कहा, ‘‘देखिए, मेरे पास अधिक समय नहीं है. आप मुद्दे की बात कीजिए. आप ने मुझे यहां क्यों बुलाया है?’’

‘‘आप ने औफिस से छुट्टी ली हुई है और पराग 3 दिनों के लिए शहर से बाहर गए हैं. जहां तक मेरी जानकारी है आजकल वे आप से मिलना तो दूर आप का फोन तक नहीं उठा रहे हैं. फिर आज आप के पास वक्त की कमी तो नहीं होनी चाहिए. खैर छोडि़ए, मैं सीधे मुद्दे पर ही आ जाती हूं. मैं आप को यह बताने आई हूं कि आप पराग के साथ सिर्फ अपना वक्त बरबाद कर रही हैं. वह मुझे छोड़ कर आप से शादी नहीं करेगा.’’ अनुप्रिया इसी बात की उम्मीद कर रही थी. उसे पता था कि गौतमी कुछ ऐसा ही कहेगी, इसलिए वह भी पूरी तैयारी के साथ आई थी. वह कम से कम इस औरत से तो हार नहीं मानने वाली थी. अत: उस ने चेहरे पर आत्मविश्वास लाते हुए कहा, ‘‘अच्छा…तो फिर वह आप के साथ शादीशुदा होते हुए भी मेरे साथ रिलेशनशिप में क्यों है?’’

‘‘क्योंकि वह एक कमजोर व बेवकूफ व्यक्ति है जो फिलहाल रास्ता भटक गया है, पर लौट कर अपने ही घर आएगा.’’ ‘‘आप का वह बेवकूफ आदमी दिन में 10 बार मुझे आई लव यू कहता है.’’ ‘‘तो क्या हुआ? पराग चौबीस घंटों में 48 बार मुझे व अपने बेटे सिद्धार्थ को आई लव यू कहता है.’’ ‘‘उस ने मुझ से वादा किया है कि वह जल्दी तुम्हें तलाक दे कर मुझ से शादी करेगा.’’

‘‘तुम्हारी और पराग की रिलेशनशिप को कितना वक्त हुआ है?’’ ‘‘करीब 2 साल.’’

‘‘तो फिर उस ने अब तक अपने खोखले वादे पूरे करने की दिशा में कदम क्यों नहीं बढ़ाया? मैं आज भी उस की पत्नी क्यों हूं?’’ ‘‘मैं जानती हूं कि तुम क्या कर रही हो…तुम मेरे और पराग के रिश्ते में दरार डालना चाहती हो. तुम चाहती हो कि पराग मुझे छोड़ कर वापस तुम्हारे पास आ जाए,’’ अनुप्रिया ने गौतमी को घूरते हुए कहा.

‘‘पराग मुझे छोड़ कर तुम्हारे पास गया ही कब था जो मुझे उसे वापस बुलाना पड़े. वह तो आज भी मेरे साथ, मेरे पास ही है.’’ ‘‘तो मैं इस मुलाकात का क्या मतलब समझूं कि मेरे सामने एक बेबस पत्नी बैठी है, जो मुझ से अपने पति को वापस पाने की मिन्नतें कर रही है?’’

‘‘और मेरे सामने जिंदगी से हारी हुई औरत बैठी है जो इतनी हताश हो चुकी है कि किसी और के पति को उस से छीन कर दूसरी औरत कहलाने के लिए भी तैयार है.’’ अनुप्रिया भड़क उठी, ‘‘तुम आखिर चाहती क्या हो? तुम ने मुझे यहां मेरी बेइज्जती करने के लिए बुलाया है?’’

‘‘तुम बताओ, तुम मेरे बुलाने पर यहां क्यों आई हो? क्या तुम मेरे हाथों बेइज्जत होना चाहती हो?’’ गौतमी ने मुसकराते हुए कहा. अनुप्रिया खौल उठी. फिर भी उस ने अपने गुस्से पर काबू करते हुए कहा, ‘‘मैं यहां तुम से यह पूछने आई हूं कि तुम पराग को तलाक देने के लिए तैयार हो या नहीं?’’

‘‘पराग ने मुझ से तलाक मांगा ही कब?’’ ‘‘नहीं मांगा तो अब मांग लेगा. हम दोनों जल्दी शादी करने वाले हैं.’’

‘‘सपने देखना बहुत अच्छी बात है अनुप्रिया. पर इतना याद रखना कि सपनों के टूटने पर कई बार तकलीफ भी बहुत होती है.’’ ‘‘किस के सपने टूटेंगे यह तो वक्त बताएगा,’’ अनुप्रिया ने गौतमी को घमंडभरी नजरों से देखते हुए कहा.

आगे पढ़ें- गौतमी अब भी शांत थी. उस के चेहरे पर…

एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा: भाग-4

रीतिका और कनिष्क की दोस्ती हर बीतते दिन के साथ गहरी होती जा रही थी. कनिष्क डिबेट कंपीटिशंस में जाता रहता था जिस के लिए उसे रिसर्च से हट कर भी सामग्री की जरूरत होती थी. रीतिका क्रिएटिव राइटिंग करती थी, इसलिए वह कनिष्क के हर कंपीटिशन या क्लास रिप्रैजेंटेशन से पहले उस के साथ बैठ उस की मदद किया करती थी. कभी देररात तो कभी अपनी क्लास छोड़ कर उस के लिए लिखा करती थी. एक बार कनिष्क ने उस से कहा भी था, ‘‘तू न होती तो क्या होता मेरा,’’ जिस पर रीतिका ने जवाब दिया, ‘‘तेरा सिर थोड़ा कम दर्द होता.’’

दोनों एकदूसरे के जीवन में अपनीअपनी जगह बना चुके थे. रीतिका कनिष्क के मैसेज का इंतजार किया करती तो कनिष्क उस से बात किए बिना खुद को अधूरा समझने लगता. रीतिका और कनिष्क एकदूसरे के आदी होते जा रहे थे और इस बीच, न उन्हें किसी साथी की जरूरत महसूस होती न किसी के साथ रिलेशनशिप में आने की. दोनों ही कभी सीरियस रिलेशनशिप में नहीं रहे थे. एकदूसरे के बारे में कुछ महसूस करते भी थे तो अब कहने का मन नहीं था, मन में डर था कि कहीं यह दोस्ती खराब न हो जाए.

दोनों लड़ते भी बहुत थे लेकिन जब दोनों में से कोई एक मनाने आता तो दूसरा बचकाने अंदाज में शिकायत करने लगता और दोनों, लड़ाई का मसला क्या था वह ही भूल जाते. एक बार कनिष्क ने मजाक में रीतिका को बिजी होने के चलते मैसेज नहीं किया और रीतिका ने भी मैसेज करने के बजाय उस के पहले मैसेज करने का इंतजार किया. इस के चलते 2 दिनों बाद कनिष्क ने रीतिका को यह कह दिया कि वह घमंडी है. और यह सुन कर रीतिका ने उसे मतलबी कह दिया. दोनों ने एकदूसरे से पूरा हफ्ता बात नहीं की.

होली आ चुकी थी. होली के दिन कनिष्क ने रीतिका को मैसेज किया, ‘हैप्पी होली, अब तू तो कहेगी नहीं, तो मैं ने सोचा मैं ही गुस्सा थोड़ा किनारे कर मैसेज कर दूं.’

‘फालतू में गुस्सा करेगा तो गुस्सा किनारे भी तो खुद ही को करना पड़ेगा न,’ रीतिका ने रिप्लाई किया.

‘तुझ से तो प्यार करता हूं मैं, गुस्सा नहीं कर सकता क्या?’

‘हां तो, मैं गुस्सा नहीं कर सकती तुझ पर?’ रीतिका ने लिखा.

‘क्यों? तुझे भी मुझ से प्यार है क्या?’

‘और क्या.’

‘कितना?’

‘तुझ से तो ज्यादा ही.’

‘रहने दे, तुझे मेरी याद नहीं आई.’

‘थोड़ी सी तो आई थी,’ रीतिका ने लिखा और हंसने वाली ईमोजी भेज दी. रिप्लाई में कनिष्क ने भी हंसने वाली ईमोजी भेज दी.

बात प्यार शब्द तक आई जरूर थी पर वह दोस्ती के लिए थी या उस से ज्यादा के लिए, यह एकदूसरे से पूछना मुश्किल था दोनों के लिए.

दोनों के थर्डईयर के आखिरी 3 महीने बचे थे. एंट्रैंस की तैयारियां और कालेज के प्रोजैक्ट्स में ही दोनों का वक्त बीत रहा था. कनिष्क के कालेज से ट्रिप जा रही थी शिमला. कनिष्क हर साल ट्रिप पर जाता ही था. पहले जब भी गया था तो आ कर सारी फोटो रीतिका को दिखाई थीं. रीतिका के कालेज से भी ट्रिप जाने वाली थी लेकिन उदयपुर. कनिष्क ने रीतिका से पूछा क्या वह उस के साथ ट्रिप पर चलेगी. कनिष्क की अपने डिपार्टमैंट में इतनी तो चलती ही थी कि वह एकदो लोगों को साथ ला सके. उस ने सुमित को बताया कि वह रीतिका को भी साथ लाना चाहता है तो सुमित खुश हुआ लेकिन वह इस बात को ले कर चिंतित था कि कोई कहीं रीतिका का चेहरा देख उसे कुछ कह न दे. इस पर कनिष्क ने कहा, ‘‘अगर किसी ने रीतिका से कुछ कहा तो उसे जवाब देना आता है. वैसे भी वह जितनी बार भी कालेज आई है किसी ने उसे अटपटा महसूस नहीं कराया, तो अब क्यों कराएगा. चिल्ल कर.’’

रीतिका ने ट्रिप के बारे में सुना तो खुश हो गई. उस ने घर से परमिशन ले ली, ट्रिप के पैसे जमा करा दिए, अपनी सहेली निशा को भी साथ चलने के लिए मना लिया. ट्रिप सुबह 6 बजे कालेज से निकलने वाली थी और अगले 4 दिनों तक सभी को साथ रहना था. बस में रीतिका और निशा एक सीट पर बैठी थीं और कनिष्क उन की बगल वाली सीट पर सुमित के साथ. कनिष्क की नजरें न चाहते हुए भी बारबार रीतिका की तरफ जा रही थीं जिसे सुमित ने नोटिस कर लिया था.

‘‘तू ने उसे बताया या नहीं?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘क्या बताया या नहीं, किस को?’’ कनिष्क ने झिझकते हुए पूछा.

‘‘तू पसंद करता है न उसे, बता क्यों नहीं देता.’’

‘‘यार, उस ने मना कर दिया तो? मतलब मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या कहूं, कैसे कहूं. वह अच्छी लड़की है, समझदार है, तेजतर्रार है, इतनी खूबियां हैं उस में. फिर भी मैं ने उस के साथ इतना बुरा बिहेव किया था शुरू में, याद है न तुझे? अगर हमारी दोस्ती खराब हो गई तो? बहुत मुश्किल है कुछ कह पाना,’’ कनिष्क धीमी आवाज में सुमित से कहने लगा.

‘‘तू अब तक उस बात को ले कर बैठा है? देख, अगर तू उसे उस नजर से देखता है तो बता दे अपने दिल की बात, वह क्या कहती है वह तो उस की मरजी है न.’’

‘‘ठीक है, देखता हूं.’’

शिमला ट्रिप के पहले 3 दिन किसी एडवैंचर से कम नहीं थे. दिन कभी माल रोड पर तसवीरें खींचते बीतता तो कभी कहीं और घूमते. रात में बोनफायर और एक लड़की को ऐसा लगा… तो कभी शाम भी कोई जैसे है नदी बहबहबहबह रही है… जैसे गाने गाते. सब मिल कर नाचे भी तो कितना थे. ट्रिप पर गए प्रोफैसरों से छिपतेछिपाते सब ने बीयर भी तो पी थी. एक दिन तो ग्रुप की एक लड़की तान्या रिज रोड पर इतना तेज गिरी कि उस के दाएं पैर में मोच आ गई. रीतिका उस पूरा दिन उस के पास ही रही उसे सहारा देते हुए. सब जब यहां से वहां घूम रहे थे तो रीतिका तान्या के साथ बैंच पर बैठ उसे हंसाने की कोशिश में लगी हुई थी. कनिष्क उसे देखता तो उस की नादानियों पर तो कभी उस के निस्वार्थ भाव को देख कर मुसकरा देता.

ट्रिप के आखिरी दिन यानी चौथे दिन की रात सभी नाचनेगाने में मग्न थे. होटल की छत पर बड़े स्पीकर्स लगे हुए थे. सभी ने ड्रैसेस पहनी हुई थीं. रीतिका ने ब्लैक पैंसिल ड्रैस पहनी थी जो उस पर बहुत सुंदर लग रही थी. जब स्लो सौंग बजा और सभी कपल डांस करने लगे तो कनिष्क ने रीतिका का हाथ पकड़ उसे अपने पास खींच लिया. उस का एक हाथ रीतिका के हाथों में था तो दूसरा उस की कमर पर. उन दोनों की आंखें एकदूसरे की आंखों में समाई हुई थीं.

कनिष्क और रीतिका छत के कोने में थे. कनिष्क ने कहा, ‘‘यह सब कितना अलग है न, शहर व भीड़ से दूर.’’

‘‘हां, अच्छा महसूस हो रहा है, काश कि वक्त यहीं थम जाए और हम वापस न जाएं.’’

‘‘रीतिका…’’ कनिष्क ने गहरी आवाज में कहा, गाने के मद्धम शोर के बावजूद वे एकदूसरे को अच्छी तरह सुन पा रहे थे.

‘‘हां?’’ रीतिका ने कहा.

‘‘आई लव यू, बस… कब हुआ, कैसे हुआ पता नहीं, लेकिन तुम से प्यार हो गया है मुझे. तुम्हारे साथ अपनी जिंदगी बिताना चाहता हूं मैं, हमेशा तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं. लड़नाझगड़ना चाहता हूं तुम से, मनाना चाहता हूं तुम्हें. क्या तुम्हें मंजूर है मेरा प्यार?’’ कनिष्क अपने प्यार का इजहार कर चुका था.

‘‘कनिष्क…’’ रीतिका ने हैरान होते हुए कहा.

‘‘कहो…’’ कनिष्क की आंखों में सवाल थे.

‘‘मैं भी तुम्हारे लिए यही सब महसूस करती हूं और यकीन मानो, मैं खुश भी हूं, लेकिन मैं अभी तैयार नहीं हूं,’’ रीतिका ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘‘मतलब?’’

‘‘मैं ग्रैजुएशन के बाद दिल्ली से बाहर जा रही हूं पढ़ने. या शायद देश से ही बाहर. वक्त बहुतकुछ बदल देता है कनिष्क. अभी तुम मेरे लिए प्यार महसूस कर रहे हो, कल जब मैं तुम्हारे साथ नहीं रहूंगी तो तुम अकेले पड़ जाओगे या हमारे बीच जो कुछ है उसे रिश्ते का नाम दे कर खराब क्यों करना. हम एकदूसरे के जितने करीब हैं उतने हमेशा रहेंगे. मैं, बस, समय मांग रही हूं तुम से. बताओ, करोगे मेरा इंतजार?’’

‘‘हमेशा.’’

अटूट बंधन: भाग-3

 विशू ने निर्णय ले लिया और निर्णय के बाद अपने को जहां पाया उस से उस के होश उड़ गए. उस का अपना कुछ है ही नहीं. यह कंपनी का लग्जरी फर्निश्ड फ्लैट नहीं गुड़गांवदिल्ली सीमा पर बागबगीचों से सजी सुंदर कोठी है.

गांव की मिट्टी में पले विशू को 9 मंजिल पर टंगे रहना अच्छा नहीं लगता था. तब इतनी आबादी भी नहीं थी. इधर तो सस्ते में जमीन मिल गई फिर मनपसंद नक्शे से घर बनवा लिया. कुशल माली के साथ खड़े हो पेड़पौधे लगवाए जो अब बड़े हो गए हैं. लौन में आगरा से मंगवा कर कारपेट घास लगवाई पर यह कुछ भी उस का अपना नहीं है. पूरा का पूरा घर रीमा के नाम है. उस ने सारे बैंक खाते, निवेश के कागज देखे. सब कुछ रीमा के नाम है. कहीं भी कुछ भी उस अकेले के नाम नहीं. हां, एक खाता उस अकेले के नाम अवश्य है, जहां उस का वेतन जमा होता है. उसे खोल देखा तो उस में मात्र 55 हजार रुपए पड़े हैं. चलो, भागते भूत की लंगोटी संकटकालीन समय को पार कर देगी. 5 हजार पर्स में हैं. और हां, आज 17 तारीख है, कल रविवार गया है. 15 तारीख शनिवार को त्यागपत्र दिया है शाम को 4 बजे, मतलब उस दिन तक का वेतन तो मिलेगा ही.

पर वह जानता है कि हफ्ते दो हफ्ते से ज्यादा बेरोजगार नहीं रहने वाला. बस, यह बीच का समय काटने के लिए एक सुरक्षित और शांतिपूर्ण जगह चाहिए.

वह अटैची में जरूरी कागजपत्तर रख रहा था तभी ध्यान आया, एक पौलिसी और है जिस में रीमा का नहीं एक ट्रस्ट का नाम है. 20 लाख की पौलिसी है. विशू ने वह पौलिसी निकाली, 5 दिन बाद वह मैच्योर हो रही है. चैन की सांस ली कि चलो 20 लाख रुपए हाथ में रहेंगे.

ये भी पढ़ें- 19 दिन 19 कहानियां: जिंदगी के रंग-क्या चतुर्वेदी परिवार को पता चला कमला का सच ?

अब उसे कोई चिंता नहीं. उस ने पौलिसी अटैची में संभाल कर रख ली. इस के बाद कपड़ेलत्ते बैग में डाले. बैग को नौकर से गाड़ी में रखवा दिया. नौकर ने नाश्ता लगा दिया. नहातेनहाते ही उस ने फैसला कर लिया था कि भरपेट नाश्ता कर के ही निकलेगा. अभी तक तो रीमा के घर में रोटी उसी की कमाई की है. नाश्ता कर लैपटौप उठा चलतेचलते एक पल रुका, एक कसक यहां छोड़ कर जा रहा है, दोनों बच्चे. पलकें गीली हो उठीं पर जाना तो पड़ेगा ही.

आज उस ने सब से पहले अपने निजी खाते से 9 हजार निकाल पर्स में रखे फिर गाड़ी से नगरनिगम सीमा पार की. अपने गांव की सड़क पर गाड़ी जब उतारी तब अचानक याद आया, 13 वर्ष हो गए घर आए. एक युग बीत गया, जाने कितना परिवर्तन हो चुका होगा. एक परिवर्तन तो अभी देख रहा है विशू. पहले गांव जाने की सड़क चौड़ी तो इतनी ही थी पर कच्ची थी. बारहों महीना धूल उड़ाती, बरसात में कीचड़ भरी.

अब काले कोलतार की साफसुथरी सड़क. चमचमाती नागिन सी पड़ी है. उस पर टैंपो भी चल रहे हैं. उस की गाड़ी फिसलती चली जा रही है. गांव की सीमा में एक चाय की दुकान. दुकान क्या, जरा सी आड़ बना रखी थी. वहां एक तख्त पर 2 युवतियां. सामने एक मेज पर स्टोव, केतली, दूध का भगौना, कांच के जार में सस्ते बिस्कुट, नमकीन और ब्रैड्स. ग्राहक शून्य दुकान थी. उस ने गति धीमी की, उतर पड़ा. एक युवती सलवारसूट में थी, दूसरी साड़ी में. उस के उतरते ही सलवार वाली युवती चहक उठी, ‘‘बड़े भैया.’’

साड़ी वाली युवती ने जल्दी से पल्ला खींच सिरमुंह ढक लिया. यह सहज संकोच, सम्मान प्रदर्शन आज शिक्षित, शहरी समाज में जड़ से उखड़ एकदम समाप्त हो गया है, उस का मन जुड़ा गया. युवती की ओर देखा, ‘‘तू? तू मुन्नी है क्या?’’

‘‘जी, बड़े भैया.’’

साड़ी वाली युवती ने तब तक आ कर उसे प्रणाम किया. विशू का समाज बदल गया है. वह हाय, हैलो तो जानता है पर आशीर्वाद में क्या कहे, नहीं जानता. इसलिए चुप ही रहा. मुन्नी ने कहा, ‘‘भाभी, बड़े भैया के साथ मैं घर जा रही हूं. तुम दुकान बढ़ा कर जल्दी से घर आ जाओ.’’

वक्त क्याक्या दिखाएगा मुझे. इन के मुंह का निवाला छीन कर उस ने अपने ऊपर चढ़ने की सीढ़ी बनवाई थी. वह तो ऊपर की चोटी पर चढ़ कर आराम से बैठ गया पर उस का मूल्य चुकाना कितना भारी पड़ा इस निर्धन परिवार को. पंडित केशवदास तिवारी, जिन को जिलाधिकारी तक सम्मान की दृष्टि से देखते थे, उन की बहूबेटी दो रोटी जुटाने के लिए चाय की दुकान खोले बैठी हैं. पर दीनू तो था, वह कहां गया? क्या कमाता नहीं है, आवारा हो गया है…या…इतना अमंगल नहीं हुआ होगा, बहू के हाथों में सुहाग की प्रतीक लाल कांच की चूडि़यां हैं.

घर एकदम खंडहर हो चुका है. मिट्टी का ही घर था पर एकदम मजबूत, लिपापुता, सूई भी गिरे तो उठा लो. छत इतनी मजबूत थी कि वह दोस्तों के साथ दिनभर छत पर पतंग उड़ाया करता था. और घर भले ही कच्चा हो जमीन काफी थी. पंडितजी ने बांस का बेड़ा बना रखा था पूरी सीमा को घेर, जिसे बाउंडरी वौल कहते हैं. अब तक बांस के टुकड़ों का भी नामोनिशान नहीं, सब बराबर हो गया है.

ये भी पढ़ें- धागा प्रेम का: रंभा और आशुतोष का वैवाहिक जीवन ये कहां पहुंच गया

उसी के कोने में चाय की दुकान है. आंगन में आते ही मुग्ध हो गया. एक छोटा सा लंगड़ा आम का पौधा लगाया था उस ने आंगन के बीचोंबीच. अब वह महावृक्ष बन गया है, मजबूत शाखाएं फैलाए खड़ा है. मुन्नी ने उस के पैर रुकते देख हंस कर कहा, ‘‘बड़े भैया, यह तुम्हारा लगाया पेड़ है. अम्मा कहती हैं, देखो कितना बड़ा हो गया है. छवड़ा भरभर मीठे आम उतरते हैं. सावनभर पूरे महल्ले की औरतें इस पर झूला झूलने आती हैं.’’

यह सच है कि निर्मला ने अपना सारा स्नेह, प्यार उस पर पहले ही दिन से न्यौछावर किया पर विशू ने कभी उस को मां नहीं समझा, उस के साथ उस का व्यवहार सदा ही औपचारिक रहा. लड़ाई या अपमान भी नहीं किया कभी. पर आज उस ने मन से जा कर उस के धूल भरे, गंदे पैरों को छू कर प्रणाम किया. निर्मला ने अपने दुर्बल हाथों में उसे छाती पर खींच लिया, माथे को चूमा, ‘‘मेरा विशू, मेरा बेटा, कितने दिनों में आया रे तू?’’

दंग रह गया वह, एक अनपढ़, निर्धन महिला जो सौतेली मां है, अपने स्वार्थ के लिए इन की मुंह की रोटी तक छीन कर ले उड़ा, आज तक पलट कर देखा भी नहीं. अपनी पत्नी जिस के ऊपर अपना सर्वस्व लुटाता रहा, उस से करारा थप्पड़ न खाता तो आज भी इधर की दिशा नहीं लेता. उस निर्मला की आंसूभरी आंखों में कोई क्रोध, कोई विराग नहीं, कोई शिकायत नहीं. है तो बस स्नेह, ममता की अमृतधारा.

‘‘अम्मा, कैसी हो तुम?’’

‘‘बस ठीक हूं, तू खुश है, बड़ा आदमी बन गया है, यह क्या कम सुख है.’’

आंचल से तख्त पोंछा, ‘‘बैठ बेटा, मुन्नी, भैया के लिए पानी ला.’’

आगे पढ़ें- विशू ने देखा, छत पर अनगिनत…

ये भी पढ़ें- प्रयास: क्या श्रेया अपने गर्भपात होने का असली कारण जान पाई?

उजली परछाइयां:  भाग-3

कहानी- महिमा दीक्षित

‘‘तुम यहां क्या कर रही हो?’’ किट्टू गुस्से में घूरते हुए कहा.

‘‘जरूरी बात करनी है, तुम्हारे पापा से रिलेटेड है,’’ धरा ने शांत स्वर में कहा. 2 दिनों बाद तुम्हारे पापा का बर्थडे है, मैं चाहती हूं कि तुम उस दिन उन के पास रहो…’’

‘‘और मैं तुम्हारी बात क्यों सुनूं?’’ उस की बात पूरी होने से पहले ही किट्टू ने चिढ़ कर जवाब दिया.

‘‘क्योंकि वे भी इतने सालों से तुम्हें उतना ही मिस कर रहे हैं जितना कि तुम करते हो. यह उन की लाइफ का बैस्ट गिफ्ट होगा क्योंकि तुम उन के लिए सब से बढ़ कर हो,’’ धरा ने किट्टू से कहा, ‘‘क्या तुम मेरे साथ कल देहरादून चलोगे?’’

किट्टू का कोल्डड्रिंक जैसा ठंडा स्वर उभरा, ‘‘इतना ही कीमती हूं तो मुझे वे छोड़ कर क्यों गए थे? मैं उन से नहीं मिलना चाहता. वे कभी मेरे बर्थडे पर नहीं आए…या…या फिर तुम्हारी वजह से नहीं आए. मुझे तुम से बात ही नहीं करनी. तुम गंदी औरत हो.’’ अपना बैग उठाते हुए लगभग सुबकने वाला था किट्टू.

‘‘तुम जाना चाहते हो तो चले जाना लेकिन, बस, एक बार ये देख लो,’’ कह कर धरा ने सारे पुराने मैसेज और चैट के प्रिंट किट्टू के सामने रख दिए जिन में घूमफिर कर एक ही तरह के शब्द थे अंबर के कि ‘किट्टू से बात करा दो,’ या ‘मैं मिलने आना चाहता हूं’ या ‘डाइवोर्स मत दो.’ और रोशनी के भी शब्द थे, ‘मैं तुम्हारे परिवार के साथ नहीं रह सकती,’ या ‘शादी जल्दबाजी में कर ली लेकिन तुम्हारे साथ और नहीं रहना चाहती,’ ‘किट्टू से तुम्हें नहीं मिलने दूंगी…’ ऐसा ही और भी बहुतकुछ था.

किट्टू की तरफ देखते हुए धरा ने कहा, ‘‘मेरे पास कौल रिकौर्डिंग्स भी हैं. अगर तुम सुनना चाहो तो. तुम्हारे पापा कभी नहीं चाहते कि तुम अपनी मां के बारे में थोड़ा सा भी बुरा सोचो या सच जान कर तुम्हारा दिल दुखे. इसलिए आज तक उन्होंने तुम्हें सच नहीं बताया. लेकिन मैं उन्हें इस तरह और घुटता हुआ नहीं देख सकती. और हां, हम एकदूसरे से प्यार करते हैं, लेकिन हम ने कभी शादी नहीं की. जानते हो क्यों? क्योंकि तुम्हारे पापा को लगता था कि शादी करने पर तुम उन्हें और भी गलत समझोगे.  क्या अब भी तुम मेरे साथ कल देहरादून नहीं चलोगे?’’ यह कह कर धरा ने हौले से किट्टू के सिर पर हाथ फेरा.

ये भी पढ़ें- 19 दिन 19 कहानियां: वर्जिन-जब टूटा रोहित और अमला के सब्र का बांध

‘‘चलो, चल कर मम्मी को बोलते हैं कि पैकिंग कर दें,’’ किट्टू को जैसे अपनी ही आवाज अजनबी लगी.

जब धरा के साथ किट्टू घर पहुंचा तो सभी की आंखें फैल गईं. नानी की तरफ देखते हुए किट्टू ने अपनी मां से कहा, ‘‘मैं पापा के बर्थडे पर धरा के साथ 2-3 दिनों के लिए देहरादून जा रहा हूं, मेरी पैकिंग कर दो.’’

रोशनी और बाकी सब समझ गए थे कि किट्टू अभी किसी की नहीं सुनेगा. सुबह उसे लेने आने का बोल धरा होटल के लिए निकल गई. पूरे रास्ते धरा सोचती रही कि आगे न जाने क्या होगा, किट्टू न जाने कैसे रिऐक्ट करेगा. वह अंबर से कैसे मिलेगा और अब क्या सबकुछ ठीक होगा? सुबह दोनों देहरादून की फ्लाइट में थे. किट्टू ने धरा से कोई बात नहीं की.

अगली सुबह का सूरज अंबर के लिए दुनियाजहान की खुशियां ले कर आया. किट्टू को सामने देख एकबारगी तो किसी को यकीन ही नहीं हुआ और अगले ही पल अंबर ने अपने बेटे को गोद में उठा कर कुछ घुमाया. जैसे वह अभी भी 14 साल का नहीं, बल्कि उस का 4 साल का छोटा सा किट्टू हो. पूरे 9 साल बाद आज वह अपने बच्चे को अपने पास पा कर निहाल था और घर में सभी नम आंखों से बापबेटे के इस मिलन को देख रहे थे.

अंबर का इतने सालों का इंतजार आज पूरा हुआ था, अंबर के साथ आज धरा को भी अपना अधूरापन पूरा लग रहा था. शाम में किट्टू ने बर्थडे केक अपने हाथ से कटवाया था और सब से पहला टुकड़ा अंबर ने किट्टू के मुंह में रखा, तो एक बार फिर अंबर और किट्टू दोनों की आंखें नम हो गईं. तभी किट्टू ने अंबर की बगल में खड़ी धरा को अजीब नजरों से देखा तो वह वहां से जाने लगी. अचानक उसे किट्टू की आवाज सुनाई दी, ‘‘पापा, केक नहीं खिलाओगे धरा आंटी को?’’ और धरा भाग कर उन दोनों से लिपट गई.

अगली सुबह धरा जल्दी ही निकल गई थी. उस ने बताया था कि कोई जरूरी काम है बस जाते हुए 2 मिनट को किट्टू से मिलने आई थी. दोपहर में अंबर को धरा का मैसेज मिला, ‘तुम्हें तुम्हारा किट्टू मिल गया. मैं कल आखिरी बार तुम से उस जगह मिलना चाहती हूं जहां हम ने चांदनी रात में साथ जाने का सपना देखा था.’

अंबर जानता था धरा ने उसे जबलपुर में धुआंधार प्रपात के पास बुलाया है. उस ने पढ़ा था कि शरद पूर्णिमा की रात चांद की रोशनी में प्रकृति धुआंधार में अपना अलौकिक रूप दिखाती है. तब से उस का सपना था कि चांदनी रात में नर्मदा की सफेद दूधिया चट्टानों के बीच तारों की छांव में वह अंबर के साथ वहां हो. अगली शाम में जब अंबर भेड़ाघाट पहुंचा तो किट्टू भी साथ था. वहां उन्हें एक लोकल गाइड इंतजार करता मिला जिस ने बताया कि वह उन लोगों को धुआंधार तक छोड़ने के लिए आया है.

करीब 9 बजे जब अंबर वहां पहुंचा तो धरा दूर खड़ी दिखाई दी. चांद अपने पूरे रूप में खिल आया था और संगमरमर की चट्टानों के बीच धरा, यह प्रकृति,? सब उसे अद्भुत और सुरमई लग रहे थे. वह धरा के पास पहुंचा और उस का हाथ पकड़ कर बेचैनी से बोला, ‘‘मुझे छोड़ कर मत जाओ, धरा. मैं नहीं रह सकता तुम्हरे बिना. अब तो सब ठीक हो चुका है. देखो, किट्टू भी तुम से मिलने आया है.’’

धरा ने धीरे से अपना हाथ अंबर के हाथ से छुड़ाया, तो अंबर के चेहरे पर हताशा फैल गई. किट्टू ने धरा की तरफ देखा और दोनों शरारत से मुसकराए. दूर क्षितिज में आसमान के तारे और शहर की लाइट्स एकसाथ झिलमिला रही थीं. तभी धरा ने एक गुलाब निकाला और घुटने पर बैठ कर कहा, ‘‘मुझे भी अपने परिवार का हिस्सा बना लो, अम्बर. क्या अब से रोज सुबह मेरे हाथ की चाय पीना चाहोगे?’’

ये भी पढ़ें- सबक

खुशी और आंसुओं के बीच अंबर ने धरा को जोर से गले लगा लिया था और किट्टू अपने कैमरे से उन की फोटो खींच रहा था.

उन का इतने सालों का इंतजार आज खत्म हुआ था. अंबर के साथसाथ धरा का अधूरापन भी हमेशा के लिए पूरा हो गया था. आज उसे उस का वह क्षितिज मिल गया था जहां अतीत की गहरी परछाइयां वर्तमान का उजाला बन कर जगमगा रही थीं, वह क्षितिज जहां 10 साल के लंबे इंतजार के बाद अंबरधरा भी एक हो गए थे.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें