महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-4  

‘‘आगे क्या करने का विचार है, बेटी?’’ अचानक नील की मां ने चुप्पी तोड़ी.

‘‘जी,’’ दिया ने दृष्टि उठा कर नील की मां की ओर देखा तो उस की दृष्टि नील से जा टकराई. प्रश्न अनुत्तरित रह गया, उस ने अपनी दृष्टि फिर नीची कर ली. शायद नील की दृष्टि के सम्मोहन से बचने के लिए.

‘‘मैं पूछ रही थी आगे क्या करना चाहती हो, दिया?’’ नील की मां ने फिर प्रश्न चाशनी में लपेट कर उस के समक्ष परोस दिया था.

‘‘पत्रकारिता, जर्नलिज्म,’’ उस ने उत्तर दिया व होंठ दबा लिए.

‘ऐसे पूछ रही हैं जैसे मुझे दाखिला ही दिलवा देंगी,’ मन ही मन उस ने बड़बड़ की और एक आह सी ले कर फिर मां को ताका जो निरीह सी अपने पति से सटी बैठी थीं. छुरी तो उस की गरदन पर चलने वाली है और मां हैं कि सबकुछ देखसुन रही हैं. उसे मां से भी नाराजगी थी, बहुत नाराजगी. यह क्या व्यक्तित्व हुआ जो इतना शिक्षित, समझदार होने के बाद भी अपने अस्तित्व को बचा कर न रख सके. एक मां के साथ केवल उस का व्यक्तित्व ही नहीं, बच्चों का अस्तित्व भी जुड़ा रहता है.

‘‘दिया का सपना है कि वह एक दिन पत्रकारिता की दुनिया में अपना नाम कर सके. मीडिया से तो बहुत पहले से ही जुड़ी हुई है, अपने स्कूलटाइम से, इसीलिए मुझे भी लगता है कि इसे अपने कैरियर पर पहले ध्यान देना चाहिए,’’ न जाने कामिनी के मुख से कैसे ये शब्द फटाफट निकल गए. मानो कोई इंजन दौड़ा जा रहा हो. उस दौरान दिया की आंखों की चमक देखते ही बन रही थी. न सही अपने लिए, मां मेरे लिए बोलीं तो सही.

‘‘यस, आई वांट टू गो फौर जर्नलिज्म,’’ दिया ने एकदम जोर से कहा तो सब के चेहरे कामिनी की ओर से मुड़ कर दिया की तरफ हो गए.

‘‘कामिनी, ठीक है पर ये लोग कह रहे हैं कि दिया की पढ़ाई में जरा भी ढील नहीं होगी. सोचो, तुम्हारी बेटी औक्सफोर्ड से जर्नलिज्म करेगी,’’ यश उन्मुक्त गगन में स्वच्छंद विचरण करते पंछी की तरह उड़ान भर रहे थे. नील के सलीके व सुदर्शन व्यक्तित्व ने उन पर भी जादू कर दिया था.

दादी का चेहरा अपने अपमान से झुलसने लगा. उन के सामने इतने वर्षों में कभी भी मुंह न खोलने वाली कामिनी आज बाहर के लोगों के समक्ष…परंतु चालाक थीं, बात को संभालना जानती थीं. बनती हुई बात आखिर बिगड़ने कैसे देतीं? और उन का कन्यादान का सपना? वह तो अधर में ही लटक जाता. यह उन का अहं कभी बरदाश्त न कर पाता. घर में आई तो बेटी बेशक 2 पीढि़यों के बाद ही सही पर उन की ही कमी से? नहीं, वे ऐसा नहीं होने देंगी. उन्होंने वहीं बैठेबैठे पंडितजी की ओर दृष्टि से ही संकेत किया.

‘‘देखिए मांजी,’’ पंडितजी ने दिया की दादी से मुखातिब हो कर कहा, ‘‘अब आप ने हमें यहां बुलाया है तो किसी प्रयोजन से ही न. हम तो पहले ही इस कुंडली का मिलान कर चुके हैं. हम ने आज तक इतने बढि़या ग्रह नहीं देखे. क्या ग्रह हैं. मानो स्वयं रामसीता की कुंडली मेरे हाथ में आ गई हो.’’

पंडितजी बोल तो गए परंतु बाद में उन्होंने अपनी जबान मानो दांतों से काट ली. रामसीता यानी विरह?

नील की मां की आंखों में एक बार हलकी सी निराशा की झलक आई फिर उन्होंने स्वयं को कंट्रोल कर लिया. ‘‘जरा देखें तो सही कामिनीजी, कैसी सुंदर जोड़ी है. सच ही, रामसीता की सी जोड़ी,’’ नील की मां को कुछ तो कहना ही था. उन्होंने पंडित की बात दोहराई तब भी किसी का ध्यान रामसीता पर नहीं गया, मानो सब हां में नतमस्तक हो कर ही बैठे थे.

‘‘देखिए जजमान,’’ पंडितजी ने फिर अपनी नाक घुसाई, ‘‘या तो भगवान, पत्री, सितारों और भाग्य को मानिए नहीं और अगर मानते हैं तो पूरे मन से मानिए. यहां स्पष्ट रूप से सितारे बोल रहे हैं कि दोनों ही एकदूसरे के लिए बने हैं. जब भगवान

ही इन दोनों को जोड़ना चाहता है तो हम लोग हैं कौन उस की बात न मानने वाले. आप चाहें तो किसी और पंडित से बंचवा लें पत्री, मिलवा लें कुंडली.’’ कह कर पंडितजी अपनी पोथीपत्रा समेटने का नाटक करने लगे.

‘‘अरे, क्या बात कर रहे हैं, पंडितजी?’’ दिया की दादी ने उन्हें डपट कर बैठा दिया, ‘‘कितने सालों से हमारे यहां हो. पहले पिताजी आते थे तुम्हारे. अब क्या हम किसी और के पास मारेमारे फिरेंगे. बैठो यहीं पर शांति से,’’ अब किस का साहस कि दादीजी की बात टाल सके. सब मुंह बंद कर के बैठ गए.

‘‘हम ने तो आप को पहले ही नील की जन्मपत्री मंगवा दी थी. आप ने मिलवाई, उस के बाद ही हम ने इन को बुलवाया है. आप तो जानते हैं कि बारबार इतनी दूर से आना, वह भी काम छोड़ कर …’’ अब बिचौलिए से भी नहीं रहा गया.

‘‘देखो दिया बिटिया, तुम्हें नील से कुछ बातवात करनी हो तो…’’ आवाज में कुछ बेरुखी सी थी फिर तुरंत ही संभल कर बोलीं नील की मां, ‘‘मेरा मतलब था कि एक बार बात तो कर लो नील से. अब आजकल सब पढ़ेलिखे बच्चे होते हैं. अपना भलाबुरा समझते हैं. तुम एक बार बात करो नील से, फिर जो भी तुम्हारा डिसीजन हो…’’

‘‘जाओ बिटिया, अपना कमरा तो दिखाओ नील को,’’ दादी ने दिया को आज्ञा दी तो उसे उठना ही पड़ा. मां के इशारे से नील भी दिया के पीछेपीछे हो लिया था.

जिंदगी का पता ही नहीं चलता, अचानक किस मोड़ पर आ कर खड़ी हो जाती है कभीकभी. जिस दिया को विवाह करना ही नहीं था, जिस के सपने अभी अधर में झूमती पतंग की भांति जीवन के आकाश में लहलहा रहे थे, उसी दिया ने न जानेकिन कमजोर क्षणों में विवाह के लिए हामी भर ली. इतनी जल्दी में विवाह हुआ कि उसे स्वयं पर ही विश्वास करने में काफी कठिनाई हुई कि वाकई उसी का विवाह हुआ है. उस जैसी लड़की इतनी आसानी से हां कैसे कर सकती है? पर यह कोई सपना नहीं था, जीवन से जुड़ी एक ऐसी वास्तविकता थी जिस से बंध कर दिया को ताउम्र रहना था.

विवाह के बाद कुछ दिन तो दिया को अभी यहीं रहना था. नील लंदन जा कर प्रौसीजर पूरा करने पर ही दिया को ले जा सकता था. इस प्रकार दिया अपनी सपनीली आंखों का सुनहरा भविष्य संजोने लगी थी. दादी बड़ी प्रसन्न थीं कि वे अपने जीतेजी अपनी पोती का ब्याह देख पाई थीं बल्कि कहें कि इसलिए प्रसन्न थीं कि उन्होंने कन्यादान कर दिया था. दिया अपनी शादी से पहले इस शब्द (कन्यादान) से बहुत चिढ़ती थी. वह अकसर अपनी मां कामिनी से बहस करती, ‘‘यह क्या ममा, लड़की क्या इसलिए होती है कि उसे दान किया जाए? जैसे वह कोई व्यक्ति न हो कर कोई चीज हो. और उस चीज के साथ मानो पूरा घर ही उठा कर उस की झोली में डाल दिया जाता है. कैश, हीरे और सोने के आभूषणों के रूप में दहेज. क्या जरूरत है इन सब की?’’

मां तो क्या उत्तर दे पातीं, पहले ही दादी शुरू हो जातीं, ‘‘अरे बिटिया, जमाने की रीत है. लड़का न हो तो वंश कैसे चले और लड़की का कन्यादान न हो तो भला…ये सब तो तेरा हक है…’’ दादी बीच में रुक जातीं और कुछ समझ में न आता तो कहने लगतीं, ‘‘बिटिया, लड़की तो होती ही है दान के लिए. अब हमारे यहां 3 पीढि़यों से बिटिया नहीं हुई थी. तेरे दादाजी तो इतने निराश हो गए थे कि कुछ न पूछो. जब तू हुई तो उन का मुंह फूल सा खिल गया था और उन्हें लगने लगा कि वे भी अब कन्यादान कर सकेंगे. पंडितजी से कितनी पूजा करवाई थी, पूछ अपनी मां से,’’ दादी बड़े गर्व से बोली थीं, ‘‘क्या शानदार पार्टी दी थी.’’

‘‘तो बिटिया इसलिए पैदा की जाती है कि उसे बड़ा कर के किसी दूसरे को दान कर दें?’’ कह कर दिया चुप हो जाती.

दादी को दिया बहुत प्यारी थी परंतु उन्हें उस का इस प्रकार प्रश्न करना कभी नहीं भाया था. वे कभीकभी यशेंदु से कहतीं भी, ‘‘यश, बेटा ध्यान रखो. लड़की है, दूसरे के घर जाना है. बहुत सिर पर चढ़ा रहे हो.’’

यशेंदु चुप ही बने रहते. बड़ी मुश्किल से तो एक गुलाब सी बिटिया महकी थी घर में. उस पर अंकुश लगाना उन्हें बिलकुल पसंद न था. पर मां के सामने बोलती बंद ही रहती थी.

‘‘अच्छा दादी, तब आप के पंडित कहां थे जब गंधर्व विवाह हुआ करते थे. और हां, वैसे तो आप देवताओं को पूजते हो, राजाओं का गुणगान करते हो, पर ये नहीं देखते कि उन्होंने भी अपनी पसंद से गंधर्व विवाह किए थे, वह सब ठीक था, दादी? तब कौन करता था कन्यादान? और आप को पता है, दान शब्द तो तब भी था ही. कर्ण की दान परंपरा को आज तक लोग मानते हैं और कहते रहते हैं, ‘दानी हो तो कर्ण जैसा.’ पर उसी जमाने में द्रौपदी जैसी औरतें भी हुई हैं. दादी, कुछ लौजिक तो होगा ही न? अच्छा, अपने पंडितजी से पूछिएगा, वे जरूर इस पर कुछ प्रकाश डाल सकेंगे.’’

‘‘दिया बेटा, दादी से इस तरह बात नहीं करते. जो कुछ हुआ है या होता रहा है, दादी ने तुम्हें वे ही कहानियां तो सुनाई हैं,’’ यश अपनी बिटिया को समझाने का प्रयास करते.

‘‘ये लौजिकवौजिक तो मैं जानती नहीं, बस, यह पता है कि हमारे पुरखे भी यही सब करते रहे हैं और हमें भी अपनी परंपराओं में चलना चाहिए,’’ दादी कुछ नाराजगी प्रकट करतीं.

‘‘बेटा, लौजिक यह है कि लड़की इसलिए होनी चाहिए जिस से घर भराभरा रहे. लड़की तो एक चिडि़या की तरह होती है जो घरभर में चींचीं करती हुई घूमती रहती है. अगर लड़की न हो तो मां और दादी लड़कों को कैसे सजाएंगी? कैसे उन के लिए शृंगार की चीजें बनेंगी? लड़की घर की रोशनी होती है, घर की आत्मा होती है. सो लड़की के बिना घर सूना रहता है. वहीं, पहले से ही दुनियाभर में नियम है कि लड़की घर में नहीं खपती,’’ कामिनी उसे समझाने की चेष्टा करतीं.

‘‘खपती, मतलब?’’ दिया ने टोका.

‘‘बता रही हूं, चैन से सुनो तो सही. खपने का मतलब है लड़की को घर में नहीं रखा जा सकता.’’

‘‘यानी लड़का घर में जिंदगीभर रह सकता है, लड़की बोझ बन जाती है?’’

‘‘नहीं पगली, बोझ नहीं. दरअसल, लड़की की सभी जरूरतें पूरी हो सकें इसलिए हमारे समाज ने उसे एक परंपरा या स्ट्रक्चर का रूप दे दिया है ताकि लड़की की शादी कर के उसे दूसरे कुल में भेज दिया जाए. सब को एक साथी की जरूरत होती है न? गंधर्व विवाह में भी तो कन्या अपने पति के साथ उस के घर जाती थी न? अपने पिता के घर तो नहीं रहती थी,’’ ऐसे मामलों में कामिनी अपनी बेटी को समझाने में पूरी जान लगा देती थी.

‘‘अरे ममा, मैं शादी की बात ही कहां कर रही हूं? मैं बात कर रही हूं दान की और ये पंडितजी बीच में कहां से घुस जाते हैं? इन्होंने यह दानवान बनाया होगा. आय एम श्योर.’’

‘‘अरे, पंडितजी को क्यों बीच में घसीट लाती है?’’ दादी बिगड़ कर बोलतीं, ‘‘पंडित न हो तो तुम्हें पत्रीपतरे कौन बांच कर देगा? कौन बताएगा यह समय शुभ और यह अशुभ है?’’

‘‘ओह दादी, जरूरत ही कहां है शुभ और अशुभ समय पूछने की? भगवान, जो आप ही तो कहती हैं, हम सब में है…’’

‘‘हां, तो झूठ कहती हूं क्या मैं…’’ दादी बिफरतीं.

‘‘मैं कहां कह रही हूं कि आप झूठ कहती हैं. मेरा मतलब यह है कि जब हम सब में वही है तब उन का कहना न मान कर इन पंडितों के चक्कर में क्यों पड़ती हैं?’’

‘‘अच्छा, तो वे तुझे साक्षात दर्शन देंगे क्या? कोई तो चाहिए रास्ता सुझाने वाला. तुम कालेज जाती हो? पहले स्कूल जाती थीं. तुम्हें पढ़ाने वाले टीचर नहीं होते वहां? झक मारने जाती हो क्या?’’

‘‘पर वे टीचर अपने सब्जैक्ट के ऐक्सपर्ट होते हैं. आप के पंडितजी क ख ग तक तो जानते नहीं अपने सब्जैक्ट में और…’’

‘‘देख बेटा, मेरे जीतेजी तो पंडितजी का अपमान होगा नहीं इस घर में. मेरे मरने के बाद जैसे तुम लोगों को रहना है रह लेना,’’ दादी और नाराज हो उठतीं. कैसा जमाना आ गया है? वे अच्छी प्रकार जानती थीं कि उन की बहू कामिनी भी इन्हीं विचारों की है परंतु उन्हें इस बात का संतोष भी था कि उन की बहू ने उन के सामने तो कभी अपनी जबान खोली नहीं है अब इस नए जमाने की छोकरी को देखो, क्या पटरपटर बोलती है. भला जिस घर में ब्राह्मण का अपमान हो और वह घर पनप जाए? जिंदगीभर कुलपुरोहित ने उन्हें समयसमय पर सहारा दिया है, चेताया है, हर विघ्न की पूजा करवाई है.

मां जल्दी आना: भाग-4

एक पति अपनी पत्नी से अपने मातापिता की सेवा करवाना तो पसंद करता है परंतु सासससुर की सेवा करने में अपनी हेठी समझता है. समाज की इस दोहरी मानसिकता से अमन भी अछूता नहीं था. यदि वह चाहता तो मां के साथ भलीभांति तालमेल बैठा कर नित नई उत्पन्न होने वाली समस्याओं को काफी हद तक कम कर सकता था. यों भी हम दोनों मिल कर अब तक के जीवन में आई प्रत्येक समस्या का सामना करते ही आए थे परंतु जब से मां आई हैं अमन ने उसे अकेला कर दिया. बीती यादों को सोचतेसोचते कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला.

सुबह बैड के बगल की खिड़की के झीने परदों से आती सूरज की मद्धिम

रोशनी और चिडि़यों की चहचहाहट से उस की नींद खुल गई. तभी अमन ने चाय की ट्रे के साथ कमरे में प्रवेश किया, ‘‘उठिए मैडम मेरे हाथों की चाय से अपने संडे का आगाज कीजिए.’’

‘‘ओह क्या बात है आज तो मेरा संडे बन गया,’’ मैं फ्रैश हो कर चाय का कप ले कर अमन के बगल में बैठ गई.

‘‘तो आज संडे का क्या प्लान है मैडम, मम्मी और अवनि भी आते ही होंगे.’’

‘‘मम्मा आज हम लोग वंडरेला पार्क चलेंगे फोर होल डे इंजौयमैंट. चलोगे न मम्मा और नानी भी हमारे साथ चलेंगी.’’ मां के साथ वाक करके  लौटी अवनि ने हमारी बातें सुन कर संडे का अपना प्लान बताया.

‘‘हांहां हम सब चलेंगे. चलो जल्दी से ब्रेकफास्ट कर के सब तैयार हो जाओ.’’ मेरे बोलने से पहले ही अमन ने घोषणा कर दी. पूरे दिन के इंजौयमैंट के बाद लेटनाइट जब घर लौटे तो सब थक कर चूर हो चुके थे सो नींद के आगोश में चले गए. मुझे लेटते ही वह दिन याद आ गया जब मां के आने के बाद एक दिन यूएस से अमन की मां ने फोन कर के बताया कि अगले हफ्ते वे इंडिया वापस आ रहीं हैं. 4 साल पहले अमन के पिता का एक बीमारी के चलते देहांत हो गया था. उस के बाद से उन की मां ने ही अपने दोनों बच्चों को पालपोस कर बड़ा किया. अमन 2 ही भाई बहन हैं जिन में दीदी की शादी एक एनआरआई से हुई तो वे विवाह के बाद से ही अमेरिका जा बसीं थी. पिछले दिनों उन की डिलीवरी के समय मम्मीजी वहां गई थीं और अब उन का वापसी का समय हो गया था सो आ रही थीं. दोनों बच्चे अपनी मां से बहुत अटैच्ड हैं. उस दिन मैं बैंक से वापस आई तो अमन का मुंह फूला हुआ था. जैसे ही मां सोसाइटी के मंदिर में गईं थी वे फट पड़े.

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‘‘अब बताओ मेरी मां कहां रहेंगी? क्या सोचेंगी वे कि मेरे बेटे के घर में तो मेरे लिए जगह तक नहीं है. आखिर इंडिया में है ही

कौन मेरे अलावा जो उन्हें पूछेगा. तुम्हारे तो

और भाईबहन भी हैं मैं तो एक ही हूं न मेरी मां के लिए.’’

‘‘अमन थोड़ी शांति तो रखो, आने दो मम्मीजी को सब हो जाएगा. मैं ने कहां मना किया है उन की जिम्मेदारी उठाने से पर अपनी मां की जिम्मेदारी भी है मेरे ऊपर. यह कह कर कि और भाईबहन उन्हें रखेंगे अपने पास मैं कैसे अकेला छोड़ दूं उन्हें. आखिर मेरा भी पालनपोषण उन्होंने ही किया है.’’

मेरी इतनी दलीलों में से एक भी शायद अमन को पसंद नहीं आई थी और वे अपने

फूले मुंह के साथ बैडरूम में जा कर टीवी देखने लगे थे. एक सप्ताह बाद जब सासू मां आईं तो मैं बहुत डरी हुई थी कि अब न जाने किन नई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा. यद्यपि मैं अपनी सास की समझदारी की शुरू से ही कायल रही हूं. परंतु मेरी मां को यहां देख कर उन की प्रतिक्रिया से तो अंजान ही थी.

मैं ने सासूमां के रहने का इंतजाम भी मां के कमरे में ही कर दिया था जो अमन को पसंद तो नहीं आया था परंतु 2 बैडरूम में फ्लैट में और कोई इंतजाम होना संभव भी नहीं था. मेरी मां की अपेक्षा सासू मां कुछ अधिक यंग, खुशमिजाज समझदार और सकारात्मक विचारधारा की थीं. मेरी भी उन से अच्छी पटती थी. इसीलिए तो उन के आने के दूसरे दिन अवसर देख कर अपनी सारी परेशानियां बयां करते हुए रो पड़ी थी मैं.

उन्होंने मुझे गले लगाया और बोलीं, ‘‘तू चिंता मत कर मैं कोई समाधान निकालती हूं. सब ठीक हो जाएगा.’’ उन की अपेक्षा मेरी मां का जीवन के प्रति उदासीन और नकारात्मक होना स्वाभाविक भी था क्योंकि पहले बेटे की चाह में बेटियों की कतार फिर बेटेबहू की उपेक्षा आखिर इंसान की सहने की भी सीमा होती है. परिस्थितियों ने उन्हें एकदम शांत, निरुत्साही बना दिया था. वहीं सासूमां के 2 बच्चे और दोनों ही वैल सैटल्ड.

दोचार दिन सब औब्जर्व करने के बाद उन्होंने अपने साथ मां को भी

मौर्निंग वाक पर ले जाना प्रारंभ कर दिया था. वापस आ कर दोनों एकसाथ पेपर पढ़ते हुए चाय पीतीं थी जिस से अमन और मुझे अपने पर्सनल काम करने का अवसर प्राप्त हो जाता था. दोनों किचन में आ कर मेड की मदद करतीं जिस से मेरा काम बहुत आसान हो जाता. जब तक मैं और अमन तैयार होते मां और सासूमां मेड के साथ मिल कर नाश्ता टेबल पर लगा लेते. हम चारों साथसाथ नाश्ता करते और औफिस के लिए निकल जाते. अपनी मां को यों खुश देख कर अमन भी खुश होते. कुल मिला कर सासूमां के आने से मेरी कई समस्याओं का अंत होने लगा था. सासूमां को देख कर मेरी मां भी पौजिटिव होने लगीं थी. एक दिन जब हम सुबह नाश्ता कर रहे थे तो सासूमां बोलीं, ‘‘विनीता आज से अवनि अपनी दादीनानी के साथ सोएगी. कितनी किस्मत वाली है कि दादीनानी दोनों का प्यार एक साथ लेगी क्यों अवनि.’’

‘‘हां मां, अब से मैं आप दोनों के नहीं बल्कि दादीनानी के बीच में सोऊंगी. उन्होंने मुझे रोज एक नई कहानी सुनाने का प्रौमिस किया है.’’ अवनि ने भी चहकते हुए कहा.

इस बात से अमन भी बहुत खुश थे क्योंकि उन्हें उन का पर्सनल स्पेस वापस जो मिल गया था. सासूमां के आने के बाद मैं ने भी चैन की सांस ली थी. और बैंक पर वापस ध्यान केंद्रित कर लिया था. अब 3 माह तक हमारे बीच रह कर सासूमां वापस कुछ दिनों के लिए दिल्ली चलीं गई थीं. पर इन 3 महीनों में उन्होंने मेरे लिए जो किया वह मैं ताउम्र नहीं भूल सकती. सच में इंसान अपनी सकारात्मक सोच और समझदारी से बड़ी से बड़ी समस्याओं को भी चुटकियों में हल कर सकता है जैसा कि मेरी सासूमां ने किया था. मां के मेरे साथ रहने पर भी उन्होंने खुशी व्यक्त करते हुए कहा था.

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‘‘जब मेरी बेटी मेरा ध्यान रख सकती है तो मेरी बहू अपनी मां का ध्यान क्यों नहीं रख सकती और मुझे फक्र है अपनी बहू पर कि अपने 3 अन्य भाईबहनों के होते हुए भी उस ने अपनी जिम्मेदारी को समझा और निभाया.’’ तभी तो उन के जाने के समय मैं फफकफफक कर रो पड़ी थी और उन के गले लग के बोली थी, ‘‘मां जल्दी आना.’’

ज़िंदगी-एक पहेली: भाग-12

निधि के पास मोबाइल तो था नहीं इसलिए निधि की अविरल से बात तभी हो पाती थी जब वह रेनु के घर जाती थी. पर ये भी हमेशा मुमकिन नहीं था.

वहीं दूसरी तरफ अविरल को अपनी पॉकेट मनी के लिए जितने भी पैसे अपने पापा से मिलते थे , वह सारा पैसा फोन पर ही खर्च कर देता था. वह घंटों रेनु  से बातें करता जिससे किसी तरह वह निधि के बारे में  बात कर पाये लेकिन रेनु  हमेशा ही निधि की बात करने से बचने लगी. लेकिन अविरल के पास और कोई भी जरिया नहीं था निधि के बारे में पता करने का, तो वह न चाहते हुए भी रेनु  से बात करता रहा.

1 दिन अविरल अपनी मौसी के घर आया हुआ था तब उसने दीप्ति को बात करते हुए सुना कि निधि की बर्थ-डे आ रही है और उसके मामा ने जन्मदिन के पहले ही गिफ्ट में मोबाइल फोन दिया है. अविरल अपनी किस्मत को कोस रहा था कि अभी तक उसने निधि को अपना नंबर तक नहीं बताया और रेनु  निधि का नंबर देगी नहीं.

अविरल से रहा नहीं गया . उसने एक दिन रेनु  को फोन करके बोला , “रेनु  निधि की बर्थडे है और मुझे उसे विश करना है”. पहले तो रेनु  ने नंबर देने से मना कर दिया और बोली कि निधि ने नंबर देने से मना किया है.

अविरल ने बोला कि,” मुझे केवल 1 बार विश करना है. नंबर तो मैं निकाल ही लूँगा भाभी के मोबाइल से लेकिन फिर मेरा तुम्हारा साथ खत्म. उसके बाद रेनु  ने उसे नंबर दे दिया और कॉल करने का समय बताते हुए बोला “1 बार ही कॉल करना”.

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अगले दिन  निधि का जन्मदिन था  तो अविरल सारी रात कागजों पर लिखता रहा कि उसे निधि से क्या बोलना है और पेजों को फाड़ता रहा. अविरल से अब समय कट नहीं रहा था. जैसे- तैसे सुबह हुई . बड़ी मुश्किल से 8 बजा. 8 बजते ही अविरल ने फोन किया तो निधि ने ही फोन उठाया. थोड़ी देर तक दोनों शांत रहे फिर अविरल ने उसे बर्थड़े विश किया. अविरल के मुंह से 1 भी शब्द नहीं निकला जबकि उसने पूरी रात बोलने कि तैयारी की थी. अविरल ने फिर निधि से कहा “निधि अब मैं रेनु  को फोन नहीं करूंगा” तो निधि ने कहा कि “ऐसा मत करना, अगर रेनु  और दीप्ति तुमसे गुस्सा हो गईं तो मुझे भी भूल जाना”. अविरल को कुछ समझ नहीं आया. थोड़ी देर बाद दोनों ने bye बोला और फोन रख दिया.

अविरल आज बहुत खुश था उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह जब चाहे निधि से बात कर सकता है.

2 दिनों बाद अविरल ने रेनु  को फोन किया और नॉर्मल बात करने लगा.  तब रेनु  ने बताया कि,” निधि बहुत ही हल्के दिमाग कि लड़की है और तुरंत ही किसी को भी पसंद कर लेती है. अभी कुछ दिन पहले ही 1 कज़िन  कि शादी में 1 लड़के के साथ खूब डांस कर रही थी. निधि के पापा ने भी उसे इस बात के लिए बहुत डांटा था”.

अविरल को बहुत बुरा लगा. उसने बात क्लियर करने के लिए निधि को फोन किया. फोन निधि कि मम्मी ने उठाया. अविरल ने फोन काट दिया. उसने कई बार फोन किया लेकिन फोन उसकी मम्मी ने ही उठाया. अविरल ने गुस्से में अपना हाथ ज़ोर से मेज़ पर मारा.

मेज़ पर 1 कील निकली हुई थी जिससे उसे खून बहने लगा. अविरल ने फिर फोन किया और फोन फिर से निधि कि मम्मी ने उठाया. अविरल बोला “नमस्ते चाची जी, मैं अविरल बोल रहा हूँ. थोड़ा निधि से बात करा दीजिये” तो उन्होने निधि को बुला दिया.

अविरल ने सारी बात निधि को बताई तो निधि बोली “अविरल सब झूठ है, तुम तो मुझे सिर्फ 7-8 महीने से पसंद करते हो लेकिन मैं तो तुम्हें दीप्ति दीदी की शादी से ही पसंद करने लगी थी लेकिन सोचती थी कि मैं गरीब हूँ, मुझे ऊंचे ख्वाब नहीं देखने चाहिए”. अविरल और निधि दोनों कि आँखों में आँसू आ गए.

तब निधि ने अविरल को बताया कि “मेरी मम्मी को सब कुछ पता है. वह ही मेरी अकेली दोस्त हैं और मैं उनसे कुछ नहीं छुपाती”.

अब अविरल की अक्सर ही निधि से बात होती रहती जिसका रेनु  और दीप्ति को कुछ पता नहीं था. बातों बातों में अविरल को पता चला कि रेनु  के मम्मी पापा निधि कि शादी में हेल्प करेंगे इसी वजह से निधि उन लोगों से अलग नहीं हो पा रही.

अब अविरल बहुत अच्छी तरह 1 बात जन चुका था कि अगर निधि कि फॅमिली राजी नहीं हुई तो निधि कभी मुझसे शादी नहीं करेगी चाहे जो कुछ भी हो जाए.

कुछ समय बाद अविरल का IIT pre का एक्जाम भी हो गया जो कि बहुत अच्छा गया. अविरल के दिन भी मिले जुले जाने लगे. निधि जब भी रेनु  के घर जाती तो अविरल के दिन केवल फोन देखते ही बीतते क्यूँ कि निधि इतनी ज्यादा पारिवारिक थी कि वह फोन करने से भी डरती थी.

अब अविरल का रिज़ल्ट भी आ चुका था. उसकी रैंक बहुत अच्छी आई थी. अविरल के पापा का सर आज फिर ऊंचा हो गया था. लेकिन अभी IIT का mains बाकी था जिसकी डेट भी आ चुकी थी. अविरल ज़ोरशोर से उसकी तैयारी में लग गया.

परीक्षा कि डेट आ चुकी थी. अविरल दिल्ली जाने कि तैयारी करने लगा. शाम को कुछ काम से वह बाइक लेकर मार्केट गया जहां उसका एक्सिडेंट हो गया और उसका दाहिना हाथ और पैर टूट गया. जब उसे होश आया तो वह फ्लाइट कि जगह हॉस्पिटल में था. अविरल ज़ोर ज़ोर से चिल्लाकर रोने लगा और एक्जाम देने कि जिद करने लगा, लेकिन कहते हैं न होनी को कौन टाल सकता है. अविरल का एक्जाम छूट गया. 2 महीने बाद अविरल ठीक होकर घर आया तो उसे लगा जैसे कि उसकी दुनिया लुट गई हो .

अविरल के पहले ही 3 साल बर्बाद हो चुके थे तो अब उसने एक इंजीन्यरिंग कॉलेज में दाखिला ले लिया जो दिल्ली के आउटर में ही था. अविरल ने दाखिला ले तो लिया था लेकिन वह बहुत उदास रहता था. कॉलेज में जाते साथ ही रैगिंग स्टार्ट हो गयी जिससे वह और परेशान रहने लगा लेकिन निधि से बात करके वह अपनी सारी परेशानी झट से भूल जाता. अविरल और निधि पूरी रात एक – दूसरे से बातें करते रहते.

अगर निधि कहीं चली जाती और कुछ दिन फोन नहीं करती तो अविरल पागल सा होने लगता. उसे निधि की लत सी लग गयी थी.

रेनु  भी अक्सर अविरल को फोन करती रहती. एक दिन अविरल ने दीप्ति से निधि के बारे में  बोला तो दीप्ति बोली “अवि ऐसा नहीं हो सकता”. अविरल ने कहा “भाभी मुझमे क्या कमी है” तो दीप्ति ने बताया कि “निधि तुम्हारे लायक नहीं है. अभी उसकी शादी की बात एक डॉक्टर से चल रही है निधि ने खुद मुझसे बोला था कि दीदी उससे मेरी शादी करा दो. अगर वो तुम्हें चाहती तो उससे शादी के बारे में न बोलती.तुम निधि को छोड़ो और कहो तो रेनु  से तुम्हारी शादी करा दूँ. वह तुम्हें पसंद भी करती है”.

अविरल ने तुरंत बोला ,“भाभी मैं ये तो नहीं जानता कि मेरी निधि से शादी हो पाएगी या नहीं लेकिन यह जरूर जनता हूँ कि अगर मेरी शादी होगी तो वह निधि से ही होगी”

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अब अविरल को समझ में आया कि रेनु  और दीप्ति क्यूँ उसे और निधि को अलग करना चाहती थी. अविरल ने सारी बात निधि को बताई तो निधि बोली कोई बात नहीं तुम किसी को पता मत होने देना कि हमारी बातें होती हैं. और ऐसे ही अंजान बनकर सभी से बातें करते रहना. निधि भी अपने आपको बहुत ही दबा हुआ महसूस करने लगी कि वह चाहकर भी रेनु  का घर नहीं छोड़ पा रहीं थी.

अगले भाग  में हम जानेंगे कि अविरल के साफ साफ मना करने पर रेनु  अविरल को पाने के लिए क्या करती है और अविरल कैसे सारी चीजों को हैंडल करके अपनी मंजिल को पाता है….

पितृद्वय: भाग-1

प्रत्यक्षत:सब सामान्य सा लगता था पर मुंबई की रातदिन की चहलपहल भी सुहास के मन का अकेलापन खत्म नहीं कर पाती थी. उसे गांव से यहां नौकरी के लिए आए 2 साल हो गए थे पर मन नहीं लग रहा था. वह था भी अंतर्मुखी. वीकैंड की किसी पार्टी में सहयोगियों के साथ गया भी, तो बोर हो गया. सब बैचलर्स अपनीअपनी गर्लफ्रैंड के साथ आते थे और खूब मस्ती करते थे पर उस का मन कुछ और ही चाहता था. शांत, सहृदय, इंटैलिजैंट सुहास को लोग पसंद भी करते थे. लड़कियां उसे पसंद करती थीं, उस का सम्मान करती थीं. वह था भी गुडलुकिंग, बहुत स्मार्ट, पर उस का मन स्वयं को बहुत अकेला पाता था. गांव में उस के मातापिता उस का अकेलापन देखते हुए उस के पीछे भी पड़े थे पर सुहास को किसी लड़की की चाह नहीं थी. लड़कियों के लिए उस के दिल में कभी वैसी भावनाएं जगी ही नहीं थीं कि वह विवाह के लिए तैयार होता.

सोसायटी के गार्डन में डिनर के बाद सुहास टहलने जरूर जाता था. वहां खेलते बच्चे उसे बहुत अच्छे लगते थे. वहीं एक दिन घूमतेटहलते किसी और बिल्डिंग में रहने वाले नितिन से उस की मुलाकात हो गई. नितिन बैंगलुरु से आया था और अपनी विवाहित बहन के घर रहता था. दोनों को ही एकदूसरे की कंपनी खूब भाई. महीनेभर के अंदर ही दोनों अच्छे दोस्त बन गए. दोनों को ही स्पष्ट समझ आ गया कि दोनों को ही शारीरिक और मानसिकरूप से एकदूसरे के जैसा ही साथी चाहिए था.

इस बार सुहास गांव गया तो उसे खुश देख कर उस के मातापिता बहुत खुश हुए. पूछ लिया, ‘‘बेटा, कोई लड़की पसंद आ गई क्या?’’

‘‘नहीं मां, एक दोस्त मिला है नितिन… मुझे वैसा ही साथी चाहिए था. मैं उस के साथ बहुत खुश हूं,’’ फिर झिझकते हुए सुहास ने आगे कहा, ‘‘किसी लड़की से शादी कर ही नहीं सकता मैं. मैं और नितिन एकदूसरे के साथ बहुत खुश हैं.’’

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सुहास के मातापिता को बहुत बड़ा झटका लगा कि यह क्या कह रहा है उन का बेटा. कहां वे हर लड़की को देख कर बहू के सपने देख रहे हैं, कहां बेटे को तो लड़की चाहिए ही नहीं. कोई लड़का ही उस का साथी है. यह क्या हो रहा है? सुहास के मातापिता गांव में जरूर रहते थे पर सेमसैक्स रिलेशन से अनजान नहीं थे. तीव्र क्रोध और गहन निराशा में वे सिर पकड़ कर बैठ गए. लोग क्या कहेंगे? उन का कितना मजाक उड़ेगा? एक ही बेटा है, वंश कैसे चलेगा?

सुहास को अपने मातापिता की मनोदशा पर दुख तो हुआ पर वह क्या कर सकता था? नितिन से रिश्ता उसे सुख देता है तो वह क्या करे? सुहास के मातापिता उस से इतने नाराज हुए कि उस के जाने तक उस से बात ही नहीं की. वह उदास सा मुंबई वापस चला आया. सुहास ने नितिन को अपने और उस के रिश्ते पर अपने मातापिता की प्रतिक्रिया बताई तो नितिन को दुख तो बहुत हुआ पर अब दोनों के हाथ में जैसे कुछ न था. वे आपस में खुश थे और ऐसे ही खुश रहना चाहते थे.

समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. नितिन की बहन नीला को सुहास और नितिन के रिश्ते के बारे में पता चल चुका था. उसे अच्छा तो नहीं लगा पर उस ने कुछ कहा भी नहीं. उस ने अपने मातापिता को बैंगलुरु फोन कर के बताया तो वे काफी नाराज हुए. नीला के पति सुजय ने भी सुन कर मजाक बनाया, ताने कसे.

एक दिन सुहास को औफिस से लौटने पर हरारत महसूस हो रही थी. नितिन के जोर देने पर वह डाक्टर को दिखाने गया. सोसायटी के शौपिंग कौंप्लैक्स में ही डाक्टर शैलेंद्र का क्लीनिक था. शैलेंद्र से उस की जानपहचान पहले से थी. उन्होंने दवा दी. एक फोन आने पर वे कुछ जल्दी में लगे तो शैलेंद्र से कारण पूछने पर उन्होंने सोरी बोलते हुए कहा, ‘‘बालनिकेतन जाना है. वहां 8 महीने का बच्चा 3-4 दिन से परेशान है. वहां मैं अपनी सेवाएं देता हूं. बच्चे के मातापिता की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. कुछ लोग उसे अनाथालय छोड़ गए हैं.’’

शैलेंद्र अपनी इस समाजसेवा के लिए बहुत प्रसिद्ध थे. सुहास घर वापस आ गया. 3 दिन बाद शैलेंद्र से उस की अचानक भेंट हुई. सुहास ने बच्चे के बारे में पूछा तो वे बोले, ‘‘छोटी सी जान संभल ही नहीं पा रही है.’’

सुहास के मन में बड़ी दया जगी. पूछा, ‘‘मैं उस के लिए कुछ कर सकता हूं? उस से मिल सकता हूं?’’

‘‘क्यों नहीं, वहां चले जाना… मैं वहां फोन कर दूंगा.’’

अगले दिन सुहास औफिस से सीधे ‘बालनिकेतन’ पहुंच गया. शैलेंद्र वहां फोन कर चुके थे. सुहास ने वहां के मैनेजर राघव से मिल कर बच्चे को देखने की इच्छा प्रकट की. कहा, ‘‘मुझे बच्चे बहुत अच्छे लगते हैं. इस बच्चे के बारे में पता चला तो यों ही देखने चला आया.’’

राघव उसे एक कमरे में ले गया. एक कोने में एक बैड पर बच्चा सो रहा था.

गोल सा गोरा, मासूम, चेहरा लाल था. देखते ही सुहास के दिल में स्नेह सा उमड़ा. जरा सा बच्चा, कैसे जीएगा… सुहास ने इधरउधर नजर दौड़ाई. बाकी बच्चों के साथ वहां के कर्मचारी महिलापुरुष कुछ न कुछ कर रहे थे. सब से छोटा बच्चा यही था. सुहास ने उस के माथे को हलका सा छूते हुए कहा, ‘‘इसे अभी भी बुखार है?’’

राघव ने ‘हां’ में सिर हिलाया. बच्चा जाग कर कुनमुनाने लगा. रोना शुरू किया तो सुहास ने उसे गोद में उठा लिया. सरल हृदय सुहास उसे कंधे से लगा कर थपथपाने लगा. बच्चा चुप हो गया. ममता और स्नेह से मन भर गया सुहास का. थोड़ी देर बच्चे को सीने से लगाए खड़ा कुछ सोचता रहा. लिटाया तो बच्चा फिर रोने लगा.

राघव ने किसी को आवाज दी, ‘‘अरे मोहन, बच्चे को देखो, मैं अभी आता हूं.’’

राघव सुहास को ले कर अपने औफिस में आ गया. थोड़ी देर बाद सुहास घर लौट आया, पर उस का मन वहीं उस बच्चे में अटक कर रह गया था.

नितिन उस से मिलने आया तो उसे गंभीर, उदास देख कारण पूछा.

तब सुहास ने बताया, ‘‘बालनिकेतन से आ रहा हूं.’’

‘‘क्यों?’’ नितिन चौंका तो सुहास ने उसे पूरी बात बताई. फिर दोनों काफी देर तक इस विषय पर बात करते रहे. नितिन को भी बच्चे के बारे में सुन कर दुख हुआ.

अगले दिन भी सुहास शाम को बालनिकेतन चला गया. राघव उस से प्रसन्नतापूर्वक मिला. सुहास ने पूछा, ‘‘वह बच्चा कैसा है?’’

‘‘आज बुखार हलका था.’’

‘‘राघवजी एक जरूरी बात करने आया हूं.’’

‘‘हां, कहिए न.’’

‘‘मैं उसे गोद लेना चाहता हूं.’’

राघव बुरी तरह चौंका, ‘‘क्या?’’

‘‘जी, बताइए मुझे क्या करना होगा?’’

‘‘पर आप तो अनमैरिड हैं न?’’

‘‘हां, उस से क्या फर्क पड़ता है?’’

‘‘पर जब आप किसी लड़की से शादी करेंगे…’’

सुहास बीच में ही बोल पड़ा, ‘‘नहीं, राघवजी. मैं किसी लड़की से शादी नहीं करूंगा.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मेरा साथी मेरे ही जैसा है नितिन.’’

‘‘ओह,’’ सारी बात समझते हुए राघव गंभीर हो गया, पूछा, ‘‘आप के घर में कौनकौन हैं?’’

‘‘मैं यहां अकेला रहता हूं… पेरैंट्स गांव में रहते हैं.’’

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‘‘यह इतना आसान नहीं होता है… आप जब औफिस जाएंगे, तो बच्चे की देखभाल कौन करेगा?’’

‘‘मैं भरोसे की आया ढूंढ़ लूंगा. आप और डाक्टर शैलेंद्र, जब चाहें आ कर देख सकते हैं कि बच्चे की देखभाल ठीक से हो रही है या नहीं.’’

‘‘पर कानूनन बहुत कुछ करना होगा. इस केस में काफी मुद्दे होंगे.’’

‘‘मैं सब देख लूंगा. बस, आप मुझे बता दें क्याक्या करना है. मेरे कुलीग के भाई वकील हैं. मैं उन से सलाह ले लूंगा.’’

‘‘आप अच्छी तरह सोच लें कुछ दिन.’’

‘‘मैं आप से वीकैंड. मिलने आऊंगा. एक बार उस बच्चे को देख लूं?’’

राघव मुसकरा दिया, ‘‘हां, जरूर.’’

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महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-16

 अब तक की कथा :

ईश्वरानंद से मिल कर दिया को अच्छा नहीं लगा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि धर्मानंद क्यों ईश्वरानंद का आदेश टाल नहीं पाता. ईश्वरानंद कोई सामूहिक गृहशांति यज्ञ करवा रहे थे. उसे फिर धर्मानंद के साथ उस यज्ञ में शामिल होने का आदेश मिलता है. बिना कोई विरोध किए दिया वहां चली गई. उस पूजापाठ के बनावटी माहौल में दिया का मन घुट रहा था परंतु धर्मानंद ने उसे बताया कि प्रसाद ग्रहण किए बिना वहां से निकलना संभव नहीं. वह दिया की मनोस्थिति समझ रहा था. अब आगे…

दिया बेचैन हुई जा रही थी.  जैसेतैसे कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा हुई और भीड़ महाप्रसाद लेने के लिए दूसरी ओर लौन में सजी मेजों की ओर बढ़ने लगी. अचानक एक स्त्री ने आ कर धीरे से धर्मानंद के कान में कुछ कहा.

धर्मानंद अनमने से हो गए, ‘‘देर हो रही है.’’

‘‘लेकिन गुरुजी ने आप को अभी बुलाया है. आप के साथ में कोई दिया है, उसे भी बुलाया है.’’

एक प्रकार से आदेश दे कर वह स्त्री वहां से खिसक गई. दिया ने भी सब बातें सुन ली थीं. कहांकहां फंस जाती है वह. नहीं, उसे नहीं जाना.

‘‘आप हो कर आइए. मैं खाना खाती हूं.’’

‘‘दिया, प्लीज अभी तो चलिए. नहीं तो गड़बड़ हो जाएगी.’’

‘‘मैं कोई बंदी हूं उन की जो उन का और्डर मानना जरूरी है?’’ दिया की आवाज तीखी होने लगी तो धर्मानंद ने उसे समझाने की चेष्टा की.

‘‘मैं जानता हूं तुम उन की बंदी नहीं हो पर तुम नील और उस की मां की कैदी हो. वैसे मैं भी यहां एक तरह से कैद ही हूं. इस समय मैं जैसा कह रहा हूं वैसा करो दिया, प्लीज. हम दोनों ही मिल कर इस समस्या का हल ढूंढ़ेंगे.’’

धर्मानंद दिया का हाथ पकड़ कर पंडाल के अंदर ही अंदर 2-3 लौन क्रौस कर के दिया धर्मानंद के साथ गैराजनुमा हाल में पहुंची.

धर्मानंद ने एक दीवार पर लगी हुई एक बड़ी सी पेंटिंग के पास एक हाथ से उस सुनहरी सी बड़ी कील को घुमाया जिस पर पेंटिंग लगी हुई थी. अचानक बिना किसी आवाज के पेंटिंग दरवाजे में तबदील हो गई और धर्मानंद उस का हाथ पकड़े हुए उस दरवाजे में कैद हो गया. अंदर घुसते ही पेंटिंग बिना कुछ किए बिना आवाज के अपनेआप फिर से पहली पोजीशन पर चिपक सी गई. सामने ही ईश्वरानंदजी का विशाल विश्रामकक्ष था. ईश्वरानंदजी गाव तकिए के सहारे सुंदर से दीवान पर लेटे हुए थे, उन के सिरहाने एक स्त्री बैठी थी जो उन का सिर दबा रही थी तो एक उन के पैरों की ओर बैठी पैरों की मालिश कर रही थी.

‘‘आओ, धर्मानंद, आओ दिया, क्या बात है, आज देर कैसे हो गई? काफी देर से पहुंचे आप लोग? और हम से क्या मिले बिना जाने का प्रोग्राम था?’’दिया ने देखा दोनों स्त्रियां किसी मशीन की भांति चुपचाप माथे और पैरों की मालिश कर रही थीं.

‘‘अरे भई, जरा धर्मानंद और दिया को एकएक पैग तो बना कर दो. अभी तक खड़े हो दोनों, बैठो.’’

चुपचाप दोनों सामने वाले सोफे पर बैठ गए. दिया का दिल धकधक करने लगा. अब क्या प्रसाद के नाम पर पैग भी. नहीं, उस ने धर्मानंद का हाथ फिर से कस कर दबा दिया.अचानक न जाने किधर से उस दिन वाली अंगरेज स्त्री आ कर खड़ी हो गई और मुसकराते हुए पैग तैयार करने लगी.

‘‘हैलो धर्मानंद, हाय दिया,’’ उस ने दोनों को विश किया.

‘‘प्लीज रहने दें, हम तो बस महाप्रसाद लेने ही जा रहे थे,’’ धर्मानंद ने मना किया.

‘‘ऐसे कैसे चलेगा, धर्म, तुम्हें होता क्या जा रहा है? एकएक पैग लो यार. सिर फटा जा रहा है. सुबह से ये सब विधि करवाते हुए पूरे बदन में दर्द हो रहा है. दो, दिया को भी दो, धर्म को भी,’’ ईश्वरानंद ने फिर आदेश दिया.

‘‘गुरुजी, इस समय रहने दें और दिया तो लेती ही नहीं है.’’

‘‘अरे, लेती नहीं है तो क्या, आज ले लेगी, गुरुजी के साथ.’’

‘‘यहां आओ, दिया. उस दिन भी तुम से कुछ बात नहीं हो सकी,’’ ईश्वरानंद ने उसे अपने पास दीवान पर बैठने का इशारा किया.

दिया मानो सोफे के अंदर धंस जाएगी, इस प्रकार चिपक कर बैठी रही.

‘‘मैं किसी को खा नहीं जाता, दिया. देखो ये सब, कितने सालों से मेरे साथ हैं. आज तक तो किसी को कुछ नुकसान पहुंचाया नहीं है. डरती क्यों हो?’’

‘‘लाओ, बनाओ एकएक पैग और जाओ तुम लोग भी प्रसाद ले लो, फिर यहां आ जाना.’’

गुरुजी के आदेश पर दोनों स्त्रियां ऐसे उठ खड़ी हुईं मानो किसी ने उन का कोई स्विच दबा दिया हो, रोबोट की तरह. हाय, क्या है ये सब? मानो किसी ने हिप्नोटाइज कर रखा हो. दिया ने सुना हुआ था कि ऐसे लोग भी होते हैं जो आंखों में आंखेंडाल कर अपने वश में कर लेते थे. सो, दिया ईश्वरानंद से आंखें नहीं मिला रही थी. सब के सामने पैग घूम गए. सब से पहले ईश्वरानंद ने लिया, चीयर्स कह कर गिलास ऊपर की ओर उठाया, एक लंबा सा घूंट भर लिया और धर्मानंद को लेने का इशारा किया.

‘‘प्लीज, नो,’’ दिया जोर से बोली.

धर्मानंद का उठा हुआ हाथ वहीं पर रुक गया और ईश्वरानंद भी चौंक कर दिया को देखने लगे.

‘‘प्लीज, चलो धर्मानंद, आय एम वैरी मच अनकंफर्टेबल,’’ उस के मुंह से अचानक निकल गया.

‘‘क्यों घबरा रही हो, दिया? एक पैग लो तो सही, सब डर निकल जाएगा. लो,’’ ईश्वरानंद अपने स्थान से उठ कर दिया की ओर बढ़े तो दिया धर्मानंद के पीछे छिप गई.

‘‘गुरुदेव, दिया के लिए यह सब बिलकुल अलग है, नया. प्लीज, अभी रहने दें. बाद में जब यह कंफर्टेबल हो जाएगी…’’ धर्मानंद ने ईश्वरानंद की ओर अपनी एक आंख दबा दी.

ईश्वरानंद उस का इशारा समझ कर फिर से जा कर धप्प से अपने स्थान पर विराजमान हो गए. उन के चेहरे से लग रहा था कि वे दिया व धर्म के व्यवहार से क्षुब्ध हो उठे हैं. परंतु लाचारी थी. जबरदस्ती करने से बात बिगड़ सकती थी और वे बात बिगाड़ना नहीं चाहते थे.

‘‘दिया इतनी होशियार है, मैं तो कहता हूं कि यह अगर अपना हुलिया थोड़ा सा बदलने के लिए तैयार हो तो मैं इसे अच्छी तरह से ट्रेंड कर दूंगा और फिर देखना लोगों की लाइन लग जाएगी, इस के प्रवचन सुनने और इस के दर्शनों के लिए.

‘‘दिया, तुम्हारी पर्सनैलिटी में तो जादू है जो तुम नहीं जानतीं, मैं समझता हूं. तुम्हारे लिए सबकुछ नया है पर शुरू में तो सब के लिए नया ही होता है न?’’ ईश्वरानंद प्रयत्न करना नहीं छोड़ रहा था.

‘‘गुरुजी, आज दिया को जरा घुमा लाता हूं. बेचारी घर के अंदर रह कर बोर हो जाती है. आज आप भी थके हुए हैं. मैं फिर कभी इसेले कर आऊंगा.’’

‘‘ठीक है पर प्रसाद जरूर ले कर जाना. उस के साथ आने वाले दिनों के कार्यक्रम की लिस्ट भी मिलेगी.’’

बाहर जाने वाले लोगों के हाथ पर एक मुहर लगाई जा रही थी. उन लोगों के हाथों पर भी मुहर लगाई गई. जब वे अपना जमा किया हुआ सामान लेने पहुंचे तो उन्हें उन का सामान तभी दिया गया जब उन्होंने अपने हाथ दरबानों को दिखाए. साथही एक लिस्ट भी दी गई जिस पर ईश्वरानंदजी द्वारा संयोजित होने वाले कार्यक्रमों का विवरण था और ‘परमानंद सहज अनुभूति’ के सदस्यों का उन कार्यक्रमों में उपस्थित होना अनिवार्य था.शाम के 3:30 बजे थे. धर्मानंद ने गाड़ी निकाली और बाहर निकल कर दिया चारों ओर देख कर लंबीलंबी सांसें ले रही थी. घुटन से निकल मुक्त वातावरण में वह अपने फेफड़ों के भीतर पवित्र, शुद्ध, सात्विक सांसें भर लेना चाहती थी.  गार्डन पहुंच कर दोनों गाड़ी से उतरे. लौन पर बैठते ही सब से पहले दिया ने अपना पर्स  खोला. मोबाइल देखा, कितने सारे मिसकौल्स थे.

‘‘देखिए धर्म, इस में नील की मां के भी कई मिसकौल्स हैं,’’ दिया ने धर्मानंद की ओर मोबाइल बढ़ा दिया.

‘‘अरे, मैं भूल गया दियाजी, उन्होंने कहा था न कि पूजा खत्म होते ही मुझे रिंग दे देना. मैं अभी उन्हें कौल करता हूं.’’

‘‘क्या जरूरत है, धर्म?’’

‘‘जरूरत है, दिया. इन लोगों से ऐसे छुटकारा नहीं मिल सकता. इन्हें शीशे में उतारने के बाद ही कुछ हो सकेगा.’’

आगे पढ़ें- उस ने नील की मां को फोन किया और…

पितृद्वय: भाग-2

सुहास बच्चे के पास चला गया. इस समय बच्चा बैठा हुआ किसी खिलौने में उलझा था. सुहास ने मुंह से सीटी बजाई तो बच्चे ने उसे देखा और फिर मुसकरा दिया. सुहास ने सीटी बजाते हुए बच्चे को गोद में उठा लिया. सुहास के होंठों पर हाथ रख कर बच्चा मुंह से आवाजें निकालने लगा. साफ समझ आ रहा था कि सुहास को सीटी बजाने के लिए कह रहा है. सुहास ने सीटी बजाई तो बच्चा खिलखिलाने लगा.

यह मजेदार क्रम शुरू हो गया. जैसे ही सुहास रुकता बच्चा उस से सीटी बजाने के लिए उस के होंठों पर हाथ रख देता. राघव और वहां मौजूद कर्मचारी इस खेल पर हंस रहे थे. थोड़ी देर बाद सुहास ने बच्चे को वहां खड़ी एक महिला को दिया तो बच्चा रोने लगा.

सुहास को उस पर बड़ी ममता उमड़ी. राघव से कहा, ‘‘मैं इसे जल्दी ले जाऊंगा. मुझे तो ऐसा लग रहा है जैसे यह मेरा ही अंश है. अरे हां, मैं इस का नाम अंश ही रखूंगा.’’

राघव मुसकरा दिया. राघव ने वहां से निकलते ही अपने सहयोगी प्रकाश को फोन पर पूरी बात बताई. प्रकाश ने अपने बड़े भाई वकील आलोक का फोन नंबर देते हुए कहा, ‘‘औल द बैस्ट. अंश को संभाल पाओगे?’’

‘‘हां, मैं सब मैनेज कर लूंगा.’’

नितिन सारी बात सुन कर बहुत खुश हुआ. पूछ लिया, ‘‘सुहास, मैं तुम्हारे साथ ही शिफ्ट हो जाऊं? हम सब शेयर करते रहेंगे.’’

‘‘हां, बिलकुल, अपना सामान ले आओ.’’

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वीकैंड तक नितिन अपना सामान ले कर सुहास के पास ही आ गया. आतेजाते अपने फ्लैट के नीचे वाले फ्लैट में रहने वाले दंपती राजीव और सुमन से सुहास की अच्छी जानपहचान हो गई थी. सुहास ने शाम को उन्हीं की डोरबैल  बजा दी. फिर एक अच्छी मेड के बारे में पूछताछ की. बात तय हो गई. सुहास ने उन्हीं के यहां काम करने वाली मंजू को कुछ समय बाद काम पर आने के लिए कह दिया. फिर उस ने आलोक से बात कर के मिलने का समय मांगा. मिलने पर आलोक ने कई कानूनी मशवरे देते हुए उस की इस इच्छा में पूर्णतया सहयोग का वादा किया.

सिंगल पेरैंट के रूप में बच्चा गोद लेने में बहुत समय लगने वाला था पर आलोक की सलाह पर जल्दी इस केस में पेपर्स तैयार होने शुरू हो गए. सुहास जल्दीजल्दी बालनिकेतन के चक्कर काटता रहता था. अंश के साथ समय बिता कर उस के दिल को बड़ा चैन मिलता. कुछ दिनों पहले मन में बसा अकेलापन खत्म हो चुका था. अब नितिन का साथ था, अंश की बातें थीं… जीवन को जैसे एक उद्देश्य मिल गया था.

सुहास और नितिन फोन पर अपने घर वालों के संपर्क में थे. कभीकभी अपनेअपने घर भी जाते. हर बार उन के व्यंग्यबाणों से आहत हो कर लौटते. धीरेधीरे उन का घर जाना कम होता जा रहा था.

दोनों ही अपनेअपने परिवार को घर के खर्चों के लिए अच्छीखासी रकम भी भेजते

पर अपने हर कर्तव्य को पूरा करने वाले 2 दोस्तों को अपनी मरजी से, अपनी इच्छा से जीने का हक नहीं था. अपनी पर्सनल लाइफ अपनों के द्वारा ही नकारे जाने का उन दोनों के दिलों में बड़ा दुख था.

सुहास राघव के लगातार संपर्क में था. पेपर्स की प्रोग्रैस से उसे अवगत कराता रहता था. सब औपचारिकताएं पूरी होने में कुछ समय तो लगा ही. सुहास और नितिन जिस दिन अंश को अपने घर लाए उन्होंने राघव, प्रकाश, आलोक, राजीव और सुमन वे कुछ खास सहयोगियों को एक छोटी सी पार्टी के लिए बुलाया. नीला नाराज थी. नहीं आई. अंश प्यारा बच्चा था. देखने वाले के दिल में उसे देखते ही उस के लिए स्नेह उमड़ता था.

आया मंजू ने भी काम पर आना शुरू कर दिया था. जितनी देर सुहास और नितिन औफिस में रहते, मंजू अंश का बहुत अच्छी तरह ध्यान रखती. सुहास, नितिन और अंश जैसे एकदूसरे के लिए ही बने थे. तीनों की एक अलग दुनिया थी. सुहास घर में जैसे ही सीटी बजाते हुए घुसता, उस की गोद में आने के लिए अंश की बेचैनी देख सब हंसते. अंश का कमरा बच्चे के हिसाब से तैयार किया जाता था. कभी उस के साथ सुहास सोता, तो कभी नितिन.

पर जैसाकि समाज है, लोग उन की पीठ पीछे उन का खूब मजाक उड़ाते. औफिस में कुछ लोग नितिन और सुहास की जोड़ी पर कहते, ‘‘इस में बुरा क्या है, सब को अपनी इच्छा से जीने का हक है. किसी लड़की को नहीं छेड़ रहे, किसी को कुछ नहीं कह रहे हैं… एक अनाथ बच्चे का जीवन भी संवार दिया. उन्हें अपनी दुनिया में खुश रहने दो, भाइयो.’’

वहीं कुछ लोग बहुत मजाक उड़ाते. ऐसा नहीं था कि सुहास और नितिन तक ये बातें नहीं पहुंचती थीं. कुछ लड़कियां उन दोनों की बहुत अच्छी दोस्त थीं, हर समय उन के किसी भी काम आने के लिए तैयार.

अंश के बारे में सुन कर दोनों के परिवार वाले बहुत नाराज हुए थे. सुहास के पिता ने कहा, ‘‘खूब मजाक उड़वाओ. हमारा भी, अपना भी… हमारी इज्जत मिट्टी में मिला दी है. तुम पर शर्म आती है.’’

सुहास की मां भी सिर पकड़ कर बैठ गईं बोलीं, ‘‘सुहास, तुम ने तो हमें कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. लोगों को क्या कहें कि हमारी बहू लड़का है, छि:… छि:…’’

नितिन के घर वालों की भी यही प्रतिक्रिया थी.

दोनों दोस्त सामाजिक प्रताड़ना सहते हुए अंश के साथ जीए जा रहे थे. मंजू स्नेहिल स्वभाव की महिला थी. उसे इन दोनों लड़कों का निश्छल स्वभाव, व्यवहार खूब पसंद था. वह भी दोनों का रिश्ता अच्छी तरह समझती थी. अल्पशिक्षिता होते हुए भी 2 लड़कों का एक अनाथ बच्चे को गोद लेना, उसे प्यार देना, उस के लिए बहुत बड़ी बात थी. ऐसा तो उस ने कहीं देखा ही नहीं था. वह तो सोसायटी के उच्चवर्ग के कई परिवारों में काम कर चुकी थी जहां उस ने पतिपत्नी के दिनरात के झगड़े भी देखे थे, उन के बच्चों को खूब गलत रास्ते पर जाते हुए भी देखा था. वहीं ये 2 लड़के एक बच्चे की अच्छी परवरिश करने में अपना समय बिता रहे थे.

जैसेजैसे अंश बड़ा हो रहा था, दोनों की चिंताएं अलग रूप में सामने आ

रही थीं. एक दिन सुहास ने नितिन को गंभीर देख कारण पूछा तो ठंडी सांस लेते हुए नितिन ने कहा, ‘‘यार, अभी अंश स्कूल जाएगा, वहां उस की मां के बारे में पूछा जाएगा. बच्चे 100 तरह की बात करेंगे, कहीं उसे बुली न किया जाए. 2 गे लोगों ने उसे पालापोसा है, कहीं लोगों का मजाक उस का दिल न दुखाए. आजकल मुझे इस बात की बड़ी चिंता रहती है.’’

सुहास का भी चेहरा उतर गया, ‘‘हां, ये सब बातें मेरे दिल में भी आती हैं. अंश तो हमारी जान है, हम उसे कभी दुखी नहीं देख पाएंगे. कहीं उसे कभी हम से चिढ़ न हो जाए,’’ कहतेकहते सुहास का गला भर्रा गया.

अंश स्कूल जाने लगा. खूब अच्छी आदतें, प्यारी बातें, कोमल, हंसमुख सा चेहरा, बरबस ही लोगों का ध्यान आकर्षित कर लेता. पहली पेरैंट्सटीचर्स मीटिंग में दोनों ही अंश को ले कर अतिउत्साहित से पहुंचे. टीचर गीता को सुहास ने सब स्पष्ट बता दिया. आधुनिक सोच की गीता दोनों से मिल कर बहुत खुश हुई. उस ने अंश की पढ़ाई में अपना पूरा सहयोग देने का वादा किया.

अंश जब तक बच्चा था, कई बातों से अनजान था पर जैसेजैसे बड़ा हो रहा था, मां, नानानानी, दादादादी के बारे में बहुत सवाल पूछता. उस की बातों के जवाब देने में दोनों को कभी हंसी आ जाती, तो कभी पसीना छूट जाता. अनुभवी मंजू जब अंश का ध्यान किसी और बात में लगा कर उन दोनों की जान छुड़ाती तो तीनों हंस पड़ते. अंश की हैल्थ का ध्यान पूरी तरह से रखा जाता. अब वह बच्चों के साथ खेलने भी जाने लगा था.

सुहास और नितिन अपने मातापिता से फोन पर बात करते थे पर दोनों को ही अब तक डांट पड़ती थी. फोन रखते हुए दोनों ही कहते, ‘‘अब तक सब नाराज हैं, क्या इंसान को अपनी पसंद से जीने का हक भी नहीं? हम किसी के साथ क्या बुरा कर रहे हैं?’’

जैसेजैसे अंश बड़ा हो रहा था, उस का व्यक्तित्व भी निखरता जा रहा था. कौन्फिडैंट था, अपने कई काम खुद करने लगा था. समाज ने ही उसे समझा दिया था कि सुहास और नितिन की क्या स्थिति है, क्या रिश्ता है.

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नितिन और सुहास की प्रमोशन हो गई तो दोनों ने उसी बिल्डिंग में एक फ्लैट खरीद लिया. अंश अब 8वीं क्लास में था. अंश का जीवन सब सुविधाओं से युक्त था. अब घर की एक चाबी अंश के पास भी रहने लगी थी. अब मंजू सुबहशाम ही आती थी. अंश दोनों को ही पापा कहता था, नितिन पापा, सुहास पापा. कई लोग इस बात पर कभीकभी उन का खूब मजाक उड़ाते थे. कुछ संवेदनशील थे, दोनों की लाइफ का सम्मान करते थे. वैसे भी हमारे समाज में एकदूसरे को नीचा दिखाने के लिए प्रयासरत कुछ लोग खुली सोच रख भी कहां पाते हैं? इन लोगों का उद्देश्य ही होता है, दूसरों के जीवन की शांति भंग करना. ऐसे ही कुछ लोग एक पार्टी में थे जहां सुहास, नितिन और अंश गए हुए थे. राजीव और सुमन के विवाह की 25वीं वर्षगांठ की पार्टी थी. इन दोनों को ही इन तीनों से विशेष स्नेह था.

पार्टी में एक महिला ने पूछ लिया, ‘‘क्यों, अंश, कैसा लगता है अपने घर में? मम्मी तो है नहीं कोई तुम्हारी.’’

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महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-17

उस ने नील की मां को फोन किया और स्पीकर का बटन दबा दिया जिस से दिया भी सुन सके.

‘‘रुचिजी, पूजा हो गई है और हम वहां से निकल रहे हैं.’’

‘‘कैसी हुई पूजा, धर्मानंदजी? आप साथ ही में थे न? दिया ने कुछ गड़बड़ी तो नहीं की?’’

‘‘कैसी बात कर रही हैं आप? मेरे साथ थी वह, क्या कर सकती थी?’’

‘‘आप के पास नहीं है क्या दिया?’’

‘‘अगर होती तो आप से ऐसे खुल कर बात कैसे कर सकता था?’’

‘‘कहां गई है?’’

‘‘जरा वाशरूम तक. मैं ने ही कहा जरा हाथमुंह धो कर आएगी तो फ्रैश फील करेगी. वहां तो उस का दम घुट रहा था.’’

‘‘यही तो धर्मानंदजी, क्या करूं, मैं तो बड़ी आफत में पड़ गई हूं. उधर…आप के पास तो फोन आया होगा नील का?’’ वे कुछ घबराए स्वर में बोल रही थीं. जब नील से फोन पर बात होती थी तब भी वे इसी स्वर में बोलने लगती थीं.

‘‘नहीं, रुचिजी, क्या हुआ? नील का तो कोई फोन नहीं आया मेरे पास. सब ठीक तो है?’’ धर्म ने भी घबराने का नाटक किया.

‘‘अरे वह नैन्सी प्रैगनैंट हो गई है. बच्चे को गिराना भी नहीं चाहती.’’

‘‘तो पाल लेगी अपनेआप, सिंगल मदर तो होती ही हैं यहां.’’

‘‘नहीं, पर वह चाहती है कि मैं पालूं बच्चे को. अगर मैं बच्चा पालती हूं तो वह नील से शादी कर लेगी वरना…’’

‘‘तो इस में आप को क्या मिलेगा?’’

‘‘मिलने की बात तो छोडि़ए, धर्मजी. मुझे तो इस लड़के ने कहीं का नहीं रखा. दिया का क्या करूं मैं?’’

‘‘हां, यह तो सोचना पड़ेगा. मैं तो समझता हूं कि रुचिजी, अब बहुत हो गया, अब तो इस के घर वालों को खबर कर ही देनी चाहिए.’’

‘‘मरवाओगे क्या? वे तो वैसे ही यहां आने के लिए तैयार बैठे हैं…और आप को पता है उन की परिस्थिति क्या चल रही है? वे तो हमें फाड़ ही खाएंगे…’’

‘‘दिया आ रही है, रुचिजी. मैं बाद में आप से बात करूंगा.’’

‘‘अरे कहीं मौलवौल में घुमाओ. बियाबान में क्या करेगी? कुछ खरीदना चाहे तो दिलवा देना. आज उसे पैसे नहीं दिए. वैसे पहले के भी होंगे ही उस के पर्स में, पूछ लेना…’’ नील की मां की नाटकीय आवाज सुनाई दी.

‘‘हां जी, देर हो जाए तो चिंता मत करिएगा.’’

‘‘चिंताविंता काहे की, मेरी तो मुसीबत बन गई है. समझ में नहीं आता और क्या पूजापाठ करवाऊं? ईश्वरानंदजी से भी मशवरा कर लेना.’’

‘‘हां जी-हां जी, जरूर. अभी रखता हूं, नमस्ते.’’

मोबाइल बंद कर के दिया की आंखों में आंखें डाल कर धर्मानंद बोला, ‘‘आई बात कुछ समझ में?’’

‘‘आई भी और नहीं भी आई, धर्मजी. जीवन कैसे मेरे प्रति इतना क्रूर हो सकता है? मेरा क्या कुसूर है? मैं कांप जाती हूं यह सोच कर कि मेरे घर वालों की क्या दशा होगी लेकिन मैं उन्हें सचाई बताने से भी डरती हूं. क्या करूं?’’

‘‘दिया, दरअसल मैं खुद यहां से निकल भागना चाहता हूं. मगर मैं यहां एक जगह फंसा हुआ हूं,’’ वह चुप हो गया.

दिया का दिल फिर धकधक करने लगा. कहीं कुछ उलटासीधा तो कर के नहीं बैठे हैं ये.

‘‘नहीं, मैं ने कुछ गलत नहीं किया है. मैं दरअसल यहां एमबीए कर रहा हूं और सैटल होना चाहता हूं पर अगर ईश्वरानंद को पता चल जाएगा तो वे मेरा पत्ता साफ करवा देंगे.’’

‘‘क्यों? उन्हें क्या तकलीफ है?’’ दिया ईश्वरानंद के नाम से चिढ़ी बैठी थी.

‘‘तकलीफ यह है कि मैं उन के बहुत सारे रहस्यों से वाकिफ हूं और अगर मैं ने उन का साथ छोड़ दिया तो उन्हें डर है कि मैं कहीं उन की पोलपट्टी न खोल दूं…’’

‘‘क्या आप को यह नहीं लगता कि ये सब गलत है?’’

‘‘हां, खूब लगता है.’’

‘‘फिर भी आप इन लोगों के साथी बने हुए हैं?’’

‘‘बस, इस में से निकलने का रास्ता ढूंढ़ रहा हूं.’’

‘‘सच बताइए, धर्म, मेरा पासपोर्ट आप के पास है न?’’

दिया ने धर्म पर अचानक ही अटैक कर दिया. धर्म का चेहरा उतर गया पर फिर संभल कर बोला, ‘‘हां, मेरे पास है पर आप को कैसे पता चला?’’

‘‘मैं ने आप की और नील की मां की सारी बात सुन ली थी उस दिन मंदिर में,’’ दिया ने सब सचसच कह दिया.

‘‘और…आप उस दिन से मुझे बरदाश्त कर रही हैं?’’

‘‘मैं तो नील और उस की मां को भी बरदाश्त कर रही हूं, धर्म. मैं इन सब दांवपेचों को न तो जानती थी और न ही समझती थी परंतु मेरी परिस्थिति ने मुझे जबरदस्ती इन सब पचड़ों में डाल दिया.’’

‘‘बहुत शर्मिंदा हूं मैं, दिया. पर मैं भी आप की तरह ही हूं. मुझे भी उछाला जा रहा है. एक फुटबाल सा बन गया हूं मैं. सच में ऊब गया हूं.’’

धर्म की आंखों में आंसू भरे हुए थे. दिया को लगा वह सच कह रहा था.

‘‘मैं नील के घर से भागना चाहती हूं, धर्म,’’ दिया ने अपने मन की व्यथा धर्म के समक्ष रख दी.

‘‘कहां जाओगी भाग कर?’’

‘‘नहीं मालूम, कुछ नहीं पता मुझे. वहां मेरा दम घुटता है. मैं इंडिया वापस जाना चाहती हूं,’’ दिया बिलखबिलख कर रोने लगी, ‘‘आप नहीं जानते, धर्म, मैं किस फैमिली से बिलौंग करती हूं. और मेरी ही वजह से मेरे पापा का क्या हाल हुआ है?’’

‘‘मैं सब जानता हूं, दिया. इनफैक्ट, मुझे आप के घर में हुई एकएक दुर्घटना का पता है, यह भी कि नील व उस की मां भी ये सब जानते हैं.’’

‘‘क्या? क्या जानते हैं ये लोग? क्या इन्हें मालूम है कि मेरे पापा की…’’ दिया चकरा गई.

‘‘हां, इन्हें सब पता है और इन्हें यह सब भी पता है जो आप को नहीं मालूम,’’ धर्म ने सपाट स्वर में कहा.

‘‘क्या, क्या नहीं पता है मुझे?’’ दिया अधीर हो उठी थी.

‘‘अब मैं आप से कुछ नहीं छिपा पाऊंगा, दिया. मेरा मन वैसे ही मुझे कचोट रहा है. मैं भी तो इस पाप में भागीदार हूं.’’

‘‘पर आप तो उस दिन नील की मां से कह रहे थे कि आप यहां थे नहीं, तब किसी रवि ने मेरी जन्मपत्री मिलाई थी.’’

‘‘ठीक कह रहा था, दिया. पर सब से ऊपर तो ईश्वरानंद बौस हैं न?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि जब तक उस की मुहर नहीं लग जाती तब तक बात आगे कहां बढ़ती है. रवि भी तो इन का ही मोहरा है. उस ने भी जो किया या बताया होगा, ईश्वरानंदजी के आदेश पर ही न.’’

‘‘पर आप तो उस दिन नील की मां से कह रहे थे कि रवि आप का चेला है. आप उसे यह विद्या सिखा रहे हैं?’’

दिया चाहती थी कि जितनी जल्दी हो सके उसे ऐसा रास्ता दिखाई दे जाए जिस से वह इस अंधेरी खाई से निकल सके.

‘‘अच्छा, एक बात बताइए, धर्म. कहते हैं कि मेरे ग्रह नील पर बहुत भारी हैं और यदि वह मुझ से संबंध बनाता है तो बरबाद हो जाएगा. पर नैन्सी से उस के शारीरिक संबंध ग्रह देखने के बाद बने हैं क्या?’’

‘‘क्या बच्चों जैसी बात करती हैं? उस जरमन लड़की से वह ग्रह देखने के बाद संबंध स्थापित करता क्या?’’

‘‘तो उसे कैसे परमिशन दे दी उस की मां ने? बच्चों जैसी बात नहीं, धर्म, मूर्खों जैसी बात है. जिस लड़की को पूरी तरह ठोकपीट कर ढोलनगाड़े बजा कर लाए उस के ग्रहों के डर से अपने बेटे को बचा कर रखा जा रहा है और जिस लड़की के शायद बाप का भी पता न हो, वह नील की सर्वस्व है. क्या तमाशा है, धर्म?’’

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पितृद्वय: भाग-3

अंश चुप रहा. सुहास और नितिन को गुस्सा आया कि बच्चे से ऐसे सवाल करने की यह क्या तमीज है.

इतने में महिला के दोनों बच्चे भी बोल उठे, ‘‘बताओ न अंश कैसा लगता है?’’

अंश ने अपने दोनों हाथों में नितिन और सुहास का 1-1 हाथ पकड़ कहा, ‘‘अच्छा लगता है. तुम लोगों को तो एक पापा का प्यार मिलता है, मेरे तो 2-2 पापा हैं. सोचो, कितना मजा आता होगा मुझे.’’

सन्नाटा सा छा गया. सुहास ने आंखों की नमी को गले में ही उतार लिया. नितिन ने अंश के सिर पर अपना दूसरा हाथ रख दिया.

सुमन ने अंश का कंधा थपथपाते हुए कहा, ‘‘वैरी गुड, अंश, वैलसैड.’’

उस दिन जब तीनों पार्टी से लौटे, स्नेह का बंधन और मजबूत हो चुका था.

समय अपनी रफ्तार से चलता रहा. एमबीए करते ही अंश को अच्छी जौब भी

मिल गई. अंश की कई लड़कियां भी दोस्त थीं. उस का फ्रैंड सर्कल अच्छा था. उस के दोस्त जब भी घर आते, उत्सव का सा माहौल हो जाता. सुहास और नितिन एप्रिन बांधबांध कर कभी किचन में घुस जाते, कभी खाना बाहर से और्डर करते. सुहास और नितिन को यह देख कर अच्छा लगता कि अंश का गु्रप उन के रिश्ते को सम्मानपूर्वक देखता है, सोच कर अच्छा लगता कि आज के युवा कितने खुले और नए विचारों के हैं. पर दोनों की चिंताओं ने अब नया रूप ले लिया था.

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एक दिन सुहास ने कहा, ‘‘नितिन, अंश की कोई गर्लफ्रैंड होगी न?’’

नितिन हंसा, ‘‘इतने हैंडसम बंदे की गर्लफ्रैंड तो जरूर होगी, शैतान है, बताता नहीं. मैं ने एक दिन पूछा भी था तो बोला, जल्दी क्या है.’’

‘‘पर यार, पता नहीं कौन होगी, हमारे रिश्ते को कैसे स्वीकारेगी? उस का परिवार क्या कहेगा? मन में यही डर लगा रहता है कि सारी उम्र का हासिल अंश का प्यार ही है हमारे पास, कहीं कभी यही हम से दूर न हो जाए.’’

फिर दोनों बहुत देर तक उदास मन से कुछ सोचतेविचारते रहे. दोनों के मन में यह संशय, डर गहरी जड़ जमा चुका था कि अंश के जीवन में आने वाली लड़की पता नहीं इन दोनों को खुले दिल से स्वीकारेगी या नहीं.

कुछ महीने और बीते. एक वीकैंड की शाम को अंश एक लड़की के साथ घर आया. सुंदर सी, स्मार्ट लड़की दोनों को ‘हैलो, अंकल’ कहती हुई घर में आई.

अंश ने परिचय करवाया, ‘‘यह लवीना है. लवीना ये सुहास पापा, ये नितिन पापा.’’

अभी तक ऐेसे मौकों पर सुहास और नितिन सामने वाले की प्रतिक्रिया जानने के लिए असहज से हो जाते थे. आज तो और भी गंभीर हुए, क्योंकि अंश पहली बार किसी लड़की को अकेले लाया था. फिर भी कहा, ‘‘हैलो लवीना, हाऊ आर यू?’’

‘‘आई एम फाइन अंकल.’’

अंश ने कहा, ‘‘लवीना आप दोनों से मिलना चाह रही थी. आज पीछे ही पड़ गई तो लाना ही पड़ा,’’ कहता हुआ अंश हंस दिया तो लवीना भी शुरू हो गई, ‘‘तो इतने दिन से सुन क्यों नहीं रहे थे? अंकल, आप लोगों की इतनी तारीफ, इतनी बातें सुनती हूं तो मिलने का मन तो करेगा ही न? यह तो टालता ही जा रहा था. आज पीछे पड़ना ही पड़ा.’’

‘‘वह इसलिए कि हमारे घर की शांति भंग न हो… हमारा इतना शांत सा घर है और तुम तो चुप रहती नहीं हो.’’

‘‘अच्छा… खुद कम बोलते हो क्या?’’

सुहास और नितिन दोनों ही छेड़छाड़ का पूरा मजा ले रहे थे. घर की दीवारें तक जैसे चहक उठी थीं. अंश और लवीना का रिश्ता साफसाफ समझ आ रहा था.

सुहास ने पूछा, ‘‘तुम लोग क्या लोगे? पहले बैठो तो सही.’’

नितिन ने भी कहा, ‘‘जो इच्छा हो, बता दो. मैं तैयार करता हूं.’’

अंश ने कहा, ‘‘लवीना बहुत अच्छी कुक है, आज यही कुछ बना लेगी.’’

लवीना भी फौरन खड़ी हो गई, ‘‘हां, बताइए, अंकल.’’

‘‘अरे नहीं, तुम बैठो, मंजू आने वाली होगी.’’

‘‘आप लोगों ने उस के हाथ का तो बहुत खा लिया, आज मैं बनाती हूं.’’

तभी मंजू भी आ गई. अब तक वह भी इस परिवार की सदस्या ही हो गई थी. लवीना ने मंजू के साथ मिल कर शानदार डिनर तैयार किया. पूरा खाना सुहास और नितिन की ही पसंद का था. दोनों हैरान थे, खुश भी… खाना खाते हुए दोनों भावुक से हो रहे थे.

अंश ने दोनों के गले में बांहें डाल दीं, ‘‘क्या हुआ पापा?’’

नितिन का गला रुंध गया, ‘‘इतना प्यार, सम्मान… हमें तो हमारे अपनों ने ही भुला दिया…’’

सुहास ने माहौल को हलका किया, ‘‘कितना अच्छा लग रहा है न… यार कितनी रौनक है घर में. शुक्र है इस घर में लड़की तो दिखी.’’

लवीना ने इस बात पर खुल कर ठहाका लगाया और घर के तीनों पुरुषों को प्यार, सम्मान से देखा. आज सुहास और नितिन के दिल में भी सालों से बैठा संदेह, डर हमेशा के लिए छूमंतर हो गया था.

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लवीना ने कहा, ‘‘पापा, मेरे घर में बस मैं और मेरी मां ही हैं. मेरे पापा तो मेरे बचपन में ही चल बसे थे. अंश जब आप दोनों से मिले स्नेह, लाड़प्यार के बारे में बताता था तो मैं बहुत खुश होती थी,’’ फिर अंश को छेड़ते हुए कहने लगी, ‘‘मैं ने इस से दोस्ती ही इसलिए की है कि मुझे भी पापा का प्यार मिले और यह कमी तो अब खूब दूर होगी जब एक नहीं 2-2 पापा का प्यार मुझे मिलेगा.’’

अंश ने पलटवार किया, ‘‘ओह, चालाक लड़की, दोनों पापा के लिए दोस्ती की है… देख लूंगा तुम्हें.’’

सुहास और नितिन दोनों की छेड़छाड़ पर मुग्ध हुए जा रहे थे. घर में ऐसा दृश्य पहली बार जो देखा था. दोनों ने ही अंश और लवीना के सिर पर अपनाअपना हाथ रख दिया.

Serial Story: एहसास (भाग-3)

लेखिका- रश्मि राठी

सुधांशी उन दोनों को बहुत गौर से देख रही थी. आज उस का परिचय प्यार के एक नए रूप से हो रहा था. यह भी तो प्यार है कितना पवित्र, एकदूसरे के लिए समर्पण की भावना लिए हुए. उसे महसूस हो रहा था कि प्यार सिर्फ वह नहीं जो रात के अंधेरे में किया जाए. प्यार के तो और भी रूप हो सकते हैं. लेकिन उस ने तो कभी सुशांत की पसंद जानने की भी कोशिश न की. उस ने तो हमेशा अपनी आकांक्षाओं को ही महत्त्व दिया.

‘‘चलो, हम दूसरे कमरे में बैठ कर बातें करते हैं, ये लोग तो अपने दफ्तर की बातें करेंगे,’’ अमिता ने सुधांशी को उठाते हुए कहा.

अमिता और सुधांशी के विचारों में जमीनआसमान का फर्क था. अमिता घर के बारे में बातें कर रही थी, जबकि सुधांशी ने कभी घर के बारे में कुछ सोचा ही नहीं था. तभी अमिता ने कहा, ‘‘बड़ी सुंदर साड़ी है तुम्हारी, क्या सुशांत ने ला कर दी है?’’

‘‘नहीं, नहीं तो,’’ चौंक सी गई सुधांशी, ‘‘मैं ने खुद ही खरीदी है.’’

‘‘भई, ये तो मुझे कभी खुद लाने का मौका ही नहीं देते. इस से पहले कि मैं लाऊं ये खुद ही ले आते हैं. लेकिन इस बार मैं ने भी कह दिया है कि अगर मेरे लिए साड़ी लाए तो बहुत लड़ूंगी. हमेशा मेरा ही सोचते हैं. यह नहीं कि कभी कुछ अपने लिए भी लाएं. इस बार मैं उन्हें बिना बताए उन के लिए कपड़े ले आई. दूसरों की जरूरतें पूरी करने में जितना मजा है वह अपनी इच्छाएं पूरी करने में नहीं है.’’

‘‘चलो, आज घर नहीं चलना है क्या?’’ सुशांत ने उस की बातों में खलल डालते हुए कहा.

‘‘अच्छा, अब चलते हैं. किसी दिन आप लोग भी समय निकाल कर आइए न,’’ सुधांशी ने चलते हुए कहा.

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आज हर्षल के घर से लौटने पर सुधांशी के मन में हलचल मची हुई थी. उस के कानों में अमिता के स्वर गूंज रहे थे, ‘एकदूसरे की जरूरतें पूरी करने में जितना मजा है, अपनी इच्छाएं पूरी करने में वह नहीं है.’

लेकिन उस ने तो कभी दूसरों की जरूरतों को जानना भी नहीं चाहा था. उस ने तो यह भी नहीं सोचा कि घर में किस चीज की जरूरत है और किस की नहीं? और एक अमिता है, सुंदर न होते हुए भी उस से कहीं ज्यादा सुंदर है. जिम्मेदारियों के प्रति अमिता की सजगता देख कर सुधांशी के मन में ग्लानि का अनुभव हो रहा था.

‘‘अमिता भाभी, बहुत अच्छी हैं न,’’ सुधांशी ने मौन तोड़ते हुए कहा.

‘‘हां,’’ सुशांत ने ठंडी आह छोड़ते हुए कहा.

उस रात सुधांशी चैन से सो न सकी. सुबह उठी तो उसे तेज बुखार था. सुशांत ने तुरंत डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने दवा दे दी. सुधांशी को आराम करने के लिए कह कर सुशांत दफ्तर चला गया. सुधांशी को बुखार के कारण सिर में बहुत दर्द था. तभी गरिमा लड़खड़ाते हुए आई, ‘‘कैसी तबीयत है, भाभी? लाओ, तुम्हारा सिर दबा दूं,’’ कह कर सिर दबाने लगी.

मां भी बहुत चिंतित थीं. समयसमय पर मां दवा दे रही थीं. आज सुधांशी को महसूस हो रहा था कि उस ने कभी भी इन लोगों की तरफ ध्यान नहीं दिया, लेकिन फिर भी उस के जरा से बुखार ने किस तरह सब को दुखी कर दिया. अपने पैर में चोट होने के बावजूद गरिमा उस का कितना ध्यान रख रही थी. मां भी कितनी परेशान थीं उस के लिए?

3-4 दिन में सुधांशी ठीक हो गई. आज वह सुशांत से पहले ही उठ गई थी. चाय बना कर सुशांत के पास आई, ‘‘उठिए जनाब, चाय पीजिए, आज दफ्तर नहीं जाना है क्या?’’

सुशांत को तो अपनी आंखों पर यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न, आज इतनी जल्दी कैसे जाग गईं?’’ उस ने हड़बड़ाते हुए पूछा.

‘‘जल्दी कहां, मेरी आंखें तो बहुत देर में खुलीं,’’ शून्य में देखते हुए सुधांशी ने कहा.

आज उस ने घर के सारे काम खुद ही किए थे. काम करने में मुश्किल तो बड़ी हो रही थी, मगर फिर भी यह सब करना उसे अच्छा लग रहा था. आज वह पहली बार नाश्ता बनाने के लिए रसोई में आई थी.

‘‘मांजी, आज से नाश्ता मैं बनाया करूंगी,’’ मांजी के हाथ से बरतन लेते हुए सुधांशी ने कहा.

‘‘बहू, तुम नाश्ता बनाओगी?’’ मां ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं जानती हूं, मांजी, मुझे कुछ बनाना नहीं आता, लेकिन आप मझे सिखाएंगी न? बोलिए न मांजी, आप सिखाएंगी मुझे?’’

‘‘हां बहू, अगर तुम सीखना चाहोगी तो जरूर सिखाऊंगी.’’

आज सुशांत को बड़ा अजीब लग रहा था. उस का सारा सामान उसे जगह पर मिल गया था. कपड़े भी सलीके से रखे हुए थे. जब तैयार हो कर नाश्ते के लिए आया तो सुधांशी को नाश्ता लाते देख चौंक गया.

‘‘आज तुम ने नाश्ता बनाया है क्या?’’

‘‘क्यों? मेरे हाथ का बना नाश्ता क्या गले से नीचे नहीं उतर पाएगा?’’ मुसकराते हुए सुधांशी बोली.

‘‘नहीं, यह बात नहीं है,’’ सैंडविच उठाते हुए सुशांत बोला, ‘‘सैंडविच तो बड़े अच्छे बने हैं. तुम ने खुद बनाए हैं?’’ सुशांत ने पूछा, फिर कुछ रुपए देते हुए बोला, ‘‘तुम कल अपनी साडि़यों के लिए पैसे मांग रही थीं न, ये रख लो.’’

सुशांत के दफ्तर जाने के बाद जब सुधांशी ने सैंडविच चखे तो उस से खाए नहीं गए. नमक बहुत तेज हो गया था. उसे सुशांत का खयाल आ गया, जो इतने खराब सैंडविच खा कर भी उस की तारीफ कर रहा था, शायद उस का दिल रखने के लिए सुशांत ने ऐसा किया था. उस की पलकें भीग गईं. प्यार की भावना को देख कर उस का मन श्रद्धा से भर उठा.

उस ने जल्दीजल्दी सारा काम खत्म किया. घर का काम करने में आज उसे अपनत्व का एहसास हो रहा था. फिर उसे सुशांत के दिए गए पैसों का खयाल आया. उस ने गरिमा को साथ लिया

और बाजार गई. सुशांत के दफ्तर से लौटने से पहले उस ने सारा काम निबटा लिया था.

‘‘अपनी साडि़यां ले आईं?’’ शाम को चाय पीतेपीते सुशांत ने पूछा.

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‘‘मेरे पास साडि़यों की कमी कहां है? आज तो मैं ढेर सारा सामान ले कर आई हूं,’’ इतना कह कर उस ने सारा सामान सुशांत के सामने रख दिया, ‘‘यह मां की साड़ी है, यह गरिमा का सूट और यह तुम्हारे लिए.’’

सुशांत उसे अपलक निहार रहा था. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि यह वही सुधांशी है, जिसे अपनी जरूरतों के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था. आज उसे सुधांशी पहले से कहीं अधिक सुंदर लगने लगी थी.

‘‘अपने लिए कुछ नहीं लाईं?’’ प्यार से पास बिठाते हुए सुशांत ने पूछा.

‘‘क्या तुम सब लोग मेरे अपने नहीं हो? सच तो यह है कि आज पहली बार ही मैं अपने लिए कुछ ला पाई हूं. यह सामान ला कर जितनी खुशी मुझे हुई है उतनी कई साडि़यां ला कर भी न मिल पाती. सच, आज ही मैं प्यार का वास्तविक मतलब समझ पाई हूं.

‘‘प्यार एक भावना है, समर्पण की चेतना, खो जाने की प्रक्रिया, मिट जाने की तमन्ना. इस का एहसास शरीर से नहीं होता, अंतर्मन से होता है, हृदय ही उस का साक्षी होता है,’’ कह कर सुधांशी ने अपना सिर सुशांत के सीने पर रख दिया.

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