family story in hindi , story in hindi , taalmel, taalmel story

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छोटा सा ही सही, साम्राज्य है यह घर अम्मा का, हुकूमत चलती है यहां अम्मा की. मजाल है उन की इच्छा के बगैर कोई उन के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता. हमें भी सख्त हिदायत रहती जो चीज जहां से लो, वहीं रखनी है ताकि अंधेरे में भी खोजो तो पल में मिल जाए. बाबूजी…वे कभी रसोई में घुसने का प्रयास भी करते तो झट अम्मा कह देतीं, ‘आप तो बस रहने ही दीजिए, मेरी रसोई मुझे ही संभालने दीजिए. आप तो बस अपना दफ्तर संभालिए.’
फिर जब कभी अम्मा किसी काम में व्यस्त होतीं और बाबूजी से कहतीं, ‘सुनिए जी, जरा गैस बंद कर देंगे?’ बाबूजी झट हंसते हुए कहते, ‘न भई, तुम्हारी राज्यसीमा में भला मैं कैसे प्रवेश कर सकता हूं.’
यह बात नहीं कि अम्मा को बाबूजी के रसोई में जाने से कोई परहेज हो, यह तो बहाना था बाबूजी को घर की झंझटों से दूर रखने का, चाहे बाजार से किराना लाना हो, दूध वाले या प्रैस वाले का हिसाब ही क्यों न हो. समझदार हैं अम्मा, वे जानती हैं कि दफ्तर में सौ झंझटें होती हैं, कम से कम घर में तो इंसान सुख से रहे. बाबूजी के नहाने के पानी से ले कर बाथरूम में उन के कपड़े रखने तक की जिम्मेदारी बड़े कौशल से निभातीं अम्मा. दफ्तर से आ कर बाबूजी का काम होता अखबार पढ़ना और टीवी देखना. बाबूजी के सदा बेफिक्र चेहरे के पीछे अम्मा ही नजर आतीं.
अम्मा का प्रबंधकौशल भी अनोखा था. सब की जरूरतों का ध्यान रखना, सुबह से ले कर शाम तक किसी नटनी की भांति एक लय से नाचतीं. न कभी थकतीं अम्मा और न ही उन के चेहरे पर कभी कोई झुंझलाहट ही होती. सदा होंठों पर मुसकान लिए हमारा उत्साह बढ़ातीं. मेरे और चिंटू के स्कूल से आने से पहले वे घर के सारे काम निबटा लेतीं, फिर हमारी तीमारदारी में लग जातीं. उसी तरह शाम को बाबूजी के दफ्तर से लौटने से पहले वे रसोई में सब्जी काट कर, आटा लगा कर गैस पर कुकर तैयार रखतीं ताकि बाबूजी के आने के बाद उन के स्वागत के लिए वे तनावमुक्त रहें. रात के खाने का हमसब मिल कर आनंद लेते. पूरे घर को अपनी ममता और प्यार की नाजुक डोर से बांध कर रखा था अम्मा ने. उन के बगैर किसी का कोई अस्तित्व नहीं था.
हालांकि ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं थीं वे, फिर भी रात को जब हम पढ़ने बैठते तो वे हमारे पास बैठतीं. उन की उपस्थिति ही हमारे लिए काफी होती. वे पास बैठेबैठे कभी उधड़े कपड़ों की सीवन करतीं तो कभी स्वेटर बुनतीं. काम में उन की लगन देख कर लगता मानो रिश्तों की उधड़न को सी रही हों.
ममता का प्रभाव था कि मैं और चिंटू सदैव स्कूल में अव्वल रहते. हमारे स्कूल यूनिफौर्म से ले कर स्कूलबैग और टिफिन में अम्मा का मातृत्व झलकता था. मेरे लंबे बालों को अम्मा बड़े जतन से तेल लगा कर, दो चोटी बना, ऊपर बांध देतीं ताकि किसी की नजर न लगे मेरे बालों को. बहुत पसंद हैं बाबूजी को लंबे बाल. उन की छोटीछोटी पसंद का खयाल रखतीं अम्मा.
पिं्रसिपल मैडम ने एक बार अम्मा को बुला कर कहा भी, ‘रियली आई एप्रीशिएट यू मिसेज सुलेखाजी. आप ने बच्चों को बहुत अच्छे संस्कार दिए हैं. आप गृहिणी हैं, आप की शिक्षा काम आई, इसीलिए तो कहते हैं कि परिवार में मां का पढ़ालिखा होना बहुत जरूरी है.’
अम्मा ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया. ‘मैडम, मैं ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं हूं, न ही मैं पढ़ा पाती हूं. मीनू और चिंटू के बस पढ़ते वक्त मैं हरदम उन के साथ रहती हूं.’ सुन कर पिं्रसिपल मैडम और भी प्रभावित हो गईं अम्मा की साफगोई से.
हरी दूब पर चलते से गुजर रहे थे दिन, सारे घर में मशीन की तरह फिरती अम्मा. एक दिन अचानक उस मशीन में खराबी आ गई. सारे घर का व्यापार ही थम गया. डाक्टर ने अम्मा को आराम करने की नसीहत दी. फिर भी अम्मा से जितना बन पड़ता, उठ कर समयसमय से कुछ कर लेतीं ताकि बाबूजी को और हमें कम परेशानी हो. बाबूजी के लिए तो यह परीक्षा की घड़ी थी. उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि कुकर में दाल कितनी सीटी में पक जाती है, आटे में कितना नमक पड़ता है, भिंडी काटने से पहले धोई जाती है या बाद में.
न चाहते हुए भी अम्मा का साम्राज्य अस्तव्यस्त होता जा रहा था. कमजोरी दिनबदिन बढ़ती जा रही थी. अब तो डाक्टर ने उन्हें बिस्तर से न उठने की भी सख्त हिदायत दे दी. बाबूजी अम्मा का पूरा ध्यान रखते. मगर बहुत बदल गए थे वे. पहले हमारी छोटी सी गलतियों पर डांटने वाले बाबूजी अब बड़ी गलतियों पर भी चुप रहते. वे जान गए थे कि उन की डांट से बचाने वाला आंचल अब तारतार हो रहा है. दफ्तर के बाद उन का सारा समय अम्मा की तीमारदारी में बीत जाता.
बाबूजी से अपनी तीमारदारी कराते उन्हें खुशी नहीं होती थी. वे किसी मासूम बच्चे की तरह उदास हो कहतीं, ‘सुनिए जी, मैं ठीक तो हो जाऊंगी न. कितना परेशान कर दिया है मेरी बीमारी ने तुम्हें. और मेरे मासूम बच्चे, देखो, कितना उदास रहने लगे हैं.’
बाबूजी अम्मा का हाथ अपने हाथ में ले कर उन्हें हिम्मत बंधाते. मगर खुद भीतर ही भीतर कितना टूट रहे थे, वे ही जानते थे. उन्हें पता था कि अब अम्मा कभी अच्छी नहीं होने वाली. उन्हें ब्लडकैंसर हो गया था. न अम्मा इस बात को जानती थीं, न मैं, न ही चिंटू. इतना बड़ा पहाड़ बाबूजी अपने सीने पर अकेले ही झेलते रहे. अम्मा के सामने खुद को मजबूत करते. मगर अकेले में कई बार आंसू बहाते देखा था मैं ने उन्हें. अब रसोई बाबूजी के हाथों में आ गई थी. कच्चापक्का जैसे भी बनता, पकाते. कभी दालचावल तो कभी खाली खिचड़ी से हम पेट भर लेते. सब्जीरोटी कम ही बनती. अब चिंटू भी खाने को ले कर कुरकुरी भिंडी की मांग नहीं करता, न ही दूध के लिए अम्मा को सारे घर में दौड़ाता. अम्मा के हाथ से खाने की जिद भी नहीं करता, जानता था, अम्मा बहुत कमजोर हो गई हैं. जो बनता, हमसब चुपचाप खा लेते. घर में हमेशा गहरी उदासी छाई रहती. यह सब देख अम्मा कहतीं कुछ नहीं, बस, उन की आंखों की कोर से आंसू ढुलक जाते. शायद वे समझ गई थीं कि वे कभी ठीक नहीं हो पाएंगी.
बाबूजी अम्मा का पूरा खयाल रखते. उन के नहाने, खाने, बाल बनाने तक, समयसमय पर जूस ला कर अम्मा के हाथ में देते. अपने और हमारे नहाने की बालटी से ले कर तौलिया और कपड़े तक बाबूजी ही रखते बाथरूम में. सुबह दूध, टिफिन दे कर हमें स्कूल की बस तक पहुंचाना… हां, अब मेरे लंबे बाल कटवा दिए गए क्योंकि बाबूजी के काम जो बहुत बढ़ गए थे. बहुत रोई थीं अम्मा उस रोज. उन की हालत दिनबदिन खराब होती जा रही थी. अब तो उन्हें आंखों से भी कम दिखाई देने लगा था. बाबूजी ने उन्हें खुश रखने की हर संभव कोशिश की. मगर एक दिन अम्मा हमेशाहमेशा के लिए हम सब को छोड़ कर चली गईं. आधे रह गए थे बाबूजी अपनी अर्द्धांगिनी के चले जाने पर. एकांत में बैठे, छत निहारते रहते, मानो अम्मा से शिकायत कर रहे हों मझधार में छोड़ कर क्यों चली गईं?
कितना बदल जाता है वक्त और अपने साथ बदल देता है इंसान को. जो बाबूजी बैडटी के बगैर बिस्तर से नीचे कदम नहीं रखते थे, अब उठते ही हमारी देखभाल में व्यस्त हो जाते. हमें स्कूल भेज कर ही खुद चाय बनाते और पीते.
वक्त अपने तरीके से कट रहा था. इस महीने हमारे स्कूल का परीक्षा परिणाम आ गया. कल पेरैंट्स मीटिंग थी. बाबूजी नहीं जानते क्या होता है पेरैंट्स मीटिंग में. कई बार अम्मा ने कहा संग चलने को, मगर बाबूजी ने यह कह कर टाल दिया कि बच्चों की ट्यूटर तुम हो, जवाब तो तुम्हें ही देना है. फिर शरारत करते हुए कहते, ‘भई, मैं ने तो अपने हिस्से का स्कूल कर लिया, तुम रह गईं, सो तुम्हीं जाओ. मुझे बख्शो.’ वही हुआ जिस की संभावना थी, हमेशा अव्वल आने वाले हम पिछड़ गए थे. इस बार मैं 2 विषयों और चिंटू 4 विषयों में फेल हो गया. यह बात नहीं कि हम ने पढ़ने की कोशिश नहीं की, पुस्तकें खोल कर बैठते, पास में गुमसुम बाबूजी भी होते मगर पास अम्मा जो नहीं होतीं.
जैसे ही बाबूजी हमें ले कर क्लास में दाखिल हुए, दूसरे पेरैंट्स की कानाफूसी न चाहते हुए भी कानों में पड़ गई. अब तक मां थी, अब मां नहीं है न. कितना फर्क पड़ता है मां से. ये शब्द बाबूजी के भीतर किसी तेजाब सरीखे उतरते चले गए. अम्मा की कमी का एहसास उन से ज्यादा और किसे होगा. मगर लोगों के शब्द मानो उन्हें मुंह चिढ़ा रहे हों कि वे अम्मा की जगह नहीं ले सकते या फिर वे हमारी परवरिश में सफल नहीं हो पाए.
आज उन्हीं पिं्रसिपल ने बाबूजी को बुला कर कहा, ‘‘मिस्टर विकास, मैं आप की स्थिति समझ सकती हूं. मैं यह भी जानती हूं आप को इस परिस्थिति से उबरने में अभी वक्त लगेगा. किंतु बच्चों की भलाई के लिए यह कहने को विवश हूं कि अब आप को उन की ओर ज्यादा गंभीरता से ध्यान देना होगा. इस बार का परिणाम तो हम समझ सकते हैं लेकिन मैं समझती हूं आप भी नहीं चाहेंगे कि सुलेखाजी ने जिस मेहनत से बच्चों को तैयार किया है, वह जाया हो.
‘‘इस में कोई शक नहीं मीनू और चिंटू बहुत इंटैलिजैंट हैं. किंतु पिछले दिनों दोनों के सलवट भरी यूनिफौर्म और बिखरे बालों को ले कर बच्चे क्लास में उन का मजाक बना रहे थे. कल तो चिंटू की पैंट भी नीचे से उधड़ी हुई थी. मिस्टर विकास, आप समझ रहे हैं न. इस से बच्चे हतोत्साहित हो जाएंगे. एक बार उन का आत्मविश्वास कमजोर हो गया तो बड़ी मुश्किल होगी उन्हें संभालने में. सो, प्लीज, आप उन का खयाल रखिए.’’ बाबूजी चुपचाप सुनते रहे. कुछ नहीं बोले. वैसे भी, आजकल वे बोलते कम ही हैं. छोटीछोटी बातों में शरारत कर अम्मा से मजे लेने की आदत तो उन की अम्मा के साथ ही चली गई. उन्हें रेशारेशा टूटते, खुद को बदलते मैं ने देखा है
मानो उन्होंने अम्मा बनने की मुहिम चला रखी हो. भीतर ही भीतर ठान लिया हो कि वे अम्मा की मेहनत को जाया नहीं होने देंगे. उस दिन रविवार था. उन्होंने शाम को मुझे और चिंटू को तैयार किया. दूध और ब्रैड हाथ में थमाते हुए बोले, ‘‘मीनू बेटा, चिंटू को सामने पार्क में घुमा ला. तब तक मैं रसोई का काम निबटा लूं. फिर हम पढ़ाई करेंगे.’’
मैं कुछ ही देर में पार्क से लौट आई, मन नहीं लग रहा था. लौटी तो देखा रसोई में गैस पर रखे कुकर में सीटी आ रही थी, पास ही भिंडी तल कर रखी हुई थी. थाली में आटा लगा हुआ था, ठीक जैसे अम्मा रखती थीं. मगर बाबूजी, बाबूजी तो रसोई में नहीं हैं? कमरे में जा कर देखा तो सुईधागा लिए बाबूजी चिंटू की उधड़ी पैंट सिलने की कोशिश कर रहे थे. पैंट नहीं…उधड़े रिश्ते सी रहे थे… जैसे अम्मा सीया करती थीं. आज ऐसा लग रहा था अम्मा पूरी की पूरी बाबूजी में उतर आई हों.
‘‘मु झे ‘सू’ कह कर पुकारो, पापा. कालिज में सभी मुझे इसी नाम से पुकारते हैं.’’ ‘‘अरे, अच्छाभला नाम रखा है हम ने…सुगंधा…अब इस नाम मेें भला क्या कमी है, बता तो,’’ नरेंद्र ने हैरान हो कर कहा.
‘‘बड़ा ओल्ड फैशन है…ऐसा लगता है जैसे रामायण या महाभारत का कोई करेक्टर है,’’ सुगंधा इतराती हुई बोली.
‘‘बातें सुनो इस की…कुल जमा 19 की है और बातें ऐसी करती है जैसे बहुत बड़ी हो,’’ नरेंद्र बड़बड़ाए, ‘‘अपनी मर्जी के कपड़े पहनती है…कालिज जाने के लिए सजना शुरू करती है तो पूरा घंटा लगाती है.’’
‘‘हमारी एक ही बेटी है,’’ नरेंद्र का बड़बड़ाना सुन कर रेवती चिल्लाई, ‘‘उसे भी ढंग से जीने नहीं देते…’’
‘‘अरे…मैं कौन होता हूं जो उस के काम में टांग अड़ाऊं ,’’ नरेंद्र तल्खी से बोले.
‘‘अड़ाना भी मत…अभी तो दिन हैं उस के फैशन के…कहीं तुम्हारी तरह इसे भी ऐसा ही पति मिल गया तो सारे अरमान चूल्हे में झोंकने पड़ेंगे.’’
‘‘अच्छा, तो आप हमारे साथ रह कर अपने अरमान चूल्हे में झोंक रही हैं…’’
‘‘एक कमी हो तो कहूं…’’
‘‘बात सुगंधा की हो रही है और तुम अपनी…’’
‘‘हूं, पापा…फिर वही सुगंधा…सू कहिए न.’’
‘‘अच्छा सू बेटी…तुम्हें कितने कपड़े चाहिए…अभी 15 दिन पहले ही तुम अपनी मम्मी के साथ शापिंग करने गई थीं… मैचिंग टाप, मैचिंग इयर रिंग्स, हेयर बैंड, ब्रेसलेट…न जाने क्याक्या खरीद कर लाईं.’’
‘‘पापा…मैचिंग हैंडबैग और शूज
भी चाहिए थे…वह तो पैसे ही खत्म हो गए थे.’’
‘‘क्या…’’ नरेंद्र चिल्लाए, ‘‘हमारे जमाने में तुम्हारी बूआ केवल 2 जोड़ी चप्पलों में पूरा साल निकाल देती थीं.’’
‘‘वह आप का जमाना था…यहां तो यह सब न होने पर हम लोग आउटडेटेड फील करते हैं…’’
‘‘और पढ़ाई के लिए कब वक्त निकलता है…जरा बताओ तो.’’
‘‘पढ़ाई…हमारे इंगलिश टीचर
पैपी यानी प्रभात हैं न…उन्होंने हमें अपने नोट्स फोटोस्टेट करने के लिए दे दिए हैं.’’
‘‘तुम्हारे इस पैपी की शिकायत मैं प्रिंसिपल से करूंगा.’’
‘‘पिं्रसी क्या कर लेगा…वह तो खुद पैपी के आगे चूहा बन जाता है…आखिर, पैपी यूनियन का प्रेसी है.’’
‘‘प्रेसी…तुम्हारा मतलब प्रेसीडेंट…’’ नरेंद्र ने उस की बात समझ कर कहा, ‘‘बेटा, बात को समझो…हम मध्यवर्गीय परिवार के सदस्य हैं…इस तरह फुजूलखर्ची हमें सूट नहीं करती.’’
‘‘बस…शुरू हो गया आप का टेपरिकार्डर,’’ रेवती चिढ़कर बोली, ‘‘हर वक्त मध्यवर्गीय…मध्यवर्गीय. अरे, कभी तो हमें उच्चवर्गीय होने दिया करो.’’
‘‘रेवती…तुम इसे बिगाड़ कर ही मानोगी…देख लेना पछताओगी,’’ नरेंद्र आपे से बाहर हो गए.
‘‘क्यों, क्या किया मैं ने? केवल उसे फैशनेबल कपड़े दिलवाने की तरफदारी मैं ने की…आप तो बिगड़ ही उठे,’’ सुगंधा की मां ने थोड़ी शांति से कहा.
‘‘मैं भी उसे कपड़े खरीदने से कब मना करता हूं…लेकिन जो भी करो सीमा में रह कर करो…जरा इसे कुछ रहनेसहने का सही सलीका समझाओ.’’
‘‘लो, अब कपड़े की बात छोड़ी तो सलीके पर आ गए…अब उस में क्या दिक्कत है, पापा,’’ सुगंधा ठुनकी.
‘‘तुम जब कालिज चली जाती हो तो तुम्हारी मां को घंटा भर लग कर तुम्हारा कमरा ठीक करना पड़ता है.’’
‘‘मैं ने कब कहा कि वह मेरे पीछे मेरा कमरा ठीक करें…मेरा कमरा जितना बेतरतीब रहे वही मुझे अच्छा लगता है…यही आजकल का फैशन है.’’
‘‘और साफसफाई रखना…सलीके से रहना?’’
‘‘ओल्ड फैशन…हर वक्त नीट- क्लीन और टाइडी जमाने के लोग रहते हैं…नए जमाने के यंगस्टर तो बस, कूल दिखना चाहते हैं…अच्छा, मैं चलती हूं…नहीं तो कालिज के लिए देर हो जाएगी.’’
अपने मोबाइल को छल्ले की तरह नचाती हुई वह चलती बनी. रेवती ने भी चिढ़ कर नाश्ते के बरतन उठाए और किचन में चली गई.
‘कहां गलती कर दी मैं ने इस बच्ची को संस्कार देने में,’ नरेंद्र अपनेआप से बोले, ‘नई पीढ़ी हमेशा फैशन के हिसाब से चलना पसंद करती है…इसे तो कुछ समझ ही नहीं है…एक बार मन में ठान ली उसे कर के ही मानती है. ऊपर से रेवती के लाड़प्यार ने इसे कामचोर और आरामतलब अलग बना दिया है. मैं रेवती को समझाता हूं कि पढ़ाई के साथ घर के कामकाज व उठनेबैठने, पहनने का सलीका तो इसे सिखाओ वरना इस की शादी में बड़ी मुश्किल होगी, तब वह तमक कर कहती है कि मेरी इतनी रूपवती बेटी को तो कोई भी पसंद कर लेगा…’
‘‘क्या बड़बड़ा रहे हैं अकेले में आप?’’ रेवती नरेंद्र से बोली.
‘‘तुम्हारी लाड़ली के बारे में सोच रहा हूं,’’ नरेंद्र ने चिढ़ कर कहा.
‘‘ओहो, अब आप शांत हो जाओ… कितना खून जलाते हो अपना…’’
‘‘सब तुम्हारे ही कारण जल रहा है…तुम उसे दिशाहीन कर रही हो.’’
‘‘आप ऐसा क्यों समझते हो जी, कि मैं उसे दिशाहीन कर रही हूं,’’ रेवती रहस्यमय ढंग से कहने लगी, ‘‘मुझे तो लगता है कि आप ने अपनी सुविधा के लिए उस से बहुत सी आशाएं लगा रखी हैं.’’
‘‘अब इकलौती संतान है तो उस से आशा करना क्या गलत है…बोलो, गलत है.’’
‘‘देखो,’’ रेवती समझाने के ढंग से बोली, ‘‘पुरानी पीढ़ी अकसर परंपरागत मान्यताओं, रूढि़यों और अपने तंग नजरिए को युवा पीढ़ी पर थोपना चाहती है जिसे युवा मन सहसा स्वीकार करने में संकोच करता है.’’
‘‘ठीक है, मेरा तंग नजरिया है… तुम लोगों का आधुनिक, तो आधुनिक ही सही,’’ नरेंद्र के बोलने में उन का निश्चय झलकने लगा था, ‘‘जब सारे समाज में ही परिवर्तन हो रहा है तो मेरा इस तरह से पिछड़ापन दिखाना तुम दोनों को गलत ही महसूस होगा.’’
‘‘ये हुई न समझदारी वाली बात,’’ रेवती ने खुश होते हुए कहा, ‘‘आप की और सू की लड़ाइयों से आजकल घर भी महाभारत बना हुआ है…आप उसे और उस की पीढ़ी को दोष देते हो…वह आप को और आप की पुरानी पीढ़ी को दोष देती है…’’
‘‘तुम ही बताओ, रेवती,’’ नरेंद्र ने अब हथियार डाल दिए, ‘‘क्या सुगंधा और उस की पीढ़ी के बच्चे दिशाहीन नहीं हैं?’’
रेवती चिढ़ कर बोली, ‘‘आप को तो एक ही रट लग गई है…अरे भई, दिशाहीनता के लिए युवा वर्ग दोषी नहीं है…दोषी समाज, शिक्षा, समय और राजनीति है.’’
नरेंद्र फिर चुप हो गए. लेकिन गहन चिंता में खो गए. ‘जैसे भी हो आज इस समस्या का हल ढूंढ़ना ही होगा,’ वह बड़बड़ाए, ‘सच ही है, हमारा भी समय था. मुझे भी पिताजी बहुत टोकते थे, ढंग के कपड़े पहनो…करीने से बाल बनाओ…समय पर खाना खाओ…रेडियो ज्यादा मत सुनो…बड़ों से अदब से बोलो…पैसा इतना खर्च मत करो. सही भाषा बोलो…ओह, कितनी वर्जनाएं होती थीं उन की, किंतु मैं और छुटकी उन की बातें मान जाते थे…यहां तो सुगंधा हमारी एक भी बात सुनने को तैयार नहीं.
‘उस से यही सुनने को मिलता है कि ओहो पापा, आप कुछ नहीं जानते. लेकिन मैं भी उसे क्यों दोष दे रहा हूं… जरूर मेरे समझाने का ढंग कुछ अलग है तभी उसे समझ नहीं आ रहा…उस की फुजूलखर्ची और फैशनपरस्ती से ध्यान हटाने के लिए मुझे कुछ न कुछ करना ही होगा.’
नरेंद्र अब उठ कर कमरे में चहलकदमी करने लगे. रेवती ने उन्हें कमरे में टहलते देखा तो चुपचाप दूसरे कमरे में चली गईं. अचानक नरेंद्र की आवाज आई, ‘‘रेवती, दरवाजा बंद कर लो. मैं अभी आता हूं.’’
रेवती दौड़ कर बाहर आई. दरवाजे से झांक कर देखा तो नरेंद्र कालोनी के छोर पर लंबेलंबे डग भरते नजर आए… उस ने गहरी सांस भर कर दरवाजा बंद किया.
अब उन्हें दुख तो होना ही है जब सुगंधा ने उन के द्वारा रखे अच्छेखासे नाम को बदल कर सू रख दिया.
वह भी घर में शांति चाहती है इसलिए विभिन्न तर्क दे दे कर दोनों को
चुप कराती रहती है…यह सही है
कि बेटी के लिए उस के मन में बहुत ज्यादा ममता है…वह नरेंद्र की
कही बात पर कांप उठती है, ‘रेवती, तुम्हारी अंधी ममता सुगंधा को कहीं बिगाड़ न दे.’
‘कहीं सचमुच सुगंधा दिशाहीन हो गई तो वह क्या करेगी…’ रेवती स्वयं से सवाल कर उठी, ‘सुगंधा जिस उम्र में पहुंची है वहां तो हमारा प्यार और धैर्य ही उसे काबू में रख सकता है. सुगंधा को उस की गलती का एहसास बुद्धिमानी से करवाना होगा…जिस से वह सोचने पर मजबूर हो कि वह गलत है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए.’ सुगंधा का बिखरा कमरा समेटते हुए रेवती सोचती जा रही थी.
शाम घिर आई थी…सुबह 11 बजे के निकले नरेंद्र अभी तक नहीं लौटे थे… अचानक बजी कालबेल ने उस का ध्यान खींचा. दरवाजा खोला तो नरेंद्र थे…हाथों में 4 बडे़बडे़ पैकेट लिए.
‘‘सुगंधा आ गई क्या?’’ नरेंद्र ने बेसब्री से पूछा.
‘‘नहीं…’’
‘‘आप कहां रह गए थे?’’
उस के प्रश्न को अनसुना कर के नरेंद्र बोले, ‘‘रेवती, जरा पानी ले आओ… बड़ी प्यास लगी है.’’
गिलास में पानी भरते समय उस के मन में कई प्रश्न घुमड़ रहे थे.
‘‘क्या है इन पैकेटों में?’’ गिलास पकड़ाते हुए उस ने उत्सुकता से पूछा.
‘‘तुम खुद देख लो,’’ नरेंद्र ने संक्षिप्त उत्तर दिया, ‘‘और सुनो, मेरा सामान दे दो…मैं जरा उन्हें ट्राई कर लूं… फिर तुम भी अपना सामान ट्राई कर लेना.’’
रेवती की हंसी कमरे में गूंज गई, ‘‘ये क्या, अपने लिए आसमानी रंग की पीले फूलों वाली शर्ट लाए हो क्या?’’ वह हंसती हुई बोली.
नरेंद्र ने उस के हाथ से शर्र्ट खींच कर कहा, ‘‘हां भई, हमारी लाड़ली फैशनपरस्त है. अब तो उस के पापा भी फैशनपरस्त बनेंगे तभी काम चलेगा.’’
‘‘और यह मजेंटा कलर का बरमूडा…यह भी आप का है?’’ रेवती के पेट में हंसतेहंसते बल पड़ रहे थे.
‘‘यह हंसी तुम संभाल कर रखो… अभी कहीं और न हंसना पडे़…ये देखो… तुम अपनी डे्रस देखो.’’
‘‘ये…ये क्या?’’ रेवती चौंक कर बोली, ‘‘आप का दिमाग खराब तो नहीं हो गया…खुद तो चटकीले ऊलजलूल कपडे़ ले आए, अब मुझे ये मिडी पहनाओगे….’’
‘‘क्यों भई, फैशनपरस्त बेटी की फैशनपरस्ती को तो खूब सराहती हो. अब मैं भी तो तुम्हें सराह लूं. चलो, जरा ये मिडी पहन कर दिखाओ.’’
‘‘आप का दिमाग तो सही है…इस उम्र में मैं मिडी पहनूंगी…मुझे नहीं पहननी,’’ रेवती भुनभुनाई.
‘‘चलो, जैसी तुम्हारी मर्जी. तुम्हें नहीं पहननी, न पहनो. मैं तो पहन रहा हूं,’’ कहते हुए नरेंद्र कपड़ों को हाथ में लिए बाथरूम में घुस गए.
‘‘अब समझ आया,’’ रेवती बोली, ‘‘देखें, आज पितापुत्री का युद्ध कहां तक खिंचता है…’’ वह मुसकराई किंतु साथ ही उस के दिमाग में विचार आया…उस ने फटाफट सामान समेटा और किचन में घुस गई.
‘‘ममा…ममा…’’ सुगंधा के चीखने की आवाज उसे सुनाई दी.
‘‘आ गई मेरी लाडली…’’ वह मुसकराती हुई कमरे में आई. सुगंधा की पीठ उस की ओर थी, ‘‘ममा, मेरा पिंक टाप नहीं दिखाई दे रहा. आप ने देखा… और आज आप ने मेरा रूम भी ठीक नहीं किया,’’ कहतेकहते सुगंधा मुड़ी तो हैरानी से उस का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘ममा, आप मिडी में…वह भी स्लीवलेस मिडी में.’’
क्यों, ‘‘क्या हुआ…क्या तुम ही फैशन कर सकती हो…हम नहीं,’’ नरेंद्र ने पीछे से आ कर कहा.
‘‘ऐं…पापा, आप बरमूडा में…क्या चक्कर है. पापा, आप तो ये ड्रेस चेंज कीजिए. कैसे अजीब लग रहे हैं…और मम्मी आप भी…कोई देखेगा तो क्या कहेगा.’’
‘‘क्यों, क्या कहेगा…यही कि हम 21वीं सदी के पेरेंट्स हैं…तुम्हें इन ड्रेसेस में क्या खराबी नजर आ रही है?’’
‘‘इन ड्रेसेस में कोई खराबी नहीं है,’’ सुगंधा ने सिर झटका, ‘‘कैसे दिख रहे हैं इन ड्रेसेस को पहन कर आप लोग.’’
‘‘मुझे पापा मत कहो, डैड कहो,’’ नरेंद्र बोले.
‘‘ऐं, डैड…’’ सुगंधा चौंकी, ‘‘क्या हो गया है आप को…ममा, पानी ले कर आओ…पापा की तबीयत वाकई खराब है.’’
तब तक रेवती कोल्डड्रिंक की बोतल ले कर पहुंच गई…सुगंधा ने कोल्डडिं्रक देख कर कहा, ‘‘हां, ममा, ये मुझे दो…आप पापा के लिए पानी ले कर आओ.’’
‘‘अरी हट….ये कोल्डडिं्रक तेरे पापा के लिए ही है…कह रहे हैं पानीवानी सब बंद, ओल्ड फैशन है…पीऊंगा तो केवल कोल्डडिं्रक या हार्डडिं्रक…’’
‘‘ऐं… ममा,’’ सुगंधा रोंआसी हो गई, ‘‘यह पापा को क्या हो गया है…’’
‘‘पापा नहीं, डैड…’’ नरेंद्र ने फिर बीच में टोका.
‘‘अरे, छोड़ अपने पापा को,’’ रेवती बोली, ‘‘बोल, आज डिनर में क्या बनाऊं? पिज्जा, बर्गर, सैंडविच, मैगी…या…’’
‘‘ममा, सचमुच आज आप यह सब बनाओगी…’’ सुगंधा खुश हो कर बोली.
‘‘आज ही नहीं, हमेशा ही बनाऊंगी,’’ रेवती ने पलंग पर बैठते हुए कहा.
‘‘क्या मतलब ?’’ सुगंधा फिर चौंकी.
‘‘मतलब यह कि आज से मैं ने और तेरे पापा ने निर्णय लिया है कि जो तुझे पसंद है वही इस घर में होगा…तुझे अपने पापा से शिकायत रहती है न कि वे तुझे टोकते रहते हैं.’’
‘‘ममा, आज क्या हो गया है आप लोगों को.’’
‘‘हमें कुछ नहीं हुआ है, बेटा,’’ नरेंद्र ने प्यार से कहा, ‘‘हम तो अपनी बेटी के रंग में रंगना चाहते हैं ताकि घर में शांति बनी रहे.’’
‘‘हां, हां…ये बरमूडा और मिडी पहन कर आप लोग घर में शांति जरूर करवा दोगे लेकिन बाहर अशांति छा जाएगी…लोग क्या कहेंगे कि…’’
‘‘यही तो मैं कहता हूं…आज तुम्हें भी समझ आ गई, सू…’’
‘‘हां, आप लोगों को देख कर मुझे यह बात समझ आ रही है कि फैशन उतना ही अच्छा लगता है जो दूसरों की निगाह में न खटके.’’
‘‘मेरी समझदार बच्ची,’’ रेवती भावविह्वल हो कर बोली.
‘‘बेटा…क्या हमारे पास एकमात्र यही रास्ता रह गया है कि बदलते हुए परिवेश से समझौता कर लें या पुराणपंथी दकियानूसी लकीर के फकीर कहलाएं…’’
सुगंधा अवाक् अपने पिता को देख रही थी.
नरेंद्र कह रहे थे, ‘‘तुम लोगों के पास जोश तो है बेटा लेकिन होश नहीं…तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि तुम्हारी पीढ़ी भी कल पुरानी हो जाएगी…तुम्हें भी नई पीढ़ी से ऐसा ही व्यवहार मिलेगा तब तुम्हारी बात कोई सुनने को तैयार नहीं होगा…’’
‘‘ठीक कहते हैं आप…युवा वर्ग और बुजुर्ग आपस में एकदूसरे के पूरक हैं…केवल दृष्टिकोण और कार्यों में दोनों एकदूसरे से बिलकुल विपरीत हैं,’’ सुगंधा ने कहते हुए सिर हिलाया.
‘‘और इन दोनों में जब आपसी समझदारी हो तो दोनों वर्गों के कार्यों और परिणामों में सफलता मिलनी ही निश्चित है.’’
‘‘आज से मेरा उलटीसीधी बातों पर जिद करना बंद. मुझे पता होता
कि आप मुझे इतना प्यार करते हैं तो मैं आप को कभी दुखी नहीं करती, पापा.’’
‘‘पापा नहीं, डैड…’’ नरेंद्र की इस बात पर तीनों खुल कर हंस पडे़ और हंसतेहंसते रेवती की आंखें बरस पड़ी यह सोच कर कि उस के समझदार पति ने उसे और उस की बेटी को दिशाहीन होने से बचा लिया.
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‘‘कैसे भागभाग कर काम कर रहा है रिंटू.’’ ‘‘हां, तो क्यों नहीं करेगा, आखिर उस की बहन सोना की सगाई जो है,’’ दूसरे शहर से आए रिश्तेदार आपस में बतिया रहे थे और घर वाले काम निबटाने में व्यस्त थे. लेकिन क्यों बारबार भाई है, बहन है कह कर जताया जा रहा था? थे तो रिंटू ओर सोनालिका बुआममेरे भाईबहन, किंतु क्या कारण था कि रिश्तेदार उन के रिश्ते को यों रेखांकित कर रहे थे?
‘‘पता नहीं मामीजी को क्या हो गया है, अंधी हो गईं हैं बेटे के मोह में. और, क्या बूआजी भी नहीं देख पा रहीं कि सोना क्या गुल खिलाती फिर रही है?’’ बड़ी भाभी सुबह नाश्ता बनाते समय रसोई में बुदबुदा रही थीं. रसोई में काम के साथ चुगलियों का छौंक काम की सारी थकान मिटा देती है. साथ में सब्जी काटती छोटी मामी भी बोलीं ‘‘हां, कल रात देखा मैं ने, कैसे एक ही रजाई में रिंटू और सोना…सब के सामने. कोई उन्हें टोकता क्यों नहीं?’’
‘‘अरे मामी, जब उन दोनों को कोई आपत्ति नहीं, उन की माताओं को कुछ दिखता नहीं तो कौन अपना सिर ओखली में दे कर मूसली से कुटवाएगा?’’ बड़ी भाभी की बात में दम था. रिश्तेदार पीठ पीछे बात करते नहीं थकते परंतु सामने बोल कर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? जो हो रहा है, होने दो. मजा लो, बातें बनाओ और तमाशा देखो. जब से सोनालिका किशोरावस्था की पगडंडी पर उतरी, तभी से उस के ममेरे भाई उस से 12 वर्ष बड़े रिंटू ने उस का हाथ थाम लिया. हर पारिवारिक समारोह में उसे अपने साथ लिए फिरता. अपनी गर्लफ्रैंड्स की रोचक कहानियां सुना उसे गुदगुदाता. सोनालिका भी रिंटू भैया के आते ही और किसी की ओर नहीं देखती. उसे तो बस रिंटू भैया की रसीली बातें भातीं. बातें करते हुए रिंटू कभी सोनालिका का हाथ पकड़े रहता, कभी कमर में बांह डाल देता तो कभी उस की नर्म बांहें सहलाता, देखते ही देखते, 1-2 सालों में रिंटू और सोनालिका एकदूसरे से बहुत हिलमिल गए. सोनालिका उसे अलगअलग लड़कियों के नाम ले छेड़ती तो रिंटू उस के पीछे भागता, और इसी पकड़मपकड़ाई में रिंटू उस के बदन के भिन्न हिस्सों को अपनी बाहों में भींच लेता. कच्ची उम्र का तकाजा कहें या भावनाओं का ज्वार, रिंटू की उपस्थिति सोनालिका के कपोल लाल कर देती, उस के नयन कभी शरारत में डूबे रिंटू के साथ अठखेलियां करते तो कभी मारे हया के जमीन में गड़ जाते. हर समारोह में रिंटू उसे ले एक ही रजाई में घुस जाता. ऊपर से तो कुछ ज्यादा दिखाई नहीं देता किंतु सभी अनुभव करते कि रिंटू और सोनालिका के हाथ आपस में उलझे रहते, रजाई के नीचे कुछ शारीरिक छेड़खानी भी चलती रहती.
उस रात रिंटू अपनी नवीनतम गर्लफ्रैंड का किस्सा सुना रहा था और सोनालिका पूरे चाव से रस ले रही थी, ‘रिंटू भैया, आप ने उस का हाथ पकड़ा तो उस ने मना नहीं किया?’
‘अरे, सिर्फ हाथ नहीं पकड़ा, और भी कुछ किया…’ रिंटू ने कुछ इस तरह आंख मटकाई कि उस का किस्सा सुनने हेतु सोनालिका उस के और करीब सरक आई. ‘मैं ने उस का चेहरा अपने हाथों में यों लिया और…’ कहते हुए रिंटू ने सोनालिका का मुख अपने हाथों में ले लिया और फिर डैमो सा देते हुए अपनी जबान से झट उस के होंठ चूम लिए. अकस्मात हुई इस घटना से सोनालिका अचंभित तो हुई किंतु उस के अंदर की षोडशी ने नेत्र मूंद कर उस क्षण का आनंद कुछ इस तरह लिया कि रिंटू की हिम्मत चौगुनी हो गई. उस ने उसी पल एक चुंबन अंकित कर दिया सोनालिका के अधरों पर. उस रात जब अंताक्षरी का खेल खेला गया तो सारे रिश्तेदारों के जमावड़े के बीच सोनालिका ने गाया, ‘शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा, अब हमें आप के कदमों ही में रहना होगा…’ उस की आंखें उस के अधरों के साथ कुछ ऐसी सांठगांठ कर बैठीं कि रिंटू की तरफ उठती उस की नजर देख सभी को शक हो गया. जो लज्जा उस का मुख ढक रही थी, उसी ने सारी पोलपट्टी खोल दी.
‘अरे सोना, यह 1968 की फिल्म ‘पड़ोसन’ का गाना तुझे कैसे याद आ गया? आजकल के बच्चे तो नएनए गाने गाते हैं,’ ताईजी ने तो कह भी दिया. जब रिंटू और सोनालिका की माताएं गपशप में व्यस्त हो जातीं, अन्य औरतें उन दोनों की रंगरेलियां देख चटकारे लेतीं. रिंटू की उम्र सोनालिका से काफी अधिक थी. सो, उस की शादी पहले हुई. रिंटू की शादी में सोनालिका ने खूब धूम मचाए रखी. किंतु जहां अन्य सभी भाईबहन ‘भाभीभाभी’ कह नईनवेली दुलहन रत्ना को घेरे रहते, वहीं सोनालिका केवल रिंटू के आसपास नजर आती. सब रिश्तेदार भी हैरान थे कि यह कैसा रिश्ता था दोनों के समक्ष – क्या अपनी शारीरिक इच्छा व इश्कबाज स्वभाव के चलते दोनों अपना रिश्ता भी भुला बैठे थे? सामाजिक मर्यादा को ताक पर रख, दोनों बिना किसी झिझक वो करते जो चाहते, वहां करते, जहां चाहते. उन्हें किसी की दृष्टि नहीं चुभती थी, उन्हें किसी का भय नहीं था.
रिंटू की शादी के बाद भी हर पारिवारिक गोष्ठी में सोनालिका ही उस के निकट बनी रहती. एक बार रिंटू की पत्नी, रत्ना ने सोनालिका और रिंटू को हाथों में हाथ लिए बैठे देखा. उसे शंका इस कारण हुई कि उसे कक्ष में प्रवेश करते देख रिंटू ने अपना हाथ वापस खींच लिया. बाद में पूछने पर रिंटू ने जोर दे कर उत्तर दिया, ‘कम औन यार, मेरी बहन है यह.’ उस बात को करीब 4 वर्ष के अंतराल के बाद आज रत्ना लगभग भुला चुकी थी. अगले दिन सोनालिका की सगाई थी. लड़का मातापिता ने ढूंढ़ा था. शादी से जुड़े उस के सुनहरे स्वप्न सिर्फ प्यारमुहब्बत तक सिमटे थे. इस का अधिकतम श्रेय रिंटू को जाता था. सालों से सोनालिका को एक प्रेमावेशपूर्ण छवि दिखा, प्रेमालाप के किस्से सुना कर उस ने सोना के मानसपटल पर बेहद रूमानी कल्पनाओं के जो चित्र उकेरे थे, उन के परे देखना उस के लिए काफी कठिन था. सगाई हुई, और शादी भी हो गई. मगर अपने ससुराल पहुंच कर सोनालिका ने अपने पति का स्वभाव काफी शुष्क पाया. ऐसा नहीं कि उस ने अपने पति के साथ समायोजन की चेष्टा नहीं की. सालभर में बिटिया भी गोद में आ गई किंतु उन के रूखे व्यवहार के आगे सोनालिका भी मुरझाने लगी. डेढ़ साल बाद जब छोटी बहन की शादी में वो मायके आई तो रिंटू से मिल कर एक बार फिर खिल उठी थी. शादी में आई सारी औरतें सोनालिका और रिंटू को एक बार फिर समीप देख अचंभित थीं.
‘‘अब तो शादी भी हो गई, बच्ची भी हो गई, तब भी? हद है भाई सोना की,’’ बड़ी भाभी बुदबुदा रही थीं कि रत्ना रसोई में आ गई.
‘‘क्या हुआ भाभी?’’ रत्ना के पूछने पर बड़ी भाभी ने मौके का फायदा उठा सरलता और बेबाकी से कह डाला, ‘‘कहना तो काफी दिनों से चाहती थी, रत्ना, पर आज बात उठी है तो बताए देती हूं – जरा ध्यान रखना रिंटू का. यह सोना है न, शुरू से ही रिंटू के पीछे लगी रहती है. अब कहने को तो भाईबहन हैं पर क्या चलता है दोनों के बीच, यह किसी से छिपा नहीं है. तुम रिंटू की पत्नी हो, इसलिए तुम्हारा कर्तव्य है अपनी गृहस्थी की रक्षा करना, सो बता रही हूं.’’ बड़ी भाभी की बात सुन रत्ना का चिंतित होना स्वाभाविक था. माथे पर उभर आई पसीने की बूंदों को पोंछती वह बाहर आई तो सोनालिका और रिंटू के स्वर सुन वो किवाड़ की ओट में हो ली.
‘‘कैसी चुप सी हो गई है सोना. क्या बात है? मेरी सोना तो हमेशा हंसतीखेलती रहती थी,’’ रिंटू कह रहा था और साथ ही सोनालिका के केशों में अपनी उंगलियां फिराता जा रहा था.
‘‘रिंटू, आप जैसा कोई मिल जाता तो बात ही क्या थी. क्या यार, हम भाईबहन क्यों हैं? क्या कुछ भी नहीं हो सकता?’’ कहते हुए सोनालिका रिंटू की छाती से लगी खड़ी थी कि रत्ना कमरे में प्रविष्ट हो गई. दोनों हतप्रभ हो गए और जल्दी स्वयं को व्यवस्थित करने लगे.
‘‘भाभी, आओ न. मैं रिंटू भैया से कह रही थी कि इतना सुहावना मौसम हो रहा है और ये हैं कि कमरे में घुसे हुए हैं. चलो न छत पर चल कर कुछ अच्छी सैल्फी लेते हैं,’’ कहते हुए सोनालिका, रिंटू का हाथ पकड़ खींचने लगी.
‘‘नहीं, अभी नहीं, मुझे कुछ काम है इन से,’’ रत्ना के रुखाई से बोलने के साथ ही बाहर से बूआजी का स्वर सुनाई पड़ा. ‘‘सोना, जल्दी आ, देख जमाई राजा आए हैं.’’ सोनालिका चुपचाप बाहर चली गई. उस शाम रत्ना और रिंटू का बहुत झगड़ा हुआ. बड़ी भाभी ने भले ही सारा ठीकरा सोनालिका के सिर फोड़ा था पर रत्ना की दृष्टि में उस का अपना पति भी उतना ही जिम्मेदार था. शायद कुछ अधिक क्योंकि वह सोनालिका से कई वर्ष बड़ा था. आज रिंटू का कोई भी बहाना रत्ना के गले नहीं उतर रहा था. पर अगली दोपहर फिर रत्ना ने पाया कि सोनालिका सैल्फी ले रही थी और इसी बहाने उस का व रिंटू का चेहरा एकदम चिपका हुआ था. ये कार्यकलाप भी सभी के बीच हो रहा था. सभी की आंखों में एक मखौल था लेकिन होंठों पर चुप्पी. रत्ना के अंदर कुछ चटक गया. रिंटू की ओर उस की वेदनाभरी दृष्टि भी जब बेकार हो गई तब वह अपने कमरे में आ कर निढाल हो बिस्तर पर लेट गई. पसीने से उस का पूरा बदन भीग चुका था. आंख मूंद कर कुछ क्षण यों ही पड़ी रही.
फिर अचानक ही उठ कर रिंटू की अलमारी में कुछ टटोलने लगी. और ऐसे अचानक ही उस के हाथ एक गुलाबी लिफाफा लग गया. जैसे इसे ही ढूंढ़ रही थी वह – फौरन खोल कर पढ़ने लगी : ‘रिंटू जी, (कम से कम यहां तो आप को ‘भैया’ कहने से मुक्ति मिली.)
‘मैं कैसे समझाऊं अपने मन को? यह है कि बारबार आप की ओर लपकता है. क्या करूं, भावनाएं हैं कि मेरी सुनती नहीं, और रिश्ता ऐसा है कि इन भावनाओं को अनैतिकता की श्रेणी में रख दिया है. यह कहां फंस गई मैं? जब से आप से लौ लगी है, अन्य कहीं रोशनी दिखती ही नहीं. आप ने तो पहले ही शादी कर ली, और अब मेरी होने जा रही है. कैसे स्वीकार पाऊंगी मैं किसी और को? कहीं अंतरंग पलों में आप का नाम मुख से निकल गया तो? सोच कर ही कांप उठती हूं. कुछ तो उपाय करो.
‘हर पल आप के प्रेम में सराबोर.
‘बस आप की, सोना.’
रत्ना के हाथ कांप गए, प्रेमपत्र हाथों से छूट गया. उस का सिर घूमने लगा – भाईबहन में ऐसा रिश्ता? सोचसोच कर रत्ना थक चुकी थी. लग रहा था उस का दिमाग फट जाएगा. हालांकि कमरे में सन्नाटा बिखरा था पर रत्ना के भीतर आंसुओं ने शोर मचाया हुआ था. इस मनमस्तिष्क की ऊहापोह में उस ने एक निर्णय ले लिया. वह उसी समय अपना सामान बांध मायके लौट गई. सारे घर में हलचल मच गई. सभी रिश्तेदार गुपचुप सोनालिका को इस का दोषी ठहरा रहे थे. लेकिन सोनालिका प्रसन्न थी. उस की राह का एक रोड़ा स्वयं ही हट गया था. इसी बीच शादी में शामिल होने पहुंचे सोनालिका के पति के कानों में भी सारी बातें पड़ गईं. ऐसी बातें कहां छिपती हैं भला? जब उन्होंने अपनी पत्नी सोनालिका से बात साफ करनी चाही तो उस ने उलटा उन्हें ही चार बातें सुना दीं, ‘‘आप की मुझे कुछ भी बोलने की हैसियत नहीं है. पहले रिंटू भैया जैसा बन कर दिखाइए, फिर उन पर उंगली उठाइएगा.’’ भन्नाती हुई सोनालिका कमरे से बाहर निकल गई. हैरानपरेशान से उस के पति भी बरामदे में जा रहे थे कि रत्ना के हाथों से उड़ा सोनालिका रिंटू का प्रेमपत्र उन के कदमों में आ गया. मानो सोनालिका की सारी परतें उन के समक्ष खुल कर रह गईं. उन्हें गहरी ठेस लगी. गृहस्थी की वह गाड़ी आगे कैसे चले, जिस में पहले से ही पंचर हो. दिल कसमसा उठा, मन उचाट हो गया. किसी को पता भी नहीं चला कि वे कब घर छोड़ कर लौट चुके थे.
एक अवैध रिश्ते के कारण आज 2 घर उजड़ चुके थे. रिश्तेदारों द्वारा बात उठाने पर रिंटू ऐसी किसी भी बात से साफ मुकर गया, ‘‘कैसी बात कर रहे हैं आप लोग? शर्म नहीं आती, सोना मेरी बहन है. लेकिन प्रेमपत्र हाथ लगने से सारी रिश्तेदारी में सोनालिका का नाम बदनाम हो चुका था. इस का भी उत्तर था रिंटू के पास, ‘‘सोना छोटी थी, उस का मन बहक गया होगा. उसे समझाइए. अब वह एक बच्ची की मां है, यह सब उसे शोभा नहीं देता.’’ पुरुषप्रधान समाज में एक आदमी ने जो कह दिया, रिश्तेनातेदार उसी को मान लेते हैं. गलती केवल औरत की निकाली जाती है. प्यार किया तो क्यों किया? उस की हिम्मत कैसे हुई कोई कदम उठाने की? और फिर यहां तो रिश्ता भी ऐसा है कि हर तरफ थूथू होने लगी.
सोनालिका एक कमरे में बंद, अपना चेहरा हाथों से ढांपे, सिर घुटनों में टिकाए जाने कब तक बैठी रही. रात कैसे बीती, पता नहीं. सुबह जब महरी साफसफाई करने गई तो देखा सोनालिका का कोई सामान घर में नहीं था. वह रात को 2 अटैचियों में सारा सामान, जेवर, पैसे ले कर चली गई थी, महीनों तक पता नहीं चला कि रिंटू और सोनालिका कहां हैं. दोनों घरों ने कोई पुलिस रिपोर्ट नहीं कराई क्योंकि दोनों घर जानते थे कि सचाई क्या है. फिर उड़तीउड़ती खबर आई कि मनाली के रिजौर्ट में दोनों ने नौकरी कर ली है और साथसाथ रह रहे हैं, पतिपत्नी की तरह या वैसे ही, कौन जानता है.
प्रकृति ने फूलों के साथ कांटे उगा कर हम स्त्रियों को पूरी तरह से आगाह करने का प्रयास किया है. अब हम ही नासमझ बने रहें तो फिर दोष किसी और को क्यों? हमें अपने कांटों का इस्तेमाल अपने बचाव में अवश्य ही करना चाहिए. वैष्णवी का अवचेतन मष्तिष्क इन दिनों बहुत गहराई से सोचनेविचारने लगा था. उस ने भी अपने कांटों का इस्तेमाल करने का फैसला कर लिया अपने प्रोफैसर के खिलाफ.
‘सर, मेरी थीसिस कंपलीट हो गई, मेरा वायवा करवा दीजिए ताकि मुझे डिग्री मिल जाए,’ एक दिन वैष्णवी ने अपने गाइड से आग्रह किया.
‘डिग्री के लिए केवल थीसिस और वायवा ही काफी नहीं होता, कुछ दूसरी फौर्मेलिटीज भी होती हैं,’ प्रोफैसर कुटिलता से मुसकराया.
वैष्णवी उस का मतलब बखूबी समझ रही थी. ‘हो जाएगा सर. मैं तो नई स्कौलर हूं, आप तो बरसों से पीएचडी करवा रहे हैं. आप इस लाइन के नियम मुझ से बेहतर जानते हैं. आप जैसा कहेंगे, वैसा हो जाएगा.’ वैष्णवी ने उन्हें आश्वासन दिया तो प्रोफैसर की बांछें खिल गईं. वैष्णवी को लगा मानो उन के मुंह से लार टपकने ही वाली थी जिसे उन्होंने बहुत सतर्कता से रूमाल में लपेट लिया था.
वैष्णवी के फाइनल वायवा का दिन और समय निश्चित हो गया. कुल 3 लोग पैनल में शामिल हो रहे थे. 2 बाहर से तथा 1 स्वयं उस के गाइड प्रोफैसर थे. अलिखित नियमों के अनुसार, सभी के रहनेखाने और आनेजाने की व्यवस्था वैष्णवी को ही करनी थी. जाते समय 2 लिफाफे भी परीक्षकों को थमाने थे. वैष्णवी के गाइड ने अपना मेहनताना बाद के लिए रिजर्व रख लिया.
सबकुछ बहुत अच्छे से निबट गया. वैष्णवी का वायवा भी बहुत अच्छा हुआ था. दोनों परीक्षक उस की मेहमाननवाजी से भी संतुष्ट थे. वैष्णवी ने यह पड़ाव कुशलता से पार कर लिया था. अब उसे केवल अपने गाइड से निबटना शेष था.
कहा जाता है कि खाना खाने के बाद हाथ धोना ही शेष बचता है. वैष्णवी ने भी अपने गाइड के सामने फिंगर बाउल रख दिया. वायवा होने और थीसिस जमा होने की औपचारिकता पूरी होने के बाद अब गाइड के हाथ में कुछ भी शेष नहीं था. प्रोफैसर को वैष्णवी से ऐसा कुछ भी हासिल नहीं हो सका जिस की वह उस कमसिन देह से उम्मीद कर रहा था. एकदो बार प्रोफैसर ने उसे बहाने से अकेले में बुलाया भी लेकिन हर बार वैष्णवी अपनी किसी न किसी सहेली के साथ ही उस से मिली. वैष्णवी अपनी इस सफलता पर बहुत खुश थी. शायद वह पुरुषों की इस दुनिया में अपने तरीके से जीना सीखने लगी थी.
पीएचडी करने के बाद वैष्णवी को एक विश्वविद्यालय में नौकरी मिल गई. ब्यूटी विद ब्रेन… और दोनों ही मामलों में इक्कीस… ऐसा संगम कम ही देखने को मिलता है. वैष्णवी के लिए रिश्तों का सैलाब उमड़ने लगा. इतने रिश्ते तो तब भी नहीं आए थे जब वह कुंआरी थी.
थर्ड ग्रेड से ले कर राजपत्रित अधिकारी तक वैष्णवी से विवाह करने के लिए कतार में लगे थे. वैष्णवी को हैरानी तो तब हुई जब एक रिश्तेदार ने चतुर्थ श्रेणी तकनीकी सहायक का रिश्ता उस के लिए सुझाया. प्रस्ताव सुनते ही वैष्णवी उखड़ गई.
‘आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हो… एक प्रोफैसर के लिए यह रिश्ता? कुछ तो मेरे स्तर का खयाल किया होता,’ वैष्णवी ने गुस्से से कहा.
‘दूसरी शादी है तुम्हारी. ऐसे ब्याहों में विकल्प नहीं होते. तीस पार को वर मिल रहा है, यही क्या कम है,’ रिश्तेदार ने मुंह मरोड़ते हुए कहा तो वैष्णवी तिलमिला गई. क्षोभ और क्रोध से आंखें भर आईं. मन में विद्रोह का संचार हुआ.
‘जब लोग मुझे विकल्प के रूप में देख रहे हैं तो मैं भी ऐसा ही क्यों न करूं? मेरे सामने तो ढेरों विकल्प हैं. क्यों मैं अपने विधवापन को बेचारगी से देखूं? नियति ने जो किया सो किया लेकिन उस की भरपाई भी तो करने की कोशिश की है. व्योम के रहते शायद मुझे यह सब न मिलता जो उस के नहीं होने से मिला है. जो चला गया उस के लिए मैं क्यों शोक मनाऊं? क्यों न जो मिला है उस का स्वागत करूं?’ ऐसे विचार मन में आते ही कवि हरिवंश राय बच्चन जी की कविता ‘जो बीत गई सो बात गई…’ वैष्णवी के जेहन में कौंध गई. वह एक नए उत्साह से भर उठी. उस ने मां से उन सभी लड़कों के प्रोफाइल मांग लिए जो उस से विवाह करने के लिए लालायित थे.
अब वह किसी के लिए विकल्प नहीं थी बल्कि स्वयं अपने लिए बेहतर विकल्प की तलाश करने के लिए कृतसंकल्प थी.
रमाकांत न्यूज देख रहे थे. वह जा कर चुपचाप वहां खड़ी हो गई. उन्होंने एक बार उसे देखा और न्यूज देखने लगे. वह फिर भी खड़ी रही. जब देर तक पापा ने कुछ नहीं कहा तब वह उन के पास चली गई और धीरे से बोली, ‘‘पापा.’’
रमाकांत ने सिर उठा कर देखा तो वह बोली, ‘‘पापा मैं कुछ कहना चाहती हूं.’’
‘‘अब कहने को क्या रह गया है?’’
व नाराज हो उठने ही वाले थे कि सुधा ने दौड़ कर पापा के पैर पकड़ लिए, ‘‘पापा मुझे माफ कर दीजिए. मुझ से बहुत भारी भूल हो गई पापा.’’
सुधा के रोने की आवाज सुन कर मां और दीपू दोनों पास आ कर खडे़ हो गए. सुधा जोरजोर से रो रही थी और बोल रही थी, ‘‘पापा एक बार मुझे माफ कर दीजिए. अब मैं वही करूंगी जो आप लोग कहेंगे. मुझे पता है मैं ने आप सभी लोगों का दिल दुखाया है. इस भूल के लिए मैं दिल से माफी मांगती हूं. विश्वास कीजिए अब मैं एक अच्छी बेटी…’’
रोतेरोते सुधा बेहोश हो गई. मां और पापा दोनों ने उसे पकड़ कर सोफे पर बैठाया. दीपू दौड़ कर पानी ले आया.
‘‘सुधा पानी पी लो,’’ सुधा को होश आया तो देखा पापा का हाथ सुधा के सिर के नीचे था. उस के आंख खोलने के बाद हटा लिया और उठ कर जाने लगे.
सुधा ने उन का हाथ पकड़ लिया और कातर स्वर में बोली, ‘‘पापा.’’
‘‘जाओ आराम करो… तबीयत खराब हो जाएगी,’’ बोल कर रमाकांत कमरे में चले गए.
सुधा ने मां से पूछा, ‘‘मां पापा बहुत नाराज हैं न.’’
‘‘देखो सुधा नाराजगी कोई केतली में गरम होता पानी तो नहीं न कि ढक्कन हटाए और भाप की तरह गुस्सा खत्म. पापा को तुम जानती हो उन के मन को ठेस लगी है समय लगेगा… पापा को थोड़ा समय देना होगा. जाओ सो जाओ वरना तबीयत खराब हो जाएगी.’’
सुधा बो िझल कदमों से अपने कमरे में चली गई. नींद नहीं आ रही थी पर अब वह हताशा से थोड़ा उबर रही थी. पापा नाराज हैं पर अभी भी उतना ही प्यार करते हैं. वह कितनी बेवकूफ थी जो सबकुछ भूल कर उस धोखेबाज के साथ चल दी. कहीं गलती से शादी हो जाती तब? अब तो उस के बारे में सोचना भी गुनाह है. बस एक बार पापा माफ कर दें. कुदरत मेरे मांपापा को हमेशा खुश रखना, वह मन से प्रार्थना करने लगी.
सभी सामान्य होने की कोशिश कर रहे थे. सुधा को वापस आए अब कुछ समय हो गया था. एक दिन रात के खाने के समय रमाकांत ने सुधा से पूछा, ‘‘कितने दिनों तक कालेज नहीं जाना है.’’
‘‘अगर आप कहेंगे तभी जाऊंगी,’’ खुश हो कर सुधा ने धीरे से कहा, ‘‘कल आधार दे देना. नया नंबर लेना है,’’ सुधा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.वह कालेज जाने की बात से खुश थी.
सुबह तैयार हो कर पापा के साथ जाने को थी कि भारती आ गईं बोली, ‘‘कितने दिन मैं कालेज नहीं गई… मु झे अपने नोट्स दे देना.’’
सुधा क्या बोले. तब तक मां ने कह दिया, ‘‘यह भी नहीं जा पाई. पहले मेरी तबीयत खराब हो गई, फिर इस की. देखो न चेहरा कैसे सूख गया है.’’
मां देवी है कैसे बात संभाल लेती है. उसे अपनी मां पर गर्व हो रहा था. सुधा की मां के मन से चैन गायब हो गया था. मां को अभी मोबाइल देना नहीं जंच रहा था. थोड़ी निगरानी रखनी पडेगी. विश्वास रखना अच्छी बात है, लेकिन एकदम से खुला छोड़ देने में खतरा है. कहीं वह लड़का रास्ते में आया तब.
सुधा एक अच्छी लडकी थी. साफ मन की थी बस थोड़ी नादान बेवकूफ थी. इस उम्र में लड़कियां सपनों की दुनिया में रहती हैं. उन्हें वरदी वाला लड़का बहुत भाता है, फिर नौर्थ बिहार में तो आईएएस और आईपीएस का बड़ा बोलबाला होता है. हर मां सोचती है कि काश उस का दामाद आईएस या आईपीएस हो. उसी तरह हर लड़की का भी यही सपना रहता है.
सुधा उम्र के जिस दौर से गुजर रही थी उस में सपनों में जीने में मजा आता है. वह हकीकत की दुनिया से परे दुनिया है. कुछ लोग इस उम्र को बडे़ सलीके से लेते हैं. कुछ सपनों की दुनिया बना कर खुद को बरबाद कर डालते हैं. अब लीला देवी को सुधा के विवाह की चिंता सताने लगी. वह स्वयं कम शिक्षित थी. पहले मां की इच्छा थी कि वह सुधा को उच्य से उच्य शिक्षा दिलाए पर अब परिस्थितियां बदल गई थीं. मन में शंकाओं ने डेरा जमा लिया था कि कहीं वह लफंगा सुधा को हानि न पहुंचाने की कोशिश करे. सुधा की मां ने अपना फैसला सुना दिया.
सुधा का जीवन अब सामान्य हो चला था. वह अपने व्यवहार से सभी को संतुष्ट करने के प्रयास में सफल हो रही थी. वह सब से अधिक कालेज जाने से खुश थी. सुधा एक अच्छी छात्रा थी. अच्छे नंबरों से पास होती थी. वह अर्थशात्र में बी.ए. कर रही थी. उस का सपना प्रोफैसर बनने का था. परीक्षा भी नजदीक है. मात्र 2 महीने ही बचे हैं. बस एक बात उसे खटक रही थी कि मांपापा जल्दी उस की शादी कराना चाहते हैं. इतना सम झ में तो आ गया कि यह शीघ्रता किस कारण से हो रही है. मां तो उस के उच्य शिक्षा के पक्ष में थी. उस का मन कचोट उठा कि अभी तो उस का मन मांपापा के साथ रहने को कर रहा था.
वक्त बीतते देर नहीं लगती. सुधा की परीक्षा खत्म हो गई थी. खाली समय काटते नहीं कटता. पहले स्कैचिंग पेंटिंग का शौक था, लेकिन उस छिछोरे के कारण सबकुछ छूट गया था. उस ने स्कैचिंग फिर शुरू की. उस के पापा ने उसे स्कैच करते देखा तो लीला देवी की नाराजगी की परवाह न करते हुए उस का नाम पेंटिंग स्कूल में लिखा दिया.
विवाह के लिए लड़के की खोज जारी थी किसी परिचित ने एक अच्छा रिश्ता बताया. लड़का जमशेदपुर से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर के बैंगलुरु में कार्यरत था. उस की एक बड़ी बहन है जिस की शादी हो चुकी है. वह कोलकाता में रहती है. मातापिता पटना में हैं. रमाकांत ने पत्नी लीला से चर्चा की. लीला देवी को बैंगलुरु का नाम सुन कर थोड़ा दुख लगा कि बेटी दूर चली जाएगी. पर एक बात की खुशी थी कि ससुराल पटना में है तब बेटी से मिलना हो पाएगा. बातचीत शुरू हुई. सारी बात तय हो गई. कुंडली भी अच्छी मिली. बस अब इंतजार लड़के का था. लीला देवी ने लडके की तसवीर सुधा को दिखाना चाही.
सुधा देखने के लिए तैयार नहीं थी, ‘‘मां मुझे नहीं देखनी है तुम लोगों ने देखी मेरे लिए यही काफी है… तुम लोगों से ज्यादा मेरा भला कौन सोच सकता है.’’
1 महीने बाद खबर आई कि लड़का 1 सप्ताह के लिए आने वाला है लड़की को दिखा दिया जाए. बहुत डांटफटकार के बाद सुधा पार्लर गई. शाम को सुधा तैयार हो रही थी. वह बहुत घबराई हुई थी. जब किसी लडकी की शादी की बात चलती है तब उस के दिल में कितनी तमन्नाएं, कितने अरमान, हसरतें अंगड़ाइयां लेने लगती हैं. पर सुधा के साथ ऐसा कुछ नहीं था. रोमांच का तो नामोनिशान नहीं था. अतीत की घटना, आने वाले पल की आशंका सब मिल कर उसे खुश नहीं होने दे रहे थे. मां तैयार हो कर सुधा को देखने आई सुधा को तैयार देख कर बोली, ‘‘काजल नहीं लगाया,. लगा ले आंखें सुना लग रही हैं.’’
‘‘मां, मुझे क्यों मजबूर कर रही हो? मैं यह विवाह नहीं करूंगी,’’ नीलम ने करुण आवाज में रोतेरोते कहा. ‘‘नहीं, बेटी, यह मजबूरी नहीं है. हम तो तेरी भलाई के लिए ही सबकुछ कर रहे हैं. ऐसे रिश्ते बारबार नहीं आते. आनंद कितना सुंदर, सुशील और होनहार लड़का है. अच्छी नौकरी, अच्छा खानदान और अच्छा घरबार. ऐसे अवसर को ठुकराना क्या कोई अक्लमंदी है,’’ नीलम की मां ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.
‘‘नहीं, मां, नहीं. यह कभी नहीं हो सकता. मां, तुम तो जानती ही हो कि मैं गठिया रोग से पीडि़त हूं. हर तरह का इलाज कराने पर भी मैं ठीक नहीं हो पाई हूं. उन्होंने तो बस मेरा चेहरा और कपड़ों से ढके शरीर को देख कर ही मुझे पसंद किया है. क्या यह उन के साथ विश्वासघात नहीं होगा?’’ नीलम ने रोंआसा मुंह बनाते हुए कहा.
मां पर नीलम की बातों का कोई असर नहीं हुआ. वह तनिक भी विचलित नहीं हुईं. वह तो किसी भी तरह नीलम के हाथ पीले कर देना चाहती थीं.
जब नीलम सीधी तरह मानने को तैयार नहीं हुई तो उन्होंने डांट कर उसे समझाते हुए कहा, ‘‘बेटी, तुझे मालूम है कि तेरे पिता नहीं हैं. भाई भी अमेरिका में रंगरेलियां मना रहा है. उसे तो तेरी और मेरी कोई चिंता ही नहीं है. जो पैसा था वह मैं ने उस की पढ़ाई में लगा दिया. मेरे भाइयों ने तो सुध भी नहीं ली कि हम जिंदा हैं या मर गए. राखी का भी उत्तर नहीं देते कि कहीं मैं कुछ उन से मांग न लूं.
‘‘बेटी, जिद नहीं करते. थोड़े से छिपाव से सारा जीवन सुखी हो जाएगा. डाक्टरों का कहना है कि विवाह के बाद यह रोग भी दूर हो जाएगा. फिर आनंद के परिवार वाले कितने अच्छे हैं. उन्होंने दहेज के लिए साफ मना कर दिया है.’’
नीलम मां की बातें और अधिक देर तक नहीं सुन सकी. वह वहां से उठी और अपने कमरे में जा कर पलंग पर औंधी लेट गई. उस के मन में भयंकर तूफान उठ रहा था. अपने विचारों में उलझी हुई वह अपने अतीत में खो गई.
वह जब 7 साल की थी तो उस के सिर से पिता का साया उठ गया था. वह एक संपन्न परिवार की सब से छोटी संतान थी. उस के अलावा एक भाई और 2 बहनें थीं. नीलम मां की लाड़ली थी. पिता भी उसे बहुत प्यार करते थे और अकसर उसे अपने कंधे पर बिठा कर घुमाया करते थे. नीलम की बड़ी बहन इला दिल्ली रेडियो स्टेशन पर उद्घोषिका थी. वह भी नीलम से अत्यधिक स्नेह करती थी.
इला, नीलम को अपने साथ दिल्ली ले आई और उस की पढ़ाई का सारा जिम्मा अपने ऊपर ले लिया. इला ने नीलम को अपनी बच्ची की तरह प्यार किया. उस की हर इच्छा पूरी करने का भरसक प्रयास किया. जब इला ने अपने एक सहयोगी करुणशंकर से प्रेम विवाह किया तो उस ने नीलम को भी अपने साथ रखने की शर्त रखी थी.
करुणशंकर स्वभाव से विनम्र, शांत स्वभाव के और पत्नीभक्त थे. घर में इला का रोब चलता था और वह उस के इशारे पर नाचते रहते थे. उन के एक छोटे भाई भी दिल्ली में ही सरकारी नौकरी में थे, परंतु उन्हें अपनी पत्नी की छोटी बहन नीलम की देखरेख की ही ज्यादा चिंता थी.
एम.ए. पास करने के बाद नीलम एक प्राइवेट कंपनी में प्रचार अधिकारी के पद पर नियुक्त हो गई. अपने कार्यक्षेत्र में उसे अनेक पुरुषों के साथ उठनाबैठना पड़ता था, परंतु कोई उस के चरित्र की ओर उंगली तक नहीं उठा सकता था. वह हंसमुख और चंचल अवश्य थी परंतु एक हद तक तहजीब और खातिरदारी उस के चरित्र के विशेष गुण थे. उस के अधिकारी उस के व्यवहार और सुंदरता दोनों से ही प्रभावित थे. कंपनी के प्रबंध निदेशक तो उसे अपनी कंपनी की गुडि़या कहा करते थे.
मां उस से विवाह के लिए अनेक बार अनुरोध कर चुकी थी, परंतु वह हर बार टाल देती थी. वह हर समय सोचती कि विवाह से भला वह कैसे किसी की जिंदगी में विष घोल सकती है. मां भी जानती थीं कि उसे गठिया की बीमारी है. नीलम इस बीमारी के कारण रात में सो नहीं पाती थी. एलोपैथी, आयुर्वेद और होमियोपैथी के इलाज का भी उस की इस बीमारी पर कोई असर नहीं पड़ा.
कई बार तो उस के पैर और हाथ इतने सूज जाते थे कि वह परेशान हो उठती थी. उस की देखभाल उस के जीजा ही करते थे, क्योंकि उस की बहन का तबादला दूसरी जगह हो गया था.
नीलम ने बिस्तर पर लेटेलेटे ही अपने मन को समझाने की कोशिश की. वह निश्चय कर चुकी थी कि वह यह विवाह कदापि नहीं करेगी पर मां थीं कि उस की बात मान ही नहीं रही थीं.
विवाह की तारीख नजदीक आ रही थी. नीलम को ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे वह बहुत बड़ा विश्वासघात करने जा रही है. वह अपनी मां, बहन और जीजाजी सभी से विनती कर चुकी थी, परंतु कोई भी उस की मदद करने को तैयार नहीं था.
आखिर नीलम से नहीं रहा गया. उस ने हिम्मत बटोरी और स्वयं ही इस समस्या का समाधान करने का निश्चय कर लिया.
विवाह की तारीख से 3 दिन पहले शाम को उस ने सब से बढि़या साड़ी पहनी. पूरा शृंगार किया और बिना किसी को बताए अपने होने वाले पति आनंद के घर की ओर चल दी.
संयोग से आनंद घर पर ही था. नीलम को इस प्रकार आते देख कर वह कुछ हैरान हुआ. उस ने अपनेआप को संभाला और मुसकराते हुए नीलम का स्वागत किया.
नीलम बहुत पसोपेश में थी. वह बात को कैसे चलाए. आखिर आनंद ने ही बात का सिलसिला छेड़ते हुए कहा, ‘‘नीलम, 3 दिन पहले ही विवाह की शुभकामनाएं अर्पित करता हूं.’’
आनंद के ये शब्द सुनते ही नीलम सिसकसिसक कर रोने लगी. उस ने आनंद के सामने अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘आनंद, मैं तुम से प्रार्थना करती हूं कि इस विवाह को तोड़ दो. मेरे ऊपर कोई दोष लगा दो. तुम्हें शायद मालूम नहीं है कि मैं गठिया रोग से पीडि़त हूं. मैं किसी भी तरह तुम्हारी पत्नी बनने के काबिल नहीं हूं. मैं तुम्हें धोखे में नहीं रखना चाहती.’’
आनंद हैरानी से उस की ओर देख रहा था. उस ने बड़े प्यार से उसे समझाते हुए कहा, ‘‘नीलू, तुम चिंता न करो. जैसा तुम चाहोगी वैसा ही होगा. मुझे कुछ समय की मुहलत दे दो. मैं आज ही तुम्हारे यहां आ कर अपना फैसला बता दूंगा.’’
गुमसुम सी नीलम आनंद को नमस्कार कर हलके मन से अपने घर की ओर चल दी.
आनंद ने नीलम के जाने के तुरंत बाद अपने एक परिचित डाक्टर प्रशांत से संपर्क स्थापित किया और सारी बात बताई. आनंद की बात सुन कर प्रशांत हंसने लगा. उस ने कहा, ‘‘आनंद यह बीमारी इतनी संगीन नहीं है. मैं ने तो देखा है कि विवाह के बाद यह अकसर समाप्त हो जाती है. नीलम बेकार इसे ज्यादा गंभीरता से ले कर भावनाओं में बह रही है. तुम नीलम को स्वीकार कर सकते हो. इस में कोई डर नहीं.’’
आनंद डाक्टर प्रशांत के यहां से आश्वस्त हो कर सीधा नीलम के यहां गया. नीलम दरवाजे पर खड़ी उस का ही इंतजार कर रही थी. आनंद को घर में घुसते देख कर नीलम की मां का कलेजा धकधक करने लगा. वह किसी खराब समाचार की कल्पना करने लगीं.
नीलम ने आनंद का रास्ता रोकते हुए उत्सुकता से पूछा, ‘‘बोलो, क्या निर्णय लिया?’’
आनंद ने अपने चेहरे पर बनावटी गंभीरता ला कर कहा, ‘‘मैं मांजी से बात करूंगा.’’
आनंद ने अपने सामने मां को खड़े देखा तो उस ने झुक कर चरणस्पर्श किए. फिर आनंद ने कहा, ‘‘मांजी, नीलम की बातों पर ध्यान न दें. आप विवाह की तैयारी शुरू कर दें.’’
नीलम थोड़ी दूर खड़ी विस्मित सी आनंद को देखे जा रही थी. उस की आंखों में बहते आंसू उसे निर्मल आनंद का आभास दे रहे थे.
‘‘मा या, मैं मिसेज माथुर के घर किटी पार्टी में जा रही हूं. तुम पिंकी का खयाल रखना. सुनो, 5 बजे उसे दूध जरूर दे देना और फिर कुछ देर बाग में ले जाना ताकि वह अपने दोस्तों के साथ खेल कर फ्रेश हो सके. मैं 7 बजे तक आ जाऊंगी, और हां, कोई जरूरी काम हो तो मेरे मोबाइल पर फोन कर देना,’’ रंजू ने आया को हिदायतें देते हुए कहा.
पास में खड़ी 8 साल की पिंकी ने आग्रह के स्वर में कहा, ‘‘मम्मा, मुझे भी अपने साथ ले चलो न.’’
‘‘नो बेबी, वहां बच्चों का काम नहीं. तुम बाग में अपने दोस्तों के साथ खेलो. ओके…’’ इतना कहती हुई रंजू गाड़ी की ओर चली तो दोनों विदेशी कुत्ते जिनी तथा टोनी दौड़ते हुए उस के इर्दगिर्द घूमने लगे.
रंजू ने बड़े प्यार से उन दोनों को उठा कर बांहों के घेरे में लिया और कार में बैठने से पहले पीछे मुड़ कर बेटी से ‘बाय’ कहा तो पिंकी की आंखें भर आईं.
दोनों कुत्तों को गोद में बैठा कर रंजू ने ड्राइवर से कहा, ‘‘मिसेज माथुर के घर चलो.’’
कार के आंखों से ओझल होने के बाद एकाएक पिंकी जोर से चीख पड़ी, ‘‘मम्मा गंदी है, मुझे घर छोड़ जाती है और जिनीटोनी को साथ ले जाती है.’’
मिसेज माथुर के घर पहुंच कर रंजू ने बड़ी अदा से दोनों कुत्तों को गोद में उठाया और भीतर प्रवेश किया.
‘‘हाय, रंजू, इतने प्यारे पप्पी कहां से ले आई?’’ एक ने अपनी बात कही ही थी कि दूसरी पूछ बैठी, ‘‘क्या नस्ल है, भई, मान गए, बहुत यूनिक च्वाइस है तुम्हारी.’’
रंजू आत्मप्रशंसा सुन कर गदगद हो उठी, ‘‘ये दोनों आस्ट्रेलिया से मंगाए हैं. हमारे साहब के एक दोस्त लाए हैं. 50 हजार एक की कीमत है.’’
‘‘इतने महंगे इन विदेशी नस्ल के कुत्तों को संभालने में भी दिक्कतें आती होंगी?’’ एक महिला ने पूछा तो रंजू चहकी, ‘‘हां, वो तो है ही. मेरा तो सारा दिन इन्हीं के खानेपीने, देखरेख में निकल जाता है. अपना यह जिनी तो बेहद चूजी है पर टोनी फिर भी सिंपल है. दूधरोटी, बिसकुट सब खा लेता है ज्यादा नखरे नहीं करता है…’’ इस कुत्ता पुराण से ऊब रही 2-3 महिलाएं बात को बीच में काटते हुए एक स्वर में बोलीं, ‘‘समय हो रहा है, चलो, अब तंबोला शुरू करें.’’
रंजू ने ड्राइवर को आवाज लगा कर जिनी और टोनी को उस के साथ यह कहते हुए भेज दिया कि इन दोनों को पिछली सीट पर बैठा दो और दरवाजे बंद रखना.
पहले तंबोला हुआ, फिर खेल और अंत में अश्लील लतीफों का दौर. ऐसा लग रहा था मानो सभी संभ्रांत महिलाओं में अपनी कुंठा निकालने की होड़ लगी हो. बीचबीच में टीवी धारावाहिकों की चर्चा भी चल रही थी.
‘‘तुम ने वह सीरियल देखा? कल की कड़ी कितनी पावरफुल थी. नायिका अपने सासससुर, ननद को साथ रखने से साफ इनकार कर देती है. पति को भी पत्नी की बात माननी पड़ती है.’’
‘‘भई, सच है. अब 20वीं शताब्दी तो है नहीं जब घर में 8-10 बच्चे होते थे और बहू बेचारी सिर ढक कर सब की सेवा में लगी रहती थी. अब 21वीं सदी है, आज की नारी अपने अधिकार, प्रतिभा और योग्यता को जानती है. अपना जीवन वह अपने ढंग से जीना चाहती है तो इस में गलत क्या है? अब तो जमाना मैं, मेरा पति और मेरे बच्चे का है,’’ जूही चहकी.
‘‘तुम ठीक कह रही हो. देखो न, पिछले महीने मेरे सासससुर महीना भर मेरे साथ रह कर गए हैं. घर का सारा बजट गड़बड़ा गया है. बच्चे अलग डिस्टर्ब होते रहे. कभी उन के पहनावे पर वे लोग टोकते थे तो कभी उन के अंगरेजी गानों के थिरकने पर,’’ निम्मी बोली.
रंजू की बारी आई तो वह बोली, ‘‘भई, मैं तो अपने ढंग से, अपनी पसंद से जीवन जी रही हूं. वैसे मैं लकी हूं, मेरे पति शादी से पहले ही मांबाप से अलग दूसरे शहर में व्यवसाय करते थे. शादी के बाद मुझ पर कोई बंधन नहीं लगा. यू नो, शुरू में समय काटने के लिए मैं ने खरगोश, तोते और पप्पी पाले थे. सभी के साथ बड़ा अच्छा समय पास हो जाता था पर पिंकी के आने के बाद सिर्फ पप्पी रखे हैं, बाकी अपने दोस्तों में बांट दिए.’’
‘‘रंजू, तुम्हारी पिंकी भी अब 8 साल की हो गई है, उस का साथी कब ला रही हो? भई 2 बच्चे तो होने ही चाहिए,’’ जूही ने कहा तो रंजू के तेवर तन गए, ‘‘नानसेंस, मैं उन में से नहीं हूं जो बच्चे पैदा कर के अपने शरीर का सत्यानाश कर लेती हैं. पिंकी के बाद अपने बिगड़े फिगर को ठीक करने में ही मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी थी. अब दोबारा वह बेवकूफी क्यों करूंगी.’’
अगले माह अंजू के घर किटी पार्टी में मिलने का वादा कर सब ने एकदूसरे से विदा ली.
घर पहुंच कर रंजू को पता चला कि पिंकी को पढ़ाने वाले अध्यापक नहीं आए हैं तो उस का पारा यह सोच कर एकदम से चढ़ गया कि अगर होमवर्क नहीं हो पाया तो कल पिंकी को बेवजह सजा मिलेगी.
उस ने अध्यापक के घर फोन लगाया तो उन्होंने बताया कि तबीयत खराब होने के कारण वह 2-3 दिन और नहीं आ सकेंगे.
सुनते ही रंजू तैश में बोली, ‘‘आप नहीं आएंगे तो पिंकी को होमवर्क कौन कराएगा? आप को कुछ इंतजाम करना चाहिए था.’’
‘‘2-3 दिन तो आप भी बेटी का होमवर्क करवा सकती हैं,’’ अध्यापक भी गुस्से में बोले, ‘‘तीसरी कक्षा कोई बड़ी क्लास तो नहीं.’’
‘‘अब आप मुझे सिखाएंगे कि मुझे क्या करना है? ऐसा कीजिए, आराम से घर बैठिए, अब यहां आने की जरूरत नहीं है. आप जैसे बहुत ट्यूटर मिलते हैं,’’ रंजू ने क्रोध में फोन काट दिया.
गुस्सा उतरने पर रंजू को चिंता होने लगी. पिंकी को पिछले 5 सालों में उस ने कभी नहीं पढ़ाया था. शुरू से ही उस के लिए ट्यूटर रखा गया. उसे तो किटी पार्टियों, जलसे, ब्यूटी पार्लर, टेलीविजन तथा अपने दोनों कुत्तों की देखभाल से ही फुरसत नहीं मिलती थी.
अब रंजू को पिंकी का होमवर्क कराने खुद बैठना पड़ा. एक विषय का आधाअधूरा होमवर्क करा कर ही रंजू ऊब गई. उस के मुंह से अनायास निकल पड़ा, ‘‘बाप रे, कितनी सिरदर्दी है बच्चों को पढ़ाना और उन का होमवर्क कराना. मेरे बस की बात नहीं.’’ वह उठी और कुत्तों को खाना खिलाने चल दी. उन्हें खिला कर वह बेटी की ओर मुड़ी, ‘‘चलो पिंकी, तुम भी खाना खा लो. मैं ने तो किटी पार्टी में कुछ ज्यादा खा लिया, अब रात का खाना नहीं खाऊंगी.’’
पिंकी ने कातर नजरों से मां की ओर देखा कि न तो मम्मी ने पूरा होमवर्क कराया न मेरी पसंद का खाना बनाया.
पिंकी का नन्हा मन आक्रोश से भर उठा, ‘‘मुझे नहीं खानी यह गंदी खिचड़ी.’’
रंजू बौखला गई, ‘‘नहीं खानी है तो मत खा. तुझ से तो अच्छे जिनीटोनी हैं, जो भी बना कर दो चुपचाप खा लेते हैं.’’
रंजू की घुड़की सुन कर माया पिंकी का हाथ पकड़ कर उस के कमरे में ले गई. उस रात पिंकी ने ठीक से खाना नहीं खाया था. उस का होमवर्क भी पूरा नहीं हुआ था, उस पर मम्मी की डांट ने उस के मन में तनाव और डर पैदा कर दिया. सुबह होतेहोते उसे बुखार चढ़ आया.
अचानक रंजू को तरकीब सूझी, क्यों न 2-3 दिन की छुट्टी का मेडिकल बनवा लिया जाए. रोजरोज होमवर्क की सिरदर्दी भी खत्म. उस ने फौरन अपने परिवारिक डाक्टर को फोन लगाया.
डाक्टर घर आ कर पिंकी की जांच कर दवा दे गया और 3 दिन के आराम का सर्टिफिकेट भी.
रात को पिंकी ने मां से अनुरोध किया, ‘‘मम्मा, आज मैं आप के पास सो जाऊं. मुझे नींद नहीं आ रही है.’’
‘‘नो बेबी, आज मैं बहुत थक गई हूं. माया आंटी तुम्हारे साथ सो जाएंगी,’’ इतना कह कर रंजू अपने कमरे की ओर मुड़ गई.
डबडबाई आंखों से पिंकी ने माया को देखा, ‘‘मम्मा मुझ को प्यार नहीं करतीं.’’
माया नन्ही बच्ची के अंतर में उठते संवेगों को महसूस कर रही थी. उस के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली, ‘‘ऐसा नहीं कहते, बेटा, चलो मैं तुम्हें सुला देती हूं.’’
रात को पिंकी को प्यास लगी. माया सोई हुई थी. वह उठ कर रंजू के कमरे में चली गई, ‘‘मम्मा, प्यास लगी है, पानी चाहिए.’’
रंजू ने बत्ती जलाई. पिंकी की नजर मम्मी के पलंग के करीब सोए जिनी और टोनी पर पड़ी. पानी पी कर वह वापस अपने कमरे में आ गई. उस का दिमाग क्रोध और आवेश से कांप रहा था कि मम्मी ने मुझे अपने पास नहीं सुलाया और कुत्तों को अपने कमरे में सुलाया. मुझ से ज्यादा प्यार तो मम्मी कुत्तों को करती हैं.
बगीचे की साफसफाई, कटाई- छंटाई करने के लिए माली आया तो पिंकी भी उस के साथसाथ घूमने लगी. बीचबीच में वह प्रश्न भी कर लेती थी. माली ने कीटनाशक पाउडर को पानी में घोला फिर सभी पौधों पर पंप से छिड़काव करने लगा. पिंकी ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘बाबा, यह क्या कर रहे हो?’’
‘‘बिटिया, पौधों को कीड़े लग जाते हैं न, उन्हें मारने के लिए दवा का छिड़काव कर रहे हैं,’’ माली ने समझाया.
‘‘क्या इस से सारे कीड़े मर जाते हैं?’’
‘‘हां, कीड़े क्या इस से तो जानवर और आदमी भी मर सकते हैं. बहुत तेज जहर होता है, इसे हाथ नहीं लगाना,’’ माली ने समझाते हुए कहा.
अपना काम पूरा करने के बाद कीटनाशक का डब्बा उस ने बरामदे की अलमारी में रखा और हाथमुंह धो कर चला गया.
अगले दिन दोपहर में रंजू ब्यूटी पार्लर चली गई. वहीं से उसे क्लब भी जाना था अत: प्रभाव दिखाने के लिए जिनी और टोनी को भी साथ ले गई.
स्कूल से घर लौट कर पिंकी ने खाना खाया और माया के साथ खेलने लगी.
शाम को माया ने कहा, ‘‘पिंकी, मैं जिनी और टोनी का दूध तैयार करती हूं, तब तक तुम जूते पहनो, फिर हम बाग में घूमने चलेंगे.’’
पिंकी का खून खौल उठा कि मम्मी जिनी और टोनी को घुमाने ले गई हैं पर मेरे लिए उन के पास समय ही नहीं है.
वह क्रोध से बोली, ‘‘आंटी, मुझे कहीं नहीं जाना. मैं घर में ही अच्छी हूं.’’
उसे मनाने के लिए माया ने कहा, ‘‘ठीक है, यहीं घर में ही खेलो. तब तक मैं खाना बनाती हूं. आज तुम्हारी पसंद की डिश बनाऊंगी. बोलो, तुम्हें क्या खाना है?’’
पिंकी के चेहरे पर मुसकान आ गई, ‘‘मुझे गाजर का हलवा खाना है.’’
‘‘ठीक है, मैं अभी बनाती हूं, तब तक तुम यहीं बगीचे में खेलो.’’
माया रसोई में चली गई. फिर जिनी व टोनी के कटोरों में दूधबिसकुट डाल कर बरामदे में रख गई ताकि आते ही वे पी सकें, क्योंकि रंजू जरा भी देर बरदाश्त नहीं करती थी.
खेलतेखेलते अचानक पिंकी को कुछ सूझा तो वह बरामदे में आई. अलमारी से कीटनाशक का डब्बा बाहर निकाला और दोनों कटोरों में पाउडर डाल डब्बा बंद कर के वहीं रख दिया जहां से उठाया था. कुछ ही देर में उस के ट्यूटर आ गए और वह पढ़ने बैठ गई.
शाम ढलने के बाद रंजू घर लौटी. जिनी व टोनी ने लपक कर दूध पिया और बरामदे में बैठ गए. रंजू आज बेहद खुश थी कि क्लब में उस ने अपने विदेशी कुत्तों का खूब रौब गांठा था.
‘‘अरे वाह, आज गाजर का हलवा बना है,’’ पिंकी की प्लेट में हलवा देख रंजू ने कहा. फिर थोड़ा सा चख कर बोलीं, ‘‘बड़ा टेस्टी बना है, जिनी और टोनी को भी बहुत पसंद है. माया, उन्हें ले आओ.’’
माया चीखती हुई वापस लौटी, ‘‘मेम साब, जिनी और टोनी तो…’’
‘‘क्या हुआ उन्हें…’’ रंजू खाने की मेज से उठ कर बरामदे की ओर दौड़ी. देखा तो दोेनों अचेत पड़े हैं. वह उन्हें हिलाते हुए बोली, ‘‘जिनी, टोनी कम आन…’’
रंजू ने फौरन डाक्टर को फोन किया. डाक्टर ने जांच के बाद कहा, ‘‘इन के दूध में जहर था, उसी से इन की मौत हुई है. रंजू का दिमाग सुन्न हो गया कि इन के दूध में जहर किस ने और क्यों मिलाया होगा? इन से किसी को क्या दुश्मनी हो सकती है?’’
गाजर का हलवा खाते हुए पिंकी बड़ी संतुष्ट थी. अब मम्मी पूरा समय मेरे साथ रहेंगी, बाहर घुमाने भी ले जाएंगी, अपने पास भी सुलाएंगी, बातबात पर डांटेगी भी नहीं और जिनीटोनी को मुझ से अच्छा भी नहीं कहेंगी क्योंकि अब तो वे दोनों नहीं हैं.
जिंदगी अभी उसे बहुत से स्याह-सफेद रंग दिखाने वाली थी. मां चाहती थी कि जितनी जल्दी हो सके, बेटी की दूसरी शादी कर दी जाए.
‘अभी उम्र ही कितनी है. कुछ भी तो नहीं देखा इस ने. इस की उम्र में तो लड़कियों की शादी तक नहीं होती. और ये…’ जाहिर तौर पर तो बेटी के दर्द को जीती मां खुद को संतुष्ट करने के लिए ही कहती थी मगर असल में तो वह बेटी को अपराधबोध से बचाने का जतन कर रही थी.
नहीं-नहीं, वह व्योम की मृत्यु के लिए बेटी को अपराधी नहीं मान रही थी. वह तो वैष्णवी को उस अपराधबोध से नजात दिलाना चाह रही थी जो उस पर जबरदस्ती लाद दिया गया था.
‘शुभ काम में वैष्णवी की परछाई भी न पड़े’ जैसी फिक्र करती अधेड़ और वृद्ध महिलाओं से ले कर अपने युवा और अधेड़ पतियों को वैष्णवी की छाया से दूर रखने का प्रयास करती, चिंता में घुलती महिलाओं की रातों की नींद उड़ती देख रही मां का फिक्रमंद होना लाजिमी था. वह बेटी को इन तमाम विपरीत परिस्थितियों से दूर ले जाना चाहती थी और इस का एक मात्र रास्ता था कि उस की शादी हो जाए ताकि वैधव्य का दाग उस के माथे से हट सके.
दूसरी तरफ पापा उस के लिए कुछ और ही सोच रहे थे. वे जानते थे कि जो हो गया उसे तो बदला नहीं जा सकता लेकिन जो होने जा रहा है, उसे अवश्य बदला जा सकता है बशर्ते कि प्रयास सही तरीके और योजना के साथ किया जाए.
‘व्योम तो वैष्णवी को विधवा का चोला दे कर चला गया लेकिन वैष्णवी चाहे तो इस चोले की सफेदी में रंग भर सकती है. हम दूसरे पति के रूप में उस का सहारा क्यों तलाश करें. क्यों न उस सहारे को तलाश करें जो पहला पति उस के लिए छोड़ गया है,’ पापा ने मां को समझाते हुए कहा तो वह बिफर गई.
‘आप की गोलगोल बातें मेरी मोटी बुद्धि में नहीं आतीं. ऐसा कौन सा कुबेर का खजाना छोड़ कर गया है व्योम जिस के सहारे वैष्णवी की जिंदगी कट जाएगी? लंबी उम्र है, साथी बिना कैसे कटेगी? जितनी जल्दी हो सके, लड़का तलाश कर लो, उम्र बढ़ने के साथसाथ चौइस भी सीमित हो जाती हैं,’ मां ने अपनी समझ के अनुसार कहा.
‘कारू का खजाना तो देरसवेर खर्च हो सकता है लेकिन जो खजाना व्योम इसे दे कर गया है उस की कोई बराबरी नहीं. अब देखो, व्योम चला गया इस बात का दुख हम सब को है, लेकिन पति की मृत्यु के बाद उस की विधवा पत्नी को सरकारी कोटे में आरक्षण का लाभ मिलता है. मैं वैष्णवी को कोई व्यावसायिक कोर्स करवा कर या किसी अच्छी प्रतियोगी परीक्षा में शामिल कर के उस के भविष्य को स्वर्णिम बनाने पर विचार कर रहा हूं. यही वह खजाना है जो आखिरी सांस तक वैष्णवी के पास रहेगा और इसे कोई छीन भी नहीं सकता,’ पापा ने विस्तार से समझाया तो मां के माथे की सिलवटें धीरेधीरे हलकी होने लगीं. हालांकि, कुछ हलकी लकीरें अभी भी विद्यमान थीं.
‘इस तरह तो बरसों बीत जाएंगे. तब तक क्या लड़की यों ही समाज और बिरादरी के ताने सुनती रहेगी?’ मां ने चिंता जाहिर की.
‘समाज का क्या है, वह तो चढ़ते को भी बोली मारता है और उतरते को भी. अच्छी नौकरी लग जाएगी तो रिश्ते भी अच्छे ही मिलेंगे. यदि अभी शादी कर दी तो वैष्णवी को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा,’ पापा के समझाने पर बात मां को समझ में आ गई.
उधर खुद वैष्णवी अभी पति के जाने के गम से उबरी नहीं थी. वह भी कुछ ऐसा करना चाहती थी जिस में वह व्यस्त रहे वरना व्योम की यादों के जंगल में ही भटकती रहेगी.
वैष्णवी विज्ञान विषय बौटनी में पोस्टग्रेजुएट थी. उस ने जूनियर रिसर्च फैलोशिप की परीक्षा दी और चयन होने के बाद पीएचडी की पढ़ाई शुरू कर दी. 3 वर्षों बाद वैष्णवी अब डा. वैष्णवी बनने वाली थी. इस दौरान बहुत से कड़वेखट्टे अनुभवों का स्वाद उस ने चखा था. मीठे अनुभवों की संख्या बेहद सीमित थी. या कौन जाने, उस की स्वादेन्द्रियां ही नष्ट हो चुकी थीं क्या… उसे हर मीठे में नमकीन की मिलावट ही नजर आती थी.
व्योम के जाने के बाद वैष्णवी के लिए सब से पहला प्रस्ताव उस के ममेरे देवर विभोर का आया था. पापा ने शादी करने का कारण पूछा तो उस ने वैष्णवी से लगाव होना बताया.
‘कब से है तुम्हें प्यार?’ पापा ने पूछा था. विभोर कोई जवाब नहीं दे पाया. बाद में पता चला कि व्योम ने 50 लाख रुपए की टर्म बीमा पौलिसी ले रखी थी जिस की नौमिनी वैष्णवी थी. सास की इच्छा थी कि घर का पैसा घर में रहे, इसलिए उस ने अपने बड़े भाई को विश्वास में ले कर यह प्रस्ताव वैष्णवी के पास पहुंचाया था. वैष्णवी चूंकि पढ़ीलिखी और खूबसूरत भी थी इसलिए विभोर को भी अधिक एतराज न हुआ. हां, उस का वर्जिन नहीं होना जरूर उसे खटक रहा था लेकिन वह खुद भी कहां वर्जिन था. इसलिए उस ने इस बात को अधिक तूल न दिया.
वैष्णवी को अभी विवाह करने में कोई दिलचस्पी न थी, इसलिए वह आगे बढ़ गई. बीमा पौलिसी से मिला पैसा उस ने फिक्स डिपौजिट में डाल दिया. यह उस के लिए बहुत बड़ा संबल था.
पीएचडी करने के दौरान भी कई पुरुष वैष्णवी की जिंदगी में आए. उस ने सहानुभूति दिखाने वाले हरेक रिश्ते को नकार दिया. अधिकतर निगाहों में उसे लोलुपता ही दिखाई दे रही थी. कोई उस के रूप का प्यासा था तो किसी की नजर उस के मोटे बैंकबैलेंस पर थी. कोई उसे सोने का अंडा देने वाली मुरगी समझ रहा था तो कोई लगातार दूध देने वाली गाय. हर जगह स्वार्थ दिखा, प्यार कहीं नहीं था.
वैष्णवी बच्ची नहीं थी. सब समझती थी. वैसे भी बुरा वक्त इंसान के दिमाग को अधिक चौकन्ना कर देता है. वैष्णवी भी चाहत और लोलुपता के बीच के अ