Comedy Story In Hindi : पुलिस वाले दुलहनिया

 Comedy Story In Hindi : ‘‘मनोज, यहां तुम अपने हस्ताक्षर करो और यहां अपनी बूआ के दस्तखत करवा दो,’’ फूफाजी ने फोल्ड किया एक स्टांप पेपर मेरे सामने मेज पर रख दिया.

कागज पर केवल हस्ताक्षर करने का स्थान ही दिख रहा था. बाकी का तह किया कागज फूफाजी ने अपने हाथ में दबा रखा था.

‘‘पहले जरा सांस तो लेने दीजिए,’’ मैं ने कहा फिर पास वाले सोफे पर माथे पर बल डाले बैठी बूआजी पर एक नजर डाली.

बूआजी ने मुझे देखते ही मुंह फेर लिया.

‘‘कागजी काररवाई के बाद जितनी सांसें लेनी हों ले लेना,’’ फूफाजी बोले, ‘‘शाबाश, करो दस्तखत.’’

‘‘फूफाजी इसे पढ़ने तो दीजिए, क्योंकि बुजुर्गों ने कहा है कि बिना पढ़े कहीं भी हस्ताक्षर न करो,’’ मैं ने कागज खोल कर पढ़ना चाहा.

‘‘मैं ने जो पढ़ लिया है. मैं क्या तुम्हारा बुजुर्ग नहीं हूं?’’ फूफाजी ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘वह तो ठीक है मगर इस में लिखा क्या है?’’

‘‘यह तलाक के कागज हैं,’’ फूफाजी ने बताया.

‘‘मगर किस के तलाक के हैं?’’

‘‘यह मेरे और तुम्हारी बूआजी के आपसी सहमति से तलाक लेने के कागज हैं.’’

‘‘क्या?’’ मैं ने फूफाजी की ओर अब की बार इस तरह देखा जैसे उन के सिर पर सींग निकल आए हों, ‘‘मुझे लगता है आज आप ने सुबह ही बोतल से मुंह लगा लिया है.’’

‘‘अरे, नहीं बेटे, मैं पूरी तरह से होश में हूं. चाहो तो मुंह सूंघ लो,’’ फूफाजी ने मुंह फाड़ा.

‘‘फिर यह तलाक की बात क्यों? क्या बूआजी से फिर कोई झगड़ा हुआ?’’

‘‘न कोई झगड़ा न बखेड़ा… यह तलाक तो मैं अपने वंश के लिए ले रहा हूं.’’

‘‘आप साफसाफ क्यों नहीं बताते कि बात क्या है?’’ मैं ने बेचैनी से पूछा.

‘‘मनोज बेटे, मैं तुम्हारी बूआजी को तलाक दे कर एक विदेशी स्त्री से शादी कर रहा हूं,’’ फूफाजी ने गरदन मटकाई.

‘‘मैं भी अपने को धन्य समझूंगी कि तुम जैसे जाहिल कामचोर से पीछा छूटा,’’ बूआजी भड़क उठीं, ‘‘लाओ, कहां दस्तखत करने हैं.’’

बूआ ने अदालत के पेपर लेने को हाथ बढ़ाया.

‘‘ठहरिए, बूआजी. पहले पता तो चले कि माजरा क्या है.’’

‘‘मनोज बेटे, विदेश में जा कर जितना धन 5 सालों में बनाया जा सकता है उतना अपने देश में 5 जन्मों में भी नहीं कमाया जा सकता. इसलिए मैं ने विदेशी लड़की से ब्याह रचा कर वहां बसने की ठानी है,’’ फूफाजी ने ‘राज’ खोला.

‘‘मुझे टै्रवल एजेंट ने समझाया है कि बिना कोई जोखिम उठाए विदेश जाने का यही एक आसान तरीका है कि किसी विदेशी लड़की से शादी कर लो तो वह अपने दूल्हे को अपने साथ विदेश ले जाएगी…’’ फूफाजी सांस लेने को रुके.

‘‘और यह सारा इंतजाम उस भलेमानस ट्रैवल एजेंट ने कर दिया है. बस, कुछ लाख रुपए उसे देने पड़े जिस में से कुछ हिस्सा उस विदेशी महिला को शादी करने की फीस के तौर पर एजेंट उसे देगा,’’ फूफाजी ने लंबी सांस छोड़ी.

‘‘मगर आप के पास लाखों रुपए आए कहां से?’’ बूआजी ने फूफाजी से पूछा, ‘‘क्या किसी बैंक में डाका डाला है?’’

‘‘बैंक में डाका नहीं डाला है बल्कि अपने घर को बैंक के पास गिरवी रख कर कर्जा लिया है.’’

‘‘बुढ़ऊ,  तुम्हारा सत्यानाश हो,’’ बूआजी भड़कीं.

‘‘सत्तानाश हो या अट्ठानाश, अब तो मैं ने जो करना था कर दिया. मगर तुम घबराओ नहीं, विदेश से कर्जे की किस्तें भेजता रहूंगा ताकि तुम यहां मजे से रहो,’’ फूफाजी ने तसल्ली दी, ‘‘विदेश से कुछ सालों में करोड़ों रुपए कमा कर वापस आऊंगा, तब तक वह मेरी फौरन वाइफ मुझे धत्ता बता चुकी होगी और मैं तुम से दोबारा ठाट से विवाह कर लूंगा.’’

‘‘मैं तो एक बार ही तुम से शादी कर के पछता रही हूं.’’

‘‘पछताना बाद में, पहले तुम बूआ- भतीजा झट से तलाक के इन कागजों पर दस्तखत करो. मेरा वकील दोस्त और वे लोग आते ही होंगे,’’ फूफाजी ने मेज पर रखे कागजों पर पेन बजाया.

बूआजी का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा. उन्होंने हस्ताक्षर कर के कागज और कलम मेरी ओर बढ़ा दिए.

‘‘मनोज, तुम भी इस पर दस्तखत कर दो ताकि इन का यह कर्ज भी खत्म हो, यह झंझट ही समाप्त हो जाए,’’ बूआजी ने मुझ से कहा.

‘‘यह आप क्या कह रही हैं, बूआ. कल को भाभी के मायके वाले और दीदी के ससुराल वाले आप के तलाक के बारे में पूछेंगे तो हम क्या बतलाएंगे?’’

‘‘किसी से कुछ कहने की जरूरत नहीं. जब मैं किसी घपले में अंदर हो जाता हूं तो तुम लोग होंठ सीए रहते हो न. बस, कुछ सालों तक चुप्पी साधे रहना,’’ फूफाजी ने समझाया, ‘‘मैं वहां से आया और सारा मामला सुलझाया.’’

‘‘मनोज बेटा, दस्तखत करो और हम यहां से चलते हैं,’’ बूआजी सोफे पर से उठ खड़ी हुईं.

‘‘अरे भई, बैठोबैठो, उन लोगों में कोई मेरी ओर से भी तो होना चाहिए,’’ फूफाजी ने बूआजी से आग्रह किया, ‘‘फिर इस बेचारे ने मेरीतुम्हारी शादी तो नहीं देखी लेकिन अब इसे मेरी यह शादी तो देख लेने दो,’’ फूफाजी के चेहरे पर खुशी और शर्म के मिलेजुले भाव झलक उठे.

बाहर किसी गाड़ी के रुकने की घरघराहट हुई.

‘‘लो, वे लोग पहुंच गए,’’ यह कहते हुए फूफाजी दरवाजे की ओर लपके.

अब बाहर जाने के लिए रास्ता नहीं था सो बूआजी फिर से सोफे पर बैठ गईं.

फूफाजी के साथ 3 स्थानीय लोग, एक 65 साल का विदेशी पुरुष तथा उस के पीछे 35 साल की एक विदेशी महिला थी…जिस ने खूब मेकअप कर रखा था और बड़ेबड़े फूलों वाली फ्राक और स्कर्ट पहनी हुई थी. स्थानीय पुरुषों में एक तो फोटोग्राफर था और एक पंडितजी थे. उन के साथ जो तीसरा आदमी था उस ने पैंटशर्ट पहन रखी थी.

‘‘मनोज बेटा, इन से मिलो,’’ फूफाजी ने साथ के सोफे पर बैठे, चेहरे पर चौड़ी मुसकान वाले आदमी की ओर इशारा किया, ‘‘आप हैं, जेल ट्रैवल एजेंसी के मालिक भावलंकरजी.’’

‘‘और यह मेरा सहायक, गोविंदा,’’ टै्रवल एजेंट के मालिक ने कैमरे वाले की ओर उंगली उठाई, ‘‘और आप पंडित धूर्तराजजी, जिन के शुभ आशीर्वाद से ब्याह का कार्यक्रम संपन्न होगा.’’

‘‘अब आगे आप इन को मिलवाएं,’’ टे्रवल एजेंट ने फूफाजी से कहा.

‘‘बेटे मनोज,’’ फूफाजी ने खंखार कर गला साफ किया, ‘‘यह हैं तुम्हारी नई बूआजी…मेरा मतलब…मेरी…यानी तुम समझ ही गए होगे. और यह मेरे नए ससुरजी…यानी ‘फादर इन ला.’ ’’

फूफाजी ने उन विदेशियों की भेंट मुझ से करवाई और चोर नजरों से बूआजी की ओर देखा.

बूआजी ने माथे पर बल डाल कर मुंह फेर लिया.

‘‘बेटे, अब जल्दी से मेहमानों के लिए ठंडा, नमकीन और मिठाई आदि लाओ,’’ फूफाजी ने कहा.

‘‘यजमान, जलपान फेरों के साथसाथ चलता रहेगा. अब वरकन्या को बुलाएं,’’ पंडितजी ने लंबी तान लगाई.

‘‘पंडितजी, वर तो मैं ही हूं और मेरी कन्या…उफ तौबा…’’ फूफाजी ने गाल पीटे, ‘‘यानी मेरी होने वाली दुलहन यह सामने सोफे पर बैठी हैं.’’

‘‘ठीक है वरजी, आप यह ‘रेडीमेड’ सेहरा पहन लीजिए,’’ पंडितजी ने अपने झोले में से एक सुनहरी पगड़ी निकाली जिस के साथ सेहरा लटका हुआ था.

‘‘सेहरा पहनूं?’’

‘‘हां, इस सेहरे के साथ वरवधू के फोटो उतारे जाएंगे ताकि ब्याह का प्रमाण हो. उस के बाद ही मैं आप को ब्याह का प्रमाणपत्र दे सकूंगा,’’ पंडितजी ने समझाया.

‘‘कागजी काररवाई के लिए यह बहुत जरूरी है,’’ टै्रवल एजेंट ने पंडितजी की बात का समर्थन किया और अपने सहायक को इशारा किया.

सहायक ने अपना कैमरा एडजस्ट किया.

फूफाजी ने सिर पर सेहरे वाली पगड़ी रख ली.

‘‘देखो, कैसा दिखता हूं?’’ फूफाजी ने बूआजी से पूछा, ‘‘सच बताना, ऐसा रूप तो तुम्हारे साथ शादी के मौके पर भी मुझ पर न चढ़ा होगा.’’

‘‘ठीक कहा. उस से सौगुना फटकार आप के चेहरे पर आज बरस रही है,’’ बूआजी बड़बड़ाईं.

‘‘छाती पर सांप लोट रहे होंगे, तभी तो ऐसा जहर उगल रही हो,’’ फूफाजी ने जहर का घूंट पीते हुए कहा.

‘‘दूल्हादुलहन इधर आ कर बैठें,’’ पंडितजी ने लंबी तान लगाई.

पंडितजी ने फूफाजी और उस विदेशी महिला को साथसाथ सोफे पर बैठाया और झोले में से फूलपत्तियां निकाल कर फूफाजी और उस विदेशी महिला पर मंत्रोच्चारण करते हुए बरसाईं.

टै्रवल एजेंट के सहायक ने कैमरे से 3-4 फोटो लिए.

‘‘अब फेरों का कार्यक्रम समाप्त हुआ. आज से आप दोनों पतिपत्नी हुए,’’ पंडितजी ने फूफाजी से कहा, ‘‘यजमान, अब आप सेहरे का किराया और मेरी दानदक्षिणा और विवाह के प्रमाणपत्र के 1,500 रुपए दे दीजिए.’’

पंडितजी ने अपने झोले से छपा हुआ एक फार्म निकाला.

‘‘आप 1,500 की बजाय 2 हजार ले लो पंडितजी,’’ फूफाजी ने ब्रीफकेस से नएनए नोट निकाले और पंडितजी की ओर बढ़ा दिए.

पंडितजी ने पहले तो नोट कमीज के अंदर बनी हुई जेब में डाले, फिर फार्म भर कर अपने हस्ताक्षर किए और फूफाजी को शादी का प्रमाणपत्र थमा दिया.

‘‘पंडितजी, यह पगड़ीसेहरा दूल्हे के सिर पर ही लगा रहने दें क्योंकि हमें इस नए जोड़े के साथ, ऐसे ही कोर्ट में जाना है,’’ टै्रवल एजेंट ने कहा.

‘‘ठीक है, मैं आप के दफ्तर से सेहरा ले लूंगा या आप अपने सहायक के हाथ भिजवा देना,’’ पंडितजी गुनगुनाए.

‘‘वह आप का वकील दोस्त अभी तक नहीं पहुंचा,’’ एजेंट ने फूफाजी से कहा, ‘‘मेरा दूसरा सहायक उन को लाने के लिए काफी देर से टैक्सी पर गया है.’’

तभी बाहर किसी गाड़ी के रुकने की आवाज आई.

‘‘लो, वे लोग भी आ पहुंचे,’’ टै्रवल एजेंट ने गरदन घुमा कर देखा.

दरवाजे में से फूफाजी के वकील दोस्त और टै्रवल एजेंट का सहायक अंदर आ गए. उन के पीछेपीछे एक पुलिस इंस्पेक्टर, 2 लेडी कांस्टेबल तथा 2 पुरुष कांस्टेबल और एक सहायक इंस्पेक्टर ड्राइंगरूम में आ गए.

इंस्पेक्टर ने विदेशी आदमी और टै्रवल एजेंट की ओर उंगली घुमाई. महिला पुलिसकर्मियों ने उस विदेशी महिला के हाथ थाम लिए और सहायक इंस्पेक्टर के साथ दोनों पुलिस वाले उस अधेड़ विदेशी पुरुष व टै्रवल एजेंट के पास खड़े हो गए.

‘‘तुम सब को गिरफ्तार किया जाता है.’’

‘‘मगर क्यों?’’

‘‘देखिए, इंस्पेक्टर, आप मेरे मेहमानों से…नहीं बल्कि सगे संबंधियों से ऐसा बरताब नहीं कर सकते,’’ फूफाजी ने सेहरा संभालते हुए इंस्पेक्टर से कहा, ‘‘आप नहीं जानते, मेरी कहांकहां तक पहुंच है?’’

‘‘शायद आप इन के नए शिकार हैं,’’ इंस्पेक्टर ने फूफाजी की ओर देखा.

‘‘शिकार, कैसा शिकार?’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह लोग भोलेभाले लोगों को विदेश ले जाने का झांसा देते हैं. यह मैडम उन लोगों से लाखों रुपए बटोर कर शादी रचाने का ढोंग करती है और फुर्र हो जाती है. यह ऐसे टै्रवल एजेंटों की मिलीभगत से होता है,’’ इंस्पेक्टर बोलता गया, ‘‘अब तक इन लोगों के खिलाफ कई शिकायतें दर्ज हो चुकी हैं मगर यह लोग पकड़ में नहीं आते थे. आखिर आज शिकंजे में आ ही गए.’’

इंस्पेक्टर ने अपने सहायक की ओर देखा.

‘‘ले चलो इन को,’’ इंस्पेक्टर ने होलस्टर से रिवाल्वर निकाल लिया.

पुलिस के घेरे में विदेशी पुरुष व महिला और टै्रवल एजेंट मरीमरी चाल से दरवाजे की ओर बढ़े.

‘‘पंडितजी, आप भी चलिए. आप भी तो इन के ‘फ्राड’ में भागीदार हैं,’’ सबइंस्पेक्टर ने पंडितजी को टोक दिया.

‘‘मगर इंस्पेक्टर, मेरे विदेश जाने के सपने का क्या होगा?’’ फूफाजी ने बुझे स्वर में इंस्पेक्टर से पूछा.

‘‘आप पुलिस स्टेशन चल कर इन के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाएं,’’ कहते हुए पुलिस इंस्पेक्टर दरवाजे की ओर मुड़ा.

‘‘मनोज बेटे, अब तुम तलाक के यह कागज मेरी ओर से कोर्ट में दाखिल करो. अब मैं इन से तलाक लूंगी,’’ बूआजी ने कोर्ट के कागज संभालते हुए कहा.

‘‘अरे, नहीं, ऐसा गजब न करना,’’ फूफाजी ने घबरा कर कहा.

‘‘अब तो यह गजब होगा ही,’’ बूआजी का स्वर कठोर हो गया, ‘‘मेरा फैसला अटल है.’’

‘‘मनोज बेटे, तुम ही इन को समझाओ. मैं तो पूरी तरह लुट गया. बरबाद हो गया. मेरे लाखों रुपए डूब गए. नई नवेली विदेशी दुलहन भी गई और अब तुम्हारी बूआजी भी नाता तोड़ रही हैं,’’ फूफाजी ने कहा…

Comedy : फुलटाइम हाउसवाइफ

Comedy : चाहो तो आप मुझे ओल्ड फैशंड कह लो. चाहे इसे मेरा लैक औफ कान्फिडेंस मान लो पर मैं हमेशा हिंदी में ही बात करना पसंद करती हूं. इंगलिश मीडियम स्कूलों में पढ़े होने के बावजूद, ऐक्चुअली हमारे बचपन में घर का एनवायरमैंट ही बहुत पैट्रिऔटिक था. हार्ड वर्क, औनेस्टी आदि पर बहुत स्टै्रस दिया जाता था. इंडिया को नईनई फ्रीडम मिली थी. तब पैट्रिऔटिज्म तो जैसे हमारे ब्लड में ही घुला हुआ था. हाई मौरेल वैल्यूज के साथ ही हमारे पेरैंट्स इस बात के लिए भी बहुत पर्टिकुलर थे कि घर में अपनी नैशनल लैंग्वेज में ही बात की जाए, एंड यू नो, उस वक्त के पेरैंट्स कितने स्ट्रिक्ट हुआ करते थे.

मेरे ग्रैंडफादर फेमस फ्रीडमफाइटर थे और फादर आर्मी आफिसर. हमारी फैमिली में पैट्रिऔटिज्म का एक लंबा टै्रडिशन है, जो हमारे गे्रट ग्रैंडफादर तक जाता है. इस के साथ ही हमारी फैमिली बहुत आर्थोडौक्स थी. घर में सर्वेंट्स और मेड होने के बावजूद हम बच्चों की अपब्रिंगिंग हमारी मदर ने स्वयं ही की. हालांकि वे हाइली ऐजुकेटेड लेडी थीं बट उन्होंने हाउसवाइफ बन कर रहना ही प्रिफर किया. यह उन का पर्सनल डिसीजन था, फादर अथवा ग्रैंडपेरैंट्स का दबाव नहीं. कुछ भी कहो, कामकाजी महिला घरपरिवार को उतना समय नहीं दे सकती जितना कि फुलटाइम हाउसवाइफ.

हांहां, मालूम है अब उन्हें ‘होममेकर’ कहा जाता है. बात तो एक ही है. हमारी मदर ने अपनी पूरी लाइफ घर, बच्चों को ही डिवोट कर दी. वे हमसब की हैल्थ का भी भरपूर खयाल रखती थीं. घर में जंकफूड बिलकुल एलाउड नहीं था सिर्फ और सिर्फ हैल्दी फूड ही खाया जाता था. बे्रकफास्ट में हम डेली एग, मिल्क और पोरिज में से ही कुछ खाते. लंच में ट्वाइस ए वीक तो हम नौनवेज खाते थे यानी मीट, चिकन, फिश कुछ भी. हां, डिनर हम लाइट ही करते. स्नैक्स में भी फ्राइड की जगह हम फ्रैश फू्रट ही लेते.

आर्मी आफिसर की वाइफ होने से मदर एक आर्डिनरी वाइफ से ज्यादा स्मार्ट तो थीं ही, सुंदर भी बहुत थीं. अपनी गे्रसफुल फिगर, विट और इंटैलिजैंस के कारण अपने फ्रैंड्स में बहुत पापुलर थीं वे. और हम दोनों बहनों की तो आइडियल वे थीं ही.

खैर, मैं ने भी अपने बच्चों को हाई मौरेल वैल्यूज तो दी ही हैं उन्हें अपनी मदरटंग की रिस्पैक्ट करना भी सिखाया है. अलगअलग फील्ड में प्रोफैशनली क्वालीफाइड होने पर भी वे अपने घर में मदरटंग में ही बातें करते हैं. वरना आजकल तो अंगरेजी में बात करना स्टेटस सिंबल ही बन गया है. अगर आप हिंदी स्पीकिंग कैटेगरी को बिलौंग करते हैं तो आप हाई सोसाइटी में खुद को अनफिट पाते हैं. आप न तो अच्छी नौकरी ही पा सकते हैं न ही अपने फ्रैंड्स सर्कल अथवा पार्टी आदि में बोलने का आत्मविश्वास ही.

पिछले साल मैं अपनी बेटी का ऐडमिशन कराने विश्वविद्यालय गई, वहां का एनवायरमैंट देख कर तो भौचक ही रह गई. सब लड़कियों ने जीन्स और टौप ही पहन रखे थे. हेयर सब के शौर्ट, लड़की और लड़कों में भेद करना हमारे लिए डिफिकल्ट हो गया. वहां सब यों फर्राटेदार इंगलिश बोल रहे थे कि एक बार तो मुझे लगा मैं यूरोप के किसी देश में पहुंच गई हूं, टाइम कितना चेंज हो गया है न. जब हम छोटे थे तो सलवारसूट के ऊपर दुपट्टा ओढ़ा जाता था. वह भी प्रौपरली, न कि एक शोल्डर पर रखा हुआ. आजकल तो ऐसी लड़कियों पर टौंट करते हुए उन्हें ‘बहनजी’ टाइप कहा जाता है.

जिस तरह इंगलिश स्पीकिंग कोर्स चलते हैं, इंगलिश स्पीकिंग जैसी पुस्तकें धड़ाधड़ बिकती हैं, वक्त आ गया है कि उसी लाइन पर हमें हिंदी स्पीकिंग कोर्स भी स्टार्ट करने चाहिए. देखा जाए तो हिंदी सीखना उतना मुश्किल है भी नहीं. अंगरेजी के मुकाबले में तो बहुत इजी है. ग्रामर के फिक्स्ड नियम हैं. कोई भी साइलैंट लैटर नहीं, उच्चारण एकदम सहज. स्पीकिंग एंड राइटिंग एकदम सेम. जैसा बोलते हो ज्यों का त्यों लिख डालो. शौर्ट में यह कि अगर आप करैक्टवे में बोलते हैं तो करैक्ट ही सीखोगे भी. सो सिंपल. हमें चाहिए कि हम हिंदी को ज्यादा से ज्यादा प्रौपोगेट करें. अगर हम हिंदी में बोलेंगे तो सामने वाला हिंदी में जवाब देने को ओबलाइज्ड भी रहेगा, और इस से हमारी हिंदी की लोकप्रियता बढ़ेगी.

मैं ने देशविदेश में बहुत टै्रवल किया है. दुनिया भर में लोगों को अपनी राष्ट्रभाषा में ही बोलते पाया है. चाहे वह जरमनी, जापान हो या फ्रांस, रशिया या ईरान. वहां के प्रोफैशनल कालेजों में भी अपनी भाषा में पढ़ाई कराई जाती है. बीजिंग ओलिंपिक का तो उद्घाटन समारोह ही चीनी भाषा में कंडक्ट किया गया था. हमारा देश होता तो हिंदी का एक वर्ड भी सुनने को नहीं मिलता आप को. अगर वे लोग अपनी लैंग्वेज बोलने में इतना गर्व फील कर सकते हैं तो हम क्यों हिंदी को पीछे पुश करते जा रहे हैं? किसी से कम है क्या हमारी लैंग्वेज? कितना धनी है हमारा लिटरेचर. ढेर सारे क्षेत्रीय भाषाओं के अनुवाद मिला कर तो हिंदी और भी रिच हो जाती है. हमें तो प्राउड फील करना चाहिए अपने रिच हैरिटेज पर. अपनी प्राचीन सिविलाइजेशन और कल्चर पर.

जी हां, बहुत प्रेम है मुझे अपनी राष्ट्रभाषा से. तभी तो मैं हमेशा हिंदी में ही बोलतीलिखती हूं. आप को कुछ शक है मेरी हिंदी पर. पर आजकल तो हिंदी ऐसे ही बोली जाती है न. यकीन नहीं हो रहा तो अपने कान खुले रख कर कहीं भी बैठ जाओ, जो लोग अंगरेजी बोल रहे हैं तो वे तो अंगरेजी ही बोल रहे हैं पर जो लोग तथाकथित हिंदी में बातचीत कर रहे हैं उन्हें सुनो, व्याकरण हिंदी की, वाक्य संरचना हिंदी की पर मुख्य शब्द अंगरेजी के होंगे. मसलन, लास्ट वीक हम अपने कजिन की मैरिज अटेंड करने जयपुर गए थे. मित्रमंडली में, ब्याहशादी में, पार्टी में यही भाषा चलती है. जो व्यक्ति जितना पढ़ालिखा होगा उस की बोलचाल की भाषा में अंगरेजी के शब्दों का योगदान भी उतना अधिक होगा. निपट गंवार ही होगा जो शुद्ध हिंदी में बात करेगा. ‘टाइम क्या है?’ की जगह पूछेगा ‘समय क्या हुआ है?’

मेरे विचार से यह भाषा का निरादर है. क्या वे यह कहना चाहते हैं कि इन शब्दों का हिंदी रूपांतर है ही नहीं? अथवा वह कर्ण मधुर नहीं? शायद उन्हें लगता है कि अंगरेजी शब्दों का प्रयोग नहीं करेंगे तो लोग हमें अनपढ़ समझेंगे? तकनीकी अथवा प्रौद्योगिक शब्दों के लिए कभी अंगरेजी शब्दों का सहारा लेना भी पड़ सकता है. दरअसल, हर जीवंत भाषा अपने में दूसरी भाषाओं के शब्द समेटती चलती है पर हिंदी में उपलब्ध शब्दों के बदले अंगरेजी शब्दों का प्रयोग हास्यास्पद ही लगता है.

आप किसी के घर भोजन पर आमंत्रित हैं और गृहिणी आप से मनुहार कर रही है, ‘राइस तो आप ने लिए नहीं, कर्ड भी लीजिए न.’ भई, पुलाव और दही कहने में क्यों शर्म आती है, पर नहीं साहब, आप को पता कैसे चलेगा कि उन्हें अंगरेजी भाषा का भी ज्ञान है. आधुनिकता के नाम पर अंगरेजी शब्दों का प्रयोग पढ़ालिखा होने का प्रमाणपत्र ही बन गया है. आजकल यदि हम कभी हिंदी में स्वयं को व्यक्त नहीं कर पाते तो दोष भाषा का नहीं हमारे सीमित ज्ञान का है.

हमारी एक परिचिता हिंदी की अध्यापिका हैं. उच्च कक्षाओं में हिंदी पढ़ाती हैं पर आप की हर बात का उत्तर वे अंगरेजी में ही देने का प्रयत्न करेंगी चाहे टांगटूटी अंगरेजी बोलें क्योंकि कहीं आप यह न समझ लें कि वे अंगरेजी बोलना नहीं जानतीं.

किसी कवि की उक्ति याद आ रही है :

‘कितने शहरी हो गए लोगों के जज्बात

हिंदी भी करने लगी अंगरेजी में बात.’

हम क्यों हिंदी बोलने में हीनता का अनुभव करते हैं? यह खिचड़ी भाषा भी तो यही हीनता ही दर्शाती है? इतना व्यापक हो चुका है इस खिचड़ी भाषा का प्रभाव कि यदि मैं अपनी अंगूठाछाप काम वाली बाई से कहूं कि ‘प्याला मेज पर रख दो’ तो वह असमंजस में खड़ी मेरा मुंह ताकती है और समझाने पर हैरान हो कहती है, ‘कप टेबल पर रखने को बोलो न?’ वह लाइट को ‘लेट’ और चांस को ‘चानस’ भले ही कहे पर अंगरेजी शब्द उस की अनपढ़ बुद्धि में भी घुसपैठ कर चुके हैं अच्छी तरह से.

कहां पहुंचा दिया है हम ने हिंदी को? ध्यान रहे, अंगरेजी शब्द को नागरी में लिख देने मात्र से ही वे हिंदी के शब्द नहीं बन जाते. केवल अंगरेजी ही क्यों, आप जितनी भाषाएं सीख सकते हैं सीखिए, पर अपनी भाषा में अंगरेजी भाषा के शब्द घुसेड़ने का हक आप को कतई नहीं है.

Funny Story : बरात के चस्के

Funny Story : चाहे रात भर खाना न मिले लेकिन बरात का अपना एक अलग मजा है. ऐसा मजा जो न सेब में है न सेब के जूस में. बरात के आनंद को महसूस किया जाता है. उस का सहीसही वर्णन किया जाना उतना ही मुश्किल है जितना गधे को स्वीमिंग पूल में नहलाना.

घर में शादी का कार्ड देख कर मन राष्ट्रीय चैनल से एम टीवी में अपनेआप बदल गया. कार्ड सुंदर था. हिंदुस्तान में वरवधू चाहे खूबसूरत, सुघड़ हों न हों, लेकिन उन की शादी के कार्ड जरूर ही सुंदर होते हैं. लड़की के हाथों की मेहंदी का डिजाइन भले ही टेढ़ामेढ़ा, आड़ातिरछा क्यों न हो लेकिन कार्ड की छपाई बहुत ही आकर्षक होती है.

शादी का कार्ड फ्रिज के ऊपर रखा था. आमतौर पर मध्यवर्गीय घरों में शादी के कार्ड, राशनकार्ड, बिजली का बिना जमा किया बिल, बच्चों के रिजल्टकार्ड…सब के सब फ्रिज के ऊपर ही रखे जाते हैं. फ्रिज, अंदर का सामान तो ठंडा रखता ही है, ऊपर रखे टैंशन वाले कागजात भी ठंडा कर देता है. ठंडे बस्ते में डालना कहावत पुरानी हो गई है, नए जमाने की कहावत ‘फ्रिज के ऊपर रखना’ हो सकती है.

हमें मालूम था कि पड़ोसी शर्माजी के छोटे साहबजादे लल्लू की शादी है. बड़े वाले कल्लू की शादी तो हम 3 साल पहले ही निबटा चुके थे. कल्लू की शादी की यादें मन में जीवंत हो उठीं. खासतौर पर पनीर और छोले के स्वाद जीभ पर ताजा हो गए. मन में स्वाद ध्यान आते ही लगभग 10 प्रतिशत स्वाद तो मिल ही गया.

हम ने जानबूझ कर श्रीमतीजी से पूछा, ‘‘यह किस की शादी का कार्ड आया है?’’

पत्नीश्री झल्ला गईं, बोलीं, ‘‘यह कार्ड कोई तमिल या मलयालम भाषा में तो छपा नहीं है. न ही फारसी या अरबी भाषा में प्रिंट हुआ है, जो तुम्हारे पढ़ने में नहीं आ रहा है.’’

हम ने भी मोर्चा नहीं छोड़ा. कहा, ‘‘कार्ड है तो शादी ही होगी. शादी होगी तो उस में दूल्हे का होना भी निहायत जरूरी है. हमें तो खाली इतना बता दो कि दूल्हा कौन बन रहा है?’’

पत्नीश्री का मूड कुछ नौरमल हुआ तो हमारे चेहरे पर भी मुसकान तैर गई. जैसे बढ़ते शेयर सूचकांक को देख कर दलालों के चेहरों पर चमक आ जाती है. कुछ मजाक का पुट ले कर बोलीं, ‘‘कम से कम तुम तो नहीं बन रहे हो.’’

हम ने कहा, ‘‘हम तो एक बार ही वर बने थे. उस के बाद तो कुंवर, सुवर जानवर, दुष्टवर और न जाने कौनकौन से वर बन गए. हम तो शादी के समय जिस घोड़ी पर बैठे थे वह घोड़ी भी बरात के बाद जमीन पर धूल में खूब लोटी थी. शायद हमारे बैठने से उस की पीठ अपवित्र हो गई हो. जब घोड़ी तक हमारी बेइज्जती कर चुकी है तो फिर तुम्हारी बात का बुरा क्यों मानें? फिर शादी के बाद तो हमारी इज्जत धोने का लाइसेंस तुम्हें मिल ही चुका है.’’

इस पर पत्नीश्री ‘हीही’ कर के हंसती रहीं. मूड ठीक होने पर बताया कि लल्लू की 13 को शादी है. हम ने कहा कि हमारी शादी भी 13 को हुई थी, तभी से हमारी जिंदगी तीनतेरह हो गई है. कम से कम लल्लू को तो रोका जाना चाहिए. रोक नहीं सकते तो कम से कम शादी 12 या 14 तारीख को कर ले.

हमारी न चलनी थी और न चली. 13 तारीख को हम पत्नी और बच्चों के साथ रिकशे पर बैठ कर सीधे लल्लू के घर पहुंच गए. वहां पहुंच कर हमें पता चला कि शादी का कार्यक्रम घर पर नहीं है बल्कि शहर से दूर बने एक फार्महाउस में है. अब रिकशा वालों से फिर तूतू, मैंमैं. कोई जाने को तैयार नहीं तो कोई पैसे इतने मांग रहा था कि हमें लग रहा था कि हम अपने छोटे शहर में नहीं, बल्कि लोखंडवाला में खड़े हैं.

जैसेतैसे हम परिवार समेत फार्महाउस पहुंचे. वहां रिकशे से उतरते ही हम ने रोब झाड़ा, ‘‘क्या करें, गाड़ी निकाली थी लेकिन आगे का एक पहिया पंक्चर निकला. सोचा, स्टैपनी बदल लें लेकिन तब ध्यान आया कि परसों ही तो स्टैपनी मिस्त्री के यहां डाली थी. मजबूरी में रिकशा पकड़ कर आना पड़ा.’’

पत्नीश्री दो कदम आगे बढ़ गईं, बोलीं, ‘‘मैं ने तो इन से कई बार कहा है कि एक नई गाड़ी ले लो. मेरी मान कर एक नई गाड़ी ले ली होती तो कम से कम आज रिकशे पर तो न बैठना पड़ता. मैं तो आज पहली बार रिकशे पर बैठी हूं,’’ हालांकि सुनने वाले मुंह दबा कर हंसने लगे.

थोड़ी देर में बरात चलने का माहौल बनने लगा. बरात रवाना होने से पहले माहौल बनाया जाता है. सब से पहले तो मामा या मौसा रूठ जाते हैं कि उन्हें स्टेशन पर लेने के लिए किसी को भेजा क्यों नहीं? उन की बेइज्जती करनी थी तो बुलाया ही क्यों? फिर बाकी रिश्तेदार मिल कर उन्हें मनाते हैं.

बरात के चलने से थोड़ा पहले अफरातफरी का माहौल बन जाता है. दूल्हे के चाचा ने जो नई शर्ट सिलवाई थी वह अब मिल ही नहीं रही है.

महिलाएं एक कमरा अलग से घेर लेती हैं जिस में वे तैयार होती हैं. उस कमरे में छोटीछोटी लड़कियां सब से ज्यादा चिल्लपों करती हैं. उस में कंघा ढूंढ़े नहीं मिलता है. क्रीम पर छीनाझपटी होती है. तेल की शीशी फर्श पर फैल जाती है. मैचिंग दुपट्टा खोजने पर मिलता ही नहीं है. बाद में याद आता है कि उसे तो अटैची में रखा ही नहीं था. वह तो घर पर ही रह गया.

जैसेतैसे बरात चलना शुरू करती है. जैसे ही बरात निकली, लड़कियां फैशन परेड का आयोजन करती चलती हैं. कुछ तो ऐसे चलती हैं जैसे वे रैंप पर कैटवाक कर रही हों. जिन्हें अगर सरोज खान या फरहा खान देख लें तो वे भी भौचक रह जाएं कि ऐसे डांस के स्टैप के आइडिया आखिर उन के दिमाग में क्यों नहीं आए?

अब जिन्हें डांस नहीं आता है उन्हें सिर्फ एक काम आता है कि वे बैंड वाले के पास जा कर रौब झाड़ते हैं कि गाना बदलो. क्या बकवास गाने लगा रखे हैं. कुछ शकीला, टकीला बजाओ और खुद ताली बजाने लगते हैं. जब कुछ समझ में नहीं आता है तो जेब से 10 का नोट निकाल कर थोड़ी देर हवा में लहराते हैं. जब वे मुतमईन हो जाते हैं कि सभी ने उन के हाथ में 10 का नोट देख लिया है तो फिर वे उस नोट को अपने मुंह में दबा लेते हैं. जब बैंड वाला उस नोट को झपटने की कोशिश करता है तो वे हरगिज उस नोट को नहीं देते हैं. फिर वे बैंड वाले को इशारा कर देते हैं कि डांस करते हुए आओ, तो ही नोट मिलेगा.

बैंड वाले भी कम उस्ताद नहीं होते हैं. उन की नजर लोगों के हाथों पर होती है कि किस की उंगली में नोट फंसा है. फिर वे क्लीरिनेट से तूतू तूतू की धुन निकालते हुए, थोड़ी सी कमर मटका कर अपनी 2 उंगलियां बगले की चोंच की तरह बना कर नोट झपट ले जाते हैं.

बरात में सब से पीछे बुजुर्ग चलते हैं और वे भी चलते हैं जो अपने को शरीफ समझते हैं. बीच में नर्तक दल पूरे जोश में होता है. जहां भी बैंड वाले रुके, नर्तक सड़क घेर कर उस पर कब्जा कर लेते हैं, मानो नगर निगम से उन्होंने सड़क के इस टुकड़े का बैनामा करा लिया हो. सड़क पर जूते इतने घिसते हैं कि जूता सुधारने वाले खुश हो जाते हैं कि कम से कम दोचार जोड़ी तो मरम्मत के लिए जरूर आएंगे.

जहां पर नृत्य का अखिल भारतीय कार्यक्रम चल रहा होता है वहां किनारे पर जीजाजी सूटबूट में सजे खड़े हो जाते हैं. वे सोचते हैं कि सालों और उन के दोस्तों की नजर पड़ जाए तो उन्हें भी डांस के लिए खींचा जाए. उन्हें डांस करने के लिए मनाया जाए. ध्यान खींचने को वे डांस को सपोर्ट करते हुए ताली बजाने लगते हैं. तभी साले उन के पास डांस करते हुए आते हैं और डांस के डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. फ्लोर पर खींचने लगते हैं. अब एक बार में मान जाएं तो काहे के जीजाजी. पहले तो वे नानुकर करते हैं फिर एकदम हरकत में आते हुए डांस जैसी हरकत करने लगते हैं.

उन के डांस पर ससुरालीजन नोटिस लेते हुए तारीफें करते हैं, सालियां मुंह बना कर हंसती हैं. हालांकि वे मन ही मन कहती हैं कि डांस करते हुए कैसे बंदर लग रहे हैं और उछल तो भालू की तरह रहे हैं लेकिन कुछ स्टैप चिंपैंजी से भी मेल खा रहे हैं…

बरात सफर तय करती हुई फार्म हाउस के गेट पर पहुंच जाती है. बस, यही वह स्थान है जहां पर पूरी ताकत दिखाई जानी है. सभी हथियार चलाए जाने हैं. लास्ट में ब्लास्ट भी करना है ताकि पता चल सके कि हमारे पास परमाणु बम भी है. यहां पर तो जवान, नौजवान, बूढ़े, महिला, बच्चे…सभी को डांस करना जरूरी है. मान्यता है कि लड़की वाले के गेट पर डांस करने से कुंभ नहाने का पुण्य मिलता है. यहां पर भीड़भाड़ कुंभ के समान ही होती है, जिस में छोटे बच्चे बिछड़ जाते हैं जो बाद में चाउमिन के स्टाल पर मिलते हैं.

जम कर नृत्य प्रतियोगिता के बाद अब अंदर घुसते ही बरातियों की नजर भोजन वाले पंडाल को ढूंढ़ती है. एक तरफ कुछ डोंगे मेजों पर सजे दिखाई देते हैं. मगर यह क्या? डोंगे अभी ढके हुए हैं. उन के आसपास वरदीधारी वेटर टहलटहल कर पहरा दे रहे हैं जिस से कि कोई डोंगा खोल कर शुरू न हो जाए. डोंगा खुलते ही संग्राम शुरू. ‘हम लाए हैं तूफान से पूड़ी निकाल के – मेरे देश के बच्चो इसे खाना संभाल के’ की तर्ज पर एक बार में ही फाइबर की प्लेट में इतना कुछ भर लाए कि कौन जाने दोबारा भरने का मौका भीड़ में मिले या न मिले.

बरात का आनंद उठा कर हम घर लौटे तो देखा कि साहबजादे ने एक पौलिथीन खोल कर मेज पर रख दी जिस में बरात का खाना था. हम ने पूछा तो बोले, ‘‘हम से वहां खाया नहीं गया तो हम चुपचाप परोसा ले आए.’’ ऊपर से हम गुस्सा हुए लेकिन मन ही मन अच्छा लगा. बरात का खाना घर ला कर गरम कर के खाओ तो स्वाद ऐसे बढ़ जाता है जैसे शरबती चावल, बासमती चावल के रूप में बदल गया हो.

बरात में चाहे जितनी फजीहत हो लेकिन हर बार मन नहीं मानता है. हम हर बार कहते हैं कि अब बरात में नहीं जाएंगे लेकिन ये बात नई बरात के निमंत्रण से पहले तक ही याद रह पाती है. हम ने श्रीमतीजी को आवाज लगाई, ‘‘देखना, अब किस की शादी पड़ रही है?’’

श्रीमतीजी गुस्से से बोलीं, ‘‘अब तो हमारी शादी है.’’ मैं ने पूछा, ‘‘आखिर किस से?’’

हमारी पत्नी हंस कर बोलीं, ‘‘तुम से और किस से.’’

Satire : डोरे डालने के लिए उम्र का बंधन नहीं होता

Satire : डोरे डालने का सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम अपने देश में अनादिकाल से चला आ रहा है. स्त्री और पुरुष तो परस्पर एकदूसरे पर डोरे डालते ही हैं, जानवरों में भी नर व  मादा एकदूसरे पर डोरे डालते हैं. जीवित प्राणियों की बात तो छोडि़ए आदमी ने बेजान चीजों के मामले में भी डोरे डालना सीख लिया है. अब देखिए कि इनसान ने सिलाई मशीन तक को नहीं छोड़ा, सुई को भी नहीं छोड़ा. वहां भी अनेक प्रकार के डोरे डाले जाते हैं.

सतयुग में एकदूसरे पर डोरे डाले जाते थे. विश्वामित्र पर मेनका ने डोरे डाले तो दुष्यंत ने शकुंतला पर. त्रेता में राम और उन के भाई लक्ष्मण पर रावण की बहन सूर्पणखा ने डोरे डाले. द्वापर में कृष्ण और राधा के परस्पर डोरे डालने की दास्तां तो अनेक कवियों ने बखानी है. कलियुग में तो डोरे डालने का अभियान विधिवत और योजना बना कर अबाध गति से चल रहा है. पूरे महल्ले से ले कर विदेशों तक डोरे डालने के कार्यक्रम चलते आए हैं.

एक राजनेता विदेशी महारानी पर डोरे डालने में सफल हो गए थे. दूसरे राजनेता तो विदेशी मैडम पर डोरे डाल कर उसे डोली में बिठा कर बाकायदा स्वदेश ही ले आए. प्रेम के डोरों से ही तो प्रेम की रस्सी बनती है. कोई छिप कर डोरे डालता है तो कोई खुलेआम डोरे डाल कर प्रेम की डोर तगड़ी करता रहता है.

डोरे डालने के लिए उम्र का बंधन नहीं होता है. किशोरों से ले कर बुजुर्गों तक और किशोरियों से ले कर बुजुर्ग बालाओं तक परस्पर डोरे डालने का कार्यक्रम चलता रहता है. फलां लड़का फलां लड़की को या फलां आदमी फलां स्त्री को भगा ले गया या वह उस के साथ भाग गई, ये सभी डोरे डालने के नतीजे हुआ करते हैं. डोरे डालतेडालते ही घर बसते हैं, तो कहीं घर उजड़ते हैं, कई जेल की हवा खाते हैं.

डोरे डालने के वाबस्ता कइयों के मंत्री पद छिन गए, कइयों के मुख्यमंत्री पद छिने. प्राचीनकाल में तो कइयों के राज्य छिन गए और राजगद्दियां छिन गईं. पड़ोसी अपनी पड़ोसिन पर और पड़ोसिन अपने पड़ोसी पर डोरे डालते देखे जा सकते हैं. बहरहाल अंजाम कुछ भी हो, डोरे डालने का व्यक्तिगत और सामाजिक कार्य कभी रुकता नहीं है.

यों तो डोरे डालने का कार्यक्रम सदाबहार रहता है और यह कार्यक्रम बारहों महीने चलता है, लेकिन कुछ समय या ऋतु विशेष इस के लिए विशेष मुफीद होती है. शीत ऋतु सब से अच्छी होती है जब डोरे डालने का कार्य सर्वत्र चलता है. शीतकाल में जिधर देखिए उधर, जब देखिए तब डोरे डलते दिखाई देते हैं. महिलाएं अपनी नाजुक कलाइयों की उंगलियों से स्वैटर बुनने की सलाइयों पर फंदे तो रजाइयों में डोरे डालती देखी जा सकती हैं. उधर लड़कीलड़का, पुरुष व महिलाएं धूप सेंकने के बहाने छत पर या एक छत से दूसरी छत पर डोरे डालते मिल जाएंगे. अपनी छत पर एक खड़ा है तो सामने या बगल की छत पर दूसरा खड़ा है और बस हो जाती है डोरे डालने की प्रक्रिया प्रारंभ.

डोरे डालतेडालते प्रेम की डोर बन जाती है जो 2 प्राणियों को बांधने में समर्थ होती है. ऐसी स्थिति को कवि देखता है तो कह बैठता है, ‘‘पहले मन लेते बांध प्यार की डोरी से पीछे चुंबन पर कैद लगाया करते हैं.’’ पाबंदी तो जालिम जमाना लगाता है, जो प्रेमीप्रेमिकाओं को जीने नहीं देता. डोरे डालतेडालते यह स्थिति हो जाती है कि ‘मरने न दे मुहब्बत, जीने न दे जमाना.’ आजकल टेलीविजन पर चैनल वाले भी तरहतरह के सीरियल दिखा कर डोरे डालने का अच्छा प्रशिक्षण दे रहे हैं.

पहले जमाने में महल्ले में ही डोरे डालने की डबिंग और कार्यक्रम होता था. मकान की छतों, छज्जों, बालकनियों, खिड़कियों, पिछले दरवाजों और एकांत गलियों का उपयोग इस कार्य के लिए होता था. अब महल्ले की सीमा लांघ कर बागबगीचे, पार्क, दफ्तर, मैट्रो स्टेशन की सीढि़यां, तालाब और नदी के किनारे, एकांत सड़कें या पहाडि़यां परस्पर डोरे डालने के मुफीद स्थान हैं.

अपने देश और विदेशों में प्रेम करने का यही मूलभूत अंतर है. विदेशों में तो परस्पर मिलनेजुलने के लिए समय की कमी है, इसलिए तड़ाकफड़ाक प्रेम किया और काम पर चल दिए. अपने यहां प्यार भी विधिवत तरीके से होता है. डोरे डालतेडालते प्रेम की डोर में लिपटते हैं, और डोर जब तक सड़ नहीं जाती तब तक उस में बंधे रहते हैं. कोई ऐरागैरा सत्यानाशी व्यक्ति प्रेम की डोर को बीच से काट देता है, तो फिर स्थिति अलग होती है.

जब से राजनीतिक दलों की हिम्मत टूटी है और अकेले सरकार बनाने की कूवत नहीं रही, तब से राजनीति में भी डोरे डालने का कार्यक्रम शुरू हुआ है. घटक दलों पर परस्पर डोरे डाले जा रहे हैं. कभी अम्मा किसी दल के दादा पर डोरे डालती हैं तो कभी किसी दल का सदस्य किसी दल की बहनजी या मैडम पर डोरे डालता है. यह राजनीति ही है, जहां सभी मर्यादाओं और पिछली परंपराओं को दरकिनार करते हुए कुरसी हेतु अम्मा और बहनजी पर भी डोरे डाल कर गठबंधन की गांठ मजबूत की जाती है. तभी सरकार चलती है और कुरसी कुछ समय के लिए स्थिर होती है.

ये डोरे बड़े महीन होते हैं लेकिन इस में एक से एक तीसमारखां बांधे जा सकते हैं. राजनीति में भी यों तो परस्पर डोरे डालने का समय 5 साल तक रहता है लेकिन चुनावों के समय डोरे डालने की गतिविधियां काफी तेज हो जाती हैं. इस समय अगर किसी पर डोरे डाल कर पटा लिया जाए तो चुनाव की वैतरणी पार होने में काफी मदद मिलती है.

डोरे डालते समय डोरा टूटता भी है, कभी व्यवधान भी आता है. घबराइए नहीं और आप भी समय और अनुकूल मौका पा कर डोरे डालिए. डोरे डालने के लिए उम्र, समय, ऋतु तथा स्थान का तो बंधन होता नहीं है, यह सदाबहार प्रक्रिया है. यह जरूर ध्यान रहे कि डोरे डालने में सावधानी रहे, आप भी न फंसें और डोरे भी न फंसें. फंसने पर दोनों के टूटने का डर है, तभी तो कहा है कि ‘रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय…’ और हां, कैंची ले कर घूमने वालों से सावधान.

Comedy : टैक्स की कमाई से कौन खा रहा है मलाई

Comedy : जल्द ही सरकार कचरे पर भी कर लगाने जा रही है. तय है कि यह समाचार पढ़ कर कई लोग चौंके होंगे. वजह, कर चोरी की लत विशेषज्ञता नहीं, बल्कि कर का गिरता स्तर है. सरकार देती एक हाथ से है पर लेती हजार हाथों से है. कर लेते ये हजारों हाथ अर्थव्यवस्था की हड्डियां हैं जिन की मजबूती पैसे रूपी कैल्शियम से होती है.

मैं भी सैकड़ों तरह के कर देता हूं. आमदनी हो न हो, कर देना जरूरी है. यह गुजाराभत्ता कानून से मेल खाता है कि पति कमाए न कमाए, पत्नी को जिंदा रखने के लिए पैसा देना होगा.

प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष और मिश्रित के अलावा जाने कितने तरह के टैक्स दे कर मैं तकरीबन कंगाल हो चला हूं मगर शरीर चलाए रखने के लिए आयकर, विक्रयकर, सेवाकर, आबकारीकर, वाणिज्यकर, मनोरंजनकर, संपत्तिकर, शिक्षा कर जैसे दर्जनों कर जानेअनजाने बिना नागा देता रहता हूं, जिस से सरकार चलती रहे, देश चलता रहे.

अपने मरियल से शरीर को चलाने के लिए दो वक्त की रोटी काफी होती है मगर मेरे शरीर का हर हिस्सा करदाता है. तेल खरीदता हूं तो सर के बाल कर देते हैं, शेविंग क्रीम लूं तो चेहरा करदाता हो जाता है. कहने की जरूरत नहीं कि आंख, कान, नाक, हाथ, पैर, पीठ, पेट सब टैक्सपेयी हैं. मैं तो सोते वक्त भी टैक्स देता सोऊंगा. यह बात फ्यूचर परफेक्ट कंटीन्यूस टेंस की न हो कर जीतीजागती हकीकत है. सुबह उठते ही मैं टैक्स देना शुरू कर देता हूं तो यह सिलसिला देर रात तक चलता है.

पैट्रोल, मोबाइल, पैन, कागज और पानी समेत मैं टैक्सी पर भी टैक्स देता हूं. हिसाबकिताब कभीकभी लगाता हूं तो चकरा जाता हूं कि मैं टैक्स पर भी टैक्स देता हूं और आमदनी से ज्यादा देता हूं. बापदादों की छोड़ी जमीनजायदाद इस तरह सरकार के खाते में टुकडे़टुकड़े हो कर समा रही है. इनसाफ चाहिए तो टैक्स, इलाज करवाना हो तो टैक्स भरो, श्मशान तक में टैक्स का मीटर घूमता रहता है. आदमी का घूमना बंद हो जाता है पर टैक्स का पहिया चलता रहता है. अपने देश में फख्र की बात है कि भ्रूण भी कर देता है और आत्मा भी करदाता होती है.

संसद और विधानसभाएं कम पड़ रही थीं इसलिए सरकार ने नगर निगम पालिकाएं और पंचायतें खड़ी कर दीं. मधुमक्खी के टूटे छत्ते से जितनी मधुमक्खियां नहीं निकलतीं उस से ज्यादा टैक्स इंस्पेक्टर पैदा हो रहे हैं. इन के पालनपोषण के लिए भी टैक्स देना पड़ता है.

टैक्स को अब मैं देहाती भाषा की तर्ज पर ‘देह धरे का दंड’ यानी शरीर धारण करने की सजा कहने लगा हूं. भारत कृषि नहीं कर प्रधान देश है जिस की खूबी यह है कि जो भी उत्पाद मैं खरीदता हूं उस का कर पहले से ही सरकार वसूल कर चुकी होती है. इसलिए हर एक पैकिंग पर चाहे वह दूध का पैकेट हो, क्रीम हो या दवा का रैपर, छोटेछोटे अक्षरों में लिखा रहता है एम.आर.पी. (इतनी) इनक्लूसिव औल टैक्सेस.

भगवान की तरह सरकार भी हर जगह टैक्स वसूलने के लिए खड़ी मिलती है. उस की महिमा वाकई अपरंपार है. वह बंदरगाह पर भी है, हवाई अड्डे पर भी है और रेलवे स्टेशन पर भी है. वह घर में है तो बाहर भी है. निगाह की हद तक सरकार ने जाल बिछा रखा है जिस में कोई सवा अरब लोग फड़फड़ा रहे हैं. ये आम नागरिक नहीं करदाता हैं जो कर्ज में डूबे हैं.

यह सोचना बेमानी है कि अमीर लोग ही टैक्स देते हैं. अपने देश में भिखारी को भी टैक्स देना पड़ता है. यह दीगर बात है कि खुद के करदाता होने का उसे पता नहीं रहता. इस के बावजूद सरकार घाटे में चलती है. छोड़ती इतना भर है कि आदमी जिंदा रहे, चलताफिरता रहे जिस से टैक्स वसूलने में सहूलियत हो.

सरकार किसी की आमदनी नहीं बढ़ा सकती मगर टैक्स जरूर बढ़ाती है. अपने मुलाजिमों की पगार भी वह बढ़ाती रहती है जिस से वे टैक्स के दायरे में रहें. हम सरकार चुनने को बाध्य हैं. वोट देते हैं ताकि कोई तो हो जो हमारी आमदनी में से टैक्स रूपी दक्षिणा मांगे.

कई समझदार लोगों ने टैक्स से बचने की बेवकूफी की है, मगर वे पकड़े गए हैं. कुछ ने घूस देने की कोशिश की मगर गच्चा खा गए. घूस और टैक्स में कोई खास फर्क नहीं रह गया है. घूस ऐच्छिक है टैक्स अनिवार्य है. जिन्होंने ऐच्छिक चुन कर अनिवार्य से बचने की कोशिश की उन के यहां छापे पड़ गए. करोड़ोंअरबों के घोटाले महज टैक्स न देने और घूस देने की वजह से उजागर हुए. जो लाखों की घूस दे सकता है, सरकार सूंघ लेती है कि वह करोड़ों का टैक्स बचा रहा है.

शुरूशुरू में सरकार ढील देती है. व्यापारी, आई.ए.एस. अफसर और मझोले किस्म के नेता, जो हकीकत में कारोबारी होते हैं, सभी खुशी से अपनी पीठ थपथपाते हैं कि बच गए मगर इन लोगों को यह ज्ञान नहीं रहता कि सरकार के कमरे में सी.सी. टी.वी. लगा है. जब घूस का दृश्य खत्म हो जाता है तो सरकार छापामारी का सीन शुरू कर देती है. कर चोर पकड़े जाते हैं. उन की जायदाद जब्त कर ली जाती है. इन नामी इज्जतदार रईसों को तुरंत जेल नहीं होती. उन्हें मुकदमा लड़ने का मौका दिया जाता है जिस से बची और छिपाई रकम भी बाहर आ जाए. अदालत में क्या होता है, यह कोई नहीं देखता. ऐसे छापों में 2 तरह के संदेश जाते हैं. पहला कि टैक्स चोरी की जा रही है. दूसरा कि टैक्स चोरी पकड़ी भी जाती है, जिसे जो पसंद हो अपना ले.

बहरहाल, इतने सारे और तरहतरह के टैक्स देने के बाद भी मैं हताश नहीं हूं. सरकार चलाने के लिए मैं कचरा कर भी दूंगा. नींद पर टैक्स लगाया जाएगा, स्लीपिंग टैक्स भी दूंगा, सोने के घंटे कम कर दूंगा मगर सरकार चलाने में अपना योगदान देता रहूंगा.

मेरे टैक्स के पैसे से सियासी पार्क बनें या नेताओं के पिता, परपिताओं के नाम पर कल्याणकारी योजनाएं बनें, जो मूलत: कइयों की रोजीरोटी हैं, इन के खिलाफ सोचने की बेवकूफी मैं नहीं करता. मेरा काम है टैक्स देना. मेरे पिताजी टैक्स देतेदेते बोल गए. मैं तो कराह ही रहा हूं. अब सारी उम्मीदें बेटे पर टिकी हैं कि वह भी बदस्तूर टैक्स परंपरा को निभाएगा. कमाएगा खुद के लिए नहीं सरकार के लिए, इसलिए मैं ने टैक्स पुराण उसे अभी से रटवाना शुरू कर दिया है.

कोई माने या न माने पर मैं मानता हूं कि तरक्की हो रही है, कारखाने और भारीभरकम उद्योग बढ़ रहे हैं. यह टैक्स के दम पर नहीं, टैक्स चोरी, घूसखोरी और भ्रष्टाचार से बच गए पैसों के दम पर हो रहा है, जो कुल टैक्स का केवल 10 फीसदी है. सोचने में हर्ज नहीं कि बचा 90 फीसदी भी देश की तरक्की में लग जाता तो वाकई हम दुनिया के सिरमौर होते.

मुझे खुशी होती है कि मेरे जैसे लोगों द्वारा दी गई टैक्सों की कुल जमा रकम से अफसरों, मंत्रियों, मुलाजिमों को पगार मिलती है. वे काम करने के लिए हवाई जहाज में उड़ते हैं. उन के कुत्ते तक हड्डी मेरे पास से खाते हैं. उन के माली, ड्राइवर और रसोइए मेरे टैक्स के मोहताज हैं. इस बाबत मुझे कोई भी पदक भी नहीं चाहिए. वजह, मैं कर दाता हूं.

Breakup Story : धोखेबाज गर्लफ्रैंड

Breakup Story: ड्राइंगरूममें सोफे पर बैठ पत्रिका पढ़ रही स्मिता का ध्यान डोरबैल बजने से टूटा. दरवाजा खोलने पर स्मिता को बेटे यश का उड़ा चेहरा देख धक्का लगा. घबराई सी स्मिता बेटे से पूछ बैठी, ‘‘क्या हुआ यश? सब ठीक तो है?’’

बिना कुछ कहे यश सीधे अपने बैडरूम में चला गया. स्मिता तेज कदमों से पीछेपीछे भागी सी गई. पूछा, ‘‘क्या हुआ यश?’’

यश सिर पकड़े बैड पर बैठा सिसकने लगा. जैसे ही स्मिता ने उस के पास बैठ कर उस के सिर पर हाथ रखा वह मां की गोद में ढह सा गया और फिर फूटफूट कर रो पड़ा.

स्मिता ने बेहद परेशान होते हुए पूछा, ‘‘बताओ तो यश क्या हुआ?’’

यश रोए जा रहा था. स्मिता को कुछ समझ नहीं आ रहा था. उस का 25 साल का बेटा आज तक ऐसे नहीं रोया था. उस का सिर सहलाती वह चुप हो गई थी. समझ गई थी कि थोड़ा संभलने पर ही बता पाएगा. यश की सिसकियां रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं. कुछ देर बाद फिर स्मिता ने पूछा, ‘‘बताओ बेटा क्या हुआ?’’

‘‘मां, नविका से ब्रेकअप हो गया.’’

‘‘क्या? यह कैसे हो सकता है? नविका को यह क्या हुआ? बेटा यह तो नामुमकिन है.’’

यश ने रोते हुए कहा, ‘‘नविका ने अभी फोन पर कहा कि अब हम साथ नहीं हैं. वह यह रिश्ता खत्म करना चाहती है.’’

स्मिता को गहरा धक्का लगा. यह कैसे हो सकता है. 4 साल से वह, यश के पापा विपुल, यश की छोटी बहन समृद्धि नविका को इस घर की बहू के रूप में ही देख रहे हैं. इतने समय से स्मिता यही सोच कर चिंतामुक्त रही कि जैसी केयर नविका यश की करती है, वैसी वह मां हो कर भी नहीं कर पाती. इस लड़की को यह क्या हुआ? स्मिता के कानों में नविका का मधुर स्वर मां…मां… कहना गूंज उठा. बीते साल आंखों के आगे घूम गए. बेटे को कैसे चुप करवाए वह तो खुद ही रोने लगी. वह तो खुद ही इस लड़की से गहराई से जुड़ चुकी है.

अचानक यश उठ कर बैठ गया. मां की आंखों में आंसू देखे, तो उन्हें पोंछते हुए फिर से रोने लगा, ‘‘मां, यह नविका ने क्या किया?’’

‘‘उस ने ऐसे क्यों किया, यश? कल रात तो वह यहां हमारे साथ डिनर कर के गई. फिर रातोंरात ऐसी कौन सी बात हो गई?’’

‘‘पता नहीं, मां. उस ने कहा कि अब वह इस रिश्ते को और आगे नहीं ले जा पाएगी. उसे महसूस हो रहा है कि वह इस रिश्ते में जीवनभर के लिए नहीं बंध सकती. वह भी हम सब को बहुत मिस करेगी, उस के लिए भी मुश्किल होगा पर वह अपनेआप को संभाल लेगी और कहा कि मैं भी खुद को संभाल लूं और आप सब को उस की तरफ से सौरी कह दूं.’’

स्मिता हैरान व ठगी से बैठी रह गई थी. यह क्या हो रहा है? लड़कों की

बेवफाई, दगाबाजी तो सुनी थी पर यह लड़की क्या खेल खेल गई मेरे बेटे के साथ… हम सब की भावनाओं के साथ. दोनों मांबेटे ठगे से बैठे थे. स्मिता ने बहुत कहा पर यश ने कुछ नहीं खाया. चुपचाप बैड पर आंसू बहाते हुए लेटा रहा. स्मिता बेचैन सी पूरे घर में इधर से उधर चक्कर लगाती रही.

शाम को विपुल और समृद्धि भी आ गए. आते ही दोनों ने घर में पसरी उदासी महसूस कर ली थी. सब बात जानने के बाद वे दोनों भी सिर पकड़ कर बैठ गए. यह कोई आम सी लड़की और एक आम से लड़के के ब्रेकअप की खबर थोड़े ही थी. इतने लंबे समय में नविका सब के दिलों में बस सी गई थी.

इस घर से दूर नविका तो खुद ही नहीं रह सकती थी. घर में हर किसी को खुश करती थकती नहीं थी. विपुल के बहुत जोर देने पर यश ने सब के साथ बैठ कर मुश्किल से खाना खाया, डाइनिंगटेबल पर अजीब सा सन्नाटा था. समृद्धि को भी नविका के साथ बिताया एकएक पल याद आ रहा था. नविका से कितनी छोटी है वह पर कैसी दोस्त बन गई थी. कुछ भी दिक्कत हो नविका झट से दूर कर देती थी.

विपुल को भी उस का पापा कह कर बात करना याद आ रहा था. सब सोच में डूबे हुए थे कि यह हुआ क्या? कल ही तो यहां साथ में बैठ कर डिनर कर रही थी. आज ब्रेकअप हो गया. यह एक लड़के से ब्रेकअप नहीं था. नविका के साथ पूरा परिवार जुड़ चुका था. सब ने बहुत बेचैनी भरी उदासी से खाना खत्म किया. कोई कुछ नहीं बोल रहा था.

स्मिता से बेटे की आंसू भरी आंखें देखी नहीं जा रही थीं. उस के लिए बेटे को इस हाल

में देखना मुश्किल हो रहा था. रात को सोने

से पहले स्मिता ने पूछा, ‘‘यश, मैं नविका से

बात करूं?’’

‘‘नहीं मां, रहने दो. अब वह बात ही नहीं करना चाहती. फोन ही नहीं उठा रही है.’’

स्मिता हैरान. दुखी मन से बैड पर लेट तो गई पर उस की आंखों से नींद कोसों दूर विपुल के सोने के बाद बालकनी में रखी कुरसी पर आ कर बैठ गई. पिछले 4 सालों की एकएक बात आंखों के सामने आती चली गई…

यश और नविका मुंबई में ही एक दोस्त की पार्टी में मिले थे. दोनों की दोस्ती हो गई थी. नविका यश से 3 साल बड़ी थी, यह जान कर भी यश को कोई फर्क नहीं पड़ा था. वह नविका से बहुत प्रभावित हुआ था. नविका सुंदर, आत्मनिर्भर, आधुनिक, होशियार थी. अपनी उम्र से बहुत कम ही दिखती थी. स्मिता के परिवार को भी उस से मिल कर अच्छा लगा था.

चुटकियों में यश और समृद्धि के किसी भी प्रोजैक्ट में हैल्प करती. बेटे से बड़ी लड़की को भी उस की खूबियों के कारण स्मिता ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था. स्मिता और विपुल खुले विचारों के थे. नविका के परिवार में उस के मम्मीपापा और एक भाई था. एक दिन नविका ने स्मिता से कहा कि मां आप मुझे कितना प्यार करती हैं और मेरी मम्मी तो बस मेरे भाई के ही चारों तरफ घूमती रहती हैं. मैं कहां जा रही हूं, क्या कर रही हूं, मम्मीपापा को इस से कुछ लेनादेना नहीं होता. भाई ही उन दोनों की दुनिया है. इसलिए मैं जल्दी आत्मनिर्भर बनना चाहती हूं.

सुन कर स्मिता ने नविका पर अपने स्नेह की बरसात कर दी थी.

उस दिन से तो जैसे स्मिता ने मान लिया कि उस के 2 नहीं 3 बच्चे हैं. कुछ भी होता

नविका जरूर होती. कहीं जाना हो नविका साथ होती. यह तय सा ही हो गया था कि यश के सैटल हो जाने के बाद दोनों का विवाह कर दिया जाएगा.

एक दिन स्मिता ने कहा, ‘‘नविका, मैं सोच रही हूं कि तुम्हारे पेरैंट्स से मिल लूं.’’

इस पर नविका बोली, ‘‘रहने दो मां. अभी नहीं. मेरे परिवार वाले बहुत रूढि़वादी हैं. जल्दी नहीं मानेंगे. मुझे लगता कि अभी रुकना चाहिए.’’

यश तो आंखें बंद कर नविका की हर बात में हां में हां ऐसे मिलाता था कि कई बार स्मिता हंस कर कह उठती थी, ‘‘विपुल, यह तो पक्का जोरू का गुलाम निकलेगा.’’

विपुल भी हंस कर कहते थे, ‘‘परंपरा निभाएगा. बाप की तरह बेटा भी जोरू का

गुलाम बनेगा.’’

कई बार स्मिता तो यह सोच कर सचमुच मन ही मन गंभीर हो उठती थी कि यश सचमुच नविका के खिलाफ एक शब्द नहीं सुन सकता. अपनी हर चीज के लिए उस पर निर्भर रहता है. कोई फौर्म हो, कहीं आवेदन करना हो, उस के सब काम नविका ही करती और नविका यश को खुश रखने का हर जतन करती. उसे मुंबई में ही अच्छी जौब मिल गई थी.

जौब के साथसाथ वह घर के हर सदस्य की हर चीज में हमेशा हैल्प करती. स्मिता मन ही मन हैरान होती कि यह लड़की क्या है… इतना कौन करता है? किसी को कोई भी जरूरत हो, नविका हाजिर और उस का खुशमिजाज स्वभाव भी लाजवाब था जिस के कारण स्मिता का उस से रोज मिलने पर भी मन नहीं भरता था. जितनी देर घर में रहती हंसती ही रहती. स्मिता नविका को याद कर रो पड़ी. रात के 2 बजे बालकनी में बैठ कर वह नविका को याद कर रो रही थी.

स्मिता का बारबार नविका को फोन कर पूछने का मन हो रहा था कि यह क्या किया तुम ने? यश के मना करने के बावजूद स्मिता यह ठान चुकी थी कि वह यह जरूर पूछेगी नविका से कि उस ने यह इमोशनल चीटिंग क्यों की? क्या इतने दिनों से वह टाइमपास कर रही थी? अचानक बिना कारण बताए कोई लड़की ब्रेकअप की घोषणा कर देती है, वह भी यश जैसे नर्म दिल स्वभाव वाले लड़के के साथ जो नविका को खुश देख कर ही खुश रहता था.

इतने में ही अपने कंधे पर हाथ  का स्पर्श महसूस हुआ तो स्मिता चौंकी. यश था, उस की गोद में सिर रख कर जमीन पर ही बैठ गया. दोनों चुप रहे. दोनों की आंखों से आंसू बहते रहे.

फिर विपुल भी उठ कर आ गए. दोनों को प्यार से उठाते हुए गंभीर स्वर में कहा, ‘‘जो हो गया, सो हो गया, अब यही सोच कर तुम लोग परेशान मत हो. आराम करो, कल बात करेंगे.’’

अगले दिन भी घर में सन्नाटा पसरा रहा. यश चुपचाप सुबह कालेज चला गया. स्मिता ने उस से दिन में 2-3 बार बात की. पूछा, ‘‘नविका से बात हुई?’’

‘‘नहीं, मम्मी वह फोन नहीं उठा रही है.’’

उदासीभरी हैरानी में स्मिता ने भी दिन बिताया. वह बारबार

अपना फोन चैक कर रही थी. इतने सालों में आज पहली बार न नविका का कोई मैसेज था न ही मिस्ड कौल. स्मिता को तो स्वयं ही नविका के टच में रहने की इतनी आदत थी फिर यश को कैसा लगा रहा होगा. यह सोच कर ही उस का मन उदास हो जाता था.

3 दिन बीत गए, नविका ने किसी से संपर्क नहीं किया. घर में चारों उदास थे, जैसे घर का कोई महत्त्वपूर्ण सदस्य एकदम से साथ छोड़ गया हो. सब चुप थे. अब नविका का कोई नाम ही नहीं ले रहा था ताकि कोई दुखी न हो. मगर बिना कारण जाने स्मिता को चैन नहीं आ रहा था. वह बिना किसी को बताए बांद्रा कुर्ला कौंप्लैक्स पहुंच गई. नविका का औफिस उसे पता था.

अत: उस के औफिस चल दी. औफिस के बाहर पहुंच सोचा एक बार फोन करती. अगर उठा लिया तो ठीक वरना औफिस में चली जाएगी.

अत: नविका के औफिस की बिल्डिंग के बाहर खड़ी हो कर स्मिता ने फोन किया. हैरान हुई जब नविका ने उस का फोन उठा लिया, ‘‘नविका, मैं तुम्हारे औफिस के बाहर खड़ी हूं, मिलना है तुम से.’’

‘‘अरे, मां, आप यहां? मैं अभी

आती हूं.’’

नविका दूर से भागी सी आती दिखी तो स्मिता की आंखें उसे इतने दिनों बाद देख भीग सी गईं. वह सचमुच नविका को प्यार करने लगी थी. उसे बहू के रूप में स्वीकार कर चुकी थी. उस पर अथाह स्नेह लुटाया था. फिर यह लड़की अचानक गैर क्यों

हो गई?

नविका आते ही उस के गले लग गई. दोनों रोड पर यों ही बिना कुछ कहे कुछ पल खड़ी रहीं. फिर नविका ने कहा, ‘‘आइए, मां, कौफी हाउस चलते हैं.’’

नविका स्मिता का हाथ पकड़े चल रही थी. स्मिता का दिल भर आया. यह हाथ, साथ, छूट गया है. दोनों जब एक कौर्नर की टेबल पर बैठ गईं तो नविका ने गंभीर स्वर में पूछा, ‘‘मां, आप कैसी हैं?’’

स्मिता ने बिना किसी भूमिका के कहा, ‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया, मैं जानने आई हूं?’’

नविका ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘मां, मैं थकने लगी थी.’’

‘‘क्यों? किस बात से? हम लोगों के प्यार में कहां कमी देखी तुम ने? इतने साल हम से जुड़ी रही और अचानक बिना कारण बताए यह सब किया जाता है? यह पूरे परिवार के साथ इमोशनल चीटिंग नहीं है?’’ स्मिता के स्वर में नाराजगी घुल आई.

‘‘नहीं मां, आप लोगों के प्यार में तो कोई कमी नहीं थी, पर मैं अपने ही झूठ से थकने लगी थी. मैं ने आप लोगों से झूठ बोला था. मैं यश से 3 नहीं, 7 साल बड़ी हूं.’’

स्मिता बुरी तरह चौंकी, ‘‘क्या?’’

‘‘हां, मैं तलाकशुदा भी हूं. इसलिए मैं ने आप को कभी अपनी फैमिली से मिलने नहीं दिया. मैं जानती थी आप लोग यह सुन कर मुझ से दूर हो जाएंगे. मैं इतनी लविंग फैमिली खोना नहीं चाहती थी. इसलिए झूठ बोलती थी.’’

‘‘शादी कहां हुई थी? तलाक क्यों हुआ था?’’

‘‘यहीं मुंबई में ही. मैं ने घर से भाग कर शादी की थी. मेरे पेरैंट्स आज तक मुझ से नाराज हैं और फिर मेरी उस से नहीं बनी तो तलाक हो गया. मैं मम्मीपापा के पास वापस आ गई. उन्होंने मुझे कभी माफ नहीं किया. मैं ने आगे पढ़ाई

की. आज मैं अच्छी जौब पर हूं. फिर यश मिल गया तो अच्छा लगा. मैं ने अपना सब सच छिपा लिया. यश अच्छा लड़का है. मुझ से काफी छोटा है, पर उस के साथ रहने पर उस की उम्र के हिसाब से मुझे कई दिक्कतें होती हैं. उस की उम्र से मैच करने में अपनेआप पर काफी मेहनत करनी पड़ती है. आजकल मानसिक रूप से थकने लगी हूं.

‘‘यश कभी अपनी दूसरी दोस्तों के साथ बात भी करता है तो मैं असुरक्षित

महसूस करती हूं. मैं ने बहुत सोचा मां. उम्र के अंतर के कारण मैं शायद यह असुरक्षा हमेशा महसूस करूंगी. मैं ने भी दुनिया देखी है मां. बहुत सोचने के बाद मुझे यही लगा कि अब मुझे आप लोगों की जिंदगी से दूर हो जाना चाहिए. मैं वैसे भी अपनी शर्तों पर, अपने हिसाब से जीना चाहती हूं. आत्मनिर्भर हूं, आप लोगों से जुड़ कर समाज का कोई ताना, व्यंग्य भविष्य में मैं सुनना पसंद नहीं करूंगी.

‘‘मैं ने बहुत मेहनत की है. अभी और ऊंचाइयों पर जाऊंगी, आप लोग हमेशा याद आएंगे. लाइफ ऐसी ही है, चलती रहती है. आप ठीक समझें तो घर में सब को बता देना, सब आप के ऊपर है और हम कोई सैलिब्रिटी तो हैं नहीं, जिन्हें इस तरह का कदम उठाने पर समाज का कोई डर नहीं होता. हम तो आम लोग हैं. मुझे या आप लोगों को रोजरोज के तानेउलाहने पसंद नहीं आएंगे. यश में अभी बहुत बचपना है. यह भी हो सकता है कि समाज से पहले वही खुद बातबात में मेरा मजाक उड़ाने लगे. मुझे बहुत सारी बातें सोच कर आप सब से दूर होना ही सही लग रहा है.’’

कौफी ठंडी हो चुकी थी. नविका पेमैंट कर उठ खड़ी हुई. कैब आ गई तो स्मिता के गले लगते हुए बोली, ‘‘आई विल मिस यू, मां,’’ और फिर चल दी.

स्मिता अजीब सी मनोदशा में कैब में बैठ गई. दिल चाह रहा था, दूर जाती हुई नविका को आवाज दे कर बुला ले और कस कर गले से लगा ले, पर वह  जा चुकी थी, हमेशा के लिए. उसे कह भी नहीं पाई थी कि उसे भी उस की बहुत याद आएगी. 4 सालों से अपने सारे सच छिपा कर सब के दिलों में जगह बना चुकी थी वह. सच ही कह रही थी वह कि सच छिपातेछिपाते थक सी गई होगी. अगर वह अपने भविष्य को ले कर पौजिटिव है, आगे बढ़ना चाहती है, स्मिता को भले ही अपने परिवार के साथ यह इमोशनल चीटिंग लग रही हो, पर नविका को पूरा हक है अपनी सोच, अपने मन से जीने का.

अगर वह अभी से इस रिश्ते में मानसिक रूप से थक रही है, अभी से यश और अपनी उम्र के अंतर के बोझ से थक रही है तो उसे पूरा हक है इस रिश्ते से आजाद होने का. मगर यह सच है कि स्मिता को उस की याद बहुत आएगी. मन ही मन नविका को भविष्य के लिए शुभकामनाएं दे कर स्मिता ने गहरी सांस लेते हुए कार की सीट पर बैठ कर आंखें मूंद लीं.

Online Hindi Story : गलती का एहसास

Online Hindi Story : सुबह से ही घर का माहौल थोड़ा गरम था. महेश की अपने पिता से रात को किसी बात पर अनबन हो गई थी. यह पहली बार नहीं हुआ था.

ऐसा अकसर ही होता था। महेश के विचार अपने पिता के विचारों से बिलकुल अलग थे पर महेश अपने पिता को ही अपना आदर्श मानता था और उन से बहुत प्रेम भी करता था.

महेश बहुत ही साफदिल इंसान था. किसी भी तरह के दिखावे या बनावटीपन की उस की जिंदगी में कोई जगह नहीं थी.

महेश के पिता मनमोहन राव लखनऊ के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे. बड़ेबड़े लोगों के साथ उन का उठनाबैठना था. उन्होंने अपनी मेहनत से कपड़ों का बहुत बड़ा कारोबार खड़ा किया था. इस बात का उन्हें बहुत गुमान भी था और होता भी क्यों नहीं, तिनके से ताज तक का सफर उन्होंने अकेले ही तय किया था.

महेश को इस बात का बिलकुल घमंड नहीं था. अपने मातापिता की इकलौती संतान होने का फायदा उस ने कभी नहीं उठाया था. महेश की मां रमा ने उस की बहुत अच्छी परवरिश की थी. उस में संस्कारों की कोई कमी नहीं थी. हर किसी का आदरसम्मान करना और जरूरतमंदों के लिए दिल में दया रखना उस का स्वभाव था. वह घर के नौकरों से भी बहुत तमीज और सलीके से बात करता था. उस के स्वभाव के कारण वह अपने दोस्तों में भी बहुत प्रिय था.

आधी रात को भी अगर कोई परेशानी में होता था तो एक फोन आने पर महेश तुरंत उस की मदद के लिए पहुंच जाता था. किसी के काम आ कर उस की सहायता कर के महेश को बहुत सुकून मिलता था.

11 दिसंबर का दिन था. दोहरी खुशी का अवसर था. महेश के पिता मनमोहन राव का जन्मदिन था और साथ में उन की नई फैक्टरी का उद्घाटन भी था. इस अवसर पर घर में बहुत बड़ी पार्टी का आयोजन किया गया था.

महेश की मां ने सुबह ही उस को चेतावनी देते हुए कहा,”शाम को मेहमानों के आने से पहले घर जल्दी आ जाना.”

महेश देर से घर नहीं आता था, पर औफिस के बाद दोस्तों के साथ कभी इधरउधर चला भी गया तो घर आने में थोड़ी देर हो जाती थी.

अपने पिता का इतना बड़ा कारोबार होने के बाद भी महेश एक मैगजीन के लिए फोटोग्राफी का काम करता था. उसे इस काम में शुरू से ही दिलचस्पी थी और उस ने तय किया था कि अपने काम से ही एक दिन खुद की एक पहचान बनाएगा.

उस की सैलरी बहुत ज्यादा नहीं थी पर महेश को बहुत ज्यादा की ख्वाहिश कभी रही भी नहीं. वह बहुत थोड़े में ही संतुष्ट होने वाला इंसान था.

शाम होने को आई थी. मेहमानों का आगमन शुरू हो गया था. महेश भी औफिस से आ कर अपने कमरे में तैयार होने चला गया था.

मनमोहन राव और उन की पत्नी रमा मुख्यद्वार पर मेहमानों का स्वागत करने के लिए खड़े थे. महेश भी तैयार हो कर आ गया था. थोड़ी ही देर में उन का बगीचा मेहमानों की उपस्थिति से रौनक हो चुका था. महेश की मां के बहुत जोर दे कर बोलने पर भी महेश ने अपने किसी दोस्त को पार्टी में आने का आमंत्रण नहीं दिया था.

टेबल पर केक रख दिया गया था. महेश के पिता ने केक काट कर पहला टुकड़ा अपनी पत्नी रमा को खिलाया फिर दूसरा टुकड़ा ले कर वह बेटे को खिलाने लगे तो महेश ने उन के हाथ से केक ले लिया और उन्हें खिला दिया.

फिर अपने पिता के पैर छू कर बोला,”जन्मदिन की बहुतबहुत शुभकामनाएं पिताजी.”

मनमोहन राव ने बेटे को सीने से लगा लिया. महेश की मां यह सब देख कर बहुत खुश हो रही थीं.

बहुत कम ही अवसर होते थे जब बापबेटे का यह स्नेह देखने को मिलता था, नहीं तो विचारों में मतभेद के कारण दोनों में बात करतेकरते बहस शुरू हो जाती थी और बातचीत का सिलसिला कई दिनों तक बंद रहता था.

वेटर स्नैक्स और ड्रिंक्स ले कर घूम रहे थे. अकसर बड़ीबड़ी पार्टियां और समारोहों में ऐसा ही होता है और इस तरह की पार्टीयों को ही आधुनिकता का प्रतीक माना जाता है.

इस तरह की पार्टियां महेश ने बचपन से ही अपने घर में देखी थी, इस के बावजूद भी वह इस तरह की पार्टियों का आदी नहीं था. ऐसे माहौल में उसे बहुत जल्द घुटन महसूस होने लगती थी.

महेश के पिता ने उस को आवाज दे कर बुलाया,”महेश, इधर आओ. विजय अंकल से मिलो, कब से तुम्हें पूछ रहे हैं.” विजय अंकल मनमोहन राव के बहुत करीबी मित्रों में से एक थे और उन का भी लखनऊ में अच्छाखासा कारोबार फैला था.

महेश ने “हैलो अंकल” बोल कर उन के पैर छुए तो वह बोलने लगे,”यार मनमोहन तुम्हारा बेटा तो हाईफाई करने के जमाने में भी पैर छूता है, आधुनिकता से कितनी दूर है. तुम्हें कितनी बार समझाया था कि इकलौता बेटा है तुम्हारा, इसे अमेरिका भेजो पढ़ाई के लिए, थोड़ा तो आधुनिक हो कर आता.”

महेश चुपचाप मुसकराता हुआ खड़ा था.

विजय अंकल फिर बोलने लगे,”और बताओ कैसी चल रही है तुम्हारी फोटोग्राफी की नौकरी? अब छोड़ो भी यह सब. क्या मिलता है यह सब कर के?

“अब अपने पिता के कारोबार की डोर संभालो. जितनी सैलरी तुम्हें मिलती है उतनी तो तुम्हारे पिता घर के नौकरों में बांट देते हैं. अपने पिता की शख्सियत का तो खयाल रखो.”

पिता की शख्सियत की बात सुन कर महेश ने अपनी चुप्पी तोड़ने का निर्णय ले लिया था.

महेश बोला,”अंकल, काम को ले कर मेरा नजरिया जरा अलग है. काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता और मुझे नहीं लगता कि मैं ने आज तक ऐसा कोई भी काम किया है जिस से
मेरे पिताजी की छवि या उन की शख्सियत को कोई हानि पहुंची हो.

“फोटोग्राफी मेरा शौक है. इस काम को करने से मुझे खुशी मिलती है और रही बात पैसों की, तो ज्यादा पैसों की ना मुझे जरूरत है और ना ही कोई चाह,” बोलतेबोलते महेश की आवाज ने जोर पकड़ लिया था.

मनमोहन राव को महेश का इतने खुले शब्दों में बात करना पसंद नहीं आया.

उन्होंने लगभग चिल्लाने के लहजे में बोला,”चुप हो जाओ महेश. यह कोई तरीका है बात करने का? अपनी इस बदतमीजी के लिए तुम्हें अभी माफी मांगनी होगी.”

महेश ने साफ इनकार करते हुए कहा,”माफी किस बात की पिताजी?
मैं ने कोई गलती नहीं करी है, सिर्फ अपनी बात रखी है.

“आप ही बताइए कि मैं ने आज तक ऐसा कौन सा काम किया है जिस की वजह से आप को शर्मिंदा होना पड़ा हो.”

मनमोहन राव बोले,”मैं कुछ नहीं सुनना चाहता महेश, मेरे प्रतिद्वंदी भी इस पार्टी में मौजूद हैं. सब के सामने मेरा मजाक मत बनाओ.”

महेश बोला,”मुझे किसी की परवाह नहीं है, पिताजी कि कौन देख रहा है और कौन क्या सोच रहा है? मैं सिर्फ इतना चाहता हूं कि आप मुझे समझो.

“मैं ने जब से होश संभाला है तब से आज तक उस दिन का इंतजार कर रहा हूं जब आप मुझे समझोगे. इंसान बड़ा काम या बड़ा कारोबार कर के ही बड़ा नहीं होता पिताजी. छोटेछोटे काम कर के भी इंसान अपनी एक पहचान बना सकता है. बड़े बनने का सफर भी तो छोटे सफर से ही तय होती है. इस बात का उदाहरण तो आप खुद भी हैं पिताजी, फिर आप क्यों नहीं समझते?”

मनमोहन राव का सब्र खत्म हो चुका था. अब बात उन्हें अपनी प्रतिष्ठा पर चोट पहुंचने जैसी लग रही थी.

उन्होंने महेश से कहा,”तुम या तो विजय अंकल से माफी मांगो या अभी इसी वक्त घर से निकल जाओ.”

महेश की मां रमा जो इतनी देर से दूर खड़े हो कर सब देखसुन रही थीं, सोचने लगीं कि पति की प्रतिष्ठा का खयाल रखना जरूरी है पर बेटे के आत्मसम्मान को चोट पहुंचा कर नहीं।

वे पति से बोलीं,”यह क्या बोल रहे हो आप? इतनी सी बात के लिए कोई अपनी इकलौती औलाद को घर से जाने के लिए कहता है क्या?”

मनमोहन राव को जब गुस्सा आता था तब वे किसी की भी नहीं सुनते थे. हमेशा की तरह उन्होंने रमा को बोल कर चुप करा दिया था.

महेश बोला,”मुझे नहीं पता था पिताजी की आप को अपने बेटे से ज्यादा इन बाहरी लोगों की परवाह है,
जो आज आप के साथ सिर्फ आप की शख्सियत की वजह से हैं.

“यहां खड़ा हुआ हरएक इंसान आप के लिए अपने दिल में इज्जत लिए नहीं खड़ा है, बल्कि अपने दिमाग में आप से जुड़ा नफा और नुकसान लिए खड़ा है. इस सचाई को आप स्वीकार नहीं करना चाहते,” ऐसा बोल कर महेश मां के पास आया और पैर छू कर बोला,”चलता हूं मां, तुम अपना खयाल रखना.”

रमा पति से गुहार लगाती रही मगर मनमोहन राव ने एक नहीं सुनी.

वे चिल्लाते हुए बोले,”जाओ तुम्हारी हैसियत ही क्या है मेरे बिना. 4 दिन में वापस आओगे ठोकरें खा कर.”

हंसीखुशी भरे माहौल का अंत इस तरह से होगा यह किसी ने कल्पना नहीं करी थी.

इस घटना को पूरे 5 वर्ष बीत चुके थे पर ना महेश वापस आया था और ना ही उस की कोई खबर आई थी. बेटे के जाने के गम में रमा की तबीयत दिनबदिन खराब होती जा रही थी. वे अकसर बीमार रहती थीं. उन की जिंदगी से खुशी और चेहरे से हंसी हमेशा के लिए चली गई थी.

मनमोहन राव को भी बेटे के जाने का बहुत अफसोस था. उस दिन की घटना के लिए उन्होंने अपनेआप को ना जाने कितनी बार कोसा था.

एक मां को उस के बेटे से दूर करने का दोषी भी वे खुद को ही मानते थे. अकेले में महेश को याद कर के कई बार वे रो भी लेते थे.

एक मां के लिए उस की औलाद का उस से दूर जाना बहुत बड़े दुख का कारण बन जाता है पर एक पिता के लिए उस के जवान बेटे का घर छोड़ कर चले जाना किसी सदमे से कम नहीं होता.

रमा और कमजोर ना पड़ जाए इसीलिए उस के सामने मनमोहन राव खुद को कारोबार में व्यस्त रखने का दिखावा करते थे. वे अकसर रमा को यह बोल कर शांत कराते थे कि आज नहीं तो कल आ ही जाएगा तुम्हारा बेटा.

रमा अपने मन में सोचती कि मैं मां हूं उस की, मुझे पता है वह स्वाभिमानी और दृढ़निश्चयी है. एक बार जो ठान लेता है वह कर के ही शांत होता है.

अचानक एक दिन फोन की घंटी बजी। सुबह के 10 बज रहे थे. रमा दूसरे कमरे में थीं।

नौकर ने फोन उठाया और जोर से चिल्लाया,”मैडममैडम…”

रमा एकदम से चौंक गईं। दूसरे कमरे से ही नौकर को चिल्लाते हुए बोलीं,”क्यों चीख रहे हो? किस का फोन है?”

“छोटे साहब का फोन है मैडम,”नौकर बोला.

रमा को अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था.

वे फोन की तरफ लपकीं और नौकर के हाथ से फोन लगभग छीनते हुए ले कर बोलीं,”हेलो, महेश बेटा… कैसे हो बेटे? 5 साल लगा दी अपनी मां को याद करने में? घर वापस कब आ रहे हो बेटा? तू ठीक तो है ना?”

महेश बोला,”बसबस मां, तुम रुकोगी तब तो कुछ बोल पाऊंगा ना मैं. पिताजी कैसे हैं मां? आप दोनों की तबीयत तो ठीक है ना?

“आप दोनों की खबर लेता रहता था मैं, पर आज इतने सालों बाद आप की आवाज सुन कर मन को बहुत तसल्ली हो गई मां…

“पिताजी से बात कराओ ना,”महेश ने आग्रह किया तो रमा बोलीं,”वे औफिस में हैं बेटा.

“तू सब कुछ छोड़, पहले बता घर वापस कब आ रहा है? कहां है तू ?
मैं अभी ड्राइवर को भेजती हूं तुझे लाने के लिए…”

महेश हंसते हुए बोला,”मैं लंदन में हूं मां.”

“लंदन में…” आश्चर्य से बोलीं रमा,”बेटा, वहां क्यों चला गया?
तू ठीक तो है ना? किसी तकलीफ में तो नहीं हो ना?”

अकसर जब औलादें अपने मातापिता से दूर हो जाती हैं किसी कारण से तो ऐसी ही चिंता उन्हें घेरे रहती हैं कि वे किसी गलत संगत में ना पड़ जाएं, अकेले खुद को कैसे संभालेंगे? रमा के बारबार बीमार रहने की वजह भी यही सब चिंताएं थीं.

महेश सोचने लगा कि मां ने 5 साल मेरे बिना कैसे निकाले होंगे पता नहीं. मां की बातों से उस की फिक्र साफ झलक रही थी.

“मेरी बात सुनो मां,” महेश बोला,”घर से निकलने के बाद मैं 2 साल लखनऊ में ही था. जिस मैगजीन के लिए मैं काम करता था, उस की तरफ से ही मुझे 3 साल पहले एक प्रोजैक्ट के लिए लंदन भेजा गया था. मेरा प्रोजैक्ट बहुत ही सफल रहा.

“यहां लंदन में मेरे काम को बहुत ही सराहा गया और अगले महीने यहां एक पुरस्कार समारोह का आयोजन
है जिस में तुम्हारे बेटे को ‘बैस्ट फोटोग्राफर औफ द ईयर’ का पुरस्कार मिलने वाला है.

“मां, आप के और पिताजी के आशीर्वाद और मेरी इतनी सालों की मेहनत का परिणाम मुझे इस पुरस्कार के रूप में मिलने जा रहा है. मेरी बहुत इच्छा है कि इस अवसर पर मेरा परिवार मेरे मातापिता मेरे साथ रहें.

“मेरी जिंदगी की इतनी बड़ी खुशी को बांटने के लिए आज मेरे साथ यहां कोई नहीं है मां,” बोलतेबोलते महेश का गला भर आया था.

उधर रमा की आंखों से निकले आंसूओं ने भी उस के आंचल को भिगो दिया था और उन का दिल खुशी से चिल्लाने को कर रहा था कि मेरे बेटे की हैसियत देखने वालो देखो, आज अपनी मेहनत से मेरा बेटा किस मुकाम पर पहुंचा है. दूसरे देश में जा कर दूसरे लोगों के बीच में अपने काम से अपनी पहचान बनाना अपनेआप में बहुत बड़ी जीत का प्रमाण है.

महेश ने आगे बोला,”मां, आप के और पिताजी के लिए लंदन की टिकट भेज रहा हूं. पिताजी को ले कर जल्दी यहां आ जाओ मां.”

“हां बेटा, हम जरूर आएंगे,” रमा ने कहा,”कौन से मातापिता नहीं चाहेंगे कि दुनिया की नजरों में अपने बेटे के लिए इतना मानसम्मान और इज्जत देखना. तू ने हमें यह अवसर दिया है, हम जरूर आएंगे बेटा, जरूर आएंगे,”ऐसा कह कर रमा
ने फोन रख दिया।

आज रमा को अपनी परवरिश पर बहुत नाज हो रहा था. 5 साल की जुदाई का दर्द आज बेटे की सफलता के आगे उसे बहुत छोटा लग रहा था।

वे बहुत बेसब्री से महेश के पिता के घर वापस आने का इंतजार कर रही थीं. फोन पर इतनी बड़ी खुशखबरी वे नहीं देना चाहती थीं। वे चाह रही थीं कि बेटे की सफलता की खुशी को अपनी आंखों से उस के पिता के चेहरे पर देखें।

दरवाजे की घंटी बजी तो नौकर ने जा कर दरवाजा खोला। महेश के पिता जैसे ही घर के अंदर दाखिल हुए तो उन्होंने जो देखा उस की कल्पना नहीं की थी. रमा अपनी खोई हुई मुसकान चेहरे पर लिए हुए खड़ी थीं.

देखते ही बोले मनमोहन राव,”इतने साल बाद तुम्हारे चेहरे पर खुशी देख कर बहुत सुकून मिल रहा है. इस की वजह पता चलेगी कि नहीं? तुम्हारा बेटा वापस आ गया क्या?”

रमा बोलीं,”जी नहीं, बेटा नहीं आया पर आज दोपहर में उस का फोन आया था.”

इस खबर को सुनने का इंतजार वे भी
ना जाने कब से कर रहे थे।

“अच्छा कैसा है वह? मेरे बारे में पूछा कि नहीं उस ने? नाराज है क्या अब तक मेरे से?” उन की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी.

रमा बोलीं,”बिलकुल नाराज नहीं है और बारबार आप को ही पूछ रहा था। और सुनिए, लंदन में है हमारा बेटा.”

बेटा लंदन में है, सुन कर महेश के पिता सोफे से उठ खड़े हुए थे.

“जी हां, लंदन में और अगले महीने वहां एक बहुत बड़े पुरस्कार से सम्मानित होने जा रहा है आप का बेटा,” बोलते हुए मिठाई का एक टुकड़ा रमा ने ममनमोहन राव के मुंह
में डाल दिया था.

उन की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था.

“तुम सच कह रही हो ना रमा?”

रमा बोलीं,”जी हां, बिलकुल सच.”

मनमोहन राव ने रमा को सीने से लगा लिया और दोनों अपने आंसुओं को रोक नहीं पाए.

रमा ने खुद को संभालते हुए कहा,”आगे तो सुनिए, हमारे लिए लंदन की टिकट भेज रहा है. पुरस्कार समारोह में वह हम दोनों के साथ शामिल होना चाहता है.”

मनमोहन राव के आंसुओं का बहाव और तेज हो चुका था. जिस बेटे को 5 साल पहले उन्होंने बोला था कि तुम्हारी हैसियत क्या है मेरे बिना, उस ने अपनी हैसियत से शख्सियत तक का सफर क्या बखूबी पूरा किया था.

आंसुओं ने उन के चेहरे को पूरी तरह से भिगो दिया था और बेटे से मिलने की तड़प में दिल मचल उठा था.

Best Family Drama : सत्ता की भूख में जब टूटा परिवार

Best Family Drama: रिटायरमैंट के बाद अपने ही जन्मस्थान में जा कर बसने का मेरा अनमोल सपना था. जहां पैदा हुआ, जहां गलियों में खेला व बड़ा हुआ, वह जगह कितनी ही यादों को जिंदा रखे है. कक्षा 12 तक पढ़ने के बाद जो अपना शहर छोड़ा तो बस मुड़ कर देख ही नहीं पाया. नौकरी सारा भारत घुमाती रही और मैं घूमता रहा. जितनी दूर मैं अपने शहर से होता गया उतना ही वह मेरे मन के भीतर कहीं समाता गया. छुट्टियों में जब घर आते तब सब से मिलने जाते रहे. सभी आवभगत करते रहे, प्यार और अपनत्व से मिलते रहे. कितना प्यार है न मेरे शहर में. सब कितने प्यार से मिलते हैं, सुखदुख पूछते हैं. ‘कैसे हो?’ सब के होंठों पर यही प्रश्न होता है.

रिटायरमैंट में सालभर रह गया. बच्चों का ब्याह कर, उन के अपनेअपने स्थानों पर उन्हें भेज कर मैं ने गंभीरता से इस विषय पर विचार किया. लंबी छुट्टी ले कर अपने शहर, अपने रिश्तेदारों के साथ थोड़ाथोड़ा समय बिता कर यह सर्वेक्षण करना चाहा कि रहने के लिए कौन सी जगह उपयुक्त रहेगी, घर बनवाना पड़ेगा या बनाबनाया ही कहीं खरीद लेंगे.

मुझे याद है, पिछली बार जब मैं आया था तब विजय चाचा के साथ छोटे भाई की अनबन चल रही थी. मैं ने सुलह करवा कर अपना कर्तव्य निभा लिया था. छोटी बूआ और बड़ी बूआ भी ठंडा सा व्यवहार कर रही थीं. मगर मेरे साथ सब ने प्यार भरा व्यवहार ही किया था. अच्छा नहीं लगा था तब मुझे चाचाभतीजे का मनमुटाव.

इस बार भी कुछ ऐसा ही लगा तो पत्नी ने समझाया, ‘‘जहां चार बरतन होते हैं तो वे खड़कते ही हैं. मैं तो हर बार देखती हूं. जब भी घर आओ किसी न किसी से किसी न किसी का तनाव चल रहा होता है. 4 साल पहले भी विजय चाचा के परिवार से अबोला चल रहा था.’’
‘‘लेकिन हम तो उन से मिलने गए न. तुम चाची के लिए साड़ी लाई थीं.’’

‘‘तब छोटी का मुंह सूज गया था. मैं ने बताया तो था आप को. साफसाफ तो नहीं मगर इतना इशारा आप के भाई ने भी किया था कि जो उस का रिश्तेदार है वह चाचा से नहीं मिल सकता.’’
‘‘अच्छा? मतलब मेरा अपना व्यवहार, मेरी अपनी बुद्धि गई भाड़ में. जिसे छोटा पसंद नहीं करेगा उसे मुझे भी छोड़ना पड़ेगा.’’

‘‘और इस बार छोटे का परिवार विजय चाचा के साथ तो घीशक्कर जैसा है. लेकिन बड़ी बूआ के साथ नाराज चल रहा है.’’
‘‘वह क्यों?’’

‘‘आप खुद ही देखसुन लीजिए न. मैं अपने मुंह से कुछ कहना नहीं चाहती. कुछ कहा तो आप कहेंगे कि नमकमिर्च लगा कर सुना रही हूं.’’

पत्नी का तुनकना भी सही था. वास्तव में आंखें बंद कर के मैं किसी भी औरत की बात पर विश्वास नहीं करता, वह चाहे मेरी मां ही क्यों न हो. अकसर औरतें ही हर फसाद और कलहक्लेश का बीज रोपती हैं. 10 भाई सालों तक साथसाथ रहते हैं लेकिन 2 औरतें आई नहीं कि सब तितरबितर. मायके में बहनों का आपस में झगड़ा हो जाएगा तो जल्दी ही भूल कर माफ भी कर देंगी और समय पड़ने पर संगसंग हो लेंगी लेकिन ससुराल में भाइयों में अनबन हो जाए तो उस आग में सारी उम्र घी डालने का काम करेंगी. अपनी मां को भी मैं ने अकसर बात घुमाफिरा कर करते देखा है.

नौकरी के सिलसिले में लगभग 100-200 परिवारों की कहानी तो बड़ी नजदीक से देखीसुनी ही है मैं ने. हर घर में वही सब. वही अधिकार का रोना, वही औरत का अपने परिवार को ले कर सदा असुरक्षित रहना. ज्यादा झगड़ा सदा औरतें ही करती हैं.

मेरी पत्नी शुभा यह सब जानती है इसीलिए कभी कोई राय नहीं देती. मेरे यहां घर बना कर सदा के लिए रहने के लिए भी वह तैयार नहीं है. इसीलिए चाहती है लंबा समय यहां टिक कर जरा सी जांचपड़ताल तो करूं कि दूर के ढोल ही सुहावने हैं या वास्तव में यहां पे्रम की पवित्र नदी, जलधारा बहती है. कभीकभी कोई आया और उस से आप ने लाड़प्यार कर लिया, उस का मतलब यह तो नहीं कि लाड़प्यार करना ही उन का चरित्र है. 10-15 मिनट में किसी का मन भला कैसे टटोला जा सकता है. हमारे खानदान के एक ताऊजी हैं जिन से हमारा सामना सदा इस तरह होता रहा है मानो सिर पर उन की छत न होती तो हम अनाथ  ही होते. सारे काम छोड़छाड़ कर हम उन के चरणस्पर्श करने दौड़ते हैं. सब से बड़े हैं, इसलिए छोटीमोटी सलाह भी उन से की जाती है. उम्रदराज हैं इसलिए उन की जानपहचान का लाभ भी अकसर हमें मिलता है. राजनीति में भी उन का खासा दखल है जिस वजह से अकसर परिवार का कोई काम रुक जाता है तो भागेभागे उन्हीं के पास जाते हैं हम, ‘ताऊजी यह, ताऊजी वह.’

हमें अच्छाखासा सहारा लगता है उन का. बड़ेबुजुर्ग बैठे हों तो सिर पर एक आसमान जैसी अनुभूति होती है और वही आसमान हैं वे ताऊजी. हमारे खानदान में वही अब बड़े हैं. उन का नाम हम बड़ी इज्जत, बड़े सम्मान से लेते हैं. छोटा भाई इस बार कुछ ज्यादा ही परेशान लगा. मैं ताऊजी के लिए शाल लाया था उपहार में. शुभा से कहा कि वह शाम को तैयार रहे, उन के घर जाना है. छोटा भाई मुझे यों देखने लगा, मानो उस के कानों में गरम सीसा डाल दिया हो किसी ने. शायद इस बार उन से भी अनबन हो गई हो, क्योंकि हर बार किसी न किसी से उस का झगड़ा होता ही है.

‘‘आप का दिमाग तो ठीक है न भाई साहब. आप ताऊ के घर शाल ले कर जाएंगे? बेहतर है मुझे गोली मार कर मुझ पर इस का कफन डाल दीजिए.’’
स्तब्ध तो रहना ही था मुझे. यह क्या कह रहा है, छोटा. इस तरह क्यों?
‘‘बाहर रहते हैं न आप, आप नहीं जानते यहां घर पर क्याक्या होता है. मैं पागल नहीं हूं जो सब से लड़ता रहता हूं. मुकदमा चल रहा है विजय चाचा का और मेरा ताऊ के साथ. और दोनों बूआ उन का साथ दे रही हैं. सबकुछ है ताऊ के पास. 10 दुकानें हैं, बाजार में 4 कोठियां हैं, ट्रांसपोर्ट कंपनी है, शोरूम हैं. औलाद एक ही है. और कितना चाहिए इंसान को जीने के लिए?’’

‘‘तो? सच है लेकिन उन के पास जो है वह उन का अपना है. इस में हमें कोई जलन नहीं होनी चाहिए.’’
‘‘हमारा जो है उसे तो हमारे पास रहने दें. कोई सरकारी कागज है ताऊ के पास. उसी के बल पर उन्होंने हम पर और विजय चाचा पर मुकदमा ठोंक रखा है कि हम दोनों का घर हमारा नहीं है, उन का है. नीचे से ले कर ऊपर तक हर जगह तो ताऊ का ही दरबार है. हर वकील उन का दोस्त है और हर जज, हर कलैक्टर उन का यार. मैं कहां जाऊं रोने? बच्चा रोता हुआ बाप के पास आता है. मेरा तो गला मेरा बाप ही काट रहा है. ताऊ की भूख इतनी बढ़ चुकी है कि …’’

आसमान से नीचे गिरा मैं. मानो समूल अस्तित्व ही पारापारा हो कर छोटेछोटे दानों में इधरउधर बिखर गया. शाल हाथ से छूट गया. समय लग गया मुझे अपने कानों पर विश्वास करने में. क्या कभी मैं ऐसा कर पाऊंगा छोटे के बच्चों के साथ? करोड़ों का मानसम्मान अगर मुझे मेरे बच्चे दे रहे होंगे तो क्या मैं लाखों के लिए अपने ही बच्चों के मुंह का निवाला छीन पाऊंगा कभी? कितना चाहिए किसी को जीने के लिए, मैं तो आज तक यही समझ नहीं पाया. रोटी की भूख और 6 फुट जगह सोने को और मरणोपरांत खाक हो जाने के बाद तो वह भी नहीं. क्यों इतना संजोता है इंसान जबकि कल का पता ही नहीं. अपने छोटे भाई का दर्द मैं ही समझ नहीं पाया. मैं भी तो कम दोषी नहीं हूं न. मुझे उस की परेशानी जाननी तो चाहिए थी.
मन में एक छोटी सी उम्मीद जागी. शाल ले कर मैं और शुभा शाम ताऊजी के घर चले ही गए, जैसे सदा जाते थे इज्जत और मानसम्मान के साथ. स्तब्ध था मैं उन का व्यवहार देख कर.
‘‘भाई की वकालत करने आए हो तो मत करना. वह घर और विजय का घर मेरे पिता ने मेरे लिए खरीदा था.’’
‘‘आप के पिता ने आप के लिए क्या खरीदा था, क्या नहीं, उस का पता हम कैसे लगाएं. आप के पिता हमारे पिता के भी तो पिता ही थे न. किसी पिता ने अपनी किस औलाद को कुछ भी नहीं दिया और किस को इतना सब दे दिया, उस का पता कैसे चले?’’
‘‘तो जाओ, पता करो न. तहसील में जाओ… कागज निकलवाओ.’’
‘‘तहसीलदार से हम क्या पता करें, ताऊजी. वहां तो चपरासी से ले कर ऊपर तक हर इंसान आप का खरीदा हुआ है. आज तक तो हम हर समस्या में आप के पास आते रहे. अब जब आप ही समस्या बन गए तो कहां जाएंगे? आप बड़े हैं. मेरी भी उम्र  60 साल की होने को आई. इतने सालों से तो वह घर हमारा ही है, आज एकाएक वह आप का कैसे हो गया? और माफ कीजिएगा, ताऊजी, मैं आप के सामने जबान खोल रहा हूं. क्या हमारे पिताजी इतने नालायक थे जो दादाजी ने उन्हें कुछ न दे कर सब आप को ही दे दिया और विजय चाचा को भी कुछ नहीं दिया?’’
‘‘मेरे सामने जबान खोलना तुम्हें भी आ गया, अपने भाई की तरह.’’
‘‘मैं गूंगा हूं, यह आप से किस ने कह दिया, ताऊजी? इज्जत और सम्मान करना जानता हूं तो क्या बात करना नहीं आता होगा मुझे. ताऊजी, आप का एक ही बच्चा है और आप भी कोई अमृत का घूंट पी कर नहीं आए. यहां की अदालतों में आप की चलती है, मैं जानता हूं मगर प्रकृति की अपनी एक अदालत है, जहां हमारे साथ अन्याय नहीं होगा, इतना विश्वास है मुझे. आप क्यों अपने बच्चों के लिए बद्दुआओं की लंबीचौड़ी फेहरिस्त तैयार कर रहे हैं? हमारे सिर से यदि आप छत छीन लेंगे तो क्या हमारा मन आप का भला चाहेगा?’’
‘‘दिमाग मत चाटो मेरा. जाओ, तुम से जो बन पाए, कर लो.’’
‘‘हम कुछ नहीं कर सकते, आप जानते हैं, तभी तो मैं समझाने आया हूं, ताऊजी.’’
ताऊजी ने मेरा लाया शाल उठा कर दहलीज के पार फेंक दिया और उठ कर अंदर चले गए, मानो मेरी बात भी सुनना अब उन्हें पसंद नहीं. हम अवाक् खड़े रहे. पत्नी शुभा कभी मुझे देखती और कभी जाते हुए ताऊजी की पीठ को. अपमान का घूंट पी कर रह गए हम दोनों.
85 साल के वृद्ध की आंखों में पैसे और सत्ता के लिए इतनी भूख. फिल्मों में तो देखी थी, अपने ही घर में स्वार्थ का नंगा नाच मैं पहली बार देख रहा था. सोचने लगा, मुझे वापस घर आना ही नहीं चाहिए था. सावन के अंधे की तरह यह खुशफहमी तो रहती कि मेरे शहर में मेरे अपनों का आपस में बड़ा प्यार है.
उस रात बहुत रोया मैं. छोटे भाई और विजय चाचा की लड़ाई में मैं भावनात्मक रूप से तो उन के साथ हूं मगर उन की मदद नहीं कर सकता क्योंकि मैं अपने भारत देश का एक आम नागरिक हूं जिसे दो वक्त की रोटी कमाना ही आसान नहीं, वह गुंडागर्दी और बदमाशी से सामना कैसे करे. बस, इतना ही कह सकता हूं कि ताऊ जैसे इंसान को सद्बुद्धि प्राप्त हो और हम जैसों को सहने की ताकत, क्योंकि एक आम आदमी सहने के सिवा और कुछ नहीं कर सकता.

Short Story In Hindi : पीकू की सौगात

Short Story In Hindi : हमारेलाख समझाने के बावजूद कि अमिताभ की फिल्म देखने का मजा तो पीवीआर में ही है, बच्चों ने यह कहते हुए एलईडी पर पैन ड्राइव के जरीए ‘पीकू’ लगा दी कि पापा 3 घंटे बंध कर बैठना आप के बस में कहां? हंसने लगे सो अलग. उस समय तो हम समझ नहीं पाए कि बच्चे क्या समझाना चाहते हैं. परंतु जब फिल्म में मोशन के साथ इमोशन जुड़े और बच्चे मम्मी की ओर देख कर हंसने लगे, तो हमें समझ में आया कि बच्चे क्या कर रहे थे. बच्चों की हंसी देख हम झेंपे जरूर, लेकिन उन का हंसना जायज भी था. दरअसल, मोशन की इस बीमारी से हम भी पिछले काफी समय से जूझ रहे थे, जिस का एहसास पहली बार हमें उस दिन हुआ जब संडे होने के कारण बच्चे देर तक सो रहे थे और अखबार में छपे एक इश्तहार को पढ़ हमारी श्रीमतीजी का मन सैंडल खरीदने को हो आया.

‘‘चलो न, पास ही तो है यह मार्केट. गाड़ी से 5 मिनट लगेंगे. बच्चों के उठने तक तो वापस भी आ जाएंगे,’’ श्रीमतीजी के इस कदर प्यार से आग्रह करने पर हम नानुकर नहीं कर पाए और पहुंच गए मार्केट. सेल वाली दुकान के पास ही बहुत अच्छा रैस्टोरैंट था, तो श्रीमतीजी का मन खाने को हो आया. इसलिए पहले हम ने वहां कुछ खायापिया और फिर घुसे फुटवियर के शोरूम में. श्रीमतीजी सैंडल की वैरायटी देखने लगीं, लेकिन तभी हमारे पेट में हलचल होने लगी. अब हम श्रीमतीजी को सैंडल पसंद करने में देरी करता देख खीजने लगे कि जल्दी सैंडल पसंद करें और घर चलें. आखिर उन्हें सैंडल पसंद आ गई, तो हम ने राहत की सांस ली. लेकिन चैन कहां मिलने वाला था हमें? बाहर निकलते ही सामने गोलगप्पे वाले की रेहड़ी देख श्रीमतीजी की लार टपकी. वे बाजार जाएं और गोलगप्पे न खाएं, यह तो असंभव है. उन्होंने हमारे आगे गोलगप्पे खाने की इच्छा जाहिर की तो हमारा मन हुआ कि गोलगप्पे वाले का मुंह नोच लें. मुए को यहीं लगानी थी रेहड़ी.

खैर, 2-2 गोलगप्पे खाने की बात कर श्रीमतीजी ने 6 तो खुद खाए और उतने ही हमें भी खिला दिए. अब उन्हें कैसे समझाते कि हम किस परेशानी में हैं. दूसरे, उन की तुनकमिजाजी से भी वाकिफ थे हम, इसलिए न चाहते हुए भी गोलगप्पे गटक लिए. लेकिन पेट की जंग ने रौद्र रूप ले लिया था. मार्केट से बाहर निकल हम तेज कदमों से पार्किंग की ओर बढ़े तो श्रीमतीजी पूछ बैठीं, ‘‘इतनी जल्दी क्यों चल रहे हो?’’

हम ने पेट की परेशानी के बजाय बहाना बनाया, ‘‘बच्चे उठ गए होंगे, जल्दी चलो.’’ तभी उन्हें उन की पुरानी सहेली मिल गई. गप्पें मारने में तो श्रीमतीजी वैसे ही माहिर हैं, सो लगीं दोनों अगलीपिछली हांकने. उन्हें हंसी के फुहारे छोड़ते देख हम ने अपना माथा पीट लिया क्योंकि जल्दी देरी में जो बदलती जा रही थी. ऐसे में श्रीमतीजी का मोबाइल बजा तो हमें सुकून मिला. बच्चों का फोन था, इसलिए बतियाना छोड़ वे जल्दी से घर चलने को हुईं तो हम ने राहत महसूस की. घर पहुंचने पर फारिग होने के बाद हम ने घर के लोगों से अपनी समस्या शेयर की तो सभी हंसने लगे, लेकिन समाधान किसी ने न बताया. वैसे रोज तो हम यह परेशानी झेल लेते थे, क्योंकि औफिस में डैस्कवर्क था. साथ ही वहां वौशरूम की परेशानी नहीं थी. पर कभी बाहर जाना पड़ता तो खासी परेशानी होती. तिस पर जब इस का संबंध श्रीमतीजी की खरीदारी से जुड़ा तो मुश्किलें और बढ़ गईं.

हमारी श्रीमतीजी मार्केट जा कर खरीदारी भले ही धेले भर की भी न करें पर जिस दुकान में घुस जाती थीं, सारा माल खुलवा कर रख देती थीं. और भले ही घर से खापी कर निकलें, लेकिन चाटपकौड़ी खाए बिना न रहतीं. ऐसे में हमारी हालत पतली होनी ही थी. ‘पीकू’ में भास्कर की समस्या हम से कुछ मिलतीजुलती ही थी, जिसे दिखा बच्चे उसे हमारी हालत से जोड़ रहे थे. जोड़ते भी क्यों न, उस दिन हुआ भी तो कुछ ऐसा ही था. हम ससुराल गए हुए थे कि देर रात तक की आपसी बातचीत से हमारी श्रीमतीजी को पता चला कि यहां पास की मार्केट में सूटों के बहुत अच्छे शोरूम बन गए हैं, जहां बहुत अच्छे डिजाइनर सूट मिलते हैं, साथ ही वे फिटिंग भी कर के देते हैं. बस, श्रीमतीजी की खरीदारी की सनक परवान चढ़ी और वे बना बैठीं सुबह हमारी साली के साथ मार्केट जाने का प्रोग्राम. और कोई प्रोग्राम होता तो हम मना कर देते लेकिन साली संग जाने का मजा कहां बारबार मिलता है, सो हम ने हां कर दी. सुबह नाश्ते में सासूमां ने खातिरदारी वाली भारतीय संस्कृति का निर्वहन करते हुए हमारी यानी अपने जमाई की खातिर में ऐसे घी चुपड़चुपड़ कर बने गोभी के परांठे खिलाए जैसे अपने बेटे को भी कभी न खिलाए होंगे. न न करते भी हम 4 परांठे डकार गए. ऊपर से दहीमट्ठा पिलाया सो अलग. अब हम श्रीमतीजी संग खरीदारी पर जाने को तैयार हुए तो माथा ठनका कि कहीं रास्ते में बीमारी ने जोर पकड़ लिया तो… हम ने कई बार इस के बारे में सोचा फिर श्रीमतीजी को थोड़ा रुकने को कह पहुंच गए फारिग होने.

लेकिन काफी देर नाक बंद कर सीट पर बैठने और जोर मारने पर भी राहत न मिली, तो श्रीमतीजी के इमोशंस का खयाल रखते हुए हम अपने मोशन का खयाल छोड़ आज्ञाकारी पति की भांति जल्दी से उठे और चल दिए उन के संग मार्केट. श्रीमतीजी दुकान में घूमतीं फिर दूसरी देखतीं. पहले शोकेस में लगा सूट पसंद करतीं फिर अंदर जा कर उलटपुलट कर देखतीं. उन के साथ एक से दूसरी दुकान घूमतेघूमते कब पेट में हलचल शुरू हो गई पता ही न चला. अब हमारी हालत पतली. लगे इधरउधर सुलभ शौचालय तलाशने. हमें नजरें घुमाते देख श्रीमतीजी बोल पड़ीं, ‘‘इधरउधर क्या ढूंढ़ रहे हो, चलो दूसरी दुकान में, यहां तो वैरायटी ही नहीं है.’’ हमें उन की इस आदत का पता है, इसलिए चुपचाप उन के पीछे हो लिए. तभी हमारी नजर सामने शौचालय पर पड़ी तो हम श्रीमतीजी को रोक उधर इशारा करते हुए बोले, ‘‘जरा उधर चलें, हमें…’’

अभी हमारी बात पूरी भी न हुई थी कि साली बोल पड़ी, ‘‘वाह जीजाजी, बड़ा खयाल रखते हैं दीदी के जायके का. चलो चलते हैं. वहां के भल्लेपापड़ी तो वैसे भी मशहूर हैं.’’ अब उसे कौन समझाता कि हमारा उधर जाने का क्या मकसद था. खैर, चल दिए उन के पीछे अपना सा मुंह लिए. श्रीमतीजी ने भल्लेपापड़ी की प्लेटें बनवाईं. हम ने सासूमां के स्वादिष्ठ परांठों का वास्ता देते मना किया पर वे कहां मानने वाली थीं. हमारे न न करने पर भी एक प्लेट हाथ में थमा ही दी. हम ने आधी भल्लापापड़ी खा प्लेट दूसरी ओर रख दी. तभी श्रीमतीजी की नजर एक शोरूम में लगे बुत पर लिपटे एक अनारकली सूट पर अटक गई, जबकि हमारी नजरें अभी भी फारिग होने का मुकाम तलाश रही थीं. ऐसे में राहत यह देख कर मिली कि जिस शोरूम की ओर श्रीमती मुखातिब हुई थीं, उसी के सामने हमारी समस्या का समाधान था. सो हम साली और घरवाली को खरीदारी में मशगूल कर ‘अभी आया’ कह कर इस संकल्प के साथ बाहर निकले कि आगे से श्रीमतीजी संग खरीदारी हेतु जाएंगे तो कुछ खा कर नहीं निकलेंगे. फारिग हो कर आने पर हम ने चैन की सांस ली, लेकिन श्रीमतीजी सूट खरीद पैसों हेतु हमारे इंतजार में तेवर बदले खड़ी थीं. मेरे आते ही वे जोर से बोलीं, ‘‘कहां चले गए थे? हम इतनी देर से इंतजार कर रहे हैं.’’ हम ने धीरे से इशारा कर उन्हें समझाया तो साली हंसी, ‘‘क्या जीजाजी, ससुराल के खाने का इतना भी क्या मोह कि बारबार जाना पड़े,’’ और दोनों खीखी करने लगीं. हम ने चुपचाप पैसे दे कर सामान उठाया और घर चलने में ही भलाई समझी. घर आ कर साली ने चटखारे लेले कर हमारे मोशन के किस्से सुनाए तो बच्चे भी हंसी न रोक सके.

‘पीकू’ में रहरह कर भास्कर बने अमिताभ मोशन पर अच्छीखासी बहस छेड़ते और बच्चे हमारी स्थिति से उस का मेल करते हुए हंसते. सोचने वाली बात यह है कि क्या मोशन जैसा विषय भी किसी कहानी का हो सकता है. हां, क्यों नहीं जनाब, उन से पूछिए जिन्हें रोज इस समस्या से जूझना पड़ता है. हम ने गुस्से से कह दिया, ‘‘हमारे इमोशन की हंसी उड़ाने को दिखा रहे हो न हमें यह फिल्म?’’ ‘‘नहीं जी, बच्चे तो यह बताना चाह रहे हैं कि आप भी अपने मोशन का कुछ ऐसा इंतजाम कर के रखो. जब भी खरीदारी करने जाओ आप भागते हो इसी चक्कर में,’’ श्रीमतीजी ने हमारी बीमारी पर कटाक्ष करते हुए बच्चों का बचाव किया, ‘‘देखा नहीं था उस दिन जब वह आदमी हमारा दुपट्टा खींच गया था.’’ हमें याद आया. दरअसल, उस दिन हम साली की शादी हेतु खरीदारी करने गए हुए थे. बच्चे भी साथ थे. श्रीमतीजी आगेआगे और हम बच्चों का हाथ पकड़े पीछेपीछे. बच्चों के लिए ड्रैस लेते समय वे हम से पूछतीं, लेकिन हमारे हां कहने के बावजूद उन्हें पसंद न आता और वे आगे चल देतीं. बड़ी मुश्किल से उन्होंने बच्चों के कपड़े खरीदे. अब हमारी बारी थी. हम बच्चों के कपड़ों के बैग से लदे पड़े थे कि श्रीमतीजी को सामने उबली, मसालेदार चटपटी छल्ली वाला दिख गया. बस, उन के मुंह में पानी आ गया. चटपटी मसालेदार छल्ली हमें भी पसंद थी, साथ ही सुखद एहसास था कि आज हम घर से खाली पेट निकले थे. अत: बिना हीलहुज्जत हां कर दी. श्रीमतीजी ने अपने हिसाब का ज्यादा मसालेवाला पत्ता बनवा दिया. जनाब वे तो चटरपटर कर खा गईं पर हमारे पसीने छूट गए. बड़ी मुश्किल से डकारा.

 

तभी श्रीमतीजी को सामने शोरूम में टंगी साड़ी इतनी भाई कि वे उधर चल दीं. लेकिन कीमत पूछ चौंकीं और बोलीं, ‘‘महंगी है. चलो पहले तुम्हारे कपड़े खरीद लेते हैं.’’ हम ने भी सोचा कि चलो हमें तो इन की पसंद पर ही मुहर लगानी है, जल्दी निबटारा हो जाएगा. अभी हम यह सोच ही रहे थे कि चटपटी छल्ली ने अपना असर दिखा दिया. हम समझ गए कि अब फारिग होने का इंतजाम करना पड़ेगा.  श्रीमतीजी हमें पैंट पसंद करवा रही थीं और हम पहनी पैंट को गीली होने से बचाने की जुगत सोच रहे थे. खैर, उन्होंने जो पसंद किया, हम ने मुहर लगाई और शोरूम से बाहर निकल इधरउधर झांकने लगे. सामने एक साड़ी के शोरूम में पहुंच श्रीमतीजी ने तमाम साडि़यां खुलवा डालीं. न श्रीमतीजी साड़ी देखती थक रही थीं, न दुकानदार दिखाते थक रहा था. पर उन की पसंद की साड़ी न मिलनी थी न मिली. हम मौके की तलाश में थे कि कब वे हमारी ओर मुखातिब हों और हम इजाजत लें. एक साड़ी थोड़ी पसंद आने पर वे हमारी ओर मुखातिब हुईं, तो हम ने आंख मूंद कर हां कर दी. उन्हें कौन सी हमारी पसंद की साड़ी खरीदनी थी, यह तो बस दिखावा था. साथ ही हम ने उंगली उठा कर 1 नंबर के लिए जाने की इजाजत मांगी तो वे बरस पड़ीं, ‘‘जाओ, तुम्हें तो हर समय भागना ही पड़ता है.’’ उन के इस प्रकार डांटने पर बच्चे भी हमारी हालत पर हंसने लगे और हम खिसक लिए 1 नंबर का बहाना कर 2 नंबर के लिए.

हर ओर निगाह दौड़ाने पर भी कोई शौचालय न दिखा, तो एक शख्स से पूछने पर पता चला कि बहुत दूर है. हम ने सोचा कि इतनी दूर तो हमारा घर भी नहीं. क्यों न घर ही हो आएं? यह सोच कर हम पीछे मुड़े ही थे कि पत्नी को साड़ी पसंद कर बच्चों के साथ शोरूम से बाहर आते देखा. वे हमारे पास पहुंचतीं उस से पहले एक मोटातगड़ा आदमी श्रीमतीजी से उलझता दिखा. हम वहां पहुंचे तो वह उन्हें सौरी कह रहा था. उस ने चुपचाप सौरी कह जाने में ही अपनी भलाई समझी, लेकिन श्रीमतीजी हम पर बरस पड़ीं, ‘‘कितनी देर कर दी आने में. पता है यह आदमी मुझे छेड़ रहा था.’’ अब हम उन्हें कैसे बताते कि हम किस मुसीबत में हैं. हम बोले, ‘‘अरे सौरी बोला न वह, चलो अब.’’ इस पर उन के तेवर बिगड़े, ‘‘तुम भी कितने डरपोक पति हो. अरे, वह तो मेरा दुपट्टा खींच कर चला गया और तुम उसे इतने हलके में ले रहे हो.’’ जैसे अपने पालतू कुत्ते को हुश्श… कह हम दूसरे पर छोड़ देते हैं, उसी लहजे में श्रीमतीजी ने हमें पुश किया. अब उन्हें कौन समझाता कि हम अपनी कदकाठी ही नहीं बल्कि अपनी बीमारी के कारण भी इस समय कुछ न कहने को विवश हैं. पर उन के ताने ने हमारे जमीर को इस कदर झिंझोड़ा कि न चाहते हुए भी हम दुम हिलाते हुए उस के पीछे हो लिए और उसे ललकारा. अब सूमो पहलवान सा दिखने वाला वह बंदा शेर की तरह खा जाने वाली नजरों से हमें घूरता हम पर बरसा, ‘‘कह दिया न सौरी. उन के पास से निकलते हुए मेरी बैल्ट के बक्कल में उन का दुपट्टा फंस गया तो इस में मेरा क्या कुसूर है?’’ उस की दहाड़ से हमारी घिग्घी बंध गई. लगा हमारी बीमारी बाहर आने को है. और कोई समय होता तो शायद हम उस से भिड़ भी जाते पर मोशन की वजह से हमें अपने इमोशंस पर कंट्रोल रखना पड़ा.

हम दांत पीस कर रह गए. वह दहाड़ कर चला गया तो हम ने चैन की सांस ली और किसी तरह श्रीमतीजी को समझाबुझा कर जल्दीजल्दी घर फारिग होने पहुंचे. बच्चे हमारी हालत पर हंस रहे थे व श्रीमतीजी अधूरी शौपिंग के कारण नाराज थीं. ‘पीकू’ अपने आखिरी मकाम तक पहुंच गई थी. श्रीमतीजी बच्चों संग हंसती हुई हमारी ओर मुखातिब हुईं और बोलीं, ‘‘सीख लो कुछ भास्कर से. हमेशा बहाने से जाते हो फारिग होने. ले लो एक अदद सीट और रख लो गाड़ी में, ताकि जहां जरूरत महसूसहुई, हो लिए फारिग.’’ वातावरण में बच्चों सहित गूंजे उस के ठहाके में एलईडी की आवाज भी जैसे गुम हो गई जिस से हमें पिक्चर खत्म होने का पता भी न चला. ठीक ही तो कह रही हैं श्रीमतीजी, हम ने सोचा. ‘पीकू’ ने एक आसान रास्ता दिखाया है इस बीमारी से जूझते लोगों का. अमिताभ की तरह एक सीट सदा अपने साथ रखो. फिर जी भर कर खाओ और जब चाहो फारिग हो जाओ. शौचालय मिल जाए तो ठीक वरना ढूंढ़ने का झंझट खत्म. ‘पीकू’ की सौगात तो है ही फौरएवर.

Hindi Story- रिश्तों का सच : क्या सुधर पाया ननदभाभी का रिश्ता

Hindi Story : घर में घुसते ही चंद्रिका के बिगड़ेबिगड़े से तेवर देख रवि भांपने लगा था कि आज कुछ हुआ है, वरना रोज मुसकरा कर स्वागत करने वाली चंद्रिका का चेहरा यों उतरा हुआ न होता. ‘‘लो, दीदी का पत्र आया है,’’ चंद्रिका के बढ़े हुए हाथों पर सरसरी सी नजर डाल रवि बोला, ‘‘रख दो, जरा कपड़ेवपड़े तो बदल लूं, पत्र कहीं भागा जा रहा है क्या?’’

चंद्रिका की हैरतभरी नजरों का मुसकराहट से जवाब देता हुआ रवि बाथरूम में घुस गया. चंद्रिका के उतरे हुए चेहरे का राज भी उस पर खुल गया था. रवि मन ही मन सोच कर मुसकरा उठा, ‘सोच रही होगी कि आज मुझे हुआ क्या है, दीदी का पत्र हर बार की तरह झपट कर जो नहीं लिया.’ हर साल गरमी की छुट्टियों में दीदी के आने का सिलसिला बहुत पुराना था. परंतु विवाह के 5 वर्षों में शायद ही ऐसा कभी हुआ हो जब उन के आने को ले कर चंद्रिका से उस की जोरदार तकरार न हुई हो. बेचारी दीदी, जो इतनी आस और प्यार के साथ अपने एकलौते, छोटे भाई के घर थोड़े से मान और सम्मान की आशा ले कर आती थीं, चंद्रिका के रूखे बरताव व उन दोनों के बीच होती तकरार से अब चंद दिनों में ही लौट जाती थीं.

दीदी से रवि का लगाव कम होता भी, तो कैसे? दीदी 10 वर्ष की ही थीं, जब मां रवि को जन्म देते समय ही उसे छोड़ दूसरी दुनिया की ओर चल दी थीं. ‘दीदी न होतीं तो मेरा क्या होता?’ यह सोच कर ही उस की आंखें भर उठतीं. दीदी उस की बड़ी बहन बाद में थी, मां जैसी पहले थीं. कैसे भूल जाता रवि बचपन से ले कर जवानी तक के उन दिनों को, जब कदमकदम पर दीदी ममता और प्यार की छाया ले उस के साथ चलती रही थीं.

दीदी तो विवाह भी न करतीं, परंतु रिश्तेदारों के तानों और बेटी की बढ़ती उम्र से चिंतित पिताजी के चेहरे पर बढ़ती झुर्रियों को देखने के बाद रवि ने अपनी कसम दे कर दीदी को विवाह के लिए मजबूर कर दिया था. उन के विवाह के समय वह बीए में आया ही था. विवाह के बाद भी बेटे की तरह पाले भाई की तड़प दीदी के अंदर से गई नहीं थी, उस की जरा सी खबर पाते ही दौड़ी चली आतीं. वह भी उन के जाने के बाद कितना अकेला हो गया था. यह तो अच्छा हुआ कि जीजाजी अच्छे स्वभाव के थे. दीदी की तड़प समझते थे, भाईबहन के प्यार के बीच कभी बाधा नहीं बने थे.

चंद्रिका को भी तो वह ही ढूंढ़ कर लाई थीं. उन दिनों की याद से रवि मुसकरा उठा. दीदी उस के विवाह की तैयारी में बावरी हो उठी थीं. ऐसा भी नहीं था कि चंद्रिका को इन बातों की जानकारी न हो, विवाह के शुरुआती दिनों में ही सारी रामकहानी उस ने सुना दी थी. विवाह के बाद जब पहली बार दीदी आईर् थीं तो चंद्रिका भी उन से मिलने के लिए बड़ी उत्साहित थी और स्वयं रवि तो पगला सा गया था. आखिर उस के विवाह के बाद वह पहली बार आ रही थीं. वह चाहता था भाई की सुखी गृहस्थी देख वह खिल उठें.

पति के ढेरों आदेशनिर्देश पा कर चंद्रिका का उत्साह कुछ कम हो गया था, वह कुछ सहम सी भी गई थी. परंतु रवि तो अपनी ही धुन में था, चाहे कुछ हो जाए, दीदी को इतना सम्मान और प्यार मिलना चाहिए कि उन की ममता का जरा सा कर्ज तो वह उतार सके.

दीदी के आने के बाद उन दोनों के बीच चंद्रिका कहीं खो सी गई थी. उन दोनों को अपने में ही मस्त पा उन के साथ बैठ कर स्वयं भी उन की बातों में शामिल होने की कोशिश करती, पर रवि ऐसा मौका ही न देता. तब वह खीज कर रसोई में घुस खाना बनाने की कोशिश में लग जाती. मेहनत से बनाया गया खाना देख कर भी रवि उस पर नाराज हो उठता, ‘यह क्या बना दिया? पता नहीं है, दीदी को पालकपनीर की सब्जी अच्छी लगती है, शाही पनीर नहीं.’ फिर रसोई में काम करती चंद्रिका का हाथ पकड़ कर बाहर ला खड़ा करता और कहता, ‘आज तो दीदी के हाथ का बना हुआ ही खाऊंगा. वे कितना अच्छा बनाती हैं.’

तब भाईबहन चुहलबाजी करते हुए रसोई में मशगूल हो जाते और चंद्रिका बिना अपराध के ही अपराधी सी रसोई के बाहर खड़ी उन्हें देखती रहती. दीदी जरूर कभीकभी चंद्रिका को भी साथ लेने की कोशिश करतीं, लेकिन रवि अनजाने ही उन के बीच एक ऐसी दीवार बन गया था कि दोनों औपचारिकता से आगे कभी बढ़ ही न पाई थीं. उस समय तो किसी तरह चंद्रिका ने हालात से समझौता कर लिया था, लेकिन उस के बाद जब भी दीदी आतीं, वह कुछ तीखी हो उठती. सीधे दीदी से कभी कुछ नहीं कहा था, लेकिन रवि के साथ उस के झगड़े शुरू हो गए थे. दीदी भी शायद भांप गई थीं, इसीलिए धीरेधीरे उन का आना कम होता जा रहा था. इस बार तो पूरे एक वर्ष बाद आ रही थीं, पिछली बार उन के सामने ही चंद्रिका ने रवि से इतना झगड़ा किया कि वे बेचारी 4 दिनों में ही वापस चली गई थीं. जितने भी दिन वे रहीं, चंद्रिका ने बिस्तर से नीचे कदम न रखा, हमेशा सिरदर्द का बहाना बना अपने कमरे में ही पड़ी रहती.

एक दोपहर दीदी को अकेले काम में लगा देख भनभनाता हुआ रवि, चंद्रिका से लड़ पड़ा था. तब वह तीखी आवाज में बोली थी, ‘तुम क्या समझते हो, मैं बहाना कर रही हूं? वैसे भी तुम्हें और तुम्हारी दीदी को मेरा कोई काम पसंद ही कब आता है, तुम दोनों तो बातों में मशगूल हो जाओगे, फिर मैं वहां क्या करूंगी?’ बढ़तेबढ़ते बात तेज झगड़े का रूप ले चुकी थी. दीदी कुछ बोलीं नहीं, पर दूसरे ही दिन सुबह रवि द्वारा मिन्नतें करने के बाद भी चली गई थीं. उन के चले जाने के बाद भी बहुत दिनों तक उन दोनों के संबंध सामान्य न हो पाए थे, दीदी के इस तरह चले जाने के कारण वह चंद्रिका को माफ नहीं कर पाया था.

दोनों के बीच बढ़ते तनाव को देख अभी तक खामोशी से सबकुछ देख रहे पिताजी ने आखिरकार एक दिन रात को खाने के बाद टहलने के लिए निकलते समय उसे भी साथ ले लिया था. वे उसे समझाते हुए बोले थे, ‘पतिपत्नी के संबंध का अजीब ही कायदा होता है, इस रिश्ते के बीच किसी तीसरे की उपस्थिति बरदाश्त नहीं होती है…’ ‘लेकिन दीदी कोई गैर नहीं हैं,’ बीच में ही बात काटते हुए, रवि का स्वर रोष से भर उठा था.

‘बेटा, विवाह के बाद सब से नजदीकी रिश्ता पतिपत्नी का ही होता है. बाकी संबंध गौण हो जाते हैं. माना कि सभी संबंधों की अपनीअपनी अहमियत है, लेकिन किसी भी रिश्ते पर कोई रिश्ता हावी नहीं होना चाहिए, वरना कोई भी सुखी नहीं रहता. तुम्हीं बताओ, इतनी कोशिशों के बाद भी क्या तुम्हारी दीदी खुश है?’ समझातेसमझाते पिताजी सवाल सा कर उठे थे. ‘तो मैं क्या करूं? चंद्रिका की खुशी के लिए उन से सारे संबंध तोड़ लूं या फिर दीदी के लिए चंद्रिका से,’ रवि असमंजस में था, ‘आप तो जानते ही हैं कि दोनों ही मुझे कितनी प्रिय हैं.’

‘संबंध तोड़ने के लिए कौन कहता है,’ पिताजी धीरे से हंस पड़े थे, फिर गंभीर हो, बोले, ‘यह तो तुम भी मानते ही होगे कि चंद्रिका मन से बुरी या झगड़ालू नहीं है. मेरा कितना खयाल रखती है, तुम्हारे लिए भी आदर्श पत्नी सिद्ध हुई है.’ ‘फिर दीदी से ही उस की क्या दुश्मनी है?’ रवि के इस सवाल पर थोड़ी देर तक उसे गहरी नजरों से देखने के बाद वे बोले ‘कोई दुश्मनी नहीं है. याद करो, पहली बार वह भी कितनी उत्साहित थी. इस सब के लिए. अगर कोई दोषी है तो वह स्वयं तुम हो.’

‘मैं?’ सीधेसीधे अपने को अपराधी पा रवि अचकचा उठा था. ‘हां, तुम उन दोनों के बीच एक दीवार बन कर खड़े हो. कुछ करने का मौका ही कहां देते हो. आखिर वह तुम्हारी पत्नी है, वह तुम्हारी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है, लेकिन तुम हो कि अपनी बहन के आते ही उस के पूरे के पूरे व्यक्तित्व को ही नकार देते हो,’ पिताजी सांस लेने के लिए तनिक रुके थे.

रवि सिर झुकाए चुप बैठा किसी सोच में डूबा सा था. ‘बेटा, मुझे बहुत खुशी है कि तुम्हारी दीदी और तुम में इतना स्नेह है. भाईबहन से कहीं अधिक तुम दोनों एकदूसरे के अच्छे दोस्त हो, पर अपनी दोस्ती की सीमाओं को बढ़ाओ. अब चंद्रिका को भी इस में शामिल कर लो. यह उस का भी घर है. उसे तय करने दो कि वह अपने मेहमान का कैसे स्वागत करती है. विश्वास मानो, इस से तुम सब के बीच से तनाव और गलतफहमियों के बादल छंट जाएंगे. और तुम सब एकदूसरे के अधिक पास आ जाओगे.’

‘‘अंदर कितनी देर लगाओगे?’’ चंद्रिका की आवाज सुन वह चौंक उठा, ‘अरे, इतनी देर से मैं बाथरूम में ही बैठा हूं.’ झटपट नहा कर वह बाहर निकल आया. चाय और गरमागरम नाश्ते की प्लेट उस का इंतजार कर रही थी. इस दौरान वे खामोश ही रहे. जूठे कप व प्लेटें समेटती चंद्रिका की हैरत यह देख और बढ़ गई कि रवि पत्र को हाथ लगाए बगैर ही एक पत्रिका पढ़ने लगा है.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’ चंद्रिका का चिंतित चेहरा देख कर अपनी हंसी को रवि ने मुश्किल से रोका, ‘‘हां, ठीक है, क्यों?’’ ‘‘फिर अभी तक दीदी का पत्र क्यों नहीं पढ़ा?’’ चंद्रिका के सवाल के जवाब में वह लापरवाही से बोला, ‘‘तुम ने तो पढ़ा ही होगा, खुद ही बता दो, क्या लिखा है?’’

‘‘वे कल दोपहर की गाड़ी से आ रही हैं.’’ ‘‘अच्छा,’’ कह वह फिर पत्रिका पढ़ने में मशगूल हो गया. कुछ देर तक चंद्रिका वहीं खड़ी गौर से उसे देखती रही, फिर कमरे से बाहर निकल गई.

दूसरे दिन रविवार था. सुबहसुबह रवि को अखबार में खोया पा कर चंद्रिका बहुत देर तक खामोश न रह सकी, ‘‘दीदी आने वाली हैं. तुम्हें कुछ खयाल भी है?’’ ‘‘पता है,’’ अखबार में नजरें जमाए हुए ही वह बोला.

‘‘खाक पता है,’’ चंद्रिका झुंझला उठी थी, ‘‘कुछ सामान वगैरह लाना है या नहीं?’’ ‘‘घर तुम्हारा है, तुम जानो,’’ उस की झुंझलाहट पर वह खुद मुसकरा उठा.

कुछ देर तक उसे घूरने के बाद पैर पटकती हुई चंद्रिका थैला और पर्स ले बाहर निकल गई. ?जब वह लौटी तो भारी थैले के साथ पसीने से तरबतर थी. रवि आश्चर्यचकित था. वह दीदी की पसंद की एकएक चीज छांट कर लाई थी.

‘‘दोपहर के खाने में क्या बनाऊं?’’ सवालिया नजरों से उसे देखते हुए चंद्रिका ने पूछा. ‘‘तुम जो भी बनाओगी, लाजवाब ही होगा. कुछ भी बना लो,’’ रवि की बात सुन चंद्रिका ने उसे यों घूर कर देखा, जैसे उस के सिर पर सींग उग आए हों.

दोपहर से काफी पहले ही वह खाना तैयार कर चुकी थी. रवि की तेज नजरों ने देख लिया था कि सभी चीजें दीदी की पसंद की ही बनी हैं. वास्तव में वह मन ही मन पछता भी रहा था. उसे महसूस हो रहा था कि उस के बचकाने व्यवहार की वजह से ही दीदी और चंद्रिका इतने समय तक अजनबी बन परेशान होती रहीं.

‘‘ट्रेन का टाइम हो रहा है. स्टेशन जाने के लिए कपड़े निकाल दूं?’’ चंद्रिका अपने अगले सवाल के साथ सामने खड़ी थी. अपने को व्यस्त सा दिखाता रवि बोला, ‘‘उन्हें रास्ता तो पता है, औटो ले कर आ जाएंगी.’’ ‘‘तुम्हारा दिमाग तो सही है?’’ बहुत देर से जमा हो रहा लावा अचानक ही फूट कर बह निकला था, ‘‘पता है न कि वे अकेली आ रही हैं. लेने नहीं जाओगे तो उन्हें कितना बुरा लगेगा. आखिर, तुम्हें हुआ क्या है?’’

‘‘अच्छा बाबा, जाता हूं, पर एक शर्त पर, तुम भी साथ चलो.’’ ‘‘मैं?’’ हैरत में पड़ी चंद्रिका बोली, ‘‘मैं तुम दोनों के बीच क्या करूंगी.’’

‘‘फिर मैं भी नहीं जाता.’’ उसे अपनी जगह से टस से मस न होते देख आखिर, चंद्रिका ने ही हथियार डाल दिए, ‘‘अच्छा उठो, मैं भी चलती हूं.’’

चंद्रिका को साथ आया देख दीदी पहले तो हैरत में पड़ीं, फिर खिल उठीं. शायद पिछली बार के कटु अनुभवों ने उन्हें भयभीत कर रखा था. स्टेशन पर चंद्रिका को भी देख एक पल में सारी शंकाएं दूर हो गईर्ं. वे खुशी से पैर छूने को झुकी चंद्रिका के गले से लिपट गईं.

रवि सोच रहा था, इतनी अच्छी तरह से तो वह घर में भी कभी नहीं मिली थी. ‘‘किस सोच में डूब गए?’’ दीदी का खिलखिलाता स्वर उसे गहरे तक खुशी से भर गया. सामान उठा वह आगेआगे चल दिया. चंद्रिका और दीदी पीछेपीछे बतियाती हुई आ रही थीं.

खाने की मेज पर भी रवि कम बोल रहा था. चंद्रिका ही आग्रह करकर के दीदी को खिला रही थी. हर बार चंद्रिका के अबोलेपन की स्थिति से शायद माहौल तनावयुक्त हो उठता था, इसीलिए दीदी अब जितनी सहज व खुश लग रही थीं, उतनी पहले कभी नहीं लगी थीं. खाने के बाद वह उठ कर अपने कमरे में आ गया. वे दोनों बहुत देर तक वहीं बैठी बातों में जुटी रहीं. कुछ देर बाद चंद्रिका कमरे में आ कर दबे स्वर में बोली, ‘‘यहां क्यों बैठे हो? जाओ, दीदी से कुछ बातें करो न.’’

‘‘तुम हो न, मैं कुछ देर सोऊंगा…’’ कहतेकहते रवि ने करवट बदल कर आंखें मूंद लीं. रात के खाने की तैयारी में चंद्रिका का हाथ बंटाने के लिए दीदी भी रसोई में ही आ गईं. रवि टीवी खोल कर बैठा था.

‘‘रवि की तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ रसोईघर से आता दीदी का स्वर सुन रवि के कान चौकन्ने हो गए. पलभर की खामोशी के बाद चंद्रिका का स्वर उभरा, ‘‘नहीं तो, आजकल औफिस में काम अधिक होने से ज्यादा थक जाते हैं, इसलिए थोड़े खामोश हो गए हैं. आप को बुरा लगा क्या?’’

‘‘अरे नहीं, इस में बुरा मानने की क्या बात है? वैसे भी तुम्हारा साथ ज्यादा भला लग रहा है. पहली बार ऐसा लग रहा है कि अपने मायके आई हूं. मां तो थीं नहीं, जिन से यहां आने पर मायके का एहसास होता. पिताजी और भाई का मानदुलार था तो, पर असली मायके का एहसास तो मां या भौजाई के प्यार और मनुहार से ही होता है.’’

‘‘दीदी, मुझे माफ कर दीजिए,’’ चंद्रिका ने हौले से कहा, ‘‘मैं ने आप के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया…’’ ‘‘ऐसी बात नहीं है, हम ने तुम्हें अवसर ही कहां दिया था कि तुम अपना अच्छा या बुरा व्यवहार सिद्ध कर सको. खैर छोड़ो, इस बार जैसा सुकून मुझे पहले कभी नहीं मिला,’’ दीदी का स्वर संतुष्टिभरा था.

टीवी के सामने बैठे रवि का मन भी दीदी की खुशी और संतुष्टि देख चंद्रिका के प्रति प्यार और गर्व से भर उठा था. सुबह उस के उठने से पहले ही दीदी और चंद्रिका उठ कर काम के साथसाथ बातों में व्यस्त थीं. रात भी रवि तो सो गया था, वे दोनों जाने कितनी देर तक एकसाथ जागती रही थीं. जाने उन के अंदर कितनी बातें दबी पड़ी थीं, जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. रवि को एक बार फिर अपनी मूर्खता पर पछतावा हुआ. बिस्तर से उठ कर वह औफिस जाने की तैयारी में लग गया.

‘‘कहां जा रहे हो?’’ शीशे के सामने बाल संवार रहे रवि के हाथ अचानक चंद्रिका को देख रुक गए. ‘‘औफिस.’’

‘‘दीदी आई हैं, फिर भी?’’ चंद्रिका की हैरानी वाजिब थी. दीदी के लिए रवि पहले पूरे वर्ष की छुट्टियां बचा के रखता था. जितने भी दिन वह रहतीं, वे उन्हें घुमानेफिराने के लिए छुट्टियां ले कर घर बैठा रहता था. ‘‘छुट्टी क्यों नहीं ले लेते? हम सब घूमने चलेंगे,’’ चंद्रिका जोर देते हुए बोली.

‘‘नहीं, इस बार छुट्टियां बचा रहा हूं, शरारतभरी नजर चंद्रिका के चेहरे पर डालता हुआ रवि बोला.’’ ‘‘क्यों?’’ चंद्रिका के सवाल के जवाब में उस ने उसे अपने पास खींच लिया, ‘‘क्योंकि इस बार मैं तुम्हें मसूरी घुमाने ले जा रहा हूं. अभी छुट्टी ले लूंगा, तो बाद में नही मिलेंगी.’’

चंद्रिका की आंखें भीग उठी थीं, शायद वह विश्वास नहीं कर पा रही थी कि रवि की जिंदगी और दिल में उस के लिए भी इतना प्यार छिपा हुआ है. अपने को संभाल आंखें पोंछती वह लाड़भरे स्वर में बोली, ‘‘मसूरी जाना क्या दीदी से अधिक जरूरी है? मुझे कहीं नहीं जाना, तुम्हें छुट्टी लेनी ही पड़ेगी.’’

‘‘अच्छा, ऐसा करता हूं, सिर्फ आज की छुट्टी ले लेता हूं,’’ वह समझौते के अंदाज में बोला. ‘‘लेकिन इस के बाद जितने भी दिन दीदी रहेंगी, तुम्हीं उन के साथ रहोगी.’’

‘‘मैं, अकेले?’’ चंद्रिका घबरा रही थी, ‘‘मुझ से फिर कोई गलती हो गई तो?’’ ‘‘तो क्या, उसे सुधार लेना. मुझे तुम पर पूरा विश्वास है,’’ मन ही मन सोचता जा रहा था रवि, ‘मैं भी तो अपनी गलती ही सुधार रहा हूं.’

वह रवि की प्यार और विश्वासभरी निगाहों को पलभर देखती रही, फिर हंस कर बोली, ‘‘अच्छा, अब छोड़ो, चल कर कम से कम आज की पिकनिक की तैयारी करूं.’’ दीदी पूरे 15 दिनों के लिए रुकी थीं, चंद्रिका और उन के बीच संबंध बहुत मधुर हो गए थे. इस बार पिताजी भी अधिक खुश नजर आ रहे थे. दीदी के जाने का दिन ज्योंज्यों नजदीक आ रहा था, चंद्रिका उदास होती जा रही थी.

आखिरकार, जीजाजी के बुलावे के पत्र ने उन के लौटने की तारीख तय कर दी. दौड़ीदौड़ी चंद्रिका बाजार जा कर दीदी के लिए साड़ी और जीजाजी के लिए कपड़े खरीद लाई थी. तरहतरह के पापड़ और अचार दीदी के मना करने के बावजूद उस ने बांध दिए थे. शाम की ट्रेन थी. चंद्रिका दीदी के साथ के लिए तरहतरह की चीजें बनाने में व्यस्त थी. रवि सामान पैक करती दीदी के पास आ बैठा. दीदी ने मुसकरा कर उस की तरफ देखा, ‘‘अब तुम कब आ रहे हो चंद्रिका को ले कर?’’

‘‘आऊंगा दीदी, जल्दी ही आऊंगा,’’ बैठी हुई दीदी की गोद में वह सिर रख लेट गया था, ‘‘तुम नाराज तो नहीं हो न?’’ ‘‘किसलिए?’’ उस के बालों में हाथ फेरती हुई दीदी एकाएक ही उस की बात सुन हैरत में पड़ गईं.

‘‘मैं तुम्हारे साथ पहले जितना समय नहीं बिता पाया न?’’ रवि बोला. ‘‘नहीं रे, बल्कि इस बार मैं यहां जितनी खुश रही हूं, उतनी पहले कभी नहीं रही. चंद्रिका के होते मुझे किसी भी चीज की कमी महसूस नहीं हुई. एक बात बताऊं, मुझे बहुत डर लगता था. तेरे इतने प्यार जताने के बाद भी लगता था, मेरा भाई मुझ से अलग हो जाएगा. कभीकभी सोचती, शायद मेरे आने की वजह से ही चंद्रिका और तुम्हारे बीच झगड़ा होता है. तुझे देखने के लिए मन न तड़पता तो शायद यहां कभी आती ही नहीं.

‘‘चंद्रिका के इस बार के अच्छे व्यवहार ने मुझे एहसास दिलाया है कि भाई तो अपना होता ही है, पर भौजाई को अपना बनाना पड़ता है, क्योंकि वह अगर अपनी न बने तो धीरेधीरे भाई भी पराया हो जाता है. आज मैं सुकून महसूस कर रही हूं. चंद्रिका जैसी अच्छी भौजाई के होते मेरा भाई कभी पराया नहीं होगा. इस सब से भी बढ़ कर पता है, उस ने क्या दिया है मुझे?’’ ‘‘क्या?’’

‘‘मेरा मायका, जो मुझे पहले कभी नहीं मिला था. चंद्रिका ने मुझे वह सब दे दिया है,’’ दीदी की आंखें बरस उठी थीं, ‘‘चंद्रिका ने यह जो एहसान मुझ पर किया है, इस का कर्ज कभी नहीं चुका पाऊंगी.’’ ‘‘खाना तैयार है,’’ चंद्रिका कब कमरे में आई, पता ही न चला. लेकिन उस की भीगीभीगी आंखें बता रही थीं कि वह बहुतकुछ सुन चुकी थी. गर्व से निहारती रवि की आंखों में झांक चंद्रिका बोली, ‘‘कैसे भाई हो, पता नहीं, आज सुबह से दीदी ने कुछ नहीं खाया. चलो, खाना ठंडा हो रहा है.’’

दीदी को ट्रेन में बिठा रवि उन का सामान व्यवस्थित करने में लगा हुआ था. चंद्रिका दीदी के साथ ही बैठी उन्हें दशहरे की छुट्टियों में आने के लिए मना रही थी. हमेशा उतरे मुंह से वापस होने वाली दीदी का चेहरा इस बार चमक रहा था. ट्रेन की सीटी की आवाज के साथ ही रवि ने कहा, ‘‘उतरो चंद्रिका, ट्रेन चलने वाली है.’’

चंद्रिका दीदी से लिपट गई, ‘‘जल्दी आना और जाते ही पत्र लिखना.’’ ‘‘अब पहले तुम दोनों मेरे घर आना,’’ भीगी आंखों के साथ दीदी मुसकरा रही थीं.

उन के नीचे उतरते ही ट्रेन ने सरकना शुरू कर दिया. ‘‘दीदी, पत्र जरूर लिखना,’’ दोनों अपनेअपने रूमाल हिला रही थीं. ट्रेन गति पकड़ स्टेशन से दूर होती जा रही थी. चंद्रिका ने पलट कर रवि की तरफ देखा. रवि की गर्वभरी आंखों को निहारती चंद्रिका की आंखें भी चमक उठी थीं.

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