Online Hindi Story : दिखावे की काट

दीवार से सिर टिका कर अंकिता शून्य में ताक रही थी. रोतेरोते उस की पलकें सूज गई थीं. अब भी कभीकभी एकाध आंसू पलकों पर आता और उस के गालों पर बह जाता. पास के कमरे में उस की भाभी दहाड़ें मारमार कर रो रही थीं. भाभी की बहन और भाभी उन्हें समझा रही थीं. भाभी के दोनों बच्चे ऋषी और रिनी सहमे हुए से मां के पास बैठे थे.

भाभी का रुदन कभी उसे सुनाई पड़ जाता. बूआ अंकिता के पास बैठी थीं और भी बहुत से रिश्तेदार घर में जगहजगह बैठे हुए थे. अंकिता का भाई और घर के बाकी दूसरे पुरुष अरथी के साथ श्मशान घाट अंतिम संस्कार करने जा चुके थे.

अंकिता की आंखों से फिर आंसू बह निकले. मां तो बहुत पहले ही उन्हें छोड़ कर चली गई थीं. पिता ने ही उन्हें मां और बाप दोनों का प्यार दे कर पाला. उन की उंगलियां पकड़ कर दोनों भाईबहन ने चलना सीखा, इस लायक बने कि जिंदगी की दौड़ में शामिल हो कर अपनी जगह बना सके और आज वही पिता अपने जीवन की दौड़ पूरी कर इस दुनिया से चले गए.

वह पिता की याद में फफक पड़ी. पास बैठी बूआ उसे दिलासा देते हुए खुद भी भाई की याद में बिलखने लगीं.

घड़ी ने साढ़े 5 बजाए तो रिश्ते की एकदो महिलाएं घर की औरतों के नहाने की व्यवस्था करने में जुट गईं. दाहसंस्कार से पुरुषों के लौटने से पहले घर की महिलाओं का स्नान हो जाना चाहिए. भाभी और बूआ के स्नान करने के बाद बेमन से उठ कर अंकिता ने भी स्नान किया.

‘कैसी अजीब रस्में हैं,’ अंकिता सोच रही थी, ‘व्यक्ति के मरते ही इस तरह से घर के लोग स्नान करते हैं जैसे कि कोई छूत की बीमारी थी, जिस के दूर हटते ही स्नान कर के लोग शुद्ध हो जाते हैं. धर्म और उस की रूढि़यां संस्कार हैं कि कुरीतियां. इनसान की भावनाओं का ध्यान नहीं है, बस, लोग आडंबर में फंस जाते हैं.

औरतों का नहाना हुआ ही था कि श्मशान घाट से घर के पुरुष वापस आ गए और घर के बाहर बैठ गए. घर की महिलाएं अब पुरुषों के नहाने की व्यवस्था करने लगीं. उसी शहर में रहने वाले कई रिश्तेदार और आसपड़ोस के लोग बाहर से ही अपनेअपने घरों को लौट गए. उन्हें विदा कर भैया भी नहाने चले गए. नहा कर अंकिता का भाई आनंद आ कर बहन के पास बैठ गया तो अंकिता भाई के कंधे पर सिर रख कर रो पड़ी. भाई की आंखें भी भीग गईं. वह छोटी बहन के सिर पर हाथ फेरने लगा.

‘‘रो मत, अंकिता. मैं तुम्हें कभी पिताजी की कमी महसूस नहीं होने दूंगा. तेरा यह घर हमेशा तेरे लिए वैसा ही रहेगा जैसा पिताजी के रहते था,’’ बड़े भाई ने कहा तो अंकिता के दुखी मन को काफी सहारा मिला.

‘‘जीजाजी, बाबूजी का बिस्तर और तकिया किसे देने हैं?’’ आनंद के छोटे साले ने आ कर पूछा.

‘‘अभी तो उन्हें यहीं रहने दे राज, यह सब बाद में करते रहना. इतनी जल्दी क्या है?’’ आनंद के बोलने से पहले ही बूआ बोल पड़ीं.

‘‘नहीं, बूआ, ये लोग हैं तो यह सब हो जाएगा, फिर मेहमानों के सोने के लिए जगह भी तो चाहिए न. राज, तुम पिताजी का बिस्तर और कपड़े वृद्धाश्रम में दे आओ, वहां किसी के काम आ जाएंगे,’’ आनंद ने तुरंत उठते हुए कहा.

‘‘लेकिन भैया, पिताजी की निशानियों को अपने से दूर करने की इतनी जल्दबाजी क्यों?’’ अंकिता ने एक कमजोर सा प्रतिवादन करना चाहा लेकिन तब तक आनंद राज के साथ पिताजी के कमरे की तरफ जा चुके थे.

लगभग 15 मिनट बाद भैया की आवाज आई, ‘‘अंकिता, जरा यहां आना.’’

अपने को संभालते हुए अंकिता पिताजी के कमरे में गई.

‘‘देख अंकिता, तुझे पिताजी की याद के तहत उन की कोई वस्तु चाहिए तो ले ले,’’ आनंद ने कहा.

भाभी को शायद कुछ भनक लग गई और वे तुरंत आ कर दरवाजे पर खड़ी हो गईं. अंकिता समझ गई कि भाभी यह देखना चाहती हैं कि वह क्या ले जा रही है. पिताजी की पढ़ने वाली मेज पर उन का और मां का शादी के बाद का फोटो रखा हुआ था. अंकिता ने जा कर वह फोटो उठा लिया. इस फोटो को संभाल कर रखेगी वह.

पिताजी की सोने की चेन और 2 अंगूठियां फोटो के पास ही एक छोटी ट्रे में रखी थीं जिन्हें मां ने घर खर्चे के लिए मिले पैसों में बचाबचा कर अलगअलग अवसरों पर पिताजी के लिए बनाया था. चूंकि ये चेन और अंगूठियां मां की निशानियां थीं. इसलिए पिताजी इन्हें कभी अपने से अलग नहीं करते थे.

अंकिता ने फोटो को कस कर सीने से लगाया और तेजी से पिताजी के कमरे से बाहर चली गई. जातेजाते उस ने देख लिया कि भाभी की नजरें ट्रे में रखी चीजों पर जमी हैं और चेहरे पर एक राहत का भाव है कि अंकिता ने उन्हें नहीं उठाया. उस के मन में एक वितृष्णा का भाव पैदा हुआ कि थोड़ी देर पहले भैया के दिलासा भरे शब्दों में कितना खोखलापन था, यह समझ में आ गया.

भैया के दोनों सालों ने मिल कर पिताजी के कपड़ों और बाकी सामान की गठरियां बनाईं और वृद्धाश्रम में पहुंचा आए. पिताजी का लोहे वाला पुराना फोल्ंडिंग पलंग और स्टूल, कुरसी, मेज और बैंचें वहां से उठा कर सारा सामान छत पर डाल दिया कि बाद में बेच देंगे.

भाभी की बड़ी भाभी ने कमरे में फिनाइल का पोंछा लगा दिया. पिताजी उस कमरे में 50 वर्षों तक रहे लेकिन भैया ने 1 घंटे में ही उन 50 वर्षों की सारी निशानियों को धोपोंछ कर मिटा दिया. बस, उन की चेन और अंगूठियां भाभी ने झट से अपने सेफ में पहुंचा दीं.

रात को भाभी की भाभियों ने खाना बनाया. अंकिता का मन खाने को नहीं था लेकिन बूआ के समझाने पर उस ने नामचारे को खा लिया. सोते समय अंकिता और बूआ ने अपना बिस्तर पिताजी के कमरे में ही डलवाया. पलंग तो था नहीं, जमीन पर ही गद्दा डलवा कर दोनों लेट गईं. बूआ ने पूरे कमरे में नजर डाल कर एक गहरी आह भरी.

बूआ के लिए भी उन का मायका उन के भाई के कारण ही था. अब उन के लिए भी मायके के नाम पर कुछ नहीं रहा. रमेश बाबू ने अपने जीते जी न बहन को मायके की कमी खलने दी न बेटी को. कहते हैं मायका मां से होता है लेकिन यहां तो पिताजी ने ही हमेशा उन दोनों के लिए ही मां की भूमिका निभाई.

‘‘बेटा, अब तू भी असीम के पास सिंगापुर चली जाना. वैसे भी अब तेरे लिए यहां रखा ही क्या है. आनंद का रवैया तो तुझे पता ही है. जो अपने जन्मदाता की यादों को 1 घंटे भी संभाल कर नहीं रख पाया वह तुझे क्या पूछेगा,’’ बूआ ने उस की हथेली को थपथपा कर कहा. अनुभवी बूआ की नजरें उस के भाईभाभी के भाव पहले ही दिन ताड़ गईं.

‘‘हां बूआ, सच कहती हो. बस, पिताजी की तेरहवीं हो जाए तो चली जाऊंगी. उन्हीं के लिए तो इस देश में रुकी थी. अब जब वही नहीं रहे तो…’’ अंकिता के आगे के शब्द उस की रुलाई में दब गए.

बूआ देर तक उस का सिर सहलाती रहीं. पिताजी ने अंकिता के विवाह की एकएक रस्म इतनी अच्छी तरह पूरी की थी कि लोगों को तथा खुद उस को भी कभी मां की कमी महसूस नहीं हुई.

पिताजी ने 2 साल पहले उस की शादी असीम से की थी. साल भर पहले असीम को सिंगापुर में अच्छा जौब मिल गया. वह अंकिता को भी अपने साथ ले जाना चाहता था लेकिन पिताजी की नरमगरम तबीयत देख कर वह असीम के साथ सिंगापुर नहीं गई. असीम का घर इसी शहर में था और उस के मातापिता नहीं थे, अत: असीम के सिंगापुर जाने के बाद अंकिता अपनी नौकरानी को साथ ले कर रहती थी. असीम छुट्टियों में आ जाता था.

अंकिता ने बहुत चाहा कि पिताजी उस के पास रहें पर इस घर में बसी मां की यादों को छोड़ कर वे जाना नहीं चाहते थे इसलिए वही हर रोज दोपहर को पिताजी के पास चली आती थी. बूआ वडोदरा में रहती थीं. उन का भी बारबार आना संभव नहीं था और अब तो उन का भी इस शहर में क्या रह जाएगा.

पिताजी की तीसरे दिन की रस्म हो गई. शाम को अंकिता बूआ के साथ आंगन में बैठी थी. असीम के रोज फोन आते और उस से बात कर अंकिता के दिल को काफी तसल्ली मिलती थी. असीम और बूआ ही तो अब उस के अपने थे. बूआ के सिर में हलकाहलका दर्द हो रहा था.

‘‘मैं आप के लिए चाय बना कर लाती हूं, बूआ, आप को थोड़ा आराम मिलेगा,’’ कह कर अंकिता चाय बनाने के लिए रसोईघर की ओर चल दी.

रसोईघर का रास्ता भैया के कमरे के बगल से हो कर जाता था. अंदर भैयाभाभी, उन के बच्चे, भाभी के दोनों भाई बैठे बातें कर रहे थे. उन की बातचीत का कुछ अंश उस के कानों में पड़ा तो न चाहते हुए भी उस के कदम दरवाजे की ओट में रुक गए. वे लोग पिताजी के कमरे को बच्चों के कमरे में तबदील करने पर सलाहमशविरा कर रहे थे.

बच्चों के लिए फर्नीचर कैसा हो, कितना हो, दीवारों के परदे का रंग कैसा हो और एक अटैच बाथरूम भी बनवाने पर विचार हो रहा था. सब लोग उत्साह से अपनीअपनी राय दे रहे थे, बच्चे भी पुलक रहे थे.

अंकिता का मन खट्टा हो गया. इन बच्चों को पिताजी अपनी बांहों और पीठ पर लादलाद कर घूमे हैं. इन के बीमार हो जाने पर भैयाभाभी भले ही सो जाएं लेकिन पिताजी इन के सिरहाने बैठे रातरात भर जागते, अपनी तबीयत खराब होने पर भी बच्चों की इच्छा से चलते, उन्हें बाहर घुमाने ले जाते. और आज वे ही बच्चे 3 दिन में ही अपने दादाजी की मौत का गम भूल कर अपने कमरे के निर्माण को ले कर कितने उत्साहित हो रहे हैं.

खैर, ये तो फिर भी बच्चे हैं जब बड़ों को ही किसी बात का लेशमात्र ही रंज नहीं है तो इन्हें क्या कहना. सब के सब उस कमरे की सजावट को ले कर ऐसे बातें कर रहे हैं मानो पिताजी के जाने की राह देख रहे थे कि कब वे जाएं और कब ये लोग उन के कमरे को हथिया कर उसे अपने मन मुताबिक बच्चों के लिए बनवा लें. यह तो पिताजी की तगड़ी पैंशन का लालच था, नहीं तो ये लोग तो कब का उन्हें वृद्धाश्रम में भिजवा चुके होते.

अंकिता से और अधिक वहां पर खड़ा नहीं रहा गया. उस ने रसोईघर में जा कर चाय बनाई और बूआ के पास आ कर बैठ गई.

पिताजी की मौत के बाद दुख के 8 दिन 8 युगों के समान बीते. भैयाभाभी के कमरे से आती खिलखिलाहटों की दबीदबी आवाजों से घावों पर नमक छिड़कने का सा एहसास होता था पर बूआ के सहारे वे दिन भी निकल ही गए. 9वें दिन से आडंबर भरी रस्मों की शुरुआत हुई तो अंकिता और बूआ दोनों ही बिलख उठीं.

9वें दिन से रूढि़वादी रस्मों की शुरुआत के साथ श्राद्ध पूजा में पंडितों ने श्लोकों का उच्चारण शुरू किया तो बूआ और अंकिता दोनों की आंखों से आंसुओं की धाराएं बहने लगीं. हर श्लोक में पंडित अंकिता के पिता के नाम ‘रमेश’ के आगे प्रेत शब्द जोड़ कर विधि करवा रहे थे. हर श्लोक में ‘रमेश प्रेतस्य शांतिप्रीत्यर्थे श… प्रेतस्य…’ आदि.

व्यक्ति के नाम के आगे बारबार ‘प्रेत’ शब्द का उच्चारण इस प्रकार हो रहा था मानो वह कभी भी जीवित ही नहीं था, बल्कि प्रेत योनि में भटकता कोई भूत था. अपने प्रियजन के नाम के आगे ‘प्रेत’ शब्द सुनना उस की यादों के साथ कितना घृणित कार्य लग रहा था. अंकिता से वहां और बैठा नहीं गया. वह भाग कर पिताजी के कमरे में आ गई और उन की शर्ट को सीने से लगा कर फूटफूट कर रो दी.

कैसे हैं धार्मिक शास्त्र और कैसे थे उन के रचयिता? क्या उन्हें इनसानों की भावनाओं से कोई लेनादेना नहीं था? जीतेजागते इनसानों के मन पर कुल्हाड़ी चलाने वाली भावहीन रूढि़यों से भरे शास्त्र और उन की रस्में, जिन में मानवीय भावनाओं की कोई कद्र नहीं. आडंबर से युक्त रस्मों के खोखले कर्मकांड से भरे शास्त्र.

धार्मिक कर्मकांड समाप्त होने के बाद जब पंडित चले गए तब अंकिता अपने आप को संभाल कर बाहर आई. भैया और उन के बेटे का सिर मुंडा हुआ था. रस्मों के मुताबिक 9वें दिन पुत्र और पौत्र के बाल निकलवा देते हैं. उन के घुटे सिर को देख कर अंकिता का दुख और गहरा हो गया. कैसी होती हैं ये रस्में, जो पलपल इनसान को हादसे की याद दिलाती रहती हैं और उस का दुख बढ़ाती हैं.

असीम को आखिर छुट्टी मिल ही गई और पिताजी की तेरहवीं पर वह आ गया. उस के कंधे पर सिर रख कर पिताजी की याद में और भैयाभाभी के स्वार्थी पक्ष पर वह देर तक आंसू बहाती रही. अंकिता का बिलकुल मन नहीं था उस घर में रुकने का लेकिन पिताजी की यादों की खातिर वह रुक गई.

तेरहवीं की रस्म पर भैया ने दिल खोल कर खर्च किया. लोग भैया की तारीफें करते नहीं थके कि बेटा हो तो ऐसा. देखो, पिताजी की याद में उन की आत्मा की शांति के लिए कितना कुछ कर रहा है, दानपुण्य, अन्नदान. 2 दिन तक सैकड़ों लोगों का भोजन चलता रहा. लोगों ने छक कर खाया और भैयाभाभी को ढेरों आशीर्वाद दिए. अंकिता, असीम और बूआ तटस्थ रह कर यह तमाशा देखते रहे. वे जानते थे कि यह सब दिखावा है, इस में तनिक भी भावना या श्रद्धा नहीं है.

यह कैसा धर्म है जो व्यक्ति को इनसानियत का पाठ पढ़ाने के बजाय आडंबर और दिखावे का पाठ पढ़ाता है, ढोंग करना सिखाता है.

जीतेजी पिता को दवाइयों और खानेपीने के लिए तरसा दिया और मरने पर कोरे दिखावे के लिए झूठी रस्मों के नाम पर ब्राह्मणों और समाज के लोगों को भोजन करा रहे हैं. सैकड़ों लोगों के भोजन पर हजारों रुपए फूंक कर झूठी वाहवाही लूट रहे हैं जबकि पिताजी कई बार 2 बजे तक एक कप चाय के भरोसे पर भूखे रहते थे. अंकिता जब दोपहर में आती तो उन के लिए फल, दवाइयां और खाना ले कर आती और उन्हें खिलाती.

रात को कई बार भैया व भाभी को अगर शादी या पार्टी में जाना होता था तो भाभी सुबह की 2 रोटियां, एक कटोरी ठंडी दाल के साथ थाली में रख कर चली जातीं. तब पिताजी या तो वही खा लेते या उसे फोन कर देते. तब वह घर से गरम खाना ला कर उन्हें खिलाती.

अंकिता सोच रही थी कि श्राद्ध शब्द का वास्तविक अर्थ होता है, श्रद्धा से किया गया कर्म. लेकिन भैया जैसे कुपुत्रों और लालची पंडितों ने उस के अर्थ का अनर्थ कर डाला है.

जीतेजी पिताजी को भैया ने कभी कपड़े, शौल, स्वेटर के लिए नहीं पूछा. इस के उलट अपने खर्चों और महंगाई का रोना रो कर हर महीने उन की पैंशन हड़प लेते थे, लेकिन उन की तेरहवीं पर भैया ने खुले हाथों से पंडितों को कपड़े, बरतन आदि दान किए. अंकिता को याद है उस की शादी से पहले पिताजी के पलंग की फटी चादर और बदरंग तकिए का कवर. विवाह के बाद जब उस के हाथ में पैसा आया तो सब से पहले उस ने पिताजी के लिए चादरें और तकिए के कवर खरीदे थे.

जीवित पिता पर खर्च करने के लिए भैया के पास पैसा नहीं था, लेकिन मृत पिता के नाम पर आज समाज के सामने दिखावे के लिए अचानक ढेर सारा पैसा कहां से आ गया.

असीम ने 2 दिन बाद के अपने और अंकिता के लिए हवाई जहाज के 2 टिकट बुक करा दिए.

दूसरे दिन भैया ने कुछ कागज अंकिता के आगे रख दिए. दरअसल, पिताजी ने वह घर भैया और उस के नाम पर कर दिया था.

‘‘अब तुम तो असीम के साथ सिंगापुर जा रही हो और वैसे भी असीम का अपना खुद का भी मकान है तो…’’ भैया ने बात आधी छोड़ दी. पर अंकिता उन की मंशा समझ गई. भैया चाहते थे कि वह अपना हिस्सा अपनी इच्छा से उन के नाम कर दे ताकि भविष्य में कोई झंझट न रहे.

‘‘हां भैया, इस घर में आप के साथसाथ आधा हिस्सा मेरा भी है. इन कागजों की एक कापी मैं भी अपने पास रखूंगी ताकि मेरे पिता की यादें मेरे जीवित रहने तक बरकरार रहें,’’ कठोर स्वर में बोल कर अंकिता ने कागज भैया के हाथ से ले कर असीम को दे दिए ताकि उन की कापी करवा सकें, ‘‘और हां भाभी, मां के कंगन पिताजी ने तुम्हें दिए थे अब पिताजी की अंगूठी और चेन आप मुझे दे देना निकाल कर.’’

भैयाभाभी के मुंह लटक गए. दोपहर को असीम और अंकिता ने पिताजी का पलंग, कुरसी, टेबल और कपड़े वापस उन के कमरे में रख लिए. नया गद्दा पलंग पर डलवा दिया. पिताजी के कमरे और उस के साथ लगे अध्ययन कक्ष पर नजर डाल कर अंकिता बूआ से बोली, ‘‘मेरा और आप का मायका हमेशा यही रहेगा बूआ, क्योंकि पिताजी की यादें इसी जगह पर हैं. इस की एक चाबी आप अपने पास रखना. मैं जब भी यहां आऊंगी आप भी आ जाया करना. हम यहीं रहा करेंगे.’’

बूआ ने अंकिता और असीम को सीने से लगा लिया और तीनों पिताजी को याद कर के रो दिए.

Short Story: मोटी मन को भा गई…

‘‘जनाब, शहनाई बजी, डोली घर आ गई. लेकिन जब बीएमडब्ल्यू के बिना डोली आई तो असमंजस में पड़ हम ने अपने दोस्त रमेश से अपनी परेशानी जाहिर की…’’

लड़की को देख कर आते ही हम ने मामाजी के कानों में डाल दिया, ‘‘मामाजी, हमें लड़की जंची नहीं. लड़की बहुत मोटी है. वह ढोल तो हम तीले. कहां तो आज लोग स्लिमट्रिम लड़की पसंद करते हैं और कहां आप हमारे पल्ले इस मोटी को बांध रहे हैं.’’

मामाजी के जरीए हमारी बात मम्मीपापा तक पहुंची तो उन्होंने कह दिया, ‘‘यह तो हर लड़की में मीनमेख निकालता है. थोड़ी मोटी है तो क्या हुआ?’’

सुन कर हम ने तो माथा ही पीट लिया. कहां तो हम ऐश्वर्या जैसी स्लिमट्रिम सुुंदरी के सपने मन में संजोए थे और कहां यह टुनटुन गले पड़ रही थी.

तभी हमारा लंगोटिया यार रमेश आ धमका. उसे पता था कि आज हम लड़की देखने जाने वाले थे. अत: आते ही मामाजी से पूछने लगा, ‘‘देख आए लड़की हमारे दोस्त के लिए? कैसी हैं हमारी होने वाली भाभी?’’

‘‘अरे भई खुशी मनाओ, क्योंकि तुम्हारे दोस्त को बीएमडब्ल्यू मिलने वाली है,’’ कह मामाजी ने चुपके से आंख दबा दी.

हम कान लगाए सब सुन रहे थे. मामाजी द्वारा आंख दबाने से अनभिज्ञ हम मन ही मन गुदगुदाए कि अच्छा, हमें बीएमडब्ल्यू मिलने वाली है. अभी तक हम लड़की के मोटी होने के कारण नाकभौं सिकोड़ रहे थे, लेकिन फिर यह सोच कर कि अभी तक मारुति पर चलने वाले हम अब बीएमडब्ल्यू वाले हो जाएंगे, थोड़ा गर्वान्वित हुए और फिर हम ने दिखावे की नानुकर के बाद हां कह दी. वैसे भी यहां हमारी सुनने वाला कौन था?

जनाब, शहनाई बजी, डोली घर आ गई. लेकिन जब बीएमडब्ल्यू के बिना डोली आई तो असमंजस में पड़ हम ने अपने दोस्त रमेश से अपनी परेशानी जाहिर की. रमेश हंसा, फिर मामाजी से नजरें मिला हमारी श्रीमतीजी की ओर इशारा कर बोला, ‘‘यही तो हैं तुम्हारी बीएमडब्ल्यू. नहीं समझे क्या? अरे पगले बीएमडब्ल्यू का मतलब बहुत मोटी वाइफ. अब समझे क्या?’’

अब्रीविऐशन कितना कन्फ्यूज करती है, हमें अब समझ आया. मजाक का पात्र बने सो अलग. हम इस मुगालते में थे कि बीएमडब्ल्यू कार मिलेगी. खैर हम ने बीएमडब्ल्यू, ओह सौरी, श्रीमतीजी के साथ गृहप्रवेश किया. हमें फोटो खिंचवाने का शौक था और फोटोजेनिक फेस भी था, मगर शादी में हमारे सारे फोटो दबे रहे. बस, दिखतीं तो सिर्फ हमारी श्रीमतीजी. गु्रप का कोई फोटो उठा कर देख लें, आसपास खड़े सूकड़ों के बीच घूंघट में लिपटी हमारी मोटी श्रीमतीजी अलग ही दिखतीं. उस पर वीडियो वाले ने भी कमाल दिखाया. उस ने डोली में हमारे पल्लू से बंधी पीछे चलती श्रीमतीजी के सीन के वक्त फिल्म ‘सौ दिन सास के’ का गाना, ‘दिल की दिल में रह गई क्याक्या जवानी सह गई… देखो मेरा हाल यारो मोटी पल्ले पै गई…’ चला दिया.

हनीमून पर मनाली पहुंचे तो होटल के स्वागतकर्ता ने हमारी खिल्ली उड़ाते हुए कहा, ‘‘आप चिंता न करें हमारे डबलबैड वाले रूम में व्यवस्था है कि एक सिंगल बैड अलग से जोड़ा जा सके.’’

हम तो खिसिया कर रह गए, लेकिन श्रीमतीजी ने रौद्र रूप दिखा दिया, बोलीं, ‘‘मजाक करते हो? खातेपीते घर की हूं…फिर डबलबैड पर इतनी जगह तो बच ही जाएगी कि बगल में ये सो सकें. इन्हें जगह ही कितनी चाहिए?’’

पता नहीं श्रीमतीजी ने हमारे पतलेपन का मजाक उड़ाया था या फिर अपनी इज्जत बढ़ाई थी, पर इस पर भी हम शरमा कर ही रह गए.

हमारी हनीमून से वापसी का दोस्तों को पता चला तो पहुंच गए हाल पूछने. न…न..हाल पूछने नहीं बल्कि छेड़ने और फिर छेड़ते हुए बोले, ‘‘भई, कैसी है तुम्हारी बीएमडब्ल्यू?’’

अब्रीविऐशन के धोखे और लालच में लिए गए फैसले ने हमें एक बार फिर कोसा. हम अपनी बेचारगी जताते खीजते हुए बोले, ‘‘दोस्तों, हनीमून पर घूमनेफिरने, किराएभाड़े से ज्यादा तो श्रीमतीजी के खाने का बिल है. अब तुम्हीं बताओ…’’ कहते हुए जेहन में फिर वही गाना गूंज उठा कि मोटी पल्ले पै गई…

अभी हमारी बात पूरी भी न हुई थी कि हमारे दोस्त रमेश ने हमें धैर्य बंधाते हुए कहा, ‘‘बी पौजिटिव यार. क्यों आफत समझते हो? वह सुना नहीं अभिताभ का गाना, ‘जिस की बीवी मोटी उस का भी बड़ा नाम है बिस्तर पर लिटा दो गद्दे का क्या काम है…’ और फिर मोटे होने के भी अपने फायदे हैं.’’

हम इस गद्दे के आनंद का एहसास हनीमून पर कर चुके थे. सो पौजिटिव सोच बनी. पर तुरंत रमेश से पूछ बैठे, ‘‘क्या फायदे हैं मोटी बीवी होने के जरा बताना? हम तो अभी तक यही समझ पाए हैं कि मोटी बीवी होने पर खाने का खर्च बढ़ जाता है, कपड़े बनवाने के लिए 5-6 मीटर की जगह पूरा थान खरीदना पड़ता है.’’उस दिन हम टीवी देख रहे थे कि तभी घंटी बजी. हम ने दरवाजा खोला, सामने रमेश खड़ा था, अपनी  शादी का कार्ड थामे, अंदर घुसते ही हैरानी से पूछने लगा, ‘‘क्या हुआ भई छत पर तंबू क्यों लगा रखा है? खैरियत तो है न?’’

हम यह देखने बाहर जाते, उस से पहले ही श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘अरे, वह तो मैं अभीअभी अपना पेटीकोट सूखने डाल कर आई हूं.’’

सुनते ही रमेश की हंसी छूट गई. फिर हंसते हुए बोला, ‘‘हां भई, हम तो भूल ही गए थे कि अब तुम बीएमडब्ल्यू वाले हो गए हो…उस का कवर भी तो धोनासुखाना पड़ेगा, न?’’

बीएमडब्ल्यू के लालच में पड़ना हमें फिर सालने लगा. हमारी त्योरियां चढ़ गईं कि एक तो इतना बड़ा पेटीकोट, उस पर उसे तारों पर फैलाया भी ऐसे था कि सचमुच तंबू लग रहा था. फिर वही गाना मन में गूंज उठा, ‘मोटी पल्ले पै गई…’

खैर, रमेश शादी का न्योता देते हुए बोला, ‘‘समय पर पहुंच जाना दोनों शादी में.’’

जनाब, हम अपनी बीएमडब्ल्यू को मारुति में लादे पार्टी में पहुंच गए और एक ओर बैठ गए. तभी फोटोग्राफर कपल्स के फोटो लेते हुए वहां पहुंचा और हमें भी पोज देने को कहा.

आगेपीछे देख कोई पोज पसंद न आने पर वह बोला, ‘‘भाई साहब, आप भाभीजी के साथ सोफे पर दिखते नहीं…भाभीजी के वजन से सोफा दबता है और आप पीछे छिप जाते हैं. ऐसा करो आप सोफे के बाजू पर बैठ जाएं.’’

हम ने वैसा ही किया. पोज ओके हो गया, लेकिन तब तक पास पहुंच चुके दोस्त हंसते हुए बोले, ‘‘क्या यार सोफे के बाजू पर बैठे तुम ऐसे लग रहे थे जैसे भाभीजी की गोद में बैठे हो.’’

मोटे होने का एक और फायदा मिल गया था. इतने स्नैक्स निगलने के बाद भी हमारी श्रीमतीजी ने डट कर खाना खाया. सचमुच 500 के शगुन का 1000 तो वसूल ही लिया था. साथ ही एक और बात देखी. जहां अमूमन पत्नियां प्लेट भर लेती हैं और थोड़ाबहुत खा कर पति के हवाले कर देती हैं, फिनिश करने को, वहीं यहां उलटा था. श्रीमतीजी के कारण हम ने हर व्यंजन चखा.

उस दिन हम ससुराल से लौटे तो अपनी गाड़ी की जगह किसी और की गाड़ी खड़ी देख झल्लाए. तभी श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘अरे, यह तो विभा की गाड़ी है,’’ और फिर तुरंत अपने मोबाइल से विभा का नंबर मिला दिया.

पड़ोस में तीसरी मंजिल पर रहने वाली विभा महल्ले की दबंग औरत थी. सभी उस से डरते थे. विभा तीसरी मंजिल से तमतमाती नीचे आई और दबंग अंदाज में बोली, ‘‘ऐ मोटी, इतनी रात को क्यों तंग किया? कहीं और लगा लेती अपनी गाड़ी? मैं नहीं हटाने वाली अपनी गाड़ी. कौन तीसरे माले पर जाए और चाबी ले कर आए?’’

‘‘क्या कहा, मोटी…’’ कहते हुए हमारी श्रीमतीजी ने विभा को हलका सा धक्का दिया तो वह 5 कदम पीछे जा गिरी  विभा की सारी दबंगई धरी की धरी रह गई. आज तक जहां महल्ले वाले उस से नजरें भी न मिला पाते थे वहीं हमारी श्रीमतीजी ने उसे रात में सूर्य दिखा दिया था.

‘‘अच्छा लाती हूं चाबी,’’ कहती हुई वह फौरन गई और चाबी ला कर अपनी गाड़ी हटा कर हमारी गाड़ी के लिए जगह खाली कर दी. इसी के साथ ही हमें श्रीमतीजी के मोटे होने का एक और फायदा दिख गया था. हम भी कितने मूर्ख थे कि अब तक यह भी न समझ पाए कि अगर श्रीमतीजी का वजन ज्यादा है तो इन की बात का वजन भी तो ज्यादा होगा. अब महल्ले में हमारी श्रीमतीजी की दबंगई के चर्चे होने लगे. साथ ही हम भी मशहूर हो गए. हमारे मन में श्रीमतीजी के मोटापे को ले कर जो नफरत थी अब धीरेधीरे प्यार में बदलने लगी थी. अब कोई मिलता और हमारी श्रीमतीजी के लिए मोटी संबोधन का प्रयोग करता तो हम भी उसे मोटापे के फायदे गिनाने से नहीं चूकते.

उस दिन हमारी  कुलीग ज्योति किसी काम से हमारे घर आई तो हम ने श्रीमतीजी से मिलवाया, ‘‘ये हमारी श्रीमतीजी…’’

अभी इंट्रोडक्शन पूरा भी न हुआ था कि ज्योति बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘बहुत मोटी वाइफ हैं आप की,’’ और हंस दी. हमें लगा यह भी हमें बीएमडब्ल्यू के मुगालते वाला ताना मार रही है सो थोड़ा किलसे लेकिन श्रीमतीजी ने बड़े धांसू तरीके से ज्योति की हंसी पर लगाम कसी, ‘‘मेरे मोटापे को छोड़ अपनी काया की चिंता कर. मैं तो खातेपीते घर की हूं. तुझे देख तो लगता है घर में सूखा पड़ा है. कुछ खायापीया कर वरना ज्योति कभी भी बुझ जाएगी.’’

लीजिए, हमें मोटे होने का एक और फायदा मिल गया. अब कोई हमें यह ताना भी नहीं मार सकता था कि हम अपनी श्रीमतीजी को खिलातेपिलाते नहीं, बल्कि इन का मोटा होना ससुराल को खातापीता घर घोषित करता था.

आज लड़कियां स्लिमट्रिम रहने के लिए कितना खर्च करती हैं. हमारा वह खर्च भी बचता था. साथ ही उन के खातेपीते रहने से हमारी सेहत में भी सुधार होने लगा था. उस दिन टीवी देखते हुए एक चैनल पर हमारी नजर टिक गई जहां विदेश में हो रही सौंदर्य प्रतियोगिता दिखाई जा रही थी. खास बात यह थी कि यह सौंदर्य प्रतियोगिता मोटी औरतों की थी. कितनी सुंदर दिख रही थीं वे मांसल शरीर के बावजूद. हमारी श्रीमतीजी देखते ही इतराते हुए बोलीं, ‘‘देखो, बड़े ताने कसते हैं तुम्हारे यारदोस्त मुझ पर, मेरे मोटापे को ले कर छींटाकशी करते हैं, बताओ उन्हें कि मोटे भी किसी से कम नहीं.’’

हमें श्रीमतीजी की बात में फिर वजन दिखा. साथ ही उन के मोटापे में सौंदर्य भी. अब हमें मोटी श्रीमतीजी भाने लगी थीं, बीएमडब्ल्यू हमारी मारुति में समाने लगी थी.

अब हमारे विचारों में परिवर्तन हुआ. श्रीमतीजी पर प्यार आने लगा. हमारे मन में बसी ऐश्वर्या की जगह मोटी सुंदरी लेने लगी.

‘ऐश अगर सुंदरता के कारण फेमस है, तो हमारी श्रीमतीजी मोटापे के कारण. ऐश सब को लटकेझटके दिखा दीवाना बनाती है तो हमारी श्रीमतीजी अपनी दबंगई से सब को उंगलियों पर नचाती हैं. ऐश गुलाब का फूल हैं तो हमारी श्रीमतीजी गोभी का. फिर फूल तो फूल है. गुलाब का हो या फिर गोभी का. अब जेहन का गीत, ‘मोटी पल्ले पै गई…’ से बदल कर ‘मोटी मन को भा गई…’ बनने लगा.

इसी सोच के चलते उस दिन भागमभाग वाली दिनचर्या से निबट आराम से पलंग पर लेटे ही थे कि कब आंख लग गई, पता ही न चला. फिर आंख तब अचानक खुली जब श्रीमतीजी ने बत्ती बुझाने के बाद औंधे लेटते हुए अपनी टांग हमारी पतली टांगों पर रख दी. बड़ा सुकून मिला. आज के समय में कहां श्रीमतीजी थकेहारे पति के पांव दबाती हैं, लेकिन हमारी श्रीमतीजी ने अपनी टांग हमारी टांगों पर रखते ही यह काम भी कर दिया था. तभी हम ने सोचा कि आखिर यह भी तो एक फायदा ही है श्रीमतीजी के मोटे होने का बशर्ते पत्नी गद्दे की जगह रजाई न बने वरना तो कचूमर ही निकलेगा.

मधु बना विष: प्रभा बूआ ने खुद को क्यों दोषी माना

बचपन में होश संभालने के बाद पंकज ने बूआ के मुंह से यही सुना था कि ‘यह तुम्हारी मम्मी की तसवीर है. इसे प्रणाम करो’ और अब 3 साल का पंकज पूजा के कमरे में आ कर आले में रखी अपनी मां की तसवीर को एकटक देखता रहता. कभीकभी वह बूआ की गोद में चढ़ कर तसवीर पर हाथ भी फेर लेता.

पहले वह तसवीर पंकज के पिता शिवानंद के कमरे में टंगी थी क्योंकि इस के साथ उन की कुछ यादें जुड़ी थीं. कभी चित्र की नायिका ने शिवानंद से कहा भी था, ‘अब तो मैं सशरीर यहां रहती हूं. तब मेरा इतना बड़ा चित्र क्यों लगा रखा है? अब तो मैं वधू भी नहीं रही, एक बच्चे की मां बन चुकी हूं.’

शिवानंद ने तब हंसते हुए कहा था, ‘क्या करूं मेरी आंखों में तुम्हारा वही रूप समाया हुआ है.’

‘हमेशा पहले जैसा तो नहीं रहेगा,’ रश्मि बोली, ‘अब तो रूप बदल गया है.’ ‘नहीं, रश्मि. हम बूढे़ हो जाएंगे तब भी तुम ऐसी ही याद आती रहोगी,’ शिवानंद भावुक हो कर बोले, ‘पहली झलक यही तो देखी थी.’

यह सच था कि विवाह से पहले शिवानंद और रश्मि ने एक दूसरे को देखा नहीं था. रश्मि को परिवार के दूसरे लोगों ने देखा और पसंद किया. तब जयमाला की रस्म होती नहीं थी. विवाह के समय सबकुछ इतना दबादबा हुआ था कि चाह कर भी शिवानंद पत्नी को देख नहीं सके. विवाह कर घर लौटे तो अपने कमरे में टंगे चित्र में पत्नी को पहली बार देखा तो देखते ही रह गए. इस चित्र को उन के छोटे भाई सदानंद  ने खींचा था और बड़ा करा कर भाई के कमरे में लगा दिया था.

रश्मि के कई बार टोकने पर भी वह चित्र उन के शयनकक्ष में लगा ही रहा. 2 साल में रश्मि ने एक सुंदर से बच्चे को जन्म दिया, जिस का नाम पंकज रखा गया. पंकज भरेपूरे परिवार का दुलारा था. उस के दिन सुख से बीत रहे थे कि रश्मि में पुन: मातृत्व के लक्षण उभरे. घर में बेटा या बेटी को ले कर एक नई बहस छिड़ गई. दादी कहती कि एक बेटा और हो जाए तो पंकज को भाई मिल जाएगा. दोनों भाई उसी तरह साथ रहेंगे जैसे मेरे शिवानंदसदानंद रहे. बूआ पूछती, ‘मां, क्या बहन भाई के सुखदुख की साथी नहीं होती?’

इस तरह के हासपरिहास में 4 महीने बीत गए कि अचानक एक दिन रश्मि अपनी ही साड़ी में उलझ कर सीढि़यों से लुढ़कती हुई नीचे आ गिरी. बच्चा पेट में ही मर गया. रश्मि की चोट गहरी थी. उसे भी बचाया नहीं जा सका.

रश्मि का वधूवेश में लिया चित्र पहले जहां टंगा रहता था उस की मृत्यु के बाद भी वही टंगा रहा. नन्हा पंकज पूछता तो बूआ बहलाते हुए कहतीं, ‘मम्मी, अभी फोटो में से निकल कर आसमान में घूमने गई हैं.’

‘कैसे, प्लेन में बैठ कर?’

‘हां, बेटा.’

‘बूआ, मम्मी, घूम कर कब आएगी?’

‘बस, एकदो दिन में आ जाएगी.’

शिवानंद के विरोध पर उन का विवाह टल गया था. उस दौरान बेटी प्रभा भी शादी कर के अपनी ससुराल चली गई. मां को गृहस्थी संभालना पहाड़ लग रहा था क्योंकि बहू और बेटी के रहते हुए उन में निश्ंिचतता की आदत पड़ गई थी. मां मजबूरी में घर तो संभाल रही थी पर बेटे व पोते की तकलीफ जब देखी नहीं गई तो उन्होंने शिवानंद पर फिर से शादी कर लेने का दबाव यह सोच कर बनाया कि पत्नी आने के बाद पंकज की देखभाल हो जाएगी और शिवानंद का मन भी लग जाएगा.

शिवानंद भी थोड़ा टालमटोल के बाद फिर से विवाह के लिए तैयार हो गए.

शिवानंद की वकालत अच्छी चल रही थी. अपना बड़ा सा मकान था. पिता भी शहर के जानेमाने वकीलों में से थे. उन के विवाह के 4 वर्ष छोड़ दिए जाएं तो सब तरह से वे सुयोग्य वर थे. एक बेटा था तो उसे भी देखने वाले बहुत लोग थे.

शिवानंद की फिर से विवाह की तैयारी होने लगी. चढ़ावे के लिए नई साडि़यां और गहने आए, रश्मि के गहने भी थे जिन्हें नई बहू को देने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी.

प्रभा ने यह कहते हुए कि रश्मि भाभी के कुछ गहने चढ़ावे पर नहीं जाएंगे, अलग रख दिए.

‘तुम्हारा मन है तो बाकी मुंहदिखाई में दे देंगे,’ मां ने दुलार में कहा, ‘मांग टीका और नथ तो अभी चढ़ावे के समय जाने दो.’

‘नहीं मां, इन्हें भी अलग ही रहने दो.’ बेटी प्रभा बोली, ‘सब कुछ मुझे पंकज के विवाह में देना है.’

दुलार भरी हंसी से मां ने कहा, ‘पंकज की बहू के लिए पुराने गहने. अरे पगली, तब तक कितना नया चलन हो जाएगा.’

प्रभा मचलते हुए तब बोली थी, ‘अम्मां, यह सब अलग ही रख लें… वह लहंगाचुनरी भी, सभी कुछ मेरे कहने से.’

लाडली बेटी की बात अम्मां ने मान ली और बहू शिखा के लिए सबकुछ नया सामान चढ़ावे में भेजा गया.

अम्मां ने टोका अवश्य था कि बेटी, नई बहू क्या पंकज को उस का हिस्सा नहीं देगी. आखिर उस का हिस्सा तो रहेगा ही.

‘उस के अपने भी तो होंगे, अम्मां. यह सब अलग जमा कर दें.’

मां के मन में विवाद उठा, ‘लड़की अपने लिए तो कुछ नहीं कह रही है पर भतीजे के लिए ममता का यह रूप भी किसी को अच्छा नहीं लग रहा था.’

विवाह हुआ. शयनकक्ष सजा. कुछ याद करते हुए मां ने आदेश दिया और उस दिन रश्मि का वधूवेश में सालों से टंगा चित्र वहां से हट कर पीछे के एक कमरे में लगा दिया गया. प्रभा ने देखा तो वह विचलित हो उठी और वहां से हटा कर तसवीर को पूजा के कमरे में लगाने लगी.

पंकज ने तोतली आवाज में पूछा था, ‘बूआ का कर रही हो. मम्मी ऊपर से आएंगी तो रास्ता भूल जाएंगी न.’

‘मम्मी आ गई हैं,’ यह कहते हुए प्रभा ने पंकज को नववधू शिखा की गोद में बैठाया तो वह यह कहते हुए गोद से उतर गया, ‘नहीं, यह मेरी मम्मी नहीं हैं.’

शूल सा लगा शिखा को सौतेले बेटे का कथन. पंकज अपना हाथ छुड़ा कर  उस कमरे में चला गया जहां पहले उस की मां की तसवीर टंगी थी. पर वहां चित्र नहीं था. ‘अरे, मेरी मम्मी कहां गई,’ करुण स्वर चीत्कार कर उठा.

‘देखो पंकज, यह हैं मम्मी. तुम भूल गए. वह अब यहां आ गई हैं. सब उन की पूजा करेंगे न.’

प्रभा को लगा कि नई मां ला कर पंकज के साथ अन्याय किया गया है. पंकज के प्रति उस की अगाध ममता

ही थी जो उस ने रश्मि भाभी के  गहने शिखा भाभी को न देने की जिद की थी.

शिखा ने 2 पुत्रों और 1 पुत्री को जन्म दिया था. पंकज भी जैसेजैसे समझदार हुआ उस ने मां को मां का सम्मान ही दिया और भाईबहन को अपना माना. मन में कोई विद्वेष नहीं था, पर पूजाघर में जब भी पंकज जाता मां की तसवीर को बेहद श्रद्धा से देखता.

बीतते समय के साथ पंकज इंजीनियर बना तो विवाह के लिए रिश्ते भी आने लगे. उस की राय मांगी गई तो प्रोफेसर  की बेटी निधि उसे पसंद आई. प्रोफेसर ने शिवानंद को सपरिवार घर आने का निमंत्रण दिया. प्रभा उसी दिन ससुराल से आई थी. बोली, मैं भी भाभी के साथ लड़की देखने चलूंगी.

‘‘बूआ,’’ पंकज बोला, ‘‘मुझे कुछ जरूरी काम को पूरा करने के लिए अभी बाहर जाना है. आप और मां लड़की देखने चली जाएं. आप की पसंद मेरी पसंद होगी.’’

लड़की देखने की औपचारिकता पूरी करने के बाद एक माह के अंदर शादी हो गई और निधि दुलहन बन कर पंकज के घर आ गई. अब प्रभा ने रश्मि का चित्र पूजा घर से हटा कर पंकज के कमरे में लगा दिया.

आज सुहागरात है, यह सोच कर प्रभा ने अपनी पसंद के कपड़े निधि को पहनाए. फिर वे सभी गहने जो कभी रश्मि ने शादी के मौके पर पहने थे और जिसे आज के दिन के लिए प्रभा ने मां के पास रखवा दिए थे. निधि को गहने पहना कर देखा तो देखती रह गई. उसे लगा जैसे चित्र में से निकल कर रश्मि आ गई है. अनुकृति ही नहीं असल में है वही.

शयनकक्ष में सुहाग सेज पर प्रतीक्षा में बैठी निधि को देख कर पंकज विक्षिप्त हो उठा, ‘‘मम्मीमम्मी, तुम आ गईं.’’

पंकज के कहे शब्दों को सुन कर दरवाजे पर खड़ी भाभी और बहनें विस्मय से चीख पड़ीं. प्रभा बूआ, देखिए न पंकज को क्या हो गया है? उधर उस के सामने खड़ी निधि विस्मय, अकुलाहट, अचकचाहट से उसे देखती रह गई.

‘‘पंकज क्या है, क्या कह रहे हो? वह निधि है, तुम्हारी पत्नी,’’ बूआ बोली, ‘‘मम्मी कहां से आ गईं? पागल हो गए हो?’’

‘‘आ गई है न बूआ, देखिए न…’’

विस्मय, आश्चर्य, अनहोनी के डर से कांपती प्रभा बूआ अपने को अपराधिनी मानती हुई पंकज को घसीट कर निधि के पास कर आई और निधि का हाथ उस के हाथ में देते हुए बोली, ‘‘पंकज यह तुम्हारी पत्नी है.’’

‘‘नहीं,’’ बूआ का हाथ झटक कर निधि बोली, ‘‘इन्होंने मुझे मम्मी कहा है. मैं दूसरे संबंध की कल्पना नहीं कर सकती. मैं इन की पत्नी नहीं हो सकती,’’ कह कर वह दूसरे कमरे में चली गई.

परिवार के बडे़बूढ़ों के साथ दोस्तों और रिश्तेदारों ने भी निधि को समझाया कि वैदिक मंत्रों के बीच तुम ने सात फेरे लिए हैं, तो कहे के रिश्ते का क्या मूल्य है. बेटी, उसे नाटक समझ कर भूल जाओ.

इस बीच निधि मायके गई तो फिर ससुराल आने का नाम ही नहीं लेती थी. तब घरवालों ने ऊंचनीच समझा कर उसे किसी तरह ससुराल भेज दिया.

पंकज का भ्रम टूट जाए, इस के लिए सब तरह के उपाय किए गए. मनोचिकित्सक से परामर्श भी लिया गया. रश्मि का चित्र पंकज के कमरे से हटा कर अलमारी में बंद कर दिया गया था. रश्मि के पहने गहने और कपडे़ अलग रख दिए गए, इस के बाद सालों बीत जाने पर भी निधि के मन में पंकज के प्रति प्रणय के अंकुर न फूटे. उस के नाम से ही उसे अरुचि हो गई थी. मन बहल जाए इसलिए पिता ने बेटी को पीएच.डी. करने की प्रेरणा दी ताकि अध्ययन में व्यस्त हो कर वह अपने अतीत को भूल जाए.

उधर पंकज को भी एकदो बार अवसर दिया गया कि स्थिति में सुधार हो किंतु वह न सुधर सका. उस की ऐसी मनोदशा देख पिता शिवानंद ने उस का निधि से संबंधविच्छेद करवा दिया. कुछ सालों बाद निधि का अपने सहयोगी से प्रेमविवाह हो गया.

पंकज के मन पर जो गहरा आघात लगा था वह वर्षों के इलाज से थोड़ा बहुत सुधरा, किंतु कभीकभी वह दिमाग का संतुलन खो बैठता था. सरकारी नौकरी थी, चल रही थी, पर कभी भी उस के छूटने की आशंका बनी रहती थी. उस के पुनर्विवाह के लिए संबंध आते रहे किंतु पिता शिवानंद ने कहा कि जब तक वह पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाता वह किसी की लड़की का जीवन बरबाद नहीं करेंगे.

प्रभा बूआ अपने सौम्य, सुंदर, सुयोग्य भतीजे को पागलपन के कगार पर लाने के लिए खुद को दोषी मानती हैं. आंसू बहाती हैैं और कहती हैं, ‘‘मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे लाड़ की ऐसी परिणति होगी.’’

Romantic Story : प्रेम की इबारत

रात के अंधियारे में पूरा मांडवगढ़ अब कितना खामोश रहता है, यहां की हर चीज में एक भयानकता झलकती है. धीरेधीरे खंडहरों में तबदील होते महल को देख कर इतना तो लगता है कि ये कभी अपार वैभव और सुविधाओं की अद्भुत चमक से रोशन रहते होंगे. कभी गूंजती होंगी यहां रहने वाले सैनिकों की तलवारों की खनक, घोड़ों के टापों की आवाजें, हाथियों की चिंघाड़, जिस की गवाह हैं ये पहाडि़यां, ये दीवारें उस शौर्यगाथा की, जो यहां के चप्पेचप्पे पर बिखरी पड़ी हैं.

यहां बने महल का हर कोना, जिस ने देखे होंगे वह नजारे, युद्ध, संगीत और गायन जिस की स्वर लहरियां बिखरी होेंगी यहां की फिजा में. काश, ये खामोश गवाह बोल सकते तो न जाने कितने भेद खोल देते और खोल देते हर वह राज, जो दफन हैं इन की दीवारों में, इन के दिलों में, इन के फर्श में, मेहराबों में, झरोखों में, सीढि़यों में और यहां के ऊंचेऊंचे गुंबदों में.’’

‘‘चुप क्यों हो गए दोस्त, मैं तो सुन रहा था. तुम ही खामोश हो गए दास्तां कहतेकहते,’’ रानी रूपमती के महल के एक झरोखे ने दूसरे झरोखे से कहा.

‘‘नहीं कह पाऊंगा दोस्त,’’ पहला वाला झरोखा बोलतेबोलते खामोश हो चुका था. किंतु महल की दीवारों ने भी तन्मयता से उन की बातें सुनी थीं. आखिरकार जब नहीं रहा गया तो एक दीवार बोल ही पड़ी :

‘‘दिन भर यहां सैलानियों की भीड़ लगी रहती है. देशीविदेशी इनसानों ने हमारी छाती पर अपने कदमों के जाने कितने निशान बनाए होंगे. अनगिनत लोगों ने यहां की गाथाएं सुनी हैं, विश्व में प्रसिद्ध है यह स्थान.

‘‘मांडवगढ़ के सुल्तानों का इतिहास, उन की वीरता, शौर्य और ऐश्वर्य के तमाम किस्सों ने, जो लेखक लिख गए हैं, यहां के इतिहास को अमर कर दिया है. समूचे मांडव में बिखरा पड़ा है प्रकृति का अद्भुत सौंदर्य. नीलकंठ का रमणीक स्थान हो या हिंडोला महल की शान, चाहे जामा मसजिद की आन हो, हर दीवार, गुंबद अपने में समेटे हुए है एक ऐसा रहस्य, जहां तक बडे़बडे़ इतिहासकार भी कहां पहुंच पाए हैं.’’

‘‘हां, तुम सच कहती हो, ये कहां पहुंचे?’’ दूसरी दीवार बोली, ‘‘यह तो हम जानते हैं, मांडव का हर वह किला, उस की हर मेहराब, हर सीढ़ी, हर दीवार जो आज चुप है…जानती हो बहन, वह बेबस है. काश, कुदरत ने हमें भी जबां दी होती तो हम बोल पड़ते और वह सब बदल जाता, जो यहां के बारे में दोहराया जाता रहा है, बताया जाता रहा है, कहा जाता रहा है.

‘‘हम ने बादशाह अकबर की यात्रा देखी है. कुल 4 बार अकबर ने मांडवगढ़ के सौंदर्य का आनंद उठाया था. हम ने अपनी आंखों से देखा है उस अकबर महान की छवि को, जो आज भी हमारी आंखों में बसी हुई है. हम ने सुल्तान जहांगीर की वह शानोशौकत भी देखी है जिस का आनंद उठाया था, यहां की हवाओं ने, पत्तों ने, इस चांदनी ने.’’

पहली दीवार की तरफ से कोई संकेत न आते देख दूसरी दीवार ने पूछा, ‘‘सुनो, बहन, क्या तुम सो गईं?’’

‘‘नहीं बहन, कहां नींद आती है,’’ पहली दीवार ने एक ठंडी आह भर कर कहा.

‘‘देखो तो, रात की खामोशी में हवाएं उन मेहराबों को, झरोखों को चूमने के लिए कितनी बेताब हो जाती हैं, जहां कभी रानी रूपमती ने अपने सुंदर और कोमल हाथों से स्पर्श किया था,’’ पहली दीवार बोली, ‘‘ताड़ के दरख्तों को सहलाती हुई आती ये हवाएं धीरेधीरे सीढि़यों पर कदम रख कर महल के ऊपरी हिस्से में चली जाती हैं, जहां से संगीत की पुजारिन और सौंदर्य की मलिका रानी रूपमती कभी सवेरेसवेरे नर्मदा के दर्शन के बाद ही अपनी दिनचर्या शुरू करती थीं.’’

‘‘हां बहन, मैं ने भी देखा है,’’ दूसरी दीवार बोली, ‘‘इस हवा के पागलपन को महसूस किया है. यह रात में भी कभीकभी यहीं घूमती है. सवेरे जब सूरज की किरणों की लालिमा पहाडि़यों पर बिखरने लगती है तो यह छत पर उसी स्थान पर अपनी मंदमंद खुशबू बिखेरती है, जहां कभीकभी रूपमती जा कर खड़ी हो जाती थीं. कैसी दीवानगी है इस हवा की जो हर उस स्थान को चूमती है जहांजहां रूपमती के कदम पडे़ थे.’’

पहली दीवार कहां खामोश रहने वाली थी. झट बोली, ‘‘हां, इन सीढि़यों पर रानी की पायलों की झंकार आज भी मैं महसूस करती हूं. मुझे लगता है कि पायलों की रुनझुन सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर आ रही है.’’

दीवारों की बातें सुन कर अब तक खामोश झरोखा बोल पड़ा, ‘‘आप दोनों ठीक कह रही हैं. वह अनोखा संगीत और रागों का मिलन मैं ने भी देखा है. क्या उसे कलम के ये मतवाले देख पाएंगे? नहीं…बिलकुल नहीं.

‘‘पहाडि़यों से उतरती हुई संगीत की वह मधुर तान, बाजबहादुर के होने का आज भी मुझे एहसास करा देती है कि बाजबहादुर का संगीत प्रेम यहां के चप्पेचप्पे पर बिखरा हुआ है.’’

उपरोक्त बातचीत के 2 दिन बाद :

रात की कालिमा फिर धीरेधीरे गहराने लगी. ताड़ के पेड़ों को वही पागल हवाएं सहलाने लगीं. झरोखों से गुजर कर रूपमती के महल में अपने अंदाज दिखाने लगीं.

झरोखों से रात की यह खामोशी सहन नहीं हो रही थी. आखिरकार दीवारों की ओर देख कर एक झरोखा बोला, ‘‘बहन, चुप क्यों हो. आज भी कुछ कहो न.’’

दीवारों की तरफ से कोई हलचल न होते देख झरोखे अधीर हो गए फिर दूसरा बोला, ‘‘बहन, मुझ से तुम्हारी यह चुप्पी सहन नहीं हो रही है. बोलो न.’’

तभी झरोखों के कानों में धीमे से हवा की सरगोशियां पड़ीं तो झरोखों को लगा कि वह भी बेचैन थीं.

‘‘तुम दोनों आज सो गई हो क्या?’’ हवा ने पूरे वेग से अपने आने का एहसास दीवारों को कराया.

‘‘नहीं, नहीं,’’ दीवारें बोलीं.

‘‘देखो, आज अंधेरा कुछ कम है. शायद पूर्णिमा है. चांद कितना सुंदर है,’’ हवा फिर अपनी दीवानगी पर उतरी.

‘‘मैं आज फिर नीलकंठ गई तो वहां मुझे फूलों की खुशबू अधिक महसूस हुई. मैं ने फूलों को देखा और उन के पराग को स्पर्श भी किया. साथ में उन की कोमल पंखडि़यों और पत्तियों को भी….’’

‘‘क्या कहा तुम ने, जरा फिर से तो कहो,’’ एक दीवार की खामोशी भंग हुई.

हवा आश्चर्य से बोली, ‘‘मैं ने तो यही कहा कि फूलों की पंखडि़यों को…’’

‘‘अरे, नहीं, उस से पहले कहा कुछ?’’ दीवार ने फिर प्रश्न दोहराया.

‘‘मैं ने कहा फूलों के पराग को… पर क्या हुआ, कुछ गलत कहा?’’ हवा के चेहरे पर अपराधबोध झलक रहा था. मानो वह कुछ गलत कह गई हो. वह थम सी गई.

‘‘अरे, तुम को थम जाने की जरूरत नहीं… तुम बहो न,’’ दीवार ने उस की शंका दूर की.

हवा फिर अपनी गति में लौटने लगी.

‘‘वह जो लंबा लड़का आता है न और उस के साथ वह सांवली सी सुंदर लड़की होती है…’’

‘‘हां…हां… होती है,’’ झरोखा बोल पड़ा.

‘‘उस लड़के का नाम पराग है और आज ही उस लड़की ने उसे इस नाम से पुकारा था,’’ दीवार का बारीक मधुर स्वर उभरा.

‘‘अच्छा, इस में आश्चर्य की क्या बात है? हजारों लोग  मांडव की शान देखने आतेजाते हैं,’’ हवा ने चंचलता बिखेरी.

‘‘किस की बात हो रही है,’’ चांदनी भी आ कर अब अपनी शीतल किरणों को बिखेरने लगी थी.

‘‘वह लड़का, जो कभीकभी छत पर आ कर संगीत का रियाज करता है और वह सांवलीसलोनी लड़की उसे प्यार भरी नजरों से निहारती रहती है,’’ दीवार ने अपनी बात आगे बढ़ाई.

‘‘अरे, हां, उसे तो मैं भी देखती हूं जो घंटों रियाज में डूबा रहता है,’’ हवा ने मधुर शब्दों में कहा, ‘‘और लड़की बावली सी उसे देखती है. लड़का बेसुध हो जाता है रियाज करतेकरते, फिर भी उस की लंबीलंबी उंगलियां थकती नहीं… सितार की मधुर ध्वनि पहाडि़यों में गूंजती रहती है .’’

‘‘उस लड़की का क्या नाम है?’’ झरोखा, जो खामोश था, बोला.

‘‘नहीं पता, देखना कहीं मेरे दामन पर उस लड़की का तो नाम नहीं,’’ दीवार ने झरोखे से कहा.

‘‘नहीं, तुम्हारे दामन में पराग नाम कहीं भी उकेरा हुआ नहीं है,’’ एक झरोखा अपनी नजरों को दीवार पर डालते हुए बोला.

‘‘हां, यहां आने वाले प्रेमी जोड़ों की यह सब से गंदी आदत है कि मेरे ऊपर खुरचखुरच कर अपना नाम लिख जाते हैं, जिन की खुद की कोई पहचान नहीं. भला यों ही दीवारों पर नाम लिख देने से कोई अमर हुआ है क्या?’’ दीवार का स्वर दर्द भरा था.

‘‘कहती तो तुम सच हो,’’ शीतल चांदनी बोली, ‘‘मांडव की लगभग हर किले की दीवारों का यही हाल है.’’

‘‘हां, बहन, तुम सच कह रही हो,’’ नर्मदा की पवित्रता बोली, जो अब तक खामोशी से उन की यह बातचीत सुन रही थी.

‘‘तुम,’’ झरोखा, दीवार, हवा और शीतल चांदनी के अधरों से एकसाथ निकला.

‘‘हर जगह नाम लिखे हैं, ‘सविता- राजेश’, ‘नैना-सुनीला’, ‘रमेश, नीता को नहीं भूलेगा’, ‘रीतू, दीपक की है’, ‘हम दोनों साथ मरेंगे’, ‘हमारा प्रेम अमर है’, ‘हम दोनों एकदूसरे के लिए बने हैं.’ यही सब लिखते हैं ये प्रेमी जोडे़,’’ नर्मदा की पवित्रता ने कहा.

‘‘बडे़ कठोर प्रेमी हैं ये लोग, जिस बेदर्दी से दीवारों पर लिखते हैं, इस से क्या इन का प्रेम अमर हो गया?’’ दीवार के स्वर में अब गुस्सा था.

‘‘ये क्या जानें प्रेम के बारे में?’’ झरोखे ने कहा, ‘‘प्रेम था रानी रूपमती का. गायन व संगीत मिलन, सबकुछ अलौकिक…’’

नर्मदा की पवित्रता की मुसकान उभरी, ‘‘मेरे दर्शनों के बाद रूपमती अपना काम शुरू करती थीं, संगीत की पूजा करती थीं.’’

बिलकुल, या फिर प्रेम का बावलापन देखा है तो मैं ने उस लड़की की काली आंखों में, उस के मुसकराते हुए होंठों में’’, हवा बोली, ‘‘मैं ने कई बार उस के चंदन से शीतल, सांवले शरीर का स्पर्श किया है. मेरे स्पर्श से वह उसी तरह सिहर उठती है जिस तरह पराग के छूने से.’’

चांदनी की किरणों में हलचल होती देख कर हवा ने पूछा, ‘‘कुछ कहोगी?’’

‘‘नहीं, मैं सिर्फ महसूस कर रही हूं उस लड़की व पराग के प्रेम को,’’ किरणों ने कहा.

‘‘मैं ने छेड़ा है पराग के कत्थई रेशमी बालों को,’’ हवा ने कहा, ‘‘उस के कत्थई बालों में मैने मदहोश करने वाली खुशबू भी महसूस की है. कितनी खुशनसीब है वह लड़की, जिसे पराग स्पर्श करता है, उस से बातें करता है धीमेधीमे कही गई उस की बातों को मैं ने सुना है…देखती रहती हूं घंटों तक उन का मिलन. कभी छेड़ने का मन हुआ तो अपनी गति को बढ़ा कर उन दोनों को परेशान कर देती हूं.’’

‘‘सितार के उस के रियाज को मैं भी सुनता रहता हूं. कभी घंटों तक वह खोया रहेगा रियाज में, तो कभी डूबने लगेगा उस लड़की की काली आंखों के जाल में,’’ झरोखा चुप कब रहने वाला था, बोल पड़ा.

ताड़ के पेड़ों की हिलती परछाइयों से इन की बातचीत को विराम मिला. एक पल के लिए वे खामोश हुए फिर शुरू हो गए, लेकिन अब सोया हुआ जीवन धीरे से जागने लगा था. पक्षियों ने अंगड़ाई लेने की तैयारी शुरू कर दी थी.

दीवार, झरोखा, पर्यटकों के कदमों की आहटों को सुन कर खामोश हो चले थे.

दिन का उजाला अब रात के सूनेपन की ओर बढ़ रहा था. दीवार, झरोखा, हवा, किरण आदि वह सब सुनने को उत्सुक थे, जो नर्मदा की पवित्रता उन से कहने वाली थी पर उस रात कह नहीं पाई थी. वे इंतजार कर रहे थे कि कहीं से एक अलग तरह की खुशबू उन्हें आती लगी. सभी समझ गए कि नर्मदा की पवित्रता आ गई है. कुछ पल में ही नर्मदा की पवित्रता अपने धवल वेश में मौजूद थी. उस के आने भर से ही एक आभा सी चारों तरफ बिखर गई.

‘‘मेरा आप सब इंतजार कर रहे थे न,’’ पवित्रता की उज्ज्वल मुसकान उभरी.

‘‘हां, बिलकुल सही कहा तुम ने,’’ दीवार की मधुर आवाज गूंजी.

उन की जिज्ञासा को शांत करने के लिए पवित्रता ने धीमे स्वर में कहा.

‘‘क्या तुम सब को नहीं लगता कि महल के इस हिस्से में अभी कहीं से पायल की आवाज गूंज उठेगी, कहीं से कोई धीमे स्वर में राग बसंत गा उठेगा. कहीं से तबले की थाप की आवाज सुनाई दे जाएगी.’’

‘‘हां, लगता है,’’ हवा ने अपनी गति को धीमा कर कहा.

‘‘यहां, इसी महल में गूंजती थी रानी रूपमती की पायलों की आवाज, उस के घुंघरुओं की मधुर ध्वनि, उस की चूडि़यों की खनक, उस के कपड़ों की सरसराहट,’’ नर्मदा की पवित्रता के शब्दों ने जैसे सब को बांध लिया.

‘‘महल के हर कोने में बसती थी वीणा की झंकार, उस के साथ कोकिलकंठी  रानी के गायन की सम्मोहित कर देने वाली स्वर लहरियां… जब कभी बाजबहादुर और रानी रूपमती के गायन और संगीत का समय होता था तो वह पल वाकई अद्भुत होते थे. ऐसा लगता था कि प्रकृति स्वयं इस मिलन को देखने के लिए थम सी गई हो.

‘‘रूपमती की आंखों की निर्मलता और उस के चेहरे का वह भोलापन कम ही देखने को मिलता है. बाजबहादुर के प्रेम का वह सुरूर, जिस में रानी अंतर तक भीगी हुई थी, बिरलों को ही नसीब होता है ऐसा प्रेम…’’

‘‘उन की छेड़छाड़, उन का मिलन, संगीत के स्वरों में उन का खो जाना, वाकई एक अनुभूति थी और मैं ने उसे महसूस किया था.

‘‘मुझे आज भी ऐसा लगता है कि झील में कोई छाया दिख जाएगी और एहसास दिला जाएगी अपने होने का कि प्रेम कभी मरता नहीं. रूप बदल लेता है समय के साथ…’’

‘‘हां, बिलकुल यही सब देखा है मैं ने पराग के मतवाले प्रेम में, उस की रियाज करती उंगलियों में, उस के तराशे हुए अधरों में,’’ झरोखे ने चुप्पी तोड़ी.

‘‘गूंजती है जब सितार की आवाज तो मांडव की हवाओं में तैरने लगते हैं उस सांवली लड़की के प्रेम स्वर, वह देखती रहती है अपलक उस मासूम और भोले चेहरे को, जो डूबा रहता है अपने सितार के रियाज में,’’ दीवार की मधुर आवाज गूंजी.

‘‘कितना सुंदर लगता था बाजबहादुर, जब वह वीणा ले कर हाथों में बैठता था और रानी रूपमती उसे निहारती थी. कितना अलौकिक दृश्य होता था,’’ नर्मदा की पवित्रता ने बात आगे बढ़ाई.

इस महान प्रेमी को युद्ध और उस के नगाड़ों, तलवारों की आवाजों से कोई मतलब नहीं था, मतलब था तो प्रेम से, संगीत से. बाज बहादुर ने युद्ध कौशल में जरा भी रुचि नहीं ली, खोया रहा वह रानी रूपमती के प्रेम की निर्मल छांह में, वीणा की झंकार में, संगीत के सातों सुरों में.

‘‘ऐसे कलाकार और महान प्रेमी से आदम खान ने मांडव बड़ी आसानी से जीत लिया, फिर शुरू हुई आदम खान की बर्बरता इन 2 महान प्रेमियों के प्रति…’’

‘‘कितने कठोर होंगे वे दिल जिन्होंने इन 2 संगीत प्रेमियों को भी नहीं छोड़ा,’’ हवा ने अपनी गति को बिलकुल रोक लिया.

‘‘हां, वह समय कितना भारी गुजरा होगा रानी पर, बाज बहादुर पर. कितनी पीड़ा हुई होगी रानी को,’’ नर्मदा की पवित्रता बोली, ‘‘रानी इसी महल के कक्ष में फूटफूट कर रोई थीं.’’

‘‘आदम खान रानी के प्रस्ताव से सहमत नहीं हुआ. रानी का कहना था कि वह एक राजपूत हिंदू कन्या है. उस की इज्जत बख्शी जाए…आदम खान ने मांडव जीता पर नहीं जीत पाया रानी के हृदय को, जिस में बसा था संगीत के सुरों का मेल और बाज बहादुर का पे्रम.

‘‘जब आदम खान नियत समय पर रानी से मिलने गया तो उस ने रूपमती को मृत पाया. रानी ने जहर खा कर अमर कर दिया अपने को, अपने प्रेम को, अपने संगीत को.’’

‘‘हां, केवल शरीर ही तो नष्ट होता है, पर प्रेम कभी मरा है क्या?’’ झरोखा अपनी धीमी आवाज में बोला.

तभी दीवार की धीमी आवाज ने वहां छाने लगी खामोशी को भंग किया, ‘‘हर जगह मुझे महसूस होती है रानी की मौजूदगी, कितना कठोर होता है यह समय, जो गुजरता रहता है अपनी रफ्तार से.’’

‘‘पराग, वह लंबा लड़का, जो रियाज करने आता है और उस के साथ आती है वह सुंदर आंखों वाली लड़की. मैं ने उस की बोलती आंखों के भीतर एक मूक दर्द को देखा है. वह कहती कुछ नहीं, न ही उस लड़के से कुछ मांगती है. बस, अपने प्रेम को फलते हुए देखना चाहती है,’’ झरोखा बोला.

‘‘हां, बिलकुल सही कह रहे हो. प्रेम की तड़प और इंतजार की कसक जो उस के अंदर समाई है वह मैं ने महसूस की है,’’ हवा ने अपने पंख फैलाए और अपनी गति को बढ़ाते हुए कहा, ‘‘उस के घंटों रियाज में डूबे रहने पर भी लड़की के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती. वह अपलक उसे निहारती है. मैं जब भी पराग के कोमल बालों को बिखेर देती हूं, वह अपनी पतलीपतली उंगलियों से उन को संवार कर उस के रियाज को निरंतर चलने देती है.’’

‘‘सच, कितनी सुंदर जोड़ी है. मेरे दामन में कभी इस जोड़ी ने बेदर्दी से अपना नाम नहीं खुरचा. अपनी उदासियों को ले कर जब कभी वह पराग के विशाल सीने में खो जाती है तो दिलासा देता है पराग उस बच्ची सी मासूम सांवली लड़की को कि ऐसे उदास नहीं होते प्रीत…’’ दीवार ने कहा.

‘‘यों ही प्रेम अमर होता है, एक अनोखे और अनजाने आकर्षण से बंधा हुआ अलौकिक प्रेम खामोशी से सफर तय करता है,’’ झरोखा बोला.

हवा ने अपनी गति अधिक तेज की. बोली, ‘‘मैं उसे देखने फिर आऊंगी, समझाऊंगी कि ऐ सुंदर लड़की, उदास मत हो, प्रेम इसी को कहते हैं.’’

खामोशी का साम्राज्य अब थोड़ा मंद पड़ने लगा था, सुबह की किरणों ने दस्तक देनी शुरू जो कर दी थी

Family Story : कागज के चंद टुकड़ों का मुहताज रिश्ता

लेखिका- मीनाक्षी सिंह

Family Story: 2 साल तक रोहिणी की शादी के लिए लड़का तलाश करने के बाद जब नमित के पापा ने मनचाहा दहेज देने के लिए रोहिणी के पापा द्वारा हामी भरे जाने पर शादी के लिए हां की, तो एक बेटी के मजबूर पिता के रूप में रोहिणी के पिता रमेश बेहद खुश हुए.

अपनी समझदार व खुद्दार बेटी रोहिणी की शादी नमित के साथ कर के रमेश अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ कर पत्नी के साथ गंगा स्नान को निकल गए इन सब बातों से बेखबर कि उधर ससुराल में उन की लाड़ली को लोगों की कैसी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ रहा है.

शादी में चेहरेमोहरे पर लोगों द्वारा छींटाकशी तो आम बात है, लेकिन जब पति भी अपनी पत्नी के रंगरूप से संतुष्ट न हो, तो पत्नी के लिए लोगों के शब्दबाणों का सामना करना बड़ा मुश्किल हो जाता है.

रोहिणी सोच से बेहद मजबूत किस्म की लड़की थी. तानोंउलाहनों को धीरेधीरे नजरअंदाज करते हुए उस ने घर की जिम्मेदारी बखूबी संभाल ली थी.

कुछ महीने बाद, शादी के पहले, शिक्षक के लिए दी गई प्रतियोगिता परीक्षा का रिजल्ट आया, जिस में रोहिणी का चयन हुआ और रोहिणी एक शिक्षक बनने की दिशा में आगे बढ़ गई.

इस खुशखबरी और रोहिणी के अच्छे व्यवहार से उस के प्रति घर वालों का नजरिया बदलने लगा था. नमित भी अब रोहिणी से खुश रहने लगा था. पैसा अपने अंदर किसी के प्रति किसी का नजरिया बदलवाने का खूबसूरत माद्दा रखता है. यही अब उस घर में दृष्टिगोचर हो रहा था.

शादी के 5 साल पूरे होने को थे और रोहिणी की गोद अभी तक सूनी थी. यह बात अब आसपास और परिवार के लोगों को खटकने लगी थी, तो नमित तक भी यह खटकन पहुंचनी ही थी.

शुरू में नमित ने मां को समझाने की कोशिश की, पर दादी शब्द सुनने की उम्मीद ने एक बेटे के समझाते हुए शब्दों के सामने अपना पलड़ा भारी रखा और नमित की मां इस जिद पर अड़ी रहीं कि अब तो उन्हें एक पोता चाहिए ही चाहिए.

कहते हैं कि अगर किसी बात को बारबार सुनाया जाए, तो वही बात हमारे लिए सचाई सी बन जाती है, ठीक उसी तरह लोगों द्वारा रोहिणी के मां न बनने की बात सुनतेसुनते नमित को लगने लगा कि अब रोहिणी को मां बनना ही चाहिए और उस के दिमाग पर भी पिता बनने की ख्वाहिश गहराई से हावी होने लगी. उस ने रोहिणी से बात की और उसे चैकअप के लिए ले गया.

रोहिणी की रिपोर्ट नौर्मल आई, इस के बावजूद काफी कोशिश के बाद भी वह पिता नहीं बन सका. अब रोहिणी भी नमित पर दबाव डालने लगी कि उस की सभी रिपोर्ट नौर्मल हैं, तो एक बार उसे भी चैकअप करवा लेना चाहिए, लेकिन नमित ने उस की बात नहीं मानी. वह अपना चैकअप नहीं करवाना चाहता था, क्योंकि उस के अनुसार उस में कोई कमी हो ही नहीं सकती थी.

मां चाहती थीं कि नमित रोहिणी को तलाक दे कर दूसरी शादी कर ले. वह खुल कर तो मां की बात का समर्थन नहीं कर रहा था, पर उस के अंतर्मन को कहीं न कहीं अपनी मां का कहना सही लग रहा था. एक पति पर पिता बनने की ख्वाहिश पूरी तरह हावी हो चुकी थी.

धीरेधीरे उम्मीद की किरण लुप्त सी होने लगी थी. अब उस घर में सब चुपचुप से रहने लगे थे. खासकर रोहिणी के प्रति सभी का व्यवहार कटाकटा सा था. घर वालों के रूखे व्यवहार ने रोहिणी को भी काफी चिड़चिड़ा बना दिया था.

एक दिन नमित ने रोहिणी को समझाने की कोशिश की, ‘‘देखो रोहिणी, वंश चलाने के लिए एक वारिस की जरूरत होती है और मुझे नहीं लगता कि अब तुम इस घर को कोई वारिस दे पाओगी. इसलिए तुम तलाक के कागजात पर साइन कर दो.

‘‘और यकीन रखो, तलाक के बाद भी हमारा रिश्ता पहले जैसा ही रहेगा. हमारा रिश्ता कागज के चंद टुकड़ों का मुहताज कभी नहीं होगा. भले ही हम कानूनी रूप से पतिपत्नी नहीं रहेंगे, पर मेरे दिल में हमेशा तुम ही रहोगी.’

‘‘नाम के लिए कागज पर मेरी पत्नी, मेरे साथ काम कर रही रोजी होगी, परंतु उस से शादी का मेरा मकसद बस औलाद प्राप्ति होगा. तुम्हें बिना तलाक दिए भी मैं उस से शादी कर सकता हूं, पर तुम तो जानती हो कि हम दोनों की सरकारी नौकरी है और बिना तलाक शादी करना मुझे परेशानी में डाल कर मेरी नौकरी को खतरे में डाल सकता है.’’

‘‘तुम अपना चैकअप क्यों नहीं करवाते हो, नमित. मुझे लगता है कि कमी तुम में ही है. एक बात कहूं, तुम निहायत ही दोगले इंसान हो, शरीफ बने इस चेहरे के पीछे एक बेहद घटिया और कायर इंसान छिपा है.

‘‘कान खोल कर सुन लो, मैं तुम्हें किसी शर्त पर तलाक नहीं दूंगी. तुम्हें जो करना हो, कर लो. सारी परेशानियों को सहते हुए मैं इसी परिवार में रह

कर तुम सब के दिए कष्टों को सह

कर तुम्हारे ही साथ अपने बैडरूम

में रहूंगी.’’

‘‘नहीं, मुझ में कोई कमी नहीं हो सकती, और तलाक तो तुम्हें देना ही होगा. मुझे इस खानदान के लिए वारिस चाहिए, चाहे वह तुम से मिले या किसी और से.

‘‘अगर तुम सीधेसीधे तलाक के पेपर पर हस्ताक्षर नहीं करती हो, तो मैं तुम पर मेरे परिवार वालों को परेशान करने और बदचलनी का आरोप लगाऊंगा,’’ नमित के शब्दों का अंदाज बदल चुका था.

कुछ दिनों बाद नमित ने कोर्ट में रोहिणी पर इलजाम लगाते हुए तलाक की अर्जी दाखिल कर दी.

अब रोहिणी बिलकुल चुप सी रहने लगी थी, लेकिन तलाक मिलने तक अपने बैडरूम पर कब्जा नहीं छोड़ने के अपने फैसले पर अडिग थी.

2 महीने बाद ही उसे पता चला कि वह मां बनने वाली है. यह खबर मिलते ही नमित ने तलाक की दी हुई अर्जी वापस ले ली.

उस के अगले ही दिन रोहिणी अपना बैग पैक कर के मायके चली गई. सारी बातें सुन कर मातापिता ने समझाने की कोशिश की कि जब सबकुछ ठीक

हो रहा है, तो इस तरह की जिद सही नहीं है.

‘‘अगर आप लोगों को मेरा आप के साथ रहना पसंद नहीं है, तो मैं जल्दी ही कहीं और रूम ले कर रहने चली जाऊंगी. आप लोगों पर ज्यादा दिन बोझ बन कर नहीं रहूंगी.’’

बेटी से इस तरह की बातें सुन कर दोनों चुप हो गए.

अगले दिन शाम को घंटी बजने पर रोहिणी ने दरवाजा खोला सामने नमित था. बिना जवाब की प्रतीक्षा किए वह अंदर आ कर सोफे पर बैठ गया, तब तक रोहिणी के मातापिता भी आ चुके थे.

बात की शुरुआत नमित ने की, ‘‘रोहिणी हमारी गोद में जल्दी ही एक खूबसूरत संतान आने वाली है, तो तुम अब यह सब क्यों कर रही हो.

‘‘जब मैं ने तुम्हें तलाक देना चाहा था, तब तो तुम किसी भी शर्त पर तलाक देने को तैयार नहीं थीं, फिर अब क्या हुआ. अब जब सबकुछ सही हो रहा है, सब ठीक होने जा रहा है, तो इस तरह की जिद का क्या औचित्य?’’

‘‘नमित, तुम्हें क्या लगता है, यह बच्चा तुम्हारा है? तो मैं तुम्हें यह साफसाफ बता दूं कि यह बच्चा तुम्हारा नहीं, मेरे कलीग सुभाष का है, जो इस तलाक के बाद जल्दी ही मुझ से शादी करने वाला है.

‘‘तुम ने मुझ पर चरित्रहीनता के झूठे आरोप लगाए थे न, मैं ने तुम्हारे लगाए हर उस आरोप को सच कर के दिखा दिया. और साथ ही, यह भी दिखा दिया कि मुझ में कोई कमी नहीं, कमी तुम में है. तुम एक अधूरे मर्द हो जो अपनी कमी से पनपी कुंठा अब तक अपनी पत्नी पर उड़ेलते रहे. विश्वास न हो तो जा कर अपना चैकअप करवाओ और फिर जितनी चाहे उतनी शादियां करो.

‘‘तुम्हारे घर में तुम्हारी मां और बहन द्वारा दिए गए उन सारे जख्मों को मैं भुला देती, अगर बस तुम ने मेरा साथ दिया होता. औरत को बच्चे पैदा करने की मशीन मानने वाले तुम जैसे मर्द, मेरे तलाक नहीं देने के उस फैसले को मेरी एक अदद छत पाने की लालसा समझते रहे और मैं उसी छत के नीचे रह कर अपने ऊपर होते अत्याचारों की आंच पर तपती चली गई, अंदर से मजबूत होती चली गई. ऐसे में मुझे सहारा मिला सुभाष के कंधों का और उस ने एक सच्चा मर्द बन कर, सही मानो में मुझे औरत बनने का मौका दिया.

‘‘अब तुम्हारे द्वारा लगाए गए उन झूठे आरोपों को मैं सच्चा साबित कर के तुम से तलाक लूंगी और तुम्हें मुक्त करूंगी इस अनचाहे रिश्ते से, तुम्हें अपनी मरजी से शादी करने के लिए, जो तुम्हारे खानदान को तुम से वारिस दे सके जो मैं तुम्हें नहीं दे पाई.

‘‘अब तुम जा सकते हो. कोर्ट में मिलेंगे,’’ बिना नमित के उत्तर की प्रतीक्षा किए रोहिणी उठ कर अपने कमरे में चली गई.

मृगतृष्णा: क्या यकीन में बदल पाया मोहिनी का शक

बिंदासजीवन जीने का पर्याय थी मोहिनी. जैसेकि नाम से ही जाहिर हो रहा है मन को मोह लेने वाली सुंदर, छरहरी, लंबा कद और आकर्षक मुसकराहट बरबस ही किसी को भी अपना कायल बना लेती. मगर जीवन को जीने का अलग ही फलसफा था मोहिनी का. निडर, बेवाक, बिंदास.

कभीकभी मेरा भी मिलना होता था उस से पर मैं ने कभी ज्यादा दोस्ती नहीं बढ़ाई. रोहन के दोस्त आकाश की बीवी थी मोहिनी. मु झे कभी भी सहज नहीं लगा उस से मिलना. मेरे चेहरे पर एक खिंचाव सा आ जाता उस से मिलते समय.

मगर मोहिनी को कहां परवाह थी घरपरिवार की. उस की तरफ से तो दुनिया जाए भाड़ में. आकाश को भी सब पता था. आकाश क्या सब को सब पता था.

‘‘रागिनी, आज मोहिनी और आकाश में फिर से बहुत  झगड़ा हुआ. आकाश बहुत दुखी है मोहिनी की वजह से,’’ खाना खाते हुए रोहन ने कहा.

‘‘पता नहीं इस सब का अंत कहां होगा, मैं खुद सोचसोच कर परेशान होती हूं. कल मोहिनी के बच्चे बड़े हो जाएंगे तो उन को भी तो सब पता चलेगा. कैसे उन के सवालों के जवाब दे पाएगी.’’

एक लंबी सांस छोड़ कर रह गए दोनों पतिपत्नी. दरअसल, मोहिनी के अपने ननदोई राहुल के साथ शारीरिक संबंध थे. उस की ननद को भी शक था पर बिना किसी ठोस सुबूत से कुछ कहना नहीं चाहती थी. अपने पति और भाभी को बातोंबातों में वह कटाक्ष कर देती पर दोनों ही बात को हंसी में टाल देते. सब के सामने भी दोनों आंखोंआंखों में बहुत कुछ कह जाते. यदाकदा दोनों को मिलने का मौका मिल ही जाता, उस समय मोहिनी के चेहरे पर कुछ अलग सा ही सुरूर होता. उस की बलिष्ठ बांहों का आलिंगन उसे मदहोश कर देता. उस के होंठों की गरमी से वह पिघल जाती. राहुल की आंखों में उस के लिए प्यार और उस की बातों में मोहिनी की सुंदरता का बखान उसे तन और मन दोनों से तृप्त कर देता. इस इजहार ए मुहब्बत से आकाश कोसों दूर था. यही कारण था, जिस से मोहिनी और आकाश में दूरियां बढ़ती जा रही थीं.

मोहिनी राहुल के प्यार में मदहोश रहती और राहुल उस की कामुकता में बंधा रहता. दोनों बच्चों का कोई भी काम अटक जाता तो मोहिनी राहुल को फोन करती और राहुल भी कच्चे धागे में बंधा चला आता. दोनों पर किसी की बात का न तो कोई असर था न ही मलाल. सब दबी जबान बातें करते पर कोई मुंह पर कुछ न कहता. लिहाजा मोहिनी और आकाश में दूरियां बढ़ती जा रही थीं.

दोनों बेटे गौरव और आरव बड़े हो रहे थे. मांबाप का रोजरोज का  झगड़ा दोनों  बेटों की पढ़ाई पर भी बुरा असर डाल रहा था. आकाश भी हर वक्त दोनों की परवरिश को ले कर चिंतित रहता. बच्चों का भविष्य खराब न हो, इसी सोच ने सब जानते हुए भी आकाश को चुप करवा रखा था. गौरव और आरव के बहुत से कार्य राहुल करता था, इसलिए वे दोनों भी कुछ कह नहीं पाते और मन मसोस कर रह जाते.

हद तो तब हुई जब एक पारिवारिक समारोह में मोहिनी की मुलाकात एक नेता से हुई. अच्छीखासी साख थी नेताजी की इलाके में. राहुल की अच्छी पटती थी उन से. अकसर नेताजी के साथ किसी न किसी समारोह में जाता रहता. अचानक हुई 1-2 मुलाकातों के बाद मोहिनी की नेताजी से घनिष्ठता बढ़ने लगी. अकसर मोहिनी राहुत से नेताजी के बारे में बात करती रहती. राहुल को मोहिनी का नेताजी के बारे में बात करना खटकता था. एक तो घर में मोहिनी को ले कर कलहकलेश रहता दूसरा मोहिनी का नेताजी की तरफ बढ़ता आकर्षण. राहुल मनाता रहता, पर मोहिनी को इन सब बातों से कोई लेनादेना नहीं था.

कुछ दिन पहले गौरव ने बताया कि कालेज में उस के दाखिले में कोई अड़चन आ रही है, किसी बड़ी सिफारिश से ही यह काम हो सकता है, मोहिनी भी बहुत टैंशन में थी. अब उसे एक ही रास्ता सम झ में आ रहा था नेताजी.

बात कर के नेताजी से मिलने का समय तय किया. मोहिनी को पूरा यकीन था कि उस का काम हो जाएगा. पावर और पैसा तो मोहिनी की कमजोरी थी. अपनी खूबसूरती को भुनाना भी उसे अच्छे से आता था. रात 8 बजे नेताजी ने मोहिनी को अपने फार्महाउस में मिलने के लिए बुला लिया.

बिना किसी भूमिका के नेताजी ने कहा, ‘‘मोहिनीजी, आप बहुत खूबसूरत हैं. आप का चांद सा चेहरा, आप की कातिलाना मुस्कराहट… उफ क्या कहना. मैं तो पहली ही मुलाकात में आप का कायल हो गया था. कहिए क्या खिदमत कर सकता हूं मैं आप की?’’ नेता के मुंह से तारीफ और आंखों से वासना टपक रही थी. भंवरे की तरह वह हर फूल का रस चखने वालों में से था.

‘‘क्या आप भी…’’ कहते हुए मोहिनी ने भी एक मौन निमंत्रण दे डाला, ‘‘आप के नाम और साख की तो मैं कायल हूं सर…’’

‘‘और हम आप की खूबसूरती के दीवाने हैं.’’

‘‘दरअसल, मेरे बेटे को कालेज में दाखिला नहीं मिल रहा. अगर आप चाहें तो यह काम आसानी से कर सकते हैं.’’

‘‘बस इतनी सी बात… यह तो मेरे बाए हाथ का खेल है आप बेफिक्र हो जाएं आप का काम हो जाएगा,’’ मोहिनी के बालों में उंगलियां घुमाते हुए नेताजी ने भी अपनी इच्छा जाहिर कर दी और फिर गौरव का दाखिला बिना किसी रुकावट के हो गया.

देखतेदेखते कुछ वर्ष और बीत गए. छोटे बेटे आरव को भी अब मां की हरकतें सम झ आने लगी थीं. बड़ा बेटा गौरव अब शहर के बाहर जौब करता था, इसलिए वह भी इन बातों से अनजान तो नहीं था पर दूर था. लोगों की दबी जबान में बातें छोटे को सम झ में आती थीं, पर मां को कुछ भी नहीं कह पाता बस बातबात पर मां से  झगड़ा करता. पर मोहिनी ने जानने की कभी कोशिश नहीं की कि बेटे के स्वभाव में क्यों बदलाव आ रहा है.

एक बार आकाश कुछ दिनों के लिए औफिस के काम से कोलकाता गया. 1 सप्ताह के लिए उसे वहीं रुकना था. मोहिनी की तो जैसे लौटरी लग गई. कभी राहुल के साथ तो कभी नेताजी के साथ वक्त बिताने का पूरापूरा मौका मिल गया. देर तक पार्टी में रहना, घर में आधी रात तक वापस आना, इन सब बातों का कहां अंत था, किसे पता था.

एक दिन मोहिनी ने नेता को दोपहर को घर बुला लिया. आकाश को 1 सप्ताह बाद आना था और बच्चों को भी शाम को आना था. एकदूसरे के आलिंगन में दोनों को एहसास ही नहीं हुआ कि कब शाम हो गई. मोहिनी नेताजी की बांहों में मदमस्त थी. तभी मोहिनी का बड़ा बेटा गौरव घर आ गया. मां को आपत्तिजनक स्थिति में देख कर उस के होश उड़ गए. आज तक जो कानाफूसी होती थी, यह सच होगी उस ने कभी सोचा भी न था. उस के होश फाख्ता हो गए. पापा भी यहां नहीं थे. उस का दिमाग सुन्न हो रहा था कि पापा को पता चलेगा तो क्या होगा. घर में होने वाले हंगामे की कल्पना से ही सिहर रहा था गौरव. घर पर रुक नहीं सका और अपने एक दोस्त के घर चला गया.

अगले दिन मोहिनी ने गौरव को फोन किया तो उस ने फोन नहीं उठाया. वह अभी मां से बात नहीं करना चाहता था. बाहर जाता तो उसे यों लगता की हरकोई उस की मां के बारे में फुसफुसा रहा है. दिमाग भन्ना रहा था उस का. पर वह क्या करे सम झ नहीं आ रहा था. मम्मीपापा की हर वक्त की तकरार और दोनों के बीच न टूटने वाला सन्नाटा आज सम झ पा रहा था. कल दोस्तों में, फिर रिश्तेदारों में बदनामी होगी वह कैसे सहेगा. छोटे भाई आरव ने भी कई फोन किए, लेकिन गौरव घर नहीं आना चाहता था. एक दिन आरव गौरव को खुद लेने चला गया? ‘‘भाई तुम घर क्यों नहीं आ रहे? मां बहुत परेशान हैं.’’

‘‘नहीं आरव में घर नहीं जाऊगा, मु झे पता है मां के पास कितनी फुरसत है हमारे लिए.’’

‘‘भाई आखिर बात क्या है बताओ तो…’’

आरव के बहुत कहने पर गौरव ने सबकुछ बता दिया. मां और नेता के नाजायज  रिश्ता… सुनते ही आरव एक फीकी हंसी हसते हुए बोला, ‘‘भाई तुम्हें तो अब पता चला है मु झे तो बहुत वक्त से पता है. और तो और मेरे दोस्त के पापा से भी मां का रिश्ता है. दबी जुबान में सब की बातें, लोगों की प्रश्न पूछती आंखें और पापा की बेबसी अब बरदाश्त नहीं होती गौरव भैया… मैं खुद इस माहौल में नहीं रह सकता. मैं ने तो सोच लिया है अपनी बीए कंप्लीट होते ही चला जाऊंगा. आप भी बाहर जौब कर ही रहे हो. पापा को भी कोई इतराज नहीं है हमें बाहर भेजने में. वे भी यही चाहते हैं कि हम इस माहौल से दूर हो जाएं.’’

दोनों बच्चे शहर से बाहर रहने लगे और आकाश भी ज्यादा वक्त अपने बेटों के पास बिताने लगे. आकाश और मोहिनी एक छत के नीचे तो रहते थे, लेकिन नदी के 2 किनारों की तरह जो साथसाथ तो चले पर एक नहीं हो सके. इसलिए दोनों को कोई दुख नहीं था एकदूसरे से दूर होने का.’’

राहुल ने तो नाता तोड़ ही लिया था मोहिनी से. बच्चे और पति भी दूर हो गए. सिवा पछतावे के उस को कुछ न मिला. आकाश, गौरव और आरव को फोन करती, उन से क्षमा याचना करती पर उन को कोई लगाव नहीं था मोहिनी से. एक दिन मोहिनी ने फिर हिम्मत कर के आकाश को फोन किया, ‘‘आकाश, मु झे माफ कर दो… तुम और बच्चे लौट आओ मेरी जिंदगी में.’’

‘‘नहीं, मोहिनी अब यह नहीं हो सकता. मैं ने और मेरे बच्चों ने बहुत सहा है तुम्हारे कारण, बस अब और नहीं तुम को तुम्हें जिंदगी मुबारक. हमारी जिंदगी से तुम दूर ही रहो तो बेहतर होगा.’’

मोहिनी को अब एहसास हो रहा था कि जिन बातों में वह सुख ढूंढ़ती रही वह मृगतृष्णा और छलावे से ज्यादा कुछ न था.

मगर यह रास्ता उस ने खुद चुना था जहां से लौट कर जाना नामुमकिन था. पीछे मुड़ना तो उस ने सीखा ही नहीं था. कुछ वक्त के ठहराव के बाद वह फिर चल पड़ी अपनी ही चुनी राह पर… अपनी निडर, बिंदास और बेबाक जिंदगी जीने.

लुकाछिपी: क्या हो पाई कियारा और अनमोल की शादी

कियारा के गेट पर पांव रखते ही वाचमैन से ले कर औफिस के हर शख्स तक की आंखें चौड़ी हो जातीं. उस के अद्वितीय सौंदर्य व आकर्षक व्यक्तित्व के आगे किसी का जोर नहीं चलता. बिना डोर के सभी कियारा की ओर स्वत: खिंचे चले आते. हरकोई बस इसी प्रयास में लगा रहता कि वह कियारा को किसी भी प्रकार से आकर्षित कर ले या किसी भी बहाने से कियारा उस से बात कर ले, लेकिन कियारा अपनी ही धुन में मस्त रहती, उसे अपने हुस्न का अंदाजा था. उस से यह बात भी छिपी नहीं थी कि पूरा औफिस उस पर लट्टू है. वह हाई हील्स पहन कर इस अदा से बल खा कर चलती कि उसे देख केवल लड़कों या पुरुषों के ही दिल नहीं बल्कि लड़कियों और महिलाओं के भी दिल डोल जाते.

देश की राजधानी दिल्ली में पलीबढ़ी कियारा खुली और स्वत्रंत विचारधारा की लड़की थी जिस की वजह से कई बार लोग उसे गलत भी सम झ लेते और उस के खुलेपन का मतलब आमंत्रण सम झ लेते. उस की यही स्वच्छंदता और उस का बेबाकपन कई बार उस के लिए आफत भी बन जाता.

पिछले 2 सालों से कियारा बैंगलुरु की मल्टीनैशनल कंपनी में बतौर असिस्टैंट मार्केटिंग मैनेजर के पद पर कार्यरत थी. वह अपने घर से दूर यहां अपनी कलीग और रूममेट सलोनी के साथ रहती थी, सलोनी नागपुर से थी. वह अपने नाम के अनुरूप देखने में सांवली थी. कियारा और सलोनी दोनों एकदूसरे के विरोधाभास थे.

कियारा जितनी चंचल, शोख, बातूनी और दिल की साफ थी, सलोनी उतनी ही शांत, गंभीर और कम बोलने वाली, लेकिन काफी चालाक और मौकापरस्त थी. यह बात कियारा उस के साथ रहते हुए जान चुकी थी, लेकिन औफिस कलीग्स और उन के परिचित इस बात से अनभिज्ञ थे.

अकसर ऐसा देखा गया है जो महिला या लड़की अपने विचारों को बिना किसी हिचकिचाहट, निडर और बेबाक तौर पर बगैर किसी लागलपेट के कहती है लोग उसे खुली तिजोरी सम झ कर उस पर हाथ साफ करने की मंशा रखते हैं. यही हाल यहां भी था. हरकोई बस कियारा को फांसने में लगा रहता.

कियारा के चाहने वालों की लंबी लिस्ट थी इस बात से सलोनी अंदर ही अंदर कियारा से चिढ़ती भी थी. कभीकभी मजाक में उस से कह भी देती कि इस औफिस में क्या पूरे शहर के लड़के तो बस तु झ पर ही मरते हैं, एकाध हमारे लिए भी तो छोड़ दे.

कियारा जानती थी कि सलोनी यह बात मजाक में नहीं कह कर रही है, यह उस के अंदर का दर्द है जिसे वह मजाक का जामा पहनाए हुए है, इसलिए कियारा खिलखिला का हंसती हुई कहती कि मेरी जान तू किसी को भी दबोच ले, मु झे कोई फर्क नहीं पड़ता और मैं ने कौन सा किसी को पकड़ रखा है. मेरा दिल तो अब तक किसी पर आया ही नहीं है, हां. यह अलग बात है कि यहां हरेक का दिल मु झ पर ही अटका हुआ है.

जब भी कियारा ये सारी बातें सलोनी से कहती, वह एक और बात उस से जरूर कहती कि जब भी मु झे किसी से प्यार हो जाएगा या जिस किसी पर भी मेरा दिल आ जाएगा, मैं शादी उसी से करूंगी.

कियारा के इस बात पर सलोनी हंसने लगती और कियारा से कहती कि देख यार मेरा मानना है प्यार, महब्बत, इश्क, घूमनाफिरना यहां तक किसी के साथ फिजिकल रिलेशन रखने में भी कोई बुराई नहीं है, लेकिन शादी हमेशा वहीं करना चाहिए जहां हमारे मम्मीपापा चाहते हैं. इस से समाज में हमारी मानप्रतिष्ठा भी बनी रहती है और जीवन में मजे भी हो जाते हैं.

सलोनी का यह विचार उस के दोहरे चरित्र को दर्शाता था. एक ओर जहां सलोनी जिंदगी के मजे खुल कर लेना चाहती थी वहीं दूसरी ओर संस्कारी होने का टैग भी अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहती.

दोनों अपनेअपने सिद्धांतों और नियमों के अनुसार जी रहे थे. दोनों के विचारों में टकराव होने के बावजूद दोनों साथसाथ रहते, मूवी जाते, पार्टी करते और वीकैंड को खूब मजा भी करते. कियारा कहती मेरा तो बस यह सोचना है कि हर वह काम करो जिस में खुशी मिलती है. बस इस बात का ध्यान रखो कि हमारी खुशी से किसी को दुख न पहुंचे और किसी का भी नुकसान न हो.

दोनों यों ही अपनेअपने तरीके से जीवन का आनंद उठा रहे थे कि एक रोज लंच ब्रेक में सलोनी ने कियारा से कहा, ‘‘यार मु झे तु झ से हैल्प चाहिए, क्या तू मेरी हैल्प कर पाएगी?’’

कियारा ने बिना सोचे ही कह दिया, ‘‘तू बोल न एनी थिंग फौर यू.’’

कियारा के ऐसा कहने पर सलोनी ने उसे गले लगा लिया और बोली, ‘‘यार… आज मैं औफिस में सैकंड हाफ नहीं रहूंगी, मैं ने किसी से कुछ भी नहीं कहा है. अगर कोई कुछ पूछे तो तू संभाल लेना.’’

कियारा को कुछ सम झ नहीं आ रहा था कि आखिर बात क्या है. उस ने आश्चर्य से कहा, ‘‘लेकिन तू जा कहां रही है. हाफ डे ऐप्लिकेशन तो दे कर जा.’’

कागज का एक पन्ना कियारा के हाथों में थमाती हुई सलोनी बोली, ‘‘यह ले ऐप्लिकेशन अब मैं जाऊं?’’

‘‘लेकिन तू जा कहां रही है यह तो बता?’’ कियारा ने सलोनी से दोबारा कहा.

तब कियारा की दोनों हथेलियों को दबाती हुई सलोनी बोली, ‘‘वह मैं तु झे रूम पर आने के बाद बताऊंगी,’’ ऐसा कहती हुई तेजी से सलोनी वहां से निकल गई.

कियारा लंच ब्रेक के बाद अपने काम में लग गई. करीब 1 घंटे के बाद औफिस की एक कलीग ने कियारा से पूछा, ‘‘अरे कियारा सलोनी काफी देर से दिखाई नहीं दे रही है वह है कहां?’’

कियारा को कुछ सम झ नहीं आया कि वह  क्या कहे तो उस ने कह दिया, ‘‘उस की तबीयत थोड़ी ठीक नहीं लग रही थी, इसलिए घर चली गई.’’

बात आईगई हो गई. शाम को जब औफिस से कियारा रूम पर लौटी तब तक सलोनी नहीं आई थी. कियारा ने सलोनी को फोन किया, लेकिन उस का नंबर स्विच्ड औफ आ रहा था. कियारा ने हाथमुंह धो कर अपने लिए चाय बनाई और फिर चाय पीने के बाद थोड़ा आराम कर खाना बनाने में जुट गई. इस बीच वह हर थोड़ी देर के अंतराल में सलोनी को फोन करती रही. लेकिन हर बार सलोनी का फोन स्विच्ड औफ ही आ रहा था.

खाना बनाने के बाद कियारा सलोनी के इंतजार में गैलरी में जा खड़ी हुई. उस ने खाना भी नहीं खाया. रात के 11 बज रहे थे. तभी एक बाइक फ्लैट के सामने आ कर रुकी. रात के अंधेरे और स्ट्रीट लाइट की धीमी रोशनी में कियारा को कुछ साफ दिखाई नहीं दिया. बस वह इतना देख पाई कि उस बाइक से सलोनी उतरी.

सलोनी के रूम पर आते ही कियारा ने उस से कहा, ‘‘कहां चली गई थी… इतना देर कैसे हो गई?’’

सलोनी के चेहरे पर खुशी  झलक रही थी. उस ने कियारा के कांधों पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘चिल… यार मैं वरूण के साथ मूवी देखने गई थी और फिर वहां से वह मु झे डिनर पर ले गया इसलिए देर हो गई.’’

वरुण सुनते ही कियारा चिढ़ गई और सलोनी पर गुस्सा करती हुई बोली, ‘‘वरुण के साथ गई थी. तू पागल हो गई है क्या? वह शादीशुदा है और तू उस के साथ…’’

‘‘अरे यार कियारा तू ही तो कहती है न खुश होने का अधिकार सब को है और जिस काम को कर के खुशी मिलती है वह काम कर लेना चाहिए. तो मैं तेरा ही रूल तो फौलो कर रही हूं,’’ सलोनी बेपरवाह होती हुई बोली.

‘‘लेकिन मैं यह भी कहती हूं कि ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिस से किसी को दुख या नुकसान हो, तु झे यह बात याद नहीं,’’ कियारा थोड़ा चिढ़ती हुई बोली.

‘‘वरुण के साथ मेरे मूवी देखने से या उस के साथ डिनर करने से भला किस को दुख होने वाला है या फिर किस को नुकसान होने वाला है और तु झे क्यों बुरा लग रहा है? तेरे तो बहुत चाहने वाले हैं. तू तो जिस के साथ चाहे उस के साथ यह सब कर सकती है, लेकिन तु झे तो यह सब करना नहीं है फिर तू क्यों इतनी दुखी और परेशान हो रही है?’’ सलोनी अपने कंधे ऊंचकाती हुई बोली.

‘‘मैं परेशान इसलिए हूं क्योंकि तू ने मु झ से कहा था तू अपनी भाभी के छोटे भाई अंशु को पसंद करती है और उस से शादी करना चाहती है, फिर तू वरुण के साथ क्यों घूम रही और जरा सोच वरुण की वाइफ को पता चलेगा कि उस का पति उसे छोड़ कर तेरे साथ मूवी देखने और डिनर करने गया था तो उसे कितना दुख होगा और इस का असर उन के वैवाहिक जीवन पर भी पड़ सकता है,’’ कियारा सलोनी को सम झाती हुई बोली.

‘‘अरे यार ऐसा कुछ नहीं होगा. पहली बात तो उस की वाइफ को कभी कुछ पता ही नहीं चलेगा. मैं और वरुण रिलेशनशिप में हैं और हमारे बीच यह सब 6 महीने से चल रहा है. मेरी रूममेट हो कर तु झे कभी पता चला? औफिस में हम सब साथ रहते हैं. औफिस में अब तक किसी को पता चला? नहीं न तो उस की बीवी को कैसे पता चलेगा और कौन सी मु झे वरुण से शादी करनी है. रही बात अंशु की तो वह कभी जान ही नहीं पाएगा कि मैं यहां क्या कर रही हूं क्योंकि मैं तेरी तरह हर किसी से फ्री हो कर बात नहीं करती. मैं एक सीधी सादी कम बोलने वाली लड़की हूं.’’

सलोनी का एक और नया रूप देख कर कियारा हैरान थी. उस ने सलोनी से कुछ नहीं कहा. चुपचाप खाना खाश्स और सो गई. सुबह जब वह उठी तो उस ने देखा सलोनी दोनों के लिए चाय बना रही है. चाय बनाने के बाद दोनों ने साथ में चाय पी, लेकिन कियारा शांत रही. सलोनी चाय पीते वक्त कियारा से बात करने का प्रयास करती रही, लेकिन कियारा ने कुछ नहीं कहा.

उस के बाद वक्त पर तैयार हो कर दोनों औफिस भी आ गए. दोनों के बीच कतई असामानता थी उस के बावजूद कियारा के लिए सलोनी केवल उस की एक रूममेट नहीं उस की सहेली भी थी, जिसे वह अपने दिल की हर बात बताती, भले सलोनी उस से कई बात छिपा जाती थी. कियारा नहीं चाहती थी कि सलोनी कोई भी ऐसा काम करे जो गलत हो.

औफिस आने के बाद दोनों अपनेअपने काम में लग गईं. कियारा अपने काम में व्यस्त थी कि तभी वरुण उस के समीप आ कर बैठ गया. कियारा उसे अनदेखा कर अपने काम में लगी रही.

तभी वरुण बोला, ‘‘तुम अपनेआप को क्या सम झती हो. तुम सलोनी की लाइफ को कंट्रोल करने की कोशिश क्यों कर रही हो? वह मेरे साथ घूमे या फिर जिस के साथ चाहे उस के साथ घूमेंफिरे, तुम कौन होती हो उसे मना करने वाली? तुम खुद तो सब के साथ हंसहंस कर बातें कर सकती हो और वह मेरे साथ कहीं जा भी नहीं सकती… तुम उसे रोकनाटोकना बंद करो वरना…’’

वरुण का इतना कहना था कि कियारा  कंप्यूटर स्क्रीन पर से अपनी नजरें हटाती हुई बोली, ‘‘वरना क्या? क्या कर लोगे तुम? मु झे तुम से कोई लेनादेना नहीं है. सलोनी मेरी फ्रैंड है और उसे सहीगलत बताना मेरा फर्ज है. वह माने या न माने यह उस की मरजी. यह मेरे और उस के बीच की बात है. तुम इन सब में मत पड़ो तो अच्छा होगा वरना तुम मु झे बहुत अच्छी तरह से जानते हो, मैं अभी जोरजोर से चिल्ला कर सब को बता दूंगी कि शादीशुदा हो कर तुम्हारा अफेयर चल रहा है और तुम्हारे घर जा कर तुम्हारी बीवी को तुम्हारे सारे कारनामे बता दूंगी, फिर सोचो तुम्हारी साफसुथरी, सभ्य पुरुष की इमेज का क्या होगा जो तुम ने इस औफिस और अपने घर में बना रखी है.’’

कियारा का इतना कहना था की वरुण के माथे पर पसीना आ गया और वह चलता बना. कियारा इन 2 सालों में इतना तो जान चुकी थी कि जो जैसा दिखता है वैसा होता नहीं है. यहां ज्यादातर लोगों के चेहरे पर मुखौटे होते हैं और मुखौटे के पीछे का असली चेहरा बिलकुल अलग.

वरुण के जाते ही सलोनी आ गई और कियारा से बोली, ‘‘यह वरुण तेरे पास क्यों आया था.’’

कियारा ने सलोनी को घूर कर देखा फिर बोली, ‘‘तेरे लिए. तू ने कल रात हमारे बीच हुई सारी बातें उसे बता जो दीं.’’

सलोनी नजरें चुराती हुई बोली, ‘‘नहीं ऐसी बात नहीं है. मैं ने तो बस वरुण से इतना कहा कि तुम मु झ से बात नहीं कर रही हो,’’ फिर धीरे से सलोनी बोली, ‘‘कियारा सच बता वरुण तेरे पास क्यो आया था. कहीं तेरा और वरुण का भी…’’ कहते हुए सलोनी रुक गई.

कियारा गुस्से में बोली, ‘‘मैं तु झे कैसे सम झाऊं कि मेरा न वरुण के साथ कोई संबंध है और न ही किसी और के साथ, हां मैं मानती हूं कि मैं सब से हंस कर घुलमिल कर बात करती हूं. इस का अर्थ यह कतई नहीं है कि मेरा किसी के साथ कोई संबंध है.’’

कियारा के ऐसा कहने पर सलोनी वहां से चली गई और कियारा यह सोचने लगी कि आखिर लोगों की मानसिकता इतनी संकीर्ण क्यों है? क्यों हरकोई यह सम झ लेता है कि जो लड़की सभी से फ्रीली बात करती है, हंसती, मुसकराती है वह चालू ही होगी या अवश्य ही उस का किसी न किसी के साथ कोई संबंध होगा ही और जो कम बोलती है सब के सामने छुईमुई बनी रहती है उस का किसी से कोई संबंध हो ही नहीं सकता.

इसी तरह से हर दिन अपने पीछे एक नई कहानी गढ़ते हुए गुजर रही थी. हरकोई बस कियारा को पाना चाहता था, लेकिन कियारा किसी के हाथ नहीं आ रही थी और सलोनी कपड़ों की तरह अपने बौयफ्रैंड बदल रही थी. जब भी कोई कियारा को पाने के अपने मंसूबे में नाकामयाब होता, वह कियारा को ही भलाबुरा कहने लगता और उस में ही कई खोट निकालने लगता बिलकुल वैसे ही जैसे अंगूर को न पा कर लोमड़ी कहती फिरती कि अंगूर खट्टे हैं.

कियारा से संबंध जोड़ने में असफल हुए लड़के व पुरुष सलोनी को आजमाते और सलोनी उसे एक अवसर के रूप में लेती और उस का भरपूर आनंद उठाती. साथ ही साथ सलोनी हरेक के संग सारी हदें लांघने में भी पीछे नहीं रहती. अब कियारा भी सलोनी से कुछ कहना या उसे सम झाना छोड़ चुकी थी, लेकिन दोनों के बीच दोस्ती अब भी बरकरार थी.

अचानक एक दिन औफिस के किसी काम से कियारा को अपने ही विभाग के दूसरे अनुभाग में जाना पड़ा, जहां उस की मुलाकात अनमोल नाम के एक ऐसे शख्स से हुई जिस से मिल कर कियारा को पहली बार लगा कि उस व्यक्ति ने उसे गलत नजरों से नहीं देखा और कियारा अपना दिल उसी पल उसे दे बैठी.

कियारा अपने अनुभाग में आते ही फौरन सलोनी के पास जा पहुंची और उसे अपना हाले दिल व अनमोल के बारे में बताने लगी.

यह सुनते ही सलोनी हंसती हुई बोली, ‘‘वाऊ… आखिर तु झे भी प्यार हो ही गया. अनमोल और तु झे मिलाने में मैं तेरी मदद कर सकती हूं.’’

यह सुनते ही कियारा बोली, ‘‘प्लीज बता न कैसे?’’

तब सलोनी थोड़ा इतराती हुई बोली, ‘‘मैं अनमोल के रूममेट को जानती हूं. पहले

वह तेरा दीवाना था और आजकल मेरा है.’’

कियारा आश्चर्य से बोली, ‘‘कौन?’’

सलोनी मुसकराती हुई बोली, ‘‘अजय.’’

कियारा मुंह बनाती हुई बोली, ‘‘वह… अजय.’’

‘‘हां अजय… अजय और अनमोल रूममेट भी हैं और फ्रैंड भी. अनमोल से तो मैं उस के रूम में कई बार मिल चुकी हूं. जब भी अजय से मिलने जाती हूं अकसर मेरी मुलाकात अनमोल से होती है और अनमोल तो तु झे भी अच्छी तरह से जानता है.’’

यह सुन कर कियारा को थोड़ा अजीब सा लगा क्योंकि अनमोल से बातें करते हुए उसे एक क्षण के लिए भी इस बात का एहसास नहीं हुआ कि अनमोल उसे जानता है.

वह यह सोच ही रही थी की कियारा के क्लासमेट संदीप का फोन आ गया. संदीप उस का स्कूल फ्रैंड था, उस के शहर दिल्ली से था और वह भी यहां बैंगलुरु की ही एक आईटी कंपनी में था. अकसर संदीप वीकैंड पर या फिर जब भी फ्री होता कियारा के साथ समय स्पैंड करने आ जाता या कियारा उस के पास चली जाती. दोनों के बीच इतना अच्छा तालमेल था कि लोगों को संदेह होता कि शायद संदीप और कियारा के बीच संबंध है.

कियारा के फोन रिसीव करते ही संदीप बोला, ‘‘हाय? किया क्या कर रही हो?’’

यहां बैंगलुरु में संदीप ही था जो कियारा को किया नाम से पुकारता था. उस के केवल कुछ खास दोस्त ही थे जो उसे किया पुकारते थे. उन में से एक संदीप भी था.

‘‘कुछ नहीं बस औफिस में हूं.’’

‘‘आज शाम मैं फ्री हूं डिनर पर चलोगी? बहुत दिनों से हम ने साथ डिनर नहीं किया है,’’ संदीप खुश होते हुए बोला.

कियारा डिनर के लिए मना कर देना चाहती थी क्योंकि उस का मन विचलित था, लेकिन वह संदीप को दुखी नहीं करना चाहती थी इसलिए बोली, ‘‘हां ठीक है. कहो मु झे कहां आना है?’’

‘‘अरे यार तुम्हें कहीं आने की जरूरत नहीं. मैं आ जाऊंगा तु झे लेने फिर साथ चलेंगे,’’ संदीप आत्मीयता और अपना पूरा हक जताते हुए बोला.

‘‘ओके आई विल वेट,’’ कह कर कियारा ने फोन रख दिया.

कियारा के फोन रखते ही सलोनी शरारती अंदाज में मुसकराती हुई बोली, ‘‘संदीप का फोन था?’’

कियारा के हां कहने पर सलोनी उसे छेड़ती हुई बोली, ‘‘क्या बात है कहां चलने को कह रहा है हीरो… तेरी तो ऐश है यार, संदीप जैसा हैंडसम लड़का भी तु झ पर ही मरता है और मु झ से ठीक से बात भी नहीं करता.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है वी आर जस्ट ए गुड फ्रैंड. तू भी साथ चलना… मजा आएगा.’’

डेढ़ साल पहले जब सलोनी संदीप से मिली थी तब से वह संदीप को आकर्षित करने का प्रयास कर रही थी, लेकिन विफल ही रही. उसे इस बात से बहुत चिढ़ है कि संदीप का ध्यान केवल कियारा की ओर ही रहता है, लेकिन उस ने कभी कियारा को इस बात का आभास नहीं होने दिया.

‘‘ठीक है तू कह रही है तो मैं भी चलती हूं वरना संदीप के साथ कहीं जाना मु झे पसंद नहीं.’’

सलोनी के ऐसा कहने पर कियारा ने कोई जवाब नहीं दिया और फिर दोनों अपनेअपने काम में लग गईं.

शाम को औफिस से लौटने के बाद कियारा डिनर पर जाने के लिए तैयार होने लगी.

तभी उस ने देखा सलोनी हैडफोन लगा कर शांत बैठी हुई है. यह देख कियारा ने कहा, ‘‘अरे संदीप आने ही वाला है तू रैडी कब होगी?’’

‘‘नहीं मैं नहीं चल रही, मेरा मन नहीं कर रहा. तुम जाओ मेरी वजह से तुम अपना प्रोग्राम ड्राप मत करो,’’ सलोनी गंभीर होती हुई बोली.

‘‘क्या हुआ? कुछ है तो बता न मैं संदीप को डिनर के लिए मना कर दूंगी,’’ कियारा बोली.

‘‘अरे कुछ नहीं तू जा न… आई विल मैनेज,’’ सलोनी के ऐसा कहने पर कियारा अकेले ही संदीप के साथ डिनर पर चली गई.

जब वह डिनर से लौटी तो उस ने देखा सलोनी काफी खुश लग रही थी. कियारा को कुछ सम झ नहीं आया कि आखिर इन 2 घंटों में ऐसी क्या बात हो गई जो शांत उदास सलोनी अचानक इतनी खुश लग रही है. कियारा उस से यह जानना चाहती थी लेकिन चुप रही.

अगले दिन औफिस में अभी कियारा ने अपना डैस्कटौप खोला ही था कि वहां अनमोल आ गया. अनमोल को देखते ही सलोनी की धड़कनें तेज हो गईं. ऐसा पहली बार हुआ था

जब कियारा का दिल किसी के लिए इतना अधीर हुए जा रहा था. कियारा अपनी सीट से उठ खड़ी हुई और बोली, ‘‘अनमोल तुम? कहो कुछ काम है?’’

अनमोल ने सपाट सा जवाब दिया, ‘‘नहीं बस यों ही तुम से मिलने आ गया.’’

यह सुनते ही कियारा के आंखों में चमक आ गई और औफिस के बाकी लोगों के कान खड़े हो गए, कियारा थोड़ा हिचकिचाते हुए बोली, ‘‘ प्लीज हेव ए सीट.’’

कियारा के ऐसा कहते ही अनमोल बैठ गया और थोड़ी देर के लिए दोनों के बीच गहरी शांति ने स्थान ले लिया जिसे तोड़ते हुए अनमोल ने कहा, ‘‘कियारा कल रात मैं तुम से मिलने तुम्हारे फ्लैट पर आने वाला हूं यह जानते हुए भी तुम किसी संदीप के साथ डिनर पर चली गई, अगर तुम्हें मु झ से नहीं मिलना था तो फोन कर के मु झे बता भी सकती थी. सलोनी के पास तो मेरा और मेरे रूममेट अजय हम दोनों का नंबर है, लेकिन तुम इस तरह बिना बताए.

कियारा बीच में ही अनमोल को रोकती हुई बोली, ‘‘एक मिनट. एक मिनट. तुम ने मु झ से कब कहा कि तुम मु झ से मिलने आ रहे हो?’’

‘‘अरे… मैं ने सलोनी से फोन कर के कहा तो था कि मैं आ रहा हूं… तुम्हारा मोबाइल नंबर मेरे पास नहीं था, इसलिए मैं ने सलोनी से कहा था,’’ अनमोल थोड़ा हैरान होते हुए बोला.

कियारा को बात सम झने में देर नहीं लगी कि कल सलोनी उन के साथ डिनर पर क्यों नहीं गई और वह इतनी खुश क्यों लग रही थी.

कियारा के चेहरे पर दुख के भाव आ गए और वह बोली, ‘‘आई एम सौरी अनमोल मु झे नहीं पता था तुम आने वाले हो, सलोनी मु झे बताना भूल गई होगी.’’

अनमोल मुसकराते हुए बोला, ‘‘इट्स ओके अच्छा अब मैं चलता हूं.’’

अनमोल जैसे ही जाने लगा कियारा ने कहा ‘‘अनमोल फिर कभी आना हो तो…’’ ऐसा कहते हुए एक कागज का टुकड़ा उस की ओर बढ़ा दिया, जिस पर उस का फोन नंबर लिखा था. उस के बाद क्या था अनमोल और कियारा की प्यार की गाड़ी सुपरफास्ट ऐक्सप्रैस की तरह दौड़ने लगी. औफिस में भी अफसाने बनने लगे. किसी को कुछ सम झ नहीं आ रहा था. सभी के सम झ से परे थी यह बात कि आखिर किस का रिश्ता किस के साथ है.

कियारा का रिश्ता संदीप के संग है या अनमोल के संग, सलोनी कभी अजय के साथ नजर आती तो कभी अनमोल के साथ, लोगों को यह अंदाजा लगाना मुश्किल था. आखिर इन सभी पांचों में किस का संबंध किस के साथ. कियारा पहले की ही तरह संदीप के साथ आउटिंग पर जाती उस के साथ मूवी जाती और कभीकभी डिनर पर भी जाती, लेकिन जब संदीप और कियारा साथ जाते उन के साथ कोई तीसरा नहीं होता क्योंकि कोई भी संदीप के साथ कहीं जाना पसंद नहीं करता, लेकिन जब कियारा अनमोल के साथ कहीं जाती संदीप को छोड़ कर सलोनी और अजय भी साथ होते.

अनमोल को पा कर कियारा बेहद खुश थी. वह अनमोल में कुछ इस तरह डूबी हुई थी कि उस ने अपना सबकुछ अनमोल पर लुटा दिया. अपनेआप को अनमोल को समर्पित दिया. अनमोल के प्यार में कियारा इस कद्र अंधी थी कि उसे अनमोल के आगे कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था. वह यह भी देखने को तैयार नहीं थी कि संदीप भी उस से बेइंतहा मुहब्बत करता है, लेकिन यह बात अनमोल भाप चुका था और यही वजह थी कि कियारा का संदीप से मिलना उसे पसंद नहीं था.

अकसर वीकैंड पर कियारा अनमोल के फ्लैट में रात रुक जाती या जब

भी अजय नहीं होता वह अनमोल के साथ ही रातें गुजारती. अब कियारा जल्द से जल्द अनमोल के संग ब्याह के बंधन में बंध कर अपना घर बसाना चाहती थी, इसलिए एक रात जब वह अनमोल की बांहों में अपना सिर रख कर लेटी हुई थी तो उस ने अनमोल से कहा, ‘‘अनमोल अब हमें शादी कर लेनी चाहिए.’’

यह सुनते ही अनमोल कियारा के लबों पर अपने प्यार की निशानी अंकित करते हुए बोला, ‘‘माई डियर मैं भी यही सोच रहा हूं कोई तुम्हें उड़ा कर ले जाए, उस से पहले मैं तुम्हें उड़ा ले जाऊं.’’

उस के बाद अनमोल और कियारा ने अपने घर वालों के समक्ष अपनी शादी की इच्छा जाहिर की और दोनों के ही परिवार वाले भी इस शादी के लिए सहर्ष तैयार हो गए क्योंकि दोनों एक ही बिरादरी से थे और दोनों का सामाजिक स्तर भी बराबरी का था. कुछ ही हफ्तों बाद अनमोल और कियारा की सगाई हो गई और औफिस में चल रही सारी अठखेलियां कियारा और अनमोल के सगाई के बाद समाप्त हो गईं.

सलोनी की शादी भी उस की भाभी के छोटे भाई अंशु से फिक्स हो गई. यों लग रहा था जैसे सबकुछ सही हो गया है. सभी के सपनों को पंख मिल गए थे और सभी ऊंची उड़ान भरने लगे थे, लेकिन जिंदगी जितनी सरल दिखती है उतनी आसान होती कहां है. अभी जिंदगी को अपना एक अलग ही रंग दिखाना बाकी था.

तभी एक दिन कियारा किसी से कुछ भी बताए बगैर अनमोल के फ्लैट में जा पहुंची. सगाई के बाद से अनमोल के फ्लैट की एक चाबी कियारा के पास भी थी. फ्लैट पहुंच कर जैसे ही उस ने दरवाजा खोला और कियारा की आंखों ने जो देखा उसे देख कियारा को अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ. सलोनी को अनमोल की बांहों में देख कियारा स्तब्ध रह गई. उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि सलोनी और अनमोल उस के साथ ऐसा करेंगे. वह जानती थी कि सलोनी हर हफ्ते बौयफ्रैंड बदलती है, लेकिन वह यह नहीं जानती थी कि अनमोल और सलोनी उस की पीठ पीछे लुकाछिपी का ऐसा गंदा खेल खेल रहे हैं. वह सम झती थी कि अजय और सलोनी के बीच में कुछ है शायद इसलिए सलोनी बारबार अनमोल के फ्लैट में अजय से मिलने जाती है. उसे तो कभी भनक तक नहीं लगी कि सलोनी और अनमोल उसे धोखा दे रहे हैं.

अनमोल और सलोनी के बीच का यह दृश्य देखने के बाद कियारा वहां से उलटे पांव अपने फ्लैट पर लौट आई. यह देख अनमोल और सलोनी भी उस के पीछे भागते हुए आए.

अनमोल अपनी सफाई देते हुए बोला, ‘‘देखो कियारा मैं और सलोनी

केवल फिजिकल रिलेशनशिप में हैं और कुछ नहीं, मैं  शादी सिर्फ और सिर्फ तुम से ही करना चाहता हूं और केवल तुम से ही करूंगा, किसी और से नहीं.’’

तभी सलोनी बोली, ‘‘हां कियारा मेरे और अनमोल के बीच में कुछ नहीं है. मेरा अजय और अनमोल के साथ एकजैसा ही रिलेशन है. तू तो जानती है न मेरा ऐसा रिलेशन कितनों के साथ रहा है. मैं ने तु झ से कहा भी था कि मैं किसी के साथ भी रिलेशनशिप में रहूं पर शादी अपनी कास्ट, अपनी बिरादरी के लड़के से ही करूंगी और तु झे भी ऐसा ही करना चाहिए. मु झे देख इतनों के साथ रिलेशन में होने के बावजूद मैं शादी तो अंशु से ही कर रही हूं.’’

यह सब चल ही रहा था कि संदीप भी वहां आ गया. संदीप को देखते ही कियारा उस से लिपट गई. यह देख अनमोल का पारा चढ़ गया और वह कियारा को संदीप से अलग करते हुए बोला, ‘‘ये सब क्या है कियारा? जब तक हमारी सगाई नहीं हुई थी, तब तक तुम्हारा इस संदीप के संग बेतकल्लुफ  होना मैं बरदाश्त कर सकता था, लेकिन अब ये सब नहीं चलेगा.’’

अनमोल का इतना कहना था कि कियारा की आंखों में खून खौल गया और बोली, ‘‘तुम सगाई के बाद किसी और लड़की से हमबिस्तर हो सकते हो और मैं अपने दोस्त के गले भी नहीं लग सकती?’’

अनमोल गुस्से में बोला, ‘‘नहीं, अब तुम मेरी होने वाली पत्नी हो और मैं किसी भी हाल

में नहीं चाहूंगा तुम इस संदीप के साथ कोई

रिश्ता रखो.’’

यह सुनते ही कियारा संदीप की ओर देखने लगी. आज पहली बार संदीप की आंखों में

कियारा अपने लिए प्यार देख पाई थी. कियारा थोड़ी देर चुप रही फिर बोली, ‘‘अनमोल अभी हमारी शादी हुई नहीं है और शादी से पहले मेरी एक शर्त है.’’

अनमोल ने कहा, ‘‘कैसी शर्त?’’

संदीप और सलोनी आश्चर्य से कियारा को देखने लगे. तभी कियारा बोली, ‘‘मैं शादी से पहले एक रात संदीप के साथ अकेले गुजारना चाहती हूं.’’

कियारा का इतना कहना था कि सभी की भौंहें तन गईं. कियारा को  झं झोड़ते हुए संदीप बोला, ‘‘पागल हो गई हो क्या? कुछ भी बोल रही हो…’’

तभी अनमोल बोला, ‘‘यह कैसी बेकार की शर्त

है. यह नहीं हो सकता. मेरी होने वाली बीवी किसी

पराए मर्द के साथ रात नहीं गुजार सकती.’’

‘‘मेरा होने वाला पति अगर पराई लड़की के साथ रात गुजार सकता है तो मैं क्यों नहीं? यदि शादी होगी तो इसी शर्त पर होगी नहीं तो नहीं होगी,’’ कहते हुए कियारा ने अपनी उंगली पर पहनी सगाई की अंगूठी निकाल कर अनमोल को थमा दी.

अनमोल ने फिर आगे कुछ नहीं कहा क्योंकि उसे यह शर्त मंजूर नहीं थी. वह कियारा को छोड़ सकता था, इस शादी को भी तोड़ सकता था, लेकिन एक ऐसी लड़की से शादी करने को तैयार नहीं था जो एक रात किसी दूसरे लड़के के साथ गुजार कर आई हो. अनमोल ने शर्त मानने से मना कर दिया.

तभी कियारा बोली, ‘‘हर लड़का एक ऐसी लड़की से शादी करना चाहता है जो लड़की जिस्मानी तौर पर पाक साफ हो, चाहे उस का खुद का कितनी भी लड़कियों के साथ जिस्मानी संबंध क्यों न हो. एक लड़की कई लड़कों से संबंध रखने के बाद शादी अपनी ही जातबिरादरी और धर्म में करना चाहती है ताकि समाज में उस की मानप्रतिष्ठा बनी रहे यह कैसी दोहरी मानसिकता है? यह कैसी सोच है? मु झे इस दोहरी सोच का हिस्सा नहीं बनना.

कियारा की शर्तों पर अनमोल ने उस से शादी करने से इनकार कर दिया.

तभी संदीप बोला, ‘‘कियारा अनमोल सच कह रहा है, मैं ने आज तक तुम से यह

बात छिपाई कि मैं तुम से प्यार करता हूं. आज तुम यह बात जान चुकी हो, इसलिए पूछ रहा हूं क्या तुम एक विजातीय लड़के के संग यानी मेरे संग शादी करना चाहोगी?’’

संदीप के ऐसा कहते ही कियारा बोली, ‘‘संदीप क्या तुम यह जानते हुए भी मु झ से शादी करना चाहोगे कि मैं ने अपनी कई रातें अनमोल के साथ गुजारी हैं और मैं पाक साफ नहीं हूं?’’

‘‘प्यार तो बस प्यार होता है कियारा इस में किस ने किस के साथ रात गुजारी है यह नहीं देखा जाता, तुम ने किस के साथ कितनी रातें गुजारी हैं इस से मु झे कोई फर्क नहीं पड़ता. मन की पवित्रता ही सब से बड़ी पवित्रता है और मैं यह बहुत अच्छी तरह से जानता हूं कि तुम दिल से पाक साफ हो, पवित्र हो और अपने जीवनसाथी के प्रति सदा ईमानदार थी और रहोगी. मु झे और क्या चाहिए,’’ ऐसा कहते हुए संदीप ने अपना हाथ कियारा की ओर बढ़ा दिया और कियारा ने बिना देर किए उस का हाथ थाम लिया. उस के बाद दोनों एकदूसरे की बांहों को थामे वहां से निकल गए. अनमोल और सलोनी उन्हें जाते हुए देखते रहे.

खुली छत: कैसे पतिपत्नी को करीब ले आई घर की छत

रमेश का घर ऐसे इलाके में था जहां हमेशा ही बिजली रहती थी. इसी इलाके में राजनीति से जुड़े बड़ेबड़े नेताओं के घर जो थे. पिछले 20 सालों से रमेश अपने इसी फ्लैट में रह रहा है. 15 वर्ष मातापिता साथ थे और अब 5 वर्षों से वह अपनी पत्नी नीना के साथ था. उन का फ्लैट बड़ा था और साथ ही 1 हजार फुट का खुला क्षेत्र भी उन के पास था.

7वीं मंजिल पर उन के पास इतनी खुली जगह थी कि लोग ईर्ष्या कर उठते थे कि उन के पास इतनी ज्यादा जगह है.

रमेश के पिता का बचपन गांव में बीता था और उन्हें खुली जगह बहुत अच्छी लगती थी. रिटायर होने से पहले उन्होंने इसी फ्लैट को चुना था, क्योंकि इस में उन के हिस्से इतना बड़ा खुला क्षेत्र भी था. दोस्तों और रिश्तेदारों ने उन्हें समझाया था कि इस उम्र में 7वीं मंजिल पर घर लेना ठीक नहीं है. यदि कहीं लिफ्ट खराब हो गई तो बुढ़ापे में क्या करोगे पर उन्होंने किसी की भी नहीं सुनी थी और 1 लाख रुपए अधिक दे कर यह फ्लैट खरीद लिया था.

पत्नी ने भी शिकायत की थी कि अब बुढ़ापे में इतनी बड़ी जगह की सफाई करना उन के बस की बात नहीं है. नौकरानियां तो उस जगह को देख कर ही सीधेसीधे 100 रुपए पगार बढ़ा देतीं. पर गोपाल प्रसाद बहुत प्रसन्न रहते. उन की सुबह और शामें उसी खुली छत पर बीततीं. सुबह का सूर्योदय, शाम का पहला तारा, पूर्णिमा का पूरा चांद, अमावस्या की घनेरी रात और बरसात की रिमझिम फुहारें उन्हें रोमांचित कर जातीं.

उस छत पर उन्होंने एक छोटा सा बगीचा भी बना लिया था. उन के पास 50 के करीब गमले थे, जिस में  तुलसी, पुदीना, हरी मिर्च, टमाटर, रजनीगंधा, बेला, गुलाब और गेंदा आदि सभी तरह के पौधे लगा रखे थे. हर पेड़पौधे से उन की दोस्ती थी. जब वह उन को पानी देते तो उन से मन ही मन बातें भी करते जाते थे. यदि किसी पौधे को मुरझाया हुआ देखते तो बड़े प्यार से उसे सहलाते और दूसरे दिन ही वह पौधा लहलहा उठता था. वह जानते थे कि प्यार की भाषा को सब जानते हैं.

मातापिता के गुजर जाने के बाद से घर की वह छत उपेक्षित हो गई थी. रमेश और नीना दोनों ही नौकरी करते थे. सुबह घर से निकलते तो रात को ही घर लौटते. ऐसे में उन के पास समय की इतनी कमी थी कि उन्होंने कभी छत वाला दरवाजा भी नहीं खोला. गमलों के पेड़पौधे सभी समाप्त हो चुके थे. साल में एक बार ही छत की ठीक से सफाई होती. उन का जीवन तो ड्राइंगरूम तक ही सिमट चुका था. छुट्टी वाले दिन यदि यारदोस्त आते तो बस, ड्राइंगरूम तक ही सीमित रहते. छत वाले दरवाजे पर भी इतना मोटा परदा लटका दिया था कि किसी को भी पता नहीं चलता कि इस परदे के पीछे कितनी खुली जगह है.

नीना भी पूरी तरह से शहरी माहौल में पली थी, इसलिए उसे कभी इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि उस के ससुर उन के लिए कितना अमूल्य खजाना छोड़ गए हैं. काम की व्यस्तता में दोनों ने परिवार को बढ़ाने की बात भी नहीं सोची थी पर अब जब रमेश को 40वां साल लगा और उसे अपने बालों में सफेदी झलकती दिखाई देने लगी तो उस ने इस ओर ध्यान देना शुरू किया. अब नीना भी उस से सहमत थी, पर अब वक्त उन का साथ नहीं दे रहा था. नीना को गर्भ ठहर ही नहीं रहा था. डाक्टरों के भी दोनों ने बहुत चक्कर लगा लिए. काफी दवाएं खाईं. डी.एम.सी. कराई. स्पर्म काउंट कराया. काम के टेंशन के साथ अब एक नया टेंशन और जुड़ गया था. दोनों की मेडिकल रिपोर्ट ठीक थी फिर भी उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी. अब उन के डाक्टरों की एक ही सलाह थी कि आप दोनों तनाव में रहना छोड़ दें. आप दोनों के दिमाग में बच्चे की बात को ले कर जो तनाव चल रहा है वह भी एक मुख्य कारण हो सकता है आप की इच्छा पूरी न होने का.

इस मानसिक तनाव को दूर कैसे किया जाए? इस सवाल पर सब ओर से सलाह आती कि मशीनी जिंदगी से बाहर निकल कर प्रकृति की ओर जाओ. अपनी रोजमर्रा की पाबंदियों से निकल कर मुक्त सांस लेना सीखो. कुछ व्यायाम करो, प्रकृति के नजदीक जाओ आदि. लोगों की सलाह सुन कर भी उन दोनों की समझ में नहीं आता था कि इन पर अमल कैसे किया जाए.

इसी तरह की तनाव भरी जिंदगी में वह रात उन के लिए एक नया संदेश ले कर आई. हुआ यों कि रात को 1 बजे अचानक ही बिजली चली गई. ऐसा पहली बार हुआ था. ऐसी स्थिति से निबटने के लिए वे दोनों पतिपत्नी तैयार नहीं थे, अब बिना ए.सी. और पंखे के बंद कमरे में दोनों का दम घुटने लगा. रमेश उठा और अपने मोबाइल फोन की रोशनी के सहारे छत के दरवाजे के ताले की चाबी ढूंढ़ी और दरवाजा खोला. छत पर आते ही जैसे सबकुछ बदल गया.

खुली छत पर मंदमंद हवा के बीच चांदनी छिटकी हुई थी. आधा चंद्रमा आकाश के बीचोंबीच मुसकरा रहा था. रमेश अपनी दरी बिछा कर सो गया. उस ने अपनी खुली आंखों से आकाश को, चांद को और तारों को निहारा. आज 20-25 वर्षों बाद वह ऐसे खुले आकाश के नीचे लेटा था. वह तो यह भी भूल चुका था कि छिटकी हुई चांदनी में आकाश और धरती कैसे नजर आते हैं.

बिजली जाने के कारण ए.सी. और पंखों की आवाज भी बंद थी. चारों ओर खामोशी छाई हुई थी. उसे अपनी सांस भी सुनाई देने लगी थी. अपनी सांस की आवाज सुननेके लिए ही वह आतुर हो उठा. रमेश को लगा, जिन सांसों के कारण वह जीवित है उन्हीं सांसों से वह कितना अपरिचित है. इन्हीं विचारों में भटकतेभटकते उसे लगा कि शायद इसे ही ध्यान लगाना कहते हैं.

उस के अंदर आनंद का इतना विस्तार हो उठा कि उस ने नीना को पुकारा. नीना अनमने मन से बाहर आई और रमेश के साथ उसी दरी पर लेट गई. रमेश ने उस का ध्यान प्रकृति की इस सुंदरता की ओर खींचा. नीना तो आज तक खुले आकाश के नीचे लेटी ही नहीं थी. वह तो यह भी नहीं जानती थी कि चांदनी इतनी धवल भी होती है और आकाश इतना विशाल. अपने फ्लैट की खिड़की से जितना आकाश उसे नजर आता था बस, उसी परिधि से वह परिचित थी.

रात के सन्नाटे में नीना ने भी अपनी सांसों की आवाज को सुना, अपने दिल की धड़कन को सुना, बरसती शबनम को महसूस किया और रमेश के शांत चित्त वाले बदन को महसूस किया. उस ने महसूस किया कि तनाव वाले शरीर का स्पर्श कैसा अजीब होता है और शांत चित्त वाले शरीर का स्पंदन कैसा कोमल होता है. दोनों को मानो अनायास ही तनाव से छुटकारा पाने का मंत्र हाथ लग गया.

वह रात दोनों ने आंखों ही आंखों में बिताई. रमेश ने मन ही मन अपने पिता को इस अनमोल खजाने के लिए धन्यवाद दिया. आज पिता के साथ गुजारी वे सारी रातें उसे याद हो आईं जब वह गांव में अपने पिता के साथ लेट कर सुंदरता का आनंद लेता था. पिता और दादा उसे तारों की भी जानकारी देते जाते थे कि उत्तर में वह ध्रुवतारा है और वे सप्तऋषि हैं और  यह तारा जब चांद के पास होता है तो सुबह के 3 बजते हैं और भोर का तारा 4 बजे नजर आता है. आज उस ने फिर से वर्षों बाद न केवल खुद भोर का तारा देखा बल्कि पत्नी नीना को भी दिखाया.

प्रकृति का आनंद लेतेलेते कब उन की आंख लगी वे नहीं जान पाए पर सुबह सूर्यदेव की लालिमा ने उन्हें जगा दिया था. 1 घंटे की नींद ले कर ही वे ऐसे तरोताजा हो कर उठे मानो उन में नए प्राण आ गए हों.

अब तो तनावमुक्त होने की कुंजी उन के हाथ लग गई. उसी दिन उन्होंने छत को धोपोंछ कर नया जैसा बना दिया. गमलों को फिर से ठीक किया और उन में नएनए पौधे रोप दिए. बेला का एक बड़ा सा पौधा लगा दिया. रमेश तो अपने अतीत से ऐसा जुड़ा कि आफिस से 15 दिन की छुट्टी ले बैठा. अब उन की हर रात छत पर बीतने लगी. जब अमावस्या आई और रात का अंधेरा गहरा गया, उस रात को असंख्य टिमटिमाते तारों के प्रकाश में उस का मनमयूर नाच उठा.

धीरेधीरे नीना भी प्रकृति की इस छटा से परिचित हो चुकी थी और वह भी उन का आनंद उठाने लगी थी. उस ने  भी आफिस से छुट्टी ले ली थी. दोनों पतिपत्नी मानो एक नया जीवन पा गए थे. बिना एक भी शब्द बोले दोनों प्रकृति के आनंद में डूबे रहते. आफिस से छुट्टी लेने के कारण अब समय की भी कोई पाबंदी उन पर नहीं थी.

सुबह साढ़े 4 बजे ही पक्षियों का कलरव सुन कर उन की नींद खुल जाती. भोर के टिमटिमाते तारों को वे खुली आंखों से विदा करते और सूर्य की अरुण लालिमा का स्वागत करते. भोर के मदमस्त आलम में व्यायाम करते. उन के जीवन में एक नई चेतना भर गई थी.

छत के पक्के फर्श पर सोने से दोनों की पीठ का दर्द भी गायब हो चुका था अन्यथा दिन भर कंप्यूटर पर बैठ कर और रात को मुलायम गद्दों पर सोने से दोनों की पीठ में दर्द की शिकायत रहने लगी थी. अनायास ही शरीर को स्वस्थ रखने का गुर भी वे सीख गए थे.

ऐसी ही एक चांदनी रात की दूधिया चांदनी में जब उन के द्वारा रोपे गए बेला के फूल अपनी मादक गंध बिखेर रहे थे, उन दोनों के शरीर के जलतत्त्व ने ऊंची छलांग मारी और एक अनोखी मस्ती के बाद उन के शरीरों का उफान शांत हो गया तो दोनों नींद के गहरे आगोश में खो गए थे. सुबह जब वे उठे तो एक अजीब सा नशा दोनों पर छाया हुआ था. उस आनंद को वे केवल अनुभव कर सकते थे, शब्दों में उस का वर्णन हो ही नहीं सकता था.

अब उन की छुट्टियां खत्म हो गई थीं और उन्होंने अपनेअपने आफिस जाना शुरू कर दिया था. फिर से वही दिनचर्या शुरू हो गई थी पर अब आफिस से आने के बाद वे खुली छत पर टहलने जरूर जाते थे. दिन हफ्तों के बाद महीनों में बीते तो नीना ने उबकाइयां लेनी शुरू कर दीं. रमेश पत्नी को ले कर फौरन डाक्टर के पास दौड़े. परीक्षण हुआ. परिणाम जान कर वे पुलकित हो उठे थे. घर जा कर उसी खुली छत पर बैठ कर दोनों ने मन ही मन अपने पिता को धन्यवाद दिया था.

पिता की दी हुई छत ने उन्हें आज वह प्रसाद दिया था जिसे पाने के लिए वह वर्षों से तड़प रहे थे. यही छत उन्हें प्रकृति के निकट ले आई थी. इसी छत ने उन्हें तनावमुक्त होना सिखाया था. इसी छत ने उन्हें स्वयं से, अपनी सांसों से परिचित करवाया था. वह छत जैसे उन की कर्मस्थली बन गई थी. रमेश ने मन ही मन सोचा कि यदि बेटी होगी तो वह उस का नाम बेला रखेगा और नीना ने मन ही मन सोचा कि अगर बेटा हुआ तो उस का नाम अंबर रखेगी, क्योंकि खुली छत पर अंबर के नीचे उसे यह उपहार मिला था.

टेढ़ीमेढ़ी डगर: सुमोना ने कैसे सिखाया पति को सबक

लेखिका- नीलम राकेश

सुमोना रोरो कर अब शांत हो चुकी थी. आज फिर विक्रांत ने उस पर हाथ उठाया था और फिर धक्का दे कर व बुरीबुरी गालियां देता हुआ घर से बाहर चला गया था. 5 वर्षीय पिंकी और 4 वर्षीय पंकज हिचकियों के साथ रोते हुए उस से चिपके हुए थे. तीनों के आंसू मिल कर एक हो रहे थे. अब यह सब आएदिन की बात हो गई थी.

सुमोना सोच रही थी कि कौन कहेगा कि वे दोनों पढ़ेलिखे संपन्न परिवारों से हैं. दोनों के ही परिवार आर्थिक और सामाजिक रूप से समाज में अच्छी हैसियत रखते थे. कहने को तो उन का प्रेम विवाह था. सजातीय होने के कारण और शायद परिजनों के खुले हुए विचारों का होने के कारण भी उन्हें विवाह में कोई अड़चन नहीं आई थी. सभी की रजामंदी से, बहुत धूमधड़ाके के साथ उन दोनों का विवाह संपन्न हुआ था. दोनों के ही मातापिता ने किसी तरह की कोई कमी नहीं छोड़ी थी. बल्कि अगर यह कहें कि कुछ जरूरत से ज्यादा ही दिखावा किया गया था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

शादी के थोड़े दिनों बाद ही विक्रांत का यह रूप उस के सामने आ गया था. सुमोना चौंकी जरूर थी. दोनों ने एकसाथ एमबीए किया था. सुमोना अपने बैच की टौपर थी. पूरा जोर लगाने के बाद भी विक्रांत कक्षा में दूसरे स्थान पर ही रहता था. दोनों के बीच एक स्वस्थ स्पर्धा रहती थी.

विक्रांत का दोस्त अंगद अकसर कहता था, “अच्छा है तुम दोनों एकदूसरे को डेट नहीं कर रहे हो. नहीं तो एकदूसरे का सिर ही फोड़ देते.”

पल्लवी हंसते हुए उस में जोड़ती, “और कहीं यह दोनों शादी कर लेते तो एकदूसरे का गला ही दबा देते,” सब खिलखिला कर हंस पड़ते और बात हवा में उड़ जाती.

पता नहीं साथियों के कहने का असर था या क्या, धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के प्रति आकर्षण महसूस करने लगे और जब विक्रांत पर प्रेम का भूत चढ़ा तो वह इतना अधिक रोमांटिक हो गया कि खुद सुमोना को ही विश्वास नहीं होता कि यह वही अकड़ू, गुस्सैल विक्रांत है. सहेलियां भी सुमोना से जलने लगीं. विक्रांत हर दिन सुमोना के लिए कुछ न कुछ सरप्राइज प्लान करता और सब देखते रह जाते. विक्रांत कभी भी कुछ छिपा कर नहीं करता सबकुछ सब के सामने खुलाखुला.

दोस्त कहते, “शादी के बाद विक्रांत तो जोरू का गुलाम बन जाएगा,”
विक्रांत हंस कर जवाब देता, “हां भाई बन जाऊंगा. तुम्हारे पेट में क्यों दर्द होता है? तुम भी बन जाना पर अपनी बीवी के मेरी नहीं,” और चारों ओर जलन भरी खिलखिलाहट बिखर जाती.

सुमोना को खुद भी विक्रांत का यह रूप बहुत भाता था. वह तो खुशियों के सतरंगे आकाश में विचरण कर रही थी मगर कहां जानती थी कि कुदरत उसे अंधेरे की गहरी खाई की ओर ले जा रहा है.

पहला झटका सुमोना को शादी के बाद दूसरे महीने में ही लगा था. मात्र 15 दिनों के हनीमून ट्रिप से जब दोनों लौटे थे, 1 हफ्ता तो घर से बाहर ही नहीं निकले और विक्रांत तो जैसे चकोर की तरह उसे निहारता ही रहता था.

जौइंट फैमिली थी. घर में सासससुर के साथ जेठजेठानी भी थे पर जैसे विक्रांत को कोई फर्क ही नहीं पड़ता था. जेठानी जरूर इस बात पर ताना मारती रहती थी. वह एकांत में विक्रांत को समझाती तो वह कहता, “जो जलता है, उसे जलने दो.”

उस रात नई बहू के स्वागत में विक्रांत के चाचा ने पूरे परिवार को खाने पर बुलाया था. बहुत चाव से सजधज कर जब वह तैयार हुई और विक्रांत के सामने आई तो विक्रांत के चेहरे पर बल पड़ गया, “यह क्या पहना है तुम ने?”

“क्यों क्या हुआ? अच्छा तो है,” शीशे में खुद को निहारते हुए उस ने पूछा.

“ब्लाउज का इतना गहरा गला किस को दिखाना चाहती हो?”

आहत हुई थी सुमोना, पर खुद को संभाल कर बोली, “अच्छा तो जनाब इनसिक्योर हो रहे हैं.”

“बदल कर नीचे आओ, मैं मां के पास इंतजार कर रहा हूं,” कहता हुआ विक्रांत कमरे से बाहर चला गया.

सुमोना का उखड़ा हुआ मूड, चाचा के घर में सब के स्नेहिल व्यवहार से फिर से खिल उठा था. खाना खा कर सब बैठक में बैठे हंसीमजाक कर रहे थे. बहुत ही खुशनुमा माहौल था. सब उस के रूप और व्यवहार की तारीफ कर रहे थे. थोड़ा हंसीमजाक भी चल रहा था. किसी बात पर सब के साथसाथ वह भी खिलखिला कर हंसी तो विक्रांत तेजी से चीखा, “क्या घोड़े की तरह हिनहिना रही हो… कायदे से हंस भी नहीं सकती हो क्या?”

सब चुप हो गए और उसी असहनीय शांति के बीच वापस घर चले आए. कोई कुछ नहीं बोला. कमरे में आ कर वह बहुत रोई. विक्रांत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वह करवट बदल कर आराम से सो गया. सुबह भी घर में इस बारे में कोई बात नहीं हुई. न ही किसी ने उस से कुछ कहा, न ही विक्रांत को कुछ समझाया. जेठानी के चेहरे पर जरूर व्यंग्य भरी मुसकान पूरे दिन तैरती रही.

कुछ ही दिनों बाद विक्रांत के किसी दोस्त की ऐनिवर्सरी की पार्टी थी. विक्रांत ने उसे शाम के लिए तैयार होने के साथसाथ यह भी हिदायत दी की देखो, यह मेरे दोस्त की पार्टी है, शराफत वाले कपड़े ही पहनना. बल्कि ऐसा करो की मुझे दिखा दो कि तुम क्या पहनने वाली हो. यह तो बस शुरुआत थी. उस के पहनने, बोलने पर टिप्पणी करना, टोकाटाकी करना, व्यंग्य करना अब अंगद के लिए आम बात हो गई थी.

उस दिन पार्टी पूरे शबाब पर थी. सब संगीत की लहरों पर थिरक रहे थे. संगीत वैसे भी सुमोना की कमजोरी थी. वह भी पूरी तरह से संगीत में डूबी हुई थिरक रही थी. अचानक अंगद चिल्लाया, “क्या नचनिया की तरह ठुमके लगाए जा रही हो? अब पिछली बातें भूल जाओ, शरीफ घर की बहू बन गई हो तो शरीफों की तरह रहना सीखो.”

इस अपमान को वह सह नहीं पाई और रोते हुए बाहर की ओर भागी. विक्रांत भी उस के पीछेपीछे आया. घर पहुंचते ही उस ने अपनी सासूमां को पूरी बात बताई पर उन की प्रतिक्रिया से वह चकित रह गईं,”देख बहू, पतिपत्नी के बीच में ऐसी छोटीमोटी बातें होती रहती हैं. इन्हें तूल नहीं देना चाहिए. जाओ जा कर आराम करो,” कहते हुए उन्होंने उस की पीठ थपथपाई और अपने कमरे में चली गईं.

रात उस ने आंखों में ही काटी. सुबह होते ही वह अपने मायके चली आई. अपने मातापिता की प्रतिक्रिया से तो वह बुरी तरह आहत ही हो गई. पिता ने ठहरे हुए शब्दों में उसे समझाया, “देखो सुमोना, हर दंपति के बीच में ऐसे मौके आते ही हैं. बात को बिगाड़ने से कोई लाभ नहीं है. पुरुष कभीकभार कुछ ऊंचानीचा बोल ही देते हैं. छोटीछोटी बातों को पकड़ कर बैठोगी तो खुद भी दुखी रहोगी और हमें भी दुखी करती रहोगी. अब बड़ी हो गई हो, अपनी जिम्मेदारियों को समझो. हमारी परवरिश पर उंगली उठाने का मौका उन लोगों को मत देना. बस, इतनी सी अपेक्षा है तुम से.“

पिता तो अपनी बात कह कर अपने कमरे में चले गए, उस ने आशा भरी नजरों से मां की ओर देखा. कुछ देर शांत रहने के बाद मां बोलीं, “तुम अगर यह सारी बातें अपना मन हलका करने के लिए हमारे साथ साझा कर रही हो, तो ठीक है. पर अगर तुम को लगता है कि हम लोग दामादजी से इस बारे में कोई बात करेंगे तो ऐसा नहीं होगा.”

“मां…”

बात बीच में काट कर मां बोलीं, “सुमी, हम ने तुम्हें बेटे की तरह पाला है. इस का यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि तुम लड़का बन जाओ. लड़की हो, लड़की की तरह रहना सीखो. लड़कियों को थोड़ा दबना पड़ता है, सहना पड़ता है. गृहस्थी की गाड़ी तभी पटरी पर चलती है.”

“मां, मुझे इस तरह अपमानित करने का अधिकार विक्रांत को नहीं है. ”

“सुमी, तुम ने तो खुद देखा है, तुम्हारे पापा कितनी बार मुझे क्या कुछ नहीं कह देते हैं. तो क्या मैं उन की शिकायत ले कर अपने मायके जाती हूं? नहीं न?”

“मां, पर मैं यह अपमान बरदाश्त नहीं कर सकती.”

“सुमी, यह शादी तुम्हारी पसंद से, तुम्हारी खुशी के लिए करी गई है. इसे निभाना तुम्हारी जिम्मेदारी है. अभी हमें तुम्हारी दोनों छोटी बहनों की शादी भी करनी है. अगर बड़ी बहन का डाइवोर्स हो गया तो दोनों बहनों की शादी में बहुत दिक्कत आएगी. 2-4 चार दिन रहो आराम से मायके में और फिर अपने घर चली जाना. रात बहुत हो गई है, जाओ सो जाओ.”

शाम को औफिस से लौटते हुए विक्रांत उस के मायके चला आया. बिना कुछ कहेसुने वह विक्रांत के साथ अपने ससुराल चली आई. अपमानित होने का एक अनवरत सिलसिला आरंभ हो गया था. अब उसे अपने जीवन की सब से बड़ी भूल का एहसास हो रहा था. भावना में बह कर उस ने हनीमून पर से ही अपनी लगीलगाई नौकरी को इस्तीफा दे दिया था क्योंकि विक्रांत ने कहा था, “जानेमन, तुम दूसरे शहर में नौकरी करोगी तो मैं तो वियोग में ही मर जाऊंगा. 1-2 साल साथ में जी लेते हैं फिर तुम भी नौकरी कर लेना. तुम तो टौपर हो, तुम्हें तो कभी भी नौकरी मिल जाएगी.”

जाने उसे कब नींद आई. अगले दिन जब सुबह सो कर उठी तो उसे चक्कर आ रहे थे. उसे लगा कि उसे तनाव की वजह से ऐसा हो रहा है. पर सासूमां की अनुभवी आंखें शायद समझ गई थीं. उन्होंने डाक्टर के पास ले जा कर जांच करवाई और खुशी से झूमती हुई घर वापस आईं. सालभर के भीतर ही पिंकी उस की गोद में खेलने लगी थी और लगभग 1 साल बाद ही उस ने बेटे को जन्म दिया था. 2 बेटियों की मां, उस की जेठानी जलभुन गई थीं. अब वे भी उसे बातबात पर कुछ न कुछ बोलती रहतीं पर बेटा पा कर सास अब उस का ही पक्ष लेतीं पर बच्चों की मां को नौकरी करने की अनुमति इस घर में नहीं थी.

धीरेधीरे विक्रांत शराब पीने लगा. सब के बीच उस का अपमान करना अब रोज की बात थी. कमरे में अगर वे कुछ समझाने की कोशिश करतीं भी तो विक्रांत उस पर हाथ उठा देता. बच्चे सहम जाते.

कालेज में विक्रांत के परम मित्र थे अंगद. एक ही शहर में होने के कारण उन की दोस्ती अभी भी कायम थी . अगर उन के सामने कुछ भी घटित होता तो वे कभी विक्रांत को समझाते और कभी उसे. पर यह बात न तो विक्रांत को अच्छी लगती न ही परिजनों को इसलिए उन्होंने विक्रांत के घर आना कम कर दिया पर मोबाइल से वे सुमोना से संपर्क में रहते. सुमोना भी जब भी परेशान होती एकांत पा कर अंगदजी को ही फोन लगा लेती. अंगद हमेशा उस का हौसला बढ़ाते. अपने पैरों पर खड़े होने की सलाह देते.

उस दिन भी अंगद घर आए थे. जब विक्रांत ने सुमोना को गाली दी तो अंगद बच्चों का वास्ता दे कर उसे समझाने लगे पर विक्रांत तो जैसे अपना आपा ही खो चुका था. उस ने उन दोनों के रिश्ते पर ही उंगली उठा दी. अपमान से तिलमिलाए हुए अंगद उठ कर चले गए और अंगद का सारा गुस्सा विक्रांत ने उस पर ही उतार दिया.

आज जिस तरह से विक्रांत ने उसे पीटा था, उसे देख कर पंकज सहम गया था और उस घटना के बाद घंटे भर तक पिंकी डर कर कांपती रही थी और उस के आंसू रुके ही नहीं थे. सुमोना को लगा ये मेरे बच्चे हैं उन्हें डर और उलझी हुई जिंदगी नहीं दे सकती हूं. अब अपने बच्चों के लिए मुझे ही कुछ करना होगा. यह निर्णय लेने के बाद सुमोना स्वयं को भविष्य में आने वाले कठिन समय के लिए मानसिक रूप से तैयार करने लगी. अब उसे पता था कि यह लड़ाई उस की अकेले की है. इस युद्ध में कोई उस के साथ नहीं खड़ा होगा. पर फिर भी सुमोना हलका महसूस कर रही थी.

अगले दिन विक्रांत के जाने के बाद सुमोना लैपटौप ले कर बैठ गई और कई जगह नौकरी के लिए आवेदन भेज कर ही अपने कमरे से बाहर आई. 2 दिनों तक कहीं से कोई जवाब नहीं आया. पर वह निराश नहीं हुई, जानती थी कोर्स करने के बाद 5 साल का लंबा अंतराल लिया था उस ने, तो थोड़ी मुश्किल से तो नौकरी मिलेगी ही. पर उसे विश्वास था कि उस की योग्यता को देखते हुए उसे नौकरी जरूर मिलेगी.

मगर हमेशा अपना सोचा कहां होता है. इस से पहले कि सुमोना की नौकरी लगती विक्रांत ने उस के हाथ में तलाक के कागज थमा दिए. दूसरा विस्फोट यह था कि विक्रांत ने कोर्ट से अपने बच्चों की कस्टडी मांगी थी, क्योंकि सुमोना बेरोजगार थी. सुमोना के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई थी. पर सुमोना ने रोनेचिल्लाने की बजाय आगे की रणनीति पर विचार करना आरंभ किया. उसे किसी से किसी सहारे की उम्मीद नहीं थी. एक ही व्यक्ति था जिस से वह कोई मदद मांग सकती थी. तो उस ने अंगद को फोन मिलाया. पूरी स्थिति बता कर उस ने किराए का मकान ढूंढ़ने का अनुरोध किया.

विक्रांत के आने से पहले ही सुमोना अपने दोनों बच्चों को ले कर एक अटैची के साथ घर से चली गई. अंगद उस के विश्वास पर खरा उतरा और उस ने अपने किसी परिचित के यहां उसे पेइंगगेस्ट बनवा दिया. अंगद ने उसे मायके जाने की भी सलाह दी पर सुमोना ने यह कह कर मना कर दिया कि यह मेरी लडाई है मैं इस में उन लोगों को परेशान नहीं करना चाहती.

रात में जब विक्रांत लौटा तो इस नए घटनाक्रम से बुरी तरह बौखला गया,
“आप लोगों ने उसे रोका क्यों नहीं? वह इस तरह से मेरे बच्चों को ले कर नहीं जा सकती.”

“हम लोगों को लगा कि आप लोगों की आपस में बात हो गई होगी,” भाभी मुंह बना कर बोलीं.

विक्रांत अपने कमरे में चला गया. उस के जीवन में इतना बड़ा भूचाल आया था और परिवार का कोई सदस्य उस के पास हमदर्दी दिखाने भी नहीं आया. समझ नहीं पा रहा था कि जिन परिजनों पर सुमोना जान छिड़कती थी, उस के जाने का किसी को कोई दुख नहीं था. आधी रात को विक्रांत को भूख लगी. उठ कर बाहर आया, डाइनिंग टेबल पर 2 रोटी और सब्जी ढकी रखी थी, वही खा कर वापस जा कर सो गया.

सुमोना होती तो गरम कर, मानमनुहार से सलाद, अचार के साथ उसे खिलाती. अगली सुबह भी सब कुछ सामान्य ढंग से होता रहा. जब वह बाहर निकलने लगा तब मां ने पूछा, “सुमोना से कुछ बात हुई क्या?”

“नहीं, खुद गई है तो खुद वापस आएगी. किसी को चिंता करने की जरूरत नहीं है,” गुस्से में विक्रांत बोला.

“और वह तलाकनामा?” भाभी ने पूछा.

“उसी से उस की अक्ल ठिकाने आएगी आप देख लीजिएगा,” कहता हुआ विक्रांत बाहर चला गया.

समय के तो जैसे पंख होते हैं, तेजी से खिसकने लगा. दिन, महीना और फिर साल बीत गया. न सुमोना आई, न उस का कोई फोन आया. विक्रांत ने भी अपनी अकड़ में कोई फोन नहीं किया था पर इस दौरान विक्रांत ने सुमोना की कमी को शिद्दत से महसूस किया. अपनी उलझनों के कारण उस का काम में मन नहीं लगता था. प्राइवेट कंपनी उस को क्यों रखती अतः उसे नौकरी से निकाल दिया गया. बेरोजगार देवर अब भाभी पर अब बोझ था. वही भाभी जो उस के साथ मिल कर सुमोना को ताने सुनाया करती थीं, अब उसे ताने देती थीं, “जो अपनी पत्नी और बच्चों का नहीं हुआ वह किसी और का कैसे होगा.“

अपने ही घर में उस की स्थिति अनचाहे मेहमान जैसी हो गई थी. अब विक्रांत को अपने जीवन में सुमोना का महत्त्व समझ में आ रहा था. वह खुद को सुमोना से मिलने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर रहा था कि तभी उस के ताबूत में आखिरी कील के रूप में हस्ताक्षर किया हुआ तलाकनामा रजिस्टर्ड डाक से उस के पास आ गया. साथ ही सुमोना ने कोर्ट के पास अपने बच्चों की कस्टडी का दावा भी ठोका था क्योंकि अब वह बेरोजगार नहीं थी बल्कि एक बड़ी कंपनी की एचआर हैड थी.

रंग जीवन में नया आयो रे: क्यों परिवार की जिम्मेदारियों में उलझी थी टुलकी

घंटी की आवाज से मैं एकदम चौंक उठी. सोचा, बेवक्त कौन आया है नींद में खलल डालने. उठ कर देखा तो डाकिया बंद दरवाजे के नीचे से एक लिफाफा खिसका गया था.

झुंझलाई सी मैं लिफाफा ले कर वहीं सोफे पर बैठ गई. जम्हाई लेते हुए मैं ने सरसरी नजर से देखा, ‘यह तो किसी के विवाह का कार्ड है. अरे, यह तो टुलकी की शादी का निमंत्रणपत्र है.’

सारा आलस, सारी नींद पता नहीं कहां फुर्र हो गई. टुलकी के विवाह के निमंत्रणपत्र के साथ उस का हस्तलिखित पत्र भी था. बड़े आग्रह से उस ने मुझे विवाह में बुलाया था. मेरे खयालों के घेरे में 12 वर्षीया टुलकी की छवि अंकित हो आई.

लगभग 8 वर्ष पूर्व मैं उदयपुर अस्पताल में कार्यरत थी. टुलकी मेरे मकानमालिक की 4 बेटियों में सब से बड़ी थी. छोटी सी टुलकी को घर के सारे काम करने पड़ते थे. भोर में उठ कर वह किसी सुघड़ गृहिणी की भांति घर के कामकाज में जुट जाती. वह पानी भरती, मां के लिए चाय बनाती. फिर आटा गूंधती और उस के अभ्यस्त नन्हेनन्हे हाथ दो परांठे सेंक देते. इस तरह टुलकी तैयार कर देती अपनी मां का भोजन.

टुलकी की मां पंचायत समिति में अध्यापिका थीं. चूंकि स्कूल शहर के पास एक गांव में था, इसलिए उस को साढ़े 6 बजे तक आटो स्टैंड पहुंचना होता था. जल्दबाजी में वह अकसर अपना टिफिन ले जाना भूल जाती. ऐसे में टुलकी सरपट दौड़ पड़ती आटो स्टैंड की ओर और मां को टिफिन थमा आती.

लगभग यही समय होता जब मैं अपनी रात की ड्यूटी पूरी कर घर लौट रही होती. आटो स्टैंड से ही टुलकी वापस मेरे साथ घर की ओर चल पड़ती.

‘आज तुम्हारी मां फिर टिफिन भूल गईं क्या?’ मेरे पूछते ही टुलकी ‘हां’ में गरदन हिला देती. मैं देखती रह जाती उस के मासूम चेहरे को और सोचती, ‘दोनों में मां कौन है और बेटी कौन?’

घर पहुंचते ही टुलकी पूछती, ‘सिस्टर, आप के लिए चाय बना दूं?’

‘नहीं, रहने दे. अभी थोड़ी देर सोऊंगी. रातभर की थकी हूं,’ कहती हुई मैं अपने बालों को जूड़े के बंधन से मुक्त कर देती. मेरे काले घने, लंबे बालों को टुलकी अपलक देखती रह जाती. पर यह मैं ने तब महसूस किया जब एक दिन वह बर्फ लेने आई. उस के कटे बालों को देख मैं हैरानी से पूछ बैठी, ‘बाल क्यों कटवा लिए, टुलकी?’

उस की पहले से सजल मिचमिची आंखों से आंसू बहने लगे. मेरे पुचकारने पर उस के सब्र का बांध टूट गया. भावावेश में वह मेरे सीने से लिपट गई. मेरे अंदर कुछ पिघलने लगा. उस के रूखे बालों में हाथ घुमाते हुए मैं ने पुचकारा, ‘रो मत बेटी, रो मत. क्या हुआ, क्या बात हुई, मुझे बता?’

सिसकियों के बीच उभरते शब्दों से मैं ने जाना कि टुलकी के लंबे बालों में जुएं पड़ गई थीं. मां से सारसंभाल न हो पाई. इसलिए उस के बाल जबरदस्ती कटवा दिए गए.

‘सिस्टर, मुझे आप जैसे लंबे बाल…’ उस ने दुखी स्वर में मुझ से कहा, ‘देखो न सिस्टर, मैं सारे घर का काम करती हूं, मां का इतना ध्यान रखती हूं…क्या हुआ जो मेरे बालों में जुएं पड़ गईं. इस का मतलब यह तो नहीं कि मेरे बाल…’ और उस की रुलाई फिर से फूट पड़ी.

मैं उसे दिलासा देते हुए बोली, ‘चुप हो जा मेरी अच्छी गुडि़या. अरे, बालों का क्या है, ये तो फिर बढ़ जाएंगे, जब तू मेरे जितनी बड़ी हो जाएगी तब बढ़ा लेना इतने लंबे बाल.’

हमेशा चुप रहने वाली आज्ञाकारिणी टुलकी मेरी ममता की हलकी सी आंच मिलते ही पिघल गई थी. पहली बार मुझे महसूस हुआ कि इस अबोध बच्ची ने कितना लावा अपने अंदर छिपा रखा है.

टुलकी की मां उस को जोरजोर से आवाजें देती हुई कोसने लगी, ‘पता नहीं कहां मर गई यह लड़की. एक काम भी ठीक से नहीं करती. बर्फ क्या लेने गई, वहीं चिपक गई.’

मां की चिल्लाहट सुन कर बर्फ लिए वह दौड़ पड़ी. उस दिन के बाद वह हमेशा स्नेह की छाया पाने के लिए मेरे पास चली आती.

एक दिन जब टुलकी अपनी मां के सिर की मालिश कर रही थी तो मैं अपनेआप को रोक नहीं पाई, ‘क्या जिंदगी है, इस लड़की की. खानेखेलने की उम्र में पूरी गृहस्थिन बन गई है. इसे थोड़ा समय खेलने के लिए भी दिया करो, भाभी. तुम इस की सही मां हो, तुम्हें जरा खयाल नहीं आता कि…’

‘क्या करूं, सिस्टर, आज सिर में बहुत दर्द था,’ टुलकी की मां ने अपराधभाव से अपनी नजर नीची करते हुए कहा.

मैं ने टुलकी को उंगली से गुदगुदाते हुए उठने का इशारा किया तो उस ने हर्षमिश्रित आंखों से मुझे देखा और आंखों ही आंखों में कुछ कहा. फिर वह बाहर भाग गई. मुझे लगा, जैसे मैं ने किसी बंद पंछी को मुक्त कर दिया है.

‘आज आटो के इंतजार में सड़क पर 2 घंटे तक खड़ा रहना पड़ा. शायद तेज धूप के कारण सिर में दर्द होने लगा है. सोचा, थोड़ी मालिश करवा लूं, ठीक हो जाएगा,’ टुलकी की मां सफाई देती हुई बोलीं.

शायद कुछ दर्द के कारण या फिर अपनी बेबसी के कारण टुलकी की मां की आंखें नम हो आई थीं. यह देख मैं इस समय ग्लानि से भर गई.

‘क्या करूं सिस्टर, एक लड़के की चाह में मैं ने पढ़ीलिखी, समझदार हो कर भी लड़कियों की लाइन लगा दी. पता नहीं क्याक्या देखना है जिंदगी में…’ कहती हुई वह अपनी बेबसी पर सिसक उठी.

सारा दोष ‘प्रकृति’ पर मढ़ कर वह अपनेआप को तसल्ली देने लगी. मैं सोचने लगी कि इन्होंने तो सारा दोष प्रकृति को दे कर मन को समझा दिया पर टुलकी बेचारी का क्या दोष जो असमय ही उस का बचपन छिन गया.

‘क्या उस का दोष यही है कि वह घर में सब से बड़ी बेटी है?’ मन में बारबार यही प्रश्न घुमड़ रहा था. टुलकी बारबार मेरे मानसपटल पर उभर कर पूछ रही थी, ‘मेरा कुसूर क्या है, सिस्टर?’

उस दिन भी मैं सो रही थी कि एकाएक मुझे लगा कि कोई है. आंखें खोल कर देखा तो टुलकी सामने खड़ी थी. पता नहीं कब आहिस्ता से दरवाजा खोल कर भीतर आ गई थी. वह एकटक मुझे देख रही थी. मैं ने आंखों ही आंखों में सवाल किया, ‘क्या है?’

‘आप को उड़ती हुई पतंग देखना अच्छा लगता है, सिस्टर?’

मैं ने ‘हां’ में गरदन हिलाई और उस को देखती रही कि वह आगे कुछ बोले, पर जब चुप रही तो मैं ने पूछ लिया, ‘क्यों, क्या हुआ?’

वह चुप रही. मन में कुछ तौलती रही कि मुझ से कहे या न कहे. मैं उसे इस स्थिति में देख प्रोत्साहित करते हुए बोली, ‘तुझे पतंग चाहिए?’

उस ने ‘न’ में गरदन हिलाई तो मैं झुंझलाते हुए बोली, ‘तो फिर क्या है?’

वह सहम गई. धीरे से बोली, ‘कुछ नहीं, सिस्टर?’ और जाने को मुड़ी.

‘कुछ कैसे नहीं, कुछ तो है, बता?’ चादर एक तरफ फेंकते हुए मैं उस का हाथ पकड़ कर रोकते हुए बोली.

‘सिस्टर, मैं शाम को छत पर पतंग देख रही थी तो पिताजी ने गुस्से में मेरे बाल खींच लिए. कहने लगे कि नाक कटानी है क्या? लड़की जात है, चल, नीचे उतर. सिस्टर, क्या पतंग देखना बुरी बात है?’

मैं ने बात की तह में जाते हुए पूछ लिया, ‘छत पर तुम्हारे साथ कौन था?’

‘कोई नहीं,’ टुलकी की मासूम आंखें सचाई का प्रमाण दे रही थीं.

‘और पड़ोस की छत पर?’ मैं तहकीकात करते हुए आगे बोली.

‘वहां 2 लड़के थे सिस्टर, पर मैं उन्हें नहीं जानती.’

बस, बात मेरी समझ में आ गई थी कि टुलकी को डांट क्यों पड़ी. सोचने लगी, ‘छोटी सी अबोध बच्ची पर इतनी पाबंदी. पर मैं कर ही क्या सकती हूं?’

टुलकी के पिता पुलिस में सबइंस्पैक्टर थे, सो रोब तो उन के चेहरे व  आवाज में समाया ही रहता था. अपनी बेटियों से भी वह पुलिसिया अंदाज में पेश आते थे. जरा सी भी गलती हुई नहीं कि टुलकी के गालों पर पिताजी की उंगलियों के निशान उभर आते.

एक दिन अचानक टुलकी के पिता की कर्कश आवाज सुनाई दी, ‘मेरी जान खाने को चारचार बेटियां जन दीं निपूती ने, एक भी बेटा पैदा नहीं किया. सारी उम्र हड्डियां तोड़तोड़ कर दहेज जुटाता रहूंगा और बुढ़ापे में ये सब चल देंगी अपने घर. कोई भी सेवा करने वाला नहीं होगा.’

मारपीट और चीखचिल्लाहट की आवाजें आ रही थीं. मैं अस्पताल जाने के लिए तैयार खड़ी थी पर वह सब सुन कर मुझ से नहीं रहा गया. बाहर निकल कर देखा कि टुलकी भय से थरथर कांपती हुई दीवार से सट कर खड़ी है.

‘इंस्पैक्टर साहब, आप भी क्या बात करते हैं. बेटियां जनी हैं तो इस में नीरा भाभी का क्या दोष?’ एक नजर कलाई पर बंधी घड़ी की ओर फेंकते हुए मैं

ने कहा.

मुझे देख वे जरा संयमित हुए. चेहरे पर छलक आए पसीने को पोंछते हुए बोले, ‘अब आप ही बताओ सिस्टर, चारचार बेटियों का दहेज कहां से जुटा पाऊंगा?’

‘अब कह रहे हैं यह सब. आप को पहले मालूम नहीं था जो चारचार बेटियों की लाइन लगा दी?’

मेरे कहने पर वे थोड़ा झुंझलाए. फिर कुछ कहने ही वाले थे कि मैं फिर घुड़कते हुए बोली, ‘आप अकेले तो नहीं कमा रहे, नीरा भाभी भी तो कमा रही हैं.’

‘कमा रही है तो रोब मार रही है. घर का कुछ खयाल नहीं करती. उस छोटी सी लड़की पर पूरे घर का बोझ डाल दिया है.’

‘नौकरी और घरगृहस्थी ने तो भाभी को निचोड़ ही लिया है. अब उन में जान ही कितनी बची है जो आप उन से और ज्यादा काम की उम्मीद करते हैं.’

वे दुखी स्वर में बोले, ‘सिस्टर, आप भी मुझे ही दोष दे रही हैं. देखो, टुलकी का प्रगतिपत्र,’ टुलकी का प्रगतिपत्र आगे करते हुए बोले, ‘सब विषयों में फेल है.’

‘इंस्पैक्टर साहब, आप ही थोड़ा जल्दी उठ कर टुलकी को पढ़ा क्यों नहीं देते?’

‘जा री टुलकी, सिस्टर के लिए चाय बना ला,’ वे ऊंचे स्वर में बोले.

‘देखो सिस्टर, सारा दिन ये खुद ही लड़की से काम करवाते रहते हैं और दोष मुझे देते हैं,’ साड़ी के पल्लू से आंखें पोंछते हुए नीरा भाभी रसोई की ओर बढ़ते हुए बोलीं तो मुझे एकाएक ध्यान आया कि इस पूरे प्रकरण में मुझे 10 मिनट की देर हो गई है. मैं उसी क्षण अस्पताल की ओर चल पड़ी.

उस दिन के बाद से इंस्पैक्टर साहब रोज सुबह टुलकी को पढ़ाने लगे पर उस का पढ़ाई में मन ही नहीं लगता था. उस का ध्यान बराबर घर में हो रहे कामकाज व छोटी बहनों पर लगा रहता. उस के पिता उत्तेजित हो जाते और टुलकी सबकुछ भूल जाती और प्रश्नों के उत्तर गलत बता देती.

टुलकी की शिकायतें अकसर स्कूल से भी आती रहती थीं, कभी समय से स्कूल न पहुंचने पर तो कभी गृहकार्य पूरा न करने पर. ऐसे में टुलकी का अध्यापिका द्वारा दंडित होना तो स्वाभाविक था ही, साथ ही अब घर में भी उसे मार पड़ने लगी. मैं सोचती रह जाती, ‘नन्ही सी जान कैसे सह लेती है इतनी मार.’ पर देखती, टुलकी इस से जरा भी विचलित न होती, मानो दंड सहने की आदत पड़ गई हो.

टुलकी की परीक्षाएं नजदीक थीं. सो, नीरा भाभी छुट्टियां ले कर घर रहने लगीं. अब उस की पढ़ाई पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा.

मातापिता के इस एक माह के प्रयास के कारण टुलकी जैसेतैसे पास हो गई.

एक दिन टुलकी के भाई का जन्म हुआ जो उस के लिए बेहद प्रसन्नता का विषय था. इस से पहले मैं ने कभी टुलकी को इस तरह प्रफुल्लित हो कर चौकडि़यां भरते नहीं देखा था.

मुझे मिठाई का डब्बा देते हुए बोली, ‘जब हम सब चली जाएंगी तब भैया ही मातापिता की सेवा करेगा.’

मैं ने ऐसे ही बेखयाली में पूछ लिया था, ‘कहां चली जाओगी?’

‘ससुराल और कहां,’ मुझे अचरज से देखती टुलकी बोली.

उस के छोटे से मुंह से इतनी बड़ी बात सुन कर उस समय तो मुझे बहुत हंसी आई थी पर अब उसी टुलकी के विवाह का कार्ड देखा तो मन की राहों से उस का मासूम, बोझिल बचपन गुजरता चला गया.

फिर शीघ्र ही मेरा वहां से तबादला हो गया था. अस्पताल की भागदौड़ में अनेक अविस्मरणीय घटनाएं अकसर घटती ही रहती हैं. मैं तो टुलकी को

लगभग भूल ही चुकी थी. किंतु जब उस ने मुझे याद किया और इतने मनुहार से पत्र लिखा तो हृदय की सुप्त भावनाएं जाग उठीं. सोचा, ‘मैं जरूर उस की शादी में जाऊंगी.’

निश्चय करते ही मुझे अस्पताल की थका देने वाली जिंदगी एकाएक उबाऊ व बोझिल लगने लगी. सोच रही थी कि दो दिन पहले ही छुट्टी ले कर चली जाऊं. अपने इस निर्णय पर मैं खुद हैरान थी.

विवाह के 2 दिन पूर्व मैं उदयपुर जा पहुंची. टुलकी ने मुझे दूर से ही देख लिया था. चंचल हिरनी सी कुलांचें मारने वाली वह लड़की हौलेहौले मेरी ओर बढ़ी. कुछ क्षण मैं उसे देख कर ठिठकी और एकटक उसे देखने लगी, ‘यह इतनी सुंदर दिखने लग गई है,’ मैं मन ही मन सोच रही थी कि वह बोली, ‘‘सिस्टर, मुझे पहचाना नहीं?’’ और झट से झुक कर मुझे प्रणाम किया.

मैं उसे बांहों में समेटते हुए बोली, ‘‘टुलकी, तुम तो बहुत बड़ी हो गई हो. बहुत सुंदर भी.’’

मेरे ऐसा कहने पर वह शरमा कर मुसकरा उठी, ‘‘तभी तो शादी हो रही है, सिस्टर.’’

उस से इस तरह के उत्तर की मुझे उम्मीद नहीं थी. सोचने लगी कि इतनी संकोची लड़की कितनी वाचाल हो गई. सचमुच टुलकी में बहुत अंतर आ गया था.

अचानक मेरा ध्यान उस के हाथों की ओर गया, ‘‘यह क्या, टुलकी, तुम ने तो अपने हाथ बहुत खराब कर रखे हैं, जरा भी ध्यान नहीं दिया. बड़ी लापरवाह हो. अरे दुलहन के हाथ तो एकदम मुलायम होने चाहिए. दूल्हे राजा तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले कर क्या सोचेंगे कि क्या किसी लड़की का हाथ है या…?’’ मैं कहे बिना न रह सकी.

मेरी बात बीच में ही काटती हुई टुलकी उदास स्वर में बोल उठी, ‘‘सिस्टर, किसे परवा है मेरे हाथों की, बरतन मांजमांज कर हाथों में ये रेखाएं तो अब पक्की हो गई हैं. आप तो बचपन से ही देख रही हैं. आप से क्या कुछ छिपा है.’’

‘‘अरे, फिर भी क्या हुआ. तुम्हारी मां को अब तुम से कुछ समय तक तो काम नहीं करवाना चाहिए था,’’ मैं ने उलाहना देते हुए कहा.

‘‘मेरा जन्म इस घर में काम करने के लिए ही हुआ है,’’ रुलाई को रोकने का प्रयत्न करती टुलकी को देख मेरे अंदर फिर कुछ पिघलने लगा. मन कर रहा था कि खींच कर उस को अपने सीने में भींच लूं. उसे दुनिया की तमाम कठोरता से बचा लूं. मेरी नम आंखों को देख कर वह मुसकराने का प्रयत्न करते हुए आगे बोली, ‘‘मैं भी आप से कैसी बातें करने लग गई, वह भी यहीं सड़क पर. चलिए, अंदर चलिए, सिस्टर, आप थक गई होंगी,’’ मुझे अंदर की ओर ले जाती टुलकी कह उठी, ‘‘आप के लिए चाय बना लाती हूं.’’

बड़े आग्रह से उस ने मुझे नाश्ता करवाया. मैं देख रही थी कि यों तो टुलकी में बड़ा फर्क आ गया है पर काम तो वह अब भी पहले की तरह उन्हीं जिम्मेदारियों से कर रही है.

मेरे पूछने पर कहने लगी, ‘‘मां तो नौकरी पर रहती हैं, उन्हें थोड़े ही मालूम है कि घर में कहां, क्या पड़ा है. मैं न देखूंगी तो कौन देखेगा. और यह टिन्नू,’’ अपनी छोटी बहन की ओर इशारा करते हुए कहने लगी, ‘‘इसे तो अपने शृंगार से ही फुरसत नहीं है. अब देखो न सिस्टर, जैसे इस की शादी हो रही हो. रोज ब्यूटीपार्लर जाती है.’’

‘‘दीदी, आज आप की पटोला साड़ी मैं पहन लूं?’’ अंदर आती टिन्नू तुनक कर बोली.

‘‘पहन ले, मोपेड पर जरा संभलकर जाना.’’

‘‘पायलें भी दो न, दीदी.’’

‘‘देख, तू ने लगा ली न वही बिंदी. मैं ने तुझे मना किया था कि नहीं?’’

‘‘मैं ने मां से पूछ कर लगाई है,’’ इतराती हुई टिन्नू निडर हो बोली.

‘‘मां क्या जानें कि मैं क्यों लाई?’’

‘‘आप और ले आना, मुझे पसंद आई तो मैं ने लगा ली. इस पटोला पर मैच कर रही है न. अब मुझे जल्दी से पायलें निकाल कर दे दो. देर हो रही है. अभी बहुत से कार्ड बांटने हैं.’’

‘‘नहीं दूंगी.’’

‘‘तुम नहीं दोगी तो मैं मां से कह कर ले लूंगी,’’ ठुनकती हुई टिन्नू टुलकी को अंगूठा दिखा कर चली गई.

‘‘देखो सिस्टर, मेरा कुछ नहीं है. मैं कुछ नहीं, कोई अहमियत नहीं,’’ भरे गले से टुलकी कह रही थी.

‘‘टुलकी, ओ टुलकी,’’ तभी उस की मां की आवाज सुनाई दी, ‘‘हलवाई बेसन मांग रहा है.’’

‘‘टुलकी, जरा चाकू लेती आना?’’ किसी दूसरी महिला का स्वर सुनाई दिया.

‘‘दीदी, पाउडर का डब्बा कहां रखा है?’’ टुलकी की छोटी बहन ने पूछा.

‘‘क्या झंझट है, एक पल भी चैन नहीं,’’ झुंझलाती हुई वह उठ खड़ी हुई.

मैं बैठी महसूस कर रही थी कि विवाह के इन खुशी से भरपूर क्षणों में भी टुलकी को चैन नहीं.

दिनभर के काम से थकी टुलकी अपने दोनों हाथों से पैर दबाती, उनींदी आंखें लिए ‘गीतों भरी शाम’ में बैठी थी और ऊंघ रही थी. उल्लास से हुलसती उस की बहनें अपने हाथों में मेहंदी रचाए, बालों में वेणी सजाए, गोटा लगे चोलीघाघरे में ढोलक की थाप पर थिरक रही थीं.

सभी बेटियां एक ही घर में एक ही मातापिता की संतान, एक ही वातावरण में पलीबढ़ीं पर फिर भी कितना अंतर था. कुदरत ने टुलकी को ‘बड़ा’ बना कर एक ही सूत्र में मानो जीवन की सारी मधुरता छीन ली थी.

टुलकी के जीवन की वह सुखद घड़ी भी आई जब द्वार पर बरात आई, शहनाई बज उठी और बिजली के नन्हे बल्ब झिलमिला उठे.

मैं ने मजाक करते हुए दुलहन बनी टुलकी को छेड़ दिया, ‘‘अब मंडप में बैठी हो. किसी काम के लिए दौड़ मत पड़ना.’’

धीमी सी हंसी हंसती वह मेरे कान में फुसफुसाई, ‘फिर कभी इधर लौट कर नहीं आऊंगी.’

बचपन से चुप रहने वाली टुलकी के कथन मुझे बारबार चौंका रहे थे. इतना परिवर्तन कैसे आ गया इस लड़की में?

मायके से विदा होते वक्त लड़कियां रोरो कर कैसा बुरा हाल कर लेती हैं पर टुलकी का तो अंगप्रत्यंग थिरक रहा था. मुझे लगा, सच, टुलकी के बोझिल जीवन में मधुमास तो अब आया है. उस के वीरान जीवन में खुशियों के इस झोंके ने उसे तरंगित कर दिया है.

विदा के झ्रसमय टुलकी के मातापिता, भाई और बहनों की आंखों में आंसुओं की झड़ी लगी हुई थी लेकिन टुलकी की आंखें खामोश थीं, उन में कहीं भी नमी दिखाई नहीं दे रही थी. इसलिए वह एकाएक आलोचना व चर्चा का विषय बन गई. महिलाओं में खुसरफुसर होने लगी.

लेकिन मैं खामोश खड़ी देख रही थी बंद पिंजरे को छोड़ती एक मैना की ऊंची उड़ान को. एक नए जीवन का स्वागत वह भला आंसुओं से कैसे कर सकती थी.

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