Best Hindi Satire : खाट बाबा की खाट खड़ी

व्यंग्य- गोविंद शर्मा

Best Hindi Satire : रामधन भागा जा रहा था. मैं ने उसे रोक कर पूछा, ‘‘भई, यह किस दौड़ प्रतियोगिता में भाग ले रहे हो?’’ ‘‘तुम्हें नहीं पता, अपने गांव के पास खाट बाबा आ रहे हैं? उन के ही दर्शन करने जा रहा हूं,’’ वह बोला.

‘‘खाट बाबा?’’

‘‘हां…हां, खाट बाबा. वह हमेशा 2 खाटों के बीच में रहते हैं.’’

‘‘2 पाटों के बीच में रहते हैं, फिर भी साबुत हैं?’’

‘‘अरे भई, 2 पाटों के बीच में नहीं, 2 खाटों के बीच में. तुम खुद ही चल कर देख लो.’’

मैं भी उस के साथ हो लिया. गांव के बाहर खडे़ वटवृक्ष के पास भारी भीड़ जुड़ी हुई थी. सभी खाट बाबा की बातें कर रहे थे. एक कह रहा था, ‘‘अरे, तुम लोगों ने देखा होगा कि मेरे शरीर में जगहजगह कोढ़ हो गया था?’’

किसी ने भी उस के शरीर में कोढ़ देखने की हां नहीं भरी, पर वह निरुत्साहित नहीं हुआ. बोला, ‘‘सारी दुनिया ने देखा था कि मेरे शरीर में कोढ़ हो गया है. मैं ने खाट बाबा की चरणधूलि अपने शरीर पर लगाई, बाबा के 7 दिन तक लगातार दर्शन किए. वह कोढ़ छूमंतर हो गया.’’

एक और बोला, ‘‘बाबा के शरीर में बड़ी शक्ति है. उस शक्ति के कारण ही वह हमेशा 2 खाटों के बीच में रहते हैं. अगर बाबा खाट पर न बैठें तो अपनी शक्ति के कारण धरती में धंस जाएं. अगर छतरी की तरह उन के सिर पर खाट न हो तो आकाश में उड़ जाएं. मूंज की खाट में छेद होते हैं न, इसलिए धरती और आकाश से शक्ति का संतुलन बना रहता है. कहते हैं, पिछले जन्म में बाबा ने एक बार सिर पर खाट

नहीं रखने दी थी. वह सीधे आकाश

की ओर उड़ चले. सिर की

टक्कर आकाश

को लगी और आकाश में छेद हो गया. वह छेद यहां से दिखाई नहीं देता, पर उस का वैज्ञानिक सुबूत मिल गया है. एक बार पिछले साल और एक बार इस साल अमेरिका के 2 उपग्रह बेकाबू हो गए थे. इस का कारण उस छेद में से आने वाली गरम हवा है.

‘‘एक बार एक जन्म में बाबा खाट से नीचे उतर आए थे. धरती में ऐसे धंसे कि दूसरी तरफ निकल गए. वहां अमेरिका था. बाद में उसी रास्ते से भारत से अमेरिका जा कर अर्जुन द्वारा हथियार लाया गया था और महाभारत का युद्ध लड़ा गया था. आज भी लोग अमेरिका से हथियार लाते हैं. जनता को इन मुसीबतों से बचाने के लिए अब बाबा न तो खाट से नीचे पांव रखते हैं और न अपने सिर पर से खाट हटाने देते हैं.’’

मैं बाबा का गुणगान करने वाले उस भूतपूर्व कोढ़ी के पास गया. मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम्हें बाबा की चरणधूलि कहां से मिली? बाबा तो धूल में पांव रखते ही नहीं.’’

मेरे प्रश्न पर वह जोरों से हंसा और सब लोगों को मेरा प्रश्न सुनाया, ‘‘अरे भई, हो तो तुम दोपाए, मगर चौपायों से कम अक्ल वाले हो. दूसरे बाबाओं की तो 2 पांवों की धूल होती है. खाट बाबा की 4 पांवों की धूल जनकल्याण के लिए उपलब्ध है. वह खाट पर बैठते हैं. खाट चारपाई होती है. खाट के चारों पायों की धूल अमृत समान है.’’

मेरी अज्ञानता और उस की ज्ञानशीलता से सभी ग्रामीण प्रभावित हो गए. सब खाट बाबा का स्मरण करते हुए बेसब्री से उन का इंतजार करने लगे.

दूर से जयजयकार का शोर सुनाई दिया, ‘खाट बाबा आ गए.’ ‘खाट बाबा आ गए’ कहते हुए लोग उन की तरफ भागे. मैं भी भीड़ में शामिल था. मैं ने उस भूत-पूर्व  कोढ़ी को

ढूंढ़ा और पूछा, ‘‘खाट बाबा इस गांव में कहां ठहरेंगे?’’

‘‘वह खाट पर ही ठहरते हैं.’’

‘‘उन की खाट कहां ठहरेगी?’’

‘‘जहां धरती में भगवान होंगे. जिस  जगह धरती में भगवान होंगे, वहां की धरती शक्तिशाली होगी, पवित्र होगी. खाट बाबा का खाटविमान वहीं उतरेगा.’’

‘‘लेकिन यह कैसे पता चलेगा कि अमुक जगह धरती में भगवान हैं?’’

‘‘यह तुम्हें या मुझे पता नहीं चलेगा, खाट बाबा को पता चलेगा. धरती में छिपे भगवान से निकलने वाली सूक्ष्म तरंगों को बाबा का मस्तिष्क तुरंत पकड़ लेगा. बाबा ने इस तरह अब तक 13 स्थानों पर भगवान की तलाश की है. यह 14वां भाग्यशाली गांव है. यहां धरती में भगवान मिलेंगे. बाबा वहां एक मंदिर बनवाएंगे.’’

‘‘क्या बाबा के पास इतना पैसा है कि वह जगहजगह मंदिर बनवा दें?’’

‘‘बाबा तो अपने पास फूटी कौड़ी भी नहीं रखते. वह तो आशीर्वाद और चरणधूलि से लोगों का भला करते हैं. लोग ही चंदा जमा कर के मंदिर बनवाते हैं. इस गांव के पास जहां भगवान निकलेंगे वहां इस गांव के निवासी ही धनसंग्रह कर मंदिर बनवाएंगे.’’

तो यह चक्कर है, बाबा धनसंग्रह करने आए हैं. सूखे के कारण सरकार ने लोगों के कर्ज माफ कर दिए. बैंकों ने जो कर्ज दिया था वह भी उन्होंने बट्टेखाते में डाल दिया. दुकानदार भी भूल गए कि किसकिस से उधार वापस लेना है, पर धर्म नहीं भूला, धर्मात्मा नहीं भूले. वह अपना कर्ज वसूलने आ ही गए. गांव में सूखा पड़े चाहे बाढ़ आए, युद्ध हो या कोई और आपदा, धर्म का कर्ज तो चुकाना ही पडे़गा.

दूर से खाट बाबा की सवारी आती दिखाई दी. एक खाट पर बाबा बैठे थे. उसे 4 भक्तों ने कंधों पर उठा रखा था. एक अन्य खाट के पायों के साथ लाठियां बांध कर उसे छतरीनुमा बना रखा था. उसे भी भक्तों ने उठा रखा था.

लोग बाबा की जयजयकार करने लगे. बाबा के चरणों में नकदी चढ़ाने लगे. चूंकि बाबा उस को हाथ नहीं लगाते हैं, इसलिए उन के चेले यह नकदी उठाउठा कर पीछे की खाटों पर रखने लगे. उन खाटों को भी भक्तों ने उठा रखा था.

यह जलुस पहले गांव के भीतर गया और फिर गांव से बाहर हो गया. जिस तरह पुलिस के कुत्ते अपराधियों को सूंघते फिरते हैं वैसे ही खाट पर बैठेबैठे बाबा उस जगह को सूंघते फिर रहे थे जहां धरती में भगवान छिपा बैठा था.

गांव के बाहर अचानक बाबा ने ‘जय श्री भगवान’ कहा. काफिला वहीं रुक गया. पेड़ के नीचे बाबा की खाट रख दी गई. बाबा ने एक जगह की ओर इशारा किया कि यहां धरती में भगवान हैं. तीसरे दिन खुदाई होगी.

वहां सारा गांव उमड़ पड़ा. देखतेदेखते कनात और शामियाने लग गए. बाबा के भक्तों के लिए शानदार खाद्यपदार्थ आने लगे. भजनकीर्तन होने लगे.

तीसरे दिन तो आसपास के गांवों के लोग भी आ गए. पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी भी आ गए. जिलाधीश और पुलिस अधीक्षक ने बाबा के चरण स्पर्श किए. जिलाधीश को पुत्र की इच्छा थी और अधीक्षक को पुत्रों को सुधारने की. बाबा ने दोनों को आशीर्वाद दिया. खुदाई शुरू हो गई.

‘टन्न.’ किसी लोहे की वस्तु से कुदाल टकराई. बाबा के कान खडे़ हो गए. पत्थर की मूर्ति निकलनी थी, यह धातु की आवाज कैसी?

जमीन में से बड़ी देगची निकली. उसे देख कर एक ग्रामीण चिल्लाया, ‘‘अरे, यह तो हमारी है. इस में हम दलिया बनाया करते थे. यह तो 5 दिन पहले कोई चुरा ले गया था.’’

‘‘चुप कर,’’ एक भक्त ने उसे डपट दिया. बेचारा ग्रामीण चुप हो गया. कुछ देर बाद जमीन में से एक और बरतन निकला. फिर एक रेडियो निकला. रेडियो देख कर एक बच्चा चिल्ला पड़ा, ‘‘यह तो हमारा है. 5 दिन पहले चोरी चला गया था.’’

एकएक कर घरेलू सामान निकलता रहा. इस गांव में 5 दिन पहले कई घरों में चोरियां हुई थीं. सारा सामान वही था. बाबा परेशान हो गए. लोग अपनाअपना समान पहचानने लगे.

इतने में वहां शोर मच गया. एक थानेदार एक चोर को पकड़ कर वहां लाए. पुलिस अधीक्षक ने पूछा, ‘‘क्या माजरा है?’’

थानेदार ने बताया, ‘‘यह आदमी 5 दिन पहले इस गांव में कई घरों में चोरियां कर चुका है. इस का कहना है कि जब वह यह सामान ले कर गांव से बाहर जा रहा था तब कोई आदमी जमीन खोद कर कुछ दबा रहा था. उस के जाने के बाद इस ने वहां जमीन खोदी तो भगवान की पत्थर की एक मूर्ति निकली.’’

‘‘इस ने सोचा यह मूर्ति पुराने जमाने की होगी, तस्करों और विदेशियों के हाथ बड़ी महंगी बिकेगी. इस ने वह मूर्ति निकाल कर अपने थैले में डाल ली तथा चोरी का सामान उस गड्ढे में दबा दिया. मैं ने इसे पकड़ लिया था. आज चोरी का सामान बरामद करने आया हूं.’’

यह सुन कर खाट बाबा के होश उड़ गए. वह यही तो करते थे. गांव में बाहर किसी जगह पत्थर की मूर्ति जमीन में गड़वा देते थे फिर कहते थे कि यहां भगवान निकलेंगे.

अचानक गांव वालों का ध्यान बाबा की ओर गया. देखा, खाट बाबा और उन के भक्त खाट छोड़छोड़ कर भाग रहे हैं. न धरती फट रही है और न आसमान में तरेड़ आ रही है. खाट बाबा की खाट खड़ी हो रही है.

मैं ने उस चोर के चरण स्पर्श किए और कहा, ‘‘तुम चोर नहीं, लाट बाबा हो. तुम्हें देख कर खाट बाबा भाग गए.’’

पीछे बहुत सी खाटें रह गई थीं. अब उन्हें गांव वाले और प्रशासन वाले आपस में बांट रहे थे.

Comedy : रिंग टोन्स के गाने, बनाएं कितने अफसाने

Comedy : मैं जैसे ही घर में घुसा कि पप्पू की भुनभुनाहट सुनाई दी, ‘‘जमाना कहां से कहां पहुंच रहा है और एक पापा हैं कि वहीं के वहीं अटके हैं. कब से कह रहा हूं कि इस टंडीरे को हटा कर मोबाइल फोन ले लो, पर नहीं, चिपके रहेंगे अपने उन्हीं पुराने बेमतलब, बकवास सिद्धांतों से. मेरे सभी दोस्तों के पापा अपने पास एक से बढ़ कर एक मोबाइल रखते हैं और जाने क्याक्या बताते रहते हैं वे मुझे मोबाइल के बारे में. एक मैं ही हूं जिसे ढंग से मोबाइल आपरेट करना भी नहीं आता.’’

अंदर से अपने लाड़ले का पक्ष लेती हुई श्रीमतीजी की आवाज आई, ‘‘अब घर में कोई चीज हो तब तो बच्चे कुछ सीखेंगे. घर में चीज ही न होगी तो कहां से आएगा उसे आपरेट करना. वह तो शुक्र मना कि मैं थी तो ये 2-4 चीजें घर में दिख रही हैं, वरना ये तो हिमालय पर रहने लायक हैं… न किसी चीज का शौक न तमन्ना…मैं ही जानती हूं किस तरह मैं ने यह गृहस्थी जमाई है. चार चीजें जुटाई हैं.’’

श्रीमतीजी की आवाज घिसे टेप की तरह एक ही सुर में बजनी शुरू हो उस से पहले ही मैं ने सुनाने के लिए जोर से कहा, ‘‘घर में घुसते ही गरमगरम चाय के बजाय गरमागरम बकवास सुनने को मिलेगी यह जानता तो घर से बाहर ही रहता.’’

श्रीमतीजी दांत भींच कर बोलीं, ‘‘आते ही शुरू हो गया नाटक. जब घर में कोई चीज लेने की बात होती है तो ये घर से बाहर जाने की सोचना शुरू कर देते हैं.’’

मैं कुछ जवाब देता इस से पहले ही अपना पप्पू बोल पड़ा, ‘‘पापा, ये लैंड लाइन फोन आजकल किसी काम के नहीं रहे हैं. आजकल तो सभी कंपनियां बेहद सस्ते दामों पर मोबाइल उपलब्ध करवा रही हैं. आप अब एक मोबाइल फोन ले ही लो.’’

इस तरह मैं श्रीमतीजी और पप्पू के बनाए चक्रव्यूह में ऐसा फंसा कि मुझे मोबाइल फोन लेना ही पड़ा. अब जितनी देर मैं घर में रहता हूं, पप्पू मोबाइल से चिपका रहता है. पता नहीं कहांकहां की न्यूज निकालता, मुझे सुनाता. एसएमएस और गाने तो उस के चलते ही रहते.

यह सबकुछ कुछ दिनों तक तो मुझे भी बड़ा अच्छा लगा था, कहीं भी रहो, कभी भी, कैसे भी, किसी से भी कांटेक्ट  कर लो. पर कुछ ही दिनों में उलझन सी होने लगी. कहीं भी, कभी भी, किसी का भी फोन आ जाता. थोड़ी देर की भी शांति नहीं. सच तो यह है कि मोबाइल पर बजने वाली रिंग टोन मुझे परेशानी में डालने लगी थी.

एक दिन मेरे दफ्तर में एक जरूरी मीटिंग थी कि कंपनी की सेल को कैसे बढ़ाया जाए. सुझाव यह था कि कर्मचारियों के काम के घंटे बढ़ा दिए जाएं और उन्हें कुछ बोनस दे दिया जाए. अभी इस पर बातचीत चल ही रही थी कि मेरा मोबाइल बजा, ‘…बांहों में चले आओ हम से सनम क्या परदा…’

मीटिंग में बैठे लोग मूंछों में हंसी दबा रहे थे और मैं खिसिया रहा था. फोन घर से था. मैं ने फोन सुनने के बजाय स्विच आफ कर दिया. मुझे लगा कि मेरे ऐसा करने से वे समझ जाएंगे कि मैं किसी काम में व्यस्त हूं. पर नहीं, जैसे ही मैं ने सहज होने का असफल प्रयास करते हुए चर्चा शुरू करने की कोशिश की, रिंग टोन फिर से सुनाई पड़ी, ‘…बांहों में चले आओ…’

‘‘सर,’’ मीटिंग में मौजूद एक सज्जन बोले, ‘‘लगता है आज भाभीजी आप को बहुत मिस कर रही हैं. हमें कोई एतराज नहीं अगर इस मीटिंग को हम कल अरेंज कर लें.’’

मैं ने हाथ के इशारे से उन्हें रोकते हुए जल्दी से फोन उठाया और जरा गुस्से से भर कर बोला, ‘‘क्या आफत है, जल्दी बोलो. मैं इस समय एक जरूरी मीटिंग में हूं.’’

‘‘कुछ नहीं. मैं  कह रही थी कि आज शाम को मेरी कुछ सहेलियां आ रही हैं तो आप आते समय बिल्लू चाट भंडार से गरम समोसे लेते आना,’’ श्रीमतीजी गरजते स्वर में बोलीं.

अब मौजूद सदस्यों की व्यंग्यात्मक हंसी के बीच चर्चा आगे बढ़ाने की मेरी इच्छा ही नहीं हुई सो मीटिंग बरखास्त कर दी. घर आ कर मैं ने पप्पू को आड़े हाथों लिया कि मेरे मोबाइल पर फिल्मी गानों की रिंग टोन लेने की जरूरत नहीं है, सीधीसादी कोई रिंग टोन लगा दे, बस. बेटे ने सौरी बोला और चला गया.

अगले दिन मुझे एक गांव में परिवार नियोजन पर भाषण देने जाना था. अपने भाषण से पहले मैं कुछ गांव वालों के बीच बैठा उन्हें  यह समझा रहा था कि ज्यादा बच्चे हों तो व्यक्ति न उन की देखभाल अच्छी तरह से कर सकता है न उन्हें अच्छे स्कूल में पढ़ा सकता है. बच्चे ज्यादा हों तो घर में एक तरह से शोर ही मचता रहता है और अधिक बच्चों का असर घर की आर्थिक स्थिति पर भी पड़ता है.

अभी मैं और भी बहुत कुछ कहता कि मेरे मोबाइल की रिंग टोन बज उठी, ‘बच्चे मन के सच्चे, सारे जग की आंख के तारे….’ और इसी के साथ वहां मौजूद सभी गांव वाले खिलखिला कर हंस पड़े. कल ही पप्पू को रिंग टोन बदलने के लिए डांटा था तो वह मुझे इस तरह समझा रहा था कि बच्चों को डांटो मत. इच्छा तो मेरी हुई कि मोबाइल पटक दूं पर खुद पर काबू पाते हुए मैं ने कहा, ‘‘बच्चे 1 या 2 ही अच्छे होते हैं. ज्यादा नहीं,’’ और फोन सुनने लगा.

घर पहुंचने पर मैं ने बेटे को फिर लताड़ा तो वह बिना कुछ बोले ही वहां से हट गया. मेरे साथ दिक्कत यह थी कि मुझे अच्छी तरह से मोबाइल आपरेट करना नहीं आता था. मुझे सिर्फ फोन सुनने व बंद करने का ही ज्ञान था. इसलिए भी रिंग टोन के लिए मुझे बेटे पर ही निर्भर रहना पड़ता था. अब उसे डांटा है तो वह बदल ही देगा यह सोचता हुआ मैं वहां से चला  गया था.

हमारी कंपनी ने मुंबई के बाढ़  पीडि़तों को राहत सामग्री पहुंचाने का जिम्मा लिया था. सामग्री बांटने के दौरान मैं भी वहां मौजूद था जहां वर्षा से परेशान लोग भगवान को कोसते हुए चाह रहे थे कि बारिश बंद हो. तभी मेरे मोबाइल की रिंग टोन पर यह धुन बज उठी, ‘बरखा रानी जरा जम के बरसो…’

यह रिंग टोन सुन कर लोगों के चेहरों पर जो भाव उभरे उसे देख कर मैं फौरन ही अपने सहायक को बाकी का बचा काम सौंप कर वहां से हट गया.

अब की बार मैं ने पप्पू को तगड़ी धमकी दी और डांट की जबरदस्त घुट्टी पिलाई कि अब अगर उस ने सादा रिंग टोन नहीं लगाई तो मैं इस मोबाइल को तोड़ कर फेंक दूंगा.

कुछ दिनों तक सब ठीकठाक चलता रहा. मैं निश्ंिचत हो गया कि अब वह रिंग टोन से बेजा छेड़छाड़ नहीं करेगा.

एक सुबह उठा तो पता चला कि हमारे घर से 2 घर आगे रहने वाले श्यामबाबू का 2 घंटे पहले हृदयगति रुक जाने से देहांत हो गया है. आननफानन में मैं वहां पहुंचा. बेहद गमगीन माहौल था. लोग शोक में डूबे मृतक के परिवार के लोगों को सांत्वना दे रहे थे कि तभी मेरे मोबाइल की रिंग टोन बज उठी, ‘चढ़ती जवानी मेरी चाल मसतानी…’

मैं लोगों की उपहास उड़ाती नजरों से बचते हुए फौरन घर पहुंचा और पहले तो बेटे को बुरी तरह से डांट लगाई फिर वहीं खड़ेखड़े उस से रिंग टोन बदलवाई.

अब पप्पू ने मेरे मोबाइल से छेड़छाड़ तो बंद कर दी है पर घर में उस ने एक नई तान छेड़ दी है कि अब मुझे भी मोबाइल चाहिए. क्योेंकि मेरे सभी दोस्तों के पास मोबाइल है. सिर्फ एक मैं ही ऐसा हूं जिस के पास मोबाइल नहीं है. मेरे पास अपना मोबाइल होगा तो मैं जो गाना चाहूं अपने मोबाइल की रिंग टोन पर फिट कर सकता हूं.

श्रीमतीजी हर बार की तरह इस बार भी बेटे के पक्ष में हैं और मैं सोच रहा हूं कि मैं तो बिना मोबाइल के ही भला हूं. क्यों न विरासत मेें रिंग टोन के साथ यही मोबाइल बेटे को सौंप दूं.

Social Satire In Hindi : एक दिन का सुलतान

Social Satire In Hindi  : मुझे उन्होंने राष्ट्रपति पुरस्कार दे दिया. उन की मरजी, वे जानें कि क्यों दिया? कैसे दिया? मैं तो नहीं कहता कि मैं कोई बहुत बढि़या अध्यापक हूं. हां, यह तो कह सकता हूं कि मुझे पढ़ने और पढ़ाने का शौक है और बच्चे मुझे अच्छे लगते हैं. यदि पुरस्कार देने का यही आधार है, तो कुछ अनुचित नहीं किया उन्होंने, यह भी कह सकता हूं.

जिस दिन मुझे पुरस्कार के बाबत सूचना मिली तरहतरह के मुखौटे सामने आए. कुछ को असली खुशी हुई, कुछ को हुई ही नहीं और कुछ को जलन भी हुई. अब यह तो दुनिया है. सब रंग हैं यहां, हम किसे दोष दें? क्या हक है हम को किसी को दोष देने का? मनुष्य अपना दृष्टिकोण बनाने को स्वतंत्र है. जरमन दार्शनिक शापनहोवर ने भी तो यही कहा था, ‘‘गौड भाग्य विधाता नहीं है, वह तो मनुष्य को अपनी स्वतंत्र बुद्धि का प्रयोग करने की पूरी छूट देता है. उसे जंचे सेब खाए तो खाए, न खाए तो न खाए. अब बहकावट में आदमी ने यदि सेब खा लिया और मुसीबत सारी मानव जाति के लिए पैदा कर दी तो इस में ऊपर वाले का क्या दोष.’’

हां, तो पुरस्कार के दोचार दिन बाद ही मुझे गौर से देखने के बाद एक सज्जन बोले, ‘‘हम ने तो आप की चालढाल में कोई परिवर्तन ही नहीं पाया. आप के बोलनेचालने से, आप के हावभाव से ऐसा लगता ही नहीं कि आप को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है.’’

मैं सुन कर चुप रह गया. क्या कहता? खुशी तो मुझे हुई थी लेकिन मेरी चालढाल में परिवर्तन नहीं आया तो इस का मैं क्या करूं? जबरदस्ती नाटक करना मुझे आता नहीं. मेरी पत्नी को तो यही शिकायत रहती है कि यदि आप पहले जैसा प्यार नहीं कर सकते तो प्यार का नाटक ही कर दिया करो, हमारा गुजारा तो उस से ही हो जाएगा. हम हंस कर कह दिया करते हैं कि पुणे के फिल्म इंस्टिट्यूट जाएंगे ट्रेनिंग लेने और वह खीझ कर रह जाती है.

पुरस्कार मिलने के बारे में कई शंकाएंआशंकाएं व प्रतिक्रियाएं सामने आईं. उन्हीं दिनों मैं स्टेशन पर टिकट लेने लंबी लाइन में खड़ा था. मेरा एक छात्र, जो था तो 21वीं सदी का पर श्रद्धा रखता?था महाभारतकाल के शिष्य जैसी, पूछ बैठा :

‘‘सर, आप तो राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक हैं. क्या आप को भी इस प्रकार लाइन में खड़ा होना पड़ता है? आप को तो फ्री पास मिलना चाहिए था, संसद के सदस्यों की तरह.’’

उसे क्या पता, कहां हम और कहां संसद सदस्य. वे हम को तो खुश करने की खातिर राष्ट्रनिर्माता कहते?हैं पर वे तो भाग्यविधाता हैं. उन का हमारा क्या मुकाबला. छात्र गहरी श्रद्धा रखता?था सो उसे यह बात समझ में नहीं आई. उस ने तुरंत ही दूसरा सवाल कर डाला.

‘‘सर, आप को पुरस्कार में कितने हजार रुपए मिले? नौकरी में क्या तरक्की मिली? कितने स्कूटर, कितनी बीघा जमीन वगैरह?’’

यह सब सुन कर मैं चौंक गया और पूछा, ‘‘बेटे, यह तुम ने कैसे सोच लिया कि मास्टरजी को यह सब मिलना चाहिए?’’

उस ने कहा, ‘‘सर, क्रिकेट खिलाडि़यों को तो कितना पैसा, कितनी कारें, मानसम्मान, सबकुछ मिलता है, आप को क्यों नहीं? आप तो राष्ट्रनिर्माता हैं.’’

मुझे उस के इस प्रश्न का जवाब समझ में नहीं आया तो प्लेटफार्म पर आ रही गाड़ी की तरफ मैं लपका.

उन्हीं दिनों एक शादी में मेरा जाना हुआ. वहां मेरे एक कद्रदान रिश्तेदार ने समीप बैठे कुछ लोगों से कहा, ‘‘इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला है. तपाक से एक सज्जन बोले, ‘‘मान गए उस्ताद आप को, बड़ी पहुंच है आप की, खूब तिकड़म लगाई. कुछ खर्चावर्चा भी हुआ?’’

मैं उन की बातें सुन कर सकते में आ गया. उन्होंने मेरी उपलब्धि अथवा अन्य कार्यों के संबंध में न पूछ कर सीधे ही टिप्पणी दे डाली. पुरस्कार के पीछे उन की इस अवधारणा ने मुझे झकझोर दिया. और पुरस्कार के प्रति एक वितृष्णा सी हो उठी. क्यों लोगों में इस के प्रति आस्था नहीं है? कई प्रश्न मेरे सामने एकएक कर आते गए जिन का उत्तर मैं खोजता आ रहा हूं.

एक दिन अचानक एक अध्यापक बंधु मिले. उन की ग्रेडफिक्सेशन आदि की कुछ समस्या थी. वे मुझ से बोले, ‘‘भाई साहब, आप तो राष्ट्रीय पुरस्कारप्राप्त शिक्षक हैं. आप की बात का तो वजन विभाग में होगा ही, कुछ मेरी भी सहायता कीजिए.’’

मैं ने उन को बताया कि मेरे खुद के मामले ही अनिर्णीत पड़े हैं, कौन जानता है मुझे विभाग में. कौन सुनता है मेरी. मैं ने उन्हें यह भी बताया कि एक बार जिला शिक्षा अधिकारी से मिलने गया था. मैं ने अपनी परची में अपने नाम के आगे ‘राष्ट्रीय पुरस्कारप्राप्त’ भी लिख दिया था. मुझे पदवी लिखने का शौक नहीं है पर किसी ने सुझा दिया था. मैं ने भी सोचा कि देखें कितना प्रभाव है इस लेबल का. सो, आधा घंटे तक तो बुलाया ही नहीं. बाद में डेढ़ बजे बाहर निकलते हुए मेरे पूछने पर कहा, ‘‘आप साढ़े 3 बजे मिलिएगा.’’ और फिर उस दिन वे लंच के बाद आए ही नहीं और हम अपने पुरस्कार को याद करते हुए लौट आए.

मुझे अफसोस है कि मुझे पुरस्कार तो दिया गया पर पूछा क्यों नहीं जाता है, पहचाना क्यों नहीं जाता है, सुना क्यों नहीं जाता है? क्यों यह मात्र एक औपचारिकता ही है कि 5 सितंबर को एक जलसे में कुछ कर दिया जाता है और बस कहानी खत्म.

एक बार मैं ऐसे ही पुरस्कार समारोह के अवसर पर बैठा था. मेरी बगल में बैठे शिक्षक मित्र ने पूछा, ‘‘आप तो पुरस्कृत शिक्षक हैं, आप को तो आगे बैठना चाहिए. आप का तो विशेष स्थान सुरक्षित होगा?  आप को तो हर वर्ष बुलाते होंगे?’’

मैं ने कहा, ‘‘भाई मेरे, मुझे ही शौक है लोगों से मिलने का सो चला आता हूं. निमंत्रण तो इन 10 वर्षों में केवल 2 बार ही पहुंच पाया है और वह भी इसलिए कि निमंत्रणपत्र भेजने वाले मेरे परिचित एवं मित्र थे.

समारोह में कुछ व्यवस्थापक सदस्य आए और कुछ लोगों को परचियां दे गए, और कहा, ‘‘आप लोग समारोह के बाद पुरस्कृत शिक्षकों के साथ अल्पाहार लेंगे.’’ मेरे पड़ोसी ने फिर पूछा, ‘‘आप तो पुरस्कृत शिक्षक?हैं, आप को क्यों नहीं दे रहे हैं यह परची?’’ मैं ने एक लंबी सांस ली और कहा, ‘‘अरे, भाई साहब, यह पुरस्कार तो एक औपचारिकता है, पहचान थोड़े ही है. एक महान पुरुष ने चालू कर दिया सो चालू हो गया. अब चलता रहेगा जब तक कोई दूसरा महापुरुष बंद नहीं कर देगा.’’

बगल वाले सज्जन ने पूछा, ‘‘तो क्या ऐसे महापुरुष भी हैं जो बंद कर देंगे.’’

‘‘अरे, साहब, क्या कमी है इस वीरभूमि में ऐसे बहादुरों की. देखिए न, पुरस्कार प्राप्त शिक्षकों को 3 वर्षों की सेवावृद्धि स्वीकृत थी पर बंद कर दी न किसी महापुरुष ने.’’

‘‘अच्छा, यह तो बताइए कि लोग क्या देते हैं आप को? क्या केवल 1 से 5 हजार रुपए ही?’’

‘‘जी हां, यह क्या कम है? सच पूछो तो वे क्या देते हैं हम को, देते तो हम हैं उन्हें.’’

‘‘ वह क्या?’’

‘‘अजी, हम धन्यवाद देते हैं कि वे भले ही एक दिन ही सही, हमारा अभिनंदन तो करते हैं और हम भिश्ती को एक दिन का सुलतान बनाए जाने की बात याद कर लेते हैं.’’

‘‘लेकिन उस को तो फुल पावर मिली थी और उस ने चला दिया था चमड़े का सिक्का.’’

‘‘इतनी पावर तो हमें मिलने का प्रश्न ही नहीं. पर हां, उस दिन तो डायरेक्टर, कमिश्नर, मिनिस्टर सभी हाथ मिलाते हैं हम से, हमारे साथ चाय पी लेते हैं, हम से बात कर लेते हैं, यह क्या कम है?’’ इसी बीच राज्यपाल महोदय आ गए और सब खड़े हो गए. बाद में सब बैठे भी, लेकिन कम्बख्त सवाल हैं कि तब से खड़े ही हैं.

Comedy Story In Hindi : कहो, कैसी रही चाची

Comedy Story In Hindi : लड़की लंबी हो, मिल्की ह्वाइट रंग हो, गृहकार्य में निपुण हो… ऐसी बातें तो घरों में तब खूब सुनी थीं जब बहू की तलाश शुरू होती थी. जाने कितने फोटो मंगाए जाते, देखे जाते थे.

फिर लड़की को देखने का सिलसिला शुरू होता था. लड़की में मांग के अनुसार थोड़ी भी कमी पाई जाती तो उसे छांट दिया जाता. यों, अब सुनने में ये सब पुरानी बातें हो गई हैं पर थोड़े हेरफेर के साथ घरघर की आज भी यही समस्या है.

अब तो लड़कियों में एक गुण की और डिमांड होने लगी है. मांग है कि कानवेंट की पढ़ी लड़की चाहिए. यह ऐसी डिमांड थी कि कई गुणसंपन्न लड़कियां धड़ामधड़ाम गिर गईं.

अच्छेअच्छे वरों की कतार से वे एकदम से बाहर कर दी गईं. उन में कुंभी भी थी जो मेरे पड़ोस की भूली चाची की बेटी थी.

‘‘कानवेंट एजुकेटेड का मतलब?’’ पड़ोस में नईनई आईं भूली चाची ने पूछा, जो दरभंगा के किसी गांव की थीं.

‘‘अंगरेजी जानने वाली,’’ मैं ने बताया.

‘‘भला, अंगरेजी में ऐसी क्या बात है भई, जो हमारी हिंदी में नहीं…’’ चाची ने आंख मटकाईं.

‘‘अंगरेजी स्कूलों में पढ़ने वाली लड़कियां तेजतर्रार होती हैं. हर जगह आगे, हर काम में आगे,’’ मैं ने उन्हें समझाया, ‘‘फटाफट अंगरेजी बोलते देख सब हकबका जाते हैं. अच्छेअच्छों की बोलती बंद हो जाती है.’’

‘‘अच्छा,’’ चाची मेरी बात मानने को तैयार नहीं थीं, इसलिए बोलीं, ‘‘यह तो मैं अब सुन रही हूं. हमारे जमाने की कई औरतें आज की लड़कियों को पछाड़ दें. मेरी कुंभी तो अंगरेजी स्कूल में नहीं पढ़ी पर आज जो तमाम लड़कियां इंगलिश मीडियम स्कूलों में पढ़ रही हैं, कुछ को छोड़ बाकी तो आवारागर्दी करती हैं.’’

‘‘छी…छी, ऐसी बात नहीं है, चाची.’’

‘‘कहो तो मैं दिखा दूं,’’ चाची बोलीं, ‘‘घर से ट्यूशन के नाम पर निकलती हैं और कौफी शौप में बौयफे्रंड के साथ चली जाती हैं, वहां से पार्क या सिनेमा हाल में… मैं ने तो खुद अपनी आंखों से देखा है.’’

‘‘हां, इसी से तो अब अदालत भी कहने लगी है कि वयस्क होने की उम्र 16 कर दी जाए,’’ मैं ने कुछ शरमा कर कहा.

‘‘यानी बात तो घूमफिर कर वही हुई. ‘बालविवाह की वापसी,’’’ चाची बोलीं, ‘‘अच्छा छोड़ो, तुम्हारी बेटी तो अंगरेजी स्कूल में पढ़ रही है, उसे सीना आता है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘खाना पकाना?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘चलो, गायनवादन तो आता ही होगा,’’ चाची जोर दे कर बोलीं.

‘‘नहीं, उसे बस अंगरेजी बोलना आता है,’’ यह बताते समय मैं पसीनेपसीने हो गई.

चाची पुराने जमाने की थीं पर पूरी तेजतर्रार. अंगरेजी न बोलें पर जरूरत के समय बड़ेबड़ों की हिम्मत पस्त कर दें.

उस दिन चाची के घर जाना हुआ. बाहर बरामदे में बैठी चाची साड़ी में कढ़ाई कर रही थीं. खूब बारीक, महीन. जैसे हाथ नहीं मकड़ी का मुंह हो.

‘‘हाय, चाची, ये आप कर रही हैं? दिखाई दे रहा है इतना बारीक काम…’’

‘‘तुम से ज्यादा दिखाई देता है,’’ चाची हंस कर बोलीं, ‘‘यह तो आज दूसरी साड़ी पर काम कर रही हूं. पर बिटिया, मुझे अंगरेजी नहीं आती, बस.’’

मैं मुसकरा दी. फिर एक दिन देखा, पूरे 8 कंबल अरगनी पर पसरे हैं और 9वां कंबल चाची धो रही हैं.

‘‘चाची, इस उम्र में इतने भारीभारी कंबल हाथ से धो रही हैं. वाशिंगमशीन क्यों नहीं लेतीं?’’

‘‘वाशिंगमशीन तो बहू ने ले रखी है पर मुझे नहीं सुहाती. एक तो मशीन से मनचाही धुलाई नहीं हो पाती, कपड़े भी जल्दी पतले हो जाते हैं, कालर की गंदगी पूरी हटती नहीं जबकि खुद धुलाई करने पर देह की कसरत हो जाती है. एक पंथ दो काज, क्यों.’’

चाची का बस मैं मुंह देखती रही थी. लग रहा था जैसे कह रही हों, ‘हां, मुझे बस अंगरेजी नहीं आती.’

उस दिन बाजार में चाची से भेंट हो गई. तनु और मैं केले ले रही थीं. केले छांटती हुई चाची भी आ खड़ी हुईं. मैं ने 6 केलों के पैसे दिए और आगे बढ़ने लगी.

चाची, जो बड़ी देर से हमें खरीदारी करते देख रही थीं, झट से मेरा हाथ पकड़ कर बोलीं, ‘‘रुक, जरा बता तो, केले कितने में लिए?’’

‘‘30 रुपए दर्जन,’’ मैं ने सहज बता दिया.

‘‘ऐसे केले 30 रुपए में. क्या देख कर लिए. तू तो इंगलिश मीडियम वाली है न, फिर भी लड़ न सकी.’’

‘‘मेरे कहने पर दिए ही नहीं. अब छोड़ो भी चाची, दोचार रुपए के लिए क्या बहस करनी,’’ मैं ने उन्हें समझाया.

‘‘यही तो डर है. डर ही तो है, जिस ने समाज को गुंडों के हवाले कर दिया है,’’ इतना कह कर चाची ने तनु के हाथ से केले छीन लिए और लपक कर वे केले वाले के पास पहुंचीं और केले पटक कर बोलीं, ‘‘ऐसे केले कहां से ले कर आता है…’’

‘‘खगडि़या से,’’ केले वाले ने सहजता से कहा.

‘‘इन की रंगत देख रहा है. टी.बी. के मरीज से खरीदे होंगे 5 रुपए दर्जन, बेच रहा है 30 रुपए. चल, निकाल 10 रुपए.’’

‘‘अब आप भी मेरी कमाई मारती हो चाची,’’ केले वाला घिघिया कर बोला, ‘‘आप को 10 रुपए दर्जन के भाव से ही दिए थे न.’’

‘‘तो इसे ठगा क्यों? चल, निकाल बाकी पैसे वरना कल से यहां केले नहीं बेच पाएगा. सारा कुछ उठा कर फेंक दूंगी…’’

और चाची ने 10 रुपए ला कर मेरे हाथ में रख दिए. मैं तो हक्कीबक्की रह गई. पतली छड़ी सी चाची में इतनी हिम्मत.

एक दिन फिर चाची से सड़क पर भेंट हो गई.

सड़क पर जाम लगा था. सारी सवारियां आपस में गड्डमड्ड हो गई थीं. समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे रास्ता निकलेगा. ट्रैफिक पुलिस वाला भी नदारद था. लोग बिना सोचेसमझे अपनेअपने वाहन घुसाए जा रहे थे. मैं एक ओर नाक पर अपना रुमाल लगाए खड़ी हो कर भीड़ छंटने की प्रतीक्षा कर रही थी.

तभी चाची दिखीं.

‘‘अरे, क्या हुआ? इतनी तेज धूप में खड़ी हो कर क्या सोच रही है?’’

‘‘सोच रही हूं, जाम खुले तो सड़क के दूसरी ओर जाऊं.’’

‘‘जाम लगा नहीं है, जाम कर दिया गया है. यहां सारे के सारे अंगरेजी पढ़ने वाले जो हैं. देखो, किसी में हिम्मत नहीं कि जो गलत गाडि़यां घुसा रहे हैं उन्हें रोक सके. सभ्य कहलाने के लिए नाक पर रुमाल लगाए खड़े हैं या फिर कोने में बकरियों की तरह मिमिया रहे हैं.’’

‘‘तो आप ही कुछ करें न, चाची,’’ उन की हिम्मत पर मुझे भरोसा हो चला था.

चाची हंस दीं, ‘‘मैं कोई कंकरीट की बनी दीवार नहीं हूं और न ही सूमो पहलवान. हां, कुछ हिम्मती जरूर हूं. बचपन से ही सीखा है कि हिम्मत से बड़ा कोई हथियार नहीं,’’ फिर हंस कर बोलीं, ‘‘बस, अंगरेजी नहीं पढ़ी है.’’

चाची बड़े इत्मीनान से भीड़ का मुआयना करने लगीं. एकाएक उन्हें ठेले पर लदे बांस के लट्ठे दिखे. चाची ने उसे रोक कर एक लट्ठा खींच लिया और आंचल को कमर पर कसा और लट्ठे को एकदम झंडे की तरह उठा लिया. फिर चिल्ला कर बोलीं, ‘‘तुम गाड़ी वालों की यह कोई बात है कि जिधर जगह देखी, गाड़ी घुसा दी और सारी सड़क जाम कर दी है. हटो…हटो…हटो…पुलिस नहीं है तो सब शेर हो गए हो. क्या किसी को किसी की परवा नहीं?’’

पहले तो लोग अवाक् चाची को इस अंदाज से देखने लगे कि यह कौन सी बला आ गई. फिर कुछ चाची के पीछे हो लिए.

‘‘हां, चाची, वाह चाची, तू ही कुछ कर सकती है…’’ और थोड़ी ही देर में चाची के पीछे कितनों का काफिला खड़ा हो गया. मैं अवाक् रह गई.

गलतसलत गाडि़यां घुसाने वाले सहम कर पीछे हट गए. चाची ने मेरा हाथ पकड़ा और बोलीं, ‘‘चल, धूप में जल कर कोयला हो जाएगी,’’ और बांस को झंडे की तरह लहराती, भीड़ को छांटती पूरे किलोमीटर का रास्ता नापती चाची निकल गईं. जाम तितरबितर हो चला था. कुछ मनचले चिल्ला रहे थे :

‘‘चाची जिंदाबाद…चाची जिंदाबाद.’’

चाची किसी नेता से कम न लग रही थीं. बस, अंगरेजी न जानती थीं. भीड़ से निकल कर मेरा हाथ छोड़ कर कहा, ‘‘यहां से चली जाएगी या घर पहुंचा दूं?’’

‘‘नहींनहीं,’’ मैं ने खिलखिला कर कहा, ‘‘मैं चली जाऊंगी पर एक बात कहूं.’’

‘‘क्या? यही न कहेगी तू कि कानवेंट की है, मुझे अंगरेजी नहीं आती?’’

‘‘अरे, नहीं चाची, पूरा दुलार टपका कर मैं ने कहा, ‘‘मैं जब बहू खोजूंगी तब लड़की का पैमाना सिर्फ अंगरेजी से नहीं नापूंगी.’’

चाची खिलखिला दीं, शायद कहना चाह रही थीं, ‘‘कहो, कैसी रही चाची?’’

Family Drama : क्या शादीशुदा लड़कियों को पढ़ने का हक नहीं है?

लेखक- प्रबोधकुमार गोविल

Family Drama : जब से वे सपना की शादी कर के मुक्त हुईं तब से हर समय प्रसन्नचित्त दिखाई देती थीं. उन के चेहरे से हमेशा उल्लास टपकता रहता था. महरी से कोई गलती हो जाए, दूध वाला दूध में पानी अधिक मिला कर लाए अथवा झाड़ू  पोंछे वाली देर से आए, सब माफ था. अब वे पहले की तरह उन पर बरसती नहीं थीं. जो भी घर में आता, उत्साह से उसे सुनाने बैठ जातीं कि उन्होंने कैसे सपना की शादी की, कितने अच्छे लोग मिल गए, लड़का बड़ा अफसर है, देखने में राजकुमार जैसा. फिर भी एक पैसा दहेज का नहीं लिया. ससुर तो कहते थे कि आप की बेटी ही लक्ष्मी है और क्या चाहिए हमें. आप की दया से घर में सब कुछ तो है, किसी बात की कमी नहीं. बस, सुंदर, सुसंस्कृत व सुशील बहू मिल गई, हमारे सारे अरमान पूरे हो गए.

शादी के बाद पहली बार जब बेटी ससुराल से आई तो कैसे हवा में उड़ी जा रही थी. वहां के सब हालचाल अपने घर वालों को सुनाती, कैसे उस की सास ने इतने दिनों पलंग से नीचे पांव ही नहीं धरने दिया. वह तो रानियों सी रही वहां. घर के कामों में हाथ लगाना तो दूर, वहां तो कभी मेहमान अधिक आ जाते तो सास दुलार से उसे भीतर भेजती हुई कहती, ‘‘बेचारी सुबह से पांव लगतेलगते थक गई, नातेरिश्तेदार क्या भागे जा रहे हैं कहीं. जा, बैठ कर आराम कर ले थोड़ी देर.’’

और उस की ननद अपनी भाभी को सहारा दे कर पलंग पर बैठा आती.

यह सब जब उन्होंने सुना तो फूली नहीं समाईं. कलेजा गज भर का हो गया. दिन भर चाव से रस लेले कर वे बेटी की ससुराल की बातें पड़ोसिनों को सुनाने से भी नहीं चूकतीं. उन की बातें सुन कर पड़ोसिन को ईर्ष्या होती. वे सपना की ससुराल वालों को लक्ष्य कर कहतीं, ‘‘कैसे लोग फंस गए इन के चक्कर में. एक पैसा भी दहेज नहीं देना पड़ा बेटी के विवाह में और ऐसा शानदार रोबीला वर मिल गया. ऊपर से ससुराल में इतना लाड़प्यार.’’

उस दिन अरुणा मिलने आईं तो वे उसी उत्साह से सब सुना रही थीं, ‘‘लो, जी, सपना को तो एम.ए. बीच में छोड़ने तक का अफसोस नहीं रहा. बहुत पढ़ालिखा खानदान है. कहते हैं, एम.ए. क्या, बाद में यहीं की यूनिवर्सिटी में पीएच.डी. भी करवा देंगे. पढ़नेलिखने में तो सपना हमेशा ही आगे रही है. अब ससुराल भी कद्र करने वाला मिल गया.’’

‘‘फिर क्या, सपना नौकरी करेगी, जो इतना पढ़ा रहे हैं?’’ अरुणा ने उन के उत्साह को थोड़ा कसने की कोशिश की.

‘‘नहीं जी, भला उन्हें क्या कमी है जो नौकरी करवाएंगे. घर की कोठी है.  हजारों रुपए कमाते हैं हमारे दामादजी,’’ उन्होंने सफाई दी.

‘‘तो सपना इतना पढ़लिख कर क्या करेगी?’’

‘‘बस, शौक. वे लोग आधुनिक विचारों के हैं न, इसलिए पता है आप को, सपना बताती है कि सासससुर और बहू एक टेबल पर बैठ कर खाना खाते हैं. रसोई में खटने के लिए तो नौकरचाकर हैं. और खानेपहनाने के ऐसे शौकीन हैं कि परदा तो दूर की बात है, मेरी सपना तो सिर भी नहीं ढकती ससुराल में.’’

‘‘अच्छा,’’ अरुणा ने आश्चर्य से कहा.

मगर शादी के महीने भर बाद लड़की ससुराल में सिर तक न ढके, यह बात उन के गले नहीं उतरी.

‘‘शादी के समय सपना तो कहती थी कि मेरे पास इतने ढेर सारे कपड़े हैं, तरहतरह के सलवार सूट, मैक्सी और गाउन, सब धरे रह जाएंगे. शादी के बाद तो साड़ी में गठरी बन कर रहना होगा. पर संयोग से ऐसे घर में गई है कि शादी से पहले बने सारे कपड़े काम में आ रहे हैं. उस के सासससुर को तो यह भी एतराज नहीं कि बाहर घूमने जाते समय भी चाहे…’’

‘‘लेकिन बहनजी, ये बातें क्या सासससुर कहेंगे. यह तो पढ़ीलिखी लड़की खुद सोचे कि आखिर कुंआरी और विवाहिता में कुछ तो फर्क है ही,’’ श्रीमती अरुणा से नहीं रहा गया.

उन्होंने सोचा कि शायद श्रीमती अरुणा को उन की पुत्री के सुख से जलन हो रही है, इसीलिए उन्होंने और रस ले कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं तो डरती थी. मेरी सपना को शुरू से ही सुबह देर से उठने की आदत है, पराए घर में कैसे निभेगी. पर वहां तो वह सुबह बिस्तर पर ही चाय ले कर आराम से उठती है. फिर उठे भी किस लिए. स्वयं को कुछ काम तो करना नहीं पड़ता.’’

‘‘अब चलूंगी, बहनजी,’’ श्रीमती अरुणा उठतेउठते बोलीं, ‘‘अब तो आप अनुराग की भी शादी कर डालिए. डाक्टर हो ही गया है. फिर आप ने बेटी विदा कर दी. अब आप की सेवाटहल के लिए बहू आनी चाहिए. इस घर में भी तो कुछ रौनक होनी ही चाहिए,’’ कहतेकहते श्रीमती अरुणा के होंठों की मुसकान कुछ ज्यादा ही तीखी हो गई.

कुछ दिनों बाद सपना के पिता ने अपनी पत्नी को एक फोटो दिखाते हुए कहा, ‘‘देखोजी, कैसी है यह लड़की अपने अनुराग के लिए? एम.ए. पास है, रंग भी साफ है.’’

‘‘घरबार कैसा है?’’ उन्होंने लपक कर फोटो हाथ में लेते हुए पूछा.

‘‘घरबार से क्या करना है? खानदानी लोग हैं. और दहेज वगैरा हमें एक पैसे का नहीं चाहिए, यह मैं ने लिख दिया है उन्हें.’’

‘‘यह क्या बात हुई जी. आप ने अपनी तरफ से क्यों लिख दिया? हम ने क्या उसे डाक्टर बनाने में कुछ खर्च नहीं किया? और फिर वे जो देंगे, उन्हीं की बेटी की गृहस्थी के काम आएगा.’’

अनुराग भी आ कर बैठ गया था और अपने विवाह की बातों को मजे ले कर सुन रहा था. बोला, ‘‘मां, मुझे तो लड़की ऐसी चाहिए जो सोसाइटी में मेरे साथ इधरउधर जा सके. ससुराल की दौलत का क्या करना है?’’

‘‘बेशर्म, मांबाप के सामने ऐसी बातें करते तुझे शर्म नहीं आती. तुझे अपनी ही पड़ी है, हमारा क्या कुछ रिश्ता नहीं होगा उस से? हमें भी तो बहू चाहिए.’’

‘‘ठीक है, तो मैं लिख दूं उन्हें कि सगाई के लिए कोई दिन तय कर लें. लड़की दिल्ली में भैयाभाभी ने देख ही ली है और सब को बहुत पसंद आई है. फिर शक्लसूरत से ज्यादा तो पढ़ाई- लिखाई माने रखती है. वह अर्थशास्त्र में एम.ए. है.’’

उधर लड़की वालों को स्वीकृति भेजी गई. इधर वे शादी की तैयारी में जुट गईं. सामान की लिस्टें बनने लगीं.

अनुराग जो सपना के ससुराल की तारीफ के पुल बांधती अपनी मां की बातों से खीज जाता था, आज उन्हें सुनाने के लिए कहता, ‘‘देखो, मां, बेकार में इतनी सारी साडि़यां लाने की कोई जरूरत नहीं है, आखिर लड़की के पास शादी के पहले के कपड़े होंगे ही, वे बेकार में पड़े बक्सों में सड़ते रहें तो इस से क्या फायदा.’’

‘‘तो तू क्या अपनी बहू को कुंआरी छोकरियों के से कपड़े यहां पहनाएगा?’’ वह चिल्ला सी पड़ीं.

‘‘क्यों, जब जीजाजी सपना को पहना सकते हैं तो मैं नहीं पहना सकता?’’

वे मन मसोस कर रह गईं. इतने चाव से साडि़यां खरीद कर लाई थीं. सोचा था, सगाई पर ही लड़की वालों पर अच्छा प्रभाव पड़ गया तो वे बाद में अपनेआप थोड़ा ध्यान रखेंगे और हमारी हैसियत व मानसम्मान ऊंचा समझ कर ही सबकुछ करेंगे. मगर यहां तो बेटे ने सारी उम्मीदों पर ही पानी फेर दिया.

रात को सोने के लिए बिस्तर पर लेटीं तो कुछ उदास थीं. उन्हें करवटें बदलते देख कर पति बोले, ‘‘सुनोजी, अब घर के काम के लिए एक नौकर रख लो.’’

‘‘क्यों?’’ वह एकाएक चौंकीं.

‘‘हां, क्या पता, तुम्हारी बहू को भी सुबह 8 बजे बिस्तर पर चाय पी कर उठने की आदत हो तो घर का काम कौन करेगा?’’

वे सकपका गईं.

सुबह उठीं तो बेहद शांत और संतुष्ट थीं. पति से बोलीं, ‘‘तुम ने अच्छी तरह लिख दिया है न, जी, जैसी उन की बेटी वैसी ही हमारी. दानदहेज में एक पैसा भी देने की जरूरत नहीं है, यहां किस बात की कमी है, मैं तो आते ही घर की चाबियां उसे सौंप कर अब आराम करूंगी.’’

‘‘पर मां, जरा यह तो सोचो, वह अच्छी श्रेणी में एम.ए. पास है, क्या पता आगे शोधकार्य आदि करना चाहे. फिर ऐसे में तुम घर की जिम्मेदारी उस पर छोड़ दोगी तो वह आगे पढ़ कैसे सकेगी?’’ यह अनुराग का स्वर था.

उन की समझ में नहीं आया कि एकाएक क्या जवाब दें.

कुछ दिन बाद जब सपना ससुराल से आई तो वे उसे बातबात पर टोक देतीं, ‘‘क्यों री, तू ससुराल में भी ऐसे ही सिर उघाड़े डोलती रहती है क्या? वहां तो ठीक से रहा कर बहुओं की तरह और अपने पुराने कपड़ों का बक्सा यहीं छोड़ कर जाना. शादीशुदा लड़कियों को ऐसे ढंग नहीं सुहाते.’’

सपना ने जब बताया कि वह यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रही है तो वे बरस ही पड़ीं, ‘‘अब क्या उम्र भर पढ़ती ही रहेगी? थोड़े दिन सासससुर की सेवा कर. कौन बेचारे सारी उम्र बैठे रहेंगे तेरे पास.’’

आश्चर्यचकित सपना देख रही थी कि मां को हो क्या गया है?

Hindi Story : पत्नी का कर्जदार

Hindi Story : अचानक दिल्ली में जब उस हवाई दुर्घटना के बारे में सुना तो एकाएक विश्वास ही नहीं हुआ. मैं तो बड़ी बेसब्री से कमला की प्रतीक्षा कर रही थी कि अचानक यह हादसा हो गया. कमला शादी के बाद पहली बार दिल्ली अपने मातापिता के पास आ रही थी. 5 साल पहले उस की शादी हुई थी और शादी के कुछ महीने बाद ही वह अपने पति के पास मांट्रियल चली गई थी. इसी बीच उस की गोद में एक बेटी भी आ गई थी. दिल्ली में उस का मायका हमारे घर से थोड़ी ही दूरी पर था.

मैं पिछले 8 महीने से अपने पति और बच्चों के साथ दिल्ली में ही थी. मेरे पति भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली में अतिथि प्राध्यापक के रूप में काम कर रहे थे. कमला से मिले काफी दिन हो गए थे. मैं मांट्रियल की सब खोजखबर कमला से जानने के लिए उस की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रही थी.

कमला के पिता के घर हम अफसोस जाहिर करने गए. उस के मातापिता और परिवार के अन्य सदस्यों का बुरा हाल था. वे तो उसे पति के घर जाने के बाद एक बार देख भी नहीं पाए थे और अब क्या से क्या हो गया था.

कमला के पति राकेश को एअर लाइंस ने दुर्घटना स्थल तक जाने की सब सुविधाएं प्रदान की थीं. वह चाहता तो उस कंपनी के खर्चे पर भारत आ कर पत्नी और बेटी का दाहसंस्कार कर सकता था पर वह नहीं आया.

राकेश ने जब कमला के पिता को फोन किया, तब हम उन के घर पर ही थे. बेचारे राकेश से आग्रह कर के हार गए, पर वह दिल्ली आने को राजी नहीं हुआ. खैर, वह करते भी क्या. जमाई पर किस का हक होता है और अब तो उन की बेटी भी इस दुनिया में नहीं रही थी तो फिर वह उस को किस अधिकार से दिल्ली आने के लिए बाध्य करते.

एअर लाइंस के अधिकारी दुर्घटना में मरे यात्रियों के निकट संबंधियों से मुआवजे के बारे में बातचीत कर रहे थे. यह विषय कितना दुखद हो सकता है, इस का अनुमान तो वही लगा सकते हैं जो कभी ऐसी परिस्थिति से गुजरे हों. कैसे किसी विधवा स्त्री को समझाया जाए कि उस के पति की मृत्यु का मुआवजा चंद हजार डालर ही है. कैसे किसी पति को सांत्वना दें कि उस की पत्नी का मुआवजा इसलिए कम होगा, क्योंकि वह अपने पति पर निर्भर थी. जो इनसान हमें प्राणों से भी प्यारे लगते हैं, उन के जीवन का मूल्य एअरलाइंस कुछ हजार डालर ही लगाती है.

राकेश से जब एअरलाइंस के अधिकारियों ने उस की पत्नी और बच्ची की मृत्यु पर मुआवजे की बातचीत की तो वह क्रोध और दुख से कांप उठा. उस ने साफसाफ कह दिया कि इस दुर्घटना के लिए हवाई जहाज का पायलट जिम्मेदार था. वह अपनी बच्ची और पत्नी की मृत्यु के लिए मुआवजे की एक कौड़ी भी नहीं चाहता परंतु वह एअरलाइंस पर मुकदमा चलाएगा, चाहे उसे इस के लिए भीख ही क्यों न मांगनी पड़े. वह कचहरी में कंपनी को हवाई दुर्घटना के लिए जिम्मेदार ठहरा कर ही रहेगा.

एअरलाइंस के अधिकारी राकेश को धीरज बंधाने की कोशिश कर रहे थे. अगर वास्तव में राकेश कानून का सहारा लेगा तो मुकदमा जीत जाने पर कंपनी की कहीं अधिक हानि हो सकती थी. कंपनी के अधिकारी उस के इर्दगिर्द घूमते रहे, पर उस ने मुआवजे के फार्म पर हस्ताक्षर नहीं किए. शेष जितने भी यात्रियों की मृत्यु हुई थी, लगभग हर किसी के परिवार के सदस्यों ने मुआवजे के फार्म भर दिए थे. शायद राकेश ही ऐसा था जो बिना फार्म भरे मांट्रियल वापस आ गया था. एअरलाइंस के मांट्रियल कार्यालय के अधिकारियों को राकेश को राजी करने का काम सौंप दिया गया था.

राकेश और कमला से हमारी मुलाकात कुछ वर्ष पहले हुई थी. कमला तो काफी खुशमिजाज थी, पर राकेश हमें अधिक मिलनसार नहीं लगा. वैसे तो उसे कनाडा में रहते हुए कई साल हो गए थे और मांट्रियल में भी वह पिछले 7 सालों से था, पर उस की यहां पर इक्कादुक्का लोगों से ही मित्रता थी.

एक बार बाजार में कमला मिल गई. मैं ने जब उस से कहा कि मेरे घर चलो तो वह आनाकानी करने लगी. खैर, मैं आग्रह कर के उसे अपने घर ले आई. बातों ही बातों में पता चला कि बचपन में हम दोनों एक ही स्कूल में पढ़ती थीं. वह मुझ से मिल कर बहुत खुश हुई.

यह सुन कर मुझे बहुत अजीब लगा जब कमला ने बताया कि वह जब से भारत से आई है, किसी भी भारतीय के घर नहीं गई है और न ही उस ने कभी किसी को अपने घर बुलाया है. मैं ने जब उन को अपने घर खाने का निमंत्रण दिया तो वह आनाकानी करने लगी. कहने लगी, ‘‘पता नहीं, राकेशजी शाम को खाली भी होंगे या नहीं.’’

मैं ने जिद की तो वह मान गई परंतु यह कह कर कि अगर नहीं आ सके तो हम बुरा नहीं मानें. उस की बातों से लगा कि जैसे बेचारी पति की आदतों से परेशान है. पति अगर मिलनसार न हो तो पत्नी तो बेचारी बस जीवनभर घुटघुट कर ही मर जाए.

शाम को पतिपत्नी हमारे घर खाने पर आए. कमला तो बहुत खुश थी. मेरे साथ रसोई में हाथ बंटा रही थी, परंतु राकेश कुछ खिंचाखिंचा सा था. हमें ऐसा लगा कि वह कनाडा में अपनेआप को किसी विदेशी सा ही समझता है.

कमला और राकेश के यहां हमारा कभीकभार आनाजाना होने लगा. हम तो उन दोनों को पार्टियों में ही बुलाते थे, पर वे हमें बस अकेले ही सपरिवार आमंत्रित करते थे. हमारे घर की पार्टियों में उन की मुलाकात हमारे बहुत से मित्रों से होती थी. उन में से कुछ ने तो कमला और राकेश को खाने पर भी बुलाया था, पर वे नहीं गए. कोई बहाना बना कर टाल गए थे. जब उन की बच्ची पैदा हुई तो उस के लिए हमारे अलावा शायद ही किसी और ने उपहार दिया हो. हम भी बस एक ही बार जा पाए थे.

दिल्ली से जब हम मांट्रियल वापस आ रहे थे, सारे रास्ते मन उखड़ाउखड़ा सा था. इतने महीने दिल्ली में बिताने के बाद घर वालों से बिछुड़ने का दुख भी था. दिल के एक कोने में अपने घर जल्दी पहुंचने की इच्छा भी थी. कमला और उस की बच्ची रीता का खयाल भी रहरह कर दिल में उठ रहा था. बेचारा राकेश किस तरह कमला और रीता के बिना जीवन बिता रहा होगा. हमारे बच्चे तो रीता से कितना हिलमिल गए थे. उन को तो वह गुडि़या सी लगती थी.

मांट्रियल पहुंचने के अगले दिन हम दोनों राकेश से मिलने गए. मैं ने कमला के पिता का दिया हुआ पत्र राकेश को दे दिया. राकेश काफी उदास दिखाई दे रहा था. वह बेचारा बहुत कम लोगों को जानता था. थोड़े से लोग ही उस के घर पर अफसोस करने आए थे.

वह गंभीर स्वर में बोला, ‘‘हर समय कमला और रीता की याद सताती रहती है. कुछ दिल बहलेगा, इसलिए 1-2 दिन में वापस काम पर जाने की सोच रहा हूं.’’

राकेश के पास हम कुछ देर बैठ कर लौट आए.

दोचार दिन में हमारे सब मित्रों को मालूम हो गया कि हम वापस आ गए हैं. फिर क्या था, फोन पर फोन आने लगे. मेरी लगभग सभी सहेलियां मुझ से मिलने आईं. वे सब इस बात से परेशान थीं कि कनाडा के डाक कर्मचारियों की हड़ताल के कारण पत्र आदि आने भी बंद हो गए हैं.

एक शाम दीपक हमारे घर आए. उन्हें अकेले देख कर मैं ने शिकायत के लहजे में कहा, ‘‘क्यों भाई साहब, अकेले ही आ गए. भाभीजी को भी साथ ले आते.’’

‘‘मैं तो राकेश के घर जा रहा था. सोचा, आप लोगों से मिलता जाऊं और दिल्ली की मिठाई भी खाता जाऊं. तुम्हारी भाभी तो मुझे मिठाई को हाथ भी नहीं लगाने देंगी.’’

‘‘मैं भी बस आप को थोड़ी सी मिठाई चखाऊंगी. मुझे भाभीजी से डांट नहीं खानी है.’’

मैं रसोई में चाय बनाने चली गई.

दीपक मेरे पति से बोले, ‘‘साहब, डाक कर्मचारियों की हड़ताल ने परेशान कर रखा है. देखिए, यह चेक देने मुझे राकेश के पास खुद ही जाना पड़ रहा है.’’

‘‘किस तरह का चेक है, भाई साहब,’’ मैं रसोई में चाय और कुछ मिठाई ट्रे में रख कर ले आई और चाय परोसने लगी.

‘‘राकेश ने कमला के भारत जाते समय उस का हवाई अड्डे पर 2 लाख डालर का बीमा करा लिया था. यह चेक उसी बीमे का भुगतान है. कभी हाथ पर रखा है 2 लाख डालर का चेक,’’ दीपक ने मुसकराते हुए कोट की जेब से एक लिफाफा निकाला.

लगभग आधा घंटा बैठ कर दीपक राकेश को चेक देने चले गए. उस शाम हम दोनों पतिपत्नी यही सोचते रहे कि राकेश 2 लाख डालर का क्या करेगा. हमारे जानपहचान वालों में शायद ही कोई ऐसा हो जो पत्नी का हवाई यात्रा करते समय बीमा कराता हो. पुरुष तो फिर भी करा लेते हैं, पर पत्नी के लिए तो कोई भी नहीं सोचता. खैर, यह तो राकेश और कमला की अपनी इच्छा रही होगी. यह भी तो हो सकता है कि मजाक के लिए ही उन दोनों ने ऐसा किया हो, पर राकेश हंसीमजाक के लिए तो कुछ भी नहीं करता.

हम मांट्रियल में अपने जीवन में व्यस्त हो गए थे. सोमवार से शुक्रवार तक काम और बच्चों का स्कूल. शनिवार को खरीदारी और पार्टियां तथा रविवार को बस आराम या कभीकभी किसी परिचित के घर चले जाते.

राकेश से कभीकभी फोन पर मेरे पति बात कर लेते थे. हालांकि उस की चर्चा पार्टियों में कभीकभी ही होती थी. हमारे मित्र हम से ही उस के बारे में पूछते थे. लगता था, जैसे वह बाकी सब लोगों के लिए एक अजनबी सा ही हो.

एक बार दीपक बातों ही बातों में कह गए थे, ‘‘राकेश अपनी बीवी और बच्ची के लिए एअरलाइंस से मुआवजे के रूप में बहुत बड़ी रकम की मांग कर रहा है और जिद पर अड़ा है. अब तो उस के पास 2 लाख डालर की नकद रकम भी है. एअरलाइंस के खिलाफ मुकदमा न कर दे. वैसे कंपनी इस मामले को कचहरी तक पहुंचने नहीं देना चाहती और समझौता करने की कोशिश कर रही है. राकेश शायद हवाई दुर्घटना से पीडि़त अन्य लोगों की तुलना में कई गुना मुआवजा हवाई कंपनी से हासिल करने में सफल हो जाएगा.’’

जैसा कि होता है, हम भी कमला और रीता को भूल सा गए थे. राकेश तो कभी हम लोगों के करीब आ ही नहीं पाया था. हम ने एकदो बार उसे अपने घर बुलाया भी, परंतु वह नहीं आया, हम उस से मिलने उस के घर भी गए, पर अधिक बातें न हो सकीं.

डाक विभाग के कर्मचारियों की हड़ताल काफी दिन चली. जब हड़ताल समाप्त हुई तो हमें बहुत खुशी हुई. हड़ताल खत्म होते ही डाकघरों में पड़े पुराने पत्र, टेलीफोन और बिजली आदि के बिल आने चालू हो गए.

एक दिन दिल्ली से हमारे मांट्रियल पहुंचने के पश्चात पहला पत्र आया. लिफाफा भारी लग रहा था. उस में अम्मां का काफी लंबा पत्र था. एक और लिफाफा भी था, जिसे कनाडा से ही मेरे नाम भेजा गया था. हमारे दिल्ली से चले आने के बाद वहां पहुंचा होगा, इसलिए अम्मां ने हमें भेज दिया.

मैं ने जब लिफाफा खोला तो आश्चर्यचकित रह गई. पत्र कमला का था. मेरा मन उदास हो गया क्योंकि कमला अब इस दुनिया में नहीं थी. मैं पत्र पढ़ने लगी :

प्रिय रत्ना दीदी,

आप का पत्र मिला. मेरा कुछ ऐसा कार्यक्रम बन गया है कि जब आप मांट्रियल वापस आएंगी, तब मैं दिल्ली से कानपुर पहुंच चुकी होऊंगी. मेरी माताजी से आप को मेरे दिल्ली पहुंचने की तारीख का पता चल ही गया होगा. शायद आप को यह नहीं पता कि मैं जिद कर के दिल्ली पहुंचने के एक दिन बाद ही कानपुर अपनी बड़ी बहन के पास चली जाऊंगी. इस का कारण यह है कि आप मुझ से मिलने अवश्य मेरी माताजी के घर आएंगी, पर मैं आप से मिलने का साहस नहीं जुटा पा रही हूं. अब हम शायद कभी नहीं मिल पाएंगी क्योंकि मैं अब मांट्रियल कभी नहीं लौटूंगी.

मेरे इस निर्णय का राकेश को भी पता नहीं है. हां, इस का सौ प्रतिशत उत्तरदायी वही है. हमारी शादी हुए 5 साल से ऊपर हो गए हैं, पर उस ने शायद ही कभी पति का प्यार मुझे दिया हो. राकेश ने मुझे घर की नौकरानी से अधिक कभी कुछ नहीं समझा. शादी के इतने वर्ष बीत जाने पर भी उस ने कभी मेरे लिए कोई साड़ी, गहना या छोटा सा उपहार भी नहीं खरीदा. मेरी बात को छोडि़ए रीता को भी उस ने कभी प्यार से चूमा तक नहीं, गोद में खिलाना तो दूर की बात है.

आप ने देखा ही होगा कि राकेश कितना नीरस व्यक्ति है. परंतु वास्तव में वह बहुत खुशमिजाज है, और उस की यह खुशी बस अपनी महिला मित्रों तक ही सीमित है. उस ने अपने जीवन के इस रूप से मुझे हमेशा अनजान ही रखा. खुद ऐश करने के लिए उस के पास पैसे हैं, परंतु अपनी बेटी के लिए ढंग का फ्राक खरीदने के लिए पैसे की कमी है. वह हमेशा मुझे इतने कम पैसे देता है कि घर का खर्च भी मुश्किल से चलता है.

मैं कभी राकेश को पकड़ तो नहीं पाई परंतु जानती हूं कि कई लड़कियों के साथ उस का संपर्क है. मुझे प्रमाण तो नहीं मिल पाया, पर एक पत्नी को ऐसी बातें तो मालूम हो ही जाती हैं. मैं ने कई बार उसे समझाने की कोशिश की, पर हर बार उस से मार ही खाई. मेरे भारत जाने के लिए हवाई जहाज के टिकट के पैसे खर्च करने के लिए कभी वह राजी नहीं हुआ. इस बार जब पिताजी ने टिकट भेज दिया तो मैं दिल्ली आ पा रही हूं.

प्रत्येक लड़की के मातापिता अपनी बेटी के लिए अच्छे से अच्छा वर खोजने की कोशिश करते हैं. मेरे मातापिता ने भी इतना दहेज दिया था कि राकेश के घर वाले खुशी से फूले नहीं समा रहे थे. मेरे दहेज की सारी चीजों और नकद रुपयों से उन्होंने थोड़े दिनों बाद ही राकेश की छोटी बहन की शादी कर दी थी.

राकेश ने अपने घर वालों के दबाव में आ कर मुझ से शादी की थी. उसे मैं कभी भी अपने लायक नहीं लगी, क्योंकि मैं एक सीधीसादी आकर्षण- रहित महिला हूं. मुझे कहीं अपने साथ ले जाने में भी उसे आपत्ति होती थी. बेचारी रीता भी रंगरूप में मुझ पर गई है. इसी कारण उसे कभी राकेश से पिता का प्यार नहीं मिला.

मैं तो शायद किसी भी साधारण व्यक्ति को पति के रूप में पा कर प्रसन्न रहती. कम से कम मेरे जीवन में हीन- भावना तो न घर कर पाती. राकेश मेरे लिए उपयुक्त वर भी न था. उस ने मुझ से शादी खूब सारा दहेज पाने के लिए की थी. वह उसे मिल गया. उस के बाद उस के जीवन में मेरा कोई महत्त्व न था. शारीरिक आवश्यकताएं तो वह घर के बाहर पूरी कर ही लेता था. मैं तो बस रीता के लिए ही उस के साथ विवाहित जीवन की परिधि में असहाय की तरह जीवन बिताने का प्रयास कर रही थी.

अब मैं ने निश्चय कर लिया है कि जब विवाहित हो कर भी अविवाहिता का ही जीवन बिताना है तो क्यों न अपने मातापिता के पास ही रहूं. कम से कम उन का प्यार और सहयोग तो मुझे मिलेगा ही. मुझे मालूम है, मेरे मातापिता मुझे समझाने की कोशिश करेंगे, पर जब मैं उन्हें अपनी पीठ पर उभरे राकेश की मार के काले निशान दिखाऊंगी तो वे शायद कुछ न कहेंगे. मेरे जीवन के पिछले 5 साल कैसे बीते हैं, यह मेरा दिल ही जानता है. पर उन दिनों आप ने जो मुझे प्यार और स्नेह दिया, उस ने मुझे मानसिक संतुलन खो देने से बचा लिया. मैं जीवन भर आप की आभारी रहूंगी.

आप की कमला.

कमला का पत्र पढ़ कर मेरी आंखों में आंसू उमड़ आए. राकेश का जो रूप कमला के पत्र से प्रकट हुआ, उस की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी. मांट्रियल आने के बाद राकेश से हम 2-3 बार मिले थे.

हमेशा ऐसा ही लगा, जैसे उस के ऊपर दुख का पहाड़ टूट पड़ा है. यह सब क्या उस का दिखावा था, ताकि वह एअरलाइंस से अधिक मुआवजा वसूल कर सके. 2 लाख डालर तो उस की

जेब में आ ही चुके थे. अभी पता नहीं उसे मुआवजे के रूप में और कितने मिलेंगे?

कितना दुखभरा जीवन था कमला और उस की बच्ची का. जब तक जीवित रहीं छोटीछोटी चीजों के लिए तरसती रहीं क्योंकि राकेश आमदनी का अधिक भाग अपनी ऐयाशी पर खर्च कर देता था. मृत्यु के बाद भी दोनों राकेश के लिए आशातीत मुआवजे की रकम का प्रबंध कर गईं.

कह नहीं सकती कि राकेश एकांत के क्षणों में कमला और रीता की मृत्यु पर दुखी होता है अथवा प्रसन्न. उस का निजी जीवन पहले की तरह चल रहा है या कमला के रास्ते से हमेशा के लिए हट जाने के कारण वह और भी अधिक ऐशोआराम में डूब गया है.

वैसे राकेश जैसे व्यक्ति के बारे में मैं सोचना नहीं चाहती. कमला और उस की बेटी तो शायद राकेश का अतीत बन गई होंगी, पर उन दोनों की स्मृति मेरे मन से कभी नहीं जाएगी.

राकेश को तो मुआवजा मिल ही जाएगा, पर वह जीवन भर कमला का कर्जदार रहेगा. उसे कमला  के जीवन के दुख भरे वर्षों का मुआवजा कभी न कभी किसी न किसी रूप में तो चुकाना ही पड़ेगा.

Husband Wife Comedy : श्रीमतीजी की अभासी दुनिया

Husband Wife Comedy : पिछले2-3 महीनों से श्रीमतीजी को न जाने व्हाट्सऐप का क्या शौक लगा है कि रातरात भर बैठ कर मैसेज भेजती रहती हैं. कभी अचानक नींद खुले तो देख कर डर जाएं कि वे हंस रही हैं.

उस रात भी हम देख कर घबरा कर पूछ बैठे, ‘‘क्यों क्या बात है?’’

‘‘एक जोक आया है, गु्रप में शामिल हूं न तो फोटो और मैसेज आते रहते हैं. सुनाऊं?’’ श्रीमतीजी ने रात को 2 बजे उत्साहित स्वर में पूछा.

हम ने ठंडे स्वर में कहा, ‘‘सुना दो.’’

वे सुनाने लगीं. जब खत्म हो गया तो हम ने उत्साह बढ़ाते हुए कहा, ‘‘बहुत बढि़या है.’’

‘‘एक प्रेरक कथा भी आई है. उसे भी सुनाऊं?’’ और फिर हमारी मरजी जाने बिना शुरू हो गईं.

अचानक हमारी नींद खुली. श्रीमतीजी हमें झकझोर रही थीं. हम घबरा गए. पूछा, ‘‘क्यों क्या हुआ?’’

‘‘कहानी कैसी लगी?’’

‘‘कौन सी?’’

‘‘जो मैं सुना रही थी.’’

‘‘सौरी डियर हमें नींद आ गई थी.’’

‘‘मैं कब से पढ़पढ़ कर सुना रही थी,’’ कुछ नाराजगी भरे स्वर में श्रीमतीजी ने कहा.

‘‘डियर रात के 2 बजे इनसान सोएगा नहीं तो सुबह काम कैसे करेगा?’’ हम ने अपनी आंखें मलते हुए कहा.

‘‘तुम्हें अपनी श्रीमतीजी के द्वारा सुनाई जा रही कहानी की बिलकुल चिंता नहीं है,’’ वे कैकेई की तरह क्रोध धारण कर के बोलीं.

‘‘अच्छा, सुना दो,’’ कह कर हम उठ बैठे और वे बिना सिरपैर की कथा का मोबाइल पर देखदेख कर वाचन करने लगीं. 3 बजे तक हम जागे और सुबह कार्यालय लेट पहुंचे.

हमें यह देख कर आश्चर्य हो रहा था कि जो श्रीमतीजी 2 माह पहले तक हम से बातचीत करती थीं. हमारे कार्यालय से लौट आने पर नाश्ते की, चाय की बातें करती थीं वे अचानक इतनी कैसे बदल गईं? हमेशा वे अपने मोबाइल पर बैठ कर न जाने किसकिस को मैसेज करती रहती थीं. नैट और मोबाइल का जो भी चार्ज लगता वह हमारी जेब से जा रहा था. अब तो नाश्ता भी हमें खुद निकालना पड़ता था. भोजन में वह पहले जैसा स्वाद नहीं रहा था. लगता था खानापूर्ति के लिए भोजन पका दिया गया है. हम अपना माथा ठोंकने के अलावा और कर ही क्या सकते थे?

हम ने जब अपनी सासूमां से यह बात शेयर की तो उन्होंने कहा, ‘‘बेबी को डांटना नहीं, बात कर के देख लें.’’

सासूमां के लिए हमारी प्रौढ श्रीमतीजी अभी तक बेबी ही थीं. खैर, हम ने विचार किया कि हम इस विषय पर चर्चा जरूर करेंगे.

एक छुट्टी के दिन हम ने श्रीमतीजी से कहा, ‘‘यह आप दिन भर इस स्मार्ट फोन में क्याक्या करती रहती हैं? आंखें खराब हो जाएंगी.’’

‘‘नहीं होंगी… एक काम करो न… आप भी यह ले लो और हमारे ग्रुप में शामिल हो जाओ… सच में हमारे दोस्तों का एक बहुत शानदार ग्रुप है. हम खूब मजे करते हैं. खूब बातें करते हैं… क्या आविष्कार बनाया गया है यह मोबाइल का… यह व्हाट्सऐप का?’’ श्रीमतीजी अपने में मगन कहे जा रही थीं.

हम उन की बातें सुन कर अपना माथा ठोंकने के अलावा क्या करते. हम जब औफिस से लौटते तो वे हमें अपने आभासी मित्रों (जाहिर है महिला मित्रों) की ढेर सी बातें बतातीं. हम उन से कहते, ‘‘इस आभासी दुनिया में सब झूठे हैं.’’

लेकिन वे मानने को तैयार नहीं थीं.

हमारा वैवाहिक जीवन पूरी तरह से बरबादी की ओर अग्रसर था. आखिर हम करें तो क्या करें? हमें कोई उपाय दूरदूर तक दिखाई नहीं दे रहा था.

शनिवार की रात को जब हम बिस्तर पर पहुंचे तो श्रीमतीजी ने बहुत प्रेम से हम से कहा, ‘‘जानते हो…?’’

‘‘क्या?’’

‘‘इस व्हाट्सऐप से बहुत अच्छे लोगों से मुलाकात, बातचीत, दोस्ती हो जाती है.’’

‘‘अच्छा?’’ हम ने कोई रुचि नहीं ली.

‘‘बहुत अमीर और बहुत पहुंच वाली महिलाओं से बातचीत हो जाती है,’’ श्रीमतीजी कहे जा रही थीं.

हम चुप थे.

‘‘मैं ने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मेरे संसार में इतने सारे ग्रुपों में डेढ़ हजार दोस्तों की लिस्ट होगी.’’

‘‘जिस के इतने दोस्त हों उस का कोई भी दोस्त नहीं होता. दोस्त तो मात्र जीवन में 1 या 2 ही होते हैं, समझीं?’’ हम ने चिढ़े स्वर में कहा.

‘‘आप तो जलते हो.’’

‘‘हम क्यों जलने लगे?’’

‘‘मेरे सब फ्रैंड अच्छे परिवारों से हैं और अमीर हैं.’’

‘‘तो हम क्या करें?’’ हम चिढ़ गए थे.

‘‘मैं तो एक विशेष बात आप को बता रही थी.’’

‘‘कैसी विशेष बात?’’ हमारे कान खड़े हो गए थे.

‘‘मेरी 2-3 सहेलियां कल मुझ से मिलने आ रही हैं. वे सब बहुत अमीर हैं.’’

‘‘तो हम क्या करें?’’

‘‘प्लीज, कल आप बाजार से शानदार नाश्ता ले आना. कुछ मैं बना लूंगी… जानते हो हम पहली बार मिलेंगी… वाह कितने रोमांचक होंगे वे क्षण जब एकदम अपरिचित सहेलियों से भेंट होगी.’’

‘‘वे कहां रहती हैं?’’

‘‘यहीं भोपाल की ही हैं.’’

‘‘अच्छा, तो कल उन की पार्टी है.’’

‘‘पार्टी ही समझ लो. वे 3 आ रही हैं, फिर मैं भी उन से मिलने जाऊंगी. जीवन एकदूसरे से मिलने, एकदूसरे के विचारों को जानने का ही तो नाम है,’’ श्रीमतीजी ने किसी चिंतक की तरह कहा.

‘‘प्लीज, हमें सो जाने दो. जानती हो न महीने के आखिरी दिन चल रहे हैं और आप को पार्टी देने की सूझ रही है.’’

‘‘आप चिंता न करो. जो भी खर्च होगा मैं पेमैंट कर दूंगी.’’

‘‘हम पेमैंट करें चाहे आप, लेकिन खर्च तो अपना ही होगा न डियर? इस आभासी दुनिया से बाहर आओ… इस में कुछ नहीं रखा है,’’ हम ने कुछ चिढ़ते हुए कहा.

‘‘लेकिन वे सब तो कल आ रही हैं?’’

‘‘आने दो, हम ताला लगा कर घूमने चले जाएंगे.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. यह तो अपने वचन से पलट जाना हुआ. मैं कदापि ऐसा नहीं कर सकती,’’ श्रीमतीजी ने हम से दोटूक शब्दों में कहा.

‘‘फिर बताओ क्या करना है?’’

‘‘उन के लिए शानदार नाश्ते की व्यवस्था कर दो.’’

‘‘एक बार सोच लो, जिस आभासी दुनिया (फेसबुक) से आप मिली नहीं, जानती नहीं उसे क्यों और किसलिए निमंत्रण दे रहीं?’’ हम ने झल्लाते हुए कहा.

‘‘प्लीज, इस बार देखते हैं, अगर यह अनुभव खराब रहा तो मैं हमेशा के लिए व्हाट्सऐप से दूर हो जाऊंगी,’’ श्रीमतीजी ने हमें आश्वस्त करते हुए कहा.

श्रीमती सुबह जल्दी उठ गईं. ड्राइंगरूम ठीक किया, नाश्ता तैयार किया. फिर हमें उठा कर कहने लगीं, ‘‘उन का 10 बजे तक आना होगा. आप बाजार जा कर सामान ले आओ,’’ और फिर सामान की एक लंबी लिस्ट हमें थमा दी.

हम विचार करने लगे कि यह नाश्ते की लिस्ट है या पूरे महीने के राशन की है? जो फल हम ने कभी खाए नहीं, जिन मिठाइयों के नाम हम ने सुने नहीं थे वे सब उस लिस्ट में मौजूद थीं. कुछ नोट हमारे हाथ पर रख दिए. हम अपना पुराना स्कूटर ले कर बाजार निकल गए.

आटोरिकशा में सारा सामान रख कर हम घर आ गए.

श्रीमतीजी खुशी से हम से लिपट गईं. ऐसा लगा जैसे आम के फलदार वृक्ष पर नागफनी की बेल फैल गई हो. हम ने स्वयं को बचा कर दूर किया और अपने कमरे में जा पहुंचे.

श्रीमतीजी किचन में सामान को सजाने लगी थीं. हमारे जीवन का यह प्रथम अनुभव था जहां जान न पहचान और सलाम की प्रक्रिया हो रही थी. हम उन की व्यग्रता को देख रहे थे. थोड़ी देर बाद उन के मोबाइल पर संदेश आया, ‘‘मकान खोज रहे हैं… मिल नहीं रहा है.’’

इधर से श्रीमतीजी ने पूरा दिमाग लगा कर भारत का नक्शा उन्हें बताते हुए कहा, ‘‘मैं घिस्सू हलवाई की दुकान पर इन्हें लेने भेज रही हूं.’’

घिस्सू हलवाई महल्ले का प्रसिद्ध हलवाई था. श्रीमतीजी ने हम पर नजर डाली. हम बिना कुछ कहे अपने स्कूटर की तरफ चल दिए.

श्रीमतीजी उन्हें मोबाइल पर फोन कर के हमारे रंगरूप के विषय में, कपड़ों के विषय में विस्तार से जानकारी दे रही थीं ताकि उन्हें हमें पहचानने में कोई दिक्कत न हो. हम स्कूटर ले कर घिस्सू हलवाई की दुकान पर खड़े हो गए.

तभी एक काली महंगी कार आ कर रुकी और उस में बैठे ड्राइवर ने हमें देख कर पूछा, ‘‘आप ही चपड़गज्जूजी हैं?’’

‘‘जी हां, हम ही हैं.’’ हम ने घबराए स्वर में कहा.

‘‘आप के घर जाना है.’’

‘‘जी, हम लेने ही तो आए हैं,’’ हम ने कहा. अंदर कौन है, नहीं जान पाया, क्योंकि गाड़ी के अंदर कांच के ऊपर परदे चढ़े थे.

अब हम घिसेपिटे स्कूटर पर आगेआगे चल रहे थे और वे महंगी कार में हमारे पीछेपीछे.

कुछ ही देर बाद हम ने स्कूटर रोक दिया, क्योंकि आगे गली में तो कार जा नहीं सकती थी. हम ने कहा, ‘‘यहां से पैदल चलना होगा,’’ और फिर हम ने अपना स्कूटर एक दीवार से सटा कर खड़ा कर दिया.

तभी कार का दरवाजा खुला. 3 हट्टीकट्टी, गहनों से लदीफंदी, महंगे कपड़ों में, फिल्मी अंदाज में मेकअप किए उतरीं. हमारा दिल तो धकधक, तक धिनाधिन होने लगा था. हमें पहली बार अपनी श्रीमतीजी पर गर्व हो आया कि वाह क्या अमीरों से दोस्ती की है.

हम किसी पालतू कुत्ते की तरह दुम हिलाते, कूंकूं मुसकराते चल रहे थे. महल्ले की खिड़कियां खुल रही थीं. सब बहुत आश्चर्य से देख रहे थे कि इन छछूंदरों के घर ये अमीर क्या करने आए हैं…? हम उन्हें अपने गरीबखाने पर लाए.

श्रीमतीजी दरवाजे पर ही मिल गईं. हम ने अनुभव किया कि वे उतनी खुश नहीं थीं जितनी होनी चाहिए थीं. फिर भी मुसकरा कर अंदर ड्राइंगरूम में लाईं. पंखा चालू किया. तीनों इधरउधर देख रही थीं कि क्या एसी नहीं है?

सच तो यही है कि लोगों की अमीरी देख कर ही स्वयं की गरीबी का एहसास होता है. श्रीमतीजी ने तत्काल उन्हें पानी पीने को दिया. श्रीमतीजी का व्यवहार कुछ ऐसा था कि आभासी दुनिया वाली तुरंत चली जाएं. शायद इसलिए भी कि श्रीमतीजी को अपनी निर्धनता का कटु एहसास हो रहा होगा. कुल जमा चंद बातचीत के बाद नाश्ता कर वे जाने को उठ गईं. विदाई के समय तो हमारा सामना होना जरूरी था. हम देख रहे थे कि श्रीमतीजी अत्यधिक बेचैन हैं. क्यों, यह हम नहीं जान पाए थे. ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ये जल्दी चली जाएं. हम भी बागड़ बिल्ले की तरह उपस्थित हो कर विदाई बेला में खड़े रहना चाहते थे.

‘‘अच्छा जीजाजी चलते हैं,’’ एक मोटी सी फटी आवाज कानों में आई.

‘‘जीजी,’’ हम ने घबराए स्वर में कहा.

हम उन्हें छोड़ने जा रहे थे तो दूसरी ने कहा, ‘‘बस भी कीजिए… हम चली जाएंगी,’’ उस की आवाज भी कुछ विचित्र सी थी.

वे चली गईं तो श्रीमतीजी ने माथे का पसीना पोंछा. अचानक हमें बात समझ में आई और फिर हम जोर से हंस पड़े, ‘‘हा…हा…हा…’’

‘‘बस भी करो,’’ श्रीमतीजी नाराजगी भरे स्वर में बोलीं.

‘‘तो ये थीं आप की किन्नर सहेलियां,’’ कह हम फिर जोर से हंसने लगे.

‘‘उन्होंने मुझ से यह बात छिपा रखी थी,’’ श्रीमतीजी ने सफाई दी.

‘‘तो ऐसी सहेलियां होती हैं तुम्हारी आभासी दुनिया की,’’ हम ने कहा और फिर पेट पकड़ कर हंसने लगे.

अब श्रीमतीजी को बहुत क्रोध आ गया. वे जोर से नाराजगी भरे स्वर में कहने लगीं, ‘‘क्यों किन्नर इनसान नहीं हैं? इन की इच्छा दोस्ती करने की, सहेली बनाने की, हम जैसे सामान्यों से बात करने की, सामान्य व्यक्तियों के घरों में आनेजाने की इच्छा नहीं होती है? हम इन्हें हंसने वाली चीज समझ कर कब तक इन का मजाक उड़ाते रहेंगे? हमें इन की प्रौब्लम समझनी होगी, इन्हें भी प्लेटफार्म देना होगा जहां ये इज्जत के साथ, सामान्य व्यक्तियों की तरह रह सकें.’’

श्रीमतीजी की ये बातें सुन हमारी हंसी गायब हो गई और हम यह सोचने को मजबूर हो गए कि जो कहा गया है वह सत्य है और इस पर हम सब को सोचने कीजरूरत है न कि हंसने की. श्रीमतीजी की इस परिपक्व सोच पर हमें उन पर गर्व हो आया. उन्होंने शतप्रतिशत सच कहा था.

Love Story : जब प्रोफेसर को स्टूडेंट ने सिखाई प्यार की परिभाषा

Love Story :  सपना जा चुकी थी लेकिन प्रोफैसर सावंत के दिल में तो जैसे समंदर की लहरें टकरा रही थीं. मायूसी और निराशा के भंवर में डूबे वे सपना के बारे में सोचते रहे. धीरेधीरे अतीत की यादों के चलचित्र उन के स्मृति पटल पर सजीव होने लगे…

उस दिन प्रोफैसर सावंत एम.ए. की क्लास से बाहर आए ही थे कि कालेज के कैंपस में उन्हें सपना खड़ी दिखाई दी. वह उन की ओर तेज कदमों से आगे बढ़ी. प्रोफैसर उसे कैसे भूल सकते थे. आखिर वह उन की स्टूडैंट थी. उन के जीवन में शायद सपना ही थी जिस ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था. सफेद सलवारसूट और लाल रंग की चुन्नी में वह बला की खूबसूरत लग रही थी. नजदीक आते ही सपना हांफते स्वर में बोली, ‘‘गुड मौर्निंग सर, कैसे हैं आप?’’

‘‘मौर्निंग, अच्छा हूं. आप सुनाओ सपना, कैसी हो?’’ प्रोफैसर ने हंसते हुए पूछा.

‘‘अच्छी हूं…कमाल है सर, आप को मेरा नाम अभी भी याद है,’’ सपना ने खुश होते हुए कहा.

‘‘यू आर राइट सपना, लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें भूलना आसान नहीं होता…’’

प्रोफैसर जैसे अतीत की गहराइयों में खोने लगे. सपना ने टोकते हुए कहा, ‘‘सर, मैं आप से एक समस्या पर विचार करना चाहती हूं.’’

‘‘क्यों नहीं, कहो… मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं?’’

‘‘सर, मेरी सिविल सर्विसेज की परीक्षाएं हैं, मैं उन्हीं के लिए आप से कुछ चर्चा करना चाहती थी.’’

‘‘बड़ी खुशी की बात है. चलो, डिपार्टमैंट में बैठते हैं,’’ प्रोफैसर सावंत ने कहा.

अंगरेजी विभाग में सपना प्रोफैसर सावंत के पास की कुरसी पर बैठी थी और गंभीर मुद्रा में नोट्स लिखने में व्यस्त थी. अचानक प्रोफैसर को अपने पैर पर पैर का स्पर्श महसूस हुआ, उन्होंने फौरन सपना की ओर देखा. वह अपनी नोटबुक में डिक्टेशन लिखने में व्यस्त थी.

भावहीन, गंभीर मुखमुद्रा. सावंत को अपनी सोच पर पछतावा हुआ. यह बेखयाली में हुई साधारण सी बात थी. कुछ समय बाद प्रोफैसर सावंत से उन का मोइबल नंबर लेते हुए सपना ने अपने चिरपरिचित अंदाज में पूछा, ‘‘सर, मैं फिर कभी आप को परेशान करूं तो आप बुरा तो नहीं मानेंगे?’’

‘‘अरे नहीं, तुम को जब भी जरूरत हो, फोन कर सकती हो,’’ प्रोफैसर ने खुश होते हुए कहा.

मुसकराती हुई सपना जा चुकी थी. प्रोफैसर सावंत को अपने कमरे में एक अनोखी महक, अभी भी महसूस हो रही थी. उन्हें लगा शायद इस सुगंध का कारण सपना ही थी. प्रोफैसर फिर विचार शृंखला में डूब गए. लगभग 4 साल पहले एम.ए. कर के गई थी सपना. वे उस की योग्यता और अन्य खूबियों से बेहद प्रभावित थे. वह यूनिवर्सिटी टौपर भी रही थी. प्रोफैसर की 15 साल की सर्विस में सपना उन की बेहद पसंदीदा छात्रा रही थी. प्रोफैसर थे भी कुछ ज्यादा ही संवेदन- शील और आत्मकेंद्रित. हमेशा जैसे अपनी ही दुनिया में खोए रहते थे, लेकिन छात्रों में वे बड़े लोकप्रिय थे.

लगभग 8-10 दिन बीते होंगे कि एक दिन शाम को सपना का फोन आ गया. प्रोफैसर सावंत की खूबी थी कि वे हमेशा अपने विद्यार्थियों की समस्याओं का समाधान करते थे. कालेज में अथवा बाहर, घर में वे हमेशा तैयार रहते थे. उन्हें खुशी थी कि सपना अपना भविष्य संवारने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रही थी. 2 दिन बाद उन के मोबाइल पर सपना द्वारा भेजा एक एस.एम.एस. आया. लिखा था, ‘‘अगर आप को मैं एक पैन दूं तो आप मेरे लिए क्या संदेश लिखेंगे…रिप्लाई, सर.’’

प्रोफैसर ने ध्यान से संदेश पढ़ा. उन्होंने जवाब दिया, ‘‘दुनिया में अच्छा इंसान बनने का प्रयास करो.’’ यही तो उन का जीवनदर्शन था. इंसान हैवानियत की ओर तो तेजी से बढ़ रहा है लेकिन उस की इंसानियत पीछे छूटती जा रही है. भौतिकवाद की अंधी दौड़ में जैसे सब अपने जीवनमूल्यों और संवेदनाओं को व्यर्थ का कचरा समझ भूलते जा रहे हैं. उन का अपना जीवन इसी विचार पर तो टिका हुआ था. अड़चनों व संघर्षों के बाद भी सावंत अपने विचार बदल नहीं पाए थे. उन की पत्नी स्नेहलता उन के विचारों से कतई सहमत नहीं थीं. वे व्यावहारिक और सामान्य सोच रखती थीं, जिस में स्वहित से ऊपर उठने की ललक नहीं थी.

प्रोफैसर का वैवाहिक जीवन बहुत संघर्षमय था. गृहस्थी की गाड़ी यों ही घिसटती हुई चल रही थी. 36 साल की उम्र होने पर भी प्रोफैसर दुनियादारी से दूर रहते हुए किताबों की दुनिया में खोए रहना ही ज्यादा पसंद करते थे. नियति को भी शायद यही मंजूर था. सावंत के बचपन, जवानी और प्रौढ़ावस्था के सारे वसंत खाली और सूनेसूने गुजरते गए. उन्होंने अपनों या परायों के लिए क्या नहीं किया. शायद इसे वे अपनी सब से बड़ी पूंजी समझते थे. उन्हें पता था कि दुनिया वालों की नजर में वे अच्छे इंसान बन पाए थे. कारण ‘अच्छे’ की परिभाषा पर विवाद से ज्यादा जरूरी आत्मसंतोष का भाव था जो दूसरों के लिए कुछ करने से पहले ही महसूस हो सकता है.

कुछ दिन बीते होंगे कि सपना का फिर से फोन आ गया. अब तो प्रोफैसर सावंत को उस की सहायता करना सुकून का काम लगता था, लेकिन एक बड़ी घटना ने उन के जीवन में तूफान ला दिया. 1-2 दिन के बाद सपना का पहले वाला ही एस.एम.एस. फिर आया कि मेरे लिए… एक संदेश प्लीज.

प्रोफैसर सोच में पड़ गए. सपना थी बेहद बुद्धिमान, शोखमिजाज और हंसमुख. मजाक करना उस की आदत में शुमार था. पता नहीं उन को क्या सूझा, उन्होंने वह मैसेज ज्यों का त्यों सपना को रीसैंड कर दिया. थोड़ी देर बाद ही उस का उत्तर आया, ‘‘आई लव यू सर.’’

प्रोफैसर सावंत को अपने शरीर में 440 वोल्ट का करंट सा प्रवाहित होता महसूस हुआ. उन्हें कल्पना नहीं थी कि सपना ऐसा संदेश उन्हें भेज सकती है. काफी देर तक वे सकते की हालत में सोचते रहे. फिर उन्होंने सपना को रिप्लाई किया, ‘‘यह मजाक है या गंभीरता से लिखा है.’’

सपना का जवाब आया, ‘‘सर, इस में मजाक की क्या बात है?’’

अब तो प्रोफैसर सावंत की हालत देखने लायक थी. यह सच था कि सपना उन्हें बहुत प्रिय थी लेकिन उन्होंने उसे कभी प्रेम की नजर से नहीं देखा था. अब उन्हें बेचैनी महसूस हो रही थी. उन्होंने सपना को एस.एम.एस. भेजा, ‘‘आप ‘लव’ की परिभाषा जानती हैं?’’

प्रोफैसर सावंत के एस.एम.एस. के जवाब में सपना का रिप्लाई था, ‘‘क्यों नहीं सर…प्रेम तो देने की अनुभूति है, कुछ लेने की नहीं…प्रेम में इंसान सबकुछ खो कर भी खुशी महसूस करता है, ‘लव’ तो सैक्रीफाइस है न सर…’’

क्या जवाब देते प्रोफैसर? उन्होंने इस बातचीत को यहीं विराम दिया और अपने कमरे में बैठ कर अपना ध्यान इस घटना से हटाने का प्रयास करने लगे. न चाहते हुए भी उन के मस्तिष्क में वह संदेश उभर आता था.

यह सच है कि कृत्रिम नियंत्रण से मानव मन की भावनाएं, संवेदनाएं सुषुप्त हो सकती हैं लेकिन लुप्त कभी नहीं हो पातीं. जीवन का कोई विशेष क्षण उन्हें पुन: जागृत कर सकता है. प्रोफैसर के दिल में कुछ ऐसी ही उथलपुथल मच रही थी. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि यह सही है या गलत. नैतिक है या अनैतिक. कुछ दिन इसी कशमकश में बीत गए.

अगले सप्ताह अचानक सपना कालेज में दिखाई दी. उसे देखते ही प्रोफैसर सावंत को अपना सारा बनावटी कंट्रोल ताश के पत्तों की तरह ढहता महसूस होने लगा. आज उन की नजर कुछ बदलीबदली लग रही थी.

‘‘क्या देख रहे हैं, सर?’’ अचानक सपना ने टोका.

सावंत को लगा जैसे चोरी करते रंगे हाथों पकड़े गए हों. लड़खड़ाती जबान से बोले, ‘‘कुछ नहीं, बस ऐसे ही…’’ उन्हें लगा शायद सपना ने उन की चोरी पकड़ ली थी. कुछ देर बाद सपना बोली, ‘‘सर, पेपर में आप का लेख पढ़ा, अच्छा लगा. मैं और भी पढ़ना चाहती हूं. प्लीज, अपनी लिखी कोई पुस्तक दीजिए न.’’

एक लेखक के लिए इस से अच्छी और क्या बात हो सकती है कि कोई प्रशंसक उस की रचनाओं के लिए ऐसी उत्सुकता दिखाए. उन्होंने फौरन अपनी एक पुस्तक सपना को दे दी. उन की नजर अब भी सपना को निहार रही थी. सपना पुस्तक के पन्नों को पलट रही थी तो सावंत ने हिम्मत जुटाते हुए पूछा, ‘‘उस दिन तुम ने मेरे साथ ऐसा मजाक कैसे किया, सपना?’’

‘‘वह मजाक नहीं था सर, आप ऐसा क्यों सोचते हैं?’’ सपना ने प्रत्युत्तर में प्रश्न किया, ‘‘क्या किसी से प्रेम करना गलत है? मैं आप से प्रेम नहीं कर सकती?’’

प्रोफैसर हड़बड़ा कर बोले, ‘‘वह सब तो ठीक है सपना लेकिन क्या मैं गलत नहीं हूं? मैं तो शादीशुदा हूं. यह अनैतिक नहीं होगा क्या?’’

‘‘मैं ने यह कब कहा सर कि आप मुझ से प्रेम कीजिए. मुझे आप अच्छे लगते हैं, इसलिए मैं आप को चाहती हूं, आप से प्रेम करती हूं लेकिन आप से कोई उम्मीद नहीं करती सर,’’ सपना ने दृढ़ता से कहा.

सावंत को अपना सारा ज्ञान व अनुभव इस युवती के आगे बौना महसूस होने लगा. अब उन के दिल में भी प्रेम की तरंगें उठने लगीं लेकिन उन्हें व्यक्त करने का साहस उन में नहीं था. कुछ समय के बाद सपना चली गई. सावंत अब अपनेआप को एकदम बदलाबदला सा महसूस करने लगे क्योंकि आज सही मानों में उन्होंने सपना को देखा था. उन्हें लगा, उस के जैसा सौंदर्य दुनिया में शायद ही किसी लड़की में दिखाई दे. अब प्राय: रोज ही मोबाइल पर उन के बीच संवाद होने लगा. प्रोफैसर सावंत को हरपल उस का इंतजार रहता. हमेशा उस की यादों और कल्पनाओं में खोएखोए से रहने लगे.

कल तक जो बातें प्रोफैसर को व्यर्थ लगती थीं, अब वे सरस और मधुर लगने लगीं. यह सही है कि प्यार में बड़ी ताकत होती है. वह इंसान का कायापलट कर सकता है. प्रोफैसर के दिमाग में अब सपना के अलावा कुछ न था. आंखों में बस सपना का ही अक्स समाया रहता. जहां भी जाते, बाजार में उन्हें वे सब चीजें आकर्षित करने लगतीं जिन्हें देख कर उन्हें लगता कि सपना के लिए अच्छा गिफ्ट रहेंगी. कभी ड्रेस तो कभी कुछ, अनायास ही वे बहुतकुछ खरीद लाते. लेकिन इस तरह के गिफ्ट सपना ने 1-2 ही लिए थे वह भी बहुत जोर देने पर.

समय पंख लगा कर उड़ने लगा. दोनों को परस्पर बौद्धिक वार्त्तालाप में भी प्रेम की अनोखी अनुभूति महसूस हुआ करती थी. सपना का एक कथन सावंत के दिल को छू गया, ‘‘आप की खुशी में ही मेरी खुशी है सर, मेरे लिए सब से बड़ा गिफ्ट यही है कि आप मुझे अपना समय देते हैं, मुझे याद करते हैं.’’

खाली समय में सावंत अपने हिसाब से इन वाक्यों का विश्लेषण करते. इन कथनों का मनमाफिक अर्थ निकालने का प्रयास करते. इस प्रक्रिया में उन्हें अनोखा आनंद आता. उन की कल्पनाओं का चरम बिंदु अब सपना पर संकेंद्रित हो चुका था. लेखन का प्रेरणास्रोत अब सपना ही थी. लेकिन यह जीवन है जिस में विचित्रताओं का ऐसा घालमेल भी रहता है, जो अकसर संशय की स्थिति उत्पन्न करता रहता है.

उस दिन सावंत अपने विभाग में बैठे थे कि अचानक सपना आ गई. इस तरह बगैर किसी सूचना के उसे अपने सामने खड़ा देख प्रोफैसर बहुत खुश हुए. सपना से वे आज बहुतकुछ कहने के मूड में थे. सपना बहुत खुश लग रही थी. दोनों के बीच बातचीत चल ही रही थी कि अचानक सपना ने अपना हैंडबैग खोल कर एक कार्ड प्रोफैसर के सामने रखा. पहले उन्हें लगा शायद किसी पार्टी का निमंत्रण कार्ड है. लेकिन कार्ड पर नजर पड़ते ही उन पर वज्रपात हुआ. वह सपना का ‘वैडिंग कार्ड’ था.

सपना अनुरोध करते हुए बोली, ‘‘सर, आप जरूर आइएगा. आप के बगैर मेरी शादी अधूरी है. आप मेरे सब से करीबी हैं इसलिए मैं स्वयं आप को निमंत्रित करने आई हूं.’’

सावंत अपने होंठों पर जबरन मुसकान ला कर कृत्रिम खुशी जाहिर करते हुए बोले, ‘‘हांहां, क्यों नहीं. मैं अवश्य आने का प्रयास करूंगा.’’

सपना हंसते हुए बोली, ‘‘नहीं सर, मैं कोई बहाना सुनना नहीं चाहती. आप को आना ही पड़ेगा, आखिर आप मेरा पहला प्यार हैं…’’

प्रोफैसर सावंत ने कोई जवाब नहीं दिया. पल भर में उन के अरमान मिट्टी में मिल गए थे. नैतिकताअनैतिकता के सारे प्रश्न, जिन से वे आजकल जूझते रहते थे, अब एकाएक व्यर्थ हो गए. सूनी जिंदगी की बेडि़यां उन्हें वापस अपनी ओर खिंचती हुई महसूस होने लगीं. मृगमरीचिका से उपजी हरियाली की उम्मीद एकाएक घोर सूखे और अकाल में तब्दील हो गई.

सपना जा चुकी थी. प्रोफैसर अपनी कुरसी पर सिर टिकाए आंखें मूंदे सोचते रहे. उन्हें यही लगा जैसे सपना वाकई एक स्वप्न थी, जो कुछ दिनों की खुशियों के लिए ही उन की जिंदगी में आई थी. समय की त्रासदी ने फिर उन की जिंदगी को बेजार बना दिया था. उन्हें लगा गलती सपना की नहीं, उन की ही थी जिन्होंने प्रेम की पवित्र भावना को समझने में भारी भूल कर दी थी. उन्हें अपना समस्त किताबी ज्ञान अधूरा महसूस होने लगा.

अचानक पीरियड की बजी घंटी से उन की तंद्रा टूटी. वे सुखद ख्वाब से वापस यथार्थ में लौट आए. अनमने भाव से वे क्लासरूम की ओर बढ़ गए, लेकिन उन का मन आज पढ़ाने में नहीं था. शाम को घर आ कर भी वे उदासी के आलम में ही खोए रहे. उन की पत्नी स्नेहलता ने उन के ब्रीफकेस में रखा सपना की शादी का कार्ड देख लिया था. इसीलिए कौफी पीते हुए पूछने लगीं, ‘‘क्या आप की फेवरेट सपना की शादी हो रही है? आप तो इस शादी में जरूर जाओगे?’’

सावंत को लगा जैसे किसी ने उन के जले घाव पर नमक छिड़क दिया हो. उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. स्नेहलता के साथ रह कर अपने वैवाहिक जीवन में सावंत ने कभी ‘स्नेह’ का अनुभव नहीं किया. इस समय उस की मुखमुद्रा से साफ झलक रहा था जैसे सपना की शादी का कार्ड उस के लिए खुशी के खजाने की चाबी जैसा था. विरक्त भाव से स्नेहलता ने कार्ड को एक तरफ पटकते हुए कहा, ‘‘बहुत सुंदर है…’’

सावंत अब भी चुप रहे. उन्होंने जवाब देने का उपक्रम नहीं किया. स्नेहलता ने फिर पूछा, ‘‘आप को तो शादी में जाना ही होगा, भला आप के बगैर सपना की शादी कैसे हो सकती है?’’ स्नेहलता के चेहरे पर मंद हंसी थिरक रही थी.

प्रोफैसर उठ कर अपने कमरे में चले गए. 2 दिन बाद सपना की शादी थी. उन्होंने शादी में न जाने का ही फैसला किया. सपना की शादी हो गई. अब वे जल्दी से सबकुछ भुला देना चाहते थे. उन का मन अब भी बेचैन और विचलित था, लेकिन धीरेधीरे उन्होंने अपने को संयत कर लिया. स्नेहलता के व्यंग्यबाण अब भी जारी थे. दिन बीतने लगे. सावंत ने अब अपना मोबाइल नंबर भी बदल लिया था. कारण, पुराने मोबाइल से सपना की यादें इस कदर जुड़ चुकी थीं कि उसे देखते ही उन के दिल में हूक सी उठने लगती थी.

आज सावंत घर में अकेले थे. मैडम किटी पार्टी में गई हुई थीं. अचानक दरवाजे की घंटी बजी. सावंत ने दरवाजा खोला तो देखा कि सामने सपना खड़ी थी. उस को सामने देख कर प्रोफैसर सावंत अचंभित रह गए. मुंह से एक शब्द भी न फूट सका. सपना ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘इजाजत हो तो अंदर आ जाऊं, सर.’’

सावंत एक तरफ हट कर खड़े हो गए. हड़बड़ाते हुए वे कुछ न कह सके.

सपना ड्राइंगरूम में बैठी थी. संयोग से इस समय नौकरानी भी नहीं थी. दोनों अकेले थे. सपना ने ही संवाद प्रारंभ किया, ‘‘आखिर आप नहीं आए न सर. मैं ने आप का कितना वेट किया.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है सपना… दरअसल, मैं व्यस्तता के चलते आना ही भूल गया था.’’

‘‘हां…सर. यह तो सही है, आप मुझे क्यों याद रखेंगे? लेकिन मैं तो आप को एक पल के लिए भी नहीं भूलती हूं… एहसास है आप को?’’

सपना की बातों को सावंत समझ नहीं पा रहे थे.

‘‘और सुनाओ, कैसी हो? कैसी रही तुम्हारी शादी,’’ प्रोफैसर सावंत ने विषय को बदलते हुए कहा.

‘‘शादी… शादी तो अच्छी ही होती है सर, शादी को होना था सो हो गई, बस…’’

सपना के जवाब का ऐसा लहजा सावंत को अखरने लगा. उत्सुकतावश उन्होंने पूछा, ‘‘ऐसा क्यों कहती हो सपना?’’

‘‘क्यों न कहूं सर, यह शादी तो एक औपचारिकता थी. मेरे मातापिता शायद मुझ से अपनी परवरिश का कर्ज वसूलना चाहते थे, इसलिए उन की इच्छा के लिए मुझे ऐसा करना पड़ा,’’ सपना के चेहरे पर दुख के भाव दिखाई दे रहे थे.

‘‘मैं समझा नहीं?’’ सावंत ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘दरअसल, मेरे पापा के ऊपर ससुराल वालों का लाखों रुपए का कर्ज था जिसे सूद सहित चुकाने के लिए ही मुझे बलि का बकरा बनाया गया. कर्ज और सूद की वसूली के लिए मेरे ससुराल वालों ने अपने बिगड़ैल बेटे का विवाह मुझ से कर दिया है. अब तो मेरे सारे अरमानों पर पानी फिर गया है.’’

‘‘तो क्या तुम इस शादी के लिए सहमत नहीं थीं?’’ प्रोफैसर ने बेसब्री से पूछा.

‘‘नहीं…बिलकुल नहीं. यह मेरे पिता की मजबूरी थी. मैं इस शादी से संतुष्ट नहीं हूं,’’ सपना ने दृढ़ता से जवाब दिया.

‘‘सपना, रीयली तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय हुआ है,’’ प्रोफैसर ने दुखी होते हुए कहा.

‘‘इट्स ए पार्ट औफ लाइफ बट नौट द ऐंड…सर. उन्होंने मेरे शरीर पर ही तो विजय पाई है दिल पर तो नहीं,’’ सपना के चेहरे पर अब हंसी साफ नजर आ रही थी.

थोड़ी देर बाद सपना चली गई लेकिन उस ने प्रोफैसर का नया मोबाइल नंबर पुन: ले लिया था. कुछ देर बाद पत्नी स्नेहलता भी आ गईं. शायद उन की छठी इंद्री कुछ ज्यादा ही सक्रिय थी सो, उन्होंने घर में प्रवेश करते ही पूछा, ‘‘यहां अभी कोई आया था क्या?’’

‘‘हां…सपना आई थी,’’ प्रोफैसर ने दृढ़ता से जवाब दिया.

‘‘ओह, तभी मैं कहूं कि यह महक कहां से आ रही है. आप के चेहरे की ऐसी खुशी मुझे सबकुछ बता देती है,’’ पत्नी के कटाक्ष पुन: चालू हो गए.

दूसरे दिन प्रोफैसर के मोबाइल पर सपना का एस.एम.एस. आ गया, ‘‘यथार्थ के साथ विद्रोह या समझौते में से कौन सा विकल्प बेहतर है?’’

प्रोफैसर का खुद पर से नियंत्रण अब फिर से हटने लगा था. प्रेम में असीम शक्ति होती है. अत: सपना के साथ मोबाइल पर पुन: संवाद चालू हो गया. उन्होंने रिप्लाई किया, ‘‘जीवन में दोनों का अपनाअपना विशिष्ट महत्त्व है या यों समझें कि महत्त्व संदर्भ का है.’’

सपना का पुन: संदेश आया, ‘‘दिल की आवाज और दुनिया की झूठी प्रथाएं या परंपराओं का बोझ ढोने से बेहतर है इंसान विद्रोह करे. एम आई राइट सर?’’

प्रोफैसर ने रिप्लाई किया, ‘‘यू आर यूनीक, तुम जो करोगी सोचसमझ कर ही करोगी.’’

पता नहीं सपना को उन का जवाब कैसा लगा लेकिन उन दोनों का मेलजोल बढ़ता गया. वह सिविल सर्विसेज की तैयारी के सिलसिले में अकसर कालेज आया करती थी. प्रोफैसर को उस के हावभाव या व्यवहार से कहीं नहीं लगता था कि उस की नईनई शादी हुई है. वह तो जैसे अपने मिशन की सफलता के लिए पूरी गंभीरता से जुटी पड़ी थी. सपना की मेहनत रंग लाई. सिविल सर्विसेज में उस का चयन हो गया. सावंत की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

सपना की ऐसी शानदार सफलता के कारण शहर की विभिन्न संस्थाओं की तरफ से उस के लिए अभिनंदन समारोह आयोजित किया गया. सपना की जिद के कारण सावंत उस में शरीक हुए. मैडम स्नेहलता न चाहते हुए भी सपना के आग्रह के कारण प्रोफैसर के साथ गईं.

एक समारोह में जब सपना को सम्मानित किया जा रहा था तब सपना ने स्टेज से जो वक्तव्य दिया, वह शायद सावंत के जीवन की सर्वश्रेष्ठ अनुभूति रही. सपना ने अपनी सफलता का संपूर्ण श्रेय प्रोफैसर सावंत को दिया और अपने सम्मान से पहले उन का सम्मान कराया. अन्य लोगों के लिए शायद यह घटना थी लेकिन सपना, उस के पति अनुराग त्रिपाठी, प्रोफैसर सावंत और मैडम स्नेहलता के लिए यह साधारण बात नहीं थी. कोई खुश था तो कोई ईर्ष्या से जलाभुना जा रहा था. सपना का पति तो इस घटना से इतना नाराज हो गया कि कुछ दिन के बाद सपना को तलाक ही दे बैठा. शायद सपना के लिए यह नियति का उपहार ही था.

प्रशिक्षण के बाद सपना की तैनाती दिल्ली में हो गई. 1-2 वर्ष का समय बीत चुका था. जिम्मेदारियों के बोझ ने उस की व्यस्तता को और बढ़ा दिया था. दोनों का संपर्क अब भी कायम रहा. अचानक एक दिन ऐसी घटना घटित हुई कि दोनों की दोस्ती को एक नई दिशा मिल गई.

एक दिन एक सड़क दुर्घटना में प्रोफैसर सांवत को गहरी चोट लगी. वे अस्पताल में भरती थे. उन की हालत बेहद नाजुक बनी हुई थी. उन्हें ‘ओ निगेटिव’ ग्रुप के खून की सख्त जरूरत थी. मैडम स्नेहलता विदेश यात्रा पर गई थीं. उन्हें सूचना दी गई किंतु उन्होंने शीघ्र आने का कोई उपक्रम नहीं किया, लेकिन उन के छात्र उन का जीवन बचाने के लिए जीतोड़ प्रयास कर रहे थे.

खून की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी. पता नहीं कैसे सपना को इस घटना का पता चला और वह सीधे अस्पताल पहुंच गई. संयोग से उस का ब्लड ग्रुप भी ‘ओ निगेटिव’ ही था और समय पर रक्तदान कर के उस ने सावंत सर की जान बचा ली. कुछ घंटे बाद जब उन्हें होश आया तो बैड के नजदीक सपना को देख वे बेहद खुश हुए. परिस्थितियों ने जैसे उन के अनोखे प्रेम की पूर्ण व्याख्या कर दी थी. प्रेम अनोखा इसलिए था कि इस में कोई कामलिप्सा तो नहीं थी लेकिन एक अद्भुत शक्ति, संबल और आत्मबल कूटकूट कर भरा था.

सावंत को लगा कि सपना कोई स्वप्न नहीं बल्कि हकीकत में उन की अपनी है. जो ख्वाब देखती है लेकिन खुली आंखों से. अब उन्होंने हकीकत को स्वीकार करने का दृढ़ निश्चय कर लिया था. संभवत: अब उन में इतना साहस आ चुका था.

Story For Girls : जब बहन ने ही छीन लिया शुभा का प्यार

Story For Girls : मां मुझ से पहले ही अपने दफ्तर से आ चुकी थीं. वह रसोईघर में शायद चाय बना रही थीं. मैं अपना बैग रख कर सीधी रसोईघर में ही पहुंच गई. मां अनमनी थीं. ऐसा उन के चेहरे से साफ झलक रहा था. फिर कुछ अनचाहा घटा है, मैं ने अनुमान लगा लिया. लड़के वालों की ओर से हर बार निराशा ही उन के हाथ लगी है. मैं ने जानबूझ कर मां की उदासी का कारण न पूछा क्योंकि दुखती रग पर हाथ धरते ही वे अपना धैर्य खो बैठतीं और बाबूजी को याद कर के घंटों रोती रहतीं.

मां ने मेरी ओर बिना देखे ही चाय का प्याला आगे बढ़ा दिया, जिसे थामे मैं बरामदे में कुरसी पर आ बैठी. मां अपने कमरे में चली गई थीं. विषाद से मन भर उठा. पिछले 4 साल से मां मेरे लिए वर की खोज में लगी थीं, लेकिन अभी तक एक अदद लड़का नहीं जुटा पाई थीं कि बेटी के हाथ पीले कर संतोष की सांस लेतीं.

मां अंतर्जातीय विवाह के पक्ष में नहीं थीं. अपने ब्राह्मणत्व का दर्प उन्हें किसी मोड़ पर संधि की स्थिति में ही नहीं आने देता था. मेरी अच्छीखासी नौकरी और ठीकठाक रूपरंग होते हुए भी विवाह में विलंब होता जा रहा था. जो परिवार मां को अच्छा लगता वह हमें अपनाने से इनकार कर देता और जिन को हम पसंद आते, उन्हें मां अपनी बेटी देने से इनकार कर देतीं.

शहर बंद होने के कारण मैं सड़क पर खड़ीखड़ी बेजार हो चुकी थी. कोई रिकशा, बस, आटोरिकशा आदि नहीं चल रहा था. घर से मां ने वनिता की मोपेड भी नहीं लाने दी, हालांकि वनिता का कालेज बंद था. मुझे दफ्तर पहुंचना था, कई आवश्यक काम करने थे. न जाती तो व्यर्थ ही अफसर की कोपभाजन बनती. इधरउधर देखा, कोई जानपहचान का न दिखा. घड़ी पर निगाह गई तो पूरा 1 घंटा हो गया था खड़ेखड़े. मैं सामने ही देखे जा रही थी. अचानक स्कूटर पर एक नौजवान आता दिखा. वह पास आता गया तो पहचान के चिह्न उभर आए. ‘यह तो शायद उदयन…हां, वही था. मेरे साथ कालेज में पढ़ता था, वह भी मुझे पहचान गया. स्कूटर रेंगता हुआ मेरे पास रुक गया.

‘‘उदयन,’’ मैं ने धीरे से पुकारा.

‘‘शुभा…तुम यहां अकेली खड़ी क्या कर रही हो?’’

‘‘बस स्टाप पर क्या करते हैं? दफ्तर जाने के लिए खड़ी थी, लेकिन लगता नहीं कि आज जा पाऊंगी?’’

‘‘आज कितने अरसे बाद दिखी हो तुम, शहर बंद न होता तो शायद आज भी नहीं…’’ कह कर वह हंसने लगा.

‘‘और तुम…बिलकुल सही समय पर आए हो,’’ कह कर मैं उस के पीछे बैठने का संकेत पाते ही स्कूटर पर बैठ गई. रास्ते भर उदयन और मैं कालेज से निकलने के बाद का ब्योरा एकदूसरे को देते रहे. वह बीकौम कर के अपना व्यवसाय कर रहा था और मैं एमकौम कर के नौकरी करने लगी थी. मेरा दफ्तर आ चुका था. वह मुझे उतार कर अपने रास्ते चला गया.

गोराचिट्टा, लंबी कदकाठी के सम्मोहक व्यक्तित्व का स्वामी उदयन कितने बरसों बाद मिला था. कालेज के समय कैसा दुबलापतला सरकंडे सा था. मैं उसे भूल कर दफ्तर के काम में उलझ गई. होश में तब आई जब छुट्टी का समय हुआ. ‘अब जाऊंगी कैसे घर लौट कर?’ सोचती हुई बाहर निकल ही रही थी कि सामने गुलमोहर के पेड़ तले स्कूटर लिए उदयन खड़ा दिखाई दिया. उस ने वहीं से आवाज दी, ‘‘शुभा…’’

‘‘तुम?’’ मैं आश्चर्य में पड़ी उस तक पहुंच गई.

‘‘तुम्हें काम था कोई यहां?’’

‘‘नहीं, तुम्हें लेने आया हूं. सोचा, छोड़ तो आया लेकिन घर जाओगी कैसे?’’

मैं आभार से भर उठी थी. उस दिन के बाद तो रोज ही आनाजाना साथ होने लगा. हम साथसाथ घूमते हुए दुनिया भर की बातें करते. एक दिन उदयन घर आया तो मां को  उस का विनम्र व्यवहार और सौम्य  व्यक्तित्व प्रभावित कर गए. छोटी बहन वनिता बड़े शरमीले स्वभाव की थी, वह तो उस के सामने आती ही न थी. वह आता और मुझ से बात कर के चला जाता. मैं वनिता को चाय बना कर लाने के लिए कहती, लेकिन वह न आती.

एक बात मैं कितने ही दिनों से महसूस कर रही थी. मुझे बारबार लगता कि जैसे उदयन कुछ कहना चाहता है, लेकिन कहतेकहते जाने क्या सोच कर रुक जाता है. किसी अनकही बात को ले कर बेचैन सा वह महीनों से मेरे साथ चल रहा था.

एक दिन उदयन मुझे स्कूटर से उतार कर चलने लगा तो मैं ने ही उसे घर में बुला लिया, ‘‘अंदर आओ, एक प्याला चाय पी कर जाना.’’ वह मासूम बालक सा मेरे पीछेपीछे चला आया. मां घर में नहीं थीं और वनिता भी कालेज से नहीं आई थी. सो चाय मैं ने बनाई. चाय के दौरान, ‘शुभा एक बात कहूं’ कहतेकहते ही उसे जोर से खांसी आ गई. गले में शायद कुछ फंस गया था. वह बुरी तरह खांसने लगा. मैं दौड़ कर गिलास में पानी ले आई और गिलास उस के होंठों से लगा कर उस की पीठ सहलाने लगी. खांसी का दौर समाप्त हुआ तो वह मुसकराने की कोशिश करने लगा. आंखों में खांसी के कारण आंसू भर आए थे.

‘‘उदयन, क्या कहने जा रहे थे तुम? अरे भई, ऐसी कौन सी बात थी जिस के कारण खांसी आने लगी?’’

सुन कर वह हंसने लगा, ‘‘शुभा…मैं तुम्हारे बिना नहीं रह…’’ अधूरा वाक्य छोड़ कर नीचे देखने लगा और मैं शरमा कर गंभीर हो उठी और लाज की लाली मेरे मुख पर दौड़ गई.

‘‘उदयन, यही बात कहने के लिए तो मैं न जाने कब से सोच रही थी,’’ धीरे से कह कर मैं ने उस के प्रेम निवेदन का उत्तर दे दिया था. दोनों अपनीअपनी जगह चुप बैठे रहे थे. लग रहा था, इन वाक्यों को कहने के लिए ही हम इतने दिनों से न जाने कितनी बातें बस ऐसे ही करे जा रहे थे. एकदूसरे से दृष्टि मिला पाना कैसा दूभर लग रहा था.

शाम खुशनुमा हो उठी थी और अनुपम सुनहरी आभा बिखेरती जीवन के हर पल पर उतर रही थी. मौसम का हर दिन रंगीन हो उठा था. मैं और उदयन पखेरुओं के से पंख लगाए प्रीति के गगन पर उड़ चले थे. हम लोग एक जाति के नहीं थे, लेकिन आपस में विवाह करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे.

झरझर बरसता सावन का महीना था. चारों ओर हरियाली नजर आ रही थी. पत्तों पर टपकती जल की बूंदें कैसी शरारती लगने लगती थीं. अकेले में गुनगुनाने को जी करता था. उदयन का साथ पा कर सारी सृष्टि इंद्रधनुषी हो उठती थी.

‘‘सोनपुर चलोगी…शुभा?’’ एक दिन उदयन ने पूछा था.

‘‘मेला दिखाने ले चलोगे?’’

‘‘हां.’’

मां हमारे साथ जा नहीं सकती थीं और अकेले उदयन के साथ मेरा जाना उन्हें मंजूर नहीं था. अत: मैं ने वनिता से अपने साथ चलने को कहा तो उस ने साफ इनकार कर दिया.

‘‘पगली, घर से कालेज और कालेज से घर…यही है न तेरी दिनचर्या. बाहर निकलेगी तो मन बहल जाएगा,’’ मैं ने उसे समझा कर तैयार कर लिया था. हम तीनों साथ ही गए थे. मैं बीच में बैठी थी, उदयन और वनिता मेरे इधरउधर बैठे थे, बस की सीट पर. इस यात्रा के बीच वनिता थोड़ाबहुत खुलने लगी थी. उदयन के साथ मेले की भीड़भाड़ में हम एकदूसरे का हाथ थामे घूमते रहे थे.

उदयन लगभग रोज ही हमारे घर आता था, लेकिन अब हमारी बातों के बीच वनिता भी होती. मैं सोचती थी कि उदयन बुरा मानेगा कि हर समय छोटी बहन को साथ रखती है. इसलिए मैं ने एक दिन वनिता को किसी काम के बहाने दीपा के घर भेज दिया था, लेकिन थोड़ी देर वनिता न दिखी तो उदयन ने पूछ ही लिया, ‘‘वनिता कहां है?’’

‘‘काम से गई है, दीपा के घर,’’ मैं ने अनजान बनते हुए कह दिया. उस दिन तो वह चला गया, लेकिन अब जब भी आता, वनिता से बातें करने को आतुर रहता. यदि वह सामने न आती तो उस के कमरे में पहुंच जाता. मैं ने उदयन से शीघ्र शादी करने को कहा था, लेकिन वह कहां माना था, ‘‘अभी क्या जल्दी है शुभा, मेरा काम ठीक से जम जाने दो…’’

‘‘कब करेंगे हम लोग शादी, उदयन?’’

‘‘बस, साल डेढ़साल का समय मुझे दे दो, शुभा.’’

मैं क्या कहती, चुप हो गई…मेरी भी तरक्की होने वाली थी. उस में तबादला भी हो सकता था. सोचा, शायद दोनों के ही हित में है. अब जब भी उदयन आता, वनिता उस से खूब खुल कर बातें करती. वह मजाक करता तो वह हंस कर उस का उत्तर देती थी. धीरेधीरे दोनों भोंडे मजाकों पर उतर आए. मुझ से सुना नहीं जाता था. आखिर कहना ही पड़ा मुझे, ‘‘उदयन, अपनी सीमा मत लांघो, उस लड़की से ऐसी बातें…’’

मेरी इस बात का असर तो हुआ था उदयन पर, लेकिन साली के रिश्ते की आड़ में उस ने अपने अनर्गल बोलों को छिपा दिया था. अब वह संयत हो कर बोलता था, फिर भी कहीं न कहीं से उस का अनुचित आशय झलक ही जाता. वनिता को मेरा यह मर्यादित व्यवहार करने का सुझाव अच्छा न लगा. मैं दिन पर दिन यही महसूस कर रही थी कि वनिता उदयन की ओर अदृश्य डोर से बंधी खिंची चली जा रही है. उदयन से कहा तो वह यही बोला था, ‘‘शुभा, यह तुम्हारा व्यर्थ का भ्रम है. ऐसा कुछ नहीं है जिस पर तुम्हें आपत्ति हो.’’

छुट्टी का दिन था, मां घर पर नहीं थीं. वनिता, दीपा के घर गई थी. अकेली ऊब चुकी थी मैं, सोचा कि घर की सफाई करनी चाहिए. हफ्ते भर तो व्यस्तता रहती है. मां की अलमारी साफ कर दी, फिर अपनी और फिर वनिता की. किताबें हटाईं ही थीं कि किसी पुस्तक से उदयन का फोटो मेरे पांव के पास आ गिरा. फोटो को देखते ही मेरा मन कैसी कंटीली झाड़ी में उलझ गया था कि निकालने के सब प्रयत्न व्यर्थ हो गए. लाख कोशिशों के बावजूद क्या मैं अपने मन को समझा पाई थी, पर मेरी आशंका गलत कहां थी? वनिता शाम को लौटी तो मैं ने उसे समझाने की चेष्टा की थी, ‘‘देख वनिता, क्यों उदयन के चक्कर में पड़ी है? वह शादी का वादा तो किसी और से कर चुका है.’’

जिस बहन के मुख से कभी बोल भी नहीं फूटते थे, आज वह यों दावानल उगलने लगेगी, ऐसा तो मैं ने सोचा भी नहीं था. वनिता गुस्से से फट पड़ी, ‘‘क्यों मेरे पीछे पड़ी हो दीदी, हर समय तुम इसी ताकझांक में लगी रहती हो कि मैं उदयन से बात तो नहीं कर रही हूं.’’

‘‘मैं क्यों ताकझांक करूंगी, मैं तो तुझे समझा रही हूं,’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘क्या समझाना चाहती हो मुझे, बोलो?’’

क्या कहती मैं? चुप ही रही. सोचने लगी कि आज वनिता को क्या हो गया है. इस का मुख तो ‘दीदी, दीदी’ कहते थकता नहीं था, आज यह ऐसे सीधी पड़ गई.

‘‘देख वनिता, तुझे क्या मिल जाएगा उदयन को मुझ से छीन कर,’’ मैं ने सीधा प्रश्न किया था.

‘‘किस से? किस से छीन कर?’’ वह वितृष्णा से भर उठी थी, ‘‘मैं ने किसी से नहीं छीना उसे, वह मुझे मिला है. फिर तुम उदयन को क्यों नहीं रोकतीं? मैं बुलाती हूं क्या उसे?’’ उस ने तड़ाक से ये वाक्य मेरे मुख पर दे मारे. अंधे कुएं में धंसी जा रही थी मैं. मां बुलाती रहीं खाने के लिए, लेकिन मैं सुनना कहां चाहती थी कुछ… ‘‘मां, सिर में दर्द है,’’ कह कर किसी तरह उन से निजात पा गई थी, लेकिन वह मेरे बहानों को कहां अंगीकार कर पाई थीं.

‘‘शुभा, क्या हुआ बेटी, कई दिन से तू उदास है.’’

मेरी रुलाई फूट पड़ी थी. रोती रही मैं और वे मेरा सिर दबाती रहीं. क्या कहती मां से? कैसे कहती कि मेरी छोटी बहन ने मेरे प्यार पर डाका डाला है…और क्या न्याय कर पातीं वे इस का. उन के लिए तो दोनों बेटियां बराबर थीं.

वनिता ने मेरे साथ बोलचाल बंद कर दी थी. उदयन ने भी घर आना छोड़ दिया था. हम दोनों बहनों की रस्साकशी से तंग आ कर वह किनारे हो गया था. मेरी रातों की नींद उड़ गई थी. अजीब हाल था मेरा. रुग्ण सी काया और संतप्त मन लिए बस जी रही थी मैं. दफ्तर में मन नहीं लगता था और घर में वनिता का गरूर भरा चेहरा देख कर कितने अनदेखे दंश खाए थे अपने मन पर, हिसाब नहीं था मेरे पास. तनाव भरे माहौल को मां टटोलने की कोशिश करती रहतीं, लेकिन उन्हें कौन बताता.

‘‘वनिता, तू ने मुझ से बोलना क्यों बंद कर रखा है?’’ एक दिन मैं हारी हुई आवाज में बोली थी. सोचा, शायद सुलह का कोई झरोखा मन के आरपार देखने को मिल जाए, समझानेबुझाने से वनिता रास्ते पर आ जाए क्योंकि मुझे लगता था कि मैं उदयन के बिना जी नहीं पाऊंगी.

‘‘क्या करोगी मुझ से बोल कर, मैं तो उदयन को छीन ले गई न तुम से.’’

‘‘क्या झूठ कह रही हूं?’’

‘‘बिलकुल सच कहती हो, लेकिन मेरा दोष कितना है इस में, यह तुम भी जानती हो,’’ उस का सपाट सा उत्तर मिल गया मुझे.

‘‘तो तू नहीं छोड़ेगी उसे?’’ मैं ने आखिरी प्रश्न किया था.

‘‘मुझे नहीं पता मैं क्या करूंगी?’’ कहती हुई वह घर से बाहर हो गई.

मैं ने इधरउधर देखा था, लेकिन वह कहीं नजर न आई. मुझे डर लगने लगा था. दौड़ कर मैं दीपा के घर पहुंची. वहां जा कर जान में जान आई क्योंकि वनिता वहीं थी.

‘‘तुम दोनों बहनों को क्या हो गया है? पागल हो गई हो उस लड़के के पीछे,’’ दीपा क्रोध में बोल रही थी. वह मुझे समझाती रही, ‘‘देखो शुभा, उदयन वनिता को चाहने लगा है और यह भी उसे प्यार करती है. ऐसी स्थिति में तू रोक कैसे सकती है इन्हें? पगली, तू कहां तक रोकबांध लगाएगी इन पर? यदि तू उदयन से विवाह भी कर लेगी तब भी इन का प्यार नहीं मिट पाएगा बल्कि और बढ़ जाएगा. जीवन भर तुझे अवमानना ही झेलनी पड़ेगी. तू क्यों उदयन के लिए परेशान है? वह तेरे प्रति ईमानदार ही होता तो यह विकट स्थिति आती आज?’’

रात भर जैसे कोई मेरे मन के कपाट खोलता रहा कि मृग मरीचिका के पीछे कहां तक दौड़ूंगी और कब तक? उदयन मेरे लिए एक सपना था जो आंख खुलते ही विलीन हो गया, कभी न दिखने के लिए.

एक दिन मां ने कहा, ‘‘बेटी, उदयन डेढ़ साल तक शादी नहीं करना चाहता था, अब तो डेढ़ साल भी बीत गया?’’ उन्होंने अंतर्जातीय विवाह की मान्यता देने के पश्चात चिंतित स्वर में पूछा था.

‘‘मां, अब करेगा शादी…वह वादा- खिलाफी नहीं करेगा.’’

शादी की तैयारियां होने लगी थीं. मैं ने दफ्तर से कर्ज ले लिया था. मां भी बैंक से अपनी जमापूंजी निकाल लाई थीं. कार्ड छपने की बारी थी. मां ने कार्ड का विवरण तैयार कर लिया था, ‘शुभा वेड्स उदयन.’

मैं ने मां के हाथ से वह कागज ले लिया. वह निरीह सी पूछने लगीं, ‘‘क्यों, अंगरेजी के बजाय हिंदी में कार्ड छपवाएगी?’’

‘‘नहीं, मां नहीं, आप ने तनिक सी गलती कर दी है…’’ ‘वनिता वेड्स उदयन’ लिख कर वह कागज मैं ने मां को लौटा दिया.

‘‘क्या…? यह क्या?’’ मां हक्की- बक्की रह गई थीं.

‘‘हां मां, यही…यही ठीक है. उदयन और वनिता की शादी होगी. मेरी मंजिल तो अभी बहुत दूर है. घबराते नहीं मां…’’ कह कर मैं ने मां की आंखों से बहते आंसू पोंछ डाले.

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