सच के फूल- भाग 5: क्या हुआ था सुधा के साथ

सुधा काजल लगा रही थी. निहार रही थी कि कितनी सुंदर लग रही है मेरी बेटी… काश, सब ठीक हो जाए. वैसे सुधा देखने में सुंदर थी. समय पर सब लोग निकल गए. रैस्टोरैंट में तीन तरफ से बड़ा सोफा और सामने सिंगलसिंगल सोफा थे. बीच में बड़ी टेबल थी. बड़े सोफे पर मां और पापा के बीच सुधा बैठी.

सुधा को अब घबराहट होने लगी. बोली, ‘‘मां डर लग रहा है.’’

‘‘डरने का क्या बात है. यह समय तो हर लड़की की जिंदगी में आता है… सब ठीक हो जाएगा. घबराओ मत आराम से बैठो.’’

तभी हलचल हुई… सुधा को एक बैगनी रंग की साड़ी दिखाई दी. मां ने सुधा की

कुहनी पर स्पर्श कर खडे़ हो कर प्रणाम करने को कहा. सुधा खड़ी हुई. उस ने दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और एक बार नजर उठा कर देखा तो उस का मन धक से रह गया. सामने बैठे व्यक्ति को देख उस के होश उड़ चुके थे. ये वही सज्जन थे जो उस दिन ट्रेन में मिले थे और अच्छी सीख दी थी. वह स्तब्ध जड़वत सी रह गई. मां ने उसे पकड़ कर बैठाया. वह महिला सुधा के पास आ कर बैठ गई थी. सुधा का हाथ थाम लिया लगातार सुधा को निहार रही थी. फिर बोली, ‘‘आप की बेटी बड़ी प्यारी है.’’

लीला देवी के होठों पर मुसकान फैल गई. सुधा अभी तक कांप रही थी. लीला देवी को लगा वह नर्वस है इस कारण कांप रही है.

तभी महिला ने पूछा, ‘‘तुम पेंटिंग सीख रही हो?’’

सुधा कुछ बोल नहीं सकी बस सिर हिला कर स्वीकृति दी.

‘‘गौतमजी कहां रह गए.’’ रमाकांत ने पूछा?

‘‘गाड़ी पार्क कर आ रहा है.’’

सुधा को लग रहा था अभी अंकल उठेंगे और कहेंगे हमें अपने बेटे की शादी आप की लड़की से नहीं करनी है हम जा रहे हैं. सुधा ने नजर उठा कर देखा.

रमाकांत अंकल से बात करने में व्यस्त थे और मां उस महिला से बातें कर रही थी.

तभी वह महिला बोली, ‘‘गौतम तुम अगर बात करना चाहते हो तो कर लो.’’

‘‘हांहां जाओ तुम लोग भी आपस में बातें कर लो. वहां टेबल ठीक किया है सुधा जाओ.’’

सुधा चुपचाप उस गौतम के पीछे चल दी.

‘‘आप पेंटिंग सीख रही है?’’

सुधा ने सिर हिला कर स्वीकार किया.

‘‘आगे पढ़ने के बारे में क्या सोचती हो?’’

‘‘इच्छा तो है.’’

‘‘चलो कुछ बोली तो,’’ कह कर वह हंसने लगा.

सुधा ने अब उसे ठीक से देखा. एक नजर में ही वह अच्छा लगा. पर कौन जाने क्या हो? वेटर नाश्ता लिए ले आया था.

‘‘और क्या हौबी हैं आप की?’’ उस ने बात आगे बढ़ाने की कोशिश की.

‘‘पुराने गाने सुनना और खाली वक्त में स्कैचिंग करना.’’

उस के लंबे बालों को देख कर वह बोला, ‘‘आप के बाल बहुत सुंदर है.’’

सुधा शरमा गई. तभी उधर से बुलाया जाने लगा. दोनों जाने लगे. तभी गौरव ने सुधा से मोबाइल नंबर मांगा तो सुधा  िझ झकने लगी. तब वह बोला, ‘‘ठीक है रहने दीजिए.’’

रमाकांत ने बताया वे लोग रात में खबर करेंगे. गाड़ी में सभी बहुत खुश लग रहे थे मां ने कहा, ‘‘परिवार तो अच्छा है… स्वभाव भी ठीक लगा. लड़के की मां खूब बातें करती है.’’

सुधा ने भी यह नोट किया कि वह लगातार बात कर रही थी. सभी लोग खुश थे पर सुधा का मन आशंकाओं से घिरा था. एक हलचल मची थी कि सत्य नंगा होता है… सही… सत्य बड़ा कठोर भी होता है… उसे अब सारी बातें मांपापा को बतानी पडे़गी. उन के मन में आशा के लड्डू फूट रहे हैं. कहीं वे टूट गए तब परिणाम बहुत दुखद होगा. रात लीला देवी खाना बनाने गई तो सुधा वहां जा पहुंची और बोली, ‘‘मां सुनो बहुत जरूरी बात बतानी है.’’

‘‘हां बोलो.’’

मां खुश थी सुधा ने ट्रेन की सारी बातें बता दीं. लीला देवी सोच में पड़ गई कि अब क्या होगा… राह दिखाना और बहू बनाना दोनों में बहुत फर्क है. जमाना कितना भी आगे चला जाये पर कोई भी सभ्य परिवार जानबू झ कर एक भागी हुई लड़की से अपने बेटे की शादी नहीं करेगा. अब तो तय है कि उधर से न ही होगा यह बात सुधा के पापा को जल्दी बतानी होगी. यह सोच वह अपने कमरे में चली गई. रमाकांत कमरे में फाइल देख रहे थे.

लीला देवी बोली, ‘‘सुनिए, कुछ कहना है.’’

‘‘हां बोलो,’’ उन्होंने बिना देखे कहा.

लीला देवी ने जैसे कहने के लिए अपना मुंह खोलना चाहा वैसे ही रमाकांत का मोबाइल बज उठा, ‘‘एक मिनट.’’

उन्होंने फोन उठाया फोन जगेश्वर नाथ का था. लीला देवी का दिल जोर से धड़कने लगा. अभी वह उन के बारे में सोच ही रही थी कि उन का फोन आ गया. कहीं वह गश खा कर गिर न पड़े, इसलिए अपने बैड पर बैठ गई और पति का मुंह देखने लगी. पति की मुख मुद्रा तो हर्ष की लग रही थी. चेहरे पर मुसकान भी झलक रही थी. वह उत्तेजना में जा कर पास खड़ी हो गई.

‘‘जी अरे नहीं इतना तो समय लेना ही चाहिए… हांहां आप को भी बहुतबहुत बधाई. हां हम सुधा की मां को बता देंगे. ठीक है जी प्रणाम.’’

रमाकांत का चेहरा बता रहा था सब कुशलमंगल है. वह अपनी पत्नी की ओर लपके. उन्होंने लीला देवी के दोनों कंधे पकड़ कर खुश हो कहा, ‘‘लीला हमारी बेटी का ब्याह पक्का हो गया.’’

सुधा की मां जगेश्वर नाथ का मन ही मन धन्यवाद करने लगी. सच में बहुत सज्जन पुरुष हैं. आजकल कहां ऐसे आदमी मिलते हैं…

जोगेश्वरजी सुधा से ट्रेन में मिल चुके सुधा के पापा को यह बताना अभी ठीक नहीं हैं कितना खुश हैं सब सुन कर… चिंता में पड़ जाएंगे. जब सोने जाएंगे तब आराम से बात कर के बताएंगे.

तभी याद आया सुधा किचन में होगी बेचारी बेकार में परेशान होगी उस को यह खबर भी दे देते हैं. उस के मन का बो झ हट जाएगा.

सुधा का हृदय जोगेश्वर अंकल के लिए श्रद्धा से भर गया. सुधा अच्छा महसूस करने लगी. उसे याद आया कि गौतम ने उस का मोबाइल नंबर मांगा था. उस ने मां को बताया तो वह बोली, ‘‘दे देती दिक्कत की कोई बात नहीं थी. ठहरो हम भिजवा देते हैं.’’

लीला देवी ने अपनी होने वाली समधिन को बधाई देने के लिए उन्होंने फोन किया. तब सुधा की सास ने स्वयं सुधा का मोबाइल नंबर मांग लिया. नंबर देने के दूसरे दिन गौतम का फोन आ गया. वह 2 दिनों के लिए जमशेदपुर जा रहा है. जाने के पहले शाम को सुधा से कैफेटेरिया में मिलना चाहता है. सुधा सोचने लगी थोड़ी देर पहले उसे लगा उस ने जंग जीत ली पर अब उसे गौतम से मिलना है क्या करे. सारी कहानी जानते हुए जोगेश्वर अंकल ने शादी पक्की कर दी… क्या सच में उन्होंने अपने लड़के को नहीं बताया होगा ऐसा हो सकता है क्या? कहीं ऐसा तो नहीं कि गौतम को सब पता हो. वह सुधा के मुंह से सुनना चाहता है?

शायद नहीं अंकल खुद मना नहीं कर पाए. चाहते हैं गौतम मना करे. छी: उन समान आदमी पर वह कैसे शक कर सकती है. यह भी तो हो सकता है कि इन सब बातों को कोई महत्त्व नहीं दिया हो. सुधा सोच में पड गई अपने अतीत को… वह तो उस के जीवन का नासूर बन चुका है. सुधा चाहे न चाहे उस से भाग नहीं सकती है. क्या करे जिंदगी सामने खड़ी पुकार रही है. बस जा कर थाम लेना है पर वह जहां भी जाएगी ये सारी चीजें उस के साथसाथ चलेंगी. चुप रह कर और आगे बढ़ कर जिंदगी को गले लगा ले अथवा जो भी हुआ उसे गौतम को बता दे. वैसे खतरा दोनों में है गौतम मना भी कर सकता है. हो सकता है अपमानित भी करे.

बस अब और नहीं- भाग 1: अनिरुद्ध के व्यवहार में बदलाव की क्या थी वजह

उस दिन जब अविनाश अपने दफ्तर से लौटा तो बहुत खुश दिख रहा था. उसे इतना खुश देख कर अनिता को कुछ आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह दफ्तर से लौटे अविनाश को थकाहारा, परेशान और दुखी देखने की आदी हो चुकी थी. अविनाश का इस कदर परेशान होना बिना वजह भी नहीं था. सब से बड़ी वजह तो यही थी कि पिछले 10 सालों से वह इस कंपनी में काम कर रहा था, पर उसे आज तक एक भी प्रमोशन न मिला था. वह कंपनी के मैनेजर को अपने काम से खुश करने की पूरी कोशिश करता, पर उसे आज तक असफलता ही मिली थी.

प्रमोशन न होने के कारण उसे वेतन इतना कम मिलता था कि मुश्किल से घर का खर्च चल पाता था. उस की कंपनी बहुत मशहूर थी और वह अपना काम अच्छी तरह से समझ गया था, इसलिए वह कंपनी छोड़ना भी नहीं चाहता था.

अनिता अविनाश के दुखी और परेशान रहने की वजह जानती थी, पर वह कर ही क्या सकती थी.

उस दिन अविनाश को खुश देख कर उस से रहा नहीं गया. वह चाय का कप अविनाश को पकड़ा कर अपना कप ले कर बगल में बैठ गई और उस से पूछा, ‘‘क्या बात है, आज बहुत खुश लग रहे हो ’’

‘‘बात ही खुश होने की है. तुम सुनोगी तो तुम भी खुश होगी.’’

‘‘अरे, ऐसी क्या बात हो गई है  जल्दी बताओ.’’

‘‘कंपनी का मैनेजर बदल गया. आज नए मैनेजर ने कंपनी का काम संभाल लिया. बड़ा भला आदमी है. उम्र भी ज्यादा नहीं है. मेरी ही उम्र का है. पर इतनी छोटी उम्र में मैनेजर बन जाने के बाद भी घमंड उसे छू तक नहीं गया है. आज उस ने सभी कर्मचारियों की एक मीटिंग ली. उस में सभी विभागों के हैड भी थे. उस ने कहा कि यह कंपनी हम सभी लोगों की है. इसे आगे बढ़ाने में हम सभी का योगदान है. हम सब एक परिवार के सदस्यों की तरह हैं. हमें एकदूसरे की मदद करनी चाहिए. कंपनी के किसी भी सदस्य को कोई परेशानी हो तो वह मेरे पास आए. मैं वादा करता हूं सभी की बातें सुनी जाएंगी और जो सही होगा वह किया जाएगा.

‘‘आखिर में उस ने कहा कि इस इतवार को मेरे घर पर कंपनी के सभी कर्मचारियों की पार्टी है. आप सभी अपनी पत्नियों के साथ आएं ताकि हम सब लोग एकदूसरे को अच्छी तरह से जान और समझ सकें. लगता है अब मेरे दिन भी बदलेंगे. तुम चलोगी न ’’

‘‘तुम ले चलोगे तो क्यों नहीं चलूंगी ’’ कह कर मुसकराते हुए अनिता वापस रसोई में चली गई.

कंपनी के कर्मचारियों की संख्या 100 से अधिक थी, जिन के रात के खाने का प्रबंध था. मैनेजर ने अपने घर के सामने एक बड़ा सा शामियाना लगवाया था. मैनेजर अपनी पत्नी के साथ शामियाने के दरवाजे पर ही उपस्थित था और आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहा था. मेहमान एकएक कर के आ रहे थे और मैनेजर से अपना परिचय नाम और काम के जिक्र के साथ दे रहे थे.

अविनाश ने भी मैनेजर से हाथ मिलाया और अनिता ने उन की पत्नी को नमस्कार किया. अचानक मैनेजर की निगाह अनिता पर पड़ी तो उस के मुंह से निकला, ‘‘अरे, अनिता तुम  तुम यहां कैसे ’’

अनिता भी चौंक उठी. उस के मुंह से बोल तक न फूटे.

‘‘पहचाना नहीं  मैं अनिरुद्ध…’’

‘‘पहचान गई, तुम काफी बदल गए हो.’’

‘‘हर आदमी बदल जाता है, पर तुम नहीं बदलीं. आज भी वैसी ही दिख रही हो,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने अपनी पत्नी की तरफ संकेत किया, ‘‘अनिता, यह है अंजलि मेरी पत्नी और तुम्हारे पति कहां हैं ’’

अनिता ने अविनाश को आगे कर के इशारा किया और अंजलि को अभिवादन कर उस से बातें करने लगी.

अब तक सिमटा हुआ अविनाश सामने आ कर बोला, ‘‘सर, मैं हूं अविनाश. आप की कंपनी के ऐड विभाग में सहायक.’’

‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने अंजलि से कहा, ‘‘अंजलि, यह है अनिता. बचपन में हम दोनों एक ही सरकारी कालोनी में रहते थे और एक ही स्कूल में एक ही क्लास में पढ़ते थे. इन के पिताजी पापा के बौस थे.’’

‘‘पर आज उलटा है. आप अविनाश के बौस के भी बौस हैं,’’ कह कर अनिता हंस पड़ी.

‘‘नहीं, हम लोग आज से बौस और मातहत के बजाय एक दोस्त के रूप में काम करेंगे. क्यों अविनाश, ठीक है न  खैर, और बातें किसी और दिन करेंगे, आज तो बड़ी भीड़भाड़ है,’’ कहते हुए अनिरुद्ध अन्य मेहमानों की तरफ मुखातिब हुआ, क्योंकि अब तक कई मेहमान आ कर खड़े हो चुके थे.

पार्टी समाप्त होने पर अन्य लोगों की तरह अविनाश और अनिता भी वापस अपने घर लौट आए. अविनाश बहुत खुश था. उस से अपनी खुशी संभाले नहीं संभल रही थी. सोते समय अविनाश ने अनिता से पूछा, ‘‘क्या यह सच है कि मैनेजर साहब तुम्हारी कालोनी में रहते थे और तुम्हारी क्लास में पढ़ते थे ’’

‘‘इस में झूठ की क्या बात है  जब पिताजी की नियुक्ति जौनपुर में थी तो हमारी कोठी की बगल में ही अनिरुद्ध का क्वार्टर था और अनिरुद्ध मेरी ही क्लास में पढ़ता था. अनिरुद्ध पढ़ने में तेज था, इसलिए वह आज तुम्हारी कंपनी में मैनेजर बन गया और मैं पढ़ने में कमजोर थी, इसलिए तुम्हारी बीवी बन कर रह गई,’’ कह कर अनिता मुसकरा तो पड़ी पर यह मुसकराहट जीवन की दौड़ में पिछड़ जाने की कसक को भुलाने के लिए थी.

अविनाश तो किसी और दुनिया में मशगूल था. उसे इस बात की बड़ी खुशी थी कि मैनेजर साहब उस की पत्नी के पुराने परिचितों में से हैं.

‘‘मैनेजर साहब इतना तो सोचेंगे ही कि मेरा प्रमोशन हो जाए.’’

‘‘पता नहीं, लोग बड़े आदमी बन कर अपना अतीत भूल जाते हैं.’’

‘‘नहीं अनिता, मैनेजर साहब ऐसे आदमी नहीं लगते. देखा नहीं, कितनी आत्मीयता से हम लोगों से वे मिले और यह बताने में भी नहीं चूके कि तुम्हारे पिता उन के पिता के बौस थे.’’

‘‘मुझे नींद आ रही है. वैसे भी कल सुबह उठ कर प्रमोद को तैयार कर के स्कूल भेजना है,’’ कह कर अनिता ने नींद का बहाना बना कर करवट बदल ली. थोड़ी ही देर में अविनाश भी खर्राटे भरने लगा.

नींद अनिता की आंखों से कोसों दूर थी. उस ने कुशल स्त्री की भांति अविनाश को सिर्फ इतना ही बताया था कि वह अनिरुद्ध से परिचित है. वह बड़ी कुशलता से यह छिपा गई कि दोनों एकसाथ पढ़तेपढ़ते एकदूसरे को चाहने लगे थे. 12वीं कक्षा में तो दोनों ने अपने प्यार का इजहार भी कर दिया था. पर दोनों जानते थे कि उन दोनों की आर्थिक स्थिति में बहुत अंतर है और दोनों की जाति भी अलग है, इसलिए घर वाले दोनों को विवाह करने की अनुमति कभी नहीं देंगे. दोनों ने यह तय किया था कि पढ़ाई पूरी करने के बाद वे दोनों नौकरी तलाशेंगे और उस के बाद अपनी मरजी से विवाह कर लेंगे.

बस अब और नहीं- भाग 2: अनिरुद्ध के व्यवहार में बदलाव की क्या थी वजह

पर आदमी का सोचा हुआ सब कुछ होता कहां है. 12वीं कक्षा का परीक्षाफल भी नहीं निकला था कि अनिता के पिता का स्थानांतरण वाराणसी हो गया और अनिता और अनिरुद्ध द्वारा बनाया गया सपनों का महल ढह कर चूर हो गया. तब न तो टैलीफोन की इतनी सुविधा थी और न ही आनेजाने के इतने साधन. इसलिए समय बीतने के साथसाथ दोनों को एकदूसरे को भुला भी देना पड़ा.

कहते हैं कि स्त्री अपने पहले प्यार को कभी भुला नहीं पाती. आज इतने दिन बाद अनिरुद्ध को अपने सामने पा कर अनिता के प्यार की आग फिर से भड़क गई. अविनाश जितनी बार अनिरुद्ध को सर कहता अनिता शर्म से मानो गड़ जाती. आज वह अनिरुद्ध के सामने खुद को छोटा महसूस कर रही थी. उस के मन के किसी कोने में यह भी खयाल आया कि अगर उस का पहला प्यार सफल हो गया होता, तो आज वही कंपनी के मैनेजर की पत्नी होती. सभी उस का सम्मान करते और उसे छोटीछोटी चीजों के लिए तरसना न पड़ता. यही सब सोचतेसोचते अनिता की आंख लग गई.

अविनाश का सारा काम विज्ञापन विभाग तक ही सीमित था. विज्ञापन विभाग का प्रमुख उस के सारे काम देखता था. अविनाश को यह उम्मीद थी कि अनिरुद्ध अगले ही दिन उसे बुलाएगा और मौका देख कर वह उस के प्रमोशन की बात कहेगा. अनिता से अपने पुराने परिचय का इतना खयाल तो वह करेगा ही. पर धीरेधीरे 1 सप्ताह बीत गया और अनिरुद्ध का बुलावा नहीं आया तो अविनाश निराश हो गया.

लेकिन एक दिन जब अविनाश को अनिरुद्ध का बुलावा मिला तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा. वह तत्काल इजाजत ले कर अनिरुद्ध के कमरे में पहुंच गया. अनिरुद्ध ने उसे बैठने के लिए इशारा किया और बोला, ‘‘उस दिन काफी भीड़ थी, इसलिए कायदे से बात न हो पाई. ऐसा करो, कल छुट्टी है अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आओ, आराम से बातें करेंगे. एक बात और दफ्तर में किसी को भी पता न चले कि हम लोग परिचित हैं. यह जान कर लोग तुम से अपने कामों की सिफारिश के लिए कहेंगे और मुझे दफ्तर चलाने में दिक्कत आएगी. समझ रहे हो न ’’

‘‘जी सर,’’ अविनाश अभी इतना ही कह पाया था कि चपरासी कुछ फाइलें ले कर अनिरुद्ध के कमरे में आ गया. अविनाश वापस अपनी सीट पर लौट आया पर आज वह बहुत खुश था.

घर लौट कर अविनाश अनिता से बोला, ‘‘आज मैनेजर साहब ने मुझे अपने कमरे में बुलाया था. कह रहे थे कि भीड़ के कारण कायदे से बातें नहीं हो पाईं, कल अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आओ, इतमीनान से बातें करेंगे.’’

अनिरुद्ध से मुलाकात होने के बारे में सोच अनिता खुश तो बहुत हुई पर अपनी खुशी छिपा कर उस ने पूछा, ‘‘अरे, अपनी प्रमोशन की बात की कि नहीं ’’

‘‘कहां की. एक तो फुरसत नहीं मिली फिर कोई आ गया. खुद की प्रमोशन की बात मैं कैसे कह दूं, यह मेरी समझ में नहीं आता. ऐसा है, कल चलेंगे न तो मौका देख कर तुम्हीं कहना. तुम्हारी बात शायद मना न कर पाएं. मैं मौका देख कर थोड़ी देर के लिए कहीं इधरउधर चला जाऊंगा.’’

‘‘मुझ से नहीं हो पाएगा,’’ अनिता ने बहाना बनाया.

‘‘अरे, तुम मेरी पत्नी हो. मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकतीं. सोचो, प्रमोशन मिलते ही वेतन बढ़ जाएगा और अन्य सुविधाएं भी मिलेंगी. हमारी जिंदगी आरामदेह हो जाएगी. अभी तुम जिन छोटीछोटी चीजों के लिए तरस जाती हो, वे सब एक झटके में आ जाएंगी. मौके का फायदा उठाना चाहिए. ऐसे मौके बारबार नहीं आते. तुम एक बार कह कर तो देखो, मेरी खातिर.’’

‘‘ठीक है, मौका देख कर जरूर कहूंगी,’’ अनिता समझ गई कि अविनाश प्रमोशन के लिए कुछ भी कर सकता है. यह कायदे से मुझ से बात नहीं करता, लेकिन प्रमोशन के लिए मुझ से इतनी गुजारिश कर रहा है.

 

अगले दिन अविनाश, अनिता अपने 16 वर्षीय बेटे प्रमोद के साथ अनिरुद्ध के घर पहुंचे. अनिरुद्ध का कोठीनुमा घर देख कर अनिता की आंखें चुंधिया गईं. हर कमरे की साजसज्जा देख कर वह आह भर कर रह जाती कि काश मेरा घर भी ऐसा होता… अंजलि ने घर पर सहेलियों की किट्टी पार्टी आयोजित कर रखी थी, इसलिए अनिरुद्ध अपने कमरे में अलगथलग बैठा हुआ था. अंजलि ने अविनाश और अनिता का स्वागत तो किया पर यह कह कर किट्टी पार्टी चल रही है, उन्हें अनिरुद्ध के कमरे में ले जा कर बैठा दिया. हां, जातेजाते उस ने यह जरूर कहा कि जाइएगा नहीं, पार्टी खत्म होते ही मैं आऊंगी.

अविनाश के साथ ही प्रमोद ने भी अनिरुद्ध को नमस्कार किया और अविनाश ने बताया कि यह मेरा बेटा प्रमोद है. बस, यही एक लड़का है.

अनिरुद्ध ने वहीं बैठेबैठे आवाज लगाई, ‘‘पिंकी… पिंकी.’’

थोड़ी ही देर में प्रमोद की समवयस्क एक किशोरी प्रकट हुई और अनिरुद्ध ने उस का परिचय कराते हुए बताया कि यह उन की बेटी है.

फिर कहा, ‘‘पिंकी बेटे, प्रमोद को ले जा कर अपना कमरा दिखाओ, खेलो और कुछ खिलाओपिलाओ,’’ अनिरुद्ध का इतना कहना था कि पिंकी प्रमोद का हाथ पकड़ उसे अपने साथ ले गई. उस का कमरा सब से पीछे था एकदम अलगथलग.

इधर अनिरुद्ध के कमरे में थोड़ी ही देर में नौकर चायनाश्ता ले आया. इधरउधर की औपचारिक बातों के बीच चायनाश्ता शुरू हुआ. अनिता अधिकतर चुप ही रही. वह अविनाश को यह भनक नहीं लगने देना चाहती थी कि उस की कभी अनिरुद्ध के साथ घनिष्ठता थी. वह चुपचाप अनिरुद्ध को देख रही थी कि कितना बदल गया है वह.

इसी बीच अविनाश के मोबाइल की घंटी बजी. वह तो ऐसे ही किसी मौके की तलाश में था. उस ने अनिरुद्ध से कहा, ‘‘सर, बुरा मत मानिएगा. मैं अभी थोड़ी देर में आ रहा हूं, एक जरूरी काम है.’’

अनिरुद्ध के ‘ठीक है’ कहते ही अविनाश तेजी से बाहर निकल गया. एक पल के लिए अनिता का मन यह सोच कर कसैला हो गया कि आदमी अपने स्वार्थ के आगे इतना अंधा हो जाता है कि अपनी बीवी को दूसरे के पास अकेले में छोड़ जाता है. पर अगले ही पल वह अपने पुराने प्यार में खो गई.

अब कमरे में केवल अनिरुद्ध और अनिता रह गए. थोड़ी देर के लिए तो वहां एकदम शांति व्याप्त हो गई. दोनों में से किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्या कहे. वक्त जैसे थम गया था.

बात अनिरुद्ध ने ही शुरू की, ‘‘मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि हम फिर मिलेंगे.’’

‘‘मैं ने भी.’’

अनिरुद्ध खड़ा हो गया था, ‘‘तुम नहीं जानतीं कि मैं ने तुम्हारी याद में कितनी रातें रोरो कर बिताईं. पर क्या करता मजबूर था. पढ़ाई पूरी करने और नौकरी करने के बाद मैं तुम्हारी खोज में एक बार वाराणसी भी गया था. वहां पता लगा तुम्हारी शादी हो गई है. इस के बाद ही मैं ने अपनी शादी के लिए हां की,’’ अनिरुद्ध भावुक हो गया था.

अनिता की आंखों से आंसू झरने लगे थे. उस ने बिना एक शब्द कहे अपने आंसुओं के सहारे कह दिया था कि वह भी उस के लिए कम नहीं रोई है.

अनिरुद्ध ने देखा कि अनिता रो रही है, तो उस ने अपने हाथों से उस के आंसू पोंछ कर उसे सांत्वना दी, ‘‘जो कुछ हुआ उस में तुम्हारा क्या कुसूर है  मैं जानता हूं कि तुम मुझे आज भी इस दुनिया में सब से ज्यादा प्यार करती हो,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने अनिता को गले लगा कर उस के अधरों का एक चुंबन ले लिया.

बस अब और नहीं- भाग 3: अनिरुद्ध के व्यवहार में बदलाव की क्या थी वजह

अनिता चुंबन से रोमांचित हो गई. उस ने प्रतिरोध करने के बजाय बस इतना ही कहा, ‘‘कोई आ गया तो…’’

अनिरुद्ध समझ गया कि अनिता को भी पुराने प्रेम प्रसंग को चलाए रखने में कोई आपत्ति नहीं है. बस, सब कुछ छिपा कर सावधानीपूर्वक करना पड़ेगा.

‘‘सौरी यार, इतने दिनों बाद तुम्हें अकेले पा कर मैं अपनेआप को रोक नहीं पा रहा हूं.’’

‘‘धीरज रखो, सब हो जाएगा,’’ कह कर अनिता ने अपनी मादक मुसकान बिखेरते हुए हामी भर दी. बदले में अनिरुद्ध भी मुसकरा पड़ा.

अनिता को लग रहा था कि आज उस का पुराना प्रेम उसे वापस मिल गया. पर इस प्रेम प्रसंग को चलाए रखने के लिए यह जरूरी था कि अविनाश की प्रमोशन हो जाए. इसी प्रमोशन के लिए तो अविनाश उसे आज अनिरुद्ध के यहां लाया और उन्हें एकांत में छोड़ कर चला गया. अनिता ने बिना किसी भूमिका के अनिरुद्ध को सब कुछ बता दिया.

‘‘यह प्रमोशन क्या चीज है, तुम्हारे लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने एक बार फिर से अनिता का दीर्घ चुंबन ले डाला.

अनिता ने कोई प्रतिरोध नहीं किया और बनावटी नाराजगी दिखाते हुए बोली, ‘‘मैं ने कहा न सब कुछ हो जाएगा. मैं तो शुरू से ही तुम्हारी हूं, थोड़ा धीरज रखो,’’ और अपने पर्स से रूमाल निकाल कर अनिरुद्ध के मुंह पर लगी लिपस्टिक पोंछने लगी. फिर यह कहते हुए अंजलि के कमरे की तरफ मुड़ गई, ‘‘यहां बैठना ठीक नहीं. पता नहीं तुम क्या कर बैठो.’’

अविनाश काफी देर बाद लौटा. आते ही वह फिर आने का वादा कर के अनिता और बेटे के साथ वहां से चल पड़ा. उस से रहा नहीं जा रहा था. वह रास्ते में ही अनिता से पूछ बैठा, ‘‘क्या हुआ, प्रमोशन के लिए कहा कि नहीं ’’

‘‘कहा तो है. कह रहा था कि देखूंगा,’’ अनिता ने पर्याप्त सतर्कता बरतते हुए बताया.

‘‘प्रमोशन हो जाए तो मजा आ जाए,’’ अविनाश अपने सपने में खोया हुआ बोला.

2-3 दिन बाद ही अविनाश को प्रमोशन का और्डर मिल गया, उस की खुशी की कोई सीमा न रही. दफ्तर से लौटते ही उस ने मारे खुशी के अनिता को गोद में उठा लिया और लगा चूमने.

‘‘अरे, क्या हो गया  आज तो बहुत खुश लग रहे हो ’’

‘‘खुशी की बात ही है. जानती हो, आज मेरी प्रमोशन हो गई. पिछले कई सालों से इंतजार कर रहा था मैं. सचमुच, नए मैनेजर साहब बड़े अच्छे आदमी हैं. तुम सोच रही थीं कि पता नहीं सुनेंगे भी कि नहीं, लेकिन उन्होंने मेरी प्रमोशन कर दी. सुनो, छुट्टी के दिन उन के घर चलेंगे, उन्हें धन्यवाद देने,’’ अविनाश खुशी में कहे जा रहा था.

अविनाश को खुश देख कर अनिता की आंखों में भी आंसू छलक आए.

छुट्टी के दिन वे अनिरुद्ध के यहां गए. इस के बाद तो आनेजाने का सिलसिला चल निकला. अनिरुद्ध अविनाश को आर्थिक फायदा दिलाने की गरज से कंपनी के काम से बाहर भी भेजने लगा. अब तो अविनाश हर शाम दफ्तर से आते वक्त अनिरुद्ध के घर हो कर ही आता था. अंजलि को भी मानो मुफ्त का एक नौकर मिल गया था. वह कभी अविनाश को सब्जी लेने भेज देती तो कभी दूध लेने. अविनाश बिजली, पानी, मोबाइल के बिल, पिंकी की फीस आदि भरने का काम भी खुशी से करता.

अनिरुद्ध अगर कंपनी के काम से कहीं बाहर जाता तो वह अविनाश को कह जाता कि मेरे घर का कोई काम हो तो देख लेना. प्रमोद भी पिंकी से घुलमिल गया था, इसलिए वह भी अकसर पिंकी के घर चला जाता और दोनों पिंकी के कमरे में घंटों बातें करते, खेलते.

उधर अनिरुद्ध और अनिता के दिल में प्रेम की पुरानी आग भड़क गई थी. वे अपनी सारी हसरतें पूरी कर लेना चाहते थे, इसलिए वे दोनों अपने में मगन थे. जब भी मौका मिलता अनिता अनिरुद्ध को फोन कर के घर आने के लिए कह देती और दोनों एकदूसरे में खो जाते. कहीं कुछ और भी हो रहा है, यह जानने और समझने की उन्हें मानो फुरसत ही न थी.

उस दिन अनिरुद्ध काम से थक कर रात में लगभग 8 बजे अपने कमरे से बाहर थोड़ी देर के लिए निकला, तो उस ने देखा कि पिंकी के कमरे की लाइट जल रही थी. पिछले कई दिनों की व्यस्तता की वजह से वह अपनी बेटी पिंकी से कायदे से बात तक नहीं कर पाया था. उस के दिल में आया कि पिंकी के कमरे में ही चल कर बातें करते हैं. अभी पिंकी के कमरे से वह कुछ दूरी पर ही था कि उसे कुछ आवाजें सुनाई पड़ीं. उस ने सोचा कि शायद पिंकी की कोई सहेली आई है और वह उस से बातें कर रही है. यों जाना ठीक नहीं , खिड़की से झांक लेता हूं कि कौन है.

उस ने खिड़की से झांक कर देखा तो मानो उसे चक्कर सा आ गया. उस ने देखा कि पिंकी और प्रमोद अर्धनग्न अवस्था में एकदूसरे से लिपटे हुए हैं. प्रमोद पिंकी से कह रहा था, ‘‘तुम्हारे पापा मेरी मम्मी से रोमांस करते हैं. एक दिन मैं ने देखा कि दोनों बैडरूम में एकदूसरे से लिपटे पड़े हैं.’’

‘‘तेरे पापा का भी मेरी मम्मी से ऐसा ही रिश्ता है. एक दिन मैं ने भी उन्हें सामने वाले कमरे में एकदूसरे से लिपटे देखा,’’ पिंकी बोली.

‘‘क्या मजेदार बात है. तेरे पापा मेरी मम्मी से और मेरी मम्मी तेरे पापा से रोमांस कर रही हैं और हम दोनों एकदूसरे से,’’ कह कर प्रमोद हंस पड़ा.

‘‘लेकिन यार, वे लोग तो शादीशुदा हैं. कुछ गड़बड़ हो गई तो भी किसी को पता नहीं चलेगा. पर हम लोगों के बीच कुछ हो गया तो मैं मुसीबत में पड़ जाऊंगी.’’

‘‘तुम चिंता मत करो, मैं कंडोम लाया हूं न.’’

‘‘तुम हो बड़े समझदार,’’ कह पिंकी ने खिलखिलाते हुए प्रमोद को भींच लिया.

आगे कुछ सुन पाना अनिरुद्ध के बस में न था. वह किसी तरह हिम्मत बटोर कर अपने कमरे तक आया और बिस्तर पर निढाल पड़ गया. आज वह खुद की निगाहों में ही गिर गया था. वह किसी से कुछ कह भी तो नहीं सकता था. बेटी तक से नहीं. अगर कुछ कहा और पिंकी ने भी पलट कर जवाब दे दिया तो  वह खुद को ही दोषी मान रहा था कि अपने क्षणिक सुख के लिए उस ने जो कुछ किया, अब उसी राह पर बच्चे भी चल पड़े हैं. उस की हरकतों के कारण बच्चों का भविष्य दांव पर लग गया. कितना अंधा हो गया था वह. अंजलि को भी क्या कहे वह. इस सब के लिए वह खुद जिम्मेदार है. शुरुआत तो उस ने ही की.

रात को अनिरुद्ध ने खाना भी नहीं खाया. रात भर वह दुख और पश्चात्ताप की आग में जलता रहा और रो कर खुद को हलका करता रहा. सुबह होने से पहले ही उस ने सोचा कि जो हो गया, रोने से कोई फायदा नहीं. फिर अब क्या किया जाए, इस पर वह सोचताविचारता रहा.

थोड़ी देर में ही वह निर्णय पर पहुंच गया और सुबह होते ही उस ने कंपनी के जीएम से फोन पर अपना स्थानांतरण करने का निवेदन किया. जीएम उस के काम से सदैव खुश रहते थे, इसलिए उन्होंने उस के निवेदन को स्वीकार करने में तनिक भी देर न लगाई. उस का स्थानांतरण उसी पल कोलकाता कर दिया.

4 दिन बाद अनिरुद्ध परिवार सहित कोलकाता की ट्रेन पर सवार हो गया. किसी को भी न पता चला कि क्या हुआ. अनिरुद्ध ने सारा राज अपने सीने में दफन कर लिया.

घर का सादा खाना: क्या सही थी प्रिया की तरकीब

अनिल और बच्चे शुभम व शुभी औफिस चले गए तो प्रिया कुछ देर बैठ कर पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. अचानक नजर नई रैसिपी पर पड़ी. पढ़ते ही मुंह में पानी आ गया. सामग्री देखी. सारी घर में थी. प्रिया को नईनई चीजें ट्राई करने का शौक था.

खानेपीने का शौक था तो ऐक्सरसाइज कर के अपने वेट पर भी पूरी नजर रखती थी. एकदम बढि़या फिगर थी. कोई शारीरिक परेशानी भी नहीं थी. वह अपनी लाइफ से पूरी तरह संतुष्ट थी. बस आजकल अनिल और बच्चों पर घर का सादा खाना खाने का भूत सवार था.

प्रिया अचानक अपने परिवार के बारे में सोचने लगी. अनिल हमेशा से बिग फूडी रहे हैं पर अब अचानक अपनी उम्र की, अपनी सेहत की कुछ ज्यादा ही सनक रहने लगी है. हैल्दी रहने का शौक तो पूरे परिवार को है पर यह कोई बात थोड़े ही है कि इंसान एकदम उबली सब्जियों पर ही जिंदा रहे और वह भी तब जब कोई तकलीफ भी न हो. उस पर मजेदार बात यह हो कि औफिस में सब चटरपटर खा लें पर घर पर कुछ टेस्टी बन जाए तो सब की नजर तेल, मसाले, कैलोरीज पर रहे.

अब टेस्टी चीजें कैलोरीज वाली होती हैं तो प्रिया की क्या गलती है. उस के पीछे पड़ जाते हैं सब कि कितना हैवी खाना बना दिया है. आप को पता नहीं कि हैल्दी खाना चाहिए. भई, मुझे तो यह भी पता है कि कभीकभी खा भी लेना चाहिए. इस बात पर आजकल प्रिया का मूड खराब हो जाता है. भई, तुम लोग इतने हैल्थ कौंशस हो तो औफिस में भी उबला खाओ.

शाम को कभी किसी से पूछ लो कि आज औफिस में क्या खाया तो ऐसीऐसी चीजें बताई जाती हैं कि प्रिया की नजरों के सामने घूम जाती हैं और उस के मुंह में पानी आ जाता है.

मन में दुख होता है कि मैं जब मूंग की दाल और लौकी की सब्जी खा रही थी, तो ये लोग पिज्जा और बिरयानी खा रहे थे और अनिल का यह ड्रामा रहता है कि टिफिन घर से ही ले कर जाना है, उन्हें घर का सादा खाना ही खाना है.

वह सुबह उठ कर 3-3 हैल्दी टिफिन तेयार करती है और शाम को पता चलता है कि लजीज व्यंजन उड़ाए गए हैं. खून जल जाता है प्रिया का. यह उस की गलती है न कि वह एक हाउसवाइफ है, घर में रहती है, रोज बाहर जा कर कभी कुछ डिफरैंट नहीं खा पाती. उसे तो वही खाना है न जो टिफिन के लिए बना हो. वह कहां जा कर अपना टेस्ट बदले.

किट्टी पार्टी एक दिन होती है, अच्छा लगता है. आजकल तो कभी जब वीकैंड में बाहर खाना खाने जाते हैं, तो प्रिया मेनू कार्ड देखते हुए मन ही मन एक से एक बढि़या नई डिशेज देख ही रही होती है कि अनिल फरमाते हैं कि सूप और सलाद खाते हैं. प्रिया को तेज झटका लगता है. सूप तो पसंद है उसे पर सलाद? यह क्या है, क्यों हो रहा है उस के साथ ऐसा?

पास्ता, वैज कबाब, कौर्न टिक्की और दही कबाब, जो उस की जान हैं, इन में आजकल अनिल को ऐक्स्ट्रा तेल नजर आ रहा है. भई, जब वह अब तक अपने परिवार की हैल्थ का ध्यान रखती आई है तो फिर कभीकभी तो ये सब खाया जा सकता है न? सलाद खाने तो वह नहीं आई है न 20 दिन बाद बाहर?

बच्चों ने भी जब अनिल की हां में हां मिलाई तो प्रिया सुलग गई और सूप व सलाद खाती रही. मन में तो यही चल रहा था कि ढोंगी लोग हैं ये. यह शुभम अभी 2 दिन पहले अपने फ्रैंड्स के साथ बारबेक्यू नेशन में माल उड़ा कर आया है और यह शुभी की बच्ची औफिस में तरहतरह की चीजें खा कर आती है.

शाम को घर आ कर कहती है कि मौम, डिनर हलका दिया करो, स्नैक्स हैवी हो जाते हैं. अरे भई, मेरी भी तो सोचो तुम लोग, घर का

सादा खाना खाने का गाना मुझे क्यों सुनाते हो… मेरी जीभ रो रही है… अब क्या टेस्टी, मजेदार खाना खाने के लिए तुम लोगों को सचमुच रोकर दिखाऊं… अगर अच्छीअच्छी चीजें खाने के लिए सचमुच किसी दिन रोना आ गया न मुझे तो पता है मुझे, सारी उम्र मेरा मजाक उड़ाया जाएगा.

अभी अनिल की 5 दिन की मीटिंग थी. रोज शानदार लंच था. सुबह ही बता जाते कि शाम को कुछ खिचड़ी टाइप चीज बना कर रखना. कुछ दिन लंच बहुत हैवी रहेगा. मेरी आंखों में आंसू आतेआते रुके. शुभम और शुभी वीकैंड में अपने दोस्तों के साथ बाहर ही लाइफ ऐंजौय कर लेते हैं. बचा कौन? मैं ही न?

अब खाने के लिए रोना उसे भी अच्छा नहीं लग रहा है पर क्या करे, मन तो होता है न कभीकभी कुछ बाहर टेस्टी खाने का… कभीकभी अनहैल्दी भी चलता है न… यहां तक कि इन तीनों ने चाट खाना भी बंद कर दिया है, क्योंकि तीनों का औफिस में कुछ न कुछ बाहर का खाना हो ही जाता है.

अब बताइए, 6 महीनों में कभी छोलों के साथ भठूरे नहीं बन सकते? पर नहीं, रात में जैसे ही छोले भिगोती हूं, तीनों में से कोई भी शुरू हो जाता है कि भठूरे मत बनाना, बस रोटी या राइस… मन होता है छोलों का पतीला बोलने वाले के सिर पर पलट दूं… यह जरूरी क्यों हो कि घर में बस सादा ही खाना बने?

घर में भी तो कभी टेस्ट चेंज किया जा सकता है न?

पता नहीं तीनों कौन से प्लैनेट के निवासी बनते जा रहे हैं. यही फलसफा बना लिया है कि घर में खाएंगे तो सादा ही (बाकी माल तो बाहर उड़ा ही लेंगे).

पिछली किट्टी पार्टी में अगर अंजलि के घर खाने में पूरियां न होतीं, तो पूरियां खाए उसे साल हो जाता. बताओ जरा, उत्तर भारतीय महिला को अगर पूरियां खाए साल हो रहा हो तो यह कहां का न्याय है? अब कभी रसेदार आलू की सब्जी या पेठे की सब्जी, रायते के साथ पूरी नहीं खा सकते क्या? अहा, मन तृप्त हो जाता था खा कर. अब ये ढोंगी लोग कहते हैं कि हमारे लिए तो रोटी ही बना देना. अब अपने लिए 2-3 पूरियों के लिए कड़ाही चढ़ाती अच्छी लगूंगी क्या?

बस अब प्रिया के हाथ में था गृहशोभा का सितंबर, द्वितीय अंक और रैसिपी थी सामने गोभी पकौड़ा और अचारी मिर्च पकौड़ा. 2-3 बार दोनों रैसिपीज पढ़ीं. मुंह पानी से भर गया. पढ़ कर ही इतना खुश हुआ दिल… खा कर कितना मजा आएगा… बहुत हो गया घर का सादा खाना और सब से अच्छी बात यह है कि गोभी, समोसे बेक करने का भी औप्शन था तो वह बेक कर लेगी. तीनों कम रोएंगे, थोड़ा पुलाव भी बना लेगी, परफैक्ट, बस डन.

तीनों लगभग 8 बजे आए. आज प्रिया का चेहरा डिनर के बारे में सोच कर ही चमक रहा था. वैसे तो बनातेबनाते भी 2-3 समोसे खा चुकी थी… मजा आ गया था. पेट और जीभ बेचारे थैंक्स ही बोलते रहे थे जैसे तरसे हुए थे दोनों मुद्दतों से…

चारों इकट्ठा हुए तो प्रिया ने ‘आज फिर जीने की तमन्ना है…’ गाना गाते हुए खाना लगाया तो तीनों ने टेबल पर नजर दौड़ाई. अनिल के माथे पर त्योरियां पड़ गईं, ‘‘फ्राइड समोसे डिनर में? प्रिया, क्यों तुम सब की हैल्थ के लिए केयरलैस हो रही हो?’’

‘‘अरे, समोसे बेक्ड हैं, डौंट वरी.’’

‘‘पर मैदे के तो हैं न?’’

प्रिया का मन हुआ बोले कि कल जो पिज्जा उड़ाया था वह किस चीज का बना था? पर लड़ाईझगड़ा उस की फितरत में नहीं था. इसलिए चुप रही.

शुभम ने कहा, ‘‘मां, पकौड़े तो फ्राइड हैं न? मैं सिर्फ पुलाव खाऊंगा.’’

प्रिया ने शुभी को देखा, तो वह बोली, ‘‘मौम, आज औफिस में रिया ने बहुत भुजिया खिला दी… अब भी खाऊंगी तो बहुत फ्राइड हो जाएगा… मैं पुलाव ही खाऊंगी.’’

डिनर टाइम था. सब सुबह के गए अब एकसाथ थे. शांत रहने की भरसक कोशिश करते हुए प्रिया ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम लोग सिर्फ पुलाव खा लो,’’

अनिल ने एक समोसा उस का मूड देखते हुए चख लिया, बच्चों ने पुलाव लिया. प्रिया ने जब खाना शुरू किया, सारा तनाव भूल उस का मन खिल उठा. जीभ स्वाद ले कर जैसे लहलहा उठी. आंसू भर आए, इतना स्वादिष्ठ घर का खाना. वाह, कितने दिन हो गए, वह खुद रोज कौन सा तलाभुना खाना चाहती है, पर घर में भी कभी कुछ स्वादिष्ठ बन सकता है न… महीने में एक बार ही सही, पर यहां तो हद ही हो गई थी. वह जितनी देर खाती रही, स्वाद में डूबी रही. उस ने ध्यान ही नहीं दिया कौन क्या खा रहा है. उस का तनमन संतुष्ट हो गया था.

सब आम बातें करते रहे, फिर अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. उस दिन जब प्रिया सोने के लिए लेटी, वह मन ही मन बहुत कुछ सोच चुकी थी कि नहीं करेगी वह सब के लिए इतनी चीजों में मेहनत, उसे कभीकभी अकेले ही खाना है न, ठीक है, उस का भी जब मन होगा, खा लेगी. बस एक फोन करने की ही देर है. अपने लिए और्डर कर लिया करेगी… यह बैस्ट रहेगा. उसे कौन सा कैलोरीज वाला खाना रोज चाहिए… कभीकभी ही तो मन करता है न… बस प्रौब्लम खत्म.

उस के बाद प्रिया यही करने लगी. कभी महीने में एक बार अपने लिए पास्ता और्डर कर लिया, कभी सिर्फ स्टार्टर्स और घर में सब खुश थे कि घर में अब सादा खाना बन रहा है. प्रिया तो बहुत ही खुश थी. उस का जब जो मन होता, खा लेती थी. अपने प्यारे, ढोंगी से लगते अपनों के बारे में सोच कर उसे कभी हंसी आती थी, तो कभी प्यार, क्योंकि उन के निर्देश तो अब भी यही होते थे कि बाहर हैवी हो जाता है, घर में सादा ही बनाना.

भाभी: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

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विकल्प- भाग 1 : क्या दूसरी शादी वैष्णवी के लिए विकल्प थी?

“मौसम की तरह लोग भी बदलते हैं.” दुनिया के लिए चाहे यह सिर्फ किताबों में पढ़े हुए एक जुमले तक ही सीमित होगा लेकिन वैष्णवी असल जिंदगी में ऐसे बहुत से कटु अनुभवों से गुजरी है. अपने इन्हीं अनुभवों के आधार पर वह दावा कर सकती है कि कहावतें, मुहावरे, धारणाएं या मान्यताएं अकस्मात नहीं बना करतीं. उन के पीछे अवश्य ही कोई पुख्ता कारण रहते होंगे.

अट्ठाइस की उम्र में इतने खट्टे अनुभवों से गुजरना कितना त्रासद होता होगा, यह भी हर कोई नहीं समझ सकता. “जाके पांव न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई” इस कहावत के पीछे भी तो कोई गहरा और कड़वा अनुभव ही रहा होगा.

पिछले 3 वर्षों से वैष्णवी इसी तरह रंग बदलती दुनिया को देख रही है. हर रोज नकाब उतरता चेहरा अपने किसी न किसी घनिष्ठ का ही होता है.

‘काश कि मेरी आंखों पर मोह की यह पट्टी बंधी ही रहती तो सोने के सोना होने का वहम तो बना रहता. पट्टी खुलने से तो सुनहरे मुलम्मे के पीछे छिपा पीतल मुंह चिढ़ाने लगा है.’ वैष्णवी यह सोचती और मित्र व परिजनों के दोगले मुंह देखसुन कर अपना जी जलाती रहती.

वैष्णवी आज भी नहीं भूली उस मनहूस रात को जब पति व्योम का हाथ उस के हाथ से छूट गया था. वह व्योम के साथ जयपुर के मशहूर राजमंदिर सिनेमाहौल में फ़िल्म देखने गई थी. मैटिनी शो के बाद उन दोनों का चोखी ढाणी जाने का प्रोग्राम था. पूरी शाम वहीं बिताने के बाद वे डिनर कर के ही वापस आने वाले थे.

अभी सालभर पहले ही तो शादी हुई थी उन की, इसलिए अभी वे दोनों हनीमून पीरियड में ही चल रहे थे. उस शाम वैष्णवी बहुत खुश थी. चोखी ढाणी में चल रहे कठपुतलियों के नाच ने तो उसे इतना उत्साहित कर दिया था कि वह अपनेआप को उन के साथ थिरकने से नहीं रोक सकी. और वहां बैठी लोकगायिका द्वारा छेड़े गए उस मधुर लोकगीत ‘केसरिया बालम आवो नीं पधारो म्हारै देस…’ की स्वरलहरी ने तो उसे इस कदर भावविह्वल कर दिया कि वह पूरी शाम उसी लोकगीत को गुनगुनाती, चुंबक की तरह व्योम के हाथ से ही लिपटी रही.

हम जिस पल में जी रहे होते हैं, दरअसल, जिंदगी सिर्फ उसी पल में सिमटी होती है. जो पल बीत गया उसे वापस नहीं लाया जा सकता और जो बीतने वाला है उस के बारे में कोई नहीं जानता कि कैसे बीतने वाला है. ऐसा ही एक अजनबी पल वैष्णवी की जिंदगी में भी आने को तैयार बैठा था. प्रेम में आकंठ डूबी, अधमुंदी आंखों से वे बाइक पर सवार हवा से होड़ लगा रहे थे कि एक अंधे मोड़ पर तेज गति से घूमते ट्रक पर उन की निगाह ही नहीं गई.

चर्रर्रर्र… की तेज आवाज के साथ ब्रेक भी लगे लेकिन यह सब इतना अकस्मात हुआ कि व्योम अपनी बाइक को संभाल नहीं पाया और बाइक स्लिप हो गई. हवा में उछलता हुआ व्योम करीब 10 फुट दूर जा कर गिरा. दूसरी तरफ सड़क किनारे पड़े नुकीले पत्थर से वैष्णवी का सिर टकराया और वह अचेत हो गई. उस के बाद जब वैष्णवी को होश आया तो वह खाली हाथ हो चुकी थी.

वैष्णवी ग़ज़ब की खूबसूरत लड़की थी. व्योम तो देखते ही उस पर रीझ गया था. व्योम भी पहली ही निगाह में वैष्णवी के दिल में उतर गया था.

लंबा कद, गोरा रंग, कर्ली बाल और प्रतिष्ठित मल्टीनैशनल कंपनी में आकर्षक सालाना पैकेज… किसी लड़की को भला और क्या चाहिए सहेलियों के बीच ईर्ष्या का पात्र बनने के लिए. अपने समय पर इतराती वैष्णवी आसमान में उड़ी जा रही थी. लेकिन समय कोई किताब तो नहीं जिसे पृष्ठ दर पृष्ठ पढ़ कर उस का सार निकाल लिया जाए. या किसी दूसरे का पढ़ कर अपने वाले की समीक्षा कर ली जाए. यह तो बंद लिफाफा सा होता है जिस के भीतर की चिट्ठी पहले कोई नहीं पढ़ सकता. वैष्णवी को भी कहां अंदेशा था कि उस के समय चिट्ठी इतनी कोरी और सफेद निकलेगी. पति को खो चुकी वैष्णवी के लिए एक ही रात में लोगों का नजरिया बदल गया.

‘बेटीबेटी’ कह कर न अघाने वाले सासससुर के लिए वह अब अपशगुनी हो चुकी थी. सास ने तो यहां तक कह दिया था कि ‘काश, व्योम की जगह यही चली जाती. इस की मां के तो एक बेटी और भी है, लेकिन मेरा बेटा तो इकलौता था.’

बातें हवा की तरह होती हैं. चाहे कितने भी दबे स्वरों में की जाएं, एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच ही जाती हैं. ये भी पहुंच गईं. वैष्णवी ने सुना तो टूटे हुए कलेजे के कुछ और टुकड़े हो गए. तेरहवीं के क्रियाकर्म के बाद उसे मांपापा अपने साथ ले आए. सास ने तो जाती हुई के सिर पर स्नेह का हाथ तक न रखा. ससुर जरूर दरवाजे तक विदा करने आए थे.

‘आती रहना, तुम्हारा ही घर है’, ससुर ने देहरी लांघते समय कहा था. सब जानते थे कि इस तरह के औपचारिक वाक्य महज दुनियादारी निभाने के लिए ही कहे-बोले जाते हैं. वैष्णवी ने भी हामी में गरदन हिलाते हुए भारी मन से विदा ली, कभी वापस न आने के लिए. पांव एक बार तो देहरी पर ठिठके भी थे. यही वह दहलीज थी जिस पर उस ने मेहंदी लगे पांवों से चावलों से भरे कलश को ठोकर मार कर भीतर प्रवेश किया था.

यादें गाड़ी के शीशे पर जमी गर्द की तरह होती हैं. आगे बढ़ने के लिए रास्ते का साफ़ दिखना जरूरी होता है और रास्ता साफ़ दिखे, इस के लिए शीशे पर जमी गर्द पोंछनी ही पड़ती है. वैष्णवी ने भी अपने भविष्य के बारे में सोच कर आगे बढ़ने का फैसला कर लिया.

सच के फूल- भाग 3: क्या हुआ था सुधा के साथ

सुबह जब नींद खुली तो उसे बहुत अच्छा लगा. वह अपनेआप को तरोताजा पा रही थी. होंठों पर मुसकान थी कि तभी यादों का एक रेला सारी ताजगी उड़ा ले गया. वह फिर सहम गई और चुपचाप वाशरूम में घुस गई. उसे आज घर कुछ ज्यादा शांत लगा. वैसे सुधा का घर शांत ही रहता है. उस के पापा बहुत नियम और कायदे के पक्के हैं. आज की खामोशी थोड़ी बो िझल लग रही थी. उसे सुबह ही चाय पीने की आदत थी, इसलिए वह चाय बनाने रसोई में पहुंची.

‘‘चाय पीओगी मां?’’ उस ने पैन उठाते हुए प्यार से मां से पूछा.

‘‘नहीं,’’ मां की कड़क आवाज से डर गई.

‘‘हमें पापा के साथ पी चुके हैं तुम पी लो.‘‘

वह चुपचाप चाय बनाने लगी. उस ने निश्चय कर लिया पापा के औफिस जाते वह मां से बात करेगी. दीपक भी स्कूल जा चुका था. चाय ले कर वह अपने कमरे में आ कर पढ़ने की टेबल को ठीक करने लगी. पता नहीं आगे पढ़ पाएगी या नहीं. सभी लोग उस पर इतनी जल्दी विश्वास नहीं कर सकते हैं. कहीं कालेज से नाम ही न कटवा दें. वह जिद्द भी नहीं कर सकती. लीला देवी कमरे में आई और टेबल के पास खडी़ हो बोली, ‘‘क्या कर रही हो सुधा?’’

‘‘कुछ नहीं मां… आओ न,’’ सुधा ने मां को अपने बैड पर बैठाया और फिर खुद जमीन पर बैठ अपना सिर मां की गोद में रख दिया.

‘‘मां हमें तुम से कुछ बात करनी है.’’

‘‘हां बोल.’’

मां के पैर पकड़ बोली, ‘‘मु झे माफ कर दो मां मु झ से बहुत बड़ी भूल हो गई. मैं बहुत पछतावे में हूं… मां मैं बहकावे आ गई थी,’’ और वह फूटफूट कर रो रही थी.

‘‘सुधा इधर देखो अपना सिर उठाओ और बताओ क्या हुआ. देखो सब सचसच बताना… घर की इज्जत तो रही नहीं अपना इज्जत भी गंवा आई,’’ लीला देवी कठोरता से बोली.

‘‘नहीं मां मैं घर से भागी जरूर थी पर मुझे अपने मान का पूरा खयाल था मां. मुझे अपनी इज्जत का खतरा लगा तभी तो वापस आ गई.’’

‘‘कहां गई थी?’’

‘‘मां मुझ से गलती हो गई मां. मैं उस के बातों में आ गई थी.’’

‘‘कहां गई थी?’’

‘‘हम दिल्ली गए… दूसरे दिन ही गरीब रथ से भाग आई. मैं बच गई मां… तुम लोगों के आशीर्वाद से मैं बच गई मां.’’

‘‘तुम लोग एक रात…’’

‘‘नहीं मां,’’ सुधा बीच में बात काट कर बोली, ‘‘जिस दिन गए उस दिन रात ट्रेन में थे. तुम मेरा विश्वास करो मां मैं सच बोल रही हूं. वह बोला कि दिल्ली में उस के मामा रहते हैं जो शादी करवा देंगे. लेकिन जब वह मामा के घर न ले जा कर एक गंदे होटल में ले गया उसी समय मैं सम झ गई कि वह  झूठा है. में ने उस पर विश्वास कर भूल कर दी है. फिर मैं चालाकी से भाग निकली. मां तुम मुझे डांटो, मारो… मैं ने काम ही ऐसा किया है पर एक नादान सम झ कर माफ कर दो मां… प्लीज मां बस एक बार,’’ सुधा रोती जा रही थी.

‘‘तुम उस से शादी करना चाहती हो?’’

‘‘नहीं मां नहीं यही तो मेरी सब से बड़ी भूल थी.’’

‘‘फिर गई क्यों?’’

‘‘मेरी बेवकूफी थी मां. वह मुझ से बोला था कि वह आईएएस के मैन्स में आ गया है और उस के पापा उस की शादी अपने दोस्त की बेटी से जबरदस्ती करवाना चाहते हैं.’’

‘‘तुम उस के साथ शादी करना चाहती थी तभी न…’’

‘‘हां पहले मैं उसे खोना नहीं चाहती थी पर मैं जान गई वह एक नंबर का  झूठा इंसान है. वह आईएएस भी नहीं होगा… मुझ से भूल हो गई मां… मुझे माफ कर दो.’’

‘‘ये सब कब से चल रहा है… कब से मिलनाजुलना है?’’

सुधा चुप रही.

‘‘बताओ?’’

‘‘3 महीने से.’’

‘‘बस 3 महीने में तुझे इतना विश्वास हो गया कि घर से पैर निकाल दिए और

23 बरस तक जिन मांबाप के साथ रही उन से एक बार भी पूछना जरूरी नहीं सम झा…. जो मां 9 महीने पेट में रखी उस पर भी विश्वास नहीं रहा… तुमने तो मेरे आंचल में दाग लगा दिया. जिस दिन तुम गई तुम्हारे पापा उस दिन इतने दुखी और हताश थे. बोले लीला कहां चूक हो गई… हम ने तो कभी भी अपने अम्मांबाबूजी का दिल नहीं दुखाया. जैसा वे बोलते गए हम वैसे करते गए. कहीं तुम ने नहीं अपने मांबाप का दिल दुखाया था.’’

सुधा को 1-1 बात हथौडे़ की तरह दिल पर लग रही थी.

‘‘मां… मुझे नादान सम झ कर माफ कर दो… तुम जो भी सजा देना चाहती हो दे दो पर बस माफ कर दो,’’ और वह मां से लिपट कर रोने लगी.

‘‘मैं क्या सजा दू तुझे… तुझे जो भी सजा देंगे उस का दर्द भी तो हमीं को होगा. तुम मेरी देह का अंश हो काट कर नहीं फेंक सकते,’’ लीला देवी का गला रुंध गया.

यह देख कर सुधा बौखला गई, ‘‘मां तुम रो मत मेरी जैसे नालायक बेटी के लिए रो मत… अपने हिस्से का रोना मुझे दे दो.’’

तब मां ने उस के गाल पर एक चपत लगाई, ‘‘पगली ऐसे नहीं बोलते हैं.’’

‘‘मां तुम मुझे माफ कर दो न.’’

‘‘सुधा हम नाराज नहीं हैं… मन में तकलीफ बहुत है जो जिंदगी भर रहेगी. हम लोगों की परवरिश पर अब सवाल तो लग ही गया न,’’ मां ने गंभीरता से कहा.

सुधा के पास इस का कोई जवाब नहीं था. वह चुप रही. मां का रोना उस के मन को आहत कर गया. सच में उस ने बहुत भारी भूल कर दी… परिवार की इज्जत और उन के सम्मान को ठेस पहुंचाई. थोड़ी देर तक दोनों ही अपने हिस्से का दर्द लिए चुप बैठी रही.

शाम को रमाकांत घर आए पर ग्लानि से भरी सुधा कमरे से बाहर नहीं निकली. मां ने चाय पकड़ाई और अपने कमरे में चली गई. रमाकांत कभी भी अपने कमरे में चाय नहीं पीते हैं. शायद मां सारी स्थिति बताने गई है. अब पापा का रिएक्शन क्या होगा जो भी होगा… वह इन सब बातों के लिए तैयार है. इतने अच्छे मातापिता के लिए उसे कुदरत को शुक्रिया कहना चाहिए.

सुधा के लिए समय जैसे बीत नहीं रहा था. कपड़ों की अलमारी ठीक करने की नीयत से  वह अलमारी के पास खड़ी हो गई. उसे पता लग गया कि अलमारी को अच्छे से खंगाला गया है.

कमरे में बैठा दीपू ध्यान से उस की गतिविधियों को देख रहा था. आखिर उस ने पूछ ही लिया, ‘‘दीदी एक बात पूछूं.’’

‘‘हां पूछो न क्या पूछना है.’’

‘‘तुम अपने कालेज ग्रुप के साथ पिकनिक पर नहीं गई थीं न… हम लोगों से नाराज हो कर कहीं चली गई थी.’’

सुधा को जैसे  झटका सा लगा वह कपड़े जमीन में फेंक दीपू को ओर दौड़ी और उससे लिपट कर रोने लगी, ‘‘नहीं दीपू किसी से नाराज हो कर नहीं गई थी. मुझ से भूल हो गई थी मुझे माफ कर दो दीपू.’’

दीपू 10वीं कक्षा में था. उसे घर के माहौल से कुछकुछ अंदाजा हो रहा था कि दीदी के साथ कुछ तो गड़बड़ है. लड़कियों जरा जल्दी सम झदार हो जाती हैं. लड़के संसारिक मामलों से थोड़ा अनजान रहते हैं.

‘‘तुम तो परची में पता दे गई थी पर सब लोग बहुत घबराए हुए थे.’’

सुधा दीपू को कैसे बताए कि वह पता नहीं बस एक नोट लिख कर गई थी, ‘‘मैं घर छोड़ कर जा रही हूं, 4 दिन बाद आऊंगी.’’

थोड़ी देर रोनेधोने का दौर चला. अब सुधा ने अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया कि किसी तरह पापा को मनाना होगा. पापा नियम के बहुत पक्के हैं. सोने से पहले 10 बजे के न्यूज की हैडलाइन जरूर देखते हैं. वह रात के 10 बजने का इंतजार करने लगी.

सच के फूल- भाग 6: क्या हुआ था सुधा के साथ

अचानक उस के दिमाग में एक खयाल कौंधा. कहीं ऐसा तो नहीं

गौतम को अंकल ने सब बता दिया हो. वे दोनों सुधा को परखना चाहते हो कि यह लड़की कितनी सच्ची है. चलो अब दिमाग नहीं लगाना है मांपापा से बात कर के कोई निर्णय लेंगे.

खाना खाने के समय पापा ने कहा, ‘‘मुझे ड्राइवर औफिस छोड़ कर आ जाएगा… तुम ड्राइवर के साथ चली जाना.’’

सुधा ने कोई जवाब नहीं दिया. वह तो

दूसरी  दुनिया में उल झी थी. खाने के बाद सुधा पापा के कमरे में जाने का इंतजार करने लगी. वह दबे पांव कमरे में पहुंची. लगता है मां सब बता चुकी थी क्योंकि पापा का चेहरा थोडा़ सा चिंतित लग रहा था.

सुध पलंग के पास जा कर खड़ी हो गई. बोली, ‘‘ पापा कुछ कहना है.’’

रमाकांत शायद अंदेशा लगा चुके थे कि सुधा जरुर असमंजस में होगी. उन्होंने उस की ओर देखा सुधा ने खुद को संयत किया और कहा, ‘‘पापा कल मैं क्या करूं? मेरा मतलब है पापा कल मुझे गौतमजी को सब बता देना चाहिए?’’

‘‘सुधा तुम्हारे मन में क्या चल रहा है पहले यह बताओ?’’ रमाकांत ने पूछा.

‘‘पापा अगर उन्हें पता नहीं होगा और बाद में पता चला तब और दूसरी बात यह है हो सकता है पता हो… मु झे चैक करना चाह रहें हों… पापा मैं डर कर सारा जीवन नहीं बिता पाऊंगी बता देगें तब हो सकता है वह मना कर दें यही न लेकिन बाद में कहीं से पता चला तब तो पूरा जीवन बरबाद हो जाएगा.’’

रमाकांत को लगा समय के  झं झावात ने

सुधा को मजबूत और सम झदार बना दिया है. थोड़ा सोचने के बाद बोले, ‘‘सुधा जो तुम्हारा

मन गवाही देता है वही करो अगर तुम को लगता है कि गौतम को बता देना चाहिए तुम उस को सब सच बता दो वैसे हमें भी यह सही लग रहा है… यह तुम्हारी जिंदगी का फैसला है तुम्हें ही निर्णय लेना होगा हम को लगता है तुम जो भी फैसला लोगी सही होगा. हम लोग हमेशा तुम्हारे साथ हैं.’’

लीला देवी को यह बात बिलकुल ही नहीं जंच

रही थी. सुधा अब आत्मविश्वास से भर गई. जब से सुधा के साथ वह अप्रिय घटना हुई है. वह सम झदार हो गई है… जिंदगी के तथ्यों को गहराई से आंकने लगी है. फिर आज पापा ने उस के मनोबल को बढ़ा दिया है. सोने की चेष्टा की… नींद कोसों दूर थी. जिंदगी की विकट परीक्षा थी… पास हो गई तो खुशियां ही खुशियां और अगर फेल तो पूरे परिवार को दुखदर्द मिलने वाला था.

उस ने अपने कैनवास पर जो मैलाकुचैला रंग थोपा था उसे ही तो मिटाना होगा. अंकल ने सही कहा था सत्य नंगा होता है. इस के लिए हिम्मत चाहिए. यह हिम्मत अब उसे अपने

जिंदगी के कैनवास को साफ करने के लिए लगानी होगी.

गौतम से मिलने के लिए सुधा अलमारी के पास जा खड़ी हुई. क्या पहना जाए यह भी एक चिंता का विषय था. तभी उसे अपनी क्लासमेट रानी की याद आई. वह हाथ की रेखा देखती थीं सारी लडकियां हाथ दिखाती भी थीं और उस का मजाक भी बनाती थीं. उस ने सुधा को बताया था जब भी वह मुश्किल हालात में हो तब सफेद कपड़े को पहने अगर पहन नहीं पाए तब एक सफेद कपड़ा ही पास में रख ले.

सुधा को ये सब बकवास लगता था. पर आज मन हो रहा था उस के कहे को एकबार आजमाया जाए. उस ने अलमारी से अपनी पसंद का एक सफेद कुरता व सफेद चूड़ीदार और

चुन्नी निकाल लिया. कानों के लिए छोटे औक्साइड हैंगिंग निकाले. तैयार हो कर जब मां को दिखाने गई.

लीला देवी अपनी बेटी को बडे़ प्यार से निहारा फिर बोली, ‘‘क्या तुम ने सफेद कपड़े पहन लिए… रंगीन कपड़े पहनने चाहिए थे.’’

सुधा ने कोई जवाब नहीं दिया. मां ने कुदरत को प्रणाम कर जाने को कहा. सुधा जब तक आंखों से ओ झल नहीं हुई तब तक उस की मां देखती रही. सब कुशलमंगल हो की कामना करने लगी.

सुधा जब कैफेटेरिया पहुंची तब देखा कि गोतम सीढि़यों के पास खडा था. वह गोतम के साथ चल दी गौतम ने कोने में एक सीट रिजर्व कर रखी थी. उस ने जब बैठने का इशारा किया तो वह बैठ गई. आज उस ने गौतम को गौर से देखा अच्छा स्मार्ट लग रहा था. आज उस ने भी जींस और लैमन कलर की टीशर्ट पहन रखी थी जो उस पर काफी जंच रही थी. उस ने वेटर को इशारे से बुलाया. सुधा का मन हुआ कि वह मुड़ कर देखे कि पीछे क्या गड़बड़ हो रही है पर हिम्मत नहीं हुई.

गौतम लिली के फूलों का गुलदस्ता ले कर आया था. सुधा के हाथों में देते हुए बोला, ‘‘फ्लौवर फौर लवली लेडी.’’

सुधा ने मुसकराते हुए थैक्स कहा और फिर दोनों बैठ गए.

‘‘मां से पूछ कर आई हैं न?’’

गौतम का परिहास वह तुरत सम झ गई. उस ने फोन नंबर नहीं दिया था इसी बात की वह खिंचाई कर रहा था.

‘‘दूसरे दिन दे दिया…’’ जब हम मांगें तो.

‘‘उस समय शादी तय नहीं हुई थी,’’ सुधा ने बीच से ही बात काटते हुए कहा.

‘‘स्मार्ट आंसर,’’ गौतम ने खुश हो कर कहा, ‘‘क्या खाना है?’’

‘‘आप जो भी मंगा लें.’’

गौतम ने वेटर को बुला कर और्डर दिया. सुधा को अपनी बात बताने की जल्दी मची थी.

‘‘आज आप बहुत सुंदर लग रही है,’’ गौतम ने कहा, ‘‘अब आप नाराज न हो जाना… मैं फ्लर्ट करने की कोशिश नहीं कर रही हूं… दरअसल, आप पर सफेद रंग बहुत सूट कर रहा है.’’

‘‘नहीं मुझे तो खुशी हो रही,’’ सुधा ने चंचलता से जवाब दिया.

‘‘अगेन स्मार्ट आंसर.’’

गौतम का चुलबुलापन उसे अच्छा लग रहा था. काश यह वक्त यहीं रुक जाता.

तभी गौतम ने कहा, ‘‘मु झे 2 दिन के लिए जमशेदपुर जाना है. सोच रहा था उधर से दिल्ली वापस चला जाऊंगा, इसलिए मिलना चाहता था पर पापा कह रहे हैं परसों के बाद का दिन अच्छा है सगाई कर के जाओ.’’

‘‘सगाई?’’ सुधा का दिल जोर से धड़का.

‘‘मैं ने कहा अक्तूबर में आ कर कर लेंगे. तब नाराज हो गए. इस कारण मु झे अब दोबारा वापस आना होगा?’’

सुधा बोलने को तड़प रही थी. उस ने अपना मन कड़ा किया और गौतम से बोली, ‘‘मुझे आप से कुछ बातें करनी हैं.’’

‘‘बोलिए न तभी से मैं ही बोले जा रहा हूं.’’

सुधा धीरेधीरे सारी बातें बताने लगी… बीचबीच में वह गौतम को देखती भी जा रही थी. उस का चेहरा सख्त्त होता जा रहा था. विकी से मुलाकात रोज क्लास बंक कालेज के पास में मिलना… घर से पैसे चोरी कर भागना और फिर उस के धोखे का पता लगने पर वापस घर सकुशल लौट आना… उस ने जोगेश्वर अंकल से मिलने की बात नहीं बताई.

गौतम के चेहरे के भाव प्रति पल बदल रहे थे. उस ने वेटर से बिल लाने को

कहा सुधा सम झ गई सब खत्म हो गया. ऐसा जीवनसाथी उसे कहां मिलेगा.

वेटर ने बिल ला कर दिया. गौतम ने बिना कुछ बोले उस में पैसे रखे. सुधा ग्लानि, क्षोभ से भरी तिलमिला कर खडी हो गई, जिस के कारण वह लड़खड़ा गई. गौतम ने  झट से उसे सहारा दे कर थाम लिया. सुधा रो रही थी. गौतम के स्पर्श से वह और विचलित हो गई. उस की हिचकियां बंध गईं.

गौतम ने उसे दोनों हाथों में थामकर कहा, ‘‘सुधा इधर देखो?’’

सुधा रोती जा रही थी. उस ने देखा

गौतम ने उस के आंसुओं को अपनी हथेली

पर समेट लिया और बोला, ‘‘सुधा इधर देखो

मेरी तरफ.‘‘

सुधा ने भीगी आंखों से गौतम को देखा.

उस ने कहा, ‘‘यह क्या है?’’

सुधा ने देखा हथेली पर आंसू फैलने की तैयारी कर रहे थे.

‘‘ऐसा स्पष्ट मन और सच्चा साथी मु झे कहां मिलेगा?’’ वह बोला.

यह सुन कर सुधा गौतम के सीने से लग कर फूटफूट कर रो पड़ी. उस का सफेद कैनवास इंद्रधनुषी रंगों से रंगीन हो गया था.सच के फूल खिलखिला उठे…

अंतिम प्रहार- भाग 4: क्या शिवानी के जीवन में आया प्यार

‘‘अब जब तुम दीप्ति के भाई के रिश्ते के लिए राजी हो तो तुम्हें किराए का कमरा क्यों चाहिए. एकाध महीना अपने घर में गुजार लो,’’ निकिता ने कहा.

‘‘चलो, मेरे मन से पश्चात्ताप की आग ठंडी हो गई. शिवानी ने मेरी बात मान कर मेरे मन का बोझ हलका कर दिया वरना कल की बात को ले कर मैं परेशान होती रहती,’’ दीप्ति ने खुश मन से कहा.

‘‘पिछली बातों को याद करने का कोई लाभ नहीं है. अब आगे की सोचो, यह सब कैसे होगा?’’ संजना ने कहा.

सब ने निकिता की तरफ देखा. वही समझदारीभरा जवाब दे सकती थी. कुछ पल विचारने के बाद उस ने कहा, ‘‘शिवानी के घर की परिस्थितियां देखते हुए उस का बाजेगाजे और बरातियों के साथ शादी करना संभव नहीं है. कोर्ट मैरिज करना ही बेहतर तरीका होगा.’’

‘‘क्यों न आर्य समाज मंदिर में शादी कर लें,’’ संजना ने सुझव दिया.

‘‘फिर भी शादी रजिस्टर्ड करवानी पड़ेगी तो एक बार में ही क्यों नहीं…?’’

सभी कोर्ट मैरिज पर सहमत थे. दीप्ति ने सलाह दी, ‘‘आज ही उस के मामा के घर चल कर सबकुछ तय कर लिया जाए. सभी तैयार हैं तो ऐसे कार्य में देरी क्यों?’’

दीप्ति के कजिन का नाम मुकेश था. वह 35 वर्ष का ही था. लंबा और छरहरा कद. हसमुंख चेहरा. शिवानी तो पहली नजर में ही उस पर फिदा हो गई. मुकेश के घर में उस के मातापिता और बेटी थी. अच्छा खातापीता घर था.

जब सभी मुकेश और उस के मातापिता से बात कर रहे थे, शिवानी ने मुकेश की बेटी को पुचकार कर अपने पास बुला दिया. गोद में बैठा कर उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, आप का नाम क्या है?’’

‘‘श्रुति, लेकिन सब मुझे तनुतनु कहते हैं.’’

‘‘अरे, आप के तो दोनों नाम ही बहुत प्यारे हैं,’’ उस ने तनु को अपनी गोद में समेटते हुए कहा, ‘‘आप स्कूल जाते हो?’’

‘‘हां, मैं क्लास वन में हूं और मैं ड्राइंग बना लेती हूं, दिखाऊं?’’ और वह झटपट उस की गोद से उतर गई और बैग से ड्राइंग की किताब ला कर उसे दिखाने लगी.

‘‘वाह, बहुत अच्छे. आप तो बहुत अच्छी ड्राइंग कर लेती हो.’’

‘‘आंटी, आप को ड्राइंग आती है? मेरी दादीमां को नहीं आती.’’

‘‘हां, मुझे बहुत अच्छी ड्राइंग बनानी आती है.’’

‘‘आप मुझे बनाना सिखाओगे?’’ उस ने मासूमियत से कहा.

‘‘हां, लेकिन मैं बहुत दूर रहती हूं. आप मुझे अपने घर में रख लो, तो मैं आप को रोज ड्राइंग सिखा दिया करूंगी.’’

तनु कुछ सोचने लगी. फिर बोली, ‘‘पापा से पूछती हूं,’’ और वह दौड़ कर मुकेश के पास गई. अपने नन्हेनन्हे हाथों से उस का ध्यान आकर्षित कर बोली, ‘‘पापा, इन आंटी को ड्राइंग आती है. आप इन्हें घर में रख लो, तो मुझे अच्छी ड्राइंग बनाना सिखा देंगी.’’

तनु की भोली बात पर सभी हंसने लगे. तनु की समझ में नहीं आया कि सभी क्यों हंस रहे थे?’’ मुकेश ने पूछा, ‘‘यह आंटी, आप को अच्छी लगती हैं.’’

‘‘हां, पापा. आप इन्हें अपने घर में ले आओ.’’

‘‘ठीक है बेटा, आप जैसा कहोगे.’’

उस दिन शिवानी को जीवन की सारी खुशियां मिल गई थीं. खुशियों के उड़नखटोले में उड़ती हुई जब वह घर पहुंची तो सुषमा रौद्र रूप लिए उस का इंतजार कर रही थी. स्वर में कोई प्यार, ममता और दुलार नहीं, बल्कि सौतेली मां जैसा व्यवहार, ‘‘कहां से मुंह काला कर के आ रही हो?’’

शिवानी के मन में आनंद का सागर लहरा रहा था. उस ने शांत भाव से कहा, ‘‘मां, मैं तुम्हारी सगी बेटी हूं, कभी प्यार से भी पूछ लिया करो.’’

‘‘इतनी देर कहां कर दी?’’ उन के स्वर की तल्खी कम नहीं हुई थी. शिवानी ने सोचा, बता ही दूं. एक दिन बताना ही है, बोली, ‘‘मां होते हुए भी जो जिम्मेदारी आप को निभानी चाहिए थी वह मेरी सहेलियां निभा रही हैं, इसीलिए देर हो गई.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मां ने भौंहें ऊंची कर के पूछा. उन की समझ में सचमुच कुछ नहीं आया था.

‘‘अपने लिए वर ढूंढ़ने गई थी,’’ शिवानी ने साफसाफ बता दिया. सुन कर मां के तोते उड़ गए. कानों पर विश्वास नहीं हुआ. फटी आंखों से उसे देखती रही. फिर बोली, ‘‘तुम्हारी शादी के लिए पैसा कहां से आएगा?’’

‘‘क्यों, पापा की मृत्यु के बाद जो पैसा मिला था वह कहां गया? उस में मेरा भी तो आधा हिस्सा है.’’

‘‘उस के बारे में सोचना भी मत,’’ सुषमा ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘‘तुम भले ही घर से भाग कर शादी कर लो परंतु उस पैसे के बारे में सोचना भी मत. गौरव नया प्लौट खरीद रहा है. उस के लिए पैसे बचा कर रखे हैं.’’

शिवानी के मुंह में ढेर सारी कड़वाहट घुल गई. मुंह पर ‘थू’ का भाव लाते हुए बोली, ‘‘यही तो आप चाहती थीं कि मैं कहीं भाग जाऊं. परंतु बचपन में ऐसे संस्कार ही नहीं दिए. बेटी को अनिच्छा से पालना और बड़ा करना फिर उसे परदों में बंद कर के रखना ताकि कहीं मुंह काला कर के परिवार की झठी मर्यादा को मटियामेट न कर दे. यही आप जैसी मांओं ने सीखा है.

आप की इसी गंदी सोच ने देश की बेटियों का भविष्य गर्त कर रखा है. मां, आप चिंता न करो. आप के पति और बेटे की कमाई का मुझे एक ढेला भी नहीं चाहिए. जीवन में खुशियों से बढ़ कर कुछ नहीं होता. आप का पैसा मेरे किस काम का, जब मेरे जीवन में पति, परिवार और बच्चे का सुख नहीं है. सोच कर देखिए, अगर आप के मांबाप आप जैसी सोच के होते और आप की शादी न करते तो आप भाई के घर में कैसा महसूस करतीं और कैसा जीवन व्यतीत करतीं.’’

शिवानी आज बहुत कुछ बोल गई थी. सुषमा को जैसे लकवा मार गया था. शिवानी ने जैसे अंतिम प्रहार करते हुए कहा, ‘‘आप गौरव को राजमहल बनवा कर दीजिए. वह आप का और परिवार का नाम रोशन करेगा. बेटियां केवल दुख देती हैं, तो मां, बस एकाध महीना तुम्हें और दुख दूंगी. इस के बाद मैं चली जाऊंगी. झेंपड़ी के अंधेरे में रह लूंगी परंतु तुम्हारे महल की जगमगाहट देखने कभी नहीं आऊंगी,’’ कहतेकहते शिवानी का गला भर आया. आंखों में आंसू ?िलमिलाने लगे. वह मुंह घुमा कर कमरे के भीतर चली गई.

सुषमा जैसे पत्थर की हो गई थी. परंतु उस के अंदर भी कुछ घुमड़  रहा था जो बाहर निकलने के लिए बेताब था. शिवानी ने उन के अंतर्मन को हिला कर रख दिया था और वह सोचने के लिए मजबूर हो गई थी. कहीं न कहीं उन से बहुत बड़ी गलती हुई थी. पुत्रमोह में कोई इतना अंधा नहीं होता कि बेटी को बिलकुल उपेक्षित कर दे, उस का भविष्य बरबाद कर के उसे नाटकीय जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर कर दे.

अंदर से घुमड़ कर जब उन की आंखों से आंसू बह निकले तो उन की चेतना लौटी. वह लगभग भाग कर कमरे में गई और शिवानी को अपने अंक में भर कर बोली, ‘‘बेटी, मुझे माफ कर दे. मैं तेरी गुनाहगार हूं. यह क्या कर दिया मैं ने तेरे साथ. परंतु अब तू चिंता मत कर, मैं तुझे इस घर से बाजेगाजे के साथ बिदा करूंगी तेरी पसंद के वर के साथ,’’ फिर वह रोने लगी.

शिवानी भी अपनी मां के सीने से लग कर फफक पड़ी. दोनों को ही पता नहीं था कि वे दुख से रो रही थीं कि खुशियों के अतिरेक से. उन्हें बस इतना पता था कि उन के चारों तरफ धवल ज्योत्सना बिखरी पड़ी थी जिस ने सब के मन के कलुष को धो दिया था.

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