बुड्ढा आशिक: किस तरह प्रोफेसर प्रसाद कर रहे थे मानसी का शोषण

मानसी अभी कालेज से लौट कर होस्टल पहुंची ही थी कि उस के डीन मिस्टर प्रसाद का फोन आ गया. वह बैग पटक कर मोबाइल अटैंड करने लगी. प्रसाद मानसी के पीएचडी गाइड थे और वे चाहते थे कि मानसी उन के साथ बाहर जाने के लिए तैयार हो जाए, उन्हें तुरंत बाहर जाना है.

मानसी को समझ नहीं आया कि क्या कहे? हां कहे तो मुश्किल और ना कर दे तो और भी मुसीबत. तभी उसे अपने बचपन के साथी शिशिर का बहाने बनाने का फार्मूला याद आया.

उस ने कराहते हुए कहा, ‘‘सर, मैं तो एक कदम भी चल नहीं पा रही हूं.’’

प्रसाद भी बड़े घाघ थे, बोले, ‘‘अभी तो यहां से अच्छीभली निकली हो, अब क्या हो गया?’’

‘‘ओह,’’ मानसी आवाज में दर्द भर कर बोली, ‘‘सर, अभी यहां बस से उतरते समय मेरा पांव मुड़ गया जिस से मोच आ गई,’’ कहते हुए मानसी ने एक और कराह भरी.

अब प्रसादजी परेशान हो उठे. प्रसाद थे तो 52-55 की उम्र के बीच, पर अपनी ही स्टूडैंट स्कौलर छात्रा मानसी पर ऐसे लट्टू हुए रहते कि सारे कालेज में उन्हें ‘बुड्ढा आशिक’ के नाम से जाना जाता.

वे मानसी को डांटते हुए बोले, ‘‘क्या मानसी, तुम ढंग से नहीं चल सकती, अभी आता हूं तुम्हें देखने.’’

प्रसाद की बात सुन मानसी और परेशान हो उठी. फिर वह कराहते हुए बोली, ‘‘वह मेरा दोस्त शिशिर आ रहा है, वह दवा दे देगा. आप चिंता न करें मैं ठीक हो जाऊंगी.’’ बेचारे प्रसाद सर ने बाहर जाने का अपना प्रोग्राम ही कैंसिल कर दिया. वे मानसी के बिना नहीं जाना चाहते थे. उन का हाल तो कुछ ऐसा था कि एक मिनट भी मानसी के बिना न रहें.

मानसी थी तो उन की एक रिसर्च स्कौलर छात्रा, किंतु उस के विरह में जैसे वे हलकान होते थे, यह देख कर उन के साथी तो क्या उन के स्टूडैंट भी परेशान हो जाते थे और कई बार उन्हें चिढ़ा कर कहते, ‘‘सर, मानसीजी तो कैंटीन में खा रही हैं.’’

इस पर वे बड़े परेशान हो जाते और फोन कर मानसी से कहते, ‘‘अरे मानसी, कैंटीन का खाना खा कर तुम बीमार हो जाओगी. आओ तो, यहां मेरे कैबिन में देखो, मनोरमा ने क्या लजीज खाना बना कर भेजा है.’’

इस पर मानसी की सारी सहेलियां उस की हंसी उड़ाती और कहतीं, ‘‘जा, तेरा बुड्ढा आशिक तुझे बुला रहा है.’’ मानसी भी कम नहीं थी, वह कहती, ’’कम से कम आशिक तो है, तुम्हारे तो वे भी नहीं हैं.’’

मानसी ने अपने कक्ष में बैड पर लेट कर कुछ देर रैस्ट किया, फिर फोन पर शिशिर का नंबर मिला कर बतियाने लगी, ’’अरे, कंपाउंडर साहब, कैसे हो,’’ शिशिर कोई कंपाउंडर नहीं था, वह तो अपने पिता का तेल का बिजनैस संभालता था. उस के पिता तेल के व्यापारी थे और उन का यह व्यवसाय पीढि़यों से चल रहा था. मानसी व शिशिर के घरमहल्ले थोड़ी दूरी पर ही थे. शिशिर उस के साथ ही कालेज तक पढ़ता रहा था. एमए के दौरान शिशिर के पिता के बीमार होने पर उसे पूरा बिजनैस संभालना पड़ा था. तब मानसी ही उस की मदद कर के एमए की परीक्षा जैसेतैसे दिलवा सकी. फिर वह आगे न पढ़ सका. मानसी ने पीएचडी की पढ़ाई जारी रखी. इस तरह वे थोड़े दूर तो हो गए, पर मोबाइल पर दोनों के बीच बातचीत होती रहती थी. यहां तक कि मानसी के घर पर कोई काम हो तो शिशिर ही कर जाता.

मानसी के पिता नहीं रहे थे. उस की बहन वैशाली ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया था, वह अपना बुटीक चलाती थी. वह मानसी से बड़ी थी.

मानसी को प्रसाद प्यार से मनु कहते. उन्हें लगता मनु ही उन की सच्ची संगिनी हो सकती है. उस समय वह भूल जाते कि उन की भी पत्नी है, बच्चे हैं, घरबार है. वे मानसी के पीएचडी के काम में जरा भी रुचि नहीं लेते थे. इस से मानसी को भीतर ही भीतर गुस्सा आता.

प्रसाद की पत्नी मनोरमा अपनी नई बहू व नाती में इतनी व्यस्त रहती कि उस बेचारी को पता ही नहीं था कि इधर उस के पति क्या रंगरलियां मना रहे हैं.

अगले दिन मानसी कालेज पहुंची, तो ठीकठाक थी, किंतु जैसे ही वह प्रसाद के कैबिन के सामने पहुंची, लंगड़ाने लगी. प्रसाद लपकते हुए बाहर आए और बोले, ’’अरे मानसी, संभल कर.’’

मानसी तो शर्म से पानीपानी हो गई. उस की सारी सहेलियां भी यह देख कर हंस कर लोटपोट हो रही थीं. वे बोलीं, ’’यह क्या मनु? लग रहा था, प्रसाद अभी तुम्हें गोद में उठा कर सीधे अपने कैबिन में ही ले जाएंगे.’’

मानसी ने किताबें समेटीं व लाइब्रेरी में जा बैठी. तभी प्रसाद भी वहां आ गए और पूछने लगे, ’’कल क्यों नहीं आई? कितना मजा आता, केरल का ट्रिप था?’’

मानसी को लगा, साफसाफ कह दे कि आप अपनी श्रीमतीजी को क्यों नहीं ले जाते? पर चुप रही, उसे पीएचडी भी तो पूरी करनी है. प्रसाद को टरका कर उस ने शिशिर को फोन मिलाया, ’’अरे, कंपाउंडर…’’ फिर शुरू हो गई दोनों की बातचीत. शिशिर को वह कंपाउंडर इसलिए कहती थी कि खुद पीएचडी कर के डाक्टर हो जाएगी.

अभी उस ने कुछ लिखा ही था कि फिर प्रसाद आ गए और शुरू हो गई वही उन की बकवास, ’’आप कितनी खूबसूरत हैं, आप पर तो सब फिदा होते होंगे?’’

इधर मानसी की सहेलियां चुपके से सुनतीं और कहतीं, ’’तेरा बुड्ढा आशिक बेचारा…’’

इन बातों से मानसी का दिमाग गरम हो जाता, लेकिन वह क्या करे? पीएचडी तो उसे करनी ही है. फिर लैक्चररशिप… फिर मजे ही मजे. पर इस बुड्ढे आशिक से कैसे पीछा छुड़ाए? वह बेचारी मन मसोस कर रह जाती.

एक दिन तो गजब हो गया. सारी सहेलियों के साथ वह फिल्म देखने गई थी. वहां सभी ऐंजौय कर रही थीं कि जाने कहां से प्रसाद टपक पड़े,’’अरे, अब क्या करें.’’ सारी सहेलियां एकदम चीखीं. ’मुझे इस बला से पिंड छुड़ाना ही होगा,’ एक दिन मानसी सोचने लगी, लेकिन ऐसे कि लाठी भी न टूटे और सांप भी मर जाए.

अब तो हद ही हो गई थी, रोज कालेज से होस्टल पहुंचते ही उस के मोबाइल पर प्रसाद का मैसेज आ जाता, ’शाम को कहीं चलते हैं, वहीं डिनर करेंगे.’ अति होने पर मानसी ने सोच लिया कि कुछ तो करना ही पड़ेगा. रोज कहां तक बहाने बनाए. अत: उस ने शिशिर को फोन किया, ’’कंपाउंडर साहब, कल तैयार रहना…’’ और उसे अपनी सारी योजना भी बताई. वह पीली साड़ी और गले में मंगलसूत्र डाले शिशिर की स्कूटी से कालेज पहुंची और सीधे प्रसाद के कैबिन में विनम्रता से दाखिल हुई, ’’मे आई कम इन सर,’’ कुछ ऐसा ही मुंह से निकला मानसी के.

’’ओह… ’’प्रसाद ने सिर उठाया, वे पेपर पढ़ रहे थे. देख कर गिरतेगिरते बचे. ’’कम इन… कम इन…’’ वे बोले.

’’सर, ये मेरे मंगेतर शिशिर, अब मेरे जीवनसाथी बन गए हैं. हम दोनों ने शादी कर ली है. सर, आशीर्वाद दीजिए न.’’ मानसी ने हाथ जोड़ कर कहा.

प्रसाद की तो भृकुटी तन गई. उसे तो समझ ही नहीं आ रहा था कि वे मानसी से क्या कहें.

’’तुम… हांहां ठीक है, ठीक है, जाओ.’’ मानसी पर उन्हें गुस्सा आ रहा था.

मानसी बोली, ’’सर, डिनर…’’

प्रसाद बोले, ’’नहीं. आज मनोरमा को क्लीनिक ले कर जाना है. मानसी बोली,’’बधाई हो सर.’’

प्रसाद को जैसे काटो तो खून नहीं. मानसी बाहर आ गई. शिशिर को मंगलसूत्र उतार कर देते हुए बोली, ’’इसे संभाल कर रखना. फिर काम आएगा.’’

उस की सारी सहेलियां भी उस के इस नाटक से हैरान थीं. वे बोलीं, ’’तेरा जवाब नहीं मानसी, तूने सही तरीका ढूंढ़ा उस बुड्ढे आशिक से पीछा छुड़ाने का. अब शायद ही कभी वह ऐसी हरकतें करे.’’ मानसी बोली, ’’हम ऐसे ही डाक्टर थोड़े हैं,’’ और कैंपस में ठहाके गूंजने लगे.

रिश्तों का तानाबाना: क्या गीतिका ने उस प्रस्ताव को स्वीकार किया?

लेखिका- प्रेमलता यदु

एक महीने से गीतिका खुद को पूरी तरह भुला कर रातदिन अपने एक न‌ए प्रोजैक्ट पर काम कर रही है. यह प्रोजैक्ट उस के कैरियर को नया आयाम देने वाला है. प्रोजैक्ट के ऐप्रूव्ड होते ही कंपनी द्वारा उसे प्रोजैक्ट हेड बना कर एक साल के लिए न्यूजर्सी जाने का मौका मिलने वाला है. और गीतिका यह मौका किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती.

गीतिका जितनी जल्दी हो सके इंडिया से बाहर चली जाना चाहती है. वह अपने काम में कुछ इस तरह गुम हो जाना चाहती है कि वह अपनेआप को भी भुला देना चाहती है और साथ ही, वह बचपन से जुड़ी हर कड़वी याद को अपने स्मृतिपटल से निकाल फेंकना चाहती है. जब से उस ने होश संभाला है तब से ले कर आज तक वह इसी कोशिश में रही है. इतने सालों बाद आज भी उसे अपना बचपन डरावना लगता है, लेकिन भला ऐसा कभी हुआ है. मनुष्य जिन यादों को जितना भूलना चाहता है वे उतना ही उस का पीछा करती हैं.

गीतिका का बचपन दूसरे बच्चों के बचपन से बिलकुल अलग रहा. वह चाह कर भी अपने बचपन को आम बच्चों की तरह जी नहीं पाई, जिसे ले कर आज भी उस के मन में गुस्सा और कसक है, जो उसे टीस की तरह चुभते हैं. उस की कोई गलती न थी, लेकिन सज़ा उसे मिली. स्कूल में, समाज में और फ्रैंड्स के बीच सदा उस का उपहास हुआ. अपने बड़े से मकान के एक छोटे से कोने में न जाने उस ने कितना ही वक्त अकेले रोते हुए गुज़ारा है.

हर रिश्ते से गीतिका का विश्वास पूरी तरह से उठ चुका है. वह न अब किसी पर भरोसा करती है और न ही कोई नया रिश्ता बनाना चाहती है. फिर भी उस का एक रिश्ता अपनी मैड रोज़ी आंटी और अपने कलीग विशिष्ट से बन ही गया है. रोज़ी आंटी सदा गीतिका का ध्यान ऐसे रखती आई है जैसा गीतिका हमेशा से चाहती थी कि उस की अपनी मां रखे. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ. उसे कभी भी अपनी मां से वह प्यार व दुलार न मिला जिस की उसे चाहत थी और वह पिता के स्नेह से भी सदा वंचित ही रही.

रात के 11 बजे अपने सहकर्मी विशिष्ट के साथ गीतिका घर पहुंची. घर के गेट पर पहुंच, विशिष्ट के कार रोकते ही गीतिका ने कहा-

“अंदर नहीं चलोगे, लेट्स हैव अ कप औफ कौफी.”

विशिष्ट ने कार स्टार्ट करते हुए कहा-

“नहीं गीतिका, आज नहीं, अभी काफी देर हो गई है, कल औफिस में मिलते हैं. वैसे भी, कल तुम्हारा प्रोजैक्ट फाइनल हो जाएगा. उस के बाद कौफी से काम नहीं चलेगा, तुम से पार्टी चाहिए”

गीतिका मुसकराती हुई कार की विंडो पर हाथ रखती हुई बोली-

” ओके, श्योर, व्हाय नौट.”

गीतिका के ऐसा कहते ही विशिष्ट वहां से चला गया और गीतिका घर की ओर मुड़ी. गीतिका बहुत अच्छे से जानती है कि विशिष्ट के दिल में उस के लिए जज्बात हैं. लेकिन वह किसी भी प्रकार के रिश्ते पर विश्वास नहीं करती, यह बात विशिष्ट भी अच्छी तरह जानता है. इसलिए, उस ने गीतिका से यह वादा किया है कि वह कभी भी उसे अपने साथ रिश्ते में बंधने के लिए मजबूर नहीं करेगा, जब तक वह स्वयं इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हो जाती लेकिन वह आजीवन उस का इंतज़ार जरूर करेगा.

घर के अंदर पहुंचते ही रोज़ी गीतिका का औफिस बैग अपने हाथों में लेती हुई बोली-

“गीतिका बेबी, आप जल्दी से मुंहहाथ धो लो, मैं आप के लिए गरमागरम फुल्के बनाती हूं.”

गीतिका अपने दोनों हाथ रोज़ी के कंधे पर रखती हुई बोली-

“अरे आंटी, मैं ने आप से कितनी बार कहा है कि आप मेरा वेट मत किया करो, आप खाना खा कर सो क्यों नहीं जाती हैं, मैं खाना खा लूंगी.”

“हां, मुझे मालूम है, आप को अपने काम के अलावा कभी अपनी सुध रही है क्या… जिस दिन आप अपना ध्यान रखना शुरू कर दोगी न बेबी, उस दिन मैं सो जाऊंगी लेकिन तब तक नहीं,” रोज़ी डांटती हुई सी गीतिका से कहने लगी.

गीतिका चाहे कितना भी लेट क्यों न हो जाए, रोज़ी उसे बिना खाना खाए रात में सोने नहीं देती और सुबह बिना ब्रेकफास्ट के घर से निकलने नहीं देती. दोनों के बीच एक अलग ही रिश्ता है.

गीतिका के खाना खाने के बाद रोज़ी थोड़ा हिचकिचाती हुई बोली- “बेबी, मैडम का फोन आया था. आप से बात करना चाह रही थीं. शायद, मैडम ने आप के नंबर पर भी फोन किया था लेकिन आप ने फोन नही उठाया.”

“हां, नहीं उठाया क्योंकि मैं बिज़ी थी. वैसे भी, उन्हें क्या जरूरत है मुझे फोन करने की? जब 10 साल पहले वह हमें छोड़ कर जा चुकी है तो क्यों बारबार आ जाती है मेरी जिंदगी में मेरी दुखती रग पर हाथ रखने के लिए, क्यों चैन से मुझे जीने नहीं देती,” गीतिका गुस्से में चिढ़ती हुई बोली.

“नहीं बेबी, ऐसा नहीं कहते. आखिर, उन्होंने आप को जन्म दिया है, वे आप की मां हैं.”

“मां है, ऐसा आप कह रही हैं आंटी सबकुछ जानते हुए. आप अच्छी तरह से जानती हैं कि उन्होंने मुझे जन्म दे कर छोड़ दिया मरने के लिए, कभी प्यार से उन्होंने मेरे सिर पर हाथ नहीं फेरा, न ही कभी यह जानने की कोशिश की कि मैं क्या चाहती हूं, मैं क्या सोचती हूं,” गीतिका गुस्से से डबडबाई आंखों से कहने लगी.

“बेटा, मैं यह सब जानती हूं. लेकिन मैडम जैसी भी हैं, आप की मां हैं, आप की जननी हैं, कल शाम की फ्लाइट से साहब और मैडम दोनों आ रहे हैं. आप दोनों से प्यार से मिलना, उन के साथ जरा भी बदतमीजी न करना,” गीतिका के सिर पर हाथ रखती हुई रोज़ी उसे समझाने की कोशिश करने लगी.

“आंटी, आप मुझ से ऐसी कोई उम्मीद न रखें, तो बेहतर होगा,” ऐसा कहती हुई गीतिका वहां से अपने रूम में तेज़ी से चली गई.

अपने रूम की सारे लाइटें बंद कर गीतिका उन जगमगाती रोशन गलियों में अपने खोए हुए बचपन को देखने लगी जहां इतना ज्यादा शोरशराबा, चकाचौंध और चमक थी कि उस नन्ही सी जान को न कोई सुन पा रहा था और न ही समझ पा रहा था.

गीतिका की मां शालिनी गुप्ता शहर की जानीमानी हस्ती, प्रसिद्ध समाजसेविका होने के साथ ही साथ एक प्रतिष्ठित पद पर भी थी. पिता विनय गुप्ता भी अच्छे पद पर कार्यरत थे लेकिन गीतिका की मां और अपनी पत्नी के पद से शायद उन का ओहदा नीचे था, यह बात अकसर गीतिका अपने मातापिता के झगड़े के दौरान सुना करती थी, इसलिए वह यह जान चुकी थी कि उस के पिता का पद उस की मां के पद से नीचे है.

बचपन से ही वह एक और बात जान चुकी थी कि उस के मम्मी व पापा के बीच जिस की वजह से हर रोज़ लड़ाई झगडे होते हैं वह कोई और नहीं मम्मी के सहकर्मी व पुरुष मित्र हैं और शायद वह मित्र उस की मम्मी के लिए मित्र से भी कहीं ज्यादा माने रखता है, इसलिए तो उस की मम्मी अपने मित्र के लिए गीतिका और अपने पति को छोड़ने के लिए तैयार थी और यही हुआ भी जब गीतिका 16 साल की थी, गीतिका के माता और पिता के बीच तलाक हो गया.

कोर्ट में जब गीतिका से उस की मरजी पूछी गई कि वह किस के साथ रहना चाहती है- अपनी मम्मी के साथ या पापा के साथ. गीतिका चीखचीख कर कहना चाहती थी वह किसी के साथ नहीं रहना चाहती, लेकिन वह ऐसा कह नहीं पाई. वह बहुत अच्छी तरह से जानती थी कि मम्मी के पास उसे देने के लिए बहुत पैसे हैं पर वक्त नहीं, वह यह भी जानती थी कि देने के लिए पापा के पास भी केवल पैसे ही हैं. लेकिन उसे अपने मातापिता दोनों से किसी एक को चुनना था, सो उस ने अपने पिता को चुना.

दूसरे बच्चों को जब वह अपने मातापिता के साथ देखती तो उस का मन तारतार हो जाता और वह क्रोध व आक्रोश से भर जाती. गीतिका भी अपने मातापिता के संग वैसे ही रहना चाहती थी जैसे उस के बाकी फ्रैंड्स रहते थे. लेकिन यह संभव नहीं था और इस बात ने गीतिका के मन को इतना प्रभावित किया कि वह अवसाद में चली गई और नशा करने लगी.

आज भी गीतिका भूली नहीं है वह दिन जब रोज़ी आंटी ने उसे ड्रग्स लेते हुए पकड़ लिया था. अपने मातापिता के तलाक के बाद जब वह अपने पापा के साथ रहने लगी थी तब उस के पापा ने रोज़ी को गीतिका की देखभाल के लिए रखा था, क्योंकि वे अकसर अपने काम के सिलसिले में बाहर ही रहते. अभी कुछ ही दिन हुए थे रोज़ी आंटी को घर में आए. एक दिन जब वह खाना ले कर उस के रूम में पहुंची तो गीतिका उसे नशे की हालत में मिली.

स्कूल के कुछ सीनियर स्टूडैंट्स के बहकावे में आ कर वह नशा करने लगी थी. रोज़ी को देख गीतिका घबरा गई. तभी रोज़ी आंटी ने गीतिका को अपने सीने से लगा लिया. गीतिका को ऐसा लगा जैसे उस की मनचाही मुराद पूरी हो गई और वह रोज़ी के सीने से लग कर फूटफूट कर रोने लगी.

रोज़ी उस के आंसुओं को पोंछती हुई कस कर उसे अपनी बांहों में समेट लिया जैसे एक मां अपने बच्चे को आंचल में छिपा लेती है. गीतिका को उसे शांत कराती हुई रोजी बोली, “गीतिका बेबी, नशा किसी भी समस्या का समाधान नहीं. यदि आप किसी से नाराज़ हैं तो सज़ा अपनेआप को क्यों दे रही हैं. आप के नशा करने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, लेकिन आप को फर्क पड़ेगा. आप बीमार हो जाएंगी, कमजोर हो जाएंगी, क्लास में आप का परफौर्मेंस बिगड़ जाएगा. फिर जो बच्चे अभी आप पर हसंते हैं, आप का मजाक बनाते हैं, वे आपको और ज्यादा परेशान करेंगे. इसलिए आप अपनी सारी एनर्जी पढ़ाई पर लगा दीजिए, खूब पढ़ाई करिए ताकि कोई आप का मज़ाक न बना पाए. सब आप से प्यार करें और आप अपना निर्णय स्वयं लेने के काबिल बनें.”

उस दिन के बाद से गीतिका ने अपनी सारी ऊर्जा पढ़ाई में लगा दी और रोज़ी आंटी ने गीतिका की देखभाल में. अभी गीतिका अपने बचपन में मिले नासूर घावों के असहनीय दर्द के साथ कमरे में कराह रही थी कि आवाज़ आई, “गीतिका बेबी, गीतिका बेबी.” एक न‌ई सुबह ने दस्तक दे दी थी.

गीतिका के दरवाज़ा खोलते ही सामने हाथों में कौफी का कप लिए रोज़ी आंटी खड़ी थी. रूम के साइड टेबल पर कौफी का कप रख, आंटी गीतिका का माथा चूमती हुई बोली, “कौफी पी कर तैयार हो जाइए आज, आपका प्रजेंटेशन है और मुझे पूरी उम्मीद है कि आप को सफलता जरूर मिलेगी.”

इतना कह रोज़ी कमरे से लौट ग‌ई. गीतिका तैयार हो नाश्ते की टेबल पर पहुंची और जब नाश्ता कर वह जाने लगी तो रोज़ी ने कहा, “बेबी, शाम को जल्दी आने की कोशिश करना.”

गीतिका बिना कुछ कहे रोज़ी को गले लगा कर चली गई.

शाम को जब गीतिका घर पहुंची तो उस के मातापिता आ चुके थे. गीतिका को देखते ही उस की मां ने उसे बांहों में लेना चाहा लेकिन गीतिका ने उन्हें झटक दिया और कहने लगी, “क्यों आए हैं आप दोनों यहां. जो भी कहना है, जल्दी कहिए. मुझे कुछ ही दिनों में न्यूजर्सी के लिए निकलना है. बहुत सी जरूरी फौर्मैलिटीज हैं जिन्हें पूरी करनी है. आई हैव नो टाइम, सो प्लीज़, जो कहना है, जल्दी कहिए.”

गीतिका को इस प्रकार बात करता देख गीतिका की मां बोली, “हमें मालूम है बेटा, रोज़ी ने हमें सब बता दिया है. तुम आउट औफ इंडिया जा रही हो, इसलिए तो हम आए हैं. तुम्हारे पापा और मैं ने मिल कर तुम्हारे बैटर फ्यूचर के लिए यह फैसला लिया है कि तुम्हारे जाने से पहले हम तुम्हारी शादी करा देते हैं. लड़का कोई और नहीं, हमारे शहर के जानेमाने व्यापारी और मेरी फ्रैंड मिसेज चंद्रा का बेटा है. वे लोग चाहते हैं कि तुम उन के घर की बहू बनो और हम भी यही चाहते हैं.”

यह सुनते ही गीतिका के सब्र का बांध टूट गया और वह ऊंची आवाज़ में बोली, “मेरे बैटर फ्यूचर के लिए…? किस ने कहा आप लोगों को मेरे फ्यूचर के बारे में सोचने के लिए या फैसला लेने के लिए कहा? उस वक्त कहां थे आप दोनों जब आप लोगों की वजह से मेरी क्लास के बच्चे मेरा मज़ाक उड़ाया करते थे, उस वक्त कहां थे आप लोग जब आप दोनों के तलाक की वजह से मैं डिप्रेशन में चली गई थी, ड्रग्स लेने लगी थी. उस समय आप दोनों को मेरे बैटर फ्यूचर का ख़याल नहीं आया और आज जब मैं अपना फ्यूचर खुद संवार सकती हूं, संभाल सकती हूं तो आप लोगों को मेरे भविष्य की चिंता हो रही. आप दोनों यहां से चले जाइए, मुझे वहां शादी नहीं करनी है.”

गीतिका के मुख से ये सब कड़वी बातें सुन गीतिका के पापा उस के सिर पर हाथ रख कर कहने लगे, “बेटा, हम तुम्हारे पेरैंट्स हैं और हम हर हाल में तुम्हारी भलाई चाहते हैं. वैसे भी, आज नहीं तो कल, तुम्हें किसी न किसी लड़के से शादी तो करनी ही है. तो फिर, इस लड़के से क्यों नहीं? ”

“पापा, किसी भी बच्चे की भलाई तब होती है जब मातापिता दोनों अपने बच्चों के मनोभाव को समझते हैं. ‌उन्हें गिफ्ट के साथसाथ अपना वक्त, प्यार और दुलार भी देते हैं. रही बात शादी की, तो शादी तो मैं जरूर करूंगी लेकिन उस लड़के से नहीं जिस से आप दोनों चाहते हैं बल्कि उस से जो मुझे चाहता है और जिसे मैं चाहती हूं.”

“जिसे तुम चाहती हो, मतलब?” गीतिका की मां ने आश्चर्य से पूछा.

गीतिका मुसकराती हुई बोली, “हां, जिसे मैं प्यार करती हूं, वह मेरा कलीग विशिष्ट है, जिस ने मुझे दोबारा रिश्तों पर विश्वास करना सिखाया, रिश्तों का मतलब बताया, रिश्तों को निभाना सिखाया. विशिष्ट मेरे जज्बात को समझता है, मुझे समझता है. आज मेरा प्रोजैक्ट ऐप्रूव्ड होते ही मैं ने उस से अपने दिल की बात कह दी है. मेरे न्यूजर्सी से लौटते ही हम शादी कर लेंगे और हम जब भी शादी करेंगे, आप दोनों को जरूर इन्फौर्म कर दूंगी लेकिन तब तक आप लोग न मुझे फोन करेंगे और न ही यहां आएंगे. अब आप दोनों यहां से जा सकते हैं.” और गीतिका अपने रूम में चली गई.

घरवाली और रसोई वाली: ऐग्जिक्यूटिव साहब का घर से बाहर निकालना क्यों मुश्किल हो गया था

पढ़ाई पूरी हुई. कैंपस सलैक्शन से कोलकाता में अच्छी जौब लग गई. मैं ने एक अच्छे कौंप्लैक्स में डबलबैड अपार्टमैंट किराए पर ले लिया. नौकरी जौइन करने भर की देर थी कि माताश्रीपिताश्री ने मेरे लिए अपनी ओर से कन्या फाइनल कर दी. मेरी सहमति के लिए मुझे रांची बुलावा भेजा. मैं चर्च कौंप्लैक्स स्थित विशेष रैस्टोरैंट में सुहाना से मिला. हम ने साथसाथ पनीर कटलेट, पनीर चिली का आनंद लिया. सुहाना बोकारो की थी. उसे रैस्टोरैंट का माहौल बेहद पसंद आया. हम ने नक्षत्र वन में लंबी बातचीत की.

‘‘मैं खाने का बेहद शौकीन हूं. चटपटा, मसालेदार खाना पसंद है,’’ मैं ने सुहाना को बताया.

‘‘मैं भी कुछ बताना चाहती हूं,’’ मितभाषी सुहाना ने हिम्मत की. अब तक केवल हूंहां ही कर रही थी.

‘‘बेहिचक बताओ. किसी को चाहती हो? कोई अफेयर रहा है? कोई समस्या है?’’ मैं ने कई प्रश्न एकसाथ कर दिए. मुझे चिंता हो आई थी. मैं अब तक गोरीचिट्टी, लंबीछरहरी और शर्मीली सुहाना को अपना चुका था.

‘‘कुकिंग नहीं आती. कभी की नहीं. अपने बड़े परिवार में रसोइए महाराज लगे हैं. बस खाना जानती हूं,’’ सुहाना ने सिर झुकाए बताया. वह मुसकरा भी रही थी. शायद उस ने मेरी परेशानी भांप ली थी.

‘‘नो प्रौब्लम. हम रसोई वाली रख लेंगे. वैसे भी कोलकाता की चिपकूचिपकू गरमी में कुकिंग सचमुच एक बड़ी प्रौब्लम है… सुहाना सांवली हो जाएगी,’’ मेरी अफेयर वाली चिंता दूर हो चुकी थी.  मैं सुहाना को किसी भी हालत में खोना नहीं चाहता था.

मेरी ‘ओके’ रिपोर्ट के साथ ही शादी की तैयारी शुरू हो गई. 30 दिनों में ही सुहाना मेरी सुप्रिया, जानेमन, हंप्टी शर्मा की दुलहनिया यानी मेरी प्यारीदुलारी घरवाली बन गई. हम ने मुंबई, गोवा, महाबलेश्वर में हनीमून मनाया. मुंबई के सिनेमाघर में लंबे समय से चल रही ‘दिल वाले दुलहनिया ले जाएंगे’ देखी. गोवा में सुहाना को बिकनी में कैमरे में उतारा. महाबेलश्वर में स्पैशल स्ट्राबैरी आइसक्रीम का आनंद उठाया. साथसाथ घुड़सवारी की, डूबते सूरज को निहारा.

‘‘रसोई वाली लगेगी तो फिर कोलकाता आ जाऊंगी,’’ सुहाना ने शर्त रखी.

मैं ने कोलकाता में औफिस के दोस्तों को पूरा किस्सा सुनाया. मेरे 2 दोस्त साथ ही कौंप्लैक्स में अलगअलग अपार्टमैंट में रहते थे. मैं ने सिक्युरिटी औफिस में रसोई वाली की अपनी जरूरत बता दी.

अगले दिन सुबहसुबह रसोई वाली हाजिर हो गई. छुट्टी का दिन था. मैं न्यूज पेपर में उलझा था.

मैं ने रसोई वाली को गौर से देखा. दुबलीपतली, सांवली, बड़ीबड़ी आंखें, कुल मिला कर सुंदर थी. सिकुड़ीमुड़ी लेकिन साफसुथरी सलवारकमीज में थी.

‘‘कुकिंग कर लेती हो?’’ मैं ने अटपटा प्रश्न पूछ लिया. मैं रसोई वाली के इंटरव्यू के लिए तैयार नहीं था.

‘‘मुझे कुकिंग नहीं आती तो ऐसे ही 2 फ्लैटों में रसोई करती?’’ सांवली सपाट स्वर में बोली.

‘‘आलू के परांठे बना लेती हो?’’ नाश्ते में आलू के परांठे, मक्खन, दही और कसे कच्चे आम की मसालेदार चटनी मैं चटखारे ले कर खाता था.

‘‘नाश्ते में 6 भरवां परांठे या 12 पूरीभाजी, लंच के लिए 10 रोटियां, पसंद की 1 भाजी. रात के खाने में 6 रोटियां, थोड़े चावल, सूखी भाजी और रसदार सब्जी. इतवार को राइस चिकन, सलाद, चिकन करेगी तो बच्चों के लिए थोड़ा ले जाएगी. नाश्ते का 500, लंच का 1000, डिनर का

1000 लेगी. महीने में 2 दिन छुट्टी करेगी. मंजूर हो तो बोलने का नहीं तो जाएगी,’’ सांवली ने एक ही सांस में अपनी बात पूरी की और फिर लिफ्ट के पास खड़ी हो गई.

‘‘सारी शर्तें मंजूर हैं…पहली तारीख से आ सकती हो?’’ मुझे तुनकमिजाज सांवली पसंद  आई. तपे सोने की तरह खरी लगी.

मैं ने सुहाना को पूरी रिपोर्ट दी. बयान करने में मजा आया.

‘‘सुंदर है? क्या नाम बताया?’’ सुहाना ने पूछा.

‘‘फोटोजेनिक है…तुम्हारी तरह गोरी और चिकनी नहीं है. नाम तो पूछा ही नहीं,’’ मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ.

‘‘सांवली पर जनाब फिदा हो गए… घरवाली से जी भर गया… रसोई वाली अब सुप्रिया बनेगी,’’ सुहाना ने मुझे छेड़ा.

‘‘कुकिंग नहीं सीखने का खमियाजा तो भुगतना पड़गा,’’ मैं ने माकूल जवाब दिया.

‘‘पूरी निगरानी रहेगी…रिटायर्ड कर्नल की बेटी हूं…फटाफट कुकिंग सीख कर सांवली का कोर्टमार्शल कर दूंगी,’’ सुहाना अब छुईमुई, गूंगी गुडि़या से बातूनी घरवाली बन चुकी थी.

अब और इंतजार संभव नहीं था. महीने के आखिरी दिन सुहाना कोलकाता पहुंच रही थी. मैं ने पूरे हफ्ते की छुट्टी ले रखी थी. एअरपोर्ट से वापसी में हम ने मिल कर खरीदारी की. किचन के लिए पूरी व्यवस्था की. सुहाना ने अपने लिए भी शौपिंग की. डिनर रैस्टोरैंट में लिया. दोनों ने मिल कर किचन के सामान को यथास्थान रखा.

सुबह 6.30 बजे सांवली आ गई. सुहाना से मिली. थोड़ी देर की बातचीत के बाद वह नाश्ता तैयार करने में जुट गई. घंटे भर में नाश्ता डाइनिंगटेबल पर सजा कर निकल गई.

नाश्ते के लिए हम साथसाथ बैठे. सांवली ने आलू के 6 करारे परांठे बनाए थे. लौकी की सादी भाजी थी. मक्खन, मिक्स्ड अचार का जार, गरम चाय सब कुछ करीने से रख गई थी.

‘‘परांठे अच्छे हैं, लेकिन 3 परांठों से जीभ को बहलाने में मुश्किल होगी.’’

‘‘लौकी की सादी भाजी भी अच्छी बनी है,’’ सुहाना ने भी सांवली की तारीफ की.

‘‘मेरे लिए बस 2 परांठे,’’ सुहाना ने अपने हिस्से का 1 परांठा मेरी प्लेट में डाल दिया. गरमगरम आलू के परांठे और उन पर मक्खन का लेप. नाश्ते में मजा आ रहा था. हम उस के काम से संतुष्ट थे. हम दोनों ने सांवली को अच्छी कुक मान लिया.

सांवली किचन की ड्यूटी बखूबी निभा रही थी. नौनवैज में चिकन राइस, चिकन बिरयानी अच्छी बना लेती थी. बेहद फुरतीली थी. समय का पूरा उपयोग करती थी. सलीके से रहती भी थी. नैननक्श तीखे थे. चेहरे में चमक और खिंचाव था. सचमुच अच्छी दिखती थी.

सुहाना खूब सजसंवर रही थी. उस का रंग निखर रहा था. देह मक्खन सी चिकनी थी. अकसर पार्लर जाती थी. महंगी ड्रैस पहनती थी. विदेशी परफ्यूम इस्तेमाल करती थी. मैं मंत्रमुग्ध हो उसे निहारता था. देह की सुंगध में भावविभोर हो जाता था. औफिस जाने से कतराता था. सुहाना जबरदस्ती भेजती थी. बहाना बना कर समय से पहले छुट्टी करने पर नाराज होती थी. पास नहीं आने देती थी.

सुहाना सांवली को भी समय देती थी. रसोई के गुर सीखती थी. सांवली छुट्टी करती तो नाश्ता बना लेती थी. करारे आलू के परांठों के साथ कच्चे आम की मसालेदार चटनी भी बना लेती थी.

सुहाना ने सचमुच भरपूर निगरानी रखी थी. तरीका अलग था. उस ने दूल्हे मियां का ध्यान पूरी तरह से अपनी ओर खींच रखा था. मुझे बांध रखा था. वह घरवाली थी, सुंदरी थी, सुप्रिया थी, सपनों की रानी थी, आकाश से उतरी परी थी, स्वर्गलोक की अप्सरा थी.

रसोई वाली सांवली अच्छी थी. उस में आकर्षण था, लेकिन सुहाना ने एमएनसी में कार्यरत सीनियर ऐग्जिक्यूटिव को पागल, दीवाना, मजनू, रांझा, रोमियो सब कुछ बना रखा था. रिटायर्ड कर्नल की बेटी यानी मेरी धर्मपत्नी यानी घरवाली ने रसोई वाली का कोर्टमार्शल कर दिया था.

‘‘ठीकठीक कुक बन गई हो, लेकिन रसोई वाली की छुट्टी नहीं होगी.’’

‘‘रसोई वाली अच्छी लगती है?’’

‘‘नहीं, रसोई में सांवली हो जाओगी. गरमी में पसीने से चिपकूचिपकू हो जाओगी.’’

‘‘रसोई में एसी लगा देना.’’

‘‘देह में मसाले की गंध समा जाएगी.’’

‘‘इत्र लगा देना.’’

यह कानाफूसी हमारी प्राइवेट बातें हैं. औफ द रिकौर्ड… नो नारेबाजी नो डिमौंस्ट्रेशन ऐंड नो रिमूवल डिमांड प्लीज.

ट्रिक: मां और सास के झगड़े को क्या सुलझा पाई नेहा?

“मम्मा आप को एक खुशखबरी देनी थी.”

“हां बेटा बता न क्या खुशख़बरी है? कहीं तू मुझे नानी तो नहीं बनाने वाली?” सरला देवी ने उत्सुकता से पूछा.

“जी मम्मा यही बात है,” कहते हुए नेहा खुद में शरमा गई.

आज सुबह ही नेहा को यह बात कंफर्म हुई थी कि वह मां बनने वाली है. एक बार जा कर हॉस्पिटल में भी चेकअप करा लिया था. अपने पति अभिनव के बाद खुशी का यह समाचार सब से पहले उस ने अपनी मां को ही सुनाया था.

मां यह समाचार सुन कर खुशी से उछल पड़ी थीं,” मेरी बच्ची तू बिलकुल अपने जैसी प्यारी सी बेटी की मां बनेगी. तेरी बेटी अपनी नानी जैसी इंटेलिजेंट भी होगी और तेरे जैसी खूबसूरत भी. ”

“मम्मा आप भी न कमाल करते हो. आप ने पहले से कैसे बता दिया कि मुझे बेटी ही होगी?”

“क्योंकि बेटा ऐसा मेरा दिल कह रहा है और मैं ऐसा ही चाहती हूं. मेरी बच्ची देखना तुझे बेटी ही होगी. मैं अभी तेरे पापा को यह समाचार दे कर आती हूं. ”

नेहा ने मुस्कुराते हुए फोन काटा और अपनी सास को फोन लगाया,” मम्मी जी आप दादी बनने वाली हो.”

“क्या बहू तू सच कह रही है? मेरा पोता आने वाला है? तूने तो मेरा दिल खुश कर दिया. सच कब से इस दिन की राह देख रही थी. खुश रह बेटा,” सास उसे आशीर्वाद देने लगीं.

नेहा ने हंस कर कहा,” मम्मी जी ऐसा आप कैसे कह सकती हो कि पोता ही होगा? पोती भी तो हो सकती है न. ”

“न न बेटा. मुझे पोता ही चाहिए और देखना ऐसा ही होगा. पर बहू सुन तू अपनी पूरी केयर कर. इन दिनों ज्यादा वजन मत उठाना और वह लीला आ रही है न काम करने?”

“हां मम्मी जी आप चिंता न करो वह रेगुलर काम पर आ रही है. आजकल छुट्टियाँ लेनी भी कम कर दी है. ”

” उसे छुट्टी बिल्कुल भी मत देना बेटा. ऐसे समय में तेरा आराम करना बहुत जरूरी है. खासकर शुरू के और अंत के 3 महीने बहुत महत्वपूर्ण होते हैं.”

“हां मम्मी जी मैं जानती हूं. आप निश्चिंत रहिए. मैं अपना पूरा ख्याल रखूंगी,” कह कर नेहा ने फोन काट दिया.

प्रैग्नैंसी के इन शुरुआती महीनों में नेहा का जी बहुत मिचलाता था. ऐसे में अभिनव उस की बहुत केयर कर रहा था. कामवाली भी अपनी बीवी जी को हर तरह से आराम देने का प्रयास करती. सब कुछ अच्छे से चल रहा था. नेहा का पांचवां महीना चढ़ चुका था. उस दिन सुबहसुबह उठ कर वह बालकनी में आई तो देखा मां गाड़ी से उतर रही हैं. उन के हाथ में एक बड़ा सा बैग और नीचे सूटकेस भी रखा हुआ था. यानी मां उस के पास रहने आई थीं. खुशी से चिल्लाती हुई नेहा नीचे भागी. पीछेपीछे अभिनव भी पहुंच गया.

मां के हाथ से सूटकेस ले कर सीढ़ियां चढ़ते हुए उस ने पूछा,” मम्मी जी आप के क्लासेज का क्या होगा? आप यहां आ गए तो फिर बच्चों के क्लासेज कैसे कंटिन्यू करोगे?”

“अरे बेटा आजकल क्लासेज ऑनलाइन हो रहे हैं न. तभी मैं ने सोचा कि ऐसे समय में मुझे अपनी बिटिया के पास होना चाहिए.”

“यह तो आप ने बहुत अच्छा किया मम्मी जी. नेहा का मन भी लगेगा और उस की केयर भी हो जाएगी.”

“हां बेटा यही सोच कर मैं आ गई.”

“पर मम्मा पापा आप के बिना सब संभाल लेंगे?” नेहा ने शंका जाहिर की.

” बेटे तेरे पापा को संभालने के लिए बहू आ चुकी है. अब तो उन के सारे काम वही करती है. मैं तो वैसे भी आराम ही कर रही होती हूं.”

“ग्रेट मम्मा. आप ने बहुत प्यारा सरप्राइज दे दिया,” नेहा आज बहुत खुश थी. कितने समय बाद आज उसे मां के हाथों का खाना मिलेगा.

नेहा की मां को आए 10 दिन से ज्यादा समय बीत चुका था. मां उसे अपने हिसाब से प्रैग्नैंसी में जरुरी चीजें खिलातीं. उसे ताकीद करतीं कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं. अपनी प्रैग्नैंसी के किस्से सुनातीं. सब मिला कर नेहा का समय काफी अच्छा गुजर रहा था. उस की मां काफी पढ़ीलिखी थीं. वह कॉलेज में लेक्चरर थीं और उसी हिसाब से थोड़ी कड़क भी थीं. जबकि नेहा का स्वभाव उन से अलग था. पर मां बेटी के बीच का रिश्ता बहुत प्यारा था और फिलहाल नेहा मां के सामीप्य और प्यारदुलार का भरपूर आनंद ले रही थी.

समय इसी तरह हंसीखुशी में बीत रहा था कि एक दिन अभिनव की मां का फोन आया,” बेटा मैं बहू के पास आ रही हूं. बड़ा मन कर रहा है अपने पोते को देखने का.”

“पर मौम आप का पोता अभी आया कहां है?” अभिनव ने टोका.

“अरे पागल आया नहीं पर आने वाला तो है. गर्भ में बैठे अपने पोते की सेवा नहीं करूंगी तो भला कैसी दादी कहलाउंगी? चल फोन रख मैं ने पैकिंग भी करनी है.”

“पर मौम आप का सत्संग और वह सेमिनार जहां आप रोज जाती हो? फिर आप का टिफिन सर्विस वाला बिजनेस भी तो है. उसे छोड़ कर यहाँ कैसे रह पाओगे?”

“अरे बेटे उस के लिए मैं ने 2 लोग रखे हुए हैं , माधुरी और निलय. दोनों अच्छी तरह बिजनेस संभाल रहे हैं. वैसे भी यह समय लौट कर नहीं आने वाला. सेमिनार बाद में भी अटैंड कर सकती हूं.”

“ओके मौम फिर आप आ जाओ. वैसे यहां नेहा की मम्मी भी आई हुई हैं. आप को उन की कंपनी भी मिल जाएगी.”

” वह कब आईं ?”

“वहीं करीब 15 दिन पहले.”

“चल ठीक है मैं फोन रखती हूं.”

दो दिन बाद ही अभिनव की मां भी पहुंच गईं. ऊपर से तो नेहा की मां ने उन का दिल खोल कर स्वागत किया और अभिनव की मां ने भी उन्हें गले लगाते हुए कहा कि हाय कितना अच्छा हुआ साथ रहने का मौका मिलेगा. पर अंदर ही अंदर दोनों के मन में एकदूसरे को ले कर प्रतियोगिता की भावना थी. जल्दी ही यह बात सामने भी आने लगी.

नेहा की मां सुबह 5 बजे उठ जाती थीं और नेहा को सैर के लिए ले जाती थीं. उन की देखादेखी अभिनव की मां 5 बजे से भी पहले उठ गईं और नेहा को योगासन सिखाने लगीं. उन्होंने टहलने के बजाय नेहा को प्रैग्नैंसी के समय काम आने वाले कुछ आसन करने का दबाव डालना शुरू किया. इधर नेहा की मां उसे अपने साथ वॉक पर ले जाना चाहती थीं. नेहा असमंजस में थी कि किस की सुने और किस की नहीं.

इस बात पर नेहा की मां उखड़ गईं,” बहन जी यह मेरी बेटी है और मैं इस वक्त इसे वॉक पर ले जाऊंगी. आप कोई और समय देख लो.”

” पर बहन जी आप समझ नहीं रहीं. व्यायाम का यही समय होता है. मैं ने अपनी प्रैग्नैंसी में सास के कहने पर योगा किया था तो देखो कैसा हैल्दी बेटा पैदा हुआ,” अभिनव की मां ने अपनी बात रखी.

अभिनव ने तुरंत समाधान निकाला और अपनी मां को समझाता हुआ बोला ,” मौम नेहा सुबह व्यायाम कर लेगी और शाम में योगा करेगी. वैसे भी योगा शाम में ज्यादा अच्छा होता है क्यों कि उस समय एनर्जी भी मैक्सिमम होती है.”

अब तो रोज ही किसी न किसी बात पर ऐसा ही कुछ नजारा देखने को मिलने लगा. जो काम नेहा की मां करने को कहती, अभिनव की मां कुछ अलग राग अलापने लगती. वैसे दोनों ही नेहा के हित की बात करतीं मगर कहीं न कहीं उन का मकसद दूसरे को नीचा दिखाना और खुद को ऊपर रखना भी होता था. अभिनव और नेहा कुछ दिनों तक तो यह सोचते रहे कि धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा मगर जल्द ही उन की समझ में आने लगा कि यहां कंपटीशन चल रहा है. दोनों अपनीअपनी चलाने की कोशिश में लगी रहतीं हैं.

उस दिन भी सुबह उठते ही नेहा की मां ने बेटी का माथा सहलाते हुए उसे जूस का गिलास पकड़ाया और बोलीं,” ले बेटा गाजर और चुकंदर का जूस पी ले. ऐसे समय में यह जूस बहुत फायदेमंद होता है. ”

तब तक अभिनव की मां भी पहुंच गईं,” अरे बेटा जूसवूस पीने से कुछ नहीं होगा. तुझे सुबहसुबह अनार और सेब जैसे फल कच्चे खाने चाहिए. इस से शरीर को फाइबर भी मिलेगा और शक्ति भी. यही नहीं अनार खून की कमी भी पूरी कर देगा”

नेहा हक्कीबक्की दोनों को देखती रही फिर दोनों की चीजें लेती हुई बोली,” मम्मी जी ये दोनों चीजें मुझे पसंद हैं. मैं जूस भी पी लूंगी और फल भी खा लूंगी. आप दोनों बाहर टहल कर आइए. आज मुझे आराम करना है. ”

उन्हें बाहर भेज कर नेहा ने लंबी सांस ली और अभिनव को आवाज लगाई. अभिनव बगल के कमरे से निकलता हुआ बोला,” यार नेहा अब तो दोनों सुबह से ही तुझे घेरे रहने का कोई मौका नहीं छोड़ती. इधर रात में भी 12 से पहले जाती नहीं हैं. हमारे पास अपना पर्सनल टाइम तो बचा ही नहीं.”

“हां अभिनव मैं भी यही सोच रही हूं. ये दोनों छोटीछोटी बातों पर खींचातानी में लगी रहती हैं. मेरी मम्मी को लगता है कि वह लेक्चरर हैं सो उन्हें ज्यादा नॉलेज है तो वहीँ तुम्हारी मम्मी को इस बात का गुमान है कि उन्होंने अपने दम पर तुम्हें पालापोसा है. सो हमारे लिए भी वह अपनी सलाह ही ऊपर रखती हैं.”

“यार मैं तो तुम से 4 पल प्यार की बातें करने को भी तरस जाता हूं. समझ नहीं आ रहा कि खुद को ऊपर दिखाने के इन के शीतयुद्ध में हम अपना सुकून कब तक खोते रहेंगे?”

तभी दोनों माएं टहल कर लौट आईं. रोज की तरह दोनों ने ही वाकयुद्ध शुरू करते हुए कहा,” सरला जी आप नेहा को मिठाइयां ज्यादा मत खिलाया करो. यह मेरी बच्ची की सेहत के लिए सही नहीं.”

“पर नैना जी मैं इसे गोंद और मेवों की मिठाइयां खिलाती हूं जो मैं ने अपने हाथों से बनाई हैं. आप नहीं जानतीं मेरी सास भी प्रैग्नैंसी के समय मुझे यही सब खिलाती थीं. तभी तो देखो अभिनव के पैदा होने में मुझे जरा सी भी तकलीफ नहीं हुई थी. अभिनव 4 किलोग्राम का पैदा हुआ था. देखने में इतना हट्टाकट्टा था और ऐसे मुस्कुराता रहता था कि नर्स भी बेवजह इसे गोद में उठा कर घूमती रहती थी.”

अभिनव ने कनखी से नेहा की तरफ देखा और दोनों मुस्कुरा उठे. नेहा की मां कहां हार मानने वाली थीं. तुरंत बोलीं,” अजी हमारी सास ने तो तरहतरह के आयुर्वेदिक काढ़े और फलों के सूप पिलाए थे तभी तो देखो नेहा बचपन से अब तक कभी बीमार नहीं पड़ी और कितना खिला हुआ रंग है इस का. मेरी जेठानी का बेटा बचपन में कभी खांसी तो कभी बुखार में पड़ा रहता था पर नेहा मस्त खेलतीकूदती बड़ी हो गई.

अभिनव की मां भी तुरंत बोल उठीं,” अरे बहन जी ऐसा भी कौन सा काढ़ा पिला दिया कि गर्भ के समय पी कर लड़की अब तक तंदुरुस्त रह जाए. ऐसा थोड़े ही होता है. आप भी जानें किस भ्रम में जीती हो.”

” मैं भ्रम में नहीं जीती बहन जी. हर बात का प्रैक्टिकल अनुभव कर के ही बताती हूं. मेरे मोहल्ले में तो मेरी इतनी चलती है कि किसी की भी बहू प्रैग्नैंट हो तो उन की सास पहले मुझ से सलाह लेने आती है कि बहू के खानेपीने का ख्याल कैसे रखा जाए. भ्रम में तो आप जीती हो.”

देखतेदेखते दोनों के बीच रोज की तरह घमासान छिड़ गया था. नेहा और अभिनव फिर से इस झगड़े को शांत कराने में जुट गए. अब तो ऐसा रोज की बात हो गई थी. कई बार तो दोनों इस बात पर झगड़ पड़ते कि आने वाला बच्चा लड़का होगा या लड़की. नेहा और अभिनव को पूरे दिन इन दोनों माओं के पीछे रहना पड़ता. एकदूसरे के साथ वक्त बिताने और प्यार जताने का अवसर ही नहीं मिलता.

एक दिन आजिज आ कर अभिनव ने कहा,” यार नेहा अब हमें अपनी इस बड़ी वाली समस्या का कोई हल निकालना ही पड़ेगा.”

” क्यों न हम एक ट्रिक आजमाएं. मैं बताती हूं क्या करना है,” कहते हुए नेहा ने अभिनव के कानों में कुछ कहा और दोनों मुस्कुरा उठे.

अगले दिन सुबहसुबह नेहा के पापा का कॉल आया. वह अपनी पत्नी से बात करना चाहते थे.

नेहा की मां ने फोन उठाया, “हां जी कैसे हो आप?”

” बस आप की बहुत याद आ रही है बेगम साहिबा.”

” ऐसी भी क्या याद आने लगी? अभी तो आई हूं. ”

“मैडम जी आप अभी नहीं 2 महीने पहले गई थीं और जानती हो पिछले संडे से मेरी तबीयत बहुत खराब है.” पिताजी ने कहा.

” हाय ऐसा क्या हो गया और बताया भी नहीं,” घबराते हुए नेहा की मां ने पूछा.

“बस बीपी हाई हुआ और मुझे चक्कर आ गया. मैं बाथरूम में गिर पड़ा. दाहिने पैर के घुटने बोल गए हैं. चल नहीं पा रहा हूं. अब तू ही बता बहू से हर काम तो नहीं करवा सकता न. बेटे ने स्टिक ला कर दी है पर दिल करता है तेरे कंधों का सहारा मिल जाता तो बहुत सुकून मिलता.”

“अरे इतना सब हो गया और आप मुझे अब बता रहे हो. पहले फोन कर दिया होता तो मैं पहले ही आ जाती.”

“कोई नहीं गुल्लू अब आ जा. मैं ने अभिनव से कह दिया है तेरा टिकट बुक कराने को. बस तू आ जा.”

“आती हूं जी आप चिंता न करो. मुझे बस नेहा की चिंता थी सो यहां रुकी हुई थी,” मां ने नेहा की तरफ देखते हुए कहा.

“नेहा की सास तो है न वहां. कुछ दिन वह देख लेंगी. आप हमें देख लो,” कह कर पिताजी शरारत से मुस्कुराए.

नेहा की मां हंस पड़ी,” तुम भी न कभी नहीं बदलोगे. चलो मैं आती हूं.”

अभिनव ने टिकट बुक करा रखी थी. अगले ही दिन नेहा की मां नेहा को हजारों हिदायतें दे कर अपने घर चली गईं. नेहा और अभिनव ने राहत की सांस ली. नेहा की मां के जाने के बाद घर में शांति छा गई. अब सास जितना जरूरी होता उतना ही हस्तक्षेप करतीं. नेहा और अभिनव को भी एकदूसरे के लिए समय मिलने लगा.

इसी तरह एकडेढ़ महीना गुजर गया. नेहा को आठवां महीना लग चुका था. वह अब काम करने की हालत में नहीं थी. नौकरानी घर का सारा काम करती और सास नेहा का ख्याल रखती.

सब अच्छे से चल रहा था कि एक दिन फिर नेहा की मां का कॉल आया, “बेटी अब तेरे पापा ठीक हैं. मैं कल परसों में पहुंच जाऊंगी तेरे पास.”

“पर मां अब कोई जरूरी नहीं कि आप परेशान हो कर आओ.”

” जरूरत कैसे नहीं बेटा? तेरी पहली प्रैग्नैंसी है. मुझ को तो पास में होना ही चाहिए. मेरे भी भला कौन से कई दर्जन बच्चे हैं ? लेदे कर एक तू है और तेरा भाई है. तेरी देखभाल मैं ने ही करनी है. तेरी सास से तो कुछ होने वाला नहीं. चल रख फोन मैं तैयारी कर लूं.”

फोन रखते हुए नेहा घबराए स्वर में बोली,” अभिनव अब क्या करें? फिर वही महाभारत शुरू हो जायेगी. .”

“क्या हुआ यह तो बताओ ?” अभिनव ने पूछा.

“मम्मा लौट कर आ रही हैं. पापा भी चोट का बहाना आखिर कब तक बनाते. हमारी यह ट्रिक एक महीने में ही बेकार हो गई, ” उदास स्वर में नेहा ने कहा.

“बेकार कुछ नहीं हुआ. अब वही ट्रिक हमें मेरी मम्मी पर चलाना होगा. तुम रुको मैं कुछ सोचता हूं.”

अगले दिन सुबहसुबह अभिनव अपनी मां के पास पहुंचा,” “मौम आप को याद है न पिछले साल आप शिमला में होने वाले टॉप बिजनेसवूमैन समिट में भाग लेने जाने वाली थीं. आप वहां होने वाले वर्कशॉप और सेमिनार का हिस्सा बनना चाहती थीं. मगर ऐन वक्त पर लतिका आंटी की तबियत खराब हो गई और आप दोनों जा नहीं सके. ”

“हां बेटे तेरी लतिका आंटी की तबियत खराब हो गई और उस के बिना मैं अकेली जाना नहीं चाहती थी. तभी तो हमारा वह प्लान कैंसिल हो गया था. ”

“वही तो मौम मगर अब आप के लिए खुशख़बरी है कि इस बार लतिका आंटी फुल फॉर्म में हैं. वह रिजर्वेशन कराने जा रही हैं. आप बताओ आप का क्या प्लान है?”

“अरे नहीं बेटा इस बार मैं नहीं जा सकूंगी. मेरा पोता जो आने वाला है. अगले साल का प्लान बना लेंगे.”

“बट मौम फिर शायद आप की यह ख्वाहिश कभी पूरी नहीं हो पाएगी क्योंकि अगले साल लतिका आंटी हैदराबाद में होंगी अपने बेटेबहू के पास. आप के लिए यह गोल्डन ओपरच्यूनिटी है और आप पोते की चिंता क्यों करती हो? जब तक आप शिमला में हो तब तक नेहा कि मौम उस की देखभाल कर लेंगी. वह बस दोतीन दिन में आने वाली हैं. ”

“मगर बेटा… ”

“कोई अगर मगर नहीं मौम. आप ज्यादा सोचो नहीं बस अब तैयारी करो. दोबारा यह मौका नहीं मिलने वाला क्योंकि आप अकेले फिर जा नहीं पाओगे.”

“चल ठीक है बेटा. बोल दे लतिका को कि मेरा भी रिजर्वेशन करा ले,” कह कर अभिनव की मौम पैकिंग में लग गईं.

नेहा और अभिनव ने एक बार फिर चैन की सांस ली. नेहा को इस बात का सुकून था कि अब जब तक अभिनव की मौम लौट कर आएँगी तब तक उस का बेबी इस दुनिया में आ चुका होगा और उसे फिर से दोनों मांओं के बीच पिसना नहीं पड़ेगा.

Holi 2024: पलाश- अर्पिता ने क्यों किया शलभ को अपनी जिंदगी से दूर?

रखैल…बदचलन… आवारा… अपने लिए ऐसे अलंकरण सुन कर अर्पिता कुछ देर के लिए अवाक रह गई. उस की इच्छा हुई कि बस धरती फट जाए और वह उस में समा जाए… ऐसी जगह जा कर छिपे जहां उसे कोई देख न पाए. रिश्तेदार तो कानाफूसी कर ही रहे थे, पर क्या शलभ की पत्नी भी इस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर सकती है? वह तो उस की अच्छी दोस्त बन गई थी. फिर वह ऐसा कैसे बोल सकती है?

अर्पिता का नाम शलभ के साथ जोड़ा जा रहा था, उस के संबंध को नाजायज बताया जा रहा था. उस ने रुंधे गले से शलभ से पूछा, ‘‘सब मुझे गलत कह रहे हैं… हमारे रिश्ते को नाजायज बता रहे हैं… सच ही तो है, तुम ठहरे शादीशुदा. तुम्हारे साथ रहने का मुझे कोई अधिकार नहीं… क्या मैं सच में तुम्हारी रखैल हूं?’’

शलभ को शीशे की तरह चुभा था यह सवाल. अर्पिता की सिसकियां थम नहीं रही थीं. रोतेरोते ही बोली, ‘‘इतनी बदनामी के बाद अब मुझ से कौन शादी करेगा?’’

शलभ ने उसे दिलासा देते हुए कहा, ‘‘मैं ढूंढ़ूगा तुम्हारे लिए लड़का… तुम्हारे विवाह की सारी जिम्मेदारी मैं निभाऊंगा.’’

‘‘तुम मेरे बिना रह सकोगे?’’

शलभ अर्पिता के सवाल का जवाब देने के बजाय उस का सिर अपनी गोद में रख कर थपकियां देने लगा. थोड़ी ही देर में अर्पिता नींद में डूब गई. शलभ उस के मासूम चेहरे को देर तक देखता रहा, जो अब भी आंसुओं से भीगा था.

1-1 कर उसे अर्पिता से जुड़ी सभी छोटीबड़ी घटनाएं याद आने लगीं. यादें समुद्र की लहरों सी होती हैं. उठती हैं, गिरती हैं और फिर छोड़ जाती हैं एक खालीपन, एक एकाकीपन जिसे भर पाना मुश्किल हो जाता है…

अर्पिता रिश्ते में शलभ की कजिन थी. दोनों के बीच उम्र का बड़ा फासला भी था. उस फासले का असर दोनों के व्यक्तित्व, पसंदनापसंद में नजर आता था. शलभ के जेहन में नन्ही सी अर्पिता की धुंधली सी तसवीर थी, जबकि अर्पिता को तो शलभ बिलकुल याद नहीं था.

हो भी कैसे? तब से अब तक उस की जिंदगी ने बहुत उतारचढ़ाव देख लिए. मां गुजर गईं, पिता ने दूसरी शादी कर ली, इसे ननिहाल भेज दिया गया. जिंदगी के थपेड़ों ने उम्र के लिहाज से अनुभव थोड़ा ज्यादा दे दिया था, जो कभीकभी उस के स्वभाव से भी झलकता था.

वर्षों बाद अर्पिता शलभ से मिली थी. फिर भी उस के व्यवहार में बिलकुल भी अजनबियत नहीं दिखी. एक अपनापन था. चंद रोज में ही शलभ उस का राजदार बन गया. अर्पिता ने शलभ को अपने बचपन के प्यार के बारे में बताया. यह भी बताया कि दोनों शादी करना चाहते हैं.

‘‘घर वालों को शादी के लिए नहीं मना सकते, तो मुझे ही दिल्ली ले चलो. आसिफ वहीं नौकरी करता है. मैं भी पीजी में रहूंगी और नौकरी करूंगी. कोर्ट मैरिज करने के बाद घर वालों को बता दूंगी,’’ एक सांस में अर्पिता ने अपनी बात शलभ से कह डाली.

शलभ ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन फिर उस की जिद के आगे हार गया.

उन दिनों शलभ दिल्ली में कार्यरत था. अच्छी कंपनी, अच्छी कमाई, खुशहाल परिवार. अर्पिता के घर में शलभ की बड़ी इज्जत थी. अर्पिता के दिल्ली जाने की बात पर उस के घर वालों को समझाना पड़ा. आखिरकार अर्पिता को दिल्ली जाने की इजाजत मिल गई.

अर्पिता को तो पंख लग गए. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. वह दिन भी आ गया जब शलभ के साथ अर्पिता अपने सपनों की नगरी की ओर निकल पड़ी. अर्पिता के पिता ने उस की सारी जिम्मेदारी शलभ के कंधों पर डाल थी. शलभ ने भी इस जिम्मेदारी को खुशीखुशी स्वीकार लिया था.

दिल्ली पहुंचने के बाद शलभ ने अर्पिता के रहने का इंतजाम पीजी में करा दिया. गुजरते समय के साथ ही अर्पिता ने भी दिल्ली की रफ्तार भरी जिंदगी से तालमेल बैठा लिया. शलभ अपने काम में व्यस्त हो गया. अर्पिता इस नई और पसंद की दुनिया में बेहद खुश थी. वीकैंड पर आसिफ के साथ कभी कनाट प्लेस के चक्कर लगाती तो कभी बाइक से देर रात दोनों इंडिया गेट कुल्फी खाने निकल जाते.

मार्च का महीना था. पलाश के पेड़ों में हरे पत्तों की जगह सुर्ख फूलों ने ले ली थी. यही तो वे फूल हैं, जो बचपन से ही उसे बेहद पसंद हैं, सुर्ख रंग उस का पसंदीदा. उस के घर के सामने भी पलाश का पेड़ था. दिल्ली में कहीं भी सुर्ख फूल देख कर उसे घर जैसा महसूस होता.

होली आने में बस चंद दिन ही रह गए थे. इस बार की होली को ले कर अर्पिता बेहद उत्साहित थी. लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था. होली से चंद रोज पहले शलभ के पास अर्पिता के अस्वस्थ होने की खबर पहुंची. शलभ पीजी पहुंचा तो अर्पिता को तेज बुखार में तड़पता पाया.

अर्पिता की रूममेट्स से पता चला कि आसिफ ने प्यार और शादी का वादा कर उस के साथ शारीरिक संबंध बनाए और फिर उस पर धर्म परिवर्तन का दबाव बनाने लगा. एक रोज धर्म को शादी की अड़चन बता कर उसे हमेशा के लिए छोड़ गया. जिस ख्वाब को आंखों में सजाए अर्पिता दिल्ली आई थी, वह टूट चुका था. कल्पना की उड़ान में उस के पंख लहूलुहान हो चले थे.

शलभ रात भर वहीं अर्पिता के पास बैठा रहा. उस के पिता को फोन पर सारी बातें बताने की कोशिश भी की, लेकिन उन की इस में कोई दिलचस्पी नहीं थी. सूर्योदय के साथ ही शलभ अर्पिता को अपने फ्लैट में ले आया. उस ने अर्पिता की देखरेख में कोई कसर नहीं छोड़ी. अर्पिता बचपन के प्यार और फिर उस से मिले धोखे से उबर नहीं पा रही थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि उस के प्रेम में जातिधर्म कैसे आड़े आ गए.

संघर्ष और दुख भरा समय गुजर गया. हफ्ते भर में अर्पिता स्वस्थ हो गई. शलभ ने उसे अपने औफिस में ही नौकरी दिला दी. अर्पिता का मन भी नौकरी में रमने लगा. खाली वक्त में वह खुद को घर के कामों में व्यस्त रखने लगी. शलभ की छोटीमोटी चीजों की जिम्मेदारी भी उठा ली. सुबह उठती, चाय बनाती, फिर शलभ को उठाती, नास्ता बनाती और फिर औफिस के लिए तैयार हो जाती. दोनों साथसाथ औफिस निकल पड़ते.

शाम को शलभ के साथ घर आ जाती. जिस रात शलभ को देर तक औफिस में रुकना होता, वह तब तक जागती रहती जब तक शलभ आ नहीं जाता. रात में कभी डर जाती तो चुपके से शलभ के पास बिस्तर पर आ कर सो जाती. शलभ भी उसे थपकियां देने लगता. लेकिन दोनों के बीच एक तकिए की दूरी बनी रहती. मगर एक रात यह एक तकिए की दूरी भी खत्म हो गई.

मुश्किल दिनों का साथ अकसर मजबूत होता है. संघर्ष रिश्ते बनाता है

तो कुछ रिश्तों को कमजोर भी करता है. 3-4 हफ्ते ही बीते थे. लेकिन ऐसा लगने लगा था जैसे सदियों से दोनों साथ रह रहे हों. वे एकदूसरे का चेहरा पढ़ सकते थे. शलभ का अपने गृह शहर जाना भी कम होने लगा था. अगर घर जाता भी तो लौटने की बुकिंग अर्पिता पहले से ही करवा देती.

एक तरफ शलभ और अर्पिता के बीच का फासला कम होता जा रहा था तो दूसरी तरफ घर और परिवार से शलभ का फासला बढ़ता जा रहा था. शलभ और उस की पत्नी के रिश्ते में कड़वाहट घुलती जा रही थी. कई बार तो शलभ ने अर्पिता से विवाह के बारे में भी सोचा, लेकिन हर बार उस की आंखों के सामने बेटे का मासूम चेहरा आ जाता. एक वही तो था जो उस के आने का बेसब्री से इंतजार करता था.

दोनों के घरों में व रिश्तेदारों के बीच कानाफूसी का दौर शुरू हो गया था. कानाफूसी धीरेधीरे आरोप में बदल गई और शलभ के शांत जीवन में भूचाल आ गया. रिश्तों के अग्निपथ पर चलते हुए पांवों में छाले पड़ने तो तय था, लेकिन छाले इतने दर्द भरे हो सकते हैं, इस का एहसास दोनों को अब होने लगा.

अचानक शलभ को घुटन सी महसूस हुई तो सोच का सिलसिला थम गया. शलभ ने अपनी गोद से उतार कर अर्पिता को बिस्तर पर सुला दिया और स्वयं बालकनी में आ गया. सुबह की लालिमा क्षितिज पर छाई थी. ऐसा लग रहा था जैसे ढेर सारे पलाश के फूलों को मसल कर आसमान में बिखेर दिया गया हो. शलभ सामने लगे पलाश के पेड़ को देखने लगा. उस के सारे पत्ते गिर चुके थे और लाल फूलों से लदा वृक्ष ऐसा लग रहा था जैसे नए रिश्ते बन गए हों और पुरानों से नाता टूट रहा हो.

शलभ के ऊपर एक नई जिम्मेदारी आ चुकी थी. अर्पिता के विवाह की जिम्मेदारी और इसे ले कर वह बेहद संजीदा था. शलभ ने औफिस में ही कार्य करने वाले अपने दोस्त के छोटे भाई से अर्पिता के विवाह की बात की. लड़का और उस के परिवार वालों ने इस प्रस्ताव को मान लिया. अर्पिता के हाथ पीले किए जाने की तैयारी शुरू हो गई.

पत्नी के खिलाफ जा कर शलभ ने अर्पिता की शादी की सारी जिम्मेदारी, सारा खर्च उठा लिया. शादी की तैयारी में दिन गुजरने लगे. शलभ के पास अपने बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं रहती थी. पिता और सौतेली मां को अर्पिता की जिंदगी में कुछ खास रुचि थी नहीं. अर्पिता के लिए तो शलभ में ही उस का पूरा परिवार समाहित था.

नए रिश्ते को आत्मसात करने की जद्दोजहद में जानेअनजाने अर्पिता शलभ की उपेक्षा भी कर जाती थी. जिस अर्पिता के लिए शलभ ने अपने सभी रिश्तेदारों, यहां तक कि अपनी अर्धांगिनी से भी रिश्ता तोड़ लिया, अब वही उस से दूर होती जा रही थी. रात में देर से लौटने पर अब अर्पिता इंतजार करती नहीं मिलती थी, न ही सुबह की चाय के साथ उस की आवाज आती.

मौसम बदल रहा था. शलभ को इस का एहसास होने लगा था. वह स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगा था. उस ने अपने चारों ओर अकेलेपन की दीवार खड़ी करनी शुरू कर दी. जल्द ही अर्पिता के विवाह का दिन भी आ गया. शलभ की संवेदनाएं जड़ हो चुकी थीं. यंत्रवत वह सारे काम करता जा रहा था.

विदाई की बेला आ गई. हमेशा चहकने वाली अर्पिता की आंखें भर आईं.

वह बिलखने लगी. कमरे की हर दीवार उस की पसंद के रंग में रंगी थी, हर परदा उस की पसंद का था. बालकनी की छोटी सी बगिया में भी उस की पसंद के ही फूल सजे थे. वह नम आंखों से उन्हें निहार रही थी.

घर के सामने उस का पसंदीदा पलाश का पेड़ अकेला खड़ा था. शलभ जड़वत था. उसे एहसास था कि उस की जिंदगी की रंगत को भी वह अपने संग लिए जा रही है, लेकिन दिल पर पड़ा बोझ उतर गया था. उस ने अपनी जिम्मेदारी जो पूरी कर दी थी.

Holi 2024: धुंध- घर में मीनाक्षी को अपना अस्तित्व क्यों खत्म होने का एहसास हुआ?

‘‘अरे, अब बस भी करो रघु की मां, क्या बहू को पूरी दुकान ही भेज देने का इरादा है?’’

‘‘मेरा बस चले तो भेज ही दूं, पर अब अपने हाथों में इतना दम तो है नहीं. अरे, कमिश्नर की बेटी है कितना तो दिया है शादी में बेटी को. थोड़ा सा शगुन भेज कर हमें अपनी जगहंसाई करानी है क्या? मीनाक्षी, जरा गुझिया में खोया ज्यादा भरना वरना रघु की ससुराल वाले कहेंगे कि हमें गुझिया बनानी ही नहीं आती.’’

मीनाक्षी का मन कसैला हो उठा. इतनी आवभगत से कभी उस के मायके तो गया नहीं कुछ. मानते हैं, उस की शादी 10 वर्ष पूर्व हुई थी, उस समय के हिसाब से उस के बाबूजी ने खर्च भी किया था. पर उस की पहली होली जब मायके में पड़ी थी तब तो अम्माजी ने इतने मनुहार से कुछ नहीं भेजा था. पर यहां तो समधिन से ले कर छोटी बहन तक के कपड़े भेजे जा रहे हैं. ऊपर से बातबात में नसीहत दी जा रही है, ‘यह ठीक से रखो’, ‘यह सस्ता लग रहा है’, ‘इस में मेवा कम है’ आदि.

मखमल की चादर में टाट का पैबंद लगा हो तो दूर से झलकता है, पर रेशमी चादर में मखमल का पैबंद लग जाए तो उसे अच्छा समझा जाता है. मीनाक्षी की ससुराल भी ऐसी ही थी. मध्यम वर्ग के प्राणी थे. मीनाक्षी आई तो घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी न थी. पति बाट व माप निरीक्षक थे. दोनों छोटे देवर पढ़ रहे थे, ननद विवाह के योग्य थी.

कितना कुछ तो सहा और किया था उस ने. यदि उंगलियों पर गिनना चाहे तो गिनती भूल जाए. उस ने गिनने का प्रयास भी कभी न किया. पर आज ही नहीं, देवर की शादी के बाद मधु के आगमन के साथ ही अम्माजी का सारा स्नेह मधु पर ही बरसते देख उस का मन खिन्न हो उठा था.

12 टोकरों के साथ बड़ी सी अटैची ले कर जब मीनाक्षी के पति गिरीश चलने लगे तो उस ने धीमे से पति से कहा, ‘‘मधु से मिल लीजिएगा. उस के बगैर होली फीकी लगेगी.’’

गिरीश ने कुछ कहा नहीं, पर मीनाक्षी के नेत्रों से झांकती उदासी उन से छिपी न रही.

होली के दिन सुबह हुल्लड़बाजी शुरू हो गई थी. महल्ले के लड़केलड़कियां आते गए और पुरानी भाभी से अपना रिश्ता निभाते हुए हंसीमजाक के बीच रंग भी खेलते गए.

मीनाक्षी मृदु स्वभाव की सीधीसादी महिला थी. महल्ले के सारे लड़के उस के देवर थे, लड़कियां ननदें एवं वृद्ध लोग चाचाचाची आदि.

शाम को मधु के मायके से उस के भाई मिठाई ले कर आए. जितना कुछ मीनाक्षी की सास ने भेजा था उस से कहीं ज्यादा ही वे लोग लाए थे. मीनाक्षी दौड़दौड़ कर सब की खातिर कर रही थी. बड़ी दीदी के नाते सब ने उस के पांव छुए तो मीनाक्षी को आंतरिक खुशी मिली.

अम्माजी भी बड़े ही प्यार एवं अपनत्व से सब की खातिर कर रही थीं. देखते ही देखते मात्र दिखावे के नाम पर काफी रुपए खर्च हो गए. मीनाक्षी जानती थी कि इतने पैसे खर्च होने से घर का मासिक बजट गड़बड़ा जाएगा, पर वह खामोश ही रही.

मीनाक्षी का देवर रघु प्रशासनिक अभियंता था. कमिश्नर की बेटी का रिश्ता स्वीकार करने के पीछे मधु की सुंदरता एवं उच्च शिक्षित होना भी उस के महत्त्वपूर्ण गुण थे. ढेर सारे दहेज के साथ मधु उस मध्यम वर्ग के घर में जब दुलहन बन कर आई तो पहली बार मीनाक्षी को अपनी वास्तविक स्थिति का भान हुआ.

सिर्फ 2 दिन ही तो मधु रह पाई थी. फिर होली का पर्व आ गया और उस के भाई आ कर उसे ले गए. होली के दूसरे ही दिन मधु को लेने रघु मीनाक्षी के

8 वर्षीय पुत्र के साथ जाने लगा तो अम्माजी ने फिर मधु के लिए साड़ी व मिठाई देनी चाही तो गिरीश ने कह दिया, ‘‘अम्मा, इतना सारा लेनदेन करना अच्छा नहीं है. उन्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, पर हमारी तो आर्थिक स्थिति चरमरा जाएगी. मानते हैं कि रघु की नौकरी अच्छी है पर यदि उसे भी अपने पैसे से यह सब करना पड़े तो शायद वह भी न करे.’’

‘‘तो क्या कुछ न भेज कर अपनी नाक नीची करवाएं? सुना तुम ने?’’ वह पति से बोली, ‘‘क्या हमें अपनी बहू को कुछ उपहार नहीं भेजना चाहिए? आखिर इतना कुछ दिया है उन्होंने.’’

‘‘पर रघु की मां, दिया उन्होंने अपनी बेटी को है. और जो नकद दिया है उस पर हमारा कोई हक नहीं बनता. वह हम ने मधु और रघु के संयुक्त खाते में जमा करवा दिया है. इतना कुछ खर्च करना तो मुझे भी ठीक नहीं लग रहा है.’’

पति का समर्थन न मिलते देख कर अम्माजी चुप हो गईं. हालांकि उन के चेहरे से यह प्रतीत हो रहा था कि वह इस से संतुष्ट नहीं हैं.

दोपहर का सारा काम निबटा कर मीनाक्षी अपने कमरे में चली आई थी. मधु भी सुबह आ गई थी. मीनाक्षी सोचने लगी, यदि मधु के पति की नौकरी कहीं अन्यत्र होती तो कोई परेशानी वाली बात नहीं थी पर चूंकि दोनों बहुओं को सासससुर के साथ एक ही घर में रहना था, चिंता का विषय यही था.

इन 10 दिनों के दौरान मीनाक्षी ने महसूस कर लिया था कि अम्माजी का सारा लाड़ अब मधु पर ही उतरेगा जोकि उचित न था. ऐसा नहीं कि उसे मधु से स्नेह न था पर यदि अम्मा अपना सारा स्नेह भंडार मधु पर ही न्योछावर करेंगी तो संभव है कि कल को वे मीनाक्षी की भी अवहेलना शुरू कर दें. संयुक्त परिवार में हर एक को त्याग कर के चलना पड़ता है. स्वार्थ की परिधि में रहने वाला प्राणी ऐसे परिवार में ज्यादा दिन नहीं रह सकता.

‘‘दीदी,’’ सहसा मधु के स्वर पर उस ने चौंक कर देखा, ‘‘अरे मधु, आओ, बैठो न,’’ मीनाक्षी उठ कर खड़ी हो गई.

‘‘यह आप के लिए है,’’ मधु ने एक पैकेट उस की तरफ बढ़ा दिया.

‘‘क्या है यह?’’

‘‘साड़ी. देखिए, रंग आप को पसंद है?’’

जाने कहां का आक्रोश एकदम से मीनाक्षी के मन में भर आया, वह खुद भी न समझ सकी. मधु के घर वालों के सामने होली के दिन उस ने सूती साड़ी पहनी थी. क्या इसीलिए मधु उस के लिए साउथ सिल्क की महंगी साड़ी ले कर चली आई?

‘‘मधु, मैं यह साड़ी नहीं ले सकती,’’ बड़ी मुश्किल से अपने भावों को बाहर आने से मीनाक्षी ने रोका.

‘‘क्यों, दीदी? पर मैं तो आप के लिए ले कर आई हूं.’’

‘‘क्योंकि मैं इस के बदले में तुम्हें इस से अच्छी साड़ी नहीं दे सकती. मेरे पति इतना नहीं कमाते कि हम अंधाधुंध खर्च कर सकें. अच्छा होगा, तुम भी यह सब समझ लो क्योंकि हमें साथ ही रहना है.’’

मधु सिर झुकाए चुपचाप सुनती रही. मीनाक्षी का क्रोध जब शांत हुआ तो उस ने देखा कि साड़ी का पैकेट यों ही पड़ा है और मधु वहां से जा चुकी है.

मधु के जाने के बाद मीनाक्षी को महसूस हुआ कि उस से कुछ गलत हो गया है. उसे इतना कठोर नहीं होना चाहिए था. आखिर वह कितने प्यार से उस के लिए उपहार लाई थी. उस समय रख लेती, नसीहत बाद में भी दे सकती थी. पर इतने दिनों का आक्रोश फटा भी तो नईनवेली मधु के ही ऊपर.

सुबह मीनाक्षी की आंख खुली तो धूप थोड़ी चढ़ आई थी. सोचने लगी कि इतनी देर कैसे हो गई? कमरे से निकल कर उस ने देखा, हर कोई अपने काम में लगा है. मधु ने उसे देखते ही कहा, ‘‘आप सो रही थीं, दीदी, इस कारण मैं ने चाय नहीं दी, आप ब्रश करें, तब तक मैं चाय बनाती हूं.’’

मीनाक्षी के लिए सब कुछ अप्रत्याशित था. सुबह घर का प्रत्येक सदस्य उस के हाथ की चाय पीने का अभ्यस्त था. आज मधु के हाथ की चाय पी कर भी किसी के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं झलक रहा था. बाबूजी वैसे ही लौन में अखबार पढ़ रहे थे. अम्माजी नहा कर भीगे बालों से धूप में कुरसी डाले माला फेर रही थीं. रघु दाढ़ी बना रहा था और गिरीश दोनों बच्चों के साथ लौन में खेल रहा था.

दोपहर के भोजन के लिए मीनाक्षी रसोई में पहुंची तो देखा, मधु डलिया में सब्जी निकाल रही थी, ‘‘सब्जी क्या बनेगी, दीदी?’’

‘‘देखो मधु, अभी तुम नईनवेली हो. नई बहू का यों काम करना अच्छा नहीं लगता. कुछ दिन आराम करो फिर काम करना.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है कि आप काम करें और मैं आराम करूं. आप बताती जाएं, मैं सब करती जाऊंगी.’’

बात सीधी थी, पर जाने क्यों मीनाक्षी को लग रहा था कि उस का स्थान मधु हथियाती जा रही है. पर घर की पूरी जिम्मेदारी ओढ़ कर पहले जहां वह कभीकभी झुंझला जाती थी, आज उसी को हस्तांतरित होता देख वह बेचैन हो उठी.

वह गरमी की उमस भरी दोपहर थी. अम्मा व बाबूजी किसी शादी में दूसरे शहर गए थे. घर पर मधु एवं मीनाक्षी ही थीं. मीनाक्षी ज्यादा न बोलती, पर मधु सदा उस के साथसाथ लगी रहती. मीनाक्षी को हमेशा लगता कि मधु अपनी अमीरी का रौब मारेगी. अपनी आर्थिक संपन्नता का एहसास जताएगी, पर मधु के व्यवहार में ऐसा कुछ भी न था.

उसी दिन दोपहर को मीनाक्षी को आंगन में नीचे कुछ हलचल सुनाई दी. उस ने झांक कर देखा. मधु की मां एवं भाई आए हुए थे. साथ में छोटी बहन भी थी. वह झट से नीचे उतर आई.

‘‘आइए, मांजी, बड़ा अच्छा हुआ, आप आ गईं. अरे, मधुप और सुधा भी आए हैं. अरे मधु, देखो तो कौन आया है,’’ मीनाक्षी ने उन्हें आदर के साथ बैठाया और खुद चाय आदि का प्रबंध करने के लिए रसोई में घुस गई.

पूरे 4 दिन मधु की मां वहां रहीं. इन दिनों पूरे घर पर उन्हीं का साम्राज्य छाया रहा. सास घर पर नहीं थीं. इस कारण पूरा आदरसम्मान मीनाक्षी उन्हें देती रही. इस का परिणाम यह रहा कि वे हर घड़ी हर चीज के बारे में अपनी राय जताती रहीं.

गिरीश वैसे ही शांत स्वभाव का था. मधु की मां की बात को वह खामोशी से सुनता रहता. रघु का भी स्वभाव सीधासादा था. इस कारण पूरे घर में मालिकाना अंदाज में मधु की मां घूमती रहीं.

एक दिन मीनाक्षी ने सुना, वे मधु से कह रही थीं, ‘‘मेरी मान, रघु से कह कर तबादला कहीं और करवा ले. मुझे तो तुम्हारे जेठ व जेठानी का स्तर अच्छा नहीं  लगता. देख, रघु का वेतन ज्यादा है, पर एकसाथ रहने से उस का सारा वेतन इसी घर में खर्च हो जाता है.’’

‘‘कैसी बातें करती हो मां. एक तो इन की नौकरी ऐसी है कि कभी भी तबादला हो सकता है. जितने दिन हमें साथ रहना है, हम कलह कर के क्यों रहें? फिर नौकरी से अवकाश के बाद हमें साथ ही रहना है. क्या हमारी इन हरकतों से भैया व भाभी को तकलीफ नहीं होगी?’’

‘‘तुम मकान क्या यहीं बनवाओगी? मैं ने तो तेरे बाबूजी से जमीन की बात भी कर ली है.’’

‘‘नहीं मां, मकान तो यही रहेगा. हां, दोनों भाई मिल कर इस की मरम्मत करवा लेंगे. सब एक ही परिवार के तो हैं.’’

मधु की मां एवं भाईबहन की विदाई मीनाक्षी ने अपनी समझ व हैसियत से अच्छी तरह की थी. सुधा को उस ने फिल्म दिखाई थी. मधुप को एक बैगी शर्ट दी थी. दोनों का स्वभाव उसे बहुत अच्छा लगा था. सुधा से उस के पलंग का नाइट लैंप टूट गया था, पर मीनाक्षी ने बजाय डांटने के उसे तसल्ली ही दी थी और मधु को भी सुधा को डांटने से रोक दिया था.

तब मधु की मां बोली थीं, ‘‘क्या हो गया, शीशा ही तो टूटा है.’’

‘‘सुधा को क्या पता है कि यहां की हर चीज अनमोल है. दूसरी आने में सालों लग जाते हैं.’’

‘‘मां,’’ मधु की क्रोध भरी आवाज पर मीनाक्षी ने झट से उस का हाथ थाम लिया, ‘‘नहीं, मधु.’’

मीनाक्षी की सास जब लौट कर आईं और उन्हें पता चला कि मधु की मां आई थीं तो उन्होंने शोर मचाना शुरू कर दिया, ‘‘अरे, कुछ खातिर भी की या यों ही टरका दिया. अरे मधु बेटी, मां का ध्यान ठीक से रखा न?’’

तभी बाबूजी ने गुस्से से पत्नी से कहा, ‘‘तुम तो ऐसे चिल्ला रही हो मानो रघु की सास नहीं, तुम्हारी बेटी की सास आई हों.’’

‘‘यह देखो,’’ हीरे की अंगूठी पति को दिखाते हुए वे बोलीं, ‘‘दी है किसी ने मुझे ऐसी अंगूठी? रघु की ससुराल की बदौलत हीरा तो पहन लिया. कैसे प्यार से समधिन के लिए भेजी थी उन्होंने.’’

‘‘तुम तो,’’ बाबूजी इतना कह कर चुप हो गए. वे समझ गए कि उन के सिर पर झूठे वैभव का भूत सवार है.

धीरेधीरे दिन बीतने लगे. मधु का पांव भारी हुआ. अम्माजी की खुशी की सीमा न रही. काफी दिनों बाद घर में किसी बच्चे की किलकारी गूंजने वाली थी. मीनाक्षी ने इतने दिनों में यह महसूस किया कि मधु काफी सुलझे विचारों की लड़की है. अपने मायके की अमीरी का जरा भी दंभ उस में नहीं है. एक दिन उस ने देखा, उस का बेटा पंकज अपनी पुस्तक लिए मधु के पास बैठा है.

‘‘क्या पढ़ रहा है, बेटा?’’

‘‘चाचीजी से गणित. तुम्हें पता है मां, चाचीजी गणित बहुत अच्छा पढ़ाती हैं.’’

मीनाक्षी ने हंस कर ‘हां’ में सिर हिला दिया. मधु ने उसे देख कर उठते हुए कहा, ‘‘आइए न, दीदी.’’

‘‘ठीक है मधु, तुम पढ़ाओ, मैं रसोई देखती हूं.’’

‘‘अच्छा दीदी,’’ कह कर मधु फिर से पंकज को पढ़ाने लगी.

मौसम बदलते हैं, ऋतुओं के साथ फूलों के रंग भी बदलते हैं. एक नहीं बदलता है तो इंसान का मन, लेकिन कभी ऐसा भी होता है कि किसी घटना ने मानव का हृदय परिवर्तन कर दिया हो. मीनाक्षी ने 10 वर्ष जिस परिवेश में बिताए थे, अमीरी का उस में कोई स्थान न था. उस ने सास के व्यंग्यबाणों को झेला था तो ससुर का स्नेह भी पाया था. पति का प्यार मिला था, देवर से इज्जत और बच्चों से वात्सल्य.

इस भरेपूरे परिवार में व्यवधान पड़ा था मधु के आगमन से. इस को भी वह सुगमता से व्यवस्थित कर लेती, यदि अम्मा हर बात में यह एहसास न जताती रहतीं कि मधु बड़े घर की बेटी है.

दीवाली आई और बीत गई. होली का त्योहार पास आता गया और इस के साथ मधु का प्रसव दिन भी करीब आ गया.

एक दिन शाम को घर के सदस्य बैठे चाय पी रहे थे. तभी रघु आया तो मधु उसे कपड़े देने के लिए उठने लगी.

सहसा बाबूजी ने कहा, ‘‘पहले चाय पी लो, कपड़े बाद में बदलना.’’

मीनाक्षी ने रघु के लिए भी चाय बना दी. अम्माजी ने गिरीश की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘सोचती हूं, मधु को मायके भिजवा दूं. प्रसव का दिन पास आ रहा है.’’

तभी मधु ने पूछा, ‘‘मायके क्यों, मांजी?’’

‘‘रस्म के मुताबिक पहला जापा मायके में ही होता है.’’

तभी मधु उठ कर अंदर चली गई. शाम को मीनाक्षी सब्जी बना रही थी तो मधु ने आ कर कहा, ‘‘दीदी, मैं मायके नहीं जाऊंगी.’’

‘‘क्यों, मधु? पहले प्रसव में मैं भी तो मायके गई थी. यह तो घर की पुरानी रीति है.’’

‘‘दीदी, मायके जा कर कौन लड़की खुश नहीं होती, पर मैं नहीं चाहती कि फिर वही तमाशा हो जो मेरे होली के अवसर पर जाने पर हुआ था.’’

‘‘क्या?’’

‘‘दीदी, मैं इस घर की मेहमान नहीं, एक सदस्य हूं. मुझे इस घर की आर्थिक स्थिति का अनुमान है. मेरा प्रसव मायके में होगा तो अम्माजी उपहार भेजने से न चूकेंगी. बाबूजी शादी का पैसा लगाएंगे नहीं. फिर कहां से आएगा पैसा? घर की आर्थिक स्थिति जो सुधरी है, वह फिर से चरमरा न जाएगी. दीदी, तुम मांजी को समझा दो, मैं मायके नहीं जाऊंगी.’’

‘‘मधु, बावली मत बनो. कहीं कुछ उलटासीधा हो गया तो?’’

‘‘उलटासीधा होना होगा तो वहां भी हो सकता है. फिर जिस डाक्टर को मैं यहां दिखा रही हूं वह मेरे केस से पूरी तरह से परिचित है. वहां नई डाक्टर देखेगी न दीदी, मैं नहीं जाऊंगी.’’

मधु के मायके न जाने में रघु ने भी पूरा सहयोग दिया. मां से उस ने स्पष्ट कह दिया कि मधु मायके नहीं जाएगी.

होली के 1 दिन पूर्व मधु ने बेटे को जन्म दिया. प्रसव नर्सिंगहोम में हुआ था. होली के दिन लोग आते रहे और मधु व बच्चे की कुशलता पूछते रहे. चंचल लड़कों ने तो इनकार करने के बावजूद मधु के गाल पर हलका सा गुलाल लगा ही दिया.

चारों तरफ होली का शोर था. मीनाक्षी खुद बचने की कोशिश के बावजूद रंग से भीग गई थी. फिर भी वह दौड़दौड़ कर मधु के सब काम करती रही.

‘‘दीदी,’’ मधु के स्वर पर मीनाक्षी ने चौंक कर देखा. वह कुहनियों के सहारे बिस्तर पर बैठी थी.

‘‘क्या है, मधु, कोई तकलीफ है?’’

‘‘हां.’’

‘‘डाक्टर को बुलाऊं?’’

‘‘नहीं दीदी, तकलीफ इस बात की है कि मैं होली का आनंद नहीं उठा पा रही. पिछली होली मायके में पड़ी, इस बार अस्पताल में. सोचा था, इस बार यहां की रंगीनी देखूंगी. कितना अच्छा लग रहा है, आप का यह रंगों वाला रूप.’’

‘‘घबराओ मत, देवरजी खड़े हैं बाहर. जरा खापी कर तंदुरुस्त हो जाओ, फिर जी भर कर रंग खेल लेना.’’

मधु शरमा गई और मीनाक्षी मुद्दत के बाद खिलखिला कर हंस पड़ी. उस के मन पर छाई धुंध छंट गई थी. बाहर शोर मचा था, ‘बुरा न मानो होली है.’

कलंक: बलात्कारी होने का कलंक अपने माथे पर लेकर कैसे जीएंगे वे तीनों ?

उस रात 9 बजे ही ठंड बहुत बढ़ गई थी. संजय, नरेश और आलोक ने गरमाहट पाने के लिए सड़क के किनारे कार रोक कर शराब पी. नशे के चलते सामने आती अकेली लड़की को देख कर उन के भीतर का शैतान जागा तो वे उस लड़की को छेड़ने से खुद को रोक नहीं पाए.

‘‘जानेमन, इतनी रात को अकेली क्यों घूम रही हो? किसी प्यार करने वाले की तलाश है तो हमें आजमा लो,’’ आसपास किसी को न देख कर नरेश ने उस लड़की को ऊंची आवाज में छेड़ा.

‘‘शटअप एंड गो टू हैल, यू बास्टर्ड,’’ उस लड़की ने बिना देर किए अपनी नाराजगी जाहिर की.

‘‘तुम साथ चलो तो ‘हैल’ में भी मौजमस्ती रहेगी, स्वीटहार्ट.’’

‘‘तेरे साथ जाने को पुलिस को बुलाऊं?’’ लड़की ने अपना मोबाइल फोन उन्हें दिखा कर सवाल पूछा.

‘‘पुलिस को बीच में क्यों ला रही हो मेरी जान?’’

‘‘पुलिस नहीं चाहिए तो अपनी मां या बहनों…’’

वह लड़की चीख पाती उस से पहले ही संजय ने उस का मुंह दबोच लिया और झटके से उस लड़की को गोद में उठा कर कार की तरफ बढ़ते हुए अपने दोस्तों को गुस्से से निर्देश दिए, ‘‘इस ‘बिच’ को अब सबक सिखा कर ही छोड़ेंगे. कार स्टार्ट करो. मैं इस की बोटीबोटी कर दूंगा अगर इस ने अपने मुंह से ‘चूं’ भी की.’’

आलोक कूद कर ड्राइवर की सीट पर बैठा और नरेश ने लड़की को काबू में रखने के लिए संजय की मदद की. कार झटके से चल पड़ी.

उस चौड़ी सड़क पर कार सरपट भाग रही थी. संजय ने उस लड़की का मुंह दबा रखा था और नरेश उसे हाथपैर नहीं हिलाने दे रहा था.

‘‘अगर अब जरा भी हिली या चिल्लाई तो तेरा गला दबा दूंगा.’’

संजय की आंखों में उभरी हिंसा को पढ़ कर वह लड़की इतना ज्यादा डरी कि उस का पूरा शरीर बेजान हो गया.

‘‘अब कोई किसी का नाम नहीं लेगा और इस की आंखें भी बंद कर दो,’’ आलोक ने उन दोनों को हिदायत दी और कार को तेज गति से शहर की बाहरी सीमा की तरफ दौड़ाता रहा.

एक उजाड़ पड़े ढाबे के पीछे ले जा कर आलोक ने कार रोकी. उन की धमकियों से डरी लड़की के साथ मारपीट कर के उन तीनों ने बारीबारी से उस लड़की के साथ बलात्कार किया.

लड़की किसी भी तरह का विरोध करने की स्थिति में नहीं थी. बस, हादसे के दौरान उस की बड़ीबड़ी आंखों से आंसू बहते रहे थे.

लौटते हुए संजय ने लड़की को धमकाते हुए कहा, ‘‘अगर पुलिस में रिपोर्ट करने गई, तो हम तुझे फिर ढूंढ़ लेंगे, स्वीटहार्ट. अगर हमारी फिर मुलाकात हुई तो तेजाब की शीशी होगी हमारे हाथ में तेरा यह सुंदर चेहरा बिगाड़ने के लिए.’’

तीनों ने जहां उस लड़की को सड़क पर उतारा. वहीं पास की दीवार के पास 4 दोस्त लघुशंका करने को रुके थे. अंधेरा होने के कारण उन तीनों को वे चारों दिखाई नहीं दिए थे.

उन में से एक की ऊंची आवाज ने इन तीनों को बुरी तरह चौंका दिया, ‘‘हे… कौन हो तुम लोग? इस लड़की को यहां फेंक कर क्यों भाग रहे हो?’’

‘‘रुको जर…सोनू, तू कार का नंबर नोट कर, मुझे सारा मामला गड़बड़ लग रहा है,’’ एक दूसरे आदमी की आवाज उन तक पहुंची तो वे फटाफट कार में वापस घुसे और आलोक ने झटके से कार सड़क पर दौड़ा दी.

‘‘संजय, तुझे तो मैं जिंदा नहीं छोड़ूंगी,’’ उस लड़की की क्रोध से भरी यह चेतावनी उन तीनों के मन में डर और चिंता की तेज लहर उठा गई.

‘‘उसे मेरा नाम कैसे पता लगा?’’ संजय ने डर से कांपती आवाज में सवाल पूछा.

‘‘शायद हम दोनों में से किसी के मुंह से अनजाने में निकल गया होगा,’’ नरेश ने चिंतित लहजे में जवाब दिया.

‘‘आज मारे गए हमसब. मैं ने उन आदमियों में से एक को अपनी हथेली पर कार का नंबर लिखते हुए देखा है. उस लड़की को ‘संजय’ नाम पता है. पुलिस को हमें ढूंढ़ने में दिक्कत नहीं आएगी,’’ आलोक की इस बात को सुन कर उन दोनों का चेहरा पीला पड़ चुका था.

नरेश ने अचानक सहनशक्ति खो कर संजय से चिढ़े लहजे में पूछा, ‘‘बेवकूफ इनसान, क्या जरूरत थी तुझे उस लड़की को उठा कर कार में डालने की?’’

‘‘यार, उस ने हमारी मांबहन…तो मैं ने अपना आपा खो दिया,’’ संजय ने दबे स्वर में जवाब दिया.

‘‘तो उसे उलटी हजार गालियां दे लेता…दोचार थप्पड़ मार लेता. तू उसे उठा कर कार में न डालता, तो हमारी इस गंभीर मुसीबत की जड़ तो न उगती.’’

‘‘अरे, अब आपस में लड़ने के बजाय यह सोचो कि अपनी जान बचाने को हमें क्या करना चाहिए,’’ आलोक की इस सलाह को सुन कर उन दोनों ने अपनेअपने दिमाग को इस गंभीर मुसीबत का समाधान ढूंढ़ने में लगा दिया.

पुलिस उन तक पहुंचे, इस से पहले ही उन्हें अपने बचाव के लिए कदम उठाने होंगे, इस महत्त्वपूर्ण पहलू को समझ कर उन तीनों ने आपस में कार में बैठ कर सलाहमशविरा किया.

अपनी जान बचाने के लिए वे तीनों सब से पहले आलोक के चाचा रामनाथ के पास पहुंचे. वे 2 फैक्टरियों के मालिक थे और राजनीतिबाजों से उन की काफी जानपहचान थी.

रामनाथ ने अकेले में उन तीनों से पूरी घटना की जानकारी ली. आलोक को ही अधिकतर उन के सवालों के जवाब देने पड़े. शर्मिंदा तो वे तीनों ही नजर आ रहे थे, पर सब बताते हुए आलोक ने खुद को मारे शर्म और बेइज्जती के एहसास से जमीन में गड़ता हुआ महसूस किया.

‘‘अंकल, हम मानते हैं कि हम से गलती हुई है पर ऐसा गलत काम हम जिंदगी में फिर कभी नहीं करेंगे. बस, इस बार हमारी जान बचा लीजिए.’’

‘‘दिल तो ऐसा कर रहा है कि तुम सब को जूते मारते हुए मैं खुद पुलिस स्टेशन ले जाऊं, लेकिन मजबूर हूं. अपने बड़े भैया को मैं ने वचन दिया था कि उन के परिवार का पूरा खयाल रखूंगा. तुम तीनों के लिए किसी से कुछ सहायता मांगते हुए मुझे बहुत शर्म आएगी,’’ संजय को आग्नेय दृष्टि से घूरने के बाद रामनाथ ने मोबाइल पर अपने एक वकील दोस्त राकेश मिश्रा का नंबर मिलाया.

राकेश मिश्रा को बुखार ने जकड़ा हुआ था. सारी बात उन को संक्षेप में बता कर रामनाथ ने उन से अगले कदम के बारे में सलाह मांगी.

‘‘जिस इलाके से उस लड़की को तुम्हारे भतीजे और उस के दोनों दोस्तों ने उठाया था, वहां के एसएचओ से जानपहचान निकालनी होगी. रामनाथ, मैं तुम्हें 10-15 मिनट बाद फोन करता हूं,’’ बारबार खांसी होने के कारण वकील साहब को बोलने में कठिनाई हो रही थी.

‘‘इन तीनों को अब क्या करना चाहिए?’’

‘‘इन्हें घर मत भेजो. ये एक बार पुलिस के हाथ में आ गए तो मामला टेढ़ा हो जाएगा.’’

‘‘इन्हें मैं अपने फार्म हाउस में भेज देता हूं.’’

‘‘उस कार में इन्हें मत भेजना जिसे इन्होंने रेप के लिए इस्तेमाल किया था बल्कि कार को कहीं छिपा दो.’’

‘‘थैंक्यू, माई फैं्रड.’’

‘‘मुझे थैंक्यू मत बोलो, रामनाथ. उस थाना अध्यक्ष को अपने पक्ष में करना बहुत जरूरी है. तुम्हें रुपयों का इंतजाम रखना होगा.’’

‘‘कितने रुपयों का?’’

‘‘मामला लाखों में ही निबटेगा मेरे दोस्त.’’

‘‘जो जरूरी है वह खर्चा तो अब करेंगे ही. इन तीनों की जलील हरकत का दंड तो भुगतना ही पड़ेगा. तुम मुझे जल्दी से दोबारा फोन करो,’’ रामनाथ ने फोन काटा और परेशान अंदाज में अपनी कनपटियां मसलने लगे थे.

उन की खामोशी से इन तीनों की घबराहट व चिंता और भी ज्यादा बढ़ गई. संजय के पिता की माली हालत अच्छी नहीं थी. इसलिए रुपए खर्च करने की बात सुन कर उस के माथे पर पसीना झलक उठा था.

‘‘फोन कर के तुम दोनों अपनेअपने पिता को यहीं बुला लो. सब मिल कर ही अब इस मामले को निबटाने की कोशिश करेंगे,’’ रामनाथ की इस सलाह पर अमल करने में सब से ज्यादा परेशानी नरेश ने महसूस की थी.

नरेश का रिश्ता कुछ सप्ताह पहले ही तय हुआ था. अगले महीने उस की शादी होने की तारीख भी तय हो चुकी थी. वह रेप के मामले में फंस सकता है, यह जानकारी वह अपने मातापिता व छोटी बहन तक बिलकुल भी नहीं पहुंचने देना चाहता था. उन तीनों की नजरों में गिर कर उन की खुशियां नष्ट करने की कल्पना ही उस के मन को कंपा रही थी. मन के किसी कोने में रिश्ता टूट जाने का भय भी अपनी जड़ें जमाने लगा था.

नरेश अपने पिता को सूचित न करे, यह बात रामनाथ ने स्वीकार नहीं की. मजबूरन उसे अपने पिता को फौरन वहां पहुंचने के लिए फोन करना पड़ा. ऐसा करते हुए उसे संजय अपना सब से बड़ा दुश्मन प्रतीत हो रहा था.

करीब घंटे भर बाद वकील राकेश का फोन आया.

‘‘रामनाथ, उस इलाके के थानाप्रभारी का नाम सतीश है. मैं ने थानेदार को सब समझा दिया है. वह हमारी मदद करेगा पर इस काम के लिए 10 लाख मांग रहा है.’’

‘‘क्या उस लड़की ने रिपोर्ट लिखवा दी है?’’ रामनाथ ने चिंतित स्वर में सवाल पूछा.

‘‘अभी तो रिपोर्ट करने थाने में कोई नहीं आया है. वैसे भी रिपोर्ट लिखाने की नौबत न आए, इसी में हमारा फायदा है. थानेदार सतीश तुम से फोन पर बात करेगा. लड़की का मुंह फौरन रुपयों से बंद करना पड़ेगा. तुम 4-5 लाख कैश का इंतजाम तो तुरंत कर लो.’’

‘‘ठीक है. मैं रुपयों का इंतजाम कर के रखता हूं.’’

संजय के लिए 2 लाख की रकम जुटा पाना नामुमकिन सा ही था. उस के पिता साधारण सी नौकरी कर रहे थे. वह तो अपने दोस्तों की दौलत के बल पर ही ऐश करता आया था. जहां कभी मारपीट करने या किसी को डरानेधमकाने की नौबत आती, वह सब से आगे हो जाता. उस के इसी गुण के कारण उस की मित्रमंडली उसे अपने साथ रखती थी.

वह इस वक्त मामूली रकम भी नहीं जुटा पाएगा, इस सच ने आलोक, नरेश और रामनाथ से उसे बड़ी कड़वी बातें सुनवा दीं.

कुछ देर तो संजय उन की चुभने वाली बातें खामोशी से सुनता रहा, पर अचानक उस के सब्र का घड़ा फूटा और वह बुरी तरह से भड़क उठा था.

‘‘मेरे पीछे हाथ धो कर मत पड़ो तुम सब. जिंदगी में कभी न कभी मैं तुम लोगों को अपने हिस्से की रकम लौटा दूंगा. वैसे मुझे जेल जाने से डर नहीं लगता. हां, तुम दोनों अपने बारे में जरूर सोच लो कि जेल में सड़ना कैसा लगेगा?’’ यों गुस्सा दिखा कर संजय ने उन्हें अपने पीछे पड़ने से रोक दिया था.

थानेदार ने कुछ देर बाद रामनाथ से फोन पर बात की और पैसे के इंतजाम पर जोर डालते हुए कहा कि जरूरत पड़ी तो रात में आप को बुला लूंगा या सुबह मैं खुद ही आ जाऊंगा.

नरेश के पिता विजय कपूर ने जब रामनाथ की कोठी में कदम रखा तो उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

रामनाथ ने उन्हें जब उन तीनों की करतूत बताई तो उन की आंखों में आंसू भर आए थे.

अपने बेटे की तरफ देखे बिना विजय कपूर ने भरे गले से रामनाथ से प्रार्थना की, ‘‘सर, आप इस समस्या को सुलझवाइए, प्लीज. अगले महीने मेरे घर में शादी है. उस में कुछ व्यवधान पड़ा तो मेरी पत्नी जीतेजी मर जाएगी.’’

अपने पिता की आंखों में आंसू देख कर नरेश इतना शर्मिंदा हुआ कि वह उन के सामने से उठ कर बाहर बगीचे में निकल आया.

अब संजय व आलोेक के लिए भी उन दोनों के सामने बैठना असह्य हो गया तो वे भी वहां से उठे और बगीचे में नरेश के पास आ गए.

चिंता और घबराहट ने उन तीनों के मन को जकड़ रखा था. आपस में बातें करने का मन नहीं किया तो वे कुरसियों पर बैठ कर सोचविचार की दुनिया में खो गए.

उस अनजान लड़की के रेप करने से जुड़ी यादें उन के जेहन में रहरह कर उभर आतीं. कई तसवीरें उन के मन में उभरतीं और कई बातें ध्यान में आतीं.

इस वक्त तो बलात्कार से जुड़ी उन की हर याद उन्हें पुलिस के शिकंजे में फंस जाने की आशंका की याद दिला रही थी. जेल जाने के डर के साथसाथ अपने घर वालों और समाज की नजरों में सदा के लिए गिर जाने का भय उन तीनों के दिलों को डरा रहा था. डर और चिंता के ऐसे भावों के चलते वे तीनों ही अब अपने किए पर पछता रहे थे.

संजय का व्यक्तित्व इन दोनों से अलग था. इसलिए सब से पहले उस ने ही इस समस्या को अलग ढंग से देखना शुरू किया.

‘‘हो सकता है कि वह लड़की पुलिस के पास जाए ही नहीं,’’ संजय के मुंह से निकले इस वाक्य को सुन कर नरेश और आलोक चौंक कर सीधे बैठ गए.

‘‘वह रिपोर्ट जरूर करेगी…’’ नरेश ने परेशान लहजे में अपनी राय बताई.

‘‘तुम्हारी बात ठीक है, पर बलात्कार होने का ढिंढोरा पीट कर हमेशा के लिए लोगों की सहानुभूति दिखाने या मजाक उड़ाने वाली नजरों का सामना करना किसी भी लड़की के लिए आसान नहीं होगा,’’ आलोक ने अपने मन की बात कही.

‘‘वह रिपोर्ट करना भी चाहे तो भी उस के घर वाले उसे ऐसा करने से रोक सकते हैं. अगर रिपोर्ट लिखाने को तैयार होते तो अब तक उन्हें ऐसा कर देना चाहिए था,’’ संजय ने अपनी राय के पक्ष में एक और बात कही.

‘‘मुझे तो एक अजीब सा डर सता रहा है,’’ नरेश ने सहमी सी आवाज में वार्त्तालाप को नया मोड़ दिया.

‘‘कैसा डर?’’

‘‘अगर उस लड़की ने कहीं आत्महत्या कर ली तो हमें फांसी के फंदे से कोई नहीं बचा सकेगा.’’

‘‘उस लड़की का मर जाना उलटे हमारे हक में होगा. तब रेप हम ने किया है, इस का कोई गवाह नहीं रहेगा,’’ संजय ने क्रूर मुसकान होंठों पर ला कर उन दोनों का हौसला बढ़ाने की कोशिश की.

‘‘लड़की आत्महत्या कर के मर गई तो उस के पोस्टमार्टम की रिपोर्ट रेप दिखलाएगी. पुलिस की तहकीकात होगी और हम जरूर पकड़े जाएंगे. यह एसएचओ भी तब हमें नहीं बचा पाएगा. इसलिए उस लड़की के आत्महत्या करने की कामना मत करो बेवकूफो,’’ आलोक ने उन दोनों को डपट दिया.

‘‘मुझे लगता है एसएचओ को इतनी जल्दी बीच में ला कर हम ने भयंकर भूल की है, वह अब हमारा पिंड नहीं छोड़ेगा. लड़की ने रिपोर्ट न भी की तो भी वह रुपए जरूर खाएगा,’’ संजय ने अपनी खीज जाहिर की.

‘‘तू इस बात की फिक्र क्यों कर रहा है? रेप करने में सब से आगे था और अब रुपए निकालने में तू सब से पीछे है.’’

आलोक के इस कथन ने संजय के तनबदन में आग सी लगा दी. उस ने गुस्से में कहा, ‘‘अपना हिस्सा मैं दूंगा. मुझे चाहे लूटपाट करनी पड़े या चोरी, पर तुम लोगों को मेरा हिस्सा मिल जाएगा.’’

संजय ने उसी समय मन ही मन जल्द से जल्द अमीर बनने का निर्णय लिया. उस का एक चचेरा भाई लूटपाट और चोरी करने वाले गिरोह का सदस्य था. उस ने उस के गिरोह में शामिल होने का पक्का मन उसी पल बना लिया. उस ने अभावों व जिल्लत की जिंदगी और न जीने की सौगंध खा ली.

नरेश उस वक्त का सामना करने से डर रहा था जब वह अपनी मां व जवान बहन के सामने होगा. एक बलात्कारी होने का ठप्पा माथे पर लगा कर इन दोनों के सामने खड़े होने की कल्पना कर के ही उस की रूह कांप रही थी. जब आंतरिक तनाव बहुत ज्यादा बढ़ गया तो अचानक उस की रुलाई फूट पड़ी.

रामनाथ ने अब उन्हें अपने फार्महाउस में भेजने का विचार बदल दिया क्योंकि एसएचओ उन से सवाल करने का इच्छुक था. उन के सोने का इंतजाम उन्होंने मेहमानों के कमरे में किया.

विजय कपूर अपने बेटे नरेश का इंतजार करतेकरते सो गए, पर वह कमरे में नहीं आया. उस की अपने पिता के सवालों का सामना करने की हिम्मत ही नहीं हुई थी.

सारी रात उन तीनों की आंखों से नींद कोसों दूर रही. उस अनजान लड़की से बलात्कार करना ज्यादा मुश्किल साबित नहीं हुआ था, पर अब पकड़े जाने व परिवार व समाज की नजरों में अपमानित होने के डर ने उन तीनों की हालत खराब कर रखी थी.

सुबह 7 बजे के करीब थानेदार सतीश श्रीवास्तव रामनाथ की कोठी पर अपनी कार से अकेला मिलने आया.

उस का सामना इन तीनों ने डरते हुए किया. थाने में बलात्कार की रिपोर्ट लिखवाने वह अनजान लड़की रातभर नहीं आई थी, लेकिन थानेदार फिर भी 50 हजार रुपए रामनाथ से ले गया.

‘‘मैं अपनी वरदी को दांव पर लगा कर आप के भतीजे और उस के दोस्तों की सहायता को तैयार हुआ हूं,’’ थानेदार ने रामनाथ से कहा, ‘‘मेरे रजामंद होने की फीस है यह 50 हजार रुपए. वह लड़की थाने न आई तो इन तीनों की खुशकिस्मती, नहीं तो 10 लाख का इंतजाम रखिएगा,’’ इतना कह कर वह उन को घूरता हुआ बोला, ‘‘और तुम तीनों पर मैं भविष्य में नजर रखूंगा. अपनी जवानी को काबू में रखना सीखो, नहीं तो एक दिन बुरी तरह पछताओगे,’’ कठोर स्वर में ऐसी चेतावनी दे कर थानेदार चला गया था.

वे तीनों 9 बजे के आसपास रामनाथ की कोठी से अपनेअपने घरों को जाने के लिए बाहर आए. उस लड़की का रेप करने के बाद करीब 1 दिन गुजर गया था. उसे रेप करने का मजा उन्हें सोचने पर भी याद नहीं आ रहा था.

इस वक्त उन तीनों के दिमाग में कई तरह के भय घूम रहे थे. कटे बालों वाली लंबे कद की किसी भी लड़की पर नजर पड़ते ही पहचाने जाने का डर उन में उभर आता. खाकी वरदी वाले पर नजर पड़ते ही जेल जाने का भय सताता. अपने घर वालों का सामना करने से वे मन ही मन डर रहे थे. उस वक्त की कल्पना कर के उन की रूह कांप जाती जब समाज की नजरों में वे बलात्कारी बन कर सदा जिल्लत भरी जिंदगी जीने को मजबूर होंगे.

अगर तीनों का बस चलता तो वे वक्त को उलटा घुमा कर उस लड़की को रेप करने की घटना घटने से जरूर रोक देते. सिर्फ 12 घंटे में उन की हालत भय, चिंता, तनाव और समाज में बेइज्जती होने के एहसास से खस्ता हो गई थी. इस तरह की मानसिक यंत्रणा उन्हें जिंदगी भर भोगनी पड़ सकती है, इस एहसास के चलते वे तीनों अपनेआप और एकदूसरे को बारबार कोस रहे थे.

Holi Special: जरूरी सबक- हवस में अंधे हो कर जब लांघी रिश्तों की मर्यादा

हा को अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. दरवाजे की झिर्री से आंख सटा कर उस ने ध्यान से देखा तो जेठजी को अपनी ओर देखते उस के होश फाख्ता हो गए. अगले ही पल उस ने थोड़ी सी ओट ले कर दरवाजे को झटके से बंद किया, मगर थोड़ी देर बाद ही चर्ररर…की आवाज के साथ चरमराते दरवाजे की झिर्री फिर जस की तस हो गई. तनिक ओट में जल्दी से कपड़े पहन नेहा बाथरूम से बाहर निकली. सामने वाले कमरे में जेठजी जा चुके थे. नेहा का पूरा शरीर थर्रा रहा था. क्या उस ने जो देखा वह सच है. क्या जेठजी इतने निर्लज्ज भी हो सकते हैं. अपने छोटे भाई की पत्नी को नहाते हुए देखना, छि, उन्होंने तो मर्यादा की सभी सीमाएं लांघ लीं…नेहा सोचती जा रही थी.

कितनी बार उस ने मयंक से इस दरवाजे को ठीक करवाने के लिए कहा था, लेकिन हर बार बात आई गई हो गई थी. एक तो पुराना दरवाजा, उस पर टूटी हुई कुंडी, बारबार कस कर लगाने के बाद भी अपनेआप खुल जाया करती थी. उस ने कभी सोचा भी नहीं था कि उस झिर्री से उसे कोई इस तरह देखने का यत्न कर सकता है. पहले भी जेठजी की कुछ हरकतें उसे नागवार लगती थीं, जैसे पैर छूने पर आशीर्वाद देने के बहाने अजीब तरह से उस की पीठ पर हाथ फिराना, बेशर्मों की तरह कई बार उस के सामने पैंट पहनते हुए उस की जिप लगाना, डेढ़ साल के नन्हें भतीजे को उस की गोद से लेते समय उस के हाथों को जबरन छूना और उसे अजीब सी निगाहों से देखना आदि.

नईनई शादी की सकुचाइट में वह मयंक को भी कुछ नहीं बता पाती. कई बार उसे खुद पर संशय होता कि क्या उस का शक सही है या फिर यह सब सिर्फ वहम है. जल्दबाजी में कोई निर्णय कर वह किसी गलत नतीजे पर नहीं पहुंचना चाहती थी, क्योंकि यह एक बहुत ही करीबी रिश्ते पर प्रश्नचिह्न खड़ा करने जैसा था. लेकिन आज की घटना ने उसे फिर से सोचने पर विवश कर दिया.

घर के आंगन से सटा एक कोने में बना यह कमरा यों तो अनाज की कोठी, भारी संदूक व पुराने कूलर आदि रखने के काम आता था, परंतु रेलवे में पदस्थ सरकारी कर्मचारी उस के जेठ अपनी नाइट ड्यूटी के बाद शांति से सोने के लिए अकसर उक्त कमरे का इस्तेमाल किया करते थे. हालांकि घर में 4-5 कमरे और थे, लेकिन जेठजी इसी कमरे में पड़े एक पुराने दीवान पर बिस्तर लगा कर जबतब सो जाया करते थे. इस कमरे से आंगन में बने बाथरूम का दरवाजा स्पष्ट दिखाई देता था. आज सुबह भी ड्यूटी से आए जेठजी इसी कमरे में सो गए थे. उन की बदनीयती से अनभिज्ञ नेहा सुबह के सभी कामों को निबटा कर बाथरूम में नहाने चली आई थी. नेहा के मन में भारी उथलपुथल मची थी, क्या इस बात की जानकारी उसे मयंक को देना चाहिए या अपनी जेठानी माला से इस बाबत चर्चा कर देखना चाहिए. लेकिन अगर किसी ने उस की बात पर विश्वास नहीं किया तो…मयंक तो अपने बड़े भाई को आदर्श मानता है और भाभी…वे कितनी भली महिला हैं. अगर उन्होंने उस की बात पर विश्वास कर भी लिया तो बेचारी यह जान कर कितनी दुखी हो जाएंगी. दोनों बच्चे तो अभी कितने छोटे हैं. नहींनहीं, यह बात वह घर में किसी को नहीं बता सकती. अच्छाभला घर का माहौल खराब हो जाएगा. वैसे भी, सालछह महीने में मयंक की नौकरी पक्की होते ही वह यहां से दिल्ली उस के पास चली जाएगी. हां, इस बीच अगर जेठजी ने दोबारा कोई ऐसी हरकत दोहराई तो वह उन्हें मुंहतोड़ जवाब देगी, यह सोचते हुए नेहा अपने काम पर लग गई.

उत्तर प्रदेश के कानपुर में 2 वर्षों पहले ब्याह कर आई एमए पास नेहा बहुत समझदार व परिपक्व विचारों की लड़की थी. उस के पति मयंक दिल्ली में एक कंपनी में बतौर अकाउंट्स ट्रेनी काम करते थे. अभी फिलहाल कम सैलरी व नौकरी पक्की न होने के कारण नेहा ससुराल में ही रह रही थी. कुछ पुराना पर खुलाखुला बड़ा सा घर, किसी पुरानी हवेली की याद दिलाता सा लगता था. उस में जेठजेठानी और उन के 2 छोटे बच्चे, यही नेहा की ससुराल थी.

यहां उसे वैसे कोई तकलीफ नहीं थी. बस, अपने जेठ का दोगलापन नेहा को जरा खलता था. सब के सामने प्यार से बेटाबेटा कहने वाले जेठजी जरा सी ओट मिलते ही उस के सामने कुछ अधिक ही खुलने का प्रयास करने लगते, जिस से वह बड़ी ही असहज महसूस करती. स्त्रीसुलभ गुण होने के नाते अपनी देह पर पड़ती जेठजी की नजरों में छिपी कामुकता को उस की अंतर्दृष्टि जल्द ही भांप गई थी. एहतियातन जेठजी से सदा ही वह एक आवश्यक दूरी बनाए रखती थी.

होली आने को थी. माला और बच्चों के साथ मस्ती और खुशियां बिखेरती नेहा जेठजी के सामने आते ही एकदम सावधान हो जाती. उसे होली पर मयंक के घर आने का बेसब्री से इंतजार था. पिछले साल होली के वक्त वह भोपाल अपने मायके में थी. सो, मयंक के साथ उस की यह पहली होली थी. होली के 2 दिनों पहले मयंक के आ जाने से नेहा की खुशी दोगुनी हो गई. पति को रंगने के लिए उस ने बच्चों के साथ मिल कर बड़े जतन से एक योजना बनाई, जिस की भनक भी मयंक को नहीं पड़ने पाई.

होली वाले दिन महल्ले में सुबह से ही बच्चों की धमाचौकड़ी शुरू हो गई थी. नेहा भी सुबह जल्दी उठ कर भाभी के साथ घर के कामों में हाथ बंटाने लगी. ‘‘जल्दीजल्दी हाथ चला नेहा, 10-11 बजे से महल्ले की औरतें धावा बोल देंगी. कम से कम खाना बन जाएगा तो खानेपीने की चिंता नहीं रहेगी,’’ जेठानी की बात सुन नेहा दोगुनी फुरती से काम में लग गई. थोड़ी ही देर में पूड़ी, कचौड़ी, दही वाले आलू, मीठी सेवइयां और अरवी की सूखी सब्जी बना कर दोनों देवरानीजेठानी फारिग हो गईं. ‘‘भाभी, मैं जरा इन को देख कर आती हूं, उठे या नहीं.’’

‘‘हां, जा, पर जरा जल्दी करना,’’ माला मुसकराते हुए बोली. कमरे में घुस कर नेहा ने सो रहे मयंक के चेहरे की खूब गत बनाई और मजे से चौके में आ कर अपना बचा हुआ काम निबटाने लगी.

इधर, मयंक की नींद खुलने पर सभी उस का चेहरा देख कर हंसतेहंसते लोटपोट हो गए. हैरान मयंक ने बरामदे में लगे कांच में अपनी लिपीपुती शक्ल देखी तो नेहा की शरारत समझ गया. ‘‘भाभी, नेहा कहां है?’’ ‘‘भई, तुम्हारी बीवी है, तुम जानो. मुझे तो सुबह से नजर नहीं आई,’’ भाभी ने हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘बताता हूं उसे, जरा मिलने दो. अभी तो मुझे अंदर जाना है.’’ हाथ से फ्रैश होने का इशारा करते हुए वह टौयलेट में जा घुसा. इधर, नेहा भाभी के कमरे में जा छिपी थी.

फ्रैश हो कर मयंक ने ब्रश किया और होली खेलने के लिए बढि़या सफेद कुरतापजामा पहना. ‘‘भाभी, नाश्ते में क्या बनाया है, बहुत जोरों की भूख लगी है. फिर दोस्तों के यहां होली खेलने भी निकलना है,’’ मयंक ने भाभी से कहा, इस बीच उस की निगाहें नेहा को लगातार ढूंढ़ रही थीं. मयंक ने नाश्ता खत्म ही किया था कि भतीजी खुशी ने उस के कान में कुछ फुसफुसाया. ‘‘अच्छा…’’ मयंक उस की उंगली थामे उस की बताई जगह पर आंगन में आ खड़ा हुआ. ‘‘बताओ, कहां है चाची?’’ पूछने पर ‘‘एक मिनट चाचा,’’ कहती हुई खुशी उस का हाथ छोड़ कर फुरती से दूर भाग गई. इतने में पहले से ही छत पर खड़ी नेहा ने रंग से भरी पूरी की पूरी बालटी मयंक पर उड़ेल दी. ऊपर से अचानक होती रंगों की बरसात में बेचारा मयंक पूरी तरह नहा गया. उस की हालत देख कर एक बार फिर पूरा घर ठहाकों से गूंज उठा. थोड़ी ही देर पहले पहना गया सफेद कुरतापजामा अब गाढ़े गुलाबी रंग में तबदील हो चुका था.

‘‘ठहरो, अभी बताता हूं तुम्हें,’’ कहते हुए मयंक जब तक छत पर पहुंचा, नेहा गायब हो चुकी थी. इतने में बाहर से मयंक के दोस्तों का बुलावा आ गया. ‘‘ठीक है, मैं आ कर तुम्हें देखता हूं,’’ भनभनाता हुआ मयंक बाहर निकल गया. उधर, भाभी के कमरे में अलमारी के एक साइड में छिपी नेहा जैसे ही पलटने को हुई, किसी की बांहों ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया. उस ने तुरंत ही अपने को उन बांहों से मुक्त करते हुए जेठजी पर तीखी निगाह डाली.

‘‘आप,’’ उस के चहेरे पर आश्चर्य और घृणा के मिलेजुले भाव थे. ‘‘अरे तुम, मैं समझा माला है,’’ जेठजी ने चौंकने का अभिनय करते हुए कहा. बस, अब और नहीं, मन में यह विचार आते ही नेहा ने भरपूर ताकत से जेठजी के गाल पर तड़ाक से एक तमाचा जड़ दिया.

‘‘अरे, पागल हुई है क्या, मुझ पर हाथ उठाती है?’’ जेठजी का गुस्सा सातवें आसमान पर था. ‘‘पागल नहीं हूं, बल्कि आप के पागलपन का इलाज कर रही हूं, क्योंकि सम्मान की भाषा आप को समझ नहीं आ रही. गलत थी मैं जो सोचती थी कि मेरे बदले हुए व्यवहार से आप को अपनी भूल का एहसास हो जाएगा. पर आप तो निर्लज्जता की सभी सीमाएं लांघ बैठे. अपने छोटे भाई की पत्नी पर बुरी नजर डालते हुए आप को शर्म नहीं आई, कैसे इंसान हैं आप? इस बार आप को इतने में ही छोड़ रही हूं. लेकिन आइंदा से अगर मुझ से जरा सी भी छेड़खानी करने की कोशिश की तो मैं आप का वह हाल करूंगी कि किसी को मुंह दिखाने लायक न रहेंगे. आज आप अपने छोटे भाई, पत्नी और बच्चों की वजह से बचे हो. मेरी नजरों में तो गिर ही चुके हो. आशा करती हूं सब की नजरों में गिरने से पहले संभल जाओगे,’’ कह कर तमतमाती हुई नेहा कमरे के बाहर चली गई.

कमरे के बाहर चुपचाप खड़ी माला नेहा को आते देख तुरंत दरवाजे की ओट में हो गई. वह अपने पति की दिलफेंक आदत और रंगीन तबीयत से अच्छी तरह वाकिफ थी. पर रूढि़वादी बेडि़यों में जकड़ी माला ने हमेशा ही पतिपरमेश्वर वाली परंपरा को शिरोधार्य किया था. वह कभीकभी अपने पति की गलत आदतों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत न कर पाई थी. लेकिन आज नेहा ने जो बहादुरी और हिम्मत दिखाई, उस के लिए माला ने मन ही मन उस की बहुत सराहना की. नेहा ने उस के पति को जरूरी सबक सिखाने के साथसाथ उस घर की इज्जत पर भी आंच न आने दी. माला नेहा की शुक्रगुजार थी.

उधर, कुछ देर बाद नहा कर निकली नेहा अपने गीले बालों को आंगन में सुखा रही थी. तभी पीछे से मयंक ने उसे अपने बाजुओं में भर कर दोनों मुट्ठियों में भरा रंग उस के गालों पर मल दिया. पति के हाथों प्रेम का रंग चढ़ते ही नेहा के गुलाबी गालों की रंगत और सुर्ख हो चली और वह शरमा कर अपने प्रियतम के गले लग गई. यह देख कर सामने से आ रही माला ने मुसकराते हुए अपनी निगाहें फेर लीं.

हमें तुम से प्यार कितना

मधु के मातापिता उस के लिए काबिल वर की तलाश कर रहे थे. मधु ने फैसला किया कि यह ठीक समय है जब उसे आलोक और अंशू के बारे में उन्हें बता देना चाहिए.

‘‘पापा, मैं आप को आलोक के बारे में बताना चाहती हूं. पिछले कुछ दिनों से मैं उस के घर जाती रही हूं. वह शादीशुदा था. उस की पत्नी सुहानी की मृत्यु कुछ वर्षों पहले हो चुकी है. उस का एक लड़का अंशू है जिसे वह बड़े प्यार से पाल रहा है. मैं आलोक को बहुत चाहती हूं.’’

मधु के कहने पर उस के पापा ने पूछा, ‘‘तुम्हें उस के शादीशुदा होने पर कोई आपत्ति नहीं है. बेशक, उस की पत्नी अब इस दुनिया में नहीं है. अच्छी तरह सोच कर फैसला करना. यह सारी जिंदगी का सवाल है. कहीं ऐसा तो नहीं है तुम आलोक और अंशू पर तरस खा कर यह शादी करना चाहती हो?’’

‘‘पापा, मैं जानती हूं यह सब इतना आसान नहीं है, लेकिन सच्चे दिल से जब हम कोशिश करते हैं तो सबकुछ संभव हो जाता है. अंशु मुझे बहुत प्यार करता है. उसे मां की सख्त जरूरत है. जब तक वह मुझे मां के रूप में अपना नहीं लेता है, मैं इंतजार करूंगी. बचपन से आप ने मुझे हर चुनौती से जूझने की शिक्षा और आजादी दी है. मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ यह फैसला कर रही हूं.’’

मधु के यकीन दिलाने पर उस की मां ने कहा, ‘‘मैं समझ सकती हूं, अगर अंशू के लालनपालन में तुम आलोक की मदद करोगी तो उस घर में तुम्हें इज्जत और भरपूर प्यार मिलेगा. सासससुर भी तुम्हें बहुत प्यार देंगे. मैं बहुत खुश हूं तुम आलोक की पत्नी खोने का दर्द महसूस कर रही हो और अंशू को मां मिल जाएगी. ऐसे अच्छे परिवार में तुम्हारा स्वागत होगा, मुझे लगता है हमारी परवरिश रंग लाई है.’’

मां ने मधु को गले लगा लिया. मधु की खुशी की कोई सीमा नहीं थी. उस ने कहा, ‘‘अब आप दोनों इस रिश्ते के लिए राजी हैं तो मैं आलोक को मोबाइल पर यह खबर दे ही देती हूं खुशी की.’’

मधु आलोक के दिल्ली के रोहिणी इलाके के शेयर मार्केटिंग औफिस में उस से मिलने जाया करती थी. इस का उस से पहला परिचय तब हुआ था जब उस ने कनाट प्लेस से पश्चिम विहार के लिए लिफ्ट मांगी थी. उस ने आलोक को बताया था वह एक पब्लिशिंग हाउस में एडिटर के पद पर कार्यरत थी. लिफ्ट के समय कार में ही दोनों ने एकदूसरे को अपने विजिटिंग कार्ड दे दिए थे. मधु की खूबसूरत छवि आलोक के दिमाग पर अंकित हो गई.

जब आलोक ने अपने बारे में पूरी तरह से बताया तो उस की बातचीत में उस के शादीशुदा और पत्नी सुहानी के निधन की बात शामिल थी.

बड़े ही अच्छे लहजे में मधु ने कहा था ‘मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम शादीशुदा हो. मेरे मातापिता मेरे लिए वर की तलाश कर रहे हैं. मैं ने तुम्हें अपने वर के रूप में पसंद कर लिया है जो भी थोड़ीबहुत मुलाकातें हुई हैं, उन में मैं जीवन के प्रति तुम्हारी सोच से प्रभावित हूं. तुम ने मुझे यह बताया है कि तुम्हारा एकमात्र मिशन है अपने लड़के अंशू को अच्छी परवरिश देना. दादादादी द्वारा उस का लालनपालन अपनेआप में काफी नहीं जान पड़ता है. यदि हमारा विवाह हो जाता है तो यह मेरे लिए बड़ी चुनौती का काम होगा कि मैं तुम्हारी मदद उस की परवरिश में करूं. मुझे काम करने का शौक है, मैं चाहूंगी कि अपना पब्लिशिंग हाउस का काम जारी रखते हुए घर के कामकाज को सुचारु रूप से चलाऊं.

आलोक ये सब बातें ध्यान से सुन रहा था, बोला, ‘सुहानी की मृत्यु के बाद मुझे ऐसा लगा कि मेरी दुनिया अंशू के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई है. मेरा पूरा ध्यान अंशू को पालने में केंद्रित हो गया. जिंदगी के इस पड़ाव पर जब मेरी तुम से मुलाकात हुई तो मुझे एक उम्मीद दिखी कि चाहे तुम्हारा साथ विवाह के बाद एक मित्र की तरह हो या पत्नी की हैसियत से, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. अगर तुम्हारे जैसी खूबसूरत और समझदार लड़की सारे पहलुओं का जायजा ले कर मेरे घर आती है तो अंशू को मां और परिवार को एक अच्छी बहू मिल जाएगी.’

मधु ने आलोक को यकीन दिलाते हुए कहा था, ‘इस में कोई शक नहीं है कि मुझे कुंआरे लड़के भी विवाह के लिए मिल सकते हैं, लेकिन मुझे विवाह के बाद की समस्याओं से डर लगता है. इसी समाज में लड़कियां शादी के बाद जला दी जाती हैं, दहेज की बलि चढ़ा कर उन्हें तलाक दे दिया जाता है या ससुराल पसंद न आने पर लड़कियों को वापस मायके आ कर रहना पड़ जाता है. तुम से मुलाकात के बाद मुझे लगता है ऐसा कुछ मेरे साथ नहीं होने वाला. तुम्हारी तरह अंशू को पालने का चैलेंज मैं स्वीकार करती हूं. तुम्हारे घर आ कर अंशू से मेलजोल बढ़ाने का काम मैं बहुत जल्द शुरू करूंगी. अपनी मम्मी को यकीन में ले कर मेरे बारे में बात कर लो. एक बात और मैं बताना चाहूंगी, मैं ने एमए साइकोलौजी से कर रखा है. उस में चाइल्ड साइकोलौजी का विषय भी था.’

दूसरे दिन शाम को मधु आलोक के घर पहुंची. आलोक की मां ने उस का स्वागत मुसकराते हुए किया और कहा, ‘आओ मधु, तुम्हारे बारे में मुझे आलोक बता चुका है.’ मधु ड्राइंगरूम में सोफे पर आलोक की मां के साथ बैठ गई.

अंशु भी आवाज सुन कर वहां आ गया.

‘आंटी को पहली बार देखा है. कौन हैं, क्या आप दिल्ली में ही रहती हैं?’ अंशू ने पूछा.

‘हां, मैं दिल्ली में ही रहती हूं, मेरा नाम मधु है. अगर तुम्हें अच्छा लगेगा तो मैं तुम से मिलने आया करूंगी,’ अंशू की ओर निहारते हुए बड़े प्यार से मधु ने उस से कहा, ‘तुम अपने बारे में बताओ, कौन से गेम खेलते हो, किस क्लास में पढ़ते हो?’

शरमाते हुए अंशू ने कहा, ‘मैं क्लास थर्ड में पढ़ता हूं. नाम तो आप जानते ही हो. घर में दादादादी हैं, पापा हैं.’ उस की आंखें आंसुओं से भर आई थीं. उस ने आगे कहा, ‘आंटी, मैं मम्मी की फोटो आप को दिखाऊंगा. मेरी मां का नाम सुहानी था जो….’ आगे वह नहीं बोल पाया.

अंशू को मधु ने गले लगा लिया, ‘बेटा, ऐसा मत कहो, मां जहां भी हैं वे तुम्हारे हर काम को ऊपर से देखती हैं. वे हमेशा तुम्हारे आसपास ही कहीं होती हैं. मैं तुम्हें बहुत प्यार करूंगी. तुम्हारी अच्छी दोस्त बन कर रोज तुम्हारे पास आया करूंगी, ढेर सारी चौकलेट, गिफ्ट और गेम्स ला कर तुम्हें दूंगी. बस, तुम रोना नहीं. मुझे तुम्हारी स्वीट स्माइल चाहिए. बोलो, दोगे न?’ एक बार फिर मधु ने अंशू को गले से लगा लिया. आलोक की मम्मी ने चाय बना ली थी. चाय पीने के बाद मधु वापस अपने घर चली गई.

आलोक की मां ने उसे मधु के बारे में बताते हुए कहा, ‘मुझे मधु बहुत अच्छी लगी. अंशू से बातचीत करते समय मुझे उस की आंखों में मां की ममता साफ दिखाई दी.’ इस के जवाब में आलोक ने मां को सुझाव दिया, ‘अभी कुछ दिन हमें इंतजार करना चाहिए. मधु को अंशू से मेलजोल बढ़ाने का मौका देना चाहिए ताकि यह पता चले कि वह मधु को स्वीकार कर लेगा.’

इस के बाद मधु ने स्कूटी पर अंशू के पास जानाआना शुरू कर दिया. वह अच्छाखासा समय उस के साथ बिताती थी. कभी कैरम खेलती थी तो कभी उस के साथ अंत्याक्षरी खेलती थी. उस की पसंद की खाने की चीजें पैक करवा कर उस के लिए ले जाती तो कभी उसे मूवी दिखाने ले जाती थी. एक महीने में अंशू मधु के साथ इतना घुलमिल गया कि उस ने आलोक से कहा, ‘पापा, आप आंटी को घर ले आओ, वे हमारे घर में रहेंगी, तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा.’

मधु और आलोक का विवाह हो गया. विवाह की धूमधाम में अंशू ने हर लमहे को एंजौय किया, जो निराशा और मायूसी पहले उस के चेहरे पर दिखती थी, वह अब मधुर मुसकान में बदल गई थी. वह इतना खुश था कि उस ने सुहानी की तुलना मधु से करनी बंद कर दी. सुहानी की फोटो भी शैल्फ से हटा कर अपनी किताबों वाली अलमारी में कहीं छिपा कर रख दी. आलोक ने महसूस किया जिद्दी अंशू अब खुद को नए माहौल में ढाल रहा था.

मधु ने आलोक का संबोधन तुम से आप में बदल दिया. उस ने आलोक से कहा, ‘‘तुम्हें अंशू के सामने तुम कह कर बुलाना ठीक नहीं लगेगा, इसलिए मैं आज से तुम्हें आप के संबोधन से बुलाऊंगी.’’ अपनी बात जारी रखते हुए उस ने आगे कहा, ‘‘हम अपने प्यार और रोमांस की बातें फिलहाल भविष्य के लिए टाल देंगे. पहले अंशू के बचपन को संवारने में जीजान से लग जाएंगे. वह अपनी क्लास में फर्स्ट पोजिशन में आता है, इंटैलीजैंट है. जब यह सुनिश्चित हो जाएगा कि अब वह मानसिक तौर पर मुझे मां के रूप में पूरी तरह स्वीकार कर चुका है, तब हम हनीमून के लिए किसी अच्छे स्थान पर जाएंगे.’’

यह सुन कर आलोक को अपनी हमसफर मधु पर गर्व महसूस हो रहा था. खुश हो कर उस ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर चूम लिया. वे दोनों शादी के बाद दिल्ली के एक रैस्तरां में कैंडिललाइट में डिनर ले रहे थे. घर लौटते समय उन्होंने कनाट प्लेस से अंशू की पसंद की पेस्ट्री पैक करवा ली थी.

वे दोनों आश्चर्यचकित थे जब वापसी पर अंशू ने मधु से कहा, ‘‘मम्मा, आप ने देर कर दी, मैं कब से आप का इंतजार कर रहा था.’’

मधु ने पेस्ट्री का पैकेट उसे पकड़ाते हुए कहा, ‘‘अंशु, यह लो तुम्हारी पसंद की पेस्ट्री. तुम्हें यह बहुत अच्छी लगेगी.’’ अंशू की खुशी उस के चेहरे पर फैल गई.

अंशू चौथी कक्षा बहुत अच्छे अंकों के साथ पास कर चुका था. मधु की मां की ममता अपने शिखर पर थी. उस ने अपने बगीचे में अंशू की पसंद के फूलों के पौधे माली से कह कर लगवा दिए थे. जैसेजैसे ये पौधे फलफूल रहे थे, मधु को लगता था वह भी माली की तरह अपने क्यूट से बेटे की देखरेख कर रही है. आत्मसंतुष्टि क्या होती है, उस ने पहली बार महसूस किया.

शाम के समय जब आलोक घर आता था तो अंशू उस का फूलों के गुलदस्ते से स्वागत करता था. मधु का ध्यान अंशू की पढ़ाई के साथ उस की हर गतिविधि पर था. उस ने उसे तैयार किया कि वह स्कूल में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले. अंशू के स्टडीरूम में शैल्फ पर कई ट्रौफियां उस ने सजा कर रख ली थीं. सब खुशियों के होते हुए पिछले 2-3 साल अंशू ने अपना बर्थडे यह कह कर मनाने नहीं दिया कि ऐसे मौके पर उसे सुहानी मां की याद आ जाती है.

दूसरे के बच्चे को पालना कितना मुश्किल होता है, यह महसूस करते हुए उस ने तय किया कि कभी वह अंशू को सुहानी मां के साथ बिताए लमहों के बारे में हतोत्साहित नहीं करेगी. अंशू का विकास वह सामान्य परिस्थिति में करना चाहती थी. जैसेजैसे उस का शोध कार्य प्रगति पर था उसे अभिप्रेरणा मिलती रही कि सब्र के साथ हर बाधा को पार कर वह अंशू के समुचित विकास के काम में विजेता के रूप में उभरे. उसे उम्मीद थी कि जितना वह इस मिशन में कामयाब होगी, उतना ही उसे आलोक और सासससुर का प्यार मिलेगा. दोनों के रिश्ते की बुनियाद दोस्ती थी. प्यार और रोमांस के लिए भविष्य में समय उपलब्ध था.

आलोक मधु की अब तक भूमिका से इतना खुश था कि उस की इच्छा हुई किसी रैस्तरां में शाम को कुछ समय उस के साथ बिताए. कनाट प्लेस की एक ज्वैलरी शौप से उस की पसंद के कुछ जेवर खरीद कर उसे गिफ्ट करते हुए उस ने कहा, ‘‘मधु, वैसे तो तुम्हारे पास काफी गहने हैं लेकिन मैरिज एनिवर्सरी न मना पाने के कारण हम कोई खास खुशी तो मना नहीं पाते हैं, यह गिफ्ट तुम यही समझ कर रख लो कि आज हम ने अपने विवाह की वर्षगांठ मना ली है. मम्मीपापा को इस के विषय में बता सकती हो. हम धूमधाम से तभी एनिवर्सरी मनाएंगे जब अंशू अपना जन्मदिन खुशी के साथ दोस्तों को बुला कर मनाना शुरू कर देगा.’’

रैस्तरां में उन दोनों की बातचीत बड़ी प्यारभरी हुई. डिनर के बाद जब वे रैस्तरां से बाहर निकले तो आलोक ने मधु का हाथ अपने हाथ में ले कर उस का स्पर्श महसूस करते हुए कहा, ‘‘मधु, मैं इंतजार में हूं कि कब हम लोग हनीमून के लिए किसी हिलस्टेशन पर जाएंगे. जब ऐसा तुम भी महसूस करो, मुझे बता देना. हम लोग इसी बहाने अंशू को भी साथ ले चल कर घुमा लाएंगे.’’

मधु को यह बात कभीकभी परेशान करती थी कि अंशू कभी नहीं चाहेगा कि वह एक बच्चे को जन्म दे और वह बच्चा अंशू की ईर्ष्या का पात्र बन जाए. उस ने सोच रखा था कि वह उचित समय पर आलोक से इस विषय पर बात करेगी. वैसे, अंशू ने उसे इतना आदर और प्यार दिया जिस ने उसे भरपूर मां की ममता और सुख का एहसास करा दिया.

दोनों के बीच जो स्नेह और ममता का रिश्ता बन गया था वह बहुत मजबूत था. मधु को लगा, अंशू उसे पूरी तरह मां के रूप में मान चुका है और अगले वर्ष अपना बर्थडे बहुत धूमधाम से मनाना चाहेगा. वह बहुत खुश हुई जब अंशू ने उस से कहा, ‘‘मम्मा, सब बच्चे अपना बर्थडे दोस्तों के साथ हर साल मनाते हैं. मैं भी अपने क्लासमेट के साथ इस साल बर्थडे मनाना चाहता हूं.’’

फिर क्या था, आलोक और मधु ने घर पर ही उस का बर्थडे मनाने का इंतजाम कर दिया. ढेर सारे व्यंजन, डांस के फोटोशूट और केक के साथ बड़ी धूमधाम से उस का बर्थडे मनाया गया.

अंशू का लालनपालन मधु ने उस की हर भावना के क्षणों में अपने को मनोचिकित्सक मान कर किया जिस के सकारात्मक परिणाम ने हमेशा उसे हौसला दिया.

शादी के 6-7 साल पलक झपकते ही मधु के अंशू के साथ इस तरह गुजरे कि वह वैवाहिक जीवन के हर सुख की हकदार बन गई. मां बनने का हर सुख उसे महसूस हो चुका था.  अंशू के नैराश्य और मां की कमी की स्थिति से बाहर आने का श्रेय घर के हर सदस्य को था.

मधु ने आलोक को पति के रूप में स्वीकार करते समय यह सोचा था, आलोक अपनी पत्नी सुहानी को खोने के बाद उसे अपने घर में सम्मान और प्यारभरी जिंदगी जरूर दे सकेगा. उसे अंशू की मां के रूप में उस की सख्त जरूरत है. पहली नजर में, उस से मिलने पर उसे अपने सारे सपने साकार होते हुए जान पड़े. तभी तो उस ने ‘आई लव यू’ कहने के स्थान पर खुश हो कर उस से कहा था, ‘आलोक, तुम हर तरह से मेरे जीवनसाथी बनने के काबिल हो.’ तब वह उस के शादीशुदा होने के बैकग्राउंड से बिलकुल अनभिज्ञ थी.

7 वर्षों बाद, एक दिन जब अंशू स्कूल से घर लौटा तो उस के हाथ में एक बैग था. वह बहुत खुश दिखाई दे रहा था. मधु मां को उस ने गले लगा लिया और बताया, ‘‘मम्मा, मैं क्लास में फर्स्ट आया हूं. कई ऐक्टिविटीज में मुझे ट्रौफियां मिली हैं. पिं्रसिपल सर कह रहे थे यह सब मुझे अच्छी मां के कारण ही मिला है.’’ थोड़ी देर चुप रहने के पश्चात वह भावुक हो गया, बोला, ‘‘मम्मा, मैं एक बार सुहानी मां की फोटो, जो मैं ने छिपा कर रख ली थी, उसे देख लूं.’’

मधु ने कहा, ‘‘हां, क्यों नहीं, ले आओ. हम सब उस फोटो को देखेंगे.’’ मधु की आंखों से आंसू छलक पड़े थे. भावुक हो कर उस ने कहा, ‘‘अंशू, मैं ने कहा था न, तुम्हारी मां सुहानी हर समय तुम्हारे आसपास होती हैं.  अब तुम कभी उदास मत होना. सुहानी मां भी यही चाहती हैं तुम हमेशा खुश रहो.’’

उस रात आलोक ने मधु को अपनी बांहों में ले कर जीभर प्यार किया. इन भावुकताभरे लमहों में मधु ने आलोक को अपना फैसला सुनाते हुए अपील की, ‘‘आलोक, इतना आसान नहीं था मेरे लिए अब तक का सफर तय करना. तुम्हारा साथ मिला तो यह सफर आसान हो गया. मुझ से वादा करोगे कि कमजोर से कमजोर क्षणों में तुम मुझे मां बनाने की कोशिश नहीं करोगे. अंशू से मुझे पूरा मातृत्व सुख हासिल हो चुका है. मैं उस के प्रतिद्वंद्वी के रूप में कोई और संतान पैदा नहीं करना चाहती.’’

चाहत: क्या शोभा अपना सपना पूरा कर पाई?

लेखक- एकता एस दुबे

“थक गई हूं मैं घर के काम से, बस वही एकजैसी दिनचर्या, सुबह से शाम और फिर शाम से सुबह. घर का सारा टैंशन लेतेलेते मैं परेशान हो चुकी हूं, अब मुझे भी चेंज चाहिए कुछ,”शोभा अकसर ही यह सब किसी न किसी से कहती रहतीं.

एक बार अपनी बोरियत भरी दिनचर्या से अलग, शोभा ने अपनी दोनों बेटियों के साथ रविवार को फिल्म देखने और घूमने का प्लान किया. शोभा ने तय किया इस आउटिंग में वे बिना कोई चिंता किए सिर्फ और सिर्फ आनंद उठाएंगी.

मध्यवर्गीय गृहिणियों को ऐसे रविवार कम ही मिलते हैं, जिस में वे घर वालों पर नहीं बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों खर्च करें, इसलिए इस रविवार को ले कर शोभा का उत्साहित होना लाजिमी था.

यह उत्साह का ही कमाल था कि इस रविवार की सुबह, हर रविवार की तुलना में ज्यादा जल्दी हो गई थी.

उन को जल्दी करतेकरते भी सिर्फ नाश्ता कर के तैयार होने में ही 12 बज गए. शो 1 बजे का था, वहां पहुंचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय वहां पहुंचने के लिए बस की जगह औटो ही एक विकल्प दिख रहा था और यहीं से शोभा के मन में ‘चाहत और जरूरत’ के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो ‘चाहत’ की विजय हुई.

औटो का मीटर बिलकुल पढ़ीलिखी गृहिणियों की डिगरी की तरह, जिस से कोई काम नहीं लेना चाहता पर हां, जिन का होना भी जरूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसलिए किराए का भावताव तय कर के सब औटो में बैठ गए.

शोभा वहां पहुंच कर जल्दी से टिकट काउंटर में जा कर लाइन में लग गईं.

जैसे ही उन का नंबर आया तो उन्होंने अंदर बैठे व्यक्ति को झट से 3 उंगलियां दिखाते हुए कहा,”3 टिकट…”

अंदर बैठे व्यक्ति ने भी बिना गरदन ऊपर किए, नीचे पड़े कांच में उन उंगलियों की छाया देख कर उतनी ही तीव्रता से जवाब दिया,”₹1200…”

शायद शोभा को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता यदि वे साथ में, उस व्यक्ति के होंठों को ₹1200 बोलने वाली मुद्रा में हिलते हुए नहीं देखतीं.

फिर भी मन की तसल्ली के लिए एक बार और पूछ लिया, “कितने?”

इस बार अंदर बैठे व्यक्ति ने सच में उन की आवाज नहीं सुनी पर चेहरे के भाव पढ़ गया.

उस ने जोर से कहा,”₹1200…”

शोभा की अन्य भावनाओं की तरह उन की आउटिंग की इच्छा भी मोर की तरह निकली जो दिखने में तो सुंदर थी पर ज्यादा ऊपर उड़ नहीं सकी और धम्म… से जमीन पर आ गई.

पर फिर एक बार दिल कड़ा कर के उन्होंने अपने परों में हवा भरी और उड़ीं, मतलब ₹1200 उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिए और टिकट ले कर थिएटर की ओर बढ़ गईं.

10 मिनट पहले दरवाजा खुला तो हौल में अंदर जाने वालों में शोभा बेटियों के साथ सब से आगे थीं.

अपनीअपनी सीट ढूंढ़ कर सब यथास्थान बैठ गए. विभिन्न विज्ञापनों को झेलने के बाद, मुकेश और सुनीता के कैंसर के किस्से सुन कर, साथ ही उन के बीभत्स चेहरे देख कर तो शोभा का पारा इतना ऊपर चढ़ गया कि यदि गलती से भी उन्हें अभी कोई खैनी, गुटखा या सिगरेट पीते दिख जाता तो 2-4 थप्पड़ उन्हें वहीं जड़ देतीं और कहतीं कि मजे तुम करो और हम अपने पैसे लगा कर यहां तुम्हारा कटाफटा लटका थोबड़ा देखें… पर शुक्र है वहां धूम्रपान की अनुमति नहीं थी.

लगभग आधे मिनट की शांति के बाद सभी खड़े हो गए. राष्ट्रगान चल रहा था. साल में 2-3 बार ही एक गृहिणी के हिस्से में अपने देश के प्रति प्रेम दिखाने का अवसर प्राप्त होता है और जिस प्रेम को जताने के अवसर कम प्राप्त होते हैं उसे जब अवसर मिलें तो वे हमेशा आंखों से ही फूटता है.

वैसे, देशप्रेम तो सभी में समान ही होता है चाहे सरहद पर खड़ा सिपाही हो या एक गृहिणी, बस किसी को दिखाने का अवसर मिलता है किसी को नहीं. इस समय शोभा वीररस में इतनी डूबी हुई थीं कि उन को एहसास ही नहीं हुआ कि सब लोग बैठ चुके हैं और वे ही अकेली खड़ी हैं, तो बेटी ने उन को हाथ पकड़ कर बैठने को कहा.

अब फिल्म शुरू हो गई. शोभा कलाकारों की अदायगी के साथ भिन्नभिन्न भावनाओं के रोलर कोस्टर से होते हुए इंटरवल तक पहुंचीं.

चूंकि, सभी घर से सिर्फ नाश्ता कर के निकले थे तो इंटरवल तक सब को भूख लग चुकी थी. क्याक्या खाना है, उस की लंबी लिस्ट बेटियों ने तैयार कर के शोभा को थमा दीं.

शोभा एक बार फिर लाइन में खड़ी थीं. उन के पास बेटियों द्वारा दी गई खाने की लंबी लिस्ट थी तो सामने खड़े लोगों की लाइन भी कम लंबी न थी.

जब शोभा के आगे लगभग 3-4 लोग बचे होंगे तब उन की नजर ऊपर लिखे मेन्यू पर पड़ी, जिस में खाने की चीजों के साथसाथ उन के दाम भी थे. उन के दिमाग में जोरदार बिजली कौंध गई और अगले ही पल बिना कुछ समय गंवाए वे लाइन से बाहर थीं.

₹400 के सिर्फ पौपकौर्न, समोसे ₹80 का एक, सैंडविच ₹120 की एक और कोल्डड्रिंक ₹150 की एक.

एक गृहिणी जिस ने अपनी शादीशुदा जिंदगी ज्यादातर रसोई में ही गुजारी हो उन्हें 1 टब पौपकौर्न की कीमत दुकानदार ₹400 बता रहे थे.

शोभा के लिए वही बात थी कि कोई सुई की कीमत ₹100 बताए और उसे खरीदने को कहे.

उन्हें कीमत देख कर चक्कर आने लगे. मन ही मन उन्होंने मोटामोटा हिसाब लगाया तो लिस्ट के खाने का ख़र्च, आउटिंग के खर्च की तय सीमा से पैर पसार कर पर्स के दूसरे पौकेट में रखे बचत के पैसों, जोकि मुसीबत के लिए रखे थे वहां तक पहुंच गया था. उन्हें एक तरफ बेटियों का चेहरा दिख रहा था तो दूसरी तरफ पैसे. इस बार शोभा अपने मन के मोर को ज्यादा उड़ा न पाईं और आनंद के आकाश को नीचा करते हुए लिस्ट में से सामान आधा कर दिया. जाहिर था, कम हुआ हिस्सा मां अपने हिस्से ही लेती है. अब शोभा को एक बार फिर लाइन में लगना पड़ा.

सामान ले कर जब वे अंदर पहुंचीं तो फिल्म शुरू हो चुकी थी. कहते हैं कि यदि फिल्म अच्छी होती है तो वह आप को अपने साथ समेट लेती है, लगता है मानों आप भी उसी का हिस्सा हों. और शोभा के साथ हुआ भी वही. बाकी की दुनिया और खाना सब भूल कर शोभा फिल्म में बहती गईं और तभी वापस आईं जब फिल्म समाप्त हो गई. वे जब अपनी दुनिया में वापस आईं तो उन्हें भूख सताने लगी.

थिएटर से बाहर निकलीं तो थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक छोटी सी चाटभंडार की दुकान दिखाई दी और सामने ही अपना गोलगोल मुंह फुलाए गोलगप्पे नजर आए. गोलगप्पे की खासियत होती है कि उन से कम पैसों में ज्यादा स्वाद मिल जाता है और उस के पानी से पेट भर जाता है.

सिर्फ ₹60 में तीनों ने पेटभर गोलगप्पे खा लिए. घर वापस पहुंचने की कोई जल्दी नहीं थी तो शोभा ने अपनी बेटियों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए घूम कर जाने वाली बस पकड़ी.

बस में बैठीबैठी शोभा के दिमाग में बहुत सारी बातें चल रही थीं. कभी वे औटो के ज्यादा लगे पैसों के बारे में सोचतीं तो कभी फिल्म के किसी सीन के बारे में सोच कर हंस पड़तीं, कभी महंगे पौपकौर्न के बारे में सोचतीं तो कभी महीनों या सालों बाद उमड़ी देशभक्ति के बारे में सोच कर रोमांचित हो उठतीं.

उन का मन बहुत भ्रमित था कि क्या यही वह ‘चेंज’ है जो वे चाहतीं थीं? वे सोच रही थीं कि क्या सच में वे ऐसा ही दिन बिताना चाहती थीं जिस में दिन खत्म होने पर उनशके दिल में खुशी के साथ कसक भी रह जाए?

तभी छोटी बेटी ने हाथ हिलाते हुए अपनी मां से पूछा,”मम्मी, अगले संडे हम कहां चलेंगे?”

अब शोभा को ‘चाहत और जरूरत’ में से किसी 1 को चुनने का था. उन्होंने सब की जरूरतों का खयाल रखते हुए साथ ही अपनी चाहत का भी तिरस्कार न करते हुए कहा,”आज के जैसे बस से पूरा शहर देखते हुए बीच चलेंगे और सनसेट देखेंगे.”

शोभा सोचने लगीं कि अच्छा हुआ जो प्रकृति अपना सौंदर्य दिखाने के पैसे नहीं लेती और प्रकृति से बेहतर चेंज कहीं और से मिल सकता है भला?

शोभा को प्रकृति के साथसाथ अपना घर भी बेहद सुंदर नजर आने लगा था. उस का अपना घर, जहां उस के सपने हैं, अपने हैं और सब का साथ भी तो.

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