अंतिम प्रहार- भाग 3: क्या शिवानी के जीवन में आया प्यार

शिवानी ने मां के सामने बगावत के तेवर अवश्य दिखाए थे परंतु आने वाले दिनों में उस का कुछ असर दिखाई नहीं दे रहा था. सबकुछ पहले की ही तरह चलता रहा. हां, 2 महीने के बाद गौरव की शादी हो गई और शिवानी की छोटी भाभी घर में आ गई.

सहेलियां उसे बीचबीच में उकसाती रहती थीं. वह किसी लड़के से प्यार कर ले. परंतु अब कोई लड़का उस की तरफ आकर्षित ही न होता. उस के मुखमंडल पर गंभीरता के कारण बड़ी उम्र की परिपक्वता झलकने लगी थी. उस के पास भी इतना साहस न था कि स्वयं किसी लड़के या पुरुष को अपनी तरफ आकर्षित करने का प्रयास कर सके. वह इतनी संकोची थी कि किसी भी व्यक्ति से बात करते समय उस की जबान जैसे तालू से चिपक जाती थी.

कुछ साल और बीत गए. शिवानी अब 30 की हो चुकी थी. अब वह लड़की कम महिला ज्यादा लगती थी. वह मन ही मन दुखी रहने लगी थी. मम्मी ने तो जैसे ठान लिया था कि उस की शादी तो दूर, शादी की बात भी न करेंगी. इस बीच सहेलियों के उकसाने के बावजूद वह किसी के प्यार में गिरफ्तार न हो सकी. स्कूल में भी कई कुंआरे अध्यापक थे परंतु किसी के साथ उस का टांका न भिड़ सका.

और आज दीप्ति ने ऐसी बात कह दी थी कि वह दुख के अथाह सागर में डूब गई थी. काफी देर तक जब वह कमरे से नहीं निकली, तो मम्मी ने आ कर उसे उठाया, ‘‘अभी तक लेटी हो. रात हो गई. चलो, खाने का प्रबंध करो.’’

शिवानी ने लेटेलेटे ही जवाब दिया, ‘‘मेरा खाने का मन नहीं है. खुद बना लो. बहू से कहो, वह क्या जीवनभर महावर लगा कर बैठी रहेगी?’’ शिवानी के स्वर में तीखा व्यंग्य था. बहू लाखों का दहेज ले कर आई थी, इसलिए मम्मी कभी उसे घर के किसी काम के लिए न कहती थी. शिवानी के रूप में बिना तनख्वाह वाली सीधीसादी गऊ जैसी नौकरानी जो मिली थी. परंतु अब उसे सिधाई का चोला उतार कर चंडी बन कर जीना होगा, कब तक कुढ़ती रहेगी? क्यों नहीं अपने लिए नया रास्ता ढूंढ़ लेती. अभी भी देर नहीं हुई थी.

मां कुड़कुड़ाती हुई चली गई. उस रात शिवानी ने न तो घर का कोई काम किया, न खाना खाया. मां ने भी उस से खाने के लिए नहीं पूछा. डायन मां भी अपने बच्चों से इस तरह की बेरुखी और बेदर्दी नहीं दिखाती, परंतु सुषमा किसी और मिट्टी की बनी थी. कोई मां अपनी बेटी की दुश्मन नहीं होती परंतु कुछ मांएं बेटों के प्यार में अंधी हो कर बेटियों का जीवन बरबाद कर देती हैं. सुषमा बेटे के लिए सारा पैसा बचा कर मरना चाहती थी.

दूसरे दिन सुबह शिवानी बहुत शांत थी. उस ने मन ही मन एक निर्णय ले लिया था. अब कोई दुविधा उस के मन में नहीं थी.

निकिता और संजना ने कहा, ‘‘शिवी, कल तेरे साथ बहुत बुरा हुआ. दीप्ति को तुझ से ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए थी. तू अभी भी शादी कर सकती है.’’

दीप्ति ने पश्चात्ताप भरे स्वर में कहा, ‘‘शिवी, मुझे माफ कर दो. मैं ने जो कहा था, मजाक के तौर पर कहा था. परंतु बात इतनी गंभीर हो जाएगी, मैं ने सोचा ही न था. प्लीज, मुझे माफ कर दो. मेरे मन में तुम्हारे प्रति कोई दुर्भाव नहीं है.’’

‘‘मैं जानती हूं दीप्ति,’’ शिवानी ने मुसकरा कर कहा और उस का हाथ पकड़ कर सहला दिया, ‘‘मैं तो उस बात को भूल चुकी. अब मैं ने कुछ और निर्णय ले लिया है.’’

क्या? के भाव से तीनों ने उस के चेहरे को देखा.

उस ने जवाब दिया, ‘‘अब मैं मां के संरक्षण से बाहर निकल कर अपना स्वतंत्र जीवन जीना चाहती हूं. तुम लोग मेरे लिए एक किराए का कमरा ढूंढ़ दो.’’

‘‘मां, और भाई को बता दिया?’’ संजना ने पूछा.

‘‘नहीं,  मकान मिलने पर बता दूंगी.’’

‘‘घर ढूंढ़ने के बजाय अगर तुम अपने लिए वर ढूंढ़ लो, तो ज्यादा बेहतर होगा,’’ निकिता ने सलाह दी.

‘‘वह भी ढूंढ़ लूंगी तुम मेरी मदद करोगी तो.’’

दीप्ति इतनी देर से कुछ सोच रही थी. अचानक बोली, ‘‘शिवी, मैं एक बात कहूं, परंतु यह न समझना कि मैं फिर से तुम्हारा मजाक उड़ा रही हूं.’’

‘‘तुम बताओ तो सही,’’ निकिता ने उस का उत्साह बढ़ाया.

‘‘मेरी नजर में एक रिश्ता है, परंतु तुम्हें शायद वह अच्छा न लगे.’’

‘‘अच्छा क्यों न लगेगा?’’ संजना ने पूछा.

‘‘क्योंकि वह कुंआरा नहीं है, विधुर है और उस की 5 साल की एक बच्ची भी है.’’

‘‘विधुर और एक बच्ची का बाप,’’ निकिता के मुंह से निकला. उस ने शिवानी को देखा, ‘‘वह शांत थी. संजना भी हैरान थी कि दीप्ति फिर से शिवानी का मजाक बना रही थी. बोली, ‘‘यार, कल भी तुम ने उस का दिल दुखाया था और आज भी…’’

‘‘हां, दीप्ति, शिवी अभी इतनी बूढ़ी नहीं हुई है कि उस के लिए कुंआरा वर न मिले. आज लड़के 30 साल की उम्र के बाद ही शादी करना पसंद करते हैं. प्रयत्न करेंगे तो उस के लिए अच्छा वर मिल जाएगा,’’ निकिता ने कहा.

‘‘वैसे, वह है कौन जिस की तू बात कर रही है?’’ संजना ने जिज्ञासा से पूछा.

दीप्ति का उत्साह मर गया था, फिर भी उस ने बताया, ‘‘मेरा ममेरा भाई है. उस की पत्नी कुछ वर्ष पहले मर गई थी. घर में मातापिता और एक बेटी है. सरकारी नौकरी में है. उम्र ज्यादा नहीं है, 34 या 35 साल. बस, कमी इतनी ही है कि वह विधुर है और एक बच्ची का बाप है.’’

कुछ पलों के लिए सन्नाटा पसरा रहा. फिर निकिता ने कहा, ‘‘रिश्ता तो अच्छा है परंतु क्या शिवानी तैयार होगी? पराई मां की बच्ची को अपना कर उसे मां का प्यार दे सकेगी?’’

‘‘परंतु क्या शिवानी की मां ऐसे रिश्ते के लिए तैयार होगी?’’ संजना ने सवाल खड़ा किया.

‘‘इस की मां जब कुंआरे लड़के के साथ शादी नहीं करा रही है तो वह विधुर के साथ शादी के लिए कैसे मान जाएगी,’’ निकिता ने कहा.

‘‘फिर कैसे होगा?’’ संजना ने भौंहें नचा कर पूछा.

शिवानी सब की बातें गौर से सुन रही थी और मन ही मन कुछ बुन रही थी. उस के दिमाग में विचार बहुत तेजी से दौड़ रहे थे. उसे जल्द ही निर्णय लेना होगा वरना एक दिन वह महिला से बूढ़ी स्त्री में बदल जाएगी, तब उस के हाथ में जीवन के सुखमय पल नहीं, बस, सूखी रेत के रसहीन कण होंगे जो उस की आंखों में सदा किरचों की तरह कसकते रहेंगे.

अब उस की आंखें शिवानी के ऊपर टिकी थीं. शिवानी ने ज्यादा देर उन्हें पसोपेश में नहीं रखा. धीमे से बोली, ‘‘मुझे दीप्ति के कजिन का रिश्ता मंजूर है.’’

सभी हैरान रह गए. शिवानी से ऐसे उत्तर की अपेक्षा किसी ने नहीं की थी. सभी समझ रहे थे वह मना कर देगी. सब से ज्यादा आश्चर्य निकिता और संजना को हुआ, तो सब से ज्यादा खुशी दीप्ति को हुई. परंतु वे तीनों नहीं जानती थीं कि भविष्य में पति और मां की दोगुनी खुशियां जो शिवानी को प्राप्त होने वाली थीं उन के बारे में सोच कर वह अभी से रोमांचित और अभिभूत हो रही थी.

‘‘क्या तुम एक लड़की को मां का प्यार दे सकोगी?’’ निकिता ने पूछा.

‘‘हां,’’ शिवानी ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘अपने जीवन में मुझे मेरी मां से जो उपेक्षित व्यवहार मिला है उस से मैं समझ सकती हूं कि ममता से वंचित लड़की के हृदय पर क्या गुजरती है. मैं अपनी होने वाली बेटी को ऐसा प्यार दूंगी कि लोग मुझे असली मां समझेंगे.’’

‘‘मैं तुम्हारी भावनाओं को समझ सकती हूं परंतु तुम एक बार फिर से रात में सोच लो. कल बताना,’’ संजना ने सलाह दी. उसे सलाह देने की आदत सी थी.

‘‘नहीं, अब सोचने का वक्त नहीं है. जितनी जल्दी हो सके, मैं मां के नरक से बाहर निकलना चाहती हूं.’’

अंतिम प्रहार- भाग 2: क्या शिवानी के जीवन में आया प्यार

‘‘बहन, सच्ची बात कहूं,’’ सुषमा ने नाराजगी के भाव से कहा, ‘‘दूसरों की मैं नहीं जानती परंतु मेरी बेटी बहुत सीधी है. मैं ने उसे ऐसे संस्कार दिए हैं कि मरती मर जाएगी, परंतु गलत काम नहीं करेगी. मजाल है कि राह चलते किसी लड़के की तरफ निगाह उठा कर देख ले.’’

शुभचिंतिका ने मन ही मन सोचा, लगता है सुषमा ने जमाना नहीं देखा है. कितना बदल गया है. लड़कालड़की किस तरह खुलेआम इश्क फरमाते घूम रहे हैं. लगता है समाज में नैतिकता और मर्यादा की सारी सीमाएं टूट चुकी हैं. शिवानी कब तक जमाने की बदबूदार हवा से अपनी नाक बंद कर के रखेगी. जवानी की आग जब देह को जलाने लगती है तो बड़ेबड़े संतों की दृढ़ प्रतिज्ञा तिल के समान जल जाती है.

शुभचिंतिका ने सुषमा को आगे समझना उचित नहीं समझ. शिवानी के पास कोई चारा नहीं था. भागदौड़ कर उस ने एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली. तनख्वाह बहुत ज्यादा नहीं थी परंतु घर में बैठने से तो यह बेहतर था कि वह काम कर रही थी. अनुभव प्राप्त कर रही थी. इधर उस ने बीएड का फौर्म भर रखा था. चयन होने पर एक साल की ट्रेनिंग पर चली गई. ट्रेनिंग पूरी होते ही उसे उसी स्कूल में अच्छी तनख्वाह पर अध्यापिका की नौकरी मिल गई.

शिवानी के जीवन में खुशियां थीं परंतु प्यार नहीं. उस का कोई प्रेमी नहीं था. इस की कोई चाहत भी उस के मन में नहीं थी. वह चाहती थी जल्दी से जल्दी विवाह बंधन में बंध जाए. पति के घर चली जाए. फिर उस के जीवन में प्यार और खुशी के अनमोल मोती बरसेंगे.

परंतु मां को जैसे उस के विवाह की कोई चिंता ही नहीं थी. उस के रिश्ते आते, तो अनमने ढंग से बात सुनती और मना कर देती. परंतु बेटे की शादी की चर्चा वह बहुत लगन से करती. कोई रिश्ता आता, तो खोदखोद कर जानकारी लेती. परिवार कैसा है? लड़की सुंदर है? पढ़ीलिखी है और सब से मुख्य बात पूछना न भूलती, दहेज कितना मिलेगा?

जब भी घर में कोई अड़ोसीपड़ोसी या रिश्तेदार आता, केवल गौरव की शादी की बात होती. वह तो जैसे घर की बेटी ही न थी. वह बस एक पैसा कमाने की मशीन और घर का काम करने वाली नौकरानी थी. घर के सारे खर्च भी उसी की तनख्वाह से चलते. बेटा अपने वेतन की एक पाई भी मां के हाथ पर न धरता, न कोई हिसाब देता. बस, अपने शौक पर खर्चा करता या बैंक में जमा करता. मां भी अपनी पैंशन का पैसा कभीकभार ही बैंक से निकालती. शिवानी मां और भाई के होते हुए भी अपने ही घर में एक उपेक्षित सा जीवन व्यतीत कर रही थी.

दहेज के लालच में मां ने गौरव की शादी एक धनी परिवार की लड़की के साथ तय कर दी. पता नहीं सुषमा के मन में क्या था? बड़ी बेटी कुंआरी बैठी थी और उस से 2 साल छोटे भाई की शादी तय कर दी थी क्योंकि अच्छाखासा दहेज ला रही थी. किसी खास ने सवाल किया तो सुषमा का दिल जला देने वाला जवाब था, ‘बेटा दहेज ला रहा है परंतु बेटी दहेज ले कर जाएगी. फिर क्यों न पहले बेटे की शादी करूं?’

शिवानी के दिल को बहुत चोट पहुंची. पहले वह घर की बातें किसी से नहीं कहती थी परंतु ये सारी बातें उस ने अपनी सहेलियों से कहीं, तो निकिता ने कहा, ‘यार, समझ में नहीं आता तुम्हारी मां सगी है कि सौतेली. अरे, सौतेली मां भी बहुत अच्छी होती है. समझना बहुत मुश्किल है कि वह तुम्हारी शादी के खिलाफ क्यों है?’

‘मुझे तो लगता है, या तो इस का भाई बहुत होशियार है या इस की मां बहुत लोभी और लालची जो बेटे के विवाह में लेना तो जानती है और बेटी के विवाह में कुछ भी खर्च नहीं करना चाहती,’ संजना ने कहा. ‘तुम्हारा भाई अपना बैंक बैलैंस बढ़ा रहा है. मां अपना पैसा खर्च नहीं कर रही है. शिवानी, तुम बहुत बड़ी बेवकूफ हो. कल तुम्हारी भाभी घर में आएगी, तो पूरे घर में उस का राज होगा. तुम्हारी हैसियत एक नौकरानी से भी बदतर हो जाएगी. मेरी सलाह मानो, तुरंत बैंक में अपना खाता खोल लो और बुरे दिनों के लिए कुछ बचा कर रखो.’ निकिता ने उसे उचित सलाह दी.

तभी दीप्ति ने कहा, ‘और मेरी मानो, तो यह सतीसावित्री का चोला उतार कर फेंक दो. आज के जमाने में नैतिकता, मर्यादा और पारिवारिक संस्कारों का आडंबर ओढ़ कर जीने से जीवन बहुत कठिन हो जाता है, खासकर, जब सगी मां और भाई तुम्हारे जीवन को बरबाद करने में जुटे हों. ऐसी स्थिति में तुम्हें स्वयं अपना रास्ता तलाश करना होगा. किसी लड़के को पसंद कर के उस के साथ घर बसा लो, वरना उम्र निकलने के बाद पछताने के सिवा और कुछ नहीं मिलेगा.’

दीप्ति की बात बहुत सही थी. सब ने उस की बात से सहमति जताई.

सब से पहला काम उस ने यह किया कि बैंक में खाता खोल लिया. अगले महीने जब उस ने मां के हाथ पर पैसे नहीं रखे तो मां ने कड़े स्वर में पूछा, ‘शिवानी, तनख्वाह नहीं मिली क्या?’

‘मिली है, परंतु बैंक में है,’ शिवानी ने भी जोर से जवाब दिया. अब दब कर रहने से क्या हासिल होने वाला था.

‘बैंक में, क्या?’

‘क्योंकि अब तनख्वाह सीधे बैंक खाते में आने लगी है,’ उस ने बिना घबराए जवाब दिया.

‘तो कल निकाल कर ले आना, राशन भरवाना है.’

‘मम्मी, घर में भाई भी है, वह मुझ से ज्यादा तनख्वाह पाता है. आप की पैंशन भी कम नहीं है. फिर घर चलाने की जिम्मेदारी मेरी ही क्यों? आप दोनों अपना पैसा क्या ऊपर वाले के घर ले कर जाएंगी,’ शिवानी ने गुस्से में कहा.

शिवानी की बात सुन कर मां सन्न रह गईं. उन की गाय जैसी बेटी मरखनी कैसे हो गई थी. यह उस की सहेलियों के समझने का असर था. परंतु मां की समझ में नहीं आया. उन्होंने कांपती आवाज में पूछा, ‘यह कैसी बातें कर रही है तू? क्या तू इस घर की सदस्य नहीं है? मेरी बेटी नहीं है?’

‘आप ने मुझे अपनी बेटी माना ही कहां है? जब से होश संभाला है, गौरव को तरजीह दी जा रही है. मुझ से 2 साल छोटा है, परंतु शादी आप उस की पहले कर रही हैं. ध्यान रखना, कहीं आप के संस्कार धूल में न मिल जाएं?’

‘क्या मतलब है तेरा?’

‘मतलब आप अच्छी तरह समझती हैं. कोई भी लड़की जीवनभर अनुचित अनुशासन और बंधन को स्वीकार नहीं कर सकती. एक न एक दिन वह बंधन तोड़ कर बरसात के पानी की तरह बह जाएगी, तब आप पारिवारिक मर्यादा का ढोल पीटती रहना.’

मां की बोलती बंद हो गई.

शिवानी बेचारी आज कितनी हिम्मत से इतना सब बोल पाई थी वरना तो उस के मुंह में जैसे जबान ही न थी. उस की सहेलियों ने उसे खूब सिखायापढ़ाया था. मां से खुल कर बात करने के लिए कहा था. तभी आज वह इतना कुछ बोल पाई थी. परंतु अब डर रही थी कि मां का पता नहीं कौन सा रूप देखने को मिले. परंतु मां ने भी उस से कोई बात नहीं की और कई दिनों तक सामान्य व्यवहार किया. शायद उन के मन में भी डर बैठ गया था कि शिवानी कोई गलत कदम न उठा ले और परिवार की मर्यादा तोड़ कर किसी लड़के के साथ भाग न जाए.

अमीरी का डर- भाग 3: खाई अंतर्मन की

वैशाली बड़ी मुश्किल से उठ कर बैठी, ट्रे पर नजर डाली, वहीं अपने पास बैठे बेटे से नजर मिली तो वह दिल खोल कर हंसा, ‘‘लो मां, अपनी बहू का पहली बार बनाया नाश्ता करो.’’

एक कप चाय और एक प्लेट में मैगी देख कर वैशाली मुसकराते हुए बोली, “मैगी, तुम्हें आती है बनानी?’’

अंजलि ने गर्व से बताया, ‘‘वो मम्मा, हम सब फ्रैंड्स कभी एकसाथ स्लीपओवर के लिए किसी के घर रुकते थे, तो रात में मैगी बना कर खाते थे.’’

विपिन ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘मां, किसी बहू ने अपनी सास को पहली बार मैगी खिलाई होगी?’’

वैशाली ने प्यार से बेटे को डांटा, “तुम चुप रहो. और अंजलि, यह तुम्हारे लिए आज पहली बार कुछ बनाने का शगुन,” कह कर अपने पर्स से 2,000 के 2 नोट निकाल कर अंजलि के हाथ पर रखे, तो अंजलि ने झट से वैशाली को उस पर ढेर सा प्यार आया और फिर वह मैगी खाने लगी.

विपिन ने महेश को फोन पर आज की घटना के बारे में बता दिया था. वैशाली को दवाई खिलाते हुए विपिन ने कहा, ‘‘आप अब लेट जाओ, मां.’’

‘‘बेटा, नीता से उस की मेड के बारे में पूछ आओ, किसी को तो काम के लिए बुलाना ही होगा, मैं ठीक थी तो किसी तरह कर ही लेती लतिका के बिना, अभी तो हिलने में भी दर्द है.’’

‘‘नहीं मम्मा, मैं कर लूंगी,’’ वैशाली की आंखें फटी की फटी रह गईं, ‘क्या है यह लड़की, कभी कुछ नहीं किया, कुछ आता नहीं, क्या करेगी, क्या सोचेंगे इस के मांबाप, कैसा ससुराल है उन की राजकुमारी जैसी बेटी का…’

विपिन ने कहा, ‘‘मैं टिफिन सर्विस वाले को फोन कर देता हूं, सुबहशाम टिफिन आ जाएंगे, प्रौब्लम नहीं होगी.’’

‘‘तुम तो कह रहे थे कि मम्मा को बाहर के खाने से एसिडिटी हो जाती है, नहीं, कोई जरूरत नहीं है, मैं कर लूंगी.’’

अपने बेटे की पसंद को वैशाली निहारती रह गई, अंजलि बोली, ‘‘मम्मा, बस आप लेटेलेटे मुझे बता देना कि कैसे क्या करना है.’’

शायद दवार्ई से वैशाली की गहरी आंख लगी, दोपहर को अंजलि ने उठाया, ‘‘मम्मा, खाना.’’

वैशाली ने चौंक कर आंखें खोली, “अरे, मैं तो बहुत गहरी नींद सो गई आज.”

‘‘मम्मा, दर्द कुछ कम हुआ?’’

‘‘अभी तो है,’’ अंजलि ने सहारा दे कर वैशाली को बैठाया, विपिन भी वहीं प्लेट ले कर आ गया और तीनों का खाना लगा दिया, टेढ़ेमेढ़े, मोटेमोटे परांठे और अचार, मन भर आया वैशाली का, उस की आंखें भर आईं, बेचारी नाजुक सी लड़की कैसे हर स्थिति को संभालने की कोशिश में लगी है सुबह से, विपिन ने मां की भोगी आंखें देखी तो मां के मनोभाव समझ गया.

तीनों ने खाना खाया, वैशाली ने अंजलि को उस की मेहनत के लिए बहुत शाबाशी दी. शाम को महेश भी जल्दी आ गए. वैशाली ने उन्हें दिनभर के हाल बताए तो वे मुसकरा दिए. अंजलि उन के लिए चाय और सैंडविच लाई, तो खुश होते हुए उन्होंने भी अंजलि को 2,000 का नोट देते हुए कहा, ‘‘लो बेटा, पहली बार अपनी बहू के हाथ का बना खा रहा हूं, सुखी रहो.’’

अंजलि को आज अपने ऊपर बहुत गर्व हो रहा था, चहकते हुए वह बोली, ‘‘थैंक्यू पापा, मैं ने तो डिनर भी सोच लिया है.’’

महेश बोले, ‘‘क्या बनाओगी बेटा?’’

‘‘चावल का अंदाजा मम्मा लेटेलेटे बता देंगी, विपिन ने बताया था कि दाल उन्हें आती है बनानी और रोटी मैं ट्राई कर लूंगी. जैसे परांठे बनाए थे मैं ने, सलाद विपिन काट लेंगे, आटा फूड प्रोसैसर में सुबह ही मैं ने ज्यादा गूंध लिया था.’’

सभी उस की प्लानिंग पर जोर से हंस पड़े. महेश हंसने लगे, ‘‘वाह बेटा, बहू ने तो हमारे घर में रौनक कर दी है, सब को काम पर लगा दिया है.’’

तीनों ने मिल कर खाना बनाया. वैशाली के बेड पर ही सब अपनीअपनी प्लेट ले कर आ गए, सब ने खाना साथ बैठ कर मन से खाया, महेश और वैशाली की नजरें मिली, दोनों को लगा कि उन टेढ़ीमेढ़ी रोटियों का स्वाद कभी भूलने वाला नहीं था, दोनों के दिल में अपनी बहू के लिए अपार स्नेह उमड़ता रहा. अंजलि ने कहा, ‘‘विपिन, आप कल से औफिस ज्वाइन कर लो, आप और पापा कल से लंच कैंटीन में कर लेना, क्योंकि मेरी बनाई रोटी तो टिफिन में चलेंगी नहीं,’’ कह कर वह खुद ही हंस पड़ी, फिर बोली, ‘‘मैं और मम्मा कुछ भी खा लेंगे, फिर डिनर सब साथ में करेंगे. आप और पापा शाम को जल्दी घर आ जाना मेरी हेल्प के लिए.’’

सब बहुत जोर से हंसे उस की स्पष्टवादिता पर, वैशाली को उस का साफसाफ बात करने का सरल ढंग बहुत ही भाया, न कोई दिखावा और न लागलपेट, एकदम साफ और अच्छी बात.

अगले दिन सुबह 6 बजे ही अंजलि उठ गई. नहाधो कर वह किचन में गई. महेश और विपिन को सैंडविच दिए नाश्ते में, दोनों के जाने के बाद अंजलि ने कपड़े बदल लिए, टीशर्ट और कैपरी पहनी, झाड़ू लगाई और वैशाली के मना करने पर भी डंडे वाला पोंछा उठा कर घर में पोंछा लगाने लगी. इतने में डोरबेल हुई, अंजलि ने दरवाजा खोला. सामने उस के मम्मीपापा खड़े थे.

अंजलि ने उन्हें रात में ही वैशाली की स्लिपडिस्क के बारे में बताया था. गोयल दंपती एकटक अपनी बेटी को देख रहे थे, टीशर्ट, कैपरी, कंधे पर डस्टिंग वाला तौलिया और हाथ में पोंछे वाला डंडा, माथे पर पसीना, वैशाली को शर्म आई, क्या सोचेंगे ये लोग, अंजलि के मुख पर छाया उत्साह और भोली सी चमक निहारती राधा ने बेटी को खूब प्यार किया. वैशाली ने संकोच के साथ मेड के जाने के बारे में बताया, तो अनिल ने कहा, ‘‘आप कहें तो हम अपने एक कुक को कुछ दिनों के लिए यहां भेज दें.’’

‘‘नहीं पापा, आई विल मैनेज, डोंट वरी, मजा आ रहा है मुझे,’’ जब अंजलि ने चहकते हुए कहा, तो गोयल दंपती भी मुसकरा दिए. वैशाली की कुशलक्षेम और थोड़ी बातचीत के साथ अंजलि की बनाई हुई चाय पी कर बेटी को आशीर्वाद देते हुए चले गए. अपने मातापिता के लाए हुए फल और ड्राईफ्रूट्स निकाल कर अंजलि जबरदस्ती वैशाली को खिलाने लगी और फिर काम में लग गई.

अब रोज का यही क्रम था. अंजलि अनभ्यस्त हाथों से घर का हर काम हंसीखुशी संभालती रही. वैशाली को कुछ आराम हुआ, तो वह भी चलतीफिरती हलकेफुलके काम निबटाती रही. 10 दिन बीत चुके थे, एक सुबह वैशाली की आंख बहुत जल्दी खुल गई. वह फ्रेश होकर किचन में गई, तो किचन की खटपट सुन अंजलि आंख मलती हुई आई, उन का हाथ पकड़ कर सोफे पर बैठा कर बोली, ‘‘नहीं मम्मा, अभी आप कुछ नहीं करेंगी. मैं फ्रेश हो कर आप के लिए चाय लाती हूं…

“ओह, मैं तो भूल ही गई, ‘गुड मार्निंग मम्मा’,” कहते हुए वैशाली के पैर हुए, तो वैशाली ने उसे गले से लगा लिया. उस के अंतःकरण से बहू के भावी जीवन के लिए आशीर्वादों के फूल बरस रहे थे. इतने दिनों से मन में बसा बहू की अमीरी का डर जो गायब हो चुका था.

अंतिम प्रहार- भाग 1: क्या शिवानी के जीवन में आया प्यार

उस की सहकर्मी दीप्ति के शब्द उस के कानों में अभी तक गूंज रहे थे, ‘अब क्या करेगी यह शादी? सिर के बाल चांदी होने लगे. 30 को पार कर गई. यह शादी की उम्र थोड़ी है.’

लंच का समय था. स्कूल की सभी अध्यापिकाएं साथ में बैठ कर खाना खा रही थीं. सब एकदोचार के गु्रप में बंटी हुई थीं. शिवानी अपनी 3 सहेलियों के साथ एक गु्रप में थी. औरतों की जैसी आदत होती है, खाते समय भी चुप नहीं रह सकतीं. सभी बातें कर रही थीं. अपनी क्लास के बच्चों से ले कर पिं्रसिपल व सहकर्मी अध्यापिकाओं तक की, घर से ले कर पति, बच्चों और सास तक की बातें कर रही थीं. अंत में हमेशा की तरह बात घूम कर शिवानी के ऊपर आ कर टिक गई.

निकिता ने कहा, ‘‘शिवानी, तू कुछ नहीं बोल रही है?’’‘‘क्या बोले बेचारी? शादी तो की नहीं. न बच्चा, न पति, न सासननद. किस की बुराई करे बेचारी. पता नहीं कब करेगी शादी? उम्र तो निकली जा रही है,’’ संजना ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा.

तभी दीप्ति ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा था, ‘अब क्या करेगी यह शादी…’ उस के ये वाक्य शिवानी के कानों में गरम लोहे की तरह घुसते चले गए थे. पहले ही कम बोलती थी. दीप्ति के वाक्यों ने तो उस के हृदय पर पत्थर रख कर मुंह पर ताला जड़ दिया था. उस के मुख पर हजार रेगिस्तानों की सी वीरानी और गरम धूल की परतें जम गई थीं. आंखें जड़ हो कर बस खाने की प्लेट पर जड़ हो गई थीं. दीप्ति की बात पर निकिता और संजना भी हैरान रह गई थीं. उसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए थी. शिवानी की अभी तक शादी नहीं हुई थी, तो उस में उस का क्या दोष था. सब की अपनीअपनी मजबूरियां होती हैं, शिवानी की भी थी. तभी तो अब तक उस की शादी नहीं हो पाई थी.

वे चारों हमउम्र थीं, सहकर्मी थीं. परंतु उन में अकेली शिवानी ही अविवाहिता थी. बाकी तीनों न केवल शादीशुदा थीं बल्कि तीनों के बच्चे भी थे. उन के बीच घरपरिवार और शादी को ले कर बातें होती ही रहती थीं. सभी शिवानी को शादी करने की सलाह देती रहती थीं परंतु इतनी तल्ख बात आज से पहले कभी किसी ने नहीं कही थी.

शिवानी अंतर्मुखी स्वभाव की थी. कम बोलती थी. अपना दुखदर्द भी किसी से नहीं बांटती थी. उस दिन भी दीप्ति की तल्ख बात का उस ने कोई जवाब नहीं दिया. परंतु उस का दिमाग सनसना गया था. क्या अब उस की शादी नहीं होगी? क्या वह बूढ़ी हो गई थी? बाल पकना क्या बुढ़ापे की निशानी है?

आज तक उस ने किसी लड़के से दोस्ती नहीं की, प्रेम करना तो बहुत दूर की बात थी. पारिवारिक संस्कारों और अंतर्मुखी स्वभाव के कारण वह लड़कों से खुल कर बात नहीं कर पाई. वह सुंदर थी. कई लड़के उस के जीवन में आए, उस से प्रेम निवेदन भी किया, उस ने उन का प्यार स्वीकार भी किया, परंतु जब लड़के एक सीमा से आगे बढ़ कर उसे बिस्तर पर लिटाना चाहते, वह भाग खड़ी होती. ‘यह सब शादी के बाद,’ वह कहती, तो लड़के उसे घमंडी, दकियानूसी और बेवकूफ लड़की समझ कर छोड़ देते.

लिहाजा, 30 वर्ष की उम्र तक उस का कोई स्थायी बौयफ्रैंड न बन सका, जिस के साथ वह घर बसाने की बात सोच सकती. अब तो कमउम्र के लड़के उस से दूर भागने लगे थे और उस की उम्र के दायरे वाले आदमी शादीशुदा थे. मां भी उस की शादी के बारे में नहीं सोचती थी. इस में मां का दोष नहीं था. वह डरती थी कि शादी के बाद शिवानी जब अपने घर चली जाएगी तो वह किस के सहारे जीवन व्यतीत करेगी. उन की जीविका का कोई साधन नहीं था. जबकि उन का लड़का था और उस की पत्नी थी. दोनों मां के साथ पुश्तैनी घर में रहते थे. उस के भाई को पिता की जगह पर अनुकंपा के आधार पर नौकरी भी मिली हुई थी. पिता के घर में मां के साथ रहता था परंतु अपनी तनख्वाह का एक पैसा भी मां को नहीं देता था. मां का गुजारा उन की पैंशन और शिवानी की कमाई से चलता था. एक ही घर में 2 परिवार रहते थे. मांबेटी और बेटाबहू. कैसी विडंबना थी?

मां किस तरह बेटी के साथ भेद करती है और बेटे को महत्त्व देती है, यह पहली बार शिवानी को तब पता चला जब उस के पिता की मृत्यु हुई. वह सरकारी सेवा में गु्रप बी औफिसर थे और सेवानिवृत्ति के पहले ही उन की मृत्यु हो गई थी. ग्रैच्युटी,  इंश्योरैंस, जीपीएफ आदि का कुल 20 लाख के लगभग मिला था. सारा पैसा मां ने एमआईएस (मंथली इंकम स्कीम) में डाल दिया था. 20 हजार के लगभग मां की पैंशन बंधी थी. कम नहीं थे.

बाप की जगह पर जब अनुकंपा के आधार पर नौकरी की बात आई, तो सब ने यही सलाह दी कि बेटी शिवानी यह नौकरी कर लेगी. वह 22 साल की थी और ग्रेजुएट थी. आसानी से उसे गु्रप ‘सी’ की नौकरी मिल जाती और उस का भविष्य संवर जाता. भाई छोटा था और उस का ग्रेजुएशन भी पूरा होने में एक साल बाकी था. ग्रेजुएशन के बाद भविष्य में वह कोई अच्छी नौकरी पा सकता था.

सब की बातें सुनने के बाद मां ने अपना निर्णय सुनाया, ‘‘बेटी बाप की जगह नौकरी करेगी तो हमें क्या मिलेगा? एक दिन वह शादी कर के ससुराल चली जाएगी. उस की तनख्वाह ससुराल वालों को जाएगी. बेटे को पढ़लिख कर भी नौकरी नहीं मिली तो उस का क्या होगा? सो, नौकरी बेटा ही करेगा, चाहे जो हो जाए.’’

लोगों ने बहुत समझया परंतु मां अपने निर्णय से नहीं डिगी. विभाग में आवेदन किया तो उन्होंने बेटे की कम उम्र और शिक्षा को ले कर प्रश्न खड़े कर दिए. मां ने बड़े अधिकारी से मिल कर बात की, तो उन्होंने रास्ता सुझया कि वे बेटे के ग्रेजुएशन तक इंतजार कर सकते थे. लिहाजा, मामला एक साल तक अधर में लटका रहा. जब गौरव का ग्रेजुएशन हो गया और वह 21 साल का हो गया, तो उसे पिता के स्थान पर नौकरी मिल गई.

सबकुछ व्यस्थित हो गया तो एक पारिवारिक महिला शुभचिंतका ने शिवानी की मम्मी सुषमा को सलाह दी, ‘‘सुषमा बहन, बेटे को नौकरी मिल गई है. आप को पैंशन मिल रही है. बेटी ग्रेजुएशन कर के घर में बैठी है. अब उस की शादी कर दो.’’

सुषमा को शुभचिंतका की बात नागवार गुजरी, गहरी उसांस ले कर कहा, ‘‘अभी कहां से कर दें. बेटे की अभीअभी नौकरी लगी है. कुछ जमापूंजी हो तो करें.’’शुभचिंतिका ने हैरानी से कहा, ‘‘क्या बात करती हो बहन. पति का पैसा कहां चला गया?’’

‘‘उस को बेटी की शादी में खर्च कर देंगे तो बुढ़ापे में मुझे कौन पूछेगा. बेटा और बेटी दोनों की शादी करनी है परंतु बेटा कुछ कमा कर जोड़ ले तो सोचूंगी. तब तक बेटी भी कोई न कोई नौकरी कर लेगी. आज के जमाने में एक आदमी की कमाई से घर कहां चलता है.’’

‘‘बात तो ठीक है परंतु जवान बेटी समय पर घर से विदा हो जाए तो मां की सारी चिंताएं खत्म हो जाती हैं. वरना हर समय लांछन का दाग लगने का भय सताता रहता है.’’

सच के फूल- भाग 1: क्या हुआ था सुधा के साथ

सुधा भागती चली जा रही थी, भागते हुए उसे पता नहीं चला कि वह कितनी दूर आ गई है. दिमाग ने जैसे काम करना बंद कर दिया हो. उसे जल्दी से जल्दी इस शहर से भाग जाना है. उसे सम झ में आ गया था वह अच्छे से बेवकूफ बनी है. घर से भाग कर उस ने भारी भूल कर दी. विकी ने उसे धोखा दिया है. अगर वह आज भागने में कामयाब हो गई  तभी वह बच पाएगी.  दिल्ली शहर उस के लिए एकदम नया है. वह स्टेशन जाएगी और किसी तरह…

तभी किसी ने उसे पकड़ कर खींचा, ‘‘अरे दीदी देख कर चलो न अभी मोटर के नीचे आ जाती.’’

सुधा कांपने लगी. उसे लगा जैसे विकी ने उसे पकड़ लिया. ये स्कूल से लौटते छोटे बच्चे थे बच्चे आगे बढ़ गए. उस ने औटो को रोका, ‘‘मैडम आप अकेली जाएंगी या मैं और सवारी बैठा लूं.’’

‘नहींनहीं हम को स्टेशन जाना है… ट्रेन पकड़नी है… जल्दी है.’’

‘‘एक सवारी का ज्यादा लगेगा.’’

‘‘ठीक है चलो.’’

संयत हो बोली, ‘‘आप बिहार से है.’’

सुधा घबडाई हुई थी उसे गुस्सा आ गया ‘‘काहे बिहारी को नहीं बैठाते हो उतर जायें.’’

‘‘ अरे नहीं नहीं मैडम इहां का लोग तनी ‘मैं’ ‘मैं’ करके बतियाता है इसी कारण.’’

सुधा को अगर विकी पर शक नहीं होता तब वह भाग भी नहीं पाती. कितना कमीना है विकी उसे बरबाद करना चाहता था. कैसे चालाकी से वह भागी है. वह होटल में घुसी तभी उसे संदेह हो गया था. कितना गंदा लग रहा था वह होटल और वह बूढ़ा रिसैप्शिनष्ट… मोटे चश्में के अंदर से  कितनी गंदी तरह से घूर रहा था. वह बारबार विकी को उस के मामा के यहां चलने के लिए बोल रही थी पर वह सुन नहीं रहा था. फिर भी वह आश्वस्त थी. उस ने घर से भागकर कोई गलती नहीं की है. वह विकी से प्यार करती है. वह जानती है पापा कभी तैयार नहीं होंगे क्योंकि दोनों की जाति अलगअलग है.

जब सुधा वाशरूम गई तो उस ने अपने कानों से सुन लिया, ‘‘हां यार मेरे साथ भाग कर आई है.’’

‘‘शादी करने?’’

‘‘अरे नहीं यार ऐसे सब से शादी करता रहूंगा… तब तो अब तक मेरी 7-8 शादियां हो गई होतीं.’’

अगर सुधा उस का फोन नहीं सुन पाती तब आज उस की इज्जत तारतार हो चुकी होती सोच कर वह अंदर तक कांप गई. वह अभी तक की घटनाओं को याद करने लगी. अभी कल की ही बात है. वह ट्यूशन के बहाने विकी के साथ निकली थी. विकी ने उस से कुछ पैसे लाने को कहा था. मां के बटुए से 17 हजार नकद और मां के कुछ गहने भी ले लिए थे. उस ने सारे पैसे विकी को दे दिए थे.

‘‘बस इतने ही?’’ विकी ने कहा.

‘‘और है देती हूं वाशरूम से आ कर,’’ वाशरूम में जाते उसे सारा मामला सम झ आ गया.

जब उस ने देर लगाई तब विकी ने पुकारा, ‘‘सुधा सब ठीक है न?’’

‘‘हां सब ठीक है आ रही हूं.’’

आ कर उस ने विकी से कहा, ‘‘विकी डियर देखो न बहुत बड़ी गड़बड़ हो गई है.’’

‘‘क्या हुआ?’’ विकी अधीर होने लगा.

‘‘कैसे बताऊं मु झे शर्म आ रही है,’’ सुधा  िझ झकने लगी.

‘‘अरे यार बताओ न अब हम से शर्म कैसी… बताओ जल्दी.’’

‘‘विकी वह बात है कि…’’ वह रुक गई विकी घबरा गया. बोला, ‘‘जल्दी बताओ न सुधा.’’

‘‘मु झे पीरियड आ गया है तुरंत पैड चाहिए.’’

‘‘ले कर नहीं आई हो?’’ वह  झल्ला कर बोला.

‘‘पागल हो किसी तरह भाग कर आई हूं तुम ला दो न.’’

‘‘मैं कैसे लाऊं तुम खुद जा कर ले आओ.’’

‘‘दुकान कहां है… मैं कैसे…’’

‘‘होटल से बाहर जा कर बाएं जाना वहां मैडिकल स्टोर है.’’

‘‘पैसा दो,’’ वह बोली.

‘‘जेवर लाई हो न… हम बोले थे न…’’

‘‘नहीं ला पाई बैंक में हैं,’’ उस ने  झूठ बोला.

‘‘कितने का मिलता है पैड.’’

‘‘मुझे क्या पता मां लाती है.’’

‘‘लो बस वही लेना और खर्च मत करना… बगल में है दुकान पैदल जाना… पैसे बचाने हैं.’’

‘‘हां मैं अभी ले कर आती हूं.’’

बस फिर वह भाग निकली. अगर वह भाग नहीं पाती तब? उस की आंखों में आंसू आ गए. तभी ड्राइवर क मोबाइल बजा तो उसे याद आया उस का मोबाइल तो वहीं छूट गया चार्ज में लगा रह गया. अच्छा हुआ अब वह मेरी लोकेशन पता नहीं लगा पाएगा. अब तक तो उसे पता चल गया होगा कि मैं उस के चंगुल से भाग चुकी हूं.

स्टेशन उतर कर सुधा तेजी से वेटिंगरूम की ओर बढ़ गई. उस ने वाशरूम में जा कर कुरते के अंदर छिपाया हुआ छोटा बटुआ निकाला जिस के बारे में उस ने विकी को नहीं बताया था. उस में मां के कुछ जेवरों के साथ 13 सौ रुपए थे.

कितनी गंदी औलाद है वह… अपने मांबाप की इज्जत की थोड़ी भी परवाह नहीं की. क्या हाल हो रहा होगा उन लोगों का. पापा और मां का सोच वह फूटफूट कर रोने लगी. जब मन शांत हो गया तब सोचने लगी कि कहीं विकी उसे स्टेशन ढूंढ़ने न चला आए पर कैसे बाहर निकले. बाहर अभी भी खतरा है. टिकट तो लेना है कैसे लूं.

तभी पास में 2 औरतें आ कर बैठ गईं, ‘‘दीदी मैं टिकट ले कर आ रही हूं, तुम यहीं बैठो. आप जरा मेरी दीदी को देखेंगी इस की तबीयत ठीक नहीं है,’’ सुधा को देख कर एक औरत बोली,

‘‘पर मु झे भी टिकट लेना है,’’ सुधा बोली.

‘‘मैं जा रही हूं. आप बता दीजिए.’’

‘‘मेरा टिकट पटना के गरीब रथ में चेयर कार का ले लीजिएगा,’’ उस ने पर्स से पैसे निकाल कर दे दिए. दोनों बहनें टिकट ले कर चली गईं.

ट्रेन समय पर थी. सुधा ने चुन्नी से अपने पूरे मुंह को कवर कर लिया कि कहीं कोई पहचान वाला न मिल जाए. बैठने के बाद उसे घर की यादें सताने लगीं. जब वह घर जाएगी तो क्या होगा? अगर मांपापा ने घर के अंदर घुसने नहीं दिया तब?

वह सोच में थी तभी बगल की सीट पर एक सज्जन आ कर बैठे. वे लगातार सुधा को देख रहे थे. सुधा की रोती आंखों को देख कर उन को कुछ शंका हो रही थी. सुधा कोशिश कर रही थी कि वह सामान्य रहे पर मन की चिंताएं, परेशानियां उसे सामान्य नहीं रहने दे रही थीं. घर से भागना मांबाप की बेइज्जती, विश्वास को ठेस पहुंचाना सब उसे और विह्ववल कर रहे थे.

उन सज्जन से नहीं रहा गया तो उन्होंने उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटी, तुम ने किसी को खो दिया है?’’

वह कुछ नहीं बोली पर रोना जारी था.

‘‘मु झे लगता है बेटा तुम से कोई बहुत बड़ी गलती हो गई है.’’

सुधा ने बडे़ अचरज से उन को देखा कि यह आदमी है या कोई देवदूत… मन की बात इन्हें कैसे पता चल गई.

‘‘देखो रोओ मत शांत हो कर मु झे बताओ शायद मैं मदद कर सकूं.’’

सुधा बो िझल बैठी थी उसे लगा सचमुच शायद मदद कर दें. उस ने धीरेधीरे सारी बातें बता दीं. उसे कैसे विकी ने  झूठे प्यार के जाल में फंसाया फिर घर से भागने को उकसाया… पैसे मंगवाना…

वे चुपचाप सुनते रहे फिर पूछा, ‘‘कहां रहती हो और कहां जा रही हो?’’

‘‘ मेरा घर पटना में है, लेकिन मैं गया अपनी सहेली के यहां जा रही हूं.’’

‘‘ घर क्यों नहीं?’’

‘‘किस मुंह से जाऊं टिकट पटना का है पर हिम्मत नहीं हो रही है,’’ और वह रोने लगी.

सच के फूल- भाग 2: क्या हुआ था सुधा के साथ

उन्होंने चुप रहने को कहा और बोले, ‘‘सुनो मांबाप से बढ़ कर माफ करने वाला कोई नहीं है. तुम सीधा अपने घर जाओ और सब सचसच बता दो. सचाई में बड़ी ताकत होती है. वे लोग तुम्हारे पछतावे को भी सम झेंगे और माफ भी करेंगे साथ ही सीने से लगाएंगे.’’

‘‘और मैं कैसे अपनेआप को माफ कर पाएंगी,’’ कह कर सुधा रोने लगी.

‘‘अपनेआप को सुधार कर एक अच्छी बेटी बन कर,’’ अंकल ने सम झाया, ‘‘देखो बेटी कुदरत ने सभी को सोचनेसम झने की बराबर शक्ति दी है. जो लोग इस का सही उपयोग करते हैं वे हमेशा विजयी होते हैं. हां हम सभी आखिर हैं तो मनुष्य ही न गलतियां भी हो जाती हैं. पर सही मनुष्य वही है जो अपनी गलतियों को सम झे, माने और उन से सबक ले, सचाई के साथ आगे बढ़े. हां एक बात और याद रखना सच नंगा होता है. उस को देखने और बोलने के लिए बड़ी हिम्मत की जरूरत होती है. यह भी सम झ लो तुम को अब हिम्मत से काम लेना होगा.’’

‘‘अगर मांपापा ने माफ नहीं किया और घर से निकाल दिया तब?’’ सुधा का मन शंकाओं से घिरा था.

‘‘तुम अभी बच्ची हो इसलिए अभी नहीं सम झोगी पर मेरा विश्वास करो वे तुम्हारे मातापिता हैं. तुम किस दर्द से गुजर रही हो तुम बताओ या न बताओ उन को सब पता होगा. अच्छा अब रोना बंद करो और कुछ अच्छी बात सोचो.’’

‘‘अंकल आप कहां जा रहे हैं?’’ सुधा थोड़ा सामान्य हो चली थी.

‘‘मैं भी पटना ही जा रहा हूं. वहीं रहता हूं. पटना में मैं फिजिक्स का प्रोफैसर हूं. दिल्ली में सेमिनार अटैंड करने आया था… लेकिन ट्रेन से उतरने के बाद मैं तुम को नहीं पहचानता.’’

सुधा उन की बात सुन कर हंसने लगी. ट्रेन से उतरने के बाद सुधा ने दोनों हाथ जोड़ कर उन को नमस्ते की. फिर दो कदम आगे बढ़ी और वापस आ कर उस ने अंकल के पैर छू लिए. दोनों की आंखें भर आईं. उन्होंने सुधा के सिर पर हाथ रख कर रुंधे गले से आशीर्वाद दिया, ‘‘कुदरत तुम्हें सही राह दिखाए,’’ और फिर बिना देखे आगे बढ़ गए.

सुधा उस देवपुरुष को भीगी आंखों से जाते देखती रही. अब असली परीक्षा थी… वह घर से संपर्क करे. पहले फोन पर बात कर ले या सीधे घर चली जाए. अगर उन लोगों ने उसे घर में घुसने न दिया तब? पहले बात करते हैं पता चल जाएगा वह घर जा सकती है या नहीं. वह मां को मोबाइल लगाने लगी. लंबी रिंग बजी पर किसी ने फोन नहीं उठाया. वैसे भी मां अपरिचित का फोन नहीं उठातीं. मां को लगातार फोन लगाएंगे तभी उन को शक होगा सोच वह लगातार फोन मिलाने लगी.

इस बार किसी ने उठाया. कहा, ‘‘हैलो.’’

वह कुछ बोल ही नहीं पाई.

‘‘इसीलिए हम अननोन नंबर नहीं उठाते है,’’ मां का गुस्से वाला स्वर था.

सुधा ने  झट से फोन बंद कर दिया.पर फोन काटने से काम नहीं चलेगा बात तो करनी ही पडे़गी. इस बार बात करनी ही है चाहे जो उठाए… उस ने फिर फोन लगाया, ‘‘हैलोहैलो,’’ सुधा सिसकने लगी.

‘‘सुधासुधा तुम हो… बोलो बेटा कहां से फोन कर रही हो. रोओ मत बेटा तुम ठीक हो न?’’

फोन पापा ने उठाया था. सुधा रोती जा रही थी. तभी मां की आवाज आई, ‘‘सुधा कैसी हो बेटी? कहां से बोल रही हो बताओ? हम सभी बहुत परेशान हैं. किसी मुश्किल में तो नहीं हो न बोलो न बेटी. तुम ठीक हो न…’’

सुधा को अपने लिए ‘बेटा’ या ‘बेटी’ शब्द की आशा नहीं थी. उन लोगों की विह्वलता देख उस का मन पीड़ा से भर गया. वह रोरो कर बोलने लगी, ‘‘मां मैं सुधा… पटना स्टेशन से बोल रही हूं…’’ आगे वह बोल नहीं पाई.

‘‘तुम स्टेशन पर रहो. वहीं पास में मंदिर है वहीं पर रुको हम लोग आ रहे हैं. वहीं रहना बेटा कहीं जाना मत. बस हम आ रहे हैं.’’

मां के भीगे स्वर सुधा के आहत मन को चीरते चले गए. वह मंदिर के पास चुपचाप बैठ गई. उस ने अपना मुंह ढक लिया था. शहर उस का था कोई भी पहचान सकता था. करीब 20 मिनट के भीतर उसे मां लीला देवी व पापा रमाकांत दिखे. दोनों के चेहरे का रंग गायब था. सुधा को अपनी गलती और अपने मातापिता की दशा देख कर फिर रोना आ गया वह मां से लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी.

सुधा के मातापिता ने उसे संभालते हुए गाड़ी में बैठाया. एक ओर मां दृढ़ता के साथ हाथ पकड़ कर बैठी दूसरी ओर पापा ने उस के हाथ को बड़ी कठोरता से पकड़ रखा था जैसे कहना चाहते हो कि हम हमेशा तुम्हारे साथ हैं… तुम को प्यार करते हैं. कभी भी चाहे जो भी परिस्थिति हो साथ नहीं छोड़ सकते. तुम को अकेले नहीं छोड़ सकते हैं. मां कभी आंसू पोछती, कभी चुन्नी संभालती तो कभी बड़े प्यार से हवा से  झूलते बालों को चेहरे से हटा रही थी. दोनों के बीच में बैठी सुधा किसी डरीसहमी हुई बच्ची की तरह रोतीसिसकती चली जा रही थी. घर पहुंच कर सुधा सीधे अपने कमरे में जा कर दीवार से लग कर दहाड़ मार रोने लगी. मां चुप कराने को आगे बढ़ने लगी.

तब रमाकांत ने कहा, ‘‘उसे रो लेने दो.’’

सुधा का इस तरह रोना लीला देवी के कलेजे को चीर रहा था. जब बरदाश्त नहीं हुआ तब वह सुधा को चुप कराने लगी.

घर में सब लोग सामान्य होने की कोशिश कर रहे थे. सुधा के लिए यह बड़ा मुश्किल लग रहा था पर घर वालों का साहस उस का हौसला बढ़ा रहा था. सुधा वक्त की मारी खुद को कैसे इतनी जल्दी माफ कर दे. इतने भोलेभाले मातापिता के साथ उसे अपनेआप को सही लड़की और अच्छी बेटी बन कर दिखाना है और वह बन कर दिखाएगी, फिर से मांपापा का खोया विश्वास हासिल करेगी. अभी तक किसी ने भी यहां तक कि उस के छोटे भाई दीपू ने भी नहीं पूछा शायद पापा की हिदायत होगी. खाना खाते वक्त उस ने मां से अपने पास सोने का आग्रह किया.

तब उन्होंने कहा, ‘‘हां बेटा वैसे भी मैं तुम्हारे साथ ही सोने वाली थी.’’

सुधा सम झ गई आज मां उस से सारी बातें जानना चाहती हैं.ठीक है वह सब सचसच बता देगी कुछ भी नहीं छिपाएगी.

मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. मां चुपचाप सो गई जैसे कुछ हुआ ही नहीं. सुधा के लिए ये सब असहनीय हो रहा था. सब लोग उसे एक बार भी डांट क्यों नहीं रहे हैं न फटकार लगा रहे हैं. ऐसे मातापिता के लिए उस ने कितनी घृणित बात सोची कैसे कि ‘घर में घुसने नहीं देंगे.

सुधा की नींद उड़ गई थी. वह सारी बातें बता कर अपना मन हलका करना चाहती थी. सब की खामोशी उस के मन को जला रही थी. उस के पास तो  अब नाराजगी या रूठने का हक भी नहीं रहा. मन को चैन नहीं आ रहा था. उस ने सोच लिया यदि मां उस से कुछ भी जानना चाहेगी तब तो ठीक है वरना वह स्वयं ही उन्हें सबकुछ बता देगी. सोचतेसोचते सुधा कब सो गई उसे भी पता नहीं चला.

क्या मिला: उसने पूरी जिंदगी क्यों झेली तकलीफ

अब मैं 70 साल की हो गई. एकदम अकेली हूं. अकेलापन ही मेरी सब से बड़ी त्रासदी मुझे लगती है. अपनी जिंदगी को मुड़ कर देखती हूं तो हर एक पन्ना ही बड़ा विचित्र है. मेरे मम्मीपापा के हम 2 ही बच्चे थे. एक मैं और मेरा एक छोटा भाई. हमारा बड़ा सुखी परिवार. पापा साधारण सी पोस्ट पर थे, पर उन की सरकारी नौकरी थी.

मैं पढ़ने में होशियार थी. मुझे पापा डाक्टर बनाना चाहते थे और मैं भी यही चाहती थी. मैं ने मेहनत भी की और उस जमाने में इतना कंपीटिशन भी नहीं था. अतः मेरा सलेक्शन इसी शहर में मेडिकल में हो गया. पापा भी बड़े प्रसन्न. मैं भी खुश.

मेडिकल पास करते ही पापा को मेरी शादी की चिंता हो गई. किसी ने एक डाक्टर लड़का बताया. पापा को पसंद आ गया. दहेज वगैरह भी तय हो गया.

लड़का भी डाक्टर था तो क्या मैं भी तो डाक्टर थी. परंतु पारंपरिक परिवार होने के कारण मैं भी कुछ कह नहीं पाई. शादी हो गई. ससुराल में पहले ही उन लोगों को पता था कि यह लड़का दुबई जाएगा. यह बात उन्होंने हम से छुपाई थी. पर लड़की वाले की मजबूरी… क्या कर सकते थे.

मैं पीहर आई और नौकरी करने लगी. लड़का 6 महीने बाद आएगा और मुझे ले जाएगा, यह तय हो चुका था. उन दिनों मोबाइल वगैरह तो होता नहीं था. घरों में लैंडलाइन भी नहीं होता था. चिट्ठीपत्री ही आती थी.

पति महोदय ने पत्र में लिखा, मैं सालभर बाद आऊंगा. पीहर वालों ने सब्र किया. हिंदू गरीब परिवार का बाप और क्या कर सकता था? मैं तीजत्योहार पर ससुराल जाती. मुझे बहुत अजीब सा लगने लगा. मेरे पतिदेव का एक महीने में एक पत्र  आता. वो भी धीरेधीरे बंद होने लगा. ससुराल वालों ने कहा कि वह बहुत बिजी है. उस को आने में 2 साल लग सकते हैं.

मेरे पिताजी का माथा ठनका. एक कमजोर अशक्त लड़की का पिता क्या कर सकता है. हमारे कोई दूर के रिश्तेदार के एक जानकार दुबई में थे. उन से पता लगाया तो पता चला कि उस महाशय ने तो वहां की एक नर्स से शादी कर ली है और अपना घर बसा लिया है. यह सुन कर तो हमारे परिवार पर बिजली ही गिर गई. हम सब ने किसी तरह इस बात को सहन कर लिया.

पापा को बहुत जबरदस्त सदमा लगा. इस सदमे की सहन न कर पाने के कारण उन्हें हार्ट अटैक हो गया. गरीबी में और आटा गीला. घर में मैं ही बड़ी थी और मैं ने ही परिवार को संभाला. किसी तरह पति से डाइवोर्स लिया. भाई को पढ़ाया और उस की नौकरी भी लग गई. हमें लगा कि हमारे अच्छे दिन आ गए. हम ने एक अच्छी लड़की देख कर भैया की शादी कर दी.

मुझे लगा कि अब भैया मम्मी को संभाल लेगा. भैया और भाभी जोधपुर में सैटल हो गए थे. मैं ने सोचा कि जो हुआ उस को टाल नहीं सकते. पर, अब मैं आगे की पढ़ाई करूं, ऐसा सोच ही रही थी. मेरी पोस्टिंग जयपुर में थी. इसलिए मैं यहां आई, तो अम्मां को साथ ले कर आई. भैया की नईनई शादी हुई है, उन्हें आराम से रहने दो.

मैं भी अपने एमडी प्रवेश परीक्षा की तैयारी में लगी. राजीखुशी का पत्र भैयाभाभी भेजते थे. अम्मां भी खुश थीं. उन का मन जरूर नहीं लगता था. मैं ने कहा, ‘‘अभी थोड़े दिन यहीं रहो, फिर आप चली जाना.‘‘ ‘‘ठीक है. मुझे लगता है कि थोड़े दिन मैं बहू के पास भी रहूं.‘‘

‘‘अम्मां थोड़े दिन उन को अकेले भी एंजौय करने दो. नईनई शादी हुई है. फिर तो तुम्हें जाना ही है.‘‘
इस तरह 6 महीने बीत गए. एक खुशखबरी आई. भैया ने लिखा कि तुम्हारी भाभी पेट से है. तुम जल्दी बूआ बनने वाली हो. अम्मां दादी.

इस खबर से अम्मां और मैं बहुत प्रसन्न हुए. चलो, घर में एक बच्चा आ जाएगा और अम्मां का मन पंख लगा कर उड़ने लगा. ‘‘मैं तो बहू के पास जाऊंगी,‘‘ अम्मां जिद करने लगी. मैं ने अम्मां को समझाया, ‘‘अम्मां, अभी मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी? जैसे ही छुट्टी मिलेगी, मैं आप को छोड़ आऊंगी. भैया को हम बुलाएंगे तो भाभी अकेली रहेंगी. इस समय यह ठीक नहीं है.‘‘

वे भी मान गईं. हमें क्या पता था कि हमारी जिंदगी में एक बहुत बड़ा भूचाल आने वाला है. मैं ने तो अपने स्टाफ के सदस्यों और अड़ोसीपड़ोसी को मिठाई मंगा कर खिलाई. अम्मां ने पास के मंदिर में जा कर प्रसाद भी चढ़ाया. परंतु एक बड़ा वज्रपात एक महीने के अंदर ही हुआ.

हमारे पड़ोस में एक इंजीनियर रहते थे. उन के घर रात 10 बजे एक ट्रंक काल आया. मुझे बुलाया. जाते ही खबर को सुन कर रोतेरोते मेरा बुरा हाल था. मेरे भाई का एक्सीडेंट हो गया. वह बहुत सीरियस था और अस्पताल में भरती था.

अम्मां बारबार पूछ रही थीं कि क्या बात है, पर मैं उन्हें बता नहीं पाई. यदि बता देती तो जोधपुर तक उन्हें ले जाना ही मुश्किल था. पड़ोसियों ने मना भी किया कि आप अम्मां को मत बताइए.

अम्मां को मैं ने कहा कि भाभी को देखने चलते हैं. अम्मां ने पूछा, ‘‘अचानक ही क्यों सोचा तुम ने? क्या बात हुई है? हम तो बाद में जाने वाले थे?‘‘

किसी तरह जोधपुर पहुंचे. वहां हमारे लिए और बड़ा वज्रपात इंतजार कर रहा था. भैया का देहांत हो गया. शादी हुए सिर्फ 9 महीने हुए थे.

भाभी की तो दुनिया ही उजड़ गई. अम्मां का तो सबकुछ लुट गया. मैं क्या करूं, क्या ना करूं, कुछ समझ नहीं आया. अम्मां को संभालूं या भाभी को या अपनेआप को?

मुझे तो अपने कर्तव्य को संभालना है. क्रियाकर्म पूरा करने के बाद मैं भाभी और अम्मां को साथ ले कर जयपुर आ गई. मुझे तो नौकरी करनी थी. इन सब को संभालना था. भाभी की डिलीवरी करानी थी.

भाभी और अम्मां को मैं बारबार समझाती.

मैं तो अपना दुख भूल चुकी. अब यही दुख बहुत बड़ा लग रहा था. मुझ पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. उन दिनों वेतन भी ज्यादा नहीं होता था.

मकान का किराया चुकाते हुए 3 प्राणी तो हम थे और चौथा आने वाला था. नौकरी करते हुए पूरे घर को संभालना था.

अम्मां भी एक के बाद एक सदमा लगने से बीमार रहने लगीं. उन की दवाई का खर्चा भी मुझे ही उठाना था.

मैं एमडी की पढ़ाईलिखाई वगैरह सब भूल कर इन समस्याओं में फंस गई. भाभी के पीहर वालों ने भी ध्यान नहीं दिया. उन की मम्मी पहले ही मर चुकी थी. उन की भाभी थीं और पापा बीमार थे. ऐसे में किसी ने उन्हें नहीं बुलाया. मैं ही उन्हें आश्वासन देती रही. उन्हें अपने पीहर की याद आती और उन्हें बुरा लगता कि पापा ने भी मुझे याद नहीं किया. अब उस के पापा ना आर्थिक रूप से संपन्न थे और ना ही शारीरिक रूप से. वे भला क्या करते? यह बात तो मेरी समझ में आ गई थी.

अम्मां को भी लगता कि सारा भार मेरी बेटी पर ही आ गया. बेटी पहले से दुखी है. मैं अम्मां को भी समझाती. इस छोटी उम्र में ही मैं बहुत बड़ी हो गई थी. मैं बुजुर्ग बन गई थी.

भाभी की ड्यू डेट पास में आने पर अम्मां और भाभी मुझ से कहते, ‘‘आप छुट्टी ले लो. हमें डर लगता है?‘‘

‘‘अभी से छुट्टी ले लूं. डिलीवरी के बाद भी तो लेनी है?‘‘

बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया. रात को परेशानी हुई तो मैं भाभी को ले कर अस्पताल गई और उन्हें भरती कराया. अस्पताल वालों को पता ही था कि मैं डाक्टर हूं. उन्होंने कहा कि आप ही बच्चे को लो. सब से पहले मैं ने ही उठाया. प्यारी सी लड़की हुई थी.

सुन कर भाभी को अच्छा नहीं लगा. वह कहने लगी, ‘‘लड़का होता तो मेरा सहारा ही बनता.‘‘

‘‘भाभी, आप तो पढ़ीलिखी हो कर कैसी बातें कर रही हैं? आप बेटी की चिंता मत करो. उसे मैं पालूंगी.‘‘

उस का ज्यादा ध्यान मैं ने ही रखा. भाभी को अस्पताल से घर लाते ही मैं ने कहा, ‘‘भाभी, आप भी बीएड कर लो, ताकि नौकरी लग जाए.‘‘

विधवा कोटे से उन्हें तुरंत बीएड में जगह मिल गई. बच्चे को छोड़ वह कालेज जाने लगी. दिन में बच्ची को अम्मां देखतीं. अस्पताल से आने के बाद उस की जिम्मेदारी मेरी थी. पर, मैं ने खुशीखुशी इस जिम्मेदारी को निभाया ही नहीं, बल्कि मुझे उस बच्ची से विशेष स्नेह हो गया. बच्ची भी मुझे मम्मी कहने लगी.

नौकरानी रखने लायक हमारी स्थिति नहीं थी. सारा बोझ मुझ पर ही था. किसी तरह भाभी का बीएड पूरा हुआ और उन्हें नौकरी मिल गई. मुझे थोड़ी संतुष्टि हुई. पर पहली पोस्टिंग अपने गांव में मिली. भाभी बच्ची को छोड़ कर चली गई. हफ्ते में या छुट्टी के दिन ही भाभी आती. बच्ची का रुझान अपनी मम्मी की ओर से हट कर पूरी तरह से मेरी ओर और अम्मां की तरफ ही था. हम भी खुश ही थे.

पर, मुझे लगा कि भाभी अभी छोटी है. वह पूरी जिंदगी कैसे अकेली रहेगी?

मैं ने भाभी से बात की. भाभी रितु बोली, ‘‘मुझे बच्चे के साथ कौन स्वीकार करेगा?‘‘

मैं ने कहा, ‘‘तुम गुड़िया की चिंता मत करो. उसे हम पाल लेंगे.‘‘

उस के बाद मैं ने भाभी रितु के लिए वर ढूंढ़ना शुरू किया. माधव नाम के एक आदमी ने भाभी से शादी करने की इच्छा प्रकट की. हम लोग खुश हुए. पर उस ने भी शर्त रख दी कि रितु भाभी अपनी बेटी को ले कर नहीं आएगी, क्योंकि उन के पहले ही एक लड़की थी.

मैं ने तो साफ कह दिया, ‘‘आप इस बात की चिंता ना करें. मैं बिटिया को संभाल लूंगी. मैं उसे पालपोस कर बड़ा करूंगी.‘‘

उस पर माधव राजी हो गया और यह भी कहा कि आप को भी आप के भाई की कमी महसूस नहीं होने दूंगा.

सुन कर मुझे भी बहुत अच्छा लगा. शुरू में माधव और रितु अकसर आतेजाते रहे. अम्मां को भी अच्छा लगता था, मुझे भी अच्छा लगता था. मैं भी माधव को भैया मान राखी बांधने लगी. सब ठीकठाक ही चल रहा था.

उन्होंने कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई, परंतु अपने शहर से हमारे घर पिकनिक मनाने जैसे आ जाते थे. इस पर भी अम्मां और मैं खुश थे.

जब भी वे आते भाभी रितु को अपनी बेटी मान अम्मां उन्हें तिलक कर के दोनों को साड़ी, मिठाई, कपड़े आदि देतीं.

अब गुड़िया बड़ी हो गई. वह पढ़ने लगी. पढ़ने में वह होशियार निकली. उस ने पीएचडी की. उस के लिए मैं ने लड़का ढूंढा. अच्छा लड़का राज भी मिल गया. लड़कालड़की दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया. अब लड़के वाले चाहते थे कि उन के शहर में ही आ कर शादी करें.

मैं उस बात के लिए राजी हो गई. मैं ने सब का टिकट कराया. कम से कम 50 लोग थे. सब का टिकट एसी सेकंड क्लास में कराया. भाभी रितु और माधव मेहमान जैसे हाथ हिलाते हुए आए.

यहां तक भी कोई बात नहीं. उस के बाद उन्होंने ससुराल वालों से मेरी बुराई शुरू कर दी. यह क्यों किया, मेरी समझ के बाहर की बात है. अम्मां को यह बात बिलकुल सहन नहीं हुई. मैं ने तो जिंदगी में सिवाय दुख के कुछ देखा ही नहीं. किसी ने मुझ से प्रेम के दो शब्द नहीं बोले और ना ही किसी ने मुझे कोई आर्थिक सहायता दी.

मुझे लगा, मुझे सब को देने के लिए ही ऊपर वाले ने पैदा किया है, लेने के लिए नहीं. पेड़ सब को फल देता है, वह स्वयं नहीं खाता. मुझे भी पेड़ बनाने के बदले ऊपर वाले ने मनुष्यरूपी पेड़ का रूप दे दिया लगता है.

मुझे भी लगने लगा कि देने में ही सुख है, खुशी है, संतुष्टि है, लेने में क्या रखा है?

मैं ने भी अपना ध्यान भक्ति की ओर मोड़ लिया. अस्पताल जाना, मंदिर जाना, बाजार से सौदा लाना वगैरह.

गुड़िया की ससुराल तो उत्तर प्रदेश में थी, परंतु दामाद राज की पोस्टिंग चेन्नई में थी. शादी के बाद 3 महीने तक गुड़िया नहीं आई. चिट्ठीपत्री बराबर आती रही. अब तो घर में फोन भी लग गया था. फोन पर भी बात हो जाती. मैं ने कहा कि गुड़िया खुश है. उस को जब अपनी मम्मी के बारे में पता चला, तो उसे भी बहुत बुरा लगा. फिर हमारा संबंध उन से बिलकुल कट गया.

3 महीने बाद गुड़िया चेन्नई से आई. मैं भी खुश थी कि बच्ची देश के अंदर ही है, कभी भी कोई बात हो, तुरंत आ जाएगी. इस बात को सोच कर मैं बड़ी आश्वस्त थी. पर गुड़िया ने आते ही कहा, ‘‘राज का सलेक्शन विदेश में हो गया है.‘‘

इस सदमे को कैसे बरदाश्त करूं? पुरानी बातें याद आने लगीं. क्या इस बच्ची के साथ भी मेरे जैसे ही होगा? मेरे मन में एक अनोखा सा डर बैठ गया. मैं गुड़िया से कह न पाई, पर अंदर ही अंदर घुटती ही रही.

शुरू में राज अकेले ही गए और मेरा डर मैं किस से कहूं? पर गुड़िया और राज में अंडरस्टैंडिंग बहुत अच्छी थी. बराबर फोन आते. मेल आता था. गुड़िया प्रसन्न थी. मैं अपने डर को अंदर ही अंदर महसूस कर रही थी.

फिर 6 महीने बाद राज आए और गुड़िया को ले गए. मुझे बहुत तसल्ली हुई. पर अम्मां गुड़िया के वियोग को सहन न कर पाईं. उस के बाद अम्मां निरंतर बीमार रहने लगीं.

अम्मां का जो थोड़ाबहुत सहारा था, वह भी खत्म हो गया. उन की देखभाल का भार और बढ़ गया.

एक साल बाद फिर गुड़िया आई. तब वह 2 महीने की प्रेग्नेंट थी. राज ने फिर अपनी नौकरी बदल ली. अब कनाडा से अरब कंट्री में चला गया. वहां राज सिर्फ सालभर के लिए कौंट्रैक्ट में गया था. अब तो गुड़िया को ले जाने का ही प्रश्न नहीं था. गुड़िया प्रेग्नेंट थी.

क्या आप मेरी स्थिति को समझ सकेंगे? मैं कितने मानसिक तनावों से गुजर रही थी, इस की कल्पना भी कोई नहीं कर सकता. मैं किस से कहती? अम्मां समझने लायक स्थिति में नहीं थीं. गुड़िया को कह कर उसे परेशान नहीं करना चाहती थी. इस समय वैसे ही वह प्रेग्नेंट थी. उसे परेशान करना तो पाप है. गुड़िया इन सब बातों से अनजान थी.

डाक्टर ने गुड़िया को बेड रेस्ट के लिए कह दिया था. अतः वह ससुराल भी जा नहीं सकती थी. उस की सासननद आ कर कभी उस को देख कर जाते. उन के आने से मेरी परेशानी ही बढ़ती, पर मैं क्या करूं? अपनी समस्या को कैसे बताऊं? गुड़िया की मम्मी ने तो पहले ही अपना पल्ला झाड़ लिया था.

मैं जिम्मेदारी से भागना नहीं चाहती थी, परंतु विभिन्न प्रकार की आशंकाओं से मैं घिरी हुई थी. मैं ने कभी कोई खुशी की बात तो देखी नहीं, हमेशा ही मेरे साथ धोखा ही होता रहा. मुझे लगने लगा कि मेरी काली छाया मेरी गुड़िया पर ना पड़े. पर, मैं इसे किसी को कह भी नहीं सकती. अंदर ही अंदर मैं परेशान हो रही थी. उसी समय मेरे मेनोपोज का भी था.

इस बीच अम्मां का देहांत हो गया.

गुड़िया का ड्यू डेट भी आ गया और उस ने एक सुंदर से बेटे को जन्म दिया. मैं खुश तो थी, पर जब तक उस के पति ने आ कर बच्चे को नहीं देखा, मेरे अंदर अजीब सी परेशानी होती रही थी.

जब गुड़िया का पति आ कर बच्चे को देख कर खुश हुआ, तब मुझे तसल्ली आई.

अब तो गुड़िया अपने पति के साथ विदेश में बस गई और मैं अकेली रह गई. यदि गुड़िया अपने देश में होती तो मुझ से मिलने आती रहती, पर विदेश में रहने के कारण साल में एक बार ही आ पाती. फिर भी मुझे तसल्ली थी. अब कोरोना की वजह से सालभर से ज्यादा हो गया, वह नहीं आई. और अभी आने की संभावना भी इस कोरोना के कारण दिखाई नहीं दे रही, पर मैं ने एक लड़की को पढ़ालिखा कर उस की शादी कर दी. भाभी की भी शादी कर दी. यह तसल्ली मुझे है. पर बुढ़ापे में रिटायर होने के बाद अकेलापन मुझे खाने को दौड़ता है. इस को एक भुक्तभोगी ही जान सकता है.

अब आप ही बताइए कि मेरी क्या गलती थी, जो पूरी जिंदगी मैं ने इतनी तकलीफ पाई? क्या लड़की होना मेरा गुनाह था? लड़का होना और मेरी जिंदगी से खेलना मेरे पति के लड़का होने का घमंड? उस को सभी छूट…? यह बात मेरी समझ में नहीं आई? आप की समझ में आई तो मुझे बता दें.

दूध के दांत: क्या सही साबित हुई रोहित की तरकीब

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काश, मेरी बेटी होती: शोभा की मां का क्या था फैसला

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हार की जीत- भाग 3: कपिल ने पत्नी को कैसे समझाया

शालू की समझ में नहीं आ रहा था क्या जवाब दे? पता नहीं क्या मांगने आई है? हो सकता है, सब्जी ही मांग बैठे. उस ने कपिल का दिया हुआ अस्त्र ही चलाया, ‘‘करेले पका रही हूं.’’

‘‘करेले,’’ आरुषि की आंखों में चमक आ गई.

शालू घबरा गई, ‘‘अब ये करेले मांगेगी… मुझे क्या पता था कि इसे करेले इतने पसंद हैं, नहीं तो झूठ ही बोल देती.’’

खिली हुई बांछों से आरुषि बोली, ‘‘फिर तो तेरे आलू बच गए होंगे. सौरभ कल बता रहा था कि औफिस से लौटते समय कपिल ने मंडी से अन्य सब्जियों के साथ आलू भी खरीदे थे. 4 आलू दे दे शाम को वापस कर दूंगी.’’

शालू रोआंसी हो गई. एक ही दिन में 2 अस्त्र बरबाद हो गए. शाम को उस ने कपिल को सारी बात बताई. कपिल सिर पकड़ कर बैठ गया. उस की समझ में ही नहीं आ रहा था इस समस्या से कैसे निबटा जाए?

अगले दिन रविवार था. कपिल और सौरभ का एक अन्य बैचमेट राघव अपनी

बीवी नैना और बच्ची समेत सामने वाले ब्लौक में ट्रक से सामान उतरवा रहा था. उन दोनों के कहने पर उस ने भी उसी कालोनी में 2 बैडरूम का फ्लैट खरीद लिया था. ट्रक से सामान उतरवा कर सौरभ तो वापस आ गया, कपिल वहीं रुका रहा.

अगले दिन शालू और कपिल डिनर ले कर राघव और नैना से मिलने पुन: उस के घर गए. बातों ही बातों में राघव ने कहा, ‘‘यार, यह सौरभ तो बड़ा अजीब आदमी है. दोपहर में आया और बोला, घर में सिलैंडर खत्म हो गया है. बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं. अपना जरिकैन मुझे दे दे. शाम को दुकान खुलते ही वापस कर दूंगा.’’

‘‘तूने बताया ही क्यों कि तेरे पास जरिकैन भर मिट्टी का तेल है?’’

‘‘बताने की क्या जरूरत है? वह तो सामान उतरवा रहा था, सो उस की नजर पड़ गई. जब तक गैस का कनैक्शन चालू हो, हौट प्लेट से काम चलाना पड़ेगा.’’

‘‘जरिकैन वापस मिला की नहीं?’’

‘‘अरे जरिकैन तो नहीं मिला, मजेदार बात यह है कि थोड़ी देर पहले नैना आरुषि से बात कर रही थी, तो उस के मुंह निकल गया कि कानपुर में मिट्टी के तेल की तो बेहद किल्लत है, तो जानते हो आरुषि क्या बोली?’’

‘‘क्या?’’

‘‘पता नहीं तुम्हारे हसबैंड कहां गए ढूंढ़ने? मेरे हसबैंड तो दोपहर में निकले और 10 मिनट में ही तेल ले कर आ गए. अब बताओ भला, हमारे यहां से तेल ले गए और हमारे ऊपर ही रोब झाड़ रहे हैं.’’

कपिल और शालू दोनों के मुंह खुले के खुले रह गए. मियांबीवी दोनों ही उस्ताद हैं. दोनों को मांगने की तो बुरी आदत है ही, मांग कर भूलने का नाटक करना भी इन की आदत में शुमार है.

घर लौट कर कपिल ने शालू से इस समस्या का हल ढूंढ़ने के लिए कहा, तो शालू ने तुरंत हल सुझाया, ‘‘हम साफ मना कर दें कि कुछ नहीं देंगे.’’

‘‘नहीं, वे बुरा मान सकते हैं.’’

शालू ने अगला प्रयत्न किया, ‘‘अच्छा अगर हम दी हुई चीज वापस मांग लें?’’

‘‘हां, किया जा सकता है, पर इस में आपस के संबंधों में तनातनी हो सकती है.’’

शालू सोच में पड़ गई, ‘‘एक तरीका और है, हम मकान ही बदल लें?’’

‘‘इतना आसान नहीं है मकान बदलना शालू. अगर दूसरी जगह भी ऐसा ही मांगने वाला पड़ोसी मिल जाए, तो फिर क्या तीसरा मकान ढूंढ़ेंगे?’’

‘‘एक तरीका है,’’ अगली सुबह औफिस जाते समय कपिल ने शालू से कहा, ‘‘कोई भी सामान आरुषि या सौरभ को दो तो मुझे जरूर बता देना.’’

औफिस पहुंचने के बाद शालू के 3 फोन आए और उस ने जोजो सामान आरुषि को दिया, सब बता दिया. औफिस में लंच सब लोग साथ किया करते थे, मिलबांट कर खाते थे. जब सब लोग इकट्ठा हो गए तो कपिल ने सौरभ से कहा, ‘‘सौरभ, आज तेरे घर, प्याज, चीनी और डिटर्जैंट खत्म हो गया है लौटते समय ले कर जाना.’’

‘‘तुझे कैसे मालूम?’’ सौरभ का कौर मुंह तक आतेआते रुक गया.

‘‘अरे यार तुझ से लापरवाह कोई नहीं हो सकता. तू तो घर का सामान लाना भूल जाता है, उधर भाभीजी घरघर सामान मांगमांग कर तेरी गृहस्थी चलाती रहती हैं. मैं ने इसीलिए शालू से कह दिया था कि भाभीजी के घर जोजो सामान खत्म होता जाए मुझे फोन पर बताती जाए. अभी तक ये 3 चीजें भाभीजी मेरे घर से ले कर गई हैं.’’

सौरभ को इस तरह सब के बीच पोल खुलना रास नहीं आया. वह गुर्राते हुए बोला, ‘‘ऐसा क्या सामान मांग लिया मेरी बीवी ने? भले पड़ोसी होने के नाते थोड़ाबहुत लेनदेन तो चलता ही है, आरुषि भी तेरे यहां से कुछ ले गई होगी. इस का मतलब यह तो नहीं कि तू ढिंढोरा पीटता फिरे?’’

इस से पहले कि कपिल कुछ बोल पाता, राघव बीच में ही बोल पड़ा, ‘‘अरे सौरभ, तुझे मिट्टी का तेल मिला कि नहीं? तूने तो जरिकैन भी वापस नहीं किया.’’

सौरभ इस दोतरफा हमले के लिए तैयार नहीं था. उस ने चुप बैठने में ही भलाई समझी. अमन वर्मा उन के गु्रप में सब से ज्यादा मस्त था. जानतेबूझते हुए बोला, ‘‘भिंडी की सब्जी बहुत अच्छी बनी हुई है. यह कौन लाया है?’’

‘‘मैं लाया हूं,’’ सौरभ बोला.

‘‘यानी कपिल के घर की भिंडी पर अपनी मुहर लगा रहे हो?’’

सौरभ के मुंह से जोर से निकला, ‘‘खबरदार, आज की सब्जी मेरे घर की है.’’

‘‘इस का मतलब, रोज की सब्जी कपिल के घर की होती थी,’’ अमन वर्मा ने बात पकड़ ली. इस के साथ ही पूरे गु्रप का जोरदार ठहाका गूंजा.

शाम को कपिल ने सब्जी मंडी में स्कूटर रोक लिया और सौरभ से बोला,

‘‘जा, जोजो सामान घर में खत्म हो रहा है वह ले ले. मुझे बहुत बुरा लगता है, जब भाभी घरघर हाथ फैलाती हैं.’’

सौरभ एक हारे हुए सिपाही की तरह स्कूटर से उतरा और सामान लेने चला गया.

सौरभ को देखते ही दुकानदार बोला, ‘‘बहुत दिन बाद आए बाऊजी.’’

कपिल मन ही मन बोला, ‘‘जब मैं रोज आ रहा था, तो यह क्या करते आ कर? मगर अब चिंता न करो, ये रोज आएंगे.’’

सौरभ ने सामान पैक करवाना शुरू किया, तो कपिल ने दुकानदार से उसी सामान में से कई चीजों के अलगअलग पैकेट बनाने को कहा.

सौरभ ने टोका, तो कपिल बोला, ‘‘अरे यार, तेरी इस भूलने की आदत के

कारण मैं भाभी को अब और अपमानित होते नहीं देख सकता, इसलिए बजाय इस के कि वे मांगा हुआ सामान मुझे वापस करने आएं, मैं पहले ही उसे अपने घर ले जा रहा हूं.’’

सौरभ के पास इतने जोरदार तर्क का कोई जवाब नहीं था. उस ने चुपचाप दुकानदार के पैसे चुकाए और दोनों लोगों की थैलियां हाथ में पकड़े चुपचाप स्कूटर के पीछे बैठ गया.

सौरभ से अपनी थैली ले कर जब कपिल अपने घर पहुंचा, तो शालू ने उस के हाथ से थैली ली और बोली, ‘‘सुनो यह मांगी हुई चीजों की लिस्ट क्या रोजरोज तुम्हें फोन पर देनी पड़ेगी?’’

‘‘कल से शायद तुम्हें इस की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

उधर आरुषि सौरभ को क्व2 हजार का बिल पकड़ाते हुए बोली, ‘‘आज सर्विस स्टेशन से मैकैनिक आया था. स्कूटर ठीक कर गया है. कह रहा था सौरभ का फोन आया था. उन्होंने ही घर का पता और स्कूटर नंबर दिया है.’’

दोनों घर आसपास थे, पर दोनों में माहौल अलग था. इधर कपिल से अपनी जीत की मुसकराहट रोके नहीं रुक रही थी और उधर सौरभ परेशान था कि उस ने तो कोई फोन नहीं किया था पर बीवी के आगे अपनी हार का परदाफाश होने के डर से वह शांत खड़ा था.

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